रविवार, जुलाई 30, 2023

मधुश्रवा की सांस्कृतिक विरासत ...


      भारतीय और मागधीय संस्कृति का उल्लेख वेदों , पुरणों , समृतियो  में किया गया है । 1841 -  42 में हिमिल्टन बुकानन ने वेस्टर्न गजेटियर , ग्रियर्सन द्वारा गया टुडे में , बिहार गजेटियर गया में मदसर्वां और देवकुंड का उल्लेख किया है । पुरणों और संबत्सर संहिता के अनुसार सातवें मन्वन्तर काल में वैवस्वत मनु के पुत्र शर्याति द्वारा आनर्त देश की स्थापना कर  वैदिक  हिरण्यबाहु नदी और मधुश्रवा नदी का संगम  पर मधुश्रवा आनर्त देश की राजधानी बनाई गई थी । हिरण्यबाहु नदी के तट पर  ऋषि भृगु की पत्नी हिरण्य प्रदेश का राजा वैवस्वत मनु के पुत्र शर्याति की पुत्री सुकन्या एवं ऋषि भृगु की भार्या  पुलोमा के गर्भ से उत्पन्न ऋषि च्यवन ने तपोस्थल मधु स्थल  बनाया था ।मधुश्रवा ,  मदसर्वां मनसरवा,मधुस्त्रवा ,मधुकुल्या ,धृतकुल्या ,देविका और महादेवी  कहा गया है । नारद पुराण 2 /47  के अनुसार मदश्रवा में स्नान , तर्पण ,सपिण्ड दान तथा श्राद्ध करने पर मनोवांक्षित फल की प्राप्ति होती है ।अग्निपुराण में मधुस्त्रवा को अग्निधारा वायुपुराण , गरुड़ पुराण , ब्रह्मपुराण , स्मृतियों , संहिताओं इन मधुश्रवा तीर्थ कहा गया है । गया श्राद्ध के प्रमुख 365 पिंड वेदियों में मदसर्वां पिंडवेदी है । बिहार राज्य का अरवल जिलान्तर्गत कलेर प्रखंड के  पटना औरंगाबाद पथ  महेंदिया के समीप मदसर्वां तीर्थ और आदिशंकराचार्य द्वारा स्थापित मदसर्वां मठ है । पुरणों और संबत्सर संहिता के अनुसार 14 मनुमय सृष्टि के 1955885122 कल्पारम्भ तथा 7वें मन्वन्तर के प्रणेता वैवस्वतमनु ने सौर वर्ष 3893122 वर्ष पूर्व और 16वें द्वापर युग में गोकर्ण व्यास ने गोकर्ण वन के ऋषि च्यवन द्वारा मदसर्वां में  स्थापित च्यावनेश्वर चौकोर शिवलिंग सर्वार्थ सिद्धि कहा है । राजा शर्याति , अश्विनीकुमार , ऋषि च्यवन और सुकन्या की चर्चा ऋग्वेद  प्रथम , द्वितीय मंडल में चर्चा किया गया है ।च्यवन ऋषि की प्रथम पत्नी आरुषी से और्व ऋषि तथा दूसरी पत्नी राजा शर्याति की पुत्री सुकन्या से प्रमति थे । प्रमति का पौत्र और  रु रु का पुत्र शुनक हुए थे । महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 156 में च्यवन ऋषि की गाथा है । महाभारत , लिंगपुराण ,शिवपुराण विधेश्वर संहिता और सहस्त्र संहिता के अनुसार च्यवन ऋषि को च्यावन ,सिवाना , कहा गया है । शोण नद की 10 धाराएं वृहस्पति के मकर राशि मे आने पर पवित्र होता है । मदसर्वां में रात्रि विश्राम और वधूसरोवर में स्नान तथा च्यावनेश्वर की पुपसन करने से सर्वार्थ सिद्धि और वाजपेय यज्ञ का फल मिलता है । राजा शर्याति के परामर्श से ऋषि च्यावन द्वारा मदसर्वां में परुषोत्तम मास अधिकमास में वाजपेय यज्ञ और रुद्रेष्टि यज्ञ कराया गया था ।इस यज्ञ में च्यावन ऋषि ने भगवान शिव की चकोर शिव लिंग की स्थापना की थी । यज्ञ के समीप सुकन्या ने तलाव का निर्माण कराई थी ।तलाव वधूसरोवर के नाम से ख्याति है । अधिक मास में आयोजित बाजपेयी यज्ञ में 32 कोटि के देवता में 12 सूर्य , 11 रुद्र , 9 वसु एवं भगवान  ब्रह्मा , विष्णु और शिव , ऋषि गण शामिल थे । भगवान सूर्य के पुत्र देव वैद्य अश्विनी कुमार यज्ञ में शामिल हो कर सोम पान में शामिल हुए थे । देव राज इंद्र ने  अश्विनी कुमारों को सोमपान करने के कारण  अपना बज्र अश्विनी कुमारों पर चलाने पर ऋषि च्यावन द्वारा मद दैत्य को उत्पन्न कर इंद्र सहित  बज्र को  स्तंभन कर दिया गया । फलत: इंद्र लज्जित हुए । देव वैद्य अश्विनी कुमारों के साथ सोमपान और जन कल्याण के लिए दयावान ऋषि द्वारा  यज्ञ कराया गया था । च्यावन ऋषि द्वारा देवराज इंद्र के अस्त्र और शस्त्र के साथ उनके कार्यों के विरुद्ध अग्नि प्रज्वलित कर मद की उत्पत्ति की । मद द्वारा इंद्र को स्तंभन का दिया था । ऋषियों और देवों द्वारा ऋषि च्यवन से प्रार्थना किया कि इंद्र को मद से छुटकारा दे । ऋषियों के अनुरोध पर इंद्र को मद से छुटकारा मिला एवं ऋषि च्यवन द्वारा मद को जुआ , सोने, चांदी ,  शिकार , मदिरा और स्त्रियों में रहने के लिए स्थान दिया गया ।  देव राज इंद्र ने मद के उत्पन्न स्थल को मदसर्वा घोषित की तथा भगवान च्यावनेश्वर शिव लिंग की उपासना , वधु सरोवर की महत्ता बताया था । च्यवन ऋषि की पत्नी सुकन्या ने कार्तिक शुक्ल पक्ष और चैत्र शुक्ल पक्ष पंचमी से सप्तमी तक भगवान सूर्य की उपासना और अर्घ्य देकर मनोकामनाए प्राप्ति की है । ब्रह्म पुराण में देव ह्रद , कन्याश्रमहृद , पंचतीर्थ ,मधुवट पुलोमा तीर्थ और देवकुंड तीर्थ का उल्लेख है । अथर्ववेद में औषधि युक्त देव हृद और कन्या हृद था ।सैंधव सभ्यता , मागधीय सभ्यता , मौर्य काल , शुंग काल , गुप्त काल , पाल काल , सेन काल के समय मदसर्वां स्थल की प्रमुख प्रधानता थी । त्रेता युग में भगवान राम ने मधुस्त्रवा का च्यावनेश्वर और देवकुंड का दुग्धेश्वर नाथ की उपासना की साथ ही सोनप्रदेश का राजा शत्रुघ्न को राज्यभिषेक किया था । सोन प्रदेश का राजा मधु के पुत्र लवणासुर के अत्याचार को संपाप्त कर शत्रुघ्न मधुसर्वां का राजा बने थे । च्यवन ऋषि की चर्चा वाल्मीकि रामायण में महत्वपूर्ण है ।
भृगु मुनि की पत्नी पुलोमा के च्यवन  पुत्र थे। तपस्या करने के कारण च्यवन ऋषि का शरीर  पर दीमक-मिट्टी चढ़ गई और लता-पत्तों से  ढँका था । आनर्त देश का राजा और वैवस्वतमनु के पुत्र  शर्याति अपनी रानियों और  रूपवती पुत्री सुकन्या एवं सैनिकों  के साथ हिरण्यबाहु नदी के समीप हिरण्य वैन  में आये। सुकन्या अपनी सहेलियों के साथ घूमते हुये दीमक-मिट्टी एवं लता-पत्तों से ढँके हुये तप करते च्यवन के पास पहुँच गई। उसने देखा कि दीमक-मिट्टी के टीले में दो गोल-गोल छिद्र दिखाई पड़ रहे हैं । आनर्त देश का राजा शर्याति की पुत्री  सुकन्या ने कौतूहलवश छिद्रों में काँटे गड़ा दिये। काँटों के गड़ते ही छिद्रों से रुधिर बहने लगा। जिसे देखकर सुकन्या भयभीत होकर चुपचाप वहाँ से चली गई।
आँखों में काँटे गड़ जाने के कारण च्यवन ऋषि अन्धे हो गये। अपने अन्धे हो जाने पर च्यवन ऋषि द्वारा   शर्याति की सेना का मल-मूत्र रुक जाने का शाप दे दिया। राजा शर्याति ने  घटना से अत्यन्त क्षुब्ध होकर  पूछने पर सुकन्या ने सारी बातें अपने पिता को बता दी। राजा शर्याति ने च्यवन ऋषि के पास पहुँच कर क्षमायाचना करने के बाद ऋषि च्यवन की सेवा के लिये सुकन्या को सौप दी  । सुकन्या द्वारा अन्धे च्यवन ऋषि की सेवा करते हुये अनेक वर्ष व्यतीत करने के बाद   च्यवन ऋषि के आश्रम में भगवान सूर्य की भर्या संज्ञा के पुत्र देव वैद्य  अश्‍वनीकुमार आ पहुँचे। सुकन्या ने उनका यथोचित आदर-सत्कार एवं पूजन किया। अश्‍वनीकुमार बोले, "कल्याणी! हम देवताओं के वैद्य हैं। तुम्हारी सेवा से प्रसन्न होकर हम तुम्हारे पति की आँखों में पुनः दीप्ति प्रदान कर उन्हें यौवन भी प्रदान कर रहे हैं। तुम अपने पति को हमारे साथ सरोवर तक जाने के लिये कहो।" च्यवन ऋषि को साथ लेकर दोनों अश्‍वनीकुमारों ने सरोवर में डुबकी लगाई। डुबकी लगाकर निकलते ही च्यवन ऋषि की आँखें ठीक हो गईं और युवक बन गये। देव वैद्य अश्विनी कुमार ने  सुकन्या से कहा कि देवि! तुम हममें से अपने पति को पहचान कर उसे अपने आश्रम ले जाओ। इस पर सुकन्या ने अपनी तेज बुद्धि और पातिव्रत धर्म से अपने पति को पहचान कर उनका हाथ पकड़ लिया। सुकन्या की तेज बुद्धि और पातिव्रत धर्म से अश्‍वनीकुमार अत्यन्त प्रसन्न हुये और उन दोनों को आशीर्वाद देकर  चले गये। राजा शर्याति को च्यवन ऋषि की आँखें ठीक होने नये यौवन प्राप्त करने का समाचार मिला तो वे अत्यन्त प्रसन्न हुये और उन्होंने च्यवन ऋषि से मिलकर उनसे यज्ञ कराने की बात की। च्यवन ऋषि ने उन्हें यज्ञ की दीक्षा दी। उस यज्ञ में जब अश्‍वनीकुमारों को भाग दिया जाने लगा तब देवराज इन्द्र ने आपत्ति की कि अश्‍वनीकुमार देवताओं के चिकित्सक हैं, इसलिये उन्हें यज्ञ का भाग लेने की पात्रता नहीं है। किन्तु च्यवन ऋषि इन्द्र की बातों को अनसुना कर अश्‍वनीकुमारों को सोमरस देने लगे। इससे क्रोधित होकर इन्द्र ने उन पर वज्र का प्रहार किया लेकिन ऋषि ने अपने तपोबल से वज्र को बीच में ही रोककर एक भयानक राक्षस उत्पन्न कर दिया। वह राक्षस इन्द्र को निगलने के लिये दौड़ पड़ा। इन्द्र ने भयभीत होकर अश्‍वनीकुमारों को यज्ञ का भाग देना स्वीकार कर लिया और च्यवन ऋषि ने उस राक्षस को भस्म करके इन्द्र को उसके कष्ट से मुक्ति दिलई । पुरुषोत्तम मास अर्थात मलमास में मदसर्वां की वधु सरोवर में स्नान कर भगवान च्यावनेश्वर शिव की आराधना करने पर मनोवांक्षित फल की प्राप्ति होती है । बिहार का अरवल जिले का कलेर प्रखण्डान्तर्गत पटना ओरंगाबाद पथ महेनदियाबाद के समीप मधुसरवाँ में च्यवन ऋषि द्वारा स्थापित चयवनेश्वरशिवलिंग एवं वधूसरोवर है ।  उत्तरप्रदेश के मैनपुरी के औचा , हरियाणा का महेंद्रगढ़ जिले के कुलताज ढोसी पहाड़ी पर ऋषि च्यवन आश्रम कहा है।



बुधवार, जुलाई 26, 2023

यात्रा संस्मरण नीलांचल की वादियाँ...


नीलांचल  पर्वतमाला की वादियों में बसे प्राकृतिक सौंदर्य से परिपूर्ण पावन ब्रह्मपुत्र नदी की  धरा असम राज्य का गुवाहाटी के कामख्या   में 9 जुलाई से 14 जुलाई 2023 तक असम की प्रकृति, संस्कृति, रहन सहन, वेशभूषा, कृषि, पर्यटन एवं धर्म सम्बंधी अनेक जानकारी हमें प्राप्त हुआ । . कामख्या  सांवैधानिक एवं पुरातन  दृष्टि से शक्तिपीठ  है ।  कामख्या  का प्रधान, निशान व विधान , रहन-सहन, बोली-भाषा और वेशभूषा और उपासना स्थल मनमोहक है ।
 नीलांचल  की गोद में बसा गुवाहाटी और कामाख्या  अपनी प्राचीन संस्कृति के लिए जाना जाता है और अपनी प्राकृतिक सुन्दरता  के कारण  पर्यटकों की पसंदीदा जगह है । असम कृषि प्रधान राज्य  की मुख्य फसल धान व मक्का और चाय  है । 9 जुलाई 2023 को रात्रि 8:  .00 बजे जहानाबाद रेलवे स्टेशन रेलगाड़ी द्वारा पटना राजेन्द्र नगर टर्मिनल जक्शन 11 : 00 रात्रि पहुँचा था । राजेंद्र नगर टर्मिनल पटना रेलवे स्टेशन से  रात्रि 11: 15 बजे 13248 कामख्या कैपिटल एक्सप्रेस   रेलगाड़ी द्वारा फतुहा ,वख्तियापुर ,न्यू बरौनी ,खगड़िया ,मानसी ,काढ़ागोला , कटिहार ,बारसोई ,सिलीगुड़ी न्यूमाल होते हुए 953 किमि दूरी तय करते हुए  कामख्या रेलवेस्टेशन कामाख्या पर 10 जुलाई 2023 को  रात्रि  10 : 30 बजे मैं  कामख्या रेलवेस्टेशन पंहुंच गया था । असम की वादियों में चाय बागान एवं कसैली के वृक्ष देखने मे अच्छा लगा । मेरे साथ पंजाब नेशनल बैंक के सेवानिवृत्त पदाधिकारी सत्येंद्र कुमार मिश्र थे ।   हम लोग रात्रि 11 बजे कामख्या रेलवेस्टेशन के रेस्टोरेंट में पहुंच कर खाना खाया बाद में कामख्या रेलवेस्टेशन का  यात्री ठहराव के लिए होटल में जगह नहीं रहने के कारण स्टेशन के प्लेटफॉर्म पर रातें गुजारनी पड़ी थी । कामाख्या स्टेशन से 11 जुलाई 2023 को  4 : 50 सुबह स्टेशन परिसर  से  6 किमि दूरी तय करने के लिए चार पहिया वाहन के माध्यम से कामख्या पहुँच गया था । कामाख्या के बंगला रोड का काका होटल में एक हजार रुपए प्रतिदिन की दर से हम सबके ठहरने के लिए व्यवस्था की गयी थी ।  होटल के कमरे में सामान रखकर सभी ने लगभग सुबह 7 .00 बजे स्नान ध्यान किया । गुवाहाटी के मेरे मित्र  महेशनाथ द्वारा  कामख्या मंदिर से मोबाइल द्वारा खबर दिया गया कि महेशनाथ इंतजार कर रहे हैं । मै और मिश्र जी  के साथ 11 जुलाई को  कामख्या माता के दर्शन एवं मंदिर के बाहर बाजार की रौनक देखने निकल गया । दूकान में कामख्या माता  की  चुनरी , धूपबत्ती , नारियल , अन्य पूजा सामग्री  लिया । दुकानदार एवं कामख्या के निवासी  हिंदी अच्छी तरह समझते  तथा बोलते   है । कामख्या निवासी असमिया और बांग्ला भाषा का प्रयोग करते है । हम मिश्र जी और महेशनाथ 8 बजे समय पर कामख्या मंदिर के कई सीढियां पार करते हुए नारियल फोड़ा , धूपबत्ती जलाया ,  कामख्या मंदिर के गर्भगृह में पहुँच कर माता का दर्शन किया । माता का दर्शन करने के पश्चात कामख्या मंदिर की परिक्रमा करने के बाद बलि स्थल , बाजरंगबली , यज्ञकुंड , माता तारा , माता छिन्नमस्ता का दर्शन किया । मंदिर परिसर में माता कामख्या को अर्पित कबूतर , बकरी एवं खस्सी , बकरे पर नजर पड़े थे । कामख्या मंदिर परिसर में मैं , मिश्र जी और महेशनाथ द्वारा मिश्र द्वारा लिखित दुर्गासप्तशती का पद्यानुवाद का लोकार्पण किया गया था । 11 जुलाई को 2 बजे भोजनालय में तीनों मिलकर खाना खाने के बाद अपने विश्राम स्थल पर आ गया था । होटल में विश्राम करने के बाद संध्या 6 बजे माता कामख्या का दर्शन एवं भोजनालय में भोजन कर 9 बजे रात्रि में होटल आए रात्रि में विश्राम किया । माता कामख्या का 12 जुलाई को 8 बजे सुबह में   कामाख्या स्थित कामेश्वर मंदिर  के गर्भगृह में स्थापित बाबा कमेश्वरनाथ का दर्शन कर माता कामख्या   दर्शन कर की पूरी परिक्रमा की । मैं और मिश्र जी  ने घूम-घूम कर अपने अपने मोबाइल में इस दृश्य को कैद किया ।  कामख्या की  सड़कों पर घूमते हुये जगह जगह हमें  मंदिर एवं कई तरह के रुद्राक्ष , कसैली फल , काली हल्दी , मृगमरीचिका , दुकानें देखने का अवसर मिला था । सड़के साफ स्तर थे । 12 जुलाई को बगलामुखी मंदिर , भुवनेश्वरी मंदिर , उमानंद मंदिर , भैरवी मंदिर के दर्शन का कार्यक्रम बना था । मिश्र जी का एकादशी होने के कारण  उपवास था । मैं , मिश्र जी एवं महेशनाथ   सुबह 10:30 बजे  बस द्वारा उमानाथ मंदिर के लिए रवाना हुए । ब्रह्मपुत्र नदी के मध्य स्थित  उमानंद मंदिर  जाने का यातायात साधन जहाज था । ब्रह्मपुत्र नदी में जल का तीब्र बहाव के कारण जहाज मार्ग  अवरुद्ध था । रोपवे द्वारा उमानंद मंदिर का दर्शन किया । लेकिन वहां पहुंचने में हमें दो   घंटे लग गये. रास्ते भर हरे-भरे पेड़ पौधों से घिरे पहाड़ियों को निहारते  रहे.  ऐसा लग रहा था मानो  पूरा कामख्या नीलांचल  पर्वत  में बसा है । नीलांचल  पर्वत की ऊंचाइयों में दूर-दूर तक एक एक, दो-दो घर दृष्टिगोचर हुये. पहाड़ी के बीच बीच में छोटे छोटे खेत बनाये गये है, 100-200 वर्ग फीट के  खेत दिखाई दिये. जहां जगह मिली लोगों ने थोड़ा  समतल कर खेत बना लिया  है । . वहां के किसान कहीं कहीं धान की कटाई कर रहे ,  कहीं धान की रोपाई . यानी धान की कटाई और रोपाई का काम साथ-साथ चल रहा था. कुछ खेतों में भुट्टे के पौधे  दिखाई दिये.  भुट्टे के पौधों की ऊंचाई 4-5 फीट की हो गई थी । पहाड़ी की ऊपरी सतह से निकलने वाले झरने के  पानी को छोटी-छोटी नालियां बनाकर खेतों में सिचाई की व्यवस्था  की गई  है ।   ब्रह्मपुत्र  नदी में अच्छा खासा पानी था ।  मैं , मिश्र जी एवं महेशनाथ ने बगलामुखी मंदिर के गर्भगृह में स्थित माता बगला गुफा , अन्य तंत्र साधना स्थल का दर्शन और वगुला को देखा । मिश्र जी ने थकावट महसूस करने के बाद वे विश्राम करने होटल चले गए थे । मैं और महेशनाथ ने नीलांचल पर्वत पर न8निर्मित प्राचीन शाक्त स्थल का परिभ्रमण के दौरान ब्रह्मपुत्र नदी , भुवनेश्वरी मंदिर के गर्भगृह में स्थित माता भुवनेश्वरी की उपासना और दर्शन किया । माता भुवनेश्वरी के दर्शन करने के बाद माता भैरवी मंदिर का दर्शन एवं भैरवी कुंड का दर्शन किया था । भैरवी कुंड में मछलियां , कछुए एवं बत्तक तैर रहे थे । दर्शनार्थी द्वारा भैरवी कुंड में स्थित मछलियों , कछुओं और बत्तकों को गुथे हुए आटे , चावल के दाने दे रहे थे । यहाँ अजीव जैसा लगा कि जिस किसी को दाना दिया जता उसे दूसरे जीव शामिल नही होते थे । भैरवी कुंड में रहने वाले जीव में आत्मसम्मान था । माता कामख्या मंदिर का परिक्रमा करने के बाद सौभाग्य कुंड का दर्शन एवं जल पिया ।  सौभाग्य कुंड के दर्शन करने के बाद सौभाग्य मंडप में विश्राम के दौरान चाय पिया । माता छिन्नमस्ता मंदिर परिसर में खिचड़ी और खीर का प्रसाद ग्रहण किया था ।  12 जुलाई को 6 बजे संध्या बस द्वारा  गुवाहाटी में भिन्न भिन्न स्थलों और हवाई अड्डे एवं महेशनाथ जी के घर पहुँचा । महेशनाथ जी का परिवार में उनकी पत्नी एवं पुत्री से बातें हुईं । मुझे उनके परिवार द्वारा अंगवस्त्र , कसैली का फल एवं पान के पत्तों द्वारा सम्मानित किया गया । वहाँ पर नास्ते एवं चाय पीने के बाद 9 बजे कामख्या विश्राम स्थल आ गए । साथ मे महेशनाथ जी थे । 13 जुलाई को तांत्रिक संत एवं मां बगलामुखी के साधक माई महाराज द्वारा मुझे बगलामुखी यंत्र दे कर सम्मानित किया तथा मिश्र जी द्वारा द्वयपायन पुस्तक महाराज जी को समर्पित किया गया । जीवन का अत्यंत   अदभूत छन था  जब हम नीलांचल  के सर्वोच्च शिखर एवं शाक्त सम्प्रदाय के विभिन्न स्थलों एवं ब्रह्मपुत्र नदी की यात्रा पूरी हो चुकी थी । , अब हमें सीधे आनंद विहार ट्रैन  पकड़ना था ।  कामख्या से  दोपहर  12 : 45  बजे पाटलिपुत्र  के लिए ट्रेन  थी । मै और मिश्र जी माता कामख्या का दर्शन कर बिना भोजन किये ट्रेन  में बैठ गए .।  13 जुलाई को कामख्या स्टेशन से 12 : 40 दोपहर में 12505 उत्तरपूर्व एक्सप्रेस द्वारा रंगिया ,बरपेटा ,न्यू बंगाईगाँव ,कोकराझार ,न्यू कोच बिहार ,न्यू जलपाईगुड़ी , , बारसोई होते हुए 14 जुलाई को 873 किमि दूरी तय करने के बाद सुबह 5 : 35 बजे पाटलिपुत्र जंक्शन पहुँचा । पाटलिपुत्र जंक्शन से तिनपहिया वहन से पटना जंक्शन आकर शताब्दी ट्रेन से सुबह 8 बजे जहानबाद पहुँचा था । नीलांचल पर्वत की वादियाँ , मंदिर एवं ब्रह्मपुत्र नदी के तट पर बसे घर एवं ब्रह्मपुत्र नदी में में स्थित  पहाड़ियाँ मनमोहक लग रहा था ।



                         

                   


                        


                        

मंगलवार, जुलाई 25, 2023

यात्रा संस्मरण प्रकृति की गोद में गुप्ताधाम ...

 
घर के बाहर अंधेरा  बेसब्री से सूरज के उगने का इंतज़ार कर रहा है । शायद अंधेरा जानता है कि मेरे लिए कितना खास है। मैंने 17 जुलाई 2023 को  रोहतास जिले का गुप्ताधाम में स्थित  गुप्तेश्वरनाथ का दर्शन करने के लिए निश्चय किया था । मेरे मन मस्तिष्क  में नन्हा बच्चा की तरह उत्साह अपनी माँ - पिता एवं प्राकृतिक छटाओं से मिलने जा रहा हो। 17 जुलाई 2023  को  सुबह के 4:00 बज रहे हैं। हम सूरज का सूरजमुखी की तरह चार पहियों



























गाड़ी  का इंतज़ार कर रहे हैं। चार पहियों का वाहन द्वारा औरंगाबाद से अनुग्रह नारायण रोड रेलवे स्टेशन आया , अनुग्रह नारायण रोड से ट्रेन द्वारा डिहरी , सासाराम होते हुए कुदरा स्टेशन उतरकर टिनपहिया वाहन से चनेरी गया । चनेरी से जीविका औरंगाबाद जिला का ट्रेनिंग ऑफिसर प्रवीण कुमार पाठक एवं मैं मोटरसाइकिल द्वारा दुर्गावती डैम पहुच गया । सुबह 10 बजे औरंगाबाद  से दुर्गावती डैम  पहुंच चुके थे । श्रावण माह भगवान शिव को समर्पित होने के कारण गुप्तेश्वरनाथ का दर्शन करने के लिए श्रद्धालुओं ने श्रावणी का पारंपरिक पोशाक धारण कर जा रहे थे । हंसते-हंसाते, गाते-गुनगुनाते 1 बजे  बजे मोटरसाइकिल द्वारा  गुप्ता धाम  पहुंचे। दुर्गावती डैम पहुँच कर विंध्य पर्वत माला का कैमूर पहाड़ों , दुर्गावस्ती नदी एवं नाइक विहार का नजारा देख कर मन प्रफुल्लित हो गया ।  मोटरसाइकिल पर  में बैठने के बाद  10-12 मिनट बाद रास्ते में पहाड़ियां आना शुरू हो गईं। पहाड़ों की  हवा और झरने अमृत है। ऐसा लग रहा है की मैं प्रकृति की गोद में आ गया हूँ । ऊंचे- ऊंचे पहाड़ों के बदन पर दुर्गावती नदी का किनारा  पर द्विपहिया वहान  एवं श्रद्धालुओं की कतारें  ।  ठंडी-ठंडी हवा के साथ ताज़गी, पेड़ों पर छलांग मारते बंदर, कलरव करती झरने  मानो द्वारपाल की तरह हमारे ऊपर इत्र छिड़क रहे हों। पहाड़ों का सौंदर्य और ताज़गी भरी हवाओं का ऐसा मेल मिलन  से मानो मुझे प्रकृति डांस सीखने का मौका मिल गया हो! प्रकृति का आनंद लेते हुए दुर्गावती डैम से गुप्ताधाम तक 17 किमि दूरी एवं  चार-पांच घंटे बाद गुप्ताधाम की गुफा  पहुंचे । रास्ते में खोवा , दही , चने , फल , लिट्टी चोखे खाया और झरनों के जल से प्यास बुझाई । गुप्ताधाम का दुकान पर द्विपहिया वाहन रखा । दुकान से पैदल गुप्ताधाम की गुप्तेश्वरनाथ का दर्शन करने के लिए चल दिया । अब रोड से  ऊपर  चढ़ाई चढ़ी और विश्व की लंबी चौड़ी गुफा के मुख्य द्वार पर दस्तक दिया । गुफा के अंदर दो-तीन मिनट  के बाद सासें फूलने  शुरू हो गई। गुफा में सासें फूलने के बाद गुफा में बैठ गया । बैठने के जगह पर तीन ऑक्सीजन सिलेंडर पड़ा था परंतु दिखावा मात्र था । अगल बगल प्राकृतिक  शिवलिंग थे । 5 मिनट के बाद बाबा गुप्तेश्वरनाथ के दर्शन करने के लिए गुफा में चलना प्रारम्भ किया । गुफा में चलने पर जल की बूंदे गुफा की दीवारों पर टपक रहा था । गुफाओं की अनुभूति और जल की बूंदें हमे आनंदित कर रहा था । हमें लगभग 200 फिट गुफा में और चलना है। अंततः बाबा गुप्तेश्वरनाथ का दर्शन करने के बाद आनंदित हो गया ।मुझे चलते-चलते गुप्ताधाम में बिताए हुए पल याद आ रहे थे। रास्ते के पेड़, घास, झरने , नदी दुर्गावती की निरंतर प्रवाह , झरनों में स्नान और  चिड़िया  का कलरव की याद आनंद से वशीभूत किया हैं। गुप्ताधाम की हरियाली, साफ हवा और चिड़ियों की आवाज़ सुनकर मेरा मन खुश हो गया। ऐसी चीज़ें शहरों में नहीं के बराबर होती हैं ।







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शुक्रवार, जुलाई 21, 2023

औरंगाबाद की सांस्कृतिक विरासत....


    औरंगाबाद जिले का क्षेत्रफल 338 .9 वर्गकिमि व 1271  वर्गमील  में  1883 गाँव 202 ग्रामपंचायत  , 11 प्रखंड , 2 अनुमंडल , 6 विधानसभा , एक लोकसभा क्षेत्र में २०११ की जनगणना के अनुसार  जनसँख्या 2511243 है।  बिहार राज्य का ओरंगाबाद जिला भारत के राज्यो में पूर्व तरफ की सीमाएं दक्षिण पश्चिम में झारखण्ड ,  औरंगाबाद के अक्षांस और देशांतर क्रमशः 24 डिग्री 75 मिनट उत्तर से 84 डिग्री 37 मिनट पूर्व ,  औरंगाबाद की समुद्रतल से ऊंचाई 108 मीटर है । पटना से 143 किलोमीटर दक्षिण पश्चिम और  दिल्ली से 986 किमि  दक्षिण पूर्व की  है। औरंगाबाद का पश्चिमोत्तर  रोहतास जिले ,  उत्तर पूर्वी अरवल जिले ,  दक्षिण पूर्वी भाग गया ,  दक्षिण पश्चिम  झारखण्ड के जिले पलामू की सीमाओं से घिरा  है। औरंगाबाद जिले के औरंगाबाद, वारुण , दाऊदनगर , देव, गोह, हसपुरा , कुटुम्बा, मदनपुर, नवीनगर , ओबरा, रफीगंज प्रखंड है । यातायात साधन अनुग्रह नारायण रोड रेलवेस्टेशन जाम्भोर से 13 किमि की दूरी , ग्रेंटकरोड के किनारे औरंगाबाद जिले का  मुख्यालय आद्री , देवकुण्ड में बाबा दूधेश्वरनाथ मंदिर ,  नदी के तट पर औरंगाबाद है ।औरंगाबाद जिले के  विधान सभा क्षेत्रो में  गोह, ओबरा, नबीनगर, कुटुम्बा ,  औरंगाबाद, रफीगंज , दाउदनगर मदनपुर   और औरंगाबाद लोकसभा क्षेत्र है । औरंगाबाद जिले का देव प्रखंड के देव स्थित सूर्यमंदिर , सूर्यकुंड , देवराज किला , मदनपुर प्रखंड के उमगा पर्वत समूह की विभिन्न श्रंखला पर सूर्यमंदिर , उमगेश्वरी , शिव मंदिर सहस्त्रशिवलिंगी , व8विष्णु मंदिर , पवई का झुनझुन पहाड़ , नवीनगर का अशोकधाम , औरंगाबाद का धर्मशाला रोड में हनुमान मंदिर , आद्री नदी तट पर शिवमंदिर , सूर्यमंदिर , वारुण स्थिकॉलोनेल डाल्टन द्वारा द्वारा  सोन नद पर 10052 फिट लंबाई युक्त पक्के बांध 9300 फ़ीट जलसंग्रहण  का निर्माण कर फरवरी।  1900 ई. में जनता को समर्पित किया गया ।  दिल्ली सल्तनत का बादशाह औरंगजेब काल में बिहार का सूबेदार दाऊद खां द्वारा 1660 ई. में दाउदनगर की स्थापना सोन नद के किनारे किया गया था । ब्रिटिश साम्राज्य का कॉलोनेल डाल्टन द्वारा क्लॉथ , बरस, ।कारपेट की स्थापना 1871 ई. में की गई थी । गोह का बरारी में शिव मंदिर ,, काली माता का मंदिर , मदनपुर का  मंडा पहाड़ी , नवीनगर का चंद्रगढ़  का निर्माण मेवाड़ के राजा  चंदन राजपूत  द्वारा बसाया गया था ।ब्रिटिश सरकार द्वारा 1694 ई. के राजा राय बहादुर और लेखराज द्वारा निर्मित किले को 1857 ई. में अधीन किया था । पवई में झुनझुन पहाड़ी , रफीगंज की पहाड़ी पर जैन मंदिर , शमशेर नगर का किला , देवकुण्ड का च्यवन ऋषि एवं बाबा दूधेश्वरनाथ मंदिर है । ब्रिटिश सरकार ने 1911 ई. में औरंगाबाद ,नवीनगर और दाउदनगर में राजस्व थाना में ओबरा , मदनपुर , वरुण ,रफीगंज , नवीनगर कुटुंबा , दाउदनगर और गोह पुलिस स्टेशन की स्थापना की थी । ब्रिटिश साम्राज्य द्वारा देव का राजा श्रीमती रानी ब्रिज राज कुमारी  ,  औरंगाबाद का राजा श्री राय अनाथ नाथ बोस , श्री मान मथो नाथ बोस थे । 1763 ई. में सिरिस और कुटुंबा परगना  , 1801 ई. में माली ,पवई परगने की स्थापना की गई थी । परगने का राजा नारायण सिंह थे ।1792 ई . में चारकवां परगना में डुगुल ,देव ,उमगा  परगने का राजा छत्रपति सिंह एवं फतेह नारायण सिंह  थे । मनौरा , अनच्छा और गोह  परगना चौधरी दाल सिंह और तेज सिंह को 1819 ई. दादर और काबर परगाना का नवाब मोजफ्फर जंग 1819 ई. तक थे । आईं ई अकबरी में काबेर परगना का उल्लेख किया गया है । लास्ट डिस्ट्रिक्ट गजेटियर गया 1906 , ब8बिहार  डिस्ट्रीक्ट गजेटियर गया   के अनुसार  ओरंगाबाद अनुमंडल की स्थापना 1865 ई. में कई गयी थी ।
 औरंगाबाद का नामकरण -  देव प्रखंड के अदरी पर्वत से प्रवाहित होने वाली आद्री नदी के तट पर जलोढ़ मैदान में राजा सगर के गुरु ऋषि च्यवन की भार्या आरुषि के पुत्र ऋषि नीतिज्ञ और्व  द्वारा औरव नगर की स्थापना की गयी  थी । महाभारत आदि पर्व अध्याय 179 , ब्रह्मांड पुराण अध्याय 92 , विष्णुपुराण अध्याय 63 एवं 92 ,नारद पुराण के अनुसार और्व ऋषि  मशान नीतिज्ञ के पुत्र रुचिक ने औरवा नगर में और्व आश्रम की स्थापना कर  जनकल्याण किया था । ओरंगाबाद जिले के नदियों में पुनपुन नदी ,अदरी  नदी ,बटाने नदी , सोन नदी मोरहर नदी और बाउर नदी प्रवाहित होती है ।  . बादशाह मुर्तजा निजाम शाह के प्रधानमंत्री मलिक अम्बर द्वारा 1610 ई. में रवरकी स्थल पर औरव को बदल कर  1610 ई. में  रावर्की  बाद में औरंग नामकरण किया गया था । बिहार का सूबेदार दाऊद खां ने रवरकी को नौरंगा बाद में औरंगाबाद कहा जाने लगा है । औरंगाबाद को औरवा , औरव , रावर्की , औरंग , नौरंग कहा जाता था । राजस्थान से चितौड़गढ़ , मेवाड़  के पवई , माली , चन्दनगढ़  में प्रवासी बन कर औरंगाबाद का विकास किया था । 
 उमगा पर्वत समूह -    प्रसिद्ध पर्यटक आकर्षण का केंद्र ओरंगाबाद जिले का मदनपुर प्रखंड में तथा ओरंगाबाद से 24 किमि की दूरी पर उमगा पर्वत श्रंखला के विभिन्न स्थलों पर भगवान सूर्य , गणपति एवं भगवान शिव एवं  वैष्णव मंदिर है  वास्तुकला के से परिपूर्ण है । चामुंडा मंदिर का अवशेष , माता उमगेश्वरी की मूर्ति भारी चट्टानों में गुफ़ानुमा में स्थित , सहस्रलिंग शिव ,  उमा महेश्वर मंदिर है । स्क्कायर ग्रेनाईट ब्लोकों का इस्तेमाल शानदार वैष्णव मंदिर एवं भगवान सूर्य मंदिर का गर्भगृह में  भगवान् गणेश,  भगवान् सूर्य और भगवान् शिव  हैं ।  भारतीय विरासत संगठन के अध्यक्ष साहित्यकार व इतिहासकार सत्येन्द्र कुमार पाठक द्वारा 6 नवम्बर 2022 को उमगा पर्वत श्रृंखला के विभिन्न स्थानों पर अवस्थित विरासतों का परिभ्रमण किया । ओरंगाबाद  जिले के  अनुग्रह नारायण रोड रेलवे स्टेशन से 36 किमि  एवं जिला मुख्यालय ओरंगाबाद से 24  कि0‍मी0 की दूरी एवं  ग्रैण्‍ड ट्रंक रोड से 1.5 कि0मी0 दक्षिण की ओर एवं देव से 12 कि0मी0 की दूरी पर स्थित है उमगा है । उमगा पर्वत समूह का सूर्यान्क गिरि , उमगेश्वरी गिरि , विष्णु गिरि , उमामहेश्वर गिरी पर पत्थर युक्त मंदिर प्राचीन एवं मागधीय संस्कृति की पहचान है । औरंगाबाद जिले के दक्षिण-पूर्व में   देव से 8 मील पूर्व और मदनपुर के नजदीक स्थित उमगा पर्वत समूह है। उमागा गांव को  मुंगा एवं उमगेश्वरी  कहा जाता है, मूल रूप से देव राज की स्थान थी क्योंकि देव राज के विवरण में इसका उल्लेख यहां किया गया था कि इसके संस्थापक स्थानीय शासक परिवार के बचाव में आए थे। खुद को पहाड़ी किले का मालिक बनाकर अपने वश में कर लिया। इसके विद्रोही प्रजा ने स्थानीय राजा  भैरवेंद्र की लड़की से शादी की और देव के लिए जगह छोड़ने से पहले उनके वंशज 150 साल तक यहां रहे। राजा भैरवेंद्र  के समय में रुचि का मुख्य उद्देश्य पहाड़ी के पश्चिमी ढलान पर सुरम्य रूप से स्थित सुंदर  पत्थर का मंदिर है और देश को कई मील तक देख रहा है। मंदिर की ऊंचाई लगभग 60 फीट है और यह पूरी तरह से बिना सीमेंट के वर्गाकार ग्रेनाइट ब्लॉकों से बना है, जबकि छत को सहारा देने वाले स्तंभ बड़े पैमाने पर मोनोलिथ हैं। मंदिर की उल्लेखनीय विशेषता स्तंभों के मुख पर प्रवेश द्वार पर कुछ अरबी शिलालेखों की उपस्थिति है और द्वार के जाम्बे पर बाद में अल्लाह के नाम तक सीमित है। वे मुसलमानों द्वारा उत्कीर्ण किए गए थे, जो कभी मस्जिद के रूप में मंदिर का इस्तेमाल करते थे और उनकी उपस्थिति के लिए मुस्लिम कट्टरपंथियों के विवरण हाथों से इसके संरक्षण को जिम्मेदार ठहराया जा सकता है। बाद के हिंदू भक्तों द्वारा जानबूझकर छीने जाने के कारण उन्हें अब विलोपित कर दिया गया है। मंदिर के बाहर गहरे नीले रंग के क्लोराइट का एक बड़ा तलाव 1439 ईस्वी में भैरवेंद्र द्वारा अपने भाई बलभद्र और उसकी बहन सुभद्रा को जगन्नाथ को समर्पित मंदिर को रिकॉर्ड करता है। इस शिलालेख में उल्लेख है कि उमागा शहर अपने 12 पूर्वजों के शासन के तहत एक ऊंचे पहाड़ की चोटी पर फला-फूला, जिन्होंने संभवतः देश के एक विस्तृत क्षेत्र पर शासन किया था। कैप्टन किट्टू का कहना है कि सरगुजा की पहाड़ियों में एक पत्थर पर पाए गए एक शिलालेख में एक राजा लछमन देव का उल्लेख है, जो उस पहाड़ी प्रमुख के खिलाफ युद्ध में गिर गया था, जिस पर वह हमला करने गया था और पंक्ति के तीसरे लच्छमन पाल के साथ उसकी पहचान करता है। फतेहपुर के पास पूर्व में लगभग 45 मील की दूरी पर भगवान शिव का एक पुराना मंदिर है जो एक प्राचीन तालाब और खंडहर के साथ सिद्धेश्वर महादेव से टकराया है और उमागा के उत्तर पश्चिम में लगभग 4 मील की दूरी पर संध्याल में इसी नाम का एक और मंदिर है। इस बात की पूरी संभावना है कि इन मंदिरों का निर्माण छठी पंक्ति के राजा शांध पाल ने करवाया था। इसके अलावा उत्तर पूर्व में 30 मील की दूरी पर कोंच का प्राचीन कोचेश्वर  मंदिर, जो कि उमागा में भैरवेंद्र से मिलता-जुलता है। ऐसा प्रतीत होता है कि इन प्रमुखों का प्रभुत्व गया और हजारीबाग में एक बड़े क्षेत्र में फैला हुआ था। जनार्दन के वंशज भैरवेंद्र के दरबार के एक पंडित थे, जिनका उल्लेख शिलालेख के रचयिता के रूप में किया जाता है, वे लोग उमगा पूर्णाडीह में रहते थे । उमगा का राजा भवेंद्र थे । 
मंदिर के दक्षिण में बड़ा पुराना तालाब है, जिसके उत्तर और दक्षिण में पत्थर की सीढ़ियाँ हैं, जिसका पुराना किला अभी भी खड़ा है। पहाड़ी के ऊपर उसी शैली में एक और मंदिर के खंडहर हैं। पहले से ही उल्लेख किया गया है और पास में एक विशाल बोल्डर के साथ एक जिज्ञासु छोटी वेदी है जिसके नीचे अभी भी बकरियों और अन्य जानवरों की बलि दी जाती है। मंदिरों के कई अन्य खंडहर पहाड़ियों पर बिखरे हुए हैं और ग्रामीणों के अनुसार एक समय में वहां 52 मंदिर थे। .उमगा का प्रमुख सूर्य मंदिर के गर्भगृह में भगवान सूर्य , गणपति और भगवान शिव है । सूर्यमंदिर के प्रकोष्ठ में सूर्य मंदिर का इतिहास का शिलालेख  एवं भजन उपासना की जाती है । सूर्यमंदिर परिसर में भूस्थल से से लगभग 600 सीढ़ियों से जाया जाता है । सूर्यमंदिर के बाद भगवान शिव का सहस्तरलिंगी शिवलिंग , गणेश जी का मंदिर है । सहस्त्र लिंगी शिव मंदिर के रास्ते से माता चामुंडा का भग्नावशेष मंदिर , भालुकामयी चट्टान गुफा में माता उमगेश्वरी की मूर्ति एवं बंदर का निवास है ।  विष्णु मंदिर जाने का रास्ता संकीर्ण पहाड़ी से जाना होता है । पत्थर युक्त  विष्णु मंदिर का गर्भगृह में भगवान विष्णु की मूर्ति एवं बरामदा है । विष्णु मंदिर से 1100 फिट की ऊँचाई पर भगवान शिव , माता उमा , गणेश , कार्तिक मुर्ति है । बंगाल की एशियाटिक सोसाइटी के जर्नल में कैप्टन किट्टी द्वारा संदर्भ लेख भाग 11 खंड 1847, भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण खंड 141 से 141 और उमगा पहाड़ी शिलालेख बाबु परमेश्वर दयाल जर्नल ऑफ द एशियाटिक सोसाइटी ऑफ बंगाल खंड 2 पृष्ठ 03, 1906, बिहार जिला गजेटियर्स गया 1957. पी द्वारा पी सी रॉय चौधरी और एनजीएएल जिला गजेटियर ऑफ गया 1906 द्वारा एल .एस .एस . ओ' मॉlली आई . सी . एस . ने उमगा हिल पर बने प्राचीन मंदिरों एवं मूर्तियों का उल्लेख किया है ।
देव की  विरासत - बिहार का औरंगाबाद जिले के देव प्रखंड में औरंगाबाद से 6 मील दक्षिण पूर्व में स्थित सौरसम्प्रदाय का प्रमुख स्थल देव है। देव में भगवान सूर्य को समर्पित सूर्य  मंदिर  है। सूर्य पुराण के अनुसार ब्रह्म कुंड में स्नान करके कुष्ठ रोग से उबरने के बदले में राजा और द्वारा मूल सूर्य मंदिर की मरम्मत की गई थी। इस मंदिर को मुसलमानों ने अपनी विजय के मद्देनजर तोड़ दिया था और कहा जाता है कि इसका पुनर्निर्माण कुछ हुंडू राजा ने किया था जिनके बारे में कोई निश्चित जानकारी नहीं है।  भगवान सूर्य की पूजा और ब्रह्म कुंड में स्नान करने का धार्मिक महत्व राजा और के समय से पता चलता है। स्नान कार्तिक और चैत्र शुक्ल पक्ष में मनाई जाने वाली  छठ पर आस-पास और पड़ोसी जिलों के लोग छठ पर्व से दो या एक दिन पहले हजारों की संख्या में आते हैं और अगले दिन तक वहीं रहते हैं। सूर्य मंदिर का निर्माण राजा एल द्वारा  अखंड पैटर्न में किया गया है। प्रत्येक स्लैब को लोहे के खूंटे से जोड़ा गया है और कलात्मक रूप से छवियों और अन्य कारीगरी में उकेरा गया है। सूर्य मंदिर के शीर्ष पर स्लैब में कमल की नक्काशी वाले गुंबदों के निर्माण ने बोधगया और पुरी के मंदिरों से एक महान प्रगति की। होगा । मंडप मंदिर के सामने  मंडप का निर्माण किया गया है जिसका निर्माण सूर्य मंदिर के निर्माण से पुराना लगता है। गणेश की एक छवि, सूर्य मंदिर की दीवार पर खुदी हुई है। सूर्य मंदिर के गर्भगृह में स्थित  मंच पर अगल-बगल तीन मूर्तियाँ हैं जिनके सामने एक रथ खींचने वाला घोड़ा भी खुदा हुआ है। मंडप के अंदर कुछ शिलालेख हैं। उसी प्रकार का सूर्य  मंदिर उमागा सूर्य मंदिर के सदृश्य  है । देव राज परिवार के बारे में कहा जाता है कि वे इस स्थान पर स्थानांतरित हो गए थे। देव बिहार के सबसे पुराने परिवारों में से एक देव राजा के वंशज  उदयपुर के राजस्थान में अपने वंश का जुड़ाव  हैं। पारिवारिक परंपरा के अनुसार उदयपुर के राणा के छोटे भाई महाराणा राजभान सिंह ने पंद्रहवीं शताब्दी में जगन्नाथ के मंदिर के रास्ते में उमागा में डेरा डाला था। एक पहाड़ी किला था। जिनमें से प्रमुख एक बूढ़ी और असहाय विधवा को छोड़कर मर गया, जो अपने विद्रोही विषयों पर आदेश रखने में असमर्थ थी। भान सिंह के आने की बात सुनकर उसने उसे अपने बेटे के रूप में अपनाते हुए खुद को अपनी सुरक्षा में लगा लिया। उसने जल्द ही खुद को छवि किले का स्वामी बना लिया और घटना के विद्रोह को शांत कर दिया। उसकी मृत्यु के बाद उसके दो वंशजों ने वहां शासन किया लेकिन बाद में परिवार की वर्तमान सीट के पक्ष में किले को छोड़ दिया गया। देव  राजा राजा छत्रपति ने अंग्रेजों की मदद की थी। वारेन हेस्टिंग्स और बनारस के राजा चैत सिंह के बीच की प्रतियोगिता में देव राजा इतने बूढ़े हो गए थे कि उनका बेटा फतेह नारायण सिंह मेजर क्रॉफर्ड के अधीन सेना में शामिल हो गए और बाद में पिंडारियों के साथ युद्ध में अंग्रेजों की सहायता की। पूर्व सेवा के लिए युवा राजा को ग्यारह गांवों का नंकार या किराया मुक्त कार्यकाल दिया गया था और उनकी बाद की सेवाओं को राजा पलामू के साथ पुरस्कृत किया गया था, जिसे बाद में औरंगाबाद जिले के गांवों में बदल दिया गया था, जिससे रुपये की आय हुई। 3000 प्रति वर्ष राजा फतेह नारायण सिंह के उत्तराधिकारी घनश्याम सिंह थे जिन्होंने सरगुजा में विद्रोहियों को ब्रिटिश सेना के साथ मैदान में उतारा था । उन्हें पलामू के राज में दूसरी बार पुरस्कार मिला। उनके बेटे राजा मित्र भान सिंह ने छोटानागपुर में कोल विद्रोह को दबाने में अच्छी सेवा की और उन्हें रुपये की छूट के साथ पुरस्कृत किया गया। देव एस्टेट से होने वाले सरकारी राजस्व से 1000 रु. 1857 के निर्देशों के दौरान राजा के दादा जयप्रकाश सिंह की सेवाएं, जिन्होंने अपने सैनिकों को छोटानागपुर भेजा था, उन्हें महाराजा बहादुर की उपाधि से सम्मानित किया गया था, जो कि भारत के स्टार का नाइटहुड और एक जागीर या किराया मुक्त कार्यकाल का अनुदान था। अंतिम आरजे की मृत्यु 16 अप्रैल 1934 को हुई थी और उनकी विधवा को उनके उत्तराधिकारी के रूप में छोड़ दिया गया था। संपत्ति 92 वर्ग मील में फैली हुई है और 1901 और 1903 के बीच सर्वेक्षण और निपटान के तहत लाया गया था। बिहार भूमि सुधार अधिनियम के अधिनियमन के साथ देव राज की जमींदारी राज्य को पारित कर दी गयी थी । 
हसपुरा प्रखंड के हिरण्यबाहु नदी के किनारे प्रितिकुट (, पिरु ) के संस्कृत साहित्य के गद्यकार बाण भट्ट  द्वारा 643 ई. हर्षवर्द्धन काल में कादम्बरी एवं हर्षचरित एवं मयूर भट्ट ने दाउदनगर का मायर नगर बस कर सूर्य शतक की रचना कर सौर सम्प्रदाय में भगवान सूर्य की उपासना की । हर्षवर्द्धन शासन काल में औरंगाबाद के विभिन्न क्षेत्रों में सूर्योपासना का केंद्र बने थे । चंद्रगुप्त द्वारा उत्तरापथ निर्माण कर औरव नगर का विकास किया जिसे जी टी रोड के नाम से जाना जाता हैं । शाहगंज में सीता थापा मंदिर , अमझर में बगदाद के सूफी संत हजरत मखदूम सैयद मोहम्मद कादरी के नाम पसर अमझर शरीफ , कुटुंबा प्रखंड के चतरा में पंचदेव धाम ,अम्बा में सतबहिनी मंदिर ,नवीनगर का गजना में गजनेश्वरी मंदिर नवीनगर के संगत में माता गुजरी , शोख़बाबा ,परसा में क्सल्पवृक्ष धाम है । देव राजा जगन्नाथ प्रसाद किंकर  का  सूर्य उपासना एवं गीत , करहरी के गंगाधर शास्त्री की  चित्रबन्ध काव्य , भवानीपुर के कमाता प्रसाद सिंह काम , शंकर दयाल सिंह की साहित्यिक कृतियाँ एवं , बेलाइन निवासी सुरेंद्र प्रसाद मिश्र की समकालीन जबाबदेही है । औरंगाबाद से प्रकाशित पत्रों में  रामनरेश मिश्र की चित्रा दर्पण  , एवं अन्य साहित्यकारों द्वारा मुक्तकंठ ,पुण्या और मातृका  है । बिहार के मुख्यमंत्री सत्येंद्र नारायण सिंह , वितमंत्री अनुग्रह नारायण सिंह की जन्मभूमि और कर्मभूमि रही थी ।


                       

                   

            


             

                  

                 

मंगलवार, जुलाई 18, 2023

रोहतास की सांस्कृतिक विरासत ....



बिहार राज्य का  शाहाबाद जिले से विभाजित 3847. 82 वर्गकिमी व 1487 वर्गमील  में फैले 2011 जनगणना के अनुसार 2962593 आवादी वाले  रोहतास जिले का सृजन 1972 ई.  में  किया गया था। रोहतास जिले का प्रशासनिक एवं जिला मुख्यालय सासाराम है। रोहतास जिले में सासाराम में शेरशाह का मकबरा , कैमूर पर्वत की व8भिन्न भिन्न श्रंखला पर   मां तारा चंडी ,रोहतास गढ़ , मंझार कुंड , धुवाकुण्ड ,करमचंद पहाड़ी ,दारी गाँव पहाड़ , गुप्तेश्वरनाथ का गुफा , विक्रमगंज का मां अस्कामिनी , धारुपुर का मां काली मंदिर  दर्शनीय स्थल है। जिले के अनुमंडल में डेहरी आन सोन, बिक्रमगंज और सासाराम है। सतयुग में  सूर्यवंशीय  राजा सत्यहरिश्चंद्र की भार्या रानी शव्या के  पुत्र रोहिताश्व द्वारा स्थापित रोहतासगढ़ है ।प्रसिद्ध इतिहासकार कर्नल टॉड के अनुसार  रोहतास क़िला का निर्माण कुशवंशी  लोगों ने करवाया है। मुगल बादशाह अकबर ने 1582 ई. द्वारा रोहतास, सासाराम, चैनपुर सहित सोन के दक्षिण-पूर्वी भाग के परगनों- जपला, बेलौंजा, सिरिस और कुटुंबा शामिल थे। रोहतास, सासाराम और चैनपुर परगनों  को मिलाकर 1784 ई. में रोहतास जिला बना और 1787 ई. में रोहतास जिला शाहाबाद जिले का अंग हो गया।  शाहाबाद से अलग होकर रोहतास जिला पुनः अस्तित्व में  10 नवंबर 1972  में आ गया।  भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण की स्थापना 1861 ई. में ब्रिटिश साम्राज्य ने अलेक्जेंडर कनिंघम पुरातात्विक सर्वेयर नियुक्त होने के बाद  1882 ई. में सासाराम स्थित शेरशाह रौजे का जीर्णोद्वार हुआ। त्रेतायुग में हैहय वंशीय राजा सहस्त्रबाहु द्वारा सहसराम बाद में सहस्त्रराम की स्थापना की गई थी । रोहतास जिले का  उत्तर और उत्तर-पूर्व में सासाराम का मैदान,जलोढ़ मैदान की  ऊँचाई उत्तर में समुद्र तल से ७२ मीटर से लेकर दक्षिण में समुद्र तल से १५३ मीटर तक है। मैदानी इलाकों में दिनारा, दावत, बिक्रमगंज, नासरीगंज, नोखा और डेहरी ब्लॉक के साथ-साथ सासाराम, शिवसागर और रोहतास प्रखंड  हैं। जिले के दक्षिणी भाग में समुद्र तल से 300 मीटर ऊँचाई पर रोहतास पठार विंध्य पठार का पूर्वी किनारा है, । नौहट्टा, रोहतास, शिवसागर , सासाराम और चेनारी प्रखंड  क्षेत्र पहाड़ी है । रोहतास जिले के प्रखंडों में कोचस , दिनारा ,दावथ ,सूर्यपुरा ,विक्रमगंज ,काराकाट   ,काराकाट ,नासरीगंज ,राजपुर ,संझौली ,नोखा ,करगहार ,चेनारी ,नौहट्टा ,शिवसागर ,सासाराम , अकोरी गोला ,देहरी ,तिलौथु , रोहतास है । साक्षरता दर 2011 के अनुसार  रोहतास जिले में 73.37% में महिलाओं की तुलना में पुरुषों के लिए साक्षरता दर अधिक थी: 82.88% पुरुष और 62.97% महिलाएं है। रोहतास जिले के निवासी हिंदी और भोजपुरी भाषी है । रोहतास जिला कैमूर वन्यजीव अभयारण्य का सृजन 1982 ई. में क्षेत्रफल 1,342 कि॰मी2 व 518.1 वर्ग मील किया गया है ।
गुप्ताधाम -  रोहतास जिले के चेनारी प्रखंड में विंध्य पर्वतमाला के कैमूर पर्वत की गुप्त पर्वत श्रंखला एवं दुर्गावती नदी के तट पर स्थित एवं  कैमूर समुद्र तट से दक्षिण में सासाराम से 12 मील और शेरगढ़ से दक्षिण-पूर्व में  8 मील की दूरी पर 500 मीटर गुप्त। गुफा में बाबा गुप्तेश्वरनाथ अवस्थित है। गुप्त गुफा के अंदर  चट्टान पर नीबू आकार से युक्त भगवान शिव-का स्टैलेंगाइट शिवलिंग के रूप में बाबा  गुप्तेश्वरनाथ प्राकृतिक रूप में स्थापित है।  कैमूर पर्वत के पूर्वी तट पर  निश्चित मार्ग में  गुफा के  प्रवेश द्वार 18 फीट और 12 फीट ऊंचाई युक्त  अंदर का रास्ता अंधेरा, विचित्र , रहस्यमयी  गुफा के अंदर 363 फीट अंदर जाने के बाद पाताल गंगा है । गुप्तेश्वरनाथ शिव-लिंग प्रकृति निर्मित चरित्र शिव-लिंग  हजारों वर्षों से गिरी हुई गुफा के शीर्ष पर स्थित चट्टानी पत्थर से निर्मित   स्टैलेग्माइट्स कैमूर ऑप्रेशन भरा  है। चूने के साथ पानी की बौछार ऊपर से नीचे गिराने के कारण गुप्तेश्वरनाथ शिवलिंग   स्टैलासिटीज निर्मित  ऊपर से नीचे की ओर लटकी हुई है। चूने की प्रचुरता के कारण स्टैलेग्माइट सफेद होते हैं। बाबा गुप्तेश्वरनाथ पर ऊपर से जल  की बूंदें गिरीती रहती हैं । सनातन धर्म की शिव पुराण एवं लिंगपुराण एवं भिन्न भिन्न भिन्न ग्रंथों के अनुसार अनुसार विंध्य पर्वतमाला की कैमूर का गुप्त श्रंखला पर अवस्थित  गुफा के नाचघर और घुड़दौड़ मैदान के बगल में स्थित पताल गंगा के पास दीवार पर उत्कीर्ण ब्राह्मी लिपि शिलालेख बाबा गुप्तेश्वरनाथ एवं अन्य स्थलों का उल्लेख है । गुप्तेश्वर गुफा में ऑक्सीजन की कमी रहती है । 1989 ई. में श्रद्धालुओं को ऑक्सीजन की कमी होने के कारण 6 श्रद्धालुओं की मौत होने के बाद ऑक्सीजन सिलेंडर रखा गया है । गुप्ता धाम की सनातन धर्म ग्रंथों के अनुसार दैत्यराज भस्मासुर ने भगवान् शिव की कठिन तपश्या करने के दौरान दैत्यराज भस्मासुर के तपस्या को देखकर भगवान् शिव प्रशन्न हो गए। भगवान् शिव ने भस्मासुर से कहा की हम तुम्हरी तपश्या से प्रसन्न है । दैत्यराज भस्मासुर ने कहा की प्रभु हमें ऐसा वरदान दीजिये की जिस किसी के सिर पर हाथ रखे वो तुरंत भष्म हो जाये । भोले नाथ ने कहा तथास्तु। कैमूर जिला में स्थित हरसू ब्रह्म के दर्शन करने से भूत-प्रेत बाधा से मुक्ति मिलती है । भस्मासुर मां पार्वती के सौंदर्य पर मोहित होकर शिव से मिले वरदान की परीक्षा लेने उन्हीं के सिर पर हाथ रखने के लिए दौड़ा। जहां से भाग कर भगवान शिव यहीं की गुफा के गुप्त स्थान में छुपे थे। भगवान विष्णु से शिव की  विवशता देखी नहीं गयी और उन्होंने मोहिनी रूप धारण कर भस्मासुर का नाश किया। उसके बाद गुफा के अंदर छुपे भोलेदानी बाहर निकल गए थे । गुप्त गुफा  में गहन अंधेरा है । प्रकाश के भीतर जाना संभव नहीं है । पहाड़ी पर स्थित गुफा का द्वार 18 फीट चौड़ा और 12 फीट ऊंचा मेहराबनुमा है. गुफा में लगभग 363 फीट अंदर जाने पर बहुत बड़ा गड्ढा है, जिसमें सालभर पानी रहता है. श्रद्धालु इसे ‘पातालगंगा’ कहते हैं. गुफा के अंदर प्राचीन काल के दुर्लभ शैलचित्र हैं ।. शाहाबाद गजेटियर  एवं  फ्रांसिस बुकानन  के अनुसार गुफा में जलने के कारण उसका आधा हिस्सा काला होने के सबूत देखने को मिलते हैं। रोहतास जिला मुख्यालय सासाराम से 60 किलोमीटर दूरी पर स्थित गुप्ताधाम गुफा  में पहुंचने के लिए रेहल, पनारी घाट और उगहनी घाट से तीन रास्ते अतिविकट और दुर्गम रास्ता है । दुर्गावती नदी डैम से  पार कर पांच पहाड़ियों की यात्रा करने के बाद लोग गुप्ता धाम पहुंचते हैं ।  गया वाराणसी रेलवे लाइन का कुदरा स्टेशन से छोटी बड़ी वाहन , मोटरसाइकिल , पैदल दुर्गावती डैम तक श्रद्धालु जाकर द्वयपहिया या पैदल गुप्ताधाम तक दुर्गावती नदी के किनारे प्रकृति झरनों और जंगलों तथा विभिन्न प्रकार के वृक्षों और पर्वतों के मध्य में चल कर 17 किमि दूरी यात्रा कर श्रद्धालु गुप्ता धाम की यात्रा कर गुप्तेश्वरनाथ का दर्शन करते है । साहित्यकार व इतिहासकार सत्येंद्र कुमार पाठक द्वारा  17 जुलाई 2023 को करने के दौरान गुप्ताधाम के विभिन्न स्थानों का परिभ्रमण किया गया । परिभ्रम के दौरान जीविका औरंगाबाद जिले का प्रशिक्षण पदाधिकारी प्रवीण कुमार पाठक साथ है । निर्देशांक: 24.9156° उत्तर 83.79684° पूर्व एवं 2011 जनगणना के अनुसार 131528 आवादी वाला व 190 .52 वर्गकिमी में 153 गाँव में  फैले चेनारी प्रखंड का अधिकांश भाग रोहतास पठार व  पहाड़ी क्षेत्र है ।  विंध्य पर्वत श्रृंखला का पूर्वी भाग भूभाग  ऊबड़-खाबड़ है ।  चेनारी शहर से लगभग 13 किमी दक्षिण में शेरशाह किला  दुर्गावती नदी के सामने पहाड़ी पर है । फ्रांसिस बुकानन ने 1813 ई. में शेरशाह  किले के निर्माण का श्रेय शेर शाह सूरी को दिया था । डिस्ट्रिक्ट गजेटियर शाहाबाद 1957 के लेखक  पीसी रॉय चौधरी के अनुसार किला शेरशाह शासनकाल से पूर्व   है। रोहतासगढ़ पर कब्ज़ा करने के बाद , शेरशाह ने शेरगढ़ में पहले से मौजूद किले को रक्षा की दूसरी पंक्ति के रूप में पुनर्निर्माण  किया था । शेरकिला का निर्माण चेरो शासकों द्वारा किया गया जिसे शेरशाह ने शेर किला का पुनर्निर्माण किया था । शेर किला को चेर किला को शेरकिला कहा गया है ।  शेरगढ़ को चेरगढ़ , शेरगढ़ है।  तुतला भवानी मंदिर -  तिलौथू से  8 किमी पर स्थित तुतराही  दक्षिण-पश्चिम में  विन्ध्यपर्वतमाला  की कैमूर पहाड़ी की घाटी में  रोहतास जिले का उत्तर-पश्चिम और दक्षिण-पूरब की ओर दो ऊँची पहाड़ियों के बिच, एक मील लम्बी तथा हरियाली युक्त  घाटी ,  जल प्रपात और घाटी के मध्य  से कलकल कर बहती कछुअर नदी का जलप्रवाह घाटी पूरब में जहाँ लगभग 300  मीटर चौड़ी है । पश्चिम की ओर सिकुड़ती हुई 50  मीटर (पश्चिम में 180  फीट की ऊंचाई से प्रपात गिरता है। तुतला जल  प्रपात के भीतर  दाएँ  में ऊंचाई पर चबूतरा दक्षिण की ओर से सीढ़ी बनी है। चबूतरे पर माँ जगद्धात्री महिषमर्दिनी दुर्गा की प्रतिमा अवस्थित है। प्रतिमा से दक्षिण में , चट्टान पर ऊपर-नीचे तीन भागों में बँटा शिलालेख नायक प्रताप धवल देव का 01  अप्रैल 1158 ई०, शनिवार (वि० सं० 1214  अंकित है। तुतला मंदिर के गर्भगृह में माता तुतला भवानी स्थापित है । दुर्गावती जलासय -   दुर्गाती या दुर्गौती  और दुर्गावती  बिहार राज्य के कैमुर जिले से प्रवाहित , कर्मनाशा नदी की दुर्गावती  सहायक नदी है। रोहतास का पठार के खादर खोह  से समुद्र तल से 90 मीटर व 295 फिट की ऊँचाई से प्रवाहित होने वाली दुर्गावती नदी है । दुर्गावती का स्रोत कर्मनासा के स्रोत के पूर्व में 11 किलोमीटर (7 मील) की दूरी पर स्तिथ है।  दुर्गावती नदी 6 से 9 मीटर (20 से 30 फीट) चौड़ी चट्टानी पेटा व  14 किलोमीटर (9 मील) उत्तर में बढ़ने के पठार भूमि की चट्टानी सीमा को लांघकर खादर कोह (90 मीटर) की गहरी घाटी के मुख में गिरती है। खदरकोह में  खुद तुर्कन खारवार्स पठार पर उभरतीं और  घाटी के मुख में आकर गिरतीं हैं। खदरकोह में  लोहरा, हतियादुब और कोठस। कर्मनाशा दुर्गावती को दाहिने किनारे की सहायक नदी के रूप में शामिल करती है। रोहतास पठार के छोर पर स्तिथ दुर्गावती जलप्रपात  80 मीटर (260 फ़ीट) ऊँचा जलप्रपात है। दुर्गावती जलाशय व  करमचत बांध कैमुर जिले के करमचत  के समीप एवं रोहतास जिले के चेनारी सीमा स्थित  जल भंडारण बांध है। दुर्गावती  परियोजना के लिए आधारशिला 1976 में केंद्रीय मंत्री जगजीवन राम ने रखी थी । , दुर्गावती जलासय में कुदरा-चेनारी-मलाहिपुर सड़क के माध्यम से पहुंचा जा सकता है।








शुक्रवार, जुलाई 14, 2023

गुवाहाटी की सांस्कृतिक विरासत ...


पुराणों एवं संहिताओं के अनुसार गुवाहाटी का सनातन धर्म का  शाक्त सम्प्रदाय  का क्षेत्र  नीलांचल पर्वतमाला के विभिन्न श्रंखलाओं में ब्रह्मपुत्र नदी के किनारे अवस्थित कामाख्या श्रंखला पर  माता कामख्या मंदिर , तारा मंदिर , क्षिणमस्तिके , केदाररेश्वर मंदिर के गर्भगृह में भगवान केदाररेश्वर शिवलिंग , बगला श्रंखला पर माता बंगला , भुवनेश्वरी श्रंखला पर भुनेश्वरी मंदिर के गर्भगृह में माता भुवनेश्वरी अवस्थित है ।  नीलाचल पहाडी के मध्‍य अवस्थित माता कामाख्या मंदिर  में स्थित  असम राज्‍यमाता कामाख्‍या को कामेश्‍वरी , इच्‍छा की शक्ति के रूप एवं शक्तिपीठ है। माता कामाख्या मंदिर में चट्टान के आकार के रूप में बनी योनि अर्थात माता स‍ती के शरीर के अंग से  रक्‍त का स्राव होता है । माता कामख्‍या का मंदिर को  भूकंप द्वारा नष्ट होने के बाद  माता कामख्‍या के  भक्‍त राजा विश्‍व सिह के उत्तराधिकारी राजा श्रीमान कोच उर्फ  नर नारायण  श्री विष्‍णु ने सन 1556 ई.  को मंदिर का निर्माण करवाने के लिये प्रजा को प्रेरित किया और कामख्या मंदिर का पुनर्निर्माणएवं  रक्षा करने का दायित्‍व स्‍वंय लिया था। सन 1700 ई. में राजा अहोम ने मंदिर का निर्माण विभिन्न प्रकार के पत्‍थरों से मंदिर का निर्माण कराया था । कामख्या मंदिर के प्राचीन दिवालों पर  शिलालेख एवं तांबे से बनी चादरे मंदिरों की दिवालों में लगी है। कामाख्या  मंदिर की पुनर्निर्माण  सन 1897 ई. में कोच बिहार के राजा द्वारा किया गया था । आदिनाथ शिवशंकर का विवाह माता सती से हुआ था। माता सती के विवाह से माता सती के पिता दक्ष प्रजापति  बहुत क्रोधित हुये थे क्‍योंकि राजा दक्ष द्वारा भगवान शिव  पसंद नहीं थे। दक्ष प्रजापति ने  यज्ञ का आयोजन में भगवान शिव को  आमंत्रित नही किया और  अपनी पुत्री माता सती को  नही बुलाया था । माता सती अपने पति की आज्ञा के पालन किये बिना अपने पिताजी के घर पहुंच गईं। वहां उनके पिता ने भगवान शिव को अपमान किया। जिस कारण माता सती भगवान शिव का अपमान सहन नहीं कर पायीं और अपने प्राण देकर अपने आप को अग्नि के हवाले कर आत्‍मदेह कर लिया। इसकी जानकारी भगवान महादेव को प्राप्त होने पर  वे  वहां पर पहुंचे और माता सती की देह लेकर बहुत ज्‍यादा क्रोधित हुऐ और तांडवनृत्‍य करने लगे। यह देखकर  देवी देवता डर के मारे कापने लगे और भगवान भगवन  विष्‍णु की शरण गये एवं उनसे यह वाक्‍य सुनाये की सृष्टि का नास हो जायेगा, प्रभु कुछ उपाये करे। तब उन्हें रोकने के लिए भगवान श्री हरि विष्णु ने सुदर्शन चक्र से माता सती का देह के शरीर के 51 अंग काट दिये थे। जो धरती के विभिन्न स्थानों पर गिरे थे । जिससे माता सती की योनि व  गर्भ जिस स्थान पर गिरा, वहीं पर माता कामाख्या मंदिर का निर्माण हुआ था। सती के यज्ञ में आत्मदाह के बाद ‍‍शिवजी जब समाधि में चले गए, तब दैत्यराज  तारकासुर  ने ब्रह्मा की घोर तपस्या की और उनसे असीम शक्तियां प्राप्त कर तीनों लोकों में अन्याय और अत्याचार मचाने लगा। देवता ब्रम्हाजी के पास गए उनसे तारकासुर से बचाने की प्रार्थना की थी ।,  ब्रह्माजी ने कहा केवल शिव का पुत्र  दैत्य राज तारकासुर का संहार कर सकता है। भगवान  शिव नीलांचल पर्वत की उमानंद श्रंखला पर समाधी में लीन थे। शिवजी की समाधि भंग करने का काम कामदेव को सौंपा गया था । कामदेव ने  शिवजी पर काम  बाण चलाने शिवजी की समाधि भंग  हुई,किंतु अचानक समाधि टूटने से शिवजी क्रोधित होकर तीसरी आँख खोल कर कामदेव को भस्म कर दिया था । कामदेव की पत्नी रति एवं अन्य देवी-देवताओं ने शिव से कामदेव को पुनः जीवित करने की प्रार्थना की थी । भगवान  शिव ने कामदेव को जीवनदान दिया, लेकिन कामदेव का सुन्दर रूप वापस नहीं आया था । कामदेव एवं रति ने शिवजी से पुन: याचना की हे भोलेनाथ इस सौंदर्यहीन जीवन से तो अच्छा हम बिना शरीर के ही रहे। शिव ने  कामदेव एवं रति की प्रार्थना स्वीकार की और कामदेव से शर्त रखी तुम्हें तुम्हारा पुराना रूप प्राप्त जायेगा। नीलांचल पर्वत पर सती के जनन अंग गिरा हैं, उस पर  भव्य मंदिर का निर्माण करना होगा। कामदेव ने शिवजी की शर्त को पूर्ण करने के लिए नीलाचल पर्वत पर कामख्या मंदिर का निर्माण किया। कामख्या  मंदिर कामरूप एव कामाख्या नाम से प्रसिद्द हुआ।माता कामाख्या मासिकचक्र चलता हैं । उस जल में पानी की जगह रक्‍त का रिसाव होता है । माता कामाख्या मंदिर जब तक माता रजस्वला होती हैं, तब मंदिर में प्रवेश वर्जित रहता है। मंदिर के कपाट बंद होने के पहले यहां सफेदसूती वस्‍त्र बिछाया जाता है और जब मंदिर के कपाट खुलते पर  वस्‍त्र लाल रक्‍त से सनाहुआ रहता है।  लाल कपड़े वस्‍त्र को अंबुबाची मेले में आये भक्‍तो को प्रसाद के रूप में बाँटा जाता है। कामख्या मंदिर प्रांगण में योनि रूपी की  समतल चट्टान है जिसकी आराधना व पूजा की जाती है। माता कामाख्या  मंदिर के समीप सौभग्य कुंड है । मंदिर में भक्‍तो की मनोकामना पूरी हो जाने पर भक्‍तगण माता को पशुओं बलि‍ देते है । मंदिर में  मादा पशुओं की बलि नहीं दी जाती है। शक्तिपीठ माता कामाख्या मंदिर में माता कामख्‍या मंदिर दस अवतारो में माता भैरवी, माता धूमावती, माता मातंगी, माता कमला, माता काली, माता तारा, माता भुवने श्वरी, माता त्रिपुरा, माता सुंदरी,  माता बगुला मुखी, माता छिन्नमस्ता का मंदिर  है। भगवान शिव को समर्पित मंदिर में भगवान अघोरा, भगवान केदारेश्वर, भगवान अमरत्सोस्वरा भगवान कामेश्वर, भगवान सिद्धेश्वर मंदिर स्थित है।माता कामख्‍या का प्रसिद्ध अंबुबाची का मेला चार दिनों तक चलता है। माता कामाख्या के मासिक धर्म के कारण प्रसिद्ध है। आषाढ़ महीने के 7 वे दिन माता कामाख्या के मासिक धर्म शुरू होत है और जब माता के मासिक धर्म खत्‍म होने पर मेले आयोजन किया जाता है।  कामख्या मंदिर की उचाई 1 किमी की है । माता कामाख्या देवी मंदिर में जब मेले का आयोजन किया जाता है । ब्रह्मपुत्र नदी के मध्य स्थित नीलांचल पर्वत की उमानंद श्रंखला पर उमानंद का मंदिर है ।  उमानंद  पहाड़ी को  भस्मकुटा व भस्मकला कहा गया  हैं। उमानंद मंदिर में भगवान  महादेव जी को समर्पित है ।उमानंद मंदिर के गर्भगृह में भगवन महादेव व  उमापावर्ती  है। त्रेतायुग में ऋ‍षि वशिष्‍ठ ने अपने अंतिम क्षण अर्थात मृत्‍यु के उपरांत अपना आश्रम  बनाया हुआ था। जिन्‍होंने प्रभु श्रीराम को अपना शिष्‍य स्‍वीकार किया था। गुवाहाटी के दर्शनीय स्थलों में शामिल माता भुवनेस्वरी मंदिर गुवाहटी रेलवे स्टेशन से लगभग ऑठ किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। मंदिर गुवाहटी की नीलाचल पहाड़ियों के कारण बहुत प्रचलित है।  महाभारत ग्के अनुसार राजा पांडु का पांडु हिल्‍स टीला गुहावटी है। पांडु हिल्स टीला पर पांडव पुत्रों द्वारा  गणेश जी आराधना की गयी  थी । पांडव पुत्रों के अज्ञात वास के समय पांचों पण्‍डव ने गुहावटी के नीलांचल पर्वत के  छुपने की शरण ली थी। गुहावटी में  भगवान श्री हरि विष्णु, महादेव भगवान गौतम बुद्ध, एवं   मुस्लिम सुफी संतो का स्थल  गुवाहटी से लगभग 25 से 26 कि . मी. की दूरी पर अवस्थित हैं। कालिका पुराण के अनुसार गुवाहटी जिले का मुख्यालय गुवाहाटी से 12 किमि की दूरी एवं मेघालय सीमा बलटोला का संध्यांचल पर्वत  से प्रवाहित होनेवाली कांता ,संध्या और ललीता नदी के संगम पर स्थित दक्ष प्रजापति की भार्या प्रसूति की पुत्री अरुंधति के पति ब्रह्मा के पुत्र ऋषि वशिष्ठ का मंदिर  है । ऋषि वशिष्ठ। मंदिर एवं भगवान शिव को समर्पित शिवमंदिर के गर्भगृह में वशिष्टेश्वर शिवलिंग स्थापित है । अहोम राजा राजेश्वर सिन्हा द्वारा वशिष्ट मंदिर और शिव मंदिर का निर्माण 1751 ई.में कराया गया था । ऋषि वशिष्ठ ने संध्यांचल पर्वत की गुफा में भगवान शिव की उपासना करते हुए समाधि लिया था । वशिष्ट आश्रम में ऋषि वशिष्ठ की मूर्ति स्थापित है । नीलांचल पर्वत एवं ब्रह्मपुत्र नदी  का भुवनेश्वरी श्रंखला पर 7 वीं शताब्दी में निर्मित भुवनेश्वरी मंदिर के गर्भगृह में माता भुवनेश्वरी विराजमान है ।नीलांचल पर्वत का शुकेश्वर श्रंखला पर  शुकलेश्वर मंदिर का निर्माण अहोम वंश  का राजा स्वर्गदेव परमट सिंह द्वारा 17वीं शताब्दी एवं जनार्दन मंदिर का निर्माण ब्रह्मपुत्र नदी का शुकेश्वर घाट , कटनी पारा स्थित कामदेव श्रंखला पर कामदेव मंदिर तथा नवग्रह मंदिर अवस्थित है ।  साहित्यकार व इतिहासकार सत्येंद्र कुमार पाठक द्वारा 12 जुलाई 2023 , श्रावण कृष्ण दशमी बुधवार विक्रम संबत 2080  को साहित्यकार व इतिहासकार सत्येंद्र कुमार पाठक के साथ पी एन बी के सेवानिवृत्त पदाधिकारी सत्येंद्र कुमार मिश्र एवं गुवाहाटी के महेशनाथ गुवाहाटी परिभ्रमण में प्रमुख भूमिका निभाई। साहित्यकार व इतिहासकार सत्येंद्र कुमार पाठक को कामख्या में  मां बगलामुखी के साधक आचार्य श्री माई महाराज द्वारा श्री बगलामुखी यंत्रम एवं गुवाहाटी के महेशनाथ ने अंगवस्त्र देकर   सम्मानित किया गया ।