सोमवार, जून 29, 2020

प्रकृति और पुरुष का समन्वय भगवान् शिव

: सकारात्मक ऊर्जा का स्रोत भगवान् शिव का सावन
 सत्येन्द्र कुमार पाठक
वैदिक और पुरातन संस्कृति में सृष्टि के रक्षक भगवान् शिव सकारात्मक ऊर्जा स्रोत है। नकारात्मक ऊर्जा स्रोत को समाप्त कर साकारात्मक  ऊर्जा प्रदान करता है सावन । ज्योतिष विज्ञान के अनुसार भगवान् सूर्य सूर्य उतरायण से दक्षिणायन उत्तराषाढ़ नक्षत्र वैधृति योग चंद्रमा मकर राशि में  में सावन प्रतिपदा को श्रवण पूर्ण नक्षत्र युक्त पूर्णिमा का प्रवेश होते है वह सावन, श्रवण,, साउथा माह कहा गया है। भगवान् सूर्य श्रवणा नक्षत्र में भू भाग में अवतरण हुआ था। भारतीय उपमहाद्वीप में सावन माह से वर्षा ऋतु का आगमन से प्राकृतिक पर्यावरण का संतुलन और प्रकृति श्रृंगार से परिपूर्ण सृष्टि बन जाती है। श्रावण मास भगवान् शिव को समर्पित है साथ ही इन्द्र आदित्य के रूप में भगवान् सूर्य तपते है। इस मास में विश्वा वसु  गंधर्व , एलापत्र सर्प, अंगिरा ऋषि,प्रमलोचना अप्सरा और सर्पी नमक राक्षस विचरते है। सावन मास में नाग पंचमी, उपशास्त्रीय विद्या की उत्पति, झुलुआ डार की कजरी गीत, रक्षा बंधन,  दक्षिण भारत और नेपाल का हरियाली तीज मनाते है। पुराणों के अनुसार दक्ष प्रजापति की प्रसूति के अवतरित पुत्री माता सती ने अपने पिता द्वारा हरिद्वार की भूमि पर आयोजत ब्रहमेष्ठी यज्ञ में योग शक्ति से अपने शरीर की आहुति , तथा हिमवान की पत्नी मेनाक की। अवतरित पुत्री माता पार्वती द्वारा भगवान् शिव की प्राप्ति तथा शिव ने अपने ससुराल हमचल में रहने, मर्कांडू मुनि के पुत्र ऋषि मार्कण्डेय द्वारा मंत्र शक्ति प्राप्त कर यम को पस्त करने का महान् सावन माह भगवान् शिव का प्रिय है। सृष्टि और देवों, दैत्य, दानवों तथा जीव जंतुओं, मानवीय जीवन का संरक्षण के लिए समुद्र मंथन से उत्पन्न हलहल को भगवान् शिव ने पान कर ब्रह्माण्ड को बचाए थे। हलाहाल पान करने वाले भगवान् शिव को 89000 ऋषियों , देवों, दैत्यों और दानवों के द्वारा विभिन्न स्थलों के पवित्र नदियों का जल एवं स्वयं गंगा ने अपनी गंगा जल से जलाभिषेक तथा माता पार्वती द्वारा उत्पन्न बेल पत्र और नीलकमल, समी अर्पित कर हलाहल को समाप्त करने में सफलता प्राप्त की गई। आनंद रामायण के अनुसार सावन माह में भगवान् शिव को जलाभिषेक की परंपरा भगवान् विष्णु के अवतार भगवान् परशुराम द्वारा उतरप्रदेश का बागपत जिले के गढ़ मुक्तेश्वर अर्थात ब्रजघाट गंगा जल को कांवर में रख कर पूरा महादेव शिवलिंग पर जलाभिषेक कर कांवर संस्कृति की परंपरा कायम किया , श्री लंका के राजा रावण द्वारा माता सती की चिता भूमि पर जय दुर्गा शक्ति पीठ एवं भैरव वैद्यनाथ के क्षेत्र में ज्योतिर्लिंग की स्थापना कर बिहार के सुलतान गंज के गंगा जल को कांवर में ले कर झारखंड राज्य के देवघर में स्थित ज्योतिर्लिंग पर जलाभिषेक किया वहीं त्रेता युग में भगवान् राम ने सुल्तानगंज का अजगैवी नाथ उतरायानी गंगा जल कांवर में के कर अपने आराध्य भगवान शिव का वैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग पर जलाभिषेक किया। श्रवण कुमार ने अपने अंधे माता पिता को उत्तराखंड के हरिद्वार में स्थित हरि की पैड़ी में स्नान ध्यान करा कर कांवर में गंगा जल तथा अपने माता पिता को रख कर भगवान् शिव को जलाभिषेक कराया था। कांवर संस्कृति का उदय सतयुग में देवों, त्रेता युग में परशुराम, राम , श्रवण कुमार, द्वापर युग में भिल्लों, किरातों द्वारा की गई है। बिहार, उत्तरप्रदेश, उत्तराखंड आदि राज्यों के शैव धर्म के अनुयाई शिव लिंग पर कांवर में गंगा जल ले कर गंगा जल से अभिषेक करते है। बिहार में पटना के गंगा के किनारे गाय घाट से गंगा जल ले कर औरंगाबाद जिले और अरवल जिले की सीमा पर स्थित बाबा दुग्धेश्वर नाथ, जहानाबाद जिले के बराबर पर्वत समूह के सुर्यांक गिरि पर अवस्थित बाबा सिद्धेश्वर नाथ , तथा हाजीपुर के गंगा जल ले कर मुजफरपुर के गरीबनाथ पर कांवरियों द्वारा जलाभिषेक करते है। नेपाल में पशुपति नाथ को जय पशुपतिनाथ , उत्तराखंड का केदारनाथ ज्योतिर्लिंग को जय भोले तथा झारखंड के देवघर ज्योतिर्लिंग को बोल बंब का जय घोष करते हुए कांवरियों द्वारा किया जाता है। कांवरियों का डाक बंब, खड़ी बंब, दांडी कांवर, सामान्य कांवर के रूप में रहते हैं। सावन माह में 11 सर्वार्थ सिद्धि,10 सिद्धि,12 अमृत और 3 सिद्धि समाहित है। भगवान् शिव के प्रथम भार्या  दक्ष प्रजापति की कन्या सती, दूसरी भार्या  हिमवान की पत्नी हेमवती की पुत्री पार्वती तीसरी काली, चौथी उमा पांचवीं उमा है। वही माता पार्वती के पुत्र कार्तिकेय को सुब्रमण्यम, मुरुगन कहा जाता है, गणेश को गणपति, गजानन कहा गया और पुत्री है अशोक सुन्दरी है वहीं  अनाथ सुकेश, जालंधर, अयप्पा जिन्हें मोहनी के पुत्र हरिहर , भगवान् शिव के ललाट के पसीने से उत्पन्न भूमा, अंधक, और खुजा अर्थात 9 संतानों में 8 पुत्र, एक पुत्री है। भगवान् शिव के अवतार में महाकाल, तारा, भुवनेश, षोडश, भैरव, क्षिन्नमस्तक, गिरिजा, धूमवान, बंगलामुख, मतंग, कमल तंत्र शास्त्र के ज्ञाता हैं।भगवान् शिव का अवतारों में भोग और मोक्ष प्रदान करने वाले महाकाल, शक्ति और मनोकांक्षा को पूर्ण करने वाली तारा, बाल भुवनेश, षोडश श्री विद्येश, भैरव,, क्षिन्नमस्तिक, धूमवान, बगलामुख, कमल तथा सुरभि से उत्पन्न रुद्र अवतार में कपाली, पिंगल, भीम, विरूपाक्ष , विलोहित, शास्ता, अजपद, अहिर्बुध्य, शंभू, चंड तथा भव हुए। धर्म की रक्षा के लिए रीक्षकुल पर्वत पर अत्रि ऋषि की भार्या अनुसुइया ने ब्रह्मा जी से चंद्रमा, विष्णु से दत्त और शिव के अंश से दुर्वासा का जन्म दी है। गौतम ऋषि की कन्या अंजनी ने शिव के अंश से हनुमान का निर्माण अवतरण हुआ है। भगवान् शिव के अवतार में पिप्पलाद, द्विजेश्वर , यतिनाथ, हंस,कृष्ण दर्शन,अवधूतेश्वर,भिक्षुवर्य, सुरेश्वरा, किरात अवतार हुए। द्वादश ज्योतिर्लिंग में सौराष्ट्र में सोमनाथ, श्रीशैल पर मल्लिकार्जुन, उजैन में महाकाल, ओंगकार में अमरेश्वर, हिमालय केकेदार में केदारनाथ, डाकनी में भीमशंकर, काशी में विश्वनाथ, गौतमी नदी के तट पर त्र्यंबकेश्वर, झारखंड के देवघर की चिताभूमि पर वैद्यनाथ दरुकावन में नागेश्वर तथा रामेश्वरम में रामेश्वर और घुश्मेश्वर ज्योतिर्लिंग 12 है।श्रावण मास में मनसा पूजा, नाग पंचमी, हरियाली तीज महत्व पूर्ण है। हरियाली तीज को कजरी तीज, मेहंदी पर्व, मधुश्रवा तीज ठकुराईन तीज, शिव पार्वती पुनर्मिलन मिलन तिथि से ख्याति प्राप्त है। धार्मिक ग्रंथों के अनुसार सावन मास शुक्ल पक्ष तृतीया तिथि को भगवान् शिव को प्राप्ति के लिए माता पार्वती ने 107 बार कठिन तप की परन्तु 108 वें बार कठिन तपस्या के कारण भगवान् शिव से प्रथम मिलन हुआ था। यह पर्व प्रकृति और पुरुष का मिलन से जानते है। आस्था, उमंग, और प्रेम का अद्भुत संगम में कुवांरी और सौभग्य वती महिलाएं वृक्ष की शाखाओं में झूला लगा कर झूलती है वहीं मयूर अपनी नृत्य से प्रकृति को स्वागत करती है। आश्विन मास शुक्ल पक्ष पंचमी तिथि को नाग पंचमी की प्रधानता है। पुराणों के अनुसार राजा दक्ष की पुत्री और कश्यप ऋषि की पत्नी कद्रू ने नाग की उत्पति कर नाग वंश का उदय कराई थी। अग्निपुरण में नाग पूजा का महत्व है। विश्व में 8 नागों में 9 नागों की प्रधानता महत्व पूर्ण है। भारत के विभिन्न राज्यो में नागालैण्ड, जापान, मिश्र, विजिंग , वाराणसी, कश्मीर में नाग पूजा की जाती है। नाग पाताल लोक का स्वामी जिसे नाग लोक कहा गया है। कल्हण ने कश्मीर को नाग लोक कहा है वहीं पतंजलि ने नाग के राजा महाभाष से शिक्षा प्राप्त कर महाभाष्यकार बने वहीं समुद्र मंथन में नागलोक के राजा वासुकी ने महत्व पूर्ण भूमिका निभाई है। नागपंचमी को तक्षक पूजा, गुड़िया पर्व कहा गया है। भगवान् शिव के 12 ज्योतिर्लिंगों में 12 उप शिव लिंग की स्थापना हुई थी । द्वादश ज्योतिर्लिंग में उजैन के महाकाल ज्योतिर्लिंग का उप शिवलिंग भृगु क्षेत्र का हिरण्याबहु नदी के तट पर वर्तमान समय बिहार के अरवल जिले के करपी प्रखंड की सीमा और औरंगाबाद जिले के गोह प्रखंड का देवकुंड में दुग्धेश्वर नाथ, दूधनाथ, दूधेश्वर नाथ शिव लिंग स्थापित है। यह स्थल सभी पापों से मुक्ति और मनोवांक्षित फल प्राप्ति स्थल है। इनकी आराधना भृगुनंदन च्यवन ऋषि द्वारा की गई है वहीं ओंकारेश्वर ज्योतिर्लिंग का उप लिंग सोन प्रदेश के राजा शर्याती काल में अरवल जिले के कले्र प्रखंड का मधुसरवां  में वधुसरोवर के तट पर उप शिवलिंग जिन्हें कर्मदेश्चर , च्यवनेश्वर शिवलिंग स्थापित है । यहां मलमास या पुरुषोत्तम मास में पवित्र भूमि पर श्रद्धालु वधुसरोवर में स्नान कर भगवान् शिव की उपासना करते है तथा काशी विश्वनाथ ज्योतिर्लिंग का उप शिवलिंग जहानाबाद जिले के मखदुमपुर प्रखंड का बराबर पर्वत समूह के सूर्यांक गिरि की चोटी पर सिद्धेश्वर नाथ नाम से उप शिवलिंग स्थापित है। यह स्थल विकुक्षी पुत्र बाणासुर और दैत्यराज बलि पुत्र बाणासुर का आराध्य देव सिद्धनाथ है। इन्हे सिद्धनाथ, सिद्धेश्वर, सिद्धेश्चरनाथेश्चर के नाम से विख्यात है। मुज्जफ्फर पुर में गरीबनाथ शिवलिंग, वैशाली का राजा विशाल द्वारा वैशाली जिले के बसाढ़ में स्थापित चतुर्मुखी शिवलिंग , गया का मार्कण्डेयश्वर, मार्कण्डेय, पितामह शिवलिंग,पितामहेश्चर शिव लिंग स्थापित है। नेपाल के पशुपतिनाथ, भारतीय संस्कृति  में भगवान् शिव के ज्योतिर्लिंग और उपलिंग तथा नाथ संप्रदायों द्वारा नाथ शिवलिंग की प्रधानता है। सिंधु और हड़पा संस्कृति में शिव लिंग की पूजा की प्रमुख है वहीं मागधीय संस्कृति में शिव पूजन विभिन्न रूपों में पूजने की प्रथा चली है। गुप्त काल में एक मुखी, द्विमुखी, त्रिमुखी शिव लिंग और पाल काल में शिवलिंग की स्थापना कर भगवान् शिव का आराधना स्थल का निर्माण हुआ है। शैवधर्म में  नेपाल के विराट नगर के डूंगरी में 11 मुखी शिवलिंग सफेद पत्थर में स्थापित है मक्का में 11 मुखी शिव लिंग, जवा, इंडोनेशिया, बंगलादेश, आदि देशों में शिव लिंग की स्थापना कर शिव उपासना का केंद्र बना है। सावन मास के प्रतपदा में अग्नि शिव लिंग की उत्पति सृष्टि के लिए हुई थी ।भगवान् शिव का संबर्त, भुतेश, क्रोधीश , सुंदरानंद, कलाभैरव, दण्डपाणि, संकुर, महारुद्र, उन्मत, लंबकर्ण, विश्वेस, विकृतश्व, त्रिसंध्येश्वर, नंदीकेश्वर, ईश्वरानंद, योगीश, महोदर , शिव, वक्रतुंड, भीषण, चंड , वैद्यनाथ, वक्त्रानाथ, निमिष, भिरूक, मंगलयकपिलंबर, सर्वानंद , भव, रुरू, एसितांग, भद्रसेन , उमनंद आदि शिव लिंग विभिन्न स्थलों पर स्थापित है। शास्त्रों के अनुसार 12 ज्योतिर्लिंग, 12 उप ज्योतिर्लिंग, 9 नाथ है।51 भैरव के रूप में शिवलिंग विभिन्न स्थलों पर स्थापित है। शैव धर्म में लिंगायत संप्रदाय, वासव संप्रदाय, नाथ संप्रदाय , कपाली संप्रदाय, अघोर संप्रदाय शामिल है। जहानाबाद जिले के काको में राजा कुकुट्स , धाराउत में राजा चद्रसेन , कारपी में राजा करूष , किंजर में स्फटिक शिवलिंग, पंतित में पांडव द्वारा स्थापित पुनपुन तट पर शिवलिंग, लारी में पटियालेश्चर शिवलिंग , नवादा जिले के आती, रू पौ में शिव लिंग , पटना, नालंदा , गया, औरंगाबाद, भागलपुर, दरभंगा, हाजीपुर, सोनपुर, आदि जगहों पर भगवान् शिव की आराधना स्थल कायम कर शैव धर्म का रूप है।
ऋग्वेद में रुद्र, अथर्ववेद में भव, शर्व , पशुपति,, भूपति, मत्स्य पुराण में लिंग पूजा, वामन पुराण, शिव पुराण, लिंगपुरण में शैव धर्म में शिव लिंग पूजा का महत्व बतलाया गया है। शेव धर्म में ऋषि लवकुलिश द्वारा पशुपत संप्रदाय की स्थापना कर भगवान् शिव की 18 अवतारों का रूप दिया है। पाशुपत संप्रदाय के अनुयाई को पंचार्थिक कहा गया है। पशुपत संप्रदाय ने नेपाल के काठमांडू में पशुपति नाथ में चतुर्मुखी शिवलिंग और मध्यप्रदेश का मदसौर में आठ मुखी शिवलिंग पशुपति नाथ मंदिर में स्थापित कर शिव उपासना का केंद्र बनाया है। यह 10 वीं शताब्दी ई. पू. की बताई गई है। कापालिक संप्रदाय शैल स्थान पर भैरव इष्ट है, काला मुख संप्रदाय, लिंगायत संप्रदाय की स्थापना 12 वीं शताब्दी में बसवण्णा है और इसके प्रवर्तक बल्लभ प्रभु और शिष्य वासव है।10 वीं शताब्दी में मत्स्येंद्र नाथ ने नाथ संप्रदाय की स्थापना की तथा गोरखनाथ द्वारा नाथ संप्रदाय का विकास किया गया है। इनके अनुयाई नाथ, अघोरी, अवधूत, बाबा, औघड़, योगी, सिद्ध है।3500 से 2300 ई. पू. सिंधु घाटी सभ्यता के दौरान कालीबंगा एवं अन्य स्थानों से प्राप्त शिव लिंग की पूजा करने का प्रमाण है।2 री शताब्दी पूर्व आंध्र प्रदेश के विभिन्न क्षेत्रों में शिवलिंग पर प्रतिंमा मिला है। विश्व में प्राकृतिक शिवलिंग में हिमालय के अमरनाथ, कदबुल का तीन फीट ऊंचाई युक्त स्फटिक शिव लिंग, अरुणाचल प्रदेश का सिद्धेश्वर नाथ शिवलिंग प्राकृतिक है वहीं दस्सरम के एरावतेश्चर मंदिर में 10 वीं शताब्दी ई.पू. लिंगोद्भव शिवलिंग है। बिहार के जहानाबाद जिले के जहानाबाद ठाकुरवाड़ी में पंचलिंगी शिवलिंग, भेलावार में एकमुखी शिवलिंग, अरवल जिले के तेरा में सहस्त्रलिंगी शिव लिंग, रामपुर चाय में पञ्चलिंगी शिव लिंग है।

बुधवार, जून 24, 2020

ज्ञान का प्रकाश गुरु

प्रकाश का द्योतक गुरु
सत्येन्द्र कुमार पाठक
विश्व और भारतीय संस्कृति तथा इंसानों को प्रकाश की ओर लाने वाले गुरु है। अंधकार से प्रकाश की ओर अग्रसर करने का द्योतक गुरु है। भारतीय ग्रंथों के अनुसार विश्व का प्रथम गुरु भगवान् शिव है। भगवान् शिव ने भगवान् सूर्य के उतरायण से दक्षिणायन का प्रवेश आषाढ़ मास शुक्ल पक्ष पूर्णिमा तिथि को ब्रह्मर्षि, देवर्षि, महर्षि, परमऋषि , कांडऋषि , श्रुताऋषि और राजऋषि  को 28 दिनों तक योग और सृष्टि का निर्माण तथा मोक्ष की शिक्षा का ज्ञान ज्योति का प्रकाश दिया है। आषाढ़ शुक्ल पूर्णिमा से गुरु शिष्य परंपरा प्रारंभ हुई थी। मानव की सभ्यता और संस्कृति का विकास मन में योग साधना तथा ज्ञान विद्या का 15 हजार ई. पू. हुआ है। जिसे गुरु पूर्णिमा, आषाढ़ी पूर्णिमा , मुड़िया पुनो, व्यास जयंती के नाम से ख्याति प्राप्त है। भगवान् शिव के भगवान् परशुराम, रावण, सूर्यपुत्र शनिदेव, यम थे।  गुरुओं का सम्मान और ज्ञान प्राप्त के लिए प्राचीन काल से देव संस्कृति, दैत्य संस्कृति, दानव संस्कृति, रक्ष संस्कृति, विश्व की संस्कृति के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका गुरु ने निभाया है।
महर्षि वेदव्यास अषाढ़ पूर्णिमा के दिन ही महर्षि वेदव्‍यास का जन्‍म हुआ था। यही कारण है कि इस दिन को महर्षि वेदव्‍यास को समर्पित करते हुए व्‍यास जयंती या गुरु पूर्णिमा के रूप में भी सनातनधर्मी पूरी आस्‍था के साथ मनाते हैं। प्राचीन भारतीय ग्रंथों के अनुसार महर्षि वेदव्‍यास स्‍वयं भगवान विष्‍णु के ही अवतार थे। महर्षि का पूरा नाम कृष्‍णद्वैपायन व्‍यास था। इनके पिता महर्षि पराशर तथा माता सत्‍यवती थी। लोक आस्‍था है कि महर्षि वेदव्‍यास ने ही वेदों, 18 पुराणों और दुनिया के सबसे बड़े महाकाव्‍य महाभारत की रचना की थी। महर्षि के शिष्‍यों में ऋषि जैमिन, वैशम्पायन, मुनि सुमन्तु, रोमहर्षण आदि शामिल थे।. महर्षि वाल्‍मीकि महर्षि वाल्‍मीकि को आदिकवि कहा गया है। भारत के सबसे प्राचीन काव्‍य कहे जाने वाले रामायण की रचना महर्षि वाल्‍मीकि ने ही की थी। मान्‍यता है कि वाल्‍मीकि पूर्व जन्‍म में रत्‍नाकर नाम के खूंखार डाकू थे जिन्‍हें देवर्षि नारद ने सत्‍कर्मों की सीख दी। डाकू रत्‍नाकर से साधक बने और अगले जन्‍म में वरुण देव के पुत्र रूप में जन्‍में वाल्‍मीकि ने कठोर तप किया तथा महर्षि के पद पर सुशोभित हुए। महर्षि वाल्‍मीकि विभिन्‍न अस्‍त्र-शस्‍त्रों के आविष्‍कारक माने जाते हैं। इनके शिष्‍यों में अयोध्‍या के राजा श्रीराम और सीता के पुत्र लव तथा कुश का नाम सबसे ऊपर लिया जाता है। इनकी शिक्षा और दीक्षा का ही नतीजा रहा कि श्रीराम के दोनों कुमारों ने अस्‍त्र-शस्‍त्र संचालन की ऐसी विद्या प्राप्‍त कर ली थी जिससे उन्‍होंने एक युद्ध में ना सिर्फ महाबलि हनुमान को बंधक बना लिया था बल्‍कि अयोध्‍या की सारी सेना भी इन दो कुमारों के सामने बौन है। परशुराम परशुराम की गिनती प्राचीन भारत के महान योद्धा और गुरुओं में होती है। जन्‍म से ब्राह्मण किंतु स्‍वभाव से क्षत्रिय परशुराम ने अपने पिता की मौत का बदला लेने के लिए हैहय वंश के क्षत्रिय राजाओं का संहार किया था। प्राचीन ग्रंथों के अनुसार परशुराम भगवान विष्‍णु के अंशावतार थे। इनके पिता का नाम ऋषि जमदग्‍नि तथा माता रेणुका थीं। परशुराम के शिष्‍यों में भीष्‍म, द्रोणाचार्य व कर्ण जैसे महान विद्वानों और शूरवीरों का नाम लिया जाता है। त्रेतायुग में जहां इन्‍होंने श्रीराम का कई जगहों पर समर्थन किया वहीं द्वापर युग में भी परशुराम ने भगवान कृष्‍ण को अपना समर्थन दिया। एक पौराणिक कथा के अनुसार कर्ण ने खुद को सूतपुत्र बताकर परशुराम से अस्‍त्र-शस्‍त्र की शिक्षा ली लेकिन उसके क्षत्रिय होने की जानकारी मिलते ही परशुराम ने उसे शाप दिया कि जब कर्ण को अपने विद्या की सबसे ज्‍यादा जरूरत पड़ेगी उस वक्‍त ये विद्याएं उसका  गुरु द्रोणाचार्य द्रोणाचार्य की गिनती महान धनुर्धरों में होती है। धृतराष्‍ट्र और गांधारी के 100 पुत्र तथा पांडु के पांच पुत्रों को इन्‍होंने ही शिक्षा-दीक्षा दी थी। महाभारत के अनुसार गुरुद्रोण का जन्‍म एक द्रोणी (पात्र) में हुआ था तथा इनके पिता महर्षि भारद्वाज थे। महाभारत के ही अनुसार गुरु द्रोण देवगुरु बृहस्‍पति के अंशावतार थे। दुर्योधन, दु:शासन, अर्जुन, भीम, युधिष्‍ठिर आदि इनके प्रमुख शिष्‍यों में शामिल थे। हालांकि, अर्जुन द्वारा एक मगरमच्‍छ से गुरु की रक्षा करने के कारण द्रोणाचार्य सबसे ज्‍यादा स्‍नेह अर्जुन से ही रखते थे। अर्जुन को ही गुरु द्रोण ने दुनिया का सर्वश्रेष्‍ठ धनुर्धर होने का वरदान भी दिया था। कहते हैं इसी वरदान की रक्षा के लिए द्रोण ने श्रेष्‍ठ धनुर्धर एकलव्‍य से उसका अंगूठा गुरु दक्षिणा में मांग लिया था। महाभारत युद्ध में गुरु द्रोण राजसत्‍ता के प्रति वचनबद्ध होने के कारण कौरवों की ओर से युद्धभूमि में उतरे यहां पांडवों के पक्ष से धृष्‍टद्युम्‍न ने छल से गुरु द्रोण का सिर काट  दिया था।विश्वामित्र सनातन धर्म के महान ग्रंथों में हमें ब्रह्मर्षि विश्‍वामित्र की सबसे ज्‍यादा चर्चा मिलती हैं। विश्‍वामित्र जन्‍म से क्षत्रीय थे लेकिन घोर तप के कारण ही स्‍वयं भगवान ब्रह्मा ने उन्‍हें ब्रह्मर्षि की उपाधि से सुशोभित किया। त्रेतायुग में ब्रह्मषि विश्‍वामित्र ने कुछ काल के लिए ही सही लेकिन अयोध्‍या के राजकुमार श्रीराम और उनके भाई लक्ष्‍मण को अपने साथ रखा और उन्‍हें कई गूढ़ विद्याओं से परिचित कराया। ब्रह्मर्षि विश्‍वामित्र ने श्रीराम और लक्ष्‍मण को कई अस्‍त्र-शस्‍त्रों का ज्ञान दिया तथा अपने द्वारा अनुसंधान किये गये दिव्‍यास्‍त्रों को भी दोनों भाइयों को प्रदान किया। एक क्षत्रिय राजा से ऋषि बने विश्‍वामित्र, महान भृगु ऋषि के वंशज थे। यह भी कहा जाता है कि विश्‍वामित्र ने एक बार देवताओं से रुष्‍ट होकर अपनी अलग सृष्‍टि की रचना शुरू कर दी थी।. गुरु सांदीपनि महर्षि सांदीपनि भगवान श्रीकृष्ण के गुरु थे। श्रीकृष्ण व बलराम इनसे शिक्षा प्राप्त करने मथुरा से उज्जयिनी (वर्तमान उज्जैन) आए थे। महर्षि सांदीपनि ने ही भगवान श्रीकृष्ण को 64 कलाओं की शिक्षा दी थी। कहते हैं कि भगवान श्रीकृष्ण ने ये कलाएं मात्र 64 दिन में ही सीख ली थीं। मध्य प्रदेश के उज्जैन शहर में आज भी गुरु सांदीपनि का आश्रम स्थित है। गुरु सांदीपनि के गुरुकुल में कई महान राजाओं के पुत्र पढ़ते थे। श्रीकृष्ण ने 18 वर्ष की आयु में उज्‍जयिनी आश्रम में रहकर शिक्षा ग्रहण किया था। इससे ये बात तो साबित होती है कि भगवान विष्‍णु के पूर्णावतार कहे जाने वाले श्रीकृष्‍ण को भी गुरु की आवश्‍यक्‍ता पड़ी जिन्‍होंने उन्‍हें विश्‍व के कई गूढ़ ज्ञानों से परिचित कराया। पुराणों में वर्णन मिलता है कि सांदीपनी ऋषि को गुरु दक्षिणा देने के लिए श्रीकृष्‍ण ने यमपुरी की यात्रा की और वहां से सांदीपनी के पुत्र को वापस धरती पर ले आए।  देवगुरु बृहस्पति गुरु बृहस्‍पति देवताओं के भी गुरू हैं। महाभारत के आदि पर्व के अनुसार बृहस्पति महर्षि अंगिरा के पुत्र थे। देवगुरु बृहस्पति रक्षोघ्र मंत्रों का प्रयोग कर देवताओं का पोषण एवं रक्षण करते हैं तथा दैत्यों से देवताओं की रक्षा करते हैं। 8. दैत्यगुरु शुक्राचार्य दैत्‍यों के गुरु शुक्राचार्य का वास्‍तविक नाम शुक्र उशनस है। शुक्राचार्य हिरण्‍यकशिपु की पुत्री दिव्या के पुत्र थे। कहते हैं कि भगवान शिव ने ही इन्‍हें मृत संजीवनी विद्या का ज्ञान दिया था, जिसके बल पर यह मृत दैत्यों को पुन: जीवित कर सकते थे। आपको जानकर आश्‍चर्य होगा कि गुरु शुक्राचार्य के शिष्‍यों में जहां सर्वाधिक संख्‍या दैत्‍यों की होती थी वहीं इन्‍होंने गुरुधर्म का पालन करते हुए देवपुत्रों को भी शिक्षाएं प्रदान की। खुद देवगुरू बृहस्‍पति के पुत्र कच ने भी शुक्राचार्य से ही शिक्षा-दीक्षा ग्रहण की थी। साथ ही भयानक दैत्‍यों से अपने देवपुत्र शिष्‍य की रक्षा भी की थी। गुरु वशिष्ठ सूर्यवंश के कुलगुरु थे। इन्हीं के परामर्श पर महाराज दशरथ ने पुत्रेष्‍टि यज्ञ किया था, जिसके फलस्वरूप श्रीराम, लक्ष्मण, भरत व शत्रुघ्न का जन्म हुआ। श्रीराम सहित चारो भाइयों ने वेद-वेदांगों की शिक्षा गुरु वशिष्ठ से ही प्राप्त की थी। वहीं वनवास के लौटने के बाद श्रीराम का राज्याभिषेक भी इन्‍हीं के द्वारा हुआ था। गुरु वशिष्‍ठ ने ही वशिष्ठ पुराण, वशिष्ठ श्राद्धकल्प, वशिष्ठ शिक्षा आदि ग्रंथों की रचना की। गुरु वशिष्‍ठ की गणना सप्‍तऋषियों में भी होती है।  आदि शंकराचार्य दक्षिण-भारत के केरल राज्य के कालडी़ ग्राम में एक ब्राह्मण परिवार शिवगुरु दम्पति के घर आदि शंकराचार्य का जन्म हुआ। असाधारण प्रतिभा के धनी आद्य जगद्‍गुरु शंकराचार्य ने सात वर्ष की उम्र में ही वेदों के अध्ययन किया और पारंगतता हासिल की। छोटी सी उम्र में ही इन्‍होंने अपनी माता से संन्यास लेने की अनुमति प्राप्‍त की और गुरु की खोज में निकल पड़े। सनातन धर्म में मान्‍यता है कि आदि शंकराचार्य भगवान शंकर के ही अवतार थे। आदि शंकराचार्य ने ही भारत के चार कोनों पर चार पीठों की स्‍थापना की। इनमें ‘श्रंगेरी' कर्नाटक (दक्षिण) में, ‘द्वारका' गुजरात (पश्चिम) में, 'पुरी' उड़ीसा (पूर्व) में और ज्योर्तिमठ (जोशी मठ) उत्तराखंड (उत्तर) में आज भी मौजूद है। आद्य शंकराचार्य ने मात्र 32 वर्ष की अल्पायु में ही पवित्र केदारनाथ धाम में इहलोक का त्याग दिया। गुरु कृपाचार्य गौतम ऋषि के पौत्र कृपाचार्य की गणना महाभारत कालीन 18 महायोद्धाओं में होती है। इस भीषण युद्ध में गुरु कृपाचार्य भी जीवित बच गये। कृपाचार्य को चिरंजीवी होने का वरदान भी प्राप्‍त था। भीष्‍म पितामह ने कृपाचार्य को पांडवों और कौरवों को धनुर्विद्या का ज्ञान दिया था। महाभारत का युद्ध समाप्‍त होने के बाद गुरु कृपाचार्य ने पांडव वंश के महा प्रतापी और कलियुग के प्रथम राजा परीक्षित को भी अस्त्रविद्या सिखाई थी । भारतीय संस्कृति में आषाढ़ शुक्ल पक्ष पूर्णिमा को शैव धर्म, शाक्त धर्म, वैष्णव धर्म सभी धर्मो के लोग गुरु पर्व पर पूजा अर्चना करते है।

मानव जीवन के शारीरिक अवनति का रोकता आवंला


निरोगता और प्रतिरोधक क्षमता क्षमता युक्त आंवला 
सत्येन्द्र कुमार पाठक
भारतीय आयुर्वेद ग्रंथों में वृक्षों तथा पौधों का मानव जीवन की रक्षा और संक्रमण मुक्त करने का महत्व पूर्ण व्याख्यान किया गया है। महर्षियों तथा वैज्ञानिकों ने औषधीय गुणों को इंसान के जीवन के लिए महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। देव वैद्य भगवान् सूर्य की भार्या संज्ञा के पुत्र अश्विनी कुमार द्वारा उत्पन्न उत्पन्न वृक्ष आवंला का प्रयोग क्षय रोग नाशक, मानसिक, शारीरिक क्षमताओं को वृद्धि में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। वेदों पुराणों और आयुर्वेद ग्रंथों और प्राचीन काल से  ऋषि मुनियों ने आवला को औषधीय रूप में प्रयोग किया तथा आंवले का धार्मिक रूप माना गया है। आंवले का एक वृक्ष लगाता है उसे एक राजसूय यज्ञ का फल मिलता है और महिला कार्तिक शुक्ल पक्ष की नवमी तिथि के दिन आंवले के पेड़ के नीचे बैठकर पूजन करती है उन्हें जीवन पर्यन्त सौभाग्यशाली और मानव जीवन निरोगता प्राप्त करता है।अक्षय नवमी के दिन जो भी व्यक्ति आंवले के पेड़ के नीचे बैठकर भोजन करता है, उसकी प्रतिरोधक क्षमता में वृद्धि होती है एंव दीर्घायु  होते है।आंवले के वृक्ष के नीचे ब्राहमणों को मीठा भोजन कराकर दान दिया जाय तो उस जातक की अनेक समस्यायें दूर होती तथा कार्यों में सफलता होती है साथ ही बुध ग्रह की पीड़ा से मुक्त और शान्ति  मिलता है। बुध ग्रह पीडि़त हो उसे शुक्ल पक्ष के प्रथम बुधवार को स्नान जल में- आंवला, शहद, गोरोचन, स्वर्ण, हरड़, बहेड़ा, गोमय एंव अक्षत डालकर निरन्तर 15 बुधवार तक स्नान करना चाहिए जिससे उस जातक का बुध ग्रह शुभ फल देने लगता है। इन सभी चीजों को एक कपड़े में बांधकर पोटली बना लें। उपरोक्त सामग्री की मात्रा दो-दो चम्मच पर्याप्त है। पोटली को स्नान करने वाले जल में 10 मिनट के लिये रखें। एक पोटली 7 दिनों तक प्रयोग कर सकते है।शुक्र ग्रह पीडि़त होकर उन्हे अशुभ फल दे रहा है। वे लोग शुक्र के अशुभ फल से बचाव हेतु शुक्ल पक्ष के प्रथम शुक्रवार को हरड़, इलायची, बहेड़ा, आंवला, केसर, मेनसिल और एक सफेद फूल युक्त जल से स्नान करें तो लाभ मिलेगा। इन सभी पदार्थों को एक कपड़े में बाधकर पोटली बना लें। उपरोक्त सामग्री की मात्रा दो-दो चम्मच पर्याप्त रहेगी। पोटली को स्नान के जल में 10 मिनट के लिये रखें। एक पोटली को एक सप्ताह तक प्रयोग में ला सकते है।वास्तुशास्त्र के अनुसार आंवले का वृक्ष घर में लगाना वास्तु की दृष्टि से शुभ माना जाता है। पूर्व की दिशा में बड़े वृक्षों को आंवले को इस दिशा में लगाने से सकारात्मक उर्जा का प्रवाह होता है।
आवंला को घर की उत्तर दिशा में भी लगाया जा सकता है। जिन बच्चों का पढ़ाई में मन नहीं लगता है या फिर स्मरण शक्ति कमजोर है, उनकी पढ़ने वाली पुस्तकों में आंवले की हरी पत्तियों को पीले कपड़े में बांधकर रखने से स्मरण शक्ति बढ़ती है।पीलिया रोग में एक चम्मच आंवले के पाउडर में दो चम्मच शहद मिलाकर दिन में दो बार सेंवन करने से लाभ मिलता है।  नेत्र ज्योति कम है वे लोग एक चम्मच आंवले के चूर्ण में दो चम्मच शहद अथवा शुद्ध देशी घी मिलाकर दिन में दो बार सेंवन करने से नेत्र ज्योति में बढ़ती है एंव इन्द्रियों को शक्ति प्रदान होती है।गठिया रोग वाले जातक 20 ग्राम आंवले का चूर्ण तथा 25 ग्राम गुड़ लेकर 500 मिलीलीटर जल में डालकर पकायें। जब जल आधा रह जाये तब इसे छानकर ठण्डा कर लें। इस काढ़े को दिन में दो बार सेंवन करें।  वैवस्वत मनु के पुत्र सोन प्रदेश के राजा शार्यति की पुत्री सुकन्या का वरण महर्षि भृगुनंदन  ऋषि च्यवन के साथ होने के पश्चात  सुकन्या द्वारा ऋषि च्यवन के तपस्या के कारण शरीर जर्जर को युवा अवस्था में करने के लिए देव वैद्य अश्विनी कुमार को आह्वान किया गया था।  सुकन्या के आह्वान पर अश्विनी कुमार द्वारा च्यवन ऋषि के आश्रम में आ कर  आवंले से युक्त औषधि का निर्माण कर ऋषि च्यवन के जर्जर शरीर को युवा अवस्था में ला कर सुकन्या की इच्छा की पूर्ति की गई थी। उस औषधि का नाम कारण आर्युवेद शास्त्र में च्यवनप्रास के नाम से विख्यात है। चरक संहिता, 2 री शताब्दी ई. पू. , अथर्ववेद में च्यवनप्रास और आवंला की महत्व बताया है। ऋषि भारद्वाज ने इंद्र के क्षय रोग से मुक्ति करने के लिए आवंलाप्रास का निर्माण किया था जिसे इंद्रप्रास कहा गया है।
विश्व में पादप सम्राज्य के मगोलियोफाइटा विभाग में रिविस जाति में आर युवा क्रिस्पा उप जाति का आवंला है। यह 25 फीट लंबा झारीय पौधा है। भारत, यूरोप, अफ्रीका, हिमालीय क्षेत्र, फ्रांस, इटली, ब्रिटेन में खेती और आवंला पाया जाता है। आवंला को अमृता, अमृत फल, आमलकी, पंचरस, ऐब्लिक, मैरीबलान, इंडियन गूजबेरी, फाइलमबस एबिलिका, नेल्ली और गूजबेरी के नाम से ख्याति प्राप्त है। सनातन धर्म में आवंला भगवान् विष्णु और सूर्य का प्रिय वृक्ष और देव वैद्य अश्विनी कुमार का औषधीय वृक्ष है। शास्त्रों के अनुसार आवंला वृक्ष की जड़ और छाया में कार्तिक शुक्ल पक्ष नवमी तिथि को शयन, भोजन करने, पानी पीने, और चिंतन करने पर व्यक्ति को संक्रमण से मुक्ति मिलती हैं और मानव जीवन का संरक्षण होता है।

मंगलवार, जून 23, 2020

गुप्त नवरात्र : प्रकृति और पुरुष का आध्यात्मिक

: प्रकृति और पुरुष का आराध्या शक्ति 
सत्येन्द्र कुमार पाठक
विश्व वांग्मय पौराणिक ग्रंथों में प्रकृति और पुरुष का आराध्या शक्ति को नवरात्र में उपासना की जाती है। भारतीय ग्रंथों में वर्ष का माघ और आषाढ़ मास शुक्ल पक्ष प्रतिपदा से नवमी तिथि तक माघीय एवं आसाढ़ नवरात्र तथा  चैत्र मास के वासंती और आश्विन मास में शारदीय नवरात्र में शक्ति की उपासना की परंपरा कायम है। शक्ति की उपासना भगवान् शिव ने आषाढ़ मास के शुक्ल पक्ष प्रतिपदा तिथि से प्रारंभ कर सृष्टि का प्रारंभ की जिसे गुप्त नवरात्रि के नाम से ख्याति दिलाए। इस आसाढ़ नवरात्रि को वाममार्ग नवरात्र कहा गया है। गुप्त नवरात्रि में दस महाविद्याओं की साधना कर ब्रहमहर्षी विश्वामित्र  अद्भुत शक्ति प्राप्त किए वहीं लंका पति रावण और मेघनाथ ने अतुलनीय शक्ति प्राप्त की। दैत्य गुरु शुक्राचार्य , महर्षि श्रृंगी द्वारा गुप्त नवरात्रि का रूप किकट , मगध , कारुष प्रदेश , बंग प्रदेश में यंत्र, मंत्र और तंत्र की सिद्धि के लिए प्रसिद्ध है। मानव अपनी आध्यात्म और मानसिक शक्तियों को प्राप्त करने के लिए गुप्त नवरात्र करते है। देवी भागवत में 108 , देवी गीता में 72 तथा देवी पुराण में 51 शक्ति स्थल की चर्चा कर शक्ति पीठ का महत्व दिया है। शक्ति पीठों में शाक्त धर्म के अनुयाई रह कर शक्ति उपासना और आराधना का रूप देते रहे है। श्रृंगी ऋषि ने मगध साम्राज्य के क्षेत्र में गुप्त नवरात्रि का संदेश फैलाया । वर्तमान में नवादा जिले के एक पर्वत का नाम श्रृंग पर्वत है वहीं मार्कण्डेय ने गया का भष्म गिरि पर्वत पर मां मंगला है। सतयुग में संपूर्ण संसार को नष्ट करने वाला तूफान आया था जिससे प्राणियों के जीवन पर संकट को समाप्त करने के लिए भगवान् विष्णु द्वारा सौराष्ट्र के हरिद्रा सरोवर पर शक्ति को प्रसन्न करने के लिए तप करने के पश्चात श्री विद्या ने सरोवर से निकल कर पीतांबरा के रूप में दर्शन देकर विध्वंशकारी उत्पात से बचाई है। इन महाशक्ति को बांग्ला माता के रूप में ख्याति मिली है। इन्हीं महा विद्या के नाम पर बांग्ला प्रदेश पड़ा था । बंग्ला माता वाणी, विद्या और गति को अनुशासित करती है।
 बांग्ला प्रदेश 100 योजन वर्ग क्षेत्र में वर्तमान बंगाल राज्य, बांग्ला देश और असम राज्य है जिसमें प्रमुख असम के नीलगिरी पर्वत पर माता कामाख्या शक्ति पीठ , बांग्ला देश के रीक्ष पर्वत से प्रवाहित करातोया नदी तट पर माता सती अर्पणा रूप में तथा भगवान् शिव वामन भैरव  खुलना के जैशोर में यशोरेश्चरी शक्ति पीठ एवं चंद्र भैरव , चटगांव के चंद्रशेखर पर्वत भवानी शक्ति पीठ और चंद्रशेखर भैरव, सुनंदा नदी के किनारे सुनंदा शक्ति पीठ एवं त्र्यंबक भैरव रूप में शक्ति पीठ, बंगाल राज्य के क्षेत्रों में हुगली नदी के किनारे कालीघाट स्थित काली शक्ति पीठ है। यहां सती देह के दाहिने पैर की चार उंगलियां का पतन होने से कालिका शक्ति और नकुलिश भैरव है। गंगा तट पर दक्षिणेश्वर काली है। वर्धमान के क्षीर ग्राम में सती के दाएं पैर का अंगुठा पतन से धुत धात्री शक्ति पीठ एवम् क्षिरकंटक भैरव, सिलीगुड़ी के तीस्ता नदी के तट पर देवी देह का वाम चरण का पतन होने पर भ्रामरी शक्ति पीठ और ईश्वर भैरव, हावड़ा के केतु ग्राम में देवी का वाम बाहु के पतन से बहुला शक्ति पीठ एवं भिरुक भैरव, ओंडाल के बकेश्चर नाले के किनारे अष्टावक्र ऋषि आश्रम के समीप देवी देह का मन पतन से महिषा मर्दनी शक्ति पीठ एवं वक्त्रानाथ भैरव , बोलपुर के नलाहटी पर उदर नली का पतन से कालिका पीठ और योगीश भैरव का उत्पति हुई थी। लबापुर में फुल्लरा शक्ति पीठ, विष्वेश भैरव, लाल बाग के समीप गंगा नदी के किनारे विमला शक्ति पीठ और समवर्त भैरव, मिदनापुर के ताम्र लुक रूपनारायण पर्वत के किनारे कपालिनी शक्ति पीठ और सर्वानंद भैरव विराजमान है। बिहार के शक्ति पीठ में गया का मंगला गौरी, सहरसा का उग्रतारा मंदिर, समस्तीपुर का जयमंगला मंदिर, पटना का पटन देवी मंदिर,  सासाराम के तारा चंडी मंदिर, कैमूर का मुंडेश्वरी, भालुनी का यक्षणी, नवादा का चामुंडा , मुजफ्फरपुर जिले के कटरा का चामुंडा, गोपालगंज का थावे मंदिर शक्ति पीठ के रूप में ख्याति मिली है वहीं शाक्त धर्म द्वारा अरवल जिले के करपी का जगदंबा स्थान, जहानाबाद जिले का धराउत का काली मंदिर, चारुई का काली स्थान गया जिले के बेलागंज का काली स्थान विभिक्षुनी भवानी प्रसिद्ध है। हिमाचल प्रदेश राज्य का कांगड़ा के काली धर पर्वत पर ज्वालामुखी शक्ति पीठ में सिद्धिदा शक्ति और उन्मत भैरव विराजमान है। नेपाल का गंडक नदी के उद्गम स्थल पर गंडकी शक्ति पीठ और चक्रपाणि भैरव , बागमती नदी के किनारे काठमांडू का पशुपति नाथ मंदिर के समीप माता गुहेशवरी महामाया शक्ति पीठ और कपाल भैरव, पाकिस्तान के बलूचिस्तान का हिंगोस नदी के किनारे हिंगलाज गुफा में कोत्तरि शक्ति और भिमालोचन भैरव हिंगुला शक्ति पीठ नाम से ख्याति प्राप्त है। श्री लंका में इन्द्राक्षी शक्ति एवं रक्षेश्चर भैरव लंका शक्ति पीठ में है । झारखंड के देवघर में जय दुर्गा शक्ति और वैद्यनाथ भैरव के रूप में चिताभूमि शक्तिपीठ के रूप में स्थापित है।

रविवार, जून 21, 2020

इंसानी जीवन का आनंद का निर्माण करने का द्योतक संगीत

जीवन का आनंद संगीत
सत्येन्द्र कुमार पाठक
संगीत प्रकृति और संस्कृति की आत्मा होती है। विश्व में मनावोचित गुणों को जीवन का तारतम्य बना कर मुग्ध कराने का द्योतक संगीत है। पृथ्वी पर मानव सभ्यता का उद्भव होने के बाद देवर्षि नारद ने ब्रह्माण्ड में व्याप्त ध्वनि के सबं में शिक्षा दी और संगीत कला का प्रारंभ किया है। संगीत संस्कृति सिंधु घाटी सभ्यता के स्थलों से वाद्य यंत्र, लंका के होला सभ्यता से रावण हत्था उपकरण से उत्पति हुई है।2000 वर्ष पूर्व से प्राचीन संगीत का इतिहास है। वैदिक काल में राग खरहर अर्थात सात स्वर समावेश में आरोही क्रम में पाए जाते है। प्राचीन काल में संगीत विज्ञान को साम वेद का उप वेद गंधर्व वेद है जिसमें एतरेय आरण्यक और जैमिनी ब्राह्मण, पाणिनि ने संगीत विद्या के सभी रागों का वास्तविक सिद्धांत 200 ई. पू. तथा भरत द्वारा नाट्यशास्त्र में प्रमुखता दिया गया है। संगीत का प्रथम स्वर ऊं प्रकट हुआ। उतर वैदिक काल में संगम के माध्यम से जतिगान में संगीत धुनों, भरत ने 22 संगीत कुंजियों को श्रुति का रूप दिया है। संगीत रत्नाकर ने 264 रागों, मतंग मुनि द्वारा 6 टी शताब्दी वृहद्दशी,16 वीं सदी में रामात्य द्वारा स्वरामेला कलानिधि,17 वीं सदी में वेंकात्मखिन ने चतुर्वदी प्राकाशिका पुस्तक में संगीत रागों की प्रमुखता दी है।15 वीं सदी में ध्रुपद शैली को ख्याल शैली अाई। भारतीय शास्त्रीय संगीत के स्वर, राग और ताल स्तंभ है। स्वर या स्केल डिग्री को भरत ने 22 स्वरों और हिन्दुस्तानी संगीत पद्धति में सात स्वरों जिसे सरगम का रूप दिया है।: राग भावनात्मक प्रतिक्रियाओं का समावेश है।  सौंदर्या नंदम और नौ रसो से  युक्त होकर श्रृंगार रस में प्रेम, हास्य रस में हंसी, ठिठोली, करुण रस में करुणा, दया, दुख, रौद्र रस में क्रोध, भयानक रस में आतंक, वीर रस में वीरता, अदभूत रस में विस्मय, वीभत्स रस में घृणा और शांत रस  भक्ति रस में शांति प्रदान का रूप राग है।15 वीं सदी में भक्ति रस की रूप का संगीत प्रवल हुई है। धुनों का लयबद्ध समूहों को ताल कहा गया है। ताल 108 धुनों का है। वर्तमान में 12 तालों से दादरा, कहरवा, रूपक, एक ताल, आदि तालों में प्रयोग करते है। भारतीय संगीत में शास्त्रीय संगीत में ध्रुपद, धमर, होरी, ख्याल, टप्पा, चतुरंग, रससगर , तराना, सरगम शैलियां है। ध्रुव और पद का प्रयोग कविता और गाने की शैली 13 वीं सदी में शिखर पर पर था और इसकी मजबूती बादशाह अकबर के समय है। इसके बबागोपाल दास, तानसेन, हरिदास, बैजूबावरा ध्रुपद गायन में महारथ हासिल किया था। ध्रुपद काव्यात्मक रूप है। ध्रुपद गायन संस्कृत के अक्षरों से उतपन्न है। ख्याल शैली का उत्पन्न करने का श्रेय 15 वीं सदी में अमीर खुसरो को दिया गया है। 13 वीं सदी में अमीर खुसरो ने द्वारा तराना शैली का आविष्कार किया गया है। ठुमरी शैली की रूमानी, भक्ति कामुकता, प्रेम अंतर्निहित है। इस शैली का प्रयोग महिलाएं करती है। टप्पा शैली 19 वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में लोक गीत में होने लगी वहीं 10 वीं सदी में ग़ज़ल की उत्पति ईरान सूफी रहस्य वादी द्वारा की गई। ग़ज़ल में प्रेम रस और श्रृंगार रस का समावेश है। कर्नाटक संगीत 1484 ई. में पुरंदर दास द्वारा उत्पन्न किया गया वहीं लोक संगीत में बंगाल का बाउल शैली, जम्मू का वनावन शैली छत्तीसगढ़ का पंडवानी शैली, मध्यप्रदेश का अल्हा शैली पाई शैली, राजस्थान का पनिहारी शैली, माड़ शैली, गुजरात का डांडिया शैली महाराष्ट्र का ओवी शैली, लावणी शैली, पोवाडा शैली, बिहार का मगही, भोजपुरी, मैथिली शैली में कोहवर , सोहर, डोमकच, चौहट , गण गीत प्रसिद्ध है। संगीत शैली के द्वारा संगीतकारों को जोड़ने वाली संगीतत्मक विचारधारा का स्थल घराना है। भारतीय संगीत मदिरों से उदगम हुआ है। खुदाबख्श ने 19 सदी में आगरा घराना की स्थापना की वहीं फैयाज खां ने रंगीला घराना, फतेह अली खां द्वारा पटियाला घराना, छजू खां ने भिंडी बाजार घराना की स्थापना की थी। डागरी घराना, बिहार में दरभंगा घराना के संस्थाक रामचतुर मलिक, बेतिया घराना की स्थापना इंद्रकिशोर मिश्र , ग्वालियर घराना का प्रतिपादन कृष्ण राव शंकर पंडित, गोपाल ने किराना घराना, खुदाबख्श ने आगरा घराना की स्थापना की। गया घराना ,बनारस घराना की स्थापना हुई है। कर्नाटक संगीत का प्रारंभ 1428-1503 ई. में अन्नमाचार्य द्वारा किया गया है। संगीत में वाद्य यंत्रों में अवनद्ध वाद्य में तबला, ढोल, मृदंग, दुदुंभी ड्रम, है वहीं सुषिर वाद्य में वांसुरी, सहनाई, डमरू, पुंगी वैदिक काल से उपयोग में रहा है। घन वाद्य में घुंघरू, करताल, मंजीरा, जल तरंग, घाटम तथा तत वाद्य में सारंगी, सितार, वीणा, गिटार है। लोक संगीत में तुम्बी, एकतरा, वोतारा, चिकारा, तमक, घुमोट, अलगोजा, वीन, तिट्टी, मशक, हारमोनियम आदि वाद्य यंत्र का उद्भव हुआ है। संगीत के विकास के लिए संगीत प्रेमियों द्वारा घराने की स्थापना की वहीं 1901 ई. में वी डी पलुस्कर द्वारा लाहौर में गंधर्व महाविद्यालय प्रारंभ किया गया परन्तु 1915 ई. में मुंबई स्थापित हो गई।1926 ई. में इलाहाबाद में प्रयाग संगीत समिति तथा 1952 ई. में भारत सरकार द्वारा संगीत नाटक अकादमी,1926 ई. में लखनउ में विष्णु नारायण भातखंडे द्वारा मैरिज संगीत महाविद्यालय, 1977 ई. में किरण सेठ ने दिल्ली में स्पिक मैक स्थापित करै विश्व में संगीत का विकास किया। नाट्य वेद में नृत्य, नाटक,, संगीत का उद्भव ऋग्वेद से शब्द, यजुर्वेद से अभिनव,, सामवेद से संगीत और अथर्ववेद से रस को समावेश किया गया है। इस कृति का संकलन 200 ई. पू. कर संगीत, शिल्प कला, काव्य एवं नाटक का प्रादुर्भा व हुआ जिसे पूर्ण कला की संज्ञा कहा गया है। भारत में भरत नाट्यम, कुचिपुड़ी, कथकली, मोहिनीअट्टम, ओडिसी, मणिपुरी और सत्रिय अस्तिव में है। लोक नृत्य में छऊ, गरबा, डांडिया, तरंग, धुमर, कालबेलिया, चारबा , भांगड़ा, दादरा, जवारा , मटकी, गौर मारिया, आलकाप, बिहार का बिरहा, पाइका, बगुरुंबा, बिहार के जाट जटिन , झूमर, डंडा जात्रा, बिहू, थांग टा, रांगमा , सिंघी छप, कुम्मी, मई लट्टम, बटाबॉम्मालू ,, कर्मा नाच, आदि नृत्य प्रचलित है। 21 जून 1981 ई. को पेरिस में ,120 देशों के 700 शहरों से आए हुए प्रतिनिधियों के बीच विश्व संगीत दिवस मानने की घोषणा करने के पश्चात् संगीत का बढ़ावा दिया गया है। जैकलांग मिनिस्टर ऑफ कल्चर फ़्रांस द्वारा विश्व संगीत दिवस , वर्ल्ड म्यूजिक डे मनाने के लिए घोषणा की गई। जीवन का आनंद और कोटे डी ला म्यूजिक का रूप दिया गया। प्रत्येक वर्ष का 21 जून विश्व के संगीत प्रेमियों के लिए विश्व संगीत दिवस प्रेरणा का श्रोत बन गया है।

योग इंसानी जिंदगी का संरक्षक...


 योग मानवीय जीवन के संरक्षण का साधन है। योग परंपरा प्राचीन काल से चली आ रही है। सिंधु घाटी सभ्यता 3700 से 1700 ई. पू., वैदिक संहिता 900 से 500 ई. पू. तथा 200 ई., पू. योग दर्शन के संस्थापक पतंजलि द्वारा योग का रूप दिया। योग का प्रभाव वेदव्यास द्वितीय शताब्दी पूर्व में योग भास्य ,841 ई. में वाचस्पति मिश्र ने तत्ववैशारदी, राजा भोज ने भोज वृत्ति, 1490 ई. में मधुसूदन सरस्वती,15 सदी में हठ योग और जैन ग्रंथ तत्वार्थ सूत्र में योग की वास्तविकता का बोध इंसान को कराया है।27 सितंबर 2014 को संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा 177 देशों के समर्थन के कारण वर्ष का बड़ा दिन 21 जून 2015 से योग दिवस मानने का निर्णय लिया है। योग को ध्यान, सामूहिक मंथन, विचार विनिमय, सांस्कृतिक आयोजन के रूप में मनाया गया है। योग जीवात्मा और परमात्मा को मिल जाने का साधन तथा कार्मों की कुशलता का द्योतक है। मानवीय शक्ति का विकास योग का रूप हठ योग, लय योग, राज योग, ज्ञान योग, कर्म योग की वास्तविकता है। सांख्य दर्शन, गीता, आचार्य हरिभद्र , बुद्ध आदि ने योग पर बल दिया है। भारत, नेपाल में आध्यात्म चिंतन और चीन, जापान में युज समाधौ तथा विश्व के विभिन्न देशों में 21 जून को योग दिवस माना रहे है।17 वीं सदी में योग करने वालों को योगी और योगिनी के रूप में ख्याति थी। मानव की पहचान और संरक्षण के लिए योग करना जरूरी है ताकि इंसान रोग मुक्त हो कर सुरक्षित रह सकत  है। योग विज्ञान पर आधारित एक आध्‍यात्मि चेेताना है  । यह मानसिक एवं शारीरिक के बीच सामंजस्‍य स्‍थापित करने पर चेेताना , स्‍वस्‍थ जीवन - जीने की कला एवं विज्ञान है। योग शब्‍द संस्‍कृत की युज धातु से बना है जिसका अर्थ जुड़ना या एकजुट होना या शामिल होना है। योग से जुड़े ग्रंथों के अनुसार योग करने से व्‍यक्ति की चेतना ब्रह्मांड की चेतना से जुड़ जाती है जो मन एवं शरीर, मानव एवं प्रकृति के बीच परिपूर्ण सामंजस्‍य का द्योतक है।  वैदिक  अनुसार ब्रह्मांड की हर चीज उसी परिमाण नभ की अभिव्‍यक्ति मात्र है। इस अस्तित्व को महसूस कर लेता है उसे योग में स्थित कहा जाता है और उसे योगी के रूप में पुकारा जाता है जिसे मुक्ति, निर्वाण या मोक्ष कहा जाता है। इस प्रकार, योग का लक्ष्‍य आत्‍म-अनुभूति, सभी प्रकार के कष्‍टों से निजात पाना है जिससे मोक्ष की अवस्‍था या कैवल्‍य की अवस्‍था प्राप्‍त होती है। जीवन के हर क्षेत्र में आजादी के साथ जीवन - यापन करना, स्‍वास्‍थ्‍य एवं सामंजस्‍य योग करने के प्रमुख उद्देश्‍य होंगे। योग का अभिप्राय एक आंतरिक विज्ञान से भी है जिसमें कई तरह की विधियां शामिल होती हैं जिनके माध्‍यम से मानव इस एकता को साकार कर सकता है और अपनी नियति को अपने वश में कर सकता है। चूंकि योग को बड़े पैमाने पर सिंधु - सरस्‍वती घाटी सभ्‍यता, जिसका इतिहास 2700 ईसा पूर्व से है, के अमर सांस्‍कृतिक परिणाम के रूप में बड़े पैमाने पर माना जाता है, इसलिए इसने साबित किया है कि यह मानवता के भौतिक एवं आध्‍यात्मिक दोनों तरह के उत्‍थान को संभव बनाता है। बुनियादी मानवीय मूल्‍य योग साधना की पहचान हैं। योग साधना का  आदि योगी  जी शिव है ।, हिमालय में कांति सरोवर झील के तटों पर आदि योगी ने अपने प्रबुद्ध ज्ञान को अपने प्रसिद्ध सप्‍तऋषि को प्रदान किया था। सत्‍पऋषियों ने योग के इस ताकतवर विज्ञान को एशिया, मध्‍य पूर्व, उत्‍तरी अफ्रीका एवं दक्षिण अमरीका सहित विश्‍व के भिन्‍न - भिन्‍न भागों में पहुंचाया। रोचक बात यह है कि आधुनिक विद्वानों ने पूरी दुनिया में प्राचीन संस्‍कृतियों के बीच पाए गए घनिष्‍ठ समानांतर को नोट किया है। तथापि, भारत में ही योग ने अपनी सबसे पूर्ण अभिव्‍यक्ति प्राप्‍त की। अगस्‍त सप्‍तऋषि, जिन्‍होंने पूरे भारतीय उप महाद्वीप का दौरा किया, ने यौगिक तरीके से जीवन जीने के इर्द-गिर्द इस संस्‍कृति को गढ़ा है । सिंधु - सरस्‍वती घाटी सभ्‍यता के अनेक जीवाश्‍म अवशेष एवं मुहरें भारत में योग की मौजूदगी का संकेत देती हैं।योग करते हुए पित्रों के साथ सिंधु - सरस्‍वती घाटी सभ्‍यता के अनेक जीवाश्‍म अवशेष एवं मुहरें भारत में योग की मौजूदगी का सुझाव देती हैं। देवी मां की मूर्तियों की मुहरें, लैंगिक प्रतीक तंत्र योग का सुझाव देते हैं। लोक परंपराओं, सिंधु घाटी सभ्‍यता, वैदिक एवं उपनिषद की विरासत, बौद्ध एवं जैन परंपराओं, दर्शनों, महाभारत एवं रामायण नामक महाकाव्‍यों, शैवों, वैष्‍णवों की आस्तिक परंपराओं एवं तांत्रिक परंपराओं में योग की मौजूदगी है। क्षिण एशिया की रहस्‍यवादी परंपराओं में अभिव्‍यक्‍त हुआ है। यह समय ऐसा था जब योग गुरू के सीधे मार्गदर्शन में किया जाता था तथा इसके आध्‍यात्मिक मूल्‍य को विशेष महत्‍व दिया जाता था। यह उपासना का अंग था तथा योग साधना उनके संस्‍कारों में रचा-बसा था। वैदिक काल के दौरान सूर्य को सबसे अधिक महत्‍व दिया गया। हो सकता है कि इस प्रभाव की वजह से आगे चलकर 'सूर्य नमस्‍कार' की प्रथा का आविष्‍कार किया गया हो। प्राणायाम दैनिक संस्‍कार का हिस्‍सा था तथा यह समर्पण के लिए किया जाता था। हालांकि पूर्व वैदिक काल में योग किया जाता था, महान संत महर्षि पतंजलि ने अपने योग सूत्रों के माध्‍यम से उस समय विद्यमान योग की प्रथाओं, इसके आशय एवं इससे संबंधित ज्ञान को व्‍यवस्थित एवं कूटबद्ध किया। पतंजलि के बाद, अनेक ऋषियों एवं योगाचार्यों ने अच्‍छी तरह प्रलेखित अपनी प्रथाओं एवं साहित्‍य के माध्‍यम से योग के परिरक्षण एवं विकास में काफी योगदान दिया। मगध साम्राज्य के पतंजलि काल तक योग की मौजूदगी के ऐतिहासिक साक्ष्‍य देखे गए। मुख्‍य स्रोत, जिनसे हम इस अवधि के दौरान योग की प्रथाओं तथा संबंधित साहित्‍य के बारे में सूचना प्राप्‍त करते हैं, वेदों ,उपनिषदों स्‍मृतियों, बौद्ध धर्म, जैन धर्म, पाणिनी, महाकाव्‍यों  के उपदेशों, पुराणों आदि में उपलब्‍ध हैं।
अनंतिम रूप से 500 ईसा पूर्व - 800 ईस्‍वी  में योग के इतिहास एवं विकास में सबसे महत्‍वपूर्ण अवधि माना जाता है। इस अवधि के दौरान, योग सूत्रों एवं भागवद्गीता आदि पर व्‍यास के टीकाएं अस्तित्‍व में आईं। इस अवधि को मुख्‍य रूप से भारत के दो महान धार्मिक उपदेशकों - महावीर एवं बुद्ध को समर्पित किया जा सकता है। महावीर द्वारा पांच महान व्रतों - पंच महाव्रतों एवं बुद्ध द्वारा अष्‍ठ मग्‍गा या आठ पथ की संकल्‍पना - को योग साधना की शुरूआती प्रकृति के रूप में माना जा सकता है। हमें भागवद्गीता में इसका अधिक स्‍पष्‍ट स्‍पष्‍टीकरण प्राप्‍त होता है जिसमें ज्ञान योग, भक्ति योग और कर्म योग की संकल्‍पना को विस्‍तार से प्रस्‍तुत किया गया है। तीन प्रकार के ये योग आज भी मानव की बुद्धिमत्ता के सर्वोच्‍च उदाहरण हैं तथा आज भी गीता में प्रदर्शित विधियों का अनुसरण करके लागों को शांति मिलती है। पतंजलि के योग सूत्र में न केवल योग के विभिन्‍न घटक हैं, अपितु मुख्‍य रूप से इसकी पहचान योग के आठ मार्गों से होती है। व्‍यास द्वारा योग सूत्र पर बहुत महत्‍वपूर्ण टीका भी लिखी गई। इसी अवधि के दौरान मन को महत्‍व दिया गया तथा योग साधना के माध्‍यम से स्पष्‍ट से बताया गया कि समभाव का अनुभव करने के लिए मन एवं शरीर दोनों को नियंत्रित किया जा सकता है। 800 ईसवी - 1700 ईसवी के बीच की अवधि को उत्‍कृष्‍ट अवधि के बाद की अवधि के रूप में माना जाता है जिसमें महन आचार्यत्रयों - आदि शंकराचार्य, रामानुजाचार्य और माधवाचार्य - के उपदेश इस अवधि के दौरान प्रमुख थे। इस अवधि के दौरान सुदर्शन, तुलसी दास, पुरंदर दास, मीराबाई के उपदेशों ने महान योगदान दिया। हठयोग परंपरा के नाथ योगी जैसे कि मत्‍स्‍येंद्र नाथ, गोरख नाथ, गौरांगी नाथ, स्‍वात्‍माराम सूरी, घेरांडा, श्रीनिवास भट्ट ऐसी कुछ महान हस्तियां हैं जिन्‍होंने इस अवधि के दौरान हठ योग की परंपरा को लोकप्रिय बनाया।
1700 - 1900 ईसवी में महान योगाचार्यों - रमन महर्षि, रामकृष्‍ण परमहंस, परमहंस योगानंद, विवेकानंद आदि ने राज योग के विकास में योगदान दिया है। यह ऐसी अवधि है जिसमें वेदांत, भक्ति योग, नाथ योग या हठ योग फला - फूला। शादंगा - गोरक्ष शतकम का योग, चतुरंगा - हठयोग प्रदीपिका का योग, सप्‍तंगा - घेरांडा संहिता का योग - हठ योग के मुख्‍य जड़सूत्र थे।अब समकालीन युग में स्‍वास्‍थ्‍य के परिरक्षण, अनुरक्षण और संवर्धन के लिए योग में हर किसी की आस्‍था है। स्‍वमी विवेकानंद, श्री टी कृष्‍णमचार्य, स्वामी कुवालयनंदा, श्री योगेंद्र, स्‍वामी राम, श्री अरविंदो, महर्षि महेश योगी, आचार्य रजनीश, पट्टाभिजोइस, बी के एस आयंगर, स्‍वामी सत्‍येंद्र सरस्‍वती आदि जैसी महान हस्तियों के उपदेशों से आज योग पूरी दुनिया में फैल गया है।बी के एस आयंगर ''आयंगर योग'' के नाम से विख्‍यात योग शैली के संस्‍थापक थे तथा उनको दुनिया के सर्वश्रेष्‍ठ योग शिक्षकों में से एक के रूप में माना जाता  योग का अर्थ हठ योग एवं आसनों तक सीमित है। तथापि, योग सूत्रों में केवल तीन सूत्रों में आसनों का वर्णन आता है। मौलिक रूप से हठ योग तैयारी प्रक्रिया है जिससे कि शरीर ऊर्जा के उच्‍च स्‍तर को बर्दाश्‍त कर सके। प्रक्रिया शरीर से शुरू होती है फिर श्‍वसन, मन और अंतरतम की बारी आती है।स्‍वास्‍थ्‍य एवं फिटनेस के लिए थिरेपी या व्‍यायाम की पद्धति के रूप में समझा जाता है। हालांकि शारीरिक एवं मानसिक स्‍वास्‍थ्‍य योग के स्‍वाभाविक परिणाम हैं, परंतु योग का लक्ष्‍य अधिक दूरगामी है। ''योग ब्रह्माण्‍ड से स्‍वयं का सामंजस्‍य स्‍थापित करने के बारे में है। यह सर्वोच्‍च स्‍तर की अनुभूति एवं सामंजस्‍य प्राप्‍त करने के लिए ब्रह्माण्‍ड से स्‍वयं की ज्‍यामिती को संरेखित करने की कला है।योग किसी खास धर्म, आस्‍था पद्धति या समुदाय के मुताबिक नहीं चलता है; इसे सदैव अंतरतम की सेहत के लिए कला के रूप में देखा गया है। जो कोई भी तल्‍लीनता के साथ योग करता है वह इसके लाभ प्राप्‍त कर सकता है, उसका धर्म, जाति या संस्‍कृति जो भी हो। योग की परंपरागत शैलियां : योग के ये भिन्‍न - भिन्‍न दर्शन, परंपराएं, वंशावली तथा गुरू - शिष्‍य परंपराएं योग की ये भिन्‍न - भिन्‍न परंपरागत शैलियों के उद्भव का मार्ग प्रशस्‍त करती हैं, उदाहरण के लिए ज्ञान योग, भक्ति योग, कर्म योग, ध्‍यान योग, पतंजलि योग, कुंडलिनी योग, हठ योग, मंत्र योग, लय योग, राज योग, जैन योग, बुद्ध योग आदि। हर शैली के अपने स्‍वयं के सिद्धांत एवं पद्धतियां हैं जो योग के परम लक्ष्‍य एवं उद्देश्‍यों की ओर ले जाती हैं।स्‍वास्‍थ्‍य एवं तंदरूस्‍ती के लिए योग की पद्धतियां : वड़े पैमाने पर की जाने वाली योग साधनाएं इस प्रकार हैं : यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्‍याहार, धारणा, ध्‍यान, समाधि / साम्‍यामा, बंध एवं मुद्राएं, षटकर्म, युक्‍त आहार, युक्‍त कर्म, मंत्र जप आदि। यम अंकुश हैं तथा नियम आचार हैं। इनको योग साधना के लिए पहली आवश्यकता के रूप में माना जाता है। आसन, शरीर एवं मन की स्थिरता लाने में सक्षम 'कुर्यात तद आसनं स्थैर्यम...' के तहत काफी लंबी अवधि तक शरीर (मानसिक - शारीरिक) के विभिन्‍न पैटर्न को अपनाना, शरीर की मुद्रा बनाए रखने की सामर्थ्‍य प्रदान करना (अपने संरचनात्‍मक अस्तित्‍व की स्थिर चेतना) शामिल है।प्राणायाम की विभिन्‍न मुद्राएंप्राणायाम के तहत अपने श्‍वसन की जागरूकता पैदा करना और अपने अस्तित्‍व के प्रकार्यात्‍मक या महत्‍वपूर्ण आधार के रूप में श्‍वसन को अपनी इच्‍छा से विनियमित करना शामिल है। यह अपने मन की चेतना को विकसित करने में मदद करता है तथा मन पर नियंत्रण रखने में भी मदद करता है। शुरूआती चरणों में, यह नासिकाओं, मुंह तथा शरीर के अन्‍य द्वारों, इसके आंतरिक एवं बाहरी मार्गों तथा गंतव्‍यों के माध्‍यम से श्‍वास - प्रश्‍वास की जागरूकता पैदा करके किया जाता है। आगे चलकर, विनियमित, नियंत्रित एवं पर्यवेक्षित श्‍वास के माध्‍यम से इस परिदृश्‍य को संशोधित किया जाता है जिससे यह जागरूकता पैदा होती है कि शरीर के स्‍थान भर रहे हैं (पूरक), स्‍थान भरी हुई अवस्‍था में बने हुए हैं (कुंभक) और विनियमित, नियंत्रित एवं पर्यवेक्षित प्रश्‍वास के दौरान यह खाली हो रहा है ।प्रत्याहार ज्ञानेंद्रियों से अपनी चेतना को अलग करने का प्रतीक है, जो बाहरी वस्‍तुओं से जुड़े रहने में हमारी मदद करती हैं। धारणा ध्‍यान (शरीर एवं मन के अंदर) के विस्‍तृत क्षेत्र का द्योतक है, जिसे अक्‍सर संकेंद्रण के रूप में समझा जाता है। ध्‍यान शरीर एवं मन के अंदर अपने आप को केंद्रित करना है और समाधि - एकीकरण।बंध और मुद्राएं प्राणायाम से संबद्ध साधनाएं हैं। इनको योग की उच्‍चतर साधना के रूप में देखा जाता है क्‍योंकि इनमें मुख्‍य रूप से श्‍वसन पर नियंत्रण के साथ शरीर (शारीरिक - मानसिक) की कतिपय पद्धतियों को अपनाना शामिल है। इससे मन पर नियंत्रण और सुगम हो जाता है तथा योग की उच्‍चतर सिद्धि का मार्ग प्रशस्‍त होता है। षटकर्म विषाक्‍तता दूर करने की प्रक्रियाएं हैं तथा शरीर में संचित विष को निकालने में मदद करते हैं और ये नैदानिक स्‍वरूप के हैं।युक्‍ताहार (सही भोजन एवं अन्‍य इनपुट) स्‍वस्‍थ जीवन के लिए उपयुक्‍त आहार एवं खान-पान की आदतों की वकालत करता है। तथापि, आत्‍मानुभूति, जिसे उत्‍कर्ष का मार्ग प्रशस्‍त होता है, में मदद करने वाली ध्‍यान की साधना को योग साधना के सार के रूप में माना जाता है।

योग हमारे शरीर, मन, भावना एवं ऊर्जा के स्‍तर पर काम करता है। इसकी वजह से मोटेतौर पर योग को चार भागों में बांटा गया है : कर्मयोग, जहां हम अपने शरीर का उपयोग करते हैं; भक्तियोग, जहां हम अपनी भावनाओं का उपयोग करते हैं; ज्ञानयोग, जहां हम मन एवं बुद्धि का प्रयोग करते हैं और क्रियायोग, जहां हम अपनी ऊर्जा का उपयोग करते हैं।योग साधना की जिस किसी पद्धति का उपयोग करें, वे इन श्रेणियों में से किसी एक श्रेणी या अधिक श्रेणियों के तहत आती हैं। हर व्‍यक्ति इन चार कारकों का एक अनोखा संयोग होता है। ''योग पर सभी प्राचीन टीकाओं में इस बात पर जोर दिया गया है कि किसी गुरू के मार्गदर्शन में काम करना आवश्‍यक है।'' इसका कारण यह है कि गुरू चार मौलिक मार्गों का उपयुक्‍त संयोजन तैयार कर सकता है जो हर साधक के लिए आवश्‍यक होता है। योग शिक्षा : परंपरागत रूप से, परिवारों में ज्ञानी, अनुभवी एवं बुद्धिमान व्‍यक्तियों द्वारा (पश्चिम में कंवेंट में प्रदान की जानी वाली शिक्षा से इसकी तुलना की जा सकती है) और फिर आश्रमों में (जिसकी तुलना मठों से की जा सकती है) ऋषियों / मुनियों / आचार्यों द्वारा योग की शिक्षा प्रदान की जाती थी। दूसरी ओर, योग की शिक्षा का उद्देश्‍य व्‍यक्ति, अस्तित्‍व का ध्‍यान रखना है। ऐसा माना जाता है कि अच्‍छा, संतुलित, एकीकृत, सच पर चलने वाला, स्‍वच्‍छ, पारदर्शी व्‍यक्ति अपने लिए, परिवार, समाज, राष्‍ट्र, प्रकृति और पूरी मानवता के लिए अधिक उपयोगी होगा। योग की शिक्षा स्‍व की शिक्षा है। विभिन्‍न जीवंत परंपराओं तथा पाठों एवं विधियों में स्‍व के साथ काम करने के व्‍यौरों को रेखांकित किया गया है जो इस महत्‍वपूर्ण क्षेत्र में योगदान कर रहे हैं जिसे योग के नाम से जाना जाता , योग की शिक्षा अनेक मशहूर योग संस्‍थाओं, योग विश्‍वविद्यालयों, योग कालेजों, विश्‍वविद्यालयों के योग विभागों, प्राकृतिक चिकित्‍सा कालेजों तथा निजी न्‍यासों एवं समितियों द्वारा प्रदान की जा रही है। अस्‍पतालों, औषधालयों, चिकित्‍सा संस्‍थाओं तथा रोगहर स्‍थापनाओं में अनेक योग क्‍लीनिक, योग थेरेपी और योग प्रशिक्षण केंद्र, योग की निवारक स्‍वास्‍थ्‍य देख-रेख यूनिटें, योग अनुसंधान केंद्र आदि स्‍थापित किए गए हैं।
योग की धरती भारत में विभिन्‍न सामाजिक रीति-रिवाज एवं अनुष्‍ठान पारिस्थितिकी संतुलन, दूसरों की चिंतन पद्धति के लिए सहिष्‍णुता तथा सभी प्राणियों के लिए सहानुभूति के लिए प्रेम प्रदर्शित करते हैं। सभी प्रकार की योग साधना को सार्थक जीवन एवं जीवन-यापन के लिए रामबाण माना जाता है। व्‍यापक स्‍वास्‍थ्‍य, सामाजिक एवं व्‍यक्तिगत दोनों, के लिए इसका प्रबोधन सभी धर्मों, नस्‍लों एवं राष्‍ट्रीयताओं के लोगों के लिए इसके अभ्‍यास को उपयोगी बनाता है। मगध साम्राज्य के दैत्य राज बाणासुर के मंत्री बिभांड की पुत्री चित्ररेखा योग माया थी जिन्होंने योग का रूप दी। अपनी योग साध्वी के रूप में विख्यात हुई थी। बिहार के मुंगेर में योग साधना स्थल के नाम से ख्याति प्राप्त है। योग ऋग्वेद, नारदीय सूक्त,, वृहद आरण्यक, भागवत गीता में योग की विस्तृत रूप समावेश है।

शनिवार, जून 20, 2020

मानव जीवन का संवर्धन वृक्ष

प्रकृति संरक्षण और संवर्धन का मूल वृक्ष 
        सत्येन्द्र कुमार पाठक 
विश्व तथा भारतीय संस्कृति में वृक्षों का निवास जीवन में है । सनातन संस्कृति एवं सभ्यता में प्रकृति पूजा का प्रादूर्भाव वृक्ष, जल, सूर्य, चंद्र, पौधों से प्रारंभ है । प्राचीन काल से मानव जीवन की सुरक्षा पर्यावरण पर निर्भर है । भारतीय संस्कृति में वृक्षों की पूजा सूत्र बंधन, दीप दान, पुष्प, चंदन, अभिषेक की जाती है । 
पीपल - भगवान सूर्य द्वारा पीपल वृक्ष की उत्पत्ति हुई ।पीपल वृक्ष का कटाई और जलाने से पितर दोष, पर्यावरण दूषित तथा जीवों पर संकट हो जाता है । पीपल शोक, विनाश से बचाव कर समृद्धि, सुखमय, ज्ञान तथा मोक्ष की प्राप्ति करता है । भगवान कृष्ण ने गीता मे कहा है कि 
वृक्षों में मैं पीपल हूँ ।पीपल की छाया मे शान्ति प्रेतात्माओ का शाप  नहीं  लगता है ।प्रेतात्माओ का रात को पीपल पर निवास  हैं। इसलिए रात्री के समय पीपल की पूजा नहीं होती है।सूर्योदय मे पीपल पर माता लक्ष्मी का निवास नही मना गया है। पीपल की पूजा बृहस्पति और शनि दोषों से मुक्ति के लिए भी की जाती है| पीपल को विष्णु वृक्ष कहा गया है । 
बरगद (वट वृक्ष )- यक्ष राज मणिभद्र ने वरगद की उत्पत्ति कर भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिए समर्पित किया है । वट (बरगद ) वृक्ष को शिव वृक्ष है |सृष्टि और  प्रलय के समय मुकुंद ने अक्षय वट पर विश्राम किया था | यह अक्षय वट प्रयाग में है तथा सृष्टि के प्रारंभ मे गया का अक्षय वट की स्थापना की गई थी । महिलाएं वट सावित्री की पूजा सौभाग्य के वरदान के लिए करती हैं ।  वट वृक्ष जटाधारी भगवान् शिव का ही रूप है |
कमल - भगवान विष्णु के नाभि से कमल की उत्पत्ति हुई है । माता लक्ष्मी का निवास होता है |यह एक ऐसा पुष्प है जो अपने गुणों के कारण प्रत्येक देवी देवता को प्रिय है | सृष्टि की रचना का मूलभूत रूप 
कमल है । 
नारियल - भू लोक में कल्प वृक्ष का रूप नारियल है ।  नारियल एक ऐसा फल है जो प्रत्येक देवी देवता को प्रिय है। इसे पौराणिक ग्रंथो में "कल्प वृक्ष" का नाम दिया गया है। शक्ति पूजा में और किसी अनुष्ठान में यह विशेष रूप से प्रयोग में लाया जाता है | माता लक्षमी द्वारा की गई उत्पत्ति नारियल को श्री फल के नाम से ख्याति प्राप्त है । 
बिल्व:--वृक्ष में लक्ष्मी जी का निवास है।ऋग्वेद के "श्री सूक्तं" के अनुसार माता लक्ष्मी की कठोर तपस्या के परिणाम स्वरुप  बिल्व वृक्ष उत्पन्न हुआ""वनस्पतिस्तव वृक्शोथ बिल्वयह वृक्ष, इसके पत्ते और फल भगवान् शिव को अत्यंत प्रिय हैं | बिल्व पत्र महादेव के विग्रह की शोभा हैं | शास्त्रानुसार संध्या के समय बिल्व वृक्ष के नीचे दीप दान करने वाला व्यक्ति मृत्योपरांत शिवलोक को ही जाता है अर्थात उसकी सद्गति निश्चित होती है |देवी कात्यायनी की पूजा भी में भगवान् राम ने बिल्व पत्रों का प्रयोग किया था |
रुद्राक्ष:--शिव वृक्ष है |इसके बीजो से बनी माला पूजा में प्रयुक्त होती है | रुद्राक्ष भगवान् शंकर का श्रृंगार हैं|
तुलसी:--वृंदा देवी हैं | तुलसी के स्पर्श, दर्शन, सेवन से जन्म-जन्मान्तरों के पाप कर्मों का नाश होता है |यह भगवान् विष्णु को अत्यंत प्रिय है | कोई भी अनुष्ठान या पूजा कार्य संपन्न करने के लिए तुलसी पत्र का होना आवश्यक माना गया है | वर्ष भर तुलसी में जल अर्पित करना एवं सायंकाल तुलसी के नीचे दीप जलाना अत्यंत श्रेष्ठ माना जाता है |कार्तिक मास में तुलसी के समक्ष दीपक जलाने से मनुष्य अनंत पुण्य का भागी बनता है एवं उसे माँ लक्ष्मी की कृपा प्राप्त होती है क्योंकि तुलसी में साक्षात माता लक्ष्मी का निवास माना गया है |
 धान:--"धान्य देवी" अर्थात "माता अन्नपूर्ण" का ही रूप हैं|प्रत्येक पूजा में अक्षत (चावलों के साबुत दाने) का प्रयोग होता है।
 नीम:--शीतला देवी रहती हैं जो रोगों से रक्षा करती हैं |देश भर में शीतला देवी के मंदिरों में नीम के वृक्ष सहजता से मिल जाते हैं|
. आम:--आम के वृक्षों पर यक्ष किन्नर विहार करते हैं।*
. आंवला:--विष्णु और लक्ष्मी माँ का प्रिय है |कार्तिक मास में आंवले की परिक्रमा और पूजा होती है|
. कैंथ और जामुन:--कैंथ और जामुन के वृक्ष गणपति गणेश को प्रिय हैं।* और इनके फल गणेश पूजा में अर्पित किये जाते हैं|"कपित्थ जम्बू फल चारु भक्षणं"|
. केले:--बृहस्पति दोषों से मुक्ति पाने हेतु केले की पूजा की जाती है|
. आक और पलाश:--सूर्य वनस्पति है और पलाश चन्द्र वनस्पति* सूर्य और चन्द्र के दोषों से मुक्ति पाने हेतु ज्योतिष में इन वनस्पतिओं का प्रयोग्किया जाता है |वनस्पतियाँ विधाता का वरदान हैं | इनकी मधुरिमा को बने रखने के लिए वेद मंत्र है"मधुमान्नोवनस्पते:"वृक्षों में देवात्मा होती है | वृक्षारोपण एक धार्मिक अनुष्ठान है | वृक्षों में खिले हुए पुष्पों की गंध और फलो के रसात्मक तत्वों को पाकर देवता तृप्त होते हैं |
मानव पर्यावरण संरक्षण के लिए स्थलों के परिसर में पुष्प और फलदार वृक्ष लगाये जाते हैं | फूलो, फलो अथवा हरे भरे वृक्षों को काटने पर महापाप लगता है|वृक्षारोपण से व्यक्ति महापुण्य का भागीदार होता है.।

पिता शाश्वत सत्य से परिपूर्ण

पितृ दिवस एक शाश्वत सत्य से परिपूर्ण 
    सत्येन्द्र कुमार पाठक 
भारतीय संस्कृति और सभ्यता की प्रचीन परम्पराओं में मातृ और पितृ दिवस का बड़ा महत्व है । वेदों, पुराणो, उपनिषद, रामायण, महाभारतआदि ग्रन्थों में पितरों की याद के लिए आश्विन कृष्ण पक्ष को पितृपक्ष अर्थात पितरों को समर्पित किया गया है । पश्चिमी सभ्यता में जून का तीसरे सप्ताह रविवार को 21 जून पिता से आशीर्वाद, प्रेम की अभिलाषा प्राप्त कर  पुत्र  चतुर्दिक विकास की गति प्रदान करता है ।फादर्स डे पिताओं के सम्मान में एक व्यापक रूप से मनाया जाने वाला पर्व हैं जिसमे पितृत्व (फादरहुड), पितृत्व-बंधन तथा समाज में पिताओं के प्रभाव को समारोह पूर्वक मनाया जाता है। अनेक देशों में इसे जून के तीसरे रविवार, तथा बाकी देशों में अन्य दिन मनाया जाता है। यह माता के सम्मान हेतु मनाये जाने वाले मदर्स डे(मातृ-दिवस) का पूरक है।फादर्स डे की शुरुआत बीसवीं सदी के प्रारंभ में पिताधर्म तथा पुरुषों द्वारा परवरिश का सम्मान करने के लिये मातृ-दिवस के पूरक उत्सव के रूप में हुई. यह हमारे पूर्वजों की स्मृति और उनके सम्मान में भी मनाया जाता है। फादर्स डे को विश्व में विभिन तारीखों पर मनाते है - जिसमें उपहार देना, पिता के लिये विशेष भोज एवं पारिवारिक गतिविधियाँ शामिल हैं। आम धारणा के विपरीत, वास्तव में फादर्स डे सबसे पहले पश्चिम वर्जीनिया के फेयरमोंट में 5 जुलाई 1908 को मनाया गया था। कई महीने पहले 6 दिसम्बर 1907 को मोनोंगाह, पश्चिम वर्जीनिया में एक खान दुर्घटना में मारे गए 210 पिताओं के सम्मान में इस विशेष दिवस का आयोजन श्रीमती ग्रेस गोल्डन क्लेटन ने किया था। प्रथम फादर्स डे चर्च आज भी सेन्ट्रल यूनाइटेड मेथोडिस्ट चर्च के नाम से फेयरमोंट में मौजूद है।
गलत सूचनाओं तथा पश्चिम वर्जीनिया द्वारा पहले फादर्स डे को छुट्टी के रूप में दर्ज नहीं करने के कारण कई अन्य सूत्र यह मानते हैं कि प्रथम फादर्स डे स्पोकाने, वाशिंगटन के सोनोरा स्मार्ट डोड के प्रयासों से दो वर्ष बाद 19 जून 1910 को आयोजित किया गया था। 1909 में स्पोकाने के सेंट्रल मेथोडिस्ट एपिस्कोपल चर्च के बिशप द्वारा हाल ही में मान्यता प्राप्त मदर्स डे पर दिए गए एक धर्मउपदेश को सुनने के बाद, डोड को लगा कि पिताधर्म को भी अवश्य मान्यता मिलनी चाहिए.वे अपने पिता विलियम स्मार्ट जैसे अन्य पिताओं के सम्मान में उत्सव आयोजित करना चाहती थीं, जो एक सेवानिवृत्त सैनिक थे तथा जिन्होंने छठे बच्चे के जन्म के समय, जब सोनोरा 16 वर्ष की थी, अपनी पत्नी की मृत्यु के बाद अपने परिवार की अकेले परवरिश की थी ।अगले वर्ष ओल्ड सेन्टेनरी प्रेस्बिटेरियन चर्च (अब नौक्स प्रेस्बिटेरियन चर्च) के पादरी डॉ कोनराड ब्लुह्म की सहायता से सोनोरा इस विचार को स्पोकाने वायएमसीए के पास ले गयी। स्पोकाने वायएमसीए तथा मिनिस्टीरियल अलायन्स ने डोड के इस विचार का समर्थन किया और 1910 में प्रथम फादर्स डे मना कर इसका प्रचार किया। सोनोरा ने सुझाव दिया कि उनके पिता का जन्मदिन, 5 जून को सभी पिताओं के सम्मान के लिये तय कर दिया जाये. चूंकि पादरी इसकी तैयारी के लिए कुछ और वक़्त चाहते थे इसलिये 19 जून 1910 को वायएमसीए के युवा सदस्य गुलाब का फूल लगा कर चर्च गये, लाल गुलाब जीवित पिता के सम्मान में और सफेद गुलाब मृतक पिता के सम्मान में.डोड घोड़ा-गाड़ी में बैठकर पूरे शहर में घूमीं और बीमारी के कारण घरों में रह गये पिताओं को उपहार बांटे।इसे आधिकारिक छुट्टी बनाने में कई साल लग गए। वायएमसीए, वायडब्लूसीए तथा चर्च के समर्थन के बावजूद फादर्स डे के कैलेंडर से गायब होने का डर बना रहा. जहां मदर्स डे को उत्साह के साथ मनाया जाता वहीं फादर्स डे की हँसी उड़ाई जाती.धीरे-धीरे छुट्टी को समर्थन मिला लेकिन गलत कारणों के लिए. यह स्थानीय अखबार के चुटकुलों सहित व्यंग्य, पैरोडी तथा उपहास का पात्र बन गया।बहुत से लोगों ने इसे कैलेंडर को विचारहीन प्रोत्साहन से भरने के पहले कदम के रूप में देखा ,छुट्टी को राष्ट्रीय मान्यता देने के लिये सन् 1913 में एक बिल कांग्रेस में पेश किया गया। सन 1916 में, राष्ट्रपति वुडरो विल्सन एक फादर्स डे समारोह में भाषण देने स्पोकाने गये तो वे इसे आधिकारिक बनाना चाहते थे किंतु इसके व्यावसायीकरण के डर से काँग्रेस ने इसका विरोध किया।[3] अमेरिकी राष्ट्रपति कैल्विन कूलिज ने 1924 में सिफारिश की कि यह दिवस पूरे राष्ट्र द्वारा मनाया जाये किंतु इसकी राष्ट्रीय घोषणा को रोक दिया. इस छुट्टी को औपचारिक मान्यता दिलाने के दो प्रयासों को काँग्रेस ठुकरा चुकी थी।[6] 1957 में, मेन सीनेटर मार्ग्रेट चेज स्मिथ ने काँग्रेस पर माता-पिता में से पिता को अकेला छोड़ कर, सिर्फ माताओं का सम्मान करके 40 साल तक पिता की अनदेखी करने का आरोप लगाते हुए एक प्रस्ताव लिखा.[6] 1966 में, राष्ट्रपति लिंडन जॉनसन ने प्रथम राष्ट्रपतीय घोषणा जारी कर जून महीने के तीसरे रविवार को पिताओं के सम्मान में, फादर्स डे के रूप में तय किया। छह साल बाद 1972 में वह दिन आया जब राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन ने इस कानून पर हस्ताक्षर किये और यह एक स्थायी राष्ट्रीय छुट्टी बना ।2010 में, 'फादर्स डे' की स्मृति में स्पोकाने में 'फादर्स डे' शताब्दी समारोह एक महीने तक चला.फादर्स डे के अलावा, कई देशों में 19 नवम्बर को अंतर्राष्ट्रीय पुरुष दिवस मनाया जाता है, ऐसे पुरुषों और लड़कों के सम्मान में जो पिता नहीं हैं।
व्यावसायीकरण - 1930 के दशक में एसोसिएटेड मेन्स वियर रिटेलर्स ने न्यूयार्क शहर में राष्ट्रीय फादर्स डे समिति बनाई, जिसका 1938 में नाम बदल कर फादर्स डे के प्रोत्साहन के लिये राष्ट्रीय परिषद रख दिया गया तथा कई अन्य व्यापारिक समूह गठित किये गये।इस परिषद का उद्देश्य था लोगों के दिमाग में इस छुट्टी को वैधता दिलाना तथा छुट्टी के दिन बिक्री बढ़ाने के लिये एक व्यावसायिक कार्यक्रम की तरह इस छुट्टी को बढ़ावा देना.[7] इस परिषद को हमेशा डोड का समर्थन मिला, जिनको छुट्टी के व्यावसायीकरण से कोई समस्या नहीं थी तथा उन्होंने उपहारों की राशि बढ़ाने के लिये अनेक प्रेत्साहनों का समर्थन किया। इस पहलू से डोड को एन्ना जारविस के उलट माना जा सकता है जिन्होंने मदर्स डे के सभी तरह के व्यवसायीकरण का विरोध किया था।व्यापारियों ने छुट्टी पर नकल तथा व्यंग्य करने की प्रवृत्ति को बढ़ावा दे कर पिताओं के लिये उपहार संबंधी विज्ञापनों पर ही छुट्टी का मजाक उड़ाया. व्यावसायिक दिखावे को समझते हुए भी लोग उपहार खरीदने के लिये मजबूर हुए तथा उस दिवस पर उपहार देने का रिवाज उत्तरोत्तर अधिक स्वीकार्य होता गया। 1937 में फादर्स डे परिषद ने गणना की कि इस दिन छह में से केवल एक पिता को ही उपहार मिलता था।[9] हालांकि, 1980 का दशक आते-आते परिषद ने घोषणा की कि उन्होंने अपने लक्ष्य प्राप्त कर लिये हैं- एक दिन का यह कार्यक्रम, एक "दूसरे क्रिसमस" के रूप में तीन सप्ताह के व्यावसायिक कार्यक्रम में बदल चुका था।इसके कार्यकारी निदेशक ने 1949 में कहा था कि परिषद एवं उसे समर्थन देने वाले समूहों के समन्वित प्रयासों के बिना यह छुट्टी गायब हो गई होती. जून का तीसरे सप्ताह रविवार 21 जून 2020 को पिता दिवस, पितृ दिवस तथा फादर्स डे विश्व के 111 देशों में मनाया जाता है। इस दिन पिता और पुत्र, पुत्री का सौहार्द और पिता के प्रति स्नेह और उपहार देकर कृतज्ञता प्रकट कर पुत्र और पुत्री आशीर्वाद प्राप्त करते है।

संस्कृति परंपरा का द्योतक भितिचित्र

 मानवीय मूल्यों में कलात्मकता की परंपरा भितचित्र
सत्येन्द्र कुमार पाठक
विश्व का मानवीय मूल्यों में प्राचीन कलात्मकता की परंपरा भितिचित्र और चित्रकला व्यक्त करने का सशक्त माध्यम है। भारत में भितिचित्र तथा चित्र कला का रूप विश्व में पहचान बनाई और पुरातात्विक महत्व रखता है। प्राचीन काल एवं आधुनिक काल के चित्रकारों ने शैलियों, रंगों और 6 सिद्धांतों में वास्तु का विषय का प्रमाण , रंगों का चमक, प्रकाश को भाव, भावनाओं की लावण्य योजना, विषय की दृश्यता का रूप सदृष्य बिधन और सभ्यता के लिए रंगों का मिश्रण कर वर्णिका का रूप सवारा है। ब्राह्मण धर्म एवं बौद्ध धर्म के ग्रंथों में लिप्य चित्र के रूप में ख्याति अर्जित की है। बौद्ध धर्म ग्रंथो में चौंका पिटक, दिग्हल पीटक, यम पिटक में चित्र कला का प्रदर्शन किया है। प्रागैतिहासिक काल में चट्टानों पर की गई शैल उत्कीर्ण को पेट्रोग्लिफ कहा गया है। 40000 से 10000 ई. पू. उच्च पूरापाषाण काल में चट्टानों की गुफाओं की दीवारों पर मिश्रित गेरू लाल, सफेद, पीले और हरे रंग का उपयोग हाथी, गाय, गैंडे, बाघ, सिंह आदि जानवरों, पक्षियों का चित्र एवं मानव आकृतियों के लिए किया गया था।मध्य पाषाण काल 10000 से 4000 ई. पू. में चित्र कला में लाल रंग का प्रयोग होने लगा तथा ताम्र पाषाण काल में हरे और पीले रंग वाले चित्र बनने लगे थे। उतर काल का छत्तीसगढ़ के सरगुजा जिले का रामगढ़ के पर्वत समूह स्थित जोगीमारा की गुफाओं, कांकेर जिले के उदकुदा, गरागोदी, खेरखेरा आदि गुफाओं में 1000 ई. पू. का मानव, पशुओं, आदि का चित्र है। मध्य प्रदेश के विंध्य पर्वत की श्रंखला पर बना 500 से अधिक शैल चित्र प्राचीन धरोहर है जिसे युनेस्को द्वारा 2003 ई. में विश्व धरोहर स्थल के रूप में घोषित किया गया है। विंध्य पर्वत समूह में शैल चित्र कला 30000 वर्ष पूर्व की बताई जाती है। भीम टेका में बनाई गई चित्र कला उतर पाषाण युग, मध्य पाषाण युग, ताम्र पाषाण युग, प्रारंभिक ऐतिहासिक है। भारतीय भितिचित्र 10 वीं शताब्दी ई. पू. से 10 वीं ई. तक शैल चित्र प्राचीन काल से प्रसिद्ध रहा है। भितिचित्र की उत्कृष्टता को शुंग काल का  अजंता गुफा की संख्या 9 है जहां पर 10 भित चित्र , तमिलनाडु के बेल्लोर की अर्मामलाई, गुफाओं का 8 वीं सदी में जैन धर्म के सबंध शैल चित्र, ओडिसा का क्योझर जिले का चट्टानी आश्रय में रावण छाया गुफा,, बाघ, एलोरा की 16 गुफाओं में 5 गुफा का शैल चित्र, कैलाश मंदिरों,, जोगिमारा गुफा,, तथा बिहार राज्य का जहानाबाद जिले के बराबर पर्वत समूह के शैल चित्र, गया जिले के बेलागंज प्रखंड का कौवडोल पर्वत पर बने शैल चित्र अर्थात भितीचित्र और नवादा जिले के शुंग पर्वत समूह में बने कोहवरवा गुफा में प्राचीन शैल चित्र है। बराबर की गुफा में लोमष ऋषि गुफा के मुख्य द्वार पर हाथी, स्तूप, फूलों की लरिया से युक्त शैल चित्र है वहीं ब्राह्मण धर्म के कई भितिचित्र देवी देवताओं जिसमे दुर्गा, लक्ष्मी, सरस्वती, सप्तऋषियों पुरातन काल से निर्मित है। यह मागधीय भितिचित्र संस्कृति का द्योतक हैं है।231 ई. पू. में  बराबर पर्वत समूह में निर्मित गुफाएं और भितिचित्र समुन्नत दिशा में थी। यह स्थल बिहार की शैल चित्र कला, वास्तु कला तथा मूर्ति कला की सांस्कृतिक विरासत है।750 से 1150 ई. तक पाल शैली चित्र कला के लिए प्रसिद्ध है। बौद्ध धर्म के बज्र यान संप्रदाय के धिम्मन और वितपाल, तथा 15 वीं सदी के कल्पसुत्र तथा कलाकाचार्य शैल चित्र एवं चित्र कला का रूप दिया है। चित्र कला को 14 वीं सदी में वक्कन शैली , लोदी खुलादर शैली, राजस्थानी शैली, पहाड़ी शैली,15 वीं सदी में मेवाड़ शैली, 18 वीं सदी में जयपुर शैली, 17 वीं सदी में किशनगढ़ शैली,, राजपूत शैली, वशौली शैली,18 वीं सदी में कांगड़ा शैली, मैसूर चित्रकला,, बंगाल की चित्र कला शैली तथा बिहार का मधुबनी चित्रकला शैली, पतुआ कला,, पिथोरा, सौरा चित्र कला प्रसिद्ध है।
 प्राचीन शैल चित्र का रूप 2020 वर्ष पूर्व मगध शैल चित्र एवं कोहबर संस्कृति का उदय स्थली था। मगध के चित्र परंपरा का रूप दैत्य राज बाणासुर के मंत्री विभांड की पुत्री दिव्य ज्ञानवती चित्रलेखा थी। मगध की शैल चित्र भितिचित्र और कॊहवर संस्कृति की परंपरा आज भी प्रचलित है। कॊहवर की परंपरा नवादा जिले का शुंग पर्वत की एक श्रृंखला को कोहवरवा पहाड़ी पर योगिया मादन गुफा में शैल चित्र है। यह परंपरा बिहार में वर वधू की प्रथम मिलन स्थली को कोहवर का रूप दे कर कोहवर गृह के दीवारों पर चित्र बना कर सजया जाता है। यह विवाहिता की कमरे महिलाओं द्वारा सजाई जाती है। राजा निमी के पुत्र मीथी ने मिथिला देश की स्थापना और मिथि के पुत्र जनक ने जनकपुर ( नेपाल ) में मिथिला की रजधानी बनाने के बाद तथा मिथिला के राजा सीरध्वज जनक ने अपनी पुत्री माता सीता और भगवान् राम के विवाह में जनकपुर की नारियों द्वारा कोहवर की परंपरा कायम की गई थी। मधुबनी पेंटिंग की परंपरा 17 वीं सदी में प्रारंभ हुई। यह मधुबनी चित्र कला का प्रदर्शन मधुबनी रेलवे स्टेशन और पटना में दिखाई देती है। प्राचीन काल में मगध चित्र शैली समुन्नत दिशा में थी। चित्र कला की परंपरा विभिन्न राजाओं ने प्रश्रय देकर विकास किया। शैल चित्र, दीवार चित्र या अन्य चित्र संस्कृति की अमिट छाप है।

मानवीय मूल्यों का प्रदर्शक पुराण

मानवीय संस्कृति का संरक्षक पुराण         
   सत्येन्द्र कुमार पाठक                                 
मानवीय एवं समाज कल्याण तथा भारतीय संस्कृति और सभ्यता की पहचान पुराण है ।वेदों, पुराणों, उपनिषद, रामायण,महाभारतआदि ग्रन्थों में महत्व पूर्ण रूप से विश्व के विभिन्न पहलुओं पर चर्चा की गई है । पुराण विश्व साहित्य के प्रचीनत्म ग्रँथ हैं। उन में लिखित ज्ञान और नैतिकता की बातें आज भी प्रासंगिक, अमूल्य तथा मानव सभ्यता की आधारशिला हैं। वेदों की भाषा तथा शैली कठिन है। पुराण उसी ज्ञान के सहज तथा रोचक संस्करण हैं। उन में जटिल तथ्यों को कथाओं के माध्यम से समझाया गया है।पुराणों मे नैतिकता, विचार, भूगोल, खगोल, राजनीति, संस्कृति, सामाजिक परम्परायें, विज्ञान तथा अन्य विषय को समावेश किया गया  हैं। विशेष तथ्य यह है कि पुराणों में देवा-देवताओं, राजाओ, और ऋषि-मुनियों के साथ साथ जन साधारण की कथायें भी उल्लेख किया गया हैं जिस से पौराणिक काल के सभी पहलूओं का चित्रण मिलता है।महृर्षि कृष्ण द्वेपायन व्यास ने 18 पुराणों का संस्कृत भाषा में संकलन किया है। ब्रह्मा ,विष्णु तथा महेश्वर उन पुराणों के मुख्य देव हैं। त्रिमूर्ति के प्रत्येक भगवान स्वरूप को छः पुराण समर्पित किये गये हैं। इन 18 पुराणों के अतिरिक्त 16 उप-पुराण भी हैं।।  मुख्य पुराणों का वर्णन इस प्रकार हैः-
1. ब्रह्म पुराण– ब्रह्म पुराण सब से प्राचीन है। इस पुराण में 246 अध्याय तथा 14000 श्र्लोक हैं। इस ग्रंथ में ब्रह्मा की महानता के अतिरिक्त सृष्टि की उत्पत्ति, गंगा आवतरण तथा रामायण और कृष्णावतार की कथायें भी संकलित हैं। इस ग्रंथ से सृष्टि की उत्पत्ति से लेकर सिन्धु घाटी सभ्यता तक की कुछ ना कुछ जानकारी प्राप्त की जा सकती है।
2. पद्म पुराण - पद्म पुराण में 55000 श्र्लोक हैं और यह गॅंथ पाँच खण्डों में विभाजित है जिन के नाम सृष्टिखण्ड, स्वर्गखण्ड, उत्तरखण्ड, भूमिखण्ड तथा पातालखण्ड हैं। इस ग्रंथ में पृथ्वी आकाश, तथा नक्षत्रों की उत्पति के बारे में उल्लेख किया गया है। चार प्रकार से जीवों की उत्पत्ति होती है जिन्हें उदिभज, स्वेदज, अणडज तथा जरायुज की श्रेणा में रखा गया है। यह वर्गीकरण पुर्णत्या वैज्ञायानिक है। भारत के सभी पर्वतों तथा नदियों के बारे में भी विस्तरित वर्णन है। इस पुराण में शकुन्तला दुष्यन्त से ले कर भगवान राम तक के कई पूर्वजों का इतिहास है। शकुन्तला दुष्यन्त के पुत्र भरत के नाम से हमारे देश का नाम जम्बूदीप से भरतखण्ड और पश्चात भारत पडा था।
3. विष्णु पुराण - विष्णु पुराण में 6 अँश तथा 23000 श्र्लोक हैं। इस ग्रंथ में भगवान विष्णु, बालक ध्रुव, तथा कृष्णावतार की कथायें संकलित हैं। इस के अतिरिक्त सम्राट पृथु की कथा भी शामिल है जिस के कारण हमारी धरती का नाम पृथ्वी पडा था। इस पुराण में सू्र्यवँशी तथा चन्द्रवँशी राजाओं का इतिहास है। भारत की राष्ट्रीय पहचान सदियों पुरानी है जिस का प्रमाण विष्णु पुराण के निम्नलिखित शलोक में मिलता हैःउत्तरं यत्समुद्रस्य हिमाद्रेश्चैव दक्षिणम्। वर्षं तद भारतं नाम भारती यत्र सन्ततिः।(साधारण शब्दों में इस का अर्थ है कि वह भूगौलिक क्षेत्र जो उत्तर में हिमालय तथा दक्षिण में सागर से घिरा हुआ है भारत देश है तथा उस में निवास करने वाले सभी जन भारत देश की ही संतान हैं।) भारत देश और भारत वासियों की इस से स्पष्ट पहचान और क्या हो सकती है? विष्णु पुराण वास्तव में ऐक ऐतिहासिक ग्रंथ है।
4. शिव पुराण– शिव पुराण में 24000 श्र्लोक हैं तथा यह सात संहिताओं में विभाजित है। इस ग्रंथ में भगवान शिव की महानता तथा उन से सम्बन्धित घटनाओं को दर्शाया गया है। इस ग्रंथ को वायु पुराण भी कहते हैं। इस में कैलास पर्वत, शिवलिंग तथा रुद्राक्ष का वर्णन और महत्व, सप्ताह के दिनों के नामों की रचना, प्रजापतियों तथा काम पर विजय पाने के सम्बन्ध में वर्णन किया गया है। सप्ताह के दिनों के नाम हमारे सौर मण्डल के ग्रहों पर आधारित हैं और आज भी लगभग समस्त विश्व में प्रयोग किये जाते हैं।
5. भागवत पुराण – भागवत पुराण में 18000 श्र्लोक हैं तथा 12 स्कंध हैं। इस ग्रंथ में अध्यात्मिक विषयों पर वार्तालाप है। भक्ति, ज्ञान तथा वैराग्य की महानता को दर्शाया गया है। विष्णु और कृष्णावतार की कथाओं के अतिरिक्त महाभारत काल से पूर्व के कई राजाओं, ऋषि मुनियों तथा असुरों की कथायें भी संकलित हैं। इस ग्रंथ में महाभारत युद्ध के पश्चात श्रीकृष्ण का देहत्याग, द्वारका नगरी के जलमग्न होने और यादव वँशियों के नाश तक का विवर्ण भी दिया गया है।
6. नारद पुराण - नारद पुराण में 25000 श्र्लोक हैं तथा इस के दो भाग हैं। इस ग्रंथ में सभी 18 पुराणों का सार दिया गया है। प्रथम भाग में मन्त्र तथा मृत्यु पश्चात के क्रम आदि के विधान हैं। गंगा अवतरण की कथा भी विस्तार पूर्वक दी गयी है। दूसरे भाग में संगीत के सातों स्वरों, सप्तक के मन्द्र, मध्य तथा तार स्थानों, मूर्छनाओं, शुद्ध ऐवम कूट तानो और स्वरमण्डल का ज्ञान लिखित है। संगीत पद्धति का यह ज्ञान आज भी भारतीय संगीत का आधार है। जो पाश्चात्य संगीत की चकाचौंध से चकित हो जाते हैं उन के लिये उल्लेखनीय तथ्य यह है कि नारद पुराण के कई शताब्दी पश्चात तक भी पाश्चात्य संगीत में केवल पाँच स्वर होते थे तथा संगीत की थि्योरी का विकास शून्य के बराबर था। मूर्छनाओं के आधार पर ही पाश्चात्य संगीत के स्केल बने है।
7.मार्कण्डेय पुराण – अन्य पुराणों की अपेक्षा यह छोटा पुराण है। मार्कण्डेय पुराण में 9000 श्र्लोक तथा 137 अध्याय हैं। इस ग्रंथ में सामाजिक न्याय और योग के विषय में ऋषि मार्कण्डेय तथा ऋषि जैमिनि के मध्य वार्तालाप है। इस के अतिरिक्त भगवती दुर्गा तथा श्रीक़ृष्ण से जुड़ी हुयी कथायें भी संकलित हैं।
8.अग्नि पुराण – अग्नि पुराण में 383 अध्याय तथा 15000 श्र्लोक हैं। इस पुराण को भारतीय संस्कृति का ज्ञानकोष (इनसाईक्लोपीडिया) कह सकते है। इस ग्रंथ में मत्स्यावतार, रामायण तथा महाभारत की संक्षिप्त कथायें भी संकलित हैं। इस के अतिरिक्त कई विषयों पर वार्तालाप है जिन में धनुर्वेद, गान्धर्व वेद तथा आयुर्वेद मुख्य हैं। धनुर्वेद, गान्धर्व वेद तथा आयुर्वेद को उप-वेद भी कहा जाता है।
9. भविष्य पुराण – भविष्य पुराण में 129 अध्याय तथा 28000 श्र्लोक हैं। इस ग्रंथ में सूर्य का महत्व, वर्ष के 12 महीनों का निर्माण, भारत के सामाजिक, धार्मिक तथा शैक्षिक विधानों आदि कई विषयों पर वार्तालाप है। इस पुराण में साँपों की पहचान, विष तथा विषदंश सम्बन्धी महत्वपूर्ण जानकारी भी दी गयी है। इस पुराण में पुराने राजवँशों के अतिरिक्त भविष्य में आने वाले नन्द वँश, मौर्य वँशों, मुग़ल वँश, छत्रपति शिवा जी तक का वृतान्त भी दिया गया है । सत्य नारायण की कथा भी इसी पुराण से ली गयी है। यह पुराण भी भारतीय इतिहास का महत्वशाली स्त्रोत्र है जिस पर शोध कार्य करना चाहिये।
10. ब्रह्मवैवर्त पुराण – ब्रह्मवैवर्त पुराण में 18000 श्र्लोक तथा 218 अध्याय हैं। इस ग्रंथ में ब्रह्मा, गणेश, तुल्सी, सावित्री, लक्ष्म सरस्वती तथा क़ृष्ण की महानता को दर्शाया गया है तथा उन से जुड़ी हुयी कथायें संकलित हैं। इस पुराण में आयुर्वेद सम्बन्धी ज्ञान भी संकलित है।
11. लिंग पुराण – लिंग पुराण में 11000 श्र्लोक और 163 अध्याय हैं। सृष्टि की उत्पत्ति तथा खगौलिक काल में युग, कल्प आदि की तालिका का वर्णन है। राजा अम्बरीष की कथा भी इसी पुराण में लिखित है। इस ग्रंथ में अघोर मंत्रों तथा अघोर विद्या के सम्बन्ध में भी उल्लेख किया गया है।
12. वराह पुराण – वराह पुराण में 217 स्कन्ध तथा 10000 श्र्लोक हैं। इस ग्रंथ में वराह अवतार की कथा के अतिरिक्त भागवत गीता महामात्या का भी विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है। इस पुराण में सृष्टि के विकास, स्वर्ग, पाताल तथा अन्य लोकों का वर्णन भी दिया गया है। श्राद्ध पद्धति, सूर्य के उत्तरायण तथा दक्षिणायन विचरने, अमावस और पूर्णमासी के कारणों का वर्णन है। महत्व की बात यह है कि जो भूगौलिक और खगौलिक तथ्य इस पुराण में संकलित हैं वही तथ्य पाश्चात्य जगत के वैज्ञिानिकों को पंद्रहवी शताब्दी के बाद ही पता चले थे।
13.स्कन्द पुराण – स्कन्द पुराण सब से विशाल पुराण है तथा इस पुराण में 81000 श्र्लोक और छः खण्ड हैं। सकन्द पुराण में प्राचीन भारत का भूगौलिक वर्णन है जिस में 27 नक्षत्रों, 18 नदियों, अरुणाचल प्रदेश का सौंदर्य, भारत में स्थित 12 ज्योतिर्लिंगों, तथा गंगा अवतरण के आख्यान शामिल हैं। इसी पुराण में स्याहाद्री पर्वत श्रंखला तथा कन्या कुमारी मन्दिर का उल्लेख भी किया गया है। इसी पुराण में सोमदेव, तारा तथा उन के पुत्र बुद्ध ग्रह की उत्पत्ति की अलंकारमयी कथा भी है।
14. वामन पुराण - वामन पुराण में 95 अध्याय तथा 10000 श्र्लोक तथा दो खण्ड हैं। इस पुराण का केवल प्रथम खण्ड ही उप्लब्द्ध है। इस पुराण में वामन अवतार की कथा विस्तार से कही गयी हैं जो भरूचकच्छ (गुजरात) में हुआ था। इस के अतिरिक्त इस ग्रंथ में भी सृष्टि, जम्बूद तथा अन्य सात दूीपों की उत्पत्ति, पृथ्वी की भूगौलिक स्थिति, महत्वशाली पर्वतों, नदियों तथा भारत के खण्डों का जिक्र है।
15. कुर्र्म पुराण  – कुर्म पुराण में 18000 श्र्लोक तथा चार खण्ड हैं। इस पुराण में चारों वेदों का सार संक्षिप्त रूप में दिया गया है। कुर्मा पुराण में कुर्मा अवतार से सम्बन्धित सागर मंथन की कथा विस्तार पूर्वक लिखी गयी है। इस में ब्रह्मा, शिव, विष्णु, पृथ्वी, गंगा की उत्पत्ति, चारों युगों, मानव जीवन के चार आश्रम धर्मों, तथा चन्द्रवँशी राजाओं के बारे में भी वर्णन है।
16.मत्स्य पुराण – मत्स्य पुराण में 290 अध्याय तथा 14000 श्र्लोक हैं। इस ग्रंथ में मतस्य अवतार की कथा का विस्तरित उल्लेख किया गया है। सृष्टि की उत्पत्ति हमारे सौर मण्डल के सभी ग्रहों, चारों युगों तथा चन्द्रवँशी राजाओं का इतिहास वर्णित है। कच, देवयानी, शर्मिष्ठा तथा राजा ययाति की रोचक कथा भी इसी पुराण में है।
17.गरूड़ पुराण – गरुड़ पुराण में 279 अध्याय तथा 18000 श्र्लोक हैं। इस ग्रंथ में मृत्यु पश्चात की घटनाओं, प्रेत लोक, यम लोक, नरक तथा 84 लाख योनियों के नरक स्वरुपी जीवन आदि के बारे में विस्तार से बताया गया है। इस पुराण में कई सूर्यवँशी तथा चन्द्रवँशी राजाओं का वर्णन भी है। साधारण लोग इस ग्रंथ को पढ़ने से हिचकिचाते हैं क्यों कि इस ग्रंथ को किसी सम्वन्धी या परिचित की मृत्यु होने के पश्चात ही पढ़वाया जाता है। वास्तव में इस पुराण में मृत्यु पश्चात पुनर्जन्म होने पर गर्भ में स्थित भ्रूण की वैज्ञानिक अवस्था सांकेतिक रूप से बखान की गयी है जिसे वैतरणी नदी आदि की संज्ञा दी गयी है। समस्त योरुप में उस समय तक भ्रूण के विकास के बारे में कोई भी वैज्ञानिक जानकारी नहीं थी। अंग्रेज़ी साहित्य में जान बनियन की कृति दि पिलग्रिम्स प्रौग्रेस कदाचित इस ग्रंथ से परेरित लगती है जिस में एक एवेंजलिस्ट मानव को क्रिस्चियन बनने के लिय त्साहित करते दिखाया है ताकि वह नरक से बच सके। 
18.ब्रह्माण्ड पुराण - ब्रह्माण्ड पुराण में 12000 श्र्लोक तथा पू्र्व, मध्य और उत्तर तीन भाग हैं। मान्यता है कि अध्यात्म रामायण पहले ब्रह्माण्ड पुराण का ही एक अंश थी जो अभी एक प्रथक ग्रंथ है। इस पुराण में ब्रह्माण्ड में स्थित ग्रहों के बारे में वर्णन किया गया है। कई सूर्यवँशी तथा चन्द्रवँशी राजाओं का इतिहास भी संकलित है। सृष्टि की उत्पत्ति के समय से ले कर अभी तक सात मनोवन्तर (काल) बीत चुके हैं जिन का विस्तरित वर्णन इस ग्रंथ में किया गया है। परशुराम की कथा भी इस पुराण में दी गयी है। इस ग्रँथ को विश्व का प्रथम खगोल शास्त्र कह सकते है।
 भारत के ऋषि इस पुराण के ज्ञान को इण्डोनेशिया भी ले कर गये थे जिस के प्रमाण इण्डोनेशिया की भाषा में मिलते है।भारतीय पौराणिक इतिहास की तरह अन्य देशों में भी महामानवों, दैत्यों, देवों, राजाओं तथा साधारण नागरिकों की कथायें प्रचिलित हैं। कईयों के नाम उच्चारण तथा भाषाओं की विभिन्नता के कारण बिगड़ भी चुके हैं जैसे कि हरिकुल ईश से हरकुलिस, कश्यप सागर से केस्पियन सी, तथा शम्भूसिहं से शिन बू सिन आदि बन गये। तक्षक के नाम से तक्षशिला और तक्षकखण्ड से ताशकन्द बन गये। यह विवरण अवश्य ही किसी ना किसी ऐतिहासिक घटना कई ओर संकेत करते हैं।
पुरातन  काल में इतिहास, आख्यान, संहिता तथा पुराण को एक ही अर्थ में प्रयोग किया जाता था। इतिहास लिखने का कोई रिवाज नहीं था और राजाओ नें कल्पना शक्तियों से भी अपनी वंशावलियों को सूर्य और चन्द्र वंशों से जोडा है। इस कारण पौराणिक कथायें इतिहास, साहित्य तथा दंत कथाओं का मिश्रण हैं।रामायण, महाभारत तथा पुराण हमारे प्राचीन इतिहास के बहुमूल्य स्त्रोत्र हैं जिन को केवल साहित्य समझ कर अछूता छोड़ दिया गया है। इतिहास की विक्षप्त श्रंखलाओं को पुनः जोड़ने के लिये हमें पुराणों तथा महाकाव्यों में वर्णन की गई विचारों का मानवीय मूल्यों को अपनाना चाहिए .।            
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गुरुवार, जून 18, 2020

वर्णाकार की शक्ति प्रकृति का द्योतक...


भारतीय ग्रंथों और जीवन को संरक्षित करने के लिए शक्ति की प्रधानता दी गई है। शक्ति सृष्टि की नाडी और चेतना का प्रवाह है। शक्ति ही देवित्य है। ऋग्वेद,देव्यूपनिषद, पुराणों, उपनिषद् में देवों की कारण भूता,भुक्ति , मुक्ति और सत्व- रज- तम शक्ति की सुंदर उल्लेख किया गया है। पुराणों के अनुसार दक्ष प्रजापति की कन्या सती ने अपने पिता द्वारा उत्तराखंड राज्य के मायानगरी हरिद्वार की भूमि पर ब्रमेश्ठी यज्ञ करने में भगवान् शिव का निमंत्रण नहीं देने तथा उनका अपमान नहीं देने पर सती ने अपने आप को योग बल से यज्ञ में आहुति दे दी थी। माता सती द्वारा किए गए अपने शरीर को ब्रह्मेश्ठी यज्ञ में आहुति देने संबंधी जानकारी भगवान् शिव को बड़ा क्रोध, क्षोभ और मोह हुए थे। भगवान् शिव ने यज्ञ तथा यक्ष को नष्ट कर माता सती के शव को भू पर घूमने पर सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड भयाक्रांत हो गया था। भगवान् शिव के मोह, क्रोध को समाप्त और शांति के लिए सर्वदेव भगवान् विष्णु ने अपने सुदर्शन चक्र से भगवान् शिव के कंधे पर माता सती के शव के विभिन्न अंगों को भिन्न भिन्न स्थलों पर गिरने पर वह शक्ति पीठ  बना । माता सती के शरीर के  ऊर्ध्वभाग का अंग गिरे वहां दक्षिण मार्ग एवं हृदय से निम्न भाग के अंगों को गिरने वाम मार्ग और अन्य अंगों के विभिन्न स्थलों पर पतन होने के कारण 51 शक्ति पीठ बने है।51 शक्ति पीठ वर्ण मालाएं का रूप है। असम के कामरूप जिला का ब्रह्मपुत्र नदी के किनारे नीलांचल पर्वत पर सती का योनि पात होने के कारण वह स्थान कामाख्या पीठ हुआ। कामाख्या अ कार का उत्पति स्थान एवं श्री विद्या अधिष्ठित है जहां  अनिमादि सिद्धियां प्राप्ति होती है। लोमसे उत्पन्न इसके वंश नमक उप पीठ है जहां साबर मंत्रो की सिद्धि होती है। यहां भैरव के रूप में उमानंद शिव है। उत्तरप्रदेश के वाराणसी जिले का काशी में माता सती के स्तनों का पतन होने के कारण आ कार उत्पन्न हुआ जिसे कशिका पीठ कहा गया है।सती के स्तन से असी और वरणा नदी की धाराएं निकली है। असी के तट पर दक्षिण सारनाथ तथा वरणा से उतर उतर सारनाथ उप शक्ति पीठ है। गंगा के किनारे सती का कर्ण मणि का पतन स्थल को श्री विशालाक्षी शक्ति पीठ कहा गया है तथा विशालक्षिश्वर शिव लिंग स्थापित है। यहां दक्षिण एवं उतर मार्ग की सिद्धियां प्राप्त होती है। यहां काल भैरव है। वहां पर देह त्याग करने से मुक्ति मिलती है और शिव लोक जाता है।
 माता सती का गुह्य भाग का पतन हुए ेवहां इ कार की उत्पति हुई थी जिसे वाम मार्ग का मूल स्थान कहा जाता है। यहां 56 लाख भैरव और भैरवी,2 हजार शक्तियां,300 पीठ एवं 14 श्मशान है। यह स्थान कालांतर में नेपाल पीठ के नाम से ख्याति मिली है।: यहां का चार पीठ वैदिक मंत्र होते है। नेपाल पीठ के पूर्व भाग में मल का पतन हुआ वहां किरात का निवास हो गया और 30 हजार देव योनियों का निवास है। यही पर चंद्रघंटा योगनी रहने लगी। नेपाल के काठमांडू का पशुपति नाथ नेपाल के प्राचीन काल का बागमती नदी के किनारे शलेमांतक वन में शक्ति पीठ गुहेश्वरी माता तथा सिद्धेश्वर शिव लिंग ब्रह्मा जी द्वारा स्थापित है। माता सती का दोनों जानू के पतन होने के कारण महामाया शक्ति पीठ और भैरव के रूप में कपाल विराजमान है। रौद्र पर्वत पर माता सती का वाम नेत्र का पतन होने के कारण ई कार की उत्पति से महत पीठ हुए जहां पर वामचार से मंत्र सिद्धि की जाती है। उ कार का उत्पति स्थान माता सती के वाम कर्ण का पतन कश्मीर में होने के कारण कश्मीर शक्ति पीठ हुआ है। यहां सर्व विध मंत्रों की सिद्धि होती हैं। ॐ कार की उत्पति माता सती के दक्षिण कर्ण का पतन स्थल गंगा जमुना नदी के मध्य अंतरवेदी कान्यकुब्ज शक्ति पीठ में हुआ है। यहां ब्रह्मा आदि देवों द्वारा अतंर्वेदी तीर्थो का निर्माण किया गया है। यहां वेद मंत्रों की सिद्धि होती है। कर्ण के मल पतन यमुना नदी के किनारे होने के कारण इंद्रप्रस्थ उपशक्ति पीठ हुआ। वर्तमान में यमुना नदी के किनारे इंद्रप्रस्थ में पांडवों की राजधानी बनी कालांतर दिल्ली कहा गया है। इंद्रप्रस्थ पीठ के प्रभाव से ब्रह्मा जी को वेद पून: उपलब्ध हुए थे। ऋ कार की उत्पति नासिका के पतन पूर्ण गिरि पर होने के कारण पूर्ण गिरि शक्ति पीठ हुए। यह स्थल नासिक के नाम से विख्यात है। पूर्ण गिरि शक्ति पीठ से योग सिद्धि एवं मंत्रधिष्ठातृदेव प्रत्यक्ष दर्शन एवं मनोकामना पूर्ण होती है।ऋट् कार का प्रादुर्भाव वाम गंड स्थल का पतन अर्बुदाचल पर्वत पर होनें के कारण आर्बुदाचल शक्ति पीठ का निर्माण हुआ। इस पीठ को अंबिका शक्ति पीठ नाम से ख्याति है। यहां वाम मार्ग की सिद्धि मिलती है। लृ कार की उत्पत्ति दक्षिण गंड स्थल का पतन अम्रत में होने के कारण आम्रात केश्वर शक्ति पीठ का निर्माण हुआ । यहां यक्ष, यक्षणियों का निवास तथा धनादियों का निवास है। लृट् कार की उत्पति नखों के पतन स्थान एकाम्र में होने के कारण एकाम्र शक्ति पीठ का निर्माण हुआ है। यहां विद्या प्रदाई स्थल है। ए कार की उत्पति त्रयवली पतन के कारण अर्थात माता सती के पूर्व, पछिम, दक्षिण के वस्त्र तीन खंड में गिरने से वह स्थल तीन उप पीठ हुए थे जिसे त्रय स्त्रोत्र पीठ बने है। यहां पौष्टिक मंत्रों की सिद्धि मिलती है। ऐ कार का प्रादुर्भाव नाभि के पतन कामकोटि पीठ से हुआ है। यहां अप्सरा का निवास है। सभी मनोकामनाएं प्राप्ति स्थल है। यहां चार उप पीठ है। ओ कार की उत्पति माता सती के उंगुलिया का पतनं हिमालय पर्वत पर होने के कारण हुई थी जिसे कैलाश शक्ति पीठ के नाम से ख्याति प्राप्त है। यहां अंगुलियां लिंग रूप में स्थापित है। यहां कर मला से मंत्र करने पर तत्कक्षण सिद्धि मिलती है।माता सती के दांतों के पतन भृगु क्षेत्र में गिरने से औ कार का उत्पति हुई। यह स्थल भृगु शक्ति पीठ की स्थापना हुई। यहां वैदिक आदि मंत्र सिद्ध होते है। अं कार की उत्पति दक्षिण करतल का पतन केदार खंड में होने से हुई थी। वह स्थल केदार शक्तिपीठ की स्थापना और उसके दक्षिण में कंगन के पतन स्थान में अगस्त आश्रम के समीप सिद्ध उप शक्ति पीठ तथा उसके पश्चिम में मुंद्रिका के पतन स्थल को इन्द्राक्षी शक्ति उप पीठ रेवती नदी के तट पर वलय के पतन स्थान में राजराजेश्वरी शक्ति उप पीठ की स्थापना हुई थी। अ:  कार की उत्पति वाम गन्ड की निपत भूमि चन्द्र पुर पतन होने के कारण चंद्रपुर शक्ति पीठ हुआ। यहां सभी मंत्र सिद्ध होते है। क  कार की उत्पति माता सती के मस्तक का पतन श्री पीठ में होने से हुआ था। श्री पीठ के पूर्व में कर्ण भरण के पतन से उप शक्ति पीठ जहां ब्रह्मविद्या प्रकाशिका ब्राह्मी शक्ति का निवास, अग्नि कोण में कर्णार्धाभरन के पतन से माहेश्वरी उप शक्ति पीठ, दक्षिण में पत्रवल्ली की पतन भूमि कुमारी शक्ति उप पीठ,नईऋत्य कोण में कंठ माल के पतन स्थल को इंद्रजाल विद्या शक्ति उप पीठ, वैष्णवी शक्ति उप पीठ, पश्चिम में नशाभौमिक पतन से वाराही शक्ति उप पीठ, वायु कोण में मस्तका भरण के पतन स्थान में चामुंडा शक्ति युक्त क्षुद्रदेवता सिद्धिका शक्ति उप पीठ और ईशान कोण में केशाभरण पतन से महालक्ष्मी द्वारा स्थापित शक्ति उप पीठ की स्थापना की गई। ख कार की उत्पति कंचुकी की पतन भूमि ज्योतिष्मती द्वारा की गई। यहां नर्मदा शक्ति पीठ और महर्षि जीवनमुक्त की जन्म भूमि है। वक्ष स्थल के पतन से ग कार की उत्पति हुई थी। वह स्थल ज्वालामुखी शक्ति पीठ हुए। ज्वालामुखी शक्ति पीठ में अग्नि ने तपस्या कर देवामुख प्राप्त किए थे। बाम स्कंध के पतन स्थान मालव शक्ति पीठ से घ कार की उत्पति हुई थी जिसे मालव शक्ति पीठ कहा जाता है। यहां गंधर्वो के राग ज्ञान के सिद्धि स्थल के रूप में स्थापित है। ड्. कार की उत्पति दक्षिण कक्ष का पतन होने पर हुआ था। वह स्थल कुलांतक शक्ति पीठ स्थापित कर मारण, मोहन तथा उच्चाटन मंत्र की सिद्धि प्राप्त करते है।

रविवार, जून 14, 2020

मानवीय मूल्यों का द्योतक लिपि और भाषा

मानवीय मूल्यों की पहचान लिपि और भाषा
सत्येन्द्र कुमार पाठक
विश्व की मानवीय एवं जीवों की पहचान  लिपि और भाषा है। विश्व भर में 89 लिपि है जिसमें सिंधु लिपि, ब्राह्मी लिपि, खरोष्टी लिपि वत्तेलुत्तू, कदंब, सारदा, गुरुमुखी, मोड़ी, देवनागरी, शंख लिपि, रोमन लिपि , अरबी लिपि, है। कई लीपिया का अभी तक पढ़ी नहीं जा सका है। भारतीय ग्रंथ नारद स्मृति, वृहस्पति स्मृति ललितविस्तर सूत्र तथा पाण वणा सूत्र के अनुसार 600 ई. पू. में 18 लिपियों में प्रथम लिपि ब्राह्मी लिपि की चर्चा की गई है। जैन धर्म के प्रवर्तक ऋषभ देव की बंपी को पढ़ाने के लिए ब्राह्मी लिपि का आविष्कार हुआ था जिसका उपयोग सम्राट अशोक ने गुहालेखन और स्तंभ लेखन में किया है । 250-232 ई., पू. सम्राट अशोक का शिलालेख ब्राह्मी लिपि का कुत्वाचन अध्ययन 1837 में जोन्स प्रीसेप द्वारा की गई है। यह लिपि समकालीन शामी सेमिटिक लिपि सिंधु लिपि से उत्पन्न हुई। दक्षिण पूर्व एशिया में जीवित इंडक लीपियां ब्राह्मी की संतान है। ध्वनियों की जिन चिहन का प्रयोग किया जाता है वह लिपि है। मानव जीवन के प्रारंभ में भाव चित्रात्मक लिपि में मानव, जीव, जंतु तथा चित्रत्मक लिपि का प्रयोग इंसान करना प्रारंभ किया था। बाद में चिह्न लेखन, शब्द चिहनात्मक, अक्षरात्मक, अर्धक्षारत्मक, खंड युक्त, लक्षणात्मक, दिग्दर्शन वर्णनात्मक, रैखिक वर्णनात्मक, अन्यरैदिवक वर्ण, ब्राइले, ब्राह्मी परिवार की आबुगीदा, लिपियां है जिसकी खोज की गई परन्तु बायलोस, रुनी, बोरमा, ओल, चि , शंख लिपि की खोज अभी तक नहीं हो सकी है और नहीं पढ़ी गई है। खारोष्टी लिपि ईसा पूर्व तीसरी शताब्दी में जेम्स प्रिसेस द्वारा खोज की गई उसी तरह अबुगीडा जिसे रोमन लिपि प्रारंभ हुआ है।
भारतीय पुरालेखों का अध्ययन के अनुसार पशु पक्षी की लिपि सांकेतिक लिपि और मूक मानव भी सांकेतिक लिपि का प्रयोग करते है। बाद में मानव जीवन में सिन्हित लिपि का प्रयोग किया गया है। चित्र लिपि का प्रयोग चीन, जापान, कोरिया ब्राह्मी लिपि का एशिया भारत, नेपाल, तिब्बत, मलेशिया, फॉनेशियान लिपि यूरोप, अफ्रीका, मध्य एशिया, लैटिन लिपि या रोमन लिपि का प्रयोग अंग्रेजी, फंसिसी, जर्मन, यूरोप, यूनानी लिपि का यूनानी भाषा, गणितीय चिन्ह, अरबी लिपि का अरबी, फारसी, उर्दू,, सिरिलिक लिपि का सोवियत रूस, देवनागरी लिपि हिंदी, संस्कृति, मराठी, नेपाली, गुरुमुखी लिपि पंजाबी, तमिल, गुजराती, बांग्ला, कनो लिपि जापानी, मिस्त्री लिपि चीनी लिपि कांजी लिपि का प्रयोग विभिन्न देशों में की जाती है।: भारतीय लिपियों की जननी ब्राह्मी लिपि से देवनागरी, तमिल, तेलगु, कन्नड, ओड़िया, बांग्ला लिपियों का उदय हुआ है। सिंधु घाटी सभ्यता द्वारा सिंधु लिपि प्रितिकों के माध्यम से होता था। गुप्त साम्राज्य में ब्राह्मी से उत्पन्न नागरी, शारदा और सिद्धम लिपि हुआ। इन  लिपियों के द्वारा भारत की देवनागरी, कैथी ,गुरमुखी, असमिया, बांग्ला तथा तिब्बती लिपि की उत्पति हुई है। खरोष्ठी लिपि को अबुगीदा बाएं से दाएं लिखी जाती है और रोमन अंको के समान होता है। गांधार में प्राचीन लिपि खारोष्ठी लिपि है। वत्तेलुत्त दक्षिण भारत की लिपि, कदंब लिपि 4 थीं से 6 ठी शताब्दी में कदंब राजवंश के शासन के दौरान विकसित थी बाद में कन्नड और तेलगु लिपि हो गई। ग्रंथ लिपि का प्रयोग छठी शताब्दी में हुई वहीं शारदा लिपि 8 वीं शताब्दी में प्रारंभ संस्कृत तथा कश्मिरी लिखने में प्रयुक्त किया गया था। शारदा लिपि 16 वीं शताब्दी में गुरु अंगद द्वारा मानवीकृत कर गुरुग्रंथ साहिब लिखा गया तथा देवनागरी लिपि भारत और नेपाल की अबुगिदा लेखन प्रणाली बाएं से दाएं लिखे गए है। देवनागरी लिपि का इस्तेमाल 120 भाषाओं से अधिक यथा संस्कृत, हिंदी, नेपाली, पाली, मागधी, कोंकणी, बोडो, सिंधी, मैथिली, भोजपुरी, आदि भाषाओं में किया जाता है। मोड़ी लिपि अबुगंडा लेखन प्रणाली है। संकेत लिपि को संकेत प्रणाली कहा जाता है। इस प्रणाली को आधुनिक नाम शॉर्ट हैंड मैथड कहा जाता है। बाएं से दाएं लिखने वाली अरबी लिपि से शाहमुखी लिपि, उर्दू लिपि 13 वीं शताब्दी में प्रयोग पूर्व में नस्तालिक शैली में होता था। विश्व में मानव की संकृतिक, धार्मिक, राजनयिक, वैज्ञानिक वाणिज्यिक प्रयोजनों के लिए विभिन्न लिपि का प्रयोग किया जाता है । मानवीय लेखन से भाषा के साथ लिपियों का विकास प्रारंभ हुआ है। भाषा से सांस्कृतिक, जीवन शैली, समाज का विकास के साथ ध्वनि और वाणी का संचार हुआ है।1961 के जनगणना और भाषा अनुसंधान केंद्र बड़ोदरा के अनुसार विश्व में 1100 भाषाएं थी जिसमे 220 भाषाएं लुप्त हो गई तथा 780 भाषाएं है। भारत में बोले जाने वाली भाषा 187 है जिसमें 94 भाषाएं 10000 से कम लोगों द्वारा बोली जाती है। भारत के संविधान के 8 वीं अनुसूची में 22 भाषाएं शामिल है। भारतीय भाषाएं उपसमूह में भारतीय आर्य समूह, द्रविड़ समूह, चीनी तिब्बती समूह, नीग्रो समूह शामिल है। प्राचीन भारतीय आर्य भाषा का विकास 1500 ई. पू. संस्कृति भाषा से प्रारंभ हुआ जिसमें वेदों, पुराणों, उपनिषदों रामायण, गीता, महाभारत आदि ग्रंथों की रचना संस्कृत में हुई है।200 ई., पू. तक संस्कृति भाषा चरम पर थी।1000 ई. में संस्कृत के साथ प्राकृत भाषा का उदय प्रारंभ हुआ। प्राकृत भाषा को मागधी , अर्द्ध मागधी भाषा का उपयोग जैन धर्म आगमो में किया गया है। प्राकृत भाषा से पाली, मगधी , शौरसेनी भाषा का इस्तेमाल बौद्ध एवं जैन धर्म के अनुयायिों द्वारा किया जाने लगा वहीं महाराष्ट्री प्राकृत भाषा 9 वीं शताब्दी, इलू श्री लंका तथा छठी शताब्दी में गुणाभ्य ने पैशाची प्राकृत जिसे भूत भाषा कहा गया है। पैशाची भाषा का प्रयोग जादू टोना, भूत प्रेत के लिए किया जाता है।
भाषा विज्ञान के अनुसार विश्व में बोले जाने वाले भाषाओं की संख्या 6900 है। भारत में  2001 के जनगणना के आधार पर हिन्दी भाषियों की संख्या 422048642 तथा विश्व में तीसरा स्थान है। बिहार की मगही भाषाई की संख्या 13978565, भोजपुरी भाषाई 33015420 तथा मैथिली भाषाई 12178673 है। अंगिका और वज्जिका भाषाएं खतरे में है।29 भाषाएं का प्रयोग 10 लाख करते है। विश्व में 35 करोड़ की मातृभाषा अंग्रेजी और 35 करोड़ लोग अंग्रेजी को संपर्क भाषा के रूप में इस्तेमाल करते है। अमेरिका के भाषा विद विलियम लेबोब ने भाषा विज्ञान की स्थापना 1977 ई. में की थी। मंडारिन भाषा अर्थात चीन भाषा है जिसकी बोलने वालो की संख्या विश्व में प्रथम स्थान है।537 भाषा का प्रयोग कम है 46 भाषाएं। लुप्त प्राय हो गई है। भाषा समन्वय और समाज को एकीकृत करने का मार्ग प्रशस्त करता है।
बिहार राज्य का जहणबाबद जिले के बराबर पर्वत समूह में सम्राट अशोक द्वारा ब्राह्मी लिपि और प्राकृत भाषा में गुहा लेखन

शुक्रवार, जून 12, 2020

ज्योतिष और खगोलीय ज्ञान है ग्रहण


सत्येन्द्र कुमार पाठक
धार्मिक और वैज्ञानिक विवेचन में ग्रहण आकाशीय चमत्कृत का अनुपम दृश्य है। विश्व में ग्रहों की घटना भारतीय ऋषियों को पुरातन काल से ज्ञात रही है। महर्षि अत्रि ग्रह, ग्रहण ज्ञान के प्रथम ज्ञाता हुए है। ऋगवेद के 5/40/5,6,79 में महर्षि अत्रि ने सूर्य पर ग्रहण पर चमत्कारी वर्णन किया है। उन्होंने सुर्य ग्रहण पर कहा है कि है सूर्य! असुर राहु ने आप पर आक्रमण कर अंधकार से आप को ढक दिया उससे मानव, जीव, जंतु आप के रूप को देख नहीं पाए और अपने कार्य क्षेत्र में ठप हो गए है। इन्द्र ने अत्रि की सहायता से राहु की माया से सूर्य की रक्षा की थी। अत्रि ग्रंथ के अनुसार ग्रहण के प्रथम आचार्य अत्रि, मध्ययुगीन ज्योतिषविद भास्कराचार्य ने सूर्यग्रहण का विवेचन कर ग्रहण काल में जाप, दान हवन,श्राद्ध आदि का महत्व बताया है। पाश्चात्य खगोल शास्त्रियों ने आकाशीय तेजस्वी ज्योतिषीय पिंडों के सामने जब कोई अप्रकाशित अपारदर्शक पदार्थ आ जाता है तब उस अपारदर्शक पदार्थ भाग के कारण छिप जाता है तथा दूसरे परवालो के लिए छाया बन जाती है। यही छाया उपराग ग्रहण कहा जाता है। पृथ्वी के उपग्रह चंद्रमा अपारदर्शक एवं अप्रकाशित पिंड है। अंडे की आकर वाला चंद्रमा अपने भ्रमण पथ पर घूमते हुए सूर्य की परिक्रमा करता हुआ पृथ्वी की परिक्रमा करते है। चंद्रमा की अपने कक्ष की एक परिक्रमा 27 दिन 7 घंटे,43 मिनट 12 सेकंड में होती है। अपने भ्रमण पथ पर चलते हुए चंद्रमा अमावस्या को सूर्य और पृथ्वी के बीच आते है और कभी कभी सूर्य के प्रकाश को ढक लेते है जिससे सूर्य ग्रहण कहा जाता है। जब चंद्रमा पृथ्वी के पास हों राहु और केतु विंदू पर है तब उसकी परीछाई पृथ्वी पर पड़ती है। ज्योतिष शास्त्र के अनुसार जिस मार्ग पर पृथ्वी सूर्य की परिक्रमा करती है वह क्रान्तिवृत और चंद्रमा के चारो ओर का मार्ग अक्ष ये दोनों जिन विंदुओ पर एक दूसरे को काटते है उनमें एक राहु और दूसरे केतु कहा जाता है। आकाश में उतर की ओर बढ़ते हुए चंद्रमा की कक्षा जब सूर्य को काटती है तब उस संपात विंदू को राहु और दक्षिण की ओर नीचे उतरते हुए चंद्रमा की कक्ष जब सूर्य की कक्ष को पार करती है तब उस संपात विंदू को राहु कहते है। खग्रास सूर्य ग्रहण - जब अमावस्या को चद्रामा, ठीक राहु या केतु विंदू पर और पृथ्वी समीप विंदू पर हो एवं चड्रमा की गहरी छाया जितने स्थान पर हल्की परछाई पड़ती है उतने स्थानों पर खंडग्रास सूर्यग्रहण होता है। कांगण अकार सूर्य ग्रहण - जब अमावस्या को चढ्रमा ठीक राहु और केतु विंदू पर होते है किन्तु चंद्रमा पृथ्वी से दूर विंदू पर होते है वह कंगणाकार सूर्यग्रहण कहा गया है। खंडित सूर्यग्रहण - अमावस्या को चंद्रमा ठीक राहु या केतु विंदू पर नहीं होते है वल्कि उनमें से किसी एक के समीप होते है उसे खंडित सूर्य ग्रहण कहा गया है। खगोशास्त्रीयों के अनुसार 18 वर्ष 18 दिनों की अवधि में 41 सूर्य ग्रहण लगते है। खग्रास सूर्य ग्रहण 2 घंटे लगते है। यह ग्रहण को दिव्य कहा गया है। भारतीय और मागधीय प्राचीन खगोल शास्त्री आर्यभट्ट और ब्रह्मगुप्त के अनुसार ग्रहण केवल सूर्य और चंद्रमा में नहीं होते बल्कि अन्य ग्रहों एवं उप ग्रहों पर लगते है।
ज्योतिष विदों तथा ज्योतिष शास्त्र के अनुसार 2020 में 6 ग्रहण में चार  चन्द्र ग्रहण और 02 सूर्यग्रहण लग रहे है। वर्ष का प्रथम सूर्यग्रहण 21 जून 2020 रविवार और अंतिम 14 दिसंबर 2020 को लग रहा है। 21 जून 1955,,1963,1982,2001, के बाद 21 जून 2020 को वर्ष का प्रथम सूर्य ग्रहण लग रहा है। आषाढ़ कृष्ण पक्ष पक्ष अमावस्या 2077 दिनांक 21 जून 2020 रविवार मृगशिरा नक्षत्र, मिथुन राशि पर वर्ष का प्रथम कंकड़ाकृत सूर्य  ग्रहण भारतीय समयानुसार सुबह 09 : 15 मिनट से संध्या 03:04 मिनट तक लगेगा। आंशिक प्रभाव 09:16 मिनट, स्पर्श 10:18 मिनट मध्य दोपहर 12:10 मिनट , मोक्ष 02:02 मिनट तथा अंतिम दृश्य 03:04 मिनट पर होगा। यह ग्रहण भारत के अतिरिक्त पूर्वोत्तर यूरोप, पूर्वोत्तर एशिया, उतरी आस्ट्रेलिया, मध्य अमेरिका, आदि जगहों पर दिखाई देगा। कंकड़ाकृत सूर्य ग्रहण के समय मंगल जलीय राशि मीन में स्थित होकर सूर्य, बुध, चंद्रमा राहु को देखेंगे और शनि, गुरु, शुक्र वक्र होंगे।06 ग्रह वक्र रहने से अशुभ प्रभाव पड़ता है। विश्व में अराजकता, महामारी, जनधन की हानी, आर्थिक संकट तथा अनिष्ट कार्य होंगे। यह ग्रहण वृष, मिथुन, कर्क, वृश्चिक, धनु, कुंभ राशि वालों के लिए अनिष्टकारी है।