मंगलवार, सितंबर 29, 2020

सनातन : आदि और अनंत

मानवीय चेतना का उद्भव और विकास सनातन 
सत्येन्द्र कुमार पाठक
मानवीय चेतना का उद्भव और विकास का द्येतक सनातन है। मानव चेतना का विकास का रूप सनातन के रूप में विश्व धरातल पर प्रारंभ हुआ है। सनातन से सर्वप्रथम सौर धर्म , शाक्त धर्म , शैव धर्म , ब्रह्म धर्म , वैष्णव धर्म , हिन्दू धर्म , यवन धर्म , यहूदी धर्म , जैन धर्म , बौद्ध धर्म , पारसी धर्म , ईसाई धर्म , ईस्लाम धर्म  , सिख धर्म का उद्भव हुआ है। मानवीय चेतना का रूप प्रारंभ मे सनत , सनातन , सनक और कुमार द्वारा सनातन धर्म की स्थापना कर शाश्वत रूप दिया गया था।
वैदिक काल में भारतीय उपमहाद्वीप के धर्म के लिये 'सनातन धर्म' नाम मिलता है। 'सनातन' का अर्थ है - शाश्वत या 'हमेशा बना रहने वाला', अर्थात् जिसका न आदि है न अन्त। सनातन धर्म मूलत: सामाजिक चेतना  है ।वृहत्तर भारत (भारतीय उपमहाद्वीप) तक व्याप्त रहा है। विभिन्न कारणों से हुए भारी धर्मान्तरण के बाद भी विश्व के इस क्षेत्र की बहुसंख्यक आबादी सनातन धर्म में आस्था रखती है। सिन्धु नदी के पार के वासियो को ईरानवासी हिन्दू कहते, जो 'स' का उच्चारण 'ह' करते थे। उनकी देखा-देखी अरब हमलावर भी तत्कालीन भारतवासियों को हिन्दू और उनके धर्म को हिन्दू धर्म कहने लगे। भारत के अपने साहित्य में हिन्दू शब्द कोई १००० वर्ष पूर्व ही मिलता है, उसके पहले नहीं। हिन्दुत्व सनातन धर्म के रूप में सभी धर्मों का मूलाधार है क्योंकि सभी धर्म-सिद्धान्तों के सार्वभौम आध्यात्मिक सत्य के विभिन्न पहलुओं का इसमें पहले से ही समावेश कर लिया गया था। ॐ सनातन धर्म का प्रतीक चिह्न तथा सनातन परम्परा का सबसे पवित्र शब्द है।
“ यह पथ सनातन है। समस्त देवता और मनुष्य इसी मार्ग से पैदा हुए हैं तथा प्रगति की है। हे मनुष्यों आप अपने उत्पन्न होने की आधाररूपा अपनी माता को विनष्ट न करें। ” —ऋग्वेद-3-18-1
सनातन धर्म  , हिन्दू धर्म अथवा वैदिक धर्म का इतिहास 1960855122 वर्ष का  हैं। प्राचीन काल में विंध्य पर्वतमाला सभ्यता का प्रतीक है । भारत की सिन्धु घाटी सभ्यता में हिन्दू धर्म के कई चिह्न मिलते हैं। इनमें एक अज्ञात मातृदेवी की मूर्तियाँ, शिव पशुपति जैसे देवता की मुद्राएँ, लिंग, पीपल की पूजा, इत्यादि प्रमुख हैं। इतिहासकारों के एक दृष्टिकोण के अनुसार इस सभ्यता के अन्त के दौरान मध्य एशिया से एक अन्य जाति का आगमन हुआ, जो स्वयं को आर्य कहते थे और संस्कृत नाम की एक हिन्द यूरोपीय भाषा बोलते थे। एक अन्य दृष्टिकोण के अनुसार सिन्धु घाटी सभ्यता के लोग स्वयं ही आर्य थे और उनका मूलस्थान भारत ही था। प्राचीन काल में भारतीय सनातन धर्म में सौर , शाक्त , गाणपत्य, शैव ,  वैष्णव,  पाँच सम्प्रदाय होते थे। गाणपत्य के गणेश , वैष्णव के विष्णु की, शैव के  शिव की, शाक्त के शक्ति की और सौर धर्म सूर्य की पूज करते है । ऋग्वेद , पुराणों ,रामायण और महाभारत में उल्लेख है। प्रत्येक सम्प्रदाय के समर्थक अपने देवता को दूसरे सम्प्रदायों के देवता से बड़ा समझते थे और इस कारण से उनमें वैमनस्य बना रहता था। एकता बनाए रखने के उद्देश्य से धर्मगुरुओं ने लोगों को यह शिक्षा देना आरम्भ किया कि सभी देवता समान हैं, विष्णु, शिव और शक्ति आदि देवी-देवता परस्पर एक दूसरे के भी भक्त हैं। उनकी इन शिक्षाओं से तीनों सम्प्रदायों में मेल हुआ और सनातन धर्म की उत्पत्ति हुई। सनातन धर्म में विष्णु, शिव और शक्ति को समान माना गया और तीनों ही सम्प्रदाय के समर्थक इस धर्म को मानने लगे। सनातन धर्म का सारा साहित्य वेद, पुराण, श्रुति, स्मृतियाँ, उपनिषद्, रामायण, महाभारत, गीता आदि संस्कृत भाषा में रचा गया है।
कालान्तर में भारतवर्ष में मुसलमान शासन हो जाने के कारण देवभाषा संस्कृत का ह्रास हो गया तथा सनातन धर्म की अवनति होने लगी। इस स्थिति को सुधारने के लिये विद्वान संत तुलसीदास ने प्रचलित भाषा में धार्मिक साहित्य की रचना करके सनातन धर्म की रक्षा की। जब औपनिवेशिक ब्रिटिश शासन को ईसाई, मुस्लिम आदि धर्मों के मानने वालों का तुलनात्मक अध्ययन करने के लिये जनगणना करने की आवश्यकता पड़ी तो सनातन शब्द से अपरिचित होने के कारण उन्होंने यहाँ के धर्म का नाम सनातन धर्म के स्थान पर हिंदू धर्म रख दिया।
सनातन में आधुनिक और समसामयिक चुनौतियों का सामना करने के लिए इसमें समय समय पर बदलाव होते रहे हैं, जैसे कि राजा राम मोहन राय, स्वामी दयानंद, स्वामी विवेकानंद आदि ने सती प्रथा, बाल विवाह, अस्पृश्यता जैसे असुविधाजनक परंपरागत कुरीतियों से असहज महसूस करते रहे। इन कुरीतियों की जड़ो (धर्मशास्त्रो) में मौजूद उन श्लोको -मंत्रो को "क्षेपक" कहा या फिर इनके अर्थो को बदला और इन्हें त्याज्य घोषित किया तो कई पुरानी परम्पराओं का पुनरुद्धार किया जैसे विधवा विवाह, स्त्री शिक्षा आदि। यद्यपि आज सनातन का पर्याय हिन्दू है पर सिख, बौद्ध, जैन धर्मावलम्बी भी अपने आप को सनातनी कहते हैं, क्योंकि बुद्ध भी अपने को सनातनी कहते हैं।[3]यहाँ तक कि नास्तिक जोकि चार्वाक दर्शन को मानते हैं वह भी सनातनी हैं। सनातन धर्मी के लिए किसी विशिष्ट पद्धति, कर्मकांड, वेशभूषा को मानना जरुरी नहीं। बस वह सनातनधर्मी परिवार में जन्मा हो, वेदांत, मीमांसा, चार्वाक, जैन, बौद्ध, आदि किसी भी दर्शन को मानता हो बस उसके सनातनी होने के लिए पर्याप्त है।
सनातन धर्म की गुत्थियों को देखते हुए कई बार इसे कठिन और समझने में मुश्किल धर्म समझा जाता है। हालांकि, सच्चाई तो ऐसी नहीं है, फिर भी इसके इतने आयाम, इतने पहलू हैं कि लोगबाग कई बार इसे लेकर भ्रमित हो जाते हैं। सबसे बड़ा कारण इसका यह कि सनातन धर्म किसी एक दार्शनिक, मनीषा या ऋषि के विचारों की उपज नहीं है, न ही यह किसी ख़ास समय पैदा हुआ। यह तो अनादि काल से प्रवाहमान और विकासमान रहा। साथ ही यह केवल एक दृष्टा, सिद्धांत या तर्क को भी वरीयता नहीं देता।विज्ञान जब प्रत्येक वस्तु, विचार और तत्व का मूल्यांकन करता है तब इस प्रक्रिया में धर्म के अनेक विश्वास और सिद्धांत धराशायी हो जाते हैं। विज्ञान सनातन सत्य को पकड़ने में अभी तक कामयाब नहीं हुआ है किंतु वेदांत में उल्लेखित जिस सनातन सत्य की महिमा का वर्णन किया गया है विज्ञान धीरे-धीरे उससे सहमत होता नजर आ रहा है।ऋषि-मुनियों ने ध्यान और मोक्ष की गहरी अवस्था में ब्रह्म, ब्रह्मांड और आत्मा के रहस्य को जानकर उसे स्पष्ट तौर पर व्यक्त किया था। वेदों में ही सर्वप्रथम ब्रह्म और ब्रह्मांड के रहस्य पर से पर्दा हटाकर 'मोक्ष' की धारणा को प्रतिपादित कर उसके महत्व को समझाया गया था। मोक्ष के बगैर आत्मा की कोई गति नहीं इसीलिए ऋषियों ने मोक्ष के मार्ग को ही सनातन मार्ग माना है । हिन्दू धर्म का इतिहास अति प्राचीन है। इस धर्म को वेदकाल से भी पूर्व का माना जाता है, क्योंकि वैदिक काल और वेदों की रचना का काल अलग-अलग माना जाता है। यहां शताब्दियों से मौखिक (तु वेदस्य मुखं) परंपरा चलती रही, जिसके द्वारा इसका इतिहास व ग्रन्थ आगे बढ़ते रहे। उसके बाद इसे लिपिबद्ध (तु वेदस्य हस्तौ) करने का काल भी बहुत लंबा रहा है। हिन्दू धर्म के सर्वपूज्य ग्रन्थ हैं वेद। वेदों की रचना किसी एक काल में नहीं हुई। विद्वानों ने वेदों के रचनाकाल का आरंभ २००० ई.पू. से माना है। यानि यह धीरे-धीरे रचे गए और अंतत: पहले वेद को तीन भागों में संकलित किया गया- ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेद जि‍से वेदत्रयी कहा जाता था। कहीं कहीं ऋग्यजुस्सामछन्दांसि को वेद ग्रंथ से न जोड़ उसका छंद कहा गया है। मान्यता अनुसार वेद का वि‍भाजन राम के जन्‍म के पूर्व पुरुंरवा राजर्षि के समय में हुआ था। बाद में अथर्ववेद का संकलन ऋषि‍ अथर्वा द्वारा कि‍या गया। वहीं एक अन्य मान्यता अनुसार कृष्ण के समय में वेद व्यास कृष्णद्वैपायन ऋषि ने वेदों का विभाग कर उन्हें लिपिबद्ध किया था। मान्यतानुसार हर द्वापर युग में कोई न कोई मुनि व्यास बन वेदों को ४ भागों में बाटता है।ऋग्वेद का भूगोलीय क्षितिज (जिसमें नदियों के नाम एवं सीमेटरी एच दिये हैं। ये हिन्दूकुश और पंजाब क्षेत्र से ऊपरी गांगेय क्षेत्र तक फैला हुआ था।हिंदू धर्म की उत्पत्ति पूर्व आर्यों की अवधारणा में है जो ४५०० ई.पू. मध्य एशिया से हिमालय तक फैले थे, इसमें भी डॉ मुइर जैसे वैज्ञानिकों में मतभेद हैं।[1] कहते हैं कि आर्यों की ही एक शाखा ने अविस्तक धर्म की स्थापना भी की। इसके बाद क्रमशः यहूदी धर्म २००० ई.पू., बौद्ध धर्म और जैन धर्म ५०० ई.पू., ईसाई धर्म सिर्फ २००० वर्ष पूर्व, इस्लाम धर्म आज से १४०० वर्ष पूर्व हुआ।धार्मिक साहित्य अनुसार हिंदू धर्म की कुछ और भी धारणाएँ हैं। रामायण, महाभारत और पुराणों में सूर्य और चंद्रवंशी राजाओं की वंश परम्परा का उल्लेख उपलब्ध है। इसके अलावा भी अनेक वंशों की उत्पति और परम्परा का वर्णन आता है। उक्त सभी को इतिहास सम्मत क्रमबद्ध लिखना बहुत ही कठिन कार्य है, क्योंकि पुराणों में उक्त इतिहास को अलग-अलग तरह से व्यक्त किया गया है जिसके कारण इसके सूत्रों में बिखराव और भ्रम निर्मित जान पड़ता है, फिर भी धर्म के ज्ञाताओं के लिए यह भ्रम नहीं है, वो इसे कल्पभेद से सत्य मानते हैं। हिन्दू शास्त्र ग्रंथ याद करके रखे गए थे। यही कारण रहा कि अनेक आक्रमण जैसे नालंदा आदि के प्रकोप से भी अधिकतर बचे रहे। इनकी कुछ मिथ़ॉलजि जैसी बातों को आधुनिक दुनिया नहीं मानती तो कुछ सत्य प्रतीत होने वाली बातों को मानतीं भीं हैं।हिंदू धर्म के इतिहास ग्रंथ पढ़ें तो ऋषि-मुनियों की परम्परा के पूर्व मनुओं की परम्परा का उल्लेख मिलता है जिन्हें जैन धर्म में कुलकर कहा गया है। ऐसे क्रमश: १४ मनु माने गए हैं जिन्होंने समाज को सभ्य और तकनीकी सम्पन्न बनाने के लिए अथक प्रयास किए। धरती के प्रथम मानव का नाम स्वयंभू मनु था और प्रथम ‍स्त्री सतरुपा थी महाभारत में आठ मनुओं का उल्लेख है। इस वक्त धरती पर आठवें मनु वैवस्वत की ही संतानें हैं। आठवें मनु वैवस्वत के काल में ही भगवान विष्णु का मत्स्य अवतार हुआ था। हिन्दूधर्म की कालमापनी सबसे बड़ी है। पुराणों में हिंदू इतिहास का आरंभ सृष्टि उत्पत्ति से ही माना जाता है। ऐसा कहना कि यहाँ से शुरुआत हुई यह ‍शायद उचित न होगा फिर भी हिंदू इतिहास ग्रंथ महाभारत और पुराणों में मनु (प्रथम मानव) से भगवान कृष्ण की पीढ़ी तक का उल्लेख मिलता है।
हालांकि इतिहासकारों की मानें तो हिन्दू धर्म का प्रारम्भ सिन्धु घाटी की सभ्यता (५००० वर्ष पूर्व) समानांतर/उपरांत से कहा जाता है, वहीं ग्रंथों में लिखित दस्तावेज़ इससे कहीं आगे की बात करते हैं। इसके साथ ही अनेक साक्ष्य कभी कभी इतिहासवेत्ताओं के पसीेने छुड़ा देते हैं। उदाहरणार्थ सन् २०१९ में प्राप्त श्रीराम के ६००० वर्ष प्राचीन भित्तिचित्र जो ईराक में मिले है।  कल्प विग्रह नामक शिव प्रतिमा जिसकी कार्बन डेटिंग आयु २८,४५० (२०१९) वर्ष आंकी गई थी।[3] ये सारे प्रमाण हिन्दू धर्म को कहीं अधिक प्राचीन बनाते हैं। हिन्दू धर्म लगभग ५००० साल से व्यवस्थित विकसित हुआ है और सात चरणों के रूप में देखा जा सकता है कि दूरबीन एक-दूसरे में है। कुछ हिंदुत्व के अधिवक्ताओं का मानना होगा कि १२,००० साल पहले हिमयुग के अंत तक हिंदू धर्म को अपने संपूर्ण रूप में ऋषियों के लिए प्रकट किया गया था। हिंदुत्व के इतिहास में, पौराणिक कथाएं सिर्फ समय-समय पर इतिहास है, इतिहासकार गणना नहीं कर सकते। हाल के दिनों में, हिंदू धर्म को "खुला स्रोत धर्म" के रूप में वर्णित किया गया है, अनोखा है कि इसमें कोई परिभाषित संस्थापक या सिद्धांत नहीं है, और ऐतिहासिक और भौगोलिक वास्तविकताओं के जवाब में इसके विचार लगातार विकसित होते हैं। यह कई सहायक नदियों और शाखाओं के साथ एक नदी के रूप में सबसे अच्छा वर्णित है, हिंदुत्व शाखाओं में से एक है, और वर्तमान में बहुत शक्तिशाली है, कई लोग स्वयं को नदी के रूप में मानते हैं।
इतिहासकारों के अनुसार लगभग ५००० साल पहले, कांस्य युग में, जिसे हड़प्पा सिंधु घाटी सभ्यता कहा जाता है,[4] जो ईंट शहरों की विशेषता है, जो लगभग एक हजार वर्षों से सिंधु नदी घाटी के विशाल क्षेत्र में गंगा के ऊपर तक पहुंचे।[5] समतल इन शहरों में, हम उन चित्रों के साथ मिट्टी की जवानों को खोजते हैं जो वर्तमान हिंदू प्रकृति की बहुत अधिक हिस्सा हैं जैसे पाइपल वृक्ष, बैल, स्वस्तिका, सात दासी, और एक आदमी जो योग मुद्रा में बैठा है। हम इस चरण के बारे में बहुत कुछ नहीं जानते क्योंकि भाषा को समझने के लिए बना रहता है। ३५०० साल पहले, लौह युग में, वैदिक भजनों और अनुष्ठानों से पता चला जा सकता है जिसमें हड़प्पा के विचारों के निशान होते हैं, लेकिन एक स्थाई शहरी जीवन शैली की बजाय एक खानाबदोश और ग्रामीण जीवन शैली के लिए डिजाइन किया गया है। कुछ हिंदुत्व के अधिवक्ताओं पूरी तरह असहमत हैं और जोर देते हैं कि दो चरणों वास्तव में एक हैं। इस चरण में, हमें एक विश्वदृष्टि मिलती है जो भौतिक दुनिया का जश्न मनाती है, जहां ईश्वरों को अनुष्ठानों के साथ पेश किया जाता है, और स्वास्थ्य और धन, समृद्धि और शांति प्रदान करने को कहा जाता है। देवताओं को आमंत्रित करने और उनसे अनुग्रह प्राप्त करने का यह पहलू आज भी जारी है, हालांकि ये रस्में अलग-अलग हैं। वेदों ने सिंधु (अब पंजाब) से अपर गंगा (अब आगरा और वाराणसी) और निचले गंगा (अब पटना) मैदानों में एक क्रमिक फैलाव प्रकट किया है। कुछ हिंदुत्व विद्वान इस तरह के भौगोलिक फैलाव का खंडन करते हैं और उपमहाद्वीप पर जोर देते हैं कि प्राचीन समय से पूरी तरह से विकसित, समरूप, शहरी वैदिक संस्कृति, प्लास्टिक की सर्जरी और यहां तक ​​कि हवाई जहाज जैसे उन्नत प्रौद्योगिकी के लिए। तीसरे चरण में २५०० साल पहले उपनिषद के रूप में जाना जाता ग्रंथों के साथ, जहां अनुष्ठानों की तुलना में आत्मनिरीक्षण और ध्यान पर अधिक महत्व दिया गया था, और हम पुनर्जन्म, मठवाद, जन्म और मृत्यु के चक्र से मुक्ति जैसे विचारों पर अधिक ध्यान केंद्रित करते हैं। इस चरण में बौद्ध धर्म और जैन धर्म जैसे शमन (मठवासी) परंपराओं का उदय देखा गया, इसके अनुयायियों ने पाली और प्राकृत में बात की और वेदिक रूप और वैदिक भाषा, संस्कृत का भी खारिज कर दिया। इसमें ब्राह्मण पुजारियों ने भी धर्म-शास्त्रों की रचना के माध्यम से वैदिक विचारों को पुनर्गठित किया, किताबें जो कि शादी के माध्यम से सामाजिक जीवन को विनियमित करने और पारित होने के अनुष्ठान पर ध्यान केंद्रित करती हैं, और लोगों के दायित्वों को उनके पूर्वजों, उनकी जाति और विश्व पर निर्भर करता है। विशाल। कई शिक्षाविद वैदिक विचारों के इस संगठन का वर्णन करने के लिए ब्राह्मणवाद का प्रयोग करते हैं और इसे एक मूल रूप से पितृसत्तात्मक और मागासीवादी बल के रूप में देखते हैं जो समतावादी और शांतिवादी मठों के आदेशों के साथ हिंसक रूप से प्रतिस्पर्धा करते हैं। बौद्ध धर्म और जैन धर्म, वैदिक प्रथाओं और विश्वासों के साथ, उत्तर भारत से दक्षिण भारत तक फैल गया, और अंततः उपमहाद्वीप से मध्य एशिया तक और दक्षिण पूर्व एशिया तक फैल गया। दक्षिण में, तमिल संगम संस्कृति का सामना करना पड़ता था, उस जानकारी के बारे में जो प्रारंभिक कविताओं के संग्रह से आते हैं, जो वैदिक अनुष्ठानों के कुछ ज्ञान और बौद्ध धर्म और जैन धर्म के ज्ञान के साथ बाद में महाकाव्यों का पता चलता है। कुछ हिंदुत्व विद्वानों का कहना है कि कोई अलग तमिल संगम संस्कृति नहीं थी। यह पूरी तरह से विकसित, समरूप, शहरी वैदिक संस्कृति का हिस्सा था, जहां सभी ने संस्कृत को बोला था।
चौथे चरण में ६००० साल पहले शुरू हुए रामायण, महाभारत और पुराण जैसे लेखों का उदय हुआ, जहां कहानियों को घरेलू और विश्व सम्बन्धों की विश्वदृष्टि का समाधान करने के लिए उपयोग किया जाता है और अब परिचित हिंदू विश्वदृष्टि का निर्माण किया जाता है। हमें एक पूरी तरह से विकसित पौराणिक कथाओं के लिए पेश किया जाता है जहां विश्व की कोई शुरुआत नहीं है (अंतदी) या अंत (अनंत), कई आकाश और कई कालो के साथ, क्रिया और प्रतिक्रिया (कर्म) द्वारा नियंत्रित, जहां सभी समाज जन्म और मृत्यु के चक्रों के माध्यम से जाते हैं, बस सभी जीवित प्राणियों की तरह इस चरण में मंदिरों और मंदिर अनुष्ठानों का उदय हुआ। हम मठवासी वेदांतिक आदेशों का उदय भी देखते हैं जो शरीर और सबकुछ संवेदनात्मक, साथ ही जाप तन्त्रिक आदेशों से शरीर को भ्रष्ट करते हैं और शरीर और सभी चीजों की खोज करते हैं। हम पुराने निगामा परम्परा के मिंगलिंग भी देख सकते हैं, जहां दिव्यता को नए अग्मा परम्पारा के साथ निराकार माना जाता है, जहां परमात्मा शिव और उसके पुत्रों, विष्णु और उनके अवतार, और देवी और उसके कई रूपों का रूप लेते हैं। नए आदेशों और परंपराओं के उभरने के साथ, हम जाति प्रणाली (या जाति, एक यूरोपीय शब्द) के समेकन को भी देखते हैं, जो व्यवसायों के आधार पर समुदाय समूह नहीं है, जो अंतरिमारी न होने से खुद को अलग करता है। कई शिक्षाविदों ने जाति को हिंदू धर्म की एक आवश्यक विशेषता के रूप में देखा है जो उच्च जातियों के पक्ष में है, जिस पर आरोप है कि हिंदुत्व अस्वीकार करते हैं। कई हिंदुत्व के विद्वानों का कहना है कि जाति के पास एक वैज्ञानिक और तर्कसंगत आधार है, और उसके पास राजनीति या अर्थशास्त्र के साथ कुछ भी नहीं है।पांचवां चरण १००० वर्ष पुराना है, और यह एक सिद्धांत के रूप में भक्ति का उदय देखा, जहां भक्त भावुक गीतों के माध्यम से देवताओं से जुड़े हुए हैं, जो क्षेत्रीय भाषाओं में बना है, अक्सर मंदिर प्रणाली को दरकिनार करते हैं। यह वह समय था जब एक कठोर जाति के पदानुक्रम ने खुद को दृढ़तापूर्वक लगाया था, जो पवित्रता के सिद्धांत पर आधारित थी और कुछ जातियों को अशुभ और अयोग्य रूप में देखा जा रहा था। उन्हें भी समुदाय से अच्छी तरह से वंचित नहीं किया जा सकता है यह भी वह समय है जब इस्लाम भारत में प्रवेश करता है, शांतिपूर्वक समुद्र के व्यापारियों के माध्यम से दक्षिण में और मध्य एशियाई सरदारों के माध्यम से हिंसक रूप से उत्तर में जाता है, जो बौद्ध मठों और हिंदू मंदिरों को नष्ट करते हैं, जो राजनीतिक सत्ता के केंद्र भी होते हैं और अंततः उनके शासन की स्थापना करते हैं, अक्सर हिंदू राजाओं जैसे उत्तर में राजपूत, पूरब में अहोम्स, मराठों और दक्कन में विजयनगर साम्राज्य का विरोध करते थे। हिंदुत्व ने इस्लाम के आगमन और दिल्ली और डेक्कानी सल्तनतों के उत्थान को देखते हुए, बाद में मुगल शासन को महान हिंदू संस्कृति के अंत के रूप में चिह्नित किया, यह एक विषय है कि मार्क्सवादी इतिहासकारों ने पागल सांप्रदायिक प्रचार किया है। बाद में केवल हिंदू-इस्लामी सहयोग को उजागर किया गया, जो अन्य चरम पर जा रहा है ।छठे चरण ३०० वर्ष का है जब हिंदू धर्म उपमहाद्वीप में यूरोपीय शक्ति के उदय को उत्तर देते हैं, और ईसाई मिशनरियों के परिणामस्वरूप आगमन और तर्कसंगत वैज्ञानिक व्याख्यान। कुछ हिंदुत्व विद्वान, दोनों के बीच अंतर नहीं करते हैं। इस युग में यूरोपीय विद्वानों ने वैज्ञानिक विधियों और जूदेव-ईसाई लेंस दोनों का उपयोग करके हिंदू धर्म की भावना बनाने की कोशिश की। उनके लिए, एकेश्वरवाद सच्चा धर्म और वैज्ञानिक था; बहुदेववाद मूर्तिपूजक पौराणिक कथाओं था उन्होंने हिंदू जीवन शैली के अनुवाद और दस्तावेजीकरण का एक विशाल अभ्यास शुरू किया। उन्होंने एक पवित्र किताब, एक नबी, और अधिक महत्वपूर्ण बात, एक उद्देश्य की तलाश की। आखिरकार, जटिलता को व्यवस्थित करने के लिए, उन्होंने हिंदू धर्म को ब्राह्मणवाद के रूप में परिभाषित करना शुरू किया, यह बौद्ध धर्म, जैन धर्म और सिख धर्म से भिन्न था। यह ओरिएंटलिस्ट ढांचा विद्यालयों, कॉलेजों और मीडिया के माध्यम से पूर्वी धर्मों की वैश्विक समझ को सूचित करता रहा है। एक तरल मौखिक संस्कृति को १वीं और ९वीं शताब्दी तक तय किया गया था। पश्चिमी तरीकों से पढ़े हुए हिंदुओं ने अपने रिवाज़ और विश्वासों के बारे में पूछे जाने पर उन्हें शर्म की बात और शर्मिंदगी का गहरा असर महसूस किया। कुछ ने औपनिवेशिक देखने के लिए हिंदुत्व को सुधारने का फैसला किया। दूसरों ने हिंदू धर्म के "सच्चे सार" की खोज करने और "बाद में भ्रष्ट" प्रथाओं को खारिज कर दिया। फिर भी दूसरों ने हिंदू धर्म को ही खारिज कर दिया और सभी धर्मों को एक अंधेरे खतरनाक बल के रूप में देखा, जो तर्कसंगतता और वैज्ञानिक रूप से बदल दिया गया। यह इस चरण में है कि हिंदुत्व एक जवाबी शक्ति के रूप में उभरे जो कि उन्होंने यूरोपियन में हिंदुओं की सभी चीजों के अविनाशी और अनुचित मजाक के रूप में देखा और बाद में अमेरिकी और भारतीय विश्वविद्यालयों में चुनौती दी। हिंदुत्व ने मार्क्सवाद और अन्य सभी पश्चिमी प्रवचनों को ईसाई प्रवचन के एक और रूप के रूप में देखा, जो पिछले शताब्दियों में इस्लाम ने मध्य और दक्षिण पूर्व एशिया में जो किया था, वह हिंदू जीवन शैली के सभी निशानों को मिटा देने की मांग कर रहा था।
यहूदी धर्म दुनिया का प्रथम एकेश्वरवादी धर्म माना जाता है। यह सिर्फ एक धर्म ही नहीं बल्कि पूरी जीवन-पद्धति है जो कि इस्राइल और हिब्रू भाषियों का राजधर्म है। यहुदी धर्म में ईश्वर और उसके नबी यानि पैग़म्बर की मान्यता  है। धार्मिक ग्रन्थों में तनख़, तालमुद तथा मिद्रश प्रमुख हैं। यहूदी मानते हैं कि यह सृष्टि की रचना से ही विद्यमान है। यहूदियों के धार्मिक स्थल को मन्दिर व प्रार्थना स्थल को सिनेगॉग कहते हैं। ईसाई धर्म व इस्लाम का आधार यही परम्परा और विचारधारा है। इसलिए इसे इब्राहिमी धर्म भी कहा जाता है।बाबिल (बेबीलोन) के निर्वासन से लौटकर इज़रायली जाति मुख्य रूप से येरूसलेम तथा उसके आसपास के 'यूदा'  प्रदेश में बसने के कारण इज़रायलियों के धार्मिक एवं सामाजिक संगठन को यूदावाद (यूदाइज़्म ) येरूसलेम का मंदिर यहूदी धर्म का केंद्र बना और यहूदियों को मसीह के आगमन की आशा बनी रहती थी। निर्वासन के पूर्व से ही तथा निर्वासन के समय में भी यशयाह, जेरैमिया, यहेजकेल और दानिएल नामक नबी इस यूदावाद की नींव डाल रहे थे। वे यहूदियों को याहवे के विशुद्ध एकेश्वरवादी धर्म का उपदेश दिया करते थे और सिखलाते थे कि निर्वासन के बाद जो यहूदी फिलिस्तीन लौटेंगे वे नए जोश से ईश्वर के नियमों पर चलेंगे और मसीह का राज्य तैयार करेंगे। निर्वासन के बाद एज्रा, नैहेमिया, आगे, जाकारिया और मलाकिया इस धार्मिक नवजागरण के नेता बने। 537 ई0पू0 में बाबिल से जा पहला काफ़िला येरूसलेम लौटा, उसमें यूदावंश के 40,000 लोग थे, उन्होंने मंदिर तथा प्राचीर का जीर्णोंद्धार किया। बाद में और काफिले लौटै। यूदा के वे इजरायली अपने को ईश्वर की प्रजा समझने लगे। बहुत से यहूदी, जो बाबिल में धनी बन गए थे, वहीं रह गए किंतु बाबिल तथा अन्य देशों के प्रवासी यहूदियों का वास्तविक केंद्र येरूसलेम बना और यदा के यहूदी अपनी जाति के नेता माने जाने लगे।
किसी भी प्रकार की मूर्तिपूजा का तीव्र विरोध तथा अन्य धर्मों के साथ समन्वय से घृणा यूदावाद की मुख्य विशेषता है। उस समय यहूदियों का कोई राजा नहीं था और प्रधान याजक धार्मिक समुदाय पर शासन करते थे। वास्तव में याह्वे (ईश्वर) यहूदियों का राजा था और बाइबिल में संगृहीत मूसा संहिता समस्त जाति के धार्मिक एवं नागरिक जीवन का संविधान बन गई। गैर यहूदी इस शर्त पर इस समुदाय के सदस्य बन सकते थे। कि वे याह्वे का धर्म तथा मूसा की संहिता स्वीकार करें। ऐसा माना जाता था कि मसीह के आने पर समस्त मानव जाति उनके राज्य में संमिलित हो जायगी, किंतु यूदावाद स्वयं संकीर्ण ही रहा। यूदावाद अंतियोकुस चतुर्थ (175-164 ई0पू0) तक शांतिपूर्वक बना रहा किंतु इस राजा ने उसपर यूनानी संस्कृति लादने का प्रयत्न किया जिसके फलस्वरूप मक्काबियों के नेतृत्व में यहूदियों ने उनका विरोध किया था।
यहूदी मान्यताओं के अनुसार ईश्वर एक है और उसके अवतार या स्वरूप नहीं है, लेकिन वो दूत से अपने संदेश भेजता है। ईसाई और इस्लाम धर्म भी इन्हीं मान्यताओं पर आधारित है पर इस्लाम में ईश्वर के निराकार होने पर अधिक ज़ोर डाला गया है। यहूदियों के अनुसार मूसा को ईश्वर का संदेश दुनिया में फैलाने के लिए मिला था जो लिखित (तनाख) तथा मौखिक रूपों में था। यहुदी धर्म के धार्मिक ग्रंथ अरामी भाषा में तनख़, तालमुद तथा मिद्रश। इनके अलावा सिद्दूर, हलाखा, कब्बालाह है।यहूदी धर्मग्रंथ तोराह के अनुसार हजरत नूह ने ईश्वर के आदेश पर जलप्रलय के समय बहुत बड़ा जहाज बनाया, और उसमें सारी सृष्टि को बचाया था।हजरत ,अब्राहम, यहूदी, इस्लाम और ईसाई धर्म तीनों के पितामह माने जातें हैं। तोराह के अनुसार अब्राहम लगभग २००० ई.पू. अकीदियन साम्राज्य के ऊर प्रदेश में अपने इब्रानी कबीले के साथ रहा करते थे। जहां प्रचलित मुर्तिपूजा से व्यथित होकर इन्होंने ईश्वर की खोज में अपने कबीले के साथ एक लम्बी यात्रा को शुरू किया। यर्दन नदी की तराई के प्रदेश में पहुंचने के बाद प्रथम इज़राएली प्रदेश की नींव पड़ी। यहूदी मान्यता के अनुसार कालांतर में कनान प्रदेश में भीषण अकाल पड़ने के कारण इब्रानियों को सम्पन्न मिस्र देश में जाकर शरण लेनी पड़ी। मिस्र में कई वर्षों बाद इज़राएलियों को गुलाम बना लिया गया। यहुदी द्वारा यहुदी धर्म की स्थापना 1300 ई. पू. कर मानव समाज मे नयी चेतना का संचार किया गया था । हजरत मूसा का जन्म मिस्र के गोशेन शहर में हुआ था। यहूदी इतिहास के अनुसार इन्होंने इब्रानियों को मिस्र की ४०० वर्ष की गुलामी से बाहर निकालकर उन्हें कनान देश तक पहुंचाने में उनका नेतृत्व किया। मूसा को ही यहूदी धर्मग्रंथ की प्रथम पांच किताबों, तोराह का रचयिता माना जाता है। इन्होंने ही ईश्वर के दस विधान व व्यवस्था इब्रानियों को प्रदान की थी। तनख़ के अनुसार मूसा मिस्र में रामेसेस द्वितीय के शासन में थे, जो कि लगभग १३०० ई.पू. था। यहूदी मृत्यु के बाद की दुनिया में यक़ीन नहीं रखते। उनके हिसाब से सभी मनुष्यों का यहूदी होना ज़रूरी नहीं है। यहूदी दर्शन में वर्तमान को ही महत्वपूर्ण माना जाता है, एवं हर क्षण को भरपूरी के साथ जीना ही आवश्यक है। ईश्वर समय-समय पर सही राह दिखाने के लिए नबियों को भेजता है। अपने हाथों से बनाई हुई मूर्ति को ईश्वर मानकर पूजना पूर्ण रूप से प्रतिबंधित है। अपने सारे कर्तव्यों को ईश्वर को समर्पित कर उनका पूरी ईमानदारी से निर्वाह ही असल धर्म है। यहूदी धर्म किसी निर्धारित पाप को मान्यता नहीं देता जिसमें मनुष्य जन्म से ही पापी हो बल्कि, इसमें पाप व प्रायश्चित को निरंतर प्रक्रिया के रूप में माना जाता है। प्रायश्चित ही मुक्ति है।बाइबिल के पूर्वार्ध में यहुदी धर्म और दर्शन का प्रतिपादन किया गया है  कि एक ही सर्वशक्तिमान् ईश्वर को छोड़कर और कोई देवता नहीं है। ईश्वर इजरायल तथा अन्य देशों पर शासन करता है और वह इतिहास तथा पृथ्वी की एंव घटनाओं का सूत्रधार है। वह पवित्र है और अपने भक्तों से यह माँग करता है कि पाप से बचकर पवित्र जीवन बिताएँ। ईश्वर एक न्यायी एवं निष्पक्ष न्यायकर्ता है जो कूकर्मियों को दंड और भले लोगों को इनाम देता है। वह दयालु भी हे और पश्चाताप करने पर पापियों को क्षमा प्रदान करता है, इस कारण उसे पिता की संज्ञा भी दी जा सकती है। ईश्वर उस जाति की रक्षा करता है जो उसकी सहायता माँगती है। यहूदियों ने उस एक ही ईश्वर के अनेक नाम रखे थे, अर्थात् एलोहीम, याहवे और अदोनाई। बाइबिल के पूर्वार्ध से यह स्पष्ट नहीं हो पाता है कि ईश्वर इस जीवन में ही अथवा परलोक में भी पापियों को दंड और अच्छे लोगों को इनाम देता है।इतिहास में ईश्वर ने अपने को अब्राहम तथा उसके महान वंशजों पर प्रकट किया है। उसने उनको सिखलाया है कि वह स्वर्ग, पृथ्वी तथा सभी चीजों का सृष्टिकर्ता है। सृष्टि ईश्वर का कोई रूपांतर नहीं है क्योंकि ईश्वर की सत्ता सृष्टि से सर्वथा भिन्न है, इस लोकोत्तर ईश्वर ने अपनी इच्छाशक्ति द्वारा सभी चीजों की सृष्टि की है। यहूदी लोग सृष्टिकर्ता और सृष्टि इन दोनों को सर्वथा भिन्न समझते थे।समस्त मानव जाति की मुक्ति हेतु अपना विधान प्रकट करने के लिये ईश्वर ने यहूदी जाति को चुन लिया है। यह जाति अब्राहम से प्रारंभ हुई थी (दे0 अब्राहम) और मूसा के समय ईश्वर तथा यहूदी जाति के बीच का व्यवस्थान संपन्न हुआ था।मसीह का भावी आगमन यहूदी जाति के ऐतिहासिक विकास की पराकाष्ठा होगी। मसीह समस्त पृथ्वी पर ईश्वर का राज्य स्थापित करेंगे और मसीह के द्वारा ईश्वर यहूदी जाति के प्रति उपनी प्रतिज्ञाएं पूरी करेगा। किंतु बाइबिल के पूर्वार्ध में इसका कहीं भी स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता कि मसीह कब और कहाँ प्रकट होने वाले हैं।मूसा संहिता यहूदियों के आचरण तथा कर्मकांड का मापदंड था । इतिहास में ऐसा समय भी आया जब वे मूसासंहिता के नियमों की उपेक्षा करने लगे। ईश्वर तथा उसके नियमों के प्रति यहूदियों के इस विश्वासघात के कारण उनको बाबिल के निर्वासन का दंड भोगना पड़ा। उस समय भी बहुत से यहूदी प्रार्थना, उपवास तथा परोपकार द्वारा अपनी सच्ची ईश्वरभक्ति प्रमाणित करते थे। यहूदी धर्म की उपासना येरूसलेम के महामंदिर में केंद्रीभूत थी। उस मंदिर की सेवा तथा प्रशासन के लिये याजकों का श्रेणीबद्ध संगठन किया गया था। येरूसलेम के मंदिर में ईश्वर विशेष रूप से विद्यमान है, यह यहूदियों का द्दढ़ विश्वास था और वे सब के सब उस मंदिर की तीर्थयात्रा करना चाहते थे ताकि वे ईश्वर के सामने उपस्थित होकर उसके प्रति अपना हृदय प्रकट कर सकें। मंदिर के धार्मिक अनुष्ठान तथा त्योहारों के अवसर पर उसमें आयोजित समारोह भक्त यहूदियों को आनंदित किया करते थे। छठी शताब्दी ई0 पू0 के निर्वासन के बाद विभिन्न स्थानीय सभाघरों में भी ईश्वर की उपासना की जाने लगी। यहूदियों का बाइबिल के पूर्वार्ध में प्रतिपादित धर्म तथा दर्शन की व्याख्या अपने ढंग से की है। ईसाइयों का  ईसा ही बाइबिल में प्रतिज्ञात मसीह है । ईसाई धर्म के संस्थापक प्रभु यीशु है । ईस्वी संबत 2020 है । प्रभु यीशु की याद में ईस्वी सन् प्रारंभ हुआ था ।
भारतीय वैदिक और पौराणिक ग्रंथों में यवन और मलेच्छ या म्लेच्छ शब्द बहुत पढ़ने में आता है।  आर्यावर्त के राजा ययाति के 5 पुत्र थे- 1. पुरु, 2. यदु, 3. तुर्वस, 4. अनु और 5. द्रुह्मु। उक्त पांचों को पंचनंद कहा जाता है। इन्हीं पांचों के कुल का संपूर्ण धरती पर विस्तार हुआ। आज जो संपूर्ण धरती पर हम मानव देखते हैं उनमें से अधिकतर इन्हीं पांचों के कुल से संबंध रखते हैं।पुरु से पौरव हुए। पुरु के कुल में ही कुरु हुए। कुरु से कौरव हुए। यदु से यादव हुए। यदु कुल में ही भगवान श्री कृष्ण का जन्म हुआ था। तुर्वस से तुर्वसु या भोज हुए जिन्हें यवन भी कहा गया। महाभारत के युद्ध में इनके वंशज कौरवों को साथ थे। अनु से आनव हुए। सौवीर, कैकेय और मद्र कबीले इन्हीं आनवों से उत्पन्न हुए थे। प्रचेतस के बारे में लिखा है कि उनके 100 बेटे अफगानिस्तान से उत्तर जाकर बस गए और 'म्लेच्छ' कहलाए। कहते हैं कि तुर्वस और द्रुह्म से ही यवन और मलेच्छों का वंश चला। यह दोनों ही एक ही कुल के होने के नाते एक ही माने गए।कालयवन : यह जन्म से ब्राह्मण लेकिन कर्म से असुर था और अरब के पास यवन देश में रहता था। पुराणों में इसे म्लेच्छों का प्रमुख कहा गया है। कालयवन ऋषि शेशिरायण का पुत्र था। गर्ग गोत्र के ऋषि शेशिरायण त्रिगत राज्य के कुलगुरु थे। श्री कृष्ण ने कालयवन को मारने के लिए एक मुचुकंद का सहारा लिया था।गर्ग ऋषि : गर्ग ऋषि दो हुए हैं। यहां दूसरे ऋषि की बात है। एक गर्ग ऋषि महाभारत काल में भी हुए थे, जो यदुओं के आचार्य थे जिन्होंने 'गर्ग संहिता' लिखी। कहते हैं कि कोई एक ऋषि यवनी थे। बाद में ये मथुरा से जाकर उड़िसा में बस गए थे। गर्ग ऋषि को पुराणों में कहीं कहीं यवनाचार्य लिखा गया है। गर्ग ऋषि और अरब से आए रामानुज संस्था के एक अरबी को यवनाचार्य कहते थे।बैक्ट्रिया के यवन राज्य का अंत शक जाति के आक्रमण द्वारा हुआ था। संपूर्ण भारत पर शकों का कभी शासन नहीं रहा। भारत के जिस प्रदेश को शकों ने पहले-पहल अपने अधीन किया, वे यवनों के छोटे-छोटे राज्य थे। सिन्ध नदी के तट पर स्थित मीननगर को उन्होंने अपनी राजधानी बनाया। भारत का यहां पहला शक राज्य था। यमन और यूनान का संबंध संभवत: यवनों से ही रहा हो। मनुस्मृति में जहां अन्य पतित क्षत्रियों के नाम गिनाते हैं वहां 'किराताः' यवनाः शकाः कहकर किरात भी गिनाए हैं। ये ही किरात नेपाल और भूटान में जाकर मंगोलियन जाति के मूल पुरुष भी बने हैं। बलोचिस्तान का एक स्थान है केलात यह पहले किरात था। यूनानी : यूनानियों ने भारत के पश्चिमी छोर के कुछ हिस्सों पर ही शासन किया था। भारत पर आक्रमण करने वाले सबसे पहले आक्रांता थे बैक्ट्रिया के ग्रीक राजा। इन्हें भारतीय साहित्य में यवन के नाम से जाना जाता है। यवन शासकों में सबसे शक्तिशाली सिकंदर (356 ईपू) था जिसे उसके देश में अलेक्जेंडर और भारत में अलक्षेन्द्र कहा जाता था। सिकंदर ने अफगानिस्तान एवं उत्तर-पश्चिमी भारत के कुछ भाग पर कब्जा कर लिया था। बाद में इस भाग पर उसके सेनापति सेल्यूकस ने शासन किया। हालांकि सेल्यूकस को ये भू-भाग चंद्रगुप्त मौर्य को समर्पित कर देने पड़े थे। बाद के एक शासक डेमेट्रियस प्रथम (ईपू 220-175) ने भारत पर आक्रमण किया। युक्रेटीदस भी भारत की ओर बढ़ा और कुछ भागों को जीतकर उसने तक्षशिला को अपनी राजधानी बनाया। भारत में यवन साम्राज्य के दो कुल थे- पहला डेमेट्रियस और दूसरा युक्रेटीदस के वंशज। इसके बाद मीनेंडर (ई .पू .160-120) ने भारत पर आक्रमण किया। मीनेंडर संभवतः डेमेट्रियस के कुल का था। जब भारत में नौवां बौद्ध शासक वृहद्रथ राज कर रहा था, तब ग्रीक राजा मीनेंडर अपने सहयोगी डेमेट्रियस (दिमित्र) के साथ युद्ध करता हुआ सिन्धु नदी के पास तक पहुंच चुका था। हिमालय निकलकर बहने वाली नदियों के तटों पर कुरु, पांचाल, पुण्ड्र, कलिंग, मगध, दक्षिणात्य, अपरान्तदेशवासी, सौराष्ट्रगण, तहा शूर, आभीर एवं अर्बुदगण, कारूष, मालव, पारियात्र, सौवीर, सन्धव, हूण, शाल्व, कोशल, मद्र, आराम, अम्बष्ठ, शाक्य और पारसी गण रहते हैं। इसके पूर्वी भाग में किरात और पश्चिमी भाग में यवन बसे हुए हैं। अनंत (शेष), वासुकी, तक्षक, कार्कोटक और पिंगला यह सभी कश्यप वंशी थे । महाभारत अनुसार में प्राग्ज्योतिष (असम), किंपुरुष (नेपाल), त्रिविष्टप (तिब्बत), हरिवर्ष (चीन), कश्मीर, अभिसार (राजौरी), दार्द, हूण हुंजा, अम्बिस्ट आम्ब, पख्तू, कैकेय, गंधार, कम्बोज, वाल्हीक बलख, शिवि शिवस्थान-सीस्टान-सारा बलूच क्षेत्र, सिंध, सौवीर सौराष्ट्र समेत सिंध का निचला क्षेत्र दंडक महाराष्ट्र सुरभिपट्टन मैसूर, चोल, आंध्र, कलिंग तथा सिंहल सहित लगभग 200 जनपद पूर्णतया आर्य संस्कृति से प्रभावित थे। आभीर अहीर, तंवर, कंबोज, यवन, शिना, काक, पणि, चुलूक चालुक्य, सरोस्ट सरोटे, कक्कड़, खोखर, चिन्धा चिन्धड़, समेरा, कोकन, जांगल, शक, पुण्ड्र, ओड्र, मालव, क्षुद्रक, योधेय जोहिया, शूर, तक्षक व लोहड़ आदि आर्य  हैं। मलेच्छ और यवन लगातार आर्यों पर आक्रमण करते रहते थे। आर्यों में भरत, दास, दस्यु और अन्य जाति के लोग थे। वेदों में उल्लेखित पंचनंद यदु, कुरु, पुरु, द्रुहु और अनु थे।  द्रहु और अनु के कुल के लोग  मलेच्छ और यवन कहलाए ।
पारसी धर्म -  फारस का राजधर्म पारसी धर्म  ज़न्द अवेस्ता धर्मग्रंथ पर आधारित है। पारसी धर्म के संस्थापक महात्मा ज़रथुष्ट्र द्वारा  6 वीं शताब्दी ई .पू. किया गया था । ज़न्द अवेस्ता के अब कुछ ही अंश मिलते हैं। ऋग्वेद की भाषा अवेस्तन भाषा  संस्कृत भाषा से  सबंध है।पारसी धर्म की शिक्षा हैः हुमत, हुख्त, हुवर्श्त जो संस्कृत में सुमत, सूक्त, सुवर्तन अथवा सुबुद्धि, सुभाष, सुव्यवहार हुआ। पारसी एक ईश्वर को मानते हैं, जिसे अहुरा मज़्दा (संस्कृत: असुर मेधा) (होरमज़्द) कहते हैं। उनका वर्णन वैदिक देवता वरुण से काफ़ी मेल खाता है।अग्नि को ईश्वरपुत्र समान और अत्यन्त पवित्र माना जाता है। उसी के माध्यम से अहुरा मज़्दा की पूजा होती है। पारसी मंदिरों को आतिश बेहराम कहा जाता है।
स्पेन्ता अमेशा (संस्कृत: स्पन्द अमृत) इनके सात (अथवा छः) .फ़रिश्ते हैं। वेरिगोद् पारसी विश्वास के मुताबिक अहुरा मज़्दा का दुश्मन दुष्ट अंगिरा मैन्यु (आहरीमान) है। पारसी धर्म ईरान का राजधर्म हुआ करता था। उन्होंने हिन्दुस्तान में शरण ली। तबसे आज तक पारसियों ने भारत के उदय में बहुत बड़ा योगदान दिया है। ईरान पारसी देश हुआ करता था फारसियों के इस्लाम ग्रहण करने के उपरांत समस्त ईरान को मुस्लिम देश बना दिया गया ।पारसी त्यौहारों में नौरोज़ , खोरदादसाल , जरथुस्त्रनो , गहम्बर्स , फ्रावार देगन , पपेटी ,जमशोद नौरोज़ है ।प्राचीन फारस (आज का ईरान) जब पूर्वी यूरोप से मध्य एशिया तक फैला एक विशाल साम्राज्य था, तब पैगंबर जरथुस्त्र ने एक ईश्वरवाद का संदेश देते हुए पारसी धर्म की नींव रखी। Atd जरथुस्त्र व उनके अनुयायीयों के बारे में विस्तृत इतिहास ज्ञात नहीं है। कारण यह कि पहले सिकंदर की फौजों ने तथा बाद में अरब के जिहादी आक्रमणकारियों ने प्राचीन फारस का लगभग सारा धार्मिक एवं सांस्कृतिक साहित्य नष्ट कर डाला था। आज हम इस इतिहास के बारे में जो कुछ भी जानते हैं, वह ईरान के पहाड़ों में उत्कीर्ण शिला लेखों तथा वाचिक परंपरा की बदौलत है।सातवीं सदी ईस्वी तक आते-आते फारसी साम्राज्य अपना पुरातन वैभव तथा शक्ति गँवा चुका था। जब अरबों ने इस पर निर्णायक विजय प्राप्त कर ली तो अपने धर्म की रक्षा हेतु अनेक जरथोस्ती धर्मावलंबी समुद्र के रास्ते भाग निकले और उन्होंने भारत के पश्चिमी तट पर शरण ली।यहाँ वे 'पारसी' (फारसी का अपभ्रंश) कहलाए। आज विश्वभर में मात्र सवा से डेढ़ लाख के बीच जरथोस्ती हैं। इनमें से आधे से अधिक भारत में हैं।फारस के शहंशाह विश्तास्प के शासनकाल में पैंगबर जरथुस्त्र ने दूर-दूर तक भ्रमण कर अपना संदेश दिया। उनके अनुसार ईश्वर एक ही है (उस समय फारस में अनेक देवी-देवताओं की पूजा की जाती थी)। इस ईश्वर को जरथुस्त्र ने 'अहुरा मजदा' कहा अर्थात 'महान जीवन दाता'।अहुरा मजदा कोई व्यक्ति नहीं है, बल्कि सत्व है, शक्ति है, ऊर्जा है। जरथुस्त्र के दर्शनानुसार विश्व में दो आद्य आत्माओं के बीच निरंतर संघर्ष जारी है।इनमें एक है अहुरा मजदा की आत्मा, 'स्पेंता मैन्यू'। दूसरी है दुष्ट आत्मा 'अंघरा मैन्यू'। इस दुष्ट आत्मा के नाश हेतु ही अहुरा मजदा ने अपनी सात कृतियों यथा आकाश, जल, पृथ्वी, वनस्पति, पशु, मानव एवं अग्नि से इस भौतिक विश्व का सृजन किया। वे जानते थे कि अपनी विध्वंसकारी प्रकृति तथा अज्ञान के चलते अंघरा मैन्यू इस विश्व पर हमला करेगा और इसमें अव्यवस्था, असत्य, दुःख, क्रूरता, रुग्णता एवं मृत्यु का प्रवेश करा देगा।
मनुष्य, जो कि अहुरा मजदा की सर्वश्रेष्ठ कृति है, की इस संघर्ष में केन्द्रीय भूमिका है। उसे स्वेच्छा से इस संघर्ष में बुरी आत्मा से लोहा लेना है। इस युद्ध में उसके अस्त्र होंगे अच्छाई, सत्य, शक्ति, भक्ति, आदर्श एवं अमरत्व। इन सिद्धांतों पर अमल कर मानव अंततः विश्व की तमाम बुराई को समाप्त कर देगा।कुछ अधिक वैज्ञानिक कसौटी पर धर्म को परखने वाले 'स्पेंता मैन्यू' की व्याख्या अलग तरह से करते हैं। इसके अनुसार 'स्पेंता मैन्यू' कोई आत्मा नहीं, बल्कि संवृद्धिशील, प्रगतिशील मन अथवा मानसिकता है। अर्थात यह अहुरा मजदा का एक गुण है, वह गुण जो ब्रह्माण्ड का निर्माण एवं संवर्द्धन करता है। ईश्वर ने स्पेंता मैन्यू का सृजन इसीलिए किया था कि एक आनंददायक विश्व का निर्माण किया जा सके। प्रगतिशील मानसिकता ही पृथ्वी पर मनुष्यों को दो वर्गों में बाँटती है। सदाचारी, जो विश्व का संवर्द्धन करते हैं तथा दुराचारी, जो इसकी प्रगति को रोकते हैं। जरथुस्त्र चाहते हैं कि प्रत्येक व्यक्ति ईश्वर तुल्य बने, जीवनदायी ऊर्जा को अपनाए तथा निर्माण, संवर्द्धन एवं प्रगति का वाहक बने। पैगंबर जरथुस्त्र के उपदेशों के अनुसार विश्व एक नैतिक व्यवस्था है। इस व्यवस्था को स्वयं को कायम ही नहीं रखना है, बल्कि अपना विकास तथा संवर्द्धन भी करना है। जरथोस्ती धर्म में जड़ता की अनुमति नहीं है।विकास की प्रक्रिया में बुरी ताकतें बाधा पहुँचाती हैं, परंतु मनुष्य को इससे विचलित नहीं होना है। उसे सदाचार के पथ कर कायम रहते हुए सदा विकास की दिशा में बढ़ते रहना है।जीवन के प्रत्येक क्षण का एक निश्चित उद्देश्य है। यह कोई अनायास शुरू होकर अनायास ही समाप्त हो जाने वाली चीज नहीं है। सब कुछ ईश्वर की योजना के अनुसार होता है।
सर्वोच्च अच्छाई ही हमारे जीवन का उद्देश्य होना चाहिए। मनुष्य को अच्छाई से, अच्छाई द्वारा, अच्छाई के लिए जीना है। 'हुमत' (सद्विचार), 'हुउक्त' (सद्वाणी) तथा 'हुवर्षत' (सद्कर्म) जरथोस्ती जीवन पद्धति के आधार स्तंभ हैं।जरथोस्ती धर्म में मठवाद, ब्रह्मचर्य, व्रत-उपवास, आत्म दमन आदि की मनाही है। ऐसा माना गया है कि इनसे मनुष्य कमजोर होता है और बुराई से लड़ने की उसकी ताकत कम हो जाती है। निराशावाद व अवसाद को तो पाप का दर्जा दिया गया है। जरथुस्त्र चाहते हैं कि मानव इस विश्व का पूरा आनंद उठाए, खुश रहे। वह जो भी करे, बस एक बात का ख्याल अवश्य रखे और वह यह कि सदाचार के मार्ग से कभी विचलित न हो।भौतिक सुख-सुविधाओं से संपन्न जीवन की मनाही नहीं है, लेकिन यह भी कहा गया है कि समाज से तुम जितना लेते हो, उससे अधिक उसे दो। किसी का हक मारकर या शोषण करके कुछ पाना दुराचार है। जो हमसे कम सम्पन्न हैं, उनकी सदैव मदद करनी चाहिए।जरथोस्ती धर्म में दैहिक मृत्यु को बुराई की अस्थायी जीत माना गया है। इसके बाद मृतक की आत्मा का इंसाफ होगा। यदि वह सदाचारी हुई तो आनंद व प्रकाश में वास पाएगी और यदि दुराचारी हुई तो अंधकार व नैराश्य की गहराइयों में जाएगी, लेकिन दुराचारी आत्मा की यह स्थिति भी अस्थायी है। आखिर जरथोस्ती धर्म विश्व का अंतिम उद्देश्य अच्छाई की जीत को मानता है, बुराई की सजा को नहीं।अतः यह मान्यता है कि अंततः कई मुक्तिदाता आकर बुराई पर अच्छाई की जीत पूरी करेंगे। तब अहुरा मजदा असीम प्रकाश के रूप में सर्वसामर्थ्यवान होंगे। फिर आत्माओं का अंतिम फैसला होगा।इसके बाद भौतिक शरीर का पुनरोत्थान होगा तथा उसका अपनी आत्मा के साथ पुनर्मिलन होगा। समय का अस्तित्व समाप्त हो जाएगा और अहुरा मजदा की सात कृतियाँ शाश्वत धन्यता में एक साथ आ मिलेंगी और आनंदमय, अनश्वर अस्तित्व को प्राप्त करेंगी।
भारतीय ज्योतिष गणना और ज्योतिर्विदाभरण के अनुसार धरती पर मानव जीवन 2 करोड वर्ष पूर्व प्रारंभ हुआ था । वर्तमान में वैवश्वत मनु के मन्वन्तर काल का अन्तर कल्प मे हमत् कल्प 109800 - 85800 विक्रम संबत , ई.पू. , हिरण्य गर्भ कल्प 85800 - 61800 वि .सं . , ब्रह्म कल्प 61800 - 37800 वि .सं . ई.पू. , पद्म कल्प 37800 - 13800 वि.सं. , ई.पू. तथा वाराह कल्प 13800 विक्रम संबत या ई.पू. से प्रारंभ है । वर्तमान में वाराह कल्प मे सावर्णि मनु का सावर्णि मन्वन्तर 5630 विक्रम संवत् या ई.पू. प्रारंभ है । द्वापर युग के अन्त में युधिष्ठिर संबत तथ कलि युग में विभिन्न राजाओं द्वारा अपने नाम पर संबत चलाया जिसमें विक्रम संबत , ईसा संवत, शालिवाहन संवत , नेपाली संवत , गुप्त संबत , हिजरी संबत , नागार्जुन संवत , अनेक संबत चला है । प्रारंभ मे सौर संबत का प्रादुर्भाव हुआ था , 14 विभिन्न मनु द्वारा अपने नाम मन्वन्तर , कल्प प्रारंभ किया गया था ।

रविवार, सितंबर 27, 2020

जीओ और जीने दो का मार्ग प्रशस्त करते तीर्थंकर

 अनेकांतवाद , अहिंसा  के प्रवर्तक भगवान महावीर
सत्येन्द्र कुमार पाठक 
विश्व और भारतीय मानवोचित गुणों को अनेकांतवाद तथा पंचशील सिद्धान्त का मंत्र देने वाले भगवान महावीर है। जैन धर्म  में 24 तीर्थंकर हैं । ग्रंथों के अनुसार  रीषभनाथ , अजीतनाथ,संभवनाथ , अभिनंन्दननाथ, सुमतिनाथ, पद्मप्रभ ,सुपार्श्वनाथ , चन्द्रप्रभ , पुष्पदंत, शीतलनाथ ,श्रेयांश नाथ , वासुपूज्य , विमललनाथ , अनन्तनाथ , धर्मनाथ , शाांतिनाथ ,कुंथुनाथ , अरनाथ, मल्लिनाथ, सुब्रनाथ ,  नमीनाथ , नेमीनाथ , पार्शनाथ और वर्द्धमान महावीर तीर्थंकर है।
भगवान महावीर जैन धर्म के चौंबीसवें तीर्थंकर है। भगवान महावीर का जन्म 540 ई.पू. वैशाली के गणतंत्र राज्य  ( बिहार राज्य का वैशाली जिले के कुण्डग्राम) के ग्यात्रिककुल के राजा सिद्धार्थ की भार्या लिच्छवी राजा चेटक की बहन त्रिशला के गर्भ से कुण्ड ग्राम में हुआ था।  वर्द्धमान महावीर की पत्नि यशोदा के गर्भ से अनोज्जा प्रियदर्शनी थी। 30 वर्ष की आयु में महावीर ने संसार से विरक्त होकर राज वैभव त्याग दिया और संन्यास धारण कर आत्मकल्याण के पथ पर निकल गये। १२ वर्षो की कठिन तपस्या रीजूपालिका नदी जम्भिक स्थल पर साल पेड की छॉव मे  केवल्य ज्ञान प्राप्त करने के पश्चात् समवशरण में ज्ञान प्रसारित किया। भगवान महावीर ७२ वर्ष की आयु में पावा के मल्ल राजा स्टस्तिपाल के राज प्रसाद में 468 ई.पूू . कार्तिक क्टष्ण अमावस्या दीपावली को पावापुरी में  निर्वाण की प्राप्ति की। महावीर स्वामी के कई अनुयायी बने जिसमें मगध राजा बिम्बिसार, कुणिक और चेटक , आजातशत्रु , उदयन कलिंग नरेश खारवेल, राष्ट्रकूट राजा अमोघवर्ष तथा चंदेल शासक हुए।
जैन ग्रन्थों के अनुसार समय समय पर धर्म तीर्थ के प्रवर्तन के लिए तीर्थंकरों का जन्म होता है, जो सभी जीवों को आत्मिक सुख प्राप्ति का उपाय बताते है। तीर्थंकरों की संख्या चौबीस ही कही गयी है। भगवान महावीर वर्तमान अवसर्पिणी काल की चौबीसी के अंतिम तीर्थंकर थे और ऋषभदेव पहले। हिंसा, पशुबलि, जात-पात का भेद-भाव जिस युग में बढ़ गया, उसी युग में भगवान महावीर का जन्म हुआ। उन्होंने दुनिया को सत्य, अहिंसा का पाठ पढ़ाया। तीर्थंकर महावीर स्वामी ने अहिंसा को सबसे उच्चतम नैतिक गुण बताया।उन्होंने दुनिया को जैन धर्म के पंचशील सिद्धांत बताए, जो है– अहिंसा, सत्य, अपरिग्रह, अचौर्य (अस्तेय) और ब्रह्मचर्य। उन्होंने अनेकांतवाद, स्यादवाद और अपरिग्रह जैसे अद्भुत सिद्धांत दिए। महावीर के सर्वोदयी तीर्थों में क्षेत्र, काल, समय या जाति की सीमाएँ नहीं थीं। भगवान महावीर का आत्म धर्म जगत की प्रत्येक आत्मा के लिए समान था। दुनिया की सभी आत्मा एक-सी हैं इसलिए हम दूसरों के प्रति वही विचार एवं व्यवहार रखें जो हमें स्वयं को पसंद हो। यही महावीर का 'जीयो और जीने दो' का सिद्धन्त है । ग्रंथों के अनुसार उनके जन्म के बाद राज्य में उन्नति होने से उनका नाम वर्धमान रखा गया था। जैन ग्रंथ उत्तरपुराण में वर्धमान, वीर, अतिवीर, महावीर और सन्मति ऐसे पांच नामों का उल्लेख है। इन सब नामों के साथ कोई कथा जुडी है। जैन ग्रंथों के अनुसार, २३वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ जी के निर्वाण (मोक्ष) प्राप्त करने के 188 वर्ष बाद इनका जन्म हुआ था। दिगम्बर परम्परा के अनुसार महावीर बाल ब्रह्मचारी थे। भगवान महावीर शादी नहीं करना चाहते थे क्योंकि ब्रह्मचर्य उनका प्रिय विषय था। भोगों में उनकी रूचि नहीं थी। परन्तु इनके माता-पिता शादी करवाना चाहते थे। दिगम्बर परम्परा के अनुसार उन्होंने इसके लिए मना कर दिया था।[5] श्वेतांबर परम्परा के अनुसार इनका विवाह यशोदा नामक सुकन्या के साथ सम्पन्न हुआ था और कालांतर में प्रियदर्शिनी नाम की कन्या उत्पन्न हुई जिसका युवा होने पर राजकुमार जमाली के साथ विवाह हुआ। भगवान महावीर का साधना काल १२ वर्ष का था। दीक्षा लेने के उपरान्त भगवान महावीर ने दिगम्बर साधु की कठिन चर्या को अंगीकार किया और निर्वस्त्र रहे। श्वेतांबर सम्प्रदाय जिसमें साधु श्वेत वस्त्र धारण करते है के अनुसार भी महावीर दीक्षा उपरान्त कुछ समय छोड़कर निर्वस्त्र रहे और उन्होंने केवल ज्ञान की प्राप्ति भी दिगम्बर अवस्था में ही की। अपने पूरे साधना काल के दौरान महावीर ने कठिन तपस्या की और मौन रहे। इन वर्षों में उन पर कई ऊपसर्ग भी हुए जिनका उल्लेख कई प्राचीन जैन ग्रंथों में मिलता है।जैन ग्रन्थों के अनुसार केवल ज्ञान प्राप्ति के बाद, भगवान महावीर ने उपदेश दिया। उनके ११ गणधर (मुख्य शिष्य) थे जिनमें प्रथम इंद्रभूति थे। जैन ग्रन्थ, उत्तरपुराण के अनुसार महावीर स्वामी ने समवसरण में जीव आदि सात तत्त्व, छह द्रव्य, संसार और मोक्ष के कारण तथा उनके फल का नय आदि उपायों से वर्णन किया था। सत्य ― सत्य के बारे में भगवान महावीर स्वामी कहते हैं, हे पुरुष! तू सत्य को ही सच्चा तत्व समझ। जो बुद्धिमान सत्य की ही आज्ञा में रहता है, वह मृत्यु को तैरकर पार कर जाता है।अहिंसा – इस लोक में जितने भी त्रस जीव (एक, दो, तीन, चार और पाँच इंद्रीयों वाले जीव) है उनकी हिंसा मत कर, उनको उनके पथ पर जाने से न रोको। उनके प्रति अपने मन में दया का भाव रखो। उनकी रक्षा करो। यही अहिंसा का संदेश भगवान महावीर अपने उपदेशों से हमें देते हैं।अचौर्य - दुसरे के वस्तु बिना उसके दिए हुआ ग्रहण करना जैन ग्रंथों में चोरी कहा गया है।अपरिग्रह – परिग्रह पर भगवान महावीर कहते हैं जो आदमी खुद सजीव या निर्जीव चीजों का संग्रह करता है, दूसरों सेऐसा संग्रह कराता है या दूसरों को ऐसा संग्रह करने की सम्मति देता है, उसको दुःखों से कभी छुटकारा नहीं मिल सकता। यही संदेश अपरिग्रह का माध्यम से भगवान महावीर दुनिया को देना चाहते हैं।ब्रह्मचर्य- महावीर स्वामी ब्रह्मचर्य के बारे में अपने बहुत ही अमूल्य उपदेश देते हैं कि ब्रह्मचर्य उत्तम तपस्या, नियम, ज्ञान, दर्शन, चारित्र, संयम और विनय की जड़ है। तपस्या में ब्रह्मचर्य श्रेष्ठ तपस्या है। जो पुरुष स्त्रियों से संबंध नहीं रखते, वे मोक्ष मार्ग की ओर बढ़ते हैं।जैन मुनि, आर्यिका इन्हें पूर्ण रूप से पालन करते है, इसलिए उनके महाव्रत होते है और श्रावक, श्राविका इनका एक देश पालन करते है, इसलिए उनके अणुव्रत कहे जाते है।जैन ग्रंथों में दस धर्म का वर्णन है। पर्युषण पर्व, जिन्हें दस लक्षण भी कहते है के दौरान दस दिन इन दस धर्मों का चिंतन किया जाता है।क्षमा के बारे में भगवान महावीर कहते हैं- 'मैं सब जीवों से क्षमा चाहता हूँ। जगत के सभी जीवों के प्रति मेरा मैत्रीभाव है। मेरा किसी से वैर नहीं है। मैं सच्चे हृदय से धर्म में स्थिर हुआ हूँ। सब जीवों से मैं सारे अपराधों की क्षमा माँगता हूँ। सब जीवों ने मेरे प्रति जो अपराध किए हैं, उन्हें मैं क्षमा करता हूँ।'वे यह भी कहते हैं 'मैंने अपने मन में जिन-जिन पाप की वृत्तियों का संकल्प किया हो, वचन से जो-जो पाप वृत्तियाँ प्रकट की हों और शरीर से जो-जो पापवृत्तियाँ की हों, मेरी वे सभी पापवृत्तियाँ विफल हों। मेरे वे सारे पाप मिथ्या हों।'धर्म सबसे उत्तम मंगल है। अहिंसा, संयम और तप ही धर्म है। महावीरजी कहते हैं जो धर्मात्मा है, जिसके मन में सदा धर्म रहता है, उसे देवता भी नमस्कार करते हैं। भगवान महावीर ने अपने प्रवचनों में धर्म, सत्य, अहिंसा, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह, क्षमा पर सबसे अधिक जोर दिया। त्याग और संयम, प्रेम और करुणा, शील और सदाचार ही उनके प्रवचनों का सार था। तीर्थंकर महावीर का केवलिकाल ३० वर्ष का था। उनके के संघ में १४००० साधु, ३६००० साध्वी, १००००० श्रावक और ३००००० श्रविकाएँ थी।  ईसा पूर्व 468  में भगवान महावीर ने  72 वर्ष की आयु में बिहार के  नालंन्दा जिले का पावापुरी में कार्तिक कृष्ण अमावस्या दीपावली को निर्वाण (मोक्ष) प्राप्त किया।  पावापुरी में जल मंदिर स्थित है  जहाँ महावीर स्वामी को मोक्ष की प्राप्ति हुई थी।अहिंसा स्थल, महरौली, दिल्ली में दूसरी सदी के प्रभावशाली दिगम्बर मुनि, आचार्य समन्तभद्र ने तीर्थंकर महावीर के तीर्थ को सर्वोदय की संज्ञा दी थी।महावीर ने  जगत को न केवल मुक्ति का संदेश दिया, अपितु मुक्ति की सरल और सच्ची राह भी बताई। भगवान महावीर ने आत्मिक और शाश्वत सुख की प्राप्ति हेतु अहिंसा धर्म का उपदेश दिया। पद्मासन मुद्रा में भगवन महावीर की विशालतम ज्ञात प्रतिमा जी, पटनागंज (म•प•) ,तमिल नाडु, थिराकोइल , भगवान महावीर और अन्य २३ तीर्थंकर (बादामी गुफा, कर्नाटक) ,भगवान महावीर की कई प्राचीन प्रतिमाओं के देश और विदेश के संग्रहालयों में दर्शन होते है। महाराष्ट्र के एल्लोरा गुफाओं में भगवान महावीर की प्रतिमा मौजूद है। कर्नाटक की बादामी गुफाओं में भी भगवान महावीर की प्रतिमा स्थित है।
 जैन तीर्थंकरों का परिचय -  तीर्थंकर का अर्थ है- उद्धारकर्ता तथा तारने वाला। तीर्थंकर को अरिहंत कहा जाता है। मूलत: यह शब्द अर्हत पद से संबंधित है। अरिहंत का अर्थ होता है जिसने अपने भीतर के शत्रुओं पर विजय पा ली। ऐसा व्यक्ति जिसने कैवल्य ज्ञान को प्राप्त कर लिया। अरिहंत का अर्थ भगवान होता है।
 ऋषभदेव : राजा प्रियब्रत द्वारा अपने पुत्र आग्रीध्र को जम्बूद्वीप को स्वामी बनाया था ।जम्बुद्वीप के स्वामी आग्रीध्र के 9 पुत्रों मे प्रथम पुत्र हेम वर्ष का राजा नाभि की पत्नी मरुदेवी के गर्भ से ऋषभदेव का अवतरण चैत्र कृष्ण की अष्टमी-नवमी को हिमस्थल पर स्वयंभुव मनु के प्रथम मनु का मन्वन्तर में हुआ। इनके दो पुत्र भरत और बाहुबली तथा दो पुत्रियां ब्राह्मी और सुंदरी थीं। ऋषभदेव स्वायंभुव मनु से पांचवीं पीढ़ी में इस क्रम में हुए- स्वायंभुव मनु, प्रियव्रत, अग्नीघ्र, नाभि और ऋषभ। चैत्र माह के कृष्ण पक्ष की अष्टमी को आपने दीक्षा ग्रहण की तथा फाल्गुन कृष्ण पक्ष की अष्टमी के दिन आपको कैवल्य की प्राप्ति हुई। कैलाश पर्वत क्षेत्र के अष्टपद में आपको माघ कृष्ण  को निर्वाण प्राप्त हुआ। प्रतीक चिह्न- बैल, चैत्यवृक्ष- न्यग्रोध, यक्ष- गोवदनल, यक्षिणी- चक्रेश्वरी हैं। अजीतनाथजी : द्वितीय तीर्थंकर अजीतनाथजी की माता का नाम विजया और पिता का नाम जितशत्रु था। आपका जन्म माघ शुक्ल पक्ष की दशमी को अयोध्या में हुआ था। माघ शुक्ल पक्ष की नवमी को दीक्षा ग्रहण की तथा पौष शुक्ल पक्ष की एकादशी को आपको कैवल्य ज्ञान की प्राप्ति हुई। चैत्र शुक्ल की पंचमी को आपको सम्मेद शिखर पर निर्वाण प्राप्त हुआ। आपका प्रतीक चिह्न- गज, चैत्यवृक्ष- सप्तपर्ण, यक्ष- महायक्ष, यक्षिणी- रोहिणी है। संभवनाथजी : तृतीय तीर्थंकर संभवनाथजी की माता का नाम सुसेना और पिता का नाम जितारी है। संभवनाथजी का जन्म मार्गशीर्ष की चतुर्दशी को श्रावस्ती में हुआ था। मार्गशीर्ष के शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा के दिन आपने दीक्षा ग्रहण की तथा कठोर तपस्या के बाद कार्तिक कृष्ण की पंचमी को आपको कैवल्य ज्ञान की प्राप्ति हुई। चैत्र शुक्ल पक्ष की पंचमी को सम्मेद शिखर पर निर्वाण प्राप्त हुआ। जैन धर्मावलंबियों के अनुसार उनका प्रतीक चिह्न- अश्व, चैत्यवृक्ष- शाल, यक्ष- त्रिमुख, यक्षिणी- प्रज्ञप्ति है। अभिनंदनजी : चतुर्थ तीर्थंकर अभिनंदनजी की माता का नाम सिद्धार्था देवी और पिता का नाम सन्वर (सम्वर या संवरा राज) है। आपका जन्म माघ शुक्ल की बारस को अयोध्या में हुआ। माघ शुक्ल की बारस को ही आपने दीक्षा ग्रहण की तथा कठोर तप के बाद पौष शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी को आपको कैवल्य ज्ञान की प्राप्ति हुई। बैशाख शुक्ल की छटमी या सप्तमी के दिन सम्मेद शिखर पर आपको निर्वाण प्राप्त हुआ। जैन धर्मावलंबियों के अनुसार उनका प्रतीक चिह्न- बंदर, चैत्यवृक्ष- सरल, यक्ष- यक्षेश्वर, यक्षिणी- व्रजश्रृंखला है। सुमतिनाथजी : पांचवें तीर्थंकर सुमतिनाथजी के पिता का नाम मेघरथ या मेघप्रभ तथा माता का नाम सुमंगला था। बैशाख शुक्ल की अष्टमी को साकेतपुरी (अयोध्या) में  जन्म हुआ। कुछ विद्वानों के अनुसार आपका जन्म चैत्र शुक्ल की एकादशी को हुआ था। बैशाख शुक्ल की नवमी के दिन आपने दीक्षा ग्रहण की तथा चैत्र शुक्ल पक्ष की एकादशी को आपको कैवल्य ज्ञान की प्राप्ति हुई। चैत्र शुक्ल की एकादशी को सम्मेद शिखर पर आपको निर्वाण प्राप्त हुआ। जैन धर्मावलंबियों के अनुसार उनका प्रतीक चिह्न- चकवा, चैत्यवृक्ष- प्रियंगु, यक्ष- तुम्बुरव, यक्षिणी- वज्रांकुशा है। पद्ममप्रभुजी : छठवें तीर्थंकर पद्मप्रभुजी के पिता का नाम धरण राज और माता का नाम सुसीमा देवी था। कार्तिक कृष्ण पक्ष की द्वादशी को आपका जन्म वत्स कौशाम्बी में हुआ। कार्तिक कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी को आपने दीक्षा ग्रहण की तथा चैत्र शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा के दिन आपको कैवल्य ज्ञान की प्राप्ति हुई। फाल्गुन कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी को आपको सम्मेद शिखर पर निर्वाण प्राप्त हुआ। जैन धर्मावलंबियों के अनुसार उनका प्रतीक चिह्न- कमल, चैत्यवृक्ष- प्रियंगु, यक्ष-मातंग, यक्षिणी- अप्रति चक्रेश्वरी है।सुपार्श्वनाथ : सातवें तीर्थंकर सुपार्श्वनाथ के पिता का नाम प्रतिस्थसेन तथा माता का नाम पृथ्वीदेवी था। सुपार्श्वनाथ का जन्म वाराणसी में ज्येष्ठ शुक्ल पक्ष की बारस को हुआ था। ज्येष्ठ शुक्ल पक्ष की त्रयोदशी को आपने दीक्षा ग्रहण की तथा फाल्गुन कृष्ण पक्ष की सप्तमी को आपको कैवल्य ज्ञान प्राप्त हुआ। फाल्गुन कृष्ण पक्ष की सप्तमी के दिन आपको सम्मेद शिखर पर निर्वाण प्राप्त हुआ। जैन धर्मावलंबियों के अनुसार आपका प्रतीक चिह्न- स्वस्तिक, चैत्यवृक्ष- शिरीष, यक्ष- विजय, यक्षिणी- पुरुषदत्ता है। चन्द्रप्रभु : आठवें तीर्थंकर चन्द्रप्रभु के पिता का नाम राजा महासेन तथा माता का नाम सुलक्षणा था। आपका जन्म पौष कृष्ण पक्ष की बारस के दिन चन्द्रपुरी में हुआ। पौष कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी को आपने दीक्षा ग्रहण की तथा फाल्गुन कृष्ण पक्ष 7 को आपको कैवल्य ज्ञान की प्राप्ति हुई। भाद्रपद के कृष्ण पक्ष की सप्तमी को आपको सम्मेद शिखर पर निर्वाण प्राप्त हुआ। जैन धर्मावलंबियों के अनुसार आपका प्रतीक चिह्न- अर्द्धचन्द्र, चैत्यवृक्ष- नागवृक्ष, यक्ष- अजित, यक्षिणी- मनोवेगा है। पुष्पदंत : नौवें तीर्थंकर पुष्पदंत को सुविधिनाथ भी कहा जाता है। पुष्पिपदंत के पिता का नाम राजा सुग्रीव राज तथा माता का नाम रमा रानी था, जो इक्ष्वाकु वंश से थीं। मार्गशीर्ष के कृष्ण पक्ष की पंचमी को काकांदी में  जन्म हुआ। मार्गशीर्ष के कृष्ण पक्ष की छठ  को आपने दीक्षा ग्रहण की तथा कार्तिक कृष्ण पक्ष की तृतीया  को आपको सम्मेद शिखर में कैवल्य ज्ञान की प्राप्ति हुई। भाद्र के शुक्ल पक्ष की नवमी को आपको सम्मेद शिखर पर निर्वाण प्राप्त हुआ। आपका प्रतीक चिह्न- मकर, चैत्यवृक्ष- अक्ष (बहेड़ा), यक्ष- ब्रह्मा, यक्षिणी- काली है। शीतलनाथ : दसवें तीर्थंकर शीतलनाथ के पिता का नाम दृढ़रथ  और माता का नाम सुनंदा था। आपका जन्म माघ कृष्ण पक्ष की द्वादशी को बद्धिलपुर  में हुआ। मघा कृष्ण पक्ष की द्वादशी को आपने दीक्षा ग्रहण की तथा पौष कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी को आपको कैवल्य ज्ञान की प्राप्ति हुई। बैशाख के कृष्ण पक्ष की दूज को आपको सम्मेद शिखर पर निर्वाण प्राप्त हुआ। आपका प्रतीक चिह्न- कल्पतरु, चैत्यवृक्ष- धूलि (मालिवृक्ष), यक्ष- ब्रह्मेश्वर, यक्षिणी- ज्वालामालिनी है। श्रेयांसनाथजी : ग्यारहवें तीर्थंकर श्रेयांसनाथजी की माता का नाम विष्णुश्री या वेणुश्री था और पिता का नाम विष्णुराज। सिंहपुरी नामक स्थान पर फागुन कृष्ण पक्ष की ग्यारस को आपका जन्म हुआ। श्रावण शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा को सम्मेद शिखर (शिखरजी) पर आपको निर्वाण प्राप्त हुआ। जैन धर्मावलंबियों के अनुसार उनका प्रतीक चिह्न- गैंडा, चैत्यवृक्ष- पलाश, यक्ष- कुमार, यक्षिणी- महाकाली है। वासुपूज्य : बारहवें तीर्थंकर वासुपूज्य प्रभु के पिता का नाम वसुपूज्य और माता का नाम जया देवी था। आपका जन्म फाल्गुन कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी को चंपापुरी में हुआ था। फाल्गुन कृष्ण पक्ष की अमावस्या को आपने दीक्षा ग्रहण की तथा मघा की दूज  को कैवल्य ज्ञान की प्राप्ति हुई। आषाढ़ के शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी को चंपा में आपको निर्वाण प्राप्त हुआ। जैन धर्मावलंबियों के अनुसार आपका प्रतीक चिह्न- भैंसा, चैत्यवृक्ष- तेंदू, यक्ष- षणमुख, यक्षिणी- गौरी है। विमलनाथ : तेरहवें तीर्थंकर विमलनाथ के पिता का नाम कृतर्वेम तथा माता का नाम श्याम देवी (सुरम्य) था। आपका जन्म मघा शुक्ल तीज को कपिलपुर में हुआ था। मघा शुक्ल पक्ष की तीज को ही आपने दीक्षा ग्रहण की तथा पौष शुक्ल पक्ष की षष्ठी के दिन कैवल्य की प्राप्ति हुई। आषाढ़ शुक्ल की सप्तमी के दिन श्री सम्मेद शिखर पर निर्वाण प्राप्त हुआ। जैन धर्मावलंबियों के अनुसार आपका प्रतीक चिह्न- शूकर, चैत्यवृक्ष- पाटल, यक्ष- पाताल, यक्षिणी- गांधारी। अनंतनाथजी : चौदहवें तीर्थंकर अनंतनाथजी की माता का नाम सर्वयशा तथा पिता का नाम सिंहसेन था। आपका जन्म अयोध्या में वैशाख कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी के दिन हुआ। वैशाख कृष्ण पक्ष चतुर्दशी  को आपने दीक्षा ग्रहण की तथा कठोर तप के बाद वैशाख कृष्ण की त्रयोदशी के दिन ही कैवल्य ज्ञान की प्राप्ति हुई। चैत्र शुक्ल की पंचमी के दिन आपको सम्मेद शिखर पर निर्वाण प्राप्त हआ। जैन धर्मावलंबियों के अनुसार उनका प्रतीक चिह्न- सेही, चैत्यवृक्ष- पीपल, यक्ष- किन्नर, यक्षिणी- वैरोटी है। धर्मनाथ : पन्द्रहवें तीर्थंकर श्री धर्मनाथ के पिता का नाम भानु और माता का नाम सुव्रत था। आपका जन्म मघा शुक्ल की तृतीया (3) को रत्नापुर में हुआ था। मघा शुक्ल की त्रयोदशी को आपने दीक्षा ग्रहण की तथा पौष की पूर्णिमा के दिन आपको कैवल्य की प्राप्ति हुई। ज्येष्ठ कृष्ण पक्ष की पंचमी को सम्मेद शिखर पर निर्वाण प्राप्त हुआ। जैन धर्मावलंबियों के अनुसार आपका प्रतीक चिह्न- वज्र, चैत्यवृक्ष- दधिपर्ण, यक्ष- किंपुरुष, यक्षिणी- सोलसा। शांतिनाथ : जैन धर्म के सोलहवें तीर्थंकर शांतिनाथ का जन्म ज्येष्ठ मास के कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी को हस्तिनापुर में इक्ष्वाकु कुल में हुआ। शांतिनाथ के पिता हस्तिनापुर के राजा विश्वसेन थे और माता का नाम आर्या (अचीरा) था। आपने ज्येष्ठ माह के कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी को दीक्षा ग्रहण की तथा पौष शुक्ल पक्ष की नवमी के दिन आपको कैवल्य की प्राप्ति हुई। ज्येष्ठ मास के कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी को सम्मेद शिखर पर निर्वाण प्राप्त हुआ। जैन धर्मावलंबियों के अनुसार आपका प्रतीक चिह्न- हिरण, चैत्यवृक्ष-नंदी, यक्ष- गरूड़, यक्षिणी- अनंतमती हैं। कुंथुनाथजी : सत्रहवें तीर्थंकर कुंथुनाथजी की माता का नाम श्रीकांता देवी (श्रीदेवी) और पिता का नाम राजा सूर्यसेन था। आपका जन्म वैशाख कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी को हस्तिनापुर में हुआ था। वैशाख कृष्ण पक्ष की पंचमी के दिन दीक्षा ग्रहण की तथा चैत्र शुक्ल पक्ष की पंचमी को कैवल्य ज्ञान की प्राप्ति हुई। वैशाख शुक्ल पक्ष की एकम के दिन सम्मेद शिखर पर निर्वाण प्राप्त हुआ। जैन धर्मावलंबियों के अनुसार आपका प्रतीक चिह्न- छाग (बकरा), चैत्यवृक्ष- तिलक, यक्ष- गंधर्व, यक्षिणी- मानसी है। अरहनाथजी : अठारहवें तीर्थंकर अरहनाथजी या अर प्रभु के पिता का नाम सुदर्शन और माता का नाम मित्रसेन देवी था। आपका जन्म मार्गशीर्ष के शुक्ल पक्ष की दशमी के दिन हस्तिनापुर में हुआ। मार्गशीर्ष के शुक्ल पक्ष की ग्यारस को आपने दीक्षा ग्रहण की तथा कार्तिक कृष्ण पक्ष की बारस को कैवल्य ज्ञान की प्राप्ति हुई। मार्गशीर्ष की दशमी के दिन सम्मेद शिखर पर निर्वाण की प्राप्ति हुई। जैन धर्मावलंबियों के अनुसार उनका प्रतीक चिह्न- तगरकुसुम (मत्स्य), चैत्यवृक्ष- आम्र, यक्ष- कुबेर, यक्षिणी- महामानसी है।मल्लिनाथ : उन्नीसवें तीर्थंकर मल्लिनाथ के पिता का नाम कुंभराज और माता का नाम प्रभावती (रक्षिता) था। मार्गशीर्ष के शुक्ल पक्ष की ग्यारस को आपका जन्म मिथिला में हुआ था। मार्गशीर्ष के शुक्ल पक्ष की एकादशी को दीक्षा ग्रहण की तथा इसी माह की तिथि को कैवल्य की प्राप्ति भी हुई। फाल्गुन कृष्ण पक्ष की बारस को सम्मेद शिखर पर निर्वाण प्राप्त हुआ। जैन धर्मावलंबियों के अनुसार आपका प्रतीक चिह्न- कलश, चैत्यवृक्ष- कंकेली (अशोक), यक्ष- वरुण, यक्षिणी- जया है। मुनिसुव्रतनाथ : बीसवें तीर्थंकर मुनिसुव्रतनाथ के पिता का नाम सुमित्र तथा माता का नाम प्रभावती था। आपका जन्म ज्येष्ठ कृष्ण पक्ष की आठम को राजगढ़ में हुआ था। फाल्गुन कृष्ण पक्ष की बारस को आपने दीक्षा ग्रहण की तथा फाल्गुन कृष्ण पक्ष की बारस को ही कैवल्य ज्ञान की प्राप्ति हुई। ज्येष्ठ कृष्ण पक्ष की नवमी को सम्मेद शिखर पर निर्वाण प्राप्त हुआ। जैन धर्मावलंबियों के अनुसार आपका प्रतीक चिह्न- कूर्म, चैत्यवृक्ष- चंपक, यक्ष- भृकुटि, यक्षिणी- विजया।नमिनाथ : इक्कीसवें तीर्थंकर नमिनाथ के पिता का नाम विजय और माता का नाम सुभद्रा (सुभ्रदा-वप्र) था। आप स्वयं मिथिला के राजा थे। आपका जन्म इक्ष्वाकु कुल में श्रावण मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी को मिथिलापुरी में हुआ था। आषाढ़ मास के शुक्ल की अष्टमी को आपने दीक्षा ग्रहण की तथा मार्गशीर्ष के शुक्ल पक्ष की एकादशी को कैवल्य की प्राप्ति हुई। वैशाख कृष्ण की दशमी को सम्मेद शिखर पर निर्वाण प्राप्त हुआ। जैन धर्मावलंबियों के अनुसार आपका प्रतीक चिह्न- उत्पल, चैत्यवृक्ष- बकुल, यक्ष- गोमेध, यक्षिणी- अपराजिता।नेमिनाथ : बाईसवें तीर्थंकर नेमिनाथ के पिता का नाम राजा समुद्रविजय और माता का नाम शिवादेवी था। आपका जन्म श्रावण मास के कृष्ण पक्ष की पंचमी को शौरपुरी (मथुरा) में यादव वंश में हुआ था। शौरपुरी (मथुरा) के यादव वंशी राजा अंधकवृष्णी के ज्येष्ठ पुत्र समुद्रविजय के पुत्र थे नेमिनाथ। अंधकवृष्णी के सबसे छोटे पुत्र वासुदेव से उत्पन्न हुए भगवान श्रीकृष्ण। इस प्रकार नेमिनाथ और श्रीकृष्ण दोनों चचेरे भाई थे। श्रावण मास के कृष्ण पक्ष की षष्ठी को आपने दीक्षा ग्रहण की तथा आषाढ़ मास के कृष्ण पक्ष की अमावस्या को गिरनार पर्वत पर कैवल्य की प्राप्ति हुई। आषाढ़ शुक्ल की अष्टमी को आपको उज्जैन या गिरनार पर्वत पर निर्वाण प्राप्त हुआ। जैन धर्मावलंबियों के अनुसार आपका प्रतीक चिह्न- शंख, चैत्यवृक्ष- मेषश्रृंग, यक्ष- पार्श्व, यक्षिणी- बहुरूपिणी है। पार्श्वनाथ : तेईसवें तीर्थंकर पार्श्वनाथ के पिता वराणसी राजा अश्वसेन तथा माता का नाम वामा थी। पार्श्वनाथ का जन्म पौष कृष्ण पक्ष की दशमी को वाराणसी (काशी) में 872 ई.पू. हुआ था। चैत्र कृष्ण पक्ष की चतुर्थी को दीक्षा ग्रहण की तथा चैत्र कृष्ण पक्ष की चतुर्थी को ही कैवल्य की प्राप्ति हुई। श्रावण शुक्ल की अष्टमी को झारखण्ड का कोडरमा जिला का पारस नाथ सम्मेद शिखर पर 772 ई.पू. निर्वाण प्राप्त हुआ। जैन धर्मावलंबियों के अनुसार आपका प्रतीक चिह्न- सर्प, चैत्यवृक्ष- धव, यक्ष- मातंग, यक्षिणी- कुष्माडी है।
महावीर : चौबीसवें तीर्थंकर भगवान महावीर स्वामी का जन्म नाम वर्धमान, पिता का नाम सिद्धार्थ तथा माता का नाम त्रिशला (प्रियंकारिनी) था। आपका जन्म चैत्र शुक्ल की त्रयोदशी के दिन कुंडलपुर में हुआ था। मार्गशीर्ष कृष्ण पक्ष की दशमी को आपने दीक्षा ग्रहण की तथा वैशाख शुक्ल की दशमी के दिन कैवल्य की प्राप्ति हुई। 42 वर्ष तक आपने साधक जीवन बिताया। कार्तिक माह के कृष्ण पक्ष की अमावस्या के दिन आपको पावापुरी पर 72 वर्ष में निर्वाण प्राप्त हुआ। जैन धर्मावलंबियों के अनुसार आपका प्रतीक चिह्न- सिंह, चैत्यवृक्ष- शाल, यक्ष- गुह्मक, यक्षिणी- पद्मा सिद्धायिनी है। बिहार राज्य के पाटलिपुत्र के अगम स्थल पर 322 ई.पू.  स्थूलभद्र की सभापतित्व में जैनसंगति किया गया और 512 ई. में छमाश्रवणके सभापतित्व में गुजरात का बल्लभी स्थान पर द्वितीय जैन संगति हुआ था। महावीर स्वामी का प्रतीक चिन्ह सिंह है।

शुक्रवार, सितंबर 25, 2020

ब्रह्माण्ड और धरती की संतुलन के लिए अवतरण

मानवीय संरचना और उद्भव :  भगवान विष्णु का अवतरण
सत्येन्द्र कुमार पाठक
मानवीय संरचना  और उद्भव के विकास मे भगवान विष्णु  का अवतरण  विभिन्न काल मे हुआ  तथा ब्रह्माण्ड एवं धरती पर दैत्यों , दानवों , तथा अत्याचारों से मुक्त  कराने के लिए  भगवान विष्णु भिन्न भिन्न रूप में अवतरण लिया है।  प्रभव संवत्सर चैत्र क्टष्ण पंचमी , बुधवार , मूल तथा सिद्धि योग संध्या काल सतयुग  में वेदों के उद्धार तथा  अत्याचारी दैत्यराज शंखा सुर को बध करने के ऌिए मत्स्यावतार , विभव संवत्सर जेष्ठ  क्टष्ण दशमी रोहणी ,ध्टति योग संध्या काल बुधवार सतयुग मे धरती के भार  को हरण करने और  सुख देने के लिए कुर्मावतार  , शुक्ल संवत्सर चैत्र क्टष्ण त्रयोदशी रविवार घनिष्ठा  ब्रह्म योग अपराहंण काल  सतयुग में सागर में विलीन धरती के उद्धार तथा दैत्यराज हिरण्याक्छ को बध करने के लिए  वराहावतार  तथा  अंगिरा संवत्सर  , वैशाख शुक्ल  चतुर्दशी  , विशाखा ,, वरीयान योग संध्या काल सतयुग  मे दैत्य राज  हिरण्यकश्यपु के अत्याचार , घमंणड को बध तथा प्रह्लाद के रक्छा के ऌिए नरसिंहा अवतार हुआ था । भगवान विष्णु ने सतयुग मे मत्स्य , कु्र्म ,वराह  तथा नरसिंह  अमानुष  अवतार  ले कर धरती और ब्रह्माणड को अत्याचारियों , दैत्यों , दानवों को वध कर  उद्धार किया है।
 श्रीराम अवतार  -  तारण संवत्सर चैत्र शुक्ल नवमी पुनर्वसु सुकर्मा योग कर्क लग्न गुरूवार मध्यान काल :त्रेतायुग में भगवान राम का जन्म हुआ था । उस समय राक्षसराज रावण का बहुत आतंक था। उससे देवता भी डरते थे। उसके वध के लिए भगवान विष्णु ने राजा दशरथ के यहां माता कौशल्या के गर्भ से पुत्र रूप में जन्म लिया। इस अवतार में भगवान विष्णु ने अनेक राक्षसों का वध किया और मर्यादा का पालन करते हुए अपना जीवन यापन किया।पिता के कहने पर वनवास गए। वनवास भोगते समय राक्षसराज रावण उनकी पत्नी सीता का हरण कर ले गया। सीता की खोज में भगवान लंका पहुंचे, वहां भगवान श्रीराम और रावण का घोर युद्ध जिसमें रावण मारा गया। इस प्रकार भगवान विष्णु ने राम अवतार लेकर देवताओं को भय मुक्त किया है। श्रीकृष्ण अवतार  - भाद्र क्टष्ण अष्ठमी रोहणी निशिथ कालमध्य रात्रि बुधवार  द्वापरयुग में भगवान विष्णु ने श्रीकृष्ण अवतार लेकर अधर्मियों का नाश किया।   भगवान श्रीकृष्ण का जन्म कारागार में हुआ था। इनके पिता का नाम वसुदेव और माता का नाम देवकी था। भगवान श्रीकृष्ण ने इस अवतार में अनेक चमत्कार किए और दुष्टों का सर्वनाश किया।कंस का वध भी भगवान श्रीकृष्ण ने ही किया। महाभारत के युद्ध में अर्जुन के सारथि बने और दुनिया को गीता का ज्ञान दिया। धर्मराज युधिष्ठिर को राजा बना कर धर्म की स्थापना की। भगवान विष्णु का ये अवतार सभी अवतारों में सबसे श्रेष्ठ माना जाता है। बुद्ध अवतार  :धर्म ग्रंथों के अनुसार बौद्धधर्म के 23 वें कश्यप बुद्ध भी भगवान विष्णु के ही अवतार थे परंतु पुराणों में वर्णित भगवान कश्यप बुद्धदेव का जन्म  आश्विन शुक्ल दशमी गुरूवार  द्वापर युग को कीकट प्रदेश की राजधाानी गया के समीप  केशपा में हुआ है और उनके पिता का नाम अजन बताया गया है। यह प्रसंग पुराण वर्णित बुद्धावतार का ही है।एक समय दैत्यों की शक्ति बहुत बढ़ गई। देवता भी उनके भय से भागने लगे। राज्य की कामना से दैत्यों ने देवराज इंद्र से पूछा कि हमारा साम्राज्य स्थिर रहे, इसका उपाय क्या है। तब इंद्र ने शुद्ध भाव से बताया कि सुस्थिर शासन के लिए यज्ञ एवं वेदविहित आचरण आवश्यक है। तब दैत्य वैदिक आचरण एवं महायज्ञ करने लगे, जिससे उनकी शक्ति और बढऩे लगी। तब सभी देवता भगवान विष्णु के पास गए। तब भगवान विष्णु ने देवताओं के हित के लिए बुद्ध का रूप धारण किया। उनके हाथ में मार्जनी थी और वे मार्ग को बुहारते हुए चलते थे।इस प्रकार भगवान बुद्ध दैत्यों के पास पहुंचे और उन्हें उपदेश दिया कि यज्ञ करना पाप है। यज्ञ से जीव हिंसा होती है। यज्ञ की अग्नि से कितने ही प्राणी भस्म हो जाते हैं। भगवान बुद्ध के उपदेश से दैत्य प्रभावित हुए। उन्होंने यज्ञ व वैदिक आचरण करना छोड़ दिया। इसके कारण उनकी शक्ति कम हो गई और देवताओं ने उन पर हमला कर अपना राज्य पुन: प्राप्त कर लिया।- कल्कि अवतार  :धर्म ग्रंथों के अनुसार कलयुग में भगवान विष्णु कल्कि रूप में अवतार लेंगे। कल्कि अवतार कलियुग व सतयुग के संधिकाल में होगा। यह अवतार 64 कलाओं से युक्त होगा। पुराणों के अनुसार उत्तरप्रदेश के मुरादाबाद जिले के शंभल नामक स्थान पर विष्णुयशा नामक तपस्वी ब्राह्मण के घर भगवान कल्कि पुत्र रूप में जन्म लेंगे। कल्कि देवदत्त नामक घोड़े पर सवार होकर संसार से पापियों का विनाश करेंगे और धर्म की पुन:स्थापना करेंगे। सर्वव्यापक परमात्मा ही भगवान  धरती पर कोई संकट आता है तो भगवान अवतार लेकर उस संकट को दूर करते हैं। भगवान विष्णु के 24 वें अवतार के बारे में कहा जाता है कि‘कल्कि अवतार’के रूप में उनका आना सुनिश्चित है। उनके 23 अवतार अब तक पृथ्वी पर अवतरित हो चुके हैं।   श्री सनकादि मुनि  : - धर्म ग्रंथों के अनुसार सृष्टि के आरंभ में लोक पितामह ब्रह्मा ने अनेक लोकों की रचना करने की इच्छा से घोर तपस्या की। उनके तप से प्रसन्न नाम के चार मुनियों के रूप में अवतार लिया। ये चारों प्राकट्य काल से ही मोक्ष मार्ग परायण, ध्यान में तल्लीन रहने वाले, नित्यसिद्ध एवं नित्य विरक्त थे। ये भगवान विष्णु के सर्वप्रथम अवतार माने जाते हैं।  वराह अवतार : - भगवान विष्णु ने दूसरा अवतार वराह रूप में लिया था। वराह अवतार से जुड़ी कथा इस प्रकार है- पुरातन समय में दैत्य हिरण्याक्ष ने जब पृथ्वी को ले जाकर समुद्र में छिपा दिया तब ब्रह्मा की नाक से भगवान विष्णु वराह रूप में प्रकट हुए। भगवान विष्णु के इस रूप को देखकर सभी देवताओं व ऋषि-मुनियों ने उनकी स्तुति की। सबके आग्रह पर भगवान वराह ने पृथ्वी को ढूंढना प्रारंभ किया। अपनी थूथनी की सहायता से उन्होंने पृथ्वी का पता लगा लिया और समुद्र के अंदर जाकर अपने दांतों पर रखकर वे पृथ्वी को बाहर ले आए। जब हिरण्याक्ष दैत्य ने यह देखा तो उसने भगवान विष्णु के वराह रूप को युद्ध के लिए ललकारा। दोनों में भीषण युद्ध हुआ। अंत में भगवान वराह ने हिरण्याक्ष का वध कर दिया। इसके बाद भगवान वराह ने अपने खुरों से जल को स्तंभित कर उस पर पृथ्वी को स्थापित कर दिया।
  नारद अवतार  : -  देवर्षि नारद भी भगवान विष्णु के ही अवतार हैं। शास्त्रों के अनुसार नारद मुनि, ब्रह्मा के सात मानस पुत्रों में से एक हैं। उन्होंने कठिन तपस्या से देवर्षि पद प्राप्त किया है। वे भगवान विष्णु के अनन्य भक्तों में से एक माने जाते हैं। देवर्षि नारद धर्म के प्रचार तथा लोक-कल्याण के लिए हमेशा प्रयत्नशील रहते हैं। शास्त्रों में देवर्षि नारद को भगवान का मन भी कहा गया है।  श्रीमद्भागवतगीता के दशम अध्याय के 26वें श्लोक में स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ने इनकी महत्ता को स्वीकार करते हुए कहा है- देवर्षीणाम्चनारद:। अर्थात देवर्षियों में मैं नारद हूं। नर-नारायण  : - सृष्टि के आरंभ में भगवान विष्णु ने धर्म की स्थापना के लिए दो रूपों में अवतार लिया। इस अवतार में वे अपने मस्तक पर जटा धारण किए हुए थे। उनके हाथों में हंस, चरणों में चक्र एवं वक्ष:स्थल में श्रीवत्स के चिन्ह थे। उनका संपूर्ण वेष तपस्वियों के समान था। धर्म ग्रंथों के अनुसार भगवान विष्णु ने नर-नारायण के रूप में यह अवतार लिया था। कपिल मुनि  : - भगवान विष्णु ने पांचवा अवतार कपिल मुनि के रूप में लिया। इनके पिता का नाम महर्षि कर्दम व माता का नाम देवहूति था। शरशय्या पर पड़े हुए भीष्म पितामह के शरीर त्याग के समय वेदज्ञ व्यास आदि ऋषियों के साथ भगवा कपिल भी वहां उपस्थित थे। भगवान कपिल के क्रोध से ही राजा सगर के साठ हजार पुत्र भस्म हो गए थे। भगवान कपिल सांख्य दर्शन के प्रवर्तक हैं। कपिल मुनि भागवत धर्म के प्रमुख बारह आचार्यों में से एक हैं। दत्तात्रेय अवतार  : -  दत्तात्रेय भी भगवान विष्णु के अवतार हैं। इनकी उत्पत्ति की कथा इस प्रकार है- एक बार माता लक्ष्मी, पार्वती व सरस्वती को अपने पातिव्रत्य पर अत्यंत गर्व हो गया। भगवान ने इनका अंहकार नष्ट करने के लिए लीला रची। उसके अनुसार एक दिन नारदजी घूमते-घूमते देवलोक पहुंचे और तीनों देवियों को बारी-बारी जाकर कहा कि ऋषि अत्रि की पत्नी अनुसूइया के सामने आपका सतीत्व कुछ भी नहीं। तीनों देवियों ने यह बात अपने स्वामियों को बताई और उनसे कहा कि वे अनुसूइया के पातिव्रत्य की परीक्षा लें।तब भगवान शंकर, विष्णु व ब्रह्मा साधु वेश बनाकर अत्रि मुनि के आश्रम आए। महर्षि अत्रि उस समय आश्रम में नहीं थे। तीनों ने देवी अनुसूइया से भिक्षा मांगी मगर यह भी कहा कि आपको निर्वस्त्र होकर हमें भिक्षा देनी होगी। अनुसूइया पहले तो यह सुनकर चौंक गई, लेकिन फिर साधुओं का अपमान न हो इस डर से उन्होंने अपने पति का स्मरण किया और बोला कि यदि मेरा पातिव्रत्य धर्म सत्य है तो ये तीनों साधु छ:-छ: मास के शिशु हो जाएं। ऐसा बोलते ही त्रिदेव शिशु होकर रोने लगे। तब अनुसूइया ने माता बनकर उन्हें गोद में लेकर स्तनपान कराया और पालने में झूलाने लगीं। जब तीनों देव अपने स्थान पर नहीं लौटे तो देवियां व्याकुल हो गईं। तब नारद ने वहां आकर सारी बात बताई। तीनों देवियां अनुसूइया के पास आईं और क्षमा मांगी। तब देवी अनुसूइया ने त्रिदेव को अपने पूर्व रूप में कर दिया। प्रसन्न होकर त्रिदेव ने उन्हें वरदान दिया कि हम तीनों अपने अंश से तुम्हारे गर्भ से पुत्र रूप में जन्म लेंगे। तब ब्रह्मा के अंश से चंद्रमा, शंकर के अंश से दुर्वासा और विष्णु के अंश से दत्तात्रेय का जन्म हुआ।  यज्ञ : - भगवान विष्णु के सातवें अवतार का नाम यज्ञ है। धर्म ग्रंथों के अनुसार भगवान यज्ञ का जन्म स्वायम्भुव मन्वन्तर में हुआ था। स्वायम्भुव मनु की पत्नी शतरूपा के गर्भ से आकूति का जन्म हुआ। वे रूचि प्रजापति की पत्नी हुई। इन्हीं आकूति के यहां भगवान विष्णु यज्ञ नाम से अवतरित हुए। भगवान यज्ञ के उनकी धर्मपत्नी दक्षिणा से अत्यंत तेजस्वी बारह पुत्र उत्पन्न हुए। वे ही स्वायम्भुव मन्वन्तर में याम नामक बारह देवता कहलाए।
  भगवान ऋषभदेव  : - भगवान विष्णु ने ऋषभदेव के रूप में आठवांं अवतार लिया। धर्म ग्रंथों के अनुसार महाराज नाभि की कोई संतान नहीं थी। इस कारण उन्होंने अपनी धर्मपत्नी मेरुदेवी के साथ पुत्र की कामना से यज्ञ किया। यज्ञ से प्रसन्न होकर भगवान विष्णु स्वयं प्रकट हुए और उन्होंने महाराज नाभि को वरदान दिया कि मैं ही तुम्हारे यहां पुत्र रूप में जन्म लूंगा। वरदान स्वरूप कुछ समय बाद भगवान विष्णु महाराज नाभि के यहां पुत्र रूप में जन्मे। पुत्र के अत्यंत सुंदर सुगठित शरीर, कीर्ति, तेल, बल, ऐश्वर्य, यश, पराक्रम और शूरवीरता आदि गुणों को देखकर महाराज नाभि ने उसका नाम ऋषभ (श्रेष्ठ) रखा।   पृथु  : - भगवान विष्णु के एक अवतार का नाम आदिराज पृथु है। धर्म ग्रंथों के अनुसार स्वायम्भुव मनु के वंश में अंग नामक प्रजापति का विवाह मृत्यु की मानसिक पुत्री सुनीथा के साथ हुआ। उनके यहां वेन नामक पुत्र हुआ। उसने भगवान को मानने से इंकार कर दिया और स्वयं की पूजा करने के लिए कहा। तब महर्षियों ने मंत्र पूत कुशों से उसका वध कर दिया। तब महर्षियों ने पुत्रहीन राजा वेन की भुजाओं का मंथन किया, जिससे पृथु नाम पुत्र उत्पन्न हुआ। पृथु के दाहिने हाथ में चक्र और चरणों में कमल का चिह्न देखकर ऋषियों ने बताया कि पृथु के वेष में स्वयं श्रीहरि का अंश अवतरित हुआ है। मत्स्य अवतार  : -  भगवान विष्णु ने सृष्टि को प्रलय से बचाने के लिए मत्स्यावतार लिया था। इसकी कथा इस प्रकार है- कृतयुग के आदि में राजा सत्यव्रत हुए। राजा सत्यव्रत एक दिन नदी में स्नान कर जलांजलि दे रहे थे। अचानक उनकी अंजलि में एक छोटी सी मछली आई। उन्होंने देखा तो सोचा वापस सागर में डाल दूं, लेकिन उस मछली ने बोला- आप मुझे सागर में मत डालिए अन्यथा बड़ी मछलियां मुझे खा जाएंगी। तब राजा सत्यव्रत ने मछली को अपने कमंडल में रख लिया। मछली और बड़ी हो गई तो राजा ने उसे अपने सरोवर में रखा, तब देखते ही देखते मछली और बड़ी हो गई। राजा को समझ आ गया कि यह कोई साधारण जीव नहीं है। राजा ने मछली से वास्तविक स्वरूप में आने की प्रार्थना की। राजा की प्रार्थना सुन साक्षात चारभुजाधारी भगवान विष्णु प्रकट हो गए और उन्होंने कहा कि ये मेरा मत्स्यावतार है। भगवान ने सत्यव्रत से कहा- सुनो राजा सत्यव्रत! आज से सात दिन बाद प्रलय होगी। तब मेरी प्रेरणा से एक विशाल नाव तुम्हारे पास आएगी। तुम सप्त ऋषियों, औषधियों, बीजों व प्राणियों के सूक्ष्म शरीर को लेकर उसमें बैठ जाना, जब तुम्हारी नाव डगमगाने लगेगी, तब मैं मत्स्य के रूप में तुम्हारे पास आऊंगा। उस समय तुम वासुकि नाग के द्वारा उस नाव को मेरे सींग से बांध देना। उस समय प्रश्न पूछने पर मैं तुम्हें उत्तर दूंगा, जिससे मेरी महिमा जो परब्रह्म नाम से विख्यात है ।कूर्म अवतारे -  महर्षि दुर्वासा ने देवताओं के राजा इंद्र को  मंथन करने के लिए कहा। तब इंद्र भगवान विष्णु के कहे अ के साथ मिलकर समुद्र मंथन करने के लिए तैयार हो गए। समुद्र मंथन करने के लिए मंदराचल पर्वत को मथानी एवं नागराज वासुकि को नेती बनाया गया। देवताओं और दैत्यों ने अपना मतभेद भुलाकर मंदराचल को उखाड़ा और उसे समुद्र की ओर ले चले, लेकिन वे उसे अधिक दूर तक नहीं ले जा सके। तब भगवान विष्णु ने मंदराचल को समुद्र तट पर रख दिया। देवता और दैत्यों ने मंदराचल को समुद्र में डालकर नागराज वासुकि को नेती बनाया। किंतु मंदराचल के नीचे कोई आधार नहीं होने के कारण वह समुद्र में डूबने लगा। यह देखकर भगवान विष्णु विशाल कूर्म (कछुए) का रूप धारण कर समुद्र में मंदराचल के आधार बन गए। भगवान कूर्म  की विशाल पीठ पर मंदराचल तेजी से घुमने लगा और इस प्रकार समुद्र मंथन संपन्न हुआ।धर्म ग्रंथों के अनुसार जब देवताओं व दैत्यों ने मिलकर समुद्र मंथन किया तो उसमें से सबसे पहले भयंकर विष निकला जिसे भगवान शिव ने पी लिया।  से रत्न निकले। सबसे अंत में भगवान धन्वन्तरि अमृत कलश लेकर प्रकट हुए। यही धन्वन्तरि भगवान विष्णु के अवतार माने गए हैं। इन्हें औषधियों का स्वामी कहा गया है । मोहिनी अवतार  :- धर्म ग्रंथों के अनुसार समुद्र मंथन के दौरान सबसे अंत में धन्वन्तरि अमृत कलश लेकर निकले। जैसे ही अमृत मिला अनुशासन भंग हुआ। देवताओं ने कहा हम ले लें, दैत्यों ने कहा हम ले लें। इसी खींचातानी में इंद्र का पुत्र जयंत अमृत कुंभ लेकर भाग गया। सारे दैत्य व देवता भी उसके पीछे भागे। असुरों व देवताओं में भयंकर मार-काट मच गई। देवता परेशान होकर भगवान विष्णु के पास गए। तब भगवान विष्णु ने मोहिनी अवतार लिया। भगवान ने मोहिनी रूप में सबको मोहित कर दिया किया। मोहिनी ने देवता व असुर की बात सुनी और कहा कि यह अमृत कलश मुझे दे दीजिए तो मैं बारी-बारी से देवता व असुर को अमृत का पान करा दूंगी। दोनों मान गए। देवता एक तरफ  तथा असुर दूसरी तरफ  बैठ गए। पुन:  मोहिनी रूप धरे भगवान विष्णु ने मधुर गान गाते हुए तथा नृत्य करते हुए देवता व असुरों को अमृत पान कराना प्रारंभ किया । वास्तविकता में मोहिनी अमृत पान तो सिर्फ देवताओं को ही करा रही थी, जबकि असुर समझ रहे थे कि वे भी अमृत पी रहे हैं। इस प्रकार भगवान विष्णु ने मोहिनी अवतार लेकर देवताओं का भला किया। भगवान नृसिंह  : -भगवान विष्णु ने नृसिंह अवतार लेकर दैत्यों के राजा हिरण्यकशिपु का वध किया था। इस अवतार की कथा इस प्रकार है- धर्म ग्रंथों के अनुसार दैत्यों का राजा हिरण्यकशिपु स्वयं को भगवान से भी अधिक बलवान मानता था। उसे मनुष्य, देवता, पक्षी, पशु, न दिन में, न रात में, न धरती पर, न आकाश में, न अस्त्र से, न शस्त्र से मरने का वरदान प्राप्त था। उसके राज में जो भी भगवान विष्णु की पूजा करता था उसको दंड दिया जाता था। उसके पुत्र का नाम प्रह्लाद था। प्रह्लाद बचपन से ही भगवान विष्णु का परम भक्त था। यह बात जब हिरण्यकशिपु का पता चली तो वह बहुत क्रोधित हुआ और प्रह्लाद को समझाने का प्रयास किया, लेकिन फिर भी जब प्रह्लाद नहीं माना तो हिरण्यकशिपु ने उसे मृत्युदंड दे दिया।हर बार भगवान विष्णु के चमत्कार से वह बच गया। हिरण्यकशिपु की बहन होलिका, जिसे अग्नि से न जलने का वरदान प्राप्त था, वह प्रह्लाद को लेकर धधकती हुई अग्नि में बैठ गई। तब भी भगवान विष्णु की कृपा से प्रह्लाद बच गया और होलिका जल गई। जब हिरण्यकशिपु स्वयं प्रह्लाद को मारने ही वाला था तब भगवान विष्णु नृसिंह का अवतार लेकर खंबे से प्रकट हुए और उन्होंने अपने नाखूनों से हिरण्यकशिपु का वध कर दिया।  वामन अवतार : - सत्ययुग में प्रह्लाद के पौत्र दैत्यराज बलि ने स्वर्गलोक पर अधिकार कर लिया। सभी देवता इस विपत्ति से बचने के लिए भगवान विष्णु के पास गए। तब भगवान विष्णु ने कहा कि मैं स्वयं देवमाता अदिति के गर्भ से उत्पन्न होकर तुम्हें स्वर्ग का राज्य दिलाऊंगा। कुछ समय पश्चात भगवान विष्णु ने वामन अवतार लिया। एक बार जब बलि महान यज्ञ कर रहा था तब भगवान वामन बलि की यज्ञशाला में गए और राजा बलि से तीन पग धरती दान में मांगी। राजा बलि के गुरु शुक्राचार्य भगवान की लीला समझ गए और उन्होंने बलि को दान देने से मना कर दिया। लेकिन बलि ने फिर भी भगवान वामन को तीन पग धरती दान देने का संकल्प ले लिया। भगवान वामन ने विशाल रूप धारण कर एक पग में धरती और दूसरे पग में स्वर्ग लोक नाप लिया। जब तीसरा पग रखने के लिए कोई स्थान नहीं बचा तो बलि ने भगवान वामन को अपने सिर पर पग रखने को कहा। बलि के सिर पर पग रखने से वह सुतललोक पहुंच गया। बलि की दानवीरता देखकर भगवान ने उसे सुतललोक का स्वामी भी बना दिया। इस तरह भगवान वामन ने देवताओं की ोसहायता कर उन्हें स्वर्ग पुन: लौटाया। हयग्रीव अवतार :- धर्म ग्रंथों के अनुसार एक बार मधु और कैटभ नाम के दो शक्तिशाली राक्षस ब्रह्माजी से वेदों का हरण कर रसातल में पहुंच गए। वेदों का हरण हो जाने से ब्रह्माजी बहुत दु:खी हुए और भगवान विष्णु के पास पहुंचे। तब भगवान ने हयग्रीव अवतार लिया। इस अवतार में भगवान विष्णु की गर्दन और मुख ोघोड़े के समान थी। तब भगवान हयग्रीव रसातल में पहुंचे और मधु-कैटभ का वध कर वेद पुन: भगवान ब्रह्मा को दे दिए।- श्रीहरि अवतार : - धर्म ग्रंथों के अनुसार प्राचीन समय में त्रिकूट नामक पर्वत की तराई में एक शक्तिशाली गजेंद्र अपनी हथिनियों के साथ रहता था। एक बार वह अपनी हथिनियों के साथ र्भ तालाब में स्नान करने गया। वहां एक मगरमच्छ ने उसका पैर पकड़ लिया और पानी के अंदर खींचने लगा। गजेंद्र और मगरमच्छ का संघर्ष एक हजार साल तक चलता रहा। अंत में गजेंद्र शिथिल पड़ गया और उसने भगवान श्रीहरि का ध्यान किया। गजेंद्र की स्तुति सुनकर भगवान श्रीहरि प्रकट हुए और उन्होंने अपने चक्र से मगरमच्छ का वध कर दिया। भगवान श्रीहरि ने गजेंद्र का उद्धार कर उसे अपना पार्षद बना लिया।  परशुराम अवतार  :परशुराम भगवान विष्णु के  प्रमुख अवतारों में से एक थे। भगवान परशुराम के जन्म के संबंध में दो कथाएं प्रचलित हैं। हरिवंशपुराण के अनुसार उन्हीं में से एक कथा इस प्रकार है- - प्राचीन समय में महिष्मती नगरी पर शक्तिशाली हैययवंशी क्षत्रिय कार्तवीर्य अर्जुन(सहस्त्रबाहु) का शासन था। वह बहुत अभिमानी था और अत्याचारी भी। एक बार अग्निदेव ने उससे भोजन कराने का आग्रह किया। तब सहस्त्रबाहु ने घमंड में आकर कहा कि आप जहां से चाहें भोजन हप्राप्त कर सकते हैं, सभी ओर मेरा ही राज है। तब अग्निदेव ने वनों को जलाना शुरु किया। एक वन में ऋषि आपव तपस्या कर रहे थे। अग्नि ने उनके आश्रम को भी जला डाला। इससे क्रोधित होकर ऋषि ने सहस्त्रबाहु को श्राप दिया कि भगवान विष्णु, परशुराम के रूप में जन्म लेंगे और न सिर्फ सहस्त्रबाहु का नहीं बल्कि समस्त क्षत्रियों का सर्वनाश करेंगे। इस प्रकार भगवान विष्णु ने भार्गव कुल में महर्षि जमदग्रि के पांचवें पुत्र के रूप में जन्म लिया। महर्षि वेदव्यास  :- पुराणों में महर्षि वेदव्यास को भी भगवान विष्णु का ही अंश माना गया है। भगवान व्यास नारायण के कलावतार थे। वे महाज्ञानी महर्षि पराशर के पुत्र रूप में प्रकट हुए थे। उनका जन्म कैवर्तराज की पोष्यपुत्री सत्यवती के गर्भ से यमुना के द्वीप पर हुआ था। उनके शरीर का रंग काला था। इसलिए उनका एक नाम कृष्णद्वैपायन भी था। इन्होंने ही मनुष्यों की आयु और शक्ति को देखते हुए वेदों के विभाग किए। इसलिए इन्हें वेदव्यास भी कहा जाता है। इन्होंने ही महाभारत ग्रंथ की रचना भी की। हंस अवतार  :- एक बार भगवान ब्रह्मा अपनी सभा में बैठे थे। तभी वहां उनके मानस पुत्र सनकादि पहुंचे और भगवान ब्रह्मा से मनुष्यों के मोक्ष के संबंध में चर्चा करने लगे। तभी वहां भगवान विष्णु महाहंस के रूप में प्रकट हुए और उन्होंने सनकादि मुनियों के संदेह का निवारण किया। इसके बाद सभी ने भगवान हंस की पूजा की। इसके बाद महाहंसरूपधारी श्रीभगवान अदृश्य होकर अपने पवित्र धाम चले गए। 
ग्रंथों के अनुसार धरती को अत्याचार से मुक्त और समाज के नव निर्माण के लिए 24 बुद्ध तथा 24 तीर्थंकर का अवतरण हुआ है । कौण्डन्य , मंगल , सुमन , रेवत ,शोभित, अनोमदर्शी ,पद्मदर्शी , नारद ,पद्मोतर ,सुमेध ,सुजात , प्रियदर्शी , अर्थदर्शि , धर्मदर्शी ,  सिद्धार्थ , पुष्प ,विपश्यी ,शिखी , विश्वभू ,ककूसंध, कोणागमन , कश्यप तथा  24 वें बुदध नेपाल की तराई में स्थित कपीलवस्तु   के लुंबनी  के शाक्य गण के राजा शुद्औधन की भार्या माया देवी के गर्भ से सिद्धार्थ का अवतरण वैशाख शुक्ल पूर्णिमा 563 ई.पू. हुआ  था तथा वैशाख शुक्ल पूर्णिमा को बिहार के   गया के समीप बोध गया में 35 वर्ष के सिद्धार्थ  ग्यान  प्राप्त कर बुद्ध हुए । भगवान बुद्ध को गौतम बुद्ध के नाम से ख्याति हुई । जैन धर्म के ग्रंथों के अनुसार 24 तीर्थंकर हुए है जिसमें व्टषभ देव , अजीतनाथ, संभवनाथ ,अभिनंदननाथ , सुमति , पद्मनाथ , सुपार्श्वनाथ , रिषभदेव , ,शीतल नाथ, श्रयांसनाथ वासुपूज्यनाथ ,विमलनाथ ,अनन्तनाथ ,धर्मनाथ , शांति नाथ , कुंथुनाथ अरनाथ ,मल्लीनाथ ,सुब्रतनाथ , नमिनाथ, नेमीनाथ , पार्श्वनाथ और 24 वें तीर्थंकर भगवान महावीर है। जैन धर्म के 24 वें तीर्थंकर महावीर का अवतरण बिहार के वैशाली जिले के कुण्डग्राम ग्यात्रिककुल के राजा सिद्धार्थ की भार्या तथा लिच्छवी राजा चेटक की बहन त्रिशिला के गर्भ से 540 ई.पू . हुआ था तथा नालंदा जिले के पावापुरी के मल्र्लराजा स्टस्तिपाल के राजप्रसाद मे कार्तिक क्टष्ण अमवस्या दीपावली के दिन 468 ई.पू. निर्वाण प्राप्त हुआ था । भगवान महावीर का प्रतीक चिह्ण सिंह और  जीओ और जीने दो मानव कल्याण का  संदेश है ।

सोमवार, सितंबर 21, 2020

मानवीय परंम्परा की पहचान गोत्र...

 

विश्व तथा भारतीय वांगमय साहित्य में समाहित  गोत्र को महत्वपूर्ण माना है । मानवीय गुणों के आधार पर वर्ण व्यवस्था ब्रह्मण ,छत्रिय , वैश्य और शूद्र  कायम की गयी थी साथ ही आर्य और अनार्य  की सभ्यता का उदय हुआ है। वेदों, पुराणों, उपनिषदों मे आर्य और अनार्य की सभ्यता को एक सूत्र में पिरोए रखने के लिए  मनिषियों द्वारा गोत्र का रूप दे कर समाज को विकसित किया है । विश्व के धरातल पर  115  मनिषियों द्वारा  किया गया है। गोत्रों में १.अत्रि गोत्र,२.भृगुगोत्र ३.आंगिरस गोत्र,४.मुद्गल गोत्र,५.पातंजलि गोत्र,६.कौशिक गोत्र,७.मरीच गोत्र,८.च्यवन गोत्र ९.पुलह गोत्र,१०.आष्टिषेण गोत्र,११.उत्पत्ति शाखा,१२.गौतम गोत्र,१३.वशिष्ठ और संतान (क)पर वशिष्ठ गोत्र, (ख)अपर वशिष्ठ गोत्र, (ग)उत्तर वशिष्ठ गोत्र, (घ) पूर्व वशिष्ठ गोत्र, (ड)दिवा वशिष्ठ गोत्र १४.वात्स्यायन गोत्र,१५.बुधायन गोत्र,१६.माध्यन्दिनी गोत्र,१७.अज गोत्र,१८.वामदेव गोत्र,१९.शांकृत्य गोत्र,२०.आप्लवान गोत्र,२१.सौकालीन गोत्र,२२.सोपायन गोत्र,२३.गर्ग गोत्र,२४.सोपर्णि गोत्र,२५.शाखा,२६.मैत्रेय गोत्र,२७.पराशर गोत्र,२८.अंगिरा गोत्र,२९.क्रतु गोत्र,३०.अधमर्षण गोत्र,३१.बुधायन गोत्र,३२.आष्टायन कौशिक गोत्र, ३३.अग्निवेष भारद्वाज गोत्र,३४.कौण्डिन्य गोत्र,३५.मित्रवरुण गोत्र,३६.कपिल गोत्र,३७.शक्ति गोत्र,३८.पौलस्त्य गोत्र,३९.दक्ष गोत्र,४०.सांख्यायन कौशिक गोत्र,४१.जमदग्नि गोत्र,खंभृष्णात्रेय गोत्र,४३.भार्गव गोत्र,४४.हारीत गोत्र,४५.धनञ्जय गोत्र,४६.पाराशर गोत्र,४७.आत्रेय गोत्र,४८.पुलस्त्य गोत्र,४९.भारद्वाज गोत्र,५०.कुत्स गोत्र,५१.शांडिल्य गोत्र,५२.भरद्वाज गोत्र,५३.कौत्स गोत्र,५४.कर्दम गोत्र,५५.पाणिनि गोत्र,५६.वत्स गोत्र,५७.विश्वामित्र गोत्र,५८.अगस्त्य गोत्र, ५९.कुश गोत्र, ६०.जमदग्नि कौशिक गोत्र६१.कुशिक गोत्र,६२. देवराज गोत्र,६३.धृत कौशिक गोत्र६४.किंडव गोत्र,६५.कर्ण गोत्र,६६.जातुकर्ण गोत्र,६७.काश्यप गोत्र,६८.गोभिल गोत्र,६९.कश्यप गोत्र,७०.सुनक गोत्र,७१.शाखाएं गोत्र,७२.कल्पिष गोत्र,७३.मनु गोत्र,७४.माण्डब्य गोत्र,७५.अम्बरीष गोत्र,७६.उपलभ्य गोत्र,७७.व्याघ्रपाद गोत्र,७८.जावाल गोत्र,७९.धौम्य गोत्र,८०.यागवल्क्य गोत्र,८१.और्व गोत्र,८२.दृढ़ गोत्र,८३.उद्वाह गोत्र,८४.रोहित गोत्र,८५.सुपर्ण गोत्र,८६.गालिब गोत्र,८७.वशिष्ठ गोत्र,८८.मार्कण्डेय गोत्र,८९.अनावृक गोत्र,९०.आपस्तम्ब गोत्र,९१.उत्पत्ति शाखा गोत्र,९२.यास्क गोत्र,९३.वीतहब्य गोत्र,९४.वासुकि गोत्र,ड९५.दालभ्य गोत्र,९६.आयास्य गोत्र,९७.लौंगाक्षि गोत्र,९८.चित्र गोत्र,९९.विष्णु गोत्र,१००.शौनक गोत्र१०१.पंचशाखा गोत्र,१०२.सावर्णि गोत्र,१०३.कात्यायन गोत्र,१०४.कंचन गोत्र,१०५.अलम्पायन गोत्र,१०६.अव्यय गोत्र,१०७.विल्च गोत्र,१०८.शांकल्य गोत्र,१०९.उद्दालक गोत्र,११०.जैमिनी गोत्र,१११.उपमन्यु गोत्र,११२.उतथ्य गोत्र,११३.आसुरि गोत्र,११४.अनूप गोत्र,११५.आश्वलायन गोत्र है। विंध्य के उतर मे भारद्वाज , कश्यप , वत्स , कौण्डिन्य ,अंगिरा ,अत्रि आदि गोत्र प्राचीन हैं। 
 अत्रि वैदिक ऋषि, ब्रमहा जी के मानस पुत्र थे। अत्रि के चंद्रमा, दत्तात्रेय और दुर्वासा ये तीन पुत्र थे। अग्नि, इंद्र और हिंदू धर्म के अन्य वैदिक देवताओं को बड़ी संख्या में भजन लिखने का श्रेय दिया जाता है। अत्री हिंदू परंपरा में सप्तर्षि   है, और सबसे अधिक ऋग्वेद में इसका उल्लेख है।त्रेतायुग में राम के वनवास कालमे भार्या सीता तथा भाई लक्ष्मण के साथ अत्री ऋषीके आश्रम चित्रकुटमे गये थे। अत्री ऋषी सती अनुसया के पति थे । सती अनुसया सोलह सतियोंमेसे एक थी । जिन्होंने अपने तपोबलसे ब्रम्हा,विष्णु,महेशको छोटे बच्चोंमें परिवर्तित कर दिया था। पुराणों में कहा गया है वही तीनों देवों ने माता अनुसूया को वरदान दिया था, कि मै आपके पुत्र रूप में आपके गर्भ से जन्म लूंगा वही तीनों चंद्रमा(ब्रम्हा) दत्तात्रेय (विष्णू) और दुर्वासा  ( शिव ) थे। भारद्वाज प्राचीन भारतीय ऋषि थे। । चरक संहिता के अनुसार भारद्वाज ने इन्द्र से आयुर्वेद का ज्ञान पाया। ऋक्तंत्र के अनुसार वे ब्रह्मा, बृहस्पति एवं इन्द्र के बाद वे चौथे व्याकरण-प्रवक्ता थे। उन्होंने व्याकरण का ज्ञान इन्द्र से प्राप्त किया था (प्राक्तंत्र 1.4) तो महर्षि भृगु ने उन्हें धर्मशास्त्र का उपदेश दिया। तमसा-तट पर क्रौंचवध के समय भारद्वाज महर्षि वाल्मीकि के साथ थे, वाल्मीकि रामायण के अनुसार भारद्वाज महर्षि वाल्मीकि के शिष्य थे । महर्षि भूपति की भार्या ममता के गर्भ से वेदों के रचयिता भारद्वाज का अवतरण हुआ था । भारद्वाज के पुत्र द्रोण ,गर्ग तथा पुत्री ईलविदा और कत्यायनी थी । महर्षि भारद्वाज व्याकरण, आयुर्वेद संहित, धनुर्वेद, राजनीतिशास्त्र, यंत्रसर्वस्व, अर्थशास्त्र, पुराण, शिक्षा आदि पर अनेक ग्रंथों के रचयिता हैं। पर आज यंत्र सर्वस्व तथा शिक्षा ही उपलब्ध हैं। वायुपुराण के अनुसार उन्होंने एक पुस्तक आयुर्वेद संहिता लिखी थी, जिसके आठ भाग करके अपने शिष्यों को सिखाया था। चरक संहिता के अनुसार उन्होंने आत्रेय पुनर्वसु को काया चिकित्सा का ज्ञान प्रदान किया था। ऋषि भारद्वाज को प्रयाग का प्रथम वासी माना जाता है अर्थात ऋषि भारद्वाज ने ही प्रयाग को बसाया था। प्रयाग में ही उन्होंने घरती के सबसे बड़े गुरूकुल(विश्वविद्यालय) की स्थापना की थी और हजारों वर्षों तक विद्या दान करते रहे। वे शिक्षाशास्त्री, राजतंत्र मर्मज्ञ, अर्थशास्त्री, शस्त्रविद्या विशारद, आयुर्वेेद विशारद,विधि वेत्ता, अभियाँत्रिकी विशेषज्ञ, विज्ञानवेत्ता और मँत्र द्रष्टा थे। ऋग्वेेद के छठे मंडल के द्रष्टाऋषि भारद्वाज ही हैं। इस मंडल में 765 मंत्र हैं। अथर्ववेद में भी ऋषि भारद्वाज के 23 मंत्र हैं। वैदिक ऋषियों में इनका ऊँचा स्थान है। आपके पिता वृहस्पति और माता ममता थीं। ऋषि भारद्वाज को आयुर्वेद और सावित्र्य अग्नि विद्या का ज्ञान इन्द्र और कालान्तर में भगवान श्री ब्रह्मा जी द्वारा प्राप्त हुआ था। अग्नि के सामर्थ्य को आत्मसात कर ऋषि ने अमृत तत्व प्राप्त किया था और स्वर्ग लोक जाकर आदित्य से सायुज्य प्राप्त किया था। (तैoब्राम्हण3/10/11) ।  ऋषि भारद्वाज सर्वाधिक आयु प्राप्त करने वाले ऋषियों में से एक थे। चरक ऋषि ने उन्हें अपरिमित आयु वाला बताया है। (सूत्र-स्थान1/26) । ऋषि भारद्वाज ने प्रयाग के अधिष्ठाता भगवान श्री माधव जो साक्षात श्री हरि हैं, की पावन परिक्रमा की स्थापना भगवान श्री शिव जी के आशीर्वाद से की थी। ऐसा माना जाता है कि भगवान श्री द्वादश माधव परिक्रमा सँसार की पहली परिक्रमा है। ऋषि भारद्वाज ने इस परिक्रमा की तीन स्थापनाएं दी हैं--जन्मों के संचित पाप का क्षय होगा, जिससे पुण्य का उदय होगा।सभी मनोरथ की पूर्ति होगी। प्रयाग में किया गया कोई भी अनुष्ठान/कर्मकाण्ड जैसे अस्थि विसर्जन, तर्पण, पिण्डदान, कोई संस्कार यथा मुण्डन यज्ञोपवीत आदि, पूजा पाठ, तीर्थाटन,तीर्थ प्रवास, कल्पवास आदि पूर्ण और फलित नहीं होंगे जबतक स्थान देेेेवता अर्थात भगवान श्री द्वादश माधव की परिक्रमा न की जाए।आयुर्वेद सँहिता, भारद्वाज स्मृति, भारद्वाज सँहिता, राजशास्त्र, यँत्र-सर्वस्व(विमान अभियाँत्रिकी) आदि ऋषि भारद्वाज के रचित प्रमुख ग्रँथ हैं।ऋषि भारद्वाज खाण्डल विप्र समाज के अग्रज है। शाकद्वीप विप्रों के आदि प्रणेता ऋषि जगाने के लिए ऋषि एक स्थान पर कहते हैं-अग्नि को देखो यह मरणधर्मा मानवों स्थित अमर ज्योति है। यह अति विश्वकृष्टि है अर्थात सर्वमनुष्य रूप है। यह अग्नि सब कार्यों में प्रवीणतम ऋषि है जो मानव में रहती है। उसे प्रेरित करती है ऊपर उठने के लिए। अतः स्वयं को पहचानो। भाटुन्द गाँव के श्री आदोरजी महाराज भारद्वाज गोत्र के थे।
 कश्यप ऋषि एक वैदिक ऋषि थे। ब्रह्मा जी के पौत्र और महर्षि मरीचि के पुत्र कश्यप थे । कश्यप ऋषि प्राचीन वैदिक ॠषियों में प्रमुख ॠषि हैं जिनका उल्लेख एक बार ॠग्वेद में हुआ है। अन्य संहिताओं में भी यह नाम बहुप्रयुक्त है। इन्हें सर्वदा धार्मिक एंव रहस्यात्मक चरित्र वाला बतलाया गया है एंव अति प्राचीन कहा गया है। ऐतरेय ब्राह्मण के अनुसार उन्होंने 'विश्वकर्मभौवन' नामक राजा का अभिषेक कराया था। ऐतरेय ब्राह्मणों ने कश्यपों का सम्बन्ध जनमेजय से बताया गया है। शतपथ ब्राह्मण में प्रजापति को कश्यप कहा गया है: । स यत्कुर्मो नाम। प्रजापतिः प्रजा असृजत। यदसृजत् अकरोत् तद् यदकरोत् तस्मात् कूर्मः कश्यपो वै कूर्म्स्तस्मादाहुः सर्वाः प्रजाः कश्यपः। महाभारत एवं पुराणों में असुरों की उत्पत्ति एवं वंशावली के वर्णन में कहा गया है की ब्रह्मा के सात मानस पुत्रों में से एक 'मरीचि' थे जिन्होंने अपनी इच्छा से कश्यप नामक प्रजापति पुत्र उत्पन्न किया। कश्यप ने दक्ष प्रजापति की 17 पुत्रियों से विवाह किया। दक्ष की इन पुत्रियों से जो सन्तान उत्पन्न हुई उसका विवरण निम्नांकित है: - अदिति से 12 आदित्य  हुए । दिति से दैत्य ,दनु से दानव , काष्ठा से अश्व आदि ,अनिष्ठा से गन्धर्व ,सुरसा से राक्षस ,इला से वृक् , मुनि से अप्सरागण , क्रोधवशा से सर्प , सुरभि से गौ और महिष , सरमा से श्वापद (हिंस्त्र पशु) , ताम्रा से श्येन-गृध्र आदि , तिमि से यादोगण (जलजन्तु) ,विनता से गरुड़ और अरुण ,कद्रु से नाग , पतंगी से पतंग ,यामिनी से शलभ हुए ।भागवत पुराण, मार्कण्डेय पुराण के अनुसार कश्यप की बारह भार्याएँ थीं। उनके नाम हैं: अदिति, दनु, विनता, अरष्ठा, कद्रु, सुरशा, खशा, सुरभी, ताम्रा, क्रोधवशा, इरा और मुनि इन से सब सृष्टि हुई। कश्यप एक गोत्र का भी नाम है। यह बहुत व्यापक गोत्र है। एक परम्परा के अनुसार सभी जीवधारियों की उत्पत्ति कश्यप से हुई। एक बार समस्त पृथ्वी पर विजय प्राप्त कर परशुराम ने वह कश्यप मुनि को दान कर दी। कश्यप मुनि ने कहा-'अब तुम मेरे देश में मत रहो।' अत: गुरु की आज्ञा का पालन करते हुए परशुराम ने रात को पृथ्वी पर न रहने का संकल्प किया। वे प्रति रात्रि में मन के समान तीव्र गमनशक्ति से महेंद्र पर्वत पर जाने लगे।सतयुग में दक्ष प्रजापति की दो कन्याएं थी- कद्रु तथा विनता। उन दोनों का विवाह महर्षि कश्यप के साथ हुआ। एक बार प्रसन्न होकर कश्यप ने उन दोनों को मनचाहा वर मांगने को कहा। कद्रु ने समान पराक्रमी एक सहस्त्र नाग-पुत्र मांगे तथा विनता ने उसके पुत्रों से अधिक तेजस्वी दो पुत्र मांगे। कालांतर में दोनों को क्रमश: एक सहस्त्र, तथा दो अंडे प्राप्त हुए। 500 वर्ष बाद कद्रु के अंडों के नाग प्रकट हुए। विनता ने ईर्ष्यावश अपना एक अंडा स्वयं ही तोड़ डाला। उसमें से एक अविकसित बालक निकला जिसका ऊर्ध्वभाग बन चुका था, अधोभाग का विकास नहीं हुआ थां उसने क्रुद्ध होकर मां को 500 वर्ष तक कद्रु की दासी रहने का शाप दिया तथा कहा कि यदि दूसरा अंडा समय से पूर्व नहीं फोड़ा तो वह पूर्णविकसित बालक मां को दासित्व से मुक्त करेगा। पहला बालक अरुण बनकर आकाश में सूर्य का सारथि बन गया तथा दूसरा बालक गरुड़ बनकर आकाश में उड़ गया। विनता तथा कद्रु एक बार कहीं बाहर घूमने गयीं। वहाँ उच्चैश्रवा नामक घोड़े को देखकर दोनों की शर्त लग गयी कि जो उसका रंग गलत बतायेगी, वह दूसरी की दासी बनेगी। अगले दिन घोड़े का रंग देखने की बात रही। विनता ने उसका रंग सफेद बताया था तथा कद्रु ने उसका रंग सफेद, पर पूंछ का रंग काला बताया था। कद्रु के मन में कपट था। उसने घर जाते ही अपने पुत्रों को उसकी पूंछ पर लिपटकर काले बालों का रूप धारण करने का आदेश दिया जिससे वह विजयी हो जाय। जिन सर्पों ने उसका आदेश नहीं माना, उन्हें उसने शाप दिया कि वे जनमेजय के यज्ञ में भस्म हो जायें। इस शाप का अनुमोदन करते हुए ब्रह्मा ने कश्यप को बुलाया और कहा-'तुमसे उत्पन्न सर्पों की संख्या बहुत बढ़ गयी है। तुम्हारी पत्नी ने उन्हें शाप देकर अच्छा ही किया, अत: तुम उससे रूष्ट मत होना।' ऐसा कहकर ब्रह्मा ने कश्यप को सर्पों का विष उतारने की विद्या प्रदान की। विनता तथा कद्रु जब उच्चैश्रवा को देखने अगले दिन गयीं तब उसकी पूंछ काले नागों से ढकी रहने के कारण काली जान पड़ रही थी। विनता अत्यंत दुखी हुई तथा उसने कद्रु की दासी का स्थान ग्रहण किया।गरुड़ ने सर्पों से पूछा कि कौन-सा ऐसा कार्य है जिसको करने से उसकी माता को दासित्व से छुटकारा मिल जायेगा? उसके नाग भाइयों ने अमृत लाकर देने के लिए कहा। गरुड़ ने अमृत की खोज में प्रस्थान किया। उसको समस्त देवताओं से युद्ध करना पड़ा। सबसे अधिक शक्तिशाली होने के कारण गरुड़ ने सभी को परास्त कर दिया। तदनंतर वे अमृत के पास पहुंचा। अत्यंत सूक्ष्म रूप धारण करके वह अमृतघट के पास निरंतर चलने वाले चक्र को पार कर गया। वहां दो सर्प पहरा दे रहे थे। उन दोनों को मारकर वह अमृतघट उठाकर ले उड़ा। उसने स्वयं अमृत का पान नहीं किया था, यह देखकर विष्णु ने उसके निर्लिप्त भाव पर प्रसन्न होकर उसे वरदान दिया कि कह बिना अमृत पीये भी अजर-अमर होगा तथा विष्णु-ध्वजा पर उसका स्थान रहेगा। गरुड़ ने विष्णु का वाहन बनना भी स्वीकार किया। मार्ग में इन्द्र मिले। इन्द्र ने उससे अमृत-कलश मांगा और कहा कि यदि सर्पों ने इसका पान कर लिया तो अत्यधिक अहित होगा। गरुड़ ने इन्द्र को बताया कि वह किसी उद्देश्य से अमृत ले जा रहा है। जब वह अमृत-कलश कहीं रख दे, इन्द्र उसे ले ले। इन्द्र ने प्रसन्न होकर गरुड़ को वरदान दिया कि सर्प उसकी भोजन सामग्री होंगे। तदनंतर गरुड़ अपनी मां के पास पहुंचा। उसने सर्पों को सूचना दी कि वह अमृत ले आया है। सर्प विनता को दासित्व से मुक्त कर दें तथा स्नान कर लें। उसने कुशासन पर अमृत-कलश रख दियां जब तक सर्प स्नान करके लौटे, इन्द्र ने अमृत चुरा लिया था। सर्पों ने कुशा को ही चाटा जिससे उनकी जीभ के दो भाग हो गए, अत: वे द्विजिव्ह कहलाने लगे। इन्द्र को बालखिल्य महर्षियों से बहुत ईर्ष्या थी। रूष्ट होकर बालखिल्य ने अपनी तपस्या का भाग कश्यप मुनि को दिया तथा इन्द्र का मद नष्ट करने के लिए कहा। कश्यप ने सुपर्णा तथा कद्रु से विवाह किया। दोनों के गर्भिणी होने पर वे उन्हें सदाचार से घर में ही रहने के लिए कहकर अन्यत्र चले गये। उनके जाने के बाद दोनों पत्नियां ऋषियों के यज्ञों में जाने लगीं। वे दोनों ऋषियों के मना करने पर भी हविष्य को दूषित कर देती थीं। अत: उनके शाप से वे नदियां (अपगा) बन गयीं। लौटने पर कश्यप को ज्ञात हुआ। ऋषियों के कहने से उन्होंने शिवाराधना की। शिव के प्रसन्न होने पर उन्हें आशीर्वाद मिला कि दोनों नदियां गंगा से मिलकर पुन: नारी-रूप धारण करेंगी। ऐसा ही होने पर प्रजापति कश्यप ने दोनों का सीमांतोन्नयन संस्कार किया। यज्ञ के समय कद्रु ने एक आंख से संकेत द्वारा ऋषियों का उपहास किया। अत: उनके शाप से वह कानी हो गयी। कश्यप ने पुन: ऋषियों को किसी प्रकार प्रसन्न किया। उनके कथनानुसार गंगा स्नान से उसने पुन: पुर्वरूप धारण किया। महर्षि कश्यप  के नाम कश्यप गोत्र प्रारंभ हुआ है । 
विंध्य के उतर का महान मनिषि  भृगु का जन्म 38 लाख ईसा पूर्व ब्रह्मलोक-सुषा नगर र्में हुआ था। ये सनातनी धर्मग्रंथों में वर्णित ब्रह्मा के पुत्र थे | ये अपने माता-पिता से सहोदर दो भाई थे। आपके बड़े भाई का नाम अंगिरा ऋषि था। जिनके पुत्र बृहस्पतिजी हुए जो देवगणों के पुरोहित-देवगुरू के रूप में जाने जाते हैं। महर्षि भृगु द्वारा रचित ज्योतिष ग्रंथ ‘भृगु संहिता’  के लोकार्पण एवं गंगा सरयू नदियों के संगम के अवसर पर जीवनदायिनी गंगा नदी के संरक्षण और याज्ञिक परम्परा से महर्षि भृगु ने अपने शिष्य को अवगत कराया । महर्षि भृगु की दो पत्नियों का उल्लेख आर्ष ग्रन्थों में मिलता है। इनकी पहली पत्नी दैत्यों के अधिपति हिरण्यकश्यप की पुत्री दिव्या थी। जिनसे आपके दो पुत्रों क्रमशः काव्य-शुक्र और त्वष्टा-विश्वकर्मा का जन्म हुआ। सुषानगर (ब्रह्मलोक) में पैदा हुए महर्षि भृगु के दोनों पुत्र विलक्षण प्रतिभा के धनी थे। बड़े पुत्र काव्य-शुक्र खगोल ज्योतिष, यज्ञ कर्मकाण्डों के निष्णात विद्वान हुए। मातृकुल में आपको आचार्य की उपाधि मिली। ये जगत में शुक्राचार्य के नाम से विख्यात हुए। दूसरे पुत्र त्वष्टा-विश्वकर्मा वास्तु के निपुण शिल्पकार हुए। मातृकुल दैत्यवंश में आपको ‘मय’ के नाम से जाना गया। अपनी पारंगत शिल्प दक्षता से ये भी जगद्ख्यात महर्षि भृगु की दूसरी पत्नी दानवों के अधिपति पुलोम ऋषि की पुत्री पौलमी थी। इनसे भी दो पुत्रों च्यवन और ऋचीक पैदा हुए। बड़े पुत्र च्यवन का विवाह मुनिवर ने गुजरात भड़ौंच (खम्भात कीराजा शर्याति की पुत्री सुकन्या से किया। भार्गव च्यवन और सुकन्या के विवाह के साथ ही भार्गवों का हिमालय के दक्षिण पदार्पण हुआ। च्यवन ऋषि खम्भात की खाड़ी के राजा बने और इस क्षेत्र को भृगुकच्छ-भृगु क्षेत्र के नाम से जाना जाने लगा। आज भी भड़ौच में नर्मदा के तट पर भृगु मन्दिर बना है।
महर्षि भृगु ने अपने दूसरे पुत्र ऋचीक का विवाह कान्यकुब्जपति कौशिक राजा गाधि की पुत्री सत्यवती के साथ एक हजार श्यामकर्ण घोड़े दहेज में देकर किया। अब भार्गव ऋचीक भी हिमालय के दक्षिण गाधिपुरी का  क्षेत्र बलिया जिला (उ प्र) आ गये।महर्षि भृगु के इस विमुक्त क्षेत्र में आने के कई कथानक आर्ष ग्रन्थों में मिलते हैं। पौराणिक, ऐतिहासिक आख्यानों के अनुसार ब्रह्मा-प्रचेता पुत्र भृगु द्वारा हिमालय के दक्षिण दैत्य, दानव और मानव जातियों के राजाओं के साथ वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित कर मेलजोल बढ़ाने से हिमालय के उत्तर की देव, गन्धर्व, यक्ष जातियों के नृवंशों  में आक्रोश पनप रहा था। जिससे सभी लोग देवों के संरक्षक, ब्रह्माजी के सबसे छोटे भाई विष्णु को दोष दे रहे थे। दूसरे बारहों आदित्यों में भार्गवों का प्रभुत्व बढ़ता जा रहा था। इसी बीच महर्षि भृगु के श्वसुर दैत्यराज हिरण्यकश्यप ने हिमालय के उत्तर के राज्यों पर चढ़ाई कर दिया। जिससे महर्षि भृगु के परिवार में विवाद होने लगा। महर्षि भृगु यह कह कर कि राज्य सीमा का विस्तार करना राजा का धर्म है, अपने श्वसुर का पक्ष ले रहे थे। इस विवाद में  विष्णु जी ने उनकी पहली पत्नी, हिरण्यकश्यप की पुत्री दिव्या देवी को मार डाला। जिससे क्रोधित होकर महर्षि भृगु ने श्री विष्णु जी को  एक लात मार दिया।इस विवाद का निपटारा महर्षि भृगु के परदादा और विष्णु जी के दादा मरीचि मुनि ने इस निर्णय के साथ किया कि भृगु हिमालय के दक्षिण जाकर रहे। उनके दिव्या देवी से उत्पन्न पुत्रों को सम्मान सहित पालन-पोषण की जिम्मेदारी देवगण उठायेंगे। परिवार की प्रतिष्ठा-मर्यादा की रक्षा के लिए भृगु जी को यह भी आदेश मिला कि वह  श्री हरि विष्णु की आलोचना नहीं करेंगे। इस प्रकार महर्षि भृगु सुषानगर से अपनी दूसरी पत्नी पौलमी को साथ लेकर अपने छोटे पुत्र ऋचीक के पास गाधिपुरी (वर्तमान बलिया)आ गये।महर्षि भृगु के इस क्षेत्र में आने दूसरा आख्यान कुछ धार्मिक ग्रन्थों, पुराणों में मिलता है। देवी भागवत के चतुर्थ स्कंध विष्णु पुराण, अग्नि पुराण, श्रीमद्भागवत में खण्डों में बिखरे वर्णनों के अनुसार महर्षि भृगु प्रचेता-ब्रह्मा के पुत्र हैं, इनका विवाह दक्ष प्रजापति की पुत्री ख्याति से हुआ था। जिनसे इनके दो पुत्र काव्य-शुक्र और त्वष्टा तथा एक पुत्री ‘श्री’ लक्ष्मी का जन्म हुआ। इनकी पुत्री ‘श्री’ का विवाह श्री हरि विष्णु से हुआ। दैत्यों के साथ हो रहे देवासुर संग्राम में महर्षि भृगु की पत्नी ख्याति जो योगशक्ति सम्पन्न तेजस्वी महिला थी। दैत्यों की सेना के मृतक सैनिकों को वह अपने योगबल से जीवित कर देती थी। जिससे नाराज होकर श्रीहरि विष्णु ने शुक्राचार्य की माता, भृगुजी की पत्नी ख्याति का सिर अपने सुदर्शन चक्र से काट दिया। अपनी पत्नी की हत्या होने की जानकारी होने पर महर्षि भृगु भगवान विष्णु को शाप देते हैं कि तुम्हें स्त्री के पेट से बार-बार जन्म लेना पड़ेगा। उसके बाद महर्षि अपनी पत्नी ख्याति को अपने योगबल से जीवित कर गंगा तट पर आ जाते हैं, तमसा नदी की सृष्टि करते हैं।पद्म पुराण के उपसंहार खण्ड की कथा के अनुसार मन्दराचल पर्वत हो रहे यज्ञ में ऋषि-मुनियों में इस बात पर विवाद छिड़ गया कि त्रिदेवों (ब्रह्मा-विष्णु-शंकर) में श्रेष्ठ देव कौन है?देवों की परीक्षा के लिए ऋषि-मुनियों ने महर्षि भृगु को परीक्षक नियुक्त किया।त्रिदेवों की परीक्षा लेने के क्रम में महर्षि भृगु सबसे पहले भगवान शंकर के कैलाश (हिन्दूकुश पर्वत श्रृंखला के पश्चिम कोह सुलेमान जिसे अब ‘कुराकुरम’ कहते हैं) पहुॅचे उस समय भगवान शंकर अपनी पत्नी सती के साथ विहार कर रहे थे। नन्दी आदि रूद्रगणों ने महर्षि को प्रवेश द्वार पर ही रोक दिया। इनके द्वारा भगवान शंकर से मिलने की हठ करने पर रूद्रगणों ने महर्षि को अपमानित भी कर दिया। कुपित महर्षि भृगु ने भगवान शंकर को तमोगुणी घोषित करते हुए लिंग रूप में पूजित होने का शाप दिया।
यहाँ से महर्षि भृगु ब्रह्मलोक सुषानगर,  ब्रह्माजी के पास पहुँचे। ब्रह्माजी अपने दरबार में विराज रहे थे। सभी देवगण उनके समक्ष बैठे हुए थे। भृगु जी को ब्रह्माजी ने बैठने तक को नहीं कहे। तब महर्षि भृगु ने ब्रह्माजी को रजोगुणी घोषित करते हुए अपूज्य (जिसकी पूजा ही नहीं होगी) होने का शाप दिया। कैलाश और ब्रह्मलोक में मिले अपमान-तिरस्कार से क्षुभित महर्षि विष्णुलोक चल दिये।भगवान श्रीहरि विष्णु क्षीर सागर (श्रीनार फारस की खाड़ी) में सर्पाकार सुन्दर नौका (शेषनाग) पर अपनी पत्नी लक्ष्मी-श्री के साथ विहार कर रहे थे। उस समय श्री विष्णु जी शयन कर रहे थे। महर्षि भृगुजी को लगा कि हमें आता देख विष्णु सोने का नाटक कर रहे हैं। उन्होंने अपने दाहिने पैर का आघात श्री विष्णु जी की छाती पर कर दिया। महर्षि के इस अशिष्ट आचरण पर विष्णुप्रिया लक्ष्मी जो श्रीहरि के चरण दबा रही थी, कुपित हो उठी। लेकिन श्रीविष्णु जी ने महर्षि का पैर पकड़ लिया और कहा भगवन् ! मेरे कठोर वक्ष से आपके कोमल चरण में चोट तो नहीं लगी। महर्षि भृगु लज्जित भी हुए और प्रसन्न भी, उन्होंने श्रीहरि विष्णु को त्रिदेवों में श्रेष्ठ सतोगुणी घोषित कर दिया। 
त्रिदेवों की इस परीक्षा में जहाँ एक बहुत बड़ी सीख छिपी है। वहीं एक बहुत बड़ी कूटनीति भी छिपी थी। इस घटना से एक लोकोक्ति बनी। क्षमा बड़न को चाहिए, छोटन को उत्पात। का हरि को घट्यो गए, ज्यों भृगु मारि लात।। इस घटना में कूटनीति यह थी कि हिमालय के उत्तर के नृवंशों का संगठन बनाकर रहने से श्री हरि विष्णु के नेतृत्व में सभी जातियां सभ्य, सुसंस्कृत बन उन्नति कर रही थी। वही हिमालय के दक्षिण का नृवंश समुदाय जिन्हें दैत्य-दानव, मरूत-रूद्र आदि नामों से जाना जाता था। परिश्रमी होने के बाद भी असंगठित, असभ्य जीवन जी रही थी। ये जातियां रूद्र शंकर को ही अपना नायक-देवता मानती थी। उनकी ही पूजा करती थी। हिमालय के दक्षिण में देवकुल नायक श्रीविष्णु को प्रतिष्ठापित करने के लिए महर्षि भृगु ही सबसे उपयुक्त माध्यम थे। उनकी एक पत्नी दैत्यकुल से थी, तो दूसरी दानव कुल से थी और उनके पुत्रों शुक्राचार्यों, त्वष्टा-मय-विश्वकर्मा तथा भृगुकच्छ (गुजरात) में च्यवन तथा गाधिपुरी (उ0प्र0) में ऋचीक का बहुत मान-सम्मान था। इस त्रिदेव परीक्षा के बाद हिमालय के दक्षिण में श्रीहरि विष्णु की प्रतिष्ठा स्थापित होने लगी। विशेष रूप से राजाओं के अभिषेक में श्री विष्णु का नाम लेना हिमालय पारस्य देवों की कृपा प्राप्ति और मान्यता मिलना माना जाने लगा। पुराणों में वर्णित आख्यान के अनुसार त्रिदेवों की परीक्षा में विष्णु वक्ष पर पद प्रहार करने वाले महर्षि भृगु को दण्डाचार्य मरीचि ऋषि ने पश्चाताप का निर्देश दिया। जिसके लिए भृगुजी को एक सूखे बाँस की छड़ी में कोंपले फूट पड़े और आपके कमर से मृगछाल पृथ्वी पर गिर पड़े। वही धरा सबसे पवित्र होगी वहीं आप विष्णु सहस्त्र नाम का जप करेंगे तब आपके इस पाप का मोचन होगा।मन्दराचल से चलते हुए जब महर्षि भृगु विमुक्त क्षेत्र (वर्तमान बलिया जिला उ0प्र0) के गंगा तट पर पहुँचे तो उनकी मृगछाल गिर पड़ी और छड़ी में कोंपले फूट पड़ी। जहाँ उन्होंने तपस्या करना प्रारम्भ कर दिया। कालान्तर में यह भू-भाग महर्षि के नाम से भृगुक्षेत्र कहा जाने लगा और वर्तमान में बागी बलिया(उ प्र)(जो कि स्वतंत्रता संग्राम में प्रथम आजाद जिला है )नाम से जाना जाता है।महर्षि भृगु जीवन से जुड़े ऐतिहासिक, पौराणिक और धार्मिक सभी पक्षों पर प्रकाश डालने के पीछे मेरा सीधा मन्तव्य है कि पाठक स्वविवेक का प्रयोग कर सकें। हमारे धार्मिक ग्रन्थों में हमारे मनीषियों के वर्णन तो प्रचुर है, परन्तु उसी प्रचुरता से उसमें कल्पित घटनाओं को भी जोड़ा गया है। उनके जीवन को महिमामण्डित करने के लिए हमारे पटुविद्वान उनकी ऐतिहासिकता से खिलवाड़ किए हैं, जिसके कारण वैश्विक स्तर पर अनेक बार अपमानजनक स्थिति उत्पन्न हो जाती है।महर्षि भृगु ने इस भू-भाग पर( वर्तमान बलिया जिला(उ•प्र) आने के बाद यहाँ के जंगलों को साफ कराया। यहाँ मात्र पशुओं के आखेट पर जीवन यापन कर रहे जनसामान्य को खेती करना सिखाया। यहाँ गुरूकुल की स्थापना करके लोगों को पढ़ना-लिखना सिखाया। उस कालखण्ड में इस भू-भाग को नरभक्षी मानवों का निवास माना जाता था। उन्हें सभ्य, सुसंस्कृत मानव बनानें का कार्य महर्षि द्वारा किया गया।महर्षि भृगु के परिवारिक जीवन से अपरिचित जन भी महर्षि द्वारा प्रणीत ज्योतिष-खगोल के महान ग्रंथ भृगु संहिता के बारे में ख्याति है।
महर्षि ने भृगु संहिता ग्रंथ की रचना अपनी दीर्घकालीन निवास की कर्म भूमि विमुक्त भूमि बलिया में ही किया था। इस सन्दर्भ दो बातें ध्यान देने की है। पहली बात यह है कि अपनी जन्मभूमि ब्रह्मलोक (सुषानगर) में निवास काल में उनका जीवन झंझावातों से भरा हुआ था। अपनी पत्नी दिव्या देवी की मृत्यु से व्यथित और त्रिदेवों की परीक्षा के उपरान्त जन्म भूमि से निष्कासित महर्षि को उसी समय शान्ति से जीवन व्यतीत करने का अवसर मिला जब वह विमुक्त भूमि में आये। भृगुकच्छ गुजरात में पहुॅचने के समय तक उनकी ख्याति चतुर्दिक फैल चुकी थी। क्योंकि उस समय तक उनके भृगु संहिता को भी प्रसिद्धि मिल चुकी थी और उनके शिष्य दर्दर द्वारा भृगुक्ष्ेत्र में गंगा-सरयू के संगम कराने की बात भी पूरा आर्यवर्त जान चुका था। आख्यानों के अनुसार खम्भात की खाड़ी में महर्षि के पहुॅचने पर उनका राजसी अभिनन्दन किया गया था, तथा वैदिक विद्वान ब्राह्मणों ने स्वस्तिवाचन करते हुए  उन्हे आत्मज्ञानी ज्योतिष के प्रकाण्ड पण्डित के रूप में उनकी अभ्यर्थना की थी। जिससे यह बात प्रमाणित होती है कि महर्षि द्वारा भृगु संहिता की रचना सुषानगर से निष्कासन के बाद  और गुजरात के भृगुकच्छ जाने से र्पूर्व की गई थी।महर्षि की इस संहिता द्वारा किसी भी जातक के तीन जन्मों का फल निकाला जा सकता है। इस ब्रह्माण्ड को नियंत्रित करने वाले सूर्य, चन्द्रमा, मंगल, बुद्ध, बृहस्पति,शुक्र  शनि आदि ग्रहों और नक्षत्रों पर आधारित वैदिक गणित के इस वैज्ञानिक ग्रंथ के माध्यम से जीवन और कृषि के लिए वर्षा आदि की भी भविष्यवाणियां की जाती थी।महर्षि के कालखण्ड में कागज और छपाई की सुविधा उपलब्ध नहीं थी। ऋचाओं को  कंठस्थ कराया जाता था और इसकी व्यवहारिक जानकारी शलाकाओं के माध्यम से शिष्यों को  दी जाती थी। कालान्तर में जब लिखने की विधा विकसित हुई और उसके संसाधन मसि भोजपत्र ताड़पत्र आदि का विकास हुआ, और विद्वानों ने ऋचाओं को लिपिबद्ध करने का काम किया। मगध ( बिहार ) के स्वायंभु मनु काल तथा वैवश्वत मनु काल में भ्रीगु महर्षि के पुत्र च्यवन ,और्व , शुक्राचार्य  थे । बिहार का औरंगाबाद जिले के गोह मे स्थित पुनपुन तथा मदार नदी के संगम पर भ्रीगुरारी वसा है जहॉ पर मनिषि भ्रीगु का कार्य स्थल कहा गया है ।