रविवार, जुलाई 06, 2025

देवकुंड और ऋषि च्यवन

देवकुंड: आस्था, इतिहास और चमत्कारों का संगम
सत्येन्द्र कुमार पाठक 
बिहार के औरंगाबाद जिले के गोह प्रखंड और औरंगाबाद-अरवल जिले की सीमा पर स्थित देवकुंड एक ऐसा पवित्र स्थल है जो अपनी आध्यात्मिक महत्ता, ऐतिहासिक विरासत और चमत्कारी घटनाओं के लिए जाना जाता है। यहां का बाबा दूधेश्वरनाथ मंदिर और पांच सौ वर्षों से अधिक समय से प्रज्ज्वलित हवन कुंड की अग्नि इसे देश के अद्वितीय धार्मिक स्थलों में से एक बनाती है। देवकुंड स्थित दूधेश्वरनाथ मंदिर के गर्भगृह में स्थापित बाबा दूधेश्वरनाथ शिवलिंग नीलम पत्थर से निर्मित एक अद्भुत शिवलिंग है। इसे देश का एकमात्र ऐसा शिवलिंग माना जाता है जहां पांच सौ वर्षों से अधिक समय से अखंड अग्नि प्रज्ज्वलित है। धार्मिक मान्यताओं के अनुसार, यह महाकाल का उप ज्योतिर्लिंग 'दुग्धेश्वर' या 'दूधनाथ' शिवलिंग है, जिसे विश्वकर्मा द्वारा हिरण्यबाहु प्रदेश और भृगुक्षेत्र में स्थित शिव उपासकों की सुख-समृद्धि के लिए निर्मित किया गया था। शिवपुराण की कोटिरुद्र संहिता और लिंग पुराण में भी इसका उल्लेख मिलता है।
महर्षि च्यवन की तपोभूमि और चिरंजीवी अग्नि
यह स्थल महर्षि च्यवन की तपोभूमि के रूप में विख्यात है। वैवश्वत मन्वंतर में हिरण्यबाहु प्रदेश और सोन प्रदेश के वैवश्वत मनु के पुत्र राजा शर्याति के क्षेत्र में, महर्षि च्यवन ने इसी देवकुंड में तपस्या की थी। लोक कथाओं के अनुसार, भगवान श्री राम ने गया में अपने पितरों को पिंडदान करने से पहले यहीं भगवान शिव की स्थापना कर पूजा-अर्चना की थी।।इस स्थान की सबसे अनूठी विशेषता यहां के कुंड की अखंड अग्नि है, जो पांच सौ वर्षों से भी अधिक समय से निरंतर प्रज्ज्वलित है। यह अग्नि तब से जल रही है जब बाबा बालपुरी ने पांच सौ वर्ष पूर्व च्यवन ऋषि के आश्रम में साधना कर हवन किया और जीवित समाधि ले ली। आश्चर्यजनक रूप से, इस कुंड में प्रतिदिन हवन नहीं होता; इक्के-दुक्के आने-जाने वाले लोग ही धूप डालते हैं या कभी-कभी विशेष अवसरों पर हवन आयोजित होता है, फिर भी अग्नि कभी नहीं बुझती। ऊपर से देखने पर कुंड राख का ढेर लगता है, लेकिन राख में हाथ डालने पर अग्नि का एहसास होता है। कुंड में धूप डालकर पास रखे छड़ से राख को हटाने पर अग्नि तुरंत धूप को पकड़ लेती है और धुआं निकलने लगता है।
च्यवनप्राश का उद्गम और सहस्त्रधारा
देवकुंड वह पवित्र भूमि भी है जहां च्यवनप्राश का उद्गम हुआ। मंदिर के पुजारी अखिलेश्वरानंद पुरी और रामध्यान दास महाविद्यालय के प्राचार्य योगेंद्र उपाध्याय बताते हैं कि जब महर्षि च्यवन यहां तपस्या में लीन थे, तब राजा शर्याति और उनकी पुत्री सुकन्या जंगल में भ्रमण कर रहे थे। सुकन्या ने एक टीले के बीच चमकती रोशनी देखकर उसमें कुश डाल दिया, जिससे तपस्यारत महर्षि च्यवन की आंखें फूट गईं। महर्षि के श्राप से बचने के लिए राजा ने सुकन्या का विवाह महर्षि च्यवन से करा दिया।नवयौवन सुकन्या के विवाह के बाद, अश्विनी कुमारों ने यज्ञ कर महर्षि च्यवन को उसी सहस्त्रधारा (तालाब) में स्नान कराया और विशेष रसायन व सोमरस का पान कराया, जिससे महर्षि च्यवन को यौवन प्राप्त हुआ। यही रसायन बाद में च्यवनप्राश के नाम से प्रसिद्ध हुआ। देवताओं और ऋषियों द्वारा इस सरोवर का निर्माण करने के कारण इसे देवकुंड नाम मिला।।
ऐतिहासिक महत्व और वार्षिक आयोजन
देवकुंड का उल्लेख मि. एल.एस.एस.ओ. मॉली आई.सी.एस. द्वारा प्रकाशित 'लास्ट डिस्ट्रिक्ट गजेटियर ऑफ गया 1906' और पी.सी. राय चौधरी के 'बिहार डिस्ट्रिक्ट गजेटियर 1957' में भी मिलता है, जहां इसे एक ऐतिहासिक महत्व का स्थल बताया गया है, जिसमें भगवान शिव दूधेश्वरनाथ शिवलिंग, तालाब सरोवर और च्यवनाश्रम शामिल हैं।
 सावन के महीने में देश-विदेश से श्रद्धालु भगवान शिव के दर्शन करने आते हैं और हवन कुंड में धूप अर्पित करते हैं। प्रत्येक वर्ष श्रावण मास में पटना से गंगाजल लेकर कांवरिये बाबा दूधेश्वरनाथ पर जलाभिषेक करते हैं। सहस्त्रधारा में बड़े पैमाने पर छठ पर्व भी आयोजित किया जाता है, जो इसकी धार्मिक और सांस्कृतिक महत्व को दर्शाता है।
देवकुंड वास्तव में आस्था, इतिहास और चमत्कारों का एक अनूठा संगम है, जहां प्राचीन परंपराएं और आधुनिक श्रद्धा एक साथ जीवंत हैं।
देवकुंड: एक अद्भुत स्थल 
बिहार के औरंगाबाद जिले में स्थित देवकुंड केवल एक भौगोलिक स्थान नहीं, बल्कि एक ऐसा अद्भुत स्थल है जहाँ सदियों पुरानी आस्था, गहरा इतिहास और पौराणिक कथाएं एक साथ गुंथी हुई हैं। यह स्थान अपनी अनूठी विशेषताओं, विशेषकर महर्षि च्यवन और सुकन्या की कथा से, अत्यंत महत्वपूर्ण बन जाता है।
बाबा दूधेश्वरनाथ शिवलिंग (नीलम पत्थर): देवकुंड के केंद्र में स्थित दूधेश्वरनाथ मंदिर में एक अद्भुत शिवलिंग स्थापित है, जो नीलम पत्थर से निर्मित है। यह शिवलिंग देश में अपनी तरह का इकलौता माना जाता है। धार्मिक ग्रंथों के अनुसार, यह महाकाल का 'दुग्धेश्वर' या 'दूधनाथ' उप ज्योतिर्लिंग है, जिसे शिव उपासकों की समृद्धि के लिए विश्वकर्मा द्वारा निर्मित किया गया था।अखंड प्रज्ज्वलित कुंड की अग्नि (500+ वर्ष से): देवकुंड की सबसे चमत्कारी और अद्भुत विशेषता यहाँ के हवन कुंड की अग्नि है, जो पिछले 500 से अधिक वर्षों से निरंतर प्रज्ज्वलित है। यह अग्नि तब से जल रही है जब बाबा बालपुरी ने इस स्थान पर जीवित समाधि ली थी। यह आश्चर्यजनक है कि कुंड में नियमित हवन न होने के बावजूद यह अग्नि कभी नहीं बुझती, जो इसे एक अनूठा और रहस्यमयी स्थल बनाती है।महर्षि च्यवन की तपोभूमि: यह स्थान महान ऋषि च्यवन की तपोभूमि के रूप में विख्यात है। उन्होंने यहीं पर गहन तपस्या की थी, जिससे इस भूमि को आध्यात्मिक ऊर्जा प्राप्त हुई।भगवान राम का पूजा स्थल: ऐसी मान्यता है कि भगवान श्री राम ने गया में पिंडदान से पहले यहीं भगवान शिव की स्थापना कर उनकी पूजा-अर्चना की थी, जो इस स्थान की प्राचीनता और पवित्रता को दर्शाता है।सहस्त्रधारा (पवित्र सरोवर): मंदिर से कुछ दूरी पर स्थित यह विशाल तालाब 'सहस्त्रधारा' के नाम से जाना जाता है। यह वही सरोवर है जहाँ अश्विनी कुमारों ने महर्षि च्यवन को स्नान करवाकर उन्हें यौवन प्रदान किया था। आज भी यह छठ पर्व और सावन में जलाभिषेक जैसे आयोजनों का प्रमुख केंद्र है ।
देवकुंड का महत्व महर्षि च्यवन और सुकन्या की पौराणिक कथा से अविभाज्य रूप से जुड़ा हुआ है। यह कथा न केवल इस स्थान के नामकरण बल्कि प्रसिद्ध 'च्यवनप्राश' के उद्गम को भी स्पष्ट करती है:राजा शर्याति और सुकन्या: वैवश्वत मनु के पुत्र राजा शर्याति अपनी पुत्री सुकन्या के साथ जंगल में भ्रमण कर रहे थे। यहीं पर महर्षि च्यवन अपनी तपस्या में लीन थे।च्यवन ऋषि की आंखें फूटना: जिज्ञासावश, सुकन्या ने एक चमकती रोशनी (जो वास्तव में महर्षि च्यवन की तपस्या से उत्पन्न ऊर्जा थी) में कुश डाल दिया, जिससे महर्षि च्यवन की आंखें फूट गईं।सुकन्या का विवाह और श्राप मुक्ति: महर्षि के श्राप से बचने और अपनी पुत्री की भक्ति से प्रभावित होकर, राजा शर्याति ने सुकन्या का विवाह वृद्ध और नेत्रहीन महर्षि च्यवन से करा दिया। सुकन्या ने अपने पति की निस्वार्थ भाव से सेवा की।अश्विनी कुमारों द्वारा यौवन प्राप्ति: सुकन्या की भक्ति से प्रसन्न होकर, देव वैद्य अश्विनी कुमारों ने महर्षि च्यवन को पुनः यौवन प्रदान करने का निर्णय लिया। उन्होंने एक विशेष यज्ञ किया और महर्षि च्यवन को सहस्त्रधारा (वर्तमान देवकुंड सरोवर) में स्नान कराया। स्नान के पश्चात, उन्हें एक विशेष रसायन और सोमरस का सेवन कराया गया, जिससे महर्षि च्यवन को नवयौवन प्राप्त हुआ।'च्यवनप्राश' का उद्गम: महर्षि च्यवन को यौवन प्रदान करने वाला यही विशेष रसायन बाद में 'च्यवनप्राश' के नाम से प्रसिद्ध हुआ, जो आज भी स्वास्थ्यवर्धक टॉनिक के रूप में पूरे विश्व में जाना जाता है। यह कथा देवकुंड को 'च्यवनप्राश' की जन्मभूमि के रूप में स्थापित करती है।
देवकुंड का नामकरण: ऋषियों और देवताओं द्वारा इस सरोवर का निर्माण और इसमें महर्षि च्यवन को यौवन दिलाने की प्रक्रिया के कारण ही इस स्थान को 'देवकुंड' नाम मिला, जिसका अर्थ है 'देवताओं का कुंड'।देवकुंड का महत्व सिर्फ धार्मिक आस्था तक सीमित नहीं है, बल्कि यह एक ऐतिहासिक, सांस्कृतिक और आयुर्वेदिक दृष्टि से भी महत्वपूर्ण स्थल है:आध्यात्मिक केंद्र: बाबा दूधेश्वरनाथ शिवलिंग और अखंड अग्नि इसे एक शक्तिशाली आध्यात्मिक केंद्र बनाते हैं, जहाँ भक्त शांति और ऊर्जा की तलाश में आते हैं।
पौराणिक गौरव: महर्षि च्यवन और सुकन्या की कथा इस स्थल को एक अद्वितीय पौराणिक गौरव प्रदान करती है, जो इसे भारतीय संस्कृति और परंपराओं का अभिन्न अंग बनाती है।आयुर्वेदिक संबंध: च्यवनप्राश के उद्गम स्थल के रूप में, देवकुंड आयुर्वेद के इतिहास में एक महत्वपूर्ण स्थान रखता है।
सांस्कृतिक धरोहर: वार्षिक श्रावण मास मेले, कांवर यात्रा और छठ पर्व जैसे आयोजन यहाँ की जीवंत सांस्कृतिक धरोहर को दर्शाते हैं।पर्यटन क्षमता: इसकी अनूठी विशेषताओं और ऐतिहासिक पृष्ठभूमि के कारण इसमें धार्मिक पर्यटन के लिए अपार संभावनाएं हैं।।देवकुंड एक ऐसा अद्भुत स्थल है जहाँ अतीत के पदचिह्न आज भी स्पष्ट दिखाई देते हैं, और जहाँ महर्षि च्यवन व सुकन्या की कथाएँ आस्था और प्रेरणा का निरंतर स्रोत बनी हुई हैं।
देवकुंड: सूर्योपासना का स्थल और संज्ञा पुत्र दृष्ट और हृष्ट का कर्मक्षेत्र है। भगवान सूर्य की पत्नी संज्ञा के पुत्र दृष्ट का कर्म स्थल और सूर्योपासना का सरोवर होना। यह जानकारी देवकुंड को न केवल शिव और च्यवन ऋषि से जोड़ती है, बल्कि इसे सूर्य देव की आराधना से भी संबंधित करती है, जो इसकी बहुआयामी धार्मिक महत्ता को और बढ़ाता है। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार, देवकुंड वह पवित्र भूमि भी है जहाँ भगवान सूर्य की पत्नी संज्ञा (जिन्हें कभी-कभी छाया भी कहा जाता है) के पुत्र दृष्ट ने अपना कर्म किया था। दृष्ट, जो सूर्यवंशी परंपरा से जुड़े थे, का इस स्थल से जुड़ाव इसकी प्राचीनता और सूर्य देव के प्रति निष्ठा को दर्शाता है।देवकुंड का विशाल सहस्त्रधारा सरोवर न केवल महर्षि च्यवन के यौवन प्राप्ति से जुड़ा है, बल्कि यह सूर्योपासना का एक महत्वपूर्ण केंद्र भी रहा है। सूर्य देव हिंदू धर्म में प्रत्यक्ष देवता माने जाते हैं, जिनकी उपासना आरोग्य, समृद्धि और शक्ति प्रदान करती है। इस सरोवर में सूर्योदय और सूर्यास्त के समय विशेष रूप से छठ पर्व के दौरान बड़ी संख्या में श्रद्धालु अर्घ्य देने आते हैं। यह परंपरा इस बात का प्रमाण है कि देवकुंड सदियों से सूर्य देव की आराधना का एक प्रमुख स्थल रहा है ।देवकुंड इस प्रकार विभिन्न पौराणिक कथाओं और धार्मिक परंपराओं का संगम बन जाता है:शैव परंपरा: बाबा दूधेश्वरनाथ शिवलिंग के साथ भगवान शिव की उपासना का केंद्र।।ऋषि परंपरा: महर्षि च्यवन की तपोभूमि और च्यवनप्राश का उद्गम स्थल। रामायण संबंध: भगवान श्री राम द्वारा शिव पूजा का स्थल।सौर परंपरा: भगवान सूर्य के पुत्र दृष्ट का कर्म स्थल और सूर्योपासना का पवित्र सरोवर।
यह सभी तत्व मिलकर देवकुंड को बिहार में एक अद्वितीय और बहुआयामी धार्मिक स्थल बनाते हैं, जहाँ विभिन्न आस्थाएँ और पौराणिक कथाएँ एक साथ जीवंत होती हैं। भगवान राम ने बाबा दुदेश्वरनाथ पर जलाभिषेक त्रेतायुग में किया था । दुधेश्वश्वर नाथ को रमेश नाथ भी कहा गया था। त्रेतायुग में भगवान राम द्वारा जलाभिषेक और शिवलिंग का रमेशनाथ नाम। यह जानकारी देवकुंड के महत्व को और गहरा करती है, इसे सीधे भगवान राम से जोड़ते हुए।
त्रेतायुग में भगवान राम ने स्वयं बाबा दूधेश्वरनाथ शिवलिंग पर जलाभिषेक किया था। रामायण काल में, जब भगवान राम अपने पितरों को पिंडदान करने के लिए गया जा रहे थे, उससे पूर्व उन्होंने इस पवित्र स्थल पर भगवान शिव की स्थापना कर पूजा-अर्चना की थी। यह इस शिवलिंग के महत्व को असाधारण रूप से बढ़ा देता है, क्योंकि यह सीधे मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान राम के आध्यात्मिक सफर से जुड़ा हुआ है।
यह प्रसंग देवकुंड को उन दुर्लभ स्थानों में से एक बनाता है जहाँ स्वयं भगवान विष्णु के अवतार ने शिव की आराधना की थी, जो शैव और वैष्णव परंपराओं के संगम  है।बाबा दूधेश्वरनाथ को "रमेशनाथ" भी कहा गया था। यह नामकरण अत्यंत प्रतीकात्मक और अर्थपूर्ण है। "रमेश" शब्द भगवान विष्णु का एक नाम है, जिसका अर्थ है "रमा (लक्ष्मी) के ईश (स्वामी)"। यदि दूधेश्वरनाथ को रमेशनाथ भी कहा गया, तो यह इस बात का संकेत हो सकता है कि:
हरि-हर एकात्मता: यह नाम शिव (नाथ) और विष्णु (रमेश) की एकात्मता को दर्शाता है। हिंदू धर्म में शिव और विष्णु को एक ही परम सत्ता के दो अलग-अलग रूप माना जाता है। रमेशनाथ नाम इस सिद्धांत को पुष्ट करता है कि यहाँ शिव की पूजा में विष्णु तत्व भी समाहित है।भगवान राम का जुड़ाव: चूंकि भगवान राम स्वयं विष्णु के अवतार हैं, उनके द्वारा स्थापित या पूजित शिवलिंग को "रमेशनाथ" कहा जाना स्वाभाविक है। यह नाम सीधे तौर पर भगवान राम के इस स्थान से जुड़ाव को संदर्भित करता है।स्थानीय परंपरा और लोककथाएं: यह नामकरण स्थानीय लोककथाओं और परंपराओं में विकसित हुआ हो सकता है, जो भगवान राम की उपस्थिति और उनकी पूजा के महत्व को उजागर करता है। देवकुंड का महत्व और भी विशाल हो जाता है: यह शैव, वैष्णव, सौर (सूर्य पूजा), और ऋषि परंपराओं (महर्षि च्यवन) का एक अनूठा संगम स्थल है।त्रेतायुग से इसकी प्राचीनता सिद्ध होती है, जब स्वयं भगवान राम ने यहाँ पूजा की थी।"रमेशनाथ" नाम इसकी बहुआयामी धार्मिक पहचान को पुष्ट करता है ।

देवकुंड एक ऐसा तीर्थ स्थल है जिसकी पहचान विभिन्न पौराणिक कालखंडों से जुड़ी हुई है, चाहे वह मन्वंतर काल हो या सतयुग, त्रेतायुग, और कलियुग। यह दर्शाता है कि देवकुंड केवल एक विशेष युग तक सीमित नहीं है, बल्कि यह सनातन काल से ही आध्यात्मिक महत्व रखता आया है। धर्मग्रंथों के अनुसार, मन्वंतर एक बहुत बड़ी कालावधि है, जो एक विशेष मनु के शासनकाल को संदर्भित करती है। प्रत्येक कल्प में चौदह मन्वंतर होते हैं। यह कहा गया है कि वैवश्वत मन्वंतर में, राजा शर्याति (वैवश्वत मनु के पुत्र) के क्षेत्र में महर्षि च्यवन ने देवकुंड को अपनी तपोभूमि बनाया। यह उल्लेख देवकुंड की प्राचीनता को मन्वंतर काल तक ले जाता है, जो इसे अत्यंत पुरातन और सार्वभौमिक रूप से महत्वपूर्ण बनाता है। यह दर्शाता है कि यह स्थल केवल युगों के चक्र में ही नहीं, बल्कि बड़े ब्रह्मांडीय समय चक्रों में भी अपनी पहचान रखता है। संवत्सर हिंदू ज्योतिषीय पंचांग का एक चक्र है, जिसमें 60 संवत्सरों का एक चक्र पूरा होता है, और प्रत्येक का अपना विशिष्ट नाम और प्रभाव होता है। जबकि संवत् (जैसे विक्रम संवत् या शक संवत्) ऐतिहासिक और धार्मिक काल गणना की इकाइयाँ हैं जो कैलेंडर वर्षों को दर्शाती हैं। देवकुंड की अग्नि पिछले पांच सौ वर्षों से अधिक समय से प्रज्ज्वलित है। यह एक स्पष्ट ऐतिहासिक और संवत् काल का संकेत है। यह बताता है कि भले ही इस स्थल का महत्व पौराणिक युगों से हो, लेकिन इसका वर्तमान स्वरूप और विशेष रूप से अखंड अग्नि का जलना पिछले कुछ संवत्सरों और संवत् कालों से लगातार देखा जा रहा है। यह कलियुग के भीतर की एक निश्चित ऐतिहासिक अवधि को दर्शाता है जब बाबा बालपुरी ने जीवित समाधि ली थी और अग्नि प्रज्ज्वलित हुई थी।
सतयुग में देवकुंड : हालाँकि देवकुंड के संदर्भ में सीधे सतयुग से जुड़ी कोई विस्तृत कथा नहीं मिलती, लेकिन यह माना जा सकता है कि यदि यह महर्षि च्यवन जैसे पुरातन ऋषियों की तपोभूमि रही है और भगवान शिव के उप-ज्योतिर्लिंग को यहाँ स्थापित किया गया था, तो इसकी जड़ें सतयुग तक अवश्य पहुँचती होंगी। सतयुग धर्म और पुण्य का सर्वोच्च काल माना जाता है। ऐसे पवित्र स्थल अक्सर सतयुग में ही स्थापित होते हैं और फिर विभिन्न युगों में अपनी महत्ता बनाए रखते हैं। नीलम पत्थर का शिवलिंग, जिसे विश्वकर्मा द्वारा निर्मित माना जाता है, उसकी उत्पत्ति भी सतयुग के दिव्य काल में हुई होगी। त्रेतायुग में देवकुंड : देवकुंड का त्रेतायुग से गहरा संबंध है। यह सबसे प्रमुख काल है जिसके संदर्भ में देवकुंड की पौराणिक कथाएं मिलती हैं:भगवान राम का जलाभिषेक: यह विशेष रूप से उल्लेख किया गया है कि त्रेतायुग में भगवान श्री राम ने लंका विजय के बाद अयोध्या वापसी से पहले, गया में अपने पितरों को पिंडदान करने से पूर्व, बाबा दूधेश्वरनाथ शिवलिंग पर जलाभिषेक किया था। यह तथ्य देवकुंड को रामायण काल से जोड़ता है और इसे एक अत्यंत पवित्र तीर्थ बनाता है।महर्षि च्यवन और सुकन्या: महर्षि च्यवन और राजा शर्याति व उनकी पुत्री सुकन्या की कथा भी त्रेतायुग से संबंधित मानी जाती है। इसी काल में अश्विनी कुमारों द्वारा च्यवन ऋषि को यौवन प्राप्त हुआ और च्यवनप्राश का उद्गम हुआ।"रमेशनाथ" नाम: यदि दूधेश्वरनाथ को "रमेशनाथ" भी कहा जाता था, तो यह भी त्रेतायुग में भगवान राम (जो विष्णु के अवतार हैं) की पूजा और उनके प्रभाव को दर्शाता है। कलियुग में देवकुंड :  कलियुग है, और देवकुंड अपनी पूरी महिमा के साथ इस युग में भी विद्यमान है। कलियुग में देवकुंड का महत्व कई दृष्टियों से महत्वपूर्ण है:अखंड अग्नि की निरंतरता: कलियुग में भी कुंड की पांच सौ वर्ष से अधिक पुरानी अखंड अग्नि का प्रज्ज्वलित रहना एक चमत्कार है। यह श्रद्धा और आस्था का एक जीता-जागता प्रमाण है, जो इस पापमय और धर्मविहीन युग में भी लोगों को अपनी ओर आकर्षित करता है। तीर्थयात्रा और महोत्सव: आज भी सावन मास में औरंगाबाद तथा दूर-दूर से काँवरिये यहां गंगाजल लेकर जलाभिषेक करने आते हैं। सहस्त्रधारा में छठ पर्व का बड़े पैमाने पर आयोजन होता है। यह सब कलियुग में भी देवकुंड के धार्मिक और सांस्कृतिक महत्व को बनाए रखता है। पौराणिक ज्ञान का संरक्षण: कलियुग में, जहाँ धर्म का ह्रास माना जाता है, देवकुंड जैसे स्थल पौराणिक कथाओं, ऐतिहासिक जानकारियों और आध्यात्मिक शिक्षाओं को संरक्षित रखने का कार्य करते हैं।

नारियल और पर्यावरण

नारियल फोड़ने की परंपरा: कब, कहाँ और किसने की शुरुआत 
सत्येन्द्र कुमार पाठक 
सनातन धर्म में किसी भी शुभ कार्य से पहले नारियल फोड़ने की परंपरा सदियों से चली आ रही है. इसे श्रीफल के नाम से भी जाना जाता है और यह लगभग हर धार्मिक अनुष्ठान, विवाह, त्योहार और पूजा-पाठ का एक अभिन्न अंग है.पुराणों एवं संहिताओं के अनुसार  नारियल बलि कर्म का प्रतीक है, जिसका अर्थ है देवताओं को अर्पित किया जाने वाला उपहार या नैवेद्य. देवताओं को बलि देने का मूल अर्थ उनकी कृपा के प्रति आभार व्यक्त करना और उस कृपा का कुछ अंश उन्हें वापस समर्पित करना था.प्राचीन काल में सनातन धर्म में मनुष्य और पशुओं की बलि एक सामान्य प्रथा थी. यह एक अमानवीय और क्रूर परंपरा थी, जिसे आदि शंकराचार्य ने समाप्त करने का बीड़ा उठाया. उन्होंने इस प्रथा को तोड़ने और मनुष्य के स्थान पर नारियल चढ़ाने की शुरुआत हुई ।आदि शंकराचार्य ने नारियल को मानव बलि के विकल्प के रूप में इसलिए चुना, क्योंकि नारियल कई मायनों में मनुष्य के मस्तिष्क से समानता रखता है: नारियल की जटाओं की तुलना मनुष्य के बालों से की जा सकती है.नारियल का कठोर कवच मनुष्य की खोपड़ी जैसा होता है. नारियल पानी की तुलना रक्त से की जा सकती है. नारियल का सफेद गूदा मनुष्य के मस्तिष्क का प्रतीक है
नारियल फोड़ने का गहरा आध्यात्मिक महत्व है. यह प्रतीकात्मक रूप से अपने अहंकार और स्वयं को भगवान के चरणों में समर्पित करने का प्रतिनिधित्व करता है. ऐसा माना जाता है कि जब हम नारियल फोड़ते हैं, तो अज्ञानता और अहंकार का कठोर आवरण टूट जाता है. यह आत्मा की शुद्धता और ज्ञान के द्वार खोलता है, जिसे नारियल के सफेद, स्वच्छ हिस्से के रूप में देखा जाता है. इस प्रकार, नारियल फोड़ना केवल एक कर्मकांड नहीं, बल्कि आध्यात्मिक शुद्धि और समर्पण का एक शक्तिशाली प्रतीक है. नारियल फोड़ने की परंपरा: एक ऐतिहासिक और आध्यात्मिक यात्रा
सनातन धर्म में किसी भी शुभ कार्य से पहले नारियल फोड़ना एक अत्यंत महत्वपूर्ण और प्रतीकात्मक परंपरा है. इसे श्रीफल के नाम से भी जाना जाता है, जो लक्ष्मी और समृद्धि का प्रतीक है. यह लगभग हर धार्मिक अनुष्ठान, विवाह, त्योहार और पूजा-पाठ का एक अभिन्न अंग है. प्राचीन काल में, सनातन धर्म में मनुष्य और पशुओं की बलि एक सामान्य प्रथा थी. देवताओं को प्रसन्न करने और उनकी कृपा प्राप्त करने के लिए यह अमानवीय कृत्य किया जाता था. यह एक क्रूर और बर्बर परंपरा थी, जो समाज में भय और हिंसा का प्रसार करती थी.
 8वीं शताब्दी ईस्वी में, महान दार्शनिक और धर्म सुधारक आदि शंकराचार्य ने इस अमानवीय प्रथा को समाप्त करने का बीड़ा उठाया. उन्होंने देखा कि यह बलि प्रथा धर्म के मूल सिद्धांतों, विशेष रूप से अहिंसा के विरुद्ध थी. आदि शंकराचार्य ने इस प्रथा को रोकने और एक अधिक मानवीय विकल्प प्रदान करने का दृढ़ संकल्प लिया.उन्होंने मनुष्य बलि के स्थान पर नारियल चढ़ाने की शुरुआत की. यह एक क्रांतिकारी कदम था जिसने धार्मिक अनुष्ठानों को अधिक सौम्य और प्रतीकात्मक बना दिया. शंकराचार्य ने तर्क दिया कि वास्तविक समर्पण शारीरिक बलिदान में नहीं, बल्कि आंतरिक त्याग और भक्ति में निहित है.आदि शंकराचार्य ने नारियल को मानव बलि के विकल्प के रूप में बहुत सोच-समझकर चुना, क्योंकि नारियल कई मायनों में मनुष्य के मस्तिष्क से आश्चर्यजनक समानता रखता है:
नारियल की बाहरी जटाएँ: इनकी तुलना मनुष्य के बालों से की जा सकती है.नारियल का कठोर आवरण (कवच): यह मनुष्य की खोपड़ी का प्रतीक है. नारियल पानी: इसे रक्त या जीवन शक्ति के समान माना जा सकता है. नारियल का सफेद गूदा: यह मनुष्य के मस्तिष्क और उसके भीतर के विचारों, ज्ञान तथा चेतना का प्रतिनिधित्व करता है. प्रतीकात्मक समानता के माध्यम से, नारियल फोड़ना स्वयं के बलिदान का एक रूप बन गया, लेकिन हिंसा के बिना.
नारियल फोड़ने का गहरा आध्यात्मिक महत्व है. यह केवल एक शारीरिक क्रिया नहीं, बल्कि आध्यात्मिक समर्पण का एक शक्तिशाली प्रतीक है:: नारियल का कठोर बाहरी आवरण अहंकार (Ego) और अज्ञानता (Ignorance) का प्रतीक है, जो मनुष्य को आध्यात्मिक प्रगति से रोकता है. जब नारियल को फोड़ा जाता है, तो यह प्रतीकात्मक रूप से इन बाधाओं के टूटने का प्रतिनिधित्व करता है. आत्मा की शुद्धता और ज्ञान का अनावरण: नारियल के भीतर का सफेद, शुद्ध गूदा आत्मा की पवित्रता, ज्ञान और आंतरिक सत्य का प्रतीक है. कठोर आवरण के टूटने पर यह सफेद गूदा प्रकट होता है, जो दर्शाता है कि अहंकार और अज्ञानता के हटने के रूप है ।  सनातन धर्म में, किसी भी शुभ कार्य से पहले नारियल फोड़ना एक महत्वपूर्ण परंपरा है. इसे श्रीफल के नाम से भी जाना जाता है और यह लगभग हर धार्मिक अनुष्ठान, विवाह, त्योहार और पूजा-पाठ का एक अभिन्न अंग है. लेकिन क्या आपने कभी सोचा है कि यह परंपरा कब, कहाँ और किसने शुरू की? आइए जानते हैं इस प्राचीन और प्रतीकात्मक प्रथा के बारे में विस्तार से.
नारियल फोड़ने की परंपरा: एक ऐतिहासिक और आध्यात्मिक यात्रा -  सनातन धर्म में नारियल फोड़ने की परंपरा सदियों से चली आ रही है. यह केवल एक कर्मकांड नहीं, बल्कि एक गहरा आध्यात्मिक महत्व लिए हुए है, जो समर्पण, शुद्धि और अज्ञानता पर विजय का प्रतीक है.बलि प्रथा का अंत और आदि शंकराचार्य का योगदान - प्राचीन काल में, सनातन धर्म में मनुष्य और पशुओं की बलि एक सामान्य प्रथा थी. देवताओं को प्रसन्न करने और उनकी कृपा प्राप्त करने के लिए यह अमानवीय कृत्य किया जाता था. यह एक क्रूर और बर्बर परंपरा थी, जो समाज में भय और हिंसा का प्रसार करती थी. 8वीं शताब्दी ईस्वी में, महान दार्शनिक और धर्म सुधारक आदि शंकराचार्य ने इस अमानवीय प्रथा को समाप्त करने का बीड़ा उठाया. उन्होंने देखा कि यह बलि प्रथा धर्म के मूल सिद्धांतों, विशेष रूप से अहिंसा के विरुद्ध थी. आदि शंकराचार्य ने इस प्रथा को रोकने और एक अधिक मानवीय विकल्प प्रदान करने का दृढ़ संकल्प लिया.
उन्होंने मनुष्य बलि के स्थान पर नारियल चढ़ाने की शुरुआत की. यह एक क्रांतिकारी कदम था जिसने धार्मिक अनुष्ठानों को अधिक सौम्य और प्रतीकात्मक बना दिया. शंकराचार्य ने तर्क दिया कि वास्तविक समर्पण शारीरिक बलिदान में नहीं, बल्कि आंतरिक त्याग और भक्ति में निहित है. नारियल और मनुष्य के मस्तिष्क की समानता - आदि शंकराचार्य ने नारियल को मानव बलि के विकल्प के रूप में बहुत सोच-समझकर चुना, क्योंकि नारियल कई मायनों में मनुष्य के मस्तिष्क से आश्चर्यजनक समानता रखता है:नारियल की बाहरी जटाएँ: इनकी तुलना मनुष्य के बालों से की जा सकती है.नारियल का कठोर आवरण (कवच): यह मनुष्य की खोपड़ी का प्रतीक है.नारियल पानी: इसे रक्त या जीवन शक्ति के समान माना जा सकता है.नारियल का सफेद गूदा: यह मनुष्य के मस्तिष्क और उसके भीतर के विचारों, ज्ञान तथा चेतना का प्रतिनिधित्व करता है.प्रतीकात्मक समानता के माध्यम से, नारियल फोड़ना स्वयं के बलिदान का एक रूप बन गया, लेकिन हिंसा के बिना.

नारियल फोड़ने का आध्यात्मिक महत्व - नारियल फोड़ने का गहरा आध्यात्मिक महत्व है. यह केवल एक शारीरिक क्रिया नहीं, बल्कि आध्यात्मिक समर्पण का एक शक्तिशाली प्रतीक है:अहंकार और अज्ञानता का नाश: नारियल का कठोर बाहरी आवरण अहंकार (Ego) और अज्ञानता (Ignorance) का प्रतीक है, जो मनुष्य को आध्यात्मिक प्रगति से रोकता है. जब नारियल को फोड़ा जाता है, तो यह प्रतीकात्मक रूप से इन बाधाओं के टूटने का प्रतिनिधित्व करता है.आत्मा की शुद्धता और ज्ञान का अनावरण: नारियल के भीतर का सफेद, शुद्ध गूदा आत्मा की पवित्रता, ज्ञान और आंतरिक सत्य का प्रतीक है. कठोर आवरण के टूटने पर यह सफेद गूदा प्रकट होता है, जो दर्शाता है कि अहंकार और अज्ञानता के हटने पर ही आत्मा का शुद्ध स्वरूप और ज्ञान प्रकट होता है.नारियल फोड़ना केवल एक कर्मकांड नहीं, बल्कि आध्यात्मिक शुद्धि, अहंकार के त्याग और भगवान के प्रति पूर्ण समर्पण का एक शक्तिशाली प्रतीक है. यह हमें सिखाता है कि वास्तविक भक्ति बाहरी बलिदानों में नहीं, बल्कि आंतरिक परिवर्तन और शुद्धिकरण में निहित है.हिन्दू धर्मग्रंथों में नारियल का उल्लेख 'श्रीफल' के रूप में मिलता है, जो समृद्धि और शुभता का प्रतीक है. ऐसा माना जाता है कि आदि शंकराचार्य ने मानव और पशु बलि की क्रूर प्रथा को समाप्त करने के लिए नारियल को उसके स्थान पर चढ़ाने की शुरुआत की थी. विश्व में नारियलनारियल (कोकोस न्यूसीफेरा) -  विश्व के उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में उगाया जाने वाला एक महत्वपूर्ण फल है, जिसे "जीवन का वृक्ष" या "कल्पवृक्ष" भी कहा जाता है क्योंकि इसका प्रत्येक भाग किसी न किसी रूप में मानव जाति के लिए उपयोगी होता है. यह भोजन, पेय, ईंधन, लकड़ी और विभिन्न उत्पादों के लिए कच्चा माल प्रदान करता है.नारियल की उत्पत्ति दक्षिण पूर्व एशिया या दक्षिण अमेरिका के प्रशांत तट पर हुई थी. कालिदास के रघुवंश और संगम साहित्य में नारियल का उल्लेख मिलता है, जिससे भारत में नारियल की प्राचीनता सिद्ध होती है. 13वीं शताब्दी में भारत का दौरा करने वाले प्रसिद्ध अरब यात्री मार्को पोलो ने नारियल को "भारतीय अखरोट" कहा था. नारियल के रेशों से बनी रस्सियां और डोरियां प्राचीन काल से ही उपयोग में आती रही हैं, और भारतीय नाविक सदियों पहले अपनी समुद्री यात्राओं में इनका उपयोग करते थे.
वैश्विक उत्पादन: -- नारियल का उत्पादन मुख्य रूप से उष्णकटिबंधीय देशों में होता है, जहां गर्म तापमान और पर्याप्त वर्षा होती है. शीर्ष 5 नारियल उत्पादक देश (अनुमानित वार्षिक उत्पादन, मिलियन मीट्रिक टन): इंडोनेशिया: 17.13 , फिलीपींस: 14.77 ,भारत: 14.68 , श्रीलंका: 2.47 ब्राजील: 2.33  उत्पादन है। इंडोनेशिया, फिलीपींस और भारत अकेले वैश्विक नारियल उत्पादन का लगभग 73% उत्पादन करते हैं, जो नारियल उत्पादन में एशिया के नेतृत्व का प्रमाण है.भारत में नारियल: - भारत विश्व में नारियल के प्रमुख उत्पादकों में से एक है और अक्सर उत्पादन और उत्पादकता दोनों में शीर्ष स्थानों पर रहता है. भारत में, केरल, तमिलनाडु और कर्नाटक जैसे तटीय राज्य नारियल उत्पादन में अग्रणी हैं. देश में 21 राज्यों में नारियल की खेती की जाती है।
आर्थिक महत्व: नारियल की खेती लाखों लोगों की आजीविका का साधन है. यह स्थानीय अर्थव्यवस्था, निर्यात और विभिन्न उद्योगों के लिए आवश्यक है. नारियल उत्पादों के निर्यात से लाखों डॉलर का राजस्व प्राप्त होता है.औद्योगिक उपयोग: नारियल विभिन्न उद्योगों जैसे खाद्य और पेय (नारियल पानी, दूध, तेल, खोपरा), सौंदर्य प्रसाधन (तेल, साबुन), स्वास्थ्य पूरक और यहां तक कि बायो-ईंधन में भी उपयोग किया जाता है. नारियल के रेशों से चटाई, ब्रश और अन्य उत्पाद बनाए जाते हैं.सांस्कृतिक और धार्मिक महत्व: सनातन धर्म में नारियल का गहरा सांस्कृतिक और धार्मिक महत्व है. इसे शुभ माना जाता है और लगभग हर धार्मिक अनुष्ठान, विवाह, त्योहार और पूजा-पाठ में इसका उपयोग किया जाता है.नारियल का पेड़ अपनी बहुमुखी उपयोगिता के कारण वैश्विक स्तर पर एक महत्वपूर्ण कृषि उत्पाद है, जो उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में लाखों लोगों के जीवन का आधार है.
वैज्ञानिक दृष्टिकोण: - आधुनिक आनुवंशिक अध्ययनों ने नारियल की उत्पत्ति के दो मुख्य केंद्रों की पहचान की है:मध्य भारत-प्रशांत क्षेत्र: इसमें पश्चिमी दक्षिण पूर्व एशिया और मेलानेशिया का क्षेत्र शामिल है, जहाँ नारियल में सबसे अधिक आनुवंशिक विविधता पाई जाती है. कई वनस्पति विज्ञानी नारियल की उत्पत्ति पापुआ न्यू गिनी क्षेत्र में मानते हैं, जो इसके निकटतम वानस्पतिक रिश्तेदारों के आधार पर है.हिंद महासागर बेसिन के दक्षिणी किनारे: इसमें भारतीय उपमहाद्वीप के दक्षिणी किनारे, श्रीलंका, मालदीव और लक्षद्वीप शामिल है। नारियल को दो अलग-अलग स्थानों पर स्वतंत्र रूप से खेती के अधीन लाया गया था - एक प्रशांत बेसिन में और दूसरा हिंद महासागर बेसिन में.प्रशांत क्षेत्र: प्रशांत क्षेत्र में, नारियल की खेती संभवतः सबसे पहले द्वीप दक्षिण पूर्व एशिया (जैसे फिलीपींस, मलेशिया, इंडोनेशिया) में हुई थी. ऑस्ट्रोनेशियाई लोगों के शुरुआती प्रवासन के साथ नारियल को "कैनो प्लांट" के रूप में दूर-दूर के द्वीपों तक ले जाया गया, जहाँ वे बस गए. इन क्षेत्रों में नारियल के स्थानीय नामों की समानता भी इस बात का प्रमाण मानी जाती है कि यह पौधा यहीं से उत्पन्न हुआ था.
हिंद महासागर क्षेत्र: हिंद महासागर में, खेती का संभावित केंद्र भारत का दक्षिणी भाग में नारियल है। जीवाश्म रिकॉर्ड बताते हैं कि नारियल का पौधा लगभग 20 मिलियन वर्ष पहले विकसित हुआ था, मानव के पृथ्वी पर आने से बहुत पहले.न्यूजीलैंड से मिले जीवाश्म रिकॉर्ड बताते हैं कि 15 मिलियन वर्ष पहले तक छोटे, नारियल जैसे पौधे वहाँ उगते थे.भारत में केरल, राजस्थान, तमिलनाडु और महाराष्ट्र जैसे स्थानों पर 56.5 से 35.4 मिलियन वर्ष पुराने (इओसीन काल के) नारियल फलों के जीवाश्म अवशेष मिले हैं.भारत में नारियल की उत्पत्ति से जुड़ी महर्षि विश्वामित्र से संबंधित है: राजा सत्यव्रत की कहानी: पौराणिक कथा के अनुसार, प्राचीन काल में राजा सत्यव्रत नाम के एक प्रतापी राजा थे, जिनकी इच्छा स्वर्गलोक जाने की थी. उन्होंने महर्षि विश्वामित्र से सहायता मांगी. विश्वामित्र ने अपनी तपस्या के बल पर राजा सत्यव्रत के लिए एक नया स्वर्गलोक बनाना शुरू किया. जब इंद्रदेव ने सत्यव्रत को नए स्वर्गलोक से नीचे धकेल दिया, तो विश्वामित्र ने उन्हें बीच में ही रोकने के लिए एक विशाल खंभा बनाया.नारियल का उद्भव: माना जाता है कि यही खंभा समय के साथ एक विशाल पेड़ के तने में बदल गया, और राजा सत्यव्रत का सिर एक फल बन गया, जिसे आज हम नारियल या "श्रीफल" के नाम से जानते हैं. इसी कारण नारियल का पेड़ बहुत ऊँचा होता है, और इसमें मनुष्य के सिर जैसी तीन आँखें (जटाएँ, कठोर कवच, पानी और सफेद गूदा) होती हैं. बलि प्रथा का विकल्प: जैसा कि पहले उल्लेख किया गया है, आदि शंकराचार्य ने मानव बलि की अमानवीय प्रथा को समाप्त करने के लिए नारियल को उसके प्रतीकात्मक विकल्प के रूप में चढ़ाना शुरू किया. नारियल को मनुष्य के मस्तिष्क के समान माना गया, जिससे यह अहंकार और अज्ञानता के बलिदान का प्रतीक बन गया.
नारियल को संस्कृत में 'श्रीफल' कहा जाता है, जिसका अर्थ है देवी लक्ष्मी का फल या शुभ फल. यह नाम ही इसकी प्राचीनता और धार्मिक महत्व को दर्शाता है. रामायण और महाभारत जैसे महाकाव्यों में, जो त्रेतायुग और द्वापरयुग से संबंधित माने जाते हैं, विभिन्न प्रकार के फलों और वनस्पतियों का उल्लेख है. हालांकि, नारियल का विशिष्ट रूप से पूजा या अनुष्ठानों में उपयोग होने का विस्तृत वर्णन इन युगों में बहुत स्पष्ट नहीं है.
सतयुग: यह युग धर्म और आध्यात्मिकता का स्वर्ण युग माना जाता है. इस समय पूजा-पाठ और यज्ञों में सादगी और प्रकृति से जुड़े तत्वों का उपयोग होता था. यदि नारियल उस समय उपलब्ध था, तो यह निश्चित रूप से शुभ कार्यों में प्रयोग होता होगा, लेकिन इसके महत्व पर कोई विशेष ज़ोर नहीं है. त्रेतायुग रामायण में वनस्पति और फलों का विस्तृत वर्णन है, लेकिन नारियल का किसी विशेष अनुष्ठान में केंद्रीय भूमिका निभाने का उल्लेख नहीं मिलता है. हालांकि, यह माना जा सकता है कि तटीय क्षेत्रों में यह फल उपलब्ध रहा होगा और भोजन या औषधि के रूप में उपयोग होता था । द्वापरयुग  में विभिन्न प्रकार के अनुष्ठानों और वस्तुओं का उल्लेख है. श्रीकृष्ण के काल में भी नारियल का प्रत्यक्ष रूप से विशेष पूजन सामग्री के रूप में बहुत अधिक उल्लेख  मिलताहै।
कलियुग में नारियल का धार्मिक और सामाजिक महत्व सर्वाधिक स्पष्ट और सर्वव्यापी है. आदि शंकराचार्य (जो 8वीं शताब्दी ईस्वी में थे, यानी कलियुग में) द्वारा मानव बलि के स्थान पर नारियल के उपयोग की शुरुआत ने इसके धार्मिक महत्व को अत्यधिक बढ़ा दिया. आज किसी भी शुभ कार्य, पूजा, विवाह या त्योहार में नारियल का उपयोग अनिवार्य माना जाता है.आदि शंकराचार्य और कलियुग में नारियल का महत्व - नारियल के धार्मिक उपयोग की वर्तमान परंपरा को सबसे ठोस रूप से आदि शंकराचार्य से जोड़ा जाता है. उन्होंने मनुष्य और पशु बलि जैसी क्रूर प्रथाओं को समाप्त करने के लिए नारियल को एक प्रतीकात्मक विकल्प के रूप में प्रस्तुत किया. उनका तर्क था कि नारियल की शारीरिक संरचना (बाहरी जटाएँ, कठोर कवच, पानी, और सफेद गूदा) मनुष्य के सिर से मिलती-जुलती है, जो इसे अहंकार और अज्ञानता के बलिदान का एक आदर्श प्रतीक बनाती है.
आदि शंकराचार्य के प्रयासों के बाद से, नारियल ने सनातन धर्म में एक अनिवार्य धार्मिक वस्तु के रूप में अपनी जगह बना ली है, विशेषकर कलियुग में. यह आत्म-समर्पण, शुद्धता और आंतरिक ज्ञान के अनावरण का प्रतीक बन गया है.
 मन्वंतर में नारियल - मन्वंतर हिन्दू काल-गणना की एक बहुत बड़ी इकाई है, जो ब्रह्मा के एक दिन (कल्प) का चौदहवाँ भाग होता है. प्रत्येक मन्वंतर में एक मनु शासन करते हैं और इसके बाद एक प्रलय जैसी स्थिति आती है. वर्तमान में हम सातवें मनु, वैवस्वत मनु के मन्वंतर में हैं. प्राचीनतम मन्वंतरों में नारियल का विशिष्ट महत्व रहा है।, मन्वन्तर समय की सामाजिक और धार्मिक प्रथाओं का विस्तृत विवरण दुर्लभ है. हालांकि, यदि नारियल का पौधा उस भौगोलिक क्षेत्र में मौजूद था, तो यह निश्चित रूप से भोजन, औषधि और अन्य व्यावहारिक उपयोगों के लिए मूल्यवान रहा था । श्रीफल' के रूप में नारियल के पौराणिक उद्भव की बात करते हैं (जैसे महर्षि विश्वामित्र से जुड़ी कथा), तो यह घटना किसी एक विशेष मन्वंतर के भीतर ही घटित हुई होगी. इसका तात्पर्य यह है कि धार्मिक अनुष्ठानों में नारियल का प्रतीकात्मक उपयोग, जैसा कि हम आज देखते हैं, कम से कम वर्तमान मन्वंतर के भीतर विकसित हुआ है.
संवत्सर और संवत् काल में नारियल - संवत्सर सनातन धर्म ज्योतिष काल-गणना में एक वर्ष की अवधि को संदर्भित करता है. 60 संवत्सरों का एक चक्र होता है. संवत् काल किसी विशेष युग या संवत (जैसे विक्रम संवत, शक संवत) से संबंधित समय अवधि को दर्शाता है. कालखंडों में नारियल का महत्व मुख्य रूप से कृषि, आर्थिक और धार्मिक प्रथाओं से जुड़ा हुआ है:
कृषि और आर्थिक महत्व: संवत्सरों के दौरान, विशेषकर उन क्षेत्रों में जहाँ नारियल की खेती होती थी (जैसे भारत के तटीय क्षेत्र), नारियल एक महत्वपूर्ण कृषि उपज और आर्थिक वस्तु रहा होगा. यह स्थानीय आबादी के लिए भोजन, पेय, तेल और निर्माण सामग्री का एक प्रमुख स्रोत था. किसान संवत्सर दर संवत्सर नारियल की फसल पर निर्भर रहते थे.धार्मिक और सांस्कृतिक महत्व: विभिन्न संवत्सरों में पड़ने वाले त्योहारों, विवाहों और अन्य शुभ आयोजनों में नारियल का उपयोग एक स्थापित परंपरा बन गया. विशेष रूप से कलियुग में आदि शंकराचार्य द्वारा स्थापित परंपरा के बाद, हर संवत्सर के भीतर होने वाले धार्मिक अनुष्ठानों में नारियल की उपस्थिति अनिवार्य हो गई. यह प्रत्येक नए संवत्सर की शुरुआत या किसी भी शुभ कार्य के लिए शुभता, समृद्धि और समर्पण का प्रतीक बन गया. मन्वंतरों के पैमाने पर नारियल के विशिष्ट महत्व को परिभाषित करना कठिन है, क्योंकि ये बहुत विशाल काल हैं. लेकिन संवत्सर और संवत् काल के संदर्भ में, नारियल ने धीरे-धीरे कृषि, आर्थिक और विशेष रूप से धार्मिक क्षेत्र में एक केंद्रीय भूमिका प्राप्त कर ली है, खासकर कलियुग में इसकी प्रतीकात्मकता और उपयोग बहुत प्रमुख हो गया है.
वानस्पतिक वर्गीकरण और जीवविज्ञान - वैज्ञानिक नाम: कोकोस न्यूसीफेरा परिवार: एरेकेसी या ताड़ परिवार संरचना: नारियल का पेड़ एक बड़ा ताड़ का पेड़ होता है, जो 30 मीटर तक ऊँचा होता है, जिसमें 4-6 मीटर लंबी पत्तियां होती हैं. नारियल, जिसे आमतौर पर "नट" कहा जाता है, वास्तव में एक "ड्रूप" (drupe) है, जो एक प्रकार का पत्थर वाला फल होता है. आनुवंशिक अध्ययनों से पता चलता है कि नारियल की उत्पत्ति संभवतः दक्षिण पूर्व एशिया या हिंद महासागर बेसिन में हुई थी, और इसे मनुष्यों द्वारा और समुद्री धाराओं के माध्यम से दुनिया भर के उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में फैलाया गया.वैज्ञानिकों ने नारियल के विभिन्न भागों, विशेष रूप से नारियल मांस (गूदा), नारियल पानी और नारियल तेल के पोषण और स्वास्थ्य लाभों का गहन अध्ययन किया है.
नारियल  गूदा  मध्यम-श्रृंखला फैटी एसिड -  यह एमसीएफए (मुख्यतः लॉरिक एसिड) का एक समृद्ध स्रोत है, जो अन्य वसा की तुलना में शरीर द्वारा आसानी से पच जाता है और ऊर्जा के लिए उपयोग किया जाता है. कुछ शोध बताते हैं कि एमसीएफए वजन घटाने और एथलेटिक धीरज को बढ़ाने में मदद कर सकते हैं.फाइबर और प्रोटीन: इसमें आहार फाइबर और प्रोटीन होता है, जो पाचन स्वास्थ्य के लिए महत्वपूर्ण हैं.खनिज: यह आयरन, मैंगनीज, कॉपर और मैग्नीशियम जैसे आवश्यक खनिजों का एक अच्छा स्रोत है.एंटीऑक्सीडेंट: इसमें फेनोलिक यौगिक होते हैं जो एंटीऑक्सिडेंट के रूप में कार्य करते हैं, शरीर को मुक्त कणों से होने वाले नुकसान से बचाते हैं. नारियल पानी:इलेक्ट्रोलाइट्स: यह पोटेशियम, सोडियम और मैग्नीशियम जैसे इलेक्ट्रोलाइट्स से भरपूर होता है, जो इसे प्राकृतिक रीहाइड्रेशन पेय बनाता है, खासकर दस्त या शारीरिक गतिविधि के बाद.किडनी स्वास्थ्य: कुछ अध्ययनों से पता चलता है कि यह गुर्दे की पथरी को रोकने में मदद कर सकता है.रक्तचाप: पोटेशियम सामग्री रक्तचाप को नियंत्रित करने में मदद कर सकती है.एंटीमाइक्रोबियल गुण: लॉरिक एसिड, जो नारियल तेल में प्रचुर मात्रा में होता है, में मजबूत एंटीमाइक्रोबियल, एंटीफंगल और एंटीवायरल गुण होते हैं, जो संक्रमण से लड़ने में मदद कर सकते हैं.त्वचा और बालों का स्वास्थ्य: इसे अक्सर मॉइस्चराइजर और बालों के लिए कंडीशनर के रूप में उपयोग किया जाता है.कोलेस्ट्रॉल: कुछ शोध बताते हैं कि वर्जिन नारियल तेल एचडीएल (अच्छा) कोलेस्ट्रॉल के स्तर को बढ़ा सकता है.
वैज्ञानिक नारियल के विभिन्न भागों का उपयोग करके नए उत्पादों के विकास और मौजूदा प्रक्रियाओं में सुधार पर भी काम करते हैं.कोकोस (रेशा): नारियल के बाहरी भूसी से प्राप्त रेशे का उपयोग चटाई, ब्रश, रस्सी, और बागवानी में मिट्टी के विकल्प के रूप में किया जाता है.।सक्रिय कार्बन: नारियल के खोल को उच्च गुणवत्ता वाले सक्रिय कार्बन में परिवर्तित किया जा सकता है, जिसका उपयोग जल शोधन और विभिन्न औद्योगिक निस्पंदन प्रक्रियाओं में किया जाता है.बायो-ईंधन: नारियल के बायोमास से बायो-ईंधन (जैसे बायोडीजल) के उत्पादन की संभावना पर शोध चल रहा है.खाद्य उद्योग: नारियल का दूध, क्रीम, खोपरा, नारियल चीनी और सिरका विभिन्न खाद्य उत्पादों में उपयोग होते हैं. पर्यावरणीय प्रभाव और स्थिरता वैज्ञानिक नारियल की खेती के पर्यावरणीय प्रभावों का भी अध्ययन करते हैं और सतत प्रथाओं को विकसित करने का प्रयास करते हैं.भूमि उपयोग और वनों की कटाई: बढ़ती मांग के कारण, नारियल बागानों के विस्तार से वनों की कटाई और जैव विविधता के नुकसान की चिंताएं बढ़ी हैं, खासकर दक्षिण पूर्व एशिया में है। जल उपयोग: नारियल के पेड़ों को पनपने के लिए पर्याप्त पानी की आवश्यकता होती है, जिससे कुछ क्षेत्रों में जल संसाधनों पर दबाव पड़ सकता है. कार्बन फुटप्रिंट: नारियल तेल के उत्पादन, विशेष रूप से खोपरा सुखाने के लिए ईंधन के जलने से ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन होता है. कचरा प्रबंधन: नारियल के अपशिष्ट (भूसी, खोल, पानी) की बड़ी मात्रा को अक्सर लैंडफिल में फेंक दिया जाता है. वैज्ञानिक इस कचरे को मूल्यवान उत्पादों में बदलने के तरीके खोज रहे हैं.जलवायु परिवर्तन: नारियल की खेती जलवायु परिवर्तन के प्रति संवेदनशील है, जिससे उपज पर असर पड़ सकता है. वैज्ञानिक सूखा-प्रतिरोधी किस्में और बेहतर सिंचाई तकनीक विकसित करने पर काम कर रहे हैं.आनुवंशिक सुधार: अधिक उपज देने वाली, रोग प्रतिरोधी और जलवायु परिवर्तन के अनुकूल नारियल की किस्मों को विकसित करने के लिए आनुवंशिक अनुसंधान किया जा रहा है.रोग नियंत्रण: नारियल को प्रभावित करने वाले विभिन्न रोगों (जैसे घातक पीलापन) के प्रभावी नियंत्रण के लिए अनुसंधान जारी है.उपयोगिता: नारियल के नए औषधीय गुणों, सौंदर्य प्रसाधन में उपयोग और औद्योगिक अनुप्रयोगों की खोज की जा रही है. वैज्ञानिकों की नज़र में नारियल केवल एक फल नहीं, बल्कि एक बहुआयामी संसाधन है जिसके स्वास्थ्य, आर्थिक और पर्यावरणीय पहलुओं को समझने और अनुकूलित करने के लिए निरंतर अनुसंधान की आवश्यकता है.नारियल का  मानव संस्कृति को संदेश - नारियल, जिसे अक्सर 'श्रीफल' या 'जीवन का वृक्ष' कहा जाता है, केवल एक फल नहीं है; यह मानव संस्कृति को कई गहरे और बहुआयामी संदेश देता है. इसकी बहुमुखी उपयोगिता और धार्मिक महत्व इसे विभिन्न सभ्यताओं में एक शक्तिशाली प्रतीक बनाते हैं.
1. त्याग और समर्पण का प्रतीक - नारियल का सबसे प्रबल सांस्कृतिक संदेश त्याग और समर्पण का है. सनातन धर्म में, इसे फोड़ना अहंकार और अज्ञानता के कठोर आवरण को तोड़ने और स्वयं को ईश्वर के चरणों में समर्पित करने का प्रतीक है. यह दर्शाता है कि वास्तविक पवित्रता और ज्ञान (नारियल का सफेद गूदा) तब ही प्रकट होता है, जब हम अपने बाहरी आवरणों और संकीर्ण विचारों को छोड़ देते हैं. यह हमें सिखाता है कि कुछ पाने के लिए कुछ छोड़ना पड़ता है, और सच्ची भक्ति बाहरी दिखावे में नहीं, बल्कि आंतरिक शुद्धि में निहित है.
2. समृद्धि और शुभता का वाहक - नारियल को अक्सर देवी लक्ष्मी से जोड़ा जाता है, इसलिए यह समृद्धि, उर्वरता और शुभता का प्रतीक है. किसी भी नए कार्य की शुरुआत में इसका उपयोग यह संदेश देता है कि हम सकारात्मक ऊर्जा, धन और सफलता का आह्वान कर रहे हैं. यह बताता है कि जीवन में शुरुआत हमेशा शुभ और सकारात्मक इरादों के साथ होनी चाहिए.
3. आत्मनिर्भरता और बहुमुखी उपयोगिता - नारियल का पेड़, अपने हर हिस्से के उपयोग के कारण, आत्मनिर्भरता और बहुमुखी उपयोगिता का उत्कृष्ट उदाहरण है. इसके पानी से लेकर गूदे, तेल, जटाओं और लकड़ी तक, हर भाग का अपना महत्व है. यह मानव संस्कृति को यह संदेश देता है कि हमें अपने संसाधनों का अधिकतम उपयोग करना चाहिए और जीवन के विभिन्न पहलुओं में लचीला और उपयोगी होना चाहिए. यह प्रकृति के प्रति आभार और उसकी देन का सदुपयोग करने की प्रेरणा भी देता है.
4. जीवन और पुनरुत्थान का चक्र - नारियल का पेड़ समुद्र के किनारे पनपता है और इसके फल मीलों दूर तैरकर नई भूमि पर उगने की क्षमता रखते हैं. यह जीवन, लचीलापन और पुनरुत्थान के संदेश को दर्शाता है. यह बताता है कि विपरीत परिस्थितियों में भी जीवन पनप सकता है और स्वयं को नए सिरे से स्थापित कर सकता है. यह आशा और निरंतरता का प्रतीक है.
5. पोषण और स्वास्थ्य - अपने पोषक गुणों के कारण, नारियल दुनिया भर के उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में लाखों लोगों के लिए पोषण और स्वास्थ्य का आधार है. यह मानव संस्कृति को प्रकृति से मिलने वाले उपहारों के महत्व को बताता है, जो शरीर और मन दोनों को पोषण देते हैं. यह प्राकृतिक और स्वस्थ जीवन शैली अपनाने की प्रेरणा देता है.
नारियल मानव संस्कृति को समर्पण, शुभता, आत्मनिर्भरता, जीवन की निरंतरता और प्रकृति के साथ सामंजस्य जैसे कई अनमोल संदेश देता है. यह हमें सिखाता है कि जीवन में सरलता, उपयोगिता और आध्यात्मिक गहराई कितनी महत्वपूर्ण है.

सोमवार, जून 02, 2025

मैं जीवनधारा नदी हूँ

बिहार की नदियाँ: विलुप्ति के कगार पर एक विस्तृत विश्लेषण
सत्येन्द्र कुमार पाठक 
बिहार, जिसे "नदियों का प्रदेश" कहा जाता है, आज एक गंभीर पर्यावरणीय और पारिस्थितिक संकट का सामना कर रहा है। राज्य की कई ऐतिहासिक, सांस्कृतिक और आर्थिक रूप से महत्वपूर्ण नदियाँ धीरे-धीरे विलुप्त होने की कगार पर पहुँच गई हैं। यह केवल जलस्रोतों का सूखना नहीं, बल्कि एक सभ्यतागत क्षति है जो राज्य के पर्यावरण, कृषि, जैव विविधता और मानव जीवन पर गहरा प्रभाव डाल रही है। 
बिहार की विलुप्त होती नदियाँ और उनके भयावह कारण 
निर्माण भारती के प्रबंध संपादक सत्येन्द्र कुमार पाठक ने सर्वेक्षित नदियों एवं विलुप्त हो रही नदियों तथा विलुप्त हुई नदियों पर समीक्षात्मक सर्वेक्षण से पता चला है कि बिहार की कई छोटी और ऐतिहासिक नदियाँ, जैसे दाहा, कदाने, जमुआरी, कंचन, धर्मावती, चंद्रभागा, माही, तेल, सोंधी, धमती, खनूआ नाला, नेउरा नाला और हिरण्यबाहु (जिसे 'बह' भी कहा जाता है), अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही हैं। इन नदियों के विलुप्त होने के पीछे कई जटिल और अंतर्संबंधित कारण हैं:
प्रदूषण की विकराल समस्या: यह नदियों के लिए सबसे बड़ा खतरा है। शहरों और औद्योगिक क्षेत्रों से निकलने वाला अनुपचारित कचरा और औद्योगिक अपशिष्ट सीधे नदियों में बहाया जा रहा है। कृषि में रसायनों और कीटनाशकों का अत्यधिक उपयोग भी बारिश के पानी के साथ बहकर नदियों तक पहुँचता है, जिससे पानी दूषित होता है। यह न केवल जलीय जीवों के लिए बल्कि उन मनुष्यों के लिए भी गंभीर स्वास्थ्य खतरे पैदा करता है जो इन नदियों के पानी पर निर्भर करते हैं। दाहा नदी, जो कभी गंडक और सरयू से जुड़ी थी, आज प्रदूषण के कारण खतरे में है।
जलकुंभी का असीमित विस्तार: जलकुंभी एक आक्रामक खरपतवार है जो नदियों की सतह पर तेजी से फैलता है। यह सूर्य के प्रकाश को पानी तक पहुँचने से रोकता है, जिससे जलीय पौधों का प्रकाश संश्लेषण बाधित होता है। यह पानी में ऑक्सीजन के स्तर को कम करता है, जिससे मछलियों और अन्य जलीय जीवों का जीवन खतरे में पड़ जाता है। कदाने नदी, जो मुजफ्फरपुर के लिए महत्वपूर्ण जलस्रोत थी, जलकुंभी और प्रदूषण के कारण लगभग विलुप्त हो चुकी है।
अनियंत्रित मानव हस्तक्षेप:बांधों और जलाशयों का निर्माण: नदियों के प्राकृतिक प्रवाह को बाधित कर रहा है। यद्यपि ये जल विद्युत और सिंचाई के लिए आवश्यक हैं, इनका अनियोजित निर्माण और प्रबंधन नदियों के पारिस्थितिक तंत्र को नुकसान पहुँचाता है और उनके जलमार्ग को बाधित करता है, जिससे पानी का बहाव कम हो जाता है।
अत्यधिक जल दोहन: कृषि (विशेषकर जल-गहन फसलें) और उद्योगों द्वारा अत्यधिक जल दोहन नदियों के पानी की मात्रा को कम कर रहा है। अतिक्रमण: नदी के किनारों और बाढ़ के मैदानों पर अवैध अतिक्रमण और निर्माण कार्य नदियों के प्राकृतिक स्वरूप को बिगाड़ रहे हैं, जिससे उनके जल निकासी मार्ग संकीर्ण हो रहे हैं और उनकी जल धारण क्षमता कम हो रही है। रेत खनन: अवैध और अत्यधिक रेत खनन नदी के तल को गहरा करता है, जिससे भूजल स्तर गिरता है और नदी का प्रवाह बाधित होता है।भूजल स्तर में भारी कमी: भूमिगत जल का अत्यधिक उपयोग, विशेषकर सिंचाई और घरेलू आवश्यकताओं के लिए, भूजल स्तर को लगातार कम कर रहा है। कई नदियाँ, खासकर छोटी नदियाँ, भूजल पर निर्भर करती हैं। जब भूजल स्तर गिरता है, तो ये नदियाँ सूखने लगती हैं, जिससे वे बारहमासी से बरसाती नदियों में बदल जाती हैं। हिरण्यबाहु नदी (बह), जो औरंगाबाद जिले के गोह, हसपुरा और अरवल जिले के करपी, कलेर, अरवल तथा पटना जिले के पालीगंज में बहती थी, इसी कारण विलुप्त हो चुकी है।
नदी के स्वरूप से छेड़छाड़: मुख्य नदियों पर बड़े बांधों के निर्माण से उनकी सहायक नदियों और वितरिकाओं (छारन) का प्रवाह प्रभावित होता है। जब मुख्य नदी का प्रवाह नियंत्रित होता है, तो उससे निकलने वाली छोटी नदियाँ और नाले पानी की कमी से जूझते हैं, जिससे उनकी स्थिति बिगड़ जाती है। जलवायु परिवर्तन के प्रभाव: वर्षा के पैटर्न में अप्रत्याशित बदलाव, जैसे अनियमित और कम वर्षा या अत्यधिक बाढ़, तथा बढ़ते तापमान भी नदियों के सूखने में योगदान कर सकते हैं।
बिहार के प्रभावित जिले और नदियों की स्थिति
सर्वेक्षण ने इस बात पर प्रकाश डाला है कि बिहार के कई जिले, जैसे अरवल, जहानाबाद, गया, औरंगाबाद, नवादा, पटना, नालंदा, की कई नदियाँ, जो कभी बारहमासी थीं, अब केवल बरसाती नदियाँ बनकर रह गई हैं। यह नदियों के अस्तित्व पर मंडराते खतरे का एक स्पष्ट संकेत है। जिलेवार कुछ प्रमुख नदियाँ जिनकी स्थिति विशेष रूप से नाजुक है या जो विलुप्त होने के खतरे में हैं:
अरवल, औरंगाबाद, पटना: गंगा (मुख्य नदी), सोन, पुनपुन, लोई, हेलहा, बटाने, रामरेखा, अदरी, 
1.पटना : गंगा नदी  , सोन नद , पुनपुन नदी , लोई नदी 
2. अरवल : औरंगाबाद जिले के गोह , हसपुरा एवं दाउदनगर प्रखण्ड क्षेत्र ,  अरवल जिले के करपी ,                कलेर , अरवल , पटना जिले के पालीगंज प्रखण्ड क्षेत्र में सोन नद और पुनपुन नदी के                     मध्य क्षेत्र में अवस्थित  विलुप्त हिरन्यबाहु नदी अवशेष बह , जम्मभोरा नदी विलुप्त                       नदी  , पुनपुन नदी , सोन नद।
3. औरंगाबाद : पुनपुन , सोन , बटाने , हेलहा , अदरी , औरंगा, मदार, लोकाइन , रामरेखा नदी ।
4. जहानाबाद: फल्गु , दरधा, जमुनी, बल्दैया, नरही, जलवर, गंगहर।
5. गया: फल्गु, मोहाना, निरंजना, मोरहर, सोरहर, जमुनी, भूरहा, बुढ़िया नदी ।
6. नवादा: सकरी, खुरई, पंचाने, मुसरीबाय, तिलैया, ककोलत नदी ।
7. नालंदा: लोकाइन, मोहने, जिरामन, कुंभारी, गोइठवा, फल्गु नदी ।
8. भोजपुर: कुम्हारी, चेर, बनास।
9. रोहतास: दुर्गावती, बंजारी, कोयल, सूरा, ठोरां।
10.  कैमूर: कर्मनाशा, सुवर्ण, सूअरा।
11. बक्सर: गंगा ,  होरा।
12 . पश्चिमी चंपारण: नारायणी नदी , बागमती ,बूढ़ी गंडक ,लालबाकिया ,तिलावे , कंचना , भोतिया                              ,तिउर , धनौती पंचनद, मनोर, भापसा, कपन, सिकरहना, सदा बाही, मसान,                                हड़बोरा, पंडाई,   दोहरम।
13. पूर्वी चंपारण: धनौती, छोटी गंडक, नारायणी , गंडक ,, सिकरहना ,लालबाकिया  , तिलावे ,  
                          कंचन,भोतिया ,तिउर धनौती नदी ।
14 . बेगूसराय: गंगा , बलान, बूढ़ी गंडक, बैती, बाया, कोसी, करेहा, चन्ना, मान, कचना, मोनरिया।
15. मुंगेर: गंगा , मान, बेलाहरणी, महाना।
16. खगड़िया: बूढ़ी गंडक, बागमती, कोसी, कमला, करेह, कालिकोसी।
17. सीतामढ़ी: बागमती, लखनदेई, अघवारा, झिम, लाल बकेया, चकन्हा, जमु ने, सिपरिधार, कोला, छोटी बागमती, अधवारा।
18. वैशाली: गंगा नदी ,  बाया, नून।
19. शिवहर: बागमती, बूढ़ी गंडक।
20 . लखीसराय: किउल, हरुहर।
21 .सारण: गंगा , गंडक , घाघरा।
22. गोपालगंज: झारही, खानवा, दाहा, खनुया, बाण गंगा, सोना, छाड़ी, धमाई, स्याही, घोघारी।
23. दरभंगा: बागमती, कोसी, कचला, करेह।
24. भागलपुर: गंगा, कोसी, चंदन।
25. मधुबनी: कमला, बलान, कोसिधार, मोनी, भुतही बलान, धौस।
26 . मधेपुरा: कोसी, सुरसर, परमान।
27. बांका: चांदन, बेलाहरणी, बहुआ, ओढ़नी, चीर मंदार, सुखनिया।
28. जमुई: उलाई, किउल, बुराही, अजय, बसार, झांझी।
29. बगहा: गंडक।
30. कटिहार: गंगा, कोसी, महानंदा, रिग्गा, बारडी, कारी।
31. पूर्णिया: कोसी, महानंदा, सौरा, सुवारा, करायी, कोली, पनार, कनकई, दास, बकरा, परमान।
32 .किशनगंज: महानंदा, केकई, भेंक, मेची, रतुआ।
33.  सहरसा: कोसी, घेमरा, तिलाने।
34. समस्तीपुर: बूढ़ी गंडक, बाया, कोसी, करेह, झममरी, गंगा, बलान।
35. सुपौल: कोसी, तीतियुगा, छैमरा, काली, तिलावे भेंगा, मिचैया, सुरसर।
36 . सिवान: घाघरा, गंडकी, धमती, झारही, दाहा, सियाही, निकारी और सोना नदियाँ।
37 . मुजफ्फरपुर : गंडक , बूढ़ी गंडक , बागमती , लखनदेई , फरदो , कदाने , जमुआरी ,  नून नदी । 38 . अररिया :  कोसी , सुबारा ,बाली ,परनार ,कोली नदी ।
कनदियों को बचाने के लिए आवश्यक और त्वरित कदम : इन नदियों को पुनर्जीवित करने और उनके अस्तित्व को सुनिश्चित करने के लिए एक समग्र और बहुआयामी दृष्टिकोण की आवश्यकता है। इसमें सरकार, गैर-सरकारी संगठन, स्थानीय समुदाय और हर नागरिक की भागीदारी अनिवार्य है: ।शहरी और औद्योगिक कचरे तथा सीवेज को नदियों में डालने पर सख्त प्रतिबंध लगाना। आधुनिक अपशिष्ट उपचार संयंत्रों का निर्माण और मौजूदा संयंत्रों का सुदृढीकरण तथा उनका प्रभावी संचालन सुनिश्चित करना। कृषि में रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों के बजाय जैविक खेती को बढ़ावा देना।औद्योगिक इकाइयों पर प्रदूषण मानकों का कड़ाई से पालन कराना।जलकुंभी का वैज्ञानिक नियंत्रण: जलकुंभी को नियमित रूप से नदियों से हटाने के लिए यांत्रिक और जैविक तरीकों का उपयोग करना।जलकुंभी के प्रसार को रोकने के लिए उसके पारिस्थितिक नियंत्रण पर शोध करना। मानव हस्तक्षेप में कमी और नियोजन: नदियों के प्राकृतिक जलमार्गों को बाधित करने वाले बांधों और जलाशयों के अनियोजित निर्माण से बचना। किसी भी नए निर्माण से पहले व्यापक पर्यावरणीय प्रभाव मूल्यांकन (EIA) कराना। नदी के किनारों पर अतिक्रमण हटाने के लिए सख्त अभियान चलाना और उन्हें हरित पट्टी (ग्रीन बेल्ट) के रूप में विकसित करना।जल-गहन कृषि पद्धतियों को हतोत्साहित करना और किसानों को ड्रिप सिंचाई, स्प्रिंकलर जैसी जल-बचत तकनीकों को अपनाने के लिए प्रोत्साहित करना।अवैध रेत खनन पर पूर्ण प्रतिबंध लगाना और वैध खनन को भी नियंत्रित और निगरानी में रखना।भूजल संचयन और पुनर्भरण:वर्षा जल संचयन को बढ़ावा देना, विशेषकर शहरी और ग्रामीण दोनों क्षेत्रों में।प्राचीन तालाबों, झीलों और अन्य जल निकायों का जीर्णोद्धार करना ताकि वे भूजल पुनर्भरण में सहायता कर सकें।भूजल के अत्यधिक दोहन पर नियंत्रण के लिए नीतियां बनाना और उनका सख्ती से पालन कराना।जन जागरूकता और सक्रिय भागीदारी: स्थानीय समुदायों को नदियों के महत्व, उनके पारिस्थितिकीय संतुलन और उनके संरक्षण की आवश्यकता के बारे में शिक्षित करना।'जनभागीदारी' कार्यक्रमों के तहत स्थानीय लोगों को नदियों की सफाई, निगरानी और वृक्षारोपण अभियानों में सक्रिय रूप से शामिल करना।।नदी उत्सव और जागरूकता कार्यक्रम आयोजित करना। कानूनी और नीतिगत सुधार तथा प्रभावी क्रियान्वयन:नदियों के संरक्षण के लिए मजबूत कानूनी ढांचे और नीतियों को लागू करना।पर्यावरण कानूनों का उल्लंघन करने वालों के खिलाफ कठोर कार्रवाई सुनिश्चित करना।
नदी प्रबंधन और संरक्षण के लिए एक एकीकृत प्राधिकरण का गठन करना। बिहार की नदियाँ केवल भौगोलिक विशेषताएँ नहीं हैं, बल्कि ये राज्य की जीवनरेखा हैं, जो उसकी संस्कृति, अर्थव्यवस्था, कृषि और जैव विविधता को परिभाषित करती हैं। इन नदियों का विलुप्त होना बिहार के भविष्य के लिए एक गंभीर चेतावनी है। जीवनधारा नमामी गंगे और अन्य संगठनों द्वारा किया गया यह सर्वेक्षण एक महत्वपूर्ण पहला कदम है, लेकिन अब सबसे महत्वपूर्ण बात है कि इन निष्कर्षों के आधार पर तत्काल और ठोस कार्रवाई की जाए। सरकार, गैर-सरकारी संगठन, स्थानीय समुदाय और प्रत्येक नागरिक को मिलकर काम करना होगा ताकि इन अमूल्य नदियों को पुनर्जीवित किया जा सके और आने वाली पीढ़ियों के लिए उनके अस्तित्व को सुनिश्चित किया जा सके। यह केवल नदियों को बचाने की बात नहीं, बल्कि बिहार के भविष्य को बचाने की बात है।

रविवार, मई 11, 2025

सत्य , अहिंसा का प्रतीक भगवान बुद्ध

बुद्ध पूर्णिमा: सत्य, सहिष्णुता और अहिंसा के प्रणेता भगवान बुद्ध
 - सत्येन्द्र कुमार पाठक
 बुद्ध  सत्य, सहिष्णुता, अहिंसा और अष्टांग योग का प्रणेता बताया। उन्होंने बुद्ध पूर्णिमा के महत्व पर प्रकाश डालते हुए कहा कि यह महत्वपूर्ण बौद्ध त्योहार गौतम बुद्ध के जन्म, ज्ञान प्राप्ति और महापरिनिर्वाण के स्मरण में मनाया जाता है। वैशाख माह की पूर्णिमा को मनाए जाने वाले इस पवित्र दिन पर, बौद्ध धर्म के अनुयायी विभिन्न धार्मिक गतिविधियों में भाग लेते हैं। इनमें बुद्ध की पूजा-अर्चना, बौद्ध ग्रंथों का पाठ, दीप जलाना और फूलों से सजावट प्रमुख हैं। बोधिवृक्ष की पूजा का भी इस दिन विशेष महत्व है। इसके अतिरिक्त, अनुयायी गरीबों को दान देते हैं और पक्षियों को मुक्त करते हैं, जो करुणा और जीवदया के बौद्ध मूल्यों को दर्शाता है। सत्येन्द्र कुमार पाठक ने गौतम बुद्ध के जीवन से जुड़े महत्वपूर्ण स्थलों का भी उल्लेख किया, जिनका बौद्ध धर्म में गहरा महत्व है। ये स्थल बौद्ध अनुयायियों के लिए पवित्र तीर्थ माने जाते है ।उन्होंने भगवान बुद्ध के जीवन की महत्वपूर्ण घटनाओं का भी स्मरण कराया, जिनका संबंध वैशाख पूर्णिमा से है: भगवान बुद्ध का जन्म: 563 ईसा पूर्व, लुंबिनी, नेपाल , ज्ञान प्राप्ति: 531 ईसा पूर्व, बोधगया, बिहार, भारत , प्रथम उपदेश: 531 ईसा पूर्व, सारनाथ, उत्तर प्रदेश, भारत , महानिर्वाण: 483 ईसा पूर्व, कुशीनगर, उत्तर प्रदेश, भारत में हुआ है।  
बुद्ध पूर्णिमा, बौद्ध धर्म के अनुयायियों के लिए एक अत्यंत पवित्र और महत्वपूर्ण दिन है। यह पर्व न केवल गौतम बुद्ध के जन्म का स्मरण कराता है, बल्कि उनके ज्ञान प्राप्ति और महापरिनिर्वाण की त्रिमूर्ति को भी अपने में समाहित किए हुए है। वैशाख मास की पूर्णिमा तिथि को मनाया जाने वाला यह दिन विश्व भर के बौद्ध धर्मावलंबियों के लिए श्रद्धा, भक्ति और चिंतन का अवसर होता है। यह पर्व हमें भगवान बुद्ध की शिक्षाओं – सत्य, अहिंसा, करुणा और अष्टांगिक मार्ग – की याद दिलाता है, जो आज भी मानव जाति के लिए प्रासंगिक और मार्गदर्शक हैं। सिद्धार्थ गौतम का जन्म लगभग 563 ईसा पूर्व नेपाल के लुंबिनी नामक स्थान पर हुआ था। एक राजकुमार के रूप में उनका जीवन विलासिता और सुख-सुविधाओं से परिपूर्ण था, परन्तु सांसारिक दुखों और जरा-मरण के सत्य ने उनके मन को व्याकुल कर दिया। मानव जीवन के दुखों के कारणों और उनके निवारण की खोज में उन्होंने युवावस्था में ही गृह त्याग कर दिया।
अनेक वर्षों तक कठोर तपस्या और ध्यान में लीन रहने के पश्चात, बिहार के बोधगया में नीलांजन नदी तट  एक पीपल वृक्ष के नीचे उन्हें परम ज्ञान की प्राप्ति हुई और वे 'बुद्ध' कहलाए – जिसका अर्थ है 'जागृत' या 'ज्ञानवान'। इस ज्ञान के आलोक में उन्होंने जीवन के दुखों के मूल कारण और उनसे मुक्ति के मार्ग को समझा। ज्ञान प्राप्ति के पश्चात, बुद्ध ने अपना पहला उपदेश उत्तर प्रदेश के सारनाथ में दिया, जिसे 'धर्म चक्र परिवर्तन' के नाम से जाना जाता है। उन्होंने अपने शिष्यों को अष्टांगिक मार्ग का उपदेश दिया, जो दुखों से मुक्ति और निर्वाण की ओर ले जाता है। यह मार्ग है: सम्यक दृष्टि, सम्यक संकल्प, सम्यक वाक्, सम्यक कर्मांत, सम्यक आजीव, सम्यक व्यायाम, सम्यक स्मृति और सम्यक समाधि। लगभग 80 वर्ष की आयु में, उत्तर प्रदेश के कुशीनगर में बुद्ध ने अपना भौतिक शरीर त्याग दिया, जिसे बौद्ध धर्म में 'महापरिनिर्वाण' कहा जाता है। संयोग की बात है कि बुद्ध का जन्म, ज्ञान प्राप्ति और महापरिनिर्वाण – तीनों ही वैशाख पूर्णिमा के दिन हुए, जिससे इस तिथि का महत्व और भी बढ़ जाता है। बुद्ध पूर्णिमा बौद्ध अनुयायियों के लिए एक गहरा आध्यात्मिक महत्व रखता है। इस दिन, वे विशेष प्रार्थना सभाओं, धार्मिक प्रवचनों और ध्यान सत्रों में भाग लेते हैं। बौद्ध विहारों और मंदिरों को विशेष रूप से सजाया जाता है, और बुद्ध की मूर्तियों पर फूल चढ़ाए जाते हैं। कई स्थानों पर शोभा यात्राएं निकाली जाती हैं, जिनमें बुद्ध के जीवन और शिक्षाओं को दर्शाया जाता है। इस दिन दान-पुण्य का भी विशेष महत्व है। बौद्ध अनुयायी गरीबों और जरूरतमंदों को भोजन, वस्त्र और अन्य आवश्यक वस्तुएं दान करते हैं। जीव-जंतुओं के प्रति करुणा भाव प्रदर्शित करते हुए, कई लोग पिंजरों में बंद पक्षियों को मुक्त करते हैं। बोधगया में स्थित महाबोधि मंदिर, लुंबिनी, सारनाथ और कुशीनगर जैसे बुद्ध के जीवन से जुड़े पवित्र स्थलों पर इस दिन विशेष आयोजन होते हैं, जिनमें देश-विदेश से लाखों श्रद्धालु भाग लेते हैं। इन स्थलों का दर्शन करना बौद्ध धर्मावलंबियों के लिए एक महत्वपूर्ण तीर्थयात्रा मानी जाती है।
भगवान बुद्ध की शिक्षाएं और उनके द्वारा स्थापित बौद्ध धर्म विश्व के प्रमुख धर्मों में से एक है। एशिया के कई देशों में बौद्ध धर्म बहुसंख्यक आबादी का धर्म है, और पश्चिमी देशों में भी इसके अनुयायियों की संख्या लगातार बढ़ रही है। विश्व भर में बुद्ध की अनेक भव्य और महत्वपूर्ण मूर्तियां स्थापित हैं, जो उनकी शांति, ज्ञान और करुणा के संदेश को प्रसारित करती हैं। भारत में हैदराबाद की विशाल बुद्ध प्रतिमा, जो एक ही पत्थर से तराशी गई दुनिया की सबसे ऊंची प्रतिमाओं में से एक है, और नई दिल्ली के राष्ट्रपति भवन में वियतनाम सरकार द्वारा उपहार स्वरूप दी गई बुद्ध प्रतिमा उल्लेखनीय हैं। चीन में लेशान के विशाल बुद्ध की पत्थर की प्रतिमा भी विश्व प्रसिद्ध है और यूनेस्को की विश्व धरोहर स्थल है। थाईलैंड में महान बुद्ध और स्प्रिंग टेम्पल बुद्ध भी अपनी भव्यता और आध्यात्मिक महत्व के लिए जाने जाते हैं। बिहार राज्य बौद्ध धर्म के इतिहास में एक महत्वपूर्ण स्थान रखता है। बोधगया, जहां बुद्ध को ज्ञान प्राप्त हुआ, और दुनिया भर के बौद्धों के लिए सबसे पवित्र स्थलों में से एक है। यहां स्थित महाबोधि मंदिर एक विश्व धरोहर स्थल है और लाखों श्रद्धालुओं को आकर्षित करता है। नालंदा, प्राचीन काल में एक महान बौद्ध विश्वविद्यालय का केंद्र था, जहां दूर-दूर से विद्यार्थी ज्ञान प्राप्त करने आते थे। वैशाली, जहां बुद्ध ने कई बार प्रवास किया और महिलाओं को संघ में प्रवेश की अनुमति दी, भी एक महत्वपूर्ण बौद्ध तीर्थ स्थल है। राजगीर, जहां बुद्ध ने कई महत्वपूर्ण उपदेश दिए, और केसरिया, जहां एक विशाल बौद्ध स्तूप स्थित है, भी बिहार के महत्वपूर्ण बौद्ध स्थलों में से हैं। अमरपुरा में स्थित बौद्ध मंदिर भी श्रद्धा का केंद्र है। ये सभी स्थल न केवल बौद्ध धर्म के ऐतिहासिक महत्व को दर्शाते हैं, बल्कि आज भी शांति और आध्यात्मिकता की खोज करने वालों के लिए प्रेरणा के स्रोत हैं। बुद्ध पूर्णिमा केवल एक धार्मिक त्योहार ही नहीं है, बल्कि यह शांति, करुणा और सहिष्णुता के सार्वभौमिक मूल्यों का प्रतीक भी है। भगवान बुद्ध की शिक्षाएं आज के तनावपूर्ण और अशांत विश्व में भी प्रासंगिक हैं और हमें एक अधिक शांतिपूर्ण और सामंजस्यपूर्ण जीवन जीने का मार्ग दिखाती हैं। यह पर्व हमें आत्म-चिंतन करने, दूसरों के प्रति करुणा का भाव रखने और सत्य के मार्ग पर चलने की प्रेरणा देता है। बुद्ध पूर्णिमा का उत्सव विश्व भर में विभिन्न रूपों में मनाया जाता है, लेकिन सभी का मूल उद्देश्य भगवान बुद्ध के संदेश को याद करना और उसे अपने जीवन में उतारना है। यह पर्व हमें यह संदेश देता है कि शांति और सुख बाहरी परिस्थितियों पर निर्भर नहीं करते, बल्कि हमारे अपने मन की शांति और दूसरों के प्रति करुणा के भाव से प्राप्त होते है ।

भक्ति और शक्ति का प्रतीक है भगवान नरसिंह

भगवान नरसिंह: शक्ति, भक्ति और धर्म के अद्वितीय प्रतीक
सत्येन्द्र कुमार पाठक 
सनातन धर्म संस्कृति एवं पुराणों तथा संहिताओं में भगवान विष्णु के दस मुख्य अवतारों का वर्णन मिलता है, जिनमें से प्रत्येक अवतार का अपना विशिष्ट उद्देश्य और महत्व है। इन अवतारों में, भगवान नरसिंह का स्वरूप अत्यंत अनूठा और शक्तिशाली है। आधा मनुष्य और आधा शेर का यह रूप बुराई के विनाश और धर्म की स्थापना का प्रतीक है। नरसिम्हा जयंती, जो वैशाख शुक्ल चतुर्दशी को मनाई जाती है, इसी अद्भुत अवतार की स्मृति में आयोजित एक महत्वपूर्ण हिंदू त्योहार है। यह दिन न केवल भगवान नरसिंह की शक्ति और पराक्रम को दर्शाता है, बल्कि उनके भक्त प्रह्लाद की अटूट भक्ति और भगवान द्वारा अपने भक्तों की रक्षा करने की प्रतिज्ञा को भी उजागर किया है। नरसिंह अवतार दक्ष प्रजापति की पुत्री एवं कश्यप की पत्नी दिति के पुत्र हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु था । हिरण्याक्ष द्वारा दैत्य संस्कृति की स्थापना की गयी थी । भगवान विष्णु द्वारा हिरण्याक्ष को वराह अवतार लेकर हिरण्याक्ष को बध किया था ।   दैत्य  राजा हिरण्यकशिपु और उसके विष्णु भक्त पुत्र प्रह्लाद के इर्द-गिर्द घूमती है। पौराणिक कथाओं के अनुसार सतयुग में  दिति पुत्र दैत्य संस्कृति का दैत्य राज  हिरण्यकशिपु विष्णु के द्वारपाल जया का ही एक जन्म था, जिसे चार कुमारों के शाप के कारण विष्णु के शत्रु के रूप में तीन जन्म लेने पड़े थे। अपने भाई दिति के पुत्र  दैत्य संस्कृति के दैत्यराज  हिरण्याक्ष की भगवान विष्णु के वराह अवतार के हाथों मृत्यु से क्रोधित होकर, हिरण्यकशिपु ने विष्णु से बदला लेने की ठानी। उसने ब्रह्मा देव की कठोर तपस्या करके एक ऐसा वरदान प्राप्त किया, जो उसे लगभग अमर बना देता। उसने वरदान मांगा कि उसकी मृत्यु न तो घर के अंदर हो, न बाहर; न दिन में हो, न रात में; न किसी अस्त्र से हो, न शस्त्र से; न पृथ्वी पर हो, न आकाश में; न मनुष्य से हो, न पशु से; न देवता से हो, न असुर से। ब्रह्मा ने उसे यह वरदान दे दिया। वरदान प्राप्त करने के बाद, हिरण्यकशिपु अहंकारी और अत्याचारी बन गया। उसने तीनों लोकों पर अपना आधिपत्य स्थापित कर लिया और देवताओं को भी पराजित कर दिया। वह स्वयं को ईश्वर मानने लगा और अपनी प्रजा को भी अपनी पूजा करने के लिए बाध्य करने लगा। ऐसे दुष्ट राजा के घर में एक असाधारण बालक का जन्म हुआ, जिसका नाम प्रह्लाद था। नारद मुनि के प्रभाव में बचपन से ही प्रह्लाद भगवान विष्णु का अनन्य भक्त था। हिरण्यकशिपु ने प्रह्लाद की विष्णु भक्ति को समाप्त करने के अनेक प्रयास किए। उसने अपने गुरुओं को उसे नास्तिक बनाने का आदेश दिया, लेकिन प्रह्लाद की भक्ति और निष्ठा अडिग रही। क्रोधित राजा ने अपने पुत्र को मारने के कई भयानक प्रयास किए, जैसे उसे जहरीले सांपों के बीच छोड़ देना, उसे ऊँचे पहाड़ से गिरा देना, उसे हाथियों के पैरों तले कुचलवाना और उसे आग में जलाना। लेकिन हर बार, भगवान विष्णु की दिव्य शक्ति ने प्रह्लाद की रक्षा की। अंततः, हिरण्यकशिपु ने प्रह्लाद से पूछा कि उसका भगवान विष्णु कहाँ रहता है। प्रह्लाद ने उत्तर दिया कि विष्णु सर्वव्यापी हैं और हर जगह विद्यमान हैं। अहंकार में अंधे हिरण्यकशिपु ने एक स्तंभ की ओर इशारा करते हुए पूछा कि क्या विष्णु इस स्तंभ में भी हैं। प्रह्लाद ने दृढ़ता से 'हाँ' कहा। क्रोधित हिरण्यकशिपु ने अपनी गदा से उस स्तंभ को तोड़ दिया। उसी क्षण, स्तंभ से एक भयानक गर्जना हुई और एक अद्भुत प्राणी प्रकट हुआ - भगवान नरसिंह, जिनका आधा शरीर मनुष्य का और आधा शेर का था।
भगवान नरसिंह का स्वरूप अद्भुत और शक्तिशाली था। उनका सिर और धड़ सिंह का था, जबकि शेष शरीर मनुष्य का था। उनके नुकीले नाखून और प्रचंड गर्जना से तीनों लोक कांप उठे। भगवान नरसिंह ने हिरण्यकशिपु को पकड़ लिया और उसे महल की दहलीज पर ले गए, जो न तो घर के अंदर था और न ही बाहर। संध्या का समय था, जो न दिन था और न रात। उन्होंने हिरण्यकशिपु को अपनी गोद में रखा, जो न पृथ्वी थी और न आकाश। फिर, उन्होंने अपने तीखे नाखूनों से हिरण्यकशिपु का पेट चीर डाला, इस प्रकार ब्रह्मा के वरदान का उल्लंघन किए बिना उसका वध कर दिया। इस प्रकार, भगवान नरसिंह ने अपने भक्त प्रह्लाद की रक्षा की और धर्म की स्थापना की। उनका यह अवतार बुराई पर अच्छाई की विजय और भगवान की सर्वशक्तिमत्ता का एक ज्वलंत उदाहरण है।नरसिम्हा जयंती वैष्णव समुदाय के लिए एक अत्यंत महत्वपूर्ण त्योहार है। यह दिन भगवान नरसिंह की शक्ति, करुणा और अपने भक्तों के प्रति उनके प्रेम का स्मरण कराता है। इस दिन, भक्त उपवास रखते हैं, विशेष पूजा-अर्चना करते हैं और भगवान नरसिंह के मंत्रों का जाप करते हैं। मंदिरों में विशेष अभिषेक, हवन और कीर्तन आयोजित किए जाते हैं।
दक्षिण भारत में इस त्योहार का विशेष महत्व है। कर्नाटक, आंध्र प्रदेश और तमिलनाडु में नरसिंह के अनेक प्राचीन और प्रसिद्ध मंदिर हैं, जहाँ इस दिन भव्य उत्सव आयोजित किए जाते हैं। भक्त भगवान नरसिंह की शोभायात्रा निकालते हैं और उनकी स्तुति में भजन गाते हैं। घरों में भी विशेष पूजा की जाती है और भगवान नरसिंह को विभिन्न प्रकार के भोग अर्पित किए जाते हैं। उतराखण्ड राज्य का जोशीमठ में भगवान नरसिंह का मंदिर ,  तमिलनाडु के मेलात्तूर गांव में नरसिम्हा जयंती पर आयोजित होने वाला "भागवत मेला" एक अनूठा सांस्कृतिक कार्यक्रम है। यह एक पारंपरिक लोक नृत्य है जो भागवत पुराण की कहानियों को नाटकीय रूप में प्रस्तुत करता है। इस मेले का मुख्य आकर्षण प्रह्लाद और नरसिंह की कथा का प्रदर्शन होता है, जो दर्शकों को भक्ति और आश्चर्य के भाव से भर देता है । नरसिंह पूजा की परंपरा सदियों पुरानी है। माना जाता है कि भगवान नरसिंह की पूजा करने से भय और नकारात्मक ऊर्जा दूर होती है। वे शक्ति, सुरक्षा और साहस के प्रतीक हैं। उनकी आराधना करने से शत्रुओं पर विजय प्राप्त होती है और जीवन में आने वाली बाधाएँ दूर होती हैं। विशेष रूप से संकट के समय में भगवान नरसिंह का स्मरण और उनकी स्तुति भक्तों को शांति और शक्ति प्रदान करती है। नरसिंह पूजा में विभिन्न प्रकार के अनुष्ठान किए जाते हैं। भक्त भगवान को फल, फूल, धूप, दीप और नैवेद्य अर्पित करते हैं। नरसिंह स्तोत्र और नरसिंह कवच का पाठ करना इस दिन अत्यंत फलदायी माना जाता है। कुछ भक्त इस दिन अन्न और जल का त्याग करके उपवास रखते हैं, जबकि कुछ केवल फलाहार करते हैं। शाम को भगवान नरसिंह की पूजा के बाद उपवास तोड़ा जाता है। भगवान नरसिंह का अवतार धर्म की रक्षा और अपने भक्तों की सहायता के लिए भगवान विष्णु की असीम करुणा का प्रतीक है। नरसिम्हा जयंती हमें यह संदेश देती है कि सत्य और धर्म की हमेशा विजय होती है, चाहे परिस्थितियाँ कितनी भी विपरीत क्यों न हों। यह दिन हमें भक्ति, साहस और अन्याय के खिलाफ लड़ने की प्रेरणा देता है। भगवान नरसिंह की पूजा न केवल हमें शक्ति और सुरक्षा प्रदान करती है, बल्कि हमें धार्मिकता और सत्य के मार्ग पर चलने के लिए भी प्रेरित करती है। यह त्योहार हमें याद दिलाता है कि भगवान हमेशा अपने सच्चे भक्तों के साथ खड़े रहते हैं और उनकी रक्षा करते है। 
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स्नेह त्याग और शक्ति की प्रतीक है माँ

मां: स्नेह, त्याग और शक्ति का प्रतीक 
सत्येन्द्र कुमार पाठक 
मां, यह एक ऐसा शब्द है जो न केवल एक रिश्ते को परिभाषित करता है, बल्कि स्नेह, त्याग, सुरक्षा और शक्ति की एक गहरी भावना को भी दर्शाता है। सनातन संस्कृति से लेकर आधुनिक वैश्विक समाज तक, मां का स्थान अद्वितीय और सर्वोपरि रहा है। जहां भारतीय संस्कृति में मां को देवीतुल्य माना गया है, वहीं विश्व के अन्य हिस्सों में भी मातृत्व को विभिन्न रूपों में सम्मानित किया जाता रहा है। आधुनिक विश्व में "मातृ दिवस" का प्रचलन भले ही अपेक्षाकृत नया हो, लेकिन मां के प्रति सम्मान और कृतज्ञता की भावना सदियों से विभिन्न संस्कृतियों में विद्यमान रही है।आधुनिक मातृ दिवस की नींव 20वीं शताब्दी के प्रारंभ में संयुक्त राज्य अमेरिका में पड़ी। ग्राफटन वेस्ट वर्जिनिया की एना जार्विस ने अपनी मां के निधन के बाद उनकी स्मृति को चिरस्थायी बनाने और सभी माताओं के सम्मान में एक दिन समर्पित करने का संकल्प लिया। उनका मानना था कि माताओं का उनके परिवारों और समाज में जो योगदान होता है, उसे अक्सर अनदेखा कर दिया जाता है। जार्विस के अथक प्रयासों के परिणामस्वरूप, 1914 में अमेरिकी राष्ट्रपति वुड्रो विल्सन ने मई के दूसरे रविवार को राष्ट्रीय मातृ दिवस के रूप में घोषित किया। प्रारंभ में, यह दिन व्यक्तिगत स्तर पर अपनी मां को सम्मानित करने और उनके प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने का अवसर था। सफेद कार्नेशन (गुलनार) फूल मां के प्रति प्रेम और सम्मान का प्रतीक बन गया।
हालांकि, मातृ दिवस की अवधारणा की जड़ें इससे कहीं अधिक गहरी और विविध हैं। प्राचीन काल से ही विभिन्न सभ्यताएं मातृशक्ति की महत्ता को स्वीकार करती आई हैं। ग्रीक पौराणिक कथाओं में स्य्बेले को देवताओं की मां के रूप में पूजा जाता था और उनके सम्मान में उत्सव मनाए जाते थे। प्राचीन रोम में, वसंत ऋतु में मनाया जाने वाला इदेस ऑफ़ मार्च (15-18 मार्च) मातृ देवियों को समर्पित था। रोमवासी जूनो देवी, जो विवाह और मातृत्व की देवी थीं, को समर्पित मेट्रोनालिया नामक त्योहार में माताओं को उपहार देते थे।
यूरोप और ब्रिटेन में, मदरिंग संडे की परंपरा सदियों पुरानी है। लेंट के चौथे रविवार को मनाया जाने वाला यह दिन मूल रूप से "मदर चर्च" यानी मुख्य चर्च में जाने और वहां विशेष प्रार्थनाएं करने का दिन था। धीरे-धीरे, यह पारिवारिक मिलन और माताओं को सम्मानित करने का अवसर बन गया। युवा प्रशिक्षु और घरेलू सेवक इस दिन अपने घरों और माताओं से मिलने के लिए छुट्टी पाते थे और उन्हें छोटे उपहार या "मदरिंग केक" भेंट करते थे।
जैसे-जैसे मातृ दिवस की अवधारणा विश्व के अन्य हिस्सों में फैली, इसने स्थानीय संस्कृतियों और परंपराओं के अनुरूप विभिन्न रूप धारण कर लिए। कैथोलिक देशों में, यह दिन अक्सर वर्जिन मेरी के सम्मान के साथ जुड़ गया, जिन्हें यीशु मसीह की मां होने के कारण मातृत्व का प्रतीक माना जाता है। एशिया में भी मातृ दिवस विभिन्न रूपों में मनाया जाता है। चीन में, यद्यपि आधिकारिक तौर पर यह पश्चिमी प्रभाव के बाद आया, लेकिन बुजुर्गों के प्रति सम्मान और माता-पिता के प्रति निष्ठा की पारंपरिक चीनी मूल्यों के साथ यह सहजता से जुड़ गया। चीन में गुलनार का फूल मातृ दिवस का एक लोकप्रिय प्रतीक है। कुछ लोग प्राचीन चीनी परंपराओं को पुनर्जीवित करने के प्रयास में सफेद लिली देने की वकालत करते हैं, जो उस समय माताओं द्वारा लगाई जाती थी जब उनके बच्चे घर छोड़कर जाते थे।
जापान में, मातृ दिवस शोवा काल में महारानी कोजुन के जन्मदिन के रूप में मनाया जाता था। वर्तमान में, यह एक व्यावसायिक रूप से महत्वपूर्ण दिन बन गया है, जहां लोग अपनी माताओं को गुलनार और गुलाब जैसे उपहार देते हैं। मेक्सिको में मातृ दिवस का एक जटिल इतिहास रहा है। 1922 में अमेरिका से प्रेरित होकर इसे अपनाया गया, लेकिन रूढ़िवादी समूहों ने इसे महिलाओं को पारंपरिक पारिवारिक भूमिकाओं में बनाए रखने के एक उपकरण के रूप में इस्तेमाल करने की कोशिश की। इसके विपरीत, 1930 के दशक में राष्ट्रपति लाज़रो कार्देनस की सरकार ने इसे "देशभक्ति के त्योहार" के रूप में बढ़ावा दिया, जिसका उद्देश्य राष्ट्रीय एकता और सामाजिक सुधार को बढ़ावा देना था। नेपाल में, "माता तीर्थ औंशी" एक अनूठा और महत्वपूर्ण मातृ दिवस है। यह बैशाख महीने के कृष्ण पक्ष की अमावस्या को मनाया जाता है। यह न केवल जीवित माताओं का सम्मान करने का दिन है, बल्कि दिवंगत माताओं की स्मृति को भी समर्पित है। इस दिन, लोग माता तीर्थ कुंड की तीर्थयात्रा करते हैं, जो काठमांडू घाटी में स्थित है और जिसके साथ भगवान कृष्ण और उनकी मां देवकी से जुड़ी एक मार्मिक किंवदंती जुड़ी हुई है।
थाईलैंड में, मातृ दिवस रानी के जन्मदिन पर मनाया जाता है, जो मां के प्रति राष्ट्रीय सम्मान का प्रतीक है। रोमानिया में मातृ दिवस और महिला दिवस दो अलग-अलग छुट्टियां हैं, जो मातृत्व और नारीत्व के विभिन्न पहलुओं को सम्मानित करती हैं। वियतनाम में, मातृ दिवस को ले वू-लैन कहा जाता है और यह चंद्र कैलेंडर के सातवें महीने के पंद्रहवें दिन मनाया जाता है, जो जीवित माताओं के प्रति कृतज्ञता और दिवंगत माताओं की आत्मा की शांति के लिए प्रार्थना का दिन है।
भारत में, यद्यपि मातृ दिवस पश्चिमी प्रभाव के बाद अधिक लोकप्रिय हुआ है, लेकिन मां का स्थान हमेशा से ही अत्यंत ऊंचा रहा है। भारतीय संस्कृति में मां को प्रथम गुरु और परिवार की धुरी माना जाता है। मां का त्याग, प्रेम और समर्पण अतुलनीय है और इसे शब्दों में व्यक्त करना कठिन है। भारतीय परिवारों में मां का आशीर्वाद और मार्गदर्शन जीवन के हर मोड़ पर महत्वपूर्ण माना जाता है। मातृ दिवस एक अवसर है जब लोग अपनी माताओं के प्रति अपने गहरे प्रेम और सम्मान को विशेष रूप से व्यक्त करते हैं, उन्हें उपहार देते हैं, उनके साथ समय बिताते हैं और उनके द्वारा किए गए अनगिनत बलिदानों के लिए कृतज्ञता व्यक्त करते हैं।
 "मां" की अवधारणा और मातृत्व का सम्मान विश्व की सभी संस्कृतियों में किसी न किसी रूप में मौजूद है। आधुनिक मातृ दिवस ने इस सार्वभौमिक भावना को एक वैश्विक मंच प्रदान किया है, जिससे लोग एक साथ आकर उन महिलाओं का सम्मान कर सकें जिन्होंने उन्हें जन्म दिया, उनका पालन-पोषण किया और उन्हें प्यार दिया। यह दिन हमें मां के अटूट प्रेम, निस्वार्थ सेवा और असीम शक्ति को याद दिलाता है और हमें उनके प्रति अपनी कृतज्ञता व्यक्त करने का अवसर देता है। एक मां का आंचल हमेशा अपनी संतान के लिए छोटा पड़ता है और उसका प्रेम कभी कम नहीं होता। मातृ दिवस सिर्फ एक दिन नहीं, बल्कि मां के प्रति आजीवन सम्मान और प्रेम की अभिव्यक्ति है। 
 मां ही मेरी खुशी है
सत्येन्द्र कुमार पाठक 
माँ तू मेरी, जीवन धारा,
तेरा प्यार, सागर गहरा।
हरदम तू ही, साथ निभाती,
ममता तेरी, जग से न्यारी।
जन्म दिया तूने मुझको,
पाला पोसा निज हाथों से।
हर पीड़ा तूने सह ली,
मुझको सुख दिया बातों से।
तेरी ममता की छाया में,
बचपन मेरा बीता सारा।
जब मैं रोया, तूने हँसाया,
गिरने पर तूने उठाया।
राह दिखाई जीवन की तूने,
हरदम मेरा साथ निभाया।
तेरी करुणा की धारा से,
जीवन मेरा हुआ उजियारा।
तेरी बातों में है अमृत,
तेरी आँखों में है प्यार।
तू ही शक्ति, तू ही साहस,
तू ही मेरा संसार।
तेरी आशीषों की छाया में,
हरदम मेरा हो गुजारा।
जग की दौलत से बढ़कर,
तेरा स्नेह अनमोल है माँ।
कैसे चुकाऊँ तेरा उपकार,
तू ही मेरा सब कुछ है माँ।
तेरी चरणों की धूलि बनकर,
जीवन मेरा हो संवारा।

मंगलवार, अप्रैल 29, 2025

अक्षय तृतीया और भगवान परशुराम

अक्षय तृतीया एवं भगवान परशुराम:
सत्येन्द्र कुमार पाठक 
अक्षय तृतीया का पावन दिन,
वैशाख शुक्ल तृतीया अनुपम।
अक्षय फलदायी कर्मों का,
यह बेला है मंगलमय, उत्तम।
विवाह, गृह-प्रवेश शुभ बेला,
खरीददारी, दान का होता मेला।
पितरों का तर्पण, भगवत पूजन,
पाप हों नष्ट, मिले पुण्य अनमोल।
गंगा स्नान का महत्व महान,
जप, तप, हवन, दान अक्षय जान।
सोमवार, रोहिणी नक्षत्र का योग,
बढ़ाए फल, हरे सब रोग।
मध्याह्न पूर्व से प्रदोष व्यापिनी,
तृतीया श्रेष्ठ, कल्याणदायिनी।
क्षमा याचना का दिन यह पावन,
दुर्गुण तज, भरो सदगुण मनभावन।
ब्रह्म मुहूर्त में उठो प्रातःकाल,
विष्णु पूजन करो, मन हो विशाल।
जौ, गेहूँ का सत्तू, ककड़ी, दाल चढ़ाओ**,
फल, फूल, वस्त्र, दक्षिणा ब्राह्मण पाओ।
सत्तू खाओ, पहनो नव वसन,
गौ, भूमि, स्वर्ण दान करो प्रसन्न।
जल भरे घड़े, पंखे, छाते दान**,
ग्रीष्म ऋतु में सुखद हो कल्याण।
लक्ष्मी नारायण की पूजा करो,
श्वेत या पीले पुष्प अर्पित धरो।
युगादि तिथि यह पावन कहलाती**,
सतयुग, त्रेता का आरंभ बताती।
नर-नारायण, हयग्रीव अवतरण,
अक्षय कुमार का शुभ दर्शन।
बद्रीनाथ कपाट खुलते आज**,
वृन्दावन में चरण दर्शन का साज।
धर्मदास वैश्य की कथा पुरानी,
अक्षय व्रत से बनी सुखद कहानी।
राजा चंद्रगुप्त का जन्म हुआ**,
वैशाख शुक्ल तृतीया शुभ हुआ।
रेणुका गर्भ से परशुराम अवतार,
कोंकण, चिप्लून में जयन्ती अपार।
दक्षिण भारत में महत्व विशेष**,
कथा श्रवण से मिटे क्लेश।
परशुराम पूजन, अर्घ्य का मान,
सौभाग्यवती, कन्या करें गौरी ध्यान।
मिठाई, फल, चने बाँटतीं प्यार से**,
कलश दान करें भक्ति भाव से।
जन्म से ब्राह्मण, कर्म से क्षत्रिय वीर,
भृगुवंशी परशुराम, शक्ति गंभीर।
माता पूजन का अद्भुत योग**,
प्रसाद बदला, विधि का संयोग।
ऋषभदेव तपस्या पूर्ण की,
इक्षु रस से पारायण किया सभी।
आदिनाथ वैरागी बने महान**,
अहिंसा, सत्य का दिया शुभ ज्ञान।
श्रेयांस कुमार ने पहचाना प्रभु,
गन्ने का रस दिया, मिटा क्षुधा रभु।
इक्षु तृतीया, अक्षय तृतीया नाम**,
जैन धर्म में इसका ऊंचा मुकाम।
वर्षीतप आराधना का काल,
कार्तिक कृष्ण अष्टमी से चाल।
वैशाख शुक्ल तृतीया पारण**,
धन्य हों भक्त, मिटे सब भारण।
बुन्देलखण्ड में उत्सव महान,
कुँवारी कन्याएँ बाँटें शगुन गान।
राजस्थान में शगुन वर्षा का**,
गीत गातीं लड़कियाँ, पतंग उड़ाता हर बच्चा।
सात अन्नों से पूजा यहाँ,
मालवा में घड़े पर खरबूजा, आम जहाँ।
कृषि कार्य का होता शुभारम्भ**,
अक्षय तृतीया है सुखद आलम्भ।
त्रेता युग का पावन प्रारंभ,
परशुराम, नर-नारायण का आरंभ।
हयग्रीव का अवतरण भी आज**,
अक्षय तृतीया का अद्भुत साज।
चंद्रगुप्त का जन्म भी इसी दिन,
अहिंसा, प्रेम का मंत्र दिया जिन।
अक्षय तृतीया का यह पावन पर्व**,
समृद्धि, सुख, शांति लाए सर्व।


गुरुवार, अप्रैल 24, 2025

शिशुओं का संजीवनी है लोरी गीत

 



 









लोरी: अबोध शिशु के लिए संजीवनी
सत्येन्द्र कुमार पाठक
लोरी एक ऐसी मधुर ध्वनि है जो पीढ़ी दर पीढ़ी माता-पिता से बच्चों तक चली आ रही है। यह वह जादुई स्पर्श है जो रोते हुए शिशु को पल भर में शांत कर गहरी नींद में सुला देता है। जब कोई बच्चा बेचैन होता है या मां के हृदय में वात्सल्य उमड़ता है, तो लोरी सहज ही उसके होंठों से फूट पड़ती है। मधुर शब्दों और कर्णप्रिय संगीत से सजी लोरी शिशु के कानों में पड़ते ही उसके अशांत मन को शांति से भर देती है। अक्सर जब छोटा बच्चा सोने में आनाकानी करता है, तो मां व्याकुल हो उठती है और उसे सुलाने के लिए सपनों की दुनिया से निंदिया रानी को पुकारती है। वह लाड़-प्यार से भरे शब्दों में निंदिया को रिझाने का प्रयास करती है। बच्चे को नींद आए, इसके लिए मां न जाने कितने जतन करती है। वास्तव में, बच्चों के लिए लोरी केवल सुलाने का एक तरीका नहीं है, बल्कि यह उन्हें मानसिक और शारीरिक रूप से भी मजबूत बनाती है। हर मां अपनी भावनाओं और शब्दों से लोरी को एक नया रूप देती है। यह केवल मनुष्य ही नहीं, बल्कि पक्षी और जानवर भी अपने बच्चों को लोरी सुनाते हैं। उनकी चहचहाहट, फुसफुसाहट और अन्य ध्वनियों में भी लोरी का भाव छिपा होता है, जो उनके बच्चों को अपने विशिष्ट अंदाज में दुलारता है। भारत और लोरी का संबंध तो सदियों पुराना है। मार्कण्डेय पुराण में मदालसा का प्रसिद्ध प्रसंग इसका प्रमाण है, जिसमें वह अपने बच्चों को सुलाने के लिए सुंदर लोरियां गाती हैं। मदालसा को ही लोरी की जननी माना जाता है। कहा जाता है कि उन्होंने ही सर्वप्रथम अपने पुत्र अलर्क को सुलाने के लिए लोरी गाई थी, जिसका वर्णन मार्कण्डेय पुराण के 18 से 24वें अध्याय में मिलता है। रामायण काल में भी माता कौशल्या बालक श्रीराम को लोरी गाकर सुलाती थीं, जिसका उल्लेख तुलसीदास ने गीतावली में किया है सृष्टि के आरंभ से ही प्रत्येक मां अपने बच्चे को लोरी गाकर और थपकी देकर सुलाती आई है। सुलाते समय वह न जाने कितनी बार अपने बच्चे को गोद में लेकर प्यार करती है। उस समय उसके मुख से अनायास ही ऐसी मधुर ध्वनियां निकलती हैं, जिनका कोई विशेष अर्थ नहीं होता, लेकिन वे अपनी मधुरता से बच्चे को सुलाने में सक्षम होती हैं। इन ध्वनियों को सुनकर रोता हुआ बच्चा भी शांत होकर सो जाता है। गांव की श्रमिक महिलाएं भी, जो खेतों में काम करती हैं, अपने बच्चों को पेड़ की डालों पर कपड़े में लटकाकर दूर तक डोरी पकड़कर हिलाती रहती हैं और लोरी गाती हैं। काम करते-करते ही वे अपने बच्चों को सुलाने का प्रयास करती हैं। लोरी सुनकर बच्चे को यह अहसास होता है कि उसकी मां उसके पास ही है, और वह निश्चिंत होकर सो जाता है, जबकि मां अपना काम करती रहती है। कुछ व्यस्त महिलाएं बच्चे को पालने में सुलाकर उसमें घंटी और घुंघरू लगा देती हैं। इन मधुर ध्वनियों से भी बच्चे को लोरी जैसा अनुभव मिलता है और वह सो जाता है।। चाहे देश हो या विदेश, अनपढ़ हो या पढ़ी-लिखी, लगभग सभी माताएं अपने बच्चों को सुलाने के लिए लोरी का प्रयोग करती हैं और बड़े प्यार व सम्मान से लोरी गाती हैं। लोरी के साथ-साथ मां के मुख से निकलने वाले सहज शब्द, हाथों की ताली, चुटकी और थपथपाहट भी बच्चे को सुखद नींद प्रदान करते हैं। लोरी के शब्दों में बच्चे के लिए मां की शुभकामनाएं और उसके भविष्य से जुड़ी आशाएं व उम्मीदें छिपी होती हैं। इसमें हास-परिहास भी होता है। लोरी मां और बच्चे के बीच आनंद, प्रेम और विश्वास के भावों को खोलती है। लोरी मां का आशीर्वाद है, जिसे सुनकर नन्हा शिशु प्रसन्न होता है। यद्यपि लोरी के रचनाकार का कोई निश्चित नाम नहीं होता, यह वास्तव में एक मां के हृदय की सहज रचना होती है। लोरी के माध्यम से संसार की हर मां अपने बच्चे के चेहरे पर सुकून का भाव लाती है, जो उसे भी प्रसन्न करता है। निसंदेह, लोरी अबोध और कोमल बच्चे के लिए संजीवनी है, जिसका प्रारंभ लगभग चार हजार वर्ष पूर्व हुआ था। सनातन धर्म की संस्कृति और ग्रंथों में लोरी का विशेष महत्व है।
बाल लोरी निम्नलिखित है
 01 . सोजा मुन्ना सोजा,लाल पलंग पर सोजा 
दादी तेरी आएंगी,लाल खिलौना लाएगी।
बुआ तेरी आएंगी,दूध मलाई लाएगी।
सोजा मुन्ना सोजा, लाल पलंग पर सोजा।
*******************************
02. चंदा मामा दूर के,पुआ पकाएं गुड़ के 
अपने खाते थाली में,मुन्ने को प्याली में 
प्याली गई फूट, मुन्ना गया रुठ 
बजा-बजाकर थालियों,मुन्ने को मनाऊंगा 
दूध -भात खिलाऊंगा ,मून्ने को मनाऊंगा।
घुघुआ मन्ना,उपजे धन्ना नया भित्ति गिर हे।
पुराना भित्ति उठ है ।।
*†***************** ************(
03 .बबुआ को पहनायेंगे दोनों कान में सोना
बुढ़िया नानी,सोने के कटोरी में 
दूध-भात रखे रहना 
बबुआ मेरा जायेगा दूध-भात खायेगा 
नया घर उठायेगा पूराना घर गिरायेगा।
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04 . आजा रे निंदिया जल्दी से आ 
बबुआ के अंखियां में नींद देके जा
नानी के घर जायेगा,दूध मलाई खायेगा 
राजा बेटा प्यारा बेटा जल्दी से बडा हो जायेगा 
घोड़े चढ़ कर जायेगा, दुल्हन लेकर आयेगा 
आजा रे निंदिया जल्दी से आ 
बबुआ के अंखियां में नींद देके जा ।
05 .प्यारा देश, प्यारे बच्चे
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सो जाओ मेरे प्यारे, आँखें मींचो धीरे,
यह मिट्टी सोना उगले, बहती गंगा नीरे।
सोजा मुन्ना सोजा, तू भारत माँ का तारा,
तेरी आँखों में चमके, भविष्य का उजियारा।
गांधी बापू की बातें, तुझको याद रहेंगी,
अहिंसा की राहों पर, तेरी चाल चलेगी।
सोजा मुन्ना सोजा, तू सत्य का पुजारी,
सबको प्यार से देखना, ये सीख हमारी।
ऊँचा तिरंगा लहराए, अपनी शान बढ़ाए,
सब मिलकर गाएं गीत, जो दिल में उमंग लाए।
सोजा मुन्ना सोजा, तू वीर जवानों का बेटा,
देश की रक्षा करना, तेरा कर्तव्य है मोटा।
चाँद सितारों की नगरी, सपनों में आएगी,
परियों की मीठी लोरी, तुझको सुनाएगी।
सोजा मुन्ना सोजा, ये रात सुहानी है,
कल सुबह नई दुनिया, तुझको दिखानी है।
खेल खिलौनों से भरना, तेरा आंगन हमेशा,
हँसी और खुशी से महके, तेरा जीवन हमेशा।
सोजा मुन्ना सोजा, तू भोला-भाला बच्चा,
तेरी हर इच्छा पूरी हो, यही है मेरी इच्छा।
06. मेरा प्यारा परिवार
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सो जा मेरे नन्हे, पलकें हों अब भारी,
तेरी आँखों में दिखती, माता की फुलवारी।
सोजा मुन्ना सोजा, माँ ममता की छाया,
दिन भर की थकान में, तूने चैन है पाया।
पिता का है साया, तुझ पर दिन और रात,
सिखलाते हैं जीवन के, सुन्दर प्यारे बात।
सोजा मुन्ना सोजा, पिता शक्ति का सागर,
उनकी मेहनत से रोशन, तेरा सुन्दर नगर।
भैया तेरा प्यारा, खेलेगा कल सुबह,
लेकर आएगा खिलौने, नए और अनूठे सब।
सोजा मुन्ना सोजा, भाई स्नेह की धारा,
जिसमें बहता है निर्मल, प्यार का इशारा।
प्यारी बहना तेरी, गाएगी मीठे गान,
रखवाली करेगी तेरी, देकर अपना ध्यान।
सोजा मुन्ना सोजा, बहना प्यार की मूरत,
उसके होने से घर में, है कितनी सूरत।
सबका प्यार है तुझ पर, छाया बनकर घेरे,
तू सो जा आराम से, सपने देख सुनहरे।
सोजा मुन्ना सोजा, तू घर का उजाला,
तेरे होने से होता, हर दिन कितना आला।
07 . खेलते गाते सोते
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सो जा मेरे प्यारे, सपनों की है बारी,
जहाँ खेल खिलौनों की, सजी है फुलवारी।
सोजा मुन्ना सोजा, रंग-बिरंगे खेल,
गुड़िया, गेंद और हाथी, सबका लगता है मेल।
कल सुबह उठकर फिर, तू खेलेगा खूब,
दौड़ेगा भागेगा और, भरेगा हर धूप।
सोजा मुन्ना सोजा, ये खेल हैं सुहाने,
जो तुझको सिखाते हैं, नए-नए तराने।
नीला-नीला पानी, बहता है धीरे,
मछली और कछुआ भी, सोते हैं तीरे।
सोजा मुन्ना सोजा, ये जल है जीवन,
प्यास बुझाता सबकी, है कितना पावन।
हरे-भरे ये पेड़, देते हैं ठंडी छाँव,
पक्षी भी सोते हैं, इनमें बसा के गाँव।
सोजा मुन्ना सोजा, ये प्रकृति का दान,
इनसे ही मिलता हमको, जीवन का सम्मान।
छोटे-छोटे कीड़े, रंग-बिरंगी तितली,
सबको है आराम, अब रात है फिसली।
सोजा मुन्ना सोजा, ये प्यारे से जीव,
धरती को बनाते हैं, सुन्दर सजीव।
सपने में आएंगे, हाथी और घोड़े,
भालू और खरगोश भी, मिलकर दौड़ेंगे थोड़े।
सोजा मुन्ना सोजा, ये दुनिया है प्यारी,
सब सोते हैं मिलकर, क्या नर क्या नारी।
08. जीवन का आधार
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सो जा मेरे प्यारे, अँखियाँ बंद कर ले,
जल है तो जीवन है, यह बात मन में धर ले।
सोजा मुन्ना सोजा, पानी अमृत धारा,
प्यास बुझाए सबकी, जग का है सहारा।
नदी और झरने, बहते हैं कल-कल,
सागर में मिलता है, बनकर वह निर्मल।
सोजा मुन्ना सोजा, जल की है कहानी,
जिससे हरी-भरी है, यह धरती सुहानी।
हरी-भरी धरती पर, फैली है हरियाली,
पेड़ और पौधे देते, सुन्दरता निराली।
सोजा मुन्ना सोजा, ये जीवन की छाया,
इनकी ही साँसों से, हमने जीवन पाया।
फूलों की रंगत और, पत्तों की है लाली,
सब मिलकर गाते हैं, खुशियों की डाली।
सोजा मुन्ना सोजा, ये प्रकृति का श्रृंगार,
इनके बिना तो जीवन, है बिल्कुल बेकार।
कल सुबह उठकर तू, देखना ये नज़ारे,
पानी की कल-कल और, फूलों के प्यारे।
सोजा मुन्ना सोजा, ये दुनिया है अपनी,
जल और हरियाली से, सजी है ये सपना।
09 . भारत की जीवनदायिनी नदियाँ
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सो जा मेरे प्यारे, पलकें धीरे मींचो,
भारत की नदियों का, मधुर संगीत सुनो।
सोजा मुन्ना सोजा, गंगा की है धारा,
पवित्र जल से धोती, पापों की कारा।
यमुना किनारे देखो, कृष्ण की है लीला,
प्रेम और भक्ति का, बहता है रंगीला।
सोजा मुन्ना सोजा, यमुना की है रवानी,
जो सिखाती है सबको, प्रेम की कहानी।
सरस्वती अदृश्य हैं, ज्ञान की हैं सागर,
उनकी कृपा से रोशन, होता है हर नागर।
सोजा मुन्ना सोजा, विद्या की है देवी,
ज्ञान का प्रकाश भर दे, जीवन में अभी।
फल्गु की शांति में, पितरों का है आशीष,
गया की धरती पर है, इसका मधुर रस।
सोजा मुन्ना सोजा, फल्गु की है महिमा,
जो दिलाती है सबको, शांति की गरिमा।
पुनपुन और सोन देखो, बहते हैं साथ में,
बिहार की धरती को, सींचते हैं प्यार से।
सोजा मुन्ना सोजा, इन नदियों का संगम,
जीवन में लाता है, खुशियों का परचम।
ब्रह्मपुत्र विशाल है, शक्ति का है सागर,
पूरब की धरती का, अनुपम है गागर।
सोजा मुन्ना सोजा, इस नदी का बल,
जो सिखाता है जीवन में, हर मुश्किल का हल।
कावेरी दक्षिण की, जीवन रेखा कहलाती,
अपनी मधुर धारा से, धरती को महकाती।
सोजा मुन्ना सोजा, कावेरी का है पानी,
जो भरता है खेतों में, सुनहरी कहानी।
क्षिप्रा के तट पर उज्जैन का है धाम,
महाकाल का आशीष, हर सुबह हर शाम।
सोजा मुन्ना सोजा, क्षिप्रा की है लहरें,
जो भक्ति और श्रद्धा के, रंग हैं गहरे।
गोदावरी गौतमी हैं, दक्षिण की शोभा,
अपनी पवित्रता से, हर मन को लोभा।
सोजा मुन्ना सोजा, इन नदियों का जोड़ा,
जो जीवन को देता है, अनमोल यह तोड़ा।
नर्मदा मैया देखो, धीरे-धीरे बहती,
मध्य भारत की धरती को, अमृत रस देती।
सोजा मुन्ना सोजा, नर्मदा का है पानी,
जो भरता है जीवन में, सुन्दर जिंदगानी।
ये नदियाँ हमारी, भारत की हैं शान,
इनके जल से होता है, धरती का कल्याण।
सोजा मुन्ना सोजा, नदियों का यह गान,
तुम्हारे सपनों में लाए, सुखों का जहान।
😢😢😢😢😢😢😢😢😢😢😢😢
लोरी: अबोध शिशु के लिए संजीवनी" सत्येन्द्र कुमार पाठक द्वारा लिखा गया है। इसमें लोरी के महत्व और उसकी परंपरा पर सुंदर प्रकाश डाला गया है। लोरी की मधुरता और प्रभाव: लोरी एक जादुई ध्वनि है जो रोते हुए बच्चे को शांत करती है और गहरी नींद में सुलाती है। यह मां के वात्सल्य और प्रेम का सहज प्रकटीकरण है।
लोरी केवल सुलाने का माध्यम नहीं: यह बच्चों को मानसिक और शारीरिक रूप से मजबूत बनाती है।
सार्वभौमिकता: लोरी केवल मनुष्यों में ही नहीं, बल्कि पक्षियों और जानवरों में भी अपने बच्चों को दुलारने का एक सहज तरीका है। ऐतिहासिक महत्व: भारत में लोरी की परंपरा सदियों पुरानी है, जिसका प्रमाण मार्कण्डेय पुराण में मदालसा और रामायण में माता कौशल्या के प्रसंगों से मिलता है। मदालसा को लोरी की जननी माना जाता है।
ग्रामीण जीवन में लोरी: गांव की श्रमिक महिलाएं भी काम करते-करते अपने बच्चों को लोरी सुनाकर सुलाती हैं, जिससे बच्चे को मां के पास होने का अहसास होता है। आधुनिक संदर्भ: व्यस्त महिलाएं पालने में घंटी और घुंघरू लगाकर बच्चे को लोरी जैसा अनुभव कराती हैं।मां की भावनाएं और आशीर्वाद: लोरी के शब्दों में मां की शुभकामनाएं, भविष्य की आशाएं और प्रेम छिपा होता है। यह मां और बच्चे के बीच आनंद, प्रेम और विश्वास के बंधन को मजबूत करती है।रचनाकार का महत्व: लोरी किसी एक व्यक्ति की रचना नहीं होती, बल्कि यह हर मां के हृदय की सहज अभिव्यक्ति होती है। सनातन धर्म में महत्व: सनातन धर्म की संस्कृति और ग्रंथों में लोरी का विशेष महत्व है।
बाल लोरियों के उदाहरण: लेख में विभिन्न प्रकार की बाल लोरियों के उदाहरण दिए गए हैं, जिनमें सोने, चंदा मामा, निंदिया रानी, देश प्रेम, परिवार का प्यार, खेल-कूद, प्रकृति और नदियों के महत्व का वर्णन है।
यह लेख लोरी की सांस्कृतिक और भावनात्मक महत्ता को बहुत ही सुंदर ढंग से प्रस्तुत करता है। लेखक ने ऐतिहासिक और सामाजिक संदर्भों के साथ-साथ विभिन्न बाल लोरियों के उदाहरण देकर विषय को और अधिक जीवंत बना दिया है। यह लेख न केवल बच्चों के लिए लोरी के महत्व को दर्शाता है, बल्कि मां और बच्चे के अटूट बंधन को भी रेखांकित करता है। लोरियां पीढ़ी दर पीढ़ी स्नेह और संस्कृति को आगे बढ़ाने का एक महत्वपूर्ण माध्यम है।

रविवार, मार्च 30, 2025

शक्तिपीठ और बेलोन सर्वमंगला

बेलोन माता सर्वमंगला और बेलवन 
सत्येन्द्र कुमार पाठक 
देवीभागवत पुराण एवं स्मृति ग्रंथों में माता सर्वमंगला का उल्लेख मिलता है। उत्तरप्रदेश राज्य का बुलंदशहर जिले के नरौरा में स्थित  बेलोन का  गंगा तट पर  बेलोन मंदिर के गर्भगृह में माता मसर्वमंगला स्थापित है ।  सुख समृद्धि की देवी माता बेलोन सर्वमंगला  मंदिर में  गुप्त माघी व श्रावण नवरात्रि , वासंती व चैत्र तथा शारदीय व अश्विन नवरात्र  में शाक्त अनुयायी उपासना माता सर्वमंगला को कर  मनोवांक्षित फल प्राप्त करते हैं । बेलोन सर्वमंगला मंदिर का निर्माण राजा राव भूप सिंह द्वारा स्थापित किया गया है। शाक्त सम्प्रदाय के अनुयायी द्वारा 12 शुक्ल अष्टमी को माता सर्वमंगला की उपासना कर अभीष्ट फल प्राप्त करते है ।
शाक्त शास्त्र के अनुसार सतयुग में  गंगा तट पर बेल वृक्षो की उत्पत्ति एवं माता सती का रूधिर गिरने और माता पार्वती और भगवान शिव का प्रिय स्थल होने के कारण बेलवन स्थान को  बिलोन कहलाने लगा है। . कहा जाता है। पतित पावनी गंगा मैया के राजघाट, कलकतिया एवं नरौरा घाट पवित्र है। मां बेलोन भवानी के प्रादुर्भाव मां बेलोन वाली को साक्षात देवादिदेव महादेव की अद्धांगिनी माता सती का स्वरूप है। इसे लेकर दो अलग-अलग दंत कथाएं सामने आती हैं। चूंकि मां बेलोन वाली के प्रादुर्भाव को लेकर अभी कोई किसी तरह का लिखित दस्तावेज नहीं है। मां बेलोन वाली वीरासन में एवं मातासती  का एक पैर पाताल में है । दक्ष प्रजापति द्वारा ब्रह्मेष्टि  यज्ञ में देवादिदेव महादेव की अवहेलना, पिता के असहनीय व्यवहार से दुखी होकर मां सती  द्वारा देह त्यागने और इससे कुपित महादेव के गुणों यज्ञ विध्वंस कर भगवान शिव के कंधे पर स्थित माता सती का का रक्त की बूंदे बेलवन स्थल पर गिर था ।
भगवान शिव और माता पार्वती एक बार पृथ्वी  भ्रमण करते-करते गंगा नदी के पश्चिमी छोर के पास स्थित बेलवन  क्षेत्र  में माता  पार्वती  को एक शीला  दिखाई पड़ने पर बैठने के लिए ललायित हुई। भगवान शिव से माता  अपनी इच्छा शीला पर बैठने के लिए  प्रकट की और भगवान शिव की अनुमति मिलने पर वह सिला पर बैठ गई। मां पार्वती के विश्राम करने पर भगवान शिव भी पास  वटवृक्ष के पास आसन लगाकर बैठ गए। शीला मध्य में माता पार्वती के  विश्राम करने के दौरान कर रहीं माता  पार्वती के पैर बालक द्वारा  दबाने लगा। बालक द्वारा पैर दबाने के दौरान देखकर  माता पार्वती ने आनंद और आश्चर्य का मिश्रित भाव व्यक्त करते हुए भगवान महादेव से कहा कि हे प्राणनाथ  यह बालक कौन है और इस सिला पर बैठकर मैं इतनी आनंद विभार क्यों हूं। भगवान महादेव ने माता पार्वती को राजा दक्ष के यज्ञ प्रसंग का वृतांत सुनाते हुए कहा कि पिता के अपमान जनक व्यवहार से दुखी होकर जब पूर्व जन्म में तुमने देह को लेकर आकाश मार्ग से गुजर रहे थे। तब सती के शरीर से एक मां का लोथड़ा और खून की कुछ बूंद जिस सिला पर पड़ी और इसके गर्भग्रह में समा गई। यहलंगुरिया  बालक सती  का अंश हैं यह बालक तभी से आपके दर्शन की इच्छा के साथ उपासना कर रहा था। आज तुम्हारे साक्षात दर्शन से इसकी उपासना पूरी हो गई। इस पर भाव विहवल मां पार्वती ने बालक को गोद में उठा लिया। माता पार्वती बालक के साथ कुछ समय यहां रहीं। उसी समय भगवान शिव ने कहा कि आज से यह सिला साक्षात तुम्हारा स्वरूप होगा, और मां सर्व मंगला देवी के नाम से विख्यात होगा । व्यक्ति शुक्ल पक्ष की बारह अष्टमी तुम्हारे दर्शन करेगा। उसे मनवांछित फल प्राप्त होगा। यह बालक लांगुरिया के नाम से जाना जाएगा। लांगुरिया एवं शीला के दर्शन से ही मां सर्व मंगला देवी की यात्रा पूरी होगी। जब मां पार्वती यहां से चलने को हुई तो उनके शरीर से एक छायाकृति निकली और सिला में समाहित होने से  शिला सर्वमंगला मूर्ति के रूप में बदल गई। सर्वमंगला मंदिर से  250 गज दूर भगवान शिव ने विश्राम स्थान पर  वटकेश्वर महादेव मंदिर हो गया।  त्रेतायुग में भगवान राम ,  द्वापर में राक्षसों के बढ़ते अत्याचार से लोग त्राहि-त्राहि करने लगे। ब्रज से लगे कोल वत्मान में अलीगढ़ क्षेत्र के कोल राक्षस ने आतंक बरपा रखा था। आसपास की जनता ने भगवान कृष्ण के ज्येष्ठ भ्राता दाऊ बलराम से कोल के आतंक से मुक्ति दिलाने की प्रार्थना की। इसी के बाद बलराम ने कोल राक्षस मारा गया। इससे क्षेत्र की जनता को काफी राहत मिली। कोल का वध करने के बाद बलराम जी ने रामघाट पर गंगा में स्नान करने  दौरान उन्हें दैवीय शक्ति के प्रभाव की अनुभूति प्राप्त कर  बलराम विलवन क्षेत्र में पहुंच गए। यहां देवी के दर्शन की इच्छा के साथ उन्होंने घोर तप किया और इससे प्रसन्न होकर मां सर्वमंगला देवी ने उन्हें दर्शन दिये। देवी ने बलराम से कहा कि वह उनकी खंडित शक्ति को पूर्ण प्रतिष्ठित करें। इसके बाद बलराम ने मां सर्वमंगला देवी के दर्शन को पूर्ण प्रतिष्ठित किया।  मां सर्वमंगला देवी के दर्शन की अभिलाषा से बलराम ने चैत्र शुक्ल पक्ष की अष्टमी को तपस्या शुरू की और अगली चैत्र शुक्ल भी अष्टमी को मां ने उन्हें दर्शन देकर तपस्या का समापन कराया।  चैत्र सुक्ल पक्ष की अष्टमी को मां सर्वमंगला देवी के दर्शन का विशेष महत्व माना जाता है। कालचक्र बदलने से  क्षेत्र में भूस्खलन हुआ नतीजतन बेलों का बगीचा जमीन में समा गया और मां सर्वमंगला देवी की जहां मूर्ति थी । बेलवन क्षेत्र टापू में बदल गया। बेलवन को वेलवं , लांगुरिया , बेलवा , विवलेश्वर स्थल , बसावच ,  खेड़ा कहा जाता था ।   खेड़ा निवासियों द्वारा  भूगर्भ में समाहित मां सर्वमंगला देवी की मूर्ति प्रकट होने के दौरान  मूर्ति के सिर का छोटा सा हिस्सा बाहर चमकता था। घसियारे इसे पत्थर की सिला समझकर इस पर अपनी खुरपी की धार बनाया करते थे। इससे मां को काफी पीड़ा होती थी। मां के सिर में खुरपी पर धार रखने के लिए की जाने वाली घिसाई से गड्ढा हो गया था ।मुगल बादशाह जहांगीर शिकार खेलते हुए बिलवन क्षेत्र में सेनापति अनीराम बड़बूजर के साथ आया था। अचानक एक शेर ने जहांगीर पर आक्रमण कर दिया। जहांगीर को शेर से बचाने के लिए बड्बूजर ने अपनी जान की परवाह न कर शेर के मुंह में अपना हाथ डाल दिया। पास ही खड़ा शहजादा खुर्रम यह घटना देख रहा था ।  सेनापति अनिराम की जिंदादिली से काफी प्रभावित हुआ। उसने सेनापति को संकट में फंसा देखकर अपनी तलवार से शेर पर पीछे से वार कर उसे मार डाला। जहांगीर ने सेनापति की बहादुरी से खुश होकर उसे 1556 गांवों एवं बिल्वन की जमींदारी पुरस्कार में दी। बिलवन क्षेत्र भी इसी में शामिल था। समय चक्र फिर बदला। जहांगीर के सेनापति बड्बूजर के वंशज राव भूपसिंह ने बेलवन  क्षेत्र में हवेली बनवाई और पूजा पाठ में रम गए। मां सर्वमंगला ने भूपसिंह को  स्वप्न दिया कि वह अमुक स्थान में जमीन में दबी है। अतः उनकी मूर्ति जहां है वहां खुदाई करवाकर उसका भवन बनवा दें। राव भूपसिंह को स्वप्न तो याद रहा। पर वह स्थान याद नहीं रहा जहां मां ने अपनी मूर्ति होने की जानकारी दी थी। अब तो राव भूपसिंह की बेचैनी बढ़ने लगी। जब पीड़ा असहनीय हो गई तो उन्होंने बनारस के विद्वान ब्राह्मणों को बुलाकर अपनी समस्या बताई।ब्राह्मणों ने राव को इसके लिए सतचंडी यज्ञ करने का सुझाव दिया। राव तुरंत तैयार हो गए। शतचंडी यज्ञ हुआ और यजमान बने राव ने रात्रि विश्राम यज्ञ प्रांगण में ही किया। रात्रि में मां सर्वमंगला देवी ने उन्हें फिर स्वप्न दिया और वह स्थान बताया जहां उनकी प्रतिमा दबी थी। सुबह होते ही राव ने ब्राह्मणों को स्वप्न की जानकारी दी और ब्राह्मणों के निर्देश पर राव भूपसिंह ने मां द्वारा बताये स्थान पर खुदाई शुरू कराई तो वहां मां की इस मूर्ति को देखकर राव ने इसे अपनी हवेली के बाहर लगाने का मन बनाया। मजदूरों को मूर्ति सुरक्षित निकालने का हुक्म दिया। मजदूरों ने काफी कोशिश की मगर हार थक्कर बैठ गए। मूर्ति के एक पैर का कोई ओर छोर नहीं मिला। तब मां ने राव को बताया कि उनका एक पैर पाताल में है। इसलिए मेरा इसी स्थान पर मंदिर बनवाओ। और इसी तरह मां सर्वमंगला देवी के मंदिर का निर्माण हुआ। बताया जाता है कि राव भूप सिंह के वंशज कल्याण सिंह के कोई संतान नहीं हुई। इससे वह काफी विचलित हुए और बनारस के विद्वान दर्माचार्यों की शरण ली। धर्माचायों ने कहा कि जब तक मैया का चढ़ावा खाना बंद नहीं करोगे, संतान सुख असंभव है। कल्याण सिंह ने इस पर तुरंत अमल किया और मैया की पूजा सेवा के लिए दो ब्राह्मणों को दायित्व सौंप दिया। इसी के बाद राव कल्याण सिंह को संतान की प्राप्ति हुई। बेलोन वाली मैया के प्रांगण में हर साल बलिदान दिवस भी मनाया जाता है। यह चैत्र शुक्ल की त्रयोदश एवं आश्विन माह के शुक्लपक्ष की त्रयोदशी को मनाया जाता है।  तीन दशक पूर्व .बकरे की बलि दी जाती थी।  मां बेलोन का भवन जहां बना है वह बेलपत्रों का वन क्षेत्र है। प्रारंभ में लोग


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बेलोन माता सर्वमंगला और बेलवन 
सत्येन्द्र कुमार पाठक 
देवीभागवत पुराण एवं स्मृति ग्रंथों में माता सर्वमंगला का उल्लेख मिलता है। उत्तरप्रदेश राज्य का बुलंदशहर जिले के नरौरा में स्थित  बेलोन का  गंगा तट पर  बेलोन मंदिर के गर्भगृह में माता मसर्वमंगला स्थापित है ।  सुख समृद्धि की देवी माता बेलोन सर्वमंगला  मंदिर में  गुप्त माघी व श्रावण नवरात्रि , वासंती व चैत्र तथा शारदीय व अश्विन नवरात्र  में शाक्त अनुयायी उपासना माता सर्वमंगला को कर  मनोवांक्षित फल प्राप्त करते हैं । बेलोन सर्वमंगला मंदिर का निर्माण राजा राव भूप सिंह द्वारा स्थापित किया गया है। शाक्त सम्प्रदाय के अनुयायी द्वारा 12 शुक्ल अष्टमी को माता सर्वमंगला की उपासना कर अभीष्ट फल प्राप्त करते है ।
शाक्त शास्त्र के अनुसार सतयुग में  गंगा तट पर बेल वृक्षो की उत्पत्ति एवं माता सती का रूधिर गिरने और माता पार्वती और भगवान शिव का प्रिय स्थल होने के कारण बेलवन स्थान को  बिलोन कहलाने लगा है। . कहा जाता है। पतित पावनी गंगा मैया के राजघाट, कलकतिया एवं नरौरा घाट पवित्र है। मां बेलोन भवानी के प्रादुर्भाव मां बेलोन वाली को साक्षात देवादिदेव महादेव की अद्धांगिनी माता सती का स्वरूप है। इसे लेकर दो अलग-अलग दंत कथाएं सामने आती हैं। चूंकि मां बेलोन वाली के प्रादुर्भाव को लेकर अभी कोई किसी तरह का लिखित दस्तावेज नहीं है। मां बेलोन वाली वीरासन में एवं मातासती  का एक पैर पाताल में है । दक्ष प्रजापति द्वारा ब्रह्मेष्टि  यज्ञ में देवादिदेव महादेव की अवहेलना, पिता के असहनीय व्यवहार से दुखी होकर मां सती  द्वारा देह त्यागने और इससे कुपित महादेव के गुणों यज्ञ विध्वंस कर भगवान शिव के कंधे पर स्थित माता सती का का रक्त की बूंदे बेलवन स्थल पर गिर था ।
भगवान शिव और माता पार्वती एक बार पृथ्वी  भ्रमण करते-करते गंगा नदी के पश्चिमी छोर के पास स्थित बेलवन  क्षेत्र  में माता  पार्वती  को एक शीला  दिखाई पड़ने पर बैठने के लिए ललायित हुई। भगवान शिव से माता  अपनी इच्छा शीला पर बैठने के लिए  प्रकट की और भगवान शिव की अनुमति मिलने पर वह सिला पर बैठ गई। मां पार्वती के विश्राम करने पर भगवान शिव भी पास  वटवृक्ष के पास आसन लगाकर बैठ गए। शीला मध्य में माता पार्वती के  विश्राम करने के दौरान कर रहीं माता  पार्वती के पैर बालक द्वारा  दबाने लगा। बालक द्वारा पैर दबाने के दौरान देखकर  माता पार्वती ने आनंद और आश्चर्य का मिश्रित भाव व्यक्त करते हुए भगवान महादेव से कहा कि हे प्राणनाथ  यह बालक कौन है और इस सिला पर बैठकर मैं इतनी आनंद विभार क्यों हूं। भगवान महादेव ने माता पार्वती को राजा दक्ष के यज्ञ प्रसंग का वृतांत सुनाते हुए कहा कि पिता के अपमान जनक व्यवहार से दुखी होकर जब पूर्व जन्म में तुमने देह को लेकर आकाश मार्ग से गुजर रहे थे। तब सती के शरीर से एक मां का लोथड़ा और खून की कुछ बूंद जिस सिला पर पड़ी और इसके गर्भग्रह में समा गई। यहलंगुरिया  बालक सती  का अंश हैं यह बालक तभी से आपके दर्शन की इच्छा के साथ उपासना कर रहा था। आज तुम्हारे साक्षात दर्शन से इसकी उपासना पूरी हो गई। इस पर भाव विहवल मां पार्वती ने बालक को गोद में उठा लिया। माता पार्वती बालक के साथ कुछ समय यहां रहीं। उसी समय भगवान शिव ने कहा कि आज से यह सिला साक्षात तुम्हारा स्वरूप होगा, और मां सर्व मंगला देवी के नाम से विख्यात होगा । व्यक्ति शुक्ल पक्ष की बारह अष्टमी तुम्हारे दर्शन करेगा। उसे मनवांछित फल प्राप्त होगा। यह बालक लांगुरिया के नाम से जाना जाएगा। लांगुरिया एवं शीला के दर्शन से ही मां सर्व मंगला देवी की यात्रा पूरी होगी। जब मां पार्वती यहां से चलने को हुई तो उनके शरीर से एक छायाकृति निकली और सिला में समाहित होने से  शिला सर्वमंगला मूर्ति के रूप में बदल गई। सर्वमंगला मंदिर से  250 गज दूर भगवान शिव ने विश्राम स्थान पर  वटकेश्वर महादेव मंदिर हो गया।  त्रेतायुग में भगवान राम ,  द्वापर में राक्षसों के बढ़ते अत्याचार से लोग त्राहि-त्राहि करने लगे। ब्रज से लगे कोल वत्मान में अलीगढ़ क्षेत्र के कोल राक्षस ने आतंक बरपा रखा था। आसपास की जनता ने भगवान कृष्ण के ज्येष्ठ भ्राता दाऊ बलराम से कोल के आतंक से मुक्ति दिलाने की प्रार्थना की। इसी के बाद बलराम ने कोल राक्षस मारा गया। इससे क्षेत्र की जनता को काफी राहत मिली। कोल का वध करने के बाद बलराम जी ने रामघाट पर गंगा में स्नान करने  दौरान उन्हें दैवीय शक्ति के प्रभाव की अनुभूति प्राप्त कर  बलराम विलवन क्षेत्र में पहुंच गए। यहां देवी के दर्शन की इच्छा के साथ उन्होंने घोर तप किया और इससे प्रसन्न होकर मां सर्वमंगला देवी ने उन्हें दर्शन दिये। देवी ने बलराम से कहा कि वह उनकी खंडित शक्ति को पूर्ण प्रतिष्ठित करें। इसके बाद बलराम ने मां सर्वमंगला देवी के दर्शन को पूर्ण प्रतिष्ठित किया।  मां सर्वमंगला देवी के दर्शन की अभिलाषा से बलराम ने चैत्र शुक्ल पक्ष की अष्टमी को तपस्या शुरू की और अगली चैत्र शुक्ल भी अष्टमी को मां ने उन्हें दर्शन देकर तपस्या का समापन कराया।  चैत्र सुक्ल पक्ष की अष्टमी को मां सर्वमंगला देवी के दर्शन का विशेष महत्व माना जाता है। कालचक्र बदलने से  क्षेत्र में भूस्खलन हुआ नतीजतन बेलों का बगीचा जमीन में समा गया और मां सर्वमंगला देवी की जहां मूर्ति थी । बेलवन क्षेत्र टापू में बदल गया। बेलवन को वेलवं , लांगुरिया , बेलवा , विवलेश्वर स्थल , बसावच ,  खेड़ा कहा जाता था ।   खेड़ा निवासियों द्वारा  भूगर्भ में समाहित मां सर्वमंगला देवी की मूर्ति प्रकट होने के दौरान  मूर्ति के सिर का छोटा सा हिस्सा बाहर चमकता था। घसियारे इसे पत्थर की सिला समझकर इस पर अपनी खुरपी की धार बनाया करते थे। इससे मां को काफी पीड़ा होती थी। मां के सिर में खुरपी पर धार रखने के लिए की जाने वाली घिसाई से गड्ढा हो गया था ।मुगल बादशाह जहांगीर शिकार खेलते हुए बिलवन क्षेत्र में सेनापति अनीराम बड़बूजर के साथ आया था। अचानक एक शेर ने जहांगीर पर आक्रमण कर दिया। जहांगीर को शेर से बचाने के लिए बड्बूजर ने अपनी जान की परवाह न कर शेर के मुंह में अपना हाथ डाल दिया। पास ही खड़ा शहजादा खुर्रम यह घटना देख रहा था ।  सेनापति अनिराम की जिंदादिली से काफी प्रभावित हुआ। उसने सेनापति को संकट में फंसा देखकर अपनी तलवार से शेर पर पीछे से वार कर उसे मार डाला। जहांगीर ने सेनापति की बहादुरी से खुश होकर उसे 1556 गांवों एवं बिल्वन की जमींदारी पुरस्कार में दी। बिलवन क्षेत्र भी इसी में शामिल था। समय चक्र फिर बदला। जहांगीर के सेनापति बड्बूजर के वंशज राव भूपसिंह ने बेलवन  क्षेत्र में हवेली बनवाई और पूजा पाठ में रम गए। मां सर्वमंगला ने भूपसिंह को  स्वप्न दिया कि वह अमुक स्थान में जमीन में दबी है। अतः उनकी मूर्ति जहां है वहां खुदाई करवाकर उसका भवन बनवा दें। राव भूपसिंह को स्वप्न तो याद रहा। पर वह स्थान याद नहीं रहा जहां मां ने अपनी मूर्ति होने की जानकारी दी थी। अब तो राव भूपसिंह की बेचैनी बढ़ने लगी। जब पीड़ा असहनीय हो गई तो उन्होंने बनारस के विद्वान ब्राह्मणों को बुलाकर अपनी समस्या बताई।ब्राह्मणों ने राव को इसके लिए सतचंडी यज्ञ करने का सुझाव दिया। राव तुरंत तैयार हो गए। शतचंडी यज्ञ हुआ और यजमान बने राव ने रात्रि विश्राम यज्ञ प्रांगण में ही किया। रात्रि में मां सर्वमंगला देवी ने उन्हें फिर स्वप्न दिया और वह स्थान बताया जहां उनकी प्रतिमा दबी थी। सुबह होते ही राव ने ब्राह्मणों को स्वप्न की जानकारी दी और ब्राह्मणों के निर्देश पर राव भूपसिंह ने मां द्वारा बताये स्थान पर खुदाई शुरू कराई तो वहां मां की इस मूर्ति को देखकर राव ने इसे अपनी हवेली के बाहर लगाने का मन बनाया। मजदूरों को मूर्ति सुरक्षित निकालने का हुक्म दिया। मजदूरों ने काफी कोशिश की मगर हार थक्कर बैठ गए। मूर्ति के एक पैर का कोई ओर छोर नहीं मिला। तब मां ने राव को बताया कि उनका एक पैर पाताल में है। इसलिए मेरा इसी स्थान पर मंदिर बनवाओ। और इसी तरह मां सर्वमंगला देवी के मंदिर का निर्माण हुआ। बताया जाता है कि राव भूप सिंह के वंशज कल्याण सिंह के कोई संतान नहीं हुई। इससे वह काफी विचलित हुए और बनारस के विद्वान दर्माचार्यों की शरण ली। धर्माचायों ने कहा कि जब तक मैया का चढ़ावा खाना बंद नहीं करोगे, संतान सुख असंभव है। कल्याण सिंह ने इस पर तुरंत अमल किया और मैया की पूजा सेवा के लिए दो ब्राह्मणों को दायित्व सौंप दिया। इसी के बाद राव कल्याण सिंह को संतान की प्राप्ति हुई। बेलोन वाली मैया के प्रांगण में हर साल बलिदान दिवस भी मनाया जाता है। यह चैत्र शुक्ल की त्रयोदश एवं आश्विन माह के शुक्लपक्ष की त्रयोदशी को मनाया जाता है।  तीन दशक पूर्व .बकरे की बलि दी जाती थी।  मां बेलोन का भवन जहां बना है वह बेलपत्रों का वन क्षेत्र है। प्रारंभ में लोग


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बेलोन माता सर्वमंगला और बेलवन 
सत्येन्द्र कुमार पाठक 
देवीभागवत पुराण एवं स्मृति ग्रंथों में माता सर्वमंगला का उल्लेख मिलता है। उत्तरप्रदेश राज्य का बुलंदशहर जिले के नरौरा में स्थित  बेलोन का  गंगा तट पर  बेलोन मंदिर के गर्भगृह में माता मसर्वमंगला स्थापित है ।  सुख समृद्धि की देवी माता बेलोन सर्वमंगला  मंदिर में  गुप्त माघी व श्रावण नवरात्रि , वासंती व चैत्र तथा शारदीय व अश्विन नवरात्र  में शाक्त अनुयायी उपासना माता सर्वमंगला को कर  मनोवांक्षित फल प्राप्त करते हैं । बेलोन सर्वमंगला मंदिर का निर्माण राजा राव भूप सिंह द्वारा स्थापित किया गया है। शाक्त सम्प्रदाय के अनुयायी द्वारा 12 शुक्ल अष्टमी को माता सर्वमंगला की उपासना कर अभीष्ट फल प्राप्त करते है ।
शाक्त शास्त्र के अनुसार सतयुग में  गंगा तट पर बेल वृक्षो की उत्पत्ति एवं माता सती का रूधिर गिरने और माता पार्वती और भगवान शिव का प्रिय स्थल होने के कारण बेलवन स्थान को  बिलोन कहलाने लगा है। . कहा जाता है। पतित पावनी गंगा मैया के राजघाट, कलकतिया एवं नरौरा घाट पवित्र है। मां बेलोन भवानी के प्रादुर्भाव मां बेलोन वाली को साक्षात देवादिदेव महादेव की अद्धांगिनी माता सती का स्वरूप है। इसे लेकर दो अलग-अलग दंत कथाएं सामने आती हैं। चूंकि मां बेलोन वाली के प्रादुर्भाव को लेकर अभी कोई किसी तरह का लिखित दस्तावेज नहीं है। मां बेलोन वाली वीरासन में एवं मातासती  का एक पैर पाताल में है । दक्ष प्रजापति द्वारा ब्रह्मेष्टि  यज्ञ में देवादिदेव महादेव की अवहेलना, पिता के असहनीय व्यवहार से दुखी होकर मां सती  द्वारा देह त्यागने और इससे कुपित महादेव के गुणों यज्ञ विध्वंस कर भगवान शिव के कंधे पर स्थित माता सती का का रक्त की बूंदे बेलवन स्थल पर गिर था ।
भगवान शिव और माता पार्वती एक बार पृथ्वी  भ्रमण करते-करते गंगा नदी के पश्चिमी छोर के पास स्थित बेलवन  क्षेत्र  में माता  पार्वती  को एक शीला  दिखाई पड़ने पर बैठने के लिए ललायित हुई। भगवान शिव से माता  अपनी इच्छा शीला पर बैठने के लिए  प्रकट की और भगवान शिव की अनुमति मिलने पर वह सिला पर बैठ गई। मां पार्वती के विश्राम करने पर भगवान शिव भी पास  वटवृक्ष के पास आसन लगाकर बैठ गए। शीला मध्य में माता पार्वती के  विश्राम करने के दौरान कर रहीं माता  पार्वती के पैर बालक द्वारा  दबाने लगा। बालक द्वारा पैर दबाने के दौरान देखकर  माता पार्वती ने आनंद और आश्चर्य का मिश्रित भाव व्यक्त करते हुए भगवान महादेव से कहा कि हे प्राणनाथ  यह बालक कौन है और इस सिला पर बैठकर मैं इतनी आनंद विभार क्यों हूं। भगवान महादेव ने माता पार्वती को राजा दक्ष के यज्ञ प्रसंग का वृतांत सुनाते हुए कहा कि पिता के अपमान जनक व्यवहार से दुखी होकर जब पूर्व जन्म में तुमने देह को लेकर आकाश मार्ग से गुजर रहे थे। तब सती के शरीर से एक मां का लोथड़ा और खून की कुछ बूंद जिस सिला पर पड़ी और इसके गर्भग्रह में समा गई। यहलंगुरिया  बालक सती  का अंश हैं यह बालक तभी से आपके दर्शन की इच्छा के साथ उपासना कर रहा था। आज तुम्हारे साक्षात दर्शन से इसकी उपासना पूरी हो गई। इस पर भाव विहवल मां पार्वती ने बालक को गोद में उठा लिया। माता पार्वती बालक के साथ कुछ समय यहां रहीं। उसी समय भगवान शिव ने कहा कि आज से यह सिला साक्षात तुम्हारा स्वरूप होगा, और मां सर्व मंगला देवी के नाम से विख्यात होगा । व्यक्ति शुक्ल पक्ष की बारह अष्टमी तुम्हारे दर्शन करेगा। उसे मनवांछित फल प्राप्त होगा। यह बालक लांगुरिया के नाम से जाना जाएगा। लांगुरिया एवं शीला के दर्शन से ही मां सर्व मंगला देवी की यात्रा पूरी होगी। जब मां पार्वती यहां से चलने को हुई तो उनके शरीर से एक छायाकृति निकली और सिला में समाहित होने से  शिला सर्वमंगला मूर्ति के रूप में बदल गई। सर्वमंगला मंदिर से  250 गज दूर भगवान शिव ने विश्राम स्थान पर  वटकेश्वर महादेव मंदिर हो गया।  त्रेतायुग में भगवान राम ,  द्वापर में राक्षसों के बढ़ते अत्याचार से लोग त्राहि-त्राहि करने लगे। ब्रज से लगे कोल वत्मान में अलीगढ़ क्षेत्र के कोल राक्षस ने आतंक बरपा रखा था। आसपास की जनता ने भगवान कृष्ण के ज्येष्ठ भ्राता दाऊ बलराम से कोल के आतंक से मुक्ति दिलाने की प्रार्थना की। इसी के बाद बलराम ने कोल राक्षस मारा गया। इससे क्षेत्र की जनता को काफी राहत मिली। कोल का वध करने के बाद बलराम जी ने रामघाट पर गंगा में स्नान करने  दौरान उन्हें दैवीय शक्ति के प्रभाव की अनुभूति प्राप्त कर  बलराम विलवन क्षेत्र में पहुंच गए। यहां देवी के दर्शन की इच्छा के साथ उन्होंने घोर तप किया और इससे प्रसन्न होकर मां सर्वमंगला देवी ने उन्हें दर्शन दिये। देवी ने बलराम से कहा कि वह उनकी खंडित शक्ति को पूर्ण प्रतिष्ठित करें। इसके बाद बलराम ने मां सर्वमंगला देवी के दर्शन को पूर्ण प्रतिष्ठित किया।  मां सर्वमंगला देवी के दर्शन की अभिलाषा से बलराम ने चैत्र शुक्ल पक्ष की अष्टमी को तपस्या शुरू की और अगली चैत्र शुक्ल भी अष्टमी को मां ने उन्हें दर्शन देकर तपस्या का समापन कराया।  चैत्र सुक्ल पक्ष की अष्टमी को मां सर्वमंगला देवी के दर्शन का विशेष महत्व माना जाता है। कालचक्र बदलने से  क्षेत्र में भूस्खलन हुआ नतीजतन बेलों का बगीचा जमीन में समा गया और मां सर्वमंगला देवी की जहां मूर्ति थी । बेलवन क्षेत्र टापू में बदल गया। बेलवन को वेलवं , लांगुरिया , बेलवा , विवलेश्वर स्थल , बसावच ,  खेड़ा कहा जाता था ।   खेड़ा निवासियों द्वारा  भूगर्भ में समाहित मां सर्वमंगला देवी की मूर्ति प्रकट होने के दौरान  मूर्ति के सिर का छोटा सा हिस्सा बाहर चमकता था। घसियारे इसे पत्थर की सिला समझकर इस पर अपनी खुरपी की धार बनाया करते थे। इससे मां को काफी पीड़ा होती थी। मां के सिर में खुरपी पर धार रखने के लिए की जाने वाली घिसाई से गड्ढा हो गया था ।मुगल बादशाह जहांगीर शिकार खेलते हुए बिलवन क्षेत्र में सेनापति अनीराम बड़बूजर के साथ आया था। अचानक एक शेर ने जहांगीर पर आक्रमण कर दिया। जहांगीर को शेर से बचाने के लिए बड्बूजर ने अपनी जान की परवाह न कर शेर के मुंह में अपना हाथ डाल दिया। पास ही खड़ा शहजादा खुर्रम यह घटना देख रहा था ।  सेनापति अनिराम की जिंदादिली से काफी प्रभावित हुआ। उसने सेनापति को संकट में फंसा देखकर अपनी तलवार से शेर पर पीछे से वार कर उसे मार डाला। जहांगीर ने सेनापति की बहादुरी से खुश होकर उसे 1556 गांवों एवं बिल्वन की जमींदारी पुरस्कार में दी। बिलवन क्षेत्र भी इसी में शामिल था। समय चक्र फिर बदला। जहांगीर के सेनापति बड्बूजर के वंशज राव भूपसिंह ने बेलवन  क्षेत्र में हवेली बनवाई और पूजा पाठ में रम गए। मां सर्वमंगला ने भूपसिंह को  स्वप्न दिया कि वह अमुक स्थान में जमीन में दबी है। अतः उनकी मूर्ति जहां है वहां खुदाई करवाकर उसका भवन बनवा दें। राव भूपसिंह को स्वप्न तो याद रहा। पर वह स्थान याद नहीं रहा जहां मां ने अपनी मूर्ति होने की जानकारी दी थी। अब तो राव भूपसिंह की बेचैनी बढ़ने लगी। जब पीड़ा असहनीय हो गई तो उन्होंने बनारस के विद्वान ब्राह्मणों को बुलाकर अपनी समस्या बताई।ब्राह्मणों ने राव को इसके लिए सतचंडी यज्ञ करने का सुझाव दिया। राव तुरंत तैयार हो गए। शतचंडी यज्ञ हुआ और यजमान बने राव ने रात्रि विश्राम यज्ञ प्रांगण में ही किया। रात्रि में मां सर्वमंगला देवी ने उन्हें फिर स्वप्न दिया और वह स्थान बताया जहां उनकी प्रतिमा दबी थी। सुबह होते ही राव ने ब्राह्मणों को स्वप्न की जानकारी दी और ब्राह्मणों के निर्देश पर राव भूपसिंह ने मां द्वारा बताये स्थान पर खुदाई शुरू कराई तो वहां मां की इस मूर्ति को देखकर राव ने इसे अपनी हवेली के बाहर लगाने का मन बनाया। मजदूरों को मूर्ति सुरक्षित निकालने का हुक्म दिया। मजदूरों ने काफी कोशिश की मगर हार थक्कर बैठ गए। मूर्ति के एक पैर का कोई ओर छोर नहीं मिला। तब मां ने राव को बताया कि उनका एक पैर पाताल में है। इसलिए मेरा इसी स्थान पर मंदिर बनवाओ। और इसी तरह मां सर्वमंगला देवी के मंदिर का निर्माण हुआ। बताया जाता है कि राव भूप सिंह के वंशज कल्याण सिंह के कोई संतान नहीं हुई। इससे वह काफी विचलित हुए और बनारस के विद्वान दर्माचार्यों की शरण ली। धर्माचायों ने कहा कि जब तक मैया का चढ़ावा खाना बंद नहीं करोगे, संतान सुख असंभव है। कल्याण सिंह ने इस पर तुरंत अमल किया और मैया की पूजा सेवा के लिए दो ब्राह्मणों को दायित्व सौंप दिया। इसी के बाद राव कल्याण सिंह को संतान की प्राप्ति हुई। बेलोन वाली मैया के प्रांगण में हर साल बलिदान दिवस भी मनाया जाता है। यह चैत्र शुक्ल की त्रयोदश एवं आश्विन माह के शुक्लपक्ष की त्रयोदशी को मनाया जाता है।  तीन दशक पूर्व .बकरे की बलि दी जाती थी।  मां बेलोन का भवन जहां बना है वह बेलपत्रों का वन क्षेत्र है। प्रारंभ में लोग


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