शुक्रवार, दिसंबर 12, 2025

गणपति , बुध और बुधवार का महासमन्वय

बुद्धि, वाणी और व्यापार का महासंगम: बुधवार, बुध और गणपति
सत्येन्द्र कुमार पाठक 
भारतीय सनातन धर्म और ज्योतिष शास्त्र में, सप्ताह के प्रत्येक दिन का अपना विशिष्ट महत्व है, जो किसी न किसी ग्रह या देवता को समर्पित होता है। इन्हीं में से एक है बुधवार, जिसे न केवल ग्रहों के राजकुमार बुध (Mercury) को समर्पित माना जाता है, बल्कि यह प्रथम पूज्य भगवान गणेश की आराधना के लिए भी सर्वश्रेष्ठ दिवस है। बुद्धि, विवेक, संचार और व्यापार के कारक बुध और ज्ञान के देवता गणपति का यह अनूठा संगम, इस दिन की गई पूजा-अर्चना को अक्षय फलदायी बना देता है।  बुधवार की पौराणिक पृष्ठभूमि, ज्योतिषीय महत्व और धार्मिक अनुष्ठानों का विस्तृत विश्लेषण करता है, यह बताता है कि यह दिवस भक्तों के लिए ज्ञान, समृद्धि और विघ्न-निवारण का द्वार कैसे खोलता है। बुधवार का पौराणिक जन्म और वैवश्वत मन्वन्तर का संबंध - बुधवार की उत्पत्ति की कथा सीधे तौर पर ज्योतिषीय गणनाओं और पौराणिक आख्यानों से जुड़ी है। बुध ग्रह का नामकरण और दिवस समर्पण सीधे बुध ग्रह से संबंधित है। पुराणों के अनुसार, बुध देव चंद्रमा (चंद्र देव/सोम) और देवगुरु बृहस्पति की पत्नी तारा के पुत्र हैं। बुध को अपनी बुद्धि, चपलता और तीव्र गति के कारण 'ग्रहों के राजकुमार' की उपाधि मिली है। वैवश्वत मनु और इला का संदर्भ पुराणों के अनुसार, बुधवार का संबंध वैवश्वत मन्वन्तर की पौराणिक गाथा से भी जुड़ा है। इसी मन्वन्तर में, सप्तम मनु वैवश्वत के अनुरोध पर मित्र और वरुण की सहायता से उत्पन्न पुत्री इला के पति बृहस्तपति एवं चंद्रमा एवं तारा  के पुत्र बुध को यह दिवस समर्पित किया गया। बुध को मगध देश का राजा माना गया है, और वे राशिचक्र में मिथुन तथा कन्या राशि के स्वामी हैं। यह ऐतिहासिक और ज्योतिषीय जुड़ाव बुधवार के महत्व को और भी अधिक गहरा करता है।
 गणेश पुराण में बुधवार का समर्पण बुधवार को भगवान गणेश की पूजा का विधान क्यों है, इसका सबसे मार्मिक और पुष्ट आधार गणेश पुराण की कथा में मिलता है: जब माता पार्वती ने कैलाश पर्वत पर अपने पुत्र गणेश जी को अद्भुत रूप में प्रकट किया, तब सभी देवी-देवता और नवग्रह उनके दर्शन के लिए पधारे। उन उपस्थित देवगणों में बुध देव भी शामिल थे। बालक गणेश के दिव्य रूप, उनकी बुद्धि की तीक्ष्णता और ज्ञान के तेज को देखकर बुध देव अत्यंत अभिभूत हो गए। अपनी इस परम प्रसन्नता को व्यक्त करते हुए, बुध देव ने तत्काल यह घोषणा की कि उनका प्रिय दिवस, बुधवार, अब से भगवान गणेश को समर्पित होगा। बुध देव ने यह वरदान दिया कि जो भक्त बुधवार के दिन गणेश जी की सच्चे मन से पूजा करेगा, उसे बुध ग्रह से संबंधित सभी शुभ फल प्राप्त होंगे, और विघ्नहर्ता उसके सभी संकट दूर करेंगे। इसी समर्पण के कारण बुधवार को गणेश जी की पूजा करने का विधान बना और यह दिन ज्ञान, वाणी और व्यापार के लिए विशेष फलदायी हो गया। ज्योतिष शास्त्र में, बुध ग्रह और भगवान गणेश दोनों का कारकत्व (प्रतिनिधित्व करने वाला गुण) पूरी तरह से एक-दूसरे से मेल खाता है। इसी कारण, बुधवार को इन दोनों की पूजा करना 'सोने पर सुहागा' के समान माना जाता है। कारकत्व बुध ग्रह (ग्रहों के राजकुमार) भगवान गणेश (बुद्धि के देवता) बुद्धि बुद्धि, विवेक, तर्क, विश्लेषण क्षमता और हास्य-बोध का प्रतिनिधित्व। स्वयं बुद्धि और ज्ञान के शाश्वत देवता। वाणी/संचार व्यक्ति की वाणी की मधुरता, संवाद कौशल, लेखन और पत्रकारिता का कारक। विघ्नहर्ता होने के कारण, वाणी और संचार में आने वाली सभी बाधाओं का निवारण करते हैं। व्यापार वाणिज्य, व्यापार, लेखा-जोखा और वित्तीय सौदों का नियामक। रिद्धि और सिद्धि (समृद्धि और सफलता) के स्वामी होने के कारण व्यापार में वृद्धि करते हैं। ज्योतिष में, यदि जन्म कुंडली में बुध ग्रह पीड़ित या कमजोर होता है, तो व्यक्ति को वाणी दोष (हकलाना), व्यापार में घाटा, कमजोर याददाश्त और मानसिक अस्थिरता जैसी समस्याओं का सामना करना पड़ता है। इसे ही बुध दोष कहते हैं। भगवान गणेश विद्या और विवेक के देवता हैं, और वे समस्त ग्रहों के स्वामी व विघ्नहर्ता भी हैं, इसलिए बुधवार को उनकी आराधना करने से बुध देव प्रसन्न होते हैं। इससे बुध दोष शांत होता है, बुद्धि-ज्ञान बढ़ता है और जीवन में आने वाली बाधाएं दूर होती हैं।
बुधवार के दिन की गई गणेश आराधना निम्नलिखित क्षेत्रों में विशेष फलदायी सिद्ध होती है: ज्ञान और करियर में उत्थान: यह दिन छात्रों, शिक्षकों, वकीलों और लेखकों के लिए अत्यंत शुभ है। पूजा से बुध की कृपा प्राप्त होती है, जिससे स्मरण शक्ति और एकाग्रता बढ़ती है, और शिक्षा तथा प्रतियोगिता में सफलता मिलती है। जिन लोगों को व्यापार में लगातार हानि हो रही है या पैसों की किल्लत है, उन्हें बुधवार का व्रत और पूजा अवश्य करनी चाहिए। बुध को मजबूत करने से व्यापार में तेजी आती है और धन-धान्य की वर्षा होती है। समस्त बाधाओं का निवारण: गणपति की कृपा से जीवन की सभी प्रकार की आर्थिक, शारीरिक और मानसिक बाधाएँ दूर होती हैं। बुधवार की पूजा केवल बुध दोष ही नहीं, बल्कि राहु और केतु जैसे क्रूर ग्रहों से संबंधित समस्याओं के निवारण के लिए भी प्रभावी मानी जाती है, क्योंकि गणेश जी विघ्नहर्ता हैं।बुधवार के दिन अधिकतम लाभ प्राप्त करने के लिए निम्नलिखित उपाय करने चाहिए: भगवान गणेश को दूर्वा घास (चूँकि दूर्वा घास हरे रंग की होती है, यह बुध ग्रह को भी प्रिय है) और सिंदूर अर्पित करें। उन्हें मोदक या गुड़-धनिया का भोग लगाएं।
मंत्र जाप: बुध ग्रह की शांति और बुद्धि वृद्धि के लिए: "ॐ बुं बुधाय नमः"। बाधा निवारण और शुभता के लिए: "ॐ गं गणपतये नमः"।किसी भी मंत्र का कम से कम एक माला (108 बार) जाप करना चाहिए। इस दिन हरी वस्तुओं जैसे हरी मूंग दाल (सबूत), हरी सब्जियां, हरे वस्त्र या हरे रंग की चूड़ियां (महिलाओं को) दान करना अत्यंत शुभ माना जाता है। इससे बुध देव की प्रसन्नता प्राप्त होती है। यदि संभव हो तो बुधवार के दिन हरे रंग के वस्त्र धारण करें, इससे सकारात्मक ऊर्जा का संचार होता है। बुधवार का दिन केवल एक खगोलीय घटना नहीं है, बल्कि यह वह आध्यात्मिक ऊर्जा का केंद्र है जहाँ बुद्धि और विवेक के देव गणेश अपने सबसे शक्तिशाली स्वरूप में विराजमान रहते हैं। बुध ग्रह और गणपति का यह अटूट संबंध इस दिवस को विद्या, वाणी, ज्ञान और व्यापार में सफलता प्राप्त करने का महावरदान प्रदान करता है। जो भक्त बुधवार को सच्ची श्रद्धा से गणेश जी की पूजा करते हैं, उनके जीवन से बुध दोष दूर होता है, मानसिक शांति मिलती है और हर क्षेत्र में सफलता और सौभाग्य के मार्ग खुलते हैं। यह दिन हमें याद दिलाता है कि जीवन में सफलता प्राप्त करने के लिए भौतिक व्यापार (बुध) और आध्यात्मिक ज्ञान (गणेश) दोनों का संतुलन आवश्यक है।

गुरुवार, दिसंबर 11, 2025

संस्कार , संस्कृति और सभ्यता

संस्कार से सभ्यता तक: भारत की शिक्षा और संस्कृति
सत्येन्द्र कुमार पाठक 
मानव समाज की प्रगति केवल गगनचुंबी इमारतों या तकनीकी आविष्कारों से नहीं मापी जाती, बल्कि यह इस बात पर निर्भर करती है कि उस समाज के नागरिक कितने संस्कारवान, अनुशासित और नैतिक हैं। भारतीय मनीषियों ने इस तथ्य को सहस्राब्दियों पूर्व ही पहचान लिया था और संस्कार, संस्कृति और सभ्यता को एक दूसरे से अभिन्न रूप से जोड़कर एक ऐसी जीवन प्रणाली विकसित की जो कालातीत है। आज, जब भौतिकवाद और त्वरित प्रगति की होड़ में हमारी नैतिक और सांस्कृतिक जड़ें कमजोर पड़ रही हैं, तब यह आवश्यक हो जाता है कि हम अपनी शिक्षा प्रणाली को पुनर्जीवित करें। राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 इसी दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है, जो हमारी प्राचीन शिक्षा प्रणाली—विशेषकर गुरुकुल—के सिद्धांतों को आधुनिक संदर्भ में स्थापित करने का प्रयास है। त्रिवेणी का सिद्धांत में संस्कार, संस्कृति और सभ्यता अवधारणाएँ एक-दूसरे को पोषित कर तत्व अर्थ कार्य और पहचान शिक्षा में संबंध बनाती है।
संस्कार आंतरिक शुद्धि और परिष्करण की प्रक्रिया ( 16 संस्कार)। व्यक्ति को विवेकशील, नैतिक और कर्तव्यनिष्ठ बनाना। बीज: चरित्र निर्माण का आधार।संस्कृति समाज के सोचने, महसूस करने और व्यवहार करने का सामूहिक तरीका। समाज की पहचान, मूल्य और जीवनशैली का सार। पौधा: संस्कारों को पोषित करने वाली जीवनशैली। सभ्यता संस्कृति का भौतिक और बाहरी प्रकटीकरण; उन्नत समाज की उपलब्धियाँ (तकनीक, वास्तुकला)। समाज की भौतिक प्रगति और विकास को दर्शाना। वृक्ष/फल: संस्कृति का परिणाम है। संस्कार व्यक्ति के अंदर नैतिकता का बीज बोते हैं, जिससे संस्कृति रूपी पौधा पल्लवित होता है। यही संस्कृति, अंततः सभ्यता रूपी विशाल वृक्ष के रूप में फलती-फूलती है। संस्कृति हमें बताती है कि 'हम क्या हैं' (आंतरिक स्थिति), जबकि सभ्यता बताती है कि 'हमारे पास क्या है' (बाहरी उपलब्धि) है।
संरक्षण और संवर्धन का माध्यम शिक्षा में संस्कार , संस्कृति और सभ्यता  को संरक्षित और संवर्धित करता है। शिक्षा केवल ज्ञान देना नहीं, बल्कि जीवन जीने की कला सिखाना है।1. संस्कारों का पोषण शिक्षा का प्राथमिक कार्य उत्तम आचरण और व्यवहार सिखाना है। पाठ्यक्रम में नैतिक शिक्षा, मानवीय मूल्यों और सामाजिक दायित्वों को शामिल करके छात्रों में विनम्रता, आदर, और सत्यनिष्ठा जैसे संस्कार विकसित किए जाते हैं। सेवा परियोजनाओं और सामुदायिक जुड़ाव के माध्यम से ये नैतिक मूल्य केवल सैद्धांतिक न रहकर, व्यावहारिक रूप से जीवन का हिस्सा बनते हैं। संस्कृति का संचार में  शिक्षा हमारी समृद्ध सांस्कृतिक विरासत, ज्ञान परंपराओं, कलाओं और भाषाओं को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक पहुँचाती है। साहित्य, कला-एकीकृत शिक्षा और भारतीय भाषाओं के अध्ययन के माध्यम से छात्र अपनी जड़ों से जुड़ते हैं। यह जुड़ाव उन्हें वैश्विक मंच पर आत्मविश्वास के साथ अपनी पहचान बनाए रखने में सक्षम बनाता है। 3. सभ्यता का मार्गदर्शन:शिक्षा वैज्ञानिक ज्ञान, तकनीकी कौशल और आलोचनात्मक चिंतन प्रदान करती है, जो सभ्यता की भौतिक प्रगति के लिए आवश्यक है। साथ ही, यह नैतिक और सतत विकास सुनिश्चित करने के लिए तकनीकी शिक्षा में एथिक्स, सामाजिक जिम्मेदारी और पर्यावरण चेतना को भी शामिल करती है।
 प्राचीन आदर्शों की आधुनिक अभिव्यक्ति राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 शिक्षा को भारतीय मूल्यों के साथ पुनर्संयोजित करने का सबसे बड़ा प्रयास है।
राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 का मातृभाषा/ क्षेत्रीय  भाषा में शिक्षा पर जोर सांस्कृतिक संरक्षण का एक महत्वपूर्ण कदम है। मातृभाषा में शिक्षा से छात्र संज्ञानात्मक रूप से बेहतर सीखते हैं, जटिल विचारों को तेजी से समझते हैं, और भावनात्मक रूप से सुरक्षित महसूस करते हैं। मातृभाषा  सीधे तौर पर उनकी संस्कृति और संस्कारों को उनके मन में आत्मसात करने में सहायक होता है। भारतीय ज्ञान प्रणाली नीति में भारतीय कला, विज्ञान, गणित और दर्शन के योगदान को पाठ्यक्रम में शामिल करने का प्रावधान है। यह छात्रों को अपनी समृद्ध सभ्यता से परिचित कराता है और उनमें राष्ट्रीय गौरव का भाव भरता है।समग्र प्रगति कार्ड राष्ट्रीय शिक्षा नीति  में चरित्र निर्माण, सहकर्मी संबंध और सामाजिक जागरूकता को शैक्षणिक अंकों के समान महत्व दिया गया है। यह सुनिश्चित करता है कि शिक्षा का अंतिम लक्ष्य एक चरित्रवान व्यक्ति (संस्कार) तैयार करना है, न कि केवल डिग्रीधारी है। गुरुकुल प्रणाली, प्राचीन भारतीय शिक्षा का आधार, इस बात का उत्कृष्ट उदाहरण है कि संस्कार और संस्कृति किस प्रकार शिक्षा का मूल केंद्र थे।सादा जीवन और अनुशासन: गुरु के सान्निध्य में रहकर शिष्य विनम्रता, श्रम का मूल्य और अनुशासन सीखते थे। यज्ञोपवीत संस्कार से शिक्षा आरंभ होती थी, जो जीवन के महत्वपूर्ण चरणों को संस्कारों द्वारा चिह्नित करती थी। गुरुकुलों में केवल आध्यात्मिक ज्ञान ही नहीं, बल्कि 64 कलाओं (वास्तुकला, चिकित्सा, युद्ध कौशल) की शिक्षा भी दी जाती थी, जो भारतीय सभ्यता की उन्नति का कारण बनी। शिक्षा निःशुल्क थी, जिसके बदले शिष्य गुरु की सेवा करते थे। इससे उनमें सेवा भाव और आदर का संस्कार गहरे उतरता था। संस्कार, संस्कृति और सभ्यता का संरक्षण और संवर्धन आज के समय की सबसे बड़ी आवश्यकता है। NEP 2020 के माध्यम से हम गुरुकुल के उस मूलभूत सिद्धांत की ओर लौट रहे हैं जहाँ शिक्षा का उद्देश्य एक ऐसे व्यक्ति का निर्माण करना था जो नैतिक रूप से सशक्त (संस्कार), सांस्कृतिक रूप से समृद्ध (संस्कृति) और ज्ञान-विज्ञान में निपुण (सभ्यता) हो। यह हम सबकी जिम्मेदारी है कि हम बच्चों को केवल यह न सिखाएँ कि 'हमारे पास क्या है' (सभ्यता), बल्कि यह भी सिखाएँ कि 'हम क्या हैं' (संस्कृति) और 'हमें कैसा होना चाहिए' (संस्कार)। जब ये तीनों तत्व शिक्षा के माध्यम से संतुलित होंगे, तभी लोक जीवन में सच्चा सुकून और राष्ट्रीय प्रगति सुनिश्चित हो सकेगी ।

भगवान शिव

महाकाल शिव का विराट स्वरूप: प्रतीकों में निहित सृष्टि
सत्येन्द्र कुमार पाठक 
भारतीय पौराणिक और दार्शनिक परंपरा में, भगवान शिव को 'महादेव' या 'महाकाल' के रूप में पूजा जाता है। उनका स्वरूप, उनके वस्त्र, उनके आभूषण और उनके अस्त्र-शस्त्र—ये सब मिलकर केवल एक देवता की छवि नहीं बनाते, बल्कि सृष्टि के मूलभूत सिद्धांतों, समय चक्र, और मानव चेतना के उच्चतम आदर्शों का प्रतीक हैं। शिव का प्रत्येक तत्व गहन दार्शनिक अर्थ रखता है, जो उन्हें परम योगी, भयंकर विनाशक और करुणामय रक्षक के रूप में स्थापित करता है। भगवान शिव के मस्तक पर विराजमान अर्धचंद्रमा (सोम) उनके सबसे प्रसिद्ध स्वरूप 'चंद्रशेखर' का आधार है। यह कहानी दक्ष प्रजापति के श्राप और शिव के करुणामय हस्तक्षेप से जुड़ी है। जब राजा प्रजापति  दक्ष ने अपनी 27 पुत्रियों (नक्षत्रों) के साथ भेदभाव करने के कारण चंद्रदेव को क्षय (घटने) का श्राप दिया, तो चंद्रमा मृत्युतुल्य हो गए। शिव का आश्रय: चंद्रमा ने सहायता के लिए शिव की शरण ली। शिव ने उन्हें अपनी जटाओं में स्थान दिया और शीतलता प्रदान कर श्राप के प्रकोप को शांत किया। शिव का यह कार्य उनकी रक्षक और दयालु भूमिका को दर्शाता है।
संतुलन का प्रतीक: चंद्रमा (सोम) शीतलता, मन और अमृत का प्रतीक है, जबकि शिव (शंकर) उग्रता और वैराग्य का। दोनों का समन्वय यह दर्शाता है कि सृष्टि को चलाने के लिए उग्रता (तेज) और शीतलता (शांति) के बीच संतुलन आवश्यक है। शिव अपने भीतर सभी द्वंद्वों को समाहित कर संतुलन स्थापित करते हैं।इसी घटना के उपरांत चंद्रदेव ने प्रभास क्षेत्र में जिस शिवलिंग की स्थापना की, वह सोमनाथ ज्योतिर्लिंग के नाम से प्रसिद्ध हुआ, जो शिव और सोम के अटूट बंधन का प्रमाण है। शिव के हाथ में स्थित दो प्रमुख प्रतीक उनकी शक्ति और नियंत्रण को दर्शाते हैं। डमरू की ध्वनि को 'नाद' या 'ओम्' माना जाता है, जो सृष्टि की प्रारंभिक कंपन है। उत्पत्ति का नाद: प्रतीक है कि शिव की ध्वनि (कंपन) से ही संपूर्ण ब्रह्मांड और समय का जन्म हुआ है। महेश्वर सूत्र: कहा जाता है कि शिव के तांडव नृत्य के दौरान डमरू की 14 बार की ध्वनि से संस्कृत व्याकरण के मूल महेश्वर सूत्र की उत्पत्ति हुई, जो भाषा और ज्ञान का आधार बने।
त्रिशूल के तीन शूल शिव के नियंत्रण को दर्शाते हैं। त्रिगुणों पर नियंत्रण:सत्व, रजस और तमस (प्रकृति के तीन गुण) पर शिव की प्रभुता को दर्शाता है। शिव इन गुणों से परे हैं, फिर भी ये गुण उनके अधीन रहकर कार्य करते हैं।
इच्छा, ज्ञान, क्रिया: यह इच्छाशक्ति, ज्ञानशक्ति और क्रियाशक्ति के समन्वय को भी दर्शाता है। शिव इन तीनों शक्तियों का उपयोग करके सृष्टि का संचालन करते हैं शिव का स्वरूप किसी राजा या भोगी का नहीं है, बल्कि एक महायोगी का है, जिसके प्रतीक वैराग्य और काल पर विजय की गाथा कहते हैं। शिव के गले में लिपटा सर्प वासुकी नाग कई रहस्यों को समेटे है। सर्प काल (समय) का प्रतीक है। शिव द्वारा इसे आभूषण के रूप में धारण करना यह दर्शाता है कि वे मृत्यु और काल पर विजयी हैं, इसीलिए वे महाकाल कहलाते हैं। कुंडलिनी शक्ति: आध्यात्मिक ऊर्जा कुंडलिनी का भी प्रतीक है, जिसे शिव ने जागृत कर पूर्ण नियंत्रण प्राप्त कर लिया है। शिव पूरे शरीर पर चिता की राख (भस्म) रमाते हैं । भस्म इस भौतिक संसार की नश्वरता (सब कुछ अंततः राख हो जाएगा) का सबसे बड़ा प्रतीक है। यह भक्तों को वैराग्य का मार्ग और भौतिक मोह से मुक्ति का संदेश देता है।: भस्म अग्नि में जलने के बाद बची हुई शुद्धतम अवस्था है। यह शुद्धता और सभी पापों के विनाश का प्रतीक है। शिव की जटाएँ गहन तपस्या और आध्यात्मिक शक्ति को दर्शाती हैं। : जटाओं में गंगा का निवास शिव की करुणा और संरक्षक की भूमिका को दर्शाता है, जहाँ उन्होंने गंगा के वेग को रोककर पृथ्वी को विनाश से बचाया और पवित्रता (मोक्ष की धारा) को नियंत्रित किया।
. तृतीय नेत्र और कैलाश: ज्ञान : मस्तक पर स्थित नेत्र शिव की आंतरिक शक्ति का केंद्र है। विवेक दृष्टि:दो सामान्य आँखों से परे ज्ञान (अंतर्दृष्टि) और विवेक की दृष्टि का प्रतीक है, जो सत्य और असत्य में भेद करती है। अज्ञान का विनाश  नेत्र अज्ञान, काम वासना ( कामदेव को भस्म करना) और अहंकार के विनाश की शक्ति रखता है। यह चेतना की जागृति (आज्ञा चक्र) का प्रतीक है। कैलाश, शिव का निवास, केवल एक भौगोलिक स्थान नहीं, बल्कि एक आध्यात्मिक केंद्र है। स्थिरता और वैराग्य स्थिरता, अविनाशीपन और भौतिक सुखों से दूर तपस्वी जीवन का प्रतीक है। कैलाश को ब्रह्मांड का अक्ष माना जाता है, जो दर्शाता है कि शिव स्वयं ब्रह्मांड के केंद्र में स्थित हैं, जो संपूर्ण सृष्टि को नियंत्रित करते हैं। नंदी बैल, शिव का वाहन और द्वारपाल, शिव की ओर मुख करके बैठे रहते हैं। नंदी धर्म और सत्य का प्रतीक है। नंदी को शिव तक पहुँचने का माध्यम माना जाता है, जिसका अर्थ है कि धर्म के मार्ग पर चलकर ही ईश्वर की प्राप्ति संभव है। नंदी का स्थिर आसन एकाग्रता, धैर्य और अटूट भक्ति का संदेश देता है। यह सिखाता है कि शिव को प्राप्त करने के लिए मन की एकाग्रता आवश्यक है। भगवान शिव का स्वरूप अंतिम वास्तविकता को दर्शाता है। वे केवल पौराणिक पात्र नहीं हैं, बल्कि वे अनादि, अनंत, और अव्यक्त शक्ति हैं। उनके प्रतीक हमें याद दिलाते हैं कि जीवन नश्वरता (भस्म) से भरा है, फिर भी हमें धैर्य (नंदी) के साथ ज्ञान (तृतीय नेत्र) प्राप्त करना चाहिए, काल (सर्प) पर विजय पानी चाहिए, और जीवन के सभी द्वंद्वों को संतुलन (चंद्रमा) में जीना चाहिए। शिव का विराट स्वरूप हमें बताता है कि मोक्ष बाहर नहीं, बल्कि स्वयं के भीतर स्थित चेतना के उत्थान में निहित है। 

मानव शरीर

तोरण द्वार की गाथा: स्थापत्य, संस्कृति 
सत्येन्द्र कुमार पाठक 
तोरण द्वार—केवल एक प्रवेश द्वार नहीं, बल्कि भारतीय सभ्यता, स्थापत्य कला और सामाजिक संस्कारों का एक सशक्त हस्ताक्षर है। यह शब्द सुनते ही मन में भव्य मंदिरों के अलंकृत मेहराब या विवाह मंडप के प्रवेश द्वार पर लटकता वह प्रतीक साकार हो जाता है, जिस पर दूल्हा अपनी वीरता सिद्ध करता है। यह एक ऐसा सांस्कृतिक प्रतीक है जिसने प्राचीन सनातन काल से लेकर आधुनिक युग तक, विभिन्न शासनों और सामाजिक परिवर्तनों को आत्मसात किया है, लेकिन आज इसकी एक महत्त्वपूर्ण रस्म गंभीर सांस्कृतिक भ्रम का शिकार हो गई है।
'तोरण' शब्द संस्कृत के 'तोर' (पार करना/प्रवेश करना) से आया है, जिसका मूल अर्थ 'प्रवेश द्वार' है। भारतीय स्थापत्य में तोरण का सबसे प्राचीन और महत्त्वपूर्ण प्रमाण साँची के स्तूपों (तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व) में मिलता है।
प्राचीन काल में तोरण, मुख्य रूप से मंदिरों, स्तूपों और विहारों के चारों ओर बनी बाड़ या प्राचीर में प्रवेश के लिए निर्मित होते थे। साँची के तोरण, जो चार दिशाओं में स्थापित हैं, केवल प्रवेश द्वार नहीं थे; वे पत्थर पर उकेरी गई कथाएँ थे। ये बुद्ध के जीवन की घटनाओं, जातक कथाओं और सामाजिक दृश्यों को दर्शाते थे। ये तोरण पवित्र क्षेत्र में प्रवेश, शुभता और संसारिक से पारलौकिक यात्रा के प्रतीक थे। इनकी संरचना में दो ऊर्ध्वाधर खंभे और उनके ऊपर तीन क्षैतिज मेहराबी बीम होते थे, जो ब्रह्मांडीय संरचना का भी प्रतिनिधित्व करते थे।
विवाह की रस्म में तोरण का उपयोग इसी शुभता और पवित्रता के विचार से जुड़ा है, लेकिन इसका एक विशिष्ट पौराणिक आधार है—वीरत्व की कसौटी। लोक कथाओं के अनुसार, एक तोरण नामक राक्षस तोते का रूप धारण कर दुल्हन के घर के प्रवेश द्वार पर बैठ जाता था, ताकि वह दूल्हे को परेशान कर उसका स्थान ले सके। जब एक विद्वान और साहसी राजकुमार ने इसे पहचान कर तलवार से उस प्रतीक (राक्षसी तोते) को मार गिराया, तब से यह रस्म स्थापित हुई। यह रस्म प्रतीकात्मक रूप से यह स्थापित करती है कि दूल्हा अपनी पत्नी की सुरक्षा के लिए साहसी, बलवान और जागरूक है—ठीक वैसे ही जैसे राजकुमार ने किया था।
मध्यकाल में भारतीय स्थापत्य पर इस्लामी और क्षेत्रीय शैलियों का गहरा प्रभाव पड़ा। मुगल वास्तुकला में, तोरण का शास्त्रीय स्वरूप मेहराब (Arch) और विशाल दरवाजा (Gate) में विलीन हो गया। मुगल इमारतों में 'तोरण' की जगह 'दरवाजा' या 'इवान' शब्द प्रचलित हुए (जैसे बुलंद दरवाजा), जो भव्यता, मजबूती और इस्लामी सजावटी तत्वों से सुसज्जित होते थे। हालांकि, राजपूत और विजयनगर जैसे हिन्दू राज्यों में पारंपरिक तोरणों का निर्माण जारी रहा। राजस्थान और गुजरात के मंदिरों और महलों में जटिल नक्काशीदार तोरण पाए जाते हैं, जो भारतीय शिल्पकला की अद्भुत मिसाल हैं। इस काल में भी, घरों और विवाह समारोहों में फूलों, आम के पत्तों और वस्त्रों से बने सजावटी तोरण (बंदनवार) का उपयोग शुभता और स्वागत के प्रतीक के रूप में आम रहा। ब्रिटिश काल में स्थापत्य का मिश्रण हुआ, लेकिन धार्मिक और सामाजिक रस्मों पर सीधे हस्तक्षेप की अनुपस्थिति में विवाह की तोरण रस्म ने अपना अस्तित्व बनाए रखा। यह रस्म गाँवों और कस्बों में पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरित होती रही, जबकि ब्रिटिश पुरातत्वविदों ने प्राचीन तोरणों का अध्ययन कर उन्हें वैश्विक पटल पर है।
आज़ादी के बाद, तोरण ने राष्ट्रीय गौरव के प्रतीक के रूप में अपनी पहचान बनाई, लेकिन विवाह की रस्मों में इसका स्वरूप बदल गया। बाज़ारीकरण और शहरीकरण ने इस परंपरा में एक गंभीर विसंगति उत्पन्न कररस्म का मूल तत्त्व राक्षस का प्रतीक (लकड़ी का तोता) था, जिस पर वार करना थआज बाज़ार में बिकने वाले तोरण अक्सर सुंदर और आकर्षक होते हैं, लेकिन उन पर गणेशजी, स्वास्तिक, ॐ या अन्य पूज्यनीय देवी-देवताओं के चिह्न अंकित होते हैं।यह विसंगति धार्मिक और सांस्कृतिक दृष्टिकोण से अस्वीकार्य है। विवाह समारोह के आरंभ में ही हम सर्वप्रथम गणेश पूजन करते हैं, उन्हें 'विघ्नहर्ता' मानकर सभी बाधाएं दूर करने का निमंत्रण देते हैं। ऐसे में, जब दूल्हा तलवार लेकर उस तोरण पर वार करता है जिस पर गणेशजी या कोई अन्य पूज्य चिह्न अंकित हो, तो वह अनजाने में पूज्य देवता का अपमान कर रहा होता है। धार्मिक विशेषज्ञ इस कार्य को गंभीर धार्मिक त्रुटि मानते हैं, क्योंकि यह उस पूजा और शुभ संकल्प के विपरीत है जिसके साथ विवाह आरंभ होता है। यह एक स्पष्ट विरोधाभास है: जहाँ एक ओर हम देवताओं का आवाहन करते हैं, वहीं दूसरी ओर प्रतीकात्मक रूप से उन पर प्रहार करता है।
तोरण रस्म भारतीय सभ्यता की एक अनमोल विरासत है, लेकिन इसका सही अर्थ समझना और उसका शुद्ध रूप में पालन करना हमारा दायित्व है। सत्य की पहचान: हमें यह याद रखना होगा कि तलवार का वार राक्षस के प्रतीक पर होता है, न कि किसी देवता के प्रतीक पर। परिवारों को विवाह आयोजकों को स्पष्ट निर्देश देने चाहिए कि तोरण केवल पारंपरिक राक्षसी रूपी तोते वाला ही हो, जिस पर किसी भी प्रकार का धार्मिक या मांगलिक चिह्न अंकित न हो: पुरोहितों और सांस्कृतिक शिक्षकों को इस रस्म के पीछे की प्रामाणिक कथा से लोगों को अवगत कराना चाहिए ताकि यह विसंगति दूर हो सके। तोरण द्वार केवल सजावट नहीं, बल्कि दूल्हे के साहस और सुरक्षा के संकल्प का प्रतीक है। आइए, हम इस ऐतिहासिक रस्म को उसके वास्तविक गौरव, पवित्रता और सत्यता के साथ निभाएं, ताकि हमारी आने वाली पीढ़ियाँ भी संस्कृति के इस मूल अर्थ को समझ सके ।

तोरण द्वार की गाथा

तोरण द्वार की गाथा: स्थापत्य, संस्कृति 
तोरण द्वार—केवल एक प्रवेश द्वार नहीं, बल्कि भारतीय सभ्यता, स्थापत्य कला और सामाजिक संस्कारों का एक सशक्त हस्ताक्षर है। यह शब्द सुनते ही मन में भव्य मंदिरों के अलंकृत मेहराब या विवाह मंडप के प्रवेश द्वार पर लटकता वह प्रतीक साकार हो जाता है, जिस पर दूल्हा अपनी वीरता सिद्ध करता है। यह एक ऐसा सांस्कृतिक प्रतीक है जिसने प्राचीन सनातन काल से लेकर आधुनिक युग तक, विभिन्न शासनों और सामाजिक परिवर्तनों को आत्मसात किया है, लेकिन आज इसकी एक महत्त्वपूर्ण रस्म गंभीर सांस्कृतिक भ्रम का शिकार हो गई है।
'तोरण' शब्द संस्कृत के 'तोर' (पार करना/प्रवेश करना) से आया है, जिसका मूल अर्थ 'प्रवेश द्वार' है। भारतीय स्थापत्य में तोरण का सबसे प्राचीन और महत्त्वपूर्ण प्रमाण साँची के स्तूपों (तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व) में मिलता है।
प्राचीन काल में तोरण, मुख्य रूप से मंदिरों, स्तूपों और विहारों के चारों ओर बनी बाड़ या प्राचीर में प्रवेश के लिए निर्मित होते थे। साँची के तोरण, जो चार दिशाओं में स्थापित हैं, केवल प्रवेश द्वार नहीं थे; वे पत्थर पर उकेरी गई कथाएँ थे। ये बुद्ध के जीवन की घटनाओं, जातक कथाओं और सामाजिक दृश्यों को दर्शाते थे। ये तोरण पवित्र क्षेत्र में प्रवेश, शुभता और संसारिक से पारलौकिक यात्रा के प्रतीक थे। इनकी संरचना में दो ऊर्ध्वाधर खंभे और उनके ऊपर तीन क्षैतिज मेहराबी बीम होते थे, जो ब्रह्मांडीय संरचना का भी प्रतिनिधित्व करते थे।
विवाह की रस्म में तोरण का उपयोग इसी शुभता और पवित्रता के विचार से जुड़ा है, लेकिन इसका एक विशिष्ट पौराणिक आधार है—वीरत्व की कसौटी। लोक कथाओं के अनुसार, एक तोरण नामक राक्षस तोते का रूप धारण कर दुल्हन के घर के प्रवेश द्वार पर बैठ जाता था, ताकि वह दूल्हे को परेशान कर उसका स्थान ले सके। जब एक विद्वान और साहसी राजकुमार ने इसे पहचान कर तलवार से उस प्रतीक (राक्षसी तोते) को मार गिराया, तब से यह रस्म स्थापित हुई। यह रस्म प्रतीकात्मक रूप से यह स्थापित करती है कि दूल्हा अपनी पत्नी की सुरक्षा के लिए साहसी, बलवान और जागरूक है—ठीक वैसे ही जैसे राजकुमार ने किया था।
मध्यकाल में भारतीय स्थापत्य पर इस्लामी और क्षेत्रीय शैलियों का गहरा प्रभाव पड़ा। मुगल वास्तुकला में, तोरण का शास्त्रीय स्वरूप मेहराब (Arch) और विशाल दरवाजा (Gate) में विलीन हो गया। मुगल इमारतों में 'तोरण' की जगह 'दरवाजा' या 'इवान' शब्द प्रचलित हुए (जैसे बुलंद दरवाजा), जो भव्यता, मजबूती और इस्लामी सजावटी तत्वों से सुसज्जित होते थे। हालांकि, राजपूत और विजयनगर जैसे हिन्दू राज्यों में पारंपरिक तोरणों का निर्माण जारी रहा। राजस्थान और गुजरात के मंदिरों और महलों में जटिल नक्काशीदार तोरण पाए जाते हैं, जो भारतीय शिल्पकला की अद्भुत मिसाल हैं। इस काल में भी, घरों और विवाह समारोहों में फूलों, आम के पत्तों और वस्त्रों से बने सजावटी तोरण (बंदनवार) का उपयोग शुभता और स्वागत के प्रतीक के रूप में आम रहा। ब्रिटिश काल में स्थापत्य का मिश्रण हुआ, लेकिन धार्मिक और सामाजिक रस्मों पर सीधे हस्तक्षेप की अनुपस्थिति में विवाह की तोरण रस्म ने अपना अस्तित्व बनाए रखा। यह रस्म गाँवों और कस्बों में पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरित होती रही, जबकि ब्रिटिश पुरातत्वविदों ने प्राचीन तोरणों का अध्ययन कर उन्हें वैश्विक पटल पर है।
आज़ादी के बाद, तोरण ने राष्ट्रीय गौरव के प्रतीक के रूप में अपनी पहचान बनाई, लेकिन विवाह की रस्मों में इसका स्वरूप बदल गया। बाज़ारीकरण और शहरीकरण ने इस परंपरा में एक गंभीर विसंगति उत्पन्न कररस्म का मूल तत्त्व राक्षस का प्रतीक (लकड़ी का तोता) था, जिस पर वार करना थआज बाज़ार में बिकने वाले तोरण अक्सर सुंदर और आकर्षक होते हैं, लेकिन उन पर गणेशजी, स्वास्तिक, ॐ या अन्य पूज्यनीय देवी-देवताओं के चिह्न अंकित होते हैं।यह विसंगति धार्मिक और सांस्कृतिक दृष्टिकोण से अस्वीकार्य है। विवाह समारोह के आरंभ में ही हम सर्वप्रथम गणेश पूजन करते हैं, उन्हें 'विघ्नहर्ता' मानकर सभी बाधाएं दूर करने का निमंत्रण देते हैं। ऐसे में, जब दूल्हा तलवार लेकर उस तोरण पर वार करता है जिस पर गणेशजी या कोई अन्य पूज्य चिह्न अंकित हो, तो वह अनजाने में पूज्य देवता का अपमान कर रहा होता है। धार्मिक विशेषज्ञ इस कार्य को गंभीर धार्मिक त्रुटि मानते हैं, क्योंकि यह उस पूजा और शुभ संकल्प के विपरीत है जिसके साथ विवाह आरंभ होता है। यह एक स्पष्ट विरोधाभास है: जहाँ एक ओर हम देवताओं का आवाहन करते हैं, वहीं दूसरी ओर प्रतीकात्मक रूप से उन पर प्रहार करता है।
तोरण रस्म भारतीय सभ्यता की एक अनमोल विरासत है, लेकिन इसका सही अर्थ समझना और उसका शुद्ध रूप में पालन करना हमारा दायित्व है। सत्य की पहचान: हमें यह याद रखना होगा कि तलवार का वार राक्षस के प्रतीक पर होता है, न कि किसी देवता के प्रतीक पर। परिवारों को विवाह आयोजकों को स्पष्ट निर्देश देने चाहिए कि तोरण केवल पारंपरिक राक्षसी रूपी तोते वाला ही हो, जिस पर किसी भी प्रकार का धार्मिक या मांगलिक चिह्न अंकित न हो: पुरोहितों और सांस्कृतिक शिक्षकों को इस रस्म के पीछे की प्रामाणिक कथा से लोगों को अवगत कराना चाहिए ताकि यह विसंगति दूर हो सके। तोरण द्वार केवल सजावट नहीं, बल्कि दूल्हे के साहस और सुरक्षा के संकल्प का प्रतीक है। आइए, हम इस ऐतिहासिक रस्म को उसके वास्तविक गौरव, पवित्रता और सत्यता के साथ निभाएं, ताकि हमारी आने वाली पीढ़ियाँ भी संस्कृति के इस मूल अर्थ को समझ सके ।

सोमवार, दिसंबर 08, 2025

वंदे मातरम में समाहित है राष्ट्र की आत्मा

वन्दे मातरम्: दो शब्दों में समाहित राष्ट्र की आत्मा 
सत्येन्द्र कुमार पगठक 
भारत के राष्ट्रीय गीत, वन्दे मातरम् का उद्घोष मात्र दो शब्दों का नहीं है, बल्कि यह लगभग आधी शताब्दी तक चले भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का जयघोष रहा है। यह बंकिमचन्द्र चटर्जी द्वारा संस्कृत और बाँग्ला के मिश्रण से रचित वह अमर गीत है, जिसने सदियों से सुप्त पड़े एक राष्ट्र को झकझोर कर जगा दिया और उसे 'माता' के रूप में अपनी भूमि के प्रति प्रेम और बलिदान का पाठ सिखाया। सन् 1882 में बंकिमचन्द्र के कालजयी उपन्यास ‘आनन्द मठ’ में एक अंतर्निहित गीत के रूप में प्रकाशित होकर, यह केवल एक साहित्यिक रचना नहीं रहा, बल्कि यह भारत की राजनीतिक और सांस्कृतिक चेतना का केंद्र बन गया। यह वह गीत है जिसे गाने में केवल 65 सेकंड (1 मिनट और 5 सेकंड) लगते हैं, लेकिन इसके प्रभाव ने भारत के इतिहास की दिशा बदल दी। इसकी धुन यदुनाथ भट्टाचार्य ने बनाई थी, और यह उपन्यास में भवानन्द नामक एक संन्यासी विद्रोही द्वारा गाया गया था, जो अंग्रेजों और तत्कालीन शोषक व्यवस्था के विरुद्ध उठ खड़ा हुआ था।
वन्दे मातरम् की रचना आकस्मिक नहीं थी, बल्कि यह ब्रिटिश शासन के एक अपमानजनक आदेश की सीधी प्रतिक्रिया थी। सन् 1870-80 के दशक में, ब्रिटिश शासकों ने सभी सरकारी समारोहों में ब्रिटिश राष्ट्रगान ‘गॉड! सेव द क्वीन’ गाया जाना अनिवार्य कर दिया था। बंकिमचन्द्र चटर्जी, जो उस समय एक डिप्टी कलेक्टर के पद पर कार्यरत थे, उन्हें इस आदेश से गहरा आघात लगा। माना जाता है कि लगभग 1876 में, उन्होंने इसके विकल्प के तौर पर संस्कृत और बाँग्ला के मिश्रण से एक नए गीत की रचना की। शुरुआती दौर में, इस गीत के केवल दो ही पद रचे गए थे, जो विशुद्ध संस्कृत में थे और केवल मातृभूमि की वंदना करते थे: "वन्दे मातरम् ! सुजलां सुफलां मलयज शीतलाम्, शस्य श्यामलाम् मातरम्।" "शुभ्र ज्योत्स्नां पुलकित यमिनीम्, फुल्ल कुसुमित द्रुमदल शोभिनीम् ; सुहासिनीं सुमधुर भाषिणीम्, सुखदां वरदां मातरम्।"ये पद मातृभूमि के नैसर्गिक सौंदर्य—पानी से सिंचित, फलों से भरी, शांत, हरी-भरी, चांदनी रातों से पुलकित, फूलों से सुसज्जित—को दर्शाते थे।।सन् 1882 में जब बंकिमचन्द्र ने अपना उपन्यास ‘आनन्द मठ’ लिखा, तब उन्होंने इस गीत को उसमें शामिल कर लिया। यह उपन्यास अंग्रेजी शासन, जमींदारों के शोषण और अकाल जैसे प्राकृतिक प्रकोपों के बीच मर रही जनता को जागृत करने हेतु अचानक उठ खड़े हुए संन्यासी विद्रोह पर आधारित था। उपन्यास में, शुरुआती संस्कृत पदों के बाद के जो पद थे, वे उपन्यास की मूल भाषा, बाँग्ला में थे। इन बाद वाले पदों में मातृभूमि की स्तुति को हिन्दू देवी दुर्गा के रूप में किया गया था: "तुमि विद्या, तुमि धर्म, तुमि हृदि, तुमि मर्म... त्वम् हि दुर्गा दशप्रहरणधारिणी..." यहीं से इस गीत ने केवल एक वंदना गीत होने के बजाय एक शक्तिशाली राजनीतिक और धार्मिक प्रतीक का रूप ले लिया।
वन्दे मातरम् जल्द ही एक साहित्यिक रचना की सीमाओं को तोड़कर जन-आंदोलन का केंद्रीय मंत्र बन गया।
कांग्रेस मंच पर पदार्पण: भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के 12वें अधिवेशन (1896, कलकत्ता) में रवीन्द्र नाथ ठाकुर ने इसे मंच से गाया। इसके बाद, 1901 में श्री चरणदास और 1905 के बनारस अधिवेशन में सरला देवी चौधरानी ने इसे स्वर दिया।बंग भंग का नारा: 1905 में जब लॉर्ड कर्जन ने बंगाल के विभाजन की घोषणा की, तो वन्दे मातरम् राष्ट्रीय विरोध का आधिकारिक नारा बन गया। 6 अगस्त 1905 को टाउन हॉल की सभा में लगभग तीस हज़ार भारतीयों ने इस गीत को एक साथ गाया। 'वन्दे मातरम् संप्रदाय' की स्थापना भी हो गई।
ब्रिटिश दमन और बलिदान: ब्रिटिश सरकार इसकी बढ़ती लोकप्रियता से भयभीत हो उठी और उसने इस पर प्रतिबंध लगाने पर विचार करना शुरू कर दिया। 14 अप्रैल 1906 को बरिशाल में जुलूस में वन्दे मातरम् का नारा लगाने पर प्रतिबंध लगा दिया गया, और शांतिपूर्ण जुलूस पर लाठीचार्ज किया गया। इस गीत पर प्रतिबंध लगने के बाद भी, यह क्रांतिकारियों की आत्मा में समाया रहा। लाला लाजपत राय ने लाहौर से जिस 'जर्नल' का प्रकाशन शुरू किया, उसका नाम ही 'वन्दे मातरम्' रखा। अंग्रेजों की गोली का शिकार बनकर दम तोड़ने वाली मातंगिनी हाजरा की जिह्वा पर आखिरी शब्द "वन्दे मातरम्" ही थे। वैश्विक पहचान: सन् 1907 में जब मैडम भीखाजी कामा ने जर्मनी के स्टुटगार्ट में तिरंगा फहराया, तो उस ध्वज के मध्य में "वन्दे मातरम्" ही लिखा हुआ था। सन् 2003 में, बीबीसी वर्ल्ड सर्विस द्वारा आयोजित एक अन्तरराष्ट्रीय सर्वेक्षण में, वन्दे मातरम् को दुनिया भर के शीर्ष 10 सबसे मशहूर गीतों में दूसरे स्थान पर चुना गया था। 'वन्दे मातरम्' या 'बन्दे मातरम्': एक लिपिगत और भाषिक द्वंद्व एक रोचक और गहन भाषिक चर्चा इसके शीर्षक को लेकर भी हुई थी ।: यह गीत मूल रूप में बाँग्ला लिपि में लिखा गया था। चूँकि बाँग्ला लिपि में 'व' अक्षर का उच्चारण 'ब' के समान होता है (या 'व' अक्षर मौजूद ही नहीं है), इसलिए बंकिम चन्द्र चट्टोपाध्याय ने इसे 'बन्दे मातरम्' शीर्षक से लिखा था।  संस्कृत और हिन्दी भाषा (देवनागरी लिपि) में 'वन्दे' शब्द ही सही व्याकरणिक रूप है, जिसका अर्थ है 'मैं वंदना करता हूँ'। 'बन्दे मातरम्' का संस्कृत में कोई स्पष्ट या सही अर्थ नहीं निकलता।
वन्दे मातरम् (माता की वंदना करता हूँ) उच्चारण और अर्थ की शुद्धता को ध्यान में रखते हुए, देवनागरी लिपि में इसे 'वन्दे मातरम्' ही लिखना और पढ़ना समीचीन माना गया। भारतीय संविधान के पृष्ठ 167 पर भी व्यौहार राममनोहर सिंहा द्वारा चित्रित इस शीर्षक को 'वन्दे–मातरम्' ही लिखा गया था। स्वाधीनता प्राप्ति के बाद, भारत के सर्वोच्च सम्मान, यानी राष्ट्रगान के चयन का प्रश्न उठा।: वन्दे मातरम् के साथ मुख्य समस्या यह थी कि इसके बाद के पदों में देवी दुर्गा का आह्वान किया गया था, जिसे कुछ मुस्लिम समुदाय के सदस्य इस्लाम के एकेश्वरवाद के विरुद्ध मानते थे। साथ ही, 'आनन्द मठ' उपन्यास पर मुस्लिम विरोधी होने का आरोप भी था। कांग्रेस का समाधान (1937): इस विवाद पर गहरा चिंतन करते हुए जवाहरलाल नेहरू की अध्यक्षता में गठित समिति (जिसमें मौलाना अबुल कलाम आजाद भी शामिल थे) ने यह निष्कर्ष निकाला कि गीत के शुरुआती दो पद विशुद्ध रूप से मातृभूमि की प्रशंसा में हैं, लेकिन बाद के पदों में हिन्दू देवी-देवताओं का जिक्र होने लगता है।: इसलिए, यह निर्णय लिया गया कि गुरुदेव रवीन्द्र नाथ ठाकुर द्वारा रचित और गाये गए गीत 'जन गण मन अधिनायक जय हे' को यथावत राष्ट्रगान (National Anthem) बनाया जाएगा, और बंकिमचन्द्र चटर्जी द्वारा रचित वन्दे मातरम् के प्रारम्भिक दो पदों को राष्ट्रगीत के रूप में स्वीकार किया जाएगा।
24 जनवरी 1950 को, डॉ॰ राजेन्द्र प्रसाद ने संविधान सभा में वक्तव्य दिया कि वन्दे मातरम् गान, जिसने स्वतंत्रता संग्राम में ऐतिहासिक भूमिका निभाई है, को 'जन गण मन' के समकक्ष सम्मान व पद मिलेगा। सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष बिजोय एम्मानुएल वर्सेस केरल राज्य वाद में यह प्रश्न उठा कि क्या किसी को कोई गीत गाने के लिए मजबूर किया जा सकता है। न्यायालय ने फैसला सुनाया कि यदि कोई व्यक्ति राष्ट्रगान (या राष्ट्रगीत) का सम्मान करता है पर उसे गाता नहीं है, तो उसे दण्डित नहीं किया जा सकता, क्योंकि यह उसके व्यक्तिगत विवेक और धार्मिक स्वतंत्रता का विषय हो सकता है।।वन्दे मातरम् केवल एक संवैधानिक या कानूनी गीत नहीं है। यह भारत की सांस्कृतिक, साहित्यिक और आध्यात्मिक यात्रा का प्रतीक है। यह गीत आज भी देश के हर कोने में उस मातृशक्ति के प्रति श्रद्धा और प्रेम का भाव जगाता है, जिसने सदियों की गुलामी को तोड़कर स्वतंत्रता प्राप्त की। यह दो शब्द आज भी हर भारतीय को अपनी भूमि, अपने जल, फल और हरीतिमा के प्रति नमन करने के लिए प्रेरित करते हैं।भारत सरकार ने राष्ट्रीय गीत 'वंदे मातरम' की 150वीं वर्षगाँठ को एक ऐतिहासिक अवसर के रूप में चिह्नित करते हुए, 7 नवंबर 2025 से 7 नवंबर 2026 तक देश भर में भव्य समारोहों के आयोजन का निर्णय लिया है। यह पहल न केवल भारत के स्वतंत्रता आंदोलन में इस गीत की अमर भूमिका को स्वीकार करती है, बल्कि इसकी स्थायी सांस्कृतिक विरासत और राष्ट्रीय महत्व को भी प्रदर्शित करती है। यह निर्णय उस गीत को एक विनम्र श्रद्धांजलि है जिसने पीढ़ियों को स्वतंत्रता के संघर्ष के लिए प्रेरित किया। कार्तिक शुक्ल  अक्षय तृतीया  7 नवम्बर 1875 को वंदे मातरम की रचना का उद्घोष  हुआ था ।
'वंदे मातरम' मूल रूप से एक कविता है, जिसे महान बंगाली साहित्यकार बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय ने 1870 के दशक में संस्कृतनिष्ठ बंगाली भाषा में लिखा था। इस गीत को पहली बार 1882 में उनके प्रसिद्ध बंगाली उपन्यास 'आनंदमठ' में प्रकाशित किया गया था, जो संन्यासी विद्रोह पर आधारित था।इस गीत की शक्ति इसके सरल आह्वान में निहित है—मातृभूमि को प्रणाम। यह केवल एक गीत नहीं, बल्कि भारत माता की स्तुति में लिखा गया एक भावपूर्ण आह्वान था। आनंदमठ में इसका प्रकाशन ही इस गीत के इतिहास का 150 वां वर्ष पूरा होने का आधार है, जिसे 'वंदे मातरम 150' के रूप में मनाया जा रहा है।  'वंदे मातरम' भारत की आजादी की लड़ाई में एक शक्तिशाली नारे और प्रेरणा स्रोत के रूप में उभरा। यह गीत शीघ्र ही स्वतंत्रता सेनानियों के बीच देशभक्ति का पर्याय बन गया। महान कवि रवींद्रनाथ टैगोर ने इसे पहली बार 1896 में कलकत्ता में आयोजित कांग्रेस अधिवेशन में गाया था, जिसने इसे राष्ट्रीय मंच प्रदान किया।
राजनीतिक नारा: 'वंदे मातरम' का पहली बार राजनीतिक नारे के रूप में प्रयोग 7 अगस्त 1905 को बंगाल विभाजन के विरोध में हुए आंदोलनों के दौरान हुआ, जहाँ इसने पूरे राष्ट्र को एकजुट करने का काम किया। यह गीत भारतीय राष्ट्रवाद की मुखर अभिव्यक्ति बन गया, जिससे ब्रिटिश सरकार भयभीत हो गई और उसने इसे दबाने का हर संभव प्रयास किया।
आजादी मिलने के बाद, 'वंदे मातरम' को आधिकारिक तौर पर सम्मान प्रदान किया गया। 24 जनवरी 1950 को, संविधान सभा ने इसे भारत गणराज्य के राष्ट्रीय गीत के रूप में अपनाया। यह दर्जा राष्ट्रगान 'जन गण मन' के समकक्ष है, और दोनों ही राष्ट्र की पहचान और गौरव का प्रतीक हैं।'वंदे मातरम' सिर्फ एक धुन या पाठ मात्र नहीं है; यह भारत की आत्मा, इसकी भूमि, संस्कृति और इसके लोगों के लिए बलिदान की भावना का प्रतीक है। 150वीं वर्षगाँठ का यह राष्ट्रव्यापी उत्सव नई पीढ़ी को इस गीत के ऐतिहासिक महत्व, इसके रचनाकार के योगदान और स्वतंत्रता संग्राम के आदर्शों से जोड़ने का एक सुनहरा अवसर है। यह वर्ष हमें याद दिलाता है कि यह गीत आज भी भारत की एकता और अखंडता के लिए एक प्रेरणा शक्ति बना हुआ है।
भारत सरकार ने राष्ट्रीय गीत 'वंदे मातरम' की 150वीं वर्षगाँठ को एक ऐतिहासिक अवसर के रूप में चिह्नित करते हुए, 7 नवंबर 2025 से 7 नवंबर 2026 तक देश भर में भव्य समारोहों के आयोजन का निर्णय लिया है। यह पहल न केवल भारत के स्वतंत्रता आंदोलन में इस गीत की अमर भूमिका को स्वीकार करती है, बल्कि इसकी स्थायी सांस्कृतिक विरासत और राष्ट्रीय महत्व को भी प्रदर्शित करती है। यह निर्णय उस गीत को एक विनम्र श्रद्धांजलि है जिसने पीढ़ियों को स्वतंत्रता के संघर्ष के लिए प्रेरित किया। कार्तिक शुक्ल  अक्षय तृतीया  7 नवम्बर 1875 को वंदे मातरम की रचना का उद्घोष  हुआ था ।
'वंदे मातरम' मूल रूप से एक कविता है, जिसे महान बंगाली साहित्यकार बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय ने 1870 के दशक में संस्कृतनिष्ठ बंगाली भाषा में लिखा था। इस गीत को पहली बार 1882 में उनके प्रसिद्ध बंगाली उपन्यास 'आनंदमठ' में प्रकाशित किया गया था, जो संन्यासी विद्रोह पर आधारित था।इस गीत की शक्ति इसके सरल आह्वान में निहित है—मातृभूमि को प्रणाम। यह केवल एक गीत नहीं, बल्कि भारत माता की स्तुति में लिखा गया एक भावपूर्ण आह्वान था। आनंदमठ में इसका प्रकाशन ही इस गीत के इतिहास का 150 वां वर्ष पूरा होने का आधार है, जिसे 'वंदे मातरम 150' के रूप में मनाया जा रहा है।  'वंदे मातरम' भारत की आजादी की लड़ाई में एक शक्तिशाली नारे और प्रेरणा स्रोत के रूप में उभरा। यह गीत शीघ्र ही स्वतंत्रता सेनानियों के बीच देशभक्ति का पर्याय बन गया। महान कवि रवींद्रनाथ टैगोर ने इसे पहली बार 1896 में कलकत्ता में आयोजित कांग्रेस अधिवेशन में गाया था, जिसने इसे राष्ट्रीय मंच प्रदान किया।
राजनीतिक नारा: 'वंदे मातरम' का पहली बार राजनीतिक नारे के रूप में प्रयोग 7 अगस्त 1905 को बंगाल विभाजन के विरोध में हुए आंदोलनों के दौरान हुआ, जहाँ इसने पूरे राष्ट्र को एकजुट करने का काम किया। यह गीत भारतीय राष्ट्रवाद की मुखर अभिव्यक्ति बन गया, जिससे ब्रिटिश सरकार भयभीत हो गई और उसने इसे दबाने का हर संभव प्रयास किया।
आजादी मिलने के बाद, 'वंदे मातरम' को आधिकारिक तौर पर सम्मान प्रदान किया गया। 24 जनवरी 1950 को, संविधान सभा ने इसे भारत गणराज्य के राष्ट्रीय गीत के रूप में अपनाया। यह दर्जा राष्ट्रगान 'जन गण मन' के समकक्ष है, और दोनों ही राष्ट्र की पहचान और गौरव का प्रतीक हैं।'वंदे मातरम' सिर्फ एक धुन या पाठ मात्र नहीं है; यह भारत की आत्मा, इसकी भूमि, संस्कृति और इसके लोगों के लिए बलिदान की भावना का प्रतीक है। 150वीं वर्षगाँठ का यह राष्ट्रव्यापी उत्सव नई पीढ़ी को इस गीत के ऐतिहासिक महत्व, इसके रचनाकार के योगदान और स्वतंत्रता संग्राम के आदर्शों से जोड़ने का एक सुनहरा अवसर है। यह वर्ष हमें याद दिलाता है कि यह गीत आज भी भारत की एकता और अखंडता के लिए एक प्रेरणा शक्ति बना हुआ है।

शुक्रवार, नवंबर 21, 2025

बच्चे है भविष्य

बच्चे बेहतर विश्व की नींव 
सत्येन्द्र कुमार पाठक 
विश्व बाल दिवस, हर साल 20 नवंबर को मनाया जाने वाला एक वैश्विक आह्वान है। यह दिन केवल एक उत्सव नहीं, बल्कि बच्चों के अधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा और उनके कल्याण के प्रति हमारी सामूहिक जिम्मेदारी का प्रतीक है। बच्चे और युवा केवल भविष्य की आशा नहीं हैं; वे वर्तमान के शक्तिशाली एजेंट हैं। वे अपने साथ नए विचार और दृष्टिकोण लेकर आते हैं जो हम सभी के लिए एक बेहतर, न्यायसंगत और समावेशी विश्व बनाने में मदद कर सकते हैं। इस दिवस का मुख्य लक्ष्य बाल अधिकारों पर कन्वेंशन को अपनाए जाने की वर्षगाँठ मनाना और बच्चों के लिए, बच्चों द्वारा की जाने वाली कार्रवाई को वैश्विक स्तर पर बढ़ावा देना है। यह वह दिन है जब हम अपनी सामूहिक चेतना को जगाते हैं ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि हर बच्चा सुरक्षा, शिक्षा और अपनी आवाज़ उठाने के अधिकार के साथ जागे। विश्व बाल दिवस का इतिहास बच्चों के कल्याण के प्रति बढ़ती वैश्विक चेतना से जुड़ा है। इसकी जड़ें 1925 में जिनेवा में आयोजित 'विश्व कांफ्रेंस' में हैं, जिसने बाल दिवस मनाने की नींव रखी। हालाँकि, इसे अंतर्राष्ट्रीय पहचान तब मिली जब: 1954 में, संयुक्त राष्ट्र महासभा  ने आधिकारिक तौर पर 'सार्वभौमिक बाल दिवस' मनाने की घोषणा की। इसका उद्देश्य बच्चों के बीच आपसी समझ, जानकारी के आदान-प्रदान और उनके कल्याण से जुड़ी योजनाओं को लागू करना था। यह घोषणा द्वितीय विश्व युद्ध के बाद यूरोप के बच्चों की दुर्दशा के बाद आई थी, जिसने दुनिया को बच्चों की जरूरतों पर ध्यान केंद्रित करने के लिए मजबूर किया।
20 नवंबर की तिथि को विशेष रूप से चुना गया, क्योंकि इसी दिन दो ऐतिहासिक घटनाएँ हुईं, जिन्होंने बच्चों के अधिकारों को कानूनी और नैतिक आधार प्रदान किया: 1959: संयुक्त राष्ट्र ने सर्वसम्मति से 'बाल अधिकारों की घोषणा' को अपनाया, जिसने बच्चों के अधिकारों को पहली बार स्पष्ट रूप से परिभाषित किया। 1989: संयुक्त राष्ट्र ने बच्चों के अधिकारों पर सबसे व्यापक, अंतर्राष्ट्रीय और कानूनी रूप से बाध्यकारी समझौता, 'बाल अधिकारों पर कन्वेंशन  को अपनाया। यह समझौता एक ऐसी ढाँचागत नींव प्रदान करता है जिसके तहत राष्ट्रों को बच्चों के अधिकारों की रक्षा, सम्मान और पूर्ति करनी होती है। सी आर सी ने दुनिया भर में बच्चों के अधिकारों को स्थापित करने वाला एक दिशासूचक बन गया, जिसने 20 नवंबर को बच्चों के अधिकारों के लिए कार्रवाई का एक वैश्विक दिवस बना दिया। बाल अधिकार मानव अधिकार हैं—ये अटूट और सार्वभौमिक हैं। कन्वेंशन बच्चों को चार मुख्य स्तंभों (4 P's) पर आधारित अधिकार प्रदान करता है, जो हर बच्चे के समग्र विकास को सुनिश्चित करते हैं: जीवन, अस्तित्व और विकास का अधिकार: यह केवल जैविक रूप से जीवित रहने का अधिकार नहीं है, बल्कि एक ऐसा वातावरण प्राप्त करने का अधिकार है जो उनके मानसिक, शारीरिक, आध्यात्मिक, नैतिक और सामाजिक विकास को पूर्ण रूप से पोषित करे। संरक्षण शोषण, दुर्व्यवहार, उपेक्षा और बाल श्रम से सुरक्षा: बच्चों को किसी भी तरह की हानि से मुक्त रहने का अधिकार है। इसमें अवैध तस्करी, यौन शोषण, और ऐसे काम से सुरक्षा शामिल है जो उनके स्वास्थ्य या शिक्षा में बाधा डालते हैं।
सहभागिता अपने विचार व्यक्त करने का अधिकार: बच्चों को उन सभी मामलों में अपनी राय देने का अधिकार है जो उन्हें प्रभावित करते हैं। यह लोकतंत्र और नागरिकता की भावना को बढ़ावा देता है। सर्वोच्च हित का सिद्धांत  सभी निर्णय और कार्य बच्चों के सर्वोत्तम हित को प्राथमिक विचार के रूप में रखेंगे।  शिक्षा केवल साक्षरता प्राप्त करने का माध्यम नहीं है; यह एक मौलिक अधिकार है जो बच्चों को गरीबी के चक्र को तोड़ने और उनकी पूरी क्षमता को साकार करने में सक्षम बनाता है। कन्वेंशन यह सुनिश्चित करता है कि प्राथमिक शिक्षा सभी के लिए निःशुल्क और अनिवार्य हो, जबकि व्यावसायिक और उच्च शिक्षा को सुलभ बनाया जाए। शिक्षा को बच्चों के व्यक्तित्व, प्रतिभा और क्षमताओं को विकसित करने पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए, ताकि वे एक स्वतंत्र और जिम्मेदार जीवन के लिए तैयार हो सकें।
आज भी लाखों बच्चे हिंसा, युद्ध, गरीबी और उपेक्षा के कारण अपने अधिकारों से वंचित हैं। उन्हें सभी प्रकार के शोषण और दुर्व्यवहार से सुरक्षा की आवश्यकता है। इसमें इंटरनेट पर सुरक्षित पहुँच, बाल श्रम से मुक्ति, और आपराधिक न्याय प्रणाली के भीतर उचित उपचार शामिल है। बाल श्रम के खिलाफ कड़े कानूनों को लागू करना आवश्यक है ताकि उनका बचपन काम करने की बेड़ियों में न बंधे।
: अधिकार बच्चों को निष्क्रिय प्राप्तकर्ता के बजाय सक्रिय नागरिक मानता है। उन्हें अपने माता-पिता, शिक्षकों और सरकारों के समक्ष अपनी राय रखने की स्वतंत्रता होनी चाहिए। चाहे वह स्कूल के पाठ्यक्रम के बारे में हो या जलवायु परिवर्तन जैसे वैश्विक मुद्दों के बारे में, उनके विचारों को गंभीरता से सुनना और उन्हें सम्मान देना न केवल उनका अधिकार है, बल्कि यह हमारे निर्णयों को अधिक प्रासंगिक और प्रभावी भी बनाता है। उनकी आवाज़ सुनकर, हम उनकी आत्म-अभिव्यक्ति के अधिकार को पूरा करते हैं।  द्वितीय विश्व युद्ध के बाद, यूरोप के बच्चों की दुर्दशा को देखते हुए, यूनिसेफ (UNICEF) का गठन बच्चों को भोजन, वस्त्र और स्वास्थ्य सेवा प्रदान करने के उद्देश्य से किया गया था। आज, यह एजेंसी 190 से ज़्यादा देशों और क्षेत्रों में काम करती है।यूनिसेफ का ध्यान हमेशा सबसे कमज़ोर और वंचित बच्चों तक पहुँचने पर रहा है। चाहे वह संघर्ष क्षेत्रों में आपातकालीन सहायता प्रदान करना हो, दूरदराज के गाँवों में टीकाकरण अभियान चलाना हो, या बाल विवाह और भेदभाव के खिलाफ जागरूकता बढ़ाना हो, यूनिसेफ बाल अधिकारों को जमीनी स्तर पर लागू करने में एक महत्वपूर्ण भागीदार है।विश्व बाल दिवस हमें याद दिलाता है कि बच्चों के अधिकारों को कायम रखना एक बेहतर विश्व की दिशा में एक दिशासूचक है—आज, कल और भविष्य में भी। यह दिवस हमें यह समझने का मौका देता है कि हर बच्चा, हर जगह, उन निर्णयों से प्रभावित होता है जो बड़ों द्वारा लिए जाते हैं। इसलिए, यह हमारा नैतिक और कानूनी दायित्व है कि हम:
बच्चों की बात सुनें। उनके जीवन, उनकी आशाओं और उनके अधिकारों को समझें। जब वे अपने अधिकारों के लिए खड़े हों, तो उनकी आवाज़ को बुलंद करें। इस विश्व बाल दिवस पर हम सब यह संकल्प लें कि हम बच्चों की आवाज़ को सुनेंगे, उनकी आशाओं को समझेंगे, और हर बच्चे के अधिकारों के लिए एकजुट होकर आवाज़ उठाएँगे। बच्चों की आवाज़ ही वह शक्तिशाली बदलाव है जो हमारी दुनिया को अधिक न्यायसंगत और मानवीय बनाएगा।

करपी , अरवल , बिहार 804419
9472987491

बुधवार, नवंबर 12, 2025

रीवा परिभ्रमण

विंध्य का गौरव, जहाँ इतिहास, प्रकृति और प्रगति का संगम है रीवा 
सत्येन्द्र कुमार पाठक 
मध्य प्रदेश के उत्तरी-पूर्वी छोर पर स्थित रीवा, जिसे कभी 'विंध्य प्रदेश की राजधानी' होने का गौरव प्राप्त था, आज भी अपनी विशिष्ट पहचान, गौरवशाली इतिहास, और मनमोहक प्राकृतिक सौंदर्य के कारण भारतीय पर्यटन और इतिहास के मानचित्र पर चमकता है। लगभग 6,240 वर्ग किलोमीटर के त्रिभुजाकार क्षेत्र में फैला यह जिला, केवल पत्थरों और नदियों का संगम नहीं, बल्कि सफेद शेरों की जन्मभूमि और भारत की आधुनिक प्रगति का एक ज्वलंत उदाहरण भी है। रीवा की सबसे बड़ी और विश्वव्यापी पहचान है सफेद शेर पुण्य भूमि है जहाँ के बघेला राजाओं ने न केवल विश्व का पहला सफेद शेर पकड़ा, बल्कि उसे पाला और उसका संरक्षण किया। इस शाही विरासत का केंद्र था गोविंदगढ़ किला, जहाँ सर्वप्रथम सफेद शेर को रखा गया था। रीवा का वह महान गौरवशाली प्रतीक था – 'मोहन'। आज विश्व के हर कोने में जितने भी सफेद शेर पाए जाते हैं, वे सभी इसी 'मोहन' के वंशज हैं। इस अमूल्य विरासत को समर्पित करते हुए, भारत सरकार ने 1987 में एक डाक टिकट भी जारी किया था। इस विरासत को आगे बढ़ाते हुए, महाराजा मार्तण्ड सिंह बघेल व्हाइट टाइगर सफारी एवं चिड़ियाघर मुकुंदपुर रीवा और सतना की सीमा पर स्थित है। रीवा शहर से केवल 13 कि.मी. की दूरी (निपनिया-तमरा रोड) पर होने के कारण यह सतना की तुलना में रीवा से अधिक सुगम और नजदीक है, जो रीवा को सही मायनों में 'लैंड ऑफ़ व्हाइट टाइगर' सिद्ध करता है। 
रीवा का इतिहास बघेला राजपूतों के शौर्य और प्राचीन धर्म-संस्कृति की गाथा8ओं से भरा पड़ा है। रीवा शहर बिछिया और बीहर नदी के पवित्र संगम पर बसा है, और इसी संगम की गोद में खड़ा है सदियों पुराना रीवा किला। इस किले की नींव मूल रूप से 1539 ई. में शेरशाह सूरी के पुत्र जलाल खान द्वारा रखी गई थी, लेकिन इसका निर्माण 1617 ई. में राजा विक्रमदित्य द्वारा पूर्ण कराया गया।
रीवा किले का मुख्य भाग बघेला म्यूजियम कहलाता है, जो बघेला राजवंश की समृद्ध सांस्कृतिक और शाही विरासत को दर्शाता है। यह संग्रहालय अतीत के उन गौरवशाली क्षणों को जीवंत करता है जब रीवा विंध्य प्रदेश का गौरव था
रीवा किले के भीतर स्थित, भगवान महामृत्युंजय का मंदिर इस क्षेत्र का एक विशिष्ट धार्मिक केंद्र है। यहाँ स्थापित भगवान शिव का 1008 छिद्रों वाला शिवलिंग भारत में इकलौता है, जो इसे अत्यंत दुर्लभ और पूजनीय बनाता है। यह मंदिर बिछिया और बीहर नदी के संगम पर होने के कारण इसकी धार्मिक महत्ता और भी बढ़ जाती है। रीवा नगर के पूर्व दिशा में स्थित चिरहुला नाथ हनुमान जी का मंदिर एक प्रसिद्ध सिद्धपीठ है। इसका निर्माण महाराजा भाव सिंह के शासनकाल में हुआ था। मान्यता है कि इसकी स्थापना हनुमान जी की कृपा प्राप्त हनुमान दास ने की थी। यह मंदिर परिसर 12 ज्योतिर्लिंग मंदिरों, हवन मंडप, और रामसागर व खेमसागर हनुमान मंदिर से सुसज्जित है। प्रत्येक मंगलवार और शनिवार को यहाँ हजारों श्रद्धालु दर्शन के लिए आते हैं। पचमठा मंदिर  आदि-शंकराचार्य द्वारा अनुग्रहित माना जाता है। मान्यताओं के अनुसार, उन्होंने यहाँ कुछ दिन निवास किया था, और इसे उनके द्वारा स्थापित पांचवा मठ माना जाता है। देउर कोठा रीवा की प्राचीनता को दर्शाता एक अत्यंत महत्वपूर्ण बौद्ध स्तूप स्थल है। इसका निर्माण महान सम्राट अशोक द्वारा करवाया गया था, जो रीवा को मौर्यकालीन इतिहास से भी जोड़ता है।
रीवा का पठारीय क्षेत्र अपनी मनमोहक प्राकृतिक सुंदरता के लिए जाना जाता है। कैमोर और विंध्याचल की पहाड़ियों से उतरने वाली नदियाँ यहाँ कई शानदार जलप्रपातों का निर्माण करती हैं, जो इसे एक प्राकृतिक पर्यटन स्थल बनाते हैं। रीवा की जीवनरेखाएँ टोंस, बीहर और बिछिया नदियाँ हैं। रीवा के प्रमुख जलप्रपात, जो विंध्याचल की प्राकृतिक सुंदरता को दर्शाते है। चचाई जलप्रपात यह टोंस व तामस नदी की सहायक बीहर नदी पर स्थित है। यह रीवा शहर से लगभग 31 कि.मी. दूर मऊगंज में है। बहुती जलप्रपात यह जिले का एक अन्य प्रसिद्ध और दर्शनीय जलप्रपात है। केंवटी जलप्रपात रीवा का एक महत्वपूर्ण जलप्रपात, जो 'लैंड ऑफ़ व्हाइट टाइगर' की पहचान से जुड़ा है।।पुरवा जलप्रपात रीवा के पर्यटन स्थलों में शामिल एक और आकर्षक जलप्रपत है।रीवा केवल अतीत के गौरव तक सीमित नहीं है, बल्कि यह भारत की प्रगति में भी एक महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है। एशिया का सबसे बड़ा सोलर पार्क: रीवा की गुढ़ तहसील की बदवार पहाड़ियों पर एशिया का सबसे बड़ा सोलर पार्क (750 MW) बनाया गया है। इसका उद्घाटन 10 जुलाई 2020 को प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी द्वारा किया गया था। यह पार्क न केवल रीवा के लिए, बल्कि पूरे देश के लिए गौरव का विषय है, क्योंकि इससे उत्पन्न होने वाली बिजली की आपूर्ति दिल्ली मेट्रो को भी की जातीहै। 
हिंदी और बघेली भाषीय रीवा की पहचान केवल इतिहास और प्रगति से नहीं है, बल्कि यहाँ की विशिष्ट कला और संस्कृति से भी है। रीवा में सुपाड़ी  से बने खिलौने और मूर्तियाँ विश्व भर में प्रसिद्ध हैं। यह कला यहाँ के कारीगरों की अद्भुत शिल्प कौशल को दर्शाती है।।रीवा की समृद्ध संस्कृति का आधार यहाँ की मुख्य बोली बघेली भाषा है, जो इस क्षेत्र के बघेल और वरग्राही परिहार राजपूतों के शौर्य और गोंड तथा कोल आदिवासियों के मूल निवास के साथ-साथ एक समृद्ध भौगोलिक-सांस्कृतिक संगम का निर्माण करते है। रीवा में कई अन्य महत्वपूर्ण स्थल भी हैं जो इस क्षेत्र की धार्मिक और सांस्कृतिक समृद्धि को दर्शाते हैं:गोविंदगढ़ किला: गोविंदगढ़ में स्थित, यहाँ पहला सफेद शेर रखा गया था। यहाँ एक बड़ा तालाब भी है, जिसे भोपाल के बाद दूसरा सबसे बड़ा माना जाता है।।देवतालाब: भगवान शिव का एक अद्भुत मंदिर जो एक ही पत्थर से बना हुआ है।लक्ष्मणबाग धाम: एक महत्वपूर्ण धार्मिक केंद्र जहाँ चारो धाम के देवताओं की प्राण प्रतिष्ठा की गई है।।ढुढेश्वर नाथ मंदिर: गुढ़, रीवा में स्थित।रानी तालाब: रीवा शहर में स्थित एक प्रसिद्ध स्थल। शारदा माता मंदिर: बुड़वा मन्दिर है।।बसामन मामा मंदिर, साईं मंदिर, वैष्णवी देवी मंदिर और पडुई हनुमान मंदिर तमरा भी यहाँ के महत्वपूर्ण धार्मिक स्थलों में शामिल हैं।
 साहित्य का केंद्र: अखिल भारतीय अधिवेशन 2025 - रीवा की भूमि केवल इतिहास और पर्यटन तक ही सीमित नहीं है, बल्कि यह साहित्य और ज्ञान का भी केंद्र है। अखिल भारतीय साहित्य परिषद का 17वाँ अखिल भारतीय अधिवेशन 2025 रीवा के कृष्णा राजकपूर ऑडिटोरियम में आयोजित किया गया था (7, 8, 9 नवंबर 2025)।
इस महाधिवेशन में, साहित्यकार और इतिहासकार सत्येन्द्र कुमार पाठक ने भी बिहार से रीवा तक की यात्रा की, जहाँ उन्हें उनकी पुस्तक 'सम्मानित साहित्यकार' का लोकार्पण कवियित्री डॉ. उषाकिरण श्रीवास्तव, जी एन भट्ट, डॉ. रेणु मिश्रा, और डॉ. संगीता सागर जैसी विभूतियों द्वारा किया गया। हरियाणा के कवि डॉ. त्रिलोक चंद फतेहपुरी, महिला कॉलेज आरा की प्राध्यापिका डॉ रेणु मिश्रा ,  डॉ. स्नेहलता द्विवेदी, और ज्योति सिन्हा को भी इसी पुस्तक से सम्मानित किया गया। महाधिवेशन का उद्घाटन माननीय पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद और परिषद के राष्ट्रीय अध्यक्ष डॉ. सुशील चंद्र द्विवेदी मधुवेश ने किया। इस दौरान, साहित्य परिक्रमा त्रैमासिक पत्रिका में सत्येन्द्र कुमार पाठक का आलेख 'स्वयं की खोज से ब्रह्मांड की पहचान' भी भेंट किया गया। यह साहित्यिक आयोजन रीवा को राष्ट्रीय स्तर पर एक महत्वपूर्ण बौद्धिक केंद्र के रूप में स्थापित करता है।
रीवा, जो 24°18' और 25°12' उत्तरी अक्षांश तथा 81°2' और 82°18' पूर्वी देशांतर के बीच स्थित है, वास्तव में इतिहास, प्रकृति, और आधुनिकता का एक अद्भुत संगम है। यह 'लैंड ऑफ़ व्हाइट टाइगर' केवल एक भौगोलिक क्षेत्र नहीं है, बल्कि विंध्य के गौरव, बघेल शौर्य और प्रगतिशील भारत की एक सुंदर कहानी है।
विंध्य की ओर एक साहित्यिक यात्रा: रीवा के श्वेत गौरव और बौद्धिक संगम का संस्मरण
नवंबर 2025 का महीना, मौसम में हल्की ठंडक और मन में एक साहित्यिक उत्साह लिए हुए था। गंतव्य था 'लैंड ऑफ़ व्हाइट टाइगर'—मध्य प्रदेश का गौरव रीवा, जहाँ अखिल भारतीय साहित्य परिषद का 17वाँ अखिल भारतीय अधिवेशन आयोजित होने जा रहा था। मेरे लिए, यह केवल एक साहित्यिक कार्यक्रम में भाग लेना नहीं था, बल्कि विंध्य क्षेत्र के उस गौरवशाली इतिहास, प्रकृति और संस्कृति को छूने का अवसर था, जिसका बखान मैंने पुस्तकों में पढ़ा था । मेरी यात्रा 06 नवंबर 2025 को बिहार राज्य के अरवल जिले के करपी से शुरू हुई, जिसके उपरांत मैं जहानाबाद होते हुए पटना रेलवे स्टेशन की ओर अग्रसर हुआ। रीवा तक का मार्ग जटिल, पर रोमांच से भरा था—बस से जहानाबाद, फिर ट्रेन से सतना, और अंत में सतना से रीवा के लिए स्थानीय बस का सफर। पटना रेलवे स्टेशन के प्रतीक्षालय में ही यात्रा का पहला सुखद अध्याय जुड़ गया। वहाँ, 'दिव्य रश्मि' (हिंदी मासिक) के संपादक डॉ. राकेश दत्त मिश्र द्वारा मेरी पुस्तक 'सम्मानित साहित्यकार' और पत्रिका का लोकार्पण किया गया। यह क्षण यात्रा के आरंभ में ही एक सम्मान और ऊर्जा का संचार कर गया।
अगला पड़ाव पाटलिपुत्र जंक्शन था, जहाँ से मुजफ्फरपुर-सतना जाने वाली ट्रेन पकड़नी थी। 06 नवंबर की रात्रि में ट्रेन के डिब्बे में भी साहित्यिक ऊष्मा बनी रही। यहाँ स्वर्णिम कला केंद्र की अध्यक्षा कवयित्री डॉ. उषाकिरण श्रीवास्तव, 'निर्माण भारती' (हिंदी पाक्षिक) के संपादक जी एन भट्ट, महिला कॉलेज आरा की प्राध्यापिका डॉ. रेणु मिश्रा, और भारतीय जीवन बीमा की सहायक उप महाप्रबंधक डॉ. संगीता सागर जैसी साहित्यिक विभूतियाँ साथ थीं। इन्हीं के कर-कमलों से चलती ट्रेन में मेरी पुस्तक 'सम्मानित साहित्यकार' का पुनः लोकार्पण हुआ। एक पुस्तक का दो बार लोकार्पण होना, वह भी सफर के बीच, अपने आप में अविस्मरणी है।
अगले दिन, सतना से बस द्वारा रीवा पहुँचकर मैंने निराला नगर अवस्थित सरस्वती शिक्षा विद्यालय के रामानुज कक्ष में तीन दिनों (7, 8, 9 नवंबर) के लिए अपना निवास स्थान बनाया। रीवा की माटी पर कदम रखते ही एक ऐतिहासिक और सांस्कृतिक स्पंदन महसूस हुआ। यह शहर बिछिया और बीहर नदी के संगम पर बसा है, जिसकी महत्ता तुरंत ही मन को शांति प्रदान करती है। अधिवेशन का केंद्र था भव्य कृष्णा राजकपूर ऑडिटोरियम। महाधिवेशन का उद्घाटन माननीय पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद और परिषद के राष्ट्रीय अध्यक्ष डॉ. सुशील चंद्र द्विवेदी मधुवेश ने किया। सभागार में ज्ञान और साहित्य की गंगा बह रही थी। इस मंच पर हरियाणा के कवि एवं साहित्यकार डॉ. त्रिलोक चंद फतेहपुरी, डॉ. स्नेहलता द्विवेदी, और ज्योति सिन्हा जैसे विशिष्ट व्यक्तियों को मेरी पुस्तक 'सम्मानित साहित्यकार' से सम्मानित करने का अवसर प्राप्त हुआ, जो मेरे लिए निजी गौरव का विषय था। अधिवेशन के दौरान, मुझे अखिल भारतीय साहित्य परिषद न्यास की त्रैमासिक पत्रिका 'साहित्य परिक्रमा 2025' में मेरे द्वारा लिखित आलेख 'स्वयं की खोज से ब्रह्मांड की पहचान' की प्रति, साथ ही 'संघ साहित्य प्रवाह' और 'पुण्य क्षेत्रे रेवा खण्डे' नामक भेंट प्राप्त हुई, जिसने मेरे वैचारिक कोष को समृद्ध  है। 
साहित्यिक व्यस्तताओं के बीच, रीवा के असली गौरव—सफेद शेरों की विरासत—को देखना अनिवार्य था। रीवा का सबसे बड़ा गौरव, सफेद शेर 'मोहन' की यादें आज भी यहाँ की हवाओं में हैं। यह जानकर रोमांच हुआ कि विश्व के सभी सफेद शेरों का वंश यहीं की देन है। हम महाराजा मार्तण्ड सिंह बघेल व्हाइट टाइगर सफारी एवं चिड़ियाघर मुकुंदपुर पहुँचे। रीवा शहर से केवल 13 कि.मी. दूर होने के कारण यह यात्रा काफी सुगम रही। सफेद शेरों के संरक्षण का यह केंद्र उस इतिहास को जीवंत करता है जब बघेला राजाओं ने 'मोहन' को पकड़ा और पाला था। गोविंदगढ़ किले को देखना भी एक अनुभव रहा, जहाँ पहला सफेद शेर रखा गया था और जिसका बड़ा तालाब (भोपाल के बाद दूसरा सबसे बड़ा) आज भी शांत जल लिए खड़ा है । 
 प्राकृतिक और धार्मिक विरासत का अन्वेषण  - रीवा की पठारी भूमि कैमोर और विंध्याचल की पहाड़ियों से घिरी हुई है, जिसके कारण यह क्षेत्र मनमोहक जलप्रपातों का खजाना है। हालांकि समय कम था, लेकिन चचाई जलप्रपात, बहुती जलप्रपात, केंवटी जलप्रपात और पुरवा जलप्रपात जैसे प्राकृतिक सौंदर्य के बारे में सुनकर ही मन प्रफुल्लित हो गया। टोंस व तामस की सहायक बीहर नदी पर स्थित चचाई जलप्रपात को देखने की प्रबल इच्छा थी, जो रीवा से 31 किमी दूर मऊगंज में है। धार्मिक और ऐतिहासिक स्थलों में, रीवा किले के भीतर स्थित महामृत्युंजय मन्दिर का दर्शन किया, जहाँ भारत का इकलौता 1008 छिद्रों वाला विशिष्ट शिवलिंग स्थापित है। रीवा नगर के पूर्व दिशा में स्थित सिद्धपीठ चिरहुला नाथ हनुमान जी मंदिर की शांति और 12 ज्योतिर्लिंग मंदिरों के दर्शन ने मन को आध्यात्मिक ऊर्जा से भर दिया। सम्राट अशोक द्वारा बनवाए गए प्राचीन देउर कोठार बौद्ध स्तूपों को देखकर इस भूमि की ऐतिहासिक गहराई का अनुमान लगा। पचमठा मन्दिर, जहाँ आदि-शंकराचार्य ने निवास किया था, उस आध्यात्मिक परंपरा को दर्शाता है जो सदियों से इस क्षेत्र में प्रवाहित है।
 रीवा की यह यात्रा—एक साहित्यकार के लिए साहित्यिक अधिवेशन का केंद्र, एक इतिहासकार के लिए बघेला राजवंश और सफेद शेरों की गाथा, और एक प्रकृति प्रेमी के लिए विंध्य की नदियों और जलप्रपातों का वरदान—एक संपूर्ण और अविस्मरणीय अनुभव थी। 9 नवंबर 2025 को अधिवेशन की समाप्ति के बाद, मैं रीवा की समृद्ध स्मृतियाँ, साहित्यिक सम्मान और विंध्य के गौरवशाली अनुभव को हृदय में संजोकर वापस अपने घर की ओर प्रस्थान कर गया
महामृत्युंजय मन्दिर (रीवा किला) भगवान शिव का यह मंदिर रीवा किले के भीतर स्थित है। यहाँ 1008 छिद्रों वाला विशिष्ट शिवलिंग स्थापित है, जो भारत में इकलौता है और इसे अत्यंत दुर्लभ बनाता है।
श्री चिरहुलानाथ हनुमान जी मंदिर रीवा नगर के पूर्व दिशा में स्थित यह एक प्रसिद्ध सिद्धपीठ है। इसकी स्थापना महाराजा भाव सिंह के शासनकाल में हुई थी। मंदिर परिसर में 12 ज्योतिर्लिंग मंदिर और रामसागर व खेमसागर हनुमान मंदिर भी हैं।पचमठा मन्दिर यह आदि-शंकराचार्य द्वारा अनुग्रहित माना जाता है। मान्यता है कि उन्होंने यहाँ कुछ दिन निवास किया था, और इसे उनके द्वारा स्थापित पांचवा मठ माना जाता है।देवतालाब भगवान शिव का एक अत्यंत विशिष्ट मंदिर जो एक ही पत्थर (एक ही पाषाण) से निर्मित है। लक्ष्मणबाग धाम एक महत्वपूर्ण धार्मिक केंद्र जहाँ चारो धाम के देवताओं की प्राण प्रतिष्ठा की गई है। ढुढेश्वर नाथ मंदिर (गुढ़) रीवा जिले के गुढ़ में स्थित एक प्रसिद्ध शिव मंदिर। बसामन मामा मंदिर रीवा का एक प्रसिद्ध धार्मिक स्थल। शारदा माता मंदिर (बुड़वा) बुड़वा में स्थित शारदा माता को समर्पित मंदिर है।
बिछिया और बीहर नदी का संगम रीवा शहर इसी पवित्र संगम पर बसा हुआ है। रीवा किला और महामृत्युंजय मंदिर इसी संगम के तट पर स्थित हैं, जो इसके धार्मिक और ऐतिहासिक महत्व को बढ़ाते हैं।
टोंस, तामस व बीहर नदी का संबंध रीवा का पठारी क्षेत्र टोंस (तमसा) नदी की उपनदियों से सिंचित है। चचाई जलप्रपात टोंस व तामस की सहायक बीहर नदी पर स्थित है, जो इस क्षेत्र की जलधाराओं के संगम को प्राकृतिक सौंदर्य प्रदान करता है।
देउर कोठार बौद्ध स्तूप यह एक अत्यंत महत्वपूर्ण प्राचीन बौद्ध स्तूप स्थल है। इसका निर्माण महान सम्राट अशोक द्वारा करवाया गया था, जो रीवा को मौर्यकालीन इतिहास और बौद्ध धर्म से जोड़ता है। यह स्थल इस क्षेत्र की प्राचीन पुरातात्विक गहराई को दर्शाता है। रीवा किला (खंड/संरचनाएँ) यद्यपि यह एक किला है, इसकी प्राचीन दीवारें, संरचनाएँ, और निर्माण (मूलतः शेरशाह के पुत्र जलाल खान द्वारा शुरू और राजा विक्रमदित्य द्वारा पूर्ण) 16वीं और 17वीं शताब्दी के सैन्य वास्तुकला और इतिहास का पुरातात्विक प्रमाण प्रस्तुत करते हैं।
सांस्कृतिक स्थल - महाराजा मार्तण्ड सिंह बघेल व्हाइट टाइगर सफारी एवं चिड़ियाघर मुकुंदपुर यह रीवा की सबसे बड़ी पहचान, सफेद शेर (मोहन) के संरक्षण का केंद्र है। यह सांस्कृतिक रूप से महत्वपूर्ण है क्योंकि यह बघेला राजाओं की उस विरासत को समर्पित है जहाँ उन्होंने दुनिया का पहला सफेद शेर पकड़ा और पाला था।रीवा किला और बघेल संग्रहालय बीहर और बिछिया नदी के संगम पर स्थित यह किला बघेला राजवंश का मुख्यालय रहा है। किले का मुख्य भाग अब बघेला म्यूजियम कहलाता है, जो रीवा की समृद्ध शाही और सांस्कृतिक विरासत को संरक्षित करता है।।गोविंदगढ़ किला यह किला वह स्थान था जहाँ पहला सफेद शेर रखा गया था। यह बघेला राजवंश के इतिहास और सफेद शेर की कहानी से जुड़ा एक महत्वपूर्ण सांस्कृतिक प्रतीक है । 
देउर कोठार - देउर कोठार मध्य प्रदेश के रीवा जिले में स्थित एक अत्यंत महत्वपूर्ण पुरातात्विक स्थल है, जो अपनी प्राचीनता और बौद्ध स्तूपों के लिए जाना जाता है। यह स्थल रीवा के गौरवशाली इतिहास को मौर्यकालीन युग से जोड़ता है मौर्य सम्राट अशोक के शासनकाल (ईसा पूर्व तीसरी शताब्दी) से संबंधित माना जाता है। यह स्थल विंध्य क्षेत्र में बौद्ध धर्म के प्रसार के अशोक के प्रयासों को दर्शाता है।  बौद्ध स्थल वर्ष 1982 में प्रकाश में आया था। इसकी खोज का श्रेय भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (ASI) के पी.के. मिश्रा और स्थानीय शोध जिज्ञासु अजीत सिंह को दिया जाता है। इसकी महत्ता को समझते हुए, भारत सरकार ने 1988 में देउर कोठार को राष्ट्रीय महत्व का स्मारक घोषित किया।साइट पर नियंत्रित उत्खनन 1999-2000 के बीच भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण द्वारा किया गया। देउर कोठार सांची और भरहुत जैसे प्रसिद्ध बौद्ध स्थलों की ही श्रृंखला में आता है, और कुछ विद्वानों का मानना है कि यहाँ के स्तूप भरहुत से भी अधिक प्राचीन हो सकते है यहाँ मौर्यकालीन मिट्टी की ईंटों से बने तीन बड़े स्तूप और पत्थरों के लगभग 46 छोटे स्तूपों के अवशेष मिले हैं। स्तूप संख्या 1 लगभग 9 मीटर (30 फीट) ऊँचा है। अशोक ने विंध्य क्षेत्र में बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए, भगवान बुद्ध के अवशेषों को वितरित कर, इन स्तूपों का निर्माण करवाया था । यहाँ के पुरातात्विक प्रमाणों से यह संकेत मिलता है कि देउर कोठार मौर्यकाल में बौद्ध भिक्षुओं के लिए एक आध्यात्मिक स्थल, शिक्षण केंद्र और साधना का केंद्र रहा है ।  देउर कोठार में बौद्ध स्तूपों के अतिरिक्त, लगभग 63 शैलाश्रय (rock shelters) भी मौजूद हैं। इनमें से कई गुफाओं में लगभग 5000 वर्ष पुराने शैलचित्र (रॉक पेंटिंग) और भित्ति चित्र पाए गए हैं, जिन्हें आदिमानव द्वारा लाल और सफेद रंगों से उकेरा गया था। यह इस क्षेत्र की प्रागैतिहासिक और ऐतिहासिक दोनों कालों से जुड़ाव को सिद्ध करता है।ब्राह्मी शिलालेख: यहाँ चट्टानों पर ब्राह्मी लिपि में उकेरे गए शिलालेख (Inscriptions) भी मिले हैं, जिनमें दानदाताओं के नाम दर्ज हैं। स्तंभ शिलालेख: देउर कोठार स्तंभ पर छह-पंक्ति का ब्राह्मी शिलालेख पाया गया है, जिसे ऐतिहासिक बुद्ध का सबसे प्रारंभिक प्रमाण माना जाता है। देउर कोठार एक समय में एक व्यस्त वाणिज्यिक शहर का हिस्सा था, जो 'दक्षिणापथ' नामक प्राचीन व्यापार मार्ग पर स्थित था। यह मार्ग कौशाम्बी (कौशाम्बी) से उज्जैन और इंदौर तक जाता था, जिससे बौद्ध अनुयायियों के लिए यह एक महत्वपूर्ण पड़ाव बन गया था। यह रीवा-इलाहाबाद (प्रयागराज) मार्ग पर कटरा के निकट स्थित है। रीवा शहर से इसकी दूरी लगभग 66-67 कि.मी. है। चिरहुला नाथ हनुमान जी मंदिर-  यह रीवा नगर के पूर्व दिशा में स्थित एक प्रसिद्ध सिद्धपीठ है। यहाँ 12 ज्योतिर्लिंग मंदिर और हवन मंडप भी स्थित हैं। रीवा शहर के भीतर होने के कारण, यह स्थल बौद्ध स्तूपों के दर्शन के बाद शहर में रुकने वाले श्रद्धालुओं के लिए सुगम है।  पचमठा मन्दिर - महत्व: यह मंदिर आदि-शंकराचार्य से जुड़ा है। मान्यता है कि आदि-शंकराचार्य ने यहाँ कुछ दिन निवास किया था, और इसे उनके द्वारा स्थापित पांचवें मठ के रूप में देखा जाता है, जो हिंदू धर्म के अद्वैत दर्शन की परंपरा को दर्शाता है। यह स्थल बौद्ध और जैन धर्म के उत्थान के समय हिंदू धर्म के पुनरुत्थान के प्रयासों का प्रतीक है। गोविंदगढ़ किला और तालाब -  यह स्थल ऐतिहासिक रूप से बघेला राजवंश और सफेद शेर 'मोहन' से जुड़ा है। यहाँ स्थित बड़ा तालाब धार्मिक अनुष्ठानों और स्थानीय सांस्कृतिक आयोजनों के लिए महत्वपूर्ण है। रीवा और सतना के बीच स्थित, यह देउर कोठार से आने वाले पर्यटकों के लिए एक सुविधाजनक दर्शनीय स्थल है ।देवतालाब मंदिर रीवा जिले के त्योंथर तहसील क्षेत्र में स्थित है और यह अपनी अद्वितीय वास्तुकला और धार्मिक महत्व के लिए प्रसिद्ध है ।
महामृत्युंजय मंदिर रीवा शहर का हृदय है, जो शाही इतिहास और गहन आध्यात्मिकता को जोड़ता है। यह मंदिर रीवा किले के परिसर में स्थित है।रीवा किले के भीतर, बिछिया और बीहर नदी के पवित्र संगम पर। लिंगम की विशिष्टता इस मंदिर का सबसे बड़ा गौरव यहाँ स्थापित विशिष्ट शिवलिंग है, जिसमें 1008 छिद्र  हैं। पूरे भारत में यह अपनी तरह का इकलौता शिवलिंग माना जाता है। मंदिर उसी समय से संबंधित है जब रीवा किले का निर्माण पूर्ण हुआ था (मुख्य रूप से 17वीं शताब्दी, राजा विक्रमदित्य के शासनकाल में)। यह सदियों से बघेला राजवंश के इष्टदेव का मंदिर रहा है। महामृत्युंजय मंदिर में महामृत्युंजय मंत्र का जाप और अनुष्ठान करने से अकाल मृत्यु का भय दूर होता है, ऐसी मान्यता है। यह मंदिर भक्तों के बीच गहन आस्था का केंद्र है। किले के भीतर स्थित होने के कारण, पर्यटक एक ही स्थान पर रीवा किला, बघेल संग्रहालय और इस पवित्र मंदिर के दर्शन कर सकते हैं। ये दोनों मंदिर रीवा की धार्मिक और सांस्कृतिक विरासत के दो मजबूत स्तंभ हैं, जिनमें से एक (देवतालाब) अपनी अनूठी वास्तुकला के लिए, तो दूसरा (महामृत्युंजय) अपने दुर्लभ और विशिष्ट शिवलिंग के लिए जाना जाता ह

गुरुवार, अक्टूबर 30, 2025

सूर्योपासना

वैवस्वत मनु, देवमाता अदिति और सूर्योपासना 
सत्येन्द्र कुमार पाठक 
भारतीय पौराणिक इतिहास का आरंभिक काल, विशेषकर सप्तम मन्वन्तर, महर्षि कश्यप की पत्नी देवमाता अदिति और उनके पुत्रों आदित्यों के वंश से जुड़ा हुआ है। यह वंश न केवल देवताओं का मूल स्रोत है, बल्कि इसी से वैवस्वत मनु का प्रादुर्भाव हुआ, जिन्हें वर्तमान मानव जाति का आदि-पिता माना जाता है।
देवमाता अदिति का वंश ब्रह्मा जी से जुड़ा हुआ है। वह ब्रह्मा जी के पौत्री, दक्ष प्रजापति की पुत्री संप्रति की पुत्री थीं। उनका विवाह ब्रह्मा जी के पुत्र मरीचि के पुत्र, महान ऋषि कश्यप से हुआ। अदिति को 'देवमाता' कहा जाता है, जिसका अर्थ है देवताओं की माता। अदिति के 12 तेजस्वी पुत्रों को द्वादश आदित्य कहा गया है, जो सृष्टि के कल्याण और व्यवस्था के प्रतीक हैं। ये आदित्य इस प्रकार हैं: विवस्वान (सूर्य देव) , अर्यमा ,पूषा ,त्वष्ठा , सविता ,भग ,धात , वैवस्वत (मनु) , वरुण ,मित्र ,इंद्र , विष्णु (वामन रूप में) है।  इनके अतिरिक्त, अदिति की एक पुत्री इला का भी उल्लेख मिलता है, जो वंश विस्तार में महत्त्वपूर्ण थीं। इन पुत्रों में, विवस्वान (सूर्य देव) का स्थान सृष्टि के काल-चक्र और ऊर्जा के स्रोत के रूप में अत्यंत महत्वपूर्ण है।
देवमाता अदिति के पुत्र विवस्वान (सूर्य देव) का विवाह विश्वकर्मा की पुत्री संज्ञा (या विवस्वती संज्ञा) से हुआ। इस तेजस्वी जोड़े की संतानों ने सृष्टि के काल-चक्र और धर्म-व्यवस्था में निर्णायक भूमिका निभाई:मन्वन्तर संचालक वैवस्वत मनु: ये वर्तमान (सातवें) मन्वन्तर के संचालक हैं और इन्हें मानव जाति का 'आदि-पिता' माना जाता है। मृत्युदेव यम धर्मराज: मृत्यु और धर्म के देवता।देव वैद्य अश्विनी कुमार: देवताओं के चिकित्सक। यमुना: नदी के रूप में प्रतिष्ठित पुत्री थी । वैवस्वत मनु ने ही जल प्रलय के पश्चात् शेष बची सृष्टि को पुनः स्थापित किया। उन्हें मानव जाति का प्रथम पिता कहा जाता है, जिससे आगे चलकर सूर्यवंश और चंद्रवंश जैसी महान राजवंशावलियाँ निकलीं। पत्नी और संतान: मनु की पत्नी श्रद्धा थीं, जिनसे उनके नौ तेजस्वी पुत्र और एक पुत्री थीं: पुत्र: इक्ष्वाकु, नरिष्यन्त, करुष, धृष्ट, शर्याति, नभग, पृषध्र, कवि। पुत्री: इला थी । वैवस्वत मनु का कार्यक्षेत्र प्राचीन भारतीय सभ्यता के विकास में केंद्रीय भूमिका निभाता है: सरस्वती नदी क्षेत्र: उनका मुख्य निवास और कार्यक्षेत्र प्राचीन काल की महत्वपूर्ण नदी सरस्वती के किनारे माना जाता है। यह क्षेत्र वैदिक संस्कृति का केंद्र था। उत्तर भारत: उनका साम्राज्य हिमालय के दक्षिण में और गंगा नदी के मैदानी इलाकों तक फैला था। अयोध्या: पौराणिक स्रोतों के अनुसार, उनका संबंध अयोध्या से भी था, जो बाद में उनके ज्येष्ठ पुत्र इक्ष्वाकु के वंशजों (सूर्यवंश) की राजधानी है।वैवस्वत मनु के पुत्रों ने भारत के विभिन्न क्षेत्रों में अपने वंश और साम्राज्य की स्थापना की, जिससे सभ्यता का भौगोलिक विस्तार हुआ।
इक्ष्वाकु सूर्यवंश अयोध्या, कोसल। पुत्र निमि का क्षेत्र: गंडकी प्रदेश, बागमती प्रदेश, वर्तमान बज्जि, मिथिला, नेपाल का क्षेत्र। ,शर्याति शैर्यत/शार्यात कीकट प्रदेश (वर्तमान मगध, सोन प्रदेश, फल्गु प्रदेश, पुनपुन प्रदेश, गांगेय प्रदेश), पंजाब, हरियाणा और उसके आसपास के क्षेत्र। , करुष कारूष मध्य भारत क्षेत्र, बघेलखण्ड, कौशाम्बी (कौशाम्बी वंशीय)। ,नरिष्यन्त नैरिष्यन्त (पश्चिमी क्षेत्र) , धृष्ट धृष्टकुल/धृष्टवंश (मध्यवर्ती क्षेत्र) ,नभग नाभाग/नाभागवंशी (उत्तर-पश्चिमी क्षेत्र) , पृषध्र पृषध्रवंश (दक्षिणी क्षेत्र) ,कवि कविवंश/काव्यवंशी (धार्मिक और आध्यात्मिक क्षेत्र) ,शर्याति वंश का कीकट/मगध में योगदान:शर्याति का कार्यक्षेत्र आरंभ में उत्तर भारत (पंजाब, हरियाणा) में था, किंतु बाद में उनका संबंध कीकट प्रदेश (वर्तमान बिहार के मगध, सोन, फल्गु, पुनपुन क्षेत्र) से जुड़ा। उनकी पुत्री सुकन्या का विवाह महान च्यवन ऋषि से हुआ। सुकन्या और च्यवन ऋषि के पुत्र प्रमति ने ही सोन प्रदेश, गांगेय प्रदेश आदि की नींव रखी थी, जो इस क्षेत्र में मनु के वंश के प्रभाव को स्थापित करता है । 
वैवस्वत मनु की पुत्री इला का विवाह बुध से हुआ, जो चंद्र (सोम) और तारा के पुत्र थे। बुध को मगध, कीकट, फल्गु प्रदेश के क्षेत्र का राजा माना जाता है। इला और बुध के वंश से चंद्रवंश का उदय हुआ।
इला-बुध के पुत्रों के क्षेत्र: गय ने  गया , उत्कल ने उड़ीसा , विशाल ने वैशाली  (वर्तमान बिहार) , इक्ष्वाकु के पुत्र  निमि वंशीय    ने मिथिला , नेपाल । वसु: वसुनागर।विशाल: बज्जि प्रदेश (वर्तमान कीकट, मगध, झारखण्ड क्षेत्र)। है। यह विवरण दर्शाता है कि मनु के वंशजों ने भारत के उत्तर-पश्चिम से लेकर मध्य और पूर्वी क्षेत्रों (मगध, मिथिला) तक सनातन धर्म के सौर संस्कृति  सभ्यता का विकास हुआ था । पौराणिक स्रोतों के अनुसार, वैवस्वत मनु के वंशजों और उनके निकट संबंधियों ने सूर्योपासना को अपने-अपने क्षेत्रों में स्थापित किया। वैवस्वत मनु की पुत्री इला, उनके दामाद बुध, पुत्र शर्याति और इक्ष्वाकु, तथा च्यवन ऋषि एवं देव वैद्य अश्विनी कुमार ने अपने क्षेत्रों में सूर्य की पूजा और छठ पूजा (सूर्य षष्ठी व्रत) का आरंभ किया। यह परंपरा आज भी पूर्वी भारत, विशेष रूप से बिहार, झारखण्ड और पूर्वी उत्तर प्रदेश में एक महान और पवित्र पर्व छठ के रूप में प्रचलित है, जो आदिकाल में हुए सूर्य के तेज और जीवन-प्रदायिनी शक्ति के प्रति श्रद्धा को दर्शाता है। देवमाता अदिति के वंशज और वैवस्वत मनु का इतिहास केवल एक पौराणिक गाथा नहीं है, बल्कि यह प्राचीन भारतीय सभ्यता के भौगोलिक विस्तार, राजनैतिक वंशावलियों (सूर्यवंश और चंद्रवंश), और सांस्कृतिक तथा धार्मिक परंपराओं (जैसे छठ पूजा) की जड़ों को दर्शाता है। मनु और उनके पुत्रों के माध्यम से ही मानव समाज ने संगठित होकर भारत के विशाल भूभाग पर अपनी संस्कृति का विस्तार किया था ।

गुरुवार, अक्टूबर 16, 2025

बिहार विधान सभा : लोकतंत्र का मंदिर

बिहार विधानसभा और जनतांत्रिक चुनाव 
सत्येन्द्र कुमार पाठक 
बिहार विधानसभा का इतिहास कई संवैधानिक सुधारों और महत्वपूर्ण राजनीतिक बदलावों से होकर गुजरा है। इसका विकास 19वीं सदी की शुरुआत से ही विधायी परिषद के रूप में शुरू हुआ, जो आज एक पूर्ण विकसित द्विसदनीय विधानमंडल है। बिहार विधानसभा के विकास के प्रमुख चरण. बिहार एवं उड़ीसा राज्य का गठन (1912)।22 मार्च 1912 को, बंगाल से अलग होकर 'बिहार एवं उड़ीसा राज्य' अस्तित्व में आया। सर चार्ल्स स्टुअर्ट बेली इस नए राज्य के पहले उप राज्यपाल बने। इसकी विधायी प्राधिकार के रूप में 43 सदस्यीय विधायी परिषद् का गठन किया गया, जिसमें 24 सदस्य निर्वाचित और 19 सदस्य मनोनीत थे। इस परिषद् की पहली बैठक 20 जनवरी 1913 को पटना में हुई। . द्विसदनीयता की शुरुआत और विधानसभा भवन (1919-1937) भारत सरकार अधिनियम, 1919: इस अधिनियम ने केंद्रीय स्तर पर द्विसदनीय विधायिका की शुरुआत की और इसके साथ ही, कई प्रांतों (बिहार सहित) में भी विधायी परिषद् को द्विसदनीय विधानमंडल में बदलने की प्रक्रिया शुरू हुई।
विधानसभा भवन: वर्तमान विधानसभा भवन मार्च 1920 में बनकर तैयार हुआ। 7 फरवरी 1921 को विधानसभा के नव-निर्मित भवन में पहली बैठक हुई थी, जिसे बिहार के पहले गवर्नर लॉर्ड सत्येंद्र प्रसाद सिन्हा ने संबोधित किया था। भारत सरकार अधिनियम, 1935: इस अधिनियम के तहत, बिहार और उड़ीसा अलग-अलग प्रांत बन गए, और द्विसदनीय विधानमंडल प्रणाली (विधान सभा और विधान परिषद्) को औपचारिक रूप से लागू किया गया। पहली बिहार विधान परिषद् की स्थापना 22 जुलाई 1936 को हुई थी, जिसके पहले अध्यक्ष राजीव रंजन प्रसाद थे।
बिहार विधानसभा के दोनों सदनों का पहला संयुक्त अधिवेशन 22 जुलाई 1937 को हुआ, जिसमें राम दयालु सिंह को बिहार विधानसभा का अध्यक्ष चुना गया।. स्वतंत्रता और प्रथम सरकार (1946-1952) अंतरिम सरकार (1946): स्वतंत्रता से पहले, 25 अप्रैल 1946 को बिहार में अंतरिम सरकार का गठन किया गया। इस विधानसभा के वक्ता (स्पीकर) बिंदेश्वरी प्रसाद वर्मा थे। पहले मुख्यमंत्री: डॉ. श्री कृष्ण सिंह सदन के पहले नेता बने और उन्हें बिहार का पहला मुख्यमंत्री (1946 में अंतरिम और 1952 में लोकतांत्रिक रूप से निर्वाचित) होने का गौरव प्राप्त हुआ। पहले उपमुख्यमंत्री: डॉ. अनुग्रह नारायण सिंह सदन के पहले उपनेता और बिहार के पहले उपमुख्यमंत्री चुने गए। स्वतंत्र भारत में विधानसभा (1952 से वर्तमान तक) पहला आम चुनाव (1952): स्वतंत्र भारत के संविधान के तहत बिहार विधानसभा का पहला चुनाव 1951 (परिणाम 1952) में हुआ। इस चुनाव में कांग्रेस को भारी जीत मिली, और श्री कृष्ण सिंह मुख्यमंत्री बने।पहली विधानसभा में सदस्यों की कुल संख्या 331 थी (जिसमें एक मनोनीत सदस्य भी शामिल था)। झारखंड का गठन (नवंबर 2000): बिहार पुनर्गठन विधेयक के पारित होने के बाद झारखंड अलग राज्य बना। इसके परिणामस्वरूप, बिहार विधानसभा की सीटें घटकर वर्तमान में 243 रह गईं। मध्यवधि चुनाव: 1967 के चौथे आम चुनाव के बाद विधानसभा के विघटन के चलते 1969 में पहली बार मध्यावधि चुनाव हुए।  राज्य में अब तक पाँच बार राष्ट्रपति शासन के दौरान विधानसभा चुनाव हुए हैं। बिहार विधानसभा ने कई ऐतिहासिक कानून पारित किए हैं, जिनमें से कुछ प्रमुख हैं: चंपारण भूमि-संबंधी अधिनियम, 1918: महात्मा गांधी के चंपारण सत्याग्रह के बाद 'तिनकठिया' व्यवस्था से किसानों को राहत दिलाने के लिए यह महत्वपूर्ण कानून विधान परिषद् में पारित हुआ था। जमींदारी उन्मूलन कानून: आजादी के तुरंत बाद, बिहार देश का पहला राज्य बना जिसने जमींदारी प्रथा को खत्म करने के लिए कानून बनाने की घोषणा की, जिसका मसौदा के.बी. सहाय ने तैयार किया था।।बिहार सिविल कोर्ट बिल, 2021: इस विधेयक के पारित होने के बाद, राज्य को 72 साल बाद सिविल कोर्ट के संचालन के लिए अपना कानून मिला, जो पुराने 1857 के अंग्रेजों के समय के कानून की जगह लेता है। 
बिहार विधानसभा चुनाव 2025 की रणभेरी बज चुकी है, और यह चुनाव एक बार फिर बिहार की राजनीति की चिर-परिचित विडंबना को उजागर करता है: जहाँ एक ओर विकास, रोज़गार, महंगाई और भ्रष्टाचार जैसे गंभीर जनहित के मुद्दे अपनी जगह बनाए हुए हैं, वहीं दूसरी ओर चुनाव का माहौल जातीय और सामाजिक ध्रुवीकरण के इर्द-गिर्द सिमटता नज़र आ रहा है। यह चुनाव केवल राजनीतिक दलों के बीच नहीं, बल्कि 'मुद्दों' और 'पहचान की राजनीति' के बीच भी एक निर्णायक संघर्ष है। जन विवरण के अनुसार, बिहार चुनाव का विमर्श विकास के बजाय निम्नलिखित प्रतीकात्मक और जातीय नारों में उलझ गया है: 'माई' (मुस्लिम-यादव), 'दम' (दलित-मुस्लिम), 'कम': ये जातीय समीकरण पर आधारित नारे हैं, जो पारंपरिक रूप से किसी एक विशिष्ट राजनीतिक धड़े की पहचान रहे हैं। भुराबाल साफ करो': यह नारा एक खास सवर्ण समूह (भूमिहार, राजपूत, ब्राह्मण, लाला) के वर्चस्व को खत्म करने का आह्वान करता है, जो स्पष्ट रूप से पुरानी जातीय दुश्मनी को हवा देने की कोशिश है। आरक्षण, एस सी / एस टी / एक्ट, और जातिवाद: इन विषयों को चुनावी बहस के केंद्र में लाकर, राजनीतिक दल समाज के एक बड़े वर्ग को भावनात्मक रूप से एकजुट करने की कोशिश कर रहे हैं, भले ही इसके कारण रोज़मर्रा के जीवन से जुड़े वास्तविक मुद्दे पीछे छूट जाएँ। जनहित के मुद्दों का गौण होना: सबसे बड़ी आलोचना यह है कि बेरोज़गारी, पलायन, बदहाल शिक्षा और स्वास्थ्य व्यवस्था जैसे गंभीर मुद्दे, जो बिहार के युवाओं और आम जनता की सबसे बड़ी समस्याएँ हैं, चुनावी मंच से पीछे धकेल दिए गए हैं। हालाँकि, चुनावी खबरें बताती हैं कि विपक्ष (इंडिया गठबंधन/महागठबंधन) द्वारा रोज़गार, पलायन, अपराध और भ्रष्टाचार कृषि जैसे मुद्दों को लगातार उठाया जा रहा है, पर प्रमुख विमर्श अभी भी पहचान की राजनीति  पर टिका है।
जातिवाद का राजनीतिक हथियार: जातिवाद, जो सदियों से बिहार के सामाजिक ताने-बाने को प्रभावित करता रहा है, इस चुनाव में एक बार फिर राजनीतिक दलों का सबसे धारदार हथियार बन गया है। विभिन्न जातीय समूहों को साधने की यह रणनीति, तात्कालिक चुनावी लाभ तो दे सकती है, लेकिन यह समावेशी विकास और सामाजिक सद्भाव की राह में बड़ी बाधा है। प्रशासनिक और मूलभूत सुविधाओं पर कम ध्यान: बिहार को 19वीं सदी की शुरुआत से ही विधायी परिषद और विधानसभा भवन जैसी संस्थाओं के विकास का लंबा इतिहास मिला है, जिसने 1952 के बाद लोकतांत्रिक रूप से निर्वाचित सरकार की स्थापना की। इतने लंबे राजनीतिक इतिहास के बावजूद, आज भी चुनाव की मुख्य चर्चा में सड़क, बिजली, पानी, बेहतर कानून व्यवस्था जैसे मूलभूत प्रशासनिक सुधारों पर कम और जातीय गोलबंदी पर ज़्यादा ज़ोर है। भले ही दोनों प्रमुख गठबंधन (एनडीए और इंडिया गठबंधन) अपनी पूरी ताकत झोंक रहे हों, लेकिन यह चुनाव कई मायनों में नेतृत्व और विश्वसनीयता की कसौटी भी है। अनुभवी नेताओं के दावों और युवा नेतृत्व के वादों के बीच, मतदाताओं के लिए यह तय करना चुनौती होगा कि कौन बिहार के विकास के लिए अधिक विश्वसनीय चेहरा है। राजनीतिक अस्थिरता और दल-बदल की प्रवृत्ति ने भी नेताओं की विश्वसनीयता को प्रभावित किया है।
प्रमुख राजनीतिक खिलाड़ी और उनकी रणनीतियाँ में  गठबंधन प्रमुख दल मुख्य रणनीति में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन भाजपा, जदयू, लोजपा (रामविलास) आदि सत्ता विरोधी लहर को थामना, केंद्र की योजनाओं और सुशासन के दावों पर ज़ोर, नीतीश कुमार के नेतृत्व को बनाए रखना। लंबे समय तक सत्ता में रहने के कारण प्रशासनिक कमियों, खासकर रोज़गार सृजन और पलायन के मुद्दे पर जनता के सवालों का सामना करना। जातीय समीकरणों को साधने में संतुलन की चुनौती है। इंडिया गठबंधन (महागठबंधन) राजद, कांग्रेस, वाम दल, वीआईपी आदि युवा चेहरा (तेजस्वी यादव), रोज़गार के वादे, सामाजिक न्याय के नारों से अतिपिछड़ा और दलित वोटों को एकजुट करना, केंद्र और राज्य की विफलताओं को उजागर करना। सीट बंटवारे और मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार को लेकर आंतरिक खींचतान, पुराने 'जंगल राज' के आरोपों से खुद को मुक्त करने की चुनौती। क्षेत्रीय/अन्य दल जन सुराज, सुभासपा, एआईएमआईएम आदि क्षेत्रीय/जातीय आधार पर वोटों का बंटवारा करना और सत्ता विरोधी वोटों को खींचना। मुख्य मुकाबला दो गठबंधनों के बीच होने के कारण इनकी प्रासंगिकता सीटों के समीकरण बिगाड़ने तक सीमित हो सकती है। बिहार विधानसभा चुनाव 2025, 'सत्ता में निरंतरता' और 'परिवर्तन की बयार'के बीच का चुनाव है। चुनाव आयोग की घोषणा और प्रत्याशियों की सूची जारी होने के बाद चुनावी सरगर्मी तेज हो गई है, लेकिन यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि चुनावी विमर्श एक बार फिर जातीय गणित के चक्रव्यूह में फँस गया है। बिहार के इतिहास ने दिखाया है कि यहाँ की जनता ने समय-समय पर बड़े संवैधानिक सुधारों (जमींदारी उन्मूलन, 1918 का चंपारण भूमि अधिनियम) और लोकतांत्रिक बदलावों का समर्थन किया है। यह चुनाव एक अवसर है कि राजनीतिक दल 'माई', 'कम', और 'भुराबाल' जैसे प्रतीकों से ऊपर उठकर, बिहार को पलायन से मुक्त करने, औद्योगिकरण को बढ़ावा देने और शिक्षा-स्वास्थ्य की गुणवत्ता में सुधार करने के लिए स्पष्ट रोडमैप प्रस्तुत करें। अंतिम रूप से, यह बिहार के प्रबुद्ध मतदाताओं पर निर्भर करेगा कि वे जातीय भावनाओं से संचालित होते हैं या फिर राज्य के उज्जवल भविष्य को सुनिश्चित करने वाले वास्तविक विकास के एजेंडे को चुनते हैं।
बिहार की 18वीं विधान सभा चुनाव 2025 के लिए भारत चुनाव आयोग द्वारा 243 निर्वाचन क्षेत्रों के लिए बिहार विधानसभा चुनाव, 2025 हेतु 06 और 11 नवम्बर 2025 को मतदान होने वाला है और मत गणना 14 नवम्बर को भारत निर्वाचन आयोग द्वारा आयोजित किया जाएगा। बिहार विधानसभा का कार्यकाल 22 नवंबर 2025 को समाप्त होने वाला है। पिछला विधानसभा चुनाव अक्टूबर–नवंबर 2020 में हुआ था। चुनाव के बाद, राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन ने राज्य सरकार बनाई और नीतीश कुमार मुख्यमंत्री बने। भारत निर्वाचन आयोग ने 06 अक्टूबर 2025 को बिहार विधान सभा चुनाव के कार्यक्रम का आधिकारिक रूप से घोषणा किया। बिहार विधानसभा चुनाव दो चरणों में होने वाले हैं।
बिहार विधानसभा चुनाव 2025 का कार्यक्रम  - 
पहला चरण (121 सीटें) दूसरा चरण (122 सीटें)
अधिसूचना दिनांक 10 अक्टूबर 2025 10 अक्टूबर 2025
नामांकन दाखिल करने की अंतिम तिथि 17 अक्टूबर 2025 20 अक्टूबर 2025
नामांकन की जांच 18 अक्टूबर 2025 21 अक्टूबर 2025
नामांकन वापस लेने की अंतिम तिथि 20 अक्टूबर 2025 23 अक्टूबर 2025
मतदान की तिथि 06 नवम्बर 2025 11 नवम्बर 2025
मतगणना की तिथि 14 नवम्बर 2025 14 नवम्बर 2025 को होगा।
बिहार विधानसभा के 243 निर्वाचन क्षेत्रों की सूची में : पश्चिमी चंपारण जिले में :वाल्मीकि नगर , राम नगर (एससी) , नरकटियागंज , बगहा ,लउरिया ,नौतन ,चनपटिया।बेतिया , सिकटा , पूर्वी चंपारण जिले : 10. रक्सौल 11. सुगौली 12. नरकटिया 13. हरसिद्धि 14. गोविंदगंज (लोजपा (आर) राजू तिवारी) 15. केसरिया 16. कल्याणपुर 17. पिपरा 18. मधुबन 19. मोतिहारी 20. चिरैया 21. ढाका ,शिवहर (22): 22. शिवहर ,सीतामढ़ी जिले (23-30): 23. रिगा (भाजपा बैद्यनाथ प्रसाद) 24. बथनाहा (एससी) 25. परिहार 26. सुरसंड 27. बाजपट्टी 28. सीतामढ़ी (भाजपा सुनील कुमार पिंटू) 29. रून्नीसैदपुर 30. बेलसंड ,मधुबनी जिले (31-40): 31. हरलाखी 32. बेनीपट्टी (भाजपा विनोद नारायण झा) 33. खजौली (भाजपा अरुण शंकर प्रसाद) 34. बाबूबरही 35. बिस्फी (भाजपा हरिभूषण ठाकुर बचौल) 36. मधुबनी (राष्ट्रीय लोक मोर्चा माधव आनन्द) 37. राजनगर (एससी) (भाजपा सुजीत पासवान) 38. झंझारपुर ,  39. फुलपरास 40. लौकाहा ,सुपौल जिले : 41. निर्मली 42. पिपरा 43. सुपौल 44. त्रिवेणीगंज (एससी) 45. छातापुर ,  ,अररिया जिले (46-51): 46. नरपतगंज ,  47. रानीगंज (एससी) 48. फारबिसगंज (भाजपा विद्या सागर केशरी) 49. अररिया 50. जोकीहाट 51. सिकटी , ,किशनगंज जिले (52-55): 52. बहादुरगंज 53. ठाकुरगंज 54. किशनगंज , 55. कोचाधामन , पूर्णिया जिले (56-62): 56. अमौर 57. बैसी 58. कस्बा 59. बनमनखी (एससी) , 60. रूपौल 61. धमदाहा 62. पूर्णिया ,  कटिहार जिले (63-69): 63. कटिहार , 64. कड़वा 65. बलरामपुर ,  66. प्राणपुर (भाजपा निशा सिंह) 67. मनिहारी (एसटी) 68. बरारी 69. कोरहा (एससी) ,  मधेपुरा जिले (70-73): 70. आलमनगर 71. बिहारीगंज 72. सिंहेश्वर (एससी) 73. मधेपुरा , सहरसा जिले (74-77): 74. सोनबर्षा (एससी) 75. सहरसा , 76. सिमरी बख्तियारपुर , 77. महिषी , दरभंगा जिले (78-87): 78. कुशेश्वर अस्थान (एससी) 79. 80. बेनीपुर 81. अलीनगर 82. दरभंगा ग्रामीण 83. दरभंगा , 84. हयाघाट 85. बहादुरपुर 86. केओटी  87. जाले मुजफ्फरपुर जिले में : 88. गायघाट 89. औराई (भाजपा) 90. मीनापुर 91. बोचाहन (एससी) 92. सकरा (एससी) 93. कुरहानी (भाजपा) 94. मुजफ्फरपुर , 95. कांति 96. बरूर 97. पारू  98. साहेबगंज (भाजपा) , गोपालगंज जिले  का 99. बैकुंठपुर (भाजपा) 100. बरौली 101. गोपालगंज 102. कुयायकोटे 103. भोरे (एससी) 104. हथुआ सिवान जिले का  105. सिवान (भाजपा मंगल पांडेय) 106. जिंरादेई 107. दरौली (एससी) 108. रघुनाथपुर 109. दारौंदा (भाजपा) 110. बरहरिया 111. गोरियाकोठी 112. महाराजगंज सारण जिले (113-122): 113. एकमा 114. मांझी 115. बनियापुर 116. तरैया  117. मढ़ौरा 118. छपरा  119. गरखा (एससी)   120. अमनौर 121. परसा 122. सोनपुर , वैशाली जिले (123-130): 123. हाजीपुर 124. लालगंज 125. वैशाली 126. महुआ 127. राजा पाकर (एससी) 128. राघोपुर , 129. महनार 130. पातेपुर (एससी)  समस्तीपुर जिले (131-140): 131. कल्याणपुर (एससी) 132. वारिसनगर 133. समस्तीपुर 134. उजियारपुर 135. मोरवा 136. सरायरंजन 137. मोहिउद्दीननगर  138. विभूतिपुर 139. रोसेरा (एससी) 140. हसनपुर बेगूसराय जिले (141-147): 141. चेरिया-बरियारपुर 142. बछवाड़ा  143. तेघरा  144. मटिहानी 145. साहेबपुर 146. बेगुसराय 147. बखरी (एससी) खगड़िया जिले (148-151): 148. अलौली (एससी) 149. खगरिया 150. बेलदौर 151. परबत्ता , भागलपुर जिले (152-158): 152. बिहपुर 153. गोपालपुर 154. पिरपैंती (एससी) 155. कहलगांव 156. भागलपुर 157. सुल्तानगंज 158. नाथनगर  बाँका जिले (159-163): 159. अमरपुर 160. धौरैया (एससी) 161. बांका 162. कटोरिया (एसटी)  163. बेलहर मुंगेर जिले (164-166): 164. तारापुर 165. मुंगेर 166. जमालपुर ,लखीसराय जिले में  167. सूर्यगढ़ा 168. लखीसराय शेखपुरा जिले (169-170): 169. शेखपुरा 170. बारबीघा , नालंदा जिले (171-177): 171. अस्थावान 172. बिहार शरीफ 173. राजगीर (एससी) 174. ईस्लामपुर 175. हिलसा 176. नालंदा 177. हरनौत पटना प्रमंडल/जिले (178-191): 178. मोकामा 179. (विधानसभा 179 ) , 180. बख्तियारपुर 181. दीघा 182. बांकीपुर 183. कुम्हरार 184. पटना साहिब 185. फतुहा 186. दानापुर 187. मनेर 188. फुलवारी (एससी) 189. मसौढ़ी (एससी) 190. पालीगंज 191. बिक्रम , भोजपुर जिले का  192. संदेश 193. बड़हरा 194. आरा 195. अगिआंव (एस सी ) 196. तरारी 197. जगदीशपुर 198. शाहपुरबक्सर जिले का  199. ब्रह्मपुर 200. बक्सर 201. डुमरांव 202. राजपुर (एससी)कैमूर जिले (203-206): 203. रामगढ़ 204. मोहनिया (एससी) 205. भभुआ 206. चैनपुर रोहतास जिले (207-213): 207. चेनारी (एससी) 208. सासाराम 209. करगहर 210. दिनारा 211. नोखा 212. डेहरी 213. काराकाट , अरवल जिले  का 214. अरवल 215. कुर्था , जहानाबाद जिले का : 216. जहानाबाद 217. घोसी 218. मखदुमपुर (एससी)औरंगाबाद जिले का  219. गोह 220. ओबरा 221. नबीनगर 222. कुटुम्बा (एससी) 223. औरंगाबाद 224. रफीगंज , गया जिले का  225. गुरूआ 226. शेर घाटी 227. इमामगंज (एससी) 228. बाराचट्टी (एससी) 229. बोधगया (एससी) 230. गया टाउन 231. टिकारी 232. बेलागंज 233. अतरी 234. वज़ीरगंज नवादा जिले (235-239): 235. रजौली (एससी) 236. हिसुआ 237. नवादा 238. गोविंदपुर 239. वारसलीगंज ,जमुई जिले : 240. सिकंदरा (एससी) 241. जमुई 242. झाझा 243. चकाई है ।
बिहार विधानसभा चुनाव 2025: विकास का विमर्श बनाम पहचान की राजनीति का चक्रव्यूह 
बिहार विधानसभा का इतिहास संवैधानिक सुधारों और लोकतांत्रिक बदलावों की एक लंबी यात्रा है, जिसकी शुरुआत 19वीं सदी की विधायी परिषद् से हुई और जो आज एक पूर्ण विकसित द्विसदनीय विधानमंडल के रूप में स्थापित है। इस ऐतिहासिक विकास में, 1912 में बिहार एवं उड़ीसा राज्य का गठन, 1935 के अधिनियम के तहत औपचारिक द्विसदनीय प्रणाली की शुरुआत, और 1952 में स्वतंत्र भारत के संविधान के तहत पहले आम चुनाव ने महत्वपूर्ण मोड़ दिए। इस गौरवशाली लोकतांत्रिक विरासत के बावजूद, बिहार विधानसभा चुनाव 2025 एक बार फिर विकास, रोज़गार, और मूलभूत सुविधाओं जैसे जनहित के मुद्दों के बजाय, जातीय और सामाजिक ध्रुवीकरण के चक्रव्यूह में फँसता दिख रहा है।
बिहार विधानसभा का ऐतिहासिक सफर: एक लोकतांत्रिक विरासत
बिहार विधानसभा का विकास दर्शाता है कि राज्य ने समय-समय पर प्रगतिशील विधायी कदम उठाए हैं।
आरंभिक गठन 1912 बिहार एवं उड़ीसा राज्य का गठन (22 मार्च 1912), 43 सदस्यीय विधायी परिषद् का गठन। सर चार्ल्स स्टुअर्ट बेली पहले उप राज्यपाल बने। परिषद् की पहली बैठक 20 जनवरी 1913 को पटना में हुई। द्विसदनीयता और भवन 1919-1937 भारत सरकार अधिनियम, 1919 (प्रांतीय स्तर पर द्विसदनीयता की शुरुआत), वर्तमान विधानसभा भवन का निर्माण (मार्च 1920)। 7 फरवरी 1921 को नव-निर्मित भवन में पहली बैठक। भारत सरकार अधिनियम, 1935 ने द्विसदनीय विधानमंडल (विधान सभा और विधान परिषद्) को औपचारिक रूप से लागू किया। राम दयालु सिंह पहले विधानसभा अध्यक्ष चुने गए (22 जुलाई 1937)।
स्वतंत्रता और प्रथम सरकार 1946-1952 अंतरिम सरकार का गठन (25 अप्रैल 1946)। पहला आम चुनाव (1951-52)। डॉ. श्री कृष्ण सिंह पहले मुख्यमंत्री (अंतरिम 1946, लोकतांत्रिक 1952) और डॉ. अनुग्रह नारायण सिंह पहले उपमुख्यमंत्री बने। पहली विधानसभा में 331 सदस्य थे।
आधुनिक विधानमंडल 1952-वर्तमान झारखंड का गठन (नवंबर 2000)। सीटों की संख्या घटकर 243 हुई। मध्यावधि चुनाव (1969 में पहली बार)। विधानसभा ने चंपारण भूमि-संबंधी अधिनियम, 1918 और जमींदारी उन्मूलन कानून (देश का पहला राज्य) जैसे ऐतिहासिक कानून पारित किए। बिहार सिविल कोर्ट बिल, 2021 से 72 साल पुराना कानून बदला। बिहार ने देश को कई प्रगतिशील कानून दिए हैं: चंपारण भूमि-संबंधी अधिनियम, 1918: महात्मा गांधी के चंपारण सत्याग्रह के बाद यह कानून 'तिनकठिया' व्यवस्था से किसानों को मुक्ति दिलाने के लिए पारित हुआ था। जमींदारी उन्मूलन कानून: आज़ादी के तुरंत बाद, बिहार देश का पहला राज्य बना जिसने जमींदारी प्रथा को खत्म करने के लिए कानून बनाने की घोषणा की। यह एक युगांतकारी सामाजिक-आर्थिक सुधार था।
 बिहार चुनाव 2025: पहचान की राजनीति का बोलबाला
ऐतिहासिक विकास और संवैधानिक परिपक्वता के बावजूद, 18वीं बिहार विधानसभा चुनाव 2025 का विमर्श विकास के वास्तविक मुद्दों से भटककर जातीय और प्रतीकात्मक नारों में उलझ गया है।
जातीय प्रतीकों का वर्चस्व का चुनावी खबरें बताती हैं कि चुनाव का माहौल 'विकास' के रोडमैप के बजाय निम्नलिखित जातीय नारों और प्रतीकों के इर्द-गिर्द सिमटा हुआ है:
'माई', 'दम', 'कम': ये सीधे तौर पर मुस्लिम-यादव, दलित-मुस्लिम जैसे जातीय समीकरणों पर आधारित नारे हैं। ये नारे वोटबैंक की पहचान की राजनीति को स्पष्ट रूप से दर्शाते हैं।'भुराबाल साफ करो': यह नारा भूमिहार, राजपूत, ब्राह्मण, लाला (कायस्थ) जैसे सवर्ण समूहों के पारंपरिक राजनीतिक वर्चस्व को खत्म करने का आह्वान करता है। यह पुरानी जातीय कटुता को राजनीतिक लाभ के लिए पुनर्जीवित करने का प्रयास है। आरक्षण और जातिवाद: राजनीतिक दल आरक्षण, SC/ST एक्ट, और जातिवाद को चुनावी बहस के केंद्र में लाकर समाज के बड़े वर्गों को भावनात्मक रूप से एकजुट करने की कोशिश कर रहे हैं। बिहार के लोगों की सबसे गंभीर समस्याएँ, जैसे बेरोज़गारी, पलायन, बदहाल शिक्षा और स्वास्थ्य व्यवस्था, चुनावी मंच से पीछे धकेल दी गई हैं। रोज़गार सृजन की कमी के कारण बिहार का युवा बड़े पैमाने पर राज्य से बाहर जाने को मजबूर है। यह चुनाव का सबसे ज्वलंत आर्थिक मुद्दा होना चाहिए।प्राथमिक से उच्च शिक्षा तक की गुणवत्ता बदहाल है। स्वास्थ्य सेवाएँ, विशेष रूप से ग्रामीण क्षेत्रों में, आज भी मूलभूत सुविधाओं की कमी से जूझ रही हैं ।कृषि एक प्रमुख आर्थिक आधार है, लेकिन इसका आधुनिकीकरण और औद्योगीकरण का अभाव राज्य के विकास में बाधा डाल रहा है। हालांकि, विपक्ष (इंडिया गठबंधन/महागठबंधन) द्वारा रोज़गार, पलायन, और भ्रष्टाचार जैसे मुद्दों को लगातार उठाया जा रहा है, लेकिन मुख्य विमर्श पहचान की राजनीति पर ही टिका हुआ है, जो प्रशासनिक और मूलभूत सुविधाओं पर ध्यान देने की आवश्यकता को कम कर रहा है। राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन केंद्र की योजनाओं, सुशासन के दावे और नीतीश कुमार के अनुभवी नेतृत्व को बनाए रखने पर ज़ोर। सत्ता विरोधी लहर को थामने की कोशिश। लंबे समय तक सत्ता में रहने के कारण प्रशासनिक कमियों, विशेषकर रोज़गार सृजन और पलायन पर जनता के सवालों का सामना करना। जातीय समीकरणों को साधने में संतुलन बनाए रखना। इंडिया गठबंधन (महागठबंधन) युवा चेहरा (तेजस्वी यादव), बड़े पैमाने पर रोज़गार के वादे, सामाजिक न्याय के नारों से अतिपिछड़ा और दलित वोटों को एकजुट करना, केंद्र और राज्य की विफलताओं को उजागर करना। सीट बंटवारे और मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार को लेकर आंतरिक मतभेद। पुराने 'जंगल राज' के आरोपों से खुद को मुक्त करने की चुनौती।
बिहार विधानसभा में 243 निर्वाचन क्षेत्र है। बिहार का राजनीतिक इतिहास इस बात का गवाह है कि यहाँ की जनता ने बड़े संवैधानिक और लोकतांत्रिक बदलावों का समर्थन किया है, चाहे वह 1918 का चंपारण भूमि अधिनियम हो या जमींदारी उन्मूलन। बिहार विधानसभा चुनाव 2025 बिहार के लिए एक निर्णायक अवसर है। राजनीतिक दलों को 'माई', 'कम', और 'भुराबाल' जैसे प्रतीकों से ऊपर उठकर एक स्पष्ट रोडमैप प्रस्तुत करना चाहिए, जो:पलायन से मुक्ति दिलाए। औद्योगिकीकरण को बढ़ावा दे। शिक्षा और स्वास्थ्य , कृषि  की गुणवत्ता में सुधार करे। यह चुनाव केवल दो गठबंधनों के बीच की लड़ाई नहीं है, बल्कि 'मुद्दों' और 'पहचान की राजनीति' के बीच एक निर्णायक संघर्ष है। बिहार के प्रबुद्ध मतदाताओं पर यह निर्भर करेगा कि वे जातीय भावनाओं से संचालित होते हैं या फिर राज्य के उज्जवल भविष्य को सुनिश्चित करने वाले वास्तविक विकास के एजेंडे को चुनते हैं। समावेशी विकास और सामाजिक सद्भाव की स्थापना के लिए प्रशासनिक और मूलभूत सुविधाओं पर ध्यान केंद्रित करना बिहार की सबसे बड़ी जरूरत है, न कि केवल जातीय गोलबंदी है। 
मेगा इंफ्रास्ट्रक्चर परियोजनाएँ:में एनडीए अपनी सबसे बड़ी उपलब्धि के रूप में केंद्र और राज्य सरकार के सहयोग से चल रही मेगा इंफ्रास्ट्रक्चर परियोजनाओं को उजागर करेगा। इसमें गंगा पथ विस्तार योजना, पुलों का निर्माण, सड़कों का जाल, और नए हवाई अड्डों का विकास शामिल है। इसे 'डबल इंजन' सरकार की सफलता के रूप में प्रस्तुत किया जाएगा। केंद्र की कल्याणकारी योजनाएँ: प्रधानमंत्री आवास योजना, किसान सम्मान निधि, मुफ्त अनाज योजना (फ्री बिजली/मुफ्त अनाज) और अन्य केंद्रीय योजनाओं के लाभार्थियों को साधने पर ज़ोर दिया जाएगा
एनडीए  विशेष रूप से जद यू नीतीश कुमार के दशकों के प्रशासनिक अनुभव और राज्य में 'जंगलराज' को समाप्त करने के उनके दावे को प्रमुखता देगा। हालांकि नीतीश कुमार की लोकप्रियता कम हुई है, फिर भी वह सुशासन के प्रतीक बने हुए हैं। स्थिरता का आश्वासन: केंद्र में भी गठबंधन सरकार होने के कारण, एनडीए राज्य में राजनीतिक स्थिरता बनाए रखने का वादा करेगा, ताकि बार-बार होने वाले पाला बदलने की प्रवृत्ति को एक पूर्ण विराम दिया जा सके। एनडीए ने सीट-बंटवारा लगभग फाइनल कर लिया है: भाजपा , जदयू ,  लोजपा (रामविलास) , हम और आरएलएम । भाजपा और जदयू के बीच समान सीटों का वितरण इस बात का संकेत है कि दोनों बड़े सहयोगी अब बराबर की शक्ति रखते हैं। चिराग पासवान (लोजपा-रा) और जीतन राम मांझी (हम)  सहयोगियों को सम्मानजनक सीटें देकर एनडीए  अपने जातीय आधार (खासकर पासवान और महादलित वोट) को एकजुट रखने की कोशिश कर रहा है, भले ही उनके द्वारा अधिक सीटों की मांग की गई थी । लगभग दो दशकों से सत्ता में रहने के कारण, राज्य सरकार के खिलाफ एक स्वाभाविक सत्ता विरोधी लहर है। रोज़गार सृजन, पलायन और प्रशासनिक कमियों जैसे मुद्दों पर जनता के सवालों का सामना करना एनडीए   के लिए सबसे बड़ी चुनौती है।।सहयोगियों के बीच खींचतान: हालांकि सीट बंटवारे की घोषणा हो गई है, लेकिन छोटे सहयोगियों को कम सीटें मिलने पर आंतरिक नाराज़गी उभर सकती है। चिराग पासवान और जीतन राम मांझी  नेताओं ने अतीत में JD(U) की सीटों पर नुक्सान पहुंचाया है। मुख्यमंत्री चेहरे की बहस: नीतीश कुमार के घटते समर्थन के बीच,भाजपा को अपने सहयोगियों को साधते हुए अपने दीर्घकालिक लक्ष्य को भी साधने में संतुलन बिठाना होगा । इंडिया गठबंधन, जिसका नेतृत्व राष्ट्रीय जनता दल  कर रहा है और जिसमें कांग्रेस , वाम दल आदि शामिल हैं, सत्ता विरोधी लहर को भुनाने और अपने युवा नेतृत्व को आगे बढ़ाने की कोशिश में है। हुए कुछ हद तक पूरा भी किया। एनडीए  की सबसे बड़ी विफलता के रूप में बेरोज़गारी और पलायन को उजागर करना महागठबंधन की प्राथमिक रणनीति है। महागठबंधन का मूल आधार 'My (मुस्लिम-यादव) समीकरण रहा है। इस बार, वे इस आधार को अतिपिछड़ा वर्ग  और दलितों तक विस्तारित करने की कोशिश कर रहे हैं, सामाजिक न्याय के पुराने नारों के माध्यम से। जातिगत गणना (Caste Census): हाल ही में हुई जातिगत गणना के आंकड़ों का उपयोग करके, गठबंधन सामाजिक रूप से हाशिए पर पड़े वर्गों को गोलबंद करने का प्रयास करेगा और सरकारी नौकरियों/कल्याणकारी योजनाओं में उनके प्रतिनिधित्व को बढ़ाने का वादा करेगा।
गठबंधन राज्य में व्याप्त भ्रष्टाचार, लचर कानून-व्यवस्था (अपराध), और बदहाल स्वास्थ्य-शिक्षा व्यवस्था को एनडीए की विफलताओं के रूप में प्रस्तुत कर रहा है। राष्ट्रीय नेताओं का हस्तक्षेप: राहुल गांधी और प्रियंका गांधी जैसे कांग्रेस के बड़े नेता अब बिहार में अधिक रैलियां कर रहे हैं, जो इस बात का संकेत है कि गठबंधन राष्ट्रीय स्तर पर अपनी उपस्थिति को मजबूती से दर्शाना चाहता है। पहले चरण के नामांकन की समय सीमा नज़दीक होने के बावजूद, महागठबंधन के भीतर सीट बंटवारे को लेकर खींचतान जारी रही है। कांग्रेस, जो पिछली बार 70 सीटों पर लड़ी थी और कम जीती थी, इस बार अधिक 'जिताऊ' सीटें मांग रही है। राजद जो सबसे बड़ा घटक है ।  जिससे छोटे सहयोगियों (वाम दल, आदि) को साधना मुश्किल हो रहा है। इस चुनाव में कुछ गैर-गठबंधन खिलाड़ी और मुद्दे दोनों गठबंधनों के लिए चुनौती पेश कर जन सुराज (प्रशांत किशोर) विकास-केंद्रित पिच के साथ सभी 243 सीटों पर चुनाव लड़ रहे हैं। प्रशांत किशोर (PK) युवा मतदाताओं और विकास की चाह रखने वाले वर्गों के बीच एक तीसरी ताकत बन सकते हैं। ओपिनियन पोल में उन्हें CM पद के लिए दूसरा सबसे लोकप्रिय चेहरा बताया गया है। उनकी पार्टी वोट कटवा के रूप में दोनों गठबंधनों को नुकसान पहुंचा सकती है।  ए आई एम आई एम सीमांचल क्षेत्र में मुस्लिम वोटों को साधने पर ध्यान केंद्रित कर रही है। पिछली बार (2020) में 5 सीटें जीतकर उन्होंने महागठबंधन को नुक्सान पहुँचाया था। इस बार लगभग 100 सीटों पर लड़ने की घोषणा से मुस्लिम वोटों का विभाजन हो सकता है, जिससे एनडीए को अप्रत्यक्ष लाभ मिलने की संभावना है।
जातीय बनाम विकास विमर्श यह चुनाव 'मुद्दों' (विकास, रोज़गार, पलायन) और 'पहचान की राजनीति' (जातिगत गोलबंदी) के बीच एक निर्णायक संघर्ष है। जो गठबंधन इन दोनों ध्रुवों के बीच संतुलन बिठा पाएगा, उसे निर्णायक बढ़त मिलेगी।, ।बिहार विधानसभा चुनाव 2025 एनडीए  की संगठनात्मक शक्ति और अनुभवी नेतृत्व बनाम इंडिया गठबंधन की युवा ऊर्जा और 'काम' के वादे का मुकाबला है, जिसमें जातीय समीकरण और आंतरिक कलह का प्रबंधन दोनों गठबंधनों के लिए अंतिम परिणाम निर्धारित करेगा।
 बिहार विधानसभा चुनाव 2025: विश्लेषणात्मक  -  बिहार की 18वीं विधानसभा के चुनाव (नवम्बर 2025) राज्य के समृद्ध लोकतांत्रिक इतिहास और वर्तमान की गहन सामाजिक-आर्थिक चुनौतियों के बीच एक निर्णायक संघर्ष हैं। यह चुनाव केवल सत्ता के संघर्ष तक सीमित नहीं है, बल्कि विकास के एजेंडे और पहचान की राजनीति के बीच के द्वंद्व को भी दर्शाता है। लोकतांत्रिक इतिहास की विरासत और वर्तमान विडंबना -  - बिहार विधानसभा का इतिहास (1912 से) प्रगतिशील विधायी कदमों का साक्षी रहा है। चंपारण भूमि-संबंधी अधिनियम (1918) महात्मा गांधी के पहले सफल सत्याग्रह का परिणाम, 'तिनकठिया' व्यवस्था का अंत। इतना प्रगतिशील इतिहास होने के बावजूद, आज भी चुनावी विमर्श मूलभूत प्रशासनिक सुधारों (शिक्षा, स्वास्थ्य, बिजली) के बजाय जातीय ध्रुवीकरण पर केंद्रित है।जमींदारी उन्मूलन कानून आज़ादी के बाद देश में सामाजिक-आर्थिक न्याय की स्थापना की दिशा में बिहार का नेतृत्व, बिचौलियों का अंत। जमींदारी उन्मूलन के बाद भी, पलायन और बेरोज़गारी राज्य की सबसे बड़ी समस्याएँ बनी हुई हैं, जिन्हें राजनीतिक मंच से लगातार दरकिनार किया जाता है। जिस राज्य में संवैधानिक चेतना इतनी मज़बूत रही है, वहाँ आज भी चुनाव के केंद्र में 'मुद्दे' नहीं, बल्कि 'पहचान के नारे' (  माई ,  दम ,  भुराबाल )   हैं। चुनावी रणनीतियाँ: NDA बनाम इंडिया गठबंधन -  दोनों प्रमुख गठबंधन सत्ता हासिल करने के लिए अपनी-अपनी शक्तियों और केंद्रीय मुद्दों का इस्तेमाल कर रहे हैं। पहलू राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन इंडिया गठबंधन (महागठबंधन) - मुख्य चेहरा जदयू  (अनुभव और सुशासन का दावा) राजद कोर विमर्श/मुद्दे 'डबल इंजन' सरकार की उपलब्धि, मेगा इंफ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट, केंद्र की कल्याणकारी योजनाओं के लाभार्थी (मुफ्त अनाज/आवास) रोज़गार (10 लाख नौकरियों का वादा), पलायन, एनडीए  की सत्ता विरोधी लहर का फायदा, सामाजिक न्याय (जातिगत गणना) , जातीय समीकरण  (अतिपिछड़ा वर्ग), सवर्ण, और सहयोगियों के माध्यम से दलित दम ( दलित मुस्लिम ) , MY  (मुस्लिम + यादव) कोर आधार, साथ ही अतिपिछड़ा वर्ग और दलितों को 'सामाजिक न्याय' के नाम पर खींचने का प्रयास है।
सत्ता विरोधी लहर, रोज़गार सृजन में विफलता पर जवाबदेही, सहयोगियों  के बीच संतुलन और खींचतान है। सीट बंटवारे में अंतिम गतिरोध, 'जंगलराज' के आरोपों से मुक्ति, युवा नेतृत्व की विश्वसनीयता सिद्ध करना एनडीए में भाजपा , जदयू , लोजपा , हम, आरएलएम है वही चुनौतीपूर्ण कांग्रेस , राजद , सीपीआई माले , भाकपा , माकपा , जनसुराज  अनेक क्षेत्रीय दल है । बिहार विधानसभा चुनाव 2025 में मुख्य मुकाबला दो गठबंधनों के बीच है, लेकिन कुछ 'अन्य' खिलाड़ी परिणामों की दिशा बदल सकते हैं जन सुराज प्रशांत किशोर का विकास-केंद्रित, गैर-जातीय विमर्श युवाओं और एंटी-इनकम्बेंसी वोटों को आकर्षित कर सकता है। जिससे सीधे मुकाबले वाली सीटों पर दोनों गठबंधनों को नुक्सान होगा। ए आई एम आई एम सीमांचल और मुस्लिम बहुल क्षेत्रों में सक्रिय। मुस्लिम वोटों को विभाजित करके महागठबंधन को सीधे तौर पर नुकसान पहुँचा सकता है, जिससे एनडीए  को अप्रत्यक्ष लाभ मिलेगा। मतदाता जातीय भावनाओं और पारंपरिक वफादारी से संचालित होता है या फिर रोज़गार और मूलभूत विकास के एजेंडे को चुनता है। यह अंतिम परिणाम तय करेगा। तेजस्वी का रोज़गार एजेंडा युवा मतदाताओं के बीच एक सकारात्मक परिवर्तन का संकेत है: नेतृत्व और विश्वसनीयता की कसौटीकी  चुनाव नीतीश कुमार की 'निरंतरता' और तेजस्वी यादव के 'परिवर्तन' के वादे के बीच एक जनमत संग्रह है।
एनडीए  के लिए जीत का अर्थ है केंद्र और राज्य में मजबूत पकड़, जो उसे देश की राजनीति में एक निर्णायक ताकत बनाए रखेगी। इंडिया गठबंधन के लिए जीत का अर्थ है बिहार के सामाजिक न्याय की राजनीति में युवा नेतृत्व का उदय और देश के विपक्षी दलों के लिए एक नई उम्मीद।  बिहार विधानसभा चुनाव 2025 उस सामाजिक-आर्थिक न्याय की प्रतिज्ञा की कसौटी है, जिसे बिहार ने 1918 और 1952 में शुरू किया था। मतदाताओं का निर्णय यह तय करेगा कि बिहार पीछे खींचने वाली पहचान की राजनीति के चक्रव्यूह में फँसा रहता है, या विकास और रोज़गार के एजेंडे को आगे बढ़ता है।