शुक्रवार, सितंबर 05, 2025

शिक्षा और समाज

शिक्षा और समाज: एक अटूट संबंध
सत्येन्द्र कुमार पाठक
शिक्षा और समाज एक-दूसरे के पूरक हैं। एक के बिना दूसरे की कल्पना करना असंभव है। जहाँ एक ओर शिक्षा समाज की दिशा और दशा तय करती है, वहीं दूसरी ओर समाज ही शिक्षा की नींव रखता है। यह संबंध इतना गहरा है कि इसे केवल एक शब्द में परिभाषित नहीं किया जा सकता, बल्कि इसके लिए हमें कई आयामों को समझना होगा। शिक्षा सिर्फ़ किताबी ज्ञान नहीं है, बल्कि यह एक प्रक्रिया है जो व्यक्ति को सामाजिक, नैतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक रूप से विकसित करती है। यह व्यक्ति को समाज का एक सक्रिय और ज़िम्मेदार नागरिक बनाती है।
समाज का विकास उसके नागरिकों के मानसिक और बौद्धिक विकास पर निर्भर करता है। शिक्षा इस विकास का सबसे महत्वपूर्ण उपकरण है। यह न केवल लोगों को ज्ञान और कौशल प्रदान करती है, बल्कि उनमें आलोचनात्मक सोच, तर्क शक्ति और समस्या समाधान की क्षमता भी विकसित करती है। एक शिक्षित समाज अंधविश्वासों और कुरीतियों से मुक्त होता है। यह रूढ़िवादिता को चुनौती देता है और प्रगतिशील विचारों को अपनाता है। शिक्षा सामाजिक समरसता को बढ़ावा देती है। जब लोग शिक्षित होते हैं, तो वे एक-दूसरे के विचारों, संस्कृतियों और विश्वासों का सम्मान करना सीखते हैं। यह जाति, धर्म, लिंग और वर्ग के आधार पर होने वाले भेदभाव को कम करने में मदद करता है। शिक्षा लोगों को एक-दूसरे के साथ संवाद करने और सहयोग करने के लिए एक सामान्य मंच प्रदान करती है, जिससे सामाजिक एकता मजबूत होती है। एक शिक्षित समाज में नागरिक अपने अधिकारों और कर्तव्यों के प्रति अधिक जागरूक होते हैं। वे सरकार की नीतियों को समझते हैं, सार्वजनिक बहसों में भाग लेते हैं और अपने नेताओं को जवाबदेह ठहराते हैं। यह लोकतांत्रिक मूल्यों को मजबूत करता है और एक पारदर्शी एवं न्यायपूर्ण शासन व्यवस्था को बढ़ावा देता है।
शिक्षा का सीधा संबंध किसी भी देश की आर्थिक प्रगति से है। एक शिक्षित कार्यबल उत्पादकता और नवाचार को बढ़ाता है। जब लोग उच्च कौशल प्राप्त करते हैं, तो वे बेहतर नौकरियाँ पाते हैं, अधिक कमाते हैं और अर्थव्यवस्था में अधिक योगदान करते हैं। शिक्षा उद्यमिता को भी प्रोत्साहित करती है। शिक्षित व्यक्ति नए व्यवसाय शुरू करने और रोज़गार के अवसर पैदा करने में सक्षम होते हैं। गरीबी और शिक्षा का गहरा संबंध है। शिक्षा गरीबी से बाहर निकलने का सबसे प्रभावी तरीका है। यह लोगों को उच्च आय वाले रोज़गार के अवसर प्रदान करती है, जिससे उनकी जीवनशैली में सुधार होता है। आर्थिक असमानता को कम करने में भी शिक्षा की महत्वपूर्ण भूमिका है। यह सभी को समान अवसर प्रदान करती है, चाहे वे किसी भी सामाजिक या आर्थिक पृष्ठभूमि से हों।
संस्कृति किसी भी समाज की पहचान होती है। शिक्षा इस पहचान को बनाए रखने और अगली पीढ़ी तक पहुँचाने का काम करती है। यह हमें अपनी भाषा, साहित्य, कला और परंपराओं का महत्व सिखाती है। शिक्षा के माध्यम से ही हम अपनी सांस्कृतिक विरासत के प्रति सम्मान विकसित करते हैं और उसे संरक्षित करने का प्रयास करते हैं। साथ ही, शिक्षा हमें अन्य संस्कृतियों के बारे में जानने और समझने का अवसर भी देती है। यह हमें एक वैश्विक नागरिक बनाती है, जो दुनिया के अन्य हिस्सों के लोगों के साथ संवाद करने और सहयोग करने में सक्षम है। यह सांस्कृतिक आदान-प्रदान को बढ़ावा देता है, जिससे दुनिया भर में शांति और समझ को बढ़ावा मिलता है।
शिक्षा एक शक्तिशाली परिवर्तन का साधन है। यह समाज में मौजूद कुरीतियों और अन्याय को चुनौती देती है। शिक्षा ने महिलाओं को सशक्त बनाया है, जिससे वे घर की चारदीवारी से बाहर निकलकर समाज के हर क्षेत्र में योगदान कर रही हैं। इसने बाल विवाह, दहेज प्रथा और जातिगत भेदभाव जैसी सामाजिक बुराइयों के खिलाफ जागरूकता पैदा की है।
शिक्षा ने लोगों को अपने अधिकारों के लिए लड़ने और अन्याय का विरोध करने के लिए प्रेरित किया है। यह सामाजिक आंदोलनों और क्रांतियों की नींव रही है। इतिहास गवाह है कि जब-जब समाज में बदलाव की लहर आई है, तब-तब शिक्षा ने एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
आज भी हमारे समाज में शिक्षा से जुड़ी कई चुनौतियाँ हैं। निरक्षरता, शैक्षणिक असमानता, अपर्याप्त बुनियादी ढाँचा, और गुणवत्तापूर्ण शिक्षकों की कमी कुछ प्रमुख समस्याएँ हैं। पिछड़े क्षेत्रों, ग्रामीण इलाकों और हाशिए पर रहने वाले समुदायों में रहने वाले लोग अक्सर शिक्षा के उचित लाभों से वंचित रह जाते हैं। इन चुनौतियों का समाधान करने के लिए सरकार और समाज दोनों को मिलकर काम करना होगा। हमें शिक्षा तक पहुँच को सार्वभौमिक बनाना होगा, ताकि कोई भी बच्चा शिक्षा से वंचित न रहे। हमें शिक्षा की गुणवत्ता पर ध्यान देना होगा और यह सुनिश्चित करना होगा कि पाठ्यक्रम व्यावहारिक और प्रासंगिक हो। शिक्षकों को उचित प्रशिक्षण और समर्थन प्रदान करना भी अत्यंत महत्वपूर्ण है। डिजिटल शिक्षा एक नई संभावना लेकर आई है। यह दूर-दराज के क्षेत्रों में भी गुणवत्तापूर्ण शिक्षा पहुँचाने में मदद कर सकती है। हमें इस तकनीक का अधिकतम लाभ उठाना होगा और डिजिटल डिवाइड को कम करने के लिए प्रयास करने होंगे। शिक्षा और समाज एक-दूसरे के साथ एक जटिल और अटूट संबंध साझा करते हैं। शिक्षा ही वह नींव है जिस पर एक प्रगतिशील, न्यायपूर्ण और समृद्ध समाज का निर्माण होता है। यह व्यक्ति को आत्मनिर्भर बनाती है, सामाजिक समरसता को बढ़ावा देती है और आर्थिक विकास को गति देती है। एक देश का भविष्य उसके शिक्षा तंत्र पर निर्भर करता है। हमें यह सुनिश्चित करना चाहिए कि हर व्यक्ति को अच्छी शिक्षा मिले, चाहे वह किसी भी परिस्थिति में हो। शिक्षा सिर्फ़ एक अधिकार नहीं है, बल्कि यह एक जिम्मेदारी भी है। हमें अपने और अपने समाज के विकास के लिए शिक्षा के महत्व को समझना चाहिए और इसे बढ़ावा देने के लिए लगातार प्रयास करने चाहिए। जब हम शिक्षा को प्राथमिकता देंगे, तभी हमारा समाज सही मायने में विकसित होगा और हम एक बेहतर दुनिया का निर्माण कर सकेंगे।

 Education and Society: An Unbreakable Bond
Satyendra Kumar Pathak
Education and society are complementary to each other. It is impossible to imagine one without the other. While education determines the direction and condition of a society, it is society that lays the foundation for education. This relationship is so profound that it cannot be defined in a single word; instead, we must understand its many dimensions. Education is not just book knowledge; it is a process that develops a person socially, morally, economically, and culturally. It makes an individual an active and responsible citizen of society.
The development of a society depends on the mental and intellectual growth of its citizens. Education is the most important tool for this development. It not only provides people with knowledge and skills but also develops their critical thinking, reasoning, and problem-solving abilities. An educated society is free from superstitions and social evils. It challenges conventionalism and embraces progressive ideas. Education promotes social harmony. When people are educated, they learn to respect each other's ideas, cultures, and beliefs. This helps reduce discrimination based on caste, religion, gender, and class. Education provides a common platform for people to communicate and cooperate with each other, which strengthens social unity. In an educated society, citizens are more aware of their rights and duties. They understand government policies, participate in public debates, and hold their leaders accountable. This strengthens democratic values and promotes a transparent and just governance system.
Education is directly related to a country's economic progress. An educated workforce boosts productivity and innovation. When people acquire high skills, they get better jobs, earn more, and contribute more to the economy. Education also encourages entrepreneurship. Educated individuals are able to start new businesses and create employment opportunities. There is a deep connection between poverty and education. Education is the most effective way to escape poverty. It provides people with opportunities for high-paying jobs, which improves their standard of living. Education also plays an important role in reducing economic inequality. It provides equal opportunities for everyone, regardless of their social or economic background.
Culture is the identity of any society. Education works to preserve this identity and pass it on to the next generation. It teaches us the importance of our language, literature, art, and traditions. It is through education that we develop respect for our cultural heritage and try to preserve it. At the same time, education also gives us the opportunity to learn about and understand other cultures. It makes us a global citizen who is capable of communicating and cooperating with people from other parts of the world. This promotes cultural exchange, which in turn promotes peace and understanding around the world.
Education is a powerful tool for change. It challenges the social evils and injustice that exist in society. Education has empowered women, allowing them to step out of the confines of their homes and contribute to every sector of society. It has created awareness against social evils such as child marriage, the dowry system, and caste-based discrimination. Education has inspired people to fight for their rights and protest against injustice. It has been the foundation of social movements and revolutions. History is a witness that whenever a wave of change has come in society, education has played an important role.
Even today, our society faces many challenges related to education. Illiteracy, educational inequality, inadequate infrastructure, and a lack of quality teachers are some of the major problems. People living in backward areas, rural areas, and marginalized communities are often deprived of the proper benefits of education. To solve these challenges, both the government and society must work together. We have to make access to education universal so that no child is deprived of education. We need to focus on the quality of education and ensure that the curriculum is practical and relevant. Providing proper training and support to teachers is also extremely important. Digital education has brought a new possibility. It can help provide quality education even in remote areas. We have to take maximum advantage of this technology and make efforts to reduce the digital divide.
Education and society share a complex and unbreakable bond. Education is the foundation on which a progressive, just, and prosperous society is built. It makes an individual self-reliant, promotes social harmony, and accelerates economic development. The future of a country depends on its education system. We must ensure that every person gets a good education, no matter what their circumstances are. Education is not just a right, but it is also a responsibility. We should understand the importance of education for our and our society's development and constantly strive to promote it. Only when we prioritize education will our society truly develop and we will be able to build a better world.

आस्था का द्योतक है झिझिया लोकनृत्य

बज्जि एवं मिथिला की पहचान और आस्था का प्रतीक लोक नृत्य झिझिया 
सत्येन्द्र कुमार पाठक 
झिझिया, बिहार के मिथिलांचल क्षेत्र का एक प्राचीन और प्रसिद्ध लोक नृत्य है। यह केवल एक नृत्य नहीं, बल्कि इस क्षेत्र की समृद्ध आध्यात्मिक और कृषि प्रधान संस्कृति का जीवंत प्रतीक है। यह विशेष रूप से शारदीय नवरात्रि और दशहरा के उत्सवों के दौरान किया जाता है, जिसका मुख्य उद्देश्य देवी दुर्गा को प्रसन्न करना और समाज को बुरी शक्तियों से बचाना है। झिझिया नृत्य का इतिहास सदियों पुराना है और यह बज्जि एवं  मिथिला की सांस्कृतिक धरोहर का एक अभिन्न अंग है। यह नृत्य माता सीता के जन्मस्थान सीतामढ़ी, मुजफ्फरपुर, दरभंगा, मधुबनी, वैशाली और बज्जिकाँचल जैसे क्षेत्रों में विशेष रूप से लोकप्रिय है। लोक कथाओं के अनुसार, इस नृत्य का संबंध  मध्यप्रदेश का मालवा का तथा बज्जि का राजा चित्रसेन और उनकी रानी के प्रेम प्रसंगों से भी है।
झिझिया केवल एक धार्मिक अनुष्ठान नहीं है, बल्कि इसका गहरा संबंध कृषि से भी है। किसान अच्छी फसल और पर्याप्त वर्षा के लिए देवताओं से प्रार्थना करने हेतु यह नृत्य करते थे। इसलिए, यह नृत्य बज्जिकाँचल एवं  मिथिलांचल की आध्यात्मिक और कृषि प्रधान दोनों संस्कृतियों का प्रतिनिधित्व करता है। झिझिया नृत्य मुख्य रूप से महिलाओं और कुंवारी लड़कियों द्वारा किया जाता है। इसकी सबसे अनूठी और आकर्षक विशेषता यह है कि नृत्यांगनाएं अपने सिर पर छेद वाला मिट्टी का घड़ा (मटका) रखती हैं, जिसके अंदर एक जलती हुई दीया रखा जाता है। यह दृश्य न केवल देखने में अद्भुत लगता है, बल्कि इसका गहरा प्रतीकात्मक महत्व भी है।
जलता हुआ दीया: यह बुराई पर अच्छाई की विजय और अज्ञानता के अंधकार को दूर करने वाले ज्ञान का प्रतीक है।
छेद वाला मटका: यह नृत्यांगनाओं की प्रार्थना का प्रतीक है, जिसके माध्यम से वे बुरी आत्माओं और नकारात्मक ऊर्जाओं को अपने परिवार और समाज से दूर करने की कामना करती हैं। यह नृत्य प्रत्येक वर्ष अश्विन शुक्ल प्रतिपदा (कलश स्थापना) के दिन से शुरू होकर विजयादशमी तक लगातार चलता रहता है।
झिझिया नृत्य की सामाजिक और धार्मिक भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण है। यह देवी दुर्गा के प्रति महिलाओं के समर्पण का प्रतीक है और यह माना जाता है कि इस नृत्य के माध्यम से वे अपने परिवार और समाज को डायनों, काले जादू और अन्य बुरी शक्तियों से बचाती हैं। यह नृत्य समाज में महिलाओं की भागीदारी को दर्शाता है और उन्हें एक शक्ति के रूप में प्रस्तुत करता है। यह एक सामूहिक नृत्य है जिसमें महिलाएं एक घेरा बनाकर नाचती हैं, जिससे सामुदायिक भावना और एकजुटता को बढ़ावा मिलता है।  झिझिया नृत्य के साथ पारंपरिक लोकगीत गाए जाते हैं, जिनमें देवी-देवताओं की महिमा और लोक कथाओं का वर्णन होता है। इन गीतों को लय और ताल देने के लिए ढोलक और मृदंग जैसे पारंपरिक वाद्ययंत्रों का उपयोग किया जाता है। इन वाद्ययंत्रों की थाप पर महिलाएं लयबद्ध तरीके से नृत्य करती हैं, जिससे पूरा वातावरण भक्ति और उत्साह से भर जाता है।आधुनिकता के इस दौर में, झिझिया नृत्य अपनी पहचान कुछ हद तक खोता जा रहा है, लेकिन आज भी यह मिथिला की लोक संस्कृति की एक महत्वपूर्ण पहचान बना हुआ है। दुर्गा पूजा के दौरान ग्रामीण क्षेत्रों में, खासकर कुंवारी लड़कियां इस नृत्य को पूरी लगन और उत्साह के साथ करती हैं, जिससे यह प्राचीन कला जीवित बनी हुई है। झिझिया सिर्फ एक नृत्य नहीं, बल्कि बज्जिकाँचल और  मिथिला की सांस्कृतिक धरोहर, आस्था और सामाजिक एकजुटता का प्रतीक है। यह हमें सिखाता है कि कैसे कला, धर्म और परंपराएं एक साथ मिलकर एक सशक्त समाज का निर्माण कर सकती हैं। यह नृत्य भारतीय संस्कृति की विविधता और समृद्धि का एक अनुपम उदाहरण है।

गुरुवार, सितंबर 04, 2025

आत्मबोध से विश्व बोध

आत्मबोध से विश्वबोध: स्वयं की खोज से ब्रह्मांड की पहचान
सत्येन्द्र कुमार पाठक 
मानव जीवन की यात्रा एक अनवरत खोज है, और इस खोज का सबसे महत्वपूर्ण पड़ाव है आत्मबोध। आत्मबोध का शाब्दिक अर्थ है, 'स्वयं को जानना'। यह सिर्फ अपने नाम, पहचान या पद को जानना नहीं है, बल्कि अपनी आंतरिक प्रकृति, क्षमताओं, सीमाओं और जीवन के उद्देश्य को गहराई से समझना है। यह एक ऐसी प्रक्रिया है जो हमें हमारे अस्तित्व के केंद्र से जोड़ती है और हमें बाहरी दुनिया के शोर से परे, अपने भीतर झाँकने का साहस देती है। यह यात्रा व्यक्ति को व्यक्तिगत जीवन की संकीर्णता से उठाकर संपूर्ण ब्रह्मांड के साथ एकाकार करती है, जिसे हम विश्वबोध कहते हैं। भारतीय दर्शन में आत्मबोध का विचार हजारों वर्षों से पोषित होता रहा है। हमारे प्राचीन शिक्षा का मूल आधार ही स्वयं को जानना था। वेदव्यास की आत्मबोधोपनिषद से लेकर आदि शंकराचार्य द्वारा रचित 'आत्मबोध' जैसे ग्रंथ इसी ज्ञान की महत्ता को दर्शाते हैं। शंकराचार्य का 'आत्मबोध' एक छोटा, किन्तु अत्यंत महत्वपूर्ण ग्रंथ है, जिसमें मात्र अड़सठ श्लोकों के माध्यम से आत्मा के वास्तविक स्वरूप का निरूपण किया गया है। यह ग्रंथ उन साधकों के लिए एक मार्गदर्शक है, जो जीवन के परम सत्य को जानना चाहते हैं। जैसा कि स्वामी विदेहात्मानंद ने भी हिंदी में इसकी व्याख्या की है, यह ज्ञान आज भी प्रासंगिक है।
'आत्मबोध' का प्रथम श्लोक, "तपोभिः क्षीणपापानां शान्तानां वीतरागिणाम् । मुमुक्षूणामपेक्ष्योऽयमात्मबोधो विधीयते ॥१॥", इस यात्रा की पहली शर्त को स्पष्ट करता है। इसका अर्थ है कि यह ज्ञान उन लोगों के लिए है, जिन्होंने तप के अभ्यास से अपने पापों को क्षीण कर लिया है, जिनके मन शांत हैं, जो राग-द्वेष या आसक्तियों से रहित हैं और जिनमें मोक्ष की तीव्र इच्छा है। यह श्लोक बताता है कि आत्मज्ञान कोई आकस्मिक घटना नहीं, बल्कि एक व्यवस्थित और अनुशासित साधना का परिणाम है। दार्शनिक रूप से, आत्मबोध हमें यह प्रश्न पूछने के लिए प्रेरित करता है कि "मैं कौन हूँ?"। क्या मैं यह शरीर हूँ? या यह मन हूँ? या यह विचार और भावनाएँ हूँ? वेदान्त दर्शन के अनुसार, हमारा वास्तविक स्वरूप इन सबसे परे है। हम न तो शरीर हैं, न मन हैं, बल्कि हम शुद्ध चेतना, या आत्मा हैं। यह ज्ञान हमें शरीर और मन की क्षणभंगुरता से मुक्त करता है और हमें अपने शाश्वत, अविनाशी स्वरूप का एहसास कराता है। जब हम इस सत्य को समझते हैं, तो जीवन में आने वाले सुख-दुख, लाभ-हानि हमें विचलित नहीं कर पाते, क्योंकि हम जानते हैं कि ये सब सिर्फ बाहरी और अस्थायी परिस्थितियाँ हैं। मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से, आत्मबोध को आत्म-जागरूकता के रूप में समझा जा सकता है। यह हमें अपनी ताकत और कमजोरियों को पहचानने में मदद करता है, जिससे हम व्यक्तिगत और पेशेवर जीवन में बेहतर प्रदर्शन कर पाते हैं। आत्म-जागरूक व्यक्ति अपनी भावनाओं को पहचानता है और उन्हें स्वस्थ तरीके से प्रबंधित कर पाता है। वह जानता है कि उसे क्या प्रेरित करता है, क्या उसे निराश करता है और वह कैसे अपनी प्रतिक्रियाओं को नियंत्रित कर सकता है। जब हमें पता होता है कि हम क्या हैं, तो हम अनावश्यक दिखावे और दूसरों से तुलना करने की प्रवृत्ति से बचते हैं। यह हमें एक आंतरिक शांति और संतोष प्रदान करता है जो बाहरी सफलता से कहीं अधिक मूल्यवान है।
आत्मबोध की यात्रा सरल नहीं है। यह मन को शांत करने, आत्म-निरीक्षण करने और अपनी कमजोरियों का सामना करने की मांग करती है। इसके लिए कुछ प्रमुख साधनों का सहारा लिया जाता है: ध्यान आत्मबोध का सबसे महत्वपूर्ण और प्रभावी साधन है। ध्यान हमें अपने मन को शांत करने और विचारों की भीड़ से दूरी बनाने में मदद करता है। नियमित ध्यान अभ्यास से हम अपने भीतर चल रहे विचारों, भावनाओं और संवेदनाओं को बिना किसी पूर्वाग्रह के देख पाते हैं। यह हमें अपने मन को नियंत्रित करने और अनावश्यक विकर्षणों से मुक्त होने की शक्ति देता है। चिंतन और आत्म-निरीक्षण: यह प्रक्रिया हमें अपने विचारों, भावनाओं और कार्यों का गहराई से विश्लेषण करने का अवसर देती है। हमें स्वयं से प्रश्न पूछना चाहिए: मैं क्या सोचता हूँ? मैं क्यों सोचता हूँ? मेरे कार्यों का क्या प्रभाव पड़ता है? इस तरह का आत्म-निरीक्षण हमें अपनी आदतों, पैटर्न और प्रेरणाओं को समझने में मदद करता है। यह हमें उन नकारात्मक प्रवृत्तियों को पहचानने में मदद करता है जो हमें रोकती हैं।स्वाध्याय: आध्यात्मिक और दार्शनिक ग्रंथों का अध्ययन हमें आत्मज्ञान के मार्ग पर आवश्यक ज्ञान और प्रेरणा प्रदान करता है। शंकराचार्य के 'आत्मबोध' जैसे ग्रंथ हमें आत्मतत्व के बारे में गहन समझ देते हैं। यह हमें यह जानने में मदद करता है कि हमारा वास्तविक स्वरूप क्या है और हम इस दुनिया में क्यों हैं। ये ग्रंथ हमें आध्यात्मिक सिद्धांतों और जीवन के नैतिक मूल्यों से परिचित कराते हैं। निःस्वार्थ सेवा (Selfless Service): दूसरों की निःस्वार्थ सेवा करने से हमारे अहंकार में कमी आती है और हम स्वयं को संपूर्णता का एक हिस्सा मानना शुरू करते हैं। जब हम दूसरों के लिए कुछ करते हैं, तो हम अपनी व्यक्तिगत पहचान से परे उठते हैं और एक व्यापक चेतना के साथ जुड़ते हैं। यह हमें दूसरों के दुख और खुशी को महसूस करने की क्षमता देता है, जिससे करुणा और सहानुभूति का विकास होता है। जब व्यक्ति आत्मबोध की इस कठिन यात्रा को पार करता है, तो उसे एक अनूठी उपलब्धि प्राप्त होती है: सकारात्मक ऊर्जा और सोच का संचार। आत्मज्ञानी व्यक्ति का मन शांत और स्थिर होता है। वह बाहरी परिस्थितियों से विचलित नहीं होता, क्योंकि उसकी खुशी का स्रोत उसके भीतर होता है। यह सकारात्मक ऊर्जा न केवल उसके जीवन को बेहतर बनाती है, बल्कि उसके आस-पास के लोगों और वातावरण को भी प्रभावित करती है। एक शांत और सकारात्मक व्यक्ति अपने आसपास के लोगों को भी शांति और सकारात्मकता की ओर प्रेरित करता है। आत्मबोध की यात्रा यहीं समाप्त नहीं होती, बल्कि यहीं से विश्वबोध की यात्रा शुरू होती है। जब हम स्वयं के अस्तित्व को गहराई से समझते हैं, तो हमें यह एहसास होता है कि हम इस विशाल ब्रह्मांड का एक छोटा सा हिस्सा हैं। हमारी चेतना और अस्तित्व दूसरों से अलग नहीं, बल्कि एक ही ब्रह्मांडीय चेतना का विस्तार हैं। यह बोध हमें 'वसुधैव कुटुंबकम्' (संपूर्ण पृथ्वी एक परिवार है) की भावना से भर देता है।
विश्वबोध का अर्थ है, दूसरों को भी अपने समान समझना। यह हमें सहानुभूति और करुणा से भर देता है। जब हम किसी और के दुख को देखते हैं, तो हम उसे अपनी ही पीड़ा का एक हिस्सा महसूस करते हैं। यह भावना हमें दूसरों की मदद करने, समाज के कल्याण के लिए काम करने और एक बेहतर दुनिया बनाने के लिए प्रेरित करती है। एक आत्मज्ञानी व्यक्ति के लिए सेवा और निःस्वार्थ कर्म केवल कर्तव्य नहीं, बल्कि उसके अस्तित्व का स्वाभाविक विस्तार बन जाते हैं।
विश्वबोध हमें यह भी सिखाता है कि हम सभी एक ही चेतना के अंश हैं। हम सभी एक-दूसरे से और प्रकृति से जुड़े हुए हैं। इस बोध से हम पर्यावरण और मानवता के प्रति अधिक जिम्मेदार हो जाते हैं। हम समझते हैं कि प्रकृति को नुकसान पहुँचाना स्वयं को नुकसान पहुँचाना है, और दूसरों को दुख पहुँचाना स्वयं को दुख पहुँचाना है। यह हमें एक अधिक सामंजस्यपूर्ण और स्थायी जीवनशैली अपनाने के लिए प्रेरित करता है।
आज की दुनिया में, जहाँ तनाव, चिंता, प्रतिस्पर्धा और अकेलापन आम हैं, आत्मबोध का महत्व और भी बढ़ जाता है। आधुनिक जीवन की भागदौड़ में हम अक्सर अपने आप से कट जाते हैं। हम बाहरी सफलताओं, जैसे धन, पद और प्रतिष्ठा, के पीछे भागते रहते हैं और अपनी आंतरिक शांति को खो देते हैं। आत्मबोध हमें इस दौड़ से रुकने और अपने भीतर झाँकने का अवसर देता है। यह हमें यह समझने में मदद करता है कि सच्ची खुशी बाहरी चीजों में नहीं, बल्कि हमारे भीतर ही है। आत्मबोध हमें एक उद्देश्यपूर्ण जीवन जीने में मदद करता है। जब हम अपनी वास्तविक पहचान और क्षमताओं को जानते हैं, तो हम अपने जीवन के लिए एक सार्थक लक्ष्य निर्धारित कर पाते हैं। यह हमें न केवल व्यक्तिगत रूप से, बल्कि सामाजिक रूप से भी अधिक सफल और संतुष्ट बनाता है। एक आत्मज्ञानी व्यक्ति समाज में सकारात्मक बदलाव लाने की क्षमता रखता है, क्योंकि वह दूसरों की जरूरतों और दुखों को अधिक गहराई से समझता है। यह व्यक्ति समाज में एकता, शांति और सहिष्णुता को बढ़ावा देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है। आत्मबोध से उत्पन्न सकारात्मक सोच हमें जीवन की चुनौतियों का सामना करने की शक्ति देती है। यह हमें हर स्थिति में आशावादी बने रहने और समाधान खोजने के लिए प्रेरित करती है। जब हम यह समझ लेते हैं कि हम एक व्यापक ब्रह्मांडीय व्यवस्था का हिस्सा हैं, तो हमारी व्यक्तिगत परेशानियाँ छोटी लगने लगती हैं और हम एक बड़े उद्देश्य के लिए काम करना शुरू करते हैं।
आत्मबोध से विश्वबोध की यात्रा स्वयं को जानने से शुरू होती है और संपूर्ण मानवता को स्वीकार करने पर समाप्त होती है। यह एक ऐसी यात्रा है जो हमें अपने अहंकार और संकीर्णता से मुक्त करती है और हमें एक अधिक शांत, सकारात्मक और उद्देश्यपूर्ण जीवन जीने में मदद करती है। यह हमें सिखाती है कि सच्चा ज्ञान अपने भीतर पाया जाता है और जब हम उस ज्ञान को पाते हैं, तो हम न केवल स्वयं को, बल्कि सम्पूर्ण ब्रह्मांड को पहचान लेते हैं। यह आत्मबोध ही है जो हमें सही मायने में मानव बनाता है और हमें एक बेहतर विश्व का निर्माण करने की शक्ति देता है।
जैसा कि आदि शंकराचार्य ने अपने 'आत्मबोध' में समझाया है, यह ज्ञान मोक्ष की इच्छा रखने वाले साधकों के लिए है। लेकिन आधुनिक संदर्भ में, यह ज्ञान हर उस व्यक्ति के लिए है जो जीवन में सच्ची शांति, खुशी और उद्देश्य की तलाश में है। आत्मबोध से उत्पन्न सकारात्मक ऊर्जा और सोच ही विश्वबोध का सच्चा आधार है, जो एक बेहतर और अधिक सामंजस्यपूर्ण समाज का निर्माण कर सकती है। हमें इस यात्रा को शुरू करने का साहस करना चाहिए, क्योंकि अंततः, स्वयं को जानना ही ब्रह्मांड को जानने का एकमात्र मार्ग है।

मंगलवार, सितंबर 02, 2025

जीवनधारा नमामी गंगे का परिभ्रमण

नमामी गंगे: एक यात्रा जो दिलों को छू गई
 सत्येन्द्र कुमार पाठक 
बिहार, एक ऐसा राज्य जिसकी मिट्टी में इतिहास की खुशबू है और जिसकी नदियों में संस्कृति की धारा बहती है। हाल ही में, 'जीवनधारा नमामी गंगे' संस्था के एक प्रतिनिधिमंडल के रूप में मुझे इस अद्भुत राज्य की यात्रा करने का मौका मिला। यह यात्रा सिर्फ एक सामान्य दौरा नहीं थी, बल्कि यह गंगा और उसकी सहायक नदियों को पुनर्जीवित करने के मिशन से जुड़ी एक भावनात्मक और आध्यात्मिक यात्रा थी। 25 अगस्त से 30 अगस्त तक चली इस यात्रा में, हमने पटना, वैशाली और मुजफ्फरपुर के लोगों, घाटों और ऐतिहासिक धरोहरों , पर्यावरण के साथ एक गहरा संबंध महसूस किया। यह यात्रा एक मिशन थी—गंगा संरक्षण और पर्यावरण जागरूकता के संदेश को जन-जन तक पहुँचाने का मिशन।
पटना में एक नई शुरुआत: राजभवन का अनुभव - हमारी यात्रा की शुरुआत 26 अगस्त को जहानाबाद से हुई। सुबह की ट्रेन से हम पटना पहुँचे, जहाँ हमारा पहला और सबसे महत्वपूर्ण पड़ाव राजभवन था। सुबह 11:30 बजे हम महामहिम राज्यपाल माननीय   आरिफ मोहम्मद खान से मिलने पहुँचे। मन में थोड़ी घबराहट थी, लेकिन राज्यपाल की सहजता और गर्मजोशी ने सारी झिझक दूर कर दी। मैंने उन्हें अपनी पुस्तक "मगध क्षेत्र की विरासत" समर्पित की, जिसे उन्होंने बड़े सम्मान के साथ स्वीकार किया। इस मुलाकात के दौरान, हमने पर्यावरण और नमामी गंगे के उद्देश्यों पर विस्तृत चर्चा की। राज्यपाल महोदय ने हमारे प्रयासों की सराहना की और बिहार के विकास को लेकर अपने दूरदर्शी विचार साझा किए। उनकी बातें सुनकर लगा कि विकसित बिहार का सपना सिर्फ एक नारा नहीं, बल्कि एक हकीकत है, जिसे हर कोई जीना चाहता है। राज्यपाल से मुलाकात के बाद, हम उनके अतिथि गृह में जहानाबाद के विधायक श्री सुदय यादव से मिले। उनके साथ हमारी बातचीत में मुख्य रूप से जहानाबाद की दरधा और जमुनी नदियों और अरवल जिले की पुनपुन नदी के संरक्षण और विकास पर जोर दिया गया। यह जानकर खुशी हुई कि स्थानीय जनप्रतिनिधि भी इन नदियों के महत्व को समझते हैं और उनके पुनरुद्धार के लिए उत्सुक हैं। राज्यपाल महोदय के साथ चाय पर हुई बातचीत में विकसित बिहार के सपने पर चर्चा हुई, जिसने हमारे हृदय में एक सकारात्मक ऊर्जा का संचार किया। हमारे प्रतिनिधिमंडल का नेतृत्व जीवनधारा नमामी गंगे के राष्ट्रीय अध्यक्ष डॉ. हरि ओम शर्मा कर रहे थे। टीम में राष्ट्रीय उपाध्यक्ष और बिहार राज्याध्यक्ष डॉ. उषाकिरण श्रीवास्तव, संस्था के अर्थ गंगा के अतिरिक्त निदेशक दिव्या स्मृति, दिल्ली की अध्यक्षा मोनिका अग्रवाल और संस्था के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष ममता शर्मा , राष्ट्रीय उपाध्यक्ष सह निजी सचिव उत्तरीबिहार ( राष्ट्रीय अध्यक्ष )  शीला वर्मा , , राज्य उपाध्यक्ष संगीता सागर भी शामिल थीं। 
वैशाली: गणराज्य और आध्यात्मिकता का केंद्र - 28 अगस्त को, हमने पटना से वैशाली और मुजफ्फरपुर के लिए अपनी यात्रा जारी रखी। पटना से लगभग 20 किलोमीटर दूर स्थित हाजीपुर पहुँचने के बाद हमने सर्किट हाउस में रात्रि विश्राम किया। सुबह, हाजीपुर के गंगा-गंडक संगम पर स्थित कोनारा घाट का दृश्य अद्भुत था। अविरल प्रवाहित जल को देखकर मन को असीम शांति मिली। प्रतिनिधि मंडल के प्रमुख संस्था के राष्ट्रीय अध्यक्ष डॉ हरि ओम शर्मा द्वारा नमामी गंगे की विस्तृत चर्चा कर महामहिम राज्यपाल को अवगत कराया गया । 
वैशाली की ऐतिहासिक और सांस्कृतिक समृद्धि का अनुभव करने के लिए हम बहुत उत्सुक थे। यह वही भूमि है जहाँ दुनिया का पहला गणतंत्र "रिपब्लिक" कायम हुआ था। वैशाली की मिट्टी में ही भगवान महावीर का जन्म हुआ और महात्मा बुद्ध ने यहाँ कई बार आकर उपदेश दिए। लालगंज में, हमारा स्वागत मध्य विद्यालय के छात्रों और शिक्षकों ने किया, जिन्होंने हमें पारंपरिक तरीके से सम्मानित किया। बच्चों की आँखों में भविष्य की चमक देखकर हमारा उत्साह और बढ़ गया।  जीवन धारा नमामी गंगे संस्था के राष्ट्रीय अध्यक्ष डॉ हरि ओम शर्मा के नेतृव में प्रतिनिधि मंडल की बैठक नगर परिषद सभा कक्ष हाजीपुर में जिला प्रशासन , नगर परिषद के सभापति , कार्यपालक पदाधिकारी  और प्रतिनिधि मंडल के साथ हुई ।  जीवन धारा नमामी गंगे के राष्ट्रीय अध्यक्ष डॉ हरि ओम शर्मा ने नमामी गंगे के उद्देश्यों को विस्तार से बैठक में शामिल पदाधिकारी एवं गंगा सेवियों को संबोधित किया । प्रतिनिधि मंडल में शीला वर्मा आदि गंगा सेवी शामिल थे ।
हमने 28 आगस्त को  वैशाली में कई महत्वपूर्ण स्थानों का दौरा किया:-  अशोक स्तंभ और बौद्ध स्तूप - वैशाली से 3 किलोमीटर की दूरी पर स्थित कोल्हुआ और बखरा गाँव में हुई खुदाई से मिले अवशेषों को देखकर हम विस्मित हो गए। सम्राट अशोक द्वारा निर्मित सिंह स्तंभ लाल बलुआ पत्थर से बना है, जिसकी ऊँचाई 18.3 मीटर है। इस स्तंभ को स्थानीय लोग 'भीमसेन की लाठी' कहते हैं। यहीं पर एक छोटा सा कुंड है जिसे रामकुण्ड कहते हैं, जिसे पुरातत्व विभाग ने मर्कक-हद के रूप में पहचाना है। हमने बौद्ध स्तूपों को भी देखा, जिनका निर्माण बुद्ध के महापरिनिर्वाण के बाद उनके अस्थि अवशेषों पर किया गया था। वैशाली के लिच्छवियों को भी बुद्ध के पार्थिव अवशेषों का एक हिस्सा मिला था, और इन स्तूपों का पता 1958 की खुदाई के बाद चला। इन स्थानों ने हमें बौद्ध धर्म के इतिहास और महत्व से गहराई से जोड़ा। अभिषेक पुष्करणी और विश्व शांति स्तूप - वैशाली गणराज्य द्वारा ढाई हजार वर्ष पहले बनवाया गया अभिषेक पुष्करणी सरोवर आज भी अपनी पवित्रता को दर्शाता है। ऐसा माना जाता है कि यहाँ नए शासकों का अभिषेक किया जाता था। इस सरोवर के निकट ही जापान के निप्पोनजी बौद्ध समुदाय द्वारा बनवाया गया विश्व शांति स्तूप है, जो अपनी शांति और भव्यता से मन मोह लेता है। गोल गुंबद और बुद्ध की स्वर्ण प्रतिमाएँ यहाँ आने वालों को शांति का अनुभव कराती हैं। हाजीपुर की गंगा गंडक नदी संगम कोनारा घाट पर जाकर प्राकृतिक केवम जल धारा से मन आह्लादित हुआ । मध्यविद्यालय लालगंज के छात्रों , छात्राओं एवं  शिक्षकों द्वारा शिष्टमंडल को स्वागत किया गया । जिला प्रशासन वैशाली  नगरपरिषद के पदाधिकारियों तथा शिष्टमंडल के सदस्यों की बैठक नगरपरिषद हाजीपुर के सभा कक्ष में नगर परिषद के सभापति केवम कार्यपालक पदाधिकारी एवं गंगा सेवी  , प्रतिनिधि मंडल के सदस्यों के बीच नमामी गंगे के कार्यान्वयन पर रूबरू हुए ।
कुंडलपुर और राजा विशाल का गढ़ - वैशाली से 4 किलोमीटर दूर स्थित कुंडलपुर व कुंड ग्राम  जैन धर्म के चौबीसवें तीर्थंकर भगवान महावीर का जन्मस्थान है। इस पवित्र स्थान पर आकर हम अत्यंत भावुक हो गए। हमने राजा विशाल का गढ़ भी देखा, जो एक छोटा टीला है। इसे प्राचीन संसद माना जाता है, जहाँ 7,777 संघीय सदस्य इकट्ठा होकर चर्चा करते थे। यह स्थल भारत में लोकतंत्र की प्राचीन जड़ों का एक जीवंत प्रमाण है। 29 अगस्त को सारण जिले के गंडक और गंगा संगम पर अवस्थित सोनपुर का हरिहर नाथ मंदिर के गर्भगृह में स्थित बाबा हरिहर नाथ , हनुमान जी का दर्शन , गजग्राह , शनिदेव का दर्शन करने के बाद मौनी बाबा अश्रम में चूड़ा दही का आनंद लिया ।  29 अगस्त को मुजफ्फरपुर से कुंडग्राम में महावीर स्वामी जी की जन्मभूमि में अवस्थित महावीर स्वामी मंदिर के गर्भगृह में स्थित भगवान महावीर स्वामी जी का दर्शन किया । मुजफ्फरपुर का दुग्ध निर्माण समिति का स्थलीय का अवलोकन किया परंतु समिति के पदाधिकारियों से मुलाकात नही हुई । रात्रि में मुजफ्फरपुर अतिथि गृह पथनिर्माण विभाग में विश्राम किया । 30 अगस्त को मुजफ्फरपुर में आयोजित सेमिनार में शामिल हुआ । 
मुजफ्फरपुर: सेमिनार और साझा प्रयास -  हमारी यात्रा का अंतिम चरण मुजफ्फरपुर था। 29 अगस्त को हम मुजफ्फरपुर पहुँचे   और 30 अगस्त को श्री नावयुवक ट्रस्ट समिति के सभागार में एक महत्वपूर्ण सेमिनार में भाग लिया। इस सेमिनार का उद्देश्य गंगा संरक्षण और जागरूकता के लिए साझा प्रयासों पर चर्चा करना था। सेमिनार में मुजफ्फरपुर के अलावा बेगूसराय, सिवान, पश्चिम चंपारण, सीतामढ़ी, पटना, वैशाली, जहानाबाद और दरभंगा जैसे जिलों के गंगा सेवक और जीवनधारा नमामी गंगे संस्था  के पदाधिकारी शामिल हुए। सेमिनार में हमने प्राकृतिक कृषि को बढ़ावा देने, गंगा ग्रामों और घाटों पर ठोस और तरल अपशिष्ट प्रबंधन की स्थिति और अर्थ गंगा योजना के कार्यान्वयन पर चर्चा की। हमें मुजफ्फरपुर में जो सम्मान मिला, वह हमारे प्रयासों को एक नई ऊर्जा देने वाला था। लोगों का उत्साह देखकर लगा कि गंगा को स्वच्छ बनाने का सपना पूरा हो सकता है, बस हमें मिलकर काम करना होगा। हमारी टीम का नेतृत्व डॉ. हरि ओम शर्मा कर रहे थे, और इसमें राष्ट्रीय उपाध्यक्ष सत्येन्द्र कुमार पाठक, दिल्ली प्रदेश अध्यक्ष मोनिका अग्रवाल, राष्ट्रीय उपाध्यक्ष ममता शर्मा, डॉ. उषाकिरण श्रीवास्तव और दिव्या स्मृति , शीला वर्मा , , जी इन भट्ट संपादक , निर्माण भारती  शामिल थीं। यह यात्रा केवल एक भ्रमण नहीं थी, बल्कि गंगा नदी, उसकी सहायक नदियों और बिहार की समृद्ध विरासत के साथ एक गहरा संबंध स्थापित करने का अवसर था। हमने महसूस किया कि जीवनधारा नमामी गंगे जैसे मिशन को सफल बनाने के लिए सरकारी प्रयासों के साथ-साथ जन-भागीदारी भी अत्यंत आवश्यक है। वैशाली और मुजफ्फरपुर में लोगों का उत्साह और सहयोग देखकर यह विश्वास और मजबूत हो गया कि हम सभी मिलकर गंगा को उसकी पुरानी महिमा लौटा सकते हैं। इस यात्रा ने हमें न केवल नदियों और पर्यावरण के प्रति हमारी जिम्मेदारी का एहसास कराया, बल्कि यह भी दिखाया कि भारत की सांस्कृतिक और ऐतिहासिक जड़ें कितनी गहरी और समृद्ध हैं। यह यात्रा एक शिक्षा थी, एक प्रेरणा थी और एक ऐसा अनुभव था जो हमारे हृदय में हमेशा रहेगा। जीवनधारा नमामी गंगे सेमिनार में पटना , जहानाबाद , बेगूसराय , मुजफ्फरपुर , वैशाली , सिवान पश्चिम चंपारण , दरभंगा , सीतामढ़ी आदि  जिले के अध्यक्ष , महासचिव , राज्य के पदाधिकारी , गंगा सेवी शामिल हुए ।

गुरुवार, अगस्त 21, 2025

सम्मानित साहित्यकार

सम्मानित साहित्यकार' -  साहित्यिक विरासत का जीवंत दस्तावेज़
सत्येन्द्र कुमार पाठक द्वारा लिखित 'सम्मानित साहित्यकार' पुस्तक बिहार के समृद्ध साहित्यिक परिदृश्य को समर्पित एक अनूठी और महत्त्वपूर्ण कृति है। यह पुस्तक केवल एक संग्रह नहीं है, बल्कि यह उन महान लेखकों और कवियों के प्रति एक गहरा नमन है, जिन्होंने अपनी कलम के माध्यम से समाज को दिशा दी। यह कृति साहित्य को केवल शब्दों का खेल नहीं, बल्कि मानव संस्कृति और समाज की "आँखें" मानती है, जो इसके शाश्वत महत्व को स्थापित करता है।
यह पुस्तक हिंदी, मगही, बज्जिका, भोजपुरी, मैथिली और अंगिका जैसी विविध भाषाओं के लेखकों और कवियों के जीवन परिचय, उनकी रचनाओं और उनके योगदान का गहन विश्लेषण करती है। लेखक पाठक ने इन साहित्यकारों के व्यक्तिगत जीवन, उनकी सामाजिक प्रतिबद्धताओं, उनकी शिक्षा और सांस्कृतिक पृष्ठभूमि को बड़े विस्तार से प्रस्तुत किया है। यह हमें यह समझने में मदद करता है कि कैसे उनकी रचनाएँ उनके जीवन और अनुभवों से प्रभावित थीं। लेखक ने इस बात पर विशेष जोर दिया है कि इन मनीषियों ने अपनी प्राचीन विरासत को कैसे संरक्षित किया और उसे आने वाली पीढ़ियों तक पहुँचाने का संकल्प लिया। यह पुस्तक दर्शाती है कि साहित्यकार अपनी सशक्त साहित्यिक चेतना से समाज में सकारात्मक बदलाव कैसे लाते हैं। वे अपनी रचनाओं के जरिए जनता को अन्याय के खिलाफ आवाज़ उठाने के लिए प्रेरित करते हैं और एक समतावादी समाज की नींव रखते हैं।
'सम्मानित साहित्यकार' की सबसे बड़ी खूबी इसका शोधपूर्ण दृष्टिकोण है।  जिन्होंने इस कृति को एक सुसंगत और प्रेरणादायक रूप देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। उनके गहन शोध और साहित्यिक अंतर्दृष्टि के बिना, इन साहित्यकारों के जीवनवृत्त को इतनी सहजता, प्रामाणिकता और गहराई से प्रस्तुत करना संभव नहीं था। यह पुस्तक सिर्फ एक सूचनात्मक ग्रंथ नहीं, बल्कि एक जीवंत दस्तावेज़ बन गई है जो हमें अतीत के गौरव से जोड़ती है।
सम्मानित साहित्यकार पाठकों के लिए एक संग्रहणीय दस्तावेज़ है। यह पुस्तक साहित्य प्रेमियों, शोधार्थियों, छात्रों और सामान्य पाठकों के लिए एक अत्यंत मूल्यवान और संग्रहणीय कृति है। यह न केवल वर्तमान पीढ़ी को अपने महान साहित्यकारों के योगदान से परिचित कराती है, बल्कि आने वाली पीढ़ियों को भी साहित्य के महत्व को समझने और समाज के उत्थान में योगदान देने के लिए प्रेरित करती है। कुल मिलाकर, 'सम्मानित साहित्यकार' बिहार के साहित्यिक इतिहास को सहेजने का एक सराहनीय प्रयास है। यह बताती है कि कैसे साहित्यकार समाज के पथ-प्रदर्शक होते हैं, जो अपनी लेखनी से न केवल ज्ञान का प्रकाश फैलाते हैं, बल्कि समाज में सकारात्मक बदलाव भी लाते हैं।
सतरंग प्रकाशन, लखनऊ, द्वारा प्रकाशित यह पुस्तक (मूल्य ₹350) उन सभी के लिए एक आवश्यक पठन है जो बिहार की साहित्यिक विरासत को समझना चाहते हैं और उन महान आत्माओं के बारे में जानना चाहते हैं जिन्होंने अपनी कलम की ताकत से एक बेहतर दुनिया का सपना देखा। यह पुस्तक निश्चित रूप से अपनी साहित्यिक सुगंध से पाठकों को मंत्रमुग्ध करेगी।
Tamil ( तमिल )
'சம்மனித சாகித்தியகார்' - இலக்கிய பாரம்பரியத்தின் ஒரு வாழும் ஆவணம்
சத்யேந்திர குமார் பதக் எழுதிய 'சம்மனித சாகித்தியகார்' (Sammanit Sahityakar) என்ற புத்தகம் பீகார் மாநிலத்தின் செழுமையான இலக்கிய பாரம்பரியத்திற்கு அர்ப்பணிக்கப்பட்ட ஒரு தனித்துவமான மற்றும் முக்கியமான படைப்பு. இது வெறும் ஒரு தொகுப்பு அல்ல, மாறாக தங்கள் பேனா மூலம் சமூகத்திற்கு வழிகாட்டிய சிறந்த எழுத்தாளர்கள் மற்றும் கவிஞர்களுக்கு ஒரு ஆழ்ந்த அஞ்சலி. இந்தப் படைப்பு இலக்கியத்தை வெறும் வார்த்தைகளின் விளையாட்டு என்று கருதாமல், மனித கலாச்சாரத்தின் மற்றும் சமூகத்தின் "கண்கள்" என்று கருதுகிறது, அதன் மூலம் அதன் நிரந்தரமான முக்கியத்துவத்தை நிறுவுகிறது.
இந்தப் புத்தகம் இந்தி, மகஹி, பஜ்ஜிகா, போஜ்பூரி, மைதிலி மற்றும் அங்கிகா போன்ற பல்வேறு மொழிகளில் எழுதிய எழுத்தாளர்கள் மற்றும் கவிஞர்களின் வாழ்க்கை வரலாறு, அவர்களின் படைப்புகள் மற்றும் அவர்களின் பங்களிப்புகள் பற்றிய ஆழமான பகுப்பாய்வை வழங்குகிறது. ஆசிரியர் பதக், இந்த இலக்கிய மேதைகளின் தனிப்பட்ட வாழ்க்கை, அவர்களின் சமூக அர்ப்பணிப்புகள், அவர்களின் கல்வி மற்றும் கலாச்சார பின்னணி ஆகியவற்றை விரிவாக விவரித்துள்ளார். இது அவர்களின் படைப்புகள் எவ்வாறு அவர்களின் வாழ்க்கை மற்றும் அனுபவங்களால் ஈர்க்கப்பட்டன என்பதைப் புரிந்துகொள்ள நமக்கு உதவுகிறது.
இந்தப் புத்தகம் அவர்களின் பண்டைய பாரம்பரியத்தை எவ்வாறு பாதுகாத்தனர் மற்றும் அதை வரும் தலைமுறைகளுக்கு கொண்டு செல்ல உறுதியெடுத்தனர் என்பதையும் வலியுறுத்துகிறது. 'சம்மனித சாகித்தியகார்' ஒரு தகவலுக்கான புத்தகம் மட்டுமல்ல, அது ஒரு வாழும் ஆவணம். இது இலக்கிய பிரியர்கள், ஆராய்ச்சியாளர்கள், மாணவர்கள் மற்றும் பொது வாசகர்களுக்கு ஒரு விலைமதிப்பற்ற பொக்கிஷம்.
சத்ரங் பிரகாஷன், லக்னோவால் ₹350க்கு வெளியிடப்பட்ட இந்தப் புத்தகம், பீகாரின் இலக்கிய பாரம்பரியத்தை புரிந்துகொள்ள விரும்பும் அனைவருக்கும் அவசியமான வாசிப்பாகும்.

Maithili ( मैथिली )
'सम्मानित साहित्यकार' - साहित्यिक विरासतक एकटा जीवंत दस्तावेज
सत्येन्द्र कुमार पाठक द्वारा लिखल गेल 'सम्मानित साहित्यकार' पुस्तक बिहारक समृद्ध साहित्यिक परिदृश्य लेल समर्पित एकटा विशिष्ट आ महत्वपूर्ण कृति थिक। ई पुस्तक मात्र एकटा संग्रह नहि, बल्कि ओहि महान लेखक आ कविसभक प्रति एकटा गहींर नमन सेहो अछि, जे अपन कलम केर माध्यम सँ समाज केँ दिशा देलनि। ई कृति साहित्य केँ मात्र शब्दक खेल नहि, बल्कि मानव संस्कृति आ समाजक "आँखि" मानैत अछि, जे एकर शाश्वत महत्व केँ स्थापित करैत अछि।
ई पुस्तक हिन्दी, मगही, बज्जिका, भोजपुरी, मैथिली आ अंगिका जेकाँ विविध भाषाक लेखक आ कविसभक जीवन परिचय, हुनक रचना आ हुनक योगदानक गहन विश्लेषण करैत अछि। लेखक पाठक एहि साहित्यकार सभक व्यक्तिगत जीवन, हुनक सामाजिक प्रतिबद्धता, हुनक शिक्षा आ सांस्कृतिक पृष्ठभूमिकें बड़ विस्तार सँ प्रस्तुत केने छथि। ई हमरा ई बुझबामे मदद करैत अछि जे कनाँ हुनक रचनासभ हुनक जीवन आ अनुभव सँ प्रभावित छल।
'सम्मानित साहित्यकार' केँ सबसँ बड़का खूबी एकर शोधपूर्ण दृष्टिकोण थिक। ई पुस्तक मात्र एकटा सूचनात्मक ग्रंथ नहि, बल्कि एकटा जीवंत दस्तावेज बनि गेल अछि जे हमरा अतीतक गौरव सँ जोड़ैत अछि। ई पुस्तक साहित्य प्रेमी, शोधार्थी, छात्र आ सामान्य पाठक लेल एकटा अत्यंत मूल्यवान आ संग्रहणीय कृति थिक।
सतरंग प्रकाशन, लखनऊ द्वारा प्रकाशित ई पुस्तक (मूल्य ₹350) ओहि सभक लेल एकटा आवश्यक पठन थिक जे बिहारक साहित्यिक विरासत केँ बूझब चाहैत छथि।
भोजपुरी 
'सम्मानित साहित्यकार' - साहित्यिक विरासत के एगो जियंत दस्तावेज
सत्येन्द्र कुमार पाठक के लिखल 'सम्मानित साहित्यकार' किताब बिहार के समृद्ध साहित्यिक परिदृश्य के समर्पित एगो खास आ महत्वपूर्ण रचना बा। ई किताब खाली एगो संग्रह भर ना ह, बलुक ई उन महान लेखकन आ कवन के प्रति एगो गहिर नमन बा, जवन आपन कलम के माध्यम से समाज के दिशा देहलें। ई कृति साहित्य के खाली शब्द के खेल ना मानेला, बलुक ई के मानव संस्कृति आ समाज के "आँख" मानेला, जे एकर हमेशा के महत्व के स्थापित करेला।
ई किताब हिंदी, मगही, बज्जिका, भोजपुरी, मैथिली आ अंगिका जइसन अलग-अलग भाषा के लेखकन आ कवन के जीवन परिचय, उनकर रचना आ उनकर योगदान के गहिर विश्लेषण करेला। लेखक पाठक इ साहित्यकारन के व्यक्तिगत जीवन, उनकर सामाजिक प्रतिबद्धता, उनकर शिक्षा आ सांस्कृतिक पृष्ठभूमि के बड़ विस्तार से प्रस्तुत कइले बाड़ें।
'सम्मानित साहित्यकार' के सभसे बड़ खूबी एकर शोधपूर्ण दृष्टिकोण बा। ई किताब खाली एगो सूचना देवे वाला ग्रंथ ना ह, बलुक एगो जियंत दस्तावेज बन गइल बा जे हमनी के अतीत के गौरव से जोड़ेला। ई किताब साहित्य प्रेमी, शोधार्थी, छात्र आ सामान्य पाठकन खातिर एगो बहुत कीमती आ संग्रह करे लायक रचना बा।
सतरंग प्रकाशन, लखनऊ, द्वारा प्रकाशित ई किताब (दाम ₹350) उन सभ के खातिर एगो जरूरी पठन बा जे बिहार के साहित्यिक विरासत के समझे के चाहत बाड़ें।
Gujarati ( गुजराती ) 
'સમ્માનિત સાહિત્યકાર' - સાહિત્યિક વારસાનો જીવંત દસ્તાવેજ
સત્યેન્દ્ર કુમાર પાઠક દ્વારા લખાયેલ 'સમ્માનિત સાહિત્યકાર' પુસ્તક બિહારના સમૃદ્ધ સાહિત્યિક વારસાને સમર્પિત એક અનોખી અને મહત્વપૂર્ણ કૃતિ છે. આ પુસ્તક માત્ર એક સંગ્રહ નથી, પરંતુ તે મહાન લેખકો અને કવિઓ પ્રત્યે એક ઊંડો આદર છે, જેમણે પોતાની કલમ દ્વારા સમાજને દિશા આપી છે. આ કૃતિ સાહિત્યને ફક્ત શબ્દોનો ખેલ નહિ, પરંતુ માનવ સંસ્કૃતિ અને સમાજની "આંખો" માને છે, જે તેના શાશ્વત મહત્વને સ્થાપિત કરે છે.
આ પુસ્તક હિન્દી, મગહી, બજ્જિકા, ભોજપુરી, મૈથિલી અને અંગિકા જેવી વિવિધ ભાષાઓના લેખકો અને કવિઓના જીવન પરિચય, તેમની રચનાઓ અને તેમના યોગદાનનું ગહન વિશ્લેષણ કરે છે. લેખક પાઠકે આ સાહિત્યકારોના વ્યક્તિગત જીવન, તેમની સામાજિક પ્રતિબદ્ધતાઓ, તેમનું શિક્ષણ અને સાંસ્કૃતિક પૃષ્ઠભૂમિને ખૂબ જ વિગતવાર રજૂ કરી છે. 'સમ્માનિત સાહિત્યકાર' ની સૌથી મોટી વિશેષતા તેનો સંશોધન આધારિત દ્રષ્ટિકોણ છે. આ પુસ્તક ફક્ત એક માહિતીપ્રદ ગ્રંથ નથી, પરંતુ એક જીવંત દસ્તાવેજ બની ગયું છે જે આપણને ભૂતકાળના ગૌરવ સાથે જોડે છે. આ પુસ્તક સાહિત્ય પ્રેમીઓ, સંશોધકો, વિદ્યાર્થીઓ અને સામાન્ય વાચકો માટે એક અત્યંત મૂલ્યવાન અને સંગ્રહ કરવા યોગ્ય કૃતિ છે.
સતરંગ પ્રકાશન, લખનઉ દ્વારા પ્રકાશિત આ પુસ્તક (કિંમત ₹350) તે બધા માટે એક આવશ્યક વાંચન છે જેઓ બિહારના સાહિત્યિક વારસાને સમજવા અને તે મહાન આત્માઓ વિશે જાણવા માંગે છે જેમણે પોતાની કલમની શક્તિથી એક સારા વિશ્વનું સ્વપ્ન જોયું.
Bengali ( बंगाली) 
'সম্মানিত সাহিত্যকার' - সাহিত্যিক ঐতিহ্যের একটি জীবন্ত দলিল
সত্যেন্দ্র কুমার পাঠক রচিত 'সম্মানিত সাহিত্যকার' বইটি বিহারের সমৃদ্ধ সাহিত্যিক ঐতিহ্যের প্রতি নিবেদিত একটি অনন্য এবং গুরুত্বপূর্ণ সৃষ্টি। এটি কেবল একটি সংকলন নয়, বরং এটি সেই মহান লেখক এবং কবিদের প্রতি একটি গভীর শ্রদ্ধা, যারা তাদের কলমের মাধ্যমে সমাজকে পথ দেখিয়েছেন। এই গ্রন্থটি সাহিত্যকে কেবল শব্দের খেলা নয়, বরং মানব সংস্কৃতি ও সমাজের "চোখ" হিসেবে বিবেচনা করে, যা এর চিরন্তন গুরুত্বকে প্রতিষ্ঠা করে।
এই বইটি হিন্দি, মাগাহি, বাজ্জিকা, ভোজপুরি, মৈথিলী এবং অঙ্গিকা সহ বিভিন্ন ভাষার লেখক ও কবিদের জীবন পরিচয়, তাদের রচনা এবং তাদের অবদানের গভীর বিশ্লেষণ করে। লেখক পাঠক এই সাহিত্যিকদের ব্যক্তিগত জীবন, তাদের সামাজিক প্রতিশ্রুতি, তাদের শিক্ষা এবং সাংস্কৃতিক পটভূমিকে বিস্তারিতভাবে উপস্থাপন করেছেন। 'সম্মানিত সাহিত্যকার'-এর সবচেয়ে বড় বৈশিষ্ট্য হল এর গবেষণা-ভিত্তিক দৃষ্টিভঙ্গি। এই বইটি শুধু একটি তথ্যমূলক গ্রন্থ নয়, বরং এটি একটি জীবন্ত দলিল হয়ে উঠেছে যা আমাদের অতীতের গৌরবময় ঐতিহ্যের সাথে যুক্ত করে। এই বইটি সাহিত্যপ্রেমী, গবেষক, ছাত্র এবং সাধারণ পাঠকদের জন্য একটি অত্যন্ত মূল্যবান এবং সংগ্রহযোগ্য সৃষ্টি।
সতরং প্রকাশন, লখনউ দ্বারা প্রকাশিত এই বইটি (মূল্য ₹350) उन सभी के लिए एक आवश्यक पठन है जो बिहार की साहित्यिक विरासत को समझना चाहते हैं।

Sanskrit ( संस्कृत ) 
'सम्मानित साहित्यकारः' - साहित्यिकविरासतस्य एकं जीवन्तं दस्तावेजम्
सत्येन्द्रकुमारपाठकेन लिखितं 'सम्मानित साहित्यकारः' इति पुस्तकं बिहारस्य समृद्धसाहित्यिकपरिदृश्यं प्रति समर्पितं एकम् अद्वितीयं महत्वपूर्णं च कृतिः अस्ति। एतत् पुस्तकं केवलं एकः संग्रहः नास्ति, अपितु तेषां महान् लेखकानां कवीनां च प्रति गहनं नमनम् अस्ति, ये स्वकलमेन समाजं दिशं दत्तवन्तः। एषा कृतिः साहित्यं केवलं शब्दानां क्रीडां न मन्यते, अपितु मानवसंस्कृतेः समाजस्य च "नेत्राणि" मन्यते, यत् अस्य शाश्वतं महत्त्वं स्थापयति।
एतत् पुस्तकं हिन्दी, मगही, बज्जिका, भोजपुरी, मैथिली, अंगिका च इत्यादिषु विविधभाषासु लिखितानां लेखकानां कवीनां च जीवनपरिचयं, तेषां रचनानां, तेषां योगदानस्य च गहनं विश्लेषणं करोति। लेखकः पाठकः एतेषां साहित्यकाराणां व्यक्तिगतजीवनं, तेषां सामाजिकप्रतिबद्धतां, तेषां शिक्षां, सांस्कृतिकपृष्ठभूमिं च महता विस्तारेण प्रस्तुतवान् अस्ति।
'सम्मानित साहित्यकारः' इत्यस्य महत्तमं वैशिष्ट्यं अस्य शोधपूर्णदृष्टिकोणः अस्ति। एतत् पुस्तकं न केवलं एकः सूचनात्मकग्रन्थः, अपितु एकः जीवन्तदस्तावेजः अपि अस्ति यः अस्मान् अतीतस्य गौरवेण सह योजयति। एतत् पुस्तकं साहित्यप्रेमिभ्यः, शोधार्थिभ्यः, छात्रेभ्यः, सामान्यपाठकेभ्यः च एकं अत्यन्तं मूल्यवत् संग्रहणीयम् च कृतिः अस्ति।
सतरंगप्रकाशनं, लखनऊ इत्यनेन प्रकाशितं एतत् पुस्तकं (मूल्यं ₹३५०) तेषां सर्वेषां कृते आवश्यकं पठनम् अस्ति ये बिहारस्य साहित्यिकविरासतं ज्ञातुं इच्छन्ति।

English
'Sammanit Sahityakar' - A Living Document of Literary Heritage
'Sammanit Sahityakar' (Honored Litterateurs), a book written by Satyendra Kumar Pathak, is a unique and significant work dedicated to the rich literary landscape of Bihar. This book is not merely a collection; it is a profound tribute to those great writers and poets who have guided society through their pens. The work regards literature not just as a play of words, but as the "eyes" of human culture and society, thereby establishing its eternal importance.
The book provides a deep analysis of the life stories, works, and contributions of writers and poets in diverse languages like Hindi, Magahi, Bajjika, Bhojpuri, Maithili, and Angika. The author, Pathak, has presented in great detail the personal lives, social commitments, education, and cultural backgrounds of these litterateurs. This helps us understand how their creations were influenced by their lives and experiences.
The greatest feature of 'Sammanit Sahityakar' is its research-oriented approach. The extensive research and literary insight of the author have played a crucial role in giving this work a coherent and inspiring form. The book is not just an informative text but has become a living document that connects us to the glory of the past. It is an extremely valuable and collectible work for literature lovers, researchers, students, and general readers.
Published by Satrang Prakashan, Lucknow, this book (priced at ₹350) is an essential read for anyone who wishes to understand the literary heritage of Bihar and learn about the great souls who dreamed of a better world through the power of their pens.

फारसी (Persian)
'سَمّانِتْ ساهيتياکار' - یک سند زنده از میراث ادبی

کتاب 'سَمّانِتْ ساهيتياکار' (نویسنده: سَتيَندْرْ کُمارْ پاٹَکْ) یک اثر منحصر به فرد و مهم است که به میراث غنی ادبی بیهار اختصاص دارد. این کتاب فقط یک مجموعه نیست، بلکه ادای احترام عمیق به آن نویسندگان و شاعران بزرگی است که با قلم خود به جامعه جهت دادند. این اثر، ادبیات را فقط یک بازی با کلمات نمی‌داند، بلکه آن را "چشم‌های" فرهنگ و جامعه بشری می‌بیند و از این طریق اهمیت ابدی آن را تثبیت می‌کند.

این کتاب تحلیل عمیقی از زندگی‌نامه، آثار و مشارکت‌های نویسندگان و شاعران به زبان‌های متنوعی مانند هندی، ماگَهی، بَجّیکَا، بوجپوری، مَیثیلی و اَنگیکَا ارائه می‌دهد. نویسنده، پاٹَکْ، زندگی شخصی، تعهدات اجتماعی، تحصیلات و پیشینه فرهنگی این نخبگان ادبی را با جزئیات فراوان به تصویر کشیده است. این امر به ما کمک می‌کند تا بفهمیم که چگونه آثار آن‌ها از زندگی و تجربیاتشان الهام گرفته شده است.

بزرگ‌ترین ویژگی 'سَمّانِتْ ساهيتياکار' رویکرد تحقیقاتی آن است. این کتاب صرفاً یک متن اطلاعاتی نیست، بلکه به یک سند زنده تبدیل شده که ما را به شکوه گذشته متصل می‌کند. این اثر برای علاقه‌مندان به ادبیات، محققان، دانشجویان و عموم مردم بسیار ارزشمند و قابل جمع‌آوری است.

این کتاب که توسط انتشارات سَتْرَنْگْ پراکاشَن، در لکنو منتشر شده (با قیمت ₹350)، یک مطالعه ضروری برای همه کسانی است که می‌خواهند میراث ادبی بیهار را درک کنند.

मगही (Magahi)
'सम्मानित साहित्यकार' - साहित्यिक विरासत के एक जीवंत दस्तावेज
सत्येन्द्र कुमार पाठक के लिखल 'सम्मानित साहित्यकार' किताब बिहार के समृद्ध साहित्यिक परिदृश्य खातिर समर्पित एगो अनोखा आ महत्वपूर्ण कृति हइ। ई किताब खाली एगो संग्रह भर ना, बलुक ई उन महान लेखक आ कवि के प्रति एगो गहिर नमन हइ, जे आपन कलम के माध्यम से समाज के दिशा देलथिन। ई कृति साहित्य के खाली शब्द के खेल ना मानेला, बलुक एकरा मानव संस्कृति आ समाज के "आंख" मानेला, जे एकर शाश्वत महत्व के स्थापित करेला।
ई किताब हिंदी, मगही, बज्जिका, भोजपुरी, मैथिली आ अंगिका जइसन अलग-अलग भाषा के लेखक आ कवि के जीवन परिचय, उनकर रचना आ उनकर योगदान के गहिर विश्लेषण करेला। लेखक पाठक इ साहित्यकार के व्यक्तिगत जीवन, उनकर सामाजिक प्रतिबद्धता, उनकर शिक्षा आ सांस्कृतिक पृष्ठभूमि के बड़ विस्तार से प्रस्तुत कइले हथिन। ई हमनी के ई बुझे में मदद करेला कि कैसे उनकर रचना उनकर जीवन आ अनुभव से प्रभावित रहे।
'सम्मानित साहित्यकार' के सबसे बड़ खूबी एकर शोधपूर्ण दृष्टिकोण हइ। ई किताब खाली एगो सूचनात्मक ग्रंथ ना, बलुक एगो जीवंत दस्तावेज बन गइल हइ जे हमनी के अतीत के गौरव से जोड़ेला। ई किताब साहित्य प्रेमी, शोधार्थी, छात्र आ सामान्य पाठक खातिर एगो बहुत मूल्यवान आ संग्रह करे लायक कृति हइ।
सतरंग प्रकाशन, लखनऊ, द्वारा प्रकाशित ई किताब (दाम ₹350) उन सब के खातिर एगो जरूरी पठन हइ जे बिहार के साहित्यिक विरासत के समझे के चाहत हथिन।
बज्जिका (Bajjika)  
'सम्मानित साहित्यकार' : साहित्यिक विरासत के एगो जीवन्त दस्तावेज
डॉ. उषाकिरण श्रीवास्तव अध्यक्ष , स्वंर्णिम कला केंद्र मुजफ्फरपुर , बिहार ।
         सत्येन्द्र कुमार पाठक द्वारा लिखल गेल 'सम्मानित साहित्यकार' पुस्तक बिहार के समृद्ध साहित्यिक परिदृश्य के देखाबे लेल समर्पित एगो विशिष्ट आ महत्वपूर्ण कृति हए। ई पुस्तक मात्र एगो संग्रहे नs हए, बल्कि एह में महान लेखक, कवि आ भक्त सब केऊ के प्रति एगो सरधा समर्पण हए, जे अप्पन कलम के माध्यम से समाज के दिशा देलथिन हs । ई कृति साहित्य के मात्र शब्द के खेल नऽ , बल्कि मानव के साहित्यिक संस्कृति आ समाज के "आँख" हए, जे एक्कर शाश्वत महत्व के स्थापित करइत हए। ई किताब हिन्दी, मगही, बज्जिका, भोजपुरी, मैथिली आ अंगिका लेखा विविध भाषा के लेखक,कवि आ भक्त के जीवन परिचय, हुनकर रचना आ हुनकर योगदान के गहन विश्लेषण करइत हए। लेखक आदरणीय सत्येन्द्र पाठक जी द्वारा साहित्यकार सब के व्यक्तिगत जीवन, हुनकर सामाजिक प्रतिबद्धता, हुनकर शिक्षा आ सांस्कृतिक पृष्ठभूमि सब कुछ के बहुत्ते विस्तार से प्रस्तुत कएल गेल हऽ। ई पुस्तक पाठक लोग के समझे में मदत करत कि कइसे साहित्यकार लोग के रचना हुनकर जीवन आ अनुभव से प्रभावित भेल। 'सम्मानित साहित्यकार' के सबसे बड़का खूबी एक्कर खोजी दृष्टिकोण हए। ई किताब खाली सूचना देबे बला ग्रंथ नऽ हए, बल्कि एगो जीवन्त दस्तावेज बन गेल हs, जे समाज के लोग के अतीत के गौरव से जोड़इत हए। ई किताब साहित्य के प्रेमी, शोध, खोज करे बला छात्र, सामान्य छात्र चाहे विद्वान पाठक आ सामान्य पाठक के लेल अत्यन्त मूल्यवान आ संग्रह कs के रक्खे  लाइक कृति हए।  सतरंग प्रकाशन, लखनऊ द्वारा प्रकाशित ई किताब (कीमत ₹350/-) हुनका सब के लेल एगो आवश्यक पठन-सामग्री हए, जे बिहार के साहित्यिक विरासत के बूझे-समझे के चाहइत हतन।
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अंगिका (Angika)
'सम्मानित साहित्यकार' - साहित्यिक विरासत के एक जीवंत दस्तावेज
सत्येन्द्र कुमार पाठक द्वारा लिखल गेल 'सम्मानित साहित्यकार' पुस्तक बिहार के समृद्ध साहित्यिक परिदृश्य के समर्पित एक अनोखा और महत्वपूर्ण कृति है। ई पुस्तक खाली एकटा संग्रह नै हइकै, बल्कि ई उन महान लेखक और कवि के प्रति एकटा गहिर नमन हइकै, जे अपन कलम के माध्यम से समाज के दिशा देलकै। ई कृति साहित्य के खाली शब्द के खेल नै मानै, बल्कि एकरा मानव संस्कृति और समाज के "आँख" मानै हइकै, जे एकर शाश्वत महत्व के स्थापित करै हइकै।
ई पुस्तक हिंदी, मगही, बज्जिका, भोजपुरी, मैथिली और अंगिका जेकाँ विविध भाषा के लेखक और कवि के जीवन परिचय, हुनक रचना और हुनक योगदान के गहन विश्लेषण करै हइकै। लेखक पाठक ई साहित्यकार के व्यक्तिगत जीवन, हुनक सामाजिक प्रतिबद्धता, हुनक शिक्षा और सांस्कृतिक पृष्ठभूमि के बड़ विस्तार से प्रस्तुत केने हिकै। ई हमरा ई समझ में मदद करै हइकै कि कैसे हुनक रचना हुनक जीवन और अनुभव से प्रभावित छल।
'सम्मानित साहित्यकार' के सबसे बड़ खूबी एकर शोधपूर्ण दृष्टिकोण हइकै। ई पुस्तक खाली एकटा सूचनात्मक ग्रंथ नै हइकै, बल्कि एकटा जीवंत दस्तावेज बनि गेल हइकै जे हमरा अतीत के गौरव से जोड़ै हइकै। ई पुस्तक साहित्य प्रेमी, शोधार्थी, छात्र और सामान्य पाठक लेल एकटा अत्यंत मूल्यवान और संग्रहणीय कृति हइकै।
सतरंग प्रकाशन, लखनऊ, द्वारा प्रकाशित ई पुस्तक (मूल्य ₹350) उन सभी लेल एकटा आवश्यक पठन हइकै जे बिहार के साहित्यिक विरासत के समझना चाहै हिकै।

മലയാളം (Malayalam)
'സമ്മാനിത് സാഹിത്യകാർ' - സാഹിത്യ പാരമ്പര്യത്തിന്റെ ഒരു ജീവിക്കുന്ന രേഖ
സത്യേന്ദ്ര കുമാർ പഥക് രചിച്ച 'സമ്മാനിത് സാഹിത്യകാർ' എന്ന പുസ്തകം ബീഹാറിലെ സമ്പന്നമായ സാഹിത്യ പശ്ചാത്തലത്തിന് സമർപ്പിച്ചിട്ടുള്ള ഒരു അദ്വിതീയവും പ്രധാനപ്പെട്ടതുമായ കൃതിയാണ്. ഇത് വെറും ഒരു ശേഖരം മാത്രമല്ല, മറിച്ച് തങ്ങളുടെ തൂലികയിലൂടെ സമൂഹത്തിന് വഴികാട്ടിയ മഹത്തായ എഴുത്തുകാർക്കും കവികൾക്കും നൽകുന്ന ആഴത്തിലുള്ള ആദരാഞ്ജലിയാണ്. ഈ കൃതി സാഹിത്യത്തെ വെറും വാക്കുകളുടെ കളിയായി കാണാതെ, മനുഷ്യ സംസ്കാരത്തിന്റെയും സമൂഹത്തിന്റെയും "കണ്ണുകൾ" ആയി കണക്കാക്കുന്നു, അതുവഴി അതിന്റെ ശാശ്വത പ്രാധാന്യം സ്ഥാപിക്കുന്നു.
ഈ പുസ്തകം ഹിന്ദി, മഗഹി, ബജ്ജിക, ഭോജ്പുരി, മൈഥിലി, അംഗിക തുടങ്ങിയ വിവിധ ഭാഷകളിലെ എഴുത്തുകാരുടെയും കവികളുടെയും ജീവചരിത്രം, അവരുടെ രചനകൾ, സംഭാവനകൾ എന്നിവയെക്കുറിച്ച് ആഴത്തിലുള്ള വിശകലനം നൽകുന്നു. ഈ സാഹിത്യകാരന്മാരുടെ വ്യക്തിജീവിതം, സാമൂഹിക പ്രതിബദ്ധതകൾ, വിദ്യാഭ്യാസം, സാംസ്കാരിക പശ്ചാത്തലം എന്നിവയെക്കുറിച്ച് ഗ്രന്ഥകാരൻ വിപുലമായി അവതരിപ്പിച്ചിരിക്കുന്നു. ഇത് അവരുടെ കൃതികൾ എങ്ങനെ അവരുടെ ജീവിതത്തിൽ നിന്നും അനുഭവങ്ങളിൽ നിന്നും പ്രചോദനം ഉൾക്കൊണ്ടുവെന്ന് മനസ്സിലാക്കാൻ നമ്മെ സഹായിക്കുന്നു.
'സമ്മാനിത് സാഹിത്യകാർ' എന്നതിന്റെ ഏറ്റവും വലിയ പ്രത്യേകത അതിന്റെ ഗവേഷണപരമായ സമീപനമാണ്. ഈ പുസ്തകം വെറുമൊരു വിവരഗ്രന്ഥം മാത്രമല്ല, ഭൂതകാലത്തിന്റെ മഹത്വവുമായി നമ്മെ ബന്ധിപ്പിക്കുന്ന ഒരു ജീവിക്കുന്ന രേഖയായി മാറിയിരിക്കുന്നു. സാഹിത്യപ്രേമികൾ, ഗവേഷകർ, വിദ്യാർത്ഥികൾ, സാധാരണ വായനക്കാർ എന്നിവർക്ക് ഇത് വളരെ മൂല്യവത്തായ ഒരു ശേഖരണീയ കൃതിയാണ്.
സത്‌രംഗ് പ്രകാഷൻ, ലഖ്‌നൗ, പ്രസിദ്ധീകരിച്ച ഈ പുസ്തകം (വില ₹350), ബീഹാറിന്റെ സാഹിത്യ പാരമ്പര്യം മനസ്സിലാക്കാൻ ആഗ്രഹിക്കുന്ന എല്ലാവർക്കും ഒരു അനിവാര്യമായ വായനയാണ്.

ಕನ್ನಡ (Kannada)
'ಸಮ್ಮಾನಿತ್ ಸಾಹಿತ್ಯಕಾರ್' - ಸಾಹಿತ್ಯಿಕ ಪರಂಪರೆಯ ಒಂದು ಜೀವಂತ ದಾಖಲೆ
ಸತ್ಯೇಂದ್ರ ಕುಮಾರ್ ಪಾಠಕ್ ಅವರು ಬರೆದ 'ಸಮ್ಮಾನಿತ್ ಸಾಹಿತ್ಯಕಾರ್' ಪುಸ್ತಕವು ಬಿಹಾರದ ಶ್ರೀಮಂತ ಸಾಹಿತ್ಯಿಕ ಪರಂಪರೆಗೆ ಸಮರ್ಪಿತವಾದ ಒಂದು ವಿಶಿಷ್ಟ ಮತ್ತು ಪ್ರಮುಖ ಕೃತಿಯಾಗಿದೆ. ಇದು ಕೇವಲ ಒಂದು ಸಂಗ್ರಹವಲ್ಲ, ಬದಲಾಗಿ ತಮ್ಮ ಲೇಖನಿಯ ಮೂಲಕ ಸಮಾಜಕ್ಕೆ ಮಾರ್ಗದರ್ಶನ ನೀಡಿದ ಮಹಾನ್ ಬರಹಗಾರರು ಮತ್ತು ಕವಿಗಳಿಗೆ ಆಳವಾದ ನಮನವಾಗಿದೆ. ಈ ಕೃತಿಯು ಸಾಹಿತ್ಯವನ್ನು ಕೇವಲ ಪದಗಳ ಆಟವೆಂದು ಪರಿಗಣಿಸದೆ, ಮಾನವ ಸಂಸ್ಕೃತಿ ಮತ್ತು ಸಮಾಜದ "ಕಣ್ಣುಗಳು" ಎಂದು ಪರಿಗಣಿಸುತ್ತದೆ, ಆ ಮೂಲಕ ಅದರ ಶಾಶ್ವತ ಮಹತ್ವವನ್ನು ಸ್ಥಾಪಿಸುತ್ತದೆ.
ಈ ಪುಸ್ತಕವು ಹಿಂದಿ, ಮಾಗಹಿ, ಬಜ್ಜಿಕ, ಭೋಜ್‌ಪುರಿ, ಮೈಥಿಲಿ ಮತ್ತು ಅಂಗಿಕಾದಂತಹ ವಿವಿಧ ಭಾಷೆಗಳ ಬರಹಗಾರರು ಮತ್ತು ಕವಿಗಳ ಜೀವನ ಪರಿಚಯ, ಅವರ ಕೃತಿಗಳು ಮತ್ತು ಅವರ ಕೊಡುಗೆಗಳ ಆಳವಾದ ವಿಶ್ಲೇಷಣೆಯನ್ನು ಒದಗಿಸುತ್ತದೆ. ಲೇಖಕ ಪಾಠಕ್ ಅವರು ಈ ಸಾಹಿತಿಗಳ ವೈಯಕ್ತಿಕ ಜೀವನ, ಅವರ ಸಾಮಾಜಿಕ ಬದ್ಧತೆಗಳು, ಅವರ ಶಿಕ್ಷಣ ಮತ್ತು ಸಾಂಸ್ಕೃತಿಕ ಹಿನ್ನೆಲೆಯನ್ನು ಬಹಳ ವಿವರವಾಗಿ ಪ್ರಸ್ತುತಪಡಿಸಿದ್ದಾರೆ.
'ಸಮ್ಮಾನಿತ್ ಸಾಹಿತ್ಯಕಾರ್' ನ ಅತಿದೊಡ್ಡ ವೈಶಿಷ್ಟ್ಯವೆಂದರೆ ಅದರ ಸಂಶೋಧನಾತ್ಮಕ ವಿಧಾನ. ಈ ಪುಸ್ತಕವು ಕೇವಲ ಒಂದು ಮಾಹಿತಿ ಗ್ರಂಥವಲ್ಲ, ಬದಲಾಗಿ ನಮ್ಮನ್ನು ಭೂತಕಾಲದ ವೈಭವದೊಂದಿಗೆ ಸಂಪರ್ಕಿಸುವ ಒಂದು ಜೀವಂತ ದಾಖಲೆಯಾಗಿ ಮಾರ್ಪಟ್ಟಿದೆ. ಇದು ಸಾಹಿತ್ಯ ಪ್ರಿಯರು, ಸಂಶೋಧಕರು, ವಿದ್ಯಾರ್ಥಿಗಳು ಮತ್ತು ಸಾಮಾನ್ಯ ಓದುಗರಿಗೆ ಅತ್ಯಂತ ಮೌಲ್ಯಯುತವಾದ ಮತ್ತು ಸಂಗ್ರಹ ಯೋಗ್ಯವಾದ ಕೃತಿಯಾಗಿದೆ.
ಸತರಂಗ್ ಪ್ರಕಾಶನ, ಲಕ್ನೋದಿಂದ ಪ್ರಕಟವಾದ ಈ ಪುಸ್ತಕ (ಬೆಲೆ ₹350) ಬಿಹಾರದ ಸಾಹಿತ್ಯಿಕ ಪರಂಪರೆಯನ್ನು ಅರ್ಥಮಾಡಿಕೊಳ್ಳಲು ಬಯಸುವ ಎಲ್ಲರಿಗೂ ಒಂದು ಅಗತ್ಯ ಓದು.

اُردو (Urdu)
'سَمّانِتْ ساہِتْیَہْکار' - ادبی ورثے کی ایک زندہ دستاویز

ستیندر کمار پاٹک کی لکھی ہوئی کتاب 'سَمّانِتْ ساہِتْیَہْکار' بہار کے بھرپور ادبی منظرنامے کے لیے وقف ایک منفرد اور اہم تصنیف ہے۔ یہ کتاب محض ایک مجموعہ نہیں ہے، بلکہ ان عظیم مصنفین اور شاعروں کے لیے ایک گہرا خراجِ تحسین ہے جنہوں نے اپنی قلم کے ذریعے معاشرے کو سمت دی۔ یہ کتاب ادب کو صرف الفاظ کا کھیل نہیں، بلکہ انسانی ثقافت اور معاشرے کی "آنکھیں" سمجھتی ہے، جو اس کی ابدی اہمیت کو قائم کرتی ہے۔

یہ کتاب ہندی، مگہی، بَجّیکَا، بھوجپوری، میتھلی اور اَن٘گِکَا جیسی مختلف زبانوں کے مصنفین اور شاعروں کی سوانح عمری، ان کی تخلیقات اور ان کے تعاون کا گہرا تجزیہ کرتی ہے۔ مصنف پاٹک نے ان ادیبوں کی ذاتی زندگی، ان کے سماجی عہد، ان کی تعلیم اور ثقافتی پس منظر کو بڑی تفصیل سے پیش کیا ہے۔ یہ ہمیں یہ سمجھنے میں مدد دیتا ہے کہ کس طرح ان کی تخلیقات ان کی زندگی اور تجربات سے متاثر تھیں۔

'سَمّانِتْ ساہِتْیَہْکار' کی سب سے بڑی خوبی اس کا تحقیقی نقطہ نظر ہے۔ یہ کتاب صرف ایک معلوماتی کتاب  ب ایک زندہ دستاویز بن گئی ہے جو ہمیں ماضی کے فخر سے جوڑتی ہے۔ یہ کتاب ادب سے محبت کرنے والوں، محققین، طلباء اور عام قارئین کے لیے ایک انتہائی قیمتی اور قابلِ جمع تصنیف ہے۔

سترنگ پرکاشن، لکھنؤ، کی طرف سے شائع ہونے والی یہ کتاب (قیمت ₹350) ان سب کے لیے ایک ضروری م ہ جو بہار کے ادبی ورثے کو سمجھنا چاہتے ہیں اور ان عظیم ہستیوں کے بارے میں جاننا چاہتے ہیں جنہوں نے اپنی قلم کی طاقت سے ایک بہتر دنیا کا خواب دیکھ
मराठी (Marathi)
'सम्मानित साहित्यकार' - साहित्यिक वारसाचा एक जिवंत दस्तऐवज
सत्येंद्र कुमार पाठक यांनी लिहिलेले 'सम्मानित साहित्यकार' हे पुस्तक बिहारच्या समृद्ध साहित्यिक वारशासाठी समर्पित एक अनोखी आणि महत्त्वाची कलाकृती आहे. हे पुस्तक केवळ एक संग्रह नाही, तर हे त्या महान लेखक आणि कवींप्रति एक गहन श्रद्धांजली आहे, ज्यांनी आपल्या लेखणीतून समाजाला दिशा दिली. ही कलाकृती साहित्याला केवळ शब्दांचा खेळ नाही, तर मानवी संस्कृती आणि समाजाचे "डोळे" मानते, जे त्याचे चिरंतन महत्त्व स्थापित करते.
हे पुस्तक हिंदी, मगही, बज्जिका, भोजपुरी, मैथिली आणि अंगिका यांसारख्या विविध भाषांमधील लेखक आणि कवींचे जीवन परिचय, त्यांच्या रचना आणि त्यांच्या योगदानाचे सखोल विश्लेषण करते. लेखक पाठक यांनी या साहित्यकारांचे वैयक्तिक जीवन, त्यांची सामाजिक बांधिलकी, त्यांचे शिक्षण आणि सांस्कृतिक पार्श्वभूमी सविस्तरपणे सादर केली आहे. हे आपल्याला हे समजून घेण्यास मदत करते की त्यांच्या रचना त्यांच्या जीवन आणि अनुभवांनी कशा प्रभावित झाल्या होत्या. लेखकाने या गोष्टीवर विशेष जोर दिला आहे की या विचारवंतांनी आपला प्राचीन वारसा कसा जपला आणि तो येणाऱ्या पिढ्यांपर्यंत पोहोचवण्याचा संकल्प केला. हे पुस्तक दर्शवते की साहित्यिक त्यांच्या सशक्त साहित्यिक चेतनेने समाजात सकारात्मक बदल कसे घडवून आणतात. ते त्यांच्या रचनांद्वारे जनतेला अन्यायाविरुद्ध आवाज उठवण्यासाठी प्रेरित करतात आणि एका समतावादी समाजाचा पाया घालतात.
'सम्मानित साहित्यकार'ची सर्वात मोठी खासियत म्हणजे त्याचा संशोधनात्मक दृष्टिकोन आहे. हे लेखक आणि त्यांच्या गहन संशोधनामुळेच शक्य झाले आहे, ज्यांनी या कलाकृतीला एक सुसंगत आणि प्रेरणादायक रूप देण्यात महत्त्वाची भूमिका बजावली. त्यांच्या गहन संशोधन आणि साहित्यिक अंतर्दृष्टीशिवाय, या साहित्यकारांचे जीवनवृत्त इतक्या सहजता, प्रामाणिकपणा आणि सखोलतेने सादर करणे शक्य नव्हते. हे पुस्तक केवळ एक माहितीपूर्ण ग्रंथ नाही, तर एक जिवंत दस्तऐवज बनले आहे जे आपल्याला भूतकाळाच्या वैभवाशी जोडते.
सम्मानित साहित्यकार वाचकांसाठी एक संग्रहणीय दस्तऐवज आहे. हे पुस्तक साहित्यप्रेमी, संशोधक, विद्यार्थी आणि सामान्य वाचकांसाठी एक अत्यंत मौल्यवान आणि संग्रहणीय कलाकृती आहे. हे केवळ वर्तमान पिढीला आपल्या महान साहित्यिकांच्या योगदानाची ओळख करून देत नाही, तर येणाऱ्या पिढ्यांनाही साहित्याचे महत्त्व समजून घेण्यासाठी आणि समाजाच्या उत्थानासाठी योगदान देण्यासाठी प्रेरित करते. एकूणच, 'सम्मानित साहित्यकार' हे बिहारच्या साहित्यिक इतिहासाला जतन करण्याचा एक कौतुकास्पद प्रयत्न आहे. हे सांगते की साहित्यिक समाजाचे मार्गदर्शक कसे असतात, जे आपल्या लेखणीने केवळ ज्ञानाचा प्रकाश पसरवत नाहीत, तर समाजात सकारात्मक बदलही घडवून आणतात.
सतरंग प्रकाशन, लखनऊ द्वारे प्रकाशित हे पुस्तक (किंमत ₹350) त्या सर्वांसाठी एक आवश्यक वाचन आहे ज्यांना बिहारचा साहित्यिक वारसा समजून घ्यायचा आहे आणि त्या महान आत्म्यांबद्दल जाणून घ्यायचे आहे ज्यांनी आपल्या लेखणीच्या सामर्थ्याने एका चांगल्या जगाचे स्वप्न पाहिले. हे पुस्तक निश्चितच आपल्या साहित्यिक सुगंधाने वाचकांना मंत्रमुग्ध करेल.

ओड़िया (Odia)
'ସମ୍ମାନିତ ସାହିତ୍ୟକାର' - ସାହିତ୍ୟିକ ଐତିହ୍ୟର ଏକ ଜୀବନ୍ତ ଦସ୍ତାବେଜ
ସତ୍ୟେନ୍ଦ୍ର କୁମାର ପାଠକଙ୍କ ଦ୍ୱାରା ଲିଖିତ 'ସମ୍ମାନିତ ସାହିତ୍ୟକାର' ପୁସ୍ତକ ବିହାରର ସମୃଦ୍ଧ ସାହିତ୍ୟିକ ପରିଦୃଶ୍ୟକୁ ସମର୍ପିତ ଏକ ଅନନ୍ୟ ଏବଂ ଗୁରୁତ୍ୱପୂର୍ଣ୍ଣ କୃତି ଅଟେ। ଏହି ପୁସ୍ତକ କେବଳ ଏକ ସଂଗ୍ରହ ନୁହେଁ, ବରଂ ଏହା ସେହି ମହାନ ଲେଖକ ଏବଂ କବିମାନଙ୍କ ପ୍ରତି ଏକ ଗଭୀର ଶ୍ରଦ୍ଧାଞ୍ଜଳି ଅଟେ, ଯେଉଁମାନେ ନିଜ କଲମ ମାଧ୍ୟମରେ ସମାଜକୁ ଦିଗଦର୍ଶନ ଦେଇଛନ୍ତି। ଏହି କୃତି ସାହିତ୍ୟକୁ କେବଳ ଶବ୍ଦର ଖେଳ ନୁହେଁ, ବରଂ ମାନବ ସଂସ୍କୃତି ଏବଂ ସମାଜର "ଆଖି" ଭାବରେ ବିବେଚନା କରେ, ଯାହା ଏହାର ଶାଶ୍ୱତ ମହତ୍ତ୍ୱକୁ ପ୍ରତିଷ୍ଠିତ କରେ।
ଏହି ପୁସ୍ତକ ହିନ୍ଦୀ, ମଗହୀ, ବଜ୍ଜିକା, ଭୋଜପୁରୀ, ମୈଥିଳୀ ଏବଂ ଅଙ୍ଗିକା ପରି ବିଭିନ୍ନ ଭାଷାର ଲେଖକ ଏବଂ କବିମାନଙ୍କ ଜୀବନୀ, ସେମାନଙ୍କ ରଚନା ଏବଂ ସେମାନଙ୍କ ଯୋଗଦାନର ଗଭୀର ବିଶ୍ଳେଷଣ କରେ। ଲେଖକ ପାଠକ ଏହି ସାହିତ୍ୟକାରମାନଙ୍କ ବ୍ୟକ୍ତିଗତ ଜୀବନ, ସେମାନଙ୍କ ସାମାଜିକ ପ୍ରତିବଦ୍ଧତା, ସେମାନଙ୍କ ଶିକ୍ଷା ଏବଂ ସାଂସ୍କୃତିକ ପୃଷ୍ଠଭୂମିକୁ ବିସ୍ତୃତ ଭାବରେ ଉପସ୍ଥାପନ କରିଛନ୍ତି। ଏହା ଆମକୁ ବୁଝିବାରେ ସାହାଯ୍ୟ କରେ ଯେ ସେମାନଙ୍କ ରଚନାଗୁଡ଼ିକ କିପରି ସେମାନଙ୍କ ଜୀବନ ଏବଂ ଅନୁଭୂତି ଦ୍ୱାରା ପ୍ରଭାବିତ ହୋଇଥିଲା। ଲେଖକ ଏହି କଥା ଉପରେ ବିଶେଷ ଗୁରୁତ୍ୱ ଦେଇଛନ୍ତି ଯେ ଏହି ମନୀଷୀମାନେ ନିଜର ପ୍ରାଚୀନ ଐତିହ୍ୟକୁ କିପରି ସଂରକ୍ଷିତ କରିଛନ୍ତି ଏବଂ ତାହାକୁ ଆଗାମୀ ପିଢ଼ି ପର୍ଯ୍ୟନ୍ତ ପହଞ୍ଚାଇବା ପାଇଁ ସଂକଳ୍ପ ନେଇଛନ୍ତି। ଏହି ପୁସ୍ତକ ଦର୍ଶାଏ ଯେ ସାହିତ୍ୟକାରମାନେ ନିଜର ଶକ୍ତିଶାଳୀ ସାହିତ୍ୟିକ ଚେତନାରୁ ସମାଜରେ ସକାରାତ୍ମକ ପରିବର୍ତ୍ତନ କିପରି ଆଣନ୍ତି। ସେମାନେ ନିଜ ରଚନା ମାଧ୍ୟମରେ ଜନତାଙ୍କୁ ଅନ୍ୟାୟ ବିରୁଦ୍ଧରେ ସ୍ୱର ଉତ୍ତୋଳନ କରିବାକୁ ପ୍ରେରିତ କରନ୍ତି ଏବଂ ଏକ ସମତାବାଦୀ ସମାଜର ମୂଳଦୁଆ ପକାନ୍ତି।
'ସମ୍ମାନିତ ସାହିତ୍ୟକାର'ର ସବୁଠାରୁ ବଡ଼ ଗୁଣ ହେଉଛି ଏହାର ଗବେଷଣାତ୍ମକ ଦୃଷ୍ଟିକୋଣ। ଯେଉଁମାନେ ଏହି କୃତିକୁ ଏକ ସୁସଙ୍ଗତ ଏବଂ ପ୍ରେରଣାଦାୟକ ରୂପ ଦେବାରେ ଗୁରୁତ୍ୱପୂର୍ଣ୍ଣ ଭୂମିକା ଗ୍ରହଣ କରିଛନ୍ତି। ସେମାନଙ୍କ ଗଭୀର ଗବେଷଣା ଏବଂ ସାହିତ୍ୟିକ ଅନ୍ତର୍ଦୃଷ୍ଟି ବିନା, ଏହି ସାହିତ୍ୟକାରମାନଙ୍କ ଜୀବନୀକୁ ଏତେ ସହଜତା, ପ୍ରାମାଣିକତା ଏବଂ ଗଭୀରତା ସହିତ ଉପସ୍ଥାପନ କରିବା ସମ୍ଭବ ନଥିଲା। ଏହି ପୁସ୍ତକ କେବଳ ଏକ ସୂଚନାତ୍ମକ ଗ୍ରନ୍ଥ ନୁହେଁ, ବରଂ ଏକ ଜୀବନ୍ତ ଦସ୍ତାବେଜ ପାଲଟିଛି ଯାହା ଆମକୁ ଅତୀତର ଗୌରବ ସହିତ ଯୋଡ଼ିଥାଏ।
ସମ୍ମାନିତ ସାହିତ୍ୟକାର ପାଠକମାନଙ୍କ ପାଇଁ ଏକ ସଂଗ୍ରହଯୋଗ୍ୟ ଦସ୍ତାବେଜ। ଏହି ପୁସ୍ତକ ସାହିତ୍ୟ ପ୍ରେମୀ, ଗବେଷକ, ଛାତ୍ର ଏବଂ ସାଧାରଣ ପାଠକମାନଙ୍କ ପାଇଁ ଏକ ଅତ୍ୟନ୍ତ ମୂଲ୍ୟବାନ ଏବଂ ସଂଗ୍ରହଯୋଗ୍ୟ କୃତି ଅଟେ। ଏହା କେବଳ ବର୍ତ୍ତମାନର ପିଢ଼ିକୁ ନିଜର ମହାନ ସାହିତ୍ୟକାରମାନଙ୍କ ଯୋଗଦାନ ବିଷୟରେ ପରିଚିତ କରାଏ ନାହିଁ, ବରଂ ଆଗାମୀ ପିଢ଼ିକୁ ମଧ୍ୟ ସାହିତ୍ୟର ମହତ୍ତ୍ୱ ବୁଝିବା ଏବଂ ସମାଜର ଉନ୍ନତି ପାଇଁ ଯୋଗଦାନ ଦେବାକୁ ପ୍ରେରିତ କରେ। ମୋଟାମୋଟି ଭାବରେ, 'ସମ୍ମାନିତ ସାହିତ୍ୟକାର' ବିହାରର ସାହିତ୍ୟିକ ଇତିହାସକୁ ସଂରକ୍ଷଣ କରିବାର ଏକ ପ୍ରଶଂସନୀୟ ପ୍ରୟାସ ଅଟେ। ଏହା କହେ ଯେ ସାହିତ୍ୟକାରମାନେ ସମାଜର ପଥ-ପ୍ରଦର୍ଶକ କିପରି ହୁଅନ୍ତି, ଯେଉଁମାନେ ନିଜ ଲେଖନୀରେ କେବଳ ଜ୍ଞାନର ଆଲୋକ ବିସ୍ତାର କରନ୍ତି ନାହିଁ, ବରଂ ସମାଜରେ ସକାରାତ୍ମକ ପରିବର୍ତ୍ତନ ମଧ୍ୟ ଆଣନ୍ତି।
ସତରଙ୍ଗ ପ୍ରକାଶନ, ଲକ୍ଷ୍ନୌ, ଦ୍ୱାରା ପ୍ରକାଶିତ ଏହି ପୁସ୍ତକ (ମୂଲ୍ୟ ₹350) ସେହି ସମସ୍ତଙ୍କ ପାଇଁ ଏକ ଅତ୍ୟାବଶ୍ୟକ ପଠନ, ଯେଉଁମାନେ ବିହାରର ସାହିତ୍ୟିକ ଐତିହ୍ୟକୁ ବୁଝିବାକୁ ଚାହାନ୍ତି ଏବଂ ସେହି ମହାନ ଆତ୍ମାମାନଙ୍କ ବିଷୟରେ ଜାଣିବାକୁ ଚାହାନ୍ତି, ଯେଉଁମାନେ ନିଜ କଲମର ଶକ୍ତିରେ ଏକ ଉତ୍ତମ ଦୁନିଆର ସ୍ୱପ୍ନ ଦେଖିଥିଲେ। ଏହି ପୁସ୍ତକ ନିଶ୍ଚିତ ଭାବରେ ନିଜ ସାହିତ୍ୟିକ ସୁଗନ୍ଧରେ ପାଠକମାନଙ୍କୁ ମନ୍ତ୍ରମୁଗ୍ଧ କରିବ।

रसियन (Russian)
'सम्मानित साहित्यकार' (Почтенный литератор) - Живой документ литературного наследия
Книга 'सम्मानित साहित्यकार', написанная Сатьендрой Кумаром Патхаком, является уникальным и важным произведением, посвященным богатому литературному ландшафту Бихара. Эта книга - не просто сборник, а глубокое уважение к тем великим писателям и поэтам, которые своей ручкой направили общество. Это произведение рассматривает литературу не просто как игру слов, а как "глаза" человеческой культуры и общества, что устанавливает ее вечную значимость.
Книга глубоко анализирует биографии, произведения и вклад писателей и поэтов на различных языках, таких как хинди, магхи, баджжика, бходжпури, майтхили и ангика. Автор Патхак подробно представил личную жизнь, социальные обязательства, образование и культурное происхождение этих литераторов. Это помогает нам понять, как их произведения были вдохновлены их жизнью и опытом. Автор особо подчеркнул, как эти мудрецы сохранили свое древнее наследие и решили передать его будущим поколениям. Эта книга показывает, как литераторы своей сильной литературной сознательностью приносят позитивные изменения в общество. Своими произведениями они вдохновляют людей поднимать голос против несправедливости и закладывают основу для равноправного общества.
Самое большое достоинство 'सम्मानित साहित्यकार' - это его исследовательский подход. Это стало возможным благодаря глубоким исследованиям автора, которые сыграли важную роль в придании этому произведению последовательного и вдохновляющего вида. Без их глубоких исследований и литературного проницательности было бы невозможно представить биографии этих литераторов с такой легкостью, подлинностью и глубиной. Эта книга стала не просто информативным текстом, а живым документом, который связывает нас со славой прошлого.
सम्मानित साहित्यकार' - это коллекционный документ для читателей. Эта книга является чрезвычайно ценным и коллекционным произведением для любителей литературы, исследователей, студентов и обычных читателей. Она не только знакомит нынешнее поколение с вкладом наших великих литераторов, но и вдохновляет будущие поколения понять важность литературы и внести свой вклад в развитие общества. В целом, 'सम्मानित साहित्यकार' - это похвальная попытка сохранить литературную историю Бихара. Она показывает, как литераторы являются проводниками общества, которые не только распространяют свет знаний своим письмом, но и приносят позитивные изменения в общество.
Эта книга (цена ₹350), опубликованная Сатранг Пракашан, Лакхнау, является обязательным чтением для всех, кто хочет понять литературное наследие Бихара и узнать о тех великих душах, которые своей ручкой мечтали о лучшем мире. Эта книга, несомненно, очарует читателей своим литературным ароматом.

चीनी (Chinese)
《受尊敬的文学家》—— 文学遗产的生动文献
由萨特延德拉·库马尔·帕塔克撰写的《受尊敬的文学家》是一部独特而重要的作品,致力于展现比哈尔邦丰富的文学景象。这本书不仅仅是一本合集,更是对那些通过笔尖为社会指明方向的伟大作家和诗人的一种深刻致敬。这部作品将文学视为人类文化和社会的“眼睛”,而不仅仅是文字游戏,从而确立了其永恒的价值。
这本书深入分析了印地语、马加希语、巴吉卡语、博杰普里语、迈蒂利语和安吉卡语等不同语言的作家和诗人的生平、作品和贡献。作者帕塔克详细介绍了这些文学家的个人生活、社会承诺、教育和文化背景。这帮助我们理解他们的作品是如何受到他们生活和经历的影响的。作者特别强调了这些智者如何保护他们的古老遗产,并决心将其传承给后代。这本书表明,文学家如何以其强大的文学意识为社会带来积极的变化。他们通过自己的作品,激励人们为反对不公正而发声,并为建立一个平等的社会奠定基础。
《受尊敬的文学家》最大的特点是其研究导向的方法。这得益于作者的深入研究,他在赋予这部作品连贯性和启发性方面发挥了重要作用。如果没有他的深入研究和文学洞察力,就不可能如此流畅、真实和深刻地呈现这些文学家的生平。这本书不仅仅是一部信息性的文献,而是一部生动的文献,将我们与过去的荣耀连接起来。
《受尊敬的文学家》是读者的一份珍贵收藏。这本书对于文学爱好者、研究人员、学生和普通读者来说,是一部极具价值和值得收藏的作品。它不仅让当代人了解我们伟大文学家的贡献,也激励后代理解文学的重要性,并为社会的进步做出贡献。总的来说,《受尊敬的文学家》是保存比哈尔邦文学史的一次值得称赞的尝试。它表明,文学家如何成为社会的向导,他们不仅通过写作传播知识之光,还为社会带来积极的变化。
由勒克瑙的萨特朗格出版社出版的这本书(定价 ₹350)是所有希望了解比哈尔邦文学遗产并了解那些通过笔的力量梦想一个更美好世界的伟大灵魂的人的必读之作。这本书一定会以其文学芬芳让读者陶醉。

तिब्बती (Tibetan)
'सम्मानित साहित्यकार' - རྩོམ་རིག་ཤུལ་བཞག་གི་གསོན་ཉམས་ལྡན་པའི་ཡིག་ཆ།
སེན་ཏེན་དྲ་ ཀུ་མར་ པ་ཐཀ་གིས་བརྩམས་པའི་ 'सम्मानित साहित्यकार' (དྲ་བར་བཀུར་བའི་རྩོམ་པ་པོ་) ཞེས་པའི་དཔེ་དེབ་འདི་ནི བིཧར་གྱི་ཕྱུག་པའི་རྩོམ་རིག་ཁོར་ཡུག་ལ་བརྟེན་པའི་དམིགས་བསལ་དང་གལ་ཆེའི་བརྩམས་ཆོས་ཤིག་ཡིན། དེབ་འདི་ནི་འདུ་སྒྲིག་ཙམ་མ་ཡིན་པར། རང་གི་སྨྱུག་ཁ་བརྒྱུད་ནས་སྤྱི་ཚོགས་ལ་ཕྱོགས་སྟོན་བྱེད་མཁན་གྱི་རྩོམ་པ་པོ་དང་སྙན་ངག་མཁན་རླབས་ཆེན་དེ་དག་ལ་གུས་འདུད་ཟབ་མོ་ཞིག་ཡིན། བརྩམས་ཆོས་འདི་ནི་རྩོམ་རིག་དེ་ཚིག་གི་རྩེད་མོ་ཙམ་མ་ཡིན་པར། མིའི་རིགས་ཀྱི་རིག་གནས་དང་སྤྱི་ཚོགས་ཀྱི་ "མིག་" ལྟ་བུ་ཡིན་པར་ངོས་འཛིན་བྱེད་པ་དང་། དེའི་གལ་ཆེའི་རང་བཞིན་བརྟན་པོར་གནས་ཡོད།
དེབ་འདི་ནི་ཧིན་དི་དང་། མ་ག་ཧི། བཛྫི་ཀ། བྷོ་ཇི་པུ་རི། མ་ཐི་ལི། ཨ་ངི་ཀ་སོགས་སྐད་ཡིག་སྣ་ཚོགས་ཀྱི་རྩོམ་པ་པོ་དང་སྙན་ངག་མཁན་གྱི་མི་ཚེའི་ལོ་རྒྱུས་དང་། ཁོང་ཚོའི་བརྩམས་ཆོས། ལེགས་སྐྱེས་བཅས་ལ་ཞིབ་འཇུག་ཟབ་མོ་བྱས་ཡོད། རྩོམ་པ་པོ་པ་ཐཀ་གིས་རྩོམ་པ་པོ་འདི་དག་གི་སྒེར་གྱི་མི་ཚེ་དང་། སྤྱི་ཚོགས་ཀྱི་འགན་ཁུར། སློབ་གསོ། རིག་གནས་ཀྱི་རྒྱབ་ལྗོངས་བཅས་ཞིབ་ཕྲ་ངོ་སྤྲོད་བྱས་ཡོད། དེས་ང་ཚོར་ཁོང་ཚོའི་བརྩམས་ཆོས་དེ་ཁོང་ཚོའི་མི་ཚེ་དང་ཉམས་མྱོང་གིས་ཇི་ལྟར་ཤུགས་རྐྱེན་ཐེབས་ཡོད་པར་གོ་རྟོགས་སྤར་བར་རོགས་རམ་བྱེད་ཀྱིན་ཡོད། རྩོམ་པ་པོ་གིས་ཤེས་རིག་ཅན་དེ་དག་གིས་རང་ཉིད་ཀྱི་གནའ་བོའི་ཤུལ་བཞག་ཇི་ལྟར་སྲུང་སྐྱོབ་བྱས་པ་དང་། མ་འོངས་པའི་མི་རབས་ལ་སྤྲོད་པར་དམ་བཅའ་བླངས་པར་དམིགས་བསལ་གྱི་དོ་སྣང་བྱས་ཡོད། དེབ་འདིས་རྩོམ་པ་པོ་དག་གིས་རང་ཉིད་ཀྱི་རྩོམ་རིག་གི་བསམ་བློ་ཤུགས་ཆེན་པོའི་ཐོག་ནས་སྤྱི་ཚོགས་ལ་ཕན་པའི་འགྱུར་བ་ཇི་ལྟར་སླེབས་པར་གསལ་སྟོན་བྱས་ཡོད། ཁོང་ཚོས་རང་ཉིད་ཀྱི་བརྩམས་ཆོས་བརྒྱུད་ནས་མི་མང་ལ་གཉའ་གནོན་ལ་ངོ་རྒོལ་བྱེད་པར་སྐད་འདོན་དུ་འཇུག་པ་དང་། འདྲ་མཉམ་གྱི་སྤྱི་ཚོགས་ཤིག་གི་རྨང་གཞི་འཛུགས་ཀྱིན་ཡོད། 'सम्मानित साहित्यकार' གྱི་ཁྱད་ཆོས་ཆེ་ཤོས་ནི་དེའི་ཞིབ་འཇུག་གི་ལྟ་སྟངས་ཡིན། འདིས་བརྩམས་ཆོས་འདི་ལ་འབྲེལ་ཆགས་པའི་རྣམ་པ་དང་སེམས་ཤུགས་སྤར་བའི་བཟོ་དབྱིབས་ཤིག་འདོན་པར་གལ་ཆེའི་ནུས་པ་བསྟན་པའི་རྩོམ་པ་པོ་དེའི་ཞིབ་འཇུག་ཟབ་མོ་ཡིན། ཁོང་གི་ཞིབ་འཇུག་ཟབ་མོ་དང་རྩོམ་རིག་གི་ཤེས་རབ་མེད་ན། རྩོམ་པ་པོ་འདི་དག་གི་མི་ཚེ་འདི་འདྲའི་སྟབས་བདེ་བ་དང་། ངོ་མ་། ཟབ་མོ་བཅས་ངོ་སྤྲོད་བྱེད་ཐབས་མེད། དེབ་འདི་ནི་གནས་ཚུལ་སྤྲོད་པའི་ཡིག་ཆ་ཙམ་མ་ཡིན་པར། ང་ཚོ་འདས་པའི་དུས་ཀྱི་རླབས་ཆེན་དང་འབྲེལ་བའི་གསོན་ཉམས་ལྡན་པའི་ཡིག་ཆ་ཞིག་ཏུ་གྱུར་ཡོད།
'सम्मानित साहित्यकार' ནི་ཀློག་པ་པོ་རྣམས་ལ་ཉར་འཇོག་བྱེད་འོས་པའི་ཡིག་ཆ་ཞིག་ཡིན། དེབ་འདི་ནི་རྩོམ་རིག་ལ་དགའ་མཁན་དང་། ཞིབ་འཇུག་བྱེད་མཁན། སློབ་མ་དང་ཀློག་པ་པོ་རྣམས་ལ་རིན་ཐང་ཆེ་བ་དང་ཉར་འཇོག་བྱེད་འོས་པའི་བརྩམས་ཆོས་ཤིག་ཡིན། དེས་ད་ལྟའི་མི་རབས་ལ་རང་ཉིད་ཀྱི་རྩོམ་པ་པོ་རླབས་ཆེན་དག་གི་ལེགས་སྐྱེས་ངོ་སྤྲོད་བྱེད་པ་ཙམ་མ་ཡིན་པར། མ་འོངས་པའི་མི་རབས་ལ་རྩོམ་རིག་གི་གལ་ཆེའི་རང་བཞིན་གོ་བ་དང་སྤྱི་ཚོགས་ཡར་རྒྱས་གཏོང་བར་ལེགས་སྐྱེས་འབུལ་བར་ཡང་སྐུལ་མ་བྱེད། སྤྱིར་བཏང་ནས་བཤད་ན། 'सम्मानित साहित्यकार' ནི་བི་ཧར་གྱི་རྩོམ་རིག་ལོ་རྒྱུས་ཉར་འཇོག་བྱེད་པའི་ཚད་མཐོའི་འབད་བརྩོན་ཞིག་ཡིན། དེས་རྩོམ་པ་པོ་དེ་དག་གིས་རང་ཉིད་ཀྱི་སྨྱུག་ཁ་བརྒྱུད་ནས་ཤེས་རིག་གི་འོད་སྣང་ཁྱབ་སྤེལ་བྱེད་པ་ཙམ་མ་ཡིན་པར། སྤྱི་ཚོགས་ལ་ཕན་པའི་འགྱུར་བ་ཇི་ལྟར་སླེབས་པར་གསལ་སྟོན་བྱས་ཡོད།
ལཀྣོའི་ Satrang Publication གྱིས་པར་སྐྲུན་བྱས་པའི་དཔེ་དེབ་འདི་ (གོང་ཚད་ ₹350) ནི་བི་ཧར་གྱི་རྩོམ་རིག་ཤུལ་བཞག་ལ་གོ་བ་ལོན་འདོད་ཡོད་པ་དང་། སྨྱུག་ཁའི་ནུས་པས་འཇིག་རྟེན་ཡག་རུ་ཞིག་གི་རྨི་ལམ་བཏང་བའི་བླ་སྲོག་རླབས་ཆེན་དེ་དག་ལ་རྒྱུས་ལོན་བྱེད་འདོད་ཡོད་མཁན་ཚང་མས་ཀློག་རྒྱུ་གལ་ཆེན་པོ་ཡིན། དེབ་འདིས་ངེས་པར་དུ་རང་ཉིད་ཀྱི་རྩོམ་རིག་གི་དྲི་ཞིམ་གྱིས་ཀློག་པ་པོ་རྣམས་དགའ་རུ་འཇུག་ངེས་ཡིན།

अमेरिकन (American) - English
'Honored Litterateurs' - A Living Document of Literary Heritage
Written by Satyendra Kumar Pathak, 'Honored Litterateurs' is a unique and important work dedicated to Bihar's rich literary landscape. This book is not just a collection; it's a profound tribute to the great writers and poets who guided society with their pens. This work considers literature not just a game of words, but the "eyes" of human culture and society, establishing its timeless importance.
The book delves into the biographies, works, and contributions of writers and poets in various languages like Hindi, Magahi, Bajjika, Bhojpuri, Maithili, and Angika. Author Pathak has extensively presented the personal lives, social commitments, education, and cultural backgrounds of these litterateurs. This helps us understand how their creations were influenced by their lives and experiences. The author places special emphasis on how these luminaries preserved their ancient heritage and took a vow to pass it on to future generations. The book shows how litterateurs bring positive change to society with their powerful literary consciousness. Through their works, they inspire the public to raise their voices against injustice and lay the foundation for an egalitarian society.
The greatest feature of 'Honored Litterateurs' is its research-oriented approach. This was made possible by the author's deep research, which played a significant role in giving the work a coherent and inspiring form. Without his profound research and literary insight, it would have been impossible to present the lives of these litterateurs with such ease, authenticity, and depth. This book has become not just an informative text but a living document that connects us with the glory of the past.
'Honored Litterateurs' is a collectible document for readers. This book is an extremely valuable and collectible work for literature lovers, researchers, students, and general readers. It not only introduces the current generation to the contributions of our great litterateurs but also inspires future generations to understand the importance of literature and contribute to the upliftment of society. Overall, 'Honored Litterateurs' is a commendable effort to preserve the literary history of Bihar. It shows how litterateurs are the torchbearers of society, who not only spread the light of knowledge with their writing but also bring positive change to society.
Published by Satrang Prakashan, Lucknow, this book (priced at ₹350) is an essential read for anyone who wants to understand the literary heritage of Bihar and learn about the great souls who dreamed of a better world with the power of their pen. This book will surely mesmerize readers with its literary fragrance.

जापानी (Japanese)
『名誉ある文学者』 - 文学遺産の生きたドキュメント
サティエンドラ・クマール・パタクによって書かれた『名誉ある文学者』(सम्मानित साहित्यकार)は、ビハール州の豊かな文学的景観に捧げられたユニークで重要な作品です。この本は単なるコレクションではなく、ペンを通じて社会を導いた偉大な作家や詩人たちへの深い敬意を表しています。この作品は文学を単なる言葉遊びではなく、人間文化と社会の「目」と見なし、その不朽の重要性を確立しています。
この本は、ヒンディー語、マガヒー語、バッジカー語、ボージュプリー語、マイティリー語、アンギカ語など、さまざまな言語の作家や詩人たちの伝記、作品、貢献を深く分析しています。著者パタクは、これらの文学者たちの個人的な生活、社会的コミットメント、教育、文化的背景を詳細に紹介しています。これにより、彼らの作品がどのように彼らの人生と経験に影響されたかを理解するのに役立ちます。著者は、これらの賢人たちが古代の遺産をどのように保護し、それを将来の世代に伝えることを誓ったかを特に強調しています。この本は、文学者がその強力な文学的意識を通じて、社会にどのようにして前向きな変化をもたらすかを示しています。彼らは自身の作品を通じて、人々に不正義に対して声を上げるよう鼓舞し、平等な社会の基盤を築きます。
『名誉ある文学者』の最大の特徴は、その研究志向のアプローチです。これは、この作品に一貫性があり、インスピレーションに満ちた形を与える上で重要な役割を果たした著者の深い研究によって可能になりました。彼の深い研究と文学的洞察がなければ、これらの文学者たちの生涯をこれほどまでに容易に、真正に、そして深く紹介することは不可能でした。この本は単なる情報的なテキストではなく、私たちを過去の栄光と結びつける生きたドキュメントとなっています。
『名誉ある文学者』は、読者のための収集価値のあるドキュメントです。この本は、文学愛好家、研究者、学生、そして一般の読者にとって、非常に価値があり、収集に値する作品です。それは、現在の世代に偉大な文学者たちの貢献を紹介するだけでなく、将来の世代にも文学の重要性を理解し、社会の向上に貢献するよう鼓舞します。全体として、『名誉ある文学者』は、ビハール州の文学史を保存するための称賛に値する試みです。それは、文学者がどのように社会の導き手であるかを示しており、彼らがその執筆を通じて知識の光を広めるだけでなく、社会に前向きな変化をもたらすことを教えています。
サトラン出版(ラクナウ)から出版されたこの本(価格350ルピー)は、ビハール州の文学遺産を理解し、ペンという力でより良い世界を夢見た偉大な魂たちについて知りたいと願うすべての人にとって必読です。この本は、その文学的な香りで読者をきっと魅了するでしょ

बुधवार, अगस्त 20, 2025

एकांकी : प्रकृति की पुकार

हिंदी: सिर्फ एक भाषा नहीं, हमारी पहचान और स्वाभिमान का प्रतीक
सत्येन्द्र कुमार पाठक
भारत की सांस्कृतिक और भाषाई विविधता के विशाल सागर में, हिंदी एक ऐसी सागर  है जो असंख्य धाराओं को समेटकर एकता का संदेश देती है। यह सिर्फ एक भाषा नहीं, बल्कि हमारी गौरवशाली परंपरा, समृद्ध इतिहास और सामूहिक पहचान का जीवंत प्रतीक है। जब हम 14 सितंबर को राष्ट्रीय हिंदी दिवस और 10 जनवरी को विश्व हिंदी दिवस मनाते हैं, तो हम केवल एक भाषा का सम्मान नहीं करते, बल्कि उस भावना का सम्मान करते हैं जिसने हमें विश्व पटल पर एक नई पहचान दी है। हिंदी सिर्फ हमारे राष्ट्र की राजभाषा नहीं, बल्कि विश्व की सबसे प्राचीन और समृद्ध भाषाओं में से एक है। इसकी सरलता और मिठास इसे दुनिया भर में लोकप्रिय बनाती है। स्वतंत्रता के बाद 14 सितंबर 1949 को संविधान सभा ने सर्वसम्मति से हिंदी को भारत की राजभाषा घोषित किया, जो हमारी एकता की भावना को दर्शाता है। इसी ऐतिहासिक निर्णय के सम्मान में हर साल 14 सितंबर को पूरा देश हिंदी दिवस मनाता है।
हिंदी का गौरवशाली इतिहास और उद्भव - हिंदी का सफर एक हजार वर्ष से भी पुराना है। इसका उद्भव अपभ्रंश की अंतिम अवस्था 'अवहट्ठ' से हुआ, जिसे चंद्रधर शर्मा गुलेरी ने 'पुरानी हिंदी' का नाम दिया। शौरसेनी और अर्धमागधी अपभ्रंशों से विकसित होकर, लगभग 1000 ईस्वी के आसपास हिंदी ने एक स्वतंत्र भाषा के रूप में अपना परिचय दिया। यह वह समय था जब साहित्यिक और जनभाषा के रूप में हिंदी अपनी पहचान बना रही थी।'हिंदी' शब्द का संबंध संस्कृत के 'सिंधु' शब्द से है। फारसी और ईरानी भाषा के प्रभाव से 'सिंधु' शब्द 'हिंदू', 'हिंदी' और 'हिंद' में बदल गया। धीरे-धीरे इस शब्द का अर्थ व्यापक होता गया और यह पूरे भारत का वाचक बन गया। यूनानी शब्द 'इन्दिका' और अंग्रेजी 'इंडिया' भी इसी 'हिंदीक' शब्द के विकसित रूप हैं। इस तरह, हिंदी सिर्फ एक भाषा का नाम नहीं, बल्कि भारत की पहचान का सार है। मध्यकाल में भक्ति और रीति काल के कवियों ने हिंदी को समृद्ध किया। तुलसीदास, सूरदास, कबीरदास, मीरा, रसखान और बिहारी जैसे महान कवियों की रचनाओं ने हिंदी को नई ऊंचाइयां दीं। आधुनिक काल में भारतेंदु हरिश्चंद्र, महावीर प्रसाद द्विवेदी, जयशंकर प्रसाद, रामधारी सिंह दिनकर, प्रेमचंद, हरिवंश राय बच्चन, महादेवी वर्मा और अन्य साहित्यकारों ने हिंदी को एक सशक्त और परिष्कृत रूप प्रदान किया। इन साहित्यकारों ने न केवल हिंदी साहित्य को समृद्ध किया, बल्कि स्वतंत्रता आंदोलन और सामाजिक चेतना में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। राजभाषा, राष्ट्रभाषा और संपर्क भाषा: हिंदी के विविध रूप - यह जानना महत्वपूर्ण है कि हिंदी को राष्ट्रभाषा का दर्जा नहीं मिला है, क्योंकि भारतीय संविधान में किसी भी भाषा को ऐसा दर्जा नहीं दिया गया है। हालाँकि, हिंदी संवैधानिक रूप से भारत की राजभाषा है और सबसे अधिक बोली और समझी जाने वाली भाषा है। इसके अलावा, हिंदी भारत की संपर्क भाषा भी है। यह विभिन्न भाषा-भाषियों के बीच विचार-विनिमय का एक सहज माध्यम है। जब एक तमिलभाषी और एक बंगालीभाषी व्यक्ति आपस में बात करते हैं, तो अक्सर हिंदी उनकी संवाद की कड़ी बनती है। यह हिंदी की शक्ति है कि यह पूरे देश को एक सूत्र में पिरोती है।राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने भी हिंदी के इस महत्व को समझा था। 1918 में इंदौर में हुए हिंदी साहित्य सम्मेलन की अध्यक्षता करते हुए उन्होंने कहा था कि 'राष्ट्रभाषा के बिना राष्ट्र गूंगा है' और हिंदी ही स्वराज्य की भाषा है। उनका मानना था कि एक समृद्ध देश में राष्ट्रभाषा, राजभाषा और संपर्क भाषा एक ही होनी चाहिए, और भारत के लिए यह भाषा हिंदी ही है।
हिंदी की वैश्विक पहचान और बढ़ती शक्ति - एक समय था जब हिंदी को सिर्फ भारत तक सीमित माना जाता था, लेकिन आज यह धारणा बदल गई है। चीनी के बाद, हिंदी विश्व की तीसरी सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषा है। एथनोलॉग की गणना के अनुसार, यह विश्व की तीसरी सर्वाधिक बोली जाने वाली भाषा है, जबकि विश्व आर्थिक मंच के अनुसार, यह विश्व की दस सबसे शक्तिशाली भाषाओं में से एक है। विदेशों में भी हिंदी का प्रभाव बढ़ रहा है। मॉरीशस, फिजी, गुयाना, सूरीनाम, नेपाल और संयुक्त अरब अमीरात जैसे देशों में बड़ी संख्या में लोग हिंदी बोलते हैं। हाल ही में, फरवरी 2019 में अबू धाबी में हिंदी को न्यायालय की तीसरी भाषा के रूप में मान्यता मिली, जो हिंदी की बढ़ती अंतरराष्ट्रीय प्रतिष्ठा का एक और प्रमाण है। दुनिया भर के लगभग 150 से अधिक विश्वविद्यालयों और सैकड़ों केंद्रों में हिंदी का अध्ययन-अध्यापन हो रहा है। बीबीसी, डॉयचे वेले, जापान के एनएचके वर्ल्ड और चाइना रेडियो इंटरनेशनल जैसी अंतरराष्ट्रीय मीडिया कंपनियां भी हिंदी में कार्यक्रम प्रसारित करती हैं। विश्व हिंदी सम्मेलनों का आयोजन और विश्व हिंदी सचिवालय की स्थापना (2008 में) जैसे प्रयास हिंदी को एक अंतरराष्ट्रीय भाषा के रूप में स्थापित करने के लिए किए गए हैं।
तकनीकी युग में हिंदी का बढ़ता प्रभाव - आज के डिजिटल युग में, हिंदी ने अपनी जगह मजबूती से बनाई है। कंप्यूटर, इंटरनेट, और मोबाइल फोन के आगमन से हिंदी के प्रयोग में क्रांति आ गई है। गूगल जैसे सर्च इंजन हिंदी को प्राथमिक भारतीय भाषा के रूप में पहचानते हैं, और 19 अगस्त 2009 को गूगल ने बताया कि हर 5 वर्षों में हिंदी की सामग्री में 94% की बढ़ोतरी हो रही है।
यूनिकोड के आगमन के बाद, हिंदी में टाइपिंग और लेखन बहुत आसान हो गया है। गूगल ट्रांसलेशन, ट्रांस्लिटरेशन और फोनेटिक टूल्स जैसी सेवाएं हिंदी को आम लोगों के लिए सुलभ बना रही हैं। फेसबुक, व्हाट्सएप और अन्य सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स पर हिंदी का उपयोग अभूतपूर्व रूप से बढ़ रहा है। सितंबर 2018 की एक अमेरिकी रिपोर्ट के अनुसार, सबसे अधिक पुनः ट्वीट किए गए 15 संदेशों में से 11 हिंदी के थे, जो हिंदी की सोशल मीडिया पर लोकप्रियता को दर्शाता है।
सिनेमा और विज्ञापन उद्योग में हिंदी का वर्चस्व - हिंदी सिनेमा, जिसे हम बॉलीवुड के नाम से जानते हैं, ने हिंदी को देश-विदेश में लोकप्रिय बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। हिंदी फिल्में और उनके गीत दुनिया के कोने-कोने तक पहुंच चुके हैं। इसी तरह, विज्ञापन उद्योग भी हिंदी को अपनी पसंदीदा भाषा बना रहा है। बड़े-बड़े ब्रांड्स अपने उत्पादों का प्रचार हिंदी में करते हैं क्योंकि वे जानते हैं कि भारत के अधिकांश उपभोक्ता हिंदी में ही संदेश को बेहतर ढंग से समझते हैं।आज, हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं का बाजार इतना बड़ा है कि अनेक वैश्विक कंपनियां अपने उत्पाद और वेबसाइटें हिंदी में उपलब्ध करा रही हैं। यह इस बात का प्रमाण है कि हिंदी केवल भावनात्मक या सांस्कृतिक भाषा नहीं, बल्कि एक शक्तिशाली आर्थिक भाषा भी है।
चुनौतियां और भविष्य - इन सभी सफलताओं के बावजूद, हिंदी को कुछ चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है। कुछ माता-पिता अपने बच्चों को अंग्रेजी माध्यम में पढ़ाना पसंद करते हैं और हिंदी पर उतना ध्यान नहीं देते। यह प्रवृत्ति हमारे समाज में एक विडंबना पैदा करती है, जहाँ हम हिंदी दिवस तो मनाते हैं, पर दैनिक जीवन में अंग्रेजी को अधिक महत्व देते हैं।इसके बावजूद, हिंदी का भविष्य उज्ज्वल है। डिजिटल क्रांति और युवा पीढ़ी की बढ़ती रुचि हिंदी को एक नई दिशा दे रही है। हमें गर्व होना चाहिए कि हमारी मातृभाषा, हमारी पहचान, अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर सम्मान और पहचान बना रही है। हिंदी दिवस हमें याद दिलाता है कि हिंदी सिर्फ एक दिन मनाने की भाषा नहीं, बल्कि हर दिन हमारी पहचान और स्वाभिमान का प्रतीक है। आइए, हम सब मिलकर हिंदी को सम्मान दें, उसे सीखें और उसका प्रचार करें। क्योंकि, जैसा कि महात्मा गांधी ने कहा था, "स्वराज्य के लिए हिंदी भाषा का होना बहुत जरूरी है।" और आज हम कह सकते हैं कि हिंदी हमारी स्वाभिमान और गर्व की भाषा है, जिसने हमें विश्व में एक नई पहचान दिलाई है।

हिंदी हमारी पहचान

हिंदी: सिर्फ एक भाषा नहीं, हमारी पहचान और स्वाभिमान का प्रतीक
सत्येन्द्र कुमार पाठक
भारत की सांस्कृतिक और भाषाई विविधता के विशाल सागर में, हिंदी एक ऐसी सागर  है जो असंख्य धाराओं को समेटकर एकता का संदेश देती है। यह सिर्फ एक भाषा नहीं, बल्कि हमारी गौरवशाली परंपरा, समृद्ध इतिहास और सामूहिक पहचान का जीवंत प्रतीक है। जब हम 14 सितंबर को राष्ट्रीय हिंदी दिवस और 10 जनवरी को विश्व हिंदी दिवस मनाते हैं, तो हम केवल एक भाषा का सम्मान नहीं करते, बल्कि उस भावना का सम्मान करते हैं जिसने हमें विश्व पटल पर एक नई पहचान दी है। हिंदी सिर्फ हमारे राष्ट्र की राजभाषा नहीं, बल्कि विश्व की सबसे प्राचीन और समृद्ध भाषाओं में से एक है। इसकी सरलता और मिठास इसे दुनिया भर में लोकप्रिय बनाती है। स्वतंत्रता के बाद 14 सितंबर 1949 को संविधान सभा ने सर्वसम्मति से हिंदी को भारत की राजभाषा घोषित किया, जो हमारी एकता की भावना को दर्शाता है। इसी ऐतिहासिक निर्णय के सम्मान में हर साल 14 सितंबर को पूरा देश हिंदी दिवस मनाता है।
हिंदी का गौरवशाली इतिहास और उद्भव - हिंदी का सफर एक हजार वर्ष से भी पुराना है। इसका उद्भव अपभ्रंश की अंतिम अवस्था 'अवहट्ठ' से हुआ, जिसे चंद्रधर शर्मा गुलेरी ने 'पुरानी हिंदी' का नाम दिया। शौरसेनी और अर्धमागधी अपभ्रंशों से विकसित होकर, लगभग 1000 ईस्वी के आसपास हिंदी ने एक स्वतंत्र भाषा के रूप में अपना परिचय दिया। यह वह समय था जब साहित्यिक और जनभाषा के रूप में हिंदी अपनी पहचान बना रही थी।'हिंदी' शब्द का संबंध संस्कृत के 'सिंधु' शब्द से है। फारसी और ईरानी भाषा के प्रभाव से 'सिंधु' शब्द 'हिंदू', 'हिंदी' और 'हिंद' में बदल गया। धीरे-धीरे इस शब्द का अर्थ व्यापक होता गया और यह पूरे भारत का वाचक बन गया। यूनानी शब्द 'इन्दिका' और अंग्रेजी 'इंडिया' भी इसी 'हिंदीक' शब्द के विकसित रूप हैं। इस तरह, हिंदी सिर्फ एक भाषा का नाम नहीं, बल्कि भारत की पहचान का सार है। मध्यकाल में भक्ति और रीति काल के कवियों ने हिंदी को समृद्ध किया। तुलसीदास, सूरदास, कबीरदास, मीरा, रसखान और बिहारी जैसे महान कवियों की रचनाओं ने हिंदी को नई ऊंचाइयां दीं। आधुनिक काल में भारतेंदु हरिश्चंद्र, महावीर प्रसाद द्विवेदी, जयशंकर प्रसाद, रामधारी सिंह दिनकर, प्रेमचंद, हरिवंश राय बच्चन, महादेवी वर्मा और अन्य साहित्यकारों ने हिंदी को एक सशक्त और परिष्कृत रूप प्रदान किया। इन साहित्यकारों ने न केवल हिंदी साहित्य को समृद्ध किया, बल्कि स्वतंत्रता आंदोलन और सामाजिक चेतना में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। राजभाषा, राष्ट्रभाषा और संपर्क भाषा: हिंदी के विविध रूप - यह जानना महत्वपूर्ण है कि हिंदी को राष्ट्रभाषा का दर्जा नहीं मिला है, क्योंकि भारतीय संविधान में किसी भी भाषा को ऐसा दर्जा नहीं दिया गया है। हालाँकि, हिंदी संवैधानिक रूप से भारत की राजभाषा है और सबसे अधिक बोली और समझी जाने वाली भाषा है। इसके अलावा, हिंदी भारत की संपर्क भाषा भी है। यह विभिन्न भाषा-भाषियों के बीच विचार-विनिमय का एक सहज माध्यम है। जब एक तमिलभाषी और एक बंगालीभाषी व्यक्ति आपस में बात करते हैं, तो अक्सर हिंदी उनकी संवाद की कड़ी बनती है। यह हिंदी की शक्ति है कि यह पूरे देश को एक सूत्र में पिरोती है।राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने भी हिंदी के इस महत्व को समझा था। 1918 में इंदौर में हुए हिंदी साहित्य सम्मेलन की अध्यक्षता करते हुए उन्होंने कहा था कि 'राष्ट्रभाषा के बिना राष्ट्र गूंगा है' और हिंदी ही स्वराज्य की भाषा है। उनका मानना था कि एक समृद्ध देश में राष्ट्रभाषा, राजभाषा और संपर्क भाषा एक ही होनी चाहिए, और भारत के लिए यह भाषा हिंदी ही है।
हिंदी की वैश्विक पहचान और बढ़ती शक्ति - एक समय था जब हिंदी को सिर्फ भारत तक सीमित माना जाता था, लेकिन आज यह धारणा बदल गई है। चीनी के बाद, हिंदी विश्व की तीसरी सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषा है। एथनोलॉग की गणना के अनुसार, यह विश्व की तीसरी सर्वाधिक बोली जाने वाली भाषा है, जबकि विश्व आर्थिक मंच के अनुसार, यह विश्व की दस सबसे शक्तिशाली भाषाओं में से एक है। विदेशों में भी हिंदी का प्रभाव बढ़ रहा है। मॉरीशस, फिजी, गुयाना, सूरीनाम, नेपाल और संयुक्त अरब अमीरात जैसे देशों में बड़ी संख्या में लोग हिंदी बोलते हैं। हाल ही में, फरवरी 2019 में अबू धाबी में हिंदी को न्यायालय की तीसरी भाषा के रूप में मान्यता मिली, जो हिंदी की बढ़ती अंतरराष्ट्रीय प्रतिष्ठा का एक और प्रमाण है। दुनिया भर के लगभग 150 से अधिक विश्वविद्यालयों और सैकड़ों केंद्रों में हिंदी का अध्ययन-अध्यापन हो रहा है। बीबीसी, डॉयचे वेले, जापान के एनएचके वर्ल्ड और चाइना रेडियो इंटरनेशनल जैसी अंतरराष्ट्रीय मीडिया कंपनियां भी हिंदी में कार्यक्रम प्रसारित करती हैं। विश्व हिंदी सम्मेलनों का आयोजन और विश्व हिंदी सचिवालय की स्थापना (2008 में) जैसे प्रयास हिंदी को एक अंतरराष्ट्रीय भाषा के रूप में स्थापित करने के लिए किए गए हैं।
तकनीकी युग में हिंदी का बढ़ता प्रभाव - आज के डिजिटल युग में, हिंदी ने अपनी जगह मजबूती से बनाई है। कंप्यूटर, इंटरनेट, और मोबाइल फोन के आगमन से हिंदी के प्रयोग में क्रांति आ गई है। गूगल जैसे सर्च इंजन हिंदी को प्राथमिक भारतीय भाषा के रूप में पहचानते हैं, और 19 अगस्त 2009 को गूगल ने बताया कि हर 5 वर्षों में हिंदी की सामग्री में 94% की बढ़ोतरी हो रही है।
यूनिकोड के आगमन के बाद, हिंदी में टाइपिंग और लेखन बहुत आसान हो गया है। गूगल ट्रांसलेशन, ट्रांस्लिटरेशन और फोनेटिक टूल्स जैसी सेवाएं हिंदी को आम लोगों के लिए सुलभ बना रही हैं। फेसबुक, व्हाट्सएप और अन्य सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स पर हिंदी का उपयोग अभूतपूर्व रूप से बढ़ रहा है। सितंबर 2018 की एक अमेरिकी रिपोर्ट के अनुसार, सबसे अधिक पुनः ट्वीट किए गए 15 संदेशों में से 11 हिंदी के थे, जो हिंदी की सोशल मीडिया पर लोकप्रियता को दर्शाता है।
सिनेमा और विज्ञापन उद्योग में हिंदी का वर्चस्व - हिंदी सिनेमा, जिसे हम बॉलीवुड के नाम से जानते हैं, ने हिंदी को देश-विदेश में लोकप्रिय बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। हिंदी फिल्में और उनके गीत दुनिया के कोने-कोने तक पहुंच चुके हैं। इसी तरह, विज्ञापन उद्योग भी हिंदी को अपनी पसंदीदा भाषा बना रहा है। बड़े-बड़े ब्रांड्स अपने उत्पादों का प्रचार हिंदी में करते हैं क्योंकि वे जानते हैं कि भारत के अधिकांश उपभोक्ता हिंदी में ही संदेश को बेहतर ढंग से समझते हैं।आज, हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं का बाजार इतना बड़ा है कि अनेक वैश्विक कंपनियां अपने उत्पाद और वेबसाइटें हिंदी में उपलब्ध करा रही हैं। यह इस बात का प्रमाण है कि हिंदी केवल भावनात्मक या सांस्कृतिक भाषा नहीं, बल्कि एक शक्तिशाली आर्थिक भाषा भी है।
चुनौतियां और भविष्य - इन सभी सफलताओं के बावजूद, हिंदी को कुछ चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है। कुछ माता-पिता अपने बच्चों को अंग्रेजी माध्यम में पढ़ाना पसंद करते हैं और हिंदी पर उतना ध्यान नहीं देते। यह प्रवृत्ति हमारे समाज में एक विडंबना पैदा करती है, जहाँ हम हिंदी दिवस तो मनाते हैं, पर दैनिक जीवन में अंग्रेजी को अधिक महत्व देते हैं।इसके बावजूद, हिंदी का भविष्य उज्ज्वल है। डिजिटल क्रांति और युवा पीढ़ी की बढ़ती रुचि हिंदी को एक नई दिशा दे रही है। हमें गर्व होना चाहिए कि हमारी मातृभाषा, हमारी पहचान, अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर सम्मान और पहचान बना रही है। हिंदी दिवस हमें याद दिलाता है कि हिंदी सिर्फ एक दिन मनाने की भाषा नहीं, बल्कि हर दिन हमारी पहचान और स्वाभिमान का प्रतीक है। आइए, हम सब मिलकर हिंदी को सम्मान दें, उसे सीखें और उसका प्रचार करें। क्योंकि, जैसा कि महात्मा गांधी ने कहा था, "स्वराज्य के लिए हिंदी भाषा का होना बहुत जरूरी है।" और आज हम कह सकते हैं कि हिंदी हमारी स्वाभिमान और गर्व की भाषा है, जिसने हमें विश्व में एक नई पहचान दिलाई है।


शिक्षक : ज्ञान का दीपक

अरवल जिला स्थापना दिवस 20 अगस्त 2025 के अवसर पर 
अरवल: प्राचीनता और आधुनिकता का संगम
सत्येन्द्र कुमार पाठक
बिहार के मगध क्षेत्र का एक महत्वपूर्ण हिस्सा, अरवल, सिर्फ एक जिला नहीं, बल्कि भारतीय इतिहास, साहित्य और संस्कृति का एक जीवंत दस्तावेज है। 20 अगस्त 2001 को जहानाबाद से अलग होकर गठित हुआ यह जिला अपने भीतर प्राचीन सभ्यताओं की कहानियाँ और आधुनिकता की झलकियाँ दोनों समेटे हुए है। 637 वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र में फैला यह भू-भाग 25:00 से 25:15 उत्तरी अक्षांश और 84:70 से 85:15 पूर्वी देशांतर पर स्थित है, जो पटना से 65 किलोमीटर और जहानाबाद से 35 किलोमीटर की दूरी पर है। यह आलेख अरवल के समृद्ध अतीत, धार्मिक विरासत, साहित्यिक योगदान, और आधुनिक विकास के विभिन्न पहलुओं पर प्रकाश डालता है।
अरवल की भूमि ने कई महान साहित्यकारों को जन्म दिया है, जिन्होंने मगही और हिंदी भाषाओं को समृद्ध किया। इस क्षेत्र का साहित्यिक इतिहास हर्षवर्धन के शासनकाल से जुड़ा है, जब संस्कृत के प्रसिद्ध गद्य लेखक बाण भट्ट (606 ई.) का संबंध यहाँ से था। उनकी अमर कृतियाँ, कादंबरी और हर्ष चरित, आज भी भारतीय साहित्य की धरोहर हैं। बाद के समय में, 1844 ई. में डिंगल भाषा के पंडित कमलेश की "कमलेश विलास" ने अरवल के साहित्यिक परिदृश्य को और भी समृद्ध किया।
19वीं सदी के अंत में, भाषाविद सर जॉर्ज अब्राहम ग्रियर्सन ने अपने 1894 से 1923 के सर्वेक्षण में मगही को बिहारी भाषाओं में एक प्रमुख स्थान दिया। स्वतंत्रता के बाद भी, यहाँ के साहित्यकारों ने इस परंपरा को जारी रखा। बेलखर के गंगा महाराज, आकोपुर के रामनरेश वर्मा, और बासताड़ के श्रीमोहन मिश्र ने संस्कृत और मगही के विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया। वहीं, फखरपुर के देवदत्त मिधर और तारादत्त मिश्र ने संस्कृत में कृष्ण भक्ति पर उत्कृष्ट रचनाएँ कीं। आधुनिक काल में, करपी के सत्येन्द्र कुमार पाठक ने 1981 में "मगध ज्योति" नामक साप्ताहिक पत्र का प्रकाशन शुरू कर पत्रकारिता के क्षेत्र में एक नई अलख जगाई।
अरवल की भूमि शैव, शाक्त, सौर, और वैष्णव जैसे विभिन्न धर्मों का संगम रही है। इन धर्मों के प्रमाण यहाँ के प्राचीन मंदिरों और पुरातात्विक स्थलों में स्पष्ट रूप से दिखाई देते हैं। करपी का जगदम्बा स्थान इसका सबसे महत्वपूर्ण उदाहरण है। यहाँ स्थापित माता जगदम्बा, शिव-पार्वती विहार, शिवलिंग और चतुर्भुज भगवान की मूर्तियाँ महाभारत कालीन मानी जाती हैं। किंवदंतियों के अनुसार, कारूष प्रदेश के राजा करूष ने कारूषी नगर की स्थापना की थी, जो बाद में शाक्त धर्म का एक प्रमुख केंद्र बना। यहाँ तक कि दिव्य ज्ञान योगिनी कुरंगी भी तंत्र-मंत्र की उपासना के लिए इस स्थान का उपयोग करती थीं। इसी कारण इस क्षेत्र में कई मठों का निर्माण हुआ, जिन्हें आज भी 'मठिया' के नाम से जाना जाता है। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण की स्थापना (1861) के बाद, करपी गढ़ की खुदाई में भूगर्भ में समाहित हो चुकी कई प्राचीन मूर्तियाँ बाहर निकाली गईं, जिन्हें बाद में करपी के निवासियों को समर्पित कर दिया गया। इन पुरातात्विक साक्ष्यों ने इस क्षेत्र की ऐतिहासिक महत्ता को और पुष्ट किया है। धार्मिक स्थलों की बात करें तो, मदसरवा (मधुश्रवा) का च्यवनेश्वर शिवलिंग, जिसे ऋषि च्यवन ने स्थापित किया था, और वधुश्रवा ऋषि द्वारा स्थापित वधुसरोवर यहाँ की आध्यात्मिक गहराई को दर्शाते हैं। इसके अलावा, पुनपुन नदी के तट पर स्थित कुरुवंशियों द्वारा स्थापित शिवलिंग, किंजर और लारी के शिवलिंग, और रामपुर चाय का पंचलिंगी शिवलिंग शैव धर्म की व्यापकता को प्रमाणित करते हैं। खटांगी और पंतित के सूर्य मंदिर सौर धर्म के अनुयायियों के लिए आस्था के केंद्र हैं, जहाँ भगवान सूर्य की प्राचीन मूर्तियाँ स्थापित हैं। अरवल का इतिहास केवल धार्मिक और साहित्यिक गतिविधियों तक ही सीमित नहीं है, बल्कि यह राजनीतिक और आर्थिक परिवर्तनों का भी गवाह रहा है। 1840 ई. में, स्पेनिश व्यापारी डॉन रांफैल सोलानो ने यहाँ इंडिगो (नील) फैक्ट्री की स्थापना की, जिसका मुख्यालय अरवल में था। यह फैक्ट्री व्यापार और उत्पादन के क्षेत्र में एक महत्वपूर्ण केंद्र बन गई थी। 1906 में अरवल यूनियन बोर्ड का गठन हुआ, जिसने 46 वर्गमील में फैले 180 गाँवों की सुरक्षा और विकास की जिम्मेदारी संभाली। स्वतंत्रता संग्राम में भी अरवल ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। मझियवां के किसान नेता पंडित यदुनंदन शर्मा ने किसान आंदोलन का नेतृत्व किया और "चिंगारी" और "लंकादहन" जैसे पत्रों का प्रकाशन कर लोगों में राष्ट्रीय चेतना जगाई। 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में खाभैनी के जीवधर सिंह का योगदान भी अविस्मरणीय है।
आध्यात्मिक और सामाजिक सौहार्द की मिसाल पेश करते हुए, सूफी संत शमसुद्दीन अहमद उर्फ शाह सुफैद सम्मन पिया अर्वली की मजार यहाँ सांप्रदायिक सद्भाव का प्रतीक है। 695 हिजरी संवत में अफगानिस्तान के कंतुर से आए इस संत की मजार सोन नदी के तट पर स्थित है, जहाँ सभी धर्मों के लोग श्रद्धा से आते हैं। 
अरवल का कुल क्षेत्रफल 637 वर्ग किलोमीटर है। 2001 में स्थापित इस जिले की प्रमुख भाषाएँ मगही और हिंदी हैं। यहाँ की साक्षरता दर 56.85 प्रतिशत है। जिले में पाँच प्रखंड (अरवल, कुर्था, कलेर, करपी, और सोनभद्र बंशी सूर्यपुर) और 65 पंचायतें हैं। 118222 मकानों में 648994 ग्रामीण और 51859 शहरी आबादी निवास करती है।
कृषि यहाँ का मुख्य पेशा है। कुल 49520.40 हेक्टेयर कृषि योग्य भूमि में से 33082.83 हेक्टेयर सिंचित है। सोन और पुनपुन नदियाँ यहाँ की कृषि के लिए जीवनदायिनी हैं। इन नदियों के अलावा, वैदिक काल की हिरण्यबाहू नदी के अवशेष भी यहाँ बहते हैं। चिकित्सा और शिक्षा के क्षेत्र में भी विकास हुआ है। अरवल और कुर्था विधानसभा क्षेत्रों में 21 प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र, 21 अतिरिक्त प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र और एक सदर अस्पताल है। शिक्षा के लिए गांधी पुस्तकालय (1934) और पंडित नेहरू पुस्तकालय जैसे संस्थान स्थापित हैं। अरवल एक ऐसा स्थान है जहाँ इतिहास की परतें वर्तमान से मिलती हैं। प्राचीन मंदिरों की दीवारों पर उकेरी गई कहानियाँ, साहित्यिक कृतियों में छिपा हुआ ज्ञान, और स्वतंत्रता संग्राम की लपटें—ये सब मिलकर इस जिले की अनूठी पहचान बनाते हैं। सत्येन्द्र कुमार पाठक, थॉर्नटोन्स गज़ेटियर, और ओ'मॉली जैसे इतिहासकारों और लेखकों के कार्यों में अरवल के प्राचीन गौरव की महत्वपूर्ण चर्चा मिलती है। यहाँ की भूमि पर द्वापर युग के ऋषि च्यवन, मधु, और यक्ष जैसे शासकों का कर्म और जन्म स्थल रहा है। दैत्यराज पुलोमा ने अपने नाम पर पुलोम राजधानी (वर्तमान बड़कागाँव) की स्थापना की थी, जो इस क्षेत्र के गहरे ऐतिहासिक संबंधों को दर्शाती है।
अरवल सिर्फ एक जिला नहीं, बल्कि एक विरासत है—एक ऐसी विरासत जो अपने अतीत का सम्मान करते हुए भविष्य की ओर अग्रसर है। यहाँ का हर कंकड़, हर मंदिर और हर कहानी इस बात का गवाह है कि अरवल सचमुच भारतीय संस्कृति और सभ्यता की एक महत्वपूर्ण कड़ी है।
करपी , अरवल , बिहार 804419
9472987491

अरवल स्थापना


अरवल: प्राचीनता और आधुनिकता का संगम
सत्येन्द्र कुमार पाठक
बिहार के मगध क्षेत्र का एक महत्वपूर्ण हिस्सा, अरवल, सिर्फ एक जिला नहीं, बल्कि भारतीय इतिहास, साहित्य और संस्कृति का एक जीवंत दस्तावेज है। 20 अगस्त 2001 को जहानाबाद से अलग होकर गठित हुआ यह जिला अपने भीतर प्राचीन सभ्यताओं की कहानियाँ और आधुनिकता की झलकियाँ दोनों समेटे हुए है। 637 वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र में फैला यह भू-भाग 25:00 से 25:15 उत्तरी अक्षांश और 84:70 से 85:15 पूर्वी देशांतर पर स्थित है, जो पटना से 65 किलोमीटर और जहानाबाद से 35 किलोमीटर की दूरी पर है। यह आलेख अरवल के समृद्ध अतीत, धार्मिक विरासत, साहित्यिक योगदान, और आधुनिक विकास के विभिन्न पहलुओं पर प्रकाश डालता है।
अरवल की भूमि ने कई महान साहित्यकारों को जन्म दिया है, जिन्होंने मगही और हिंदी भाषाओं को समृद्ध किया। इस क्षेत्र का साहित्यिक इतिहास हर्षवर्धन के शासनकाल से जुड़ा है, जब संस्कृत के प्रसिद्ध गद्य लेखक बाण भट्ट (606 ई.) का संबंध यहाँ से था। उनकी अमर कृतियाँ, कादंबरी और हर्ष चरित, आज भी भारतीय साहित्य की धरोहर हैं। बाद के समय में, 1844 ई. में डिंगल भाषा के पंडित कमलेश की "कमलेश विलास" ने अरवल के साहित्यिक परिदृश्य को और भी समृद्ध किया।
19वीं सदी के अंत में, भाषाविद सर जॉर्ज अब्राहम ग्रियर्सन ने अपने 1894 से 1923 के सर्वेक्षण में मगही को बिहारी भाषाओं में एक प्रमुख स्थान दिया। स्वतंत्रता के बाद भी, यहाँ के साहित्यकारों ने इस परंपरा को जारी रखा। बेलखर के गंगा महाराज, आकोपुर के रामनरेश वर्मा, और बासताड़ के श्रीमोहन मिश्र ने संस्कृत और मगही के विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया। वहीं, फखरपुर के देवदत्त मिधर और तारादत्त मिश्र ने संस्कृत में कृष्ण भक्ति पर उत्कृष्ट रचनाएँ कीं। आधुनिक काल में, करपी के सत्येन्द्र कुमार पाठक ने 1981 में "मगध ज्योति" नामक साप्ताहिक पत्र का प्रकाशन शुरू कर पत्रकारिता के क्षेत्र में एक नई अलख जगाई।
अरवल की भूमि शैव, शाक्त, सौर, और वैष्णव जैसे विभिन्न धर्मों का संगम रही है। इन धर्मों के प्रमाण यहाँ के प्राचीन मंदिरों और पुरातात्विक स्थलों में स्पष्ट रूप से दिखाई देते हैं। करपी का जगदम्बा स्थान इसका सबसे महत्वपूर्ण उदाहरण है। यहाँ स्थापित माता जगदम्बा, शिव-पार्वती विहार, शिवलिंग और चतुर्भुज भगवान की मूर्तियाँ महाभारत कालीन मानी जाती हैं। किंवदंतियों के अनुसार, कारूष प्रदेश के राजा करूष ने कारूषी नगर की स्थापना की थी, जो बाद में शाक्त धर्म का एक प्रमुख केंद्र बना। यहाँ तक कि दिव्य ज्ञान योगिनी कुरंगी भी तंत्र-मंत्र की उपासना के लिए इस स्थान का उपयोग करती थीं। इसी कारण इस क्षेत्र में कई मठों का निर्माण हुआ, जिन्हें आज भी 'मठिया' के नाम से जाना जाता है। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण की स्थापना (1861) के बाद, करपी गढ़ की खुदाई में भूगर्भ में समाहित हो चुकी कई प्राचीन मूर्तियाँ बाहर निकाली गईं, जिन्हें बाद में करपी के निवासियों को समर्पित कर दिया गया। इन पुरातात्विक साक्ष्यों ने इस क्षेत्र की ऐतिहासिक महत्ता को और पुष्ट किया है। धार्मिक स्थलों की बात करें तो, मदसरवा (मधुश्रवा) का च्यवनेश्वर शिवलिंग, जिसे ऋषि च्यवन ने स्थापित किया था, और वधुश्रवा ऋषि द्वारा स्थापित वधुसरोवर यहाँ की आध्यात्मिक गहराई को दर्शाते हैं। इसके अलावा, पुनपुन नदी के तट पर स्थित कुरुवंशियों द्वारा स्थापित शिवलिंग, किंजर और लारी के शिवलिंग, और रामपुर चाय का पंचलिंगी शिवलिंग शैव धर्म की व्यापकता को प्रमाणित करते हैं। खटांगी और पंतित के सूर्य मंदिर सौर धर्म के अनुयायियों के लिए आस्था के केंद्र हैं, जहाँ भगवान सूर्य की प्राचीन मूर्तियाँ स्थापित हैं। अरवल का इतिहास केवल धार्मिक और साहित्यिक गतिविधियों तक ही सीमित नहीं है, बल्कि यह राजनीतिक और आर्थिक परिवर्तनों का भी गवाह रहा है। 1840 ई. में, स्पेनिश व्यापारी डॉन रांफैल सोलानो ने यहाँ इंडिगो (नील) फैक्ट्री की स्थापना की, जिसका मुख्यालय अरवल में था। यह फैक्ट्री व्यापार और उत्पादन के क्षेत्र में एक महत्वपूर्ण केंद्र बन गई थी। 1906 में अरवल यूनियन बोर्ड का गठन हुआ, जिसने 46 वर्गमील में फैले 180 गाँवों की सुरक्षा और विकास की जिम्मेदारी संभाली। स्वतंत्रता संग्राम में भी अरवल ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। मझियवां के किसान नेता पंडित यदुनंदन शर्मा ने किसान आंदोलन का नेतृत्व किया और "चिंगारी" और "लंकादहन" जैसे पत्रों का प्रकाशन कर लोगों में राष्ट्रीय चेतना जगाई। 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में खाभैनी के जीवधर सिंह का योगदान भी अविस्मरणीय है।
आध्यात्मिक और सामाजिक सौहार्द की मिसाल पेश करते हुए, सूफी संत शमसुद्दीन अहमद उर्फ शाह सुफैद सम्मन पिया अर्वली की मजार यहाँ सांप्रदायिक सद्भाव का प्रतीक है। 695 हिजरी संवत में अफगानिस्तान के कंतुर से आए इस संत की मजार सोन नदी के तट पर स्थित है, जहाँ सभी धर्मों के लोग श्रद्धा से आते हैं। 
अरवल का कुल क्षेत्रफल 637 वर्ग किलोमीटर है। 2001 में स्थापित इस जिले की प्रमुख भाषाएँ मगही और हिंदी हैं। यहाँ की साक्षरता दर 56.85 प्रतिशत है। जिले में पाँच प्रखंड (अरवल, कुर्था, कलेर, करपी, और सोनभद्र बंशी सूर्यपुर) और 65 पंचायतें हैं। 118222 मकानों में 648994 ग्रामीण और 51859 शहरी आबादी निवास करती है।
कृषि यहाँ का मुख्य पेशा है। कुल 49520.40 हेक्टेयर कृषि योग्य भूमि में से 33082.83 हेक्टेयर सिंचित है। सोन और पुनपुन नदियाँ यहाँ की कृषि के लिए जीवनदायिनी हैं। इन नदियों के अलावा, वैदिक काल की हिरण्यबाहू नदी के अवशेष भी यहाँ बहते हैं। चिकित्सा और शिक्षा के क्षेत्र में भी विकास हुआ है। अरवल और कुर्था विधानसभा क्षेत्रों में 21 प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र, 21 अतिरिक्त प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र और एक सदर अस्पताल है। शिक्षा के लिए गांधी पुस्तकालय (1934) और पंडित नेहरू पुस्तकालय जैसे संस्थान स्थापित हैं। अरवल एक ऐसा स्थान है जहाँ इतिहास की परतें वर्तमान से मिलती हैं। प्राचीन मंदिरों की दीवारों पर उकेरी गई कहानियाँ, साहित्यिक कृतियों में छिपा हुआ ज्ञान, और स्वतंत्रता संग्राम की लपटें—ये सब मिलकर इस जिले की अनूठी पहचान बनाते हैं। सत्येन्द्र कुमार पाठक, थॉर्नटोन्स गज़ेटियर, और ओ'मॉली जैसे इतिहासकारों और लेखकों के कार्यों में अरवल के प्राचीन गौरव की महत्वपूर्ण चर्चा मिलती है। यहाँ की भूमि पर द्वापर युग के ऋषि च्यवन, मधु, और यक्ष जैसे शासकों का कर्म और जन्म स्थल रहा है। दैत्यराज पुलोमा ने अपने नाम पर पुलोम राजधानी (वर्तमान बड़कागाँव) की स्थापना की थी, जो इस क्षेत्र के गहरे ऐतिहासिक संबंधों को दर्शाती है।
अरवल सिर्फ एक जिला नहीं, बल्कि एक विरासत है—एक ऐसी विरासत जो अपने अतीत का सम्मान करते हुए भविष्य की ओर अग्रसर है। यहाँ का हर कंकड़, हर मंदिर और हर कहानी इस बात का गवाह है कि अरवल सचमुच भारतीय संस्कृति और सभ्यता की एक महत्वपूर्ण कड़ी है।
करपी , अरवल , बिहार 804419
9472987491