गुरुवार, मार्च 28, 2024

महाराष्ट्र परिभ्रमण

महाराष्ट्र की सांस्कृतिक विरासत 
सत्येन्द्र कुमार पाठक 
  भारत के पश्चिमी प्रायद्वीपीय क्षेत्र का महाराष्ट्र राज्य का  सृजन 01 मई1960 ई. को होने के बाद राजधानी मुंबई हुआ है। महाराष्ट्र राज्य के क्षेत्रों में नासिक जिले के गोदावरी नदी का उद्गम ,त्रयम्बकेश्वर ज्योतिर्लिंग , पंचवटी ,  पश्चिमी घाट में स्थित महाबलेश्वर के समीप प्रतापगढ़ दुर्ग , , छत्रपति शिवाजी महाराज टर्मिनस रेलवे स्टेशन, अजंता की गुफाओं में अवलोकितेश्वर , ओरंगाबाद जिले का घृनेश्वर ज्योतिर्लिंग , , एलोरा की गुफाओं में कैलास मन्दिर, देवगिरि ,दौलताबाद , अजंता की गुफाएं , मुंबई का गेटवे ऑफ़ इन्डिया, एलीफेंटा की गुफाओं में त्रिमूर्ति की प्रतिमा। , मुम्बा देवी , गणपति बाप्पा मौर्या , पुणे में भीमाशंकर ज्योतिर्लिंग , भीम नदी का उद्गम स्थल , अहमदनगर जिले के शिरडी में साईं मंदिर , दक्षिणी बजरंग बली की मंदिर में शनिवार वाड़ा किला, सिंगनापुर का भगवान सूर्य पुत्र न्याय देव शनिदेव , और नान्देड में हजूर साहिब का मजार है। महाराष्ट्र की स्थितनिर्देशांक 18°58′12″N72°49′12″E / 18.97°N 72.820°E पर अवस्थित महाराष्ट्र के 36 जिले , द्विसदनात्मक में विधान परिषद 78 , विधान सभा 288 , क्षेत्रफल 307713 किमी2 (1,18,809 वर्गमील) में 2011 जनगणना के अनुसार जनसंख्या 11,23,72,972 है। "बॉम्बे पुनर्गठन अधिनियम 1960" द्वारा बॉम्बे राज्य को विभाजित कर महाराष्ट्र राज्य  गठन 01 मई 1960 ई.  किया गया था। महाराष्ट्र की हिंदी और मराठी भाषीय क्षेत्र में मुख्य शहर मुंबई, अहमदनगर, पुणे, छत्रपती संभाजीनगर, भोकरदन,सांगली,कोल्हापूर, नाशिक, नागपुर, ठाणे, शिर्डी, मालेगांव, सोलापुर, अकोला, लातुर, धाराशिव, अमरावती और नांदेड  हैं!
महाराष्ट्र में 1000 ई. पू. कृषि कार्य होती थी परंतु प्राकृतिक आपदा के कारण में महाराष्ट्र का क्षेत्र में  परिवर्तन आने से और कृषि अवरूद्ध हो  गई थी। मुम्बई में 500 ई.पू.  शुर्पारक व सोपर पत्तन एवं सोपर ओल्ड टेस्टामेंट था । मगध सम्राट अशोक काल में अश्मक महाजनपद था ।
मौर्यों वंश के पतन के बाद बघेल का उदय वर्ष 230 में हुआ था ।  वकटकों काल में  अजन्ता गुफाओं का निर्माण हुआ। चालुक्यों का शासन पूर्व सन् 550-760 ई. . तथा 973-1180 ई.  के बीच राष्ट्रकूटों का शासन आया था। मुगल  अलाउद्दीन खिलजी ने मुगल  साम्राज्य दक्षिण में मदुरै तक फैला दिया था। मुहम्मद बिन तुगलक 1325 ई.  में  अपनी राजधानी दिल्ली से हटाकर ओरंगाबाद स्थित देवगिरि को दौलताबाद नामकरण कर राजधानी बना ली थी । बहमनी सल्तनत के टूटने पर देवगिरि प्रदेश  गोलकुण्डा में आया और बादशाह  औरंगजेब का  शासन था ।  मराठों की शक्ति में उत्तरोत्तर वृद्धि होने के बाद अठारहवीं सदी के अन्त तक मराठे  महाराष्ट्र पर तो फैलने से मराठा  साम्राज्य दक्षिण में कर्नाटक के दक्षिणी सिरे तक पहुँचा था। ब्रिटिध साम्राज्य  ने 1820 ई. में  पेशवाओं को  हरा देने के बाद बॉम्बे  प्रदेश ब्रिटिश  साम्राज्य का अंग बन चुका था। आजादी के उपरान्त मध्य भारत के  मराठी क्षेत्रों का संमीलीकरण करके  राज्य बनाने की मांग को लेकर बड़ा आंदोलन के फलस्वरूप 01 मैं 1960 से कोकण, मराठवाडा, पश्चिमी महाराष्ट्र, दक्षिण महाराष्ट्र, उत्तर महाराष्ट्र (खानदेश) तथा विदर्भ, संभागों को एकजुट करके महाराष्ट्र की स्थापना की गई। महाराष्ट्र  राज्य के दक्षिण सरहद से लगे कर्नाटक के बेलगांव शहर और आसपास के गावों को महाराष्ट्र में शामील करने के लिए  आंदोलन चल रहा है। भीमली बीच पर महामहिं छत्रपती शिवाजी महाराज की प्रतिमा नासिक गजट 246 ई.पू. में महाराष्ट्र में मौर्य सम्राट अशोक  दूतावास भेजा था । चालुक्यों शिलालेख के अनुसार   राजवंश, पश्चिमी क्षत्रपों, गुप्त साम्राज्य, गुर्जर, प्रतिहार, वकातका, कदाम्बस्, चालुक्य साम्राज्य, राष्ट्रकूट राजवंश और बघेल के शासन से पूर्व पश्चिमी चालुक्य का शासन था।
चालुक्य वंश 8 वीं सदी के लिए 6 वीं शताब्दी से महाराष्ट्र पर राज किया और शासकों 8 वीं सदी में अरब आक्रमणकारियों को हरायाथा । उत्तर भारतीय सम्राट हर्ष और विक्रमादित्य द्वितीय, पराजित  फुलकेशि द्वितीय, थे। राष्ट्रकूट राजवंश 10वीं  वीं सदी के लिए थे । सुलेमान ने " राष्ट्रकूट राजवंश (अमोघावर्ह) के शासक था । है। १२ वीं सदी में जल्दी ११ वीं सदी से अरब यात्री दक्कन के पठार के पश्चिमी चालुक्य साम्राज्य और प्रभुत्व 12 वीं सदी से 11 वीं सदी तक था । चोल राजवंश लड़ाइयों पश्चिमी चालुक्य साम्राज्य और राजा राजा चोल, राजेंद्र चोल, जयसिम्ह द्वितीय, सोमेश्वरा मैं और विक्रमादित्य षष्ठम के राजा के दौरान दक्कन के पठार में चोल राजवंश के बीच लड़ा गया था।14 वीं सदी में महाराष्ट्र के बघेल वंश, दिल्ली सल्तनत के शासक अल्लाउद्दीन  खलजी द्वारा परास्त किया गया था। ब, मुहम्मद बिन तुगलक डेक्कन पर विजय प्राप्त की और अस्थायी रूप से महाराष्ट्र में बघेल रियासत देवगीरी  (दौलताबाद ) के लिए दिल्ली से अपनी राजधानी स्थानांतरित कर दिया। १३४७ में तुगलक के पतन के बाद, गुलबर्ग के स्थानीय बहमनी सल्तनत अगले 150  वर्षों के लिए  क्षेत्र गवर्निंग, पदभार संभाल लिया है। बहमनी सल्तनत के अलग होने के बाद, १५१८ में, महाराष्ट्र में विभाजित है और पांच डेक्कन सल्तनत का शासन था। अहमदनगर अर्थात् निज़ाम्शा, बीजापुर के आदिलशाह, गोलकुंडा की कुतुब्शह्, बिदर की बरीदशाही, एलिचपूर ( अचलपूर ) या बेरार ( विदर्भ ) की इमादशाही। इन राज्यों में अक्सर एक दूसरे के बीच लड़ा। संयुक्त, वे निर्णायक १५६५ में दक्षिण के विजयनगर साम्राज्य को हरा दिया।महाराष्ट्र में चंद्रपुर,नागपुर नगर गोंड राजा बख्त बुलंद शाह द्वारा बसाया गया और कई वर्षो तक सफल शासन किया।यहां गोंड राजाओं द्वारा निर्मित कई भव्य ऐतिहासिक इमारतें उस दौर की याद दिलाती है।
मुंबई  क्षेत्र 1535 ई. को    पुर्तगाल से कब्जा करने से पूर्व गुजरात की सल्तनत का शासन और फारुखि वंश मुग़ल विलय से पहले 1382 ई. एवं 1601 ई.   के बीच खानदेश क्षेत्र पर शासन किया था। मलिक अंबर 1660 ई. से 1626 ई.  में अहमदनगर के निजामशाही राजवंश के रीजेंट था।  मुर्तजा निजाम शाह की ताकत और शक्ति में वृद्धि हुई थी । मलिक अंबर डेक्कन क्षेत्र में छापामार युद्ध का प्रस्तावक से एक होने के लिए कहा था । मलिक अंबर सिंहासन मलिक अम्बर की सौतेली माँ, नूरजहाँ, से दिल्ली में शाहजहां कुश्ती शक्ति की सहायता की थी । 17 वीं सदी तक, शाहजी भोसले, मुगलों और बीजापुर के आदिल शाह की सेवा में  स्थानीय सामान्य, स्वतंत्र शासन स्थापित करने का प्रयास किया। शिवाजीराजे भोसले ने मराठा साम्राज्य की नींव डाल कर  विशाल साम्राज्य खडा करने के पश्चात मराठा रियासत के सरदार बड़ौदा के गायकवाड़, इंदौर के होळकर, ग्वालियर के शिंदे और पेशवाओं द्वारा विस्तार किया गया मुगलों को परास्त किया और भारतीय उपमहाद्वीप के उत्तरी और मध्य भागों में बड़े प्रदेशों पर विजय प्राप्त की थी । १७६१ 1761 ई. में पानीपत की तीसरी लड़ाई में हार के बाद मराठा उनकी सर्वोच्चता बहाल और अठारहवीं सदी के अंत तक नई दिल्ली सहित मध्य और उत्तर भारत पर शासन किया। तीसरे एंग्लो मराठा युद्ध 1817ई. से 1818 ई. और 1819 ई.  में देश पर शासन मराठा साम्राज्य और ईस्ट इंडिया कंपनी का अंत करने के लिए नेतृत्व किया था ।
ब्रिटिश साम्राज्य का  उत्तरी डेक्कन को पाकिस्तान में कराची क्षेत्र में फैलाकर  मुंबई प्रेसीडेंसी के हिस्से के रूप में  क्षेत्र शासित. मराठा राज्यों की संख्या में ब्रिटिश आधिपत्य को स्वीकार करने के लिए बदले में स्वायत्तता को बनाए रखना था ।  महाराष्ट्र के क्षेत्र में  रियासतों नागपुर, सातारा और कोल्हापुर थे । सातारा को 1848 ई.  में बॉम्बे प्रेसीडेंसी को कब्जे में लिया गया था और नागपुर प्रांत, मध्य प्रांतों के बाद के हिस्से बनने के लिए 1853 ई.  में कब्जा कर लिया था। हैदराबाद के राज्य के निजाम का हिस्सा को 1853 ई. में अंग्रेजों ने कब्जा कर लिया और 1903 ई.  मध्य प्रांत को कब्जे में लिया गया था ।   मराठवाड़ा प्रदेश में महाराष्ट्र का हिस्सा है । , ब्रिटिश काल के दौरान निजाम हैदराबाद राज्य का हिस्सा बना था ।
ब्रिटिश शासन के कारण 20 वीं सदी की प्रारम्भ  में आजादी के लिए संघर्ष बाल गंगाधर टिलक और विनायक दामोदर सावरकर चरमपंथियों और जस्टिस महादेव गोविंद रानडे, गोपाल कृष्ण गोखले, फिरोजशाह मेहता और दादाभाई नौरोजी नरमपंथियों के नेतृत्व में आकार ले लिया। 1942 ई. में भारत छोड़ो आंदोलन के क्षेत्र में अहिंसक सविनय अवज्ञा आंदोलन और हमलों द्वारा चिह्नित किया गया था ।  बी जी खेर त्रिकोणीय बहुभाषी मुंबई प्रेसीडेंसी के प्रथम  मुख्यमंत्री थे। भारत की स्वतंत्रता के बाद, कोल्हापुर सहित डेक्कन राज्य अमेरिका 1950 ई.   में पूर्व मुंबई प्रेसीडेंसी से बनाया गया था । बम्बई राज्य  1956 में, राज्य पुनर्गठन अधिनियम भाषायी तर्ज पर भारतीय राज्यों को पुनर्गठित किया और मुंबई प्रेसीडेंसी राज्य मध्य प्रांत और बरार से तत्कालीन हैदराबाद राज्य और विदर्भ क्षेत्र से मराठवाड़ा औरंगाबाद डिवीजन के मुख्य रूप से मराठी भाषी क्षेत्रों के अलावा द्वारा बढ़ा दिया गया है। , मुंबई राज्य के दक्षिणी भाग मैसूर को सौंप दिया गया था। 1954 -55  से महाराष्ट्र के लोगों को दृढ़ता से द्विभाषी मुंबई राज्य के खिलाफ विरोध और डॉ॰ गोपालराव खेडकर के नेतृत्व में संयुक्त महाराष्ट्र समिति का गठन किया गया था। महागुजराथ् आंदोलन  अलग गुजरात राज्य के लिए शुरू किया गया था। गोपालराव खेडकर, एस.एम. जोशी, एस.ए. डांगे, पी.के. अत्रे और अन्य नेताओं को अपनी राजधानी के रूप में मुंबई के साथ महाराष्ट्र का एक अलग राज्य के लिए लड़ाई लड़ी थी । 01  मई 1960 ई. १९६० को महाराष्ट्र राज्य का सृजन किया गया है।  महाराष्ट्र की सबसे उच्ची चोटी कलसुबाई शिखर की उच्चाई 1646 मीटर (5400 फिट) है। महाराष्ट्र की राजधानी मुंबई है और नागपूर इसकी उपराजधानी हे।
महाराष्ट्र में छः प्रशासनिक विभाग अमरावती , छत्रपती संभाजीनगर , कोंकण , नागपुर , नाशि , पुणे और ३६ ज़िलों, १०९ उपविभागों, और महाराष्ट्र के तालुके - 358 , मुंबई उपनगर मे अंधेरी,कुर्ला,बोरिवली ये तीन तालुके प्रशासकीय सोय के लिये बनाये गये है।) मुख्य 355 तालुकाओं में विभाजित हैं। जिलों में अकोला , अमरावती , अहमदनगर , औरंगाबाद , मुंबई उपनगर , बीड , भंडारा , बुलढाणा , चन्द्रपूर , धुले , गडचिरोली , गोंदिया , हिंगोली , जळगाव , जालना , कोल्हापुर , लातूर , मुंबई , नागपूर , नांदेड , नंदुरबार , नाशिक , उस्मानाबाद , परभणी , पुणे , रायगड , रत्नागिरी , सातारा , सांगली , सिंधुदुर्ग , सोलापूर , ठाणे , वर्धा , वाशीम , यवतमाळ , पालघर
महाराष्ट्र राज्य का  पर्यटन स्थल - महाराष्ट्र का  पश्चिमी घाट और सुंदर कोंकण तट प्रचुर प्राकृतिक सौंदर्य से भरपूर,और 'भारत के हृदय का प्रवेश द्वार'  कहा जाता है। औरंगाबाद और कोल्हापुर के तीर्थ स्थलों, उद्यानों, समुद्र तटों, जंगल से ढकी पहाड़ियों और स्मारकों का स्थल है। ओरंगाबाद जिले का मुख्यालग औरंगाबाद से 30 किमी पर स्थित   अजंता और एलोरा की गुफाएँ ,  घृणेश्वर  मंदिर, बीबी का मकबरा, खुल्दाबाद, दौलताबाद किला, जैन गुफाएँ , अजंता में 29 अलग-अलग चट्टानों को काटकर बनाई गई संरचनाएँ हैं, जबकि एलोरा में  इतिहास के विभिन्न कालखंडों की 34 ऐसी अद्भुत रचनाएँ 400 ई.पू. से 1100 ई. की हैं। अनुमान लगाया गया है कि गुफाओं की नक्काशी 400 ईसा पूर्व से लेकर 1100 ई में अजंता और एलोरा की गुफाएँ विश्व धरोहर स्थल  यूनेस्को द्वारा  भारत की सांस्कृतिक विरासत के हिस्से के रूप में नामित किया गया है। एलोरा की कैलाश मंदिर अवश्य देखना चाहिए और गुफा मंदिर की सुंदर नक्काशी और उसके विशाल अखंड ढांचे से युक्त है। सतारा जिले का एलिफेंट हेड पॉइंट, धोबी झरना, आर्थर सीट, वेन्ना झील, महाबलेश्वर मंदिर , पर्वर्तीय स्थल , झरनों वाली नदियाँ महाबलेश्वर को घेरने वाले  पहाड़ों का स्थल हैं। मैल्कम पेठ,  क्षेत्र महाबलेश्वर और शिंडोला गांव  तीर्थ स्थल है।  कृष्णा नदी का उद्गम स्थल , भगवान शिव को समर्पित 19 वीं शाताब्दी का महाबलेश्वर मंदिर है । प्चाइनामैन फॉल्स, धोबी वॉटरफॉल, विल्सन पॉइंट और तपोला में महाबलेश्वर  हैं। महाबलेश्वर ,  वेन्ना झील है। मुंबई में  मरीन ड्राइव, जुहू बीच, गेटवे ऑफ इंडिया, प्रिंस ऑफ वेल्स संग्रहालय, सिद्धिविनायक मंदिर , अरब सागर तटों के रूप में सर्वश्रेष्ठ उपहार दिया है। मुंबई में समुद्र तटों की जुहू बीच, चौपाटी बीच, अक्सा बीच, वर्सोवा बीच और मध आइलैंड का मध्य , सिद्धिविनायक मंदिर, महालक्ष्मी मंदिर और मुंबा देवी मंदिर   हैं। अरब सागर पर सूर्यास्त देखने के लिए मरीन ड्राइव और बैंडस्टैंड ,  गेटवे ऑफ इंडिया  ,  एलीफेंटा गुफाओं तक अरब सागर में नौका की सवारी का आनंद लेते हैं । लोनावाला क्षेत्र में राजमाची किला, टाइगर लीप,कार्ला गुफाएं, लोहागढ़ किला, भुशी बांध है। स्मृति और संहिताओं के अनुसार मानव सृष्टि काल में अरब सागर के सप्त द्वीप में निषाद एवं कोल का कुलदेवी भूमि मुम्बा माता को समर्पित मुम्बा द्वीप थी । मुम्बा द्वीप को विभिन्न कालखंडों में मुम्बा ,मुम्बाआई , मोम्बा , बॉम्बे , बम्बई , मुम्बई कहा गया है । सतयुग में मुम्बा का दानव राज  , त्रेतायुग में राक्षस राज रावण की बहन सूर्पनखा मुम्बा द्वीप की शासिका थी ।  माता मुम्बा (लक्ष्मी माता )और भगवान शिव  की भार्या माता पार्वती के प्रिय पुत्र गणपति की उपासिका सूर्पनखा थी । कुमकर्ण का पुत्र भीमा का आराध्य भगवान शिव थे । मुम्बई को बॉम्बे , मुम्बा , महा अम्बा , आई , त्रेतायुग में दानव राज कालका का पुत्र विद्युतजिह्व का प्रेम विवाह राक्षस राज दशगनन रावण की बहन सूर्पनखा से हुआ था । राजनाथ रामायण के अनुसार ऋषि विश्राव की भार्या कैकशी की पुत्री अप्सरा नयनतारा का रूप सूर्पनखा का पुत्र जम्बू माली ने अरब सागर में 67 वर्गकीमि में फैले  सप्त द्वीप में मुम्बा ,कोलवा ,महिम ,मझगांव ,परेल और वर्ली कोलियों पर आधिपत्य कायम कर सुरनंदकी रखा था । सूर्पनखा को सूपनखा ,सूर्यनवौ ,सर्पकनक ,सुर्पनखर ,सुरनंदकी ,सम्मानरखा ,मीनाक्षी , चंद्रबखा  कहा जाता था ।  603 वर्गकीमि में विकसित एवं 45 मीटर व 1476 फिट उचाई युक पर्वत , समुद्र तल से 10 मीटर व 33 फीट से 15 मीटर व 49 फिट उचाई पर स्थित महाराष्ट्र राज्य की राजधानी जेरॉल्ड ऑगिरियर ने मुम्बा का नाम परिवर्तित कर 1669 से 1677 ई. में बॉम्बे शहर की स्थापना की थी । मुम्बई  कोल साम्राज्य की प्रधान केंद्र कोली की कुलदेवी मां मुम्बा नाम पर मुम्बा आई थी ।  मुम्बई की नदी नर्मदा  का संगम अरब सागर में हुआ है । हिंदी के विकास  के लिए मुम्बई हिंदी विद्यापीठ का मुख्यालय उद्योग मंदिर , धर्मवीर संभाजीराजे मार्ग माहिम मुम्बई  है ।मुम्बई हिंदी विद्या पीठ  की मासिक हिंदी पत्रिका भारती73 वर्षों से प्रकाशित हो रही है । मुम्बई हिंदी विद्यापीठ के सांस्कृतिक मंत्री विनोद कुमार दुबे के अनुसार विद्यापीठ हिंदी के विकास के लिए विस्तृत उल्लेख किया है।
 परली वैजनाथ - महाराष्ट्र राज्य का बिड जिले के परली  देवगिरि पर्वत पर अवस्थित वैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग  स्थापित है ।वैजनाथ ज्योतिर्लिंग परळी  निर्देशांक 18°50′33.98″N 76°32′7.42″E / 18.8427722°N 76.5353944°E वैद्यनाथ मंदिर परली का निर्माण देवगिरि के सरदार श्री करणाधिप हेमाद्री ने करवाया था।  रानी अहिल्याबाई होल्कर द्वारा परली वैद्यनाथ मंदिर का जीर्णोद्धार कराया।  मंदिर चेरबंदी है और भव्य एवं सीढ़ियां और भव्य प्रवेश द्वार  स्थान और  मंदिर परिसर में श्रद्धालु  गर्भगृह और सभा भवन  से ज्योतिर्लिंग को  वैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग को स्पर्श एवं   दर्शन करते   है। मंदिर क्षेत्र में तीन बड़े तालाब हैं। मंदिर से तीन किलोमीटर की दूरी पर ब्राह्मणदी के तट पर 300 फीट की ऊंचाई पर जीरेवाड़ी में सोमेश्वर मंदिर है।अंबेजोगाई से 25 किमी और परभणी से 60 किमी.की दूरी पर स्थित परली वैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग है । परली वैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग को परल्याम वैद्यनाथ  ज्योतिर्लिंग कहा जाता है।
 औंधा नागनाथ मंदिर - महाराष्ट्र राज्य का हिंगोली जिले के औंधा नागनाथ मंदिर हेमाडपंथी वास्तुकला  निर्देशांक 19.537087°N 77.041508°E पर अवस्थित मंदिर कापुनर्निमाण सप्तमंजिल  13 वीं शताब्दी में सेउना राजवंश द्वारा  13वीं शताब्दी में किया गया था । द्वापरयुग में हस्तिनापुर का राजा युधिष्ठिर द्वारा औंधा नागनाथ मंदिर का निर्माण किया था ।औरंगजेब द्वारा तोड़े जाने से पहले मंदिर की इमारत सात मंजिला थी । औंधा नागनाथ मंदिर का क्षेत्रफल 669.60 वर्ग मीटर (7200 वर्ग फुट) और ऊंचाई 18.29 मीटर (60 फीट) एवं  मंदिर परिसर का  क्षेत्रफल लगभग 60,000 वर्ग फुट है । पेशवा के शासन के दौरान आधा नागनाथ ख्याति प्राप्त थी। औंधा नागनाथ मंदिर के गर्भ गृह भूमि से दो सीढियां से नीचे सीढ़ियों के माध्यम से औध नागनाथ ज्योतिर्लिंग  स्थित है ।औंधा नागनाथ परिसर में 12 शिवलिंग ,  12 छोटे मंदिर और  108 मंदिर और 68 तीर्थस्थल हैं। बादशाह औरंगजेब की विजय के दौरान औंधा नागनाथ मंदिर  को नष्ट करने के बाद पुनः  मंदिर का पुनर्निर्माण अहिल्याबाई होल्कर ने करवाया था । वारकरी संप्रदाय के संतों नामदेव , विसोबा खेचर और ज्ञानेश्वर के जीवन से संबंध  है । विसोबा खेचरा के शिष्य नामदेव से औंधा नागनाथ मंदिर में मिले थे।  संत ज्ञानेश्वर ने  मंदिर में जाने की सलाह दी थी। ज्ञानदेव गाथा पाठ के अनुसार , ज्ञानेश्वर और मुक्ताई ने नामदेव को  गुरु की तलाश में औंधा नागनाथ के मंदिर की यात्रा करने का निर्देश दिया। मंदिर में, नामदेव विसोबा को शिव के प्रतीक लिंगम पर पैर रखकर आराम करते हुए देखते हैं । नामदेव ने शिव का अपमान करने के लिए उनकी भर्त्सना की। विसोबा ने नामदेव से अपने पैर कहीं और रखने को कहा और जहां भी नामदेव ने विसोबा के पैर रखे, वहां एक लिंग उग आया। इस प्रकार, अपनी योगिक शक्तियों के माध्यम से, विसोबा ने पूरे मंदिर को शिव-लिंगम से भर दिया और नामदेव को भगवान की सर्वव्यापकता की शिक्षा दी थी । नामदेव और औंधा नागनाथ मंदिर के  ज्ञानेश्वर, विसोबा खेचर , नामदेव  का आध्यात्मिक स्थल तथा ,  सिख धर्म के संस्थापक गुरु नानक ने  क्षेत्र की यात्रा के दौरान औंधा नागनाथ मंदिर और नामदेव के जन्मस्थान नरसी बामनी का  दौरा किया था। नामदेव को भगत नामदेव के रूप में  सिख धर्म में सम्मानित किया जाता है।: सिद्धिविनायक मन्दिर -  मुम्बई स्थित  दादर में  सिद्धि विनायक मंदिर के गर्भगृह में गणेश जी का  प्रतिमा की सूड़ दाईं तरह मुड़ी होने के कारण सिद्धि विनायक स्थापित  है । सिद्धिविनायक मंदिर की स्थापना 19 नवंबर 1801 ई. में  ढ़ाई फीट ऊंची दो फीट चौड़ी शालिग्राम पाषाण में युक्त भगवान गणेश की चतुर्भुजी एवं सूड़ दाई और मुड़ी हुई , ऊपरी दाए हाथ में कमल , , बाएँ हाथ में अंकुश ,  और नीचे के दाएँ हाथ में मोतियों की माला , बाएं हाथ में मोदक से भरा पात्र , बगल में रिद्धि और सिद्धि , मस्तक के ललाट पर तीसरी आँखें , गले में सर्प की माला है। सिद्धि विनायक की चतुर्भुजी विग्रह में निर्मित मूर्ति रिद्धि , सिद्धि , सर्वमंगलकारी  ऐश्वर्य युक्त है । आर्थिक एवं समृद्धि की नगरी मुंबई के दादर क्षेत्र  का सिद्धिविनायक मंदिर  'अष्टविनायक है ।  महाराष्ट्र के अहमदनगर जिले के सिद्ध टेक के गणपति सिद्धिविनायक ,  महाराष्ट्र में गणेश दर्शन के आठ सिद्ध  अष्टविनायकों में मुम्बई की सिद्धि विनायक स्थापित है। विभिन्न स्रोतों एवं सरकार के दस्तावेजों के अनुसार मुम्बई स्थित सिद्धि विनायक मंदिर का निर्माण मंदिर  संवत् १६९२ व  १९ नवंबर १८०१ में  हुआ था। सिद्धि विनायक मंदिर का पुनर्निर्माण  १९९१ में महाराष्ट्र सरकार ने  निर्माण के लिए २० हजार वर्गफीट की जमीन प्रदान की। सिद्धि विनायक मंदिर की इमारत पांच मंजिला  और प्रवचन कक्ष , गणेश संग्रहालय व गणेश विापीठ के अलावा दूसरी मंजिल पर अस्पताल है।  मंजिल पर रसोईघर से एक लिफ्ट सीधे गर्भग्रह में आती है। पुजारी गणपति के लिए निर्मित प्रसाद व लड्डू रास्ते से लाते हैं। अष्टभुजी गर्भग्रह १० फीट चौड़ा और १३ फीट ऊंचा चबूतरे पर स्वर्ण शिखर वाला चांदी का सुंदर मंडप में सिद्धि विनायक स्थापित  हैं। गर्भग्रह में अष्टविनायक, अष्टलक्ष्मी और दशावतार की आकृतियां चित्रित हैं। वैसे भी सिद्धिविनायक मंदिर में हर मंगलवार को भारी संख्या में भक्तगण गणपति बप्पा के दर्शन कर अपनी अभिलाषा पूरी करते हैं। मंगलवार को यहां इतनी भीड़ होती है कि लाइन में चार-पांच घंटे खड़े होने के बाद दर्शन हो पाते हैं। हर साल गणपति पूजा महोत्सव यहां भाद्रपद की चतुर्थी से अनंत चतुर्दशी तक विशेष समारोह पूर्वक मनाया जाता है।सिद्धिविनायक मंदिर को हर साल लगभग ₹ 100 मिलियन - ₹ ​​150 मिलियन का दान मिलता है, जो इसे मुंबई शहर का सबसे अमीर मंदिर ट्रस्ट बनाता है। 2004 में, सिद्धिविनायक गणपति मंदिर ट्रस्ट, जो मंदिर का संचालन करता है, पर दान के कुप्रबंधन का आरोप लगाया गया था। नतीजतन, बॉम्बे हाईकोर्ट ने ट्रस्ट के दान की जांच करने और आरोपों की जांच के लिए सेवानिवृत्त न्यायाधीश वी पी टिपनिस की अध्यक्षता में एक समिति नियुक्त की। समिति ने बताया कि "इस मामले का सबसे चौंकाने वाला पहलू यह है कि विशेष संस्थानों के लिए कोई विधि या सिद्धांत का पालन नहीं किया जाता है। चयनकर्ताओं के लिए केवल मानदंड या संदर्भ या मंत्री या राजनीतिक भारी सिफारिश या संदर्भ थे, जो आम तौर पर सत्ताधारी पार्टी से संबंधित थे।2006 में बॉम्बे हाईकोर्ट ने राज्य सरकार, सिद्धिविनायक मंदिर ट्रस्ट और याचिकाकर्ता केवल सेमलानी को मंदिर के ट्रस्ट फंड का उपयोग करने के लिए "विचारोत्तेजक दिशानिर्देश" तैयार करने का निर्देश दिया।
 अहमदनगर -  महाराष्ट्र राज्य का अहमदनगर  जिला का मुख्यालय सीना नदी के  पश्चिमी तट पर  अहमदनगर शहर  औरंगाबाद से 114 किमी, पूणे से 110 किमि  दूरी पर स्थित है।अहमदनगर शहर की स्थापना अहमद निजाम शाह बहरी द्वारा 1490 ई.  में की गयी  थी।  अहमदनगर पर्यटन क्षेत्र में शिरडी में साईं बाबा मंदिर , दक्षिण मुखी हनुमानजी , शिंगणापुर  में भगवान न्यायदेव शनि मंदिर ,  अहमदनगर में अहमदनगर किला, आनंद धाम, मुला बांध, चांदबिबी महल  , रंधा झरना , अमृतेश्वर मंदिर है। अहमदनगर किला - अहमदनगर किला का निर्माण अहमदनगर सुल्तानत निजाम शाही राजवंश के  सुल्तान मलिक अहमद निजाम शाह प्रथम ने आक्रमणकारियों के खिलाफ शहर की रक्षा के लिए  किले का निर्माण करने का आदेश दिया था । अहमदनगर किले की  18 मीटर ऊंची दीवारें 22 बुर्जों द्वारा समर्थित  द्वार; तीन छोटे सैली बंदरगाह; ग्लासिश; और पत्थर से दोहराई  गई खाई है ।  शाही राजवंश के राजकुमारी चांद बीबी ने  मुगलों से किले का बचाव किया था । बादशाह  औरंगजेब की मृत्यु 1707 ई. में होने   के बाद, अहमदनगर किला 1724 में निजाम, 1795 में मराठों और  1790 में सिंधियास में पारित हो गया था । अहमदनगर किला ब्रिटिशों द्वारा 1803 ई. में लिया गया था । एंग्लो-मराठा युद्ध। भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान, अंग्रेजों ने अहमदनगर किले में जेल बनाया था । जवाहर लाल नेहरू, अबुल कलाम आजाद, सरदार पटेल इत्यादि भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के विभिन्न राजनयिकों को  किले में हिरासत में लिया चांद बीबी मकबरा - अहमदनगर शहर से 13 किमी दूर स्थित पहाड़ी की श्रंखला पर बीजापुर की रानी चांद बीबी मकबरा  व सलाबत खान का मकबरा है । निजाम शाह राजवंश के दौरान चांद बीबी और सलाबत खान  प्रमुख थे । आनंद धाम -  जैन तीर्थ केंद्र, आनंद धाम जैन धार्मिक संत श्री आनंद ऋषिजी महाराज का विश्राम स्थल है। उनकी शिक्षाएं प्यार, अहिंसा और सहिष्णुता में गहरी थीं। वह नौ भाषाओं में कुशल थे और उन्होंने मराठी और हिंदी में बड़े पैमाने पर लिखा था। आनंद धाम का निर्माण श्री आनंद ऋषिजी महाराज की स्मृति में 1992 में हुआ था। इसके धार्मिक महत्व के अलावा आनंद धाम अपने स्थान और कमल के आकार के स्मारक के लिए  प्रसिद्ध है।भेंडदारा झील रंध ग्राम का प्रवरा नदी पर  निर्मित भंवर बांध व विल्सन बांध भूस्तर  से 150 मीटर ऊपर स्थित है।  पर्वत श्रृंखला पर कालु बाई मंदिर , हरिशचंद्रगढ़ वन्यजीव अभयारण्य के भीतर स्थित है।  रंधा फाल्स प्रवाड़ा नदी पर झरना  170 फीट की ऊंचाई से एक खूबसूरत घाटी में गिरता है। 
अमृतेश्वर मंदिर - भंवरारा से 17 किमी की दूरी पर रतनवाड़ी ग्राम में  अमृतेश्वर मंदिर  इगतपुरी क्षेत्र के रतनवाडी गांव में  प्रवरा नदी  तट पर स्थित  अमृतेश्वर शिव मंदिर पत्थर नक्काशीदार मंदिर 9वीं शताब्दी ई.  में शिलाहारा राजवंश के शासकों द्वारा निर्माण गया था। राजा झांज द्वारा निर्मित 12 शिव मंदिरों में से एक है। रतनगढ़ किला  शिव मंदिर से  दूरी पर स्थित है ।अमृतेश्वर मंदिर का निर्माण हेमाडपंथी वास्तुकला शैली में मुख्य मंदिर पर सुंदर चट्टानों  काले और लाल पत्थरों के साथ 12 स्तंभों वाला मंडप  में खूबसूरत नक्काशीदार मूर्तियां और फूल हैं। रतनवाडी पहाड़ियों पर किसी न किसी सड़कों के कारण इस मंदिर में सड़क से यात्रा करना बहुत मुश्किल है। रतनवाड़ी को आर्थर झील द्वारा भंवरारा से अलग किया गया है। रतनवाडी गांव भेदारा से नाव से संपर्क किया जाता है।
  शिरडी - अहमदनगर  जिला मुख्यालय अहमदनगर  से 82 किमी की दूरी पर शिरडी में स्थित शिरडी में साईं बाबा  मंदिर  है ।  साईं बाबा को 20 वीं शताब्दी भारत के महानतम संतों के रूप में जाना जाता है। साईं बाबा 16 वर्ष की उम्र में शिरडी गए और 1918 में उनकी मृत्यु तक वहां रहे थे । साईं बाबा ने शिरडी गांव को भक्तों के लिए पवित्र तीर्थ स्थल में बदल दिया था ।  शिरडी में साईं बाबा ने अपनी ‘समाधि’ या अंतिम निवास प्राप्त किया। शिरडी मंदिर परिसर में लगभग 200 वर्ग मीटर का क्षेत्र में गुरुस्तान, समाधि मंदिर, द्वारकामाई, चावड़ी और लेंडी बाग हैं। शिरडी में साई  मंदिर  , मारुति मंदिर, खंडोबा मंदिर, साई विरासत का स्थान हैं।
शनि शिंगणापुर -   महाराष्ट्र राज्य के अहमदनगर ज़िले का स्थित शिंगणापुर में भगवान सूर्य की भार्या संज्ञा माता की छाया के पुत्र न्याय का देवता शनि को समर्पित शनी देव मंदिर के लिए प्रसिद्ध है। शिंगणापुर का निर्देशांक: 19°24′00″N 74°49′00″E / 19.4000°N 74.8167°E न्याय देव शनि की स्वयंभू मूर्ति   5 फुट 9 इंच ऊँची व 1 फुट 6 इंच चौड़ी यह मूर्ति काले रंग  संगमरमर के  चबूतरे पर धूप में विराजमान है। शनिदेव की काले संगमरमर के रूप में अष्ट प्रहर धूप , आँधी ,  तूफान  या जाड़ा ,  ऋतुओं में बिना छत्र धारण किए खड़े हैं।  तीन हजार जनसंख्या के शनि शिंगणापुर गाँव के निवासी  घर में दरवाजा ,  कुंडी तथा कड़ी लगाकर ताला नहीं लगाया जाता है ।  घर में लोग आलीमारी, सूटकेस आदि नहीं वल्कि  शनि भगवान की आज्ञा से किया जाता है। मूल्यवान वस्तुएँ, गहने, कपड़े, रुपए-पैसे आदि रखने के लिए थैली तथा डिब्बे या ताक का प्रयोग करते ,  पशुओं से रक्षा के लिए बाँस का ढँकना दरवाजे पर लगाया जाता है। शिगनापुर में  कभी चोरी नहीं हुई। यहाँ आने वाले भक्त अपने वाहनों में कभी ताला नहीं लगाते है। शनिवार को या अन्य दिन में  श्रद्धालु   शनि भगवान की पूजा, सरसो तेल से अभिषेक आदि करते हैं। प्रतिदिनप्रातः 4 बजे एवं सायंकाल 5 बजे यहाँ आरती होती है। शनि जयंती पर ब्राह्मणों को बुलाकर 'लघुरुद्राभिषेक' कराया जाता है। यह कार्यक्रम प्रातः 7 से सायं 6 बजे तक चलता है। शिरडी से शिंगणापुर की दूरी 40 किलोमीटर पर अवस्थित  शनि शिंगणापुर गांव के चारों ओर पर्वतमालाएं हैं। पानस  नदी में  18 वीं शताब्दी  में मूसलाधार बारिश   बाढ़ आने के क्रम में  शिंगणापुर स्थित बेर के पेड़ के साथ अटक कर रुक जाने के बाद भगवान न्यायदेव शनि की के स्वयम्भू की काले पाषाण की मूर्ति प्रकट हुई  थी । बाढ़ का पानी उतरने पर शिंगणापुर गांव के निवासी मवेशी चराने के लिए निकल पड़ने पर  काले रंग की  बड़ी शिला दिखाई दी थी । शिंगणापुर निवासी   ने छड़ी से शिला को  स्पर्श से शिला में से रक्त बहने लगा तथा  बड़ा सा छेद  हो गया था । शनि  शिला में से रक्त आता देख ग्रामीण डर गए और अपने मवेशी वहीं छोड़ कर भाग खड़े हुएथे । मवेशी चराने वाले  गांव पहुंच कर सारी घटना बताई  थी । शनि पाषाण का  चमत्कार को देखने के लिए ग्रामीण का  जमघट लग गया था । उसी रात व्यक्ति को शनिदेव ने स्वप्र में दर्शन दिए और कहा मैं तुम्हारे गांव में प्रकट हुआ हूं, मुझे गांव में स्थापित करो। अगले दिन उस व्यक्ति ने यह बात गांव वालों को बताने के बाद  बैलगाड़ी लेकर वे मूर्ति लेने पहुंचे। ग्रामीणों  ने मिलकर भारी-भरकम मूर्ति को बैलगाड़ी पर रखने का प्रयास किया परन्तु मूर्ति टस से मस न हुई। कोशिशें व्यर्थ होने पर वे सब गांव वासी लौट आए थे । उसी व्यक्ति को शनिदेव ने अगली रात पुन: दर्शन देकर कहा कि रिश्ते में सगे मामा-भांजा हों, वे मुझे उठाकर बेर की डाली पर रखकर लाएंगे तभी मैं गांव में आऊंगा। अगले दिन यही उपक्रम किया गया। सपने की बात सच निकली। मूर्ति को आसानी से गांव में लाकर स्थापित कर दिया गया। शिंगणापुर में स्थापित शनिदेव की प्रतिमा  खुले आसमान के नीचे है। भगवान शनिदेव को किसी का आधिपत्य मंजूर नहीं है। शनिदेव का आज जहां चबूतरा एवं  उत्तर दिशा में नीम का  विशाल वृक्ष है।  भगवे कपड़े पहन कर श्रद्धालु  तेल, काले तिल व काले उड़द चढ़ाकर पूजा करते हैं।  विशेष कुआं के जल से शनि भगवान को स्नान करवाया जाता है । ज्योतिष शास्त्र में शनि को पापग्रह की संज्ञा दी गई है। शनि देव बारह राशियों को प्रभावित करते हैं। शनिदेव जी का तांत्रिक मंत्र ऊँ प्रां प्रीं प्रौं स:शनये नम: अथवा ऊँ शं शनैश्चराय नम: है। शनि के मंत्र का 23 हजार जाप किया जाता है। भगवान शिव के शिष्य एवं भगवान सूर्य की भार्या छाया के पुत्र न्यायदेव शनि का नाम कोणस्थ , पिंगला , बंधु ,कृष्ण, रौदरांतक , यमाग्रजं , सौरी , शनैश्चर ,मंद ,पिप्पलाद ,निलकाय है । शनि का निवास पीपल और अंजीर वृक्ष , प्रिय राशि तुला , पुत्र कुबेर और पुत्री तपस्विनी , पत्नी गंधर्व राज चित्ररथ की पुत्री नीला ,रत्नमणि और मंदा है । शनि का जन्म भद्र पद कृष्ण अमावस्या को हुआ था ।रोमन ग्रीक में शनि की पत्नी ऑप्स को धन की देवी और लुआ को सौहार्द एवं प्रेम की देवी के रूप में उपासना की जाती है ।  अहमदनगर जिले के नेवासा तलूक के शिंगणापुर गढ़ के उत्खनन से प्राप्त हुआ था । शिंगणापुर स्थित न्यायदेव मूर्ति के समक्ष हनुमान जी की मूर्ति स्थापित है ।
 मुम्बा देवी  मंदिर - , महाराष्ट्र की राजधानी मुम्बई में मुम्बा देवी मंदिर सनातन धर्म की शाक्त सम्प्रदाय की अधिष्ठात्री देवी मुम्बा को समर्पित मुम्बा देवी मंदिर है । मुम्बा देवी मंदिर  का निर्माण 1675 ई. में अंग्रेजी नदी की उत्तरी दीवार के सामने पूर्व बोरी बंदर खाड़ी के मुख्य लैंडिंग स्थल के समीप निर्माण गया था। फोर्ट सेंट जॉर्ज एक हिंदू महिला द्वारा जिसका नाम मुंबा भी है। खाड़ी और किला अब इस हद तक ख़राब हो चुके हैं कि वे शहर के अतीत की अनुस्मारक बनकर रह गए हैं। दूसरी ओर, मंदिर अभी भी सक्रिय है।  मुंबई शहर की मुम्बादेवी, महा अम्बा देवी मंदिर निर्माण निर्देशांक 18°57′0″N 72°49′48″E पर 1635 ई. में हुआ था । काले ग्रेनाइट पाषाण में निर्मित सप्त द्वीपों की देवी मुम्बा मराठी कोल भीलों की कुल देवी थी ।  दक्षिण मुंबई के भुलेश्वर क्षेत्र में स्थित मुम्बा देवी मंदिर स्टील और कपड़ा बाजारों के केंद्र में है।  यह मंदिर देवी अम्बा के सम्मान में बनाया गया था। मुंबादेवी मंदिर छह शताब्दी पुराना है। पहला मुंबादेवी मंदिर बोरी बंदर में स्थित था, और माना जाता है कि इसे 1739 और 1770 के बीच नष्ट कर दिया गया था। विनाश के बाद भुलेश्वर में उसी स्थान पर एक नया मंदिर बनाया गया था। देवी धरती माता का प्रतीक हैं और अभी भी उत्तरी भारत-गंगा के मैदान और दक्षिणी भारत की हिंदू आबादी द्वारा समान रूप से पूजी जाती हैं। उस स्थान पर बनाया गया मूल मंदिर जहां पहले विक्टोरिया टर्मिनस स्टेशन था, कोली मछुआरों द्वारा 1737 के आसपास ध्वस्त कर दिया गया था और उसके स्थान पर फांसी तालाब में एक नया मंदिर बनाया गया था। आधुनिक मंदिर में देवी मुंबादेवी की एक छवि है जो चांदी का मुकुट, नाक पर नथ और सोने का हार पहने हुए है। बाईं ओर मोर पर बैठी अन्नपूर्णा की एक पत्थर की मूर्ति है। मंदिर के सामने एक बाघ है, जो देवी का वाहक है। शहर का वर्तमान नाम देवी मुंबादेवी से लिया गया है। यह मंदिर अपने आप में प्रभावशाली नहीं है, लेकिन एक महत्वपूर्ण मील का पत्थर है क्योंकि यह शहर की संरक्षक देवी मुंबा देवी को समर्पित है। शहर का अंतर्राष्ट्रीय नाम बॉम्बे है। 'बॉम्बे' पुर्तगाली नाम का अंग्रेजी संस्करण है जिसका इस्तेमाल अंग्रेजों ने 17वीं शताब्दी में शहर पर कब्ज़ा करने के दौरान किया था। शहर का नाम बोम बाहिया रखा गया, जिसका अर्थ है 'अच्छी खाड़ी'।यह मंदिर देवी पार्वती (जिन्हें गौरी के नाम से भी जाना जाता है) को उनके मछुआरे रूप में समर्पित है। महाकाली का रूप धारण करने के लिए देवी पार्वती को दृढ़ता और एकाग्रता हासिल करनी पड़ी। उस समय भगवान शिव (देवी पार्वती के पति) ने देवी पार्वती को एक मछुआरे के रूप में पुनर्जन्म लेने के लिए आग्रह किया, जिससे वह दृढ़ता और एकाग्रता की क्षमता हासिल कर सकें क्योंकि एक मछुआरा मछली पकड़ने के दौरान इन दोनों गुणों को प्राप्त करता है। देवी पार्वती ने तब एक मछुआरे महिला के रूप में अवतार लिया और मछुआरों के स्थान (वर्तमान स्थान-मुंबई) में आश्रम ले लिया। देवी पार्वती को उनकी शुरुआती उम्र में मत्स्य के नाम से जाना जाता था और बाद में उन्हें मछुआरे के रूप में मुंबा के नाम से जाना जाने लगा। मुम्बा ने मछुआरों के मार्गदर्शन में दृढ़ता और एकाग्रता सीखने में खुद को समर्पित कर दिया क्योंकि वे एकाग्रता और दृढ़ता से मछलियाँ पकड़ने के अपने पेशे में उत्सुक थे। जब मुंबा ने दृढ़ता और एकाग्रता की तकनीक में महारत हासिल कर ली, तो उसके लिए अपने निवास स्थान पर लौटने का समय आ गया, जहां से वह आई थी। भगवान शिव मछुआरे के रूप में आए और मुंबा से यह महसूस करते हुए विवाह किया कि वह वास्तव में कौन थी। बाद में मछुआरों ने उनसे हमेशा वहीं रहने का अनुरोध किया और इसलिए वह ग्राम देवी बन गईं । चूंकि वहां रहने वाले लोगों द्वारा उन्हें "आई" ( मराठी में 'माँ' ) कहा जाता था, इसलिए उन्हें मुंबा आई के नाम से जाना जाने लगा। और मुंबई का नाम उन्हीं के नाम पर पड़ा। मुंबादेवी सड़क ज़वेरी बाज़ार के उत्तरी छोर से दाईं ओर है । यह एक संकरी गली है जिसमें हिंदू धर्म से जुड़ी कई वस्तुएं बेचने वाले स्टॉल लगे हैं - तांबे के कंगन, अंगूठियां, रुद्राक्ष माला, पीतल के लिंग , देवताओं की तस्वीरें, धूप, केसर इत्यादि। गेरूआ वस्त्रधारी साधु सड़क पर घूमते हैं, उनके माथे पर राख का लेप और सिन्दूर लगा है।
 घृनेश्वर व एलोरा  परिभ्रमण - महाराष्ट्र राज्य का ओरंगाबाद जिले को छत्रपति संभाजी नगर जिले के रूप में ख्याति प्राप्त है । औरंगाबाद जिले के  पश्चिम में नासिक , उत्तर में जलगांव , पूर्व में जालना और दक्षिण में अहमदनगर जिले कि सीमा से घिरी हुई है। औरंगाबाद जिले का जिला मुख्यालय  औरंगाबाद शहर है । औरंगाबाद  जिले का क्षेत्रफल 10,100 वर्गकीमि में  मराठवाड़ा पर्यटन क्षेत्र है । छत्रपति संभाजी नगर जिला में एलोरा गुफाओं में कैलाश मंदिर ; अजंता गुफा 19 का अग्रभाग ; गुफा 19 के प्रवेश द्वार के दाईं ओर बुद्ध की नक्काशी; बीबी का मकबरा ; औरंगजेब का मकबरा , खुल्दाबाद ; दौलताबाद किला है। छत्रपति सम्भा जी नगर जिला का क्षेत्रफल 10,100 किमी 2 (3,900 वर्ग मील) में  गोदावरी नदी बेसिन और आंशिक रूप से ताप्ती नदी बेसिन में स्थित है। जिला 19 और 20 डिग्री उत्तरी देशांतर और 74 और 76 डिग्री पूर्वी अक्षांश के बीच स्थित है। औरंगाबाद जिला दक्कन के पठार पर स्थित  और डेक्कन ट्रैप से ढका हुआ और लेट क्रेटेशियस और लोअर इओसीन युग के दौरान बना था। औरंगाबाद जिले के दक्षिणी भाग की औसत ऊंचाई 600 से 670 मीटर के बीच अंतूर - 827 मीटर , अब्बासगढ़ - 671 मीटर , सतोंडा - 552 मीटर , अजिंथा - 578 मीटर पर्वत एवं नदियों में गोदावरी , पूर्णा , शिवना और खाम नदियाँ हैं। नारंगी नदी नाराल के समीप मनियाड नदी के दक्षिण में जल विभाजन के दक्षिणी ढलानों से नारंगी नदी प्रविहित  वैजापुर से होकर  है । नारंगी नदी नासिक जिले से आने वाली देव नाला नदी से मिलती है। नारंगी गोदावरी में प्रवेश के बिंदु से पहले एक लंबे दक्षिण-दक्षिण-पश्चिमी मार्ग का अनुसरण करती हुई  पश्चिम से चोर नाला और पूर्व से कुर्ला नाला से जुड़ कर  कुर्ला के संगम के बाद कुर्ला नदी की प्रवृत्ति को जारी रखता है। जिले में नौ तहसीलें शामिल हैं  कन्नड़ , सोयागांव , सिल्लोड , फुलंबरी , औरंगाबाद , खुल्दाबाद , वैजापुर , गंगापुर और पैठन । तहसील का नया प्रस्ताव लासूर और पिशोर है. बड़े शहरों को गंगापुर तहसील और कन्नड़ है। विधानसभा क्षेत्र स्थित हैं: सिल्लोड , कन्नड़ , फुलंबरी , औरंगाबाद सेंट्रल , औरंगाबाद पश्चिम , औरंगाबाद पूर्व , पैठण , गंगापुर और वैजापुर  और लोकसभा क्षेत्रों में  औरंगाबाद और जालना है। 2011 की जनगणना के अनुसार , औरंगाबाद जिले की जनसंख्या 3,701,282 निवासी है । अजंता की गुफाएँ औरंगाबाद शहर से 107 किमी (66 मील) दूर स्थित अजंता की गुफाएँ घाटी के चारों ओर चट्टानों को काटकर बनाई गई 30 गुफाएं का निर्माण दूसरी और पांचवीं शताब्दी ईस्वी के बीच सातवाहन , वाकाटक और चालुक्य राजवंशों द्वारा किया गया था। गुफाओं में प्राचीन भारतीय कला के विभिन्न कार्य शामिल  अजंता की गुफाएँ यूनेस्को की विश्व धरोहर स्थल हैं । औरंगाबाद शहर से 29 किमी (18 मील) दूर एलोरा की गुफाएँ में राष्ट्रकूट राजवंश के संरक्षण में 5वीं और 10वीं शताब्दी के बीच निर्मित 34 गुफाएं शामिल हैं । एलोरा की गुफाएं  यूनेस्को विश्व धरोहर स्थल हैं। औरंगाबाद शहर से 5 किमी (3 मील) दूर पर स्थित पहाड़ियों के बीच 3 ई. पू. की 12 बौद्ध गुफाएँ में   गुफाओं की प्रतिमा और वास्तुशिल्प डिजाइन में तांत्रिक प्रभाव है। कचनेर मंदिर में भगवान श्री पार्श्वनाथ की मूर्ति , घृष्णेश्वर ज्योतिर्लिंग मंदिर का निर्माण 18वीं शताब्दी में अहिल्याबाई होल्कर ने मराठा शैली में भूमिजा वास्तुकला  करवाया था। कचनेर जैन मंदिर के गर्भगृह में चिंतामणि पार्श्वनाथ मूर्ति 18 वी. सदी में  स्थापित है । औरंगाबाद के समीप एकशूली भंजन  पहाड़ी पर संत एकनाथ महाराज की तपस्या स्थली  थी। ओरंगाबाद जिले का घृष्णेश्वर मंदिर , वेरुल का एलोरा स्थित कैलाश मंदिर, एलोरा गुफाएं, खड़केश्वर मंदिर. विठ्ठल मंदिर, पंढरपुर, आबाद , रेणुकामाता मंदिर, कर्णपुराका  कर्णपुरा मंदिर.संस्थान गणपति मंदिर.सिद्धिविनायक मंदिर.पवन गणेश मंदिर., साई टेकाडी पहाड़ी , हनुमान टेकाडी पहाड़ी ,खंडोबा मंदिर, सतारा ,श्री भद्र मारुति मंदिर, संत ज्ञानेश्वर मंदिर, पैठण , एकनाथ महाराज मंदिर, पैठण , सावता महाराज मंदिर, वैजापुर , महालक्ष्मी मंदिर, वैजापुर, वीरभद्र मंदिर, वैजापुर , संत दानशॉवर महाराज संस्थान , म्हसोबा महाराज मंदिर, सिल्लोड , सिंधी मंदिर, सिल्लोड , श्री चक्रधर स्वामी मंदिर, गंगापुर , पंचवटी महादेव मंदिर, गंगापुर , एकमुखी दत्त मंदिर, गंगापुर , भैरवनाथ मंदिर, सोईगांव , मुंजोबा मंदिर, सोइगांव , महामुनि अगस्ति महाराज वारकरी शिक्षण संस्थान, सोएगांव , राम मंदिर, कन्नड़ , बजरंगबली मंदिर, कन्नड़ , जागृत सिद्धिविनायक मंदिर, कन्नड़ है । औरंगाबाद शहर में मुगल काल द्वारा निर्मित  52 द्वारों के लिए  "द्वारों का शहर कहा गया है। देवगिरि किला व दौलताबाद किला - औरंगाबाद से  15 किमी (9 मील) उत्तर-पश्चिम में स्थित देवगिरी किला व दौलाबाद किला 12वीं शताब्दी ई.  में यादव राजवंश द्वारा बनाया गया था । यादव राजवंश द्वारा देवगिरी किले का निर्माण 200 मीटर ऊंची (660 फीट) शंक्वाकार पहाड़ी पर बनाया गया था । किले की सुरक्षा खाई, खाइयों और बुर्जों वाली तीन घेरने वाली दीवारों से की गई थी। बीबी का मकबरा - बादशाह  औरंगजेब की पत्नी, दिलरास बानो बेगम (मरणोपरांत रबिया-उद-दौरानी   का दफन मकबरा है । यह स्थल औरंगाबाद शहर से 3 किमी (2 मील) दूर "दक्कन का ताज" के रूप में ख्याति प्राप्त है। बादशाह औरंगजेब का मकबरा खुल्दाबाद गांव में, औरंगाबाद शहर के उत्तर-पश्चिम में 24 किमी (15 मील) दूर, शेख ज़ैनुद्दीन की दरगाह के परिसर के दक्षिण-पूर्वी कोण  में स्थित है । 
 घुश्मेश्वर ज्योतिर्लिंग -  भारतीय वाङ्गमय शास्त्रों और पुरणों में घुश्मेश्वर ज्योतिर्लिङ्ग का उल्लेखनीय  है । मनोकामनाएं तथा मानवीय मूल्यों का स्थल घुश्मेश्वर ज्योतिर्लिंग है । महाराष्ट्र राज्य का औरंगाबाद जिले के   वेरुल  देवगिरि पर्वत पर घुश्मेश्वर ज्योतिर्लिंग स्थापित है । शिवपुरण कोटिरुद्रसंहिता अध्याय 32 - 33 के अनुसार ऋषि भारद्वाज कुल में उत्पन्न ब्राह्मण  सुशर्मा की पत्नी सुदेहा  और घुश्मा थी । घुश्मा से पुत्र का जन्म हुआ था । सुशर्मा की दूसरी पत्नी घुश्मा की भक्ति और निश्छल प्रभाव से भगवान शिव का ज्योतिर्लिंग की उत्पत्ति होने के कारण घुमेश्वर ज्योतिर्लिंग ख्याति हुआ । घुश्मा ज्योतिर्लिंग को घुश्मेश्वर, घुश्मेश , तथा तलाव को शिवालय कहा गया है । घुश्मेश्वर ज्योतिर्लिङ्ग को , घुसृणेश्वर या घृष्णेश्वर कहा जाता है । देवगिरि पर्वत के निकट ऋषि  भारद्वाज कुल के  सुधर्मा नामक अत्यंत तेजस्वी तपोनिष्ट ब्राह्मण सुशर्मा की पत्नी  सुदेहा रहती  । दोनों में परस्पर बहुत प्रेम था। किसी प्रकार का कोई कष्ट उन्हें नहीं था। परंतु सुशर्मा  को  संतान नहीं थी।ज्योतिष-गणना से  सुदेहा के गर्भ से संतानोत्पत्ति नहीं  थी । सुदेहा संतान की बहुत  इच्छुक थी। सुदेहा  ने सुधर्मा से अपनी छोटी बहन घुश्मा  से दूसरा विवाह करने का आग्रह किया।पहले  सुधर्मा को यह बात नहीं जँची। लेकिन अंत में उन्हें पत्नी की जिद के आगे झुकना पड़ा। वे उसका आग्रह टाल नहीं पाए। सुशर्मा ने अपनी पत्नी की छोटी बहन घुश्मा को ब्याह कर घर ले आए। घुश्मा अत्यंत विनीत और सदाचारिणी स्त्री थी। घुश्मा भगवान्‌ शिव की अनन्य भक्ता थी। प्रतिदिन एक सौ एक पार्थिव शिवलिंग बनाकर हृदय की सच्ची निष्ठा के साथ भगवान शिव की  पूजन करती थी।भगवान शिवजी की कृपा से उसके गर्भ से अत्यंत सुंदर और स्वस्थ बालक ने जन्म लिया। बच्चे के जन्म से सुदेहा और घुश्मा दोनों के आनंद का पार न रहा। दोनों के दिन बड़े आराम से बीत रहे थे। लेकिन न जाने कैसे थोड़े ही दिनों बाद सुदेहा के मन में एक कुविचार ने जन्म ले लिया। वह सोचने लगी, मेरा  इस घर में कुछ नही  है । सब कुछ घुश्मा का है। अब तक सुदेहा के मन का कुविचार रूपी अंकुर एक विशाल वृक्ष का रूप ले चुका था। मेरे पति पर  उसने अधिकार जमा लिया। संतान  उसी की है। यह कुविचार धीरे-धीरे उसके मन में बढ़ने लगा। इधर घुश्मा का वह बालक  बड़ा हो रहा था। घुश्मा के पुत्र का विवाह हो गया। एक दिन सुदेहा ने घुश्मा के युवा पुत्र को रात में सोते समय मार डाला। उसके शव को ले जाकर उसने उसी तालाब में फेंक दिया जिसमें घुश्मा प्रतिदिन पार्थिव शिवलिंगों को विसर्जित करती थी। सुबह होते सबको इस बात का पता लगा। पूरे घर में कुहराम मच गया। सुधर्मा और उसकी पुत्रवधू दोनों सिर पीटकर फूट-फूटकर रोने लगे। लेकिन घुश्मा नित्य की भाँति भगवान्‌ शिव की आराधना में तल्लीन रहने के बाद पूजा समाप्त करने के बाद घुश्मा पार्थिव शिवलिंगों को तालाब में छोड़ने के लिए चल पड़ी। जब वह तालाब से लौटने लगी उसी समय उसका प्यारा लाल तालाब के भीतर से निकलकर आता हुआ दिखलाई पड़ा। वह सदा की भाँति आकर घुश्मा के चरणों पर गिर पड़ा । इसी समय भगवान्‌ शिव  वहाँ प्रकट होकर घुश्मा से वर माँगने को कहने लगे। वह सुदेहा की घनौनी करतूत से अत्यंत क्रुद्ध हो उठे थे। अपने त्रिशूल द्वारा उसका गला काटने को उद्यत दिखलाई दे रहे थे। घुश्मा ने हाथ जोड़कर भगवान्‌ शिव से कहा- 'प्रभो! यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं मेरी सुदेहा अभागिन बहन को क्षमा कर दें। निश्चित उसने अत्यंत जघन्य पाप किया है परंतु आपकी दया से मुझे मेरा पुत्र वापस मिल गया। अब आप सुदेहा को  क्षमा करें और प्रभो! मेरी एक प्रार्थना है कि  लोक-कल्याण के लिए आप इस स्थान पर सर्वदा के लिए निवास करें।' भगवान्‌ शिव ने उसकी ये दोनों बातें स्वीकार कर लीं। ज्योतिर्लिंग के रूप में प्रकट होकर वह वहीं निवास करने लगे।  शिवभक्त घुश्मा के आराध्य होने के कारण  घुश्मेश्वर से विख्यात हुए। घुश्मा द्वारा स्थापित शिवालय पर भगवान शिव ने घुश्मेश्वर ज्योतिर्लिङ्ग प्रकट हुए थे ।घुश्मा ज्योतिर्लिङ्ग को घुश्मेश, घुश्मेश्वर , घृष्णेश्वर कहा गया है । घुश्मेश्वर ज्योतिर्लिग की उपासना करने से मनोवांक्षित तथा भुक्ति मुक्ति  प्राप्त होते है । घृष्णेश्वर ज्योतिर्लिंग भगवान शिव को समर्पित  दर्शनीय स्थान यूनेस्को विश्व धरोहर स्थल हैं।   घृष्णेश्वर मंदिर व  घुश्मेस्वर मंदिर 13 वीं शताब्दी से पूर्व निर्मित और मुगल साम्राज्य के दौरान बेलूर क्षेत्र में स्थित था । घृनेश्वर  मंदिर  के क्षेत्र में 13 वीं और 14 वीं शताब्दी के मध्य में  विनाशकारी हिंदू-मुस्लिम संघर्ष में मंदिर क्षतिग्रस्त हो गया था।  बेलूर के प्रमुख  छत्रपति शिवाजी महाराज के दादा मालोजी भोसले ने 16 वीं शताब्दी घृनेश्वर   मंदिर को पुनर्निर्माण  करवाया था।  मुगल मराठा युद्ध में 1680 ई. से 1707 ई. तक  घृनेश्वर मंदिर फिरसे क्षतिग्रस्त हुआ और अंतिम  पुनर्निर्माण 18 वीं शताब्दी में इंदौर की महारानी रानी अहिल्या बाई ने करबाया था। घृष्णेश्वर ज्योतिर्लिंग मंदिर परिसर में आंतरिक कक्ष और गर्भगृह बना हुआ  लाल रंग के पत्थरों से बनी हुई  निर्माण 44,400 वर्ग फुट के क्षेत्र में फैला है। घृष्णेश्वर ज्योतिर्लिंग मंदिर गर्भगृह में  घृनेश्वर ज्योतिर्लिंग  है। मंदिर परिसर में पांच स्तरीय लंबा शिखर स्तंभ  नक्काशियों के रूप में निर्मित हैं। मंदिर परिसर में बनी लाल पत्थर की दीवारें  भगवान शिव और भगवान विष्णु के दस अवतारों को दर्शाती हैं। गर्भगृह में पूर्व की ओर शिवलिंग  मार्ग में नंदिस्वर की मूर्ती के दर्शन करते  हैं। घृष्णेश्वर ज्योतिर्लिंग की कहानी – घृष्णेश्वर ज्योतिर्लिंग की कहानी पति पत्नी के जोड़े सुधर्मा और सुदेहा की कहानी  हैं। पति पत्नी विवाहिक जीवन में खुश लेकिन परंतु  संतान सुख की प्राप्ति से वंचित थे । सुदेहा कभी माँ नही बन सकती है । सुदेहा ने अपनी छोटी बहन घुश्मा के साथ अपने अपने पति सुधर्मा का विवाह करवा दिया। समय व्यतीत होने लगा और घुश्मा के गर्व से खूबसूरत बालक ने जन्म लिया। लेकिन धीरे-धीरे अपने हाथ से पति, प्रेम, घर-द्वारा, मान-सम्मान को छिनते हुए देख सुदेहा के मन में ईर्ष्या के बीज अंकुरित होने लगे और एक दिन उसने मौका देखकर बालक की हत्या कर दी और उसके सव को उसी तालाब में डाल दिया जिसमे घुश्मा भगवान शिव के शिवलिंग का विसर्जन करती थी। सुधर्मा की दूसरी पत्नी घुश्मा जोकि भगवान शिव की परम भक्त थी नित्य प्रतिदिन सुबह उठकर भगवान शिव के 101 शिवलिंग बनाकर पूजन करती और फिर एक तालाब में डाल देती थी। बालक की खबर सुनकर चारो ओर हाहाकार मच गया लेकिन घुश्मा प्रतिदिन की तरह उस दिन भी भगवान शिव के शिवलिंग बनाकर शांत मन से पूजन करने में लगी रही और जब वह शिवलिंग को तालाब में विसर्जन करने के लिए गई तो उसका पुत्र तालाब से जीवित बाहर निकल आया। साथ ही साथ भगवान शिव ने भी घुश्मा को दर्शन दिए, भोलेनाथ सुदेहा की इस हरकत से रुस्ट थे उसे दंड और घुश्मा को वरदान देना चाहते थे। लेकिन घुश्मा ने सुदेहा को माफ़ करने के लिए विनती की और जन कल्याण के लिए शंकर भगवान से यही निवास करने की प्रार्थना की। घुश्मा की विनती स्वीकार करके भोलेनाथ शिवलिंग के रूप में  निवास करने लगे और घृष्णेश्वर ज्योतिर्लिंग प्रसिद्ध हुआ।
भीमाशंकर - महाराष्ट्र राज्य का पुणे जिला का मुख्यालय महाराष्ट्र के पश्चिम भाग, मुला व मुठा  नदियों के किनारे स्थित  पुणे है। निर्देशांक: 18°31′N 73°51′E / 18.52°N 73.85°E पर स्थित पुणे का क्षेत्रफल 331.26 वर्गकिमी (127.90 वर्गमील एवं समुद्र तल से  ऊँचाई 560 मी (1,840 फीट) में 2011 जनगणना के अनुसार 31,24,458 आवादी है । मराठी भाषी पुणे के प्राचीन नाम पपुणेकर, पुण्यनगरी , पुण्यक , पुन्नक , पुनवड़ी , कसबे पुणे  था । पुणे को आठवीं  शतक ई. मे 'पुन्नक' 'पुण्यक ,  11 शतक ई. मे 'कसबे पुणे' या 'पुनवडी' और  मराठा साम्राज्य के काल मे 'पुणे तथा ब्रिटिश साम्राज्य ने  'पूना कहा गया है। राष्ट्र कूट राज 758 ई. में  पुणे को "पुन्नक " नाम से जाना जाता था। महाराज मार्ग पर पाई जाने वाली पातालेश्वर गुफा आठ्वी सदी की है। 17वीं शताब्दी मे यह शहर निजामशाही, आदिलशाही, मुगल ऐसे विभिन्न राजवंशो का अंग रहा। सतरहवी शताब्दी में शहाजीराजे भोसले को निजामशाहा ने पुणे की जमीनदारी दी थी। शहाजीराजे भोसले की पत्नी जिजाबाई ने  1627 ई. में शिवनेरी किले पर छत्रपति शिवाजीराजे भोसले को जन्म दिया। शिवाजी महाराज ने साथियों के साथ पुणे परिसर में मराठा साम्राज्य की स्थापना की थी । पेशवा  काल मे. 1749 ई. सातारा को छत्रपति की गद्दी और राजधानी बना कर पुणे को मराठा साम्राज्य की राजधानी थी । पुणे मे मराठों का राज्य 1818 ई. तक  था। पुणे छत्रपति शिवाजी महाराज 1635-36 ई. में  जिजाबाई व शिवाजी महाराज पुणे के लाल भवन आवास के बाद पुणे   का जन्म हुआ। पुणे के ग्रामदेवता- कसबा गणपती की स्थापना जिजाबाई द्वारा की गई थी। छत्रपती शाहू के प्रधानमन्त्री थोरले बाजीराव पेशवे को पुणे को 17 वी सदी के प्रारंभ में  स्थाई आवास बनाया था। छत्रपति शाह महाराज की  अनुमति प्राप्त के बाद  पेशवा ने मुठा नदी के किनारे शनिवार वाड़ा बनाया था । खरडा किले पर मराठों एवं निज़ाम के बीच . 1795 ई. के बीच युध्द हुआ था ।  पुणे के पास खडकी ब्रिटिश व मराठों में युध्द 1817 ई. में हुआ। ब्रिटिश साम्राज्य ने पुणे को अधीन में कर लिया। पुणे महानगरपालिका की स्थापना 1858 ई. में हुई थी । भारतीय स्वातन्त्रा संग्राम में पुणे के  समाज सुधारकों में  महात्मा ज्योतिबा फुले और सावरकर , महादेव गोविन्द रानडे, रा.ग. भाण्डारकर, विठ्ठल रामजी शिन्दे, गोपाल कृष्ण गोखले, लोखण्डे थे।. पुणे सह्याद्रि पर्वत के पूर्व और समुद्रतल से 560 मी (1,837 फूट) की ऊचाँई पर भीमा नदी की उपनदियाँ मुला व मुठा के संगम पर यह शहर बसा है। पवना व इन्द्रायणी ये नदियाँ पुणे शहर के उत्तर-पश्चिम दिशा मे बहती है। शहर का वेताल टेकडी (समुद्रतल से 800 मी) और शहर के पास का सिंहगड किले की ऊचाँई 1300 मी. है। पुणे शहर कोयना भूकम्प क्षेत्र मे आता है जो पुणे शहर से 100 कि॰मी॰ दक्षिण दिशा मे स्थित है। पुणे ये १७ पेठ में कसबा पेठ, रविवार पेठ, सोमवार पेठ, मंगलवार पेठ, बुधवार पेठ, गुरुवार पेठ, शुक्रवार पेठ, शनिवार पेठ, गंज पेठ (महात्मा फुले पेठ), सदाशिव पेठ, नवी (सदाशिव) पेठ, नारायण पेठ, भवानी पेठ, नाना पेठ, रास्ता पेठ, गणेश पेठ, घोरपडे पैठ है। पुणे में  चाकण व राजगुरुनगर गाँवो के  आकर्षण में शनिवार वाड़ा , आगाखान महल , पार्वती हिल मंदिर , कटराज सर्प उद्यान , कोणार्क , ओशो आश्रम है। गणेशोत्सव 1894 मे लोकमान्य तिलक ने सार्वजनिक गणेशोत्सव प्रारम्भ किया था । पुणे के ग्राम देवता कसबा गणपती , ताम्बडी जोगेश्वरी , गुरूजी तालीम , तुलशीबाग , केसरी वाडा  ,  गणपतियों के साथ साथ दगडूशेठ हलवाई गणपती को पुणे का प्रमुख गणपति है । पुणे। शहर के उत्तर-पश्चिम डोंगर-उतार पर चतु:श्रृंगी  मन्दिर 90 फुट ऊँचा 125 फुट लम्बा है । माता  पर्वती देवस्थान , आलन्दी व देहू देवस्थान  है। आलन्दी में सन्त ज्ञानेश्वर की समाधि और देहू पर सन्त तुकाराम का स्थल  है। हर वर्ष वारकरी सम्प्रदाय के लोग इन सन्तो की पालखी लेकर पण्ढरपुर जाते है। आषाढी एकादशी के अवसर  पर पण्ढरपुर पहुँचते है। पुणे में ओहेल डेविड इस्त्राएल के बाहर एशिया का सबसे बडा सिनेगॉग ज्यु का प्रार्थनास्थल है। पुणे मेहेरबाबा का जन्मस्थान और रजनीश  स्थान था। रजनीश आश्रम मे ओशो झेन बाग का ध्यानगृह है। पुणे का  पाषाण गाव में   सोमेशवर मन्दिर का निर्माण जिजामाता ने किया था। पुणे में पर्यटन स्थल में श्रीमंत दगडूशेठ हलवाई गणपति  मंदिर , शनिवार वाड़ा , राजा दिनकर केलकर संग्रहालय , लाल महल , सिंहगड़ किला, पर्वती हिल , शिवनेरी फोर्ट , महादजी शिंदे छतरी , राजीव गांधी जूलॉजिकल पार्क , पुणे-ओकायामा मैत्री बाग , ओशो गार्डन , वेताल टेकडी , एम्प्रेस गार्डन , शनिवार वाड़ा का निर्माण मराठा साम्राज्य के महाराजा बाजीराव पेशवा द्वारा 1732 ई .  में किया गया था। यह महल एक समय में पुणे के राजनीतिक और सामाजिक जीवन का केंद्र था और एक बड़ी वास्तुकला की उपलब्धि थी। शनिवार वाड़ा में कई इमारतें हैं, जो अलग-अलग फ्लोर पर बनी हुई हैं। इसके अलावा, यहां भव्य मेहमान खाने, बाग, संग्रहालय और अन्य विभिन्न सुविधाएं भी हैं। सिंहगड़ किला सह्याद्रि पर्वत श्रृंखला के ऊपर पुणे से  35 किलोमीटर की दूरी पर है। पर्वती हिल पर्वती नदी के उत्तरी किनारे पर स्थित है ।   पर्वती हिल पर  शिवाजी महाराज का मंदिर  उनकी माँ जिजाबाई को समर्पित है।  पुणे मे शिवाजी पार्क, लालबाग, सिंहगढ़ किला, संत तुकाराम मंदिर, दगडूशेठ हलवाई मंदिर , पुणे से 110 किमी की दूरी एवं  भीमा नदी का उद्गम स्थल पर   भीमाशंकर ज्योतिर्लिंग मंदिर के गर्भगृह में भीमाशंकर ज्योतिर्लिंग स्थित है। पुणे का  प्रसिद्ध मंदिरों में  दगडूशेठ हलवाई गणपती मंदिर, कसबा गणपति मंदिर, संत तुकाराम मंदिर, ओम्कारेश्वर मंदिर, खंडोबा मंदिर है।
भीमाशंकर ज्योतिर्लिंग -  भारतीय संस्कृति में भगवसन शिव की उपासना का उल्लेख किया गया है । शिव पुराण , लिंगपुराण , शास्त्रों में ज्योतिर्लिङ्ग की उपासना , आराधना  का उल्लेखनीय है । महाराष्ट्र राज्य का पुणे जिले के  सह्याद्रि पर्वत की कर्कटी श्रंखला पर भीमशंकर ज्योतिर्लिङ्ग स्थापित है ।  शिवपुराण के अनुसार कामरूप का राक्षस राज कर्कट की पत्नी पुष्कशी की पुत्री कर्कटी का विवाह विराध से हुआ था । विराध के नर भक्षी और अत्याचार के कारण  त्रेतायुग में भगवान राम द्वारा विराध मारा गया था । विराध की पत्नी कर्कटी की सुंदरता से मोहित हो कर राक्षस राज लंकापति रावण का भाई  राक्षस राज कुम्भकर्ण ने कर्कटी के साथ सहवास करने के कारण भीम का जन्म हुआ था । कर्कटी और पुत्र भीम कामरूप में रहने ल्गा था ।  भीम के  पिता विराध और कुम्भकरण  की मृ्त्यु भगवान राम के हाथों होने की घटना अपनी माता कर्कटी से जानकारी के बाद भीम ने श्री भगवान राम का वध करने के लिए आतुर हो गया। भीम ने उद्देश्य को पूरा करने के लिए  अनेक वर्षो तक कठोर तपस्या की जिससे प्रसन्न होकर भीम को  ब्रह्मा जी ने विजयी होने का वरदान दिया। वरदान पाने के बाद राक्षस भीम निरंकुश हो गया। उससे मनुष्यों के साथ साथ देवी-देवता भीम से भयभीत रहने लगे।  युद्ध में उसने देवताओं को भी परास्त करना प्रारंभ कर दिया। कर्कटी के पुत्र भीम  द्वारा यज्ञ , उपासना बंद करवा दिया गया था । कामरूप का राजा सुदक्षिणा की पत्नी दक्षिणा शिव की उपासना भगवान शिव की पार्थिव शिवलिंग की करती थी । भीम के अत्याचार से शिव भक्त कामरूप का राजा सुदक्षणा और दक्षिणा तथा  देव भगवान शिव की शरण में गए । भगवान शिव ने राक्षस तानाशाह भीम से युद्ध करने की ठानी। युद्ध  में भगवान शिव ने दुष्ट राक्षस भीम को समाप्त कर दिया ।शिव से सभी देवों ने आग्रह किया कि वे इसी स्थान पर शिवलिंग रूप में विराजित हो़। उनकी प्रार्थना को भगवान शिव ने स्वीकार किया और भगवान शिव ने सुदक्षिणा द्वारा स्थापित पार्थिव शिवलिंग में समावेश हो कर भीमाशंकर ज्योतिर्लिंग  विराजित हो गए  हैं।भीमाशंकर मंदिर नागर शैली की वास्तुकला है।  सुंदर मंदिर का शिखर  नाना फड़नवीस द्वारा 18 वीं सदी में बनाया था । महान मराठा शासक शिवाजी ने भीमशंकर मंदिर की पूजा के लिए कई तरह की सुविधाएं प्रदान की थी ।नाना फड़नवीस द्वारा निर्मित हेमादपंथि की संरचना में बनाया गया एक बड़ा घंटा भीमशंकर की एक विशेषता है।  हनुमान झील, गुप्त भीमशंकर, भीमा नदी की उत्पत्ति, नागफनी, बॉम्बे प्वाइंट, साक्षी विनायक  स्थानों का दर्शन करते  है। भीमशंकर लाल वन क्षेत्र और वन्यजीव अभयारण्य द्वारा संरक्षित और  पक्षियों, जानवरों, फूलों, पौधे  है। यह जगह श्रद्धालुओं के साथ-साथ ट्रैकर्स प्रेमियों के लिए भी उपयोगी है। यह मंदिर पुणे में बहुत ही प्रसिद्ध है।  भीमाशंकर मंदिर के पास कमलजा मंदिर , डाकनी मंदिर है। कमलजा पार्वती जी का अवतार हैं ।भीमशंकर ज्योतिर्लिंग नाम से दो मंदिर हैं। एक महारष्ट्र के पुणे में स्थित है और दूसरा आसाम के कामरूप जिले में स्थित है।पहले के समय में आसाम कामरूप के नाम से ही जाना जाता था। भीमाशंकर।  ज्योतिर्लिंग की कथा शिवपुराण के अध्याय 20 के श्लोक 1 से 20 तक और अध्याय 21 के श्लोक 1 से 54 केके अनुसार कर्कटी के पिता कर्कट और माता पुष्कशी  ने अगस्त्य ऋषि के  शिष्य को आहार बनाने के कारण अगस्त्य  ऋषि द्वारा कर्कटी के माता पुष्कशी और पिता कर्कट को भष्म कर डाला। उस घटना के बाद मैं यहाँ इस पर्वत पर अकेली रहने लगी।अपने परिजनो की मृत्यु के कारण को जानकार भीम ने देवताओं से बदला लेने का निर्णय किया। भीम ने 1000 वर्षों तक भगवान ब्रह्मा   जी की घोर तपस्या की। जिससे ब्रह्मा जी अत्यंत प्रसन्न हुए और  भीम से मन चाहा वर मांगने को कहा। भीम ने वरदान के रूप में और अधिक बलवान होने का वरदान माँगा था ।वरदान मिलते ही भीम सबसे पहले इंद्र सहित और भी देवताओं को युद्ध में परास्त किया और अंत में भगवान विष्णु को  हरा दिया। इसके बाद वह पृथ्वी को जीतना चाहता था। इसके लिए उसने सबसे पहले आसाम के कामरूप के राजा सुदक्षिण पर हमला किया।राजा को पराजित कर उसे बंदीगृह में बंध कर दिया। राजा सुदक्षिण भगवान शिव जी के बहुत बड़े भक्त थे। उन्होंने कारागार में भगवान शिव का शिवलिंग बनाकर तपस्या करनी शुरू कर दी। इस बात की खबर भीम को लगी और उसने शिवलिंग को नष्ट करने के लिए तलवार उठाई।ऐसा करते ही शिवलिंग में से शिव भगवान जी प्रकट हो गए। शिव जी ने अपने धनुष से राक्षस की तलवार के दो टुकड़े कर दिए और एक हुंकार भरते  शिव जी ने भीम  राक्षस को नष्ट कर डाला। भगवान शिव जी उसी स्थान पर लिंग रूप मे स्थित है । भीम  को युद्ध में परास्त करके शिव भगवान को पसीना आया  पृथ्वी पर गिरने  के कारण नदी का प्रादुर्भाव हुआ है।  नदी दक्षिण-पश्चिम दिशा की ओर बहती हुयी रायपुर जिले में कृष्णा नदी  है। भीमशंकर ज्योतिर्लिंग का उप ज्योतिर्लिङ्ग भीमेश्वरसह्य मंदिर पर्वत का  3250 फ़ीट की ऊंचाई पर स्थित है। सह्य पर्वत से प्रविहित होने वाली भीमा नदी ,   झील,, नागफनी, गुप्त भीमशंकर, भीम नदी, साक्षी विनायक  है  भीमशंकर मंदिर के पास कमलजा मंदिर है।महाराष्ट्र का मुम्बई से पूर्व तस्थ पुना से उतर भीम नदी के किनारे सह्य पर्वत के शिखर पर भीमेश्वर और डाकनी मंदिर है । यहां प्रेतों का निवास था । नैनीताल जिले का उज्जानक में भीमेश्वर मंदिर है ।
त्रयम्बकेश्वर परिभ्रमण -  महाराष्ट्र राज्य के नाशिक ज़िले का मुख्यालय गोदावरी नदी के किनारे स्थित नासिक  है। नासिक में  पंचवटी , राम कुंड , लक्षमण कुंड , तपोवन , हनुमानजी की , गोदावरी नदी एवं कपिला नदी संगम , गोदावरी घाट, सीता गुफा , लक्षमण द्वारा खिंची गयी लक्ष्मण रेखा , सूर्पनखा का नाक कान काटने का स्थल , माता सीता को भगवानराम द्वारा ब्रह्मा जी , भगवान शिव के समक्ष अग्नि को समर्पित स्थल , पांच बरगद का वृक्ष , नाशिक गुफाएँ , त्रिरश्मी लेणी , नीलकंठेश्वर मंदिर , कालाराम मन्दिर है ।  निर्देशांक: 20°00′N 73°47′E / 20.00°N 73.78°E पर अवस्थित समुद्र तल से 1916 फिट , 584 मीटर की ऊँचाई पर नाशिक ज़िला का क्षेत्रफल 267 किमी2 (103 वर्गमील) में 2011 जनगणना के अनुसार 14,86,973 आवादी है। सातवाहन वंश के राजाओं की राजधानी नाशिक  थी। मुगल काल में  नासिक को गुलशनबाद के नाम से जाना जाता था। कुंभ मेला - नाशिक में लगने वाला कुंभ मेला को सिंहस्थ के नाम से जाना जाता है ।  पंचांग के अनुसार जब भगवान  सूर्य जब सिंह राशि में होने पर नाशिक में सिंहस्थ व कुम्भ मेला होता है। गोदावरी नदी में स्नान करने से आत्मा की शुद्धि और पापों से मुक्ति मिलती है। गोदावरी नदी में निर्मित राम कुंड में स्नान , ध्यान एवं श्रद्धालुओं अपने पूर्वजों को जलांजलि एवं पिंड अर्पित करते हैं। पंचवटी नाशिक के उत्तरी भाग में पाँच वट वृक्ष से युक्त पंचवटी में त्रेतायुग में  भगवान राम, सीता और लक्ष्मण के साथ  रहे थे।  पंचवटी में सीता गुफा में माता सीता , भगवान राम , शेषावतार लक्ष्मण की मूर्ति स्थापित है।    पंचवटी में जिस स्थान  से माता  सीता का अपहरण राक्षस राज रावण द्वारा  पांच बरगद के पेडों के समीप से किया गया था ।  सीता गुफा   में प्रवेश करने के लिए संकरी सीढ़ियों से गुजरना पड़ता है। सुंदरनारायण मंदिर नाशिक में अहिल्याबाई होल्कर सेतु के किनारे सुंदरनारायण मंदिर की  स्थापना गंगाधर यशवंत चंद्रचूड ने 1756 ई. में की थी।  सुंदरनारायण मंदिर में भगवान विष्णु की आराधना की जाती है। मोदाकेश्वर गणेश मंदिर के गर्भगृह में स्थित  में स्थित  स्वयं  धरती से निकली गणेश जी की मूर्ति स्थापित  है । मंदिर में स्थापित मूर्ति शम्भु के नाम से जाना जाता है। नारियल और गुड़ को मिलाकर निर्मित मोदक भगवान गणेश का प्रिय व्यंजन है। रामकुंड गोदावरी नदी पर स्थित रामकुंड तीर्थयात्रियों को अपनी ओर आकर्षित करता है। श्रद्धालु स्नान के लिए आते हैं। अस्थि विसर्जन के लिये  कुंड पवित्र स्थान माना जाता है। त्रेतायुग में भगवान श्री राम गोदावरी नदी में स्नान किया था। नाशिक का  पंचवटी स्थित हेमादम्पति शैली में काले पाषाण से कालाराम मंदिर का निर्माण गोपिकाबाई पेशवा ने 1794 ई.  में करवाया था।  नाशिक से 6 किमी की दूरी  गंगापुर रोड के किनारे स्थित सोमेश्वर  मंदिरके गर्भगृह में महादेव सोमेश्‍वर की प्रतिमा स्थापित है। त्रयंकेश्वर क्षेत्र में  मनसा मंन्दिर में माता मनसा स्थापित है ।  भारतीय संस्कृति और पुरणों के अनुसार त्र्यम्बकेश्वर ज्योतिर्लिंग का दर्शन और महामृत्जुंजय की उपासना का महत्वपुर्ण उल्लेख है  । शिव पुराण के कोटि रुद्रसंहिता का अध्याय 24 , 25 , 26  के अनुसार ऋषि गौतम और अहिल्या के तप करने के कारण भगवान शिव  , ब्रह्मा और विष्णु के रूप में त्र्यम्बकेश्वर ज्योतिर्लिङ्ग स्थापित हुए थे । ऋषि गौतम द्वारा अपने ऊपर दुष्टों द्वारा लगाए गए मिथ्या दोष गौ हत्या के प्रयाश्चित करने के लिये ब्रह्मगिरि की 101 बार परिक्रमा , 03 बार पृथिवी की परिक्रमा , एक करोड़ पार्थिव लिंग की पूजा तथा 11 बार गंगा जल से स्नान कर भगवान शिव की आराधना की थी ।पत्नी अहिल्या सहित ऋषि गौतम की उपासना से संतुष्ट हो कर भगवान शिव और शिव ऋषि गौतम दर्शन , गोदावरी गंगा का प्रकट जिसे गौतमी गंगा  , वृस्पति के सिह राशि आर् गोदावरी का प्रकट होने और भगवान शिव का त्रयम्बक शिवलिंग के रूप में प्रकट हो कर आशीर्वचन प्राप्त किये थे । महाराष्ट्र राज्य का  नासिक जिले में त्रयंबक के ब्रह्मगिरि से उद्गम गोदावरी नदी के किनारे त्र्यम्बकेश्वर ज्योतिर्लिंग स्थापित  हैं। यहां के निकटवर्ती ब्रह्म गिरि नामक पर्वत से गोदावरी नदी का उद्गम है। गौतम ऋषि तथा गोदावरी के उपासना से प्रसन्न हो कर गौतम ऋषि तथा गोदावरी की उपासना स्थल पर भगवान शिव निवास  करने के कारण  त्र्यम्बकेश्वर ज्योतिर्लिंग से विख्यात हुए है । त्र्यम्बकेश्वर मंदिर के गर्भगृह   में  ब्रह्मा, विष्णु और शिव लिंग के रूप में  त्रिदेव   हैं। शिवपुराण के अनुसार ब्रह्मगिरि पर्वत पर जाने के लिये सात सौ सीढ़ियों पर चढ़ने के बाद 'रामकुण्ड' और 'लक्षमण कुण्ड' मिलने के बाद और ब्रह्मगिरि शिखर के ऊपर  गोमुख से प्रवाहित होने वाली भगवती गोदावरी के दर्शन होते हैं। त्र्यंबकेश्‍वर ज्योर्तिलिंग मंदिर  में ब्रह्मा, विष्‍णु और महेश तीनों विराजित होने के कारण ज्‍योतिर्लिंग की सबसे बड़ी विशेषता है। गोदावरी नदी के किनारे स्थित त्र्यंबकेश्‍वर मंदिर काले पत्‍थरों से निर्मित होने के कारण मंदिर की  स्‍थापत्‍य अद्भुत है। मंदिर के पंचक्रोशी में कालसर्प शांति, त्रिपिंडी विधि और नारायण नागबलि की पूजा संपन्‍न होती है।  प्राचीन मंदिर का पुनर्निर्माण नाना साहब पेशवा द्वारा  1755 में प्रारम्भ किया गया और 1786 में पूर्ण किया गया था । त्र्यंबकेश्वर मंदिर की भव्य इमारत सिंधु-आर्य शैली का उत्कृष्ट नमूना है। मंदिर के अंदर गर्भगृह में प्रवेश करने के बाद शिवलिंग की केवल आर्घा दिखाई देती है, लिंग नहीं। गौर से देखने पर अर्घा के अंदर एक-एक इंच के तीन लिंग दिखाई देते हैं। इन लिंगों को त्रिदेव- ब्रह्मा-विष्णु और महेश का अवतार माना जाता है। भोर के समय होने वाली पूजा के बाद इस अर्घा पर चाँदी का पंचमुखी मुकुट चढ़ा दिया जाता है। त्रयंबकेश्वर मंदिर और गाँव ब्रह्मगिरि नामक पहाड़ी की तलहटी में स्थित है। ब्रह्मगिरि  को शिव का साक्षात रूप माना जाता है। ब्रह्म गिरि  पर्वत पर पवित्र गोदावरी नदी का उद्गमस्थल है।    त्रयम्बक में  अपने ऊपर लगे गोहत्या के पाप से मुक्ति पाने के लिए गौतम ऋषि ने कठोर तप कर शिव से गंगा को यहाँ अवतरित करने का वरदान माँगने के  फलस्वरूप दक्षिण की गंगा  गोदावरी नदी का उद्गम हुआ। गोदावरी के उद्गम के साथ गौतम ऋषि के अनुनय-विनय के उपरांत शिवजी ने  मंदिर में विराजमान होना स्वीकार कर लिया। तीन नेत्रों वाले शिवशंभु के त्रयम्बक स्थल पर विराजमान होने के कारण गौतम ऋषि की तपोभूमि को त्र्यंबक (तीन नेत्रों वाले) कहा जाने लगा है । त्र्यम्बक  का राजा भगवान त्र्यम्बकेश्वर  है । प्रत्येक सोमवार को त्रयम्बक का राजा भगवान  त्र्यंबकेश्वर  अपनी प्रजा तथा भक्तों  की रक्षा करते  हैं। महर्षि गौतम के तपोवन में रहने वाले ब्राह्मणों की पत्नियाँ किसी बात पर उनकी पत्नी अहिल्या से नाराज हो गईं। उन्होंने अपने पतियों को ऋषि गौतम का अपमान करने के लिए प्रेरित किया। उन ब्राह्मणों ने इसके निमित्त भगवान्‌ श्रीगणेशजी की आराधना की। उनकी आराधना से प्रसन्न होकर  गणेशजी ने प्रकट होकर उनसे वर माँगने को कहा उन ब्राह्मणों ने कहा- 'प्रभो! यदि आप हम पर प्रसन्न हैं । किसी प्रकार ऋषि गौतम को आश्रम से बाहर निकाल दें।' उनकी यह बात सुनकर गणेशजी ने उन्हें ऐसा वर न माँगने के लिए समझाया। किंतु वे अपने आग्रह पर अटल रहे।अंततः गणेशजी को विवश होकर उनकी बात माननी पड़ी। अपने भक्तों का मन रखने के लिए वे एक दुर्बल गाय का रूप धारण करके ऋषि गौतम के खेत में जाकर रहने लगे। गाय को फसल चरते देखकर ऋषि बड़ी नरमी के साथ हाथ में तृण लेकर उसे हाँकने के लिए लपके। उन तृणों का स्पर्श होते ही वह गाय वहीं मरकर गिर पड़ी। अब तो बड़ा हाहाकार मचा। सारे ब्राह्मण एकत्र होकर  गो-हत्यारा कहकर ऋषि गौतम की भर्त्सना करने लगे। ऋषि गौतम इस घटना से बहुत आश्चर्यचकित और दुःखी थे। अब उन सारे ब्राह्मणों ने कहा कि तुम्हें यह आश्रम छोड़कर अन्यत्र कहीं दूर चले जाना चाहिए। गो-हत्यारे के निकट रहने से हमें भी पाप लगेगा। विवश होकर ऋषि गौतम अपनी पत्नी अहिल्या के साथ वहाँ से एक कोस दूर जाकर रहने लगे। किंतु उन ब्राह्मणों ने वहाँ भी उनका रहना दूभर कर दिया। वे कहने लगे- 'गो-हत्या के कारण तुम्हें अब वेद-पाठ और यज्ञादि के कार्य करने का कोई अधिकार नहीं रह गया।' अत्यंत अनुनय भाव से ऋषि गौतम ने उन ब्राह्मणों से प्रार्थना की कि आप लोग मेरे प्रायश्चित और उद्धार का कोई उपाय बताएँ।तब उन्होंने कहा- 'गौतम! तुम अपने पाप को सर्वत्र सबको बताते हुए तीन बार पूरी पृथ्वी की परिक्रमा करो। फिर लौटकर यहाँ एक महीने तक व्रत करो। इसके बाद 'ब्रह्मगिरी' की 101 परिक्रमा करने के बाद तुम्हारी शुद्धि होगी अथवा यहाँ गंगाजी को लाकर उनके जल से स्नान करके एक करोड़ पार्थिव शिवलिंगों से शिवजी की आराधना करो। इसके बाद पुनः गंगाजी में स्नान करके इस ब्रह्मगीरि की 11 बार परिक्रमा करो। फिर सौ घड़ों के पवित्र जल से पार्थिव शिवलिंगों को स्नान कराने से तुम्हारा उद्धार होगा।
स्मृति  ग्रंथों के अनुसार  महर्षि गौतम वे सारे कार्य पूरे करके पत्नी के साथ पूर्णतः तल्लीन होकर भगवान शिव की आराधना करने लगे। इससे प्रसन्न हो भगवान शिव ने प्रकट होकर उनसे वर माँगने को कहा। महर्षि गौतम ने उनसे कहा- 'भगवान्‌ मैं यही चाहता हूँ कि आप मुझे गो-हत्या के पाप से मुक्त कर दें।' भगवान्‌ शिव ने कहा- 'गौतम ! तुम सर्वथा निष्पाप हो। गो-हत्या का अपराध तुम पर छल पूर्वक लगाया गया था। छल पूर्वक ऐसा करवाने वाले तुम्हारे आश्रम के ब्राह्मणों को मैं दण्ड देना चाहता हूँ।'इस पर महर्षि गौतम ने कहा कि प्रभु! उन्हीं के निमित्त से तो मुझे आपका दर्शन प्राप्त हुआ है। अब उन्हें मेरा परमहित समझकर उन पर आप क्रोध न करें।' बहुत से ऋषियों, मुनियों और देव गणों ने वहाँ एकत्र हो गौतम की बात का अनुमोदन करते हुए भगवान्‌ शिव से सदा वहाँ निवास करने की प्रार्थना की। वे उनकी बात मानकर वहाँ त्र्यम्बक ज्योतिर्लिंग के नाम से स्थित हो गए। गौतमजी द्वारा लाई गई गंगाजी भी वहाँ पास में गोदावरी नाम से प्रवाहित होने लगीं। यह ज्योतिर्लिंग समस्त पुण्यों को प्रदान करने वाला है।इस भ्रमण के समय त्र्यंबकेश्वर महाराज के पंचमुखी सोने के मुखौटे को पालकी में बैठाकर गाँव में घुमाया जाता है। फिर कुशावर्त तीर्थ स्थित घाट पर स्नान कराया जाता है। इसके बाद मुखौटे को वापस मंदिर में लाकर हीरेजड़ित स्वर्ण मुकुट पहनाया जाता है। यह पूरा दृश्य त्र्यंबक महाराज के राज्याभिषेक-सा महसूस होता है। इस यात्रा को देखना बेहद अलौकिक अनुभव है।‘कुशावर्त तीर्थ की जन्मकथा काफी रोचक है। कहते हैं ब्रह्मगिरि पर्वत से गोदावरी नदी बार-बार लुप्त हो जाती थी। गोदावरी के पलायन को रोकने के लिए गौतम ऋषि ने एक कुशा की मदद लेकर गोदावरी को बंधन में बाँध दिया। उसके बाद से ही इस कुंड में हमेशा लबालब पानी रहता है। इस कुंड को ही कुशावर्त तीर्थ के नाम से जाना जाता है। कुंभ स्नान के समय शैव अखाड़े इसी कुंड में शाही स्नान करते हैं।’शिवरात्रि और सावन सोमवार के दिन त्र्यंबकेश्वर मंदिर में भक्तों का ताँता लगा रहता है। भक्त भोर के समय स्नान करके अपने आराध्य के दर्शन करते हैं। यहाँ कालसर्प योग और नारायण नागबलि नामक खास पूजा-अर्चना होती है । श्री त्रंबकेश्वर ज्योतिर्लिंग तीन छोटे-छोटे लिंग ब्रह्मा, विष्णु और शिव प्रतीक स्वरूप, त्रि-नेत्रों वाले भगवान शिव के बारह ज्योतिर्लिंगों में से एक है। मंदिर के अंदर गर्भगृह में प्रायः शिवलिंग दिखाई नहीं देता है, गौर से देखने पर अर्घा के अंदर एक-एक इंच के तीन लिंग दिखाई देते हैं। सुवह होने वाली पूजा के बाद इस अर्घा पर चाँदी का पंचमुखी मुकुट चढ़ा दिया जाता है।त्र्यंबकेश्वर मंदिर का निर्माण पेशवा बालाजी बाजीराव तृतीय ने पुराने मंदिर स्थल पर ही करवाया था। मंदिर का निर्माण कार्य 1755 में प्रारंभ होकर 31 साल के लंबे समय के बाद सन् 1786 में पूर्ण हुआ। त्र्यंबकेश्वर मंदिर तीन पहाड़ियों ब्रह्मगिरी, नीलगिरि और कालगिरि के बीच स्थित है। त्रंबकेश्वर को सोमवार को चाँदी के पंचमुखी मुकुट को पालकी में बैठाकर गाँव में प्रजा का हाल जानने हेतु भ्रमण कराया जाता है।  कुशावर्त तीर्थ स्थित घाट पर स्नान के उपरांत वापस मंदिर में शिवलिंग पर पहनाया जाता है। त्र्यंबक महाराज के राज्याभिषेक  है, तथा इस अलौकिक यात्रा में सामिल होना अत्यंत सुखद अनुभव है।कालसर्प शांति, त्रिपिंडी विधि और नारायण नागबलि पूजन केवल श्री त्रंबकेश्वर ज्योतिर्लिंग पर ही संपन्‍न किया जाता है। मंदिर के गर्भ-ग्रह में स्त्रियों का प्रवेश पूर्णतया वर्जित है। शिव ज्योतिर्लिंग!शिवरात्रि / त्रयोदशी सावन के सोमवारश्री रुद्राष्टकम्  ,  श्री गोस्वामितुलसीदासकृतं शिव आरती श्री शिव चालीसा , महामृत्युंजय मंत्र, संजीवनी मंत्र मंदिर में निरंतर होते है । स्वयंभू द्वारा  सतयुग में त्र्यम्बकेश्वर की स्थापना कर भगवान शिव को समर्पित किया था । त्रयम्बकेश्वर मंदिर का हेमाडपंती  शैली में निर्मित है। त्र्यम्बकेश्वर ज्योतिर्लिंग का दर्शन तथा गोदावरी नदी में स्नान ,उपासना करने और गोदावरी के किनारे शयन करने से समस्त मनोकामना की पूर्ति , काल सर्प दोष , सभी ऋणों से मुक्ति तथा जीवन सुखमय होता है ।महामृत्युञ्जय मन्त्र - "मृत्यु को जीतने वाला महान मंत्र"  को  त्रयम्बकम मन्त्र  कहा जाता है, यजुर्वेद के रूद्र अध्याय में, भगवान शिव की स्तुति हेतु की गयी एक वन्दना है। मन्त्र में शिव को 'मृत्यु को जीतने वाला' बताया गया है। यह गायत्री मन्त्र के समकक्ष सनातन धर्म का सबसे व्यापक रूप से जाना जाने वाला मन्त्र है।भगवान शिव के तीन आँखों की ओर इशारा करते हुए त्रयंबकम मन्त्र और मृत-संजीवनी मन्त्र के रूप में जाना जाता है । कठोर तपस्या पूरी करने के बाद ऋषि शुक्र को प्रदान की गई है। ऋषि-मुनियों ने महा मृत्युंजय मन्त्र को वेद का ह्रदय कहा है। ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्‌। उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय माऽमृतात्।।है "त्रिनेत्रों वाला", रुद्र  ! तीनों कालों में हमारी रक्षा करने वाले भगवान को हम पूजते हैं, सम्मान करते हैं, हमारे श्रद्देय मीठी महक वाला,सुगन्धित एक सुपोषित स्थिति, फलने-फूलने वाली, समृद्ध जीवन की  सुपोषित स्थिति, फलने-फूलने वाली, समृद्ध जीवन की परिपूर्णता वह जो पोषण करता है, शक्ति देता है, (स्वास्थ्य, धन, सुख में) वृद्धिकारक; जो हर्षित करता है, आनन्दित करता है और स्वास्थ्य प्रदान करता है, एक अच्छा माली की तरह तना मृत्यु से  हमें स्वतन्त्र करें, मुक्ति दें नहीं वंचित होएँ  अमरता, मोक्ष के आनन्द से परिपूर्ण करें । ऋषि मृकण्ड की तपस्या से मार्कण्डेय पुत्र हुआ।  ज्योतिर्विदों ने मार्कण्डेय  शिशु के लक्षण देखकर ऋषि के हर्ष को चिंता में परिवर्तित कर दिया। उन्होंने कहा यह बालक अल्पायु और बारह वर्ष है। मृकण्ड ऋषि ने अपनी पत्नी को आश्वत किया-देवी, चिंता मत करो। विधाता जीव के कर्मानुसार  आयु दे सकते हैं । भाग्यलिपि को स्वेच्छानुसार परिवर्तित कर देना भगवान शिव के लिए विनोद मात्र है। ऋषि मृकण्ड के पुत्र मार्कण्डेय का शैशव बीता और कुमारावस्था के प्रारम्भ में पिता ने उन्हें शिव मन्त्र की दीक्षा तथा शिवार्चना की शिक्षा दी। पुत्र मार्कण्डेय  को उसका भविष्य बता कर समझा दिया कि त्रिपुरारी  उसे मृत्यु से बचा सकते हैं। माता-पिता दिन गिन रहे थे।  मार्कंडेय ऋषि ने मृत्युंजय मन्त्र त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धन्म। उर्वारुकमिव बन्धनामृत्येर्मुक्षीय मामृतात्॥ से भगवान शिव की उपासना की थी । काल किसी की भी प्रतीक्षा नहीं करता। यमराज के दूत समय पर आए और संयमनी लौट गए।  यमदूतों ने अपने स्वामी यमराज से जाकर निवेदन किया- हम मार्कण्डेय तक पहुँचने का साहस नहीं पाए। इस पर यमराज ने कहा कि मृकण्ड को पुत्र को मैं स्वयं लाऊँगा। दण्डधर यमराज जी महिषारूढ़ हुए और क्षण भर में मार्कण्डेय के पास पहुँच गये। बालक मार्कण्डेय ने उन कज्जल कृष्ण, रक्तनेत्र पाशधारी को देखा  सम्मुख की लिंगमूर्ति से लिपट गया। अद्भुत अपूर्व हुँकार और मन्दिर, दिशाएँ जैसे प्रचण्ड प्रकाश से चकाचौंथ हो गईं। शिवलिंग से तेजोमय त्रिनेत्र चन्द्रशेखर प्रकट हो गए और उन्होंने त्रिशूल उठाकर यमराज से बोले, हे! यमराज तुमने मेरे आश्रित पर पाश उठाने का साहस कैसे किया है  ? यमराज ने उससे पूर्व ही हाथ जोड़कर मस्तक झुका लिया था और कहा कि हे! त्रिनेत्र मैं आपका सेवक हूँ। कर्मानुसार जीव को इस लोक से ले जाने का निष्ठुर कार्य प्रभु ने इस सेवक को दिया है। भगवान चन्द्रशेखर ने कहा कि यह संयमनी नहीं जाएगा। इसे मैंने अमरत्व दिया है। मृत्युंजय प्रभु की आज्ञा को यमराज अस्वीकार कैसे कर सकते थे? यमराज खाली हाथ लौट गए। मार्कण्डेय ने यह देख कर भोलेनाथ को सिर झुकाए और उनकी स्तुति करने लगे। उर्वारुमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय मामृतात्। वृन्तच्युत खरबूजे के समान मृत्यु के बन्धन से छुड़ाकर मुझे अमृतत्व प्रदान करें। मन्त्र के द्वारा चाहा गया वरदान उस का सम्पूर्ण रूप से उसी समय मार्कण्डेय को प्राप्त हो गया। कलौकलिमल ध्वंयस सर्वपाप हरं शिवम्। येर्चयन्ति नरा नित्यं तेपिवन्द्या यथा शिवम्।। स्वयं यजनित चद्देव मुत्तेमा स्द्गरात्मवजै:। मध्यचमा ये भवेद मृत्यैतरधमा साधन क्रिया।।देव पूजा विहीनो य: स नरा नरकं व्रजेत। यदा कथंचिद् देवार्चा विधेया श्रध्दायान्वित।। जन्मचतारात्र्यौ रगोन्मृदत्युतच्चैरव विनाशयेत्।
 परली वैजनाथ - महाराष्ट्र राज्य का बिड जिले के परली  देवगिरि पर्वत पर अवस्थित वैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग  स्थापित है ।वैजनाथ ज्योतिर्लिंग परळी  निर्देशांक 18°50′33.98″N 76°32′7.42″E / 18.8427722°N 76.5353944°E वैद्यनाथ मंदिर परली का निर्माण देवगिरि के सरदार श्री करणाधिप हेमाद्री ने करवाया था।  रानी अहिल्याबाई होल्कर द्वारा परली वैद्यनाथ मंदिर का जीर्णोद्धार कराया।  मंदिर चेरबंदी है और भव्य एवं सीढ़ियां और भव्य प्रवेश द्वार  स्थान और  मंदिर परिसर में श्रद्धालु  गर्भगृह और सभा भवन  से ज्योतिर्लिंग को  वैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग को स्पर्श एवं   दर्शन करते   है। मंदिर क्षेत्र में तीन बड़े तालाब हैं। मंदिर से तीन किलोमीटर की दूरी पर ब्राह्मणदी के तट पर 300 फीट की ऊंचाई पर जीरेवाड़ी में सोमेश्वर मंदिर है।अंबेजोगाई से 25 किमी और परभणी से 60 किमी.की दूरी पर स्थित परली वैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग है । परली वैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग को परल्याम वैद्यनाथ  ज्योतिर्लिंग कहा जाता है।
 औंधा नागनाथ मंदिर - महाराष्ट्र राज्य का हिंगोली जिले के औंधा नागनाथ मंदिर हेमाडपंथी वास्तुकला  निर्देशांक 19.537087°N 77.041508°E पर अवस्थित मंदिर कापुनर्निमाण सप्तमंजिल  13 वीं शताब्दी में सेउना राजवंश द्वारा  13वीं शताब्दी में किया गया था । द्वापरयुग में हस्तिनापुर का राजा युधिष्ठिर द्वारा औंधा नागनाथ मंदिर का निर्माण किया था ।औरंगजेब द्वारा तोड़े जाने से पहले मंदिर की इमारत सात मंजिला थी । औंधा नागनाथ मंदिर का क्षेत्रफल 669.60 वर्ग मीटर (7200 वर्ग फुट) और ऊंचाई 18.29 मीटर (60 फीट) एवं  मंदिर परिसर का  क्षेत्रफल लगभग 60,000 वर्ग फुट है । पेशवा के शासन के दौरान आधा नागनाथ ख्याति प्राप्त थी। औंधा नागनाथ मंदिर के गर्भ गृह भूमि से दो सीढियां से नीचे सीढ़ियों के माध्यम से औध नागनाथ ज्योतिर्लिंग  स्थित है ।औंधा नागनाथ परिसर में 12 शिवलिंग ,  12 छोटे मंदिर और  108 मंदिर और 68 तीर्थस्थल हैं। बादशाह औरंगजेब की विजय के दौरान औंधा नागनाथ मंदिर  को नष्ट करने के बाद पुनः  मंदिर का पुनर्निर्माण अहिल्याबाई होल्कर ने करवाया था । वारकरी संप्रदाय के संतों नामदेव , विसोबा खेचर और ज्ञानेश्वर के जीवन से संबंध  है । विसोबा खेचरा के शिष्य नामदेव से औंधा नागनाथ मंदिर में मिले थे।  संत ज्ञानेश्वर ने  मंदिर में जाने की सलाह दी थी। ज्ञानदेव गाथा पाठ के अनुसार , ज्ञानेश्वर और मुक्ताई ने नामदेव को  गुरु की तलाश में औंधा नागनाथ के मंदिर की यात्रा करने का निर्देश दिया। मंदिर में, नामदेव विसोबा को शिव के प्रतीक लिंगम पर पैर रखकर आराम करते हुए देखते हैं । नामदेव ने शिव का अपमान करने के लिए उनकी भर्त्सना की। विसोबा ने नामदेव से अपने पैर कहीं और रखने को कहा और जहां भी नामदेव ने विसोबा के पैर रखे, वहां एक लिंग उग आया। इस प्रकार, अपनी योगिक शक्तियों के माध्यम से, विसोबा ने पूरे मंदिर को शिव-लिंगम से भर दिया और नामदेव को भगवान की सर्वव्यापकता की शिक्षा दी थी । नामदेव और औंधा नागनाथ मंदिर के  ज्ञानेश्वर, विसोबा खेचर मंदिर के सामने भजन गा रहे थे । मंदिर के पुजारी ने उन्हें बताया कि मंदिर के सामने उनका गायन उनकी नियमित पूजा और प्रार्थनाओं में बाधा डाल रहा है और उन्हें चले जाने के लिए कहा। मंदिर से. मंदिर के पुजारी ने भगत नामदेव से कहा, उनका अपमान किया और कहा कि वह निचली जाति के हैं और मंदिर में क्यों आए हैं। फिर भगत नामदेव मंदिर के पीछे की ओर चले गए और वहां भजन गाने लगे थे ।  सिख धर्म के संस्थापक गुरु नानक ने  क्षेत्र की यात्रा के दौरान औंधा नागनाथ मंदिर का दौरा किया था और नामदेव के जन्मस्थान नरसी बामनी का भी दौरा किया था। नामदेव को भगत नामदेव के रूप में  सिख धर्म में सम्मानित किया जाता है। 
महाराष्ट्र सांस्कृतिक विरासत का परिभ्रमण के लिए साहित्यकार व इतिहासकार सत्येन्द्र कुमार पाठक ने पंजाब नेशनल बैंक के सेवानिवृत्त पदाधिकारी सत्येन्द्र कुमार मिश्र के साथ कार्ययोजना बनाने के बाद 22 फरवरी 2024 से 04 मार्च 2024 तक महाराष्ट्र सांस्कृतिक विरासतों का किया । 
महाराष्ट्र परिभ्रमण के लिए 22 फरवरी 2024 को जहानाबाद रेलवे स्टेशन बिहार से 11 :55 बजे रात्रि पटना जंक्शन से  नासिकरोड 1523 किमी तक  चलनेवाली ट्रैन नम्बर 13201 पीएन बी ई एल टी टी एक्सप्रेस से 23 फरवरी 2024 को 5:25 प्रातः काल में नासिकरोड पहुचा । नासिक रोड से टिनपहिया वाहन एवं नासिक से महाराष्ट्र सरकार द्वारा संचालित परिवहन द्वारा त्रयंकेश्वर में 24 फरवरी 2024 को पहुचने के बाद त्रयंकेश्वर में अवस्थित कुशावर्त कुंड में स्नान ध्यान एवं परिक्रमा करने के पश्चात त्रयंकेश्वर ज्योतिर्लिंग का दर्शन एवं उपासना किया । त्रयंकेश्वर स्थित मानस मंदिर के गर्भगृह में अवस्थित माता मनसा गोदावरी द्वार , ब्रह्मगिरि पर्वत गणपति मंदिर के गर्भगृह में स्थित गणपति का दर्शन किया । त्रयंकेश्वर का दुर्गा पैलेश होटल में विश्राम किया । 25 फरवरी2024 को त्रयम्बकेश्वर से महाराष्ट्र सरकार का परिवहन द्वारा नासिक में स्थित पंचवटी का राम कुंड में स्नान ध्यान , लक्ष्मण कुंड , गोदावरी नदी , शिवमंदिर का दर्शन करने के बाद पंचवटी स्थल पर पांच वट वृक्ष , सीता गुफा में स्थित माता सीता , भगवान राम एवं लक्ष्मण का दर्शन , तपोवन में शेषावतार  लक्षमण , हनुमान जी , 11 फीट का हनुमान मंदिर , लक्षमण रेखा , माता सीता हरण स्थल , गोदावरी एवं कपिल नदी के संगम पर अवस्थित भगवान राम ने माता सीता को भगवान शिव और ब्रह्मा जी के समक्ष अग्निदेव को प्रवेश कर माता सीता को सुरक्षित रखने का स्थल तथा लक्ष्मण द्वारा लंकापति रावण की बहन सूर्पनखा का नाक कान विच्छेद किया गया था का स्थल , वरुणा नदी , काला राम मंदिर , कपिलेश्वर महादेव मंदिर के गर्भगृह में स्थित बाबा कपिलेश्वर , गोर राम मंदिर  , भगवान शनिदेव का दर्शन किया गया । स्वामी नारायण मंदिर जाकर ऋषियों , मुनियों , स्वमियों एवं भगवान कृष्ण की मूर्तियों का दर्शन किया । सीता गुफा में सत्येन्द्र कुमार मिश्र ने अपनी पुस्तक माता सीता , भगवान राम एवं लक्षमण को समर्पित करने के समय साहित्यकार व इतिहासकार सत्येन्द्र कुमार पाठक साथ है। रात्रि में पंचवटी स्थित काका होटल में विश्राम किया । 
26 फरवरी 2024 को नासिक से महाराष्ट्र सरकार की परिवहन द्वारा अहमदनगर जिले के शिरडी और सिंगनापुर के लिए प्रस्थान किया । शिरडी में साई मंदिर , दक्षिण हनुमान जी का दर्शन करने के बाद सिंगनापुर में भगवान शनिदेव की का दर्शन एवं उपासना करने के बाद शिरडी जगदम्बा होटल में विश्राम किया । 27 फरवरी 2024 को शिरडी से कार द्वारा ओरंगाबाद जिले का दौलताबाद , देव गिरी , घृनेश्वर  आया और विश्राम किया । घृनेश्वर में अर्द्धनग्न अर्थात शर्ट , गंजी शरीर से हटाने के बाद  घृनेश्वर  के गर्भगृह में अवस्थित घृनेश्वर ज्योतिर्लिंग का दर्शन , जल , पुष्प , बेलपत्र अर्पित कर उपासना की । बाबा घृनेश्वर ज्योतिर्लिंग का दर्शन सुबह और शाम में किया । घृणेश्वर स्थित घुश्मा की तपोभूमि , घुश्मा कुंड , लक्ष्य गणपति , मार्कण्डेय का दर्शन और विभिन्न मंदिरों में दर्शन किया ।
किया । 28 फरवरी 2024 को एलोरा स्थित गुफाओं का परिभ्रमण करने के बाद पूना मंचर होते हुए भीमाशंकर बसस्टैंड का रेस्ट हाउस में 8 बजे रात्रि में विश्राम किया । 29 फरवरी 2024 को त्रेतायुग में राक्षस राज कुम्भकरण का पुत्र भीमा द्वारा स्थापित भीमा पर्वत पर स्थापित भीमाशंकर मंदिर के गर्भगृह में अवस्थित भीमाशंकर ज्योतिर्लिंग का दर्शन उपासना , जल पुष्प अर्पित कर ध्यान किया । भिमा शंकर दर्शन करने के बाद शिव कुंड , भिमा नदी का उदगम स्थल , राम लक्ष्मण जानकी मंदिर , भगवान शिव , गणपति , नंदी , माता पार्वती का दर्शन किया । जून अखाड़ा ,पंचदेव मंदिर ,विट्ठल मंदिर में स्थित भगवान विठ्ठल का दर्शन किया । रेस्ट हाउस में कानपुर की पतिभा सैनी पांडा , कानपुर की ऑडिटर दिनेश कुमार सैनी और मौजीलाल सैनी को सत्येन्द्र कुमार मिश्र की लिखित पुस्तक रामायण  , भीमा शंकर मंदिर के परिसर में मंदिर के ट्रस्टी को दुर्गा सप्तशती पद्यानुवाद समर्पित की गई । पुस्तक समर्पण के समय पुस्तक रचयिता सत्येन्द्र कुमार मिश्र , एवं साहित्यकार व इतिहासकार सत्येन्द्र कुमार पाठक शामिल हुए है । 
मुम्बई के लिए 29 फरवरी 2024 को  भीमाशंकर से महाराष्ट्र सरकार की परिवहन से  पुणे , अहमदनगर , औरंगाबाद खंडाला की पहाड़ियों  ली वादियों होते हुए कुर्ला पहुचा । कुर्ला से लोकमान्य तिलक टर्मिनल तीन पहिया वाहन से पहुँच कर विद्या विहार स्तित टिप टॉप  होटल में विश्राम किया । 01 मार्च 2024 को मुम्बई का गणपति , सिद्धि विनायक मंदिर के गर्भगृह में  भ्रमणअवस्थित सिद्धि विनायक का दर्शन उपासना के बाद गेट वे ऑफ इंडिया , अरबसागर , नरीमन पॉइंट में समुद्र की लहर , सु सेट का नजारा , मध्य रेलवे का मुख्यालय में अवस्थित रेलवे संग्रहालय , छत्रपति शिवा जी महाराज। टर्मिनल भवन ,  ताज होटल , विभिन्न पुरातत्विक स्थलों का भ्रमण किया। मुम्बई भ्रमण में साहित्यकार इतिहासकार सत्येन्द्र कुमार पाठक , पी एन बी के सेवा निवृत्त पदाधिकारी सत्येन्द्र कुमार मिश्र , मुम्बई के रेलवे दादर के कर्मी सत्यनारायण प्रसाद ने पाव भाजी का लुफ्त उठाया ।   मुम्बई भ्रमण के बाद 02 मार्च 2024 को 2 :45 अपराह्न में   मुम्बई लोक मान्य तिलक टर्मिनल से 13202  एल टी टी एक्सप्रेस से 1695 किमी की दूरी तय करने के बाद  पटना जंक्शन 03 मार्च 2024 को 11 :45 रात्रि में आगमन हुआ । पटना जंक्शन में। 04 मार्च 2024 को 12 :05 बजे पूर्वाह्न में बुद्धपुर्णिमा ट्रेन द्वारा 12 50 बजे पूर्वाह्न जहानाबाद पहुचा । मुम्बई में दाल रोटी , ईख का रस का लुफ्त उठाया ।

शनिवार, मार्च 23, 2024

सत्य के साथ श्मशान की चिता भष्म होली

सत्य के साथ है श्मशान होली 
सत्येन्द्र कुमार पाठक 
सनातन धर्म संस्कृति के स्मृति ग्रन्थों अनुसार सत्य के साथ श्मशान में चिता भष्म से होली का महत्वपूर्ण है। काशी में प्रतिवर्ष  मसान की होली धूमधाम से खेली जती है। उत्तर प्रदेश राज्य का काशी में  मसान की होली खेलने के लिए लोग श्मशान घाटों पर जाकर  पर चिता की राख से होली खेल कर अपने पूर्वजों को याद करना और उनकी आत्मा को शांति देने के लिए  भगवान शिव की पूजा कर  श्रद्धा भाव के साथ मसान की होली मनाते हैं.प्रत्येक वर्ष साल बाबा विश्वनाथ मंदिर और असी घाट एवं मसान  पर भारी संख्या में श्रद्धालु एकत्र होकर मसान होली का आनंद लेते हैं.। पंचांग के अनुसार, फाल्गुन  शुक्ल पक्ष द्वादशी  को प्रत्येक  साल मसान होली मनाई जाती है.। मां पार्वती और भगवान शिव की भी विशेष पूजा की जती है । बनारस की मसान की होली को ‘चिता भस्म होली’ मृत्यु पर शोक मनाने के बजाय, मृत्यु को जीवन का एक चक्र मानकर मनाया जाता है । मसान की होली मृत्यु देवता भगवान शिव  को समर्पित है । मसान होली  मृत्यु पर विजय का प्रतीक  है । भगवान शिव ने मृत्यु के देवता यमराज को पराजित करने के बाद मसान में होली खेली थी ।. फाल्गुन शुक्ल एकादशी को  श्रद्धालु गण  चिता भस्म इकट्ठा करते और फाल्गुन शुक्ल द्वादशी में श्मशान भूमि पर चिता भष्म होली खेलते हैं.। विभिन्न ग्रन्थों के अनुसार, भगवान शिव ने मसान की होली की शुरुआत की थी.।  रंगभरी एकादशी में  भगवान शंकर माता पार्वती का दुरागन कराने के बाद माता पार्वती को  काशी लेकर आए थे ।. भगवान शिव ने गणों के साथ रंग-गुलाल के साथ होली खेली थी ।   परन्तु भगवान शिव काशी के श्मशान में बसने वाले भूत, प्रेत, पिशाच, यक्ष गन्धर्व, किन्नर जीव जंतु आदि के साथ होली नहीं खेल पाए थे ।  रंगभरी एकादशी के एक दिन बाद भगवान शिव ने श्मशान में रहने वाले भूत-पिशाचों के साथ होली खेली थी ।  तभी से काशी विश्वनाथ में मसान की चिता भष्म होली खेलने की परंपरा चली आ रही है. । विश्व में काशी का मसान की चिता। भष्म होली खेली प्रसिद्ध है.।  चिता भस्म की होली पर काशी विश्वनाथ के भक्त जमकर झूमते हैं । महाश्मशान मणिकर्णिका घाट पर हर हर महादेव के नारे गूंजते हैं। देवाधिदेव महादेव के भक्त चिता भस्म की होली खेलते हैं । मणिकर्णिका घाट हर-हर महादेव से गूंज उठता है ।चिता भष्म . होली के अवसर  पर चिता की भस्म को अबीर और गुलाल एक दूसरे पर अर्पित कर सुख, समृद्धि, वैभव संग शिव का आशीर्वाद पाते हैं । मसान की चिताभष्म  होली का संदेश है की  शिव ही अंतिम सत्य है. शिवपुराण और दुर्गा सप्तशती में मसान की होली का उल्लेख है । मध्य प्रदेश राज्य का उज्जैन के महाकाल बाबा स्थल पर तथा बिहार का सारण जिले के सोनपुर की गंगानदी  एवं गंडक नदी संगम तट स्थित श्मशान घाट पर चिता भष्म होली खेली एवं चिताभस्म होलिकोत्सव मनाया जाता है ।

सोमवार, मार्च 18, 2024

चाहत करता इंतजार

 चाहत 
सत्येन्द्र कुमार पाठक 
रात  नशीली में  करवटें  बदलता रहा ।
सिलवटें चादरें औढता पसारता समेटा ।
यादों की रात में उसी याद  में खोया था।
हिचकियों में,रातभर याद में कहता रहा।।
जीवन की पगडंडियों में गलतियां होता रहा । 
चाहत का इकरार तकरार आस मे होने लगा ।
दिल तरकश से प्रेम का तीरे  निकलता  गया।
 अफसोस दिल की तरकस  में  हलचल रहा ।।
मेरी चाहत का दिल में, लिए वो आती रही।
किसी की वो मेरी चाहत निरंतर बनती रही।।
 मस्त पवन
  डा उषा श्रीवास्तव
मस्त पवन का झोंका आया
वासंती रंग लाया है,
मेरे दर का ठूंठ गाछ भी
मंद-मंद मुस्काया है।
वासंती रंग,,,,,,,,,,,,,,
होली के आहट से सबके
हृदय उमंग भर आया है,
रंगों का हुर्दंग भी मेरे 
अंतर्मन को लुभाया है।
वासंती रंग,,,,,,,,,,,,,,
महुए की मदहोश महक से
सबका मन भरमाया है,
चिड़ियों के कलरव में भी तो
सातों सुर भर आया है।
वासंती रंग,,,,,,,,,,,,,,
बाग-बगीचे में हरियाली
मंजर से गदराई है,
कलियों के गुण-गुण गाने से
भंवरा भी बौराया है।
वासंती रंग,,,,,,,,,,,,,,,,,
मुजफ्फरपुर, बिहार।
: इंतजार 
सत्येन्द्र कुमार पाठक 
दिया दिल पर दाग तुमने जितने किसी को दिखाया नही जाता।
जीतना तड़पाया और सताया मुझे  किसी को बताया नही जाता।
दिल को मासूम और नादान समझ खूब मनमानिया किया तुमने।
 प्यार का मारा हूं मैं जख्मी दिल दवा तुमसे लगाया नही जाता।
सारे नाज नखरे सहकर तुम्हारे हर हुक्म तामिल किया मैंने।
मुरझाए फूलो में जान जाए तुमसे बार मुस्कुराया नही जाता।
गोरे मुखड़े पर काला तिल और  मेरे दिल का कातिल ।
 प्यासे की प्यास बुझ जाए प्मुझसे  सुनाया नही जाता।
यदि  और इंतजार   किसी काम के नहीं बात मान लो।
 मिसाल मगर बेदर्दी को मुझसे दिल लगाया नही जाता।
यादे 
सत्येन्द्र कुमार पाठक 
हवा जैसा दौड़ता मन है,
दिल में टीस लगाता है।
मंजिल पर जाकर प्रेम जगाता है,
उषा की लाली लगाम लगाता है।
मन ऊंचाई पर जाकर यादें 
मन की नजरों से मेल  करे 
दिल मे दरिया बन जाता है,
मिले सुमाहौल  दिल में उनको,
स्वयं  प्रेम उसी में ढल जाता है।
कभी हलचल में प्रेम की मोती , 
यादों की पुष्प  दयालु हो जाता है।
साधन की साधना से उनकी  , 
मन में चिन्हित  साध  पाता है।
प्रेम से विचलित मन तत्व से , 
यादें  शांत सरोवर बन जाता है।
 दिल 
सत्येन्द्र कुमार पाठक 
दोनो तरफ की बराबर जोर खूब चलती रही।
दिल में हलचल दिन रात हमेशा   करता रहा ।
तेरी चाहत हमेशा दिल में हमे मचलती रही ।
वसंत में तेरे मेरे बीच चलता रहा है अबतक।
 नजरे चुराता रहा दिल से आह निकलती रही।

गुरुवार, मार्च 14, 2024

त्रयंकेश्वर परिभ्रमण

त्रयम्बकेश्वर परिभ्रमण
सत्येन्द्र कुमार पाठक 
 महाराष्ट्र राज्य के नाशिक ज़िले का मुख्यालय गोदावरी नदी के किनारे स्थित नासिक  है। नासिक में  पंचवटी , राम कुंड , लक्षमण कुंड , तपोवन , हनुमानजी की , गोदावरी नदी एवं कपिला नदी संगम , गोदावरी घाट, सीता गुफा , लक्षमण द्वारा खिंची गयी लक्ष्मण रेखा , सूर्पनखा का नाक कान काटने का स्थल , माता सीता को भगवानराम द्वारा ब्रह्मा जी , भगवान शिव के समक्ष अग्नि को समर्पित स्थल , पांच बरगद का वृक्ष , नाशिक गुफाएँ , त्रिरश्मी लेणी , नीलकंठेश्वर मंदिर , कालाराम मन्दिर है ।  निर्देशांक: 20°00′N 73°47′E / 20.00°N 73.78°E पर अवस्थित समुद्र तल से 1916 फिट , 584 मीटर की ऊँचाई पर नाशिक ज़िला का क्षेत्रफल 267 किमी2 (103 वर्गमील) में 2011 जनगणना के अनुसार 14,86,973 आवादी है। सातवाहन वंश के राजाओं की राजधानी नाशिक  थी। मुगल काल में  नासिक को गुलशनबाद के नाम से जाना जाता था। कुंभ मेला - नाशिक में लगने वाला कुंभ मेला को सिंहस्थ के नाम से जाना जाता है ।  पंचांग के अनुसार जब भगवान  सूर्य जब सिंह राशि में होने पर नाशिक में सिंहस्थ व कुम्भ मेला होता है। गोदावरी नदी में स्नान करने से आत्मा की शुद्धि और पापों से मुक्ति मिलती है। गोदावरी नदी में निर्मित राम कुंड में स्नान , ध्यान एवं श्रद्धालुओं अपने पूर्वजों को जलांजलि एवं पिंड अर्पित करते हैं। पंचवटी नाशिक के उत्तरी भाग में पाँच वट वृक्ष से युक्त पंचवटी में त्रेतायुग में  भगवान राम, सीता और लक्ष्मण के साथ  रहे थे।  पंचवटी में सीता गुफा में माता सीता , भगवान राम , शेषावतार लक्ष्मण की मूर्ति स्थापित है।    पंचवटी में जिस स्थान  से माता  सीता का अपहरण राक्षस राज रावण द्वारा  पांच बरगद के पेडों के समीप से किया गया था ।  सीता गुफा   में प्रवेश करने के लिए संकरी सीढ़ियों से गुजरना पड़ता है। सुंदरनारायण मंदिर नाशिक में अहिल्याबाई होल्कर सेतु के किनारे सुंदरनारायण मंदिर की  स्थापना गंगाधर यशवंत चंद्रचूड ने 1756 ई. में की थी।  सुंदरनारायण मंदिर में भगवान विष्णु की आराधना की जाती है। मोदाकेश्वर गणेश मंदिर के गर्भगृह में स्थित  में स्थित  स्वयं  धरती से निकली गणेश जी की मूर्ति स्थापित  है । मंदिर में स्थापित मूर्ति शम्भु के नाम से जाना जाता है। नारियल और गुड़ को मिलाकर निर्मित मोदक भगवान गणेश का प्रिय व्यंजन है। रामकुंड गोदावरी नदी पर स्थित रामकुंड तीर्थयात्रियों को अपनी ओर आकर्षित करता है। श्रद्धालु स्नान के लिए आते हैं। अस्थि विसर्जन के लिये  कुंड पवित्र स्थान माना जाता है। त्रेतायुग में भगवान श्री राम गोदावरी नदी में स्नान किया था। नाशिक का  पंचवटी स्थित हेमादम्पति शैली में काले पाषाण से कालाराम मंदिर का निर्माण गोपिकाबाई पेशवा ने 1794 ई.  में करवाया था।  नाशिक से 6 किमी की दूरी  गंगापुर रोड के किनारे स्थित सोमेश्वर  मंदिरके गर्भगृह में महादेव सोमेश्‍वर की प्रतिमा स्थापित है। त्रयंकेश्वर क्षेत्र में  मनसा मंन्दिर में माता मनसा स्थापित है ।
  भारतीय संस्कृति और पुरणों के अनुसार त्र्यम्बकेश्वर ज्योतिर्लिंग का दर्शन और महामृत्जुंजय की उपासना का महत्वपुर्ण उल्लेख है  । शिव पुराण के कोटि रुद्रसंहिता का अध्याय 24 , 25 , 26  के अनुसार ऋषि गौतम और अहिल्या के तप करने के कारण भगवान शिव  , ब्रह्मा और विष्णु के रूप में त्र्यम्बकेश्वर ज्योतिर्लिङ्ग स्थापित हुए थे । ऋषि गौतम द्वारा अपने ऊपर दुष्टों द्वारा लगाए गए मिथ्या दोष गौ हत्या के प्रयाश्चित करने के लिये ब्रह्मगिरि की 101 बार परिक्रमा , 03 बार पृथिवी की परिक्रमा , एक करोड़ पार्थिव लिंग की पूजा तथा 11 बार गंगा जल से स्नान कर भगवान शिव की आराधना की थी ।पत्नी अहिल्या सहित ऋषि गौतम की उपासना से संतुष्ट हो कर भगवान शिव और शिव ऋषि गौतम दर्शन , गोदावरी गंगा का प्रकट जिसे गौतमी गंगा  , वृस्पति के सिह राशि आर् गोदावरी का प्रकट होने और भगवान शिव का त्रयम्बक शिवलिंग के रूप में प्रकट हो कर आशीर्वचन प्राप्त किये थे । महाराष्ट्र राज्य का  नासिक जिले में त्रयंबक के ब्रह्मगिरि से उद्गम गोदावरी नदी के किनारे त्र्यम्बकेश्वर ज्योतिर्लिंग स्थापित  हैं। यहां के निकटवर्ती ब्रह्म गिरि नामक पर्वत से गोदावरी नदी का उद्गम है। गौतम ऋषि तथा गोदावरी के उपासना से प्रसन्न हो कर गौतम ऋषि तथा गोदावरी की उपासना स्थल पर भगवान शिव निवास  करने के कारण  त्र्यम्बकेश्वर ज्योतिर्लिंग से विख्यात हुए है । त्र्यम्बकेश्वर मंदिर के गर्भगृह   में  ब्रह्मा, विष्णु और शिव लिंग के रूप में  त्रिदेव   हैं। शिवपुराण के अनुसार ब्रह्मगिरि पर्वत पर जाने के लिये सात सौ सीढ़ियों पर चढ़ने के बाद 'रामकुण्ड' और 'लक्षमण कुण्ड' मिलने के बाद और ब्रह्मगिरि शिखर के ऊपर  गोमुख से प्रवाहित होने वाली भगवती गोदावरी के दर्शन होते हैं। त्र्यंबकेश्‍वर ज्योर्तिलिंग मंदिर  में ब्रह्मा, विष्‍णु और महेश तीनों विराजित होने के कारण ज्‍योतिर्लिंग की सबसे बड़ी विशेषता है। गोदावरी नदी के किनारे स्थित त्र्यंबकेश्‍वर मंदिर काले पत्‍थरों से निर्मित होने के कारण मंदिर की  स्‍थापत्‍य अद्भुत है। मंदिर के पंचक्रोशी में कालसर्प शांति, त्रिपिंडी विधि और नारायण नागबलि की पूजा संपन्‍न होती है।  प्राचीन मंदिर का पुनर्निर्माण नाना साहब पेशवा द्वारा  1755 में प्रारम्भ किया गया और 1786 में पूर्ण किया गया था । त्र्यंबकेश्वर मंदिर की भव्य इमारत सिंधु-आर्य शैली का उत्कृष्ट नमूना है। मंदिर के अंदर गर्भगृह में प्रवेश करने के बाद शिवलिंग की केवल आर्घा दिखाई देती है, लिंग नहीं। गौर से देखने पर अर्घा के अंदर एक-एक इंच के तीन लिंग दिखाई देते हैं। इन लिंगों को त्रिदेव- ब्रह्मा-विष्णु और महेश का अवतार माना जाता है। भोर के समय होने वाली पूजा के बाद इस अर्घा पर चाँदी का पंचमुखी मुकुट चढ़ा दिया जाता है। त्रयंबकेश्वर मंदिर और गाँव ब्रह्मगिरि नामक पहाड़ी की तलहटी में स्थित है। ब्रह्मगिरि  को शिव का साक्षात रूप माना जाता है। ब्रह्म गिरि  पर्वत पर पवित्र गोदावरी नदी का उद्गमस्थल है। 
   त्रयम्बक में  अपने ऊपर लगे गोहत्या के पाप से मुक्ति पाने के लिए गौतम ऋषि ने कठोर तप कर शिव से गंगा को यहाँ अवतरित करने का वरदान माँगने के  फलस्वरूप दक्षिण की गंगा  गोदावरी नदी का उद्गम हुआ। गोदावरी के उद्गम के साथ गौतम ऋषि के अनुनय-विनय के उपरांत शिवजी ने  मंदिर में विराजमान होना स्वीकार कर लिया। तीन नेत्रों वाले शिवशंभु के त्रयम्बक स्थल पर विराजमान होने के कारण गौतम ऋषि की तपोभूमि को त्र्यंबक (तीन नेत्रों वाले) कहा जाने लगा है । त्र्यम्बक  का राजा भगवान त्र्यम्बकेश्वर  है । प्रत्येक सोमवार को त्रयम्बक का राजा भगवान  त्र्यंबकेश्वर  अपनी प्रजा तथा भक्तों  की रक्षा करते  हैं। महर्षि गौतम के तपोवन में रहने वाले ब्राह्मणों की पत्नियाँ किसी बात पर उनकी पत्नी अहिल्या से नाराज हो गईं। उन्होंने अपने पतियों को ऋषि गौतम का अपमान करने के लिए प्रेरित किया। उन ब्राह्मणों ने इसके निमित्त भगवान्‌ श्रीगणेशजी की आराधना की। उनकी आराधना से प्रसन्न होकर  गणेशजी ने प्रकट होकर उनसे वर माँगने को कहा उन ब्राह्मणों ने कहा- 'प्रभो! यदि आप हम पर प्रसन्न हैं । किसी प्रकार ऋषि गौतम को आश्रम से बाहर निकाल दें।' उनकी यह बात सुनकर गणेशजी ने उन्हें ऐसा वर न माँगने के लिए समझाया। किंतु वे अपने आग्रह पर अटल रहे।अंततः गणेशजी को विवश होकर उनकी बात माननी पड़ी। अपने भक्तों का मन रखने के लिए वे एक दुर्बल गाय का रूप धारण करके ऋषि गौतम के खेत में जाकर रहने लगे। गाय को फसल चरते देखकर ऋषि बड़ी नरमी के साथ हाथ में तृण लेकर उसे हाँकने के लिए लपके। उन तृणों का स्पर्श होते ही वह गाय वहीं मरकर गिर पड़ी। अब तो बड़ा हाहाकार मचा। सारे ब्राह्मण एकत्र होकर  गो-हत्यारा कहकर ऋषि गौतम की भर्त्सना करने लगे। ऋषि गौतम इस घटना से बहुत आश्चर्यचकित और दुःखी थे। अब उन सारे ब्राह्मणों ने कहा कि तुम्हें यह आश्रम छोड़कर अन्यत्र कहीं दूर चले जाना चाहिए। गो-हत्यारे के निकट रहने से हमें भी पाप लगेगा। विवश होकर ऋषि गौतम अपनी पत्नी अहिल्या के साथ वहाँ से एक कोस दूर जाकर रहने लगे। किंतु उन ब्राह्मणों ने वहाँ भी उनका रहना दूभर कर दिया। वे कहने लगे- 'गो-हत्या के कारण तुम्हें अब वेद-पाठ और यज्ञादि के कार्य करने का कोई अधिकार नहीं रह गया।' अत्यंत अनुनय भाव से ऋषि गौतम ने उन ब्राह्मणों से प्रार्थना की कि आप लोग मेरे प्रायश्चित और उद्धार का कोई उपाय बताएँ।तब उन्होंने कहा- 'गौतम! तुम अपने पाप को सर्वत्र सबको बताते हुए तीन बार पूरी पृथ्वी की परिक्रमा करो। फिर लौटकर यहाँ एक महीने तक व्रत करो। इसके बाद 'ब्रह्मगिरी' की 101 परिक्रमा करने के बाद तुम्हारी शुद्धि होगी अथवा यहाँ गंगाजी को लाकर उनके जल से स्नान करके एक करोड़ पार्थिव शिवलिंगों से शिवजी की आराधना करो। इसके बाद पुनः गंगाजी में स्नान करके इस ब्रह्मगीरि की 11 बार परिक्रमा करो। फिर सौ घड़ों के पवित्र जल से पार्थिव शिवलिंगों को स्नान कराने से तुम्हारा उद्धार होगा।
स्मृति  ग्रंथों के अनुसार  महर्षि गौतम वे सारे कार्य पूरे करके पत्नी के साथ पूर्णतः तल्लीन होकर भगवान शिव की आराधना करने लगे। इससे प्रसन्न हो भगवान शिव ने प्रकट होकर उनसे वर माँगने को कहा। महर्षि गौतम ने उनसे कहा- 'भगवान्‌ मैं यही चाहता हूँ कि आप मुझे गो-हत्या के पाप से मुक्त कर दें।' भगवान्‌ शिव ने कहा- 'गौतम ! तुम सर्वथा निष्पाप हो। गो-हत्या का अपराध तुम पर छल पूर्वक लगाया गया था। छल पूर्वक ऐसा करवाने वाले तुम्हारे आश्रम के ब्राह्मणों को मैं दण्ड देना चाहता हूँ।'इस पर महर्षि गौतम ने कहा कि प्रभु! उन्हीं के निमित्त से तो मुझे आपका दर्शन प्राप्त हुआ है। अब उन्हें मेरा परमहित समझकर उन पर आप क्रोध न करें।' बहुत से ऋषियों, मुनियों और देव गणों ने वहाँ एकत्र हो गौतम की बात का अनुमोदन करते हुए भगवान्‌ शिव से सदा वहाँ निवास करने की प्रार्थना की। वे उनकी बात मानकर वहाँ त्र्यम्बक ज्योतिर्लिंग के नाम से स्थित हो गए। गौतमजी द्वारा लाई गई गंगाजी भी वहाँ पास में गोदावरी नाम से प्रवाहित होने लगीं। यह ज्योतिर्लिंग समस्त पुण्यों को प्रदान करने वाला है।इस भ्रमण के समय त्र्यंबकेश्वर महाराज के पंचमुखी सोने के मुखौटे को पालकी में बैठाकर गाँव में घुमाया जाता है। फिर कुशावर्त तीर्थ स्थित घाट पर स्नान कराया जाता है। इसके बाद मुखौटे को वापस मंदिर में लाकर हीरेजड़ित स्वर्ण मुकुट पहनाया जाता है। यह पूरा दृश्य त्र्यंबक महाराज के राज्याभिषेक-सा महसूस होता है। इस यात्रा को देखना बेहद अलौकिक अनुभव है।‘कुशावर्त तीर्थ की जन्मकथा काफी रोचक है। कहते हैं ब्रह्मगिरि पर्वत से गोदावरी नदी बार-बार लुप्त हो जाती थी। गोदावरी के पलायन को रोकने के लिए गौतम ऋषि ने एक कुशा की मदद लेकर गोदावरी को बंधन में बाँध दिया। उसके बाद से ही इस कुंड में हमेशा लबालब पानी रहता है। इस कुंड को ही कुशावर्त तीर्थ के नाम से जाना जाता है। कुंभ स्नान के समय शैव अखाड़े इसी कुंड में शाही स्नान करते हैं।’शिवरात्रि और सावन सोमवार के दिन त्र्यंबकेश्वर मंदिर में भक्तों का ताँता लगा रहता है। भक्त भोर के समय स्नान करके अपने आराध्य के दर्शन करते हैं। यहाँ कालसर्प योग और नारायण नागबलि नामक खास पूजा-अर्चना होती है । श्री त्रंबकेश्वर ज्योतिर्लिंग तीन छोटे-छोटे लिंग ब्रह्मा, विष्णु और शिव प्रतीक स्वरूप, त्रि-नेत्रों वाले भगवान शिव के बारह ज्योतिर्लिंगों में से एक है। मंदिर के अंदर गर्भगृह में प्रायः शिवलिंग दिखाई नहीं देता है, गौर से देखने पर अर्घा के अंदर एक-एक इंच के तीन लिंग दिखाई देते हैं। सुवह होने वाली पूजा के बाद इस अर्घा पर चाँदी का पंचमुखी मुकुट चढ़ा दिया जाता है।त्र्यंबकेश्वर मंदिर का निर्माण पेशवा बालाजी बाजीराव तृतीय ने पुराने मंदिर स्थल पर ही करवाया था। मंदिर का निर्माण कार्य 1755 में प्रारंभ होकर 31 साल के लंबे समय के बाद सन् 1786 में पूर्ण हुआ। त्र्यंबकेश्वर मंदिर तीन पहाड़ियों ब्रह्मगिरी, नीलगिरि और कालगिरि के बीच स्थित है। त्रंबकेश्वर को सोमवार को चाँदी के पंचमुखी मुकुट को पालकी में बैठाकर गाँव में प्रजा का हाल जानने हेतु भ्रमण कराया जाता है।  कुशावर्त तीर्थ स्थित घाट पर स्नान के उपरांत वापस मंदिर में शिवलिंग पर पहनाया जाता है। त्र्यंबक महाराज के राज्याभिषेक  है, तथा इस अलौकिक यात्रा में सामिल होना अत्यंत सुखद अनुभव है।कालसर्प शांति, त्रिपिंडी विधि और नारायण नागबलि पूजन केवल श्री त्रंबकेश्वर ज्योतिर्लिंग पर ही संपन्‍न किया जाता है। मंदिर के गर्भ-ग्रह में स्त्रियों का प्रवेश पूर्णतया वर्जित है। शिव ज्योतिर्लिंग!शिवरात्रि / त्रयोदशी सावन के सोमवारश्री रुद्राष्टकम्  ,  श्री गोस्वामितुलसीदासकृतं शिव आरती श्री शिव चालीसा , महामृत्युंजय मंत्र, संजीवनी मंत्र मंदिर में निरंतर होते है । स्वयंभू द्वारा  सतयुग में त्र्यम्बकेश्वर की स्थापना कर भगवान शिव को समर्पित किया था । त्रयम्बकेश्वर मंदिर का हेमाडपंती  शैली में निर्मित है। त्र्यम्बकेश्वर ज्योतिर्लिंग का दर्शन तथा गोदावरी नदी में स्नान ,उपासना करने और गोदावरी के किनारे शयन करने से समस्त मनोकामना की पूर्ति , काल सर्प दोष , सभी ऋणों से मुक्ति तथा जीवन सुखमय होता है ।महामृत्युञ्जय मन्त्र - "मृत्यु को जीतने वाला महान मंत्र"  को  त्रयम्बकम मन्त्र  कहा जाता है, यजुर्वेद के रूद्र अध्याय में, भगवान शिव की स्तुति हेतु की गयी एक वन्दना है। मन्त्र में शिव को 'मृत्यु को जीतने वाला' बताया गया है। यह गायत्री मन्त्र के समकक्ष सनातन धर्म का सबसे व्यापक रूप से जाना जाने वाला मन्त्र है।भगवान शिव के तीन आँखों की ओर इशारा करते हुए त्रयंबकम मन्त्र और मृत-संजीवनी मन्त्र के रूप में जाना जाता है । कठोर तपस्या पूरी करने के बाद ऋषि शुक्र को प्रदान की गई है। ऋषि-मुनियों ने महा मृत्युंजय मन्त्र को वेद का ह्रदय कहा है। ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्‌। उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय माऽमृतात्।।है "त्रिनेत्रों वाला", रुद्र  ! तीनों कालों में हमारी रक्षा करने वाले भगवान को हम पूजते हैं, सम्मान करते हैं, हमारे श्रद्देय मीठी महक वाला,सुगन्धित एक सुपोषित स्थिति, फलने-फूलने वाली, समृद्ध जीवन की  सुपोषित स्थिति, फलने-फूलने वाली, समृद्ध जीवन की परिपूर्णता वह जो पोषण करता है, शक्ति देता है, (स्वास्थ्य, धन, सुख में) वृद्धिकारक; जो हर्षित करता है, आनन्दित करता है और स्वास्थ्य प्रदान करता है, एक अच्छा माली की तरह तना मृत्यु से  हमें स्वतन्त्र करें, मुक्ति दें नहीं वंचित होएँ  अमरता, मोक्ष के आनन्द से परिपूर्ण करें । ऋषि मृकण्ड की तपस्या से मार्कण्डेय पुत्र हुआ।  ज्योतिर्विदों ने मार्कण्डेय  शिशु के लक्षण देखकर ऋषि के हर्ष को चिंता में परिवर्तित कर दिया। उन्होंने कहा यह बालक अल्पायु और बारह वर्ष है। मृकण्ड ऋषि ने अपनी पत्नी को आश्वत किया-देवी, चिंता मत करो। विधाता जीव के कर्मानुसार  आयु दे सकते हैं । भाग्यलिपि को स्वेच्छानुसार परिवर्तित कर देना भगवान शिव के लिए विनोद मात्र है। ऋषि मृकण्ड के पुत्र मार्कण्डेय का शैशव बीता और कुमारावस्था के प्रारम्भ में पिता ने उन्हें शिव मन्त्र की दीक्षा तथा शिवार्चना की शिक्षा दी। पुत्र मार्कण्डेय  को उसका भविष्य बता कर समझा दिया कि त्रिपुरारी  उसे मृत्यु से बचा सकते हैं। माता-पिता दिन गिन रहे थे।  मार्कंडेय ऋषि ने मृत्युंजय मन्त्र त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धन्म। उर्वारुकमिव बन्धनामृत्येर्मुक्षीय मामृतात्॥ से भगवान शिव की उपासना की थी । काल किसी की भी प्रतीक्षा नहीं करता। यमराज के दूत समय पर आए और संयमनी लौट गए।  यमदूतों ने अपने स्वामी यमराज से जाकर निवेदन किया- हम मार्कण्डेय तक पहुँचने का साहस नहीं पाए। इस पर यमराज ने कहा कि मृकण्ड को पुत्र को मैं स्वयं लाऊँगा। दण्डधर यमराज जी महिषारूढ़ हुए और क्षण भर में मार्कण्डेय के पास पहुँच गये। बालक मार्कण्डेय ने उन कज्जल कृष्ण, रक्तनेत्र पाशधारी को देखा  सम्मुख की लिंगमूर्ति से लिपट गया। अद्भुत अपूर्व हुँकार और मन्दिर, दिशाएँ जैसे प्रचण्ड प्रकाश से चकाचौंथ हो गईं। शिवलिंग से तेजोमय त्रिनेत्र चन्द्रशेखर प्रकट हो गए और उन्होंने त्रिशूल उठाकर यमराज से बोले, हे! यमराज तुमने मेरे आश्रित पर पाश उठाने का साहस कैसे किया है  ? यमराज ने उससे पूर्व ही हाथ जोड़कर मस्तक झुका लिया था और कहा कि हे! त्रिनेत्र मैं आपका सेवक हूँ। कर्मानुसार जीव को इस लोक से ले जाने का निष्ठुर कार्य प्रभु ने इस सेवक को दिया है। भगवान चन्द्रशेखर ने कहा कि यह संयमनी नहीं जाएगा। इसे मैंने अमरत्व दिया है। मृत्युंजय प्रभु की आज्ञा को यमराज अस्वीकार कैसे कर सकते थे? यमराज खाली हाथ लौट गए। मार्कण्डेय ने यह देख कर भोलेनाथ को सिर झुकाए और उनकी स्तुति करने लगे। उर्वारुमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय मामृतात्। वृन्तच्युत खरबूजे के समान मृत्यु के बन्धन से छुड़ाकर मुझे अमृतत्व प्रदान करें। मन्त्र के द्वारा चाहा गया वरदान उस का सम्पूर्ण रूप से उसी समय मार्कण्डेय को प्राप्त हो गया। कलौकलिमल ध्वंयस सर्वपाप हरं शिवम्। येर्चयन्ति नरा नित्यं तेपिवन्द्या यथा शिवम्।। स्वयं यजनित चद्देव मुत्तेमा स्द्गरात्मवजै:। मध्यचमा ये भवेद मृत्यैतरधमा साधन क्रिया।।देव पूजा विहीनो य: स नरा नरकं व्रजेत। यदा कथंचिद् देवार्चा विधेया श्रध्दायान्वित।। जन्मचतारात्र्यौ रगोन्मृदत्युतच्चैरव विनाशयेत्।