शनिवार, अक्तूबर 31, 2020

ब्रमाण्ड की आत्मा सूर्य...


            भगवान सूर्य को वेदों में जगत की आत्मा कहा गया है। समस्त चराचर जगत की आत्मा सूर्य है। सूर्य से  पृथ्वी पर जीवन है,  वैदिक काल में आर्य और अनार्य भगवान सूर्य को जगत का कर्ता धर्ता मानते थे। सूर्य का शब्दार्थ है सर्व प्रेरक.सर्व प्रकाशक, सर्व प्रवर्तक होने से सर्व कल्याणकारी है। ऋग्वेद के देवताओं कें सूर्य का महत्वपूर्ण स्थान है। यजुर्वेद ने "चक्षो सूर्यो जायत" कह कर सूर्य को भगवान का नेत्र माना है। छान्दोग्यपनिषद में सूर्य को प्रणव निरूपित कर उनकी ध्यान साधना से पुत्र प्राप्ति का लाभ बताया गया है। ब्रह्मवैर्वत पुराण तो सूर्य को परमात्मा स्वरूप मानता है। प्रसिद्ध गायत्री मंत्र सूर्य परक ही है। सूर्योपनिषद में सूर्य को ही संपूर्ण जगत की उतपत्ति का एक मात्र कारण निरूपित किया गया है। और उन्ही को संपूर्ण जगत की आत्मा तथा ब्रह्म बताया गया है। सूर्योपनिषद की श्रुति के अनुसार संपूर्ण जगत की सृष्टि तथा उसका पालन सूर्य ही करते है। सूर्य ही संपूर्ण जगत की अंतरात्मा हैं। अत: कोई आश्चर्य नहीं कि वैदिक काल से ही भारत में सूर्योपासना का प्रचलन रहा है। पहले यह सूर्योपासना मंत्रों से होती थी। बाद में मूर्ति पूजा का प्रचलन हुआ तो यत्र तत्र सूर्य मन्दिरों का नैर्माण हुआ। भविष्य पुराण में ब्रह्मा विष्णु के मध्य एक संवाद में सूर्य पूजा एवं मन्दिर निर्माण का महत्व समझाया गया है। अनेक पुराणों में यह आख्यान भी मिलता है, कि ऋषि दुर्वासा के शाप से कुष्ठ रोग ग्रस्त श्री कृष्ण पुत्र साम्ब ने सूर्य की आराधना कर इस भयंकर रोग से मुक्ति पायी थी। प्राचीन काल में भगवान सूर्य के अनेक मन्दिर भारत में बने हुए थे। उनमे आज तो कुछ विश्व प्रसिद्ध हैं। वैदिक साहित्य में ही नहीं आयुर्वेद, ज्योतिष, हस्तरेखा शास्त्रों में सूर्य का महत्व प्रतिपादित किया गया है। भगवान सूर्य को ग्रह, देव, आदि देव कहा गया है ।भगवान सूर्य का जीवनसाथी संध्या, राज्ञी, प्रभा, छाया तथा सवारी सप्त अश्वों द्वारा खींचा जाने वाला रथ, सारथी: अरुण हैं ।
श्रीमदभागवत, सूर्य , विष्णु , ब्रह्म , मारकण्डेय ,  पुराण  , वेदों ,उपनिषदों के अनुसार:- भूलोक तथा द्युलोक के मध्य में अन्तरिक्ष लोक है।  द्युलोक में सूर्य भगवान नक्षत्र तारों के मध्य में विराजमान रह कर तीनों लोकों को प्रकाशित करते हैं। उत्तरायण, दक्षिणायन तथा विषुक्त नामक तीन मार्गों से चलने के कारण कर्क, मकर तथा समान गतियों के छोटे, बड़े तथा समान दिन रात्रि बनाते हैं। जब भगवान सूर्य मेष तथा तुला राशि पर रहते हैं तब दिन रात्रि समान रहते हैं। जब वे वृष, मिथुन, कर्क, सिंह और कन्या राशियों में रहते हैं तब क्रमशः रात्रि एक-एक मास में एक-   पुरी में मध्याह्न होता है उसके ठीक सामने अर्ध रात्रि होती है। सूर्य भगवान की चाल पन्द्रह घड़ी में सवा सौ करोड़ साढ़े बारह लाख योजन से कुछ अधिक है। उनके साथ-साथ चन्द्रमा तथा अन्य नक्षत्र भी घूमते रहते हैं। सूर्य का रथ एक मुहूर्त (दो घड़ी) में चौंतीस लाख आठ सौ योजन चलता है। इस रथ का संवत्सर नाम का एक पहिया है जिसके बारह अरे (मास), छः नेम, छः ऋतु और तीन चौमासे हैं। इस रथ की एक धुरी मानसोत्तर पर्वत पर तथा दूसरा सिरा मेरु पर्वत पर स्थित है। इस रथ में बैठने का स्थान छत्तीस लाख योजन लम्बा है तथा अरुण नाम के सारथी इसे चलाते हैं। भगवान सूर्य नौ करोड़ इंक्यावन लाख योजन लम्बे परिधि को एक क्षण में दो सहस्त्र योजन के हिसाब से तह करते हैं। भगवान सूर्य  रथ का विस्तार नौ हजार योजन है।  धुरा डेड़ करोड़ सात लाख योजन लम्बा है, जिसमें पहिया लगा हुआ है। उस पूर्वाह्न, मध्याह्न और पराह्न रूप तीन नाभि, परिवत्सर आदि पांच अरे और षड ऋतु रूप छः नेमि है। संवत्सरात्मक चक्र में सम्पूर्ण कालचक्र स्थित है। सात छन्द इसके घोड़े हैं: गायत्री, वृहति, उष्णिक, जगती, त्रिष्टुप, अनुष्टुप और पंक्ति। इस रथ का दूसरा धुरा साढ़े पैंतालीस सहस्र योजन लम्बा है। इसके दोनों जुओं के परिमाण के तुल्य ही इसके युगार्द्धों (जूओं) का परिमाण है। इनमें से छोटा धुरा उस रथ के जूए के सहित ध्रुव के आधार पर स्थित है और दूसरे धुरे का चक्र मानसोत्तर पर्वत पर स्थित है। मानसोत्तर पर्वत पर्वत के पूर्व में इन्द्र की वस्वौकसारा , पश्चिम में वरुण की सुखा , उत्तर में चंद्रमा की विभावरी तथा  दक्षिण में यम की संयमनी स्थित है। ज्योतिष शास्त्र में भारतीय ज्योतिष में सूर्य को आत्मा का कारक माना गया है। सूर्य से सम्बन्धित नक्षत्र कृतिका उत्तराषाढा और उत्तराफ़ाल्गुनी हैं। यह भचक्र की पांचवीं राशि सिंह का स्वामी है। सूर्य पिता का प्रतिधिनित्व करता है, लकड़ी मिर्च घास हिरन शेर ऊन स्वर्ण आभूषण तांबा आदि का भी कारक है। मन्दिर सुन्दर महल जंगल किला एवं नदी का किनारा इसका निवास स्थान है। शरीर में पेट आंख ह्रदय चेहरा का प्रतिधिनित्व करता है। और इस ग्रह से आंख सिर रक्तचाप गंजापन एवं बुखार संबन्धी बीमारी होती हैं। सूर्य की जाति क्षत्रिय है। शरीर की बनाव सूर्य के अनुसार मानी जाती है। हड्डियों का ढांचा सूर्य के क्षेत्र में आता है। सूर्य का अयन ६ माह का होता है। ६ माह यह दक्षिणायन यानी भूमध्य रेखा के दक्षिण में मकर वृत पर रहता है, और ६ माह यह भूमध्य रेखा के उत्तर में कर्क वृत पर रहता है। इसका रंग केशरिया माना जाता है। धातु तांबा और रत्न माणिक उपरत्न लाडली है। यह पुरुष ग्रह है। इससे आयु की गणना ५० साल मानी जाती है। सूर्य अष्टम मृत्यु स्थान से सम्बन्धित होने पर मौत आग से मानी जाती है। सूर्य सप्तम द्रिष्टि से देखता है। सूर्य की दिशा पूर्व है। सबसे अधिक बली होने पर यह राजा का कारक माना जाता है। सूर्य के मित्र चन्द्र मंगल और गुरु हैं। शत्रु शनि और शुक्र हैं। समान देखने वाला ग्रह बुध है। सूर्य की विंशोत्तरी दशा ६ साल की होती है। सूर्य गेंहू घी पत्थर दवा और माणिक्य पदार्थो पर अपना असर डालता है। पित्त रोग का कारण सूर्य ही है। और वनस्पति जगत में लम्बे पेड का कारक सूर्य है। मेष के १० अंश पर उच्च और तुला के १० अंश पर नीच माना जाता है। सूर्य का भचक्र के अनुसार मूल त्रिकोण सिंह पर ० अंश से लेकर १० अंश तक शक्तिशाली फ़लदायी होता है। सूर्य के देवता भगवान शिव हैं। सूर्य का मौसम गर्मी की ऋतु है। सूर्य के नक्षत्र कृतिका का फ़ारसी नाम सुरैया है। और इस नक्षत्र से शुरु होने वाले नाम ’अ’ ई उ ए अक्षरों से चालू होते हैं। इस नक्षत्र के तारों की संख्या अनेक है। इसका एक दिन में भोगने का समय एक घंटा है।
सूर्य देव की मित्रता चन्द्रमा है।अमावस्या के दिन यह अपने आगोश में लेलेता है।मंगल भी सूर्य का मित्र है। बुध भी सूर्य का मित्र है तथा हमेशा सूर्य के आसपास घूमा करता है। गुरु बृहस्पति यह सूर्य का परम मित्र है, दोनो के संयोग से जीवात्मा का संयोग माना जाता है। गुरु जीव है तो सूर्य आत्मा है । शनि सूर्य का पुत्र है लेकिन दोनो की आपसी दुश्मनी है, जहां से सूर्य की सीमा समाप्त होती है, वहीं से शनि की सीमा चालू हो जाती है।"छाया मर्तण्ड सम्भूतं" के अनुसार सूर्य की पत्नी छाया से शनि की उतपत्ति मानी जाती है। सूर्य और शनि के मिलन से जातक कार्यहीन हो जाता है, सूर्य आत्मा है तो शनि कार्य, आत्मा कोई काम नहीं करती है। इस युति से ही कर्म हीन विरोध देखने को मिलता है।शुक्र रज है सूर्य गर्मी स्त्री जातक और पुरुष जातक के आमने सामने होने पर रज जल जाता है। सूर्य का शत्रु है। राहु सूर्य का दुश्मन है। एक साथ होने पर जातक के पिता को विभिन्न समस्याओं से ग्रसित कर देता है। केतु यह सूर्य से सम है। सूर्य और चन्द्र दोनो के एक साथ होने पर सूर्य को पिता और चन्द्र को यात्रा मानने पर पिता की यात्रा के प्रति कहा जा सकता है। सूर्य राज्य है तो चन्द्र यात्रा , राजकीय यात्रा भी कही जा सकती है। एक संतान की उन्नति जन्म स्थान से बाहर होती है।सूर्य और मंगल के साथ होने पर मंगल शक्ति है अभिमान है, इस प्रकार से पिता शक्तिशाली और प्रभावी होता है।मंगल भाई है तो वह सहयोग करेगा,मंगल रक्त है तो पिता और पुत्र दोनो में रक्त सम्बन्धी बीमारी होती है, ह्रदय रोग भी हो सकता है। दोनो ग्रह १-१२ या १७ में हो तो यह जरूरी हो जाता है। स्त्री चक्र में पति प्रभावी होता है, गुस्सा अधिक होता है, परन्तु आपस में प्रेम भी अधिक होता है,मंगल पति का कारक बन जाता है। सूर्य और बुध में बुध ज्ञानी है, बली होने पर राजदूत जैसे पद मिलते है, पिता पुत्र दोनो ही ज्ञानी होते हैं।समाज में प्रतिष्ठा मिलती है। जातक के अन्दर वासना का भंडार होता है, दोनो मिलकर नकली मंगल का रूप भी धारण करलेता है। पिता के बहन हो और पिता के पास भूमि भी हो, पिता का सम्बन्ध किसी महिला से भी हो।सूर्य और गुरु के साथ होने पर सूर्य आत्मा है,गुरु जीव है। इस प्रकार से यह संयोग एक जीवात्मा संयोग का रूप ले लेता है।जातक का जन्म ईश्वर अंश से हो, मतलब परिवार के किसी पूर्वज ने आकर जन्म लिया हो,जातक में दूसरों की सहायता करने का हमेशा मानस बना रहे, और जातक का यश चारो तरफ़ फ़ैलता रहे, सरकारी क्षेत्रों में जातक को पदवी भी मिले। जातक का पुत्र भी उपरोक्त कार्यों में संलग्न रहे, पिता के पास मंत्री जैसे काम हों, स्त्री चक्र में उसको सभी प्रकार के सुख मिलते रहें, वह आभूषणों आदि से कभी दुखी न रहे, उसे अपने घर और ससुराल में सभी प्रकार के मान सम्मान मिलते रहें ।सूर्य और शुक्र के साथ होने पर सूर्य पिता है और शुक्र भवन, वित्त है, अत: पिता के पास वित्त और भवन के साथ सभी प्रकार के भौतिक सुख हों, पुत्र के बारे में भी यह कह सकते हैं।शुक्र रज है और सूर्य गर्मी अत: पत्नी को गर्भपात होते रहें, संतान कम हों,१२ वें या दूसरे भाव में होने पर आंखों की बीमारी हो, एक आंख का भी हो सकता है। ६ या ८ में होने पर जीवन साथी के साथ भी यह हो सकता है। स्त्री चक्र में पत्नी के एक बहिन हो जो जातिका से बडी हो, जातक को राज्य से धन मिलता रहे, सूर्य जातक शुक्र पत्नी की सुन्दरता बहुत हो। शुक्र वीर्य है और सूर्य गर्मी जातक के संतान पैदा नहीं हो। स्त्री की कुन्डली में जातिका को मूत्र सम्बन्धी बीमारी देता है। अस्त शुक्र स्वास्थ्य खराब करता है।सूर्य और शनि के साथ होने पर शनि कर्म है और सूर्य राज्य, अत: जातक के पिता का कार्य सरकारी हो, सूर्य पिता और शनि जातक के जन्म के समय काफ़ी परेशानी हुई हो। पिता के सामने रहने तक पुत्र आलसी हो, पिता और पुत्र के साथ रहने पर उन्नति नहीं हो। वैदिक ज्योतिष में इसे पितृ दोष माना जाता है। अत: जातक को रोजाना गायत्री का जाप २४ या १०८ बार करना चाहिये। सूर्य और राहु के एक साथ होने पर सूचना मिलती है कि जातक के पितामह प्रतिष्ठित व्यक्ति होने चाहिये, एक पुत्र सूर्य अनैतिक राहु हो, कानून विरुद्ध जातक कार्य करता हो, पिता की मौत दुर्घटना में हो, जातक के जन्म के समय में पिता को चोट लगे,जातक को संतान कठिनाई से हो, पिता के किसी भाई को अनिष्ठ हो। शादी में अनबन हो। सूर्य और केतु साथ होने पर पिता और पुत्र दोनों धार्मिक हों, कार्यों में कठिनाई हो, पिता के पास भूमि हो लेकिन किसी काम की सूर्य के साथ अन्य ग्रहों के अटल नियम  कभी असूर्य मंगल शनि केतु=पिता अन्धे हों ।सूर्य के आगे शुक्र = धन हों ।सूर्य के आगे बुध = जमीन हो। सूर्य केतु =पिता राजकीय सेवा में हों,साधु स्वभाव हो,अध्यापक का कार्य भी हो सकता है। सूर्य बृहस्पति के आगे = जातक पिता वाले कार्य करे ।सूर्य शनि शुक्र बुध =पेट्रोल,डीजल वाले काम। सूर्य राहु गुरु =मस्जिद या चर्च का अधिकारी ।सूर्य के आगे मंगल राहु हों तो पैतृक संपति की हानी है । सूर्य प्रत्यक्ष देवता है, सम्पूर्ण जगत के नेत्र हैं। इन्ही के द्वारा दिन और रात का सृजन होता है। इनसे अधिक निरन्तर साथ रहने वाला और कोई देवता नहीं है। इन्ही के उदय होने पर सम्पूर्ण जगत का उदय होता है, और इन्ही के अस्त होने पर समस्त जगत सो जाता है। इन्ही के उगने पर लोग अपने घरों के किवाड खोल कर आने वाले का स्वागत करते हैं, और अस्त होने पर अपने घरों के किवाड बन्द कर लेते हैं। सूर्य ही कालचक्र के प्रणेता है। सूर्य से ही दिन रात पल मास पक्ष तथा संवत आदि का विभाजन होता है। सूर्य सम्पूर्ण संसार के प्रकाशक हैं। इनके बिना अन्धकार के अलावा और कुछ नहीं है। सूर्य आत्माकारक ग्रह है, यह राज्य सुख,सत्ता,ऐश्वर्य,वैभव,अधिकार, आदि प्रदान करता है। यह सौरमंडल का प्रथम ग्रह है, कारण इसके बिना उसी प्रकार से हम सौरजगत को नहीं जान सकते थे, जिस प्रकार से माता के द्वारा पैदा नहीं करने पर हम संसार को नहीं जान सकते थे। सूर्य सम्पूर्ण सौर जगत का आधार स्तम्भ है। अर्थात सारा सौर मंडल,ग्रह,उपग्रह,नक्षत्र आदि सभी सूर्य से ही शक्ति पाकर इसके इर्द गिर्द घूमा करते है, यह सिंह राशि का स्वामी है,परमात्मा ने सूर्य को जगत में प्रकाश करने,संचालन करने, अपने तेज से शरीर में ज्योति प्रदान करने, तथा जठराग्नि के रूप में आमाशय में अन्न को पचाने का कार्य सौंपा है। ज्योतिष शास्त्र में सूर्य को मस्तिष्क का अधिपति बताया गया है,ब्रह्माण्ड में विद्यमान प्रज्ञा शक्ति और चेतना तरंगों के द्वारा मस्तिष्क की गतिशीलता उर्वरता और सूक्षमता के विकाश और विनाश का कार्य भी सूर्य के द्वारा ही होता है। यह संसार के सभी जीवों द्वारा किये गये सभी कार्यों का साक्षी है। और न्यायाधीश के सामने साक्ष्य प्रस्तुत करने जैसा काम करता है। यह जातक के ह्रदय के अन्दर उचित और अनुचित को बताने का काम करता है, किसी भी अनुचित कार्य को करने के पहले यह जातक को मना करता है, और अंदर की आत्मा से आवाज देता है। साथ ही जान बूझ कर गलत काम करने पर यह ह्रदय और हड्डियों में कम्पन भी प्रदान करता है। गलत काम को रोकने के लिये यह ह्रदय में साहस का संचार भी करता है।व्यक्ति अपनी शक्ति और अंहकार से चूर होकर जानते हुए भी निन्दनीय कार्य करते हैं, दूसरों का शोषण करते हैं, और माता पिता की सेवा न करके उनको नाना प्रकार के कष्ट देते हैं, सूर्य उनके इस कार्य का भुगतान उसकी विद्या,यश, और धन पर पूर्णत: रोक लगाकर उसे बुद्धि से दीन हीन करके पग पग पर अपमानित करके उसके द्वारा किये गये कर्मों का भोग करवाता है। आंखों की रोशनी का अपने प्रकार से हरण करने के बाद भक्ष्य और अभक्ष्य का भोजन करवाता है, ऊंचे और नीचे स्थानों पर गिराता है, चोट देता है। श्रेष्ठ कार्य करने वालों को सदबुद्धि,विद्या,धन, और यश देकर जगत में नाम देता है, लोगों के अन्दर इज्जत और मान सम्मान देता है। उन्हें उत्तम यश का भागी बना कर भोग करवाता है। जो लोग आध्यात्म में अपना मन लगाते हैं, उनके अन्दर भगवान की छवि का रसस्वादन करवाता है। सूर्य से लाल स्वर्ण रंग की किरणें न मिलें तो कोई भी वनस्पति उत्पन्न नहीं हो सकती है। इन्ही से यह जगत स्थिर रहता है,चेष्टाशील रहता है, और सामने दिखाई देता है। जातक अपना हाथ देख कर अपने बारे में स्वयं निर्णय कर सकता है, यदि सूर्य रेखा हाथ में बिलकुल नहीं है, या मामूली सी है, तो उसके फ़लस्वरूप उसकी विद्या कम होगी, वह जो भी पढेगा वह कुछ कल बाद भूल जायेगा,धनवान धन को नहीं रोक पायेंगे, पिता पुत्र में विवाद होगा, और अगर इस रेखा में द्वीप आदि है तो निश्चित रूप से गलत इल्जाम लगेंगे.अपराध और कोई करेगा और सजा जातक को भुगतनी पडेगी । सूर्य क्रूर ग्रह भी है, और जातक के स्वभाव में तीव्रता देता है। यदि ग्रह तुला राशि में नीच का है तो वह तीव्रता जातक के लिये घातक होगी, दुनियां की कोई औषिधि,यंत्र,जडी,बूटी नहीं है जो इस तीव्रता को कम कर सके। केवल सूर्य मंत्र में ही इतनी शक्ति है, कि जो इस तीव्रता को कम कर सकता है।भगवान सूर्य जीव मात्र को प्रकाश देता है। जिन जातकों को सूर्य आत्मप्रकाश नहीं देता है, वे गलत से गलत औ निंदनीय कार्य क बैठते है। और यह भी याद रखना चाहिये कि जो कर्म कर दिया गया है, उसका भुगतान तो करना ही पडेगा.जिन जातकों के हाथ में सूर्य रेखा प्रबल और साफ़ होती है, उन्हे समझना चाहिये कि सूर्य उन्हें पूरा बल दे रहा है। इस प्रकार के जातक कभी गलत और निन्दनीय कार्य नहीं कर सकते हैं। उनका ओज और तेज सराहनीय होता है। सूर्य  से प्रदान किये जाने वाले रोग - व्यक्ति के गलती करने और आत्म विश्लेषण के बाद निन्दनीय कार्य किये जाते हैं, तब सूर्य उन्हे बीमारियों और अन्य तरीके से प्रताडित करने का काम करता है, सबसे बड़ा रोग निवारण का उपाय है कि किये जाने वाले गलत और निन्दनीय कार्यों के प्रति पश्चाताप, और फ़िर से नहीं करने की कसम, और जब प्रायश्चित कर लिया जाय तो रोगों को निवारण के लिये रत्न,जडी, बूटियां, आदि धारण की जावें, और मंत्रों का नियमित जाप किया जावे.सूर्य ग्रह के द्वारा प्रदान कियेजाने वाले रोग है- सिर दर्द,बुखार, नेत्र विकार,मधुमेह,मोतीझारा,पित्त रोग,हैजा,हिचकी. यदि औषिधि सेवन से भी रोग ना जावे तो समझ लेना कि सूर्य की दशा या अंतर्दशा लगी हुई है। और बिना किसी से पूंछे ही मंत्र जाप,रत्न या जडी बूटी का प्रयोग कर लेना चाहिये। इससे रोग हल्का होगा और ठीक होने लगेगा। सूर्य ग्रह के रत्न - सूर्य ग्रह के रत्नों में माणिक और उपरत्नो में लालडी, तामडा, और महसूरी.पांच रत्ती का रत्न या उपरत्न रविवार को कृत्तिका नक्षत्र में अनामिका उंगली में सोने में धारण करनी चाहिये। इससे इसका दुष्प्रभाव कम होना चालू हो जाता है। और अच्छा रत्न पहिनते ही चालीस प्रतिशत तक फ़ायदा होता देखा गया है। रत्न की विधि विधान पूर्वक उसकी ग्रहानुसार प्राण प्रतिष्ठा अगर नहीं की जाती है, तो वह रत्न प्रभाव नहीं दे सकता है। इसलिये रत्न पहिनने से पहले अर्थात अंगूठी में जडवाने से पहले इसकी प्राण प्रतिष्ठा करलेनी चाहिये। क्योंकि पत्थर तो अपने आप में पत्थर ही है, जिस प्रकार से मूर्तिकार मूर्ति को तो बना देता है, लेकिन जब उसे मन्दिर में स्थापित किया जाता है, तो उसकी विधि विधान पूर्वक प्राण प्रतिष्ठा करने के बाद ही वह मूर्ति अपना असर दे सकती है। इसी प्रकार से अंगूठी में रत्न तभी अपना असर देगा जब उसकी विधि विधान से प्राण प्रतिष्ठा की जायेगी । सूर्य ग्रह की जडी बूटियाां - बेल पत्र जो कि शिवजी पर चढाये जाते है, बेल पेड की जड रविवार को हस्त या कृत्तिका नक्षत्र में लाल धागे से पुरुष दाहिने बाजू में और स्त्रियां बायीं बाजू में बांध लें, इस के द्वारा रत्न और उपरत्न खरीदने में अस्मर्थ है, उनको भी फ़ायदा होगा। सूर्य ग्रह के लिये दान -  सूर्य ग्रह के दुष्प्रभाव से बचने के लिये अपने बजन के बराबर के गेंहूं, लाल और पीले मिले हुए रंग के वस्त्र, लाल मिठाई, सोने के रबे, कपिला गाय, गुड और तांबा धातु, श्रद्धा पूर्वक किसी गरीब ब्राहमण को बुलाकर विधि विधान से संकल्प पूर्वक दान करना चाहिये।
सूर्य आदित्य मंत्र - विनियोग :- ऊँ आकृष्णेनि मन्त्रस्य हिरण्यस्तूपांगिरस ऋषि स्त्रिष्टुप्छन्द: सूर्यो देवता सूर्यप्रीत्यर्थे जपे विनियोग:देहान्गन्यास :- आकृष्णेन शिरसि, रजसा ललाटे, वर्तमानो मुखे, निवेशयन ह्रदये, अमृतं नाभौ, मर्त्यं च कट्याम, हिरण्येन सविता ऊर्व्वौ, रथेना जान्वो:, देवो याति जंघयो:, भुवनानि पश्यन पादयो:. ।करन्यास :- आकृष्णेन रजसा अंगुष्ठाभ्याम नम:, वर्तमानो निवेशयन तर्जनीभ्याम नम:, अमृतं मर्त्यं च मध्यामाभ्याम नम:, हिरण्ययेन अनामिकाभ्याम नम:, सविता रथेना कनिष्ठिकाभ्याम नम:, देवो याति भुवनानि पश्यन करतलपृष्ठाभ्याम नम: । ह्रदयादिन्यास :- आकृष्णेन रजसा ह्रदयाय नम:, वर्तमानो निवेशयन शिरसे स्वाहा, अमृतं मर्त्यं च शिखायै वषट, हिरण्येन कवचाय हुम, सविता रथेना नेत्रत्र्याय वौषट, देवो याति भुवनानि पश्यन अस्त्राय फ़ट (दोनो हाथों को सिर के ऊपर घुमाकर दायें हाथ की पहली दोनों उंगलियों से बायें हाथ पर ताली बजायें. । ध्यानम :- पदमासन: पद मकरो द्विबाहु: पद मद्युति: सप्ततुरंगवाहन:। दिवाकरो लोकगुरु: किरीटी मयि प्रसादं विदधातु देव: ॥ सूर्य गायत्री :- ऊँ आदित्याय विदमहे दिवाकराय धीमहि तन्न: सूर्य: प्रचोदयात । सूर्य बीज मंत्र :- ऊँ ह्रां ह्रीं ह्रौं स: ऊँ भूभुर्व: स्व: ऊँ आकृष्णेन रजसा वर्तमानो निवेशयन्नमृतम्मर्तंच। हिण्ययेन सविता रथेना देवो याति भुवनानि पश्यन ऊँ स्व: भुव: भू: ऊँ स: ह्रौं ह्रीं ह्रां ऊँ सूर्याय नम: ॥सूर्य जप मंत्र :- ऊँ ह्राँ ह्रीँ ह्रौँ स: सूर्याय नम:। नित्य जाप ७००० प्रतिदिन। सूर्याष्टक स्तोत्र - आदि देव: नमस्तुभ्यम प्रसीद मम भास्कर। दिवाकर नमस्तुभ्यम प्रभाकर नमोअस्तु ते ॥ सप्त अश्व रथम आरूढम प्रचंडम कश्यप आत्मजम। श्वेतम पदमधरम देवम तम सूर्यम प्रणमामि अहम ॥ लोहितम रथम आरूढम सर्वलोकम पितामहम। महा पाप हरम देवम त्वम सूर्यम प्रणमामि अहम ॥त्रैगुण्यम च महाशूरम ब्रह्मा विष्णु महेश्वरम। महा पाप हरम देवम त्वम सूर्यम प्रणमामि अहम ॥ बृंहितम तेज: पुंजम च वायुम आकाशम एव च। प्रभुम च सर्वलोकानाम तम सूर्यम प्रणमामि अहम ॥ बन्धूक पुष्प संकाशम हार कुण्डल भूषितम। एक-चक्र-धरम देवम तम सूर्यम प्रणमामि अहम ॥ तम सूर्यम जगत कर्तारम महा तेज: प्रदीपनम। महापाप हरम देवम तम सूर्यम प्रणमामि अहम ॥ सूर्य-अष्टकम पठेत नित्यम ग्रह-पीडा प्रणाशनम। अपुत्र: लभते पुत्रम दरिद्र: धनवान भवेत ॥आमिषम मधुपानम च य: करोति रवे: दिने। सप्त जन्म भवेत रोगी प्रतिजन्म दरिद्रता ॥ स्त्री तैल मधु मांसानि य: त्यजेत तु रवेर दिने। न व्याधि: शोक दारिद्रयम सूर्यलोकम गच्छति ॥ सूर्याष्टक सिद्ध स्तोत्र है, प्रात: स्नानोपरान्त तांबे के पात्र से सूर्य को अर्घ देना चाहिये, तदोपरान्त सूर्य के सामने खडे होकर सूर्य को देखते हुए १०८ पाठ नित्य करने चाहिये। नित्य पाठ करने से मान, सम्मान, नेत्र ज्योति जीवनोप्रयन्त बनी रहेगी ।
ब्रह्मांडीय और प्रकृति का संतुलन बनाने के लिए ग्रहों के स्वामी सूर्य नेत्र है। प्राचीन मानव सभ्यता में सूर्य  और प्रकृति उपासना आवश्यक था। भारतीय वैद, पुराणों, उपनिषद् और संस्कृति में सभी ग्रहों, नक्षत्रों का विभिन्न कालों से आराधना होने की चर्चा महत्वपूर्ण रूप से की गई है। प्रथम मन्वन्तर में विश्व को सात द्वीपों में विभक्त किया गया था। शाकद्वीप के स्वामी महात्मा भव्य के पुत्रों में जलद, कुमार, सुकुमार,मनिरिक, कुसुमोद, गोदाकी और महाद्रूम ने विभिन्न अपने नाम से वर्ष ( देश ) की नीव रखी थी। यहां 07 पर्वतों में उदयागिरी, जलधार, रैवतक, श्याम, अंभोगीरी आस्टिकेय और केशरी एवं नदियों में सुकुमारी , कुमारी, नलिनी, रेणुका, इक्षु, धेनुका और गाभस्ती से जल प्रवाहित होती है। शाकद्वीप  में मग ( ब्राह्मण ) , मागध ( क्षत्रिय ) , मानस ( वैश्य ) तथा मंदग ( शूद्र ) वर्ण रहते है साथ ही सौर धर्म के अनुयाई रह कर अपने इष्टदेव भगवान् सूर्य के उपासक और प्रकृति पूजक है। सौर धर्म और ऋगवेद में कश्यप ऋषि की पत्नी अदिति के पुत्र आदित्य ( सूर्य ) है। आदित्य छ: में मित्र, अर्यमा, भग, वरुण, दक्ष अंश है महाभारत आदि पर्व 121 अध्याय में धता, अर्यमा, मित्र, वरुण, अंश, भग, इन्द्र, विवस्वान, पूषा त्वष्टा, सविता और विष्णु कुल 12 आदित्य है। तैतरीय आरण्यक के अनुसार सृष्टि के पूर्व सभी जगह जल था। इस जल साम्राज्य में कमल पत्र पर प्रजापति ब्रह्मा द्वारा सृष्टि की उत्पत्ति हुई है। मार्कण्डेय पुराण में प्रजापति ब्रह्मा जी ने प्रजा की उत्पति की जिसमे दक्ष और उनकी पत्नी के गर्भ से अदिति का जन्म हुई। दक्ष प्रजापति ने अपनी पुत्री अदिति का विवाह ऋषि कश्यप से की। कश्यप की भार्या अदिति से सूर्य आदित्य का जन्म हुआ है।भूलोक और द्युलोक के मध्य में अंतरिक्ष लोक में ग्रह और नक्षत्रों के स्वामी सूर्य उत्तरायण, दक्षिणायन तथा विषुवत मार्गों से मंद, शीघ्र और समान गतियों से चलते हुए दिन रात करते है। भगवान् सूर्य मेष और तुला राशि पर आते है रात दिन समान होते हैं और जब वृष आदि पांच राशियों पर चलते है तब प्रतिमास रात्रि एक एक घड़ी कम और दिन बढ़ते हैं और वृश्चिक राशि आदि पांच राशियों पर सूर्य चलते है तब प्रातिमास रात्रि दिन एक एक घड़ी घटते है और रात्रि बढ़ते हैं। अर्थात दक्षिणायन में रात बड़ी और दिन छोटी तथा उतरायण में दिन बड़ा और रात छोटी होती है। सौर धर्म के अनुसार सूर्य की परिक्रमा मार्ग मानसोत्तर पर्वत पर09 करोड़ 51 लाख योजन है मानसोत्तर पर्वत पर मेरु पर्वत के पूर्व की और इन्द्र की देवधानी पूरी , दक्षिण में यमराज की संयमी पूरी, पश्चिम में वरुण की निमनलोचनी पूरी, और उतर में चंद्रमा कि विभावरी पूरी है। इन पुरियों में मेरु के चारो दिशाओं में सूर्योदय, मध्याह्न संध्या काल एवं अर्द्ध रात्रि होते है। सूर्य देव इन्द्र की देवधानि पूरी से यमराज की संयमी पूरी को चलने में पंद्रह घड़ी में सवा दो करोड़ और साढ़े बारह लाख योजन मार्ग पर चलने पर 25 हजार वर्ष लगते है। इसी क्रम में वरुण एवं चंद्रमा की पुरीयों में पहुंचते है। भगवान् सूर्य वेदमय रथ एक मुहूर्त में 34 लाख 08 सौ योजन के हिसाब से इन चार परियों में घूमते है। भगवान् सूर्य का एक चक्र अर्थात रथ संबत्सर में 12 अरे मास रूप में 06 नेमियां हाल ऋतुओं तीन नाभियां आवन अर्थात चौमासे रूप में कहा जाता है।
भगवान् सूर्य ब्रह्माण्ड की आत्मा है। वे पृथ्वी तथा द्यूलोक के मध्य में स्थित आकाशमण्डल के अंदर कालचक्र में रह कर बारह मासों को भोगते है। प्रत्येक मास चंद्रमान से शुक्ल और कृष्ण पक्ष, पितृमान से एक रात और एक दिन और सौरमान से दो नक्षत्र कहे जाते है। सूर्य की किरणों से एक लाख योजन ऊपर चंद्रमा है । चंद्रमा द्वारा समस्त जीवों को प्राण अन्न देव, पितर, मानव, भूत, पक्षी, वृक्षादी समस्त प्राणियों बनस्पतियो के प्राणों के पोषक है। चंद्रमास से तीन लाख योजन ऊपर अभिजीत सहित 27 नक्षत्र है तथा अभिजीत से 2 लाख योजन ऊपर शुक्र वर्षा के ग्रह है। शुक्र से दो लाख योजन ऊपर बुध मंगलकारी है वहीं बुध ग्रह से दो लाख योजन ऊपर मंगल और मंगल से दो लाख ऊपर बृहस्पति तथा उनके ऊपर दो लाख योजन ऊपर शनि ग्रह है। शनि ग्रह के ऊपर 11 लाख योजन पर कश्यप आदि सप्तऋषि है। इनके ऊपर तेरह लाख ऊपर ध्रुव लोक स्थित है। राहु ग्रह सूर्य से दस हजार योजन नीचे है। नव ग्रहों का स्वामी सूर्य है ।भगवान् सूर्य मध्यभाग वर्तलुमंडल,अंगुल 12कलिंगदेश ,कश्यप गोत्र रक्त वर्ण और सिंह राशि का स्वामी है।इनका सप्ताश्व वाहन और मदार समिधा प्रिय है।लाल वस्त्र,लाल चंदन ,लाल गौ, लाल मूंगा,,केशर,तांबा,गुड,लाल माणिक्य ,गेहूं,घी, तथा सोना प्रिय है। भगवान् सूर्य के उपासक सौर धर्म के अनुयाई है। सौर धर्म के उपासक लाल वस्त्र, झंडे, लाल चंदन, स्फटिक माला, मूंगा धारण करते है और दिन में उपासना करते है । चद्रमा अग्नि कोण,चतुरस्ट्र मंडल ,अंगुल 4 , यमुना तट वर्ती देश ,आत्रिगोत्र ,श्वेत वर्ण , कर्का राशि के स्वामी है।इनका वाहन हरिना तथा समिधा पलाश ,मोतिया ,सफेद फूल,शंख,सफेद चंदन,कपूर,चावल,चांदी ,सफेद बैल,दही, प्रिय ह तथा चाद्रमा के अनुयाई सफेद वस्त्र और सफेद झंडे का प्रयोग करते हैं।मंगल ग्रह दक्षिण दिशा त्रिकोण मंडल , अवंटिदेश के स्वामी है।इनका वाहन भेदा समिधा खादिर चिड़चिड़ी तथा लाल वस्त्र,उदहुल फूल,लाल चंदन बैल,मूंगा,गुड, मसूर,तांबा,गुड, प्रिय है।मंगल भारद्वाज गोत्र से है। बुध ग्रह ईशान कोण, वानाकार मंडल ,अंगुल 4,मगध देश ,आत्रीगोत्र ,पित वर्ण, मिथुन कन्या राशि के स्वामी है ।इनका हरा वस्त्र,पन्ना ,सफेद फूल,फल,कासा ,मूंगा ,प्रिय है वहीं इनका वाहन सिंह और समिधा अपामार्ग अकावन है।बुध के उपासक हरा वस्त्र, हरा झंडे का प्रयोग करते है। वृहस्पति ग्रह दिशा, दीर्घ चतुरास्ट्र मंडल,अंगुल6, सिंधु देश अंगिरा गोत्र पीत वर्ण, धनु, मीन राशि का स्वामी है। इनका वाहन हाथी तथा समिधा पीपल है। पुखराज, चने की दाल, पीला वस्त्र,फूल, फल,हल्दी , सोना, घोड़ा, पुस्तक प्रिय है। वृहस्पति के उपासक पीला वस्त्र और झंडे तथा फल का प्रयोग करते हैं। वृहस्पति देवताओं के गुरु है। शुक्र ग्रह पूर्व दिशा, षष्ठ कोण मंडल अंगुल 6 भोजकट देश भृगु गोत्र, श्वेत वर्ण, वृष तुला राशि के स्वामी है। इनका वाहन अश्व और समिधा गूलर है। हीरा, चांदी, सोना, चावल, दूध, सफेद वस्त्र, फूल घोड़ा चंदन प्रिय है। शुक्र का अनुयाई सफेद वस्त्र और सफेद झंडे का प्रयोग करते हैं। शनि ग्रह पश्चिम दिशा, धनुषाकार मंडल अंगुल 2 सौराष्ट्र देश, कश्यप गोत्र, कृष्ण वर्ण, मकर कुंभ राशि का स्वामी है। इनका वाहन गिद्ध और समिधा शमी है। इन्हे कला वस्त्र,गौ , भैंस लोहा, उरद, कुलत्थी,कस्तूरी, नीलम प्रिय है। शनि सूर्य पुत्र और न्याय का देव है। इनके उपासक काला वस्त्र, कोट, झंडा का प्रयोग करते हैं। राहु ग्रह नैऋतय कोण सुरपाकार मंडल, अंगुल 12 मलय देश, पैठानस गोत्र तथा कृष्ण वर्ण है। राहु का वाहन सिंह और समिधा दूर्वा है। इनका कम्बल, नीला वस्त्र, सरसो का तेल, सिसा, सूप, घोड़ा, गोमेद प्रिय है। राहु की उपासना रात्रि में उपासक करते है। केतु ग्रह वायव्य कोण, ध्वजा कार मंडल कुश देश, जैमिनी गोत्र, धूम्र वर्ण है। केतु का वाहन कबूतर और समिधा कुश है। द्रव्य में लहसुनिया लाजावर्त , लोहा, तिल, सप्तधान्य, धूमिल वस्त्र फूल, नारियल, बकरा, शास्त्र प्रिय है। केतु के उपासक उपासना रात्रि में करते है।
भारतीय ग्रंथों के अनुसार कलिंग देश के स्वामी कश्यप गोत्र के रवि है ।सिंह राशि के स्वामी रवि रक्त वर्ण और रक्त वस्त्र धरणकर्ने तथा सप्ताश्व वाहन है।कलिंग को आधुनिक नाम उड़ीसा कहा गया है। वर्ती देश और करके राशि के स्वामी अत्रिगोत्र के चंद्रमा श्वेत वस्त्र धारण करते है।  अवंतिदेश के स्वामी भारद्वाज गोत्र का मंगल मेष  वृश्चिक राशि का स्वामी तथा वाहन मेष है।मंगल लाल वस्त्रधारी है।मगध देश और मिथुन कन्या राशि के आत्रिगोत्रका  स्वामी सोम और तरा पुत्र बुध है ।बुध हरे रंग के वस्त्र धारण कर सिंह की सवारी करते है। सिंधु देश का स्वामी वृहस्पति ,भोजकत देश का स्वामी शुक्र भृगु  गोत्र के ,सौराष्ट्र देश का कश्यप गोत्र और सूर्य पुत्र स्वामी शनि ,मलय देश का पैठीनस गोत्र के स्वामी राहु और कुश देश का जैमिनी गोत्र के स्वामी केतु है। अंगिरा गोत्रिय वृहस्पति देवो के गुरु और दैत्य, दानव, राक्षस संस्कृति के गुरु भृगु गोत्रीय शुक्राचार्य शुक्र थे।मानव जीवन में नैमितिक काम्य कर्मों की आधारशीला सूर्य है। ग्रंथों में मनुष्य काल,पितृ काल, देवकाल और ब्रह्मकाल है। सूर्य की उसनाना से अंधकार, राक्षसों का नाश, नेत्र ज्योति की वृद्धि, चराचर की आत्मा, आयु वर्धक, लोक धारण, कुष्ठ रोगी निवारण, क्षय रोग , नेत्र रोग से मुक्ति तथा मानव को सर्वार्थ सिद्धि प्राप्ति होती है। सृष्टि के पूर्व सभी जगह जल था, देव दानव, मानव, बनस्पती, तरू लता कुछ नहीं था । जब ब्रह्मा जी ने कमल पुष्प पर जगत की सृष्टि करने लगे उस समय सूर्य अंड दृश्य उदय हुआ। जिन्हें आदित्य कहा गया है। निरुक्त में आदित्य का नाम भरत अर्थात आदित्य की ज्योति को भरत कहा जाता है । भरत के नाम से विख्यात भारत है। भगवान् सूर्य अवतार - ब्रह्मा जी के पौत्र मरीचि के पुत्र कश्यप हुए। ऋषि कश्यप की प्रजापति दक्ष की 13 कन्याओ में अदिति ने देवों का जन्म दी, दिती ने दैत्य, दनू ने दानव, विनीता ने अरुण, गरुड़, सखा ने यक्ष, राक्षस, कद्रू ने नागों,, मुनि ने गंधर्वो, क्रोध से कुल्याएं , अरिष्टा से अप्सराएं, इरा से एरावत हाथियों, ताम्रा से श्येनी आदि कन्याएं, श्येन बाज , भाष, शुक, पक्षी का जन्म हुआ है। कश्यप ऋषि की भार्या अदिति से जन्म लिए देव, पुत्र, पौत्र, दौहित्र, आदि से विश्व में देवता प्रधान है। ब्रह्मा जी ने अदिति पुत्रों को यज्ञ भाग का भोक्ता, राजस तथा त्रिभुवन का स्वामी बनाया परन्तु दिती , दनु, सखा के पुत्रों में दैत्य, दानव, राक्षस में तामस युक्त रहने के कारण देवताओं के साथ एक हजार दिव्य वर्ष तक तामसी प्रवृति वाले दैत्य, दानव और राक्षस के साथ भयंकर युद्ध हुए तथा दैत्यों और दानवों द्वारा देवताओं का राज्याधिकारी से वंचित तथा यज्ञ भाग छीन लिया गया। दैत्यों, दानवों और राक्षसों के तामसी प्रवृति के कारण देवों और अन्य लोग पीड़ित हो गए । इस कारण देव माता अदिति शोक से अत्यंत पीड़ित हो गई थी। उन्होंने भगवान् सूर्य की आराधना के लिए महान् यज्ञ कर कठोर तप करते हुए सूर्य का स्तवन करने लगी।
कठोर तपस्या करने के बाद देव माता अदिति को भगवान् सूर्य प्रत्यक्ष दर्शन देकर मनोकामना की पूर्ति किए। भगवान् सूर्य ने देवमाता अदिति से प्रसन्न होते हुए कहा कि देवी मै अपने सहस्त्र अंशों सहित तुम्हारे गर्भ से अवतीर्ण हो कर तुम्हारे पुत्रों के शत्रुओं को नाश करूंगा और सभी मनोकामनाएं पूर्ण करूंगा। तदनतर सूर्य की सहस्त्र किरणों वाली सुषुम्ना नाम की किरण देव माता अदिति के गर्भ में अवतीर्ण हुई। देव माता अदिति गर्भ धारण करती हुई कृच्छ और चंद्रायन ब्रत आदि ब्रतों का अत्यंत पवित्रता पूर्वक रहने लगी। माता अदिति के गर्भ से मार्तण्ड का अवतरण हुआ। भगवान् सूर्य के अंश से उत्पन्न मार्तण्ड अवतरण से देवो में खुशी और दैत्यों, दानवों एवं राक्षसों असुरों में ज्वाला से भाष्म हो गया। देवों ने तेज के उत्पति स्थान, अंडाकार मार्तण्ड तथा देव माता अदिति का स्तवन करने लगे। तदनतर भगवान् सूर्य को प्रसन्न करके विश्वकर्मा ने अपनी पुत्री संज्ञा से विवाह किए। चैत्र मास मधुमास में धाता आदित्य, वैशाख मास में अर्यमा आदित्य , जेष्ठ मास में मित्र आदित्य, अषाढ़ मास में वरुण आदित्य, सावन मास में इन्द्र आदित्य, भाद्र मास में विवस्वान आदित्य , आश्विन मास में पूषा आदित्य, कार्तिक मास में पर्जन आदित्य अगहन मास में अंश आदित्य, पौष मास में भग आदित्य, माघ मास में त्वष्टा आदित्य और फाल्गुन मास में विष्णु आदित्य के रूप में भगवान् सूर्य तपते है। अग्नि पुराण के परिचछेद 19,51,73,99,148 वें हरिवंश पुराण के तीसरे अध्याय का श्लोक संख्या 60-61 के अनुसार चाक्षुष मन्वन्तर में तुषित नामक 12 देवता थे वे ही वैवस्वत मन्वन्तर में कश्यप ऋषि की भार्या अदिति के गर्भ से भगवान् सूर्य के अंश से विष्णु, शक्र इन्द्र, त्वष्टा, धाता , अर्यमा, पूषा , विवस्वान , सविता मित्र, वरुण, भग, और अंशु 12 आदित्य हुए। भगवान् सूर्य उपासना प्रत्येक माह के शुक्ल पक्ष की षष्ठ तिथि और सप्तमी एवं चैत्र और कार्तिक मास शुक्ल पक्ष षष्ठी तथा सप्तमी तिथि महत्व पूर्ण है। रविवार प्रसिद्ध दिन है। सौर धर्म -  सौर धर्म अज्ञान के सागर को दूर कर ज्ञान का सागर में लाने का कार्य करता है। सौर धर्म के अनुयाई प्रकृति पूजक तथा भगवान् सूर्य के उपासक है। वाल्मिकी रामायण,मनुस्मृति के अनुसार भगवान् विवस्वान आदित्य  (सूर्य देव ) के पुत्र वैवस्वत मनु हुए जिन्होने वैवस्वत मन्वंतर प्रारंभ किया है। वैवस्वत मनु सृष्टि के प्रथम शासक, मनुस्मृति ग्रंथ का निर्माण, विधि सम्मत शासन व्यवस्था को दृढ़ रखा है। जिन्हें सूर्य वंश की स्थापना की। पुराणों में ऋषि वंश और राजवंश की परंपरा वैवस्वत मन्वंतर से है। 27 चतुर्युग युग समाप्त हो कर 28 चतुर्युग का सतयुग, त्रेता, द्वापर तीन युग समाप्त होने के बाद कलियुग प्रारंभ है। युग को अंग्रेजी में पीरियड कहा गया है। भगवान् सूर्य की भार्या प्रभा , संज्ञा,राज्ञी ( रात्रि ), वड़वा और छाया थी। त्वष्टा की पुत्री और सूर्य की भार्या संज्ञा से वैवस्वत मनु, यम पुत्र , वाड़वा के नासत्य, दस्ट्र ( अश्विनी कुमार ) पुत्र और यमुना पुत्री हुई और छाया ( सवर्णा )  से सावार्णी मनु, शनैश्चर , ताप्ती, और विष्टि तथा प्रभा से प्रभात पुत्र हुए। वैवस्वत मनु भू लोक का स्वामी, यम को यम पूरी का स्वामी तथा अश्विनी कुमार को वैद्य राज , शनि को न्याय, प्रभात को किरणों का स्वामी तथा सावर्ण को राजा बनाई। वर्तमान में सावर्णी मन्वन्तर चल रहा है। वैज्ञानिक दृष्टिकोण से भगवान् सूर्य के प्रकाश पुंज का व्यास 1392000 किलोमीटर और तापमान13000000 सेंटीग्रेट है। जहां तक सूर्य का प्रकाश जाता है वह ब्रह्माण्ड है। पाश्चात्य भौतिक वैज्ञानिक ने सूर्य मानवीय जीवन, प्रज्ञा और विज्ञान आदि के उत्स तथा ब्रह्माण्ड उत्सर्जित बताया है। सूर्य शरीर रचना, रोगों से निवारण तथा पृथ्वी का नियामक और प्रकाशमान तथा ज्योतिष, चिकित्सा विज्ञान का केंद्र विंदू है। आर्य ऋषियों एवं सौर धर्म के अनुसार प्राचीन काल में जब कहीं कुछ नहीं था तब मानव जीवन में प्रकृति पूजन में सूर्य की महत्ता थी। शाक्त , शैव , वैष्णव धर्म के अनुयाई द्वारा सौर धर्म की प्रधानता दी। अमेरिका के रेड इंडियन, चीन के विद्वानों ने सूर्य को यांग तथा चन्द्रमा को यिन तथा लिकी की पुस्तक कि आओ तेह सेंग में सूर्य की महत्वपूर्ण चर्चा की है। बौद्ध जातक में , इस्लाम में सूर्य को इल्म अहाकम अन नजुम , ईसाईयों के न्यू टेस्टामेंट में , ग्रीक और रोमन विद्वानों, आर्य, अनार्य, द्रविडों तथा सौर धर्म ने सूर्य का दिन रविवार को पवित्र दिन कहा है। जैन धर्म के धर्म ग्रंथों के आधार पर जम्बूद्वीप में दो सूर्य, लवण समुद्र में चार सूर्य और धातकी खंड में बारह, कलोदधी में42 सूर्य और पुष्करार्ध द्वीप में 72 सूर्य की चर्चा है।मानव जीवन की संस्कृति में सौरवाद या सौर धर्म में सूर्य को सर्वोच्च ईश्वर मानते हैं। अर्थात प्रकृति पूजन का महत्व है। शैववाद अर्थात शैव धर्म में शिव सर्वोच्च भगवान् हुए है। जिन्हें वैदिक देवता रुद्र के रूप में मानी जाती है।  शैव धर्म में लिंगायत संप्रदायकी स्थापना कन्नड कवि वसवा द्वारा बारहवीं सदी में की गई तथा नाथ सम्प्रदाय धर्म में विष्णु को सर्वोच्च भगवान् मानते हैं। शक्तिवाद या शाक्त धर्म में देवी को सर्वोच्च शक्ति की प्रधानता है। इसके उपासक तंत्र, मंत्र, जादू टोना की विभिन्न उप परंपराओं के लिए जानते है। वायु पुराण अध्याय 68,12 में असुरों के देवता सूर्य चंद्रमा थे। सौर धर्म के उपासक अगस्त ऋषि ने सूर्य वंशिय राम को आदित्य हृदय का मंत्र दिया। जीवित गुप्त ने दसवीं शताब्दी में सूर्य मूर्ति की स्थापना कर सौर धर्म की स्थापना की है। जेनरल कनिंघम ने अपनी आर्कियोलॉजिकल रिपोर्ट वॉल्यूम सोलह पेज पैसठ में चर्चा किया है कि सूर्य के अंश से प्रदूर्भाव प्रकाशमान शाक द्वीप का मग ब्राह्मण से भगवान् कृष्ण के पुत्र सांब को कुष्ठ व्याधियों से हुई थी। सांब पुराण में भगवान् सूर्य और सौर धर्म के उपासकों की चर्चा विस्तृत रूप से की गई है। बेबीलोन के प्राचीन वृतग्रंथ ईटना माइथ में इगल गरुड़ पर बैठ कर थर्ड हेवन आफ अन्नू में जाकर औषधि लाने का उल्लेख है। अमेरिका के आण्विक जीव  वैज्ञानिक डॉ फ्रासिस ने कहा है कि पृथ्वी पर प्राणियों का उद्भव400 करोड़ वर्ष तथा छाया पथ1300 करोड़ वर्ष है। विश्व में ईस्वी सन और संबत से 6 हजार वर्ष पूर्व से 140 ई. तक सूर्य पूजा उपासना तथा सौर धर्म स्थल का प्रमाण है। विश्व का प्राचीन सौर धर्म दर्शन विभिन्न क्षेत्रों में फैला है। पर्सियन चर्चों में मित्र, ग्रीको के हलियोस, एजिप्त मिश्र के रा , तातारियों भाग्य वर्धक देवता फ्लोरस, प्राचीन पेरू दक्षिण अमेरिका के ऐश्वर्य दाता फुल्लेस्ट, उतरी अमेरिका के रेड इंडियन का एटना और एना, अफ्रीका के विले श्वेत व्हाइट , चीन का वू. ची., जापान के इज्ना- गी, नवीन सेंटो इजम का एमिनो - मिनाक - नाची के रूप में सूर्य, मित्र, दिवाकर आदित्य को उपासना करते है। भारतीय संस्कृति में सूर्य उपासना प्राचीन काल से है सिंध देश केमुलस्थान पुर मुल्तान सूर्य मंदिर है। कश्मीर में मार्तण्ड मंदिर  था अब भग्नावशेष है। चितौड़गढ़, मोधेरा गुजरात में सूर्य मंदिर था जिसका अवशेष है। कोणार्क उड़ीसा का सूर्य मंदिर 13 वीं सदी में निर्मित हुआ था वह आज भी प्रसिद्ध है। काशी में लोलार्क, कर्णादित्य, सुमंतादित्य सूर्य मंदिर है। लोलार्क में सौर धर्म द्वारा आदित्य पीठ की स्थापना की थी। काशी क्षेत्र में लोलार्क, उत्तरार्क,द्रुपद आदित्य, मयुखादित्य, काखोलकादित्य, अरुनादित्य, वृद्धादित्य, केशावादित्य, विमालादित्य, गंगादित्य, यमादित्य, मंदिर विख्यात है। वैवस्वत मनु ने सूर्यवंशी , राम काल और सूर्य पूजा की प्रधानता दी वहीं महाभारत काल में भगवान् कृष्ण ने, मगध सम्राट जरासंध ने सूर्य उपासना के लिए मंदिर, तलाव तथा सौर धर्म के लिए सौर मठ की स्थापना करायी । सौर धर्म की स्थापना शाकद्वीप के मग ब्राह्मण अर्थात शाकद्वीपीय  ब्राह्मण द्वारा की गई थी। सौर धर्म के अनुयाई लाल वस्त्र, लाल झंडे, लाल फूलों की माला तथा ललाट पर लाल चंदन से सूर्य किआकृती बनाते है। वे ब्रह्म मुहूर्त उदयोंमुख सूर्य , मध्याह्न में सूर्य को महेश्वर रूप में तथा अस्तो मुख अस्तलगामी सूर्य को विष्णु के रूप में उपासना करते है। सूर्य भक्त लोहे से ललाट पर सूर्य की मुद्रा को अंकित कर सूर्य ध्यान करते है और सूर्योदय के बाद सूर्य दर्शन उपासना के बाद भोजन पानी करते है। यूनान का सम्राट सिकंदर, कुषाण काल में ईरान, इराक, रोम एशिया में रहने वाले सूर्य उपासक थे। प्राचीन ईरान में मग ब्राह्मण या मग जाति रहते है। ब्रह्म पुराण, सौर पुराण, में सौर धर्म के साबंध में उलेख किया गया है। भारत में 5 वीं तथा 6 वी और 13 वींं सदी के राजाओं द्वारा सूर्य के उपासक और सूर्य मूर्ति , सूर्य मंदिर तथा आदित्य मठ की स्थापना, तलाव का निर्माण कराया है। मौर्य साम्राज्य द्वारा 4 थीं शताब्दी ई. पू. में शुंग वंश, पाल काल तथा सेन वंश के राजाओं और 7 वीं सदी में हर्षवर्धन शासन काल में सूर्य मंदिर एवं सूर्य मूर्ति की स्थापना तथा तलाव का निर्माण हुआ। बादशाह अकबर ने दिन ए इलाही धर्म चलाया और सूर्य देवता है तथा रविवार को अवकाश घोषित कर सूर्य उपासना का दिन घोषित किया था। आइन- अकबरी ब्लाखामैनाका का अंग्रेजी अनुवाद 1965 पृष्ठ 209-212 के अनुसार अकबर का आदेश में कहा गया कि प्रात: काल, मध्याह्न काल, सायम काल तथा अर्द्ध रात्रि में सूर्य की उपासना पूर्व दिशामुख करना है। वह सौर संवत् को राजकीय आय व्यय की गणना के लिए प्रचलित रखा था। पद्म पुराण सृष्टि खंड अध्याय 82 में राजा भद्रेश्वर ने अपनी कुष्ठ निवारण के लिए सूर्य की उपासना एवं मयूर भट्ट ने सूर्य शतक की रचना कर अपनी कुष्ठ रोग से निवृत हुए थे। राजा अश्वपति ने सूर्योपासना से सावित्री पुत्री प्राप्त की वहीं द्रोपदी ने सूर्य आराधा से सभी मनोकामनाएं पूर्ण की थी। अंग राज कर्ण ने सूर्य की आराधना एवं अर्घ्य देकर कार्य संपादन करते है। सम्राट कुषाण 78 ई.,3 शताब्दी में गुप्त सम्राटों , कुमार गुप्त 414-55 ई. ,स्कन्द गुप्त 455 - 67 ई. में बुलंद शहर के इंद्रपुर में , मलावा के मंदसौर, ग्वालियर, इंदौर, बघेल खंड, में सूर्य मंदिर तथा सूर्य मूर्ति की स्थापना एवं तलाव का निर्माण हुआ है। ललितादित्य मुक्तापिड 724-760 ई. में मार्तण्ड मंदिर, प्रतिहार सम्राटों ने 11 शताब्दी में कोणार्क मंदिर का विकास किया। वेदों पुराणों उपनिषदों के अनुसार विश्व में 33 कोटि  प्रकार में आठ वसु,11 रुद्र,12 आदित्य, एक राजर्षी और एक प्रजापति है। ज्योतिष शास्त्र के अनुसार सूर्य की उपासना से वेशियोग, वसियोग, यूभायाचरी योग, भास्कर योग, बुधादित्य योग, राजराजेश्वर योग, रजाभंग योग, अंध योग, उन्माद योग का प्रभाव प्रत्येक जीवों, प्राणियों तथा इंसानों पर होता है। बिहार का क्षेत्र सूर्योपासना केंद्र रहा है । प्राचीन काल में मगध देश में चंद्रमा और तरा के पुत्र राजा बुध , किकट देश का राजा गया सुर  ने गायार्क आदित्य मूर्ति  उत्तरायण और दक्षिणायन सूर्य मूर्ति की स्थापना कर सौर धर्म का सृजन किया । अंग वंशीय  राजा  वेन के अंग से उत्पन्न राजा पृथु के ब्रहमेश्ठी यज्ञ से उत्पन्न मागध ने मगध की स्थापना कर सूर्य उपासना के लिए सूर्य मंदिर, सूर्य मूर्ति की स्थापना और तलाव का निर्माण किया वहीं सोन प्रदेश का राजा शार्यती , करूष देश का राजा कारूष ने हिरण्याबहू प्रदेश एवं मिथिला राज्य के राजा मिथी , जनक ने सूर्य उपासना के लिए तलाव, सूर्य मंदिर का निर्माण और सूर्य मूर्ति की स्थापना की थी। अरवल जिले के पुनपुन नदी तट पर पंतित में प्राचीन सूर्य मूर्ति किंजर पुनपुन नदी तट पर, शेरपुर पुनपुन नदी तट पर ,करपी ( अरवल ) में विष्णुआदित्य खटांगी में शुंगकलीन सूर्य मूर्ति , सुकन्या ने अपने पति ऋषि च्यवन की युवा और निरोग के लिए सूर्योपासना, अर्घ्य अर्पित की वह स्थल मदासावां तथा औरंगाबाद जिले के देवकुंड है। पटना जिले के पंडारक में पुण्यार्क आदित्य, उलार में उल्यार्क आ दित्य औरंगाबाद जिले के राजा एल द्वारा देव में देवार्क आदित्य की स्थापना की है। वहीं देव राज ने ब्रह्म कुंड का निर्माण कराया तथा उमगाा पहाड़ पर देव राज्य का परिवार 15 वीं सदी में सूर्य मंदिर एवं तलाव का निर्माण करा कर अपने आवास के लिए किले का निर्माण कराया था।जहानाबाद जिले के काको में पनिहास सरोवर के किनारे विष्णु आदित्य, दक्षणी में राजा दक्ष द्वारा स्थापित उतरायण और दक्षिणायन सूर्य मूर्ति , जहानाबाद के ठाकुरवाड़ी दरधा यमुने संगम पर सूर्य मूर्ति , मखदुमपुर, धराऊत , भेलावर में सूर्योपासना का स्थल है । दैत्य राज बाणासुर द्वारा गया जिले के बेलागंज प्रखंड में सोनपुर में सूर्य मूर्ति स्थापित किया वहीं नवादा जिले के रूपौ , आती, समना में सौर धर्म का केंद्र स्थली था। सौर धर्म के शाकद्वीपीय ब्राह्मण द्वारा सूर्य को अर 24 , आर्क 07, आदित्य 12, किरण 07, कर 10 और मंडल 12 कुल 72 पुरों में सूर्य आराधना का केंद्र बनाए गए। श्री कृष्ण संवत् में राजा सांब के कुष्ठ निवारण हेतु शाक द्वीप से 18 कुल के मग चंद्रभागा नदी के किनारे रह कर सूर्योपासना की वहीं धृष्टद्युम्न के कुष्ठ निवारण के पश्चात् 72 गावों में सूर्योपासना का केंद्र स्थापित कर मग ब्राह्मणों को अर्पित किया। सौर धर्म के  भारद्वाज, कश्यप, कौड़िन्य, भृगु, अत्रि ऋषि, अगस्त, चाणक्य, मयूर, प्रथम स्वयंभुव मनु की भार्या शतरूपा से प्रियब्रत ने रोग, शोक निवारण हेतु सूर्योपासना की नीव डाल कर सौर धर्म को अग्रसर किया। कर्दम प्रजापति की पुत्री काम्या के साथ स्वयंभुव मनु के पुत्र वीर से विवाह किया। वीर और काम्या ने काम्यक वन में सूर्योपासना की नीव डाली थी। नवादा जिले के क्षेत्र काम्यक वन से प्राचीन काल में विख्यात था। नवादा जिले की पर्वत लोमष , दुर्वासा , नारद, ध्रुव का स्थल नाम से ख्याति है। नालंदा जिले के औंगरी में औंज्ञादित्य, भोजपुर के बेलाउर में बेलार्क आदित्य है। झारखंड के रांची, जमशेदपुर, चतरा, हजारीबाग चाईबासा में सूर्योपासना स्थल और सूर्य मंदिर है। सौर धर्म के सौर सिद्धांत के अनुसार सातवें वैवस्वत मनु काल का 28 वाँ सौर संवत् का  महायुग 4323000 है।14वें मनुमय सृष्टि सौर संवत् 1955885121 हुए है। विभिन्न काल में भिन्न भिन्न राजाओं ने संबत प्रारंभ किया जिसमें प्राचीन सप्तर्षि संवत् 6676 ई. पू., कलियुग संवत् 5121, यहूदी संवत् 5733 बुद्ध निर्वाण संवत् 487 ई. पू. मौर्य संवत् 321 ई. पू. , वीर निर्माण संवत् 427 ई. पू. , विक्रम संवत 2077, ईस्वी संवत् 2020 शालीवाहन संबत 1942, फसली संवत् 1427, बांग्ला संवत् 1427, नेपाली संवत् 1140 तथा इस्लामी संबत 1441 कुल विश्व में 35 संबत विभिन्न नामों से समय समय पर संचालन हुआ है। विभिन्न संवत् में भिन्न भिन्न राजाओं ने सूर्योपासना, सूर्य स्थल पर सूर्य मूर्ति, सूर्य मंदिर, सूर्य कुंड का निर्माण कराया वहीं गंगा, यमुना आदि नदियों के किनारे सूर्य घटो, सूर्य मंदिरों का निर्माण कराया है ताकि सूर्य उपासक भगवान् सूर्य को अर्घ्य अर्पित कर मनोकांक्षा की पूर्ति कर सके। बिहार में सूर्य पूजा, छठ, छठी बरत , छठ व्रत के नाम से विख्यात है। भगवान सूर्य की उपासना स्थल  विश्व के विभिन्न देशों में है । बादशाह अकबर द्वारा 1582 ई. में दीन ए ईलाही धर्म की स्थापना कर रविवार को भगवान सूर्य की आराधना के लिए अवकाश घोषित किया गया था । दीन - ए - ईलाही के देवता सूर्य हैं। 7 वीं ईरान में पारसी द्वारा सूर्य तथा अग्नि ,वरूण की उपासक थे । वराह मिहिर के व्टहद संहिता के अनुसार 6 ठी शताब्दी मे सूर्य उपासक मग ब्राह्मण है । 8 वीं शताब्दी में काश्मीर का राजा ललितादित्य मुक्तापिंड द्वारा मारतण्ड मंदिर , 473 ई. में मालवा के दशपुर , 11 वीं शताब्दी में मुलतान में सूर्य मंदिर का निर्माण तथा उपासना स्थल बना । प्रथम शदी पूर्व ईरान में सूर्य उपासक को मग , , मेगी , मगी , मोगल ,हंगरी में मगियार ,सामग , पारसियों के धर्म गुरू मोवेद थे । ग्रीक में ह्वेलर ,हेलियस , विक्रम संबत 872 में राजस्थान का उदयपुर के रणकपुर ,झलरा पाटन में प्रतिहार वंश के राजा नाग भट्ट द्वीतीय  ,बडवेर के देवका , चितौड वापारावल में सूर्यमंदिर का निर्माण करायाया गया । 5वीं शदी में बिहार के देवार्क , लोलार्क , पटना जिले का पंडारक में पूण्यार्क , औंग्यार्क ,कोणार्क , चाणार्क , दछिणार्क , उलार का  उल्यार्क , गया का गयार्क , नालंदा जिले का औंगारी में 3 री शताब्दी ई.पू . , भोजपुर जिले का बेलाउर में , झारखंड के बुंडू में सूर्य मूर्ति तथा मदिर तलाव का निर्माण किया गया है ।

शुक्रवार, अक्तूबर 30, 2020

प्रकाश का पर्व और आयुर्वेद का प्रारंभ ..


विश्व तथा भारतीय के विभिन्न ग्रंथों में त्योहारों की प्रधानता है । वेदों और पुराणों में कार्तिक मास में धनतेरस , नरक चतु्रदशी , दीपावली , यम द्वीतीया , गोवर्द्धन पूजा ,  छठ पूजा , अछय नवमी (अश्विनी कुमार जयंती )  , धनवंतरी जयंती , गुरूनानक जयंती , मोछ दिवस की चर्चा है।उतरी गोलार्द्ध मे  शरद ऋतु में प्रत्येक वर्ष मनाया जाने वाला कार्तिक मास की अमावस्या को दीपावली  मनाया जाता है । ग्रेगोरी कैलेंडर के अनुसार अक्टूबर या नवंबर महीने में पड़ता है। दीपावली भारत के  सर्वाधिक महत्वपूर्ण त्योहारों में   है। दपावली को दीवाली , सोहराई , दिवाली , ििवारी , दियारी , तीहा के नाम से जानते है ।अन्धकार पर प्रकाश की विजय' को दीपावली दर्शाता है। दीवाली का अन्य नाम -  दीपावली , अनुयायी  - हिन्दू, सिख, जैन और बौद्ध  , आरम्भ - धनतेरस, दीवाली से दो दिन पहले , समापन - भैया दूज, दीवाली के दो दिन बाद तिथि कार्तिक माह की अमावस्या , पर्व - काली पूजा, दीपावली (जैन), बंदी छोड़ दिवस मनाते है ।दीपावली का सामाजिक और धार्मिक दोनों दृष्टि से अत्यधिक महत्त्व है। ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’ अर्हात् (हे भगवान!) मुझे अन्धकार से प्रकाश की ओर ले जाइए।  उपनिषदों में दीपावली की चर्चा है। सिख, बौद्ध तथा जैन धर्म के लोग भी मनाते हैं। जैन धर्म के लोग भगवान महावीर के मोक्ष दिवस मनाते हैं तथा सिख धर्म में  बन्दी छोड़ दिवस के रूप में मनाता है। माना जाता है कि दीपावली के दिन अयोध्या के राजा राम अपने चौदह वर्ष के वनवास के पश्चात लौटे थे ।अयोध्यावासियों का हृदय अपने परम प्रिय राजा राम के आगमन से प्रफुल्लित हो उठा था। श्री राम के स्वागत में अयोध्यावासियों ने घी के दीपक जलाए। कार्तिक मास की सघन काली अमावस्या की वह रात्रि दीयों की रोशनी से जगमगा उठी थी ।  भारतीय प्रति वर्ष यह प्रकाश-पर्व हर्षोल्लास से मनाते हैं।  सत्य की सदा जीत होती है झूठ का नाश होता है। दीवाली यही चरितार्थ करती है- असतो मा सद्गमय, तमसो मा ज्योतिर्गमय। दीपावली स्वच्छता व प्रकाश का पर्व ह अपने घरों, दुकानों आदि की सफाई का कार्य आरंभ कर देते हैं। घरों में मरम्मत, रंग-रोगन, सफेदी आदि का कार्य होने लगता है। लोग दुकानों को भी साफ-सुथरा कर सजाते हैं। बाजारों में गलियों को भी सुनहरी झंडियों से सजाया जाता है। दीपावली के  दिन नेपाल, भारत,श्रीलंका, म्यांमार, मारीशस, गुयाना, त्रिनिदाद और टोबैगो, सूरीनाम, मलेशिया, सिंगापुर, फिजी, पाकिस्तान और ऑस्ट्रेलिया मे उत्सव मनाते है । दीपावली शब्द की उत्पत्ति संस्कृत के दो शब्दों 'दीप' अर्थात 'दिया' व 'आवली' अर्थात 'लाइन' या 'श्रृंखला' के मिश्रण से हुई है। इसके उत्सव में घरों के द्वारों, घरों व मंदिरों पर लाखों प्रकाशकों को प्रज्वलित किया जाता है। दीपावली जिसे दिवाली भी कहते हैं उसे अन्य भाषाओं में अलग-अलग नामों से पुकार जाता है जैसे : 'दीपावली' (उड़िया), दीपाबॉली'(बंगाली), 'दीपावली' , असमी, कन्नड़, मलयालम: तमिल और तेलुगू , दिवाली' (गुजराती - हिन्दी, दिवाली, मराठी:दिवाळी, कोंकणी:दिवाळी,पंजाबी), 'दियारी' (सिंधी:दियारी‎), और नेपाल में तिहार और  मारवाड़ी में दियाली मनाते हैं।
भारत में प्राचीन काल से दीवाली को हिंदू कैअपडर के कार्तिक माह में गर्मी की फसल के बाद के  त्योहार के रूप में दर्शाया गया। पद्म पुराण और स्कन्द पुराण में दीवाली का उल्लेख मिलता है। माना जाता है कि ये ग्रन्थ पहली सहस्त्राब्दी के दूसरे भाग में किन्हीं केंद्रीय पाठ को विस्तृत कर लिखे गए थे। दीये (दीपक) को स्कन्द पुराण में सूर्य के हिस्सों का प्रतिनिधित्व करने वाला माना गया है, सूर्य जो जीवन के लिए प्रकाश और ऊर्जा का लौकिक दाता है और जो हिन्दू कैलंडर अनुसार कार्तिक माह में अपनी स्तिथि बदलता है ।  दीवाली को यम और नचिकेता की कथा के साथ जोड़ते हैं। नचिकेता की कथा में सही बनाम गलत, ज्ञान बनाम अज्ञान, सच्चा धन बनाम क्षणिक धन आदि के बारे में बताती है ।; पहली सहस्त्राब्दी ई . पू .  उपनिषद में उलेख  है। ७वीं शताब्दी के संस्कृत नाटक नागनंद में राजा हर्ष ने इसे दीपप्रतिपादुत्सवः कहा है जिसमें दीये जलाये जाते थे और नव वर-बधू को उपहार दिए जाते थे। 9 वीं शताब्दी में राजशेखर ने काव्यमीमांसा में इसे दीपमालिका कहा है जिसमें घरों की पुताई की जाती थी और तेल के दीयों से रात में घरों, सड़कों और बाजारों सजाया जाता था। फारसी यात्री और इतिहासकार अल बेरुनी, ने भारत पर अपने ११ वीं सदी के संस्मरण में, दीवाली को कार्तिक महीने में नये चंद्रमा के दिन पर हिंदुओं द्वारा मनाया जाने वाला त्यौहार कहा है। दीपावली नेपाल और भारत में सबसे सुखद पर्व है । लोग अपने घरों को साफ कर उन्हें उत्सव के लिए सजाते हैं। नेपालियों के लिए महान दीवाली  है क्योंकि नेपाल संवत का नया वर्ष शुरू होता है। दीपावली नेपाल और भारत में सबसे बड़े शॉपिंग सीजन में से एक है; इस दौरान लोग कारें और सोने के गहने आदि महंगी वस्तुएँ तथा स्वयं और अपने परिवारों के लिए कपड़े, उपहार, उपकरण, रसोई के बर्तन आदि खरीदते हैं।[18] लोगों अपने परिवार के सदस्यों और दोस्तों को उपहार स्वरुप आम तौर पर मिठाइयाँ व सूखे मेवे देते हैं। इस दिन बच्चे अपने माता-पिता और बड़ों से अच्छाई और बुराई या प्रकाश और अंधेरे के बीच लड़ाई के बारे में प्राचीन कहानियों, कथाओं, मिथकों के बारे में सुनते हैं। इस दौरान लड़कियाँ और महिलाएँ खरीदारी के लिए जाती हैं और फर्श, दरवाजे के पास और रास्तों पर रंगोली और अन्य रचनात्मक पैटर्न बनाती हैं। युवा और वयस्क आतिशबाजी और प्रकाश व्यवस्था में एक दूसरे की सहायता करते हैं। दीपावली को विभिन्न ऐतिहासिक घटनाओं, कहानियों या मिथकों को चिह्नित करने के लिए हिंदू, जैन और सिखों द्वारा मनायी जाती है लेकिन वे सब बुराई पर अच्छाई, अंधकार पर प्रकाश, अज्ञान पर ज्ञान और निराशा पर आशा की विजय के दर्शाते हैं। रामायण  के अनुसार दीपावली को 14 साल के वनवास पश्चात भगवान राम व पत्नी सीता और उनके भाई लक्ष्मण की वापसी के सम्मान के रूप में मानते हैं। अन्य प्राचीन हिन्दू महाकाव्य महाभारत अनुसार कुछ दीपावली को 12 वर्षों के वनवास व 1 वर्ष के अज्ञातवास के बाद पांडवों की वापसी के प्रतीक रूप में मानते हैं। कई हिंदु दीपावली को भगवान विष्णु की पत्नी तथा उत्सव, धन और समृद्धि की देवी लक्ष्मी से जुड़ा हुआ मानते हैं। दीपावली का पांच दिवसीय महोत्सव देवताओं और राक्षसों द्वारा दूध के लौकिक सागर के मंथन से पैदा हुई लक्ष्मी के जन्म दिवस से शुरू होता है। दीपावली की रात वह दिन है जब लक्ष्मी ने अपने पति के रूप में विष्णु को चुना और फिर उनसे शादी की।[ लक्ष्मी के साथ-साथ भक्त बाधाओं को दूर करने के प्रतीक गणेश; संगीत, साहित्य की प्रतीक सरस्वती; और धन प्रबंधक कुबेर को प्रसाद अर्पित करते हैं । कुछ दीपावली को विष्णु की वैकुण्ठ में वापसी के दिन के रूप में मनाते है। मान्यता है कि इस दिन लक्ष्मी प्रसन्न रहती हैं और जो लोग उस दिन उनकी पूजा करते है वे आगे के वर्ष के दौरान मानसिक, शारीरिक दुखों से दूर सुखी रहते हैं। भारत के पूर्वी क्षेत्र उड़ीसा और पश्चिम बंगाल में हिन्दू लक्ष्मी की जगह काली की पूजा करते हैं, और इस त्योहार को काली पूजा कहते हैं। मथुरा और उत्तर मध्य क्षेत्रों में इसे भगवान कृष्ण से जुड़ा मानते हैं। अन्य क्षेत्रों में, गोवर्धन पूजा (या अन्नकूट) की दावत में कृष्ण के लिए 56 या 108 विभिन्न व्यंजनों का भोग लगाया जाता है और सांझे रूप से स्थानीय समुदाय द्वारा मनाया जाता है । दीप जलाने की प्रथा के पीछे अलग-अलग कारण या कहानियाँ हैं। राम भक्तों के अनुसार दीवाली वाले दिन अयोध्या के राजा राम लंका के अत्याचारी राजा रावण का वध करके अयोध्या लौटे थे। उनके लौटने कि खुशी में आज भी लोग यह पर्व मनाते है। कृष्ण भक्तिधारा के लोगों का मत है कि इस दिन भगवान श्री कृष्ण ने अत्याचारी राजा नरकासुर का वध किया था। इस नृशंस राक्षस के वध से जनता में अपार हर्ष फैल गया और प्रसन्नता से भरे लोगों ने घी के दीए जलाए। एक पौराणिक कथा के अनुसार विंष्णु ने नरसिंह रूप धारणकर हिरण्यकश्यप का वध किया था । तथा इसी दिन समुद्रमंथन के पश्चात लक्ष्मी व धन्वंतरि प्रकट हुए। जैन धर्म -  जैन ग्रंथ के अनुसार चौबीसवें तीर्थंकर, महावीर स्वामी को इस दिन मोक्ष की प्राप्ति हुई थी।[33] इसी दिन उनके प्रथम शिष्य, गौतम गणधर को केवल ज्ञान प्राप्त हुआ था। जैन धर्म द्वारा दीपावली, महावीर स्वामी के निर्वाण दिवस के रूप में मनाई जाती है। महावीर स्वामी (वर्तमान अवसर्पिणी काल के अंतिम तीर्थंकर) को इसी दिन (कार्तिक अमावस्या) को मोक्ष की प्राप्ति हुई थी। इसी दिन संध्याकाल में उनके प्रथम शिष्य गौतम गणधर को केवल ज्ञान की प्राप्ति हुई थी। अतः अन्य सम्प्रदायों से जैन दीपावली की पूजन विधि पूर्णतः भिन्न है। सिख - सिक्खों के लिए भी दीवाली महत्त्वपूर्ण है क्योंकि इसी दिन ही अमृतसर में 1577 में स्वर्ण मन्दिर का शिलान्यास हुआ था।और इसके अलावा 1619 में दीवाली के दिन सिक्खों के छठे गुरु हरगोबिन्द सिंह जी को जेल से रिहा किया गया था। पंजाब में जन्मे स्वामी रामतीर्थ का जन्म व महाप्रयाण दोनों दीपावली के दिन ही हुआ। इन्होंने दीपावली के दिन गंगातट पर स्नान करते समय 'ओम' कहते हुए समाधि ले ली। महर्षि दयानन्द ने भारतीय संस्कृति के महान जननायक बनकर दीपावली के दिन अजमेर के निकट अवसान लिया। इन्होंने आर्य समाज की स्थापना की। दीन-ए-इलाही के प्रवर्तक मुगल सम्राट अकबर के शासनकाल में दौलतखाने के सामने 40 गज ऊँचे बाँस पर एक बड़ा आकाशदीप दीपावली के दिन लटकाया जाता था। बादशाह जहाँगीर भी दीपावली धूमधाम से मनाते थे। मुगल वंश के अंतिम सम्राट बहादुर शाह जफर दीपावली को त्योहार के रूप में मनाते थे और इस अवसर पर आयोजित कार्यक्रमों में वे भाग लेते थे। शाह आलम द्वितीय के समय में समूचे शाही महल को दीपों से सजाया जाता था एवं लालकिले में आयोजित कार्यक्रमों में हिन्दू-मुसलमान दोनों भाग लेते थे । दीवाली का त्यौहार भारत में एक प्रमुख खरीदारी की अवधि का प्रतीक है। उपभोक्ता खरीद और आर्थिक गतिविधियों के संदर्भ में दीवाली, पश्चिम में क्रिसमस के बराबर है। यह पर्व नए कपड़े, घर के सामान, उपहार, सोने और अन्य बड़ी ख़रीददारी का समय होता है। इस त्योहार पर खर्च और ख़रीद को शुभ माना जाता है क्योंकि लक्ष्मी को, धन, समृद्धि, और निवेश की देवी माना जाता है। दीवाली भारत में सोने और गहने की ख़रीद का सबसे बड़ा सीज़न है। मिठाई, 'कैंडी' और आतिशबाजी की ख़रीद भी इस दौरान अपने चरम सीमा पर रहती है। प्रत्येक वर्ष दीवाली के दौरान पांच हज़ार करोड़ रुपए के पटाखों आदि की खपत होती है। दीपावली को विशेष रूप से हिंदू, जैन और सिख समुदाय के साथ विशेष रूप से दुनिया भर में मनाया जाता है। ये, श्रीलंका, पाकिस्तान, म्यांमार, थाईलैंड, मलेशिया, सिंगापुर, इंडोनेशिया, ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड, फिजी, मॉरीशस, केन्या, तंजानिया, दक्षिण अफ्रीका, गुयाना, सूरीनाम, त्रिनिदाद और टोबैगो, नीदरलैंड, कनाडा, ब्रिटेन शामिल संयुक्त अरब अमीरात, और संयुक्त राज्य अमेरिका। भारतीय संस्कृति की समझ और भारतीय मूल के लोगों के वैश्विक प्रवास के कारण दीवाली मानाने वाले देशों की संख्या धीरे-धीरे बढ़ रही है। कुछ देशों में यह भारतीय प्रवासियों द्वारा मुख्य रूप से मनाया जाता है, अन्य दूसरे स्थानों में यह सामान्य स्थानीय संस्कृति का हिस्सा बनता जा रहा है। इन देशों में अधिकांशतः दीवाली को कुछ मामूली बदलाव के साथ इस लेख में वर्णित रूप में उसी तर्ज पर मनाया जाता है पर कुछ महत्वपूर्ण विविधताएँ उल्लेख के लायक हैं। नेपाल - नेपाल में, कई जानवरों को दीवाली उत्सव में शामिल किया जाता है। कौआ, कुत्ता (ऊपर), गाय और बैल को अपने त्योहार तिहार के दौरान खिलाया और सजाया भी जाता है। दीपावली को "तिहार" या "स्वन्ति" के रूप में जाना जाता है। यह भारत में दीपावली के साथ ही पांच दिन की अवधि तक मनाया जाता है। परन्तु परम्पराओं में भारत से भिन्नता पायी जाती है। पहले दिन 'काग तिहार' पर, कौए को परमात्मा का दूत होने की मान्यता के कारण प्रसाद दिया जाता है। दूसरे दिन 'कुकुर तिहार' पर, कुत्तों को अपनी ईमानदारी के लिए भोजन दिया जाता है। काग और कुकुर तिहार के बाद 'गाय तिहार' और 'गोरु तिहार' में, गाय और बैल को सजाया जाता है। तीसरे दिन लक्ष्मी पूजा की जाती है। इस नेपाल संवत् अनुसार यह साल का आखिरी दिन है, इस दिन व्यापारी अपने सारे खातों को साफ कर उन्हें समाप्त कर देते हैं। लक्ष्मी पूजा से पहले, मकान साफ ​​किया और सजाया जाता है; लक्ष्मी पूजा के दिन, तेल के दीयों को दरवाजे और खिड़कियों के पास जलाया जाता है। चौथे दिन को नए वर्ष के रूप में मनाया जाता है। सांस्कृतिक जुलूस और अन्य समारोहों को भी इसी दिन मनाया जाता है।पांचवे और अंतिम दिन को "भाई टीका" (भाई दूज देखें) कहा जाता, भाई बहनों से मिलते हैं, एक दूसरे को माला पहनाते व भलाई के लिए प्रार्थना करते हैं। माथे पर टीका लगाया जाता है। भाई अपनी बहनों को उपहार देते हैं और बहने उन्हें भोजन करवाती हैं। मलेशिया - दीपावली मलेशिया में एक संघीय सार्वजनिक अवकाश है। यहां भी यह काफी हद तक भारतीय उपमहाद्वीप की परंपराओं के साथ ही मनाया जाता है। 'ओपन हाउसेस' मलेशियाई हिन्दू (तमिल,तेलुगू और मलयाली)द्वारा आयोजित किये जाते हैं जिसमें भोजन के लिए अपने घर में अलग अलग जातियों और धर्मों के साथी मलेशियाई लोगों का स्वागत किया जाता है। मलेशिया में दीवाली का त्यौहार धार्मिक सद्भावना और मलेशिया के धार्मिक और जातीय समूहों के बीच मैत्रीपूर्ण संबंधों के लिए एक अवसर बन गया है। सिंगापुर - लिटल इंडिया में दीवाली की सजावट, सिंगापुर में हिंदुओं के लिए यह एक वार्षिक उत्सव है। दीपावली एक राजपत्रित सार्वजनिक अवकाश है। अल्पसंख्यक भारतीय समुदाय (तमिल) द्वारा इसे मुख्य रूप से मनाया जाता है, यह आम तौर पर छोटे भारतीय जिलों में, भारतीय समुदाय द्वारा लाइट-अप द्वारा चिह्नित किया जाता है। इसके अलावा बाजारों, प्रदर्शनियों, परेड और संगीत के रूप में अन्य गतिविधियों को भी लिटिल इंडिया के इलाके में इस दौरान शामिल किया जाता है। सिंगापुर की सरकार के साथ-साथ सिंगापुर के हिंदू बंदोबस्ती बोर्ड इस उत्सव के दौरान कई सांस्कृतिक कार्यक्रमों के आयोजन करता है। श्री लंका - यह त्यौहार इस द्वीप देश में एक सार्वजनिक अवकाश के रूप में तमिल समुदाय द्वारा मनाया जाता है। इस दिन पर लोग द्वारा सामान्यतः सुबह के समय तेल से स्नान करा जाता है , नए कपड़े पहने जाते हैं, उपहार दिए जाते है, पुसै (पूजा) के लिए कोइल (हिंदू मंदिर) जाते हैं। त्योहार की शाम को पटाखे जलना एक आम बात है। हिंदुओं द्वारा आशीर्वाद के लिए व घर से सभी बुराइयों को सदा के लिए दूर करने के लिए धन की देवी लक्ष्मी को तेल के दिए जलाकर आमंत्रित किया जाता है। श्रीलंका में जश्न के अलावा खेल, आतिशबाजी, गायन और नृत्य, व भोज आदि का अयोजन किया जाता है। मेलबोर्न में दीवाली आतिशबाजी  होता है ।ऑस्ट्रेलिया -ऑस्ट्रेलिया के मेलबॉर्न में, दीपावली को भारतीय मूल के लोगों और स्थानीय लोगों के बीच सार्वजनिक रूप से मनाया जाता है। फेडरेशन स्क्वायर पर दीपावली को विक्टोरियन आबादी और मुख्यधारा द्वारा गर्मजोशी से अपनाया गया है। सेलिब्रेट इंडिया इंकॉर्पोरेशन ने 2006 में मेलबोर्न में प्रतिष्ठित फेडरेशन स्क्वायर पर दीपावली समारोह शुरू किया था। अब यह समारोह मेलबॉर्न के कला कैलेंडर का हिस्सा बन गया है और शहर में इस समारोह को एक सप्ताह से अधिक तक मनाया जाता है। पिछले वर्ष 56,000 से अधिक लोगों ने समारोह के अंतिम दिन पर फेडरेशन स्क्वायर का दौरा किया था और मनोरंजक लाइव संगीत, पारंपरिक कला, शिल्प और नृत्य और एन यारा नदी  पर शानदार आतिशबाज़ीे के साथ ही भारतीय व्यंजनों की विविधता का आनंद लिया। विक्टोरियन संसद, मेलबोर्न संग्रहालय, फेडरेशन स्क्वायर, मेलबोर्न हवाई अड्डे और भारतीय वाणिज्य दूतावास सहित कई प्रतिष्ठित इमारतों को इस सप्ताह अधिक सजाया जाता है। इसके साथ ही, कई बाहरी नृत्य का प्रदर्शन होता हैं। दीपावली की यह घटना नियमित रूप से राष्ट्रीय संगठनों एएफएल, क्रिकेट ऑस्ट्रेलिया, व्हाइट रिबन, मेलबोर्न हवाई अड्डे जैसे संगठनों और कलाकारों को आकर्षित करती है। स्वयंसेवकों की एक टीम व उनकी भागीदारी और योगदान से यह एक विशाल आयोजन के रूप में भारतीय समुदाय को प्रदर्शित करता है। अकेले इस त्योहार के दौरान एक सप्ताह की अवधि में भाग लेने आये लोगों की संख्या के कारण फेडरेशन स्क्वायर पर दिवाली को ऑस्ट्रेलिया में सबसे बड़े उत्सव के रूप में पहचाना जाता है। ऑस्ट्रेलियाई बाहरी राज्य क्षेत्र, क्रिसमस द्वीप पर, दीपावली के अवसर पर ऑस्ट्रेलिया और मलेशिया के कई द्वीपों में आम अन्य स्थानीय समारोहों के साथ, एक सार्वजनिक अवकाश के रूप में मान्यता प्राप्त है। संयुक्त राज्य अमेरिका - संयुक्त राज्य अमेरिका में कई शहरों में दीवाली की घटनाओं और समारोहों का आयोजन किया जाता है। ऊपर: सैन एन्टोनियो, टेक्सास की एक घटना।2003 में दीवाली को व्हाइट हाउस में पहली बार मनाया गया और पूर्व राष्ट्रपति जॉर्ज वॉकर बुश द्वारा 2007 में संयुक्त राज्य अमेरिका कांग्रेस द्वारा इसे आधिकारिक दर्जा दिया गया। 2009 में बराक ओबामा, व्हाइट हाउस में व्यक्तिगत रूप से दीवाली में भाग लेने वाले पहले राष्ट्रपति बने। संयुक्त राज्य अमेरिका के राष्ट्रपति के रूप में भारत की अपनी पहली यात्रा की पूर्व संध्या पर, ओबामा ने दीवाली की शुभकामनाएं बांटने के लिए एक आधिकारिक बयान जारी किया। 2009 में काउबॉय स्टेडियम में, दीवाली मेला में 100,000 लोगों की उपस्थिति का दावा किया था। 2009 में, सैन एन्टोनियो आतिशबाजी प्रदर्शन सहित एक अधिकारिक दीवाली उत्सव को प्रायोजित करने वाला पहला अमेरिकी शहर बन गया; जिसमे 2012 में, 15,000 से अधिक लोगों ने भाग लिया था। वर्ष 2011 में न्यूयॉर्क शहर, पियरे में, जोकि अब टाटा समूह के ताज होटल द्वारा संचालित हैं, ने अपनी पहली दीवाली उत्सव का आयोजन किया। संयुक्त राज्य अमेरिका में लगभग 3 लाख हिंदू हैं। । ब्रिटेन - लीसेस्टर, यूनाइटेड किंगडम में दीवाली की सजावट - ब्रिटेन में भारतीय लोग बड़े उत्साह के साथ दिवाली मनाते हैं। लोग अपने घरों को दीपक और मोमबत्तियों के साथ सजाते और स्वच्छ करते हैं। दीया एक प्रकार का प्रसिद्ध मोमबत्ति हैं। लोग लड्डू और बर्फी जैसी मिठाइयो को भी एक दूसरे में बाटते है, और विभिन्न समुदायों के लोग एक धार्मिक समारोह के लिए इकट्ठा होते है और उसमे भाग लेते हैं। भारत में परिवार से संपर्क करने और संभवतः उपहार के आदान प्रदान के लिए भी यह एक बहुत अच्छा अवसर है। व्यापक ब्रिटिश के अधिक गैर-हिंदु नागरिकों को सराहना चेतना के रूप में दीपावली के त्योहार की स्वीकृति मिलना शुरू हो गया है और इस अवसर पर वो हिंदू धर्म का जश्न मानते है। हिंदुओ के इस त्यौहार को पूरे ब्रिटेन भर में मनाना समुदाय के बाकी लोगों के लिए विभिन्न संस्कृतियों को समझने का अवसर लाता है। पिछले दशक के दौरान वाल्स के राज कुमार प्रिंस चार्ल्स ,  राष्ट्रीय और नागरिक नेताओं ने ब्रिटेन के निस्डेनमें स्थित स्वामीनारायण मंदिर जैसे कुछ प्रमुख हिंदू मंदिरों में दीवाली समारोह में भाग लिया है, और ब्रिटिश जीवन के लिए हिंदू समुदाय के योगदान की प्रशंसा करने के लिए इस अवसर का उपयोग किया । वर्ष 2013 में प्रधानमंत्री डेविड कैमरन और उनकी पत्नी, दीवाली और हिंदू नववर्ष अंकन Annakut त्योहार मनाने के लिए Neasden में बीएपीएस स्वामीनारायण मंदिर में हजारों भक्तों के साथ शामिल हो गए। 2009 के बाद से, दीवाली हर साल ब्रिटिश प्रधानमंत्री के निवास स्थान, 10 डाउनिंग स्ट्रीट, पर मनाया जा रहा है।  वार्षिक उत्सव, गॉर्डन ब्राउन द्वारा शुरू करना और डेविड कैमरन द्वारा जारी रखना, ब्रिटिश प्रधानमंत्री द्वारा की मेजबानी की सबसे प्रत्याशित घटनाओं में से एक है। न्यूज़ीलैंड - न्यूजीलैंड में, दीपावली दक्षिण एशियाई प्रवासी के सांस्कृतिक समूहों में से कई के बीच सार्वजनिक रूप से मनाया जाता है। न्यूजीलैंड में एक बड़े समूह दिवाली मानते हैं जो भारत-फ़ीजी समुदायों के सदस्य हैं जोकि प्रवासित हैं और वहाँ बसे हैं। दिवाली 2003 में, एक अधिकारिक स्वागत के बाद न्यूजीलैंड की संसद पर आयोजित किया गया था।[62] दीवाली हिंदुओं द्वारा मनाया जाता है। त्योहार अंधकार पर प्रकाश, अन्याय पर न्याय, अज्ञान से अधिक बुराई और खुफिया पर अच्छाई, की विजय का प्रतीक हैं। लक्ष्मी माता को पूजा जाता है। लक्ष्मी माता प्रकाश, धन और सौंदर्य की देवी हैं। बर्फी और प्रसाद दिवाली के विशेष खाद्य पदार्थ हैं। फिजी -फिजी में, दीपावली एक सार्वजनिक अवकाश है और इस धार्मिक त्यौहार को हिंदुओं (जो फिजी की आबादी का करीब एक तिहाई भाग का गठन करते है) द्वारा एक साथ मनाया जाता है, और सांस्कृतिक रूप से फिजी के दौड़ के सदस्यों के बीच हिस्सा लेते है और यह बहुत समय इंतजार करने के बाद साल में एक बार आता है। यह मूल रूप से 19 वीं सदी के दौरान फिजी के तत्कालीन कालोनी में ब्रिटिश शासन के दौरान भारतीय उपमहाद्वीप से आयातित गिरमिटिया मजदूरों द्वारा मनाया है, सरकार की कामना के रूप में फिजी के तीन सबसे बड़े धर्मों, यानि, ईसाई धर्म, हिंदू धर्म और इस्लाम के प्रत्येक की एक अलग से धार्मिक सार्वजनिक छुट्टी करने की स्थापना के लिए यह 1970 में स्वतंत्रता पर एक छुट्टी के रूप में स्थापित किया गया था। फिजी में, भारत में दिवाली समारोह से एक बड़े पैमाने पर मनाया जाने के रूप में दीपावली पर अक्सर भारतीय समुदाय के लोगों द्वारा विरोध किया जाता है, आतिशबाजी और दीपावली से संबंधित घटनाओं को वास्तविक दिन से कम से कम एक सप्ताह शुरू पहले किया जाता है। इसकी एक और विशेषता है कि दीपावली का सांस्कृतिक उत्सव (अपने पारंपरिक रूप से धार्मिक उत्सव से अलग), जहां फिजीवासियों भारतीय मूल या भारत-फिजीवासियों, हिंदू, ईसाई, सिख या अन्य सांस्कृतिक समूहों के साथ मुस्लिम भी फिजी में एक समय पर दोस्तों और परिवार के साथ मिलने और फिजी में छुट्टियों के मौसम की शुरुआत का संकेत के रूप में दीपावली का जश्न मनाते है। व्यावसायिक पक्ष पर, दीपावली कई छोटे बिक्री और मुफ्त विज्ञापन वस्तुएँ के लिए एक सही समय है। फिजी में दीपावली समारोह ने, उपमहाद्वीप पर समारोह से स्पष्ट रूप से अलग, अपने खुद के एक स्वभाव पर ले लिया है। समारोह के लिए कुछ दिन पहले नए और विशेष कपड़े, साथ साड़ी और अन्य भारतीय कपड़ों में ड्रेसिंग के साथ सांस्कृतिक समूहों के बीच खरीदना, और सफाई करना, दीपावली इस समय का प्रतिक होता है। घरों को साफ करते हैं और तेल के लैंप या दीये जलाते हैं। सजावट को रंगीन रोशनी, मोमबत्तियाँ और कागज लालटेन, साथ ही धार्मिक प्रतीकों का उपयोग कर रंग के चावल और चाक से बाहर का एक रंगीन सरणी साथ गठन कर के घर के आसपास बनाते है। परिवार, दोस्तों और पड़ोसियों और घरों के लिए बनाए गये निमंत्रण पत्र खुल जाते है। उपहार बनते हैं और प्रार्थना या पूजा हिन्दुओं द्वारा किया जाता है। मिठाई और सब्जियों के व्यंजन अक्सर इस समय के दौरान खाया जाता है और आतिशबाजी दिवाली से दो दिन पहले और बाद तक में जलाए जाते है।अफ्रीका ,मॉरिशस - अफ्रीकी हिंदू बहुसंख्यक देश मॉरिशस में यह एक अधिकारिक सार्वजनिक अवकाश है। रीयूनियन - रियूनियन में, कुल जनसंख्या का एक चौथाई भाग भारतीय मूल का है और हिंदुओं द्वारा इसे मनाया जाता है।
दीपावली के दिन भारत में विभिन्न स्थानों पर मेले लगते हैं। दीपावली एक दिन का पर्व नहीं अपितु पर्वों का समूह है। दशहरे के पश्चात ही दीपावली की तैयारियाँ आरंभ हो जाती है। लोग नए-नए वस्त्र सिलवाते हैं। दीपावली से दो दिन पूर्व धनतेरस का त्योहार आता है।  बाज़ारों में चारों तरफ़ जनसमूह उमड़ पड़ता है। बरतनों की दुकानों पर विशेष साज-सज्जा व भीड़ दिखाई देती है। धनतेरस के दिन बरतन खरीदना शुभ माना जाता है अतैव प्रत्येक परिवार अपनी-अपनी आवश्यकता अनुसार कुछ न कुछ खरीदारी करता है। इस दिन तुलसी या घर के द्वार पर एक दीपक जलाया जाता है। इससे अगले दिन नरक चतुर्दशी या छोटी दीपावली होती है। इस दिन यम पूजा हेतु दीपक जलाए जाते हैं। अगले दिन दीपावली आती है। इस दिन घरों में सुबह से ही तरह-तरह के पकवान बनाए जाते हैं। बाज़ारों में खील-बताशे, मिठाइयाँ, खांड़ के खिलौने, लक्ष्मी-गणेश आदि की मूर्तियाँ बिकने लगती हैं। स्थान-स्थान पर आतिशबाजी और पटाखों की दूकानें सजी होती हैं। सुबह से ही लोग रिश्तेदारों, मित्रों, सगे-संबंधियों के घर मिठाइयाँ व उपहार बाँटने लगते हैं। दीपावली की शाम लक्ष्मी और गणेश जी की पूजा की जाती है। पूजा के बाद लोग अपने-अपने घरों के बाहर दीपक व मोमबत्तियाँ जलाकर रखते हैं। चारों ओर चमकते दीपक अत्यंत सुंदर दिखाई देते हैं। रंग-बिरंगे बिजली के बल्बों से बाज़ार व गलियाँ जगमगा उठते हैं। बच्चे तरह-तरह के पटाखों व आतिशबाज़ियों का आनंद लेते हैं। रंग-बिरंगी फुलझड़ियाँ, आतिशबाज़ियाँ व अनारों के जलने का आनंद प्रत्येक आयु के लोग लेते हैं। देर रात तक कार्तिक की अँधेरी रात पूर्णिमा से भी से भी अधिक प्रकाशयुक्त दिखाई पड़ती है। दीपावली से अगले दिन गोवर्धन पर्वत अपनी अँगुली पर उठाकर इंद्र के कोप से डूबते ब्रजवासियों को बनाया था। इसी दिन लोग अपने गाय-बैलों को सजाते हैं तथा गोबर का पर्वत बनाकर पूजा करते हैं। अगले दिन भाई दूज का पर्व होता है।भाई दूज या भैया द्वीज को यम द्वितीय भी कहते हैं। इस दिन भाई और बहिन गांठ जोड़ कर यमुना नदी में स्नान करने की परंपरा है। इस दिन बहिन अपने भाई के मस्तक पर तिलक लगा कर उसके मंगल की कामना करती है और भाई भी प्रत्युत्तर में उसे भेंट देता है। दीपावली के दूसरे दिन व्यापारी अपने पुराने बहीखाते बदल देते हैं। वे दूकानों पर लक्ष्मी पूजन करते हैं। उनका मानना है कि ऐसा करने से धन की देवी लक्ष्मी की उन पर विशेष अनुकंपा रहेगी। कृषक वर्ग के लिये इस पर्व का विशेष महत्त्व है। खरीफ़ की फसल पक कर तैयार हो जाने से कृषकों के खलिहान समृद्ध हो जाते हैं। कृषक समाज अपनी समृद्धि का यह पर्व उल्लासपूर्वक मनाता हैं।
अंधकार पर प्रकाश की विजय का यह पर्व समाज में उल्लास, भाई-चारे व प्रेम का संदेश फैलाता है। यह पर्व सामूहिक व व्यक्तिगत दोनों तरह से मनाए जाने वाला ऐसा विशिष्ट पर्व है जो धार्मिक, सांस्कृतिक व सामाजिक विशिष्टता रखता है। हर प्रांत या क्षेत्र में दीवाली मनाने के कारण एवं तरीके अलग हैं पर सभी जगह कई पीढ़ियों से यह त्योहार चला आ रहा है। लोगों में दीवाली की बहुत उमंग होती है। लोग अपने घरों का कोना-कोना साफ़ करते हैं, नये कपड़े पहनते हैं। मिठाइयों के उपहार एक दूसरे को बाँटते हैं, एक दूसरे से मिलते हैं। घर-घर में सुन्दर रंगोली बनायी जाती है, दिये जलाए जाते हैं और आतिशबाजी की जाती है। बड़े छोटे सभी इस त्योहार में भाग लेते हैं। अंधकार पर प्रकाश की विजय का यह पर्व समाज में उल्लास, भाई-चारे व प्रेम का संदेश फैलाता है। हर प्रांत या क्षेत्र में दीवाली मनाने के कारण एवं तरीके अलग हैं पर सभी जगह कई पीढ़ियों से यह त्योहार चला आ रहा है। लोगों में दीवाली की बहुत उमंग होती है। सबसे पहले चौकी पर लाल कपड़ा बिछाये लाल कपडे के बीच में गणेश जी और लक्ष्मी माता की मूर्तियां रखे. लक्ष्मी जी को ध्यान से गणेश जी के दाहिने तरफ ही बिढाये और दोनों मूर्तियों का चेहरा पूरब या पश्चिम दिशा की तरफ रखे. अब दोनों मूर्तियों के आगे थोड़े रुपए इच्छा अनुसार सोने चांदी के आभुश्ण और चांदी के 5 सिक्के भी रख दे. यह चांदी के सिक्के ही कुबेर जी का रूप है. लक्ष्मी जी की मूर्ति के दाहिनी ओर अछत से अष्टदल बनाएं यानी कि आठ दिशाएं उंगली से बनाए बीच से बाहर की ओर फिर जल से भरे कलश को उस पर रख दे . कलश के अंदर थोड़ा चंदन दुर्व पंचरत्न सुपारी आम के या केले के पत्ते डालकर मौली से बंधा हुआ नारियल उसमें रखें. पानी के बर्तन यानि जल पात्र में साफ पानी भरकर उसमें मौली बांधे और थोड़ा सा गंगाजल उसमें मिलाएं. इसके बाद चौकी के सामने बाकी पूजा सामग्री कि थालीया रखे. दो बडे दिये मे देसी घी डालकर और ग्यारह छोटे दिये मे सरसो का तेल भर तैयार करके रखे. घर के सभी लोगों के बैठ्ने के लिए चौकी के बगल आसन बना ले. ध्यान रखें ये सभी काम शुभ मुहुरत शुरू होने से पहले ही करने होंगे. शुभ मुहुरत शुरू होने से पहले घर के सभी लोग नहा कर नए कपड़े पहन कर तैयार हो जाएं और आसन ग्रह्ण करें । बृहदारण्यक उपनिषद में दीपावली के सबंध मे कहा गया है कि असतो मा सद्गमय। तमसो मा ज्योतिर्गमय। मृत्योर्मा अमृतं गमय। ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥ असत्य से सत्य की ओर।अंधकार से प्रकाश की ओर। मृत्यु से अमरता की ओर ले जाओ । कार्तिक माह (पूर्णिमान्त) की कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी तिथि के दिन समुद्र-मंन्थन के समय भगवान धन्वन्तरि अमृत कलश लेकर प्रकट हुए थे, इसलिए इस तिथि को धनतेरस या धनत्रयोदशी[मृत कड़ियाँ] के नाम से जाना जाता है। भारत सरकार ने धनतेरस को आयुर्वेद दिवस मनाने की घोषणा की है । कार्तिक कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी धनतेरस , धनवंतरी जयंती - जैन आगम में धनतेरस को 'धन्य तेरस' या 'ध्यान तेरस' भी कहते हैं। भगवान महावीर इस दिन तीसरे और चौथे ध्यान में जाने के लिये योग निरोध के लिये चले गये थे। तीन दिन के ध्यान के बाद योग निरोध करते हुये दीपावली के दिन निर्वाण को प्राप्त हुये। तभी से यह दिन धन्य तेरस के नाम से प्रसिद्ध हुआ। धन्वन्तरि जब प्रकट हुए थे तो उनके हाथो में अमृत से भरा कलश था। भगवान धन्वन्तरि चूंकि कलश लेकर प्रकट हुए थे इसलिए ही इस अवसर पर बर्तन खरीदने की परम्परा है। लोकमान्यता के अनुसार यह भी कहा जाता है कि में तेरह गुणा वृद्धि होती है। इस अवसर पर लोग धनिया के बीज खरीद कर भी घर में रखते हैं। दीपावली के बाद इन बीजों को लोग अपने बाग-बगीचों में या खेतों में बोते हैं। धनतेरस के दिन चांदी खरीदने की भी प्रथा है; जिसके सम्भव न हो पाने पर लोग चांदी के बने बर्तन खरीदते हैं। इसके पीछे यह कारण माना जाता है कि यह [[चन्द्रमा] का प्रतीक है जो शीतलता प्रदान करता है और मन में सन्तोष रूपी धन का वास होता है। संतोष को सबसे बड़ा धन कहा गया है। जिसके पास संतोष है वह स्वस्थ है, सुखी है, और वही सबसे धनवान है। भगवान धन्वन्तरि जो चिकित्सा के देवता भी हैं। उनसे स्वास्थ्य और सेहत की कामना के लिए संतोष रूपी धन से बड़ा कोई धन नहीं है। लोग इस दिन ही दीपावली की रात लक्ष्मी, गणेश की पूजा हेतु मूर्ति भी खरीदते हैं।धनतेरस की शाम घर के बाहर मुख्य द्वार पर और आंगन में दीप जलाने की प्रथा भी है। इस प्रथा के पीछे एक लोककथा है। कथा के अनुसार किसी समय में एक राजा थे जिनका नाम हेम था। दैव कृपा से उन्हें पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई। ज्योंतिषियों ने जब बालक की कुण्डली बनाई तो पता चला कि बालक का विवाह जिस दिन होगा उसके ठीक चार दिन के बाद वह मृत्यु को प्राप्त होगा। राजा इस बात को जानकर बहुत दुखी हुआ और राजकुमार को ऐसी जगह पर भेज दिया जहां किसी स्त्री की परछाई भी न पड़े। दैवयोग से एक दिन एक राजकुमारी उधर से गुजरी और दोनों एक दूसरे को देखकर मोहित हो गये और उन्होंने गन्धर्व विवाह कर लिया। विवाह के पश्चात विधि का विधान सामने आया और विवाह के चार दिन बाद यमदूत उस राजकुमार के प्राण लेने आ पहुंचे। जब यमदूत राजकुमार प्राण ले जा रहे थे उस वक्त नवविवाहिता उसकी पत्नी का विलाप सुनकर उनका हृदय भी द्रवित हो उठा। परन्तु विधि के अनुसार उन्हें अपना कार्य करना पड़ा। यमराज को जब यमदूत यह कह रहे थे, उसी समय उनमें से एक ने यम देवता से विनती की- हे यमराज! क्या कोई ऐसा उपाय नहीं है जिससे मनुष्य अकाल मृत्यु से मुक्त हो जाए। दूत के इस प्रकार अनुरोध करने से यम देवता बोले, हे दूत! अकाल मृत्यु तो कर्म की गति है, इससे मुक्ति का एक आसान तरीका मैं तुम्हें बताता हूं, सो सुनो। कार्तिक कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी रात जो प्राणी मेरे नाम से पूजन करके दीपमाला दक्षिण दिशा की ओर भेट करता है, उसे अकाल मृत्यु का भय नहीं रहता है। यही कारण है कि लोग इस दिन घर से बाहर दक्षिण दिशा की ओर दीप जलाकर रखते हैं। धन्वन्तरि देवताओं के चिकित्सक हैं और चिकित्सा के देवता माने जाते हैं, इसलिए चिकित्सकों के लिए धनतेरस का दिन बहुत ही महत्वपूर्ण होता है। धनतेरस के सन्दर्भ में एक लोक कथा प्रचलित है कि एक बार यमराज ने यमदूतों से पूछा कि प्राणियों को मृत्यु की गोद में सुलाते समय तुम्हारे मन में कभी दया का भाव नहीं आता क्या। दूतों ने यमदेवता के भय से पहले तो कहा कि वह अपना कर्तव्य निभाते है और उनकी आज्ञा का पालन करते हें परन्तु जब यमदेवता ने दूतों के मन का भय दूर कर दिया तो उन्होंने कहा कि एक बार राजा हेमा के ब्रह्मचारी पुत्र का प्राण लेते समय उसकी नवविवाहिता पत्नी का विलाप सुनकर हमारा हृदय भी पसीज गया लेकिन विधि के विधान के अनुसार हम चाह कर भी कुछ न कर सके। एक दूत ने बातों ही बातों में तब यमराज से प्रश्न किया कि अकाल मृत्यु से बचने का कोई उपाय है क्या। इस प्रश्न का उत्तर देते हुए यम देवता ने कहा कि जो प्राणी धनतेरस की शाम यम के नाम पर दक्षिण दिशा में दीया जलाकर रखता है उसकी अकाल मृत्यु नहीं होती है। इस मान्यता के अनुसार धनतेरस की शाम लोग आँगन में यम देवता के नाम पर दीप जलाकर रखते हैं। इस दिन लोग यम देवता के नाम पर व्रत भी रखते हैं। धनतेरस के दिन दीप जलाकर भगवान धन्वन्तरि की पूजा करें। भगवान धन्वन्तरि से स्वास्थ और सेहतमंद बनाये रखने हेतु प्रार्थना करें। चांदी का कोई बर्तन या लक्ष्मी गणेश अंकित चांदी का सिक्का खरीदें। नया बर्तन खरीदें जिसमें दीपावली की रात भगवान श्री गणेश व देवी लक्ष्मी के लिए भोग चढ़ाएं। कहा जाता है कि समुद्र मन्थन के दौरान भगवान धन्वन्तरि और मां लक्ष्मी का जन्म हुआ था, यही वजह है कि धनतेरस को भगवान धनवंतरी और मां लक्ष्मी की पूजा की जाती है । धनतेरस दिवाली के दो दिन पहले मनाया जाता नरकासुर एक राक्षस था, जिसका भगवान कृष्ण ने अपनी पत्नी सत्यभामा की सहायता से संहार किया था। भगवान कृष्ण ने उसका संहार कर 16 हजार लड़कियों को कैद से आजाद करवाया था। तत्पश्चात उन लड़कियों को उनके माता पिता के पास जाने का निवेदन किया , जिसे उन्होनें अस्विकार कर कृष्ण से विवाह का प्रस्ताव रखा ,बाद में यही कृष्ण की सोलह हजार पत्नियां ऐवं आठ मुख्य पटरानियां मिलाकर सोलह हजार आठ रानियां कहलायी ।नरका सुर के बध के कारण इस दिन को नरक चतुर्दशी के रूप में मनाते हैं । उत्तर भारतीय महिलायें इस दिन " सूप " को प्रात: काल बजाकर 'इसर आवै दरिद्दर जावै ' कहते हुऐ 'सूप' को जला देते हैं । इस दिन को कहीं कहीं " हनुमत् जयंति " के रूप में भी मनाते हैं ।प्रागज्योतिषपुर नगर का राजा नरकासुर नामक दैत्य था। उसने अपनी शक्ति से इंद्र, वरुण, अग्नि, वायु आदि सभी देवताओं को परेशान कर दिया। वह संतों को भी त्रास देने लगा। महिलाओं पर अत्याचार करने लगा। उसने संतों आदि की 16 हजार स्त्रीयों को भी बंदी बना लिया। जब उसका अत्याचार बहुत बढ़ गया तो देवता व ऋषिमुनि भगवान श्रीकृष्ण की शरण में गए। भगवान श्रीकृष्ण ने उन्हें नराकासुर से मुक्ति दिलाने का आश्वसान दिया। लेकिन नरकासुर को स्त्री के हाथों मरने का श्राप था इसलिए भगवान श्रीकृष्ण ने अपनी पत्नी सत्यभामा को सारथी बनाया तथा उन्हीं की सहायता से नरकासुर का वध कर दिया। इस प्रकार श्रीकृष्ण ने कार्तिक मास के कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी को नरकासुर का वध कर देवताओं व सतों को उसके आतंक से मुक्ति दिलाई। कार्तिक  की त्रयोदशी को धनतेरस  , अमावस्या को दीपावली पर्व प्राचीन कााल से मनाते आ रहे है ।

बुधवार, अक्तूबर 28, 2020

चन्द्रमा और औषधियें का दिवस शरद् पूर्णिमा

चंद्रमा की सोलह कला से परिपूर्ण शरद पूर्णिमा 
सत्येन्द्र कुमार पाठक
भारतीय शास्त्रों मे प्रत्येक मास की पूर्णिमा में आश्विन मास की पूर्णिमा चंद्रमा की सोलह कलाओं को समर्पित है ।
जीवन मंत्र तथा ज्योतिष ग्रंथ और पंचांग के अनुसार अश्विन माह की शुरुआत से कार्तिक महीने के अंत तक शरद ऋतु रहती है। शरद ऋतु में 2 पूर्णिमा पड़ती है। इनमें अश्विन माह की पूर्णिमा महत्वपूर्ण मानी गई हैं। इसी पूर्णिमा को शरद पूर्णिमा कहा जाता है। शरद पूर्णिमा कोजगार पूर्णिमा , जागृति पूर्णिमा तथा कुमार पूर्णिमा के नाम से जाना जाता है। पुराणों के अनुसार  रातों का  महत्व है  । नवरात्रि, शिवरात्रि और शरद पूर्णिमा है। श्रीमद्भागवत महापुराण के अनुसार चन्द्रमा को औषधि का देवता माना जाता है। इस दिन चांद अपनी 16 कलाओं से पूरा होकर अमृत की वर्षा करता है। मान्यताओं से अलग वैज्ञानिकों ने भी इस पूर्णिमा को खास बताया है, जिसके पीछे कई सैद्धांतिक और वैज्ञानिक तथ्य छिपे हुए हैं। इस पूर्णिमा पर चावल और दूध से बनी खीर को चांदनी रात में रखकर प्रात: 4 बजे सेवन किया जाता है। इससे रोग खत्म हो जाते हैं । वैज्ञानिक शोध के अनुसार इस दिन दूध से बने उत्पाद का चांदी के पात्र में सेवन करना चाहिए। चांदी में प्रतिरोधक क्षमता अधिक होती है। इससे विषाणु दूर रहते हैं। प्रत्येक व्यक्ति को कम से कम 30 मिनट तक शरद पूर्णिमा का स्नान करना चाहिए। इस दिन बनने वाला वातावरण दमा के रोगियों के लिए विशेषकर लाभकारी माना गया है।  
आयुर्वेद के अनुसार शरद पूर्णिमा पर औषधियों की स्पंदन क्षमता अधिक होती है। औषधियों का प्रभाव बढ़ जाता है रसाकर्षण के कारण जब अंदर का पदार्थ सांद्र होने लगता है, तब रिक्तिकाओं से विशेष प्रकार की ध्वनि उत्पन्न होती है। लंकाधिपति रावण शरद पूर्णिमा की रात किरणों को दर्पण के माध्यम से अपनी नाभि पर ग्रहण करता था। इस प्रक्रिया से उसे पुनर्योवन शक्ति प्राप्त होती थी। चांदनी रात में 10 से मध्यरात्रि 12 बजे के बीच कम वस्त्रों में घूमने वाले व्यक्ति को ऊर्जा प्राप्त होती है। सोमचक्र, नक्षत्रीय चक्र और आश्विन के त्रिकोण के कारण शरद ऋतु से ऊर्जा का संग्रह होता है और बसंत में निग्रह होता है।  वैज्ञानिकों के अनुसार दूध में लैक्टिक अम्ल और अमृत तत्व होता है। यह तत्व किरणों से अधिक मात्रा में शक्ति का शोषण करता है। चावल में स्टार्च होने के कारण यह प्रक्रिया और भी आसान हो जाती है। इसी कारण ऋषि-मुनियों ने शरद पूर्णिमा की रात्रि में खीर खुले आसमान में रखने का विधान किया है और इस खीर का सेवन सेहत के लिए महत्वपूर्ण बताया है। इससे पुनर्योवन शक्ति और रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ती है। यह परंपरा विज्ञान पर आधारित है।
चंद्रमा  औषधियों के देव है ।ज्‍योतिष के अनुसार, पूरे साल में केवल इसी दिन चन्द्रमा सोलह कलाओं से परिपूर्ण होता है।हिन्दू धर्म में इस दिन कोजागर व्रत माना गया है। इसी को कौमुदी व्रत भी कहते हैं। इसी दिन श्रीकृष्ण ने महारास रचाया था। मान्यता है इस रात्रि को चन्द्रमा की किरणों से अमृत झड़ता है। तभी इस दिन उत्तर भारत में खीर बनाकर रात भर चाँदनी में रखने का विधान है।
शरद पूर्णिमा कथा - एक साहुकार के दो पुत्रियाँ थी। दोनो पुत्रियाँ पुर्णिमा का व्रत रखती थी। परन्तु बडी पुत्री पूरा व्रत करती थी और छोटी पुत्री अधुरा व्रत करती थी। परिणाम यह हुआ कि छोटी पुत्री की सन्तान पैदा ही मर जाती थी। उसने पंडितो से इसका कारण पूछा तो उन्होने बताया की तुम पूर्णिमा का अधूरा व्रत करती थी जिसके कारण तुम्हारी सन्तान पैदा होते ही मर जाती है। पूर्णिमा का पुरा विधिपुर्वक करने से तुम्हारी सन्तान जीवित रह सकती है। उसने पंडितों की सलाह पर पूर्णिमा का पूरा व्रत विधिपूर्वक किया। उसके लडका हुआ परन्तु शीघ्र ही मर गया। उसने लडके को पीढे पर लिटाकर ऊपर से पकडा ढक दिया। फिर बडी बहन को बुलाकर लाई और बैठने के लिए वही पीढा दे दिया। बडी बहन जब पीढे पर बैठने लगी जो उसका घाघरा बच्चे का छू गया। बच्चा घाघरा छुते ही रोने लगा। बडी बहन बोली-” तु मुझे कंलक लगाना चाहती थी। मेरे बैठने से यह मर जाता।“ तब छोटी बहन बोली, ” यह तो पहले से मरा हुआ था। तेरे ही भाग्य से यह जीवित हो गया है। तेरे पुण्य से ही यह जीवित हुआ है। “उसके बाद नगर में उसने पुर्णिमा का पूरा व्रत करने की परंपरा कायम हो गयी ।मनुष्य विधिपूर्वक स्नान करके उपवास रखे और जितेन्द्रिय भाव से रहे। धनवान व्यक्ति ताँबे अथवा मिट्टी के कलश पर वस्त्र से ढँकी हुई स्वर्णमयी लक्ष्मी की प्रतिमा को स्थापित करके भिन्न-भिन्न उपचारों से उनकी पूजा करें, तदनंतर सायंकाल में चन्द्रोदय होने पर सोने, चाँदी अथवा मिट्टी के घी से भरे हुए १०० दीपक जलाए। इसके बाद घी मिश्रित खीर तैयार करे और बहुत-से पात्रों में डालकर उसे चन्द्रमा की चाँदनी में रखें। जब एक प्रहर (३ घंटे) बीत जाएँ, तब लक्ष्मीजी को सारी खीर अर्पण करें। तत्पश्चात भक्तिपूर्वक ग़रीबों को इस प्रसाद रूपी खीर का भोजन कराएँ और उनके साथ ही मांगलिक गीत गाकर तथा मंगलमय कार्य करते हुए रात्रि जागरण करें। तदनंतर अरुणोदय काल में स्नान करके लक्ष्मीजी की वह स्वर्णमयी प्रतिमा किसी दीन दुःखी को अर्पित करें। इस रात्रि की मध्यरात्रि में देवी महालक्ष्मी अपने कर-कमलों में वर और अभय लिए संसार में विचरती हैं और मन ही मन संकल्प करती हैं कि इस समय भूतल पर कौन जाग रहा है? जागकर मेरी पूजा में लगे हुए उस मनुष्य को मैं आज धन दूँगी। प्रतिवर्ष किया जाने वाला यह कोजागर व्रत लक्ष्मीजी को संतुष्ट करने वाला है। इससे प्रसन्न हुईं माँ लक्ष्मी इस लोक में तो समृद्धि देती ही हैं और शरीर का अंत होने पर परलोक में भी सद्गति प्रदान करती हैं। शरं ददाति इति शरदः ॥ शरद का अर्थ है कि जिस ऋतु में शर (बाण) प्राप्त हों वह शरद है। शर किसलिये? अपनी सुरक्षा के लिये। यही वह ऋतु है जब सरकण्डा मिलता है जिसका उपयोग बाण बनाने में किया जाता था। शर या इषु , मास इष ऋतु शरद । यही शर थे जिन्हें भूमि पर बिछाकर भीष्म को लेटाया गया था और एक गट्ठर सिर रखने के लिये भी दिया गया था।बिना अच्छे आयुधों के युद्ध नहीं जीता जा सकता है। उस काल में धनुष-बाण ही सबसे अच्छा आयुध था, शत्रु को दूर से ही मारने के लिये इससे अच्छा कुछ नहीं था। शत्रु से दूरी बनाकर प्रहार करने से स्वयं को हानि होने की संभावना नहीं रहती है। शरद ऋतु की ही देन था आहार अर्थात् चावल । साठिया चावल और इसके साथ ही उगने वाला समा (सावां)। समा अर्थात् सम्वत्सर , एक वर्ष पूर्ण होने का काल । समा का एक अर्थ और भी है दिन-रात्रि के सम होने का काल अर्थात् विषुव । शरद में भी विषुव दिवस होता है। शरद और सम्वत्सर एक ही अर्थ में प्रयुक्त हुये। पश्येम शरदः शतम् ।।१।। जीवेम शरदः शतम् ।।२।। बुध्येम शरदः शतम् ।।३।। रोहेम शरदः शतम् ।।४।। पूषेम शरदः शतम् ।।५।। भवेम शरदः शतम् ।।६।। भूयेम शरदः शतम् ।।७।। भूयसीः शरदः शतात् ।।८।। (अथर्वसंहिता, काण्ड १९, सूक्त ६७)
मैत्रायणीयमानवगृह्यसूत्र के द्वितीय पुरुष के पन्द्रहवें खण्ड में 'कर्त का उल्लेख है।कार्तिक मास कृत्तिका नक्षत्रयुक्त पूर्णमासी होने से होता है। कृत्तिका अर्थात् कर्तन करने वाली। कपास का कर्तन अर्थात् कपास काटना और फिर सूत कातना।कर्तन शब्द कताई कार्य हेतु भी प्रयुक्त होता है। वेदमन्त्रों में कर्तवे क्रतु शब्दों को कपास कर्तन के सन्दर्भ में देखने से यह स्पष्ट होता है कि शतक्रतु उसे कह सकते हैं जिसने कपास की सौ फसलें उगा लीं। शरद में तैयार होने वाली कपास और जीवेम शरदः शतम्।दीपावली में दीप प्रज्वलन हेतु जिस तेल और बाती(वर्तिका) की आवश्यकता है वह अभी प्राप्त होने वाली तिल और कपास की उपज से ही आती है। धान से खीलें मिलती हैं और ईख भी अभी आती है।
कार्तिक मास से कर्तन कार्य होने लगता है, जाड़ों के लिये रुई भरकर रजाई और गद्दों का तैयार किया जाना आरम्भ हो जाता है।इन्वका को खोजते यहाँ तक पहुँचे । इन्वका मृगशीर्ष है, ओरॉयन के पाँच तारे। इल्वलारि अगस्त्य हैं। सम्भवतः पहले मार्गशीर्ष की समाप्ति पर अगस्त्योदय होता होगा । शरद ऋतु का मास । शर का अर्थ ५ भी होता है। इळा , इला , ऐळ ऐल । ऐला ? इलायची का देश । इलविला  ,भविष्यपुराण ३.३.१२.१०१( ऐलविली : योग सिद्धि युक्त कामी राक्षस, चित्र राक्षस का अवतार, कृष्णांश आदि द्वारा वध ), ३.४.१५.१( इल्वला : विश्रवा मुनि की तामसी शक्ति, यक्षशर्मा द्वारा आराधना, जन्मान्तर में यक्षशर्मा का कर्णाटक - राजा व इल्वला - पुत्र कुबेर बनना ), भागवत पुराण ४.१.३७( इडविडा : विश्रवा - पत्नी, कुबेर - माता ), ९.२.३१( इडविडा : तृणबिन्दु व अलम्बुषा की कन्या, विश्रवा - भार्या, कुबेर - माता ), वायु पुराण ७०.३१/२.९.३१( इडिविला : तृणबिन्दु - कन्या, विश्रवा - भार्या, कुबेर - माता ), ८६.१६/२.२४.१६(द्रविडा  : तृणबिन्दु - पुत्री, विश्रवा - माता, विशाल - भगिनी ; तुलनीय : इडविडा), विष्णु पुराण ४.१.४७( तृणबिन्दु व अलम्बुषा की कन्या ), विष्णुधर्मोत्तर ३.१०४.५९( मृगशिरा नक्षत्र का नाम, आवाहन मन्त्र ), लक्ष्मीनारायण संहिता २.८४+( पुलस्त्य - पत्नी ऐलविला ।इडविड और द्रविड एक ही क्रिया धातु 'ऋ' से ऋत शब्द की उत्पत्ति है। ऋ का अर्थ है उदात्त अर्थात ऊर्ध्व गति। 'त' जुड़ने के साथ ही इसमें स्थैतिक भाव आ जाता है - सुसम्बद्ध क्रमिक गति। प्रकृति की चक्रीय गति ऐसी ही है और इसी के साथ जुड़ कर जीने में उत्थान है। इसी भाव के साथ वेदों में विराट प्राकृतिक योजना को ऋत कहा गया। क्रमिक होने के कारण वर्ष भर में होने वाले जलवायु परिवर्तन वर्ष दर वर्ष स्थैतिक हैं। प्रभाव में समान वर्ष के कालखंडों की सर्वनिष्ठ संज्ञा हुई 'ऋतु'  । उनका कारक विष्णु अर्थात धरा को तीन पगों से मापने वाला वामन 'ऋत का हिरण्यगर्भ' हुआ और प्रजा का पालक पति प्रथम व्यंजन 'क' कहलाया। आश्चर्य नहीं कि हर चन्द्र महीने रजस्वला होती स्त्री 'ऋतुमती' कहलायी जिसका सम्बन्ध सृजन की नियत व्यवस्था से होने के कारण यह अनुशासन दिया गया - ऋतुदान अर्थात गर्भधारण को तैयार स्त्री द्वारा संयोग की माँग का निरादर 'अधर्म' है। इसी से आगे बढ़ कर गृह्स्थों के लिये धर्म व्यवस्था बनी - केवल ऋतुस्नान के पश्चात संतानोत्पत्ति हेतु युगनद्ध होने वाले दम्पति ब्रह्मचारियों के तुल्य होते हैं।आयुर्वेद का ऋतु अनुसार आहार विहार हो या ग्रामीण उक्तियाँ - चइते चना, बइसाखे बेल  सबमें ऋत अनुकूलन द्वारा जीवन को सुखी और परिवेश को गतिशील बनाये रखने का भाव ही छिपा हुआ है।  ऋत को समान धर्मी अंग्रेजी शब्द Rhythm से समझा जा सकता है - लय। निश्चित योजना और क्रम की ध्वनि जो ग्राह्य भी हो, संगीत का सृजन करती है। लयबद्ध गायन विराट ऋत से अनुकूलन है। देवताओं के आच्छादन 'छन्द' की वार्णिक और मात्रिक सुव्यवस्था भी ऋतपथ है। धार्मिक कर्मकांडों में भी एक सुनिश्चित क्रम और लय द्वारा इसी ऋत का अनुसरण किया जाता है। 'रीति रिवाज' यहीं से आते हैं। लैटिन ritus परम्परा से जुड़ता है। परम्परा है क्या - एक निश्चित विधि से बारम्बार किये काम की परिपाटी जो कि जनमानस में पैठ कर घर बना लेती है।कर्मकांड' में 'कर्म' शब्द क्यों है? कर्म जो करणीय है वह ऋत का अनुकरण है। कर्मकांडों के दौरान ऋत व्यवहार को एक्ट किया जाता है।शतपथ ब्राह्मण ८.३.४.१० में , इष, ऊर्ज, रयि व पोष, क्वांर/आश्विन , कार्तिक , अग्रहायण/मार्गशीर्ष ,  पौष  चार मास को अन्न रूपी पशु के चार पाद कहा गया है. इष और ऊर्ज  शरद ऋतु के मास हैं . ,ज्वार, बाजरा , तिल आदि की प्राप्ति .रयि (सम्पदा, समृद्धि) मार्गशीर्ष में धान की फसल आ जाने से होती है । पौष मास  पुष्य , पुष्टिकर्ता होने से . ,वेदमन्त्रों में अश्विन के साथ इष की , ऊर्ज के साथ नपात्  शब्द की बहुधा आवृत्ति है । नपात् का सम्बन्ध शरद सम्पात से है . ।हो भी या नहीं भी । स्थूल विभाग से धान के दो प्रकार हैं। १.वसहन   २.जड़हन। जो धान  शरद विषुव के पूर्व  पुष्पित हो जाते हैं और अक्टूबर, नवंबर में तैयार होते हैं। उनको वसहन कहा जाता है। शरद विषुव के बाद पुष्पित होने वाले जड़हन कहे जाते हैं। सुगन्धित धान जड़हन में आते हैं।सस्य में कीटनाशक रसायन का प्रयोग—अङ्गिरसों ने कठिनाई से वृष्टि द्वारा ओषधियों को उत्पन्न किया। पितरों ने विष से उसका लिम्पन कर दिया । तब पितरों को भाग देने से ओषधियां स्वादिष्ट बनी । अङ्गिरसो वै सत्रमासत। तेषां पृश्निर्घर्मधुगासीत्। सर्जीषेणाजीवत्। तेऽब्रुवन्। कस्मै नु सत्रमास्महे। येस्या ओषधीर्न जनयाम इति।ते दिवोवृष्टिमसृजन्त। यावन्तः स्तोका अवापद्यन्त। तावतीरोषधयोऽजायन्त। ता जाताः पितरो विषेणालिम्पन्। कौषीतकीब्राह्मण में आग्रयणेष्टि में स्पष वर्षा से उत्पन्न होने वाले 'श्यामाक'धान का उल्लेख है, शरद-ऋतु में नवसस्येष्टि यज्ञ होता है।आग्रयणेन अन्न अद्य कामो यजेत वर्षास् आगते श्यामाक सस्ये । इससे भी स्पष्ट है कि "श्यामाक" धान की विधिवत् कृषि की जाती थी।इषे त्वा ऊर्जे त्वा ॥ भारत में एक ऋतु दो माह की कही जाती है, उत्तर भारत के मैदानी क्षेत्र के लिये यही अनुभव में भी है।इष और ऊर्ज मास शरद ऋतु के मास कहे जाते हैं, भारत की कृषि वर्षा पर आधारित रही है। वर्षा ऋतु के भी दो मास होना चाहिये,लेकिन हम पाते हैं कि वर्षा ऋतु को चौमासा कहा जाने लगा है,वर्षा दो ही मास होती है, फिर चार मास कैसे हो गये?वर्षारम्भ पर किसान आनन्दित होता है, अन्य जन लेखक कवि बाल युवा युवती भी आनन्दित होते हैं लेकिन इनका आनन्दित होना अभौतिक है।किसान का आनन्दित होना ही वास्तविक आनन्द है, अन्नदा धरती,  अन्नद कृषक और इसमें हेतु होती है वर्षा ।क्वांर और कार्तिक माह वर्षा ऋतु के दो मास होते थे, इसे बरतने वाले लोग परम्परा से इन मासों के साथ वर्षा ऋतु का व्यवहार करते चले आ रहे थे,४००० - ५००० वर्ष बीत गयेतब लगा कि क्वांर कार्तिक (इष ऊर्ज) से बहुत पहले ही वर्षा होने लगी है, सावन भादों में । सावन से शुरू होकर छिटपुट क्वांर कार्तिक तक .... तो वर्षाकाल सम्बन्धी बातों का समन्वय सावन भादों (श्रावण - श्रविष्ठा) से करते हुये क्वांर कार्तिक को भी स्मृति में बनाये रखा ।ऋतुचक्र भ्रमणशील है सो यहाँ पर भी वह रुक नहीं सकता था..और पीछे सरक कर यह आषाढ़ में आया और एक पैर जेठ की ओर उठा दिया।घाघ कहते हैं कि ऋतु को एक महीना पहले ही आया जानो, जेठ में ही आषाढ़ के कृत्य करो.. जेठ में ही खेत की जुताई कर डालो।घाघ यह भी कहते हैं कि खेत को दोबार जोतना तभी फसल अच्छी होगी।तो बात है वर्ष के सबसे बड़े दिन की, जब दक्षिणायनारम्भ होता हैपुराने विवरण यह बताते हैं कि इस दिवस में रात्रि होती है १२ मुहूर्त की और दिन होता है १८ मुहूर्त का यानी १४ घण्टे से भी कुछ अधिक का ।भारत में दक्षिणायनारम्भ दिवस पर छाया मापन और दिवस प्रमाण ज्ञात करने की प्राचीन परम्परा रही है। यदि आप साढ़े तेइस अंश उत्तरी अक्षांश के दक्षिण में हैं तो ठीक मध्याह्न होने पर आपकी छाया पृथ्वी पर नहीं बनेगी । एक पल के लिये ही सही आप अपने आपको देवता फील कर सकते हैं, क्योंकि देवों की भी छाया नहीं बनती है।आर्य्यभट, वराहमिहिर ने ऋतु  पर विचार किया है । ज्योतिषचार्यों और गर्ग तथा नारद जैसे ऋषियों के वचनों को ध्यान में रखकर ही इन दोनों ने अयन की गति और अयन के समायोजन हेतु गणितीय सूत्र दिये । जिनकी चर्चा आगे होगी.वराहमिहिर और आर्य्यभट से कम से कम पाँच हजार वर्ष पहले से चली आ रही चान्द्रमास और सौरवर्ष पर आधारित व्यवस्था में ऋतुवर्ष का देश में ही नहीं विदेशों में   विचार और ज्ञान का विनिमय हुआ।रामायण और महाभारत में विनिमय को श्रद्धा कहा गया है । शरद पूर्णिमा औषधियों स्त्रष्टा और स्वामी  चन्द्रमा द्वारा 16 कलाओं का उत्पन्न कर मानव जीवन की निरोगता कार्य किया गया है । प्रत्ये क वर्ष आश्विन शुक्ल पूर्णिमा को शरद पूर्णिमा को स्वर्ग से भू तथा जल पर अम्टत गिराये जने से ब्रमाण्ड प्रफुल्लित होता है । औषधियों का दिवस शरद् पूर्णिमा हैचंद्रमा की सोलह कला से परिपूर्ण शरद पूर्णिमा 
सत्येन्द्र कुमार पाठक
भारतीय शास्त्रों मे प्रत्येक मास की पूर्णिमा में आश्विन मास की पूर्णिमा चंद्रमा की सोलह कलाओं को समर्पित है ।
जीवन मंत्र तथा ज्योतिष ग्रंथ और पंचांग के अनुसार अश्विन माह की शुरुआत से कार्तिक महीने के अंत तक शरद ऋतु रहती है। शरद ऋतु में 2 पूर्णिमा पड़ती है। इनमें अश्विन माह की पूर्णिमा महत्वपूर्ण मानी गई हैं। इसी पूर्णिमा को शरद पूर्णिमा कहा जाता है। शरद पूर्णिमा कोजगार पूर्णिमा , जागृति पूर्णिमा तथा कुमार पूर्णिमा के नाम से जाना जाता है। पुराणों के अनुसार  रातों का  महत्व है  । नवरात्रि, शिवरात्रि और शरद पूर्णिमा है। श्रीमद्भागवत महापुराण के अनुसार चन्द्रमा को औषधि का देवता माना जाता है। इस दिन चांद अपनी 16 कलाओं से पूरा होकर अमृत की वर्षा करता है। मान्यताओं से अलग वैज्ञानिकों ने भी इस पूर्णिमा को खास बताया है, जिसके पीछे कई सैद्धांतिक और वैज्ञानिक तथ्य छिपे हुए हैं। इस पूर्णिमा पर चावल और दूध से बनी खीर को चांदनी रात में रखकर प्रात: 4 बजे सेवन किया जाता है। इससे रोग खत्म हो जाते हैं । वैज्ञानिक शोध के अनुसार इस दिन दूध से बने उत्पाद का चांदी के पात्र में सेवन करना चाहिए। चांदी में प्रतिरोधक क्षमता अधिक होती है। इससे विषाणु दूर रहते हैं। प्रत्येक व्यक्ति को कम से कम 30 मिनट तक शरद पूर्णिमा का स्नान करना चाहिए। इस दिन बनने वाला वातावरण दमा के रोगियों के लिए विशेषकर लाभकारी माना गया है।  
आयुर्वेद के अनुसार शरद पूर्णिमा पर औषधियों की स्पंदन क्षमता अधिक होती है। औषधियों का प्रभाव बढ़ जाता है रसाकर्षण के कारण जब अंदर का पदार्थ सांद्र होने लगता है, तब रिक्तिकाओं से विशेष प्रकार की ध्वनि उत्पन्न होती है। लंकाधिपति रावण शरद पूर्णिमा की रात किरणों को दर्पण के माध्यम से अपनी नाभि पर ग्रहण करता था। इस प्रक्रिया से उसे पुनर्योवन शक्ति प्राप्त होती थी। चांदनी रात में 10 से मध्यरात्रि 12 बजे के बीच कम वस्त्रों में घूमने वाले व्यक्ति को ऊर्जा प्राप्त होती है। सोमचक्र, नक्षत्रीय चक्र और आश्विन के त्रिकोण के कारण शरद ऋतु से ऊर्जा का संग्रह होता है और बसंत में निग्रह होता है।  वैज्ञानिकों के अनुसार दूध में लैक्टिक अम्ल और अमृत तत्व होता है। यह तत्व किरणों से अधिक मात्रा में शक्ति का शोषण करता है। चावल में स्टार्च होने के कारण यह प्रक्रिया और भी आसान हो जाती है। इसी कारण ऋषि-मुनियों ने शरद पूर्णिमा की रात्रि में खीर खुले आसमान में रखने का विधान किया है और इस खीर का सेवन सेहत के लिए महत्वपूर्ण बताया है। इससे पुनर्योवन शक्ति और रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ती है। यह परंपरा विज्ञान पर आधारित है।
चंद्रमा  औषधियों के देव है ।ज्‍योतिष के अनुसार, पूरे साल में केवल इसी दिन चन्द्रमा सोलह कलाओं से परिपूर्ण होता है।हिन्दू धर्म में इस दिन कोजागर व्रत माना गया है। इसी को कौमुदी व्रत भी कहते हैं। इसी दिन श्रीकृष्ण ने महारास रचाया था। मान्यता है इस रात्रि को चन्द्रमा की किरणों से अमृत झड़ता है। तभी इस दिन उत्तर भारत में खीर बनाकर रात भर चाँदनी में रखने का विधान है।
शरद पूर्णिमा कथा - एक साहुकार के दो पुत्रियाँ थी। दोनो पुत्रियाँ पुर्णिमा का व्रत रखती थी। परन्तु बडी पुत्री पूरा व्रत करती थी और छोटी पुत्री अधुरा व्रत करती थी। परिणाम यह हुआ कि छोटी पुत्री की सन्तान पैदा ही मर जाती थी। उसने पंडितो से इसका कारण पूछा तो उन्होने बताया की तुम पूर्णिमा का अधूरा व्रत करती थी जिसके कारण तुम्हारी सन्तान पैदा होते ही मर जाती है। पूर्णिमा का पुरा विधिपुर्वक करने से तुम्हारी सन्तान जीवित रह सकती है। उसने पंडितों की सलाह पर पूर्णिमा का पूरा व्रत विधिपूर्वक किया। उसके लडका हुआ परन्तु शीघ्र ही मर गया। उसने लडके को पीढे पर लिटाकर ऊपर से पकडा ढक दिया। फिर बडी बहन को बुलाकर लाई और बैठने के लिए वही पीढा दे दिया। बडी बहन जब पीढे पर बैठने लगी जो उसका घाघरा बच्चे का छू गया। बच्चा घाघरा छुते ही रोने लगा। बडी बहन बोली-” तु मुझे कंलक लगाना चाहती थी। मेरे बैठने से यह मर जाता।“ तब छोटी बहन बोली, ” यह तो पहले से मरा हुआ था। तेरे ही भाग्य से यह जीवित हो गया है। तेरे पुण्य से ही यह जीवित हुआ है। “उसके बाद नगर में उसने पुर्णिमा का पूरा व्रत करने की परंपरा कायम हो गयी ।मनुष्य विधिपूर्वक स्नान करके उपवास रखे और जितेन्द्रिय भाव से रहे। धनवान व्यक्ति ताँबे अथवा मिट्टी के कलश पर वस्त्र से ढँकी हुई स्वर्णमयी लक्ष्मी की प्रतिमा को स्थापित करके भिन्न-भिन्न उपचारों से उनकी पूजा करें, तदनंतर सायंकाल में चन्द्रोदय होने पर सोने, चाँदी अथवा मिट्टी के घी से भरे हुए १०० दीपक जलाए। इसके बाद घी मिश्रित खीर तैयार करे और बहुत-से पात्रों में डालकर उसे चन्द्रमा की चाँदनी में रखें। जब एक प्रहर (३ घंटे) बीत जाएँ, तब लक्ष्मीजी को सारी खीर अर्पण करें। तत्पश्चात भक्तिपूर्वक ग़रीबों को इस प्रसाद रूपी खीर का भोजन कराएँ और उनके साथ ही मांगलिक गीत गाकर तथा मंगलमय कार्य करते हुए रात्रि जागरण करें। तदनंतर अरुणोदय काल में स्नान करके लक्ष्मीजी की वह स्वर्णमयी प्रतिमा किसी दीन दुःखी को अर्पित करें। इस रात्रि की मध्यरात्रि में देवी महालक्ष्मी अपने कर-कमलों में वर और अभय लिए संसार में विचरती हैं और मन ही मन संकल्प करती हैं कि इस समय भूतल पर कौन जाग रहा है? जागकर मेरी पूजा में लगे हुए उस मनुष्य को मैं आज धन दूँगी। प्रतिवर्ष किया जाने वाला यह कोजागर व्रत लक्ष्मीजी को संतुष्ट करने वाला है। इससे प्रसन्न हुईं माँ लक्ष्मी इस लोक में तो समृद्धि देती ही हैं और शरीर का अंत होने पर परलोक में भी सद्गति प्रदान करती हैं। शरं ददाति इति शरदः ॥ शरद का अर्थ है कि जिस ऋतु में शर (बाण) प्राप्त हों वह शरद है। शर किसलिये? अपनी सुरक्षा के लिये। यही वह ऋतु है जब सरकण्डा मिलता है जिसका उपयोग बाण बनाने में किया जाता था। शर या इषु , मास इष ऋतु शरद । यही शर थे जिन्हें भूमि पर बिछाकर भीष्म को लेटाया गया था और एक गट्ठर सिर रखने के लिये भी दिया गया था।बिना अच्छे आयुधों के युद्ध नहीं जीता जा सकता है। उस काल में धनुष-बाण ही सबसे अच्छा आयुध था, शत्रु को दूर से ही मारने के लिये इससे अच्छा कुछ नहीं था। शत्रु से दूरी बनाकर प्रहार करने से स्वयं को हानि होने की संभावना नहीं रहती है। शरद ऋतु की ही देन था आहार अर्थात् चावल । साठिया चावल और इसके साथ ही उगने वाला समा (सावां)। समा अर्थात् सम्वत्सर , एक वर्ष पूर्ण होने का काल । समा का एक अर्थ और भी है दिन-रात्रि के सम होने का काल अर्थात् विषुव । शरद में भी विषुव दिवस होता है। शरद और सम्वत्सर एक ही अर्थ में प्रयुक्त हुये। पश्येम शरदः शतम् ।।१।। जीवेम शरदः शतम् ।।२।। बुध्येम शरदः शतम् ।।३।। रोहेम शरदः शतम् ।।४।। पूषेम शरदः शतम् ।।५।। भवेम शरदः शतम् ।।६।। भूयेम शरदः शतम् ।।७।। भूयसीः शरदः शतात् ।।८।। (अथर्वसंहिता, काण्ड १९, सूक्त ६७)
मैत्रायणीयमानवगृह्यसूत्र के द्वितीय पुरुष के पन्द्रहवें खण्ड में 'कर्त का उल्लेख है।कार्तिक मास कृत्तिका नक्षत्रयुक्त पूर्णमासी होने से होता है। कृत्तिका अर्थात् कर्तन करने वाली। कपास का कर्तन अर्थात् कपास काटना और फिर सूत कातना।कर्तन शब्द कताई कार्य हेतु भी प्रयुक्त होता है। वेदमन्त्रों में कर्तवे क्रतु शब्दों को कपास कर्तन के सन्दर्भ में देखने से यह स्पष्ट होता है कि शतक्रतु उसे कह सकते हैं जिसने कपास की सौ फसलें उगा लीं। शरद में तैयार होने वाली कपास और जीवेम शरदः शतम्।दीपावली में दीप प्रज्वलन हेतु जिस तेल और बाती(वर्तिका) की आवश्यकता है वह अभी प्राप्त होने वाली तिल और कपास की उपज से ही आती है। धान से खीलें मिलती हैं और ईख भी अभी आती है।
कार्तिक मास से कर्तन कार्य होने लगता है, जाड़ों के लिये रुई भरकर रजाई और गद्दों का तैयार किया जाना आरम्भ हो जाता है।इन्वका को खोजते यहाँ तक पहुँचे । इन्वका मृगशीर्ष है, ओरॉयन के पाँच तारे। इल्वलारि अगस्त्य हैं। सम्भवतः पहले मार्गशीर्ष की समाप्ति पर अगस्त्योदय होता होगा । शरद ऋतु का मास । शर का अर्थ ५ भी होता है। इळा , इला , ऐळ ऐल । ऐला ? इलायची का देश । इलविला  ,भविष्यपुराण ३.३.१२.१०१( ऐलविली : योग सिद्धि युक्त कामी राक्षस, चित्र राक्षस का अवतार, कृष्णांश आदि द्वारा वध ), ३.४.१५.१( इल्वला : विश्रवा मुनि की तामसी शक्ति, यक्षशर्मा द्वारा आराधना, जन्मान्तर में यक्षशर्मा का कर्णाटक - राजा व इल्वला - पुत्र कुबेर बनना ), भागवत पुराण ४.१.३७( इडविडा : विश्रवा - पत्नी, कुबेर - माता ), ९.२.३१( इडविडा : तृणबिन्दु व अलम्बुषा की कन्या, विश्रवा - भार्या, कुबेर - माता ), वायु पुराण ७०.३१/२.९.३१( इडिविला : तृणबिन्दु - कन्या, विश्रवा - भार्या, कुबेर - माता ), ८६.१६/२.२४.१६(द्रविडा  : तृणबिन्दु - पुत्री, विश्रवा - माता, विशाल - भगिनी ; तुलनीय : इडविडा), विष्णु पुराण ४.१.४७( तृणबिन्दु व अलम्बुषा की कन्या ), विष्णुधर्मोत्तर ३.१०४.५९( मृगशिरा नक्षत्र का नाम, आवाहन मन्त्र ), लक्ष्मीनारायण संहिता २.८४+( पुलस्त्य - पत्नी ऐलविला ।इडविड और द्रविड एक ही क्रिया धातु 'ऋ' से ऋत शब्द की उत्पत्ति है। ऋ का अर्थ है उदात्त अर्थात ऊर्ध्व गति। 'त' जुड़ने के साथ ही इसमें स्थैतिक भाव आ जाता है - सुसम्बद्ध क्रमिक गति। प्रकृति की चक्रीय गति ऐसी ही है और इसी के साथ जुड़ कर जीने में उत्थान है। इसी भाव के साथ वेदों में विराट प्राकृतिक योजना को ऋत कहा गया। क्रमिक होने के कारण वर्ष भर में होने वाले जलवायु परिवर्तन वर्ष दर वर्ष स्थैतिक हैं। प्रभाव में समान वर्ष के कालखंडों की सर्वनिष्ठ संज्ञा हुई 'ऋतु'  । उनका कारक विष्णु अर्थात धरा को तीन पगों से मापने वाला वामन 'ऋत का हिरण्यगर्भ' हुआ और प्रजा का पालक पति प्रथम व्यंजन 'क' कहलाया। आश्चर्य नहीं कि हर चन्द्र महीने रजस्वला होती स्त्री 'ऋतुमती' कहलायी जिसका सम्बन्ध सृजन की नियत व्यवस्था से होने के कारण यह अनुशासन दिया गया - ऋतुदान अर्थात गर्भधारण को तैयार स्त्री द्वारा संयोग की माँग का निरादर 'अधर्म' है। इसी से आगे बढ़ कर गृह्स्थों के लिये धर्म व्यवस्था बनी - केवल ऋतुस्नान के पश्चात संतानोत्पत्ति हेतु युगनद्ध होने वाले दम्पति ब्रह्मचारियों के तुल्य होते हैं।आयुर्वेद का ऋतु अनुसार आहार विहार हो या ग्रामीण उक्तियाँ - चइते चना, बइसाखे बेल  सबमें ऋत अनुकूलन द्वारा जीवन को सुखी और परिवेश को गतिशील बनाये रखने का भाव ही छिपा हुआ है।  ऋत को समान धर्मी अंग्रेजी शब्द Rhythm से समझा जा सकता है - लय। निश्चित योजना और क्रम की ध्वनि जो ग्राह्य भी हो, संगीत का सृजन करती है। लयबद्ध गायन विराट ऋत से अनुकूलन है। देवताओं के आच्छादन 'छन्द' की वार्णिक और मात्रिक सुव्यवस्था भी ऋतपथ है। धार्मिक कर्मकांडों में भी एक सुनिश्चित क्रम और लय द्वारा इसी ऋत का अनुसरण किया जाता है। 'रीति रिवाज' यहीं से आते हैं। लैटिन ritus परम्परा से जुड़ता है। परम्परा है क्या - एक निश्चित विधि से बारम्बार किये काम की परिपाटी जो कि जनमानस में पैठ कर घर बना लेती है।कर्मकांड' में 'कर्म' शब्द क्यों है? कर्म जो करणीय है वह ऋत का अनुकरण है। कर्मकांडों के दौरान ऋत व्यवहार को एक्ट किया जाता है।शतपथ ब्राह्मण ८.३.४.१० में , इष, ऊर्ज, रयि व पोष, क्वांर/आश्विन , कार्तिक , अग्रहायण/मार्गशीर्ष ,  पौष  चार मास को अन्न रूपी पशु के चार पाद कहा गया है. इष और ऊर्ज  शरद ऋतु के मास हैं . ,ज्वार, बाजरा , तिल आदि की प्राप्ति .रयि (सम्पदा, समृद्धि) मार्गशीर्ष में धान की फसल आ जाने से होती है । पौष मास  पुष्य , पुष्टिकर्ता होने से . ,वेदमन्त्रों में अश्विन के साथ इष की , ऊर्ज के साथ नपात्  शब्द की बहुधा आवृत्ति है । नपात् का सम्बन्ध शरद सम्पात से है . ।हो भी या नहीं भी । स्थूल विभाग से धान के दो प्रकार हैं। १.वसहन   २.जड़हन। जो धान  शरद विषुव के पूर्व  पुष्पित हो जाते हैं और अक्टूबर, नवंबर में तैयार होते हैं। उनको वसहन कहा जाता है। शरद विषुव के बाद पुष्पित होने वाले जड़हन कहे जाते हैं। सुगन्धित धान जड़हन में आते हैं।सस्य में कीटनाशक रसायन का प्रयोग—अङ्गिरसों ने कठिनाई से वृष्टि द्वारा ओषधियों को उत्पन्न किया। पितरों ने विष से उसका लिम्पन कर दिया । तब पितरों को भाग देने से ओषधियां स्वादिष्ट बनी । अङ्गिरसो वै सत्रमासत। तेषां पृश्निर्घर्मधुगासीत्। सर्जीषेणाजीवत्। तेऽब्रुवन्। कस्मै नु सत्रमास्महे। येस्या ओषधीर्न जनयाम इति।ते दिवोवृष्टिमसृजन्त। यावन्तः स्तोका अवापद्यन्त। तावतीरोषधयोऽजायन्त। ता जाताः पितरो विषेणालिम्पन्। कौषीतकीब्राह्मण में आग्रयणेष्टि में स्पष वर्षा से उत्पन्न होने वाले 'श्यामाक'धान का उल्लेख है, शरद-ऋतु में नवसस्येष्टि यज्ञ होता है।आग्रयणेन अन्न अद्य कामो यजेत वर्षास् आगते श्यामाक सस्ये । इससे भी स्पष्ट है कि "श्यामाक" धान की विधिवत् कृषि की जाती थी।इषे त्वा ऊर्जे त्वा ॥ भारत में एक ऋतु दो माह की कही जाती है, उत्तर भारत के मैदानी क्षेत्र के लिये यही अनुभव में भी है।इष और ऊर्ज मास शरद ऋतु के मास कहे जाते हैं, भारत की कृषि वर्षा पर आधारित रही है। वर्षा ऋतु के भी दो मास होना चाहिये,लेकिन हम पाते हैं कि वर्षा ऋतु को चौमासा कहा जाने लगा है,वर्षा दो ही मास होती है, फिर चार मास कैसे हो गये?वर्षारम्भ पर किसान आनन्दित होता है, अन्य जन लेखक कवि बाल युवा युवती भी आनन्दित होते हैं लेकिन इनका आनन्दित होना अभौतिक है।किसान का आनन्दित होना ही वास्तविक आनन्द है, अन्नदा धरती,  अन्नद कृषक और इसमें हेतु होती है वर्षा ।क्वांर और कार्तिक माह वर्षा ऋतु के दो मास होते थे, इसे बरतने वाले लोग परम्परा से इन मासों के साथ वर्षा ऋतु का व्यवहार करते चले आ रहे थे,४००० - ५००० वर्ष बीत गयेतब लगा कि क्वांर कार्तिक (इष ऊर्ज) से बहुत पहले ही वर्षा होने लगी है, सावन भादों में । सावन से शुरू होकर छिटपुट क्वांर कार्तिक तक .... तो वर्षाकाल सम्बन्धी बातों का समन्वय सावन भादों (श्रावण - श्रविष्ठा) से करते हुये क्वांर कार्तिक को भी स्मृति में बनाये रखा ।ऋतुचक्र भ्रमणशील है सो यहाँ पर भी वह रुक नहीं सकता था..और पीछे सरक कर यह आषाढ़ में आया और एक पैर जेठ की ओर उठा दिया।घाघ कहते हैं कि ऋतु को एक महीना पहले ही आया जानो, जेठ में ही आषाढ़ के कृत्य करो.. जेठ में ही खेत की जुताई कर डालो।घाघ यह भी कहते हैं कि खेत को दोबार जोतना तभी फसल अच्छी होगी।तो बात है वर्ष के सबसे बड़े दिन की, जब दक्षिणायनारम्भ होता हैपुराने विवरण यह बताते हैं कि इस दिवस में रात्रि होती है १२ मुहूर्त की और दिन होता है १८ मुहूर्त का यानी १४ घण्टे से भी कुछ अधिक का ।भारत में दक्षिणायनारम्भ दिवस पर छाया मापन और दिवस प्रमाण ज्ञात करने की प्राचीन परम्परा रही है। यदि आप साढ़े तेइस अंश उत्तरी अक्षांश के दक्षिण में हैं तो ठीक मध्याह्न होने पर आपकी छाया पृथ्वी पर नहीं बनेगी । एक पल के लिये ही सही आप अपने आपको देवता फील कर सकते हैं, क्योंकि देवों की भी छाया नहीं बनती है।आर्य्यभट, वराहमिहिर ने ऋतु  पर विचार किया है । ज्योतिषचार्यों और गर्ग तथा नारद जैसे ऋषियों के वचनों को ध्यान में रखकर ही इन दोनों ने अयन की गति और अयन के समायोजन हेतु गणितीय सूत्र दिये । जिनकी चर्चा आगे होगी.वराहमिहिर और आर्य्यभट से कम से कम पाँच हजार वर्ष पहले से चली आ रही चान्द्रमास और सौरवर्ष पर आधारित व्यवस्था में ऋतुवर्ष का देश में ही नहीं विदेशों में   विचार और ज्ञान का विनिमय हुआ।रामायण और महाभारत में विनिमय को श्रद्धा कहा गया है । शरद पूर्णिमा औषधियों स्त्रष्टा और स्वामी  चन्द्रमा द्वारा 16 कलाओं का उत्पन्न कर मानव जीवन की निरोगता कार्य किया गया है । प्रत्ये क वर्ष आश्विन शुक्ल पूर्णिमा को शरद पूर्णिमा को स्वर्ग से भू तथा जल पर अम्टत गिराये जने से ब्रह्माण्ड प्रफुल्लित होता है