शनिवार, अक्तूबर 28, 2023

संस्कृत साहित्य के आदिकवि महर्षि वाल्मीकि

संस्कृत साहित्य का आदिकवि वाल्मीकि
सत्येन्द्र कुमार पाठक 
संस्कृत साहित्य का का आदिकवि वाल्मीकि की रामायण की प्रसिद्ध रचना  हैं ।  वाल्मीकि रामायण महाकाव्य में भगवान  श्री राम के जीवन के माध्यम से हमें जीवन के सत्य व कर्तव्य से, परिचित करवाता है। रामायण के रचियता महर्षि वाल्मीकि  को रत्नाकर , आदिकवि, महर्षि, ब्रह्मर्षि, योगर्षि कहा गया है। महर्षि वाल्मीकि की रचनाओं में रामायण, योगवासिष्ठ, अक्षर-लक्ष्य है। ऋषि प्रचेता के पुत्र रत्नाकर का जन्म  आश्विन मास शुक्ल पक्ष पूर्णिमा व8वैवस्वत मन्वंतर त्रेतायुग में चम्पारण्य में हुआ था ।  ऋषि प्रचेता के पुत्र रत्नाकर   क्रौंच पक्षी के जोड़े प्रेमालाप करने के दौरान निहार रहे थे। कर क्रोंच के प्रेमालाप के दौरान  नर पक्षी का वध  रत्नाकर द्वारा कर दिया। मादा पक्षी विलाप करने लगी। क्रोंच के विलाप को सुनकर वाल्मीकि की करुणा से द्रवित अवस्था में रत्नाकर के मुख से स्वतः श्लोक मा निषाद प्रतिष्ठां त्वंगमः शाश्वतीः समाः। यत्क्रौंचमिथुनादेकं वधीः काममोहितम्॥ अर्थ : हे दुष्ट, तुमने प्रेम मे मग्न क्रौंच पक्षी को मारा है। जा तुझे कभी भी प्रतिष्ठा की प्राप्ति नहीं हो पायेगी और तुझे  वियोग झेलना पड़ेगा।
प्रसिद्ध महाकाव्य "रामायण में सात सर्ग ,,48 हजार शब्दों के युक्त 24 हजार श्लोकों वाली  "वाल्मीकि रामायण"  में वाल्मीकि द्वारा  अनेक घटनाओं के समय सूर्य, चंद्र तथा अन्य नक्षत्र की स्थितियों का वर्णन किया गया है। ज्योतिष विद्या एवं खगोल विद्या महर्षि वाल्मीकि जी ने पवित्र ग्रंथ रामायण की रचना की थी ।  वनवास काल के दौरान भगवान"श्रीराम" वाल्मीकि के आश्रम में  गये थे। भगवान वाल्मीकि को "श्रीराम" के जीवन में घटित प्रत्येक घटना का पूर्ण ज्ञान था। सतयुग, त्रेता और द्वापर तीनों कालों में वाल्मीकि का उल्लेख मिलता है । रामचरितमानस के अनुसार जब श्रीराम वाल्मीकि आश्रम आए थे तो आदिकवि वाल्मीकि के चरणों में दण्डवत प्रणाम करने के लिए वे जमीन पर डंडे की भांति लेट गए थे और उनके मुख से निकला था "तुम त्रिकालदर्शी मुनिनाथा, विस्व बदर जिमि तुमरे हाथा।" अर्थात आप तीनों लोकों को जानने वाले स्वयं प्रभु हैं। ये संसार आपके हाथ में एक बैर के समान प्रतीत होता है। महाभारत काल में भी वाल्मीकि का वर्णन मिलता है। जब पांडव कौरवों से युद्ध जीत जाते हैं द्रौपदी यज्ञ रखती है, जिसके सफल होने के लिये शंख का बजना आवश्यक परन्तु भगवान कृष्ण सहित सभी द्वारा प्रयास करने पर  यज्ञ सफल नहीं होता लेकिन  कृष्ण के कहने पर सभी वाल्मीकि से प्रार्थना करते हैं।  वाल्मीकि वहाँ प्रकट होने के बाद शंख खुद बज उठता है और द्रौपदी का यज्ञ सम्पूर्ण हो जाता है। इस घटना को कबीर ने भी स्पष्ट किया है "सुपच रूप धार सतगुरु आए। पाण्डवो के यज्ञ में शंख बजाए।  स्मृतियों , स्कन्द पुराण नगर खण्ड , मुखारतीर्थ , लोह जंघा , विष्णु धर्मोत्तर पुराण  और मनुस्मृति के अनुसार ऋषि कश्यप की भार्या माता अदिति के 9 वें पुत्र वरुण ( प्रचेता )  आदित्य  की पत्नी चर्ष्णि के गर्भ से रत्नाकर का जन्म  विदेह राज्य का चम्पारण्य स्थित गंडक नदी की उप नदी रैया किनारे लालभीतिया स्थित ब्राह्मण ऋषि प्रचेता आश्रम में आश्विन शुक्ल पूर्णिमा त्रेतायुग वैवश्वत मन्वंतर  में  हुआ था । ऋषि  प्रचेता नंदन रत्नाकर को  चम्पारण्य के जंगल में भटकने के कारण बाल्यकाल में भील द्वारा पालन पोषण किया गया था । भीलों ने रत्नाकर को नाग नामकरण किया था । रत्नाकर दस्युओं का सरदार बने थे । देवर्षि नारद की प्रेरणा से रत्नाकर द्वारा ब्रह्मा जी की उपासना में तल्लीनता और दस्युओं के सरदार से मुक्त हुए थे । ब्राह्मण   रत्नाकर द्वारा ब्रह्मा जी उपासना करने के दौरान रत्नाकर का शरीर बाल्मी अर्थात दीमकयुक्त हो गया था । रत्नाकर की भक्ति से ब्रह्मा जी ने प्रकट होकर रत्नाकर का शरीर को कंचन बनाकर वाल्मीकि नामकरण किया था । रत्नाकर से वाल्मीकि बनकर रामायण की रचना की थी। ब्रह्मा जी की पत्नी वीरणी के पुत्र भृगु ऋषि की भार्या  दिव्या से शुक्राचार्य और त्वष्टा  , पौलमी से ऋचीक , च्यवन और पुत्री रेणुका से प्रचेता का जन्म हुआ था । प्रचेता की पत्नी चर्ष्णि से रत्नाकर का जन्म हुआ था ।  रत्नाकर के पिता प्रचेता ऋषि द्वारा  प्रचेतस आश्रम में  जंगलों और पर्वतों के निवासियों में भील , निषाद ,व्याघ्र , किरात , शाबर ,पुलिंद ,यक्ष ,नाग और कोल के लिए भगवान शिव , वृषभ , नाग  , प्रकृति पूजन सूर्य , चंद्र की उपासना , स्थल की स्थापना और विस् अर्थात धनुष बाण की शिक्षा आश्रम की स्थापना  की गयी थी ।  राजा चंपा भील द्वारा 14 विन शताब्दी में चंपानेर की स्थापना किया था । बिहार का चम्पारण में बाल्मीकि नगर ,  बाल्मीकि आश्रम , लव कुश मंदिर , राम जानकी मंदिर ,  तमिलनाडु के तिरुवन्मियूर , नेपाल का चितवन  में वाल्मीकि मंदिर अवस्थित है । महर्षि वाल्मीकि अस्त्र और सस्त्र तथा शास्त्र के ज्ञाता और लो एवं कुश का महान गुरु थे । भगवान राम की भार्या जनक नंदनी माता सीता की महान आश्रम के संस्थापक महर्षि वाल्मीकि थे । महर्षि वाल्मीकि आश्रम एवं वाल्मीकि आश्रम दिल्ली , अमृतसर , , कानपुर , अयोध्या , कपूरथला , वाल्मीकिनगर बिहार कुशीनगर में स्थित है ।

रविवार, अक्तूबर 22, 2023

शक्ति और ऐश्वर्य की देवी माता महागौरी

, शक्ति और, ऐश्वर्य  की देवी माता महागौरी 
सत्येन्द्र कुमार पाठक 
सनातन धर्म का शाक्त सम्प्रदाय के विभिन्न स्मृतियों एवं पुराणों में मतमहागौरी का महत्वपूर्ण उल्लेख मिलता है.।नवदुर्गा का अष्टम अवतार माता महागौरी का निवा सस्थान कैलाश , जीवनसाथी भगवान शिव , सभीग्रहों की आराध्या , अस्त्र त्रिशूल ,डमरू ,वर , अभय मुद्रा सवारी वृषभ है । श्वेते वृषे समारुढा श्वेताम्बरधरा शुचिः | महागौरी शुभं दद्यान्महादेवप्रमोददा || महागौरी माता का वर्ण पूर्णतः गौरता की  शंख, चंद्र और कुंद के फूल की तरह एवं  आयु आठ वर्ष है- 'अष्टवर्षा भवेद् गौरी माता है  । माता  गौरी के समस्त वस्त्र एवं आभूषण आदि श्वेत हैं। महागौरी की चार भुजाएँ एवं वाहन वृषभ है। मतागौरी के ऊपर के दाहिने हाथ में अभय मुद्रा और नीचे वाले दाहिने हाथ में त्रिशूल है। ऊपरवाले बाएँ हाथ में डमरू और नीचे के बाएँ हाथ में वर-मुद्रा एवं मुद्रा अत्यंत शांत तथा  महागौरी देवताओं की प्रार्थना पर हिमालय की श्रृंखला मे शाकंभरी  प्रकट हुई थी।
देवी भागवत के अनुसार माँ महागौरी ने देवी पार्वती रूप में भगवान शिव को पति-रूप में प्राप्त करने के लिए कठोर तपस्या की थी।  भगवान शिव द्वारा मतापर्वती को आहत भरी बातें सुनाकर  देवी  आहत होने के कारण माता  पार्वती  तपस्या में लीन हो जाती हैं।  वषों तक कठोर तपस्या करने पर जब पार्वती आहत सुनकर माता पार्वती को खोजते हुए भगवान शिव उनके पास पहुँच कर पार्वती को देखकर आश्चर्य चकित रह जाते हैं। पार्वती जी का रंग अत्यंत ओजपूर्ण होता है, उनकी छटा चांदनी के सामन श्वेत और कुन्द के फूल के समान धवल दिखाई पड़ती है, उनके वस्त्र और आभूषण से प्रसन्न होकर देवी उमा को गौर वर्ण का वरदान देते हैं। एक कथा अनुसार भगवान शिव को पति रूप में पाने के लिए देवी ने कठोर तपस्या की थी जिससे इनका शरीर काला पड़ जाता है। देवी की तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान इन्हें स्वीकार करते हैं और भगवान शिव इनके शरीर को गंगा-जल से धोते हैं तब देवी विद्युत के समान अत्यंत कांतिमान गौर वर्ण की हो जाती हैं तथा तभी से इनका नाम गौरी पड़ा। महागौरी रूप में देवी करूणामयी, स्नेहमयी, शांत और मृदुल दिखती हैं। देवी के इस रूप की प्रार्थना करते हुए देव और ऋषिगण के अनुसार  “सर्वमंगल मंग्ल्ये, शिवे सर्वार्थ साधिके. शरण्ये त्र्यम्बके गौरि नारायणि नमोस्तुते..”।  मार्कण्डेय पुराण के अनुसार,सिंह काफी भूखा रहने के कारण  भोजन की तलाश में माता गौरी की तपस्या स्थल  पहुंचने के बाद  तपस्वी  देवी को देखकर सिंह की भूख बढ़ गयी परंतु सिंह  देवी के तपस्या से उठने का इंतजार करते हुए  तपस्या स्थल पर बैठ गया। इस इंतजार में वह काफी कमज़ोर हो गया। देवी जब तप से उठी तो सिंह की दशा देखकर उन्हें उस पर बहुत दया आती है और माँ उसे अपना सवारी बना लेती हैं क्योंकि एक प्रकार से उसने भी तपस्या की थी। इसलिए देवी गौरी का वाहन बैल और सिंह दोनों  हैं। स्मृति ग्रंथों के  अनुसार दानव राज  दुर्गम  के अत्याचारों से संतप्त जब देवता भगवती शाकंभरी की शरण मे आये तब माता ने त्रिलोकी को मुग्ध करने वाले महागौरी रूप का प्रादुर्भाव किया। माता महागौरी आसन लगाकर शिवालिक पर्वत के शिखर पर विराजमान हुई और माता शाकंभरी के नाम से कैलाश  पर्वत पर माता शाकम्भरी का मंदिर है ।  देवी शाकंभरी के लिए समर्पित चैत्र , माघ , आषाढ़ एवं आश्विन  शुक्ल अष्टमी के दिन महिलाएं अपने सुहाग के लिए देवी मां को चुनरी भेंट करती हैं। देवी गौरी की पूजा का विधान भी पूर्ववत है अर्थात जिस प्रकार सप्तमी तिथि तक आपने मां की पूजा की है ।  माता  महागौरी  का ध्यान, स्मरण, पूजन-आराधना भक्तों के लिए सर्वविध कल्याणकारी है।  या देवी सर्वभू‍तेषु माँ गौरी रूपेण संस्थिता।नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:।।अर्थ : हे माँ! सर्वत्र विराजमान और माँ गौरी के रूप में प्रसिद्ध अम्बे, आपको मेरा बार-बार प्रणाम है। हे माँ, मुझे सुख-समृद्धि प्रदान करें।
माता महागौरी के मंदिरों में उत्तराखंड का चमोली जिले के मंदाकनी नदी के तट पर गौरी कुंड , पोखरी , गढ़वाल का नाइ टिहरी बौराड़ी ,  गौरीमन्दिर , बिहार का गया जिले के गया स्थित भष्मपहाडी पर मंगलागौरी मंदिर , काशी का पंचगंगा घाट , लुधियाना के चिमनी रोड़ स्थित शिमलापुरी ,विलासपुर ,छत्तीसगढ़ के रायपुर का अवंति बिहार , तमिलनाडु के कांचीपुरम , उत्तरप्रदेश के काशी , फरीदाबाद में माता महागौरी मंदिर प्रसिध्द है ।

सौंदर्य और तपस्वी की देवी माता महागौरी

, शक्ति और, ऐश्वर्य  की देवी माता महागौरी 
सत्येन्द्र कुमार पाठक 
सनातन धर्म का शाक्त सम्प्रदाय के विभिन्न स्मृतियों एवं पुराणों में मतमहागौरी का महत्वपूर्ण उल्लेख मिलता है.।नवदुर्गा का अष्टम अवतार माता महागौरी का निवा सस्थान कैलाश , जीवनसाथी भगवान शिव , सभीग्रहों की आराध्या , अस्त्र त्रिशूल ,डमरू ,वर , अभय मुद्रा सवारी वृषभ है । श्वेते वृषे समारुढा श्वेताम्बरधरा शुचिः | महागौरी शुभं दद्यान्महादेवप्रमोददा || महागौरी माता का वर्ण पूर्णतः गौरता की  शंख, चंद्र और कुंद के फूल की तरह एवं  आयु आठ वर्ष है- 'अष्टवर्षा भवेद् गौरी माता है  । माता  गौरी के समस्त वस्त्र एवं आभूषण आदि श्वेत हैं। महागौरी की चार भुजाएँ एवं वाहन वृषभ है। मतागौरी के ऊपर के दाहिने हाथ में अभय मुद्रा और नीचे वाले दाहिने हाथ में त्रिशूल है। ऊपरवाले बाएँ हाथ में डमरू और नीचे के बाएँ हाथ में वर-मुद्रा एवं मुद्रा अत्यंत शांत तथा  महागौरी देवताओं की प्रार्थना पर हिमालय की श्रृंखला मे शाकंभरी  प्रकट हुई थी।
देवी भागवत के अनुसार माँ महागौरी ने देवी पार्वती रूप में भगवान शिव को पति-रूप में प्राप्त करने के लिए कठोर तपस्या की थी।  भगवान शिव द्वारा मतापर्वती को आहत भरी बातें सुनाकर  देवी  आहत होने के कारण माता  पार्वती  तपस्या में लीन हो जाती हैं।  वषों तक कठोर तपस्या करने पर जब पार्वती आहत सुनकर माता पार्वती को खोजते हुए भगवान शिव उनके पास पहुँच कर पार्वती को देखकर आश्चर्य चकित रह जाते हैं। पार्वती जी का रंग अत्यंत ओजपूर्ण होता है, उनकी छटा चांदनी के सामन श्वेत और कुन्द के फूल के समान धवल दिखाई पड़ती है, उनके वस्त्र और आभूषण से प्रसन्न होकर देवी उमा को गौर वर्ण का वरदान देते हैं। एक कथा अनुसार भगवान शिव को पति रूप में पाने के लिए देवी ने कठोर तपस्या की थी जिससे इनका शरीर काला पड़ जाता है। देवी की तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान इन्हें स्वीकार करते हैं और भगवान शिव इनके शरीर को गंगा-जल से धोते हैं तब देवी विद्युत के समान अत्यंत कांतिमान गौर वर्ण की हो जाती हैं तथा तभी से इनका नाम गौरी पड़ा। महागौरी रूप में देवी करूणामयी, स्नेहमयी, शांत और मृदुल दिखती हैं। देवी के इस रूप की प्रार्थना करते हुए देव और ऋषिगण के अनुसार  “सर्वमंगल मंग्ल्ये, शिवे सर्वार्थ साधिके. शरण्ये त्र्यम्बके गौरि नारायणि नमोस्तुते..”।  मार्कण्डेय पुराण के अनुसार,सिंह काफी भूखा रहने के कारण  भोजन की तलाश में माता गौरी की तपस्या स्थल  पहुंचने के बाद  तपस्वी  देवी को देखकर सिंह की भूख बढ़ गयी परंतु सिंह  देवी के तपस्या से उठने का इंतजार करते हुए  तपस्या स्थल पर बैठ गया। इस इंतजार में वह काफी कमज़ोर हो गया। देवी जब तप से उठी तो सिंह की दशा देखकर उन्हें उस पर बहुत दया आती है और माँ उसे अपना सवारी बना लेती हैं क्योंकि एक प्रकार से उसने भी तपस्या की थी। इसलिए देवी गौरी का वाहन बैल और सिंह दोनों  हैं। स्मृति ग्रंथों के  अनुसार दानव राज  दुर्गम  के अत्याचारों से संतप्त जब देवता भगवती शाकंभरी की शरण मे आये तब माता ने त्रिलोकी को मुग्ध करने वाले महागौरी रूप का प्रादुर्भाव किया। माता महागौरी आसन लगाकर शिवालिक पर्वत के शिखर पर विराजमान हुई और माता शाकंभरी के नाम से कैलाश  पर्वत पर माता शाकम्भरी का मंदिर है ।  देवी शाकंभरी के लिए समर्पित चैत्र , माघ , आषाढ़ एवं आश्विन  शुक्ल अष्टमी के दिन महिलाएं अपने सुहाग के लिए देवी मां को चुनरी भेंट करती हैं। देवी गौरी की पूजा का विधान भी पूर्ववत है अर्थात जिस प्रकार सप्तमी तिथि तक आपने मां की पूजा की है ।  माता  महागौरी  का ध्यान, स्मरण, पूजन-आराधना भक्तों के लिए सर्वविध कल्याणकारी है।  या देवी सर्वभू‍तेषु माँ गौरी रूपेण संस्थिता।नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:।।अर्थ : हे माँ! सर्वत्र विराजमान और माँ गौरी के रूप में प्रसिद्ध अम्बे, आपको मेरा बार-बार प्रणाम है। हे माँ, मुझे सुख-समृद्धि प्रदान करें।
माता महागौरी के मंदिरों में उत्तराखंड का चमोली जिले के मंदाकनी नदी के तट पर गौरी कुंड , पोखरी , गढ़वाल का नाइ टिहरी बौराड़ी ,  गौरीमन्दिर , बिहार का गया जिले के गया स्थित भष्मपहाडी पर मंगलागौरी मंदिर , काशी का पंचगंगा घाट , लुधियाना के चिमनी रोड़ स्थित शिमलापुरी ,विलासपुर ,छत्तीसगढ़ के रायपुर का अवंति बिहार , तमिलनाडु के कांचीपुरम , उत्तरप्रदेश के काशी , फरीदाबाद में माता महागौरी मंदिर प्रसिध्द है ।

शुक्रवार, अक्तूबर 20, 2023

साहस और शक्ति की देवी माता कालरात्रि

तंत्र मंत्र की शक्ति माता कालरात्रि
सत्येन्द्र कुमार पाठक
सनातन धर्म एवं शाक्त सम्प्रदाय के भिन्न भिन्न स्मृतियों , पुराणों में माँ दुर्गा की सातवीं अवतार  शक्ति कालरात्रि  की उपासना का उल्लेख मिलता  है।साधक का  का ध्यान माता कालरात्रि को समर्पित सहस्रार' चक्र में स्थित रहता है। सहस्त्रार के  लिए ब्रह्मांड की समस्त सिद्धियों का द्वार खुलने लगता है। देवी कालरात्रि को  काली, महाकाली, भद्रकाली, भैरवी, मृत्यू-रुद्राणी, चामुंडा, चंडी और दुर्गा ,  रौद्री , धूम्रवर्णा  और माता कालरात्रि  प्रसिद्ध नाम हैं । नवदुर्गाओं में सप्तम् माता कालरात्रि का अस्त्र तलवार , जीवनसाथी भगवान शिव , सवारी गर्धभ व गदहा है । डेविड किन्स्ले के अनुसार काली का उल्लेख 600 ई.  में  देवी के रूप में किया गया है। कालानुक्रमिक रूप से, द्वापरयुग का महाभारत में  3200 ई. पू .में वर्णित माता कालरात्रि  रूप में दैत्य , दानव ,  राक्षस,भूत, प्रेत, पिशाच और नकारात्मक ऊर्जाओं का नाश होता एवं सकारात्मक ऊर्जा  का आगमन करते हैं । शिल्प प्रकाश के अनुसार   तांत्रिक पाठ, सौधिकागम, देवी कालरात्रि का वर्णन रात्रि के नियंत्रा रूप में किया गया है। सहस्रार चक्र में स्थित साधक का मन पूर्णतः माँ कालरात्रि के स्वरूप में अवस्थित रहता है। माता कालरात्रि की  उपासना से मिलने वाले पुण्य सिद्धियों और निधियों विशेष रूप से ज्ञान, शक्ति और धन , अक्षय पुण्य लोको की कि प्राप्ति एवं  समस्त पापों-विघ्नों का नाश होती है।
 एकवेणी जपाकर्णपूरा नग्ना खरास्थिता । लम्बोष्ठी कर्णिकाकर्णी तैलाभ्यक्तशरीरिणी  वामपादोल्लसल्लोहलताकण्टकभूषणा | वर्धन्मूर्धध्वजा कृष्णा कालरात्रिर्भयन्करि ।। माता कालरात्रि के शरीर का रंग घने अंधकार की तरहकाला ,  सिर के बाल बिखरे हुए , गले में विद्युत की तरह चमकने वाली माला ,  तीनों नेत्र ब्रह्मांड के सदृश गोल और विद्युत के समान चमकीली किरणें निःसृत होती रहती हैं। माता कालरात्रि की नासिका के श्वास-प्रश्वास से अग्नि की भयंकर ज्वालाएँ निकलती रहती ,  वाहन गर्दभ (गदहा) ,  ऊपर उठे हुए दाहिने हाथ की वरमुद्रा से सभी को वर प्रदान करती , दाहिनी तरफ का नीचे वाला हाथ अभयमुद्रा में ,  बाईं तरफ के ऊपर वाले हाथ में लोहे का काँटा तथा नीचे वाले हाथ में खड्ग (कटार) है। माँ कालरात्रि का स्वरूप देखने में अत्यंत भयानक परंतु माता सदैव शुभ फल  देने वाली होने के कारण   'शुभंकारी'  है। माता से भक्तों को किसी प्रकार भी भयभीत अथवा आतंकित होने की आवश्यकता नहीं है। माँ कालरात्रि दुष्टों का विनाश करने वाली , दानव, दैत्य, राक्षस, भूत, प्रेत आदि इनके स्मरण मात्र से  भयभीत होकर भाग जाते हैं। ये ग्रह-बाधाओं को भी दूर करने वाली तथा  उपासकों को अग्नि-भय, जल-भय, जंतु-भय, शत्रु-भय, रात्रि-भय आदि कभी नहीं होते। माँ कालरात्रि के स्वरूप-विग्रह को अपने हृदय में अवस्थित करके मनुष्य को एकनिष्ठ भाव से उपासना करनी चाहिए। मां कालरात्रि मंदिर, में डुमरी बुजुर्ग गांव ,नयागांव, सारण (बिहार)  , कालरात्रि-वाराणसी मंदिर, डी 8/17, कालिका  गली में माता कालरात्रि मंदिर , बिहार का सरैया बुजुर्ग , तिलौथू , गोरखपुर ,दरभंगा में श्यामा माई ,मनेर वंशीय कुलदेवी कालरात्रि मंदिर सिमरी , मध्य्प्रदेश का इंदौर , रुधकी , विलासपुर , विकार ,जरहभहा ,अकबरपुर ,केनापरा ,नयागांव , कोलकाता में दक्षिश्वरी काली , झारखण्ड का चतरा जिले के इटखोरी का भद्रकाली , असम के कामाख्या में भैरवी , बिहार का गया जिले का विभूक्षणि मंदिर , जगनाबाद का मोदनगंज प्रखण्ड के चरुई  काली मंदिर , पटना  के गंगा नदी के तट पर कालीमंदिर  है । वीरता और साहस की माता कालरात्रि  का प्रिय  वस्त्र लाल ,निवास मणिद्वीप , श्मशान ,है ।  मंत्र है या देवी सर्वभू‍तेषु माँ कालरात्रि रूपेण संस्थिता। नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:।। अर्थ : हे माँ! सर्वत्र विराजमान और कालरात्रि के रूप में प्रसिद्ध अम्बे, आपको मेरा बार-बार प्रणाम है। मैं आपको बारंबार प्रणाम करता हूँ। हे माँ, मुझे पाप से मुक्ति प्रदान कर। ॐ ऐं ह्रीं क्रीं कालरात्रै नमः | सिंधिया घराने की कुलदेवी माता काली , और मनेर वंशीय का केंद्र सिमरी कालरात्रि मंदिर , डुमरी एवं माता काली का भक्त गुरु गोरखनाथ है । माता कालरात्रि को श्यामा ,कालिका ,लक्ष्मीकाली , महाकाली , शिवशक्ति ,पार्वती ,श्याम्बिका ,भद्रकाली , दक्षिण काली के रूप में उपासना करते हौ ।

शक्ति और कल्याण की देवी माता कात्यायनी

कल्याण और शक्ति की देवी माता कात्यायन 
सत्येन्द्र कुमार पाठक 
सनातन धर्म का शाक्त सम्प्रदाय के विभिन्न शास्त्रों के अनुसार  नवदुर्गाओं में षष्ठम् रूप माता कात्यायनी का मंत्र चन्द्रहासोज्ज्वलकरा शार्दूलवरवाहन। कात्यायनी शुभं दद्याद्देवी दानवघातिनी ॥ अस्त्र कमल व तलवार , जीवनसाथी भगवान शिव , सवारी सिंह है । '' अमरकोष के अनुसार माता पार्वती के लिए दूसरा नाम कात्यायनी  है ।  यजुर्वेद के तैत्तिरीय आरण्यक में माता कात्यायनी का उल्लेख  है। स्कन्द पुराण में उल्लेख है कि माता कात्यायनी  परमेश्वर के नैसर्गिक क्रोध से अवतरण होकर   सिंह पर आरूढ़ होकर महिषासुर का वध किया था । वे शक्ति की आदि रूपा के संबंध में  पाणिनि द्वारा  पतञ्जलि महाभाष्य में  दूसरी शताब्दी ई . पू.  में रचित है। देवीभागवत पुराण, और मार्कंडेय ऋषि द्वारा रचित मार्कंडेय पुराण के देवी महात्म्य में 400 ई..से 500 ई. में  किया गया था। बौद्ध और जैन ग्रंथों और तांत्रिक ग्रंथों,  कालिका पुराण 10 वीं शताब्दी) में उनका उल्लेख में  उद्यान या उड़ीसा में देवी कात्यायनी और भगवान जगन्नाथ का  स्थान है। साधक का मन 'आज्ञा चक्र' में स्थित और  योगसाधना में माता कात्यायनी की  आज्ञा चक्र का अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान है। चन्द्रहासोज्ज्वलकरा शार्दूलवरवाहन । कात्यायनी शुभं दद्याद्देवी दानवघातिनी ॥स्कन्द पुराण के अनुसार कत महर्षि के पौत्र कत्य के  पुत्र ऋषि कात्यायन  ने भगवती पराम्बा की उपासना करते हुए  वर्षों तक बड़ी कठिन तपस्या की इच्छा को पूर्ण करने के लिए  माँ भगवती उनके घर पुत्री के रूप में जन्म ली थी । ऋषि कात्यायन ने अपनी पुत्री का नामकरण कात्यायनी रखा था । माता कात्यायनी ने  समय दानव महिषासुर का अत्याचार पृथ्वी पर बढ़ गया तब भगवान ब्रह्मा, विष्णु, महेश तीनों ने अपने-अपने तेज का अंश देकर महिषासुर के विनाश के लिए एक देवी को उत्पन्न किया। महर्षि कात्यायन ने सर्वप्रथम माता कात्यायनी की पूजा की थी । महर्षि कात्यायन की  पुत्री कात्यायनी का जन्म  चैत्र शुक्ल षष्टी तिथि  को गंधार में  जन्म लेकर जनकल्याण का कार्य की । द्वापर युग में भगवान कृष्ण को पतिरूप में पाने के लिए ब्रज की गोपियों ने माता कात्यायनी की पूजा कालिन्दी-यमुना के तट पर की थी। ब्रजमंडल की अधिष्ठात्री देवी के रूप में प्रतिष्ठित माँ कात्यायनी का स्वरूप अत्यंत चमकीला और भास्वर  चार भुजाएँ हैं। माता कात्यायनी  का दाहिनी तरफ का ऊपरवाला हाथ अभयमुद्रा में तथा नीचे वाला वरमुद्रा में बाईं तरफ के ऊपरवाले हाथ में तलवार और नीचे वाले हाथ में कमल-पुष्प सुशोभित , वाहन सिंह है।माँ कात्यायनी की भक्ति और उपासना द्वारा मनुष्य को बड़ी सरलता से अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष चारों फलों की प्राप्ति हो जाती है।  माँ कात्यायनी की भक्ति पाने के लिए इसे कंठस्थ कर नवरात्रि में छठे दिन  या देवी सर्वभूतेषु शक्ति रूपेण संस्थिता। नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:॥ अर्थ : हे माँ! सर्वत्र विराजमान और शक्ति -रूपिणी प्रसिद्ध अम्बे, आपको मेरा बार-बार प्रणाम है। या मैं आपको बारंबार प्रणाम करता हूँ।। विवाह के लिये कात्यायनी मन्त्र--ॐ कात्यायनी महामाये महायोगिन्यधीश्वरि । नंदगोपसुतम् देवि पतिम् मे कुरुते नम:॥ माँ कात्यायनी को सच्चे मन से याद करता है उसके रोग, शोक, संताप, भय आदि सर्वथा विनष्ट हो जाते हैं। जन्म-जन्मांतर के पापों को विनष्ट करने के लिए माँ की शरणागत होकर उनकी पूजा-उपासना के लिए तत्पर होने पर मनोवांक्षित फल प्राप्त करते हैं।  माता कात्यायनी द्वारा दैत्य राज शुम्भ और निशुम्भ को बध कर अत्याचार से मुक्त किया गया था । 
माता कात्यायनी मंदिर उत्तरप्रदेश के मथुरा , वृंदावन , आद्या कात्यायनी मंदिर छतरपुर , बिहार का खगड़िया के कोसी नदी के किनारे , सिमरी वख्तियार पुर , गौहरपुर , बहौराना , भुवनेश्वर , वाराणासी का सिंधिया घाट , कानपुर ,गाजीपुर ,कोलकाता का बाघाजतिन , उत्तराखण्ड का ऋषिकेश और कटिहार जिले का दुधरी में कात्यायनी मंदिर एवं शाक्त स्थल है । ऋषि कत वंशीय सोमदत्त के पुत्र वररुचि कात्यायन के पुत्री चैत्र शुक्ल षष्टी को कात्यायनी माता का अवतार हुआ था । कालिका पुराण स्कन्द पुराण नागर खंड के अनुसार वैदिक ऋषि कात्यायन गुजरात के निवासी याज्ञवल्क्य त्रेतायुग में मिथिला के राजा जनक के क्षेत्र में और इनके पुत्र कात्यायन महस्राष्ट्र में रहकर माता शक्ति की उपासना करने पर माता शक्ति ने कात्यायनी के रूप में अवतरित हुई थी । वैदिक वाङ्गमय तथा गणितज्ञ वैदिक ऋषि कात्यायन द्वारा माता पार्वती के पुत्र कार्तिकेय को शिक्षा एवं अस्त्र की शिक्षा दिया गया था । ऋषि कात्यायन द्वारा माता कात्यायनी की उपासना का स्थल 2 री शताब्दी में विकसित किया गया था ।

गुरुवार, अक्तूबर 19, 2023

ज्ञान और शांति की देवी स्कन्दमाता

शक्ति और ज्ञान की देवी स्कन्द माता 
सत्येन्द्र कुमार पाठक 
सनातन धर्म के शाक्त सम्प्रदाय का विभिन्न ग्रंथों के अनुसार नवरात्रि का पाँचवाँ दिन स्कंदमाता की उपासना की जाती   है। मोक्ष  द्वार खोलने वाली मातास्कन्द  भक्तों की समस्त इच्छाओं की पूर्ति करती हैं।नवदुर्गाओं में पंचम स्कंदमाता का अस्त्र कमल , जीवन साथी भगवान शिव , सवारी सिंह , पुत्र देव सेनापति कार्तिकेय है।सिंहासनगता नित्यं पद्माश्रितकरद्वया । शुभदाऽस्तु सदा देवी स्कन्दमाता यशस्विनी ।।भगवान स्कंद 'कुमार कार्तिकेय' देवासुर संग्राम में देवताओं के स्कन्द माता के पुत्र कुमार कार्तिकेय  सेनापति थे । स्कन्द पुराण के अनुसार कुमार कार्तिकेय   और शक्ति कहकर स्कंदमाता की महिमा का वर्णन है। स्कंदमाता की चार भुजाएँ में  दाहिनी तरफ की नीचे वाली भुजा, जो ऊपर की कमल पुष्प है। बाईं तरफ की ऊपर वाली भुजा में वरमुद्रा में तथा नीचे वाली भुजा जो ऊपर की ओर उठी कमल पुष्प ली हुई , वर्ण पूर्णतः शुभ्र है ।नवरात्रि पाँचवें दिन का शास्त्रों में पुष्कल महत्व  है। शुभ्र चक्र में अवस्थित मन वाले साधक की समस्त बाह्य क्रियाओं एवं चित्तवृत्तियों का लोप होता है। साधक का मन समस्त लौकिक, सांसारिक, मायिक बंधनों से विमुक्त होकर पद्मासना माँ स्कंदमाता के स्वरूप में पूर्णतः तल्लीन होता है। माँ स्कंदमाता की उपासना से भक्त की समस्त इच्छाएँ पूर्ण होने और  मृत्युलोक में  परम शांति और सुख का अनुभव होने लगता है ।स्कंदमाता की उपासना से बालरूप स्कंद भगवान की उपासना भी स्वमेव होती है।सूर्यमंडल की अधिष्ठात्री स्कंदमाता देवी होने के कारण  उपासक अलौकिक तेज एवं कांति से संपन्न होता है। एक अलौकिक प्रभामंडल अदृश्य भाव से सदैव  चतुर्दिक्‌ परिव्याप्त रहता है। प्रत्येक सर्वसाधारण के लिए आराधना योग्य यह श्लोक सरल और स्पष्ट है। माँ जगदम्बे की भक्ति पाने के लिए इसे कंठस्थ कर नवरात्रि में पाँचवें दिन स्कन्द माता की उपासना करने से सर्वांगीण फल की प्राप्ति होती है । या देवी सर्वभू‍तेषु माँ स्कंदमाता रूपेण संस्थिता। नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:।। अर्थ : हे माँ! सर्वत्र विराजमान और स्कंदमाता के रूप में प्रसिद्ध अम्बे, आपको मेरा बार-बार प्रणाम है। या मैं आपको बारंबार प्रणाम करता हूँ। हे माँ, मुझे सब पापों से मुक्ति प्रदान करें। इस दिन साधक का मन 'विशुद्ध' चक्र में अवस्थित होता है। इनके विग्रह में भगवान स्कंदजी बालरूप में इनकी गोद में बैठे होते हैं। स्कन्द माता द्वारा देव सेनापति कार्तिकेय को दैत्यों एवं दानवों को संहार तथा देवों , वेदों , एवं जनकल्याण का मंत्र तथा शिक्षा दी थी । देव सेनापति कार्तिकेय द्वारा दैत्यराज तारकासुर एवं दैत्यों और दानवों। का संहार कर जनता को खुशहाल जीवन स्थापित किया गया । स्कंदमाता की मंदिरों में उत्तराखण्ड का टिहरी के सुरकुट पर्वत , रुढ़की , विलासपुर जिले के मल्हार , राजस्थान का पुष्कर ,नेपाल , इंदौर का मंडलेश्वर , जैतपुरा , बलरामपुर , कानपुर , विदिशा में स्कंदमाता मंदिर , उत्तरप्रदेश के अहिरौली , वाराणसी क्षेत्र के जगतपुरा में स्कन्द माता मंदिर एवं शाक्त स्थल प्रसिद्ध है ।

सृष्टि कृति है माता कुष्मांडा

ब्रह्मांड की सृष्टिकर्ता अष्टभुजी माता कुष्मांडा 
सत्येन्द्र कुमार पाठक 
सनातन धर्म का शाक्त सम्प्रदाय के विभिन्न ग्रंथों में नवरात्र व शक्ति के चौथे अवतार माता कुष्मांडा   की उपासना की जाती है।  साधक का मन 'अनाहत' चक्र माता कुष्मांडा  में अवस्थित होता है।  नवदुर्गाओं में चतुर्थ माता अष्टभुजाधारी  कुष्मांडा का अस्त्र कमंडल, धनुष, बाण, कमल-पुष्प, अमृतपूर्ण कलश, चक्र तथा गदा ,  जीवनसाथी भगवान शिव , सवारी सिंह है । सृष्टि की आदि स्वरूपा व आदि शक्ति माता कुष्मांडा द्वारा ब्रह्मांड की रचना एवं निवास सूर्यमंडल के अंदर अवस्थित लोक में है। माता कुष्मांडा के तेज और प्रकाश से दसों दिशाएँ प्रकाशित , ब्रह्मांड की सभी वस्तुओं और प्राणियों में अवस्थित तेज की छाया है। माँ की आठ भुजाएँ हैं। माता कुष्मांडा को अष्टभुजा देवी , अष्टभुजी माता कहते  हैं।  सुरासंपूर्णकलशं रुधिराप्लुतमेव च। दधाना हस्तपद्माभ्यां कूष्माण्डा शुभदास्तु मे ॥ प्रथमं शैलपुत्री च द्वितीयं ब्रह्मचारिणी। तृतीयं चन्द्रघण्टेति कूष्माण्डेति चतुर्थकम् ।। पंचमं स्कन्दमातेति षष्ठं कात्यायनीति च। सप्तमं कालरात्रीति महागौरीति चाष्टमम् ।। माँ कूष्माण्डा की उपासना से भक्तों के समस्त रोग-शोक मिट जाते एवं आयु, यश, बल और आरोग्य की वृद्धि होती है। माँ कूष्माण्डा अत्यल्प सेवा और भक्ति से प्रसन्न होने वाली हैं।  नवरात्रि में चतुर्थ दिन माता कुष्मांडा की उपासना या देवी सर्वभू‍तेषु माँ कूष्माण्डा रूपेण संस्थिता। नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:।।' अर्थ : हे माँ! सर्वत्र [2] विराजमान और कूष्माण्डा के रूप में प्रसिद्ध अम्बे, आपको मेरा बार-बार प्रणाम है।  मैं आपको बारंबार प्रणाम करता हूँ। हे माँ, मुझे सब पापों से मुक्ति प्रदान करें। करनी चाहिए । मंद, हल्की हँसी द्वारा अंड अर्थात ब्रह्मांड को उत्पन्न करने के कारण माता  कूष्माण्डा देवी के रूप में पूजा जाता है। संस्कृत भाषा में कूष्माण्डा को कुम्हड़ , कुम्हड़े , भतूआ , भूरा की बलि प्रिय होने के  कारण से माँ कूष्माण्डा कहलाती हैं । नव   विवाहित महिला का पूजन व  भोजन में दही, हलवा खिलाना श्रेयस्कर है। इसके बाद फल, सूखे मेवे और सौभाग्य का सामान भेंट कराने से माताजी प्रसन्न होकर  और मनवांछित फलों की प्राप्ति होती है। माता कुष्मांडा की उपासना कुष्मांडा , कुम्हड़ , अष्टभुज , अष्टभुजी ,, बेनिनकासा , हीस्पिडा के रूप में करते है । उत्तराखण्ड का रुद्रप्रयाग जिले के कुमंडी में स्थित सिल्ला तलाव  पर ऋषि अगस्त द्वारा अपनी बाएँ काँख से  माता कुष्मांडा का आवरण कर दैत्यों , दानवों का संहार कर बचे दैत्य और दानव सिल्ला तलाव और बद्रीनाथ में पलायन कर गए थे । कुमाड़ी में माता कुष्मांडा मंदिर का निर्माण टिहरी की महारानी द्वारा करायी गयी , रुद्र प्रयाग। जिले के जखोली प्रखण्ड का सिलगढ़ पट्टी के कुमाड़ी में कुष्मांडा मंदिर , उत्तरप्रदेश के घाटनपुर  , दिल्ली का झंडेवालान मंदिर ,बाराणसी दक्षिण क्षेत्र में कुष्मांडा मंदिर माँ कूष्माण्डा देवी मंदिर पिपरा माफ, महोबा, उत्तर प्रदेश  में माता कुष्मांडा मंदिर है

सोमवार, अक्तूबर 16, 2023

सकारात्मक ऊर्जा एवं विजय का द्योतक माता चंद्रघटा

साकारात्मक ऊर्जा एवं विजय  का द्योतक माता चन्द्रघंटा 
सत्येन्द्र कुमार पाठक 
सनातन धर्म का शाक्त सम्प्रदाय के ग्रंथों में नवरात्र उपासना  की माता दुर्गा की तृतीय अवतार माता चंद्रघंटा का महत्वपूर्ण उल्लेख मिलता है ।  शाक्त साधक का मन 'मणिपूर' चक्र माता चंद्रघंटा में समर्पित है । वेद के अनुसार माँ चंद्रघंटा की कृपा से अलौकिक वस्तुओं के दर्शन , दिव्य सुगंधियों का अनुभव तथा विविध प्रकार की दिव्य ध्वनियाँ सुनाई देती हैं। नवदुर्गाओं में तृतीय अवतार माता चंद्रघंटा अस्त्र कमल , जीवनसाथी भगवान शिव , सवारी सिंह , उपासना मंत्र पिण्डजप्रवरारुढा चण्डकोपास्त्रकैर्युता | प्रसादं तनुते मह्यं चन्द्रघण्टेति विश्रुता ।। है । माँ चंद्रघंटा का  स्वरूप  शांतिदायक और कल्याणकारी है। इनके मस्तक में घंटे का आकार का अर्धचंद्र ,  शरीर का रंग स्वर्ण के समान चमकीला , दस भुजाधारी ,दसों हाथों में खड्ग आदि शस्त्र तथा बाण आदि अस्त्र विभूषित और  वाहन सिंह तथा  मुद्रा युद्ध के लिए उद्यत रहने की होती है।मां चंद्रघंटा की कृपा से साधक के समस्त पाप और बाधाएँ विनष्ट एवं आराधना सद्यः फलदायी है। माँ भक्तों के कष्ट का निवारण शीघ्र करती तथा उपासक सिंह की तरह पराक्रमी और निर्भय हो जाता है। इनके घंटे की ध्वनि सदा अपने भक्तों को प्रेतबाधा से रक्षा करती है। माता के उपासक का  मन, वचन, कर्म एवं काया को विहित विधि-विधान के अनुसार पूर्णतः परिशुद्ध एवं पवित्र करके माँ चंद्रघंटा के शरणागत होकर उनकी उपासना-आराधना में तत्पर रह कर उनकी उपासना से समस्त सांसारिक कष्टों से विमुक्त होकर सहज ही परमपद के अधिकारी बनते  हैं। या देवी सर्वभू‍तेषु माँ चंद्रघंटा रूपेण संस्थिता। नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:।। अर्थ : हे माँ! सर्वत्र विराजमान और चंद्रघंटा के रूप में प्रसिद्ध अम्बे, आपको मेरा बार-बार प्रणाम है। या मैं आपको बारंबार प्रणाम करता हूँ। हे माँ, मुझे सब पापों से मुक्ति प्रदान करें। इस दिन सांवली रंग की ऐसी विवाहित महिला जिसके चेहरे पर तेज हो, को बुलाकर उनका पूजन करना चाहिए। भोजन में दही और हलवा खिलाएँ एवं भेंट में कलश और मंदिर की घंटी भेंट कर मनोवांक्षित फल प्राप्त करते हैं ।
शाक्त सम्प्रदाय के देवीभागवत , विभिन्न स्रोतों के अनुसार शारदीय नवरात्रि पर्व के तीसरे दिन माता चंद्रघंटा की अराधना की मां दुर्गा की तृतीय शक्ति में ब्रह्मा, विष्णु और महेश तीनों की शक्तियां समाहित हैं। माता चंद्रघंटा का रंग स्वर्ण के समान चमकीला, 3 नैत्र और 10 हाथ हैं। अग्नि वर्ण वाली माता  चंद्रघंटा ज्ञान से जगमगाने वाली दीप्तिमान देवी हैं। सिंह की सवारी करने वाली मां चंद्रघंटा की 10 भुजाओं में कर-कमल गदा, बाण, धनुष, त्रिशूल, खड्ग, खप्पर, चक्र आदि सशस्त्र है । दैत्यराज महिषासुर ने अपनी शक्तियों के घमंड में देलोक पर आक्रमण कर महिषासुर और देवताओं के हीच घमासान युद्ध होने के कारण  देवता हारने लगेने पर वह त्रिदेव ब्रह्मा जी, भगवान विष्णु और भगवान शिव  के पास मदद के लिए पहुंचे थे । देवों की बातें सुनकर त्रिदेव को क्रोध से दस भुजाओं वाली मां चंद्रघंटा का अवतरण हुआ था । अवतरित माता चन्द्रघंटा को  भगवान शंकर ने अपना त्रिशूल, भगवान विष्णु ने चक्र, देवराज इंद्र ने घंटा, सूर्य ने तेज तलवार और सवारी के लिए सिंह और  देवी देवताओं ने भी माता को अस्त्र दिए है । माता चन्द्रघंटा द्वारा दैत्यराज महिषासुर एवं दैत्यों का वध कर सनातन धर्म की रक्षा , भूस्थल संरक्षित और मानव , देव , जान जंतु , पर्यावरण को संरक्षण प्रदान की गई थी ।देवी पुराण के अनुसार भगवान शिव राजा हिमवान के महल में पार्वती से शादी करने पहुंचने के दौरान भगवान शिव के बालों और गले  में सर्पों की माला , भूत, ऋषि, भूत, अघोरी और तपस्वियों की  अजीब शादी के जुलूस के साथ  भयानक रूप में आए थे । भगवान शिव की बारात देख पार्वती की मां मैना देवी बेहोश हो गईं। तब पार्वती ने देवी चंद्रघंटा का रूप धारण किया था । चंद्रघटा माता के अनुरोध पर भगवान शिव ने अपना राजकुमार रूप में शामिल होने के पश्चात माता चन्द्रघंटा और भगवान शिव के साथ विवाह सम्पन हुआ है । मां दुर्गा के तृतीय अवतरण माता  चंद्रघंटा   को भूरे रंग व भगवा रंग , गोल्डेन रंग का वस्त्र-आभूषण, सौभाग्य सूत्र, हल्दी,-चंदन, रोली, सिंदूर, दुर्वा, बिल्वपत्र, फल-फूल, धूप-दीप, नैवेद्य, पान, दूध , मिष्ठान , खीर  अर्पित किया जाता है।. मां चंद्रघंटा का बीज मंत्र 'ऐं श्रीं शक्तयै नम:' का जाप कर एवं  महामंत्र ‘या देवी सर्वभूतेषु मां चंद्रघंटा रूपेण संस्थिता नमस्तस्यै नसस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:‘ का स्मरण कर उपासना करते है ।चंद्रघंटा माता का ध्यान वन्दे वांछित लाभाय चन्द्रार्धकृत शेखरम्। सिंहारूढा चंद्रघंटा यशस्वनीम्॥ मणिपुर स्थितां तृतीय दुर्गा त्रिनेत्राम्। खंग, गदा, त्रिशूल,चापशर,पदम कमण्डलु माला वराभीतकराम्॥ पटाम्बर परिधानां मृदुहास्या नानालंकार भूषिताम्। मंजीर हार केयूर,किंकिणि, रत्नकुण्डल मण्डिताम॥ प्रफुल्ल वंदना बिबाधारा कांत कपोलां तुगं कुचाम्। कमनीयां लावाण्यां क्षीणकटि नितम्बनीम्॥ चंद्रघंटा  स्तोत्र पाठ आपदुध्दारिणी त्वंहि आद्या शक्तिः शुभपराम्। अणिमादि सिध्दिदात्री चंद्रघटा प्रणमाभ्यम्॥ चन्द्रमुखी इष्ट दात्री इष्टं मन्त्र स्वरूपणीम्। धनदात्री, आनन्ददात्री चन्द्रघंटे प्रणमाभ्यहम्॥ नानारूपधारिणी इच्छानयी ऐश्वर्यदायनीम्। सौभाग्यारोग्यदायिनी चंद्रघंटप्रणमाभ्यहम्॥ माता चंद्रघंटा उपासना मंत्र पिण्डजप्रवरारूढा चण्डकोपास्त्रकैर्युता। प्रसादं तनुते मह्यं चंद्रघण्टेति विश्रुता।। 
माता चन्द्रघंटा का उपासना स्थल एवं चन्द्रघंटा मंदिर बिहार का चंदौत , पंचलक्खी , उत्तरप्रदेश के बनारस की लक्खी चौराहा की गली , राजस्थान का जयपुर के मुरलीपुरा , अम्बाला ,नोवामुंडी ,बाराबंकी में शाक्त स्थल पर अवस्थित है ।

ज्ञान और समृद्धि की माता ब्रह्मचारिणी

ज्ञान और समृद्धि की माता ब्रह्मचारिणी 
सत्येन्द्र कुमार पाठक
सत्येसनातन धर्म की शाक्त सम्प्रदाय के विभिन्न ग्रंथों के अनुसार माता ब्रह्मचारिणी का महत्वपूर्ण स्थान है । हिम प्रदेश का राजा हिमवंत की पत्नी मैना की पुत्री माता ब्रह्मचारिणी  का जन्म चैत्र शुक्ल पक्ष द्वितीया तिथि को उत्तराखण्ड राज्य का चमोली जिले का कारण प्रयाग की नंद पर्वत की श्रंखला पर हुआ था । देवर्षि नारद के उपदेश प्राप्त कर माता ब्रह्मचारिणी ने भगवान शिव को पति वरण करने के लिए घोर तपस्या की थी । माता ब्रह्मचारिणी को तपश्चारिणी , अर्पणा और उमा कहा गया है । ब्रह्मचारिणी का प्रिय रंग पीला ,श्वेत ,हरा एवं मिश्री एवं हविष्य प्रिय भोजन है ।माता  ब्रह्मचारिणी सरल ,शांत और सौम्य का प्रतीक है ।माता ब्रह्मचारिणी का मंदिर उत्तराखण्ड का चमोली जिले के कर्णप्रयाग स्थित नंद पर्वत पर ब्रह्मचारिणी मंदिर , उत्तर प्रदेश का बनारस की सप्तसागर का कर्ण घंटा क्षेत्र बालाजी जी मंडप  , पंचगंगा घाट , दुर्गाघाट, राजस्थान के पुष्कर के  ब्रह्म सरोवर ब्रह्मघाट क्षेत्र , सूरत का उमिया धाम ,बरेली , केनालरोड किसनपुर ,अल्मोड़ा मोकियासेन , सुरकुट पर्वत , टिहरी का जौनपुर पट्टी , चंपावत। , असम के कामख्या का नीलांचल पर्वत की ब्रह्मपुत्र नदी के मध्य में अवस्थित  कामरूप पर्वत की श्रंखला पर उमानंद मंदिर के गर्भगृह में माता ब्रह्मचारिणी स्थापित है ।  माता ब्रह्मचारिणी का प्रतीक स्वाधिष्ठान चक्र है । सनातन धर्म का ऋग्वेद , देवीभागवत , मार्कण्डेय पुराण और भविष्य पुराण में माता ब्रह्मचारिणी  की नवरात्र पर्व के दूसरे दिन उपासना का महत्वपूर्ण उल्लेख किया गया है । शाक्त  साधक  मन को माँ ब्रह्मचारिणी  के चरणों में लगाते हैं। ब्रह्म का अर्थ है तपस्या और चारिणी यानी आचरण करने वाली माता ब्रह्मचारिणी के  दाहिने हाथ में जप की रुद्राक्ष  माला एवं बाएँ हाथ में कमण्डल  है । नवदुर्गाओं में द्वितीय माता ब्रह्मचारिणी का अस्त्र कमंडल व माला , पुत्रों में ऋक्,यजुष,साम,अथर्वा एवं पौत्र:व्याडि,लोकविश्रुत मीमांस,पाणिनी,वररुचि , सवारी पैर है । श्लोक : दधाना कर पद्माभ्यामक्ष माला कमण्डलु | देवी प्रसीदतु मयि ब्रह्मचारिण्यनुत्तमा ।। साधक कुंडलिनी शक्ति को जागृत करने के लिए  साधना से  जीवन सफल और  आने वाली किसी  प्रकार की बाधा का सामना आसानी से कर सक्षम होते है। माता ब्रह्मचारिणी की उपासना से मनुष्य में तप, त्याग, वैराग्य, सदाचार, संयम की वृद्धि होती है। माँ ब्रह्मचारिणी देवी की कृपा से साधक का मन ‘स्वाधिष्ठान ’चक्र में शिथिल और अवस्थित मनवाला योगी माता की कृपा और भक्ति प्राप्त करता है। कन्याओं का का विवाह  तय होने घर कन्या को  बुलाकर पूजन के पश्चात भोजन कराकर वस्त्र, पात्र आदि भेंट किए जाते हैं। माँ जगदम्बे की भक्ति पाने के हेतु नवरात्रि में द्वितीय दिन माता ब्रह्मचारिणी की उपासना कर या देवी सर्वभू‍तेषु माँ ब्रह्मचारिणी रूपेण संस्थिता। नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:।। का जप कर अभीष्ट फल प्राप्त करते है । अर्थ : हे माँ! सर्वत्र विराजमान और ब्रह्मचारिणी के रूप में प्रसिद्ध अम्बे, आपको मेरा बार-बार प्रणाम है। या मैं आपको बारंबार प्रणाम करता हूँ। द्वितीय नवरात्र ब्रह्मचारिणी की उपासना से  यश, सिद्धि और सर्वत्र विजय के लिए होती है ।

रविवार, अक्तूबर 15, 2023

धैर्य और शक्ति की देवी शैलपुत्री

धैर्य  और शक्ति  का द्योतक माता शैलपुत्री 
सत्येन्द्र कुमार पाठक 
सनातन धर्म का शाक्त सम्प्रदाय के ऋग्वेद , पुराणों एवं उपनिषदों में माता शक्ति  के नौ रूप में प्रथम स्वरूप में माता शैलपुत्री का उल्लेख हैं।   पर्वतराज  हिमालय की भार्या मैना की पुत्री माता शैलपुत्री है । नवरात्र-पूजन में प्रथम दिन की उपासना में धैर्य और शक्ति की देवी माता शैलपुत्री  की  'मूलाधार' चक्र में स्थित कर   योग साधना का प्रारंभ करते है। हिमालय , कैलाश पर निवास करने वाली एवं भगवान शिव की जीवन साथी एवं हिमालय की पुत्री  माता शैलपुत्री की सवारी वृषभ , अस्त्र त्रिशूल , कमल है ।माता शैलपुत्री का मंत्र ॐ देवी शैलपुत्र्यै नमः॥ वंदे वाद्द्रिछतलाभाय चंद्रार्धकृतशेखराम | वृषारूढां शूलधरां शैलपुत्री यशस्विनीम्‌ || देवी सर्वभू‍तेषु माँ शैलपुत्री रूपेण संस्थिता। नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ।। अर्थात वृषभ-स्थित शैलपुत्री  माताजी के दाहिने हाथ में त्रिशूल और बाएँ हाथ में कमल-पुष्प सुशोभित है।  प्रजापति दक्ष की कन्या  'माता सती' का विवाह भगवान शंकरजी से हुआ था। प्रजापति दक्ष ने उत्तराखंड के हरिद्वार के समीप कनखल में आयोजित   यज्ञ में देवताओं को अपना-अपना यज्ञ-भाग प्राप्त करने के लिए निमंत्रित किया,परंतु भगवान शिव  को  यज्ञ में निमंत्रित नहीं किया गया था । माता  सती ने जब सुना कि उनके पिता दक्ष  यज्ञ का अनुष्ठान कर रहे हैं, तब वहाँ जाने के लिए उनका मन विकल हो उठा।अपनी यह इच्छा उन्होंने शंकरजी को बताई। सारी बातों पर विचार करने के बाद उन्होंने कहा- प्रजापति दक्ष किसी कारणवश हमसे रुष्ट हैं। अपने यज्ञ में उन्होंने सारे देवताओं को निमंत्रित किया है। उनके यज्ञ-भाग भी उन्हें समर्पित किए हैं, किन्तु हमें जान-बूझकर नहीं बुलाया है। कोई सूचना तक नहीं भेजी है। ऐसी स्थिति में तुम्हारा वहाँ जाना किसी प्रकार भी श्रेयस्कर नहीं होगा।' भगवान शिव  के इस उपदेश से सती का प्रबोध नहीं हुआ। पिता का यज्ञ देखने, वहाँ जाकर माता और बहनों से मिलने की उनकी व्यग्रता किसी प्रकार भी कम न हो सकी। उनका प्रबल आग्रह देखकर भगवान शंकरजी ने उन्हें वहाँ जाने की अनुमति दे दी।सती ने पिता के घर पहुँचकर देखा कि कोई भी उनसे आदर और प्रेम के साथ बातचीत नहीं कर रहा है। सारे लोग मुँह फेरे हुए हैं। केवल उनकी माता ने स्नेह से उन्हें गले लगाया। बहनों की बातों में व्यंग्य और उपहास के भाव भरे हुए थे।परिजनों के इस व्यवहार से उनके मन को बहुत क्लेश पहुँचा। उन्होंने यह भी देखा कि वहाँ चतुर्दिक भगवान शंकरजी के प्रति तिरस्कार का भाव भरा हुआ है। दक्ष ने उनके प्रति कुछ अपमानजनक वचन कहे। यह सब देखकर सती का हृदय क्षोभ, ग्लानि और क्रोध से संतप्त हो उठा। उन्होंने सोचा भगवान शंकरजी की बात नही  मान, यहाँ आकर मैंने बहुत बड़ी गलती की है।वे अपने पति भगवान शंकर के इस अपमान को सह नहीं कर सकीं। उन्होंने अपने उस रूप को तत्क्षण वहीं योगाग्नि द्वारा जलाकर भस्म कर दिया। वज्रपात के समान इस दारुण-दुःखद घटना को सुनकर शंकरजी ने क्रुद्ध होअपने गणों को भेजकर दक्ष के उस यज्ञ का पूर्णतः विध्वंस करा दिया।सती ने योगाग्नि द्वारा अपने शरीर को भस्म कर अगले जन्म में  हिमालय की पुत्री के रूप में शैलपुत्री जन्म लिया। इस बार वे 'शैलपुत्री को  पार्वती, हैमवती  नाम हैं। उपनिषद् के अनुसार माता ने हैमवती स्वरूप से देवताओं का गर्व-भंजन किया था।'शैलपुत्री' देवी का विवाह  भगवान शिव  से  हुआ  माता सती की प्रथम अवतार एवं नवदुर्गाओं में प्रथम शैलपुत्री का महत्व और शक्तियाँ अनंत हैं। उत्तरप्रदेश के वाराणसी एवं काशी के मध्य अवस्थित वरुणा नदी के तट पर अलईपुरा का मढ़िया घाट  शैलपुत्री मंदिर के गर्भगृह में माता शैलपुत्री अवस्थित है । छत्तीसगढ़ का रतनपुर स्थित महामाया मंदिर परिसर में शैलपुत्री मंदिर  , महाराष्ट्र का वसई विरार में हैदाबदे , जम्मू कश्मीर के बारामूला की गुफा में माता शैलपुत्री , विधूना , अमिय धाम ,गुड़गांव ,झंडेवालान मंदिर , हिमाचल प्रदेश में नैना मंदिर ,छिंदवाड़ा का आमी मंदिर शक्ति और धैर्य की देवी   माता शैलपुत्री  को समर्पित है । शाक्त सम्प्रदाय के विभिन्न ग्रंथों में देवी भागवत , मार्कण्डेय पुराण , ऋग्वेद के अनुसार   माता शैलपुत्री को भवानी , हेमवती ,गिरिजा , पार्वती  कहा गया है । हिमवान की पत्नी मैना देवी की पुत्री पार्वती , गंगा एवं पुत्र मेनाक है । राजा दक्ष की पुत्री स्वधा का विवाह पितृदेव पितरेश्वर से होने के के बाद स्वधा की पुत्री मैना ,धन्या ,कलावती का अवतरण हुआ था । मैना का विवाह हिमवान से होने के बाद माता शैलपुत्री का अवतरण हुई थी ।

रविवार, अक्तूबर 08, 2023

सौर स्थल हंडिया सूर्य मंदिर

सौर स्थल हंडिया का सूर्यमंदिर
सत्येन्द्र कुमार पाठक
सनातन धर्म की सौर सम्प्रदाय का स्थल में बिहार राज्य के नवादा जिलान्तर्गत नादरीगंज प्रखण्ड मुख्यालय नादरीगंज से 4 किमी दूरी पर अवस्थित हंडिया सूर्यमंदिर में भगवान सूर्य  की मूर्ति एवं सूर्यकुंड है । मागधीय सांस्कृतिक विरासत में सौर संस्कृति का स्थल नादरीगंज प्रखण्ड के तहत झारखंड राज्य का कोडरमा जिले के ढोंढा कोल पर्वत से उद्गम धनार्जय नदी के किनारे सूर्यमंदिर में भगवान सूर्य की। मूर्ति स्थापित है।  विभिन्न श्रोतों एवं सूर्यपुरण , हरिवंश पुराण , भागवत पुराण नवम स्कन्द के अनुसार चंद्रवंश के आदिपुरुष चंद्र के वंसज एवं ब्रह्मा जी का 12 वी पीढ़ी यदु के प्रपौत्र सहस्त्रजित का पौत्र शतजित के पुत्र कीकट प्रदेश का राजा  हैहय द्वारा हैहयर नगर एवं वेणुहय ने भगवान सूर्य मूर्ति की स्थापना एवं वेणु सरोवर का निर्माण कर सौर संस्कृति का स्थल बनाया था । हनरिया स्थल को  हंडी , हंडिया , हैहया , हैहयर विभिन्न कालों में कहा गया है । हंडिया का क्षेत्रफल 853 हेक्टेयर में फैले 5494 आवादी में 47 प्रतिशत साक्षर है । हंडिया पंचायत में दयालपुर , डालेपुर , दरियापुर , हनरिया , नंदग्राम , पनपुरा और राजपुर गावँ है । नारदीगंज से 4 किमी , निनौरा से 5 किमी ,हसुआ से दक्षिण 6 किमि  , राजगीर से उतर नवादा से पश्चिम 7 किमि ,मोहरा से पूरब , प्राचीन टोला लखमिनियाँ से 0.06 किमी की दूरी पर हनरिया में सूर्यमंदिर , हनुमान मंदिर , शिव मंदिर अवस्थित है । हनरिया के विभिन्न क्षेत्रों में धनार्जय नदी , तिलैया नदी एवं पंचानवे नदी प्रवाहित होती है । वैवश्वत मन्वंतर में चंद्र वंश के आदि पुरुष चंद्र के वंशजों में हैहय ,  वेणुहय का नालंदा जिले का राजगीर एवं नवादा जिले का हनरिया सौर सम्प्रदाय का महान स्थल था । हैहय राजा ने हनरिया में  वेणुसरोवर का निर्माण तथा सूर्य मंदिर के गर्भगृह में भगवान सूर्य की मूर्ति स्थापित किया था । द्वापर युग में चंद्रवंशीय वृहद्रथ  के पुत्र जरासंध के साथ मल्लयुद्ध के लिए भगवान कृष्ण , पांडव पुत्र भीम एवं अर्जुन ने हरनिया सौर स्थान में स्थित सूर्य मंदिर एवं वेणु सूर्यकुंड के किनारे विश्राम एवं रथ  रुका था । रथ का ठहराव हरनिया में पत्थर रथ के नाम से विख्यात है । सूर्य कुंड में  स्नान कर मनोवांक्षित फल प्राप्त करने वालों में भगवान कृष्ण , अर्जुन  , भीम , चक्षु रोग एवं कुष्टव्यधि से युक्त जरासंध का पुत्र सहदेव तथा कृष्ण पुत्र साम्ब का कुष्टव्यधि रोग से मुक्ति मिल था । सूर्यमूर्ति कि स्थापना , सूर्यमंदिर एवं सूर्यकुंड का पुनर्निर्माण साम्ब एवं मगध साम्राज्य का राजा  सहदेव द्वारा कराया गया था । शुंग शासन काल  184 ई. पू. से 30 ई.पू. तक , शुंगवशीय देवभूमि , गुप्तकाल के राजा चंद्रगुप्त प्रथम 319 ई. से 350 ई ,समुद्रगुप्त 350 ई. से 375 ई. तक  हर्ष काल 640 ई.  में हर्षवर्द्धन के समय , वैदिक काल में द्यूस्थान आकाश का देव भगवान सूर्य मित्र आदित्य की उपासना .और  दिल्ली बादशाह अकबर का दिन के इलाही के अनुयायी एवं बल्क राजा तथा सूफी संत  नजीरुद्दीन हंडिया द्वारा सूर्य की उपासना के लिए हनरिया की सूर्य कुंड में स्नानादि कर कार्य किया जाता था । हनरिया को हंडिया के नाम से ख्याति मिला । राजगीर सीमा पर स्थित हनरिया सौर धर्म का प्रसिद्ध स्थान है । राजगृह बुद्ध काल , महावीर काल , मौर्य काल , गुप्त, सेन काल  में हनरिया सौर सम्प्रदाय का महत्वपूर्ण स्थान था ।

मंगलवार, अक्तूबर 03, 2023

jehanabad town council

Jehanabad town council 
Satyendra kumar pathak
Headquarters jehanabad town of the subdivision and district of the same name situated at the confluence of the Dardha and jamuna rivers. The town jehanabad is divided in to two portions the residential and trading quarter , dispensary  , post office , District magistrate , SP , DDC, Electricity office , men market , jehanabad , Agriculture office ,  railway station are the north of the right branch of the Darshan river , while the publik officers , subdivisions officer s residence , , dakbungaow , DM, SP , SDO , District court , jehanabad town council , Block  offices , jehanabad court station ,  on the south of the river. For the convenience of the public there is a small way side railway station called the kehana ad kuch neharu or jehanabad court near the latter portion of the jehanabad town .And the main station jehanabad .Is at a short distance to the north . The town was once famous for the weaving industry and in 1760 it formed one of the eight minor branches connected with the central cloth factory of the East India Company at patna . In the early years of the nineteenth century the town contained about 700 houses a cloth factory and a native agency for the manufacture of saltpetre. Soon after this the factory began to languish and eventually it was abolished.
Local tradition asserts that the company's connection with the factory come to an end in about 1820 But the local industry did not cease in consequence and a considerable export trade in cotton was  carried on in the neighborhood , till Manchester entered into the  competition after 1857 . The Weaver then found it cheaper to by English thread and the. Consumer began to prefer Manchester piece goods to the  produce of the indian handlooms . The Manufacturer of cotton cloths consequently declined and was displayed by imported goods. A large number of the kolahal or mohammdan weaver class still live in the neighbourhood and produce som hand loon cloth . The trade of jehanabad has been diverted in to  other channels and now consists chiefly of  food train,oil seeds ,piece goods and fancy articles . The situation of the place being on the railway muddat between Patna and Gaya is helpful for trade.
 There are no historical buildings of any intreste and  no trace is left of the old brick house  said said to have  been built by the  Dutch as a cloth depot  which is mentioned in the  statistical Acount of Bengal as existing 30 years ago . The population 0f jehanabad  town council from census of 1901 to 2011 is given below year 1901 person 7018 male 3629 female 3389 , 1911 person 4764 nakel 2498 female 2266 , 1921 person 6956 males 3883 female 3073 , 1931 persons 8764 male 4884 females 3880 , 1941 persons 10842 male 5863 female 4979 , 1951 12445 males 6376 female 6069

रविवार, अक्तूबर 01, 2023

सिवान की विरासत

सिवान की विरासत 
सत्येन्द्र कुमार पाठक 
बिहार राज्य का  में सारन प्रमंडल के अंतर्गत सीवान ज़िले का मुख्यालय दहा नदी के किनारे अवस्थित सिवान बिहार के पश्चिमोत्तरी छोर पर उत्तर प्रदेश का सीमावर्ती सिवान  जिला के उत्तर में गोपालगंज तथा पूर्व में   सारण जिला तथा दक्षिण में उत्तरप्रदेश के देवरिया एवं पश्चिम में उत्तर प्रदेश का  बलिया जिला है। सिवान अनुमंडल का सृजन 1908 ई. होने के बाद सिवान जिला का सृजन 03 दिसंबर 1972 में  2219 वर्गकिमी व 857 वर्गमील क्षेत्रफल में सिवान और महाराजगंज अनुमंडल में 19 प्रखंड ,293 पंचायत एवं 1526 गाँव शामिल किया गया है। सिवान 8 वीं शताब्दी में बनारस साम्राज्य के राजा शिवमान ने सिवान नगर की स्थापना की थी । पाँचवी सदी ई . पू. में सिवान की भूमि कोसल महाजनपद के अधीन  था। कोसल राज्य के उत्तर में नेपाल, दक्षिण में सर्पिका (साईं) नदी, पुरब में गंडक नदी तथा पश्चिम में पांचाल प्रदेश था। आठवीं सदी में  बनारस के शासकों का आधिपत्य था। सिकन्दर लोदी ने 15 वीं सदी में  सिसवन पर आधिपत्य स्थापित किया।  अकबर  शासनकाल का  आईना-ए-अकबरी के अनुसार वित्तीय क्षेत्र था ।  व्यापार के उद्देश्य से  डच द्वारा 1755 ई. में ब्रिटिश साम्राज्य द्वारा  दिवानी अधिकार मिल गया था ।   असहयोग आन्दोलन 1920 में सिवान के ब्रज किशोर प्रसाद ने पर्दा प्रथा के विरोध में आन्दोलन चलाया था। हिन्दी के मूर्धन्य विद्वान राहुल सांकृत्यायन ने 1937 से 1938 ई. तक  किसान आन्दोलन की नींव सिवान में रखी थी। स्वतंत्रता की लड़ाई में सिवान  के मजहरुल हक़, राजेन्द्र प्रसाद, महेन्द्र प्रसाद,रामदास पाण्डेय फूलेना प्रसाद थे । सन 1885 में घाघरा नदी के बहाव स्थिति के अनुसार 13000 एकड़ भूमि उत्तर प्रदेश को स्थानान्तरित कर दिया गया एवं 6600 एकड़ जमीन सिवान को मिला था । १९७२ में सिवान को जिला  बना दिया गया। जिले का  प्रखंड गोरयाकोठी केंद्रीय असेम्बली को हिन्दी में संबोधित करने वाले कर्म योगी नारायण  का गृह नगर है । सिवान जिला उत्तरी गंगा के मैदान में स्थित  समतल भू-भाग  का विस्तार 25053' से 260 23' उत्तरी अक्षांस तथा 840 1' से 840 47' पूर्वी देशांतर के बीच है। नदियों के द्वारा जमा  मिट्टियों की गहराई 5 हजार  तक , मैदानी भाग का ढाल उत्तर-पश्चिम से दक्षिण-पूर्व की ओर है। निचले मैदान में जलजमाव का  क्षेत्र  चौर  से छोटी नदी या 'सोता'  निकल कर  नदी घाघरा के किनारे दरारा निर्मित हुआ है।  गंडकी एवं घाघरा नदी है। घाघरा नदी जिले की दक्षिणी सीमा पर प्रवाहित   नदी है।  झरही, दाहा, धमती, सिआही, निकारी और सोना नदियाँ  है। झरही औ‍र दाहा घाघरा की सहायक नदियाँ  और  गंडकी और धमती नदियाँ  गंडक की सहायक नदी  है। अनुमंडल- सिवान एवं महाराजगंज में प्रखंड- मैरवा, पचरुखी, रघुनाथपुर, आन्दर, गुथनी, महारजगंज, दरौली, सिसवन, दरौंदा, हुसैनगंज, भगवानपुर, हाट, गोरियाकोठी, बरहरिया, हबीबपुर, बसंतपुर, लकरी, नबीगंज, जिरादेई, नौतन, हसनपुर, जमालपुर है । भोजपुरी एवं हिंदी भाषीय  सिवान जिला में 20वी सदी के मध्य तक भोजपुरी भाषा तथा लिपी "कैथी आधिकारिक कार्यो में भी प्रचलित  थी। कैथी  लिपि मृत हो गई है। महात्मा गाँधी के सहयोगी, स्वतंत्रता सेनानी एवं भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ राजेन्द्र प्रसाद  का जन्म 03 दिसंबर 1884 ई. को जीरादेई में हुआ था ।, महात्मा गाँधी के सहयोगी, स्वतंत्रता सेनानी एवं हिंदू-मुस्लिम एकता के प्रतीक, सदाकत आश्रम तथा बिहार विद्यापीठ के संस्थापक मौलाना मजरुलहक , पांडुलिपि संग्रहकर्ता एवं खुदा बक्श लाईब्रेरी के संस्थापक खुदाबक्श खान फुलेना प्रसाद- स्वतंत्रता सेनानी फुलेना प्रसाद ,  स्वतंत्रता सेनानी एवं पर्दा-प्रथा विरोध आन्दोलन के जन्मदाता ब्रजकिशोर प्रसाद ,  ९ अगस्त १९४२ को बिहार सचिवालय के सामने शहीद हुए क्रांतिकारियों में उमाकांत सिंह , बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री दारोगप्रसाद राय , लोकनायक  जय प्रकाश नारायण की पत्नी प्रभावती देवी , भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के  सेनानी एवम जमींदार रामदास पांडेय , मशहूर उर्दू साहित्यकार, मकान, माफिया, दरिंदा किताबों के रचयिता पैगाम अफ़की , सिवान के दरौली प्रखंड में बरई बंगरा गाँव में जन्मे मशहूर ठग मिथिलेश कुमार श्रीवास्तव उर्फ नटवर लाल  , खरगिरामपुर के संविधान सभा के सदस्य पंडित वैद्यनाथ मिश्र का जन्म 26 जुलाई 1905 ई. को हुआ था । दरौली प्रखंड के दोन गाँव में बौद्ध स्थल है। दरौली नाम मुगल शासक शाहजहाँ के पुत्र दारा शिकोह द्वारा दोन को दरौली  कहा गया है।  द्वापरयुग में द्रोणाचार्य द्वारा द्रोण किले का निर्माण कराया गया था । चीनी यात्री ह्वेनसांग ने  यात्रा वर्णन में दोन  स्तूप होने का वर्णन किया है। स्तूप के अवशेष स्थल पर 9 वीं सदी में  तारा मंदिर में माता तारा की मूर्ति स्थापित है । अमरप दरौली से ३ किलोमीटर पश्चिम में घाघरा नदी के तट पर स्थित अमरपुर  गाँव में मुगल शाहजहाँ के शासनकाल (1626-1658) में नायब अमरसिंह द्वारा लाल पत्थर से अर्धनिर्मित निर्मित मस्जिद है ।
मैरवा धाम: मैरवा प्रखंड का मैरवा के झरही नदी के किनारे हरि बाबा का ब्रह्म  स्थान और  चननिया डीह  पर सती साध्वी  अहिरनी आश्रम  है।महेन्द्रनाथ मंदिर ,मेंहदार: सिसवन प्रखंड में स्थित मेंहदार गाँव के बावन बीघे में निर्मित  पोखर के किनारे शिव एवं विश्वकर्मा  मंदिर बना है। नेपाल का राजा महेन्द्रनाथ द्वारा महेन्द्रनाथ मंदिर में पंच लिंगी लिंगी की स्थापना की गई थी । पटना के मुस्लिम संत शाह अर्जन के दरगाह पर लकड़ी दरगाह  पर रब्बी-उस-सानी के ११ वें दिन  उर्स लगता है। हसनपुरा: हुसैनीगंज प्रखंड के हसनपुर गाँव में अरब से आए चिश्ती सम्प्रदाय का सूफी  संत मख्दूम सैय्यद हसन चिश्ती आकर खानकाह भी स्थापित किया था।भिखाबांध: महाराजगंज प्रखंड में भिखाबान्ध पर वृक्ष  की छया में  14 वीं सदी में मुगल सेना से लड़ाई में दोनों भाई बहन मारे गए  स्थल पर भैया बहनी मंदिर स्थापित है।  सिवान से 13 किमी पश्चिम जीरादेई में देशरत्न डा राजेन्द्र प्रसाद का जन्म स्थान ,फरीदपुर में बिहार रत्न मौलाना मजहरूल हक़ का जन्म स्थान , सोहगरा में शिव भगवान का मंदिर है।  दुरौधा रेलवे स्टेशन से दो किमि  पर हड़सर में  काली मंदिर में माता काली की मूर्ति एवं काली भक्त रहसु भगत का स्थान था ।  ऐसी मान्यता है कि जो देवी थावे मंदिर में है वह अपने भक्त रहसू भगत की पुकार पर कलकत्ते से चली और कलकत्ता से थावे जाते समय इनका यही अंतिम पडाव था। अब यहां कोई मंदिर नहीं है, पर आस्था गहरी है। पतार में राम जी बाबा का मन्दिर है ।सिवान से 30  किमी० दक्षिण सरयू नदी के किनारे नरहन में श्री नाथ मंदिर , भगवसती मंदिर ,रामजानकी मंदिर ,काली मंदिर ,ठाकुरवाड़ी  अवस्थित ह सीवान  के मैरवा दरौली के मुख्य पथ पर स्थित डोभीया में बाबा धर्मागत बरमभ जी मंदिर है ।कंधवारा में  मुक्ति धाम मशान माई , बाबा घाट,  कबीर मठ  है।
सिवान जिले का 2219 वर्गकिमी में 2011 जनगणना के अनुसार 3330464 में महिला  1655374 एवं पुरुष1675090 आवादी में साक्षरता दर 69 .45  प्रतिशत है । सिवान में सूती कपड़ा उद्योग , क्षेत्रीय हस्तकरघा निगम कार्यालय  है। स्वतंत्रता संग्राम सेनानी ब्रजकिशोर प्रसाद द्वारा 1920 ई. में पर्दा प्रथा का विरोध स्थल , ठेपहा का महादेवा टोला शिवमंदिर में काष्ट दृश्य पाषाण युक्त  पंचमुखी शिवलिंग   , सरोवर एवं पांच कूप  , बलिया में सूर्यमंदिर ,सिसवन प्रखंड के कचनार में 2015 ई. में निर्मित सूर्यमंदिर के गर्भगृह में पांच फीट की भगवान सूर्य की प्रतिमा स्थापित है । पंचमुखी शिवमंदिर का पुनर्निर्माण 1985 ई. में हुआ था । सिवान के भिन्न भिन्न क्षेत्रों में विभिन्न राजाओं द्वारा विकास किया गया है।  सिवान  को सिवान , शिशन , कैलाशवादियों शिवन ,, नबाब अली बक्श खान द्वारा अलीनगर , , शिवनाथी, अली बक्स कहा गया है ।