मंगलवार, मार्च 29, 2022

सनातन संस्कृति का नववर्ष चैत्र शुक्ल प्रतिपदा......


चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से प्रारम्भ होने वाला हिन्दू नववर्ष , गुड़ी पड़वा , मराठी-पाडवा और हिन्दू नव संवत्सरारम्भ माना जाता है। चैत्र मास की शुक्ल प्रतिपदा को गुड़ी पड़वा या वर्ष प्रतिपदा या उगादि  एवं युगादि कहा गया है। गुड़ी' का अर्थ 'विजय पताका'  है। शालिवाहन ने मिट्टी के सैनिकों की सेना से प्रभावी शक का पराभव  करने के कारण  विजय के प्रतीक रूप में शालिवाहन शक का प्रारंभ चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से है। आंध्र प्रदेश और कर्नाटक में ‘उगादि‘ व युगादि और महाराष्ट्र में 'ग़ुड़ी पड़वा' पर्व मनाया जाता है। चैत्र नवरात्रि का प्रारम्भ होता है । सनातन धर्मग्रंथों में वेदसंहिता ,  वेदांग , ब्राह्मणग्रन्थ , आरण्यक , उपनिषद् · श्रीमद्भगवद्गीता , रामायण · महाभारत , पुराण , वचनामृत ,  ज्योतिष शास्त्रों के अनुसार सृष्टिकर्ता ब्रह्माजी ने द्वारा चैत्र शुक्ल पक्ष प्रतिपदा को निर्मित सृष्टि के  देवी-देवताओं, यक्ष-राक्षस, गंधर्व, ऋषि-मुनियों, नदियों, पर्वतों, पशु-पक्षियों और कीट-पतंगों , रोगों और उनके उपचारों , मनु की सृष्टि किया गया है ।  मनु द्वारा मन्वंतर , कल्प , संवत्सर , नावसंबत्सर , संबत  प्रारम्भ किया गया है। चैत्र में वृक्ष तथा लताएं पल्लवित व पुष्पित होती हैं। शुक्ल प्रतिपदा का दिन चंद्रमा की कला का प्रथम दिवस है। जीवन का  वनस्पतियों को सोमरस चंद्रमा द्वारा प्रदान करने के कारण औषधियों और वनस्पतियों का राजा चंद्रमा  है। आंध्र प्रदेश, कर्नाटक और महाराष्ट्र में सारे घरों को आम के पेड़ की पत्तियों के बंदनवार से सजाया जाता है। सुखद जीवन की अभिलाषा के साथ-साथ यह बंदनवार समृद्धि, व अच्छी फसल के भी परिचायक हैं। महान गणितज्ञ भास्कराचार्य ने चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से सूर्योदय से सूर्यास्त तक दिन, महीना और वर्ष की गणना करते हुए ‘पंचांग ‘ की रचना की थी । वर्ष के साढ़े तीन मुहूर्तों में गुड़ीपड़वा की गिनती होती है। शालिवाहन शक संबत एवं विक्रम संबत  का प्रारंभ है।  शालिवाहन  के लड़के ने मिट्टी के सैनिकों की सेना बनाई और उस पर पानी छिड़ककर उनमें प्राण फूँक दिए और इस सेना की मदद से शिक्तशाली शत्रुओं को पराजित करने और विजय के प्रतीक के रूप में शालिवाहन शक का प्रारंभ हुआ। भगवान राम ने वानरराज बाली के अत्याचारी शासन से दक्षिण की प्रजा को मुक्ति दिलाई थी । बाली के त्रास से मुक्त हुई प्रजा ने घर-घर में उत्सव मनाकर ध्वज (ग़ुड़ियां) फहराए थे । घर के आंगन में ग़ुड़ी खड़ी करने की प्रथा महाराष्ट्र में प्रचलित है। आंध्र प्रदेश में घरों में ‘पच्चड़ी/प्रसादम‘ प्राप्त करने एवं निराहार सेवन करने से मानव निरोगी बना रहता है। चर्म रोग  दूर होता है। इस पेय में मिली वस्तुएं स्वादिष्ट होने के साथ-साथ आरोग्यप्रद होती हैं। महाराष्ट्र में पूरन पोली या मीठी रोटी गुड़, नमक, नीम के फूल, इमली और कच्चा आम। गुड़ मिठास के लिए, नीम के फूल कड़वाहट मिटाने के लिए और इमली व आम जीवन के खट्टे-मीठे स्वाद चखने का प्रतीक होती हैं। आम को  आंध्र प्रदेश, कर्नाटक और महाराष्ट्र में खाया जाता है। नौ दिन तक मनाया जाने वाला यह त्यौहार दुर्गापूजा के साथ-साथ, रामनवमी को राम और सीता के विवाह एवं चैत्र शुक्ल षष्टी एवं छठ पूजा  के साथ सम्पन्न होता है।
ब्रह्म पुराण के अनुसार ब्रह्मा द्वारा सृष्टि का सृजन , मर्यादा पुरूषोत्‍तम श्रीराम का राज्‍याभिषेक , माँ दुर्गा की उपासना की नवरात्र व्रत का प्रारम्‍भ , युगाब्‍द , युधिष्‍ठिर संवत् ,  का आरम्‍भ तथा उनका राज्याभिषेक , उज्‍जयिनी सम्राट- विक्रमादित्‍य द्वारा विक्रमी संवत् प्रारम्‍भ , शालिवाहन शक संवत् (भारत सरकार का राष्‍ट्रीय पंचांग) का प्रारम्‍भ , महर्षि दयानन्द द्वारा आर्य समाज की स्‍थापना का दिवस , राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्‍थापक केशव बलिराम हेडगेवार का जन्‍मदिवस , सिख धर्म के द्वितीय गुरु अंगद देव जी के जन्म दिवस , सिंध प्रान्त के प्रसिद्ध समाज रक्षक वरूणावतार संत झूलेलाल का प्रकट दिवस , झूलेलाल जयंती , चंद्र दर्शन ,चसीटी चंद्र दिवस , चित्रा  नक्षत्र दिवस , सृष्टि दिवस  चैत्र शुक्ल प्रतिपदा तिथि को मनाया जाता है।भारतीय नववर्ष का प्रारम्भ चैत्र शुक्ल प्रतिपदा प्रकृति के खगोलशास्त्रीय सिद्धातों पर आधारित और भारतीय कालगणना का आधार पूर्णतया पंथ निर्पेक्ष है । दो ऋतुओं का संधिकाल एवं  रातें छोटी और दिन बड़े होने लगते हैं। महाराज विक्रमादित्य ने 2 079 वर्ष पूर्व राष्ट्र को सुसंगठित कर शकों की शक्ति का उन्मूलन कर देश से भगा दिया और अरब में विजयश्री प्राप्त कर  यवन, हूण, तुषार, पारसिक तथा कंबोज देशों पर अपनी विजय ध्वजा फहराई थी ।। उसी के स्मृति स्वरूप यह प्रतिपदा संवत्सर के रूप में मनाई जाती थी और यह क्रम पृथ्वीराज चौहान के समय तक चला। महाराजा विक्रमादित्य ने समस्त विश्व की सृष्टि की। सबसे प्राचीन कालगणना के आधार पर प्रतिपदा के दिन को विक्रमी संवत के रूप में अभिषिक्त किया। इसी दिन मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान रामचंद्र के राज्याभिषेक अथवा रोहण के रूप में मनाया गया। यह दिन ही वास्तव में असत्य पर सत्य की विजय दिलाने वाला है। इसी दिन महाराज युधिष्टिर का भी राज्याभिषेक हुआ और महाराजा विक्रमादित्य ने भी शकों पर विजय के उत्सव के रूप में मनाया। आज भी यह दिन हमारे चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से प्रारम्भ होने वाला हिन्दू नववर्ष , गुड़ी पड़वा , मराठी-पाडवा और हिन्दू नव संवत्सरारम्भ माना जाता है। चैत्र मास की शुक्ल प्रतिपदा को गुड़ी पड़वा या वर्ष प्रतिपदा या उगादि  एवं युगादि कहा गया है। गुड़ी' का अर्थ 'विजय पताका'  है। शालिवाहन ने मिट्टी के सैनिकों की सेना से प्रभावी शक का पराभव  करने के कारण  विजय के प्रतीक रूप में शालिवाहन शक का प्रारंभ चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से है। आंध्र प्रदेश और कर्नाटक में ‘उगादि‘ व युगादि और महाराष्ट्र में 'ग़ुड़ी पड़वा' पर्व मनाया जाता है। चैत्र नवरात्रि का प्रारम्भ होता है । सनातन धर्मग्रंथों में वेदसंहिता ,  वेदांग , ब्राह्मणग्रन्थ , आरण्यक , उपनिषद् · श्रीमद्भगवद्गीता , रामायण · महाभारत , पुराण , वचनामृत ,  ज्योतिष शास्त्रों के अनुसार सृष्टिकर्ता ब्रह्माजी ने द्वारा चैत्र शुक्ल पक्ष प्रतिपदा को निर्मित सृष्टि के  देवी-देवताओं, यक्ष-राक्षस, गंधर्व, ऋषि-मुनियों, नदियों, पर्वतों, पशु-पक्षियों और कीट-पतंगों , रोगों और उनके उपचारों , मनु की सृष्टि किया गया है ।  मनु द्वारा मन्वंतर , कल्प , संवत्सर , नावसंबत्सर , संबत  प्रारम्भ किया गया है। चैत्र में वृक्ष तथा लताएं पल्लवित व पुष्पित होती हैं। शुक्ल प्रतिपदा का दिन चंद्रमा की कला का प्रथम दिवस है। जीवन का  वनस्पतियों को सोमरस चंद्रमा द्वारा प्रदान करने के कारण औषधियों और वनस्पतियों का राजा चंद्रमा  है। आंध्र प्रदेश, कर्नाटक और महाराष्ट्र में सारे घरों को आम के पेड़ की पत्तियों के बंदनवार से सजाया जाता है। सुखद जीवन की अभिलाषा के साथ-साथ यह बंदनवार समृद्धि, व अच्छी फसल के भी परिचायक हैं। ‘उगादि‘ के दिन पंचांग तैयार होता है। महान गणितज्ञ भास्कराचार्य ने चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से सूर्योदय से सूर्यास्त तक दिन, महीना और वर्ष की गणना करते हुए ‘पंचांग ‘ की रचना की थी । वर्ष के साढ़े तीन मुहूतारें में गुड़ीपड़वा की गिनती होती है। शालिवाहन शक संबत एवं विक्रम संबत  का प्रारंभ है।  शालिवाहन  के लड़के ने मिट्टी के सैनिकों की सेना बनाई और उस पर पानी छिड़ककर उनमें प्राण फूँक दिए और इस सेना की मदद से शिक्तशाली शत्रुओं को पराजित किया। इस विजय के प्रतीक के रूप में शालिवाहन शक का प्रारंभ हुआ। भगवान राम ने वानरराज बाली के अत्याचारी शासन से दक्षिण की प्रजा को मुक्ति दिलाई थी । बाली के त्रास से मुक्त हुई प्रजा ने घर-घर में उत्सव मनाकर ध्वज (ग़ुड़ियां) फहराए। घर के आंगन में ग़ुड़ी खड़ी करने की प्रथा महाराष्ट्र में प्रचलित है। प्रत्येक वर्ष चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से नवमी तिथि तक सनातन धर्म ग्रंथों एवं हिन्दू पंचांग के अनुसार शाक्त धर्म के उपासक माता शक्ति की आराधना , सौरधर्म के उपासक चैत्र शुक्ल चतुर्थी तिथि से सप्तमी तिथि चार दिवसीय छठ पूजा , भगवान सूर्य को अर्घ्य एवं उपासना और प्रतिपदा को माता शैलपुत्री , द्वितीय माता ब्रह्मचारिणी , तृतीया को माता चन्द्रघण्टा , चतुर्थी को  माता कुष्मांडा ,पंचमी को स्कंदमाता , सप्तमी को माता  कालरात्रि , अष्टमी को माता गौरीकी  एवं नवमी को माता  सिद्धिदात्री की उपासना कर चैइति व चैत्र  नवरात्रि मानते है । भगवान राम की अवतरण दिवस चैत्र शुक्ल नवमी को मानते है । सप्तम वैवस्वतमनु का अवतरण , मन्वंतर दिवस , 14 मनुमय सृष्टि दिवस मनाते है ।




सोमवार, मार्च 28, 2022

देवघर जिले की सांस्कृतिक विरासत .....


      झारखंड राज्य का देवघर जिले का देवघर शहर में भगवान शिव का रावणेश्वर ज्योतिर्लिंग और  शक्ति पीठ है । ‘देवघर’ को देवी एवं देव’का निवास ,  देवघर , बाबा धाम ,  वैद्यनाथ , वैजनाथ , वैजू  के नाम से  जाना जाता है । संस्कृत ग्रंथों में हरित किवन या केतकी वन के रूप में कहा जाता है। वैद्यनाथ  मंदिर के सामने वाले हिस्से के भागों को 15 9 6 में गिद्धौर के महाराजा के पुण्य पुर मल द्वारा निर्माण कराया गया था।  श्रावण के महीने में   भक्त पूजा के लिए सुल्तानगंज से देवघर तक गंगा जल ले कर भगवान शिव पर जल चढाते है  और  जीवन की इच्छा की इच्छा प्राप्त करते हैं।   समुद्र तल से 254 मी. व 833 फीट ऊँचाई पर अवस्थित 2011 जनगणना के अनुसार 1492073 जनसंख्या वाले 2478. 61  वर्ग कि. मि . व 957 वर्ग मील क्षेत्रफल में फैले देवघर जिले का मुख्यालय तथा हिन्दुओं का प्रसिद्ध तीर्थस्थल देवघर को  'बाबाधाम'  से विख्यात  है|  देवघर जिले में अनुमंडल 02 ,प्रखंड 10 , ग्रामपंचेस्ट 194 ,ग्राम 2662 वाले देवघर जिले की स्थापना 01 जून 1981 को हुई है । देवघर में  भगवान शिव मंदिर का रावणेश्वर ज्योतिर्लिंग  पर  लाखों शिव भक्तो ,  'काँवरिया' द्वारा जलाभिषेक किया जाता है।  शिव भक्त बिहार के भागलपुर जिले का  सुल्तानगंज से गंगा नदी से गंगाजल लेकर 105 किलोमीटर की दूरी पैदल तय कर देवघर में भगवान शिव को जल अर्पित करते हैं। शिव पुराण के अनुसार  श्मशान नदी के तट पर चिताभूमि पर स्थापित शिव मंदिर एवं मंदिर  प्रांगण मे कुआ स्थित है । । देवघर की भाषा हिंदी , संथाली , अंगिका , मगही , भोजपुरी , मैथिली , वज्जिका बोली जाती है ।देवघर  उत्तरी अक्षांश 24.48 डिग्री और पूर्वी देशान्तर 86.7 पर स्थित  है। वैद्यनाथ मंदिर, देवघर -   देवघर शिव मंदिर की स्थापना 1596 ई. में  हुई है । देवघर के निवासी बैजू ने ज्योतिर्लिंग  की उपासना की थी । भगवान शिव के उपासक वैजू के  मंदिर का नाम बैद्यनाथ पड़ गया है । वैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग को कामना ज्योतिर्लिग  कहा गया हैं। भगवान शिव भक्त  सावन में सुल्तानगंज से गंगा जल भर कर कांवरिया पैदल करीब 105 किलोमीटर की यात्रा करके भगवान शिव को गंगा जल अर्पित करते हैं। बासुकीनाथ  - भगवान शिव के प्रिय नागों के राजा वासुकीनाथ  को समर्पित वासुकीनाथ मंदिर देवघर से 42 कि. मि.की दूरी पर अवस्थित जरमुंडी पर स्थित है । जरमुंडी स्थित वासुकीनाथ मंदिर स्थल को  नोनीहाट और घटवाल कहा गया है। बैजू मंदिर - बाबा बैद्यनाथ मंदिर परिसर के पश्चिम में देवघर के मुख्य बाजार मे बैजू मंदिर ,  मुख्य पुजारी के वंशजों ने करवाया था। प्रत्येक मंदिर में भगवान शिव का लिंग स्थापित है। त्रिकुट - देवघर से 16 किलोमीटर दूर दुमका रोड पर एक खूबसूरत पर्वत त्रिकूट स्थित  पहाड़ पर  गुफाएं और झरनें हैं। नौलखा मंदिर - देवघर के बाहरी हिस्से में स्थित यह मंदिर अपने वास्तुशिल्प की खूबसूरती के लिए जाना जाता है। इस मंदिर का निर्माण बालानन्द ब्रह्मचारी के एक अनुयायी ने किया था जो शहर से 8 किलोमीटर दूर तपोवन में तपस्या करते थे। तपोवन भी मंदिरों और गुफाओं से सजा एक आकर्षक स्थल है। नंदन पर्वत - नन्दन पर्वत की महत्ता यहां बने मंदिरों के झुंड के कारण है जो विभिन्न देवों को समर्पित हैं। पहाड़ की चोटी पर कुंड  है ।  ठाकुर अनुकूलचंद्र के अनुयायियों के लिए कुंड स्थान धार्मिक आस्था का प्रतीक है। सर्व धर्म मंदिर के अलावा यहां पर संग्रहालय और चिड़ियाघर  है। पाथरोल काली माता का मंदिर - मधुपुर में एक प्राचीन  काली मंदिर को पथरोल काली माता मंदिर" के नाम से जाना जाता है। काली मंदिर  का निर्माण राजा दिग्विजय सिंह ने 6 से 7 शताब्दी पहले करवाया था। मुख्य मंदिर के समीप नौ और मंदिर है । बाबा  वैद्यनाथ मन्दिर - झारखण्ड राज्य के देवघर  जिले का देवघर  में अवस्थित रावणेश्वर ज्योतिर्लिंग  मंदिर एवं सिद्ध पीठ है। बैद्यनाथ शिव मंदिर और पार्वती माता का मंदिर एक पवित्र लाल रस्सी से बंधे हुए हैं ।बाबा वैद्यनाथ मंदिर का निर्माता देव शिल्पी विश्वकर्मा एवं संथाल राजा पूरनमल द्वारा मंदिर परिसर में अन्य मंदिर का निर्माण किया  गया है ।राक्षस राज रावण ने हिमालय पर जाकर शिवजी की प्रसन्नता के लिये घोर तपस्या की और अपने सिर काट-काटकर शिवलिंग पर चढ़ाने शुरू कर दिये। एक-एक करके नौ सिर चढ़ाने के बाद दसवाँ सिर भी काटने को ही था कि शिवजी प्रसन्न होकर प्रकट हो गये। भगवान शिव ने राक्षस राज रावण के दसों सिर ज्यों-के-त्यों कर दिये और उससे वरदान माँगने को कहा। रावण ने लंका में जाकर उस लिंग को स्थापित करने के लिये उसे ले जाने की आज्ञा माँगी। शिवजी ने अनुमति तो दे दी, पर चेतावनी के साथ दी कि यदि मार्ग में शिवलिंग  पृथ्वी पर रखने पर वहीं अचल हो जाएगा। रावण शिवलिंग लेकर चला पर मार्ग में एक चिताभूमि आने पर उसे लघुशंका निवृत्ति की आवश्यकता हुई। रावण उस लिंग को व्यक्ति को थमा लघुशंका-निवृत्ति करने चला गया। इधर उन व्यक्ति ने ज्योतिर्लिंग को बहुत अधिक भारी अनुभव कर भूमि पर रख दिया। फिर क्या था, लौटने पर रावण पूरी शक्ति लगाकर भी उसे न उखाड़ सका और निराश होकर मूर्ति पर अपना अँगूठा गड़ाकर लंका को चला गया। भगवान ब्रह्मा, विष्णु आदि देवताओं ने आकर  शिवलिंग की पूजा की। शिवजी का दर्शन होते ही सभी देवी देवताओं ने शिवलिंग की वहीं उसी स्थान पर प्रतिस्थापना कर दी और शिव-स्तुति करते हुए वापस स्वर्ग को चले गये। वैद्यनाथ-ज्योतिर्लिग मनोवांछित फल देने वाला है।
 दुमका - झारखण्ड राज्य की उपराजधानी एवं  सन्थाल परगना प्रमंडल का दुमका जिला का मुख्यालय दुमका है।समुद्र तल से 137 मी. व 449 फीट की ऊँचाई पर स्थित दुमका जिले की जनगणना के अनुसार जनसंख्या 970584 में दस प्रखंडों में दुमका, गोपीकांदर, जामा, जरमुंडी, काठीकुंड, मसलिया, रामगढ़, रानेश्वर, शिकारीपाड़ा और सरैयाहाट  है । दुमका में आदिवासियों में  सन्थाल , पहाड़िया और मेलर घटवार जाति भी पाई जाती है। 1855 में सन्थाल विद्रोह के बाद भागलपुर से काटकर दुमका को  जिला बनाया गया था। दुमका से 10 किलोमीटर कुमड़ाबाद  पूरी तरह नदी और पहाड़ से घेरा हुआ है,दुमका जिला का क्षेत्र  सम्पूर्ण प्राकृतिके से पूर्ण है।दुमका शब्द की उत्पत्ति दामिन -ई- कोह या पहाड़ों  का आंचल) शब्द से माना जाता है।पाषाणकाल- खनन के प्राप्त औजारों से पता चला है कि यहां के मूल निवासी मोन-ख्मेर और मुंडा थे । दुमका जिले प्राचीन निवास पहाड़ी लोग थे। ग्रीक यात्री मेगास्थानीज ने इन्हें माली नाम से संबोधित किया।मध्यकालीन इतिहास- राजमहल की पहाड़ियों के घिरे होने के कारण दुमका जितना दुर्गम रहा है उतना है आर्थिक दृष्ट से अहम भी. 1539 में चौसा के युद्ध में शेरशाह सूरी की जीत के बाद यह क्षेत्र अफगानों के कब्जे में आ गया, लेकिन जब हुसैन कुली खान ने बंगाल पर जीत हासिल की तो यह क्षेत्र मुगल सम्राट अकबर के प्रभुत्व में आ गया। अंग्रेजी शासन- अंग्रेज प्रतिनिधि डॉ गैबरियल बोकलिटन ने शाहजहां से एक फरमान हासिल किया।1742-1751के  दौरान मराठा शासक राघोजी भोसले और पेशवा बालाजी राव यहां आते रहे. , 1745: संथाल परगना के जंगलों और राजमहल की पहाड़ियों से राघोजी भोसले का दुमका में प्रवेश. ,1769: बंगाल के बीरभूम जिले के अंतर्गत दुमका घाटवाली पुलिस थाना रह चुका है। , 1775 ई. में दुमका को भागलपुर संभाग के अंतर्गत शामिल किया गया।1865: दुमका को स्वतंत्र जिला बनाया गया। , 1872: दुमका को संथाल परगना का मुख्यालय बनाया गया। 1889: यूरोपीय ईसाई उपदेशकों की गतिविधियाँ हुई। ,1902: पहली नगरपालिका की स्थापना हुई। 1920: बसें व कार यहाँ चलने शुरु हुए। 1983: दुमका संथाल परगना का मुख्यालय बना।  झारखंड राज्य की उप-राजधानी दुमका बना। संथाली द्वारा भगवान सिंगबोंगा की उपासना  करते है।  वन क्षेत्र से घिरे होने के वजह से  लोग जंगलो पर आश्रित है । आदिवासियों द्वारा मुख्य रूप से मनाए जाने वाले पर्व में बन्धना, रास पर्व, सकरात, सोहराई आदि है। दुमका में वासुकिनाथ मन्दिर, मलूटी मन्दिर, मसानजोर डेम, बास्कीचक, सृष्टि पार्क। वासुकिनाथ दुमका शहर से 25 किमी की दूरी पर अवस्थित है। यहाँ हरवर्ष सावन के महिने में देश विदेश से शिव भक्त आते है और गंगा जल अर्पित करते है। मलूटी मन्दिर - यह मंदिर दुमका - तारापीठ, रामपुरहाट मार्ग मे अवस्थित है। मलूटी को मंदिरों का गांव भी कहा जाता है। यहां एक समय मे 108 मन्दिर और 108 तालाब थे।यहां का मुख्य मंदिर माँ मौलिक्षा को समर्पित है जिसे माँ तारा(तारापीठ, रामपुरहाट प.बंगाल)की बहन माना जाता है। आज अधिकांश मन्दिर जीर्ण शीर्ण अवस्था मे है। मसानजोर डेम या कनाडा डेम दुमका शहर से 25 कि. मी . की दूरी पर मयूराक्षी नदी पर बनाया गया है। यहां की प्राकृतिक छटा देखने योग्य है। द डिस्ट्रिक्ट गजेटियर ऑफ  झारखंड  2002 के अनुसार दुमका जिले के भारतीय स्वतंत्रता सेनानी तिलका मांझी  का 1750 -,1785  तक  कीर्तित्व एवं व्यक्तित्व उल्लेख किया गया है । 3716 वर्ग कि. मि. क्षेत्रफल में फैले दुमका जिले का मयूराक्षी नदी पर 16650 ए. में कनाडा बांध व पियरसन बांध 155 फीट ऊंची एवं 2170 फीट लंबाई युक्त बांध एवं दुमका के समीप रानिबहाल के भुमका गर्म झरना पर्यटकों के लिए आकर्षण केंद्र है ।







शुक्रवार, मार्च 25, 2022

समन्वय का माध्यम विज्ञापन...


मानव सभ्यता के उदय और संप्रेषण की आवश्यकता के लिए विज्ञापन का अस्तित्व है । मानव सभ्यता के प्रारंभिक चरण में मानवीय को अनुशासित, नियंत्रित करने तथा जनमत को स्वपक्ष में प्रभावित करने के लिए जो प्रयास किए जाने में विज्ञापन की पृष्ठभूमि  है। विश्व का प्रथम विज्ञापन भारत में डेढ हजार वर्ष पूर्व विज्ञापन भारतीय बुनकर व्यापारी संघ द्वारा  प्राचीन गुप्तकालीन मध्यप्रदेश का  दशपुर में स्थित एक सूर्य-मंदिर की दीवारों में लगवाया गया था।  प्राचीनकाल में शासक प्रजा को जिन नियमों से अनुशासित करना चाहते थे । नियमों को प्रजा की जानकारी के लिए सार्वजनिक स्थानों पर भिति ,  पटूट आदि पर खुदवा दिया जाता था। धार्मिक सूचनाओं, राजाज्ञाओं और सरकारी आदेशों को शिलालेखों पर विज्ञापन के रूप में उत्कीर्ण कराने की प्रथा भारतीय सम्राट अशोक के समय में विद्यमान  थी। सम्राट अशोक ने शिलालेखों पर अनेक सूचनाएँ उत्कीर्ण कराई। प्राचीन भारतीय समाज में विज्ञापन का लक्ष्य धार्मिक विचारों का प्रचार करना था। सम्राट अशोक के स्तंभों और भिक्ति संदेशों, गुफा चित्रों आदि को 'आउटडोर' विज्ञापन का पूर्वज कह सकते हैं। 'इंडोर विजुअल' संप्रेषण कला के पूर्वज के रूप में अजंता, साँची और अमरावती की कलाओं एवं बिहार का जहानाबाद जिले के बराबर पर्वत समुहमे स्थित गुफाओं , भित्ति चित्रों को अध्ययन  है।"
 तीन हजार वर्ष पूर्व मिस्त्र में विज्ञापनों का उपयोग श्रीमंतों के घरों से भागे हुए दासों को पकडने वालों के लिए  पुरस्कार देने की घोषणा के लिए किया जाता था। श्रीपत्र या भोजपत्र पर लिखे जाते थे। ढाई ह्जार वर्ष पूर्व मकान किराए पर दिए जाने के विज्ञापन का उल्लेख भी मिलता है-"आगामी १ जुलाई से आरियोपोलियन हवेली में  दुकानें भाडे पर दी जाएँगी। दुकानों में ऊपर रहने के कमरे हैं।   विज्ञापनों के प्रारंभिक स्वरुप की चर्चा में इजिप्ट में थीब्ज के उत्खनन  के दौरान प्राप्त पांडुलिपि के अवशेष तीन ह्जार वर्ष पूर्व  उदूधृत  है।  शैवाल से तैयार किए गए कागज पर विज्ञापन के रूप में शीम  भगोडे दास को लौटानेवाले को एक सोने का सिक्का इनाम में दिए जाने की घोषणा की गई है। छपाई के आविष्कार से पहले प्राचीनकाल में विज्ञापनों के लिए अन्य रास्ते तलाश करते थे। ग्रीस, रोम और चीन में विज्ञापन के लिए चित्रलिपि का प्रयोग किया जाता था। उत्पादक अपनी वस्तुओं पर  चिह्र, चित्र ,  अंकित कर देते थे, ताकि उनके उत्पाद को पहचानने में ग्राहकों को किसी प्रकार की असुविधा न हो। ग्रीस और रोम के व्यापारी अपनी दुकानों के प्रवेश-द्वार पर माल के चिह्र इस रूप में चित्रित करते थे । डिक सटफेन के अनुसार-"बुनकरों का चक्र बुनकर को इंगित करता था।  मानवीय सभ्यता के विकास के साथ-साथ विज्ञापन के स्वरुप में भी बदलाव आता चला गया है। व्यापारिक चिह्रों को लकडी, धातु अथवा पत्थर पर चित्रित कर सूचना-पटूट का निर्माण किया गया। विज्ञापन के प्रारंभिक चरण में विक्रेता ऊँची आवाज में बडे रोचक और नाटकीय अंदाज में अपने माल की खूबियों को वर्णित करता था। यानी गलियों और सडकों पर फेरीवाले आवाज लगाते हुए अपनी वस्तुओं का विज्ञापित करते थे। बाद में चना बेचनेवालों के ये बोल बहुत चर्चित भी हुए-'बाबू मैं लाया मजेदार चना जोर गरम, मेरा चना बना है आला' अनोखे स्वरों दवारा अपने माल को विज्ञापित कर खरीदारों को आकर्षित करने की यह कला आज भी बनी हुई है। गाँवों, कस्बों और शहरों की गलियों में ठेले और साइकिल पर अपना सामान बेचनेवाले छोटे-छोटे विक्रेता इसी कला का सहारा लेते हैं। पंद्रहवीं शताब्दी में मुद्रण कला के आविष्कार के साथ हुआ। नए विचारों के प्रवाह को जन-जन तक पहुँचाने के लिए मुद्रण कला का सहारा लिया गया। गुटनबर्ग ने ४२ पंक्तियों की विश्व की पहली मुद्रित पुस्तक 'बाइबिल' का प्रकाशन किया। मुद्रण कला के आविष्कार और विस्तार के साथ ही यातायात व संचार के विभिन्न साधन भी उपलब्ध हुए। सन १४७३ ई. में इंग्लैंड में विलियम कैक्टसन ने सर्वप्रथम अंग्रेजी भाषा में पहला विज्ञापन एक परचे के रूप में प्रकाशित किया। साहित्यकार व इतिहासकार सत्येन्द्र कुमार पाठक ने कहा कि  इतिहासकार फेंक प्रेस्वी के अनुसार-'मक्यूरियम ब्रिटानिक्स' पुस्तक में एक विज्ञापित घोषणा के रूप में विज्ञापन का पहला रूप सामने आया। हेनरी सैंपसन के अनुसार-सन १६५० में सर्वप्रथम विज्ञापन का स्वरुप  पुस्तक में देखने को मिला, जिसमें चोरी किए गए बारह घोडों को लौटाने पर पुरस्कार की घोषणा विज्ञप्ति के रूप में छपी थी। विज्ञापन की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि इंग्लैंड के समाचार-पत्रों में विज्ञापन के रूप में प्रकाशित घोषणाओं में दिखाई देती है। उसके बाद चाय, काँफी, चाँकलेट, किताब आदि के विज्ञापनों के साथ-साथ खोई-पाई वस्तुओं के विज्ञापन प्रकाशन की प्रथा चल पडी है । अमेरिका में विज्ञापन का विकास का रूप -सन १८७० में अमेरिका में पहला विज्ञापन प्रकाशित हुआ था । अमेरिका में सन १८४१ में पहली विज्ञापन एजेंसी वाल्नी पाँल्मर स्थापित थी। अमेरिका का पहला विज्ञापन ८ मई, १७०४ में 'बोस्टन न्यूज लैटर' में प्रकाशित हुआ। धीरे-धीरे सचित्र विज्ञापन की प्रथा भी शुरु हो गई। विज्ञापन में आधुनिक तकनीक का प्रयोग किया जाने लगा। औदयोगिक क्रांति के फलस्वरुप विज्ञापन की दुनिया में तेजी से बदलाव आने लगा है । उच्च प्रौदयोगिकी के युग में विज्ञापन संसार को वैविध्यपूर्ण बना दिया है। समाचार पत्रों के मालिकों के लिए राजस्व का माध्यम विज्ञापन है । भारत में  25 मार्च 1788 को  कलकत्ता गजट में भारतीय भाषा में प्रथम  विज्ञापन बांग्ला भाषा में प्रकाशित हुआ था।विज्ञापन की दुनिया में तेजी से बदलाव आने लगा है । उच्च प्रौदयोगिकी के युग में विज्ञापन संसार को वैविध्यपूर्ण बना दिया है। विज्ञापन  एक आकर्षक उद्योग

 चुका है।

गुरुवार, मार्च 24, 2022

गुरुत्वाकर्षण के प्रणेता भास्कराचार्य.....


भारत के प्रसिद्ध गणितज्ञ एवं ज्योतिषी भास्कराचार्य का जन्म 1114 ई. में  सह्याद्री पर्वतीय क्षेत्र के विज्जलविड के निवासी शाकद्वीपीय ब्राह्मण शांडिल्य गोत्र वंशीय महेश्वर उपाध्याय  के पुत्र  के रूप में हुए एवं निधन 1185 ई. को उज्जैन में हुआ था । भास्कराचार्य  का जन्म कर्नाटक राज्य का विज्जरगी जिले के विजपुरेन्हा और महाराष्ट्र के परमानी जिले के बोरी एवं कर्नाटक के विजज्डविड जिले के पाटन  में शिक्षा ग्रहण तथा उज्जैन में खगोलीय कार्य किया था । भास्कराचार्य की पुत्री लीलावती द्वारा अंकगणित एवं पुत्र लोक समुद्र ने ज्योतिष शास्त्र के रचयिता समुद्री शास्त्र में ग्रहों , दिनमान , होड़ाचक्र , राशि पर उल्लेखनीय कार्य किया है । भास्कराचार्य  द्वारा रचित सिद्धान्त शिरोमणि में लीलावती, बीजगणित, ग्रहगणित तथा गोलाध्याय  भाग में अंकगणित, बीजगणित, ग्रहों की गति से सम्बन्धित गणित तथा गोले का उल्लेख किया है । भास्कराचार्य ने  ‘सिद्धांतशिरोमणि’ ग्रंथ में पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण के बारे में  ‘पृथ्वी आकाशीय पदार्थों को विशिष्ट शक्ति से अपनी ओर खींचने के कारण आकाशीय पिण्ड पृथ्वी पर गिरते हैं’। भास्कराचार्य ने करणकौतूहल  ग्रन्थ की  रचना थी। उज्जैन की वेधशाला के अध्यक्ष भास्कराचार्य  थे। भास्कराचार्य के जीवन का उल्लेख गोलध्याये प्रश्नध्याय: श्लोक 61 के अनुसार आसीत सह्यकुलाचलाश्रितपुरे त्रैविद्यविद्वज्जने। नाना जज्जनधाम्नि विज्जडविडे शाण्डिल्यगोत्रोद्विजः॥ श्रौतस्मार्तविचारसारचतुरो निःशेषविद्यानिधि।साधुर्नामवधिर्महेश्‍वरकृती दैवज्ञचूडामणि॥ श्लोक के अनुसार भास्कराचार्य शांडिल्य गोत्र के भट्ट ब्राह्मण  और सह्याद्रि क्षेत्र के विज्जलविड  स्थान के निवासी थे। डॉ. भाऊ दाजी (१८२२-१८७४ ई.) ने महाराष्ट्र के चालीसगाँव से लगभग १६ किलोमीटर दूर पाटण गाँव के एक मंदिर में  शिलालेख की खोज  के अनुसार भास्कराचार्य के पिता का नाम महेश्वर भट्ट  से भास्कराचार्य ने गणित, ज्योतिष, वेद, काव्य, व्याकरण आदि की शिक्षा प्राप्त की थी। भास्कराचार्य द्वारा रचित गोलाध्याय के प्रश्नाध्याय, श्लोक ५८ में उल्लेखनीय है कि  रसगुणपूर्णमही समशकनृपसमयेऽभवन्मोत्पत्तिः। रसगुणवर्षेण मया सिद्धान्तशिरोमणि रचितः॥ अर्थ : शक संवत १०३६ में मेरा जन्म हुआ और छत्तीस वर्ष की आयु में मैंने सिद्धान्तशिरोमणि की रचना की। भास्कराचार्य का जन्म शक – संवत १०३६, अर्थात ईस्वी संख्या १११४ में हुआ था और उन्होंने ३६ वर्ष की आयु में शक संवत १०७२, अर्थात ईस्वी संख्या ११५० में लीलावती की रचना की थी।
भास्कराचार्य ने ग्रंथ करण-कुतूहल की रचना ६९ वर्ष की आयु में ११८३ ई. में की थी। इससे स्पष्ट है कि भास्कराचार्य को लम्बी आयु मिली थी। उन्होंने गोलाध्याय में ऋतुओं का सरस वर्णन किया है । प्राचीन वैज्ञानिक परंपरा को आगे बढ़ाने वाले गणितज्ञ भास्कराचार्य के नाम से भारत ने 7 जून 1979 को छोड़े उपग्रह का नाम भास्कर-1 तथा 20 नवम्बर 1981 को छोड़े प्रथम और द्वितीय उपग्रह का नाम भास्कर-2 रखा है। सन् 1150 ई० में भास्कराचार्य ने संस्कृत भाषा में  सिद्धान्त शिरोमणि ,  पाटीगणिताध्याय या लीलावती, बीजगणिताध्याय, ग्रहगणिताध्याय, तथा गोलाध्याय ,  करणकुतूहल और वासनाभाष्य  तथा भास्कर व्यवहार और भास्कर विवाह पटल ज्योतिष ग्रंथ  हैं।  सिद्धान्तशिरोमणि से भारतीय ज्योतिष शास्त्र का सम्यक् तत्व  है। भास्कराचार्य द्वारा ६९ वर्ष की आयु में  करणकुतूहल में खगोल विज्ञान की गणना  लिखी गयी है । कारण कुतूहल पुस्तक से पंचांग या कैलेंडर का निर्माण किये जाते  है। भास्कर  मौलिक विचारक  एवं प्रथम गणितज्ञ थे  । गुप्तवंशीय ब्रह्मगुप्त काल में भास्कर ने  बीजगणित में गेलोयस, यूलर और लगरांज द्वारा चक्रवात को  `इनवर्स साइक्लिक' कहा था । त्रिकोणमिति के कुछ महत्वपूर्ण सूत्र, प्रमेय तथा क्रमचय और संचय का विवरण  है। अंकगणितीय क्रियाओं का अपरिमेय राशियों में प्रयोग किया। गणित को इनकी सर्वोत्तम देन चक्रीय विधि द्वारा आविष्कृत, अनिश्चित एकघातीय और वर्ग समीकरण के व्यापक हल हैं। भास्कराचार्य के ग्रंथ की अन्यान्य नवीनताओं में त्रिप्रश्नाधिकार की नई रीतियाँ, उदयांतर काल का  विवेचन आदि है।भास्करचार्य को अनंत तथा कलन के कुछ सूत्रों का ज्ञान था।भास्कर को अवकल गणित का संस्थापक कह सकते हैं। उन्होंने इसकी अवधारणा आइज़ैक न्यूटन और गोटफ्राइड लैब्नीज से कई शताब्दियों पहले की थी। भास्कराचार्य पश्चिम में अवकल गणित  के संस्थापक माने जाते हैं। भास्कराचार्य  अपने गोलाध्याय ग्रंथ में 'माध्यकर्षणतत्व' के नाम से गुरुत्वाकर्षण के नियमों की विवेचना की है। ये प्रथम व्यक्ति हैं, जिन्होंने दशमलव प्रणाली की क्रमिक रूप से व्याख्या की है। गोलाध्याय के ज्योत्पत्ति भाग के  श्लोकों में चापयोरिष्टयोर्दोर्ज्ये मिथःकोटिज्यकाहते। त्रिज्याभक्ते तयोरैक्यं स्याच्चापैक्यस्य दोर्ज्यका ॥ २१ ॥ चापान्तरस्य जीवा स्यात् तयोरन्तरसंमिता ॥२१ १/२ ।। भास्कराचार्य ने कैलकुलस पर अमरगति  पहला उल्लेख भास्कराचार्य ने  किया है। भास्कर  यस्तियंत्र नामक एक मापन यंत्र का उपयोग करते थे। 

बुधवार, मार्च 23, 2022

मधेपुरा की सांस्कृतिक विरासत ...


बिहार राज्य का 9 मई 1981 ई. में स्थापित 1787 वर्ग कि मि . व 690 वर्ग मी. क्षेत्रफल में अवस्थित  मधेपुरा जिला का मुख्यालय मधेपुरा के  उत्तर में अररिया,  सुपौल, दक्षिण में खगड़िया , भागलपुर , पूर्व में पूर्णिया तथा पश्चिम में सहरसा जिले की सीमा से घिरा है। कोशी नदी के मैदानों में स्थित  25°. 34 - 26°.07’ उत्तरी अक्षांश तथा 86° .19’ से 87°.07’ पूर्वी देशान्तर के बीच मधेपुरा जिला में 2 अनुमंडल एवं 11 प्रखंड  है। पौराणिक काल में कोशी नदी के तट पर ऋषया शांता एवं ऋषि  श्रृंग का आश्रम था। ऋषया शांता एवं ऋषि श्रृंग द्वारा  अपने आराध्य देव भगवान शिव की उपासना स्थल पर शिवलिंग की स्थापना करने के कारण  श्रृंगेश्‍वर नाथ के नाम से विख्यात है ।  मिथिला राज्य का हिस्सा,  मगध साम्राज्य का  मौर्य वंश , कुषाण वंशीय के अधीन मधेपुरा था । उदा-किशनगंज स्थित मौर्य स्तम्भ है। शंकरपुर प्रखंड के बसंतपुर तथा रायभीर गांवों में रहने वाले भांट समुदाय के लोग कुशान वंश के परवर्ती हैं। मुगल शासक अकबर के समय की मस्जिद सारसंदी गांव में स्थित है । सिंहेश्वर स्थान -  पुरणों एवं इतिहासकारों  के अनुसार त्रेतायुग में अयोध्या का राजा दशरथ की भार्या कौशल्या की पुत्री एवं भगवान राम की बहन  ऋषया शांता एवं ऋषि  श्रृंग के आश्रम के समीप  प्राकृतिक शिवलिंग उत्पन्न हुई थी। मधेपुरा का व्यापारी  हरि चरण चौधरी द्वारा श्रृंगेश्वर ( सिंहेश्वर )  मंदिर का निर्माण  करवाया  था।  श्रृंगी ऋषि द्वारा स्थापित शिवलिंग 15 फिट ऊँचाई युक्त चट्टान पर स्थित है । राजा मधेश द्वारा मधेश साम्राज्य की राजधानी मधेशपुर नगर और श्रृंगेश्वर  मंदिर का निर्माण कर भगवान शिव की उपासना स्थल कायम किया गया था ।उदाकिशुनगंज - उदाकिशुनगंज में 18 वीं सदी का राजपूत राजा चंदेल वंशीय उदय सिंह एवं किसुन सिंह द्वारा दुर्गा मंदिर की स्थापना की गई थी ।  कोशी की धारा बदलने के बाद आनंदपुरा गांव के हजार मनी मिश्र ने दुर्गा मंदिर की स्थापना के लिए जमीन दान एवं  कुएं का निर्माण कराया था । उदाकिशुनगंज निवासी प्रसादी मिश्र मंदिर के पुजारी द्वारा  1768 ई में प्रथम  बार कलश स्थापित किया था।  मझुआ - संत शिशु सूरज द्वारा मझुया में  सत्संग आश्रम का निर्माण करवाया गया था  । मझुआ निवासी बाबुजन लाल की पत्नी जनकवती देवी के गर्भ से  महान संत महर्षि मेंही परमहंस जी महाराज का जन्म  28 अप्रैल 1885 ई. को हुआ था । पचरासी  - मधेपुरा के चौसा प्रखंड का   पचरासी स्थित मुगल बादशाह मोहम्मद शाह रंगीला शासन काल 1719 ई. में बाबा विशु राउत  का जन्म  हुआ था ।  पचारासी स्थित विशु धाम में लोक देव विशु पशु पलकों के लिए पूजन का महत्पूर्ण केंद्र   है । 14 अप्रैल 2015 को  मुख्यमंत्री नीतिश कुमार द्वारा विशु  मेला का उद्घाटन कर लोक देवता बाबा विशु की प्रतिमा पर दुधाभिषेक किया एवं  लालू प्रसाद द्वारा अपने मुख्यमंत्रीत्व काल में  बाबा विशु की प्रतिमा पर दुधाभिषेक किया गया है । कोसी एवं अंग प्रदेश , पूर्वोत्तर बिहार में बाबा बिशु के प्रताप  से पशुपालक अपने पशु के पहले दूध से बाबा का अभिषेक करते हैं। बाबा बिशु की वीरगाथा एवं पशु प्रेम को चरवाहों द्वारा अंगिका भाषा  में लोकगीत गया कर  बाबा विशु समाधि स्थल पर कच्चा दूध चढ़ाया जाता है और दिन गुजर जाने के बाद भी यह दूध खराब नहीं होता है। आज भी महिला समेत लाखों श्रद्धालु एवं पशुपालन दिन के मेले में दुधारू पशुओं का दूध चढ़ाया एवं स्वस्थ रहने की मनोकामना पूरी करने की प्रार्थना की पूजा अर्चना में सैकड़ो मन दूध चढ़ाया जिसे मेला में दूध की धारा बहने लगता है । बाबा विशु राउत स्थान में सप्ताह में 2 दिन सोमवार और शुक्रवार को बैरागी (जोनर) लगता है। इस दिन दूर दराज से लोग अपने पशुओं के दूध को लेकर बाबा बिशु को दूध अर्पित करते  और प्रसाद के रूप में दही चूड़ा ग्रहण करते हैं। मधेपुरा की कवित्री डॉ . इंदु कुमारी ने बताया कि वशु धाम 


का खीर खाने से सर्वार्थसिद्धि प्राप्ति होती है ।  श्रीनगर - मधेपुरा शहर से लगभग २२ किलोमीटर की दूरी पर उत्तर-पश्चिम में स्थित श्रीनगर में  किले का राजा श्री देव रहने के लिए किया करते थे। किले के पश्चिम और दक्षिण-पश्चिम दिशा की  हरसैइर कुंड और  घोपा कुंड व  पोखर् के भगवान शिव को पत्थर युक्त स्तम्भ से निर्मित शिव मंदिर के गर्भ गृह में स्थापित शिवलिंग  समर्पित है। रामनगर - मुरलीगंज रेलवे स्टेशन से लगभग 16 किलोमीटर की दूरी पर रामनगर में  देवी काली के मंदिर है । बसन्तपुर - मधेपुरा के दक्षिण से 24 किलोमीटर की दूरी पर बसंतपुर में  द्वापरयुग में राजा विराट द्वारा किले का निर्माण कर कीचक को रहने का स्थान था। राजा विराट के साले कीचक को भीम ने मारा था। बिराटपुर - सोनबरसा रेलवे स्टेशन से लगभग नौ किलोमीटर की दूरी पर बिराटपुर में महाभारत काल में निर्मित  देवी चंडिका मंदिर  है । 11वीं शताब्दी में राजा कुमुन्दानंद द्वारा काली  मंदिर के बाहर पत्थर के स्तम्भ बनवाए गए थे। काली मंदिर के पश्चिम आधा किलोमीटर की दूरी स्थित  पर्वत  पर द्वापर युग में अज्ञातवास के समय  पांडव पुत्रों का निवास था ।  बाबा करु खिरहर मंदिर महर्षि खण्ड के महपुरा गांव में स्थित है। मधेपुरा जिला अब सहरसा जिले अलग स्थापित मधेपुरा को राजस्व  जिले का सृजन  9 मई 1981 में प्राप्त हुआ है ।  था।  3 सितंबर 1845 से भागलपुर जिले के तहत उप-मंडल मधेपुरा अनुमंडल था।  1 अप्रैल 1954 को भागलपुर जिले से अलग करके सहरसा जिला का सृजन किया गया था।  मधेपुरा जिला 1,788 वर्ग किलोमीटर (690 वर्ग मील) के मधेपुरा जिला कोशी नदी के मैदानी क्षेत्र और बिहार के उत्तरपूर्वी भाग में 25° के बीच अक्षांश पर स्थित है। 34 से 26°.07' और देशांतर 86°.19' से 87°.07' के बीच गुमती नदी के किनारे मधेपुरा शहर स्थित है । मधेपुरा जिले में अनुमंडल   मधेपुरा और उद किशुनगंज, 13 ब्लॉक, 13 थाना, 170 पंचायत और 434 राजस्व गांव तथा  प्रखंड में मधेपुरा , घेलर्दो , सिंगेश्वर-स्थान प्रखण्ड, गम्हरिया , शंकरपुर , कुमारखंड ,मुरलीगंज ,ग्वालपारा , बिहारीगंज ,उदाकिशुनगंज , पुराणी ,आलमनगर ,चौसा में  2011 की जनगणना के अनुसार  मधेपुरा जिले की  जनसंख्या 2,001,762 में  साक्षरता दर 53.78% है ।लिंग  पुराण , वासव पुरणों ,  महाकवि विद्यापति ने  14वीं शताब्दी मे , वाल्मीकि रामायण , ऋषि  (ऋष्यशृंग) आश्रम , महाकवि कालिदास द्वारा रचित कुमार शाम्भवम में भगवान शिव को कोसी के गुमती नदी के तट भगवान विष्णु द्वारा स्थापित श्रृंगेश्वर शिवलिंग का उल्लेख की गई है । सिंहेश्वर मंदिर का निर्माण  कुषाण वंश द्वारा कराया गया था। श्रृंगेश्वर मंदिर का जीर्णोद्धार भानु दास ने की है। सिंघेश्वर में रात रुकने से हजार गायों के उपहार एवं सर्वाङ्ग विकास  का फल मिलता है ।

शुक्रवार, मार्च 18, 2022

भागलपुर की सांस्कृतिक विरासत ....


पुरणों , स्मृतियों महाकाव्य रामायण में अयोध्या का राजा दशरथ की पत्नी कौशल्या की पुत्री एवं भगवान  श्री राम की बहन शांता का उल्लेख किया गया है । अयोध्या नरेश दशरथ की तीन पत्नियों कौशल्या, सुमित्रा और कैकेयी में से कौशल्या नंदनी शांता अत्यंत सुन्दर और सुशील , वेद, कला तथा शिल्प में पारंगत थीं।  राजा दशरथ को अपनी  पुत्री शांता पर बहुत गर्व था। रामायण  अनुसार रानी कौशल्या की बहन रानी वर्षिणी संतानहीन होने के कारण  दुखी रखती थी। अंगदेश का राजा रोमपद  की पत्नी वर्षिणी  रोमपद  अयोध्या आएं। राजा दशरथ और रानी कौशल्या से वर्षिणी और रोमपद का दुःख देखा न गया और उन्होंने निर्णय लिया कि वह शांता को उन्हें गोद दे देंगे। दशरथ के इस फैसले से रोमपद और वर्षिणी की काफी प्रसन्नता हुई थी ।अंगदेश का राजा रोमपद द्वारा शांता अंगदेश की राजकुमारी घोषित की गई थी । हिमाचल के कुल्लू से 50 कि. मि. पर  शृंग ऋषि एवं भगवान राम की बड़ी बहन शांता की पूजा होती है।  ब8हर का भागलपुर का श्रृंगेश्वर स्थान पर श्रृंगी ऋषि एवं शांता मंदिर , नवादा जिले का श्रृंगी पर्वत पर श्रृंगी ऋषि एवं शांता की उपासना स्थल है । पूर्वी भारतीय उपमहाद्वीप और सोलह महाजनपदों मे मगध के पूर्व  अंग आधुनिक भागलपुर है । अंग  की राजधानी चंपा नदी के तट पर राजा अंग द्वारा  चंपा और मालिनी नगर की स्थापना की गई थी । अंग को 6 ठी शताब्दी ई. पूर् . में मगध द्वारा कब्जा कर लिया गया था। उत्तर वैदिक काल 1100 ई. पु. से 500  ई. पु. तक अंग की राजधानी भागलपुर के समीप  चम्पापुरी और अंगराज ब्रह्मदत्त के समय मुंगेर के समीप मालिनी थी । लौह तथा काश्य युग  में अंग विकसित था । जैन  व्याख्यप्रज्ञप्ति एवं बौद्ध ग्रंथों का  अंगुत्तर निकाय के अनुसार "सोलह महान राष्ट्रों" में अंग का उल्लेख किया गया है । महाभारत  1 .104.53-54 और पौराणिक साहित्य के अनुसार, अंग प्रदेश  के संस्थापक राजकुमार अंग और बाली के पुत्र अंगद  के नाम पर रखा गया था ।  ऋषि दिर्घटामास प्रताप से राजा अंग की पत्नी रानी सुदेशना  के अंग पुत्रों का आशीर्वाद देने का अनुरोध किया। कहा जाता है कि ऋषि ने अपनी पत्नी, रानी सुदेसना द्वारा अंग , वंगा , कलिंग , सुम्हा और पुंड्रा जन्म दिया गया ।  महाभारत के अनुसार अंग महाजनपद के राजा कर्ण और भानुमति ने मगध साम्राज्य का राजा जरासंध द्वारा प्राप्त  बंजर भूमि को समृद्ध शहर निर्माण कर मालिनी नगर सपर्पित किया गया था ।  रामायण 1.23.14 के अनुसार   कामदेव को शिव ने जलाकर मार डालने के कारण कामदेव का  शरीर के अंग  बिखरे होने के कारण अंग स्थल कहा गया था । अथर्ववेद (वी.22.14) के अनुसार कीकट ,  मगध , गांधार , अंग, कलिंग , वंगा, पुंड्रा ,  पूर्वी बिहार , पश्चिम बंगाल और बांग्लादेश का क्षेत्र , विदर्भ और विंध्य जनपदों शामिल थे ।हैं । महागोविंदा सुत्तंत के अनुसार  अंग राजा धतरथ को संदर्भित करता है। जैन ग्रंथों में अंग के शासक के रूप में धधिवाहन  , पुराण और हरिवंश राज्य के संस्थापक अंग के पुत्र और तत्काल उत्तराधिकारी के रूप में उनका प्रतिनिधित्व करते हैं । महाभारत आदि पर्व के अनुसार, दुर्योधन ने कर्ण को अंग का राजा नामित किया था। अंग का राज्य दुर्योधन द्वारा कर्ण को उपहार में दिया गया था। कर्ण को अंग साम्राज्य प्राप्त होने के बाद बंजर भूमि पर  भानुमति और कर्ण ने भूमि पर रहने वाले दैत्यों से लड़ाई की। भानुमति ने कर्ण को अपने कंधों पर उठा लिया और अपने वज्रस्त्र से दानव-भूमि को नष्ट कर उसे कृषि योग्य भूमि में बदल दिया। जल्द ही कर्ण ने पूरी पृथ्वी पर विजय प्राप्त कर लिया था । वत्स और अंग के दायरे के बीच, मगध रहते थे । अंग और उसके पूर्वी पड़ोसियों के बीच एक महान संघर्ष चला। विधुर पंडित जातक ने राजगृह (मगधन राजधानी) को अंग के शहर के रूप में वर्णित किया है और महाभारत में अंग के राजा द्वारा विष्णुपद ( गया में ) पर्वत पर किए गए बलिदान का  उल्लेख है।  6 वीं शताब्दी ई.  पू .  में, मगध के राजकुमार बिंबिसार ने अंग राजा ब्रह्मदत्त को मार डाला था और चंपा पर कब्जा कर लिया था। बिंबिसार ने चंपा पर मगध का  मुख्यालय बनाया था । अंग सबसे पूर्वी, वृज्जी के दक्षिण में और मगध के पूर्व में है । महाभारत के सभापर्व (II.44.9) एवं कथा-सरित-सागर के अनुसार अंग का  शहर विटंकापुर समुद्र के तट पर स्थित था।अंग उत्तर में कौशिकी नदी से घिरा था । अंग की राजधानी चंपा को  मालिनी  6 ठी शताब्दी ई.पू. सबसे महान शहरों में  था।चीनी भिक्षु फैक्सियन ने 4थी शताब्दी में   बौद्ध मंदिरों काचंपा को  चीनी में चानपो , पिनयिन : झांबी ; वेड-गाइल्स : चैनपो , तथा अंग को यांग्जिया , रोमापदा जाना जाता था। अंग के संस्थापक और राजा वली के पुत्र अंगद था । अंग देश का राजा बृहद्रथ: , कर्ण , वृषकेतु - पुत्र , ताम्रलिप्ता , त्रेतायुग में अयोध्या का राजा दशरथ का मित्र लोमपाद , चित्ररथ , वृहद्रथ:वसुहोमा , धतरथ ,धादिवाहन  , ब्रह्मदत्त - अंग के अंतिम राजा था । ब्रह्म पुराण  के अनुसार  स्वायम्भुव मन्वन्तर में स्वायम्भुव मनु एवं शतरूपा  के अंश से वीर ,प्रियव्रत और उत्तानपाद का जन्म हुआ था । प्रजापति अत्रि ने राजा उत्तानपाद को दतकपुत्र बनाया और उत्तानपाद का विवाह सूनृता से सम्पन्न किया था । चाक्षुष मन्वंतर इन चाक्षुष मनु की पत्नी वैराज प्रजापति की पुत्री नडवला का द्वितीय पुत्र पुरुकी पत्नी आग्रेयी का जेष्ठ पुत्र अंग द्वारा अंग प्रदेश की स्थापना की गई थी । अत्रि कुल में उत्पन्न एवं पुरु की पत्नी आग्रेयी के पुत्र अंग की पत्नी एवं मृत्यु कन्या सुनीता के गर्भ से वें का जन्म हुआ था । अंग देश का राजा वेन द्वारा अधर्म का साथ और धर्म का विरोध करने से जनता , प्रकृति , पृथिवी पर अत्याचार बढ़ाने लगे थे । अंग देश के ऋषियों द्वारा वेन के शरीर से मंथन कर पृथु  , मागध एवं सूत , निषद की उत्पत्ति कर अंग देश का विकास किया था । अंग देश का राजा भगवान विष्णु के अवतार के रूप में पृथु द्वारा धर्म एवं वेद , प्रकृति , पृथिवी का चतुर्दिक विकास किया गया । मागध द्वारा मगध और सूत द्वारा ओडिशा देश की स्थापना की गयी  थी । अंग देश का संस्थापक  एवं विकास का रूप राजा पृथु द्वारा किया गया था । 
 बिहार राज्य  का  गंगा के तट पर बसा  3100 वर्गमील  में फैले भागलपुर की 2011 जनगणना के अनुसार 3037776 आवादी वाला बंगाल अभिलेखाकार के अनुसार भागलपुर जिले की स्थापना 04 मई 1773 ई. है। 1525 गाँवों को 16 प्रखंडों एवं 03 अनुमंडलों का क्षेत्र को पुराणों और महाभारत में  क्षेत्र को अंग प्रदेश कहा  गया है। भागलपुर के निकट स्थित चम्पानगर महान पराक्रमी शूरवीर कर्ण की राजधानी थी । भागलपुर सिल्क एवं तसर सिल्क का उत्पादन केंद्र है । पुराणों के अनुसार अंग राज भगदंत द्वारा भगदंतपुर नगर की स्थापना की थी । भगदंतपुर का आधुनिक  भागलपुर के नाम से विख्यात है । भागलपुर क्षेत्र में प्रमुख भाषा अंगिका और हिंदी है । भागलपुर नगर के  मुहल्लों में  1576 ई को  बादशाह अकबर के  मुलाज़िम मोजाहिद के नाम मोजाहिदपुर ,  बंगाल के सुल्तान सिकंदर ने सिकंदरपुर , अकबर काल मे कर्मचारी तातार खान ने ततारपुर ,  शाहजहाँ काल के काज़ी  काजवली ने कजवालीपुर ,   अकबर के शासन काल मे फकीर शाह कबीर ने कविरपुर के नाम पर पड़ा ,उनकी कब्र भी इसी मुहल्ले मे है । नरगा – इसका पुराना नाम नौगजा था यानी एक बड़ी कब्र । वख्त्यार खिलजी काल मे  युद्ध के शहीदो को  कब्र मे दफ़्नाके गए स्थल को नरगा , शाह मदार का मज़ार के कारण मदरोजा , अकबर के कार्यकाल मे युद्ध में  शाह मंसूर की कटी उँगलियाँ   कटी और मृत्यु होने के बाद दफनाए गए स्थल मंसूरगंज ,   अकबर के समय के आदम बेग और खंजर बेग को आदमपुर , खंजरपुर स्थल समर्पित है ।ये दोनों मुहल्ले रखे गए थे । मशाकचक – अकबर के काल के सूफी संत  मशाक बेग का  मज़ार होने से  मशाकचक पड़ा ।  जहांगीर काल में  बंगाल के गवर्नर इब्राहिम हुसैन के परिवार की जागीर होने से हुसैनगंज ,मुगलपुरा  मुहल्ले बस गए ।  सुल्तानपुर के 12 परिवार एक साथ आकर रहने से बरहपुरा , फ़तेहपुर – 1576 ई मे शाहँशाह अकबर और दाऊद खान के बीच हुई लड़ाई मे अकबर की सेना को फ़तह मिलने से  फ़तेहपुर ,  सराय – मुगल काल मे सरकारी कर्मचारिओ और आम रिआयासी स्थल  को   सराय ,  औरंगजेव के भाई शाह सूजा ने सूजा  गंज  में शाह सुजा की लड़की का मज़ार होने से  उर्दू बाज़ार , मुगल सेनाओं के स्थल को रकाबगंज ,  सूफीसंत दमडिया ने अपने महरूम पिता मखदूम सैयद हुसैन के नाम पर हुसैनपुर बसाया था । अकबर काल के ख्वाजा सैयद मोईनउद्दीन बलखी के नाम पर मोइनूद्दीनचक व मुंदीचक कहलाने लगा । जमालउल्लाह खलीफा स्थल को  खलीफा बाग,  शाह शुजा के काल मे सैयद मुर्तजा शाह आनंद वार्शा ने मुहल्ला असानंदपुर की स्थापना की थी ।
मंदार पहाड़ी -   भागलपुर से 48 किलोमीटर की दूरी पर अवस्थित  बांका जिले का 800 फीट ऊँचाई युक्त  मंदार पर्वत   है।  मंदार पहाड़ी के चारों ओर  शेषनाग के चिन्‍ह एवं पर्वत की चोटी पर भगवान विष्णु का पद चिह्न है । पहाड़ी पर देवी देवताओं का मंदिर , जैन के 12 वें तिर्थंकर का  निर्वाण स्थल प्राप्‍त किया था।  मंदार पर्वत की चोटी पर  झील व पहाड़ी के पापहरनी तलाब है । विक्रमशिला विश्वविद्यालय - भागलपुर से 38 किलोमीटर दूरी पर अन्तीचक में  पाल वंश के शासक धर्मपाल द्वारा  770-810 ई . में विक्रमशिला विश्वविद्यालय का निर्माण  करवाया गया था। कोसी और गंगा नदी से घीरा अंतीचक में तांत्रिक केंद्र में तंत्र और मंत्र का शिक्षा केन्द्र  में मां काली और भगवान शिव का मंदिर स्थित है।  कहलगांव - कहलगांव भागलपुर से 32 किलोमीटर की दूरी पर कहलगांव में  जाह्नु ऋषि के तप में गंगा की तीव्र धारा से व्‍यवधान पड़ा था। इससे क्रो‍धित होकर ऋषि ने गंगा को पी लिया। बाद में राजा भागीरथ के प्रार्थना के उपरांत उन्‍होंने गंगा को अपनी जांघ से निकाला। तत्पश्चात गंगा का नाम जाह्नवी कहलाया था । ऋषि जह्नु के कारण  गंगा की धाराएं दक्षिण से उत्‍तर की ओर गमन करने लगी है । सुल्तानगंज में गंगा के मध्य में अजगैवी पर्वत श्रृंखला पर  अजगैवी नाथ मंदिर  , ऋषि जह्नु का स्थल , उत्तरवाहिनी गंगा , कहलगांव स्थित गंगा में  में डॉल्‍फीन है। कुप्‍पा घाट, विषहरी स्‍थान, भागलपुर संग्रहालय, मनसा देवी का मंदिर, जैन मन्दिर, चम्पा, विसेशर स्थान, 25किलोमीटर दूर सुल्‍तानगंज आदि  है।

सोमवार, मार्च 14, 2022

नेर की सांस्कृतिक विरासत ...

सभ्यता और संस्कृति  से क्षेत्र की विरासत से पहचान होती है । मागधीय कि प्राचीन संस्कृति का इतिहास में नेर की  गौरवशाली रही थी । मगध क्षेत्र  नवपाषाणकाल 9000 ई .पू. में विकसित था । नेर की नाव पाषाणिक संस्कृति के अंतर्गत पषणयुक्त शिव मंदिर एवं परिसर है । नेर गढ़ में छिपी अनेक पुरातत्विक विरासत है । बिहार का जहानाबाद जिले के मखदुमपुर प्रखंडान्तर्गत मकरपुर पंचायत स्थित नेर के पूर्व रोजा तलाव , पश्चिम भैरव आहर एवं नेर के मध्य में भगवानशिव का पषणयुक्त मंदिर है । जहानाबाद से 22 कि. मि. दक्षिण मखदुमपुर से 4 कि. मि. , गया पटना रोड एन एच तथा पटना गया रेलखंड नेर हॉल्ट है । 2011 कि जनगणना के अनुसार 860 हेक्टयर में फैले नेर की आवादी 3380 में साक्षरों की संख्या  1951 है । नेर से 3 कि. मि. पर धरनई , 4 कि मि. पर छेरियारी , और डकरा तथा जगपुरा 5 कि. मि . एवं मकरपुर पंचायत में 14 ग्राम एवं टोले है । सूर्य वंशीय इक्ष्वाकु कुल के कुक्षी के पौत्र विकुक्षि के पुत्र बाण द्वारा बाणावर नगर की स्थापना की थी । साहित्यकार व इतिहासकार सत्येन्द्र कुमार पाठक ने कहा कि विकुक्षि पुत्र बाण द्वारा बराबर पर्वत समूह की ऊंची चोटी सूर्यान्क गिरी पर सिद्धेश्वरनाथ उपासना स्थल की नींव डाला गया था । बाण का पुत्र अनरण्य की पत्नी अजा के पौत्र पृथु का पुत्र दशरथ द्वारा अनरण्य नगर की स्थापना की थी । अनरण्य नगर में अनरेश्वर शिव लिंग की स्थापना एवं मंदिर का निर्माण किया था । अंधक वंशीय हृदक कुल के नरान्त द्वारा अनरण्य नगर का नामकरण नरान्त नगर एवं ब्रह्मपुराण के अनुसार मनुवर तीर्थ के रूप में विख्यात हुआ । महाभारतकाल तथा द्वापरयुग में राजा बलि के औरस पुत्र बाणासुर की पुत्री उषा का प्रिय स्थल मनुतीर्थ थी । नेर को अनरण्य नगर , नरान्त नगर , मनुवरतीर्थ ,  राजा किश द्वारा अपने पिता के नाम पर मनुवर स्थल को  नेर नामकरण किया था । अकबर कसल में खानदेश राजा फारूकी द्वारा अकबर शासन काल में नेर को राजधानी बनाई वही बिहार का सूबेदार दाऊद खां द्वारा  नेर का पुत्र अब्नेर ने नेर का विकास किया । अब्नेर द्वारा नेर से पूरब रोजा तलाव का निर्माण किया था । बौद्ध ग्रन्थ अंगुत्तरनिकाय एवं जैन ग्रंथ के भगवती सूत्र में मगध की सभ्यता का उल्लेख किया गया है ।गुप्त वंशीय राजाओं द्वारा 319 ई. से समाज और संस्कृति का प्रकाश लाया गया है । शूद्रक का मृच्छकटिक में नगर जीवन के विषय में रोचक सामग्री है । गुप्त काल में नेर शिवमंदिर की वास्तुकला का आविर्भाव है । नेर शिवमंदिर एवं परिसर पाषाण खम्भों से युक्त वर्गाकार सपाट छत ,उथले स्तम्भों पर पंचायतन शैली में निर्मित है । पषणयुक्त मंदिर के गर्भगृह में शिवलिंग स्थापित एवं भगवान शिव माता पार्वती का विहार मूर्ति तथा पषणयुक्त मंदिर परिसर में त्रिदेव की मूर्ति , अन्य मूर्तियां है । नेर से पश्चिम वैट वृक्ष की छया में चतुर्मुख पशुपति नाथ जिसे भैरवनाथ की मूर्ति है । भैरवनाथ के समीप भैरव आहार एवं भूमि संपर्पित है । नेर गढ़ का अतिक्रमण करने के बाद अवशेष 4 ए. है । नेर की विरासत नेर गढ़ के गर्भ में छिपी हुई है ।

बुधवार, मार्च 09, 2022

होलाष्टक , होली प्रेम और सद्भावना का द्योतक ...


वेदों स्मृतियों और संहिताओं में होली का उल्लेख है । भक्ति, प्रेम ,  सच्चाई के प्रति आस्था और मनोरंजन का पर्व होली  विश्व  में  मनाया जाता है । होली में यूनिवर्सिटी ऑफ़ न्यू मेक्सिको में रंग खेलते विद्यार्थी है । नेपाल में होली के अवसर पर काठमांडू में एक सप्ताह के लिए  दरबार और नारायणहिटी दरबार में बाँस का स्तम्भ गाड़ कर आधिकारिक रूप से होली के आगमन की सूचना दी जाती है। पाकिस्तान, बंगलादेश, श्री लंका और मरिशस , कैरिबियाई देशों में फगुआ  धूमधामसे  होली का त्यौहार मनाया जाता है। १९वीं सदी के आखिरी और २०वीं सदी के प्रारम्भ  में भारतीय  मजदूरी करने के लिए कैरिबियाई देश गए थे। इस दरम्यान गुआना और सुरिनाम तथा ट्रिनीडाड  देशों में भारतीय जा बसे। फगुआ गुआना और सूरीनाम ,  गुआना में होली के दिन राष्ट्रीय अवकाश रहता है । लड़कियों और लड़कों को रंगीन पाउडर और पानी के साथ खेलते  है।गुआना ,  कैरिबियाई देशों में हिंदू संगठन और सांस्कृतिक संगठन नृत्य, संगीत और सांस्कृतिक उत्सवों के ज़रिए फगुआ मनाते हैं। ट्रिनीडाड एंड टोबैगो , विदेशी विश्वविद्यालयों में होली का आयोजन होता रहा है।  विलबर फ़ोर्ड के स्टैनफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी कैंपस और  रिचमंड हिल्स में होली मनाया जाता  हैं। मुगल बादशाहों में अकबर, हुमायूँ, जहाँगीर, शाहजहाँ और बहादुरशाह ज़फर होली के आगमन से बहुत पहले ही रंगोत्सव की तैयारियाँ प्रारंभ करवा देते थे। अकबर के महल में सोने चाँदी के बड़े-बड़े बर्तनों में केवड़े और केसर से युक्त टेसू का रंग घोला जाता था और राजा अपनी बेगम और हरम की सुंदरियों के साथ होली खेलते थे। शाम को महल में उम्दा ठंडाई, मिठाई और पान इलायची से मेहमानों का स्वागत किया जाता था और मुशायरे, कव्वालियों और नृत्य-गानों की महफ़िलें जमती थीं। जहाँगीर के समय में महफ़िल-ए-होली का भव्य कार्यक्रम आयोजित होता था। शाहजहाँ होली को 'ईद गुलाबी' के रूप में धूमधाम से मनाता था। बहादुरशाह ज़फर होली खेलने के बहुत शौकीन थे और होली को लेकर सरस काव्य रचनाएँ हैं। मुगल काल में होली के अवसर पर लाल किले के पिछवाड़े यमुना नदी के किनारे आम के बाग में होली के मेले लगते थे। मुगल शैली के एक चित्र में औरंगजेब के सेनापति शायस्ता खाँ को होली खेलते हुए दिखाया गया है। बरसाने' की लठमार होली फाल्गुन मास की शुक्ल पक्ष की नवमी को मनाई जाती है। नंद गाँव के ग्वाल बाल होली खेलने के लिए राधा रानी के गाँव बरसाने जाते हैं और जम कर बरसती लाठियों के साए में होली खेली जाती है ।मथुरा से 54 किलोमीटर दूर कोसी शेरगढ़ मार्ग पर फालैन में एक पंडा मात्र एक अंगोछा शरीर पर धारण करके २०-२५ फुट घेरे वाली विशाल होली की धधकती आग में से निकल कर अथवा उसे फलांग कर दर्शकों में रोमांच पैदा करते हुए प्रह्लाद की याद करता है। मालवा में होली के दिन लोग एक दूसरे पर अंगारे फेंकते हैं। उनका विश्वास है कि इससे होलिका नामक राक्षसी का अंत हो जाता है। राजस्थान में होली के अवसर पर तमाशे की परंपरा है। मध्य प्रदेश के भील होली को भगौरिया कहते हैं। भील युवकों के लिए होली अपने लिए प्रेमिका को चुनकर भगा ले जाने का त्योहार है। होली से पूर्व हाट के अवसर पर हाथों में गुलाल लिए भील युवक 'मांदल' की थाप पर सामूहिक नृत्य करते हैं। बिहार में 
होली खेलते समय सामान्य रूप से पुराने कपड़े पहने जाते हैं। होली खेलते समय लड़कों के झुंड में एक दूसरे का कुर्ता फाड़ देने की परंपरा है। होली का समापन रंग पंचमी के दिन मालवा और गोवा की शिमगो में वसंतोत्सव पूरा हो जाता है। तेरह अप्रैल को ही थाईलैंड में नव वर्ष 'सौंगक्रान' प्रारंभ में वृद्धजनों के हाथों इत्र मिश्रित जल डलवाकर आशीर्वाद लिया जाता है। लाओस में पर्व नववर्ष की खुशी के रूप में मनाया जाता है। म्यांमर में  जल पर्व जाना जाता है। जर्मनी में ईस्टर के दिन घास का पुतला बनाकर जलाया जाता है। लोग एक दूसरे पर रंग डालते हैं। हंगरी का ईस्टर होली है। अफ्रीका में 'ओमेना वोंगा' मनाया जाता है। ओमेना वोंगा  अन्यायी राजा को लोगों ने ज़िंदा जला डाला था।  वोमेना वोंगा का पुतला जलाकर नाच गाने से अपनी प्रसन्नता व्यक्त करते हैं। अफ्रीका  में सोलह मार्च को सूर्य का जन्म दिन मनाया जाता है।  पोलैंड में 'आर्सिना' पर लोग एक दूसरे पर रंग और गुलाल मलते हैं। यह रंग फूलों से निर्मित होने के कारण काफ़ी सुगंधित होता है। अमरीका में 'मेडफो'  पर्व मनाने के लिए लोग नदी के किनारे एकत्र होकर  गोबर तथा कीचड़ से बने गोलों से एक दूसरे पर आक्रमण करते हैं। ३१ अक्टूबर को अमरीका में सूर्य पूजा होबो की  होली   मनाया जाता है। चेक और स्लोवाक क्षेत्र में बोलिया कोनेन्से त्योहार पर युवा लड़के-लड़कियाँ एक दूसरे पर पानी एवं इत्र डालते हैं। हालैंड का कार्निवल होली सी मस्ती का पर्व है। बेल्जियम की होली भारत सरीखी होती है और लोग इसे मूर्ख दिवस के रूप में मनाते हैं। यहाँ पुराने जूतों की होली जलाई जाती है। इटली में रेडिका त्योहार फरवरी के महीने में एक सप्ताह तक हर्षोल्लास से मनाया जाता है। लकड़ियों के ढेर चौराहों पर जलाए जाते हैं। लोग अग्नि की परिक्रमा करके आतिशबाजी करते हैं। एक दूसरे को गुलाल भी लगाते हैं। रोम में इसे सेंटरनेविया कहते हैं तो यूनान में मेपोल। ग्रीस का लव ऐपल होली भी प्रसिद्ध है। स्पेन में भी लाखों टन टमाटर एक दूसरे को मार कर होली खेली जाती है। जापान में १६ अगस्त रात्रि को टेमोंजी ओकुरिबी नामक पर्व पर तेज़ आग जला कर यह त्योहार मनाया जाता है। चीन में होली की शैली का त्योहार च्वेजे पंद्रह दिन तक मनाया जाता है। लोग आग से खेलते हैं और अच्छे परिधानों में सज धज कर परस्पर गले मिलते हैं। साईबेरिया में घास फूस और लकड़ी से होलिका दहन है। नार्वे और स्वीडन में सेंट जान का पवित्र दिन होली है। शाम को किसी पहाड़ी पर होलिका दहन की भाँति लकड़ी जला कर के चारों ओर नाचते गाते परिक्रमा करते हैं। इंग्लैंड में मार्च के अंतिम दिनों में मित्रों और संबंधियों को रंग भेंट करते हैं ।  वसंत ऋतु में मनाया जाने वाला एक महत्वपूर्ण भारतीय और नेपाली लोगों का त्यौहार होली  है। विक्रम संवत के अनुसार फाल्गुन मास की पूर्णिमा को मनाया जाता है। वसंत की ऋतु में हर्षोल्लास के साथ मनाए जाने के कारण होली को  वसंतोत्सव,  कामोत्सव एवं रतिउत्सव -महोत्सव  कहा गया है। आर्यों में जैमिनी के पूर्व मीमांसा-सूत्र और कथा गार्ह्य-सूत्र ,  नारद पुराण औऱ भविष्य पुराण में होली पर्व का उल्लेख मिलता है। विंध्य क्षेत्र के रामगढ़ स्थान पर स्थित ईसा से ३०० वर्ष का अभिलेख तथा संस्कृत साहित्य में वसन्त ऋतु और वसन्तोत्सव  कवियों के प्रिय विषय रहे हैं। मुस्लिम पर्यटक अलबरूनी ने यात्रा संस्मरण में होलिकोत्सव का वर्णन किया है। अकबर का जोधाबाई के साथ तथा जहाँगीर का नूरजहाँ के साथ होली खेलने का वर्णन मिलता है। शाहजहाँ काल  में होली को ईद-ए-गुलाबी या आब-ए-पाशी (रंगों की बौछार) कहा जाता था । मुगल बादशाह बहादुर शाह ज़फ़र के बारे में प्रसिद्ध है कि होली पर उनके मंत्री उन्हें रंग लगाने जाया करते थे । विजयनगर की राजधानी हंपी के  १६वी शताब्दी की अहमदनगर की  वसंत रागिनी  है। पुरणों के  अनुसार दैत्यराज हिरण्यकश्यप अपनी पूजा करने को कहता था ।उसका पुत्र प्रह्लाद भगवान विष्णु का उपासक भक्त था। हिरण्यकश्यप ने भक्त प्रहलाद को बुलाकर राम का नाम न जपने को कहा तो प्रहलाद ने स्पष्ट रूप से कहा, पिताजी! परमात्मा ही समर्थ है। प्रत्येक कष्ट से परमात्मा ही बचा सकता है। मानव समर्थ नहीं है। यदि कोई भक्त साधना करके कुछ शक्ति परमात्मा से प्राप्त कर लेता है तो वह सामान्य व्यक्तियों में तो उत्तम हो जाता है, परंतु परमात्मा से उत्तम नहीं हो सकता। यह बात सुनकर अहंकारी हिरण्यकश्यप क्रोध से लाल पीला हो गया और नौकरों सिपाहियों से बोला कि इसको ले जाओ मेरी आँखों के सामने से और जंगल में सर्पों में डाल आओ। सर्प के डसने से यह मर जाएगा। ऐसा ही किया गया। परंतु प्रहलाद मरा नहीं, क्योंकि सर्पों ने डसा नहीं। होली  पर्व राक्षसी ढुंढी, राधा कृष्ण के रास और कामदेव के पुनर्जन्म से  जुड़ा है। होली में रंग लगाकर, नाच-गाकर लोग शिव के गणों का वेश धारण करते हैं तथा शिव की बारात का दृश्य बनाते हैं। भगवान श्रीकृष्ण ने  द पूतना नामक राक्षसी का वध होने के कारण  खु़शी में गोपियों और ग्वालों ने रासलीला की और रंग खेला था। वैदिक काल में होली पर्व को नवात्रैष्टि यज्ञ कहा जाता था। खेत के अधपके अन्न को यज्ञ में दान करके प्रसाद लेने का विधान समाज में व्याप्त था। अन्न को होला  से होलिकोत्सव पड़ा है । भारतीय ज्योतिष के अनुसार चैत्र कृष्ण  प्रतिपदा के दिन से नववर्ष का आरंभ माना जाता है। पर्व नवसंवत का आरंभ तथा वसंतागमन का प्रतीक  है।  प्रथम पुरुष मनु का जन्म होने के कारण  मन्वादितिथि  हैं। फाल्गुन शुक्लपक्ष पूर्णिमा को होलिका की अग्नि इकट्ठी की जाती है। माघ शुक्लपक्ष पंचमी से होली की तैयारियाँ शुरू हो जाती हैं। होलिका दहन में चौराहों पर व जहाँ कहीं अग्नि के लिए लकड़ी एकत्र कर  होली जलाई जाती है। होलिका में भरभोलिए जलाने की भी परंपरा है। भरभोलिए गाय के गोबर से बने उपले में छेद में मूँज की रस्सी डाल कर माला बनाई जाती है। एक माला में सात भरभोलिए होते हैं। होली में आग लगाने से पहले इस माला को भाइयों के सिर के ऊपर से सात बार घूमा कर फेंक दिया जाता है। रात को होलिका दहन के समय उपला की  माला होलिका के साथ जलाकर  होली के साथ भाइयों पर लगी बुरी नज़र भी जल जाए। लकड़ियों व उपलों से बनी इस होली का दोपहर से ही विधिवत पूजन आरंभ हो जाता है। घरों में बने पकवानों का यहाँ भोग लगाया जाता है । आग में नई फसल की गेहूँ की बालियों और चने के होले को  भूना जाता है। होलिका का दहन समाज की समस्त बुराइयों के अंत का प्रतीक है। यह बुराइयों पर अच्छाइयों की विजय का सूचक है। बिहार , झारखंड  में बाबा हरिहरनाथ , तेगबहादुर सिंह , बाबा वैद्यनाथ , बाबा दुग्धेश्वर नाथ आदि देवों की होली गाते हुए भगवान की उपासना क्रस्ट है । फाल्गुन शुक्लपक्ष पूर्णिमा को होलिका दहन के बाद चैत्र कृष्ण पक्ष प्रतिपदा को होली में रंग गुलाल , जल , मिट्टी जल मिश्रित , होलिका भष्म एक दूसरे पर लगाते है । होली कामदेव और रति का मिलान समारोह मानते है । प्रेम और भाईचारे का प्रतीक होली है ।
 अष्टग्रहों का मिलन होलाष्टक - शास्त्रों एवं सनातन धर्म संस्कृति ग्रंथों के अनुसार  होलाष्टक 2022  का प्रारंभ 10 मार्च से लगने के कारण  शुभ मांगलिक कार्य करने ,  होली  से पूर्व के 8 दिन अशुभ माने जाते हैं । विक्रम संबत के अनुसार फाल्गुन  शुक्ल पक्ष की अष्टमी तिथि से होलाष्ट  फाल्गुन पूर्णिमा की  रात होलिका दहन के पश्चात  होलाष्टक का  समापन  है । पंचांग के अनुसार फाल्गुन माह के शुक्ल पक्ष की अष्टमी तिथि का प्रारंभ 10 मार्च 2022 दिन गुरुवार को प्रातः काल 02 बजकर 56 मिनट से प्रारम्भ एवं 11 मार्च को प्रात: 05 बजकर 34 मिनट तक है । होलाष्टक का प्रारंभ  10 मार्च को प्रात: 05:34 बजे से प्रारम्भ है । फाल्गुन शुक्ल पूर्णिमा को होलाष्टक का समापन होलिका दहन  है । फाल्गुन माह की पूर्णिमा तिथि का प्रारंभ 17 मार्च दिन गुरुवार को दोपहर 01 बजकर 29 मिनट पर हो रहा है ।  18 मार्च दिन शुक्रवार को दोपहर 12 बजकर 47 मिनट तक मान्य है. पूर्णिमा का चांद 17 को दिखेगा और देर रात होलिका दहन होगा एवं  होलाष्ट का समापन 17 मार्च को हो जाएगा । हालोष्टक के समय मुंडन, नामकरण, उपनयन, सगाई, विवाह आदि  संस्कार और गृह प्रवेश, नए मकान, वाहन आदि की खरीदारी आदि  शुभ कार्य तथा  नई नौकरी या नया बिजनेस प्रारंभ नहीं  करते है ।
शास्त्रों 

के अनुसार जिस क्षेत्र में होलिका दहन के लिए डंडा स्थापित होने से होलिका दहन तक कोई भी शुभ कार्य नहीं किया जाता है ।.इन दिनों गृह प्रवेश मुंडन संस्कार विवाह संबंधी वार्तालाप सगाई विवाह किसी नए कार्य नींव आदि रखने नया व्यवसाय आरंभ , मांगलिक कार्य आदि का आरंभ शुभ नहीं किया जाता  है । हाेलिका दहन के समय पूर्व को हवा चलने से प्रजा को सुखी , दक्षिण में हवा चलने से  दुर्योग , हवा पश्चिम में चलने से तृण वृद्धि एवं उत्तर में हवा चलने पर धन-धान्य की वृद्धि और सीधी लंबी लपटे आकाश की ओर उठने से जनप्रतिनिधियों को नुकसान पहुंचता है। 
ज्योतिषीय दृष्टि से  समस्त काम्य अनुष्ठानो के लिऐ श्रेष्ठ है । होलिका दहन के आठ दिन पुर्व का समय होलाष्टक है । होलाष्टक में  तंत्र व मंत्र की साधना पूर्ण फल प्राप्त होती है। अष्टमी को चन्द्र,नवमी को सूर्य,दशमी को शनि,एकादशी को शुक्र,द्वादशी को गुरू,त्रयोदशी को बुध,चतुदशर्शी को मंगल व पूर्णीमा को राहु उग्र होने से  मनुष्य को शारिरीक व मानसिक क्षमता को प्रभावित और  निर्णय व कार्य क्षमता को कमजोर करते है। अष्टमी को चंद्रमा नवमी को सूर्य दशमी को शनि एकादशी को शुक्र द्वादशी को गुरु त्रयोदशी को बुध चतुर्दशी को मंगल तथा पूर्णिमा को राहु उग्र स्वभाव के हो जाते हैं। ग्रहों के निर्बल होने से मानव मस्तिष्क की निर्णय क्षमता क्षीण और गलत फैसले लिए जाने के कारण हानि होने की संभावना रहती है। विज्ञान के अनुसार  पूर्णिमा के दिन ज्वार भाटा सुनामी  आपदा एवं पागल व्यक्ति और उग्र होता है।   अष्ट ग्रह दैनिक कार्यकलापों पर विपरीत प्रभाव डालते हैं। 8 दिनों में मन में उल्लास लाने और वातावरण को जीवंत बनाने के लिए लाल या गुलाबी रंग का प्रयोग विभिन्न तरीकों से किया जाता है। लाल परिधान ,  लाल रंग मन में उत्साह उत्पन्न करता है । भगवान कृष्ण  8 दिनों में गोपियों संग होली खेलते रहे और अंततः होली में रंगे लाल वस्त्रों को अग्नि को समर्पित कर दिया। होली मनोभावों की अभिव्यक्ति का पर्व है ।  भगवान  शिवजी ने अपनी तपस्या भंग करने का प्रयास करने पर प्रेम के देवता कामदेव को फाल्गुन शुक्ल अष्टमी तिथि को भस्म कर दिया था, जिसके बाद संसार में शोक की लहर फैल गई थी । इसके बाद कामदेव की पत्नी रति द्वारा भगवान शिव से क्षमायाचना की गई तब शिवजी ने कामदेव को पुनर्जीवन प्रदान करने का आश्वासन दिया । भगवान हरिभक्त प्रह्लाद को दैत्य राज हिरण्यकश्यप द्वारा फाल्गुन शुक्ल अष्टमी से पूर्णिमा तक अनेक यातनाएं दी गयी और अंत में पूर्णिमा को होलिका जल गई भक्त प्रह्लाद जीवित हो कर प्रेम और हरि भक्ति हुए ।    होलाष्टक का अंत धुलेंडी के साथ होली होती है । होलाष्टक मे मनुष्य को अधिक से अधिक देव व इष्ट आराधना व मंत्र साधना करनी चाहिऐ।इस समय तंत्र क्रिया करने वाले जातको को विशेष उर्जा प्राप्त होती है।। जातको को राहु,मंगल,शनि या सूर्य की महादशा चल रही है या ये ग्रह शुभ नही है,इनके शत्रु ग्रह ४,८,१२मे हो,अस्त या वक्री हो उन्हे काफी कष्ट भोगना पडता है । जातक महामृत्युंजय जाप,नारायण कवच,दुर्गासप्तशति या सुन्दरकाण्ड का पाठ करे या योग्य ब्राह्मण से करवाने से सर्वाधिक चेतन शक्ति जगृत होती है ।

 

सोमवार, मार्च 07, 2022

मागधीय सभ्यता व संस्कृति का केंद्र गया...

सनातन धर्म की संस्कृति और मानव सभ्यता का विकास स्थल के रूप में गया का उल्लेख है । पुरणों, स्मृतियों , उपनिषदों तथा इतिहास के पन्नो में गया के पुरातात्विक , व्रात्य , प्राच्य , आर्य सभ्यता का उदय स्थल और दर्शन स्थल का वर्णन किया गया है ।  सृष्टि के प्रथम  मन्वन्तर में   स्वायम्भुव मनु की भर्या शतरूपा  वंशीय  कीकट द्वारा कीकट प्रदेश की राजधानी  गया में  स्थापित की गई थी । कीकट प्रदेश में व्रात्य सभ्यता , प्राच्य सभ्यता प्रचलित थी । सातवीं मन्वन्तर में  वैवस्वत मनु की मैत्रावरुण द्वारा यज्ञ से उत्पन्न इला का विवाह देवगुरु बृहस्पति की भर्या तारा तथा चंद्रमा के सम्पर्क से उत्पन्न बुध वंशीय गय द्वारा गया नगर की स्थापना की । बुध ने कीकट का नाम परिवर्तित कर मगध की नींव डाला था । अंग वंशी राजा पृथु काल में मगध साम्राज्य का राजा मागध द्वारा मगध का विकास किया गया था । मगध में असुर ,  राक्षस , दैत्य , दानव , नाग , मरुत , गंधर्व , देव संस्कृति विकसित  थी । श्री मद भागवत पुराण तथा संबत्सरावली  के अनुसार 14 मनुमय सृष्टि का 1955885122  वर्ष   ब्रह्मा   जी  द्वारा  पाद्म  कल्प  के  श्वेत  वाराह  कल्प  के प्रथम स्वायम्भुव मनु के मन्वन्तर का सत्य  युग  में   गया  पूरी की स्थापना की गई थी । वायु  पुराण ,  रामायण , ब्रह्मवैवर्त , भविष्य  तथा  गरुड़  पुराणों , स्मृतियों संहिताओं के अनुसार श्वेत  वाराह  कल्प  के  सप्तम वैवस्वत मनु के मन्वन्तर काल में सतयुग में मागध राजा ने मगध देश की राजधानी गया नगर में रखी थी ।वैवस्वतमनु की पुत्री इला का विवाह सोमनंदन , देवगुरु वृहस्पति की पत्नी  माता तारा के पुत्र बुध मगध का राजा थे ।  त्रेता  युग  में  अयोधया के राजा दशरथनन्दन   श्री  राम  जी  ने  पत्नी  सीता  सह  भ्राता  लक्ष्मण , द्वापरयुग में पांडवों ने अपने भाइयों के  साथ  गया  में  अपने  पिता  श्री  दशरथ  जी  एवं  पूर्वजों  का  गया  श्राद्ध  क्रिया  सम्पन्न  की  थी । विक्रम संबत 2078 में  श्वेत  वाराह  कल्प  का  अठाईसवां  चतुर्युग  चल  रहा  है । गया में भगवान विष्णु अमूर्तजा पितर के रूप में विराजमान है । श्री  ब्रह्मा  जी  के  मानस  पुत्र   मरीची  ऋषि   की  पत्नी   धर्म  की  पुत्री  धर्मब्रता  हुईं ।   मरीची  ऋषि  के  श्राप  से  धर्मब्रता  शिला  हो  गई  ।   धर्मशिला  को  धुन्ध  दैत्य  की  सन्तान ,  त्रिपुरासुर  के  पुत्र  ख्यात  गयासुर  के  सिर  पर  रखी  गई ।   शिला  का  नाम  गया  स्थित  करशिल्ली में  विश्व  प्रसिद्ध  विष्णु  पद  वेदी    एवं  करशिल्ली  स्थित  अनेकों  सुप्रसिद्ध  वेदियां  अवस्थित  हैं । विष्णुपद -   इदं  विष्णुर्विचक्रमें   त्रेधा  निदधे  पदम्म  इत्यौर्णाभ: ।  महर्षि  और्णाभ " महर्षि  और्णाभ  के अनुसार भगवान विष्णु के   अवतार अदिति पुत्र वामन   द्वारा  अपना  एक  पैर   गया सिर  पर  रखा गया था । गया  का उल्लेख सामवेद  संहिता  , अत्री  स्मृति , कल्याण  स्मृति  ;  शंख  स्मृति  ;  याज्ञवल्क  स्मृति  ,  महाभारत  ;   वाल्मीकीय  रामायण ;  आनन्द  रामायण  एवं  आध्यात्म्य  रामायण  ,  ब्रह्म  पुराण  ;   पद्म  पुराण  ,   श्री  विष्णु  पुराण  ;    वायु  पुराण ;  श्रीमद्  भागवत  महापुराण ,   नारद  पुराण ;   वराह  पुराण  ;   स्कन्द  पुराण  ,  कुर्म  पुराण  ;   मत्स्य  पुराण  ,    गरुड़  पुराण  तथा   ब्रह्माण्ड  पुराण  में है  । गयासुर  के  पवित्र  शरीर  पर  यज्ञ के लिए   श्री  ब्रह्मा  जी  द्वारा   चौदह  ऋत्विजों में ( १)   गौतम ; ( २)   काश्यप  ; ,( ३)   कौत्स  ; ( ४)   कौशिक  ; ( ५)   कण्व  ; ,( ६)   भारद्वाज  ; ,( ७)   औसनस  ; ( ८)   वात्स्य   , ( ९)   पारासर  ; (१०)  हरित्कुमार  ; (११)  माण्डव्य  ; (१२)  लौंगाक्षि  ; (१३)  वाशिष्ठ  एवं (१४)  आत्रेय  को उत्पन्न किया गया था । 14 ऋत्विजों   को  गयापाल  कहा  गया ।  गया  सिर  की  मान्यता  एक  कोस  में  है ।  इसी  एक  कोस  की  परिधि  में  गयापालों  का  निवास  स्थल  है ।  इन्हीं  चौदह  ऋत्विजों  को  चौदह   सैय्या  भी  कहते  हैं ।  इनके  चौदह  सौ  घर  थे ,   चौदह  मोहल्ले ,  चौदह  पंच ,  चौदह  गोत्र  तथा  चौदह  बैठकें  हुआ  करते  थे । प्राचीन काल  में   विष्णुपद  वेदी  का  जिर्णोद्धार   गुप्त  काल  में  विष्णुपद  वेदी  शिखर  विहीन  एवं  सपाट  छत  का  वेदी  स्थल  को   महीपाल  के  पुत्र  नयपाल  ने  ग्यारहवीं  शताब्दी  के  उत्तरार्ध  में वेदी  का  जिर्णोद्धार  कराया   ,  श्री  श्री  चैतन्य - चरितावली  के  पृष्ठ  संख्या  १२६ के अनुसार  " १५०८  ईस्वी  में  निमाई  पण्डित  (  चैतन्य  महाप्रभु  )  अपने  साथियों  सहित  ब्रह्मकुण्ड  में  स्नान  और  देव - पितृ - श्राद्धादि  करने  के  पश्चात  चक्रबेड़ा  के  भीतर  विष्णु - पाद - पद्मों  के  दर्शन  किये ।  ब्राह्मणों  ने  पाद - पद्मों  पर  माला - पुष्प  चढ़ाने  को  कहा ।  गया  धाम  के  तीर्थ - पण्डा  जोरों  से  पाद - पद्मों  का  प्रभाव  वर्णन  कर  रहे  थे ।  इन्हीं  चरणों  का  लक्ष्मी  जी  बड़ी  हीं  श्रद्धा  के  साथ  निरंतर  सेवन  करती  रहती  हैं ।   १६  वीं  शताब्दी  के  उत्तरार्ध  में  राजपुत  राजाओं  ने  इसे  मजबुत  सुन्दर  पत्थरों  को  चुने  से  जोड़  कर  बनवाया ।  संवाद ' १७८७  ईस्वी  में  इंदौर  की  महारानी  अहिल्याबाई  होलकर  ने   निर्माण  करवायी थी । पूर्व  दरवाजा  :  -    सूर्य  कुंड  के  पूर्वी  रास्ते  से  देवघाट  जाने  वाली   पुराने  रास्ते  पर  सीख  संगत  उदासी  संप्रदाय  है ,  जहां  पर  इधर  से  जाने  वाली  प्रत्येक  हिन्दू  अर्थी  ( लाश )  को  अल्पविराम  एवं  सीख  संगत  को  अन्तिम  प्रणाम  के  साथ  चढ़ावा  चढ़ाया  जाता  है  ,  ठीक  उसी  के  दिवाल  से  सटे  अन्दर  गया  का  पूर्वी  द्वार  है ।  यह  एकलौता  पूराना   विशाल  द्वार  है  जहां  अब  तक  पूराने  चौखट  एवं  कीवाड़  मौजुद  हैं ।  दरवाजे  के  ऊपर  साज - सज्जा  के  साथ  शहनाई  वादक   सुवह - शाम वादन  प्रस्तुत  करते  थे  आरती  के  समय ।  ये   शहनाई  वादक  तथा  अन्य  सहयोगी  मुस्लिम  समुदाय  से  होते  थे  ।  पूराने  लैंप  पोस्टों  पर  मशालचियों  द्वारा  प्रत्येक  चौक  चौराहों  पर  दीपक  रात  में  जलाये  व  सुवह  में  बुझाये  जाते  थे ।  ये  मशालची  भी  मुस्लिम  होते  थे । पश्चिम  दरवाजा  : - बहुआर  चौरा  से  टिल्हा  धर्मशाला  मुख्य  सड़क  पहुंचने  के  ठीक  पहले  जहां  संकरा  स्थान  है  । दक्षिण  दरवाजा  : -  दक्षिण  दरवाजा  मोहल्ले  का  दक्षिणी  छोर  जहां  यह  सड़क  गोराबादी  मोहल्ले  से  मिलती  है ,  और  वहीं  पर गोरैया  बाबा  का  मन्दिर  है ,  ठीक  उसी  संधी  -  स्थल  पर  दक्षिण  दरवाजा  हुआ  करता  था । उत्तर  दरवाजा   : - श्री  सेन  जी  के  ठाकुरबाड़ी  के  उत्तरी  छोर  पर  जहां  रास्ता  संकरा  हो  जाती  है  तथा  ठीक  उसके  बाद  ब्राह्मणी  घाट  के  रास्ते  की  शुरुआत  होती  है ,   यही  स्थल  उत्तरी  दरवाजे  का  है ।  यहां  भी  पूराने  दरवाजे  का  स्तित्व  नहीं  है  । सेन  जी  का  ठाकुरबाड़ी  :  -  उत्तर  फाटक  से  सटे  श्री  बाल  गोविन्द  सेन  जी  गयापाल  द्वारा  निर्मित  '  सेन  जी  का  ठाकुरबाड़ी  अवस्थित  है ।  ये  वही  श्री  बाल  गोविन्द  सेन  जी  गयापाल  हैं ,  जिन्होंने  फसली  वर्ष  १३००  (  १८९३  ईस्वी  )  में  विष्णुपद  वेदी  ( मन्दिर  )    के  शिखर  पर  सवा  मन  सोने  का  ध्वज  एवं  गुम्बद  सह  कलश  की  स्थापना  करवाई  थी  तथा  फसली  वर्ष  १३१४  (  १९०७  ईस्वी  )  में   विष्णुपद  वेदी  (  मन्दिर  )  को  चांदी  का  हौज  एवं  छतरी  समर्पण  किया  था । श्री  बाल  गोविन्द  सेन  जी  गयापाल  अपने  '  सेन  जी  के  ठाकुरबाड़ी  '  के  शिखर  पर  भी  सवा  मन  सोने  का  ध्वज  एवं  गुम्बद  सह  कलश  लगवाया  था ।  ठाकुरबाड़ी  के  गर्भ  गृह  में  श्री  राम  -  दरवार  की  प्रतिमायें  ,  त्रियुगी  नाथ  श्री  हनुमान  जी  (  दक्षिण  मुखी  )    तथा  राधा  -  कृष्ण  की  मूर्तियां  पूजित  हैं ।  सेन  जी  के  ठाकुरबाड़ी  से  प्रतिवर्ष  आषाढ़  शुक्ल  द्वितीया  को  भारत  प्रसिद्ध  रथ  यात्रा  उत्सव  का  आयोजन  हुआ  करता  था ।  गया  में  एक  मात्र  चांदी  के  भव्य  रथ  पर  भगवान्  जगन्नाथ  ,  अग्रज  बलराम  और  बहन  सुभद्रा  के  साथ  सवार  होकर  नगर  भ्रमण  किया  करते  थे ।  सेन  जी  के  उत्तराधिकारी  रथ  पर  चंवर  सेवा  करते  हुए   चांद  चौरा  स्थित  मेला  स्थली  पर  शाम  तक  पूजित  होते  थे । उत्तर  दरवाजा  के  उत्तर  में  नगर  के  प्रकृति झरने का जल स्रोत   संगम  स्थल  है ।  पूर्व  काल  में   प्राकृतिक  रुप  से  शहर  के  पश्चिम  -  दक्षिण  पर्वतीय  प्रदेश  से  निकलने  वाली झरने का  पानी  प्रविहित  था ।  दक्षिण  -  पश्चिम  तथा  उत्तर  दिशा  से  आने  वाले  नद  नालों  का  संगम  स्थल  रहा  है ।    इसे  '  त्रिवेणी  'की  संज्ञा  दी  गई  है ।  कान्हू लाल गुरदा गयावाल की 1906 ई . में प्रकाशित पुस्तक "  बृहद  गया  महात्म्य  और   गया  पाल  शिशु  शिक्षक  "      के अनुसार वेदी ,  देवता ,  पर्वत ,  झरना ,  नदी ,  तालाब के स्थान  है ।डुमरिया के  जैन  मन्दिर  के रास्ता  में  अष्टभुजीय  सिद्धेश्वरी  देवी  का  मन्दिर  अवस्थित  है । मौलगंज का  स्वर्णकार  मन्दिर  -  अखाड़ा  के समीप जीतन शाह द्वारा   सुकना  पहादेव  मन्दिर का निर्माण   1886 ई. में किया गया था  । दक्षिण - पूर्व  स्थित  पुराने  मंडप   के  केन्द्र  विन्दु  में  नर्मदेश्वर  महादेव  तथा पूर्व -  उत्तर  मंडप  के  केन्द्र  में  ११  रुद्रों  सहित  विशाल  काले   एकल  कसौटी  पत्थर  का  शिव  लिंग 15 इंच की परिधि एवं 18 इंच ऊची में   स्थापित  है ।  यह  शिवलिंग  अद्भूत  है ।   मंडपों  में    संयुक्त  रुप  से  श्री  गणेश  जी ;  देवी  सरस्वति  जी  ;  मां  दुर्गा  जी  ,  देवी संतोषी  मां  के  संग  अन्य  देवी-देवताओं  की मूर्तियां  है । ब्राह्मणी  घाट  - श्वेत  वाराह  कल्प  के  प्रथम  सत्ययुग  में धर्मशिला  पर  यज्ञादि  की  पूर्णाहुति  पश्चात  श्री  ब्रह्मा  जी  अपनी  ब्रह्माणी    सरस्वती  जी  संग  फल्गु नदी के  तट पर ब्रह्मेष्टि यज्ञ  अनुष्ठान करने के कारण  ब्रह्मेष्ठी यज्ञ स्थल  का  नाम  ब्राह्मी घाट , ब्रह्माणी घाट व ब्राह्मणीघाट की ख्याति प्राप्त हुई है ।।  ब्राह्मणी  घाट  पर  अभी  भी  जिर्ण  शिर्ण  अवस्था  में  यज्ञ - कुण्ड - मण्डप  अवस्थित  है ।  पाषाण  खम्भों  एवं  शस्तिरों  पर  नवाग्रह  एवं  बारहों  राशियों  का  चित्रण  पाया  जाता  है ।  ब्रह्माणी  वीणा  धारिणी  भगवती  सरस्वती  की  प्राचीन  छोटे  काले  पत्थर  की  मूर्ति  विरंचिनारायण  मन्दिर  के   परिक्रमा  स्थल  के  उत्तरी  दीवार  में  स्थापित  हैं ।  ब्रह्म  पुराण  एवं  ब्रह्मस्मृति  ग्रन्थों  के अनुसार ब्रह्मा  की  भर्या सरस्वती   के  साथ गया  स्थित ब्रह्मवर्त क्षेत्र का फल्गु नदी के तट पर ब्रह्मेष्टि यज्ञ करने का स्थल को ब्राह्मी घाट कालांतर ब्राह्मणी घाट के नाम प्रचलित हुआ त है । ब्रह्मा जी अपनी प्रथम पत्नी सावित्री के साथ ब्रह्मेष्टि यज्ञ के पूर्व  माता सावित्री द्वारा ब्रह्मयोनि पर्वत के समीप वरगद अर्थात वट वृक्ष लगाई गई थी । उस स्थल को अक्षवट के नाम से ख्याति है । ब्राह्मणी  घाट  पर  ऐतिहासिक  एवं  पूरातात्विक  महत्व  के  अवशेष  एवं    मन्दिर  और फल्गु  नदी  के  पश्चिम  स्थित  घाट  पर  तीनों    शाक्त ,  सौर  और  शैव   तांत्रिक  पीठ   है । शैव धर्म , शाक्त धर्म , सौर धर्म , वैष्णव धर्म और   नाथ  सम्प्रदाय  का अग्नि    प्रज्वलित  स्थल   है ।  ब्राह्मणी  घाट  गया  जी  का  प्राचीन  श्मशान  क्षेत्र  रहा  है ।  विष्णुपद  श्मशान  के  स्थापना  पूर्व  इसी  घाट  पर  शवदाह  की  क्रिया  सम्पन्न  होती  थी । फल्गु नदी के किनारे विरंचिनारायण  मन्दिर  (  उत्तरादित्य  )  ;   द्वादशादित्य  मन्दिर  , काली  मन्दिर  ;  शिव  मन्दिर  ; गंगेश्वर  महादेव  ; विष्णुपद मंदिर , दक्षिण  मुखी  हनुमान  ;   फलग्वीश्वर  महादेव  , पितामहेश्वर ,   
 ;गयादित्य  ;    राधा  कृष्ण  ;  लक्ष्मी - नारायण  ; काल  भैरव  ;  बटुक  भैरव  ;  श्मशान  भैरव है ।    श्मशान  काली  के समीप  घाट  से  सम्बन्धीत  शिला  लेख  उपलब्ध  है ।मानभूम  (  झारखंड  )  के  राजा  मानसिंह  के  द्वारा  ब्राह्मणी  घाट  के  जिर्णोद्धार के संबंध    शिलालेख  में  उपलब्ध  है ।   मान सिंह   के  द्वारा फल्गु नदी के पूर्व मानपुर  बसाया  गया था । विरंचिनारायण   मन्दिर  -  फल्गु नदी के तट पर  ब्राह्मणी  घाट  पर  भगवान्  विरंचिनारायण   (  उत्तरादित्य   )  पूर्वांमुखी  मन्दिर  में  विराजमान  हैं ।  ये  अपने  पूरे  परिवार  के  साथ  शोभायमान  हैं ।  प्रमुख  विग्रह  के  पैर  के  बीच  सूर्य  पत्नी  संज्ञा ,  दाहिनी  ओर  ज्येष्ठ  पुत्र  शनि ,  बायीं  ओर  कनिष्ठ  पुत्र  यम ,  नीचे  सारथी  अरुण  रथ  संचालन  की  मुद्रा  में ,  सात  घोड़े  एवं  एक  चक्के  का  रथ  विद्यमान  है ।  बीच  में  दायें - बायें  चारण  एवं  सशस्त्र  सेवक  सेविकायें ,  नीचे  दायें  -  बायें  चंवर  डुलाते  प्रहरीगण  हैं ।  ऊपर  बायें  तरफ  प्रत्युषा  तथा  दायीं  ओर    उषा  देवी  शोभायमान  हैं ।  सूर्य  पुराण  में  उषा  एवं  प्रत्युषा  को  अन्धकार  रुपी  तमस  को  दूर  भगाने  वाली  देवियों  के  रुप  में  मान्यता  प्राप्त  है । शालिग्राम  काले  शिला  से  निर्मित  लगभग  ७'  (  सात  फीट  )  उंची  प्रतिमा  एकल  शिला  में  रथ  समेत  सभी  मूर्त्तियां  सन्निहित  हैं ।  उत्तरादित्य  (  सूर्य  मन्दिर  )  के  चतुर्दिक  विशाल  सभा मंडप  एवं  परिक्रमा  स्थल  है  जो  बारह  काले  पत्थर  से  निर्मित  नक्काशीदार  खंभों  पर  आच्छादित  है ।  गर्भ  गृह  में  ऊपर  की  छत  में  अष्टदल  कमल  भी  निर्मित  है । १५  फरवरी  १८६२  ईस्वी  को  गया  के  तत्तकालीन  जमींदार  भुना  दाई  चौधराईन  गयावालिन  के  द्वारा  विरंचिनारायण  मन्दिर  दानपत्र  के  साथ  श्री  राम  मिश्र  के  पुत्र  श्री  रमापत  मिश्र  को  दिया  गया है ।
 विष्णुपद -  पितरों को मुक्ति विष्णु पद में गया श्राध्द करने  से  मिलती है । विष्णुपद गिरी पर भगवान विष्णु का चरण है । प्रोफेसर  डा• गणेश दास सिंघल  की पिलीगरिम प्लीग्रीमेज जियोग्राफी ऑफ ग्रेटर गया  के अनुसार   गया  24° 25' 16"  से   24° 50' 30"  उत्तरी अक्षांश   एवं   84° 57' 58" से 85° 3' 18" पूर्वी देशांतर  रेखाओं के मध्य में  अवस्थिति है । वृहद् गया  की  स्थिति 24°23' से 25°14'  उत्तरी अक्षांश  एवं  84°18'30" से 85°38'  पूर्वी  देशांतर  रेखाओं के मध्य है ।  गया में अक्षांश  और  देशांतर  दोनो रेखाएं का  सीधा संबंध भगवान् सूर्य के साथ है । भगवान् सूर्य के  12 नामों में विष्णु है । अक्षांश और देशांतर रेखाएं मिलने के स्थान  विष्णुपदी केंद्र विंदू है । विष्णुपदी एक वृत्त बन जाती है  , जिसे 360 अंशों में विभाजन कर सूर्य एवं उसकी गति को निश्चित किया जाता है । प्रात: कालीन सूर्य सविता  एवं पृथ्वी को अमृत प्राण देते हुए एक धक्का देता है और सायं कालीन आदित्य पृथ्वी के प्राणों का आहरण करता है। उससे पृथ्वी को आकर्षण शक्ति के कारण धक्का लगता है ।  दोनो धक्कों के  कारण पृथ्वी अपने क्रांति वृत्त पर घूमने लगती है और सूर्य की परिक्रमा करना प्रारंभ कर देती है । पृथ्वी और सूर्य की गति के कारण जहाँ सूर्य लोक से प्राण तत्व जीव यहाँ आते हैं  , वहाँ पृथ्वी से जीव पुन: सूर्यलोक पहुंचते हैं । मध्यस्थ  चंद्रलोक एक सेतू का काम करता है । जहाँ विष्णुपदी होती है  , वहाँ 360  भागों में विभक्त एक वृत्त होता है या बन जाता है  , जो जीवों को क्षिप्रगति से सूर्य लोक की ओर आकर्षित कर लेता है । फलत: जीव सूर्य  , चंद्र और पृथ्वी की गति के साथ स्वर्गलोक  या विष्णुलोक पहुंच जाता है । यही कार्य  गया  -  श्राद्ध  करता है । एक ओर श्राद्ध कर्म जहाँ जीवों के बंधनों  को खोल कर प्रेतत्व से विमुक्त करता है  , वहीं दूसरी ओर विष्णुपदी जीवों को स्वर्गलोक  भेजने में सक्षम होकर सहायता प्रदान करती है । 4766 वर्गमील क्षेत्रफल में विकसित मगध प्रमंडल का उत्तरी अकांक्ष 24 डिग्री 17 सेंटीग्रेड और पश्चमी देशान्तर 84 डिग्री और 86 डिग्री पर अवस्थित है । मागध प्रमंडल के उत्तर में पटना , पश्चिम में मुंगेर दक्षिण में झारखंड और पूरब में सोननदी भोजपुर जिले की दिमाओ से घिरी हुई है। मगध प्रमंडल की 1901 ई. के जनगणना के अनुसार 2061857 आवादी 7871 गाँवों में रहती थी । मगध प्रमंडल में गया , औरंगाबाद , जहानाबाद , नवादा और अरवल जिले है । मागध प्रमंडल का मुख्यालय गया भारतीय और मागधीय संस्कृति का मूल केंद्र है । 4976 वर्ग कि. मि .  क्षेत्रफल का  गया जिले की स्थापना 1865 ई . में हुई है ।  गया जिले की 2011 के जनगणना के अनुसार 43 79383 आवादी वाले 24 प्रखंडों में निवास करती है ।गया जिले के प्रमुख नदियों में फल्गु , मोरहर , सोरहर , निरंजना , मोहाना है । ऐतिहासिक तथा वैदिक पहाड़ों में ब्रह्मयोनि , कौवाडोल , डुंगेश्वरी , रामशिला , प्रेतशिला , भष्म गिरि है । प्राचीन स्थलों में बकरौर , बोधगया ,है। गया परगना की स्थापना कलेक्टर मि. ग्राहम द्वारा 1802 ई. में मुरारपुर और पहसी , रामशिला ,  1808 ई. में साहेबगंज , आलमगीरपुर की गई थी । परगना गया को शेरचाँद के अधीन था। 1911 ई. में रेवेन्यू थाना गया टाउन का 11 गाँव की निगरानी के लिये कोतवाली ,सिविल लाइंस , गया मुफ़्सील  में 676 गाँव पर निगरानी के लिये गया मोफसील ,बोधगया ,परैया ,वजीरगंज , शेरघाटी राजस्व थाने के 865 गाँव में   शेरघाटी , गुरुआ ,इमामगंज ,डुमरिया , बाराचट्टी राजस्व थाने के 666 गाँव में बाराचट्टी , फतेहपुर , टेकरी राजस्व थाने के 435 गाँव का निगरानी के लिये टेकरी , कोच , बेला और अतरी रेवेन्यू थाने के 272 गाँव मे अतरी और खिजरसराय में पुलिस स्टेशन की स्थापना की गई थी । 1901 के जनगणना में गया जिले की जनसंख्या 751711 आवादी वाले 1909  वर्गमील  में 2465 गांव , 17 पुलिस स्टेशन थे । मगध प्रमंडल का मुख्यालय गया 11.75 वर्गमील में विकसित है । गया नगरपालिका का गठन 1865 ई. में 195 मोहल्ले को शामिल कर 10 वार्डों को शामिल कर किया गया था ।ओल्ड डिस्ट्रिक्ट गज़ेटियर 1905 के अनुसार गया 8 वर्गमील क्षेत्रफल में फैले विरासत थी ।गया के उत्तर रामशिला , मुरली पर्वत , दक्षिण में ब्रह्मयोनि पर्वत , पूरब में कटारी पहाड़ी और पश्चिम में फल्गु नदी प्रकृति से घीरा है ।प्राचीन शहर गया को सहेबगंज व अंदर गया कहा जाता है । जर्मन रोमन कैथोलिक मिशनरी के टिफ्फेनथैलर  , बुकानन हैमिल्टन , फाह्यान द्वारा 399 - 413 ई. , ची यात्री ह्वेनसांग ने 629- 645 ई. में गया का भ्रमण किया है । नायपाल का गवर्नर वज्रपाणि ने 1060 ई. और राजपूत मंत्री द्वारा 1242 ई. में गया को इंडिया का अमरावती  कहा है । गया का छठी शताब्दी ई. पू. आर्य सभ्यता तथा व्रात्य सभ्यता कल्प सूत्र में वर्णित है । गया का विकास शिशुनाग , अजातशत्रु ,उदयी ,नंद ,मौर्य ,चंद्रगुप्त ,अशोक ,पुष्यमित्र ,खरवार,, गुप्त ,मौखरि ,पाल काल में हुआ था । 1197 ई. में मुहम्मद बिन बख्तियार खिलजी द्वारा गया का विकास अवरुद्ध  किया गया था ।नेपाल का राजा का  मंत्री रंजीत पांडे और 15 जनवरी 1790 ई. में मि. फ्रांसिस गिललैंडर्स द्वारा विष्णुपद का विकास किया गया ।हैमिल्टन बुकानन ने 1815 ई. में ईस्टर्न गजेटियर , थोर्टन्स गजेटियर  हंटर्स गजेटियर 1877 ई. डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट गे डॉ ग्रियर्सन 1888 ई.  , ओ मॉली ने गया गजेटियर  का प्रकाशन 1906 ई. तथा पी .सी. राय चौधरी द्वारा बिहार डिस्ट्रिक्ट गजेटियर का प्रकाशन 1957 ई. में गया के ऐतिहासिक , सामाजिक , आर्थिक , पुरातत्विक  स्थलों की उल्लेख किया गया है । गया के प्रमुख स्थलों में विष्णुपद मंदिर , मंगल गौरी , ब्रह्मयोनि , अक्षयवट , बंगला स्थान , दुखःर्णी फाटक स्थित दुखःर्णी माता मंदिर , रामशिला , विरंचि मंदिर , वागेश्वरी , रामशिला , प्रेतशिला , भैरव स्थान , पितामहेश्वर , काली स्थल , फल्गु नदी प्रमुख है । मुगल शासन में निर्मित जुम्मा मस्जिद ,है ।गया गांधी मैदान के समीप चर्च है । उदयपुर के राजा राणा सांगा के देख रेख में गया विकसित था परंतु 1660 ई. में औरंगजेब द्वारा गया के शहर चाँद चौधरी को गया के 4000 विघा जागीर का मालिक बनाया गया था । शहर चाँद द्वारा दक्षिण दरवाजा ,उतर दरवाजा और  पश्चिम दरवाजा का निर्माण कराया था । गया में प्रत्येक वर्ष अश्विन कृष्ण पक्ष प्रतिपदा से अमावस्या तक पितृपक्ष में सनातन धर्म के लोग अपनी पूर्वजो की मोक्ष और पितृऋण से मुक्ति के लिये गया श्राद्ध , पिंड देने के लिए आते है । असूर्तरजस  का  धर्मारण्य   ( गया ) का उल्लेख में  वाल्मीकीय  रामायण  के  द्वात्रिंश  सर्ग  के  प्रथम  श्लोक  में  ब्रह्मा जी के पुत्र कुश महातपस्वी राजा थे ।   ब्रह्म योनिर्महानासीत्   कुशो  नाम  महातपा:  ।  अक्लिष्टव्रतधर्मज्ञ :   सज्जनप्रतिपूजक : ।। १ ।।   राजा कुश की भार्या विदर्भ देश  की  राजकुमारी  के  गर्भ  से  कुशाम्ब ,   कुशनाभ ,  असूर्तरजस  तथा   वसु  का जन्म हुआ था ।  कुशाम्ब  द्वारा  कौशाम्बी पुरी ( कोसम ) का   निर्माण  किया गया ,' कुशनाभ  ने  '  महोदय  '  नामक  नगर  का  निर्माण  कराया ,   असूर्तरजस  ने  'धर्मारण्य ' ( गया  ) श्रेष्ठ  नगर  बसाया ,  तथा राजा  वसु  ने  गिरिव्रज 'की राजधानी वसुमति नगर  की  स्थापना विपुल , वराह, वृषभ ( ऋषभ ) , ऋषिगिरि ( मतंग ) तथा चेतक पर्वतों के मध्य  में की  थी । गिरिव्रज महाभारत  काल  और  अजातशत्रु  काल तक   मगध  की  राजधानी गिरिब्रज  थी । राजगिर  से  दस  किलोमीटर  पूर्व  और  गया  से  पचास  किलोमीटर  पूर्व - उत्तर  पंचना  नदी  के  तट  पर  गिरिब्रज स्थित  था । महाभारत  वन पर्व 95 /17 के  अनुसार  इनका  नाम  ' अमूर्तरयस '  व असूर्तरजस '  द्वारा  तीर्थभूत वन में धर्मारण्य नगर  बसाया गया था । महाभारत वैन पर्व 84, 85 के अनुसार   अमूर्तरया  के  पुत्र  ' गय '  ने  गया   नगर  बसाया  था तथा   गया  के  ब्रह्म  सरोवर  को   धर्मारण्य  से  सुशोभित  कहा   गया  है । महाभारत  वन  पर्व  82 / 47 में  धर्मारण्य  में  पितृ - पूजन  की  महत्ता  का उल्लेख है । श्वेत वराह कल्प में   गयासूर ,  आदि  गदाधर  ,  विष्णुपद , मुण्डपृष्ठ  की प्रसिद्धि  थी।
वैदिक एवं पुरणों , ग्रंथों में कीकट का उल्लेख है । प्रथम मन्वंतर के संस्थापक स्वयंभुव मनु द्वारा अजनाभवर्ष की नींव डाल कर प्रियव्रत को राजा घोषित किया गया था । अजनाभवर्ष के राजा प्रियब्रत के पुत्र आग्नीघ्र के पौत्र एवं नाभि की पत्नी मेरुदेवी  के पुत्र ऋषभ की पत्नी इंद्र की कन्या जयंती के 100 पुत्रों में  भारत द्वारा अपने पुत्रों के नाम पर  कुशावर्त , इलावर्त , ब्रह्मावर्त ,  कुशावर्त  ,  इलावर्त  ;मलय ,  ब्रह्मावर्त  ,  मलय  ,  केतु  ; भद्र  सेन  ;  इन्द्र  स्पृक  ; विदर्भ  एवं कीकट  प्रदेश की स्थापना की गई थी । श्रीमद्भागवत पुराण प्रथम खंड व पंचम स्कंध के चतुर्थोध्याय , द्वितीय खण्ड एकादश स्कंध के द्वितीय अध्याय के अनुसार   ऋषभ के   पुत्रों में अधिकारियों  को  परमार्थ - वस्तु  का  उपदेशक कवि  ; हरि  ;  अन्तरिक्ष  ; प्रबुद्ध  ; पिप्लायन  ; आविर्होत्र  ;  द्रुमिल  ;  चपस  और  करभाजन  सन्यासी थे । महाराज  भरत  की पत्नी विश्वरूप की कन्या पंचजनी के पुत्र  सुमति  ;राष्ट्रमृत  ; सुदर्शन  ;आवरण  एवं धूम्रकेतु  थे ।