सोमवार, अक्तूबर 31, 2022

सकारात्मक ऊर्जा का द्योतक है गोपाष्टमी..


    सनातन धर्म संस्कृति और वैदिक साहित्य में गोपाष्टमी का उल्लेख है । सुर  और असुर द्वारा समुद्रमंथन के तहत कार्तिक शुक्ल अष्टमी को कामधेनु की उत्पत्ति हुई थी । हिन्दू धर्म में कामधेनु गौ माता को पूज्य  हैं। वैज्ञानिको का शोध के अनुसार  गाय में सकारात्मक उर्जा निरंतर प्रवाहित  और नकारात्मक ऊर्जा का प्रभाव से मुक्त करने का मार्ग है । गाय की रीढ़ की हड्डी में सूर्यकेतु स्नायु पाने के कारण हानिकारक विकिरण को रोक कर पर्यावरण को स्वच्छ बनाने में सक्रिय  हैं । सूर्यकेतु नाड़ी सूर्य के संपर्क में आने से स्वर्ण उत्पन्न करती है। गाय के दूध, मूत्र और गोबर में मिलता है। और इन चीजों का सेवन करना स्वास्थ्य के लिए लाभदायक रहता हैं ।  पृथ्वी पर गाय  ऑक्सीजन ग्रहण कर ऑक्सीजन ही छोड़ता है । गाय के गोबर में विटामिन बी-12 की प्रचुर मात्रा पायी जाती है। विटामिन बी-12 रेडियोधर्मिता को सोखने में सक्षम  हैं । गाय की दूध के सेवन करने से मानव जीवन का सर्वागीण विकास कर सकारात्मक ऊर्जा का संचार , गोबर से नकस्रात्मक ऊर्जा से मुक्त और गाय के मूत्र ,गोबर , दूध , दही और घी सकारात्म  ऊर्जा का संचार निरंतर करता है ।देवीभागवत पुराण के अनुसार  गोहत्यां ब्रह्महत्यां च करोति ह्यतिदेशिकीम्।यो हि गच्छत्यगम्यां च यः स्त्रीहत्यां करोति च ॥ २३ ॥भिक्षुहत्यां महापापी भ्रूणहत्यां च भारते।कुम्भीपाके वसेत्सोऽपि यावदिन्द्राश्चतुर्दश ॥ २४ ॥ समुद्रमन्थन के दौरान धरती पर दिव्य गाय की उत्पत्ति हुई | भारतीय गोवंश को माता का दर्जा दिया गया है ।शास्त्रों में गाय  पूजनीय  है । भगवत पुराण के अनुसार, सागर मन्थन के समय पाँच दैवीय कामधेनु  नन्दा, सुभद्रा, सुरभि, सुशीला, बहुला निकलींथी ।  कामधेनु या सुरभि को संस्कृत: में कामधुक ब्रह्मा द्वारा ली गई। दिव्य वैदिक गाय (गौमाता) ऋषि को दी गई ताकि उसके दिव्य अमृत पंचगव्य का उपयोग यज्ञ, आध्यात्मिक अनुष्ठानों और संपूर्ण मानवता के कल्याण के लिए किया जा सके। भारत में गाय की ३० से अधिक नस्लों में  लाल सिन्धी, साहिवाल, गिर, देवनी, थारपारकर आदि नस्लें भारत में दुधारू गायों की  नस्लें हैं। भारतीय गाय  तीन वर्गों में विभाजित किया जाता है। एकांगी गाएँ दूध  खूब देती और  पुंसंतान अकर्मण्य कृषि में अनुपयोगी होती है। वत्स एकांगी   गाएँ दूध कम देती हैं किंतु उनके बछड़े कृषि और गाड़ी खींचने के काम आते हैं। गाएँ दूध  प्रचुर देती  और  बछड़े  कर्मठ होते हैं। ऐसी गायों को सर्वांगी नस्ल की गाय कहते हैं। साहीवाल गाय का मूल स्थान पाकिस्तान में है। राजस्थान के बीकानेर,श्रीगंगानगर, पंजाब में मांटगुमरी जिला और रावी नदी के आसपास लायलपुर, लोधरान, गंजीवार आदि स्थानों में पाई जाती है। बिलोचिस्तान का केलसबेला इलाका भी इनके लिए प्रसिद्ध है। इन गायों का रंग बादामी या गेहुँआ, शरीर लंबा और चमड़ा मोटा होता है। ये दूसरी जलवायु में भी रह सकती हैं तथा इनमें रोगों से लड़ने की अद्भुत शक्ति होती है। कच्छ की छोटी खाड़ी से दक्षिण-पूर्व का भूभाग, अर्थात् सिंध के दक्षिण-पश्चिम से अहमदाबाद और रधनपुरा तक का प्रदेश, काँकरेज गायों का मूलस्थान है। सर्वांगी गाय काठियावाड़, बड़ोदा और सूरत में  मिलती हैं।  रंग रुपहला भूरा, लोहिया भूरा या काला होता है। टाँगों में काले चिह्न तथा खुरों के ऊपरी भाग काले होते हैं। ये सिर उठाकर लंबे और सम कदम रखती हैं। चलते समय टाँगों को छोड़कर शेष शरीर निष्क्रिय प्रतीत होता है जिससे इनकी चाल अटपटी मालूम पड़ती है। सवाई चाल से प्रसिद्ध गाय है। केंद्रीय गोवंश अनुसंधान संस्थान में गाय पर शोध करने वाले वैज्ञानिकों के अनुसार कांकरेज गाय किसानों की आमदनी  बढ़ाती है। राजस्थान में  सांचोरी गाय  है। कार्तिक शुक्ल अष्टमी को गोपाष्टमी का उत्सव मनाया जा रहा है। । गाय को हमारी संस्कृति में पवित्र माना जाता है। इसके पीछे बहुत सी किवदंतियां हैं। श्रीमद्भागवत में उल्लेख है कि  जब देवता और असुरों ने समुद्र मंथन किया तो उसमें कामधेनु निकली। पवित्र होने पर ऋषियों ने अपने पास रख लिया। माना जाता है कि कामधेनु से ही अन्य गायों की उत्पत्ति हुई।भगवान श्रीकृष्ण भी गायों की सेवा करते थे। श्रीकृष्ण रोज सुबह गायों की पूजा करते थे और ब्राह्मणों को गौदान करते थे। महाभारत में बताया गया है कि गाय के गोबर और मूत्र में देवी लक्ष्मीका निवास है। इसलिए इन दोनों चीजों का उपयोग शुभ काम में किया जाता है। हिन्दू धर्म में गाय का महत्व होने के पीछे एक कारण  है कि गाय को दिवयगुणों का स्वामी कहा गया है। उनमें की देवी देवता का निवास माना गया है। पौराणिक ग्रंथों में कामधेनु का जिक्र भी मिलता है। आइस मान्यता है कि गोपाष्टमी की पूर्व संध्या पर गाय की पूजा करने वाले लोगों को सुख समृद्धि और सौभाग्य प्राप्त होता है।





शनिवार, अक्तूबर 29, 2022

सूर्योपासना और मगध...


    सौरसम्प्रदाय की संस्कृत में भगवान सूर्य की उपासना का महत्व है । सिंध क्षेत्र के मध्य मुल्तान , उर्वर पंजाब , मरुभूमि बहबलपुर की सभ्यता के सृजक  स्तिथ है । सिंध क्षेत्र में विश्व का सबसे बड़ा सूर्य मंदिर था। सिंध सूर्य मंदिर के  उपासक पख्त राजपुत्रों को पख्तून एवं पठान है । ने महाभारत युद्ध मे भी भाग लिया था।   काबुल घाटी व अफगानी नांगरहार प्रान्त में  स्तिथ जून  व सूर्य के उपासकों की भूमि थी। जून से सन' शब्द का जन्म हुआ  था ।  'गुर्जर प्रतिहार राज्य का तुर्क शाही' और  काबुल की हिन्दू शाही सल्तनत था । अरब के अफगानी व मुल्तान के सूर्य मन्दिरों को रौंदा मुल्तान पर अरबों का कब्जा हो गया सूर्य प्रतिमा में जड़े सुर्ख लाल रूबी लूट लिए हए सूर्य उपासक मुल्तान इत्यादि से बेदखल हो हिंदुस्तान में यहां वहां बसने लगे उनमे से कुछ सूर्य की वैद्यकीय (मेडिकल इम्पोर्टेंस) के जानकार थे उन्होंने इस परंपरा को बिहार में नन्हे पौधे की तरह रोप दिया जो आज वट वृक्ष (बरगद) बन गया हैं। अफगानी पठानों का  सूरी राजवंश 'सूरी'  था।  सूर्य उपासकों के परिवार से मुस्लिम बने शेरशाह सूरी  बिहार के सासाराम  में तलाव के मध्य में दफ़न हैं।  सूर्य उपासना अरबी वहशत में पंजाब से  बिहार में स्थापित हो गयी ।  अरबों के साथ बसे कूर्द लोगों में सूर्य उपासना  प्रथा विद्यमान हैं। सूर्य उपासना पर सम्राट जयपाल, सम्राट आनन्दपाल व समेत त्रिलोचनपाल के संघर्ष को  काबुल गंधार मुल्तान में  समृद्ध परम्पराओं के  क्षत्रिय वीर वाहक थे। विश्व में सूर्य क्षेत्र है। भारत का ओड़िशा के  कोणार्क, गुजरात का मोढेरा, उत्तर प्रदेश का थानेश्वर (स्थाण्वीश्वर), पाकिस्तान का मुल्तान (मूलस्थान) , सूर्य पूजा के वैदिक मन्त्र में  कश्यप गोत्रीय कलिङ्ग देशोद्भव कहते हैं। मगध साम्राज्य में कीकट , मागध , अंग , कर्ण , निमि , बुध , इला , च्यवन , सुकन्या , शर्याति , करूष , गय , वसु , नाग प्रियब्रत , इंद्रदयुम्न , एल , जरासंध , सहदेव , साम्ब , भगवान राम , कृष्ण , चाणक्य , आर्यभट्ट , वराहमिहिर , शक , विक्रमादित्य  आदि राजाओं द्वारा सूर्योपासना का विकास किया गया ।
जापान, मिस्र, पेरु के इंका राजा सूर्य वंशी थे।  सूर्य को भारतीय ज्योतिष में इनः  है। सोवियत रूस में 1987 ई.की खोज एवं 1930 का पंडित मधुसूदन ओझा की पुस्तक इन्द्रविजय के अनुसार अर्काइम प्राचीन सूर्य पीठ है ।  पण्डित चन्द्रशेखर उपाध्याय के लेख ’रूसी भाषा और भारत’1931  के अनुसार  प्रायः ३००० रूसी शब्दों की सूची के तहत रूस में सूर्य पूजा के लिए ठेकुआ बनता था। एशिया-यूरोप सीमा पर हेलेसपौण्ट सूर्य पूजा का केन्द्र था। ग्रीक में सूर्य को  हेलिओस  है। प्राचीन विश्व  क्षेत्र उज्जैन से ६-६ अंश अन्तर पर थे । विश्व की सीमाओं पर ३० स्थान पर पिरामिड आदि निर्मित  हैं। भारत और विश्व में सूर्य के कई क्षेत्र है। बिहार में  छठ पूजा मुंगेर-भागलपुर में स्थित अंग वंशीय , महाभारत काल में कर्ण सूर्य पूजक थे। औरंगाबाद  जिले के देव में सूर्य मन्दिर है। महाराष्ट्र के देवगिरि की तरह औरंगाबाद जिले का देव है।अंग वंशीय मागध काल में  गया  प्राचीन काल में कर्क रेखा पर था सूर्य गति की उत्तर सीमा है।  सौर मण्डल को पार करनेवाले आत्मा अंश के लिए गया श्राद्ध होता है। सौर मण्डल को पार करने वाले प्राण को गय कहा जाता है । गोपथ ब्राह्मण पूर्व 5/14 के अनुसार स यत् आह गयः असि-इति सोमं या एतत् आह, एष ह वै चन्द्रमा भूत्वा सर्वान् लोकान् गच्छति-तस्मात् गयस्य गयत्वम् । शतपथ ब्राह्मण 14 / 8/ 15 /7 और वृहदारण्यक उपनिषद 5/14/4  में उल्लेख में प्राणा वै गयः अर्थात गया और देव-दोनों प्रत्यक्ष देव सूर्य के मुख्य स्थान हैं । बिहार के पटना, मुंगेर तथा भागलपुर के नदी पत्तनों से समुद्री जहाज जाते थे। पटना नाम का  पत्तन है ।ओड़िशा में कार्त्तिक-पूर्णिमा को बइत-बन्धान वहित्र - नाव, जलयान का उत्सव होता है जिसमें पारादीप पत्तन से अनुष्ठान रूप में जहाज चलते हैं। कार्त्तिक  में सादा भोजन करने की परम्परा है । व्यक्ति दिन में एक बार भोजन करने के  बाद समुद्र यात्रा के योग्य होते हैं। समुद्री यात्रा से पहले घाट तक सामान ढोने के लिए बहंगी हैं। ओड़िशा में  बहंगा बाजार है। कार्त्तिक पूर्णिमा से ९ दिन पूर्व छठ होता है।
 कार्त्तिक मास में  कृत्तिका नक्षत्र आकाश में ६ तारों के समूह के रूप में दीखता है। कृतिका नक्षत्र  अनन्त वृत्त की सतह पर विषुव तथा क्रान्ति वृत्त (पृथ्वी कक्षा) का कटान विन्दु है। जिस विन्दु पर क्रान्तिवृत्त विषुव से उत्तर की तरफ निकलने के कारण  कृत्तिका (कैंची) कहते हैं। कृतिका की २ शाखा विपरीत विन्दु पर मिलती हैं, वह विशाखा नक्षत्र हुआ। आंख से या दूरदर्शक से देखने पर आकाश के पिण्डों की स्थिति स्थिर ताराओं की तुलना में दीखती है । ऋग्वेद 10 / 106 /8  के अनुसार पतरेव चर्चरा चन्द्र-निर्णिक्  अर्थात पतरा में तिथि निर्णय चचरा में चन्द्र गति से होता है। नाले पर बांस के लट्ठों का पुल चचरा है, चलने पर वह चड़-चड़ आवाज करता है।  
गणना के लिये विषुव-क्रान्ति वृत्तों के मिलन विन्दु से गोलीय त्रिभुज पूरा होने को गणना करते हैं। दोनों शून्य विन्दुओं में (तारा कृत्तिका-गोल वृत्त कृत्तिका) में जो अन्तर है वह अयन-अंश है। वैदिक रास-चक्र कृत्तिका से शुरु होता है। आकाश में पृथ्वी के अक्ष का चक्र २६,००० वर्ष का है। रास वर्ष का आरम्भ भी कार्त्तिक मास से होता है जिस मास की पूर्णिमा को चन्द्रमा कृत्तिका नक्षत्र में होने से  रास-पूर्णिमा हैं। कार्त्तिक मास में समुद्री तूफान बन्द होने से  कार्त्तिक पूर्णिमा से  समुद्री यात्रा शुरु होने के कारण से ओड़िशा में बालि-यात्रा कहते हैं। कार्त्तिक मास से आरम्भ होने वाला विक्रम सम्वत् विक्रमादित्य द्वारा गुजरात के समुद्र तट सोमनाथ से शुरु हुआ था। पूर्वी भारत में बनारस तक गंगा नदी में जहाज चलते थे। बनारस से समुद्र तक जाने में ७-८ दिन लग जाने के तहत  ९ दिन पूर्व छठ पर्व आरम्भ हो जाता है। यात्रा के पूर्व घाट पर रसद सामग्री ले जाते हैं। ओड़िशा में पूरे कार्त्तिक मास प्रतिदिन १ समय बिना मसाला के सादा भोजन करते हैं । समुद्री यात्रा के लिये अभ्यस्त करता है । बिहार में ३ दिन का उपवास बिना जल का करते हैं ।  सूर्य की स्थिति से अक्षांश, देशान्तर तथा दिशा ज्ञात की जाती है । गणित ज्योतिष में त्रिप्रश्नाधिकार कहा जाता है। विश्व में समय क्षेत्र की सीमा पर स्थित स्थान सूर्य क्षेत्र कहे जाते थे। लंदन के ग्रीनविच को शून्य देशान्तर मान कर उससे ३०-३० मिनट के अन्तर पर विश्व में ४८ समय-भाग हैं। उज्जैन से 6 - 6 अंश के अन्तर पर 60 भाग थे।  क्षेत्रों के राजा अपने को सूर्यवंशी पेरू, मेक्सिको, मिस्र, इथिओपिया, जापान के राजा थे । उज्जैन का समय पृथ्वी का समय का  देवता महा-काल हैं। रेखा पर पहले विषुव स्थान पर लंका के राजा को कुबेर (कु = पृथ्वी, बेर = समय कहते थे। भारत में उज्जैन रेखा के निकट स्थाण्वीश्वर (स्थाणु = स्थिर, ठूंठ) या थानेश्वर तथा कालप्रिय (कालपी) था । 6 अंश पूर्व कालहस्ती, 12  अंश पूर्व कोणार्क का सूर्य क्षेत्र समुद्र के भीतर  कार्त्तिकेय द्वारा समुद्र में स्तम्भ बनाया गया था , 18 अंश पूर्व असम में राजा भसगदंत की राजधानी शोणितपुर , 24  अंश पूर्व मलयेसिया के पश्चिम लंकावी द्वीप, 42  अंश पूर्व जापान की पुरानी राजधानी क्योटो है। पश्चिम में 6 अंश पर मूलस्थान (मुल्तान), १२ अंश पर ब्रह्मा का पुष्कर (बुखारा-विष्णु पुराण २/८/२६), मिस्र का मुख्य पिरामिड 45  अंश पर, हेलेसपौण्ट (हेलियोस = सूर्य) या डार्डेनल 42  अंश पर, रुद्रेश (लौर्डेस-फ्र्ंस-स्विट्जरलैण्ड सीमा) 72  अंश पर, इंगलैण्ड की प्राचीन वेधशाला लंकाशायर का स्टोनहेञ्ज 78  अंश पश्चिम, पेरु के इंका (इन = सूर्य) राजाओं की राजधानी 150  अंश पर लंका या मेरु हैं।  वाराणसी की लंका में  सवाई जयसिंह ने वेधशाला बनाई थी। वेधशाला  स्थान को लोलार्क कहा जाता था ।  पटना के पूर्व पुण्यार्क (पुनारख) के  दक्षिण कर्क रेखा पर देव था। औरंगाबाद  को देवगिरि कहते थे।
ज्योतिषीय शास्त्र ,  सूर्य सिद्धान्त और सूर्योपनिषद 13 / 1  में उल्लेख है कि किसी  स्थान पर वेध करने के पहले सूर्य पूजा करनी चाहिये । मग ब्राह्मण  आदित्यदास के द्वारा सूर्य पूजा के पश्चात वराहमिहिर का जन्म हुआ था। गायत्री मन्त्र  सूर्य की उपासना है । प्रथम पाद उसका स्रष्टा रूप में वर्णन  है-तत् सवितुः वरेण्यं। सविता = सव या प्रसव (जन्म) करने वाला। यह सविता सूर्य ही है, तत् (वह) सविता सूर्य का जन्मदाता ब्रह्माण्ड (गैलेक्सी) का भी जन्मदाता परब्रह्म है। गायत्री का द्वितीय पाद दृश्य ब्रह्म सूर्य के बारे में है-भर्गो देवस्य धीमहि। वही किरणों के सम्बन्ध द्वारा हमारी बुद्धि को भी नियन्त्रित करता है-धियो यो नः प्रचोदयात्। मग ब्राह्मण को  शकद्वीपी हैं ।  बिहार , झारखंड , उड़ीसा , नेपाल , के वन में शाक वृक्ष अधिक है । शक सूर्य द्वारा काल गणना को  शक  सौर वर्ष पर आधारित है । किसी विन्दु दिनों की गणना शक (अहर्गण) है। चान्द्र मास का समन्वय करने पर पर्व का निर्णय होता है। सौर और चंद्र से समाज चलने पर  सम्वत्सर  हैं। अग्नि पूजकों को पारसी कहा  गया है। ऋग्वेद तथा सामवेद के प्रथम मन्त्र  अग्नि से हैं । अग्नि को अग्निं ईळे पुरोहितम्, अग्न आयाहि वीतये आदि , यजुर्वेद के आरम्भ में  ईषे त्वा ऊर्हे त्वा वायवस्थः में अग्नि ऊर्जा की गति की चर्चा है। अंग वंशीय राजा पृथु के राजा होने पर सबसे पहले मगध के लोगों ने उनकी स्तुति की थी, अतः खुशामदी लोगों को मागध कहते हैं। मागध को  बन्दी राज्य के अनुगत तथा सूत इतिहास परम्परा चलाने वाले  हैं। राजा  मागध द्वारा मगध साम्राज्य की स्थापना कर गया राजधानी बनाई थी । भविष्य पुराण में मग कहा है । मग के ज्योतिषी जेरुसलेम गये थे । मग की भविष्यवाणी के कारण ईसा को महापुरुष माना गया। ऋग्वेद 3 / 53/8 के अनुसार  सूर्य से हमारी आत्मा का सम्बन्ध किरणों के मध्यम से 01मुहूर्त 48 मिनट) में 3 बार जा कर लौट आता है । 15 करोड़ किलोमीटर की दूरी एक तरफ से, तीन लाख कि.मी. प्रति सेकण्द के हिसाब से आठ मिनट लगेंगे। शरीर के भीतर नाभि का चक्र सूर्य चक्र पाचन को नियन्त्रित करता है।  स्वास्थ्य के लिये भी सूर्य पूजा की जाती है।  सूर्य-नमस्कार हैं।षष्ठी को क्यों-मनुष्य जन्म के बाद छठे  या 21  वें नक्षत्र चक्र के २७ दिनमें उलटे क्रम से बच्चे को सूतिका गृह से बाहर निकलने लायक मानते हैं। मनुष्य भी विश्व में 6 ठी कृति मानते हैं। विश्व के 5 पर्व हुये थे- स्वयम्भू पूर्ण विश्व , परमेष्ठी या ब्रह्माण्ड (गैलेक्सी), सौर मण्डल, चन्द्रमण्डल, पृथ्वी थे । कण रूप में भी मनुष्य 6 ठी रचना है-ऋषि रस्सी, स्ट्रिंग , मूल कण, कुण्डलिनी (परमाणु की नाभि), परमाणु, कोषिका कलिल = सेल  के बाद 6 ठा मनुष्य है ।  स्वायम्भुव मनु , वैवस्वतमनु के मन्वंतर में सूर्योपासना एवं प्रकृति पूजन की प्रधानता हुई थी । सनातन धर्म मे सौर सम्प्रदाय में भगवान सूर्य को इष्ट देव कहा गया है । भगवान सूर्यदेव के 12 अवतारों को आदित्य कहा जाता है। सौरसम्प्रदाय के अनुयायी  मग द्वारा विश्व में सूर्योपासना का केंद्र स्थापित किया गया था ।

गुरुवार, अक्तूबर 27, 2022

भगवान विष्णु की योग निंद्रा ..


शास्त्रों एवं स्मृतियों में  सम्पूर्ण सृष्टि का रचयिता व पालनहार भगवान विष्णु   क्षीर सागर में शेषनाग पर निवास करते हुए सृष्टि करते  है । नेपाल के  शिवपुरी का  विशाल झील में भगवान विष्णु  निवास कर रहे है। नेपाल के बुढ़ानीलकंठ मंदिर  प्रसिद्ध और पवित्र परिसर है । नेपाल के काठमांडू से १०किमी. दूर शिवपुरी की पहाड़ी पर स्थित भव्य मंदिर में भगवान विष्णु की (शयन) सोती हुई प्रतिमा विराजित हैं । शालिग्राम  पत्थर से तराशी गई मूर्ति की ऊंचाई 5  मीटर और लंबाई 13 मीटर युक्त शालिग्राम पत्थर में निर्मित भगवान विष्णु  झील  के मध्य यह स्थित है ।  मूर्ति में भगवान विष्णु शेषनाग की शैया पर लेटे हुए है । भगवान विष्णु के  हाथो में सुदर्शन चक्र, शंख, गदा और कमल का फूल लिए हुए हैं । बूढानी नीलकंठ मंदिर भगवान विष्णु के साथ-साथ भगवान शिव को  समर्पित है।  "बुढ़ानीलकंठ" अर्थात् जिसका अप्रत्यक्ष रुप से विराजमान है ।  भगवान विष्णु की प्रतिमा के ठीक नीचे भगवान शिव की  छवि देखने को मिलती हैं। स्मृतियों और पुराणों के अनुसार अमृत पाने की लालसा में  देवताओं और असुरो ने समुद्र मंथन करने  से  विष  निकलने से सम्पूर्ण सृष्टि का विनाश के कगार पर आ गया  था । सृष्टि को विष की  विनाश से बचाने के लिए भगवान शिव  ने विष को अपने कंठ में लेने के कारण भगवान शिव का  कंठ नीला पड़ गया । जब विष के दुष्प्रभावों के कारण भगवान शिव का कंठ जलने के कारण  नेपाल के काठमांडू से 10 मिल की दूरी पर  भगवान शिव ने त्रिशूल के प्रहार से  झील का निर्माण कर  जल से भगवान शिव ने अपने कंठ की पीड़ा को शांत किया था ।  झील को "गोसाई कुंड" , नीलकंठ झील , शिवगंज , शिवपुरी  से ख्याति  हैं। शिवगंज में स्थित भगवान विष्णु की योगनिंद्रा के रूप में  कार्तिक शुक्ल   एकादशी को भगवान विष्णु के इस अद्भुत प्रतिमा के दर्शन करते है। नेपाल के काठमांडू से 10 किमि पर अवस्थित  शिवपुरी में स्थित भगवान  विष्णु जी का मंदिर नक्काशियों के लिए प्रसिद्ध है । शिवगंज झील में स्थापित मंदिर बुढ़ानिलकंठ में भगवान विष्णु की सोती हुई प्रतिमा विराजित है।



बुढ़ानिलकुंठ मंदिर में भगवान विष्णु की शयन प्रतिमा विराजमान है, मंदिर में विराजमान इस मूर्ति की लंबाई लगभग 5 मीटर है और तालाब की लंबाई करीब 13 मीटर ब्रह्मांडीय समुद्र का प्रतिनिधित्व करता है। भगवान विष्णु की  तालाब में स्थित विष्णु जी की मूर्ति शेष नाग की कुंडली में विराजित है । मूर्ति में विष्णु के पैर पार हो गए हैं और बाकी के ग्यारह सिर उनके सिर से टकराते हुए दिखाए गए हैं। भगवान विष्णु प्रतिमा में विष्णु जी चार हाथ उनके दिव्य गुणों को बता रहे हैं, पहला चक्र मन का प्रतिनिधित्व करना, एक शंख चार तत्व, एक कमल का फूल चलती ब्रह्मांड और गदा प्रधान ज्ञान को दिखा रही है। मंदिर में भगवान विष्णु प्रत्यक्ष मूर्ति के रूप में विराजमान एवं भगवान शिव पानी में अप्रत्यक्ष रूप से विराजित हैं। बुदनीलकंठ के पानी को गोसाईकुंड में उत्पन्न  है ।  शिव उत्सव एवं जेउष्ठान  के दौरान झील के पानी के नीचे शिव की एक छवि देखी जा सकती है। सनातन धर्म ग्रंथों में भगवान विष्णु का योगनिद्रा में स्थित मूर्ति को  आषाढ़ शुक्ल एकादशी और कार्तिक शुक्ल पक्ष एकादशी , जेउष्ठान , जेठान  में दर्शन एवं उपासना करने से अभीष्ट फल की प्राप्ति होती है। शिवगंज का गोसेकुण्ड में भगवान विष्णु का शयन के समक्ष शान्ताकारं भुजंगशयनं पद्मनाभं सुरेशं , विश्वाधारं गगन सदृशं मेघवर्ण शुभांगम् । लक्ष्मीकांत कमलनयनं योगिभिर्ध्यानगम्यं , वन्दे विष्णु भवभयहरं सर्व लौकेक नाथम् ॥ यं ब्रह्मा वरुणैन्द्रु रुद्रमरुत: स्तुन्वानि दिव्यै स्तवैवेदे: । सांग पदक्रमोपनिषदै गार्यन्ति यं सामगा: ।ध्यानावस्थित तद्गतेन मनसा पश्यति यं योगिनो यस्यातं न विदु: सुरासुरगणा दैवाय तस्मै नम: ॥ 
अर्थात जिनकी आकृति स्वरूप अतिशय शांत है,जो ‍जगत के आधार व देवताओं के भी ईश्वर (राजा) है, जो शेषनाग की शैया पर विश्राम किए हुए हैं, जिनकी नाभि में कमल है और जिनका वर्ण श्याम रंग का है, जिनके अतिशय सुंदर रूप का योगीजन ध्यान करते हैं, जो गगन के समान सभी जगहों पर छाए हुए हैं, जो जन्म-मरण के भय का नाश करने वाले हैं, जो सम्पूर्ण लोकों के स्वामी हैं, जिनकी भक्तजन बन्दना करते हैं, ऐसे लक्ष्मीपति कमलनेत्र भगवान श्रीविष्णु को अनेक प्रकार से विनती कर प्रणाम करता हूँ । ब्रह्मा, शिव, वरुण, इन्द्र, मरुद्गण जिनकी दिव्य स्तोत्रों से स्तुति गाकर रिझाते है, सामवेद के गाने वाले अंग, पद, क्रम और उपनिषदों के सहित वेदों द्वारा जिनका गान करते हैं, योगीजन ध्यान में स्थित प्रसन्न हुए मन से जिनका दर्शन करते हैं, देवता और असुर जिनके अंत को नही पाते, उन नारायण को सौरभ नमस्कार करता हैं ।

रविवार, अक्तूबर 16, 2022

ब्रह्मांड का नेत्र है भगगवन सूर्य....


वैदिक एवं स्मृति साहित्य में भगवान सूर्य का उल्लेख जगत की आँखे के रूप में किया है । भगवान सूर्य की उपासना विश्व के भिन्न भिन्न क्षेत्र में विभिन्न रूप से सहस्त्र वर्षो से होती आ रही है । शाकद्वीप के मग ब्राह्मण द्वारा सनातन धर्म के सौर सम्प्रदाय का रूप दे कर भगवान सूर्य को आराध्य देव बताया गया है । स्वायम्भुव मनु एवं शतरूपा , प्रियब्रत , , कीकट राजा कीकट , अंग , पृथु , मगध साम्राज्य का संस्थापक मागध , वैवस्वतमनु के वंशज शर्याति की पुत्री सुकन्या , , करूष , नेमी , इक्ष्वाकु वंशीय राजा में हरिश्चन्द्र , बाण , भगवान राम , राजा  हर्षवर्द्धन के कवि मयुर भट्ट का सूर्य शतक , मगध साम्राज्य का राजा जरासंध , सहदेव  , द्वारिकाधीश कृष्ण , सांबपुर का राजा साम्ब ने सूर्योपासना का रूप दिया है ।वैवस्वतमनु की की पुत्री इला एवं वृहस्पति व तारा पुत्र बुध , मन्वंतर काल में सूर्योपासना होती रही है । बिहार एवं झारखंड के निवासी लोकपर्व छठ पूजा , सूर्यपूजा , सूर्योपासना , सूर्यार्घ्य पर्व महान पर्व मानते है । शाकद्वीपीय ब्राह्मण द्वारा 72 गांवों में सूर्योपासना का केंद्र स्थापित कर सौर सम्प्रदाय की नींव डाला था ।   नेपाल का काठमांडू के  पाशुपत क्षेत्र में स्थित  गुह्येश्वरी मंदिर समीप बागमती नदी के पूर्वी तट पर अवस्थित सूर्यघाट स्थान पर प्राचीन कालीन भव्य सूर्य मंदिर था ।कालांतर सूर्यमंदिर नष्ट हो जाने के बाद पुनः सूर्यमंदिर का निर्माण कर प्राचीन भगवान सूर्य मंदिर की मूर्ति स्थापित की गई है । यहां प्रत्येक शुक्ल सप्तमी तिथि को श्रद्धालुओं द्वारा भगवान सूर्य की उपासना की जाती है । पाशुपत क्षेत्र स्थित सूर्य मंदिर में स्थित भगवान सूर्य की उपासना एवं अर्घ्य देकर उपासकों को चक्षुरोग , चर्मरोग से मुक्ति मिलती है साथ ही साथ सर्वांगीण सुख मिलता है । नेपाल का भक्तपुर के समीप सूर्यविनायक मंदिर में भगवान सूर्य की चतुर्भुज मूर्ति है । यह मूर्ति का सिर किरानावलियों से आवृत हाथ में शंख ,चक्र , गदा ,और अभय मुद्रा युक्तभागवां सूर्य  है । भक्तपुर के राजा विनायक  द्वारा अपने कुष्ट रोग निवृति के पश्चात सूर्यविनायक मंदिर का निर्माण कराया था ।वैवस्वत मन्वंतर काल में ऋषि कश्यप की भार्या माता अदिति द्वारा भगवान सूर्य के 12 अवतार में इंद्र , धता ,पर्जन्य , त्वष्ठा , पूषा, अर्यमा , भग ,विवस्वान , विष्णु , अंशुमान , वरुण  और मित्र हुए है । भगवान इंद्र आदित्य की मूर्ति देवराज इंद्र , धता आदित्य की मूर्ति प्रजापति , पर्जन्य आदित्य की मूर्ति बादलों , त्वष्टा की मूर्ति वनस्पति व औषधियों ,पूषा आदित्य की मूर्ति प्रसज जनों की पुष्टि करने में अर्यमा आदित्य की मूर्ति वायु, भानु आदित्य की मूर्ति देहधारियों में है । विवस्वान की मूर्ति  अग्नि में स्थित जीवों के खाए हुए अन्न को पचते है। विष्णु आदित्य की मूर्ति देव शत्रुओं का नाश करने वाले , समाज , धर्म रक्षक , अंशुमान आदित्य वायु , वरुण आदित्य जल् तथा मित्र आदित्य कु मूर्ति  सम्पूर्ण जगत का रक्षक है । ब्रह्मपुराण के अनुसार  मित्र आदित्य द्वारा जगत कल्याण के लिए सौरसम्प्रदाय और सूर्य उपासना और देवर्षि नारद जी को सूर्योपनिषद का मंत्र दिया गया था ।
वैदिक साहित्य , ऋगवेद , सतपथ ब्राह्मण , उत्तरवैदिक साहित्य ,रामायण , महाभारत , भविष्य , अग्नि , विष्णु , ब्रह्म , वायु  , सूर्य और मत्स्य पुरणों में भगवान सूर्य परंपराओं का विकास हुआ हसि । सूर्योपनिषद में भगवान सूर्य को भगवान ब्रह्मा , विष्णु और रुद्र का रूप मन है। एष ब्रह्मा च विष्णुश्च रुद्र एष हि भास्कर: ।।सूर्योपनिषद ।।शतपथ ब्राह्मण और पुरणों के अनुसार द्वादशादित्य में धातृ , मित्र ,आर्यमन , रुद्र , वरुण ,सूर्य ,भाग ,विवस्वान , सविता , त्वष्ठा ,और विष्णु का उल्लेख मिलता है । ईरानियों में भगवान सूर्य। के रूप में मित्र और आर्यमन की उपासना होती थी । गुप्त काल के पूर्व   सौर सम्प्रदाय के उपासक भगवान सूर्य को आदि देव मानते हसि ।  मुल्तान ,मथुरा ,कोणार्क कश्मीर ,उज्जैन ,गुजरात का मोढ़ेरा  , बिहार का गया के गयार्क , औरंगाबाद के देव स्थित देवार्क , पटना जिले के पंडारक स्थित पुण्यार्क , नालंदा का अंगयार्क , उल्यार्क़ , अरवल जिले के खतांगी का सूर्य मूर्ति ,उमगा पर्वत , बराबर पर्वत समूह का सूर्यान्क गिरि , काको का सूर्य , गया फल्गु नदी स्थित ब्रह्मीघाट में मध्याह्न सूर्य मूर्ति में भगवान सूर्य के साथ माता संध्या , रथचलक वरुण , सूर्यपुत्र यम और शनि के साथ है । यह स्थल  सूर्य उपासको का केंद्र था । गया में प्रातः काल मध्याह्न केयाल और सायंकाल की सूर्य मूर्ति है ।जहानबद जिले के दक्षणी में उत्तरायण और दक्षिणायन सूर्य ओरंगाबाद जिले के देव में प्रातः , मध्य एवं सायं काल का सूर्य मूर्ति की स्थापना राज एल द्वारा कराई गई थी । उत्तराखंड का चमोली जिले के जोशीमठ , झारखंड के रांची , मुजफ्फरपुर , दरभंगा , भोजपुर का बेलाउर मुंगेर मे भगवान सूर्य की प्राचीन मंदिर एवं मूर्तियां स्थापित है । मैत्रक राजवंश और पुष्यभूति राजवंश के राजा परम आदित्य भक्त के रूप में जाने जाते थे ।पांचाल के मित्र राजाओं के शासन में सूर्य  सिक्के प्रचलित थे । भजकी बौद्ध गुफा और जैन गुफा  में सूर्य की प्रतिमा , उड़ीसा के खंडगिरि के अनंतगुफ़ा में 2 री शती ई. , गंधार में  सूर्य मूर्ति स्थापित है। वृहदसंहिता एवं मत्स्य पुराण 260/  104 के अनुसार शकों शासक के द्वारा उदीच्यवेशमें रथारूढ़ सूर्य प्रतिमा स्थापित हुए थे । शाकद्वीप में उपास्यदेव  भगवान सूर्य है ।उत्तरदेश निवासी उदीच्य सूर्य अर्थात भगवान सूर्य की खड़ी के शरीर ढके , पैरों में बूट , कंधे पर जनेऊ पहने हुए  प्रतिमा की उपासना करते हैं ।बंगाल का राजशाही द्वारा निदायत पुर ,कुमारपुर , ईरान में दंडी और पिंगल के रूप में भगवान सूर्य की मूर्ति की उपासना करते हैं।
विश्व की मानव सभ्यता का साक्षी भगवान सूर्य की उपासना विभिन्न प्रकार से की जाती है । मित्तनी, हित्ती, मिस्र के राजाओं के लिए सूर्यपूजा का स्रोत भारत  था। ऋग्वेद की ऋचाओं में सूर्य के लिए लैटिन में ‘ सो ‘, ग्रीस में ‘हेलियोस’, मिस्र में ‘रा’ व ‘होरुस’  है। सिकंदर के अभियानों के बाद सीरिया , रोम एवं ईरानी  साम्राज्य में  मित्र (सूर्य) की उपासना होती थी । रोमन शासक मिथ्रादतेस्  धारण करते थे। मिश्र में  मित्र सूर्य  मंदिर बनाए गये थे। मिस्र में राजा मित्र देवता के प्रत्यक्ष रूप माने जाते थे। सूर्य देव को ‘ रे ‘स्थानों पर सृष्टिकर्ता  है। शाकद्वीप के मग  ब्राह्मणों द्वारा सौर सम्प्रदाय का सृजन कर भगवान सूर्य की उपासना और अर्घ्य की परंपरा कायम की हसि । सौर सम्प्रदाय के उपासक लाल वस्त्र धरि , ललाट पर रक्तचंदन , लाल पुष्प की माला और लाल जनेऊ धारक रहते है । सनातन धर्म का सौर सम्प्रदाय द्वारा प्रत्येक मास का शुक्लपक्ष सप्तमी और रविवर तथा कार्तिक और चैत्र  शुक्ल पक्ष के षष्टी एवं सप्तमी भगवान सूर्य को समर्पित किया गया है । ऋषियों में भारद्वाज , अगस्त , अत्रि , वशिष्ट , राजाओं में प्रियव्रत , वैवस्वतमनु , सूर्यवंशी , चंद्रवंशी आदि राजाओं द्वारा भगवान सूर्य की उपासना करते थे । सतयुग ,त्रेता ,द्वापर में विभिन्न राजाओं ने सौर सम्प्रदाय का आदित्य हृदय का पथ कर भगवान सूर्य की उपासना की है । 
 कुषाण काल में सूर्य की मूर्तियां मथुरा के संग्रहालय में सूर्य मूर्ति की  बनावट और साज-सज्जा पूर्णत: मध्य-एशियाई है। कालिदास ने ‘रघुवंशम’ में सूर्य की उपस्थापन का  सूर्य के सात अश्वों का उल्लेख है। गुप्त सम्राट कुमार गुप्त के शासनकाल में रेशम बुनकरों के संघ ने मंदसौर के निकट दशपुर में सूर्यमंदिर का जीर्णोद्धार करवाया था। हूण शासक तोरमाण और मिहिरकुल सूर्य की पूजा करते थे। थानेश्वर के राज्यवर्धन, आदित्यवर्धन, प्रभाकरवर्धन  शासक सूर्योपासक थे। इतिहास के पन्नो एवं अलबिरुद्दीन के अनुसार   मुल्तान के सूर्य मंदिर का उल्लेख में वर्णन किया है कि  मुल्तान में , “सूर्य की  सबसे प्रसिद्ध मूर्ति को  आदित्य कहलाती थी। मुल्तान की सूर्यमूर्ति  कृतयुग में बनी थी।’ मुल्तान के सूर्य मंदिर का उल्लेख स्कन्दपुराण में  है। 13 वीं सदी में निर्मित उड़ीसा का कोर्णाक सूर्य मंदिर अत्यंत भव्य और विशाल है। सौर सम्प्रदाय के सूर्य उपासक समुदाय के अनुयायी मस्तक पर लाल चंदन की सूर्य आकृति बनाते  और लाल पुष्पों की माला पहनते तथा लालवस्त्र धारक है । ताेनातिहू, वह जिसकी काया सेे प्रकाश बिखर रहा है और जो सभी आजटेक लोगों (मध्य अमेरीकी देशों के मूल निवासीआजटेक का प्रधान देव  टोनातिहु के उपासक  और मध्य अमेरिका के लोगों के सूर्य हैं। अमेरीकी गाथाओं में  सूर्य देव उपासना प्रमुख है । आजटेक लोगों ने अपने प्राणों की बलि देकर सूर्यदेव को प्रसन्न किया, उसके बाद सूर्य ब्रह्मांड में अवतरित हुए। सूर्य का पांचवां रूप टोनातिहु  है । वैज्ञानिक रूप से यह समुदाय सूर्य अथवा तारों की उत्पत्ति और विनाश की बात करता है। ऋग्वैदिक युग में  ऋग्वैदिक नाम ‘सविता’ भी है। ऋग्वैदिक काल में वे जगत के चराचर जीवों की आत्मा हैं। वे सात घोड़े के रथ पर सवार रहते हैं और जगत को प्रकाशित करते हैं। वे प्रकृति के सर्वश्रेष्ठ रूप हैं। कालांतर में देशभर में उनकी पूजा प्रारंभ हुई। कुषाण काल में सूर्य की मूर्तियां भी बननी शुरू हो गईं। कालिदास ने ‘रघुवंशम’ में सूर्य की उपस्थापन का वर्णन किया है। उन्होंने सूर्य के सात अश्वों का उल्लेख किया है। गुप्त सम्राट कुमार गुप्त के शासनकाल में रेशम बुनकरों के संघ ने मंदसौर के निकट दशपुर में एक सूर्यमंदिर का जीर्णोद्धार करवाया था। हूण शासक तोरमाण और मिहिरकुल सूर्य की पूजा करते थे। थानेश्वर के राज्यवर्धन, आदित्यवर्धन, प्रभाकरवर्धन  शासक सूर्योपासक थे। चैत्र मास में विष्णु आदित्य ,वैशाख में अर्यमा आदित्य ,जेष्ठ में विवस्वान ,आषाढ़ में अंशुमान ,श्रवण में पर्जन्य ,भाद्रपद में वरुण ,आश्विन में इंद्र आदित्य ,कार्तिक में धता आदित्य , अगहन में मित्र आदित्य  पौष में पूषा आदित्य , माघ में भग और फाल्गुन मास में त्वष्ठा आदित्य के रूप में भगवान सूर्य तपते है ।
सूर्य उपासना केंद्र स्थल पर विभिन्न युगों के राजाओं द्वारा सूर्य मूर्ति की स्थापना , सूर्यमंदिर एवं तलाव का निर्माण कराया गया । बिहार राज्य के औरंगाबाद जिले के देव प्रखंड के देव स्थित त्रेतायुगीन राजा एल द्वारा  पश्चिमाभिमुख सूर्य मंदिर , उमगा , सीतामढ़ी के पुनौरा , पटना जिले के पालीगंज अनुमंडल का उलार सूर्यमंदिर ,सहरसा जिले का महिषी प्रखंड के कन्दाहा सूर्यमंदिर ,नालंदा जिले का बड़ागाँव एवं सूरजपुर सूर्यमंदिर ,नवादा जिले का नादरगंज प्रखंड के हड़िया  सूर्यमंदिर ,रोहतास जिले का सझौली प्रखंड के उदयपुर सूर्यमंदिर , झारखंड राज्य का इडलहतु, गिरिडीह जिले का मीरगंज स्थित जगन्नाथडीह , बोकारो ,बुंडू , 7 वीं सदी ई. में निर्मित सिमडेगा का विरुगढ़ में  भगवान सूर्य मूर्ति एवं सूर्यमंदिर निर्मित है । जरमुंडी प्रखंड के केशरी ,सिदगोड़ा  , टंडवा के बड़कागाँव  में प्राचीन सूर्य मूर्ति है बंगाल राज्य का पुरुलिया ,गुप्तिपडा ,रानीगंज के अलावा कटारमल ,रणकपुर ,प्रतापगढ़ ,महोबा ,रहली , झाड़वाड ,गुजरात का मोढ़ेरा ,तमिलनाडु का सूर्यनार ,कश्मीर का मार्तण्ड , ओडिसा का कोणार्क , वाराणसी के लोलार्क सूर्यमंदिर सूर्योपासना का स्थल है । बादायुनी के अनुसार बीरबर के प्रेरणा से मुगल बादशाह अकबर द्वारा दीन -ए -इलाही धर्म के देवता भगवान सूर्य  की स्थापना 1582 ई. में की गई थी । दीन ए इलाही के तहत भगवान सूर्य और अग्नि की उपासना और प्रत्येक रविवार को सूर्योपासना के लिए अवकाश घोषित किया गया था । पारसी धर्म के संस्थापक जरयुष्ट्र द्वारा 1700 ई. पूर्व जोरोएस्त्रिनिज्म पारस का स्थापित किया गया था । पारसी ग्रंथ जंद अवेस्ता के अनुसार 650 ई. पु. इराकी की स्थापना के बाद ईरान हुआ था । सूर्य और अग्नि उपासक पारसी धर्म के संस्थापक जरथुष्ट्र द्वारा अवेस्तन भाषा में अहुरा मजदा व होर मजद अर्थात अग्नि और रूपेंता अमेशा अर्थात सूर्य उपासना के लिए आतिषबेहराम अर्थात सूर्यमंदिर की स्थापना की गई थी ।आर्मेनिया ,रोम ,ग्रीक ,मिश्र  में मित्र आदित्य की उपासना अपोलो के रूप में कई जाती थी ।आस्ट्रेलिया ,फ्रांस ,इंग्लैंड , इटली ,पोलैंड ,जापान ,यूरोप , लंदन में सूर्योपासना का केंद्र 307 ई. तक विकसित था । 4 थीं सदी ई. पूर्व  आर्मेनियन लोग प्रत्येक रविवार को सूर्योपासना करते थे ।





गुरुवार, अक्तूबर 13, 2022

ऐश्वर्य प्राप्ति का है दीपदान...


    वैदिक पंचांग  एवं शास्त्रों के अनुसार कार्तिक मास में दीप प्रज्वलित करने का महत्व है। कार्तिक मास भगवान विष्णु , कार्तिकेय का मास है । कार्तिक में  देवालयों , गोशाला , पीपल , बरगद , आंवला वृक्ष , तुलसी के पौधे , नदी के किनारे ,सड़क , जलासय ,चौराहे , ब्राह्मण के घर या अपने घर में दीप प्रज्वलित कर सर्वागीण फल की प्राप्ति किया जाता है। अग्निपुराण  अध्याय 200 वे  के अनुसार देवद्विजातिकगृहे दीपदोऽब्दं स सर्वभाक् ।। अर्थात जो मनुष्य देवमन्दिर अथवा ब्राह्मण के गृह में दीपदान करता है, वह सबकुछ प्राप्त कर लेता है। पद्मपुराण के अनुसार मंदिरों में और नदी के किनारे दीपदान करने से लक्ष्मी जी प्रसन्न होती हैं। दुर्गम स्थान अथवा भूमि पर दीपदान करने से व्यक्ति नरक जाने से बच जाता है। देवालय में, नदी के किनारे, सड़क पर दीप देता है, उसे सर्वतोमुखी लक्ष्मी  प्राप्त होती है। कार्तिक में प्रतिदिन दो दीपक जरूर जलाएं। एक श्रीहरि नारायण के समक्ष तथा दूसरा शिवलिंग के समक्ष । पद्मपुराण के अनुसार तेनेष्टं क्रतुभिः सर्वैः कृतं तीर्थावगाहनम्। दीपदानं कृतं येन कार्तिके केशवाग्रतः।। जिसने कार्तिक में भगवान् केशव के समक्ष दीपदान किया है, उसने सम्पूर्ण यज्ञों का अनुष्ठान कर लिया और समस्त तीर्थों में गोता लगा लिया।
ब्रह्मवैवर्त पुराण में उल्लेख है की  जो कार्तिक में श्रीहरि को घी का दीप देता है, वह जितने पल दीपक जलता है, उतने वर्षों तक हरिधाम में आनन्द भोगता है। फिर अपनी योनि में आकर विष्णुभक्ति पाता है; महाधनवान नेत्र की ज्योति से युक्त तथा दीप्तिमान होता है। स्कन्दपुराण माहेश्वरखण्ड-केदारखण्ड के अनुसारये दीपमालां कुर्वंति कार्तिक्यां श्रद्धयान्विताः॥ यावत्कालं प्रज्वलंति दीपास्ते लिंगमग्रतः॥ तावद्युगसहस्राणि दाता स्वर्गे महीयते॥ जो कार्तिक मास की रात्रि में श्रद्धापूर्वक शिवजी के समीप दीपमाला समर्पित करता है, उसके चढ़ाये गए वे दीप शिवलिंग के सामने जितने समय तक जलते हैं, उतने हजार युगों तक दाता स्वर्गलोक में प्रतिष्ठित होता है। लिंगपुराण के अनुसार कार्तिके मासि यो दद्याद्धृतदीपं शिवाग्रतः।। संपूज्यमानं वा पश्येद्विधिना परमेश्वरम्।। अर्थात जो कार्तिक महिने में शिवजी  के सामने घृत का दीपक समर्पित करता है अथवा विधान के साथ पूजित होते हुए परमेश्वर का दर्शन श्रद्धापूर्वक करता है, वह ब्रह्मलोक को जाता है।यो दद्याद्धृतदीपं च सकृल्लिंगस्य चाग्रतः।। स तां गतिमवाप्नोति स्वाश्रमैर्दुर्लभां रिथराम्।। अतएव जो शिव के समक्ष एक बार भी घृत का दीपक अर्पित करता है, वह वर्णाश्रमी लोगों के लिये दुर्लभ स्थिर गति प्राप्त करता है। आयसं ताम्रजं वापि रौप्यं सौवर्णिकं तथा।। शिवाय दीपं यो दद्याद्विधिना वापि भक्तितः।। सूर्यायुतसमैः श्लक्ष्णैर्यानैः शिवपुरं व्रजेत्।। जो विधान के अनुसार भक्तिपूर्वक लोहे, ताँबे, चाँदी अथवा सोने का बना हुआ दीपक शिव को समर्पित है, वह दस हजार सूर्यों के सामान देदीप्यमान विमानों से शिवलोक को जाता है।
 मनुष्य देवमन्दिर अथवा ब्राह्मण के गृह में एक वर्ष दीपदान करता है, वह सबकुछ प्राप्त कर लेता है। कार्तिक में दीपदान करने वाला स्वर्गलोक को प्राप्त होता है। दीपदान से बढ़कर न कोई व्रत है, न था और न होगा ही। दीपदान से आयु और नेत्रज्योति की प्राप्ति होती है। दीपदान से धन और पुत्रादि की प्राप्ति होती है। दीपदान करने वाला सौभाग्ययुक्त होकर स्वर्गलोक में देवताओं द्वारा पूजित होता है। एकादशी को दीपदान करने वाला स्वर्गलोक में विमान पर आरूढ़ होकर प्रमुदित होता है। मिट्टी, ताँबा, चाँदी, पीतल अथवा सोने के दीपक को अच्छे से साफ़ कर लें। मिटटी के दीपक को कुछ घंटों के लिए पानी में भिगो कर सुखा लें। उसके पश्च्यात प्रदोषकाल में अथवा सूर्यास्त के बाद उचित समय मिलने पर दीपक, तेल, गाय घी, बत्ती, चावल अथवा गेहूँ लेकर मंदिर जाएँ। घी  में रुई की बत्ती तथा तेल के दीपक में लाल धागे या कलावा की बत्ती इस्तेमाल कर सकते हैं। दीपक रखने से पहले उसको चावल अथवा गेहूं अथवा सप्तधान्य का आसन दें। दीपक को भूल कर भी सीधा पृथ्वी पर नही रखना चाहिए । कालिका पुराण में उल्लेख किया गया है कि दातव्यो न तु भूमौ कदाचन।* *सर्वसहा वसुमती सहते न त्विदं द्वयम्।। अकार्यपादघातं च दीपतापं तथैव च। तस्माद् यथा तु पृथ्वी तापं नाप्नोति वै तथा।। अर्थात सब कुछ सहने वाली पृथ्वी को अकारण किया गया पदाघात और दीपक का ताप सहन नही होता । उसके बाद एक तेल का दीपक शिवलिंग के समक्ष रखें और दूसरा गाय के घी का दीपक श्रीहरि नारायण के समक्ष रखें। दीपक मंत्र पढ़ते हुए दोनों दीप प्रज्वलित करें। दीपक को प्रणाम करें। दारिद्रदहन शिवस्तोत्र तथा गजेन्द्रमोक्ष का पाठ करना चाहिए ।
स्कन्द पुराण में  श्री हरि को समस्त देवताओं और बद्रीनारायण को  तीर्थों और कार्तिक मास   श्रेष्ठ माना है। कार्तिक  मास में जलाशय में स्नान और दीपदान का विशेष महत्व है। स्कन्द , नारद ,पद्म पुरणों  के अनुसार 'न कार्तिकसमो मासो न कृतेन समं युगम्। न वेदसदृशं शास्त्रं न तीर्थं गंगा समम्।।' अर्थात कार्तिक के समान कोई अन्य मास श्रेष्ठ नहीं, सतयुग के समान कोई युग नहीं, वेद के समान कोई शास्त्र नहीं और गंगाजी के समान कोई तीर्थ नहीं है। स्कन्द पुराण में कार्तिक को समस्त महीनों में, श्री हरि को समस्त देवताओं में और बद्रीनारायण को सभी तीर्थों में श्रेष्ठ माना है। शास्त्रों में कहा गया है कि कार्तिक मास में मनुष्य की उत्तम स्वास्थ्य, पारिवारिक उन्नाति, ईशकृपा आदि कामनाओं की पूर्ति सहज ही हो जाती है। कार्तिक मास का एक नाम शास्त्रों में दामोदर मास मिलता है। कार्तिक मास में भगवान विष्णु की आराधना और मंगलगान से उनकी कृपा प्राप्त होती है। मान्यता है कि जो फल कुंभ में प्रयाग में स्नान करने पर मिलता है, वही फल कार्तिक माह में किसी पवित्र नदी के तट पर स्नान करने से मिलता है। पुराणों के अनुसार व्यक्ति कार्तिक  मास में स्नान, दान तथा व्रत इत्यादि करने से विष्णु की परमकृपा का भागी बनता है। कार्तिक में पूरे माह ब्रह्ममुहूर्त में किसी नदी, तालाब, नहर या पोखर में स्नान कर भगवान की पूजा किए जाने का विधान है। इस मास में नदी के जल में स्नान करने से मोक्ष की प्राप्ति बताई गई है। कार्तिक मास के स्नान का धार्मिक ही नहीं वैज्ञानिक  है।कार्तिक मास में  सूर्य की किरणें सीधे पृथ्वी तक आने से वातावरण स्वास्थ्य के अनुकूल होता है। प्रात:काल  नदी , जलासय  में अथवा स्नान करने से ताजी हवा से शरीर में स्फूर्ति का संचार से शारीरिक बीमारियां अपने आप ही समाप्त हो जाती है। प्रात:काल उठने से व्यक्ति ऊर्जायमान  रहता है। आरोग्यता के लिए कार्तिक स्नान ,  प्रात: काल स्नान के पश्चात राधा-कृष्ण का तुलसी, पीपल, आंवले आदि से पूजन करना चाहिए। देवताओं की परिक्रमा कर सायंकाल में भी भगवान विष्णु की पूजा तथा तुलसी पूजा करना चाहिए।कार्तिक मास में दीप प्रज्ज्वलन भगवान शिव, चण्डी, सूर्य तथा अन्य देवों के मंदिर में दीप प्रज्ज्वलित करने से अश्वमेघ यज्ञ करने से  पुण्य की प्राप्ति होती है। कार्तिक मास में माता यशोदा ने भगवान  कृष्ण को अपने प्रेम-बंधन में बांधा और  भक्त भी श्रीकृष्ण को अपनी भक्ति प्रेम से प्रसन्ना करने का प्रयास करते हैं। कार्तिक माह में पहले पंद्रह दिन की रातें वर्ष की सबसे काली रातों में से होती हैं। लक्ष्मी पति के जागने के ठीक पूर्व के इन दिनों में दीप जलाने से जीवन का अंधकार छटता है। कार्तिक मास में तुलसी को पूजने का विशेष महत्व है। भगवान श्री हरि तुलसी के हृदय में शालिग्राम रूप में निवास करते हैं इसलिए तुलसी पूजनएवं  तुलसी दल का प्रसाद ग्रहण करना श्रेष्ठ  है। कार्तिक मास में मनुष्य को भूमि पर शयन करने पर  विलासिता से मनुष्य को मुक्त कर विनम्र करता है।



बुधवार, अक्तूबर 12, 2022

विश्व वांग्मय इतिहास में भारत ..


    सनातन धर्म की सांस्कृतिक विरासत कीछाप वेदों , स्मृति और पुरणों में मिलता है। स्मृति और ज्योतिष शास्त्रों में सौर सम्प्रदाय के विभिन्न ग्रंथों में समय , दिन , माह, नक्षत्र , ऋतुएं , मौसम , मन्वंतर , संबत्सर , युग और विभिन्न देश का उल्लेख विभिन्न क्षेत्रों का किया गया है ।  भारतीय संबत छात्र मास शुक्ल पक्ष प्रतिपदा और नेपाली संबत कार्तिक मास कृष्ण पक्ष प्रतिपदा प्रारम्भ होता है । भारत के  सौर मास में विक्रम संबत में चैत्र , वैशाख , जेठ , आषाढ़ , सावन ,भाद्रपद , आश्विन , कार्तिक , अग्रह्यन , पूष , माघ और फाल्गुन तथा अधिकमास ( पुरुषोत्तम मास ) होते है वही चंद्रमास के  नेपाली संबत में कछला , थिंला , . पोहेल, सिल्ला , चिल्ला ,चौला , बछला , तछला ,दिल्ला , . गुंला , ञला और कौला मास तथा  बारह चान्द्रमासों के अतिरिक्त हर तीसरे वर्ष जोड़ा जाने वाला 13  वाँ वर्ष को   अनला  कहा जाता है । नेपाली सम्बत भारतीय शक का नेपाली संबत  है ।  पुराणों में भारत के भूस्थल का उल्लेख किया गया है।  उत्तरी गोलार्ध को चार  खण्डों में विभक्त किया गया है । सुमेरु के चार  पार्श्व के चार  रंग हैं । सुमेरु पर्वत की ऊँचाई एक लाख योजन का   विषुव रेखा को स्पर्श करता  है । सुमेरु पर्वत की सतह पर पृथ्वी गोल के सतह विन्दुओं के प्रक्षेप से समतल  बनता था। आयताकार नक्शा बनने पर ध्रुव प्रदेश का आकार अनन्त हो जाता है। उत्तरी ध्रुव में जल है। दक्षिण गोल में ध्रुव प्रदेश स्थल को अनन्त द्वीप कहा जाता था । उत्तरी गोलार्द्ध  के ९०-९० अंशों के ४ खण्डों को भू-पद्म का भारत, पूर्व में भद्राश्व, पश्चिम में केतुमाल, विपरीत दिशा में कुरु वर्ष है। भूपद्म में  भारत का मध्यप्रदेश के  उज्जैन के दोनों तरफ ४५-४५ अंश पूर्व पश्चिम तथा विषुव से ध्रुव प्रदेश तक का भाग है। सूर्य सिद्धान्त के अनुसार उज्जैन से ९० अंश पूर्व यमकोटिपत्तन, ९० अंश पश्चिम रोमक पत्तन, तथा विपरीत दिशा में सिद्धपुर है। पुराणों के अनुसार भारत के पूर्वी किनारा   पर इन्द्र की अमरावती, पश्चिम किनारे  पर यम की संयमनी (सना, अम्मान, मृत सागर, यमन), अमरावती से ९० अंश पूरब वरुण की सुखा (हवाई द्वीप या फ्रेञ्च पोलिनेसिया), १८० अंश पूर्व सोम की विभावरी को न्यूयार्क या सूरीनाम है। भारत भाग को छोड़ कर उत्तर के ३ तथा दक्षिण के ४ खण्ड ७ तल या पाताल हैं। विष्णु पुराण २/२ के अनुसार -भद्राश्वं पूर्वतो मेरोः केतुमालं च पश्चिमे। वर्षे द्वे तु मुनिश्रेष्ठ तयोर्मध्यमिलावृतः॥२४॥ भारताः केतुमालाश्च भद्राश्वाः कुरवस्तथा। पत्राणि लोकपद्मस्य मर्यादाशैलबाह्यतः।४०॥ विष्णु पुराण (२/८)-मानसोत्तर शैलस्य पूर्वतो वासवी पुरी। दक्षिणे तु यमस्यान्या प्रतीच्यां वारुणस्य च। उत्तरेण च सोमस्य तासां नामानि मे शृणु॥८॥ वस्वौकसारा शक्रस्य याम्या संयमनी तथा। पुरी सुखा जलेशस्य सोमस्य च विभावरी॥९॥ , सूर्य सिद्धान्त १२/३८-४२ के अनुसार भू-वृत्त-पादे पूर्वस्यां यमकोटीति विश्रुता। भद्राश्व वर्षे नगरी स्वर्ण प्राकार तोरणा॥३८॥ याम्यायां भारते वर्षे लङ्का तद्वन् महापुरी। पश्चिमे केतुमालाख्ये रोमकाख्या प्रकीर्तिता॥३९॥ उदक् सिद्धपुरी नाम कुरुवर्षे प्रकीर्तिता॥४०॥ भू-वृत्त-पाद विवरास्ताश्चान्योऽन्यं प्रतिष्ठिता॥४१॥ स्वर्मेरुर्स्थलमध्ये नरको बड़वामुखं च जल मध्ये , आर्यभटीय, ४/१२ के अनुसार मेरुः स्थितः उत्तरतो दक्षिणतो दैत्यनिलयः स्यात्॥३॥ एते जलस्थलस्था मेरुः स्थलगोऽसुरालयो जलगः। लल्ल एवं  शिष्यधीवृद्धिद तन्त्र, १७/३-४) में उल्लेख है कि सुमेरु पर्वत के उत्तर में भारत के पश्चिम में अतल, केतुमाल , पूर्ब में सुतल, विपरीत दिशा में पाताल है। दक्षिण में भारत के दक्षिण तल या महातल में  कुमारिका खण्ड भारत  तथा भारत समुद्र ,  अतल के दक्षिण तलातल, सुतल के दक्षिण वितल, पाताल के दक्षिण रसातल है। विष्णु पुराण २/५ के अनुसार दशसाहस्रमेकैकं पातालं मुनिसत्तम। अतलं वितलं चैव नितलं च गभस्तिमत्। महाख्यं सुतलं चाग्र्यं पातालं चापि सप्तमम्॥२॥शुक्लकृष्णाख्याः पीताः शर्कराः शैल काञ्चनाः। भूमयो यत्र मैत्रेय वरप्रासादमण्डिताः॥३।।पातालानामधश्चास्ते विष्णोर्या तामसी तनुः। शेषाख्या यद्गुणान्वक्तुं न शक्ता दैत्यदानवाः॥१३॥योऽनन्तः पठ्यते सिद्धैर्देवो देवर्षि पूजितः। स सहस्रशिरा व्यक्तस्वस्तिकामलभूषणः॥१४॥  भारत वर्ष के ९ खण्ड हिमालय के मध्य भाग कैलास को पूर्व-पश्चिम समुद्र तक फैलाने पर उससे दक्षिण समुद्र तक है। भारत या कुमारिका खण्ड में भारत , पाकिस्तान, बंगलादेश, नेपाल, तिब्बत सहित है। इन्द्रद्वीप में बर्मा, थाइलैण्ड, कम्बोडिया, वियतनाम, कम्बोडिया एवं  वैनतेय  है ), नागद्वीप में अण्डमान-निकोबार, पश्चिमी इण्डोनेसिया , कशेरुमान् में पूर्व इण्डोनेसिया, बोर्नियो, न्यूगिनी, फिलिपीन, सौम्य क्षेत्र में उत्तर में तिब्बत), गन्धर्व , अफगानिस्तान, ईरान), वारुण में इराक, अरब ,  ताम्रपर्ण में तमिल के निकट सिंहल व श्रीलंका, लंका लक्कादीव से मालदीव तक कह जाता है । मत्स्य पुराण, अध्याय ११४ में उल्लेख किया गया है कि अथाहं वर्णयिष्यामि वर्षेऽस्मिन् भारते प्रजाः। भरणाच्च प्रजानां वै मनुर्भरत उच्यते॥५॥  निरुक्तवचनाच्चैव वर्षं तद् भारतं स्मृतम्। यतः स्वर्गश्च मोक्षश्च मध्यमश्चापि हि स्मृतः॥६॥ न खल्वन्यत्र मर्त्यानां भूमौकर्मविधिः स्मृतः। भारतस्यास्य वर्षस्य नव भेदान् निबोधत॥७॥ इन्द्रद्वीपः कशेरुश्च ताम्रपर्णो गभस्तिमान्। नागद्वीपस्तथा सौम्यो गन्धर्वस्त्वथ वारुणः॥८॥ अयं तु नवमस्तेषं द्वीपः सागरसंवृतः। योजनानां सहस्रं तु द्वीपोऽयं दक्षिणोत्तरः॥९॥ आयतस्तु कुमारीतो गङ्गायाः प्रवहावधिः। तिर्यगूर्ध्वं तु विस्तीर्णः सहस्राणि दशैव तु॥१०॥ (३) भारत पद्म के लोक-भारत नक्शे के ७ लोक आकाश के ७ लोकों के नाम पर हैं-भू (विन्ध्य से दक्षिण), भुवः (विन्ध्य-हिमालय के मध्य को विंध्य , स्वः को त्रिविष्टप अर्थात  तिब्बत स्वर्ग, हिमालय , महः को चीन के लोगों का हान से ख्याति प्राप्त थी । जनःको  मंगोलिया, अरबी में मुकुल या पितर , तपः को स्टेपीज, साइबेरिया ,  सत्य को ध्रुव वृत इन्द्र के लोक में भारत, चीन, रूस था ।ब्रह्माण्ड पुराण, उपसंहार पाद, अध्याय २ /3/4/2 के अनुसार लोकाख्यानि तु यानि स्युर्येषां तिष्ठन्ति मानवाः॥८॥भूरादयस्तु सत्यान्ताः सप्तलोकाः कृतास्त्विह॥9॥ नेपाल -  भारत के उत्तर भाग नेपाल और हिमालय , उत्तर-दक्षिण के भागों में भू, भुवः स्वः में भुवः या मैदानी भाग मध्यदेश का नेपाल में मधेस हैं। कालिदास की रचित पुस्तक रघुबंश 2/1 6 विक्रमोर्वशीयम अंक 1  में उल्लेखनीय है कि  मध्यम-लोक का राजा राजा दिलीप और पुरुरवा  है । मेनका द्वारा पुरुरवा का स्वागत किया है । बाइबिल में मध्य देश को  सिधु के पूर्व का मेडेस कहा है। ईरान के पश्चिम मैदानी भाग में मेंडेस पर्वत  था। सात  लोकों के अनुसार चीन का महः लोक मध्यम लोक है। अतः चीन को मध्य राज्य कहा जाता था। स्वः लोक के तीन भाग को त्रयविटप कहा है। विटप का अर्थ वृक्ष की हजारों जड़ें भूमि से जल खींच कर पत्तों तक पहुंचाती हैं। भूमि पर  जल गिरने से हजारों स्रोतों से प्रवाहित हो कर  नदी धारा रूप में निकलता है। समुद्र में मिलने के प्रथम  धारा अन्य भागों मे विभक्त होने से  धारा का विपरीत राधा कहा गया  हैं। अंग देश में पश्चिम बंग और  बिहार का भागलपुर, मुंगेर के राजा कर्ण को राधा-नन्दन थे। त्रय विटपों का केन्द्र कैलास पर्वत है। पश्चिमी भाग विष्णु-विटप का जल सिन्धु नद प्रवाहित होकर  समुद्र में मिलता है उसे सिन्धु समुद्र तथा तटीय भाग को सिन्धु देश  हैं। मध्य में शिव-विटप से गंगा नदी प्रवाहित होकर गंगा सागर बंगाल की खाड़ी) में मिलती है। गंगा समुद्र के शासकों को गंग कहते थे । ओड़िशा का राजवंश को गंग वंश कहा गया है । शिव जटा से गंगा प्रवाहित होकर  ब्रह्मा के कमण्डल में लुप्त होती है। क अर्थात जल को मण्डल कमण्डल है। ब्रह्मदेश में बर्मा,  म्याम्मार के पश्चिम तथा दक्षिण भारत के पूर्व तट के बीच कमण्डल है। कमण्डल का पश्चिम तट कर-मण्डल या बंगला उच्चारण में कारोमण्डल है। पूर्व में ब्रह्म विटप से ब्रह्मपुत्र नद निकलने की सीमा पर ब्रह्म देश है। ब्रह्मा को महा-अमर  कहने से  म्याम्मार हुआ है ।
 शिव विटप का पूर्व भाग नेपाल  है। केदारनाथ में शिव का पैर तथा पशुपतिनाथ में उनका सिर है। इत्युक्तस्तु तदा ताभ्यां केदारे हिमसंश्रये। स्वयं च शंकरस्तस्थौ ज्योतीरूपो महेश्वरः॥७॥तद्दिनं हि समारभ्य केदारेश्वर एव च। पूजितो येन भक्त्या वै दुःखं स्वप्नेऽति दुर्लभम्॥१२॥ यो वै हि पाण्डवान्दृष्ट्वा माहिषं रूपमास्थितः। मायामास्थाय तत्रैव पलायनपरोऽभवत्॥१३॥ धृतश्च पाण्डवैस्तत्र ह्यवाङ्मुखतया स्थितः। पुच्छ चैव धृतं तैस्तु प्रार्थितश्च पुनःपुनः॥१४॥ 
तद्रूपेण स्थितस्तत्र भक्तवत्सलनामभाक्। नयपाले शिरोभागो गतस्तद्रूपतः स्थितः॥१५॥ भारतीभिः प्रजाभिश्च तथेव परिपूज्यते॥१८॥ (शिव पुराण, कोटि रुद्र संहिता, अध्याय 19 ) । गण्डक घाटी का  क्षेत्र नेपाल  था। नेपाल के मैदानी भागों पर मुस्लिम या ब्रिटिश आक्रमण के समय नेपाल के राजाओं ने पश्चिम के पर्वतीय भाग तथा तराई के निकट मैदानी भागों (मधेस) पर अधिकार कर लिया था । वराह पुराण, अध्याय १४५ के अनुसार अन्यच्च गुह्यं वक्ष्यामि सालङ्कायन तच्छृणु। शालग्राममिति ख्यातं तन्निबोध मुने शुभम्॥२८॥ योऽयं वृक्षस्त्वया दृष्टः सोऽहमेव न संशयः॥२९॥ मम तद् रोचते स्थानं गिरिकूट शिलोच्चये। शालग्राम इति ख्यातं भक्तसंसारमोक्षणम्॥३२॥ गुह्यानि तत्र वसुधे तीर्थानि दश पञ्च च॥३४॥ तत्र विल्वप्रभं नाम गुह्यं क्षेत्र मम प्रियम्॥३५॥ तत्र कालीह्रदं नाम गुह्यं क्षेत्रं परं मम। अत्र चैव ह्रदस्रोतो बदरीवृक्ष निःसृतः॥४५॥ तत्र शङ्खप्रभं नाम गुह्यं क्षेत्रं परं मम।४९॥ गुह्यं विद्याधरं नाम तत्र क्षेत्रे परं मम। पञ्च धाराः पतन्त्यत्र हिमकूट विनिःसृताः॥६२॥ याति वैद्याधरान् भोगान् मम लोकाय गच्छति॥६४॥ शिला कुञ्जलताकीर्णा गन्धर्वाप्सरसेविता॥६५॥ गन्धर्वेति च विख्यातां तस्मिन् क्षेत्रं परं मम। एकधारा पतत्यत्र पश्चिमां दिशोमाश्रिता॥६८॥ गन्धर्वाप्सरसश्चैव नागकन्याः सहोरगैः ।। 80 ।। देवर्षयश्च मुनयः समस्त सुरनायकाः।सिद्धाश्च किन्नराश्चैव स्वर्गादवतरन्ति हि।८१॥ नेपाले यच्छिवस्थानं समस्त सुखवल्लभम्॥82 ॥ एतद् गुह्यं प्रं देवि मम क्षेत्रे वसुन्धरे॥९७॥अहमस्मिन् महाक्षेत्रे धरे पूर्वमुखः स्थितः।शालग्रामे महाक्षेत्रे भूमे भागवतप्रियः॥98॥शाल वृक्षों के कारण यह शालग्राम तथा ऋषि को सालङ्कायन कहा है। गण्डकी नदी के पत्थरों को शालग्राम कहते हैं, जिन पर भगवान विष्णु का चिह्न चक्र जल प्रवाह में घिसने से अंकित हो जाता है। कोसल तथा विदेह की सीमा बूढ़ी गण्डक को सदानीरा कहा गया  था । सूर्य कर्क राशि में रहने से आषाढ़ सावन और भाद्रपद मास में  नदियां जल से भरी रहती हैं और  सदानीरा में सदा जल रहता है। सतपथ ब्राह्मण 1/4/1/14के अनुसार तर्हि विदेघो माथव आस । सरस्वत्यां स तत एव प्राङ्दहन्नभीयायेमां पृथिवींतं गोतमश्च राहूगणो विदेघश्च माथवः पश्चाद्दहन्तमन्वीयतुः स इमाःसर्वा नदीरतिददाह सदानीरेत्युत्तराद्गिरेर्निर्घावति । अथादौ कर्कटे देवी त्र्यहं गङ्गा रजस्वला। सर्व्वा रक्तवहा नद्यः करतोयाम्बुवाहिनी॥ इति भरतः ।।
गुह्य-गुह्य काली का स्थान होने के कारण नेपाल को गुह्य देश के निवासियों को गुह्यक कहते थे (वराह पुराण ) गुह्यक की देव संस्कृति  में रहने के कारण  हिमालय या स्वः लोक की संस्कृति थीं। गुह्यकाल्या महास्थानं नेपाले यत्प्रतिष्ठितम्। (देवी भागवत पुराण, ७/३८/११) । वाराणसी कामरूपं नेपालं पौण्ड्रवर्धनम्॥ (ब्रह्माण्ड पुराण, ३/४/४४/९३-५१ शक्तिपीठ) । पौण्ड्रवर्धन नेपालपीठं नयनयोर्युगे (वायु पुराण, १०४/७९) । दुर्द्धर्षोनाम राजाभून्नेपालविषये पुरा। पुण्यकेतुर्यशस्वी च सत्यसंधो दृढव्रतः॥२॥ क्व गतो हि महीपाल नेपालविषयस्तव॥२९॥ (स्कन्द पुराण, ५/२/७०) 
विक्रमादित्य ने शकों के नाश तथा धर्म रक्षा के लिए गुह्य देश में शिव का तप किया था। भविष्य पुराण, प्रतिसर्ग पर्व १, अध्याय ७- । शकानां च विनाशार्थमार्यधर्म विवृद्धये। जातश्शिवाज्ञया सोऽपि कैलासाद् गुह्यकालपात्॥१५॥ विक्रमादित्य नामानं पिता कृत्वा मुमोद ह। स बालोऽपि महाप्राज्ञः पितृमातृ प्रियङ्करः॥१६॥  रुरु-रुरु मृगों द्वारा एक तपस्विनी कन्या का पालन हुआ था, अतः इसे रुरु क्षेत्र भी कहा गया। (वराह पुराण, अध्याय १४६)  गोस्थल- महर्षि और्व द्वारा  गायों को बसाने का स्थल गोस्थल  कहा जाता था।  गो-निष्क्रमण तथा गाय बसाने पर गोस्थलक  हुआ । वराह पुराण, अध्याय १४७ । गोरक्ष या गोरखा मूल है। महाभारत पूर्व के राजाओं को  गोपाल वंश का कहा गया है। कश्मीर के प्राचीन राजा गोनन्द वंश  थे। नेपाल-नेपाल नाम का उल्लेख गुह्य काली क्षेत्र के वर्णनों में हुआ है। नेपाल में  नेवार संस्कृति थी । लेपचा भाषा में ने को  पवित्र, दिव्य तथा पाल को  गुहा व नेवारी भाषा में ने को  मध्य, पाल को देश अर्थात  मध्य के शिव विटप का भाग है। तिब्बती भाषा में नेपाल का अर्थ ऊन का क्षेत्र एवं  लिम्बू भाषा में नेपाल का अर्थ है समतल या तराई भाग है।  नेपाल का राजा २२वें जैन तीर्थंकर नेमि-नाथ का शिष्य था। नेमिनाथ द्वारा पालित होने के कारण  नेपाल हुआ।भगवान कृष्ण के भाई  नेमिनाथ  भाई थे। भगवान कृष्ण के परलोकगमन के बाद नेमिनाथ संन्यासी रूप में २५ वर्ष तक  भारत का भ्रमण किया। भारत में ओंकारेश्वर क्षेत्र नेमाळ (नेमाड़) है। ओड़िशा में  नेमाळ एक सिद्ध पीठ है। देव जातियां- त्रिविष्टप का अर्थ स्वर्ग  क्षेत्र की जातियों को देव संस्कृति कहा गया है।विद्याधराप्सरो यक्ष रक्षो गन्धर्व किन्नराः। पिशाचो गुह्यको सिद्धो भूतोऽमी देवयोनयः॥ (अमरकोष, 1/1 /11 ) । नेपाल के या गण्डकी क्षेत्र के गुह्यक और भूत देश भूटान की भूत लिपि प्रचलित थी। यक्ष कैलास के निकट यक्ष क्षेत्र का राजा  कुबेर का शासन था। कुबेर का स्थान शून्य देशान्तर पर स्थित था (प्राचीन काल में उज्जैन का देशान्तर में  कैलास  पूर्व था। ब्रह्माण्ड पुराण  1/2/18 ।। मध्ये हिमवतः पृष्ठे कैलासो नाम पर्वतः। तस्मिन्निवसति श्रीमान्कुबेरः सह राक्षसैः॥१॥अप्सरो ऽनुचरो राजा मोदते ह्यलकाधिपः। कैलास पादात् सम्भूतं पुण्यं शीत जलं शुभम्॥२॥ मदं नाम्ना कुमुद्वत्त्तत्सरस्तूदधि सन्निभम्। तस्माद्दिव्यात् प्रभवति नदी मन्दाकिनी शुभा॥३॥ दिव्यं च नन्दनवनं तस्यास्तीरे महद्वनम्। प्रागुत्तरेण कैलासाद्दिव्यं सर्वौषधिं गिरिम्॥४॥ मत्स्य पुराण 121 / 2-28 । मध्ये हिमवतः पृष्ठे कैलासो नाम पर्वतः। तस्मिन् निवसति श्रीमान् कुबेरः सह गुह्यकैः॥2 ॥ अप्सरो ऽनुगतो राजा मोदते ह्यलकाधिपः। कैलास पाद सम्भूतं पुण्यं शीत जलं शुभम्॥३॥ मन्दोदकं नाम सरः पयस्तु दधिसन्निभम्। तस्मात् प्रवहते दिव्या नदी मन्दाकिनी शुभा॥4॥ शून्य देशान्तर पर होने के कारण अलका, उज्जैन या लंका का समय पृथ्वी का समय था। कुबेर का अर्थ है-कु = पृथ्वी, बेर = समय कहा गया है। कुबेर के अनुचरों को यक्ष तथा ऊपर के श्लोकों में अप्सर कहा है।  राजा के अनुचरों को अफसर कहा जाता था । संस्कृत में यक्ष , अनुचर ,  पारसी में अफसर और  अंग्रेजी ऑफिसर  कहा गया है। विद्याधर तथा सिद्ध लासा तथा उसके पूर्व के भाग के हैं।  कैलास से पश्चिम में पिशाच की पैशाची भाषा में बृहत्-कथा थी।  कैलास के दक्षिण पश्चिम किन्नर  थे। हिमाचल का उत्तरी क्षेत्र में  किन्नौर क था । बिहार में कीकट व मगध , अंग , वज्जिका , मिथिला प्रदेश था ।कीकट प्रदेश की भाषा मागधी थी । कीकट प्रदेश की नदियों में देवनद को दामोदर , निरंजना व लीलाजन को फल्गु नदी , सकरी नदी को सुमागधी ,पुनपुन नदी को कीकट नदी वैतरणी नदी व रामतीर्थ , गंगा नदी प्रसिद्ध थी । 


मंगलवार, अक्तूबर 11, 2022

सुहागिनों का त्योहार है करवाचौथ ...


    सनातन धर्म शास्त्रों में करवा चौथ का उल्लेख किया गया है । सनातन धर्मावलंबी सुहागिन महिलाओं के लिए करवा चौथ  प्रमुख त्योहार है।  जम्मू , हिमाचल प्रदेश, पंजाब, उत्तर प्रदेश, हरियाणा, मध्य प्रदेश और राजस्थान एवं भारतीय प्रवासी द्वारा मनाया जाने वाला करवा चौथ पर्व कार्तिक मास  कृष्ण पक्ष चतुर्थी को  सौभाग्यवती स्त्रियाँ मनाती हैं। करवा चौथ  को करक चौथ ,अटल तड्डी , पति दिवस कहा जाता है। शास्त्रों के अनुसार कार्तिक मास के कृष्णपक्ष चतुर्थी तिथि की चन्द्रोदय व्यापिनी चतुर्थी को पति की दीर्घायु एवं अखण्ड सौभाग्य की प्राप्ति के लिए भालचन्द्र गणेश जी की अर्चना की जाती है।  राजस्थान का  माधोपुर जिले के सवाई स्थित बरवाड़ा  में महाराजा भीमसिंह चौहान द्वारा चौथ माता मंदिर  का निर्माण कराया गया है। सौभाग्यवती  महिलाएं चौथ पूजा के दौरान, गीत गाते हुए थालियों की फेरी करती हुई चौथ पूजा के उपरांत महिलाएं समूह मे चंद्रमा को जल का अर्घ्य देती है । भगवान शिव-पार्वती, स्वामी कार्तिकेय, गणेश एवं चन्द्रमा का बालू अथवा सफेद मिट्टी की वेदी बनाकर  देवों को स्थापित कर  पूजा की जाती है। 'ॐ शिवायै नमः' से पार्वती का, 'ॐ नमः शिवाय' से शिव का, 'ॐ षण्मुखाय नमः' से स्वामी कार्तिकेय का, 'ॐ गणेशाय नमः' से गणेश का तथा 'ॐ सोमाय नमः' से चंद्रमा का पूजन की जाती है ।
करवाचौथ - साहूकार के सात पुत्र और बहन करवा थी। भाई अपनी बहन से बहुत प्यार करते थे। यहाँ तक कि वे पहले उसे खाना खिलाते और बाद में स्वयं खाते थे। एक बार उनकी बहन ससुराल से मायके आई हुई थी। शाम को भाई जब अपना व्यापार-व्यवसाय बंद कर घर आने पर  देखा उनकी बहन बहुत व्याकुल थी। सभी भाई खाना खाने बैठे और अपनी बहन से भी खाने का आग्रह करने लगे, लेकिन बहन ने बताया कि उसका आज करवा चौथ का निर्जल व्रत है और वह खाना सिर्फ चंद्रमा को देखकर उसे अर्घ्‍य देकर ही खा सकती है। चूँकि चंद्रमा अभी तक नहीं निकला है, इसलिए वह भूख-प्यास से व्याकुल हो उठी है। सबसे छोटे भाई को अपनी बहन की हालत देखी नहीं जाती और वह दूर पीपल के पेड़ पर एक दीपक जलाकर चलनी की ओट में रख देता है। दूर से देखने पर वह ऐसा प्रतीत होता है कि जैसे चतुर्थी का चाँद उदित हो रहा हो। इसके बाद भाई अपनी बहन को बताता है कि चाँद निकल आया है, तुम उसे अर्घ्य देने के बाद भोजन कर सकती हो। बहन खुशी के मारे सीढ़ियों पर चढ़कर चाँद को देखती है, उसे अर्घ्‍य देकर खाना खाने बैठ जाती है। वह पहला टुकड़ा मुँह में डालती है तो उसे छींक आ जाती है। दूसरा टुकड़ा डालती है तो उसमें बाल निकल आता है और जैसे ही तीसरा टुकड़ा मुँह में डालने की कोशिश करती है तो उसके पति की मृत्यु का समाचार उसे मिलता है। वह बौखला जाती है। उसकी भाभी उसे सच्चाई से अवगत कराती है कि उसके साथ ऐसा क्यों हुआ। करवा चौथ का व्रत गलत तरीके से टूटने के कारण देवता उससे नाराज हो गए हैं और उन्होंने ऐसा किया है। सच्चाई जानने के बाद करवा निश्चय करती है कि वह अपने पति का अंतिम संस्कार नहीं होने देगी और अपने सतीत्व से उन्हें पुनर्जीवन दिलाकर रहेगी। वह पूरे एक साल तक अपने पति के शव के पास बैठी रहती है। उसकी देखभाल करती है। उसके ऊपर उगने वाली सूईनुमा घास को वह एकत्रित करती जाती है। एक साल बाद फिर करवा चौथ का दिन आता है। उसकी सभी भाभियाँ करवा चौथ का व्रत रखती हैं। जब भाभियाँ उससे आशीर्वाद लेने आती हैं तो वह प्रत्येक भाभी से 'यम सूई ले लो, पिय सूई दे दो, मुझे भी अपनी जैसी सुहागिन बना दो' ऐसा आग्रह करती है, लेकिन हर बार भाभी उसे अगली भाभी से आग्रह करने का कह चली जाती है।
करवा के छठे भी की पत्नी के आने पर  करवा उससे भी यही बात दोहराती है। यह भाभी उसे बताती है कि चूँकि सबसे छोटे भाई की वजह से उसका व्रत टूटा था अतः उसकी पत्नी में ही शक्ति है कि वह तुम्हारे पति को दोबारा जीवित कर सकती है, इसलिए जब वह आए तो तुम उसे पकड़ लेना और जब तक वह तुम्हारे पति को जिंदा न कर दे, उसे नहीं छोड़ना। ऐसा कह के वह चली जाती है। सबसे अंत में छोटी भाभी आती है। करवा उनसे भी सुहागिन बनने का आग्रह करती है, लेकिन वह टालमटोली करने लगती है। इसे देख करवा उन्हें जोर से पकड़ लेती है और अपने सुहाग को जिंदा करने के लिए कहती है। भाभी उससे छुड़ाने के लिए नोचती है, खसोटती है, लेकिन करवा नहीं छोड़ती है। अंत में उसकी तपस्या को देख भाभी पसीज जाती है और अपनी छोटी अँगुली को चीरकर उसमें से अमृत उसके पति के मुँह में डाल देती है। करवा का पति तुरंत श्रीगणेश-श्रीगणेश कहता हुआ उठ बैठता है। इस प्रकार प्रभु कृपा से उसकी छोटी भाभी के माध्यम से करवा को अपना सुहाग वापस मिल जाता है। हे श्री गणेश माँ गौरी जिस प्रकार करवा को चिर सुहागन का वरदान आपसे मिला है, वैसा ही सब सुहागिनों को मिले।
शाकप्रस्थपुर वेदधर्मा ब्राह्मण की विवाहिता पुत्री वीरवती ने करवा चौथ का व्रत किया था। नियमानुसार उसे चंद्रोदय के बाद भोजन करना था, परंतु उससे भूख नहीं सही गई और वह व्याकुल हो उठी। उसके भाइयों से अपनी बहन की व्याकुलता देखी नहीं गई और उन्होंने पीपल की आड़ में आतिशबाजी का सुंदर प्रकाश फैलाकर चंद्रोदय दिखा दिया और वीरवती को भोजन करा दिया। परिणाम यह हुआ कि उसका पति तत्काल अदृश्य हो गया। अधीर वीरवती ने बारह महीने तक प्रत्येक चतुर्थी को व्रत रखा और करवा चौथ के दिन उसकी तपस्या से उसका पति पुनः प्राप्त हो गया।
एक समय की बात है कि एक करवा नाम की पतिव्रता स्त्री अपने पति के साथ नदी के किनारे के गाँव में रहती थी। एक दिन उसका पति नदी में स्नान करने गया। स्नान करते समय वहाँ एक मगर ने उसका पैर पकड़ लिया। वह मनुष्य करवा-करवा कह के अपनी पत्नी को पुकारने लगा।उसकी आवाज सुनकर उसकी पत्नी करवा भागी चली आई और आकर मगर को कच्चे धागे से बाँध दिया। मगर को बाँधकर यमराज के यहाँ पहुँची और यमराज से कहने लगी- हे भगवन! मगर ने मेरे पति का पैर पकड़ लिया है। उस मगर को पैर पकड़ने के अपराध में आप अपने बल से नरक में ले जाओ। यमराज बोले- अभी मगर की आयु शेष है, अतः मैं उसे नहीं मार सकता। इस पर करवा बोली, अगर आप ऐसा नहीं करोगे तो मैं आप को श्राप देकर नष्ट कर दूँगी। सुनकर यमराज डर गए और उस पतिव्रता करवा के साथ आकर मगर को यमपुरी भेज दिया और करवा के पति को दीर्घायु दी। हे करवा माता! जैसे तुमने अपने पति की रक्षा की, वैसे सबके पतियों की रक्षा करना।
पांडव पुत्र अर्जुन तपस्या करने नीलगिरी पर्वत पर जाने से  द्रोपदी  परेशान थीं। उनकी कोई खबर न मिलने पर उन्होंने कृष्ण भगवान का ध्यान किया और अपनी चिंता व्यक्त की। कृष्ण भगवान ने कहा- बहना, इसी तरह का प्रश्न एक बार माता पार्वती ने शंकरजी से किया था। पूजन कर चंद्रमा को अर्घ्‍य देकर फिर भोजन ग्रहण किया जाता है। सोने, चाँदी या मिट्टी के करवे का आपस में आदान-प्रदान किया जाता है, जो आपसी प्रेम-भाव को बढ़ाता है। पूजन करने के बाद महिलाएँ अपने सास-ससुर एवं बड़ों को प्रणाम कर उनका आशीर्वाद लेती हैं।तब शंकरजी ने माता पार्वती को करवा चौथ का व्रत बतलाया। इस व्रत को करने से स्त्रियाँ अपने सुहाग की रक्षा हर आने वाले संकट से वैसे ही कर सकती हैं जैसे एक ब्राह्मण ने की थी। प्राचीनकाल में एक ब्राह्मण था। उसके चार लड़के एवं एक गुणवती लड़की थी।एक बार लड़की मायके में थी, तब करवा चौथ का व्रत पड़ा। उसने व्रत को विधिपूर्वक किया। पूरे दिन निर्जला रही। कुछ खाया-पीया नहीं, पर उसके चारों भाई परेशान थे कि बहन को प्यास लगी होगी, भूख लगी होगी, पर बहन चंद्रोदय के बाद ही जल ग्रहण करेगी।भाइयों से न रहा गया, उन्होंने शाम होते ही बहन को बनावटी चंद्रोदय दिखा दिया। एक भाई पीपल की पेड़ पर छलनी लेकर चढ़ गया और दीपक जलाकर छलनी से रोशनी उत्पन्न कर दी। तभी दूसरे भाई ने नीचे से बहन को आवाज दी- देखो बहन, चंद्रमा निकल आया है, पूजन कर भोजन ग्रहण करो। बहन ने भोजन ग्रहण किया।भोजन ग्रहण करते ही उसके पति की मृत्यु हो गई। अब वह दुःखी हो विलाप करने लगी, तभी वहाँ से रानी इंद्राणी निकल रही थीं। उनसे उसका दुःख न देखा गया। ब्राह्मण कन्या ने उनके पैर पकड़ लिए और अपने दुःख का कारण पूछा, तब इंद्राणी ने बताया- तूने बिना चंद्र दर्शन किए करवा चौथ का व्रत तोड़ दिया इसलिए यह कष्ट मिला।अब तू वर्ष भर की चौथ का व्रत नियमपूर्वक करना तो तेरा पति जीवित हो जाएगा। उसने इंद्राणी के कहे अनुसार चौथ व्रत किया तो पुनः सौभाग्यवती हो गई। इसलिए प्रत्येक स्त्री को अपने पति की दीर्घायु के लिए व्रत करना चाहिए। द्रोपदी ने यह व्रत किया और अर्जुन सकुशल मनोवांछित फल प्राप्त कर वापस लौट आए।  महिलाएँ अपने अखंड सुहाग के लिए करवा चौथ व्रत करती है। 
माता करवाचौथ मंदिर का निर्माण राजस्थान की राजधानी जयपुर से 35 किमि की दूरी पर 1000 फीट ऊंची और 700 सीढ़ियों से युक्त   बरबाडा पर्वत श्रृंखला पर बरबाडा का राजा भीम सिंह द्वारा 1451 ई. में किया गया है । करवाचौथ मंदिर में माता करवा , गणेश , भगवान शिव , भैरव की मूर्ति स्थित है ।

शुक्रवार, अक्तूबर 07, 2022

समय के उद्गमकर्ता भगवान सूर्य ,,,


सनातन धर्म की सौर संस्कृति ग्रंथों एवं ज्योतिष शास्त्र के अनुसार भगवान सूर्य द्वारा ग्रह , समय , नक्षत्र , ऋतु , मौसम , , मास ,दिन होते है । रविवार भगवान सूर्य को समर्पित है । रविवार की अवकाश  10 जून, 1890 को मेघाजी लोखंडे का प्रयास सफलता के बाद ब्रिटिश शासन ने  रविवार के दिन सबके लिए छुट्टी घोषित किया था । सनातन धर्म में  सूर्य को  रविवार ,आदित्यवार  , इतवार , एतवार कहा जाता है। भारत के मजदूरों के नेता मेघाजी लोखंडे ने 1857 ई. मे मजदूर  अपनी थकान मिटाने और  वक्त निकाल निकालने के लिए साप्ताहिक अवकाश की मांग किया था । ब्रिटिश सरकार द्वारा  10 जून, 1890 को  रविवार के दिन छुट्टी घोषित कर दी गयी है । भारत का गवर्नर-जनरल लॉर्ड हार्डिंग 1844 से 1848 ई. तक रहने के दौरान  रविवार को अवकाश घोषित किया था। रोमनों ने नागरिक अभ्यास में आठ दिनों की अवधि का इस्तेमाल करने के कारण  321 सीई में सम्राट कॉन्सटेंटाइन ने रोमन कैलेंडर में सात-दिवसीय सप्ताह की स्थापना कर  रविवार को सप्ताह के पहले दिन के रूप में नामित किया था । सप्ताह के सात दिनों में  सूर्य को रवि , वार  कहा गया  है । रविवार की छुट्टी की प्रारम्भ सन 1843 ई० में होने के बाद  सरकारी कार्यालयों में काम कर रहे लोगों को मानसिक रूप से विश्राम प्रदान करना है। पंचांग के अनुसार सामाजिक एवं धार्मिक कार्यक्रम रविवार को ज्यादा होते है। अंतरराष्ट्रीय मानकीकरण संस्था द्वारा 1986 में रविवार को छुट्टी का दिन घोषित करने का श्रेय  ब्रिटिश प्रशासक  को  माना जाता है । ब्रिटिश गवर्नर जनरल ने प्रथम बार ब्रिटेन के स्कूलों में रविवार को छुट्टी घोषित करने का प्रस्ताव दिया था । बच्चे में रविवार को घर पर आराम और  क्रिएटिव काम करने के लिए उत्सुकता जागृत कर अपने लक्ष्य हासिल करता है । रविवार की छुट्टी की शुरुआत सन 1843 में  सरकारी कार्यालयों में काम कर रहे लोगों को मानसिक रूप से विश्राम प्रदान करना है 1843 में अंग्रेजों के गवर्नर जनरल ने रविवार में आदेश को पारित किया था। ब्रिटेन में सबसे पहले स्कूल बच्चों को रविवार की छुट्टी देने का प्रस्ताव दिया गया था ।लैटिन डाइस सोलिस की जर्मनिक  शब्द सुन्नन्दग व्याख्या से रविवार  अर्थात  "सूर्य का दिन कहा जाता है। जर्मनिक और नॉर्स के अनुसार  भगवान सूर्य को सुन्ना या सोल की देवी  है । रोमन सम्राट कॉन्सटेंटाइन  ने 07 मार्च 321 ई. को  रविवार में  श्रम से आराम का दिन बनाते हुए नागरिक डिक्री जारी कर न्यायाधीश , कर्मी और शिल्पकार द्वारा भगवान सूर्य के पवित्र दिन रविवार  पर आराम और परिवार के साथ जीवन व्यतीत करने की घोषणा किया था । विश्व के देशों में रविवार को शांतिपूर्ण अवकाश होती हैं  रॉबर्ट राइक्स , (जन्म 14 सितंबर, 1735, ग्लूसेस्टर, ग्लॉस्टरशायर, इंजी। - 5 अप्रैल, 1811, ग्लूसेस्टर), ब्रिटिश पत्रकार, परोपकारी, और संडे-स्कूल आंदोलन के अग्रणी थे । उनका परोपकारी कार्य जेल सुधार की चिंता के साथ शुरू हुआ था । इंग्लैंड में कामकाजी बच्चों को शिक्षा प्रदान करने के लिए प्रथम बार 18 वी शताब्दी में संडे स्कूल स्थापित किए गए थे। विलियम किंग ने 1751 में डर्स्ली, ग्लॉस्टरशायर में संडे स्कूल शुरू किया और सुझाव दिया कि ग्लूसेस्टर जर्नल के संपादक रॉबर्ट राइक्स ग्लूसेस्टर में संडे  स्कूल प्रारम्भ किया था । संडे स्कूल के शिक्षक का उद्देश्य संडे स्कूल और बाइबल अध्ययन पाठों को व्यवस्थित कर देखरेख करना है। चर्चों द्वारा काम पर रखे जाते  और कार्यों के लिए जिम्मेदार होते हैं जिनमें पाठ योजनाएं विकसित करना, धन उगाहने वाले कार्यक्रमों में सहायता करना और शैक्षिक गतिविधियों में बच्चों का नेतृत्व करना शामिल है।
 पूर्वाह्न , मध्याह्न और अपराह्न उदगम - सौर संस्कृति का ज्योतिष शास्त्र एवं वेदों , संहिताओं के अनुसार भगवान सूर्य और चंद्रमा का  गति के अनुसार भूतल पर समय निर्धारित है । अंग्रेजी साहित्य और विश्व के सभी धर्मग्रंथों में भारतीय मनीषियों द्वारा समय निर्धारण भिन्न भिन्न रूप से किया नाम कारण किया गया है । सनातन धर्म में सूर्य की गतियों के कारण पल , दंड ,होड़ा , पहर ,  मौसम , ऋतुएं , मास , दिन समय निर्धारण किया गया है । सनातन धर्म एवं ज्योतिष ग्रंथों के अनुसार भगवान सूर्य की गति प्रत्येक दिन प्रातः काल , मध्य काल , सायं काल , रात्रिकाल  निर्धारित है । कालांतर प्रातः काल को पूर्वाह्न , मध्य काल , और अपराह्न कहा गया ब्रिटिश काल इन प्रातः काल को एंटी मेरिडियन , अन्ते मेरीडियन , ए एम और मध्य काल , सायं काल और रात्रि काल तक को पोस्ट मेरीडियन  पी एम कहा गया है । सौर संस्कृति के अनुसार भगवान सूर्य की उपासना प्रातः काल सूर्य की मूर्ति , मध्य काल सूर्य की मूर्ति और संध्या काल की मूर्ति की उपासना की जाती है । बाद में भारतीय संस्कृति में पूर्वाह्न , मध्याह्न और अपराह्न के रूप में भगवान सूर्य की उपासना प्रारम्भ हुआ । विभिन्न संस्कृतियों में भिन्न भिन्न भिन्न भाषा के अनुसार संस्कृत भाषा मे भगवान सूर्य का चढ़ाव दिन 12 बजे के पूर्व तक  आरोहनम मार्तण्ड , प्रातः काल , हिंदी में पूर्वाह्न  , अंग्रेजी में एंटी मेरिडियन ,संक्षिप्त रूप ए एम और दिन के 12 बजे के बाद सूर्य का ढलाव , सूर्य का अवसान  को पत्तनम मार्तण्ड को , अपराह्न , पोस्ट मेरिडियन संक्षिप्त नाम पी एम कहा गया है । आधुनिक समय मे पूर्वाह्न को एंटी मेरिडियन , मध्यान को आफ्टरनून और अपराह्न को पोस्ट मेरीडियन कहा जाता है ।  भगवान सूर्य की पूर्वाह्न मध्याह्न और अपराह्न की सूर्य की मूर्ति गया एवं देव स्थित सूर्य मंदिर में स्थित है । भगवान सूर्य की आराधना और उपासना के लिए विश्व के विभिन्न क्षेत्रों में भिन्न भिन्न रूप तथा बिहार में छठ पूजा , यूनान में रा के रूप में उपासना की जाती है ।

बुधवार, अक्तूबर 05, 2022

भगवान विष्णु के नवें अवतार बुद्ध ...


 बुद्धावतार भगवान् विष्णु के ९वाँ अवतार एवं  तेईसवें अवतार   बुद्धावतार  है । परन्तु पुराणों के विस्तृत अध्ययन से  भागवत स्कन्ध १ अध्याय ६ के श्लोक २४  , श्रीं नरसिंह पुराण 36 /29 एवं ललित विस्तार अध्याय 21 पृष्ठ 178 के अनुसार  ततः कलौ सम्प्रवृत्ते सम्मोहाय सुरद्विषाम्। बुद्धोनाम्नाजनसुतः कीकटेषु भविष्यति॥ अर्थात्, कलयुग में देवद्वेषियों को मोहित करने नारायण कीकट प्रदेश में अजन के पुत्र के रूप में प्रकट हुए थे । बिहार का  गया के हेमसदन की भार्या अंजना के पुत्र शाक्य का जन्म आश्विन शुक्ल दशमी तिथि दिन गुरुवार द्वापर युग में हुआ था । भगवान विष्णु के 9 वें अवतार शाक्य (बुद्धावतार ) दैत्यों को मोहित करने तथा प्रजा के शांति के लिए हुए था । पुराणों में भगवान  बुद्ध के उल्लेख हरिवंश पर्व (1.41) ,विष्णु पुराण (3.18) ,भागवत पुराण (1.3.24, 2.7.37, 11.4.23) गरुड़ पुराण (1.1, 2.30.37, 3.15.26) ,अग्निपुराण (16) ,नारदीय पुराण (2.72) ,लिंगपुराण (2.71) और पद्म पुराण (3.252) में किया गया है । मोहनार्थं दानवानां बालरूपं पथि स्थितम् ।पुत्रं तं कल्पयामास मूढबुद्धिर्जिनः स्वयम् ॥ततः सम्मोहयामास जिनाद्यानसुरांशकान् ।भगवान् वाग्भिरुग्राभिरहिंसावाचिभिर्हरिः॥ (ब्रह्माण्ड पुराण १३) बुद्धावतार भगवान् विष्णु के ९वाँ अवतार एवं  तेईसवें अवतार   बुद्धावतार  है ।  पुराणों के विस्तृत अध्ययन से  भागवत स्कन्ध १ अध्याय ६ के श्लोक २४  , श्रीं नरसिंह पुराण 36 /29 एवं ललित विस्तार अध्याय 21 पृष्ठ 178 के अनुसार  ततः कलौ सम्प्रवृत्ते सम्मोहाय सुरद्विषाम्। बुद्धोनाम्नाजनसुतः कीकटेषु भविष्यति॥ अर्थात्, कलयुग में देवद्वेषियों को मोहित करने नारायण कीकट प्रदेश में अजन के पुत्र के रूप में प्रकट होंगे। बिहार का  गया के हेमसदन की भार्या अंजना के पुत्र शाक्य का जन्म आश्विन शुक्ल दशमी तिथि दिन गुरुवार द्वापर युग में हुआ था । भगवान विष्णु के 9 वें अवतार शाक्य (बुद्धावतार ) दैत्यों को मोहित करने तथा प्रजा के शांति के लिए हुए था । पुराणों में भगवान  बुद्ध के उल्लेख हरिवंश पर्व (1.41) ,विष्णु पुराण (3.18) ,भागवत पुराण (1.3.24, 2.7.37, 11.4.23) गरुड़ पुराण (1.1, 2.30.37, 3.15.26) ,अग्निपुराण (16) ,नारदीय पुराण (2.72) ,लिंगपुराण (2.71) और पद्म पुराण (3.252) में किया गया है । मोहनार्थं दानवानां बालरूपं पथि स्थितम् ।पुत्रं तं कल्पयामास मूढबुद्धिर्जिनः स्वयम् ॥ततः सम्मोहयामास जिनाद्यानसुरांशकान् ।भगवान् वाग्भिरुग्राभिरहिंसावाचिभिर्हरिः॥ (ब्रह्माण्ड पुराण १३) । अर्थात  दानवों को मोहित करने के लिए वे (बुद्ध ) मार्ग में बाल रूप में खड़े हो गये। जिन नामक मूर्ख दैत्य उनको अपनी सन्तान मान बैठा। इस प्रकार श्रीहरि (बुद्ध-अवतार रूप में) सुचारुरूप से अहिंसात्मक वाणी द्वारा जिन आदि असुरों को सम्मोहित कर लिया। हिन्दू ग्रन्थों में भगवान बुद्ध की चर्चा हुई है । बुद्धोनाम्नाजनसुतः कीकटेषु भविष्यति (श्रीमद्भागवत)  बुद्ध के माता अजन' और  जन्म 'कीकट'  में होने की चर्चा  है।। अर्थात  दानवों को मोहित करने के लिए वे (बुद्ध ) मार्ग में बाल रूप में खड़े हो गये। जिन नामक मूर्ख दैत्य उनको अपनी सन्तान मान बैठा। इस प्रकार श्रीहरि (बुद्ध-अवतार रूप में) सुचारुरूप से अहिंसात्मक वाणी द्वारा जिन आदि असुरों को सम्मोहित कर लिया। हिन्दू ग्रन्थों में भगवान बुद्ध की चर्चा हुई है । बुद्धोनाम्नाजनसुतः कीकटेषु भविष्यति (श्रीमद्भागवत)  बुद्ध के माता अजन' और  जन्म 'कीकट'  में होने की चर्चा  है।
 बौद्ध धर्मग्रंथों में  बुद्धों की ब्रह्मांड में अस्तित्व है । म्यांमार के यांगून में सुले पगोडा में बौद्ध पुरुष, बुद्धवंश के अध्याय 27 में वर्णित 29 बुद्धों का उल्लेख है । थेरवाद परंपरा के पाली साहित्य में 29 बुद्धों की श्रीलंका , कंबोडिया , लाओस , म्यांमार , थाईलैंड में वर्णन है । थेरवाद बौद्ध धर्म का पालन करते हैं । बुद्धवंश में 27 बुद्धों के साथ-साथ भविष्य का वर्णन किया गया है । मेटेय्या बुद्ध में  बुद्धवंश खुदाका निकाय का सुत्त पिटक का हिस्सा है । बुद्धों में तंठकर, मेधाकर, और सरशंकर- दीपांकर बुद्ध  थे । दीपांकर बुद्ध ने ब्राह्मण युवाओं को नियत विवरण  दिया था । बौद्ध धर्मग्रंथों के अनुसार जम्बूद्वीप में बुद्ध है । बुद्ध में तह्करा तंस्कार: ,पोफावादी ,  राजा सुनंधा और रानी सुनंदा रुक्ठथाना , मेधाṅकर मेधा कर याघर: , सुदेवा और यशोधरा कैलास , सरसंस्कार: शरणा्करा विपुला सुमंगला और यशवती पुलिल , दीपांकर दीपांकर राममवतीनगर सुदेवा और सुमेध्याय पिप्पला सुमेधा (सुमति या मेघा मानव,कानदान कौशिन्या राममवतीनगर सुनंदा और सुजाता सालकल्याण विजयावी ,, मंगला मंगला उत्तरनगर (मझीमदेसा)उत्तरा (पिता) और उत्तरा (माता) एक नाग सुरुचि (सिरिब्रह्मणो )  सुमना सुमन समेखला नगरसुदासाना और सिरिमा एक नाग राजा अतुल, एक नाग रेवटा रैवत: सुधन्नवतीनगरविपला और विपुल एक नाग ए श्रमण, शोभिता शोभिता सुधम्मनगर: सुधम्मनगर (पिता) और सुधम्मनगर (माता) एक नाग सुजाता, श्रमण (राममावती में) ,अनोमाडासी अनवमदारिन चंदावतीनगर यशव और यशोदर: अंजुना एक यक्ष राजा ,पदुमा , पद्माचंपायनगर:आसमा (पिता) और आसमा (माता) सलाल एक शेर , नारद नारद धम्मावतीनगरराजा सुदेवा और अनुपमा सोनाका हिमालय में एक तपसो , पदुमुत्तरा पदमोत्तरा हंसावतीनगर अनुरुला और सुजाता सलाल जतिलो, एक तपस्वी ,सुमेधासुमेधासुदासननगर सुमेधा (पिता) और सुमेधा (माता) निपास उत्तरो के मूल निवासी , सुजाता: सुजाता: सुमंगलनगर उगाटा और पब्बावती वेलु एक चक्रवर्ती पियादस्सी , प्रियदर्शिनी सूडाननगर सुदता और सुबोध काकुधा कस्पा, एक भिक्षु सिरिवत्तनगर में , अथादस्सी अर्थदर्शिनी सोनानगर: सगर और सुदासाना चंपा सुसिनो, एक श्रमण , धम्मदास धर्मदर्शनी सुरानानगर: सूरनमह और सुनंदा बिंबजल ,सिद्धार्थ: सिद्धार्थ: विभरानगर उडेनी और सुफसाकनिहानी मंगल, एक श्रमण टिस्सा तिय्या खेमानगर: जनसंडो औरपदुमाआसन यशवतीनगर के राजा सुजाता ,फुसा , पूज्य: काशी जयसेना और सिरेमाया अमलाक विजेतावि,विपश्य नाविपासि नबंधुवतीनगर: विपासी (पिता) और विपासी(माता) पाषाण ( स्टीरियोस्पर्मम चेलोनोइड्स ) राजा अतुल ,सिखīसिखिन अरुणावट्टीनगर अरुणावट्टी और पापवट्टीपुसारिका (मैंगिफेरा इंडिका ) अरिंदमो (परीभुट्टानगर में , वेसभाविश्वभूमिअनुपमनगर:सुप्पलित्त और यशवती साला ( शोरिया रोबस्टा ) सदासन (सरभावतीनगर में काकुसंधा क्राकुचंदा खेमावतीनगर राजा खेमा और विशाखा के भिक्षु अग्गीदत्त सिरिसा ( अल्बिजिया लेबेबेक) लेबेक ) राजा खेमा , कोसागमन: कनकमुनि सोभवतीनगर:यानादत्त, एक भिक्षु, और उत्तर: उडुंबरा ( फिकस रेसमोसा ) मिथिला में  पहाड़ी क्षेत्र केराजा पब्बाटा कस्पा कश्यप: बरनासीनगर ब्रह्मदत्त, एक भिक्षु, और धनावती निग्रोधा ( फिकस बेंघालेंसिस) बेंघालेंसिस ) जोतिपाला (वप्पुल्ला में) , गौतम लुम्बिनी राजा शुद्धोदन और माया असत्था ( फिकस रिलिजियोसा) रिलिजिओसा ) गौतम, बुद्ध ,मेटेय्या मैत्रेय केतुमाता ,सुब्रह्मा और ब्रह्मवती , नागा ( मेसुआ फेरिया ) पैंतीस  बुद्ध है ।
 बौद्ध धर्म में शाक्यमुनि , शाक्य तुप-पा शाक्यमुनि , वज्रप्रमर्डī दोर्जे निंग्पो राप्तु जोम्पा वज्र सार के साथ पूरी तरह से विजय प्राप्त की ,रत्नारिणी रिनचेन ओ-ट्रो दीप्तिमान गहना , नागेश्वर राज :लुवांग जी गेलपो राजा, नागाओं के भगवान ,वीरसेन पावो-देनायकों की सेना ,वरानंदी पावो-ग्य

प्रसन्न नायक ,रत्नाग्नि में रिनचेन-मे ज्वेलफायर ,रत्नचंद्रप्रभा रिनचेन दा-ओ गहना चांदनी ,अमोघदारसी में टोंगवा डोन्योस सार्थक दृष्टि , रत्नचंद्र मैं रिनचेन दावा ज्वेल मून , विमला में  ड्रिमा मेपास स्टेनलेस एक ,रादत्त पा-जिन शानदार देना , ब्रह्मा त्संगपा शुद्ध  ब्रह्मदत्त त्संगपे जिनो पवित्रता देना वरुण चू ल्हा जल देव ,वरुणदेव: में चू लहे ल्हा जल देवताओं के देवता ,भद्राश्री में पेल-ज़ांगो गौरवशाली अच्छाई , कंदनारी में त्सेनडेन पेले गौरवशाली चंदन , अनंतौजसी मैं जिजी तय अनंत वैभव ,प्रभाश्री मेंओ पेले शानदार रोशनी ,अशोकश्री में न्यांगेन मेपे पेले दु:खरहित  महिमा ,नारायणन सेमे कयि बू गैर-लालसा का पुत्र ,कुसुमाश्री में मेटोक पेलु शानदार फूल है।

रविवार, अक्तूबर 02, 2022

सशक्ति और ऐश्वर्य की देवी महागौरी ,,


 .पद्म पुराण , मार्कण्डेय पुराण , देवी भागवत और शाक्त धर्म के विभिन्न ग्रंथो में नव दुर्गाओं में अष्ठम एवं नारी, शक्ति, ऐश्वर्य और सौन्दर्य की देवी महागौरी है । कैलाश निवासी भगवान शिव के जीवन साथी माता महागौरी के अस्त्र त्रिशूल , डमरू ,वर और अभयमुद्रा और सवारी वृषम है ।
ॐ महागौर्ये नमः एवं प्रार्थना श्वेते वृषे समारुढा श्वेताम्बरधरा शुचिः | महागौरी शुभं दद्यान्महादेवप्रमोददा || 
अर्थात माता महागौरी का वर्ण पूर्णतः गौर है। इस गौरता की उपमा शंख, चंद्र और कुंद के फूल से दी गई है। इनकी आयु आठ वर्ष की मानी गई है- 'अष्टवर्षा भवेद् गौरी के समस्त वस्त्र एवं आभूषण आदि  श्वेत हैं। महागौरी की चार भुजाएँ एवं वाहन वृषभ है। माता महागौरी के ऊपर के दाहिने हाथ में अभय मुद्रा और नीचे वाले दाहिने हाथ में त्रिशूल ,  ऊपरवाले बाएँ हाथ में डमरू और नीचे के बाएँ हाथ में वर-मुद्रा हैं।  महागौरी देवताओं की प्रार्थना पर हिमालय की श्रृंखला मे शाकंभरी के  प्रकट हुई थी। माँ महागौरी ने देवी पार्वती रूप में भगवान शिव को पति-रूप में प्राप्त करने के लिए कठोर तपस्या की थी । एक बार भगवान भोलेनाथ ने पार्वती जी को देखकर कहने से देवी के मन का आहत होकर माता  पार्वती जी तपस्या में लीन हो जाती हैं। वषों तक कठोर तपस्या करने पर जब पार्वती नहीं आती तब पार्वती को खोजते हुए भगवान शिव उनके पास पहुँच कर  पार्वती को देखकर आश्चर्य चकित रह जाते हैं। पार्वती जी का रंग अत्यंत ओजपूर्ण ,  छटा चांदनी के सामन श्वेत और कुन्द के फूल के समान धवल दिखाई पड़ती ,  वस्त्र और आभूषण से प्रसन्न होकर देवी उमा को गौर वर्ण का वरदान देते हैं। शास्त्रों के अनुसार भगवान शिव को पति रूप में पाने के लिए देवी ने कठोर तपस्या की थी जिससे इनका शरीर काला पड़ जाता है। देवी की तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान इन्हें स्वीकार करते हैं और शिव जी इनके शरीर को गंगा-जल से धोते हैं तब देवी विद्युत के समान अत्यंत कांतिमान गौर वर्ण की होने  से इनका नाम गौरी पड़ा। महागौरी रूप में देवी करूणामयी, स्नेहमयी, शांत और मृदुल दिखती हैं। देवी के इस रूप की प्रार्थना करते हुए देव और ऋषिगण कहते हैं “सर्वमंगल मंग्ल्ये, शिवे सर्वार्थ साधिके. शरण्ये त्र्यम्बके गौरि नारायणि नमोस्तुते..”। महागौरी जी से संबंधित एक अन्य कथा भी प्रचलित है इसके जिसके अनुसार, एक सिंह काफी भूखा था, वह भोजन की तलाश में वहां पहुंचा जहां देवी उमा तपस्या कर रही होती हैं। देवी को देखकर सिंह की भूख बढ़ गयी परंतु वह देवी के तपस्या से उठने का इंतजार करते हुए वहीं बैठ गया। इस इंतजार में वह काफी कमज़ोर हो गया। देवी जब तप से उठी तो सिंह की दशा देखकर उन्हें उस पर बहुत दया आती है और माँ उसे अपना सवारी बना लेती हैं क्योंकि एक प्रकार से उसने भी तपस्या की थी। इसलिए देवी गौरी का वाहन बैल और सिंह दोनों ही हैं। एक अन्य कथा के अनुसार दुर्गम दानव के अत्याचारों से संतप्त जब देवता भगवती शाकंभरी की शरण मे आये तब माता ने त्रिलोकी को मुग्ध करने वाले महागौरी रूप का प्रादुर्भाव किया। यही माता महागौरी आसन लगाकर शिवालिक पर्वत के शिखर पर विराजमान है। माता  शाकंभरी देवी के पर्वत पर शाकंभरी मंदिर स्थल देवी शाकंभरी ने महागौरी का रूप धारण किया था।
अष्टमी के दिन महिलाएं अपने सुहाग के लिए देवी मां को चुनरी भेंट करती हैं। देवी गौरी की पूजा का विधान   है । अर्थात जिस प्रकार सप्तमी तिथि तक आपने मां की पूजा की है उसी प्रकार अष्टमी के दिन भी प्रत्येक दिन की तरह देवी की पंचोपचार सहित पूजा करते हैं। माँ महागौरी का ध्यान, स्मरण, पूजन-आराधना भक्तों के लिए सर्वविध कल्याणकारी है। हमें सदैव इनका ध्यान करना चाहिए। इनकी कृपा से अलौकिक सिद्धियों की प्राप्ति होती है। मन को अनन्य भाव से एकनिष्ठ कर मनुष्य को सदैव इनके ही पादारविन्दों का ध्यान करना चाहिए।मां महागौरी भक्तों का कष्ट अवश्य  दूर करती है। माता गौरी की  उपासना से अर्तजनों के असंभव कार्य भी संभव हो जाते हैं।  पुराणों में माँ महागौरी की महिमा का प्रचुर आख्यान किया गया है।
या देवी सर्वभू‍तेषु माँ गौरी रूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:।।
अर्थ : हे माँ! सर्वत्र विराजमान और माँ गौरी के रूप में प्रसिद्ध अम्बे, आपको मेरा बार-बार प्रणाम है। हे माँ, मुझे सुख-समृद्धि प्रदान करें । माता गौरी को समर्पित उत्तराखंड राज्य का रुद्रप्रयाग जिले के सोनप्रयाग से 8 किमि की दूरी पर गौरीकुंड , बिहार के गया का भष्मकुट पहाड़ी पर मंगलागौरी , उत्तरप्रदेश के काशी में मंगलागौरी ,पीलीभीत के देवहा और खकरा नदी संगम, भुवनेश्वर नेपाल , पाकिस्तान में माता मंगलागौरी मंदिर है ।