सोमवार, जून 02, 2025

मैं जीवनधारा नदी हूँ

बिहार की नदियाँ: विलुप्ति के कगार पर एक विस्तृत विश्लेषण
सत्येन्द्र कुमार पाठक 
बिहार, जिसे "नदियों का प्रदेश" कहा जाता है, आज एक गंभीर पर्यावरणीय और पारिस्थितिक संकट का सामना कर रहा है। राज्य की कई ऐतिहासिक, सांस्कृतिक और आर्थिक रूप से महत्वपूर्ण नदियाँ धीरे-धीरे विलुप्त होने की कगार पर पहुँच गई हैं। यह केवल जलस्रोतों का सूखना नहीं, बल्कि एक सभ्यतागत क्षति है जो राज्य के पर्यावरण, कृषि, जैव विविधता और मानव जीवन पर गहरा प्रभाव डाल रही है। 
बिहार की विलुप्त होती नदियाँ और उनके भयावह कारण 
निर्माण भारती के प्रबंध संपादक सत्येन्द्र कुमार पाठक ने सर्वेक्षित नदियों एवं विलुप्त हो रही नदियों तथा विलुप्त हुई नदियों पर समीक्षात्मक सर्वेक्षण से पता चला है कि बिहार की कई छोटी और ऐतिहासिक नदियाँ, जैसे दाहा, कदाने, जमुआरी, कंचन, धर्मावती, चंद्रभागा, माही, तेल, सोंधी, धमती, खनूआ नाला, नेउरा नाला और हिरण्यबाहु (जिसे 'बह' भी कहा जाता है), अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही हैं। इन नदियों के विलुप्त होने के पीछे कई जटिल और अंतर्संबंधित कारण हैं:
प्रदूषण की विकराल समस्या: यह नदियों के लिए सबसे बड़ा खतरा है। शहरों और औद्योगिक क्षेत्रों से निकलने वाला अनुपचारित कचरा और औद्योगिक अपशिष्ट सीधे नदियों में बहाया जा रहा है। कृषि में रसायनों और कीटनाशकों का अत्यधिक उपयोग भी बारिश के पानी के साथ बहकर नदियों तक पहुँचता है, जिससे पानी दूषित होता है। यह न केवल जलीय जीवों के लिए बल्कि उन मनुष्यों के लिए भी गंभीर स्वास्थ्य खतरे पैदा करता है जो इन नदियों के पानी पर निर्भर करते हैं। दाहा नदी, जो कभी गंडक और सरयू से जुड़ी थी, आज प्रदूषण के कारण खतरे में है।
जलकुंभी का असीमित विस्तार: जलकुंभी एक आक्रामक खरपतवार है जो नदियों की सतह पर तेजी से फैलता है। यह सूर्य के प्रकाश को पानी तक पहुँचने से रोकता है, जिससे जलीय पौधों का प्रकाश संश्लेषण बाधित होता है। यह पानी में ऑक्सीजन के स्तर को कम करता है, जिससे मछलियों और अन्य जलीय जीवों का जीवन खतरे में पड़ जाता है। कदाने नदी, जो मुजफ्फरपुर के लिए महत्वपूर्ण जलस्रोत थी, जलकुंभी और प्रदूषण के कारण लगभग विलुप्त हो चुकी है।
अनियंत्रित मानव हस्तक्षेप:बांधों और जलाशयों का निर्माण: नदियों के प्राकृतिक प्रवाह को बाधित कर रहा है। यद्यपि ये जल विद्युत और सिंचाई के लिए आवश्यक हैं, इनका अनियोजित निर्माण और प्रबंधन नदियों के पारिस्थितिक तंत्र को नुकसान पहुँचाता है और उनके जलमार्ग को बाधित करता है, जिससे पानी का बहाव कम हो जाता है।
अत्यधिक जल दोहन: कृषि (विशेषकर जल-गहन फसलें) और उद्योगों द्वारा अत्यधिक जल दोहन नदियों के पानी की मात्रा को कम कर रहा है। अतिक्रमण: नदी के किनारों और बाढ़ के मैदानों पर अवैध अतिक्रमण और निर्माण कार्य नदियों के प्राकृतिक स्वरूप को बिगाड़ रहे हैं, जिससे उनके जल निकासी मार्ग संकीर्ण हो रहे हैं और उनकी जल धारण क्षमता कम हो रही है। रेत खनन: अवैध और अत्यधिक रेत खनन नदी के तल को गहरा करता है, जिससे भूजल स्तर गिरता है और नदी का प्रवाह बाधित होता है।भूजल स्तर में भारी कमी: भूमिगत जल का अत्यधिक उपयोग, विशेषकर सिंचाई और घरेलू आवश्यकताओं के लिए, भूजल स्तर को लगातार कम कर रहा है। कई नदियाँ, खासकर छोटी नदियाँ, भूजल पर निर्भर करती हैं। जब भूजल स्तर गिरता है, तो ये नदियाँ सूखने लगती हैं, जिससे वे बारहमासी से बरसाती नदियों में बदल जाती हैं। हिरण्यबाहु नदी (बह), जो औरंगाबाद जिले के गोह, हसपुरा और अरवल जिले के करपी, कलेर, अरवल तथा पटना जिले के पालीगंज में बहती थी, इसी कारण विलुप्त हो चुकी है।
नदी के स्वरूप से छेड़छाड़: मुख्य नदियों पर बड़े बांधों के निर्माण से उनकी सहायक नदियों और वितरिकाओं (छारन) का प्रवाह प्रभावित होता है। जब मुख्य नदी का प्रवाह नियंत्रित होता है, तो उससे निकलने वाली छोटी नदियाँ और नाले पानी की कमी से जूझते हैं, जिससे उनकी स्थिति बिगड़ जाती है। जलवायु परिवर्तन के प्रभाव: वर्षा के पैटर्न में अप्रत्याशित बदलाव, जैसे अनियमित और कम वर्षा या अत्यधिक बाढ़, तथा बढ़ते तापमान भी नदियों के सूखने में योगदान कर सकते हैं।
बिहार के प्रभावित जिले और नदियों की स्थिति
सर्वेक्षण ने इस बात पर प्रकाश डाला है कि बिहार के कई जिले, जैसे अरवल, जहानाबाद, गया, औरंगाबाद, नवादा, पटना, नालंदा, की कई नदियाँ, जो कभी बारहमासी थीं, अब केवल बरसाती नदियाँ बनकर रह गई हैं। यह नदियों के अस्तित्व पर मंडराते खतरे का एक स्पष्ट संकेत है। जिलेवार कुछ प्रमुख नदियाँ जिनकी स्थिति विशेष रूप से नाजुक है या जो विलुप्त होने के खतरे में हैं:
अरवल, औरंगाबाद, पटना: गंगा (मुख्य नदी), सोन, पुनपुन, लोई, हेलहा, बटाने, रामरेखा, अदरी, 
1.पटना : गंगा नदी  , सोन नद , पुनपुन नदी , लोई नदी 
2. अरवल : औरंगाबाद जिले के गोह , हसपुरा एवं दाउदनगर प्रखण्ड क्षेत्र ,  अरवल जिले के करपी ,                कलेर , अरवल , पटना जिले के पालीगंज प्रखण्ड क्षेत्र में सोन नद और पुनपुन नदी के                     मध्य क्षेत्र में अवस्थित  विलुप्त हिरन्यबाहु नदी अवशेष बह , जम्मभोरा नदी विलुप्त                       नदी  , पुनपुन नदी , सोन नद।
3. औरंगाबाद : पुनपुन , सोन , बटाने , हेलहा , अदरी , औरंगा, मदार, लोकाइन , रामरेखा नदी ।
4. जहानाबाद: फल्गु , दरधा, जमुनी, बल्दैया, नरही, जलवर, गंगहर।
5. गया: फल्गु, मोहाना, निरंजना, मोरहर, सोरहर, जमुनी, भूरहा, बुढ़िया नदी ।
6. नवादा: सकरी, खुरई, पंचाने, मुसरीबाय, तिलैया, ककोलत नदी ।
7. नालंदा: लोकाइन, मोहने, जिरामन, कुंभारी, गोइठवा, फल्गु नदी ।
8. भोजपुर: कुम्हारी, चेर, बनास।
9. रोहतास: दुर्गावती, बंजारी, कोयल, सूरा, ठोरां।
10.  कैमूर: कर्मनाशा, सुवर्ण, सूअरा।
11. बक्सर: गंगा ,  होरा।
12 . पश्चिमी चंपारण: नारायणी नदी , बागमती ,बूढ़ी गंडक ,लालबाकिया ,तिलावे , कंचना , भोतिया                              ,तिउर , धनौती पंचनद, मनोर, भापसा, कपन, सिकरहना, सदा बाही, मसान,                                हड़बोरा, पंडाई,   दोहरम।
13. पूर्वी चंपारण: धनौती, छोटी गंडक, नारायणी , गंडक ,, सिकरहना ,लालबाकिया  , तिलावे ,  
                          कंचन,भोतिया ,तिउर धनौती नदी ।
14 . बेगूसराय: गंगा , बलान, बूढ़ी गंडक, बैती, बाया, कोसी, करेहा, चन्ना, मान, कचना, मोनरिया।
15. मुंगेर: गंगा , मान, बेलाहरणी, महाना।
16. खगड़िया: बूढ़ी गंडक, बागमती, कोसी, कमला, करेह, कालिकोसी।
17. सीतामढ़ी: बागमती, लखनदेई, अघवारा, झिम, लाल बकेया, चकन्हा, जमु ने, सिपरिधार, कोला, छोटी बागमती, अधवारा।
18. वैशाली: गंगा नदी ,  बाया, नून।
19. शिवहर: बागमती, बूढ़ी गंडक।
20 . लखीसराय: किउल, हरुहर।
21 .सारण: गंगा , गंडक , घाघरा।
22. गोपालगंज: झारही, खानवा, दाहा, खनुया, बाण गंगा, सोना, छाड़ी, धमाई, स्याही, घोघारी।
23. दरभंगा: बागमती, कोसी, कचला, करेह।
24. भागलपुर: गंगा, कोसी, चंदन।
25. मधुबनी: कमला, बलान, कोसिधार, मोनी, भुतही बलान, धौस।
26 . मधेपुरा: कोसी, सुरसर, परमान।
27. बांका: चांदन, बेलाहरणी, बहुआ, ओढ़नी, चीर मंदार, सुखनिया।
28. जमुई: उलाई, किउल, बुराही, अजय, बसार, झांझी।
29. बगहा: गंडक।
30. कटिहार: गंगा, कोसी, महानंदा, रिग्गा, बारडी, कारी।
31. पूर्णिया: कोसी, महानंदा, सौरा, सुवारा, करायी, कोली, पनार, कनकई, दास, बकरा, परमान।
32 .किशनगंज: महानंदा, केकई, भेंक, मेची, रतुआ।
33.  सहरसा: कोसी, घेमरा, तिलाने।
34. समस्तीपुर: बूढ़ी गंडक, बाया, कोसी, करेह, झममरी, गंगा, बलान।
35. सुपौल: कोसी, तीतियुगा, छैमरा, काली, तिलावे भेंगा, मिचैया, सुरसर।
36 . सिवान: घाघरा, गंडकी, धमती, झारही, दाहा, सियाही, निकारी और सोना नदियाँ।
37 . मुजफ्फरपुर : गंडक , बूढ़ी गंडक , बागमती , लखनदेई , फरदो , कदाने , जमुआरी ,  नून नदी । 38 . अररिया :  कोसी , सुबारा ,बाली ,परनार ,कोली नदी ।
कनदियों को बचाने के लिए आवश्यक और त्वरित कदम : इन नदियों को पुनर्जीवित करने और उनके अस्तित्व को सुनिश्चित करने के लिए एक समग्र और बहुआयामी दृष्टिकोण की आवश्यकता है। इसमें सरकार, गैर-सरकारी संगठन, स्थानीय समुदाय और हर नागरिक की भागीदारी अनिवार्य है: ।शहरी और औद्योगिक कचरे तथा सीवेज को नदियों में डालने पर सख्त प्रतिबंध लगाना। आधुनिक अपशिष्ट उपचार संयंत्रों का निर्माण और मौजूदा संयंत्रों का सुदृढीकरण तथा उनका प्रभावी संचालन सुनिश्चित करना। कृषि में रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों के बजाय जैविक खेती को बढ़ावा देना।औद्योगिक इकाइयों पर प्रदूषण मानकों का कड़ाई से पालन कराना।जलकुंभी का वैज्ञानिक नियंत्रण: जलकुंभी को नियमित रूप से नदियों से हटाने के लिए यांत्रिक और जैविक तरीकों का उपयोग करना।जलकुंभी के प्रसार को रोकने के लिए उसके पारिस्थितिक नियंत्रण पर शोध करना। मानव हस्तक्षेप में कमी और नियोजन: नदियों के प्राकृतिक जलमार्गों को बाधित करने वाले बांधों और जलाशयों के अनियोजित निर्माण से बचना। किसी भी नए निर्माण से पहले व्यापक पर्यावरणीय प्रभाव मूल्यांकन (EIA) कराना। नदी के किनारों पर अतिक्रमण हटाने के लिए सख्त अभियान चलाना और उन्हें हरित पट्टी (ग्रीन बेल्ट) के रूप में विकसित करना।जल-गहन कृषि पद्धतियों को हतोत्साहित करना और किसानों को ड्रिप सिंचाई, स्प्रिंकलर जैसी जल-बचत तकनीकों को अपनाने के लिए प्रोत्साहित करना।अवैध रेत खनन पर पूर्ण प्रतिबंध लगाना और वैध खनन को भी नियंत्रित और निगरानी में रखना।भूजल संचयन और पुनर्भरण:वर्षा जल संचयन को बढ़ावा देना, विशेषकर शहरी और ग्रामीण दोनों क्षेत्रों में।प्राचीन तालाबों, झीलों और अन्य जल निकायों का जीर्णोद्धार करना ताकि वे भूजल पुनर्भरण में सहायता कर सकें।भूजल के अत्यधिक दोहन पर नियंत्रण के लिए नीतियां बनाना और उनका सख्ती से पालन कराना।जन जागरूकता और सक्रिय भागीदारी: स्थानीय समुदायों को नदियों के महत्व, उनके पारिस्थितिकीय संतुलन और उनके संरक्षण की आवश्यकता के बारे में शिक्षित करना।'जनभागीदारी' कार्यक्रमों के तहत स्थानीय लोगों को नदियों की सफाई, निगरानी और वृक्षारोपण अभियानों में सक्रिय रूप से शामिल करना।।नदी उत्सव और जागरूकता कार्यक्रम आयोजित करना। कानूनी और नीतिगत सुधार तथा प्रभावी क्रियान्वयन:नदियों के संरक्षण के लिए मजबूत कानूनी ढांचे और नीतियों को लागू करना।पर्यावरण कानूनों का उल्लंघन करने वालों के खिलाफ कठोर कार्रवाई सुनिश्चित करना।
नदी प्रबंधन और संरक्षण के लिए एक एकीकृत प्राधिकरण का गठन करना। बिहार की नदियाँ केवल भौगोलिक विशेषताएँ नहीं हैं, बल्कि ये राज्य की जीवनरेखा हैं, जो उसकी संस्कृति, अर्थव्यवस्था, कृषि और जैव विविधता को परिभाषित करती हैं। इन नदियों का विलुप्त होना बिहार के भविष्य के लिए एक गंभीर चेतावनी है। जीवनधारा नमामी गंगे और अन्य संगठनों द्वारा किया गया यह सर्वेक्षण एक महत्वपूर्ण पहला कदम है, लेकिन अब सबसे महत्वपूर्ण बात है कि इन निष्कर्षों के आधार पर तत्काल और ठोस कार्रवाई की जाए। सरकार, गैर-सरकारी संगठन, स्थानीय समुदाय और प्रत्येक नागरिक को मिलकर काम करना होगा ताकि इन अमूल्य नदियों को पुनर्जीवित किया जा सके और आने वाली पीढ़ियों के लिए उनके अस्तित्व को सुनिश्चित किया जा सके। यह केवल नदियों को बचाने की बात नहीं, बल्कि बिहार के भविष्य को बचाने की बात है।

रविवार, मई 11, 2025

सत्य , अहिंसा का प्रतीक भगवान बुद्ध

बुद्ध पूर्णिमा: सत्य, सहिष्णुता और अहिंसा के प्रणेता भगवान बुद्ध
 - सत्येन्द्र कुमार पाठक
 बुद्ध  सत्य, सहिष्णुता, अहिंसा और अष्टांग योग का प्रणेता बताया। उन्होंने बुद्ध पूर्णिमा के महत्व पर प्रकाश डालते हुए कहा कि यह महत्वपूर्ण बौद्ध त्योहार गौतम बुद्ध के जन्म, ज्ञान प्राप्ति और महापरिनिर्वाण के स्मरण में मनाया जाता है। वैशाख माह की पूर्णिमा को मनाए जाने वाले इस पवित्र दिन पर, बौद्ध धर्म के अनुयायी विभिन्न धार्मिक गतिविधियों में भाग लेते हैं। इनमें बुद्ध की पूजा-अर्चना, बौद्ध ग्रंथों का पाठ, दीप जलाना और फूलों से सजावट प्रमुख हैं। बोधिवृक्ष की पूजा का भी इस दिन विशेष महत्व है। इसके अतिरिक्त, अनुयायी गरीबों को दान देते हैं और पक्षियों को मुक्त करते हैं, जो करुणा और जीवदया के बौद्ध मूल्यों को दर्शाता है। सत्येन्द्र कुमार पाठक ने गौतम बुद्ध के जीवन से जुड़े महत्वपूर्ण स्थलों का भी उल्लेख किया, जिनका बौद्ध धर्म में गहरा महत्व है। ये स्थल बौद्ध अनुयायियों के लिए पवित्र तीर्थ माने जाते है ।उन्होंने भगवान बुद्ध के जीवन की महत्वपूर्ण घटनाओं का भी स्मरण कराया, जिनका संबंध वैशाख पूर्णिमा से है: भगवान बुद्ध का जन्म: 563 ईसा पूर्व, लुंबिनी, नेपाल , ज्ञान प्राप्ति: 531 ईसा पूर्व, बोधगया, बिहार, भारत , प्रथम उपदेश: 531 ईसा पूर्व, सारनाथ, उत्तर प्रदेश, भारत , महानिर्वाण: 483 ईसा पूर्व, कुशीनगर, उत्तर प्रदेश, भारत में हुआ है।  
बुद्ध पूर्णिमा, बौद्ध धर्म के अनुयायियों के लिए एक अत्यंत पवित्र और महत्वपूर्ण दिन है। यह पर्व न केवल गौतम बुद्ध के जन्म का स्मरण कराता है, बल्कि उनके ज्ञान प्राप्ति और महापरिनिर्वाण की त्रिमूर्ति को भी अपने में समाहित किए हुए है। वैशाख मास की पूर्णिमा तिथि को मनाया जाने वाला यह दिन विश्व भर के बौद्ध धर्मावलंबियों के लिए श्रद्धा, भक्ति और चिंतन का अवसर होता है। यह पर्व हमें भगवान बुद्ध की शिक्षाओं – सत्य, अहिंसा, करुणा और अष्टांगिक मार्ग – की याद दिलाता है, जो आज भी मानव जाति के लिए प्रासंगिक और मार्गदर्शक हैं। सिद्धार्थ गौतम का जन्म लगभग 563 ईसा पूर्व नेपाल के लुंबिनी नामक स्थान पर हुआ था। एक राजकुमार के रूप में उनका जीवन विलासिता और सुख-सुविधाओं से परिपूर्ण था, परन्तु सांसारिक दुखों और जरा-मरण के सत्य ने उनके मन को व्याकुल कर दिया। मानव जीवन के दुखों के कारणों और उनके निवारण की खोज में उन्होंने युवावस्था में ही गृह त्याग कर दिया।
अनेक वर्षों तक कठोर तपस्या और ध्यान में लीन रहने के पश्चात, बिहार के बोधगया में नीलांजन नदी तट  एक पीपल वृक्ष के नीचे उन्हें परम ज्ञान की प्राप्ति हुई और वे 'बुद्ध' कहलाए – जिसका अर्थ है 'जागृत' या 'ज्ञानवान'। इस ज्ञान के आलोक में उन्होंने जीवन के दुखों के मूल कारण और उनसे मुक्ति के मार्ग को समझा। ज्ञान प्राप्ति के पश्चात, बुद्ध ने अपना पहला उपदेश उत्तर प्रदेश के सारनाथ में दिया, जिसे 'धर्म चक्र परिवर्तन' के नाम से जाना जाता है। उन्होंने अपने शिष्यों को अष्टांगिक मार्ग का उपदेश दिया, जो दुखों से मुक्ति और निर्वाण की ओर ले जाता है। यह मार्ग है: सम्यक दृष्टि, सम्यक संकल्प, सम्यक वाक्, सम्यक कर्मांत, सम्यक आजीव, सम्यक व्यायाम, सम्यक स्मृति और सम्यक समाधि। लगभग 80 वर्ष की आयु में, उत्तर प्रदेश के कुशीनगर में बुद्ध ने अपना भौतिक शरीर त्याग दिया, जिसे बौद्ध धर्म में 'महापरिनिर्वाण' कहा जाता है। संयोग की बात है कि बुद्ध का जन्म, ज्ञान प्राप्ति और महापरिनिर्वाण – तीनों ही वैशाख पूर्णिमा के दिन हुए, जिससे इस तिथि का महत्व और भी बढ़ जाता है। बुद्ध पूर्णिमा बौद्ध अनुयायियों के लिए एक गहरा आध्यात्मिक महत्व रखता है। इस दिन, वे विशेष प्रार्थना सभाओं, धार्मिक प्रवचनों और ध्यान सत्रों में भाग लेते हैं। बौद्ध विहारों और मंदिरों को विशेष रूप से सजाया जाता है, और बुद्ध की मूर्तियों पर फूल चढ़ाए जाते हैं। कई स्थानों पर शोभा यात्राएं निकाली जाती हैं, जिनमें बुद्ध के जीवन और शिक्षाओं को दर्शाया जाता है। इस दिन दान-पुण्य का भी विशेष महत्व है। बौद्ध अनुयायी गरीबों और जरूरतमंदों को भोजन, वस्त्र और अन्य आवश्यक वस्तुएं दान करते हैं। जीव-जंतुओं के प्रति करुणा भाव प्रदर्शित करते हुए, कई लोग पिंजरों में बंद पक्षियों को मुक्त करते हैं। बोधगया में स्थित महाबोधि मंदिर, लुंबिनी, सारनाथ और कुशीनगर जैसे बुद्ध के जीवन से जुड़े पवित्र स्थलों पर इस दिन विशेष आयोजन होते हैं, जिनमें देश-विदेश से लाखों श्रद्धालु भाग लेते हैं। इन स्थलों का दर्शन करना बौद्ध धर्मावलंबियों के लिए एक महत्वपूर्ण तीर्थयात्रा मानी जाती है।
भगवान बुद्ध की शिक्षाएं और उनके द्वारा स्थापित बौद्ध धर्म विश्व के प्रमुख धर्मों में से एक है। एशिया के कई देशों में बौद्ध धर्म बहुसंख्यक आबादी का धर्म है, और पश्चिमी देशों में भी इसके अनुयायियों की संख्या लगातार बढ़ रही है। विश्व भर में बुद्ध की अनेक भव्य और महत्वपूर्ण मूर्तियां स्थापित हैं, जो उनकी शांति, ज्ञान और करुणा के संदेश को प्रसारित करती हैं। भारत में हैदराबाद की विशाल बुद्ध प्रतिमा, जो एक ही पत्थर से तराशी गई दुनिया की सबसे ऊंची प्रतिमाओं में से एक है, और नई दिल्ली के राष्ट्रपति भवन में वियतनाम सरकार द्वारा उपहार स्वरूप दी गई बुद्ध प्रतिमा उल्लेखनीय हैं। चीन में लेशान के विशाल बुद्ध की पत्थर की प्रतिमा भी विश्व प्रसिद्ध है और यूनेस्को की विश्व धरोहर स्थल है। थाईलैंड में महान बुद्ध और स्प्रिंग टेम्पल बुद्ध भी अपनी भव्यता और आध्यात्मिक महत्व के लिए जाने जाते हैं। बिहार राज्य बौद्ध धर्म के इतिहास में एक महत्वपूर्ण स्थान रखता है। बोधगया, जहां बुद्ध को ज्ञान प्राप्त हुआ, और दुनिया भर के बौद्धों के लिए सबसे पवित्र स्थलों में से एक है। यहां स्थित महाबोधि मंदिर एक विश्व धरोहर स्थल है और लाखों श्रद्धालुओं को आकर्षित करता है। नालंदा, प्राचीन काल में एक महान बौद्ध विश्वविद्यालय का केंद्र था, जहां दूर-दूर से विद्यार्थी ज्ञान प्राप्त करने आते थे। वैशाली, जहां बुद्ध ने कई बार प्रवास किया और महिलाओं को संघ में प्रवेश की अनुमति दी, भी एक महत्वपूर्ण बौद्ध तीर्थ स्थल है। राजगीर, जहां बुद्ध ने कई महत्वपूर्ण उपदेश दिए, और केसरिया, जहां एक विशाल बौद्ध स्तूप स्थित है, भी बिहार के महत्वपूर्ण बौद्ध स्थलों में से हैं। अमरपुरा में स्थित बौद्ध मंदिर भी श्रद्धा का केंद्र है। ये सभी स्थल न केवल बौद्ध धर्म के ऐतिहासिक महत्व को दर्शाते हैं, बल्कि आज भी शांति और आध्यात्मिकता की खोज करने वालों के लिए प्रेरणा के स्रोत हैं। बुद्ध पूर्णिमा केवल एक धार्मिक त्योहार ही नहीं है, बल्कि यह शांति, करुणा और सहिष्णुता के सार्वभौमिक मूल्यों का प्रतीक भी है। भगवान बुद्ध की शिक्षाएं आज के तनावपूर्ण और अशांत विश्व में भी प्रासंगिक हैं और हमें एक अधिक शांतिपूर्ण और सामंजस्यपूर्ण जीवन जीने का मार्ग दिखाती हैं। यह पर्व हमें आत्म-चिंतन करने, दूसरों के प्रति करुणा का भाव रखने और सत्य के मार्ग पर चलने की प्रेरणा देता है। बुद्ध पूर्णिमा का उत्सव विश्व भर में विभिन्न रूपों में मनाया जाता है, लेकिन सभी का मूल उद्देश्य भगवान बुद्ध के संदेश को याद करना और उसे अपने जीवन में उतारना है। यह पर्व हमें यह संदेश देता है कि शांति और सुख बाहरी परिस्थितियों पर निर्भर नहीं करते, बल्कि हमारे अपने मन की शांति और दूसरों के प्रति करुणा के भाव से प्राप्त होते है ।

भक्ति और शक्ति का प्रतीक है भगवान नरसिंह

भगवान नरसिंह: शक्ति, भक्ति और धर्म के अद्वितीय प्रतीक
सत्येन्द्र कुमार पाठक 
सनातन धर्म संस्कृति एवं पुराणों तथा संहिताओं में भगवान विष्णु के दस मुख्य अवतारों का वर्णन मिलता है, जिनमें से प्रत्येक अवतार का अपना विशिष्ट उद्देश्य और महत्व है। इन अवतारों में, भगवान नरसिंह का स्वरूप अत्यंत अनूठा और शक्तिशाली है। आधा मनुष्य और आधा शेर का यह रूप बुराई के विनाश और धर्म की स्थापना का प्रतीक है। नरसिम्हा जयंती, जो वैशाख शुक्ल चतुर्दशी को मनाई जाती है, इसी अद्भुत अवतार की स्मृति में आयोजित एक महत्वपूर्ण हिंदू त्योहार है। यह दिन न केवल भगवान नरसिंह की शक्ति और पराक्रम को दर्शाता है, बल्कि उनके भक्त प्रह्लाद की अटूट भक्ति और भगवान द्वारा अपने भक्तों की रक्षा करने की प्रतिज्ञा को भी उजागर किया है। नरसिंह अवतार दक्ष प्रजापति की पुत्री एवं कश्यप की पत्नी दिति के पुत्र हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु था । हिरण्याक्ष द्वारा दैत्य संस्कृति की स्थापना की गयी थी । भगवान विष्णु द्वारा हिरण्याक्ष को वराह अवतार लेकर हिरण्याक्ष को बध किया था ।   दैत्य  राजा हिरण्यकशिपु और उसके विष्णु भक्त पुत्र प्रह्लाद के इर्द-गिर्द घूमती है। पौराणिक कथाओं के अनुसार सतयुग में  दिति पुत्र दैत्य संस्कृति का दैत्य राज  हिरण्यकशिपु विष्णु के द्वारपाल जया का ही एक जन्म था, जिसे चार कुमारों के शाप के कारण विष्णु के शत्रु के रूप में तीन जन्म लेने पड़े थे। अपने भाई दिति के पुत्र  दैत्य संस्कृति के दैत्यराज  हिरण्याक्ष की भगवान विष्णु के वराह अवतार के हाथों मृत्यु से क्रोधित होकर, हिरण्यकशिपु ने विष्णु से बदला लेने की ठानी। उसने ब्रह्मा देव की कठोर तपस्या करके एक ऐसा वरदान प्राप्त किया, जो उसे लगभग अमर बना देता। उसने वरदान मांगा कि उसकी मृत्यु न तो घर के अंदर हो, न बाहर; न दिन में हो, न रात में; न किसी अस्त्र से हो, न शस्त्र से; न पृथ्वी पर हो, न आकाश में; न मनुष्य से हो, न पशु से; न देवता से हो, न असुर से। ब्रह्मा ने उसे यह वरदान दे दिया। वरदान प्राप्त करने के बाद, हिरण्यकशिपु अहंकारी और अत्याचारी बन गया। उसने तीनों लोकों पर अपना आधिपत्य स्थापित कर लिया और देवताओं को भी पराजित कर दिया। वह स्वयं को ईश्वर मानने लगा और अपनी प्रजा को भी अपनी पूजा करने के लिए बाध्य करने लगा। ऐसे दुष्ट राजा के घर में एक असाधारण बालक का जन्म हुआ, जिसका नाम प्रह्लाद था। नारद मुनि के प्रभाव में बचपन से ही प्रह्लाद भगवान विष्णु का अनन्य भक्त था। हिरण्यकशिपु ने प्रह्लाद की विष्णु भक्ति को समाप्त करने के अनेक प्रयास किए। उसने अपने गुरुओं को उसे नास्तिक बनाने का आदेश दिया, लेकिन प्रह्लाद की भक्ति और निष्ठा अडिग रही। क्रोधित राजा ने अपने पुत्र को मारने के कई भयानक प्रयास किए, जैसे उसे जहरीले सांपों के बीच छोड़ देना, उसे ऊँचे पहाड़ से गिरा देना, उसे हाथियों के पैरों तले कुचलवाना और उसे आग में जलाना। लेकिन हर बार, भगवान विष्णु की दिव्य शक्ति ने प्रह्लाद की रक्षा की। अंततः, हिरण्यकशिपु ने प्रह्लाद से पूछा कि उसका भगवान विष्णु कहाँ रहता है। प्रह्लाद ने उत्तर दिया कि विष्णु सर्वव्यापी हैं और हर जगह विद्यमान हैं। अहंकार में अंधे हिरण्यकशिपु ने एक स्तंभ की ओर इशारा करते हुए पूछा कि क्या विष्णु इस स्तंभ में भी हैं। प्रह्लाद ने दृढ़ता से 'हाँ' कहा। क्रोधित हिरण्यकशिपु ने अपनी गदा से उस स्तंभ को तोड़ दिया। उसी क्षण, स्तंभ से एक भयानक गर्जना हुई और एक अद्भुत प्राणी प्रकट हुआ - भगवान नरसिंह, जिनका आधा शरीर मनुष्य का और आधा शेर का था।
भगवान नरसिंह का स्वरूप अद्भुत और शक्तिशाली था। उनका सिर और धड़ सिंह का था, जबकि शेष शरीर मनुष्य का था। उनके नुकीले नाखून और प्रचंड गर्जना से तीनों लोक कांप उठे। भगवान नरसिंह ने हिरण्यकशिपु को पकड़ लिया और उसे महल की दहलीज पर ले गए, जो न तो घर के अंदर था और न ही बाहर। संध्या का समय था, जो न दिन था और न रात। उन्होंने हिरण्यकशिपु को अपनी गोद में रखा, जो न पृथ्वी थी और न आकाश। फिर, उन्होंने अपने तीखे नाखूनों से हिरण्यकशिपु का पेट चीर डाला, इस प्रकार ब्रह्मा के वरदान का उल्लंघन किए बिना उसका वध कर दिया। इस प्रकार, भगवान नरसिंह ने अपने भक्त प्रह्लाद की रक्षा की और धर्म की स्थापना की। उनका यह अवतार बुराई पर अच्छाई की विजय और भगवान की सर्वशक्तिमत्ता का एक ज्वलंत उदाहरण है।नरसिम्हा जयंती वैष्णव समुदाय के लिए एक अत्यंत महत्वपूर्ण त्योहार है। यह दिन भगवान नरसिंह की शक्ति, करुणा और अपने भक्तों के प्रति उनके प्रेम का स्मरण कराता है। इस दिन, भक्त उपवास रखते हैं, विशेष पूजा-अर्चना करते हैं और भगवान नरसिंह के मंत्रों का जाप करते हैं। मंदिरों में विशेष अभिषेक, हवन और कीर्तन आयोजित किए जाते हैं।
दक्षिण भारत में इस त्योहार का विशेष महत्व है। कर्नाटक, आंध्र प्रदेश और तमिलनाडु में नरसिंह के अनेक प्राचीन और प्रसिद्ध मंदिर हैं, जहाँ इस दिन भव्य उत्सव आयोजित किए जाते हैं। भक्त भगवान नरसिंह की शोभायात्रा निकालते हैं और उनकी स्तुति में भजन गाते हैं। घरों में भी विशेष पूजा की जाती है और भगवान नरसिंह को विभिन्न प्रकार के भोग अर्पित किए जाते हैं। उतराखण्ड राज्य का जोशीमठ में भगवान नरसिंह का मंदिर ,  तमिलनाडु के मेलात्तूर गांव में नरसिम्हा जयंती पर आयोजित होने वाला "भागवत मेला" एक अनूठा सांस्कृतिक कार्यक्रम है। यह एक पारंपरिक लोक नृत्य है जो भागवत पुराण की कहानियों को नाटकीय रूप में प्रस्तुत करता है। इस मेले का मुख्य आकर्षण प्रह्लाद और नरसिंह की कथा का प्रदर्शन होता है, जो दर्शकों को भक्ति और आश्चर्य के भाव से भर देता है । नरसिंह पूजा की परंपरा सदियों पुरानी है। माना जाता है कि भगवान नरसिंह की पूजा करने से भय और नकारात्मक ऊर्जा दूर होती है। वे शक्ति, सुरक्षा और साहस के प्रतीक हैं। उनकी आराधना करने से शत्रुओं पर विजय प्राप्त होती है और जीवन में आने वाली बाधाएँ दूर होती हैं। विशेष रूप से संकट के समय में भगवान नरसिंह का स्मरण और उनकी स्तुति भक्तों को शांति और शक्ति प्रदान करती है। नरसिंह पूजा में विभिन्न प्रकार के अनुष्ठान किए जाते हैं। भक्त भगवान को फल, फूल, धूप, दीप और नैवेद्य अर्पित करते हैं। नरसिंह स्तोत्र और नरसिंह कवच का पाठ करना इस दिन अत्यंत फलदायी माना जाता है। कुछ भक्त इस दिन अन्न और जल का त्याग करके उपवास रखते हैं, जबकि कुछ केवल फलाहार करते हैं। शाम को भगवान नरसिंह की पूजा के बाद उपवास तोड़ा जाता है। भगवान नरसिंह का अवतार धर्म की रक्षा और अपने भक्तों की सहायता के लिए भगवान विष्णु की असीम करुणा का प्रतीक है। नरसिम्हा जयंती हमें यह संदेश देती है कि सत्य और धर्म की हमेशा विजय होती है, चाहे परिस्थितियाँ कितनी भी विपरीत क्यों न हों। यह दिन हमें भक्ति, साहस और अन्याय के खिलाफ लड़ने की प्रेरणा देता है। भगवान नरसिंह की पूजा न केवल हमें शक्ति और सुरक्षा प्रदान करती है, बल्कि हमें धार्मिकता और सत्य के मार्ग पर चलने के लिए भी प्रेरित करती है। यह त्योहार हमें याद दिलाता है कि भगवान हमेशा अपने सच्चे भक्तों के साथ खड़े रहते हैं और उनकी रक्षा करते है। 
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स्नेह त्याग और शक्ति की प्रतीक है माँ

मां: स्नेह, त्याग और शक्ति का प्रतीक 
सत्येन्द्र कुमार पाठक 
मां, यह एक ऐसा शब्द है जो न केवल एक रिश्ते को परिभाषित करता है, बल्कि स्नेह, त्याग, सुरक्षा और शक्ति की एक गहरी भावना को भी दर्शाता है। सनातन संस्कृति से लेकर आधुनिक वैश्विक समाज तक, मां का स्थान अद्वितीय और सर्वोपरि रहा है। जहां भारतीय संस्कृति में मां को देवीतुल्य माना गया है, वहीं विश्व के अन्य हिस्सों में भी मातृत्व को विभिन्न रूपों में सम्मानित किया जाता रहा है। आधुनिक विश्व में "मातृ दिवस" का प्रचलन भले ही अपेक्षाकृत नया हो, लेकिन मां के प्रति सम्मान और कृतज्ञता की भावना सदियों से विभिन्न संस्कृतियों में विद्यमान रही है।आधुनिक मातृ दिवस की नींव 20वीं शताब्दी के प्रारंभ में संयुक्त राज्य अमेरिका में पड़ी। ग्राफटन वेस्ट वर्जिनिया की एना जार्विस ने अपनी मां के निधन के बाद उनकी स्मृति को चिरस्थायी बनाने और सभी माताओं के सम्मान में एक दिन समर्पित करने का संकल्प लिया। उनका मानना था कि माताओं का उनके परिवारों और समाज में जो योगदान होता है, उसे अक्सर अनदेखा कर दिया जाता है। जार्विस के अथक प्रयासों के परिणामस्वरूप, 1914 में अमेरिकी राष्ट्रपति वुड्रो विल्सन ने मई के दूसरे रविवार को राष्ट्रीय मातृ दिवस के रूप में घोषित किया। प्रारंभ में, यह दिन व्यक्तिगत स्तर पर अपनी मां को सम्मानित करने और उनके प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने का अवसर था। सफेद कार्नेशन (गुलनार) फूल मां के प्रति प्रेम और सम्मान का प्रतीक बन गया।
हालांकि, मातृ दिवस की अवधारणा की जड़ें इससे कहीं अधिक गहरी और विविध हैं। प्राचीन काल से ही विभिन्न सभ्यताएं मातृशक्ति की महत्ता को स्वीकार करती आई हैं। ग्रीक पौराणिक कथाओं में स्य्बेले को देवताओं की मां के रूप में पूजा जाता था और उनके सम्मान में उत्सव मनाए जाते थे। प्राचीन रोम में, वसंत ऋतु में मनाया जाने वाला इदेस ऑफ़ मार्च (15-18 मार्च) मातृ देवियों को समर्पित था। रोमवासी जूनो देवी, जो विवाह और मातृत्व की देवी थीं, को समर्पित मेट्रोनालिया नामक त्योहार में माताओं को उपहार देते थे।
यूरोप और ब्रिटेन में, मदरिंग संडे की परंपरा सदियों पुरानी है। लेंट के चौथे रविवार को मनाया जाने वाला यह दिन मूल रूप से "मदर चर्च" यानी मुख्य चर्च में जाने और वहां विशेष प्रार्थनाएं करने का दिन था। धीरे-धीरे, यह पारिवारिक मिलन और माताओं को सम्मानित करने का अवसर बन गया। युवा प्रशिक्षु और घरेलू सेवक इस दिन अपने घरों और माताओं से मिलने के लिए छुट्टी पाते थे और उन्हें छोटे उपहार या "मदरिंग केक" भेंट करते थे।
जैसे-जैसे मातृ दिवस की अवधारणा विश्व के अन्य हिस्सों में फैली, इसने स्थानीय संस्कृतियों और परंपराओं के अनुरूप विभिन्न रूप धारण कर लिए। कैथोलिक देशों में, यह दिन अक्सर वर्जिन मेरी के सम्मान के साथ जुड़ गया, जिन्हें यीशु मसीह की मां होने के कारण मातृत्व का प्रतीक माना जाता है। एशिया में भी मातृ दिवस विभिन्न रूपों में मनाया जाता है। चीन में, यद्यपि आधिकारिक तौर पर यह पश्चिमी प्रभाव के बाद आया, लेकिन बुजुर्गों के प्रति सम्मान और माता-पिता के प्रति निष्ठा की पारंपरिक चीनी मूल्यों के साथ यह सहजता से जुड़ गया। चीन में गुलनार का फूल मातृ दिवस का एक लोकप्रिय प्रतीक है। कुछ लोग प्राचीन चीनी परंपराओं को पुनर्जीवित करने के प्रयास में सफेद लिली देने की वकालत करते हैं, जो उस समय माताओं द्वारा लगाई जाती थी जब उनके बच्चे घर छोड़कर जाते थे।
जापान में, मातृ दिवस शोवा काल में महारानी कोजुन के जन्मदिन के रूप में मनाया जाता था। वर्तमान में, यह एक व्यावसायिक रूप से महत्वपूर्ण दिन बन गया है, जहां लोग अपनी माताओं को गुलनार और गुलाब जैसे उपहार देते हैं। मेक्सिको में मातृ दिवस का एक जटिल इतिहास रहा है। 1922 में अमेरिका से प्रेरित होकर इसे अपनाया गया, लेकिन रूढ़िवादी समूहों ने इसे महिलाओं को पारंपरिक पारिवारिक भूमिकाओं में बनाए रखने के एक उपकरण के रूप में इस्तेमाल करने की कोशिश की। इसके विपरीत, 1930 के दशक में राष्ट्रपति लाज़रो कार्देनस की सरकार ने इसे "देशभक्ति के त्योहार" के रूप में बढ़ावा दिया, जिसका उद्देश्य राष्ट्रीय एकता और सामाजिक सुधार को बढ़ावा देना था। नेपाल में, "माता तीर्थ औंशी" एक अनूठा और महत्वपूर्ण मातृ दिवस है। यह बैशाख महीने के कृष्ण पक्ष की अमावस्या को मनाया जाता है। यह न केवल जीवित माताओं का सम्मान करने का दिन है, बल्कि दिवंगत माताओं की स्मृति को भी समर्पित है। इस दिन, लोग माता तीर्थ कुंड की तीर्थयात्रा करते हैं, जो काठमांडू घाटी में स्थित है और जिसके साथ भगवान कृष्ण और उनकी मां देवकी से जुड़ी एक मार्मिक किंवदंती जुड़ी हुई है।
थाईलैंड में, मातृ दिवस रानी के जन्मदिन पर मनाया जाता है, जो मां के प्रति राष्ट्रीय सम्मान का प्रतीक है। रोमानिया में मातृ दिवस और महिला दिवस दो अलग-अलग छुट्टियां हैं, जो मातृत्व और नारीत्व के विभिन्न पहलुओं को सम्मानित करती हैं। वियतनाम में, मातृ दिवस को ले वू-लैन कहा जाता है और यह चंद्र कैलेंडर के सातवें महीने के पंद्रहवें दिन मनाया जाता है, जो जीवित माताओं के प्रति कृतज्ञता और दिवंगत माताओं की आत्मा की शांति के लिए प्रार्थना का दिन है।
भारत में, यद्यपि मातृ दिवस पश्चिमी प्रभाव के बाद अधिक लोकप्रिय हुआ है, लेकिन मां का स्थान हमेशा से ही अत्यंत ऊंचा रहा है। भारतीय संस्कृति में मां को प्रथम गुरु और परिवार की धुरी माना जाता है। मां का त्याग, प्रेम और समर्पण अतुलनीय है और इसे शब्दों में व्यक्त करना कठिन है। भारतीय परिवारों में मां का आशीर्वाद और मार्गदर्शन जीवन के हर मोड़ पर महत्वपूर्ण माना जाता है। मातृ दिवस एक अवसर है जब लोग अपनी माताओं के प्रति अपने गहरे प्रेम और सम्मान को विशेष रूप से व्यक्त करते हैं, उन्हें उपहार देते हैं, उनके साथ समय बिताते हैं और उनके द्वारा किए गए अनगिनत बलिदानों के लिए कृतज्ञता व्यक्त करते हैं।
 "मां" की अवधारणा और मातृत्व का सम्मान विश्व की सभी संस्कृतियों में किसी न किसी रूप में मौजूद है। आधुनिक मातृ दिवस ने इस सार्वभौमिक भावना को एक वैश्विक मंच प्रदान किया है, जिससे लोग एक साथ आकर उन महिलाओं का सम्मान कर सकें जिन्होंने उन्हें जन्म दिया, उनका पालन-पोषण किया और उन्हें प्यार दिया। यह दिन हमें मां के अटूट प्रेम, निस्वार्थ सेवा और असीम शक्ति को याद दिलाता है और हमें उनके प्रति अपनी कृतज्ञता व्यक्त करने का अवसर देता है। एक मां का आंचल हमेशा अपनी संतान के लिए छोटा पड़ता है और उसका प्रेम कभी कम नहीं होता। मातृ दिवस सिर्फ एक दिन नहीं, बल्कि मां के प्रति आजीवन सम्मान और प्रेम की अभिव्यक्ति है। 
 मां ही मेरी खुशी है
सत्येन्द्र कुमार पाठक 
माँ तू मेरी, जीवन धारा,
तेरा प्यार, सागर गहरा।
हरदम तू ही, साथ निभाती,
ममता तेरी, जग से न्यारी।
जन्म दिया तूने मुझको,
पाला पोसा निज हाथों से।
हर पीड़ा तूने सह ली,
मुझको सुख दिया बातों से।
तेरी ममता की छाया में,
बचपन मेरा बीता सारा।
जब मैं रोया, तूने हँसाया,
गिरने पर तूने उठाया।
राह दिखाई जीवन की तूने,
हरदम मेरा साथ निभाया।
तेरी करुणा की धारा से,
जीवन मेरा हुआ उजियारा।
तेरी बातों में है अमृत,
तेरी आँखों में है प्यार।
तू ही शक्ति, तू ही साहस,
तू ही मेरा संसार।
तेरी आशीषों की छाया में,
हरदम मेरा हो गुजारा।
जग की दौलत से बढ़कर,
तेरा स्नेह अनमोल है माँ।
कैसे चुकाऊँ तेरा उपकार,
तू ही मेरा सब कुछ है माँ।
तेरी चरणों की धूलि बनकर,
जीवन मेरा हो संवारा।

मंगलवार, अप्रैल 29, 2025

अक्षय तृतीया और भगवान परशुराम

अक्षय तृतीया एवं भगवान परशुराम:
सत्येन्द्र कुमार पाठक 
अक्षय तृतीया का पावन दिन,
वैशाख शुक्ल तृतीया अनुपम।
अक्षय फलदायी कर्मों का,
यह बेला है मंगलमय, उत्तम।
विवाह, गृह-प्रवेश शुभ बेला,
खरीददारी, दान का होता मेला।
पितरों का तर्पण, भगवत पूजन,
पाप हों नष्ट, मिले पुण्य अनमोल।
गंगा स्नान का महत्व महान,
जप, तप, हवन, दान अक्षय जान।
सोमवार, रोहिणी नक्षत्र का योग,
बढ़ाए फल, हरे सब रोग।
मध्याह्न पूर्व से प्रदोष व्यापिनी,
तृतीया श्रेष्ठ, कल्याणदायिनी।
क्षमा याचना का दिन यह पावन,
दुर्गुण तज, भरो सदगुण मनभावन।
ब्रह्म मुहूर्त में उठो प्रातःकाल,
विष्णु पूजन करो, मन हो विशाल।
जौ, गेहूँ का सत्तू, ककड़ी, दाल चढ़ाओ**,
फल, फूल, वस्त्र, दक्षिणा ब्राह्मण पाओ।
सत्तू खाओ, पहनो नव वसन,
गौ, भूमि, स्वर्ण दान करो प्रसन्न।
जल भरे घड़े, पंखे, छाते दान**,
ग्रीष्म ऋतु में सुखद हो कल्याण।
लक्ष्मी नारायण की पूजा करो,
श्वेत या पीले पुष्प अर्पित धरो।
युगादि तिथि यह पावन कहलाती**,
सतयुग, त्रेता का आरंभ बताती।
नर-नारायण, हयग्रीव अवतरण,
अक्षय कुमार का शुभ दर्शन।
बद्रीनाथ कपाट खुलते आज**,
वृन्दावन में चरण दर्शन का साज।
धर्मदास वैश्य की कथा पुरानी,
अक्षय व्रत से बनी सुखद कहानी।
राजा चंद्रगुप्त का जन्म हुआ**,
वैशाख शुक्ल तृतीया शुभ हुआ।
रेणुका गर्भ से परशुराम अवतार,
कोंकण, चिप्लून में जयन्ती अपार।
दक्षिण भारत में महत्व विशेष**,
कथा श्रवण से मिटे क्लेश।
परशुराम पूजन, अर्घ्य का मान,
सौभाग्यवती, कन्या करें गौरी ध्यान।
मिठाई, फल, चने बाँटतीं प्यार से**,
कलश दान करें भक्ति भाव से।
जन्म से ब्राह्मण, कर्म से क्षत्रिय वीर,
भृगुवंशी परशुराम, शक्ति गंभीर।
माता पूजन का अद्भुत योग**,
प्रसाद बदला, विधि का संयोग।
ऋषभदेव तपस्या पूर्ण की,
इक्षु रस से पारायण किया सभी।
आदिनाथ वैरागी बने महान**,
अहिंसा, सत्य का दिया शुभ ज्ञान।
श्रेयांस कुमार ने पहचाना प्रभु,
गन्ने का रस दिया, मिटा क्षुधा रभु।
इक्षु तृतीया, अक्षय तृतीया नाम**,
जैन धर्म में इसका ऊंचा मुकाम।
वर्षीतप आराधना का काल,
कार्तिक कृष्ण अष्टमी से चाल।
वैशाख शुक्ल तृतीया पारण**,
धन्य हों भक्त, मिटे सब भारण।
बुन्देलखण्ड में उत्सव महान,
कुँवारी कन्याएँ बाँटें शगुन गान।
राजस्थान में शगुन वर्षा का**,
गीत गातीं लड़कियाँ, पतंग उड़ाता हर बच्चा।
सात अन्नों से पूजा यहाँ,
मालवा में घड़े पर खरबूजा, आम जहाँ।
कृषि कार्य का होता शुभारम्भ**,
अक्षय तृतीया है सुखद आलम्भ।
त्रेता युग का पावन प्रारंभ,
परशुराम, नर-नारायण का आरंभ।
हयग्रीव का अवतरण भी आज**,
अक्षय तृतीया का अद्भुत साज।
चंद्रगुप्त का जन्म भी इसी दिन,
अहिंसा, प्रेम का मंत्र दिया जिन।
अक्षय तृतीया का यह पावन पर्व**,
समृद्धि, सुख, शांति लाए सर्व।


गुरुवार, अप्रैल 24, 2025

शिशुओं का संजीवनी है लोरी गीत

 



 









लोरी: अबोध शिशु के लिए संजीवनी
सत्येन्द्र कुमार पाठक
लोरी एक ऐसी मधुर ध्वनि है जो पीढ़ी दर पीढ़ी माता-पिता से बच्चों तक चली आ रही है। यह वह जादुई स्पर्श है जो रोते हुए शिशु को पल भर में शांत कर गहरी नींद में सुला देता है। जब कोई बच्चा बेचैन होता है या मां के हृदय में वात्सल्य उमड़ता है, तो लोरी सहज ही उसके होंठों से फूट पड़ती है। मधुर शब्दों और कर्णप्रिय संगीत से सजी लोरी शिशु के कानों में पड़ते ही उसके अशांत मन को शांति से भर देती है। अक्सर जब छोटा बच्चा सोने में आनाकानी करता है, तो मां व्याकुल हो उठती है और उसे सुलाने के लिए सपनों की दुनिया से निंदिया रानी को पुकारती है। वह लाड़-प्यार से भरे शब्दों में निंदिया को रिझाने का प्रयास करती है। बच्चे को नींद आए, इसके लिए मां न जाने कितने जतन करती है। वास्तव में, बच्चों के लिए लोरी केवल सुलाने का एक तरीका नहीं है, बल्कि यह उन्हें मानसिक और शारीरिक रूप से भी मजबूत बनाती है। हर मां अपनी भावनाओं और शब्दों से लोरी को एक नया रूप देती है। यह केवल मनुष्य ही नहीं, बल्कि पक्षी और जानवर भी अपने बच्चों को लोरी सुनाते हैं। उनकी चहचहाहट, फुसफुसाहट और अन्य ध्वनियों में भी लोरी का भाव छिपा होता है, जो उनके बच्चों को अपने विशिष्ट अंदाज में दुलारता है। भारत और लोरी का संबंध तो सदियों पुराना है। मार्कण्डेय पुराण में मदालसा का प्रसिद्ध प्रसंग इसका प्रमाण है, जिसमें वह अपने बच्चों को सुलाने के लिए सुंदर लोरियां गाती हैं। मदालसा को ही लोरी की जननी माना जाता है। कहा जाता है कि उन्होंने ही सर्वप्रथम अपने पुत्र अलर्क को सुलाने के लिए लोरी गाई थी, जिसका वर्णन मार्कण्डेय पुराण के 18 से 24वें अध्याय में मिलता है। रामायण काल में भी माता कौशल्या बालक श्रीराम को लोरी गाकर सुलाती थीं, जिसका उल्लेख तुलसीदास ने गीतावली में किया है सृष्टि के आरंभ से ही प्रत्येक मां अपने बच्चे को लोरी गाकर और थपकी देकर सुलाती आई है। सुलाते समय वह न जाने कितनी बार अपने बच्चे को गोद में लेकर प्यार करती है। उस समय उसके मुख से अनायास ही ऐसी मधुर ध्वनियां निकलती हैं, जिनका कोई विशेष अर्थ नहीं होता, लेकिन वे अपनी मधुरता से बच्चे को सुलाने में सक्षम होती हैं। इन ध्वनियों को सुनकर रोता हुआ बच्चा भी शांत होकर सो जाता है। गांव की श्रमिक महिलाएं भी, जो खेतों में काम करती हैं, अपने बच्चों को पेड़ की डालों पर कपड़े में लटकाकर दूर तक डोरी पकड़कर हिलाती रहती हैं और लोरी गाती हैं। काम करते-करते ही वे अपने बच्चों को सुलाने का प्रयास करती हैं। लोरी सुनकर बच्चे को यह अहसास होता है कि उसकी मां उसके पास ही है, और वह निश्चिंत होकर सो जाता है, जबकि मां अपना काम करती रहती है। कुछ व्यस्त महिलाएं बच्चे को पालने में सुलाकर उसमें घंटी और घुंघरू लगा देती हैं। इन मधुर ध्वनियों से भी बच्चे को लोरी जैसा अनुभव मिलता है और वह सो जाता है।। चाहे देश हो या विदेश, अनपढ़ हो या पढ़ी-लिखी, लगभग सभी माताएं अपने बच्चों को सुलाने के लिए लोरी का प्रयोग करती हैं और बड़े प्यार व सम्मान से लोरी गाती हैं। लोरी के साथ-साथ मां के मुख से निकलने वाले सहज शब्द, हाथों की ताली, चुटकी और थपथपाहट भी बच्चे को सुखद नींद प्रदान करते हैं। लोरी के शब्दों में बच्चे के लिए मां की शुभकामनाएं और उसके भविष्य से जुड़ी आशाएं व उम्मीदें छिपी होती हैं। इसमें हास-परिहास भी होता है। लोरी मां और बच्चे के बीच आनंद, प्रेम और विश्वास के भावों को खोलती है। लोरी मां का आशीर्वाद है, जिसे सुनकर नन्हा शिशु प्रसन्न होता है। यद्यपि लोरी के रचनाकार का कोई निश्चित नाम नहीं होता, यह वास्तव में एक मां के हृदय की सहज रचना होती है। लोरी के माध्यम से संसार की हर मां अपने बच्चे के चेहरे पर सुकून का भाव लाती है, जो उसे भी प्रसन्न करता है। निसंदेह, लोरी अबोध और कोमल बच्चे के लिए संजीवनी है, जिसका प्रारंभ लगभग चार हजार वर्ष पूर्व हुआ था। सनातन धर्म की संस्कृति और ग्रंथों में लोरी का विशेष महत्व है।
बाल लोरी निम्नलिखित है
 01 . सोजा मुन्ना सोजा,लाल पलंग पर सोजा 
दादी तेरी आएंगी,लाल खिलौना लाएगी।
बुआ तेरी आएंगी,दूध मलाई लाएगी।
सोजा मुन्ना सोजा, लाल पलंग पर सोजा।
*******************************
02. चंदा मामा दूर के,पुआ पकाएं गुड़ के 
अपने खाते थाली में,मुन्ने को प्याली में 
प्याली गई फूट, मुन्ना गया रुठ 
बजा-बजाकर थालियों,मुन्ने को मनाऊंगा 
दूध -भात खिलाऊंगा ,मून्ने को मनाऊंगा।
घुघुआ मन्ना,उपजे धन्ना नया भित्ति गिर हे।
पुराना भित्ति उठ है ।।
*†***************** ************(
03 .बबुआ को पहनायेंगे दोनों कान में सोना
बुढ़िया नानी,सोने के कटोरी में 
दूध-भात रखे रहना 
बबुआ मेरा जायेगा दूध-भात खायेगा 
नया घर उठायेगा पूराना घर गिरायेगा।
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04 . आजा रे निंदिया जल्दी से आ 
बबुआ के अंखियां में नींद देके जा
नानी के घर जायेगा,दूध मलाई खायेगा 
राजा बेटा प्यारा बेटा जल्दी से बडा हो जायेगा 
घोड़े चढ़ कर जायेगा, दुल्हन लेकर आयेगा 
आजा रे निंदिया जल्दी से आ 
बबुआ के अंखियां में नींद देके जा ।
05 .प्यारा देश, प्यारे बच्चे
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सो जाओ मेरे प्यारे, आँखें मींचो धीरे,
यह मिट्टी सोना उगले, बहती गंगा नीरे।
सोजा मुन्ना सोजा, तू भारत माँ का तारा,
तेरी आँखों में चमके, भविष्य का उजियारा।
गांधी बापू की बातें, तुझको याद रहेंगी,
अहिंसा की राहों पर, तेरी चाल चलेगी।
सोजा मुन्ना सोजा, तू सत्य का पुजारी,
सबको प्यार से देखना, ये सीख हमारी।
ऊँचा तिरंगा लहराए, अपनी शान बढ़ाए,
सब मिलकर गाएं गीत, जो दिल में उमंग लाए।
सोजा मुन्ना सोजा, तू वीर जवानों का बेटा,
देश की रक्षा करना, तेरा कर्तव्य है मोटा।
चाँद सितारों की नगरी, सपनों में आएगी,
परियों की मीठी लोरी, तुझको सुनाएगी।
सोजा मुन्ना सोजा, ये रात सुहानी है,
कल सुबह नई दुनिया, तुझको दिखानी है।
खेल खिलौनों से भरना, तेरा आंगन हमेशा,
हँसी और खुशी से महके, तेरा जीवन हमेशा।
सोजा मुन्ना सोजा, तू भोला-भाला बच्चा,
तेरी हर इच्छा पूरी हो, यही है मेरी इच्छा।
06. मेरा प्यारा परिवार
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सो जा मेरे नन्हे, पलकें हों अब भारी,
तेरी आँखों में दिखती, माता की फुलवारी।
सोजा मुन्ना सोजा, माँ ममता की छाया,
दिन भर की थकान में, तूने चैन है पाया।
पिता का है साया, तुझ पर दिन और रात,
सिखलाते हैं जीवन के, सुन्दर प्यारे बात।
सोजा मुन्ना सोजा, पिता शक्ति का सागर,
उनकी मेहनत से रोशन, तेरा सुन्दर नगर।
भैया तेरा प्यारा, खेलेगा कल सुबह,
लेकर आएगा खिलौने, नए और अनूठे सब।
सोजा मुन्ना सोजा, भाई स्नेह की धारा,
जिसमें बहता है निर्मल, प्यार का इशारा।
प्यारी बहना तेरी, गाएगी मीठे गान,
रखवाली करेगी तेरी, देकर अपना ध्यान।
सोजा मुन्ना सोजा, बहना प्यार की मूरत,
उसके होने से घर में, है कितनी सूरत।
सबका प्यार है तुझ पर, छाया बनकर घेरे,
तू सो जा आराम से, सपने देख सुनहरे।
सोजा मुन्ना सोजा, तू घर का उजाला,
तेरे होने से होता, हर दिन कितना आला।
07 . खेलते गाते सोते
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सो जा मेरे प्यारे, सपनों की है बारी,
जहाँ खेल खिलौनों की, सजी है फुलवारी।
सोजा मुन्ना सोजा, रंग-बिरंगे खेल,
गुड़िया, गेंद और हाथी, सबका लगता है मेल।
कल सुबह उठकर फिर, तू खेलेगा खूब,
दौड़ेगा भागेगा और, भरेगा हर धूप।
सोजा मुन्ना सोजा, ये खेल हैं सुहाने,
जो तुझको सिखाते हैं, नए-नए तराने।
नीला-नीला पानी, बहता है धीरे,
मछली और कछुआ भी, सोते हैं तीरे।
सोजा मुन्ना सोजा, ये जल है जीवन,
प्यास बुझाता सबकी, है कितना पावन।
हरे-भरे ये पेड़, देते हैं ठंडी छाँव,
पक्षी भी सोते हैं, इनमें बसा के गाँव।
सोजा मुन्ना सोजा, ये प्रकृति का दान,
इनसे ही मिलता हमको, जीवन का सम्मान।
छोटे-छोटे कीड़े, रंग-बिरंगी तितली,
सबको है आराम, अब रात है फिसली।
सोजा मुन्ना सोजा, ये प्यारे से जीव,
धरती को बनाते हैं, सुन्दर सजीव।
सपने में आएंगे, हाथी और घोड़े,
भालू और खरगोश भी, मिलकर दौड़ेंगे थोड़े।
सोजा मुन्ना सोजा, ये दुनिया है प्यारी,
सब सोते हैं मिलकर, क्या नर क्या नारी।
08. जीवन का आधार
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सो जा मेरे प्यारे, अँखियाँ बंद कर ले,
जल है तो जीवन है, यह बात मन में धर ले।
सोजा मुन्ना सोजा, पानी अमृत धारा,
प्यास बुझाए सबकी, जग का है सहारा।
नदी और झरने, बहते हैं कल-कल,
सागर में मिलता है, बनकर वह निर्मल।
सोजा मुन्ना सोजा, जल की है कहानी,
जिससे हरी-भरी है, यह धरती सुहानी।
हरी-भरी धरती पर, फैली है हरियाली,
पेड़ और पौधे देते, सुन्दरता निराली।
सोजा मुन्ना सोजा, ये जीवन की छाया,
इनकी ही साँसों से, हमने जीवन पाया।
फूलों की रंगत और, पत्तों की है लाली,
सब मिलकर गाते हैं, खुशियों की डाली।
सोजा मुन्ना सोजा, ये प्रकृति का श्रृंगार,
इनके बिना तो जीवन, है बिल्कुल बेकार।
कल सुबह उठकर तू, देखना ये नज़ारे,
पानी की कल-कल और, फूलों के प्यारे।
सोजा मुन्ना सोजा, ये दुनिया है अपनी,
जल और हरियाली से, सजी है ये सपना।
09 . भारत की जीवनदायिनी नदियाँ
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सो जा मेरे प्यारे, पलकें धीरे मींचो,
भारत की नदियों का, मधुर संगीत सुनो।
सोजा मुन्ना सोजा, गंगा की है धारा,
पवित्र जल से धोती, पापों की कारा।
यमुना किनारे देखो, कृष्ण की है लीला,
प्रेम और भक्ति का, बहता है रंगीला।
सोजा मुन्ना सोजा, यमुना की है रवानी,
जो सिखाती है सबको, प्रेम की कहानी।
सरस्वती अदृश्य हैं, ज्ञान की हैं सागर,
उनकी कृपा से रोशन, होता है हर नागर।
सोजा मुन्ना सोजा, विद्या की है देवी,
ज्ञान का प्रकाश भर दे, जीवन में अभी।
फल्गु की शांति में, पितरों का है आशीष,
गया की धरती पर है, इसका मधुर रस।
सोजा मुन्ना सोजा, फल्गु की है महिमा,
जो दिलाती है सबको, शांति की गरिमा।
पुनपुन और सोन देखो, बहते हैं साथ में,
बिहार की धरती को, सींचते हैं प्यार से।
सोजा मुन्ना सोजा, इन नदियों का संगम,
जीवन में लाता है, खुशियों का परचम।
ब्रह्मपुत्र विशाल है, शक्ति का है सागर,
पूरब की धरती का, अनुपम है गागर।
सोजा मुन्ना सोजा, इस नदी का बल,
जो सिखाता है जीवन में, हर मुश्किल का हल।
कावेरी दक्षिण की, जीवन रेखा कहलाती,
अपनी मधुर धारा से, धरती को महकाती।
सोजा मुन्ना सोजा, कावेरी का है पानी,
जो भरता है खेतों में, सुनहरी कहानी।
क्षिप्रा के तट पर उज्जैन का है धाम,
महाकाल का आशीष, हर सुबह हर शाम।
सोजा मुन्ना सोजा, क्षिप्रा की है लहरें,
जो भक्ति और श्रद्धा के, रंग हैं गहरे।
गोदावरी गौतमी हैं, दक्षिण की शोभा,
अपनी पवित्रता से, हर मन को लोभा।
सोजा मुन्ना सोजा, इन नदियों का जोड़ा,
जो जीवन को देता है, अनमोल यह तोड़ा।
नर्मदा मैया देखो, धीरे-धीरे बहती,
मध्य भारत की धरती को, अमृत रस देती।
सोजा मुन्ना सोजा, नर्मदा का है पानी,
जो भरता है जीवन में, सुन्दर जिंदगानी।
ये नदियाँ हमारी, भारत की हैं शान,
इनके जल से होता है, धरती का कल्याण।
सोजा मुन्ना सोजा, नदियों का यह गान,
तुम्हारे सपनों में लाए, सुखों का जहान।
😢😢😢😢😢😢😢😢😢😢😢😢
लोरी: अबोध शिशु के लिए संजीवनी" सत्येन्द्र कुमार पाठक द्वारा लिखा गया है। इसमें लोरी के महत्व और उसकी परंपरा पर सुंदर प्रकाश डाला गया है। लोरी की मधुरता और प्रभाव: लोरी एक जादुई ध्वनि है जो रोते हुए बच्चे को शांत करती है और गहरी नींद में सुलाती है। यह मां के वात्सल्य और प्रेम का सहज प्रकटीकरण है।
लोरी केवल सुलाने का माध्यम नहीं: यह बच्चों को मानसिक और शारीरिक रूप से मजबूत बनाती है।
सार्वभौमिकता: लोरी केवल मनुष्यों में ही नहीं, बल्कि पक्षियों और जानवरों में भी अपने बच्चों को दुलारने का एक सहज तरीका है। ऐतिहासिक महत्व: भारत में लोरी की परंपरा सदियों पुरानी है, जिसका प्रमाण मार्कण्डेय पुराण में मदालसा और रामायण में माता कौशल्या के प्रसंगों से मिलता है। मदालसा को लोरी की जननी माना जाता है।
ग्रामीण जीवन में लोरी: गांव की श्रमिक महिलाएं भी काम करते-करते अपने बच्चों को लोरी सुनाकर सुलाती हैं, जिससे बच्चे को मां के पास होने का अहसास होता है। आधुनिक संदर्भ: व्यस्त महिलाएं पालने में घंटी और घुंघरू लगाकर बच्चे को लोरी जैसा अनुभव कराती हैं।मां की भावनाएं और आशीर्वाद: लोरी के शब्दों में मां की शुभकामनाएं, भविष्य की आशाएं और प्रेम छिपा होता है। यह मां और बच्चे के बीच आनंद, प्रेम और विश्वास के बंधन को मजबूत करती है।रचनाकार का महत्व: लोरी किसी एक व्यक्ति की रचना नहीं होती, बल्कि यह हर मां के हृदय की सहज अभिव्यक्ति होती है। सनातन धर्म में महत्व: सनातन धर्म की संस्कृति और ग्रंथों में लोरी का विशेष महत्व है।
बाल लोरियों के उदाहरण: लेख में विभिन्न प्रकार की बाल लोरियों के उदाहरण दिए गए हैं, जिनमें सोने, चंदा मामा, निंदिया रानी, देश प्रेम, परिवार का प्यार, खेल-कूद, प्रकृति और नदियों के महत्व का वर्णन है।
यह लेख लोरी की सांस्कृतिक और भावनात्मक महत्ता को बहुत ही सुंदर ढंग से प्रस्तुत करता है। लेखक ने ऐतिहासिक और सामाजिक संदर्भों के साथ-साथ विभिन्न बाल लोरियों के उदाहरण देकर विषय को और अधिक जीवंत बना दिया है। यह लेख न केवल बच्चों के लिए लोरी के महत्व को दर्शाता है, बल्कि मां और बच्चे के अटूट बंधन को भी रेखांकित करता है। लोरियां पीढ़ी दर पीढ़ी स्नेह और संस्कृति को आगे बढ़ाने का एक महत्वपूर्ण माध्यम है।

रविवार, मार्च 30, 2025

शक्तिपीठ और बेलोन सर्वमंगला

बेलोन माता सर्वमंगला और बेलवन 
सत्येन्द्र कुमार पाठक 
देवीभागवत पुराण एवं स्मृति ग्रंथों में माता सर्वमंगला का उल्लेख मिलता है। उत्तरप्रदेश राज्य का बुलंदशहर जिले के नरौरा में स्थित  बेलोन का  गंगा तट पर  बेलोन मंदिर के गर्भगृह में माता मसर्वमंगला स्थापित है ।  सुख समृद्धि की देवी माता बेलोन सर्वमंगला  मंदिर में  गुप्त माघी व श्रावण नवरात्रि , वासंती व चैत्र तथा शारदीय व अश्विन नवरात्र  में शाक्त अनुयायी उपासना माता सर्वमंगला को कर  मनोवांक्षित फल प्राप्त करते हैं । बेलोन सर्वमंगला मंदिर का निर्माण राजा राव भूप सिंह द्वारा स्थापित किया गया है। शाक्त सम्प्रदाय के अनुयायी द्वारा 12 शुक्ल अष्टमी को माता सर्वमंगला की उपासना कर अभीष्ट फल प्राप्त करते है ।
शाक्त शास्त्र के अनुसार सतयुग में  गंगा तट पर बेल वृक्षो की उत्पत्ति एवं माता सती का रूधिर गिरने और माता पार्वती और भगवान शिव का प्रिय स्थल होने के कारण बेलवन स्थान को  बिलोन कहलाने लगा है। . कहा जाता है। पतित पावनी गंगा मैया के राजघाट, कलकतिया एवं नरौरा घाट पवित्र है। मां बेलोन भवानी के प्रादुर्भाव मां बेलोन वाली को साक्षात देवादिदेव महादेव की अद्धांगिनी माता सती का स्वरूप है। इसे लेकर दो अलग-अलग दंत कथाएं सामने आती हैं। चूंकि मां बेलोन वाली के प्रादुर्भाव को लेकर अभी कोई किसी तरह का लिखित दस्तावेज नहीं है। मां बेलोन वाली वीरासन में एवं मातासती  का एक पैर पाताल में है । दक्ष प्रजापति द्वारा ब्रह्मेष्टि  यज्ञ में देवादिदेव महादेव की अवहेलना, पिता के असहनीय व्यवहार से दुखी होकर मां सती  द्वारा देह त्यागने और इससे कुपित महादेव के गुणों यज्ञ विध्वंस कर भगवान शिव के कंधे पर स्थित माता सती का का रक्त की बूंदे बेलवन स्थल पर गिर था ।
भगवान शिव और माता पार्वती एक बार पृथ्वी  भ्रमण करते-करते गंगा नदी के पश्चिमी छोर के पास स्थित बेलवन  क्षेत्र  में माता  पार्वती  को एक शीला  दिखाई पड़ने पर बैठने के लिए ललायित हुई। भगवान शिव से माता  अपनी इच्छा शीला पर बैठने के लिए  प्रकट की और भगवान शिव की अनुमति मिलने पर वह सिला पर बैठ गई। मां पार्वती के विश्राम करने पर भगवान शिव भी पास  वटवृक्ष के पास आसन लगाकर बैठ गए। शीला मध्य में माता पार्वती के  विश्राम करने के दौरान कर रहीं माता  पार्वती के पैर बालक द्वारा  दबाने लगा। बालक द्वारा पैर दबाने के दौरान देखकर  माता पार्वती ने आनंद और आश्चर्य का मिश्रित भाव व्यक्त करते हुए भगवान महादेव से कहा कि हे प्राणनाथ  यह बालक कौन है और इस सिला पर बैठकर मैं इतनी आनंद विभार क्यों हूं। भगवान महादेव ने माता पार्वती को राजा दक्ष के यज्ञ प्रसंग का वृतांत सुनाते हुए कहा कि पिता के अपमान जनक व्यवहार से दुखी होकर जब पूर्व जन्म में तुमने देह को लेकर आकाश मार्ग से गुजर रहे थे। तब सती के शरीर से एक मां का लोथड़ा और खून की कुछ बूंद जिस सिला पर पड़ी और इसके गर्भग्रह में समा गई। यहलंगुरिया  बालक सती  का अंश हैं यह बालक तभी से आपके दर्शन की इच्छा के साथ उपासना कर रहा था। आज तुम्हारे साक्षात दर्शन से इसकी उपासना पूरी हो गई। इस पर भाव विहवल मां पार्वती ने बालक को गोद में उठा लिया। माता पार्वती बालक के साथ कुछ समय यहां रहीं। उसी समय भगवान शिव ने कहा कि आज से यह सिला साक्षात तुम्हारा स्वरूप होगा, और मां सर्व मंगला देवी के नाम से विख्यात होगा । व्यक्ति शुक्ल पक्ष की बारह अष्टमी तुम्हारे दर्शन करेगा। उसे मनवांछित फल प्राप्त होगा। यह बालक लांगुरिया के नाम से जाना जाएगा। लांगुरिया एवं शीला के दर्शन से ही मां सर्व मंगला देवी की यात्रा पूरी होगी। जब मां पार्वती यहां से चलने को हुई तो उनके शरीर से एक छायाकृति निकली और सिला में समाहित होने से  शिला सर्वमंगला मूर्ति के रूप में बदल गई। सर्वमंगला मंदिर से  250 गज दूर भगवान शिव ने विश्राम स्थान पर  वटकेश्वर महादेव मंदिर हो गया।  त्रेतायुग में भगवान राम ,  द्वापर में राक्षसों के बढ़ते अत्याचार से लोग त्राहि-त्राहि करने लगे। ब्रज से लगे कोल वत्मान में अलीगढ़ क्षेत्र के कोल राक्षस ने आतंक बरपा रखा था। आसपास की जनता ने भगवान कृष्ण के ज्येष्ठ भ्राता दाऊ बलराम से कोल के आतंक से मुक्ति दिलाने की प्रार्थना की। इसी के बाद बलराम ने कोल राक्षस मारा गया। इससे क्षेत्र की जनता को काफी राहत मिली। कोल का वध करने के बाद बलराम जी ने रामघाट पर गंगा में स्नान करने  दौरान उन्हें दैवीय शक्ति के प्रभाव की अनुभूति प्राप्त कर  बलराम विलवन क्षेत्र में पहुंच गए। यहां देवी के दर्शन की इच्छा के साथ उन्होंने घोर तप किया और इससे प्रसन्न होकर मां सर्वमंगला देवी ने उन्हें दर्शन दिये। देवी ने बलराम से कहा कि वह उनकी खंडित शक्ति को पूर्ण प्रतिष्ठित करें। इसके बाद बलराम ने मां सर्वमंगला देवी के दर्शन को पूर्ण प्रतिष्ठित किया।  मां सर्वमंगला देवी के दर्शन की अभिलाषा से बलराम ने चैत्र शुक्ल पक्ष की अष्टमी को तपस्या शुरू की और अगली चैत्र शुक्ल भी अष्टमी को मां ने उन्हें दर्शन देकर तपस्या का समापन कराया।  चैत्र सुक्ल पक्ष की अष्टमी को मां सर्वमंगला देवी के दर्शन का विशेष महत्व माना जाता है। कालचक्र बदलने से  क्षेत्र में भूस्खलन हुआ नतीजतन बेलों का बगीचा जमीन में समा गया और मां सर्वमंगला देवी की जहां मूर्ति थी । बेलवन क्षेत्र टापू में बदल गया। बेलवन को वेलवं , लांगुरिया , बेलवा , विवलेश्वर स्थल , बसावच ,  खेड़ा कहा जाता था ।   खेड़ा निवासियों द्वारा  भूगर्भ में समाहित मां सर्वमंगला देवी की मूर्ति प्रकट होने के दौरान  मूर्ति के सिर का छोटा सा हिस्सा बाहर चमकता था। घसियारे इसे पत्थर की सिला समझकर इस पर अपनी खुरपी की धार बनाया करते थे। इससे मां को काफी पीड़ा होती थी। मां के सिर में खुरपी पर धार रखने के लिए की जाने वाली घिसाई से गड्ढा हो गया था ।मुगल बादशाह जहांगीर शिकार खेलते हुए बिलवन क्षेत्र में सेनापति अनीराम बड़बूजर के साथ आया था। अचानक एक शेर ने जहांगीर पर आक्रमण कर दिया। जहांगीर को शेर से बचाने के लिए बड्बूजर ने अपनी जान की परवाह न कर शेर के मुंह में अपना हाथ डाल दिया। पास ही खड़ा शहजादा खुर्रम यह घटना देख रहा था ।  सेनापति अनिराम की जिंदादिली से काफी प्रभावित हुआ। उसने सेनापति को संकट में फंसा देखकर अपनी तलवार से शेर पर पीछे से वार कर उसे मार डाला। जहांगीर ने सेनापति की बहादुरी से खुश होकर उसे 1556 गांवों एवं बिल्वन की जमींदारी पुरस्कार में दी। बिलवन क्षेत्र भी इसी में शामिल था। समय चक्र फिर बदला। जहांगीर के सेनापति बड्बूजर के वंशज राव भूपसिंह ने बेलवन  क्षेत्र में हवेली बनवाई और पूजा पाठ में रम गए। मां सर्वमंगला ने भूपसिंह को  स्वप्न दिया कि वह अमुक स्थान में जमीन में दबी है। अतः उनकी मूर्ति जहां है वहां खुदाई करवाकर उसका भवन बनवा दें। राव भूपसिंह को स्वप्न तो याद रहा। पर वह स्थान याद नहीं रहा जहां मां ने अपनी मूर्ति होने की जानकारी दी थी। अब तो राव भूपसिंह की बेचैनी बढ़ने लगी। जब पीड़ा असहनीय हो गई तो उन्होंने बनारस के विद्वान ब्राह्मणों को बुलाकर अपनी समस्या बताई।ब्राह्मणों ने राव को इसके लिए सतचंडी यज्ञ करने का सुझाव दिया। राव तुरंत तैयार हो गए। शतचंडी यज्ञ हुआ और यजमान बने राव ने रात्रि विश्राम यज्ञ प्रांगण में ही किया। रात्रि में मां सर्वमंगला देवी ने उन्हें फिर स्वप्न दिया और वह स्थान बताया जहां उनकी प्रतिमा दबी थी। सुबह होते ही राव ने ब्राह्मणों को स्वप्न की जानकारी दी और ब्राह्मणों के निर्देश पर राव भूपसिंह ने मां द्वारा बताये स्थान पर खुदाई शुरू कराई तो वहां मां की इस मूर्ति को देखकर राव ने इसे अपनी हवेली के बाहर लगाने का मन बनाया। मजदूरों को मूर्ति सुरक्षित निकालने का हुक्म दिया। मजदूरों ने काफी कोशिश की मगर हार थक्कर बैठ गए। मूर्ति के एक पैर का कोई ओर छोर नहीं मिला। तब मां ने राव को बताया कि उनका एक पैर पाताल में है। इसलिए मेरा इसी स्थान पर मंदिर बनवाओ। और इसी तरह मां सर्वमंगला देवी के मंदिर का निर्माण हुआ। बताया जाता है कि राव भूप सिंह के वंशज कल्याण सिंह के कोई संतान नहीं हुई। इससे वह काफी विचलित हुए और बनारस के विद्वान दर्माचार्यों की शरण ली। धर्माचायों ने कहा कि जब तक मैया का चढ़ावा खाना बंद नहीं करोगे, संतान सुख असंभव है। कल्याण सिंह ने इस पर तुरंत अमल किया और मैया की पूजा सेवा के लिए दो ब्राह्मणों को दायित्व सौंप दिया। इसी के बाद राव कल्याण सिंह को संतान की प्राप्ति हुई। बेलोन वाली मैया के प्रांगण में हर साल बलिदान दिवस भी मनाया जाता है। यह चैत्र शुक्ल की त्रयोदश एवं आश्विन माह के शुक्लपक्ष की त्रयोदशी को मनाया जाता है।  तीन दशक पूर्व .बकरे की बलि दी जाती थी।  मां बेलोन का भवन जहां बना है वह बेलपत्रों का वन क्षेत्र है। प्रारंभ में लोग


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बेलोन माता सर्वमंगला और बेलवन 
सत्येन्द्र कुमार पाठक 
देवीभागवत पुराण एवं स्मृति ग्रंथों में माता सर्वमंगला का उल्लेख मिलता है। उत्तरप्रदेश राज्य का बुलंदशहर जिले के नरौरा में स्थित  बेलोन का  गंगा तट पर  बेलोन मंदिर के गर्भगृह में माता मसर्वमंगला स्थापित है ।  सुख समृद्धि की देवी माता बेलोन सर्वमंगला  मंदिर में  गुप्त माघी व श्रावण नवरात्रि , वासंती व चैत्र तथा शारदीय व अश्विन नवरात्र  में शाक्त अनुयायी उपासना माता सर्वमंगला को कर  मनोवांक्षित फल प्राप्त करते हैं । बेलोन सर्वमंगला मंदिर का निर्माण राजा राव भूप सिंह द्वारा स्थापित किया गया है। शाक्त सम्प्रदाय के अनुयायी द्वारा 12 शुक्ल अष्टमी को माता सर्वमंगला की उपासना कर अभीष्ट फल प्राप्त करते है ।
शाक्त शास्त्र के अनुसार सतयुग में  गंगा तट पर बेल वृक्षो की उत्पत्ति एवं माता सती का रूधिर गिरने और माता पार्वती और भगवान शिव का प्रिय स्थल होने के कारण बेलवन स्थान को  बिलोन कहलाने लगा है। . कहा जाता है। पतित पावनी गंगा मैया के राजघाट, कलकतिया एवं नरौरा घाट पवित्र है। मां बेलोन भवानी के प्रादुर्भाव मां बेलोन वाली को साक्षात देवादिदेव महादेव की अद्धांगिनी माता सती का स्वरूप है। इसे लेकर दो अलग-अलग दंत कथाएं सामने आती हैं। चूंकि मां बेलोन वाली के प्रादुर्भाव को लेकर अभी कोई किसी तरह का लिखित दस्तावेज नहीं है। मां बेलोन वाली वीरासन में एवं मातासती  का एक पैर पाताल में है । दक्ष प्रजापति द्वारा ब्रह्मेष्टि  यज्ञ में देवादिदेव महादेव की अवहेलना, पिता के असहनीय व्यवहार से दुखी होकर मां सती  द्वारा देह त्यागने और इससे कुपित महादेव के गुणों यज्ञ विध्वंस कर भगवान शिव के कंधे पर स्थित माता सती का का रक्त की बूंदे बेलवन स्थल पर गिर था ।
भगवान शिव और माता पार्वती एक बार पृथ्वी  भ्रमण करते-करते गंगा नदी के पश्चिमी छोर के पास स्थित बेलवन  क्षेत्र  में माता  पार्वती  को एक शीला  दिखाई पड़ने पर बैठने के लिए ललायित हुई। भगवान शिव से माता  अपनी इच्छा शीला पर बैठने के लिए  प्रकट की और भगवान शिव की अनुमति मिलने पर वह सिला पर बैठ गई। मां पार्वती के विश्राम करने पर भगवान शिव भी पास  वटवृक्ष के पास आसन लगाकर बैठ गए। शीला मध्य में माता पार्वती के  विश्राम करने के दौरान कर रहीं माता  पार्वती के पैर बालक द्वारा  दबाने लगा। बालक द्वारा पैर दबाने के दौरान देखकर  माता पार्वती ने आनंद और आश्चर्य का मिश्रित भाव व्यक्त करते हुए भगवान महादेव से कहा कि हे प्राणनाथ  यह बालक कौन है और इस सिला पर बैठकर मैं इतनी आनंद विभार क्यों हूं। भगवान महादेव ने माता पार्वती को राजा दक्ष के यज्ञ प्रसंग का वृतांत सुनाते हुए कहा कि पिता के अपमान जनक व्यवहार से दुखी होकर जब पूर्व जन्म में तुमने देह को लेकर आकाश मार्ग से गुजर रहे थे। तब सती के शरीर से एक मां का लोथड़ा और खून की कुछ बूंद जिस सिला पर पड़ी और इसके गर्भग्रह में समा गई। यहलंगुरिया  बालक सती  का अंश हैं यह बालक तभी से आपके दर्शन की इच्छा के साथ उपासना कर रहा था। आज तुम्हारे साक्षात दर्शन से इसकी उपासना पूरी हो गई। इस पर भाव विहवल मां पार्वती ने बालक को गोद में उठा लिया। माता पार्वती बालक के साथ कुछ समय यहां रहीं। उसी समय भगवान शिव ने कहा कि आज से यह सिला साक्षात तुम्हारा स्वरूप होगा, और मां सर्व मंगला देवी के नाम से विख्यात होगा । व्यक्ति शुक्ल पक्ष की बारह अष्टमी तुम्हारे दर्शन करेगा। उसे मनवांछित फल प्राप्त होगा। यह बालक लांगुरिया के नाम से जाना जाएगा। लांगुरिया एवं शीला के दर्शन से ही मां सर्व मंगला देवी की यात्रा पूरी होगी। जब मां पार्वती यहां से चलने को हुई तो उनके शरीर से एक छायाकृति निकली और सिला में समाहित होने से  शिला सर्वमंगला मूर्ति के रूप में बदल गई। सर्वमंगला मंदिर से  250 गज दूर भगवान शिव ने विश्राम स्थान पर  वटकेश्वर महादेव मंदिर हो गया।  त्रेतायुग में भगवान राम ,  द्वापर में राक्षसों के बढ़ते अत्याचार से लोग त्राहि-त्राहि करने लगे। ब्रज से लगे कोल वत्मान में अलीगढ़ क्षेत्र के कोल राक्षस ने आतंक बरपा रखा था। आसपास की जनता ने भगवान कृष्ण के ज्येष्ठ भ्राता दाऊ बलराम से कोल के आतंक से मुक्ति दिलाने की प्रार्थना की। इसी के बाद बलराम ने कोल राक्षस मारा गया। इससे क्षेत्र की जनता को काफी राहत मिली। कोल का वध करने के बाद बलराम जी ने रामघाट पर गंगा में स्नान करने  दौरान उन्हें दैवीय शक्ति के प्रभाव की अनुभूति प्राप्त कर  बलराम विलवन क्षेत्र में पहुंच गए। यहां देवी के दर्शन की इच्छा के साथ उन्होंने घोर तप किया और इससे प्रसन्न होकर मां सर्वमंगला देवी ने उन्हें दर्शन दिये। देवी ने बलराम से कहा कि वह उनकी खंडित शक्ति को पूर्ण प्रतिष्ठित करें। इसके बाद बलराम ने मां सर्वमंगला देवी के दर्शन को पूर्ण प्रतिष्ठित किया।  मां सर्वमंगला देवी के दर्शन की अभिलाषा से बलराम ने चैत्र शुक्ल पक्ष की अष्टमी को तपस्या शुरू की और अगली चैत्र शुक्ल भी अष्टमी को मां ने उन्हें दर्शन देकर तपस्या का समापन कराया।  चैत्र सुक्ल पक्ष की अष्टमी को मां सर्वमंगला देवी के दर्शन का विशेष महत्व माना जाता है। कालचक्र बदलने से  क्षेत्र में भूस्खलन हुआ नतीजतन बेलों का बगीचा जमीन में समा गया और मां सर्वमंगला देवी की जहां मूर्ति थी । बेलवन क्षेत्र टापू में बदल गया। बेलवन को वेलवं , लांगुरिया , बेलवा , विवलेश्वर स्थल , बसावच ,  खेड़ा कहा जाता था ।   खेड़ा निवासियों द्वारा  भूगर्भ में समाहित मां सर्वमंगला देवी की मूर्ति प्रकट होने के दौरान  मूर्ति के सिर का छोटा सा हिस्सा बाहर चमकता था। घसियारे इसे पत्थर की सिला समझकर इस पर अपनी खुरपी की धार बनाया करते थे। इससे मां को काफी पीड़ा होती थी। मां के सिर में खुरपी पर धार रखने के लिए की जाने वाली घिसाई से गड्ढा हो गया था ।मुगल बादशाह जहांगीर शिकार खेलते हुए बिलवन क्षेत्र में सेनापति अनीराम बड़बूजर के साथ आया था। अचानक एक शेर ने जहांगीर पर आक्रमण कर दिया। जहांगीर को शेर से बचाने के लिए बड्बूजर ने अपनी जान की परवाह न कर शेर के मुंह में अपना हाथ डाल दिया। पास ही खड़ा शहजादा खुर्रम यह घटना देख रहा था ।  सेनापति अनिराम की जिंदादिली से काफी प्रभावित हुआ। उसने सेनापति को संकट में फंसा देखकर अपनी तलवार से शेर पर पीछे से वार कर उसे मार डाला। जहांगीर ने सेनापति की बहादुरी से खुश होकर उसे 1556 गांवों एवं बिल्वन की जमींदारी पुरस्कार में दी। बिलवन क्षेत्र भी इसी में शामिल था। समय चक्र फिर बदला। जहांगीर के सेनापति बड्बूजर के वंशज राव भूपसिंह ने बेलवन  क्षेत्र में हवेली बनवाई और पूजा पाठ में रम गए। मां सर्वमंगला ने भूपसिंह को  स्वप्न दिया कि वह अमुक स्थान में जमीन में दबी है। अतः उनकी मूर्ति जहां है वहां खुदाई करवाकर उसका भवन बनवा दें। राव भूपसिंह को स्वप्न तो याद रहा। पर वह स्थान याद नहीं रहा जहां मां ने अपनी मूर्ति होने की जानकारी दी थी। अब तो राव भूपसिंह की बेचैनी बढ़ने लगी। जब पीड़ा असहनीय हो गई तो उन्होंने बनारस के विद्वान ब्राह्मणों को बुलाकर अपनी समस्या बताई।ब्राह्मणों ने राव को इसके लिए सतचंडी यज्ञ करने का सुझाव दिया। राव तुरंत तैयार हो गए। शतचंडी यज्ञ हुआ और यजमान बने राव ने रात्रि विश्राम यज्ञ प्रांगण में ही किया। रात्रि में मां सर्वमंगला देवी ने उन्हें फिर स्वप्न दिया और वह स्थान बताया जहां उनकी प्रतिमा दबी थी। सुबह होते ही राव ने ब्राह्मणों को स्वप्न की जानकारी दी और ब्राह्मणों के निर्देश पर राव भूपसिंह ने मां द्वारा बताये स्थान पर खुदाई शुरू कराई तो वहां मां की इस मूर्ति को देखकर राव ने इसे अपनी हवेली के बाहर लगाने का मन बनाया। मजदूरों को मूर्ति सुरक्षित निकालने का हुक्म दिया। मजदूरों ने काफी कोशिश की मगर हार थक्कर बैठ गए। मूर्ति के एक पैर का कोई ओर छोर नहीं मिला। तब मां ने राव को बताया कि उनका एक पैर पाताल में है। इसलिए मेरा इसी स्थान पर मंदिर बनवाओ। और इसी तरह मां सर्वमंगला देवी के मंदिर का निर्माण हुआ। बताया जाता है कि राव भूप सिंह के वंशज कल्याण सिंह के कोई संतान नहीं हुई। इससे वह काफी विचलित हुए और बनारस के विद्वान दर्माचार्यों की शरण ली। धर्माचायों ने कहा कि जब तक मैया का चढ़ावा खाना बंद नहीं करोगे, संतान सुख असंभव है। कल्याण सिंह ने इस पर तुरंत अमल किया और मैया की पूजा सेवा के लिए दो ब्राह्मणों को दायित्व सौंप दिया। इसी के बाद राव कल्याण सिंह को संतान की प्राप्ति हुई। बेलोन वाली मैया के प्रांगण में हर साल बलिदान दिवस भी मनाया जाता है। यह चैत्र शुक्ल की त्रयोदश एवं आश्विन माह के शुक्लपक्ष की त्रयोदशी को मनाया जाता है।  तीन दशक पूर्व .बकरे की बलि दी जाती थी।  मां बेलोन का भवन जहां बना है वह बेलपत्रों का वन क्षेत्र है। प्रारंभ में लोग


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बेलोन माता सर्वमंगला और बेलवन 
सत्येन्द्र कुमार पाठक 
देवीभागवत पुराण एवं स्मृति ग्रंथों में माता सर्वमंगला का उल्लेख मिलता है। उत्तरप्रदेश राज्य का बुलंदशहर जिले के नरौरा में स्थित  बेलोन का  गंगा तट पर  बेलोन मंदिर के गर्भगृह में माता मसर्वमंगला स्थापित है ।  सुख समृद्धि की देवी माता बेलोन सर्वमंगला  मंदिर में  गुप्त माघी व श्रावण नवरात्रि , वासंती व चैत्र तथा शारदीय व अश्विन नवरात्र  में शाक्त अनुयायी उपासना माता सर्वमंगला को कर  मनोवांक्षित फल प्राप्त करते हैं । बेलोन सर्वमंगला मंदिर का निर्माण राजा राव भूप सिंह द्वारा स्थापित किया गया है। शाक्त सम्प्रदाय के अनुयायी द्वारा 12 शुक्ल अष्टमी को माता सर्वमंगला की उपासना कर अभीष्ट फल प्राप्त करते है ।
शाक्त शास्त्र के अनुसार सतयुग में  गंगा तट पर बेल वृक्षो की उत्पत्ति एवं माता सती का रूधिर गिरने और माता पार्वती और भगवान शिव का प्रिय स्थल होने के कारण बेलवन स्थान को  बिलोन कहलाने लगा है। . कहा जाता है। पतित पावनी गंगा मैया के राजघाट, कलकतिया एवं नरौरा घाट पवित्र है। मां बेलोन भवानी के प्रादुर्भाव मां बेलोन वाली को साक्षात देवादिदेव महादेव की अद्धांगिनी माता सती का स्वरूप है। इसे लेकर दो अलग-अलग दंत कथाएं सामने आती हैं। चूंकि मां बेलोन वाली के प्रादुर्भाव को लेकर अभी कोई किसी तरह का लिखित दस्तावेज नहीं है। मां बेलोन वाली वीरासन में एवं मातासती  का एक पैर पाताल में है । दक्ष प्रजापति द्वारा ब्रह्मेष्टि  यज्ञ में देवादिदेव महादेव की अवहेलना, पिता के असहनीय व्यवहार से दुखी होकर मां सती  द्वारा देह त्यागने और इससे कुपित महादेव के गुणों यज्ञ विध्वंस कर भगवान शिव के कंधे पर स्थित माता सती का का रक्त की बूंदे बेलवन स्थल पर गिर था ।
भगवान शिव और माता पार्वती एक बार पृथ्वी  भ्रमण करते-करते गंगा नदी के पश्चिमी छोर के पास स्थित बेलवन  क्षेत्र  में माता  पार्वती  को एक शीला  दिखाई पड़ने पर बैठने के लिए ललायित हुई। भगवान शिव से माता  अपनी इच्छा शीला पर बैठने के लिए  प्रकट की और भगवान शिव की अनुमति मिलने पर वह सिला पर बैठ गई। मां पार्वती के विश्राम करने पर भगवान शिव भी पास  वटवृक्ष के पास आसन लगाकर बैठ गए। शीला मध्य में माता पार्वती के  विश्राम करने के दौरान कर रहीं माता  पार्वती के पैर बालक द्वारा  दबाने लगा। बालक द्वारा पैर दबाने के दौरान देखकर  माता पार्वती ने आनंद और आश्चर्य का मिश्रित भाव व्यक्त करते हुए भगवान महादेव से कहा कि हे प्राणनाथ  यह बालक कौन है और इस सिला पर बैठकर मैं इतनी आनंद विभार क्यों हूं। भगवान महादेव ने माता पार्वती को राजा दक्ष के यज्ञ प्रसंग का वृतांत सुनाते हुए कहा कि पिता के अपमान जनक व्यवहार से दुखी होकर जब पूर्व जन्म में तुमने देह को लेकर आकाश मार्ग से गुजर रहे थे। तब सती के शरीर से एक मां का लोथड़ा और खून की कुछ बूंद जिस सिला पर पड़ी और इसके गर्भग्रह में समा गई। यहलंगुरिया  बालक सती  का अंश हैं यह बालक तभी से आपके दर्शन की इच्छा के साथ उपासना कर रहा था। आज तुम्हारे साक्षात दर्शन से इसकी उपासना पूरी हो गई। इस पर भाव विहवल मां पार्वती ने बालक को गोद में उठा लिया। माता पार्वती बालक के साथ कुछ समय यहां रहीं। उसी समय भगवान शिव ने कहा कि आज से यह सिला साक्षात तुम्हारा स्वरूप होगा, और मां सर्व मंगला देवी के नाम से विख्यात होगा । व्यक्ति शुक्ल पक्ष की बारह अष्टमी तुम्हारे दर्शन करेगा। उसे मनवांछित फल प्राप्त होगा। यह बालक लांगुरिया के नाम से जाना जाएगा। लांगुरिया एवं शीला के दर्शन से ही मां सर्व मंगला देवी की यात्रा पूरी होगी। जब मां पार्वती यहां से चलने को हुई तो उनके शरीर से एक छायाकृति निकली और सिला में समाहित होने से  शिला सर्वमंगला मूर्ति के रूप में बदल गई। सर्वमंगला मंदिर से  250 गज दूर भगवान शिव ने विश्राम स्थान पर  वटकेश्वर महादेव मंदिर हो गया।  त्रेतायुग में भगवान राम ,  द्वापर में राक्षसों के बढ़ते अत्याचार से लोग त्राहि-त्राहि करने लगे। ब्रज से लगे कोल वत्मान में अलीगढ़ क्षेत्र के कोल राक्षस ने आतंक बरपा रखा था। आसपास की जनता ने भगवान कृष्ण के ज्येष्ठ भ्राता दाऊ बलराम से कोल के आतंक से मुक्ति दिलाने की प्रार्थना की। इसी के बाद बलराम ने कोल राक्षस मारा गया। इससे क्षेत्र की जनता को काफी राहत मिली। कोल का वध करने के बाद बलराम जी ने रामघाट पर गंगा में स्नान करने  दौरान उन्हें दैवीय शक्ति के प्रभाव की अनुभूति प्राप्त कर  बलराम विलवन क्षेत्र में पहुंच गए। यहां देवी के दर्शन की इच्छा के साथ उन्होंने घोर तप किया और इससे प्रसन्न होकर मां सर्वमंगला देवी ने उन्हें दर्शन दिये। देवी ने बलराम से कहा कि वह उनकी खंडित शक्ति को पूर्ण प्रतिष्ठित करें। इसके बाद बलराम ने मां सर्वमंगला देवी के दर्शन को पूर्ण प्रतिष्ठित किया।  मां सर्वमंगला देवी के दर्शन की अभिलाषा से बलराम ने चैत्र शुक्ल पक्ष की अष्टमी को तपस्या शुरू की और अगली चैत्र शुक्ल भी अष्टमी को मां ने उन्हें दर्शन देकर तपस्या का समापन कराया।  चैत्र सुक्ल पक्ष की अष्टमी को मां सर्वमंगला देवी के दर्शन का विशेष महत्व माना जाता है। कालचक्र बदलने से  क्षेत्र में भूस्खलन हुआ नतीजतन बेलों का बगीचा जमीन में समा गया और मां सर्वमंगला देवी की जहां मूर्ति थी । बेलवन क्षेत्र टापू में बदल गया। बेलवन को वेलवं , लांगुरिया , बेलवा , विवलेश्वर स्थल , बसावच ,  खेड़ा कहा जाता था ।   खेड़ा निवासियों द्वारा  भूगर्भ में समाहित मां सर्वमंगला देवी की मूर्ति प्रकट होने के दौरान  मूर्ति के सिर का छोटा सा हिस्सा बाहर चमकता था। घसियारे इसे पत्थर की सिला समझकर इस पर अपनी खुरपी की धार बनाया करते थे। इससे मां को काफी पीड़ा होती थी। मां के सिर में खुरपी पर धार रखने के लिए की जाने वाली घिसाई से गड्ढा हो गया था ।मुगल बादशाह जहांगीर शिकार खेलते हुए बिलवन क्षेत्र में सेनापति अनीराम बड़बूजर के साथ आया था। अचानक एक शेर ने जहांगीर पर आक्रमण कर दिया। जहांगीर को शेर से बचाने के लिए बड्बूजर ने अपनी जान की परवाह न कर शेर के मुंह में अपना हाथ डाल दिया। पास ही खड़ा शहजादा खुर्रम यह घटना देख रहा था ।  सेनापति अनिराम की जिंदादिली से काफी प्रभावित हुआ। उसने सेनापति को संकट में फंसा देखकर अपनी तलवार से शेर पर पीछे से वार कर उसे मार डाला। जहांगीर ने सेनापति की बहादुरी से खुश होकर उसे 1556 गांवों एवं बिल्वन की जमींदारी पुरस्कार में दी। बिलवन क्षेत्र भी इसी में शामिल था। समय चक्र फिर बदला। जहांगीर के सेनापति बड्बूजर के वंशज राव भूपसिंह ने बेलवन  क्षेत्र में हवेली बनवाई और पूजा पाठ में रम गए। मां सर्वमंगला ने भूपसिंह को  स्वप्न दिया कि वह अमुक स्थान में जमीन में दबी है। अतः उनकी मूर्ति जहां है वहां खुदाई करवाकर उसका भवन बनवा दें। राव भूपसिंह को स्वप्न तो याद रहा। पर वह स्थान याद नहीं रहा जहां मां ने अपनी मूर्ति होने की जानकारी दी थी। अब तो राव भूपसिंह की बेचैनी बढ़ने लगी। जब पीड़ा असहनीय हो गई तो उन्होंने बनारस के विद्वान ब्राह्मणों को बुलाकर अपनी समस्या बताई।ब्राह्मणों ने राव को इसके लिए सतचंडी यज्ञ करने का सुझाव दिया। राव तुरंत तैयार हो गए। शतचंडी यज्ञ हुआ और यजमान बने राव ने रात्रि विश्राम यज्ञ प्रांगण में ही किया। रात्रि में मां सर्वमंगला देवी ने उन्हें फिर स्वप्न दिया और वह स्थान बताया जहां उनकी प्रतिमा दबी थी। सुबह होते ही राव ने ब्राह्मणों को स्वप्न की जानकारी दी और ब्राह्मणों के निर्देश पर राव भूपसिंह ने मां द्वारा बताये स्थान पर खुदाई शुरू कराई तो वहां मां की इस मूर्ति को देखकर राव ने इसे अपनी हवेली के बाहर लगाने का मन बनाया। मजदूरों को मूर्ति सुरक्षित निकालने का हुक्म दिया। मजदूरों ने काफी कोशिश की मगर हार थक्कर बैठ गए। मूर्ति के एक पैर का कोई ओर छोर नहीं मिला। तब मां ने राव को बताया कि उनका एक पैर पाताल में है। इसलिए मेरा इसी स्थान पर मंदिर बनवाओ। और इसी तरह मां सर्वमंगला देवी के मंदिर का निर्माण हुआ। बताया जाता है कि राव भूप सिंह के वंशज कल्याण सिंह के कोई संतान नहीं हुई। इससे वह काफी विचलित हुए और बनारस के विद्वान दर्माचार्यों की शरण ली। धर्माचायों ने कहा कि जब तक मैया का चढ़ावा खाना बंद नहीं करोगे, संतान सुख असंभव है। कल्याण सिंह ने इस पर तुरंत अमल किया और मैया की पूजा सेवा के लिए दो ब्राह्मणों को दायित्व सौंप दिया। इसी के बाद राव कल्याण सिंह को संतान की प्राप्ति हुई। बेलोन वाली मैया के प्रांगण में हर साल बलिदान दिवस भी मनाया जाता है। यह चैत्र शुक्ल की त्रयोदश एवं आश्विन माह के शुक्लपक्ष की त्रयोदशी को मनाया जाता है।  तीन दशक पूर्व .बकरे की बलि दी जाती थी।  मां बेलोन का भवन जहां बना है वह बेलपत्रों का वन क्षेत्र है। प्रारंभ में लोग


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शनिवार, मार्च 29, 2025

बिहार की नदियाँ : जीवन धारा

: बिहार की नदियां और विलुप्त होती नदियां 
वेदों , पुराणों , स्मृति ग्रंथों , बौद्ध , जैन ग्रंथों में बिहार की नदियों का उल्लेख मिलता है। जल स्वच्छ जीवन संरक्षित , पर्यावरण संरक्षण , नदियों की संरचना एवं विकास के लिए स्मृति ग्रंथों , इतिहास के पन्नों के अनुसार मन्वंतर काल में राजा अंशुमान , राजा भगीरथ , ऋषि शिलाद , अगस्त , पृथु , अंग , कौशिक संबतसर काल मे चंद्रगुप्त , अशोक , चाणक्य , गुप्तकाल  आदि  ने नदियों , पर्यावरण को संरक्षण एवं संबर्द्धन किया था । भगवान शिव , विष्णु , ब्रह्मा जी , जल देव वरुण ने नदियों , प्रकृति संरक्षण के लिए महत्वपूर्ण दिया है। बिहार की नदियों में गंगा , फल्गु , पुनपुन , कोशी , बागमती , गंडक बटाने , मोरहर , मोहाने , लिलांजन नदियाँ , सोन नद  और विलुप्त हिरण्यबाहु आदि  नदियां बिहार के विभिन्न जिलों में प्रवाहित होती है । गया जिले की मोरहर ,  फल्गु ,  नीलांजन , मोहाने  , बूढ़ी नदियाँ जहानाबाद जिले की दरधा , जमुनाइ , बल्दैया ,  औरंगाबाद जिले की आद्री , बटाने , मदार औरंगा , धावा नदियाँ , नालंदा जिले की लोवाईन ,मोहाने , जिरायन , कुंभारी , गोइठवा नदियाँ , नवादा जिले की सकरी , खुरी ,पंचाने ,भुसरी ,वाय ,तिलैया , धनंजय ,  नादी नदियाँ , अरवल जिले की विलुप्त  हिरण्यबाहु नदियाँ , पटना जिले की लोआई  बारहमासी नदियां थी। इन नदियां  भीषण गर्मी में भी अगर कोई नदी के सतह पर मामूली खुदाई कर देने पर पानी निकल आता था।
वर्ष 2015 में बृजनंदन पाठक की याचिका 2015 पर सुनवाई करते हुए पटना हाईकोर्ट ने प्रशासन को तीन कदम फौरी तौर पर उठाने का आदेश दिया था। नदी के दोनों ओर हुए अवैध निर्माण को तत्काल ध्वस्त किया जाए। शहर की गंदगी जो फल्गु में बहायी जा रही है, उसपर रोक लगाया जाए। साथ ही हाई कोर्ट ने नदी में बांध बनाने का आदेश दिया। कोर्ट का अंदाज़ा था कि बांध से बारिश के पानी को अत्यधिक रोका जा सकेगा।
विशेषज्ञ गजेटियर के हवाले से नदी की संरचना पर टिप्पणी करते हैं। मगध क्षेत्र की भौगोलिक संरचना, इतिहास और कुछ प्रमुख प्राकृतिक आपदाओं के हवाले से कहा जाता है कि एक समय पर ये नदियां सालों भर बहती थी। अप्रैल में जब गया का तापमान अप्रैल में ही 40 डिग्री सेल्सियस पार कर चुका था । मई-जून में जब तापमान 45-46 डिग्री सेल्सियस तक चला जाता है । जहानाबाद एवं गया क्षेत्र की फल्गु और दरधा-आदि  कभी बारहमासी हुआ करती थीं। 
वर्ष 2015 में बृजनंदन पाठक की याचिका पर सुनवाई करते हुए 2015 ई. को पटना हाईकोर्ट ने प्रशासन को तीन कदम फौरी तौर पर उठाने का आदेश दिया था। नदी के दोनों ओर हुए अवैध निर्माण को तत्काल ध्वस्त किया जाए। शहर की गंदगी जो फल्गु में बहायी जा रही है, उसपर रोक लगाया जाए। साथ ही हाई कोर्ट ने नदी में बांध बनाने का आदेश दिया। कोर्ट का अंदाज़ा था कि बांध से बारिश के पानी को अत्यधिक रोका जा सकेगा। हाईकोर्ट के आदेश के बावजूद सरकार का रवैया “ढ़ाक के तीन पात” वाला ही रहा। लिहाजा सरकार पर कोर्ट की अवमानना की सुनवाई भी चल रही है।   पटना हाईकोर्ट के न्यायमूर्ति शिवाजी पांडेय व न्यायमूर्ति पार्थसारथी की खंडपीठ ने राधेश्याम शर्मा की जनहित याचिका पर कार्रवाई करते हुए 2029 ई. को गया के जिलाधिकारी को निर्देश दिया कि फल्गु नदी को अतिक्रमण मुक्त करवाया जाए। कोर्ट ने जिला प्रशासन को अवैध निर्माणों पर जांच के तत्काल आदेश भी दिया था। सुनवाई के दौरान कोर्ट को बताया गया था कि एक तो नदी में शायद ही पानी रहता है और ऊपर से किनारों पर अवैध कब्जा और स्थायी निर्माण से पूरी नदी लुप्त होने की कगार पर है। दक्षिण बिहार के मगध क्षेत्र का बड़ा भाग पठार क्षेत्र के कारण  जल संचयन की विशिष्ट व्यवस्था हुआ करती थी। वह व्यवस्था थी अहर-पईन और तालाबों की। अहर पईन से ही सिंचाई हुआ करती थी। पईन मगध क्षेत्र की एक पारंपरिक व्यवस्था है जिसका इस्तेमाल सिंचाई के साथ-साथ पेयजल के लिए भी किया जाता है। इसका निर्माण प्राकृतिक ढाल के अनुरूप होता है। मगध क्षेत्र की नदियों में पानी नहीं रहने की एक वजह पईनों को भी बताया जाता है। नदी के पानी को पईनों के जरिए सिंचाई के लिए खेतों की ओर मोड़ दिया गया है। 
बिहार की नदियां :   गंगा नदी - उतराखण्ड राज्य का गंगोत्री हिमनद के गोमुख से प्रवाहित होने वाली गंगा नदी 2510 किमी लंबी एवं बिहार में 445 किमी। तय करती हुई बंगाल राज्य के बंगाल की खाड़ी व गंगासागर में मिलत्ती है ।  
कोसी नदी - नेपाल का गोसाई की सप्तकाउस  से 720 किमी लंबी एवं बिहार में 260 किमी लंबाई में प्रवाहित होनेवाली  कोशी नदी गंगा में मिलत्ती है । बागमती नदी - नेपाल का महाभारत श्रेणी से 597 किमी लंबी  एवं बिहार में 394 किमी लंबाई युक्त बागमती नदी प्रवाहित होती हुई देवापुर की लालबकेया नदी में मिलत्ती है।मोरहर नदी - झारखण्ड राज्य का चतरा जिले के परतापुर प्रखण्ड की कुंडा राजकिला के समीप मोरहर नदी निकली है । मोरहर नदी गया , जहानाबाद , पटना जिले के पालीगंज प्रखण्ड क्षेत्र में पुनपुन नदी में मिलत्ती है। मोरहर नदी की सहायक नदी में दरधा , जमुनाइ , गंगहर , बल्दैया नदियाँ लुप्त के कगार पर है।
सरयू नदी - नेपाल की गुरला मान्धाता श्रेणी पर 1180 किमी लंबी एवं बिहार में 83 किमी लंबी युक्त सरयू नदी गंगा नदी में मिलत्ती है।बूढ़ी गंडक नदी - विसंभारपुर में सोमेश्वर श्रेणी में स्थित धौतरवा चौर से 320 किमी लंबी नदी मुंगेर के गंगा नदी में मिलत्ती है।गंडक नदी - नेपाल का अन्नपुर्णा पर्वत के कुतांग तथा मानंगमोट से 630 किमी लंबाई एवं बिहार के 260 किमी लंबीयुक्त गंडक नदी प्रवाहित होती हुई वैशाली जिले के हाजीपुर की गंगा नदी में मिलत्ती है।
कमला नदी - नेपाल की महाभारत श्रेणी से उत्पन्न होने वाली एवं 328 किमी लंबी और बिहार मैं 120 किमी लंबाई कमला नंदी एवं महानंदा नदी 376 किमी लंबी तथा बिहार में 360 किमी लंबी महानंदा नदी गंगा में मिलत्ती है ।
पुनपुन नदी -  200 किमी. लंबी एवं 7747 वर्गकीमि में फैली झारखण्ड का छोटानागपुर पठार के पलामू जिले के चंदवा से प्रवाहित होने वाली पुनपुन नदी पटना स्थित फतुहा गंगा नदी में मिलत्ती है। गया जिले की नदियों में फल्गु , नीलांजन , मोहाना , मोरहर , गंगहर , बूढ़ी नदी , सोरहर , जहानाबाद जिले की नदियां दरधा , जमुनाइ , बल्दैया , फल्गु , अरवल जिले की पुनपुन नदी ,  सोन नद , विलुप्त हिरणबहु नदी ( अरवल जिले का करपी, कलेर औरंगाबाद जिले का गोह , हसपुरा प्रखण्ड , पटना जिले का पालीगंज प्रखण्ड  क्षेत्र में हिरन्यबाहु नदी को  बह नाम से ख्याति है )  , औरंगाबाद जिले की पुनपुन , सोन , बटाने , आद्री , मदार , औरंगा , धावा नदियाँ , नवादा जिले की सकरी , खुरी , पंचाने , मुसरी ,वाय ,तिलैया धनंजय नादी नदियाँ , नालंदा जिले की लोकाइन , मोहाने , जिरायन, कुंभारी ,फल्गु गोइठवा नदियाँ , पटना जिले की गंगा , पुनपुन , सोन , लोवाई नदियाँ प्रवाहित है। भोजपुर जिले में कुम्हारी ,चेर, बनास ,गंगा , सोन  , गांगी नदियाँ , रोहतास जिले की दुर्गावती ,बंजारी ,कोयल ,सूरा नदी ,सोन नद  , कैमुर जिले में करमनासा ,सुवर्ण ,सूअरा नदी बक्सर जिले में गंगा , ठोरा नदी प्रवाहित होती है। मुजफ्फरपुर जिले में गंडक , बूढ़ी गंडक , बागमती ,लखनदेई फरदो नदी , पश्चमीचम्पारण जिले में पंचनद , मनोर ,भापसा ,कपन ,सिकरहना गंडक ,छोटी गंडक ,गंडक नारायणी , सदबाहि गंडक ,मसान , हरबोरा ,पंडाई , दोहरम नदियाँ , पूर्वी चंपारण में घनौती , छोटी गंडक, नारायणी नदियाँ , बेगूसराय जिले में बलान , गंगा ,बूढ़ी गंडक ,बैती  ,बाया ,चंद्रभागा ,कोशी ,करेहा ,चन्ना ,कचना ,मोनरिया नदियाँ , मुंगेर जिले में गंगा , मान ,बेलहरनी , महाना नदियाँ , दरभंगा जिले में बागमती ,कोसी ,कमला ,करेह नदियाँ ,सीतामढ़ी जिले में बागमती ,लखनदेई ,अघवारा ,झीम, लाल बकेया , चाकनाहा ,जमुने ,सिपरिधार ,कोला ,छोटी बागमती ,नदियाँ प्रवाहित है । खगड़िया जिले में गंगा , बूढ़ी गंडक ,कोसी ,कमला ,करेह ,काली कोशी ,, बागमती  नदियाँ , वैशाली जिले में गंगा , गंडक , बाया नून नदियाँ  प्रवाहित है। भागलपुर जिले में गंगा , कोसी , चंदन  नदियाँ , मधुबनी जिले में कमला , बलान ,सोनी ,बागमती ,भुतही बलान ,कोसी धार ,धौस  नदियाँ , शिवहर जिले में बूढ़ी गंडक , बागमती नदियाँ , मधेपुरा जिले में कोसी ,सुरसर , परमान नदियाँ , बांका जिले में चांदन ,बेलहरणी ,बहुआ( बरुआ ) ,ओढ़नी ,चिरमंदर , सुखनिया नदियाँ , लखीसराय जिले में गंगा , किउल , हरुहर , जमुई जिले में उलाई ,किउल ,मुराही,अजय ,बरनार ,झांझी नदियाँ , सारण जिले में गंगा , गंडक घाघरा नदियाँ , गोपालगंज जिले में गंडक ,झारही ,खनवा ,दाहा ,खनुआ ,बाणगंगा ,सोना , छारी , धमाई ,स्याही ,घोघारी नदियाँ बगहा में गंडक नदी प्रवाहित होती है । कटिहार जिले की गंगा ,कोसी ,महानंदा ,रिघा , बारण्डी , कारी नदियाँ , पुर्णिया जिले की कोसी ,महानंदा ,सौरा ,सुबारा कराली , कोली ,पनार ,कनकई ,दारात , वकरा , परमान नदियाँ , अररिया जिले में कोसी ,सुबारा ,काली ,परमार ,कोली नदियाँ , किसनगंज जिले की महानंदा ,कनकई ,भेंक ,मेची रतुआ नदियाँ , सहरसा जिले में कोसी घेमरा ,तिलावे नदियाँ , समस्तीपुर जिले में बूढ़ी गंडक ,वाया ,कोसी , बलान ,करेह ,झमवारी ,गंगा नदियाँ , सुपौल जिले में कोसी ,तिलयुगा ,छैमरा ,काली ,तिलावे ,भेंगा ,मिचैया सुरसर नदियाँ प्रवाहित होती है।
 बिहार में नदियों का संकट: विलुप्त होती जलधाराएँ नदियों का प्रदेश,  जल संकट की गंभीर चुनौतियों का सामना कर रहा है। कभी अपनी प्राकृतिक सुंदरता और समृद्धि के लिए जानी जाने वाली यहाँ की कई नदियाँ आज विलुप्त होने के कगार पर हैं। इन नदियों के सूखने से न केवल पर्यावरण पर नकारात्मक प्रभाव पड़ रहा है, बल्कि स्थानीय लोगों की आजीविका और जीवनशैली भी खतरे में है। विलुप्त होती प्रमुख नदियाँ: लखंदी लखनदेई , नून, बलान, कादने, सकरी, तिलैया, धाधर, छोटी बागमती, सौरा, फल्गु, मोरहर , दरधा , जमुनाइ , बल्दैया , लिलांजन , मोहाने , भूरहा , पुनपुन , चंद्रभागा, किउल, धमई, सोना, अदरी, बांसी, कंचन और धर्मावती:  नदियाँ बिहार के विभिन्न क्षेत्रों में फैली हुई हैं और स्थानीय समुदायों के लिए जीवनरेखा का काम करती हैं। लेकिन, जलवायु परिवर्तन, अनियोजित विकास और मानवीय गतिविधियों के कारण ये नदियाँ सूख रही हैं।
चंद्रभागा नदी: बेगूसराय के बखरी अंचल क्षेत्र में बहने वाली यह नदी पानी की कमी से विलुप्त होने की कगार पर है।
किउल नदी: जमुई जिले में किसानों की जीवनदायिनी मानी जाने वाली यह नदी भी अब सूखने लगी है।
सौरा नदी: पूर्णिया जिले में स्थानीय लोगों के प्रयासों से इस नदी को पुनर्जीवित करने के प्रयास किए जा रहे हैं।
धमई और सोना नदी: गोपालगंज जिले में इन नदियों का अस्तित्व खतरे में है।
अदरी नदी: औरंगाबाद जिले में किसानों के लिए महत्वपूर्ण यह नदी भी विलुप्त होने की कगार पर है।
बांसी नदी: पश्चिम चंपारण जिले में सिल्ट जमने से इस नदी के अस्तित्व पर खतरा मंडरा रहा है।
कंचन और धर्मावती नदी: इन नदियों में मीठे जल के जलीय जीव पाए जाते हैं, लेकिन अब ये नदियाँ सूखने लगी हैं।
चंद्रावत नदी : बेतिया ( पश्चमीचम्पारण ) लुप्तप्राय हो गयी है। 
फरका नदी : मुजफरपुर की फरका नदी लुप्तप्रायः हो गयी है।
गया एवं जहानाबाद जिला  क्षेत्र की फल्गु नदी , मोरहर , निलंजल , मोहने , भूरहा और दरधा ,  जमुनाइ , बल्दैया , नीलांजन , मोहाने , ओरंगाबाद जिले क्षेत्र की  आद्री , बटाने , पुनपुन , पटना जिले की लोआई   आदि  नदियाँ भी विलुप्त हो रही हैं। नदियों के विलुप्त होने के कारण: जलवायु परिवर्तन: वर्षा की अनियमितता और तापमान में वृद्धि नदियों के सूखने का मुख्य कारण है। मानवीय गतिविधियाँ: अनियोजित विकास, वनों की कटाई, प्रदूषण और जल का अत्यधिक दोहन नदियों के स्वास्थ्य को प्रभावित कर रहे हैं। शहरीकरण और औद्योगीकरण: शहरों और उद्योगों से निकलने वाला कचरा नदियों में मिल रहा है, जिससे पानी जहरीला हो रहा है। सिंचाई परियोजनाएँ: नदियों पर बाँध और नहरों के निर्माण से जल का प्रवाह प्रभावित हो रहा है। अवैध खनन: नदियों से रेत और अन्य खनिजों का अवैध खनन भी नदियों के सूखने का कारण बन रहा है। नदियों के संरक्षण के उपाय: जल संरक्षण: वर्षा जल संचयन और जल के उचित उपयोग को बढ़ावा देना। वनीकरण: नदियों के किनारे पेड़ लगाना और वनों की कटाई को रोकना। प्रदूषण नियंत्रण: उद्योगों और शहरों से निकलने वाले कचरे के उचित निपटान के लिए सख्त नियम बनाना। जागरूकता अभियान: लोगों को नदियों के महत्व के बारे में जागरूक करना और उन्हें जल संरक्षण के लिए प्रेरित करना। सरकारी नीतियाँ: नदियों के संरक्षण के लिए प्रभावी नीतियाँ बनाना और उन्हें सख्ती से लागू करना।
स्थानीय समुदायों की भागीदारी: नदियों के संरक्षण में स्थानीय समुदायों को शामिल करना और उनकी पारंपरिक ज्ञान का उपयोग करना। बिहार की नदियों को बचाने के लिए तत्काल और सामूहिक प्रयास आवश्यक हैं। यदि हम अभी कार्रवाई नहीं करते हैं, तो हम एक ऐसी भविष्य की ओर बढ़ रहे हैं जहाँ जल की कमी एक गंभीर समस्या होगी।
बिहार में नदियों का संकट: एक विस्तृत विश्लेषण
बिहार, नदियों का राज्य, अपनी उपजाऊ भूमि और समृद्ध जल संसाधनों के लिए जाना जाता है। गंगा, कोसी, गंडक, बागमती और सोन जैसी नदियाँ यहाँ की जीवनरेखा रही हैं। लेकिन, हाल के वर्षों में, बिहार की नदियाँ गंभीर संकट का सामना कर रही हैं। कई नदियाँ सूख रही हैं, प्रदूषित हो रही हैं, और अपने प्राकृतिक प्रवाह को खो रही हैं।
संकट के कारण: जलवायु परिवर्तन: वर्षा के पैटर्न में बदलाव, अनियमित मानसून और तापमान में वृद्धि नदियों के जल स्तर को प्रभावित कर रहे हैं। ग्लेशियरों के पिघलने से नदियों के प्रवाह में बदलाव आ रहा है।मानवीय गतिविधियाँ:अनियंत्रित शहरीकरण और औद्योगीकरण नदियों में प्रदूषण बढ़ा रहे हैं।कृषि में रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों का अत्यधिक उपयोग नदियों के पानी को दूषित कर रहा है।नदियों से रेत और अन्य खनिजों का अवैध खनन उनके प्राकृतिक प्रवाह को बाधित कर रहा है।सिंचाई परियोजनाओं और बांधों का निर्माण नदियों के प्राकृतिक प्रवाह को बदल रहा है।वनोन्मूलन:वनों की कटाई से मिट्टी का कटाव बढ़ रहा है, जिससे नदियों में गाद जमा हो रही है।
वनों की कमी से जल धारण क्षमता कम हो रही है, जिससे नदियों में पानी का प्रवाह कम हो रहा है।संकट के प्रभाव: जल संकट:नदियों के सूखने से पीने के पानी और सिंचाई के लिए पानी की कमी हो रही है।भूजल स्तर गिर रहा है, जिससे कुएँ और नलकूप सूख रहे हैं।पर्यावरणीय क्षति:नदियों में प्रदूषण से जलीय जीवन खतरे में है।नदियों के सूखने से जैव विविधता का नुकसान हो रहा है।नदियों के प्राकृतिक प्रवाह में बदलाव से बाढ़ और सूखा जैसी आपदाओं का खतरा बढ़ रहा है।आर्थिक प्रभाव:किसानों की फसलें सूख रही हैं, जिससे उनकी आय कम हो रही है।मछली पालन उद्योग प्रभावित हो रहा है, जिससे मछुआरों की आजीविका खतरे में है।
पर्यटन उद्योग पर नकारात्मक प्रभाव पड़ रहा है।सामाजिक प्रभाव:जल संकट से सामाजिक तनाव और संघर्ष बढ़ रहे हैं।लोगों का स्वास्थ्य प्रभावित हो रहा है, क्योंकि प्रदूषित पानी से बीमारियाँ फैल रही हैं।समाधान के उपाय:जल संरक्षण:वर्षा जल संचयन को बढ़ावा देना।जल के कुशल उपयोग के लिए सिंचाई तकनीकों में सुधार करना।लोगों को जल संरक्षण के बारे में जागरूक करना।प्रदूषण नियंत्रण:औद्योगिक और शहरी कचरे के उचित निपटान के लिए सख्त नियम लागू करना।कृषि में रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों के उपयोग को कम करना।नदियों की सफाई के लिए अभियान चलाना।वन संरक्षण:वनों की कटाई को रोकना और वनीकरण को बढ़ावा देना।नदियों के किनारे वृक्षारोपण करना।सतत विकास:नदियों के प्राकृतिक प्रवाह को बनाए रखने के लिए सिंचाई परियोजनाओं और बांधों का निर्माण करते समय सावधानी बरतना।नदियों से रेत और अन्य खनिजों के अवैध खनन पर रोक लगाना। नदियों के किनारे होने वाले अतिक्रमण को रोकना। जागरूकता और शिक्षा: लोगों को नदियों के महत्व के बारे में शिक्षित करना। समुदायों को जल संरक्षण और प्रदूषण नियंत्रण में शामिल करना। स्कूलों और कॉलेजों में जल संरक्षण और पर्यावरण संरक्षण के बारे में पाठ्यक्रम शामिल करना। बिहार की नदियों को बचाना एक बड़ी चुनौती है, लेकिन यह असंभव नहीं है। सरकार, नागरिक समाज और लोगों को मिलकर काम करना होगा ताकि नदियों को पुनर्जीवित किया जा सके और आने वाली पीढ़ियों के लिए एक स्वस्थ और समृद्ध भविष्य सुनिश्चित किया जा सके ।
 मोक्ष और ज्ञान दायिनी पुनपुन नदी 
सनातन धर्म  संस्कृति में में नदियों में गंगा, यमुना, ताप्ती, गोदावरी, सरस्वती, फल्गु और पुनपुन नदी का बड़ा महत्वपूर्ण है। वेदों, पुराणों एवं इतिहास के पन्नों में पुनपुन नदी को मोक्ष नदी कहा गया है। प्राचीन काल में पुनपुन नदी को कीकट नदी, बमागधी नदी , सुमागधी , पुण्या नदी नदी कहा गया है। सृष्टि के प्रथम स्वयंभुव मनु के मनवन्तर काल में झारखंड राज्य का  पलामू जिले के  उत्तरी क्षेत्र से समुद्र तल से 980 फीट ऊंची स्थित पिपरा प्रखंड के सरइया पंचायत के चौराहा पहाड़ियों के मध्य में  अवस्थित कुंड स्थल पर वैदिक ऋषि सनक, सनातन, कपिल, पंचशिख और सनंदन ब्रह्मा जी की  लिए घोर तप किए थे। ऋषियों के घोर तप के कारण ब्रह्मा जी ने दर्शन देकर वरदान देने के क्रम में ऋषियों ने अपने स्वेद अर्थात पसीने से ब्रह्मा जी का पांव पैर पखारने लगे परन्तु ऋषियों के स्वेद युक्त कमंडल से भूमि पर गिर जाता था। इस तरह पाच ऋषियों का भूस्थल पर स्वेद गिरने से  ब्रह्मा जी ने पुन:पुन: शब्द कह कर सहस्त्र धारा ऋषियों के स्वेद को पवित्र किया था जिससे वहां पाच कुंड से अविरल धारा प्रवाहित होने लगी। ब्रह्मा जी ने स्वेद युक्त सहत्र धारा की महत्ता और नदी के जल में स्नान, जल तर्पण और नदी के तट पर व्यक्ति द्वारा अपने पूर्वजों को पिंडदान जलांजलि अर्पित करेगा उनके पूर्वज मोक्ष और पितृ ऋण, मातृ ऋण और गुरु ऋण से मुक्ति तथा मनोकामनाएं पूर्ण होगी। वह स्थान कुंड ग्राम से ख्याति मिली है। पाच कुंड के स्रोतों से  प्रवाहित पुनपुन नदी टंडवा के दक्षिणायन पुनपुन गोरकटी में प्रवाहित होकर सोमीचक से प्रारंभ होकर सोन नद का समानांतर होते हुए औरंगाबाद, अरवल और पटना के फतुहा के समीप गंगा में समाहित है। पुनपुन नदी छोटानगपुर पठार के पलामू जिले का पठार उतरी कोयल प्रवाह क्षेत्र के उतर से निकलकर सोन नद के समानांतर पुनपुन नदी का जल प्रवाह होता है। पुनपुन नदी की लंबाई 120 मील दूरी पर प्रवाहित होकर 3250 वर्गमील क्षेत्रफल में विकसित होकर जलसंभर आकार प्रदान करती हसि । पुनपुन नदी को पुण्या नदी , कीकट नदी , कीकट नली , बमागधी , सुमागधी  , पुण्य पुण्य नदी कालांतर पुनपुन नदी कहा जाता है । पुनपुन नदी का उल्लेख वायु पुराण , पद्मपुराण , गरुड़ पुराण , गस्य महात्म्य तथा गजेटियर में किया गया है ।
 ब्रह्मा जी की सहस्त्र धारा और पांच ऋषियों के स्वेद ( पसीने ) से युक्त पांच कुंड का पुनपुन की अविरल धारा पूर्वजों का मोक्ष और इंसान का सद्गुण के पथ पर चलने का मार्ग प्रशस्त करता है। कीकट प्रदेश की प्रमुख कीकट नदी और वैवस्वत मन्वंतर में मगध की पवित्र सुमागधी या बमागधी और ब्राह्मण धर्म संस्कृति में पुन: पुना: के नाम से ख्याति प्राप्त हुई हैं। त्रेता युग में इक्ष्वाकु वंश के भगवान् राम ने अपने पूर्वजों को मोक्ष प्रदान करने के लिए पटना जिले के पुनपुन में अवस्थित पुनपुन नदी के तट पर तथा वैशाली के राजा विशाल , द्वापर युग में पांडवों द्वारा अरवल जिले के पंतित अवस्थित पुनपुन नदी में स्नान कर अपने पूर्वजों की मोक्ष हेतु जलांजलि और पिंड अर्पित किया है। अरवल जिले के करपी से तीन किलोमीटर पर स्थित पुनपुन नदी के किनारे कात्यायनी माता के नाम पर कोयली घाट , पुनपुन नदी और मदार नदी के संगम पर भृगु ऋषि का आश्रम भृगुरारी तथा च्यवन ऋषि का प्रिय नदी थी। पुनपुन नदी में मोरहर, बटाने, अदरी, मदार बिखरी, धोवा एवं हिररण्यबाहु ( बह ) नदियों का जल विभिन्न स्थलों पर समाहित है।8 वीं सदी में सुमागधी को पुन:पुन: बाद में पुनपुन नाम से विख्यात है। गरुड़ पुराण पूर्व खंड अध्याय 84 में कहा गया है कि 
कीकटेशु गया पुण्या ,पुण्यम राजगृहम वनम । च्यवनस्य पुण्यम नदी पुण्यों पुन: पुना:।।
1909 ई. में राजस्थान का खेतरी निवासी सुर्यमल जी, शिवप्रसाद झुनझुनवाला बहादुर ने पुनपुन में पुनपुन घाट पर धर्मशाला का निर्माण करा कर पिंडदान करने वालों के लिए कार्य किया। टंडवा में पुनपुन महोत्सव आयोजन कर पुनपुन नदी की अस्मिता की सुरक्षा और विकास प्रारंभ किया गया है। धारवाड़ तंत्र भुगर्भिक काल का छोटनगपुर पठार के मध्य और पूर्वी हिस्सों की परतदार चट्टाने 1800 मिलियन वर्ष पूर्व आग्नेय, शिफ्ट और नाईस से निर्मित है। विंध्य तंत्र की उत्पति विंध्य पर्वत से हुआ है। कृतेशस ( खड़िया या चाक ) उप महा कल्प का विस्तार 140 पूर्व झारखंड का क्षेत्र है। प्राय द्वीपीय भारत की चट्टानों की उत्पति 3600 मिलियन वर्ष पूर्व हुई है। पुनपुन नदी का उद्गम स्थल पर सनक कुंड, सनातन कुंड, कपिल कुंड, सनंदन कुंड और पंचशीख कुंड जिसे झील कहा जाता है। यह झील भू स्खलन तथा शैल पात के कारण हुआ था। झीलों का नदी के परिवर्तन होने पर कीकट नदी कहलाने लगा था बाद में पुनपुन नदी और फल्गु नदी के मध्य स्थल को किकट प्रदेश दैत्य संस्कृति के समर्थक गया सुर द्वारा निर्माण किया गया। किकट प्रदेश की राजधानी गया में रखा था। ब्रह्म पुराण के अनुसार सती साध्वी पुनियां किकट नदी के किनारे तपस्या के क्रम में इन्द्र द्वारा पुनीयां के सतीत्व की परीक्षा ली थी। इन्द्र और सभी देव पूनिया की सतीत्व पर प्रसन्न हो कर किकट नदी का नाम पुनपुन रखा और यह पूर्वजों की नदी एवं पितरों का उद्धारक और मानव संस्कृति साथ ही साथ मानव उद्धारक नदी की घोषणा की थी। पुनपुन नदी में स्नान, ध्यान, तर्पण करने वालों को कब्यवाह,सोम,यम, अर्यमा, अग्निश्वात , बहिर्षड और सोमपा पितरों को देवत्व प्राप्त तथा संतुष्टी होती है और मनोवांक्षित फल मिलता है। रुचि प्रजापति , प्रमलोचाना अप्सरा की दिव्य कन्या माननी, पितर अमूर्त, राजा विशाल, बुध , इला, वैवस्वत मनु का पवित्र नदी पुनपुन है।
 गंगा का पानी 2. 86 प्रतिशत लोगों को उपलब
गंगा के अविलाल प्रवाह पर गंगा नदी के किनारे बसे गावों , शहरों और कस्बों की बढ़ती आबादी , जल की बढ़ती मांग ,औद्योगिक करण और शहरीकरण  का प्रभाव पड़ने से  गंगा नदी के प्रभाव में कमी और दिशा प्रभावित हुई है ।गंगा के जलधारा  पर जलग्रहण लग गया है। बक्सर से कहलगांव तक गंगा की धारा दो दशक में सिकुड़ कर एक तिहाई हो गयी है।बिहार के बक्सर ,भोजपुर ,पटना ,वैशाली मुंगेर आदि जिलो सहित गंगा गुजराती है वहाँ की हवा में धूलकण की मात्रा अधिक हो जाती है । गंगा के किनारे एवं नाविक के अनुसार उत्तरप्रदेश ,की ओर गंगा में गाद अधिक जमा होती है ।इससे टीले उभरते और प्रदूषण का कारक बनते हैं। गंगा का बहु जल भंडारण 2 . 6  सेंटीमीटर प्रतिवर्ष हो रही है । गंगा नदी में कुल क्षमता 41. 2 प्रतिशत जल संग्रहित है। औद्योकिकरण और शहरों , गांवों के बढ़ते प्रभाव के कारण गंगा में जल की कमी से खिसक रहा भूजलस्तर है। मुंगेर में 30 वर्षों में गंगा नदी में 3 फिट गाद, खगड़िया में गंगा से सटे गांवों में भू जलस्तर गिरता जा रहा है । कटिहार के समीप मनिहारी गाँव आदि कई गांवों में मार्च से जुलाई तक जल स्तर कूपों , चापाकल , नदियों का जल स्तर नीचे चला जाता है ।भोजपुर जिले के शाहपूर्व बड़हरा प्रखण्ड के दर्जनों गाँव से गुजरने वाली गंगा में सालों भर पानी रहता था परंतु गर्मी में पानी सूख जाता है। ग्रमीणों के अनुसार गंगा में गाद की बहुलता के कारण गंगा की जल स्तर सिकुड़ गयी है । बेगूसराय जिले की गंगा नदी में 20 वर्षों पूर्व पानी रहता था  लेकिन गाद होने की वजह से गंगा जल मार्च से जून तक गंगा का पानी 3 की.मि. दूर हो जाती है। वैशाली जिले हाजीपुर और सारण जिले के सोनपुर में गंगा में जल  धारा के कम होने से 4 किमी सिकुड़ गयी है । पटना में गंगा की जल धारा 3 किमी सिकुड़ गयी है ।  देश के जल संसाधन 28 प्रतिशत गंगा नदी  का योगदान है । पीने का पानी और सिंचाई का संसाधन 2. 86 प्रतिशत  गंगा नदी उपलब्ध कराती है । गंगा की पवित्र जल धारा को संरक्षित और संबर्धन करना अति आवश्यक है ।

गुरुवार, मार्च 13, 2025

कैथी और मगध


लिपि विज्ञान में कैथी लिपि को कथी , कैथी ,  कायथी , कायस्थी , मागधी  या कायस्तानी  कहा जाता है ।   ब्राह्मी लिपि का  उत्तरी और पूर्वी भारत के हिस्सों में कैथी लिपि का  उपयोग किया जाता था।  उत्तर प्रदेश , बिहार और झारखंड के क्षेत्रों में कैथी लिपि प्रचलित थी । कैथी लिपि का उपयोग मुख्य रूप से कानूनी, प्रशासनिक और निजी अभिलेखों के लिए किया जाता था ।  इंडो-आर्यन भाषाओं के लिए अनुकूलित अंगिका , अवधी , भोजपुरी , बज्जिका , मैथिली , मगही और नागपुरी भाषाओं में कैथी का उपयोग किया जाता था  । 16वीं सदी से 20वीं सदी के मध्य तक कैथी प्रचलित थी । प्रोटो-सिनाईटिक वर्णमाल में फोनीशियन वर्णमाला व अरामी वर्णमाला में ब्राह्मी , गुप्ता , सिद्धं , नागरी , कैथी , चाइल्ड सिस्टम ,सिलहटी नगरी लिपि का सहयोगी लिपि में देवनागरी , नंदीनगरी ,गुजराती , मोदी लिपि थी ।
 19वीं शताब्दी के मध्य तक कैथी लिपि के स्वरों और व्यंजनों के हस्तलिखित रूप है । बाबू राम स्मरण लाल द्वारा 1898 ई. में  कैथी लिपि में लिखी गई भोजपुरी कहानी है।  कैथी लिपि का  लेखन, रिकॉर्ड रखने और प्रशासन से जुड़ा  सामाजिक-पेशेवर समूह  ने शाही दरबारों और बाद में ब्रिटिश औपनिवेशिक प्रशासन में राजस्व रिकॉर्ड, कानूनी दस्तावेज, शीर्षक कर्म और सामान्य पत्राचार बनाए रखा था । गुप्त काल में कैथी का प्रयोग होने के कारण गुप्त लिपि का गया था ।शेरशाह सूरी के सिक्कों पर कैथी लिपि  प्रयोग किया गया है। मुगल काल में कैथी लिपि का व्यापक रूप से उपयोग किया गया था। , ब्रिटिश राज के दौरान कैथी लिपि को 1880 ई. में बिहार की अदालतों की आधिकारिक लिपि के रूप में मान्यता दी गई थी । कैथी बंगाल के पश्चिम में उत्तर भारत की सबसे व्यापक रूप से इस्तेमाल की जाने वाली लिपि थी।  स्कूल प्राइमरी की संख्या 77368  में 1854 ई.  कैथी लिपि एवं  देवनागरी में 25,151 और महाजनी में 24,302 थे । ' हिंदी क्षेत्र में व्यापक रूप से इस्तेमाल की जाने वाली लिपियों में  कैथी को व्यापक रूप से तटस्थ माना जाता था । कैथी का इस्तेमाल हिंदुओं और मुसलमानों  द्वारा समान रूप से किया जाता था ।  पत्राचार, वित्तीय और प्रशासनिक गतिविधियों के लिए और देवनागरी का इस्तेमाल हिंदुओं द्वारा और इससे कैथी भाषा समाज के अधिक रूढ़िवादी और धार्मिक रूप से इच्छुक सदस्यों के लिए प्रतिकूल हो गई थी । हिंदी बोलियों के देवनागरी-आधारित और फ़ारसी-आधारित लिप्यंतरण पर जोर देते थे। उनके प्रभाव के परिणामस्वरूप और कैथी की अविश्वसनीय रूप से बड़ी परिवर्तनशीलता के विपरीत देवनागरी प्रकार की व्यापक उपलब्धता के कारण, देवनागरी को बढ़ावा दिया गया, विशेष रूप से उत्तर-पश्चिमी प्रांतों में, जिसमें वर्तमान उत्तर प्रदेश शामिल है । 
19वीं सदी के अंत में अवध में जॉन नेसफील्ड , बिहार में इनवर्नेल के जॉर्ज कैंपबेल और बंगाल  समिति ने शिक्षा में कैथी लिपि के इस्तेमाल की वकालत की। कानूनी दस्तावेज कैथी में लिखे गए थे और 1950 से 1954 तक बिहार की जिला अदालतों की आधिकारिक कानूनी लिपि थी। बिहार की अदालतें पुराने कैथी दस्तावेजों को पढ़ने के लिए संघर्ष करती हैं। कैथी लिपि को बिहारी लिपि , मागधी लिपि कहा जाता था । आजादी के पूर्व जमींदारों का दसतावेज कैथी में लिखा जाता था । कैथी को भोजपुरी, मगही , मैथिली , अंगिका , बज्जिका  और त्रिहुति भाषा का प्रयोग होता था । भोजपुरी - पूर्वी गुमटी, आरा में साइनबोर्ड , अंग्रेजी (ऊपर), भोजपुरी कैथी (नीचे-बाएं), और उर्दू (नीचे-दाएं) के साथ का प्रयोग भोजपुरी भाषी क्षेत्रों में किया जाता था और इसे कैथी की सबसे सुपाठ्य शैली माना जाता था। मगही - मगह या मगध का मूल निवासी यह भोजपुरी और त्रिहुति के बीच स्थित है। तिरहुति - तिरहुति का  प्रयोग मैथिली भाषी क्षेत्रों में किया जाता था और इसे सबसे सुंदर शैली माना जाता था। प्रथम  भोजपुरी त्रैमासिक बगसार समाचार 1915 में कैथी लिपि में प्रकाशित हुई थी। जॉर्ज अम्ब्राह्म  ग्रियर्सन द्वारा 1899 ई. में थैंकर स्पिक एंड कंपनी कलकत्ता से प्रकाशित पुस्तक कैथी कैरेक्टर , 1881 ई. की कायथी , 1902 ई. की भारतीय भाषा विज्ञान सर्वेक्षण खण्ड v भाग ।। एवं किंग आर क्रिस्टोफर की न्यूयार्क ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस से1995 ई. में  प्रकाशित पुस्तक एक भाषा दो लिपियाँ में कैथी लिपि का उल्लेख मिलता है ।