रविवार, अक्तूबर 31, 2021

आयुर्वेद के जनक धन्वंतरि मंदिर....


आरोग्य और आयुर्वेद के जनक धन्वंतरि का वर्णन संहिताओं , स्मृतियों , पुरणों के है । कार्तिक कृष्ण पक्ष त्रयोदशी को  भगवान धन्वंतरि अमृत कलश लेकर समुद्र से अवतरण हुआ था ।  आयुर्वेद  एवं आयुर्विज्ञान के  जनक भगवान धन्वंतरि मंदिर विश्व के विभिन्न क्षेत्रों में  मंदिर हैं। रंगनाथस्वामी मंदिर में धन्वंतरि मंदिर, तमिलनाडु - तमिलनाडु के रंगनाथस्वामी मंदिर में धन्वंतरि मंदिर  भारत के प्रमुख धन्वन्तरि मंदिर भगवान् धन्वन्तरि की पूजा की जाती है। धन्वंतरि मंदिर में जड़ी बूटियों को प्रसाद स्वरुप चढ़ाया जाता है । श्री धन्वंतरी मंदिर, कोयंबटूर - तमिलनाडु के कोयंबटूर आर्य फार्मेशी परिसर में स्थित श्री धन्वंतरी मंदिर  है। श्री धन्वंतरि मंदिर जीवन और चिकित्सा के देवता, भगवान धन्वंतरि को पीठासीन देवता के रूप में प्रतिष्ठित करता है। धन्वंतरि  मंदिर में भगवान धन्वन्तरि की पूजा धनतेरस के दिन की जाती है। धन्वंतरी मंदिर, नेल्लुवाई - नेल्लूवाई में भगवान धन्वंतरि मंदिर देव वैद्य अश्विनी देवों द्वारा मंदिर की उत्पत्ति 5000 ई. पू. की गई है। यह मंदिर भगवान धन्वन्तरि को चिकित्सा के देवता को चिकित्सा की सभी शाखाओं के चिकित्सक  उपासना मूर्ति के रूप में पूजा करते हैं। नेल्लुवाई में भगवान धन्वंतरि मंदिर, गुरुवायुर और त्रिशूर से लगभग 20 किमी है और आयुर्वेदिक चिकित्सक अपना अभ्यास करने के पूर्व  मंदिर जाना शुभ मानते हैं।श्री धन्वंतरि मंदिर, पेरिंगवे - पेरिंगवे में श्री धन्वंतरि मंदिर केरल में त्रिशूर शहर के बाहरी इलाके में स्थित एक और पुराना धन्वंतरि मंदिर है। मंदिर का गर्भगृह 2 मंजिलों के साथ गोल आकार में बनाया गया है, जो अन्य केरल शैली की वास्तुकला के विपरीत एक दुर्लभ डिजाइन है। भगवान गणपति, देवी लक्ष्मी, और भगवान अय्यप्पन   मंदिर में विराजमान अन्य देवता हैं।  थोट्टूवा धनवंतरी मंदिर - थोट्टूवा श्री धन्वंतरि मंदिर भारत के कुछ भगवान धन्वंतरि मंदिरों में से एक है। धनवंतरि मंदिर में भगवान धन्वंतरि की मूर्ति छह फीट लंबी और पूर्व की ओर उन्मुख है। दाहिने हाथ में भगवान अमृत धारण करते हैं और बाएं हाथ से भगवान अट्टा, शंकु और सुदर्शन चक्र धारण करते हैं। उप देवता अय्यप्पन, गणपति, भद्रकाली और राक्षस हैं। इस मंदिर में ताजा और बिना उबला दूध चढ़ाया जाता है। श्री रुद्र धनवंतरी मंदिर,पुलमंथोले - श्री रुद्र धन्वंतरि मंदिर  3500 वर्ष पुराना है, पुलमंथोले में स्थित है। इस मंदिर में शुरुआत में केवल शिव की मूर्ति मौजूद थी। यह मंदिर अष्टावैद्य पुलमंथोले मूस परिवार का हसि । त्रावणकोर महाराजा को पेट में तेज दर्द हुआ। विभिन्न लोगों द्वारा उसका उपचार किया गया लेकिन इसका कोई फायदा नहीं हुआ, इसलिए दूतों को पालकी के साथ पुलमंथोले माना भेजा गया। उपचार के बाद लोगों के ठीक होने से इस मंदिर का माहात्म्य और ज्यादा बढ़ गया। लोगों का मानना है कि इस प्रसिद्ध श्री रुद्र धनवंतरी मंदिर में भगवान से प्रार्थना करने और वज़ीवाडु (प्रसाद) ग्रहण करने से सभी बीमारियां ठीक होती हैं।श्री धन्वंतरि आरोग्य पीठम यज्ञ भूमि, वालाजापेट - धन्वंतरि आरोग्य पीठ लोगों के लिए उपचार का एक मुख्य स्थान है। आरोग्य पीठ की स्थापना डॉ. श्री मुरलीधर स्वामीगल ने की थी, जिन्हें ब्रह्मांड की शक्तियों और ऊर्जाओं द्वारा कई अलौकिक शक्तियों का आशीर्वाद प्राप्त है।आरोग्य पीठ मानव जाति के रोगों का एक सार्वभौमिक इलाज करता है। मानसिक, शारीरिक और भावनात्मक स्वास्थ्य को वापस लाते हैं।धन्वन्तरि मंदिर, इंदौर - मध्य प्रदेश के इंदौर शहर में स्थित राजबाड़ा के पास आड़ा बाजार में भगवान धन्वंतरि का 180 साल पुराना मंदिर है, जहां धनतेरस पर बड़ी संख्या में इंदौर के अधिकतर वैद्य और अन्य लोग दर्शन के लिए सुबह से आना शुरू हो जाते हैं।  धनतेरस पर  ब्राह्मणों द्वारा भगवान धन्वंतरि का पंचामृत, जड़ी-बूटियों से अभिषेक किया जाता है और उसके बाद भगवान धन्वंतरि का पूजन व आरती की जाती है। धन्वंतरि मंदिर, आंध्र प्रदेश  -  आंध्र प्रदेश का पूर्वी गोदावरी जिले के चिंतलुरु  क्षेत्र में धनवंतरि  कार्तिक कृष्ण पक्ष त्रयोदशी को  भगवान धन्वंतरि अमृत कलश लेकर समुद्र से अवतरण हुआ था ।  आयुर्वेद  एवं आयुर्विज्ञान के  जनक भगवान धन्वंतरि मंदिर विश्व के विभिन्न क्षेत्रों में  मंदिर हैं। रंगनाथस्वामी मंदिर में धन्वंतरि मंदिर, तमिलनाडु - तमिलनाडु के रंगनाथस्वामी मंदिर में धन्वंतरि मंदिर  भारत के प्रमुख धन्वन्तरि मंदिर भगवान् धन्वन्तरि की पूजा की जाती है। धन्वंतरि मंदिर में जड़ी बूटियों को प्रसाद स्वरुप चढ़ाया जाता है । श्री धन्वंतरी मंदिर, कोयंबटूर - तमिलनाडु के कोयंबटूर आर्य फार्मेशी परिसर में स्थित श्री धन्वंतरी मंदिर  है। श्री धन्वंतरि मंदिर जीवन और चिकित्सा के देवता, भगवान धन्वंतरि को पीठासीन देवता के रूप में प्रतिष्ठित करता है। धन्वंतरि  मंदिर में भगवान धन्वन्तरि की पूजा धनतेरस के दिन की जाती है। धन्वंतरी मंदिर, नेल्लुवाई - नेल्लूवाई में भगवान धन्वंतरि मंदिर देव वैद्य अश्विनी देवों द्वारा मंदिर की उत्पत्ति 5000 ई. पू. की गई है। यह मंदिर भगवान धन्वन्तरि को चिकित्सा के देवता को चिकित्सा की सभी शाखाओं के चिकित्सक  उपासना मूर्ति के रूप में पूजा करते हैं। नेल्लुवाई में भगवान धन्वंतरि मंदिर, गुरुवायुर और त्रिशूर से लगभग 20 किमी है और आयुर्वेदिक चिकित्सक अपना अभ्यास करने के पूर्व  मंदिर जाना शुभ मानते हैं।श्री धन्वंतरि मंदिर, पेरिंगवे - पेरिंगवे में श्री धन्वंतरि मंदिर केरल में त्रिशूर शहर के बाहरी इलाके में स्थित एक और पुराना धन्वंतरि मंदिर है। मंदिर का गर्भगृह 2 मंजिलों के साथ गोल आकार में बनाया गया है, जो अन्य केरल शैली की वास्तुकला के विपरीत एक दुर्लभ डिजाइन है। भगवान गणपति, देवी लक्ष्मी, और भगवान अय्यप्पन   मंदिर में विराजमान अन्य देवता हैं।  थोट्टूवा धनवंतरी मंदिर - थोट्टूवा श्री धन्वंतरि मंदिर भारत के कुछ भगवान धन्वंतरि मंदिरों में से एक है। धनवंतरि मंदिर में भगवान धन्वंतरि की मूर्ति छह फीट लंबी और पूर्व की ओर उन्मुख है। दाहिने हाथ में भगवान अमृत धारण करते हैं और बाएं हाथ से भगवान अट्टा, शंकु और सुदर्शन चक्र धारण करते हैं। उप देवता अय्यप्पन, गणपति, भद्रकाली और राक्षस हैं। इस मंदिर में ताजा और बिना उबला दूध चढ़ाया जाता है। श्री रुद्र धनवंतरी मंदिर,पुलमंथोले - श्री रुद्र धन्वंतरि मंदिर  3500 वर्ष पुराना है, पुलमंथोले में स्थित है। इस मंदिर में शुरुआत में केवल शिव की मूर्ति मौजूद थी। यह मंदिर अष्टावैद्य पुलमंथोले मूस परिवार का हसि । त्रावणकोर महाराजा को पेट में तेज दर्द हुआ। विभिन्न लोगों द्वारा उसका उपचार किया गया लेकिन इसका कोई फायदा नहीं हुआ, इसलिए दूतों को पालकी के साथ पुलमंथोले माना भेजा गया। उपचार के बाद लोगों के ठीक होने से इस मंदिर का माहात्म्य और ज्यादा बढ़ गया। लोगों का मानना है कि इस प्रसिद्ध श्री रुद्र धनवंतरी मंदिर में भगवान से प्रार्थना करने और वज़ीवाडु (प्रसाद) ग्रहण करने से सभी बीमारियां ठीक होती हैं।श्री धन्वंतरि आरोग्य पीठम यज्ञ भूमि, वालाजापेट - धन्वंतरि आरोग्य पीठ लोगों के लिए उपचार का एक मुख्य स्थान है। आरोग्य पीठ की स्थापना डॉ. श्री मुरलीधर स्वामीगल ने की थी, जिन्हें ब्रह्मांड की शक्तियों और ऊर्जाओं द्वारा कई अलौकिक शक्तियों का आशीर्वाद प्राप्त है।आरोग्य पीठ मानव जाति के रोगों का एक सार्वभौमिक इलाज करता है। मानसिक, शारीरिक और भावनात्मक स्वास्थ्य को वापस लाते हैं।धन्वन्तरि मंदिर, इंदौर - मध्य प्रदेश के इंदौर शहर में स्थित राजबाड़ा के पास आड़ा बाजार में भगवान धन्वंतरि का 180 साल पुराना मंदिर है, जहां धनतेरस पर बड़ी संख्या में इंदौर के अधिकतर वैद्य और अन्य लोग दर्शन के लिए सुबह से आना शुरू हो जाते हैं।  धनतेरस पर  ब्राह्मणों द्वारा भगवान धन्वंतरि का पंचामृत, जड़ी-बूटियों से अभिषेक किया जाता है और उसके बाद भगवान धन्वंतरि का पूजन व आरती की जाती है। धन्वंतरि मंदिर, आंध्र प्रदेश  -  आंध्र प्रदेश का पूर्वी गोदावरी जिले के चिंतलुरु  क्षेत्र में धनवंतरि  मंदिर है। आंध्र प्रदेश का सबसे पहला  धन्वंतरि को समर्पित मंदिर है। वेंकटेश्वरलु द्वारा 1942 में निर्मित धन्वंतरि मंदिर में बेदाग ढंग से बनाए गए मंदिर की भीतरी दीवारों पर ब्रह्मा जी, दक्ष प्रजापति, अश्विनी कुमार, इंद्र, भारद्वाज, वाग्भट्ट, आत्रेय, सुश्रुत और चरक की मूर्तियां हैं। मंदिर में क्षीर सागर मंथन का  चित्रण है। मंदिर-परिसर के भीतर भगवान सुब्रमण्यम, वेंकटेश्वर के साथ श्रीदेवी और भूदेवी, और काशी विश्वेश्वर के साथ अन्नपूर्णा के छोटे मंदिर हैं।मंदिर है। आंध्र प्रदेश का सबसे पहला  धन्वंतरि को समर्पित मंदिर है। वेंकटेश्वरलु द्वारा 1942 में निर्मित धन्वंतरि मंदिर में बेदाग ढंग से बनाए गए मंदिर की भीतरी दीवारों पर ब्रह्मा जी, दक्ष प्रजापति, अश्विनी कुमार, इंद्र, भारद्वाज, वाग्भट्ट, आत्रेय, सुश्रुत और चरक की मूर्तियां हैं। मंदिर में क्षीर सागर मंथन का  चित्रण है। मंदिर-परिसर के भीतर भगवान सुब्रमण्यम, वेंकटेश्वर के साथ श्रीदेवी और भूदेवी, और काशी विश्वेश्वर के साथ अन्नपूर्णा के छोटे मंदिर हैं। काशी में भगवान धन्वंतरि मंदिर की स्थापना एवं आयुर्वेद विज्ञान की नींव सुश्रुत द्वारा किया गया था । सुश्रुतसंहिता के 184 अध्याय में 1120 रोगों तथा 700 औषधियों पौधों का उल्लेख है ।इंदौर के आड़ा बाजार में राजवैद्य लक्ष्मी नारायण द्विवेदी द्वारा 1841 ई. में धन्वंतरि मंदिर , केरल का अर्नाकुलम जिले के थोटटवा में भगवान परशुराम द्वारा एक हजार ई.पू. भगवान धन्वंतरि की मूर्ति स्थापित किया गया है । कंबोडिया के अंकोरवाट यशोधपुर में 12 वी शताब्दी में राजा सूर्यवर्मन द्वारा भगवान धन्वंतरि की मूर्ति एवं मंदिर स्थापित किया गया है । हरिवंश पुराण , रामायण , महाभारत में भगवान धन्वंतरि का वर्णन है ।

                   

जीवन का मूल्यांकनकर्ता भगवान चित्रगुप्त...


मानवीय कार्यों का मूल्रायांकन करने वाले चित्रगुप्त की पूजा की जाती है।  स्वर्ग में श्री धर्मराज का लेखा-जोखा रखने वाले श्री चित्रगुप्त जी का पूजन सामूहिक रूप से तस्वीरों अथवा मूर्तियों के माध्यम से करते हैं। कार्तिक शुक्ल द्वितीया को  चित्रगुप्त पूजा मनाया जाता है।  प्राणी धरती पर जन्म लेता है उसकी मृत्यु निश्चित है । विधि के इस विधान से स्वयं भगवान भी नहीं बच पाये और मृत्यु की गोद में उन्हें भी सोना पड़ा। चाहे भगवान राम हों, कृष्ण हों, बुध और जैन सभी को निश्चित समय पर पृथ्वी लोक आ त्याग करना पड़ता है। मृत्युपरान्त क्या होता है और जीवन से पहले क्या है यह एक ऐसा रहस्य है जिसे कोई नहीं सुलझा सकता।  वेदों एवं पुराणों और ऋषि मुनियों के अनुसार मृत्युलोक के ऊपर एक दिव्य लोक है जहां न जीवन का हर्ष है और न मृत्यु का शोक वह लोक जीवन मृत्यु से परे है। दिव्य लोक में देवताओं का निवास है और फिर उनसे भी ऊपर विष्णु लोक, ब्रह्मलोक और शिवलोक है। जीवात्मा जब अपने प्राप्त शरीर के कर्मों के अनुसार विभिन्न लोकों को जाता है। जो जीवात्मा विष्णु लोक, ब्रह्मलोक और शिवलोक में स्थान पा जाता है उन्हें जीवन चक्र में आवागमन यानी जन्म मरण से मुक्ति मिल जाती है और वे ब्रह्म में विलीन हो जाता हैं अर्थात आत्मा परमात्मा से मिलकर परमलक्ष्य को प्राप्त कर लेता है। जीवात्मा कर्म बंधन में फंसकर पाप कर्म से दूषित हो जाता हैं उन्हें यमलोक जाना पड़ता है। मृत्यु काल में इन्हे आपने साथ ले जाने के लिए यमलोक से यमदूत आते हैं जिन्हें देखकर ये जीवात्मा कांप उठता है रोने लगता है परंतु दूत बड़ी निर्ममता से उन्हें बांध कर घसीटते हुए यमलोक ले जाते हैं। इन आत्माओं को यमदूत भयंकर कष्ट देते हैं और ले जाकर यमराज के समक्ष खड़ा कर देते हैं। इसी प्रकार की बहुत सी बातें गरूड़ पुराण में वर्णित है।यमराज के दरवार में उस जीवात्मा के कर्मों का लेखा जोखा होता है। कर्मों का लेखा जोखा रखने वाले  भगवान चित्रगुप्त जन्म से लेकर मृत्युपर्यन्त जीवों के सभी कर्मों को अपनी पुस्तक में लिखते रहते हैं और जब जीवात्मा मृत्यु के पश्चात यमराज के समझ पहुचता है । उनके कर्मों को एक एक कर सुनाते हैं और उन्हें अपने कर्मों के अनुसार क्रूर नर्क में भेज देते हैं। भगवान चित्रगुप्त परमपिता ब्रह्मा जी के अंश से उत्पन्न हुए हैं और यमराज के सहयोगी हैं। इनकी कथा इस प्रकार है कि सृष्टि के निर्माण के उद्देश्य से जब भगवान विष्णु ने अपनी योग माया से सृष्टि की कल्पना की तो उनकी नाभि से एक कमल निकला जिस पर एक पुरूष आसीन था चुंकि इनकी उत्पत्ति ब्रह्माण्ड की रचना और सृष्टि के निर्माण के उद्देश्य से हुआ था अत: ये ब्रह्मा कहलाये। इन्होंने सृष्ट की रचना के क्रम में देव-असुर, गंधर्व, अप्सरा, स्त्री-पुरूष पशु-पक्षी को जन्म दिया। इसी क्रम में यमराज का भी जन्म हुआ जिन्हें धर्मराज की संज्ञा प्राप्त हुई थी ।  धर्मानुसार यमराज को जीवों  को सजा देने का कार्य प्राप्त हुआ था। धर्मराज ने जब एक योग्य सहयोगी की मांग ब्रह्मा जी से की तो ब्रह्मा जी ध्यानलीन हो गये और एक हजार वर्ष की तपस्या के  ब्रह्मा जी की काया से चित्रगुप्त का अवतरण  हुआ था ।  चित्रगुप्त जी के हाथों में कर्म की किताब, कलम, दवात और करवाल है। ये कुशल लेखक हैं और इनकी लेखनी से जीवों को उनके कर्मों के अनुसार न्याय मिलती है। कार्तिक शुक्ल द्वितीया तिथि को भगवान चित्रगुप्त की पूजा का विधान है।  यमराज और चित्रगुप्त की पूजा एवं उनसे अपने बुरे कर्मों के लिए क्षमा मांगने से नरक का फल भोगना नहीं पड़ता है। इस संदर्भ में एक कथा का यहां उल्लेखनीय है। सौराष्ट्र के राजा  सौदास अधर्मी और पाप कर्म करने वाला था। राजा ने कभी को पुण्य का काम नहीं किया था। एक बार शिकार खेलते समय जंगल में भटक गया। वहां उन्हें एक ब्रह्मण दिखा जो पूजा कर रहे थे। राजा उत्सुकतावश ब्रह्ममण के समीप गया और उनसे पूछा कि यहां आप किनकी पूजा कर रहे हैं। ब्रह्मण ने कहा आज कार्तिक शुक्ल द्वितीया है इस दिन मैं यमराज और चित्रगुप्त महाराज की पूजा कर रहा हूं। इनकी पूजा नरक से मुक्ति प्रदान करने वाली है। राजा ने तब पूजा का विधान पूछकर वहीं चित्रगुप्त और यमराज की पूजा की। काल की गति से एक दिन यमदूत राजा के प्राण लेने आ गये। दूत राजा की आत्मा को जंजीरों में बांधकर घसीटते हुए ले गये। लहुलुहान राजा यमराज के दरबार में जब पहुंचा तब चित्रगुप्त ने राजा के कर्मों की पुस्तिका खोली और कहा कि हे यमराज यूं तो यह राजा बड़ा ही पापी है इसने सदा पाप कर्म ही किए हैं परंतु इसने कार्तिक शुक्ल द्वितीया तिथि को हमारा और आपका व्रत पूजन किया है अत: इसके पाप कट गये हैं और अब इसे धर्मानुसार नरक नहीं भेजा जा सकता। इस प्रकार राजा को नरक से मुक्ति मिल गयी। भारतवर्ष में भगवान चित्रगुप्त जी के अनेक मंदिर हैं  । मध्य प्रदेश के उज्जैन जिले के अंकपात में भगवान चित्रगुप्त शिला मंदिर  -  श्री चित्रगुप्त जी का प्रादुर्भाव, कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की द्वितीया को, पौराणिक अवनितका अथवा उज्जयिनी के अंक-पात क्षेत्र में हुआ था। यहीं पर उन्होंने देव गुरु बृहस्पति तथा दैत्यों के गुरु शुक्राचार्य से सभी शिक्षायें प्राप्त करके, धर्मराज के सहायक का पदभार ग्रहण किया था। पदमपुराण के सृषिट खंड में आख्यान है कि सृषिट की रचना के समय उत्पन्न तमाम जीवधारियों के कर्मानुसार फल देने का दायित्व,   यम को धर्मराज की उपाधि से विभूषित किया गया था । उज्जैन, जहा सिंहस्थ सूर्य के कुम्भ के आयोजन के लिये जाना जाता है, वहीं शिव के चौदह ज्योतिर्लिगों में से एक महाकालेश्वर (महाकाल) के पावन मंदिर के लिये,  महत्वपूर्ण स्थान भी रखता है। उत्तर वैदिक और पौराणिक इतिहास में दक्षिणा के पथ पर सिथत होने के कारण उज्जैन एक प्राचीन व्यापारिक केन्द्र के रुप में भी प्रसिद्व था। क्षिप्रा नदी के तट पर सिथत, अवनितका अथवा उज्जयिनी हैै। पुराणों में एक पवित्र मोक्षदाता तीर्थ बताया गया है और अंकपात क्षेत्र, जहा चित्रगुप्त जी ने तपस्या करके सर्वज्ञता की थी, उज्जैन नगर से लगभग 12 किमी. उत्तर दिशा में सिथत है। सन 1985 र्इ. में क्षिप्रा नदी के किनारे, इसी अंकपात के वन क्षेत्र में एक चौकोर शिला स्थापित थी जिसके एक ओर संभवत: धर्मराजजी और दूसरी ओर श्री चित्रगुप्त जी के चित्र उकेरे हुए थे।‘चित्रगुप्त शिला’ पर एक मंदिर का निर्माण कार्य बैसाख मास में शुक्ल पक्ष की सप्तमी को कराया था, जो अब ”श्री चित्रगुप्त शिला मंदिर” कहा जाता है । श्री धर्महरि चित्रगुप्त मंदिर सरजु  नदी के दक्षिण, नयाघाट से फैजाबाद, राजमार्ग पर सिथत तुलसी उद्यान से लगभग 500 मीटर पूर्व दिशा में, डेरा बीबी मोहल्ले में, बेतिया राज्य के मंदिर के निकट है। वैसे नयाघाट से मंदिर की सीधी दूरी लगभग एक किमी. होगी। पौराणिक गाथाओं के अनुसार, स्वंय भगवान विष्णु ने इस मंदिर की स्थापना की थी और धर्मराज जी को दिये गये वरदान के फलस्वरुप ही धर्मराज जी के साथ इनका नाम जोड़ कर इस मंदिर को ‘श्री धर्म-हरि मंदिर’ का नाम दिया है। श्री अयोध्या महात्मय में भी इसे श्री धर्म हरि मंदिर कहा गया है। किवदंति है कि विवाह के बाद जनकपुर से वापिस आने पर श्रीराम-सीता ने सर्वप्रथम धर्महरि जी के ही दर्शन किये थे। धार्मिक मान्यता है कि अयोध्या आने वाले सभी तीर्थयात्रियों को अनिवार्यत: श्री धर्म-हरि जी के दर्शन करना चाहिये, अन्यथा उसे इस तीर्थ यात्रा का पुण्यफल प्राप्त नहीं होता। अयोध्या के इतिहास में उल्लेख है कि सरयू के जल प्रलय से अयोध्या नगरी पूर्णतया नष्ट हो गर्इ थी और विक्रमी संवत के प्रवर्तक सम्राट विक्रमादित्य ने जब अयोध्या नगरी की पुनस्र्थापना की तो सर्वप्रथम श्री धर्म हरि जी के मंदिर की स्थापना करार्इ थी। सन 1882 में अयोध्या के चित्रगुपत मंदिर को चित्रगुत धाम की स्थापना की गई है । . तमिलनाडु के कांचीपुरम (पौराणिक कांचीपुरी) का श्री चित्रगुप्त स्वामी मंदिर :- दक्षिण भारत के तमिलग्रन्थ करणीगर पुराणम के साथ ही ”विष्णु धर्मोत्तर पुराण” में भी श्री चित्रगुप्त स्वामी के नाम से ज्ञात श्री चित्रगुप्त वशंज माने गये ”करुणीगर कायस्थों” का उल्लेख मिलता है। इन्हीं श्री चित्रगुप्त स्वामी का एक भव्य मंदिर, मंदिरों की नगरी काचीपुरम में नगर के मध्य में सिथत है। दक्षिण भारत के तमिल क्षेत्र में इन करणीगरों की मान्यता वैसी ही है जैसी उत्तर भारत के बारह चित्रगुप्तवंशी कायस्थों की। परन्तु, ”करुणीगर पुराणम” के अनुसार श्री चित्रगुप्त स्वामी एक नीला देवी से भगवान सूर्य के पुत्र हैं। श्री चित्रगुप्त स्वामी का मंदिर, काचीपुरम नगर के मध्य में, श्री रामकृष्ण आश्रम से लगभग एक फलाग की दूरी पर एक ऊचे चबूतरे पर सिथत है। यह चबूतरा इतना ऊचा है कि कोर्इ भी दर्शनार्थी नीचे खड़े होकर, मंदिर के गर्भगृह में स्थापित मूर्ति के दर्शन नहीं कर सकता, उसे चबूतरे पर ऊपर चढ़ने के बाद ही श्री चित्रगुप्त स्वामी के दर्शन प्राप्त हो सकते हैं। मंदिर का स्थापत्य बहुत सुन्दर, भव्य और गरिमामय है। मंदिर के गर्भ गृह में, हाथों में कलम दवात लिये हुये भगवान चित्रगुप्त स्वामी के साथ ही देवी कार्नकी की कास्य प्रतिमा स्थापित है। . बिहार के पटना सिटी के दीवान मोहल्ले में, नौजरघाट सिथत ”श्री चित्रगुप्त आदि मंदिर पटना” मगघ की प्राचीन राजधानी पाटलिपुत्र तथा बिहार राज्य के आधुनिक मुख्यालय पटना में, पतित पावनी गंगा के तट पर, दीवान मोहल्ला के नौजरघाट पर सिथत इस ऐतिहासिक चित्रगुप्त मंदिर को पटना के कायस्थों ने श्री चित्रगुप्त आदि की संज्ञा क्यों दी ? यह स्पष्ट नहीं किया गया है। बताया जाता है कि सर्वप्रथम इस मंदिर का निर्माण, नंद वंश के अंतिम मगध सम्राट धनानन्द ने इतिहास प्रसिद्व महामंत्री, चित्रगुप्तवंशी ”राक्षस” ने र्इसा पूर्व कराया था। यह भी कहा जाता है कि इस मंदिर का पुर्ननिर्माण, मुगल सम्राट के नौरत्नों में से एक और वर्तमान जिला औरंगाबाद के मूल निवासी और इतिहास प्रसिद्व शेरशाह सूरी के भी मत्री रह चुके, राजा टोडरमल तथा उनके नायब रहे कुवर किशोर बहादुर ने करवाकर, कसौटी पत्थर की भगवान चित्रगुप्तजी की मूर्ति, हिजरी सन 980 तदानुसार र्इसवीं सन 1574 में स्थापित करार्इ थी। र्इसवीं सन 1766 में राजा सिताबराय ने मंदिर के चारों ओर की भूमि, मंदिर के नाम करवाकर चारदीवारी बनवार्इ थी। बाद में राजा सिताबराय के पौत्र, महाराज भूपनारायण सिंहं ने, जयपुर से मंगवाये गये, नक्काशीदार पत्थरों से मंदिर को भव्यता प्रदान की थी। परन्तु देख-रेख के अभाव में, मंदिर जीर्ण-शीर्ण ही नहीं हो गया, वरन मंदिर में स्थापित कसौटी पत्थर की मूर्ति तस्करों द्वारा चुरा ली गर्इ थी। तत्पश्चात संवत 2019, तदानुसार र्इसवीं सन 1962 में, पटना सिटी निवासी, चित्रगुप्तवंशी राजा रामनारायण वंशज राय मथुरा प्रसाद जी ने मंदिर में, स्फटिक पत्थर की मूर्ति स्थापित करवाकर, मंदिर को मंदिर की प्रतिष्ठा दिलार्इ थी। यही मूर्ति 11.11.2007 तक इस मंदिर में शोभायमान थी। इस मंदिर में एक शिव मंदिर भी है। अव्यवस्था के कारण अराजक तत्वों ने उपेक्षित मंदिर परिसर पर अवैध कब्जा करके परिसर को बहुत छोटा कर दिया था। बिहार के पटना में राजा टोडरमल द्वारा कसौटी पत्थर की भगवान चित्रगुप्त जी की गई  थी । भाईदूज के दिन श्री चित्रगुप्त जयंती पर  कलम-दवात पूजा (कलम, स्याही और तलवार पूजा) करते हैं जिसमें पेन, कागज और पुस्तकों की पूजा होती है। यह वह दिन है, जब भगवान श्री चित्रगुप्त का उद्भव ब्रह्माजी के द्वारा हुआ था। ऐसा कहा जाता है कि चित्रगुप्त के अम्बष्ट, माथुर तथा गौड़ आदि नाम से कुल 12 पुत्र माने गए हैं। मतांतर से चित्रगुप्त के पिता मित्त नामक कायस्थ थे। इनकी बहन का नाम चित्रा था। पिता के देहावसान के उपरांत प्रभास क्षेत्र में जाकर सूर्य की तपस्या की जिसके फल से इन्हें ज्ञान हुआ। वर्तमान समय में कायस्थ जाति के लोग चित्रगुप्त के ही वंशज कहे जाते हैं। कश्मीर में दुर्लभ बर्धन कायस्थ वंश, काबुल और पंजाब में जयपाल कायस्थ वंश, गुजरात में बल्लभी कायस्थ राजवंश, दक्षिण में चालुक्य कायस्थ राजवंश, उत्तर भारत में देवपाल गौड़ कायस्थ राजवंश तथा मध्यभारत में सतवाहन और परिहार कायस्थ राजवंश सत्ता में रहे हैं। कायस्थों को मूलत: 12 उपवर्गों में विभाजित किया गया है। यह 12 वर्ग श्री चित्रगुप्त की पत्नियों देवी शोभावती और देवी नंदिनी के 12 सुपुत्रों के वंश के आधार पर है। भानु, विभानु, विश्वभानु, वीर्यभानु, चारु, सुचारु, चित्र (चित्राख्य), मतिभान (हस्तीवर्ण), हिमवान (हिमवर्ण), चित्रचारु, चित्रचरण और अतीन्द्रिय ।पुत्रों के वंश अनुसार कायस्थ की 12 शाखाएं हो गईं- श्रीवास्तव, सूर्यध्वज, वाल्मीकि, अष्ठाना, माथुर, गौड़, भटनागर, सक्सेना, अम्बष्ठ, निगम, कर्ण और कुलश्रेष्ठ। श्री चित्रगुप्तजी के 12 पुत्रों का विवाह नागराज वासुकि की 12 कन्याओं से हुआ जिससे कि कायस्थों की ननिहाल नागवंशी मानी जाती है। माता नंदिनी के 4 पुत्र कश्मीर में जाकर बसे तथा ऐरावती एवं शोभावती के 8 पुत्र गौड़ देश के आसपास बिहार, ओडिशा तथा बंगाल में जा बसे। बंगाल उस समय गौड़ देश कहलाता था।
                                  भगवान चित्रगुप्त मन्दिर

शुक्रवार, अक्तूबर 29, 2021

तंत्र मंत्र के अधिष्ठाता काल भैरव...


तंत्र शास्त्र , पुरणों में काल भैरव का उल्लेख है । शास्त्र के अनुसार  भैरव की संख्या 64 को 8 भागो में विभक्त है । काल  भैरव की उपासना भारत एवं नेपाल के विभिन्न स्थानों में होती है । कार्तिक कृष्ण अष्टमी को भगवान शिव के क्रोध से उत्पन्न कालभैरव काला रंग, विशाल प्रलंब, स्थूल शरीर, अंगारकाय त्रिनेत्र, काले डरावने चोगेनुमा वस्त्र, रूद्राक्ष की कण्ठमाला, हाथों में लोहे का भयानक दण्ड और काले कुत्ते की सवारी है । उपासना की दृष्टि से भैरव तमस देवता को बलि दी जाती है ।  भैरव उग्र कापालिक सम्प्रदाय के देवता  और तंत्रशास्त्र में भैरव की आराधना किया जाता  है। तंत्र साधक का  भैरव  है। शास्त्रीय संगीत में भैरव राग है। कालभैरव की उपासना महाराष्ट्र में खण्डोबा , दक्षिण भारत में शास्ता है। भूत, प्रेत, पिशाच, पूतना, कोटरा और रेवती आदि की गणना भगवान शिव के अन्यतम गणों में की जाती है।
भैरव  विविध रोगों और आपत्तियों विपत्तियों के मुक्ति का

अधिदेवता भैरव हैं। शिव प्रलय के देवता  हैं, अत: विपत्ति, रोग एवं मृत्यु के समस्त दूत है । माह भैरव सेनापति बीमारी, विपत्ति और विनाश के पार्श्व में उनके संचालक के रूप में सर्वत्र ही उपस्थित दिखायी देता है। शिवपुराण’ के अनुसार कार्तिक मास के कृष्णपक्ष की अष्टमी को मध्यान्ह में भगवान शंकर के अंश से भैरव की उत्पत्ति होने के कारण  काल-भैरवाष्टमी  जाना जाता है। पुरणो के अनुसार दैत्यराज अंधकासुर के  कृत्यों से अनीति व अत्याचार की सीमाएं पार तथा  घमंड में चूर होकर  अंधकासुर भगवान शिव तक के ऊपर आक्रमण करने का दुस्साहस कर बैठा था । अंधकासुर के संहार के लिए भगवान  शिव के रुधिर से भैरव की उत्पत्ति हुई थी ।  पुराणों के अनुसार शिव के अपमान-स्वरूप भैरव की उत्पत्ति हुई थी।  सृष्टिकर्ता ब्रह्मा ने भगवान शंकर की वेशभूषा और उनके गणों की रूपसज्जा देख कर शिव को तिरस्कारयुक्त वचन कहे। अपने इस अपमान पर स्वयं शिव ने तो कोई ध्यान नहीं दिया, किन्तु उनके शरीर से उसी समय क्रोध से कम्पायमान और विशाल दण्डधारी एक प्रचण्डकाय काया प्रकट हुई और वह ब्रह्मा का संहार करने के लिये आगे बढ़ आयी। भगवान शंकर द्वारा मध्यस्थता करने के कारण ब्रह्मा जी की शांति मिली थी ।रूद्र के शरीर से उत्पन्न महाभैरव को  काशी का नगरपाल नियुक्त कर दिया। भगवान शंकर ने कार्तिक कृष्ण  अष्टमी को ब्रह्मा के अहंकार को नष्ट किया था । भैरव अष्टमी 'काल' , मृत्यु के भय के निवारण हेतु  कालभैरव की उपासना करते हैं। ,ब्रह्मा जी के  पांचवे वेद की भी रचना करने के कारण सभी देवो के कहने पर महाकाल भगवान शिव ने जब ब्रह्मा जी से वार्तालाप की परन्तु ना समझने पर महाकाल से उग्र,प्रचंड रूप भैरव ने नाख़ून के प्रहार से ब्रह्मा जी की का पांचवा मुख काट दिया ।  भैरव-उपासना के लिए  बटुक भैरव तथा काल भैरव के रूप में प्रसिद्ध हुईं। बटुक भैरव अपने भक्तों को अभय देने वाले सौम्य स्वरूप एवं काल भैरव आपराधिक प्रवृत्तियों पर नियंत्रण करने वाले दंडनायक है ।  कालिका पुराण के अनुसार असितांग-भैरव,रुद्र-भैरव,चंद्र-भैरव, क्रोध-भैरव, उन्मत्त-भैरव, कपाली-भैरव,भीषण-भैरव तथा संहार-भैरव है । भैरव को नंदी, भृंगी, महाकाल, वेताल की तरह भैरव को शिवजी का गण का श्वान , कुकुर, कुत्ता वाहन है । ब्रह्मवैवर्तपुराण में ,महाभैरव,,संहार भैरव,असितांग भैरव,रुद्र भैरव,कालभैरव,क्रोध भैरव ताम्रचूड़ भैरव तथा चंद्रचूड़ भैरव नामक आठ पूज्य भैरवों का उल्लेख  है।  शिवमहापुराण में भैरव को परमात्मा शंकर का  पूर्णरूप  है - भैरव: पूर्णरूपोहि शंकरस्य परात्मन:। मूढास्तेवै न जानन्ति मोहिता:शिवमायया॥श्री बटुक भैरव जी के ध्यान हेतु इनके सात्विक, राजस व तामस रूपों का वर्णन अनेक शास्त्रों में  है। सात्विक ध्यान - अपमृत्यु का निवारक, आयु-आरोग्य व मोक्षफल की प्राप्ति कराता है, वहीं धर्म, अर्थ व काम की सिद्धि के लिए राजस ध्यान की उपादेयता है, इसी प्रकार कृत्या, भूत, ग्रहादि के द्वारा शत्रु का शमन करने वाला तामस ध्यान कहा गया है।  उत्तरप्रदेश के काशी से 2 कि . मि . की दूरी पर स्थित  काल भैरव मंदिर है।  नई दिल्ली के विनय मार्ग पर नेहरू पार्क में बटुक भैरव का पांडवकालीन मंदिर ,  उज्जैन के काल भैरव की प्रसिद्धि  तांत्रिक , नैनीताल के समीप घोड़ाखाल का बटुकभैरव मंदिर गोलू देव भैरव की प्रसिद्धि है।  शक्तिपीठों और उपपीठों के पास स्थित भैरव मंदिर है। जयगढ़ के प्रसिद्ध किले में काल-भैरव मंदिर ,  मध्य प्रदेश के सिवनी जिले के  अदेगाव में  श्री काल भैरव मंदिर है ।औरंगजेब के शासन काल में जब काशी के भारत-विख्यात विश्वनाथ मंदिर का ध्वंस किया गया, तब भी कालभैरव का मंदिर पूरी तरह अछूता बना रहा था। कालभैरव का मंदिर तोड़ने के लिये जब औरंगज़ेब के सैनिक वहाँ पहुँचे तभी  अचानक पागल कुत्तों का एक पूरा समूह कहीं से निकल पड़ा था।  कुत्तों ने जिन सैनिकों को काटा वे तुरंत पागल हो गये और फिर स्वयं अपने ही साथियों को उन्होंने काटना शुरू कर दिया। औरंगज़ेब बादशाह को जान बचा कर भागने के लिये विवश हो जाना पड़ा। औरंगजेब के अंगरक्षकों द्वारा कुत्ते से घयल  सैनिको को   मरवा दिया गया था । बिहार के गया , मुजफ्फरपुर के चतुर्भुज मंदिर के परिसर में भैरव मंदिर एवं झारखंड के देवी स्थलों के समीप भैरव स्थापित है ।

बुधवार, अक्तूबर 27, 2021

दीप संस्कृति : दीपावली...


पुरणों , उपनिषदों एवं सनातन धर्म तथा जैन , बौद्ध  धर्म ग्रंथों में दीपावली का उल्लेख किया गया है । उत्तरी गोलार्द्ध शरद ऋतु  कार्तिक कृष्ण पक्ष अमावस्या  में प्रत्येक  वर्ष मनाया जाने वाला  सनातन संस्कृति का त्यौहार दीपावली है । दीपावली दीपों का त्योहार तथा आध्यात्मिक रूप से यह 'अन्धकार पर प्रकाश की विजय'  दर्शाता है ।दीपावली को दीपावली , दीप दिवस , काली पूजा, दीपावली , सुखरात्रि , मोक्ष दिवस

 



(जैन), बंदी छोड़ दिवस , माता लक्ष्मी अवतरण दिवस , राजा बलि का पाताल लोक का राज्याभिषेक दिवस , भगवान राम का अयोध्या आगमन 14 वर्षो के बाद आगमन दिवस , जैन धर्म के लोग महावीर के मोक्ष दिवस तथा  तथा सिख धर्म में  बन्दी छोड़ दिवस मनाता है।दीपावली के अवसर पर नेपाल, भारत, श्रीलंका, म्यांमार, मारीशस, गुयाना, त्रिनिदाद ,टोबैगो, सूरीनाम, मलेशिया, सिंगापुर, फिजी, पाकिस्तान और ऑस्ट्रेलिया की बाहरी सीमा पर क्रिसमस द्वीप पर एक सरकारी अवकाश होता है।भारत के विभिन्न क्षेत्रों में  बिहार , झारखंड , उत्तरप्रदेश ,मध्य प्रदेश , राजस्थान , गुजरात के दिवाली ,  'दीपावली' (उड़िया), दीपाबॉली'(बंगाली), 'दीपावली' (असमी, कन्नड़, मलयालम:, तमिल: और तेलुगू), 'हिन्दी,दिवाली, मराठी:दिवाळी, कोंकणी:दिवाळी,पंजाबी), 'दियारी' (सिंधी:दियारी‎), और 'तिहार' (नेपाली) मारवाड़ी में दियाळी कहा गया है ।  पद्म पुराण और स्कन्द पुराण में दीवाली का उल्लेख में पहली सहस्त्राब्दी के दूसरे भाग में किन्हीं केंद्रीय पाठ को विस्तृत कर लिखे गए थे। दीये (दीपक) को स्कन्द पुराण में सूर्य के हिस्सों का प्रतिनिधित्व करने वाला माना गया है । भगवान सूर्य जीवन के लिए प्रकाश और ऊर्जा का लौकिक दाता है और विक्रम पंचाग  अनुसार कार्तिक माह में अपनी स्तिथि बदलता है । कुछ क्षेत्रों में हिन्दू दीवाली को यम और नचिकेता की कथा के साथ  हैं। नचिकेता की कथा के अनुसार सही बनाम गलत, ज्ञान बनाम अज्ञान, सच्चा धन बनाम क्षणिक धन आदि के बारे में बताती है; पहली सहस्त्राब्दी ईसा पूर्व उपनिषद में लिखित है।
दिवाली के दिन श्री राम चन्द्र जी ने माता सीता को रावण की कैद से छुटवाया था, तथा फिर माता सीता की अग्नि परीक्षा लेकर 14 वर्ष का वनवास व्यतीत कर अयोध्या वापस लोटे थे। जिसके उपलक्ष्य में अयोध्या वासियों ने दीप जलाए थे, तभी से दीपावली का त्यौहार मनाया जाता है। 7 वीं शताब्दी के संस्कृत नाटक नागनंद में राजा हर्ष ने  दीपप्रतिपादुत्सवः कहा है । दीये जलाये जाते  और नव वर-बधू को उपहार दिए जाते थे। 9 वीं शताब्दी में राजशेखर ने काव्यमीमांसा में  दीपमालिका कहा है ।  घरों की पुताई और तेल के दीयों से रात में घरों, सड़कों और बाजारों सजाया जाता था। फारसी यात्री और इतिहासकार अल बेरुनी, ने भारत पर ११ वीं सदी के संस्मरण में, दीवाली को कार्तिक महीने में नये चंद्रमा के दिन पर हिंदुओं द्वारा मनाया जाने वाला त्यौहार कहा है। दीपावली नेपाल और भारत में सबसे सुखद  है। लोग अपने घरों को साफ कर उन्हें उत्सव के लिए सजाते हैं। नेपालियों का  नेपाल संवत में नया वर्ष शुरू होता है। दीपावली नेपाल और भारत  स्वयं और अपने परिवारों के लिए कपड़े, उपहार, उपकरण, रसोई के बर्तन आदि खरीदते हैं।
 कार्तिक मास कृष्ण पक्ष अमावस्या की दिवाली  धन की देवी मां लक्ष्मी और भगवान गणेश जी की पूजा का दुर्लभ संयोग रहा है । ज्योतिष शास्त्र के अुनसार  दिवाली में सूर्य , चंद्रमा ,बुध और मंगल  ग्रह तुला राशि में  रहने से दिवाली लोगों के लिए अत्यंत शुभ रहेगी । तुला राशि के स्वामी शुक्र रहने से लक्ष्मी जी की पूजा से शुक्र ग्रह की शुभता में वृद्धि होती है. ज्योतिष शास्त्र में शुक्र को लग्जरी लाइफ, सुख-सुविधाओं आदि का कारक माना  है ।  सूर्य को ग्रहों का राजा, मंगल को ग्रहों का सेनापति और बुध को ग्रहों का राजकुमार है । चंद्रमा को मन का कारक  है । सूर्य पिता एवं  चंद्रमा को माता कारक माना गया है ।
दिवाली शुभ मुहूर्त - अमावस्या तिथि प्रारम्भ: 04 नवंबर 2021 को प्रात: 06:03 बजे से अमावस्या तिथि समाप्त: 05 नवंबर 2021 को प्रात: 02:44 बजे तक  हैं । दिनांक 04 नवंबर 2021 को दिवाली लक्ष्मी पूजा मुहूर्त: शाम 6:09 मिनट से रात्रि 8:20 मिनट अवधि: 1 घंटे 55 मिनट तक है ।
दीपावली इन  भगवान विष्णु ने राजा बलि को पाताल लोक का स्वामी बनाया था और इन्द्र ने स्वर्ग को सुरक्षित जानकर प्रसन्नतापूर्वक दीपावली मनाई थी। भगवान विष्णु ने नरसिंह रुप धारणकर हिरण्यकश्यप का वध किया था।
 समुद्रमंथन के पश्चात लक्ष्मी व धन्वंतरि प्रकट हुए थे। इसी दिन माता काली भी प्रकट हुई थी इसलिए बंगाल में दीपावली के दिन कालिका की पूजा होती  है। भगवान राम 14 वर्ष के वनवास के बाद अयोध्या लौटे थे। कहते हैं कि श्रीराम रावण का वध करने के 21 दिन बाद अयोध्या लौटे थे। राम विजयोत्सव के रूप में दीप जलाए जाते हैं। भगवान श्रीकृष्ण ने नरकासुर नामक राक्षस का वध करने के पश्चात दीप जलाए गए थे। भगवान महावीर स्वामी का निर्वाण दिवस  है। जैन मंदिरों में निर्वाण दिवस मनाया जाता है। गौतम बुद्ध के अनुयायियों ने 2500 वर्ष पूर्व गौतम बुद्ध के स्वागत में लाखों दीप जला कर दीपावली मनाई थी। उज्जैन के सम्राट विक्रमादित्य का राजतिलक हुआ था।गुप्तवंशीय राजा चंद्रगुप्त विक्रमादित्य ने 'विक्रम संवत' की स्थापना करने के लिए धर्म, गणित तथा ज्योतिष के दिग्गज विद्वानों को आमन्त्रित कर मुहूर्त निकलवाया था। अमृतसर में 1577 में स्वर्ण मन्दिर का शिलान्यास हुआ था। दिवाली में  सिक्खों के छ्टे गुरु हरगोबिन्द सिंह जी को कारागार से रिहा किया गया था। आर्यसमाज के संस्थापक महर्षि दयानंद सरस्वती का निर्वाण हुआ था। नेपाल संवत में नया वर्ष आरम्भ होता है । बादशाह अकबर द्वारा 100 फीट ऊंची बाँस को रंगीन कर आकाशदीप प्रज्ज्वलित कर दीपोत्सव मनाया गया था । दीवाली को कैंडिल दिवस कहा गया है ।सांझा संस्कृति का द्योतक  दीपावली  हैं।

शुक्रवार, अक्तूबर 22, 2021

सौभाग्य और समृद्धि का रूप करवा चौथ ...


संहिताओं एवं सनातन धर्म ग्रंथो में करवा चौथ का महत्वपूर्ण उल्लेख किया गया है। भारत के पंजाब, उत्तर प्रदेश, हरियाणा, मध्य प्रदेश और राजस्थान में मनाया जाने वाला करवा चौथ पर्व कार्तिक मास कृष्ण पक्ष  चतुर्थी को सौभाग्यवती स्त्रियाँ मनाती हैं। करवा चौथ  व्रत सूर्योदय से पूर्व प्रारम्भ होकर रात में चंद्रमा दर्शन के बाद संपूर्ण होता है।
शास्त्रों के अनुसार कार्तिक  कृष्णपक्ष की चन्द्रोदय व्यापिनी चतुर्थी को  पति की दीर्घायु एवं अखण्ड सौभाग्य की प्राप्ति के लिए भालचन्द्र गणेश जी की अर्चना उपवास रखकर रात में चन्द्रमा को अ‌र्घ्य देने के उपरांत भोजन करने का विधान है। कार्तिक कृष्ण पक्ष की चतुर्थी को करकचतुर्थी , दशरथ चतुर्थी , करवा-चौथ , गणेश चौथ , करवा चौथ , करवा चउथि और संकटी चतुर्थी  कहा गया है । करवा चौथ  व्रत 12 वर्ष या  16 वर्ष तक प्रति वर्ष किया जाता है। अवधि पूरी होने के पश्चात इस व्रत का उद्यापन  किया जाता है।  सुहागिन स्त्रियाँ आजीवन रखना चाहें वे जीवनभर इस व्रत को कर सकती हैं।  राजस्थान राज्य के सवाई माधोपुर जिले के चौथ का बरवाड़ा में करवा चौथ माता मंदिर   की स्थापना महाराजा भीमसिंह चौहान द्वारा 1451 ई. में की गई है । बूंदी का वाणगंगा , मध्यप्रदेश का तगड में रिटायर्ड सैनिक अजय सिंह चौह द्वारा चौथ माता मंदिर की स्थापना एवं उज्जैन महाकाल मंदिर है ।




मंदिर में माता चौथ संत गरीबदास के अनुसार कहे जो करवा चौथ कहानी, तास गदहरी निश्चय जानी, करे एकादशी संजम सोई, करवा चौथ गदहरी होई।। चौथ पूजा के दौरान सुहागिने, गीत गाते हुए थालियों की फेरी करती हुई बालू अथवा सफेद मिट्टी की वेदी या तांबे की करवा पर शिव-पार्वती, स्वामी कार्तिकेय, गणेश एवं चंद्रमा की स्थापना करें। मूर्ति के अभाव में सुपारी पर नाड़ा बाँधकर देवता की भावना करके स्थापित करते है । पूजन मंत्र बोलें- 'ॐ शिवायै नमः' से पार्वती का, 'ॐ नमः शिवाय' से शिव का, 'ॐ षण्मुखाय नमः' से स्वामी कार्तिकेय का, 'ॐ गणेशाय नमः' से गणेश का तथा 'ॐ सोमाय नमः' से चंद्रमा का पूजन करें। करवों में लड्डू का नैवेद्य रखकर नैवेद्य अर्पित करें। एक लोटा, एक वस्त्र व एक विशेष करवा दक्षिणा के रूप में अर्पित कर पूजन समापन करते है ।सायंकाल चंद्रमा के उदित होने  पर चंद्रमा का पूजन कर अर्घ्य प्रदान करने के  पश्चात ब्राह्मण, सुहागिन स्त्रियों व पति के माता-पिता को भोजन कराएँ। भोजन के पश्चात ब्राह्मणों को यथाशक्ति दक्षिणा दें।पति की माता को उपरोक्त रूप से अर्पित एक लोटा, वस्त्र व विशेष करवा भेंट कर आशीर्वाद लें। यदि जिनके सासु मां नही है है तब उनके तुल्य किसी को  भेंट करने के पश्चात स्वयं व परिवार के  सदस्य भोजन करती है । 
कथा - एक साहूकार के सात बेटे और उनकी एक बहन करवा थी। सभी सातों भाई अपनी बहन से बहुत प्यार करते थे। यहाँ तक कि वे पहले उसे खाना खिलाते और बाद में स्वयं खाते थे। एक बार उनकी बहन ससुराल से मायके आई हुई थी। शाम को भाई जब अपना व्यापार-व्यवसाय बंद कर घर आए तो देखा उनकी बहन बहुत व्याकुल थी। सभी भाई खाना खाने बैठे और अपनी बहन से भी खाने का आग्रह करने लगे, लेकिन बहन ने बताया कि उसका आज करवा चौथ का निर्जल व्रत है और वह खाना सिर्फ चंद्रमा को देखकर उसे अर्घ्‍य देकर ही खा सकती है। चूँकि चंद्रमा अभी तक नहीं निकला है, इसलिए वह भूख-प्यास से व्याकुल हो उठी है। सबसे छोटे भाई को अपनी बहन की हालत देखी नहीं जाती और वह दूर पीपल के पेड़ पर एक दीपक जलाकर चलनी की ओट में रख देता है। दूर से देखने पर वह ऐसा प्रतीत होता है कि जैसे चतुर्थी का चाँद उदित हो रहा हो। इसके बाद भाई अपनी बहन को बताता है कि चाँद निकल आया है, तुम उसे अर्घ्य देने के बाद भोजन कर सकती हो। बहन खुशी के मारे सीढ़ियों पर चढ़कर चाँद को देखती है, उसे अर्घ्‍य देकर खाना खाने बैठ जाती है। वह पहला टुकड़ा मुँह में डालती है तो उसे छींक आ जाती है। दूसरा टुकड़ा डालती है तो उसमें बाल निकल आता है और जैसे ही तीसरा टुकड़ा मुँह में डालने की कोशिश करती है तो उसके पति की मृत्यु का समाचार उसे मिलता है। वह बौखला जाती है। उसकी भाभी उसे सच्चाई से अवगत कराती है कि उसके साथ ऐसा क्यों हुआ। करवा चौथ का व्रत गलत तरीके से टूटने के कारण देवता उससे नाराज हो गए हैं और उन्होंने ऐसा किया है। सच्चाई जानने के बाद करवा निश्चय करती है कि वह अपने पति का अंतिम संस्कार नहीं होने देगी और अपने सतीत्व से उन्हें पुनर्जीवन दिलाकर रहेगी। वह पूरे एक साल तक अपने पति के शव के पास बैठी रहती है। उसकी देखभाल करती है। उसके ऊपर उगने वाली सूईनुमा घास को वह एकत्रित करती जाती है। एक साल बाद फिर करवा चौथ का दिन आता है। उसकी सभी भाभियाँ करवा चौथ का व्रत रखती हैं। जब भाभियाँ उससे आशीर्वाद लेने आती हैं तो वह प्रत्येक भाभी से 'यम सूई ले लो, पिय सूई दे दो, मुझे भी अपनी जैसी सुहागिन बना दो' ऐसा आग्रह करती है, लेकिन हर बार भाभी उसे अगली भाभी से आग्रह करने का कह चली जाती है।
इस प्रकार जब छठे नंबर की भाभी आती है तो करवा उससे भी यही बात दोहराती है। यह भाभी उसे बताती है कि चूँकि सबसे छोटे भाई की वजह से उसका व्रत टूटा था अतः उसकी पत्नी में ही शक्ति है कि वह तुम्हारे पति को दोबारा जीवित कर सकती है, इसलिए जब वह आए तो तुम उसे पकड़ लेना और जब तक वह तुम्हारे पति को जिंदा न कर दे, उसे नहीं छोड़ना। ऐसा कह के वह चली जाती है। सबसे अंत में छोटी भाभी आती है। करवा उनसे भी सुहागिन बनने का आग्रह करती है, लेकिन वह टालमटोली करने लगती है। इसे देख करवा उन्हें जोर से पकड़ लेती है और अपने सुहाग को जिंदा करने के लिए कहती है। भाभी उससे छुड़ाने के लिए नोचती है, खसोटती है, लेकिन करवा नहीं छोड़ती है।अंत में उसकी तपस्या को देख भाभी पसीज जाती है और अपनी छोटी अँगुली को चीरकर उसमें से अमृत उसके पति के मुँह में डाल देती है। करवा का पति तुरंत श्रीगणेश-श्रीगणेश कहता हुआ उठ बैठता है। इस प्रकार प्रभु कृपा से उसकी छोटी भाभी के माध्यम से करवा को अपना सुहाग वापस मिल जाता है। हे श्री गणेश माँ गौरी जिस प्रकार करवा को चिर सुहागन का वरदान आपसे मिला है, वैसा ही सब सुहागिनों को मिले। शाकप्रस्थपुर वेदधर्मा ब्राह्मण की विवाहिता पुत्री वीरवती ने करवा चौथ का व्रत किया था। नियमानुसार उसे चंद्रोदय के बाद भोजन करना था, परंतु उससे भूख नहीं सही गई और वह व्याकुल हो उठी। उसके भाइयों से अपनी बहन की व्याकुलता देखी नहीं गई और उन्होंने पीपल की आड़ में आतिशबाजी का सुंदर प्रकाश फैलाकर चंद्रोदय दिखा दिया और वीरवती को भोजन करा दिया।उसका पति तत्काल अदृश्य हो गया। अधीर वीरवती ने बारह महीने तक प्रत्येक चतुर्थी को व्रत रखा और करवा चौथ के दिन उसकी तपस्या से उसका पति पुनः प्राप्त हो गया।
 करवा नाम की पतिव्रता स्त्री अपने पति के साथ नदी के किनारे के गाँव में रहती थी। एक दिन उसका पति नदी में स्नान करने गया। स्नान करते समय वहाँ एक मगर ने उसका पैर पकड़ लिया। वह मनुष्य करवा-करवा कह के अपनी पत्नी को पुकारने लगा। उसकी आवाज सुनकर उसकी पत्नी करवा भागी चली आई और आकर मगर को कच्चे धागे से बाँध दिया। मगर को बाँधकर यमराज के यहाँ पहुँची और यमराज से कहने लगी- हे भगवन! मगर ने मेरे पति का पैर पकड़ लिया है। उस मगर को पैर पकड़ने के अपराध में आप अपने बल से नरक में ले जाओ। यमराज बोले- अभी मगर की आयु शेष है, अतः मैं उसे नहीं मार सकता। इस पर करवा बोली, अगर आप ऐसा नहीं करोगे तो मैं आप को श्राप देकर नष्ट कर दूँगी। सुनकर यमराज डर गए और उस पतिव्रता करवा के साथ आकर मगर को यमपुरी भेज दिया और करवा के पति को दीर्घायु दी। हे करवा माता! जैसे तुमने अपने पति की रक्षा की, वैसे सबके पतियों की रक्षा करना।
 पांडु पुत्र अर्जुन तपस्या करने नीलगिरी नामक पर्वत पर गए। इधर द्रोपदी बहुत परेशान थीं। उनकी कोई खबर न मिलने पर उन्होंने कृष्ण भगवान का ध्यान किया और अपनी चिंता व्यक्त की। कृष्ण भगवान ने कहा- बहना, इसी तरह का प्रश्न एक बार माता पार्वती ने शंकरजी से किया था। तब शंकरजी ने माता पार्वती को करवा चौथ का व्रत बतलाया। इस व्रत को करने से स्त्रियाँ अपने सुहाग की रक्षा हर आने वाले संकट से वैसे ही कर सकती हैं जैसे एक ब्राह्मण ने की थी। प्राचीनकाल में एक ब्राह्मण था। उसके चार लड़के एवं एक गुणवती लड़की थी।
एक बार लड़की मायके में थी, तब करवा चौथ का व्रत पड़ा। उसने व्रत को विधिपूर्वक किया। पूरे दिन निर्जला रही। कुछ खाया-पीया नहीं, पर उसके चारों भाई परेशान थे कि बहन को प्यास लगी होगी, भूख लगी होगी, पर बहन चंद्रोदय के बाद ही जल ग्रहण करेगी। भाइयों से न रहा गया, उन्होंने शाम होते ही बहन को बनावटी चंद्रोदय दिखा दिया। एक भाई पीपल की पेड़ पर छलनी लेकर चढ़ गया और दीपक जलाकर छलनी से रोशनी उत्पन्न कर दी। तभी दूसरे भाई ने नीचे से बहन को आवाज दी- देखो बहन, चंद्रमा निकल आया है, पूजन कर भोजन ग्रहण करो। बहन ने भोजन ग्रहण किया। भोजन ग्रहण करते ही उसके पति की मृत्यु हो गई। अब वह दुःखी हो विलाप करने लगी, तभी वहाँ से रानी इंद्राणी निकल रही थीं। उनसे उसका दुःख न देखा गया। ब्राह्मण कन्या ने उनके पैर पकड़ लिए और अपने दुःख का कारण पूछा, तब इंद्राणी ने बताया- तूने बिना चंद्र दर्शन किए करवा चौथ का व्रत तोड़ दिया इसलिए यह कष्ट मिला। अब तू वर्ष भर की चौथ का व्रत नियमपूर्वक करना तो तेरा पति जीवित हो जाएगा। उसने इंद्राणी के कहे अनुसार चौथ व्रत किया तो पुनः सौभाग्यवती हो गई। इसलिए प्रत्येक स्त्री को अपने पति की दीर्घायु के लिए यह व्रत करना चाहिए। द्रोपदी ने यह व्रत किया और अर्जुन सकुशल मनोवांछित फल प्राप्त कर वापस लौट आए। तभी से हिन्दू महिलाएँ अपने अखंड सुहाग के लिए करवा चौथ व्रत करती हैं।
कार्तिक कृष्ण पक्ष की चतुर्थी को महिलाओं द्वारा पतिब्रता धर्म और पति का फर्ज एवं पति दिवस के अवसर पर अपने पति की लंबी उम्र के लिये करवाचौथ  व्रत करने और चांद देखकर व्रत का पारण किया जाता है।  करवा चौथ का व्रत में अन्न और जल का त्याग कर निर्जला  किया जाता है। सुहागिन स्त्रियां करवा चौथ पर सोलह श्रृंगार कर पूजा और करवा चौथ व्रत की कथा सुनने के बाद इस व्रत का पारण करती हैं। पंचांग के अनुसार 24 अक्टूबर, रविवार को कार्तिक मास की कृष्ण पक्ष की चतुथी तिथि  को करवा चौथ का व्रत रखा जाएगा। संकष्टी चतुर्थी का पर्व भगवान गणेश जी को समर्पित है। इस दिन भगवान गणेश जी की भी विशेष पूजा की जाती है। करवा चौथ का शुभ मुहूर्त - चतुर्थी तिथि प्रारम्भ:  24 अक्टूबर 2021 रविवार प्रातः 3 बजकर 2 मिनट से शुरू चतुर्थी तिथि समाप्त: 25 अक्टूबर सुबह 5 बजकर 43 मिनट तक  है । 24 अक्टूबर 2021 को  वरियान योग 11: 35 मिनट एवं रोहाणी नक्षत्र रात्रि 01 : 02  मिनट तक रहेगा एवं चन्द्रोदय का समय : सायं 7 बजकर 51 मिनट पर है । वरियान योग एवं रोहाणी नक्षत्र में चंद्रोदय मंगलदायक कार्यो में सफलता मिलती है । करवा चौथ की  पूजा के लिए घर के उत्तर-पूर्व दिशा के कोने को अच्छे से साफ करके लकड़ी का पाटा बिछाकर उस पर शिवजी, मां गौरी और गणेश जी की तस्वीर या चित्र रख कर देवी- देवताओं की स्थापना करके उत्तर दिशा में एक जल से भरा कलश स्थापित करें और उसमें थोड़े-से अक्षत डालें। अब उस पर रोली, अक्षत का टीका लगाएं और और कलश की गर्दन पर मौली बांधें।  कलश के आगे मिट्टी से बनी गौरी जी या सुपारी पर मौली लपेटकर रखें हैं। इस प्रकार कलश की स्थापना के बाद मां गौरी को  सिंदूर चढ़ाएं और चार पूड़ी और चार लड्डू तीन अलग-अलग जगह लेकर, एक हिस्से को पानी वाले कलश के ऊपर रख दें, दूसरे हिस्से को मिट्टी या चीनी के करवे पर रखें और तीसरे हिस्से को पूजा के समय महिलाएं अपने साड़ी या चुनरी के पल्ले में बांध लें।अब देवी मां के सामने घी का दीपक जलाएं और उनकी कथा पढ़ें। इस प्रकार पूजा के बाद अपनी साड़ी के पल्ले में रखे प्रसाद और करवे पर रखे प्रसाद को अपने बेटे या अपने पति को खिला दें और कलश पर रखे प्रसाद को गाय को खिला दें। बाकी पानी से भरे कलश को पूजा स्थल पर ही रखा रहने दें। चौथ ब्रतधारी सौभग्यवती उपासिका रात को चन्द्रोदय होने पर  कलश के जल से चन्द्रमा को अर्घ्य दने के पश्चात नए चलनी से चंद्रमा का दर्शन करने के बाद पति को देखती है । करवा चौथ से पति पत्नी का मधुर संबंध , चंद्रमा की तरह शीतलता , आजीवन साथ रहने सुख समृद्धि एवं अखंड सौभग्यवती , सर्वार्थसिद्धि प्राप्ति होती है ।  इसके बाद व्रत का पारण करती है। पति द्वारा करवा चौथ धरि पत्नी को शीतल जल पिला कर ब्रत का अनुष्ठान पूर्ण किया जाता है ।

गुरुवार, अक्तूबर 21, 2021

प्रकृति और शक्ति का द्योतक शिव लिंग...


वेदों पुरणों एवं संहिताओं में भगवान शिव की उपासना का उल्लेख किया गया है।भगवान शिव की उपासना आराधना पूजन विश्व के विभिन्न  देशों में  शिव की पूजा का प्रचलन  हैं। इस्लामिक स्टेट द्वारा नेस्तनाबूद कर दिए गए प्राचीन शहर पलमायरा, नीमरूद आदि नगरों में भी शिव की पूजा के प्रचलन के अवशेष मिले हैं।इटली का  शहर रोम के रोमनों द्वारा शिवलिंग की पूजा 'प्रयापस' के रूप में की जाती थी। रोम के वेटिकन शहर में उत्खनन  के दौरान  शिवलिंग प्राप्त होने के पश्चात  ग्रिगोरीअन एट्रुस्कैन म्यूजियम में रखा गया है। इटली के रोम में स्थित वेटिकन सिटी का आकार स्वरूप  शिवलिंग की तरह  है । पुरातात्विक निष्कर्षों के अनुसार प्राचीन शहर मेसोपोटेमिया और बेबीलोन में शिवलिंग की पूजा किए जाने के सबूत मिले हैं। मोहन-जोदड़ो और हड़प्पा की विकसित संस्कृति में  शिवलिंग की पूजा किए जाने के पुरातात्विक अवशेष प्राप्त  हैं। मानव सभ्यता के आरंभ में लोगों का जीवन पशुओं और प्रकृति पर निर्भर रहने के कारण  पशुओं के संरक्षक देवता के रूप में पशुपति की पूजा करते थे। सैंधव सभ्यता से प्राप्त सील पर तीन मुंह वाले एक पुरुष को दिखाया गया है जिसके आस-पास कई पशु हैं। 2300-2150 ई. पू . सुमेरिया, 2000-400 ई. पू. ,  बेबीलोनिया, 2000-250 ई .पू . ,  ईरान में  2000-150 ई . पू . , मिस्र (इजिप्ट) में  1450-500 ई. पू . असीरिया में 1450-150 ई . पू . , ग्रीस (यूनान) में  800-500 ई . पू .  रोम की सभ्यताएं विद्यमान थीं। 3500 ई . पू . भारत में  शैव सभ्यता थी। आयरलैंड के तारा हिल में स्थित एक लंबा अंडाकार रहस्यमय पत्थर शिवलिंग को  लिअ फ़ैल स्टोन ऑफ डेस्टिनी अर्थात भाग्यशाली शिवलिंग पत्थर को  फ्रांसीसी भिक्षुओं द्वारा 1632-1636 ई .  के मध्य में  लिखित  दस्तावेज के अनुसार  4 अलौकिक लोगों द्वारा स्थापित किया गया था। विक्रम संवत के  सहस्राब्‍दी पूर्व संपूर्ण धरती पर उल्कापात का अधिक प्रकोप हुआ। आदिमानव को रुद्र (शिव) का आविर्भाव दिखा। जहां-जहां उल्का पिंड गिरे, वहां-वहां 108 ज्योतिर्लिंग पवित्र पिंडों की सुरक्षा के लिए मंदिर बना दिए गए।  शिवपुराण के अनुसार उस समय आकाश से ज्‍योति पिंड पृथ्‍वी पर गिरे और उनसे थोड़ी देर के लिए प्रकाश फैल गया। इस तरह के अनेक उल्का पिंड आकाश से धरती पर गिरे थे।  मक्का का संग-ए-असवद  आकाश से गिरा था। साउथ अफ्रीका की सुद्वारा  गुफा में  महादेव की 6,000 वर्ष पुरानी शिवलिंग की मूर्ति  कठोर ग्रेनाइट पत्थर से बनाया गया है। शिवलिंग के 3 हिस्से में पहला हिस्सा नीचे चारों ओर भूमिगत भगवान ब्रह्मा , मध्य भाग में आठों ओर एक समान बैठक भगवान विष्णु  और  अंत में  शीर्ष भाग अंडाकार भगवान शिव की पूजा की जाती है।  शिवलिंग की ऊंचाई संपूर्ण मंडल या परिधि की एक तिहाई होती है। शिव के माथे पर 3 रेखाएं (त्रिपुंड) और 1 बिन्दु होती हैं । शिव मंदिरों के गर्भगृह में गोलाकार आधार के बीच रखा गया एक घुमावदार और अंडाकार शिवलिंग  है। ऋषि और मुनियों , महर्षियों  द्वारा ब्रह्मांड के वैज्ञानिक रहस्य को समझकर  सत्य को प्रकट करने के लिए विविध रूप में शिवलिंग को उल्लेख किया गया है। शिव का अर्थ 'परम कल्याणकारी शुभ' और 'लिंग' का अर्थ है- 'सृजन ज्योति'। वेदों और वेदांत में 'लिंग' शब्द सूक्ष्म शरीर के लिए आता है। यह सूक्ष्म शरीर 17 तत्वों से बना होता है। 1. मन, 2. बुद्धि, 3. पांच ज्ञानेन्द्रियां, 4. पांच कर्मेन्द्रियां और पांच वायु , भृकुटी के बीच स्थित  आत्मा  बिंदु रूप है । शिवलिंग भगवान शिव की रचनात्मक और विनाशकारी  पवित्र शक्तियों को प्रदर्शित करता है।  शिवपुराण के अनुसार  ज्योति का प्रतीक शिवलिंग है।  शिव का अर्थ शुभ और लिंग' का अर्थ ज्योति को   भगवान शिव का आदि-अनादि स्वरूप शून्य, आकाश, अनंत, ब्रह्मांड और निराकार परमपुरुष का प्रतीक  शिव 'लिंग'  है। स्वामी विवेकानंद ने कहा है कि  शिवलिंग को अनंत ब्रह्म रूप में शिवलिंग का आकार-प्रकार ब्रह्मांड में घूम रही  आकाशगंगा की तरह है। शिवलिंग ब्रह्मांड में घूम रहे पिंडों का प्रतीक है। वेदानुसार ज्योतिर्लिंग व्यापक प्रकाश है ।  शिवपुराण के अनुसार ब्रह्म, माया, जीव, मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार, आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी को ज्योतिर्लिंग या ज्योति पिंड  है। स्कंदपुराण के अनुसार आकाश स्वयं लिंग है। धरती उसका पीठ या आधार  और सबके अनंत शून्य से पैदा होकर उसी में लय होने के कारण इसे 'लिंग' कहा गया है। वातावरण सहित घूमती धरती या सारे अनंत ब्रह्मांड , ब्रह्मांड गतिमान का अक्स/धुरी लिंग है। शिवलिंग को नाद और बिंदु का प्रतीक ,  पुराणों में ज्योतिर्बिंदु ,  प्रकाश स्तंभ लिंग, अग्नि स्तंभ लिंग, ऊर्जा स्तंभ लिंग, ब्रह्मांडीय स्तंभ लिंग है । शिवलिंग ब्रह्मांड और ब्रह्मांड की समग्रता का प्रतिनिधित्व करता है।  शिवलिंग का पहला आकाशीय या उल्का पिण्ड कला  अंडाकार लिए हुए मक्का के काबा में  शिवलिंग स्थापित एवं भारत में ज्योतिर्लिंग है । मानव द्वारा निर्मित दूसरा पारे से निर्मित  पारद शिवलिंग है । पारद शिवलिंग पारद विज्ञान पुरातन वैदिक विज्ञान है । शिवपुराण , लिंगपुराण , वासव पुराण के अनुसार शिवलिंग 6 प्रकार है ।
 1. देव लिंग : - जिस शिवलिंग को देवताओं या अन्य प्राणियों द्वारा स्थापित किया गया हो, उसे देवलिंग कहते हैं। धरती पर मूल पारंपरिक रूप से यह देवताओं के लिए पूजित है। गया स्थित पितमहेश्वर में ब्रह्मा जी द्वारा स्थापित शिव लिंग को पितमहेश्वर कहा गया है । 2. असुर लिंग : - असुरों , दैत्यों , राक्षसों द्वारा स्थापित शिवलिंग की पूजा एवं उपासना की जाती वह असुर शिव लिंग है । राक्षस राज  रावण ने लंका एवं झारखंड के देवघर में शिवलिंग स्थापित किया था । देवताओं से द्वेष रखने वाले असुर ,  दैत्य एवं राक्षस द्वारा भगवान शिव की उपासना किया गया है । 3. अर्श लिंग : - प्राचीनकाल में ऋषियों , महर्षियों , मुनियों द्वारा स्थापित शिवलिंग को अर्श शिवलिंग है । भृगु ऋषि , च्यवन ऋषि , मार्कण्डेय ऋषि , भारद्वाज ऋषि , दधीचि ऋषि ,अगस्त्य मुनि  संतों द्वारा स्थापित अर्श शिव लिंग की पूजा की जाती थी। 4. पुराण लिंग :-  पौराणिक काल के मानव  द्वारा स्थापित शिवलिंग को पुराण शिवलिंग है। इस लिंग की पूजा पुराणिकों द्वारा की जाती है। बिहार के औरंगाबाद जिले का देवकुण्ड स्थित बाबा दुग्धेश्वर नातन आदि जगहों पर शिव लिंग स्थापित है ।नागों द्वारा स्थापित शिवलिंग को नागेश्वर कहा गया है । 5. मनुष्य लिंग : - प्राचीनकाल ,  मध्यकाल में  महापुरुषों, अमीरों, राजा-महाराजाओं द्वारा स्थापित किए गए लिंग को मनुष्य शिवलिंग कहा गया है। 6. स्वयंभू लिंग : - भगवान शिव  स्वयं शिवलिंग के रूप में प्रकट होने के कारण  शिवलिंग को स्वयंभू शिवलिंग कहते हैं। भारत में स्वयंभू शिवलिंग उत्तराखण्ड का केदारनाथ , नेपाल का पशुपति नाथ , झारखंड के रांची स्थित पहाड़ी मंदिर के स्थित शिवलिंग , बिहार के बराबर पर्वत समूह के सूर्यान्क गिरी पर स्थित सिद्धेश्वर नाथ  , उत्तरप्रदेश के काशी का बाबा विश्वनाथ , उज्जैन में स्थित महाकाल , रामेश्वर , मल्लिकार्जुन , भीमशंकर , आदि ज्योतिर्लिंग , नाथ के रूप में शिवलिंग  स्थानों पर स्थापित है । शिवलिंग को पंचामृत से स्नानादि कराकर भस्म से 3 आड़ी लकीरों वाला तिलक लगाएं जलाधारी पर हल्दी चढ़ाई जाती है।शिवलिंग पर दूध, जल, काले तिल चढ़ाने के बाद बेलपत्र , कनेर, धतूरे, आक, चमेली, जूही के फूल चढ़ाते हैं। शिवलिंग पर चढ़ाया हुआ प्रसाद ग्रहण नहीं किया जाता वल्कि  रखा गया प्रसाद अवश्य लेते हैं।शिव मंदिर की आधी परिक्रमा की जाती है । शिवलिंग के पूजन से पूर्व पार्वतीजी का पूजन करना है। शिवपुराण का विशेश्वर संहिता के अनुसार शिवलिंग की स्थापना नदी आदि के तट पर आर्याणि चाहिए ।पार्थिव द्रव्य से ,जलमय द्रव्य से , छोटा शिवलिंग की पूजा श्रेष्ठकर है । शिवलिंग का पीठ ऑल , चौकोर ,तरीकों,ऊपर नीचे मोटा और बीच में पतला शिवलिंग यहां फलदेनेवाला होता है । शिवलिंग की लंबाई स्थापना करनेवाले के 12 अंगुल बराबर होना चाहिए । शिव मंदिर का द्वार पूर्व या पश्चिम आवश्यक है । मिट्टी , आटा , गाय गोबर , फूल ,कनेर पुष्प ,फल, गुड़ , मक्खन , भष्म अथवा अन्न से शिवलिंग निर्माण कर शिव की उपासना करने से अभीष्ट फल मिलता है । भगवान शिव की प्रातः काल को उपासना शास्त्र विहित नित्यकर्म के अनुष्ठान का समय , मध्यकाल में सकाम कर्म ,सायं काल में शांति कर्म , रात्रि के निशीथ काल में भगवान की उपासना , पूजा करने वालों को अभीष्ट फल मिलता है । नागों द्वारा स्थापित शिव लिंग में नाग का चिह्न तथा एक मुखी , द्विमुखी , चतुर्मुखी ,एवं पंचमुखी शिवलिंग प्राचीन काल की शिव लिंग है ।





रविवार, अक्तूबर 17, 2021

प्रेम और सौहार्द का द्योतक कामदेव ...


   धर्म , अर्थ , काम और मोक्ष का रूप कामदेव, कामसूत्र, कामशास्त्र कार्य, कामना और कामेच्छा जीवन आनंददायक, सुखी, शुभ और सुंदर रूप  कामदेव  है । पुरणों  के अनुसार  भगवान विष्णु और देवी लक्ष्मी के पुत्र  कामदेव  का विवाह प्रेम एवं आकर्षण की देवी धर्म की भर्या भर्या श्रद्धा की पुत्री  रति  से हुआ था ।  ब्रह्माजी के पुत्र और  भगवान शिव के प्रिय है ।पश्चिमी देशों के क्यूपिड और यूनानी देशों में इरोस  एवं भारत मे कामदेव को प्रेम का प्रतीक है । कामदेव को  'रागवृंत', 'अनंग', 'कंदर्प', अनंग ,मार ,  मन्मन्थ', 'मनसिजा', 'मदन', 'रतिकांत', 'पुष्पवान' तथा 'पुष्पधंव' , अर्थ देव , गंधर्व , यक्ष और  इरोस आदि कहा जाता हैं। कामदेव को  ब्रह्मांड  के वासियों में कामेच्छा उत्पन्न करने के लिए उत्तरदायी हैं। कामदेव के  हाथ में धनुष और बाण धारण कर तोते के रथ पर मकर  के चिह्न से अंकित लाल ध्वजा लगाकर विचरण करते हैं।  शास्त्रों में कामदेव को हाथी पर बैठे हुए उल्लेख  है। कामदेव के धनुष मिठास से भरे गन्ने का बने और  मधुमक्खियों के शहद की रस्सी लगी तथा धनुष का बाण अशोक के पेड़ के महकते फूलों के अलावा सफेद, नीले कमल, चमेली और आम के पेड़ पर लगने वाले फूलों से बने  हैं। कामदेव के बाणों में स्तंभन , मन्मन्थ ,जृम्भन , शोषण और  मारण है ।  मध्यप्रदेश का खजुराहो' को मदन कामदेव मंदिर  कहा  जाता है। काम  के देवता कामदेव और उनकी पत्नी रति की कथा को आज भी ये जीवंत बनने के लिये मंदिर घने जंगलों के भीतर पेड़ों से छुपा हुआ है।  भगवान शंकर द्वारा तृतीय नेत्र खोलने पर कामदेव भस्म होने के   स्थान पर कामदेव का  पुनर्जन्म तथा  रति के साथ पुन: मिलन हुआ था। वसंत ऋतु कामदेव का मित्र है । मुद्गल पुराण के अनुसार  यौवनं स्त्री च पुष्पाणि सुवासानि महामते:। गानं मधुरश्चैव मृदुलाण्डजशब्दक:।। उद्यानानि वसन्तश्च सुवासाश्चन्दनादय:। सङ्गो विषयसक्तानां नराणां गुह्यदर्शनम्।। वायुर्मद: सुवासश्र्च वस्त्राण्यपि नवानि वै। भूषणादिकमेवं ते देहा नाना कृता मया।। कामदेव का वास यौवन, स्त्री, सुंदर फूल, गीत, पराग कण या फूलों का रस, पक्षियों की मीठी आवाज, सुंदर बाग-बगीचों, वसंत ऋ‍तु, चंदन, काम-वासनाओं में लिप्त मनुष्य की संगति, छुपे अंग, सुहानी और मंद हवा, रहने के सुंदर स्थान, आकर्षक वस्त्र और सुंदर आभूषण धारण किए शरीरों में रहता है। इसके अलावा कामदेव स्त्रियों के शरीर में भी वास करते हैं, खासतौर पर स्त्रियों के नयन, ललाट, भौंह और होठों पर इनका प्रभाव काफी रहता है। भगवान शिव की पत्नी माता  सती ने पति के अपमान से आहत और पिता के व्यवहार से क्रोधित होकर यज्ञ की अग्नि में आत्मदाह कर लिया था तब सती ने बाद में पार्वती के रूप में जन्म लिया। सती की मृत्यु के पश्चात भगवान शिव संसार के सभी बंधनों को तोड़कर, मोह-माया को पीछे छोड़कर तप में लीन हो गए थे । वे आंखें खोल ही नहीं रहे थे। ऐसे में सभी देवों की अनुशंसा पर कामदेव ने उन पर अपना बाण चलाकर शिव के भीतर देवी पार्वती के लिए आकर्षण विकसित किया। शिव ने क्रोधित होकर जब आंखें खोलने पर  कामदेव भस्म हो गए। रति द्वारा भगवान शिव की उपासना के बाद  शिवजी ने उन्हें जीवनदान दे दिया था । महाभारत और श्रीमद्भागवत के अनुसार भगवान श्रीकृष्ण को  कामदेव ने अपने नियंत्रण में लाने का प्रयास किया था। कामदेव ने भगवान श्रीकृष्ण से यह शर्त लगाई कि वे उन्हें भी स्वर्ग की अप्सराओं से  सुंदर गोपियों के प्रति आसक्त कर देंगे। श्रीकृष्ण ने कामदेव की सभी शर्त स्वीकार की और गोपियों संग रास भी रचाया लेकिन भगवान श्री कृष्ण के  मन में   वासना ने घर नहीं किया। रति ने कामदेव से विवाह  कर ली । शिव ने कामदेव को भस्म होने पर  रति विलाप करने लगी । शिव ने कामदेव के पुनः कृष्ण के पुत्र रूप में धरती पर जन्म लेने का वरदान दिया था । भगवान श्रीकृष्ण की पत्नी रुक्मिणी  के गर्भ से  कामदेव का प्रादुर्भाव प्रद्युम्न  पुत्र हुए थे । श्रीकृष्ण से दुश्मनी के चलते राक्षस शंभरासुर नवजात प्रद्युम्न का अपहरण करके ले गया और उसे समुद्र में फेंक आया। उस शिशु को एक मछली ने निगल लिया और वो मछली मछुआरों द्वारा पकड़ी जाने के बाद शंभरासुर के रसोई घर में ही पहुंच गई।तब रति रसोई में काम करने वाली मायावती नाम की एक स्त्री का रूप धारण करके रसोईघर में पहुंच गई। वहां आई मछली को उसने ही काटा और उसमें से निकले बच्चे को मां के समान पाला-पोसा। जब वो बच्चा युवा हुआ तो उसे पूर्व जन्म की सारी याद दिलाई गई। इतना ही नहीं, सारी कलाएं भी सिखाईं तब प्रद्युम्न ने शंभरासुर का वध किया और मायावती को अपनी पत्नी रूप में द्वारका ले आए। भगवान पुरणों के अनुसार एक समय ब्रह्माजी प्रजा वृद्धि की कामना से ध्यानमग्न से तेजस्वी पुत्र काम उत्पन्न हुआ था । ब्रह्मा जी द्वारा सृष्टि उत्पन्न करने के लिए प्रजापतियों को उत्पन्न  कर काम की सहभागिता के लिए काम की नियुक्ति की परंतु  कामदेव वहां से विदा होकर अदृश्य हो गए। काम को अदृश्य होने पर ब्रह्माजी क्रोधित हुए और शाप दे दिया कि तुमने मेरा वचन नहीं माना इसलिए तुम्हारा जल्दी ही नाश हो जाएगा। शाप सुनकर कामदेव भयभीत हो गए और हाथ जोड़कर ब्रह्माजी के समक्ष क्षमा मांगने लगे। कामदेव की अनुनय-विनय से ब्रह्माजी प्रसन्न होने के बाद काम को   रहने के लिए 12 स्थान में स्त्रियों के कटाक्ष, केश राशि, जंघा, वक्ष, नाभि, जंघमूल, अधर, कोयल की कूक, चांदनी, वर्षाकाल, फाल्गुन , वसंत , शरद ऋतु , चैत्र और वैशाख महीना में दिया है ।  ब्रह्माजी ने कामदेव को पुष्प का धनुष और 5 बाण देकर विदा कर दिया।ब्रह्माजी से मिले वरदान की सहायता से कामदेव तीनों लोकों में भ्रमण करने लगे और भूत, पिशाच, गंधर्व, यक्ष सभी को काम ने अपने वशीभूत कर लिया। फिर मछली का ध्वज लगाकर कामदेव अपनी पत्नी रति के साथ संसार के सभी प्राणियों को अपने वशीभूत करने बढ़े। इसी क्रम में वे शिवजी के पास पहुंचे। भगवान शिव तब तपस्या में लीन थे तभी कामदेव छोटे से जंतु का सूक्ष्म रूप लेकर कर्ण के छिद्र से भगवान शिव के शरीर में प्रवेश कर गए। इससे शिवजी का मन चंचल हो गया। उन्होंने विचार धारण कर चित्त में देखा कि कामदेव उनके शरीर में स्थित है। इतने में ही इच्छा शरीर धारण करने वाले कामदेव भगवान शिव के शरीर से बाहर आ गए और आम के एक वृक्ष के नीचे जाकर खड़े हो गए। फिर उन्होंने शिवजी पर मोहन नामक बाण छोड़ा, जो शिवजी के हृदय पर जाकर लगा। इससे क्रोधित हो शिवजी ने अपने तीसरे नेत्र की ज्वाला से उन्हें भस्म कर दिया।कामदेव को जलता देख उनकी पत्नी रति विलाप करने लगी। तभी आकाशवाणी हुई जिसमें रति को रुदन न करने और भगवान शिव की आराधना करने को कहा गया। फिर रति ने श्रद्धापूर्वक भगवान शंकर की प्रार्थना की। रति की प्रार्थना से प्रसन्न हो शिवजी ने कहा कि कामदेव ने मेरे मन को विचलित किया था इसलिए मैंने इन्हें भस्म कर दिया। अब अगर ये अनंग रूप में महाकाल वन में जाकर शिवलिंग की आराधना करेंगे तो इनका उद्धार होगा। तब कामदेव महाकाल वन आए और उन्होंने पूर्ण भक्तिभाव से शिवलिंग की उपासना की। उपासना के फलस्वरूप शिवजी ने प्रसन्न होकर कहा कि तुम अनंग, शरीर के बिन रहकर भी समर्थ रहोगे। कृष्णावतार के समय तुम रुक्मणि के गर्भ से जन्म लोगे और तुम्हारा नाम प्रद्युम्न होगा। कामदेव मंत्र :कामदेव के बाण ही नहीं, उनका 'क्लीं मंत्र' भी विपरीत लिंग के व्यक्ति को आकर्षित करता है। कामदेव के इस मंत्र का नित्य दिन जाप करने से न सिर्फ आपका साथी आपके प्रति शारीरिक रूप से आकर्षित होगा बल्कि आपकी प्रशंसा करने के साथ-साथ वह आपको अपनी प्राथमिकता भी बना लेगा। कहा जाता है कि प्राचीनकाल में वेश्याएं और नर्तकियां भी इस मंत्र का जाप करती थीं, क्योंकि वे अपने प्रशंसकों के आकर्षण को खोना नहीं चाहती थीं। ऐसा माना जाता है कि इस मंत्र का लगातार जाप करते रहने की वजह से उनका आकर्षण, सौंदर्य और कांति बरकरार रहती थी।कामदेव को हिंदू शास्त्रों में प्रेम और काम का देवता माना गया है।[2] उनका स्वरूप युवा और आकर्षक है। वे विवाहित हैं और रति उनकी पत्नी हैं। वे इतने शक्तिशाली हैं कि उनके लिए किसी प्रकार के कवच की कल्पना नहीं की गई है। उनके अन्य नामों में रागवृंत, अनंग, कंदर्प, मन्मथ, मनसिजा, मदन, रतिकांत, पुष्पवान, पुष्पधंव आदि प्रसिद्ध हैं। भगवान महावीर के तीर्थकाल में 3 कामदेव हुआ थे, हिंदू देवी लक्ष्मी और भगवान विष्णु के पुत्र और कृष्ण के पुत्र प्रद्युम्न, कामदेव का अवतार है । कामदेव के आध्यात्मिक रूप को हिंदू धर्म में वैष्णव अनुयायियों द्वारा कृष्ण भी माना जाता है।कामदेव का धनुष प्रकृति के सबसे ज्यादा मजबूत उपादानों में से एक है। यह धनुष मनुष्य के काम में स्थिर-चंचलता जैसे विरोधाभासी अलंकारों से युक्त है। इसीलिए इसका एक कोना स्थिरता का और एक कोना चंचलता का प्रतीक होता है। वसंत, कामदेव का मित्र है इसलिए कामदेव का धनुष फूलों का बना हुआ है। इस धनुष की कमान स्वर विहीन होती है। यानी, कामदेव जब कमान से तीर छोड़ते हैं, तो उसकी आवाज नहीं होती। इसका मतलब यह कि काम में शालीनता जरूरी है। तीर कामदेव का सबसे महत्वपूर्ण शस्त्र है। यह जिस किसी को बेधता है उसके पहले न तो आवाज करता है और नही शिकार को संभलने का मौका देता है। इस तीर के तीन दिशाओं में तीन कोने होते हैं, जो क्रमश: तीन लोकों के प्रतीक माने गए हैं। इनमें एक कोना ब्रह्म के आधीन है जो निर्माण का प्रतीक है। यह सृष्टि के निर्माण में सहायक होता है। दूसरा कोना विष्णु के आधीन है, जो ओंकार या उदर पूर्ति (पेट भरने) के लिए होता है। यह मनुष्य को कर्म करने की प्रेरणा देता है। कामदेव के तीर का तीसरा कोना महेश (शिव) के आधीन होता है, जो मकार या मोक्ष का प्रतीक है। यह मनुष्य को मुक्ति का मार्ग बताता है। यानी, काम न सिर्फ सृष्टि के निर्माण के लिए जरूरी है, बल्कि मनुष्य को कर्म का मार्ग बताने और अंत में मोक्ष प्रदान करने का रास्ता सुझाता है। कामदेव के धनुष का लक्ष्य विपरीत लिंगी होता है। इसी विपरीत लिंगी आकर्षण से बंधकर पूरी सृष्टि संचालित होती है। कामदेव का एक लक्ष्य खुद काम हैं, जिन्हें पुरुष माना गया है, जबकि दूसरा रति हैं, जो स्त्री रूप में जानी जाती हैं। कवच सुरक्षा का प्रतीक है। कामदेव का रूप इतना बलशाली है कि यदि इसकी सुरक्षा नहीं की गई तो विप्लव ला सकता है। इसीलिए यह कवच कामदेव की सुरक्षा से निबद्ध है। यानी सुरक्षित काम प्राकृतिक व्यवहार के लिए आवश्यक माना गया है, ताकि सामाजिक बुराइयों और भयंकर बीमारियों को दूर रखा जा सके। दैत्य तारकासुर ने आतंक को  वध के लिये देवताओं ने कामदेव से विनती की कि वह शिव-पार्वती में प्रेम को जन्म दे क्योंकि तारकासुर को वह वरदान था कि केवल शिव- पार्वती का पुत्र ही तारकासुर का वध कर सकता है। कामदेव तथा देवी रति कैलाश पर्वत भगवान शिव का ध्यान भंग करने के लिये गये । कामदेव का बाण लगने से भगवान शिव का ध्यान भंग हो गया था । भफवन शिव कामदेव पर क्रोधित हो गए तथा उन्होंने अपना तीसरा नेत्र खोल कर कामदेव को भस्म कर दिया ।इसपर देवी रति को अपने पति की मृत्यु पर क्रोध आ गया और उन्होंने माता पार्वती को श्राप दिया कि उनके गर्भ से कोई भी पु्त्र जन्म नही लेगा। यह श्राप सुनकर पार्वती दुखी हो गयी परंतु भगवान शिव ने माता पार्वती को समझाया कि उन्हें दुःखी नहीं होना चाहिये तथा उन्होंने पार्वती से विवाह किया।जब देवताओं ने इस श्राप के बारे मे तथा कामदेव की मौत के बारे मे सुना तो वह बड़े व्याकुल हो गये और उन्होंने देवी रति समेत भगवान शिव से प्रार्थना की कि वे कामदेव को पुनः जीवन प्रदान करें । इस पर भगवान शिव ने यह कहा कि यह असंभव है क्योंकि किसी को पुनर्जीवित करना प्रकृति के नियम के विरुद्ध है । हाँ, एक कार्य अवश्य हो सकता है कि कामदेव को पुनर्जन्म किया जा सकता है । परंतु कामदेव के भस्म होने से जन्म और पुनर्जन्म की प्रक्रिया ही रुक गई। इस पर भगवान शिव ने कामदेव की आत्मा को एक आकार दे दिया और उस आकार को अनंग नाम प्रदान किया, जिससे कि कामदेव भस्म होकर भी अपना कार्य कर सकें। परंतु जब देवताओं ने पुनः उनसे कामदेव को पुनर्जन्म देने की प्रार्थना की थी । भगवान शिव ने यह आशीर्वाद दिया कि कामदेव को पुनर्जन्म, वैवस्वत मन्वंतर के 28वें द्वापर युग के अंत में भगवान श्रीकृष्ण और माता रुक्मणी के रूप में मिलेगा और उसके बाद उन्हें उनका शरीर पुनः प्राप्त हो जाएगा । इतिहास कथाओं में कामदेव के नयन, भौं और माथे का विस्तृत वर्णन मिलता है। उनके नयनों को बाण या तीर की संज्ञा दी गई है। शारीरिक रूप से नयनों का प्रतीकार्थ ठीक उनके शस्त्र तीर के समान माना गया है। उनकी भवों को कमान का संज्ञा दी गई है।  कामदेव का माथा धनुष के समान है, जो अपने भीतर चंचलता समेटे होता है लेकिन यह पूरी तरह स्थिर होता है। माथा पूरे शरीर का सर्वोच्च हिस्सा है, यह दिशा निर्देश देता है।हाथी को कामदेव का वाहन माना गया है। शास्त्रों में कामदेव को तोते की वाहन है ।प्रकृति में हाथी प्राणी चारों दिशाओं में स्वच्छंद विचरण करता है। मादक चाल से चलने वाला हाथी तीन दिशाओं में देख सकता है और पीछे की तरफ हल्की सी भी आहट आने पर संभल सकता है। हाथी कानों से हर तरफ का सुन तथा  सूंड से चारों दिशाओं में वार कर सकता है। ठीक इसी प्रकार कामदेव का चरित्र भी देखने में आता है। ये स्वच्छंद रूप से चारों दिशाओं में घूमते हैं और किसी भी दिशा में तीर छोड़ने को तत्पर रहते हैं। कामदेव किसी भी तरह के स्वर को तुरंत भांपने का माद्दा  रखते है।   कामदेव को फाल्गुन मास , वसन ऋतु  तथा चैत्र कृष्ण प्रतिपदा और चैत्र मास रति को समर्पित है ।

शनिवार, अक्तूबर 16, 2021

दश महाविद्या की प्राप्ति का द्योतक विजयादशमी...


जीवन के चतुर्दिक विकास का महानतम दशहरा दस पापों को हरनेवाला, दस शक्तियों को विकसित करनेवाला, दसों दिशाओं में मंगल करनेवाला और दस प्रकार की विजय देनेवाला  है । अधर्म पर धर्म की विजय, असत्य पर सत्य की विजय, दुराचार पर सदाचार की विजय, बहिर्मुखता पर अंतर्मुखता की विजय, अन्याय पर न्याय की विजय, तमोगुण पर सत्त्वगुण की विजय, दुष्कर्म पर सत्कर्म की विजय, भोग-वासना पर संयम की विजय, आसुरी तत्त्वों पर दैवी तत्त्वों की विजय, जीवत्व पर शिवत्व की और पशुत्व पर मानवता की विजय का पर्व है। त्रेतायुग में  भगवान श्री राम के पूर्वज अयोध्या के राजा रघु ने विश्वजीत यज्ञ में संपत्ति दान कर पर्णकुटी में रहने लगे। यज्ञ में ब्राह्मण   कौत्स ने राजा रघु को बताया कि अपने गुरु को गुरुदक्षिणा देने के लिए 14 करोड़ स्वर्ण मुद्राओं की आवश्यकता है । ब्राह्मण वत्स को दक्षिणा के लिए राजा रघु द्वारा धन का स्वामी  कुबेर पर आक्रमण करने के लिए तैयार हो गए। डरकर कुबेर राजा रघु की शरण में आए तथा उन्होंने अश्मंतक एवं शमी के वृक्षों पर स्वर्णमुद्राओं की वर्षा की। उनमें से कौत्स ने केवल 14 करोड़ स्वर्णमुद्राएं ली थी । स्वर्णमुद्राएं कौत्स ने नहीं ली, वह सब राजा रघु ने आश्विन शुक्ल दशमी को बचे स्वर्णमुद्राएँ बांट दी । दशहरे के दिन एक दूसरे को सोने के रूप में लोग अश्मंतक के पत्ते देते हैं। त्रेतायुग में प्रभु श्री राम ने रावण वध के लिए प्रस्थान किया था। श्री रामचंद्र ने रावण पर विजयप्राप्ति की, रावण का वध अश्विन शुक्ल दशमी  को किया। ‘विजयादशमी’ का नाम प्राप्त हुआ। तब से असत्य पर सत्य, अधर्म पर धर्म की जीत का पर्व दशहरा मनाया जाने लगा। द्वापरयुग में अज्ञातवास समाप्त होते ही, पांडवों ने शक्तिपूजन कर शमी के वृक्ष में रखे अपने शस्त्र पुनः हाथों में लिए एवं विराट की गायें चुराने वाली कौरव सेना पर आक्रमण कर विजय प्राप्त की थी । दशहरे में इष्टमित्रों को सोना अश्मंतक के पत्ते के रूप में देने की प्रथा महाराष्ट्र में है। मराठा वीर शत्रु के देश पर मुहिम चलाकर उनका प्रदेश लूटकर सोने-चांदी की संपत्ति घर लाते थे। जब ये विजयी वीर अथवा सिपाही मुहिम से लौटते, तब उनकी पत्नी अथवा बहन द्वार पर उनकी आरती उतारती फिर परदेश से लूटकर लाई संपत्ति की एक-दो मुद्रा वे आरती की थाली में डालते थे। घर लौटने पर लाई हुई संपत्ति को वे भगवान के समक्ष रखते थे तदुपरांत देवता तथा अपने बुजुर्गों को नमस्कार कर उनका आशीर्वाद लेते थे। वर्तमान काल में इस घटना की स्मृति अश्मंतक के पत्तों को सोने के रूप में बांटने के रूप में शेष रह गई है। नवरात्रि में घटस्थापना के दिन कलश के स्थंडिल (वेदी) पर नौ प्रकार के अनाज बोते हैं एवं दशहरे के दिन उनके अंकुरों को निकालकर देवता को चढ़ाते हैं। अनेक स्थानों पर अनाज की बालियां तोड़कर प्रवेशद्वार पर उन्हें बंदनवार के समान बांधते हैं। यह प्रथा भी इस त्यौहार का कृषि संबंधी स्वरूप ही व्यक्त करती है। शस्त्र-पूजा की जाती है। प्राचीनकाल में राजा लोग इस दिन विजय की प्रार्थना कर रण-यात्रा के लिए प्रस्थान करते थे।
 अपनी सीमा के पार जाकर औरंगजेब के दाँत खट्टेे करने के लिए शिवाजी ने दशहरे का दिन चुना था। दशहरे के दिन वीरतापूर्ण काम करनेवाला सफल होता है। दशहरे  दस प्रकार के पापों- काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर, अहंकार, आलस्य, हिंसा और चोरी के परित्याग की सद्प्रेरणा प्रदान करता है। दशहरे की सूर्यास्त होने से लेकर आकाश में तारे उदय होने तक का समय सर्व सिद्धिदायी विजयकाल है। दशहरा पर्व व्यक्ति में क्षात्रभाव का संवर्धन एवं शस्त्रों का पूजन क्षात्रतेज कार्यशील करने के प्रतीकस्वरूप किया जाता है। इस दिन शस्त्रपूजन कर देवताओं की मारक शक्ति का आवाहन किया जाता है।जीवन में नित्य उपयोग में लाई जाने वाली वस्तुओं का शस्त्र के रूप में पूजन करता है। किसान एवं कारीगर अपने उपकरणोें एवं शस्त्रों की पूजा करते हैं। लेखनी व पुस्तक, विद्यार्थियों के शस्त्र ही हैं इसलिए विद्यार्थी उनका पूजन करते हैं। “दश हरति इति दशहरा”। ‘दश’ कर्म उपपद होने पर ‘हृञ् हरणे’ धातु से “हरतेरनुद्यमनेऽच्” (३.२.९) सूत्र से ‘अच्’ प्रत्यय होकर ‘दश + हृ + अच्’ हुआ, अनुबन्धलोप होकर ‘दश + हृ + अ’, “सार्वधातुकार्धधातुकयोः” (७.३.८४) से गुण और ‘उरण् रपरः’ (१.१.५१) से रपरत्व होकर ‘दश + हर् + अ’ से ‘दशहर’ शब्द बना और स्त्रीत्व की विवक्षा में ‘अजाद्यतष्टाप्‌’ से ‘टाप्’ (आ) प्रत्यय होकर ‘दशहर + आ’ = ‘दशहरा’ शब्द बना है ।‘स्कन्द पुराण’ ‘गङ्गास्तुति’ के अनुसार ‘दशहरा’ दस पापों का हरण करने वाली है । स्कन्द  पुराण के अनुसार ये दस पाप में “अदत्तानामुपादानम्” अर्थात् जो वस्तु न दी गयी हो उसे अपने लिये ले लेना , “हिंसा चैवाविधानतः” अर्थात् ऐसी अनुचित हिंसा करना जिसका विधान न हो , “परदारोपसेवा च” अर्थात् परस्त्रीगमन , “कायिकं त्रिविधं स्मृतम्” अर्थात् तीन शरीर-संबन्धी पाप में “पारुष्यम्” अर्थात् कठोर शब्द या दुर्वचन कहना , अनृतम् चैव” अर्थात् असत्य कहना ,पैशुन्यं चापि सर्वशः” अर्थात् सब-ओर कान भरना , “असम्बद्धप्रलापश्च” अर्थात् ऐसा प्रलाप करना , “वाङ्मयं स्याच्चतुर्विधम्” अर्थात् चार वाणी-संबन्धी पाप में “परद्रव्येष्वभिध्यानम्” अर्थात् दूसरे के धन का  चिन्तन करना , “मनसानिष्टचिन्तनम्” अर्थात् मन के द्वारा किसी के अनिष्ट का चिन्तन करना , वितथाभिनिवेशश्च” अर्थात् असत्य का निश्चय करना, झूठ में मन को लगाए रखना , “मानसं त्रिविधं स्मृतम्” अर्थात् तीन मन-संबन्धी पाप हैं। दस पापों का हरण करने के कारण ,   यद्वा ‘दश रावणशिरांसि रामबाणैः हारयति इति दशहरा’ तिथि रावण के दस सिरों का श्रीराम के बाणों द्वारा हरण करने के कारण दशहरा है।
विजया-दशमी या दशहारा में शक्ति के १० रूप शक्ति की पूजा है। क्षतात् किल त्रायत इत्युदग्रः शब्दस्य अर्थः भुवनेषु रूढः। (रघुवंश, २/५३) । वेद में १० आयाम के विश्व का वर्णन है अतः दश, दशा, दिशा-ये समान शब्द हैं। १० आयाम कई प्रकार से हैं- ५ तन्मात्रा = भौतिक विज्ञान में माप की ५ मूल इकाइयां। इनके सीमित और अनन्त रूप ५-५ प्रकार के हैं। आकाश के ३ आयाम, पदार्थ, काल, चेतना या चिति, ऋषि (रस्सी-दो पदार्थों में सम्बन्ध), वृत्र या नाग (गोल आवरण), रन्ध्र (घनत्व में कमी-बेशी, आनन्द या रस। ३ गुणों (सत्व, रज, तम) के १० प्रकार के समन्वय-क, ख, ग,कख, खक, कग, गक, खग, गख, कखग। महाविद्या-१० आयाम की तरह १० महा-विद्या हैं, जो ५ जोड़े हैं-काली-काला रंग, तारा-श्वेत। त्रिपुरा के २ रूप-सुन्दरी, भैरवी (शान्त, उग्र)। कमला-विष्णु-पत्नी, स्थायी सम्पत्ति, युवती, सुन्दर, रोहिणी नक्षत्र, इन्द्र-लक्ष्मी-कुबेर धूमावती-विधवा, चञ्चल-दुष्ट, वृद्धा, कुरूप, ज्येष्ठा नक्षत्र, वरुण-अलक्ष्मी-यम। भुवनेश्वरी भुवन का निर्माण करती है, छिन्नमस्ता काटती है।मातङ्गी वाणी को निकालती है, बगलामुखी (वल्गा = लगाम) रोकती है।महाविद्या के आयाम हैं-तारा-शून्य विन्दु, इसकी दिशा रेखा रूप में प्रथम आयाम।भैरवी-उग्र रूप-सतह रूप में दूसरा आयाम। त्रिपुरा-३ आयाम।भुवनेश्वरी-भुवन का निर्माण-४ मुख के ब्रह्मा की तरह।काली-काल रूप में ५वां आयाम। परिवर्तन का आभास काल है।कमला-विष्णु चेतना रूप में ६ठा आयाम, उनकी पत्नी। बगलामुखी-वल्गा, रस्सी, एक रोकता है, दूसरा जोड़ता है।मातङ्गी=हाथी, वृत्र घेरकर कता है, हाथी को रोकना (वारण) कठिन है।छिन्नमस्ता-काटना रन्ध्र बनाता है। धूमावती-१०वां आयाम अस्पष्ट है । विश्व के  रूप  काली-पूर्ण विश्व, जिसमें  ब्रह्माण्ड तैर रहे हैं। तारा-ब्रह्माण्ड के तारा।त्रिपुरा

(षोड़शी)-सूर्य के तेज से यज्ञ हो रहा है, यह १६ कला का पुरुष है, क्रिया षोड़शी है।भुवनेश्वरी-क्रन्दसी (ब्रह्माण्ड) तथा रोदसी (सौर मण्डल) के बीच में सूर्य। छिन्नमस्ता-सूर्य से निकला तेज।भैरवी-निर्माण में लगी शक्ति।धूमावती-बिखरी शक्ति जिसका प्रयोग नहीं हुआ।बगलामुखी-पृथ्वी द्वारा रोकी या शोषित शक्ति।मातङ्गी-सूर्य के विपरीत दिशा में पृथ्वी का रात्रि भाग।कमला-पृथ्वी पर की सृष्टि है ।आध्यात्मिक रूप-शरीर के चक्र है- काली-यह मूलाधार में सोयी हुई कुण्डलिनी शक्ति है। तारा-स्वाधिष्ठान चक्र का समुद्र और चन्द्रमा है। पश्यन्ती वाक् के रूप में यह तारा है। इसका देवता राकिनी है जो तारक मन्त्र रं (राम) है। त्रिपुर सुन्दरी-यह सहस्रार में १६ कला के चन्द्र जैसा विहार करती है। वहां सुधा-सिन्धु है (भौतिक रूप में मस्तिष्क का द्रव)।भुवनेश्वरी-बीज मन्त्र ह्रीं है जिसका अर्थ हृदय है। यह हृदय के अनाहत चक्र के नीचे चिन्तामणि पीठ पर विराजमान है, ।भुवनेश्वर के नगर का  है- सुधा-सिन्धोर्मध्ये सुर-विटप-वाटी परिवृते, मणिद्वीपे नीपो-पवन-वति चिन्तामणि गृहे।शिवाकारे मञ्चे परम शिव पर्यङ्क निलयां, भजन्ति त्वां धन्याः कतिचन चिदानन्द लहरीम्॥ (सौन्दर्य लहरी, ८)सुधा-सिन्धु = बिन्दुसागर। मणिद्वीप-उसके निकट लिङ्गराज। नीप (वट वृक्ष) का उपवन-मूल = बरगढ़, तना -यज्ञाम्र = जगामरा, मुण्ड = बरमुण्डा, द्रुम से द्रुम = दुमदुमा। चिन्तामणि गृह = चिन्तामणीश्वर। शिव रूपी मञ्च = मञ्चेश्वर। परमशिव = लिङ्गराज है ।त्रिपुरा भैरवी-मूलाधार में कुण्डलिनी का जाग्रत रूप। छिन्नमस्ता-आज्ञा चक्र में ३ नाड़ियों का मिलन-इड़ा, पिङ्गला, सुषुम्ना।धूमावती-मूलाधार के धूम्र रूप स्वयम्भू लिङ्ग को घेरे हुये।बगलामुखी-कण्ठ में वाणी तथा प्राण का नियन्त्रण-जालन्धर बन्ध द्वारा।मातङ्गी-यह कण्ठ के ऊपरी भाग में है, जहां से वाणी निकलती है।कमला-यह नाभि का मणिपूर चक्र है जिसे मणि-पद्म कहते हैं।  नवरात्रि- नवम आयाम रन्ध्र या कमी है जिसके कारण नयी सृष्टि होती है, अतः नव का अर्थ नया, ९-दोनों है-नवो नवो भवति जायमानो ऽह्ना केतुरूपं मामेत्यग्रम्। (ऋक् १०/८५/१९) सृष्टि का स्रोत अव्यक्त से मिलाकर सृष्टि के १० स्तर हैं , जिनक् दश-होता, दशाह, दश-रात्रि आदि  है- यज्ञो वै दश होता। (तैत्तिरीय ब्राह्मण २/२/१/६)  ।विराट् वा एषा समृद्धा, यद् दशाहानि। (ताण्ड्य महाब्राह्मण ४/८/६)  ।विराट् वै यज्ञः। ...दशाक्षरा वै विराट् । (शतपथ ब्राह्मण १/१/१/२२, २/३/१/१८, ४/४/५/१९) । अन्तो वा एष यज्ञस्य यद् दशममहः। (तैत्तिरीय ब्राह्मण २/२/६/१) ।अथ यद् दशरात्रमुपयन्ति। विश्वानेव देवान्देवतां यजन्ते। (शतपथ ब्राह्मण १२/१/३/१७ ) प्राणा वै दशवीराः। (यजु १९/४८, शतपथ ब्राह्मण १२/८/१/२२) ।यद् गृह्णाति तस्माद् ग्रहः। (शतपथ ब्राह्मण १०/१/१/५) षट् त्रिंशाश्च चतुरः कल्पयन्तश्छन्दांसि च दधत आद्वादशम्। यज्ञं विमाय कवयो मनीष ऋक् सामाभ्यां प्र रथं वर्त्तयन्ति। (ऋक् १०/११४/६) ४० नवरात्रके लिये महाभारत में युद्ध के बाद ४० दिन का शोक बनाया गया था, जो आज भी इस्लाम में चल रहा है। आजकल वर्ष में चन्द्रमा की १३ परिक्रमा के लिये १३ दिन का शोक मनाते हैं। ४० नवरात्रों में ४ मुख्य हैं- दैव नवरात्र-उत्तरायण के आरम्भ में जो प्रायः २२ दिसम्बर को होता है। भीष्म ने इसी दिन देह त्याग किया था। वे ५८ दिन शर-शय्या पर थे-युद्ध के ८ दिन बाकी थे, ४० दिन का शोक, ५ दिन राज्याभिषेक, ५ दिन उपदेश है ।शरत् काले महापूजा क्रियते या च वार्षिकी। (दुर्गा सप्तशती १२/१२) । अमात्यैर्बलिभिर्दुष्टैर्दुर्बलस्य दुरात्मभिः। कोशो बलं चापहृतं तत्रापि स्वपुरे ततः॥८॥ पुत्रदारैर्निरस्तश्च धनलोभादसाधुभिः। विहीनश्च धनैर्दारैः पुत्रैरादाय मे धनम्॥२२॥ (दुर्गा सप्तशती, १) ।सुमेधा ऋषि को ही बौद्ध ग्रन्थों में सुमेधा बुद्ध कहा गया है, जिनका स्थान ओड़िशा में बौध जिला है। १० महाविद्या को बौद्ध १० प्रज्ञा-पारमिता कहते हैं। अन्येषां चैव देवानां शक्रादीनां शरीरतः। निर्गतं सुमहत्तेजस्तच्चैक्यं समगच्छत॥११॥अतीव तेजसः कूटं ज्वलन्तमिव पर्वतम्। ददृशुस्ते सुरास्तत्र ज्वालाव्याप्त दिगन्तरम्॥१२॥अतुलं तत्र तत्तेजः सर्वदेवशरीरजम्। एकस्थं तदभून्नारी व्याप्तलोकत्रयं त्विषा॥१३॥ (सप्तशती, अध्याय २) बलावलेपाद्दुष्टे त्वं मा दुर्गे गर्वमावह्। अन्यासां बलमाश्रित्य युद्ध्यसे यातिमानिनी॥३॥ दस माह विद्याओं की प्राप्ति और दस माह पापों से मुक्ति का रूप विजयादशमी या दशहरा है ।

गुरुवार, अक्तूबर 14, 2021

शक्ति का नवम रूप माता सिद्धिदात्री...


वेदों, पुरणों , स्मृतियों तथा मार्कण्डेय पुराण के अनुसार माँ शक्ति  की नौवीं अवतार माता  सिद्धिदात्री सभी प्रकार की सिद्धियों को देने वाली हैं। नवरात्र-पूजन के नौवें दिन इनकी उपासना शास्त्रीय विधि-विधान और पूर्ण निष्ठा के साथ साधना करने वाले साधक को सभी सिद्धियों की प्राप्ति होती है।  ब्रह्मांड पर पूर्ण विजय प्राप्त करने की सामर्थ्य है। सिद्धगन्धर्वयक्षाद्यैरसुरैरमरैरपि | सेव्यमाना सदा भूयात् सिद्धिदा सिद्धिदायिनी || मार्कण्डेय पुराण के अनुसार आठ सिद्धयाँ में अणिमा, महिमा, गरिमा, लघिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशित्व और वशित्व हैं। ब्रह्मवैवर्त पुराण के श्रीकृष्ण जन्म खंड में  अठारह सिद्धियों में माँ सिद्धिदात्री भक्तों और साधकों को  सभी सिद्धियाँ प्रदान करने में समर्थ हैं। देवीपुराण के अनुसार भगवान शिव ने माता सिद्धिदात्री कृपा से  सिद्धियों को प्राप्त करने के बाद  भगवान शिव को  'अर्द्धनारीश्वर' कहा गया है । माँ सिद्धिदात्री चार भुजाओं वाली का वाहन सिंह , कमल पुष्प पर  आसीन हैं। मां सिद्धिदात्री की दाहिनी तरफ के नीचे वाले हाथ में कमलपुष्प है। नवदुर्गाओं में माँ सिद्धिदात्री अंतिम हैं। अन्य आठ दुर्गाओं की पूजा उपासना शास्त्रीय विधि-विधान के अनुसार करते हुए भक्त दुर्गा पूजा के नौवें दिन इनकी उपासना में प्रवत्त होते हैं।  नवरात्रि में नवमी को मां सिद्धिदात्री की उपासना करनी चाहिए । या देवी सर्वभू‍तेषु माँ सिद्धिदात्री रूपेण संस्थिता। नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:।। अर्थात  हे माँ! सर्वत्र विराजमान और माँ सिद्धिदात्री के रूप में प्रसिद्ध अम्बे, आपको मेरा बार-बार प्रणाम है। या मैं आपको बारंबार प्रणाम करता हूँ। हे माँ, मुझे अपनी कृपा का पात्र बनाओ। सिद्धि दात्री के रूप में उत्पन्न होती है। यह माँ का विग्रह सम्पूर्णता व समृद्धि का प्रतीक है। जो सभी प्रकार के दैत्यों का दमन करके प्रत्येक भक्त को वांछित परिणाम देने वाली हैं। प्रतिपदा से लेकर नवमी तक सम्पूर्ण अभिमानी दैत्यों का माँ भवगती दुर्गा द्वारा वध कर दिया जाता है। जिससे देवता व मनुष्यों के सभी कार्य सिद्धि हो जाते है ।  देवताओं सहित सभी भक्तों की वांछित कामना सिद्धि करने के लिए देवी साक्षात् सिद्धि दात्री माँ का अवतरण होता है। यह परम कल्याणी और मोक्ष को देने वाली है। माँ सिद्धिदात्री के उपर के दाहिने हाथ में चक्र नीचे वाले में गदा तथा ऊपर के बाएं हाथ में शंख तथा नीचे वाले हाथ में कमल पुष्प को धारण किए हुए है। गले में दिव्य माला शोभित , कमलासन पर विराजित तथा  सवारी के रूप में परम वीर सिंह को स्वीकार किया है। भक्तों को अभीष्ट फल देने वाली और उनके कष्ट, रोग, शोक, भय को समाप्त करके सर्वविधि कल्याण करने वाली हैं।
 माँ आदि शक्ति दुर्गा के इस नवें विग्रह को सिद्धि दात्री के नाम से इस संसार में पूजा व जाना जाता है। इनकी माँ सिद्धि दात्री की स्तुति व अर्चना नवरात्रि के नवें दिन करने का नियम होता है। इनकी पूजा अर्चना न केवल मानव बल्कि देव, दानव, गंधर्व द्वारा सम्पूर्ण ब्रहाण्ड़ में होती है। इनकी पूजा से अष्ट सिद्धि और नव निधियों की प्राप्ति का मार्ग प्रशस्त होता है। अर्थात् श्रद्धालुओं की इनकी पूजा अर्चना बड़े विधान से श्रद्धा के साथ अपने व परिवार के कल्याण हेतु करना चाहिए। पूजा के नियम पहले की ही भांति रहेंगे। जिसमें पूरी पवित्रता का ध्यान रखते हुए संयम व ब्रह्मचर्य का भी पालन का महत्व है। पूजन की सामाग्री पूर्व की तरह ही रहेगी। सुगन्धित पुष्प नैवेद्य में खीर व हलुवे का प्रसाद तथा श्रीफल चढ़ाने का विशेष विधान है। तथा विधि-विधान से पूजा करने के बाद हवन भी किया जाता है। इसके बाद प्रत्येक देवी के निमित्य एक कन्या इस प्रकार नौ कन्याओं का और एक बालक का पूजन करें, उन्हें भोजन खिलाएं और जो बन सके दान दक्षिणा करें। इस प्रकार करके श्रद्धा सहित पूजन को सम्पन्न करें। जिससे वांछित फल प्राप्त होते हैं। माँ की कृपा से इस संसार में भक्तों को जीवन मे सुख-शांति प्राप्ति होती है।
माँ सिद्धि दात्री के  कथा प्रसंग में दुर्गा सप्तशती के प्रसंग माँ सिद्धि दात्री  के द्वारा  व्यक्ति को सिद्धि, बुद्धि ,  सुख-शांति की प्राप्ति  और क्लेश दूर , पारिवार में प्रेम भाव का उदय होता है। सिद्धिदात्री  देवी  सर्वमय हैं । देवी स्वतः ही स्वीकार किया है कि -इस संसार में मेरे सिवा दूसरी कौन है? देख, ये मेरी ही विभूतियाँ हैं, अतः मुझमें ही प्रवेश कर रही हैं। तदनन्तर ब्रह्माणी आदि समस्त देवियाँ अम्बिका देवी के शरीर में लीन हो गयीं। उस समय केवल अम्बिका देवी  रह गयीं। देवी बोली- मैं अपनी ऐश्वर्य शक्ति से अनेक रूपों में यहाँ उपस्थित हुई थी। उन सब रूपों को मैंने समेट लिया। अब अकेली ही युद्ध में खड़ी हूँ। तुम भी स्थिर हो जाओ। तदनन्तर देवी और शुम्भ दोनों में सब देवताओं तथा दानवों के देखते-देखते भयंकर युद्ध छिड़ गया।। ऋषि कहते हैं – तब समस्त दैत्यों के राजा शुम्भ को अपनी ओर आते देख देवी ने त्रिशूल से उसकी छाती छेदकर उसे पृथ्वी पर गिरा दिया। देवी के शूल की धार से घायल होने पर उसके प्राण-पखेरू उड़ गये और वह समुद्रों, द्वीपों तथा पर्वतों सहित समूची पृथ्वी को कॅपाता हुआ भूमि पर गिर पड़ा।। तदनन्तर उस दुरात्मा के मारे जाने पर सम्पूर्ण जगत् प्रसन्न एवं पूर्ण स्वस्थ हो गया तथा आकाश स्वच्छ दिखायी देने लगा। पहले जो उत्पात सूचक मेघ और उल्कापात होते थे, वे सब शान्त हो गये तथा उस दैत्य के मारे जाने पर नदियां भी ठीक मार्ग से बहने लगीं।माँ सिद्धि दात्री के अनेक मंत्र हैं, जिसमें कुछ प्रमुख मंत्र है, जिससे भक्तों को वांछित परिणाम प्राप्त होते हैं। तथा माँ की परम कृपा से भक्तों को मोक्ष भी प्राप्त होता है। सर्वभूता यदा देवी स्वर्गमुक्तिप्रदायिनी ।  त्वं स्तुता स्तुतये का वा भवन्तु परमोक्तयः ।। माँ सिद्धि दात्री की पूजा अत्यंत कल्याण कारी हैं। जिसके प्रभाव से भक्तों को वांछित वस्तुओं की प्राप्ति होती है। यह माँ सभी सिद्धियों को भी देने वाली तो है ही साथ ही कई प्रकार के भय व रोग को भी दूर करती है और जीवन को सुखद नाने , भक्ति व पूजा देव, दनुज, मनुज, गंधर्व आदि सदैव कर रहे है। देवता बोले- शरणागत की पीड़ा दूर करने वाली देवि। हम पर प्रसन्न होओ सम्पूर्ण जगत् की माता! प्रसन्न होओ। विश्वेश्वरि। विश्व की रक्षा करो। देवि! तुम्हीं चराचरा जगत् की अधीश्वरी हो। तुम इस जगत् का एकमात्र आधार हो, क्योंकि पृथ्वी के रूप में तुम्हारी ही स्थिति है। तुम्हारा पराक्रम अलंघनीय है। तुम्हीं जल रूप में स्थित होकर सम्पूर्ण जगत् को तृप्त करती हो। तुम अनन्त बलसम्पन्न वैष्णवी शक्ति शक्ति हो। इस विश्व की कारण भूता परा माया तुम हो। देवि! तुमने  समस्त जगत् को मोहित कर रखा है। तुम्हीं प्रसन्न होने पर इस पृथ्वी पर मोक्ष की प्राप्ति कराती है । माता सिद्धेश्वरी की उपासना स्थल में उत्तराखंड का नैना प्रवर्त पर नैनादेवी , उत्तरप्रदेश के काशी में सिद्धेश्वरी , मउ , बिहार के बराबर पर्वत समूह की सूर्यान्क गिरी पर माता सिद्धेश्वरी , बागेश्वरी , गया , गढ़वा में माता सिद्धेश्वरी मंदिर है । सिद्धेश्वरी की उपासना स्थल पर पूजा आराधना बिहार , बंगाल , असम , झारखंड , हिमाचलप्रदेश , उड़ीसा , दिल्ली ,मध्यप्रदेश , राजस्थान , कर्नाटक , तमिलनाडु , नेपाल ,बांग्लादेश , पाकिस्तान , श्रीलंका आदि क्षेत्रों में की जाती है । प्रथमशैलपुत्रिश्च द्वितीयब्रह्मचरिणी तृतीयचंद्रघंटेति कूष्माण्डेतिचतुर्थकम पंचममस्कन्दमातेति षष्टमकात्यायनीश्च सप्तम कलरात्रिश्च  महागौरीश्चाष्टमम नवम सिद्धिदात्रीश्च नवदुर्गा प्रकृतिता । माता सिद्धिदात्री , सिद्धेश्वरी कल्याण करें ।




बुधवार, अक्तूबर 13, 2021

नवरात्र की सप्तम देवी भद्रकाली ..


सनातन धर्म की शाक्त सम्प्रदाय के देवी भागवत , तंत्र , मंत्र , कालिका एवं मारकंडेय पुरणों में भगवान शिव की पुत्री भद्रकाली का उल्लेख किया गया है । माता भद्रकाली को  महान देवी,  केरल में भद्रकाली, महाकाली, चामुंडा और कारी काली  के रूप में पूजा जाता है। केरल में उन्हें महाकाली के शुभ और सौभाग्यशाली रूप के रूप में रक्षा करती हैं। भद्रकाली  देवी का प्रतिनिधित्व तीन आंखों और चार, सोलह या अठारह हाथों से किया जाता है। उसकी उपासना का तांत्रिक परंपरा के साथ-साथ मातृकाओं की दस महाविद्याओं की परंपरा से भी संबंध है और शक्तिवाद की व्यापक छतरी के नीचे आती है। सरकरा, कोडुंगलूर, परुमला श्री वल्या पान्यनारक्कवु मंदिर, आट्टुकल, चेट्टीकुलंगारा, थिरुमंधमकुन्नु और छोटानिककारा केरल में प्रसिद्ध भद्रकाली मंदिर हैं। तमिलनाडु के मंदिकादु, कोल्लेंकोडे प्रसिद्ध मंदिर हैं। वारंगल में भद्रकाली मंदिर प्रसिद्ध है। भद्रकाली को  दारुकजीत, दक्षजीत ,  रुरुजीत और महंतजीत के रूप में उपासना  की जाती है । मार्कंडेय पुराण के देवी महात्म्यम के अनुसार रक्तिबीज और देवी कौशिकी (दुर्गा) के बीच लड़ाई के दौरान हुआ था। काली का जन्म देवी कौशिकी के क्रोध से उनके माथे से हुआ था। उसने चंदा और मुंडा को मौत की नींद सुला दियाचामुंडी '। उसने राक्षस रक्ताबिजा का वध कर दिया था । चामुंडी-काली रूप को सप्त-मातृकाओं की उपासना उत्तरी भारत में भद्रकाली  देवी  रूप है। शिव पुराण, वायु पुराण और महाभारत के अनुसार भद्रकाली  दक्ष और उनके यज्ञ से  है। देवी भद्रकाली का जन्म शिव के बाल रूप वाले तालों से हुआ था।भगवान शिव ने  भगवान विष्णु द्वारा कैद वीरभद्र को मुक्त कराने के लिए माता भद्रकाली  को भेज था । कालिका पुराण के अनुसार, भद्रकाली को त्रेता युग में 4 महिषासुरों में से 2 को मार डालने के लिए प्रकट किया गया था।  वराह पुराण के अनुसार, देवी रूद्री नील पर्वत के तल में ध्यान कर रही थीं। वह देवों के पास आकर राक्षस रुरु के अत्याचारों को सहन करने में असमर्थ थे।उसने जो अन्याय देखा, उससे क्रोधित होकर रुद्री ने अपने क्रोध के अंगारों से भद्रकाली को बनाया और उसे रुरु को मारने के लिए भेजा। भद्रकाली ने सफलतापूर्वक देवों की रक्षा करने के कारण माता  'रुरुजीत की उपासना प्रारम्भ हुई थी । तंत्र रहस्य के अनुसार  आदिशक्ति भद्रकाली  उत्तर से उत्पन्न होने के कारण उत्तमानाया , भगवान शिव का  चेहरा (अम्नायस) रंग में नीला और तीन नेत्रों वाला ,  दक्षिणालिका, महाकाली, गुह्यक, स्मशानकालिका, भद्रकाली, एकजाता, उग्रतारा, तारिणी, कात्यायनी, छिन्नमस्ता, नीलासरस्वती, दुर्गा, जयदुर्गा, नवदुर्गा, वाशुली, धूमावती, विशालाक्षी, गौरी, बगलामुखी, प्रतिज्ञा, मातंगी, और महिषमर्दिनी की उपासना होती है । केरल में भद्रकाली मंदिर पारंपरिक उत्सवों के दौरान इस आयोजन की याद दिलाते हैं और भद्रकाली को भगवान शिव की बेटी के रूप में पूजा जाता है, जिसकी तीसरी आंख से वह राक्षस को हराने के लिए उछली। मार्कंडेय पुराण के अनुसार, उनकी पूजा भक्त को शुद्ध करती है और जन्म और मृत्यु के चक्र से मुक्ति देती है। वह महिलाओं के सम्मान की रक्षा करने और सभी आध्यात्मिक ज्ञान को बढ़ाने के लिए देखा जाता है। केरल में, उसने वीरभद्र को अपना "भाई" कहा और उसके द्वारा इलाज किए जाने से इनकार कर दिया जब उस पर देवता वसुरिमला ने हमला किया, जिसने चेचक से अपना चेहरा चिह्नित किया था। उसने कहा कि एक भाई को अपनी बहन का चेहरा नहीं छूना चाहिए। इस प्रकार, हल्के पॉकमार्क उसके चेहरे पर कभी-कभी दिखाई देते हैं।पड़ोसी राज्यों के लोगों में, विशेष रूप से तमिलनाडु में, शक्ति के इस रूप को 'मलयाला भगवती' या 'मलयाला भद्रकाली'  भक्तों को जाति और धर्म के बावजूद सुरक्षा प्रदान करती है।तमिलनाडु, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश और केरल के दक्षिणी त्रावणकोर क्षेत्र में, विशेष रूप से तिरुवनंतपुरम शहर में, तमिल, कन्नड़ और तेलुगु भाषी समुदाय महाकाली के एक रूप को 'उज्जैनी महाकाली' के रूप में पूजते हैं, और सम्राट विक्रमादित्य को अपना पहला मानते हैं। तांत्रिक नाम 'काली' या 'महाकाली' आमतौर पर शिव के रूप में रुद्र या महाकाल के रूप में अधिक लोकप्रिय है, और भद्रकाली को दुर्गा की बेटी के रूप में पहचाना जाता है, जो उन्हें रक्तिबीजा के साथ युद्ध के दौरान मिली थी। अन्य स्रोतों में कहा गया है कि वह वीरभद्र की बहन है, जो स्वयं रुद्र के रूप में शिव के प्रकोप से पैदा हुई थी, और वह एक महाकाल या भैरव के रूप की पत्नी है। गहरी तांत्रिक-प्रभावित परंपराएँ ज्यादातर 'काली ’को शिव का संघ मानती है। भद्रकाली पारंपरिक मार्शल आर्ट रूप कलारिपयट्टु के चिकित्सकों की रक्षा करती है। मालाबार में, यह माना जाता है कि थचोली ओथेनन और अन्य मार्शल कलाकारों की सभी जीतें लोकरनकवु मंदिर के भद्रकाली के आशीर्वाद के कारण थीं, जिसे 'मलयाली मंदिरों का शाओलिन मंदिर' भी कहा जाता है। केरल के अधिकांश पारंपरिक गाँवों में अपनी खुद की कलारी, प्राचीन मार्शल आर्ट स्कूल और उनसे जुड़े भद्रकाली को समर्पित स्थानीय मंदिर हैं। तमिलों के बीच, भद्रकाली पारंपरिक मार्शल आर्ट के संरक्षक देवता और सभी कानून के पालन करने वाले नागरिकों के संरक्षक हैं। कलारीवथुक्कल मंदिर, कन्नूर, केरल; भद्रकाली का उग्र रूप, मार्शल आर्ट कलारीपयट्टू की मां के रूप में। मलायम में लोक नृत्य चिरक्कल राजा की अनुमति से शुरू होता है और पूरे केरल में अंतिम थीयम कलारीवथुकल मंदिर में है। अनुष्ठान साकित्या पद्धति में हैं।कोडुंगल्लूर भगवती मंदिर, त्रिशूर, केरल; संगम युग के दौरान निर्मित भारत का सबसे पुराना मंदिर है। महोदयापुरम (कोडुंगल्लूर) चेरा साम्राज्य की राजधानी थी । श्री भद्रकाली अपने उग्र रूप में महादेव (शिव) और सप्तमत्रुक्कल के साथ पूजी जाती हैं।केरल के पन्नंगडी, कन्नूर में थिरुवरकुडु भगवती मंदिर, दारुकसुर का किला माना जाता है। भद्रकाली ने यहां डारिका का सिर नवाया। शाक्त सम्प्रदाय पूजा यहाँ प्रसिद्ध है। यह भट्टारक (पिडारारस) द्वारा किया जाता है जो कश्मीर और बंगाल से प्रवासी पुजारी हैं।  कडकंबिल भद्रकाली देवी मंदिर, नेय्यातिनकारा, तिरुवनंतपुरम। मंदिर में 30 से अधिक देवताओं की पूजा होती है। भगवान शिव की पुत्री देवी भद्रकाली हैं। देवभूमि उत्तराखंड में अल्मोड़ा के बागेश्वर की कमस्यार घाटी में स्थित माता भद्रकाली का परम पावन दरबार सदियों से अस्था व भक्ति का केन्द्र है। कहा जाता है कि माता भद्रकाली के इस दरबार में मांगी गई मन्नत कभी भी व्यर्थ नहीं जाती है। जो श्रद्धा व भक्ति के साथ अपनी आराधना और श्रद्धा के साथ मां के चरणों में पुष्प अर्पित करता है। वह परम कल्याण का भागी बनता है। माता भद्रकाली का यह धाम बागेश्वर जनपद में महाकाली के स्थानए कांडा से करीब 15 और जिला मुख्यालय से करीब 40 किमी की दूरी पर सानिउडियार होते हुए बांश पटानसेशेराराघाट निकालने वाली सड़क पर भद्रकाली नाम के गांव में स्थित है। 
झारखंड के चतरा में नागवंशियों की नाग कन्याएं भद्रकाली माता की उपासना करती थी । उपासना स्थल को भद्रकाली कहा जाता था । शाण्डिल्य ऋषि के प्रसंग में श्री मूल नारायण की कन्या ने अपनी सखियों के साथ मिलकर इस स्थान की खोज की। भद्रपुर में ही कालिय नाग के पुत्र भद्रनाग का वास कहा जाता है।  माता भद्रकाली का प्राचीन मंदिर करीब 200 मीटर की चौड़ाई के एक बड़े भूखंड पर अकल्पनीय सी स्थिति में स्थित है। इस भूखंड के नीचे भद्रेश्वर नाम की सुरम्य पर्वतीय नदी 200 मीटर गुफा के भीतर बहती है ।गुफा में बहती नदी के बीच विशाल शक्ति कुंड कहा जाने वाला जल कुंड भी है, जबकि नदी के ऊपर पहले एक छोटी सी अन्य गुफा में भगवान शिव-लिंग स्वरूप में तथा उनके ठीक ऊपर भू.सतह में माता भद्रकाली माता सरस्वती, लक्ष्मी और महाकाली की तीन स्वयंभू प्राकृतिक पिंडियों के स्वरूप में विराजती हैं।वहीं गुफा के निचले भाग के अंदर एक नदी बहती है. जिसे भद्रेश्वर नदी कहा जाता है यह पूरी नदी गुफा के अंदर ही बहती है. गुफा के मुहाने में जटाएँ बनी हुई हैं जिन पर से हर वक्त पानी टपकते रहता हैण् कुछ लोग ये जटाएँ माँ भद्रकाली की ही मानते हैं लेकिन कुछ के अनुसार ये जटाएँ भगवान शिव की हैं क्योंकि माँ भद्रकाली का जन्म भगवान शिव की जटाओं से ही हुआ है ऐसा माना जाता है। यहां तीन सतहों पर तीनों लोकों के दर्शन एक साथ होते हैं। नीचे नदी के सतह पर पाताल लोक, बीच में शिव गुफा और ऊपर धरातल पर माता भद्रकाली के दर्शन एक साथ होते हैं।स्थानीय लोगों के अनुसार माता भद्रकाली का यह अलौकिक धाम करीब 2000 वर्ष से अधिक पुराना बताया जाता है। भद्रकाली गांव के जोशी परिवार के लोग पीढ़ियों से इस मंदिर में नित्य पूजा करते.कराते हैं।
श्रीमद देवी भागवत के अतिरिक्त शिव पुराण और स्कन्द पुराण के मानस खंड में भी इस स्थान का जिक्र आता हैए कहते हैं कि माता भद्रकाली ने स्वयं इस स्थान पर 6 माह तक तपस्या की थी। यहाँ नवरात्र की अष्टमी तिथि को श्रद्धालु पूरी रात्रि हाथ में दीपक लेकर मनवांछित फल प्राप्त करने के लिए तपस्या करते हैं। कहते हैं इस स्थान पर शंकराचार्य के चरण भी पड़े थे।कहा जाता है कि अंग्रेजों ने  स्थान को अत्यधिक धार्मिक महत्व का मानकर गूठ यानी कर रहित घोषित किया था। भगवान बुद्ध और भगवान श्रीकृष्ण की  ईष्टदेवी थीं। कम ही लोग जानते हैं कि देवभूमि कहे जाने वाले उत्तराखंड राज्य के कुमाऊं अंचल में एक ऐसा ही दिव्य एवं अलौकिक विरला धाम मौजूद है, जहां माता सरस्वतीए लक्ष्मी और महाकाली एक साथ एक स्थान पर विराजती हैं। स्कंद पुराण के अनुसार मां भद्रकाली नमाह तक इस जगह पर तपस्या की थी। उसी बीच एक बार इस नदी में काफ़ी बाढ़ आ गई और पानी एक विशाल शिला की वजह से रुक गया और इस जगह पर पानी भरने लगा मां भद्रकाली ने उस शिला को अपने पैरों से दूर फैंक दिया और बाढ़ का सारा पानी मां भद्रकाली के पैरों के बीच से निकल गयाण्  नदी गुफा के अंदर बहती थी । चैत्र माह की अष्टमी को बागेश्वर भद्रकाली मंदिर में मेला लगता है। इस मंदिर में चैत्र माह की अष्टमी को लगने वाला मेला काफ़ी महत्वपूर्ण माना जाता है। उस दिन यहां दर्शन हेतु आने वाले लोग यहां स्थित जलाशय को  शक्तिकुंङ में  स्नान करने से सारे रोग दूर हो जाते है । झारखंड के चतरा जिले के चतरा  के पूर्व में 35 कि . मी . और जीटी  रोड से जुड़े चौपारण से 16 किमी पश्चिम में इटखोरी प्रखंड का माता भद्रकाली मंदिर पहाड़ो  और जंगलो  से घिरा एवं  महानद नदी (महाने) नदी के तट पर स्थित इटखोरी भद्रकाली मंदिर है । भद्रकाली मंदिर का भद्रकाली जलाशय प्राकृतिक सुंदरता है। झारखंड के विभिन्न स्थलों में माता भद्रकाली के भिन्न भिन्न रूपों में उपासना की जाती है । नागवंशीय राजाओं तथा नागों की कुल देवी माता भद्रकाली थी । नवरात्र की सप्तम शक्ति की देवी माता कालरात्रि ,  भद्रकाली द्वारा रोग , शोक , दुर्जनों का संहार कर उपासको को सर्वांगीण विकास तथा सभी मनोकामनाएं , रोग मुक्त पूर्ण की जाती है । 

मंगलवार, अक्तूबर 12, 2021

ऐश्वर्य एवं शक्ति की माता महागौरी ...


पुरणों एवं शाक्तधर्म के देवीभागवत तथा दुर्गासप्तशती आदि ग्रंथों में माता महागौरी की महत्वपूर्ण वर्णन किया गया है। शक्ति की अष्टम रूप ऐश्वर्य और सौन्दर्य की माता महागौरी है ।ॐ महागौर्ये नमःअस्त्रत्रिशूल, डमरू, वर और अभय मुद्राजीवनसाथीशिवसवारीवृषभ श्वेते वृषे समारुढा श्वेताम्बरधरा शुचिः । महागौरी शुभं दद्यान्महादेवप्रमोददा ।। गौर वर्णीय  एवं 8 वर्षीय  माता महा गौरी  की उपमा शंख, चंद्र और कुंद के फूल से दी गई है। अष्टवर्षा भवेद् गौरी।' माता महागौरी की  समस्त वस्त्र एवं आभूषण आदि  श्वेत ,  चार भुजाएँ , वाहन वृषभ ,  दाहिने हाथ में अभय मुद्रा और नीचे वाले दाहिने हाथ में त्रिशूल , बाएँ हाथ में डमरू और नीचे के बाएँ हाथ में वर-मुद्रा अत्यंत शांत है। 




माँ महागौरी ने देवी पार्वती रूप में भगवान शिव को पति-रूप में प्राप्त करने के लिए कठोर तपस्या की थी । एक बार भगवान भोलेनाथ ने पार्वती जी को देखकर कुछ कह देते हैं। जिससे देवी के मन का आहत होता है और पार्वती जी तपस्या में लीन हो जाती हैं। इस प्रकार वषों तक कठोर तपस्या करने पर जब पार्वती नहीं आती तो पार्वती को खोजते हुए भगवान शिव उनके पास पहुँचते हैं वहां पहुंचे तो वहां पार्वती को देखकर आश्चर्य चकित रह जाते हैं। पार्वती जी का रंग अत्यंत ओजपूर्ण एवं  छटा चांदनी के सामन श्वेत और कुन्द के फूल के समान धवल दिखाई ,  वस्त्र और आभूषण से प्रसन्न होकर देवी उमा को गौर वर्ण का वरदान देते हैं। भगवान शिव को पति रूप में पाने के लिए देवी ने कठोर तपस्या की थी जिससे इनका शरीर काला पड़ जाता है। देवी की तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान शिव ने माता गौरी को  स्वीकार कर और शिव जी इनके शरीर को गंगा-जल से धोते हैं तब देवी विद्युत के समान अत्यंत कांतिमान गौर वर्ण की हो जाती हैं तथा तभी से इनका नाम गौरी पड़ा। महागौरी रूप में देवी करूणामयी, स्नेहमयी, शांत और मृदुल दिखती हैं। माता गौरी देवी के रूप की प्रार्थना करते हुए देव और ऋषिगण कहते हैं “सर्वमंगल मंग्ल्ये, शिवे सर्वार्थ साधिके. शरण्ये त्र्यम्बके गौरि नारायणि नमोस्तुते..”। भूखा सिंह  भोजन की तलाश करते हुए माता गौरी  तपस्या स्थल पर देवी को देखकर सिंह की भूख बढ़ गयी परंतु वह देवी के तपस्या से उठने का इंतजार करते हुए वहीं बैठ गया। इस इंतजार में वह काफी कमज़ोर हो गया। देवी जब तप से उठी तो सिंह की दशा देखकर उन्हें उस पर बहुत दया आती है और माँ उसे अपना सवारी बना लेती हैं क्योंकि एक प्रकार से उसने भी तपस्या की थी। देवी गौरी का वाहन बैल और सिंह दोनों ही हैं।अष्टमी के दिन महिलाएं अपने सुहाग के लिए देवी मां को चुनरी भेंट करती हैं। माँ महागौरी का ध्यान, स्मरण, पूजन-आराधना भक्तों के लिए सर्वविध कल्याणकारी है। या देवी सर्वभू‍तेषु माँ गौरी रूपेण संस्थिता। नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:।। अर्थात : हे माँ! सर्वत्र विराजमान और माँ गौरी के रूप में प्रसिद्ध अम्बे, आपको मेरा बार-बार प्रणाम है। हे माँ, मुझे सुख-समृद्धि प्रदान करें ।
उत्तरप्रदेश के काशी में महागौरी मंदिर है ।बिहार के कैमूर जिले की पंवरा पहाड़ी पर मां मुंडेश्वरी वाराही , गोपालगंज जिले  के थावे में मां भवानी , रोहतास जिले के  सासाराम में कैमूर पहाड़ी की प्राकृतिक गुफा में मां तारा , भोजपुर जिले का  आरा में माता आरण्य देवी मंदिर , वैशाली के र्गोंवदपुर का देवी स्थल शक्तिपीठ के रूप में जाना जाता है।  दिघवारा के आमी ,  हाजीपुर के बुढ़िया माई  मंदिर है । कैमूर जिले का पंवरा पहाड़ी पर मां मुंडेश्वरी वाराही का वाहन महिष है। मुंडेश्वरी  मंदिर भूमितल से  600 फीट की उंचाई पर है। इसकी नक्काशी और मूर्ति उत्तर गुप्तकालीन पत्थर से बना मंदिर अष्टकोणीय है। मुंडेश्वरी भवनी मंदिर  शिलालेख के अनुसार 389 ई. में मंदिर का निर्माण हुआ  है। मंदिर में प्रवेश के चार द्वार में एकद्वार  को बंद कर दिया गया है।  1812 से  1904 ई. के बीच ब्रिटिश यात्री आरएन मार्टिन, फ्रांसिस बुकानन और ब्लाक ने मुंडेश्वरी मंदिर का भ्रमण किया था। इस मंदिर के मध्य भाग में चतुर्मुखी शिर्वंलग स्थापित है। कहते हैं कि जिस पत्थर से यह शिर्वंलग निर्मित किया गया है, उसमें सूर्य की स्थिति के साथ-साथ पत्थर का रंग भी बदलते रहता है। मुख्य मंदिर के पश्चिम में पूर्वाभिमुख विशाल नंदी की मूर्ति  अक्षुण्ण है। भक्तों की कामनाओं के पूरा होने के बाद बकरे की बलि चढ़ाई जाती है पर, माता रक्त की बलि नहीं लेतीं, बल्कि बलि चढ़ने के समय भक्तों में माता के प्रति आश्चर्यजनक आस्था पनपती है। जब बकरे को माता की मूर्ति के सामने लाया जाता है तब पुजारी अक्षत (चावल के दाने) को मूर्ति से स्पर्श कराकर बकरे पर फेंकते हैं। बकरा तत्क्षण अचेत, मृतप्राय हो जाता है। थोड़ी देर के बाद अक्षत फेंकने की प्रक्रिया करने के बाद  बकरा उठ खड़ा होता है। बलि की क्रिया माता के प्रति आस्था को बढ़ाती है। मंदिर के रास्ते में सिक्के भी मिले हैं और तमिल सहली भाषा में पहाड़ी के पत्थरों पर शिलालेख हैं। कैमूर पहाड़ी की प्राकृतिक गुफा में मां तारा की  पाषाण प्रतिमा में चार हाथ हैं। दाहिने ओर की हाथों में खड्ग और कैंची है। जबकि बायें वालों में मुंड और कमल युक्त भगवान शिव के वक्ष स्थल पर बायां पैर आगे है। देवी नाटी ,  लंबोदर और नील वर्ण तथा कटि में ब्याघ्र चर्म लिपटा है। मां तारा को सासाराम के अलावा पूरे रोहतास जिला के लोग मां ताराचंडी कहते हैं। माता तारा चंडी बौद्धों के व्रजयान धारा के साधकों की भी अराध्या  हैं।  तंत्र शास्त्रों में मां तारा की महिमा का बखान है। नारद पंचरात्र के अनुसार दक्ष गृह में जो सती नाम से उत्पन्न हुईं, उनके केवलत्व देने वाली होने के कारण एकजटा कहते हैं। तारक होने के कारण वह सर्वदा तारा हैं। भोजपुर जिले का आरा  में माता आरण्य देवी  मंदिर स्थित है। मां आरण्य देवी आरा नगर की अधिष्ठात्री हैं। इस मंदिर में वर्ष 1953 में भगवान श्रीराम, लक्ष्मण, सीता, भरत, शत्रुघ्न   व हनुमान जी के अलावा अन्य देवी-देवताओं की प्रतिमा स्थापित की गयी है।  पांडवों और भगवान राम ने मां आदिशक्ति की पूजा की थी। रांची के माता काली मंदिर , बांग्ला मंदिर , पटना के पटनदेवी प्रसिद्ध है । गया जिले का गया स्थित भष्मकुट गिरी पर  मां मंगलागौरी देवी मंदिर है। देवी भागवत पुराण के अनुसार यह मंदिर 51 प्रधान सिद्धपीठों में एक है। पालन पीठ माता मंगलागौरी  मंदिर के गर्भगृह में वर्षों से अखंड ज्योति जल रही है। नीम के पेड़ की शीतल छांव में गुफानुमा मंदिर में मां सिंह पर पद्मासन की मुद्रा में आसीन हैं। मुजफ्फरपुर जिले के कटरा मैन माता चामुंडा  , कांटी में क्षीण मस्तिके , नेपाल का जनकपुर में माता गौरी , नवादा जिले के रूपौ स्थित शक्तिपीठ मां चामुण्डा देवी के दरबार में भक्तों की गहरी आस्था है। मार्कण्डेय पुराण में मां चामुण्डा देवी के शौर्य का वर्णन है। भगवान शिव जब देवी सती का पार्थिव शरीर लेकर तांडव कर रहे थे, तब सती के शरीर के हिस्से अलग-अलग स्थान पर गिरे थे। जिसमें नाभि का भाग इसी स्थान पर गिरा था। मां चामुण्डा देवी का मंदिर के गर्भगृह में स्थित पिंडी को सती के नाभि का भाग माना जाता है। बिहार के तीन शक्ति स्थलों में गया की मंगलागौरी , बांग्ला माता , वागेश्वरी माता , शीतल माता , काली माता , बेलागंज प्रखण्ड का बेल की काली मंदिर ,  जहानाबाद जिले के बराबर पर्वत समूह का सूर्यान्क गिरी पर माता सिद्धेश्वरी , माता बागेश्वरी  चरुई की काली मंदिर , अरवल जिले का करपी जगदम्बा स्थान , झारखंड के रामगढ़ जिले के रजरप्पा स्थित  छिन्न मस्तिका, चतरा जिले का इटखोरी स्थित माता भद्रकाली ,  सारण जिले का  दिघवारा स्थित अम्बिका भवानी आमी  मंदिर इन साधकों को सिद्धियां एवं श्रद्धालुओं की मुरादें  पूरी करती हैं । पशुपतिनाथ, काठमांडू, नेपाल, रावणेश्वर महादेव बैद्यनाथ धाम, विश्वेश्वर महादेव वाराणसी में माता महागौरी  है।  उत्तराखंड का रुद्रप्रयाग जिले के मंदाकनी नदी के किनारे गौरी कुंड एवं माता गौरी स्थित है । आमी मंदिर  गदाई सराय में  चावल की लाई अर्थात मूढ़ी ,  चीनी का लड्डू चढ़ाते हैं। माता की पिंडी कपड़े से नहीं, बल्कि सिंदूर से ढंकी होती है। जब कभी यह सिंदूर खत्म हो जाता है तो माता पुजारी या किसी को भी स्वप्न देकर उसे सिंदूर से ढंकने का आदेश देती हैं। बराबर पर्वत समूह स्थित असुरराज बाणासुर की पुत्री उषा और विभाण्ड कि पुत्री दिव्य ज्ञान की चित्रलेखा की आराध्या माता गौरी एवं सिद्धेश्वरी ,बागेश्वरी तथा विभूक्षणी माता थी ।