रविवार, मई 28, 2023

ज्ञान सत्य और सम्प्रुभता का द्योतक सेंगोल...


सनातन धर्म एवं विश्व के विभिन्न ग्रंथों में सेंगोल का उल्लेख मिलता है । चोल साम्राज्य का सेंगोल स्वर्ण राजदंड से न्यायपूर्ण शासन की अपेक्षा की जाती है । स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात 14 अगस्त 1947 ई. को तत्कालीन वायसराय लॉर्ड माउंटबेटन ने भारत गणराज्य के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को सेंगोल  सौंप दिया था। सोने और चांदी से निर्मित  सेंगोल को  इलाहाबाद संग्रहालय में रख दिया गया था। 'सेंगोल' तमिल शब्द 'सेम्मई' का अर्थ 'नीतिपरायणता' और संस्कृत के ‘संकु’ (शंख) है। मंदिरों और घरों में आरती के समय शंख का प्रयोग किया जाता है। भारत में  राजा राजदण्ड लेकर राजसिंहासन पर राजा बैठकर सपथ लेता था कि  अब मैं राजा बन गया हूँ 'अदण्ड्योऽस्मि, अदण्ड्योस्मि, अदण्ड्योऽस्मि'। (मैं अदण्ड्य हूँ , मैं अदण्ड्य हूँ, मैं अदण्ड्य हूँ ; अर्थात मुझे कोई दण्ड नहीं दे सकता है । राजा के पास लंगोटी पहने हुए  हाथ में एक छोटा, पतला सा पलाश का डण्डासे  राजा पर तीन बार प्रहार करते हुए  कहता था कि 'राजा ! यह 'अदण्ड्योऽस्मि अदण्ड्योऽस्मि' गलत है। 'दण्ड्योऽसि दण्ड्योऽसि दण्ड्योऽसि' अर्थात तुझे दण्डित कर सकता है। चोल काल में राजदंड का प्रयोग सत्ता हस्तांतरण को दर्शाने के लिए किया जाता था। राजा नए राजा को सेंगोल  सौंपता था । मौर्य, गुप्त वंश और विजयनगर साम्राज्य में  सेंगोल का प्रयोग क्या जाता था । वायसराय लॉर्ड माउंटबेटन ने पंडित जवाहरलाल नेहरू से एक सवाल कि(राजाजी) से परामर्श करने के लिए प्रेरित किया। राजाजी ने चोल कालीन समारोह का प्रस्ताव दिया जहां एक राजा से दूसरे राजा को सत्ता का हस्तांतरण उच्च पुरोहितों की उपस्थिति में पवित्रता और आशीर्वाद के साथ पूरा किया जाता था। राजाजी ने तमिलनाडु के तंजौर जिले में शैव संप्रदाय के धार्मिक मठ - थिरुववादुथुराई अधीनम से संपर्क किया। थिरुववादुथुराई अधीनम 500 वर्ष से अधिक पुराना है और पूरे तमिलनाडु में 50 शाखा मठों को संचालित करता है। अधीनम के नेता ने तुरंत पांच फीट लंबाई के 'सेंगोल' तो तैयार करने के लिए चेन्नई में चयन किया गया है । सेंगोल राजदंड  सत्ता हस्तांतरण एवं समृद्धि का प्रतीक राजदंड  मौर्य साम्राज्य के समय से राजदंड मिलने पर राजा  न्यायपूर्ण और निष्पक्ष शासन करता हैं । मौर्य साम्राज्य  322 ई. पू. से 185 ई.  के मध्य प्रथम  बार सेंगोल का प्रयोग किया गया था । मौर्यकाल, गुप्तकाल, चोल साम्राज्य और विजयनगर साम्राज्य में  सेंगोल का प्रचलन था । सेंगोल का प्रारंभ 322 ई . पू. से 185 ईसा के मध्य में  मौर्य शासक सत्ता हस्तांतरण के समय सेंगोल राजदंड का उपयोग करते और  320 ई . से 550 ई .तक गुप्त साम्राज्य में, 907 ई . से  1310 ई . तक चोल साम्राज्य में और विजयनगर साम्राज्य में 1336 ई. से 1646 ई . तक सेंगोल राजदंड को सत्ता हस्तांतरण के लिए प्रयोग में किया  था । इंग्लैंड की रानी का सॉवरेन्स ओर्ब द्वारा 1661 ई. में  बनाया गया जिसे इंग्लैण्ड का  राजा चार्ल्स द्वितीय के राज्याभिषेक में सेंगोल दिया गया था ।  इंग्लैंड में सेंगोल प्रथा के तहत  राजा या रानी को सेंगोल राजदंड दिया जाता हैं ।  मेसोपोटामिया सभ्यता में राजदंड को “गिदरु” कहा गया है।. गिदरु राजदंड की चर्चा  मेसोपोटामिया सभ्यता की  मूर्तियों और शिलालेखों में हैं । मेसोपोटामिया सभ्यता में राजदंड को देवी-देवताओं की शक्तियों और सत्ता हस्तांतरण के प्रतीक था । ग्रीक-रोमन सभ्यता में  राजदंड सभ्यता में ओलंपस और जेयूस  देवताओं की शक्ति की निशानी के रूप में राजदंड होता था ।  शक्ति के प्रतीक सेंगोल शक्तिशाली लोग, सेना-प्रमुख, जज और पुरोहितों के पास यह राजदंड होता था ।. रोमन राजा-महाराजा हाथी के दाँत से बने राजदंड अर्थात सेपट्रम अगस्ती”  था। इजिप्ट सभ्यता में  “वाज”  राजदंड को सत्ता और शक्ति की निशानी था । भारत में  राजदंड पर नंदी जी की आकृति  उभारी गई थी । सेंगोल को राजदंड , धर्मदंड ,संप्रभुता ,अधिकार  का प्रतीक  के रूप में एक शासक दूसरे शासक द्वारा वहन किया जाने वाला डंडा , आध्यत्मिक अधिकार ,सत्ता का प्रतीक ,गीदर मिश्र में वाज ,फ्रांस में गिदरु और भस्र्ट में सेंगोल कहा जाता है । धार्मिक गुरु शंकराचार्य द्वारा भगवान शिव के वाहन नंदी न्याय और कर्म का प्रतीक राजदंड को धर्म दंड , पॉप एवं राजाओं द्वारा सेंगर का धारण करते है ।रोम राजा जूलियस सीजर , मिश्र , मेसोपोटामिया के राजाओं द्वारा सच्चाई निष्ठा और धर्म का प्रतीक सेंगर या राजदंड का प्रयोग करते है । सम्राट हर्षवर्द्धन एवं कनिष्क द्वारा राजदंड का राजसिंहासन के समीप रखते थे । महाभारत शांतिपर्व के राजयधर्मानुशासन के अनुसार द्वापर युग में हतिनपुर का धर्मराज राजा युधिष्ठिर को राजदंड दिया गया था ।  सेंगोल का  धारण अमेरिका , इंग्लैंड , रोम के राजाओं एवं भारत के विभिन्न राजाओं द्वारा किया जाता था । जेष्ठ शुक्ल नवमी रविवार , 2080 दिनांक 28 मई 2023 ,, को मदुरै अधिनम के 293 वें प्रधान पुजारी  द्वारा सच्चाई ,धर्म , न्याय  निष्ठा ,आध्यत्मिक ,संप्रभुता और सत्ता का प्रतीक  सेंगोल को प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी को सौपा गया है ।



मंगलवार, मई 23, 2023

पश्चमी चम्पारण की सांस्कृतिक विरासत ....


भारत और नेपाल की सीमा से लगा तिरहुत प्रमंडल का  पश्चमी चंपारण क्षेत्र से  स्वाधीनता संग्राम के दौरान महात्मा गाँधी ने स्वतंत्रतान्दोलन का   मशाल  अंग्रेजों के खिलाफ नील आंदोलन से जलायी थी। पश्चिमी चंपारण का जिला मुख्यालय बेतिया  है । सन ७५० से ११५५ के बीच पाल वंश का चंपारण पर शासन रहा। इसके बाद मिथिला सहित समूचा चंपारण प्रदेश सिमराँव के राजा नरसिंहदेव के अधीन हो गया। बाद में सन १२१३ से १२२७ ईस्वी के बीच बंगाल के गयासुद्दीन एवाज ने नरसिंह देव को हराकर मुस्लिम शासन स्थापित की। मुसलमानों के अधीन होने पर तथा उसके बाद भी यहाँ स्थानीय क्षत्रपों का सीधा शासन रहा। मुगल काल के बाद के चंपारण का इतिहास बेतिया राज का उदय एवं अस्त से जुड़ा है। बादशाह शाहजहाँ के समय उज्जैन सिंह और गज सिंह ने बेतिया राज की नींव डाली। मुगलों के कमजोर होने पर बेतिया राज महत्वपूर्ण बन गया और शानो-शौकत के लिए अच्छी ख्याति अर्जित की। १७६३ ईस्वी में यहाँ के राजा धुरुम सिंह के समय बेतिया राज अंग्रेजों के अधीन काम करने लगा। इसके अंतिम राजा हरेन्द्र किशोर सिंह के कोई पुत्र न होने से १८९७ में इसका नियंत्रण न्यायिक संरक्षण में चलने लगा जो अबतक कायम है। हरेन्द्र किशोर सिंह की दूसरी रानी जानकी कुँवर के अनुरोध पर १९१० में बेतिया महल की मरम्मत करायी गयी थी। बेतिया राज की शान का प्रतीक यह महल आज यह शहर के मध्य में इसके गौरव का प्रतीक बनकर खड़ा है। उत्तर प्रदेश और नेपाल की सीमा से लगा यह क्षेत्र भारत के स्वाधीनता संग्राम के दौरान काफी सक्रिय रहा है। स्वतंत्रता आन्दोलन के समय चंपारण के रैयत श्री राजकुमार शुक्ल के आमंत्रण पर महात्मा गाँधी अप्रैल १९१७ में मोतिहारी आए और नील की खेती से त्रस्त किसानों को उनका अधिकार दिलाया। अंग्रेजों के समय १८६६ में चंपारण को स्वतंत्र इकाई बनाया था। प्रशासनिक सुविधा के लिए १९७२ में चंपारण का विभाजन कर पूर्वी चंपारण और पश्चिमी चंपारण बना  गया है।
पश्चिमी चम्‍पारण के उत्तर में नेपाल तथा दक्षिण में गोपालगंज जिला , पूर्व में पूर्वी चंपारण और  पश्चिम में  उत्तर प्रदेश के पडरौना तथा देवरिया जिला सीमा   है। पश्चमी चंपारण जिले का क्षेत्रफल 5228 वर्ग किमि . व 1507 वर्गमील एवं समुद्र तल से 65 मीटर व213 फीट ऊँचाई पर बसे 2011 जनगणना के अनुसार 3043044 आवादी वाले क्षेत्र में 18 प्रखंड ,315 पंचायत , 1483 गाँव तथा 226790 एकड़ वन क्षेत्र है । पश्चिमी चंपारण  जिले में गंडक ,सिकरहना , मशान ,पंचनद , मनोर ,भापसा , सोनहा और कपन नदियाँ प्रवाहित है । गंडक ,पंचनद और सोनहा नदियाँ का संगम त्रिवेणी है । हिमालय की तलहठी में बसे पश्चिमी चम्‍पारण की धरातलीय बनावट के उत्तरी हिस्सा सोमेश्वर एवं दून श्रेणी है। सोमेश्वर श्रेणी से सटा तराई क्षेत्र थारू जनजाति का निवास स्थल है। हिमालय के गिरिपाद क्षेत्र से रिसकर भूमिगत हुए जल के कारण तराई क्षेत्र को यथेष्ट आर्द्रता उपलब्ध है इसलिए यहाँ दलदली मिट्टी का विस्तार है। तराई प्रदेश से हटने पर समतल और उपजाऊ क्षेत्र मिलता है जिसे सिकरहना नदी (छोटी गंडक) दो भागों में बाँटती है। उत्तरी भाग में भारी गठन वाली कंकरीली पुरानी जलोढ मिट्टी पाई जाती है । दक्षिण हिस्सा चूनायुक्त अभिनव जलोढ मिट्टी से निर्मित है । उत्तरी भाग में हिमालय से उतरने वाली  नदियाँ सिकरहना में मिलती है। दक्षिणी भाग अपेक्षाकृत ऊँचा है । सदावाही गंडक, सिकरहना एवं मसान के अलावे पंचानद, मनोर, भापसा, कपन आदि  बरसाती नदियाँ है। बिहार के कुल वन्य क्षेत्र का सबसे बड़ा हिस्सा पश्चिम चंपारण  है। बिहार का बाघ अभयारण्य ८८० वर्ग किलोमीटर से अधिक क्षेत्र में फैले बाल्मिकीनगर राष्ट्रीय उद्यान में स्थित और नेपाल के चितवन नेशनल पार्क से समीप  है। बेतिया से ८० किलोमीटर तथा पटना से २९५ किलोमीटर दूर स्थित  वन्य जीव अभयारण्य है। पश्चमी चंपारण में अनुमंडलः 1. बेतिया 2. बगहा 3.नरकटियागंज , प्रखंडः गौनहा, चनपटिया, जोगापट्टी, ठकराहा, नरकटियागंज, नौतन, पिपरासी, बगहा-१, बगहा-२, बेतिया, बैरिया, भितहा, मधुबनी, मझौलिया, मैनाटांड, रामनगर, लौरिया, सिकटा , तथा  पश्चमी चंपारण महत्वपूर्ण व्यक्ति राजकुमार शुक्ल ,प्रजापति मिश्र ,शेख गुलाब , केदार पाण्डेय ,तारकेश्वर नाथ तिवारी ,श्यामाकांत तिवारी , असित नाथ तिवारी है । मझौलिया, बगहा, हरिनगर तथा नरकटियागंज में चीनी मिल हैं। कुटीर उद्योगों में रस्सी, चटाई तथा गुड़ बनाने का काम होता है।शिक्षा एवं संस्कृति प्राथमिक विद्यालय- १३४० ,मध्य विद्यालय- २८४, उच्च विद्यालय- ६८ ,डिग्री महाविद्यालय- ३ ,औद्योगिक प्रशिक्षण केंद्र है।
वेतिया - पश्चिमी चम्पारण ज़िले का  मुख्यालय बेतिया  में   राजमहल , शहीद पार्क, सागर पोखरा व शिव मन्दिर,  बेतिया ऑडिटोरियम व महाराजा स्टेडियम, हरिवाटिका चौक में गाँधी की मूर्ति  जिला प्रशासन , पुलिस प्रशासन एवं जिला अनुमंडल प्रशासन का मुख्यालय है । निर्देशांक: 26°48′04″N 84°30′07″E / 26.801°N 84.502°E पर अवस्थित समुद्रतल से ऊँचाई 65 मी (213 फीट) पर अवस्थित है । भारत-नेपाल सीमा पर स्थित बेतिया के पश्चिम में उत्तर प्रदेश का  पड़ता है। ब्रिटिश शासन काल  में बेतिया राज की  क्षेत्रफल १८०० वर्ग मील थी। हरहा नदी की प तलहटी में स्थित बेतिया का दर्शनीय स्थल में बेतिया राज का महल उदयपुर पक्षी उद्यान , सागर पोखरा , काली मंदिर , दुर्गा मंदिर , सरया मन दर्शनीय है। महात्मा गांधी ने बेतिया के हजारी मल धर्मशाला में रहकर सत्याग्रह आंदोलन की शुरुआत की थी। १९७४ के संपूर्ण क्रांति में भी बेतिया की अहम भुमिका थी। यहां के अमवा मझार गांव के रहने वाले श्यामाकांत तिवारी ने जयप्रकाश नारायण के कहने पर पूरे जिले में आंदोलन को फैलाया। यह एक कृषि प्रधान क्षेत्र में गन्ना, धान और गेहूँ उगते हैं।  गाँधी की कर्मभूमि और ध्रुपद गायिकी के लिए प्रसिद्ध है। बेतिया से मुंबई फ़िल्म उद्योग का सफ़र तय कर चुके मशहूर फ़िल्म निर्देशक प्रकाश झा ने  क्षेत्र के लोगों की सरकारी नौकरी की तलाश पर 'कथा माधोपुर' की रचना की है । गौनहा का भितिहरवा से चंपारण सत्याग्रह स्थली एवं लौरिया का नंदन गढ़ में भगवान बुद्ध अस्थि स्तूप एवं त्रिवेणी स्थल ऐतिहासिक स्थल है।
तिरहुत प्रमंडल का पश्चिम चंपारण  जिला के क्षेत्र में वाल्मीकि नगर , बाल्मीकि नगर राष्ट्रीय उद्यान और टाइगर रिजर्व ,
त्रिवेणी (संगम) , बावनगढ़ी , भिकनाटोहरी , सुमेस्वर , वृंदावन , भितिहरवा आश्रम , नंदनगढ़ और चंकीगढ़ , अशोक स्तंभ , सरैया मन पर्यटन स्थल है  । वाल्मीकि नगर -गंडक नदी के किनारे स्थित  भैंसा लोटन  को वाल्मीकि नगर पर्यटन स्थल है । भैंसलोटन में बेतिया राज द्वारा शिव पार्वती मंदिर का निर्माण।एवं आदि कवि वाल्मीकि आश्रम एवं  कर्मभूमि है । बाल्मीकि नगर राष्ट्रीय उद्यान और टाइगर रिजर्व , यह 544 वर्ग किलोमीटर में फैले जंगली जानवरों और पक्षियों के ढेरों के लिए स्वर्ग है। राजसी हिमालय शांत अदम्य देश के लिए पृष्ठभूमि के रूप में प्रदान करता है। त्रेतायुग में भैंसलोटन वाल्मीकि आश्रम एवं रामायण के लेखक महर्षि वाल्मीकि आश्रम में माता सीता की वैन स्थली तथा लव कुश की जसनम स्थली है । त्रिवेणी -  पश्चमी चंपारण  जिले के उत्तर-पश्चिमी  में  गंडक , पंचानंद और सोनाहा नदी का संगम भारत-नेपाल सीमा के निकट  त्रिवेणी है ।  त्रिवेणी का क्षेत्र भैसलोटन गांव तक फैला हुआ है। श्रीमद भागवत" के अनुसार, गज और ग्रह के बीच हजार वर्षो तक त्रिवेणी में  युद्ध  हुई थी । भगवान विष्णु द्वारा  गज की सुरक्षा प्रदान कर ग्राह से मुक्ति दिलाया गया था । बावनगढ़ी  -  दरवाबारी या त्रिपन बाजार के समीप  के समीप  दुर्गों के खंडहरों से युक्त है । त्रिपन बाजार के उत्तर में 52 किलों और 53 बाज़ारों के खंडहर और उत्तर-पश्चिम में दलदल के तटबंधों के खंडहर हैं । भीखनाटोहरी - नरकटियागंज-भीकनाथोरी मार्ग पर रेलवे स्टेशन पश्चमी चंपारण  जिले के उत्तरी भाग में गौनाहा ब्लॉक में भीखना टोहरी का किंग जॉर्ज पंचम द्वारा शिकार के उद्देश्य से  दौरा किया गया था ।है। सुमेस्वर - रामनगर प्रखंड में समुद्र तल से 2,884 फीट की ऊंचाई पर सुमेस्वर पहाड़ियों के शिखर पर   ऊंची चट्टान के किनारे पर स्थित किला का खंडहर के अवशेष  हैं । नेपाल में बर्फ और बीच की घाटियों और निचली पहाड़ियों का   किला सुमेस्वर स्थित है।  धौलागिरी, गोसाईंथान, और गौरीशंकर की विशाल हिमालयी चोटियाँ स्पष्ट रूप से दिखाई देती हैं । वृंदावन - गौनाहा प्रखंड  का वृंदावन को 1937 में 'अखिल भारतीय गांधी सेवा संघ' की वार्षिक बैठक की मेजबानी करने का सम्मान मिला था। वृंदावन टोली में भाग लेने वालों में महात्मा गांधी, डॉ. राजेंद्र प्रसाद और श्री जेबी कृपलानी शामिल थे। गांधीजी द्वारा बनवाया गया बुनियादी विद्यालय  संचालित  है। भितिहरवा आश्रम में  गांधीजी ने मुक्ति अभियान व  'चंपारण सत्याग्रह' स्थल पर   गांधीवादी तीर्थ है। नंदनगढ़ और चंकीगढ़ -  लौरिया प्रखंड में नंदन गढ़ में नंद वंश तथा भगवान बुद्ध की राख का स्तूप  एवं  नरकटियागंज प्रखंड में चंकी गढ़ स्थल पर महान अर्थशास्त्री चाणक्य का महल का खंडहर है। लौरिया प्रखंड के नंदनगढ़ से  एक किलोमीटर पूर्व में स्थित अशोक का सिंह अशोक  स्तंभ 35 फीट लंबा तथा  व्यास 35 इंच और ऊपरी व्यास 22 इंच है। गौनाहा प्रखंड में गांधी के भितिहरवा आश्रम के पास, रामपुरवा टोला में  खंभे  हैं। गढ़ के उत्खनन से प्राप्त नई दिल्ली में राष्ट्रीय संग्रहालय में  नंदी और कलकत्ता संग्रहालय में शेर रखा गया है। बेतिया शहर से लगभग 6 किलोमीटर की दूरी पर स्थित सरैया मैन या सरैया   झील के किनारों पर उगने वाले और पानी में गिरने वाले काले जामुन के कारण सरैया  झील का जल स्वास्थ्य वर्द्धक है। 





वेतिया - वाल्मीकीय रामायण सप्तदश:सर्ग: के अनुसार हिमालय की तराई में सतयुग में देवगुरु वृहस्पति की पौत्री कुशध्वज की पुत्री वेदवती रूपवान , गुणवान और मृदुभाषी थी । ब्रह्महर्षि कुशध्वज की इच्छानुसार वेदवती ने  भगवान विष्णु को अपना पति स्वीकार की थी । लंकापति राक्षसराज दशग्रीव रावण ने वेदवती की रूप और मृदुभाषी से मोहित होकर पत्नी बनाना चाहा था । परंतु वेदवती द्वारा रावण के प्रस्ताव को ठुकराने के कारण ब्रह्मर्षि कुशध्वज को रावण ने हत्या कर दिया था । वेदवती अपने पिता कुशध्वज के मृतशरीर को हृदय से लगाकर चिता की अग्नि में प्रविष्ट हो गयी थी । त्रेतायुग में  वेदवती दूसरे जन्म में  कान्ति माला  कन्या को पुत्री के रूप में  रावण अपने घर ले गया था । ज्योतिषियों द्वारा कांतिमाला के गुणों को परखकर रावण को बाते बताए जाने पर रावण ने कांतिमाला को राजा जनक के यज्ञ मंडप के मध्यवर्ती भूभाग में भेजवा दिया था । मिथिला राज जनक द्वारा हल हाल के भूभाग को जोते जाने पर सती  साध्वी कन्या  वेदवती का पुनर्जन्म जनक की पुत्री सीता और अयोध्या के राजा दशरथ की पुत्रबधू और भगवान राम की भार्या माता सीता का प्रादुर्भाव हुआ था । विभिन्न ग्रंथों के अनुसार चंपावन का त्रिवेणी (संगम ) पर महर्षि कुशध्वज का आश्रम था । वेदवती के नाम पर  वेदवत , वेवत आधुनिक नाम वेतिया नामकरण हुआ था । वेतिया का क्षेत्र मिथिला का धरोहर है । यह ब्रह्मर्षि शिरधवज , याज्ञवल्क्य , निमि , वाल्मीकि की धरती रही है ।

रविवार, मई 21, 2023

माता भद्रकाली मंदिर का परिभ्रमण....




    सनातन धर्म के शाक्त , सौर , शैव , बौद्ध एवं जैन संप्रदायों का स्थल झारखंड राज्य का चतरा जिले के इटखोरी है । इटखोरी का मुहाने एवं बक्सा नदी संगम पर विभिन्न धर्मों का ज्ञान स्थल एवं तंत्र मंत्र साधना भूमि पर भद्रकाली मंदिर के गर्भगृह में माता भद्रकाली की मूर्ति स्थापित है । जैन धर्म के 10 वें तीर्थंकर श्री शीतलनाथ स्वामी की जन्म भूमि , भगवान बुद्ध , चीन का फेंगसुई के भगवान  के ताओवादी संत लाफिंग बुद्धा , भगवान शिव के पुत्र एवं देव सेनापति कर्तिकेय , स्तूप है । बुद्ध और महावीर की छोटे-बड़े पत्‍थरों में करीने से उकेरी हुई अनेक मूर्तियां ,  10 वें जैन तीर्थंकर श्रीशीतलनाथ स्‍वामी के चरण चिह्न, तीन पैर की प्रतिमा, त्रिभंग मुद्रा की प्रतिमा, भार वाहक प्रतिमा, अमलक, धर्म चक्र प्रवर्तन, प्राचीन मंदिर का स्‍तम्‍भ, कार्तिकेय, छोटे गुंबद की तरह मनौती स्‍तूप, अमृत कलश, बुद्ध का पैनल, त्रिरथ, नागर शैली, भूगर्भ के उत्खनन के पश्चात  प्राप्‍त जैन धर्म का सहस्‍त्रकूट जिनालय,जैन तीर्थंकर की मूर्तियां, कीर्ति मुखा की कलाकृति, वामनावतार की मूर्ति, सूर्य की खंडित मूर्ति, स्‍तम्‍म एवं मंदिरों का अवशेष हैं । रांची से करीब डेढ़ सौ किलोमीटर दूर चतरा जिले के हजारीबाग-बरही रोड पर ईटखोरी मोड़ से करीब 32 किलोमीटर दूरी पर भद्रकाली मंदिर अवस्थित है ।जैन धर्म के 10वें तीर्थंकर श्री शीतलनाथ स्वामी का चरण चिह्न ताम्रपत्र , और  पत्‍थर पर चरण चिह्न है। 12 वी सदी में निर्मित भद्रकाली मंदिर का  निर्माण कला का अद्भुत नमूनाहै । माता भद्रकाली  वात्‍सल्‍य रूप  है। भद्रकाली माता का .मंदिर निर्माण के पूर्व साधक भैरवनाथ का तंत्र साधना का केंद्र, सिद्ध आश्रम था। आश्रम के समीप  काले पत्‍थर का सहस्र शिवलिंग , एकसाथ बने छोटे-छोटे 1008 शिवलिंग पर जलाभिषेक किया जाता है ।  8वी सदी में  आदि शंकराचार्य द्वारा हिंदू धर्म के पनरुत्‍थान के क्रम में 108 शिव लिंग की  स्‍थापना कीगयी  थी। भद्रकाली मंदिर के पीछे मनौती स्तूप के रूप में  बौद्ध स्‍तूप , सहस्तरलिंगी शिव को कोठेश्वर नाथ ,  भगवान बुद्ध की ध्‍यान मुद्रा में उकेरी गईं 1008  मूर्तियां है। मनौती स्‍तूप के  श्रृंखला पर कटोरा आकार का गड्ढा में पानी रिसकर खुद भर जाता है।  चतरा जिले का ईटखोरी प्रखंड के भदुली गांव में भद्रकाली मंदिर  है । प्राचीन ईतखोई का परिवर्तित नाम ईटखोरी है । सिद्धार्थ (गौतमबुद्ध) अटूट साधना में लीन थे।  सिद्धार्थ की साधना के समय सिद्धार्थ की मौसी  प्रजापति  कपिलवस्‍तु वापस ले जाने  आई थी ।  परन्तु तथागत का ध्‍यान मौसी के आगमन से  नहीं टूटा था । सिद्धार्थ की मौसी के मुख से  ईतखोई अर्थात ईत स्थान खोई ध्यान व ध्यान भूमि शब्‍द निकला था । वनवास काल में श्रीराम, लक्ष्‍मण एवं सीता  अरण्‍य में निवास एवं धर्मराज युधिष्ठिर के अज्ञात वास स्‍थल तथा तपोभूमि  क्षेत्र है।'' स्‍थापत्‍य कला, निर्माण कला की निशानी ईटखोरी की भूमि में छिपे हुए है ।
चतरा जिले का क्षेत्रफल 1431 वर्गमील में  फैले जंगलों से घिरा और हरियाली से भरपूर एवं खनिज के साथ कोयला  से युक्त चतरा जिला मुख्यालय चतरा  समुद्र तल से 427 मीटर ऊँचाई पर स्थित  है । झारखंड के  प्रवेश द्वार कहे जाने वाला चतरा जिला की स्थापना 29 मई 1991 ईo में   हजारीबाग जिले  से विभाजित की गयी थी I हजारीबाग, पलामू ,  लातेहार एवं बिहार के गया जिले की सीमा से घिरा चतरा जिला  हैं । चतरा जिला में पर्यटन स्थल मां भद्रकाली मंदिर और  मां कौलेश्वरी पर्वत है। चतरा  जिले में अनुमंडल सिमरिया व चतरा , प्रखंडों में  चतरा, सिमरिया, टंडवा, पत्थलगड़ा, कुंदा, प्रतापपुर, हंटरगंज, कान्हाचट्टी, इटखोरी, मयूरहंड, लावालौंग, गिधौर में 154 पंचायत व 1474 गांव , 1042886 आवादी वाले क्षेत्र में  विधानसभा चतरा व सिमरिया है। चतरा झारखंड का सबसे छोटा संसदीय क्षेत्र है। चतरा लोकसभा में 47. 72 प्रतिशत वन  क्षेत्रफल में  चतरा, सिमरिया, पांकी, लातेहार, मनिका विधानसभा  हैं। चतरा जिले में लावालौंग अभ्यारण्य और नदियों में  दामोदर, बराकर, हेरुआ, महाने, निरंजने, बलबल, बक्सा प्रवाहित होती है । चतरा जिले का हंटरगंज प्रखंड के कौलेश्वरी पर्वत पर माता कौलेश्वरी की मंदिर प्राचीन है ।
21 मई 2023 को साहित्यकार व इतिहासकार सत्येंद्र कुमार पाठक द्वारा चतरा जिले का इटखोरी की सांस्कृतिक विरासत का परिभ्रमण कर माता भद्रकाली , सहस्त्र शिव लिंग , भगवान शनि , आदि प्राचीन स्थलों का परिभ्रमण किया गया ।परिभ्रमण के दौरान भारतीय विरासत संगठन के अध्यक्ष साहित्यकार व इतिहासकार सत्येंद्र कुमार पाठक के साथ  एस एस कॉलेज जहानाबाद , के प्रो. उर्वशी कुमारी , बिहार जीविकोपार्जन परियोजना समिति औरंगाबाद के ट्रेनिग ऑफिसर प्रवीण कुमार पाठक  इटखोरी की विरासत परिभ्रमण में साथ है ।