शनिवार, फ़रवरी 27, 2021

भोजपुर की सांस्कृतिक विरासत...


        बिहार की सांस्कृतिक विरासत में भोजपुर की सभ्यता की छाप है । भोजपुर जिले का मुख्यालय आरा  बिहार की राजधानी पटना से इसकी दूरी महज 55 किलोमीटर है। आरा  नगर वाराणसी से 136 मील पूर्व-उत्तर-पूर्व, पटना से 37 मील पश्चिम, गंगा नदी से 14 मील दक्षिण और सोन नदी से आठ मील पश्चिम में स्थित है। यह पूर्वी रेलवे की प्रधान शाखा तथा आरा-सासाराम रेलवे लाइन का जंकशन है। डिहरी से निकलने वाली सोन की पूर्वी नहर की प्रमुख 'आरा नहर' शाखा यहाँ से होकर जाती है। आरा को 1865 में नगरपालिका बनाया गया है। गंगा और सोन की उपजाऊ घाटी में स्थित होने के कारण यह अनाज का प्रमुख व्यापारिक क्षेत्र का केंद्र है। रेल मार्ग और पक्की सड़क द्वारा यह पटना, वाराणसी, सासाराम आदि से सीधा जुड़ा हुआ है। 
आरा में राजा मयुरध्वज  का शासन था। महाभारत काल में 'आरण्य क्षेत्र' के नाम से ख्याति रहने के कारण आरा का प्राचीन नाम आरण्य था।  पांडवों ने अपना गुप्तवास बिताया था। जेनरल कनिंघम के अनुसार युवानच्वांग द्वारा उल्लिखित में मगधराज अशोक ने दानवों के बौद्ध होने के संस्मरण स्वरूप एक बौद्ध स्तूप खड़ा किया था। आरा के पास मसार में जैन अभिलेखों में उल्लिखित 'आरामनगर' नगर के लिए गया है। वेदों के अनुसार भ्रजु द्वारा भोजपुर प्रदेश की नीव डालकर अरण्य नगर की स्थापना किया गया । कलान्तर आरा के नाम से जाने लगा है।  बुकानन ने आरा नगर के नामकरण में भौगोलिक कारण बताते हुए कहा कि गंगा के दक्षिण ऊँचे स्थान पर स्थित होने के कारण, अर्थात्‌ आड़ या अरार में होने के कारण, इसका नाम 'आरा' पड़ा। 1857 के प्रथम भारतीय स्वतंत्रतायुद्ध के प्रमुख सेनानी बाबू कुंवर सिंह की कार्यस्थली होने का गौरव भी इस नगर को प्राप्त है।आरा स्थित 'द लिटल हाउस' एक ऐसा भवन है, जिसकी रक्षा अंग्रेज़ों ने 1857 के विद्रोह में बाबू कुंवर सिंह से लड़ते हुए की थी। आरा 1971 के पांचवीं लोकसभा चुनाव तक शाहाबाद संसदीय क्षेत्र के नाम से जाना जाता था। 1
आरा के दर्शनीय स्थलों में आरण्य देवी, मढ़िया का राम मन्दिर , शहर में बुढ़वा महादेव, पतालेश्वर मंदिर, रमना मैदान का महावीर मंदिर, सिद्धनाथ मंदिर प्रमुख हैं। शहर का बड़ी मठिया नामक विशाल धार्मिक स्थान है। शहर के बीचोबीच अवस्थित बड़ी मठिया रामानंद सम्प्रदाय  केन्द्र है। भोजपुर के लोग शिक्षा, साहित्य, संस्कृति और पत्रकारिता के क्षेत्र में अपनी कामयाबी का झंडा बुलंद किया है। आरण्य देवी बहुत प्रसिद्ध है। संवत् 2005 में स्थापित आरण्य देवी का मंदिर आरा में मुख्य आकर्षण का केंद्र है।  महाराजा कॉलेज स्थित वीर कुंवर सिंह का गुफा द्वार है ।
2011 की जनगणना के अनुसार आरा शहर की कुल जनसंख्या 2,61,430 तथा   2,395 किमी² क्षत्रफल में भोजपुरी, हिन्दी भाषी है। ज़िले का मुख्यालय आरा है। भोजपुर जिले के निवासियों का मुख्य व्यवसाय कृषि है। भोजपुर की सीमा दो तरफ से नदियों से घिरी है। जिले के उत्तर में गंगा नदी और पूर्व में सोन इसकी प्राकृतिक सीमा निर्धारित करते हैं।भोजपुर उत्तर में सारण और बलिया (उत्तर प्रदेश), दक्षिण में रोहतास, पूर्व में पटना, अरवल और पश्चिम मे बक्सर जिले की सीमा से घीरा है । भोजपुर जिला को पूर्व में शाहाबाद कहा गया था । जिसको सन् १९७२ में भोजपुर की स्थापना की गई है।  भोजपुर जिले में तीन अनुमण्डल हैं- आरा सदर, पीरो और जगदीशपुर तथा तेरह प्रखण्ड है।  आरण्य देवी  की आराध्य देवी हैं। माँ आरण्य देवी के अलावा महथिन माई(बिहिया), बखोरापुर काली मंदिर स्थल हैं। जैन समाज के  प्रसिद्ध मंदिर  है। भोजपुर में जगदीशपुर है, जहां के बाबू कुंवर सिंह ने पहले स्वतंत्रता संग्राम १८५७ की क्रांति में अंग्रेजो के खिलाफ लड़ाई का नेतृत्व किया था। राजा भोज के वंशज ने भोजपुर प्रदेश की स्थापना कर अरण्य में राजधानी रखा था ।भोजपुरी अपने शब्दावली के लिये मुख्यतः संस्कृत एवं हिन्दी पर निर्भर है ।भोजपुरी जानने-समझने वालों का विस्तार विश्व के सभी महाद्वीपों पर है जिसका कारण ब्रिटिश राज के दौरान उत्तर भारत से अंग्रेजों द्वारा ले जाये गये मजदूर हैं जिनके वंशज अब जहाँ उनके पूर्वज गये थे वहीं बस गये हैं। इनमे सूरिनाम, गुयाना, त्रिनिदाद और टोबैगो, फिजी आदि देश प्रमुख है। भारत के जनगणना (2001) आंकड़ों के अनुसार भारत में लगभग 3.3 करोड़ लोग भोजपुरी बोलते हैं। पूरे विश्व में भोजपुरी जानने वालों की संख्या लगभग ४ करोड़ है.[2] वक्ताओं के संख्या के आंकड़ों में ऐसे अंतर का संभावित कारण ये हो सकता है कि जनगणना के समय लोगों द्वारा भोजपुरी को अपनी मातृ भाषा नहीं बताई जाती है। भोजपुरी प्राचीन समय मे कैथी लिपि मे लिखी जाती थी ।
भोजपुरी भाषा का नामकरण बिहार राज्य के आरा (शाहाबाद) जिले में स्थित भोजपुर नामक गाँव के नाम पर हुआ है। पूर्ववर्ती आरा जिले के बक्सर सब-डिविजन (अब बक्सर अलग जिला है) में भोजपुर नाम का एक बड़ा परगना है जिसमें "नवका भोजपुर" और "पुरनका भोजपुर" दो गाँव हैं। मध्य काल में इस स्थान को मध्य प्रदेश के उज्जैन से आए भोजवंशी परमार राजाओं ने बसाया था। उन्होंने अपनी इस राजधानी को अपने पूर्वज राजा भोज के नाम पर भोजपुर रखा था। इसी कारण इसके पास बोली जाने वाली भाषा का नाम "भोजपुरी" पड़ गया।भोजपुरी भाषा का इतिहास 7वीं सदी से  है । 1000 से अधिक साल गुरु गोरख नाथ 1100 वर्ष में गोरख बानी लिखा था। संत कबीर दास (1297) का जन्म दिवस भोजपुरी दिवस के रूप में भारत में स्वीकार किया गया है और विश्व भोजपुरी दिवस के रूप में मनाया जाता है। भोजपुरी भाषा प्रधानतया पश्चिमी बिहार, पूर्वी उत्तर प्रदेश तथा उत्तरी झारखण्ड के क्षेत्रों में बोली जाती है। इन क्षेत्रों के अलावा भोजपुरी विदेशों में भी बोली जाती है। भोजपुरी भाषा फिजी और नेपाल की संवैधानिक भाषाओं में से एक है। इसे मॉरीशस, फिजी, गयाना, सूरीनाम, सिंगापुर, उत्तर अमरीका और लैटिन अमेरिका में भी बोला जाता है। बिहार : बक्सर जिला, सारण जिला, सिवान, गोपालगंज जिला, पूर्वी चम्पारण जिला, पश्चिम चम्पारण जिला, वैशाली जिला, भोजपुर जिला, रोहतास जिला, बक्सर जिला, भभुआ जिला , उत्तर प्रदेश : बलिया जिला, वाराणसी जिला,चन्दौली जिला, गोरखपुर जिला, महाराजगंज जिला, गाजीपुर जिला, मिर्जापुर जिला, मऊ जिला, इलाहाबाद जिला, जौनपुर जिला, प्रतापगढ़ जिला, सुल्तानपुर जिला, फैजाबाद जिला, बस्ती जिला, गोंडा जिला, बहराईच जिला, सिद्धार्थ नगर,आजमगढ जिला ,झारखण्ड : पलामु जिला, गढ़वा जिला, नेपाल : रौतहट जिला, बारा जिला, बीरगंज, चितवन जिला, नवलपरासी जिला, रुपनदेही जिला, कपिलवस्तु जिला, पर्सा जिला ,गयाना : जार्जटाउन , फिजी  है।  डॉ॰ ग्रियर्सन ने स्टैंडर्ड भोजपुरी कहा है वह प्रधानतया बिहार राज्य के आरा जिला और उत्तर प्रदेश के देवरिया, बलिया, गाजीपुर जिले के पूर्वी भाग और घाघरा (सरयू) एवं गंडक के दोआब में बोली जाती है। यह एक लंबें भूभाग में फैली हुई है।
मधेसी शब्द संस्कृत के "मध्य प्रदेश" से निकला है जिसका अर्थ है बीच का देश। चूँकि यह बोली तिरहुत की मैथिली बोली और गोरखपुर की भोजपुरी के बीचवाले स्थानों में बोली जाती है, अत: इसका नाम मधेसी (अर्थात वह बोली जो इन दोनो के बीच में बोली जाये) पड़ गया है। यह बोली चंपारण जिले में बोली जाती और प्राय: "कैथी लिपि" में लिखी जाती हैहॉग्सन ने इस भाषा के ऊपर प्रचुर प्रकाश डाला है। देवरिया (यूपी), दिल्ली, मुंबई, कोलकभोजपुता, पोर्ट लुईस (मारीशस), सूरीनाम, दक्षिण अफ्रीका, इंग्लैंड और अमेरिका में इसकी शाखाएं खोली जा चुकी हैं।भोजपुरी साहित्य में भिखारी ठाकुर के योगदान के लिए योगदान के लिए भोजपुरी का शकेस्पीयर कहा गया है। उनके लिखे हुए नाटक तत्कालीन स्त्रियों के मार्मिक दृश्य को दर्शाते हैं, अपने लेखों के द्वारा उन्होंने सामाजिक कुरीतियों पर प्रहार किया है। उनके प्रमुख ग्रंथ है:-बिदेशिया,बेटीबेचवा,भाई बिरोध,कलजुग प्रेम,विधवा बिलाप है । महेंदर मिसिर भी भोजपुरी के एक मूर्धन्य साहित्यकार हैं. एक स्वतंत्रता सेनानी होने के साथ साथ महेंदर मिसिर भोजपुरी के महान कवि और पुरबी सम्राट के नाम से जाना जाता है। भारतीयता में भोजपुरी संस्कृति की छाप  है ।


                

मंगलवार, फ़रवरी 23, 2021

कोल संस्कृति: कैमुर...


वैदिक तथा पुराणों के अनुसार कैमूर की संस्कृति में ययाति वंशीय करुरोम के पौत्र अह्लोद के पुत्र कोल ने कोल संस्कृति और कोल (कैमुर )साम्राज्य की स्थापना की है । कोल वंशी कनक के पौत्र क्टतवर्य के पुत्र सहस्त्रार्जुन ने कोल संस्कृति विकास किया। कोल संस्कृति का संरक्षक असुर संस्कृति के रूप मे परिवर्तन असुर राज मुण्ड द्वारा किया गया था ।मुण्ड सम्राज्य मे अराजकतावादी का पस्त करनेवाली माता मुण्डेश्वरी का उदय हुई थी। जिससे प्रदेश में शान्ति मिला था। कैमूर जिले के रामगढ़ का  पंवरा पहाड़ी की 600 फीट उचाई पर मुण्डेश्वरी मंदिर स्थित है I 1812 ई0 से  1904 ई0 के मध्य में ब्रिटिश पुरातत्व वेताओं मे  आर.एन.मार्टिन, फ्रांसिस बुकानन और ब्लाक के अनुसार मुण्डेश्वरी मंदिर स्थित शिलालेख 389 ई0 की है । मुण्डेश्वरी भवानी के मंदिर के नक्काशी और मूर्तियों उतरगुप्तकालीन और पत्थर से निर्मित अष्टकोणीय मंदिर है I  मंदिर के पूर्वी खंड में देवी मुण्डेश्वरी की प्राचीन मूर्ति मुख्य आकर्षण का केंद्र है I माँ वाराही रूप में विराजमान है, जिनका वाहन महिष है I मंदिर में प्रवेश के चार द्वार हैं जिसमे एक को बंद कर दिया गया है और एक अर्द्ध द्वार है I  मंदिर के मध्य भाग में पंचमुखी शिवलिंग मे सूर्य की स्थिति के साथ साथ पत्थर का रंग भी बदलता रहता है I मुख्य मंदिर के पश्चिम में पूर्वाभिमुख विशाल नंदी की मूर्ति अक्षुण्ण है I यहाँ पशु बलि में बकरा  चढ़ाया जाता है परंतु उसका वध नहीं किया जाता है बलि की यह सात्विक परंपरा पुरे भारतवर्ष में अन्यत्र कहीं नहीं है । बिहार के भभुआ जिला केद्र से चौदह किलोमीटर दक्षिण-पश्चिम में स्थित है कैमूर की पहाड़ी। साढ़े छह सौ फीट की ऊंचाई वाली  पहाड़ी पर माता मुंडेश्वरी एवं महामण्डलेश्वर महादेव का एक प्राचीन मंदिर है। मंदिर में तेल एवं अनाज का प्रबंध एक स्थानीय राजा के द्वारा संवत्सर के तीसवें वर्ष के कार्तिक (मास) में २२वां दिन किया गया था। इसका उल्लेख एक शिलालेख में उत्कीर्ण राजाज्ञा में किया गया है। अर्थात्‌ शिलालेख पर उत्कीर्ण राजाज्ञा के पूर्व भी यह मंदिर  है। व पहाड़ी पर स्थित मंदिर भग्नावशेष के रूप में है। पंचमुखी महादेव का मंदिर  ध्वस्त स्थिति में है। इसी के एक भाग में माता की प्रतिमा को दक्षिणमुखी स्वरूप में खड़ा कर पूजा-अर्चना की जाती है। माता की साढ़े तीन फीट की काले पत्थर की प्रतिमा  भैंस पर सवार है।इस मंदिर का उल्लेख कनिंघ्म ने भी अपनी पुस्तक में किया है।  कैमूर में मुण्डेश्वरी पहाड़ी पर   मंदिर ध्वस्त रूप में विद्यमान है। गड़ेरिये पहाड़ी के ऊपर गए और मंदिर के स्वरूप को देखा है।धार्मिक न्यास बोर्ड, बिहार द्वारा इस मंदिर को व्यवस्थित किया गया और पूजा-अर्चना की व्यवस्था की गई। माघ पंचमी से पूर्णिमा तक इस पहाड़ी पर एक मेला लगता है जिसमें दूर-दूर से भक्त आते हैं। चंड-मुंड के नाश के लिए जब देवी उद्यत हुई थीं । चंड के विनाश के बाद मुंड युद्ध करते हुए इसी पहाड़ी में छिप गया था और यहीं पर माता ने उसका वध किया था। अतएव यह मुंडेश्वरी माता के नाम से स्थानीय लोगों में जानी जाती हैं। एक मजेदार बात, आश्चर्य एवं श्रद्धा चाहे जो कहिए, यहां भक्तों की कामनाओं के पूरा होने के बाद बकरे की बलि चढ़ाई जाती है। पर, माता रक्त की बलि नहीं लेतीं, बल्कि बलि चढ़ने के समय भक्तों में माता के प्रति आश्चर्यजनक आस्था पनपती है। जब बकरे को माता की मूर्ति के सामने लाया जाता है तो पुजारी अक्षत (चावल के दाने) को मूर्ति को स्पर्श कराकर बकरे पर फेंकते हैं। बकरा तत्क्षण अचेत, मृतप्राय हो जाता है। थोड़ी देर के बाद अक्षत फेंकने की प्रक्रिया फिर होती है तो बकरा उठ खड़ा होता है। बलि की यह क्रिया माता के प्रति आस्था को बढ़ाती है।
पहाड़ी पर बिखरे हुए पत्थर एवं स्तम्भ को देखते हैं तो उन पर श्रीयंत्र सरीखे कई सिद्ध यंत्र एवं मंत्र उत्कीर्ण हैं। प्रत्येक कोने पर शिवलिंग है। ऐसा लगता है कि पहाड़ी के पूर्वी-उत्तरी क्षेत्र में माता मुण्डेश्वरी का मंदिर स्थापित रहा होगा और उसके चारों तरफ विभिन्न देवी-देवताओं के मूर्तियां स्थापित थीं। खण्डित मूर्तियां पहाड़ी के रास्ते में रखीं हुई हैं या फिर पटना संग्रहालय में हैं। जैसा कि शिलालेख मं◌े उल्लेख है कि यहां का स्थान एक गुरुकुल आश्रम के रूप में व्यवस्थित था। पहाड़ी पर एक गुफा भी है जिसे सुरक्षा की दृष्टि से बंद कर दिया गया है।
इस मंदिर के रास्ते में सिक्के भी मिले हैं और तमिल, सिंहली भाषा में पहाड़ी के पत्थरों पर कुछ अक्षर भी खुदे हुए हैं। कहते हैं कि यहां पर श्रीलंका से भी भक्त आया करते थे। बहरहाल, मंदिर के गर्भ में अभी कई रहस्य छिपे हुए हैं, बहुत कुछ पता नहीं है, बस माता की अर्चना होती है। भक्त माता एवं महादेव की आस्था में लीन रहते हैं। मंदिर की यात्रा के क्रम में ऐसा प्रतीत हुआ कि मंदिर अपने आप में कई अनुभवी आध्यात्मिक स्वरूपों को छिपाये हुए है, बस आवरण नहीं उठ रहा है। लेखक को कई तथ्यात्मक अनुभूतियों से साक्षात्कार हुआ।मंदिर की प्राचीनता एवं माता के प्रति बढ़ती आस्था को देख राज्य सरकार द्वारा भक्तों की सुविधा लिए यहां पर विश्रामालय, रज्जुमार्ग आदि का निर्माण कराया जा रहा है। पहाड़ पर स्थित मंदिर में जाने के लिए एक सड़क का निर्माण कराया गया है, जिस पर छोटे वाहन सीधे मंदिर द्वार तक जा सकते हैं। मंदिर तक जाने के लिए सीढ़ियों का भी उपयोग किया जा सकता है।
कैमूर भारत प्रांत के बिहार राज्य का एक जिला है। यहां का प्राशासनिक मुख्यालय भभुआ है।पर्वत और कैमूर वन्यजीव अभ्यारण यहां के प्रमुख पर्यटन स्थलों में से है। इसके अलावा, रामगढ़ गाँव, दुरौली, चैनपुर, भगवानपुर, भभुआ, बिद्यानाथ और मुंडेश्‍वरी स्टोन मंदिर आदि भी यहां के प्रमुख पर्यटन स्थल है।[2] चट्टानों पर हुई चित्रकारी कैमूर की एक बड़ी खोज है। इन चित्रों का सम्बन्ध मैसोलिथिक काल से है। माना जाता है कि यह चित्रकारी 5000 ई.पू. से 2500 ई.पू. के समय की है। इनमें से कई चित्र जानवरों के बने हुए हैं। कैमूर जिला में मां मुंडेश्वरी का अदभुत मंदिर हैं जिसके चलते यहां काफी पर्यटक आते जाते रहते हैं मां मुंडेश्वरी का मंदिर विश्व का सबसे प्राचीन मंदिरों में से एक हैं यहां से 500m दूरी पर एक गाव है रामगढ़ नाम का जो कि काफी इतिहासिक है यहां का इतिहास और झरने काफी मनमोहक लगते हैं।भारतीय गणराज्य का राज्य बिहार के  ज़िला कैमूर जिला मुख्यालय भभुआ है। कर्मनाशा और दुर्गावटी यहां की दो प्रमुख नदियां है। ऐतिहासिक द़ष्टि से भी यह स्थान काफी महत्वपूर्ण माना जाता है। कैमूर जिला बिहार के बक्सर जिला एवं उत्तर प्रदेश के गाजीपुर जिला के दक्षिण, झारखंड के गढ़वा जिले के उत्तर, उत्तर प्रदेश के चन्दौली एवं मिर्जापुर जिले के पूरब और बिहार के रोहतास जिले के पश्चिम से घिरा हुआ है। 
कैमूर का इतिहास काफी प्राचीन और रूचिकर है। यह जिला छठी शताब्दी ई.पू. से पांचवी शताब्दी ई. तक शक्तिशाली मगध साम्राज्‍य का हिस्सा था। सातवीं शताब्दी में कैमूर कन्नौज के शासक हर्षवर्द्धन के अधीन आ गया। सी. मार्क (इतिहासकार) के अनुसार इस क्षेत्र पर शासन करने वाले प्रथम शासक पाल वंश के थे। उसके बाद चन्दौली का यहां शासन रहा और बारहवीं शताब्दी में ताराचंदी ने कैमूर जिले पर राज किया। अत: यह क्षेत्र कई शासक वंशो के अधीन रहा। कैमूर का तेलहर प्रपात मुख्य आकर्षण प्राशासनिक मुख्यालय भभुआ में देखा जा सकता है जहाँ आपको सबकुछ हरा ही दिखेगा। भभुआ को 'हरित नगर' (हरा शहर) के रूप में पहचान मिल चुकी है। [भभुआ मुख्यालय के पश्चिम से 11 किलोमीटर की दूरी पर चैनपुर स्थित है। यहां बख्तियार खान का स्मारक है। कहा जाता है कि बख्तियार खान का विवाह शेरशाह की पुत्री से हुआ था। चैनपुर स्थित किले का निर्माण सूरी अथवा अकबर काल के दौरान हुआ था, इसी स्मारक के पश्चिम में मुस्लिम दरगाह असमकोटी हैं। इसके अतिरिक्त, यहां हरसू ब्रह्म नाम का एक प्रसिद्ध हिन्दू मंदिर भी है। कहा जाता है कि राजा शालीवाहन के पुजारी हरशू पांडे ने अपने घर की रक्षा में इसी जगह पर अपने प्राण गवाएं थे।तेलहार कुंड भभुआ जिला से २७ किलोमीटर दूरी पर स्थित है, जो की अधौरा(गांव ) के रास्ते में है | मुख्यः रूप से यह एक झरना है जहाँ पहाड़ो से होकर आने वाली पानी गिरता है। कैमूर पर्वत के समीप स्थित भगवानपुर भभुआ के दक्षिण से 11 किलोमीटर की दूरी पर है। कहा जाता है कि यह स्थान चन्द्रसेन सारन सिंह की शक्ति का केन्द्र हुआ करता था। राजा शलिवाहन ने इस क्षेत्र को शेर सिंह से जीत लिया था। लेकिन बाद में अकबर के शासनकाल के दौरान उन्होंने इस क्षेत्र पर पुन: विजय प्राप्त कर ली थी। इसी से सटे लगभग ५किलोमीटर की दूरी पे टेकरा गां व है जो अद्भुत छवि झलकता है ।रामगढ़ गांव अपराध, सुंदर-सुंदर पहाड़, झरना, झील और जिले की शान मुंडेश्‍वरी मंदिर के लिए प्रसिद्ध है। इस मंदिर का निर्माण एक ऊंचे पर्वत पर समुद्र तल से लगभग 600 फीट की ऊंचाई पर किया गया है। यहां से कुछ पुरातत्वीय अभिलेख भी प्राप्त हुए थे, जिनका काफी महत्व माना जाता है। यह काफी प्राचीन मंदिर है। इस मंदिर का निर्माण लगभग 635 ई. में किया गया था। यह जगह समुद्र तल से 2000 फीट की ऊंचाई पर स्थित है। अधौरा, भभुआ से 58 किलोमीटर की दूरी पर है। पर्वतों और जंगलों से घिरे इस स्थल की खूबसूरती देखने लायक है। यहीं कारण है कि काफी संख्या में पर्यटक यहां आना पसंद करते हैं।
बैजनाथ गांव रामगढ़ खण्ड मुख्यालय के दक्षिण से लगभग 9 किलोमीटर की दूरी पर है। यहां पर एक अति प्राचीन शिव मंदिर है। इस मंदिर का निर्माण प्रतिहार वंश ने करवाया था। इस मंदिर में कई प्राचीन सिक्के और अनेक महत्वपूर्ण वस्तुएं मौजूद है। बैजनाथ में स्थित शिव मंदिर का शिखर एक शिला को तराश कर बनाया गया है। मुंडेश्‍वरी मंदिर कैमूर जिले के रामगढ़ गांव में स्थित है। कहा जाता है कि यह मंदिर 636 ई. से ही अस्तित्‍व में है। यह मंदिर गुप्‍त काल की वास्तुशैली का अनोखा उदाहरण है। मुंडेश्वरी मंदिर के तराई में स्थित रामगढ़ गाँव काफी मनमोहक लगता है यह गांव पहाड़ों और प्रकृति के गोद में होने के कारण काफी आकर्षित दिखता है। दरौली गांव रामगढ़ के उत्तर-पूर्व से लगभग आठ किलोमीटर की दूरी पर दरौली स्थित है। यह बहुत ही खूबसूरत स्थान है। दरौली गांव में दो प्राचीन मंदिर है तथा यहां प्राचीन जिले का सर्वाधिक बड़ा तालाब भी है।भभुआ कैमूर जिला का जी.टी. मार्ग के दक्षिण  14 किलोमीटर की दूरी पर जिला मुख्यालय भभुआ  स्थित है। मुंडेश्‍वरी मंदिर से पश्चिम की ओर 6 किलोमीटर की दूरी पर भगवानपुर और चैनपुर के सीमा पर जगदहवां डैम  2 किलोमीटर के दूरी में फैला हुआ  सिचाई के लिए सर्वोत्तम मानी जाती है । जगदहवां डैम से निकला नहर  गेहुँआ नदी में समाहित है और गेहुँआ नदी कर्मनाशा नदी में  मिल जाती हैं। कैमूर की भाषा हिंदी और भोजपुरी है ।

गुरुवार, फ़रवरी 18, 2021

भगवान सूर्य: अवतरणोंत्सव...


भारतीय संस्कृति में माघ मास की शुक्ल पक्ष की अचला सप्तमी का  सौर धर्म तथा सनातन धर्म ग्रथों में महत्व है । अचला सप्तमी को रथ सप्तमी , अरोग्य सप्तमी एवं  सात जन्म के पाप को दूर करने के लिए ,  रथारूढ़ सूर्यनारायण की पूजा की जाती है । साहित्यकार व इतिहासकार सत्येन्द्र कुमार पाठक ने कहा कि भगवान सूर्य द्वारा विश्व को  माघ शुक्ल पक्ष सप्तमी तिथि को सर्व प्रथम प्रकाशित किया गया है । भूलोक में भगवान  सूर्य की  जयंती अचला सप्तमी को मनाने के लिए सौर धर्म द्वारा परंपरा कायम किया गया है । सूर्यदेव की आराधना से  अक्षय फल ,  सुख-समृद्धि एवं अच्छी सेहत का वरदान प्राप्त होता है । रथ सप्तमी  , भगवान सूर्य की अवतरणोंत्सव है। भगवान सूर्य ने  ब्रह्मांड को प्रकाश दिया था। रथ सप्तमी में भगवान सूर्य की उत्तरी गोलार्ध की यात्रा ,  गर्मियों के आगमन को चिह्नित और विश्व के क्षेत्रों में जलवायु परिस्थितियों में बदलाव करते  है।  किसानों के लिए फसल के मौसम की शुरुआत का प्रतीक है। दान-पुण्य कार्य  करने के लिए रथ सप्तमी का त्योहार अत्यधिक शुभ होता है। सूर्य सप्तमी के  पूर्व संध्या पर दान करने से भक्तों को अपने पापों और बीमारी से छुटकारा मिलता है और दीर्घायु, समृद्धि और अच्छे स्वास्थ्य का लाभ मिलता है।  तमिलनाडु के क्षेत्रों में लोग पवित्र स्नान करने के लिए इरुकु पत्तियों का उपयोग करते हैं।  अनुष्ठान को सूर्य स्नान के दौरान भगवान सूर्य के नाम पर पवित्र स्नान करने के बाद किया जाना चाहिए। अर्घ्यदान का  भगवान सूर्य को कलश के माध्यम से जल चढ़ाकर और नमस्कार मुद्रा में खड़े होकर किया जाता है।  भगवान सूर्य के विभिन्न नामों का पाठ करते हुए इस अनुष्ठान को बारह बार करना पड़ता है।अर्घ्यदान करने के बाद, भक्त घी से भरे मिट्टी के दीपक जलाकर रथ सप्तमी पूजा करते हैं और भगवान सूर्य को धूप , कपूर और लाल रंग के फूल अर्पित करते हैं।उसके बाद, महिला श्रद्धालु देवता और उनके दिव्य आशीर्वाद का स्वागत करने के लिए पवित्र चिन्ह के रूप में रथ  और भगवान सूर्य के चित्र खींचती हैं। विभिन्न क्षेत्रों में, महिलाएं समृद्धि और सकारात्मकता के प्रतीक के रूप में अपने घरों के प्रवेश द्वार पर रंगोली बनाती हैं।एक अत्यंत महत्वपूर्ण अनुष्ठान के रूप में, दूध को मिट्टी से बने बर्तन में डाला जाता है और फिर उसे एक दिशा में उबलने के लिए रखा जाता है, जहां वह सूर्य का सामना कर सके। इसे उबालने के बाद, उसी दूध का उपयोग भोग हविष्य को तैयार करने के लिए किया जाता है और बाद में इसे देवता सूर्यदेव को अर्पित किया जाता है। रथ सप्तमी के दिन सूर्यशक्तिम, सूर्य सहस्रनाम, और गायत्री मंत्र का निरंतर जाप करना अत्यधिक शुभ माना जाता है।सूर्य मंदिर और पवित्र स्थान पर भगवान सूर्य की भक्ति में निर्मित किए गए हैं। इन सभी स्थानों पर रथ सप्तमी की पूर्व संध्या पर विशाल समारोह और विशेष अनुष्ठान होते हैं। तिरुमाला तिरुपति बालाजी मंदिर, श्री मंगूज मंदिर, मल्लिकार्जुन मंदिर और आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, तमिलनाडु और महाराष्ट्र , बिहार ,झारखंड के विभिन्न क्षेत्रों में सूर्य मंदिरों में भव्य उत्सव आयोजित किए जाते हैं। रथ सप्तमी की पूर्व संध्या पर भगवान सूर्य की पूजा करने से, भक्त अपने अतीत और वर्तमान पापों से छुटकारा पाते हैं और मोक्ष प्राप्त करने के मार्ग के समीप एक कदम बढ़ाते हैं। सौर धर्म के अनुसार, भगवान सूर्य दीर्घायु और अच्छे स्वास्थ्य को प्रदान करते है ।अचला सप्तमी धार्मिक तौर पर भारत में मनाया जाने वाला बहुत ही मुख्य तथा प्रासंगिक पर्व है। इस पर्व को माघ सप्तमी, रथ सप्तमी, माघ जयंती तथा सूर्य जयंती आदि नामों से भी जाना जाता है। इस दिन भक्त सूर्य देव की पूजा करते हैं जिन्हें भगवान विष्णु का अवतार माना जाता है।शास्त्रों में  कहा गया है कि इसी दिन भगवान सूर्य ने दुनिया को प्रकाशवान किया था। अर्थात सबसे पहले अपना तेज व प्रकाश दिया था और अपने प्रकाश द्वारा सम्पूर्ण ब्रह्मांड को चमकाकर तेजवान कर दिया था।  इस तिथि को सूर्य जयंती के नाम से भी जाना जाता है। कई क्षेत्रों में तो इस पर्व को सूर्य भगवान के जन्मदिवस के रूप में भी मनाया जाता है। हिन्दू कैलेंडर के अनुसार शुक्ल पक्ष के समय माघ के महीने में सातवें दिन या सप्तमी तिथि को रथ सप्तमी का पर्व होता है। 2021 में सूर्य सप्तमी पर्व 19 फरवरी दिन शुक्रवार है। हिन्दू धर्म में अचला सप्तमी को स्वास्थ्य देने वाली तिथि माना गया है जिस वजह से इसे रथ आरोग्य सप्तमी के नाम से भी सम्बोधित किया जाता है।  इस दिन भगवान सूर्यदेव को जल का अर्घ्य देने और उनका पूजन करने से समस्त बिमारियों से छुटकारा प्राप्त होता है। भगवान् सूर्य की भक्ति करने पर पिता और पुत्र के आपसी रिश्तों में मिठास बढ़ती है। रथ सप्तमी का दिन भगवान सूर्य की उत्तरी गोलार्द्ध की यात्रा को दर्शाता है, तथा  गर्मियों की शुरुआत और दक्षिणी भारत के सभी क्षेत्रों में मौसम और जलवायु की बदलने वाली परिस्थितियों का संकेत देता है।  पुराणों में अचला सप्तमी का उल्लेख है कि सतयुग में गणिका थी, उसने अपने सम्पूर्ण जीवन में कभी भी किसी भी प्रकार का कोई दान-पुण्य नहीं किया था। जब गणिका का अंत समय आया, तब वशिष्ठ मुनि के पास जाकर उसने पूछा कि मुक्ति के लिए वह क्या कर सकती है।  वशिष्ठ मुनि ने उससे कहा कि - माघ के महीने में सप्तमी के दिन अचला सप्तमी का व्रत किया जाता है।  सप्तमी के दिन सूर्योदय से पूर्व स्नान कर दीप जलाकर, आक के सात पत्तों को सिर पर रखकर सूर्य भगवान का ध्यान करते हुए गंगा जल को हिलाते हुए इस मंत्र का जाप किया जाता है। नमस्ते रुद्ररूपाय रसानां पतये नमः वरुणाय नमस्तेऽस्तु।।इसके पश्चात दीप को जल में प्रवाहित कर दें और फिर भगवान् शिव तथा माता पार्वती की स्थापना कर विधि द्वारा पूजन करें। तांबे के किसी पात्र को चावल से भरकर उसे दान करें। यह सब ध्यानपूर्वक सुनने के पश्चात गणिका इंदुमती ने वशिष्ठ मुनि के कहे अनुसार रथ सप्तमी का व्रत किया। इसके फलस्वरूप जब उसने अपने शरीर का त्याग कर दिया, भगवान इंद्र ने उसे अप्सराओं की मुख्य नायिका बना दिया। भगवान श्री कृष्ण के पुत्र शाम्ब को शारीरिक सौंदर्य तथा बल, शक्ति आदि पर बहुत घमण्ड था। दुर्वासा ऋषि, जिनका शरीर काफी लंबे समय तक तपस्या करने के कारण बहुत ही दुर्बल व कमजोर हो गया था, भगवान श्री कृष्ण से मिलने आये। तब दुर्वासा ऋषि को देखकर शाम्ब ने उनका बहुत ही मजाक उड़ाया जिससे दुर्वासा ऋषि को बहुत क्रोध आया, और क्रोध में आकर उन्होंने शाम्ब को कुष्ठ होने का श्राप दे दिया। उनके श्राप का प्रभाव शाम्ब पर तुरंत ही हो गया। इससे शाम्ब बहुत विचलित हो उठे। उन्होंने उसका हर तरीके का उपचार भी कराया गया परंतु कोई भी उपचार उनके लिए सही साबित नहीं हुआ। फिर भगवान श्री कृष्ण ने अपने पुत्र शाम्ब को सूर्य देव की उपासना अर्थात सूर्योपासना करने के लिए कहा। अपने पिता की इस सलाह को मानकर शाम्ब ने सच्चे मन से सूर्य देव की उपासना की जिससे बहुत ही जल्दी उनका कुष्ठ रोग दूर हो गया। शाम्ब का रोगग्रस्त से मुक्ति द्वापर युग की अचला सप्तमी में हुईं थी। माघ शुक्ल पक्ष सप्तमी तिथि शुक्रवार 2077 दिनांक 19 फरवरी 2021 अचला सप्तमी , सौर धर्म तथा सनातन धर्म की स्थापना एवं भगवान सूर्य के अवतरणोंत्सव के अवसर पर हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं.

सिद्ध वन बक्सर...


 बिहार के पश्चिम भाग में गंगा नदी के तट पर स्थित कारूष प्रदेश का वेद भूमि बक्सर की अर्थ-व्यवस्था  से खेती पर आधारित है। सातवें वैवश्वत मनु के पुत्र करूष द्वारा कारूष प्रदेश की स्थापना कर बक्सर में वैदिक धर्म की आधारशिला रखी गई थी । बक्सर को सिद्ध वन का राजा विश्वामित्र हुए जिसके द्वारा वैदिक और वैग्यानिक कार्य किया गया था । त्रेतायुग में लंका का अधिपति राण ने ताडका  , मारीच का क्षेत्रों का अधिकारी बनाया था । ताडका ने चैत्रवन की स्थान देकर राक्षसी संस्कृति का कार्य करने में सक्रिय भूमिका निभाई थी और उसके लिए विश्वामित्र की वेदशालाओं को समाप्त कर रही थीं ।चीन काल में इसका नाम 'व्याघ्रसर' था। क्योंकि उस समय यहाँ पर बाघों का निवास हुआ करता था तथा एक बहुत बड़ा सरोवर था जिसके परिणामस्वरुप इस जगह का नाम व्याघ्रसर पड़ा।बक्सर पटना से लगभग ७५ मील पश्चिम और मुगलसराय से ६० मील पूर्व में पूर्वी रेलवे लाइन के किनारे स्थित है। यह एक व्यापारिक नगर  है। यहाँ बिहार का एक प्रमुख कारागृह हैं जिसमें अपराधी लोग कपड़ा आदि बुनते और अन्य उद्योगों में लगे रहते हैं। बक्सर की लड़ाई शुजाउद्दौला और कासिम अली खाँ की तथा अंग्रेज मेजर मुनरो की सेनाओं के बीच १७६४ ई॰ में लड़ी गई थी जिसमें अंग्रेजों की विजय हुई। बक्सर में शुजाउद्दौला और कासिम अली खाँ के लगभग २,००० सैनिक डूब गए या मारे थे। कार्तिक पूर्णिमा को  मेला लगता है, जिसमें लाखों व्यक्ति इकट्ठे होते हैं।
 महर्षि  विश्वामित्र का आश्रम था। बक्सर मेंं भगवान राम और लक्ष्मण को महर्षि विश्वामित्र द्वारा धनुर्विद्या , शस्त्रविद्या , अस्त्रविद्या  शिक्षण-प्रशिक्षण दिया गया था । राक्षस , दानव संस्कृति का  प्रसिद्ध संचालन कत्री ताड़का राक्षसी का वध राम द्वारा किया गया था। 1764 ई॰ का 'बक्सर का युद्ध' भी इतिहास प्रसिद्ध है।  बक्सर के युद्ध (1764) के परिणामस्वरूप निचले बंगाल का अंतिम रूप से ब्रिटिश अधिग्रहण हो गया। मान्यता है कि एक महान पवित्र स्थल के रूप में पहले इसका मूल नाम 'वेदगर्भ' था।  वैदिक मंत्रों के बहुत से रचयिता इस नगर में रहते थे। भगवान राम के प्रारंभिक जीवन से जोड़ा जाता है।
2011 की जनगणना के अनुसार बक्सर ज़िले की कुल जनसंख्या लगभग 1,707,643 है।
बक्सर की लड़ाई मीर कासिम ने अवध के नवाब से सहायता की याचना की, नवाब शुजाउदौला इस समय सबसे शक्ति शाली था। मराठे पानीपत की तीसरी लड़ाई से उबर नहीं पाए थे, मुग़ल सम्राट तक उसके यहाँ शरणार्थी था, उसे अहमद शाह अब्दाली की मित्रता प्राप्त थी जनवरी 1764 में मीर कासिम उस से मिला उसने धन तथा बिहार के प्रदेश के बदले उसकी सहायता खरीद ली। शाह आलम भी उनके साथ हो लिया। किंतु तीनो एक दूसरे पर शक करते थे। बक्सर  प्रसिद्ध देवताओं, देवताओं के युद्धक्षेत्र और पुराणों के अनुसार राक्षसों और आधुनिक इतिहास में विदेशी आक्रमण और देशवासियों के बीच एक युद्ध क्षेत्र के लिए,महाकाव्य कीअवधि से प्रसिद्ध है। पुरातात्विक खुदाई से प्राप्त अवशेष, बक्सर की प्राचीन संस्कृतियों के साथ मोहंजोदरो और हड़प्पा को जोड़ता है। यह स्थान प्राचीन इतिहास में “सिद्धाश्रम”,“वेदगर्भापुरी”, “करुष”, “तपोवन”, “चैत्रथ “, “व्याघ्रसर”, “बक्सर” के नाम से भी जाना जाता था। बक्सर का इतिहास रामायण की अवधि से पहले की है। कहा जाता है बक्सर शब्द व्यघ्रासार से निकला है। ऋषि दुर्वासा के अभिशाप का परिणाम से ,ऋषि वेदशीरा के बाघ के चेहरे को एक पवित्र कुंड में स्नान करने के बाद पूर्वावस्था की प्राप्ति हुआ था । जिसे बाद में व्याघ्रसर नामित किया गया था। पुराणों के अनुसार  के अनुसार, ऋषि विश्वामित्र जो भगवान राम के परिवारिक गुरु थे और अस्सी हज़ार संतो का पवित्र आश्रम पवित्र गंगा नदी के किनारे स्थित था जो आधुनिक जिलाबक्सर में है । वह राक्षसों द्वारा बलि चढ़ाव से परेशान थे। जिस स्थान पर भगवान राम ने प्रसिद्ध राक्षसी तड़का का वध किया था , वह क्षेत्र वर्तमान बक्सर शहर के अतर्गतआते हैं। इसके अलावा, भगवान राम और उनके छोटे भाई लक्ष्मण ने बक्सर में अपनी शिक्षाएं लीं।  अहिल्या, गौतम ऋषि की पत्नी थी । भगवान राम के चरणों के एक मात्र स्पर्श से मुक्ति प्राप्त कर अपने मानव शरीर को पत्थर से प्राप्त किया। अदरौली के नाम से जाना जाता है और बक्सर शहर से छह किलोमीटर दूर स्थित है। कमलदह पोखरा, जो कि व्याघ्रसर के नाम से भी जाना जाता है,अब एक पर्यटक स्थल है। बक्सर का प्राचीन महत्व ब्रम्ह पुराण और वारह पुराण जैसे प्राचीन महाकाव्यों में वर्णित है ।मुगल काल के दौरान, हुमायूं और शेर शाह के बीच ऐतिहासिक लड़ाई चोसा में 153 9 ईस में लड़ी गई। सर हिटर मुनरो के नेतृत्व में ब्रिटिश सेना ने 23 मार्च 1764 को बक्सर शहर से लगभग 6 किलोमीटर की दूरी पर स्थित कतकौली का मैदान में मीर कासिम, शुजा-उद-दौलह और शाह आलम-द्वितीय की मुस्लिम सेना को हराया। कतकौली में अंग्रेजों द्वारा निर्मित पत्थर का स्मारक आज भी लड़ाई के प्रतीक  के रूप में कायम है।कारूष प्रदेश का वेद भूमि बक्सर
 बिहार के पश्चिम भाग में गंगा नदी के तट पर स्थित कारूष प्रदेश का वेद भूमि बक्सर की अर्थ-व्यवस्था  से खेती पर आधारित है। यह शहर मुख्यतः धर्मिक स्थल के नाम से जाना जाता है। प्राचीन काल में इसका नाम 'व्याघ्रसर' था। क्योंकि उस समय यहाँ पर बाघों का निवास हुआ करता था तथा एक बहुत बड़ा सरोवर भी था जिसके परिणामस्वरुप इस जगह का नाम व्याघ्रसर पड़ा।बक्सर पटना से लगभग ७५ मील पश्चिम और मुगलसराय से ६० मील पूर्व में पूर्वी रेलवे लाइन के किनारे स्थित है। यह एक व्यापारिक नगर भी है। यहाँ बिहार का एक प्रमुख कारागृह हैं जिसमें अपराधी लोग कपड़ा आदि बुनते और अन्य उद्योगों में लगे रहते हैं। सुप्रसिद्ध बक्सर की लड़ाई शुजाउद्दौला और कासिम अली खाँ की तथा अंग्रेज मेजर मुनरो की सेनाओं के बीच यहाँ ही १७६४ ई॰ में लड़ी गई थी जिसमें अंग्रेजों की विजय हुई। इस युद्ध में शुजाउद्दौला और कासिम अली खाँ के लगभग २,००० सैनिक डूब गए या मारे थे। कार्तिक पूर्णिमा को यहाँ बड़ा मेला लगता है, जिसमें लाखों व्यक्ति इकट्ठे होते हैं। गुरु विश्वामित्र का आश्रम था। यहीं पर राम और लक्ष्मण का प्रारम्भिक शिक्षण-प्रशिक्षण हुआ। प्रसिद्ध ताड़का राक्षसी का वध राम द्वारा यहीं पर किया गया था। 1764 ई॰ का 'बक्सर का युद्ध' भी इतिहास प्रसिद्ध है। इसी नाम का एक ज़िला शाहबाद (बिहार में) का अनुमंडल है। बक्सर के युद्ध (1764) के परिणामस्वरूप निचले बंगाल का अंतिम रूप से ब्रिटिश अधिग्रहण हो गया। मान्यता है कि एक महान पवित्र स्थल के रूप में पहले इसका मूल नाम 'वेदगर्भ' था। कहा जाता है कि वैदिक मंत्रों के बहुत से रचयिता इस नगर में रहते थे। इसका संबंध भगवान राम के प्रारंभिक जीवन से भी जोड़ा जाता है।
2011 की जनगणना के अनुसार बक्सर ज़िले की कुल जनसंख्या लगभग 1,707,643 है।
बक्सर की लड़ाई मीर कासिम ने अवध के नवाब से सहायता की याचना की, नवाब शुजाउदौला इस समय सबसे शक्ति शाली था। मराठे पानीपत की तीसरी लड़ाई से उबर नहीं पाए थे, मुग़ल सम्राट तक उसके यहाँ शरणार्थी था, उसे अहमद शाह अब्दाली की मित्रता प्राप्त थी जनवरी 1764 में मीर कासिम उस से मिला उसने धन तथा बिहार के प्रदेश के बदले उसकी सहायता खरीद ली। शाह आलम भी उनके साथ हो लिया। किंतु तीनो एक दूसरे पर शक करते थे।
बक्सर जिले के अपने मूल जिले भोजपुर के साथ निकट संबंध हैं और उनका एक पुराना और दिलचस्प इतिहास है।बक्सर प्रसिद्ध देवताओं, देवताओं के युद्धक्षेत्र और पुराणों के अनुसार राक्षसों और आधुनिक इतिहास में विदेशी आक्रमण और देशवासियों के बीच एक युद्ध क्षेत्र के लिए,महाकाव्य कीअवधि से प्रसिद्ध है। पुरातात्विक खुदाई से प्राप्त अवशेष, बक्सर की प्राचीन संस्कृतियों के साथ मोहंजोदरो और हड़प्पा को जोड़ता है। यह स्थान प्राचीन इतिहास में “सिद्धाश्रम”,“वेदगर्भापुरी”, “करुष”, “तपोवन”, “चैत्रथ “, “व्याघ्रसर”, “बक्सर” के नाम से भी जाना जाता था। बक्सर का इतिहास रामायण की अवधि से पहले की है। कहा जाता है
कि बक्सर शब्द व्यघ्रासार से निकला है। ऋषि दुर्वासा के अभिशाप का परिणाम से ,ऋषि वेदशीरा के बाघ के चेहरे को एक पवित्र कुंड में स्नान करने के बाद पूर्वावस्था की प्राप्ति हुआ था जिसे बाद में व्याघ्रसर नामित किया गया था।पौराणिक कथाओं के अनुसार, ऋषि विश्वामित्र जो भगवान राम के परिवारिक गुरु थे और अस्सी हज़ार संतो का पवित्र आश्रम पवित्र गंगा नदी के किनारे स्थित था जो आधुनिक जिलाबक्सर में है । वह राक्षसों द्वारा बलि चढ़ाव से परेशान थे। जिस स्थान पर भगवान राम ने प्रसिद्ध राक्षसी तड़का का वध किया था , वह क्षेत्र वर्तमान बक्सर शहर के अतर्गतआते हैं। इसके अलावा, भगवान राम और उनके छोटे भाई लक्ष्मण ने बक्सर में अपनी शिक्षाएं लीं। यह भी कहा गया है कि अहिल्या, जो गौतम ऋषि की पत्नी थी ,भगवान राम के चरणों के एक मात्र स्पर्श से मुक्ति प्राप्त कर अपने मानव शरीर को पत्थर से प्राप्त किया। इस जगह को वर्तमान में अहिरौली के नाम से जाना जाता है और बक्सर शहर से छह किलोमीटर दूर स्थित है। कमलदह पोखरा, जो कि व्याघ्रसर के नाम से भी जाना जाता है,अब एक पर्यटक स्थल है। बक्सर का प्राचीन महत्व ब्रम्ह पुराण और वारह पुराण जैसे प्राचीन महाकाव्यों में वर्णित है ।मुगल काल के दौरान, हुमायूं और शेर शाह के बीच ऐतिहासिक लड़ाई चोसा में 153 9 ईस में लड़ी गई। सर हिटर मुनरो के नेतृत्व में ब्रिटिश सेना ने 23 मार्च 1764 को बक्सर शहर से लगभग 6 किलोमीटर की दूरी पर स्थित कतकौली का मैदान में मीर कासिम, शुजा-उद-दौलह और शाह आलम-द्वितीय की मुस्लिम सेना को हराया। कतकौली में अंग्रेजों द्वारा निर्मित पत्थर का स्मारक आज भी लड़ाई के प्रतीक  के रूप में कायम है। सनातन संस्कृति का नाम बक्सर में वेदशालाओं, वेधशालाओं का स्थित था । रैवत मन्वन्तर में वेदशिरा सप्तर्षि  द्वारा वेदशालाओं की स्थापना कर वेदसर  नगर का निर्माण किया गया और रैवत मनु के पुत्र राजा सत्यवाक ने वेदसर मेंं राजधानी रखा था ।वैवश्वत मन्वन्तर मेंं विश्वामित्र सप्तर्षि और साध्य देव तथा सत्यव्रत राजा थे । राजा मंधाता ने अपनी पत्नी चैत्ररथी के नाम पर चैत्रवन देश की स्थापित की और वेदसर का नाम वकसर , बक्सर रखा था।
 का विवाह केकय कुल की कन्या सत्यरथा के साथ हुआ था।  

मंगलवार, फ़रवरी 16, 2021

प्रकृति और शक्ति का मूल बसंत पंचमी...


विश्व धरातल पर प्रकृति का सौंदर्य की बदलाव के लिए भारतीय वासंतीय और वांग्मय साहित्य महत्वपूर्ण भूमिका है।भारत में  दंडकारण्य और लेह का सरस्वती मंदिर है ।ऋषि वेद व्यास द्वारा आंध्र प्रदेश के आदिलाबाद जिले के मुधोल क्षेत्र का गोदावरी के तट पर बने बासर में विद्या के देवी मां सरस्वती जी का मंदिर निर्मित है। सरस्वती जी का जम्मू कश्मीर के लेह और मैहर की मां शारदा का मंदिर है। मां शारदा का निवास दंडकारण्य और लेह में माना जाता है। महाभारत के रचयिता महाऋषि क्टष्ण द्वैपायन वेद व्यास जब मानसिक उलझनों से उलझने के कारण शांति के लिए तीर्थ यात्रा पर निकल पड़े, अपने मुनि वृन्दों सहित उत्तर भारत की तीर्थ यात्राए कर दंडकारण्य गोदावरी नदी के तट के सौंदर्य को देख कर कुछ समय के लिए वे यहीं पर रुक गए थे ।मां सरस्वती के मंदिर स्थित दत्त मंदिर से होते हुए मंदिर तक गोदावरी नदी में कभी एक सुरंग हुआ करती थी, जिसके द्वारा उस समय के महाराज पूजा के लिए आया-जाया करते थे।यहीं वाल्मीकि ऋषि ने रामायण लेखन प्रारंभ करने से पूर्व मां सरस्वती जी को प्रतिष्ठित कर उनका आशीर्वाद प्राप्त किया था।  सरस्वती मंदिर के निकट महर्षि वाल्मीकि जी की संगमरमर की समाधि बनी है।मंदिर के गर्भगृह, गोपुरम, परिक्रमा मार्ग हैं। मंदिर में केंद्रीय प्रतिमा सरस्वती जी , लक्ष्मी जी  विराजित हैं। सरस्वती जी की प्रतिमा पद्मासन मुद्रा में 4 फुट ऊंची है। मंदिर के स्तंभ से संगीत के सातों स्वर सुन सकते हैं। यहां अक्षर आराधना कहलाती है। इसमें बच्चों को विद्या अध्ययन प्रारंभ कराने से पूर्व अक्षराभिषेक हेतु यहां लाया जाता है और प्रसाद में हल्दी का लेप खाने  दिया जाता है। मंदिर के  निकट  महाकाली मंदिर एक सौ मीटर दूर एक गुफा में  है। यहीं एक अनगढ़ सी चट्टान पर सीताजी के आभूषण रखे हैं। बासर में 8 ताल में वाल्मीकि तीर्थ, विष्णु तीर्थ, गणेश तीर्थ, पुथा तीर्थ कहा गया है। वृहद् भारतीय परंपरा में ज्ञान-विद्या,नृत्य, संगीत, कला आदि की अधिष्ठात्री देवी सरस्वती का वंदना है। सरस्वती हिन्दू धर्म की प्रमुख वैदिक एवं पौराणिक देवियों में से हैं। सनातन धर्म शास्त्रों में दो सरस्वती का वर्णन आता है एक ब्रह्मा पत्नी सरस्वती एवं एक ब्रह्मा पुत्री तथा विष्णु पत्नी सरस्वती। ब्रह्मा पत्नी सरस्वती मूल प्रकृति से उत्पन्न सतोगुण महाशक्ति एवं प्रमुख त्रिदेवियो मे  है एवं विष्णु की पत्नी सरस्वती ब्रह्मा के जिव्हा से प्रकट होने के कारण ब्रह्मा की पुत्री मानी जाती है । शास्त्रों में इन्हें मुरारी वल्लभा (विष्णु पत्नी) कहा गया है। शास्त्रों के अनुसार प्रकृति ,शक्ति एवं ब्रह्मज्ञान-विद्या आदि की अधिष्ठात्री देवी मानी गई है ।  ब्रह्म विद्या एवं नृत्य संगीत क्षेत्र के अधिष्ठाता के रूप में दक्षिणामूर्ति/नटराज शिव एवं सरस्वती है । दुर्गा सप्तशती की मूर्ति रहस्य के अनुसार सरस्वती के १०८ नामों में  शिवानुजा(शिव की छोटी बहन) कहकर भी संबोधित किया गया है ।  मतान्तर मे  सरस्वती का  पर्याय  नाम  वाणी, शारदा, वागेश्वरी , वेदमाता इत्यादि।ये शुक्लवर्ण,शुक्लाम्बरा, वीणा-पुस्तक-धारिणी तथा श्वेतपद्मासना कही गई हैं। इनकी उपासना करने से मूर्ख भी विद्वान् बन सकता है। माघ शुक्ल पंचमी विशेष रूप से पूजन करने की परंपरा है । देवी भागवत के अनुसार विष्णु पत्नी सरस्वती वैकुण्ठ में निवास करने वाली है एवं पितामह ब्रह्मा की जिह्वा से जन्मी हैं तथा कहीं-कहीं वर्णन है कि नित्यगोलोक निवासी श्री कृष्ण भगवान के वंशी के स्वर से प्रकट हुई है। देवी सरस्वती का वर्णन वेदों के मेधा सूक्त मे,उपनिषदों, रामायण, महाभारत के अतिरिक्त कालिका पुराण, वृहत्त नंदीकेश्वर पुराण तथा शिव महापुराण, श्रीमद् देवी भागवत पुराण इत्यादि इसके अलावा ब्रह्मवैवर्त पुराण में विष्णु पत्नी सरस्वती का विशेष उल्लेख आया है। देवी भागवत के अनुसार सृष्टि के प्रारंभिक काल में पितामह ब्रह्मा ने अपने संकल्प से ब्रह्मांड की तथा उनमें सभी प्रकार के जंघम-स्थावर जैसे पेड़-पौधे, पशु-पक्षी मनुष्यादि योनियो की रचना की। लेकिन अपनी सर्जन से वे संतुष्ट नहीं थे ब्रह्मा जी ने इस समस्या के निवारण के लिए अपने कमण्डल से जल अपने अंजली में लेकर संकल्प स्वरूप उस जल को छिड़कर भगवान श्री विष्णु की स्तुति करनी आरम्भ की। ब्रम्हा जी के किये स्तुति को सुन कर भगवान विष्णु तत्काल ही उनके सम्मुख प्रकट हो गए और उनकी समस्या जानकर भगवान विष्णु ने मूलप्रकृति आदिशक्ति माता का आव्हान किया। विष्णु जी के द्वारा आव्हान होने के कारण मूलप्रकृति आदिशक्ति वहां तुरंत ही ज्योति पुंज रूप मे प्रकट हो गयीं तब ब्रम्हा एवं विष्णु जी ने उन्हें इस संकट को दूर करने का निवेदन किया। ब्रम्हा जी तथा विष्णु जी बातों को सुनने के बाद उसी क्षण मूलप्रकृति आदिशक्ति के संकल्प से तथा स्वयं के अंश से श्वेतवर्णा एक प्रचंड तेज उत्पन्न किया जो एक दिव्य नारी के नारी स्वरूप बदल गया। जिनके हाथो में वीणा, वर-मुद्रा पुस्तक एवं माला एवं श्वेत कमल पर विराजित थी। मूल प्रकृति आदिशक्ति के शरीर से उत्पन्न तेज से प्रकट होते ही उस देवी ने वीणा का मधुरनाद किया जिससे समस्त राग रागिनिया संसार के समस्त जीव-जन्तुओं को वाणी प्राप्त हो गई। जलधारा में कोलाहल व्याप्त हो गया। पवन चलने से सरसराहट होने लगी। तब सभी देवताओं ने शब्द और रस का संचार कर देने वाली उन देवी को ब्रह्म ज्ञान विद्या वाणी संगीत कला की अधिष्ठात्री देवी "सरस्वती" कहा गया है।  आदिशक्ति मूल प्रकृति ने पितामह ब्रम्हा से कहा कि मेरे तेज से उत्पन्न हुई ये देवी सरस्वती आपकी अर्धांगिनी शक्ति अर्थात पत्नी बनेंगी, जैसे लक्ष्मी श्री विष्णु की शक्ति हैं, शिवा शिव की शक्ति हैं उसी प्रकार ये सरस्वती देवी ही आपकी शक्ति होंगी। ऐसी उद्घोषणा कर मूलप्रकृति ज्योति स्वरूप आदिशक्ति अंतर्धान हो गयीं। इसके बाद सभी देवता सृष्टि के संचालन में संलग्न हो गए। पुराण में सरस्वती को वागीश्वरी, भगवती, शारदा और वीणावादिनी सहित अनेक नामों से संबोधित जाता है। ये सभी प्रकार के ब्रह्म विद्या-बुद्धि एवं वाक् प्रदाता हैं। संगीत की उत्पत्ति करने के कारण ये संगीत की अधिष्ठात्री देवी भी हैं। ऋग्वेद में भगवती सरस्वती का वर्णन करते हुए कहा गया है- प्रणो देवी सरस्वती वाजेभिर्वजिनीवती धीनामणित्रयवतु। भावार्थ:- ये परम चेतना हैं। सरस्वती के रूप में ये हमारी बुद्धि, प्रज्ञा तथा मनोवृत्तियों की संरक्षिका हैं। हममें जो आचार और मेधा है उसका आधार भगवती सरस्वती ही हैं। इनकी समृद्धि और स्वरूप का वैभव अद्भुत है। कई पुराणो के अनुसार नित्यगोलोक निवासी श्रीकृष्ण भगवान ने सरस्वती से प्रसन्न होकर कहा की उनकी बसंत पंचमी के दिन विशेष आराधना करने वालों को ज्ञान विद्या कला मे चरम उत्कर्ष प्राप्त होगी । इस उद्घोषणा के फलस्वरूप भारत में वसंत पंचमी के दिन ब्रह्मविद्या की अधिष्ठात्री देवी सरस्वती की पूजा होने कि परंपरा आज तक जारी है। सरस्वती देवी के नामों में शारदा, वीणावादिनी, वीणापाणि, आदि कई नामों से जाना जाता है।सरस्वती को साहित्य, संगीत, कला की देवी माना जाता है। उसमें विचारणा, भावना एवं संवेदना का त्रिविध समन्वय है। वीणा संगीत की, पुस्तक विचारणा की और हंस वाहन कला की अभिव्यक्ति है। लोक चर्चा में सरस्वती को शिक्षा की देवी माना गया है। शिक्षा संस्थाओं में वसंत पंचमी को सरस्वती का जन्म दिन समारोह पूर्वक मनाया जाता है। पशु को मनुष्य बनाने का - अंधे को नेत्र मिलने का श्रेय शिक्षा को दिया जाता है। मनन से मनुष्य बनता है। मनन बुद्धि का विषय है। भौतिक प्रगति का श्रेय बुद्धि-वर्चस् को दिया जाना और उसे सरस्वती का अनुग्रह माना जाना उचित भी है। इस उपलब्धि के बिना मनुष्य को नर-वानरों की तरह वनमानुष जैसा जीवन बिताना पड़ता है। शिक्षा की गरिमा-बौद्धिक विकास की आवश्यकता जन-जन को समझाने के लिए सरस्वती अर्चना की परम्परा है। इसे प्रकारान्तर से गायत्री महाशक्ति के अंतगर्त बुद्धि पक्ष की आराधना कहना चाहिए।
सरस्वती के एक मुख, चार हाथ हैं। मुस्कान से उल्लास, दो हाथों में वीणा-भाव संचार एवं कलात्मकता की प्रतीक है। पुस्तक से ज्ञान और माला से ईशनिष्ठा-सात्त्विकता का बोध होता है। वाहन राजहंस -सौन्दर्य एवं मधुर स्वर का प्रतीक है। इनका वाहन राजहंस माना जाता है और इनके हाथों में वीणा, वेदग्रंथ और स्फटीकमाला होती है। भारत में कोई भी शैक्षणिक कार्य के पहले इनकी पूजा की जाती हैं। बाली द्वीप में सरस्वती -  महाकवि कालिदास, वरदराजाचार्य, वोपदेव आदि मंद बुद्धि के लोग सरस्वती उपासना के सहारे उच्च कोटि के विद्वान् बने थे। इसका सामान्य तात्पर्य तो इतना ही है कि ये लोग अधिक मनोयोग एवं उत्साह के साथ अध्ययन में रुचिपूवर्क संलग्न हो गए और अनुत्साह की मनःस्थिति में प्रसुप्त पड़े रहने वाली मस्तिष्कीय क्षमता को सुविकसित कर सकने में सफल हुए होंगे । श्रद्धा और तन्मयता के समन्वय से की जाने वाली साधना-प्रक्रिया एक विशिष्ट शक्ति है। मनःशास्त्र के रहस्यों को जानने वाले स्वीकार करते हैं कि व्यायाम, अध्ययन, कला, अभ्यास की तरह साधना भी एक समर्थ प्रक्रिया है, जो चेतना क्षेत्र की अनेकानेक रहस्यमयी क्षमताओं को उभारने तथा बढ़ाने में पूणर्तया समर्थ है। सरस्वती उपासना के संबंध में भी यही बात है। उसे शास्त्रीय विधि से किया जाय तो वह अन्य मानसिक उपचारों की तुलना में बौद्धिक क्षमता विकसित करने में कम नहीं, अधिक ही सफल होती हे । मन्दबुद्धि लोगों के लिए गायत्री महाशक्ति का सरस्वती तत्त्व अधिक हितकर सिद्घ होता है। बौद्धिक क्षमता विकसित करने, चित्त की चंचलता एवं अस्वस्थता दूर करने के लिए सरस्वती साधना की विशेष उपयोगिता है। मस्तिष्क-तंत्र से संबंधित अनिद्रा, सिर दर्द्, तनाव, जुकाम जैसे रोगों में गायत्री के इस अंश-सरस्वती साधना का लाभ मिलता है। कल्पना शक्ति की कमी, समय पर उचित निणर्य न कर सकना, विस्मृति, प्रमाद, दीघर्सूत्रता, अरुचि जैसे कारणों से भी मनुष्य मानसिक दृष्टि से अपंग, असमर्थ जैसा बना रहता है और मूर्ख कहलाता है। उस अभाव को दूर करने के लिए सरस्वती साधना एक उपयोगी आध्यात्मिक उपचार है।
शिक्षा के प्रति जन-जन के मन-मन में अधिक उत्साह भरने-लौकिक अध्ययन और आत्मिक स्वाध्याय की उपयोगिता अधिक गम्भीरता पूवर्क समझने के लिए भी सरस्वती पूजन की परम्परा है। बुद्धिमत्ता को बहुमूल्य सम्पदा समझा जाय और उसके लिए धन कमाने, बल बढ़ाने, साधन जुटाने, मोद मनाने से भी अधिक ध्यान दिया जाता है। महाशक्ति गायत्री मंत्र उपासना के अंतर्गत एक महत्त्वपूर्ण धारा सरस्वती की मानी गयी है संध्यावंदन मे प्रातः सावित्री, मध्यान्ह गायत्री एवं सायं सरस्वती ध्यान से युक्त त्रिकाल संध्यावंदन करने की विधा है। सरस्वती के स्वरूप एवं आसन आदि का संक्षिप्त तात्त्विक विवेचन इस तरह है-
या कुन्देन्दुतुषारहारधवला या शुभ्रवस्त्रावृता या वीणावरदण्डमण्डितकरा या श्वेतपद्मासना। या ब्रह्माच्युत शंकरप्रभृतिभिर्देवैः सदा वन्दिता , सा मां पातु सरस्वती भगवती निःशेषजाड्यापहा ॥ शुक्लां ब्रह्मविचार सार परमामाद्यां जगद्व्यापिनीं । वीणा-पुस्तक-धारिणीमभयदां जाड्यान्धकारापहाम्‌। हस्ते स्फटिकमालिकां विदधतीं पद्मासने संस्थिताम्‌ , वन्दे तां परमेश्वरीं भगवतीं बुद्धिप्रदां शारदाम्‌॥ विद्या की देवी भगवती सरस्वती कुन्द के फूल, चंद्रमा, हिमराशि और मोती के हार की तरह धवल वर्ण की हैं और जो श्वेत वस्त्र धारण करती हैं, जिनके हाथ में वीणा-दण्ड शोभायमान है, जिन्होंने श्वेत कमलों पर आसन ग्रहण किया है तथा ब्रह्मा, विष्णु एवं शंकर आदि देवताओं द्वारा जो सदा पूजित हैं, वही संपूर्ण जड़ता और अज्ञान को दूर कर देने वाली माँ सरस्वती हमारी रक्षा करें । शुक्लवर्ण वाली, संपूर्ण चराचर जगत्‌ में व्याप्त, आदिशक्ति, परब्रह्म के विषय में किए गए विचार एवं चिंतन के सार रूप परम उत्कर्ष को धारण करने वाली, सभी भयों से भयदान देने वाली, अज्ञान के अँधेरे को मिटाने वाली, हाथों में वीणा, पुस्तक और स्फटिक की माला धारण करने वाली और पद्मासन पर विराजमान्‌ बुद्धि प्रदान करने वाली, सर्वोच्च ऐश्वर्य से अलंकृत, भगवती शारदा (सरस्वती देवी) की मैं वंदना करता हूँ । अंगूठाकार जैन सरस्वती जिनवाणी के साथ देवता और भगवती शब्दों का प्रयोग मात्र आदर सूचक है सरस्वती ( स+रस+वती अर्थात रस से परिपूर्ण प्रकृति ) पद का प्रयोग मात्र जिनवाणी के रूप में हुआ है और उस जिनवाणी को रस से युक्त मानकर यह विशेषण दिया गया |
जैनागम में जैनाचार्यो ने सरस्वती देवी के स्वरूप की तुलना भगवान की वाणी से है; यथार्थत: सरस्वती देवी की प्रतिमा द्वादशांग का ही प्रतीकात्मक चिन्ह है । षट्खण्डागम- धवला भाग १ धवला ,बारहअंगंगिज्जा वियलिय-मल-मूढ-दंसणुत्तिलया। विविह-वर-चरण-भूसा पसियउ सुयदेवया सुइरं।। अर्थ - बारह प्रकार के अंग ( द्वादशांग ) जिससे ग्रहण होते हैं, जिससे समस्त प्रकार के कर्म मल और मूढ़ताएं दूर होती हैं-इस प्रकार के सम्यक दर्शन की जो तिलक स्वरूप हैं, विविध प्रकार के श्रेष्ठ सदाचरण रूपी भाषा से युक्त है, जिसके चरण विविध प्रकार के आभूषणो से मण्डित है ऐसी श्रुतदेवी चिरकाल तक मेरें ऊपर प्रसन्न रहें |आचार्य कुन्दकुन्द देव श्रीश्रुतभक्ति मे सरस्वती देवी की आराधना करते हुए कहते हैं कि यथा- अरिहंतभासियत्थं गणहरदेवेहिं गंथियं सम्मं। पणमामि भत्तिजुत्तो सुदणाणमहोवहिं सिरसा।। अर्थ -उस श्रुतज्ञान रूपी महासमुद्र को भक्ति से युक्त होकर सिर झुकाकर प्रणाम करता हूँ, जो अरिहन्त द्वारा कहा गया है एवं गणधरों द्वारा सम्यव् प्रकार से रचा गया है।यथार्थत: सरस्वती देवी की प्रतिमा द्वादशांग का ही प्रतीकात्मक चिह्न है। ग्रंन्थ प्रतिष्ठासारोद्धार में जैन सरस्वती देवी के संबंध में निम्न श्लोक उपलब्ध हैं- वाग्वादिनी भगवती सरस्वती, ह्रीं नम:इत्यनेन मूलमन्त्रेणवेष्टयेत्। ओं ह्रीं मयूरवाहिन्यै नम:, इति वाग्देवतां स्थापयेत्।।जैनचार्य वीरसेन ने भी सरस्वती देवी को जयदु सुददेवता से सम्बोधन कर यह प्रमाणित कर दिया कि जो जैनागम में चार प्रकार के देव-देवियों के देव-देवियों का वर्णन है,उसमें श्रुतदेवी कोई देवी नहीं है वरन् जिनेन्द्र भगवान की दिव्यध्वनि स्वरूप श्रुतदेवी सरस्वती है।जिनेश्वरस्वच्छसर:सरोजिनी, त्वमंगपूर्वादिसरोजराजिता। गणेशहंसव्रजसेविता सदा, करोषि केषां न मुदं परामिह।। - (श्री पद्मनन्दि पंचविंशतिका, आचार्य पद्मनंदी, १५/२१)अर्थ:— हे माता! हे सरस्वती! तुम जिनेश्वर रूपी निर्मल सरोवर की तो कमलिनी हो और ग्यारह अंग चौदह पूर्व रूपी कमल से शोभित हो और गणधर रूपी हंसों के समूह से सेवित हो, इसलिए तुम इस संसार में किसको उत्तम हर्ष की करने वाली नहीं हो?अध्यात्मयोगी आत्मस्वरूप के अमर गायक आचार्य कुन्दकुन्ददेव श्रुतभक्ति/ सरस्वती की स्तुति करते हुए अपने जिन भावों को शब्दाक्षर द्वारा इस प्रकार लिपिबद्ध करते हैं—सिद्धवरसासणाणं, सिद्धाणं कम्मम्चक्कमुक्काणं। कादूण णमोक्कारं, भक्तीए णमामि अंगादिं।।अर्थ:- जिनका अहिंसामय उत्कृष्ट जैनशासन लोक में प्रसिद्ध है तथा जो (घातिया और अघातिया रूप अष्ट) कर्मों के चक्र से मुक्त हो चुके हैं, ऐसे सिद्धों को नमस्कार कर भक्तिपूर्वक द्वादशांग रूप सरस्वती (बारह अंगों को मैं आचार्य कुन्दकुन्द नमस्कार करता हूँ।जहि संभव जिणवर-मुहकमल। सत्तभंग-वाणी जसु अमल।। आगम-छंद-तक्क वर वाणि। सारद सद्द-अत्थ-पय खाणि।।१।। गुणणिहि बहु विज्जागमसार। पुठि मराल सहइ अविचार।। छंद बहत्तरि-कला-भावती। सुकइ ‘रल्ह’ पणवइ सरसुती।।२।। (महाकवि रल्ह) । अर्थ:- जो शारदा जिनेन्द्र भगवान के मुखरूपी कमल से प्रकट हुई है, जिसकी सप्तभंगमयी वाणी है, जो आगम, छंद एवं तक्र से युक्त है, -ऐसी शारदा शब्द, अर्थ एवं पद की खान है। जो गुणों की निधि एवं विद्या तथा आगम की सार-स्वरूपा है, जो स्वभावत: हंस की पीठ पर सुशोभित है, जिसे छंद एवं बहत्तर कलाएँ प्रिय हैं—ऐसी सरस्वती को ‘रल्ह’ कवि नमस्कार करता है।।१।। जैन धर्म की सरस्वती (श्रुतदेवी) के प्रारम्भिक स्वरुप मे एक मुख, चार हाथ हैं; वो हाथों में कमंडलु ,अक्षमाला ,कमल व शास्त्र धारण किये हुये है | किन्तु अन्य विभिन्न स्वरुप भी दृष्टिगोचर होते है जिनमे हाथों में कमंडलु , कमल, अंकुश व वीणा देखी जा सकती है; एवम आसन के रुप मे कमल, हंस व मयुर है । प्रतिष्ठातिलक ग्रंथ में आचार्य नेमिचन्द्र के अनुसार  सरस्वती स्तोत्र - बारह अंगंगिज्जा, दंसणतिलया चरित्तवत्थहरा। चोद्दसपुव्वाहरणा, ठावे दव्वाय सुयदेवी।।१।। आचारशिरसं सूत्र-कृतवक्त्रां सुवंठिकाम्। स्थानेन समवायांग-व्याख्याप्रज्ञप्तिदोर्लताम् ।।२।। वाग्देवतां ज्ञातृकथो-पासकाध्ययनस्तनीम्। अंतकृद्दशसन्नाभि-मनुत्तरदशांगत: ।।३।। सुनितंबां सुजघनां, प्रश्नव्याकरणश्रुतात्। विपाकसूत्रदृग्वाद-चरणां चरणांबराम् ।।४।। सम्यक्त्वतिलकां पूर्व-चतुर्दशविभूषणाम्। तावत्प्रकीर्णकोदीर्ण-चारुपत्रांकुरश्रियम्।।५।।
अर्थ - बारह अंगों में से प्रथम जो ‘आचाराँग’ है, वह श्रुतदेवी-सरस्वती देवी का मस्तक है, ‘सूत्रकृतांग’ मुख है, ‘स्थानांग’ कंठ है, ‘समवायांग’ और ‘व्याख्याप्रज्ञप्ति’ ये दोनों अंग उनकी दोनों भुजाएं हैं, ज्ञातृकथांग’ और ‘उपासकाध्ययनांग’ ये दोनों अंग उस सरस्वती के दो स्तन हैं, ‘अंतकृद्दशांग’ यह नाभि है, ‘अनुत्तरदशांग’ श्रुतदेवी का नितंब है, ‘प्रश्नव्याकरणांग’ यह जघन भाग है, ‘विपाकसूत्रांग और दृष्टिवादांग’ ये दोनों अंग उन सरस्वती के दोनों पैर हैं। ‘सम्यक्त्व’ यह उनका तिलक है, चौदह पूर्व ये अलंकार हैं और ‘प्रकीर्णक श्रुत’ सुन्दर बेल बूटे सदृश हैं। जैन दर्शन में अरिहंत ,जिनवाणी,अरिहंतवाणी,श्रुतदेवी,वाग्देवी,भारती,वागेश्वरी आदि अनेक नामों से अभिहित किया गया है । प्रथमं भारती नाम द्वितीयं च सरस्वती।तृतीयं शारदा देवी चतुर्थं हंसगामिनी।। पञ्चमं विदुषां माता षष्ठं वागीश्वरी तथा। कुमारी सप्तमं प्रोक्ता अष्टमं ब्रह्मचारिणी।। नवमं च जगन्माता, दशमं ब्राह्मिणी तथा। एकादशं तु ब्रह्माणी, द्वादशं वरदा भवेत्।।पञ्चदशं श्रुतदेवी, षोडशं र्गौिनगद्यते।।अर्थ:- प्रथम वह भारती हैं, द्वितीय सरस्वती। शारदा देवी उनका तृतीय नाम है और चतुर्थ हंसगामिनी ।।४।। विदुषी,वागीश्वरी, कुमारी, ब्रह्मचारिणा ये उनके पंचम-पष्ठ-सप्तम और अष्टम नाम हैं ।।५।।नौवाँ नाम जगन्माता, दशवाँ नाम ब्राह्मिणी, ग्याहरवाँ नाम ब्रह्माणी और बारहवाँ नाम वरदा है।।६।। तेरहवाँ नाम वाणी, चौदहवाँ नाम भाषा, पन्द्रहवाँ नाम श्रुतदेवी, सोलहवाँ नाम गौ हैं। सरस्वती देवी के सोलह नाम हैं।अरिहन्त भासियत्थ्ं गणहरदेवेहिं गंथियं सव्वं पणमामि भत्तिजुत्तो सुदणाणमहोवयं सिरसा । चन्द्रार्क-कोटिघटितोज्ज्वल-दिव्य-मूर्ते श्रीचन्द्रिका-कलित-निर्मल-शुभ्रवस्त्रे! कामार्थ-दाय-िकलहंस-समाधिरूढ़े। वागीश्वरि! प्रतिदिनं मम रक्ष देवि!।।
जैनधर्म में माघ  मास के शुक्ल पंचमी को जैन ज्ञानपंचमी या श्रुत पंचमी  कहते हैं और उस दिन श्रुतदेवी एवं शास्त्रों की विधिवत् पूजा का विधान दिगम्बरों में है तथा र्काितक मास की शुक्ल पंचमी को श्रुत देवी की पूजा का विधान श्वेताम्बर जैन परम्परा
है।बौद्ध ग्रंथों में सरस्वती के कई स्वरूपों का वर्णन किया गया है जैसे–महासरस्वती, वङ्कावीणा, वङ्काशारदा सरस्वती, आर्य सरस्वती, वङ्का की अराधना की जाती है ।वैदिक सनातन एवं बौद्ध धर्मो की अपेक्षा जैन धर्म की सरस्वती (श्रुतदेवी) के वृहद स्तर पर पुरातात्विक साक्ष्य प्राप्त हुए हैं । जैन शिल्प में यक्षी, अंबिका एवं चक्रेश्वरी के बाद सरस्वती ही सर्वाधिक लोकप्रिय देवी रही है । सरस्वती (श्रुतदेवी) की सबसे प्राचीन प्रतिमा कंकाली टीले (मथुरा) से प्राप्त हुई है जो १३२ ई, की है ; इसके अतिरिक्त जैन परंपरा में बहुत ही सुंदर सरस्वती (श्रुतदेवी) प्रतिमाएं पल्लू (बीकानेर) और लाडनूँ आदि से प्राप्त हुई है । कंकाली टीला (मथुरा) १३२ ई० , पन्चकुटी बस्ती ,सिमोंग जिला, कर्नाटक ११ वी-१२वी शतब्दी। , खजुराहो ९५०-७० ई० , लदनुन नागौर राजस्थान में 1162 ई. ,पल्लू (बीकानेर) राजस्थान चौहान काल ,धार ,मध्य प्रदेश ,वर्तमान मे ब्रिटिश म्युजियम मे 1034 ई० , पल्लू (बीकानेर) राजस्थान १०वी-११वी शतब्दी , दिलवाडा जैन मन्दिर, माउन्ट आबू ,राजस्थान , अजयगढ पन्ना म०प्र० ,बृहदिश्वर मंदिर है। जापान में सरस्वती को 'बेंजाइतेन' कहते हैं। जापान में उनका चित्रन हाथ में एक संगीत वाद्य लिए हुए किया जाता है। जापान में वे ज्ञान, संगीत तथा 'प्रवाहित होने वाली' वस्तुओं की देवी के रूप में पूजित हैं।दक्षिण एशिया के अलावा थाइलैण्ड, इण्डोनेशिया, जापान एवं अन्य देशों में भी सरस्वती की पूजा होती है। अन्य देशों में बर्मा  में थुयथदी ,सूरस्सती,  उच्चारण: ,चीन में बियानचाइत्यान ,  जापान -में बेंज़ाइतेन  , थाईलैण्ड  में सुरसवद के नाम से माता सरस्वती की बंदना किया जाता है ।
बसंत पंचमी प्रकृति और शक्ति का समन्वय , भगवान शिव का माता पार्वती की तिलकोत्सव , कामदेव और रती का मिलनोत्सव , विद्या, वाद्यों, संगीत का उद्भव और प्रकृति में सौंदर्य कार्य प्रारंभ है।

सोमवार, फ़रवरी 15, 2021

बसंत पंचमी और विद्या उपासना...


शास्त्रों और उपनिषदों में गुप्त माघीय नवरात्र  में माघ शुक्ल पक्ष पंचमी तिथि विद्या की देवी सरस्वती का अवतरण दिवस है । माघीय गुप्त नवरात्रि में माता काली, तारा, छिन्नस्तिका , श्री विद्या ( माता सरस्वती) , भुवनेश्वरी, भैरवी, बांग्ला ,, धूमावती, त्रिपुरसुन्दरी ,और मातंगी  दस महाविद्या का अवतरण हुआ था । वसंत पञ्चमी या श्रीपंचमी का दिन विद्या की देवी सरस्वती की उपासना पर्व भारत, पश्चिमोत्तर बांग्लादेश, नेपाल और राष्ट्रों में  उल्लास से मनायी जाती है। उपासक पीले वस्त्र धारण करते हैं।  भारत और नेपाल में वर्ष को छह ऋतुओं  में बाँटा गया है । वसंत ऋतुओं का राजा कहा जाता है । बसंत में  फूलों पर बहार ,  खेतों में सरसों का फूल , जौ और गेहूँ की बालियाँ खिलने , आमों के पेड़ों पर मांजर और  रंग-बिरंगी तितलियाँ मँडराने ,भर भर भंवरे भंवराने लगते है । वसंत ऋतु का स्वागत करने के लिए माघ शुक्ल के पाँचवे दिन  माता सरस्वती , विष्णु और कामदेव की पूजा होती हैं। शास्त्रों में बसंत पंचमी को ऋषि पंचमी से उल्लेखित किया गया है, तो पुराणों-शास्त्रों तथा अनेक काव्यग्रंथों में भी अलग-अलग ढंग से इसका चित्रण मिलता है ।
उपनिषदों के अनुसार सृष्टि के प्रारंभिक काल में भगवान शिव की आज्ञा से भगवान ब्रह्मा द्वारा जीवों, मनुष्य की रचना की गई है।। लेकिन अपनी सर्जना से वे संतुष्ट नहीं थे, परन्तु चारों ओर मौन छाया था । ब्रह्मा जी ने मौन छाया के निवारण के लिए अपने कमण्डल से जल   लेकर संकल्प  जल को समर्पित कर भगवान श्री विष्णु की स्तुति करनी आरम्भ की। ब्रम्हा जी  स्तुति को सुन कर भगवान विष्णु उनकी समस्या जानकर भगवान विष्णु ने आदिशक्ति दुर्गा माता का आव्हान किया। विष्णु जी द्वारा आव्हान होने करने पर  भगवती दुर्गा ने ब्रम्हा जी तथा विष्णु  की समस्या को आदिशक्ति दुर्गा माता के शरीर से स्वेत रंग दिव्य नारी के माता सरस्वती का अवतरण कर निष्पादित की ।में बदल गया। माता सरस्वती के एक हाथ में वीणा तथा दूसरा हाथ में वर मुद्रा ,दोनों हाथों में पुस्तक एवं माला थी। माता सरस्वती ने वीणा का मधुरनाद किया जिससे संसार के समस्त जीव-जन्तुओं को वाणी प्राप्त हो गई। जलधारा में कोलाहल , पवन चलने ,  देवताओं , मानव में शब्द और रस का संचार ,वाणी की अधिष्ठात्री देवी "सरस्वती" की अवतरण से प्रारंभ हुई। आदिशक्ति भगवती दुर्गा ने सरस्वती  ब्रम्हा जी की शक्ति ,   लक्ष्मी श्री विष्णु की शक्ति , पार्वती महादेव शिव की शक्ति हैं ।सरस्वती को वागीश्वरी, भगवती, शारदा, वीणावादनी और वाग्देवी , ब्रह्माणी नामों से पूजी जाती है। माता सरस्वती विद्या और बुद्धि प्रदाता , संगीत की देवी  हैं। बसन्त पंचमी के दिन को  प्रकटोत्सव के रूप में मनाते हैं। ऋग्वेद में भगवती सरस्वती को प्रणो देवी सरस्वती वाजेभिर्वजिनीवती धीनामणित्रयवतु।अर्थात ये परम चेतना हैं। सरस्वती के रूप में ये हमारी बुद्धि, प्रज्ञा तथा मनोवृत्तियों की संरक्षिका हैं। हममें  आचार और मेधा है उसका आधार भगवती सरस्वती हैं। इनकी समृद्धि और स्वरूप का वैभव अद्भुत है। पुराणों के अनुसार श्रीकृष्ण ने सरस्वती से वसंत पञ्चमी या श्रीपंचमी का दिन विद्या की देवी सरस्वती की उपासना पर्व भारत, पश्चिमोत्तर बांग्लादेश, नेपाल और राष्ट्रों में  उल्लास से मनायी जाती है। उपासक पीले वस्त्र धारण करते हैं।  भारत और नेपाल में वर्ष को छह ऋतुओं  में बाँटा गया है । वसंत ऋतुओं का राजा कहा जाता है । बसंत में  फूलों पर बहार ,  खेतों में सरसों का फूल , जौ और गेहूँ की बालियाँ खिलने , आमों के पेड़ों पर मांजर और  रंग-बिरंगी तितलियाँ मँडराने ,भर भर भंवरे भंवराने लगते है । वसंत ऋतु का स्वागत करने के लिए माघ शुक्ल के पाँचवे दिन  माता सरस्वती , विष्णु और कामदेव की पूजा होती हैं। शास्त्रों में बसंत पंचमी को ऋषि पंचमी से उल्लेखित किया गया है, तो पुराणों-शास्त्रों तथा अनेक काव्यग्रंथों में भी अलग-अलग ढंग से इसका चित्रण मिलता है ।
उपनिषदों के अनुसार सृष्टि के प्रारंभिक काल में भगवान शिव की आज्ञा से भगवान ब्रह्मा ने जीवों, खासतौर पर मनुष्य योनि की रचना की। लेकिन अपनी सर्जना से वे संतुष्ट नहीं थे, उन्हें लगता था कि कुछ कमी रह गई है जिसके कारण चारों ओर मौन छाया रहता है।
तब ब्रह्मा जी ने इस समस्या के निवारण के लिए अपने कमण्डल से जल अपने हथेली में लेकर संकल्प स्वरूप उस जल को छिड़कर भगवान श्री विष्णु की स्तुति करनी आरम्भ की। ब्रम्हा जी के किये स्तुति को सुन कर भगवान विष्णु तत्काल ही उनके सम्मुख प्रकट हो गए और उनकी समस्या जानकर भगवान विष्णु ने आदिशक्ति दुर्गा माता का आव्हान किया। विष्णु जी के द्वारा आव्हान होने के कारण भगवती दुर्गा वहां तुरंत ही प्रकट हो गयीं तब ब्रम्हा एवं विष्णु जी ने उन्हें इस संकट को दूर करने का निवेदन किया।ब्रम्हा जी तथा विष्णु जी बातों को सुनने के बाद उसी क्षण आदिशक्ति दुर्गा माता के शरीर से स्वेत रंग का एक भारी तेज उत्पन्न हुआ जो एक दिव्य नारी के रूप में बदल गया। यह स्वरूप एक चतुर्भुजी सुंदर स्त्री का था जिनके एक हाथ में वीणा तथा दूसरा हाथ में वर मुद्रा थे । अन्य दोनों हाथों में पुस्तक एवं माला थी। आदिशक्ति श्री दुर्गा के शरीर से उत्पन्न तेज से प्रकट होते ही उन देवी ने वीणा का मधुरनाद किया जिससे संसार के समस्त जीव-जन्तुओं को वाणी प्राप्त हो गई। जलधारा में कोलाहल व्याप्त हो गया। पवन चलने से सरसराहट होने लगी। तब सभी देवताओं ने शब्द और रस का संचार कर देने वाली उन देवी को वाणी की अधिष्ठात्री देवी "सरस्वती" है।फिर आदिशक्ति भगवती दुर्गा ने ब्रम्हा जी से कहा कि मेरे तेज से उत्पन्न हुई ये देवी सरस्वती आपकी पत्नी बनेंगी, जैसे लक्ष्मी श्री विष्णु की शक्ति हैं, पार्वती महादेव शिव की शक्ति हैं उसी प्रकार ये सरस्वती देवी ही आपकी शक्ति होंगी। ऐसा कह कर आदिशक्ति श्री दुर्गा सब देवताओं के देखते - देखते वहीं अंतर्धान हो गयीं। इसके बाद सभी देवता सृष्टि के संचालन में संलग्न हो गए।सरस्वती को वागीश्वरी, भगवती, शारदा, वीणावादनी और वाग्देवी सहित अनेक नामों से पूजा जाता है। ये विद्या और बुद्धि प्रदाता हैं। संगीत की उत्पत्ति करने के कारण ये संगीत की देवी भी हैं। बसन्त पंचमी के दिन को इनके प्रकटोत्सव के रूप में भी मनाते हैं। ऋग्वेद में भगवती सरस्वती का वर्णन करते हुए कहा गया है-प्रणो देवी सरस्वती वाजेभिर्वजिनीवती धीनामणित्रयवतु।अर्थात ये परम चेतना हैं। सरस्वती के रूप में ये हमारी बुद्धि, प्रज्ञा तथा मनोवृत्तियों की संरक्षिका हैं। हममें जो आचार और मेधा है उसका आधार भगवती सरस्वती ही हैं। इनकी समृद्धि और स्वरूप का वैभव अद्भुत है। पुराणों के अनुसार श्रीकृष्ण ने सरस्वती से प्रसन्न होकर उन्हें वरदान दिया था कि वसंत पंचमी के दिन तुम्हारी भी आराधना की जाएगी और तभी से इस वरदान के फलस्वरूप भारत देश में वसंत पंचमी के दिन विद्या की देवी सरस्वती की भी पूजा होने लगी जो कि आज तक जारी है। पतंगबाज़ी का वसंत से कोई सीधा संबंध नहीं है। लेकिन पतंग उड़ाने का रिवाज़ हज़ारों साल पहले चीन में शुरू हुआ और फिर कोरिया और जापान के रास्ते होता हुआ भारत पहुँचा। वसंत ऋतु आते ही प्रकृति का कण-कण खिल उठता है। मानव तो क्या पशु-पक्षी तक उल्लास से भर जाते हैं। हर दिन नयी उमंग से सूर्योदय होता है और नयी चेतना प्रदान कर अगले दिन फिर आने का आश्वासन देकर चला जाता है।यों तो माघ का यह पूरा मास ही उत्साह देने वाला है, पर वसंत पंचमी (माघ शुक्ल 5) का पर्व भारतीय जनजीवन को अनेक तरह से प्रभावित करता है। प्राचीनकाल से इसे ज्ञान और कला की देवी मां सरस्वती का जन्मदिवस माना जाता है। जो शिक्षाविद भारत और भारतीयता से प्रेम करते हैं, वे इस दिन मां शारदे की पूजा कर उनसे और अधिक ज्ञानवान होने की प्रार्थना करते हैं। कलाकारों का तो कहना ही क्या? जो महत्व सैनिकों के लिए अपने शस्त्रों और विजयादशमी का है, जो विद्वानों के लिए अपनी पुस्तकों और व्यास पूर्णिमा का है, जो व्यापारियों के लिए अपने तराजू, बाट, बहीखातों और दीपावली का है, वही महत्व कलाकारों के लिए वसंत पंचमी का है। चाहे वे कवि हों या लेखक, गायक हों या वादक, नाटककार हों या नृत्यकार, सब दिन का प्रारम्भ अपने उपकरणों की पूजा और मां सरस्वती की वंदना से करते हैं।
इसके साथ ही यह पर्व हमें अतीत की अनेक प्रेरक घटनाओं की भी याद दिलाता है। सर्वप्रथम तो यह हमें त्रेता युग से जोड़ती है। रावण द्वारा सीता के हरण के बाद श्रीराम उसकी खोज में दक्षिण की ओर बढ़े। इसमें जिन स्थानों पर वे गये, उनमें दण्डकारण्य भी था। यहीं शबरी नामक भीलनी रहती थी। जब राम उसकी कुटिया में पधारे, तो वह सुध-बुध खो बैठी और चख-चखकर मीठे बेर राम जी को खिलाने लगी। प्रेम में पगे जूठे बेरों वाली इस घटना को रामकथा के सभी गायकों ने अपने-अपने ढंग से प्रस्तुत किया।दंडकारण्य का वह क्षेत्र इन दिनों गुजरात और मध्य प्रदेश में फैला है। गुजरात के डांग जिले में वह स्थान है जहां शबरी मां का आश्रम था। वसंत पंचमी के दिन ही रामचंद्र जी वहां आये थे। उस क्षेत्र के वनवासी आज भी एक शिला को पूजते हैं, जिसके बारे में उनकी श्रध्दा है कि श्रीराम आकर यहीं बैठे थे। वहां शबरी माता का मंदिर भी है।वसंत पंचमी का दिन हमें पृथ्वीराज चौहान की भी याद दिलाता है। उन्होंने विदेशी हमलावर मोहम्मद ग़ोरी को 16 बार पराजित किया और उदारता दिखाते हुए हर बार जीवित छोड़ दिया, पर जब सत्रहवीं बार वे पराजित हुए, तो मोहम्मद ग़ोरी ने उन्हें नहीं छोड़ा। वह उन्हें अपने साथ अफगानिस्तान ले गया और उनकी आंखें फोड़ दीं। इसके बाद की घटना तो जगप्रसिद्ध ही है। मोहम्मद ग़ोरी ने मृत्युदंड देने से पूर्व उनके शब्दभेदी बाण का कमाल देखना चाहा। पृथ्वीराज के साथी कवि चंदबरदाई के परामर्श पर ग़ोरी ने ऊंचे स्थान पर बैठकर तवे पर चोट मारकर संकेत किया। तभी चंदबरदाई ने पृथ्वीराज को संदेश दिया था।पृथ्वीराज चौहान ने इस बार भूल नहीं की। उन्होंने तवे पर हुई चोट और चंदबरदाई के संकेत से अनुमान लगाकर जो बाण मारा, वह मोहम्मद ग़ोरी के सीने में जा धंसा। इसके बाद चंदबरदाई और पृथ्वीराज ने भी एक दूसरे के पेट में छुरा भौंककर आत्मबलिदान दे दिया। (1192 ई) यह घटना भी वसंत पंचमी वाले दिन ही हुई थी।सिखों के लिए में बसंत पंचमी के दिन का बहुत महत्वपूर्ण है। मान्यता है कि बसंत पंचमी के दिन सिखों के दसवें गुरु, गुरु गोबिन्द सिंह जी का विवाह हुआ था।वसंत पंचमी का लाहौर निवासी वीर हकीकत से भी गहरा सम्बन्ध है। एक दिन जब मुल्ला जी किसी काम से विद्यालय छोड़कर चले गये, तो सब बच्चे खेलने लगे, पर वह पढ़ता रहा। जब अन्य बच्चों ने उसे छेड़ा, तो दुर्गा मां की सौगंध दी। मुस्लिम बालकों ने दुर्गा मां की हंसी उड़ाई। हकीकत ने कहा कि यदि में तुम्हारी बीबी फातिमा के बारे में कुछ कहूं, तो तुम्हें कैसा लगेगा?बस फिर क्या था, मुल्ला जी के आते ही उन शरारती छात्रों ने शिकायत कर दी कि इसने बीबी फातिमा को गाली दी है। फिर तो बात बढ़ते हुए काजी तक जा पहुंची। मुस्लिम शासन में वही निर्णय हुआ, जिसकी अपेक्षा थी। आदेश हो गया कि या तो हकीकत मुसलमान बन जाये, अन्यथा उसे मृत्युदंड दिया जायेगा। हकीकत ने यह स्वीकार नहीं किया। परिणामत: उसे तलवार के घाट उतारने का फरमान जारी हो गया। कहते हैं उसके भोले मुख को देखकर जल्लाद के हाथ से तलवार गिर गयी। हकीकत ने तलवार उसके हाथ में दी और कहा कि जब मैं बच्चा होकर अपने धर्म का पालन कर रहा हूं, तो तुम बड़े होकर अपने धर्म से क्यों विमुख हो रहे हो? इस पर जल्लाद ने दिल मजबूत कर तलवार चला दी, पर उस वीर का शीश धरती पर नहीं गिरा। वह आकाशमार्ग से सीधा स्वर्ग चला गया। यह घटना वसंत पंचमी (23.2.1734) को ही हुई थी। पाकिस्तान यद्यपि मुस्लिम देश है, पर हकीकत के आकाशगामी शीश की याद में वहां वसन्त पंचमी पर पतंगें उड़ाई जाती है। हकीकत लाहौर का निवासी था। अतः पतंगबाजी का सर्वाधिक जोर लाहौर में रहता है। वसंत पंचमी हमें गुरू रामसिंह कूका की भी याद दिलाती है। उनका जन्म 1816 ई. में वसंत पंचमी पर लुधियाना के भैणी ग्राम में हुआ था। कुछ समय वे महाराजा रणजीत सिंह की सेना में रहे, फिर घर आकर खेतीबाड़ी में लग गये, पर आध्यात्मिक प्रवृत्ति होने के कारण इनके प्रवचन सुनने लोग आने लगे। धीरे-धीरे इनके शिष्यों का एक अलग पंथ ही बन गया, जो कूका पंथ कहलाया है । गुरू रामसिंह, गोरक्षा, स्वदेशी, नारी उद्धार, अन्तरजातीय विवाह, सामूहिक विवाह आदि पर बहुत जोर देते थे। उन्होंने भी सर्वप्रथम अंग्रेजी शासन का बहिष्कार कर अपनी स्वतंत्र डाक और प्रशासन व्यवस्था चलायी थी। प्रतिवर्ष मकर संक्रांति पर भैणी गांव में मेला लगता था। 1872 में मेले में आते समय उनके एक शिष्य को मुसलमानों ने घेर लिया। उन्होंने उसे पीटा और गोवध कर उसके मुंह में गोमांस ठूंस दिया। यह सुनकर गुरू रामसिंह के शिष्य भड़क गये। उन्होंने उस गांव पर हमला बोल दिया, पर दूसरी ओर से अंग्रेज सेना आ गयी। अतः युद्ध का पासा पलट गया। इस संघर्ष में अनेक कूका वीर शहीद हुए और 68 पकड़ लिये गये। इनमें से 50 को सत्रह जनवरी 1872 को मलेरकोटला में तोप के सामने खड़ाकर उड़ा दिया गया। शेष 18 को अगले दिन फांसी दी गयी। दो दिन बाद गुरू रामसिंह को भी पकड़कर बर्मा की मांडले जेल में भेज दिया गया। 14 साल तक वहां कठोर अत्याचार सहकर 1885 ई. में उन्होंने अपना शरीर त्याग दिया। राजा भोज का जन्मदिवस वसंत पंचमी को ही आता हैं। राजा भोज इस दिन एक बड़ा उत्सव करवाते थे जिसमें पूरी प्रजा के लिए एक बड़ा प्रीतिभोज रखा जाता था जो चालीस दिन तक चलता था। वसन्त पंचमी हिन्दी साहित्य की अमर विभूति महाकवि सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' का जन्मदिवस (28.02.1899) है। निराला जी के मन में निर्धनों के प्रति अपार प्रेम और पीड़ा थी। वे अपने पैसे और वस्त्र खुले मन से निर्धनों को दे डालते थे। इस कारण लोग उन्हें 'महाप्राण' कहते थे। इस दिन जन्मे लोग कोशिश करे तो बहुत आगे जाते है। कला, संगीत और ज्ञान की देवी विद्या दायणी है। 
मां सरस्वती के चित्र  या मूर्ति के समक्ष पीला मिष्ठान चढ़ाएं और मां सरस्वती से विद्या और बुद्धि का आशीर्वाद लेकर  या कुंदेंदुतुषारहारधवला, या शुभ्रवस्त्रावृता। या वीणा वर दण्डमण्डित करा, या श्वेत पद्मासना। या ब्रहमाऽच्युत शंकर: प्रभृतिर्भि: देवै: सदा वन्दिता। सा मां पातु सरस्वती भगवती, नि:शेषजाड्यापहा।। प्रार्थना के बाद 'ओम् ऐं सरस्वत्यै नम:' का जाप करें। 'ओम् ऐं सरस्वत्यै नम:' लघु मंत्र का नियमित रूप से प्रतिदिन ध्यान और जाप करने से विद्या, बुद्धि और विवेक बढ़ता है।  मां सरस्वती माघ मास की शुक्ल पक्ष की पंचमी तिथि को ब्रह्माजी के मुख से प्रकट हुई थीं। इसलिए इस दिन को बसंत पंचमी के पर्व के रूप में मनाया जाता है। पुराणों के अनुसार ब्रह्माजी भ्रमण पर निकले थे, तब सारा ब्रह्मांड मूक नजर आ रहा था, चारों ओर  खामोशी नजर आ रही थी, इसको देखकर ब्रह्माजी को सृष्टि की रचना में कुछ कमी सी महसूस हुई। तब ब्रह्माजी के मुख से वीणा बजाती हुई मां सरस्वती अवतरित हुईं और संसार में ध्वनि और संगीत की लय गुंजने लगी थी । होकर उन्हें वरदान दिया था कि वसंत पंचमी के दिन तुम्हारी भी आराधना की जाएगी और तभी से इस वरदान के फलस्वरूप भारत देश में वसंत पंचमी के दिन विद्या की देवी सरस्वती की भी पूजा होने लगी जो कि आज तक जारी है। पतंगबाज़ी का वसंत से कोई सीधा संबंध नहीं है। लेकिन पतंग उड़ाने का रिवाज़ हज़ारों साल पहले चीन में शुरू हुआ और फिर कोरिया और जापान के रास्ते होता हुआ भारत पहुँचा। वसंत ऋतु आते ही प्रकृति का कण-कण खिल उठता है। मानव तो क्या पशु-पक्षी तक उल्लास से भर जाते हैं। हर दिन नयी उमंग से सूर्योदय होता है और नयी चेतना प्रदान कर अगले दिन फिर आने का आश्वासन देकर चला जाता है। वसंत पंचमी (माघ शुक्ल 5) का पर्व भारतीय जनजीवन को अनेक तरह से प्रभावित करता है। प्राचीनकाल ज्ञान और कला की देवी मां सरस्वती का जन्मदिवस  है। शिक्षाविद भारत और भारतीयता से प्रेम करते हैं, मां शारदे की पूजा कर उनसे और अधिक ज्ञानवान होने की प्रार्थना करते हैं। सैनिकों के लिए अपने शस्त्रों और विजयादशमी ,   विद्वानों के लिए अपनी पुस्तकों और व्यास पूर्णिमा , व्यापारियों के लिए अपने तराजू, बाट, बहीखातों और दीपावली ,  कलाकारों के लिए वसंत पंचमी  है। कवि ,  लेखक, गायक , वादक, नाटककार ,  नृत्यकार, प्रारम्भ अपने उपकरणों की पूजा और मां सरस्वती की वंदना से करते हैं। त्रेता युग में रावण द्वारा सीता के हरण के बाद श्रीराम उसकी खोज में दक्षिण की ओर बढ़े। इसमें जिन स्थानों पर वे गये, उनमें दण्डकारण्य  था। यहीं शबरी नामक भीलनी रहती थी। जब राम उसकी कुटिया में पधारे,  वह सुध-बुध खो बैठी और चख-चखकर मीठे बेर राम जी को खिलाने लगी। प्रेम में पगे जूठे बेरों वाली दंडकारण्य का वह क्षेत्र गुजरात और मध्य प्रदेश में फैला है। गुजरात के डांग जिले में शबरी मां का आश्रम है। वसंत पंचमी के दिन ही रामचंद्र जी वहां आये थे। उस क्षेत्र के वनवासी  शिला को पूजते हैं, श्रीराम आकर यहीं बैठे थे। वहां शबरी माता का मंदिर भी है।वसंत पंचमी का दिन  पृथ्वीराज चौहान की  याद दिलाता है। उन्होंने विदेशी हमलावर मोहम्मद ग़ोरी को 16 बार पराजित किया और उदारता दिखाते हुए हर बार जीवित छोड़ दिया था । 17 वीं बार वे पराजित हुए, तब मोहम्मद ग़ोरी ने उन्हें नहीं छोड़ा। वह उन्हें अपने साथ अफगानिस्तान ले गया और उनकी आंखें फोड़ दीं। मोहम्मद ग़ोरी ने मृत्युदंड देने से पूर्व उनके शब्दभेदी बाण का कमाल देखना चाहा। पृथ्वीराज के साथी कवि चंदबरदाई के परामर्श पर ग़ोरी ने ऊंचे स्थान पर बैठकर तवे पर चोट मारकर संकेत किया।  चंदबरदाई ने पृथ्वीराज को संदेश दिया था।पृथ्वीराज चौहान ने इस बार भूल नहीं की। उन्होंने तवे पर हुई चोट और चंदबरदाई के संकेत से अनुमान लगाकर  बाण मारा, वह मोहम्मद ग़ोरी के सीने में जा धंसा। इसके बाद चंदबरदाई और पृथ्वीराज ने  एक दूसरे के पेट में छुरा भौंककर आत्मबलिदान दे दिया। 1192 ई की  घटना  वसंत पंचमी वाले दिन में हुई थी।सिखों के लिए में बसंत पंचमी के दिन का बहुत महत्वपूर्ण है। बसंत पंचमी के दिन सिखों के दसवें गुरु, गुरु गोबिन्द सिंह जी का विवाह हुआ था। लाहौर में पतंगबाजी परंपरा - वसंत पंचमी का लाहौर निवासी वीर हकीकत थे । लाहौर  में मख्तब के मौलवी मुल्ला  काम से विद्यालय छोड़कर चले जाने से,सभी बच्चे खेलने लगे, पर वीर हकीकत पढ़ता रहा। मुस्लिम बालकों द्वारा दुर्गा मां की हंसी उड़ाई। वीर हकीकत ने कहा कि यदि में तुम्हारी बीबी फातिमा के बारे में कुछ कहूं, तो तुम्हें कैसा लगेगा?बस फिर क्या था, मुल्ला जी के आते ही उन शरारती छात्रों ने शिकायत कर दी कि इसने बीबी फातिमा को गाली दी है। फिर तो बात बढ़ते हुए काजी तक जा पहुंची। मुस्लिम शासन में वही निर्णय हुआ, जिसकी अपेक्षा थी। आदेश हो गया कि या तो हकीकत मुसलमान बन जाये, अन्यथा उसे मृत्युदंड दिया जायेगा। हकीकत ने यह स्वीकार नहीं किया। परिणामत: उसे तलवार के घाट उतारने का फरमान जारी हो गया। वीर हकीकत  को देखकर जल्लाद के हाथ से तलवार गिर गयी। हकीकत ने तलवार उसके हाथ में दी और कहा कि जब मैं बच्चा होकर अपने धर्म का पालन कर रहा हूं,  तुम बड़े होकर अपने धर्म से क्यों विमुख हो रहे हो? इस पर जल्लाद ने दिल मजबूत कर तलवार चला दी, पर उस वीर का शीश धरती पर नहीं गिरा। 23 फरवरी 1734 बसंत पंचमी में  वीर हकीकत आकाशमार्ग से सीधा स्वर्ग चला गया।  पाकिस्तान  में वीर हकीकत की याद में वसन्त पंचमी पर पतंगें उड़ाई जाती है।  पतंगबाजी का सर्वाधिक जोर लाहौर में रहता है। वसंत पंचमी  गुरू रामसिंह कूका की याद दिलाती है। उनका जन्म 1816 ई. में वसंत पंचमी पर लुधियाना के भैणी ग्राम में हुआ था।महाराजा रणजीत सिंह की सेना में रहे, फिर घर आकर खेतीबाड़ी में लग गये, पर आध्यात्मिक प्रवृत्ति होने के कारण इनके प्रवचन सुनने लोग आने लगे। धीरे-धीरे इनके शिष्यों का एक अलग पंथ बन गया था । कूका पंथ कहलाया है । गुरू रामसिंह, गोरक्षा, स्वदेशी, नारी उद्धार, अन्तरजातीय विवाह, सामूहिक विवाह आदि पर बहुत जोर देते थे। उन्होंने भी सर्वप्रथम अंग्रेजी शासन का बहिष्कार कर अपनी स्वतंत्र डाक और प्रशासन व्यवस्था चलायी थी। प्रतिवर्ष मकर संक्रांति पर भैणी गांव में मेला लगता था। 1872 में मेले में आते समय उनके एक शिष्य को मुसलमानों ने घेर लिया। उन्होंने उसे पीटा और गोवध कर उसके मुंह में गोमांस ठूंस दिया। यह सुनकर गुरू रामसिंह के शिष्य भड़क गये। उन्होंने उस गांव पर हमला बोल दिया, पर दूसरी ओर से अंग्रेज सेना आ गयी। अतः युद्ध का पासा पलट गया। इस संघर्ष में अनेक कूका वीर शहीद हुए और 68 पकड़ लिये गये। इनमें से 50 को सत्रह जनवरी 1872 को मलेरकोटला में तोप के सामने खड़ाकर उड़ा दिया गया। शेष 18 को अगले दिन फांसी दी गयी। दो दिन बाद गुरू रामसिंह को भी पकड़कर बर्मा की मांडले जेल में भेज दिया गया। 14 साल तक वहां कठोर अत्याचार सहकर 1885 ई. में उन्होंने अपना शरीर त्याग दिया। राजा भोज का जन्मदिवस वसंत पंचमी को ही आता हैं। राजा भोज इस दिन एक बड़ा उत्सव करवाते थे जिसमें पूरी प्रजा के लिए एक बड़ा प्रीतिभोज रखा जाता था जो चालीस दिन तक चलता था। वसन्त पंचमी हिन्दी साहित्य की अमर विभूति महाकवि सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' का जन्मदिवस (28.02.1899) है। निराला जी के मन में निर्धनों के प्रति अपार प्रेम और पीड़ा थी। वे अपने पैसे और वस्त्र खुले मन से निर्धनों को दे डालते थे। इस कारण लोग उन्हें 'महाप्राण' कहते थे। इस दिन जन्मे लोग कोशिश करे तो बहुत आगे जाते है। कला, संगीत और ज्ञान की देवी विद्या दायणी है। 
श्रद्धालू तथा  विद्यार्थी सुबह स्नान के बाद श्वेत अथवा पीत वस्त्र धारण कर बसंत पंचमी पर मां सरस्वती को पीले रंग का फूल और फूल अर्पण करें । मां सरस्वती के चित्र  या मूर्ति के समक्ष पीला मिष्ठान चढ़ाएं और मां सरस्वती से विद्या और बुद्धि का आशीर्वाद लेकर  या कुंदेंदुतुषारहारधवला, या शुभ्रवस्त्रावृता। या वीणा वर दण्डमण्डित करा, या श्वेत पद्मासना। या ब्रहमाऽच्युत शंकर: प्रभृतिर्भि: देवै: सदा वन्दिता। सा मां पातु सरस्वती भगवती, नि:शेषजाड्यापहा।। प्रार्थना के बाद 'ओम् ऐं सरस्वत्यै नम:' का जाप करें। 'ओम् ऐं सरस्वत्यै नम:' लघु मंत्र का नियमित रूप से प्रतिदिन ध्यान और जाप करने से विद्या, बुद्धि और विवेक बढ़ता है।  मां सरस्वती माघ मास की शुक्ल पक्ष की पंचमी तिथि को ब्रह्माजी के मुख से प्रकट हुई थीं। बसंत पंचमी के पर्व के रूप में मनाया जाता है। पुराणों के अनुसार ब्रह्माजी भ्रमण पर निकले थे, तब सारा ब्रह्मांड मूक नजर आ रहा था । ब्रह्माजी के मुख से वीणा बजाती हुई मां सरस्वती अवतरित होने से ब्रह्माण्ड में ध्वनि और संगीत  गुंजने लगी थी । बसंत पंचमी को माता सरस्वती, कामदेव , रती , कला की उपासना से मनवीय आध्यात्मिकता का संचार होती है ।

गुरुवार, फ़रवरी 04, 2021

बिहार की सांस्कृतिक विरासत रोहतास ...


भारतीय साहित्य और पुराणों के पन्नों में रोहताश्व  का उल्लेख है । मानव संस्कृति के सातवें वैवश्वत मनु के जेष्ठ पुत्र इक्ष्वाकु वंशीय राजा हरिश्चंद्र  का पुत्र रोहताश्व  द्वारा रोहतास नगर स्थापना किया गया था और अभिमानी राजा सहस्त्रबाहु और ब्राह्मण परशुराम के साथ भयंकर युद्ध में सहस्त्रबाहु मारे जाने के कारण सहस्त्रराम , सासाराम स्थल हुए हैं। राजा त्रिशंकु चैत्रवन का शासक थे।  पूर्व-प्रागैतिहासिक काल में  पठार क्षेत्र  भार्स, चीयर्स और ओराओं से जुड़ा हुआ हैं।  खेरवार रोहतस के  पहाड़ी क्षेत्रों में  थे। ओरेन्स के अनुसार रोहतस , अरवल , औरंगाबाद क्षेत्र पर शासन किया था।  6 ठी ई.पू. से  5 वीं शताब्दी ई. तक रोहतास मगध साम्राज्य का  था। सासाराम के पत्थर पर उधृत सम्राट अशोक के आदेश मौर्य की विजय की पुष्टि  हैं। 7 वीं शताब्दी एडी में  कन्नौज के हर्ष शासकों के नियंत्रण में आया था। शेर शाह के पिता हसन खान सूरी एक अफगान शासक थे, उन्हें सासाराम की जागीर जमाल खान से उनकी सेवाओं के लिए इनाम स्वरुप मिला और प्रान्त के राज्यपाल की जिम्मेवारी जौनपुर के राजा के साथ अलगाव के बाद मिला था । परन्तु अफगान जागीरदार हसन खां सूरी द्वारा सासाराम जागीर  पर पूर्ण नियंत्रण नहीं कर पाए क्योंकि वे लोगों की निष्ठा खो चुके थे ।१५९२ में बाबर ने बिहार पर हमला किया, शेर शाह जिन्होंने उनका विरोध किया। बाबर ने अपनी यादों में  करमनासा नदी और गंगा  नदी के मध्य में मुगल शासक बाबर  १५२८ में ठहराव रखा था। बाबर की मृत्यु होने के बाद  शेर शाह फिर से सक्रिय हो गया । १५३७ में हुमायूं उनके खिलाफ आगे बढ़े और उन्होंने चुनार और रोहतस गढ़ में अपने किले जब्त किए। हुमायूं बंगाल गए जहां उन्होंने छह महीने बिताए, जबकि दिल्ली लौटने पर उन्हें चौसा में शेर शाह के हाथों एक बड़ी हार का सामना करना पड़ा। इस विजय ने दिल्ली के शाही सिंहासन को शेर शाह के लिए सुरक्षित कर दिया। सुर राजवंश का शासन शेर शाह ने स्थापित किया था, बहुत कम समय तक रहा जल्द ही मुगलों ने दिल्ली का शाही सिंहासन हासिल कर लिया। शेर शाह सूरी के निधन के बाद, अकबर ने अपने साम्राज्य का विस्तार करने और इसे समेकित करने की कोशिश की थी । रोहतास का साम्राज्य में शामिल किया गया था।  बनारस के राजा चैत सिंह का शासन सासाराम पर होने के कारण  शाहबाद का बड़ा हिस्सा शामिल  बक्सर तक था। चैत सिंह ने अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह का बिगुल बजाया था। चुनार और गाज़ीपुर में, अंग्रेजी सैनिकों को हार का सामना करना पड़ा जिससे भारत में अंग्रेजी शक्ति की नींव हिल गई थी। जगदीश पुर का राजा कुंवर सिंह ने १८५७ के विद्रोहियों के साथ ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ विद्रोह किया। कुंवर सिंह द्वारा ब्रिटिश सरकार के खिलाफ आंदोलन किया गया था। विद्रोह का प्रभाव पड़ा और यहाँ वहां विद्रोह जैसी घटनाएं उत्पन्न हुईं। सासाराम का पहाड़ी इलाकों ने विद्रोह के भगोड़ों को प्राकृतिक संरक्षण प्रदान किया। स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान जिले का भारत की स्वतंत्रता आंदोलन में पर्याप्त योगदान था। आजादी के बाद रोहतास शाहबाद जिले का हिस्सा बना रहा । १९७२ में रोहतास जिला की स्थापना हुई है । रोहतास ज़िला  मुख्यालय सासाराम तथा क्षेत्रफल : 3,847.82 किमी² और जनसंख्या(2011) के अनुसार 29,62,593 है। जिले में तीन अनुमंडल हैं, जिनमें डेहरी आन सोन, बिक्रमगंज और सासाराम है। रोहतास जिले के बिक्रमगंज में मां अस्कामिनी  प्राचीन मंदिर है। रोहतास जिले के रोहतासगढ़ किले का भी ऐतिहासिक महत्व है। वहीं, सासाराम में शेरशाह सूरी का प्रसिद्ध मकबरा भी अवस्थित है।  शेरशाह सूरी द्वारा डाक-तार व्यवस्था की गई थी।  बिक्रमगंज के समीप स्थित धारुपुर की मां काली का मंदिर भी काफी प्रसिद्ध है। यह एक मात्र ऐसा मंदिर है । क्षेत्र में बोली जाने वाली भाषा भोजपुरी तथा हिंदी  है।  रोहतास जिले में अनुमंडल बिक्रमगन्ज, सासाराम और डेहरी है। बिक्रमगंज में अस्कामिनि माँ का मन्दिर और धारुपुर काली माँ का मन्दिर   प्रसिद्ध है।  कैमूर पर्वत श्रृंखलाओं में स्थित मां ताराचंडी का शक्तिपिठ और जिला मुख्यालय सासाराम से 35 किलोमीटर दूर मां तुत्लेशवरी देवी की मंदिर तुत्राही झील के मध्य में स्थित है।  सासाराम में प्रसिद्ध शेरशाह का मकबरा है। रोहतास  जिले में सूर्यवंशीय राजा हरिश्चंद्र के पुत्र रोहिताश्व द्वारा स्थापित रोहतासगढ़ के नाम पर इस क्षेत्र का नामकरण रोहतास हुआ। प्रसिद्ध इतिहासकार कर्नल टॉड ने लिखा है कि रोहतास क़िला का निर्माण कुशवंशी  लोगों ने करवाया है।1582 ई. में मुग़ल बादशाह अकबर के समय रोहतास, सासाराम, चैनपुर सहित सोन के दक्षिण-पूर्वी भाग के परगनों- जपला, बेलौंजा, सिरिस और कुटुंबा शामिल थे। 1784 ई. में तीन परगनों- रोहतास, सासाराम और चैनपुर को मिलाकर रोहतास जिला बना और  1787 ई. में जिला शाहाबाद जिले का अंग हो गया। 10 नवम्बर 1972 को शाहाबाद से अलग होकर रोहतास जिला पुनः अस्तित्व में आया। 1861 ई. में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण की स्थापना के साथ अलेक्जेंडर कनिंघम पुरातात्विक सर्वेयर नियुक्त हुए। कनिघम ने गया जिले से लेकर पश्चिम में सिंध तक के पुरास्थलों का सर्वे किया था ।1871 ई. में कनिंघम को भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण का महानिदेशक नियुक्त किया गया और उसी समय 1882 ई. में सासाराम स्थित शेरशाह रौजे का जीर्णोद्वार हुआ है।
भलुनी भवानी का भूभाग भगवान परशुराम की यज्ञ स्थली है | रोहतास जिले के बिक्रमगंज अनुमंडल से करीब 16 किमी दूर नटवार रोड के दिनारा प्रखंड में भलुनी धाम आस्था का केन्द्र है। इसे सिद्ध शक्ति पीठ माना जाता है। फ्रांसीसी यात्री बुकानन ने पुस्तक ए टूर रिपोर्ट ऑफ नार्दन इंडिया में भी भलुनी धाम का जिक्र किया है। भगवान परशुराम ने भी इस धाम में यज्ञ किया था। उनका हवन कुंड पोखरा है। धाम में सूर्य मंदिर, कृष्ण मंदिर, साईं बाबा का मंदिर, गणिनाथ मंदिर व रविदास मंदिर भी है। श्रीमद देवी भागवत, मार्कण्डेय पुराण के अलावे वाल्मीकि रामायण में  यक्षिणी भवानी का वर्णन  है। इतिहास के पन्नों के अनुसार देवासुर संग्राम के बाद अहंकार से भरे इंद्र को यक्षिणी देवी ने यहीं सत्य का पाठ पढ़ाया था। इंद्र ने देवी दर्शन के पश्चात उनकी स्थापना की थी।  हंस पृष्ठे सुरज्जेष्ठा सर्पराज्ञाहिवाहना, इन्द्रस्यच तपो भूमिरू शक्तिपीठ कंचन तीरे। यक्षिणी नाम विख्याता त्रिशक्तिश्च समन्विता। मां यक्षिणी : पुराणों व अन्य धर्म ग्रंथों के अनुसार देवी अति प्राचीन हैं। शाकद्वीपीय ब्राह्मण की कुलदेवी यक्षिणी मां है । मग ब्राह्मण का 72 पुरों में भलुनियार की कुल देवी यक्षिणी भवानी है। भलुनि मंदिर में देवी की प्रतिमा के अलावे भगवान शंकर व कुबेर की प्राचीन प्रतिमा भी स्थापित पूर्व मध्यकालीन  है ।मंदिर के बाहर प्राचीन तालाब है। यहां के वन में  लंगूर रहते हैं ।

बुधवार, फ़रवरी 03, 2021

गुप्त नवरात्र : तंत्र मंत्र का द्योतक...


 भारतीय वांग्मय शास्त्रों में उल्लेख है कि पृथ्वी पर रूद्र वरुण यम आदि का प्रकोप बढ़ने लगता है । विपत्तियों से बचाव के लिए गुप्त नवरात्र में मां दुर्गा की उपासना की जाती है । सतयुग में चैत्र नवरात्र , त्रेता में आषाढ़ नवरात्र द्वापर में माघ , कलयुग में आश्विन की साधना-उपासना का  महत्व रहता है । मार्कंडेय पुराण में नवरात्रों में शक्ति के साथ-साथ इष्ट की आराधना का  महत्व है । शिवपुराण के अनुसार  में दैत्य राक्षस दुर्ग ने ब्रह्मा को तप से प्रसन्न करने के बाद   चारों वेद प्राप्त कर लिया था । राक्षसराज दुर्ग का  उपद्रव से वेदों के नष्ट हो जाने से देव-ब्राह्मण पथ भ्रष्ट हो गए धथे। जिससे पृथ्वी पर वर्षों तक अनावृष्टि रही थी । देवताओं ने मां पराम्बा की शरण में जाकर दुर्ग का वध करने का निवेदन किया था । जगदंबा ने अपने शरीर से काली, तारा, छिन्नमस्ता, श्रीविद्या, भुवनेश्वरी, भैरवी, बगला, धूमावती, त्रिपुरसुंदरी और मातंगी दस महाविद्याओं को प्रकट कर दुर्ग का वध किया था । दस महाविद्याओं की साधना के लिए 'गुप्त नवरात्र' मनाया जाने लगा है । गुप्त नवरात्रि में वामाचार पद्धति से उपासना की जाती है यह समय शाक्य एवं शैव धर्मावलंबियों के लिए पैशाचिक, वामाचारी क्रियाओं के लिए अधिक शुभ होता है । इसमें प्रलय एवं संहार के देवता महाकाल एवं महाकाली की पूजा की जाती है साथ ही संहारकर्ता देवी-देवताओं के गणों एवं गणिकाओं अर्थात भूत-प्रेत, पिशाच, बैताल, डाकिनी, शाकिनी, खण्डगी, शूलनी, शववाहनी, शवरूढ़ा आदि की साधना की जाती है । यह साधनाएं बहुत ही गुप्त स्थान पर या किसी सिद्ध श्मशान में की जाती हैं । दुनियां में  चार श्मशान घाट में तंत्र क्रियाओं का परिणाम मिलता है । तारापीठ का श्मशान (पश्चिम बंगाल), कामाख्या पीठ (असम) का श्मशान, त्रयंबकेश्वर (नासिक) और उज्जैन स्थित चक्रतीर्थ श्मशान में गुप्त नवरात्रि में यहां दूर-दूर से साधक गुप्त साधनाएं करने आते हैं । नवरात्रों में लोग अपनी आध्यात्मिक और मानसिक शक्तियों में वृद्धि करने के लिये अनेक प्रकार के उपवास, संयम, नियम, भजन, पूजन योग साधना आदि करते हैं ।  नवरात्रों में माता के सभी 51पीठों पर भक्त विशेष रुप से माता के दर्शनों के लिये एकत्रित होते हैं । माघ मास की  गुप्त नवरात्रि में गुप्त रूप से शिव व शक्ति की उपासना की जाती है । चैत्र व शारदीय नवरात्रि में सार्वजििनक रूप में माता की भक्ति करने ,  आषाढ़ मास की गुप्त नवरात्रि में जहां वामाचार उपासना , माघ मास की गुप्त नवरात्रि में वामाचार पद्धति है। देवी भागवत  के अनुसार माघ मास के  शुक्ल पक्ष की पंचमी को  देवी सरस्वती प्रकट हुई थीं । माघ मास की नवरात्रि में सनातन, वैदिक रीति के अनुसार देवी साधना करने का विधान निश्चित किया गया है गुप्त नवरात्रि विशेष तौर पर गुप्त सिद्धियां पाने का समय है । साधक  गुप्त नवरात्रि (माघ तथा आषाढ़) में विशेष साधना करते हैं तथा चमत्कारिक शक्तियां प्राप्त करते हैं । जयन्ती मङ्गला काली भद्रकाली कपालिनी। दुर्गा क्षमा शिवा धात्री स्वाहा स्वधा नमोऽस्तु ते “सर्वाबाधाविनिर्मुक्तो धनधान्यसुतान्वित:। मनुष्यो मत्प्रसादेन भविष्यति न संशय:॥”
गुप्त नवरात्र में दशमहाविद्याओं की साधना कर ऋषि विश्वामित्र अद्भुत शक्तियों के स्वामी बन गए थे । विश्वामित्र ने एक नई सृष्टि की रचना तक कर डाली थी। लंकापति रावण के पुत्र मेघनाद ने अतुलनीय शक्तियां प्राप्त करने के लिए गुप्त नवरात्रों में साधना की थी । शुक्राचार्य ने मेघनाद को परामर्श दिया  कि गुप्त नवरात्रों में अपनी कुलदेवी निकुम्बाला की साधना करके वह अजेय बनाने वाली शक्तियों का स्वामी बन सकता  है । गुप्त नवरात्र दस महाविद्याओं की साधना की जाती है। गुप्त नवरात्रों से एक प्राचीन कथा जुड़ी हुई है एक समय ऋषि श्रृंगी भक्त जनों को दर्शन दे रहे थे अचानक भीड़ से एक स्त्री निकल कर आई,और करबद्ध होकर ऋषि श्रृंगी से बोली कि मेरे पति दुर्व्यसनों से सदा घिरे रहते हैं,जिस कारण मैं कोई पूजा-पाठ नहीं कर पाती धर्म और भक्ति से जुड़े पवित्र कार्यों का संपादन भी नहीं कर पाती। यहां तक कि ऋषियों को उनके हिस्से का अन्न भी समर्पित नहीं कर पाती मेरा पति मांसाहारी हैं,जुआरी है,लेकिन मैं मां दुर्गा कि सेवा करना चाहती हूं,उनकी भक्ति साधना से जीवन को पति सहित सफल बनाना चाहती हूं ऋषि श्रृंगी महिला के भक्तिभाव से बहुत प्रभावित हुए। ऋषि ने उस स्त्री को आदरपूर्वक उपाय बताते हुए कहा कि वासंतिक और शारदीय नवरात्रों से तो आम जनमानस परिचित है लेकिन इसके अतिरिक्त दो नवरात्र और भी होते हैं, जिन्हें गुप्त नवरात्र कहा जाता है प्रकट नवरात्रों में नौ देवियों की उपासना हाती है और गुप्त नवरात्रों में दस महाविद्याओं की साधना की जाती है। इन नवरात्रों की प्रमुख देवी स्वरुप का नाम सर्वैश्वर्यकारिणी देवी है यदि इन गुप्त नवरात्रों में कोई भी भक्त माता दुर्गा की पूजा साधना करता है तो मां उसके जीवन को सफल कर देती हैं लोभी, कामी, व्यसनी, मांसाहारी अथवा पूजा पाठ न कर सकने वाला भी यदि गुप्त नवरात्रों में माता की पूजा करता है तो उसे जीवन में कुछ और करने की आवश्यकता ही नहीं रहती उस स्त्री ने ऋषि श्रृंगी के वचनों पर पूर्ण श्रद्धा करते हुए गुप्त नवरात्र की पूजा की मां प्रसन्न हुई और उसके जीवन में परिवर्तन आने लगा, घर में सुख शांति आ गई। पति सन्मार्ग पर आ गया,और जीवन माता की कृपा से खिल उठा यदि आप भी एक या कई तरह के दुर्व्यसनों से ग्रस्त हैं और आपकी इच्छा है कि माता की कृपा से जीवन में सुख समृद्धि आए तो गुप्त नवरात्र की साधना अवश्य करें। तंत्र और शाक्त मतावलंबी साधना के दृष्टि से गुप्त नवरात्रों के कालखंड को बहुत सिद्धिदायी मानते हैं मां वैष्णो देवी, पराम्बा देवी और कामाख्या देवी का का अहम् पर्व माना जाता है पाकिस्तान स्थित हिंगलाज देवी की सिद्धि के लिए भी इस समय को महत्त्वपूर्ण माना जाता है शास्त्रों के अनुसार दस महाविद्याओं को सिद्ध करने के लिए ऋषि विश्वामित्र और ऋषि वशिष्ठ ने बहुत प्रयास किए लेकिन उनके हाथ सिद्धि नहीं लगी वृहद काल गणना और ध्यान की स्थिति में उन्हें यह ज्ञान हुआ कि केवल गुप्त नवरात्रों में शक्ति के इन स्वरूपों को सिद्ध किया जा सकता है। गुप्त नवरात्रों में दशमहाविद्याओं की साधना कर ऋषि विश्वामित्र अद्भुत शक्तियों के स्वामी बन गए उनकी सिद्धियों की प्रबलता का अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि उन्होंने एक नई सृष्टि की रचना तक कर डाली थी इसी तरह, लंकापति रावण के पुत्र मेघनाद ने अतुलनीय शक्तियां प्राप्त करने के लिए गुप्त नवरात्र में साधना की थी शुक्राचार्य ने मेघनाद को परामर्श दिया था कि गुप्त नवरात्रों में अपनी कुल देवी निकुम्बाला कि साधना करके वह अजेय बनाने वाली शक्तियों का स्वामी बन सकता है मेघनाद ने ऐसा ही किया और शक्तियां हासिल की राम, रावण युद्ध के समय केवल मेघनाद ने ही भगवान राम सहित लक्ष्मण जी को नागपाश मे बांध कर मृत्यु के द्वार तक पहुंचा दिया था ऐसी मान्यता है कि यदि नास्तिक भी परिहासवश इस समय मंत्र साधना कर ले तो उसका भी फल सफलता के रूप में अवश्य ही मिलता है। यही इस गुप्त नवरात्र की महिमा है यदि आप मंत्र साधना, शक्ति साधना करना चाहते हैं और काम-काज की उलझनों के कारण साधना के नियमों का पालन नहीं कर पाते तो यह समय आपके लिए माता की कृपा ले कर आता है गुप्त नवरात्रों में साधना के लिए आवश्यक न्यूनतम नियमों का पालन करते हुए मां शक्ति की मंत्र साधना कीजिए। गुप्त नवरात्र की साधना सभी मनोकामनाएं पूरी करती हैं गुप्त नवरात्र के बारे में यह कहा जाता है कि इस कालखंड में की गई साधना निश्चित ही फलवती होती है हां, इस समय की जाने वाली साधना की गुप्त बनाए रखना बहुत आवश्यक है अपना मंत्र और देवी का स्वरुप गुप्त बनाए रखें गुप्त नवरात्र में शक्ति साधना का संपादन आसानी से घर में ही किया जा सकता है इस महाविद्याओं की साधना के लिए यह सबसे अच्छा समय होता है गुप्त व चामत्कारिक शक्तियां प्राप्त करने का यह श्रेष्ठ अवसर होता है ।धार्मिक दृष्टि से हम सभी जानते हैं कि नवरात्र देवी स्मरण से शक्ति साधना की शुभ घड़ी है दरअसल, इस शक्ति साधना के पीछे छुपा व्यावहारिक पक्ष यह है कि नवरात्र का समय मौसम के बदलाव का होता हैआयुर्वेद के मुताबिक इस बदलाव से जहां शरीर में वात, पित्त, कफ में दोष पैदा होते हैं, वहीं बाहरी वातावरण में रोगाणु जो अनेक बीमारियों का कारण बनते हैं सुखी-स्वस्थ जीवन के लिये इनसे बचाव बहुत जरूरी है नवरात्र के विशेष काल में देवी उपासना के माध्यम से खान-पान, रहन-सहन और देव स्मरण में अपनाने गए संयम और अनुशासन तन व मन को शक्ति और ऊर्जा देते हैं जिससे इंसान निरोगी होकर लंबी आयु और सुख प्राप्त करता है धर्म ग्रंथों के अनुसार गुप्त नवरात्र में प्रमुख रूप से भगवान शंकर व देवी शक्ति की आराधना की जाती है। देवी दुर्गा शक्ति का साक्षात स्वरूप है दुर्गा शक्ति में दमन का भाव भी जुड़ा है। यह दमन या अंत होता है शत्रु रूपी दुर्गुण, दुर्जनता, दोष, रोग या विकारों का ये सभी जीवन में अड़चनें पैदा कर सुख-चैन छीन लेते हैं। यही कारण है कि देवी दुर्गा के कुछ खास और शक्तिशाली मंत्रों का देवी उपासना के विशेष काल में जाप शत्रु, रोग, दरिद्रता रूपी भय बाधा का नाश करने वाला माना गया है सभी’नवरात्र’ शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से लेकर नवमी तक किए जाने वाले पूजन, जाप और उपवास का प्रतीक है- ‘नव शक्ति समायुक्तां नवरात्रं तदुच्यते’। देवी पुराण के अनुसार एक वर्ष में चार माह नवरात्र के लिए निश्चित हैं। 
नवरात्र के नौ दिनों तक समूचा परिवेश श्रद्धा व भक्ति, संगीत के रंग से सराबोर हो उठता है। धार्मिक आस्था के साथ नवरात्र भक्तों को एकता, सौहार्द, भाईचारे के सूत्र में बांधकर उनमें सद्भावना पैदा करता है शाक्त ग्रंथो में गुप्त नवरात्रों का बड़ा ही माहात्म्य गाया गया है मानव के समस्त रोग-दोष व कष्टों के निवारण के लिए गुप्त नवरात्र से बढ़कर कोई साधनाकाल नहीं हैं श्री, वर्चस्व, आयु, आरोग्य और धन प्राप्ति के साथ ही शत्रु संहार के लिए गुप्त नवरात्र में अनेक प्रकार के अनुष्ठान व व्रत-उपवास के विधान शास्त्रों में मिलते हैं इन अनुष्ठानों के प्रभाव से मानव को सहज ही सुख व अक्षय ऐश्वर्य की प्राप्ति होती है ‘दुर्गावरिवस्या’ नामक ग्रंथ में स्पष्ट लिखा है कि साल में दो बार आने वाले गुप्त नवरात्रों में माघ में पड़ने वाले गुप्त नवरात्र मानव को न केवल आध्यात्मिक बल ही प्रदान करते हैं, बल्कि इन दिनों में संयम-नियम व श्रद्धा के साथ माता दुर्गा की उपासना करने वाले व्यक्ति को अनेक सुख व साम्राज्य भी प्राप्त होते हैं ‘शिवसंहिता’ के अनुसार ये नवरात्र भगवान शंकर और आदिशक्ति मां पार्वती की उपासना के लिए भी श्रेष्ठ हैं। गुप्त नवरात्रों के साधनाकाल में मां शक्ति का जप, तप, ध्यान करने से जीवन में आ रही सभी बाधाएं नष्ट होने लगती हैं। देहि सौभाग्यमारोग्यं देहि मे परमं सुखम्।रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥देवी भागवत के अनुसार जिस तरह वर्ष में चार बार नवरात्र आते हैं और जिस प्रकार नवरात्रि में देवी के नौ रूपों की पूजा की जाती है, ठीक उसी प्रकार गुप्त नवरात्र में दस महाविद्याओं की साधना की जाती है। गुप्त नवरात्रि विशेषकर तांत्रिक क्रियाएं, शक्ति साधना, महाकाल आदि से जुड़े लोगों के लिए विशेष महत्त्व रखती है इस दौरान देवी भगवती के साधक बेहद कड़े नियम के साथ व्रत और साधना करते हैं इस दौरान लोग लंबी साधना कर दुर्लभ शक्तियों की प्राप्ति करने का प्रयास करते हैं गुप्त नवरात्र के दौरान कई साधक महाविद्या (तंत्र साधना) के लिए मां काली, तारा देवी, त्रिपुर सुंदरी, भुवनेश्वरी, माता छिन्नमस्ता, त्रिपुर भैरवी, मां ध्रूमावती, माता बगलामुखी, मातंगी और कमला देवी की पूजा करते हैं मान्यता है कि नवरात्र में महाशक्ति की पूजा कर श्रीराम ने अपनी खोई हुई शक्ति है। ऋतु संधियों में अक्सर शारीरिक बीमारियाँ बढ़ती हैं, अत: उस समय स्वस्थ रहने के लिए, शरीर को शुद्ध रखने के लिए और तनमन को निर्मल और पूर्णत: स्वस्थ रखने के लिए की जाने वाली प्र
हिंदू रीति-रिवाजों में, नवरात्रि एक पवित्र त्योहार है जो पूरे उत्साह के साथ वर्ष में दो बार मनाया जाता है। यह नौ दिनों का उत्सव है जो पूरे भारत में देवी दुर्गा को उनके विभिन्न रूपों में पूजने के लिए मनाया जाता है।शास्त्र में चार प्रकार के नवरात्रि  में शरद नवरात्रि, चैत्र नवरात्रि, माघ नवरात्रि और आषाढ़ नवरात्रि का उल्लेख किया गया है।। शरदीय और चैत्र नवरात्रि प्रचलित हैं, माघी और आषाढ़ी को गुप्त नवरात्रि कहा जाता है। है। शास्त्रों के अनुसार गुप्त नवरात्रि‘माघ मास’ में जिसे माघ गुप्त नवरात्रि  ‘आषाढ़ मास’ में आषाढ़ गुप्त नवरात्रि के रूप में मनाया जाता है। गुप्त नवरात्रि के दौरान गुप्त रूप से देवी दुर्गा के विभिन्न रूपों को ‘शक्ति’ के रूप में जाना जाता है। गुप्त नवरात्रि के पीछे मुख्य विचारधारा यह है कि देवी की पूजा गुप्त रूप से की जाती है, जो बाकी दुनिया से छिपी होती है। यह मुख्य रूप से साधुओं और तांत्रिकों द्वारा शक्ति की देवी को प्रसन्न करने के लिए व तंत्र साधना के लिए मनाया जाता है। गुप्त नवरात्रि के दौरान गुप्त अनुष्ठान किए जाते हैं जहां देवी दुर्गा की पूजा इस समय के दौरान देवी दुर्गा के 10 रूपों को प्रसन्न करने के लिए की जाती है। ऐसा माना जाता है कि इस त्यौहार के दौरान भक्त देवी की पूजा करके अपनी सभी इच्छाओं को पूरा कर सकते हैं लेकिन अनुष्ठानों को गुप्त रखने की आवश्यकता होती है क्योंकि पूजा की सफलता इसके पीछे गोपनीयता की मात्रा पर निर्भर करती है। गुप्त नवरात्रि में देवी दुर्गा के विभिन्न रूप हैं- माँ कालिके , तारा देवी , त्रिपुर सुंदरी , भुवनेश्वरी , माता चित्रमस्ता , त्रिपुर भैरवी ,माँ धूम्रवती , माता बगलामुखी , मातंगी , कमला देवी है।  मंत्रों का जाप, देवी दुर्गा की उत्पत्ति का वर्णन करते हैं और राक्षस महिषासुर का मुकाबला करने के लिए कैसे सभी देवताओं की शक्तियां देवी में समाहित हुईं ताकि वह उसका वध कर सकें, और दुनिया की बुरी शक्तियों पर उनकी जीत हो। गुप्त नवरात्रि के दौरान, तंत्र मंत्र साधना में विश्वास करने वाले, अपने गुप्त तांत्रिक क्रियाकलापों के साथ-साथ सामान्य नवरात्रि की तरह ही उपवास करते हैं और अन्य अनुष्ठान करते हैं। देवी दुर्गा के सामने दुर्गा सप्तशती मार्ग और मार्खदेव पुराण का पाठ किया जाता है। नवरात्रि के सभी दिनों में उपवास या सात्विक आहार का सेवन किया जाता है। गुप्त नवरात्रि, जिसे गायत्री नवरात्रि के रूप में भी जाना जाता है, हिंदू कैलेंडर के आषाढ़ महीने के दौरान मनाया जाता है जो आमतौर पर जून-जुलाई के बीच आता है। इस 9-दिवसीय धार्मिक क्रिया के दौरान देवी दुर्गा को प्रसन्न करने का मुख्य तरीका तंत्र विद्या के मंत्रों के साथ देवी के शक्तिशाली आह्वान को मंत्रमुग्ध करना है। गुप्त नवरात्रि के दौरान पूजा की सबसे प्रसिद्ध विधि तांत्रिक विद्या है जिसमें धन, बुद्धि और समृद्धि प्राप्त करने के लिए देवी दुर्गा की आराधना शामिल है। गुप्त नवरात्रि की पूजा शैतानी ताकतों के प्रभाव को खत्म करने के लिए की जाती है? जिसे भक्तों के दिलों से बुराई के डर को दूर करने के लिए शक्तिशाली माना जाता है। गुप्त नवरात्रि मैं देवी दुर्गा को शक्तिशाली मंत्र और गुप्त तंत्र विद्या व तांत्रिक साधनाओं के रूप में गुप्त पूजा की  जाती है । गुप्त नवरात्र तंत्र मंत्र सिद्ध करने का द्योतक है । तंत्र शास्त्रों के अनुसार शक्ति की उपासना का रुप गुप्त नवरात्रि है और मनोवैज्ञानिक है । तंत्र मंत्र का साधना स्थान असम में  कामख्या , बंगाल में दक्षिणेश्वृर काली, गया का मां  बांग्ला , मंगला , मातंगी, रामगढ़ का क्षिन्नमस्तिके  51शक्तिपीठ  है।