गुरुवार, सितंबर 30, 2021

साहित्यकार समाज का प्रहरी ...









 गणतंत्र भारत के स्वतंत्रता संग्राम में शहीदों और  साहित्य सेवियों में मुजफ्फरपुर के  कलाम के जादूगर रामवृक्ष वेनिपुरी और शहीद भगवानलाल  का योगदान का उल्लेख है । मुजफ्फरपुर काप्रथम शहीद  भगवानलाल  -  मां भारती के सपूत भगवान लाल का जन्म 28 सितंबर 1912 ई . को  सरैयागंज में जन्म लेनेवाले ब्रिटिश साम्राज्य अधीन भारत की आजादी एवं तिरंगे की रक्षा  हेतु 14 नवंबर 1930 ई. में शहीद हो गए थे ।   तिलक मैदान से सरैयागंज  नगर में धारा 144 लगने के वावजूद  तिलक मैदान में राष्ट्रीय तिरंगा ध्वज फहराने के लिए आजादी के दीवानों का कारवां बढ़ता द्वारा झंडा फहाराया गया था । अंग्रेज अफसरों ने अपमान समझकर  तिरंगा झंडा उतारने के लिए लाठीचार्ज किया। अंग्रेज झंडा उतारने लगे, भगवानलाल मंच पर चढ़ घ्वज स्तम्भ से लिपट गए। अफसरों की एक नहीं चली और गुस्साए मुजफ्फरपुर का सुपरिंटेंडेंट ऑफ पुलिस हिचकॉक ने गोली चलाने का आदेश दे दिया जिससे भगवान लाल को  तीन गोली  लगी। भारत माता की जय बोलते हुए भगवाल लाल गिर पड़े। 14 नवम्बर 1930 का  18 साल की उम्र में शहीद हो गए । भारत मां के सपूत भगवान लाल के शहीद होने के कारण  दो दिन शहर में कर्फ्यू रहा था । 16 नवम्बर को चंदवारा शमशान घाट पर शहीद भगवान लाल का  अंतिम-संस्कार पूरे सम्मान के साथ किया गया।  अमर शहीद भगवान लाल के  सम्मान में देशरत्न डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने शहीद स्मारक एवं घंटा घर का निर्माण कराया। इसमें अंकित जिले के 100 शहीदों में  है । नवयुवक समिति ने 1954 में सरैयागंज में शहीद भगवानलाल स्मारक पुस्तकालय भवन की स्थापना एवं 1984 में पुस्तकालय के सामने उनकी प्रतिमा स्थापित की गई। भगवानलाल जब चौथी कक्षा में पढ़ते थे, तभी से वे अंग्रजी शासन के विरुद्ध सभा में भाग लेने लगे थे। तिरंगे की शान में कुर्बान होने वाले शहीद की यादगार पुस्तकालय  है। देश रत्न डॉ राजेन्द्र प्रसाद ने शहीद स्मारक एवं घंटा घर का निर्माण कराया। इसमें अंकित जिले के 100 शहीदों में  है । नवयुवक समिति ने 1954 में सरैयागंज में शहीद भगवानलाल स्मारक पुस्तकालय भवन की स्थापना एवं 1984 में पुस्तकालय के सामने उनकी प्रतिमा स्थापित की गई। भगवानलाल जब चौथी कक्षा में पढ़ते थे, तभी से वे अंग्रजी शासन के विरुद्ध सभा में भाग लेने लगे थे। तिरंगे की शान में कुर्बान होने वाले शहीद की यादगार पुस्तकालय  है।  नागरिक मोर्चा , अखिल भारतीय आदित्य परिषद एवं श्री नवयुवक समिति ट्रस्ट मुजफ्फरपुर द्वारा अमर शहीद भगवान लाल की जयंती पर राष्ट्र की रक्षा , समाजसेवा  एवं कोरोना काल में उत्कृष्ट योगदान हेतु सत्येन्द्र कुमार पाठक को शहीद भगत सिंह एवं भगवान लाल सम्मान पत्र 2021 से सम्मानित किया गया है ।
कलम के जादूगर रामवृक्ष वेनिपुरी  - शुक्लोत्तर युग के महान साहित्यकार रामवृक्ष बेनीपुरी का जन्म  मुजफ्फरपुर ( बिहार )  जिले के  बेनीपुर में 23  दिसंबर, 1899 ई. तथा निधन  07 सितंबर, 1968 ई . हुआ था । बेनीपुरी जी भारत के  विचारक, चिन्तक,  क्रान्तिकारी साहित्यकार, पत्रकार, संपादक और गद्य-लेखक, शैलीकार, पत्रकार, स्वतंत्रता सेनानी, समाज-सेवी की अमिट छाप छोड़ी है। राष्ट्र-निर्माण, समाज-संगठन और मानवता को  बेनीपुरी जी ने ललित निबंध, रेखाचित्र, संस्मरण, रिपोर्ताज, नाटक, उपन्यास, कहानी, बाल साहित्य आदि विविध गद्य-विधाओं में जो महान रचनाएँ प्रस्तुत की हैं । भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में आठ वर्ष जेल में बिताया और   हिन्दी साहित्य के समाचारपत्र  युवक (१९२९) आदि प्रकाशित की थी ।मैट्रिक की परीक्षा पास करने से पहले 1920 ई. में वे महात्मा गाँधी के असहयोग आन्दोलन में कूद पड़े । भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के सक्रिय सेनानी के रूप में आपको 1930 ई. से 1942 ई. तक का समय जेल में व्यतीत करना पड़ा।पत्रकारिता एवं साहित्य-सर्जना में जुड़ कर बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन को खड़ा करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। स्वाधीनता-प्राप्ति के पश्चात् आपने साहित्य-साधना के साथ-साथ देश और समाज के नवनिर्माण कार्य में अपने को जोड़े रखा। रामवृक्ष बेनीपुरी की आत्मा में राष्ट्रीय भावना लहू के संग लहू के रूप में बहती थी जिसके कारण आजीवन वह चैन की साँस न ले सके। उनके फुटकर लेखों से और उनके साथियों के संस्मरणों से ज्ञात होता है कि जीवन के प्रारंभ काल से ही क्रान्तिकारी रचनाओं के कारण बार-बार उन्हें कारावास भोगना पड़ा। सन् १९४२ में अगस्त क्रांति आंदोलन के कारण उन्हें हजारीबाग जेल में रहना पड़ा था । जेलवास में आग भड़काने वाली रचनायें लिखते थे । बेनीपुरी जी जेल से बाहर आते उनके हाथ में दो-चार ग्रन्थों की पाण्डुलिपियाँ साहित्य की अमूल्य निधि बन गईं हैं। सन् १९३० के कारावास काल के अनुभव के आधार पर पतितों के देश में उपन्यास का सृजन हुआ।  सन् १९४६ में अंग्रेज भारत छोड़ने पर विवश हुए तो सभी राजनैतिक एवं देशभक्त नेताओं को रिहा कर दिया गया। कारागार से मुक्ति की पावन पवन के साथ साहित्य की उत्कृष्ट रचना माटी की मूरतें रेखाचित्र और आम्रपाली उपन्यास की पाण्डुलिपियाँ उनके उत्कृष्ट विचारों को अपने अन्दर समा चुकी थीं। उनकी अनेक रचनायें जो यश कलगी के समान हैं उनमें जय प्रकाश, नेत्रदान, सीता की माँ, 'विजेता', 'मील के पत्थर', 'गेहूँ और गुलाब' शामिल हैं। 'शेक्सपीयर के गाँव में' और 'नींव की ईंट'; इन लेखों में  रामवृक्ष बेनीपुरी ने अपने देश प्रेम, साहित्य प्रेम, त्याग की महत्ता, साहित्यकारों के प्रति सम्मान भाव दर्शाया है । बेनीपुरी जी पत्रकारिता जगत से साहित्य-साधना के संसार में आए। छोटी उम्र से ही आप पत्र-पत्रिकाओं में लिखने लगे थे। आगे चलकर आपने 'तरुण भारत', 'किसान मित्र', 'बालक', 'युवक', 'कैदी', 'कर्मवीर', 'जनता', 'तूफान', 'हिमालय' और 'नई धारा' नामक पत्र-पत्रिकाओं का सम्पादन किया। आपकी साहित्यिक रचनाओं की संख्या लगभग सौ है, जिनमें से अधिक रचनाएँ 'बेनीपुरी ग्रंथावली' नाम से प्रकाशित हो चुकी हैं। उनकी कृतियों में से 'गेहूँ और गुलाब' (निबन्ध और रेखाचित्र), 'वन्दे वाणी विनायकौ (ललित गद्य), 'पतितों के देश में (उपन्यास), 'चिता के फूल' (कहानी संग्रह), 'माटी की मूरतें (रेखाचित्र), 'अंबपाली (नाटक) विशेष रूप से प्रसिद्ध हैं। बेनीपूरी जी की  रचनाओं में नाटक - अम्बपाली -1941-46 ,सीता की माँ -1948-50 ,संघमित्रा -1948-50 ,अमर ज्योति -1951 ,तथागत ,सिंहलविजय ,शकुन्तला ,रामराज्य ,नेत्रदान -1948-50 ,गाँव के देवता , नया समाज ,विजेता -1953. बैजू मामा, नेशनल बुक ट्र्स्ट, 1994 ,शमशान में अकेली अन्धी लड़की के हाथ में अगरबत्ती - 2012 , - सम्पादन एवं आलोचन ,विद्यापति की पदावली ,बिहारी सतसई की सुबोध टीका , जीवनी - जयप्रकाश नारायण , संस्मरण तथा निबन्ध - पतितों के देश में -1930-33 , चिता के फूल -1930-32 ,लाल तारा -1937-39 , कैदी की पत्नी -1940 ,माटी -1941-45 ,गेहूँ और गुलाब - 1948–50 ,जंजीरें और दीवारें ,उड़ते चलो, उड़ते चलो ,मील के पत्थर , -ललित गद्य ,वन्दे वाणी विनायक −1953-54. है । 1999 ई.   में भारतीय डाक सेवा द्वारा बेनीपुरी जी के सम्मान में भारत का भाषायी सौहार्द मनाने हेतु भारतीय संघ के हिन्दी को राष्ट्र-भाषा अपनाने की अर्ध-शती वर्ष में डाक-टिकटों का एक सेट जारी किया।[ उनके सम्मान में बिहार सरकार द्वारा वार्षिक अखिल भारतीय रामवृक्ष बेनीपुरी पुरस्कार दिया जाता है। मुजफ्फरपुर में नागरिक मोर्चा , अखिल भारतीय आदित्य पार्षद  एवं श्री नवयुवक समिति ट्रस्ट  द्वारा  हिंदी साहित्य के मूर्धन्य विद्वान रामवृक्ष वेनीपुरी के स्मृति सम्मान समारोह  में हिंदी को बढ़ावा देने , साहित्यजगत में सराहनीय योगदान एवं उत्कृष्ट कार्य करने वालों को सम्मानित किया जाता है । हिंदी को बढ़ावा देने , साहित्य जगत में  सराहनीय योगदान एवं उत्कृष्ट कार्य हेतु सत्येन्द्र कुमार पाठक  को हिंदी दिवस के अवसर पर  कलाम के जादूगर महान साहित्यकार एवं स्वतंत्रता सेनानी रामवृक्ष वेनीपुरी सम्मान पत्र 2021 से सम्मानित किया गया है ।

शुक्रवार, सितंबर 24, 2021

33 कोटि देवता : ब्रह्मांड का रूप ...


सनातन धर्म संस्कृति और वेदन संहिताओं एवं स्मृतियों में ब्रह्मांड की पहचान 33 कोटि देवताओं में 12 आदित्य, 8 वसु,11 रुद्र और इन्द्र व प्रजापति को कुल 33 देवता का उल्लेख  हैं। दैत्यों, दानवों, गंधर्वों, नागों है। देवताओं के ब्रह्मा जी के पौत्र  ऋषि अंगिरा के पुत्र देव गुरु बृहस्पति हैं । देव गुरु बृहस्पति के पुत्र कच ने शुक्राचार्य से संजीवनी विद्या सीखी थी । ब्रह्मा जी के पौत्र  ऋषि भृगु के पुत्र दैत्यगुरु शुक्राचार्य हैं। भृगु ऋषि तथा हिरण्यकशिपु की पुत्री दिव्या के पुत्र शुक्राचार्य की कन्या का नाम देवयानी तथा पुत्र का नाम शंद और अमर्क था। देवयानी ने ययाति से विवाह किया था। ऋषि कश्यप की पत्नी अदिति से जन्मे पुत्रों को आदित्य कहा गया है। वेदों में जहां अदिति के पुत्रों को आदित्य कहा गया है, वहीं सूर्य को आदित्य कहा गया है। वैदिक या आर्य लोग दोनों की ही स्तुति करते थे। इसका यह मतलब नहीं कि आदित्य ही सूर्य है या सूर्य ही आदित्य है। आदित्यों को सौर-देवताओं में शामिल किया गया है और उन्हें सौर मंडल का कार्य सौंपा गया है। कश्यप ऋषि की पत्नी अदिति से उत्पन्न 12 पुत्र में अंशुमान, अर्यमन, इन्द्र, त्वष्टा, धातु, पर्जन्य, पूषा, भग, मित्र, वरुण, विवस्वान और विष्णु 12 मास समर्पित हैं। पुराणों में धाता, मित्र, अर्यमा, शुक्र, वरुण, अंश, भग, विवस्वान, पूषा, सविता, त्वष्टा एवं विष्णु आदित्य है ।
1. इन्द्र आदित्य  :यह भगवान सूर्य का प्रथम रूप  देवों के राजा के रूप में आदित्य स्वरूप हैं। इनकी शक्ति असीम है। इन्द्रियों पर इनका अधिकार है। शत्रुओं का दमन और देवों की रक्षा का भार इन्हीं पर है।इन्द्र को सभी देवताओं का राजा माना जाता है। वही वर्षा पैदा करता है और वही स्वर्ग पर शासन करता है। वह बादलों और विद्युत का देवता है। इन्द्र की पत्नी इन्द्राणी थी। छल-कपट के कारण इन्द्र की प्रतिष्ठा ज्यादा नहीं रही। इसी इन्द्र के नाम पर आगे चलकर जिसने भी स्वर्ग पर शासन करने के कारण इन्द्र  कहा जता है ।  तिब्बत के पास इंद्रलोक था। कैलाश पर्वत के कई योजन उपर स्वर्ग लोक है।इन्द्र किसी साधु और धरती के राजा को अपने से शक्तिशाली नहीं बनने देते थे। इसलिए वे कभी तपस्वियों को अप्सराओं से मोहित कर पथभ्रष्ट कर देते हैं , कभी राजाओं के अश्वमेध यज्ञ के घोड़े चुरा लेते हैं।
ऋग्वेद के तीसरे मंडल के वर्णनानुसार इन्द्र ने विपाशा (व्यास) तथा शतद्रु नदियों के अथाह जल को सुखा दिया जिससे भरतों की सेना आसानी से इन नदियों को पार कर गई। दशराज्य युद्ध में इन्द्र ने भरतों का साथ दिया था। सफेद हाथी पर सवार इन्द्र का अस्त्र वज्र है और वह अपार शक्ति संपन्न देव है। इन्द्र की सभा में गंधर्व संगीत से और अप्सराएं नृत्य कर देवताओं का मनोरंजन करते हैं। 2. धाताआदित्य  :धाता  आदित्य। को  श्रीविग्रह के रूप में जाना जाता है। ये प्रजापति के रूप में जाने जाते हैं। जन समुदाय की सृष्टि में इन्हीं का योगदान है। व्यक्ति सामाजिक नियमों का पालन नहीं करते और व्यक्ति धर्म का अपमान करता है उन पर इनकी नजर रहती है। इन्हें सृष्टिकर्ता भी कहा जाता है।
3. पर्जन्य आदित्य  :पर्जन्य तीसरे आदित्य  मेघों में निवास करते हैं। इनका मेघों पर नियंत्रण हैं। वर्षा के होने तथा किरणों के प्रभाव से मेघों का जल बरसता है। ये धरती के ताप को शांत करते हैं और फिर से जीवन का संचार करते हैं। इनके बगैर धरती पर जीवन संभव नहीं है । 4. त्वष्टा आदित्य :  श्रीत्वष्टा का निवास स्थान वनस्पति में है। पेड़-पौधों में यही व्याप्त हैं। औषधियों में निवास करने वाले हैं। इनके तेज से प्रकृति की वनस्पति में तेज व्याप्त है जिसके द्वारा जीवन को आधार प्राप्त होता है।त्वष्टा के पुत्र विश्वरूप। विश्वरूप की माता असुर कुल की थीं अतः वे चुपचाप असुरों का  सहयोग करते रहे है । एक दिन इन्द्र ने क्रोध में आकर वेदाध्ययन करते विश्वरूप का सिर काट दिया। इससे इन्द्र को ब्रह्महत्या का पाप लगा। इधर, त्वष्टा ऋषि ने पुत्रहत्या से क्रुद्ध होकर अपने तप के प्रभाव से महापराक्रमी वृत्तासुर नामक एक भयंकर असुर को प्रकट करके इन्द्र के पीछे लगा दिया। ब्रह्माजी ने कहा कि यदि नैमिषारण्य में तपस्यारत महर्षि दधीचि अपनी अस्थियां उन्हें दान में दें दें तो वे उनसे वज्र का निर्माण कर वृत्तासुर को मार सकते हैं। ब्रह्माजी से वृत्तासुर को मारने का उपाय जानकर देवराज इन्द्र देवताओं सहित नैमिषारण्य की ओर दौड़ पड़े थे । 5. पूषा आदित्य :  आदित्य पूषा का निवास अन्न में  है। समस्त प्रकार के धान्यों में ये विराजमान हैं। इन्हीं के द्वारा अन्न में पौष्टिकता एवं ऊर्जा आती है। अनाज में  स्वाद और रस मौजूद होता है वह इन्हीं के तेज से आता है। 6. अर्यमन आदित्य :  अर्यमा आदित्य  सौर-देवताओं में अर्यमन या अर्यमा को पितरों का देवता  कहा जाता है। आकाश में आकाशगंगा उन्हीं के मार्ग का सूचक है। सूर्य से संबंधित  देवता का अधिकार प्रात: और रात्रि के चक्र पर है।आदित्य का छठा रूप अर्यमा नाम से जाना जाता है। ये वायु रूप में प्राणशक्ति का संचार करते हैं। चराचर जगत की जीवन शक्ति हैं। प्रकृति की आत्मा रूप में निवास करते हैं। 7. भग आदित्य  : भग आदित्य  प्राणियों की देह में अंग रूप में विद्यमान हैं। ये भग देव शरीर में चेतना, ऊर्जा शक्ति, काम शक्ति तथा जीवंतता की अभिव्यक्ति करते हैं। 8. विवस्वान आदित्य : आदित्य विवस्वान अग्निदेव में भगवान सूर्य से   तेज व ऊष्मा व्याप्त है । कृषि और फलों का पाचन, प्राणियों द्वारा खाए गए भोजन का पाचन अग्नि द्वारा होता है। विवस्वान आदित्य के पुत्र  वैवस्वत मनु द्वारा वैवस्वत मन्वन्तर की स्थापना किया गया है । 9. विष्णु आदित्य  : विष्णु आदित्य द्वारा देवताओं के शत्रुओं का संहार करने वाले  हैं। वे संसार के समस्त कष्टों से मुक्ति कराने वाले हैं। विष्णु  आदित्य के रूप में विष्णु ने त्रिविक्रम के रूप में जन्म लिया था। त्रिविक्रम को विष्णु का वामन अवतार  दैत्यराज बलि के काल में हुए थे। विष्णु  आदित्य पत्नी  लक्ष्मी हैं । विष्णु आदित्य को पालनहार  व , क्योंकि प्रार्थना करने से  समस्याओं का निदान होता है। भगवान  विष्णु द्वारा  मानव या अन्य रूप में अवतार लेकर धर्म और न्याय की रक्षा किया जाता  हैं। विष्णु की पत्नी लक्ष्मी सुख, शांति और समृद्धि देती हैं। विष्णु आदित्य  ब्रह्मांड  का अणु है । 10. अंशुमान : अंशुमान आदित्य वायु रूप में  प्राण तत्व बनकर देह में विराजमान से जीवन सजग और तेज पूर्ण रहता है। 11. वरुण आदित्य : वरुण आदित्य जल तत्व का प्रतीक व  मनुष्य में विराजमान हैं । जीवन बनकर समस्त प्रकृति के जीवन का आधार हैं। जल के अभाव में जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती है। वरुण को असुर समर्थक कहा जाता है। वरुण देवलोक में सभी सितारों का मार्ग निर्धारित करते हैं। वरुण आदित्य देवताओं और असुरों को  सहायता करते हैं। ये समुद्र के देवता और विश्व के नियामक और शासक, सत्य का प्रतीक, ऋतु परिवर्तन एवं दिन-रात के कर्ता-धर्ता, आकाश, पृथ्वी एवं सूर्य के निर्माता है एवं  जादुई शक्ति माया है ।  वरुण  पारसी धर्म में ‘अहुरा मज़्दा’ कहलाए है । 12. मित्र आदित्य :  मित्र आदित्य द्वारा विश्व के कल्याण हेतु तपस्या करने वाले, साधुओं का कल्याण करने की क्षमता रखने वाले मित्र देवता और 12 आदित्य सृष्टि के विकास क्रम में महत्वपूर्ण समन्वय स्थापित करते हैं।
शाकद्वीप का स्वामी  महात्मा भव्य द्वारा शाकद्वीप को जलद ,कुमार ,सुकुमार ,मनिरक ,कुसुमोद ,गेदकी और महाद्रुम वर्ष अर्थात देश की स्थापना कर उदयगिरि , जलधार ,रैवतक ,श्याम ,अमभोगिरि ,आस्तिकेय  एवं केसरी पर्वत को शामिल किया गया था । शाकद्वीप में सुकुमारी , कुमारी ,नलिनी , रेणुका , इक्षु , धेनुका और गभस्ति नदियाँ प्रविहित है ।शाकद्वीप के निवासी भगवान सूर्य के 12 आदित्यों की उपासना करते है । शाकद्वीप में मग , मागध। , मानस और मंदग वर्ण द्वारा भगवान विष्णु आदित्य की उपासना करते है । शाकद्वीप में सौर धर्म का प्रारंभ मग ( ब्राह्मण ) द्वारा किया एवं भगवान सूर्य की उपासना के लिए 12 आदित्यों की उपासना स्थल की स्थापना की गई तथा आयुर्वेद का विकास भगवान सूर्य की पत्नी संज्ञा के पुत्र  देव वैद्य अश्विनी कुमार द्वारा  चिकित्सीय कार्यो को विस्तृत रूप में स्थापना की गयी थी । ऋग्वेद में अश्विनी कुमारों का उल्लेख है ।


   


बुधवार, सितंबर 22, 2021

संतान की सुरक्षा कवच जीवित्पुत्रिका ब्रत ...


सनातन धर्म की वाङ्गमय शास्त्रों में संतान की सुरक्षा एवं दीर्घायु का पर्व जीवित्पुत्रिका का उल्लेख है । जितिया निर्जला  उपवास कर माताओं द्वारा अपने पुत्रों की भलाई के लिए मनाया जाता है।  भारत के बिहार , झारखंड , उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल, नेपाल के  पूर्वी थारू और सुदूर-पूर्वी मधेसी लोगों द्वारा मानाया जाता है । बिक्रम संवत के अश्विन माह में कृष्ण पक्ष के सातवें से नौवें चंद्र दिवस तक तीन दिन तक चलने वाला पर्व  है। जिवितपुत्रिका के प्रथम दिन  माताएं स्नान करने के बाद पवित्र  भोजन ग्रहण करती हैं। जिवितपुत्रिका द्वितीय दिवस पर, निर्जला  उपवास,और तीसरे दिन व्रत का पारन के साथ समापन होता है । जितिया को जिउतिया , जीवित्पुत्रिका , जितिया , खुर जितिया , खरजिटिया , खैरजीतिया कहा गया है । जितिया ब्रतधारी माताएं जितिया पर्व के प्रथम दिन मडुआ की रोटी , नोनी की साग , सत्पुतिया की सब्जी , कोहड़े या परोर की पत्ती का प्रयोग एवं चावल कढ़ी का प्रयोग करती है । द्वितीय दिन निर्जला रहकर कुश से निर्मित जीमूतवाहन की पूजा उपासना और समापन के दिन चावल , चने और चावल के आटे से बना तोड़ा कढ़ी , नोनी की साग , मडुआ की रोटी , सत्पुतिया की सब्जी चील्ह पक्षी और सियार को अर्पित कर माताएं अपनी पुत्र की दीर्घायु पुत्र के अनुसार चना , नोनी की साग , खरे की बीज के साथ गाय की कच्चे दूध के साथ पारण करती है । चील्ह पक्षी और  मादा लोमड़ी नर्मदा नदी के समीप  हिमालय के जंगल में महिलाओं को पूजा करते और उपवास करते देखने के बाद उपवास कर जितिया ब्रत की थी । उपवास  के दौरान, लोमड़ी भूख के कारण बेहोश हो गई और चुपके से भोजन किया। दूसरी ओर, चील ने पूरे समर्पण के साथ व्रत का पालन किया था । परिणामस्वरूप, लोमड़ी से पैदा हुए सभी बच्चे जन्म के कुछ दिन बाद ही खत्म हो गए और चील की संतान लंबी आयु के लिए धन्य हो गई थी । गंधर्व के बुद्धिमान राज जीमूतवाहन शासक से संतुष्ट नहीं थे और परिणामस्वरूप जीमूत  अपने भाइयों को अपने राज्य की  जिम्मेदारियाँ दीं और अपने पिता की सेवा के लिए जंगल चले गए।  जंगल में भटकते हुए जीमूतवाहन को बुढ़िया विलाप करती हुई मिली थी ।  जीमूतवाहन ने बुढ़िया से रोने का कारण पूछा, जिस पर उसने उसे बताया कि वह नागवंशी के परिवार से है और उसका एक  बेटा है। संकल्प  के रूप में, प्रत्येक दिन,  नागवंशी के पुत्र   को पक्षी राज गरुड़ को भोजन के लिए भेजा जाता है । उसकी समस्या सुनने के बाद, जिमुतवाहन ने उसे सांत्वना दी और वादा किया कि वह अपने बेटे को जीवित वापस ले आएगा और गरुड़ से उसकी रक्षा करेगा। जीमूतवाहन ने  चारा के लिए गरुड़ को भेंट की जाने वाली चट्टानों के बिस्तर पर लेटने का फैसला करता है। गरुड़ अपनी अंगुलियों से लाल कपड़े से ढंके जिमुतवाहन को पकड़कर चट्टान पर चढ़ जाता है। गरुड़ को आश्चर्य होता है जब वह जिस व्यक्ति को फंसाता है वह प्रतिक्रिया नहीं देता है। वह जिमुतवाहन से उसकी पहचान पूछता है जिस पर वह गरुड़ को पूरे दृश्य का वर्णन करता है। गरुड़, जीमूतवाहन की वीरता और परोपकार से प्रसन्न होकर, नागवंशियों  से कोई और बलिदान नहीं लेने का वादा करता है। जिमुतवाहन की बहादुरी और उदारता के कारण, नागवंशियों की दौड़ बच गई थी ।  बच्चों के कल्याण और लंबे जीवन के लिए उपवास मनाया जाता है।
गंधर्व राज जीमूतकेतु का पुत्र जीमूतवाहन की पत्नी मलयवती थी । कथासरित्सार के अनुसार पर्वतराज हिमालय पर कांचनपुर में विद्याधरों का राजा जीमूतकेतु का पुत्र जीमूतवाहन का जन्म आश्विन कृष्ण अष्टमी तिथि को हुआ था । कंचनपुर में कुलपरम्परा से प्राप्त, सब मनोरथों को पूरा करने वाला कल्पवृक्ष की कृपा से गंधर्व राज जीमूतकेतु को जीमूतवाहन नामक परम दानी, कृपालु महापुरुष, धर्मात्मा पुत्र की प्राप्ति हुई थी । जीमूतवाहन के युवावस्था प्राप्त करने पर गंधर्वराज जीमूतकेतु ने सिंहासनारूढ़ कर तपस्या के लिए हाल दिए थे ।युवराज होने पर जीमूतवाहन ने कल्पवृक्ष के सम्बन्ध में सोचा- ''हमारे पूर्वजों ने अपने क्षुद्र स्वार्थ की पूर्ति के अतिरिक्त इस वृक्ष से कोई लाभ नहीं उठाया । मैं इससे अपना मनोरथ पूरा करूँगा ।'' यह विचार कर उसने कल्पवृक्ष से कहा- -''देव! मेरी एक कामना पूरी करें । मैं इस समस्त संसार को दरिद्रता से मुक्त देखना चाहता हूँ; इसलिए, भद्र, जाओ, मैं तुम्हें संसार को देता हूँ ।'' यह कहना था कि क्षण में ही कल्पवृक्ष ने आकाश में उठकर इतनी धन-वर्षा की कि पृथ्वी पर  दरिद्र नही  रहा था । प्राणियों पर दया दिखाने के कारण जीमूतवाहन का तीनों लोकों यश फैल गया । तब ईर्ष्या के कारण असहिष्णु हुए, उसके कुल-बन्धुओं ने जीमूतवाहन के राज्य को हथियाने के लिये युद्ध की तैयारी की । यह देखकर जीमूतवाहन ने अपने पिता को कहा-तात, आपके शस्त्र धारण करने पर किस शत्रु की शक्ति ठहर सकती है? किन्तु इस' नाशवान् पापी शरीर के लिये बन्धुओं को मारकर कौन राज्य की इच्छा करे? इसलिए कहीं अन्यत्र जाकर हम दोनों लोकों का सुख देने वाले धर्म का ही आचरण करें । राज्य के लोभी ये बन्धु-बान्धव आनन्द करें ।'' पिता ने कहा-''पुत्र, तेरे लिए ही राज्य है । यदि तू ही दया करके उसे छोड़ रहा है, तो मुझ वृद्ध को इससे क्या? '' इस प्रकार दयार्द्र होकर-जीमूतवाहन राज्य को त्याग कर मलयाचल पर चला गया, वहां आश्रम बना कर रहने लगा और माता-पिता की सेवा करने लगा । एक बार जीमूतवाहन एक मुनिपुत्र के साथ घूमता हुआ जंगल में देवि- मन्दिर देखने गया । वहाँ उसने भगवती पार्वती की आराधना के लिए आई हुई, अपनी सखियों के साथ बैठी वीणा बजाती हुई किसी सुन्दरी कन्या को देखा । कन्या  उसके प्रति आकर्षित हुई । जीमूतवाहन के पूछने पर, उसकी एक सखी ने उसका नाम और वंश बताते हुए कहा-यह मित्रावसु की बहन और सिद्धराज विश्वावसु की पुत्री मलयवती है ।'' सखी के पूछने पर मुनि-पुत्र ने भी जीमूतवाहन का नाम, वंश बता दिया । दूसरी सखी जीमूतवाहन का आतिथ्य-सत्कार करती हुई उसके लिए एक पुष्पमाला लाई । उसने प्रेम में भरकर उस माला को मलयवती के गले में डाल दिया । इतने में एक दासी ने आकर कहा-''राजकुमारी, तुझे माता ने बुलाया है ।'' यह संदेश पाकर मलयवती ने अपने प्रिय जीमूतवाहन के मुख से अपनी दृष्टि को बड़ी कठिनाई से किसी प्रकार हटाया और घर को चली । जीमूतवाहन  उसका ही ध्यान मन में रखे अपने आश्रम में आ गया । तब से दोनों प्रेम-पाश में बन्ध गए । सिद्धराज विश्वावसु यह जानकर बड़ा प्रसन्न हुआ कि महात्मा जीमूतवाहन यहाँ मलयाचल पर आकर रह रहा है । उसने अपने पुत्र मित्रावसु को जीमूतवाहन के पिता के पास भेजकर अपनी कन्या को जीमूतवाहन के साथ मलयवती का विवाह कर दिया गया । एक दिन जीमूतवाहन अपने साले मित्रावसु के साथ मलयपर्वत से .भ्रमण करता हुआ समुद्र-वेला देखने गया । भ्रमण करने के दौरान  अस्थियों का ढेर देख कर उसने मित्रावसु से पूछा-यह किन प्राणियों की .अस्थियों का ढेर है ।'' मित्रावसु ने कहा -''पक्षिराज गरुड़  द्वेष के कारण पाताल में प्रविष्ट होकर सदा नागों को खाता था । नागों खाता,  कुचलता और  डर के मारे अपने आप मर जाते । यह देखकर नागराज वासुकी ने सब नागों की समाप्ति की आशंका से गरुड़ को विनय- पूर्वक कहा-' 'पक्षिराज, मैं आपके आहार के लिए हर रोज एक-एक नाग को दक्षिण सागर के तट पर भेज दूंगा, आप पाताल में प्रवेश न करें । एकदम -ही सब नागों का नाश करने में आपका क्या लाभ है । '' स्वार्थदर्शी गरुड़ ने स्वीकार कर लिया । उसके बाद नित्यप्रति वासुकी द्वारा भेजे गये एक-एक नाग को खाने के कारण तथा खाए हुए नागों की ये अस्थियां काल-क्रम से संचित होने के कारण इतनी एकत्र पड़ी हैं ।''यह सुनकर दयानिधि जीमूतवाहन को बहुत दुःख हुआ । उसने मन में सोचा-यह कुटिल वासुकी कैसा है, जिसने-''मुझे ही पहले खालो' '-ऐसा न कहकर प्रतिदिन एक-एक नाग को शत्रु का आहार बनाया । और यह निर्दयी गरुड़ भी कैसा है, जो नित्य ऐसा पाप करता है । मैं आज ही अपने इस निस्सार शरीर से किसी नाग के प्राणों की रक्षा करूँ गा ।''इतने में उन दोनों को बुलाने के लिये दूत आया । ' मित्रावसु, तुम चलो । मैं पीछे आऊँगा,' ' यह कहकर और उसे घर की ओर भेजकर जब 'जीमूतवाहन स्वयं अकेला घूम रहा था तो उसने दूर से एक रोदनध्वनि सुनी । -वहां जाकर उसने देखा कि एक वृद्धा एक सुन्दर युवक के पास बैठी-है। पुत्र, शंखचूड़, मैं तुझे अब कहां देखूँगी । इस प्रकार वह विलाप कर रही थी ।' जीमूतवाहन ने शीघ्र जान लिया कि यह गरुड़ का बलि नाग है । उस दयावान्. महासत्व ने मन में कहा-''यदि इस नाशवान् देह से मैं इस दुःखी नाग को न बचाऊं मुझे धिक्कार है, मेरा जन्म निष्फल है ।'' यह विचार कर उसने वृद्धा से कहा-''माता, मत रो । मैं अपना शरीर देकर तेरे पुत्र को बचाऊँगा ।'' जीमूतवाहन के इतना कहने पर शंखचूड़ ने उसे कहा-''ऐ महात्मा, निश्चय ही आपने बड़ी कृपालुता प्रकट की है । मैं भी तो आपके शरीर के बदले अपने शरीर को बचाना नहीं चाहता । रत्न को खोकर पत्थर की कौन रक्षा करना चाहेगा । इस प्रकार मना करके वह अपनी माता को कहने लगा-' 'माता, तुम भी लौट जाओ । और जबतक वह गरुड़ नहीं आता, तब तक मैं समुद्र के तट पर जाकर भगवान् गोकर्ण को नमस्कार करके आता हूए ।'' शंखचूड़ गोकर्ण देव को प्रणाम करने के लिये चला गया । अचानक वायु की तीव्रता से वृक्षों को हिलता देखकर जीमूतवाहन ने सोचा कि गरुड़ के आगमन का समय आ गया है । वह स्वयं वध्यशिला पर चढ़ गया । शीघ्र ही अपने पंखों से आकाश को आच्छादित करता हुआ गरुड़ तेजी से आया । वह अपनी चोंच से जीमूतवाहन को पकड़ कर उठा ले गया और उसका सिर खाने' लगा । चोंच से उखाड़ने के कारण जीमूतवाहन का शिरोरत्न खून से भर गया । गरुड़ ने उसे फैंक दिया । संयोग से वह रत्न मलयवती के आगे आ गिरा । वह देखकर और सब कुछ समझकर बहुत व्याकुल हुई । उसने अपने सास-ससुर को दिखाया । पुत्र का शिरोरत्न देखकर बूढ़े मां-बाप भी आश्चर्य और शोक से भर गए । अपनी योग-विद्या से जीमूतकेतु ने सारा वृत्तान्त जान लिया, और अपनी पत्नी और पुत्र-वधू के साथ शीघ्र ही वहां पहुँच गया जहाँ गरुड़ जीमूतवाहन को खा रहा था । जब शंखचूड् गोकर्ण देव की वन्दना करके वापिस लौटा, उसने: वध्यशिला को रुधिर से भरा देखा । 'हा, महापाप हुआ है, मैं मारा गया! निश्चय ही उस दयालु महात्मा ने मेरे कारण निज को गरुड़ की भेंट चढ़ा दिया,-यह विचार कर वह बहुत दुःखी हुआ और लहू की धार का अनुसरण करता हुआ गरुड़ को ढूँढने लगा । जीमूतवाहन को हंसते-हंसते आत्मोत्सर्ग करते देखकर गरुड़ विचारने लगा-यह कोई अपूर्व प्राणी है, जौ इस प्रकार खाये जाने पर भी प्रसन्न है । यह नाग प्रतीत नहीं होता । पूछना चाहिये कि यह कौन है? '' गरुड़ को रुकते, देखकर जीमूतवाहन ने ही कहा-''पक्षीराज, खाना क्यों छोड़ दिया? अभी, मेरे शरीर पर मांस और रुधिर रहता है, इसे भी लो ।'' यह सुनकर गरूड़ ने बहुत आश्चर्य से पूछा-''तुम नाग नहीं हो, बताओ महात्मन् तुम कौन हो? '' जीमूतवाहन ने कहा 'मैं नाग ही हूँ । यह तुम्हारा कैसा प्रश्न है? तुम अपना काम करो ।'उन दोनों में यह बातचीत हो रही थी कि शंखचूड़ वहाँ आ पहुँचा । उसने दूर से ही पुकारा-''पक्षीराज, अनर्थ हो गया, मेरा अनर्थ हो गया! ?तुम्हें भी क्या भ्रम हुआ. नाग  वस्तुत: मैं हूँ । क्या तुम मेरे फण और जिह्वा को नहीं देख रहे? क्या इस देवजाति विद्याधर की सौम्य-आकृति तुम्हें दिखाई नहीं देती है'' । जीमूतवाहन के माता-पिता और पत्नी भी बहुत जल्दी इसी समय आ पहुंचे । अपने पुत्रको खूनसे लत-पथ देखकर वृद्ध माता-पिता विलाप करने लगे- ही पुत्र, हा वत्स! हाय गरूड़, तू ने बिना सोचे-विचारे यह क्या किया? '' गरुड़ यह सब सुनकर बहुत दुखी हुआ । वह सोचने लगा-हा, इसकी तीनों लोकों में कीर्ति है । मोहवश मैंने इसका भक्षण कर लिया । मेरे पाप का प्रायश्चित्त मेरे अग्नि-प्रवेश से भी न होगा ।'' वह इस प्रकार विचार-मग्न था, कि घावों की पीड़ा से जीमूतवाहन के प्राण निकल गए । उसके माता-पिता भारी दुख से चिल्लाने लगे । शंखचूड़ आत्मभर्त्सना करता रहा और मलयवती - देवी गौरी को उपालम्भ देती हुई दुख प्रकट करने लगी ।. इसी समय देवी गौरी साक्षात् प्रकट हुई-''पुत्री, दुखी मत हो यह कह कर उसने अपने कमण्डल से जीमूतवाहन पर अमृत छिड़का । इससे जीमूतवाहन सम्पूर्ण अंगों सहित पहले से भी अधिक ज्योति पाकर उठ खड़ा हुआ । ' 'मैं इसे अपने ही हाथों से विद्याधरों के चक्रवर्ती राज-पद पर अभिषिक्त करूँगी' '-यह कह कर देवी ने अपने कलश के जल से उसका अभिषेक कर  अन्तर्धान हो गई । आकाश से पुष्प-वृष्टि हुई, और आनन्द-ध्वनि से गगन मंडल गूँजने लगा ।तत्पश्चात् गरुड़ ने नम्रतापूर्वक जीमूतवाहन से कहा-' 'महाराज, मुझे आज्ञा करें । मुझ से वांछित वर मांगें । '' जीमूतवाहन ने कहा- '' आप नाग-भक्षण छोड़ दें और पहले: खाये हुए नाग भी जीवित हो जाये । '' गरुड़ ने 'एवमस्तु' कहा । वे नाग सब जी उठे, और गरूड़ ने नाग-भक्षण छोड़ दिया । जीमूतवाहन भगवती गौरी की कृपा से चिरकाल तक विद्याधरों का राजा रहे है ।
विक्रम पंचांग के अनुसार,  आश्विन मास  कृष्ण पक्ष अष्टमी तिथि मंगलवार 2078 दिनांक 28 सितंबर 2021 समय शाम 06 बजकर 16 मिनट से अष्टमी तिथि प्रारम्भ हो कर दिनांक 29 सितंबर 2021 बुधवार को समय रात्रि 08 बजकर 29 मिनट तक रहेगी और 08  बजकर 30 मिनट रात्रि से नवमी तिथि  प्रारम्भ होकर दिनांक 30 सितंबर 2021 को समाप्त होगी । जीवित्पुत्रिका व्रतधारी  माताएं संतान प्राप्ति ,  लंबी आयु एवं   संतान की खुशहाली के लिए निराहार और निर्जला व्रत रखती हैं । जीवित्पुत्रिका व्रत 28 सितंबर को नहाए खाए के साथ प्रारम्भ होगा । 29 सितंबर को पूरे दिन निर्जला व्रत रखा जाएगा और 30 सितंबर को व्रत का पारण किया जाएगा । भविष्य पुराण , गरुड़पुराण एवं महाभारत के अनुसार जीवित्पुत्रिका व्रत  को करने से संतान के सभी कष्ट दूर होते हैं । महाभारत काल में भगवान श्रीकृष्ण ने अपने पुण्य कर्मों को अर्जित करके उत्तरा के गर्भ में पल रहे शिशु को जीवनदान दिया था । जीतिया ब्रती स्नान करने के बाद सूर्य नारायण की प्रतिमा को स्नान कराएं. धूप, दीप से आरती करें और इसके बाद भोग लगाने के बाद  माताएं सप्तमी को खाना और जल ग्रहण कर व्रत की प्रारम्भ करती हैं । अष्टमी तिथि को पूरे दिन निर्जला व्रत रखने के बाद नवमी तिथि को व्रत का समापन किया जाता है । गन्धर्वराज जीमूतवाहन बड़े धर्मात्मा और त्यागी पुरुष थे. युवाकाल में ही राजपाट छोड़कर वन में पिता की सेवा करने चले गए थे । एक दिन भ्रमण करते हुए जीमूतवाहन ने  नागमाता के  विलाप करने का कारण पूछा था । नागमाता ने  बताया कि नागवंश गरुड़ से काफी परेशान है । वंश की रक्षा करने के लिए वंश ने गरुड़ से समझौता किया है कि वे प्रतिदिन उसे एक नाग खाने के लिए देंगे और इसके बदले वो हमारा सामूहिक शिकार नहीं करेगा । इस प्रक्रिया में आज उसके पुत्र को गरुड़ के सामने जाना है । नागमाता की पूरी बात सुनकर जीमूतवाहन ने उन्हें वचन दिया कि वे उनके पुत्र को कुछ नहीं होने देंगे और उसकी जगह कपड़े में लिपटकर खुद गरुड़ के सामने उस शिला पर लेट जाएंगे, जहां से गरुड़ अपना आहार उठाता है और उन्होंने ऐसा ही किया । गरुड़ ने जीमूतवाहन को अपने पंजों में दबाकर पहाड़ की तरफ उड़ चला । जब गरुड़ ने देखा कि हमेशा की तरह नाग चिल्लाने और रोने की जगह शांत है । उसने कपड़ा हटाकर जीमूतवाहन को पाया । जीमूतवाहन ने सारी कहानी गरुड़ को बता दी, जिसके बाद गरुड़ ने जीमूतवाहन को छोड़ दिया और नागों को न खाने का  वचन दिया है । गरुड़ द्वारा अमृत से मरे हुए नागवंशियों को जीवित कर दिया गया था । 

                       

सोमवार, सितंबर 20, 2021

पूर्वजों का पितृपक्ष...


वेदों , पुरणों एवं सनातन धर्म संस्कृति में पुर्वजो की याद एवं समर्पण श्रद्धा का पक्ष पितरपख  का उल्लेख है । पूर्वजों की आत्‍मा की शांति के लिए श्राद्ध करने के लिए  पितृ पक्ष सहस्त्रवर्ष से प्रारंभ है ।  15 दिनों का पितृपक्ष  में लोग अपने पूर्वजों को याद कर उनकी आत्‍मा की शांति के लिए पिंडदान, तर्पण, श्राद्ध कर्म कर पूर्वजों का आशीर्वाद पाकर जिंदगी में सफलता, सुख-समृद्धि पा सकें. वहीं पूर्वजों की नाराजगी कई मुसीबतों का कारण बनती है । पितृ पक्ष  विधिमत पालन करना आवश्यक है । शास्त्र के अनुसार अश्विन कृष्ण  प्रतिपदा से अमावस्या तक  पितृ पक्ष के 15 दिनों में पूर्वज अपने  परिजनों के पास रहने के लिए धरती पर आते हैं इसलिए व्‍यक्ति को ऐसे काम करने चाहिए जिससे पितृ प्रसन्‍न रहें । सूर्यास्‍त के बाद पितृ  श्राद्ध करना अशुभ होता है. पितृपक्ष में पितृ श्राद्ध में  बुरी आदतों, नशे, तामसिक भोजन , शराब-नॉनवेज, लहसुन-प्‍याज का सेवन नहीं करना , लौकी, खीरा, सरसों का साग और जीरा खाना चाहिए । पूर्वजों के प्रति सम्‍मान दिखाते हुए सादा जीवन जिएं. शुभ काम नहीं किया जाता है । व्‍यक्ति पिंडदान, तर्पण आदि करने वालों को ब्रह्मचर्य का पालन एवं  बाल और नाखून नहीं काटने , पशु-पक्षी को न सताएं और  पशु-पक्षी को भोजन देना आवश्यक है । ब्राह्राणों को पत्तल में भोजन कराएं और खुद भी पत्तल में भोजन करें । आश्विन कृष्ण प्रतिपदा से लेकर अमावस्या पंद्रह दिन पितृपक्ष (पितृ = पिता) में लोग अपने पितरों  को जल देते हैं तथा  मृत्युतिथि पर पार्वण श्राद्ध करते हैं। पिता-माता आदि पारिवारिक मनुष्यों की मृत्यु के पश्चात्‌ उनकी तृप्ति के लिए श्रद्धापूर्वक किए जाने वाले कर्म को पितृ श्राद्ध कहते हैं। श्रद्धया इदं श्राद्धम्‌ (जो श्रद्धा से किया जाये, वह श्राद्ध है।) भावार्थ यह है कि प्रेत और पितर के निमित्त,  आत्मा की तृप्ति के लिए श्रद्धापूर्वक  अर्पित करने की प्रक्रिया श्राद्ध  श्राद्ध है। सनातन  धर्म शास्त्रों में पितरों का उद्धार करने के लिए पुत्र की अनिवार्यता मानी गई हैं। जन्मदाता माता-पिता को मृत्यु-उपरांत लोग विस्मृत नही कर उनका श्राद्ध करने का विशेष विधान है। भाद्रपद पूर्णिमा से आश्विन कृष्णपक्ष अमावस्या तक के सोलह दिनों को पितृपक्ष में  पूर्वजों की सेवा करते हैं।आश्विन कृष्ण प्रतिपदा से लेकर अमावस्या तक ब्रह्माण्ड की ऊर्जा तथा उस उर्जा के साथ पितृप्राण पृथ्वी पर व्याप्त रहता है। धार्मिक ग्रंथों में मृत्यु के बाद आत्मा की स्थिति का बड़ा सुन्दर और वैज्ञानिक विवेचन मिलता है। मृत्यु के बाद दशगात्र और षोडशी-सपिण्डन तक मृत व्यक्ति की प्रेत संज्ञा रहती है। पुराणों के अनुसार  सूक्ष्म शरीर जो आत्मा भौतिक शरीर छोड़ने पर धारण करती है प्रेत होती है। प्रिय के अतिरेक की अवस्था "प्रेत" है क्यों की आत्मा सूक्ष्म शरीर धारण करती है परंतु  मोह, माया भूख और प्यास का अतिरेक होता है। सपिण्डन के बाद वह प्रेत, पितरों में सम्मिलित  है। पितृपक्ष भर में जो तर्पण किया जाता है उससे वह पितृप्राण स्वयं आप्यापित होता है। पुत्र या  परिवार  यव (जौ) तथा चावल का पिण्ड देता है, उसमें से अंश लेकर वह अम्भप्राण का ऋण चुका देता है। आश्विन कृष्ण प्रतिपदा से  चक्र उर्ध्वमुख होने लगता है। 15 दिन अपना-अपना भाग लेकर शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से पितर उसी ब्रह्मांडीय उर्जा के साथ वापस चले जाते हैं। पुरणों , रामायण में भगवान श्री राम के द्वारा श्री दशरथ को गोदावरी नदी इन जलांजलि एवं गया में पितृपक्ष में पितृ श्राद्ध और जटायु को गोदावरी नदी पर जलांजलि  एवं भरत जी के द्वारा दशरथ हेतु दशगात्र  किया गया  है। श्रीमद भागवत एवं महाभारत के यानुसर द्वापरयुग में पांडवों द्वारा गया में अपने पूर्वजो को जलांजलि ईवा गया श्राद्ध कर पूर्वजों को तृप्त किया गया है । धर्मग्रंथों के अनुसार मनुष्य पर पितृ ऋण, देव ऋण तथा ऋषि ऋण है ।  पितृ ऋण सर्वोपरि है। पितृ ऋण में पिता ,   माता तथा पूर्वज सम्मिलित हैं, जिन्होंने हमें अपना जीवन धारण करने तथा उसका विकास करने में सहयोग दिया। गया श्राद्ध के संबंध में गरुड़ पुराण , भविष्यत पुराण में उल्लेख किया गया है कि  ‘गया सर्वकालेषु पिण्डं दधाद्विपक्षणं’ कहकर सदैव पिंडदान करने है। एकैकस्य तिलैर्मिश्रांस्त्रींस्त्रीन् दद्याज्जलाज्जलीन्। यावज्जीवकृतं पापं तत्क्षणादेव नश्यति। अर्थात्  अपने पितरों को तिल-मिश्रित जल की तीन-तीन अंजलियाँ प्रदान करते हैं, उनके जन्म से तर्पण के दिन तक के पापों का नाश हो जाता है।दिव्य पितृ तर्पण, देव तर्पण, ऋषि तर्पण और दिव्य मनुष्य तर्पण के पश्चात्  स्व-पितृ तर्पण  भाद्रपद पूर्णिमा से आश्विन कृष्णपक्ष अमावस्या तक के सोलह दिनों तक तरपान की प्रक्रिया को को पितृपक्ष कहते हैं। शास्त्रों के अनुसार पितृपक्ष में अपने पितरों के निमित्त  अपनी शक्ति सामर्थ्य के अनुरूप शास्त्र विधि से श्रद्धापूर्वक श्राद्ध करता है सकल मनोरथ सिद्ध और घर-परिवार, व्यवसाय तथा आजीविका में हमेशा उन्नति होती है। पितृ दोष में  परिवार में किसी की अकाल मृत्यु होने ,  अपने माता-पिता आदि सम्मानीय जनों का अपमान करने से, मरने के बाद माता-पिता का उचित ढंग से क्रियाकर्म और श्राद्ध नहीं करने , निमित्त वार्षिक श्राद्ध आदि न करने से पितरों को दोष लगता है। पितृ दोष से  परिवार में अशांति, वंश-वृद्धि में रूकावट, आकस्मिक बीमारी, संकट, धन में बरकत न होना, सारी सुख सुविधाएँ ,  मन असन्तुष्ट रहना आदि पितृ दोष हैं।मत्स्य पुराण में त्रिविधं श्राद्ध मुच्यते के अनुसार मत्स्य पुराण में  नित्य, नैमित्तिक एवं काम्य श्राद्ध कहते हैं।यमस्मृति में पांच प्रकार के श्राद्धों का वर्णन है। नित्य, नैमित्तिक, काम्य, वृद्धि और पार्वण के नाम से श्राद्ध है।नित्य श्राद्ध- प्रतिदिन किए जानें वाले श्राद्ध को नित्य श्राद्ध कहते हैं।  श्राद्ध में विश्वेदेव को स्थापित नहीं किया जाता। यह श्राद्ध में केवल जल से श्राद्ध को सम्पन्न किया जाता है। नैमित्तिक श्राद्ध- किसी को निमित्त बनाकर श्राद्ध करने वालों को   नैमित्तिक श्राद्ध , एकोद्दिष्ट  है। एकोद्दिष्ट का मतलब किसी एक को निमित्त मानकर किए जाने वाला श्राद्ध जैसे किसी की मृत्यु हो जाने पर दशाह, एकादशाह आदि एकोद्दिष्ट श्राद्ध के अन्तर्गत आता है।  विश्वेदेवोंको स्थापित नहीं किया जाता। काम्य श्राद्ध-  कामना की पूर्ति के निमित्त श्राद्ध किया जाता है। वृद्धि श्राद्ध- पुत्र जन्म, वास्तु प्रवेश, विवाहादि प्रत्येक मांगलिक प्रसंग में पितरों की प्रसन्नता हेतु  श्राद्ध होता है उसेवृद्धि श्राद्ध कहते हैं। नान्दीश्राद्ध या नान्दीमुखश्राद्ध कहा जाता है । दैनंदिनी जीवन में देव-ऋषि-पित्र तर्पण भी किया जाता है।
पार्वण श्राद्ध- पितृपक्ष, अमावास्या या पर्व की तिथि आदि पर किया जाने वाला श्राद्ध पार्वण श्राद्ध है। पर्वन श्राद्ध विश्वेदेवसहित होता है। सपिण्डनश्राद्ध- सपिण्डनशब्द का अभिप्राय पिण्डों को मिलाना। पितर में ले जाने की प्रक्रिया सपिण्डनहै। प्रेत पिण्ड का पितृ पिण्डों में  श्राद्ध सामूहिक रूप से या समूह में सम्पन्न किए जाते हैं उसे गोष्ठी श्राद्ध कहते हैं। शुद्धयर्थश्राद्ध- शुद्धि के निमित्त जो श्राद्ध किए जाते हैं।  शुद्धि हेतु ब्राह्मण भोजन कराना चाहिए। कर्मागश्राद्ध- प्रधान कर्म के अंग के रूप में श्राद्ध सम्पन्न किए जाते हैं। यात्रार्थश्राद्ध- यात्रा के उद्देश्य से किया जाने वाला श्राद्ध यात्रार्थश्राद्ध कहलाता है। जैसे- तीर्थ में जाने के उद्देश्य से या देशान्तर जाने के उद्देश्य से जिस श्राद्ध को सम्पन्न कराना चाहिए वह यात्रार्थ श्राद्ध  है। पुष्ट्यर्थश्राद्ध- पुष्टि के निमित्त जो श्राद्ध सम्पन्न हो, जैसे शारीरिक एवं आर्थिक उन्नति के लिए किया जाना वाला श्राद्ध पुष्ट्यर्थश्राद्ध कहलाता है।धर्मसिन्धु के अनुसार श्राद्ध के ९६ अवसर बतलाए गए हैं। ' पुणादितिथियां ,'मन्वादि तिथियां , संक्रान्तियां वैधृति योग , व्यतिपात योग (12) पितृपक्ष (15), अष्टकाश्राद्ध (5) अन्वष्टका (5) तथा पूर्वेद्यु:(5) कुल मिलाकर श्राद्ध के यह ९६ अवसर प्राप्त होते हैं।एकोदिष्ट श्राद्ध, पार्वण श्राद्ध, नाग बलि कर्म, नारायण बलि कर्म, त्रिपिण्डी श्राद्ध, महालय श्राद्ध पक्ष में श्राद्ध हेतु विभिन्न संप्रदायों अपनी कुल-परंपरा के अनुसार पितरों की तृप्ति हेतु श्राद्ध कर्म अवश्य करना चाहिए। श्राद्ध कर्म महालय श्राद्ध पक्ष में पितरों के निमित्त घर में क्या कर्म करना चाहिए। बिहार के गयाजिले का गया में  श्राद्ध तर्पण हेतु  विष्णुपद मंदिर  स्थान स्वयं भगवान विष्णु के चरण पितर के रूप में अमूर्तजा उपस्थित है ।गया में फल्गु नदी , ब्रह्मयोनि , प्रेतशिला , कागबलि , अक्षयवट , बोधगया , , ब्रह्मसरोवर " है। मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान राम ने  स्थान पर अपने पिता राजा दशरथ का पिंड दान किया था।  स्वायम्भुव मनु के  मन्वन्तर के  कीकट प्रदेश एवं सप्तम मनु वैवस्वत मनु के मन्वन्तर में वैवस्वतमनु की पुत्री की पुत्री इला  तथा वृहस्पति की पत्नी एवं चंद्रमा के संसर्ग सेउत्पन्न बुध के पुत्र  मागध देश का राजा ‘गय’ भगवान विष्णु का महान भक्त था । भगवान विष्णु ने गय द्वारा गया का का निर्माण किया गया था । भगवान विष्णु द्वारा यज्ञ अवतार लेकर गयासुर के वक्षस्थल पर स्थित राह कर यज्ञ किया गया था और वरदान दिया था कि गया में रहने वाले या पूर्वजों की श्रद्धा से श्राद्ध करेगा उसे सर्वांगी सुख की प्रति तथा पितृऋण से मुक्ति मिलेगी ।   गया में  भगवान विष्णु ने अश्विन कृष्ण प्रतिपदा को  भगवान यज्ञावतार और देवों द्वारा 15 दिनों तक यज्ञ करने , पूर्वजों का श्रद्धासुमन अर्पिपत किया गया था । गया में भगवान विष्णु यज्ञावतार , ब्रह्मा जी ने यज्ञ का आह्वान , भगवान शिव  , धर्मराज , यमराज , माता काली , सरस्वती , काली , सभी देव , दानव , दैत्य , नाग ,अप्सराएं , गंधर्व ऋषि , महर्षि गयासुर के वक्ष स्थल पर विष्णु यज्ञ में शामिल हुए और गयासुर को वरदान दिया कि गया में यज्ञावतार , पितरों में अमूर्तजा कई उपासना तथा श्राद्ध करने वालों को पितृऋण , गुरु , ऋषि , देव ऋण से मुक्ति मिलेगी ।गया  तीर्थस्थान को श्रद्धा और आदर से "गया जी" कहा गया है। पितृपक्ष में पूर्वजों के प्रति श्रध्दा और विश्वास तथा पितृ ऋण , देव ऋण , ऋषि ऋण , पितृ दोष से मुक्ति और भुक्ति , सर्वांग सुख प्राप्ति के लिए गया श्राद्ध कर्ता सर्व प्रथम पुनपुन नदी में छौर कर्म करने के पश्चात पुनपुन नदी में पूर्वजों को जलांजलि और पिंड अर्पित करने के बाद गया श्राद्ध करने का प्रावधान है । गया में गया श्राध्द करने के बाद अपने निवास पर भंडारे में श्रीमद्भागवत का सात दिन तक  श्रवण कर परिवारों , इष्ट मित्रों के साथ भोजनादि करने का प्रावधान है ।






  

शुक्रवार, सितंबर 17, 2021

लोक निर्माण का पर्व अनंत पूजा ...


    भारतीय संस्कृति में भगवान विष्णु द्वारा स्थापित 14 त्रिभुवन एवं अपनी रूप में जनकल्याण तथा संस्कृति की रक्षा के लिए निर्माण किया गया था ।भाद्रपद , शुक्लपक्ष की चतुर्दशी को सनातन धर्म में  अनन्त चतुर्दशी और जैन धर्म में अनंत चौदस , अनंतसुत्रोत्सव कहा जाता है । पाण्डव जुए में  राज-पाट हारकर वन में कष्ट भोगने के दौरान  भगवान श्रीकृष्ण ने पांडवों को  अनन्त चतुर्दशीका व्रत करने की सलाह दी थी। धर्मराज युधिष्ठिर ने अपने भाइयों तथा द्रौपदीके साथ पूरे विधि-विधान से यह व्रत किया तथा अनन्त सूत्र धारण किया। अनन्तचतुर्दशी-व्रतके प्रभाव से पाण्डव सब संकटों से मुक्त हुए थे । व्रत-विधान-व्रतकर्ता प्रात:स्नान करके व्रत का संकल्प करें। शास्त्रों में यद्यपि व्रत का संकल्प एवं पूजन किसी पवित्र नदी या सरोवर के तट पर करने का विधान है, तथापि ऐसा संभव न हो सकने की स्थिति में घर में पूजागृह की स्वच्छ भूमि पर कलश स्थापित करें। कलश पर शेषनाग की शैय्यापर लेटे भगवान विष्णु की मूíत अथवा चित्र को रखें। उनके समक्ष चौदह ग्रंथियों (गांठों) से युक्त अनन्तसूत्र (डोरा) रखें। इसके बाद ॐ अनन्तायनम: मंत्र से भगवान विष्णु तथा अनंतसूत्रकी षोडशोपचार-विधिसे पूजा करें। पूजनोपरांत अनन्त सूत्र को मंत्र पढकर पुरुष अपने दाहिने हाथ और स्त्री बाएं हाथ में बांध लेना चाहिए । 
अनंन्तसागरमहासमुद्रेमग्नान्समभ्युद्धरवासुदेव । अनंतरूपेविनियोजितात्माह्यनन्तरूपायनमोनमस्ते॥
 अनंतसूत्रबांध लेने के पश्चात  ब्राह्मण को नैवेद्य में निवेदित पकवान देकर स्वयं सपरिवार प्रसाद ग्रहण करे । अनंत कथा - सत्ययुग में सुमन्तु के मुनि की पुत्री शीलाअत्यंत सुशील थी। सुमन्तु मुनि ने शीला  का विवाह कौण्डिन्यमुनि से किया। कौण्डिन्यमुनि अपनी पत्नी शीला को लेकर जब ससुराल से घर वापस लौट रहे थे, तब रास्ते में नदी के किनारे  स्त्रियां अनन्त भगवान की पूजा करते दिखाई पडीं। शीला ने अनन्त-व्रत का माहात्म्य जानकर उन स्त्रियों के साथ अनंत भगवान का पूजन करके अनन्तसूत्रबांध लिया। इसके फलस्वरूप थोडे ही दिनों में उसका घर धन-धान्य से पूर्ण हो गया। एक दिन कौण्डिन्य मुनि की दृष्टि अपनी पत्नी के बाएं हाथ में बंधे अनन्तसूत्रपर पडी, जिसे देखकर वह भ्रमित हो गए और उन्होंने पूछा-क्या तुमने मुझे वश में करने के लिए यह सूत्र बांधा है? शीला ने विनम्रतापूर्वक उत्तर दिया-जी नहीं, यह अनंत भगवान का पवित्र सूत्र है। परंतु ऐश्वर्य के मद में अंधे हो चुके कौण्डिन्यने अपनी पत्नी की सही बात को  गलत समझा और अनन्तसूत्रको जादू-मंतर वाला वशीकरण करने का डोरा समझकर तोड दिया तथा उसे आग में डालकर जला दिया। इस जघन्य कर्म का परिणाम शीघ्र ही सामने आ गया। उनकी सारी संपत्ति नष्ट हो गई। दीन-हीन स्थिति में जीवन-यापन करने में विवश हो जाने पर कौण्डिन्यऋषि ने अपने अपराध का प्रायश्चित करने का निर्णय लिया। वे अनन्त भगवान से क्षमा मांगने हेतु वन में चले गए। उन्हें रास्ते में  मिलता वे उससे अनन्तदेवका पता पूछते जाते थे। खोजने पर  कौण्डिन्यमुनि को जब अनन्त भगवान का साक्षात्कार नहीं हुआ, तब वे निराश होकर प्राण त्यागने को उद्यत हुए। तभी एक वृद्ध ब्राह्मण ने आकर उन्हें आत्महत्या करने से रोक दिया और एक गुफामें ले जाकर चतुर्भुज अनन्तदेव का दर्शन कराया। भगवान अनंत  ने मुनि से कहा-तुमने जो अनन्तसूत्रका तिरस्कार किया है, यह सब उसी का फल है। इसके प्रायश्चित हेतु तुम चौदह वर्ष तक निरंतर अनन्त-व्रत का पालन करो। इस व्रत का अनुष्ठान पूरा हो जाने पर तुम्हारी नष्ट हुई सम्पत्ति तुम्हें पुन:प्राप्त हो जाएगी और तुम पूर्ववत् सुखी-समृद्ध हो जाओगे। कौण्डिन्यमुनि ने भगवान अनंत  आज्ञा को सहर्ष स्वीकार कर लिया। भगवान ने आगे कहा-जीव अपने पूर्ववत् दुष्कर्मोका फल ही दुर्गति के रूप में भोगता है। मनुष्य जन्म-जन्मांतर के पातकों के कारण अनेक कष्ट पाता है। अनन्त-व्रत के सविधि पालन से पाप नष्ट होते हैं तथा सुख-शांति प्राप्त होती है। कौण्डिन्यमुनि ने चौदह वर्ष तक अनन्त-व्रत का नियमपूर्वक पालन करके खोई हुई समृद्धि को पुन:प्राप्त कर लिया।महाभारत  के अनुसार महाभारत काल से अनंत चतुर्दशी व्रत की शुरुआत हुई। यह भगवान विष्णु का दिन माना जाता है। भगवान  अनंत ने सृष्टि के आरंभ में चौदह लोकों की रचना की थी। भगवान् श्रीहरि विष्णु द्वारा  1. तल, 2. अतल, 3. वितल, 4. सुतल, 5. तलातल, 6. रसातल, 7. पाताल, 8. भू, 9. भुवः, 10. स्वः, 11. जन, 12. तप,13. सत्य, 14. मह कुल चौदह लोक , त्रिभुवन का निर्माण किया गया था । भगवान् श्रीहरि विष्णु ने 1. अनंत, 2. ऋषिकेश, 3. पद्मनाभ, 4. माधव, 5. वैकुंठ, 6. श्रीधर, 7. त्रिविक्रम, 8. मधुसुदन, 9. वामन, 10. केशव, 11. नारायण, 12. दामोदर, 13. गोविन्द, 14. श्रीहरि नाम से विभिन्न त्रिभुवन में विराजमान है । लोकों का पालन और रक्षा करने के लिए भगवान विष्णु  चौदह रूपों में प्रकट हुए थे । अनंत पूजा में  श्री विष्णु सहस्त्रनाम स्तोत्र का पाठ करने पर समस्त मनोकामना पूर्ण ,  धन-धान्य, सुख-संपदा और संतान आदि की कामना से अनंत व्रत किया जाता है। अनंत चतुर्दशी के उपासक 14 सूत्र गांठ का अनंत , पंचामृत , 14 फल , 14 पकवान आदि पुष्प अर्पित करते हैं । बिहार , उत्तरप्रदेश एवं झारखंड तथा भारतीय लोग भगवान अनंत की उपासना करते है । बिहार के जहानाबाद जिले के बराबर पर्वत समूह के सूर्यान्क गिरि पर अनंत चतुर्दशी के अवसर पर श्रद्धालुओं द्वारा विशेष पूजा की जाती है ।



गुरुवार, सितंबर 16, 2021

प्रकृति पूजन करमा...


    भारतीय संस्कृति में प्रकृति पूजा करमा और एकादशी का उल्लेख है । मानवीय जीवन को चतुर्दिक विकास के लिए सनातन धर्म ग्रंथों में करमा , झार पूजा , कर्म एकादशी , परिवर्तनी एकादशी  का वर्णन है। शास्त्रों के अनुसार करमा पर्व प्रकृति , वृक्षों, पौधों, झारों का पर्व मानवीय जीवन में सर्वांगीण विकास का माध्यम है । भाद्रपद शुक्ल एकादशी को झारखण्ड, बिहार, ओड़िशा, पश्चिम बंगाल , मध्यप्रदेश , उत्तरप्रदेश , छत्तीसगढ़ एवं भारत तथा विदेशों का  करमा त्यौहार है। भाद्रपद मास शुक्लपक्ष एकादशी को लोग प्रकृति की पूजा कर अच्छे फसल की कामना करते एवं बहनें अपने भाइयों की सुरक्षा के लिए प्रार्थना करती हैं। करम पर उपासक ढोल और मांदर की थाप पर झूमते-गाते हैं। कर्म उपासक  उपवास के पश्चात करमवृक्ष का या उसके शाखा को घर के आंगन में रोपित करते हैं और दूसरे दिन कुल देवी-देवता को नवान्न देकर उपभोग शुरू होता है। करम नृत्य को नई फ़सल आने की खुशी में लोग नाच-गाकर मनाया जाता है। छत्तीसगढ़ और झारखण्ड के आदिवासी और ग़ैर-आदिवासी  लोक मांगलिक नृत्य मानते हैं। करम पूजा नृत्य, सतपुड़ा और विंध्य की पर्वत श्रेणियों एवं गावों में प्रचलित है। शहडोल, मंडला के गोंड और बैगा एवं बालाघाट और सिवनी के कोरकू तथा परधान जातियाँ करम के  कई रूपों को आधार बना कर नाचती हैं। बैगा कर्मा, गोंड़ करम और भुंइयाँ कर्मा आदि नृत्य माना जाता है। छत्तीसगढ़ के लोक नृत्य में गोड़ के  माता ‘करमसेनी देवी’ का अवतार एवं घसिया के घर में माना गया है। कर्म उपासक   बर्तन में बालू भरकर उसे बहुत ही कलात्मक तरीके से सजाया जाता है। पर्व शुरू होने के कुछ दिनों पहले उसमें जौ डाल दिए जाते हैं, इसे 'जावा' कहा जाता है। बहनें अपने भाइयों की सलामती के लिए इस दिन व्रत रखती हैं। इनके भाई 'करम' वृक्ष की डाल लेकर घर के आंगन या खेतों में गाड़ते हैं। इसे वे प्रकृति के आराध्य देव मानकर पूजा करते हैं। पूजा समाप्त होने के बाद वे इस डाल को पूरे धार्मिक रीति‍ से तालाब, पोखर, नदी आदि में विसर्जित कर देते हैं। करम की मनौती मानने वाले दिन भर उपवास रख कर अपने सगे-सम्बंधियों व अड़ोस पड़ोसियों को निमंत्रण देता है तथा शाम को करम वृक्ष की पूजा कर टँगिये कुल्हारी के एक ही वार से कर्मा वृक्ष के डाल को काटा दिया जाता है और उसे ज़मीन पर गिरने नहीं दिया जाता। तदोपरांत उस डाल को अखरा में गाड़कर स्त्री-पुरुष बच्चे रात भर नृत्य करते हुए उत्सव मानते  हैं और सुबह पास के किसी नदी में विसर्जित कर दिया जाता हैं। बिहार के विभिन्न क्षेत्रों में करमा त्योहार के अवसर पर भाई द्वारा झार और करम लाया जाता है । बहने अपने भाई की निरोगता एवं सर्वांग समृद्धि के लिए  झार की पूजा करती है । झार पूजन में करमा साग , पुष्प , खीरा आदि प्रकृति द्वारा उलब्ध कराई गई दूर्वा अर्पित करते है । महिलाएं , बहने करमा और झार समक्ष अपने भाई और स्वम सर्वांगीण विकास के लिए प्रार्थना करते हैं । करमा पर्व को मगध में करम जुड़ाई  पर्व मनाया जाता है । 
करमा को परिवर्तिनी एकादशी का व्रत करने से दूसरे लोगों के बीच आपका वर्चस्व कायम होगा और आपके सुख सौभाग्य में बढ़ोतरी होती है । भाद्रपद शुक्ल पक्ष की एकादशी को पद्मा एकादशी का व्रत करने का विधान है। वहीं मध्यप्रदेश में  दोल ग्यारस कहा  जाता है। भगवान  विष्णु शयन शैय्या पर सोते हुए करवट लेने के कारण  परिवर्तिनी एकादशी  कहते हैं।  भगवान श्री विष्णु के वामन स्वरूप की पूजा की जाती है । माता यशोदा ने भगवान श्री विष्णु के वस्त्र धोने से एकादशी को 'जलझूलनी एकादशी' कहा गया है। परिवर्तिनी एकादशी का व्रत करने से दूसरे लोगों के बीच आपका वर्चस्व कायम होगा और आपके सुख सौभाग्य में बढ़ोतरी होगी, साथ ही आपको अपने कार्यों में सफलता मिलेगी। परिवर्तिनी एकादशी के दिन श्री विष्णु को पालकी में बिठाकर शोभा यात्रा निकाली जाती है।  भगवान विष्णु के निमित्त व्रत करने का और विधि-पूर्वक  पूजा करने का विधान तथा  सप्त  अनाज (गेहूं, उडद, मूंग, चना, जौ, चावल और मसूर ) को मिट्टी के बर्तन भरकर रखने और अगले दिन उन्हीं बर्तनों को अनाज समेत दान करने का परंपरा है । महाभारत में उल्लेख है कि श्रीकृष्ण ने अर्जुन को एकादशी के व्रत के महामात्य के  अनुसार त्रेतायुग में बलि नाम का असुर था। असुर होने के बावजूद वे धर्म-कर्म में लीन रहता था और लोगों की काफी मदद और सेवा करता था। इस करके वो अपने तप और भक्ति भाव से बलि देवराज इंद्र के बराबर आ गया। जिसे देखकर देवराज इंद्र और अन्य देवता भी घबरा गए। उन्हें लगने लगा कि बलि कहीं स्वर्ग का राजा न बन जाए। ऐसा होने से रोकने के लिए इंद्र ने भगवान विष्णु की शरण ली और अपनी चिंता उनके सम्मुख रखी। इतना ही नहीं, इंद्र ने भगवान विष्णु से रक्षा की प्रार्थना की। इंद्र की इस समस्या के समाधान के लिए भगवान विष्णु ने वामन रूप धारण किया और राजा बलि के सम्मुख प्रकट हो गए। वामन रूप में भगवान विष्णु ने विराट रूप धारण कर एक पांव से पृथ्वी, दूसरे पांव की एड़ी से स्वर्ग और पंजे से ब्रह्मलोक को नाप लिया। अब भगवान विष्णु के पास तीसरे पांव के लिए कुछ बचा ही नहीं। तब राजा बलि ने तीसरा पैर रखने के लिए अपना सिर आगे कर दिया। भगवान वामन ने तीसरा पैर उनके सिर पर रख दिया। भगवान वामन ने  राजा बलि की दान शीलता से प्रसन्न हो कर राजा बलि को पाताल लोक का राजा बनने का वरदान दिया था । भगवान विष्णु के वामन अवतार सर्वजीत संबत्सर भाद्रपद शुक्ल द्वादशी शुक्रवार श्रवण नक्षत्र शोभन योग में हुआ था । करमा उपासक कर्म और धर्म की उपासना कर मनोवांक्षित फल की प्राप्ति करते है । 


बुधवार, सितंबर 15, 2021

दिव्य ज्ञान देवी बेला की माता काली...


    पुरणों और उपनिषदों के अनुसार मागधीय संस्कृति में सनातन धर्म का शाक्त सम्प्रदाय में शक्ति की उपासना का उल्लेख किया गया है।  तंत्र और मंत्र का स्थल पर माता महाकाली , माह लक्ष्मी और महासरस्वती की उपासना की जाती है । बिहार के गया जिले का बेलागंज प्रखंड के पटना गया रेल खंड और पटना गया रोड के किनारे बेला का काली मंदिर के गर्भगृह में स्थित माता विभूक्षणि की अद्भुत प्रतिमा स्थित है । दैत्य राज विरोचन के पौत्र एवं दैत्यराज बलि की पत्नी आशना के  औरस पुत्र पताल लोक का स्वामी दैत्यराज बाण अपनी पत्नी अनौपन्या के साथ पाताल लोक की राजधानी शोणितपुर में रहता था । शोणितपुर को शवपुरी , लोहितपुर कहा गया है । बाण को बाणासुर , सहस्त्रबाहु ,भूतराज ,महाकाल के रूप में कहा गया है मत्स्यपुराण , ब्रह्मपुराण ,हरिवंश पुराण के विष्णुपर्व में ललितराज बाली बाली की पत्नी हंसना वायन के पुत्र बाणासुर ज्येष्ठ, शिवपार्षद, परमपराक्रमी योद्धा और पाताललोक का प्रसिद्ध असुरराज  महाकाल, सहस्रबाहु तथा भूतराज कहा गया है। किरट प्रदेश की राजधानी शोणपुरी, शोणितपुर अथवा लोहितपुर  राजधानी थी। असुरों के उत्पात से त्रस्त ऋषियों की रक्षा के क्रम से शंकर ने अपने तीन फलवाले बाण से असुरों की विख्यात तीनों पुरियों को बेध दिया तथा अग्निदेव ने उन्हें भस्म करना आरंभ किया । इसने पूजा से शंकर को अनुकूल कर अपनी राजधानी बचा ली थी (मत्स्य., 187-88; ह.पु., 2/116-28; पद्म., स्व., 14-15)। फिर इसने शंकरपुत्र बनने की इच्छा से घोर तपस्या की। प्रसन्न होकर शिव ने इसे कार्तिकेय के जन्मस्थान का अधिपति बनाया था (ह.पु. 2/116-22)। शिव के तांडव नृत्य में भाग लेने से शंकर ने प्रसन्न होकर इसकी रक्षा का बीड़ा उठाया था।
उषा अनिरुद्ध की पुराणप्रसिद्ध प्रेमकथा की नायिका इसी की कन्या थी। स्वप्नदर्शन द्वारा कृष्ण पुत्र प्रद्युम्न , प्रद्युम्नपुत्र अनिरुद्ध के प्रति पूर्वराम उत्पन्न होने पर इसने बाणासुर के मंत्री विभाण्ड की दिव्य योगनी चित्रलेखा की सहायता से द्वारिकाधीश श्री कृष्ण के पौत्र एवं प्रदुम्न के पुत्र अनिरुद्ध को  अपने महल में उठवा मँगाया और दोनों एक साथ छिपकर रहने लगे। किंतु भेद खुल जाने पर दोनों बाण के बंदी हुए। द्वारिकाधीश  कृष्ण को इसका पता चला तो इन्होंने बाण पर आक्रमण कर दिया। भीषण युद्ध हुआ, । अंत में कृष्ण ने बाण को मार डालने के लिए सुदर्शन चक्र उठाया किंतु पार्वती के हस्तक्षेप तथा आग्रह पर केवल अहंकार चूर करने के निमित दो बहु को छोड़कर सभी भुजाओं को काट डाला था । पद्म.पुराण , 3/2/50 , भागवत पुराण  10/63/49 , शिवपुराण  के अनुसार उषा अनिरुद्ध का विवाह सम्मानपूर्वक द्वारका में संपन्न कराया था ।
असुरसंस्कृति के संरक्षक बाणासुर द्वारा अपनी माता वायन  के नाम पर बराबर पर्वतसमुह की शृंखला को वायन पर्वत और वायन नगर एवं कुलदेवी विभूक्षणि का मंदिर का निर्माण कराया था । माता विभूक्षणि ने तंत्र मंत्र तथा दिव्य ज्ञान की ज्ञाता थी । वर्तमान में वायन पर्वत को कौवाडोल पर्वत और वायां नगर को बेला कहा जाता है । भगवान बुद्ध ने ज्ञान अर्जन के लिए माता विभूक्षणि की उपासिका माया द्वारा कौवाडोल के तराई में राह कर दिव्य ज्ञान प्राप्त किये थे । शिव पुराण रुद्र संहिता युद्ध खंड के अनुसार माता विभूक्षणि की उपासिका चित्रलेखा द्वारा उषा के लिए  जेष्ठ कृष्ण चतुर्दशी श्री कृष्ण के पौत्र अनिरुद्ध को बाणासुर के गृह में लायी गयी थी और बाणासुर द्वारा अनिरुद्ध को नागफास से युक्त को बंधन से मुक्त किया गया था । बेल रेलवे स्टेशन से एक  मिल उत्तर  पश्चिम स्थित 500 फीट उचाई  कौवाडोल  पर्वत एक दूसरे से समन्वय पत्थरों से जुड़ा है । 7 वी शताब्दी में चीनी यात्री ह्वेनसांग ने कौवाडोल स्थित माता विभूक्षणि की उपासिका दिव्य योगनी मारा की उपासना स्थल 13 ग्रेनाइट स्तंभों से युक्त था । आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ बंगाल सर्किल 1901 - 02 के अनुसार 800 - 1200 ई . तक ब्राह्मिण धर्म और बौद्ध धर्म का केंद्र था ।  भगवान बुद्ध की आराध्य विभूक्षणि माता थी । कालांतर में माता की मूर्ति भूमिगत हो गयी । बेल स्थित तलाव के उत्खनन के दौरान माता विभूक्षणि की मूर्ति प्राप्ति के पश्चात ग्रामीण की आराध्या हो गयी । खाता नंबर 1619 प्लॉट नंबर 242 रकवा 4 . 08 ए. तलाव हुई थी । 1970 ई . में ग्रामीणों के सहयोग से द्वापर युगीन माता विभूक्षणि की मूर्ति को काली मंदिर के गर्भ गृह में स्थापित किया गया है । पुरतन काल में  बेला तंत्र मंत्र का केंद्र था । ब्राह्मण जगृति मंच के अध्यक्ष एवं काली मंदिर बेला के पुजारी राजीव नयन पांडेय द्वारा लिखित जय माँ काली पुस्तक  में उल्लेख है कि माता काली सर्वमनोकामना सिद्धि दात्री है । काली मंदिर के दर्शन एवं उपासना स्थल तथा यात्रियों के निवास के लिए रामलखन भवन का निर्माण किया गया है ।


        


शिल्प के प्रणेता भगवान विश्वकर्मा...


    वेदों , पुरणों , स्मृतियों के अनुसार शिल्प के प्रणेता भगवान विश्वकर्मा  निर्माण एवं सृजन का देवता  है। भगवान   विश्वकर्मा की पुत्री  ऋद्धि एवं सिद्धि का विवाह भगवान शिव की भर्या माता पार्वती के पुत्र गणेश जी के साथ और माता  संज्ञा का विवाह ऋषि कश्यप की भर्या अदिति पुत्र भगवान सूर्य के साथ हुआ था ।  भगवान सूर्य की भर्या  संज्ञा के पुत्र वैवस्वतमनु , यमराज , यमुना , कालिंदी और अश्वनीकुमार हैं। विश्वकर्मा सृजन, निर्माण, वास्तुकला , शिल्प कला और  संसारिक वस्तुओं के अधिष्ठात्र देव है । भगवान विश्वकर्मा को विश्वकर्मा, देव शिल्पी, जगतकर्ता और शिल्पेश्वर के रूप में उपासना की जाती है । विश्वकर्मा का निवास लोअस्त्रक मंडल है । ऋग्वेद मे विश्वकर्मा सुक्त 11 ऋचा में  ऋषि विश्वकर्मा भौवन देवता, और  यजुर्वेद अध्याय 17, सुक्त मन्त्र 16 से 31 तक 16 मन्त्रो में उल्लेख है । ऋग्वेद मे विश्वकर्मा शब्द का एक बार इन्द्र व सुर्य का विशेषण बनकर भी प्रयुक्त हुआ है। प्रजापति विश्वकर्मा विसुचित। महाभारत के खिल भाग ,  पुराणकार प्रभात पुत्र विश्वकर्मा को आदि विश्वकर्मा मानतें हैं। स्कंद पुराण प्रभात खण्ड के अनुसार बृहस्पते भगिनी भुवना ब्रह्मवादिनी।प्रभासस्य तस्य भार्या बसूनामष्टमस्य च।विश्वकर्मा सुतस्तस्यशिल्पकर्ता प्रजापतिः॥ महर्षि अंगिरा के ज्येष्ठ पुत्र बृहस्पति की बहन ब्रह्मविद्या ज्ञानी भुवना को अष्टम् वसु महर्षि प्रभास की पत्नी से शिल्प विद्या के ज्ञाता प्रजापति विश्वकर्मा का जन्म हुआ था । पुराणों में भुवना को  योगसिद्धा, वरस्त्री  बृहस्पति की बहन का उल्लेख है। शिल्प शास्त्र कर्ता  विश्वकर्मा देवताओं का आचार्य और सम्पूर्ण सिद्धियों का जनक है, वह प्रभास ऋषि का पुत्र  और महर्षि अंगिरा के ज्येष्ठ पुत्र का भानजा है। भारत मे विश्वकर्मा को शिल्पशस्त्र का अविष्कार करने वाला देवता,  चीन मे लु पान को बदइयों का देवता है। भगवान विश्वकर्मा का अवतरण  भाद्रपद शुक्ला प्रतिपदा कन्या की संक्राति (17 सितम्बर) को हुआ था ।आन्ध्रप्रदेश के मछलीपट्टनम में  विश्वकर्मा मन्दिर है । शिलांग और पूर्वी बंगला मे मुख्य तौर पर मनाया जाता है। मई दिवस, विदेशी त्योहार का प्रतीक है। रुसी क्रांति श्रमिक वर्ग कि जीत का नाम ही मई मास के रुसी श्रम दिवस के रूप मे मनाया जाता है। भगवान विश्वकर्मा जी की जन्म तिथि माघ मास त्रयोदशी शुक्ल पक्ष दिन रविवार का ही साक्षत रूप से सुर्य की ज्योति है। ब्राहाण हेली को यजो से प्रसन हो कर माघ मास मे साक्षात रूप मे भगवान विश्वकर्मा ने दर्शन दिये। श्री विश्वकर्मा जी का वर्णन मदरहने वृध्द वशीष्ट पुराण मे  है। माघे शुकले त्रयोदश्यां दिवापुष्पे पुनर्वसौ।अष्टा र्विशति में जातो विशवकमॉ भवनि च॥ धर्मशास्त्र  माघ शुक्ल त्रयोदशी को ही विश्वकर्मा जयंति का उल्लेख है। प्रभास पुत्र विश्वकर्मा, भुवन पुत्र विश्वकर्मा तथा त्वष्ठापुत्र विश्वकर्मा आदि अनेकों विश्वकर्मा हुए हैं। विश्वकर्मा ने  सत्ययुग में  स्वर्गलोक का निर्माण , त्रेता युग में लंका , द्वापर में द्वारका  और कलियुग के आरम्भ के  हस्तिनापुर और इन्द्रप्रस्थ का निर्माण ,  जगन्नाथ पुरी के जगन्नाथ मन्दिर में स्थित विशाल मूर्तियों (कृष्ण, सुभद्रा और बलराम) का निर्माण किया । भगवान विश्वकर्मा के आविष्कार एवं निर्माण कार्यों के सन्दर्भ में इन्द्रपुरी, यमपुरी, वरुणपुरी, कुबेरपुरी, पाण्डवपुरी, सुदामापुरी, शिव मण्डलपुरी आदि का निर्माण , पुष्पक विमान का निर्माण तथा  देवों के भवन और उनके दैनिक उपयोगी होनेवाले वस्तुएं बनाया गया है। कर्ण का कुण्डल, विष्णु भगवान का सुदर्शन चक्र, शंकर भगवान का त्रिशुल और यमराज का कालदण्ड इत्यादि वस्तुओं का निर्माण भगवान विश्वकर्मा ने किया है।भगवान विराट विश्वकर्मा ने 84 लाख योनियों को उत्पन्न किया।श्री विष्णु भगवान को प्रजा का ठीक सुचारु रूप से पालन और हुकुमत करने के लिये एक अत्यंत शक्तिशाली तिव्रगामी सुदर्शन चक्र प्रदान किया।    बाबा भोलेनाथ को  डमरु, कमण्डल, त्रिशुल आदि प्रदान कर उनके ललाट पर प्रलयकारी तिसरा नेत्र भी प्रदान कर उन्हे प्रलय की शक्ति देकर शक्तिशाली बनाया।   माँ लक्ष्मी  राग-रागिनी वाली वीणावादिनी माँ सरस्वती और माँ गौरी को देकर देंवों को सुशोभित किया। विश्वकर्मा के पाँच स्वरुपों और अवतारों में विराट विश्वकर्मा - सृष्टि के रचेता ,  धर्मवंशी विश्वकर्मा - महान शिल्प विज्ञान विधाता प्रभात पुत्र ,  अंगिरावंशी विश्वकर्मा - आदि विज्ञान विधाता वसु पुत्र ,  सुधन्वा विश्वकर्म - महान शिल्पाचार्य विज्ञान जन्मदाता ऋशि अथवी के पात्र ,  भृंगुवंशी शुक्राचार्य के पौत्र   उत्कृष्ट शिल्प विज्ञानाचार्य  विश्वकर्मा है। महाभारत में महर्षि विश्वकर्मा और सन्तति की यन्त्रकला,काष्ठ कला , वस्तुशास्र एवं उनके द्वारा निर्मित प्रलयंकारी अस्त्र-शस्त्रों का वर्णन है । महाभारत -आदि पर्व अ. ३६मंत्र ३५ और ३६ ।अर्थ- त्वष्टा की पुत्री संज्ञा भगवान सूर्य की धर्मपत्नी है। वे परम्प सौभाग्यवती है, उन्होने अश्विनी का रुप धारण कर अन्तरिक्ष मे दोनों अश्विनी कुमारों को जन्म दिया। सूर्य के इन्द्र आदि बारह पुत्र  है। उनमे भगवान विष्णु सबसे छोटे है। जिनमे ये सम्पूर्ण लोक प्रतिष्ठित है।आदि पर्व अ. ७६ मंत्र ५ से ८ तक मे वर्णित है- एक समय चराचर प्राणियों सहित समस्त त्रिलोकी के ऎश्वर्य के लिये देवताओं और असुरों मे परस्पर बडा भारी संघर्ष हुआ। देवताओं ने अंगिरा मुनि के पुत्र बृहस्पति को पुरोहित के पद पर वरण और दैत्यों ने शुक्राचार्य को पुरोहित बनाया गया है । स्कन्द पुराण प्रभास खंड सोमनाथ माहात्म्य सोम पुत्र संवाद में विश्वकर्मा के दूसरे अवतार का वर्णन इस भातिं मिलता है। ईश्वर उचावः शिल्पोत्पत्तिं प्रवक्ष्यामि श्रृणु षण्मुख यत्नतः। विश्वकर्माSभवत्पूर्व शिल्पिनां शिव कर्मणाम्।। मदंगेषु च सभूंताः पुत्रा पंच जटाधराः। हस्त कौशल संपूर्णाः पंच ब्रह्मरताः सदा।। शिल्प के प्रवर्त्तक विश्वकर्मा पांच मुखों से पांच जटाधरी पुत्र उत्पन्न हुए जिन के नाम मनु, मय, शिल्प, त्वष्टा, दैवेज्ञ थे। तीसरा अवतार आर्दव वसु प्रभास  को अंगिरा की पुत्री बृहस्पति जी की बहन योगसिद्ध विवाही गई और अष्टम वसु प्रभाव से जो पुत्र उत्पन्न हुआ उसका नाम विश्वकर्मा हुआ जो शिल्प प्रजापति कहलाया इसका वर्णन वायुपुराण अ.22 उत्तर भाग के अनुसार बृहस्पतेस्तु भगिनो वरस्त्री ब्रह्मचारिणी। योगसिद्धा जगत्कृत्स्नमसक्ता चरते सदा।। प्रभासस्य तु सा भार्या वसु नामष्ट मस्य तु। विश्वकर्मा सुत स्तस्यां जातः शिल्प प्रजापतिः।। मत्स्य पुराण अ.5 में भी लिखा हैःविश्वकर्मा प्रभासस्य पुत्रः शिल्प प्रजापतिः। प्रसाद भवनोद्यान प्रतिमा भूषणादिषु। तडागा राम कूप्रेषु स्मृतः सोमSवर्धकी।। अर्थः प्रभास का पुत्र शिल्प प्रजापति विश्वकर्मा देव, मन्दिर, भवन, देवमूर्ति, जेवर, तालाब, बावडी और कुएं निर्माण करने देव आचार्य थे। आदित्य पुराण में भी कहा है किः विश्वकर्मा प्रभासस्य धर्मस्थः पातु स ततः।। पुरणों के अनुसार सृष्टिकर्ता ब्रह्मा जी का प्रपौत्र धर्म की पत्नी वस्तु के पौत्र वास्तु की पत्नी अंगिरशि भुवना  के पुत्र  विश्वकर्मा का जन्म भाद्रपद शुक्ल एकादशी , कन्या संक्रांति को हुआ था । आंग्ल कैलेंडर के अनुसार प्रत्येक 17 सितंबर को विश्वकर्मा पूजा एवं उपासना की जाती है । भगवान विश्वकर्मा की पत्नी आकृति ,रति ,प्राप्ति और नंदी और पुत्रों में  मनु , मय , त्वष्टा ,शिल्पी , दैवज्ञ  है ।

रविवार, सितंबर 12, 2021

सांस्कृतिक समन्वय चेतना का माध्यम हिंदी...


भारत में हिन्दी एवं देवनागरी को विविध सामाजिक क्षेत्रों में आगे लाने के लिये  हिंदी  आन्दोलन में साहित्यकारों, समाजसेवियों नवीन चन्द्र राय, श्रद्धाराम फिल्लौरी, स्वामी दयानन्द सरस्वती,पंडित सत्यनारायण शास्त्री, पंडित गौरीदत्त,भारतेंदु , निराला जी , मैथिलीशरण गुप्त , महावीर प्रसाद द्विवेदी ,  पत्रकारों एवं स्वतंत्रतता संग्राम-सेनानियों महात्मा गांधी, मदनमोहन मालवीय, पुरुषोत्तमदास टंडन आदि का विशेष योगदान था। युगान्तकारी ने देश के सांस्कृतिक आवश्यकताओं को पहचान कर  हिन्दी के लिये संघर्ष ,  सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन में उसका व्यवहार सुदृढ और  मतरूकात का सिलसिला खत्म करके  हिन्दी को उसी मार्ग बढ़ने की प्रेरणा दी जिस पर बंगला, मराठी, तेलुगू आदि पहले से बढ़ रहीं थीं। हिन्दी का विकास हमारे राष्ट्रीय जीवन के लिये आवश्यक और अपरिहार्य था। विशाल हिन्दी प्रदेश का सांस्कृतिक विकास उर्दू के माध्यम से सम्भव न था। तुलसी , सुर , कवीर , रसखान , जायसी , विहारी आदि ने हिंदी के विकास में श्रेय है । सन् १९२८ में ख्वाजा हसन निजामी ने कुरान का हिन्दी अनुवाद कराया था । 14 सितम्बर 1949 को संविधान सभा के निर्णयानुसर   हिन्दी  केन्द्र सरकार की आधिकारिक भाषा  गयी ।  भारत मे क्षेत्रों में  हिंदी भाषा बोले जाने से   हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने का निर्णय लिया और इसी निर्णय के महत्व को प्रतिपादित करने तथा हिन्दी को हर क्षेत्र में प्रसारित करने के लिये वर्ष 1953 से पूरे भारत में 14 सितम्बर को प्रतिवर्ष हिन्दी-दिवस के रूप में मनाया जाता है। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद हिन्दी को आधिकारिक भाषा के रूप में स्थापित करवाने के लिए काका कालेलकर, हजारीप्रसाद द्विवेदी, सेठ गोविन्ददास आदि साहित्यकारों को साथ लेकर  राजेन्द्र सिंह ने अथक प्रयास किए थे। वर्ष 1918 में गांधी जी ने हिन्दी साहित्य सम्मेलन में हिन्दी भाषा को राष्ट्रभाषा बनाने को कहा था। गांधी जी ने हिंदी को  जनमानस की भाषा कहा था।स्वतंत्र भारत की राष्ट्रभाषा के प्रश्न पर 14 सितम्बर 1949 को काफी विचार-विमर्श के बाद यह निर्णय लिया गया है । भारतीय संविधान के भाग 17 के अध्याय की अनुच्छेद 343(1) में  संघ की राष्ट्रभाषा हिन्दी और लिपि देवनागरी होगी तथा संघ के राजकीय प्रयोजनों के लिए प्रयोग होने वाले अंकों का रूप अंतर्राष्ट्रीय रूप होगा।यह निर्णय 14 सितम्बर को लिया गया ।  हिन्दी के मूर्धन्य साहित्यकार राजेन्द्र सिंहा का 14 सितंबर को  50-वां जन्मदिन होने के कारण हिन्दी दिवस के लिए श्रेष्ठ माना गया था। हालांकि जब राष्ट्रभाषा के रूप में इसे चुना गया और लागू किया गया । अंग्रेजी और चीनी भाषा के बाद हिन्दी भाषा विश्व  में तीसरी बड़ी भाषा है। हिन्दी को 177 देशों का समर्थन मिला है ।भारत की पहचान , जीवन मूल्यों, संस्कृति एवं संस्कारों की सच्ची संवाहक, संप्रेषक और परिचायक हिंदी   है।  सरल,  सहज और सुगम भाषा होने के साथ हिंदी विश्व की संभवतः सबसे वैज्ञानिक भाषा है जिसे दुनिया भर में समझने,  बोलने और चाहने वाले लोग बहुत बड़ी संख्या में मौजूद हैं। यह विश्व में तीसरी सबसे ज्यादा बोली जाने वाली भाषा है जो हमारे पारम्‍परिक ज्ञान, प्राचीन सभ्‍यता और आधुनिक प्रगति के बीच एक सेतु भी है। हिंदी भारत संघ की राजभाषा होने के साथ ही ग्यारह राज्यों और तीन संघ शासित क्षेत्रों की भी प्रमुख राजभाषा है। संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल इक्कीस भाषाओं के साथ हिंदी का एक विशेष स्थान है। हिन्दी दिवस के मौके पर राजभाषा विभाग द्वारा सी डैक के सहयोग से तैयार किये गये लर्निंग इंडियन लैंग्‍वेज विद आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (लीला) के मोबाइल ऐप का लोकार्पण भी किया गया। इस ऐप से देश भर में विभिन्‍न भाषाओं के माध्‍यम से जन सामान्‍य को हिंदी सीखने में सुविधा और सरलता होगी तथा हिंदी भाषा को समझना, सीखना तथा कार्य करना संभव हो सकेगा।  विदेश मंत्रालय द्वारा ‘‘विश्व हिंदी सम्मेलन’’ और अन्य अंतरराष्ट्रीय सम्मेलनों के माध्यम से हिंदी को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर लोकप्रिय बनाने का कार्य किया जा रहा है । विश्‍वभर में करोड़ों की संख्‍या में भारतीय समुदाय के लोग एक संपर्क भाषा के रूप में हिन्‍दी का इस्‍तेमाल कर रहे हैं। इससे अंतर्राष्‍ट्रीय स्‍तर पर हिन्‍दी को एक नई पहचान मिली है। यूनेस्‍को की सात भाषाओं में हिंदी को भी मान्‍यता मिली है। भारतीय विचार और संस्‍कृति का वाहक होने का श्रेय हिन्‍दी को ही जाता है। संयुक्त राष्ट्र जैसी संस्थाओं में हिंदी की गूंज सुनाई देने लगी है।  सितंबर माह में  प्रधानमंत्री द्वारा संयुक्त राष्ट्र महासभा में हिंदी में ही अभिभाषण दिया गया था। विश्व हिंदी सचिवालय विदेशों में हिंदी का प्रचार-प्रसार करने और संयुक्त राष्ट्र में हिंदी को आधिकारिक भाषा बनाने के लिए कार्यरत है। हिंदी आम आदमी की भाषा के रूप में देश की एकता का सूत्र है ।  हिंदी के महत्त्व को गुरुदेव रवीन्द्र नाथ टैगोर ने कहा था, ‘भारतीय भाषाएं नदियां हैं और हिंदी महानदी’। हिंदी के इसी महत्व को देखते हुए तकनीकी कंपनियां इस भाषा को बढ़ावा देने की कोशिश कर रही हैं । सूचना प्रौद्योगिकी में हिन्‍दी का इस्‍तेमाल बढ़ रहा है । विश्व  में 175  विश्वविद्यालयों में हिन्दी भाषा पढ़ाई जा रही है। ज्ञान-विज्ञान की पुस्तकें बड़े पैमाने पर हिंदी में लिखी जा रही है। सोशल मीडिया और संचार माध्यमों में हिंदी का प्रयोग निरंतर बढ़ रहा है। तकनीकी के युग में वि‍ज्ञान और इंजीनियरिंग के क्षेत्र में हिंदी में काम को बढ़ावा और देश की प्रगति में ग्रामीण जनसंख्‍या सहित सबकी भागीदारी सुनिश्चित कर रहा है । भाषा रूपी नदियाँ प्रवाहित होकर हिंदी रूपी सागर में समाहित है । भाषा निर्पेक्ष और समन्वय की भाषा हिंदी है । जान संस्कृति नवचेतना का स्तम्भ  हिंदी है । 
अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर हिन्दी के प्रति जागरुकता पैदा करने, समय-समय पर हिन्दी की विकास यात्रा का आकलन करने, लेखक व पाठक दोनों के स्तर पर हिन्दी साहित्य के प्रति सरोकारों को और दृढ़ करने, जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में हिन्दी के प्रयोग को प्रोत्साहन देने तथा हिन्दी के प्रति प्रवासी भारतीयों के भावुकतापूर्ण व महत्त्वपूर्ण रिश्तों को और अधिक गहराई व मान्यता प्रदान करने के उद्देश्य से 1975 में विश्व हिन्दी सम्मेलनआरम्भ की गयी। तत्कालीन प्रधानमन्त्री श्रीमती इन्दिरा गान्धी द्वारा उद्घाटन पहला विश्व हिन्दी सम्मेलन राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, वर्धा के सहयोग से नागपुर में सम्पन्न हुआ था । भोपाल में आयोजित दसवाँ विश्व हिन्दी सम्मेलन का उद्घाटन तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री मति इंदिरा गांधी द्वारा  10 अक्टूबर  1975 किया गया था । विश्व हिन्दी सम्मेलन  का सम्मेलन मारीशस, नई दिल्ली, पुन: मारीशस, त्रिनिडाड व टोबेगो, लन्दन, सूरीनाम न्यूयार्क और जोहांसबर्ग और २०१५ में भोपाल में आयोजित हुआ। २०१८ में इसका आयोजन मॉरीशस में प्रस्तावित है। 14 जनवरी 1975 नागपुर ,  भारत , 30 अगस्त 1976 पोर्ट लुई , मारीशस , 30  अक्टूबर 1983  नई दिल्ली ,  भारत , 2 -4 दिसम्बर 1993 पोर्ट लुई ,  मारीशस , 8 अप्रैल 1996 त्रिनिडाड-टोबेगो त्रिनिदाद और टोबैगो , 18  सितम्बर 1999 लंदन , यूनाइटेड किंगडम , 9  जून 2003 ,पारामरिब , सूरीनाम , 15 जुलाई 2007 यूयार्क संयुक्त राज्य अमेरिका , सितम्बर 2012 , जोहांसबर् , दक्षिण अफ्रीका , 10 -12 सितम्बर 2015 भोपाल् , भारत , 18-20  अगस्त 2018  पोर्ट लुई मॉरिशस तथा 12 वां विश्व हिंदी सम्मेलन फिजी के सुअवा सिटी में हुआ था ।प्रथम विश्व हिन्दी सम्मेलन 10  जनवरी से 14  जनवरी 1975 तक नागपुर में राष्ट्रभाषा प्रचार समिति वर्धा  द्वारा  आयोजित किया गया।  सम्मेलन से सम्बन्धित राष्ट्रीय आयोजन समिति के अध्यक्ष महामहिम उपराष्ट्रपति श्री बी डी जत्ती थे। राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, वर्धा के अध्यक्ष श्री मधुकर राव चौधरी उस समय महाराष्ट्र के वित्त, नियोजन व अल्पबचत मन्त्री थे। पहले विश्व हिन्दी सम्मेलन का बोधवाक्य था - वसुधैव कुटुम्बकम। सम्मेलन के मुख्य अतिथि थे मॉरीशस के प्रधानमन्त्री श्री शिवसागर रामगुलाम, जिनकी अध्यक्षता में मॉरीशस से आये एक प्रतिनिधिमण्डल ने भी सम्मेलन में भाग लिया था। इस सम्मेलन में  30  देशों के 122 प्रतिनिधियों ने भाग लिया। हिन्दी साहित्य सम्मेलन की स्थापना 1 मई 1910 ई. में नागरी प्रचारिणी सभा के तत्वावधान में हुआ। 1 मई सन् 1910 को काशी नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी की एक बैठक में हिन्दी साहित्य सम्मेलन का एक आयोजन करने का निश्चय किया गया है । सम्मेलन रूपी इस विशाल वटवृक्ष की प्रशाखाएँ पूरे देश में हिन्दी प्रचार में लगी हुई हैं। राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, वर्धा के माध्यम से जुड़ी हैं। उत्तरप्रदेशीय हिन्दी साहित्य सम्मेलन; मध्यप्रदेश हिन्दी साहित्य सम्मेलन, भोपाल; हरियाणा प्रादेशिक हिन्दी साहित्य सम्मेलन, गुड़गाँव; बम्बई प्रान्तीय हिन्दी साहित्य सम्मेलन, बम्बई; दिल्ली प्रान्तीय हिन्दी साहित्य सम्मेलन, दिल्ली; विन्ध्य प्रादेशिक हिन्दी साहित्य सम्मेलन, रीवा; ग्रामोत्थान विद्यापीठ, सँगरिया, राजस्थान; मैसूर हिन्दी प्रचार परिषद्, बैंगलूर; मध्य भारत हिन्दी साहित्य समिति, इंदौर; भारतेन्दु समिति कोटा, राजस्थान तथा साहित्य सदन, अबोहर , बिहार हिंदी साहित्य सम्मेलन पटना हैं। स्थापना वर्ष सन् 1910 से  प्रत्येक वर्ष हिन्दी साहित्य सम्मेलन अधिवेशन की गौरवमयी परंपरा 1910 से निरंतर चलती आ रही है । काशी , प्रयाग ,कलकत्ता,भागलपुर , लखनऊ, जबलपुर, इंदौर, बंबई, लाहौर, कानपुर, दिल्ली, देहरादून, वृंदावन, भरतपुर, मुजफ्फरपुर, गोरखपुर, झाँसी, ग्वालियर, नागपुर, मद्रास, शिमला, पूना, अबोहर, हरिद्वार, जयपुर, उदयपुर, करांची, मेरठ, हैदराबाद और कोटा आदि में अधिवेशन हुए। हिन्दी साहित्य सम्मलेन के सभापति में 01 . महामना पंडित मदनमोहन मालवीय (सन् 1910) , 02 .पंडित गोविन्दनारायण मिश्र (सन् 1911) ,03 . उपाध्याय पंडित बद्रीनारायण चौधरी 'प्रेमघन' (सन् 1912) ,04 . महात्मा मुंशीराम (स्वामी श्रद्धानंद) (सन् 1913) ,05  श्रीधर पाठक (सन् 1914) ,06  राय बहादुर बाबू श्यामसुंदर दास बी०ए० (सन् 1915) ,07. महामना महामहोपाध्याय पंडित रामावतार शर्मा (सन् 1916) , 08  कर्मवीर मोहनदास करमचंद गाँधी (सन् 1918) , 09 महामना पंडित मदन मोहन मालवीय (सन् 1919) ,10 . राय बहादुर पंडित विष्णु दत्त शुक्ल (सन् 1920) ,11 . डॉ० भगवान दास एम० ए० डी० लिट् (सन् 1921) ,12  पंडित जगन्नाथ प्रसाद चतुर्वेदी (सन् 1922) ,13  पुरुषोत्तम दास टंडन (सन् 1923) ,14 . पंडित अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध' (सन् 1924) ,15  पंडित माधवराव सप्रे (सन् 1924) ,16 . श्री अमृतलाल चक्रवर्ती (सन् 1925) ,17.  म०म०रा०ब० पंडित गौरीशंकर हीराचन्द ओझा (सन् 1926) ,18 . पंडित पद्मसिंह शर्मा (सन् 1928) ,19 . श्री गणेश शंकर विद्यार्थी (सन् 1930) ,20  बाबू जगन्नाथदास रत्नाकर बी०ए० (सन् 1931) ,21 पंडित किशोरीलाल गोस्वामी (सन् 1932) ,22. राव राजा डॉ० श्याम बिहारी मिश्र एम०ए० (सन् 1933) ,23 . महाराजा सर सयाजीराव गायकवाड़ (वडोदरा) (सन् 1934) ,24  महात्मा मोहनदास करमचंद गाँधी (सन् 1935) ,25 . डॉ० राजेंद्र प्रसाद (सन् 1936) ,26 . सेठ जमनालाल बजाज (सन् 1937) ,27 . पंडित बाबूराव विष्णु पराडकर (सन् 1938) ,28 . पंडित अम्बिका प्रसाद वाजपेयी (सन् 1939) ,29  श्री संपूर्णानंद (सन् 1940) ,30 . डॉ० अमरनाथ झा (सन् 1941) ,31 . पंडित माखनलाल चतुर्वेदी (सन् 1943) हुए है ।  बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन की स्थापना मुजफ्फरपुर के हिन्दू भवन में 19 अक्टूबर 1919 को, श्रीयुत जगन्नाथ प्रसाद एम॰ ए॰ बी॰ एल॰ काव्यतीर्थ के सभापतित्व में, हिन्दी सेवियों और हिन्दी प्रेमियों की एक सार्वजनिक सभा हुई ।  1920 में सम्मेलन का 10वां अधिवेशन बिहार में सुनिश्चित हुआ और इसी के साथ बिहार हिंदी साहित्य सम्मेलन की स्थापना की सुगबुगाहट भी शुरू हुई थी । डॉ राजेंद्र प्रसाद के विशेष पहल व लक्ष्मी नारायण सिंह, मथुरा प्रसाद दीक्षित, बाबू वैद्यनाथ प्रसाद सिंह, पीर मोहम्मद यूनिस, लतीफ हुसैन नटवर और पंडित दर्शन केशरी पांडेय जी के प्रयास से मुजफ्फरपुर के हिन्दू भवन में 19 अक्टूबर 1919 को जगन्नाथ प्रसाद के सभापतित्व में सार्वजनिक सभा हुई जिसमें बिहार हिंदी साहित्य सम्मेलन की स्थापना का निर्णय हुआ। 1919 में साहित्य सम्मेलन की स्थापना के बाद 1920 में अखिल भारतीय हिन्दी साहित्य सम्मेलन का 10वां सम्मेलन पटना में आयोजित करने की घोषणा हुई थी। जिसको लेकर ही पटना में अखिल भारतीय हिन्दी साहित्य सम्मेलन की स्थापना की गई। शुरू में ज़मीन उपलब्ध न होने के चलते किराए की भूमि पर इसके कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता था। पहले इसका मुख्यालय मुजफ्फरपुर में हुआ करता था फिर 1935 में इस मुख्यालय को पटना में लाया गया और 1937 में हिन्दी साहित्य सम्मेलन के लिए कदमकुआं में अपनी ज़मीन मिली। साहित्य सम्मेलन प्रारंभ से ही हिन्दी साहित्य जगत की बड़ी विभूतियों और स्वतंत्रता संग्राम से जुड़े सारे बड़े नेताओं का केन्द्र हुआ करता था। डॉ॰ राजेन्द्र प्रसाद सहित हिंदी विभूतियां द्वारा बिहार  साहित्य सम्मेलन के अध्यक्ष पद को सुशोभित करते रहे। हिंदी के विकास का श्रय पूर्व प्रधान मंत्री अटलबिहारी बाजपेयी ने संयुक्त राष्ट्र महासभा में हिंदी का रूप दिया वहीं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा हिंदी को विश्व स्तरीय मंच पर संयुक्त राष्ट्र में हिंदी की गरिमा बढ़ाई गई है । बिहार में बिहार हिंदी साहित्य सम्मेलन , बिहार हिंदी ग्रंथ अकादमी , बिहार राष्ट्रभाषा परिषद और राजभाषा विभाग बिहार सरकार हिंदी के विकास में सक्रिय है।

शुक्रवार, सितंबर 10, 2021

ऋषि पंचमी : मानवीय जीवन का स्रोत...

 भाद्रपद शुक्ल पंचमी को सप्त ऋषियों के प्रति समर्पित एवं मानवीय जीवन के विकास का माध्यम ऋषि पंचमी व ऋषि दिवस है । आकाश में सात तारे मंडल को सप्तर्षियों का मंडल कहा जाता है।  वेदों में सप्तऋषि मंडल की स्थिति, गति, दूरी और विस्तार की विस्तृत चर्चा  है। 14 मनवंतर में विभिन्न  सात सात ऋषि हुए हैं। वेदों के रचयिता ऋषि द्वारा  ऋग्वेद में एक हजार सूक्त एवं दस हजार मन्त्र है ।   विष्णु पुराण अनुसार मन्वन्तर के सप्तऋषि  है :- वशिष्ठकाश्यपो यात्रिर्जमदग्निस्सगौत। विश्वामित्रभारद्वजौ सप्त सप्तर्षयोभवन्।।  सातवें वैवस्वतमनु का मन्वन्तर में सप्तऋषि में वशिष्ठ, कश्यप, अत्रि, जमदग्नि, गौतम, विश्वामित्र और भारद्वाज है ।  पुराणों में  केतु, पुलह, पुलस्त्य, अत्रि, अंगिरा, वशिष्ट तथा मारीचि का उल्लेख है। महाभारत में सप्तर्षियों में  कश्यप, अत्रि, भारद्वाज, विश्वामित्र, गौतम, जमदग्नि और वशिष्ठ का वर्णन   हैं ।
1. वशिष्ठ : त्रेतायुग में  राजा दशरथ के कुलगुरु तथा दशरथ के चारों पुत्रों के वशिष्ट  गुरु थे। वशिष्ठ के कहने पर दशरथ ने अपने चारों पुत्रों को ऋषि विश्वामित्र के साथ आश्रम में राक्षसों का वध करने के लिए भेज दिया था। कामधेनु गाय के लिए वशिष्ठ और विश्वामित्र में युद्ध  हुआ था। वशिष्ठ ने राजसत्ता पर अंकुश का विचार दिया था । वैवस्वतमनु के मैत्रावरूण वशिष्ठ ने सरस्वती नदी के किनारे सौ सूक्त एक साथ रचकर नया इतिहास बनाया था।
2.विश्वामित्र : ऋषि होने के पूर्व विश्वामित्र राजा थे और ऋषि वशिष्ठ से कामधेनु गाय को हड़पने के लिए  युद्ध किया था, लेकिन विश्वामित्र  पराजित हो गए थे । विश्वामित्र की तपस्या और मेनका द्वारा तपस्या  भंग का उल्लेख है । विश्वामित्र ने अपनी तपस्या के बल पर त्रिशंकु को सशरीर स्वर्ग भेज दिया था।  हरिद्वार में शांतिकुंज  स्थान पर विश्वामित्र ने घोर तपस्या करके इंद्र से रुष्ठ होकर एक अलग ही स्वर्ग लोक की रचना कर दी थी। विश्वामित्र ने वेदों को ऋचा बनाने की विद्या दी और गायत्री मन्त्र की रचना की थी।
3. कण्व : यज्ञ सोमयज्ञ को कण्वों ने व्यवस्थित किया। कण्व वैदिक काल के ऋषि थे। कण्व  आश्रम में हस्तिनापुर के राजा दुष्यंत की पत्नी एवं विश्वामित्र और मेनका के संगम से उत्पन्न पुत्री  शकुंतला एवं उनके पुत्र भरत का पालन-पोषण हुआ था।
4. भारद्वाज : वैदिक ऋषियों में देव गुरु  वृहस्पति की पत्नी ममता के पुत्र भारद्वाज-ऋषि का उच्च स्थान है।  वनवास के समय श्रीराम त्रेतायुग में भारद्वाज  आश्रम में गए थे । भरद्वाज वंशीय भारद्वाज विदथ ने दुष्यन्त पुत्र भरत का उत्तराधिकारी बन राजकाज करते हुए मन्त्र रचना जारी रखी थी । ऋषि भारद्वाज के पुत्रों में 10 ऋषि ऋग्वेद के मन्त्रदृष्टा और एक पुत्री  'रात्रि' द्वारा रात्रि सूक्त की मन्त्रदृष्टा की रचना की गई हैं। ॠग्वेद के छठे मण्डल के द्रष्टा भारद्वाज ऋषि की मण्डल में भारद्वाज के 765 मन्त्र हैं। अथर्ववेद में भी भारद्वाज के 23 मन्त्र  हैं। 'भारद्वाज-स्मृति' एवं 'भारद्वाज-संहिता' के रचनाकार  ऋषि भारद्वाज  थे। ऋषि भारद्वाज ने 'यन्त्र-सर्वस्व' नामक बृहद् ग्रन्थ की रचना  थी। यंत्रसर्वस्व  ग्रन्थ का भाग स्वामी ब्रह्ममुनि ने 'विमान-शास्त्र' के नाम से प्रकाशित करा कर ग्रन्थ में उच्च और निम्न स्तर पर विचरने वाले विमानों के लिए विविध धातुओं के निर्माण का वर्णन  है।
5. अत्रि : ऋग्वेद के पंचम मण्डल के द्रष्टा महर्षि अत्रि ब्रह्मा के पुत्र, सोम के पिता और कर्दम प्रजापति व देवहूति की पुत्री अनुसूया के पति थे। अत्रि जब बाहर गए थे तब त्रिदेव अनसूया के घर ब्राह्मण के भेष में भिक्षा मांगने लगे और अनुसूया से कहा कि जब आप अपने संपूर्ण वस्त्र उतार देंगी तभी हम भिक्षा स्वीकार करेंगे ।अनुसूया ने अपने सतित्व के बल पर उक्त तीनों देवों को अबोध बालक बनाकर उन्हें भिक्षा दी। माता अनुसूया ने देवी सीता को पतिव्रत का उपदेश दिया था। अत्रि ऋषि ने इस देश में कृषि के विकास में पृथु और ऋषभ की तरह योगदान दिया था। अत्रि वंशीय  सिन्धु पार करके पारस में  यज्ञ का प्रचार किया। अत्रि वंशीय द्वारा अग्निपूजकों के पारसी धर्म का सूत्रपात हुआ। अत्रि ऋषि का आश्रम चित्रकूट में था। ऋषि  अत्रि-दम्पति की तपस्या और त्रिदेवों की प्रसन्नता के फलस्वरूप विष्णु के अंश से महायोगी दत्तात्रेय, ब्रह्मा के अंश से चन्द्रमा तथा शंकर के अंश से महामुनि दुर्वासा महर्षि अत्रि एवं देवी अनुसूया के पुत्र रूप में जन्मे। ऋषि अत्रि पर देवों के वैद्य और भगवान सूर्य की पत्नी संज्ञा के पुत्र अश्विनीकुमारों की  कृपा थी।
6. वामदेव : गौतम ऋषि के पुत्र वामदेव वामदेव ने  सामगान संगीत विद्या दे द्रष्टा  थे । वामदेव ऋग्वेद के चतुर्थ मंडल के सूत्तद्रष्टा, गौतम ऋषि के पुत्र तथा जन्मत्रयी के तत्ववेत्ता  हैं।
7. शौनक : ऋषि सुनक के पुत्र  शौनक ने दस हजार विद्यार्थियों के गुरुकुल को सृष्टा थे । कूर्म पुराण के अनुसार मानवीय जीवन के विकासशील करने वाले प्रथम व्यास  स्वायम्भुव मनु , द्वितीय व्यास प्रजापति , तृतीय व्यास शुक्राचार्य ,   चतुर्थ व्यास वृहस्पति ,पाचवें व्यास सूर्य ,सातवें व्यास इंद्र , आठवें व्यास वशिष्ट , नावें व्यास सारस्वत , दसवे व्यास त्रिधाम ,बारहवें व्यास शततेजा , तेरहवें व्यास धर्म , पंद्रहवें व्यास त्र्यारुणि , सोलहवें व्यास धनंजय ,सत्रहवें। व्यास कृतंजय ,अठारहवें व्यास ऋतंजय ,उन्नीसवें व्यास भारद्वाज ,बीसवें व्यास गौतम ,इक्कीसवें व्यास राजश्रवा , बीसवें व्यास शुष्मायन ,तेइसवें व्यास तृणविंदु, चौविसवें व्यास वाल्मीकि ,पच्चीसवें व्यास शक्ति ,छब्बीसवें व्यास परासर ,सत्ताइसवें व्यास जातुकर्ण और अठाइसवें व्यास कृष्ण द्वैपायन हुए थे ।

बुधवार, सितंबर 08, 2021

मानवीय चेतना के विकास का द्योतक साक्षरता...


    सामाजिक चेतना की जगृति करने में साक्षरता मूल है । राष्ट्र और मानव चेतना के विकास का माध्यम साक्षरता है । 8 सितंबर 1966  में प्रथम बार  व्यक्तिगत, सामुदायिक और सामाजिक रूप से साक्षरता के महत्व पर प्रकाश डालने के लिए साक्षरता दिवस मनाया गया है ।   संयुक्त राष्ट्र संघ के सभी सदस्य देश  द्वारा ८ सितम्बर कोअंतरराष्ट्रीय  साक्षरता दिवस मनाया जाता है ।७७.५ करोड़ युवा साक्षरता की कमी से प्रभावित हैं;। ६.७ करोड़ बच्चे विद्यालयों तक नहीं पहुँचते और बहुत बच्चों में नियमितता का अभाव के कारण  बीच में छोड़ देते हैं।  साक्षरता दिवस की थीम “मानव-केंद्रित पुनर्प्राप्ति के लिए साक्षरता: डिजिटल विभाजन को कम करना” है।  भारत का सर्व शिक्षा अभियान से समाज में साक्षरता दर का विकास हुआ  हैं। विश्व के सभी देशों में समाज के हर वर्ग तक शिक्षा के प्रचार प्रसार के उद्देश्य से इस दिन की शुरुआत की गई। यूनेस्को ने 7 नवम्बर 1965 में प्रथम बार अंतर्राष्ट्रीय साक्षरता दिवस व वर्ल्ड लिट्रेसी डे  मनाने का फैसला लिया ।यूनेस्को के निर्णय के अगले ही साल यानि 1966 में प्रथम बार साक्षरता दिवस मनाना शुरू हुआ। राष्ट्र और मानव विकास के लिए समाज के हर वर्ग के लोगों के लिए उनके अधिकारों और कर्तव्यों के बारे में जानना महत्वपूर्ण है । लोगों को शिक्षा की ओर प्रेरित करने के लक्ष्य के तहत साक्षरता दिवस मनाया जाता है। विश्व के तमाम देश वयस्क शिक्षा और साक्षरता की दर को बढ़ाने के लिए इस दिन को खासतौर पर मनाते हैं ।भारत में 2011 के जनगणना के अनुसार साक्षरता  दर 74.04 है जबकि  1947 में मात्र 18 % थी। महिलाओं में कम साक्षरता का कारण परिवार और आबादी की जानकारी कमी है।  भारत में 6-14 साल के आयु वर्ग के प्रत्येक बालक और बालिका को स्कूल में मुफ़्त शिक्षा (का अधिकार है। 40%से अधिक बालिकायें 10 वीं कक्षा के उपरांत स्कूल त्याग देती है । भारत में संसार की सबसे अधिक अनपढ़ जनसंख्या निवास करती है।6-14 साल के आयु वर्ग के प्रत्येक बालक और बालिका को स्कूल में मुफ़्त शिक्षा का अधिकार है। 40%से अधिक बालिकायें 10 वीं कक्षा के उपरांत स्कूल त्याग देती है । वेवसाइट वॉर्डों मीटर के अनुसार भारत की जनसंख्या 2021 में 139 करोड़ और संयुक्त राष्ट्र  जनसंख्या के अनुसार 121 करोड़ कहा गया है । राष्ट्रीय सांख्यिकी के अनुसार भारत में साक्षरता 77.7 प्रतिशत है । विश्व साक्षरता दर 84 प्रतिशत वही भारत की 87.7 प्रतिशत साक्षरता दर है ।बिहार में साक्षरता दर 63. 8 प्रतिशत में पुरुष 71.2 प्रतिशत और महिला का साक्षरता दर 51 .8 प्रतिशत है । जहानाबाद जिले में 66.8 और अरवल जिले में 67.43 प्रतिशत साक्षरता दर है  ।  साक्षरता से राष्ट्र और समाज का विकास संभव है । साक्षरता से राष्ट्र और समाज का विकास संभव है । 



8 सितंबर को संयुक्त राष्ट्र शैक्षिक, वैज्ञानिक और सांस्कृतिक संगठन (यूनेस्को) द्वारा 17 नवंबर, 1965 को अंतर्राष्ट्रीय साक्षरता दिवस के रूप में घोषित किया गया था। वार्षिकोत्सव 8 सितंबर 1965 में तेहरान में मिले निरक्षरता के उन्मूलन पर शिक्षा मंत्री के विश्व सम्मेलन की सिफारिश के बाद शुरू हुआ। सम्मेलन ने सिफारिश की कि सम्मेलन के उद्घाटन की तारीख 8 सितंबर को अंतर्राष्ट्रीय साक्षरता दिवस घोषित किया जाए और विश्व में मनाने का संकल्प लिया गया है । है।1946 में अपने पहले वर्नल सम्मेलन के  पश्यचात प्रत्येक वर्ष  अंतरराष्ट्रीय जनमत को संवेदनशील बनाने और जुटाने और उनकी रुचियों को दूर करने के उद्देश्य से उत्सव चल रहा है। यूनेस्को के महानिदेशक विश्व  को  अपील करते हुए कहा है कि व्यक्तियों, संगठनों और राज्यों को, साक्षरता के लिए अपना समर्थन और एकजुटता प्रदर्शित करने से साक्षरता का बढ़ावा मिलता है ।साक्षरता दुनिया को व्यक्तियों, परिवारों, समुदायों और पूरे समाज के लिए साक्षरता के महत्व के बारे में याद दिलाता है।
"साक्षरता केवल पढ़ने, लिखने और अंकगणित का एक संज्ञानात्मक कौशल नहीं वल्कि साक्षरता झुकाव और जीवन कौशल के अधिग्रहण में लोगों के जीवन में उपयोग और अनुप्रयोग द्वारा मजबूत होने पर व्यक्ति, समुदाय और सामाजिक विकास के प्रति मदद करती है । "यूनेस्को के महानिदेशक ने अंतर्राष्ट्रीय साक्षरता दिवस 2006 के अवसर पर अपने संदेश में कहा। सभी के लिए शिक्षा की इस अवधारणा का वैश्विक स्वागत हुआ और यहां तक ​​कि विश्व बैंक ने  साक्षरता कार्यक्रम की सराहना की। "शिक्षा एक मुक्त करने वाली शक्ति और  विकासवादी शक्ति  है।  व्यक्ति को  भौतिकता से बौद्धिक और आध्यात्मिक चेतना के श्रेष्ठ स्तरों तक बढ़ने में सक्षम बनाता है। शिक्षा अतीत, वर्तमान और भविष्य के बीच  संवाद है, ताकि आने वाली पीढ़ी विरासत के संचित पाठों को प्राप्त करे और उसे आगे ले जाए। अनुमानित 781 मिलियन वयस्क बुनियादी साक्षरता कौशल के बिना रहते हैं। जिनमें दो तिहाई महिलाएं हैं। इसके अलावा, लगभग 103 मिलियन बच्चों की स्कूल तक पहुंच नहीं है और इसलिए वे पढ़ना, लिखना या गिनना नहीं सीख रहे हैं। यूनेस्को की "सभी के लिए शिक्षा पर वैश्विक निगरानी रिपोर्ट 2006" के अनुसार, दक्षिण और पश्चिम एशिया में सबसे कम क्षेत्रीय वयस्क साक्षरता दर 58.6% ,  उप-सहारा अफ्रीका में 59.7% और अरब राज्यों में 62.7% है । विश्व में  में सबसे कम साक्षरता दर वाले देश बुर्किना फासो में 12.8% , नाइजर में 14.4% और माली  में 19% हैं। रिपोर्ट गंभीर संपत्ति में निरक्षरता, और निरक्षरता और महिलाओं के प्रति पूर्वाग्रह के बीच एक स्पष्ट संबंध दिखाती है। संयुक्त राष्ट्र निरक्षरता को किसी भाषा में एक साधारण वाक्य को पढ़ने और लिखने में असमर्थता के रूप में परिभाषित करता है।साक्षरता दर केवल बुनियादी, उन्नत नहीं, साक्षरता को संदर्भित करती है। 2006 के उत्सव का विषय "साक्षरता विकास को बनाए रखती है" । 2006 के उत्सव को यूनेस्को की साक्षरता पहल (लाइफ) के साथ जोड़ा गया था, जिसे 2005 में शुरू किया गया था । 2015 तक दुनिया में वयस्क निरक्षरता की दर को आधे से कम करने में मदद करना चाहता है। 50 प्रतिशत से कम साक्षरता दर या 10 मिलियन से अधिक निरक्षर आबादी वाले 35 देशों में लाइफ लागू किया जा रहा है और  संयुक्त राष्ट्र साक्षरता दशक 2003-2012 के लक्ष्यों को आगे बढ़ाने के लिए डिज़ाइन किया गया है। संयुक्त राष्ट्र साक्षरता दशक 2003-2012 के अंतर्गत 13 फरवरी 2003 को संयुक्त राष्ट्र में शुरू किया गया था। सभी के लिए साक्षरता; सभी के लिए आवाज, सभी के लिए सीखना, सभी के लिए सीखना" संयुक्त राष्ट्र ने  दशक की स्थापना 860 मिलियन निरक्षर वयस्कों और 100 मिलियन बच्चों को शिक्षित करने के लिए राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय प्रयासों को संगठित करने के लिए की है । संयुक्त राष्ट्र साक्षरता दशक का उद्देश्य उन लोगों तक साक्षरता का उपयोग करना है जिनके पास वर्तमान में इसकी पहुंच नहीं है। 861 मिलियन से अधिक वयस्क  और 113 मिलियन से अधिक बच्चे स्कूल में नहीं हैं और इसलिए साक्षरता तक पहुंच प्राप्त नहीं कर रहे हैं। यह दशक में  लक्ष्य के साथ वयस्कों की जरूरतों पर ध्यान केंद्रित करेगा कि हर जगह लोग साक्षरता का उपयोग अपने समुदाय के भीतर, व्यापक समाज में और उससे आगे संवाद करने के लिए कर सकें। साक्षरता के प्रयास अब तक सबसे गरीब और अधिकांश आबादी तक पहुंचने में विफल रहे है । दिसंबर 2002 में, संयुक्त राष्ट्र महासभा ने सतत विकास के लिए संयुक्त राष्ट्र शिक्षा दशक 2005-2014 पर संकल्प 57/254 को अपनाया और दशक के प्रचार के लिए यूनेस्को को प्रमुख एजेंसी के रूप में नामित किया गया है । डीईएसडी का समग्र लक्ष्य शिक्षा और सीखने के सभी पहलुओं में सतत विकास के सिद्धांतों, मूल्यों और प्रथाओं को एकीकृत करना है। शैक्षिक प्रयास व्यवहार में बदलाव को प्रोत्साहित कर पर्यावरण और अखंडता, आर्थिक व्यवहार्यता और वर्तमान और भविष्य की पीढ़ियों के लिए एक न्यायपूर्ण समाज के संदर्भ में एक अधिक टिकाऊ भविष्य का निर्माण साक्षरता करता है । सब पढ़े : सब बढ़ें  सर्व शिक्षा अभियान के तहत साक्षरता का विकास प्रारम्भ है । मानवीय जीवन के विकास का मूल साक्षरता है ।

मंगलवार, सितंबर 07, 2021

रिद्धि सिद्धि के दाता गणपति...


सनातन धर्म के विभिन्न ग्रंथों में भगवान गणेश का उल्लेख किया गया है । पुराणों  , गणेश पुराण , शिवपुराण के अनुसार भगवान  गणेश का अवतार  भाद्रपद शुक्ल पक्ष चतुर्थी तिथि बुधवार हुआ था। भगवान गणेश को गणपति , गणेश , गणपति बप्पा, गजानन , वक्रतुंड , विनायक , मंगलमूर्ति , वप्पा , पवित्रता , रिद्धि सिद्धि , लंबोदर , विघ्नहर्ता कहा जाता है । साहित्यकार व इतिहासकार सत्येन्द्र कुमार पाठक ने कहा कि शिवपुराण  रुद्रसंहिताके चतुर्थ (कुमार) खण्ड में के अनुसार  माता पार्वती ने स्नान करने से पूर्व  बालक को उत्पन्न करके उसे अपना द्वार पाल बना दिया। शिवजी ने जब प्रवेश करना चाहा तब बालक ने उन्हें रोक दिया। इस पर शिवगणोंने बालक से भयंकर युद्ध किया परंतु संग्राम में उसे कोई पराजित नहीं कर सका। अन्ततोगत्वा भगवान शंकर ने क्रोधित होकर अपने त्रिशूल से उस बालक का सिर काट दिया। इससे भगवती शिवा क्रुद्ध हो उठीं और उन्होंने प्रलय करने की ठान ली। भयभीत देवताओं ने देवर्षिनारद की सलाह पर जगदम्बा की स्तुति करके उन्हें शांत किया। शिवजी के निर्देश पर भगवान  विष्णु उत्तर दिशा में सर्वप्रथम   मिले हाथी का सिर काटकर ले आए। मृत्युंजय रुद्र ने गज के उस मस्तक को बालक के धड पर रखकर उसे पुनर्जीवित कर दिया। माता पार्वती ने हर्षातिरेक से उस गज मुख बालक को अपने हृदय से लगा लिया और देवताओं में अग्रणी होने का आशीर्वाद दिया। ब्रह्मा, विष्णु, महेश ने उस बालक को सर्वाध्यक्ष घोषित करके अग्रपूज्य होने का वरदान दिया। भगवान शंकर ने बालक से कहा-गिरिजानन्दन! विघ्न नाश करने में तेरा नाम सर्वोपरि एवं  सबका पूज्य बनकर  समस्त गणों का स्वामी है । गणेश्वर तू भाद्रपद मास के कृष्णपक्ष की चतुर्थी को चंद्रमा के उदित होने पर उत्पन्न हुआ है। इस तिथि में व्रत करने वाले के सभी विघ्नों का नाश हो जाएगा और  सिद्धियां प्राप्त होंगी। कृष्णपक्ष की चतुर्थी की रात्रि में चंद्रोदय के समय गणेश तुम्हारी पूजा करने के पश्चात् व्रती चंद्रमा को अ‌र्घ्य देकर ब्राह्मण को मिष्ठान खिलाने के तदोपरांत स्वयं मीठा भोजन करने पर  वर्ष पर्यन्त श्रीगणेश चतुर्थी का व्रत करने वाले की मनोकामना अवश्य पूर्ण होती है। महादेवजी, पार्वती सहित नर्मदा के तट पर गए। वहाँ एक सुंदर स्थान पर पार्वती जी ने महादेवजी के साथ चौपड़ खेलने की इच्छा व्यक्त की। चौपड़ का साक्षी के लिए माता  पार्वती ने दूर्वा  से गणेश  बालक का उत्पन्न कर  हार-जीत का साक्षी रखा था । दैवयोग से तीनों बार पार्वती जी  जीतीं। बालक से हार-जीत का निर्णय कराया गया टैब  उसने महादेवजी को विजयी बताया। परिणामतः पार्वती जी ने क्रुद्ध होकर उसे एक पाँव से लंगड़ा होने और वहाँ के कीचड़ में पड़ा रहकर दुःख भोगने का श्राप दे दिया। बालक ने विनम्रतापूर्वक कहा- माँ! मुझसे अज्ञानवश ऐसा हो गया है। मैंने किसी कुटिलता या द्वेष के कारण ऐसा नहीं किया। मुझे क्षमा करें तथा शाप से मुक्ति का उपाय बताएँ।  माता पार्वती  को उस पर दया आ गई और वे बोलीं- यहाँ नाग-कन्याएँ गणेश-पूजन करने आएँगी। उनके उपदेश से तुम गणेश व्रत करके मुझे प्राप्त करोगे। इतना कहकर वे कैलाश पर्वत चली गईं। एक वर्ष बाद वहाँ श्रावण में नाग-कन्याएँ गणेश पूजन के लिए आईं। नाग-कन्याओं ने गणेश व्रत करके उस बालक को भी व्रत की विधि बताई। तत्पश्चात बालक ने 12 दिन तक श्रीगणेशजी का व्रत किया। तब गणेशजी ने उसे दर्शन देकर कहा- मैं तुम्हारे व्रत से प्रसन्न हूँ। मनोवांछित वर माँगो। बालक बोला- भगवन! मेरे पाँव में इतनी शक्ति दे दो कि मैं कैलाश पर्वत पर अपने माता-पिता के पास पहुँच सकूं और वे मुझ पर प्रसन्न हो जाएँ। गणेशजी 'तथास्तु' कहकर अंतर्धान हो गए। बालक भगवान शिव के चरणों में पहुँच गया। शिवजी ने उससे वहाँ तक पहुँचने के साधन के बारे में पूछा।तब बालक ने सारी कथा शिवजी को सुना दी। उधर उसी दिन से अप्रसन्न होकर पार्वती शिवजी से भी विमुख हो गई थीं। तदुपरांत भगवान शंकर ने बालक की तरह २१ दिन पर्यन्त श्रीगणेश का व्रत किया, जिसके प्रभाव से पार्वती के मन में स्वयं महादेवजी से मिलने की इच्छा जाग्रत हुई।वे शीघ्र ही कैलाश पर्वत पर आ पहुँची। वहाँ पहुँचकर पार्वतीजी ने शिवजी से पूछा- भगवन! आपने ऐसा कौन-सा उपाय किया जिसके फलस्वरूप मैं आपके पास भागी-भागी आ गई हूँ। शिवजी ने 'गणेश व्रत' का इतिहास उनसे कह दिया।तब पार्वतीजी ने अपने पुत्र कार्तिकेय से मिलने की इच्छा से 21 दिन पर्यन्त 21-21 की संख्या में दूर्वा, पुष्प तथा लड्डुओं से गणेशजी का पूजन किया। 21वें दिन कार्तिकेय स्वयं ही पार्वतीजी से आ मिले। उन्होंने माँ के मुख से इस व्रत का माहात्म्य सुनकर व्रत किया।कार्तिकेय ने यही व्रत विश्वामित्रजी को बताया। विश्वामित्रजी ने व्रत करके गणेशजी से जन्म से मुक्त होकर 'ब्रह्म-ऋषि' होने का वर माँगा। गणेशजी ने उनकी मनोकामना पूर्ण की।  श्री गणेशजी,  सबकी कामनाएँ पूर्ण करते हैं ।
भाद्रपद शुक्ल पक्ष की चतुर्थी को रात्रि में चन्द्र-दर्शन निषिद्ध किया गया है। व्यक्ति इस रात्रि को चन्द्रमा को देखने पर झूठा-कलंक प्राप्त होता है। गणेश चतुर्थी को चन्द्र-दर्शन करने वाले व्यक्तियों को उक्त परिणाम अनुभूत हुए, इसमें संशय नहीं है। व्यक्ति को जाने-अनजाने में चन्द्रमा दिख भी जाए तो निम्न मंत्र का पाठ अवश्य कर लेना चाहिए-'सिहः प्रसेनम्‌ अवधीत्‌, सिंहो जाम्बवता हतः। सुकुमारक मा रोदीस्तव ह्येष स्वमन्तकः॥' महाराष्ट्र में  गणपति बाप्पा की उपासना , गणपति उत्सव प्रमुख पर्व है । बिहार एवं आसाम में बहुला चतुर्थी एवं गणेश पूजा मनाई जाती है । भारतीय प्रवासी एवं सनातन संस्कृति के लोग गणेश पूजा का महत्व आवर उपासना करते है । माता पार्वती द्वारा दूर्वा से उत्पन्न गणपति की उपासना दूर्वा , मोदक से किया जाता है । दूर्वा गणेश जी का प्रिय है ।