सोमवार, मई 31, 2021

सर्वांगीण मनोकामना का स्थल नागेश्वर...

            
मानवीय जीवन में भगवान शिव की उपासना आवश्यक है । पुरणों और शास्त्रों में नागेश्वर ज्योतिर्लिंग की उपासना श्रेष्ठकर कहा गया है ।
                                  

                              नागेश्वर ज्योतिर्लिंग मंदिर


गुजरात प्रान्त के द्वारकापुरी से लगभग 25 किलोमीटर की दूरी पर नागेश्वर ज्योतिर्लिंग अवस्थित है। नागेश्वर ज्योतिर्लिंग शिवलिंग की स्थापना  धर्मात्मा, सदाचारी और शिव जी का अनन्य वैश्य भक्त सुप्रिय’ द्वारा किया गया था। दारूकावन का राजा राक्षस राज दारूक की पत्नी दारूका ने माता पार्वती की उपासना कर शक्ति प्राप्त कर दारुक वन में रह रहे ऋषियों , सदाचारियों को कष्ट पहुचता था । राक्षस दारुक की पत्नी दारूका द्वारा पश्चिम समुद्र के तट पर 16 योजन वन की देख रेख करने के लिए दारुक को नियुक्त किया गया तहस । वैन का नामकरण दारूका वन रखा गया था ।दारुका के गुरु ऋषि और्व ने दारूका के घमंड को नियंत्रण करने के बाद दारूका ने समुद्र में अपना आवास बनाया । शिव भक्त वैश्य सुप्रिय पर  भयंकर बलशाली राक्षस ने आक्रमण कर राक्षस दारूक ने सभी लोगों सहित सुप्रिय का अपहरण करने के बाद समुद्र में बने  पुरी में ले जाकर  बन्दी बना लिया। दरुका के कारागार में वैश्य सुप्रिय की आराधना बन्द नहीं हुई और उसने अपने अन्य साथियों को भी शंकर जी की आराधना के प्रति जागरूक कर दिया। कारागार रह रहे शिवभक्त बन गये। कारागार में शिवभक्ति की सूचना राक्षस दारूक को मिलने के बाद दारुक क्रोध में उबल उठने के बाद  दारुक ने सुप्रिय को डाँटते हुए बोला– ‘अरे वैश्य! तू आँखें बन्द करके मेरे विरुद्ध कौन-सा षड्यन्त्र रच रहा है?’ वह ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाता हुआ धमका रहा था, इसलिए उस पर कुछ भी प्रभाव न पड़ा।घमंडी राक्षस दारूक ने अपने अनुचरों को आदेश दिया कि सुप्रिय को मार डालो। अपनी हत्या के भय से  सुप्रिय डरा नहीं और वह भयहारी, संकटमोचक भगवान शिव को पुकारने में लगा रहा। उस समय अपने भक्त की पुकार पर भगवान शिव ने उसे कारागार में  दर्शन दिया। कारागार में एक ऊँचे स्थान पर चमकीले सिंहासन पर स्थित भगवान शिव ज्योतिर्लिंग के रूप में उसे दिखाई दिये। भगवान शिव ने उस समय सुप्रिय वैश्य को  अपना  पाशुपतास्त्र देने के बाद वे अन्तर्धान हो  गये। पाशुपतास्त्र प्राप्ति करने के बाद सुप्रिय ने पाशुपास्त्र से राक्षसों का संहार कर डाला और अन्त में वह स्वयं शिवलोक को प्राप्त हुआ। भगवान शिव के निर्देशानुसार  शिवलिंग का नाम ‘नागेश्वर ज्योतिर्लिंग’ पड़ा है ।  य: श्रृणुयान्नित्यं नागेशद्भवमादरात्। सर्वान् कामनियाद् धीमान् महापातकनशनान्। भगवान शिव ने शिव भक्त सुप्रिय की भक्ति से चार दरवाजे वाला शिव मंदिर के मध्य में भगवान शिव ज्योतिर्लिङ्ग के साथ माता पार्वती के साथ   निवास बनाये थे । शिव  पुराण के अनुसार दारूका के सभी राक्षस मारे जाने के बाद दारुक ने माता पार्वती की उपासना की और माता पार्वती को दारूका वैन में रहने के लिए वर मांगई थी । दारुक वैन में भगवान शिव का नागेश्वर ज्योतिर्लिङ्ग और माता पार्वती नागेश्वरी के रूप में स्थित है । दारूका वन का राजा दारूका के पुत्र महासेन और और वीरसेन हुआ था । द्वापर युग में दारूका वन को द्वारिका की स्थापना द्वापरयुग में भगवान कृष्ण द्वारा किया गया था ।  समुद्र के किनारे द्वारका पुरी के पास स्थित नागेश्वर ज्योतिर्लिंग  है। कश्मीर प्रान्त के पहाड़ियों तथा विभिन्न मैदानी क्षेत्रों से अनेक में पौण्ड्रक, द्रविड, कम्बोज, यवन, शक पल्लव, राद, किरात, दरद, नाग और खस आदि प्रमुख थीं। महाभारत के अनुसार ये सभी  पराक्रमी तथा सभ्यता-सम्पन्न थीं। जब पाण्डवों को इन लोगों से संघर्ष करना पड़ा तब उन्हें ज्ञान हुआ कि ये सभी क्षत्रिय धर्म और उसके गुणों से सम्पन्न हैं। कुमाऊँ की अनार्य जातियों ने भी ब्राह्मण धर्म में प्रवेश पाने का प्रयास किया था । वसिष्ठ और विश्वामित्र के बीच वर्षो तक चला संघर्ष इसी आशय का प्रतीक है। श्री ओकले साहब ने उपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘पवित्र हिमालय’ के अनुसार  कश्मीर और हिमालय के गढ़वाल क्षेत्र में नाग लोगों की एक जाति रहती है। ओकले के अनुसार सर्प की पूजा करने के कारण ही उन्हें ‘नाग’ कहा जाता है।
राई डेविडस् के अनुसार  पुराने बौद्ध काल में चित्रों और मूर्तियों में मनुष्य तथा साँप के जुड़े हुए स्वरूप में नाग पूजा को अंकित किया गया है। यह प्रथा  गढ़वाल तथा कुमाऊँ में प्रचलित है।
एटकिंशन के  ‘हिमालय डिस्ट्रिक्स’ में उल्लेख है कि , गढ़वाल के अधिकांशत: मन्दिरों में नागपूजा होती चली आ रही है।
जागेश्वर शिवमन्दिर के  आसपास में  वेरीनाग, धौलेनाग, कालियनाग आदि स्थान विद्यमान हैं, जिनमें ‘नाग’ शब्द उस नाग जाति की याद दिलाता है। -मन्दिरों के बीच ‘नागेश’ मन्दिर प्राचीनकाल से कुमाऊँ में विद्यमान है।  धर्म और भूत-प्रेतों की पूजा की शिवोपासना में गणना की गई है।
आदि जगद्गुरु शंकराचार्य के मत और सिद्धान्त के प्रचार से पहले कुमाऊँ के लोगों को ‘पाशुपतेश्वर’ का नाम नहीं मालूम था।  काठमाण्डू, नेपाल के ‘पाशुपतिनाथ, और कुमाऊँ में ‘यागेश्वर’ के ‘पाशुपतेश्वर’  वैदिक काल से पूजनीय देवस्थान हैं। पवित्र हिमालय की सम्पूर्ण चोटियों को तपस्वी भगवान शिवमूर्तियों के रूप में स्वीकार किया जाता है । कैलास पर्वत को तो आदि काल से नैसर्गिक शिव मन्दिर  है।
 ‘यागेश्वर मन्दिर’ हिमालय के उत्तर पश्चिम की ओर अवस्थित है तथा  सघन देवदार का वन है। इस मन्दिर का निर्माण तिब्बतीय और आर्य शैली का मिला जुला स्वरूप है। जागेश्वर-मन्दिर 2500 वर्षों पूर्व का है। इसके समीप मृत्युंजय और डिण्डेश्वर-मन्दिर  पुराने हैं। जागेश्वर-मन्दिर शिव-शक्ति की प्रतिमाएँ और दरवाजों के द्वारपालों की मूर्तियाँ  अत्यन्त प्राचीन हैं। जागेश्वर-मन्दिर में राजा दीपचन्द की चाँदी की मूर्ति भी स्थापित है।
स्कन्द पुराण के अनुसार कुमाऊँ कोसल राज्य का भाग था। कुमाऊँ में वैदिक तथा बौद्ध धर्म समानान्तर रूप से प्रचलित थे। मल्ल राजाओं ने भी पाशुपतेश्वर या जागेश्वर के दर्शन किये थे तथा जागेश्वर को कुछ गाँव उपहार में समर्पित किये थे। चन्द राजाओं की जागेश्वर के प्रति अटूट श्रृद्धा थी। इनका राज्य कुमाऊँ की पहाड़ियों तथा तराईभाँवर के बीच था। देवीचन्द, कल्याणचन्द, रतनचन्द, रुद्रचन्द्र आदि राजाओं ने जागेश्वर-मन्दिर को गाँव तथा बहुत-सा धन दान में दिये थे।
सन 1740 में अलीमुहम्मद ख़ाँ ने अपने रूहेला सैनिकों के साथ कुमाऊँ पर आक्रमण किया था। उसके सैनिकों ने भारी तबाही मचाई और अल्मोड़ा तक के मन्दिरों को भ्रष्ट कर उनकी मूर्तियों को तोड़ डाला। उन दुष्टों ने जागेश्वर-मन्दिर पर भी धावा बोला था, किन्तु ईश्वर इच्छा से वे असफल रहे। सघन देवदार के जंगल से लाखों बर्र निकलकर उन सैनिकों पर टूट पड़े और वे सभी भाग खड़े हुए। उनमें से कुछ कुमाऊँ निवासियों द्वारा मार दिये गये, तो कुछ सर्दी से मर गये।
बौद्धों के समय में भगवान 'बदरी विशाल' की प्रतिमा की तरह जागेश्वर की देव-प्रतिमाएँ  सूर्य कुण्ड में कुछ दिनों तक पड़ी रहीं।  जगद्गुरु शंकराचार्य ने पुन: मूर्तियों को स्थापित किया और जागेश्वर-मन्दिर की पूजा का दायित्त्व दक्षिण भारतीय कुमारस्वामी को सौंप दिया। जागेश्वर-मन्दिर अत्यन्त प्राचीन काल का है और नाग जातियों के द्वारा इस शिवलिंग की पूजा होने के कारण इसे ‘यागेश’ या ‘नागेश’ कहा जाने लगा। ‘दारूका’  पार्वती जी से वरदान प्राप्त कर अहंकार में चूर रहती थी। उसका पति ‘दारूक महान् बलशाली राक्षस था। उसने बहुत से राक्षसों को अपने साथ लेकर समाज में आतंक फैलाया हुआ था। वह यज्ञ आदि शुभ कर्मों को नष्ट करता हुआ सन्त-महात्माओं का संहार करता था।  समुद्र के किनारे सभी प्रकार की सम्पदाओं से भरपूर सोलह योजन विस्तार पर उसका एक वन था, जिसमें वह निवास करता था।दारूका जहाँ भी जाती थी, वृक्षों तथा विविध उपकरणों से सुसज्जित वह वनभूमि अपने विलास के लिए साथ-साथ ले जाती थी। महादेवी पार्वती ने उस वन की देखभाल का दायित्त्व दारूका को  सौंपा था, जो उनके वरदान के प्रभाव से उसके ही पास रहता था। उससे पीड़ित आम जनता ने महर्षि और्व के पास जाकर अपना कष्ट सुनाया। शरणागतों की रक्षा का धर्म पालन करते हुए महर्षि और्व ने राक्षसों को शाप दे दिया। उन्होंने कहा कि ‘जो राक्षस इस पृथ्वी पर प्राणियों की हिंसा और यज्ञों का विनाश करेगा, उसी समय वह अपने प्राणों से हाथ धो बैठेगा। महर्षि और्व द्वारा दिये गये शाप की सूचना जब देवताओं को मालूम हुई, तब उन्होंने दुराचारी राक्षसों पर चढ़ाई कर दी। राक्षसों पर भारी संकट आ पड़ा। यदि वे युद्ध में देवताओं को मरते हैं, शाप के कारण स्वयं मर जाएँगे और यदि उन्हें नहीं मारते हैं,  पराजित होकर स्वयं भूखों मर जाएँगे। उस समय दारूका ने राक्षसों को सहारा दिया और भवानी के वरदान का प्रयोग करते हुए वह सम्पूर्ण वन को लेकर समुद्र में जा बसी। इस प्रकार राक्षसों ने धरती को छोड़ दिया और निर्भयतापूर्वक समुद्र में निवास करते हुए वहाँ भी प्राणियों को सताने लगे।
एक बार उस समुद्र में मनुष्यों से भरी बहुत-सारी नौकाएँ जा रही थीं, जिन्हें उन राक्षसों ने पकड़ लिया। सभी लोगों को बेड़ियों से बाँधकर उन्हें कारागार में बन्द कर दिया गया। राक्षस उन यात्रियों को बार-बार धमकाने लगे। वैश्य  ‘सुप्रिय’ नामक वैश्य उस यात्री दल का अगुवा  था, सदाचारी था। वह ललाट पर भस्म, गले में रुद्राक्ष की माला डालकर भगवान शिव की भक्ति करता था। सुप्रिय बिना शिव जी की पूजा किये कभी भी भोजन नहीं करता था। उसने अपने बहुत से साथियों को भी शिव जी का भजन-पूजन सिखला दिया था। उसके सभी साथी ‘नम: शिवाय’ का जप करते थे तथा शिव जी का ध्यान भी करते थे। सुप्रिय परम भक्त था, इसलिए उसे शिव जी का दर्शन भी प्राप्त होता था।
इस विषय की सूचना जब राक्षस दारूका को मिली, तो वह करागार में आकर सुप्रिय सहित सभी को धमकाने लगा और मारने के लिए दौड़ पड़ा। मारने के लिए आये राक्षसों को देखकर भयभीत सुप्रिय ने कातरस्वर से भगवान शिव को पुकारा, उनका चिन्तन किया और वह उनके नाम-मन्त्र का जप करने लगा। उसने कहा- देवेश्वर शिव! हमारी रक्षा करें, हमें इन दुष्ट राक्षसों से बचाइए। देव! आप ही हमारे सर्वस्व हैं, आप ही मेरे जीवन और प्राण हैं। इस प्रकार सुप्रिय वैश्य की प्रार्थना को सुनकर भगवान शिव एक 'विवर'अर्थात् बिल से प्रकट हो गये। उनके साथ ही चार दरवाजों का एक सुन्दर मन्दिर प्रकट हुआ।उस मन्दिर के मध्यभाग में (गर्भगृह) में एक दिव्य ज्योतिर्लिंग प्रकाशित हो रहा था तथा शिव परिवार के सभी सदस्य भी उसके साथ विद्यमान थे। सुप्रिय के पूजन से प्रसन्न भगवान शिव ने स्वयं पाशुपतास्त्र लेकर प्रमुख राक्षसों को, उनके अनुचरों को तथा उनके सारे संसाधनों (अस्त्र-शस्त्र) को नष्ट कर दिया। लीला करने के लिए स्वयं शरीर धारण करने वाले भगवान शिव ने अपने भक्त सुप्रिय आदि की रक्षा करने के बाद उस वन को भी यह वर दिया कि ‘आज से इस वन में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र, इन चारों वर्णों के धर्मों का पालन किया जाएगा। इस वन में शिव धर्म के प्रचारक श्रेष्ठ ऋषि-मुनि निवास करेंगे और यहाँ तामसिक दुष्ट राक्षसों के लिए कोई स्थान न होगा।’राक्षसों पर आये इसी भारी संकट को देखकर राक्षसी दारूका ने दैन्यभाव (दीनता के साथ) से देवी पार्वती की स्तुति, विनती आदि की। उसकी प्रार्थना से प्रसन्न माता पार्वती ने पूछा– ‘बताओ, मैं तेरा कौन-सा प्रिय कार्य करूँ?’! दारूका ने कहा– ‘माँ! आप मेरे कुल (वंश) की रक्षा करें।’ पार्वती ने उसके कुल की रक्षा का आश्वासन देते हुए भगवान शिव से कहा– ‘नाथ! आपकी कही हुई बात इस युग के अन्त में सत्य होगी, तब तक यह तामसिक सृष्टि भी चलती रहे, ऐसा मेरा विचार है।’ माता पार्वती शिव से आग्रह करती हुईं बोलीं कि ‘मैं भी आपके आश्रय में रहने वाली हूँ, आपकी हूँ । राक्षसी दारूका राक्षसियों में बलिष्ठ, मेरी ही शक्ति तथा देवी है। इसलिए यह राक्षसों के राज्य का शासन करेगी। ये राक्षसों की पत्नियाँ अपने राक्षसपुत्रों को पैदा करेगी, जो मिल-जुलकर इस वन में निवास करेंगे-ऐसा मेरा विचार है।’माता पार्वती के उक्त प्रकार के आग्रह को सुनकर भगवान शिव ने उनसे कहा– ‘प्रिय! तुम मेरी भी बात सुनो। मैं भक्तों का पालन तथा उनकी सुरक्षा के लिए प्रसन्नतापूर्वक इस वन में निवास करूँगा। जो मनुष्य वर्णाश्रम-धर्म का पालन करते हुए श्रद्धा-भक्तिपूर्वक मेरा दर्शन करेगा, वह चक्रवर्ती राजा बनेगा। कलि युग के अन्त में तथा सतयुग के  में महासेन का पुत्र वीरसेन राजाओं का महाराज होगा। वह मेरा परम भक्त तथा बड़ा पराक्रमी होगा। जब वह इस वन में आकर मेरा दर्शन करेगा। उसके बाद वह चक्रवर्ती सम्राट हो जाएगा।’ तत्पश्चात् बड़ी-बड़ी लीलाएँ करने वाले शिव-दम्पत्ति ने आपस में हास्य-विलास की बातें की और वहीं पर स्थित हो गये। इस प्रकार शिवभक्तों के प्रिय ज्योतिर्लिंग स्वरूप भगवान शिव ‘नागेश्वर’ कहलाये और शिवा (पार्वती) देवी भी ‘नागेश्वरी’ के नाम से विख्यात तथा  शिव ज्योतिर्लिंग के रूप में प्रकट हुए हैं । पुरणों के अनुसार समुद्र के पश्चिम 16 योजन फैले वन में नाग का शासन बाद में माता पार्वती के वरदान प्राप्त करने के बाद दारूका वैन से ख्याति प्राप्त हुई थी तथा भगवान कृष्ण ने द्वारिका वन का निर्माण किया है । बड़ौदा  राज्य के दारुक वन , हैदराबाद के औड़ा , अल्मोड़ा के यगेश में नागेश्वर मंदिर है । मल्लिका के सरस्वती नदी के तट पर  नागेश्वर ज्योतिर्लिङ्ग का उप ज्योतिर्लिङ्ग भूतेश्वर लिंग स्थापित है । नागेश्वर ज्योतिर्लिङ्ग की उपासना से सर्वांगी विकास तथा भय मुक्त रहता है ।

रविवार, मई 30, 2021

मानवीय चेतना का स्वरूप सोमनाथ ज्योतिर्लिङ्ग...


वेदों , पुरणों और शास्त्रों में मानवीय चेतन शक्ति को जागृति के लिए महत्वपूर्ण उल्लेख किया गया है । भारतीय सांस्कृतिक और आध्यात्मिक विरासत में १२ ज्योतिर्लिंगों में सर्वप्रथम सोमनाथ ज्योतिर्लिंग  गुजरात के प्रभास  क्षेत्र के सौराष्ट्र  वेरावल बंदरगाह में स्थित सोमनाथ शिवलिङ्ग की स्थापना   राजा दक्ष प्रजापति के जामाता तथा औषधि के स्वामी चंद्रदेव द्वारा की गई थी । सोमनाथ तीर्थ पितृगणों के श्राद्ध, नारायण बलि आदि कर्मो के लिए प्रसिद्ध है। चैत्र, भाद्रपद, कार्तिक माह में  श्राद्ध करने का विशेष महत्त्व है। सोमनाथ में   हिरण, कपिला और सरस्वती नदियों का महासंगम  है। शिव पुराण तथा लिंगपुराण  के अनुसार चन्द्र ने, दक्षप्रजापति राजा की २७ कन्याओं से विवाह किया था। परंतु उनमें से रोहिणी पत्नी को चंद्रमा द्वारा अधिक प्यार व सम्मान और अन्याय करने के कारण  क्रोध में आकर दक्ष ने चंद्रदेव को शाप दे दिया कि अब से हर दिन तुम्हारा तेज , काँति, चमक , क्षीण होता रहेगा। शाप के कारण  हर दूसरे दिन से  चंद्र का तेज घटने लगा। शाप से विचलित और दु:खी चंद्रमा  ने  शिव लिङ्ग की स्थापना कर  भगवान शिव की उपासना प्रारंभ  कर दी। चंद्रमा की उपासना से  शिव प्रसन्न हुए और सोम-चंद्र के शाप का निवारण किया। सोम के कष्ट को दूर करने वाले भगवान शिव ने चंद्रमा द्वारा स्थापित शिवलिंग में अपनी ज्योति प्रकट कर चंद्रमा का क्षय रोग से मुक्त कर  "सोमनाथ ज्योतिर्लिङ्ग स्थापित हुए है । द्वापर युग में  श्रीकृष्ण के भालुका तीर्थ पर विश्राम करने के दौरान शिकारी ने उनके पैर के तलुए में पद्मचिह्न को हिरण की आँख जानकर अनजाने में तीर मारा था। तब ही कृष्ण ने देह त्यागकर सोमनाथ क्षेत्र में स्थित भालुका भूमि से वैकुंठ गमन किया है । भगवान कृष्ण के शरीर गमन स्थल पर  स्थान पर कृष्ण मंदिर निर्मित  है । सोमनाथ मंदिर ईसा  पूर्व में अस्तित्व को सोमनाथ मंदिर का पुनर्निर्माण सातवीं सदी में वल्लभी के मैत्रक राजाओं ने किया था । आठवीं सदी में सिन्ध के अरबी गवर्नर जुनायद ने सोमनाथ मंदिर को  नष्ट करने के लिए अपनी सेना भेजी। गुर्जर प्रतिहार राजा नागभट्ट ने 815 ईस्वी में सोमनाथ मंदिर का  तीसरी बार पुनर्निर्माण किया। इस मंदिर की महिमा और कीर्ति दूर-दूर तक फैली थी। अरब यात्री अल-बरुनी ने अपने यात्रा वृतान्त में इसका विवरण लिखा जिससे प्रभावित हो महमूद ग़ज़नवी ने सन १०२४ में कुछ ५,००० साथियों के साथ सोमनाथ मंदिर पर हमला किया, उसकी सम्पत्ति लूटी और उसे नष्ट कर दिया। ५०,००० लोग मंदिर के अंदर हाथ जोडकर पूजा अर्चना कर रहे थे, प्रायः सभी कत्ल कर दिये गये। इसके बाद गुजरात के राजा भीम और मालवा के राजा भोज ने इसका पुनर्निर्माण कराया। सन 1297 में जब दिल्ली सल्तनत ने गुजरात पर क़ब्ज़ा करने के बाद सोमनाथ मंदिर पाँचवीं बार गिराया गया। मुगल बादशाह औरंगजेब ने सोमनाथ मंदिर को 1706 में गिरा दिया था । यह जूनागढ़ रियासत का मुख्य नगर था। लेकिन १९४८ के बाद इसकी तहसील, नगर पालिका और तहसील कचहरी का वेरावल में विलय हो गया। मंदिर का बार-बार खंडन और जीर्णोद्धार होता रहा पर शिवलिंग यथावत रहा। लेकिन सन १०२६ में महमूद गजनी ने  शिवलिंग खंडित किया  था। इसके बाद प्रतिष्ठित किए गए शिवलिंग को १३०० में अलाउद्दीन खिलजी की सेना ने खंडित किया।  महमूद गजनी सन १०२६ में लूटपाट के दौरान इन द्वारों को अपने साथ ले गया था। राजा कुमार पाल द्वारा सोमनाथ स्थान पर अन्तिम मंदिर बनवाया गया था। सौराष्ट्र के मुख्यमन्त्री उच्छंगराय नवलशंकर ढेबर ने १९ अप्रैल १९४० को प्रभास क्षेत्र का उत्खनन कराया था। इसके बाद भारत सरकार के पुरातत्व विभाग ने उत्खनन द्वारा प्राप्त ब्रह्मशिला पर शिव का ज्योतिर्लिग स्थापित किया है।
सौराष्ट्र के पूर्व राजा दिग्विजय सिंह ने ८ मई १९५० को मंदिर की आधारशिला रखी तथा ११ मई १९५१ को भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ॰ राजेंद्र प्रसाद ने मंदिर में ज्योतिर्लिग स्थापित किया। नवीन सोमनाथ मंदिर १९६२ में पूर्ण निर्मित हो गया। १९७० में जामनगर की राजमाता ने अपने पति की स्मृति में उनके नाम से 'दिग्विजय द्वार' बनवाया था । इस द्वार के पास राजमार्ग है और पूर्व गृहमन्त्री सरदार वल्लभ भाई पटेल की प्रतिमा है। सोमनाथ मंदिर निर्माण में पटेल का बड़ा योगदान रहा।मंदिर के दक्षिण में समुद्र के किनारे  स्तंभ है। उसके ऊपर एक तीर रखकर संकेत किया गया है कि सोमनाथ मंदिर और दक्षिण ध्रुव के बीच में पृथ्वी का कोई भूभाग नहीं है । आसमुद्रांत दक्षिण ध्रुव पर्यंत अबाधितs ज्योतिर्मार्ग। स्तम्भ को 'बाणस्तम्भ' कहते हैं ।मंदिर के पृष्ठ भाग में स्थित प्राचीन मंदिर के समीप  पार्वती जी का मंदिर हआई ।   ‘पिलग्रिमेज टू फ्रीडम’ केके अनुसार भारत  के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल ने  दिसम्बर 1922 में मैं उस भग्न मंदिर की तीर्थ यात्रा पर निकला। वहां पहुंचकर मैंने मंदिर में भयंकर दुरवस्था देखी—अपवित्र, जला हुआ और ध्वस्त! पर फिर भी वह दृढ़ खड़ा था, मानो हमारे साथ की गई कृतघ्नता और अपमान को न भूलने का संदेश दे रहा हो। उस दिन सुबह जब मैंने पवित्र सभामण्डप की ओर कदम बढ़ाए तो मंदिर के खंभों के भग्नावशेषों और बिखरे पत्थरों को देखकर मेरे अन्दर अपमान की कैसी अग्निशिखा प्रज्जवलित हो उठी थी । नवंबर 1947 के मध्य में सरदार बल्लभ भाई पटेल  प्रभास पाटन के दौरे केके तहत सोमनाथ मंदिर का दर्शन किया। एक सार्वजनिक सभा में सरदार ने घोषणा की: ‘नए साल के इस शुभ अवसर पर हमने फैसला किया है कि सोमनाथ का पुनर्निर्माण करना चाहिए। सौराष्ट्र के लोगों को अपना सर्वश्रेष्ठ योगदान देना होगा। यह एक पवित्र कार्य है जिसमें सभी को भाग लेना चाहिए।’ ...कुछ लोगों ने प्राचीन मंदिर के भग्नावशेषों को प्राचीन स्मारक के रूप में संजोकर रखने का सुझाव दिया जिन्हें मृत पत्थर जीवन्त स्वरूप की तुलना में अधिक प्राणवान लगते थे। लेकिन मेरा स्पष्ट मानना था कि सोमनाथ का मंदिर कोई प्राचीन स्मारक नहीं, बल्कि प्रत्येक भारतीय के हृदय में स्थित पूजा स्थल था जिसका पुनर्निर्माण करने के लिए राष्ट्र प्रतिबद्ध था । मन्दिर  प्रांगण में हनुमानजी का मंदिर, पर्दी विनायक, नवदुर्गा खोडीयार, महारानी अहिल्याबाई होल्कर द्वारा स्थापित सोमनाथ ज्योतिर्लिग, अहिल्येश्वर, अन्नपूर्णा, गणपति और काशी विश्वनाथ के मंदिर हैं। अघोरेश्वर मंदिर  के समीप भैरवेश्वर मंदिर, महाकाली मंदिर, दुखहरण जी की जल समाधि स्थित है। पंचमुखी महादेव मंदिर कुमार वाडा में, विलेश्वर मंदिर के नजदीक और राममंदिर स्थित है।  हाटकेश्वर मंदिर, देवी हिंगलाज का मंदिर, कालिका मंदिर, बालाजी मंदिर, नरसिंह मंदिर, नागनाथ मंदिर समेत  ४२ मंदिर नगर के  दस वर्ग कि. मी . क्षेत्र में स्थापित है ।वेरावल प्रभास क्षेत्र के मध्य में समुद्र के किनारे मंदिर बने हुए हैं ।शशिभूषण मंदिर, भीड़भंजन गणपति, बाणेश्वर, चंद्रेश्वर-रत्नेश्वर, कपिलेश्वर, रोटलेश्वर, भालुका तीर्थ है। भालकेश्वर, प्रागटेश्वर, पद्म कुंड, पांडव कूप, द्वारिकानाथ मंदिर, बालाजी मंदिर, लक्ष्मीनारायण मंदिर, रूदे्रश्वर मंदिर, सूर्य मंदिर, हिंगलाज गुफा, गीता मंदिर, बल्लभाचार्य महाप्रभु की ६५वीं बैठक  मंदिर है। प्रभास खंड में  सोमनाथ मंदिर के समयकाल में देव मंदिर  थे। शिवजी के १३५, विष्णु भगवान के ५, देवी के २५, सूर्यदेव के १६, गणेशजी के ५, नाग मंदिर १, क्षेत्रपाल मंदिर १, कुंड १९ और नदियां ९  हैं।  शिलालेख के अनुसार  महमूद गजनवी के हमले के बाद सोमनाथ मंदिर को इक्कीस  बार  निर्माण किया गया।   गोमती नदी में स्नान का विशेष महत्त्व बताया गया है। गोमती  नदी का जल सूर्योदय में  बढ़ता  है और सूर्यास्त पर घटता  है ।गोमती का जल  सुबह सूरज निकलने से पूर्व डेढ फीट  रह जाता है। 
भगवान शिव  कृपा से   औषधि के स्वामी चंद्रमा  क्षय मुक्त हो कर  यश का विस्तार करने के लिये प्रेरणा देने कारण
भगवान शिव सोमेश्वर कहलाए थे । सोमनाथ ज्योतिर्लिङ्ग की उपासना से क्षय , कोढ़ आदि रोगों का नाश होता है ।प्रभास क्षेत्र में देवों द्वारा सोमकुण्ड , चंद्रकुण्ड स्थापित किया गया था ।औषधि के स्वामी चंद्रमा निरोग हो कर कार्य प्रारंभ किया । सोमनाथ ज्योतिर्लिङ्ग को सोमेश्वर लिङ्ग कहा गया है ।सोमनाथ ज्योतिर्लिंग का उपज्योतिर्लिंग अंतकेश्वर मही नदी और समुद्र के संगम के किनारे स्थापित है । अंतकेश्वर उप ज्योतिर्लिङ्ग का जलाभिषेक समुद्र और मही नदी  द्वारा किया जाता है ।

शनिवार, मई 29, 2021

ब्रह्मांड का संबाद प्रवर्तक देवर्षि नारद ...


             पुरणों और शास्त्रों में देवर्षि को नारद ब्रह्मांड और भू - लोक  , विश्व में समन्वय कार्य और संबाद प्रेषण का प्रवर्तक  की उल्लेख किया गया है । भगवान विष्णु के महान भक्त ,  ब्रह्मा जी का मानस पुत्र और  भगवान शिव का प्रिय  है ।    पुराणों के अनुसार ज्येष्ठ कृष्ण पक्ष प्रतिपदा को  ब्रह्मा जी का मानस पुत्र नारद जी का जन्म हुआ है । ब्रह्मवैवर्त पुराण के अनुसार  ब्रह्मा सृष्टि का निर्माण करने के पश्चात सात मानस पुत्रों में  नारद सबसे चंचल स्वभाववाले  थे । ब्रह्मा जी ने नारद से सृष्टि के निर्माण में सहयोग करने के लिए विवाह करने की चर्चा के दौरान  नारद ने अपने पिता ब्रह्मा जी  को साफ मना कर दिया। भगवान ब्रह्मा ने क्रोधित होते हुए नारद जी को आजीवन अविवाहित रहने का श्राप दे दिया। नारद मुनि को श्राप देते हुए ब्रह्मा ने कहा नारद हमेशा अपनी जिम्मेदारियों से भागते हो अब पूरी जिंदगी इधर उधर भागते  रहोगे। देवर्षि नारद धर्म के प्रचार तथा लोक कल्याण हेतु सदैव प्रयत्नशील रहने के कारण ईश्वर  का मन कहा गया है। युगों में,  लोकों में,  विद्याओं में, समाज के  वर्गो में नारदजी का सदा से प्रवेश रहा है। देवताओं ने , दैत्यों , राक्षसों , आर्यो ,अनार्यों दानवों ने देवर्षि नारद जी को  सदैव आदर तथा समय-समय पर सभ  परामर्श लिया है। 
श्रीमद्भगवद्गीता के दशम अध्याय के 26 वें श्लोक में  भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है कि  देवर्षीणाम्चनारद:। देवर्षियों में मैं नारद हूं। श्रीमद्भागवत महापुराण के अनुसार  सृष्टि में भगवान विष्णु  ने देवर्षि नारद के रूप में अवतार ग्रहण किया और सात्वततंत्र का उपदेश देकर सत्कर्मो के द्वारा भव-बंधन से मुक्ति का मार्ग दिखाया है। वायुपुराण में  उल्लेख किया गया है कि देवलोक में प्रतिष्ठा प्राप्त करनेवाले ऋषिगण देवर्षिनाम से जाने जाते हैं। भूत, वर्तमान एवं भविष्य-, कालों के ज्ञाता, सत्यभाषी, स्वयं का साक्षात्कार करके स्वयं में सम्बद्ध, कठोर तपस्या से लोकविख्यात, गर्भावस्था में ही अज्ञान रूपी अंधकार के नष्ट हो जाने से जिनमें ज्ञान का प्रकाश हो चुका है, ऐसे मंत्रवेत्तातथा अपने सिद्धियों के बल से सब लोकों में सर्वत्र पहुँचने में सक्षम, मंत्रणा हेतु मनीषियोंसे घिरे हुए देवता, द्विज और देवर्षि नारद  कहे जाते हैं। धर्म, पुलस्त्य, क्रतु, पुलह, प्रत्यूष, प्रभास और कश्यप के पुत्रों को देवर्षिका पद प्राप्त हुआ है  । धर्म के पुत्र नर एवं नारायण, क्रतु के पुत्र बालखिल्यगण, पुलह के पुत्र कर्दम, पुलस्त्यके पुत्र कुबेर, प्रत्यूषके पुत्र अचल, कश्यप के पुत्र नारद और पर्वत देवर्षि माने गए है । वायुपुराण मे उल्लेख किया गया है कि देवर्षि के सारे लक्षण नारदजी में पूर्णत:घटित होते हैं। महाभारत के सभापर्व के पांचवें अध्याय में उल्लेख है कि देवर्षि नारद वेद और उपनिषदों के मर्मज्ञ, देवताओं के पूज्य, इतिहास-पुराणों के विशेषज्ञ, पूर्व कल्पों की बातों को जानने वाले, न्याय एवं धर्म के तत्त्‍‌वज्ञ, शिक्षा, व्याकरण, आयुर्वेद, ज्योतिष के प्रकाण्ड विद्वान, संगीत-विशारद, प्रभावशाली वक्ता, मेधावी, नीतिज्ञ, कवि, महापण्डित, बृहस्पति महाविद्वानों की शंकाओं का समाधान करने वाले, धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष के यथार्थ के ज्ञाता, योगबलसे समस्त लोकों के समाचार जान सकने में समर्थ, सांख्य एवं योग के सम्पूर्ण रहस्य को जानने वाले, देवताओं-दैत्यों को वैराग्य के उपदेशक, क‌र्त्तव्य-अक‌र्त्तव्य में भेद करने में दक्ष, समस्त शास्त्रों में प्रवीण, सद्गुणों के भण्डार, सदाचार के आधार, आनंद के सागर, परम तेजस्वी, सभी विद्याओं में निपुण, सबके हितकारी और सर्वत्र गति वाले हैं।  नारदोक्त पुराण; बृहन्नारदीय पुराण प्रख्यात है। मत्स्यपुराण के अनुसार  देवर्षि  नारदजी का  बृहत्कल्प-प्रसंग मे धर्म-आख्यायिकाओं को , 25,000 श्लोकों का  महाग्रन्थ नारद महापुराण है। वर्तमान समय में उपलब्ध नारदपुराण 22,000 श्लोकों में नारदपुराण में  750 श्लोक ज्योतिषशास्त्र  हैं।  ज्योतिष के तीनों स्कन्ध-सिद्धांत, होरा और संहिता की सर्वागीण विवेचना की गई है। नारदसंहिता से उपलब्ध तथा अन्य ग्रन्थ में  ज्योतिषशास्त्र के  विषयों का सुविस्तृत वर्णन मिलता है। देवर्षि नारद भक्ति के साथ-साथ ज्योतिष के  प्रधान आचार्य हैं। भगवान की अधिकांश लीलाओं में नारदजी उनके अनन्य सहयोगी बने हैं। वे भगवान के पार्षद होने के साथ देवताओं के प्रवक्ता हैं। देवर्षि नारद द्वारा भक और भगवान से जुड़ाव कराने के लिये सेतु का काम करते है । अथर्ववेद के अनुसार नारद ऋषि है ।।ऐतरेय ब्राह्मण के  अनुसार हरिशचंद्र के पुरोहित सोमक, साहदेव्य के गुरु  तथा आग्वष्टय एवं युधाश्रौष्ठि को अभिशप्त करने वाले नारद थे।मैत्रायणी संहिता में नारद के  आचार्य हुए हैं। सामविधान ब्राह्मण में बृहस्पति के शिष्य के रूप में नारद  है । छान्दोग्यपनिषद् में नारद सनत्कुमारों के साथ है। महाभारत में मोक्ष धर्म के नारायणी आख्यान में नारद की उत्तरदेशीय यात्रा का विवरण के अनुसार देवर्षि नारद ने नर-नारायण ऋषियों की तपश्चर्या देखकर उनसे प्रश्न किया और बाद में उन्होंने नारद को पांचरात्र धर्म का श्रवण कराया। नारद पंचरात्र के वैष्णव ग्रन्थ  है जिसमें दस महाविद्याओं की कथा है।  नारद पंचतंत्र के अनुसार हरी का भजन ही मुक्ति का परम कारण माना गया है।नारद पुराण के पूर्वखंड में 125 अघ्याय और उत्तरखण्ड में 182 अघ्याय हैं। स्मृतिकारों ने नारद का नाम सर्वप्रथम स्मृतिकार के रू प में माना है।नारद स्मृति में व्यवहार मातृका यानी अदालती कार्रवाई और सभा अर्थात न्यायालय सर्वोपरि माना गया है। स्मृति में ऋणाधान ऋण वापस प्राप्त करना, उपनिधि यानी जमानत, संभुय, समुत्थान यानी सहकारिता, दत्ताप्रदानिक यानी करार करके भी उसे नहीं मानने, अभ्युपेत्य-असुश्रुषा यानी सेवा अनुबंध को तोड़ना है। वेतनस्य अनपाकर्म यानी काम करवाके भी वेतन का भुगतान नहीं करना शामिल है। नारद स्मृति में अस्वामी विक्रय यानी बिना स्वामित्व के किसी चीज का विक्रय कर देने को दंडनीय अपराध माना है। विक्रिया संप्रदान यानी बेच कर सामान न देना भी अपराध की कोटि में है। इसके अतिरिक्त क्रितानुशय यानी खरीदकर भी सामान न लेना, समस्यानपाकर्म यानी निगम श्रेणी आदि के नियमों का भंग करना, सीमाबंद यानी सीमा का विवाद और स्त्रीपुंश योग यानी वैवाहिक संबंध के बारे में भी नियम-कायदों की चर्चा मिलती है। नारद स्मृति में दायभाग यानी पैतृक संपत्ति के उत्तराधिकार और विभाजन की चर्चा भी मिलती है। इसमें साहस यानी बल प्रयोग द्वारा अपराधी को दंडित करने का विधान भी है। नारद स्मृति वाक्पारूष्य यानी मानहानि करने, गाली देने और दण्ड पारूष्य यानी चोट और क्षति पहुँचाने का वर्णन भी करती है। नारद स्मृति के प्रकीर्णक में विविध अपराधों और परिशिष्ट में चौर्य एवं दिव्य परिणाम का निरू पण किया गया है।  देवर्षि नारद को वेदों के संदेशवाहक ,  देवताओं के संवाद वाहक और   वीणा का आविष्कारक कहा गया है । ब्रह्मवैवर्त पुराण के अनुसार मेरू के बीस पर्वतों में  नारद पर्वत  है।मत्स्य पुराण के अनुसार वास्तुकला विशारद अठारह आचार्यो में नारद वही शक्ति देवियों में से एक शक्ति देवी  नारदा है।रघुवंश के अनुसार लोहे के बाण को नाराच ,  जल के हाथी को  नाराच ,  स्वर्णकार की तराजू अथवा कसौटी का नाराची है।मनुस्मृति के अनुसार ऋषि का  नारायण  नर के साथी थे। नारायण ने अपनी जंघा से उर्वशी को उत्पन्न किया था। 
 नारद मुनि निरंतर नारायण नारायण का मंत्र जपते  रहते थे।  राजा दक्ष की पत्नी आसक्ति ने 10 हज़ार पुत्रों को जन्म दिया था। नारद जी ने आसक्ति के  पुत्रों को मोक्ष की राह पर चलना सीखा दिया था।  दक्ष ने पंचजनी से विवाह किया और उन्होंने एक हजार पुत्रों को जन्म दिया। नारद जी ने दक्ष के पंचजनी के  पुत्रों को मोह माया से दूर रहना सीखा दिया। नारद जी द्वारा आसक्ति के 10 हजार पुत्रों को मोक्ष और पंचजनी के एक हजार पुत्रों को माया की शिक्षा तथा दीक्षा दिए जाने के कारण नारद जी पर राजा दक्ष को बहुत क्रोध में  नारद को  हमेशा इधर-उधर भटकते रहने का शाप दिया ।ब्रह्मा जी की सभा में सभी देवता और गन्धर्व भगवान्नाम का संकीर्तन करने के लिये आये। गंधर्व के देव देवर्षि नारद जी अपनी स्त्रियों के साथ सभा में संकीर्तन में विनोद करते हुए देखकर ब्रह्मा जी द्वारा  शुद्र के शाप के  प्रभाव से नारद जी का जन्म एक शूद्रकुल में हुआ। नारद जी का शुद्र में जन्म लेने के बाद  इनके पिता की मृत्यु हो गयी। नारद की  माता दासी का कार्य करके नारद को भरण-पोषण करने लगी थी ।महात्मा आये और चातुर्मास्य बिताने के लिये नारद जी के जन्म भूमि पर ठहर गये। नारद जी बचपन से  अत्यन्त सुशील थे। वे खेलकूद छोड़कर उन साधुओं के पास  बैठे रहते थे और उनकी छोटी-से-छोटी सेवा बड़े मन से करते थे। संत-सभा में भगवत्कथा तन्मय होकर सुना करते थे । नारद को संतों द्वारा अपना बचा हुआ भोजन खाने के लिये दिया जाता था । नारद के मन मे साधुसेवा और सत्संग अमोघ फल प्रदान करने वाला विचार  होता है। संतो के प्रभाव से नारद जी का हृदय पवित्र समस्त पाप मुक्त होने पर महात्माओं ने प्रसन्न होकर नारद जी को भगवन्नाम का जप एवं भगवान के स्वरूप के ध्यान का उपदेश दिया।
नारद जी वन में बैठकर भगवान के स्वरूप का ध्यान कर रहे थे,अचानक इनके हृदय में भगवान प्रकट हो गये और थोड़ी देर तक अपने दिव्यस्वरूप की झलक दिखाकर अन्तर्धान हो गये। भगवान का दोबारा दर्शन करने के लिये नारद  जी के मन में परम व्याकुलता पैदा हो गयी।वे बार-बार अपने मन को समेटकर भगवान  के ध्यान का प्रयास करने लगे,किन्तु सफल  नहीं हुए। उसी समय आकाशवाणी हुई- ''हे नारद  तुम मेरे पार्षद रूप में मुझे पुन: प्राप्त करोगे।'' ॐ नमो भगवते वासुदेवाय। ॐ विष्णवे नम: । का मंत्र दिया गस्य । ननारद जी ने  कठिन तपस्या से देवर्षि  पद प्राप्त किया । देवर्षि नारद भगवान विष्णु के अनन्य भक्त  है। देवर्षि नारद समाचार के देवता , संबाद प्रेषण देव का निवास ब्रह्मलोक में पिता ब्रह्मा जी और माता सरस्वती है ।इनका अस्त्र और सस्त्र वीणा , भाई दक्ष और सनक , सनातन , सनत , कुमार वाहन मायावी बादल तथा ?मंत्र नारायण , नारायण है । देवर्षि नारद धर्म के प्रचार तथा लोक-कल्याण हेतु सदैव प्रयत्नशील रहते हैं। शास्त्रों में इन्हें भगवान का मन कहा गया है। इसी कारण सभी युगों में, सभी लोकों में, समस्त विद्याओं में, समाज के सभी वर्गो में नारद जी का सदा से एक महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है। मात्र देवताओं ने ही नहीं, वरन् दानवों ने भी उन्हें सदैव आदर किया है। समय-समय पर सभी ने उनसे परामर्श लिया है। श्रीमद्भगवद्गीता के दशम अध्याय के २६वें श्लोक में स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ने इनकी महत्ता को स्वीकार करते हुए कहा है - देवर्षीणाम् च नारद:। देवर्षियों में मैं नारद हूं। श्रीमद्भागवत महापुराणका कथन है, सृष्टि में भगवान ने देवर्षि नारद के रूप में तीसरा अवतार ग्रहण किया और सात्वततंत्र (जिसे नारद-पांचरात्र भी कहते हैं) का उपदेश दिया जिसमें सत्कर्मो के द्वारा भव-बंधन से मुक्ति का मार्ग दिखाया गया है। नारद जी मुनियों के देवता थे और इस प्रकार, उन्हें ऋषिराज के नाम से भी जाना जाता था। वायुपुराण में देवर्षि के पद और लक्षण का वर्णन है- देवलोक में प्रतिष्ठा प्राप्त करने वाले ऋषिगण देवर्षि नाम से जाने जाते हैं। भूत, वर्तमान एवं भविष्य-तीनों कालों के ज्ञाता, सत्यभाषी, स्वयं का साक्षात्कार करके स्वयं में सम्बद्ध, कठोर तपस्या से लोकविख्यात, गर्भावस्था में  अज्ञान रूपी अंधकार के नष्ट हो जाने से जिनमें ज्ञान का प्रकाश हो चुका है, ऐसे मंत्रवेत्ता तथा अपने ऐश्वर्य (सिद्धियों) के बल से सब लोकों में सर्वत्र पहुँचने में सक्षम, मंत्रणा हेतु मनीषियों से घिरे हुए देवता, द्विज और देवर्षि नारद  कहे जाते हैं। पुराण में उल्लेख है कि धर्म, पुलस्त्य, क्रतु, पुलह, प्रत्यूष, प्रभास और कश्यप - इनके पुत्रों को देवर्षि का पद प्राप्त हुआ। धर्म के पुत्र नर एवं नारायण, क्रतु के पुत्र बालखिल्यगण, पुलह के पुत्र कर्दम, पुलस्त्य के पुत्र कुबेर, प्रत्यूष के पुत्र अचल, कश्यप के पुत्र नारद और पर्वत देवर्षि माने गए,  जनसाधारण देवर्षि के रूप में  नारद जी को जानता है।  देवर्षि नारद की प्रसिद्धि को नहीं मिली। वायुपुराण में देवर्षि नारदजी का उल्लेख हैं।
महाभारत के सभापर्व के पांचवें अध्याय में नारद जी के व्यक्तित्व का परिचय इस प्रकार दिया गया है - देवर्षि नारद वेद और उपनिषदों के मर्मज्ञ, देवताओं के पूज्य, इतिहास-पुराणों के विशेषज्ञ, पूर्व कल्पों की बातों को जानने वाले, न्याय एवं धर्म के तत्त्‍‌वज्ञ, शिक्षा, व्याकरण, आयुर्वेद, ज्योतिष के प्रकाण्ड विद्वान, संगीत-विशारद, प्रभावशाली वक्ता, मेधावी, नीतिज्ञ, कवि, महापण्डित, बृहस्पति जैसे महाविद्वानों की शंकाओं का समाधान करने वाले, धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष के यथार्थ के ज्ञाता, योगबल से समस्त लोकों के समाचार जान सकने में समर्थ, सांख्य एवं योग के सम्पूर्ण रहस्य को जानने वाले, देवताओं-दैत्यों को वैराग्य के उपदेशक, क‌र्त्तव्य-अक‌र्त्तव्य में भेद करने में दक्ष, समस्त शास्त्रों में प्रवीण, सद्गुणों के भण्डार, सदाचार के आधार, आनंद के सागर, परम तेजस्वी, सभी विद्याओं में निपुण, सबके हितकारी और सर्वत्र गति वाले हैं। अट्ठारह महापुराणों में एक नारदोक्त पुराण; बृहन्नारदीय पुराण के नाम से प्रख्यात है। मत्स्यपुराण में वर्णित है कि श्री नारद जी ने बृहत्कल्प-प्रसंग में जिन अनेक धर्म-आख्यायिकाओं को कहा है, २५,००० श्लोकों का वह महाग्रन्थ ही नारद महापुराण है। नारदपुराण २२,००० श्लोकों में  नारदपुराण में लगभग ७५० श्लोक ज्योतिषशास्त्र पर हैं। ज्योतिष के तीनों स्कन्ध-सिद्धांत, होरा और संहिता की सर्वांगीण विवेचना की गई है। नारदसंहिता के नाम से उपलब्ध इनके एक अन्य ग्रन्थ में भी ज्योतिषशास्त्र के सभी विषयों का सुविस्तृत वर्णन है। देवर्षिनारद भक्ति के साथ-साथ ज्योतिष के भी प्रधान आचार्य हैं। भगवान की अधिकांश लीलाओं में नारद जी उनके अनन्य सहयोगी बने हैं। वे भगवान के पार्षद होने के साथ देवताओं के प्रवक्ता  हैं। अथर्ववेद के अनुसार नारद नाम के एक ऋषि हुए हैं। ऐतरेय ब्राह्मण  के अनुसार हरिशचंद्र के पुरोहित सोमक, साहदेव्य के गुरु तथा आग्वष्टय एवं युधाश्रौष्ठि को अभिशप्त करने वाले नारद थे। मैत्रायणी संहिता में नारद आचार्य ,  सामविधान ब्राह्मण में बृहस्पति के शिष्य , छान्दोग्यपनिषद् में  सनत्कुमारों के मित्र , महाभारत में मोक्ष धर्म के नारायणी आख्यान में नारद की उत्तरदेशीय यात्रा का विवरण  है। महाभारत अनुसार नारद ने नर-नारायण ऋषियों की तपश्चर्या देखकर उनसे प्रश्न किया और बाद में उन्होंने नारद को पांचरात्र धर्म का श्रवण कराया।नारद पंचरात्र के नाम से एक प्रसिद्ध वैष्णव ग्रन्थ भी है जिसमें दस महाविद्याओं की कथा विस्तार से कही गई है। इस कथा के अनुसार हरी का भजन ही मुक्ति का परम कारण माना गया है। नारद पुराण के पूर्वखंड में 125 अघ्याय और उत्तरखण्ड में 182 अघ्याय हैं।स्मृतिकारों ने नारद का नाम सर्वप्रथम स्मृतिकार के रू प में माना है। नारद स्मृति में व्यवहार मातृका यानी अदालती कार्रवाई और सभा अर्थात न्यायालय सर्वोपरि माना गया है। स्मृति में ऋणाधान ऋण वापस प्राप्त करना, उपनिधि यानी जमानत, संभुय, समुत्थान यानी सहकारिता, दत्ताप्रदानिक यानी करार करके भी उसे नहीं मानने, अभ्युपेत्य-असुश्रुषा यानी सेवा अनुबंध को तोड़ना है। वेतनस्य अनपाकर्म यानी काम करवाके  वेतन का भुगतान नहीं करना शामिल है। नारद स्मृति में अस्वामी विक्रय यानी बिना स्वामित्व के किसी चीज का विक्रय कर देने को दंडनीय अपराध माना है। विक्रिया संप्रदान यानी बेच कर सामान न देना भी अपराध की कोटि में है। इसके अतिरिक्त क्रितानुशय यानी खरीदकर भी सामान न लेना, समस्यानपाकर्म यानी निगम श्रेणी आदि के नियमों का भंग करना, सीमाबंद यानी सीमा का विवाद और स्त्रीपुंश योग यानी वैवाहिक संबंध के बारे में भी नियम-कायदों की चर्चा मिलती है। नारद स्मृति में दायभाग यानी पैतृक संपत्ति के उत्तराधिकार और विभाजन की चर्चा भी मिलती है। इसमें साहस यानी बल प्रयोग द्वारा अपराधी को दंडित करने का विधान भी है। नारद स्मृति वाक्पारूष्य यानी मानहानि करने, गाली देने और दण्ड पारूष्य यानी चोट और क्षति पहुँचाने का वर्णन भी करती है। नारद स्मृति के प्रकीर्णक में विविध अपराधों और परिशिष्ट में चौर्य एवं दिव्य परिणाम का निरू पण किया गया है। नारद स्मृति की इन व्यवस्थाओं पर मनु स्मृति का पूर्ण प्रभाव दिखाई देता है। श्रीमद्भागवत और वायुपुराण के अनुसार देवर्षि नारद का नाम दिव्य ऋषि के रू प में भी वर्णित है। ये ब्रह्मधा के मानस पुत्र थे। नारद का जन्म ब्रह्मधा की जंघा से हुआ था। इन्हें वेदों के संदेशवाहक के रू प में और देवताओं के संवाद वाहक के रू प में भी चित्रित किया गया है। नारद देवताओं और मनुष्यों में कलह के बीज बोने से कलिप्रिय अथवा कलहप्रिय कहलाते हैं। मान्यता के अनुसार वीणा का आविष्कार भी नारद ने ही किया था।ब्रह्मवैवर्त पुराण के अनुसार मेरू के चारों ओर स्थित बीस पर्वतों में से एक का नाम नारद है।मत्स्य पुराण के अनुसार वास्तुकला विशारद अठारह आचार्यो में से एक का नाम भी नारद है। चार शक्ति देवियों में से एक शक्ति देवी का नाम नारदा है।रघुवंश के अनुसार लोहे के बाण को नाराच कहते हैं। जल के हाथी को भी नाराच कहा जाता है। स्वर्णकार की तराजू अथवा कसौटी का नाम नाराचिका अथवा नाराची है।मनुस्मृति के अनुसार एक प्राचीन ऋषि का नाम नारायण है जो नर के साथी थे। नारायण ने ही अपनी जंघा से उर्वशी को उत्पन्न किया था। विष्णु के एक विशेषण के रू प में भी नारायण शब्द का प्रयोग किया जाता है। देवर्षि नारद ब्रह्मांड , लोको , त्रिभुवनो , मानव की प्रवृत्तियों में समन्वय स्थापित करने की ओर प्रेरित करते है । मानवीय मूल्यों में चेतना जागृत और समाधान कराने का मूल देवर्षि नारद है । सत्य की कसौटी पर , भक्ति ,  समन्वय स्थापित करने , संबाद , कूटनीति और ज्योतिष , संगीत के प्रवर्तक देवर्षि  नारद जी है । देवर्षि नारद का मंदिर उत्तरप्रदेश के गोरखपुर के गीत वटिका  में , मथुरा वृन्दावन गोवर्धन मार्ग का छतरपुर में देवर्षि नारद जी द्वारा  दैत्यराज हिरण्यकश्यप की पत्नी कयादू के गर्भ में पल रहे भक्तराज प्रहलाद को भक्ति की शिक्षा दिया गया और भक्त ध्रुव को शिक्षा प्रदान किया गया था वह स्थल छतरपुर में , राजस्थान का पुष्कर , प्रयाग ,पुलु , भिंड जिले के रुचि , पुना  में नारद मंदिर और बद्रीनाथ में नारद कुंड है । 
                     छतरपुर में नारद मंदिर
                   नारद मंंदिर गोरखपुर
बद्रीनाथ में नारद कुंड  है ।

शुक्रवार, मई 28, 2021

सर्वार्थसिद्धि का स्थल मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंग...


        पुरणों तथा शास्त्रों में मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंग का उल्लेख महत्वपूर्ण है । आंध्रप्रदेश के कृष्णा जिले का कृष्णा नदी के किनारे स्थित  दक्षिण भारत का कैलाश  श्री शैल , श्री पर्वत या क्रोंच पर्वत पर भगवान शिव और माता पार्वती मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंग विराजमान है । आन्ध्र प्रदेश के कृष्णा ज़िले में कृष्णा नदी के किनारे श्रीशैल पर्वत पर श्रीमल्लिकार्जुन विराजमान हैं। महाभारत के अनुसार श्रीशैल पर्वत पर भगवान शिव का पूजन करने से अश्वमेध यज्ञ करने का फल प्राप्त होता है।  श्रीशैल के शिखर के दर्शन मात्र करने से दर्शको के सभी प्रकार के कष्ट दूर होते है । भगवान  शिव तथा माता  पार्वती के पुत्र स्वामी कार्तिकेय और गणेश जी  विवाह के लिए आपस में कलह करने लगे। गणेश जी  का कहना था कि कार्तिक जी  बड़े हैं, इसलिए उनका विवाह पहले होना चाहिए, किन्तु श्री गणेश अपना विवाह पहले करना चाहते थे। इस झगड़े पर फैसला देने के लिए दोनों अपने माता-पिता भवानी और शंकर के पास पहुँचे। उनके माता-पिता ने कहा कि तुम दोनों में कोई इस पृथ्वी की परिक्रमा करके पहले यहाँ आ जाएगा, उसी का विवाह पहले होगा। शर्त सुनते ही कार्तिकेय जी पृथ्वी की परिक्रमा करने के लिए दौड़ पड़े। इधर स्थूलकाय श्री गणेश जी और उनका वाहन चूहा, भला इतनी शीघ्रता से वे परिक्रमा कैसे कर सकते थे। गणेश जी के सामने भारी समस्या उपस्थित थी। श्रीगणेश जी शरीर से ज़रूर स्थूल  और बुद्धि के सागर हैं। गणेश जी ने  माता पार्वती तथा पिता देवाधिदेव महेश्वर से एक आसन पर बैठने का आग्रह किया। भगवान शिव और माता पार्वती के आसन पर बैठ जाने के बाद श्रीगणेश ने माता पिता की सात परिक्रमा ,   पूजन किया- पित्रोश्च पूजनं कृत्वा प्रकान्तिं च करोति यः।तस्य वै पृथिवीजन्यं फलं भवति निश्चितम्।। श्रीगणेश माता-पिता की परिक्रमा करके पृथ्वी की परिक्रमा से प्राप्त होने वाले फल की प्राप्ति के अधिकारी बन गये। उनकी चतुर बुद्धि को देख कर शिव और पार्वती दोनों बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने श्रीगणेश का विवाह भी करा दिया। जिस समय स्वामी कार्तिकेय सम्पूर्ण पृथ्वी की परिक्रमा करके वापस आये, उस समय श्रीगणेश जी का विवाह विश्वरूप प्रजापति की पुत्रियों सिद्धि और बुद्धि के साथ हो चुका था।  श्री गणेशजी को उनकी ‘सिद्धि’ नामक पत्नी से ‘क्षेम’ तथा बुद्धि नामक पत्नी से ‘लाभ’, ये दो पुत्ररत्न मिल गये थे।  देवर्षि नारद ने स्वामी कार्तिकेय से गणेश जी का विवाह के संबंध  में सारा वृत्तांत सुनाया था । श्रीगणेश का विवाह और उन्हें पुत्र लाभ का समाचार सुनकर स्वामी कार्तिकेय जल उठे। इस प्रकरण से नाराज़ कार्तिक ने शिष्टाचार का पालन करते हुए अपने माता-पिता के चरण छुए और वहाँ से चल दिये।माता-पिता से अलग होकर कार्तिक स्वामी क्रौंच पर्वत पर रहने लगे। शिव और पार्वती ने अपने पुत्र कार्तिकेय को समझा-बुझाकर बुलाने हेतु देवर्षि नारद को क्रौंचपर्वत पर भेजा। देवर्षि नारद ने बहुत प्रकार से स्वामी कार्तिकेयको मनाने का प्रयास किया, किन्तु वे वापस नहीं आये। उसके बाद कोमल हृदय माता पार्वती पुत्र स्नेह में व्याकुल हो उठीं। वे भगवान शिव जी को लेकर क्रौंच पर्वत पर पहुँच गईं। स्वामी कार्तिकेय को क्रौंच पर्वत अपने माता-पिता के आगमन की सूचना मिल गई और वे वहाँ से तीन योजन अर्थात् छत्तीस किलोमीटर दूर चले गये। कार्तिकेय के चले जाने पर भगवान शिव क्रौंच पर्वत पर ज्योतिर्लिंग के रूप में प्रकट हो गये थे । भगवान शिव और माता पार्वती के रूप में  ‘मल्लिकार्जुन’ ज्योतिर्लिंग  प्रसिद्ध हुए। ‘ माता पार्वती के रूप में मल्लिका एवं भगवान शिव के रूप में ‘अर्जुन’ का संयुक्त रूप प में मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंग हुए है । भगवान शंकर को कहा जाता है। 
कौंच पर्वत के राजा चन्द्रगुप्त  की राजधानी क्रोंच थी। राजा चंद्रगुप्त की पुत्री राजकन्या संकट से मुक्ति के लिये  पर्वतराज की शरण में पहुँच कर  ग्वालों के साथ कन्दमूल खाती और दूध पीती थी। राज  कन्या के पास  श्यामा (काली) गौ की सेवा  करती थी। उस गौ के साथ विचित्र घटना घटित होने लगी। कोई व्यक्ति छिपकर प्रतिदिन उस श्यामा का दूध निकाल लेता था। एक दिन उस कन्या ने किसी चोर को श्यामा का दूध दुहते हुए देख लिया ।उन्हें  शिवलिंग के अतिरिक्त कुछ भी दिखाई नहीं दिया।राजकुमारी ने शिवलिंग के ऊपर एक सुन्दर सा मन्दिर बनवा दिया।  प्राचीन शिवलिंग ‘मल्लिकार्जुन’ ज्योतिर्लिंग  प्रसिद्ध है। मंदिर के बाहर पीपल पाकर का सम्मिलित वृक्ष है। उसके आस-पास चबूतरा है।  मल्लिकार्जुन मंदिर के पीछे मल्लिका देवी मंदिर  हैं। सभा मंडप में नन्दी की विशाल मूर्ति है।पातालगंगा- मंदिर से लगभग दो मील पर पातालगंगा है। इसका मार्ग कठिन है। एक मील उतर  और  852 सीढ़ियाँ हैं। क्रोंच पर्वत के नीचे कृष्णा नदी में यात्री स्नान करके वहाँ से चढ़ाने के लिए जल लाते हैं। वहाँ कृष्णा नदी में दो नाले मिलते हैं। वह स्थान त्रिवेणी कहा गया है। उसके समीप पूर्व में  गुफा में भैरवादि मूर्तियाँ हैं।  500  वर्ष पूर्व श्री विजयनगर के राजा कृष्णराय पहुँचे थे। उन्होंने  मण्डप का निर्माण कराया तेहस शिखर सोने का बनाया  था। उनके डेढ़ सौ वर्षों बाद महाराज शिवाजी भी मल्लिकार्जुन ज्यो को सुलझाने के बारे में विचार किया। उन्होंने दोनों के सामने एक शर्त रखी। उन्होंने कहा कि दोनों में मान बताकर उनकी प्रकृति लिंग के दर्शन हेतु क्रौंच पर्वत पर पहुँचे थे।  मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंग की उपासना से जीवन में रिद्धि सिद्धि के साथ सर्वांगीण विकास होते है । मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंग का उप लिंग भृगु क्षेत्र का रुद्रेश्वर की उपासना से सुख की प्राप्ति होती है । भगवान शिव और माता पार्वती की ज्योतिर्मय स्वरूप मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंग प्रतिष्ठित है । श्री शैल पर भगवान शिव प्रत्येक अमावस्या और माता पार्वती पूर्णिमा को पदार्पण करती है ।


गुरुवार, मई 27, 2021

सृष्टि का मूल ऊँकारेश्वर ज्योतिर्लिंग...



        पुरणों तथा शास्त्रों में भगवान शिव की महिमा का उल्लेखनीय वर्णन है ।  ऊँकार में विंध्य की तपस्या से परमेश्वर शिवलिङ्ग का प्रादुर्भाव हुआ है । ऊँकार  ज्योतिर्लिंग सृष्टि का रूप है ।। इनके दर्शन से मानसिक संताप से मुक्ति और अभीष्ट फल की प्राप्ति होती है । प्रदेश के खंडवा जिले के खंडवा से 12 कि. मि. की दूरी पर आँकार के समीप  नर्मदा नदी के मध्य में  मन्धाता द्वीप पर ओमकारेश्वर ज्योतिर्लिंग है।  भगवान शिव के ओम ज्योतिर्लिंग  मंदिर के समीप भील जनजाति ने खाण्डववन  नगर का निर्माण किया था । मान्धाता  द्वीप ऊँ के आकार में बना है।   मध्यप्रदेश के खंडवा जिले का नर्मदा नदी के मान्धाता द्वीप पर ॐकारेश्वर , ममलेश्वर , ॐकारेश्वर मंदिर स्थित ॐकारेश्वर का निर्माण नर्मदा नदी से स्वतः  हुआ है। ओंकार शब्द का उच्चारण सर्वप्रथम सृष्टिकर्ता विधाता के मुख से हुआ, वेद का पाठ ऊँ के उच्चारण किए बिना नहीं होता है।  क्षेत्र में भौतिक विग्रह के रूप में  68 तीर्थ , 33 कोटि देवता तथा 2 ज्योतिस्वरूप लिंगों सहित 108  शिवलिंग हैं। मध्यप्रदेश में देश के प्रसिद्ध 12 ज्योतिर्लिंगों में से 2 ज्योतिर्लिंग विराजमान हैं। ओमकार  में भील राजाओं की राजधानी थी । आहिल्या बाई होलकर की ओर से यहाँ नित्य मृत्तिका के 18 सहस्र शिवलिंग तैयार कर उनका पूजन करने के पश्चात उन्हें नर्मदा में विसर्जित कर दिया जाता है।  मान्धाता ने  नर्मदा किनारे पर्वत पर घोर तपस्या कर भगवान शिव को प्रसन्न किया और शिवजी के प्रकट होने पर भगवान शिव से यहीं निवास करने का वरदान माँग लिया था । मान्धाता  नगरी को ओंकार-मान्धाता पुकारी जाने लगी है । ओंकार शब्द का उच्चारण सर्वप्रथम सृष्टिकर्ता विधाता के मुख से हुआ, वेद का पाठ इसके उच्चारण किए बिना नहीं होता  है ।
ओंकारेश्वर तीर्थ क्षेत्र में चौबीस अवतार, माता घाट (सेलानी), सीता वाटिका, धावड़ी कुंड, मार्कण्डेय शिला, मार्कण्डेय संन्यास आश्रम, अन्नपूर्णाश्रम, विज्ञान शाला, बड़े हनुमान, खेड़ापति हनुमान, ओंकार मठ, माता आनंदमयी आश्रम, ऋणमुक्तेश्वर महादेव, गायत्री माता मंदिर, सिद्धनाथ गौरी सोमनाथ, आड़े हनुमान, माता वैष्णोदेवी मंदिर, चाँद-सूरज दरवाजे, वीरखला, विष्णु मंदिर, ब्रह्मेश्वर मंदिर, सेगाँव के गजानन महाराज का मंदिर, काशी विश्वनाथ, नरसिंह टेकरी, कुबेरेश्वर महादेव, चन्द्रमोलेश्वर महादेव के मंदिर भी दर्शनीय हैं।पुरणों के अनुसार ओमकारेश्वर ज्योतिर्लिंग  स्थल में शिव भक्त कुबेर ने तपस्या  तथा शिवलिंग की स्थापना करने के पश्चात भगवान  शिव ने कुवेर को देवताओ का धनपति बनाया और  कुबेर के स्नान के लिए भगवान शिवजी ने अपनी जटा  से कावेरी नदी उत्पन्न की । कुबेर मंदिर के बाजू से कावेरी नदी प्रवाहित होकर नर्मदाजी में मिलती है । कावेरी ओमकार पर्वत का चक्कर लगाते हुए  नर्मदा - कावेरी का संगम है । ओमकारेश्वर मंदिर  के परिसर  में पंचमुख गणेशजी की मूर्ति है। प्रथम तल पर ओंकारेश्वर लिंग विराजमान हैं। श्रीओंकारेश्वर का लिंग अनगढ़ है। यह लिंग मन्दिर के ठीक शिखर के नीचे न होकर एक ओर हटकर है। लिंग के चारों ओर जल भरा रहता है। मन्दिर में माता पार्वती  मूर्ति है। ओंकारेश्वर मन्दिर में सीढ़ियाँ चढ़कर महाकालेश्वर लिंग , सिद्धेश्वर लिंग ,  गुप्तेश्वर लिग  , ध्वजेश्वर लिंग ,  शिवलिंगों के प्रांगणों में नन्दी की मूर्तियां स्थापित हैं । ओमकारेश्वर की परिक्रमा में रामेश्वर-मन्दिर तथा गौरीसोमनाथ के दर्शन हो जाते हैं। ओंकारेश्वर मन्दिर के पास अविमुतश्वर, ज्वालेश्वर, केदारेश्वर  मन्दिर है ।मान्धाता टापू में  ऑकारेश्वर की दो परिक्रमाएँ होती हैं - एक छोटी और एक बड़ी। ऑकारेश्वर की यात्रा तीन दिन की मानी जाती है। इस तीन दिन की यात्रा में  सभी तीर्थ आ जाते हैं। अत: इस क्रम से ही वर्णन किया जा रहा है।प्रथम दिन की यात्रा- कोटि-तीर्थ पर ( मान्धाता द्वीप में ) स्नान और घाट पर ही कोटेश्वर, हाटकेश्वर, त्र्यम्बकेश्वर, गायत्रीश्वर, गोविन्देश्वर, सावित्रीश्वर का दर्शन करके भूरीश्वर, श्रीकालिका तथा पंचमुख गणपति का एवं नन्दी का दर्शन करते हुए ऑकारेश्वरजी का दर्शन करते हैं ।। ओंकारेश्वर मन्दिर में ही शुकदेव, मान्धांतेश्वर, मनागणेश्वर, श्रीद्वारिकाधीश, नर्मदेश्वर, नर्मदादेवी, महाकालेश्वर, वैद्यनाथेश्वरः, सिद्धेश्वर, रामेश्वर, जालेश्वरके दर्शन करके विशल्या संगम तीर्थ पर विशल्येश्वर का दर्शन करते हुए अन्धकेश्वर, झुमकेश्वर, नवग्रहेश्वर, मारुति (यहाँ राजा मानकी साँग गड़ी है): साक्षीगणेश, अन्नपूर्णा और तुलसीजी ,  अविमुक्तेश्वर, महात्मा दरियाईनाथ की गद्दी, बटुकभैरव, मंगलेश्वर, नागचन्द्रेश्वर, दत्तात्रेय एवं काले-गोरे भैरव ,  श्रीराममन्दिर में श्रीरामचतुष्टय का तथा  गुफा में धृष्णेश्वर का दर्शन करके नर्मदाजीके मन्दिरमें नर्मदाजी का दर्शन करते  है ।
 कोटितीर्थ पर स्नान करके चक्रेश्वर का दर्शन करते हुए गऊघाट पर गोदन्तेश्वर, खेड़ापति हनुमान, मल्लिकार्जुनः, चन्द्रेश्वर, त्रिलोचनेश्वर, गोपेश्वरके दर्शन करते श्मशान में पिशाचमुक्तेश्वर, केदारेश्वर होकर सावित्री-कुण्ड और आगे यमलार्जुनेश्वर के दर्शन करके कावेरी-संगम तीर्थ पर स्नान - तर्पणादि कर श्रीरणछोड़जी एवं ऋणमुक्तेश्वर का पूजन , राजा मुचुकुन्द के किले , -संगम तीर्थ ,  गौरी-सोमनाथ की विशाल लिंगमूर्ति , गणेशजी और हनुमानजी की  विशाल मूर्तियाँ ,  अन्नपूर्णा, अष्टभुजा, महिषासुरमर्दिनी, सीता-रसोई तथा आनन्द भैरव ,  षोडशभुजा दुर्गा, अष्टभुजादेवी तथा द्वारके बाहर आशापुरी माताके दर्शन करके सिद्धनाथ एवं कुन्ती माता ( दशभुजादेवी ) के दर्शन करते हुए किले के बाहर द्वार में अर्जुन तथा भीम की मूर्तियोंके दर्शन करे। यहाँ से धीरे-धीरे नीचे उतरकर वीरखला पर भीमाशंकर के दर्शन करके और नीचे उतरकर कालभैरव के दर्शन करे तथा कावेरी-संगम पर जूने कोटितीर्थ और सूर्यकुण्ड के दर्शन करके नौका से या पैदल (ऋतुके अनुसार जैसे सम्भव हो ) कावेरी पार करे। उस पार पंथिया ग्राम में चौबीस अवतार, पशुपतिनाथ, गयाशिला, एरंडी-संगमतीर्थ, पित्रीश्वर एवं गदाधर-भगवान के दर्शन करे। यहाँ पिण्डदानश्राद्ध होता है। फिर कावेरी पार कर के लाटभैरव-गुफा में कालेश्वर, आगे छप्पनभैरव तथा कल्पान्तभैरवके दर्शन करते हुए राजमहलमें श्रीराम का दर्शन करके औकारेश्वर के दर्शन से परिक्रमा पूरी करे। तीसरे दिन की यात्रा- इस मान्धाता द्वीप से नर्मदा पार करके इस ओर विष्णुपुरी और ब्रह्मपुरी की यात्रा की जाती है। विष्णुपुरी के पास गोमुख से बराबर जल गिरता रहता है। यह जल जहाँ नर्मदा में गिरता है, उसे कपिला-संगम तीर्थ कहते हैं। वहाँ स्नान और मार्जन किया जाता है। गोमुख की धारा गोकर्ण और महाबलेश्वर लिंगों पर गिरती है। यह जल त्रिशूलभेद कुण्ड से आता है। इसे कपिलधारा कहते हैं। वहाँ से इन्द्रेश्वर और व्यासेश्वरका दर्शन करके अमलेश्वर का दर्शन करना चाहिये। ममलेश्वर  ज्योतिर्लिंग है। ममलेश्वर मन्दिर अहल्याबाई का बनवाया हुआ है। गायकवाड़ राज्य की ओर से नियत किये हुए बहुत से ब्राह्मण यहीं पार्थिव-पूजन करते रहते हैं। यात्री चाहे तो पहले ममलेश्वर का दर्शन करके तब नर्मदा पार होकर औकारेश्वर जाय; किंतु नियम पहले ओंकारेश्वर का दर्शन करके लौटते समय ममलेश्वर-दर्शन का ही है। पुराणों में ममलेश्वर नाम के बदले अमलेश्वर उपलब्ध होता है। ममलेश्वर-प्रदक्षिणा में वृद्धकालेश्वर, बाणेश्वर, मुक्तेश्वर, कर्दमेश्वर और तिलभाण्डेश्वरके मन्दिर मिलते हैं।ममलेश्वरका दर्शन करके (निरंजनी अखाड़ेमें) स्वामिकार्तिक ( अघोरी नाले में ) अघेोरेश्वर गणपति, मारुति का दर्शन करते हुए नृसिंहटेकरी तथा गुप्तेश्वर होकर (ब्रह्मपुरीमें) ब्रह्मेश्वर, लक्ष्मीनारायण, काशीविश्वनाथ, शरणेश्वर, कपिलेश्वर और गंगेश्वरके दर्शन करके विष्णुपुरी लौटकर भगवान् विष्णु के दर्शन करे। यहीं कपिलजी, वरुण, वरुणेश्वर, नीलकण्ठेश्वर तथा कर्दमेश्वर होकर मार्कण्डेय आश्रम जाकर मार्कण्डेयशिला और मार्कण्डेयेश्वर के दर्शन करते है । भक्त अम्बरीष और मुचुकुन्द के पिता सूर्यवंशी राजा मान्धाता ने इस स्थान पर कठोर तपस्या करके भगवान शंकर को प्रसन्न किया था। उस महान पुरुष मान्धाता के नाम पर ही इस पर्वत का नाम मान्धाता पर्वत हो गया। ओंकारेश्वर लिग  शिवलिंग है। इसके चारों ओर हमेशा जल भरा रहता है। प्राय: किसी मन्दिर में लिंग की स्थापना गर्भ गृह के मध्य में की जाती है और उसके ठीक ऊपर शिखर होता है, किन्तु यह ओंकारेश्वर लिंग मन्दिर के गुम्बद के नीचे नहीं है । पर्वत ओंकाररूप है।परिक्रमा के अन्तर्गत बहुत से मन्दिरों के विद्यमान होने के कारण   पर्वत ओंकार के स्वरूप में दिखाई पड़ता है। ओंकारेश्वर के मन्दिर ॐकार में बने चन्द्र का स्थानीय ॐ बने हुए चन्द्रबिन्दु का सथान  ओंकारपर्वत पर बने ओंकारेश्वर मन्दिर  है। देवर्षि नारद ने  गोकर्ण शिव की  भक्ति के साथ उनकी सेवा करने लगे। देवर्षि नारद   विंध्य पर आये और विंध्य ने वहां बड़े आदर से उनका पूजन किया। मेरे पास यहाँ सब कुछ है कभी किसी बात की कमी नहीं होती है इस भाव को मन मैं लेकर विंध्याचल नारद जी के सामने खड़े हो गए। उसकी यह अभिमान भरी बात सुनकर नारद मुनि लम्बी सांस खींचकर चुप चाप खड़े रह गए। देवर्षि  जो बोले : तुम्हारे यहाँ सब कुछ है फिर भी मेरु पर्वत तुमसे बहुत ऊँचा है। उसके शिखरों का भाग देवता लोक में भी पहुंचा हुआ है। किन्तु तुम्हारे शिखर कभी वहां नहीं पहुँच सकते। ऐसा कहकर नारद जी जिस तरह आये थे उसी तरह वहां से चल दिए परन्तु “विंध्य पर्वत मेरे जीवन को धिक्कार है” ऐसा सोचकर मन ही मन में संतप्त हो उठा।  मैं विश्वनाथ भगवान शम्भू की कड़ी तपस्या करूँगा। ऐसा निश्चय करके विंध्य पर्वत प्रभु शिवजी की शरण में आ गए। तदनन्तर जहाँ साक्षात ओंकार की स्थिति है वहां जाकर उन्होंने भगवान् शिव की मूर्ति की स्थापना की और ६ महीने तक निरंतर भोलेनाथ शंकर की आराधना करके शिव जी के ध्यान में तत्पर हो वह अपने तपस्या के स्थान से हिले तक नही, अटल रहे। उनकी ऐसी कठोर और अविचल तपस्या देख पार्वतीपति शंकर ने विंध्याचल को अपना वह स्वरुप दिखाया जो बड़े बड़े योगी मुनियों के लिए भी सुलभ नहीं। और प्रसन्न हो शिव जी ने उससे कहा की विंध्याचल तुम मनोवांछित वर मांगो। मैं तुमपर बहुत प्रसन्न हूँ और तुम्हे तुम्हारी अभीष्ट वस्तु की प्राप्ति कराने आया हूँ।
विंध्य ने प्रभु की स्तुति की और बोले आप सदा ही भक्त वत्सल है। यदि आप मुझ पर प्रसन्न है तो मुझे ऐसी बुद्धि प्रदान करे जिससे सभी कार्य सिद्ध हो सके। भगवान् शिव ने उन्हें उनका मनचाहा वर दे दिया और कहा पर्वत राज विंध्य तुम जैसा चाहो वैसा करो। उसी समय देवता और शुद्ध अंतःकरण वाले ऋषि मुनि वहां पधारे और शंकर जी की पूजा अर्चना करके के पश्चात बोले प्रभु आप यहाँ स्थिर रूप से निवास कर इस स्थान को सदा के लिए पुण्यवान बना दे। उन सभी ऐसी प्रार्थना सुन शिवजी प्रसन्न हो गए और अपने जनकल्याण के लिए उन्होंने उनकी बात स्वीकार कर ली। उनके तथास्तु बोलते ही वहां जो ओंकार लिंग दो स्वरूपों में विभक्त हो गया।प्रणव में  सदाशिव थे ओंकार नाम से प्रसिद्ध हुए और मूर्ति में  शिव ज्योति प्रतिष्ठित हान्सके के बाद  परमेश्वर हुए थे । ओमकार  और परमेश्वर शिवलिंग  भक्तों को अभीष्ट फल प्रदान करने वाले है। उसी समय वहां देवो और ऋषियों ने दोनों शिवलिंग की पूजा की और भगवान शिव   को प्रसन्न कर वर प्राप्त किये। इसके बाद देवता अपने अपने लोको को चले गए और विंध्य ने अपने अभीष्ट कार्य को सिद्ध किया और मानसिक वेदना से मगवान् शिव की पूजा अर्चना करता है वह माता के गर्भ में फिर नहीं आता है । 


बुधवार, मई 26, 2021

चेतन शक्ति और भक्ति आश्रयदाता त्र्यम्बकेश्वर...


         भारतीय संस्कृति और पुरणों के अनुसार त्र्यम्बकेश्वर ज्योतिर्लिंग का दर्शन और महामृत्जुंजय की उपासना का महत्वपुर्ण उल्लेख है  शिव पुराण के कोटि रुद्रसंहिता का अध्याय 24 , 25 , 26  के अनुसार ऋषि गौतम और अहिल्या के तप करने के कारण भगवान शिव  , ब्रह्मा और विष्णु के रूप में त्र्यम्बकेश्वर ज्योतिर्लिङ्ग स्थापित हुए थे । ऋषि गौतम द्वारा अपने ऊपर दुष्टों द्वारा लगाए गए मिथ्या दोष गौ हत्या के प्रयाश्चित करने के लिये ब्रह्मगिरि की 101 बार परिक्रमा , 03 बार पृथिवी की परिक्रमा , एक करोड़ पार्थिव लिंग की पूजा तथा 11 बार गंगा जल से स्नान कर भगवान शिव की आराधना की थी ।पत्नी अहिल्या सहित ऋषि गौतम की उपासना से संतुष्ट हो कर भगवान शिव और शिव ऋषि गौतम दर्शन , गोदावरी गंगा का प्रकट जिसे गौतमी गंगा  , वृस्पति के सिह राशि आर् गोदावरी का प्रकट होने और भगवान शिव का त्रयम्बक शिवलिंग के रूप में प्रकट हो कर आशीर्वचन पप्राप्त किये थे । महाराष्ट्र राज्य का  नासिक जिले में त्रयंबक के ब्रह्मगिरि से उद्गम गोदावरी नदी के किनारे त्र्यम्बकेश्वर ज्योतिर्लिंग स्थापित  हैं। यहां के निकटवर्ती ब्रह्म गिरि नामक पर्वत से गोदावरी नदी का उद्गम है। गौतम ऋषि तथा गोदावरी के उपासना से प्रसन्न हो कर गौतम ऋषि तथा गोदावरी की उपासना स्थल पर भगवान शिव निवास  करने के कारण  त्र्यम्बकेश्वर ज्योतिर्लिंग से विख्यात हुए है । त्र्यम्बकेश्वर मंदिर के गर्भगृह   में  ब्रह्मा, विष्णु और शिव लिंग के रूप में  देवों के प्रतीक  हैं। शिवपुराण के अनुसार ब्रह्मगिरि पर्वत पर जाने के लिये सात सौ सीढ़ियों पर चढ़ने के बाद 'रामकुण्ड' और 'लक्षमण कुण्ड' मिलने के बाद और ब्रह्मगिरि शिखर के ऊपर  गोमुख से प्रवाहित होने वाली भगवती गोदावरी के दर्शन होते हैं। त्र्यंबकेश्‍वर ज्योर्तिलिंग मंदिर  में ब्रह्मा, विष्‍णु और महेश तीनों ही विराजित होने के कारण ज्‍योतिर्लिंग की सबसे बड़ी विशेषता है। गोदावरी नदी के किनारे स्थित त्र्यंबकेश्‍वर मंदिर काले पत्‍थरों से निर्मित होने के कारण मंदिर की  स्‍थापत्‍य अद्भुत है। मंदिर के पंचक्रोशी में कालसर्प शांति, त्रिपिंडी विधि और नारायण नागबलि की पूजा संपन्‍न होती है।  प्राचीन मंदिर का पुनर्निर्माण नाना साहब पेशवा द्वारा  1755 में प्रारम्भ किया गया और 1786 में पूर्ण किया गया था । त्र्यंबकेश्वर मंदिर की भव्य इमारत सिंधु-आर्य शैली का उत्कृष्ट नमूना है। मंदिर के अंदर गर्भगृह में प्रवेश करने के बाद शिवलिंग की केवल आर्घा दिखाई देती है, लिंग नहीं। गौर से देखने पर अर्घा के अंदर एक-एक इंच के तीन लिंग दिखाई देते हैं। इन लिंगों को त्रिदेव- ब्रह्मा-विष्णु और महेश का अवतार माना जाता है। भोर के समय होने वाली पूजा के बाद इस अर्घा पर चाँदी का पंचमुखी मुकुट चढ़ा दिया जाता है।त्र्यंबकेश्वर मंदिर और गाँव ब्रह्मगिरि नामक पहाड़ी की तलहटी में स्थित है। इस गिरि को शिव का साक्षात रूप माना जाता है। ब्रह्म गिरि  पर्वत पर पवित्र गोदावरी नदी का उद्गमस्थल है। 
   त्रयम्बक में  अपने ऊपर लगे गोहत्या के पाप से मुक्ति पाने के लिए गौतम ऋषि ने कठोर तप कर शिव से गंगा को यहाँ अवतरित करने का वरदान माँगा। फलस्वरूप दक्षिण की गंगा  गोदावरी नदी का उद्गम हुआ।गोदावरी के उद्गम के साथ ही गौतम ऋषि के अनुनय-विनय के उपरांत शिवजी ने  मंदिर में विराजमान होना स्वीकार कर लिया। तीन नेत्रों वाले शिवशंभु के त्रयम्बक स्थल पर विराजमान होने के कारण गौतम ऋषि की तपोभूमि को त्र्यंबक (तीन नेत्रों वाले) कहा जाने लगा है । त्र्यम्बक  का राजा भगवान त्र्यम्बकेश्वर  है । प्रत्येक सोमवार को त्रयम्बक का राजा भगवान  त्र्यंबकेश्वर  अपनी प्रजा तथा भक्तों  की रक्षा करते  हैं। महर्षि गौतम के तपोवन में रहने वाले ब्राह्मणों की पत्नियाँ किसी बात पर उनकी पत्नी अहिल्या से नाराज हो गईं। उन्होंने अपने पतियों को ऋषि गौतम का अपमान करने के लिए प्रेरित किया। उन ब्राह्मणों ने इसके निमित्त भगवान्‌ श्रीगणेशजी की आराधना की। उनकी आराधना से प्रसन्न हो गणेशजी ने प्रकट होकर उनसे वर माँगने को कहा उन ब्राह्मणों ने कहा- 'प्रभो! यदि आप हम पर प्रसन्न हैं । किसी प्रकार ऋषि गौतम को आश्रम से बाहर निकाल दें।' उनकी यह बात सुनकर गणेशजी ने उन्हें ऐसा वर न माँगने के लिए समझाया। किंतु वे अपने आग्रह पर अटल रहे।अंततः गणेशजी को विवश होकर उनकी बात माननी पड़ी। अपने भक्तों का मन रखने के लिए वे एक दुर्बल गाय का रूप धारण करके ऋषि गौतम के खेत में जाकर रहने लगे। गाय को फसल चरते देखकर ऋषि बड़ी नरमी के साथ हाथ में तृण लेकर उसे हाँकने के लिए लपके। उन तृणों का स्पर्श होते ही वह गाय वहीं मरकर गिर पड़ी। अब तो बड़ा हाहाकार मचा। सारे ब्राह्मण एकत्र हो गो-हत्यारा कहकर ऋषि गौतम की भर्त्सना करने लगे। ऋषि गौतम इस घटना से बहुत आश्चर्यचकित और दुःखी थे। अब उन सारे ब्राह्मणों ने कहा कि तुम्हें यह आश्रम छोड़कर अन्यत्र कहीं दूर चले जाना चाहिए। गो-हत्यारे के निकट रहने से हमें भी पाप लगेगा। विवश होकर ऋषि गौतम अपनी पत्नी अहिल्या के साथ वहाँ से एक कोस दूर जाकर रहने लगे। किंतु उन ब्राह्मणों ने वहाँ भी उनका रहना दूभर कर दिया। वे कहने लगे- 'गो-हत्या के कारण तुम्हें अब वेद-पाठ और यज्ञादि के कार्य करने का कोई अधिकार नहीं रह गया।' अत्यंत अनुनय भाव से ऋषि गौतम ने उन ब्राह्मणों से प्रार्थना की कि आप लोग मेरे प्रायश्चित और उद्धार का कोई उपाय बताएँ।तब उन्होंने कहा- 'गौतम! तुम अपने पाप को सर्वत्र सबको बताते हुए तीन बार पूरी पृथ्वी की परिक्रमा करो। फिर लौटकर यहाँ एक महीने तक व्रत करो। इसके बाद 'ब्रह्मगिरी' की 101 परिक्रमा करने के बाद तुम्हारी शुद्धि होगी अथवा यहाँ गंगाजी को लाकर उनके जल से स्नान करके एक करोड़ पार्थिव शिवलिंगों से शिवजी की आराधना करो। इसके बाद पुनः गंगाजी में स्नान करके इस ब्रह्मगीरि की 11 बार परिक्रमा करो। फिर सौ घड़ों के पवित्र जल से पार्थिव शिवलिंगों को स्नान कराने से तुम्हारा उद्धार होगा।
सस्मृति ग्रंथों के अनुसार  महर्षि गौतम वे सारे कार्य पूरे करके पत्नी के साथ पूर्णतः तल्लीन होकर भगवान शिव की आराधना करने लगे। इससे प्रसन्न हो भगवान शिव ने प्रकट होकर उनसे वर माँगने को कहा। महर्षि गौतम ने उनसे कहा- 'भगवान्‌ मैं यही चाहता हूँ कि आप मुझे गो-हत्या के पाप से मुक्त कर दें।' भगवान्‌ शिव ने कहा- 'गौतम ! तुम सर्वथा निष्पाप हो। गो-हत्या का अपराध तुम पर छल पूर्वक लगाया गया था। छल पूर्वक ऐसा करवाने वाले तुम्हारे आश्रम के ब्राह्मणों को मैं दण्ड देना चाहता हूँ।'इस पर महर्षि गौतम ने कहा कि प्रभु! उन्हीं के निमित्त से तो मुझे आपका दर्शन प्राप्त हुआ है। अब उन्हें मेरा परमहित समझकर उन पर आप क्रोध न करें।' बहुत से ऋषियों, मुनियों और देव गणों ने वहाँ एकत्र हो गौतम की बात का अनुमोदन करते हुए भगवान्‌ शिव से सदा वहाँ निवास करने की प्रार्थना की। वे उनकी बात मानकर वहाँ त्र्यम्बक ज्योतिर्लिंग के नाम से स्थित हो गए। गौतमजी द्वारा लाई गई गंगाजी भी वहाँ पास में गोदावरी नाम से प्रवाहित होने लगीं। यह ज्योतिर्लिंग समस्त पुण्यों को प्रदान करने वाला है।इस भ्रमण के समय त्र्यंबकेश्वर महाराज के पंचमुखी सोने के मुखौटे को पालकी में बैठाकर गाँव में घुमाया जाता है। फिर कुशावर्त तीर्थ स्थित घाट पर स्नान कराया जाता है। इसके बाद मुखौटे को वापस मंदिर में लाकर हीरेजड़ित स्वर्ण मुकुट पहनाया जाता है। यह पूरा दृश्य त्र्यंबक महाराज के राज्याभिषेक-सा महसूस होता है। इस यात्रा को देखना बेहद अलौकिक अनुभव है।‘कुशावर्त तीर्थ की जन्मकथा काफी रोचक है। कहते हैं ब्रह्मगिरि पर्वत से गोदावरी नदी बार-बार लुप्त हो जाती थी। गोदावरी के पलायन को रोकने के लिए गौतम ऋषि ने एक कुशा की मदद लेकर गोदावरी को बंधन में बाँध दिया। उसके बाद से ही इस कुंड में हमेशा लबालब पानी रहता है। इस कुंड को ही कुशावर्त तीर्थ के नाम से जाना जाता है। कुंभ स्नान के समय शैव अखाड़े इसी कुंड में शाही स्नान करते हैं।’शिवरात्रि और सावन सोमवार के दिन त्र्यंबकेश्वर मंदिर में भक्तों का ताँता लगा रहता है। भक्त भोर के समय स्नान करके अपने आराध्य के दर्शन करते हैं। यहाँ कालसर्प योग और नारायण नागबलि नामक खास पूजा-अर्चना होती है । श्री त्रंबकेश्वर ज्योतिर्लिंग तीन छोटे-छोटे लिंग ब्रह्मा, विष्णु और शिव प्रतीक स्वरूप, त्रि-नेत्रों वाले भगवान शिव के बारह ज्योतिर्लिंगों में से एक है। मंदिर के अंदर गर्भगृह में प्रायः शिवलिंग दिखाई नहीं देता है, गौर से देखने पर अर्घा के अंदर एक-एक इंच के तीन लिंग दिखाई देते हैं। सुवह होने वाली पूजा के बाद इस अर्घा पर चाँदी का पंचमुखी मुकुट चढ़ा दिया जाता है।त्र्यंबकेश्वर मंदिर का निर्माण पेशवा बालाजी बाजीराव तृतीय ने पुराने मंदिर स्थल पर ही करवाया था। मंदिर का निर्माण कार्य 1755 में प्रारंभ होकर 31 साल के लंबे समय के बाद सन् 1786 में पूर्ण हुआ। त्र्यंबकेश्वर मंदिर तीन पहाड़ियों ब्रह्मगिरी, नीलगिरि और कालगिरि के बीच स्थित है। त्रंबकेश्वर को सोमवार को चाँदी के पंचमुखी मुकुट को पालकी में बैठाकर गाँव में प्रजा का हाल जानने हेतु भ्रमण कराया जाता है।  कुशावर्त तीर्थ स्थित घाट पर स्नान के उपरांत वापस मंदिर में शिवलिंग पर पहनाया जाता है। त्र्यंबक महाराज के राज्याभिषेक  है, तथा इस अलौकिक यात्रा में सामिल होना अत्यंत सुखद अनुभव है।कालसर्प शांति, त्रिपिंडी विधि और नारायण नागबलि पूजन केवल श्री त्रंबकेश्वर ज्योतिर्लिंग पर ही संपन्‍न किया जाता है। मंदिर के गर्भ-ग्रह में स्त्रियों का प्रवेश पूर्णतया वर्जित है। शिव ज्योतिर्लिंग!शिवरात्रि / त्रयोदशी सावन के सोमवारश्री रुद्राष्टकम्  ,  श्री गोस्वामितुलसीदासकृतं शिव आरती श्री शिव चालीसा , महामृत्युंजय मंत्र, संजीवनी मंत्र मंदिर में निरंतर होते है । स्वयंभू द्वारा  सतयुग में त्र्यम्बकेश्वर की स्थापना कर भगवान शिव को समर्पित किया था । त्रयम्बकेश्वर मंदिर का हेमाडपंती  शैली में निर्मित है। त्र्यम्बकेश्वर ज्योतिर्लिंग का दर्शन तथा गोदावरी नदी में स्नान ,उपासना करने और गोदावरी के किनारे शयन करने से समस्त मनोकामना की पूर्ति , काल सर्प दोष , सभी ऋणों से मुक्ति तथा जीवन सुखमय होता है ।महामृत्युञ्जय मन्त्र - "मृत्यु को जीतने वाला महान मंत्र"  को  त्रयम्बकम मन्त्र  कहा जाता है, यजुर्वेद के रूद्र अध्याय में, भगवान शिव की स्तुति हेतु की गयी एक वन्दना है। मन्त्र में शिव को 'मृत्यु को जीतने वाला' बताया गया है। यह गायत्री मन्त्र के समकक्ष सनातन धर्म का सबसे व्यापक रूप से जाना जाने वाला मन्त्र है।भगवान शिव के तीन आँखों की ओर इशारा करते हुए त्रयंबकम मन्त्र और मृत-संजीवनी मन्त्र के रूप में जाना जाता है । कठोर तपस्या पूरी करने के बाद ऋषि शुक्र को प्रदान की गई है। ऋषि-मुनियों ने महा मृत्युंजय मन्त्र को वेद का ह्रदय कहा है। ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्‌। उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय माऽमृतात्।।है "त्रिनेत्रों वाला", रुद्र  ! तीनों कालों में हमारी रक्षा करने वाले भगवान को हम पूजते हैं, सम्मान करते हैं, हमारे श्रद्देय मीठी महक वाला,सुगन्धित एक सुपोषित स्थिति, फलने-फूलने वाली, समृद्ध जीवन की  सुपोषित स्थिति, फलने-फूलने वाली, समृद्ध जीवन की परिपूर्णता वह जो पोषण करता है, शक्ति देता है, (स्वास्थ्य, धन, सुख में) वृद्धिकारक; जो हर्षित करता है, आनन्दित करता है और स्वास्थ्य प्रदान करता है, एक अच्छा माली की तरह तना मृत्यु से  हमें स्वतन्त्र करें, मुक्ति दें नहीं वंचित होएँ  अमरता, मोक्ष के आनन्द से परिपूर्ण करें । ऋषि मृकण्ड की तपस्या से मार्कण्डेय पुत्र हुआ।  ज्योतिर्विदों ने मार्कण्डेय  शिशु के लक्षण देखकर ऋषि के हर्ष को चिंता में परिवर्तित कर दिया। उन्होंने कहा यह बालक अल्पायु और बारह वर्ष है। मृकण्ड ऋषि ने अपनी पत्नी को आश्वत किया-देवी, चिंता मत करो। विधाता जीव के कर्मानुसार  आयु दे सकते हैं । भाग्यलिपि को स्वेच्छानुसार परिवर्तित कर देना भगवान शिव के लिए विनोद मात्र है। ऋषि मृकण्ड के पुत्र मार्कण्डेय का शैशव बीता और कुमारावस्था के प्रारम्भ में पिता ने उन्हें शिव मन्त्र की दीक्षा तथा शिवार्चना की शिक्षा दी। पुत्र मार्कण्डेय  को उसका भविष्य बता कर समझा दिया कि त्रिपुरारी  उसे मृत्यु से बचा सकते हैं। माता-पिता दिन गिन रहे थे।  मार्कंडेय ऋषि ने मृत्युंजय मन्त्र त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धन्म। उर्वारुकमिव बन्धनामृत्येर्मुक्षीय मामृतात्॥ से भगवान शिव की उपासना की थी । काल किसी की भी प्रतीक्षा नहीं करता। यमराज के दूत समय पर आए और संयमनी लौट गए।  यमदूतों ने अपने स्वामी यमराज से जाकर निवेदन किया- हम मार्कण्डेय तक पहुँचने का साहस नहीं पाए। इस पर यमराज ने कहा कि मृकण्ड को पुत्र को मैं स्वयं लाऊँगा। दण्डधर यमराज जी महिषारूढ़ हुए और क्षण भर में मार्कण्डेय के पास पहुँच गये। बालक मार्कण्डेय ने उन कज्जल कृष्ण, रक्तनेत्र पाशधारी को देखा  सम्मुख की लिंगमूर्ति से लिपट गया। अद्भुत अपूर्व हुँकार और मन्दिर, दिशाएँ जैसे प्रचण्ड प्रकाश से चकाचौंथ हो गईं। शिवलिंग से तेजोमय त्रिनेत्र चन्द्रशेखर प्रकट हो गए और उन्होंने त्रिशूल उठाकर यमराज से बोले, हे! यमराज तुमने मेरे आश्रित पर पाश उठाने का साहस कैसे किया है  ? यमराज ने उससे पूर्व ही हाथ जोड़कर मस्तक झुका लिया था और कहा कि हे! त्रिनेत्र मैं आपका सेवक हूँ। कर्मानुसार जीव को इस लोक से ले जाने का निष्ठुर कार्य प्रभु ने इस सेवक को दिया है। भगवान चन्द्रशेखर ने कहा कि यह संयमनी नहीं जाएगा। इसे मैंने अमरत्व दिया है। मृत्युंजय प्रभु की आज्ञा को यमराज अस्वीकार कैसे कर सकते थे? यमराज खाली हाथ लौट गए। मार्कण्डेय ने यह देख कर भोलेनाथ को सिर झुकाए और उनकी स्तुति करने लगे। उर्वारुमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय मामृतात्। वृन्तच्युत खरबूजे के समान मृत्यु के बन्धन से छुड़ाकर मुझे अमृतत्व प्रदान करें। मन्त्र के द्वारा चाहा गया वरदान उस का सम्पूर्ण रूप से उसी समय मार्कण्डेय को प्राप्त हो गया। कलौकलिमल ध्वंयस सर्वपाप हरं शिवम्। येर्चयन्ति नरा नित्यं तेपिवन्द्या यथा शिवम्।। स्वयं यजनित चद्देव मुत्तेमा स्द्गरात्मवजै:। मध्यचमा ये भवेद मृत्यैतरधमा साधन क्रिया।।देव पूजा विहीनो य: स नरा नरकं व्रजेत। यदा कथंचिद् देवार्चा विधेया श्रध्दायान्वित।। जन्मचतारात्र्यौ रगोन्मृदत्युतच्चैरव विनाशयेत्।
                      ( त्र्यम्बकेश्वर ज्योोतिर्लिंग )
                         ( गोदावरी नदी )

मंगलवार, मई 25, 2021

ज्योतिर्लिंग : जीवन का चतुर्दिक विकास ...



        भारतीय संस्कृति और सभ्यता मानवीय जीवन के लिए चतुर्दिक विकास का स्रोत है । पुरणों , वेदों तथा उपनिषदों में भगवान शिव के ज्योतिर्लिंगों का महत्वपूर्ण उल्लेख किया गया है । क्षिप्रा नदी के किनारे उज्जैन का महाकाल इंसान का आरंभ और अंत का रूप है ।शिव पुराण कोटिरुद्रसंहिता अध्याय 1 , 15, 16 के अनुसार मालवा प्रदेश की राजधानी अवंतिका में महाकाल है । अवंति में ब्राह्मणों द्वारा अग्नि की स्थापना कर अग्निहोत्र और भगवान शिव की पार्थिव शिवलिंग बना कर उपासना करते थे । वेद प्रिय ब्राह्मण वेदप्रिय ब्राह्मण के पुत्रों में देवप्रिय ,प्रियमेघा ,सुकृत और सुब्रत के प्रभाव से अवंति ब्रह्मतेज से परिपूर्ण हो गयी थी ।ब्रह्मतेज से परिपूर्ण अवनति पर रत्नमाला पर्वत पर असुरराज दूषण ने ब्रह्मा जी से वर प्राप्त करने के बाद शिब भक्त पर चढ़ाई कर दी । भगवान शिव द्वारा अधर्मी असुर राज दूषण सहित असुरों को ब्राह्मणों द्वारा स्थापित एवं पूजित पार्थिव शिवलिंग से प्रकट हो कर असुरों को भष्म कर अवंति सुरक्षित किया  । पार्थिव शिव लिंग के स्थान से भगवान शिव की बड़ी आवाज से गड्डा होने पर भगवान शिव ज्योतिर्लिंग प्रगट हो गए थे और असुरों , दैत्यों को भष्म कर अवंति की रक्षा की गई । अवनति का राजा चंद्रसेन महाकाल का भक्त और उपासक थे ।शिव पार्षदों में प्रधान मणिभद्र चंद्रसेन के मित्र थे । भगवान शिव का ज्योतिर्लिंग महाकाल के नाम से विख्यात है । से कर  मध्यप्रदेश राज्य के उज्जैन नगर में स्थित, महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग   मंदिर है। पुराणों, महाभारत और कालिदास और महाकवियों की रचनाओं में महाकाल मंदिर का मनोहर वर्णन मिलता है। स्वयंभू, भव्य और दक्षिणमुखी होने के कारण महाकालेश्वर महादेव की अत्यन्त पुण्यदायी  है। महाकवि कालिदास ने मेघदूत में उज्जयिनी की चर्चा करते हुए  मंदिर की प्रशंसा की है।  १२३५ ई. में इल्तुत्मिश के द्वारा ममहाकाल मंदिर का विध्वंस किए जाने के बाद से यहां के शासक ने महाकालेश्वर मंदिर के जीर्णोद्धार और सौन्दर्यीकरण किया है । उज्जैन में सन् ११०७ से १७२८ ई. तक यवनों का शासनकाल में अवंति की लगभग ४५०० वर्षों में स्थापित हिन्दुओं की प्राचीन धार्मिक परंपराएं प्राय: नष्ट हो चुकी थी। १६९० ई. में मराठों ने मालवा क्षेत्र में आक्रमण कर दिया और २९ नवंबर १७२८ को मराठा शासकों ने मालवा क्षेत्र में  अधिपत्य स्थापित कर लिया। इसके बाद उज्जैन का खोया हुआ गौरव पुनः लौटा और सन १७३१ से १८०९ तक यह नगरी मालवा की राजधानी बनी थी ।, महाकालेश्वर मंदिर का पुनिर्नर्माण और ज्योतिर्लिंग की पुनर्प्रतिष्ठा तथा सिंहस्थ पर्व स्नान की स्थापना हुई  थी। राजा भोज ने महाकालेश्वर मंदिर का विस्तार कराया है ।
मंदिर एक परकोटे के भीतर स्थित है। गर्भगृह तक पहुँचने के लिए एक सीढ़ीदार रास्ता है। इसके ठीक उपर एक दूसरा कक्ष है जिसमें ओंकारेश्वर शिवलिंग स्थापित है। मंदिर का क्षेत्रफल १०.७७ x १०.७७ वर्गमीटर और ऊंचाई २८.७१ मीटर है। वक्र: पंथा यदपि भवन प्रस्थिताचोत्तराशाम, सौधोत्संग प्रणयोविमखोमास्म भरूज्जयिन्या:। विद्युद्दामेस्फरित चकितैस्त्र पौराड़गनानाम, लीलापांगैर्यदि न रमते लोचननैर्विंचितोसि॥ - कालिदास । शिप्रा नदी के किनारे बसे और मंदिरों से उज्जैन  नगरी को सदियों से महाकाल की नगरी के तौर पर जाना जाता है।उज्जयिनी और अवन्तिका से नगरी प्राचीनकाल में जानी जाती थी। स्कन्दपुराण के अवन्तिखंड में अवन्ति प्रदेश का उल्लेख है। उज्जैन के अंगारेश्वर मंदिर को मंगल गृह का जन्मस्थान माना जाता है, और कर्क रेखा  गुजरती है। मध्य प्रदेश का उज्जैन एक प्राचीनतम शहर  शिप्रा नदी के किनारे स्थित और शिवरात्रि, कुंभ और अर्ध कुंभ  प्रमुख मेलों के लिए प्रसिद्ध है। प्राचीनकाल में उज्जैन को उज्जयिनी के नाम से  जाना जाता है “उज्जयिनी” का अर्थ  गौरवशाली विजेता है ।   उज्जैन नगरी को  अवंतिका ,  कनकश्रृंगा , कुशस्थली ,  भोगस्थली , अमरावती नामों से जाना गया है ।   उज्जैन के महाकालेश्वर मंदिर में महाकाल के रूप में विराजमान और  दक्षिणमुखी है।  दक्षिण दिशा मृत्यु यानी काल की दिशा है और काल को वश में करने वाले महाकाल हैं।दक्षिण दिशा का स्वामी भगवान यमराज है। दक्षिणमुखी ज्योतिर्लिंग के दर्शन  से जीवन स्वर्ग तथा मृत्यु के उपरांत  यमराज के दंड से मुक्ति पाता है। महाकालेश्वर द्वादश ज्योतिर्लिंगों में दक्षिणमुखी होने के कारण प्रमुख स्थान रखता है, महाकालेश्वर मंदिर में अनेकों मंत्र जप जल अभिषेक एवं पूजा होती है । महाकालेश्वर मंदिर एक विशाल परिसर में स्थित है ।मंदिर में प्रवेश करने के लिए मुख्य द्वार से गर्भगृह तक की दूरी तय करनी पड़ती है। 
महाकाल की भूमि उज्जैन को लेकर रहस्य मौजूद हैं।  उज्जैन पूरे आकाश का मध्य स्थान आकाश और  पृथ्वी का  केंद्र  है ।  महाकाल की महिमा का वर्णन किया  गया है – आकाशे तारकं लिंगं पाताले हाटकेश्वरम् ।भूलोके च महाकालो लिंड्गत्रय नमोस्तु ते ॥ आकाश में तारक लिंग, पाताल में हाटकेश्वर-लिंग और पृथ्वी पर महाकालेश्वर ही मान्य शिवलिंग है।शास्त्रों के अनुसार महाकाल पृथ्वी लोक के अधिपति हैं, साथ ही तीनों लोकों के और सम्पूर्ण जगत के अधिष्ठाता  है।   पुराणों में कालखंड, काल सीमा और काल विभाजन जन्म लेता है और उन्हीं से इसका निर्धारण होता है । पूरे ब्रह्माण्ड में सभी चक्र महाकाल 
 चलते हैं ।शिव महापुराण के 22वें अध्याय के अनुसार दूषण नमक एक दैत्य से भक्तो की रक्षा करने के लिए भगवान शिव ज्योति के रूप में उज्जैन में प्रकट हुए थे । दूषण संसार का काल था और शिव शंकर ने उसे खत्म कर दिया इसलिए शंकर भोलेनाथ महाकाल के नाम से पूज्य हुए। अतः दुष्ट दूषण का वध करने के पश्चात् भगवान शिव कहलाये कालों के काल महाकाल उज्जैन में महाकाल का वास होने से पुराने साहित्य में उज्जैन को महाकालपुरम भी कहा गया है। उज्जैन में एक कहावत प्रसिद्ध है “अकाल मृत्यु वो मरे जो काम करे चांडाल का, काल भी उसका क्या बिगाड़े जो भक्त हो महाकाल का” ।पुराणों में मोक्ष देनेवाली यानी जीवन और मृत्यु के चक्र से छुटकारा दिलाने वाली जिस सप्तनगरी का ज़िक्र है और उन सात नगरों में एक नाम उज्जैन का भी है। जबकि दूसरी तरफ महादेव का वो आयाम में  मुक्ति की ओर ले जाता है। उज्जैन में कालभैरव व गढ़कालिका  हैं । काल यानी समय स्वामी  महाकाल है । उज्जैन में भस्म से स्नान करनेवाले महाकाल की विशिष्ट आराधना  होती है। आदिदेव शंकर को भस्म रमाना बेहद पसंद है, इसके पीछे का राज़ भी बेहद गहरा है। एक तरफ महाकाल रूप में अगर शिव समय के स्वामी हैं, तो काल भैरव के रूप में वो समय के विनाशक हैं। इन्ही सब के आसपस वो रहस्य छिपा है जिसमें पता चलता है कि महादेव को राख या भस्म क्यों पसंद है, क्यों उनकी आराधना में भस्म का स्नान या भस्म का तिलक इस्तेमाल होता है। नाथ संप्रदाय  मच्छेन्द्र नाथ और गोरखनाथ से होते हुए नवनाथ के रूप में प्रचलित हुआ। नाथ  संप्रदाय के साधक अक्सर भस्म रमाये मिलते हैं। शिव की पसंदीदा भस्म  सन्यासियों के लिए प्रसाद और वो अपनी जटाओं से लेकर पूरे शरीर में धुणे की भस्म लगाए मिलते हैं। भगवान शंकर की पहली पत्नी सती के पिता ने भगवान शंकर का अपमान किया जिससे आहत होकर सती यज्ञ के हवनकुंड में कूद गईं, जिससे शिव क्रोधित हो गए थे । शिव सती के मृत शरीर को लेकर पूरे ब्रह्माण्ड में घूमने लगे। ऐसा लगा कि शिव के क्रोध से ब्रह्माण्ड का अस्तित्व खतरे में है।  श्री हरि विष्णु ने शिव को शांत करने के लिए सती को भस्म में बदल दिया और शिव ने अपनी पत्नी को हमेशा अपने साथ रमा लेने के लिए भस्म को अपने तन पर मल लिया है ।महादेव की पत्नी सती को लेकर  श्री हरि विष्णु ने देवी सती के शरीर को भस्म में नहीं बदला, बल्कि उसे छिन्न भिन्न कर दिया।  पृथ्वी पर 51 जगहों पर उनके अंग गिरे, इन्हीं स्थानों पर शक्तिपीठों की स्थापना हुई। जिसमें से एक शक्तिपीठ उज्जैन में भी है। जिसे वर्तमान काल में हरिसिद्धी माता के मंदिर के नाम से जाना जाता है।शिव अपने शरीर पर चिता की राख मलते हैं और संदेश देते हैं कि आखिर में सब कुछ राख हो जाना है, ऐसे में सांसारिक चीज़ों को लेकर मोह-माया के वश में नही  रहें और भस्म की तरह बनकर स्वयं को प्रभु को समर्पित कर दें। भस्म विध्वंस का भी प्रतीक है। क्योंकि ब्रह्मा अगर सृष्टि के निर्माणकर्ता हैं और विष्णु पालनकर्ता तो महेश को सृष्टि का विनाशक माना जाता है। मान्यता के अनुसार जब सृष्टि में नकारात्मकता बहुत ज़्यादा बढ़ जाती है तो शिव संहारक के रूप में आते हैं और सब कुछ विध्वंस कर डालते हैं। इससे एक अन्य मान्यता ये भी है कि भस्म उस विध्वंस का प्रतीक है जिसकी याद शिव सबको दिलाते हैं कि सभी सद्कर्म करें अन्यथा अंत में वो सब राख कर देंगे। भस्म से शिव का ये रिश्ता सिर्फ मान्यताओं में है, क्योंकि इसका रहस्य आज भी बरकरार है, हालांकि महाकाल को उज्जैन नगरी का राजा मानते हैं और इसे भी लेकर एक ऐसा राज़ है जिसे आज भी अवंतिका के लोग महसूस करते हैं । विक्रम- बेताल और सिंहासन बत्तीसी की प्रचलित कथा में भी उज्जैन के राजा विक्रमादित्य से जुड़े ऐसे कई रहस्यों को इस नगरी ने समेट रखा है। कहा जाता है कि राजा विक्रमादित्य ने जब से 32 बोलने वाली पुतलियों से जड़े हुए अपने सिंहासन को छोड़ा था ।उनके शासन के बाद से यहां कोई भी राजा रात में रुक नहीं सकता।उज्जैन के  राजा और  कालों के काल महाकाल  का नही आरम्भ और  नही अंत है । 
महाकाल स्तोत्रं - ॐ महाकाल महाकाय महाकाल जगत्पत। महाकाल महायोगिन महाकाल नमोस्तुते।। महाकाल महादेव महाकाल महा प्रभो। महाकाल महारुद्र महाकाल नमोस्तुते।।
अवन्तिकायां विहितावतारं , मुक्ति प्रदानाय च सज्जनानाम्‌ ,अकालमृत्योः परिरक्षणार्थं ,वन्दे महाकाल महासुरेशम॥ अवन्तिका नगरी (उज्जैन) में संतजनों को मोक्ष प्रदान करने के लिए भगवान  अवतार धारण किया है, अकाल मृत्यु से बचने हेतु मैं उन 'महाकाल' नाम से सुप्रतिष्ठित भगवान आशुतोष शंकर की आराधना, अर्चना, उपासना, वंदना करता हूँ। स्कंद पुराण के अनुसार चारों वेदों के रचियता ब्रह्मा ने जब पांचवें वेद की रचना करने का फैसला किया तो परेशान देवता उन्हें रोकने के लिए महादेव की शरण में गए। उनका मानना था कि सृष्टि के लिए पांचवे वेद की रचना ठीक नहीं है, लेकिन ब्रह्मा जी ने महादेव की  बात नहीं मानी। भगवान शिव क्रोधित हो गए। गुस्से के कारण उनके तीसरे नेत्र से एक ज्वाला प्रकट हुई। इस ज्योति ने कालभैरव का रौद्ररूप धारण किया, और ब्रह्माजी के पांचवे सिर को धड़ से अलग कर दिया। कालभैरव ने ब्रह्माजी का घमंड तो दूर कर दिया लेकिन उन पर ब्रह्महत्या का दोष लग गया. इस दोष से मुक्ति पाने के लिए भैरव दर दर भटके लेकिन उन्हें मुक्ति नहीं मिली. फिर उन्होंने अपने आराध्य शिव की आराधना की। शिव ने उन्हें शिप्रा नदी में स्नान कर तपस्या करने को कहा. ऐसा करने पर कालभैरव को दोष से मुक्ति मिली और भगवान शिव  सदा के लिए उज्जैन में ही विराजमान हो गए है ।कालभैरव को ग्रहों की बाधाएं दूर करने के लिए ख्याति  है । भगवान माहकाल भक्तों के रक्षक और दुष्टों के संहारकर्ता है । भगवान शिव ने अवनति का राजा चंद्रसेन की रक्षा के लिये भक्त शिरोमणि हनुमान जी तत्पर रहने के लिए भेजे थे । महाकाल दुष्टों का सर्वथा हनन और भक्तों का आश्रयदाता है ।

सोमवार, मई 24, 2021

कर्मवाद और उपासनावाद का स्थल हेमकुंड...


           भारतीय वाङ्गमय साहित्य और संस्कृति में हेमकुण्ड का स्थल कर्म और साधना के संबंध का उल्लेख किया है । सप्त ऋषियों के द्वारा सिंचित और साधना से परिपूर्ण स्थल शांति , धैर्य और उन्नति का मार्ग प्रसस्त करता हेमकुण्ड स्थल है ।  सतयुग में शेषनाग , त्रेतायुग में लक्ष्मण और कलियुग में सर्वदमन गुरु गोविंद सिंह का पूर्व जन्म और साधना स्थल हेमकुण्ड है ।  उत्तराखंड, के चमोली जिले का हेमकुंट पर्वत पर हेमकुण्ड के किनारे हेमकुंड साहिब  स्थित सिखों का  प्रसिद्ध तीर्थ स्थान है। हिमालय पर्वतमाला की हेमकूट सात  पहाड़ियों से घिरा 4632 मीटर अर्थात 15,200 फुट की ऊँचाई पर  बर्फ़ीली झील के हेमकुण्ड साहिब गुरुद्वारा और लोक पाल लक्षमण जी का मंदिर स्थित है।  सात पहाड़ों पर निशान साहिब झूलते हैं। हेमकुण्ड साहिब तक ऋषिकेश-बद्रीनाथ रास्ता पर पड़ते गोबिन्दघाट से केवल पैदल चढ़ाई के द्वारा पहुँचा जाता है।हेमकुण्ड में  गुरुद्वारा श्री हेमकुंड साहिब सुशोभित है। हेमकुण्ड स्थान का उल्लेख सिख धर्म के 10 वें गुरु गोबिंद सिंह द्वारा रचित दसम ग्रंथ में है। संस्कृत में हेमकुण्ड को  हेम का अर्थ "बर्फ़"और कुंड का अर्थ तलाव , कटोरा  है। दसम ग्रंथ के अनुसार हेमकुण्ड का राजा पाँडु राजो द्वारा हेम कुंड स्थापित किया गया था। त्रेतायुग में भगवान राम के अनुज लक्ष्मण ने  हेमकुण्ड की स्थापना करवाया था। सिखों के दसवें गुरु गोबिन्द सिंह ने यहाँ पूजा अर्चना की थी। गुरूद्वारा हेमकुण्ड घोषित कर दिया गया।  दर्शनीय तीर्थ में चारों ओर से बर्फ़ की ऊँची चोटियों का प्रतिबिम्ब विशालकाय झील में अत्यन्त मनोरम एवं रोमांच से परिपूर्ण  है। हेम  झील में हाथी पर्वत और सप्तऋषि पर्वत श्रृंखलाओं से पानी का जलधारा हेम झील से प्रविहित होने वाला जल को हिमगंगा कहै जाता  हैं। झील के किनारे स्थित लक्ष्मण मंदिर  अत्यन्त दर्शनीय है। अत्याधिक ऊँचाई पर होने के कारण वर्ष में  छ: महीने यहाँ झील बर्फ में जम जाती है। फूलों की घाटी यहाँ का निकटतम पर्यटन स्थल है ।हिमालय में स्थित गुरुद्वारा हेमकुंड साहिब सिखों के सबसे पवित्र स्थानों में से एक माना जाता है  यहाँ पर सिखों के दसवें और अंतिम गुरु श्री गुरु गोबिंद सिंह ने अपने पिछले जीवन में ध्यान साधना की थी । स्थानीय निवासियों द्वारा बहुत असामान्य, पवित्र, विस्मय और श्रद्धा का स्थान माना जाता है । हेम झील और इसके आसपास के क्षेत्र को लोग लक्ष्मण जी को "लोकपाल" से जानते हैं । हेमकुंड साहिब का गुरु गोबिंद सिंह की आत्मकथा में उल्लेख किया गया था ।सिख इतिहासकार-भाई संतोख सिंह द्वारा 1787-1843 हेमकुण्ड  जगह का विस्तृत वर्णन दुष्ट दमन की कहानी में उल्लेख किया गया था । उन्होंने  गुरु का अर्थ शाब्दिक शब्द 'बुराई के विजेता'  है ।हेमकुंड साहिब को  गुरुद्वारा श्री हेमकुंड साहिब के रूप में जाना जाता है । सिखों के दसवें गुरु, श्री गुरु गोबिंद सिंह जी (1666-1708) के लिए समर्पित होने का उल्लेख दसम ग्रंथ में स्वयं गुरुजी ने किया है ।
सर्वे ऑफ इंडिया के अनुसार, ये सात पर्वत चोटियों से घिरा हुआ एक हिमनदों झील के साथ 4632 मीटर (15,197 फीट) की ऊंचाई पर हिमालय में स्थित है. इसकी सात पर्वत चोटियों की चट्टान पर  निशान साहिब सजा हुआ है ।हेमकुण्ड  पर गोविन्दघाट से होते हुए ऋषिकेश-बद्रीनाथ राजमार्ग पर जाया जता है ।गोविन्दघाट के पास मुख्य शहर जोशीमठ है ।राजा  पांडु  का  अभ्यास योग स्थल था । ,  दसम ग्रंथ में उल्लेख है कि पाण्डु हेमकुंड पहाड़ पर गहरे ध्यान में  भगवान ने उन्हें सिख गुरु गोबिंद सिंह के रूप में यहाँ पर जन्म लेने का आदेश दिया था । पंडित तारा सिंह नरोत्तम जो उन्नीसवीं सदी के निर्मला विद्वान द्वारा  कहा गया है कि हेमकुंड की भौगोलिक स्थिति का पता लगाने वाले पहले सिख थे । श्री गुड़ तीरथ संग्रह में 1884 में प्रकाशित संलेख में हेमकुण्ड का वर्णन 508 सिख धार्मिक स्थलों में से एक के रूप में किया है । सिख विद्वान भाई वीर सिंह ने हेमकुंड के विकास के बारे में खोजकर महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी ।भाई वीर सिंह का हेमकुण्ड वर्णन पढ़कर संत सोहन सिंह रिटायर्ड आर्मीमैन ने हेमकुंड साहिब को खोजने का फैसला किया और वर्ष 1934 में सफलता प्राप्त की है ।पांडुकेश्वर में गोविंद घाट के पास संत सोहन सिंह ने स्थानीय लोगों के पूछताछ के बाद वो जगह ढूंढ ली जहां राजा पांडु ने तपस्या की थी और बाद में झील को भी ढूंढ निकला जो लोकपाल के रूप विख्यात थी । 1937 ई. में गुरु ग्रंथ साहिब को स्थापित किया गया । दुनिया में सबसे ज्यादा माने जाने वाले गुरुद्वारे का स्थल है । 1939 ई. में संत सोहन सिंह ने अपनी मौत से पहले हेमकुंड साहिब के विकास का काम जारी रखने के मिशन को मोहन सिंह को सौंप दिया था । गोबिंद धाम में गुरुद्वारा को मोहन सिंह द्वारा निर्मित कराया गया था । 1960 में अपनी मृत्यु से पहले मोहन सिंह ने एक सात सदस्यीय कमेटी बनाकर इस तीर्थ यात्रा के संचालन की निगरानी प्रदान किया है । गुरुद्वारा श्री हेमकुंड साहिब के अलावा हरिद्वार, ऋषिकेश, श्रीनगर, जोशीमठ, गोबिंद घाट, घांघरिया और गोबिंद धाम में गुरुद्वारों में सभी तीर्थयात्रियों के लिए भोजन और आवास उपलब्ध कराने का प्रबंधन हेमकुण्ड साहिब कमिटि द्वारा किया जाता है । बर्फीले पहाड़ों के बीचों-बीच बसा अद्भुत लक्ष्मण मंदिर है । उत्तराखंड के चमोली जिले का हेमकुण्ड में स्थित सिक्खों के पवित्र धाम हेमकुंड साहिब गुरुद्वारा और लक्ष्मण मंदिर है । हेमकुंड साहिब की यात्रा की शुरुआत अलकनंदा नदी के किनारे समुद्र तल से 1828 मीटर उचाई पर जोशीमठ  से बद्रीनाथ रोड के किनारे स्थित  गोविंदघाट गुरुद्वारा है । गोविंदघाट से घांघरिया तक 13 किलोमीटर की खड़ी  चढ़ाई है । गोविंद घाट से आगे का 6 किलोमीटर का सफ़र ज्यादा मुश्किलों से भरा है। उत्तराखंड के पावन स्थल पर  हिंदू धर्म का लक्ष्मण मंदिर है ।, जिसका नाम लक्ष्मण लोकपाल मंदिर के नाम से ख्याति  है।  पौराणिक आलेख के अनुसार भगवान राम के भाई लक्ष्मण ने श्री  राम के साथ 14 साल का वनवास काटा था। प्राचीन समय में हेमकुण्ड  स्थान पर लक्ष्मण मंदिर स्थापित हैं । हेमकुण्ड में शेषनाग ने तपस्या की थी। जिसके बाद शेषनाग ने त्रेता युग में राजा दशरथ की भार्या सुमित्रा के पुत्र लक्ष्मण के रूप में जन्म मिला था। लक्ष्मण मंदिर में भ्यूंडार गांव के ग्रामीण पूजा करते हैं। यह मंदिर हेमकुंड  के परिसर में है। हेमकुंड आने वाले तीर्थयात्री लक्ष्मण मंदिर में मत्था टेकना नहीं भूलते। लक्ष्मण मंदिर हेमकुंड झील के तट पर स्थित है। लक्ष्मण ने रावण के पुत्र मेघनाद को मारने के बाद लक्ष्मण ने अपनी शक्ति वापस पाने के लिए कठोर तप हेम कुंड में किया था। सिख धर्म के 10 वे गुरु गोबिंद सिंह ने पूर्व जन्म में तपस्या की थी तपस्या,  नॉर्दन इंडिया के हिमालयन रेंज में 15,000 फीट की ऊंचाई पर स्थित हेमकुंड साहिब सिखों का मशहूर तीर्थस्थान है। गर्मियों के महिनों में हेमकुण्ड हर साल दुनियाभर से हजारों लोग पहुंचते हैं। सिखों के दसवें गुरु, गोबिंद सिंह की ऑटोबायोग्राफी 'बछित्तर नाटक' के अनुसार गुरु गोबिंद सिंह ने अपने पिछले जन्म में तपस्या की थी। ईश्वर के आदेश के बाद गुरु गोविंद सिंह ने पटना सिटी बिहार में पौष शुक्ल सप्तमी 1728 दिनांक 22दिसंबर 1666 ई . को धरती पर दूसरा जन्म लिया, ताकि वे लोगों को बुराइयों से बचाने का रास्ता दिखा सकें। सात पहाड़ों से घिरा  हेमकुंड हसि उत्तराखण्ड के चमोली जिले में है हेमकुंड साहिब। 15,200 फीट की ऊंचाई पर सात बर्फीले पहाड़ों से घिरी इस जगह पर एक बड़ा तालाब भी है, जिसे लोकपाल कहते हैं। यहां भगवान लक्ष्मण का एक मंदिर भी है।लक्ष्मण का पुराना अवतार सप्त  सिर वाला शेषनाग  था । शेषनाग लोकपाल झील में तपस्या करते थे और विष्णु भगवान उनकी पीठ पर आराम करते थे। मेघनाथ के साथ युद्ध में घायल होने पर लक्ष्मण को लोकपाल झील के किनारे लाया गया था। यहां हनुमान ने लक्ष्मण जी को  संजीवनी बूटी दी और वे ठीक हो गए। लक्षमण जी के ठीक होने पर  देवताओं ने आसमान से फूल बरसाए थे ।देवों द्वारा फूल बरसाने का स्थान को   फूलों की घाटी कहा गया है । वैली ऑफ फ्लॉवर्स' फूलों की घाटी  के नाम  है। वास्तविक रूप में  स्थल का स्वर्ग हेमकुण्ड  है । 
हेमकुण्ड की यात्रा के दौरान  साहित्यकार व इतिहासकार सत्येन्द्र कुमार पाठक द्वारा 30 सितंबर 2017 को हेमकुण्ड  भ्रमण किया है । उन्होंने गोविंद घाट से   फॉरविलर से  पुलांग तक , पुलांग से घोड़े की सवारी से गोविंद धाम घांघरिया जा कर विश्राम किया तथा 01 अक्टूबर 2017 को घांघरिया गुरुद्वारा में माथा टेकने के बाद घोड़े की सवारी से 07 किलोमीटर की दूरी तय करने के बाद हेमकुण्ड स्थित हेमकुण्ड में स्नान ध्यान करने के बाद लक्षमण मंदिर में जाकर पूजा अर्चना तथा हेमकुण्ड साहिब गुरुद्वारा में माथा टेक टेक कर उपासना किया ।  हेमकुण्ड में स्थित सप्तऋषि पर्वत की वादियां मनमोहक और शांति और नीले जल युक्त हेमकुण्ड का जल पवित्र , लक्षमण जी , भगवान शिव लिंग , शेषनाग , माता दुर्गा , ऋषियों द्वारा उत्पन्न दुष्टदामन का स्थल , तथा हेमकुण्ड साहिब गुरुद्वारा का दर्शन किया । हेमकुण्ड से पदयात्रा करने के बाद गोविंद घाट का गुरु द्वारा में गुरुगोविंद सिंह का दर्शन , माथा टेकने के बाद 02 अक्टूबर 2017 को जोशी मठ का गुरुद्वारा में विश्राम किया । जोशीमठ स्थित आदिशंकराचार्य द्वारा निर्मित मठ , भगवान नरसिंह , भगवान सूर्य , गणेश , हनुमान जी , वासुदेव , माता काली का दर्शन और उपासना करने के बाद  15500 फ़ीट की ऊँचाई पर स्थित ओली पर्वत की श्रंखला पर भ्रमण करने के दौरान नंदा देवी , त्रिशूल , धौला गिरी और द्रोण पर्वत का अवलोकन किया । बिहार ग्रामीण जीविकोपार्जन प्रोत्साहन समिति मुजफ्फरपुर के ट्रेनिंग ऑफिसर प्रवीण कुमार पाठक के साथ 03 अक्टूबर 2017 को ऋषिकेश गुरुद्वारा में विश्राम करने के पश्चात 04 अक्टूबर 2017 को ऋषिकेश स्थित गंगा में स्नान ध्यान और भगवान शिव का दर्शन , गीता भवन भ्रमण करने के बाद ऋषिकेश गुरुद्वारा में माथा टेका तथा संग्रहालय का भ्रमण किया है ।

                           
                                            हेमकुंड में स्नान करते हुए .