रविवार, अगस्त 27, 2023

नालंदा की सांस्कृतिक विरासत ...


 बिहार राज्य का मगही और हिंदी भाषीय 09 नवंबर 1972 ई. में स्थापित   नालंदा जिला का मुख्यालय बिहार शरीफ है। नालन्दा ज़िले का क्षेत्रफल 2,367 कि॰मी2 (914 वर्ग मील) में 2011 जनगणना के अनुसार जनसंख्या 2,872,523 निवास बिहारशरीफ , हिलसा  और राजगीर अनुमंडल एवं प्रखंडों में गिरियक ,रहुई ,नूरसराय ,, हरनौत ,चंडी ,इस्लामपुर ,राजगीर ,अस्थावां , सरमेरा ,हिलसा ,  बिहारशरीफ , एकंगरसराय, बेन ,नगर नौसा ,कार्य परसुराय ,सिलाव , परवलपुर , कतरीसराय बिंद और थरथरी क्षेत्रों में निवास  करते है। बुद्ध और महावीर नालन्दा में कर्मक्षेत्र एवं जैन धर्म के 24वें तीर्थंकर महावीर की मोक्ष स्थली पावापुरी , बौद्ध गुरु  शारिपुत्र, का जन्म नालन्दा  और नालंदा विश्वविद्यालय नालंदा था । नालंदा का  पूर्व में अस्थामा पश्चिम में तेल्हारा  दक्षिण में गिरियक तक उत्तर में हरनौत तक है। विश्‍व के प्राचीन विश्‍वविद्यालय के अवशेषों को अपने आंँचल में समेटे नालन्‍दा बिहार का पर्यटन नालंदा विश्‍वविद्यालय के अवशेष, संग्रहालय, नव नालंदा महाविहार तथा ह्वेनसांग मेमोरियल हॉल  हैं।  राजगीर, पावापुरी, में  चीनी यात्री ह्वेनसांग ने 7वीं शताब्दी में एक वर्ष विद्यार्थी और एक शिक्षक के रूप में व्यतीत किया था। भगवान बुद्ध ने सम्राट अशोक को यहाँ उपदेश दिया था। भगवान महावीर रहे थे। नालंदा में राजगीर में गर्म पानी के झरने का निर्माण् बिम्बिसार के  शासन काल में करवाया था । राजगीर का  ब्रह्मकुण्ड, सरस्वती कुण्ड और लंगटे कुण्ड ,  चीन का मन्दिर, जापान का मन्दिर , शांति स्तूप , जरासंध का अखाड़ा , स्वर्णगुफ़ा आदि  है।  बिहार शरीफ में पुल के समीप जम्मामस्जिद स्थित है।अलेक्‍जेंडर कनिंघम द्वारा नालंदा विश्वविद्यालय अवशेषों की खोज की गई थी । नालंदा  विश्‍वविद्यालय की स्‍थापना 450 ई॰ में गुप्त शासक कुमारगुप्‍त ने की थी। नालंदा विश्‍वविद्यालय को महान शासक हर्षवर्द्धन ने   दान दिया था। हर्षवर्द्धन के बाद पाल शासकों का संरक्षण और विदेशी शासकों से   दान मिला था । नालंदा विश्‍वविद्यालय का अस्तित्‍व 12वीं शताब्‍दी तक बना रहा। 12‍वीं शताब्‍दी में कुतुबुद्दीन का सिपाह सलाहकार वख्त्यार खिलजी द्वारा नालंदा विश्‍वविद्यालय को जल‍ा डाला था  । 
नालंदा प्राचीन् काल का सबसे बड़ा अध्ययन केंद्र था तथा इसकी स्थापना पांँचवी शताब्दी ई० में हुई थी। दुनिया के सबसे प्राचीन विश्वविद्यालय के अवशेष बोधगया से 62 किलोमीटर दूर एवं पटना से 90 किलोमीटर दक्षिण में स्थित हैं। माना जाता है कि बुद्ध कई बार यहां आए थे। यही वजह है कि पांचवी से बारहवीं शताब्दी में इसे बौद्ध शिक्षा के केंद्र के रूप में भी जाना जाता था। सातवी शताब्दी ई० में ह्वेनसांग भी यहां अध्ययन के लिए आया था तथा उसने यहां की अध्ययन प्रणाली, अभ्यास और मठवासी जीवन की पवित्रता का उत्कृष्टता से वर्णन किया। उसने प्राचीनकाल के इस विश्वविद्यालय के अनूठेपन का वर्णन किया था। दुनिया के इस पहले आवासीय अंतरराष्ट्रीय विश्वविद्यालय में दुनिया भर से आए 10,000 छात्र रहकर शिक्षा लेते थे, तथा 2,000 शिक्षक उन्हें दीक्षित करते थे। यहां आने वाले छात्रों में बौद्ध यात्रियों की संख्या ज्यादा थी। गुप्त राजवंश ने प्राचीन कुषाण वास्तुशैली से निर्मित इन मठों का संरक्षण किया। यह किसी आंँगन के चारों ओर लगे कक्षों की पंक्तियों के समान दिखाई देते हैं। सम्राठ अशोक तथा हर्षवर्धन ने यहां सबसे ज्यादा मठों, विहार तथा मंदिरों का निर्माण करवाया था। हाल ही में विस्तृत खुदाई यहां संरचनाओं का पता लगाया गया है। यहां पर सन् 1951 में एक अंतरराष्ट्रीय बौद्ध शिक्षा केंद्र की स्थापना की गई थी। इसके नजदीक बिहारशरीफ है, जहां मलिक इब्राहिम बाया की दरगाह पर हर वर्ष उर्स का आयोजन किया जाता है। छठ पूजा के लिए प्रसिद्ध सूर्य मंदिर भी यहां से दो किलोमीटर दूर बडागांव में स्थित है। यहां आने वाले नालंदा के महान खंडहरों के अलावा 'नव नालंदा महाविहार संग्रहालय भी देख सकते हैं। नालंदा  विश्‍वविद्यालय के 14 हेक्टेयर क्षेत्रफल में अवशेष तथा उत्खनन में मिले इमारतों का निर्माण लाल पत्‍थर से किया गया था।विश्वविद्यालय परिसर दक्षिण से उत्तर की ओर निर्मित और मठ व  विहार परिसर के पूर्व दिशा में स्थित एवं मंदिर या चैत्‍य पश्चिम दिशा में , परिसर की सबसे मुख्‍य इमारत विहार ,  दो मंजिला इमारत  परिसर के मुख्‍य आंगन के समीप है। यह स्थल  शिक्षक अपने छात्रों को संबोधित किया करते थे।  विहार प्रार्थनालय में भगवान बुद्ध की प्रतिमा भग्न अवस्था  में  है।  मंदिर परिसर का सबसे बड़ा  मंदिर से सम्पूर्ण  क्षेत्र का विहंगम दृश्‍य , मंदिर कई छोटे-बड़े स्‍तूपों से घिरा तथा   स्‍तूपो में भगवान बुद्ध की मूर्त्तियाँ विभिन्‍न मुद्राओं में बनी हुई है। विश्‍व‍विद्यालय परिसर के विपरीत दिशा में पुरातत्‍वीय  संग्रहालय में नालंदा विश्वविद्यालय का उत्खनन से   प्राप्‍त अवशेषों में भगवान बुद्ध की विभिन्‍न प्रकार की मूर्तियां , बुद्ध की टेराकोटा मूर्तियांँ और प्रथम शताब्‍दी का दो जार ,  तांँबे की प्‍लेट, पपाषाण शिलालेख , सिक्‍के, बर्त्तन तथा 12वीं सदी के चावल के जले हुए दाने रखे हुए हैं। शिक्षा संस्‍थान पाली साहित्‍य तथा बौद्ध धर्म की पढ़ाई तथा अनुसंधान होता है। यह एक नया संस्‍थान है। ह्वेनसांग मेमोरियल हॉल में ह्वेनसांग की मूर्तियां स्थापित कर चीनीयात्री ह्वेनसांग की याद में बनाया गया है। नालन्‍दा और राजगीर के मध्‍य स्थित सिलाव मिठाई खाजा  है। सूरजपुर बड़गांव में  भगवान सूर्य  मंदिर तथा  झील सूर्यकुंड  है।
 राजगीर - नालंदा ज़िले में स्थित वैतरणी नदी के तट पर  राजगीर मगध साम्राज्य की राजधानी थी । राजगीर को वसुमतिपुर, वृहद्रथपुर, गिरिब्रज और कुशग्रपुर के  नाम से जाना जाता है। पुराणों के अनुसार राजगीर बह्मा की पवित्र यज्ञ भूमि, संस्कृति और वैभव का केन्द्र तथा जैन धर्म के 20 वे तीर्थंकर मुनिसुव्रतनाथ स्वामी के गर्भ, जन्म, तप, ज्ञान कल्याणक एवं 24 वे तीर्थंकर महावीर स्वामी के प्रथम उपदेश  स्थली  और  भगवान बुद्ध की साधनाभूमि राजगीर है।  ऋगवेद, अथर्ववेद, तैत्तिरीय उपनिषद, वायु पुराण, महाभारत, वाल्मीकि रामायण ,  जैनग्रंथ विविध तीर्थकल्प के अनुसार जरासंध, श्रेणिक, बिम्बसार, कनिष्क  आदि प्रसिद्ध शासकों का निवास स्थान राजगीर  था। मगध सम्राट  जरासंध ने भगवान श्रीकृष्ण को हराकर मथुरा से द्वारिका जाने को विवश किया था। पांडव पुत्र भीम एवं वृहरथ वंशीय जरासंध के बीच मॉल युद्ध होने के दौरान जरासंध मार गया था । जरासंध और भीम का मलयुद्ध स्थल को जरासंध का अखाड़ा कहा गया है ।विश्व शांति स्तूप - राजगीर पर्वत समूह की रत्नागिरि श्रंखला पर विश्व शांति स्तूप  में रोपवे, प्राचीन दिवारें, स्वर्ण भंडार ,  गुफाएँ, गृद्धकूट पर्वत है । राजगीर का निर्देशांक: 25°02′N 85°25′E / 25.03°N 85.42°E एवं समुद्रतल से ऊँचाई 73 मी (240 फीट) , 2011 की जनगणना के अनुसार जनसंख्या 41,587 आवादी वाले क्षेत्र हिंदी एवं मगही भाषीय क्षेत्र है। दक्षिण-पूर्व में पहाड़ियों और घने जंगलों के बीच बसा राजगीर धार्मिक तीर्थस्थल , सुन्दर हेल्थ रेसॉर्ट के रूप में  लोकप्रिय है।  हिन्दु, जैन और बौद्ध तीनों धर्मों के धार्मिक स्थल है । बुद्ध न केवल कई वर्षों तक कर्मक्षेत्र एवं पहली बौद्ध संगीति स्थल  थी। पंच पहाड़ियों से घिरा राजगीर वन्यजीव अभ्यारण्य प्राकृतिक सौंदर्य से परिपूर्ण तथा वन्यजीव अभ्यारण्य और  राष्ट्रीय उद्यान है। राजगीर अभ्यारण्य में वनस्पतियों और वन्यप्राणियों की कई दुर्लभ प्रजातियां देखने को मिलती है। औषधीय पौधों की कई किस्मे राजगीर के जंगलो में पाई जाती है । बचे वन्यजीवों के भविष्य को सुरक्षा को सुनिश्चित करने के दिशा में पर्यावरण एवं वन विभाग द्वारा सन् 1978 में 35.84 वर्ग किलोमीटर के राजगीर अरण्य क्षेत्र को वन्यजीव अभ्यारण्य बना  था । राजगीर के ऐतिहासिक भूमि, धार्मिक तीर्थस्थल, तीन साल पर एक बार आनेवाला बृहद मलमास मेला  लगता है। पंच पहाड़ियां रत्नागिरी, विपुलाचल, वैभारगिरि, सोनगिरि उदयगिरि  हैं । तीन तरफ से पहाड़ियों से घिरा राजगीर का घोड़ा कटोरा झील है । पर्यटक यहाँ झील में नौकायान का लुत्फ़ उठा सकते हैं और यहाँ साफ़-सफाई का भी बेहद ख्याल रखा जाता हैं । हाल ही में इसी झील के बीच भगवान बुद्ध की एक विशाल प्रतिमा भी स्थापित की गई है । अगर आप प्राकृतिक सौंदर्यता के साथ रोमांच का अनुभव और वन्यजीव को खुले जंगलों में विचरण करते देखना चाहते हैं तो राजगीर अभ्यारण्य की सैर जरूर करें और इसके लिए वसंत से बेहतर कोई ऋतु नही हो सकता क्योंकि इसके आगमन के साथ ही जंगलो में जैसे बहार आ जाती है कलियां खिलने लगती है और माँझर लगे फलों के पेड़, फलों से लदे बेर के पेड़, खेतों में लहलहाती सरसों के पिले-पिले फूल और बागों में गाती कोयल और पपीहा अद्भुत अनुभूति का एहसास करते हैं । प्रकृति सौंदर्य को निहारना स्वास्थ्य के लिए भी लाभकारी है। गृद्धकूट पर्वत पर बुद्ध ने महत्वपूर्ण उपदेश दिये थे। जापान के बुद्ध संघ ने गृद्धकूट पर्वत श्रंखला  पर “शान्ति स्तूप” का निर्माण करवाया है । शांति स्तूप के चारों कोणों पर बुद्ध की चार प्रतिमाएं स्थपित हैं। शांति स्तूप तक पहुंचने के लिए  पैदल चढ़ाई एवं “रज्जू मार्ग”  बनाया गया है । राजस्थानी चित्रकला का अद्भुत कारीगरी राजस्थानी चित्रकारों के द्वारा लाल  मन्दिर में भगवान महावीर स्वामी का गर्भगृह भूतल के निचे निर्मित  जैन तीर्थयात्री आकर भगवान महावीर के पालने को झुलाते और  मन्दिर में २० वे तीर्थंकर भगवान मुनिसुव्रतनाथ स्वामी की काले वर्ण की 11 फुट ऊँची विशाल खडगासन प्रतिमा विराजमान है । वीरशासन धाम तीर्थ में वेणु वन के समीप  भगवान महावीर स्वामी की लाल वर्ण की 11 फुट ऊँची  पद्मासन प्रतिमा है ।  पंचपहाड़ी के  दिगम्बर मन्दिर में भगवान महावीर की श्वेत वर्ण पद्मासन प्रतिमा ,  10 धातु की प्रतिमा, एक छोटी श्वेत पाषण की प्रतिमा एवं 2 धातु के मानस्तंभ , गर्भ गृह की बाहरी दिवाल के आले में बायीं ओर पद्मावती माता की पाषाण की मूर्ति ,  शिरोभाग पर पार्श्वनाथ विराजमान ,  दायीं ओर क्षेत्रपाल जी स्थित , बायीं ओर की अलग वेदी में भगवान पार्श्वनाथ एवं अन्य? प्रतिमायें अवस्थित , दाहिनी ओर नन्दीश्वर द्वीप का निर्मित है । शिखरबद्ध दिगम्बर  मन्दिर का निर्माण गिरिडीह निवासी सेठ हजारीमल किशोरीलाल ने प्रतिष्ठा विक्रम संबत 2450 में करायी थी । ब्रह्मकुंड एवं झरना - वैभव पर्वत की सीढ़ियों पर मंदिरों के बीच गर्म जल के सप्तधाराएं झरने  सप्तकर्णी गुफाओं से प्रवाहित  जल में औषधि गुण  हैं।कुंड 22 में  प्रमुख ब्रह्मकुन्ड” का जल गर्म (४५ डिग्री  है। स्वर्ण भंडार - मगध साम्राज्य का सम्राट वृहरथ वंशी  जरासंध का सोने का खजाना वैभार  पर्वत की गुफा के अन्दर अतुल मात्रा में सोना छुपा और पत्थर के दरवाजे पर खोलने का रहस्य शांख्य व शंख भाषा में खुदा और शांख्य भाषा व प्राकृत भाषा मगध राजा बिंदुसार के शासन काल में प्रचलित  थी। . विपुलाचल पर्वत पर जैन धर्म के 24 वे तीर्थंकर भगवान महावीर स्वामी की प्रथम वाणी इसी विपुलाचल पर्वत से  विश्व को "जिओ और जीने दो" दिव्य सन्देश विपुलाचल पर्वत से दिया था । पहाड़ों की कंदराओं के बीच बने २६ जैन मंदिर है । जैन धर्म के अनुयायियों की  विपुलाचल, सोनागिरि, रत्नागिरि, उदयगिरि, वैभारगिरि  पहाड़ियाँ प्रसिद्ध हैं। जैन मान्यताओं के अनुसार इन पर 23 तीर्थंकरों का समवशरण  तथा जैन  मुनि मोक्ष स्थल हैं। आचार्य महावीर कीर्ति दिगम्बर जैन सरस्वती भवन का निर्माण परम पूज्य आचार्य श्री विमल सागर जी महाराज के मंगल सानिध्य में सन् 1972 को सम्पन्न हुआ  था । भवन में आचार्य महावीर कीर्ति जी की पद्मासन प्रतिमा  है । पुस्तकालय में जैन धर्म सम्बंधित हज़ारों हस्तलिखित एवं प्रकाशित पुस्तकें ,  जैन सिद्धांत भवन ‘आरा’ के सौजन्य से जैन चित्रकला एवं हस्तलिखित पाण्डुलिपियाँ  है ।  विपुलाचल पर्वत पर भगवान महावीर के जीवनी से संबंधित हस्तनिर्मित चित्रों कि प्रदर्शनी लगती है । जरासंध अखाड़ा के समीप नागराज मणिभद्र स्थल है । 
पावापुरी -  जैन धर्म के अनुयायियों के लिए पवित्र पावा में  भगवान महावीर को मोक्ष की प्राप्ति हुई थी। पावा के जलमंदिर है। पावापुरी का निर्देशांक: 25°05′30″N 85°32′20″E / 25.0917°N 85.5389°E 2011 जनगणना के अनुसार जनसंख्या 5,830 आवादी में मगही, हिन्दी भाषीय है। जैनधर्म के प्रभसूरीजी ने 13 वीं सदी ई. में विविध तीर्थ कल्प रूप में  प्राचीन नाम अपापा ,  पावापुरी , पावा से राजगृह से दस मील दूर है। भगवान महावीर स्वामी के निर्वाण का सूचक स्तूप का   खंडहर  स्थित है। कनिंघम के अनुसार  बुद्धचरित में  पावापुरी की स्थिति का उल्लेख है । कसिया  प्राचीन कसिया को कुशीनगर से 12 मील दूर पदरौना स्थान  पर  गौतम बुद्ध काल में मल्ल-क्षत्रियों की राजधानी थी। भगवान महावीर का मोक्ष 72 वर्ष की आयु में हुआ था। बौद्ध ग्रंथ के अनुसार बुद्ध जीवन के अंतिम समय में तथागत ने पावापुरी में ठहरकर चुंड का सूकर-माद्दव का भोजन स्वीकार करने के कारण अतिसार हो जाने से उनकी मृत्यु कुशीनगर पहुँचने पर हो गई थी। कनिंघम ने पावा का अभिज्ञान कसिया के दक्षिण पूर्व में 10 मील पर स्थित फ़ाज़िलपुर  है। जैन ग्रंथ कल्पसूत्र के अनुसार महावीर ने पावा में एक वर्ष बिताने के बाद   प्रथम धर्म-प्रवचन पावा नगरी को जैन संम्प्रदाय का महत्वपूर्ण  है। महावीर स्वामी द्वारा जैन संघ की स्थापना पावापुरी में  की गई थी।  फाजिलनगर को  पावा नगर  कहते हैं। पावापुरी का कमल तालाब के बीच जल महावीर स्वामी जी  मंदिर , समोशरण मंदिर, मोक्ष मंदिर और नया मन्दिर  हैं।
 बिहारशरीफ  -   नालंदा जिला का मुख्यालय  बिहार शरीफ में बौद्ध अनुयायी उच्च शिक्षा ग्रहण स्थल थे। बिहार शरीफ में शेख शफूर्दीन याहिया मनेरी का कर्म स्थली था । बिहारशरीफ को 5 वीं शताब्दी का गुप्त काल मे ओदवंतपुरी कहा जाता था । ओदवंतपुरी में गुप्तकाल का स्तंभ है। बिहारशरीफ का पुराना नाम ओदंतपुरी और उदंतपुरी है। 7वीं शताब्दी में पाल वंश के शासक गोपाल ने ओदवंतपुरी के क्षेत्रों में  अनेक विहार (बौद्ध मठ) का निर्माण करवाया और  राजधानी बनाया। 10वीं शताब्दी तक  पाल राजवंश की राजधानी ओदवंतपुरी में था । आक्रमणकारी बख्तियार खिलजी ने 1193 ई. में  नालंदा पर आक्रमण के दौरान  दौरान अनेक  बौद्ध मठों , ओदवंतपुरी विश्वविद्यालय को बर्बाद कर दिया।  बख्तियार खिलजी के लौटने के बाद स्थानीय बुंदेलों ने बिहारशरीफ पर दोबारा कब्जा कर  राजा बिठल का शासन स्थापित हुआ । राजा बिठल और बुंदेलों ने करीब सौ साल तक राज किया। साल 1324 में दिल्ली के सुल्तान मोहम्मद बिन तुगलक ने अफगान योद्धा सैय्यद इब्राहिम मलिक को आक्रमण के लिए भेजा। जिसमें बुंदेलों की हार हुई और राजा बिठल मारे जाने केबाद  बाद बिहारशरीफ पर दिल्ली सल्तनत का  कब्जा हो गया। सैय्यद इब्राहिम मलिक की  जीत से खुश होकर सुल्तान मोहम्मद बिन तुगलक ने इब्राहिम मलिक को “मृदुल मुल्क” और “मलिक बाया” की उपाधि दी। सैय्यद इब्राहिम मलिक ने  30 सालों तक राज किया। वर्ष  1353 में सैय्यद इब्राहिम मलिक की हत्या कर दी गई। बिहारशरीफ के पीर पहाड़ी ( हिरण्य पर्वत ) की चोटी पर इब्राहिम मलिक को दफनाया गया। ये संरचना दुर्लभ गुणवत्ता वाली ईंटों से बनी  गुंबद के अंदर इब्राहिम मलिक के अलावा उसके परिवार के सदस्यों की 10 कब्रें हैं। राजा बिठल की मौत के बाद बुंदेला राजपूत गढ़पर और तुंगी गांव में जाकर बस गए। ब्रिटिश साम्राज्य   1867 में बिहारशरीफ में नगरपालिका गठन किया गया था ।
 तेल्हाड़ा -  नालन्दा जिले का एकंगरसराय प्रखण्ड के तेल्हाड़ा का कुषाणकाल की तेल्हाड़ा विश्वविद्यालय  के खंडहरों में तब्दील है। तिलाधक महाविहार  तेल्हाड़ा का उत्खनन  में प्राप्त अवशेषों से प्राप्त जानकारी के अनुसार  तिलाधक महाविहार  प्राचीन शिक्षा केंद्र  था।  सातवीं सदी में चीनी यात्री ह्वेनसांग के यात्रा वृतांत में तेल्हाड़ा स्थान का जिक्र करते हुए   कहा कि 5वीं सदी यानि “गुप्त काल” से 12वीं सदी “पालवंश” के शासनकाल तक तेल्हाड़ा का तिलाधक  महाविहार बौद्ध साधकों के शिक्षा का एक महत्वपूर्ण केंद्र था । बख्तियार खिलजी द्वारा जलाए जाने के प्रमाण  उत्खनन के क्रम में साक्ष्य मिले हैं । तिलाधक महाविहार का उत्खनन के अनुसार  तीन बौद्ध मंदिर क्रमवार से  बौद्ध विहार का ऊपरी छत या सतह का निर्माण पाल वंश के शासनकाल यानि आठवीं से बारहवीं सदी एवं नीचे की सतह का निर्माण काल पांचवीं सदी का है ।  तेल्हाड़ा विश्वविद्यलय की  स्थापना कुषाण काल में महायान की पढ़ाई होती थी । तेल्हाड़ा विश्वविद्यालय  की स्थापना काल से  100 ई.पू. से 1100 ई. तक देसी-विदेशी छात्र पढ़ाई करते थे।उत्खनन  से प्राप्त जानकारी के अनुसार तेल्हाड़ा विश्वविद्यालय में शिक्षकों के रहने के लिए कमरे और पढने के लिए कक्ष , 1000 बौद्ध भिक्षु यहां रह कर शिक्षा ग्रहण , उच्च शोध वाले तेल्हाड़ा विश्वविद्यालय विश्व के बौद्ध विद्वानों के लिए ज्ञान हासिल करने का केंद्र था । तेल्हाडा के 3 बौद्ध मंदिरों के अवशेष को  इत्सिंग के विवरणी में एक हजार बौद्ध भिक्षुओं के बड़े चबूतरे पर एक साथ बैठकर प्रार्थना करने का उल्लेख  है । जिसे भी यहाँ खुदाई के दौरान चिंहित किया गया है । उत्खनन से प्राप्त ब्राह्मी लिपि और मागधी  भाषा  में शिलालेख पर अंकित विवरण के अनुसार तेल्हाड़ा विश्वविद्यालय का नाम तिलाधक, तेलाधक्य या तेल्हाड़ा नहीं बल्कि श्री प्रथम शिवपुर महाविहार है .। शिलालेख पर तिल्हाधक महाविहारा बौद्ध महाविहार एक किलोमीटर क्षेत्रफल में फैला हुआ है । तेल्हाड़ा उत्खनन 2009 में प्रारम्भ किया गया था । बख्तियार खिलजी ने  तेल्हाड़ा विश्वविद्यालय को जलाकर नष्ट कर दिया था ।उत्खनन कर्ता के अनुसार वख्तियार खिलजी द्वारा मनेर से होते हुए सबसे पहले  तेल्हाड़ा  विश्वविद्यालय के शिक्षकों व छात्रों को भगाकर वहां आग लगा दी थी।


 

शुक्रवार, अगस्त 25, 2023

भोजपुर की सांस्कृतिक विरासत ...


पूर्वी रेलवे की प्रधान शाखा तथा आरा-सासाराम रेलवे लाइन का जंक्शन एवं भोजपुर जिला का मुख्यालय आरा  है। भोजपुर जिले का  आरा शहर के प्रमुख स्थल निर्देशांक: 25°33′05″ एन 84°39′37″ ई / 25.55139° एन  84.66028° ई गंगा और सोन की उपजाऊ घाटी में स्थित होने के कारण यह अनाज का प्रमुख व्यापारिक क्षेत्र तथा वितरण केंद्र है। रेल मार्ग और पक्की सड़क द्वारा यह पटना, वाराणसी, सासाराम आदि से सीधा  है। भोजपुर जिला मुख्यालय आरा पुरातन काल में अरण्य प्रदेश का राजा  मयूरध्वज द्वारा आरण्य देवी की स्थापना कर आरा नगर की स्थापना किया गया था ।  महाभारत कालीन अवशेष यहां बिखरे पड़े हैं। द्वापर युग में  पांडवों ने अरण्य में गुप्तवास  बिताया था। जेनरल कनिंघम के अनुसार युवानच्वांग द्वारा उल्लिखित अशोक ने दानवों के बौद्ध होने के संस्मरण स्वरूप बौद्ध स्तूप  है। आरा के  मसाढ़ में  जैन अभिलेखों के अनुसार  'आरामनगर' है। हेमिल्टन बुकानन ने आरा नगर के नामकरण में भौगोलिक कारण बताते हुए कहा कि गंगा के दक्षिण ऊँचे स्थान पर स्थित होने एवं आड़ या अरार में होने के कारण नाम 'आरा' पड़ा है । प्रथम भारतीय स्वतंत्रता युद्ध 1857  के प्रमुख सेनानी बाबू कुंवर सिंह की कार्यस्थली होने का गौरव है। आरा स्थित 'द लिटिल हाउस'  रक्षा ब्रिटिश साम्राज्य  ने १८५७ के विद्रोह में बाबू कुंवर सिंह से लड़ते हुए की थी। आरा 1971  के पांचवीं लोकसभा चुनाव तक शाहाबाद संसदीय क्षेत्र के नाम से जाना जाता था। १९७७ के दौरान आरा को अलग संसदीय क्षेत्र के रूप में मान्यता मिलने के बाद आरा अस्तित्व में आया है । 
आरा के प्रमुख दर्शनीय स्थलों में माँ आरण्य देवी मंदिर , बुढ़वा महादेव मंदिर , चंद्रप्रभु दिगम्बर जैन मंदिरबड़ी मठिया मंदिर , बाबू वीर कुंवर सिंह किला, जगदीशपुर , काली मंदिर, बखोरापुर ,  गंगा घाट , गंगा-सोन संगम , क्लेक्ट्रैट पोखरा सूर्य मंदिर है । बिहार का हिंदी और भोजपुरी भाषी भोजपुर जिला का क्षेत्रफल 2,474 किमी² में 2011 जनगणना के अनुसार 27,28,407 आवादी वाले क्षेत्र में  आरा नगर , पिरो और जगदीशपुर अनुमंडल ,14 प्रखण्ड में आरा ,अगिआंव ,बरहरा ,उदवंतनगर,कोइलवर ,संदेश ,सहार ,गड़हनी ,पिरो ,चरपोखरी ,तरार ,जगदीशपुर ,बिहिया ,और शाहपुर ,  228 पंचायत एवं 1244 गाँव बिहार की राजधानी पटना से चालीस किलोमीटर की दूरी पर भोजपुर जिला  का  उत्तर में गंगा नदी और पूर्व में सोन इसकी प्राकृतिक सीमा निर्धारित करते हैं। भोजपुर जिले के  उत्तर में सारण और बलिया (उत्तर प्रदेश), दक्षिण में रोहतास, पूर्व में पटना, अरवल  और पश्चिम मे बक्सर से घिरा है । परमार वंशीय राजा भोज द्वारा भोजपुर की स्थापना की गई थी । मुगल बादशाह बाबर द्वारा 1529 ई. में अफगान शासकों को हर कर आरा में शासन करने के दौरान शाहाबाद नामकरण किया गया था । सूर्यवंशीय शेरशाह ने कोषवर्द्धन स्थल को 1665 ई. में शेरगढ़ और ब्रिटिश साम्राज्य नें 1787 ई. में शेरगढ़ का नाम परिवर्तित कर शाहाबाद जिले का सृजन कर शाहबाद जिला मुख्यालय आरा रखा गया था । शाहाबाद जिला 1972 ई के बाद आरा जिला 1991 ई. तक और 1992 ई. में भोजपुर जिला का नामकरण किया गया है । आर का प्राचीन नगर आराम नगर था ।आरा शहर की माँ आरण्य देवी , बिहिया में  महथिन माई , बखोरापुर काली मंदिर ,  जैन धर्म मंदिर  मंदिर है।  भोजपुर जगदिशपुर का  बाबू कुंवर सिंह ने प्रथम स्वतंत्रता संग्राम १८५७ की क्रांति में अंग्रेजो के खिलाफ लड़ाई का नेतृत्व किया था ।  किकोषवर्द्धन स्थल 1665 ई. में समृद्ध था। क्षत्रिय उच्च विद्यालय, हर प्रसाद जैन उच्च विद्यालय, जिला विद्यालय और टाउन उच्च विद्यालय ,  हर प्रसाद दास जैन कॉलेज, महाराजा कॉलेज, सहजानंद ब्रह्मर्षि कॉलेज, जगजीवन कॉलेज, महंत महादेवानंद महिला कॉलेज  कॉलेज है ।
 भोजपुर जिले के साहित्यकार व रंगकर्मी में विश्वानाथ शाहाबादी ने 1960 मे “गंगा मैया तोहे पियरी चढइबो “ सिनेमा बनाया , जनार्दन सिन्हा ने आरा के कलाकार जय तिलक को बतौर नायक लेकर सिनेमा बनाया – पिया निरमोहिया . अशोक चंद और लाक्स्मन शाहाबादी ने मिलकर सिनेमा बनाया – गंगा किनारे मोरा गाँव – गीत प्रचलित है. आरा के जय मोहन ने सिनेमा मे खलनायक के भूमिका निभाई थी । संगीत परंपरा मे आरा के  श्री लक्ष्मण शाहाबादी, प्रो0 रामनाथ पाठक और श्री अरविन्द किशन ने सिनेमा एवं संगीत मे अपना महत्वपूर्ण योगदान,  सराफत अली ने उषा मंगेशकर एवं दिलराज कौर के  गंगा किनारे मोरा गाँव सिनेमा मे गाना गया है । साहित्य में मुंशी सदासुख लाल, सैएद इशुतुल्लाह, लालू लाल, संदल मिश्र आदि खरी बोली के भारतेंदु काल के अखौरी येशोदानंद , श्री शिवनंदन सहाय ,  श्री जैनेन्द्र किशोर जैन  साहित्यकार एवं नाट्य निर्देशक ,  महामहोपाध्याय पंडित सकल नारायण शर्मा और पंडित रामदहिन मिश्र , आचार्य शिव पूजन सहाय ,  कहानीकार , साहित्यकार, निबंधकार ,  छायावाद काल मे श्री केदार नाथ मिश्र प्रभात, श्री राम दयाल पाण्डेय, कलेक्टर सिंह केशरी, श्री नन्द किशोर तिवारी, और श्री रामनाथ पाठक प्रसिद्ध कवि रहे है। अब्दुल बरी प्रोफेसर बारी  भारतीय स्वंत्रता के आन्दोलन के प्रमुख नायक अब्दुल बारी  का जन्म 21 जनवरी 1884 को भोजपुर के कोइलवर अंचल में हुआ  था  । वे बिहार में खिलाफत कमिटी के सयुंक्त सचिव भी चुने गये I 21 फ़रवरी 1921 को डॉ राजेंद्र प्रसाद के साथ चौक मस्जिद आरा में सभा को संबोधित किया था । स्वंत्रता भारत लीग , जिसका गठन 3 नवम्बर 1928 को पंडित जवाहर लाल नेहरु और सुभाष चन्द्र बोष के हांथो हुआ , उस में इनको सदस्य चुना गया I मोती लाल नेहरु के द्वारा अंग्रेजी में पेपर निकाला था ।उनके सम्पादन के साथ जुड़े रहे 1930 से 34 के बीच सविनय अवज्ञा आन्दोलन में डॉ० राजेंद्र प्रसाद से मिलकर कन्धा से कन्धा मिलाकर काम किया था । पभारतीय स्वतंत्रता संग्राम के पुजारी पंडित हर गोविंद मिश्र का जन्म 1892 में शाहपुर के प्रसोंडा में हुआ था i नेता बिशेश्वर सिंह, शालिग्राम सिंह (कुल्हड़िया), ज्वाला प्रसाद (बिहिया), से  बहुत प्रभाबित थे I बिहार और उड़ीसा का 1912 में पादुर भाव हुआ तो उस समय वे सच्चीदानंद सिन्हा ने जो उस समय जिला स्कूल के छात्र थे, ने उन्हें काफी आन्दोलित किया 1912 में ही आर० एन० मुधोलकर के सभापतित्व में वे राष्ट्रिये कांग्रेश के पटना अधिवेसन में पधारे I महत्मा गाँधी के चम्पारण सत्याग्रह (1917)  यूरोप के निल के खेतीहरो के खिलाफ छेड़ा गया था I 1919 में जलिया वाला बाग की घटना ने सत्याग्रह आन्दोलन में कूद पड़े थे । भोजपुर में बाबु हरनन्दन सिंह ,  कोइलवर के बाग़ मझौवा में शिव नारायण सिंह के घर उनका जन्म हुआ 1937 में आरा विधान सभा का नेतृत्व किया गाँधी जी के साथ मिलकर असहयोग आन्दोलन में जगजीवन राम बाबु जी के नाम से सुविख्यात थे I भारतीय स्वन्त्रता संग्राम में  नायक , सांसद जगजीवन राम  का जन्म आरा के चंदवा ग्राम में 05 अप्रैल 1908 को हुआ था । उन्होंने आठवी की शिक्षा महाजनी स्कूल आरा से 1922 में प्राप्त की उन्होंने फीर आरा के टाउन स्कूल में दाखिला ले लिया था । पंडित जवाहर लाल नेहरु के नेतृतव में उन्होंने 1928 में कोलकाता एवं 1929 में लाहौर कांग्रेश अधिवेशन में भाग लिया सरकारी नौकरी को दर किनार क्र वे नमक सत्याग्रह आन्दोलन में कूद पड़े उन्हें आरा में बुद्धन राय वर्मा के साथ गिरफ्तार हुआ था । जगजीवन राम की कोशिश करने के बाद आरा का महदेवा मन्दिर एवं ब्रहमपुर का शिव मन्दिर निम्न सोसित वर्ग के लिए भी खोल दिया गया I मार्च 1933 में आरा नगर निगम का नगर आयुक्त चूना गया I। 1946 में पंडित जवाहर लाल नेहरु के सरकार ने सबसे नव जवान मंत्री के रूप में सपथ ली उन्हें श्रम मंत्रालय दिया गया I भारतीय सविधान के वे सदस्य रहे एवं सविधान में उन्होंने सामाजिक न्याय के लिए काम किया I 1977 से 1979 तक वे मोरारजी देसाई की सरकार में उप प्रधानमंत्री रहे I सुप्रीम कोर्ट के प्रथम चीफ जस्टिस वी पी सिंह , बिहार के पूर्व मुख्य मंत्री रहे विन्देश्वरी दुबे  ,बिहार के गृह मंत्री रामानंद तिवारी , राजनीतिज्ञ रहे जो भारत के रेल मंत्री ए पी शर्मा  ,बिहार में सहकारी आन्दोलन के संस्थापक तपेश्वर सिंह  ,राजनीति विज्ञानं एवं साहित्य पद्मश्री भरत मिश्र ,   प्रसिद्ध अर्थशास्त्री और लेखके एल एम राय , विश्व स्तर के ये प्रमुख गणितज्ञ वशिष्ठ नारायण सिंह थे ।



शनिवार, अगस्त 19, 2023

अंतर्मन का प्रतिबिंब है फोटोग्राफी...

         विश्व फोटोग्राफी दिवस के अवसर पर सच्चिदानंद शिक्षा एवं समाज कल्याण संस्थान की ओर से आयोजित अतीत और आज की याद में फोटोग्राफी की भूमिका विचार गोष्टी में भारतीय विरासत संगठन के अध्यक्ष साहित्यकार व इतिहासकार सत्येंद्र कुमार पाठक ने कहा कि अतीत का याद कराने में   फोटोग्राफी का महत्वपूर्ण स्थान है ।  इतिहास के पन्नो में  कैमरा अस्पष्ट छवि प्रक्षेपण और पदार्थ प्रकाश के संपर्क में आने  से फोटोग्राफी स्पष्ट रूप से बदल जाते हैं। ले  ग्रास 1826 या 1827 की खिड़की से दृश्य  पुराना जीवित कैमरा फोटोग्राफ है।  जोहान हेनरिक शुल्ज़ ने 1717 ई. में  प्रकाश-संवेदनशील घोल  की  बोतल पर कट-आउट अक्षरों को कैद किया था । थॉमस वेजवुड ने 1800 ई. में कैमरे की छवियों को स्थायी रूप में कैप्चर करने का पहला विश्वसनीय रूप से प्रलेखित प्रयास किया था। निसेफोर नीपसे द्वारा 1826 ई. में पहली बार कैमरे से खींची गई छवि को ठीक करने में कामयाब रहे थे । डगुएरियोटाइप को कैमरे में  मिनटों के एक्सपोज़र , और स्पष्ट, बारीक विस्तृत परिणाम उत्पन्न होने का विवरण को विश्व  के सामने 1839 में पेश होने के कारण  व्यावहारिक फोटोग्राफी के जन्म वर्ष के रूप में स्वीकार किया गया है ।विलियम हेनरी द्वारा धातु-आधारित डगुएरियोटाइप प्रक्रिया को कागज-आधारित कैलोटाइप से  प्रतिस्पर्धा मिली तथा नकारात्मक और नमक प्रिंट प्रक्रियाओं का आविष्कार किया गया था । 1839 में डगुएरियोटाइप के संबंध में 1839 ई. में  टैलबोट प्रदर्शित की गई थी।  कोलोडियन प्रक्रिया ने 1850 ई. में  ग्लास-आधारित फोटोग्राफिक प्लेटों के साथ डागुएरियोटाइप से ज्ञात उच्च गुणवत्ता को कैलोटाइप से ज्ञात कई प्रिंट  उपयोग किया गया था। रोल फिल्मेंशौकीनों द्वारा  उपयोग को लोकप्रिय बनाया गया था । कंप्यूटर आधारित इलेक्ट्रॉनिक डिजिटल कैमरों के व्यावसायिक 1990 ई.में   फोटोग्राफी में क्रांति ला दी। 21वीं सदी के पहले दशक के दौरान, पारंपरिक फिल्म-आधारित फोटोकैमिकल तरीकों को तेजी से हाशिए पर रखा गया क्योंकि नई तकनीक के व्यावहारिक लाभों की व्यापक रूप से सराहना की गई और मामूली कीमत वाले डिजिटल कैमरों की छवि गुणवत्ता में लगातार सुधार हुआ। खासकर जब से कैमरे स्मार्टफोन पर मानक सुविधा बना हैं । तस्वीरें लेना और  ऑनलाइन प्रकाशित करना विश्व में  सर्वव्यापी रोजमर्रा की प्रथा बन गई है। सर जॉन हर्शेल द्वारा  1939 ई. में फोटोग्राफी शब्द का  दिया जाता है। सिद्धांत प्रागैतिहासिक काल 4 थी शताब्दी ई.पू. को  चीन में  कैमरा अबस्कुरा जाना और प्रयोग किया गया था । कैमरा ऑब्स्कुरा का उपयोग 16 विन शताब्दी में मुख्य रूप से प्रकाशिकी और खगोल विज्ञान का अध्ययन करने के लिए किया जाता था । उभयलिंगी लेंस प्रथम बार 1550 में गेरोलामो कार्डानो द्वारा वर्णित और डायाफ्रामएपर्चर को सीमित करने तथा 1568 में डैनियल बारबेरो  ने  छवि दी थी । 1558 में गिआम्बतिस्ता डेला पोर्टा ने 1558 ई. में पुस्तकों में ड्राइंग सहायता के रूप में कैमरा ऑब्स्कुरा का उपयोग करने की सलाह दी थी । डेला पोर्टा की 17वीं शताब्दी के बाद से कैमरा ऑब्स्कुरा के पोर्टेबल संस्करणों का आमतौर पर उपयोग किया जाने लगा था । पूर्व में तम्बू के रूप में, बाद में बक्से के रूप में एवं  19वीं सदी की शुरुआत में फोटोग्राफी का विकास  बॉक्स टाइप कैमरा ऑब्स्क्युरा सबसे शुरुआती फोटोग्राफिक कैमरों का आधार हुआ था।  एंजेलो साला ने 16 14 ई.में फोटोग्राफी में  सूरज की रोशनी पाउडर सिल्वर नाइट्रेट को काला कर देगी, और एक वर्ष के लिए सिल्वर नाइट्रेट के चारों ओर लपेटा गया कागज काला हो जाएगा का सिद्धांत दिया था । विल्हेम होम्बर्ग ने  1694 में प्रकाश ने  रसायनों को काला कर दिया। 1717 ई. में जर्मन पॉलिमथ जोहान हेनरिक शुल्ज़ ने  चाक और नाइट्रिक एसिड का घोल  चांदी के कण घुले हुए थे । शुल्ज़ ने 1719 में अपने निष्कर्ष प्रकाशित करते समय पदार्थ का नाम "स्कोटोफ़ोर्स" रखा एवं 1760 ई. पू . फ्रांसीसी टिपैग्ने डे ला रोश द्वाराकुछ हद तक  फोटोग्राफी के समान वर्णन किया गया है । साहित्यकार व इतिहासकार सत्येन्द्र कुमार पाठक ने विश्व फोटोग्राफी दिवस के अवसर पर कहा कि अंतर्मन का रेखांकित करता  फोटोग्राफी है ।  प्रत्येक वर्ष 19 अगस्त को फोटोग्रफी दिवस मनाने की परंपरा कायम है । मानवीय सम्बेदना को रेखांकित फोटोग्राफी का महत्वपूर्ण भूमिका है । विश्व फोटोग्राफी दिवस उन लोगों के लिए किसी  खूबसूरत चीज या नजारे को  कैमरे में कैद कर लेना पसंद करते हैं । 9 जनवरी, 1839 को विश्व  की सबसे प्रथम  फोटोग्राफी प्रक्रिया का आविष्कार  डॉगोरोटाइप  जोसेफ नाइसफोर और लुइस डॉगेर  वैज्ञानिकों ने अविष्कार किया था। डॉगोरोटाइप टेक्निक फोटोग्राफी की पहली प्रक्रिया होने के कारण  टेक्निक के आविष्कार का ऐलान फ्रांस सरकार ने 19 अगस्त, 1839 में करने के कारण  विश्व फोटोग्राफी दिवस प्रत्येक वर्ष   19 अगस्त को मनाया जाता है। आधिकारिक तौर पर 2010 में प्रारंभ विश्व फोटोग्राफी दिवस  हुई थी। ऑस्ट्रेलिया के  फोटोग्राफर ने अपने साथी फोटोग्राफरों के साथ मिलकर  इकट्ठा होने और विश्व में प्रचार प्रसार करने का फैसला किया था ।  फोटोग्राफरों के साथ मिलकर  तस्वीरें ऑनलाइन गैलरी के जरिए लोगों के सामने पेश कीं थी ।



गुरुवार, अगस्त 10, 2023

कैमूर पर्वत समूह की विरासत ....



 कैमूर जिले के रामगढ़  का कैमूर पर्वय समूह की समुद्रतल से  600 फिट ऊँचाई पर अवस्थित  पंवरा श्रृंखला  पर सनातन धर्म का शाक्त सम्प्रदाय की उपासना स्थल मुंडेश्वरी मंदिर के गर्भगृह में माता मुंडेश्वरी  स्थित है । जिसकी ऊँचाई लगभग 600 फीट है वर्ष 1812 ई0 से लेकर 1904 ई0 के बीच ब्रिटिश यात्री आर.एन.मार्टिन, फ्रांसिस बुकानन  ने 1812 ई. और ब्लॉक ने 1904 ई.  मुंडेश्वरी मंदिर का भ्रमण किया था ।Iपुरातत्वविदों के अनुसार मुंडेश्वरी मंदिर परिसर  से प्राप्त शिलालेख 389 ई0  है । नक्काशी और मूर्तियों उतरगुप्तकालीन मुंडेश्वरी मंदिर   अष्टकोणीय पाषाण युक्त   मंदिर के पूर्वी खंड में देवी मुण्डेश्वरी की पत्थर से भव्य मूर्ति  आकर्षण का केंद्र है I माँ वाराही रूप में विराजमान है, जिनका वाहन महिष है I मंदिर में प्रवेश के चार द्वार मे एक को बंद और एक अर्ध्द्वर है I  मंदिर के मध्य भाग में पंचमुखी शिवलिंग स्थापित है I  पत्थर से यह पंचमुखी शिवलिंग निर्मित किया गया है उसमे सूर्य की स्थिति के साथ साथ पत्थर का रंग भी बदलता रहता है I मुख्य मंदिर के पश्चिम में पूर्वाभिमुख विशाल नंदी  मूर्ति है । मंदिर परिसर में  पशु बलि में बकरा तो चढ़ाया जाता है परंतु उसका वध नहीं किया जाता है । भभुआ  से चौदह किलोमीटर दक्षिण-पश्चिम में स्थित कैमूर की पहाड़ी पर साढ़े छह सौ फीट की ऊंचाई वाली  पहाड़ी पर माता मुंडेश्वरी एवं महामण्डलेश्वर महादेव  मंदिर है। मंदिर का शिलालेख के अनुसार  मुंडेश्वरी मंदिर  में तेल एवं अनाज का प्रबंध राजा के द्वारा संवत्सर के तीसवें वर्ष के कार्तिक  में २२वां दिन किया गया था। पंचमुखी महादेव का मंदिर  ध्वस्त स्थिति में है।  माता की प्रतिमा को दक्षिणमुखी स्वरूप में खड़ा कर पूजा-अर्चना की जाती है। माता मुंडेश्वरी की साढ़े तीन फीट की काले पत्थर की प्रतिमा  भैंस पर सवार है। कनिंघ्म ने भी अपनी पुस्तक के अनुसार कैमूर में मं◌ुडेश्वरी पहाड़ी पर  मंदिर ध्वस्त रूप में विद्यमान है। मुंडेश्वरी  मंदिर की खोज गड़ेरिये  द्वारा पहाड़ी पर आ अस्थित मुंडेश्वरी  मंदिर में दीया जलाते और पूजा-अर्चना करते थे।  धार्मिक न्यास बोर्ड, बिहार द्वारा इस मंदिर को व्यवस्थित किया गया है।
दैत्यराज चंड-मुंड के नाश के लिए जब देवी उद्यत  चंड के विनाश के बाद मुंड युद्ध करते हुए पहाड़ी में छिप गया था और यहीं पर माता ने चण्डमुण्ड का वध किया था।  मुंडेश्वरी माता  जानी जाती हैं।  आश्चर्य एवं श्रद्धा से  भक्तों की कामनाओं के पूरा होने के बाद बकरे की बलि चढ़ाई जाती है।, माता रक्त की बलि नहीं लेतीं, बल्कि बलि चढ़ने के समय भक्तों में माता के प्रति आश्चर्यजनक आस्था पनपती है। जब बकरे को माता की मूर्ति के सामने लाया जाता है तब पुजारी अक्षत को मूर्ति को स्पर्श कराकर बकरे पर फेंकते हैं। बकरा तत्क्षण अचेत, मृतप्राय हो जाता है। थोड़ी देर के बाद अक्षत फेंकने की प्रक्रिया फिर होती है तब बकरा उठ खड़ा होता है। बलि की प्रक्रिया से  माता के प्रति आस्था को बढ़ाती है। पहाड़ी पर बिखरे हुए पत्थर एवं स्तम्भ पर श्रीयंत्र , सिद्ध यंत्र एवं मंत्र उत्कीर्ण हैं। मंदिर का प्रत्येक कोने पर शिवलिंग है। पहाड़ी के पूर्वी-उत्तरी क्षेत्र में माता मुण्डेश्वरी का मंदिर स्थापित , विभिन्न देवी-देवताओं के मूर्तियां स्थापित थीं। खण्डित मूर्तियां पहाड़ी के रास्ते मे विखरी पड़ी हैं । मुंडेश्वरी श्रृंखला पर  गुरुकुल आश्रम और तंत्र मंत्र का साधना स्थल कथा। पहाड़ी पर मुंडेश्वरी गुफा  है। मुंडेश्वरी मंदिर के रास्ते में सिक्के में  तमिल, सिंहली भाषा में पहाड़ी के पत्थरों पर  अक्षर  खुदे हुए हैं। श्रीलंका से श्रद्धालु आया करते थे।  मुंडेश्वरी श्रंखला पर अवस्थित ऋषि अत्रि द्वारा स्थापित गुरुकुल एवं मुंडेश्वरी गुफा रहस्यमयी है ।
 सनातन धर्म ग्रंथों , स्मृतियों औए ऐतिहासिक आलेखों के अनुसार विंध्यपर्वतमला का कैमूर पर्वत समूह  की लंबाई दक्षिण से पूरब  और उत्तर से पश्चिम तक 300 मील और 50 मील चौड़ाई  में फैले कैमूर पर्वत की विभिन्न श्रंखलाओं पर भारतीय संस्कृति और भिन्न भिन्न राजाओं द्वारा महल , सौर , शाक्त , शैव , वैष्णव सांस्कृतिक विरासत , झरने , और विभिन्न स्थलों पर झरने से प्रवाहित होने वाली नदियाँ वैवस्वत वैवस्वत मन्वंतर से प्रभावित है ।  बिहार के कैमूर जिले का कैमूर पर्वत समूह की कर्म श्रंखला में गैंडा युक्त पहाड़ी से निरंतर प्रवाहित होने वाली कैमूर जिले का अधौरा प्रखण्डान्तर्ग सारोदाग में कर्मनाशा नदी  से निकल कर  बिहार का कैमूर , बक्सर और उत्तरप्रदेश के  सोनभद्र , चंदौली , वाराणसी और ग़ाज़ीपुर जिले के क्षेत्रों को प्रवाहित है।  कैमूर जिले का कैमूर रेंज के सारोदाग की कैमूर पर्वत गैंडा आकर का श्रंखला समुद्र तल से 1150 फीट व 350 मीटर उचाई से कर्मनाशा नदी प्रवाहित होकर 119 मील व192 किमि दूरी तय करने के बाद चौसा का  निर्देशांक 25°30′54″ एन  83°52′30″ ई. पर है । वैवस्वत मन्वंतर में ऋषि विश्वामित्र ने तपस्या के माध्यम से नए ब्रह्मांड का निर्माण करने की शक्ति प्राप्त  करने के बाद  ब्रह्मांड की रचना करने के लिए निकलने के पश्चात इंद्र में घबराहट पैदा हो गई थी । ऋषि विश्वामित्र द्वारा नई  ब्रह्मांड का राजा त्रिशंकु को  ब्रह्मांड पर शासन करने के लिए भेजने का फैसला किया था ।देवराज इन्द्र ने विश्वामित्र की प्रगति रोकने के बाद  नए ब्रह्मांड का राजा त्रिशंकु का सिर हवा में लटकने क कारण त्रिशंकु के  मुख से टपकती लार से कर्मनाशा का जन्म हुआ था ।  कैमूर जिले में सारोदाग के पास कैमूर रेंज के उत्तरी सतह  पर 350 मीटर (1,150 फीट) की ऊंचाई पर कर्मनाशा का उद्गम होता है ।  कर्मनाशा उत्तर-पश्चिमी दिशा में मिर्ज़ापुर के मैदानी क्षेत्रों  से होकर प्रवाहित  उत्तर प्रदेश और बिहार के बीच सीमा बनाती हुई गाजीपुर की   बारा गांव के समीप गंगा में मिल जाती है। ग़ाज़ीपुर उत्तर प्रदेश का गाजीपुर और बिहार का चौसा  कर्मनाशा नदी की लंबाई 192 किलोमीटर (119 मील) है, । जिसमें से 116 किलोमीटर (72 मील) उत्तर प्रदेश में है और शेष 76 किलोमीटर (47 मील) उत्तर प्रदेश (बारा-गाजीपुर) और बिहार (चौसा) के बीच सीमा बनाती है। ). सहायक नदियों सहित कर्मनाशा का जल निकासी क्षेत्र 11,709 वर्ग किलोमीटर (4,521 वर्ग मील) है।  कर्मनाशा की सहायक नदियों में  दुर्गावती , चंद्रप्रभा, करुणुति, नदी, गोरिया और खजूरी हैं। करकटगढ़ , देवदारी और छनपत्थर झरने की ऊँचाई और सुंदरता से पर्यटक आकर्षित होते  हैं।  छनपाथर झरना 100 फीट (30 मीटर) ऊंचा है। रोहतास पठार के किनारे , कर्मनाशा के किनारे स्थित देवदारी जलप्रपात 58 मीटर (190 फीट) ऊंचा है।  देवदरी जलप्रपात को चंद्रप्रभा नदी पर होने का उल्लेख करता है। कर्मनाशा का लतीफ शाह बांध और नुआगढ़ बांध ,  चंद्रप्रभा बांध  है।  ग्रांड ट्रंक रोड कर्मनाशा पुल के ऊपर से गुजरती है। उत्तरप्रदेश राज्य पुरातत्व विभाग ने उत्तरी सोनभद्र की कर्मनाशा नदी घाटी में राजा नल का टीला स्थल पर खुदाई में 1200 - 1300 ईसा पूर्व के बीच की लौह कलाकृतियों का पता लगाया है । यह भारत में लोहा बनाने के इतिहास पर नई रोशनी डालता है। कर्मनाशा अवध की पूर्वी सीमा में सेन राजवंश की पश्चिमी सीमा  थी । 26 जून 1539 को कर्मनाशा के तट पर स्थित चौसा की लड़ाई में , शेर शाह ने मुगल सम्राट हुमायूँ को हराया और फरीद अल-दीन शेर शाह की शाही उपाधि धारण की थी । कर्मनाशा नदी अपवित्र माना जाता है । आनंद रामायण यात्राकाण्ड 9 .3 , तीर्थ प्रकाश , महाभारत , भागवत , रामायण एवं स्मृति तथा विभिन्न पुस्तकों के अनुसार कैमूर पर्वत समूह  में फैले विरासतों का उल्लेख मिलता है । कैमूर प्रदेश का राजा त्रिबंधन के पुत्र सत्यब्रत व त्रिशंकु  का उल्ले है । कैमूर पर्वत समूह  का पूर्वी भाग मुर श्रंखला है । 1290 ई. में कौदुवाद के पुत्र शमसुद्दीन कैमूर तथा मामलुक वंशीय गयासुद्दीन बलवन का पौत्र कैकुद्दीन 1287 ई.  कैमूर का शासक था ।  कमसार राज  के तहत 1764 ई. में और 1837 ई. में  चैनपुर इस्टेट के अधीन उत्तरप्रदेश राज्य का गाजीपुर जिले का भाग कैमूर था ।
कैमूर जिला  जिला मुख्यालय भभुआ में स्थित हैं । 1991 से पूर्व रोहतास जिले का हिस्सा कैमूर का क्षेत्र  1764 ई. में   गाजीपुर जिला और कंसार राज और बाद में  चैनपुर एस्टेट 1837 तक था  । कैमूर जिले का 3,362 किमी 2 (1,298 वर्ग मील) क्षेत्रफल में 2011 की जनगणना के अनुसार 1,626,384 आवादी में साक्षरता दर 69.34% है । कैमूर  जिले में 18 कॉलेज, 58 हाई स्कूल, 146 मिडिल स्कूल और 763 प्राइमरी स्कूल , 1699 गांव ,  120 डाकघर और 151 पंचायत  ग्रैंड ट्रंक रोड से जुड़ा हुआ है।कैमूर जिले में बोली जाने वाली भाषा हिंदी और भोजपुरी हैं। रोहतास जिले से अलग भभुआ जिला 17 मार्च 1991 ई. में सृजित होने के बाद 1994 ई. में   भभुआ जिला का नाम बदलकर कैमूर जिला नाम कर दिया गया है। कैमूर जिले में मानव संस्कृति का विकास  लेहदा जंगल में 20,000 वर्ष पूर्व की रॉक पेंटिंग हैं । जून 2012 में, बैद्यनाथ कामुक गढ़ के उत्खनन के दौरान  पालकालीन मूर्तियों प्राप्त हुई थी । अत्रि ऋषि की तपस्या स्थल और मां मुंडेश्वरी  मंदिर और दैत्यराज मुंड का क्षेत्र था । भौगोलिक दृष्टि से कैमूर  जिले को पहाड़ी क्षेत्र को कैमूर पठार के  पश्चिम की ओर का मैदानी क्षेत्र कर्मनासा और दुर्गावती नदियों से घिरा एवं कुद्रा नदी  पूर्व की ओर स्थित है। बिहार राज्य का बक्सर जिले और उत्तरप्रदेश राज्य के गाजीपुर जिले ने कुंद्रा नदी उत्तर में बांध दिया है। दक्षिण में झारखंड राज्य का गढ़वा जिला और पश्चिम में उत्तरप्रदेश राज्य का चंदौली और मिर्जापुर जिला तथा  पूर्व में बिहार राज्य का रोहतास जिला की सीमा है । कैमूर जिले के वन अभ्यारण्य  1,06,300 हेक्टेयर में  कैमूर वन्यजीव अभयारण्य , घर के लिए बाघों , तेंदुओं और चिंकारा । करकट जलप्रपात और तेलहर  झरने  हैं। जिले में  चावल, गेहूं, तेलहन , दालहन और मक्का यहां की प्रमुख फसलें हैं। कैमूर जिले को 11 प्रखंड  तथा  भभुआ और मोहनिया अनुमंडल में  अधौरा , भभुआ ,भगवानपुर ,चैनपुर ,चाँद ,रामपुर , दुर्गावती , कुद्र , मोहनिया ,रामगढ़ ,नुआओं प्रखंड है।



                                                                 मुंडेश्वरी मंदिर 

                                                                            पंचलिंगी शिव



मंगलवार, अगस्त 08, 2023

शाक्त स्थल है तुतला भवानी...

    बिहार के रोहतास जिले का तिलौथू प्रखण्ड गया मुगलसराय रेलवे लाइन का डेहरी ऑन सोन  स्टेशन से डेहरी रघुनाथपुर रोड  रामडीहरा बस स्टैंड से 5 किमि पर विंध्य पर्वत माला में अवस्थित कैमूर पर्वत की तुतला श्रंखला पर मां तुतला भवानी  मंदिर स्थित है।  तुतला भवानी मंदिर कैमूर पहाड़ी की घाटी का गुफा में स्थित तुतला  मंदिर के समीप  तुतला पर्वत श्रंखला से तुतला झरने से  कछुअर नदी प्रवाहित  है।  फ्रांसिस बुकानन द्वारा  14 सितम्बर 1812 ई में  रोहतास  यात्रा के दौरान तुतला गुफा में स्थित   तुतला भवानी की मूर्ति और  खंडित प्रतिमा एवं शिलालेख  का उल्लेख किया गया है । शारदा लिपि शिलालेख 8 वीं सदी तथा खरवार वंशीय राजा धवल प्रताप देव द्वारा  शिलालेख बारहवीं सदी में तुतला भवानी मंदिर का जीर्णोद्धार और तुतला मूर्ति  और  19 अप्रैल 1158 ई. में  तुतला भवानी  की  प्रतिमा की स्थापित  है। राजा धवलप्रताप देव की पत्नी सुल्ही, भाई त्रिभुवन धवल देव, पुत्र बिक्रमध्वल देव, साहसध्वल देव तथा पांच पुत्रियों के साथ पूजा अर्चना के साथ प्राण प्रतिष्ठा करायी थी ।  तुतला अष्टभुजी भवानी की मूर्ति गड़वाली कला में माता अष्टभुजी की  दैत्य महिषासुर की गर्दन से निकल रहा  देवी अपने दोनों हाथो से पकड़कर त्रिशूल से मार रही हैं ।महिषासुर मंर्दिनी तुतला भवानी की प्रतिमा तुतराही जल प्रपात के मध्य में स्थापित है। रोहतास व कैमूर जिले में  अद्भुत तुतला जल प्रपात नहीं है। गहड़वाल वंशीय का धरोहर  रोहतास का सोनहर पहाड़ी है ।
सनातन धर्म की शाक्त सम्प्रदाय का देवीभागवत एवं विभिन्न ग्रंथों में तुतला भवानी का उल्लेख किया गया है ।    तुतला भवानी मंदिर कैमूर पहाड़ी की घाटी का गुफा में स्थित तुतला  मंदिर के समीप  तुतला पर्वत श्रंखला से तुतला झरने से  कछुअर नदी प्रवाहित  है।  फ्रांसिस बुकानन द्वारा  14 सितम्बर 1812 ई में  रोहतास  यात्रा के दौरान तुतला गुफा में स्थित   तुतला भवानी की मूर्ति और  खंडित प्रतिमा एवं शिलालेख  का उल्लेख किया गया है । शारदा लिपि शिलालेख 8 वीं सदी तथा खरवार वंशीय राजा धवल प्रताप देव द्वारा  शिलालेख बारहवीं सदी में तुतला भवानी मंदिर का जीर्णोद्धार और तुतला मूर्ति  और  19 अप्रैल 1158 ई. में  तुतला भवानी  की  प्रतिमा की स्थापित  है। राजा धवलप्रताप देव की पत्नी सुल्ही, भाई त्रिभुवन धवल देव, पुत्र बिक्रमध्वल देव, साहसध्वल देव तथा पांच पुत्रियों के साथ पूजा अर्चना के साथ प्राण प्रतिष्ठा करायी थी ।  तुतला अष्टभुजी भवानी की मूर्ति गड़वाल कला में माता अष्टभुजी की  दैत्य महिषासुर की गर्दन से निकल रहा  देवी अपने दोनों हाथो से पकड़कर त्रिशूल से मार रही हैं महिषासुर मंर्दिनी तुतला भवानी की प्रतिमा तुतराही जल प्रपात के मध्य में स्थापित है। पूरे रोहतास व कैमूर जिले में इस प्रकार का अद्भुत जल प्रपात नहीं है। गढ़वाल वंशीय का धरोहर  रोहतास का सोनहर पहाड़ी है । तुतला क्षेत्र शाक्त सम्प्रदाय का महान रहा है । गढ़वाल एवं देव वंशीय राजाओं की रोहिताश्व पठारी का कैमूर पर्वत के विभिन्न श्रंखला पर क्षेत्रों में शाक्त सम्प्रदाय की आराध्य देवी महिषासुर मर्दनी , तुतला माता , अष्टभुजी माता , चामुंडा माता , काली माता की विभिन्न रूपों में स्थापित है ।
                                                             तुतला झरना