शुक्रवार, दिसंबर 11, 2020

बौद्धिक स्थल धराउत...


भारतीय ब्राह्मण धर्म का स्थल तथा बौद्ध धर्म की कर्म भूमि धराउत था । पुराणों के अनुसार देव सेनापति कार्तिक , भगवान नरसिंह की भूमि प्राचीन काल से थी । विंध्यपर्वत समूह के उतरी भाग का नाम करण विन्ध्योतर वासियो का राजा दैत्य राज हिरण्यकश्यपु का बध कर भगवान विष्णु के भक्त प्रह्लाद की रछा के लिए सतयुग के  अंगिरा संवत्सर वैशाख शुक्ल चतुर्दशी रविवार वरीयान योग में ऩरसिंह का अवतार द्वारा कर धरा का उद्धार किया गया गया था । वह स्थल धराउद के नाम से ख्याति प्राप्त हुई थी । धराउद में भगवान शिव के पुत्र देव सेनापति कार्तिक का प्रिय स्थल बराबर पर्वत समूह की सूर्यांक गिरि पर सिद्धों द्वारा  स्थापित सिद्धेश्वर नाथ   की उपासना करने के  पश्चात धराउद में कार्तिकेशवर शिवलिंग की स्थापना तथा माता सिद्धश्वरी की अराधना स्थल का निर्माण किया गया था ।धराउद में शैव ,  शाक्त , सौर तथा वैष्णव धर्म के उपासकों द्वारा शिव लिंग , काली , नरसिह , सूर्य तथा कार्त्कायन का मंदिर तथा मूर्त स्थापित किया गया था । बिहार राज्य का जहानाबाद जिले के मखदुमपुर प्रखंडान्तर्गत धराउत प्राचीन एवं एतिहासिक स्थल है ।  बराबर पर्वत समूह के उतर - पश्चिम 5मील की दूरी पर स्थित धराउत में बौद्ध भक्खुनी गौतमी का स्तूपहै । दछिणी भारत की महान बौद्ध  विद्वषी गौतमी तथा वैदिक और ब्राह्मण धर्म के विद्वान शाकद्वीपीय ब्राह्मण माधव के बीच शास्त्रार्थ  हुआ था । 7 वीं शदाब्दी ई. मे चीन के यात्री ह्वेणसांग द्वारा वैदिक धर्म के विद्वान माधव तथा बौद्ध धर्म के विद्वसी गौतमी का स्मारक पर जाकर अवलोकन किया गया था । धराउत की बौद्धिक विरासत तथा  शैव , शाक्त , सौर , वैष्णव , ब्रह्मण धर्म , दर्शन , बौद्ध धर्म की भूमि रही है । 185 - 75 ई. में शुंग वंश , 320 - 510 ई़ में गुप्त वंश के ऱाजाओं एवं  750 - 936 ई. तक पाल वंश और 1050 - 1197 ई. तक सेन वंश के राजाओं द्वारा धराउत का विकास हुआ था । 2077वर्ष पूर्व धराउत का राजा चंद्रसेन भगवान शिव तथा सू्र्य के उपासक थे । उन्होने शिव लिंग की स्थापना ,मंदिर का निर्माण , सूर्योपासना के लिए चंद्रपोखर , सूर्य मंदिर और कार्तिकायन , नरसिह भगवान की मूर्ति मंदिर का निर्माण कराया था । चंद्रसेन की पुत्री का विवाह उजैन का राजा विक्रमादित्य के साथ संपन्न हुआ था ।
उज्जैन नगरी के राजा विक्रमादित्य द्वारा सूर्य, चंद्रमा, मंगल, बुध, बृहस्पति, शुक्र, शनि, राहु और केतु नवग्रह बड़ा कौन है का निर्णय दिया गया था । ग्रह अपने को बड़ा बताने लगे कि सबसे बड़ा मैं हूं, जब आपस में निर्णय नहीं कर पाए तब झगड़ते हुए इंद्रदेव के पास गए। कहने लगे कि आप सभी देवताओं के राजा है इसलिए हमारा न्याय करके बताइए कि हम 9 ग्रहों में सबसे बड़ा ग्रह कौन हैं। देवराज इंद्र ने ग्रहों से कहा कि पृथ्वी पर उजैन का राजा विक्रमादित्य दुखों दूर करने वाले हैं इसलिए आप  लोग उनके पास जाकर अपने प्रश्न का उत्तर मांगो। वही तुम्हारे प्रश्न का उत्तर देंगे ।   उजैन राजा विक्रमादित्य के सभा में जाकर ग्रहगण  उपस्थित हुए। अपनी समस्या राजा से कही और उनकी समस्या को सुनकर राजा बड़ी सोच में पड़ गए । जिसे छोटा कहूंगा वह तो क्रोधित होगा लेकिन झगड़ा समाप्त करने के लिए राजा के दिमाग में एक उपाय सूझा और कहा कि सोना, कांसा, पीतल, रजत, सीसा, रांगा, जस्ता, अभ्रक, और लोहा  आदि नौ  धातुओं के लिए नौ आसन बनवाए गए। जिसके बाद राजा ने कहा कि आप लोग अपने अपने आसनों पर बैठ जाएं जिसका आसन आगे होगा वह सबसे बड़ा जिसका पीछे वह सबसे छोटा होगा। सबसे पीछे का आसन  लोहे का था।शनिदेव समझ गए कि राजा ने मुझे सबसे छोटा कहा है और उन्हें बहुत क्रोध आया और राजा से कहा कि तुम मेरे पराक्रम को नहीं जानते की सूर्य राशि पर एक माह, चंद्रमा पर सवा दो दिन, बृहस्पति 13 महीने, मंगल पर डेढ़ महीना, शुक्र पर एक एक महीना और राहु-केतु दोनों उल्टे चलते हुए केवल 18 महीने एक राशि पर रहता हूं, परंतु में एक ही राशि पर 3 महीने तक रहा हूं। जिसने मुझे वरदान दिया उसे  मैंने नहीं छोड़ा बड़े-बड़े देवताओं को भी मैंने नहीं छोड़ा भविष्य में दुख दिया। जब राम भगवान पर साढ़ेसाती आई  तो वनवास हुआ, रावण पर आई तो राम लक्ष्मण ने लंका पर चढ़ाई की जिससे कि रावण के भूल का नाश हुआ, तब विक्रमादित्य ने कहा कि भाग्य में लिखा है वह होकर रहेगा। बाकी सभी ग्रह खुशी पूर्वक वहां से चले गए। किंतु शनिदेव बड़े ही क्रोधित होकर वहां से चले गए। काल बीत गया तब राजा पर  साढ़ेसाती की दशा आई ।  शनि देव घोड़े के सौदागर बनकर अपने सुंदर-सुंदर घोड़ों के साथ राजा के राज्य में आए, राजा के सैनिक ने सौदागर के आने की खबर राजा को बताई तो राजा ने अपने अश्वपाल को अच्छे-अच्छे घोड़े खरीदने को कहा और अच्छे नस्ल के घोड़े का दाम सुनकर अश्वपाल चौक गया और राजा को इस बात की सूचना दी। राजा घोड़ा खरीदने के लिए स्वंम आए और उसमें से एक अच्छा घोड़ा सवारी के लिए चुन लिया और जैसे ही उस घोड़े पर सवार हुए वह घोड़ा उनको जंगल में बहुत दूर ले गया। राजा को जंगल में छोड़ कर वह घोड़ा अंतर्ध्यान हो गया।  राजा जंगल में भटकते भटकते बहुत दूर चले गए, और भूखा प्यास से व्याकुल हो रहे थे। तभी उन्हें एक ग्वाला दिखाई दिया ग्वाले ने राजा विक्रमादित्य को पानी पिलाया और राजा ने अपनी उंगली से अंगूठी निकाल कर उस ग्वाले को दे दिया।अब राजा आगे की ओर चल दिए जिस राज्य में राजा विक्रमादित्य पहुंचे वह राज्य राजा चंद्रसेन का था।  इन दोनों राज्यों में दुश्मनी थी क्योंकि राजा विक्रमादित्य ने धराउद का राजा  चंद्रसेन को युद्ध में पराजित किया था और उन्हें मृत्युदंड ना देकर जीवनदान दिया। इसी बात पर चंद्रसेन  क्रोधित होकर अपने राज्य चला आया और जितने भी विक्रमा नाम के व्यक्ति थे उन सभी को फांसी लगवा दिया करता था।  शनि देव भगवान के क्रोध से राजा विक्रमादित्य राजा चंद्रसेन की नगरी में जा पहुंचे। वहां के लोगों को यह पता नहीं था कि यह राजा विक्रमादित्य है। वहां पर लोगों ने राजा को पागल समझ कर पत्थर मारने लगे मारो इसे ! मारो इसे ! यह पागल नगरी में कहां से आ गया।  राजा विक्रमादित्य के कपड़े फटे हुए थे, हाथ पैर में से खून बह रहा था इसलिए सब प्रजा राजा विक्रमादित्य को पागल समझ रही थी । राजा विक्रमादित्य  के पास एक लकड़ी का व्यपारी आया और उन्हें अपने साथ ले गया। उस दिन उसकी दुकान पर बहुत ग्राहक आए और सेठ ने खुब धन कमाया। उस दिन उस दुकानदार की सारी लकड़ियां बिक गई। वह सेठ उस आदमी को भाग्यवान पुरुष समझ कर अपने घर भोजन कराने के लिए ले गया। भोजन करते समय राजा ने देखा की एक खूंटी पर हार लटक रहा है और वह खूंटी उस हार को निकल रही है। भोजन करने के पश्चात् सेठ को घर में वह हार नही मिला । उसने सोचा कि इस व्यक्ति के अलावा मेरे घर कोई और नहीं आया है लगता है कि इसी व्यक्ति ने मेरे हार की चोरी की है। परंतु राजा ने मना किया कि मैंने कोई हार नहीं चुराया तो वहां पर सात आठ आदमी इकठ्टे हो गए और उसको लेकर राजा चंद्रसेन के पास लेकर गए। राजा ने कहा शक्ल सूरत से तुम भले आदमी प्रतीत होते हो चोर नहीं लगते किंतु सेठ का कहना है कि तुम्हारे अलावा कोई और घर में नहीं था इसीलिए चोरी तुमने ही की है। तब राजा ने आज्ञा दी और राजा की आज्ञा का पालन किया गया। उसके हाथ-पैर कटवा दिए गए। कुछ काल व्यतीत होने पर एक तेली उसको अपने घर ले गया। और बीका को मतलब विक्रमादित्य को कोल्हू पर  बिठा दिया। बीका कोल्हू पर बैठा हुआ अपनी जुबान से बैल हकता रहा। अब राजा की साढ़ेसाती की दशा समाप्त हो गई। यह साढ़ेसाती राजा विक्रमादित्य की पत्नी की तपस्या और पूजा से समाप्त हुई। एक रात को वर्षा ऋतू के समय राजा विक्रमादित्य मल्हार राग गाने लगे तो उनका गाना सुनकर उस नगर की राजकुमारी गाने पर मोहित हो गई और अपनी सखी से कहा जाकर देखो तो यह कौन गा रहा है। तब उसे देखने के लिए सखी इधर उधर घूमती फिरती है और एक तेली के घर पहुंची उसने देखा कि एक चौरंगिया गा रहा है।  सखी ने महल जाकर राजकुमारी को बतलाया। राजकुमारी ने अपने मन में प्राण कर लिया कि मैं चौरंगिया से विवाह करूंगी। प्रातकाल राजकुमारी को दासी ने जगाया तो राजकुमारी ने कहा आज मेरा अनशन व्रत है। मैं नहीं उठूंगी यह बात दासी ने रानी को बताई तो रानी राजकुमारी के पास गई और कारण पूछा तो राजकुमारी ने कहा यह मैंने प्रण लिया है कि तेली के घर जो चौरंगिया है में उसी  से विवाह करूंगी। रानी ने कहा क्या तुम पागल हो गई हो तुम्हें पता भी है क्या कह रही हो। मैं तुम्हारा विवाह किसी राजा के साथ करवाउंगी लेकिन राजकुमारी कहने लगी कि मैंने प्रण किया है मैं उसी से शादी करूंगी। रानी ने तब राजा से कहा राजा ने भी यही समझाया कि हम तुम्हारा विवाह किसी देश के राजकुमार से करवाएंगे। तुम अपना प्रण तोड़ दो राजकुमारी ने कहा कि मैं अपने प्राण दे दूंगी लेकिन प्रण नहीं तोडूंगी। राजा ने कहा कि जैसी तुम्हारी इच्छा जो भाग्य में लिखा होगा वही होगा।राजा ने तेली को बुलाकर कहा कि जो तुम्हारे यहां चौरंगिया है उसके साथ  मैं अपनी पुत्री का विवाह करना चाहता हूं। तब तेली ने कहा ऐसा कैसे हो सकता है आप इतने बड़े राजा और कहां हम नीच तेली लेकिन बीका ने मना कर दिया उन्होंने कहा ऐसा नहीं हो सकता है लेकिन राजा ने अपनी लड़की का विवाह राजा विक्रमादित्य के साथ कर दिया। रात्रि को विक्रमादित्य और राजकुमारी महल में सोए थे।  तो आधी रात के समय शनिदेव ने विक्रमादित्य को स्वप्न दिखाया कि राजा तुमने मुझे छोटा बताकर कितना दुख उठाया। राजा ने क्षमा मांगी शनिदेव ने खुश होकर राजा को हाथ पैर दिए। तब राजा बोले शनिदेव मेरी आपसे एक प्रार्थना है कि मेरे जैसा दुख आप किसी को ना दे। शनिदेव ने कहा तुम्हारी यह प्रार्थना स्वीकार है तब शनिदेव ने कहा जो मनुष्य मेरी कथा सुनेगा या कहेगा मेरी दशा में किसी को किसी प्रकार का दुख नहीं होगा। जो मेरा प्रतिदिन ध्यान करेगा या चींटियों को आटा डालेगा उसकी सब मनोकामना पूर्ण होंगी। इतना कहकर शनिदेव अंतर्ध्यान हो गए। इस बीच राजकुमारी की आंख खुली और उसने देखा कि राजा के हाथ पैर सही हो गए हैं राजा ने राजकुमारी को अपना सब हाल बताया। मैं उज्जैन का राजा हूं। मेरा नाम विक्रमादित्य है। यह सुनकर राजकुमारी बहुत खुश हुई। सुबह राजकुमारी ने सखियों को अपने पति का वृत्तांत सुनाया।जब सेठ ने यह सुना तो वह राजा के पास गया और उनसे माफी मांगने लगा। राजा के पैरों पर गिरकर कहने लगा कि मैंने आपको चोरी का झूठा दोष लगाया था। आप जो चाहे वह दंड दे सकते हैं। तब राजा ने कहा कि मुझ पर शनिदेव का प्रकोप था इस कारण मुझे इतना दुख प्राप्त हुआ इसलिए इसमें तुम्हारा कोई दोष नहीं है। तुम अपने घर जाओ। तब सेठ ने कहा कि मेरी आत्मा को शांति तभी मिलेगी जब आप मेरे घर प्रतिभोज  करेंगे। राजा ने कहा ठीक है जैसी तुम्हारी मर्जी। सेठ ने अपने घर जाकर कई प्रकार के सुंदर और स्वादिष्ट भोजन बनवाए । जिस समय राजा भोजन कर रहे थे उसी समय उन्होंने एक आश्चर्यजनक घटना सबको दिखाई कि जो खूंटी हार को पहले निकल गई थी वह अब उगल रही थी। जब भोजन समाप्त हो गया तब सेठ  ने हाथ जोड़कर राजा को बहुत सी मोहरे दी और कहा कि हमारी एक कन्या है उसका नाम श्री कंबरी है। उसका पानी ग्रहण करें इसके बाद सेठ ने अपनी कन्या का विवाह राजा के साथ कर दिया और बहुत सा धन, दास -दासी आदि दिए। इस प्रकार कुछ दिनों तक वहां रहने के पश्चात राजा विक्रमादित्य अपने राज्य जाने के लिए कहा और राजकुमारी और श्री कंबरी दोनों जगह के दहेज में मिले अपने धन और दास - दासी सहित राजमहल उज्जैन नगरी की ओर चल दिए। जब नगरवासियों ने राजा के आने का समाचार सुना तो समस्त उज्जैन की प्रजा स्वागत के लिए आई। राजा प्रसंता पूर्वक अपने महल में पधारे सारे नगर में बड़ा भारी उत्सव मनाया गया और रात्रि को दीपमाला जलाई गई। उस दिन राजा ने पूरे राज्य में यह सूचना करा दी कि शनिदेव सब ग्रहों में सर्वोपरि अर्थात सबसे बड़े हैं। मैंने इनको छोटा बतलाया था इसी कारण मुझको इतना दुख मिला। तब सारे नगर में राजा ने शनिदेव की पूजा और कथा करने को कहा। इस प्रकार उज्जैन नगरी की प्रजा शनिदेव की कृपा से सुखी से रहने लगी। राजा चंद्रसेन ने मगध देश में पीपल पेड लगा कर भगवान शनिदेव को समर्पित किया । शनिवार के दिन पीपल के वृक्ष के नीचे एक लोटा जल डालें।  काली उड़द, सरसों का तेल, गुण, काला कपड़ा चढ़ाकर दीप जलाये और पीपल के वृक्ष की सात बार परिक्रमा करें।  ओम शनिश्चराय नमः का जाप करें। शनिदेव की कथा पढ़े और दूसरों को सुनाये। जो इस कथा को  सुनता है वह शनिदेव की कृपा से उसके समस्त दुख दूर हो जाते हैं।
धराउत में मागधीय परंपरा का वैदिक तथा ब्राह्मण धर्म और दर्शन के मनिषि माधव का कर्म स्थल था । मगध के वैदिक विद्वान माधव और दछिण भारत के विद्वसी गौतमी का शास्त्रात स्थल धराउत थी । वैदिक विद्वान माधव द्वारा बौद्ध विद्वसी गौतमी को धराउत में प्रवेश पर रोक लगायी गयी थी । जब गौतमी ने धराउत प्रवेश द्वार पर आगमन होने पर माधव एक वस्त्र में लौट रहे थे तभी गौतमी ने राजा से अनुरोध किया कि माधव जी से मुलाकात करने की अनुमति दी जाय ।राजा द्वारा माधव और गौतमी का मिलन तथा शास्त्रार्थ  स्थल का चयन कुनवां पहाडी के समीप निर्मित भवन में किया गया था । ब्राह्मण धर्म तथा दर्शन पर माधव तथा गौतमी से 6 दिनों तक शास्त्रार्थ हुई जिसमें माधव की शास्रार्थ से पराजय के बाद निधन हो गया था । राजा द्वारा कुनवां पहाडी के श्रंखला पर माधव और गौतमी का समाधि स्थल का निर्माण कराया गया है ।बराबर पर्वत समूह की कुनवां श्रंखला धराउत के दछिण दिशा में स्थित में गुणमती या गुणमत समाधि स्थल है ।कुनवां पहाडी के उतर दिशा पर बौद्ध स्तूप तथा कई मूर्तियां स्थापित है । कुनवां से 200 गज की दूरी पर 60 फीट लंबाई तथा 250 फीट लंबाई पर बौद्ध चिह्न निर्मित है ।यह स्थल दीवारों से घीरा कर वैदिक , ब्राह्मण तथा बौद्ध धर्म की मूर्तयां , स्तूप , मंदिर स्थापित है ।जेनरल कनिंघम ने ह्वेणसांग द्वारा उलेखित ग्रेनाईट पत्थर में निर्मित मूर्तियां , कुनवां श्रंखला पर निर्मित स्तूप , मंदिर , दीवार , स्मारक का अध्यन किया था । एल एस एस  ओमॉली का  बंगाल डिस्ट्रीक्ट गजेटियर गया 1906 , फ्रॉससिस बुकानन का  एन एकाउंट ऑफ द डिस्ट्रीक्ट ऑफ बिहार एण्ड पटना 1811 - 12 तथा पी सी राय चौधरी के  बिहार डिस्ट्रीक गजेटियर गया 1957 , हरिवंश पुराण , महाभारत , मत्स्य पुराण , ब्रह्म पुराण , आध्यात्म पुराण तथा बौद्ध ग्रंथों , जैन ग्रंथों , लिंग पुराण में धराउत की चर्चा है । प्राचीन काल मे धरा , धर्मा , धराउ , धराउद कलांतर धराउत नाम से ख्याति है। धराउत में स्तूप 4 थीं सदी तथा मंदिर निर्माण 9 वीं में निर्मित है । पटना से 72 कि. मी . , जहानाबाद से 20 कि .मी. दछिण और मखदुमपुर से 8 कि. मी . पूरब और बराबर पर्वत समूह से 10 कि. मी.  उतर - पूरब स्थित 876 हेक्टेयर में विकसित एतिहासिक स्थल धराउत में 2011के जनगणना के अनुसार 8310 अावादी निवास करते है । धराउत के दछिण दिशा में राजा चंद्रसेन द्वारा निर्मित 2000 फीट लंबाई तथा 800 फीट चौडाई युक्त चंद्रपोखर है ।चंद्रपोखर के उतर - पश्चिम कोण पर देव सेनापति कार्तिकायन तथा 12 भुजाओं से युक्त अवलोकितेश्वर की मूर्ति है।राजा हर्ष के दामाद तथा धराउद का राजा ध्रुव सेन द्वीतीय बालादित्य संकुचित और घमंडी राजा था । बलभी आंध्र प्रदेश निवासी  तथा बौद्ध धर्म  का हीनयान साहित्य के विद्वान महाव्यूतपत्रि बौद्धिसत्व गुणमति का निवास राजा ध्रुव ने अपने सैनिक स्थल कुनवां के समीप रखा था । बराबर पर्वत समूह की एक श्रंखला को कुनवां पहाडी के नाम से ख्याति प्प्त है।हिनयानी साहित्य में धराउत का कुनवां पहाडी , गुणवती , गुनमति का महत्वपूर्ण उल्लेख है । 643 ईं  में राजा हर्ष के पूर्वज सौर तथा शैव धर्म के उपासक थे ।चीनी यात्री ह्वेणसांग को शाक्यमुनि कहा गया । शाक्य मुनि द्वारा राजा हर्ष को बौद्ध धर्म के महयान से जोड कर महायान को राज्यश्रेय प्रप्त किया गया । 544 ई.पू. धरा विकसित तथा वैदिक केंद्र था ।750 ई. मे पाल वंश ,सेन वंश पुष्यभूति वंश गुप्त वंश 240- 467 ई. तक धराउत का विकस हुआ था तथा चंद्रसेन ने धराउत का चतुर्दिक विकास किया ।

शुक्रवार, दिसंबर 04, 2020

आध्यात्म का महान संत राधा बाबा...


      क्रांति और भक्ति के साधक राधा बाबा के नाम से विख्यात श्री चक्रधर मिश्र का जन्म बिहार राज्य का अरवल जिले के अरवल प्रखंडान्तर्गत  फखरपुर में 1913 ई. की पौष शुक्ल नवमी को शाकद्वीपीय ब्राह्मण परिवार में हुआ था। 1928 में गांधी जी के आह्वान पर गया के सरकारी विद्यालय में उन्होंने यूनियन जैक उतार कर तिरंगा फहरा दिया था। शासन विरोधी भाषण के आरोप में उन्हें छह माह के लिए कारावास में रहना पड़ा।गया में जेल अधीक्षक एक अंग्रेज था। सब उसे झुककर ‘सलाम साहब’ कहते थे; पर इन्होंने ऐसा नहीं किया। अतः इन्हें बुरी तरह पीटा गया। जेल से आकर ये क्रांतिकारी गतिविधियों में जुट गये। गया में राजा साहब की हवेली में इनका गुप्त ठिकाना था। एक बार पुलिस ने वहां से इन्हें कई साथियों के साथ पकड़ कर ‘गया षड्यन्त्र केस’ में कारागार में बंद कर दिया। जेल में बंदियों को रामायण और महाभारत की कथा सुनाकर वे सबमें देशभक्ति का भाव भरने लगे।  इन्हें तनहाई में डालकर अमानवीय यातनाएं दी गयीं; पर ये झुके नहीं। जेल से छूटकर इन्होंने कथाओं के माध्यम से धन संग्रह कर स्वाधीनता सेनानियों के परिवारों की सहायता की। जेल में कई बार हुई दिव्य अनुभूतियों से प्रेरित होकर उन्होंने 1936 में शरद पूर्णिमा पर संन्यास ले लिया। कोलकाता में उनकी भेंट स्वामी रामसुखदास जी एवं सेठ जयदयाल गोयन्दका जी से हुई। उनके आग्रह पर वे गीता वाटिका, गोरखपुर में रहकर गीता पर टीका लिखने लगे। गोरखपुर ( उतरप्रदेश ) के  गीता प्रेस से प्रकाशित कल्याण के संपादक भाई जी श्री हनुमान प्रसाद पोद्दार जी से हुई भेंट से उनके मन की अनेक शंकाओं का समाधान हुआ। इसके बाद  वे भाई जी के परम भक्त बन गये। गीता पर टीका पूर्ण होने के बाद वे वृन्दावन जाना चाहते थे; पर सेठ गोयन्दका जी एवं भाई जी की इच्छा थी कि राधा बाबा के  साथ हिन्दू धर्मग्रन्थों के प्रचार-प्रसार में योगदान दें। भाई जी के प्रति अनन्य श्रद्धा होने के कारण उन्होंने यह बात मान ली। 1939 में उन्होेंने शेष जीवन भाई जी के सान्निध्य में बिताने तथा आजीवन उनके चितास्थान के समीप रहने का संकल्प लिया।बाबा का श्रीराधा माधव के प्रति अत्यधिक अनुराग था। समाधि अवस्था में वे नित्य श्रीकृष्ण के साथ लीला विहार करते थे। हर समय श्री राधा जी के नामाश्रय में रहने से उनका नाम ‘राधा बाबा’ पड़ गया। 1951 की अक्षय तृतीया को भगवती त्रिपुर सुंदरी ने उन्हें दर्शन देकर निज मंत्र प्रदान किया। 1956 की शरद पूर्णिमा पर उन्होंने काष्ठ मौन का कठोर व्रत लिया।बाबा का ध्यान अध्यात्म साधना के साथ ही समाज सेवा की ओर भी था। उनकी प्रेरणा से निर्मित हनुमान प्रसाद पोद्दार कैंसर अस्पताल से हर दिन सैंकड़ों रोगी लाभ उठा रहे हैं। 26 अगस्त, 1976 को भाई जी के स्मारक का निर्माण कार्य पूरा हुआ। गीता वाटिका में श्री राधाकृष्ण साधना मंदिर भक्तों के आकर्षण का प्रमुख केन्द्र है। इसके अतिरिक्त भक्ति साहित्य का प्रचुर मात्रा में निर्माण, अनाथों को आश्रय, अभावग्रस्तों की सहायता, साधकों का मार्गदर्शन, गोसंरक्षण आदि अनेक सेवा कार्य बाबा की प्रेरणा से 1971 में भाई जी के देहांत के बाद बाबा उनकी चितास्थली के पास एक वृक्ष के नीचे रहने लगे। 13 अक्तूबर, 1992 को गीता वाटिका गोरखपुर में राधा बाबा की  आत्मा सदा के लिए श्री राधा जी के चरणों में लीन हो गयी। यहां बाबा का एक सुंदर श्रीविग्रह विराजित है, जिसकी प्रतिदिन विधिपूर्वक पूजा होती है।
 श्रीचक्रधर मिश्र विद्यार्थी जीवन में सभी उनकी प्रतिभा के कायल थे। नेतृत्व की अद्भुत क्षमता रखने वाले चक्रधर ने आठवीं कक्षा के बाद भारत को अंग्रेजी-पाश से मुक्त कराने के लिए राजनैतिक कार्यक्रमों में भाग लेना आरंभ कर दिया। हालांकि इस क्रम में उन्हें दो बार जेल यात्रा भी करनी पड़ी।जेल से बाहर आने के बाद स्वाध्याय करते-करते उनका झुकाव वेदांत की ओर होने लगा और वह शांकर मतानुयायी हो गए। जब वह इंटर कक्षा के विद्यार्थी थे, तभी शारदीय पूर्णिमा के दिन संन्यास ले लिया। अपनी ब्राšाी स्थिति की परीक्षा लेने के लिए वह कलकत्ते में गंगा के किनारे कुष्ठ रोगियों के बीच बैठने लगे।एक बार कलकत्ते में उनकी मुलाकात श्रीरामसुखदासजी महाराज से हुई और उनके माध्यम से वह सेठ श्री जयदयाल जी से मिले। उनकी निष्ठा एकमात्र निराकार में थी। जयदयाल जी  गयंदका के परामर्श से बाबा गोरखपुर आकर गीताप्रेस और फिर गीतावाटिका गए। गोरखपुर की गीतावाटिका में हनुमान प्रसाद पोद्दार जी के साथ स्वामीजी रहा करते थे। स्वामी जी आगे चलकर श्री राधा बाबा के नाम से विख्यात हुए। कहते हैं कि बाबा को अद्वैत तत्व की साधना करते हुए सिद्धि मिली। श्रीराधा बाबा के नयनों में, प्राणों में, रोम-रोम में श्री राधारानी बसी हुई थीं। उनका मन नित्य वृन्दावनी-लीला में रमा रहता था। श्रीराधामाधव की प्रीति के साकार स्वरूप बाबा सदा नि:स्पृह भाव से जनसेवा में लीन रहते थे। गीतावाटिका में विख्यात श्रीराधाष्टमी महोत्सव का शुभारंभ राधाबाबा ने ही किया। उन्होंने श्रीकृष्णलीला चिंतन,जय-जय प्रियतम,प्रेम सत्संग सुधा माला आदि शीर्षकों से साहित्य का प्रणयन भी किया। बाबा अपनी साधनावस्था में प्रतिदिन तीन लाख नाम जप किया करते थे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे। हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे-इसकी 64 माला जप करने से एक लाख नाम जप होता है। इसके अतिरिक्त उन्होंने अनेक बार श्रीमद्भागवतमहापुराण का अखंड पाठ किया। राधा बाबा 13 अक्टूबर, 1992 को सदा के लिए अंतर्हित हो गए। बाबा का सुंदर एवं प्रेरक श्रीविग्रह गीतावाटिका के नेह-निकुंज में प्रतिष्ठित है ।
 श्रीचक्रधर मिश्र  विद्यार्थी जीवन में सभी उनकी प्रतिभा के कायल थे। नेतृत्व की अद्भुत क्षमता रखने वाले चक्रधर ने आठवीं कक्षा के बाद भारत को अंग्रेजी-पाश से मुक्त कराने के लिए राजनैतिक कार्यक्रमों में भाग लेना आरंभ कर दिया। हालांकि इस क्रम में उन्हें दो बार जेल यात्रा भी करनी पड़ी।जेल से बाहर आने के बाद स्वाध्याय करते-करते उनका झुकाव वेदांत की ओर होने लगा और वह शांकर मतानुयायी हो गए। जब वह इंटर कक्षा के विद्यार्थी थे, तभी शारदीय पूर्णिमा के दिन संन्यास ले लिया। अपनी ब्राšाी स्थिति की परीक्षा लेने के लिए वह कलकत्ते में गंगा के किनारे कुष्ठ रोगियों के बीच बैठने लगे। एक बार कलकत्ते में उनकी मुलाकात श्रीरामसुखदासजी महाराज से हुई और उनके माध्यम से वह सेठ श्री जयदयाल जी से मिले। उनकी निष्ठा एकमात्र निराकार में थी। जयदयाल जी के परामर्श से बाबा गोरखपुर आकर गीताप्रेस और फिर गीतावाटिका गए। गोरखपुर की गीतावाटिका में हनुमान प्रसाद पोद्दार जी के साथ स्वामीजी रहा करते थे। स्वामी जी आगे चलकर श्री राधा बाबा के नाम से विख्यात हुए। राधा  बाबा को अद्वैत तत्व की साधना से सिद्धि  प्राप्त हुई थी । बाबा के नयनों में, प्राणों में, रोम-रोम में श्री राधारानी बसी तथा मन नित्य वृन्दावनी-लीला में रमा रहता था। श्रीराधामाधव की प्रीति के साकार स्वरूप बाबा सदा नि:स्पृह भाव से जनसेवा में लीन रहते थे। गीतावाटिका में विख्यात श्रीराधाष्टमी महोत्सव का शुभारंभ राधाबाबा द्वारा प्रारंभ किया गया था ।
विश्व में आध्यात्मिक एवं सांस्कृतिक धरोहर, धार्मिक प्रवृत्ति एवं परम्पराओं के संरक्षण एवं संवर्धन तथा प्रचार-प्रसार के लिए समय-समय पर महान संतों-विभूतियों का अविर्भाव होता रहा है। भारतीय विभूतियों की पावन श्रृंखला में गोरखपुर का  "कल्याण" के सम्पादक हनुमान प्रसाद पोद्दार  एवं नित्य जीवन सहचर "प्रीतिरसावतार" राधा बाबा थे ।राधा बाबा का  बचपन का नाम चक्रधर मिश्र था। उनके परिवार का पालन-पोषण पौरोहित्य कार्य से होता था। बालक चक्रधर की विशिष्ट योग्यता के बारे में अध्यापकों को प्रारंभ में ही ज्ञान हो गया था।  आठवीं कक्षा उत्तीर्ण करने के बाद भारत माता को अंग्रेजी पाश से मुक्त कराने के लिए उन्होंने आंदोलन में भाग लेना शुरू कर दिया। इस कारण दो बार जेल-यात्रा करनी पड़ी। जेल का जेलर बड़ा क्रूर था। उन कठोर यातनाओं के मध्य उन्हें कई बार भगवत्कृपा की विशिष्टानुभूति हुई। इन दिव्य अनुभूतियों ने बालक चक्रधर के मन में प्रेरणा जगा दी कि जेल से बाहर आने के बाद भगवदीय जीवन व्यतीत करना है।जेल से बाहर आने के बाद उनके बड़े भाइयों ने उन्हें आगे के अध्ययन के लिए कलकत्ता बुला लिया। वहां स्कूली अध्ययन के साथ उनका स्वाध्याय भी होता रहता था। स्वाध्याय करते-करते उनके मन का झुकाव वेदान्त की ओर होने लगा और आप शांकरमतानुयायी हो गए। जब वे इण्टर कक्षा के विद्यार्थी थे, तब भगवदीय प्रेरणा से शारदीय पूर्णिमा के दिन उन्होंने संन्यास ले लिया। इससे उनके परिजनों को मर्मान्तक पीड़ा हुई, परन्तु सब जानते थे कि चक्रधर अपने निश्चय से डिगने वाला नहीं है।इण्टर की परीक्षा देकर वे एकान्त वास के लिए अज्ञात स्थान पर चले गए। वहां कठिन साधना की। फलस्वरूप उन्हें शीघ्र ही सिद्धि मिलने के पश्चात  कलकत्ता लौट आए थे । एक दिन जब वे कलकत्ता के गोविन्द भवन में पूज्य रामसुखदास जी महाराज से सम्पर्क हुआ था । रामसुख दास के माध्यम से सेठ जयदयाल गोयन्दका जी से मिलन हुआ। सेठजी साकार एवं निराकार-दोनों प्रकार की निष्ठाओं के विश्वासी तथा  बाबा की निष्ठा  निराकार में थी। कई दिनों तक पारस्परिक विचार-विनिमय हुआ परन्तु सेठजी चक्रधर बाबा की विचारधारा में परिवर्तन नहीं ला सके। फिर भी यह तय हुआ कि श्रीमद् भागवत् पर टीका-लेखन का कार्य गोरखपुर की गीताप्रेस से हो। अत: सेठजी के परामर्श के अनुसार चक्रधर बाबा गोरखपुर की गीता वाटिका गए। उस समय गीता वाटिका में एक वर्षीय अखण्ड भगवन्नाम-संकीर्तन का भव्यानुष्ठान चल रहा था। वहां बाबू जी (हनुमान प्रसाद पोद्दार)आए और उन्होंने गैरिक वस्त्रधारी युवक संन्यासी के चरण छूकर प्रणाम किया। इस प्रणाम का चमत्कार अनोखा था। सेठ जयदयाल जी के साथ कई दिवस विचार-विनिमय के उपरान्त भी जो परावर्तन नहीं हो पाया, वह कार्य इस क्षणिक स्पर्श ने कर दिखाया। निराकार निष्ठा तिरोहित हो गयी और साकारोपासना का बीजारोपण इस युवा संन्यासी चक्रधर बाबा के अन्तर में हो गया।राधा बाबा सन् 1939 तक सेठ जयदयाल जी के साथ रहे और टीका-लेखन का कार्य पूर्ण हो गया। प्रश्न था कि बाबा अब कहां रहें। बाबा की चाह थी कि संन्यास का व्रत लेकर श्री वृन्दावन धाम में वास किया जाए और सेठ जी चाहते थे कि बाबा उनके साथ रहें, जिससे चारों दिशाओं में श्रीमद् भागवत का प्रचार-प्रसार हो सके। इस बीच भगवान श्रीकृष्ण द्वारा दी गई अन्त: प्रेरणा से 11 मई, 1939 को कलकत्ता में गंगा का जल हाथ में लेकर चक्रधर बाबा ने संकल्प लिया कि अब मैं भविष्य में बाबूजी अर्थात् श्री हनुमान प्रसाद पोद्दार जी के साथ रहूंगा। इस संकल्प का एक उप-संकल्प भी था कि जहां बाबूजी की चिता जलेगी, उसी स्थान के समीप अपना जीवन व्यतीत कर दूंगा। पूज्य बाबूजी (श्रद्धेय हनुमान प्रसाद पोद्दार) गीता वाटिका में रहा करते थे। चक्रधर बाबा भी बाबूजी के साथ रहने लगे थे। बाबा भगवद् भाव राज्य में प्रवेश करके अपने प्रियतम श्रीकृष्ण के साथ नित्य लीला-विहार किया करते थे। बाबा के अन्तर में प्रेम का स्रोत निरन्तर प्रवाहित रहता था। पहले वे कट्टर वेदान्ती थे। अद्वैत तत्व की साधना करते समय उन्हें सिद्धि मिली थी। और अब ब्राहृस्वरूप होकर ब्राहृसायुज्य की स्थिति को भी उन्होंने प्राप्त कर लिया। बाबा के नयनों में, ह्मदय में, प्राणों में, रोम-रोम में श्रीराधारानी छायी हुई थीं। सन् 1951 की अक्षय तृतीया के दिन राधा बाबा को  भगवती श्रीत्रिपुरसुन्दरी जी ने दर्शन देकर निज मंत्र का दान दिया। सन् 1956 की शरद पूर्णिमा के दिन उन्होंने काष्ठ-मौन का कठोर व्रत लिया। श्रीराधा भाव मधुरोपासना और सन् 1957 के 8 अप्रैल को बाबा की श्रीराधा भाव में प्रतिष्ठा हुई। श्री राधाभाव में प्रतिष्ठा होने से और श्रीराधा नाम का आश्रय लेने से आप "राधा बाबा" के नाम से विख्यात हुए।राधा बाबा की प्रेरणा से 16 फरवरी, 1975 को हनुमान प्रसाद पोद्दार कैन्सर अस्पताल की स्थापना का संकल्प लिया गया, जहां आज भी अनेक रोगी चिकित्सा लाभ प्राप्त कर रहे हैं। आपके ही संकल्प से 26 अगस्त, 1976 को बाबू जी के स्मारक के निर्माण का कार्य पूर्ण हुआ। सबसे अधिक महत्वपूर्ण आपका कार्य है गीता वाटिका में श्रीराधाकृष्ण साधना मन्दिर, जो भक्तजनों के आकर्षण का केन्द्र है। इस मन्दिर के श्री विग्रहों में प्राण-प्रतिष्ठा का कार्य राधा बाबा की देख-रेख में सन् 1985 में सम्पन्न हुआ। इसके अतिरिक्त "श्रीकृष्णलीला-चिन्तन", "जय-जय प्रियतम", "प्रेम-सत्संग-सुधा-माला", आदि-आदि नव साहित्य का प्रणयन, आत्र्तजनों को आश्रय, अभावग्रस्तों को आश्वासन, साधकों का मार्ग प्रदर्शन, गोमाता का संरक्षण आदि अनेक-अनेक ऐतिहासिक कार्य आपके द्वारा सम्पन्न होते रहे। श्री हनुमान प्रसाद पोद्दार ने अपनी जीवन लीला का संवरण सन् 1971 में किया। उनकी अन्तेष्टि गीता वाटिका में राधा बाबा की कुटिया के पास ही हुई। बाबा ने कुटिया के आवास को विसर्जित कर दिया और चितास्थली के समक्ष एक विशाल वृक्ष के नीचे अपना आसन लगाया। इस स्थान पर बाबा अपने तिरोहण, सन् 1992 तक नित्य विराजित रहे। श्रीराधाभाव के मूर्तिमान स्वरूप राधा बाबा 13 अक्तूबर, 1992 को हम सभी से सदा के लिए विदा लेकर अन्तर्हित हो गए।

जैविक विकास : मिट्टी दिवस...


विश्व मिट्टी दिवस की संयुक्त राष्ट्र द्वारा हर वर्ष 5 दसंबर को मनाया जाता है। इस दिवस को मनाने का उदेश्य किसानो और आम लोगों को मिट्टी की महत्ता के बारे में जागरूक करना है। विश्व के बहुत से भागों में उपजाऊ मिट्टी बंजर और किसानो द्वारा ज्यादा रसायनिक खादों और कीड़ेमार दवाईओं का इस्तेमाल करने से मिट्टी के जैविक गुणों में कमी आने के कारण उपजाऊ क्षमता में गिरावट आ रही है और यह प्रदूशंन का भी शिकार हो रही है।जिला किसान संगठन जहानाबाद के सचिव साहित्यकार एवं इतिहासकार सत्येन्द्र कुमार पाठक ने कहा है कि  किसानो और आम जनता को मिट्टी की सुरक्षा के लिए जागरूक करने की जरूरत है। 20 दसंबर 2013 को प्रति वर्ष 5 दसंबर को विश्व मिट्टी दिवस मनाने का फैसला लिया गया था। 5 दिसंबर, 2017 को संपूर्ण विश्व में ‘विश्व मृदा दिवस’ मनाया गया। वर्ष 2017 में इस दिवस का मुख्य विषय ग्रह की देख-भाल भूमि से शुरू होती है) था। इस अवसर पर भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने किसानों से मिट्टी के नियमित परीक्षण हेतु ‘स्वस्थ धरा, खेत हरा’ के माध्यम से आह्वान किया। वर्तमान में विश्व की संपूर्ण मृदा का 33 प्रतिशत पहले से ही बंजर या निम्नीकृत हो चुका है। उल्लेखनीय हैं कि हमारे भोजन का 95 प्रतिशत भाग मृदा से ही आता है। वर्तमान में 815 मिलियन लोगों का भोजन असुरक्षित है और 2 अरब लोग पोषक रूप से असुरक्षित हैं, लेकिन हम इसे मृदा के माध्यम से कम कर सकते हैं। इस दिवस का उद्देश्य मृदा स्वास्थ्य के प्रति तथा जीवन में मृदा के योगदान के प्रति लोगों में जागरूकता बढ़ाना है। 20 दिसंबर, 2013 को संयुक्त राष्ट्र के खाद्य एवं कृषि संगठन ने 5 दिसंबर को प्रतिवर्ष ‘विश्व मृदा दिवस’ मनाने की पेशकश की थी जिसे संयुक्त राष्ट्र के द्वारा अपनाया गया । संयुक्त राष्ट्र महासभा ने  वर्ष 2015 को ‘अंतरराष्ट्रीय मृदा वर्ष’  के रूप में मनाने की घोषणा की  ।मिट्टी के नुकसान के बारे में जागरुकता बढ़ाने के लिए 5 दिसंबर को विश्व मृदा दिवस सेलिब्रेट दुनियाभर में प्रत्येक वर्ष 5 दिसंबर को विश्व मृदा दिवस  मनाया जाता है । दुुनियाभर में हर साल 5 दिसंबर को विश्व मृदा दिवस  मनाया जाता है. विश्व मृदा दिवस जनसंख्या वृद्धि‍ के कारण बढ़ रही समस्याओं को उजागर करता है. आज दुनियाभर में हर जगह मिट्टी का कटाव कम करना जरूरी है, ताकि खाद्य सुरक्षा तय की जा सके । मिट्टी का निर्माण खनिज, कार्बनिक पदार्थ और हवा के विभिन्न अनुपातों से होता है. यह जीवन के लिए बेहद महत्वपूर्ण है. इससे ही पौधों का विकास होता है. ये कीड़ों और अन्‍य कई जीवों के रहने की जगह होती है । दरअसल, मिट्टी का संरक्षण जरूरी है, इस वजह से मिट्टी को हो रहे नुकसान के बारे में जागरूकता बढ़ाने के लिए 5 दिसंबर को विश्व मृदा दिवस सेलिब्रेट किया जाता है ।  2002 में अंतरराष्‍ट्रीय मृदा विज्ञान संघ ने 5 दिसंबर को हर साल विश्व मृदा दिवस मनाने की सिफारिश की थी. थाइलैंड के नेतृत्व ने भी विश्व मृदा दिवस की औपचारिक स्थापना की का समर्थन किया था.एफएओ के सम्मेलन ने सर्वसम्मति से जून 2013 में विश्व मृदा दिवस का समर्थन किया. इसके बाद 68वें संयुक्त राष्ट्र महासभा में 5 दिसंबर को विश्व मृदा दिवस मनाने का अनुरोध किया. दिसंबर 2013 में ही 68वें सत्र में संयुक्त राष्ट्र महासभा ने 5 दिसंबर को ये दिवस मनाने का ऐलान किया. इसके अगले साल, यानी 5 दिसंबर 2014 से विश्व मृदा दिवस मनाया जाने लगा है ।खाद्य और कृषि संगठन के मुताबिक, इस साल की थीम "मृदा कटाव रोकें, हमारा भविष्य संवारें'' है. यह थीम मृदा प्रबंधन में बढ़ती चुनौतियों पर केंद्रित है. इस लक्ष्‍य मृदा को बेहतर बनाने और इसके संरक्षण की दिशा में काम करने के लिए दुनियाभर के सरकारी संगठन और समुदायों को प्रोत्साहित करके मिट्टी की गुणवत्ता को बढ़ाने की रूपरेखा तैयार करना है.

                             

बुधवार, दिसंबर 02, 2020

दिव्यांग की इच्छाशक्ति विकास का द्योतक...


 विश्व दिव्यांग दिवस पर संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा 1992  से  विकलांग व्यक्तियों के प्रति करुणा और विकलांगता के मुद्दों की स्वीकृति को बढ़ावा देने और आत्म-सम्मान, अधिकार और बेहतर जीवन के लिए समर्थन प्रदान करने के  उद्देश्य  से  विश्व दिव्यांग दिवस मनाया जा रहा है । दिव्यांग दिवस का  उद्देश्य है कि दिव्यांगों की जागरूकता राजनीतिक, वित्तीय और सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन के हर पहलू में विकलांग व्यक्तियों को लिया जाना शामिल है । विश्व दिव्यांग दिवस के अवसर पर विकलांग व्यक्तियों के सक्रिय, और समाज के जीवन और विकास में पूरी तरह से भाग लेने के लिए और उन्हें अन्य नागरिकों के बराबर पूरा अधिकार देने के लिए साथ ही मनुष्य के अधिकार के रूप में परिभाषित कर पूर्ण भागीदारी और समानता,और सामाजिक-आर्थिक विकास के विकास से उत्पन्न लाभ में बराबर का भागीदारी है । समाज  अपनी संकीर्ण मानसिकता को छोड़कर दिव्यांग बच्चों को सबल बनाना होगा, तभी हम विकसित होगें । 116 सालों में हुए 24 ओलंपिक में भारत ने नौ स्वर्ण पदक जीते हैं और पैरालिम्पिक्स में भारतीय खिलाडियों ने देश को दो स्वर्ण पदक दिलाए हैं । पैरालिम्पिक्स में स्वर्ण, रजत और कांस्य पदक विजेताओं  द्वारा भारत का नाम रौशन किया है । विकलांगों की सामाजिक प्रतिष्ठा को ध्यान में रखते हुए प्रधानमंत्री मोदी जी द्वारा दिए गये  सुझाव के बाद सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्रालय ने विकलांग की जगह ‘दिव्यांग’ शब्द प्रयोग किया । प्रधानमंत्री का कहना है कि ‘विकलांग व्यक्तियों में कोई अंग विशेष नहीं होता, लेकिन उनके बाकी अंगों में वह विशेषता होती है  यह  सामान्य व्यक्तियों के पास भी नहीं होती है । साहित्यकार एवं इतिहासकार सत्येन्द्र कुमार पाठक ने कहा कि 'अन्तर्राष्ट्रीय दिव्यांग दिवस' अथवा 'अन्तर्राष्ट्रीय विकलांग दिवस' प्रतिवर्ष 3 दिसंबर को मनाया जाता है। वर्ष 1976 में संयुक्त राष्ट्र आम सभा के द्वारा 'विकलांगजनों के अन्तर्राष्ट्रीय वर्ष' के रुप में वर्ष 1981 को घोषित किया गया था। वर्ष 1992 से संयुक्त राष्ट्र के द्वारा इसे अन्तर्राष्ट्रीय रीति-रिवाज़ के रुप में प्रचारित किया जा रहा है। दिव्यांगता प्रायः जन्म से, परिस्थितिजन्य अथवा दुर्घटना के कारण होती है।  समाज में दिव्यांगजन की स्थिति चुनौतीपूर्ण होती है। दिव्यांगता के कारण जीवन में अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। दृढ़ इच्छा शक्ति से व्यक्ति कठिनाई पर विजय प्राप्त कर सकता है। दिव्यांगजन में  विशेष प्रतिभा विद्यमान होती है। दिवयांगों की  इच्छा शक्ति को जागृत कर उनके आत्मविश्वास को दृढ़ करते हुए उनकी प्रतिभा को विकसित कर उनको आत्मनिर्भर बनाया जाए, जिससे वह सम्मानजनक जीवन व्यतीत कर सकें।
संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा वर्ष 1981 को विकलांग व्यक्तियों के लिए अंतर्राष्ट्रीय वर्ष के रूप में घोषित किया, जिसकी थीम थी ‘पूर्ण भागीदारी और समानता’। इस थीम के तहत समाज में विकलांगों को बराबरी का अवसर उपलब्ध कराने और उनके अधिकारो के प्रति उन्हें और अन्य लोगों को जागरूक करने पर जोर दिया गया था ताकि विकलांगों को सामान्य नागरिकों के समान ही सामाजिक-आर्थिक विकास का लाभ प्राप्त हो सके।संयुक्त राष्ट्र संघ ने राष्ट्रीय, क्षेत्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर विकलांगों को अवसर की समानता, उनका पुनर्वास और विकलांगता की रोकथाम के लिए एक वैश्विक कार्यवाही योजना तैयार की। इस योजना में अनुशंसित गतिविधियों को लागू करने के लिए सरकारों एवं संगठनों को एक समय सीमा प्रदान करने के क्रम में संयुक्त राष्ट्र द्वारा 1983-1992 के दशक को विकलांगों के लिए अंतर्राष्ट्रीय दशक के रूप में घोषित किया गया। वर्ष 1992 में ही संयुक्त राष्ट्रसंघ द्वारा 3 दिसम्बर को अंतर्राष्ट्रीय विकलांग दिवस के रूप में मनाने की घोषणा भी की गयी और तभी से 3 दिसम्बर को अंतर्राष्ट्रीय विकलांग दिवस मनाया जाता है। विकलांगता की बढ़ती स्थिति और विकलांगों के साथ होने वाले दुर्व्यवहार को रोकने तथा उनके अधिकारों की रक्षा के लिए वैश्विक स्तर पर एक समान मानकों की स्थापना करने के लिए संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा 13 दिसम्बर 2006 को विकलांग व्यक्तियों के अधिकारों पर एक अभिसमय को अपनाया गया। यह अभिसमय 3 मई 2008 से लागू हुआ और वर्तमान में 163 देश इस अभिसमय को अपना चुके हैं। वर्ष 2019 के अन्तर्राष्ट्रीय विकलांग दिवस का केन्द्रीय विषय विकलांग व्यक्तियों के नेतृत्व और उनकी भागीदारी को बढ़ावा देना: 2020  के विकास एजेंडे में एक्शन लेना’ था । 2020 एजेंडा में समावेशी, समान और सतत विकास के लिए विकलांग व्यक्तियों के सशक्तिकरण है ।
सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्रालय का दिव्यांगजन सशक्तिकरण विभाग भारत सरकार द्वारा  विकलांग व्यक्तियों को सशक्त बनाने के लिए कार्य कराया जा रहा है। वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार भारत में दिव्यांगो की जनसंख्या 2.6814994  है। इसमें से 55.89% पुरुष और 44.11 महिलाएँ हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में दिव्यांगों की संख्या शहरों की तुलना में अधिक है। दिव्यांगों की कुल जनसंख्या का 69.45% ग्रामीण क्षेत्र में निवास करती है। दिव्यांग व्यक्तियों को अपनी शारीरिक एवं मानसिक अक्षमताओं के कारण अनेक समस्याओं का सामना करना पड़ता है, जिससे शिक्षा, रोजगार एवं सार्वजनिक सुविधाओं की प्राप्ति में सामाजिक उपेक्षा का भी शिकार होना पड़ता है ।दिव्यांग (समान अवसर, अधिकार संरक्षण एवं पूर्ण भागीदारी) अधिनियम के पारित हुए 24 वर्ष  हुए  परंतु शिक्षा और रोजगार के अवसर 24 सालों में देश में विकलांगों या दिव्यांगों की स्थिति ठीक नहीं है। 2011 की जनगणना के अनुसार, देश की 45 फीसदी विकलांग आबादी अशिक्षित है। दिव्यांगों में भी जो शिक्षित हैं, उनमें 59 फीसदी 10वीं पास हैं, जबकि देश की कुल आबादी का 67 फीसदी 10वीं तक शिक्षित है। सर्व शिक्षा अभियान के तहत सभी को समान शिक्षा देने का प्रावधान है, बावजूद इसके शिक्षा व्यवस्था से बाहर रहने वाली आबादी का सबसे बड़ा हिस्सा विकलांग बच्चों का है। 6-13 आयुवर्ग के विकलांग बच्चों की 28 फीसदी आबादी स्कूल से बाहर है। विकलांगों के बीच ऐसे भी बच्चे हैं जिनके एक से अधिक अंग अपंग हैं, उनकी 44 फीसदी आबादी शिक्षा से वंचित है। जबकि मानसिक रूप से अपंग 36 फीसदी बच्चे और बोलने में अक्षम 35 फीसदी बच्चे शिक्षा से वंचित हैं। सरकार द्वारा दिव्यांग बच्चों को स्कूल में भर्ती कराने हेतु कई कदम उठाने के बावजूद आधे से अधिक दिव्यांग बच्चे स्कूल नहीं जाते है । बिहार में दिव्यांगों की संख्या 2331900 में 5 से 14 वर्ष के दिव्यांग बच्चों की संख्या 717505 है । स्टेट ऑफ एजुकेशन रिपोर्ट ऑफ इंडिया , चिल्ड्रेन विद डिसएलैटिव तथा 2011 जनगणना के अनुसार देश में दिव्यांग बच्चे 7864636 है जिसमे बिहार में दिव्यांग बच्चे 717505 है ।

भारतीय संबत और खरमास...


 


 ग्रंथों में ग्रहों की चाल और उनकी दशा का मानवीय  जिन्दगी में घटने वाली प्रत्येक घटना पर  विशेष उलेख  है । ग्रहों की चाल पर मानवीय मूल्यों में लाभ और  हानि का उतार चढाव की घटनाएं होती रहती है । मानव को  लाभ-हानि ग्रहों के चाल के मुताबिक व्यक्ति के  कार्य सही तथा गलत का मूल्यांकन होता है । ग्रहों की स्थिति में खरमास है। जिस तरह श्राद्ध महीने में नए और शुभ कार्य करना मना है उसी तरह खरमास में भी शुभ कार्य और यज्ञ करना निषेध  है ।जयोतिष शास्त्र के अनुसार सूर्य  प्रत्येक राशि में माह के लिए रहता है । अर्थात 12 महीने में 12 राशियों में प्रवेश करता है । सूर्य का यह भ्रमण  साल चलता रहता है । इसी कारण से प्रत्येक साल भर में शुभ और अशुभ मुहूर्त बदलते रहते हैं ।12 राशियों में भ्रमण करते हुए जब सूर्य गुरु यानी बृहस्पति की राशि धनु या मीन में प्रवेश करता है तभी खरमास प्रारंभ  होता है । खरमास मेंसभी तरह के शुभ कार्य नहीं किए जाते हैं । शास्त्रों के अनुसार खरमास में सभी तरह के शुभ कार्यों मे जैसे शादी, सगाई, गृह प्रवेश, नए घर का निर्माण आदि नहीं किया जाता है । कारण है कि खरमास के दौरान सूर्य गुरु की राशियों में रहता है जिसके कारण गुरु का प्रभाव कम हो जाता है । जबकि शुभ और मांगलिक कार्यों के लिए गुरु का प्रबल होना बहुत जरुरी होता है । गुरु जीवन में वैवाहिक सुख और संतान देने वाले है । वैज्ञानिक कारण - विश्व की आत्मा सूर्य  और बृहस्पति की किरणें अध्यात्म और अनुसाशन की ओर प्रेरित करती है ।  सूर्य और बृहस्पति जब एक दूसरे की राशि में प्रवेश करते हैं  तभी समर्पण और लगाव की बजाय त्याग और छोड़ने की भूमिका अधिक देती है साथ ही उद्देश्य और लक्ष्य में असफलताएं मिलती हैं । विवाह, गृहप्रवेश, यज्ञ आदि वर्जित हो जाता है .क्योंकि बृहस्पति और सूर्य दोनों ऐसे ग्रह हैं जिनमें बहुत ज्यादा समानता है. सूर्य की तरह बृहस्पति भी हाइड्रोजन और हीलियम से बना हुआ है ।सूर्य की तरह इसका केंद्र भी पानी से भरा हुआ है, जिसमें ज्यादातर हाइड्रोजन ही है जबकि दूसरे ग्रहों का केंद्र ठोस है बृहस्पति सौर मंडल के सभी ग्रहों से ज्यादा भारी हैं. अगर बृहस्पति थोड़ा बड़ा होता तो वो दूसरा सूर्य बन गया होता ।सूर्य पृथ्वी से 15 करोड़ किलोमीटर और बृहस्पति 64 करोड़ किलोमीटर दूर है. ये दोनों साल में एक बार एक दूसरे के साथ हो जाते हैं जिससे सौर चुम्बकीय रेखाओं के माध्यम से बृहस्पति के कण बहुत ज्यादा मात्रा में पृथ्वी के वायुमंडल में पहुंच जाते हैं, जो एक दूसरे की राशि में आकर अपनी किरणों को आंदोलित करते हैं. जिसकी वजह से धनु और मीन राशि के सूर्य को खरमास कहा जाता है. और सिंह राशि के बृहस्पति में सिंहस्त दोष दर्शाकर भारतीय भूमंडल के विशेष क्षेत्र गंगा और गोदावरी के साथ-साथ उत्तर भारत के उत्तरांचल, उत्तर प्रदेश, बिहार, छत्तीसगढ़, राजस्थान, आदि राज्यों में शुभ काम या यज्ञ नहीं किया जाता. जबकि पूर्वी और दक्षिणी प्रदेशों में इस तरह के दोष को नहीं माना गया है.सूर्य दिसंबर महीने के मध्य में धनु राशि में प्रवेश करते हैं. इस बार सूर्य धनु राशि में 16 दिसंबर को प्रवेश कर रहे हैं. जिसके बाद से खरवास शुरू हो जाएगा. सूर्य 14 जनवरी तक धनु में राशि में रहेंगे. 14 जनवरी के बाद खरमास खत्म हो जाएगा। साहित्यकार एवं इतिहासकार सत्येन्द्र कुमार पाठक ने कहा कि भातीय ग्रंथों तथा ज्योतिष शास्त के गणना के अनुसार विश्व में संबत का रूप दिया गया है । संबत का प्रमुख केंद्र सूर्य है । प्राचीन काल मे सौर संबत प्रचलित किया गया । 14 मनुओं ने विभिन्न मन्वन्तर का प्रारंभ कर विकास की रूप रेखा अपना कर कार्य किया वही विभिन्न राजाओं द्वारा संबतं की परंपरा कायम किया है । वर्तमान में 7 वें वैवस्वत मनु ने वैवस्वत मन्वंतर  प्रारंभ है । इस मन्वंतर के सतयुग , त्रेता ,द्वापर के बाद कलियुग प्रारंभ है ।सतयुग में मत्स्य कल्प  में प्रभव संवत्सर , कच्छप कल्प में विभव संवत्सर  , वराह कल्प में शुक्ल संवत्सर   तथा न्टसिह कल्प  में अंगिरा संवत्सर , त्रेता युग में सर्वजीत संवत्सर , तारण संवत्सर के बाद द्वापर युग में संवत्सर कायम हुआ । कलियुग में संबत् से ख्याति प्राप्त है । वर्तमान में सावर्णी मन्वन्तर , वराह कल्प है । द्वापर युग मे राजा युधिष्ठिर ने युधिष्ठिर संबत्  आरंभ किया । युधिष्ठिर संबत् 3044 वर्ष के बाद उज्जेन का राजा विक्मादित्य  द्वारा  विक्रम संबत् प्रारंभ किया गया है । विश्व में 35 संबत है । प्राचीन सप्तर्षि संबत् , 6676 ई.पू . , कलियुग संबत 3102 ई.पू. , बुद्ध निर्वाण संबत् 487 ई. पू . , वीर निरवाण संबत 427 ई.पू , मौर्य संबत 321 ई. पू . , सेल्युकिडि ( सेलुक्स )  संबत 312 ई. पू., विक्म संबत 78 ई.पू. गुप्त संवत्  894  ई. एवं कलिचुरी संबत , गंगेय संबत , हर्ष संबत , भाटिक संबत , कोल्सम संबत ,नेवार संबत ,चालुक्य संबत , सिंह संबत , सेन संबत , यहुदी संबत , नेपीली संबत , ईस्वी संबत , बांग्ला संबत , शाक संबत् ,फसली संबत ,हिजरी संबत है ।
विश्व का प्राचीन सनातन धर्म है ।संवत्सर मनाने की परंपरा, और उसका विधि विधान है। ब्रह्म पुराण के अनुसार जगत पिता ब्रह्मा जी ने सृष्टि की रचना चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा के दिन प्रारंभ की थी। ब्रह्माजी द्वारा सृष्टि की रचना का कार्य आरंभ  चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को करने के कारण  ‘प्रवरा' तिथि घोषित किया। इसमें धार्मिक, सामाजिक, व्यवसायिक और राजनीतिक अधिक महत्व कार्य आरंभ किए जाते हैं । चैत्र मासि जगत ब्रह्मा संसर्ज प्रथमेऽहनि । शुक्ल पक्षे समग्रेतु तदा सूर्योदय सति।।भगवान विष्णु के मत्स्यावतार का आविर्भाव और सतयुग की शुरुआत प्रारंभ भी इसी समय हुआ था।तभी से इश प्रवरा तिथि के महत्व को स्वीकार कर, भारत के सम्राट विक्रमादित्य ने भी अपने संवत्सर का आरंभ चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को ही किया।जिसे आगे चलकर महर्षि दयानंद जी ने भी आर्य समाज की स्थापना इसी दिन की ।इस दिन मुख्यतया ब्रह्माजी का व उनकी निर्माण की हुई सृष्टि के प्रधान देवी-देवताओं, यक्ष-राक्षसों, गंधर्वों, ऋषि, मुनियों, मनुष्यों, नदियों, पर्वतों, पशुपक्षियों और कीटाणुओं का ही नहीं, रोगों और उनके उपचारों तक का पूजन किया जाता है। साथ ही संवत्सर पूजन, नवरात्र घट स्थापना, ध्वजारोहण, तैलाभ्याड्ं स्नान, वर्षेशादि पंचाग फल श्रवण, परिभद्रफल प्राशनन और प्रपास्थापन प्रमुख रुप से की जाती हैं।कहते हैं कि  इसका विधिपूर्वक पूजन करने से वर्ष पर्यन्त सुख-शान्ति, समृद्धि आरोग्यता बनी रहती है।हमारे देश भारतवर्ष का गौरवमयी इतिहास और हमारी सनातनी सभ्यता और संस्कृति में संवत्सर का विशेष महत्व सदियों से रहा है।हमारे यहां शुभ संस्कार, विवाह, मुंडन, नामकरण कथा-किर्तन संकल्प जैसे शुभ कार्यों में जप-तप, मंत्र जाप, यज्ञादि अनुष्ठानों के समय संवत,संवत्सर का प्रयोग प्रमुखता से किया जाता है।हमारे पवित्र और प्राचीन ऋग्वेद में लिखा गया है कि दीर्घतमा ऋषि ने युग-युगों तक तपस्या करके ग्रहों, उपग्रहों, तारों, नक्षत्रों आदि की स्थितियों का आकाश मंडल में ज्ञान प्राप्त किया। आपको ये भी बता दें कि वेदांग ज्योतिष काल गणना के लिए विश्व भर में भारत की सबसे प्राचीन और सटीक पद्धति है।पौराणिक काल गणना वैवश्वत मनु के कल्प आधार पर सतयुग, त्रेता, द्वापर और कलियुग- इन चार भागों में विभाजित है। इसके पश्चात ऐतिहासिक दृष्टि से काल गणना का विभाजन इस प्रकार से हुआ। युधिष्ठिर संवत्, कलिसंवत्, कृष्ण संवत्, विक्रम संवत, शक संवत, महावीर संवत, बौद्ध संवत। तदुपरान्त हर्ष संवत, बंगला, हिजरी, फसली और ईसा सन भारत में चलते रहे। वेद, उपनिषद, आयुर्वेद, ज्योतिष और ब्रह्मांड संहिताओं में मास, ऋतु, वर्ष, युग, ग्रह, ग्रहण, ग्रहकक्षा, नक्षत्र, विषुव और दिन रात का मान व उनकी ह्रास, वृद्धि संबंधी विवरण पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध हैं।
58 ई.पू. उज्जैन के राजा विक्मादित्य  ने आक्रांताशकों को पराजित कर विक्रमादित्य की उपाधि धारण की थी। यह चैत्र शुक्ला प्रतिपदा को घटित हुआ। विक्रमादित्य ने इसी दिन से विक्रम संवत की शुरुआत की। काल को देवता माना जाता है। संवत्सर की प्रतिमा स्थापित करके उसका विधिवत पूजन व प्रार्थना की जाती है।विक्रम और शक संवत्सर दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। यद्यपि हमारे राष्ट्रीय पंचांग का आधार शक संवत है, तथापि हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि शक हमारे देश में हमलावर के रूप में आए थे। कालान्तर में भारत में बसने के उपरांत शक भारतीय शक संवत् के अनुसार  कोई राष्ट्रीय पर्व व जयंतियां मनाते हैं और ना ही लोक परंपरा के पर्व है । भारतीय परंपरा में विक्रम संबत  के आधार पर पर्व , तिथियें , जयंतियों की प्रधानता है ।शक संवत् का हमारे दैनिक जीवन में कोई विशेष महत्व नहीं रह गया है। विक्रम संवत् के आधार पर तैयार किया गया पंचांग पूर्ण प्रचलन में है। भारत के सभी प्रमुख त्योहार व तिथियां इसी पंचाग के अनुसार मनाई जाती हैं। ज्ञात हो कि विक्रमी पंचांग ग्रेगेरिन कैलेंडर से ५७ वर्ष पहले वर्चस्व में आ गया था, जबकि शक संवत् की शुरुआत ईस्वी सन् के ७८ वर्ष बाद हुई। विश्व में लगभग २५ संवतों का प्रचलन है जिसमें १५ तो २५०० वर्षों से प्रचलित हैं। दो-चार को छोड़कर प्रायः सभी संवत् वसंत ऋतु में आरंभ होते हैं। दुनियाभर में लगभग सैंकड़ों संवत प्रचलित होंगे। उनमें से भी मुश्किल से 50 संवतों को अभी भी महत्व दिया जा रहा होगा। उनमें 20 संवत पर आधारित दुनिया भर में कैलेंडर निर्मित होते हैे। विक्रम संवत, बौद्ध संवत, महावीर संवत, यहूदी संवत, ईस्वी संवत, हिजरी संवत, चीनी संवत, ईरानी संवत, सिख संवत, पारसी संवत आदि। ज्योतिष शास्त्र के अनुसार  कल्पाब्द : 1972949122 ,  सनातन कालकणना मान अनुसार सृष्टि संवत : 1955885122 , चीनी संवत : 96002318, पारसी संवत : 189923 ,मिस्र संवत : 27674, तुर्की संवत : 7627 , आदम संवत : 7372,ईरानी संवत : 6022 , यहूदी संवत : 5781 ,श्रीकृष्ण संवत : 5146 , युधिष्‍ठिर संवत : 5122 ,कलियुग संवत : 5121 , इब्राहीम संवत : 4460 ,कल्की संवत : , सप्तर्षि संवत : , मूसा सन् : 3653 ,यूनानी सन् : 3587 , रोमन सन् : 2765 ,बौद्ध संवत 2589 ,वीर निर्वाण संवत : 2541 (महावीर संवत 2609) ,बर्मा सन : 2555, मलयकेतु : 2326 ,श्रीशंकराचार्य : 2294 , पार्थियन : 2267, विक्रम संवत : 2077 , ईस्वी सन : 2020 , जावा : 1946 , शालिवाहन संवत : 1942 , कलचुरी संवत : 1778  ,बलभी संवत 1700 , फसली संबत् 1428 ,बांग्ला संवत : 1427  , हर्षाब्द संवत : 1413 , हिजरी सन् : 1442 है।
 राजा विक्रमादित्य - उज्जैन के राजा गन्धर्वसैन  की पुत्री मैनावती  तथा भृतहरि और  वीर विक्रमादित्य पुत्र थे ।
 धारानगरी के राजा पदमसैन की पत्नी मैनावती के पुत्र गोपीचन्द  ने श्री ज्वालेन्दर नाथ जी से योग दीक्षा प्राप्त कर तपस्या करने वन में चले गए  और योगी गोपी चंद की माता मैनावती ने श्री गुरू गोरक्ष नाथ जी से योग दीक्षा प्रपत कर योगीनी हुई थी । विक्रमदित्य के 9 रत्नों में से एक कालिदास ने अभिज्ञान शाकुन्तलम् , कुमार संभवम् , रघुवंश अनेक रचना की है ।उज्जैन के राजा भृतहरि ने राज छोड़कर श्री गुरू गोरक्ष नाथ जी से योग की दीक्षा ले ली और तपस्या करने जंगलों में चले गए , राज अपने छोटे भाई विक्रमदित्य को दे दिया , वीर विक्रमादित्य ने  श्री गुरू गोरक्ष नाथ जी से गुरू दीक्षा लेकर राजपाट सम्भालने लगे थे ।महाराज विक्रमदित्य ने देश को आर्थिक तौर पर सोने की चिड़िया बनाई, उनके राज को  भारत का स्वर्णिम राज कहा जाता है ।विक्रमदित्य के काल में भारत का कपडा, विदेशी व्यपारी सोने के वजन से खरीदते थे ।विक्रमदित्य काल में सोने की सिक्के चलते थे  ।  विक्रमदित्य द्वारा विक्र्म संबत स्थापित किया गया  है । ज्योतिष गणना में हिन्दी सम्वंत , वार , तिथीयाँ , राशि , नक्षत्र , गोचर आदि रचना है । विश्व के न्याय प्रिय राजा विक्रमादित्य से न्याय करवाने आते थे । विक्रमदित्य के काल में हर नियम धर्मशास्त्र के आधार पर न्याय , राज चलता था ।विक्रमदित्य का काल राम राज के बाद सर्वश्रेष्ठ माना गया है । विक्मादित्य काल में भारत सोने की चिडियॉ का देश कहा गया ।