रविवार, मई 31, 2020

अरवल जिले का सांस्कृतिक विरासत...


भारतीय और मागधीय संस्कृति एवं सभ्यताएं प्राचीन काल से अरवल जिले के करपी का  जगदम्बा मंदिर में स्थापित माता जगदम्बा, शिव लिंग, चतुर्भुज भगवान, भगवान शिव - पार्वती विहार की मूर्तियां महाभारत कालीन है । कारूष प्रदेश के राजा करूष ने कारूषी नगर की स्थापित किया था । वे शाक्त धर्म के अनुयायी थे । हिरण्यबाहू नदी के किनारे कालपी में शाक्त धर्म के अनुयायी ने जादू-टोना तथा माता जगदम्बा, शिव - पार्वती विहार, शिव लिंग, चतुर्भुज, आदि देवताओं की अराधना के लिए केंद्र स्थली बनाया । दिव्य ज्ञान योगनी कुरंगी ने तंत्र - मंत्र - यंत्र , जादू-टोना की उपासाना करती थी । यहां चारो दिशाओं में मठ कायम था, कलान्तर इसके नाम मठिया के नाम से प्रसिद्ध है ।करपी गढ की उत्खनन के दौरान मिले प्राचीन काल में स्थापित अनेक प्रकार की मूर्ति जिसे उत्खनन विभाग ने करपी वासियों को समर्पित कर दिया । प्राचीन काल में प्रकृति आपदा के कारण शाक्त धर्म की मूर्तियां भूगर्भ में समाहित हो गई थी । गढ़ की उत्खनन के दौरान मिले प्राचीन काल का मूर्तिया ।विभिन्न काल के राजाओं ने  करपी के लिए 05 कूपों का निर्माण, तलाव का निर्माण कराया था । साहित्यकार एवं इतिहासकार सत्येन्द्र कुमार पाठक ने कहा कि भारतीय संस्कृति और सभ्यता की प्रचीन परम्पराओं में शाक्त धर्म एवं सौर , शैव धर्म, वैष्णव धर्म, ब्राह्मण धर्म, भागवत धर्म का करपी का जगदम्बा स्थान है । करपी जगदम्बा स्थान की चर्चा मगधांचल में महत्व पूर्ण रूप से की गई है । भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण की स्थापना 1861 ई. में हुई है के बाद पुरातात्विक उत्खनन सर्वेक्षण के दौरान करपी गढ के भूगर्भ में समाहित हो गई मूर्तिया को भूगर्भ से निकाल दिया गया था । करपी का सती स्थान, ब्रह्म स्थली प्राचीन धरोहर है । करपी का नाम कारूषी, कुरंगी, करखी, कुरखी, कालपी था ।अरवल जिला का सांस्कृतिक दर्शन में अरवल जिले का क्षेत्र महत्वपूर्ण है ।
भारतीय संस्कृति एवं विरासत सभ्यता अरवल जिले के 637 वर्ग कि. मी. क्षेत्रफ़ल में फैली हुई है । अरवल जिले का क्षेत्र 25:00 से 25:15 उतरी अकांक्ष एवं 84:70 से 85:15 पूर्वी देशांतर पर अवस्थित हैं ।20 अगस्त 2001 में समुद्रतल से 115 मीटर की ऊंचाई तथा पटना से 65 कि. मी. की दूरी एवं जहानाबाद से 35 कि. मि. पश्चिम अरवल जिले का दर्जा प्राप्त है। मगही और हिंदी भाषी अरवल जिले में 05 प्रखण्ड,316 राजस्व गांव में 18 बेचिरागी गांव , 65 पंचायत, में 648994 ग्रामीण आबादी एवं 51859 आवादी 118222 मकानों में निवास करते हैं। करपी, अरवल, कुर्था, कलेर तथा सोनभद्र बंशिसुर्यपुर प्रखण्ड में 11 थाने के लोग 33082.83 हेक्टयर सिंचित भूमि,845.10 हेक्टयर बंजर भूमि तथा कृषि योग भूमि 49520.40 हेक्टयर में कृषि कार्य करते हैं तथा अरवल और कूर्था विधान सभा में 21 प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र,21 अतिरिक्त प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र तथा सदर अस्पताल है। अरवल जिले की साक्षरता 56.85 प्रतिशत है। यहां की प्रमुख नदियां सोन नद और पुनपुन नदी और वैदिक नदी हिरण्यबाहू नदी का अवशेष (बह) है। पर्यटन के दृष्टिकोण से प्राचीन विरासत शाक्तधर्म का स्थल करपी का जगदम्बा स्थान मंदिर में महाभारत कालीन मूर्तियां जैसे माता जगदम्बा, चतुर्भुज, शिवपार्वती विहार, अनेक शिव लिंग मूर्तियां , मदसरवा (मधुश्रवा) में ऋषि च्यवन द्वारा स्थापित च्यवनेश्चर शिवलिंग , वधुश्रवा ऋषि द्वारा वधुसरोवर , पंतित पुनपुन नदी के तट पर कुरुवंशियों के पांडव द्वारा स्थापित शिव लिंग , किंजर के पुनपुन नदी के पूर्वी तट पर स्थित शिवलिंग एवं मंदिर , लारी का शिवलिंग, सती स्थान, गढ़, नादि का शिवलिंग, तेरा का सहत्रलिंगी शिवलिंग , रामपुर चाय का पंचलिगी शिव लिंग, खटांगी का सूर्य मंदिर में स्थित भगवान् सूर्य मूर्ति , कागजी महल्ला में शिवमन्दिर में पाल कालीन शिव लिंग तथा अरवल के गरीबा स्थान मंदिर में शिवलिंग प्राचीन काल की है, वहीं अरवल का सोन नद और सोन नहर के मध्य सोन नद के किनारे 695 हिजरी संवत में आफगिस्तान के कंतुर निवासी भ्रमणकारी सूफी संत शमसुद्दीन अहमद उर्फ शाह सुफैद सम्मन पिया अर्वली  का मजार सांप्रदायिक सौहार्द का प्रतीक है।प्राचीन काल में सोन प्रदेश का राजा शर्याती , कारूष प्रदेश का राजा करूष , आलवी प्रदेश का राजा हैहय आलवी यक्ष  , ऋषियों में च्यवन, वधुश्रवा, मधुश्रवा, मधुक्षंदा , उर्वेला, नदी , वत्स का कर्म एवं जन्म भूमि रहा है। अरवल जिले का क्षेत्र शैवधर्म , शाक्त धर्म, सौर धर्म एवं वैष्णव धर्म की परंपरा कायम हुई तथा शैवधर्म में भगवान् शिव की पूजा एवं आराधना के लिए शिवमन्दिर के गर्भ गृह में शिव  लिंग की स्थापना की गई । 16 वें द्वापर युग में ऋषि च्यवन 22 वें द्वापर युग में मधु, 24वें द्वापर युग में यक्ष का शासन था वहीं वधुश्रवा , दाधीच, मधूछंदा ऋषि, सारस्वत, वत्स ऋषि का कर्म स्थल था। दैत्य राज पुलोमा ने अपने नाम पर पुलोम राजधानी की स्थापना कर भगवान् शिव लिंग की स्थापना की थी ।बाद में पूलोम स्थल को पुंदिल, पोंदिल वर्तमान में बड़कागांव कहा जाता हैं
16 जनवरी 1913 ई. में जन्मे फखरपुर का पंडित महिपाल मिश्रा की भार्या अधिकारिणी देवी के गर्भ से चक्रधर मिश्र ने राधा बाबा के रूप में विश्व को आध्यात्म की ओर अग्रसर होने के लिए प्रेरणा दी। वहीं खाभैनी के जीवधर सिह ने 1857 ई. में  आजादी की प्रथम लड़ाई में महत्वपूर्ण कार्य किया है। मझियवां के किसान आंदोलन के प्रथम प्रणेता पंडित यदुनंदन शर्मा थे। राजा हर्षवर्धन ने 606 ई. में बाण भट्ट दरवारी कवि थे जिन्होंने कादंबरी एवं हर्ष चरित लिखा था। उस समय हर्षवर्धन के शासन काल में भगवान् शिव एवम् भगवान् सूर्य प्रमुख देव की उपासना पर सक्रियता थी। हर्ष के 643 ई. में  चीनी यात्री हुएनसांग आकर मगध की चर्चा की है। 1840 ई में इंडिगो फैक्ट्रीज की स्थापना सलॉनो तथा स्पेनिश परिवार ने की थी। सोलॉनो परिवार के डॉन रांफैल सोलॉनों ने अरवल में इंडिगो फैक्ट्रीज का मुख्यालय बनाया था।

सृजन पालन और शक्ति है आद्या शक्ति...

    भारतीय संस्कृति और सभ्यता का उद्भव आद्या शक्ति के प्रदुर्भाव से हुआ है। आद्या शक्ति से विश्व में विभिन्न रूपों में अवतरित हो कर मानव कल्याण होती रही है। वेदों, पुराणों, उपनिषदों में सृष्टि के बाद मानवीय सृष्टि का विस्तार करने के लिए प्रजापति ब्रह्मा जी ने अपने दक्षिण भाग से स्वायंभुव मनु और बामभग से शतरूपा को उत्पन्न किया । स्वायंभुव मनु और शतरूपा से दो पुत्र एवं तीन पुत्रियों की उत्पति हुई थी। पितामह ब्रह्मा जी के मानस पुत्र दक्ष के साथ स्वायंभुव मनु की कनिष्ठ पुत्री प्रसूति का विवाह संपन्न हुई थी। राजा दक्ष द्वारा आद्याशक्ति की की घोर तपस्या करने के बाद  प्रसूति के गर्भ से माता शिवा का अवतरण हुआ। राजा दक्ष ने माता शिवा को माता सती नामकरण किया। माता सती का विवाह भगवान् शिव के साथ संपन्न हुआ ।
 माता सती - राजा दक्ष की भार्या प्रसूति गर्भ से प्रकृति स्वरूपिणी सती का अवतरण हुई। माता सती के जन्म के बाद पिता दक्ष और माता प्रसूति आनंदित और उनकी तपस्या के पुण्य फल प्रदान करने के कारण दक्ष ने सती नाम कारण किया। माता सती का शरत कालीन रूप देखकर दक्ष ने उनका विवाह के लिए स्वयंवर का का आयोजन किया। सती ने स्वयंवर में भगवान् शिव के गले में ॐ नाम: शिवाय कह कर वरमाला डाल दी। प्रजापति ब्रह्मा जी के कथनानुसार राजा दक्ष ने अपनी पुत्री सती का भगवान् शिव के साथ पाणिग्रहण की । भगवान् शिव ने माता सती के पाणिग्रहण के बाद उन्हें लेकर कैलाश चले गए। माता सती के चले जाने के बाद राजा दक्ष का ज्ञान चक्षु लुप्त होने के पश्चात् वे शिव और सती से द्वेष करने लगे। शिव से द्वेष वश महान् यज्ञ का आयोजन में  सभी देवों, ऋषियों , ब्रह्मा जी, विष्णु जी  को आमंत्रित किया परन्तु शिव और सती को नहीं आमंत्रित किया और बुलाया। यज्ञ की सूचना मिलने और आमंत्रण नहीं मिलने तथा अपमान की ज्वाला में शामिल माता सती द्वारा यक्ष के यज्ञ में अपनी आहुति दे कर यज्ञ को समाप्त कर दी। माता सती के यज्ञ अग्नि में भष्मिभूत होने की जानकारी भगवान् शिव को मिलने के बाद माता सती के शरीर को अपने कंधे पर धारण कर उन्मत नृत्य करने लगे , जिससे सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में प्रलय होने लगी थी। भगवान् विष्णु के सुदर्शन चक्र द्वारा माता सती क शरीर कोे टुकड़े कर भगवान् शिव की प्रार्थना की। माता सती के शरीर का अंग जहां जहां गिरे वहां वहां माता सती का विभन्न रूप में शक्ति  और भगवान् शिव का  विभिन्न रूप में भैरव विराजमान है। तंत्र चूड़ामणि में 52, शक्ति पीठ, देविगीता में 72 शक्तिपीठ, देवी भागवत में 108 शक्तिपीठ और देवी पुराण महाभागवत में 51 शक्तिपीठ बताई गई है। परन्तु देवी भक्तों में 51 शक्तिपीठों की विशेष महत्व है। शक्तिपीठ का विवरण 
बिहार में शक्ति और देवी पूजन की परंपरा लोक जीवन में समाहित है। सहरसा जिले के सहसा स्टेशन के समीप माता सती की नेत्र पतन के कारण उग्रतारा के नाम से ख्याति है ,समस्तीपुर जिले के सलौना स्टेशन से 9 किलोमीटर दूर जयमंगला देवी मंदिर में माता सती का बाम स्कंध गिरा था जिसे शक्ति उमा या महादेवी और भैरव के रूप में महोदर विराजमान है। गया जिले के गया में माता सती का स्तन गिरने के कारण मंगलागौरी के नाम से ख्याति है। पटना जिले के पटना सिटी से 05 किलोमीटर पश्चिम माता सती का दक्षिण जंघा का पतन होने के कारण शक्ति के रूप में सर्वानंद करी और भैरव के रूप में ब्योमकेश है। यह स्थान बड़ी पटन देवी या पटनेश्वरी देवी के नाम से विख्यात है। बिहार में शाक्त धर्म ने विभिन्न नामों से शक्ति उपासना स्थल का रूप दिया है। अरवल जिले के करपी में जगदंबा स्थान में माता जगदम्बा, जहानाबाद जिले के बराबर पर्वत श्रृखंला सूर्यांक गिरि पर माता सिद्धेश्वरी तथा माता बागेश्वरी, गया जिले के बेला स्टेशन के समीप माता विभुक्षणी , गया में माता बांग्ला मूखी, बागेश्वरी ,  मुंडेश्वरी ,मुजफ्फरपुर जिले के कटरा बागमती नदी के किनारे माता कट्रेश्चरी , मुजफ्फरपुर में काली मंदिर, कैमूर, नालंदा , नवादा, बेतिया आदि जगहों पर माता की मूर्तियों की स्थापना कर तंत्र मंत्र, जादू, टोना की सिद्धि एवं शक्ति का स्थल बनाया गया था। शाक्त धर्म द्वारा शक्ति की उपासना के लिए देवी पिंडी का रूप दिया है जिसे प्रत्येक जगह देवी उपासक देवी मंडप में माता की पिंडी स्थापित कर उपासना और आराधना करते है।नालंदा जिले के मगरा में माता सती का कंगण गिरने से शीतला माता  नवादा जिले के रूपों में माता सती का सिर गिरने पर चामुंडा माता, छपरा ( सारण ) जिले के आमि में माता सती का जन्म और यज्ञ में अपनी आहुति देने पर माता सती का भस्म स्थल पर अंबिका भवानी, सासाराम जिले के  कैमूर पहाड़ी की गुफा में माता तरा चंडी, मुंगेर जिले के गंगा नदी के तट पर माता सती की दाईं आखें गिरने पर चंडिका देवी, सहरसा जिले के महिसी में माता सती की बाईं आखें गिरने पर उग्रतरा और पूर्णियां जिले के बनमखी प्रखंड का धिमेश्चर में माता सती का ह्रदय गिरने पर छिनमस्तिका , धिमेश्चरी के रूप में स्थापित है। जन श्रुति के अनुसार बिहार में 10 शक्तिपीठ के रूप में जाना जाता है। गया के भस्म कुट पर्वत श्रंखला पर माता सती का स्तन गिरने पर पालन करता के रूप में माता मंगला के रूप में विराजमान है। इन्हें मां मंगला गौरी के नाम से विख्यात है। यहां ऋषि मार्क्डेय द्वारा स्थापित मारकंडेश्वर स्थापित है। भोजपुर जिले के आरा में माता अरण्य देवी , बड़हरा प्रखंड के बखोरापुर की मां काली, रोहतास जिले के नटवार प्रखंड का भलुनी की यक्षणी भवानी एवं जहानाबाद जिले के चरूई स्थित काली मां की मूर्ति प्राचीन है। बिहार में शाक्त धर्म द्वारा शक्ति की उपासना स्थल कर माता की आराधना और तंत्र, मंत्र ,जादू , टोना का का रूप दिया गया। अरवल जिले का करपी में सती स्थान और कुरथा प्रखंड के लारी का सती स्थान प्रसिद्ध है। शाक्तवाद में देवी को सर्वश्रेष्ठ शक्ति तथा तंत्र मंत्र जादू टोना की परंपराओं के लिए मान्य है।

नवादा जिला की सांस्कृतिक विरासत .


सत्येन्द्र कुमार पाठक
मागधीय संस्कृति और सभ्यता का उद्भव और विस्तार का बोध कराता है नवादा जिले की पहाड़ियां और विकसित क्षेत्र । जलवायु परिवर्तन के साथ यहां का धरातल उच्च पाषाण युग 12020  वर्ष पूर्व आर्य एवं श्याम वर्ण का विभिन्न क्षेत्रों में सौर धर्म , शाक्त धर्म, शैव धर्म तथा वैष्णव धर्म के विभिन्न धर्मावलंबियों ने भिन्न भिन्न स्थानों पर अमिट छाप छोडा है। पुराणों और वेदों तथा इतिहास के पन्नों में महत्वपूर्ण संलेख है। आदि काल में मगध में देव, दैत्य, दानव, भल्ल, वसु, सिद्ध मरुद गण, पिशाच, यक्ष, नाग, मानव, किरात ,आदि का निवास था। देव संस्कृति के पोषक देव, गंधर्व, यक्ष, मानव और दैत्य संस्कृति का पोषक दैत्य, दानव, पिशाच राक्षस थे। पुरातन काल में 19 जातियां थी और ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र वर्ण को मग, मागध, मानष तथा मंदग कहा जाता था। राजा पृथु ने ब्रहमेष्टी यज्ञ से उत्पन्न मागध ने मगध साम्राज्य की नींव डाली और गया में अपनी राजाधनी बनाया था। बाद में राजा वसु ने मगध का रजाधानी राजगीर बना कर प्रजा और अपने क्षेत्र का विकास किया। 6 ठे मन्वन्तर में चाक्षुस मनु की पत्नी वैराज प्रजापति की पुत्री नडवला के गर्भ से 10 पुत्रों में कुत्स ने अपनी माता नडवला के नाम पर नगर बसाया जिसे नौआ वाद आधुनिक काल में नवादा के नाम से ख्याति प्राप्त है। राजा कुत्स ने कुत्स नगर की स्थापना की जिसे कौवाकोल के नाम से जाना जाता है। नवादा जिले के 12 विभिन्न पहाड़ियों पर भिन्न भिन्न राजाओं द्वारा स्थापित धरोहर है। धुर्वा शाही पर्वत 2202 फीट ऊंचाई, महावर पर्वत 1832 फीट ऊंचाई, मुरगरा पर्वत 1340 फीट, शताघरवा पर्वत 1145 फीट, बाजारी पर्वत 1359 फीट, लोहरोवा पहाड़ी 114 फीट,सोंगा पहाड़ी 1000 फीट, हरला पहाड़ी 1033 फीट, थारी पहाड़ी 1189 फीट, गीधा पहाड़ी 938 फीट, चरकही पहाड़ी 1010 फीट, श्रृंगी पहाड़ी 1850 फीट , इको हिल 20 फीट ऊंचाई और 20 वर्गफिट क्षेत्र में फैला है का पत्थर मानवीय आवाज प्रदर्शित करता है। माहवर पर्वत की  1832 फीट ऊंचाई का ककोलत श्रंखला के 160 फीट की ऊंचाई से ठंडे पानी का जलप्रपात होते है। लोमष पहाड़ी की उचाई 250 फीट ऊंची है वहीं मछेंद्र झरना , पचम्बा पहाड़ी बसौनी, चटकरी, डूबौर, सपही, और सिगार भूगर्भ में महत्वपूर्ण लौहयुक्त खनिज फैला है।
951 वर्गमील क्षेत्र में फैला नवादा जिला का दर्जा 26 जनवरी 1973 ई. प्राप्त हुआ। इसके पूर्व 1845 ई.में अनुमंडल की स्थापना हुई थी। 1911से 1918 ई. में नवादा राजस्व थाना में 663 ग्राम पर हिसुआ, वारसलीगंज, गोविंदपुर थाने, पकरी बरावां राजस्व थाना क्षेत्र में 141 गांव में पकरी वरावां ,कौआ कोल तथा रजौली राजस्व थाने के 295 गावं में रजौली थाने को मिला कर नवादा अनुमंडल की स्थापना हुई है। जिले में जर्रा, नरहट, पचरुखी, रोह, समाई परगाने थे। 1808696 अवादी वाले 2492 वर्ग किलो मीटर क्षेत्रफल में फैला नवादा जिले में 1099 गावों, 14 प्रखंड,187 पंचायत तथा 5 विधान सभा क्षेत्र,159 मध्य विद्यालय,749 प्राथमिक 60 उच्च एवं 9 महाविद्यालय तथा मैसकौर और नारहट पठारी युक्त क्षेत्र है। नवादा के उतर नालंदा, दक्षिण में कोडरमा झारखंड, पूरब में शेखपुरा तथा पश्चिम में गया जिले की सीमाओं से घिरा है।मागधीय परंपरा का नवादा जिले के विभिन्न क्षेत्रों में विरासत में विखरी पड़ी है। अपसंड , अपसढ़ में सेन वांशीय राजा आदित्य सेन द्वारा स्थापित भगवान् वराह की मूर्ति एवं उनकी माता श्रीमती पार्वती ने अपसढ से 03 कि मी की दूरी पर भगवान् विष्णु की मूर्ति तथा मंदिर और धार्मिक विश्वविद्यालय की स्थापना दरियापुर पार्वती पर्वत पर एवं अपसढ़ में तलाव का निर्माण एवं गुप्त वंश के राजा हर्ष गुप्त द्वारा कई मंदिर का निर्माण कराया गया था। यहां गुप्त वंश के राजाओं में कृष्ण गुप्त, हर्ष गुप्त, जिविल गुप्त, कुमार गुप्त, दामोदर गुप्त, महासेन गुप्त तथा माधव गुप्त ने अपसढ़ को आध्यात्मिक केंद्र स्थापित किया था। इसकी चर्चा जेनरल कनिंघम ने 1850 ई. में अपने भ्रमण के बाद 1863 ई. में चर्चा अपनी पुस्तक जनियललेजी आफ द लेटर गुप्तास में की है। चीनी यात्री हवेंसंग ने भगवान् बुद्ध ने पर्वत को पार्वती का घर में रहने और अवलोकितेश्वर की मूर्ति तथा मंदिर की आराधना की एवं मठ में विश्राम करने की व्याख्यान किया है। हर्ष पर्वत पर कश्यप ऋषि का आश्रम था। इसकी चर्चा फा हियान , हवेंसांग एवं डॉ स्टेइन ने हर्ष पर्वत को कुक्कुतापदगिरी  कहा है। यहां कश्यप ऋषि का निर्वाण भगवान् बुद्ध के चार दिवसीय आवासीय रहने के दौरान हुआ था। राजा हर्ष कोल ने स्तूप एवं सोमनाथ मंदिर का निर्माण तथा भगवान् शिवलिंग की स्थापना की। इसकी चर्चा एम ए स्टेइन ने इंडियन अंटिक्युरी पुस्तक में की है।
कुर्किहार में 10 वीं सदी बोद्धिसत्व का प्रमुख केंद्र स्थापित था। यहां की मूर्तियां ग्रीको बुद्धिस्ट कला जिसे गांधार शैली में स्थापित है। भगवती मंदिर एवं भगवान् बुद्ध का चिन्तन आध्यात्मिक स्थल है। त्रिलोकीनाथ मंदिर प्रसिद्ध है। लोमष ऋषि पर्वत की समुद्रतल से 250 फीट ऊंचाई है। यह स्थल लोमष ऋषि का आध्यात्मिक स्थल रजौली से 18 मील की दूरी पर स्थित है। रजौली प्रखंड के क्षेत्रों में सप्त ऋषियों के नाम पर्वत है। अकबरपुर से 8 किलोमीटर उत्तर नानक पंथ मठ , है और लोमष गिरि , दुर्वासा गिरि समुद्रतल से 2202 फीट की ऊंचाई है साथ ही श्रृंगी ऋषि के नाम से समर्पित श्रृंगीगिरी है। बौरी में गौ पलक वीर लोरिक का जन्म स्थल है। क्षेत्र में लोरीक के नाम पर लोरिकायन गीत श्रद्धा से गाते है। नवादा थाने के सोभ में एक मुखी शिव लिंग, माता पार्वती और तीन मंदिर सौभ नदी के किनारे स्थापित है। यह स्थल 300 वर्ष पूर्व शैव धर्म का स्थल था। वारसलीगंज और रजौली में यूनियन बोर्ड का गठन 1926 ई. में किया गया था। कोवाकोल प्रखंड का क्षेत्र पुरातात्विक एवं प्राचीन कोल संस्कृति से भरा पड़ा है। कौआकोल प्रखंड का क्षेत्र 301 वर्गकिलो मीटर क्षेत्र फल फैला तथा समुद्रतल से 305 फीट ऊंचाई पर बसा 48 गावों में 2011 के जनगणना के अनुसार 143439 आवादी में 72416 पुरुष और 71023 महिला निवास करते है। प्राचीन काल में कौआकोल को काम्यक वन कहा जाता था। 1860 ई. में प्रथम सेटलमेंट मिस्टर रीडे ने 52 गावों को मिला कौआकोल महल की स्थापना की और घटवाली टेनुरे अर्थात् विकास की राह बनाया था।श्रृंगी ऋषि गिरी में निर्मित गुफा 16 फीट लंबाई ,11 फीट चौड़ाई,8 फीट ऊंचाई युक्त गोलनुमा गुफा है जिसे सीतामढ़ी गुफा के नाम से जानते हैं। इक्ष्वाकु वंश के राजकुमारी को कुष्ठ हो जाने के कारण गुफा में रहने के बाद गुफा के मुख्य द्वार पत्थर के चट्टानों से बंद कर ली थी और सूर्य आराधना में जुट गई थी तादुपरांत काशी राज के राजकुमार ने अपनी कुष्ठ निवारण के लिए पत्थर की चट्टानों को हटाने के बाद गुफा में प्रवेश किया था। गुफा में पड़ी कुष्ठ रोगी से युक्त राजकुमारी और राजकुमार से संपर्क होने के बाद दोनों मिल कर तलाव में डुबकी लगाई। तलाव में डुबकी लगाने के बाद राजकुमारी और राजकुमार को कुष्ठ से मुक्ति मिल गई और दोनों ने विवाह कर रहने लगे। इन्हीं से कोल वंश की उत्पति हुई। ब्रह्मवैवर्त पुराण , पद्म पुराण, हरिवंश पुराण, बौद्ध ग्रंथों में कोल को कोली, कोल्ली, कोलिय, कोल, नाग, नायक कहा गया है। राजा कोल ने नगर का निर्माण कौआकोल के रूप में किया था। कोल का अंतिम शासक हर्ष कोल और पवन, पल्लव, केली, सर्प और सागर से युद्ध हुआ लेकिन वशिष्ठ ऋषि ने कोल वंश को पवित्र किया था। कोल वंश के लेट पुत्र और तिवर पुत्री हुई। त्रेता युग में जनकनंदिनी सीता अपने पुत्र लव और कुश अपने सैनिकों के साथ रही थी और गुफा में रहने के कारण गुफा का नाम सीतामढ़ी के नाम से विख्यात है। कौआकोल से 4.5 कि मी पश्चिम मछेंद्र जलप्रपात है। यह स्थल ऋषि दत्तात्रेय के शिष्य योग के ज्ञाता मछेंद्र ने नाथ संप्रदाय के संस्थापक थे । इन्होंने 8 वीं सदी में तंत्र योग सिद्ध का ज्ञान गोरखनाथ को को दिया था और योग दर्शन का रूप ले कर गोरखनाथ सिद्ध हुए। वसौनि, बेलम, चटकारी, डुबौर, सपही और सिंगार पहाड़ी लौहायुक्त पचम्बा पहाड़ी से ख्याति प्राप्त है जहां लौह अयस्क भरपूर मात्रा में है। सुंग पहाड़ का प्राचीन नाम श्रृंगीगीरी में कोहवरावा पहाड़ी में जोगिया मदन गुफा हैं जहां सतयुग में इक्ष्वाकु वंश की राज कुमारी और काशी के राजकुमार के साथ समागम हुआ था। बाद में कोल राजा ने गुफा का कोहवर गृह में चित्रकारी का रूप दे कर शादी में कोहबर संस्कृति का रूप दिया है। आज भी वर और कन्या के लिए चित्रकारी कर मागधिय संस्कृति प्रकट है। यहां मनिक संप्रदाय का प्रारंभिक क्षेत्र है।गुनिया जी स्थल में भगवान् महावीर के शिष्य गौतम स्वामी का जन्म स्थल और कर्मभूमि है। द्वापर युग की हड़िया सूर्य मंदिर एवं मूर्ति स्थापित है। सोखोदेवरा में लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने 1942 की क्रांति की शुरुआत और 1952 में भूदान आंदोलन का प्रारंभ तथा सर्वोदय आश्रम की स्थापना की थी। काम्यक वन में दुर्वासा ऋषि के नाम पर धूर्वाशाही पर्वत, दूर्वा पर्वत समुद्रतल से  2202 की उच़ाई पर है। यहां के त्रेता युग का राजा निगस ने अपने घमंड के कारण ऋषियों एवं जनता त्राहिमाम हों गए थे। दुर्वासा ऋषि के शाप से सर्प योनि में दुर्वापर्वत राजा नीगास विचरने लगे। दुर्वा पर्वत की श्रंखला ककोलत पर रह कर सर्प योनि से मुक्ति के लिए दुर्वासा ऋषि से प्रार्थना की जिससे जल प्रपात का रूप धारण कर आम लोगों की शीतलता प्रदान करने लगा। फलत: ककोलत जलप्रपात के नाम से विख्यात है। इस जलप्रपात में स्नान एवं भगवान् शिव तथा निगास की उपासना से सर्प योनि से मुक्ति और सर्प दंस से छुटकारा मिलता है । द्वापर युग में पांडवो ने राजा कोल को सर्प योनि से मुक्ति दिलाई। ककोलत जल प्रपात 160 फिट की उच्चाई से भूमि पर गिरता है। यह जल प्रपात का जल मीठा और काफी शीतल है। बिहार का ककोलत जलप्रपात ठंढा युक्त और शीतल है वहीं राजगीर का जल गर्म के लिए प्रसिद्ध है। बोलता पहाड़ी जिसे इको हिल कौआकोल थाने से 500 गज की दूरी पर अवस्थित है।20 वर्गाफिट में फैला पहाड़ी के पत्थर से पत्थर टकराने पर इंसान की आवाज निकलती है। यह बोलता पहाड़ी प्रसिद्ध है । शुंगा पहाड़ी की तलहटी रूपे  में दैत्य राज शुंभ को बध माता शुभंकारी ने की थी जिसे माता चामुंडा के रूप में प्रसिद्ध है । रूपमयी चामुंडा की स्थापना शुंग वंश के राजा ने मूर्ति चामुंडा देवी की मूर्ति तथा मंदिर निर्माण कराया था । प्राचीन मंदिर प्राकृतिक आपदा के कारण समाप्त हो गई थी परन्तु ग्रामीणों के सहयोग से मदिर का निर्माण हुआ। यह स्थल मौर्य, गुप्त, शुंग, सेन काल में प्रसिद्ध था।

जहानाबाद की सांस्कृतिक विरासत...







बिहार का इतिहास मागधीय संस्कृति और सभ्यता से जुड़ी है जिसमें जहानाबाद के बराबर पर्वत समूह, गया का ब्रह्मयोनि पर्वत समूह तथा राजगीर पर्वत समूह में छिपी हुई प्राचीन धरोहरों की पहचान है। 931 वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल में जहानाबाद जिले में 1124176 आवादी निवासी है। 1872 ई. में जहानाबाद अनुमंडल की स्थापना हुई थी और 01 अगस्त 1986 ई. को जहानाबाद को जिला का सृजन किया गया है।1819 ई. में जहानाबाद जिले के ओकरी, इक्किल, तथा भेलावर को परगाना और 1879 ई. में घेजन को महाल का दर्जा प्राप्त हुए थे । सभी परगाना और महाल टिकारी राज का राजा मित्रजित सिह के आधीन था।1904 ई. में जहानाबाद जेल बने। जहानाबाद जिले के बराबर , धराउत, घेजन, ओकरी, भेलावार , दक्षणी, काको, जहानाबाद , केउर, अमथुआ, पाली तथा नेर में सौर धर्म, शैव धर्म , वैष्णव धर्म , शाक्त धर्म, बौद्ध धर्म , जैन धर्म , इस्लाम धर्म , ईसाई धर्म की विरासत विखरी पड़ी है । महाभारत काल में राजा जहनू ने  दरधा - जमुने नदी संगम पर जहान नगर की स्थापना की ।यह राजा शैव धर्म के उपासक और पंचलिंगी शिव की स्थापना की । शैव धर्म ,सौर धर्म , शाक् धर्म तथा वैष्णव धर्म के मंदिर का निर्माण किया है परंतु काल चक्र से भूकंप, बाढ़ से प्रभावित होकर प्राचीन धरोहरों का भू में समहित है परन्तु शिव लिंग, प्राचीन धरोहर जहानाबाद ठाकुरवाड़ी में स्थित है। धराऊत में ब्राह्मण धर्म की विरासत 600-200 ई. पू. का धरोहर वीखरी हुई है । शूरसेन वंशिय राजा चंद्रसेन ने शासन के लिए धाराउत में राजधानी बनाई तथा शिव लिंग, घेज़न में भगवान बुद्ध की प्रतिमा महायान द्वारा स्थापित किया गया है। यहां के गढ़ की पहचान शाक्त धर्म से जुड़ाव है बाद में यह गढ़ बौद्ध विहार के नाम से ख्याति अर्जित की है। काको में कुकुत्स ने कोकट्स , काको नगर की स्थापना की और कोकाट्स का राजा कुकुत्स ने काको नगर का विकास किया । यह क्षेत्र सौर धर्म , शैव तथा वैष्णव धर्म का विकास तथा भगवान विष्णु आदित्य की मूर्ति और पनिहास सरोवर का निर्माण कराया था। यहां पर सूफी योगनी कमलो बीबी एवं दौलत बीबी का मजार प्राचीन काल से है। इस मजार पर मानसिक या शारीरिक अक्षमता वाले आकर चंगा होते हैं और सांप्रदायिक एकता का पवित्र स्थल है। दक्षिणी के राजा दक्ष ने सौर धर्म की उपासना के लिए उतरायण और दक्षिणायण सूर्य की मूर्ति की स्थापना एवं तलाव का निर्माण कराया था । राजा दक्ष का गढ़ दक्षिणी के नाम से जाना जाता है। भेलावर के राजा ने शिव लिंग तथा भगवान सूर्य की मूर्ति और तलाव का निर्माण कराया था। भगवान महावीर ने अपनी केवल्य प्राप्ति के बाद केवल्य वर्तमान केऊर में रह कर जैन धर्म की उपासना स्थल बनाया और संरक्षा के लिए चन्द्रगुप्त ने विष्णु , जगदम्बा, सूर्य, शिव लिंग की स्थापना की। केयूर का गढ़ से प्राप्त मूर्तियां प्राचीन धरोहर के रूप में महत्त्वपूर्ण हैं। जहानाबाद जिले के बराबर पर्वत समूह में छिपी हुई प्राचीन धरोहरों की पहचान से मगध की सभ्यता का उद्भव और संस्कृति दिलाती है।
 बराबर पर्वत समूह में मगध सम्राट अशोक ने 322-185 ई. पू. में गुफ़ा का निर्माण कराया तथा वैदिक धर्म के ऋषि लोमाष के नाम पर लोमश गुफ़ा, सुदामा  के नाम पर सुदामा गुफ़ा, अंग राजा कर्ण के नाम पर कर्ण चौपर गुफ़ा , ब्रह्मर्षि विश्वामित्र के नाम पर विश्वामित्र गुफ़ा (विश्व झोपड़ी), जैन धर्म के आचार्य योगेन्द्र के नाम योगिया (योगेन्द्र) गुफ़ा , बौद्ध धर्म के भदंत के नाम वाह्य गुफ़ा तथा बौद्ध धर्म के महान खगोल शास्त्री रसायन शास्त्र के ज्ञाता नागार्जुन के नाम पर बराबर पर्वत समूह की एक श्रृंखला का नाम नागार्जुन पर्वत रखा गया था यहां गोपी गुफ़ा का निर्माण सम्राट अशोक के पौत्र दशरथ ने कराया था। बराबर पर्वत समूह का मुरली पहाड़ी, लाल पहाड़ी, सांध्य पहाड़ी , नीतिशास्त्र के ज्ञाता काक भूसुंडी के नाम कौवाडोल पहाड़ी, बौद्ध धर्म के दर्शन शास्त्र के ज्ञाता गुनमति के नाम पर कुनवा पहाड़ी, सूर्यांक गिरि पर वैदिक धर्म एवं बौद्ध तथा जैन धर्म की पहचान है। बराबर की सभी गुफाओं को मगध सम्राट मौर्य वंश के अशोक ने महान बौद्ध दर्शन के ज्ञाता मक्खली गोशाल द्वारा स्थापित आजीविका संप्रदाय को समर्पित किया था। प्रचीन काल इक्ष्वाकु वंश के राजा बाणा सुर ने बनावर्त देश की नीव डाल कर राजधानी बराबर की मैदानी भाग तथा फल्गु नदी के तट पर बना  पाताल गंगा नाम से बनाई थी। दैत्य राज बली का पुत्र बाणासुर ने अपनी राजधानी गया जिले का बेलागंज प्रखण्ड के सोनपुर में बनाया ताथा बराबर के मैदानी भाग में सैन्य बल रखा था। सिद्धों द्वारा उत्तर प्रदेश के काशी में स्थित बाबा विश्वनाथ का उप लिंग सिद्धेश्वर नाथ की स्थापना सूर्यांक गिरि पर की थी। यहां पर माता सिद्धेश्वरी , बागेश्वरी तथा ऋषि दत्तात्रेय सूर्याक गुफ़ा में स्थापित किया गया तथा बाबा सिद्धेश्वर नाथ की आराधना दैत्य राज सूकेशी , गजासुर, भगवान राम, कृष्ण , अनिरुद्ध, उषा, महायोगिनी चित्रलेखा, माया द्वारा की गई है। यहां प्रत्येक वर्ष सावन माह में श्रद्धालु बाबा सिद्धेश्वर नाथ को गंगा जल तथा पाताल गंगा जल से जलाभिषेक ताथा भाद्रपद के शुक्ल पक्ष चतुर्दशी तिथि  अनंत चतुर्दशी को भगवान विष्णु एवं बाबा सिद्धेश्वर नाथ की आराधना करते हैं। बराबर पर्वत की चट्टानों पर भिती चित्र, गुहा लेखन वास्तु शास्त्र वैदिक काल से रेखांकित किया गया है। यहां पर शुंग वंश, गुप्त वंश , पाल वंश, सेन वंश के राजाओं द्वारा विकास का सशक्त रूप दिया है । मगध साम्राज्य का सम्राट अशोक ने 255 ई. पू.को तृतीय बौद्ध संगति पाटलिपुत्र की अध्यक्षता मोग्गलीपुत तिस्स करने के दौरान बराबर की गुफाओं को आजीवक संप्रदाय को समर्पित किया था । आजिवक संप्रदाय का अनुयाई  सम्राट विंदुसार ने अपने पुत्र अवंति के राज्यपाल अशोक को  269 ई. पू. मगध साम्राज्य का सम्राट घोषित किया था । अशोक को बौद्ध धर्म की दीक्षा बौद्ध दर्शन के ज्ञाता उप गुप्त ने 261 ई. पू. में दिया था। बराबर की गुहा लेखन ब्राह्मी लिपि तथा मागधी भाषा में कराई गयी। जैन धर्म के अनुयाई चन्द्रगुप्त मौर्य कोे चाणक्य ने 305 ई.पू. घनानंद को समाप्त करने के बाद मगध साम्राज्य का सम्राट बनाया । चन्द्रगुप्त मौर्य की दीक्षा जैन धर्म के ज्ञाता भद्रबहू द्वारा दी गई थी। जैन धर्म के अाजिवक संप्रदाय के लिए बराबर की गुफाओं को दान दिया था। 305 ई. पू. में बराबर पर्वत समूह सिद्धों के अधीन था । यहां 84 सिद्धों में कर्ण रूपा , सरहपा, नागार्जुन , धर्मारीपा , जोगीपा , भतीपा,मैखलापा, समुदपा , धर्मारिपा आदि का निवास था । ये सभी सिद्ध संप्रदाय सिद्धेश्वर नाथ  बाबा के भक्त हैं। बराबर को सिद्धाश्रम के नाम से प्रख्यात था। यहां ब्रह्मऋषि विश्वामित्र का प्रिय स्थल था। प्राचीन काल में नाथ सम्प्रदाय का तीर्थ स्थल बराबर के सूर्यांक गिरि पर बाबा सिद्धेश्वर नाथ है। यहां लिंगायत संप्रदाय का अनुयाई रह कर बाबा सिद्धेश्वर नाथ की आराधना करते थे।

अध्यात्म चिंतन और शांति का स्थल हेमकुंड...


प्रकृति की सौंदर्य हिमालयन की वादियां जहां आध्यात्म, चिंतन और शांति स्थल के रूप में सुविख्यात है। ऐसे उत्तराखंड में चार धामों में बद्रीनाथ, केदारनाथ, गंगोत्री और जमुनोत्री , हरिद्वार, जोशीमठ, ऋषिकेश है वहीं हेमकुंड सिख धर्म का महान् तीर्थस्थल है। हिमालयन की वादियां जहां आध्यात्म चिंतन और शांति की संस्कृति एवं सभ्यता का उद्भव है वहीं पर्यटन का प्रमुख केंद्र है। चमोली जिले के सप्त पर्वतों के श्रृंखलाओं से घीरा समुद्रतल से 4632 मीटर अर्थात 15197 फीट ऊंचाई पर प्राकृतिक हिमनद झील निर्मित है। जिसे हेमकुंड के नाम से विख्यात है । सतयुग में हेमकुंड स्थल शेषनाग की तप: स्थली था और त्रेता में अयोध्या के राजा दशरथ की भार्या सुमित्रा के पुत्र तथा भगवान् राम के अनुज लक्ष्मण ने राक्षस राज रावण के पुत्र मेघनाथ को मारने के बाद लक्ष्मण अपनी शक्ति पाने के लिए हेम कुंड में कठोर तप किया था। कठोर तप के कारण लक्षमण को श्रद्धा, भक्ति एवं शक्ति प्राप्त हुई थी। द्वापर युग में पांडु का योग स्थल था। हेम कुंड का जल नीला है जिसे हिमगंगा कहा जाता है। यहां म्यूंदार के निवासियों का आराध्य देव लक्ष्मण की मूर्ति एवं लक्ष्मण मंदिर हेमकुंड के किनारे निर्मित है। जिन्हें लोकपाल कहा गया है। सिख धर्म के 10 वें गुरु गोविंद सिंह जी का पूर्व जन्म का तप: स्थल था उस समय सर्ववंशदाली के नाम से विख्यात थे। उस समय यहां का राजा दमन अत्याचारी और अहंकारी था जिससे शिवालिक पहाड़ियों के अहंकारी राजाओं से 14 दिनों तक युद्ध हुए थे । इन अहंकारी राजाओं को गोविंद राय ने समाप्त कर नया समाज की स्थापना की थी। यहां के निवासी गोविंद राय को सर्वावंशदाली, कलगीवर, दशमेश, बजांवाले और संत सिपाही के रूप में गुणगान करते है। यहां गुरुगोविंद सिंह की याद में हेमकुंड साहिब गुरुद्वारा निर्मित है। पौष शुक्ल सप्तमी संवत् 1723 दिनांक 26 दिसंबर 1666 ई.को गुरूतेगबहादुर सिंह की भार्या गुजरी के पुत्र गोविंद राय के रूप में पटना में जन्म लिए। सिख धर्म के 10 वे गुरु गोविंद सिंह जी को 11 नवंबर 1675 ई. को अलंकृत किया गया है। वैशाखी के दिन 1619 ई. को गुरूगोविंद सिंह द्वारा खालसा पंथ की स्थापना की थी। 07 अक्टूबर 1708 ई. को गुरु गोविंद सिंह का निधन महाराष्ट्र के नदेर में हो गया। गुरु गोविंद सिंह जी महाराज का अदम्य साहस, शक्ति, श्रद्धा और भक्ति की रूप में याद करते है।

पराशक्ति रूपौ की चामुंडा...

           भारतीय संस्कृति के वांग्मय पौराणिक ग्रंथों में पराशक्ति की उल्लेख मिलता है। शक्ति से ब्रह्माण्ड की रचना, पालन और संहार होती रही है। इन्हीं शक्ति को नव दुर्गा तथा दशमहाविद्या कहा गया है। मााधीय और बिहारी संस्कृति में सौर धर्म में भगवान् सूर्य और शाक्त धर्म में नव दुर्गा, पराशक्ति महाविद्या को मन्वन्तर काल से मानव ने अंगीकार किया है। बाद में कई धर्म का उदय विभिन्न मनवन्तर में यथा शैव धर्म में भगवान् शिव , वैष्णव धर्म में भगवान् विष्णु के विभिन्न रूपों में की जाती है। संबत्सर काल में बौद्ध धर्म में भगवान् बुद्ध , जैन धर्म में भगवान् महावीर  को अनुयाई अपने आराध्य देव मानते हुए उपासना करते है। मागधीय संस्कृति और सभ्यता में बिहार के विभिन्न क्षेत्रों में शक्ति का प्रादूर्भाव एवं रहस्य प्राचीन काल से है। गया का भष्म गिरि पर्वत की श्रंखला पर माता सती का स्तन की उपासना पालन कर्ता के लिए की जाती है । तंत्र चूड़ामणि में 52 शक्ति पीठ, देवी पुराण में 51 शक्ति पीठ, देवी भागवत में 108 और देवी गीता में 72 शक्तिपीठ एवं अन्य ग्रंथों में शक्ति पीठों की संख्या विभिन्न क्षेत्रों में पाई जाती है। सभी शक्ति पीठ की उपासना के लिए जाग्रत पीठ धाम विख्यात और जनसामान्य में अगाध श्रद्धा और विश्वास है। नवादा जिले के क्षेत्रों में पुरातन काल में दैत्य संस्कृति और दानव संस्कृति का साम्राज्य कायम था। दैत्य राज शुंभ का कुशासन से जन मानस अक्रांत हो गया था। दैत्य राज शुंभ और निशुंभ के कारण कीकट प्रदेश अशांत हो गया था।बिहार के क्षेत्रों में शक्ति उपासना की परंपरा जनमानस में समाहित है। भगवती चामुंडा, चंडी, जगदंबा आदि रूपों में देवी उपासना प्रचलित है। शक्ति उपासना में यंत्र, मंत्र, तंत्र , जादू और टोना का प्रमुख स्थल चामुंडा माता का स्थान सर्वोपरि रही है।रूपौ में के वायु कोण में माता सती का मस्तक भरण के स्थान में चामुंडा शक्तियुक्त स्थापित है। चामुंडा स्थान में बड़ा कूप, वृक्ष एवं भीष्म पहाड़ी श्मशान भूमि और लाल नदी प्रवाहित है। पुरातन काल में काम्यक वन के रूप में ख्याति प्राप्त थी। रोह, कौआ कोल , गोविंदपुर, आदि स्थान के पहाड़ियों में निर्मित गुफा में कोहवर कहा गया है। यह कोहवर में राजा रानी , पुष्पों , मोर, का चित्र बना कर मनोरंजन अटखेलियां खेलते थे। आज यह परंपरा बिहार में वर और कन्या के लिए कोहवर प्रसिद्ध है जहां पर महिलाएं अपनी कलाकारी दर्शाती है। पेंटिंग प्रथा का उदगम स्थल कोहवर है। मगध साम्राज्य में कोहवर गीत श्रद्धा और विश्वास के साथ गुनगुनाते हैं। चामुंडा देवी मंदिर नवादा जिले का कौआकोल और रो के मध्य में रूपौ की चामुडा माता की उपासना स्थल में प्राचीन चार गढ़ है वहीं विभिन्न राजाओं द्वारा मातृ देवी भव: का रूप दिया है। मार्कण्डेय ऋषि द्वारा दुर्गा सप्तशती की रचना कर माता की उपासना की परंपरा कायम की। ॐ एँ हृंग क्लीं चामुण्डायै वीचै : की मंत्र दिया है। नवादा के विद्वानों ने चामुण्डा स्थान, चामुण्डा शक्ति पीठ पुस्तक में महत्वपूर्ण चर्चा की है। यहां के लगभग एक लाख ई. पू. विकसित होने वाली आरंभिक प्रस्तर युग के अवशेष तथा मानव जीवन की सभ्यता का रूप दिया है। चित्र कला, मूर्ति कला, संस्कृति की पहचान बनी है।
पुराणों, वेदों तथा इतिहास के पन्नों में मागधीय क्षेत्रों में सौर, देव , शाक्त, यक्ष संस्कृति के साथ दैत्य, दानव, राक्षस संस्कृति फैली हुई थी। ये सभी संस्कृति कश्यप ऋषि के पुत्रों द्वारा स्थापित किए थे। दैत्य संस्कृति और दानव संस्कृति नवादा जिले के विभिन्न क्षेत्रों के पर्वतीय क्षेत्रों में फैला था और देव संस्कृति के साथ मतभेद और मनभेद निरंतर चलता था। दैत्य संस्कृति के रक्षक दैत्य राज शुंभ और निशुंभ ने अपनी राजाधानी 1832 फीट की ऊंचाई वाला महावर पर्वत समूह में निर्मित गुफा एवं तलहटी रोह में स्थापित किया। प्राचीन काल में दैत्य राज शुंभ ने रूह स्थल का निर्माण और महावर पर्वत की एक 1000 फीट ऊंचाई युक्त श्रीखाला को शुंभ पर्वत पर निवास बनाया था। आधुनिक नाम रूह स्थल को रोह और शुंभ पर्वत को सोंगा पहाड़ी, सोंग पहाड़ के नाम से ख्याति प्राप्त है। सौंदर्य और प्रकृति का समन्वय स्थल को रूपुआ, रूप , रापाऊ, रूपौ नाम से ख्याति मिली।शुंभ पर्वत से लाली नदी सिहना , सिंघाना के मैदानी क्षेत्रों में समाप्त हुई थी। दैत्य राज शुंभ के अत्याचार एवं घमंड को समाप्त करने के लिए  मां चामुंडा प्रगट होकर दैत्यों को संहार करने के पश्चात् शुभ को बध कर जनता में खुशियां लाई। शुंभ और निशुंभ का बध किया गया था वह स्थल स्माशान तथा रुधिर रूप प्रवाहित लाल नदी हो गई थी। नवादा जिले के रोह प्रखंड का भीखनपुर पंचायत में 05 बीघे भूमि पर माता चामुंडा का पाषाण पिंड, भगवान् शिव का शिवलिंग, माता पार्वती एवम् भगवान् सूर्य की मूर्ति प्राचीन काल से रूपौ  में स्थापित है। यहां चामुंडा मंदिर का निर्माण किया गया है और प्रत्येक वर्ष के चैत्र और आश्विन शुक्ल पक्ष प्रतिपदा से नवमी तिथि तक नवरात्र और चामुंडा माता की उपासना करते है ऐसे श्रद्धालु प्रत्येक मंगलवार को विशेष पूजा अर्चना करते है। रूपौ  की माता चामुंडा नवादा जिले की शक्ति पीठ के रूप म पुरातन कालों से मनाते आ रहे है।

करपी का जगदम्बा स्थान ...

 
                   
        भारतीय और मागधीय संस्कृति एवं सभ्यताएं प्राचीन काल से अरवल जिले के करपी का  जगदम्बा मंदिर में स्थापित माता जगदम्बा, शिव लिंग, चतुर्भुज भगवान, भगवान शिव - पार्वती विहार की मूर्तियां महाभारत कालीन है । कारूष प्रदेश के राजा करूष ने कारूषी नगर की स्थापित किया था । वे शाक्त धर्म के अनुयायी थे । हिरण्यबाहू नदी के किनारे कालपी में शाक्त धर्म के अनुयायी ने जादू-टोना तथा माता जगदम्बा, शिव - पार्वती विहार, शिव लिंग, चतुर्भुज, आदि देवताओं की अराधना के लिए केंद्र स्थली बनाया । दिव्य ज्ञान योगनी कुरंगी ने तंत्र - मंत्र - यंत्र , जादू-टोना की उपासाना करती थी । यहां चारो दिशाओं में मठ कायम था, कलान्तर इसके नाम मठिया के नाम से प्रसिद्ध है ।करपी गढ की उत्खनन के दौरान मिले प्राचीन काल में स्थापित अनेक प्रकार की मूर्ति जिसे उत्खनन विभाग ने करपी वासियों को समर्पित कर दिया । प्राचीन काल में प्रकृति आपदा के कारण शाक्त धर्म की मूर्तियां भूगर्भ में समाहित हो गई थी । गढ़ की उत्खनन के दौरान मिले प्राचीन काल का मूर्तिया ।विभिन्न काल के राजाओं ने  करपी के लिए 05 कूपों का निर्माण, तलाव का निर्माण कराया था । साहित्यकार एवं इतिहासकार सत्येन्द्र कुमार पाठक ने कहा कि भारतीय संस्कृति और सभ्यता की प्रचीन परम्पराओं में शाक्त धर्म एवं सौर , शैव धर्म, वैष्णव धर्म, ब्राह्मण धर्म, भागवत धर्म का करपी का जगदम्बा स्थान है । करपी जगदम्बा स्थान की चर्चा मगधांचल में महत्व पूर्ण रूप से की गई है । भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण की स्थापना 1861 ई. में हुई है के बाद पुरातात्विक उत्खनन सर्वेक्षण के दौरान करपी गढ के भूगर्भ में समाहित हो गई मूर्तिया को भूगर्भ से निकाल दिया गया था । करपी का सती स्थान, ब्रह्म स्थली प्राचीन धरोहर है । करपी का नाम कारूषी, कुरंगी, करखी, कुरखी, कालपी था ।
 वैवस्वत मनु के पुत्र राजा करूष एवं शर्याती सोन प्रदेश और हिरण्यवाहू प्रदेश की नीव रखा था । राजा करूष ने  कारूष प्रदेश की राजधानी कारुषी नगर में सौर धर्म की स्थापना कर भगवान् सूर्य की उपासना का रूप दिया। कारूषि हिरण्यबाहू की पूर्वी और पश्चिमी  11 वीं धारा के मध्य में भगवान् विष्णु आदित्य एवं षष्टी माता और श शाक्त धर्म, शैव धर्म, वैष्णव धर्म की स्थापना किया गया था। बाद में अरवल जिले के करपी कहा जाने लगा। वर्तमान में करपी जगदम्बा स्थान मंदिर में दर्जनों मूर्तियां के अलावा भगवान् चतुर्भुज, माता जगदम्बा , शिवलिंग, भगवान् शिव एवं माता पार्वती विहार स्थापित है। सभी मूर्तियां करपी गढ़ की उत्खनन के तहत प्राप्त हुई है।
प्राचीन काल में करपी सौर धर्म का स्थल था जहां पर भगवान् सूर्य की पूजा कर चतुर्दिक विकास होता था। यहां की रखवाली के लिए चार मठ थे जिसका नाम उतर की ओर उतरवारी मठिया ( गुलजारबाग ) , दक्षिण दिशा में दक्षिणवारी मठिया , पूरब में पुरवारी मठिया और ब्रह्म स्थान तथा पश्चिम में पछिमवारी मठिया वर्तमान में फुलवाहन विगहा तथा पाठक बिगहा के नाम है जहां भगवान् सूर्य की मूर्ति एवं मंदिर और तलाव स्थापित है। करपी ऐतिहासिक सम्पदा के लिए विशिष्ट महत्व रखता है। पूर्व ऐतिहासिक काल से विकसित होने वाली संस्कृतियों और विभिन्न युगों में सांस्कृतिक जीवन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। लगभग एक लाख वर्ष पूर्व विकसित होने वाली आरंभिक पूर्व प्रस्तर युगीन अवशेष मूर्तियां उपलब्ध हुई है। मध्यवर्ती और परवर्ती पूर्व प्रस्तर युगीन 40000 से 10000 ई. पू. के अवशेष मूर्तिया मिले हैं और भू गर्भ में है। करपी के दक्षिण की ओर कभी भटौली ( आराधना ) स्थल था जहां वर्तमान में भटोलिया कहा जाता है और पूरब में गोराधौवा ( पैर धोने का स्थल) , तलाव को बेरौवा था। उतर की ओर पिंडी स्थापित तथा तलाव भी है। यहां विभिन्न राजाओं ने तलाव निर्माण और 05 कूपो का निर्माण कराया था । दक्षिण में यम स्थल था जिसे जम्म भोरा जहां 05 सतियों की पिंडी स्थापित है।
राजा हर्षवर्धन काल 606 ई. पू. में सूर्योपासना का केंद्र था। 300 ई. पू. भीषण बाढ़ और आपदा एवं अाकाल पड़ने के कारण  कारुषी नगर भू गर्भ में समाहित हो गई थी बाद में यह स्थल कारुशी, करुषी, कुरंगी, कुरपी कर्पी बाद में करपी नाम से विख्यात हुआ है। 1400 ई. पू. एशिया मईनर का बेगाज कोई से वैदिक देवता मित्र, वरुण, इन्द्र और नसत्य ( अश्विनी कुमार) थे जिन्होंने सूर्य उपासना तथा ब्रह्मऋषि विश्वामित्र रचित ऋग्वेद के तीसरे मण्डल में सूर्यदेव सावित्री को समर्पित गायत्री मंत्र है। विश्वामित्र करूष प्रदेश के ऋषि थे। 1921 ई. में पुरातत्व वेता दयाराम साहनी एवं मधोस्वरूप वत्स के समय करपी गढ़ का उत्खनन से भू गर्भ में समाहित प्राचीन काल की महत्वपूर्ण मूर्तियां प्राप्त हुई जिसे निवासियों को दे दिए गए हैं । करपी से दो किलो मीटर पर पुनपुन नदी के किनारे कात्यायनी ( कोइलीघाट) है । करपी में प्राचीन काल में राजा शर्याति की पुत्री सुकन्या ने भगवान् सूर्य की भार्या संज्ञा के पुत्र देववैद्य अश्विनी कुमार के परामर्श से सूर्योपासना की नीव रखा और बाद में देवकुंड और मदसरावा के वधुसरोवर में भगवान् सूर्य को अर्घ्य समर्पित कर अपनी मनोकामाएं पूर्ण की है। करपी , पंतित , कुर्था बेलसार, अरवल , किंजर, खटांगी, शेरपुर आदि जगहों पर सूर्य की मूर्ति, तलाव का निर्माण, तथा मंदिर बनाए गए है साथ ही साथ पुनपुन नदी, सोन नद, वैदिक काल की नदी हिरण्यबाहु ( बह ) में अर्घ्य दे कर भगवान् सूर्य की उपासना करते है।
करपी का बेरौआ तलाव प्राचीन है। यह तलाव को जल जीवन हरियाली योजना के तहत जीर्णोद्धार किया जाता है प्राचीन धरोहर सुरक्षित रहेगा। वर्तमान में यह तलाव अतिक्रमण युक्त और गंदगी युक्त है।


मानव संस्कृति की पहचान वास्तु और मूर्ति कला...


विश्व की धरातल पर मानव जीवन की पहचान वास्तु और मूर्ति कला है। इंसान ने आश्रय का निर्माण प्रारंभ करने लगा उसी समय से वास्तु कला विज्ञान प्रारंभ हुआ साथ ही मूर्तियों और लघु रचनाएं होने लगी है। भारतीय संस्कृति में वास्तु कला तथा मूर्ति कला की अमिट छाप छोड़ी गई है। बिहारी और मागधीय सभ्यता की वास्तविकता वास्तुकला एवं मूर्तिकला के विकास झलकता है। प्राचीन मगध में मौर्य साम्राज्य, गुप्त साम्राज्य एवं पाल साम्राज्य काल की वास्तु और मूर्ति कला की जीवन्त मूर्तियां, गुफाएं और भृदमांडो आदि से प्रदर्शित करता है। मागधीय सभ्यता के प्रमुख स्थल और पुरातात्विक विरासत विखरी हुई हैं। जिसे बिहारी सभ्यता कहा जाता है। जहानाबाद जिले के बराबर पर्वत समूह की गुफाएं, वास्तु और मूर्ति कला, लिपि, भितिचित्र, नालंदा जिले का राजगीर पर्वत समूह की गुफाएं, टोरा कोटा, नालंदा विश्वविद्यालय का खंडहर, मूर्तियां , पावापुरी में भगवान् महावीर की मोक्ष स्थली , गया जिले का ब्रह्मयोनि पर्वत समूह एवं गया में मूर्तियां, मंदिर, गुफाएं, भगवान् शिव को शिव लिंग, भगवान् विष्णु का पैर, माता सती का स्तन और योनि के पासान प्रतीक , भगवान् सूर्य एवं ब्रह्मा जी की मूर्तियां अन्य प्राचीन काल की मूर्तियां , भगवान् बुद्ध की ज्ञान स्थली बोधगया में स्थित बुद्ध की मूर्तियां, नवादा जिले का अपसढ़ , दरियापुर पार्वती पर्वत , महावार पर्वत समूह में गुफाएं, मूर्तियां जलप्रपात ककोलत हड़िया सूर्य मंदिर कौआ कोल स्थित बोलता पहाड़ , औरंगाबाद जिले का देव सूर्य मंदिर, उमगा का सूर्य मंदिर, पवई का झुनझुना पहाड़ , अरवल जिले का करपी का जगदंबा स्थान की मूर्तियां , पटना जिले का पटना में पटनदेवी, कुम्हरार की मूर्तियां , वैशाली जिले की बौद्ध कालीन स्तूप, हरिहर क्षेत्र की मूर्तियां, कैमूर पर्वत समूह में गुफाएं और मूर्तियां आरा की अरणी भवानी एवं मुजफ्फरपुर जिले का गरीबनाथ, मूर्तियां आदि शामिल हैं। मुंगेर जिले की एवं सारण जिला का चिरांद में नव प्रस्तर युग, ताम्र प्रस्तर युग के पत्थर के अस्त्र शस्त्र का अवशेष है। बिहार का क्षेत्र पुरातात्विक महत्व है जहां से प्राचीन काल में मागधीय , अंगीय, मैथिली , वंजकीय तथा भोजकीय सभ्यता उच्च कोटि की है। बिहार के क्षेत्रों में सौर धर्म, शाक्त धर्म, शैवधर्म , वैष्णव धर्म, बौद्ध धर्म, जैन धर्म आदि संप्रदायों का समावेश है। प्राचीन काल में वैदिक काल , राम,, कृष्ण , इक्ष्वाकु काल, बुद्ध काल, महावीर काल, मौर्यकाल, गुप्त काल शुंग काल, पाल काल में  बिहार का इतिहास और सभ्यता संस्कृति उच्च कोटि की थी।