शनिवार, अगस्त 28, 2021

नेपाल की सांस्कृतिक विरासत...

         दक्षिण एशियाई स्थलरुद्ध राष्ट्र नेपाल  है। नेपाल के उत्तर मे तिब्बत और दक्षिण, पूर्व व पश्चिम में भारत अवस्थित है। नेपाल की राजभाषा नेपाली  और निवासियों को नेपाली कहा गया है। नेपाल् की राजधानी काठमांडू  का राष्ट्रवाक्य: जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी । नेपाल 27°42′N 85°19′E / 27.700°N 85.317°E , भाषा नेपाली राजभाषा नेपाली , खस कुरा से युक्त  21  दिसम्बर, 1768  में बने नेपाल का  क्षेत्रफल 14,75,161 वर्ग कि. मि . में जनसंख्या 2011 जनगणना के अनुसार  2,64,94,504 है । विश्व का सबसे ऊँची 14 हिम शृंखलाओं में सर्वोच्च शिखर सागरमाथा एवरेस्ट नेपाल में  है। नेपाल की राजधानी काठमांडू में ललीतपुर (पाटन), भक्तपुर, मध्यपुर और किर्तीपुर  नगर  तथा   पोखरा, विराटनगर, धरान, भरतपुर, वीरगंज, महेन्द्रनगर, बुटवल, हेटौडा, भैरहवा, जनकपुर, नेपालगंज, वीरेन्द्रनगर, महेन्द्रनगर है। नेपाली भूभाग पर  अठारहवीं सदी में गोरखा के शाह वंशीय राजा पृथ्वी नारायण शाह द्वारा संगठित है । नेपाल' शब्द की व्युत्पत्ति ''ने'  का मतलब ऋषि तथा पाल का मतलब  गुफा मिलकर बना है। नेपाल की राजधानी काठमांडू 'ने' ऋषि का तपस्या स्थल था। 'ने' मुनि द्वारा पालित होने के कारण इस भूखण्ड का नाम नेपाल पड़ा है। तिब्बती भाषा में 'ने' का अर्थ 'मध्य' और 'पा' का अर्थ 'देश' होता है। तिब्बती लोग 'नेपाल' को 'नेपा' ही कहते हैं। 'नेपाल' और 'नेवार' शब्द की समानता के आधार पर डॉ॰ ग्रियर्सन और यंग ने  मूल शब्द से दोनों की व्युत्पत्ति होने का अनुमान किया है। टर्नर ने नेपाल, नेवार,  नेपाल दोनों स्थिति को स्वीकार किया है। 'नेपाल' शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम कौटिल्य ने अपने अर्थशास्त्र में किया है। चंद्रगुप्त मौर्य  काल में बिहार में मागधी भाषा प्रचलित थी उसमें 'र' का उच्चारण नहीं होता था। सम्राट् अशोक के शिलालेखों में 'राजा' के स्थान पर 'लाजा' शब्द व्यवहार में नेपार, नेबार, नेवार इस प्रकार विकास हुआ है । हिमालय क्षेत्र में  9,000 ई. पू . नेपाल में मानव  संस्कृति नव पाषाण युग  से  है। तिब्बती-बर्माई मूल के लोग नेपाल में 2,500 वर्ष पूर्व आ चुके थे। 5,500 ई .पू . महाभारत काल मेंं जब कुन्ती पुत्र पाँचों पाण्डव स्वर्गलोक की ओर प्रस्थान कर रहे थे । पाण्डुपुत्र भीम ने भगवान महादेव को दर्शन देने हेतु उपासना के बाद  भगवान शिवजी ने उन्हे दर्शन एक लिंग के रुप मे दिये जो आज "पशुपतिनाथ ज्योतिर्लिंग " के नाम से जाना जाता है। 1,500 ईसा पूर्व के आसपास हिन्द-आर्यन जातियों ने काठमांडू उपत्यका में प्रवेश किया था । 1,000 ईसा पूर्व में छोटे-छोटे राज्य और राज्य संगठन बनें। नेपाल स्थित जनकपुर में भगवान श्रीरामपत्नी माता सिताजी का जन्म 7,500 ईसा पुर्व हुआ। सिद्धार्थ गौतम (ईसापूर्व 563–483) , शाक्य वंश के राजकुमार का जन्म नेपाल के लुम्बिनी में हुआ था । 250 ईसा  क्षेत्र में उत्तर भारत के मौर्य साम्राज्य का प्रभाव पड़ा और बाद में चौथी शताब्दी में गुप्तवंश के अधीन में राज्य हो गया । 5वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में वैशाली के लिच्छवियों के राज्य की स्थापना हुई। सन् 879 से नेवार युग का उदय हुआ । 11वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में दक्षिण भारत से आए चालुक्य साम्राज्य का नेपाल के दक्षिणी भूभाग में रहा हैं। चालुक्यों के  राजाओं ने बौद्ध धर्म को छोड़कर हिन्दू धर्म का समर्थन किया और नेपाल में धार्मिक परिवर्तन होने लगा। 13वीं शताब्दी के पूर्वार्ध में संस्कृत शब्द मल्ल का थर वाले वंश का उदय होने लगा। 200 वर्ष में मल्ल राजाओं ने शक्ति एकजुट की। 14वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में देश का बहुत ज्यादा भाग एकीकृत राज्य के अधीन में आ गया। 1482 में  राज्य कान्तिपुर, ललितपुर और भक्तपुर प्रदेश हो गया था । 1765 ई . में, गोरखा राजा पृथ्वी नारायण शाह ने नेपाल के असंगठित प्रदेशो पर आधिपत्य के बाद कान्तीपुर, पाटन व भादगाँउ और कांतिपुर  के राजाओं को पराजित करने के बाद  नेपाल  की स्थापना की थी । नेपाल की लम्बाई  800 किलोमीटर और चौड़ाई 200 किलोमीटर का क्षेत्रफल 1,47,516 वर्ग किलोमीटर में नेपाल भौगोलिक रूप से पर्वतीय क्षेत्र, शिवालिक क्षेत्र और तराई क्षेत्र में विभाजित है । नेपाल की  नदियों में  कोशी, गण्डकी , बागमती और कर्णाली , कमला है । पहाड़ी भूभाग मे 1,000 लेकर 4,000 मीटर तक की ऊँचाई के पर्वत  में महाभारत लेख और शिवालिक  चुरिया की  पर्वत शृंखलाएँ हैं। पहाड़ी क्षेत्र मे ही काठमाण्डू , पोखरा , सुर्खेत  के साथ टार, बेसी, पाटन माडी  पड़ते है।  पहाड़ी क्षेत्र की उपत्यका को छोड़ कर 2,500 मीटर (8,200 फुट) की ऊँचाई पर जन घनत्व कम है। हिमाली क्षेत्र  की सबसे ऊँची हिम शृंखला  में संसार का सर्वोच्च शिखर, ऐवरेस्ट (सगरमाथा) 8,848 मीटर (29,035 फुट) अवस्थित है। विश्व की 8,000 मीटर से ऊँची 14 चोटियों में से 8 नेपाल की हिमालयी क्षेत्र में पड़ती हैं।  सर्वोच्च शिखर कंचनजंघा,  शिखर सगरमाथा (एवरेस्ट) नेपाल में   अवस्थित है। हिमशिखर मे अन्नपूर्णा श्रखला है। नेपाल के प्रदेशों में प्रदेश नं १ की राजधानी - धनकुटा , प्रदेश नं २ की राजधानी - जनकपुर , बागमती प्रदेश हेटौड की राजधानी - डोरमणी पौडेल , गण्डकी प्रदेश की राजधानी - पोखरा , प्रदेश नं ५ की बुटवल , कर्णाली प्रदेश की विरेन्द्रनगर , तथा गोदावरी की  कैलाली तथा नेपाल की काठमाण्डू  राजधानी है । नेपाल में बौद्ध पशुपतिनाथ की पूजा आर्यावलोकितेश्वर  और सनातन धर्मावलंबी मंजुश्री की उपासना सरस्वती के रूप में करते हैं। नेपाल की समन्वयात्मक संस्कृति लिच्छवि काल से चली आ रही है।
 लुंबिनी - लुम्बिनी महात्मा बुद्ध की जन्म स्थली है। यूनेस्को तथा विश्व के सभी बौद्ध सम्प्रदाय महायान, बज्रयान, थेरवाद  के अनुसार  नेपाल के कपिलवस्तु का लुम्बनी पर युनेस्को का स्मारक ,  बुद्ध धर्म के सम्प्रयायौं द्वारा निर्मित  संस्कृति अनुसार के मन्दिर, गुम्बा, बिहार आदि निर्माण किया गया  है। लुम्बनी में  सम्राट अशोक द्वारा स्थापित अशोक स्तम्भ पर ब्राह्मी लिपि में प्राकृत भाषा में बुद्ध का जन्म स्थान का  शिलापत्र अवस्थित है।
जनकपुर - वाल्मीकीय रामायण  का उत्तर कांड का पंचपंचाश: सर्ग के अनुसार इक्ष्वाकु वंशीय राजा निमि  के पुत्र  मिथि द्वारा मिथिला प्रदेश की राजधानी अपने पिता विदेह जनक  के नाम पर जनक नगर बसाया बाद में जनकपुर नगर की स्थापना कर मिथिला की राजधानी जनकपुर रखा गया था । सतयुग में मिथिला के राजा मिथि जनक  के वंशज जनकवंश कहलाये है ।   मिथिला की राजधानी जनकपुर में  मिथिला के राजा सीरध्वज जनक की पुत्री सीता का विवाह  अयोध्या का राजा दशरथ के पुत्र मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम के साथ  सम्पन्न हुआ था। 
मुक्तिनाथ - मुक्तिनाथ वैष्‍णव सम्प्रदाय के प्रमुख मन्दिरों में से एक है। यह तीर्थस्‍थान शालिग्राम भगवान के लिए प्रसिद्ध है। भारत में बिहार के वाल्मीकि नगर शहर से कुछ दूरी पर जाने पर गण्डक नदी से होते हुए जाने का मार्ग है। दरअसल एक पवित्र पत्‍थर होता है जिसको हिन्दू धर्म में पूजनीय माना जाता है। यह मुख्‍य रूप से नेपाल की ओर प्रवाहित होने वाली काली गण्‍डकी नदी में पाया जाता है। जिस क्षेत्र में मुक्तिनाथ स्थित हैं उसको मुक्तिक्षेत्र' के नाम से जाना जाता हैं। हिन्दू धार्मिक मान्‍यताओं के अनुसार यह वह क्षेत्र है, जहाँ लोगों को मुक्ति या मोक्ष प्राप्‍त होता है। मुक्तिनाथ की यात्रा काफ़ी मुश्किल है। फिर भी हिन्दू धर्मावलम्बी बड़ी संख्‍या में यहाँ तीर्थाटन के लिए आते हैं। यात्रा के दौरान हिमालय पर्वत के एक बड़े हिस्‍से को लाँघना होता है। यह हिन्दू धर्म के दूरस्‍थ तीर्थस्‍थानों में से एक है।
काठमाण्डु नगर से 29 किलोमीटर उत्तर-पश्चिम में छुट्टियाँ बिताने की खूबसूरत जगह ककनी स्थित है। यहाँ से हिमालय का ख़ूबसूरत नजारा देखते ही बनता है। ककनी से गणोश हिमल, गौरीशंकर 7134 मी॰, चौबा भामर 6109 मी॰, मनस्लु 8163 मी॰, हिमालचुली 7893 मी॰, अन्नपूर्णा 8091 मी॰ समेत अनेक पर्वत चोटियों को करीब से देखा जा सकता है।
समुद्र तल से 4360 मी॰ की ऊँचाई पर स्थित गोसाई कुण्ड झील नेपाल के प्रमुख तीर्थस्थलों में से एक है। काठमांडु से 132 किलोमीटर दूर धुंचे से गोसाई कुण्ड पहुँचना सबसे सही विकल्प है। उत्तर में पहाड़ और दक्षिण में विशाल झील इसकी सुन्दरता में चार चाँद लगाते हैं। यहाँ और भी नौ प्रसिद्ध झीलें हैं। जैसे सरस्वती भरव, सौर्य और गणोश कुण्ड आदि।यह प्राचीन नगर काठमाण्डु से 30 किलोमीटर पूर्व अर्निको राजमार्ग काठमाण्डु-कोदारी राजमार्ग के एक ओर बसा है। यहाँ से पूर्व में कयरेलुंग और पश्चिम में हिमालचुली शृंखलाओं के खूबसूरत दृश्यों का आनन्द उठाया जा सकता है।
पशुपतिनाथ मंदिर - भगवान पशुपतिनाथ का यह खूबसूरत मंदिर काठमाण्डु से करीब 5 किलोमीटर उत्तर-पूर्व में स्थित है। बागमती नदी के किनारे इस मन्दिर के साथ और भी मन्दिर बने हुए हैं। विश्मवप्रसिद्ध महाकाव्य "महाभारत " जो महर्षि वेदव्यासद्वारा 5,500 ईसा पुर्व भारतवर्ष मे हुआ। उसीमे कुन्तीपुत्र धर्मराज युधिष्टीर, अर्जुन, भिम, नकुल, सहदेव तथा द्रोपदी जब स्वर्गारोहण कर रहे थे तब वे जिस विशाल पर्वत शृंखला से गये उसे " महाभारत पर्वत शृंखला " तथा जहा पर कैलासनाथ आदियोगी महादेव जी ने ज्योतिर्लिंग के रुप मे प्रकट हुये वो स्थान " श्री पशुपतिनाथ ज्योतिर्लिंग मन्दिर " के नाम से जाना जाता है। "पशुपतिनाथ ज्योतिर्लिंग देवस्थान" के बारे में माना जाता है कि यह नेपाल में हिन्दुओं का सबसे प्रमुख और पवित्र तीर्थस्थल है। भगवान शिव को समर्पित यह मंदिर प्रतिवर्ष हजारों देशी-विदेशी श्रद्धालुओं को अपनी ओर खींचता है। गोल्फ़ कोर्स और हवाई अड्डे के पास बने इस मन्दिर को भगवान का निवास स्थान माना जाता है।पशुपति शिव (केदार )के शिर , उत्तराखण्डका केदारनाथ शिव (केदार)का शरीर ,डोटी बोगटानका बड्डीकेदार, शिव (केदार )का पाउ (खुट्टा)के रुपमे शिवका तीन अंग प्रसिद्द ज्योतिर्लिंग धार्मिक तीर्थ है । डोटीके केदार व कार्तिकेय (मोहन्याल)का इतिहास अयोध्याका राजवंश से जुड़ा है । उत्तराखण्ड के सनातनी देवता डोटी ,सुर्खेत ,काठमाडौं के देबिदेवाताका धार्मिक तीर्थ के लिए प्राचीन कालमे महाभारत पर्वत,चुरे पर्वत क्षेत्र से आवत जावत होता था । यिसी लिए यह क्षेत्र पवित्र धार्मिक इतिहास से सम्बन्धित है ।
रॉयल चितवन राष्ट्रीय उद्यान देश की प्राकृतिक संपदा का खजाना है। 932 वर्ग किलोमीटर में फैला यह उद्यान दक्षिण- मध्य नेपाल में स्थित है। 1973 में इसे नेपाल के प्रथम राष्ट्रीय उद्यान का दर्जा हासिल हुआ। इसकी अद्भुत पारिस्थितिकी को देखते हुए यूनेस्को ने 1984 में इसे विश्‍व धरोहर का दर्जा दिया।
चाँगुनारायण मन्दिर -  मन्दिर के बारे में कहा जाता है कि यह काठमाण्डु घाटी का सबसे पुराना विष्णु मन्दिर है। मूल रूप से इस मन्दिर का निर्माण चौथी शताब्दी के आस-पास हुआ था। वर्तमान पैगोडा शैली में बना यह मन्दिर 1702 में पुन: बनाया गया जब आग के कारण यह नष्ट हो गया था। यह मंदिर घाटी के पूर्वी ओर पहाड़ की चोटी पर भक्तपुर से चार किलोमीटर उत्तर में खूबसूरत और शान्तिपूर्ण स्थान पर स्थित है। यह मन्दिर यूनेस्को विश्‍व धरोहर सूची का हिस्सा है। 2072 वैशाख 12 का भूकम्प से इस मन्दिर की कुछ संरचना बिगड़ गयी है।
भक्तपुर के दरबार स्क्वैयर का निर्माण 16वीं और 17वीं शताब्दी में हुआ था। इसके अन्दर एक शाही महल दरबार और पारम्परिक नेवाड़, पैगोडा शैली में बने बहुत सारे मन्दिर हैं। स्वर्ण द्वार, जो दरबार स्क्वैयर का प्रवेश द्वार है, काफी आकर्षक है। इसे देखकर अन्दर की खूबसूरती का सहज ही अन्दाजा लगाया जा सकता है। यह जगह भी युनेस्को की विश्‍व धरोहर का हिस्सा है। यूनेस्को की आठ सांस्कृतिक विश्‍व धरोहरों में से एक काठमाण्डु दरबार प्राचीन मन्दिरों, महलों और गलियों का समूह है। यह राजधानी की सामाजिक, धार्मिक और शहरी जिन्दगी का मुख्य केन्द्र है।
खूबसूरती की मिसाल स्वर्ण द्वार नेपाल की शान है। बेशक़ीमती पत्थरों से सजे इस दरवाज़े का धार्मिक और ऐतिहासिक दृष्टि से बहुत महत्व है। शाही अन्दाज में बने इस द्वार के ऊपर देवी काली और गरुड़ की प्रतिमाएँ लगी हैं। यह माना जाता है कि स्वर्ण द्वार स्वर्ग की दो अप्सराएँ हैं। इसका वास्तुशिल्प और सुन्दरता पर्यटकों को मंत्रमुग्ध कर देती है। तथा मनमोहक सुन्दर दृश्य पर्यटकों के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण जगह है।
काठमाण्डु घाटी के मध्य में स्थित बोधनाथ स्तूप तिब्बती संस्कृति का केन्द्र है। 1959 में चीन के हमले के बाद यहाँ बड़ी संख्या में तिब्बतियों ने शरण ली और यह स्थान तिब्बती बौद्धधर्म का प्रमुख केन्द्र बन गया। बोधनाथ नेपाल का सबसे बड़ा स्तूप है। इसका निर्माण 14वीं शताब्दी के आस-पास हुआ था, जब मुग़लों ने आक्रमण किया।
इस स्तूप को नेपाली में बौद्ध नाम से पुकारा जाता है। इसकी प्रारम्भिक ऐतिहासिक सामग्री इसकी ही नीचे दबा हुवा अनुमानित है। लिच्छवि राजाओं मानदेव द्वारा निर्मित और शिवदेव द्वारा विस्तारित माना जाता है। हालाँकि इसकी वर्तमान स्वरूप की निर्माण की तिथि भी अज्ञात ही है। इसकी गर्भ-बेदी की दीवार पर स्थापित छोटे-छोटे प्रस्तर मूर्तियाँ और ऊपर की छत्रावली संस्कृत बौद्ध-धर्म का प्रतीक माना जाता है। नेपाल का इतिहास भारतीय साम्राज्यों से प्रभावित हुआ पर यह दक्षिण एशिया का एकमात्र देश था जो ब्रिटिश उपनिवेशवाद से बचा रहा। हँलांकि अंग्रेजों से हुई लड़ाई (1814-16) और उसके परिणामस्वरूप हुई संधि में तत्कालीन नेपाली साम्राज्य के अर्धाधिक भूभाग ब्रिटिश इंडिया के तहत आ गए और आज भी ये भारतीय राज्य उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश, सिक्किम और पश्चिम बंगाल के अंश हैं।
हिमालय क्षेत्र में मनुष्यों का आगमन लगभग ९,००० वर्ष पहले होने के तथ्य की पुष्टि काठमाण्डौ उपत्यका में पाये गये नव पाषाण औजारौं से होती है। सम्भवतः तिब्बती-बर्मीज मूल के लोग नेपाल में २,५०० वर्ष पहले आ चुके थे।[1]
१५०० ईशा पूर्व के आसपास इन्डो-आर्यन जतियों ने काठमाण्डौ उपत्यका में प्रवेश किया। करीब १००० ईसा पूर्व में छोटे-छोटे राज्य और राज्यसंगठन बनें। सिद्धार्थ गौतम (ईसापूर्व ५६३–४८३) शाक्य वंश के राजकुमार थे, जिन्होंने अपना राजकाज त्याग कर तपस्वी का जीवन निर्वाह किया और वह बुद्ध बन गए। नेपाल का प्राचीन काल सभ्यता, संस्कृति और र्शार्य की दृष्टि से बड़ा गौरवपूर्ण रहा है। प्राचीन काल में नेपाल राज्य की बागडोर क्रमश: गुप्तवंश किरात वंशी, सोमवंशी, लिच्छवि, सूर्यवंशी राजाओं के हाथों में रही है। किरात वंशी राजा स्थुंको, सोमवंशी लिच्छवी, राजा मानदेव, राजा अंशुवर्मा के राज्यकाल बड़े गौरवपूर्ण रहे हैं। कला, शिक्षा, वैभव और राजनीति के दृष्टिकोण से लिच्छवि काल 'स्वर्णयुग' रहा है। जन साधारण संस्कृत भाषा में लिखपढ़ और बोल सकते थे। राजा स्वयं विद्वान्‌ और संस्कृत भाषा के मर्मज्ञ होते थे। 'पैगोडा' शैली की वास्तुकला बड़ी उन्नत दशा में थी और यह कला सुदूर महाचीन तक फैली हुई थी। मूर्तिकला भी समृद्ध अवस्था में थी। धार्मिक सहिष्णुता के कारण् हिंदू धर्म और बौद्ध धर्म समान रूप से विकसित हो रहे थे। काफी वजनदार स्वर्णमुद्राएँ व्यवहार में प्रचलित थीं। विदेशों से व्यापार करने के लिए व्यापारियों का अपना संगठन था। वैदेशिक संबंध की सुदृढ़ता वैवाहिक संबंध के आधार पर कायम था । 880 ई.में लिच्छवि राज्य की समाप्ति पर नुवाकोटे ठकुरी राजवंश का अभ्युदय हुआ। इस समय नेपाल राज्य की अवनति प्रारंभ हो गई थी। केंद्रीय शासन शिथिल पड़ गया था। फलत: नेपाल अनेक राजनीतिक इकाइयों में विभाजित हो गया। हिमालय के मध्य कछार में मल्लों का गणतंत्र राज्य कायम था। लिच्छवि शासन की समाप्ति पर मल्ल राजा सिर उठाने लगे थे। सन्‌ 1350 ई. में बंगाल के शासक शमशुद्दीन इलियास ने नेपाल उपत्यका पर बड़ा जबरदस्त आक्रमण किया। धार्मिक, सामाजिक, राजनीतिक व्यवस्था अस्तव्यस्त हो गयी। सन्‌ 1480 ई. में अंतिम वैश राजा अर्जुन देव अथवा अर्जुन मल्ल देव को उनके मंत्रियों ने पदच्युत करके स्थितिमल्ल नामक राजपूत को राजसिंहासन पर बैठाया। इस समय तक केंद्रीय राज्य पूर्ण रूप से छिन्न-भिन्न होकर काठमाडों, गोरखा, तनहुँ, लमजुङ, मकबानपुर आदि लगभग तीस रियासतों में विभाजित हो गया था।२५० ईशा पुर्व तक ईस क्षेत्र में उत्तर भारत के मौर्य साम्राज्य का प्रभाव पडा। इस क्षेत्र में ५वी शताब्दी के उत्तरार्ध में आकर वैशाली के लिच्छवियो के राज्य की स्थापना हुई। ८वी शताव्दी के उत्तरार्ध में लिच्छवि वंश का अस्त हो गया और सन् ८७९ से नेवार (नेपाल की एक जाति) युग का उदय हुआ, फिर भी इन लोगों का नियन्त्रण देशभर में कितना बना था, इसका आकलन कर पाना मुश्किल है। ११वी शताब्दी के उत्तरार्ध में दक्षिण भारत से आए चालुक्य साम्राज्य का प्रभाव नेपाल के दक्षिणी भूभाग में दिखा। चालुक्यों के प्रभाव में आकर उस समय राजाओं ने बुद्धधर्म को छोडकर हिन्दू धर्म का समर्थन किया और नेपाल में धार्मिक परिवर्तन होने लगा।१३वीं शताब्दी के पूर्वार्ध में संस्कृत शब्द मल्ल कुलनाम वाले राजवंश का उदय होने लगा। २०० वर्ष में इन राजाओं ने शक्ति एकजुट की। १४वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में देश का बहुत ज्यादा भाग एकीकृत राज्य के अधीन में आ गया। लेकिन यह एकीकरण कम समय तक ही टिक सका। १४८२ में यह राज्य तीन भाग में विभाजित हो गया - कान्तिपुर, ललितपुर और भक्तपुर – जिसके बीचमे शताव्दियौं तक मेल नहीं हो सका। राजा स्थिति मल्ल अस्तव्यस्त आर्थिक, धार्मिक तथा सामाजिक व्यवस्था को सुदृढ़ करने में पूर्ण रूप से समर्थ हुए। राजा पक्षमल्ल ने केंद्रीय शासन को सुदृढ़ करने का प्रयत्न किया, किंतु उनके निधन पर पश्चात्‌ उनके उत्तराधिकारियों ने राज्य को आपस में बाँटकर पुन: राजनीतिक इकाइयाँ खड़ी कीं। मध्यकालीन नेपाल साहित्य, संगीत और कला की दृष्टि से उन्नत होने पर भी राजनीतिक दृष्टि से अवनति की ओर ही बढ़ा। जनजीवन अशांत था। यूरोपीय साम्राज्यवादियों की कुदृष्टि भारत के पश्चात्‌ नेपाल पर भी पड़ गई थी। नेपाल के विरुद्ध किनलोक का सैनिक अभियान और उपत्यका में ईसाई पादरियों की चहल पहल इस तथ्य के प्रमाण हैं।गोरखा राज्य इन दिनों काफी सबल हो चुका था। नेपाल की छोटी छोटी राजनीतिक इकाइयों पर और नेपाली जनजीवन पर गोरखा राज्य का प्रभाव छा गया था। न्यायमूर्ति राजा रामशाह के न्याय की चर्चा नेपाल भर में फैल गयी थी। राजा पृथ्वीपति शाह के राज्यकाल में बंगाल के नवाब ने गुर्गिन खाँ के नेतृत्व में नेपाल पर आक्रमण करने के लिए पचास साठ हजार फौज भेजी थी। नवाब की सेना मकवानपुर के तराई क्षेत्र में पड़ाव डाले हुई थी। मकबानपुर ने गोरखा राज्य से सहायता की याचना की। गोराखा के कुछ जवानों ने नवाब की सेना को गाजर मूली की तरह काट डाला। बचे हुए सैनिक अपनी जान बचाकर भाग निकले।उपर्युक्त इन दो कारणो से गोरखा राज्य नेपाली जनजीवन के सुखद भविष्य का आशाकेंद्र हो गया था। जनजीवन की इस आकांक्षा को नेपाल राष्ट्र के जनक महाराजाधिराज पृथ्वीनारायण शाह ने समझा और नेपाल के एकीकरण के लिए अभियान प्रारंभ किया। जिस प्रकार यूरोप में सार्डिनिया राज्य ने इटली का और प्रशा राज्य ने जर्मनी का एकीकरण किया, उसी प्रकार गोरखा राज्य ने पृथ्वीनारायण शाह के नेतृत्व में नेपाल का एकीकरण किया। मध्यकालीन नेपाल के अंतिम चरण में अर्थात्‌ राष्ट्र के जनक पृथ्वीनारायण शाह के उदय होने से पूर्व विदेशी लोग नेपाल पर दाँत गड़ाने लगे थे। नेपाल उपत्यका में पादरी लोग ईसाई धर्म का प्रचार करने लगे थे। मल्ल राजा आपसी फूट-वैमनस्य, झगड़ा, युद्ध आदि बातों में निरंतर व्यस्त थे।
नेपाल उपत्यका के बाहर के राज्य भी आपस में लड़-झगड़कर अपनी जन-धन-शक्ति को क्षीण कर रहे थे। राजाओं ने आपसी झगड़े, मल्ल राजाओं द्वारा देव-मंदिर की संपत्ति का व्यक्तिगत उपभोग, राजा भास्कर मल्ल द्वारा हिंदू भावना के विरुद्ध एक मुसलमान को प्रधान मंत्री बनाने का कार्य आदि मध्यकालीन राजनीतिक स्थिति को धूमिल बनाते हैं और साथ ही नेपाल की सार्वभौम स्वतंत्रता को अधर में डाल देते है। जिस प्रकार शमशुद्दीन इलियास के आक्रमण के पश्चात्‌ राजा स्थितिमल्ल ऐतिहासिक आवश्यकता के रूप में दिखाई पड़ते हैं उसी प्रकार साम्राज्यवादियों से नेपाल का बचाने वाले के रूप में पृथ्वीनारायण शाह ऐतिहासिक आवश्यकता स्वरूप दिखलाई पड़ते हैं। गोरखों ने 1790 में तिब्बत पर आक्रमण किया किंतु यह आक्रमण नेपाल को महँगा पड़ा। चीन ने 1791 में तिब्बत का पक्ष लेकर अपनी सेनाएँ नेपाल में प्रविष्ट करा दीं और 1792 में गोरखों को संधि करने पर विवश किया। इसी वर्ष ग्रेट ब्रिटेन और नेपाल में द्वितीय वाणिज्य संधि संपन्न हुई और नेपाल में एक अंग्रेज कूटनीतिज्ञ की नियुक्ति की व्यवस्था हो गई। भारत नेपाल सीमा विवाद के समय 1814 में ब्रिटेन ने नेपाल के विरूद्ध युद्ध छेड़ दिया। मार्च 1816 में नेपाल ने अपनी कुछ भूमि अंग्रेजों को दे दी और काठमांडू में अंग्रेजी रेजीडेंसी की स्थापना हो गई। 1857 के भारतीय 'सिपाही विद्रोह' में नेपालके तत्कालीन प्रधान मंत्री जंगबहादुर ने अंग्रेजी सेना की सहायता के लिए 12000 सैनिक भेजे।धर्मविरोधी, जातिविरोधी तथा राष्ट्रविरोधी कार्यों ने सच्चे नेपाली के मन में सुदृढ़ नेपाल राष्ट्र खड़ा करने की भावना को जन्म दिया। नेपाल की छिन्न-भिन्न राजनीतिक इकाइयों को एक सूत्र में बाँधकर नेपाल राष्ट्र खड़ा करने के लिए वहाँ की राजनीतिक इकाइयों का एकीकरण हुआ।१७६५मे, गोरखाके शाहवंशी राजा पृथ्वी नारायण शाह ने नेपाल के छोटे छोटे बाइसे व चोबिसे राज्यके ऊपर चढाँइ करतेहुए एकिकृत किया, बहुत ज्यादा रक्तरंजित लडाँईयौं पश्वात उन्हौने ३ वर्ष बाद कान्तीपुर, पाटन व भादगाँउ के राजाओं को हराया और अपने राज्य का नाम गोरखा से नेपाल में परिवर्तित किया। कान्तिपुर तविजयके लिये तीन बार युद्ध थाकरना पडा, महान्पि सेनानायक कालू पाण्डे भी इसि युद्ध में सहिद हो गए। अौर पृथ्वीनारायण शाहने कूटनीति अपनाकर उपत्यका बाहरके देशों से लडाइँ कि अौर कीर्तिपुर में नाकाबन्दी कर दिया, पानीका मूल भी बन्द करदिया अन्तिम या तिसरी बार में उन्हे कान्तिपुर विजय में कोई युद्ध नहीं करना पड़ा। वास्तव में, उस समय इन्द्रजात्रा पर्व में कान्तिपुर की सभी जनता फसल के देवता भगवान इन्द्र की पूजा और महोत्सव (जात्रा) मना रहे थे, जब पृथ्वी नारायण शाह ने अपनी सेना लेकर धावा बोला और सिंहासन कब्जा कर लिया। इस घटना को आधुनिक नेपाल का जन्म भी कहते है।



                              

गुरुवार, अगस्त 26, 2021

भगवान श्रीकृष्ण : भक्ति , कर्मयोग और ज्ञान ...


        विश्व एवं भारतीय संस्कृति में ज्ञान , योग , भक्ति  कर्म और प्रेम का रूप भगवान कृष्ण है । पुरणों , स्मृतियों में गीता का संदेश मानवीय जीवन का चतुर्दिक विकास का मंत्र भगवान कृष्ण द्वारा दिया गया प्रत्येक विचार सर्वोत्तम है ।भगवानविष्णु के 8 वें अवतार  कृष्ण के जन्म का प्रतीक जन्माष्टमी एवं गोकुलाष्टमी प्रतिवर्ष  भाद्रपद कृष्ण अष्टमी को वार्षिक उत्सव मनाते है। जन्माष्टमी के अगले दिन दही हांडी के रूप में मनाया जाता है। भगवान कृष्ण का जन्म भाद्रपद कृष्ण अष्टमी बुधवार रोहाणी नक्षत्र निशिथ काल मध्य रात्रि द्वापर युग को  मथुरा का राजा कंश के कारागार मथुरा में वासुदेव की भर्या देवकी के गर्भ से आठवें पुत्र का अवतरण हुआ एवं गोकुल के नंद की भर्या माता यशोदा द्वारा पालन पोषण गोकुल में हुआ तथा द्वारिका में  वृंदावन और द्वारका में राजधानी रखा था । कृष्णष्टमी को कृष्णष्टमी, सातमआथम, गोकुलाष्टमी, यदुकुलाष्टमी कहा गया है ।श्रीकृष्ण जयंती  सांस्कृतिक समारोह , दही हांडी ,  पतंगबाजी, मेला,उपवास, पारंपरिक मीठे व्यंजन , नृत्य-नाटक, पूजा, रात्रि जागरण,भागवत पुराण  अनुसार कृष्ण के जीवन के नृत्य-नाटक अधिनियम , कृष्ण के जन्म के समय मध्यरात्रि में भक्ति गायन, उपवास , एक रात्रि जागरण, और अगले दिन एक त्योहार जन्माष्टमी है।  मणिपुर, असम, बिहार, पश्चिम बंगाल, ओडिशा, मध्य प्रदेश, राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र, कर्नाटक, केरल, तमिलनाडु में पाए जाने वाले प्रमुख वैष्णव और गैर-सांप्रदायिक समुदायों के साथ विशेष रूप से मथुरा और वृंदावन में मनाया जाता है । कृष्ण जन्माष्टमी के बाद त्योहार नंदोत्सव में नंद बाबा ने जन्म के सम्मान में समुदाय को उपहार वितरित किया जाता है । गौड़ीय वैष्णव परंपरा में अष्टमी देवत्व के  व्यक्तित्व माना जाता है। भगवान कृष्ण का जन्म अराजकता के क्षेत्र ,  उत्पीड़न ,  स्वतंत्रता से वंचित , बुराई हर जगह , और  राजा कंस द्वारा  श्री कृष्ण के  जीवन के लिए खतरा उत्पन्न  था। श्री कृष्ण के मथुरा में जन्म के बाद , उनके पिता वासुदेव द्वारा श्री कृष्ण को  अनाकादुंदुभि में रख कर   नंद जी  और यशोदा  के गोकुल में श्री कृष्ण को पालने के लिए, कृष्ण को यमुना पार ले गए थे  । कृष्ण की जयंती  को मक्कन चोर (मक्खन चोर) के रूप में मनाते हैं ।महाराष्ट्र में "गोकुलाष्टमी" के रूप में मुंबई , लातूर , नागपुर और पुणे जैसे शहरों में मनाई जाती है । दही हांडी कृष्ण जन्माष्टमी  मनाई जाती है। महाराष्ट्र और भारत के अन्य पश्चिमी राज्यों में जन्माष्टमी दही के बर्तनों को ऊपर लटका दिया जाता है । "गोविंदा" कहे जाने वाले युवाओं और लड़कों की टीम इन लटकते हुए बर्तनों के चारों ओर जाती है, एक दूसरे पर चढ़ती है और मानव पिरामिड बनाती है, फिर बर्तन को तोड़ती है। लड़कियां इन लड़कों को घेर लेती हैं, नाचते और गाते हुए उन्हें चिढ़ाती और चिढ़ाती हैं। गिराई गई सामग्री को प्रसाद के रूप में माना जाता है ।गुजरात के द्वारका में द्वारिकाधीश  कृष्ण ने अपना राज्य स्थापित किया है । दही हांडी के समान एक परंपरा के साथ त्योहार मनाते हैं , जिसे माखन हांडी कहा जाता है ।  मंदिरों में लोक नृत्य ,  भजन गाते , द्वारकाधीश मंदिर या नाथ द्वारा कृष्ण मंदिरों में जाते हैं ।  कच्छ जिले क्षेत्र, किसान अपनी बैलगाड़ी सजाने और समूह गायन और नृत्य के साथ कृष्ण जुलूस निकालते है ।जन्माष्टमी उत्तर भारत का उत्तर प्रदेश में वैष्णव समुदाय , राजस्थान, दिल्ली, हरियाणा, उत्तराखंड और हिमालयी उत्तर के स्थानों में जन्माष्टमी मनाते हैं।भागवत पुराण के  अनुसार, राधा-कृष्ण प्रेम दैवीय सिद्धांत और वास्तविकता के लिए मानव आत्मा की लालसा और प्रेम का प्रतीक और  ब्रह्म  हैं । जम्मू में  पतंग छतों से उड़ान कृष्ण जन्माष्टमी पर उत्सव  है। जन्माष्टमी व्यापक रूप से पूर्वी और पूर्वोत्तर भारत में  वैष्णव समुदायों द्वारा कृष्ण को मनाने की व्यापक परंपरा का श्रेय १५वीं और १६वीं शताब्दी के शंकरदेव और चैतन्य महाप्रभु के प्रयासों और शिक्षाओं को जाता है । भगवान कृष्ण का जश्न मनाने के दार्शनिक विचारों, साथ ही प्रदर्शन कला के नए रूपों का विकास किया बॉरगीत , अंकइणांत   , सत्त्रिया नृत्य और भक्ति योग अब पश्चिम बंगाल और असम में लोकप्रिय है।  मणिपुर में मणिपुरी  शास्त्रीय नृत्य  वैष्णववाद और जिसमें सत्त्रिया  रासलीला  राधा-कृष्ण की प्रेम-प्रेरित नृत्य नाटक कलाएं हैं । ये नृत्य नाटक कलाएं इन क्षेत्रों में जन्माष्टमी परंपरा का एक हिस्सा हैं, और सभी शास्त्रीय भारतीय नृत्यों की तरह, प्राचीन हिंदू संस्कृत पाठ नाट्य शास्त्र में प्रासंगिक जड़ें हैं , लेकिन संस्कृति से प्रभाव के साथ भारत और दक्षिण पूर्व एशिया के बीच संलयन।कृष्ण जन्माष्टमी पूजा विधि मणिपुरी नृत्य शैली में रास लीला जन्माष्टमी पर, माता-पिता अपने बच्चों को कृष्ण की किंवदंतियों, जैसे गोपियों और कृष्ण के पात्रों के रूप में तैयार करते हैं । मंदिरों और सामुदायिक केंद्रों को क्षेत्रीय फूलों और पत्तियों से सजाया कर भागवत पुराण और भगवत गीता के दसवें अध्याय का पाठ करते हैं ।जन्माष्टमी मणिपुर में उपवास, सतर्कता, शास्त्रों के पाठ और कृष्ण प्रार्थना के साथ मनाया जाने वाला एक प्रमुख त्योहार है। मीतेई वैष्णव समुदाय में बच्चे लिकोल सन्नाबा खेल खेलते हैं। जन्माष्टमी असम में घरों में, असमिया: नामम  सामुदायिक केंद्रों , और मंदिरों में आमतौर पर जन्माष्टमी के रूप में मनाई जाती है।
ओडिशा का  पुरी के क्षेत्र और पश्चिम बंगाल के नवद्वीप में कृष्णष्टमी त्योहार को श्री कृष्ण जयंती ,  बस श्री जयंती के रूप में जाना जाता है ।भागवत पुराण 10 वीं अध्याय का समर्पित से पाठ किया जाता है । केरल में मलयालम कैलेंडर के अनुसार सितंबर को मनाते हैं। दक्षिण भारतीय कृष्ण को समर्पित मंदिर हैं । राजगोपालस्वामी मंदिर में मन्नारगुडी तिरुवरुर जिले में, पाण्डवधूथर  मंदिर कांचीपुरम , पर श्री कृष्ण मंदिर उडुपी , और कम से कृष्ण मंदिर गुरुवायूर कृष्ण के रूप में विष्णु के अवतार की स्मृति को समर्पित  हैं।  गुरुवायुर में स्थापित श्री कृष्ण की मूर्ति द्वारका की है । नेपाल की पाटन में कृष्ण मंदिर में  कृष्ण जन्माष्टमी मनाती है। जन्माष्टमी बांग्लादेश में राष्ट्रीय अवकाश है ।  जन्माष्टमी पर, बांग्लादेश के राष्ट्रीय मंदिर ढाका में ढाकेश्वरी मंदिर से एक जुलूस शुरू होकर  ढाका की सड़कों से बढ़ता है । जुलूस 1902 का है, लेकिन 1948 में रोक दिया गया था। जुलूस 1989 में फिर से शुरू किया गया था। फिजी में जन्माष्टमी को "कृष्णा अष्टमी" के रूप में जाना जाता है। फिजी का जन्माष्टमी उत्सव  आठ दिनों तक चलते है । पाकिस्तानी हिंदुओं में श्री स्वामीनारायण मंदिर में कराची के गायन के साथ भजन और कृष्ण पर उपदेश की दे रहे थे। फ्रांसीसी द्वीप रीयूनियन के मलबारों के बीच , कैथोलिक और हिंदू धर्म का  कृष्णष्टमी है। जन्माष्टमी को ईसा मसीह की जन्म तिथि माना जाता है । एरिजोना , यूनाइटेड स्टेट्स, राज्यपाल जेनेट Napolitano जबकि इस्कॉन को मान्यता दी, जन्माष्टमी पर एक संदेश का स्वागत करने के पहले अमेरिकी नेता थे। [४९] यह त्यौहार कैरिबियन में गुयाना, त्रिनिदाद और टोबैगो, जमैका भगवानविष्णु के 8वें अवतार  कृष्ण के जन्म का प्रतीक जन्माष्टमी एवं गोकुलाष्टमी प्रतिवर्ष  भाद्रपद कृष्ण अष्टमी को वार्षिक उत्सव मनाते है। जन्माष्टमी के अगले दिन दही हांडी के रूप में मनाया जाता है। भगवान कृष्ण का जन्म भाद्रपद कृष्ण अष्टमी बुधवार रोहाणी नक्षत्र निशिथ काल मध्य रात्रि द्वापर युग को  मथुरा का राजा कंश के कारागार मथुरा में वासुदेव की भर्या देवकी के गर्भ से आठवें पुत्र का अवतरण हुआ एवं गोकुल के नंद की भर्या माता यशोदा द्वारा पालन पोषण गोकुल में हुआ तथा द्वारिका में  वृंदावन और द्वारका में राजधानी रखा था । कृष्णष्टमी को कृष्णष्टमी, सातमआथम, गोकुलाष्टमी, यदुकुलाष्टमी कहा गया है ।श्रीकृष्ण जयंती  सांस्कृतिक समारोह , दही हांडी ,  पतंगबाजी, मेला,उपवास, पारंपरिक मीठे व्यंजन , नृत्य-नाटक, पूजा, रात्रि जागरण,भागवत पुराण ( रास लीला या कृष्ण लीला) के अनुसार कृष्ण के जीवन के नृत्य-नाटक अधिनियम , कृष्ण के जन्म के समय मध्यरात्रि में भक्ति गायन, उपवास , एक रात्रि जागरण, और अगले दिन एक त्योहार जन्माष्टमी है।  मणिपुर, असम, बिहार, पश्चिम बंगाल, ओडिशा, मध्य प्रदेश, राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र, कर्नाटक, केरल, तमिलनाडु में पाए जाने वाले प्रमुख वैष्णव और गैर-सांप्रदायिक समुदायों के साथ विशेष रूप से मथुरा और वृंदावन में मनाया जाता है । कृष्ण जन्माष्टमी के बाद त्योहार नंदोत्सव में नंद बाबा ने जन्म के सम्मान में समुदाय को उपहार वितरित किया जाता है । गौड़ीय वैष्णव परंपरा में अष्टमी देवत्व के  व्यक्तित्व माना जाता है। भगवान कृष्ण का जन्म अराजकता के क्षेत्र ,  उत्पीड़न ,  स्वतंत्रता से वंचित , बुराई हर जगह , और  राजा कंस द्वारा  श्री कृष्ण के  जीवन के लिए खतरा उत्पन्न  था। श्री कृष्ण के मथुरा में जन्म के बाद , उनके पिता वासुदेव द्वारा श्री कृष्ण को  अनाकादुंदुभि में रख कर   नंद जी  और यशोदा  के गोकुल में श्री कृष्ण को पालने के लिए, कृष्ण को यमुना पार ले गए थे  । कृष्ण की जयंती  को मक्कन चोर (मक्खन चोर) के रूप में मनाते हैं ।महाराष्ट्र में "गोकुलाष्टमी" के रूप में मुंबई , लातूर , नागपुर और पुणे जैसे शहरों में मनाई जाती है । दही हांडी कृष्ण जन्माष्टमी  मनाई जाती है। महाराष्ट्र और भारत के अन्य पश्चिमी राज्यों में जन्माष्टमी दही के बर्तनों को ऊपर लटका दिया जाता है । "गोविंदा" कहे जाने वाले युवाओं और लड़कों की टीम इन लटकते हुए बर्तनों के चारों ओर जाती है, एक दूसरे पर चढ़ती है और मानव पिरामिड बनाती है, फिर बर्तन को तोड़ती है। लड़कियां इन लड़कों को घेर लेती हैं, नाचते और गाते हुए उन्हें चिढ़ाती और चिढ़ाती हैं। गिराई गई सामग्री को प्रसाद के रूप में माना जाता है ।गुजरात के द्वारका में द्वारिकाधीश  कृष्ण ने अपना राज्य स्थापित किया है । दही हांडी के समान एक परंपरा के साथ त्योहार मनाते हैं , जिसे माखन हांडी कहा जाता है ।  मंदिरों में लोक नृत्य ,  भजन गाते , द्वारकाधीश मंदिर या नाथ द्वारा कृष्ण मंदिरों में जाते हैं ।  कच्छ जिले क्षेत्र, किसान अपनी बैलगाड़ी सजाने और समूह गायन और नृत्य के साथ कृष्ण जुलूस निकालते है ।जन्माष्टमी उत्तर भारत का उत्तर प्रदेश में वैष्णव समुदाय , राजस्थान, दिल्ली, हरियाणा, उत्तराखंड और हिमालयी उत्तर के स्थानों में जन्माष्टमी मनाते हैं।भागवत पुराण के  अनुसार, राधा-कृष्ण प्रेम दैवीय सिद्धांत और वास्तविकता के लिए मानव आत्मा की लालसा और प्रेम का प्रतीक और  ब्रह्म  हैं । जम्मू में  पतंग छतों से उड़ान कृष्ण जन्माष्टमी पर उत्सव  है। जन्माष्टमी व्यापक रूप से पूर्वी और पूर्वोत्तर भारत में  वैष्णव समुदायों द्वारा कृष्ण को मनाने की व्यापक परंपरा का श्रेय १५वीं और १६वीं शताब्दी के शंकरदेव और चैतन्य महाप्रभु के प्रयासों और शिक्षाओं को जाता है । भगवान कृष्ण का जश्न मनाने के दार्शनिक विचारों, साथ ही प्रदर्शन कला के नए रूपों का विकास किया बॉरगीत , अंकइणांत   , सत्त्रिया नृत्य और भक्ति योग अब पश्चिम बंगाल और असम में लोकप्रिय है।  मणिपुर में मणिपुरी  शास्त्रीय नृत्य  वैष्णववाद और जिसमें सत्त्रिया  रासलीला  राधा-कृष्ण की प्रेम-प्रेरित नृत्य नाटक कलाएं हैं । ये नृत्य नाटक कलाएं इन क्षेत्रों में जन्माष्टमी परंपरा का एक हिस्सा हैं, और सभी शास्त्रीय भारतीय नृत्यों की तरह, प्राचीन हिंदू संस्कृत पाठ नाट्य शास्त्र में प्रासंगिक जड़ें हैं , लेकिन संस्कृति से प्रभाव के साथ भारत और दक्षिण पूर्व एशिया के बीच संलयन।कृष्ण जन्माष्टमी पूजा विधि मणिपुरी नृत्य शैली में रास लीला जन्माष्टमी पर, माता-पिता अपने बच्चों को कृष्ण की किंवदंतियों, जैसे गोपियों और कृष्ण के पात्रों के रूप में तैयार करते हैं । मंदिरों और सामुदायिक केंद्रों को क्षेत्रीय फूलों और पत्तियों से सजाया कर भागवत पुराण और भगवत गीता के दसवें अध्याय का पाठ करते हैं ।जन्माष्टमी मणिपुर में उपवास, सतर्कता, शास्त्रों के पाठ और कृष्ण प्रार्थना के साथ मनाया जाने वाला एक प्रमुख त्योहार है। मीतेई वैष्णव समुदाय में बच्चे लिकोल सन्नाबा खेल खेलते हैं। जन्माष्टमी असम में घरों में, असमिया: नामम  सामुदायिक केंद्रों , और मंदिरों में आमतौर पर जन्माष्टमी के रूप में मनाई जाती है।
ओडिशा का  पुरी के क्षेत्र और पश्चिम बंगाल के नवद्वीप में कृष्णष्टमी त्योहार को श्री कृष्ण जयंती ,  बस श्री जयंती के रूप में जाना जाता है ।भागवत पुराण 10 वीं अध्याय का समर्पित से पाठ किया जाता है । केरल में मलयालम कैलेंडर के अनुसार सितंबर को मनाते हैं। दक्षिण भारतीय कृष्ण को समर्पित मंदिर हैं । राजगोपालस्वामी मंदिर में मन्नारगुडी तिरुवरुर जिले में, पाण्डवधूथर  मंदिर कांचीपुरम , पर श्री कृष्ण मंदिर उडुपी , और कम से कृष्ण मंदिर गुरुवायूर कृष्ण के रूप में विष्णु के अवतार की स्मृति को समर्पित  हैं।  गुरुवायुर में स्थापित श्री कृष्ण की मूर्ति द्वारका की है । नेपाल की पाटन में कृष्ण मंदिर में  कृष्ण जन्माष्टमी मनाती है। जन्माष्टमी बांग्लादेश में राष्ट्रीय अवकाश है ।  जन्माष्टमी पर, बांग्लादेश के राष्ट्रीय मंदिर ढाका में ढाकेश्वरी मंदिर से एक जुलूस शुरू होकर  ढाका की सड़कों से बढ़ता है । जुलूस 1902 का है, लेकिन 1948 में रोक दिया गया था। जुलूस 1989 में फिर से शुरू किया गया था। फिजी में जन्माष्टमी को "कृष्णा अष्टमी" के रूप में जाना जाता है। फिजी का जन्माष्टमी उत्सव  आठ दिनों तक चलते है । पाकिस्तानी हिंदुओं में श्री स्वामीनारायण मंदिर में कराची के गायन के साथ भजन और कृष्ण पर उपदेश की दे रहे थे। फ्रांसीसी द्वीप रीयूनियन के मलबारों के बीच , कैथोलिक और हिंदू धर्म का  कृष्णष्टमी है। जन्माष्टमी को ईसा मसीह की जन्म तिथि माना जाता है । एरिजोना , यूनाइटेड स्टेट्स, राज्यपाल जेनेट Napolitano जबकि इस्कॉन को मान्यता दी, जन्माष्टमी पर एक संदेश का स्वागत करने के पहले अमेरिकी नेता थे। [४९] यह त्यौहार कैरिबियन में गुयाना, त्रिनिदाद और टोबैगो, जमैका और पूर्व ब्रिटिश उपनिवेश फिजी के साथ-साथ सूरीनाम के पूर्व डच उपनिवेश में भी व्यापक रूप से मनाया जाता है। इन देशों में बहुत से हिंदू तमिलनाडु, उत्तर प्रदेश और बिहार से आते हैं; तमिलनाडु, उत्तर प्रदेश, बिहार, बंगाल और उड़ीसा के गिरमिटिया प्रवासियों के वंशज।इस्कॉन मंदिर दुनिया भर में कृष्ण जन्माष्टमी मनाते हैं । ब्रिटिश उपनिवेश फिजी के साथ-साथ सूरीनाम के पूर्व डच उपनिवेश में व्यापक रूप से मनाया जाता है। इन देशों में बहुत से हिंदू तमिलनाडु, उत्तर प्रदेश और बिहार से आते हैं; तमिलनाडु, उत्तर प्रदेश, बिहार, बंगाल और उड़ीसा के गिरमिटिया प्रवासियों के वंशज।इस्कॉन मंदिर दुनिया भर में कृष्ण जन्माष्टमी मनाते हैं, ।  इस्कॉन के संस्थापक स्वामी प्रभुपाद1 सितंबर 1896 ई. अष्टमी  को जन्म मनाते हैं । 1 सितंबर 1896 ई. अष्टमी  को जन्म मनाते हैं । 

बुधवार, अगस्त 25, 2021

सनातन परंपरा: कल्प ...


      ज्योतिष शास्त्रों , स्मृतियों और पुराणों में कल्प एवं मन्वन्तर का उल्लेख किया गया है।  शिव पुराण के अनुसार भगवान शिव से सृष्टि उत्पत्ति होती है । विष्णु पुराण में भगवान  विष्णु से  देवों का आविर्भाव हुआ है । ब्रह्म पुराण के अनुसार देवों के रचयिता ब्रह्मा जी  हैं ।   शिव पुराण के  " वायवीय संहिता " और लिंगपुराण  के अनुसार भगवान शिव द्वारा 28 अवतार लेकर सृष्टि प्रारम्भ किया गया है । ब्रह्मा,  विष्णु  और  रुद्र    कारणात्मा और  चराचर जगत् की सृष्टि,  पालन और  संहार और  साक्षात्  महेश्वर  से प्रकट हुए हैं । ब्रह्मा की सृष्टि कार्य में  , विष्णु की रक्षा कार्य में तथा रुद्र की संहारकार्य में नियुक्ति हुई थी । कल्पान्तर में परमेश्वर शिव के प्रसाद से रुद्र देव ने ब्रह्मा और नारायण की सृष्टि की थी । इसी  तरह दूसरे कल्प में जगन्मय ब्रह्मा ने रुद्र तथा विष्णु को उत्पन्न किया था । फिर  कल्पान्तर में भगवान् विष्णु ने  रुद्र तथा ब्रह्मा की सृष्टि की थी  । इस तरह पुनः ब्रह्मा ने नारायण की और रुद्र देव  ने  ब्रह्मा की सृष्टि की । इस प्रकार विभिन्न कल्पों में ब्रह्मा  , विष्णु  और  महेश्वर  परस्पर उत्पन्न होते और एक दूसरे का हित चाहते हैं ।  विष्णु का सप्तम वाराह कल्प चल रहा है । याने  7 × 4 ( चतुर्युग )  =  28 , अभी अठाईसवां  चतुर्युग चल रहा है । 1000  ( एक हजार ) चतुर्युग बीतने पर कल्प  ब्रह्मा जी का एक दिन कहलाता है । शिव जी के  28  ( अठाईस  )  अवतारों में प्रथम अवतार का नाम श्वेत था । भगवान विष्णु का 23 वें अवतार में  प्रथम अवतार  वाराह कल्प  था ।  " विश्व  रुप कल्प " ब्रह्मा जी को समर्पित है  । इस तरह हम पाते हैं कि हमारे। अठारहों पुराणों की कुल श्लोक संख्या चार लाख है । वैज्ञानिक  एवं सटिक गणना विश्व के ज्योतिष ज्ञान है ।    कल्पों  विवरण -    ब्रह्म लोक का एक सहस्र चतुर्युग  याने  43,20,000  मानवीय वर्ष  × 1,000  =  4,32,00,00,000  ( चार अरब बत्तीस करोड़  मनुष्य  वर्ष )  को एक कल्प कहते हैं ।  यों तो कल्प अनन्त हैं,  क्योंकि अभी तक अनेकों ब्रह्मा आ चुके हैं । प्रत्येक ब्रह्मा की आयु सौ वर्ष निर्धारित  है । अतः  30 × 12 =  360 × 100 = 36,000 कल्प एक ब्रह्मा के लिए है ।   ऋषि  - महर्षियों  ने वायु पुराण  द्वारा  35 कल्पों का निर्धारण किया है जिसके समाप्त होने पर पुनः एक से शुरुआत होकर  35 ( पैतीस ) है । ( 1 )   भव कल्प  ;( 2 )   भुव कल्प  ; ( 3 )   तपः कल्प  ;( 4 )   भव  ( 5 )   रम्भ कल्प  ;( 6 )   ऋतु  कल्प  ;( 7 )   क्रतु  कल्प  ;( 8 )   वह्नि  कल्प  ;( 9 )   हव्य वाहन कल्प  ;(10)   सावित्र  कल्प  ;(11)   भुवः  कल्प  ;(12)   उशिक  कल्प  ;(13)   कुशिक  कल्प  ;(14)   गान्धार  कल्प  ;(15)   ऋषभ  कल्प  ;(16)   षड्ज कल्प  ; (17)   मार्जालीय  कल्प ;(18)   मध्यम  कल्प  ;(19)   वैराजक  कल्प  ;(20)   निषाद  कल्प  ;(21)   पञ्चम  कल्प  ;(22)   मेघ वाहन  कल्प  ;(23)   चिन्तक  कल्प (24)   आकूति कल्प  ;(25)   विज्ञाति  कल्प  ; (26)   मन  कल्प  ;(27)   भाव  कल्प  ;(28)   वृहत्  कल्प  ; (29)   श्वेत  लोहित  कल्प  ;(30)   रक्त  कल्प  ;(31)   पीतवाशा  कल्प  ;(32)   कृष्ण  कल्प  ;(33)   विश्व रुप  कल्प  ;(34)   श्वेत  कल्प  और  (35)   वाराह  कल्प  है । श्रीमद्भागवत पुराण के अनुसार भगवान विष्णु से उत्पन्न ब्रह्मा जी की आयु 100 वर्ष है ।ब्रह्मा जी की आयु 50 वर्ष पूर्वपरार्ध तथा 50 वर्ष द्वितीय परार्ध कहा है ।सतयुग , त्रेता , द्वापर और कलियुग को शामिल कर महायुग कहा गया है ।एक हजार महायुग व्यतीत होने पर ब्रह्मा का एक डिनर एक रात होती है ।सबत्सराबली तथा महाभारत के रचयिता महर्षि कृष्णद्वैपायन व्यास के अनुसार  ब्रह्मा जी के 51 वर्ष प्रथम दिन के 6 मन्वन्तर गत हो गए है ।14 मनुशासन में स्वायम्भुव मनु , स्वारोचिष मनु ,उतम मनु ,तामस मनु ,रैवत ,चाक्षषु ,वैवस्वत ,सावर्णि ,दक्ष सावर्णि ,ब्रह्मसवर्णी , धर्म सावर्णि , रुद्र सावर्णि ,देव सावर्णि तथा इंद्र सावर्णि है । 7वें वैवस्वत मनु काल का 28 वां महायुग प्रारम्भ है ।प्रत्येक मनु का शासन 71 महायुग का होता है ।एक महायुग में सौर वर्ष 4323000वर्ष है । 14 मनुओं का राज्य को एक कल्प या ब्रह्मा जी का एक दिन है । मनुमय सृष्टि के सौर वर्ष 1955885122 , कलियुग 5122 विक्रम संबत 2078 , ईस्वी सम्वत 2021 शालिवाहन संबत 1943 , फसली संबत 1428 , बांग्ला संबत 1428 ,नेपाली संबत 1141 औरहिजरी संबत 1442 प्रारम्भ है । 

सोमवार, अगस्त 23, 2021

कजरी तीज : दिव्य ज्ञान ...


        भारतीय संस्कृति में दिव्य ज्ञान एवं सामाजिक जीवन को सफलता का विशेष उल्लेख किया गया है । कजरी तीज स्त्रियों की संकल्पित और मनोकामनाएं पूर्ण भावनाएं समर्पित है । कजरी तीज के दिन विवाहित महिलाएं अपने पति की लंबी आयू के लिए व्रत रखती है और अविवाहित लड़कियां इस पर्व पर अच्छा वर पाने के लिए व्रत रख कर जौ, चने, चावल और गेंहूं के सत्तू में घी और मेवा मिलाकर  भोजन बनाते हैं। चंद्रमा की पूजा करने के बाद उपवास तोड़ते हैं। कजरी तीज के दिन गायों की पूजा की जाती है। साथ ही इस दिन घर में झूले लगाते है और महिलाएं इकठ्ठा होकर नाचती है और गाने गाती हैं। कजरी  उत्सव पर नीम की पूजा कर  चाँद को अर्घ्य  देने की परंपरा हैं । भाद्रपद कृष्ण पक्ष तृतीय को कजरी तीज , बड़ी तीज, सातुड़ी तीज , कृष्ण तीज महिलाएं एवं लड़कियों द्वारा मनाई जाती है । माता  पार्वती  की पूजा कर महिलाएं कजरी तीज पर अखंड सौभाग्यवती एवं कुँवारी लड़कियां अच्छे वर के लिये , चतुर्दिक विकास  प्राप्ति के  लिए ब्रत रखती है । 108 जन्म लेने के बाद देवी पार्वती भगवान शिव से शादी करने में सफल हुई। कजरी तीज निस्वार्थ प्रेम के सम्मान के रूप में मनाया जाता है ।पौराणिकता के अनुसार, कजली घने जंगल क्षेत्र का राजा दादूरई द्वारा शासित था। कजली के लोग  कजली  गाने गाते थे ।कजली का  राजा दादूरई का निधन होने के बाद उनकी पत्नी रानी नागमती ने खुद को सती  में अर्पित कर दिया। नागमती द्वारा अपने पति कजली का राजा दादुरई के सती होने के स्थान कजली स्थान पर लोगों ने रानी नागमती को सम्मानित करने के लिए राग कजरी मनाना प्रारम्भ कर दिया था ।माता पार्वती भगवान् शिव की उपासना की थी। भगवान शिव ने पार्वती की भक्ति साबित करने के लिए कहा। पार्वती ने शिव द्वारा स्वीकार करने से पहले, 108 साल एक तपस्या करके माता पार्वती द्वारा भक्ति साबित की गयी थी ।भगवन शिव और पार्वती का दिव्य ज्ञान भाद्रपद महीने के कृष्णा पक्ष के दौरान हुआ था।  बूंदी रियासत में गोठडा के राजा ठाकुर बलवंत सिंह के भरोसे वाले  जांबाज सैनिक भावना से ओतप्रोत थे। राजा ठाकुर बलवंत सिंह द्वारा जयपुर के चहल-पहल वाले मैदान से तीज की सवारी, शाही तौर-तरीकों से निकल रही थी। ठाकुर बलवंत सिंह हाडा अपने जांबाज साथियों के पराक्रम से जयपुर की तीज को गोठडा ले आए थे ।कजली  तीज माता की सवारी गोठडा में निकलने लगी। ठाकुर बलवंत सिंह की मृत्यु के बाद बूंदी के राव राजा रामसिंह उसे बूंदी ले आए और केवल से उनके शासन काल में तीज की सवारी भव्य रूप से निकलने लगी। इस सवारी को भव्यता प्रदान करने के लिए शाही सवारी भी निकलती थी। सैनिकों द्वारा शौर्य का प्रदर्शन किया गया था। सुहागिनें सजी-धजी व लहरिया पहन कर तीज महोत्सव में चार चाँद लगाती थीं। इक्कीस तोपों की सलामी के बाद नवल सागर झील के सुंदरघाट से तीजाइड प्रमुख रेस्तरां से होती हुई रानी जी की बावड़ी तक जाती थी। वहाँ पर सांस्कृतिक कार्यक्रम होते थे। नृत्यांगनाएँ अपने नृत्य से दर्शकों का मनोरंजन करती थीं। करतब दिखाने वाले कलाकारों को सम्मानित किया जाता था और प्रशिक्षण का आत्मीय स्वागत किया जाता था। मान-सम्मान और सांस्कृतिक कार्यक्रमों के बाद तीज सवारी वापिस राजमहल में लौटती थी। दो दिवसीय तीज सवारी के अवसर पर विभिन्न प्रकार के जन मनोरंजन कार्यक्रम भी आयोजित किए जाते थे, जिनमें दो मदमस्त हाथियों का युद्ध होता था, जिसे देखने वालों की भीड़ उमड़ती थी। पार्वतीजी स्वरूप कजली तीज माता का आशीर्वाद मिलता रहा।श्रही सवारी भी निकलती थी। इसमें बूंदी रियासत के जागीरदार, ठाकुर व धनाढय लोग अपनी परम्परागत पोशाक पहनकर पूरी शानो-शौकत के साथ भाग लिया करते थे। सैनिकों द्वारा शौर्य का प्रदर्शन किया गया था।सुहागिनें सजी-धजी व लहरिया पहन कर तीज महोत्सव में चार चाँद लगाती थीं। इक्कीस तोपों की सलामी के बाद नवल सागर झील के सुंदरघाट से तीजाइड प्रमुख रेस्तरां से होती हुई रानी जी की बावड़ी तक जाती थी। वहाँ पर सांस्कृतिक कार्यक्रम होते थे। नृत्यांगनाएँ अपने नृत्य से दर्शकों का मनोरंजन करती थीं। करतब दिखाने वाले कलाकारों को सम्मानित किया जाता था और प्रशिक्षण का आत्मीय स्वागत किया जाता था। मान-सम्मान और सांस्कृतिक कार्यक्रमों के बाद तीज सवारी वापिस राजमहल में लौटती थी। दो दिवसीय तीज सवारी के अवसर पर विभिन्न प्रकार के जन मनोरंजन कार्यक्रम भी आयोजित किए जाते थे । कजरी तीज व्रत में शाम के समय में चद्रंमा को अर्ध्य देने के बाद ही कुछ खाया पीया जाता हैं। व्रत को सुहागन स्त्रियां अपने पति की लंबी उम्र के लिए एवं कुंवारी कन्याएं सुयोग्य वर पाने के लिए करती हैं। पौराणिक कथा के अनुसार भारत के मध्य भाग में कजली नाम का एक वन का राजा दादुरै  था। राज्य में लोग अपने राज्य के नाम कजली पर गीत गाया करते थे। राज दादुरै की मृत्यु हो गई।जिसके बाद रानी नागमती सती हो गई। राजा और रानी के बाद उनकी प्रजा पूरी तरह से दुख में डूब गई। इसी कारण कजली के गीत पति और पत्नि के जन्म- जन्म के साथ के लिए गाए जाते हैं। लोकप्रिय कथा के अनुसार माता पार्वती भगवान शिव को पति रूप में पाना चाहती थी।लेकिन भगवान शिव ने उनके सामने एक शर्त रखी। जिसके अनुसार माता पार्वती को अपनी भक्ति और प्रेम सिद्ध करना था।जिसके बाद माता पार्वती ने 108 सालों तक भगवान शिव की तपस्या की और भगवान शिव को परीक्षा दी।जिसके बाद भगवान शिव ने माता पार्वती को इसी तीज पर अपनी पत्नी स्वीकार किया था। इसी कारण से इसे कजरी तीज भी कहा जाता है। शास्त्रों के अनुसार बुढ़ी तीज पर सभी देवी- देवता माता पार्वती और भगवान शिव की आराधना करते हैं। कजरी तीज में महिलाएं झूला झूलकर अपनी खुशी व्यक्त करती हैं। कजरी तीज के दिन सभी औरतें एक साथ  होकर नाचती है और कजरी तीज के गीत गाती हैं। वाराणासी और मिर्जापुर में कजरी तीज के गीतों को वर्षागीतों के साथ गाया जाता है।  राजस्थान के बूंदी शहर में तो इसे बड़े ही हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है। इस दिन ऊंट और हाथी की सवारी की जाती है। इसके साथ ही यहां पर लोक गीत कजरी तीज के दिन विवाहित महिलाएं अपने पति की लंबी आयू के लिए व्रत रखती है और अविवाहित लड़कियां इस पर्व पर अच्छा वर पाने के लिए व्रत रखती हैं। इस दिन जौ, चने, चावल और गेंहूं के सत्तू बनाये जाते है और उसमें घी और मेवा मिलाकर कई प्रकार के भोजन बनाते हैं। चंद्रमा की पूजा करने के बाद उपवास तोड़ते हैं। कजरी तीज के दिन गायों की पूजा की जाती है। साथ ही इस दिन घर में झूले लगाते है और महिलाएं इकठ्ठा होकर नाचती है और गाने गाती हैं। कजरी  उत्सव पर नीम की पूजा कर  चाँद को अर्घ्य  देने की परंपरा हैं । भाद्रपद कृष्ण पक्ष तृतीय को कजरी तीज , बड़ी तीज, सातुड़ी तीज , कृष्ण तीज महिलाएं एवं लड़कियों द्वारा मनाई जाती है । माता  पार्वती  की पूजा कर महिलाएं कजरी तीज पर अखंड सौभाग्यवती एवं कुँवारी लड़कियां अच्छे वर के लिये , चतुर्दिक विकास  प्राप्ति के  लिए ब्रत रखती है । 108 जन्म लेने के बाद देवी पार्वती भगवान शिव से शादी करने में सफल हुई। कजरी तीज निस्वार्थ प्रेम के सम्मान के रूप में मनाया जाता है ।पौराणिकता के अनुसार, कजली घने जंगल क्षेत्र का राजा दादूरई द्वारा शासित था। कजली के लोग  कजली  गाने गाते थे ।कजली का  राजा दादूरई का निधन होने के बाद उनकी पत्नी रानी नागमती ने खुद को सती  में अर्पित कर दिया। नागमती द्वारा अपने पति कजली का राजा दादुरई के सती होने के स्थान कजली स्थान पर लोगों ने रानी नागमती को सम्मानित करने के लिए राग कजरी मनाना प्रारम्भ कर दिया था ।माता पार्वती भगवान् शिव की उपासना की थी। भगवान शिव ने पार्वती की भक्ति साबित करने के लिए कहा। पार्वती ने शिव द्वारा स्वीकार करने से पहले, 108 साल एक तपस्या करके माता पार्वती द्वारा भक्ति साबित की गयी थी ।भगवन शिव और पार्वती का दिव्य ज्ञान भाद्रपद कृष्ण तृतीया पक्ष को  हुआ था।  बूंदी रियासत में गोठडा के राजा ठाकुर बलवंत सिंह के भरोसे वाले  जांबाज सैनिक भावना से ओतप्रोत थे। राजा ठाकुर बलवंत सिंह द्वारा जयपुर के चहल-पहल वाले मैदान से तीज की सवारी, शाही तौर-तरीकों से निकल रही थी। ठाकुर बलवंत सिंह हाडा अपने जांबाज साथियों के पराक्रम से जयपुर की तीज को गोठडा ले आए थे ।कजली  तीज माता की सवारी गोठडा में निकलने लगी। ठाकुर बलवंत सिंह की मृत्यु के बाद बूंदी के राव राजा रामसिंह उसे बूंदी ले आए और केवल से उनके शासन काल में तीज की सवारी भव्य रूप से निकलने लगी। इस सवारी को भव्यता प्रदान करने के लिए शाही सवारी भी निकलती थी। सैनिकों द्वारा शौर्य का प्रदर्शन किया गया था। सुहागिनें सजी-धजी व लहरिया पहन कर तीज महोत्सव में चार चाँद लगाती थीं। इक्कीस तोपों की सलामी के बाद नवल सागर झील के सुंदरघाट से तीजाइड प्रमुख रेस्तरां से होती हुई रानी जी की बावड़ी तक जाती थी। वहाँ पर सांस्कृतिक कार्यक्रम होते थे। नृत्यांगनाएँ अपने नृत्य से दर्शकों का मनोरंजन करती थीं। करतब दिखाने वाले कलाकारों को सम्मानित किया जाता था और प्रशिक्षण का आत्मीय स्वागत किया जाता था। मान-सम्मान और सांस्कृतिक कार्यक्रमों के बाद तीज सवारी वापिस राजमहल में लौटती थी।  बूंदी रियासत के जागीरदार, ठाकुर व धनाढय लोग अपनी परम्परागत पोशाक पहनकर पूरी शानो-शौकत के साथ भाग लिया करते थे। सैनिकों द्वारा शौर्य का प्रदर्शन किया गया था।सुहागिनें सजी-धजी व लहरिया पहन कर तीज महोत्सव में चार चाँद लगाती थीं। इक्कीस तोपों की सलामी के बाद नवल सागर झील के सुंदरघाट से तीजाइड प्रमुख रेस्तरां से होती हुई रानी जी की बावड़ी तक जाती थी। नृत्यांगनाएँ अपने नृत्य से दर्शकों का मनोरंजन करती थीं। मान-सम्मान और सांस्कृतिक कार्यक्रमों के बाद तीज सवारी वापिस राजमहल में लौटती थी।  कजरी तीज व्रत में शाम के समय में चद्रंमा को अर्ध्य देने के बाद अन्न ग्रहण किया जाता हैं। व्रत को सुहागन स्त्रियां अपने पति की लंबी उम्र के हेतु एवं कुंवारी कन्याएं सुयोग्य वर पाने के लिए करती है ।शास्त्रों के अनुसार बुढ़ी तीज पर  देवी- देवता माता पार्वती और भगवान शिव की आराधना करते हैं। कजरी तीज में महिलाएं झूला झूलकर खुशी व्यक्त करती हैं। कजरी तीज के दिन औरतें एक साथ  होकर नाचती है और कजरी तीज के गीत गाती हैं। कजली गानों को विशेष महत्व दिया जाता है। कजली गीत के गाने ढोलक और मंजीरे के साथ गाए जाते हैं।  कजरी तीज के दिन गाय की विशेष पूजा और  आंटे की 7 रोटियां बनाकर गाय को गुड़ और चने के साथ खिलाई जाती है । राजस्थान , झारखंड ,छत्तीसगढ़ , उतरप्रदेश,बिहार, मध्य प्रदेश, उत्तराखंड ,आदि राज्यों में मनाया जाता है। बिहार और उत्तर प्रदेश में कजरी गीत को नाव पर एवं वाराणासी और मिर्जापुर में कजरी तीज के गीतों को वर्षागीतों के साथ गाया जाता है।  राजस्थान में कजरी त्यौहार को  बूंदी शहर में  ऊंट और हाथी की सवारी एवं  लोक गीत और नृत्य  किया जाता है ।




शनिवार, अगस्त 21, 2021

संस्कृत : संस्कृति का द्योतक...


      विश्व वाङ्गमय और भारतीय मानवीयता की आईना संस्कृत में मिलती है । संस्कृति चेतना एवं भाषा विकास का मूल संस्कृत है ।श्रावण शुक्ल  पूर्णिमा को विश्व संस्कृत दिवस मनाया जाता है । संस्कृत की प्राचीन भाषा और सांस्कृतिक चेतना की भाषा है । भारत सरकार ने वर्ष 1969 में श्रवण शुक्ल पूर्णिमा व  रक्षा बंधन के अवसर पर विश्व संस्कृत दिवस मनाने का फैसला किया था ।  विश्व की  पुरानी भाषाओं में संस्कृत भाषा  हिंदी, गुजराती और बंगाली सहित संस्कृत में मिलती हैं। इंडो-आर्य भाषा संस्कृत की  उत्पत्ति 3500 ई.पू.  भारत में  हुई थी।संस्कृत  लिखित रूप में संस्कृत भाषा की उत्पत्ति 2 वीं सहस्त्राब्दी ई. पू . ऋग्वेद, भजनों का संग्रह लिखा गया था। भारत में प्रतिवर्ष श्रावणी पूर्णिमा के पावन अवसर को संस्कृत दिवस के रूप में मनाया जाता है।  रक्षा बन्धन ऋषियों के स्मरण तथा पूजा और समर्पण का पर्व माना जाता है। वैदिक साहित्य में श्रावणी कहा जाता था।  गुरुकुलों में वेदाध्ययन कराने से पहले यज्ञोपवीत धारण कराया जाता है। इस संस्कार को उपनयन अथवा उपाकर्म संस्कार कहते हैं । ऋषि ही संस्कृत साहित्य के आदि स्रोत हैं, इसलिए श्रावणी पूर्णिमा को ऋषि पर्व और संस्कृत दिवस के रूप में मनाया जाता है। राज्य तथा जिला स्तरों पर संस्कृत दिवस आयोजित किए जाते हैं।  1969 ई.  में भारत सरकार के शिक्षा मंत्रालय के आदेश से केन्द्रीय तथा राज्य स्तर पर संस्कृत दिवस मनाने का निर्देश जारी किया गया था।  भारत में संस्कृत दिवस श्रावण पूर्णिमा के दिन मनाया जाता है। प्राचीन भारत में शिक्षण सत्र शुरू ,  वेद पाठ का आरंभ और  छात्र शास्त्रों के अध्ययन का प्रारंभ किया करते थे।  गुरुकुलों में श्रावण पूर्णिमा से वेदाध्ययन प्रारम्भ किया जाता है । संस्कृत दिवस के रूप से मनाया जाता है। आजकल देश में ही नहीं, विदेश में भी संस्कृत उत्सव बड़े उत्साह के साथ मनाया जाता है। इसमें केन्द्र तथा राज्य सरकारों का भी योगदान उल्लेखनीय है। जिस सप्ताह संस्कृत दिवस आता है, वह सप्ताह कुछ वर्षों से संस्कृत सप्ताह के रूप में मनाया जाता है। सीबीएसई विद्यालयों और देश के समस्त विद्यालयों में इसे धूमधाम से मनाया जाता है। उत्तराखण्ड में संस्कृत आधिकारिक भाषा घोषित होने से संस्कृत सप्ताह में प्रतिदिन संस्कृत भाषा में अलग अलग कार्यक्रम व प्रतियोगिताएं होती हैं। संस्कृत के छात्र-छात्राओं द्वारा ग्रामों अथवा शहरों में झांकियाँ निकाली जाती हैं। संस्कृत दिवस एवं संस्कृत सप्ताह मनाने का मूल उद्देश्य संस्कृत भाषा का प्रचार प्रसार करना है। संस्कृत दिवस प्रत्येक  वर्ष श्रावण पूर्णिमा को मनाया जाता है। इस वर्ष संस्कृत दिवस 2021 में 22 अगस्त को मनाया जाएगा। संस्कृत दिवस और रक्षा बंधन का त्योहार एक साथ मनाया जाता है। भारत में संस्कृत भाषा की उत्पत्ति लगभग 4 हजार साल पहले हुई। सनातन  संस्कृति में संस्कृत के मंत्रों को उपयोग सैकड़ों वर्षों से किया जा रहा है। संस्कृत का अर्थ दो शब्दों से मिलकर बना है, 'सम' का अर्थ है 'संपूर्ण' और 'कृत' का अर्थ है 'किया हुआ' को  शब्द मिलकर संस्कृत शब्द की उतपत्ति करते हैं। भारत में वेदों की रचना 1000 से 500 ईसा पूर्व की अवधि में हुई। वैदिक संस्कृति में ऋग्वेद, पुराणों और उपनिषदों का बहुत महत्व है। वेद अलग-अलग चार खंडों में ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद शामिल है । पुराण, महापुराण और उपनिषद है। संस्कृत बहुत प्राचीन और व्यापक है । विश्व संस्कृत दिवस व  संस्कृत दिवस को विश्व संस्कृत दिनम से जाना जाता है । संस्कृत भाषा को देव वाणी  कहा जाता है। संस्कृत भाषा का पता दूसरी सहस्राब्दी ई.  पू. से है । संस्कृत भाषा को उत्तराखंड की दूसरी आधिकारिक भाषा के रूप में घोषित किया गया था। संस्कृत भाषा में 102 अरब 78 करोड़ 50 लाख शब्दों की सबसे बड़ी शब्दावली है। विश्व संस्कृत दिवस या संस्कृत दिवस पहली बार 1969 में मनाया गया था। यह प्राचीन भारतीय भाषा को जागरूकता फैलाने, बढ़ावा देने और पुनर्जीवित करने के लिए मनाया जाता है। यह भारत की समृद्ध संस्कृति को दर्शाता है। जैसा कि हम जानते हैं कि हिंदू संस्कृति में पूजा और मंत्रों का उच्चारण संस्कृत में किया जाता है। संस्कृत सभी भारतीय भाषाओं की जननी है और भारत में बोली जाने वाली प्राचीन भाषाओं में पहली है। संस्कृत सबसे अधिक कंप्यूटर के अनुकूल भाषा है।संस्कृत दिवस में कई कार्यक्रम और पूरे दिन के सेमिनार शामिल होते हैं जो संस्कृत भाषा के महत्व, इसके प्रभाव और इस खूबसूरत भाषा संस्कृत को बढ़ावा देने के बारे में बात करते हैं। संस्कृत दिवसपर सेमिनार सहित कई कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं। संस्कृत  भारत की समृद्ध संस्कृति का प्रतीक है।  भारत की लोक कथाएं, कहानियां संस्कृत भाषा में हैं। संस्कृत भाषा के बारे में मुख्य तथ्यइस भाषा की एक संगठित व्याकरणिक संरचना है। यहां तक ​​कि स्वर और व्यंजन भी वैज्ञानिक पैटर्न में व्यवस्थित होते हैं ।कर्नाटक का शिमोगा जिले के मत्तूर के निवासी  संस्कृत में बात करते है।संस्कृत को उत्तराखंड की आधिकारिक भाषा घोषित किया गया है।शास्त्रीय संगीत  कर्नाटक और हिंदुस्तानी में   संस्कृत का प्रयोग किया जाता है।संस्कृतका  उपयोग बौद्ध धर्म, जैन धर्म, सिख धर्म के साथ-साथ हिंदू धर्म के दार्शनिक प्रवचनों के लिए किया जाता था। संस्कृत भाषा का प्रयोग सुसंस्कृत, परिष्कृत और समझदार लोगों द्वारा किया जाता था। शोधकर्ताओं ने संस्कृत को दो खंडों में वैदिक संस्कृत और शास्त्रीय संस्कृत वर्गीकृत किया है ।। संस्कृत में  पारंगत संस्कृति तथा मानवीय जीवन की वास्तविक रूप  और समन्वय का द्योतक है ।

सोमवार, अगस्त 16, 2021

रक्षा सूत्र : मानवीय जीवन की सुरक्षा ....

         
        धर्म संस्कृति के अनुसार रक्षाबन्धन का त्योहार श्रावण शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा को मनाया जाता है। यह त्योहार भाई-बहन को स्नेह की डोर में बांधता है। इस दिन बहन अपने भाई के मस्तक पर टीका लगाकर रक्षा का बन्धन बांधती है, जिसे राखी कहते हैं। एक हिन्दू व जैन त्योहार है जो प्रतिवर्ष श्रावण मास की पूर्णिमा के दिन मनाया जाता है ।श्रावण (सावन) में मनाये जाने के कारण इसे श्रावणी (सावनी) या सलूनो भी कहते हैं। रक्षाबन्धन में राखी , रक्षासूत्र का सबसे अधिक महत्त्व है। राखी कच्चे सूत जैसे सस्ती वस्तु से लेकर रंगीन कलावे, रेशमी धागे, तथा सोने या चाँदी जैसी मँहगी वस्तु तक की हो सकती है। रक्षाबंधन भाई बहन के रिश्ते का प्रसिद्ध त्योहार है, रक्षा का मतलब सुरक्षा और बंधन का मतलब बाध्य है। रक्षाबंधन के दिन बहने भगवान से अपने भाईयों की तरक्की के लिए भगवान से प्रार्थना करती है। राखी सामान्यतः बहनें भाई को ही बाँधती हैं परन्तु ब्राह्मणों, गुरुओं और परिवार में छोटी लड़कियों द्वारा सम्मानित सम्बंधियों को बाँधी जाती है । रक्षाबंधन के दिन भाई अपने बहन को राखी के बदले कुछ उपहार देते है। रक्षाबंधन एक ऐसा त्योहार है जो भाई बहन के प्यार को और मजबूत बनाता है, इस त्योहार के दिन सभी परिवार एक हो जाते है और राखी, उपहार और मिठाई देकर अपना प्यार साझा करते है। रक्षाबंधन को  रक्षाबन्धन , राखी, सलूनो, श्रावणी , चूड़ा राखी  का उद्देश्य भ्रातृभावना और सहयोग उत्सव राखी बाँधना, उपहार, भोज अनुष्ठान पूजा, प्रसाद आरम्भ पौराणिक काल से श्रावण पूर्णिमा मानते है ।धार्मिक अनुष्ठानों में रक्षासूत्र बाँधते समय कर्मकाण्डी पण्डित या आचार्य संस्कृत में एक श्लोक का उच्चारण करते हैं, जिसमें रक्षाबन्धन का सम्बन्ध राजा बलि से स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होता है। भविष्यपुराण के अनुसार इन्द्राणी द्वारा निर्मित रक्षासूत्र को देवगुरु बृहस्पति ने इन्द्र के हाथों बांधते हुए रक्षा किया था । गणपति जी को उनकी बहन ने पूर्णिमा को राखी बांधकर मनोकामना पूर्ण की थी । संस्कृत भाषा में वेदों की रचना प्रारम्भ हुई थी । येन बद्धो बलिराजा दानवेन्द्रो महाबल:।तेन त्वामपि बध्नामि रक्षे मा चल मा चल ॥ अर्थात  "जिस रक्षासूत्र से महान शक्तिशाली दानवेन्द्र राजा बलि को बाँधा गया था, उसी सूत्र से मैं तुझे बाँधता हूँ। हे रक्षे (राखी)! तुम अडिग रहना (तू अपने संकल्प से कभी भी विचलित न हो।)" नेपाल  में ब्राह्मण एवं क्षेत्रीय समुदाय में रक्षा बन्धन गुरू और भागिनेय के हाथ से बाँधा जाता है। नेपाल के  दक्षिण सीमा में रहने वाले भारतीय मूल के नेपाली भारतीयों की तरह बहन से राखी बँधवाते हैं।भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम में जन जागरण के लिये भी इस पर्व का सहारा लिया गया। श्री रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने बंग-भंग का विरोध करते समय रक्षाबन्धन त्यौहार को बंगाल निवासियों के पारस्परिक भाईचारे तथा एकता का प्रतीक बनाकर 1905 ई. में मातृभूमि वंदना कविता लिख कर  त्यौहार का राजनीतिक उपयोग आरम्भ किया। सन् 1905 में लॉर्ड कर्ज़न ने बंग भंग करके वन्दे मातरम् के आन्दोलन से भड़की एक छोटी सी चिंगारी को शोलों में बदल दिया। 16 अक्टूबर 1905 को बंग भंग की नियत घोषणा के दिन रक्षा बन्धन की योजना साकार हुई थी । उत्तरांचल में श्रावणी को यजुर्वेदी द्विजों का उपकर्म होता है। उत्सर्जन, स्नान-विधि, ॠषि-तर्पणादि करके नवीन यज्ञोपवीत धारण किया जाता है। ब्राह्मणों का यह सर्वोपरि त्यौहार माना जाता है। वृत्तिवान् ब्राह्मण अपने यजमानों को यज्ञोपवीत तथा राखी देकर दक्षिणा लेते हैं। अमरनाथ की  यात्रा गुरु पूर्णिमा से प्रारम्भ होकर रक्षाबन्धन के दिन सम्पूर्ण होती है।  हिमानी शिवलिंग  अपने पूर्ण आकार को प्राप्त होता है। महाराष्ट्र राज्य में  नारियल पूर्णिमा या श्रावणी के नाम से विख्यात है।
मौली , रक्षा बंधन , रखी , रक्षा सूत्र , मणिबंध  वैदिक परंपरा है। यज्ञ या किसी भी त्योहार में रक्षा सूत्र  बांधने की परंपरा  संकल्प सूत्र व  रक्षा-सूत्र के रूप में  बांधा जाने लगा, जबसे असुरों के दानवीर  राजा बलि की अमरता के लिए भगवान वामन ने उनकी कलाई पर रक्षा-सूत्र बांधा था। माता  लक्ष्मी ने राजा बलि के हाथों में अपने पति की रक्षा के लिए रक्षा  बंधन बांधा था।शंकर भगवान के सिर पर चन्द्रमा विराजमान है ।कच्चे धागे (सूत) से रक्षा सूत्र 5  रंग के धागे में लाल, पीला और हरा, नीला और सफेद सूत   पंचदेव देव का प्रतीक है । रक्षा सूत्र  को हाथ की कलाई, गले और कमर में बांधा जाता है। इसके अलावा मन्नत के लिए किसी देवी-देवता के स्थान पर  बांधा जाता है और जब मन्नत पूरी होने पर रक्षा सूत्र को  खोल दिया जाता है। शास्त्रों के अनुसार पुरुषों एवं अविवाहित कन्याओं को दाएं हाथ में कलावा बांधना चाहिए। विवाहित स्त्रियों के लिए बाएं हाथ में कलावा बांधने का नियम है। कलावा बंधवाते समय जिस हाथ में कलावा बंधवा रहे हों, उसकी मुट्ठी बंधी होनी चाहिए और दूसरा हाथ सिर पर होना चाहिए। पर्व-त्योहार के अलावा किसी अन्य दिन कलावा बांधने के लिए मंगलवार और शनिवार का दिन शुभ माना जाता है। हर मंगलवार और शनिवार को पुरानी मौली को उतारकर नई मौली बांधना उचित माना गया है। उतारी हुई पुरानी मौली को पीपल के वृक्ष के पास रख दें या किसी बहते हुए जल में बहा दें। प्रतिवर्ष की संक्रांति के दिन, यज्ञ की शुरुआत में, कोई इच्छित कार्य के प्रारंभ में, मांगलिक कार्य, विवाह आदि हिन्दू संस्कारों के दौरान रक्षा सूत्र बांधी जाती है। रक्षा सूत्र  को  अच्छे कार्य की शुरुआत में संकल्प के लिए बांधते हैं।  देवी या देवता के मंदिर में मन्नत के लिए बांधते हैं। रक्षा सूत्र  बांधने से आध्यात्मिक,  चिकित्सीय और  मनोवैज्ञानिक ,  शुभ कार्य की शुरुआत करते समय , नई वस्तु खरीदने पर  हमारे जीवन में शुभ लाभ मिलता है । हिन्दू धर्म में प्रत्येक धार्मिक कर्म यानी पूजा-पाठ, उद्घाटन, यज्ञ, हवन, संस्कार आदि के पूर्व पुरोहितों द्वारा यजमान के दाएं हाथ में मौली बांधी जाती है। इसके अलावा पालतू पशुओं में हमारे गाय, बैल और भैंस को  पड़वा, गोवर्धन और होली के दिन रक्षा सूत्र  बांधी जाती है।भाग्य व जीवनरेखा का उद्गम स्थल भी मणिबंध  है। इन तीनों रेखाओं में दैहिक, दैविक व भौतिक  त्रिविध तापों को देने व मुक्त करने की शक्ति रहती है।  मणिबंधों के नाम शिव, विष्णु व ब्रह्मा हैं। इसी तरह शक्ति, लक्ष्मी व सरस्वती का  साक्षात वास रहता है। रक्षा-सूत्र धारण करने वाले प्राणी की सब प्रकार से रक्षा होती है। इस रक्षा-सूत्र को संकल्पपूर्वक बांधने से व्यक्ति पर मारण, मोहन, विद्वेषण, उच्चाटन, भूत-प्रेत और जादू-टोने का असर नहीं होता। शास्त्रों के अनुसार रक्षा सूत्र व  मौली बांधने से  भगवान  ब्रह्मा, विष्णु ,  महेश ,  लक्ष्मी, पार्वती एवं  सरस्वती की कृपा प्राप्त होती है। भगवान  ब्रह्मा की कृपा से कीर्ति, विष्णु की कृपा से रक्षा तथा शिव की कृपा से दुर्गुणों का नाश ,  लक्ष्मी से धन, दुर्गा से शक्ति एवं सरस्वती की कृपा से बुद्धि प्राप्त और रक्षा निहित होता है। रक्षा सूत्र से  सूक्ष्म शरीर स्थिर  और बुरी आत्मा आपके शरीर में प्रवेश नहीं कर सकती है। बच्चों के  कमर व पैर में कला सूत्र मौली बांधी जाती है। काला धागा से  पेट में किसी भी प्रकार के रोग नहीं होते है ।प्राचीन काल में  कलाई, पैर, कमर और गले में  सूत बांधे जाने की परंपरा थी । शरीर विज्ञान के अनुसार कला सूत से  वात, पित्त और कफ का संतुलन बना रहता है। पुराने वैद्य और घर-परिवार के बुजुर्ग लोग हाथ, कमर, गले व पैर के अंगूठे में मौली का उपयोग कर शरीर के लिए लाभ करते थे । ब्लड प्रेशर, हार्टअटैक, डायबिटीज और लकवा  रोगों से बचाव के लिए कला सूत्र  बांधना हितकर  है। शरीर की संरचना का प्रमुख नियंत्रण हाथ की कलाई में  मौली बांधने से व्यक्ति स्वस्थ रहता है। उसकी ऊर्जा का ज्यादा क्षय नहीं होता है। आयुर्वेद चिकित्सा  विज्ञान के अनुसार शरीर के कई प्रमुख अंगों तक पहुंचने वाली नसें कलाई से होकर गुजरती हैं। कलाई पर कलावा बांधने से  नसों की क्रिया नियंत्रित रहती है। कमर पर बांधी  मौली से  सूक्ष्म शरीर में  बुरी आत्मा आपके शरीर में प्रवेश नहीं कर सकती है। बच्चों को अक्सर कमर में कला सूत बांधी जाती है। ,मौली बांधने से उसके पवित्र और मन में शांति और पवित्रता बनी रहती है। व्यक्ति के मन और मस्तिष्क में बुरे विचार नहीं आते और  गलत रास्तों पर नहीं भटकता है। रक्षा सूत्र बांधने से मानसिक , शारिरिक शांति , सकारात्मक ऊर्जा का संचार और नकारात्मक ऊर्जा का नाश होता है ।
 श्रावण  की पूर्णिमा को ब्राह्मण अपने यजमानों के दाहिने हाथ पर एक सूत्र बांधने की परंपरा को रक्षासूत्र कहा जाता था।  भगवान विष्णु के वामनावतार ने  राजा बलि के रक्षासूत्र बांधा था और उसके बाद  उन्हें पाताल जाने का आदेश दिया था। कृष्ण व युधिष्ठिर के संवाद के रूप में भविष्य पुराण के अनुसार  राक्षसों से इंद्रलोक को बचाने के लिए गुरु बृहस्पति ने इंद्राणी को एक उपाय बतलाया था जिसमें श्रावण शुक्ल पूर्णिमा को इंद्राणी ने इंद्र के तिलक लगाकर उसके रक्षासूत्र बांधा था जिससे इंद्र विजयी हुए थे । द्रोपदी द्वारा श्री कृष्ण को रक्षाबंधन कर अपनी सुरक्षा प्राप्त की थी । महारानी कर्णावती द्वारा मुगल बादशाह हुमायु को रक्षा सूत्र रखी भेज कर सुरक्षित हुई थी । रक्षा बंधन के दिन वेदों पुरणों , स्मृतियों , संहिताओं का संस्कृत में ल्क्षोंइखी गयी थी ।
रक्षाबंधन को संस्कृत दिवस कहा गया है । पर्यावरण रक्षा के लिए वृक्षों को रक्षासूत्र तथा परिवार की रक्षा के लिए माँ को रक्षासूत्र बाँधने के दृष्टांत  हैं। जनेन विधिना यस्तु रक्षाबंधनमाचरेत। स सर्वदोष रहित, सुखी संवतसरे भवेत्।।
                   





शुक्रवार, अगस्त 13, 2021

मैना मठ : तंत्र साधना स्थल...


        तंत्र शास्त्र के अनुसार तंत्र और मंत्र मानसिक शांति का द्योतक है । बिहार का जहानाबाद जिले के मोदनगंज प्रखंडान्तर्गत फल्गु नदी के किनारे स्थित  मैना मठ और चरुई की काली मंदिर की  माता  कंकाली  विख्यात  है । मैना मठ की मां कंकाली की प्रतिमा मठ में तांत्रिक साधुओं द्वारा स्थापित की गई थी। 400 वर्षों से मैना मठ की भूमि तंत्र मंत्र साधना स्थल और श्मशान भूमि थी । 17वीं शताब्दी में मंदिर में प्रतिमा प्रतिष्ठापित हुई । ग्रामीणों के सहयोग से चरुई में काली मंदिर का निर्माण कर कंकाली  प्रतिमा तथा अन्य मूर्तियां स्थापित की है । 13वीं शताब्दी से लेकर 17वीं शताब्दी तक मैना मठ में माता कंकाली की पूजा तांत्रिक साधक द्वारा किये जाते  थे। 17वी शताब्दी में मठ से प्रतिमा मंदिर में स्थापित कर दी गई तथा  मठ में अस्त्र-शस्त्र रखा जाता था । कंकाली तांत्रिक साधक निहंग सम्प्रदाय के अनुयायी थे । तंत्र-मंत्र की सिद्धि के लिए  कंकाल, खोपड़ी, ढेर सारी जलती हुई अगरबत्तियां से उपासना करते थे । तंत्र विद्या ईश्‍वरीय शक्ति और मनुष्‍य की आत्‍मा के बीच संपर्क जोड़ने का साधन है । तंत्र अहंकार को पूरी तरह समाप्त करने की बात करता है, जिससे द्वैत का भाव पूर्णतया विलुप्त हो जाता है। तंत्र पूर्ण रूपांतरण की बात करता है। ऐसा रूपांतरण जिससे जीव और ईश्वर एक हो जाएँ। ऐसा करने के लिए तंत्र के विशेष सिद्दांत तथा पद्धतियां हैं, जो की जानने और समझने में जटिल मालूम होती हैं। तंत्र का जुडाव प्रायः मंत्र, योग तथा साधना के साथ देखने को मिलता है। तंत्र, गोपनीय है, इसलिए गोपनीयता बनाये रखने के लिए प्रायः तंत्र ग्रंथों में प्रतीकात्मकता का प्रयोग किया गया है। कुछ पश्च्यात देशों में तंत्र को शारीरिक आनंद के साथ जोड़ा जा रहा है, जो की सही नहीं है। यदपि तंत्र में काम शक्ति का रूपांतरण, दिव्य अवस्था प्राप्ति की लिए किया जाता है अपितु बिना योग्य गुरु के भयंकर भूल होने की पूर्ण संभावना रहती है। इतिहास तंत्र का भारत में तंत्र का इतिहास सदियों पुराना है। ऐसा मन जाता है सर्वप्रथम भगवन शिव ने देवी पारवती को विभिन अवसरों पर तंत्र का ज्ञान दिया है। योग में तंत्र का विशेष महत्व है। योग तथा तंत्र दोनों, अध्यात्मिक चक्रों की शक्ति को विकसित करने की विभिन्न पद्धतियों के बारे में बताते हैं। हठयोग और ध्यान उनमें से एक है। विज्ञानं भैरब तंत्र जो की 112 ध्यान की वैज्ञानिक पद्धति है भगवान शिव ने देवी पारवती को बताई है। जिसमें सामान्‍य जीवन की विभिन अवस्थाओं में ध्यान करने की विशेष पद्धति वर्णित है। तंत्र मंत्र का लिखित प्रमाण लगभाग मध्य कालीन इतिहास से मिलना शुरू हो जाता है। इसीलिए लगभग सभी धर्मों में जीवन की समस्याओं का हल तंत्र मंत्र के माध्यम से बताया गया है। अति गोपनीय तांत्रिक पद्धति में योनी तंत्र का विशेष महत्व है। इस ग्रन्थ में, दस महाविद्या (देवी के दस तांत्रिक विधिओं से उपासना) वर्णित है । तंत्र मंत्र की सभी तांत्रिक कियाएं जिनमें - सम्मोहन, वशीकरण, उचाटन मुख्य हैं, मंत्र महार्णव तथा मंत्र महोदधि नामक ग्रंथों में वर्णित हैं। तंत्र अहंकार को समाप्त कर द्वैत के भाव को समाप्त करता है, जिससे मनुष्य, सरल हो जाता है और चेतना के स्तर पर विकसित होता है। सरल होने पर इश्वर के संबंध सहजता से बन जाता है। 
जहानाबाद जिले का मोदनगंज प्रखण्ड के चरुई पंचायत में मैना मठ तंत्र विद्या का केंद्र था । बिहार गजेटियर  मैंना मठ  डायरी के लेखक सुबोध कुमार सिंह के अनुसार मैनामठ को राजस्व अभिलेख के आधार पर महम्मदपुर अब्दाल है । मठ के अधीन 10 एकड़ में तलाव के दक्षिण श्मशान था । बौद्ध मठ को मैना विकुक्षणि के नाम से समर्पित है ।मैना मठ फल्गु नदी के किनारे  पश्चिम में नालंदा जिले के एकंगरसराय , पूरब में जहानाबाद जिले के कको , दक्षिण में घोसी सीमा से घीरा है । मठ के मंदिरों में 1.4 कि. मि. पर अनंतपुर पेवता में हनुमान मंदिर , 1. 6 कि. मि. पर चरुई में काली मंदिर ,शिव मंदिर  है । विट्ज मैनकार्ट की पुस्तक  आई कॉन ऑफ क्राइस्ट एंड एंड अब्बोट मेना 1979 के अनुसार। 3 री से 7 वी शताब्दी में नाना साहब की पुत्री मैना राजा की पुत्री हे कि सहेली थी ।। मैना तंत्र और दिव्य ज्ञान रख कर भलाई करती थी ।परंतु राजा के सेनापति ने मैना को हत्या करा दी । 8 वी . शताब्दी में आइकन , 4 थी शताब्दी में संत मेनस  मैना के चरित्र पर प्रभावित थे । हरि गुप्त 240 - 280 ई. में मैना मठ खिल्य भूमि थी ।वैन्य गुप्त 495 - 507 ई. विजयालय 850 - 887 ई . में चोल वंश के स्थापना के बाद मैना मठ देव भूमि ,पडप्पर भूमि  थी । उत्तर वैदिक काल में भूत यज्ञ भूमि थी । अथर्ववेद में जादू टोना , शाप, वशीकरण ,औषधि , ब्रह्म ज्ञान , रोग निवारण , सैंधव सभ्यता में तंत्र मंत्र , जादू टोना सिद्धि का केंद्र था । द्वापर युग में तंत्र मंत्र के ज्ञाता और राक्षस संस्कृति के अनुयायी जरा का स्थल था । जरा द्वारा जरासन्ध की पुनर्जीवन दी गयी थी । 2500 ई. पू. से 887 ई. तक तंत्र मंत्र का केंद्र मैना मठ विकसित था । राजा चंद्रसेन द्वारा तंत्र मंत्र का साधना स्थल का विकास किया था । चेर वंश के चारु द्वारा विकास किया गया । 19 25 ई. में तालाब उत्खनन के दौरान माता कंकाली , शिव लिंग , गणेश जी मूर्ति , भगवान  विष्णु  आदित्य तथा कई मूर्तियां प्राप्त हुई थी । ग्रामीणों के सहयोग से चरुई में काली मंदिर का निर्माण कर उत्खनन से प्राप्त विभूक्षणि एवं मूर्तियों की प्रतिष्ठापित हुआ है ।

रविवार, अगस्त 08, 2021

सिद्धों के नाथ सिद्धेश्वरनाथ...


           विश्व की सभ्यता और संस्कृति का प्रतीक और मानव जीवन की रक्षा तथा विकास का सशक्त रूप भगवान् शिव की आराधना है। भारतीय संस्कृति में  प्रकृति और मनुष्य का रूप शिव लिंग का रूप दिया गया है। भगवान् शिव के उपासक देव, दैत्य, दानव, राक्षस, गंधर्व सभी के लिए उपसनीय है। वेदों में रुद्र और पुरणों में शिव की आराधना का रूप प्रदर्शित किया है । शैवधर्म द्वारा भगवान् शिव को आराध्य और सृष्टि के रक्षक मानते है ।  शिव की आराधना और पूजन करने वालों को शैव, तथा शैवधर्म कहा जाता है। भगवान शिव की उपासना का श्वेत कल्प  प्रारंभ है। ऋग्वेद में रुद्र, अथर्ववेद में भव, शर्व , पशुपति भूपति और मत्स्यपुराण, महाभारत के अनुशासन पर्व, शिवपुराण, लिंगपुराण , वामन पुराण तथा रामायण में लिंग पूजन की प्रधानता है। शैवधर्म में पाशुपत संप्रदाय के संस्थापक लकुलिश थे । उन्होंने भगवान् शिव को 18 अवतारों में माना गया है पाशुपत संप्रदाय के अनुयाई को पञ्चार्थिक तथा आचार्य श्रीकर ने पाशुपत सूत्र ग्रंथ की रचना की थी। पाशुपत संप्रदाय ने नेपाल के काठमांडू का बागमती नदी के तट पर पशुपति नाथ की स्थापना कर पाशुपत संप्रदाय का संचालन प्रारंभ किया है। कापालिक संप्रदाय के इष्ट भैरव है जिसकी स्थापना श्री शैल स्थान पर हुई थी। शिव पुराण में महाब्रतधर का रूप कलामुख संप्रदाय की स्थापना की गई। कला मुख संप्रदाय के अनुयाई नर कपाल में भोजन, पानी सुरापान करते है तथा ललाट और शरीर पर चिता भष्म लगते है जिन्हे औघड़ कहा जाता है। लिंगायत संप्रदाय को जंगम कहा गया है। लिंगायत संप्रदाय की स्थापना अल्लभ प्रभु और उनके शिष्य वासव ने की जिसे दक्षिण भारत में प्रचलित किया था। यह संप्रदाय के अनुयाई शिवलिंग की उपासना करते है । वासव पुराण में लिंगायत संप्रदाय को वीरशिव संप्रदाय कहा गया है। दक्षिण भारत में राजा चालुक्य, राष्ट्रकूट, पल्लव, चोलों, कुषाण शासकों द्वारा शैवधर्म का प्रचार किया गया । पल्लव काल में 63 नायनार संतोंं द्वारा अप्पार, तिरुझन, संबदर, सुंदर मूर्ति की स्थापना की गई थी। एलोरा के प्रसिद्ध कैलाश मंदिर का निर्माण राष्ट्रकूटवंश, चोल शासक रजाराज प्रथम ने तंजीर में रजाराजशेखर शैवमंदिर जिसे वृहदिश्वर मंदिर कहा गया का निर्माण कराया वहीं कुषाण शासकों ने अपनी सिक्का पर शिव और नंदी का एक साथ अंकन कराया था। शैवधर्म में सिद्ध संप्रदाय ने शिव लिंग पूजन की प्रथा बिहार के जहानाबाद जिले का मखदुमपुर प्रखंड के भैख़ पंचायत में स्थित बराबर पर्वत समूह के सुर्यांक गिरि की चोटी पर सिद्धेश्वर नाथ की स्थापना कर शैवधर्म का प्रचार एवं प्रसार किया। प्राचीन काल में बराबर पर्वत समूह दानव राज सुकेशी का ईश्वर गीता का संदेश भगवान् शिव द्वारा दी गई थी। बाद में इक्ष्वाकु वंश के बाणासुर की राजधानी थी। दैत्य राज बली पुत्र बाणासुर ने बराबर पर्वत समूह का विकास किया था। बराबर पर्वत समूह में गुफा निर्माण, मूर्ति कला, भितिचित्र , वास्तु शास्त्र का विकास स्थली रहा है।10 वीं शताब्दी में शैवधर्म के मत्स्येंद्र नाथ ने नाथ संप्रदाय की स्थापना कर शिवलिंग पूजन का रूप दिया और उनके शिष्य बाबा गोरख नाथ  ने नाथ संप्रदाय का व्यापक प्रचार किया है।: बराबर पर्वत समूह के विभिन्न श्रृंखलाओं पर विभिन्न क्षेत्रों में सप्तऋषि गुफा है। गुफाओं में लोमष ऋषि गुफा, सुदामा गुफा, कर्ण गुफा, गोपी गुफा, वाह्वक गुफा विश्वामित्र गुफा और योगेन्द्र गुफा वैदिक ऋषि और जैन तथा बुद्ध धर्म के मुनि, भिख्खु नाम से ख्याति मिला है। वैदिक धर्म द्वारा यज्ञ स्थल, भितिचित्र में दुर्गा, गणेश, शिवलिंग, सरस्वती, लक्ष्मी, कार्तिकेय का शिलाचित्र अर्थात भितिचित्र निर्मित है वहीं गुहा लेखन में ब्राह्मी लिपि और प्राकृत मागधी भाषा में अंकित है। सुर्यांक गिरि की चोटी पर प्राकृतिक गुफा में सिद्धेश्वर नाथ शिवलिंग है और सिद्धेश्वरी, बागेश्वरी माता की भव्य मूर्ति तथा दत्तात्रेय, अनेक देवियों की मूर्तियां है। बराबर पर्वत समूह की नागार्जुन श्रृंखला छत्तीसगढ़ का महासमुद जिले के श्रीपुर की बौद्ध भिख्खुणी गौतमी पुत्र महायान के दार्शनिक नागार्जुन का कर्मभूमि और रसायन एवं धातु शास्त्री के नाम पर नागार्जुन पहाड़ी है। नागार्जुन का प्राचीन नाम सिद्ध धर्म के अनुयाई नित्यानंद सिद्ध का परिवर्तित नाम है। नित्यानंद सिद्ध का जन्म 50 ई., पू. हुआ था। 9 31ई. में गुजरात के सोमनाथ का दैहक स्थान में जन्म लिए नागार्जुन द्वारा जीव सूत्र,योग शतक,योग रत्नमाला और दक्षिण भारत के विदर्भ का शुन्यवाद के संचालक नागार्जुन 150 ई., पू. से 250 ई., पू. बर्बर अर्थात बराबर के मैदानी क्षेत्रों में रह कर कर्म भूमि बनाया था। नागार्जुन पहाड़ी के समीप खगोल विद्या का केंद्र है। यहां पर पत्थर नुमा चांद और लम्बा स्तंभ है जिससे खगोल विद्या का अध्ययन किया जाता था। प्राचीन काल में बराबर को मगध का हिमालय के नाम से संबोधित था। इस पहाड़ को सिलटिका , सिलाटिका कहा जाता है तथा मिश्र शैली में गुफाएं है। विश्व में 9 नाथों में सिद्धेश्वर नाथ शिवलिंग प्रथम है। महाभारत वन पर्व में सिद्धेश्वर नाथ को बाणेश्वर शिव लिंग है। भगवान शिव द्वारा असुरसंस्कृति का राजा सुकेशी को ईश्वर गीता का उपदेश बराबर पर्वत समूह की सबसे ऊंची चोटी सूर्यान्क गिरि पर दिया गया था ।
 सांख्य दर्शन के ज्ञाता लोमष ऋषि को समर्पित लोमष गुफा प्रसिद्ध है। गया से 30 कि. मी. उतर और जहानाबाद से 30 कि. मी. पर अवस्थित बराबर के लोमष गुफा झोपड़ी शैली, मगध शैली, चैत्य आर्क चन्द्र मला शैली से युक्त तथा हाथी, स्तूप तथा फूलों की लरियों से संयुक्त से जुड़ाव का रूप लक्ष्मी, शांति और ऐश्वर्य का संदेश देता गुफा का मुख्य द्वार है। जिसे ग्रीट्टो कहा गया है। स्कन्द पुराण और महाभारत के वन पर्व के अनुसार लोमष ऋषि  हिमाचल प्रदेश के रिवालसर के राजा ईश ( हृद्यालेश ) के क्षेत्र में तप करने के बाद गया स्थित ब्रह्म योनि पर्वत पर 100 वर्षों तक भगवान् शिव की उपासना की तथा सिद्धनाथ  एवं सिद्धेश्वरी और बागेश्वरी माता की आराधना के पश्चात शिव ने एक कल्प रहने का वरदान दिया था। वरदान में उल्लेख किया गया कि जब तक आप के शरीर पर रोएं रहेंगे तब तक आप भू पर ज्ञान का प्रकाश है। उन्होंने बाबा सिद्धनाथ को कमल पुष्प से उपासना करते थे। उन्होंने राजा दादूर्भ को देवी भागवत की पाच बार कथा सुना कर  रैवत पुत्र तथा नर्मदा नदी में स्नान करने के बाद गंधर्वों की कन्याओं का उद्धार किया वहीं बराबर में काकभुसुंडि को राम कथा और काक भूसुंडी ने गरुड़ को राम कथा सुनाई थी। बराबर की एक श्रृंखला कौवाडोल के नाम से ख्याति प्राप्त है। लोमष ऋषि ने त्रेतायुग में अयोध्या के राजा दशरथ और द्वापर युग में युधिष्ठिर को आख्यान दे कर मानव कल्याण का मंत्र दिया था। लोमष ऋषि ने लोमश संहिता,लोमस शिक्षा, लोमस रामायण की रचना की। बराबर पर्वत समूह पर मोनोलिथिक ग्रेनाइट रॉक है। मगध साम्राज्य के विभिन्न सम्राटों ने मेगलिथ प्रतीक चिन्ह के रूप में रखा है। इतिहासकार प्रिया बैकेसियो ने पश्चिमी डेक्कन की सुदामा गुफा एवं अन्य गुफाओं को बौद्ध गुफाएं के लिए प्रोटोटाइप कहा है। बौद्ध दर्शन के विद्वान गोशाल ने आजीवक और परिव्रजक संप्रदाय का शरणस्थली तथा विभिन्न ग्रंथो में सिद्ध संप्रदाय का आध्यात्मिक स्थल है। काशी स्थित बाबा विश्वनाथ ज्योतिर्लिंग का उप ज्योतिर्लिंग बाबा सिद्धेश्वर नाथ शिवलिंग और 9 नाथों में समाहित है। आदि शंकराचार्य द्वारा स्थापित दशानमियों गिरि को  मंदिर का पुजारी के रूप में स्थापित किया गया है। 









के मुरली, संदागीरी, और सिद्धेश्वर गिरि पर प्रकृति की सुंदरता वीखरी हुई है। सिद्धेश्वर नाथ मंदिर का निर्माण छठी शताब्दी में किया गया है वहीं गुफाएं तीसरी शताब्दी ई. पू. निर्मित है। मुरली पहाड़ी पर 500 फीट लंबा और 120 फीट और 35 फीट ऊंचाई युक्त ग्रेनाइट पत्थर में कर्ण गुफा, सुदामा गुफा और लोमष ऋषि गुफा निर्मित है। यह स्थल मौर्य काल में खालतिका पर्वत, खालातिका हिल के रूप में पतंजलि महाभाश में चर्चा की गई है। यह स्थल कलिंग, राजगृह और पाटलिपुत्र का समन्वय स्थल के रूप में ख्याति प्राप्त थी। मगध सम्राट अशोक ने 231 ई. पू. और उसके पौत्र दशरथ,5 वीं शताब्दी में कलिंग का राजा शार्दूल विक्रम और अनंत वर्मन के द्वारा विकास किया गया वहीं नागार्जुन पर्वत की गोपी गुफा के समीप मुगल काल में इदगाह का निर्माण किया गया था। खगोल विज्ञान के ज्ञाता नागार्जुन द्वारा लंबा युक्त ग्रेनाइट पत्थर में  सूर्य और गोलाकार ग्रेनाइट पत्थर युक्त चांद खगोलीय अध्ययन शाला का निर्माण किया गया था।185 ई., पू. मगध साम्राज्य का राजा पुष्पमित्र शुंग ने बराबर के मुरली पहाड़ी पर कर्ण गुफा के समीप पतंजलि द्वारा यज्ञ कराया था जिसका अवशेष चट्टानों पर अंकित है। गुप्त साम्राज्य 240 से 467 ई. तक और चन्द्रगुप्त प्रथम द्वारा संवत् का प्रारंभ। 319-320 ई. में की।380 ई. में चन्द्रगुप्त द्वितीय शासन काल में चीनी बौद्ध यात्री फह्यान तथा शशांक शैवधर्म का प्रचार और संरक्षक था। हर्षवर्धन द्वारा शैवधर्म के लिए 641 ई. में संरक्षण के लिए मठ का निर्माण कराया था। बराबर पर्वत समूह में शामिल प्राचीन धरोहरों की चर्चा हवेनसंग, विलियम बुकानन, ग्रियर्सन ने की है । बुकानन ने बराबर पर्वत समूह की मैदानी भाग को राम गया की उल्लेख किया है। फल्गु नदी के किनारे बराबर पर्वत है।1895 ई. में आर्कलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया वॉल्यूम 1 पेज 40, अंसिएंट मॉन्यूमेंट्स इन बंगाल 1855 में, डिस्ट्रिक्ट गजेटियर गया 1906और 1957 में बराबर की महत्वपूर्ण चर्चा की है। बराबर पर्वत समूह भारतीय और बिहारी संस्कृति के इतिहास के भूले बिसरे पन्नों की अत्यंत दुर्लभ झलक है और मगध की सांस्कृतिक विरासत का धरोहर है। यहां सावन माह अनंत चतुर्दशी को भगवान् सिद्धनाथ पर जलाभिषेक करते है और पातालगंगा का जल में स्नान कर भक्त श्रद्धालु सिद्धेश्वर नाथ पर जलाभिषेक कर अपनी मनोवांक्षित फल के लिए उपासना करते है। बिहार सरकार ने 2013 ई. से पर्यटन विभाग द्वारा एकदिवसीय वाणावर महोत्सव प्रारंभ की है। बराबर पर्वत और उसके मैदानी भागों का विभिन्न क्षेत्रों का विकास मगध साम्राज्य के अशोक, गुप्त वंश पाल काल, सेन काल , मुगल काल, ब्रिटिश काल में हुआ था। यह स्थल शैवधर्म, सिद्ध संप्रदाय, आजिवक संप्रदाय, अरण्य संप्रदाय, जैन धर्म, बौद्ध धर्म का महान् सिद्ध भूमि थी। भगवान् राम और कृष्ण का प्रिय स्थल, दैत्य राज बाणासुर का कर्म भूमि और उषा और अनुरुद्ध का प्रेम स्थल तथा मया योगनी चित्रारेखा की ज्ञान भूमि से पवित्र है। बुद्घ की पवित्र स्थल कौवाड़ोल ब्राह्मण धर्म और बुद्ध की कार्य भूमि और सिद्ध भूमि है।

शनिवार, अगस्त 07, 2021

मदसरवां और ऋषि च्यवन...


    भारतीय और मागधीय संस्कृति का उल्लेख वेदों , पुरणों , समृतियो  में किया गया है । 1841 -  42 में हिमिल्टन बुकानन ने वेस्टर्न गजेटियर , ग्रियर्सन द्वारा गया टुडे में , बिहार गजेटियर गया में मदसर्वां और देवकुंड का उल्लेख किया है । पुरणों और संबत्सर संहिता के अनुसार सातवें मन्वन्तर काल में वैवस्वत मनु के पुत्र शर्याति द्वारा आनर्त देश की स्थापना कर  वैदिक  हिरण्यबाहु नदी और मधुश्रवा नदी का संगम  पर मधुश्रवा मरण आनर्त देश की राजधानी बनाई गई थी । हिरण्य वैन में ऋषि भृगु की पत्नी पुलोमा के गर्भ से च्यवन ने तपोस्थल बनाया था ।मधुश्रवा ,  मदसर्वां मनसरवा,मधुस्त्रवा ,मधुकुल्या ,धृतकुल्या ,देविका और महादेवी  कहा गया है । नारद पुराण 2 /47  के अनुसार मदश्रवा में स्नान , तर्पण ,सपिण्ड दान तथा श्राद्ध करने पर मनोवांक्षित फल की प्राप्ति होती है ।अग्निपुराण में मधुस्त्रवा को अग्निधारा वायुपुराण , गरुड़ पुराण , ब्रह्मपुराण , स्मृतियों , संहिताओं इन मधुश्रवा तीर्थ कहा गया है । गया श्राद्ध के प्रमुख 365 पिंड वेदियों में मदसर्वां पिंडवेदी है । बिहार राज्य का अरवल जिलान्तर्गत कलेर प्रखंड के  पटना औरंगाबाद पथ  महेंदिया के समीप मदसर्वां तीर्थ और आदिशंकराचार्य द्वारा स्थापित मदसर्वां मठ है । पुरणों और संबत्सर संहिता के अनुसार 14 मनुमय सृष्टि के 1955885122 कल्पारम्भ तथा 7वें मन्वन्तर के प्रणेता वैवस्वतमनु ने सौर वर्ष 3893122 वर्ष पूर्व और 16वें द्वापर युग में गोकर्ण व्यास ने गोकर्ण वन के ऋषि च्यवन द्वारा मदसर्वां में  स्थापित च्यावनेश्वर चौकोर शिवलिंग सर्वार्थ सिद्धि कहा है । राजा शर्याति , अश्विनीकुमार , ऋषि च्यवन और सुकन्या की चर्चा ऋग्वेद  प्रथम , द्वितीय मंडल में चर्चा किया गया है ।च्यवन ऋषि की प्रथम पत्नी आरुषी से और्व ऋषि तथा दूसरी पत्नी राजा शर्याति की पुत्री सुकन्या से प्रमति थे । प्रमति का पौत्र और  रु रु का पुत्र शुनक हुए थे । महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 156 में च्यवन ऋषि की गाथा है । महाभारत , लिंगपुराण ,शिवपुराण विधेश्वर संहिता और सहस्त्र संहिता के अनुसार च्यवन ऋषि को च्यावन ,सिवाना , कहा गया है । शोण नद की 10 धाराएं वृहस्पति के मकर राशि मे आने पर पवित्र होता है । मदसर्वां में रात्रि विश्राम और वधूसरोवर में स्नान तथा च्यावनेश्वर की पुपसन करने से सर्वार्थ सिद्धि और वाजपेय यज्ञ का फल मिलता है । राजा शर्याति के परामर्श से ऋषि च्यावन द्वारा मदसर्वां में परुषोत्तम मास अधिकमास में वाजपेय यज्ञ और रुद्रेष्टि यज्ञ कराया गया था ।इस यज्ञ में च्यावन ऋषि ने भगवान शिव की चकोर शिव लिंग की स्थापना की थी । यज्ञ के समीप सुकन्या ने तलाव का निर्माण कराई थी ।तलाव वधूसरोवर के नाम से ख्याति है । अधिक मास में आयोजित बाजपेयी यज्ञ में 32 कोटि के देवता में 12 सूर्य , 11 रुद्र , 9 वसु एवं भगवान  ब्रह्मा , विष्णु और शिव , ऋषि गण शामिल थे । भगवान सूर्य के पुत्र देव वैद्य अश्विनी कुमार यज्ञ में शामिल हो कर सोम पान में शामिल हुए थे । देव राज इंद्र ने  अश्विनी कुमारों को सोमपान करने के कारण  अपना बज्र अश्विनी कुमारों पर चलाने पर ऋषि च्यावन द्वारा मद दैत्य को उत्पन्न कर इंद्र सहित  बज्र को  स्तंभन कर दिया गया । फलत: इंद्र लज्जित हुए । देव वैद्य अश्विनी कुमारों के साथ सोमपान और जन कल्याण के लिए दयावान ऋषि द्वारा  यज्ञ कराया गया था । च्यावन ऋषि द्वारा देवराज इंद्र के अस्त्र और शस्त्र के साथ उनके कार्यों के विरुद्ध अग्नि प्रज्वलित कर मद की उत्पत्ति की । मद द्वारा इंद्र को स्तंभन का दिया था । ऋषियों और देवों द्वारा ऋषि च्यवन से प्रार्थना किया कि इंद्र को मद से छुटकारा दे । ऋषियों के अनुरोध पर इंद्र को मद से छुटकारा मिला एवं ऋषि च्यवन द्वारा मद को जुआ , सोने, चांदी ,  शिकार , मदिरा और स्त्रियों में रहने के लिए स्थान दिया गया ।  देव राज इंद्र ने मद के उत्पन्न स्थल को मदसर्वा घोषित की तथा भगवान च्यावनेश्वर शिव लिंग की उपासना , वधु सरोवर की महत्ता बताया था । च्यवन ऋषि की पत्नी सुकन्या ने कार्तिक शुक्ल पक्ष और चैत्र शुक्ल पक्ष पंचमी से सप्तमी तक भगवान सूर्य की उपासना और अर्घ्य देकर मनोकामनाए प्राप्ति की है । ब्रह्म पुराण में देव ह्रद , कन्याश्रमहृद , पंचतीर्थ ,मधुवट पुलोमा तीर्थ और देवकुंड तीर्थ का उल्लेख है । अथर्ववेद में औषधि युक्त देव हृद और कन्या हृद था ।सैंधव सभ्यता , मागधीय सभ्यता , मौर्य काल , शुंग काल , गुप्त काल , पाल काल , सेन काल के समय मदसर्वां स्थल की प्रमुख प्रधानता थी । त्रेता युग में भगवान राम ने मधुस्त्रवा का च्यावनेश्वर और देवकुंड का दुग्धेश्वर नाथ की उपासना की साथ ही सोनप्रदेश का राजा शत्रुघ्न को राज्यभिषेक किया था । सोन प्रदेश का राजा मधु के पुत्र लवणासुर के अत्याचार को संपाप्त कर शत्रुघ्न मधुसर्वां का राजा बने थे । च्यवन ऋषि की चर्चा वाल्मीकि रामायण में महत्वपूर्ण है ।
भृगु मुनि की पत्नी पुलोमा के च्यवन  पुत्र थे। तपस्या करने के कारण च्यवन ऋषि का शरीर  पर दीमक-मिट्टी चढ़ गई और लता-पत्तों से  ढँका था । आनर्त देश का राजा और वैवस्वतमनु के पुत्र  शर्याति अपनी रानियों और  रूपवती पुत्री सुकन्या एवं सैनिकों  के साथ हिरण्यबाहु नदी के समीप हिरण्य वैन  में आये। सुकन्या अपनी सहेलियों के साथ घूमते हुये दीमक-मिट्टी एवं लता-पत्तों से ढँके हुये तप करते च्यवन के पास पहुँच गई। उसने देखा कि दीमक-मिट्टी के टीले में दो गोल-गोल छिद्र दिखाई पड़ रहे हैं । आनर्त देश का राजा शर्याति की पुत्री  सुकन्या ने कौतूहलवश छिद्रों में काँटे गड़ा दिये। काँटों के गड़ते ही छिद्रों से रुधिर बहने लगा। जिसे देखकर सुकन्या भयभीत होकर चुपचाप वहाँ से चली गई। आँखों में काँटे गड़ जाने के कारण च्यवन ऋषि अन्धे हो गये। अपने अन्धे हो जाने पर च्यवन ऋषि द्वारा   शर्याति की सेना का मल-मूत्र रुक जाने का शाप दे दिया। राजा शर्याति ने  घटना से अत्यन्त क्षुब्ध होकर  पूछने पर सुकन्या ने सारी बातें अपने पिता को बता दी। राजा शर्याति ने च्यवन ऋषि के पास पहुँच कर क्षमायाचना करने के बाद ऋषि च्यवन की सेवा के लिये सुकन्या को सौप दी  । सुकन्या द्वारा अन्धे च्यवन ऋषि की सेवा करते हुये अनेक वर्ष व्यतीत करने के बाद   च्यवन ऋषि के आश्रम में भगवान सूर्य की भर्या संज्ञा के पुत्र देव वैद्य  अश्‍वनीकुमार आ पहुँचे। सुकन्या ने उनका यथोचित आदर-सत्कार एवं पूजन किया। अश्‍वनीकुमार बोले, "कल्याणी! हम देवताओं के वैद्य हैं। तुम्हारी सेवा से प्रसन्न होकर हम तुम्हारे पति की आँखों में पुनः दीप्ति प्रदान कर उन्हें यौवन भी प्रदान कर रहे हैं। तुम अपने पति को हमारे साथ सरोवर तक जाने के लिये कहो।" च्यवन ऋषि को साथ लेकर दोनों अश्‍वनीकुमारों ने सरोवर में डुबकी लगाई। डुबकी लगाकर निकलते ही च्यवन ऋषि की आँखें ठीक हो गईं और युवक बन गये। देव वैद्य अश्विनी कुमार ने  सुकन्या से कहा कि देवि! तुम हममें से अपने पति को पहचान कर उसे अपने आश्रम ले जाओ। इस पर सुकन्या ने अपनी तेज बुद्धि और पातिव्रत धर्म से अपने पति को पहचान कर उनका हाथ पकड़ लिया। सुकन्या की तेज बुद्धि और पातिव्रत धर्म से अश्‍वनीकुमार अत्यन्त प्रसन्न हुये और उन दोनों को आशीर्वाद देकर  चले गये। राजा शर्याति को च्यवन ऋषि की आँखें ठीक होने नये यौवन प्राप्त करने का समाचार मिला तो वे अत्यन्त प्रसन्न हुये और उन्होंने च्यवन ऋषि से मिलकर उनसे यज्ञ कराने की बात की। च्यवन ऋषि ने उन्हें यज्ञ की दीक्षा दी। उस यज्ञ में जब अश्‍वनीकुमारों को भाग दिया जाने लगा तब देवराज इन्द्र ने आपत्ति की कि अश्‍वनीकुमार देवताओं के चिकित्सक हैं, इसलिये उन्हें यज्ञ का भाग लेने की पात्रता नहीं है। किन्तु च्यवन ऋषि इन्द्र की बातों को अनसुना कर अश्‍वनीकुमारों को सोमरस देने लगे। इससे क्रोधित होकर इन्द्र ने उन पर वज्र का प्रहार किया लेकिन ऋषि ने अपने तपोबल से वज्र को बीच में ही रोककर एक भयानक राक्षस उत्पन्न कर दिया। वह राक्षस इन्द्र को निगलने के लिये दौड़ पड़ा। इन्द्र ने भयभीत होकर अश्‍वनीकुमारों को यज्ञ का भाग देना स्वीकार कर लिया और च्यवन ऋषि ने उस राक्षस को भस्म करके इन्द्र को उसके कष्ट से मुक्ति दिलई । पुरुषोत्तम मास अर्थात मलमास में मदसर्वां की वधु सरोवर में स्नान कर भगवान च्यावनेश्वर शिव की आराधना करने पर मनोवांक्षित फल की प्राप्ति होती है । उत्तरप्रदेश के मैनपुरी के औचा , , हरियाणा का महेंद्रगढ़ जिले के कुलताज ढोसी पहाड़ी पर ऋषि च्यवन आश्रम कहा है । देव वैद्य अश्विनीकुमारों द्वारा उत्पादित निरोगता औषधि ऋषि च्यवन के नाम च्यवनप्राश प्रभावित है ।

                                  च्यवनेश्वर  महादेेेव

गुरुवार, अगस्त 05, 2021

विश्व का प्राचीन स्थल गया...


        सनातन धर्म की संस्कृति और मानव सभ्यता का विकास स्थल के रूप में गया का उल्लेख है । पुरणों, स्मृतियों , उपनिषदों तथा इतिहास के पन्नो में गया के पुरातात्विक , व्रात्य , प्राच्य , आर्य सभ्यता का उदय स्थल और दर्शन स्थल का वर्णन किया गया है ।  भारतीय गणराज्य के बिहार राज्य का मगध प्रमंडल का गया  सृष्टि के  प्रथम  मन्वन्तर में   स्वायम्भुव मनु की भर्या शतरूपा  वंशीय  कीकट द्वारा कीकट प्रदेश की राजधानी  गया में  स्थापित की गई थी । कीकट प्रदेश में व्रात्य सभ्यता , प्राच्य सभ्यता प्रचलित थी । सातवीं मन्वन्तर में  वैवस्वत मनु की मैत्रावरुण द्वारा यज्ञ से उत्पन्न इला का विवाह देवगुरु बृहस्पति की भर्या तारा तथा चंद्रमा के सम्पर्क से उत्पन्न बुध वंशीय गय द्वारा गया नगर की स्थापना की । बुध ने कीकट का नाम परिवर्तित कर मगध की नींव डाला था । अंग वंशी राजा पृथु काल में मगध साम्राज्य का राजा मागध द्वारा मगध का विकास किया गया था । मगध में असुर ,  राक्षस , दैत्य , दानव , नाग , मरुत , गंधर्व , देव संस्कृति विकसित  थी । श्री मद भागवत पुराण तथा संबत्सरावली  के अनुसार 14 मनुमय सृष्टि का 1955885122  वर्ष   ब्रह्मा   जी  द्वारा  पाद्म  कल्प  के  श्वेत  वाराह  कल्प  के  प्रथम  सत्य  युग  में   गया  पूरी की स्थापना की गई थी । वायु  पुराण ,  रामायण , ब्रह्मवैवर्त , भविष्य  तथा  गरुड़  पुराणों , स्मृतियों संहिताओं के अनुसार श्वेत  वाराह  कल्प  के  प्रथम  त्रेता  युग  में  अयोधया के राजा दशरथनन्दन   श्री  राम  जी  ने  पत्नी  सीता  सह  भ्राता  लक्ष्मण , द्वापरयुग में पांडवों ने अपने भाइयों के  साथ  गया  में  अपने  पिता  श्री  दशरथ  जी  एवं  पूर्वजों  का  गया  श्राद्ध  क्रिया  सम्पन्न  की  थी । विक्रम संबत 2078 में  श्वेत  वाराह  कल्प  का  अठाईसवां  चतुर्युग  चल  रहा  है । गया में भगवान विष्णु अमूर्तजा पितर के रूप में विराजमान है । श्री  ब्रह्मा  जी  के  मानस  पुत्र   मरीची  ऋषि   की  पत्नी   धर्म  की  पुत्री  धर्मब्रता  हुईं ।   मरीची  ऋषि  के  श्राप  से  धर्मब्रता  शिला  हो  गई  ।   धर्मशिला  को  धुन्ध  दैत्य  की  सन्तान ,  त्रिपुरासुर  के  पुत्र  ख्यात  गयासुर  के  सिर  पर  रखी  गई ।   शिला  का  नाम  गया  स्थित  करशिल्ली में  विश्व  प्रसिद्ध  विष्णु  पद  वेदी    एवं  करशिल्ली  स्थित  अनेकों  सुप्रसिद्ध  वेदियां  अवस्थित  हैं । विष्णुपद -   इदं  विष्णुर्विचक्रमें   त्रेधा  निदधे  पदम्म  इत्यौर्णाभ: ।  महर्षि  और्णाभ " महर्षि  और्णाभ  के अनुसार भगवान विष्णु के   अवतार अदिति पुत्र वामन   द्वारा  अपना  एक  पैर   गया सिर  पर  रखा गया था । गया  का उल्लेख सामवेद  संहिता  , अत्री  स्मृति , कल्याण  स्मृति  ;  शंख  स्मृति  ;  याज्ञवल्क  स्मृति  ,  महाभारत  ;   वाल्मीकीय  रामायण ;  आनन्द  रामायण  एवं  आध्यात्म्य  रामायण  ,  ब्रह्म  पुराण  ;   पद्म  पुराण  ,   श्री  विष्णु  पुराण  ;    वायु  पुराण ;  श्रीमद्  भागवत  महापुराण ,   नारद  पुराण ;   वराह  पुराण  ;   स्कन्द  पुराण  ,  कुर्म  पुराण  ;   मत्स्य  पुराण  ,    गरुड़  पुराण  तथा   ब्रह्माण्ड  पुराण  में है  । गयासुर  के  पवित्र  शरीर  पर  यज्ञ के लिए   श्री  ब्रह्मा  जी  द्वारा   चौदह  ऋत्विजों में ( १)   गौतम ; ( २)   काश्यप  ; ,( ३)   कौत्स  ; ( ४)   कौशिक  ; ( ५)   कण्व  ; ,( ६)   भारद्वाज  ; ,( ७)   औसनस  ; ( ८)   वात्स्य   , ( ९)   पारासर  ; (१०)  हरित्कुमार  ; (११)  माण्डव्य  ; (१२)  लौंगाक्षि  ; (१३)  वाशिष्ठ  एवं (१४)  आत्रेय  को उत्पन्न किया गया था । 14 ऋत्विजों   को  गयापाल  कहा  गया ।  गया  सिर  की  मान्यता  एक  कोस  में  है ।  इसी  एक  कोस  की  परिधि  में  गयापालों  का  निवास  स्थल  है ।  इन्हीं  चौदह  ऋत्विजों  को  चौदह   सैय्या  भी  कहते  हैं ।  इनके  चौदह  सौ  घर  थे ,   चौदह  मोहल्ले ,  चौदह  पंच ,  चौदह  गोत्र  तथा  चौदह  बैठकें  हुआ  करते  थे । प्राचीन काल  में   विष्णुपद  वेदी  का  जिर्णोद्धार   गुप्त  काल  में  विष्णुपद  वेदी  शिखर  विहीन  एवं  सपाट  छत  का  वेदी  स्थल  को   महीपाल  के  पुत्र  नयपाल  ने  ग्यारहवीं  शताब्दी  के  उत्तरार्ध  में वेदी  का  जिर्णोद्धार  कराया   ,  श्री  श्री  चैतन्य - चरितावली  के  पृष्ठ  संख्या  १२६ के अनुसार  " १५०८  ईस्वी  में  निमाई  पण्डित  (  चैतन्य  महाप्रभु  )  अपने  साथियों  सहित  ब्रह्मकुण्ड  में  स्नान  और  देव - पितृ - श्राद्धादि  करने  के  पश्चात  चक्रबेड़ा  के  भीतर  विष्णु - पाद - पद्मों  के  दर्शन  किये ।  ब्राह्मणों  ने  पाद - पद्मों  पर  माला - पुष्प  चढ़ाने  को  कहा ।  गया  धाम  के  तीर्थ - पण्डा  जोरों  से  पाद - पद्मों  का  प्रभाव  वर्णन  कर  रहे  थे ।  इन्हीं  चरणों  का  लक्ष्मी  जी  बड़ी  हीं  श्रद्धा  के  साथ  निरंतर  सेवन  करती  रहती  हैं ।   १६  वीं  शताब्दी  के  उत्तरार्ध  में  राजपुत  राजाओं  ने  इसे  मजबुत  सुन्दर  पत्थरों  को  चुने  से  जोड़  कर  बनवाया ।  संवाद ' १७८७  ईस्वी  में  इंदौर  की  महारानी  अहिल्याबाई  होलकर  ने   निर्माण  करवायी थी । पूर्व  दरवाजा  :  -    सूर्य  कुंड  के  पूर्वी  रास्ते  से  देवघाट  जाने  वाली   पुराने  रास्ते  पर  सीख  संगत  उदासी  संप्रदाय  है ,  जहां  पर  इधर  से  जाने  वाली  प्रत्येक  हिन्दू  अर्थी  ( लाश )  को  अल्पविराम  एवं  सीख  संगत  को  अन्तिम  प्रणाम  के  साथ  चढ़ावा  चढ़ाया  जाता  है  ,  ठीक  उसी  के  दिवाल  से  सटे  अन्दर  गया  का  पूर्वी  द्वार  है ।  यह  एकलौता  पूराना   विशाल  द्वार  है  जहां  अब  तक  पूराने  चौखट  एवं  कीवाड़  मौजुद  हैं ।  दरवाजे  के  ऊपर  साज - सज्जा  के  साथ  शहनाई  वादक   सुवह - शाम वादन  प्रस्तुत  करते  थे  आरती  के  समय ।  ये   शहनाई  वादक  तथा  अन्य  सहयोगी  मुस्लिम  समुदाय  से  होते  थे  ।  पूराने  लैंप  पोस्टों  पर  मशालचियों  द्वारा  प्रत्येक  चौक  चौराहों  पर  दीपक  रात  में  जलाये  व  सुवह  में  बुझाये  जाते  थे ।  ये  मशालची  भी  मुस्लिम  होते  थे । पश्चिम  दरवाजा  : - बहुआर  चौरा  से  टिल्हा  धर्मशाला  मुख्य  सड़क  पहुंचने  के  ठीक  पहले  जहां  संकरा  स्थान  है  । दक्षिण  दरवाजा  : -  दक्षिण  दरवाजा  मोहल्ले  का  दक्षिणी  छोर  जहां  यह  सड़क  गोराबादी  मोहल्ले  से  मिलती  है ,  और  वहीं  पर गोरैया  बाबा  का  मन्दिर  है ,  ठीक  उसी  संधी  -  स्थल  पर  दक्षिण  दरवाजा  हुआ  करता  था । उत्तर  दरवाजा   : - श्री  सेन  जी  के  ठाकुरबाड़ी  के  उत्तरी  छोर  पर  जहां  रास्ता  संकरा  हो  जाती  है  तथा  ठीक  उसके  बाद  ब्राह्मणी  घाट  के  रास्ते  की  शुरुआत  होती  है ,   यही  स्थल  उत्तरी  दरवाजे  का  है ।  यहां  भी  पूराने  दरवाजे  का  स्तित्व  नहीं  है  । सेन  जी  का  ठाकुरबाड़ी  :  -  उत्तर  फाटक  से  सटे  श्री  बाल  गोविन्द  सेन  जी  गयापाल  द्वारा  निर्मित  '  सेन  जी  का  ठाकुरबाड़ी  अवस्थित  है ।  ये  वही  श्री  बाल  गोविन्द  सेन  जी  गयापाल  हैं ,  जिन्होंने  फसली  वर्ष  १३००  (  १८९३  ईस्वी  )  में  विष्णुपद  वेदी  ( मन्दिर  )    के  शिखर  पर  सवा  मन  सोने  का  ध्वज  एवं  गुम्बद  सह  कलश  की  स्थापना  करवाई  थी  तथा  फसली  वर्ष  १३१४  (  १९०७  ईस्वी  )  में   विष्णुपद  वेदी  (  मन्दिर  )  को  चांदी  का  हौज  एवं  छतरी  समर्पण  किया  था । श्री  बाल  गोविन्द  सेन  जी  गयापाल  अपने  '  सेन  जी  के  ठाकुरबाड़ी  '  के  शिखर  पर  भी  सवा  मन  सोने  का  ध्वज  एवं  गुम्बद  सह  कलश  लगवाया  था ।  ठाकुरबाड़ी  के  गर्भ  गृह  में  श्री  राम  -  दरवार  की  प्रतिमायें  ,  त्रियुगी  नाथ  श्री  हनुमान  जी  (  दक्षिण  मुखी  )    तथा  राधा  -  कृष्ण  की  मूर्तियां  पूजित  हैं ।  सेन  जी  के  ठाकुरबाड़ी  से  प्रतिवर्ष  आषाढ़  शुक्ल  द्वितीया  को  भारत  प्रसिद्ध  रथ  यात्रा  उत्सव  का  आयोजन  हुआ  करता  था ।  गया  में  एक  मात्र  चांदी  के  भव्य  रथ  पर  भगवान्  जगन्नाथ  ,  अग्रज  बलराम  और  बहन  सुभद्रा  के  साथ  सवार  होकर  नगर  भ्रमण  किया  करते  थे ।  सेन  जी  के  उत्तराधिकारी  रथ  पर  चंवर  सेवा  करते  हुए   चांद  चौरा  स्थित  मेला  स्थली  पर  शाम  तक  पूजित  होते  थे । उत्तर  दरवाजा  के  उत्तर  में  नगर  के  प्रकृति झरने का जल स्रोत   संगम  स्थल  है ।  पूर्व  काल  में   प्राकृतिक  रुप  से  शहर  के  पश्चिम  -  दक्षिण  पर्वतीय  प्रदेश  से  निकलने  वाली झरने का  पानी  प्रविहित  था ।  दक्षिण  -  पश्चिम  तथा  उत्तर  दिशा  से  आने  वाले  नद  नालों  का  संगम  स्थल  रहा  है ।    इसे  '  त्रिवेणी  'की  संज्ञा  दी  गई  है ।  कान्हू लाल गुरदा गयावाल की 1906 ई . में प्रकाशित पुस्तक "  बृहद  गया  महात्म्य  और   गया  पाल  शिशु  शिक्षक  "      के अनुसार वेदी ,  देवता ,  पर्वत ,  झरना ,  नदी ,  तालाब के स्थान  है ।डुमरिया के  जैन  मन्दिर  के रास्ता  में  अष्टभुजीय  सिद्धेश्वरी  देवी  का  मन्दिर  अवस्थित  है । मौलगंज का  स्वर्णकार  मन्दिर  -  अखाड़ा  के समीप जीतन शाह द्वारा   सुकना  पहादेव  मन्दिर का निर्माण   1886 ई. में किया गया था  । दक्षिण - पूर्व  स्थित  पुराने  मंडप   के  केन्द्र  विन्दु  में  नर्मदेश्वर  महादेव  तथा पूर्व -  उत्तर  मंडप  के  केन्द्र  में  ११  रुद्रों  सहित  विशाल  काले   एकल  कसौटी  पत्थर  का  शिव  लिंग 15 इंच की परिधि एवं 18 इंच ऊची में   स्थापित  है ।  यह  शिवलिंग  अद्भूत  है ।   मंडपों  में    संयुक्त  रुप  से  श्री  गणेश  जी ;  देवी  सरस्वति  जी  ;  मां  दुर्गा  जी  ,  देवी संतोषी  मां  के  संग  अन्य  देवी-देवताओं  की मूर्तियां  है । ब्राह्मणी  घाट  - श्वेत  वाराह  कल्प  के  प्रथम  सत्ययुग  में धर्मशिला  पर  यज्ञादि  की  पूर्णाहुति  पश्चात  श्री  ब्रह्मा  जी  अपनी  ब्रह्माणी    सरस्वती  जी  संग  फल्गु नदी के  तट पर ब्रह्मेष्टि यज्ञ  अनुष्ठान करने के कारण  ब्रह्मेष्ठी यज्ञ स्थल  का  नाम  ब्राह्मी घाट , ब्रह्माणी घाट व ब्राह्मणीघाट की ख्याति प्राप्त हुई है ।।  ब्राह्मणी  घाट  पर  अभी  भी  जिर्ण  शिर्ण  अवस्था  में  यज्ञ - कुण्ड - मण्डप  अवस्थित  है ।  पाषाण  खम्भों  एवं  शस्तिरों  पर  नवाग्रह  एवं  बारहों  राशियों  का  चित्रण  पाया  जाता  है ।  ब्रह्माणी  वीणा  धारिणी  भगवती  सरस्वती  की  प्राचीन  छोटे  काले  पत्थर  की  मूर्ति  विरंचिनारायण  मन्दिर  के   परिक्रमा  स्थल  के  उत्तरी  दीवार  में  स्थापित  हैं ।  ब्रह्म  पुराण  एवं  ब्रह्मस्मृति  ग्रन्थों  के अनुसार ब्रह्मा  की  भर्या सरस्वती   के  साथ गया  स्थित ब्रह्मवर्त क्षेत्र का फल्गु नदी के तट पर ब्रह्मेष्टि यज्ञ करने का स्थल को ब्राह्मी घाट कालांतर ब्राह्मणी घाट के नाम प्रचलित हुआ त है । ब्रह्मा जी अपनी प्रथम पत्नी सावित्री के साथ ब्रह्मेष्टि यज्ञ के पूर्व  माता सावित्री द्वारा ब्रह्मयोनि पर्वत के समीप वरगद अर्थात वट वृक्ष लगाई गई थी । उस स्थल को अक्षवट के नाम से ख्याति है । ब्राह्मणी  घाट  पर  ऐतिहासिक  एवं  पूरातात्विक  महत्व  के  अवशेष  एवं    मन्दिर  और फल्गु  नदी  के  पश्चिम  स्थित  घाट  पर  तीनों    शाक्त ,  सौर  और  शैव   तांत्रिक  पीठ   है । शैव धर्म , शाक्त धर्म , सौर धर्म , वैष्णव धर्म और   नाथ  सम्प्रदाय  का अग्नि    प्रज्वलित  स्थल   है ।  ब्राह्मणी  घाट  गया  जी  का  प्राचीन  श्मशान  क्षेत्र  रहा  है ।  विष्णुपद  श्मशान  के  स्थापना  पूर्व  इसी  घाट  पर  शवदाह  की  क्रिया  सम्पन्न  होती  थी । फल्गु नदी के किनारे विरंचिनारायण  मन्दिर  (  उत्तरादित्य  )  ;   द्वादशादित्य  मन्दिर  , काली  मन्दिर  ;  शिव  मन्दिर  ; गंगेश्वर  महादेव  ; विष्णुपद मंदिर , दक्षिण  मुखी  हनुमान  ;   फलग्वीश्वर  महादेव  , पितामहेश्वर ,   
 ;गयादित्य  ;    राधा  कृष्ण  ;  लक्ष्मी - नारायण  ; काल  भैरव  ;  बटुक  भैरव  ;  श्मशान  भैरव है ।    श्मशान  काली  के समीप  घाट  से  सम्बन्धीत  शिला  लेख  उपलब्ध  है ।मानभूम  (  झारखंड  )  के  राजा  मानसिंह  के  द्वारा  ब्राह्मणी  घाट  के  जिर्णोद्धार के संबंध    शिलालेख  में  उपलब्ध  है ।   मान सिंह   के  द्वारा फल्गु नदी के पूर्व मानपुर  बसाया  गया था । विरंचिनारायण   मन्दिर  -  फल्गु नदी के तट पर  ब्राह्मणी  घाट  पर  भगवान्  विरंचिनारायण   (  उत्तरादित्य   )  पूर्वांमुखी  मन्दिर  में  विराजमान  हैं ।  ये  अपने  पूरे  परिवार  के  साथ  शोभायमान  हैं ।  प्रमुख  विग्रह  के  पैर  के  बीच  सूर्य  पत्नी  संज्ञा ,  दाहिनी  ओर  ज्येष्ठ  पुत्र  शनि ,  बायीं  ओर  कनिष्ठ  पुत्र  यम ,  नीचे  सारथी  अरुण  रथ  संचालन  की  मुद्रा  में ,  सात  घोड़े  एवं  एक  चक्के  का  रथ  विद्यमान  है ।  बीच  में  दायें - बायें  चारण  एवं  सशस्त्र  सेवक  सेविकायें ,  नीचे  दायें  -  बायें  चंवर  डुलाते  प्रहरीगण  हैं ।  ऊपर  बायें  तरफ  प्रत्युषा  तथा  दायीं  ओर    उषा  देवी  शोभायमान  हैं ।  सूर्य  पुराण  में  उषा  एवं  प्रत्युषा  को  अन्धकार  रुपी  तमस  को  दूर  भगाने  वाली  देवियों  के  रुप  में  मान्यता  प्राप्त  है । शालिग्राम  काले  शिला  से  निर्मित  लगभग  ७'  (  सात  फीट  )  उंची  प्रतिमा  एकल  शिला  में  रथ  समेत  सभी  मूर्त्तियां  सन्निहित  हैं ।  उत्तरादित्य  (  सूर्य  मन्दिर  )  के  चतुर्दिक  विशाल  सभा मंडप  एवं  परिक्रमा  स्थल  है  जो  बारह  काले  पत्थर  से  निर्मित  नक्काशीदार  खंभों  पर  आच्छादित  है ।  गर्भ  गृह  में  ऊपर  की  छत  में  अष्टदल  कमल  भी  निर्मित  है । १५  फरवरी  १८६२  ईस्वी  को  गया  के  तत्तकालीन  जमींदार  भुना  दाई  चौधराईन  गयावालिन  के  द्वारा  विरंचिनारायण  मन्दिर  दानपत्र  के  साथ  श्री  राम  मिश्र  के  पुत्र  श्री  रमापत  मिश्र  को  दिया  गया है ।
 विष्णुपद -  पितरों को मुक्ति विष्णु पद में गया श्राध्द करने  से  मिलती है । विष्णुपद गिरी पर भगवान विष्णु का चरण है । प्रोफेसर  डा• गणेश दास सिंघल  की पिलीगरिम प्लीग्रीमेज जियोग्राफी ऑफ ग्रेटर गया  के अनुसार   गया  24° 25' 16"  से   24° 50' 30"  उत्तरी अक्षांश   एवं   84° 57' 58" से 85° 3' 18" पूर्वी देशांतर  रेखाओं के मध्य में  अवस्थिति है । वृहद् गया  की  स्थिति 24°23' से 25°14'  उत्तरी अक्षांश  एवं  84°18'30" से 85°38'  पूर्वी  देशांतर  रेखाओं के मध्य है ।  गया में अक्षांश  और  देशांतर  दोनो रेखाएं का  सीधा संबंध भगवान् सूर्य के साथ है । भगवान् सूर्य के  12 नामों में विष्णु है । अक्षांश और देशांतर रेखाएं मिलने के स्थान  विष्णुपदी केंद्र विंदू है । विष्णुपदी एक वृत्त बन जाती है  , जिसे 360 अंशों में विभाजन कर सूर्य एवं उसकी गति को निश्चित किया जाता है । प्रात: कालीन सूर्य सविता  एवं पृथ्वी को अमृत प्राण देते हुए एक धक्का देता है और सायं कालीन आदित्य पृथ्वी के प्राणों का आहरण करता है। उससे पृथ्वी को आकर्षण शक्ति के कारण धक्का लगता है ।  दोनो धक्कों के  कारण पृथ्वी अपने क्रांति वृत्त पर घूमने लगती है और सूर्य की परिक्रमा करना प्रारंभ कर देती है । पृथ्वी और सूर्य की गति के कारण जहाँ सूर्य लोक से प्राण तत्व जीव यहाँ आते हैं  , वहाँ पृथ्वी से जीव पुन: सूर्यलोक पहुंचते हैं । मध्यस्थ  चंद्रलोक एक सेतू का काम करता है । जहाँ विष्णुपदी होती है  , वहाँ 360  भागों में विभक्त एक वृत्त होता है या बन जाता है  , जो जीवों को क्षिप्रगति से सूर्य लोक की ओर आकर्षित कर लेता है । फलत: जीव सूर्य  , चंद्र और पृथ्वी की गति के साथ स्वर्गलोक  या विष्णुलोक पहुंच जाता है । यही कार्य  गया  -  श्राद्ध  करता है । एक ओर श्राद्ध कर्म जहाँ जीवों के बंधनों  को खोल कर प्रेतत्व से विमुक्त करता है  , वहीं दूसरी ओर विष्णुपदी जीवों को स्वर्गलोक  भेजने में सक्षम होकर सहायता प्रदान करती है । 4766 वर्गमील क्षेत्रफल में विकसित मगध प्रमंडल का उत्तरी अकांक्ष 24 डिग्री 17 सेंटीग्रेड और पश्चमी देशान्तर 84 डिग्री और 86 डिग्री पर अवस्थित है । मागध प्रमंडल के उत्तर में पटना , पश्चिम में मुंगेर दक्षिण में झारखंड और पूरब में सोननदी भोजपुर जिले की दिमाओ से घिरी हुई है। मगध प्रमंडल की 1901 ई. के जनगणना के अनुसार 2061857 आवादी 7871 गाँवों में रहती थी । मगध प्रमंडल में गया , औरंगाबाद , जहानाबाद , नवादा और अरवल जिले है । मागध प्रमंडल का मुख्यालय गया भारतीय और मागधीय संस्कृति का मूल केंद्र है । 4976 वर्ग कि. मि .  क्षेत्रफल का  गया जिले की स्थापना 1865 ई . में हुई है ।  गया जिले की 2011 के जनगणना के अनुसार 43 79383 आवादी वाले 24 प्रखंडों में निवास करती है ।गया जिले के प्रमुख नदियों में फल्गु , मोरहर , सोरहर , निरंजना , मोहाना है । ऐतिहासिक तथा वैदिक पहाड़ों में ब्रह्मयोनि , कौवाडोल , डुंगेश्वरी , रामशिला , प्रेतशिला , भष्म गिरि है । प्राचीन स्थलों में बकरौर , बोधगया ,है। गया परगना की स्थापना कलेक्टर मि. ग्राहम द्वारा 1802 ई. में मुरारपुर और पहसी , रामशिला ,  1808 ई. में साहेबगंज , आलमगीरपुर की गई थी । परगना गया को शेरचाँद के अधीन था। 1911 ई. में रेवेन्यू थाना गया टाउन का 11 गाँव की निगरानी के लिये कोतवाली ,सिविल लाइंस , गया मुफ़्सील  में 676 गाँव पर निगरानी के लिये गया मोफसील ,बोधगया ,परैया ,वजीरगंज , शेरघाटी राजस्व थाने के 865 गाँव में   शेरघाटी , गुरुआ ,इमामगंज ,डुमरिया , बाराचट्टी राजस्व थाने के 666 गाँव में बाराचट्टी , फतेहपुर , टेकरी राजस्व थाने के 435 गाँव का निगरानी के लिये टेकरी , कोच , बेला और अतरी रेवेन्यू थाने के 272 गाँव मे अतरी और खिजरसराय में पुलिस स्टेशन की स्थापना की गई थी । 1901 के जनगणना में गया जिले की जनसंख्या 751711 आवादी वाले 1909  वर्गमील  में 2465 गांव , 17 पुलिस स्टेशन थे । मगध प्रमंडल का मुख्यालय गया 11.75 वर्गमील में विकसित है । गया नगरपालिका का गठन 1865 ई. में 195 मोहल्ले को शामिल कर 10 वार्डों को शामिल कर किया गया था ।ओल्ड डिस्ट्रिक्ट गज़ेटियर 1905 के अनुसार गया 8 वर्गमील क्षेत्रफल में फैले विरासत थी ।गया के उत्तर रामशिला , मुरली पर्वत , दक्षिण में ब्रह्मयोनि पर्वत , पूरब में कटारी पहाड़ी और पश्चिम में फल्गु नदी प्रकृति से घीरा है ।प्राचीन शहर गया को सहेबगंज व अंदर गया कहा जाता है । जर्मन रोमन कैथोलिक मिशनरी के टिफ्फेनथैलर  , बुकानन हैमिल्टन , फाह्यान द्वारा 399 - 413 ई. , ची यात्री ह्वेनसांग ने 629- 645 ई. में गया का भ्रमण किया है । नायपाल का गवर्नर वज्रपाणि ने 1060 ई. और राजपूत मंत्री द्वारा 1242 ई. में गया को इंडिया का अमरावती  कहा है । गया का छठी शताब्दी ई. पू. आर्य सभ्यता तथा व्रात्य सभ्यता कल्प सूत्र में वर्णित है । गया का विकास शिशुनाग , अजातशत्रु ,उदयी ,नंद ,मौर्य ,चंद्रगुप्त ,अशोक ,पुष्यमित्र ,खरवार,, गुप्त ,मौखरि ,पाल काल में हुआ था । 1197 ई. में मुहम्मद बिन बख्तियार खिलजी द्वारा गया का विकास अवरुद्ध  किया गया था ।नेपाल का राजा का  मंत्री रंजीत पांडे और 15 जनवरी 1790 ई. में मि. फ्रांसिस गिललैंडर्स द्वारा विष्णुपद का विकास किया गया ।हैमिल्टन बुकानन ने 1815 ई. में ईस्टर्न गजेटियर , थोर्टन्स गजेटियर  हंटर्स गजेटियर 1877 ई. डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट गे डॉ ग्रियर्सन 1888 ई.  , ओ मॉली ने गया गजेटियर  का प्रकाशन 1906 ई. तथा पी .सी. राय चौधरी द्वारा बिहार डिस्ट्रिक्ट गजेटियर का प्रकाशन 1957 ई. में गया के ऐतिहासिक , सामाजिक , आर्थिक , पुरातत्विक  स्थलों की उल्लेख किया गया है । गया के प्रमुख स्थलों में विष्णुपद मंदिर , मंगल गौरी , ब्रह्मयोनि , अक्षयवट , बंगला स्थान , दुखःर्णी फाटक स्थित दुखःर्णी माता मंदिर , रामशिला , विरंचि मंदिर , वागेश्वरी , रामशिला , प्रेतशिला , भैरव स्थान , पितामहेश्वर , काली स्थल , फल्गु नदी प्रमुख है । मुगल शासन में निर्मित जुम्मा मस्जिद ,है ।गया गांधी मैदान के समीप चर्च है । उदयपुर के राजा राणा सांगा के देख रेख में गया विकसित था परंतु 160 ई. में औरंगजेब द्वारा गया के शहर चाँद चौधरी को गया के 4000 विघा जागीर का मालिक बनाया गया था । शहर चाँद द्वारा दक्षिण दरवाजा ,उतर दरवाजा और  पश्चिम दरवाजा का निर्माण कराया था । गया में प्रत्येक वर्ष अश्विन कृष्ण पक्ष प्रतिपदा से अमावस्या तक पितृपक्ष में सनातन धर्म के लोग अपनी पूर्वजो की मोक्ष और पितृऋण से मुक्ति के लिये गया श्राद्ध , पिंड देने के लिए आते है । 




                             

        सनातन धर्म की संस्कृति और मानव सभ्यता का विकास स्थल के रूप में गया का उल्लेख है । पुरणों, स्मृतियों , उपनिषदों तथा इतिहास के पन्नो में गया के पुरातात्विक , व्रात्य , प्राच्य , आर्य सभ्यता का उदय स्थल और दर्शन स्थल का वर्णन किया गया है ।  भारतीय गणराज्य के बिहार राज्य का मगध प्रमंडल का गया  सृष्टि के  प्रथम  मन्वन्तर में   स्वायम्भुव मनु की भर्या शतरूपा  वंशीय  कीकट द्वारा कीकट प्रदेश की राजधानी  गया में  स्थाHपित की गई थी । कीकट प्रदेश में व्रात्य सभ्यता , प्राच्य सभ्यता प्रचलित थी । सातवीं मन्वन्तर में  वैवस्वत मनु की मैत्रावरुण द्वारा यज्ञ से उत्पन्न इला का विवाह देवगुरु बृहस्पति की भर्या तारा तथा चंद्रमा के सम्पर्क से उत्पन्न बुध वंशीय गय द्वारा गया नगर की स्थापना की । बुध ने कीकट का नाम परिवर्तित कर मगध की नींव डाला था । अंग वंशी राजा पृथु काल में मगध साम्राज्य का राजा मागध द्वारा मगध का विकास किया गया था । मगध में असुर ,  राक्षस , दैत्य , दानव , नाग , मरुत , गंधर्व , देव संस्कृति विकसित  थी । श्री मद भागवत पुराण तथा संबत्सरावली  के अनुसार 14 मनुमय सृष्टि का 1955885122  वर्ष   ब्रह्मा   जी  द्वारा  पाद्म  कल्प  के  श्वेत  वाराह  कल्प  के  प्रथम  सत्य  युग  में   गया  पूरी की स्थापना की गई थी । वायु  पुराण ,  रामायण , ब्रह्मवैवर्त , भविष्य  तथा  गरुड़  पुराणों , स्मृतियों संहिताओं के अनुसार श्वेत  वाराह  कल्प  के  प्रथम  त्रेता  युग  में  अयोधया के राजा दशरथनन्दन   श्री  राम  जी  ने  पत्नी  सीता  सह  भ्राता  लक्ष्मण , द्वापरयुग में पांडवों ने अपने भाइयों के  साथ  गया  में  अपने  पिता  श्री  दशरथ  जी  एवं  पूर्वजों  का  गया  श्राद्ध  क्रिया  सम्पन्न  की  थी । विक्रम संबत 2078 में  श्वेत  वाराह  कल्प  का  अठाईसवां  चतुर्युग  चल  रहा  है । गया में भगवान विष्णु अमूर्तजा पितर के रूप में विराजमान है । श्री  ब्रह्मा  जी  के  मानस  पुत्र   मरीची  ऋषि   की  पत्नी   धर्म  की  पुत्री  धर्मब्रता  हुईं ।   मरीची  ऋषि  के  श्राप  से  धर्मब्रता  शिला  हो  गई  ।   धर्मशिला  को  धुन्ध  दैत्य  की  सन्तान ,  त्रिपुरासुर  के  पुत्र  ख्यात  गयासुर  के  सिर  पर  रखी  गई ।   शिला  का  नाम  गया  स्थित  करशिल्ली में  विश्व  प्रसिद्ध  विष्णु  पद  वेदी    एवं  करशिल्ली  स्थित  अनेकों  सुप्रसिद्ध  वेदियां  अवस्थित  हैं । विष्णुपद -   इदं  विष्णुर्विचक्रमें   त्रेधा  निदधे  पदम्म  इत्यौर्णाभ: ।  महर्षि  और्णाभ " महर्षि  और्णाभ  के अनुसार भगवान विष्णु के   अवतार अदिति पुत्र वामन   द्वारा  अपना  एक  पैर   गया सिर  पर  रखा गया था । गया  का उल्लेख सामवेद  संहिता  , अत्री  स्मृति , कल्याण  स्मृति  ;  शंख  स्मृति  ;  याज्ञवल्क  स्मृति  ,  महाभारत  ;   वाल्मीकीय  रामायण ;  आनन्द  रामायण  एवं  आध्यात्म्य  रामायण  ,  ब्रह्म  पुराण  ;   पद्म  पुराण  ,   श्री  विष्णु  पुराण  ;    वायु  पुराण ;  श्रीमद्  भागवत  महापुराण ,   नारद  पुराण ;   वराह  पुराण  ;   स्कन्द  पुराण  ,  कुर्म  पुराण  ;   मत्स्य  पुराण  ,    गरुड़  पुराण  तथा   ब्रह्माण्ड  पुराण  में है  । गयासुर  के  पवित्र  शरीर  पर  यज्ञ के लिए   श्री  ब्रह्मा  जी  द्वारा   चौदह  ऋत्विजों में ( १)   गौतम ; ( २)   काश्यप  ; ,( ३)   कौत्स  ; ( ४)   कौशिक  ; ( ५)   कण्व  ; ,( ६)   भारद्वाज  ; ,( ७)   औसनस  ; ( ८)   वात्स्य   , ( ९)   पारासर  ; (१०)  हरित्कुमार  ; (११)  माण्डव्य  ; (१२)  लौंगाक्षि  ; (१३)  वाशिष्ठ  एवं (१४)  आत्रेय  को उत्पन्न किया गया था । 14 ऋत्विजों   को  गयापाल  कहा  गया ।  गया  सिर  की  मान्यता  एक  कोस  में  है ।  इसी  एक  कोस  की  परिधि  में  गयापालों  का  निवास  स्थल  है ।  इन्हीं  चौदह  ऋत्विजों  को  चौदह   सैय्या  भी  कहते  हैं ।  इनके  चौदह  सौ  घर  थे ,   चौदह  मोहल्ले ,  चौदह  पंच ,  चौदह  गोत्र  तथा  चौदह  बैठकें  हुआ  करते  थे । प्राचीन काल  में   विष्णुपद  वेदी  का  जिर्णोद्धार   गुप्त  काल  में  विष्णुपद  वेदी  शिखर  विहीन  एवं  सपाट  छत  का  वेदी  स्थल  को   महीपाल  के  पुत्र  नयपाल  ने  ग्यारहवीं  शताब्दी  के  उत्तरार्ध  में वेदी  का  जिर्णोद्धार  कराया   ,  श्री  श्री  चैतन्य - चरितावली  के  पृष्ठ  संख्या  १२६ के अनुसार  " १५०८  ईस्वी  में  निमाई  पण्डित  (  चैतन्य  महाप्रभु  )  अपने  साथियों  सहित  ब्रह्मकुण्ड  में  स्नान  और  देव - पितृ - श्राद्धादि  करने  के  पश्चात  चक्रबेड़ा  के  भीतर  विष्णु - पाद - पद्मों  के  दर्शन  किये ।  ब्राह्मणों  ने  पाद - पद्मों  पर  माला - पुष्प  चढ़ाने  को  कहा ।  गया  धाम  के  तीर्थ - पण्डा  जोरों  से  पाद - पद्मों  का  प्रभाव  वर्णन  कर  रहे  थे ।  इन्हीं  चरणों  का  लक्ष्मी  जी  बड़ी  हीं  श्रद्धा  के  साथ  निरंतर  सेवन  करती  रहती  हैं ।   १६  वीं  शताब्दी  के  उत्तरार्ध  में  राजपुत  राजाओं  ने  इसे  मजबुत  सुन्दर  पत्थरों  को  चुने  से  जोड़  कर  बनवाया ।  संवाद ' १७८७  ईस्वी  में  इंदौर  की  महारानी  अहिल्याबाई  होलकर  ने   निर्माण  करवायी थी । पूर्व  दरवाजा  :  -    सूर्य  कुंड  के  पूर्वी  रास्ते  से  देवघाट  जाने  वाली   पुराने  रास्ते  पर  सीख  संगत  उदासी  संप्रदाय  है ,  जहां  पर  इधर  से  जाने  वाली  प्रत्येक  हिन्दू  अर्थी  ( लाश )  को  अल्पविराम  एवं  सीख  संगत  को  अन्तिम  प्रणाम  के  साथ  चढ़ावा  चढ़ाया  जाता  है  ,  ठीक  उसी  के  दिवाल  से  सटे  अन्दर  गया  का  पूर्वी  द्वार  है ।  यह  एकलौता  पूराना   विशाल  द्वार  है  जहां  अब  तक  पूराने  चौखट  एवं  कीवाड़  मौजुद  हैं ।  दरवाजे  के  ऊपर  साज - सज्जा  के  साथ  शहनाई  वादक   सुवह - शाम वादन  प्रस्तुत  करते  थे  आरती  के  समय ।  ये   शहनाई  वादक  तथा  अन्य  सहयोगी  मुस्लिम  समुदाय  से  होते  थे  ।  पूराने  लैंप  पोस्टों  पर  मशालचियों  द्वारा  प्रत्येक  चौक  चौराहों  पर  दीपक  रात  में  जलाये  व  सुवह  में  बुझाये  जाते  थे ।  ये  मशालची  भी  मुस्लिम  होते  थे । पश्चिम  दरवाजा  : - बहुआर  चौरा  से  टिल्हा  धर्मशाला  मुख्य  सड़क  पहुंचने  के  ठीक  पहले  जहां  संकरा  स्थान  है  । दक्षिण  दरवाजा  : -  दक्षिण  दरवाजा  मोहल्ले  का  दक्षिणी  छोर  जहां  यह  सड़क  गोराबादी  मोहल्ले  से  मिलती  है ,  और  वहीं  पर गोरैया  बाबा  का  मन्दिर  है ,  ठीक  उसी  संधी  -  स्थल  पर  दक्षिण  दरवाजा  हुआ  करता  था । उत्तर  दरवाजा   : - श्री  सेन  जी  के  ठाकुरबाड़ी  के  उत्तरी  छोर  पर  जहां  रास्ता  संकरा  हो  जाती  है  तथा  ठीक  उसके  बाद  ब्राह्मणी  घाट  के  रास्ते  की  शुरुआत  होती  है ,   यही  स्थल  उत्तरी  दरवाजे  का  है ।  यहां  भी  पूराने  दरवाजे  का  स्तित्व  नहीं  है  । सेन  जी  का  ठाकुरबाड़ी  :  -  उत्तर  फाटक  से  सटे  श्री  बाल  गोविन्द  सेन  जी  गयापाल  द्वारा  निर्मित  '  सेन  जी  का  ठाकुरबाड़ी  अवस्थित  है ।  ये  वही  श्री  बाल  गोविन्द  सेन  जी  गयापाल  हैं ,  जिन्होंने  फसली  वर्ष  १३००  (  १८९३  ईस्वी  )  में  विष्णुपद  वेदी  ( मन्दिर  )    के  शिखर  पर  सवा  मन  सोने  का  ध्वज  एवं  गुम्बद  सह  कलश  की  स्थापना  करवाई  थी  तथा  फसली  वर्ष  १३१४  (  १९०७  ईस्वी  )  में   विष्णुपद  वेदी  (  मन्दिर  )  को  चांदी  का  हौज  एवं  छतरी  समर्पण  किया  था । श्री  बाल  गोविन्द  सेन  जी  गयापाल  अपने  '  सेन  जी  के  ठाकुरबाड़ी  '  के  शिखर  पर  भी  सवा  मन  सोने  का  ध्वज  एवं  गुम्बद  सह  कलश  लगवाया  था ।  ठाकुरबाड़ी  के  गर्भ  गृह  में  श्री  राम  -  दरवार  की  प्रतिमायें  ,  त्रियुगी  नाथ  श्री  हनुमान  जी  (  दक्षिण  मुखी  )    तथा  राधा  -  कृष्ण  की  मूर्तियां  पूजित  हैं ।  सेन  जी  के  ठाकुरबाड़ी  से  प्रतिवर्ष  आषाढ़  शुक्ल  द्वितीया  को  भारत  प्रसिद्ध  रथ  यात्रा  उत्सव  का  आयोजन  हुआ  करता  था ।  गया  में  एक  मात्र  चांदी  के  भव्य  रथ  पर  भगवान्  जगन्नाथ  ,  अग्रज  बलराम  और  बहन  सुभद्रा  के  साथ  सवार  होकर  नगर  भ्रमण  किया  करते  थे ।  सेन  जी  के  उत्तराधिकारी  रथ  पर  चंवर  सेवा  करते  हुए   चांद  चौरा  स्थित  मेला  स्थली  पर  शाम  तक  पूजित  होते  थे । उत्तर  दरवाजा  के  उत्तर  में  नगर  के  प्रकृति झरने का जल स्रोत   संगम  स्थल  है ।  पूर्व  काल  में   प्राकृतिक  रुप  से  शहर  के  पश्चिम  -  दक्षिण  पर्वतीय  प्रदेश  से  निकलने  वाली झरने का  पानी  प्रविहित  था ।  दक्षिण  -  पश्चिम  तथा  उत्तर  दिशा  से  आने  वाले  नद  नालों  का  संगम  स्थल  रहा  है ।    इसे  '  त्रिवेणी  'की  संज्ञा  दी  गई  है ।  कान्हू लाल गुरदा गयावाल की 1906 ई . में प्रकाशित पुस्तक "  बृहद  गया  महात्म्य  और   गया  पाल  शिशु  शिक्षक  "      के अनुसार वेदी ,  देवता ,  पर्वत ,  झरना ,  नदी ,  तालाब के स्थान  है ।डुमरिया के  जैन  मन्दिर  के रास्ता  में  अष्टभुजीय  सिद्धेश्वरी  देवी  का  मन्दिर  अवस्थित  है । मौलगंज का  स्वर्णकार  मन्दिर  -  अखाड़ा  के समीप जीतन शाह द्वारा   सुकना  पहादेव  मन्दिर का निर्माण   1886 ई. में किया गया था  । दक्षिण - पूर्व  स्थित  पुराने  मंडप   के  केन्द्र  विन्दु  में  नर्मदेश्वर  महादेव  तथा पूर्व -  उत्तर  मंडप  के  केन्द्र  में  ११  रुद्रों  सहित  विशाल  काले   एकल  कसौटी  पत्थर  का  शिव  लिंग 15 इंच की परिधि एवं 18 इंच ऊची में   स्थापित  है ।  यह  शिवलिंग  अद्भूत  है ।   मंडपों  में    संयुक्त  रुप  से  श्री  गणेश  जी ;  देवी  सरस्वति  जी  ;  मां  दुर्गा  जी  ,  देवी संतोषी  मां  के  संग  अन्य  देवी-देवताओं  की मूर्तियां  है । ब्राह्मणी  घाट  - श्वेत  वाराह  कल्प  के  प्रथम  सत्ययुग  में धर्मशिला  पर  यज्ञादि  की  पूर्णाहुति  पश्चात  श्री  ब्रह्मा  जी  अपनी  ब्रह्माणी    सरस्वती  जी  संग  फल्गु नदी के  तट पर ब्रह्मेष्टि यज्ञ  अनुष्ठान करने के कारण  ब्रह्मेष्ठी यज्ञ स्थल  का  नाम  ब्राह्मी घाट , ब्रह्माणी घाट व ब्राह्मणीघाट की ख्याति प्राप्त हुई है ।।  ब्राह्मणी  घाट  पर  अभी  भी  जिर्ण  शिर्ण  अवस्था  में  यज्ञ - कुण्ड - मण्डप  अवस्थित  है ।  पाषाण  खम्भों  एवं  शस्तिरों  पर  नवाग्रह  एवं  बारहों  राशियों  का  चित्रण  पाया  जाता  है ।  ब्रह्माणी  वीणा  धारिणी  भगवती  सरस्वती  की  प्राचीन  छोटे  काले  पत्थर  की  मूर्ति  विरंचिनारायण  मन्दिर  के   परिक्रमा  स्थल  के  उत्तरी  दीवार  में  स्थापित  हैं ।  ब्रह्म  पुराण  एवं  ब्रह्मस्मृति  ग्रन्थों  के अनुसार ब्रह्मा  की  भर्या सरस्वती   के  साथ गया  स्थित ब्रह्मवर्त क्षेत्र का फल्गु नदी के तट पर ब्रह्मेष्टि यज्ञ करने का स्थल को ब्राह्मी घाट कालांतर ब्राह्मणी घाट के नाम प्रचलित हुआ त है । ब्रह्मा जी अपनी प्रथम पत्नी सावित्री के साथ ब्रह्मेष्टि यज्ञ के पूर्व  माता सावित्री द्वारा ब्रह्मयोनि पर्वत के समीप वरगद अर्थात वट वृक्ष लगाई गई थी । उस स्थल को अक्षवट के नाम से ख्याति है । ब्राह्मणी  घाट  पर  ऐतिहासिक  एवं  पूरातात्विक  महत्व  के  अवशेष  एवं    मन्दिर  और फल्गु  नदी  के  पश्चिम  स्थित  घाट  पर  तीनों    शाक्त ,  सौर  और  शैव   तांत्रिक  पीठ   है । शैव धर्म , शाक्त धर्म , सौर धर्म , वैष्णव धर्म और   नाथ  सम्प्रदाय  का अग्नि    प्रज्वलित  स्थल   है ।  ब्राह्मणी  घाट  गया  जी  का  प्राचीन  श्मशान  क्षेत्र  रहा  है ।  विष्णुपद  श्मशान  के  स्थापना  पूर्व  इसी  घाट  पर  शवदाह  की  क्रिया  सम्पन्न  होती  थी । फल्गु नदी के किनारे विरंचिनारायण  मन्दिर  (  उत्तरादित्य  )  ;   द्वादशादित्य  मन्दिर  , काली  मन्दिर  ;  शिव  मन्दिर  ; गंगेश्वर  महादेव  ; विष्णुपद मंदिर , दक्षिण  मुखी  हनुमान  ;   फलग्वीश्वर  महादेव  , पितामहेश्वर ,   
 ;गयादित्य  ;    राधा  कृष्ण  ;  लक्ष्मी - नारायण  ; काल  भैरव  ;  बटुक  भैरव  ;  श्मशान  भैरव है ।    श्मशान  काली  के समीप  घाट  से  सम्बन्धीत  शिला  लेख  उपलब्ध  है ।मानभूम  (  झारखंड  )  के  राजा  मानसिंह  के  द्वारा  ब्राह्मणी  घाट  के  जिर्णोद्धार के संबंध    शिलालेख  में  उपलब्ध  है ।   मान सिंह   के  द्वारा फल्गु नदी के पूर्व मानपुर  बसाया  गया था । विरंचिनारायण   मन्दिर  -  फल्गु नदी के तट पर  ब्राह्मणी  घाट  पर  भगवान्  विरंचिनारायण   (  उत्तरादित्य   )  पूर्वांमुखी  मन्दिर  में  विराजमान  हैं ।  ये  अपने  पूरे  परिवार  के  साथ  शोभायमान  हैं ।  प्रमुख  विग्रह  के  पैर  के  बीच  सूर्य  पत्नी  संज्ञा ,  दाहिनी  ओर  ज्येष्ठ  पुत्र  शनि ,  बायीं  ओर  कनिष्ठ  पुत्र  यम ,  नीचे  सारथी  अरुण  रथ  संचालन  की  मुद्रा  में ,  सात  घोड़े  एवं  एक  चक्के  का  रथ  विद्यमान  है ।  बीच  में  दायें - बायें  चारण  एवं  सशस्त्र  सेवक  सेविकायें ,  नीचे  दायें  -  बायें  चंवर  डुलाते  प्रहरीगण  हैं ।  ऊपर  बायें  तरफ  प्रत्युषा  तथा  दायीं  ओर    उषा  देवी  शोभायमान  हैं ।  सूर्य  पुराण  में  उषा  एवं  प्रत्युषा  को  अन्धकार  रुपी  तमस  को  दूर  भगाने  वाली  देवियों  के  रुप  में  मान्यता  प्राप्त  है । शालिग्राम  काले  शिला  से  निर्मित  लगभग  ७'  (  सात  फीट  )  उंची  प्रतिमा  एकल  शिला  में  रथ  समेत  सभी  मूर्त्तियां  सन्निहित  हैं ।  उत्तरादित्य  (  सूर्य  मन्दिर  )  के  चतुर्दिक  विशाल  सभा मंडप  एवं  परिक्रमा  स्थल  है  जो  बारह  काले  पत्थर  से  निर्मित  नक्काशीदार  खंभों  पर  आच्छादित  है ।  गर्भ  गृह  में  ऊपर  की  छत  में  अष्टदल  कमल  भी  निर्मित  है । १५  फरवरी  १८६२  ईस्वी  को  गया  के  तत्तकालीन  जमींदार  भुना  दाई  चौधराईन  गयावालिन  के  द्वारा  विरंचिनारायण  मन्दिर  दानपत्र  के  साथ  श्री  राम  मिश्र  के  पुत्र  श्री  रमापत  मिश्र  को  दिया  गया है ।
 विष्णुपद -  पितरों को मुक्ति विष्णु पद में गया श्राध्द करने  से  मिलती है । विष्णुपद गिरी पर भगवान विष्णु का चरण है । प्रोफेसर  डा• गणेश दास सिंघल  की पिलीगरिम प्लीग्रीमेज जियोग्राफी ऑफ ग्रेटर गया  के अनुसार   गया  24° 25' 16"  से   24° 50' 30"  उत्तरी अक्षांश   एवं   84° 57' 58" से 85° 3' 18" पूर्वी देशांतर  रेखाओं के मध्य में  अवस्थिति है । वृहद् गया  की  स्थिति 24°23' से 25°14'  उत्तरी अक्षांश  एवं  84°18'30" से 85°38'  पूर्वी  देशांतर  रेखाओं के मध्य है ।  गया में अक्षांश  और  देशांतर  दोनो रेखाएं का  सीधा संबंध भगवान् सूर्य के साथ है । भगवान् सूर्य के  12 नामों में विष्णु है । अक्षांश और देशांतर रेखाएं मिलने के स्थान  विष्णुपदी केंद्र विंदू है । विष्णुपदी एक वृत्त बन जाती है  , जिसे 360 अंशों में विभाजन कर सूर्य एवं उसकी गति को निश्चित किया जाता है । प्रात: कालीन सूर्य सविता  एवं पृथ्वी को अमृत प्राण देते हुए एक धक्का देता है और सायं कालीन आदित्य पृथ्वी के प्राणों का आहरण करता है। उससे पृथ्वी को आकर्षण शक्ति के कारण धक्का लगता है ।  दोनो धक्कों के  कारण पृथ्वी अपने क्रांति वृत्त पर घूमने लगती है और सूर्य की परिक्रमा करना प्रारंभ कर देती है । पृथ्वी और सूर्य की गति के कारण जहाँ सूर्य लोक से प्राण तत्व जीव यहाँ आते हैं  , वहाँ पृथ्वी से जीव पुन: सूर्यलोक पहुंचते हैं । मध्यस्थ  चंद्रलोक एक सेतू का काम करता है । जहाँ विष्णुपदी होती है  , वहाँ 360  भागों में विभक्त एक वृत्त होता है या बन जाता है  , जो जीवों को क्षिप्रगति से सूर्य लोक की ओर आकर्षित कर लेता है । फलत: जीव सूर्य  , चंद्र और पृथ्वी की गति के साथ स्वर्गलोक  या विष्णुलोक पहुंच जाता है । यही कार्य  गया  -  श्राद्ध  करता है । एक ओर श्राद्ध कर्म जहाँ जीवों के बंधनों  को खोल कर प्रेतत्व से विमुक्त करता है  , वहीं दूसरी ओर विष्णुपदी जीवों को स्वर्गलोक  भेजने में सक्षम होकर सहायता प्रदान करती है । 4766 वर्गमील क्षेत्रफल में विकसित मगध प्रमंडल का उत्तरी अकांक्ष 24 डिग्री 17 सेंटीग्रेड और पश्चमी देशान्तर 84 डिग्री और 86 डिग्री पर अवस्थित है । मागध प्रमंडल के उत्तर में पटना , पश्चिम में मुंगेर दक्षिण में झारखंड और पूरब में सोननदी भोजपुर जिले की दिमाओ से घिरी हुई है। मगध प्रमंडल की 1901 ई. के जनगणना के अनुसार 2061857 आवादी 7871 गाँवों में रहती थी । मगध प्रमंडल में गया , औरंगाबाद , जहानाबाद , नवादा और अरवल जिले है । मागध प्रमंडल का मुख्यालय गया भारतीय और मागधीय संस्कृति का मूल केंद्र है । 4976 वर्ग कि. मि .  क्षेत्रफल का  गया जिले की स्थापना 1865 ई . में हुई है ।  गया जिले की 2011 के जनगणना के अनुसार 43 79383 आवादी वाले 24 प्रखंडों में निवास करती है ।गया जिले के प्रमुख नदियों में फल्गु , मोरहर , सोरहर , निरंजना , मोहाना है । ऐतिहासिक तथा वैदिक पहाड़ों में ब्रह्मयोनि , कौवाडोल , डुंगेश्वरी , रामशिला , प्रेतशिला , भष्म गिरि है । प्राचीन स्थलों में बकरौर , बोधगया ,है। गया परगना की स्थापना कलेक्टर मि. ग्राहम द्वारा 1802 ई. में मुरारपुर और पहसी , रामशिला ,  1808 ई. में साहेबगंज , आलमगीरपुर की गई थी । परगना गया को शेरचाँद के अधीन था। 1911 ई. में रेवेन्यू थाना गया टाउन का 11 गाँव की निगरानी के लिये कोतवाली ,सिविल लाइंस , गया मुफ़्सील  में 676 गाँव पर निगरानी के लिये गया मोफसील ,बोधगया ,परैया ,वजीरगंज , शेरघाटी राजस्व थाने के 865 गाँव में   शेरघाटी , गुरुआ ,इमामगंज ,डुमरिया , बाराचट्टी राजस्व थाने के 666 गाँव में बाराचट्टी , फतेहपुर , टेकरी राजस्व थाने के 435 गाँव का निगरानी के लिये टेकरी , कोच , बेला और अतरी रेवेन्यू थाने के 272 गाँव मे अतरी और खिजरसराय में पुलिस स्टेशन की स्थापना की गई थी । 1901 के जनगणना में गया जिले की जनसंख्या 751711 आवादी वाले 1909  वर्गमील  में 2465 गांव , 17 पुलिस स्टेशन थे । मगध प्रमंडल का मुख्यालय गया 11.75 वर्गमील में विकसित है । गया नगरपालिका का गठन 1865 ई. में 195 मोहल्ले को शामिल कर 10 वार्डों को शामिल कर किया गया था ।ओल्ड डिस्ट्रिक्ट गज़ेटियर 1905 के अनुसार गया 8 वर्गमील क्षेत्रफल में फैले विरासत थी ।गया के उत्तर रामशिला , मुरली पर्वत , दक्षिण में ब्रह्मयोनि पर्वत , पूरब में कटारी पहाड़ी और पश्चिम में फल्गु नदी प्रकृति से घीरा है ।प्राचीन शहर गया को सहेबगंज व अंदर गया कहा जाता है । जर्मन रोमन कैथोलिक मिशनरी के टिफ्फेनथैलर  , बुकानन हैमिल्टन , फाह्यान द्वारा 399 - 413 ई. , ची यात्री ह्वेनसांग ने 629- 645 ई. में गया का भ्रमण किया है । नायपाल का गवर्नर वज्रपाणि ने 1060 ई. और राजपूत मंत्री द्वारा 1242 ई. में गया को इंडिया का अमरावती  कहा है । गया का छठी शताब्दी ई. पू. आर्य सभ्यता तथा व्रात्य सभ्यता कल्प सूत्र में वर्णित है । गया का विकास शिशुनाग , अजातशत्रु ,उदयी ,नंद ,मौर्य ,चंद्रगुप्त ,अशोक ,पुष्यमित्र ,खरवार,, गुप्त ,मौखरि ,पाल काल में हुआ था । 1197 ई. में मुहम्मद बिन बख्तियार खिलजी द्वारा गया का विकास अवरुद्ध  किया गया था ।नेपाल का राजा का  मंत्री रंजीत पांडे और 15 जनवरी 1790 ई. में मि. फ्रांसिस गिललैंडर्स द्वारा विष्णुपद का विकास किया गया ।हैमिल्टन बुकानन ने 1815 ई. में ईस्टर्न गजेटियर , थोर्टन्स गजेटियर  हंटर्स गजेटियर 1877 ई. डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट गे डॉ ग्रियर्सन 1888 ई.  , ओ मॉली ने गया गजेटियर  का प्रकाशन 1906 ई. तथा पी .सी. राय चौधरी द्वारा बिहार डिस्ट्रिक्ट गजेटियर का प्रकाशन 1957 ई. में गया के ऐतिहासिक , सामाजिक , आर्थिक , पुरातत्विक  स्थलों की उल्लेख किया गया है । गया के प्रमुख स्थलों में विष्णुपद मंदिर , मंगल गौरी , ब्रह्मयोनि , अक्षयवट , बंगला स्थान , दुखःर्णी फाटक स्थित दुखःर्णी माता मंदिर , रामशिला , विरंचि मंदिर , वागेश्वरी , रामशिला , प्रेतशिला , भैरव स्थान , पितामहेश्वर , काली स्थल , फल्गु नदी प्रमुख है । मुगल शासन में निर्मित जुम्मा मस्जिद ,है ।गया गांधी मैदान के समीप चर्च है । उदयपुर के राजा राणा सांगा के देख रेख में गया विकसित था परंतु 160 ई. में औरंगजेब द्वारा गया के शहर चाँद चौधरी को गया के 4000 विघा जागीर का मालिक बनाया गया था । शहर चाँद द्वारा दक्षिण दरवाजा ,उतर दरवाजा और  पश्चिम दरवाजा का निर्माण कराया था । गया में प्रत्येक वर्ष अश्विन कृष्ण पक्ष प्रतिपदा से अमावस्या तक पितृपक्ष में सनातन धर्म के लोग अपनी पूर्वजो की मोक्ष और पितृऋण से मुक्ति के लिये गया श्राद्ध , पिंड देने के लिए आते है ।