बुधवार, सितंबर 21, 2022

शाक्त धर्म और शक्ति उपासना ...

    शाक्त सम्प्रदाय में सर्वशक्तिमान देवी माना गया है। शाक्त धर्मावलंबी द्वारा विभिन्न  देवियों की   भिन्न भिन्न रूप में शक्ति की आराधना की जाती हैं। शाक्त मत के अन्तर्गत कई परम्पराएँ मिलतीं हैं जिसमें लक्ष्मी से लेकर भयावह काली तक हैं। देवी को दक्षिण मे काली चंडी,उत्तर में शाकुम्भरी देवी,पश्चिम मे अंबाजी,पूर्व मे काली रूप मे पूजा जाता हैकुछ शाक्त सम्प्रदाय अपनी देवी का सम्बन्ध शिव या विष्णु बताते हैं। श्रुति तथा स्मृति ग्रन्थ, शाक्त परम्परा का प्रधान ऐतिहासिक आधार बनाते हुए दिखते हैं। शाक्त धर्मावलबी देवीमाहात्म्य, देवीभागवत पुराण तथा शाक्त उपनिषदों  , देवी उपनिषद , देवी भागवत, देवी पुराण , मार्कण्य पुराण , दुर्गासप्तसती पर आस्था रखते हैं। शाक्त  शक्ति की उपासना कर  प्राणियों मे उर्जा का संचार करता है'। शाक्त धर्म शक्ति की साधना का विज्ञान है। शाक्त मतावलंबी शाक्त धर्म को प्राचीन वैदिक धर्म से पुराना मानते हैं। शाक्त धर्म का विकास वैदिक धर्म के साथ  साथ या सनातन धर्म में शाक्त  समावेशित  के साथ हुआ। यह हिन्दू धर्म में पूजा का एक प्रमुख स्वरूप है, जिसे अब 'हिन्दू धर्म' कहा जाता है, उसे तीन अंतःप्रवाहित, परस्परव्यापी धाराओं में विभाजित किया जा सकता है। सौरवाद  के अनुयायी  भगवान सूर्य की उपासना के साथ प्रक्टति यथा जल , पेड , चन्द्रमा की पूजा , तथा उर्जा के लिए शक्ति की उपासना , विष्णु की उपासना; शैववाद, भगवान शिव की पूजा; तथा शाक्तवाद, देवी के शक्ति रूप की उपासना। इस प्रकार शाक्तवाद दक्षिण एशिया में विभिन्न देवी परम्पराओं को नामित करने वाला आम शब्द है, जिसका सामान्य केन्द्र बिन्दु देवियों की पूजा है।'शक्ति की पूजा' शक्ति के अनुयायियों को अक्सर 'शाक्त' कहा जाता है। शाक्त न केवल शक्ति की पूजा करते  बल्कि उसके शक्ति–आविर्भाव को मानव शरीर एवं जीवित ब्रह्माण्ड की शक्ति या ऊर्जा में संवर्धित, नियंत्रित एवं रूपान्तरित करने का प्रयास भी करते हैं। विशेष रूप से माना जाता है कि शक्ति, कुंडलिनी के रूप में मानव शरीर के गुदा आधार तक स्थित होती है। जटिल ध्यान एवं यौन–यौगिक अनुष्ठानों के ज़रिये यह कुंडलिनी शक्ति जागृत की जा सकती है। इस अवस्था में यह सूक्ष्म शरीर की सुषुम्ना से ऊपर की ओर उठती है। मार्ग में कई चक्रों को भेदती हुई, जब तक सिर के शीर्ष में अन्तिम चक्र में प्रवेश नहीं करती और वहाँ पर अपने पति-प्रियतम शिव के साथ हर्षोन्मादित होकर नहीं मिलती। भगवती एवं भगवान के पौराणिक संयोजन का अनुभव हर्षोन्मादी–रहस्यात्मक समाधि के रूप में मनों–दैहिक रूप से किया जाता है, जिसका विस्फोटी परमानंद कहा जाता है कि कपाल क्षेत्र से उमड़कर हर्षोन्माद एवं गहनानंद की बाढ़ के रूप में नीचे की ओर पूरे शरीर में बहता है।शाक्त सम्प्रदाय में भगवती दुर्गा को ही दुनिया की पराशक्ति और सर्वोच्च देवता माना जाता है यह पुराण वस्तुत: 'दुर्गा चरित्र' एवं 'दुर्गा सप्तशती' के वर्णन के लिए प्रसिद्ध है। इसीलिए इसे शाक्त सम्प्रदाय का पुराण भी कहा जाता है। शास्त्रों में कहा गया है- 'मातर: सर्वभूतानां गाव:' यानी गाय समस्त प्राणियों की माता है। इसी कारण आर्य संस्कृति में पनपे शैव, शाक्त, वैष्णव, गाणपत्य, जैन, बौद्ध, सिक्ख आदि सभी धर्म-संप्रदायों में उपासना एवं कर्मकांड की पद्धतियों में भिन्नता होने पर भी वे सब गौ के प्रति आदर भाव रखते हैं। हिन्दू धर्म के अनेक सम्प्रदायों में विभिन्न प्रकार के तिलक, चन्दन, हल्दी और केसर युक्त सुगन्धित पदार्थों का प्रयोग करके बनाया जाता है। वैष्णव गोलाकार बिन्दी, शाक्त तिलक और शैव त्रिपुण्ड्र से अपना मस्तक सुशोभित करते हैं।'धर्म ग्रंथ' शाक्त सम्प्रदाय में देवी दुर्गा के संबंध में 'श्रीदुर्गा भागवत पुराण' एक प्रमुख ग्रंथ है, जिसमें १०८ देवी पीठों का वर्णन किया गया है। उनमें से भी ५१-५२ शक्ति पीठों का बहुत ही महत्त्वपूर्ण स्थान है। इसी में दुर्गा सप्तशति भी है।'दर्शन' शाक्तों का यह मानना है कि दुनिया की सर्वोच्च शक्ति स्त्रेण है। इसीलिए वे देवी दुर्गा को ही ईश्वर रूप में पूजते हैं। दुनिया के सभी धर्मों में ईश्वर की जो कल्पना की गई है, वह पुरुष के समान की गई है। अर्थात ईश्वर पुरुष जैसा हो सकता है, किंतु शाक्त धर्म दुनिया का एकमात्र ऐसा धर्म है, जो सृष्टि रचनाकार को जननी या स्त्रेण मानता है। सही मायने में यही एकमात्र धर्म स्त्रियों का धर्म है। शिव तो शव है, शक्ति परम प्रकाश है। हालाँकि शाक्त दर्शन की सांख्य समान ही है।
'' सिंधु घाटी सभ्यता में मातृदेवी पूजा की प्रधानता  हैं। शाक्त सम्प्रदाय  गुप्त काल में उत्तर-पूर्वी भारत, कम्बोडिया, जावा, बोर्निया और मलाया प्राय:द्वीपों के देशों में लोकप्रिय था। बौद्ध धर्म के प्रचलन के बाद इसका प्रभाव कम हुआ। मानव के धार्मिक प्रवर्ग के रूप में शाक्तवाद इस हिन्दू आस्था का प्रतिबिम्ब है कि ग्रामीण एवं संस्कृत की किंवदन्तियों की असंख्य देवियाँ एक महादेवी की अभिव्यक्तियाँ हैं। आमतौर पर माना जाता है कि महादेवी की अवधारणा प्राचीन है। लेकिन ऐतिहासिक रूप से शायद इसका कालांकन मध्य काल का है। जब अत्यधिक विषम स्थानीय एवं अखिल भारतीय परम्पराओं का एकीकरण सैद्धांतिक रूप से एकीकृत धर्मशास्त्र में किया जाता था। धर्मशास्त्र प्रवर्ग के ऐतिहासिक और सैद्धांतिक रूप से भिन्न परम्पराओं में प्रयुक्त किया जा सकता है। मध्यकालीन पुराणों की विभिन्न देवियों की पौराणिक कथाओं से लेकर दो प्रमुख देवी शाखाओं या शाक्त तंत्रवाद कुलों[4] से पूर्ववर्ती एवं वर्तमान, वस्तुतः असंख्य स्थानीय ग्रामीण देवियों तक है। शाक्तवाद दक्षिण एशिया के कश्मीर, दक्षिण भारत, असम और बंगाल  , बिहार ,झारखण्ड में तांत्रिक प्रतीक और अनुष्ठान कम से कम छठी शताब्दी से हिन्दू परम्पराओं में सर्वव्यापी रहे हैं। हाल में परम्परागत प्रवासी भारतीय जनसंख्या के साथ, कुछ भारत विद्या शैक्षिक समुदाय में और विभिन्न नवयुग एवं नारीवादोन्मुखी परम्पराओं के साथ, सामान्यतः पश्चिम में तंत्रवाद या तंत्र के अंतर्गत परम्परागत, दार्शनिक एवं शाक्तवाद के विविध स्वरूपों ने प्रवेश किया है। शाक्त संस्कृति त्रेता काल के राम काल और द्वापर में कृष्ण काल में ब्रज में शाक्त संस्कृति का प्रभाव बहुत बढ़ा। ब्रज में महामाया, महाविद्या, करोली, सांचोली आदि विख्यात शक्तिपीठ हैं। मथुरा के राजा कंस ने वासुदेव द्वारा यशोदा से उत्पन्न जिस कन्या का वध किया था, उसे भगवान श्रीकृष्ण की प्राणरक्षिका देवी के रूप में पूजा जाता है। देवी शक्ति की यह मान्यता ब्रज से सौराष्ट्र तक फैली है। द्वारका में भगवान द्वारकानाथ के शिखर पर चर्चित सिंदूरी आकर्षक देवी प्रतिमा को कृष्ण की भगिनी बतलाया गया है, जो शिखर पर विराजमान होकर सदा इनकी रक्षा करती हैं। ब्रज तो तांत्रिकों का आज से १०० वर्ष पूर्व तक प्रमुख गढ़ था। यहाँ के तांत्रिक भारत भर में प्रसिद्ध रहे हैं। कामवन भी राजा कामसेन के समय तंत्र विद्या का मुख्य केंद्र था, उसके दरबार में अनेक तांत्रिक रहते थे। सभी सम्प्रदायों के समान ही शाक्त सम्प्रदाय का उद्देश्य भी मोक्ष है। फिर भी शक्ति का संचय करो, शक्ति की उपासना करो, शक्ति ही जीवन है, शक्ति ही धर्म है, शक्ति ही सत्य है, शक्ति ही सर्वत्र व्याप्त है और शक्ति की सभी को आवश्यकता है। बलवान बनो, वीर बनो, निर्भय बनो, स्वतंत्र बनो और शक्तिशाली बनो। इसीलिए नाथ और शाक्त सम्प्रदाय के साधक शक्तिमान बनने के लिए तरह-तरह के योग और साधना करते रहते हैं। सिद्धियाँ प्राप्त करते रहते हैं। शक्ति से ही मोक्ष पाया जा सकता है। शक्ति नहीं है तो सिद्ध, बुद्धि और समृद्धि का कोई मतलब नहीं है। एक ही धर्म की अलग अलग परम्परा या विचारधारा मानने वालें वर्गों को सम्प्रदाय कहते है। सम्प्रदाय हिंदू, बौद्ध, ईसाई, इस्लाम  धर्मों में मौजूद है। सम्प्रदाय के अन्तर्गत गुरु-शिष्य परम्परा चलती है जो गुरु द्वारा प्रतिपादित परम्परा को पुष्ट करती है।सनातन धर्म के हिन्दू धर्म के शैवाश्च वैष्णवाश्चैव शाक्ताः सौरास्तथैव च | गाणपत्याश्च ह्यागामाः प्रणीताःशंकरेण तु || -देवीभागवत ७ स्कन्द के अनुसार  सौर संप्रदाय , शाक्त संप्रदाय , शैव सम्प्रदाय ,वैष्णव सम्प्रदाय ,गाणपत सम्प्रदाय , भागवत संप्रदाय  , मत्स्येन्द्रमत नाथ सम्प्रदाय ,शांकरमत दशनामी सम्प्रदाय ,  महानुभाव सम्प्रदाय , सिख संप्रदाय  , बौद्ध धर्म के सम्प्रदाय में थेरवाद , महायान , वज्रयान , झेन और नवयान संप्रदाय ;  इस्लाम के सम्प्रदाय में शिया और सुन्नी  तथा अहमदिया ;  जैन धर्म के श्वेतांबर  संप्रदाय और दिगंबर संप्रदाय ; ईसाई धर्म के रोमन कैथोलिक संप्रदाय , प्रोटेस्टेंट संप्रदाय , ऑर्थोडॉक्स संप्रदाय है ।
 माता चामुण्डा - मुनि मारकण्डेय का  दुर्गासप्तशती ,   देवी महात्म्य के अनुसार धरती पर शुम्भ और निशुम्भ  दैत्यो का राज था। उनके द्वारा धरती व स्वर्ग पर काफी अत्याचार किया गया। जिसके फलस्वरूप देवताओं व मनुष्यो ने हिमालय में जाकर देवी भगवती की आराधना की। लेकिन स्तुति में किसी भी देवी का नाम नही लिया। इसके पश्चात शंकर जी की पत्नी देवी पार्वती वहां मान सरोवर पर स्नान करने आई। उन्होंने देवताओ से पूछा कि किसकी आराधना कर रहे हो ? तब देवता तो मौन हो गए लेकिन क्योंकि भगवती के स्वरूप को तो ब्रह्मा, विष्णु और शिव भी नही जानते। तो फिर इन्द्रादि देवता कैसे बता सकते है कि वह कौन है, इसलिये वह मौन हो गए। लेकिन माँ भगवती ने देवी पार्वती जी के शरीर मे से प्रगट होकर पार्वती को कहा देवी यह लोग मेरी ही स्तुति कर रहे है। में आत्मशक्ति स्वरूप परमात्मा हूँ। जो सभी की आत्मा में निवास करती हूं। माता पार्वती जी के शरीर से प्रगट होने के कारण मा दुर्गा का एक नाम कोशिकी भी पड़ गया। कोशिकी को शुम्भ और निशुम्भ के दूतो ने देख लिया और उन दोनो से कहा महाराज आप तीनों लोको के राजा है। आपके यहां पर सभी अमूल्य रत्‍न सुशोभित है। इन्द्र का ऐरावत हाथी भी आप ही के पास है। इस कारण आपके पास ऐसी दिव्य और आकर्षक नारी भी होनी चाहिए जो कि तीनों लोकों में सर्वसुन्दर है। यह वचन सुन कर शुम्भ और निशुम्भ ने अपना एक दूत देवी कोशिकी के पास भेजा और उस दूत से कहा कि तुम उस सुन्दरी से जाकर कहना कि शुम्भ और निशुम्भ तीनो लोकों के राजा है और वो दोनो तुम्हें अपनी रानी बनाना चाहते हैं। यह सुन दूत माता कोशिकी के पास गया और दोनो दैत्यो द्वारा कहे गये वचन माता को सुना दिये। माता ने कहा मैं मानती हूं कि शुम्भ और निशुम्भ दोनों ही महान बलशली है। परन्तु मैं एक प्रण ले चूंकि हूं कि जो व्यक्ति मुझे युद्ध में हरा देगा मैं उसी से विवाह करूंगी। यह सारी बाते दूत ने शुम्भ और निशुम्भ को बताई। तो वह दोनो कोशिकी के वचन सुन कर उस पर क्रोधित हो गये और कहा उस नारी का यह दूस्‍साहस कि वह हमें युद्ध के लिए ललकारे। तभी उन्होंने चण्ड और मुण्ड नामक दो असुरो को भेजा और कहा कि उसके केश पकड़कर हमारे पास ले आओ। चण्ड और मुण्ड देवी कोशिकी के पास गये और उसे अपने साथ चलने के लिए कहा। देवी के मना करने पर उन्होंने देवी पर प्रहार किया। तब देवी कौशिकी ने अपने आज्ञाचक्र भृकुटि (ललाट) से अपना एक ओर स्वरूप काली रूप धारण कर लिया और असुरो का उद्धार करके चण्ड ओर मुण्ड को अपने निजधाम पहुंचा दिया। उन दोनो असुरो को मारने के कारण माता का नाम चामुण्डा पड गया। आध्यात्म में चण्ड प्रवर्त्ति ओर मुण्ड निवर्ती का नाम है और माँ भगवती प्रवर्त्ति ओर निवर्ती दोनो से जीव छुड़ाती है और मोक्ष कर देती है। इसलिये जगदम्बा का नाम चामुंडा है। बिहार के मुजफ्फरपुर जिले के कटरा बागमती नदी के  तट पर , नवादा जिले के रूपौ तथा काश्मीर के कटरा मे माता चामुण्डा प्रसिद्ध है । ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चै : ।
दूर्गा पूजा बांग्ला , असमिया,  अथवा ओड़िया: ,सुनें: सुनें  , "माँ दूर्गा की पूजा"  जिसे दुर्गोत्सव बांग्ला: अथवा ओड़िया:  सुनें: दुर्गोत्सव सहायता·सूचना, "दुर्गा का उत्सव" के नाम से भी जाना जाता है । शरदोत्सव दक्षिण एशिया में मनाया जाने वाला  वार्षिक सनातन पर्व है जिसमें हिन्दू देवी दुर्गा की पूजा की जाती है। इसमें छः दिनों को महालय, षष्ठी, महा सप्तमी, महा अष्टमी, महा नवमी और विजयदशमी के रूप में मनाया जाता है। दुर्गा पूजा को मनाये जाने की तिथियाँ पारम्परिक हिन्दू पंचांग के अनुसार आता है। पखवाड़े को देवी पक्ष, देवी पखवाड़ा के नाम से ख्याति  है।वेदसंहिता · ,वेदांग ,ब्राह्मणग्रन्थ · आरण्यक ,उपनिषद् · श्रीमद्भगवद्गीता ,रामायण · महाभारत ,· पुराण के अनुसार दुर्गा पूजा का पर्व हिन्दू देवी दुर्गा की बुराई के प्रतीक राक्षस महिषासुर पर विजय के रूप में मनाया जाता है। अतः दुर्गा पूजा का पर्व बुराई पर भलाई की विजय के रूप में भी माना जाता है। दुर्गा पूजा भारतीय राज्यों असम, बिहार, झारखण्ड, मणिपुर, ओडिशा, त्रिपुरा और पश्चिम बंगाल में व्यापक रूप से मनाया जाता है जहाँ इस समय पांच-दिन की वार्षिक छुट्टी रहती है। बंगाली हिन्दू और आसामी हिन्दुओं का बाहुल्य वाले क्षेत्रों पश्चिम बंगाल, असम, त्रिपुरा में यह वर्ष का सबसे बड़ा उत्सव माना जाता है। यह न केवल सबसे बड़ा हिन्दू उत्सव है बल्कि यह बंगाली हिन्दू समाज में सामाजिक-सांस्कृतिक रूप से सबसे महत्त्वपूर्ण उत्सव भी है। पश्चिमी भारत के अतिरिक्त दुर्गा पूजा का उत्सव दिल्ली, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, गुजरात, पंजाब, कश्मीर, आन्ध्र प्रदेश, कर्नाटक और केरल में भी मनाया जाता है। दुर्गा पूजा का उत्सव नेपाल और बांग्लादेश में भी बड़े त्यौंहार के रूप में मनाया जाता है। वर्तमान में विभिन्न प्रवासी आसामी और बंगाली सांस्कृतिक संगठन, संयुक्त राज्य अमेरीका, कनाडा, यूनाइटेड किंगडम, ऑस्ट्रेलिया, जर्मनी, फ्रांस, नीदरलैण्ड, सिंगापुर और कुवैत सहित विभिन्न देशों में आयोजित करवाते हैं। वर्ष 2006 में ब्रिटिश संग्रहालय में विश्वाल दुर्गापूजा का उत्सव आयोजित किया गया। दुर्गा पूजा की ख्याति ब्रिटिश राज में बंगाल और भूतपूर्व असम में धीरे-धीरे बढ़ी। हिन्दू सुधारकों ने दुर्गा को भारत में पहचान दिलाई और इसे भारतीय स्वतंत्रता आंदोलनों का प्रतीक भी बनाया हैं । बंगाल, असम, ओडिशा में दुर्गा पूजा को अकालबोधन , बांग्ला: पतझड़ का उत्सव" , महा पूजो ("महा पूजा"), मायेर पुजो ("माँ की पूजा") या केवल पूजा अथवा पुजो भी कहा जाता है। बांग्लादेश में, दुर्गा पूजा को भगवती पूजा के रूप में भी मनाया जाता है। इसे पश्चिम बंगाल, बिहार, असम, ओडिशा, दिल्ली और मध्य प्रदेश में दुर्गा पूजा भी कहा जाता है । दूर्गा पूजा को बिहार गुजरात, उत्तर प्रदेश, पंजाब, केरल और महाराष्ट्र में नवरात्रि के रूप में कुल्लू घाटी, हिमाचल प्रदेश में कुल्लू दशहरा, मैसूर, कर्नाटक में मैसूर दशहरा,तमिलनाडु में बोमाई गोलू और आन्ध्र प्रदेश में बोमाला कोलुवू के रूप में भी मनाया जाता है। दुर्गा पूजा वर्ष का  वासंती नवरात्र में चैत्र  तथा  शारदीय नवरात्र आश्विन शुक्ल प्रतिपदा से नवमी तक  दुर्गा की पूजा होती है। दुर्गा पूजा नेपाल और भूटान में भी स्थानीय परम्पराओं और विविधताओं के अनुसार मनाया जाता है। पूजा का अर्थ "आराधना" है और दुर्गा पूजा बंगाली पंचांग के छटे माह अश्विन में बढ़ते चन्द्रमा की छटी तिथि से मनाया जाता है। तथापि कभी-कभी, सौर माह में चन्द्र चक्र के आपेक्षिक परिवर्तन के कारण इसके बाद वले माह कार्तिक में भी मनाया जाता है। ग्रेगोरी कैलेण्डर में इससे सम्बंधित तिथियाँ सितम्बर और अक्टूबर माह में आती हैं। रामायण में राम, रावण से युद्ध के दौरान देवी दुर्गा को आह्वान करते हैं। यद्यपि उन्हें पारम्परिक रूप से वसन्त के समय पूजा जाता था। युद्ध की आकस्मिकता के कारण, राम ने देवी दुर्गा का शीतकाल में अकाल बोधन आह्वान किया।
माता काली तंत्र विद्या की प्रमुख देवी हैं। यह सुन्दरी रूप वाली भगवती दुर्गा का काला और भय प्रद रूप है, जिसकी उत्पत्ति राक्षसों को मारने के लिये हुई थी। उनको ख़ासतौर पर बंगाल और असम में पूजा जाता है। काली की व्युत्पत्ति काल अथवा समय से हुई है जो सबको अपना ग्रास बना लेता है। माँ का यह रूप है जो नाश करने वाला है पर यह रूप सिर्फ उनके लिए हैं जो दानवीय प्रकृति के हैं जिनमे कोई दयाभाव नहीं है। यह रूप बुराई से अच्छाई को जीत दिलवाने वाला है अत: माँ काली अच्छे मनुष्यों की शुभेच्छु है और पूजनीय है। इनको महाकाली भी कहते हैं।महा काली से जहर खाया हुआ इंसान को भी बचा लेती है संर्प से अन्य जहरीले जानवरो से खाने के बाद भी बचाया जाता है माता काली महाविद्या देवी का निवासस्थान शमशान और  अस्त्र , खप्पर , मुण्ड – मुण्डमाला , जीवनसाथी  - भगवान शिव ,सवारी - शव है ।बांग्ला में काली का एक और अर्थ होता है - स्याही या रोशनाई सर्वस्वरूपे सर्वेशे सर्वशक्ति-समन्विते।भयेभ्यस्त्राहि नो देवि दुर्गे देवि नमोऽस्तुते।।(दुर्गा सप्तशती) शाक्त संप्रदाय की दस महाविद्याओं  का माता काली है ।
सनातन धर्म के अनुसार जहां सती देवी के शरीर के अंग गिरे, वहां वहां शक्ति पीठ बन गईं। ये अत्यंत पावन तीर्थ कहलाये। ये तीर्थ पूरे भारतीय उपमहाद्वीप पर फैले हुए हैं। जयंती देवी शक्ति पीठ भारत के मेघालय राज्य में नाॅरटियांग नामक स्थान पर है।वेदसंहिता · वेदांग ,ब्राह्मणग्रन्थ · आरण्यक ,उपनिषद् · श्रीमद्भगवद्गीता ,रामायण · महाभारत , पुराणों के अनुसार सती के शव के विभिन्न अंगों से बावन शक्तिपीठों का निर्माण हुआ था। इसके पीछे यह अंतर्कथा है कि दक्ष प्रजापति ने उतराखण्कड का कनखल (हरिद्वार) में 'बृहस्पति सर्व'  यज्ञ रचाया। उस यज्ञ में ब्रह्मा, विष्णु, इंद्र और अन्य देवी-देवताओं को आमंत्रित किया गया, लेकिन जान-बूझकर अपने जमाता भगवान शंकर को नहीं बुलाया। शंकरजी की पत्नी और दक्ष की पुत्री सती पिता द्वारा न बुलाए जाने पर और शंकरजी के रोकने पर भी यज्ञ में भाग लेने गईं। यज्ञ-स्थल पर सती ने अपने पिता दक्ष से शंकर जी को आमंत्रित न करने का कारण पूछा और पिता से उग्र विरोध प्रकट किया। इस पर दक्ष प्रजापति ने भगवान शंकर को अपशब्द कहे। इस अपमान से पीड़ित हुई सती ने यज्ञ-अग्नि कुंड में कूदकर अपनी प्राणाहुति दे दी। भगवान शंकर को जब इस दुर्घटना का पता चला तो क्रोध से उनका तीसरा नेत्र खुल गया। भगवान शंकर के आदेश पर उनके गणों के उग्र कोप से भयभीत सारे देवता ऋषिगण यज्ञस्थल से भाग गये। भगवान शंकर ने यज्ञकुंड से सती के पार्थिव शरीर को निकाल कंधे पर उठा लिया और दुःखी हुए इधर-उधर घूमने लगे। तदनंतर सम्पूर्ण विश्व को प्रलय से बचाने के लिए जगत के पालनकर्त्ता भगवान विष्णु ने चक्र से सती के शरीर को काट दिया। तदनंतर वे टुकड़े 52 जगहों पर गिरे। वे ५२ स्थान शक्तिपीठ कहलाए। सती ने दूसरे जन्म में हिमालयपुत्री पार्वती के रूप में शंकर जी से विवाह किया। पुराण ग्रंथों, तंत्र साहित्य एवं तंत्र चूड़ामणि में जिन बावन शक्तिपीठों का वर्णन मिलता है, वे निम्नांकित हैं। निम्नलिखित सूची 'तंत्र चूड़ामणि' में वर्णित इक्यावन शक्ति पीठों की है। बावनवाँ शक्तिपीठ अन्य ग्रंथों के आधार पर है। इन बावन शक्तिपीठों के अतिरिक्त अनेकानेक मंदिर देश-विदेश में विद्यमान हैं। हिमाचल प्रदेश में नयना देवी का पीठ (बिलासपुर) भी विख्यात है। गुफा में प्रतिमा स्थित है। कहा जाता है कि यह भी शक्तिपीठ है और सती का एक नयन यहाँ गिरा था। इसी प्रकार उत्तराखंड के पर्यटन स्थल मसूरी के पास [1]सुरकंडा]] देवी का मंदिर (धनौल्टी में) है। यह भी शक्तिपीठ है। कहा जाता है कि यहाँ पर सती का सिर धड़ से अलग होकर गिरा था। माता सती के अंग भूमि पर गिरने का कारण भगवान श्री विष्णु द्वारा सुदर्शन चक्र से सती माता के समस्तांग विछेदित करना था।ऐसी भी मान्यता है कि उत्तरप्रदेश के सहारनपुर के निकट माता का शीश गिरा था जिस कारण वहाँ देवी को दुर्गमासुर संहारिणी शाकम्भरी कहा गया। यहाँ भैरव भूरादेव के नाम से प्रथम पुजा पाते हैं।
इक्यावन शक्तिपीठ इक्यावन भारतीय उपमहाद्वीप में विस्तृत हैं।"शक्ति" की उपासना देवी दुर्गा, जिन्हें दाक्षायनी या पार्वती रूप में जाती है। सती के शरीर का कोई अंग या आभूषण, जो श्री विष्णु द्वारा सुदर्शन चक्र से काटे जाने पर पृथ्वी के विभिन्न स्थानों पर गिरा, आज वह स्थान पूज्य है और शक्तिपीठ कहलाता है।
   1 .हिंगुल या हिंगलाज, कराची, पाकिस्तान  शक्ति पीठ ब्रह्मरंध्र  ,भैरव - भीमलोचन   , 2 . शर्कररे, कराची पाकिस्तान के सुक्कर स्टेशन के निकट, इसके अलावा नैनादेवी मंदिर, बिलासपुर, हि.प्र. भी बताया जाता है। आँख महिष मर्दिनी क्रोधीश , 3 . सुगंध, बांग्लादेश में शिकारपुर, बरिसल से 20 कि॰मी॰ दूर सोंध नदी तीरे नासिका सुनंदा त्रयंबक , 4 . अमरनाथ, पहलगाँव, काश्मीर में गला महामाया त्रिसंध्येश्वर 5 ज्वाला जी, कांगड़ा, हिमाचल प्रदेश जीभ सिधिदा (अंबिका) उन्मत्तभैरव 6 जालंधर, पंजाब में छावनी स्टेशन निकट देवी तलाब बांया वक्ष त्रिपुरमालिनी भीषण7 अम्बाजी मंदिर, गुजरात हृदय अम्बाजी बटुक भैरव 8 गुजयेश्वरी मंदिर, नेपाल, निकट पशुपतिनाथ मंदिर दोनों घुटने महाशिरा कपाली9 मानस, कैलाश पर्वत, मानसरोवर, तिब्बत के निकट एक पाषाण शिला दायां हाथ दाक्षायनी अमर10 बिराज, उत्कल, उड़ीसा नाभि विमला जगन्नाथ  , 11 . गण्डकी नदी नदी के तट पर, पोखरा, नेपाल में मुक्तिनाथ मंदिर मस्तक गंडकी चंडी चक्रपाणि ,12 बाहुल, अजेय नदी तट, केतुग्राम, कटुआ, वर्धमान जिला, पश्चिम बंगाल से 8 कि॰मी॰ बायां हाथ देवी बाहुला भीरुक ,13 उज्जनि, गुस्कुर स्टेशन से वर्धमान जिला, पश्चिम बंगाल 16 कि॰मी॰ दायीं कलाई मंगल चंद्रिका कपिलांबर ,14 माताबाढ़ी पर्वत शिखर, निकट राधाकिशोरपुर गाँव, उदरपुर, त्रिपुरा दायां पैर त्रिपुर सुंदरी त्रिपुरेश , 15 छत्राल, चंद्रनाथ पर्वत शिखर, निकट सीताकुण्ड स्टेशन, चिट्टागौंग जिला, बांग्लादेश दांयी भुजा भवानी चंद्रशेखर , 16 त्रिस्रोत, सालबाढ़ी गाँव, बोडा मंडल, जलपाइगुड़ी जिला, पश्चिम बंगाल बायां पैर भ्रामरी अंबर , 17 कामगिरि, कामाख्या, नीलांचल पर्वत, गुवाहाटी, असम योनि कामाख्या उमानंद18 जुगाड़्या, खीरग्राम, वर्धमान जिला, पश्चिम बंगाल दायें पैर का बड़ा अंगूठा जुगाड्या क्षीर खंडक , 19 कालीपीठ, कालीघाट, कोलकाता दायें पैर का अंगूठा कालिका नकुलीश20 प्रयाग, संगम, इलाहाबाद, उत्तर प्रदेश हाथ की अंगुली ललिता भव , 21 जयंती, कालाजोर भोरभोग गांव, खासी पर्वत, जयंतिया परगना, सिल्हैट जिला, बांग्लादेश बायीं जंघा जयंती क्रमादीश्वर , 22 किरीट, किरीटकोण ग्राम, लालबाग कोर्ट रोड स्टेशन, मुर्शीदाबाद जिला, पश्चिम बंगाल से 3 कि॰मी॰ दूर मुकुट विमला सांवर्त , 23 मणिकर्णिका घाट, काशी, वाराणसी, उत्तर प्रदेश मणिकर्णिका विशालाक्षी एवं मणिकर्णी काल भैरव , 24 कन्याश्रम, भद्रकाली मंदिर, कुमारी मंदिर, तमिल नाडु पीठ श्रवणी निमिष , 25 कुरुक्षेत्र, हरियाणा एड़ी सावित्री स्थनु26 मणिबंध, गायत्री पर्वत, निकट पुष्कर, अजमेर, राजस्थान दो पहुंचियां गायत्री सर्वानंद27 श्री शैल, जैनपुर गाँव, 3 कि॰मी॰ उत्तर-पूर्व सिल्हैट टाउन, बांग्लादेश गला महालक्ष्मी शंभरानंद28 कांची, कोपई नदी तट पर, 4 कि॰मी॰ उत्तर-पूर्व बोलापुर स्टेशन, बीरभुम जिला, पश्चिम बंगाल अस्थि देवगर्भ रुरु29 कमलाधव, शोन नदी तट पर एक गुफा में, अमरकंटक, मध्य प्रदेश बायां नितंब काली असितांग30 शोन्देश, अमरकंटक, नर्मदा के उद्गम पर, मध्य प्रदेश दायां नितंब नर्मदा भद्रसेन31 रामगिरि, चित्रकूट, झांसी-माणिकपुर रेलवे लाइन पर, उत्तर प्रदेश दायां वक्ष शिवानी चंदा32 वृंदावन, भूतेश्वर महादेव मंदिर, निकट मथुरा, उत्तर प्रदेश केश गुच्छ/चूड़ामणि उमा भूतेश 33 शुचि, शुचितीर्थम शिव मंदिर, 11 कि॰मी॰ कन्याकुमारी-तिरुवनंतपुरम मार्ग, तमिल नाडु ऊपरी दाड़ नारायणी संहार34 पंचसागर, अज्ञात निचला दाड़ वाराही महारुद्र35 करतोयतत, भवानीपुर गांव, 28 कि॰मी॰ शेरपुर से, बागुरा स्टेशन, बांग्लादेश बायां पायल अर्पण वामन36 श्री पर्वत, लद्दाख, कश्मीर, अन्य मान्यता: श्रीशैलम, कुर्नूल जिला आंध्र प्रदेश दायां पायल श्री सुंदरी सुंदरानंद37 विभाष, तामलुक, पूर्व मेदिनीपुर जिला, पश्चिम बंगाल बायीं एड़ी कपालिनी (भीमरूप) शर्वानंद38 प्रभास, 4 कि॰मी॰ वेरावल स्टेशन, निकट सोमनाथ मंदिर, जूनागढ़ जिला, गुजरात आमाशय चंद्रभागा वक्रतुंड39 भैरवपर्वत, भैरव पर्वत, क्षिप्रा नदी तट, उज्जयिनी, मध्य प्रदेश ऊपरी ओष्ठ अवंति लंबकर्ण40 जनस्थान, गोदावरी नदी घाटी, नासिक, महाराष्ट्र ठोड़ी भ्रामरी विकृताक्ष41 सर्वशैल/गोदावरीतीर, कोटिलिंगेश्वर मंदिर, गोदावरी नदी तीरे, राजमहेंद्री, आंध्र प्रदेश गाल राकिनी/ विश्वेश्वरी वत्सनाभ/दंडपाणि   42 बिरात, निकट भरतपुर, राजस्थान बायें पैर की अंगुली अंबिका अमृतेश्वर43 रत्नावली, रत्नाकर नदी तीरे, खानाकुल-कृष्णानगर, हुगली जिला पश्चिम बंगाल दायां स्कंध कुमारी शिवा44 मिथिला, जनकपुर रेलवे स्टेशन के निकट, भारत-नेपाल सीमा पर बायां स्कंध उमा महोदर 45 नलहाटी, नलहाटि स्टेशन के निकट, बीरभूम जिला, पश्चिम बंगाल पैर की हड्डी कलिका देवी योगेश46 कर्नाट, अज्ञात दोनों कान जयदुर्गा अभिरु , 47 वक्रेश्वर, पापहर नदी तीरे, 7 कि॰मी॰ दुबराजपुर स्टेशन, बीरभूम जिला, पश्चिम बंगाल भ्रूमध्य महिषमर्दिनी वक्रनाथ48 यशोर, ईश्वरीपुर, खुलना जिला, बांग्लादेश हाथ एवं पैर यशोरेश्वरी चंदा , 49 .अट्टहास, 2 कि॰मी॰ लाभपुर स्टेशन, बीरभूम जिला, पश्चिम बंगाल ओष्ठ फुल्लरा विश्वेश  50 नंदीपुर, चारदीवारी में बरगद वृक्ष, सैंथिया रेलवे स्टेशन, बीरभूम जिला, पश्चिम बंगाल गले का हार नंदिनी नंदिकेश्वर  5 1 लंका, स्थान अज्ञात, (एक मतानुसार, मंदिर ट्रिंकोमाली में है, पर पुर्तगली बमबारी में ध्वस्त हो चुका है। एक स्तंभ शेष है। यह प्रसिद्ध त्रिकोणेश्वर मंदिर के निकट पायल इंद्रक्षी राक्षसेश्वर मंदिर है । शंकरी देवी, त्रिंकोमाली श्रीलंका , कामाक्षी देवी, कांची, तमिलनाडू  , सुवर्णकला देवी, प्रद्युम्न, पश्चिमबंगाल  , चामुंडेश्वरी देवी, मैसूर, कर्नाटक  , जोगुलअंबा देवी, आलमपुर, आंध्रप्रदेश  ,भराअंबा देवी, श्रीशैलम, आंध्रप्रदेश  , महालक्ष्मी देवी, कोल्हापुर, महाराष्ट्र  , इकवीराक्षी देवी, नांदेड़, महाराष्ट्र  , हरसिद्धी माता मंदिर, उज्जैन, मध्यप्रदेश  , पुरुहुतिका देवी, पीथमपुरम, आंध्रप्रदेश 11. पूरनगिरि मंदिर, टनकपुर, उत्तराखंड  ,मनीअंबा देवी, आंध्रप्रदेश  , कामाख्या देवी, गुवाहाटी, असम  , मधुवेश्वरी देवी, इलाहाबाद, उत्तरप्रदेश  ,  वैष्णोदेवी, कांगड़ा, हिमाचलप्रदेश  , सर्वमंगला देवी, गया, बिहार  , विशालाक्षी देवी, वाराणसी, उत्तर प्रदेश 18. शारदा देवी , पीओके ,  कालका देवी , दिल्ली , में स्थित शक्तिपीठ है ।
शक्ति पीठ मंदिर - विंध्यवासिनी मंदिर, मिर्ज़ापुर, उत्तर प्रदेश , महामाया मंदिर, अंबिकापुर,अंबिकापुर, छत्तीसगढ़ योगमाया मंदिर, दिल्ली, महरौली, दिल्ली ,दंतेश्वरी मंदिर,दंतेवाड़ा,दंतेवाड़ा,छत्तीसगढ़ ,शाकम्भरी देवी मंदिर सहारनपुर उत्तर प्रदेश, मनसा देवी मंदिर मनीमाजरा पंचकुला, माँ विजयासन (बीजासेन) धाम,सलकनपुर,जिला सीहोर,मध्य प्रदेश , स्थान, मुंगेर, बिहार ,मंगला गौरी गया बिहार  , पटनदेवी पटना बिहार ।  बिहार के गया जिले के गया में मॉ मंगला ,मॉ वॉग्ला , बागेश्वरी , शीतला मंदिर , डुंगेश्वरी मंदिर , बेलागंज में विभुक्षणी काली मंदिर , जहानाबाद जिले का बराबर पर्वत पर सिद्धेश्वरी ,वागेश्वरी ,  चरूई का काली मंदिर , अरवल जिले का करपी का जगदंबा स्थान , आरा का अरणी भवानी , बखोरापुर की जगदंबा मंदिर , नवादा जिले का रूपौ में चामुण्ड मंदिर , दरभंगा का श्यामा मंदिर ,धर्म स्थल है । प्रत्येक वर्ष शक्ति की उपासना के लिए वासंती नवरात्र चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से नवमी  , शारदीय नवरात्र आश्विन शुक्ल प्रतिपदा से नवमी , गुप्त नवरात्र माघ शुक्ल एवं आषाढ़ शुक्ल प्रतिपदा से नवमी तिथि तक मुख्य रूप से मनाई जाती है । 


 

मंगलवार, सितंबर 13, 2022

मन्वंतर और व्यास ...

    पुरणों व संहिताओं में मन्वन्तरों तथा व्यासों का उल्लेख किया गया है । सृष्टि के प्रारम्भ श्वेत वराह कल्प में होने के बाद  प्रत्येक द्वापर युग में व्यासों व्यासों द्वारा वेदों , पुरणों , उपनिषदों , उप पुरणों की रचना की गई है । व्यासों द्वारा प्रत्येक मन्वंतर के द्वापर युग में धर्म एवं कर्म की स्थापना के लिए नियमों तथा गीता का संदेश देकर मानव कल्याण का मार्ग प्रस्तुत किया गया है । जगत कल्याण और वेद का चार खंड , 18 पुरणों की रचना की गई है ।  स्वायंभुव मनु के स्वायम्भुव मन्वंतर के प्रथम   द्वापर युग  में व्यास  ब्रह्मा  जी  ,   ब्रह्मा जी के पुत्रों में मरीचि , अत्रि, अंगिरा ,पुलह, क्रतु पुलस्त्य तथा वशिष्ट सप्तर्षि उत्तर दिशा के स्थित है । 
स्वायम्भुव मनु के पुत्रों में आग्रीघ्र,अग्निबाहु ,मेध्य ,मेघातिथि ,वासु ,ज्योतिष्मान , द्युतिमान , हव्य , सबल थे । स्वरोचिष मनु के स्वरोचिष मन्वंतर का द्वितीय  द्वापर  में  व्यास    प्रजापति ,   प्राण ,वृहस्पति ,दत्तात्रेय , अत्रि ,च्यवन ,व्युप्रोक्त तथा महाव्रत सप्तर्षि एवं स्वारोचिष मनु के पुत्रों में हाविर्घ्र , सुकृति , ज्योति ,आप ,मूर्ति ,प्रतीत ,नभस्य नभ तथा ऊर्जा थे । उत्तम मनु के उत्तम मन्वंतर का तीसरे  द्वापर में व्यास  उशना  ,तथा वशिष्ट सात पुत्र तथा हिरण्यगर्भ के ऊर्ज ऋषि और उत्तम मनु के पुत्रों में ईश, ऊर्ज , तनुऊर्ज , मधु , माधव , शुचि , शुक्र , सह, नभस्य तथा नभ थे । उत्तम मन्वंतर में भगवान भानु की उपासना की जाती थी ।    तामस मनु के तामस मन्वंतर का चौथे द्वापर में व्यास वृहस्पति ,और सप्तर्षि में काव्य ,पृथु ,अग्नि ,जह्नु ,धता ,कपिवान ,और अकपिवान एवं तामस मनु के पुत्रों में द्युति , तसपस्य , सुतापा ,तपोभूत , सनातन ,तपोरती ,अकल्माष ,तन्वी , धन्वी , परंतप थे । तामस मन्वंतर में सत्य की उपासना की जाती थी ।  रैवत मनु के रैवत मन्वंतर का  पाँचवे  द्वापर में व्यास  सविता  और सप्तर्षि में देवबाहु ,यदुघ्न ,वेदशिरा, हिरण्यरोमा , पर्जन्य , सोमनन्दन उर्ध्यबाहु , अत्रि नंदन सत्यनेत्र तथा रैवत मनु के पुत्रों में धृतिमान ,अव्यय ,युक्त ,तत्वदर्शी ,निरुत्सुक ,आरण्य ,प्रकाश , निर्मोह , सत्यवाक , कृति थे । रैवत मन्वंतर में देवता अभूतरजा  एवं प्रकृति की उपासना की जाती थी ।   चाक्षुष मनु के चाक्षुष मन्वंतर का छठे द्वापर में  व्यास मृत्युदेव  और सप्तर्षि में भृगु ,नभ ,विवस्वान , सुधामा ,विरजा ,अतिनामा ,सहिष्णु  एवं चाक्षुष मनु के 10 पुत्रों में नाड़वलेय , उरु थे । चाक्षुष मन्वंतर में देवता लेख की उपासना की जाती थी ।  वैवस्वतमनु के वैवस्वत मन्वंतर के   सातवें  व्यास माधव और सप्तर्षियों में अत्रि, वशिष्ठ ,कश्यप ,गौतम , भारद्वाज , विश्वामित्र ,एवं जमदग्नि और वैवस्वतमनु के पुत्रों में इक्ष्वाकु , नाभाग , धृष्ट , शर्याति ,नरिष्यन्त ,प्रांशु ,अरिष्ट , करूष एवं पृषध्र थे ।  वैवस्वत मन्वंतर के देवताओं में साध्य , रुद्र ,विश्वेदेव ,वसु ,मरुद्गण , आदित्य और अश्विनीकुमार की उपासना की जाती है ।  सावर्णि मनु के सावर्णि मन्वंतर का आठवें  व्यास  वशिष्ठ   एवं सप्तर्षियों में  परशुराम ,व्यास , आत्रेय , भारद्वाज वंशीय द्रोण पुत्र अश्वस्थामा , गौतम वंशीय शरद्वान , कौशिक वंशीय गलव तथा कश्यप नंदन और्व थे । सावर्णि मनु के पुत्रों में वैरी ,अध्वरिमान ,शमन , धृतिमान , वसु ,अरिष्ट अदृष्ट , बाजी एवं सुमति थे । भगवान सूर्य के पुत्र सावर्णि तथा प्रजापति के मेरु सावणर्य मनु , रौच्य ,भौत्य मनु थे ।   नवें  द्वापर  में  व्यास  सारस्वत ,   दसवें  व्यास   त्रिधामा ,  ग्यारहवें   व्यास   त्रिवृष ,  बारहवें  व्यास       भारद्वाज      तेरहवें    अन्तरिक्ष , चौदहवें    धर्म  , पन्द्रहवें    त्रय्यारुणि , सोलहवें     धनन्जय  ,     सत्रहवें  मेघातिथि  ,  अठारहवें        व्रती  ,    उन्नीसवें   अत्रि  ,  बीसवें  ,  गौतम  ,  इक्कीसवें    हर्यात्मा   उत्तम  ,   वाईसवें   द्वापर   में  व्यास    वाजश्रवा   वेन   , तेइसवें  आयुष्मान  सोम  , चौबीसवें तृण   विन्दु  , पच्चीसवें     भार्गव ,  छब्बीसवें    शक्ति  ,  सत्ताइसवें   जातूकर्ण्य   और  अठाइसवें   व्यास   कृष्ण   द्वैपायन  थे । द्वापर युग में पारासर ऋषि पुत्र कृष्णद्वैपायन द्वारा महाभारत की रचना तथा भगवान कृष्ण ने गीता का संदेश दिया था ।


शनिवार, सितंबर 10, 2022

वैदिक ऋषि अगस्त और लोपमुद्रा...

    वेदों , पुरणों एवं स्मृति ग्रंथों के अनुसार ब्रह्मा जी के पौत्र पुलस्त्य ऋषि के पुत्र  वैदिक ऋषि अगस्त का जन्म श्रावण शुक्ल पंचमी वैवस्वत मन्वंतर काल सतयुग के  काशी में हुआ था । ऋषि अगस्त को अगस्त्य , अगतियार , ऑगस्टा, अगस्टा ,अगस्ता कहा गस्य है । वशिष्ठ मुनि के बड़े भाई ऋषि अगस्त का जन्म श्रावण शुक्ल पंचमी  ३००० ई.पू.. को काशी में हुआ था। अगस्त ऋषि का जन्म स्थान काशी स्थित अगस्त्यकुंड के  प्रसिद्ध है। ऋषि अगस्त की पत्नी  विदर्भ देश की राजकुमारी वेदज्ञ लोपमुद्रा थी। देवताओं के अनुरोध पर अगस्त ने काशी छोड़कर दक्षिण की यात्रा किये थे। वैज्ञानिक ऋषियों के  महर्षि अगस्त्य   वैदिक ऋषि थे। महर्षि अगस्त्य सूर्यवंश  के राजगुरु थे। महर्षि अगस्त्य  मं‍त्रदृष्टा  है ।  उन्होंने अपने तपस्या काल में मंत्रों की शक्ति को देखा था। ऋग्वेद के अनेक मंत्र इनके द्वारा दृष्ट हैं। महर्षि अगस्त्य ने  ऋग्वेद के प्रथम मंडल के 165 सूक्त से 191 तक के सूक्तों को बताया था। अगस्त के  पुत्र दृढ़च्युत तथा दृढ़च्युत के पुत्र इध्मवाह नवम मंडल के 25वें तथा 26वें सूक्त के द्रष्टा ऋषि हैं। अगस्त्य को पुलस्त्य ऋषि का पुत्र  अगस्त व  भाई का  विश्रवा था ।  महर्षि अगस्त्य ने विदर्भ-नरेश की पुत्री लोपामुद्रा से विवाह किया । दक्षिण भारत में लोपमुद्रा को   पांड्य राजा मलयध्वज  की पुत्री कहा जाता है। लोपमुद्रा को  कृष्णेक्षणा जाता  है। लोपमुद्रा का पुत्र  इध्मवाहन  था। अगस्त्य ने अपनी मंत्र शक्ति से समुद्र का समूचा जल पी लिया , विंध्याचल पर्वत को झुका दिया और मणिमती नगरी के इल्वल तथा वातापी  दुष्ट दैत्यों की शक्ति को नष्ट कर दिया था। अगस्त्य ऋषि के काल में राजा श्रुतर्वा, बृहदस्थ और त्रसदस्यु थे। ऋषि  अगस्त्य के साथ मिलकर दैत्यराज इल्वल को झुकाकर उससे अपने राज्य के लिए धन-संपत्ति मांग ली थी। 'सत्रे ह जाताविषिता नमोभि: कुंभे रेत: सिषिचतु: समानम्। ततो ह मान उदियाय मध्यात् ततो ज्ञातमृषिमाहुर्वसिष्ठम्॥ ऋचा के भाष्य में आचार्य सायण ने उल्लेख किया है- 'ततो वासतीवरात् कुंभात् मध्यात् अगस्त्यो शमीप्रमाण उदियाप प्रादुर्बभूव। तत एव कुंभाद्वसिष्ठमप्यृषिं जातमाहु:॥ दक्षिण भारत में अगस्त्य तमिल भाषा के आद्य वैय्याकरण ऋषि अगस्त्य के परुन  अवतार  हैं। ग्रंथकार  परुन का  व्याकरण 'अगस्त्य व्याकरण'   है। सनातन धर्म  संस्कृति के प्रचार-प्रसार में ऋषि अगस्त के विशिष्ट योगदान के लिए जावा, सुमात्रा आदि में अगस्त की उपासना  की जाती है। महर्षि अगस्त्य वेदों में वर्णित मंत्र-द्रष्टा मुनि हैं। ऋषि अगस्त ने आवश्यकता पड़ने पर  ऋषियों को उदरस्थ कर लिया एवं समुद्र भी पी गये थे। अकोले के अगस्ती आश्रम में ऋषि अगस्त की  मूर्ति स्थापित है ।
महर्षि अगस्त्य  आश्रम उत्तराखण्ड, महाराष्ट्र तथा तमिलनाडु में हैं। उत्तराखण्ड के रुद्रप्रयाग जिले के अगस्त्यऋषि आश्रम   है।  महर्षि ने तप किया था तथा आतापी-वातापी  असुरों का वध किया था। मुनि के आश्रम के स्थान पर वर्तमान में एक मन्दिर है। मन्दिर में मठाधीश का निवास   बेंजी  गाँव हैं। तमिलनाडु के तिरुपति ,महाराष्ट्र के अहमदनगर का अकोले के समीप प्रवरा नदी के किनारे अगस्त आश्रम है। महाराष्ट्र के नागपुर जिले में  महर्षि ने रामायण काल में निवास किया था। श्रीराम के गुरु महर्षि वशिष्ठ तथा अगस्त  आश्रम समीप  था। गुरु वशिष्ठ की आज्ञा से श्रीराम ने ऋषियों को सताने वाले असुरों का वध करने का प्रण लिया था। महर्षि अगस्त्य ने श्रीराम को इस कार्य हेतु कभी समाप्त न होने वाले तीरों वाला तरकश प्रदान किया था।
  महर्षि अगस्त  का शिष्य विंध्याचल पर्वत  का घमण्ड बहुत बढ़ गया था तथा उसने अपनी ऊँचाई बहुत बढ़ा दी जिस कारण सूर्य की रोशनी पृथ्वी पर पहुँचनी बन्द हो गई तथा प्राणियों में हाहाकार मच गया। देवताओं ने महर्षि से अपने शिष्य को समझाने की प्रार्थना की। महर्षि ने विंध्याचल पर्वत से कहा कि उन्हें तप करने हेतु दक्षिण में जाना है । विंध्याचल महर्षि के चरणों में झुक गया, महर्षि ने उसे कहा कि वह उनके वापस आने तक झुका  रहे तथा पर्वत को लाँघकर दक्षिण को चले गये। उसके पश्चात  आश्रम बनाकर तप किया तथा वहीं रहने लगे। केरल के मार्शल आर्ट कलरीपायट्टु की दक्षिणी शैली वर्मक्कलै के संस्थापक आचार्य एवं आदि गुरु ऋषि अगस्त  हैं। वर्मक्कलै निःशस्त्र युद्ध कला शैली है। भगवान शिव ने अपने पुत्र मुरुगन (कार्तिकेय) को युद्ध कला सिखायी तथा मुरुगन ने युद्ध  कला अगस्त्य को सिखायी। महर्षि अगस्त्य ने कला सिद्धों को सिखायी थी ।  महर्षि अगस्त्य दक्षिणी चिकित्सा पद्धति 'सिद्ध वैद्यम्' के  जनक हैं। ऋषि अगस्त ने सौरधर्म का आदित्य हृदय , सूर्य उपासना , अगस्त वृक्ष की उत्पत्ति , वल्व प्रकाश , ज्ञान प्रकाश और अथर्ववेद के रचयिता थे । त्रेतायुग में ऋषि अगस्त द्वारा भगवान राम को आदित्यहृदय एवं सूर्य उपासना का मंत्र की शिक्षा दी गयी थी । ऋषि अगस्त द्वारा उत्पन्न अगस्त वृक्ष का फूल , फल को आश्विन , कार्तिक व अगहन मास में सेवन करने से शरीर मे सकारात्मक ऊर्जा का संचार और नकरतमस्क ऊर्जा का विनाश होता है । अगस्त्य ऋषि द्वारा प्रणीत  आदित्य हृदय का प्रत्येक रविवार को भगवान सूर्य व जल या सूर्यमंदिर में स्थित भगवान सूर्य मूर्ति के समक्ष  वाचन करने से सर्वाधिक शांति और चतुर्दिक विकास होता है ।







शुक्रवार, सितंबर 09, 2022

पितरों का समर्पित है पितृपक्ष ...

         सनातन धर्म संस्कृति और पुरणों तथा स्मृति ग्रंथों में पितृदेव व पितृदेवों का महत्वपूर्ण उलेख किया गया है । वैवस्वत मन्वंतर में चंद्रमा , वृहस्पति तारा के पुत्र बुधकी भार्या  वैवस्वतमनु की पुत्री इला के पुत्र गय द्वारा गया नगर की स्थापना की गई थी । असुरराज गयासुर भगवान विष्णु के परमभक्त था । गयासुर के वक्षस्थल पर भगवान विष्णु का चरण तथा  ब्रह्मा जी ने ब्रह्मेष्ठी यज्ञ ,  भगवान शिव द्वारा रुद्रेष्ठी यज्ञ कर जगत का उद्धार किया गया था । गया में पितृपक्ष में पूर्वजों को पितरी श्राद्ध कर पितरों की मुक्ति , मोक्ष दिला कर पितृ ऋण के मुक्ति व सर्वाधिक मनोकामना प्राप्त होती है । 
 पितरों को मुक्ति के लिए देश - विदेश से लोग पितरों को मोक्ष दिलाने के लिए गया श्राद्ध कर  पितृपक्ष  में श्राद्ध कर्ता तथा पितृजन लाभान्वित होते हैं । डॉ गणेश दस सिंघल की पुस्तक  पिलिग्रिमेज जॉग्राफ़ी ऑफ ग्रेटर गया के अनुसार  गया नगर  की भौगोलिक स्थित   24° 25' 16"  से   24° 50' 30"  उत्तरी अक्षांश   एवं   84° 57' 58" से 85° 3' 18" पूर्वी देशांतर  रेखाओं के बीच गया  अवस्थिति है । वृहद् गया  की  स्थिति 24°23' से 25°14'  उत्तरी अक्षांश  एवं  84°18'30" से 85°38'  पूर्वी  देशांतर  रेखाओं के बीच है ।   भगवान सूर्य से सीधा संबंध   गया में अक्षांश  और  देशांतर  रेखाएं गुजरने और मिलने का स्थान  का  विष्णुपदी अर्थात केंद्र विंदु  हैं । इन रेखाओं का सीधा संबंध भगवान् सूर्य के साथ है । भगवान् सूर्य के  12 नामों में भगगवन  विष्णु अक्षांश और देशांतर रेखाएं मिलने का स्थल  विष्णुपदी  वृत्त बनती है । विष्णुपदी  360 अंशों में विभाजन कर सूर्य एवं गति को निश्चित किया जाता है । गया स्थित भगवान सूर्य का प्रात: कालीन सूर्य सविता  एवं पृथ्वी को अमृत प्राण देते हुए एक धक्का देता है और सायं कालीन आदित्य पृथ्वी के प्राणों का आहरण करता है। उससे पृथ्वी को आकर्षण शक्ति के कारण धक्का लगता है । इन दोनो धक्कों के  कारण पृथ्वी अपने क्रांति वृत्त पर घूमने लगती है और सूर्य की परिक्रमा करना प्रारंभ कर देती है । भगवान् सूर्य सविता और आदित्य के रुप में प्रतिदिन इसे गतिशील बनाते हैं ।   गया स्थित प्रात:कालीन , मध्य कालीन एवं सायं कालीन भगवान सूर्य की मूर्तियां अवस्थित है ।  पृथ्वी और सूर्य की गति के कारण जहाँ सूर्य लोक से प्राण तत्व जीव गया स्थित विष्णुपदी आकर पृथ्वी से जीव पुन: सूर्यलोक पहुंचते हैं । मध्यस्थ  चंद्रलोक एक सेतू का काम करता है । जहाँ विष्णुपदी होती है  , वहाँ 360  भागों में विभक्त  वृत्त होता है । जीवों को क्षिप्रगति से सूर्य लोक की ओर आकर्षित कर जीव सूर्य  , चंद्र और पृथ्वी की गति के साथ स्वर्गलोक  या विष्णुलोक पहुंच जाता है । यह कार्य  गया  -  श्राद्ध  करता है । एक ओर श्राद्ध कर्म जहाँ जीवों के बंधनों  को खोल कर प्रेतत्व से विमुक्त करता है  , वहीं दूसरी ओर विष्णुपदी जीवों को स्वर्गलोक  भेजने में सक्षम होकर सहायता प्रदान करती है । पितृपक्ष का पारलौकिक  एवं भौगोलिक  रहस्यमय है । "
 आश्विन कृष्ण प्रतिपदा से लेकर अमावस्या पंद्रह दिन पितृपक्ष  है।  पंद्रह दिनों का पितृपक्ष  में  पितरों (पूर्वजों) को जल देने  तथा उनकी मृत्युतिथि पर पार्वण श्राद्ध करते हैं। पिता-माता आदि पारिवारिक व्यक्ति  की मृत्यु के पश्चात्‌ उनकी तृप्ति के लिए श्रद्धापूर्वक किए जाने वाले कर्म को पितृ श्राद्ध कहते हैं।
श्रद्धया इदं श्राद्धम्‌ (जो श्र्द्धा से किया जाय, वह श्राद्ध है।) भावार्थ : प्रेत और पित्त्तर के निमित्त, उनकी आत्मा की तृप्ति के लिए श्रद्धापूर्वक जो अर्पित किया जाए वह श्राद्ध है। सनातन  धर्म में माता-पिता की सेवा को सबसे बड़ी पूजा माना गया है। इसलिए हिंदू धर्म शास्त्रों में पितरों का उद्धार करने के लिए पुत्र की अनिवार्यता मानी गई हैं। जन्मदाता माता-पिता को मृत्यु-उपरांत लोग विस्मृत नही करना चाहिए । भाद्रपद शुक्ल पूर्णिमा को कीकट नदी व पुनपुन नदी में स्नानादि कर जलंल्ली देने के पश्चात  आश्विन कृष्णपक्ष प्रतिपदा से अमावस्या तक के सोलह दिनों को पितृपक्ष कहते हैं। आश्विन कृष्ण प्रतिपदा से लेकर अमावस्या तक ब्रह्माण्ड की ऊर्जा तथा उस उर्जा के साथ पितृप्राण पृथ्वी पर व्याप्त रहता है। धार्मिक ग्रंथों में मृत्यु के बाद आत्मा की स्थिति का बड़ा सुन्दर और वैज्ञानिक विवेचन भी मिलता है। मृत्यु के बाद दशगात्र और षोडशी-सपिण्डन तक मृत व्यक्ति की प्रेत संज्ञा रहती है। पुराणों के अनुसार सूक्ष्म शरीर आत्मा भौतिक शरीर छोड़ने पर धारण करने पर प्रेत होती है। प्रिय के अतिरेक की अवस्था "प्रेत" है क्यों की आत्मा  सूक्ष्म शरीर धारण करती है तब  उसके अन्दर मोह, माया भूख और प्यास का अतिरेक होता है। सपिण्डन के बाद वह प्रेत, पित्तरों में सम्मिलित हो जाता है।पितृपक्ष भर में  तर्पण करने से पितृप्राण स्वयं आप्यापित होता है। पुत्र या उसके नाम से उसका परिवार जो यव (जौ) तथा चावल का पिण्ड देता है, उसमें से अंश लेकर वह अम्भप्राण का ऋण चुका देता है। ठीक आश्विन कृष्ण प्रतिपदा से वह चक्र उर्ध्वमुख होने लगता है। 15 दिन अपना-अपना भाग लेकर शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से पितर उसी ब्रह्मांडीय उर्जा के साथ वापस चले जाते हैं। पितृ पक्ष में श्राद्ध करने से पित्तरों को प्राप्त होता है।
पुराणों में कई कथाएँ इस उपलक्ष्य को लेकर हैं जिसमें कर्ण के पुनर्जन्म की कथा काफी प्रचलित है। एवं हिन्दू धर्म में सर्वमान्य श्री रामचरित में श्री राम के द्वारा श्री दशरथ और जटायु को गोदावरी नदी पर जलांजलि देने का उल्लेख है एवं भरत जी के द्वारा दशरथ हेतु दशगात्र विधान का उल्लेख भरत कीन्हि दशगात्र विधाना तुलसी रामायण में हुआ है।
भारतीय धर्मग्रंथों के अनुसार मनुष्य पर तीन प्रकार के ऋण प्रमुख माने गए हैं- पितृ ऋण, देव ऋण तथा ऋषि ऋण। इनमें पितृ ऋण सर्वोपरि है। पितृ ऋण में पिता के अतिरिक्त माता तथा वे सब बुजुर्ग भी सम्मिलित हैं, जिन्होंने हमें अपना जीवन धारण करने तथा उसका विकास करने में सहयोग दिया।पितृपक्ष में हिन्दू लोग मन कर्म एवं वाणी से संयम का जीवन जीते हैं; पितरों को स्मरण करके जल चढाते हैं; निर्धनों एवं ब्राह्मणों को दान देते हैं। पितृपक्ष में प्रत्येक परिवार में मृत माता-पिता का श्राद्ध किया जाता है, परंतु गया श्राद्ध का विशेष महत्व है। वैसे तो इसका भी शास्त्रीय समय निश्चित है, परंतु ‘गया सर्वकालेषु पिण्डं दधाद्विपक्षणं’ कहकर सदैव पिंडदान करने की अनुमति दे दी गई है।
एकैकस्य तिलैर्मिश्रांस्त्रींस्त्रीन् दद्याज्जलाज्जलीन्। यावज्जीवकृतं पापं तत्क्षणादेव नश्यति।
अर्थात् जो अपने पितरों को तिल-मिश्रित जल की तीन-तीन अंजलियाँ प्रदान करते हैं, उनके जन्म से तर्पण के दिन तक के पापों का नाश हो जाता है। हमारे हिंदू धर्म-दर्शन के अनुसार जिस प्रकार जिसका जन्म हुआ है, उसकी मृत्यु भी निश्चित है; उसी प्रकार जिसकी मृत्यु हुई है, उसका जन्म भी निश्चित है। ऐसे कुछ विरले ही होते हैं जिन्हें मोक्ष प्राप्ति हो जाती है। पितृपक्ष में तीन पीढ़ियों तक के पिता पक्ष के तथा तीन पीढ़ियों तक के माता पक्ष के पूर्वजों के लिए तर्पण किया जाता हैं। इन्हीं को पितर कहते हैं। दिव्य पितृ तर्पण, देव तर्पण, ऋषि तर्पण और दिव्य मनुष्य तर्पण के पश्चात् ही स्व-पितृ तर्पण किया जाता है। भाद्रपद पूर्णिमा से आश्विन कृष्णपक्ष अमावस्या तक के सोलह दिनों को पितृपक्ष कहते हैं। जिस तिथि को माता-पिता का देहांत होता है, उसी तिथी को पितृपक्ष में उनका श्राद्ध किया जाता है। शास्त्रों के अनुसार पितृपक्ष में अपने पितरों के निमित्त जो अपनी शक्ति सामर्थ्य के अनुरूप शास्त्र विधि से श्रद्धापूर्वक श्राद्ध करता है, उसके सकल मनोरथ सिद्ध होते हैं और घर-परिवार, व्यवसाय तथा आजीविका में हमेशा उन्नति होती है। पितृ दोष के अनेक कारण होते हैं। परिवार में किसी की अकाल मृत्यु होने से, अपने माता-पिता आदि सम्मानीय जनों का अपमान करने से, मरने के बाद माता-पिता का उचित ढंग से क्रियाकर्म और श्राद्ध नहीं करने से, उनके निमित्त वार्षिक श्राद्ध आदि न करने से पितरों को दोष लगता है। इसके फलस्वरूप परिवार में अशांति, वंश-वृद्धि में रूकावट, आकस्मिक बीमारी, संकट, धन में बरकत न होना, सारी सुख सुविधाएँ होते भी मन असन्तुष्ट रहना आदि पितृ दोष हो सकते हैं। यदि परिवार के किसी सदस्य की अकाल मृत्यु हुई हो तो पितृ दोष के निवारण के लिए शास्त्रीय विधि के अनुसार उसकी आत्म शांति के लिए किसी पवित्र तीर्थ स्थान पर श्राद्ध करवाएँ। अपने माता-पिता तथा अन्य ज्येष्ठ जनों का अपमान न करें। प्रतिवर्ष पितृपक्ष में अपने पूर्वजों का श्राद्ध, तर्पण अवश्य करें। यदि इन सभी क्रियाओं को करने के पश्चात् पितृ दोष से मुक्ति न होती हो तो ऐसी स्थिति में किसी सुयोग्य कर्मनिष्ठ विद्वान ब्राह्मण से श्रीमद् भागवत् पुराण की कथा करवायें। वैसे श्रीमद् भागवत् पुराण की कथा कोई भी श्रद्धालु पुरुष अपने पितरों की आम शांति के लिए करवा सकता है। इससे विशेष पुण्य फल की प्राप्ति होती है।
मत्स्य पुराण में तीन प्रकार के श्राद्ध प्रमुख बताये गए है। त्रिविधं श्राद्ध मुच्यते के अनुसार मत्स्य पुराण में तीन प्रकार के श्राद्ध बतलाए गए है, जिन्हें नित्य, नैमित्तिक एवं काम्य श्राद्ध कहते हैं। यमस्मृति में पांच प्रकार के श्राद्धों का वर्णन मिलता है। जिन्हें नित्य, नैमित्तिक, काम्य, वृद्धि और पार्वण के नाम से श्राद्ध है।नित्य श्राद्ध- प्रतिदिन किए जानें वाले श्राद्ध को नित्य श्राद्ध कहते हैं। इस श्राद्ध में विश्वेदेव को स्थापित नहीं किया जाता। यह श्राद्ध में केवल जल से भी इस श्राद्ध को सम्पन्न किया जा सकता है। नैमित्तिक श्राद्ध- किसी को निमित्त बनाकर जो श्राद्ध किया जाता है, उसे नैमित्तिक श्राद्ध कहते हैं। इसे एकोद्दिष्ट के नाम से भी जाना जाता है। एकोद्दिष्ट का मतलब किसी एक को निमित्त मानकर किए जाने वाला श्राद्ध जैसे किसी की मृत्यु हो जाने पर दशाह, एकादशाह आदि एकोद्दिष्ट श्राद्ध के अन्तर्गत आता है। इसमें भी विश्वेदेवोंको स्थापित नहीं किया जाता।काम्य श्राद्ध- किसी कामना की पूर्ति के निमित्त जो श्राद्ध किया जाता है। वह काम्य श्राद्ध के अन्तर्गत आता है। वृद्धि श्राद्ध- किसी प्रकार की वृद्धि में जैसे पुत्र जन्म, वास्तु प्रवेश, विवाहादि प्रत्येक मांगलिक प्रसंग में भी पितरों की प्रसन्नता हेतु जो श्राद्ध होता है उसे वृद्धि श्राद्ध कहते हैं। इसे नान्दीश्राद्ध या नान्दीमुखश्राद्ध के नाम भी जाना जाता है, यह एक प्रकार का कर्म कार्य होता है। दैनंदिनी जीवन में देव-ऋषि-पित्र तर्पण भी किया जाता है। पार्वण श्राद्ध- पार्वण श्राद्ध पर्व से सम्बन्धित होता है। किसी पर्व जैसे पितृपक्ष, अमावास्या या पर्व की तिथि आदि पर किया जाने वाला श्राद्ध पार्वण श्राद्ध कहलाता है। यह श्राद्ध विश्वेदेवसहित होता है। सपिण्डनश्राद्ध- सपिण्डनशब्द का अभिप्राय पिण्डों को मिलाना। पितर में ले जाने की प्रक्रिया ही सपिण्डनहै। प्रेत पिण्ड का पितृ पिण्डों में सम्मेलन कराया जाता है। इसे ही सपिण्डनश्राद्ध कहते हैं।गोष्ठी श्राद्ध- गोष्ठी शब्द का अर्थ समूह होता है। जो श्राद्ध सामूहिक रूप से या समूह में सम्पन्न किए जाते हैं। उसे गोष्ठी श्राद्ध कहते हैं।शुद्धयर्थश्राद्ध- शुद्धि के निमित्त जो श्राद्ध किए जाते हैं। उसे शुद्धयर्थश्राद्ध कहते हैं। जैसे शुद्धि हेतु ब्राह्मण भोजन कराना चाहिए।कर्मागश्राद्ध- कर्मागका सीधा साधा अर्थ कर्म का अंग होता है, अर्थात् किसी प्रधान कर्म के अंग के रूप में जो श्राद्ध सम्पन्न किए जाते हैं। उसे कर्मागश्राद्ध कहते हैं।यात्रार्थश्राद्ध- यात्रा के उद्देश्य से किया जाने वाला श्राद्ध यात्रार्थश्राद्ध कहलाता है। जैसे- तीर्थ में जाने के उद्देश्य से या देशान्तर जाने के उद्देश्य से जिस श्राद्ध को सम्पन्न कराना चाहिए वह यात्रार्थश्राद्ध ही है। इसे घृतश्राद्ध भी कहा जाता है।पुष्ट्यर्थश्राद्ध- पुष्टि के निमित्त जो श्राद्ध सम्पन्न हो, जैसे शारीरिक एवं आर्थिक उन्नति के लिए किया जाना वाला श्राद्ध पुष्ट्यर्थश्राद्ध कहलाता है।धर्मसिन्धु के अनुसार श्राद्ध के ९६ अवसर बतलाए गए हैं। एक वर्ष की अमावास्याएं'(12) पुणादितिथियां (4),'मन्वादि तिथियां (14) संक्रान्तियां (12) वैधृति योग (12), व्यतिपात योग (12) पितृपक्ष (15), अष्टकाश्राद्ध (5) अन्वष्टका (5) तथा पूर्वेद्यु:(5) कुल मिलाकर श्राद्ध के यह ९६ अवसर प्राप्त होते हैं।'पितरों की संतुष्टि हेतु विभिन्न पित्र-कर्म का विधान है।पुराणोक्त पद्धति से निम्नांकित कर्म किए जाते हैं :- एकोदिष्ट श्राद्ध, पार्वण श्राद्ध, नाग बलि कर्म, नारायण बलि कर्म, त्रिपिण्डी श्राद्ध, महालय श्राद्ध पक्ष में श्राद्ध कर्म उपरोक्त कर्मों हेतु विभिन्न संप्रदायों में विभिन्न प्रचलित परिपाटियाँ चली आ रही हैं। अपनी कुल-परंपरा के अनुसार पितरों की तृप्ति हेतु श्राद्ध कर्म अवश्य करना चाहिए। कैसे करें श्राद्ध कर्म महालय श्राद्ध पक्ष में पितरों के निमित्त घर में क्या कर्म करना चाहिए।जब बात आती है श्राद्ध कर्म की तो बिहार स्थित गया का नाम बड़ी प्रमुखता व आदर से लिया जाता है। गया समूचे भारत वर्ष में हीं नहीं सम्पूर्ण विश्व में दो स्थान श्राद्ध तर्पण हेतु बहुत प्रसिद्द है। वह दो स्थान है बोध गया और विष्णुपद मन्दिर | विष्णुपद मंदिर वह स्थान जहां माना जाता है कि स्वयं भगवान विष्णु के चरण उपस्थित है, जिसकी पूजा करने के लिए लोग देश के कोने-कोने से आते हैं। गया में जो दूसरा सबसे प्रमुख स्थान है जिसके लिए लोग दूर दूर से आते है वह स्थान एक नदी है, उसका नाम "फल्गु नदी" है। ऐसा माना जाता है कि मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान राम ने स्वयं इस स्थान पर अपने पिता राजा दशरथ का पिंड दान किया था। तब से यह माना जाने लगा की इस स्थान पर आकर कोई भी व्यक्ति अपने पितरो के निमित्त पिंड दान करेगा तो उसके पितृ उससे तृप्त रहेंगे और वह व्यक्ति अपने पितृऋण से उरिण हो जायेगा | इस स्थान का नाम ‘गया’ इसलिए रखा गया क्योंकि भगवान विष्णु ने यहीं के धरती पर असुर गयासुर का वध किया था। तब से इस स्थान का नाम भारत के प्रमुख तीर्थस्थानो में आता है और बड़ी ही श्रद्धा और आदर से "गया जी" बोला जाता है। भाद्रपद पूर्णिमा में ऋषि अगस्त  सहित  ऋषियों के नाम से तर्पण व जल अर्पित किया जाता है। भाद्रपद पूर्णिमा को  ऋषि तर्पण के साथ महालय का आरंभ  होता है । शास्त्रों में बताया गया है कि भाद्र शुक्ल पूर्णिमा का धार्मिक दृष्टि से  महत्व है। शास्त्रों के अनुसार  धरती पर राक्षस राज आतापी और वातापी द्वारा  ऋषियों को खाया जाता था । ऋषियों ने मिलकर महान तेजस्वी ऋषि अगस्त से ऋषिगण  कष्ट का निदान करने के लिए अनुरोध करने पर ऋषि  अगस्त  ने अपने तपोबल से इन असुरों का अंत कर दिया। ऋषि अगस्त  के प्रति आभार प्रकट करने के लिए ऋषि ,  मुनियों ने इन्हें जल देना प्रारंभ किया था। पुरणों के  अनुसार वृत्रासुर के वध के बाद  राक्षस डरकर समुद्र में जाकर छुप गए।  राक्षस रात को जल से निकलकर ऋषि मुनियों को खा जाया करते थे। ऐसे में देवताओं ने भगवान विष्णु के निर्देश पर अगस्त्य मुनि से सहायता मांगी थी । अगस्त मुनि ने अंजुली में समुद्र का सारा जल ले कर पी गए। समुद्र  में छुपे राक्षस दिखने पर देवताओं ने उन्हें मार डाला।इसके बाद जल में रहने वाले जीव व्याकुल हो उठे। देवताओं ने कहा कि भाद्र शुक्ल पूर्णिमा को पितृपक्ष आरंभ होने से पहले सभी आपको जल देंगे। आपने जो अपने पेट में समुद्र को रखा हुआ है उसे मुक्त कर दीजिए। अगस्त मुनि ने समुद्र को मुक्त कर दिया। और इसके बाद से अगस्त मुनि के नाम से भाद्र शुक्ल पूर्णिमा के दिन अगस्त मुनि और उनकी पत्नी लोपामुद्रा के साथ अन्य ऋषियों के नाम से तर्पण किया जाता है और जल दिया जाता है। ऋषि तर्पण के बाद अगले दिन यानी आश्विन कृष्ण प्रतिपदा से श्राद्ध पक्ष आरंभ होता है।पितृपक्ष में पितृश्राद्ध करने वाले को  बाहर के बने खाना के सेवन व 15 दिनों तक सात्विक भोजन  करना चाहिए । शास्त्रों के अनुसार पितृपक्ष में श्राद्धकर्ता को मूली और गाजर का सेवन नहीं करना चाहिए। मूली और गाजर का संबंध राहु से होता है। उसना चावल का सेवन करना पितृपक्ष में वर्जित  व  अरवा चावल का सेवन  किया जाता है । पितृपक्ष में मसूर की दाल निषेध है क्योंकि ज्योतिष शास्त्र में मसूर दाल का संबंध मंगल है ।   , बैगन , अरबी और करेला को सेवन भूलकर  नही करना चाहिए । पितृपक्ष में दूध का सेवन नहीं करना चाहिए परन्तु  जिस दिन पितरों की तिथि में  खीर को पितरों का भोजन माना गया है। अतः  खीर का सेवन कर सकते हैं। वेदों , संहिताओं व स्मृति में भारतीय परंपरा व सनातन धर्म के  वैदिक ऋषि एवं  प्रसिद्ध वैरागी और भारतीय उपमहाद्वीप की विविध भाषाओं के प्रभावशाली विद्वान ऋषि अगस्त है ।  ऋषि अगस्त की पत्नी लोपामुद्रा ऋग्वेद और  वैदिक साहित्य में 1.165 से 1.191 तक का  लेखिका हैं । प्राकृतिक औषधीय वैज्ञानिक, सिद्धारीनिजीधर्महिन्दू धर्मपति या पत्नीलोपामुद्राबच्चेद्रधास्युअभिभावक । ब्रह्मा जी का पौत्र ऋषि पुलस्त्य की पत्नी हविर्भू के पुत्र अगस्त्य को सिद्ध चिकित्सा का जनक  है । वैदिक ग्रंथों में  सप्तर्षि और शैव सम्प्रदाय में तमिल सिद्ध में प्रतिष्ठित ऋषि अगस्त हैं । ऋषि अगस्त  ने अगस्त वृक्ष की उत्पत्ति , पुराने तमिल के प्रारंभिक व्याकरण , वल्व तथा आदित्यहृदय के रचयिता ,  आविष्कारक , सौरधर्म , शाक्त धर्म एवं शैव धर्म , वैष्णव धर्म  के उपासक  थे ।  भाषा , अगत्तीयम , ताम्परापर्निया के विकास में ऋषि अगस्त की भूमिका रही है । प्रोटो-युग श्रीलंका और दक्षिण भारत में शैव केंद्रों में चिकित्सा और आध्यात्मिकता ,  शक्तिवाद और वैष्णववाद के पौराणिक साहित्य में पूजनीय हैं ।  दक्षिण एशिया और दक्षिण पूर्व एशिया के हिंदू मंदिरों में प्राचीन मूर्तिकला और राहत में पाए जाने वाले भारतीय संतों में   जावा ,इंडोनेशिया पर  मध्ययुगीन युग के शैव मंदिरों ,  प्राचीन जावानी भाषा के पाठ अगस्त्यपर्व का गुरु हैं । अगस्त्य को पारंपरिक रूप से संस्कृत ग्रंथों के रचयिता , वराह पुराण में  अगस्त्य गीता , स्कंद पुराण में अगस्त्य संहिता , और द्वैध-निर्नय तंत्र पाठ की पौराणिक उत्पत्ति के बाद ऋषि अगस्त को मन , कलसजा , कुंभजा , कुंभयोनी और मैत्रावरुनी के रूप में जाना जाता है ।


                    

रविवार, सितंबर 04, 2022

समाज व राष्ट्र निर्माण का द्योतक शिक्षक...


         विश्व के विभिन्न संस्कृतियों में  शिक्षकों  को विशेष सम्मान देने के लिये शिक्षक दिवस का आयोजन किया जाता है। सृष्टि प्रारम्भ के बाद  सभ्यता और संस्कृति का विकास का श्रेय पुरातन काल से सनातन धर्म ग्रंथों में ऋषि गण , गुरु  शिक्षक दिवस व टीचर्स डे  मनाने की शुरुआत हुई है ।  भारतीय सनातन सांस्कृतिक विरासत में भाद्रपद शुक्ल पंचमी ऋषि गण , आषाढ़ शुक्ल पूर्णिमा को द्वापर युग के वेदों , पर पुरणों के रचयिता कृष्णद्वैपायन का जन्म दिवस के अवसर पर  गुरु पूर्णिमा , एवं भारत के राष्ट्रपति डॉ सर्वपल्ली राधाकृष्णन की जयंती 5 सितंबर को शिक्षक दिवस प्रतिवर्ष मनाई जाती है । विश्व के विभिन्न देशों में भिन्न भिन्न तिथियों पर शिक्षक दिवस  मनाया जाता है । भारत में 5 सितंबर को  भारत के भूतपूर्व राष्ट्रपति डॉ सर्वपल्ली राधाकृष्णन का जन्मदिन के अवसर पर शिक्षक दिवस के रूप में मनाया जाता है। विश्व के 100  देशों में अलग-अलग तारीख पर शिक्षक दिवस मनाया जाता है। देश के पूर्व राष्‍ट्रपति डॉ राधाकृष्‍णन का जन्म 5 सितंबर 1888 को तमिलनाडु के तिरुमनी गांव में  ब्राह्मण परिवार में हुआ था। वे बचपन से  किताबें पढ़ने के शौकीन थे और स्वामी विवेकानंद से काफी प्रभावित थे। राधाकृष्णन का निधन चेन्नई में 17 अप्रैल 1975 को हुआ , अर्जेन्टीना में 11 सितम्बर को डोमिंगो फास्टिनो सार्मिएन्टो की मृत्यु का दिन एवं अल्बानिया में शिक्षक दिवस 7  मार्च 1867  को  अल्बानी भाषा में पाठन करने वाला प्रथम स्कूल प्रारम्भ के उपलक्ष्य में शिक्षक दिवस मनाया जाता है। ऑस्ट्रेलिया में अक्टूबर  का अंतिम शुक्रवार को वर्ल्ड टीचर्स डे , ब्राज़ील में साओ पाउलो  स्कूल के पढ़ाने वालों ने पहली बार 15 अक्टूबर 1947 ई. से दोसनते दिए इसलिए मनाया  , 15 अक्तूबर , 1827 को पेड्रो 1 ने फ़रमान के द्वारा ब्राज़ील में प्राथमिक शिक्षा को नियंत्रित किया। ब्राजील देश में 15  अक्तूबर 1963 को आधिकारिक रूप से शिक्षक दिवस  घोषित किया गया था। चिली में 16  अक्टूबर 1977 को  चिली के शिक्षकों के कॉलेगिओ डे प्रोफेसर्स डे चीले  की स्थापना के अवसर पर दिए डेल प्रोफेसर , चीन में 1 0 सितंबर को विद्यार्थी अपने शिक्षकों का आदर में  कार्ड और फूल की प्रस्तुति , चेक गणराज्य में शिक्षक द्वारा 28 मार्च को शिक्षक एक  दूसरे को डे उसतेलु के अवसर पर  तोहफ़े देते हैं। इक्वाडोर में १३ अप्रैल , अल साल्वाडोर में 22  जून को  अवकाश  के रूप में मनाया जाता है। हांग कांग में 12  सितम्बरको चीन का हिस्सा बनने के पश्चात 10 सितंबर  1997 से शिक्षक दिवस  चीन के साथ-साथ मनाया जाता है। शिक्षक दिवस जून का पहला शनिवार को हंगरी , इंडोनेशिया में 25 नवंबर को हरि गुरु , ईरान में ईरानी पंचांग के अनुसार  ऑर्डिबेहेष्ट 12 मोरतेज़ा मोतहरी के वीरगति को प्राप्त होने के उपलक्ष्य में  (मई 2 मई , 1979) की याद में मनाया जाता है। मलेशिया में हरिगुरु 16 मई 1956 में  रज़ाक़ रिपोर्ट स्वीकृत के आधार पर मलेशिया में शिक्षा प्रणाली का चयन होने के कारण  शिक्षक दिवस है।मेक्सिको में 15 मई  डिय डेल मेस्ट्रो , मंगोलिया में ईव हपइन्ह गसपबीह एऐप (शिक्षक दिवस फ़रवरी का पहला सप्ताहांत , पाकिस्तान में शिक्षक दिवस 05 अक्टूबर को  शिक्षकों का महत्व और  गुणों मान्यता दी जाती है । पेरू Día del Maestro ६ जुलाई 1953 में पेरू के राष्ट्रपति मैनुएल ए ऑड्रिया ने अध्यादेश द्वारा 6 जुलाई को शिक्षक दिवस घोषित किया था क्योंकि पेरू स्वतंत्रता संग्राम के दौरान जोसे डे सन मार्टिन इसी दिन 1822 नौर्मल स्कूल का प्रस्ताव पारित किया था।  फ़िलीपीन् में 5  अक्टूबर , फ़िलिपीनो-चीनियों के स्कूलों में 27  सितम्बर को मनाया जाता है ,  कैथलिक स्कूलों में यह जनवरी 26 मनाया जाता है। पोलैंड में 14 अक्तूबर को  दजीएँ नौकजयइला , रूस में 5 अक्टूबर 1994 से  विश्व शिक्षक दिवस  मनाया जाता है।
सिंगापुर में 01  सितम्बर , दक्षिण कोरियामें 15 मई 1963 से सियोल में और 1964 से चुंजू शहर में पूर्व में शिक्षकों को उपहार देने की प्रथा है  । ताइवान में 28  सितम्बर स्कूलों में 27 सितम्बर 27 को मनाया जाता है जबकि 28 कन्फूश्स के जन्मदिन की छुट्टी होती  है। थाईलैंड में 16 जनवरी थाईलैंड सरकार द्वारा एक प्रस्ताव 21  नवम्बर 1956  को पारित करके प्रथम शिक्षक दिवस 1957 में मनाया गया। तुर्की में 24  नवम्बर कमाल अतातुर्क का विचार था कि नई नसल का निर्माण शिक्षकों द्वारा होता है। अतातुर्क को  सर्वोच्च शिक्षक माना गया है । संयुक्त राज्य अमेरिका में राष्ट्रीय शिक्षक दिवस 06 मई को मनाया जाता है।  मसाचुएट्स में  जून के पहले सप्ताह मनाया है। में वियतनाम 20  नवम्बर यह पहली बार 1958 में अंतरराष्ट्रीय शिक्षकों के घोषणा पत्र के दिन के रूप में मनाया गया। 1982 में वियतनामी शिक्षक दिवस घोषित किया गया था।ओमान, सीरिया, मिश्र, लीबिया, कतर, बहरीन, संयुक्त अरब अमीरात, यमन, टुनिशिया, जार्डन, सउदी अरब, अल्जीरिया, मोरक्को और अन्य इस्लामी देशों में 28 फरवरी को शिक्षक दिवस  मनाया जाता है। 
विश्व शिक्षक दिवस व वर्ल्ड टीचर्स डे प्रतिवर्ष 5 अक्टूबर को संयुक्त राष्ट्र के तत्वावधान में मनाया जाता है। आध्यापकों को सामान्य रूप से और कतिपय कार्यरत एवं सेवानिवृत्त शिक्षकों को उनके विशेष योगदान के लिये सम्मानित किया जाता है। संयुक्त राष्ट्र द्वारा 05 अक्तूबर  1966 में यूनेस्को और अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन की  संयुक्त बैठक कोमें अध्यापकों की स्थिति पर चर्चा हुई थी और सुझाव प्रस्तुत किये गये थे। 1994 के बाद से प्रतिवर्ष 100 देशों में मनाया जाता है। चीन में 1 कन्फ्यूशियस के जन्म दिन, 27 अगस्त 1939 को शिक्षक दिवस घोषित किया गया लेकिन 1951 में इसे रद कर दिया गया। फिर 1985 में 10 सितम्बर को शिक्षक दिवस घोषित किया गया ।  रूस में 1965 से 1994 तक अक्टूबर महीने के पहले रविवार के दिन शिक्षक दिवस मनाया जाता था।  1994 से विश्व शिक्षक दिवस 5 अक्टूबर को मनाया जाना शुरू हुआ । स्मृति ग्रंथों के अनुसार देव गुरु बृहस्पति को समर्पित बृहस्पति वार व गुरुवार है ।ब्रह्मांड का प्रथमगुरु भगगवन शिव है । विश्व का प्रथम शिक्षक ग्रीक के भगगवन चिरोन , सारनाथ में महात्मा बुद्ध द्वारा पांच शिष्यों को प्रथम उपदेश देने के कारण तथा अल्बर्ट आइंस्टीन को वर्ल्ड टीचर , भारत मे महान दार्शनिक व भारत के पूर्व राष्ट्रपति डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन के जन्म दिवस पर शिक्षक दिवस एवं लेडी टीचर इंडिया के रूप में 1848 ई. का प्रथम महिला टीचर सावित्री बाई फुले ने महिला शिक्षा के लिए सक्रिय रही है। 
टीचर का शाब्दिक अर्थ टैलेंटेड एडुकेटेड एडोरबल चार्मिंग हेल्पफुल एनकूरेगिंग रेस्पोंसिबल है । समाज और राष्ट्र का निर्माणकर्ता शिक्षक है । गुरु साक्षात ब्रह्मा , विष्णु और महेश के समान है । भगवान सूर्य ने सूर्य गीता , भगवान शिव ने ईश्वर गीता और भगवान कृष्ण ने गीता का संदेश दे कर कर्म , योग , भक्ति का मूल मंत्र दे कर विश्व गुरु थे ।