गुरुवार, अप्रैल 27, 2023

ब्रह्मांड का नेत्र है भगवान सूर्य ...


सनातन धर्म का वेदों , पुराणों , स्मृति , ज्योतिष ग्रंथो एवं विभिन्न ग्रंथों में भगवान सूर्य का उल्लेख किया गया है । भगवान सूर्य जगत की आत्मा एवं नेत्र है । विभिन्न ग्रंथों के अनुसार ब्रह्मा जी का प्रपौत्र एवं ऋषि मरीचि के पौत्र और ऋषि  कश्यप  की भार्या दक्ष प्रजापति की पुत्री अदिति के पुत्र भगवान सूर्य के अवतार विवस्वान् (सूर्य), अर्यमा, पूषा, त्वष्टा, सविता, भग, धाता, विधाता, वरुण, मित्र, इंद्र और त्रिविक्रम (भगवान वामन) 12 आदित्यों अवतरण हुआ है। भगवान विवस्वान (सूर्य ) की भार्या एवं विश्वकर्मा की पुत्री संज्ञा के पुत्र  प्रजापति श्राद्धदेव ( वैवस्वत मनु ) , यम और पुत्री  यमुना ( कालिन्दी ) हुई थी । भगवान् सूर्य के तेजस्वी स्वरूप को देखकर संज्ञा ने सह नही सकने के कारण संज्ञा ने  सामान वर्णवाली  छाया ( स्वर्णा ) प्रकट की थी । छाया को संज्ञा समझ कर सूर्य ने छाया के गर्भ से पुत्र सावर्ण मनु ,   शनैश्चर (शनि) और पुत्री  तपती हुई थी । भगवान सूर्य की भार्या संज्ञा के पुत्र यम धर्मराज के पद पर प्रतिष्ठित है।  छाया पुत्र सावर्ण मनु प्रजापति  सावर्णिक मन्वन्तर के  स्वामी  मेरुगिरि के शिखर पर नित्य तपस्या करते हैं। संज्ञा अपनी छाया छोड़कर स्वयं बड़वा का रूप धारण करके तप करने के दौरान  भगवान सूर्य ने जब संज्ञा को तप करते देखने के बाद अपने यहां ले आए।  संज्ञा के बड़वा रूप से दृष्ट और हृष्ट  (अश्विनीकुमार )  हुए  थे । अदिति के पुत्र विवस्वान् से वैवस्वस्त मन्वंतर का स्वामी  वैवस्वत मनु से इक्ष्वाकु, नृग, धृष्ट, शर्याति, नरिष्यन्त, प्रान्शु, नाभाग, दिष्ट, करुष और पृषध्र  10 श्रेष्ठ पुत्रों की प्राप्ति हुई।  त्रेतायुग में कपिराज सुग्रीव और द्वापर में महारथी कर्ण भगवान सूर्य के अंश से ही उत्पन्न हुए  हैं। श्रीकृष्ण की माता देवकी 'अदिति का अवतार' बताई जाती हैं। भगवान सूर्य के परिवार की  भविष्य पुराण, मत्स्य पुराण, पद्म पुराण, ब्रह्म पुराण, मार्कण्डेय पुराण तथा साम्बपुराण में वर्णित है। भगवान सूर्य को रवि, दिनकर, दिवाकर, भानु, भास्कर, प्रभाकर, सविता, दिनमणि, आदित्य, अनंत, मार्तंड, अर्क, पतंग और विवस्वान कहा गया है।  रविवार की प्रकृति ध्रुव और भगवान विष्णु और सूर्यदेव का दिन  है। भगवान सूर्य की उपासना  ॐ सूर्याय नम:।, ॐ मित्राय नम: , ॐ रवये नम:।, ॐ भानवे नम: ,ॐ खगाय नम:।, ॐ पूष्णे नम: , ॐ हिरण्यगर्भाय नम: , ॐ मारीचाय नम: ,ॐ आदित्याय नम: ,ॐ सावित्रे नम: ,ॐ अर्काय नम:,  ॐ भास्कराय नम:। । करने से मनोवांक्षित फल की प्राप्ति होती है । वैदिक काल में आर्य सूर्य को जगत का कर्ता धर्ता ,  प्रेरक,  प्रकाशक,  प्रवर्तक और  कल्याणकारी है। ऋग्वेद के देवताओं में सूर्यदेव का महत्वपूर्ण , यजुर्वेद ने "चक्षो सूर्यो जायत" जगत  का नेत्र ,  छान्दोग्यपनिषद में सूर्य को प्रणव निरूपित कर ध्यान साधना से पुत्र प्राप्ति का लाभ , ब्रह्मवैर्वत पुराण में  सूर्य को परमात्मा स्वरूप और प्रसिद्ध गायत्री मंत्र सूर्य परक  है। सूर्योपनिषद में सूर्य को ही संपूर्ण जगत की उतपत्ति का कारण निरूपित किया गया है। और उन्ही को संपूर्ण जगत की  प्रसिद्ध हैं। वैदिक साहित्य में ही नहीं आयुर्वेद, ज्योतिष, हस्तरेखा शास्त्रों में सूर्य का महत्व प्रतिपादित किया गया है। भगवान सूर्य को प्रकाश, स्वास्थ्य, वंश, ग्रह, तपस्या, तप, पवित्रता, विजय, कर्म, जाप, साधना, यज्ञ,वेद, युद्ध, अस्त्र-शास्त्र, आत्मा, समय, काल, दिग्पाल, दिशा, सुख, ज्ञान, ज्योति, आराधना, सुबह, शाम, शांति, रंग, पुण्य, शक्ति, ऊर्जा, धर्म, गति, दीर्घायु, ऋतुएँ, मुक्ति के अधिष्ठात्र देवता, साक्षात सूर्य स्वरूप,परब्रह्म, परमात्मा, परमेश्वर, सर्वव्यापी, सर्वशक्तिमान, सर्वज्ञ, सर्वदिशात्मक, निरंजन निरकार परमात्मा कहा गया है। श्री श्री 108 भगवान सूर्य को सूर्य, वीर, नारायण, तपेंद्र, भास्कर, दिवाकर, हिरण्यगर्भ, खगेश, मित्र, ओमकार, सूरज, दिनेश, आदित्य, दिनकर, रवि, भानु, प्रभाकर, दिनेश आदि नाम है।भगवान सूर्य का संबंध नारायण, पर ब्रह्म,शिव, देव, आदि देव ब्रह्मा , विष्णु और महेश से है । निवासस्थान सूर्यलोक , मंत्र ॐ सूर्यनारायणाय: नमः ,  सूर्य का अस्त्र, सुदर्शन चक्र, गदा, कमल, शंख और त्रिशूल दिवस रविवार ,जीवनसाथी संध्या, छाया , पिता महर्षि कश्यप और माता अदिति एवं भाई इन्द्र , धाता ,  पूषा , अर्यमा  , त्वष्ट्र , भग  , अंशुमान  , मित् , वरुण  , पर्जन्य  और वामन और पुत्रों में वैवस्वत मनु, यमराज, यमुना, अश्विनी कुमार, रेवंत,शनि, तपती, सवर्णि मनु, सुग्रीव, कर्ण और भद्रा है । सवारी सप्त अश्वों द्वारा खींचा जाने वाला रथ, सारथी: अरुण तथा त्यौहार छठ महापर्व है ।
सूर्य  का जन्म  - पुराणों के अनुसार दैत्यों और देवताओं में बहुत दुश्मनी बढ़ गई। दैत्यों ने सभी देवताओं को स्वर्ग से निकाल दिया और स्वयं स्वर्ग पर शासन करने लगे। देवराज इन्द्र ने ये बात अपनी माता अदिति को बताई। अदिति ने भगवान सूर्य को प्रसन्न करने के लिए कठोर तपस्या की। उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान सूर्य ने उनसे वरदान मांगने को कहा। अदिति ने उनसे कहा कि "आप मेरे पुत्र के रूप में उत्पन्न होंवें। सूर्य भगवान ने तथास्तु कहकर  अंतर्ध्यान हो गए। देव माता अदिति और उनके पति प्रजापति कश्यप में किसी बात को लेकर कलेह हो गई थी । प्रजापति कश्यप ने देव माता अदिति के गर्भ में पल रहे बालक को मृत कह दियाथा।  देव माता  अदिति के गर्भ से  तेज़ पूंज निकला और भगवान सूर्य प्रकट हुए और कहा कि आप दोनों इस पूंज का पूजन प्रतिदिन करें समय आने पर इस पूंज से एक पुत्र रत्न जन्म लेगा और आपके दुखों को दूर करेगा। अदिति और प्रजापति कश्यप ने उस पूंज का पूजन प्रतिदिन किया और उस पूंज से एक पुत्र ने जन्म लिया। प्रजापति कश्यप ने अपने उस पुत्र को विवस्वान् नाम दिया। देवासुर संग्राम में सभी दैत्य विवस्वान् के तेज़ को देखकर भाग खड़े हुए। भगवान सूर्य  और भगवान शिव का युद्ध - ब्रह्मवैवर्त पुराण में वर्णित एक कथा के अनुसार कश्यप प्रजापति के प्रपौत्र माली और सुमाली थे। सुमाली ही रावण का नाना हुआ। दोनों ने महादेव की तपस्या की और उनसे वर मांगा कि वे सदा उनकी रक्षा करेंगे। इस पर महादेव ने उन्हें ये वर दे दिया। एक बार उन्होंने सूर्यदेव को युद्ध के लिए ललकारा। सूर्य उन्हें परास्त करने लगे किन्तु उन दोनों राक्षसों ने महादेव का स्मरण किया तो भगवान शंकर वहां प्रकट हुए और अपने त्रिशूल से सूर्यदेव पर प्रहार किया जिससे सूर्यदेव अपनी चेतना खो बैठे। कश्यप प्रजापति को जब इस बात का पता चला तो अपने पुत्र को चेतनाहीन देखकर उन्होंने भगवान शंकर को श्राप दिया कि "तुमने आज जिस तरह मेरे पुत्र को चेतनाहीन किया है एक दिन तुम अपने इसी त्रिशूल से अपने ही पुत्र का मस्तक काट दोगे।" इसी श्राप ने भगवान शिव से उनके पुत्र गणेश का मनुष्य रूप वाला मस्तक कटवाया था । श्रीमदभागवत पुराण के अनुसार:- भूलोक तथा द्युलोक के मध्य में अन्तरिक्ष लोक है। इस द्युलोक में सूर्य भगवान नक्षत्र तारों के मध्य में विराजमान रह कर तीनों लोकों को प्रकाशित करते हैं। उत्तरायण, दक्षिणायन तथा विषुक्त नामक तीन मार्गों से चलने के कारण कर्क, मकर तथा समान गतियों के छोटे, बड़े तथा समान दिन रात्रि बनाते हैं। जब भगवान सूर्य मेष तथा तुला राशि पर रहते हैं तब दिन रात्रि समान रहते हैं। जब वे वृष, मिथुन, कर्क, सिंह और कन्या राशियों में रहते हैं तब क्रमशः रात्रि एक-एक मास में एक-एक घड़ी बढ़ती जाती है और दिन घटते जाते हैं। जब सूर्य वृश्चिक, मकर, कुम्भ, मीन ओर मेष राशि में रहते हैं तब क्रमशः दिन प्रति मास एक-एक घड़ी बढ़ता जाता है तथा रात्रि कम होती जाती है। सूर्य की परिक्रमा का मार्ग मानसोत्तर पर्वत पर इंक्यावन लाख योजन है। मेरु पर्वत के पूर्व की ओर इन्द्रपुरी है, दक्षिण की ओर यमपुरी है, पश्चिम की ओर वरुणपुरी है और उत्तर की ओर चन्द्रपुरी है। मेरु पर्वत के चारों ओर सूर्य परिक्रमा करते हैं इस लिये इन पुरियों में कभी दिन, कभी रात्रि, कभी मध्याह्न और कभी मध्यरात्रि होता है। सूर्य भगवान जिस पुरी में उदय होते हैं उसके ठीक सामने अस्त होते प्रतीत होते हैं। जिस पुरी में मध्याह्न होता है उसके ठीक सामने अर्ध रात्रि होती है।
सूर्य की चाल - भगवान सूर्य की चाल पन्द्रह घड़ी में सवा सौ करोड़ साढ़े बारह लाख योजन से कुछ अधिक है। उनके साथ-साथ चन्द्रमा तथा अन्य नक्षत्र भी घूमते रहते हैं। सूर्य का रथ एक मुहूर्त (दो घड़ी) में चौंतीस लाख आठ सौ योजन चलता है। इस रथ का संवत्सर नाम का एक पहिया है जिसके बारह अरे (मास), छः नेम, छः ऋतु और तीन चौमासे हैं। इस रथ की एक धुरी मानसोत्तर पर्वत पर तथा दूसरा सिरा मेरु पर्वत पर स्थित है। इस रथ में बैठने का स्थान छत्तीस लाख योजन लम्बा है तथा अरुण नाम के सारथी इसे चलाते हैं। हे राजन्! भगवान भुवन भास्कर इस प्रकार नौ करोड़ इंक्यावन लाख योजन लम्बे परिधि को एक क्षण में दो सहस्त्र योजन के हिसाब से तय करते हैं।
सूर्य का रथ -  भगवान सूर्य रथ का विस्तार नौ हजार योजन है। इससे दुगुना इसका ईषा-दण्ड (जूआ और रथ के बीच का भाग) है। इसका धुरा डेड़ करोड़ सात लाख योजन लम्बा है, जिसमें पहिया लगा हुआ है। उस पूर्वाह्न, मध्याह्न और पराह्न रूप तीन नाभि, परिवत्सर आदि पांच अरे और षड ऋतु रूप छः नेमि वाले अक्षस्वरूप संवत्सरात्मक चक्र में सम्पूर्ण कालचक्र स्थित है। सात छन्द इसके घोड़े हैं: गायत्री, वृहति, उष्णिक, जगती, त्रिष्टुप, अनुष्टुप और पंक्ति। इस रथ का दूसरा धुरा साढ़े पैंतालीस सहस्र योजन लम्बा है। इसके दोनों जुओं के परिमाण के तुल्य ही इसके युगार्द्धों (जूओं) का परिमाण है। इनमें से छोटा धुरा उस रथ के जूए के सहित ध्रुव के आधार पर स्थित है और दूसरे धुरे का चक्र मानसोत्तर पर्वत पर स्थित है। मानसोत्तर पर्वत के पूर्व में इन्द्र की वस्वौकसार , पश्चिम में वरुण की संयमनी , उत्तर में चंद्रमा की सूखा और दक्षिण में यम की विभावरी है। ज्योतिष शास्त्र  में सूर्य को आत्मा का कारक माना गया है। सूर्य से सम्बन्धित नक्षत्र कृतिका उत्तराषाढा और उत्तराफ़ाल्गुनी हैं। यह भचक्र की पांचवीं राशि सिंह का स्वामी है। सूर्य पिता का प्रतिधिनित्व करता है ।  सूर्य के मित्र चन्द्र मंगल और गुरु और  शत्रु शनि और शुक्र और समान देखने वाला ग्रह बुध है। सूर्य ग्रह के रत्नों में माणिक और उपरत्नो में लालडी, तामडा, और महसूरी.पांच रत्ती का रत्न या उपरत्न रविवार को कृत्तिका नक्षत्र में अनामिका उंगली में सोने में धारण करने से दुष्प्रभाव कम होता है। 
सूर्याष्टक स्तोत्र - 
आदि देव: नमस्तुभ्यम प्रसीद मम भास्कर। दिवाकर नमस्तुभ्यम प्रभाकर नमोअस्तु ते ॥सप्त अश्व रथम आरूढम प्रचंडम कश्यप आत्मजम। श्वेतम पदमधरम देवम तम सूर्यम प्रणमामि अहम ॥ लोहितम रथम आरूढम सर्वलोकम पितामहम। महा पाप हरम देवम त्वम सूर्यम प्रणमामि अहम ॥ त्रैगुण्यम च महाशूरम ब्रह्मा विष्णु महेश्वरम। महा पाप हरम देवम त्वम सूर्यम प्रणमामि अहम ॥ बृंहितम तेज: पुंजम च वायुम आकाशम एव च। प्रभुम च सर्वलोकानाम तम सूर्यम प्रणमामि अहम ॥ बन्धूक पुष्प संकाशम हार कुण्डल भूषितम। एक-चक्र-धरम देवम तम सूर्यम प्रणमामि अहम ॥
तम सूर्यम जगत कर्तारम महा तेज: प्रदीपनम। महापाप हरम देवम तम सूर्यम प्रणमामि अहम ॥ .सूर्य-अष्टकम पठेत नित्यम ग्रह-पीडा प्रणाशनम। अपुत्र: लभते पुत्रम दरिद्र: धनवान भवेत ॥
आमिषम मधुपानम च य: करोति रवे: दिने। सप्त जन्म भवेत रोगी प्रतिजन्म दरिद्रता ॥स्त्री तैल मधु मांसानि य: त्यजेत तु रवेर दिने। न व्याधि: शोक दारिद्रयम सूर्यलोकम गच्छति ॥
सूर्य - मंदिरों में उड़ीसा राज्य का पूरी जिले के समुद्र तट पर कोणार्क में सूर्य मंदिर ,  गुजरात का मोधेरा का सूर्य मंदिर , मार्तंड, कश्मीर ,  बिहार का औरंगाबाद जिले का देव में देवार्क  , उमगा में उमज्ञार्क , , गया जिले का गया में गयार्क , पटना जिले का पंडारक में पांड्यार्क , उलार का उलार्क सूर्य मंदिर , नालंदा जिले का ऑंगरी में ऑगयार्क , भोजपुर जिले का बेलाउर में वेल्यार्क़ सूर्य मंदिर है । कटारमल सूर्य मन्दिर ,रनकपुर सूर्य मंदिर ,सूर्य पहर मंदिर ,सूर्य मंदिर, प्रतापगढ़
दक्षिणार्क सूर्य मंदिर , नवादा जिले का सूर्य मंदिर, हंडिया ,सूर्य मंदिर, महोबा ,रहली का सूर्य मंदिर ,सूर्य मंदिर, झालावाड़ ,सूर्य मंदिर, रांची ,सूर्य मंदिर, सूर्य मंदिर, कंदाहा है । भगवान सूर्य मध्य भाग्य ,चर्तुल मंडल , 12 अंगुल , कलिंग देश , कश्यप गोत्र , रक्त वर्ण और सिंह राशि का स्वामी है । भगवान सूर्य का द्रव्य माणिक्य , सोना ,चांदी ,ताम्बा ,मूंग लाल , वस्त्र और पताका लाल , गौ लाल , फूल ,चंदन लाल  फूल में तमाड़ ,कंडकिल  , वाहन सप्ताश्व ,समिधा मदार ,दिन रविवार , तिथि सप्तमी , विल्व वृक्ष , पीपल प्रिय है । राजस्थान राज्य का सिरोही जिले के वसंतगढ़ ,उदयपुर का रणकपुर ,झालरापाटन ,ओसियाँ ,मंडेसर ,देवका ,जयपुर , मिश्र , नेपाल ,  गलता ,पुष्कर ,कटारमल ,मोड़ेरि ,दक्षिणार्क , बिहार का जहानाबाद जिले का बराबर पर्वत समूह के सूर्यान्क गिरि , काको , भेलावर , दक्षणी , भागलपुर , मुंगेर , दरभंगा , मुजफ्फरपुर , सीतामढ़ी , उत्तरप्रदेश के वाराणसी , अयोध्या , उत्तराखण्ड , मध्यप्रदेश आदि क्षेत्रों में सूर्यमंदिर एवं भगवान सूर्य की मूर्ति स्थापित है । पुराणों एवं ऋग्वेद में शाकद्वीप का स्वामी भव्य एवं मग द्वारा सूर्य के उपासकों के लिए सौरधर्म का संचालन किया गया है । सौर धर्म मे प्रकृति की उपासना सुर सूर्य मंदिर की स्थापना कर सौरधर्म का विकास किया गया है । वेद , ब्राह्मण ,संहिता और पुराणों के अनुसार  ऋषि कश्यप की भार्या  दक्ष प्रजापति की पुत्री देवमाता अदिति के द्वादश आदित्यों 12 वां विष्णु आदित्य है ।सूत संहिता य.वैखा. अ. 6  एवं भविष्योत्तर पुराण के अनुसार भगवान कृष्ण ने कहा है कि सूर्योपासना का मूल आदित्य हृदय है ।वायु पुराण अध्याय 156 के अनुसार त्रेतायुग में ऋषि अगस्त द्वारा आदित्यहृदय एवं सूर्योपासना एवं सूर्यस्त्रोत का मंत्र भगवान राम को उपदेश दिया गया था ।द्वितीय जीवितगुप्त के 10 वीं शताब्दी का शिलालेख ,, कनिंघम का आर्कोलॉजिकल रिपोर्ट वॉल्यूम XVll, 65 के अनुसार भगवान सूर्य के अंग से प्रादुभूत प्रकाशमान मग थे । वेविलोन का एतना मिथ में उल्लेख किया गया है कि ईगल गरुड़ पर बैठकर थर्ड हैवेन्स ऑफ अन्नू द्वारा औषधि लाया गया था ।मि. फ्रिक , उरगेल के अनुसार छ्या पथ 13 सौ करोड़, प्राणियों का उद्भव 4 सौ करोड़ वर्ष  , सूर्योपासना 6 हजार वर्ष पूर्व से 140 ई. पू. होती थी । पर्शियन में मित्र आदित्य , ग्रीक में हीलियस , एजिस मिश्र , रा , तातारियों का भाग्यवर्द्धक  देव फ्लोरस , पेरू में फुलेस ,अमेरिका में रेड इंडियन ने एतना एना ,अफ्रीका के श्वेत , चीन उ ची , इब्रा गी ,सेंट इजम एमिनो मिनक ,नाची को आदि देव सूर्य की उपासना करते है ।भारत में भगवान सूर्य को प्रत्यक्ष देव कहा गया है । जैन शास्त्रों में जम्बूद्वीप में 2 सूर्य , लवण समुद्र में 4 सूर्य ,धातकी खंड में 12 ,  सूर्य पुष्करद्वीप में 72 सूर्य की उपासना की चर्चा किया गया है ।


मंगलवार, अप्रैल 25, 2023

अद्वैतवाद के प्रवर्तक आदि शंकराचार्य....

दार्शनिक एवं धर्मप्रवर्तक , अद्वैत वेदान्त को ठोस आधार प्रदान करने वाले आदिशंकराचार्य थे । भगवद्गीता, उपनिषदों और वेदांतसूत्रों पर लिखी टीकाएँ की रचना और  सांख्य दर्शन का प्रधानकारणवाद और मीमांसा दर्शन के ज्ञान-कर्मसमुच्चयवाद का खण्डन किया था । विभिन्न ग्रंथों  के अनुसार आदिशंकराचार्य का जन्म  केरल राज्य का चेर साम्राज्य के कालड़ी निवासी त्वष्टसार ब्राह्मण वैशाख शुक्ल पंचमी   508-9 ई . पू . तथा 32 वर्षीय शंकराचार्य की  महासमाधि केदारनाथ में  477 ई. पू .  हुई थी। आदि शंकराचार्य द्वारा ने भारतवर्ष के उत्तर में उत्तराखण्ड राज्य का चमोली जिले के  ज्योतिष्पीठ बदरिकाश्रम, श्रृंगेरी पीठ,  द्वारिका शारदा पीठ और पुरी गोवर्धन पीठ की स्थापना की थी । आदिशंकराचार्य के गुरु आचार्य गोविन्द भगवत्पाद , सम्मान शिवावतार, आदिगुरु, श्रीमज्जगदगुरु, धर्मचक्रप्रवर्तक कहा गया है। आदि शंकराचार्य के विचारोपदेश आत्मा और परमात्मा की एकरूपता पर आधारित हैं जिसके अनुसार परमात्मा एक ही समय में सगुण और निर्गुण दोनों ही स्वरूपों में रहता है। स्मार्त संप्रदाय में आदि शंकराचार्य को शिव का अवतार माना जाता है। इन्होंने ईश, केन, कठ, प्रश्न, मुण्डक, मांडूक्य, ऐतरेय, तैत्तिरीय, बृहदारण्यक और छान्दोग्योपनिषद् पर भाष्य लिखा। वेदों में लिखे ज्ञान को एकमात्र ईश्वर को संबोधित समझा और उसका प्रचार तथा वार्ता पूरे भारतवर्ष में की थी । कलियुग के प्रथम चरण में विलुप्त तथा विकृत वैदिक ज्ञानविज्ञान को उद्भासित और विशुद्ध कर वैदिक वाङ्मय को दार्शनिक, व्यावहारिक, वैज्ञानिक धरातल पर समृद्ध करने वाले एवं राजर्षि सुधन्वा को सार्वभौम सम्राट ख्यापित करने वाले चतुराम्नाय-चतुष्पीठ संस्थापक नित्य तथा नैमित्तिक युग्मावतार श्रीशिवस्वरुप भगवत्पाद शंकराचार्य की अमोघदृष्टि तथा अद्भुत कृति सर्वथा स्तुत्य है ।
कृतयुग ( सतयुग) में शिवावतार भगवान दक्षिणामूर्ति ने केवल मौन व्याख्यान से शिष्यों के संशयों का निवारण किय‍ा। त्रेता में ब्रह्मा, विष्णु औऱ शिव अवतार भगवान दत्तात्रेय ने सूत्रात्मक वाक्यों के द्वारा अनुगतों का उद्धार किया। द्वापर में नारायणावतार भगवान कृष्णद्वैपायन वेदव्यास ने वेदों का विभाग कर महाभारत तथा पुराणादि की एवं ब्रह्मसूत्रों की संरचनाकर एवं शुक लोमहर्षणादि कथाव्यासों को प्रशिक्षितकर धर्म तथा आध्यात्म को उज्जीवित रखा। कलियुग में भगवत्पाद श्रीमद् शंकराचार्य ने भाष्य , प्रकरण तथा स्तोत्रग्रन्थों की संरचना कर , विधर्मियों-पन्थायियों एवं मीमांसकादि से शास्त्रार्थ , परकायप्रवेशकर , नारदकुण्ड से अर्चाविग्रह श्री बदरीनाथ एवं भूगर्भ से अर्चाविग्रह श्रीजगन्नाथ दारुब्रह्म को प्रकटकर तथा प्रस्थापित कर , सुधन्वा सार्वभौम को राजसिंहासन समर्पित कर एवं चतुराम्नाय - चतुष्पीठों की स्थापना कर अहर्निश अथक परिश्रम के द्वारा धर्म और आध्यात्म को उज्जीवित तथा प्रतिष्ठित किया था । व्यासपीठ के पोषक राजपीठ के परिपालक धर्माचार्यों को श्रीभगवत्पाद ने नीतिशास्त्र , कुलाचार तथा श्रौत-स्मार्त कर्म , उपासना तथा ज्ञानकाण्ड के यथायोग्य प्रचार-प्रसार की भावना से अपने अधिकार क्षेत्र में परिभ्रमण का उपदेश दिया। उन्होंने धर्मराज्य की स्थापना के लिये व्यासपीठ तथा राजपीठ में सद्भावपूर्ण सम्वाद के माध्यम से सामंजस्य बनाये रखने की प्रेरणा प्रदान की।  शंकराचार्य ने भारत में मंदिरों और शक्तिपीठों की नील पर्वत पर स्थित चंडी देवी मंदिर , शिवालिक पर्वत श्रृंखला की पहाड़ियों के मध्य स्थित माता शाकंभरी देवी शक्तिपीठ  और शाकंभरी देवी के साथ तीन देवियां भीमा, भ्रामरी और शताक्षी देवी की प्रतिमाओं एवं  कामाक्षी देवी मंदिर  स्थापित किया  है । केरल का  कालपी में शिव भक्त ब्राह्मण शिवगुरु भट्ट की पत्नी  सुभद्रा के गर्भ से वैशाख शुक्ल पंचमी  507 ई. पू. को शंकर भट्ट  का जन्म हुआ था  । शंकर भट्ट के तीन वर्षीय शंकर भट्ट के पिता शिवगुरु भट्ट का देहांत हो गया था ।  छह वर्ष की अवस्था में  प्रकांड व8विद्वान और आठ वर्ष की अवस्था में शंकर भट्ट ने संन्यास ग्रहण किया था।  नदीकिनारे मगरमच्छ ने शंकराचार्य का पैर पकड़ लिया तब वक्त का फायदा उठाते शंकराचार्यजी ने अपने माँ से कहा " माँ मुझे सन्यास लेने की आज्ञा दो नही तो हे मगरमच्छ मुझे खा जायेगी ", इससे भयभीत होकर माता ने तुरंत इन्हें संन्यासी होने की आज्ञा प्रदान प्राप्त होते ही  मगरमच्छ ने शंकराचार्यजी का पैर छोड़ दिया था । गोविन्द नाथ से संन्यास ग्रहण शंकरभट्ट ने किया था । शंकरभट्ट को शंकराचार्य से अलंकृत होने के पश्चात काशी में रहेने के बाद बिहार के दरभंगा जिले का विजिलबिंदु के तालवन में मण्डन मिश्र को सपत्नीक भारती  शास्त्रार्थ में परास्त किया। इन्होंने समस्त भारतवर्ष में भ्रमण कर सनातन धर्म ,  वैदिक धर्म को पुनरुज्जीवित किया था । शकराचार्य ३२ वर्ष की अल्प आयु में सम्वत ४७७ ई . पू.में केदारनाथ के समीप शिवलोक गमन कर गए थे। भारतीय संस्कृति के विकास एवं संरक्षण में आद्य शंकराचार्य का जन्म पश्चिम के सुधन्वा चौहान के  ताम्रपत्र अभिलेख में शंकर का जन्म युधिष्ठिराब्द २६३१ शक् (५०७ ई०पू०) तथा शिवलोक गमन युधिष्ठिराब्द २६६३ शक् (४७५ ई०पू०) सर्वमान्य है। आदिशंकराचार्य द्वारा उत्तर में युधिष्ठिर संबत 2641को उत्तराखण्ड राज्य का चमोली जिले के बद्रिकाश्रम जोशीमठ , पश्चिम में द्वारिका शारदापीठ- यु.सं. 2648 , दक्षिण शृंगेरीपीठ- यु.सं. 2648 , उड़ीसा राज्य का पूरी जिले के  पूर्व दिशा जगन्नाथपुरी गोवर्द्धनपीठ - यु.सं. 2655 में स्थापित कर आदिशंकर जी अंतिम दिनों में कांची कामकोटि पीठ 2658 यु.सं. में निवास कर रहे थे। शारदा पीठ के अनुसार "युधिष्ठिर शके 2631 वैशाखशुक्लापंचम्यां श्रीमच्ठछंकरावतार: । तदनु 2663 कार्तिकशुक्लपूर्णिमायांश्रीमच्छंकरभगवत्पूज्यपादा…… निजदेहेनैव…… निजधाम प्राविशन्निति। अर्थात् युधिष्ठिर संवत् 2631 में वैशाखमासके शुक्ल पक्ष की पंचमी तिथि को श्रीशंकराचार्य का जन्म हुआ और युधि. सं.2663 कार्तिकशुक्ल पूर्णिमा को देहत्याग हुआ। [युधिष्ठिर संवत् 3139 B.C. में प्रवर्तित हुआ था । राजा सुधन्वा के ताम्रपत्र का लेख द्वारिकापीठके एक आचार्य ने "विमर्श"  में उल्लेख है- 'निखिलयोगिचक्रवर्त्त श्रीमच्छंकरभगवत्पादपद्मयोर्भ्र मरायमाणसुधन्वनो मम सोमवंशचूडामणियुधिष्ठिरपारम्पर् यपरिप्राप्तभारतवर्षस्यांजलिबद्धपूर्वकेयं राजन्यस्य विज्ञप्ति:………युधिष्ठिरशके 2663 आश्विन शुक्ल 15। ताम्रपत्र संस्कृतचंद्रिका (कोल्हापुर) के खण्ड 14, संख्या 2-3 के अनुसार गुजरात के राजा सर्वजित् वर्मा ने द्वारिकाशारदापीठ के प्रथम आचार्य श्री सुरेश्वराचार्य (पूर्व नाम-मंडनमिश्र) से लेकर 29वें आचार्य श्री नृसिंहाश्रम तक सभी आचार्यों का उल्लेख हैं। सर्वज्ञसदाशिवकृत "पुण्यश्लोकमंजरी" आत्मबोध द्वारा रचित "गुरुरत्नमालिका" तथा"सुषमा" के अनुसार  तिष्ये प्रयात्यनलशेवधिबाणनेत्रे, ये नन्दने दिनमणावुदगध्वभाजि




रात्रोदितेरुडुविनिर्गतमंगलग्नेत्याहूतवान् शिवगुरु: स च शंकरेति ॥ अर्थ- अनल=3 , शेवधि=निधि=9, बाण=5,नेत्र=2 , अर्थात् 3952 'अंकानां वामतोगति:' इस नियमसे अंक विपरीत क्रम से रखने पर 2593 कलिसंवत् बना है । कलिसंवत् 3102  ई.पू.. में प्रारम्भ हुआ । तदनुसार 3102-2593=509 ई.पू.में आदि शंकराचार्य जी का जन्म वर्ष निश्चित  है। कुमारिल भट्ट का , जैनग्रंथ जिनविजय के अनुसार ऋषिर्वारस्तथा पूर्ण मर्त्याक्षौ वाममेलनात्। एकीकृत्य लभेतांक:क्रोधीस्यात्तत्र वत्सर:। । भट्टाचार्यस्य कुमारस्य कर्मकाण्डैकवादिन:। ज्ञेय: प्रादुर्भवस्तस्मिन् वर्षे यौधिष्ठिरे शके।। जैन लोग युधिष्ठिरसंवत् को 468 कलिसंवत् से प्रारम्भ हुआ मानते हैं। श्लोकार्थ- ऋषि=7,वार=7,पूर्ण=0, मर्त्याक्षौ=2, 7702 "अंकानांवामतोगति" 2077 युधिष्ठिर संवत् आया अर्थात् 557 B.C. कुमारिल 48 वर्ष बड़े थे => 509 B.C. श्रीशंकराचार्य जी का जन्मवर्ष है।

शनिवार, अप्रैल 22, 2023

भौतिकीकरण का द्योतक केतु ...


 ज्योतिष में लूनर नोड अर्थात दानवराज स्वरभानु के सिर का धड़ अलग होने के कारण स्वरभानु का धड़ को केतु  कहा गया है। स्वरभानु का सिर समुद्र मन्थन के समय भगवान विष्णु का अवतार  ने काट दिया था। केतु  छाया ग्रह है। मानव जीवन एवं पूरी सृष्टि पर अत्यधिक प्रभाव एवं मनुष्यों के लिये ये ग्रह ख्याति पाने का अत्यंत सहायक केतु  रहता है। केतु को सिर पर कोई रत्न या तारा रहस्यमयी प्रकाश  होता है। छाया के देवता; दिग्पाल केतु हाथों में अस्त्र शस्त्र लिए केतु का जीवन साथी चित्रलेखा के साथ मूसल धारण कर  का निवास केतुलोक  नक्षत्र लोक में निवास करते हैं। केतु का सवारी गिद्ध है । भारतीय ज्योतिष के अनुसार राहु और केतु, सूर्य एवं चंद्र के परिक्रमा पथों के आपस में काटने के दो बिन्दुओं के द्योतक  पृथ्वी के सापेक्ष एक दुसरे के उलटी दिशा में 180  डिग्री पर)स्थित  हैं। सूर्य और चंद्र के ब्रह्मांड में अपने-अपने पथ पर चलने के कारण  राहु और केतु की स्थिति भी साथ-साथ बदलती रहती है। , पूर्णिमा के समय यदि चाँद केतु बिंदु पर रहने से  पृथ्वी की छाया परने से चंद्र ग्रहण लगता है । क्योंकि पूर्णिमा के समय चंद्रमा और सूर्य एक दुसरे के उलटी दिशा में होते हैं। यूरोपीय विज्ञान में केतु को क्रमशः उत्तरी एवं दक्षिणी लूनर नोड कहते हैं। ज्योतिष में केतु अच्छी व बुरी आध्यात्मिकता एवं पराप्राकृतिक प्रभावों का कार्मिक संग्रह का द्योतक है । भगवान विष्णु के मत्स्य अवतार से संबंधित केतु  है। केतु भावना भौतिकीकरण के शोधन के आध्यात्मिक प्रक्रिया का प्रतीक और हानिकर और लाभदायक है ।केतु  ग्रह तर्क, बुद्धि, ज्ञान, वैराग्य, कल्पना, अंतर्दृष्टि, मर्मज्ञता, विक्षोभ और अन्य मानसिक गुणों का कारक है।  केतु भक्त के परिवार को समृद्धि दिलाता है ।, सर्पदंश और  रोगों के प्रभाव से हुए विष के प्रभाव से मुक्ति दिलाता है। केतु भक्तों   को अच्छा स्वास्थ्य, धन-संपदा व पशु-संपदा दिलाता है। मनुष्य के शरीर में केतु अग्नि तत्व का प्रतिनिधित्व करता है। ज्योतिष गणनाओं के लिए केतु को कुछ ज्योतिषी तटस्थ अथवा नपुंसक ग्रह मानते हैं जबकि कुछ अन्य इसे नर ग्रह मानते हैं।अश्विनी, मघा एवं मूल नक्षत्र का स्वामी केतु है। केतु की पत्नी सिंहिका और विप्रचित्ति में से एक के एक सौ पुत्रों में राहू ज्येष्ठतम है ।लग्न के प्रथम भाव में अर्थात लग्न में केतु हो तो जातक चंचल, भीरू, दुराचारी होता है। इसके साथ ही यदि वृश्चिक राशि में हो तो सुखकारक, धनी एवं परिश्रमी , द्वितीय भाव में हो तो जातक राजभीरू एवं विरोधी , तृतीय भाव में केतु होने पर  जातक चंचल, वात रोगी, व्यर्थवादी , चतुर्थ भाव में हो तो जातक चंचल, वाचाल, निरुत्साह , पंचम भाव में हो तो वह कुबुद्धि एवं वात रोगी , षष्टम भाव में हो तो जातक वात विकारी, झगड़ालु, मितव्ययी , सप्तम भाव में हो तो जातक मंदमति, शत्रुसे डरने वाला एवं सुखहीन , अष्टम भाव में दुर्बुद्धि, तेजहीन, स्त्रीद्वेषी एवं चालाक , नवम भाव में  सुखभिलाषी, अपयशी , दशम भाव में पितृद्वेषी, भाग्यहीन होता है।एकादश भाव में केतु हर प्रकार का लाभदायक , जातक भाग्यवान, विद्वान, उत्तम गुणों वाला, तेजस्वी किन्तु उदर रोग से पीड़‍ित , द्वादश भाव में केतु हो तो जातक उच्च पद वाला, शत्रु पर विजय पाने वाला, बुद्धिमान, धोखा देने वाला तथा शक्की स्वभाव होता है।  वायव्य कोण , ध्वजाकार मंडल एवं 6 अंगुल में अन्तर्वेदी ( कुश )  देश का शासक जैमिनी गोत्र , धूम्र वर्ण एवं मीन राशि का स्वामी केतु है ।  केतु का वाहन कबूतर , वृक्ष शमी ,  पौधा दूर्वा , द्रव्य लहसुनिया , सोना , लोहा , लाजवर्त , असगंध वृक्ष तील ,सप्तधान्य ,कला वस्त्र , पताका , नारियल , बकरा ,कंबल धूमिल व काला  फूल  प्रिय है । व्यवसायिक में अभ्रक ,चावल , फ़िल्म और राजनीति सहायक केतु है । केतु का प्रिय देवता गणपति जी है । ओम ऐं ह्रीं केतवे नमः ।। केतु का मंत्र है ।



शुक्रवार, अप्रैल 21, 2023

ज्ञान व व्यापार का देवता बुध....


सनातन धर्म ग्रंथों एवं ज्योतिष ग्रंथों में ग्रहों का राजकुमार बुध का उल्लेख मिलता है । बुध देव गुरु वृहस्पति की पत्नी तारा के पुत्र बुध और  चंद्रमा का तारा एवं रोहिणी से पुत्र बुध है।  माल और व्यापारियों का स्वामी और रक्षक बुध  है। तारा पुत्र बुध की भार्या वैवस्वतमनु की पुत्री इला से पुरुरवा का जन्म हुआ था । बुध की सवारी सिंह और अष्ट अश्वसे युक्त रथ है । बुध का अस्त्र हल्के स्वभाव , सुवक्ता और  हरे वर्ण वाले बुध का अस्त्र  कृपाण, फ़रसा और ढाल धारण  और सवारी पंखों वाला सिंह  ,राजदण्ड और कमल लिये हुए उड़ने वाले कालीन या सिंहों द्वारा खींचे गए रथ पर आरूढ  है। हिन्दी, उर्दु, तेलुगु, बंगाली, मराठी, कन्नड़ और गुजराती भाषाओं में सप्ताह के तीसरे दिवस को बुध को समर्पित  बुधवार  है।  सप्तम मनु वैवस्वत मनु की पुत्री एवं मित्रवरुण की वरदान से उत्पन्न  इला का विवाह  चन्द्रमा के पुत्र बुध से विवाह करके पुरूरवा नामक पुत्र को जन्म दिया था । शापित इला ने सुद्युम्न बनने के बाद उत्कल, गय तथा विनताश्व का जन्म दिया था । बुध का उद्भव -  देवगुरु  बृहस्पति की पत्नी तारा चंद्रमा की सुंदरता पर मोहित होकर चंद्रमा से प्रेम करने लगी। तदोपरांत वह चंद्रमा के संग सहवास  कर गई एवं बृहस्पति को छोड़ दिया। बृहस्पति के वापस बुलाने पर उसने वापस आने से मना कर दिया, जिससे बृहस्पति क्रोधित हो उठे तब बृहस्पति एवं उनके शिष्य चंद्र के बीच युद्ध आरंभ हो गया। इस युद्ध में असुर गुरु शुक्राचार्य चंद्रमा के साथ  और  देवता बृहस्पति के साथ देवता गण  थे । युद्ध तारा की कामना के कारण  तारकाम्यम युद्ध से सृष्टिकर्त्ता ब्रह्मा को भय हुआ कि ये कहीं पूरी सृष्टि को ही लील न कर जाए । वे बीच बचाव कर ताराकाम्यम युद्ध को रुकवाने का प्रयोजन करने लगे। उन्होंने तारा को समझा-बुझा कर चंद्र से वापस लिया और बृहस्पति को सौंपा। इस बीच तारा के एक सुंदर पुत्र जन्मा बुध थे । चंद्र और बृहस्पति दोनों बुध को अपना बताने लगे और स्वयं को इसका पिता बताने लगे यद्यपि तारा चुप  रही। माता तारा की चुप्पी से अशांत व क्रोधित होकर स्वयं बुध ने मातातारा  से सत्य बताने को कहा।  तारा ने बुध का पिता चंद्र को बताया। नक्षत्र मण्डलों में बुध का स्थाण बुध मण्डल में है। चंद्र ने  अपनी पत्नी  रोहिणी और कृत्तिका  को बुध सौंपा था। रोहिणी और कृतिका के लालन पालन में बुध बड़ा होने लगा। बड़े होने पर बुध को अपने जन्म की कथा सुनकर शर्म व ग्लानि होने लगी। उसने अपने जन्म के पापों से मुक्ति पाने के लिये हिमालय में श्रवणवन पर्वत पर जाकर तपस्या आरंभ की। बुध की  तप से प्रसन्न होकर भगवान  विष्णु  ने उसे दर्शन दिये। उसे वरदान स्वरूप वैदिक विद्याएं एवं सभी कलाएं प्रदान कीं।  स्मृति ग्रंथों के अनुसार बुध का लालन-पालन बृहस्पति ने किया व बुध उनका पुत्र कहलाया। ज्योतिष शास्त्र में बुध  को  शुभ ग्रह माना जाता है। किसी हानिकर या अशुभकारी बुध ग्रह के संगम से यह हानिकर  है। बुध मिथुन एवं कन्या राशियों का स्वामी  तथा कन्या राशि में उच्च भाव में स्थित रहता है तथा मीन राशि में नीच भाव में रहता है।  सूर्य और शुक्र के साथ मित्र भाव से तथा चंद्रमा से शत्रुतापूर्ण और अन्य ग्रहों के प्रति तटस्थ बुध  रहता है। यह ग्रह बुद्धि, बुद्धिवर्ग, संचार, विश्लेषण, चेतना , विज्ञान, गणित, व्यापार, शिक्षा और अनुसंधान का प्रतिनिधित्व करता है। सभी प्रकार के लिखित शब्द और सभी प्रकार की यात्राएं बुध के अधीन आती हैं।  अश्लेषा, ज्येष्ठ और रेवती के स्वामी बुध   हरे रंग, धातु, कांसा और रत्नों में पन्ना बुद्ध की प्रिय वस्तुएं हैं। बुध के साथ जुड़ी दिशा उत्तर ,  मौसम शरद ऋतु और तत्व पृथ्वी है। बुध का  क्षेत्र ईशानकोण में  4 आंगुल का वाणाकार मंडल स्थित मगध देश अत्रि गोत्र में जन्मे हरित वर्ण  बुध है । मिथुन और कन्या राशि का स्वामी बुध का वाहन सिंह और अपामार्ग समिधा , पताका हरा , हरे रंग का वस्त्र , दुब प्रिय है । पन्ना ,सोना , कासे , मूंग ,खाड़ ,घी ,वस्त्र  , कपूर ,फल ,शस्त्र , हाथी का दाँत , रेशम सुत लेखन सामग्री , हर फूल और बुध को समर्पित दिन बुधवार समर्पित , गौ सेवा प्रिय है । बुध का तांत्रिक मंत्र ओम ऐं श्रीं श्रीं बुधाय नमः ।। है ।
सौरमंडल का सबसे छोटा और सूर्य के सबसे निकटतम बुध ग्रह का आकर पृथ्वी के आकर से 18 गुना छोटा  गुरुत्वाकर्षण बल पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण बल का 3/8 है। मेरिनट 10 बुध का एक मात्र कृत्रिम उपग्रह है । बुध, सौरमंडल के आठ ग्रहों में सबसे छोटा और सूर्य से निकटतम है। इसका परिक्रमण काल लगभग 88 दिन होता है। पृथ्वी से देखने पर ग्रहों से सबसे तेज चलने वाला बुध ग्रह  अपनी कक्षा के आसपास 116 दिवसों में घूमता हुआ नजर आता है । ग्रहीय प्रणाली नामकरण के कार्य समूह में बुध पर घाटियों में एंगकोर घाटी, कैहोकीया घाटी, कैरल घाटी, पाएस्टम घाटी, टिमगेड घाटी है। रोमन के अनुसार बुध व्यापार, यात्रा और चोर्यकर्म का देवता, यूनानी देवता हर्मीश का रोमन रूप, देवताओं का संदेशवाहक देवता है। बुध को 3 सहस्त्राब्दि ई.पू. सुमेरियन काल में  सूर्योदय का तारा तो कभी सूर्यास्त का तारा कहा जाता  है। ग्रीक खगोल विज्ञानियों के अनुसार हेराक्लाइटेस में बुध और शुक्र पृथ्वी की नहीं सूर्य की परिक्रमा करते हैं। बुध पृथ्वी की तुलना में सूर्य के नजदीक है इसलिए पृथ्वी से उसकी चंद्रमा की तरह कलाये दिखाई देती है। गैलिलियो की दूरबीन छोटी थी जिससे वे बुध की कलाये नहीं  देख नहीं पाने के कार्सन शुक्र की कलाये देख पायी थी।  सूर्य और शुक्र के साथ मित्रता तथा बुध  ग्रह बुद्धि, नेटवर्किंग, विश्लेषण, चेतना, चर्चा, गणित, व्यापार, शिक्षा और अनुसंधान का प्रतिनिधित्व बुध करता है। बुध  अश्लेषा, ज्येष्ठ और रेवती। हरे रंग, धातु कांस्य या पीतल और रत्नों में पन्ना रत्न बुध की प्रिय वस्तुएं हैं। बुध का शुभ अंक 5, दिन – रविवार और दिशा उत्तर पश्चिमी है। बुध का मूल त्रिकोण कन्या, महादशा समय 17 साल और देव भगवान विष्णु हैं।बुध का बिज मंत्र – ऊँ ब्रां ब्रीं ब्रौं स: बुधाय नम: है। बुध मष्तिष्क, जीवा:, स्नायु तंत्र, त्वचा, वाक-शक्ति, गर्दन आदि का प्रतिनिधित्व करता है। यह स्मरण शक्ति के कम होने, सर दर्द, त्वचा के रोग, दौरे, चेचक, पित, कफ, वायु प्रकृति के रोग, गूंगापन रोगों का कारक है। आवाज खराब होना, सूंघने की शक्ति क्षीण होना, बुआ और मौसी पर कष्ट, शिक्षा में व्यवधान, बहुत बोलना, कटु बोलना, जल्दबाजी में निर्णय लेना, दांतों की बीमारी, मानसिक तनाव, व्यापार और शेयर में नुकसान, गणित कमजोर होना, बुद्धिवाद का अहंकार आदि दी गई बाधाओं या अशुभ फलों को अपने जीवन में देख रहे हैं तो हो सकता है कि वो बुध के प्रभाव के कारण है। बुध ग्रह के शुभ होने पर व्यक्ति के जीवन में  सुंदर देह और व्यक्ति का ज्ञानी या चतुर होना, ऐसा व्यक्ति अच्छा प्रवक्ता भी होता है और उसकी बातों का असर  है। उस व्यक्ति की सूंघने की क्षमता भी अधिक होती है और व्यापार में भी लाभ प्राप्त करता है। बहन, मौसी और बुआ की स्थिति भी संतोषजनक होती है।




बुधवार, अप्रैल 19, 2023

अदृश्य शक्ति का द्योतक राहू ....


सनातन धर्म ग्रंथो एवं ज्योतिष के अनुसार दानव राज  स्वरभानु ( राहु ) का कटा हुआ सिर ग्रहण के समय सूर्य और चंद्रमा का ग्रहण करता है। स्वरभानु का बिना धड़ वाले नाग के रूप में रथ पर आरूढ़  और रथ आठ श्याम वर्णी कुत्तों द्वारा खींचा जाता है। वैदिक ज्योतिष के अनुसार राहु को नवग्रह में स्थान दिया गया है। दानव राज वप्राचिति की पत्नी होलिका का पुत्र दानवराज स्वरभानु ( राहु ) की  पत्नी कराली के साथ राहु लोक, नक्षत्र लोक में भाला ,ढाल ,धनुष ,तीर ,और वर मुद्रा में शेर और कुत्ता पर सवार रहते हैं। राहु का मंत्र - ॐ भ्रां भ्रीं भ्रौं सः राहवे नमः॥ है।  समुद्र मंथन के समय दानवराज स्वरभानु ने धोखे से दिव्य अमृत की  बूंदें पीने के बाद   सूर्य और चंद्र ने स्वरभानु को  पहचान करने के बाद भगवान विष्णु अवतार  मोहिनी स्थिति से अवगत कराएं थे ।  अमृत स्वरभानु के गले से नीचे उतरता भगवान , विष्णु  ने स्वरभानु का गला सुदर्शन चक्र से काट कर अलग कर दिया। दानवराज स्वरभानु का सिर अमर हो चुका था। स्वरभानु सिर राहु और धड़ केतु बनने के बाद सूर्य- चंद्रमा से  द्वेष रखने लगा है ।  द्वेष के चलते राहु  सूर्य और चंद्र को ग्रहण करने का प्रयास करता है। ग्रहण करने के पश्चात सूर्य राहु से और चंद्र केतु से,उसके कटे गले से निकल आने पर   मुक्त होते हैं। भारतीय ज्योतिष के अनुसार राहु और केतु सूर्य एवं चंद्र के परिक्रमा पथों के आपस में काटने के दो बिन्दुओं के द्योतक होने से  पृथ्वी के सापेक्ष एक दुसरे के उल्टी दिशा में (१८० डिग्री पर) स्थित रहते हैं।  सूर्य और चंद्र के ब्रह्मांड में अपने-अपने पथ पर चलने के अनुसार राहु और केतु की स्थिति भी बदलती रहती है। , पूर्णिमा के समय यदि चाँद  केतु बिंदु पर रहने के कारण  पृथ्वी की छाया पड़ने से चंद्र ग्रहण लगता है ।  पूर्णिमा के समय चंद्रमा और सूर्य एक दुसरे के उलटी दिशा में होते हैं।  यूरोपीय विज्ञान में राहू को उत्तरी  एवं केतु को दक्षिणी लूनर नोड कहा गया  हैं। पौराणिक संदर्भों से राहु को धोखेबाजों, सुखार्थियों, विदेशी भूमि में संपदा विक्रेताओं, ड्रग विक्रेताओं, विष व्यापारियों, निष्ठाहीन और अनैतिक कृत्यों, आदि का प्रतीक रहा है। अधार्मिक व्यक्ति, निर्वासित, कठोर भाषणकर्त्ताओं, झूठी बातें करने वाले, मलिन लोगों का द्योतक राहु है। राहु के द्वारा पेट में अल्सर, हड्डियों और स्थानांतरगमन की समस्याएं आती हैं। राहु व्यक्ति के शक्तिवर्धन, शत्रुओं को मित्र बनाने में महत्वपूर्ण रूप से सहायक रहता है। बौद्ध धर्म के अनुसार  क्रोध देवताएं  राहु है। थाईलैंड में राहु मंदिर है। दैत्यराज विप्रचित्ति की पत्नी व दैत्यराज हिरण्यकश्यप की पुत्री सिंहिका के100  पुत्रों में जेष्ठ पुत्र सैहिकेय   का रंग-रूप काला रंग व भयंकर मुख , सिर पर मुकुट, गले में माला तथा शरीर पर काले रंग का वस्त्र धारण और हाथों में तलवार ,ढाल ,त्रिशूल ,और वरमुद्रा में सिंह पर सवार आसीन है। सैहिकेय राहु ने चुपके से देवताओं की पंकि में बैठकर अमृत पी लिया था। इस कृत्य की जानकारी सूर्य व चन्द्रमा ने विष्णु को दे दी और विष्णु ने सुदर्शन चक्र से राहु का सिर काट दिया। था ।समुद्र मंथन के बाद भगवान विष्णु मोहिनी रूप में देवताओं को अमृत पिलाने के समय सैहिकेय राहु देवताओं का वेष बनाकर उनके बीच में आ बैठा और देवताओं के साथ उसने भी अमृत पी लिया। परन्तु तत्क्षण चन्द्रमा और सूर्य ने उसे पहचान लिया और उसकी पोल खोल दी। अमृत पिलाते-पिलाते ही भगवान विष्णु ने अपने तीखी धार वाले सुदर्शन चक्र से उसका सिर काट डाला। किंतु अमृत का संसर्ग होने से राहु अमर हो गया और ब्रह्मा ने उसे ग्रह बना दिया। महाभारत, भीष्मपर्व के अनुसार राहु ग्रह मण्डलाकार होता है। ग्रहों के साथ राहु ब्रह्मा की सभा में बैठता है। मत्स्यपुराण के अनुसार पृथ्वी की छाया मण्डलाकार होती है। राहु इसी छाया का भ्रमण करता है। यह छाया का अधिष्ठात देवता है। ऋग्वेद के अनुसार 'असूया' (सिंहिका) पुत्र राहु जब सूर्य और चन्द्रमा को तम से आच्छन्न कर लेता है, तब इतना अधेरा छा जाता है कि लोग अपने स्थान को नहीं पहचान पाते। ग्रह बनने के बाद भी राहु बैर-भाव से पूर्णिमा को चन्द्रमा और अमावस्या को सूर्य पर आक्रमण करता है। इसे ग्रहण या 'राहु पराग' कहते हैं। मत्स्य पुराण के अनुसार राहु का रथ अन्धकार रूप है। इसे कवच आदि से सजाये हुए काले रंग के आठ घोड़े खींचते हैं। राहु के अधिदेवता काल तथा प्रत्यधि देवता सूर्य हैं। नवग्रह मण्डल में इसका प्रतीक पायव्य कोण में काला ध्वज है।
राहु की महादशा 18 वर्ष की होती है। अपवाद स्परूप कुछ परिस्थितियों को छोड़कर यह क्लेशकारी  सिद्ध होता है।
ज्योतिषशास्त्र के अनुसार यदि कुण्डली में राहु की स्थिति प्रतिकूल या अशुभ होने से अनेक प्रकार की शारीरिक व्याधियाँ उत्पन्न करता है। कार्य सिद्धि में बाधा उत्पन्न करने वाला तथा दुर्घटनाओं   है। राहु के शरीर का भाग सिर और ठोड़ी ,  रंग काला , नक्षत्र आद्रा , प्रकृति चालबाज ,मक्कार ,नीच ,जालिम , गुण में डर ,शत्रुता ,सोचने की ताकत ,शक्ति में कल्पना शक्ति का स्वामी ,पुरभ्यास ,अदृश्य देखने की शक्ति  ,  पोशाक में पतलून ,पैजामा , , पशु हाथी ,काँटेदार जंगली चूहा ,वृक्ष में नारियल ,कुश ,और घास , वस्तु नीलम ,सिक्का ,गोमेद ,मित्र बुध , शनि और केतु एवं शत्रु सूर्य , चंद्र , मंगल तथा समभाव वृहस्पति , देवता सरस्वती ,  गुरु शुक्राचार्य  है । राहु की शान्ति के लिये मृत्युंजय, जप तथा फिरोजा धारण करना श्रेयस्कर है। राहु का प्रिय  अभ्रक, लोहा, तिल, नील वस्त्र, ताम्रपात्र, सप्तधान्य, उड़द, गोमेद, तेल, कम्बल, घोड़ा तथा खड्ग है ।राहु का वैदिक मन्त्र-'ॐ कया नश्चित्र आ भुवदूती सदावृध: सखा। कया शचिष्ठया वृता॥' पौराणिक मन्त्र- 'अर्धकायं महावीर्यं चन्द्रादित्यविमर्दनम्। सिंहिकागर्भसम्भूतं तं राहुं प्रणमाम्यहम्॥',बीज मन्त्र- 'ॐ भ्रां भ्रीं भ्रौं स: राहवे नम:' तथा सामान्य मन्त्र- 'ॐ रां राहवे नम:' है। इसमें से किसी एक का निश्चित संख्या में नित्य जप करना चाहिये। जप का समय रात्रि तथा कुल संख्या 18000 है। मत्स्यपुराण 1.9; 249.14 से अंत तक; अध्याय 250, 251; वायुपुराण 23.90; 52.37; 92.9; विष्णुपुराण 1.90.80.111, श्रीमद्भागवत 6।6।36 , श्रीमद्भागवत 8।9।26 , महाभारत भीष्मपर्व (12।40 , मत्स्यपुराण 28।61 और  ऋग्वेद 5।40।5 में राहु का उल्लेख है । 



राहु का जन्म शिप्रा नदी के तट पर स्थित राहु का क्षेत्र नैऋत्य कोण ,सूर्पाकार मंडल ,12 अंगुल , राठीनापुर मलय देश , पैठिनस गोत्र , कृष्ण  वर्ण , कन्या राशि का स्वामी वहां व्याघ्र एवं दूर्वा समिधा है । राहु का प्रिय द्रव्य गोमेद ,सोना ,रत्न ,सीस ,टिल सरसो का तेल ,सप्तधान्य , उरद ,कंबल ,नीला वस्त्र , तलवार ,घोड़ा ,सुप कला फूल , लोहा , , तेल ,अलसी , चना ,हड्डी प्रिय है । काला वस्त्र , झंडा प्रिय है ।राहु का मंदिर उत्तराखंड में स्थित है।

मंगलवार, अप्रैल 18, 2023

कामना पूर्ण का द्योतक है शुक्र ....


पुराणों , स्मृतियों एवं ज्योतिष ग्रंथों में शुक्र का उल्लेख मिलता है ।  सनातन धर्म ग्रंथों के अनुसार  ब्रह्मा जी के मानस पुत्र ऋषि भृगु  की भार्या  प्रजापति दक्ष की कन्या ख्याति से धाता,विधाता  व श्री कन्या का जन्म हुआ था । भागवत पुराण के अनुसार ऋषि भृगु  के पुत्र कवि व शुक्राचार्य  प्रसिद्ध हुए। महर्षि अंगिरा के पुत्र जीव व गुरु तथा महर्षि भृगु के पुत्र कवि यानि शुक्र को यज्ञोपवीत संस्कार के बाद ऋषि अंगिरा ने कवि और गुरु  की शिक्षा का दायित्व लिया था ।  महर्षि अंगिरा के पास कवि रह कर अंगिरानंदन जीव के साथ विद्याध्ययन करने लगा। ऋषि भृगु पुत्र  कवि ने  भेदभाव पूर्ण व्यवहार को जान कर अंगिरा से अध्ययन बीच में छोड़ कर जाने की अनुमति ले ली और गौतम ऋषि के पास पहुंच गए थे । गौतम ऋषि ने कवि की सम्पूर्ण कथा सुन कर उसे महादेव कि शरण में जाने का उपदेश दिया था । महर्षि गौतम  के उपदेशानुसार कवि ने गोदावरी के तट पर शिव की कठिन आराधना ,  स्तुति व आराधना से प्रसन्न हो कर महादेव ने कवि को मृतसंजीवनी  विद्याप्रदान की थी ।  भगवान शिव ने भृगुनन्दन कवि से  कहा कि जिस मृत व्यक्ति पर तुम इसका प्रयोग करोगे वह जीवित हो जाएगा ,  साथ ही  आकाश में तुम्हारा तेज सब नक्षत्रों से अधिक होगा। तुम्हारे उदित होने पर विवाह आदि शुभ कार्य आरम्भ किए जाएंगे। कवि ने अपनी विद्या से पूजित होकर भृगु नंदन कवि  शुक्र दैत्यों के गुरु पद पर नियुक्त हुए।  अंगिरा ऋषि ने शुक्र के साथ उपेक्षा पूर्ण व्यवहार किया था । अंगिरा ऋषि  के प्रपौत्र एवं बृहस्पति के के पौत्र जीव पुत्र कच को संजीवनी विद्या देने में शुक्र ने  संकोच नहीं किया था । शुक्राचार्य  को कवि , भार्गव , शुक्र , शुक्राचार्य , दैत्यगुरु कहा गया है।    वामन पुराण के अनुसार दानवराज अंधकासुर और महादेव के मध्य घोर युद्ध क्रम में दैत्यराज अन्धक के प्रमुख सेनानी युद्ध में मारे गए पर कवि  ने अपनी संजीवनी विद्या से उन्हें पुनर्जीवित कर  दिया। पुनः जीवित हो कर कुजम्भ आदि दैत्य फिर से युद्ध करने लगे। इस पर नंदी आदि गण महादेव से कहने लगे कि जिन दैत्यों को मेरे द्वारा मार गिराने पर  उन्हें दैत्य गुरु संजीवनी विद्या से पुनः जीवित कर देते हैं, ऐसे में हमारे बल पौरुष का क्या महत्व है। शिवगणों की प्रार्थना सुन कर महादेव ने दैत्य गुरु कवि को अपने मुख से निगल कर उदरस्थ कर लिया।  उदर में जा कर कवि ने शंकर की स्तुति आरंभ कर दी जिस से प्रसन्न हो कर शिव ने उनको बाहर निकलने की अनुमति दे दी। भार्गव कवि एक दिव्य वर्ष तक महादेव के उदर में विचरते रहे पर कोई छोर न मिलने पर पुनः शिव स्तुति करने लगे। बार-बार प्रार्थना करने पर भगवान शंकर ने हंस कर कहा कि मेरे उदर में होने के कारण तुम मेरे पुत्र हो गए हो अतः मेरे शिश्न से बाहर आने पर  जगत में कवि  तुम शुक्र के नाम से ही जाने जाओगे। शुक्रत्व पा कर भार्गव भगवान शंकर के शिश्न से निकल आए और दैत्य सेना कि और प्रस्थान कर गए। कवि से शुक्राचार्य के नाम से विख्यात हुए।  शुक्र का वैदिक नाम अग्नि एवं  भगवान शिव से दीक्षित होने के कारण शुक्र को अग्निश्वर कहा गया है। स्कंदपुराण के ज्योतिष खण्ड के ग्रह शांति अध्याय के अनुसार दैत्य हिरण्यकश्यप ने दैत्य गुरु शुक्राचार्य के आदेश पर स्वर्ण की खोज की थी। नवग्रह में शुक्र को अग्नि बताया हैं। दैत्य गुरु शुक्र वीर्य या शूक्राणु के स्वामी है। शुक्र (वीर्य) की कमी या कमजोरी से सन्तान पैदा नहीं होती। गर्भधारण या संतति निर्माण का कारक आग व शुक्र  है। विश्व  के 65  देशों में शुक्र की  समृद्धि है। स्कंदपुराण सहित ज्योतिष शास्त्रों में उल्लेख मिलता है कि शुक्राचार्य शिवजी की पूजा, शिवलिंग पर देशी घी से रुद्राभिषेक और ध्यान से भारी प्रसन्न होते हैं। ज्योतिष के अनुसार शुक्र ग्रह रोमांस, एक से अधिक स्त्री, कामुकता, कलात्मक कार्य, चलचित्र अभिनेता, प्रतिभा, शरीर और भौतिक जीवन की गुणवत्ता, अटूट धन, विपरीत लिंग, खुशी और प्रजनन, स्त्रैण गुण और ललित कला, संगीत, नृत्य, चित्रकला और मूर्तिकला का प्रतीक है। श्रीमद भागवत, ब्रह्मवैवर्त पुराण के मुताबिक भगवान श्रीहरि वामन अवतार लेकर विष्णु ने प्रह्लाद के पौत्र राजा बलि से छद्म रूप में दान स्वरूप त्रैलोक्य ले लेने का प्रयास किया। भगवान विष्णुजी को वामन रूप में शुक्राचार्य ने उन्हें पहचान कर राजा बलि को दान हेतु मना किया। राजा बलि अपने वचन का पक्का होने से वामन देवता को मुंह मांगा दान दिया। शुक्राचार्य ने बलि के दान से दुःखी,अप्रसन्न होने पर स्वयं को सूक्ष्म बनाकर वामन विष्णु के कमण्डल की चोंच में जाकर छिप गये। कमण्डलु से जल लेकर बलि को दान का संकल्प पूर्ण करना था। तब विष्णु जी ने उन्हें पहचान कर भूमि से कुशा का एक तिनका उठाया और उसकी नोक से कमण्डलु की चोंच को खोल दिया। इस नोक से शुक्राचार्य की बायीं आंख फ़ूट गयी। तब से शुक्राचार्य काणे यानि एक आंख वाले कहलाते हैं। आंख धर्म का प्रतीक थी।  तमिलनाडु के कुम्भकोणम से 40 किलोमीटर दूर एक एकान्त गांव कंजनूर में शुक्र देव का अग्निश्वर मंदिर है। दक्षिण भारत के कंजनूर में शुक्राचार्य जी ने महादेव की घनघोर तपस्या के फलस्वरूप मृत संजीवनी मन्त्र वरदान  पाया था । भगवान श्रीकृष्ण ने शुक्र अग्निश्वर महादेव की साधनाओं, तपस्या से ऐश्वर्य होने का वरदान पाया था। अग्निऐश्वर  मंदिर में अग्निश्वर के रूप में भगवान शिव की मुख्य रूप से पूजा की जाती है। अग्निदेव ने भगवान शिव की पूजा की थी। शुक्र देव द्वारा  मंदिर में  देवताओ की पूजा की जाती है। विजयनगर और चोल वंश के समय का शिलालेख के  अनुसार  शिवकामी और नटराज की पत्थर से बनी सुन्दर मुर्तिया  है। शुक्र ग्रह  प्रेम, विवाह, आनंद और सुन्दरता , प्रेम के लिए शुक्र देव की पूजा की जाती है । संस्कृत शब्दकोश में शुक्र को सबसे शुद्ध, स्वच्छ श्वेत वर्णी, मध्यवयः, सहमति वाली मुखाकृति तथा ऊंट, घोड़े या मगरमच्छ पर है। शुक्र  स्त्रीत्व स्वभाव वाला ग्रह है। सप्तवारों में शुक्रवार का स्वामी है। दैत्यगुरू शुक्र हाथों में दण्ड, कमल, माला और  धनुष-बाण  ल हैं। श्रीमद देवी भागवत के अनुसार शुक्र की माँ काव्यमाता थीं। दैत्यदुरु शुक्राचार्य की पत्नी  द्वारजस्विनी के संग सदैव रहते हैं। शुक्राचार्य चार पुत्र में चंड, अमर्क, त्वस्त्र, धारात्र तथा देवयानी पुत्री है । दैत्यगुरु शुक्राचार्य का जन्म  पार्थिव नामक सम्वत्सर वर्ष  श्रावण मास शुक्ल  अष्टमी स्वाति नक्षत्र के उदय के समय हुआ था।  वृहद ज्योतिष सहिंता में शुक्र के प्रभाव से  सर्वाधिक लाभदाता, विदेश यात्रा का कारक ग्रह माना गया है।शुक्राचार्य के परम शिष्य राहु और  बुध-शनि से अभिन्नता है। रवि-सोम शत्रु ग्रह हैं तथा गुरु तटस्थ ग्रह माना जाता है।  शुक्र ज्येष्ठ का स्वामी एवं  कुबेर के खजाने का रक्षक  है। शुक्र के प्रिय वस्तुओं में श्वेत वर्ण, धातुओं में श्वेत स्वर्ण यानि प्लेटिनम एवं रत्नों में हीरा है। शुक्र की प्रिय दशा दक्षिण-पूर्व तथा ऋतुओं में वसंत ऋतु तत्व अग्नि है। बनारस में बाबा विश्वनाथ की गली के अंतिम छोर में शुक्रेश्वर महादेव का स्वयंभु शिवलिंग लाखों वर्ष पुराना है। ब्रह्मा जी के मानस पुत्र भृगु ऋषि का विवाह प्रजापति दक्ष की कन्या ख्याति से हुआ जिससे धाता,विधाता दो पुत्र व श्री नाम की कन्या का जन्म हुआ। भागवत पुराण के अनुसार भृगु ऋषि के कवि नाम के पुत्र भी हुए जो कालान्तर में शुक्राचार्य नाम से प्रसिद्ध हुए! असुराचार्य, भृगु ऋषि तथा दिव्या के पुत्र शुक्राचार्य के शुक्र उशनस' है। पुराणों के अनुसार यह असुरों , दैत्य , दानव और राक्षस ) के गुरु तथा पुरोहित थे।शुक्राचार्य द्वारा  एक हजार अध्यायों वाले "बार्हस्पत्य शास्त्र" , शुक्र नीति की रचना है । गो' और 'जयन्ती' शुक्राचार्य पत्नियाँ थीं। असुरों के आचार्य होने के कारण असुराचार्य' या शुक्राचार्य कहते हैं। महर्षि शुक्राचार्य ने भगवान शिव की घोर तपस्या की थी और उनसे मृतसंजीवनी मंत्र प्राप्त किया था, जिस मंत्र का प्रयोग उन्होंने देवासुर संग्राम में देवताओं के विरुद्ध किया था जब असुर देवताओं द्वारा मारे जाते थे, तब शुक्राचार्य उन्हें मृतसंजीवनी विद्या का प्रयोग करके जीवित कर देते थे। यह विद्या अति गोपनीय ओर कष्टप्रद साधनाओं से सिद्ध होती है।उनकी असली समाधी बेट कोपरगाव में है। अस्य श्रीमृत्संजीवनी मंत्रस्य शुक्र ऋषि:, गायत्री छ्न्द:, मृतसंजीवनी देवता, ह्रीं बीजं, स्वाहा शक्ति:, हंस: कीलकं मृतस्य संजीवनार्थे विनियोग:। मृतसंजीवनी महामंत्र :- ॐ ह्री हंस: संजीवनी जूं हंस: कुरू कुरू कुरू सौ: सौ: हसौ: सहौ: सोsहं हंस: स्वाहा। शुक्र  पूर्व दिशा , षटकोण मंडल , 7 अंगुल , भोजकट देश , भृगुगोत्र श्वेतवर्ण और वृष एवं तुला राशि का स्वामी है । शुक्र का वाहन अश्व तथा उदुम्बर ( गूलर )  वृक्ष , हीरा ,सोना ,चांदी , सफेद फुखराज ,स्फटिक , सफेद वस्त्र , पताका ,  इत्र , सुगंध , सफेद फूल , घोड़ा ,चंदन ,मिश्री ,दूध ,चावल , मजीत जड़ प्रिय है ।  शुक्रवार को शुक्र की उपासना एवं ॐ ह्रीं श्रीं शुक्राय नमः का मंत्र लाभकारी है । शुक्र का प्रिय दिन शुक्रवार व फ्राइडे व जुम्मा और लोक शुक्र  है । दैत्यगुरु शुक्राचार्य  की पत्नी प्रियब्रत की पुत्री ऊर्जस्वात का पुत्र शंद और अमरक पुत्री देवयानी 
शुक्र की पत्नी  इन्द्र की पुत्री जयंती का  पुत्र  कामदेव ,वीनस , हार्मोनिय ,एदोनिस,थे । शुक्रचर्य का निवास राजस्थान का साम्भर झील का क्षेत्र था ।यह क्षेत्र असुर राज वृष पर्वा का साम्राज्य था । रोम में एफ्रोदैत को पूजा जता है । शुक्राचार्य का मंदिर महाराष्ट्र का गोदावरी नदी के किनारे कोपर , शाहजहाँपुर जिले का कलान प्रखंड के देवकली ,अहमदनगर ,हरियाणा का सरस्वती नदी के किनारे स्तौढा ,राजस्थान का संभद झील एवं संगली में स्थित है । शुक्राचार्य का निवास स्थान पूर्व दिशा , षटकोण मंडल , 9 अंगुल में विकसित भोजकट देश , भृगुगोत्र , श्वेतवर्ण एवं वृष और तुला राशि का स्वामी , वहां अश्व ,समिधा गूलर उदुम्बर , पौधा मजीठ , द्रव्य हीरा , सोना ,चांदी , सुगंधित श्वेतफुल वस्त्र ,मिश्री , चावल घोड़ा , चंदन , सुगंध इत्र और शुक्रवार प्रिय है ।




गुरुवार, अप्रैल 13, 2023

ज्ञान , सम्पति और यज्ञ के देव है वृहस्पति ....


 सनातन धर्म ग्रंथों में देवगुरु बृहस्पति का  उल्लेख  है। देवगुरु वृहस्पति को  धनुष बाण और सोने का परशु अस्त्र  और ताम्र रंग के घोड़े इनके रथ में सवार होने के कारण तिक्षणश्रृंग कहे जाते थे। देवराज इन्द्र को पराजित कर वृहस्पति  ने इंद्र से गायों को छुड़ाया था। युद्ध में अजय होने के कारण योद्धा  प्रार्थना करते थे। अत्यंत परोपकारी ,  शुद्धाचारणवाले व्यक्ति को संकटों से छुड़ाते , यज्ञ करने में वृहस्पति को गृहपुरोहित कहा गया है । ब्रह्मा जी का पौत्र एवं ऋषि अंगिरा की भार्या सुरुपा के पुत्र बृहस्पति ग्रह  एवं शिक्षा के स्वामी और देवताओं के गुरु तथा ब्रह्मा का अवतार वृहस्पति का जीवन साथी शुभा ,तारा और ममता , सवारी हाथी एवं आठ घोड़े वाला रथ है। बृहस्पति का मंत्र ॐ बृं बृहस्पतये नमः॥ है। वेदोत्तर साहित्य में बृहस्पति को देवताओं का पुरोहित और अंगिरा ऋषि की सुरूपा नाम की पत्नी से पैदा हुए थे। तारा और शुभा  पत्नियाँ थीं। सोम द्वारा तारा को उठा लेने पर  बृहस्पति और सोम में युद्ध ठन गया।  ब्रह्मा जी  के हस्तक्षेप करने पर सोम ने बृहस्पति की पत्नी को लौटाया। तारा ने बुध को जन्म दिया था । महाभारत के अनुसार बृहस्पति के संवर्त और उतथ्य भाई थे। संवर्त के साथ बृहस्पति का हमेशा झगड़ा रहता था। पद्मपुराण के अनुसार देवों और दानवों के युद्ध में देव पराजित होने के बाद  दानव देवों को कष्ट देने लगे थे ।  बृहस्पति ने शुक्राचार्य का रूप धारणकर दानवों का मर्दन किया और नास्तिक मत का प्रचार कर दानवों  धर्मभ्रष्ट किया था । बृहस्पति ने धर्मशास्त्र, नीतिशास्त्र, अर्थशास्त्र और वास्तुशास्त्र पर ग्रंथ , वृहस्पति स्मृति है। बृहस्पति को देवताओं के गुरु वृहस्पति स्वर्ण मुकुट तथा गले में सुंदर माला धारण किये ,  पीले वस्त्र पहने हुए कमल आसन पर आसीन तथा चार हाथों में स्वर्ण निर्मित दण्ड, रुद्राक्ष माला, पात्र और वरदमुद्रा शोभा पाती है।  ऋग्वेद में उल्लेखनीय  है कि बृहस्पति  सुंदर और सोने से बने महल में निवास करते है। इनका वाहन स्वर्ण निर्मित रथ सूर्य के समान दीप्तिमान  एवं जिसमें सभी सुख सुविधाएं संपन्न हैं। उस रथ में वायु वेग वाले पीतवर्णी आठ घोड़े तत्पर रहते हैं । देवगुरु बृहस्पति की  पत्नियाँ में से ज्येष्ठ पत्नी शुभा और कनिष्ठ का तारा या तारका तथा तीसरी ममता है। शुभा से कन्याएं में  भानुमती, राका, अर्चिष्मती, महामती, महिष्मती, सिनीवाली और हविष्मती एवं तारा से सात पुत्र और एक कन्या उत्पन्न हुईं तथा  तीसरी पत्नी से भारद्वाज और कच पुत्र उत्पन्न हुए थे । बृहस्पति के अधिदेवता इंद्र और प्रत्यधि देवता ब्रह्मा हैं। महाभारत के आदिपर्व में उल्लेख के अनुसार, बृहस्पति महर्षि अंगिरा के पुत्र तथा देवताओं के पुरोहित हैं। ये अपने प्रकृष्ट ज्ञान से देवताओं को उनका यज्ञ भाग या हवि प्राप्त करा देते हैं। असुर एवं दैत्य यज्ञ में विघ्न डालकर देवताओं को क्षीण कर हराने का प्रयास करते रहते हैं।  देवगुरु बृहस्पति रक्षोघ्र मंत्रों का प्रयोग कर देवताओं का पोषण एवं रक्षण करने में करते तथा दैत्यों से देवताओं की रक्षा करते हैं। संपत्ति और बुद्धि के देवता हैं देवगुरु बृहस्पति द्वारा बार्हस्पत्य सूत्र के रचयिता है । वृहस्पति उत्तर दिशा, दीर्घ चतुरस्र ,अंगुल  06 , सिन्धुदेश ,अत्रिगोत्र , पीत वर्ण , धनु और मीन राशि  का स्वामी , वाहन हाथी और पीपल वृक्ष , पिला वस्त्र , पिला झंडा , पीला फल , हल्दी , फूल ,घोड़ा , चने की दाल प्रिय है । पुखराज , सोना कासा रत्न , वृहस्पति दिन प्रिय है । व्यापारियों , वकालत , व्याज का रकम , विद्यार्थियों का अध्ययन , शादी विवाह में सफलता केलिए देवगुरु  वृहस्पति है। वृहस्पति को गुरुदेव , वृहस्पति , वीरवार , गुरुवार , देव गुरु , तिक्षणश्रृंग कहा जाता है । वृहस्पति मंदिरों में राजस्थान का जयपुर , उत्तरप्रदेश के वाराणसी के काशी उत्तराखंड का विकास खंड के ओखलकांडा  , महाराष्ट्र का नागपुर जिले के ढींगना , नैनीताल के मांडा  और तमिलनाडु के अलंगुड़ी प्रसिद्ध है ।रोमन गणराज्य के रोम कैपिटोलियन हिल की श्रंखला पर जुपिटर ऑप्टिमस मैक्सिमस मंदिर ,टॉर्किवनियस प्रिस्क्स द्वारा 616 से 578 ई. पू. निर्मित जूनो और मिनर्वा टेम्पल ,लेबनान के बलबेक परिसर में जुपिटर मंदिर अर्थात वृहस्पति मंदिर है ।

मंगलवार, अप्रैल 11, 2023

शुभदायक है मंगलदेव ...


सनातन धर्म का विभिन्न ग्रंथों एवं ज्योतिष शास्त्र में  मंगल का उल्लेख मिलता है । मेष और वृश्चिक राशि का स्वामी , भगवान शिव एवं भूमि के पुत्र  लाल वर्णधारी मंगल का  शस्त्र में त्रिशूल ,गदा ,पद्म ,और भाला एवं वाहन  भेड़ है ।  युद्ध का देवता सप्तवारों का स्वामी  मंगलदेव का जीवन साथी ज्वालिनी देवी के साथ मंगल ग्रह पर निवास करते हैं । मंगल को मंगल , भौम , अंगारक , कुजा और चेवाई कहा गया है । मंगल का मंत्र ॐ भौम भौमाय नमः ।। है । मंगल के  सौतेले भाई बहन में नरकासुर  , गणेश , कार्तिकेय , अशोकसुंदरी  , मनसा , ज्योति , अय्यप्पा ,  जालंधर, अंधकासुर  , सुकेश है । कैलाश पर्वत पर भगवान शिव समाधि में ध्यान लगाये बैठेने के फलस्वरूप उनके के ललाट से तीन पसीने की बूंदें पृथ्वी पर गिरने से  पृथ्वी ने  चार भुजाएं और वय रक्त वर्ण का मंगल  का जन्म मध्यप्रदेश के शिप्रा नदी के तट पर स्थित अवंति व उज्जैन हुआ था । पृथ्वी ने मंगल का पालन पोषण करने के कारण  भूमि पुत्र एवं  भौम नामकरण किया गया है । भूमिपुत्र मंगल  गंगा तट पर स्थित काशी में  भगवान शिव की तपस्या करने के बाद भगवान शिव ने प्रसन्न होकर मंगल लोक प्रदान किया था ।  भौम सूर्य के परिक्रमा करते ग्रहों में मंगल ग्रह के स्थाण पर सुशोभित हुआ था। ज्योतिष में मंगल ग्रह मेष राशि एवं वृश्चिक राशि का स्वामी  है।  मंगल मकर राशि में उच्च भाव में तथा कर्क राशि में नीच भाव में कहलाता है। सूर्य, चंद्र एवं बृहस्पति  के मित्र या शुभकारक ग्रह मंगल  हैं । शारीरिक ऊर्जा, आत्मविश्वास और अहंकार, ताकत, क्रोध, आवेग, वीरता और साहसिक प्रकृति का प्रतिनिधित्व करता मंगल  है। मंगल रक्त, मांसपेशियों और अस्थि मज्जा पर शासन एवं युद्ध और सैनिकों के साथ  है। मृगशिरा, चित्रा एवं श्राविष्ठा या धनिष्ठा का स्वामी और राक्त वर्ण, पीतल धातु, मूंगा, तत्त्व अग्नि होता है एवं दक्षिण दिशा और ग्रीष्म काल से संबंधित मंगल  है। शिवपुराण अध्याय 2 /71 , सर् रॉल्फ लिल्ली की पुस्तक टर्नर 1962 अंगयार्क 126 में मंगल को ह्यपोथेटिकल , पाली भाषा में अंगारका ,  मार्स , ट्यूजडे , अनारी कहा जाता है ।
मंगल देव का क्षेत्र दक्षिण दिशा त्रिकोण मंडल आंगुल 03 ,अवंति देश भारद्वाज गोत्र रक्त वर्ण मेष वृश्चिक राशि का स्वामी , वाहन भेड़ ,समिधा ( वृक्ष )  खदिर व खैर है । मंगलदेव का प्रिय वस्त्र एवं पताका  रक्त व लाल ,द्रव्य मूंगा , ताम्बा , खाद्य पदार्थ गुड़ , गेहूँ , घी ,लालवस्त्र लालफूल ,कस्तूरी, केशर ,रक्त चंदन उर लाल बैल प्रिय है । अनंतमूल वृक्ष की जड़ प्रिय मंगलदेव का प्रिय वृक्ष अनंतमूल है । मंगलदेव मंदिर -  मध्य प्रदेश की शिप्रा नदी के तट पर अवस्थित  उज्जैन में मंगलदेव की जन्म भूमि है। श्री मंगलनाथ मंदिर का पुनर्निमाण  सिंधिया राजघराने द्वारा 1173 ई. में कराया गया है। दैत्यराज अंधकासुर  को भगवान शिवजी ने वरदान दिया था कि उसके रक्त से सैकड़ों दैत्य जन्म लेंगे। वरदान के बाद  दैत्य राज अंधकासुर  ने अवंतिका में तबाही मचा दी थी । भक्तों के संकट दूर करने के लिए स्वयं शंभु ने अंधकासुर से युद्ध करने के दौरान भगवान शिवजी के  पसीने की बूँद की गर्मी से उज्जैन की धरती फटकर दो भागों में विभक्त हो गई और मंगल का जन्म हुआ। था । स्कन्द पुराण ,अवंतिका खंड  के अनुसार भगवान  शिवजी ने दैत्य का संहार किया और दैत्यराज अंधकासुर की रक्त की बूँदों को नव उत्पन्न मंगल  ने अपने अंदर समाहित होने के कारण  मंगल की धरती लाल रंग है।  रोम में मंगल, कांस्य प्रतिमा, इट्रस्केन;  म्यूजियो आर्कियोलॉजिको, फ्लोरेंस में मंगल की मूर्ति है। मंगल , प्राचीन रोमन देवता मंगल रोम सम्प्रदाय में युद्ध के देवता की उपासना की जाती है । रोमन साहित्य में मंगल रोम का रक्षक था । रोम में मंगल के त्यौहार बसंत और पतझड़ में होते थे । ऑगस्टस के समय रोम में मंगल मंदिर  कैंपस मार्टियस में  सेना का व्यायाम स्थल और पोर्टा कैपेना के बाहर था। रेजिया में मंगल ग्रह का धर्मस्थल  राजा का घर में मंगल के पवित्र भाले रखे जाते थे । ; युद्ध के प्रकोप पर कौंसल को " मार्स विजिला " "मार्स, वेक!" कहते हुए भाले को हिलाना पड़ता है। ऑगस्टस के तहत रोम में मंगल की पूजा एवं  रोमन राज्य के सैन्य मामलों का पारंपरिक संरक्षक था, बल्कि मार्स अल्टोर ("मार्स द एवेंजर") के रूप में, वह सीज़र के बदला लेने वाले के रूप में अपनी भूमिका में सम्राट का निजी संरक्षक बन गया। मंगल की पूजा कैपिटोलिन ज्यूपिटर की प्रतिद्वंद्विता करती थी, और  250 ई . में मंगल रोमन सेनाओं द्वारा पूजे जाने वाले दि मिलिटर्स  या "सैन्य देवताओं में  मंगलदेव प्रमुख था । मंगल ग्रह के संबंध में रोमन , हेरा ने उसे ज़ीउस के बिना , फ्लोरा द्वारा दी गई जादुई जड़ी-बूटी के स्पर्श से जन्म दिया था  । वेस्टल वर्जिन, रिया सिल्विया द्वारा रोमुलस और रेमस के पिता थे । ओविड , फास्टी में , मिनर्वा को लुभाने के लिए  मंगल  है ।





सोमवार, अप्रैल 10, 2023

वनस्पति के स्वामी है चंद्रदेव ....


सनातन धर्म ग्रंथों एवं संहिताओं में चंद्र का महत्वपूर्ण उल्लेख मिलता है । ऋषि अत्रि की भार्या अनसूया के पुत्र वनस्पति और रात्रि का देव चंद्र  नवग्रह के सदस्य और दिक्पाल है । चंद्र को लिप्यंतरण , सोम, चन्द्रमा, शशि, निशाकर, चन्द , देवा , चंद्रका , दिकपला , चंद्र , रोमानिकृत ,, चंद्रा ,प्रकाशित ,चमक , और  ग्रहा , ग्रीक में सेलिन ,रोमन में लूना  कहा जाता है। चंद्रमा का निवास चंद्रलोक और आराध्य देव भगवान शिव , अस्त्र रस्सी , सवारी मृग द्वारा खिंचा गया रथ , प्रिय दिवस सोमवार और भाई  ऋषि दुर्वासा और दत्तात्रेय , पत्नी रोहाणी सहित 26 नक्षत्र , पुत्र में बुध ,वर्चास , भद्रा ,ज्योत्सनाकली  है । चंद्रा के  पर्यायवाची शब्दों में सोमा , डिस्टिल, इंदु , उज्ज्वल बूंद , अत्रिसुता , शशिन , शचीन ,  तारधिपा और निशाकर  नक्षत्रपति , ओषधिपति , उदुराज ,  उडुपति , कुमुदनाथ ,  और उडुपा  है। ग्रंथों में सूर्य द्वारा प्रकाशित और पोषित एवं अमरता का दिव्य अमृत चंद्रमा  है। पुराणों में  विष्णु और शिव को  सोमनाथ तथा यम और कुबेर तथा  सोम अप्सरा का नाम , औषधीय मिश्रण, या चावल-पानी की दलिया,  स्वर्ग और आकाश , तीर्थ स्थानों  का  नाम है। वैदिक ग्रंथों के अनुसार पौधे से बने पेय का अवतार सोम है । वैदिक सभ्यता में पौधे की महत्वपूर्ण देवता  सोम को पौधों और जंगलों के स्वामी ; नदियों और पृथ्वी के राजा; और देवताओं के पिता है ।ऋग्वेद का संपूर्ण मंडल 9 सोमा, पौधे और देवता दोनों को समर्पित है। वैदिक ग्रंथों में चंद्र देवता है। विलियम जे. विल्किंस के अनुसार चंद्रमा का नाम सोम  रखा गया है ।रामायण , महाभारत , पुराण , वैदिक ग्रंथों में देवता, चंद्र के भाइयों दत्तात्रेय और दुर्वासा के साथ , ऋषि अत्रि और उनकी पत्नी अनसूया के पुत्र थे । देवी भागवत पुराण में भगवान ब्रह्मा का अवतार चंद्र  है ।
पुराणों के अनुसार  चंद्र और तारा - तारा देवी और देवों के गुरु बृहस्पति की पत्नी - एक दूसरे के प्यार में पड़ गए। उसने उसका अपहरण कर लिया और उसे अपनी रानी बना लिया। कई असफल शांति अभियानों और धमकियों के बाद बृहस्पति ने चंद्र के खिलाफ युद्ध की घोषणा की। देवों ने अपने गुरु का पक्ष लिया, जबकि बृहस्पति के शत्रु और असुरों के गुरु शुक्र ने चंद्र की सहायता की। ब्रह्मा के हस्तक्षेप के बाद युद्ध बंद कर दिया गया, गर्भवती तारा को उसके पति के पास लौटा दिया गया। तारा ने बुध  पुत्र को जन्म दिया, लेकिन बच्चे के पितृत्व पर विवाद था; चंद्र और बृहस्पति दोनों ने खुद को अपने पिता के रूप में दावा किया। ब्रह्मा ने हस्तक्षेप किया और तारा से पूछताछ की, जिसने अंततः चंद्रा को बुद्ध के पिता के रूप में पुष्टि की। बुद्ध के पुत्र पुरुरवा ने चंद्रवंश वंश की स्थापना की थी। प्रजापति दक्ष की 27 पुत्रियों में अश्विनी , भरणी , कृतिका , रोहिणी , मृगशिरा , आर्द्रा , पुनर्वसु , पुष्य , अश्लेषा , माघ ,पूर्वाफाल्गुनी , उत्तराफाल्गुनी , हस्त , चित्रा , स्वाति , विशाखा , अनुराधा , ज्येष्ठा , मूला , पूर्वाषाढ़ा , उत्तराषाढ़ा , श्रवणधनिष्ठा , शतभिषा , पूर्वाभाद्रपद , उत्तराभाद्रपद , रेवती चंद्र की पत्नी है । 27 पत्नियों में, चंद्रा रोहिणी को सबसे अधिक प्यार करती थी और अपना अधिकांश समय उसके साथ बिताती थी। 26 पत्नियां परेशान हो गईं और उन्होंने दक्ष से शिकायत की जिन्होंने चंद्र को श्राप दिया था । ग्रंथ अनुसार, गणेश कुबेर द्वारा  शक्तिशाली दावत के बाद पूर्णिमा की रात अपने क्रौंच पर्वत  पर घर लौटने पर सांप ने उनका रास्ता काट दिया और इससे भयभीत होकर, उसका पर्वत इस प्रक्रिया में गणेश को हटाकर भाग गया। भरवां गणेश जी पेट के बल जमीन पर गिर पड़े और उन्होंने खाए हुए सभी मोदक उल्टी कर दिए। यह देख चंद्रा गणेश को देखकर हंस पड़े। गणेश ने अपना आपा खो दिया और अपना एक दांत तोड़कर सीधे चंद्रमा पर फेंक दिया, उसे चोट पहुंचाई और उसे शाप दिया कि वह फिर कभी पूरा नहीं होगा। इसलिए गणेश चतुर्थी पर चंद्र दर्शन करना वर्जित है । चंद्रमा के बढ़ने और घटने का वर्णन है। चंद्रमा पर  बड़ा गड्ढा, काला धब्बा पृथ्वी से  दिखाई देता है । सोमा की आइकनोग्राफी में  सफेद रंग का देवता चंद्र के हाथ में गदा तीन पहियों वाले रथ और तीन या अधिक सफेद दस  घोड़ों की सवारी करता है। सोम बौद्ध धर्म  और जैन धर्म में चंद्र देव  है । ग्रीको-रोमन और इंडो-यूरोपियन कैलेंडर में "सोमवार"  चंद्रमा को समर्पित है।   सनातन ज्योतिष की  राशि प्रणाली में नवग्रह का हिस्सा सोम  है । ज्योतिष का  वेदांग14वीं शताब्दी ईसा पूर्व में संकलित किया जाना शुरू हुआ था। चंद्र ग्रह1000 ई . पू. अथर्ववेद में संदर्भित है। पारसी और हेलेनिस्टिक प्रभावों सहित पश्चिमी एशिया में  नवग्रह का योगदान को आगे बढ़ाया गया था। यवनजातक , ' यवनों का विज्ञान ', पश्चिमी क्षत्रप राजा रुद्रकर्मन I के शासन के तहत "यवनेश्वर"  इंडो - ग्रीक द्वारा लिखा गया था । शक युग में शक ,  सीथियन में सौर - चंद्र पंचांग बाद में शक पंचांग कहा गया है ।सोम को सनातन धर्म के  खगोलीय ग्रंथों में चंद्र  ग्रह माना गया था। आर्यभट्ट द्वारा 5वीं शताब्दी में आर्यभटीय , लतादेव द्वारा 6 वीं शताब्दी में रोमक और वराहमिहिर द्वारा पंच सिद्धांतिका , ब्रह्मगुप्त द्वारा 7वीं शताब्दी में खंडखद्यक और लल्ला द्वारा 8वीं शताब्दी में सिस्याधिवर्दिदा  ग्रंथ ,  सूर्य सिद्धांत 5वीं शताब्दी और 10वीं शताब्दी के समय पूरा हुआ था । सूर्य सिद्धांत 11 .39.43 के अनुसार एम चंद्रमा का मध्य देशांतर , पी आप्सिस का ग्रहचक्र है । चंद्रमा मंदिर में परिमला रंगनाथ पेरुमल मंदिर : चंद्र के लिए मंदिर के साथ विष्णु मंदिर , कैलासनाथर मंदिर, थिंगालुर : चंद्र से जुड़ा नवग्रह मंदिर ; मुख्य देवता शिव , चंद्रमौलीश्वरर मंदिर, अरिचंद्रपुरम : चंद्र के लिए मंदिर के साथ शिव मंदिर , थिरुवरगुणमंगई पेरुमल मंदिर : चंद्र से जुड़ा नवा तिरुपति विष्णु मंदिर है। लोकप्रिय संस्कृति में अंग्रेजी का  द मूनस्टोन (1868) मे चंद्र उपन्यास  महत्वपूर्ण है।  चंद्र कक्षाओं को संदर्भित में चंद्रासन , योग में अर्धचंद्र मुद्रा नवग्रह सोम सोमालम्मा है।  विल्किंस के अनुसार नशीले रस के देवता के रूप में, और रात के माध्यम से शासन करने वाले चंद्रमा के रूप में। "सोम द्वारा आदित्य मजबूत होते हैं; सोम द्वारा पृथ्वी महान है; और सोम को तारों के बीच में रखा गया है। जब वे पौधे को कुचलते पर पीने वाला उसे सोम मानता है। जिसे पुजारी सोम (चंद्रमा) मानते हैं, उसे कोई नहीं पीता है।" एक अन्य मार्ग में यह प्रार्थना मिलती है: "भगवान सोम, जिसे वे चंद्रमा कहते हैं, मुझे मुक्त करें , सोमा चंद्रमा है, देवताओं का भोजन। सूर्य का स्वरूप अग्नि, सोम के चंद्रमा  है। ज्योतिष एवं विभिन्न शास्त्रों के अनुसार ऋषि अत्रि गोत्र में जन्मे चंद्र का शासन अग्नि कोण  , चतुरस्र मंडल , अङ्गुल 4 , यमुना तटवर्ती देश श्वेत वर्ण , कर्क राशि का स्वामी , वहां हिरण ,समिधा पलाश और पताका श्वेत प्रिय दिन सोमवार , प्रिय तिथि पूर्णिमा है। चंद्र का मोती , सोना ,चांदी ,श्वेत पदार्थ श्वेत पुष्प प्रिय है । ओम ऐं ह्रीं सोमाय नमः  तांत्रिक मंत्र है ।

रविवार, अप्रैल 09, 2023

न्यायदेव भगवान शनिदेव ....


सनातन धर्म ग्रंथों एवं  पुराणों में शनिदेव का आख्यान  हैं। भगवान  सूर्यदेव की भार्या छाया के पुत्र शनि अनुराधा नक्षत्र के स्वामी ,  कर्मफल दाता एवं देव न्यायाधीश  है। शनि को यमाग्राज , छायानन्दन , सूर्यपुत्र , काकध्वज ,न्यायकर्ता आदि कहा गया है। शनि का निवास शनि मंडल , शनि ग्रह के स्वामी , जीवन साथी नीला देवी एवं धामनी , भाई-बहन यमराज , यमुना , वैवस्वत मनु , सवर्णि मनु , कर्ण , सुग्रीव , रेवन्त , भद्रा , भया , नास्त्य , दस्र , रेवन्त और ताप्ती और सवारी  हाथी, घोड़ा, हिरण, गधा, कुत्ता, भैंसा , गिद्ध , शेर और कौआ है। वैदूर्य कांति रमल:, प्रजानां वाणातसी कुसुम वर्ण विभश्च शरत:।अन्यापि वर्ण भुव गच्छति तत्सवर्णाभि सूर्यात्मज: अव्यतीति मुनि प्रवाद:॥
अर्थात शनि ग्वैदूर्यरत्न अथवा बाणफ़ूल या अलसी के फ़ूल जैसे निर्मल रंग से जब प्रकाशित होता है, उस समय प्रजा के लिये शुभ फ़ल देता है यह अन्य वर्णों को प्रकाश देता है, तो उच्च वर्णों को समाप्त करता है, ऐसा ऋषि, महात्माहते हैं। धर्मग्रंथो के अनुसार सूर्य की पत्नी संज्ञा की छाया के गर्भ से शनि देव का जन्म हुआ था । भगवान सूर्य की भार्या छाया के गर्भ में शनिदेव के रहने के दौरान भगवान शंकर की भक्ति में  ध्यान मग्न रहने के कारण छाया के पुत्र शनिदेव  वर्ण श्याम हो गया था । शनि के श्यामवर्ण को देखकर सूर्य ने अपनी पत्नी छाया पर आरोप लगाया की शनि मेरा पुत्र नहीं हैं ! तभी से शनि अपने पिता से शत्रु भाव रखते थे ! शनि देव ने अपनी साधना तपस्या द्वारा शिवजी को प्रसन्न कर अपने पिता सूर्य की भाँति शक्ति प्राप्त की और शिवजी ने शनि देव को वरदान मांगने को कहा, तब शनि देव ने प्रार्थना की कि युगों युगों में मेरी माता छाया की पराजय होती रही हैं, मेरे पिता सूर्य द्वारा अनेक बार अपमानित किया गया हैं ! अतः माता की इच्छा हैं कि मेरा पुत्र अपने पिता से मेरे अपमान का बदला ले और उनसे भी ज्यादा शक्तिशाली बने ! तब भगवान शंकर ने वरदान देते हुए कहा कि नवग्रहों में तुम्हारा सर्वश्रेष्ठ स्थान होगा ! मानव तो क्या देवता  तुम्हरे नाम से भयभीत रहेंगे ! भगवान  सूर्य ने कहा,"आप क्रूरतापूर्ण द्रिष्टि देखने वाले मंदगामी होगा । पुराणों में  आख्यान है कि शनि के प्रकोप से ही अपने राज्य को घोर दुर्भिक्ष से बचाने के लिये राजा दशरथ उनसे मुकाबला करने पहुंचे । पद्मपुराण के अनुसार अयोध्या के राजा दशरथ का पुरुषार्थ देख कर शनि ने उनसे वरदान मांगने के लिये कहा.राजा दशरथ ने विधिवत स्तुति कर उसे प्रसन्न किया। ब्रह्मवैवर्त पुराण में शनि ने जगत जननी पार्वती को बताया है कि मैं सौ जन्मो तक जातक की करनी का फ़ल भुगतान करता हूँ । भगवान विष्णुप्रिया लक्ष्मी ने शनि से पूंछा कि तुम क्यों जातकों को धन हानि करते हो, क्यों सभी तुम्हारे प्रभाव से प्रताडित रहते हैं ।,  शनि देव  ने उत्तर दिया,"मातेश्वरी, उसमे मेरा कोई दोष नही है, परमपिता परमात्मा ने मुझे तीनो लोकों का न्यायाधीश नियुक्त किया हुआ है । तीनो लोकों के अंदर अन्याय करता है, उसे दंड देना मेरा काम है । ऋषि अगस्त ने जब शनि देव से प्रार्थना की थी । उन्होने राक्षसों से उनको मुक्ति दिलवाई थी। जिस किसी ने अन्याय किया, उनको उन्होने दंड दिया, चाहे वह भगवान शिव की अर्धांगिनी सती रही हों, जिन्होने सीता का रूप रखने के बाद बाबा भोले नाथ से झूठ बोलकर अपनी सफ़ाई दी और परिणाम में उनको अपने ही पिता की यज्ञ में हवन कुंड मे जल कर मरने के लिये शनि देव ने विवश कर दिया था ।, राजा हरिश्चन्द्र रहे हों, जिनके दान देने के अभिमान के कारण सप्तनीक बाजार मे बिकना पडा और,श्मशान की रखवाली तक करनी पडी, राजा नल और दमयन्ती को तुच्छ पापों की सजा के लिये उन्हे दर दर का होकर भटकना पडा, और भूनी हुई मछलियां तक पानी मै तैर कर भाग गईं । साधारण मनुष्य के द्वारा मनसा, वाचा, कर्मणा, पाप कर दिया जाता है वह चाहे जाने मे किया जाय या अन्जाने में, उसे भुगतना पडता है।
मत्स्य पुराण में  शनि देव का शरीर इन्द्र कांति की नीलमणि   गिद्ध पर सवार , हाथ मे धनुष बाण , एक हाथ से वर मुद्रा ,शनि देव का विकराल रूप भयावह  है।शनि पापियों का  संहारक हैं। शिंगणापुर, वृंदावन के कोकिलावन , ग्वालियर , बनारस के काशी , दिल्ली में शनि मन्दिर हैं। नवग्रहों के कक्ष क्रम में शनि सूर्य से सर्वाधिक दूरी पर अट्ठासी करोड, इकसठ लाख मील दूर है। पृथ्वी से शनि की दूरी इकहत्तर करोड, इकत्तीस लाख, तियालीस हजार मील दूर है। शनि का व्यास पचत्तर हजार एक सौ मील है । शनि छ: मील प्रति सेकेण्ड की गति से २१.५ वर्ष में अपनी कक्षा मे सूर्य की परिक्रमा पूरी करता है।शनि धरातल का तापमान २४० फ़ोरनहाइट है।शनि के चारो ओर सात वलय , शनि के १५ चन्द्रमा है। जिनका प्रत्येक का व्यास पृथ्वी से अधिक है। ज्योतिष के शास्त्रो में शनि को मन्दगामी, सूर्य-पुत्र, शनिश्चर और छायापुत्र आदि.शनि के नक्षत्र , पुष्य,अनुराधा, और उत्तराभाद्रपद. मकर, और कुम्भ का स्वामी है। तुला राशि में २० अंश पर शनि परमोच्च और मेष राशि के २० अंश परमनीच है।नीलम शनि का रत्न है।शनि की तीसरी, सातवीं, और दसवीं द्रिष्टि मानी जाती है।शनि सूर्य,चन्द्र,मंगल का शत्रु,बुध,शुक्र को मित्र तथा गुरु को सम है। शारीरिक रोगों में शनि को वायु विकार,कंप, हड्डियों और दंत रोगों का कारक  है।
ज्योतिष विद्याओं मे अंक विद्या महत्व पूर्ण विद्या है । शनि परमतपस्वी और न्यायदेव क्ष गया है। शनिदेव  को सन्तुलन और न्याय का ग्रह माना गया है। धातु लोहा, अनाज चना, और दालों में उडद की दाल मानी जाती है।  शनि सिद्ध पीठ में महाराष्ट्र का शिंगणापुर गांव का सिद्ध पीठ शिंगणापुर गांव मे शनिदेव का अद्भुत चमत्कार है। इस गांव में आज तक किसी ने अपने घर में ताला नही लगाया जाता है। मध्यप्रदेश के ग्वालियर के पास शनिश्चरा मन्दिर - महावीर हनुमानजी के द्वारा लंका से फ़ेंका हुआ अलौकिक शनिदेव का पिण्ड है । शनिशचरी अमावश्या को जातक शनि देव पर तेल चढाकर उनसे गले मिलते हैं। पहने हुये कपडे जूते आदि वहीं पर छोड कर समस्त दरिद्रता को त्याग कर और क्लेशों को छोड कर अपने अपने घरों को चले जाते हैं। उत्तर प्रदेश के काशी शी के समीप  कौकिला वन में सिद्ध शनि देव मंदिर है। द्वापरयुग में श्री कृष्णकालीन सिद्ध पीठ कोसी से छ: किलोमीटर दूर और नन्द गांव से सटा हुआ कोकिला वन कि परिक्रमा करते हुए शनि के बीज मंत्र का जाप करने पर  अच्छे फ़लों की शीघ्र प्राप्ति हो जाती है। शनिदेव परमकल्याण कर्ता न्यायाधीश और जीव का परमहितैषी ग्रह माने जाते हैं। ज्ञान चक्षुर्नमस्तेअस्तु कश्यपात्मज सूनवे.तुष्टो ददासि बैराज्यं रुष्टो हरसि तत्क्षणात.।। तप से संभव को भी असंभव किया जा सकता है। ज्ञान, धन, कीर्ति, नेत्रबल, मनोबल, स्वर्ग मुक्ति, सुख शान्ति, यह सब कुच तप की अग्नि में पकाने के बाद ही सुलभ हो पाता है। विष्णोर्माया भगवती यया सम्मोहितं जगत.इस त्रिगुण्मयी माया को जीतने हेतु तथा कंचन एव्म कामिनी के परित्याग हेतु आत्माओं को बारह चौदह घंटे नित्य प्रति उपासना, आराधना और प्रभु चिन्तन करना चाहिए ।स्कन्द पुराण के काशी खण्ड में वृतांत में छाया सुत श्री शनिदेव ने अपने पिता भगवान सूर्य देव से प्रश्न किया कि हे पिता! मैं ऐसा पद प्राप्त करना चाहता हूँ, जिसे आज तक किसी ने प्राप्त नही किया, हे पिता ! आपके मंडल से मेरा मंडल सात गुना बडा हो, मुझे आपसे अधिक सात गुना शक्ति प्राप्त हो, मेरे वेग का कोई सामना नही कर पाये, चाहे वह देव, असुर, दानव, या सिद्ध साधक ही क्यों न हो.आपके लोक से मेरा लोक सात गुना ऊंचा रहे.दूसरा वरदान मैं यह प्राप्त करना चाहता हूँ, कि मुझे मेरे आराध्य देव भगवान श्रीकृष्ण के प्रत्यक्ष दर्शन हों, तथा मै भक्ति ज्ञान और विज्ञान से पूर्ण हो सकूं.शनिदेव की यह बात सुन कर भगवान सूर्य प्रसन्न तथा गदगद हुए, और कह, बेटा ! मै भी यही चाहता हूँ, के तू मेरे से सात गुना अधिक शक्ति वाला हो.मै  तेरे प्रभाव को सहन नही कर सकूं, इसके लिये तुझे तप करना होगा, तप करने के लिये तू काशी चला जा, वहां जाकर भगवान शंकर का घनघोर तप कर, और शिवलिंग की स्थापना कर, तथा भगवान शंकर से मनवांछित फ़लों की प्राप्ति कर ले.शनि देव ने पिता की आज्ञानुसार वैसा ही किया, और तप करने के बाद भगवान शंकर के वर्तमान में भी स्थित शिवलिंग की स्थापना की, जो आज भी काशी-विश्वनाथ के नाम से जाना जाता है, और कर्म के कारक शनि ने अपने मनोवांछित फ़लों की प्राप्ति भगवान शंकर से की, और ग्रहों में सर्वोपरि पद प्राप्त कियाहै ।

शनि प्रीँ प्रौँ स: ॐ भानवे नमः ॥
कोणोऽन्तको रौद्रयमोऽथ बभ्रुः कृष्णः शनिः पिंगलमन्दसौरिः।
नित्यं स्मृतो यो हरते य पीड़ा तस्मै नमः श्रीरविनन्दनाय।।
सुराऽसुरा किंपुरुषोरगेन्द्रा गन्धर्व-विद्याधर-पन्नगाश्च।
पीड्यन्ति सर्वे विषमस्थितेन तस्मै नमः श्रीरविनन्दनाय।।
नरा नरेंद्राः पशवो मृगेन्द्राः वन्याश्च ये कीटपतंङ्गभृंङ्गाः।
पीड्यन्ति सर्वे विषमस्थितेन तस्मै नमः श्रीरविनन्दनाय।।
देशाश्च दुर्गाणि वनानि यत्र सेनानिवेशाः पुरपत्तनानि।
पीड्यन्ति सर्वे विषमस्थितेन तस्मै नमः श्रीरविनन्दनाय।।
तिलैर्यवैर्माणगुडान्नदानैर्लोहेन नीलाम्बरदानतो वा।
प्रीणाति मन्त्रैर्निजवासरे च तस्मै नमः श्रीरविनन्दनाय।।
प्रयागकूले यमुनातटे च सरस्वतीपुण्डजले गुहायाम्।
यो योगिनां ध्यानगताऽपि सूक्ष्मस्तस्मै नमः श्रीरविनन्दनाय।।
अन्यप्रदेशात् स्वगृहं प्रविष्टस्तदीयवारे स नरः सुखी स्यातः।
गृहाद्गगतो यो न पुनः प्रयाति तस्मै नमः श्रीरविनन्दनाय।।
स्रष्टा स्वयंभूर्भुवनत्रयस्य त्राता हरीशो हरते पिनाकी।
एकस्रिधा ऋग्युजः साममूर्तिस्तस्मै नमः श्रीरविनन्दनाय।।
शन्यष्टकं यः प्रयतः प्रभाते नित्यं सुपुत्रैः पशुबान्धवैश्च।
पठेत्तु सौख्यं भुवि भोगयुक्तः प्राप्नोति निर्वाणपदं तदन्ते।।
कोणस्थः पिंङ्गलो बभ्रुः कृष्णो रोद्रोऽन्तको यमः।
सोरिः शनैश्चरो मन्दः पिप्लादेन संस्तुतः।।
एतानि दश नामानि प्रातरुत्थाय यः पठेत्।
शनैश्चरकृता पीड़ा न कदाचिद् भविष्यति।।
।। इति श्रीदशरथकृत शनैश्चरस्तोत्रं सम्पूर्णम् ।।


शुक्रवार, अप्रैल 07, 2023

भगवान विष्णु को समर्पित है वैशाख ...


                   सनातन धर्म के विभिन्न ग्रंथो एवं ज्योतिष शास्त्रों के अनुसार वैदिक पंचांग में वर्ष का  द्वितीय माह वैशाख को विशाखा नक्षत्रयुक्त पूर्णिमा होने के कारण कहा जाता है। है)। भगवान विष्णु को समर्पित और प्रिय माह वैशाख पुण्यकारी,  है | वैशाख को माधव मास  के देवता “मधुसूदन" हैं |भगवान विष्णु द्वारा दैत्यराज  मधु  का वध होने के कारण  मधुसूदन कहते हैं। विष्णुसहस्त्रनाम के अनुसार  “दुःस्वप्ने स्मर गोविन्दं संकटे मधुसूदनम्” किसी भी प्रकार के संकट में श्रीविष्णु के नाम मधुसूदन का स्मरण करना चाहिए । स्कन्दपुराणम्, वैष्णवखण्ड के अनुसार न माधवसमो मासो न कृतेन युगं समम्। न च वेदसमं शास्त्रं न तीर्थं गंगया समम्।। अर्थात वैशाख के समान कोई मास नहीं है, सत्ययुग के समान कोई युग नहीं है, वेद के समान कोई शास्त्र नहीं है और गंगाजी के समान कोई तीर्थ नहीं है।* पद्मपुराण, पातालखण्ड के अनुसार यथोमा सर्वनारीणां तपतां भास्करो यथा ।आरोग्यलाभो लाभानां द्विपदां ब्राह्मणो यथा।। परोपकारः पुण्यानां विद्यानां निगमो यथा।मंत्राणां प्रणवो यद्वद्ध्यानानामात्मचिंतनम् ।।सत्यं स्वधर्मवर्तित्वं तपसां च यथा वरम्।शौचानामर्थशौचं च दानानामभयं यथा ।।गुणानां च यथा लोभक्षयो मुख्यो गुणः स्मृतः।मासानां प्रवरो मासस्तथासौ माधवो मतः ।। अतएव जैसे सम्पूर्ण स्त्रियों में पार्वती, तपने वालों में सूर्य, लाभों में आरोग्यलाभ, मनुष्यों में ब्राह्मण, पुण्यों में परोपकार, विद्याओं में वेद, मन्त्रों में प्रणव, ध्यानों में आत्मचिंतन, तपस्याओं में सत्य और स्वधर्म-पालन, शुद्धियों में आत्मशुद्धि, दानों में अभयदान तथा गुणों में लोभ का त्याग ही सबसे प्रधान माना गया है, उसी प्रकार सब मासों में वैशाख मास अत्यंत श्रेष्ठ है | महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 106 के अनुसार निस्तरेदेकभक्तेन वैशाखं यो जितेन्द्रियः। नरो वा यदि वा नरी ज्ञातीनां श्रेष्ठतां व्रजेत्।।” जो स्त्री अथवा पुरूष इन्द्रिय संयम पूर्वक एक समय भोजन करके वैशाख मास को पार करता है, वह सहजातीय बन्धु-बान्धवों में श्रेष्ठता को प्राप्त होता है।। पद्मपुराण, पातालखण्ड के अनुसार दत्तं जप्तं हुतं स्नातं यद्भक्त्या मासि माधवे।तदक्षयं भवेद्भूप पुण्यं कोटिशताधिकम् ।। माधवमास में जो भक्तिपूर्वक  दान,जप, हवन और स्नान आदि शुभकर्म किये जाते हैं, उनका पुण्य अक्षय तथा सौ करोड़ गुना अधिक होता है । प्रातःस्नानं च वैशाखे यज्ञदानमुपोषणम्।हविष्यं ब्रह्मचर्यं च महापातकनाशनम् ।। वैशाख मास में सवेरे का स्नान, यज्ञ, दान, उपवास, हविष्य-भक्षण तथा ब्रह्मचर्य का पालन - ये महान पातकों का नाश करने वाले हैं । स्कन्दपुराण के अनुसार तैलाभ्यङ्गं दिवास्वापं तथा वै कांस्य भोजनम् ।। खट्वा निद्रां गृहे स्नानं निषिद्धस्य च भक्षणम् ।। वैशाख में तेल लगाना, दिन में सोना, कांस्यपात्र में भोजन करना, खाट पर सोना, घर में नहाना, निषिद्ध पदार्थ खाना दोबारा भोजन करना तथा रात में खाना - इन आठ बातों का त्याग करना चाहिए। शिवपुराण के अनुसार वैशाख में भूमि का दान करना चाहिए | ब्रह्मवैवर्त पुराण के अनुसार वैशाख मास में ब्राह्मण को सत्तू दान करने वाला पुरुष सत्तू कण के बराबर वर्षों तक विष्णु मन्दिर में प्रतिष्ठित होता है। वैशाख मास में गृह प्रवेश करने से धन, वैभव, संतान एवं आरोग्य की प्राप्ति होती हैं । देव प्रतिष्ठा के लिये वैशाख मास शुभ है। वृक्षारोपण के लिए वैशाख मास विशेष शुभ है । स्कन्द पुराण में  वैशाख मास के  भगवान विष्णु को अत्यन्त प्रिय और  माता की भाँति सब जीवों को सदा अभीष्ट वस्तु प्रदान करने वाला है ।  वैशाख मास में सूर्योदय से पूर्व स्नान करने एवं  भगवान विष्णु निरन्तर प्रीति करने पर सभी दानों से जो पुण्य होता है और सब तीर्थों में  फल मिलते हैं। वैशाख मास में  जलदान करके प्राप्त कर लेता है। वैशाख मास में सड़क पर यात्रियों के लिए प्याऊ लगाने पर  विष्णुलोक में प्रतिष्ठित होता है। जल दान व प्याऊ देवताओं, पितरों तथा ऋषियों को अत्यन्त प्रीति देने वाला है।  वैशाख मास में प्याऊ लगाकर थके-मांदे मनुष्यों को संतुष्ट करने से  ब्रह्मा, विष्णु और शिव आदि देवताओं को संतुष्ट कर लिया। जल की इच्छा रखने वाले को जल, छाया चाहने वाले को छाता और पंखे की इच्छा रखने वाले को पंखा देना , विष्णुप्रिय वैशाख में जो पादुका दान करता है, वह यमदूतों का तिरस्कार करके विष्णुलोक को प्राप्त कर लेता है । मार्ग में अनाथों के ठहरने के लिए विश्रामशाला बनवाता से पुण्य फल , अन्नदान मनुष्यों को तत्काल तृप्त करने वाला है। स्कन्दपुराण में कहा गया है “योऽर्चयेत्तुलसीपत्रैर्वैशाखे मधुसूदनम् ।। नृपो भूत्वा सार्वभौमः कोटिजन्मसु भोगवान् ।। पश्चात्कोटिकुलैर्युक्तो विष्णोः सायुज्यमाप्नुयात्” जो वैशाख मास में तुलसीदल से भगवान विष्णु की पूजा करने से भगवान  विष्णु की सामुज्य मुक्ति पाता है। ब्रह्मवैवर्त पुराण ब्रह्मखण्ड के अनुसार प्रतिपदा में कुष्मांड , कोहड़ा , भातुआ , पेठा कहना नही चाहिए ।
 विक्रम संवत कैलेंडर, ओडिया कैलेंडर , मैथिली कैलेंडर , पंजाबी कैलेंडर , बोहाग व असमिया कैलेंडर  और बंगाली व बोइशग कैलेंडर एवं शक पंचांग , ग्रेगोरियन कैलेंडर , चंद्र और सौर पंचांग  के अनुसार  सौर मास वैशाख संक्रांति से प्रारम्भ हैं । महाराष्ट्र में चंद्र वर्ष की प्रारंभ एवं वैशाख संक्रांति मनाकर सौर वर्ष को चिह्नित किया  है । वैदिक कैलेंडर में वैशाख को माधव और वैष्णव कैलेंडर में मधुसूदन मास  है । सौर कैलेंडर में वैशाख अप्रैल के मध्य में बंगाल , मिथिला , नेपाल और पंजाब में शुरू होता है । तमिलनाडु में  वैकाक और तमिल सौर कैलेंडर के अनुसार वैशाख को तमिल महीना चिथिरई , चंद्र कैलेंडर में, वैशाख को विशाखा नक्षत्र के पास चंद्रमा की स्थिति से  और  वैष्णव कैलेंडर में , मधुसूदन स्वामी  हैं। बैशाख के प्रतिपदा को पोहेला बोइशक या बंगला नववर्ष दिवस ,  मिथिला क्षेत्र में  जूर शीतल या मिथिला नववर्ष दिवस के रूप में मनाया जाता है। पश्चिम बंगाल और बांग्लादेश में  व्यापारियों ने हलखाता नामक नई वित्तीय कार्य , ,  ग्राहकों के साथ मिठाइयां और उपहार  , वैसाखी का फसल उत्सव पंजाबी कैलेंडर के अनुसार पंजाबी नव वर्ष का प्रतीक है । जलियांवाला बाग हत्याकांड पंजाबी नव वर्ष के दिन हुआ था। वैशाख पूर्णिमा को बुद्ध पूर्णिमा या गौतम बुद्ध के जन्मदिन के रूप में दक्षिण और दक्षिण पूर्व एशिया, तिब्बत और मंगोलिया के बौद्धों के बीच मनाया जाता है। पूर्णिमा पूर्णिमा को संदर्भित करता है। सिंहल में वेसाक के रूप , वैशाख शुक्ल पंचमी को महान दार्शनिक और धर्मशास्त्री आदि शंकराचार्य के जन्मदिन के रूप में , वैशाख पूर्णिमा को तमिलनाडु में "वैकासी विषकम" व मुरुगन जन्मोत्सव , वैशाख शुक्ल चतुर्दशी को सिंहचलम में श्री वराह लक्ष्मी नरसिम्हा स्वामीवरी मंदिर में नरसिंह जयंती , मेष संक्रांति , विसुआ   मनाया जाता है । बंगाली कैलेंडर में पहला महीना बोइशाख , डोगराओं के लिए धार्मिक, फसल और पारंपरिक नए साल का त्योहार वैशाखी ,  बुद्ध के जन्म, ज्ञान और मृत्यु का प्रतीक बौद्ध त्योहार , इंडोनेशिया के बाली में प्रमुख हिंदू मंदिर बेसाकीह , नरसिंह जयंती   मनाया जाता है ।
 वैशाख माह का अक्षय तृतीया को भगवान विष्णु ने परशुराम जयंती , मोहनी एकादशी , एवं मेले परशुराम जयन्ती, नृसिंह जयंती और  'राधा माधव मंदिर' परिसर में प्रतिवर्ष 'बैशाख पूर्णिमा महोत्सव' का आयोजन किया गया है। वैशाखी पूर्णिमा को ब्रह्मा जी ने श्वेत तथा कृष्ण तिलों का निर्माण करने के कारण  तिलों से युक्त जल से व्रती स्नान , अग्नि में तिलों की आहुति , , तिल, मधु तथा तिलों से भरा हुआ पात्र दान करने का उल्लेख  विष्णुधर्म में  है। वैशाख मास में नर्मदा नदी  में  स्नान का महत्व है । मास में प्रात: स्नान  और  पवित्र सरिताओं में स्नान करने का महत्व  है।पद्म पुराण के के अनुसार  वैशाख मास में प्रात: स्नान का महत्त्व अश्वमेध यज्ञ के समान ,  शुक्ल पक्ष की सप्तमी को गंगाजी का पूजन करना चाहिए । महर्षि जह्नु ने अपने दक्षिण कर्ण से गंगा जी को बाहर गंगा जी प्रवाहित हुई थी ।वैशाख शुक्ल सप्तमी को भगवान बुद्ध का जन्म , ज्ञान और निर्वाण  हुआ था। पुष्य नक्षत्र सप्तमी से तीन दिन तक उनकी प्रतिमा का पूजन किया जाना चाहिए।वैशाख शुक्ल अष्टमी को दुर्गा जी, अपराजिता की प्रतिमा को कपूर तथा जटामासी से सुवासित जल से स्नान कराना व  आम के रस से स्नान करना चाहिए ।, मधु तथा तिलों से भरा हुआ पात्र दान में दे।भगवान बुद्ध की वैशाख पूजा 'दत्थ गामणी' (लगभग 100-77 ई. पू.) ने लंका में प्रारम्भ करायी थी।बैशाख माह के शुक्ल पक्ष की मोहिनी एकादशी व्रत रखने निंदित कार्यो से छुट्कारा मिल जाता है|  जग्दीश्वर भगवान राम और उनकी योगमाया को समर्पित है। आखातीज के मुहूर्त में महत्त्व का कारण उसका सूर्य मेष राशि में स्थित होना है। इसके साथ चंद्रमा वृषभ राशि में संचरण करते हैं। सूर्य मेष राशि में उच्च के रहने एवं चंद्रमा वृषभ राशि में उच्च के रहने से यह श्रेष्ठ समय माना जाता  है। चंद्रमा व सूर्य प्रधान ग्रह हैं, जिनकी उच्च स्थिति होने से सभी स्थितियां अनुकूल हो जाती हैं। इससे विवाहादि आदि मांगलिक कार्यों व देव प्रतिष्ठा में सूर्य-चंद्रमा का बलवान होना आवश्यक होता है। इसके कारण वार, नक्षत्र, योग, करण आदि का दोष नहीं लगता।बैशाख माह के कृष्ण पक्ष की एकादशी को बरुथिनी एकादशी कहते हैवैशाख मास में अवंतिका वास का विशेष पुण्य कहा गया है। चैत्र पूर्णिमा से वैशाखी पूर्णिमा पर्यन्त कल्पवास,नित्य क्षिप्रा स्नान-दान, तीर्थ के प्रधान देवताओं के दर्शन, स्वाध्याय, मनन-चिंतन,सत्संग, धर्म ग्रंथों का पाठन-श्रवण,संत-तपस्वी, विद्वान और विप्रो की सेवा, संयम,नियम, उपवास आदि के संकल्प के साथ तीर्थवास का महत्त्व है। जो आस्थावान व्यक्ति बैशाख मास में यहाँ वास करता है, वह स्वत: शिवरूप हो जाता है।बैशाख मास की संक्रांति पर स्नान का विशेष महत्त्व होता है और हर वर्ष इस पर्व में हज़ारों की संख्या में श्रद्धालु महादेव का आशीर्वाद प्राप्त कर पुण्य कमाते हैं। 'निर्णय सिन्धु' में वैशाख शुक्ल पक्ष की तृतीया में गंगा स्नान का उल्लेख मिलता है । बैशाखे शुक्लपक्षे तु तृतीयायां तथैव च । गंगातोये नर: स्नात्वा मुच्यते सर्वकिल्विषै: ।। विष्णुधर्म., 90.10 , पद्म पुराण 4.85.41-70 , विष्णुधर्म., 90.10 ,  वालपोल राहुल (कोलम्बो, 1956) द्वारा रचित 'बुद्धिज्म इन सीलोन' , पृ. 80 के अनुसार वैशाख महीने का अक्षय तृतीया · नृसिंह चतुर्दशी · मोहिनी एकादशी · वन विहार · वरूथिनी एकादशी · वैशाखी · अक्षयफलावाप्ति · अलवण तृतीया · मधुसूदन पूजा · अनन्त तृतीया · देवयात्रोत्सव · ध्वज व्रत · नरसिंह चतुर्थी · रुद्रलक्षवर्ति व्रत · बिल्वलक्ष व्रत · रुद्रलक्षवर्ति व्रत · लक्षवर्ति व्रत · निम्ब सप्तमी · पंच लांगन व्रत · पिपीतक द्वादशी · विभूति द्वादशी · पुत्रप्राप्ति व्रत · वैशाख कृत्य · विष्णुलक्षवर्ति व्रत · हरि क्रीडा शयन · श्रीप्राप्ति व्रत उत्सव वैशाखी है । वैशाख में भगवान विष्णु , सूर्य , शिव , ब्रह्मा की उपासना एवं नर्मदा नदी, ब्रह्ममुहूर्त में स्नान करने से सर्वांगीण विकास होते है । 




है ।

रविवार, अप्रैल 02, 2023

सर्वागीण समृध्दि का द्योतक हनुमान जी...


सनातन धर्म की संस्कृति एवं व8भिन्न भिन्न ग्रंथों , रामायण , रामचरितमानस ,  में संकटमोचन हनुमान जी का उल्लेख मिलता है । वन राज मारुति की भार्या माता अंजनी के पुत्र  भगवान शिव का अवतार हनुमान जी का जन्म  चैत्र शुक्ल  पूर्णिमा त्रेतायुग में झारखंड राज्य के गुमला जिले के आंजन  में हुआ था । तमिलानाडु व केरल में मार्गशीर्ष कृष्ण पक्ष अमावस्या  तथा उड़ीसा में वैशाख महीने के पहले दिन ,  कर्नाटक व आन्ध्र प्रदेश में चैत्र पूर्णिमा से लेकर वैशाख महीने के 10वें दिन तक हनुमान जयंती  मनाया जाता है । भगवान सूर्य के शिष्य  हनुमान जी और ऋषि मनिन्दर  से त्रेता युग में हनुमान जी को लंका से माता सीता की खोज कर वापस लौटने के पश्चात शिक्षा प्राप्त हुआ था । इन्द्र के वज्र से हनुमानजी की ठुड्डी टूटने के कारण  हनुमान का नामकरण किया गया था । हनुमान जी को  बजरंग बली, मारुति, अञ्जनि सुत, पवनपुत्र, संकटमोचन, केसरीनन्दन, महावीर, कपीश, शङ्कर सुवन , अंजनी पुत्र , मारुतिनंदन , केशरीनंदन ,  पवन सुत , अतुलित बलधामा , रामभक्त , कहा जाता है। वास्तुशास्त्र के अनुसार घर में हनुमान जी की तस्वीर लगाने से एवं  सही दिशा में सही स्थान  हनुमानजी की तस्वीर लगाने पर  लाभ होते हैं। हनुमानजी बाल ब्रहमचारी होने के कारण  तस्वीर शयन कक्ष में नहीं लगाने से  हनुमानजी की तस्वीर शुभ नहीं है ।भगवान हनुमानजी की तस्वीर घर या दुकान में दक्षिण दिशा की ओर लगाना  अच्छा  है। घर मे पंचमुखी, पर्वत उठाते हुए या राम भजन करते हुए हनुमानजी की तस्वीर लगाने से  घर के सभी दोष खत्म हो जाते हैं। उत्तर दिशा में हनुमानजी की तस्वीर लगाने पर दक्षिण दिशा से आने वाली प्रत्येक नकारात्मक शक्ति को हनुमानजी रोक देते हैं। हनुमानजी अपनी शक्ति का प्रदर्शन कर रहे हो. ऐसी तस्वीर घर में लगाने से किसी तरह की बुरी शक्ति घर में प्रवेश नहीं कर पाती और हनुमानजी की तस्वीर पर सिंदूर जरुर लगाना चाहिए। ऐसा न कर पाने पर सिंदूर का तिलक  किया जाता है।    हनुमानजीकी स्तुति रात में सोने से पहले व सुबह उठने पर अथवा यात्रा प्रारंभ करने से पहले पाठ करने से भय दूर  और जीवन में सभी सुख प्राप्त होते हैं। हनुमानअंजनीसूनुर्वायुपुत्रो महाबल:। रामेष्ट: फाल्गुनसख: पिंगाक्षोअमितविक्रम:।। उदधिक्रमणश्चेव सीताशोकविनाशन:। लक्ष्मणप्राणदाता च दशग्रीवस्य दर्पहा।। एवं द्वादश नामानि कपीन्द्रस्य महात्मन:। स्वापकाले प्रबोधे च यात्राकाले च य: पठेत्।। तस्य सर्वभयं नास्ति रणे च विजयी भवेत्। राजद्वारे गह्वरे च भयं नास्ति कदाचन।। हनुमान जी का हनुमान ,लक्ष्मणप्राणदाता , दशग्रीवदर्पहा , रामेष्ट , फलगुनसुख , अमितविक्रम , उदधिक्रमण अंजनीसुत , वायुपुत्र , महाबल , सीताशोकविनाशन का स्मरण करने से सर्वार्थसिद्धि की प्राप्ति होती है । चैत्र शुक्ल पूर्णिमा मेष लग्न चित्रा नक्षत्र मंगलवार प्रातःकाल त्रेतायुग  2. 59 मिलियन वर्ष पूर्व देव गुरु वृहस्पति का पौत्र ऋषि भारद्वाज के वरदान प्राप्त कपिराज केशरी की भार्या अंजनी के पुत्र अंजनीनन्दन हनुमान जी का जन्म झारखंड राज्य का गुमला जिले के अंजनेरी पहाड़ी गुफा में हुआ था । हनुमान जी का निवास स्थान गंधमादन पर्वत है ।   विभिन्न ग्रंथों के अनुसार हनुमान जन्मोत्सव चैत्र शुक्ल पूर्णिमा को प्रातःकाल में जन्म होने और रामायण के अनुसार कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी मेष लग्न , स्वाति नक्षत्र मंगलवार विजय अभिनंदन एवं अमरता का वरदान प्राप्त होने के कारण  हनुमान जन्मोत्सव मनाया जाता है । महाराष्ट्र का नासिक जिले के अंजनेरी पहाड़ी की गुफा में हनुमान जी का जन्म स्थली कहा गया है । हनुमान जी का जन्म 5114 ई. पू. विभिन्न ग्रंथों में उल्लेख मिलता है । भागवत पुराण के अनुसार हनुमान जी के भाई एवं बहन में गतिमान ,श्रुतिमान , धृतिमान ,केतुमान ,मतिमान एवं पुत्र मकरध्वज है ।  हनुमान जी का अस्त्र कौमोदकी गदा और सवारी उट है । हनुमान जी का आध्यात्मिक पिता वायुदेव , पिता कपिराज केशरी है। भगवान राम भक्त हनुमान जी की उपासना स्थल में उत्तरप्रदेश के अयोध्या स्थित हनुमानगढ़ी ,  ग्वालियर , पितृपर्वत , गंधमादन पर्वत ,, शिमला जाखुहिल , आंध्रप्रदेश के विजयवाड़ा , जकार्ता में दीर्णतारा , अमृतसर रामतीर्थ मंदिर , टोबैगो का त्रिनिदाद , डरबन ,छिंदवाड़ा , नंदुरा महाराष्ट्र , , करोगबाग ,शिमला , मध्यप्रदेश का मान्धाता पर्वत , प्रयागराज , बालाजी , बिहार , बंगाल , उड़ीसा , झारखंड राजस्थान , दिल्ली , तमिलनाडु , उज्जैन , असम आदि विभिन्न क्षेत्रों में हसनुमान जी की विभन्न रूपों में उपासना की जस्ती है । वाल्मीकीय रामायण एवं तुलसीदास कृत  राम चरितमानस का सुंदरकांड , तुलसीदास कृत हनुमान चालीसा , हनुमानाष्टक , बजररंगबाण में हनुमान जी का उल्लेख किया गया है । पटना स्टेशन परिसर के समीप हनुमान मंदिर , औरंगाबाद जिले का औरंगाबाद धर्मशाला में हनुमान मंदिर , गहमर में दक्षिणेश्वर हनुमान , गया , मुजफ्फरपुर के सहुपोखर में हनुमान मंदिर , वाराणसी काशी , बिहार के स ही क्षेत्रों में हनुमान मंदिर और उपासना केंद्र है ।