बुधवार, दिसंबर 29, 2021

उमंग और उल्लास का दिवस नववर्ष ....


ज्योतिष शास्त्र एवं विभिन्न राजाओं द्वारा प्रारम्भ किये गए नाव वर्ष मनाने की परंपरा कायम है । वर्ष गणना आरम्भ करने वाले भिन्न भिन्न राजा द्वारा संबत का सृजन किया गया है । भारतीय संस्कृति में विक्रम पंचांग के अनुसार प्रत्येक वर्ष चैत्र शुक्ल पक्ष प्रतिपदा को हिन्दू नव वर्ष ,  ग्रिगोरियन के अनुसार 01 जनवरी , शकसंबत , नेपाली संबत , हिजरी संबत का नाव वर्ष विभिन्न तिथियों में नाव वर्ष मनाया जाता है । ज्योतिष शास्त्र में काल गणना की दो पद्धति हैं। न्यूगेबायर ने हार्वर्ड से प्रकाशित  पुस्तक एसेक्ट साइंसेज ऑफ एंटिक्विटी  के अनुसार प्राचीन मिस्र में कैलेंडर गणितीय तथा  व्यावहारिक है। भारत के ज्योतिष शास्त्र में  वर्ष गणना चन्द्रमा मन का कारक होने से  चान्द्र तिथि के अनुसार होती है।  ऋतु परिवर्तन सौर मास-वर्ष के अनुसार है।  सौर वर्ष से ११ दिन छोटा चंद्र वर्ष है।  ३० या ३१ मास के बाद एक चान्द्र मास अधिक जोड़ते हैं। सौर संक्रान्ति से चंद्र वर्ष  समन्वय करते हैं । जिस चान्द्र मास में संक्रान्ति नहीं रहने से अधिक मास होता है। सौर वर्ष के साथ चान्द्र वर्ष को चलाने से संवत्सर कहते हैं । राजा के आदेश से  संवत् या शक चलता है।  कुश के गट्ठर सदृश्य  शक्तिशाली होने से शक है। बड़े कुश या स्तम्भ के आकार का वृक्ष  शक है । उत्तर भारत में साल (शक ), दक्षिण भारत में टीक (शकवन , सागवान) ,  आस्ट्रेलिया में ३०० प्रकार के युकलिप्टस शक वृक्ष के कारण  शक द्वीप था। भारत के  गोरखपुर से कोरापुट तक सालवन का क्षेत्र लघु शकद्वीप शकद्वीपीय ब्राह्मणों का क्षेत्र है। मध्य एशिया तथा दक्षिण यूरोप की बिखरी जातियों का संघ भी शक्तिशाली हो ने के कईं   शक कहते थे। शक तथा संवत् में गणित तथा व्यावहारिक दिन मास आदि भिन्न होते हैं । सूर्य संक्रान्ति के अनुसार मास का प्रारंभ प्रतिपदा तिथि  है ।  संवत् प्रवर्तक विक्रमादित्य के  ज्योतिषी वराहमिहिर की सलाह से विक्रम संवत् आरम्भ  है। ज्योतिष शास्त्र के विद्वान  वराह मिहिर की पुस्तक वृहत संहिता 13 / 3 के अनुसार  ६१२ ई .पू . से आरम्भ शक का प्रयोग किया है । राजा ब्रह्मगुप्त ने चाप (चपहानि या चाहमान) शक कहा है।  ५०० वर्षों से गणेश दैवज्ञ का ग्रहलाघव प्रचलित है जिसमें शालिवाहन शक के अनुसार गणना है। मुहूर्त चिन्तामणि आदि पुस्तकों में संवत् का प्रयोग है। गणना या दिन के हिसाब के लिये शक उपयुक्त है। उसी के अनुसार कहते हैं कि आज कौन सी तिथि होगी। अल बरूनी की पुस्तक प्राचीन देशों की काल गणना ( कैलेन्डर ऑफ एनसिंयट नेशन्स ) के अनुसार शक राजा ने कैलेण्डर नहीँ चलाया था। वे ईरान या सुमेरिया के कैलेंडर का व्यवहार करते थे। यह वैसे भी स्पष्ट है। राजा विक्रमादित्य के पौत्र शालिवाहन द्वारा किया गया था । राजतरंगिणी के अनुसार कनिष्क कश्मीर के गोनन्द वंश का ४३वां राजा तथा शालिवाहन शक आरम्भ ७८ ई से हुई थी । उड़ीसा ,  केरल, तमिलनाडु में सौर वर्ष को संस्कृति मानते रहे हैं । ह्वेनसांग के अनुसार राजा  हर्षवर्धन शासन में ६४२ ई में हुआ था । सौर वर्ष)का आरम्भ उत्तरायण से होता है जब भीष्म पितामह ने देह त्याग किया था। रोमन कैलेण्डर  इसी दिन आरम्भ होना था पर लोगों ने ७ दिन बाद चान्द्र मास के सा आरम्भ किया। मूल वर्ष आरम्भ कि तिथि २५ दिसम्बर हो गयी जिसे कृष्ण मास या क्रिसमस नाम दिया।  रथयात्रा  अदिति युग में १७५०० ई पू . वर्ष आरम्भ का उत्सव  पुनर्वसु नक्षत्र से वर्ष आरम्भ होता था।  पुनर्वसु का देवता अदिति तथा शान्ति पाठ के अनुसार अदितिर्जातं अदितिर्जनित्वम् अदिति से वर्ष समाप्त हुआ तथा नया आरम्भ हुआ)।उसके प्रायः १८०० वर्ष बाद कार्तिकेय कैलेण्डर में धनिष्ठा नक्षत्र या माघ मास से वर्ष आरम्भ हुआ (महाभारत, उद्योग पर्व, २३०/८-१०) के अनुसार  वर्षा ऋतु का आरम्भ होता था। अतः संवत्सर को वर्ष या अब्द (अप् या जल देने वाला) भी कहते हैं। यही व्यवस्था वेदाङ्ग ज्योतिष है। पुराणों में राजाओं के राजत्व काल की गणना भाद्र शुक्ल द्वादशी से है जब वामन ने बलि से इन्द्र के तीनों लोक वापस लिये थे। यह ओड़िशा मे प्रचलितसंबत को  अंक पद्धति कहते हैं। केरल में ओणम कहते हैं ।
 ग्रिगोरियन कैलेंडर 1582 ई. से प्रारम्भ 01 जनवरी को न्यू ईयर  को 25  दिसंबर में क्रिसमस के गुजरने के बाद मनाया जाता  है । विश्व  में ग्रिगोरियन  कैलेंडर की शुरुआत 1582 में पहले रूस का जूलियन कैलेंडर प्रचलन में था । पूर्व में ग्रिगोरियन कैलेंडर में 10 महीने होते थे ।  क्रिसमस का एक दिन निश्चित करने के लिए 15 अक्टूबर 1582 को अमेरिका के एलॉयसिस लिलिअस ने ग्रिगोरियन कैलेंडर प्रारम्भ किया था । कैलेंडर को सूर्य चक्र या चंद्र चक्र की गणना पर आधारित है । चंद्र चक्र कैलेंडर में 354 दिन तथा सूर्य चक्र पर बनने वाले कैलेंडर में 365 दिन हैं । ग्रिगोरियन कैलेंडर सूर्य चक्र पर आधारित 01 जनवरी  भारत समेत विश्व  के देशों में नया साल मनाया जाता है। 715 ई. पू.  से 673 ई.  पू . तक रोम का राजा  नूमा पोंपिलस ने रोमन कैलेंडर में जनवरी को पहला महीना बनाया था । रोम का देवता जानूस के नाम पर जनवरी और युद्ध देवता मार्स के नाम पर मार्च रखा गया था ।  रोम राजा नूमा के समय में कैलेंडर में 10 महीने और  साल में 310 दिन एवं  सप्ताह में 8 दिन होते थे।  153 ई.  पू . तक 1 जनवरी को रोमन वर्ष की शुरुआत घोषित नहीं माना गया था। रोम के राजा जूलियन सीजर ने रोमन कैलेंडर में बदलाव करते हुए जनवरी को साल का पहला महीना बनाया था । जूलियन कैलेंडर में गणनाओं के आधार पर साल में 12 महीने मान्यता मिला था । जूलियस सीजर ने खगोलविदों से संपर्क करते हुए गणना करवाई। इसमें सामने आया कि पृथ्वी 365 दिन और छह घंटे में सूर्य का चक्कर लगाती है।  जूलियन कैलेंडर में वर्ष 365 दिन माने और 6 घंटे जो अतिरिक्त बचते थे उसके लिए लीप ईयर बनाने  से प्रत्येक 4 साल बाद  6 घंटा मिलकर 24 घंटा यानी एक दिन हो जाता है । प्रत्येक चौथे साल फरवरी को 29 दिन का माना गया । रोम साम्राज्य का पतन होने और 5 वीं सदी में ईसाई देशों ने जूलियन कैलेंडर में बदलाव किया।  धार्मिक मान्यताओं के अनुसार 25 मार्च और 25 दिसंबर को नया साल मनाना शुरू कर दिया। ईसाई मान्यता के अनुसार 25 मार्च को ही ईश्वर के विशेष दूत गैबरियल ने आकर मैरी को संदेश दिया था कि वह ईश्वर के अवतार ईसा मसीह को जन्म देंगी। वहीं, 25 दिसंबर को ईसा मसीह का जन्म हुआ था। धर्म गुरु  सेंट बीड  के अनुसार  एक साल में 365 दिन और 6 घंटे न होकर 365 दिन 5 घंटे और 46 सेकंड होते हैं । पोप ग्रेगरी ने 1582 में 01 जनवरी को  कैलेंडर पेश करने के कारण  1 जनवरी को नए साल की शुरुआत माना गया है । ग्रेगोरियन कैलेंडर को अक्टूबर 1582 से अपनाया वर्ष गणना आरम्भ करने वाले भिन्न भिन्न राजा द्वारा संबत का सृजन किया गया है । ज्योतिष शास्त्र में काल गणना की दो पद्धति हैं। न्यूगेबायर ने हार्वर्ड से प्रकाशित  पुस्तक एसेक्ट साइंसेज ऑफ एंटिक्विटी  के अनुसार प्राचीन मिस्र में एक साथ दो प्रकार के कैलेंडर चलते थे, एक गणितीय तथा दुसरा व्यावहारिक है। भारत के ज्योतिष शास्त्र में  वर्ष गणना चन्द्रमा मन का कारक होने से  चान्द्र तिथि के अनुसार होती है।  ऋतु परिवर्तन सौर मास-वर्ष के अनुसार है।  सौर वर्ष से ११ दिन छोटा चंद्र वर्ष है।  ३० या ३१ मास के बाद एक चान्द्र मास अधिक जोड़ते हैं। सौर संक्रान्ति से चंद्र वर्ष  समन्वय करते हैं । जिस चान्द्र मास में संक्रान्ति नहीं रहने से अधिक मास होता है। सौर वर्ष के साथ चान्द्र वर्ष को चलाने से संवत्सर कहते हैं । राजा के आदेश से  संवत् या शक चलता है।  कुश के गट्ठर सदृश्य  शक्तिशाली होने से शक है। बड़े कुश या स्तम्भ के आकार का वृक्ष  शक है । उत्तर भारत में साल (शक ), दक्षिण भारत में टीक (शकवन , सागवान) ,  आस्ट्रेलिया में ३०० प्रकार के युकलिप्टस शक वृक्ष के कारण  शक द्वीप था। भारत के  गोरखपुर से कोरापुट तक सालवन का क्षेत्र लघु शकद्वीप शकद्वीपीय ब्राह्मणों का क्षेत्र है। मध्य एशिया तथा दक्षिण यूरोप की बिखरी जातियों का संघ भी शक्तिशाली हो ने के कईं   शक कहते थे। शक तथा संवत् में गणित तथा व्यावहारिक दिन मास आदि भिन्न होते हैं । सूर्य संक्रान्ति के अनुसार मास का प्रारंभ प्रतिपदा तिथि  है ।  संवत् प्रवर्तक विक्रमादित्य के  ज्योतिषी वराहमिहिर की सलाह से विक्रम संवत् आरम्भ  है। ज्योतिष शास्त्र के विद्वान  वराह मिहिर की पुस्तक वृहत संहिता 13 / 3 के अनुसार  612 ई .पू . से आरम्भ शक का प्रयोग किया है । राजा ब्रह्मगुप्त ने चाप (चपहानि या चाहमान) शक कहा है। 500 वर्षों से गणेश दैवज्ञ का ग्रहलाघव प्रचलित है जिसमें शालिवाहन शक के अनुसार गणना है। मुहूर्त चिन्तामणि आदि पुस्तकों में संवत् का प्रयोग है। गणना या दिन के हिसाब के लिये शक उपयुक्त है।  अल बरूनी की पुस्तक प्राचीन देशों की काल गणना कैलेन्डर ऑफ एनसिंयट नेशन्स के अनुसार शक राजा ने कैलेण्डर  था ।  राजा विक्रमादित्य के पौत्र शालिवाहन द्वारा किया गया था । राजतरंगिणी के अनुसार कनिष्क कश्मीर के गोनन्द वंश का ४३वां राजा तथा शालिवाहन शक आरम्भ 78 ई.   से हुई थी । उड़ीसा ,  केरल, तमिलनाडु में सौर वर्ष को संस्कृति मानते रहे हैं । ह्वेनसांग के अनुसार राजा  हर्षवर्धन शासन में 642 ई . में हुआ था । सौर वर्ष)का आरम्भ उत्तरायण में भीष्म पितामह ने देह त्याग किया था। रोमन कैलेण्डर  इसी दिन आरम्भ होना था पर लोगों ने ७ दिन बाद चान्द्र मास के सा आरम्भ किया। मूल वर्ष आरम्भ कि तिथि २५ दिसम्बर हो गयी जिसे कृष्ण मास या क्रिसमस नाम दिया।  रथयात्रा  अदिति युग में 17500 ई. पू .  वर्ष आरम्भ का उत्सव  पुनर्वसु नक्षत्र से वर्ष आरम्भ होता था।  पुनर्वसु का देवता अदिति तथा शान्ति पाठ के अनुसार अदितिर्जातं अदितिर्जनित्वम।  १८०० वर्ष बाद कार्तिकेय कैलेण्डर में धनिष्ठा नक्षत्र या माघ मास से वर्ष आरम्भ हुआ । (महाभारत, उद्योग पर्व, २३०/८-१०)   संवत्सर को वर्ष या अब्द कहा जाता हैं।  वेदाङ्ग ज्योतिष में है। पुराणों में राजाओं के राजत्व काल की गणना भाद्र शुक्ल द्वादशी  है । भगवान  वामन ने राजा  बलि से इन्द्र के तीनों लोक वापस लिये थे। उड़ीसा  में प्रचलित अंक पद्धति हैं। केरल में ओणम कहते है। वेध या पितर कार्यों के लिए मध्याह्न से दिन आरम्भ होता है। 
 ग्रिगोरियन कैलेंडर 1582 ई. से प्रारम्भ 01 जनवरी को न्यू ईयर  को 25  दिसंबर में क्रिसमस के गुजरने के बाद मनाया जाता  है । विश्व  में ग्रिगोरियन  कैलेंडर की शुरुआत 1582 में पहले रूस का जूलियन कैलेंडर प्रचलन में था । पूर्व में ग्रिगोरियन कैलेंडर में 10 महीने होते थे ।  क्रिसमस का एक दिन निश्चित करने के लिए 15 अक्टूबर 1582 को अमेरिका के एलॉयसिस लिलिअस ने ग्रिगोरियन कैलेंडर प्रारम्भ किया था । कैलेंडर को सूर्य चक्र या चंद्र चक्र की गणना पर आधारित है । चंद्र चक्र कैलेंडर में 354 दिन तथा सूर्य चक्र पर बनने वाले कैलेंडर में 365 दिन हैं । ग्रिगोरियन कैलेंडर सूर्य चक्र पर आधारित 01 जनवरी  भारत समेत विश्व  के देशों में नया साल मनाया जाता है। 715 ई. पू.  से 673 ई.  पू . तक रोम का राजा  नूमा पोंपिलस ने रोमन कैलेंडर में जनवरी को पहला महीना बनाया था । रोम का देवता जानूस के नाम पर जनवरी और युद्ध देवता मार्स के नाम पर मार्च रखा गया था ।  रोम राजा नूमा के समय में कैलेंडर में 10 महीने और  साल में 310 दिन एवं  सप्ताह में 8 दिन होते थे।  153 ई.  पू . तक 1 जनवरी को रोमन वर्ष की शुरुआत घोषित नहीं माना गया था। रोम के राजा जूलियन सीजर ने रोमन कैलेंडर में बदलाव करते हुए जनवरी को साल का पहला महीना बनाया था । जूलियन कैलेंडर में गणनाओं के आधार पर साल में 12 महीने मान्यता मिला था । जूलियस सीजर ने खगोलविदों से संपर्क करते हुए गणना करवाई। इसमें सामने आया कि पृथ्वी 365 दिन और छह घंटे में सूर्य का चक्कर लगाती है।  जूलियन कैलेंडर में वर्ष 365 दिन माने और 6 घंटे जो अतिरिक्त बचते थे उसके लिए लीप ईयर बनाने  से प्रत्येक 4 साल बाद  6 घंटा मिलकर 24 घंटा यानी एक दिन हो जाता है । प्रत्येक चौथे साल फरवरी को 29 दिन का माना गया । रोम साम्राज्य का पतन होने और 5 वीं सदी में ईसाई देशों ने जूलियन कैलेंडर में बदलाव किया।  धार्मिक मान्यताओं के अनुसार 25 मार्च और 25 दिसंबर को नया साल मनाना शुरू कर दिया। ईसाई मान्यता के अनुसार 25 मार्च को ही ईश्वर के विशेष दूत गैबरियल ने आकर मैरी को संदेश दिया था कि वह ईश्वर के अवतार ईसा मसीह को जन्म देंगी। वहीं, 25 दिसंबर को ईसा मसीह का जन्म हुआ था। धर्म गुरु  सेंट बीड  के अनुसार  एक साल में 365 दिन और 6 घंटे न होकर 365 दिन 5 घंटे और 46 सेकंड होते हैं । पोप ग्रेगरी ने 1582 में 01 जनवरी को  कैलेंडर पेश करने के कारण  1 जनवरी को नए साल की शुरुआत माना गया है । ग्रेगोरियन कैलेंडर को अक्टूबर 1582 से अपनाया गया। कैथोलिक देशों ने  ग्रेगोरियन कैलेंडर को अपना लिया।  स्पेन, पुर्तगाल और इटली के अधिकांश देश शामिल थे। ब्रिटिश साम्राज्य ने 1752 में और स्वीडन ने 1753 में  रूसी क्रांति के बाद  ग्रेगोरियन कैलेंडर अपनाया लिया गया।  फ्रांस तथा भारत में 1752 में  ग्रेगोरियन कैलेंडर को अपना लिया गया।  भारत में कैलेंडर शक कैलेंडर को  22 मार्च, 1957 को अपनाया है । विक्रम पंचांग के नव वर्ष चैत्र शुक्ल प्रतिपदा ,   पहला महीना चैत्र मास और साल में 365 दिन एवं अधिकमास होते हैं।

सोमवार, दिसंबर 27, 2021

सामाजिक समसरता का प्रतीक महामना मालवीय जी एवं अटल जी ....


  दिव्य रश्मि पटना  कार्यालय परिसर में आयोजित महामना पंडित मदनमोहन मालवीय एवं भारत के पूर्व प्रधानमंत्री अतलविहारी बाजपेयी की जयंती समारोह की अध्यक्षता करते हुए दिव्य रश्मि के संपादक डॉ. राकेश दत्त मिश्र ने कहा कि महामना मालवीय जी ने कहा था कि किसी  राष्ट्र की उन्नति का आधार वहाँ की शिक्षा व्यवस्था होती है। अन्य प्राणियों की मानसिक शक्ति की अपेक्षा मनुष्य की मानसिक शक्ति अत्यधिक विकसित एवं ज्ञान होता है। साहित्यकार व इतिहासकार सत्येन्द्र कुमार पाठक ने कहा की  मर्मज्ञ पुरुष एवं अद्वितीय प्रतिभा के धनी पण्डित मदन मोहन मालवीय का जन्म 25 दिसम्बर, 1861 को प्रयागराज में हुआ था। महामना मालवीय की 160 वीं जयंती के  अवसर पर मालवीय जी के द्वारा सामाजिक, राजनैतिक और शैक्षणिक क्षेत्र में किये गए कार्यों को याद किया जाता है। पंडित मदन मोहन मालवीय जी के पूर्वज मालवा प्रान्त के निवासी  होने के कारण मालवीय कहा जाता था। मदन मोहन मालवीय को धार्मिक संस्कार विरासत में मिले थे। मदन मोहन मालवीय जी ने महज 25 वर्ष की आयु में 1886 में भारतीय राष्ट्री्य कांग्रेस के दूसरे अधिवेशन में संबोधित किया।  सन् 1909, 1918, 1932 और 1933 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष चुने गए। वे एक महान देशभक्त, स्वतंत्रता सेनानी, विधिवेत्ता, संस्कृत और अंग्रेजी के विद्वान, शिक्षाविद, पत्रकार और प्रखर वक्ता थे। एक पत्रकार के रूप में उन्होंने वर्ष 1907 में हिंदी साप्ताहिक ‘अभ्युदय’ की शुरुआत की, जिसे वर्ष 1915 में दैनिक बना दिया गया।  वर्ष 1910 में हिंदी मासिक पत्रिका ‘मर्यादा’  शुरू की थी।  वर्ष 1909 में एक अंग्रेज़ी दैनिक अखबार ‘लीडर’  शुरू किया था। मालवीय जी हिंदी साप्ताहिक ‘हिंदुस्तान’ और ‘इंडियन यूनियन’ के संपादक भी थे। ‘हिंदुस्तान टाइम्स’ के निदेशक मंडल के अध्यक्ष भी रहे। मालवीय जी केवल भारतीय राष्ट्री्य कांग्रेस के सक्रिय सदस्य बनकर ही नहीं रहे बल्कि हिंदी भाषा को राजभाषा का सम्मान, समाज सुधार, पत्रकारिता, शैक्षणिक संप्रभुता और पर्यावरण की सुरक्षा के लिए श्री गणेश करने वाले अग्रदूत थे।  मालवीय जी ने  इलाहाबाद विश्वविद्यालय में दीक्षांत समारोह में  मालवीय जी ने अंग्रेजी  परंपरा को तोड़, हिंदी में भाषण देकर देशभक्ति का अलख जगाया था । मालवीय जी का  भाषण देते समय ‘सर स्पीक इन इंगलिश, वी कांट फॉलो योर हिंदी’ जैसे ही श्रोताओं के बीच से यह आवाज गूंजी तब  पंडित मदन मोहन मालवीय जी ने जवाब दिया “महाशय,मुझे भी अंग्रेजी बोलना आता है। शायद हिंदी की अपेक्षा मैं अंग्रेजी में अपनी बात अधिक अच्छे ढंग से कह सकता हूँ। लेकिन मैं एक पुरानी अस्वस्थ परंपरा को तोड़ना चाहता हूँ। हिंदी को देश में बाध्यकारी भाषा बना दे। महात्मा गांधी ने पंडित मदन मोहन मालवीय को 'महामना' की उपाधि दी थी। भारत के राष्ट्रपति डॉ. एस राधाकृष्णन ने मालवीय जी को 'कर्मयोगी' का दर्जा दिया था। मालवीय जी ने भारतीय संस्कृति की जीवंतता को अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए वर्ष 1916 ई. में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना की थी।  मालवीय जी ने शैक्षणिक उन्नति के साथ साथ समाज में फैली बुराइयों को भी समाप्त किया। सामाजिक बुराइयों में अहम् था गिरमिटिया मजदूरी प्रथा। मालवीय जी ने ‘गिरमिटिया मज़दूरी’ प्रथा को समाप्त करने में अहम् भूमिका निभाई। ‘गिरमिटिया मज़दूरी’ प्रथा, बंधुआ मज़दूरी प्रथा का  रूप है, जिसे वर्ष 1833 ई.में दास प्रथा के उन्मूलन के बाद स्थापित किया गया था। मालवीय जी ने वर्ष 1905 ई. में गंगा महासभा की स्थापना की थी। 11 वर्ष (1909-1920) तक 'इम्पीरियल लेजिस्लेटिव काउंसिल' के सदस्य के रूप में कार्य किया। उन्होंने 'सत्यमेव जयते' शब्द को लोकप्रिय बनाया। मालवीय जी के प्रयासों के कारण ही देवनागरी को ब्रिटिश-भारतीय अदालतों में पेश किया गया था। उन्होंने वर्ष 1915 में हिंदू महासभा की स्थापना की थी । 12 नवम्बर, 1946 ई. को महामना मालवीय जी का देहावसान हो गया था। भारत सरकार ने 25 दिसम्बर 2014 को उनके 153वें जन्मदिन पर भारत रत्न से नवाजे जाने की घोषणा की थी। अतएव पंडित मदन मोहन मालवीय को 31 मार्च 2015 को भारत रत्न (मरणोपरांत) से सम्मानित किया गया। सामाजिक समरसता को अक्षुण्ण बनाए रखने में महामना मालवीय को महारथ हासिल थी। पंडित मदन मोहन मालवीय सामाजिक समरसता के संवाहक थे । पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजेयी जी को  राजनेता, कुशल वक्ता और कवि के रूप में देश  याद करता है  पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की 97वीं जयंती पर देश भारत के लोकप्रिय  एक पत्रकार से लेकर देश के प्रधानमंत्री तक का सफर तय किया था।  पहली बार 1996  एवं 1998 तथा  1999 में  प्रधानमंत्री बने थे ।  पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को उनके पोखऱण परमाणु परीक्षण और करगिल युद्ध के लिए भी याद किया जाता है. अपने कार्यकाल के दौरान उन्होंने पोखरण में ऑपरेशन शक्ति के तहत परमाणु परीक्षण की मंजूरी दी थी ।  भारत ने 11 और 13 मई, 1998 को सफलतापूर्वक परमाणु परीक्षण कर खुद को न्यूक्लियर पावर घोषित किया ।शिक्षा के क्षेत्र में भी काफी काम किया. वाजपेयी सरकार ने 2001 में सर्व शिक्षा अभियान की शुरुआत की थी. इसके तहत 6 साल से 14 साल के बच्चों को मुफ्त शिक्षा  योजना के लॉन्च के 4 सालों के अंदर ही स्कूल से बाहर रहने वाले बच्चों की संख्या में 60 फीसदी की गिरावट देखने को मिली थी. सर्व शिक्षा अभियान में आईसीडीएस और आंगनवाड़ी समेत 8 प्रोग्राम शामिल रहे ।वाजपेयी जी ने संयुक्त राष्ट्र में हिंदी में भाषण दिया था. 1977 में मोरारजी देसाई की सरकार में विदेश मंत्री रहे वाजपेयी ने संयुक्त राष्ट्र महासभा को हिंदी में संबोधित किया था । एक प्रधानमंत्री होने के अलावा अटल बिहारी वाजपेयी की कविताएं कदम मिलाकर चलना होगा, गीत नया गाता हूं, दो अनुभूतियां, मेरी इक्यावन कविताएं  चर्चित  हैं ।मिली थी. सर्व शिक्षा अभियान में आईसीडीएस और आंगनवाड़ी समेत 8 प्रोग्राम शामिल रहे ।वाजपेयी जी ने संयुक्त राष्ट्र में हिंदी में भाषण दिया था. 1977 में मोरारजी देसाई की सरकार में विदेश मंत्री रहे वाजपेयी ने संयुक्त राष्ट्र महासभा को हिंदी में संबोधित किया था । एक प्रधानमंत्री होने के अलावा अटल बिहारी वाजपेयी की कविताएं कदम मिलाकर चलना होगा, गीत नया गाता हूं, दो अनुभूतियां, मेरी इक्यावन कविताएं  चर्चित  हैं । मालवीय व अटल जी की जयंती समारोह के अवसर पर दिव्य रश्मि के उप संपादक सुबोध कुमार सिंह ,पटना व्यूरो सुबोध सिंह राठौड़ ,दिलीप कुमार ,रविन्द्र सिंह , विनोद सिंह ,कन्हैया तिवारी , देवेंद्र प्रसाद सिंह ,पीयूष रंजन ,आदित्य कुमार ,अभय कुमार ,अमर आदिवक्ताओं द्वारा महामना मदनमोहन मालवीय एवं भारत के पूर्व प्रधानमंत्री अतलविहारी बाजपेयी जी की कीर्तित्व एवं व्यक्तित्व पर बहुमूल्य विचार प्रकट किया । समारोह में उपस्थित पत्रकारों , साहित्यकारों एवं समाजसेवियों द्वारा मालवीय जी एवं अटल जी के चित्रों पर माल्यार्पण एवं पुष्पांजलि अर्पित की गई । जयंती समारोह में  हिंदी मासिक दिव्य रश्मि दिसंबर 2021 मालवीय अटल विशेषांक  का लोकार्पण किया गया ।

सोमवार, दिसंबर 20, 2021

आध्यात्मिक चेतना के प्रणेता स्वामी विवेकानंद....


भारतीय आध्यात्मिक चेतना के प्रणेता स्वामी विवेकानन्द जन्म 12 जनवरी 1863 को कलकत्ता हाई कोर्ट के वरिष्ठ वकील विश्वनाथ दत्त की पत्नी भुवनेश्वरी देवी के गर्भ से कोलकाता में हुआ था ।  39 वर्षीय स्वामी विवेकानंद की मृत्यु ब्रिटिश राज्यक रियासत कोलकाता स्थित बेलूर मठ में 4 जुलाई 1902 को  हुई थी । वेदान्त के विख्यात और प्रभावशाली आध्यात्मिक संत  स्वामी विवेकानंद का  नाम नरेन्द्र नाथ दत्त ने अमेरिका स्थित शिकागो में सन् 1893 में आयोजित विश्व धर्म महासभा में भारत की ओर से सनातन धर्म का प्रतिनिधित्व किया था। भारत का आध्यात्मिकता से परिपूर्ण वेदान्त दर्शन अमेरिका और यूरोप के प्रत्येक  देश में स्वामी विवेकानन्द की वक्तृता के कारण पहुँचा था । उन्होंने रामकृष्ण मिशन की स्थापना करने के पश्चात शिकागो में आयोजित विश्व धर्म सभा में 2 मिनट भाषण का  संबोधन   "मेरे अमेरिकी बहनों एवं भाइयों" से किया था । विवेकानंद ने  कहा कि सम्पूर्ण जीवो मे स्वयं परमात्मा का  अस्तित्व हैं; इसलिए मानव जाति   दूसरे जरूरतमन्दो को   सेवा द्वारा परमात्मा की  सेवा की जा सकती है। रामकृष्ण की मृत्यु के बाद विवेकानन्द ने बड़े पैमाने पर भारतीय उपमहाद्वीप का दौरा किया और ब्रिटिश भारत में मौजूदा स्थितियों का प्रत्यक्ष ज्ञान हासिल किया। बाद में विश्व धर्म संसद 1893 में भारत का प्रतिनिधित्व करने, संयुक्त राज्य अमेरिका के लिए प्रस्थान किया। विवेकानन्द ने संयुक्त राज्य अमेरिका, इंग्लैंड और यूरोप में हिंदू दर्शन के सिद्धान्तों का प्रसार किया और कई सार्वजनिक और  व्याख्यानों का आयोजन किया। भारत में विवेकानन्द को  देशभक्त सन्यासी  है। स्वामी विवेकानंद के  जन्मदिन को राष्ट्रीय युवा दिवस मनाया जाता है । स्वामी विवेकानन्द अपने आश्रम में सो रहे थे। कि तभी एक व्यक्ति उनके पास आया जो कि बहुत दुखी था और आते ही स्वामी विवेकानन्द के चरणों में गिर पड़ा और बोला महाराज मैं अपने जीवन में खूब मेहनत करता हूँ हर काम खूब मन लगाकर भी करता हूँ फिर  आज तक मैं कभी सफल व्यक्ति नहीं बन पाया। उस व्यक्ति कि बाते सुनकर स्वामी विवेकानंद ने कहा ठीक है। आप मेरे इस पालतू कुत्ते को थोड़ी देर तक घुमाकर लाये तब तक आपके समस्या का समाधान ढूँढ़ता हूँ। इतना कहने के बाद वह व्यक्ति कुत्ते को घुमाने के लिए चल गया। और फिर कुछ समय बीतने के बाद वह व्यक्ति वापस आया। तो स्वामी विवेकानन्द ने उस व्यक्ति से पूछा की यह कुत्ता इतना हाँफ क्यों रहा है। जबकि तुम थोड़े से थके हुए नहीं लग रहे हो आखिर ऐसा क्या हुआ  है । इस पर उस व्यक्ति ने कहा कि मैं  सीधा अपने रास्ते पर चल रहा था जबकि यह कुत्ता इधर उधर रास्ते भर भागता रहा और कुछ भी देखता  उधर ही दौड़ जाता था. जिसके कारण यह इतना थक गया है । इसपर स्वामी विवेकानन्द ने मुस्कुराते हुए कहा बस यही तुम्हारे प्रश्नों का जवाब है । तुम्हारी सफलता की मंजिल  तुम्हारे सामने  होती है । परंतु  तुम अपने मंजिल के बजाय इधर उधर भागते हो जिससे तुम अपने जीवन में कभी सफल नही हो पाए. यह बात सुनकर उस व्यक्ति को समझ में आ गया था।  यदि सफल होना है  हमे अपने मंजिल पर ध्यान देना चाहिए था । स्वामी विवेकानन्द का विचार है कि  हम उस पर ध्यान नहीं देते है, और दूसरों को देखकर वैसा ही हम करने लगते है। जिसके कारण हम अपने सफलता के मंजिल के पास होते हुए दूर भटक जाते है। इसीलिए अगर जीवन में सफल होना है! हमेशा हमें अपने लक्ष्य पर ध्यान केन्द्रित करना चाहिए । विवेकानन्द ने  विदेश में  समारोह में विदेशी लोग आये हुए थे ! उनके द्वारा दिए गए विचारों  से एक विदेशी महिला बहुत ही प्रभावित हुईं। और वह विवेकानन्द के पास आयी और स्वामी विवेकानन्द से बोली कि मैं आपसे शादी करना चाहती हूँ ताकि आपके जैसा ही मुझे गौरवशाली पुत्र की प्राप्ति हो।इसपर स्वामी विवेकानन्द बोले कि क्या आप जानती है। कि ” मै एक सन्यासी हूँ ” भला मै कैसे शादी कर सकता हूँ अगर आप चाहो  मुझे आप अपना पुत्र बना लो। इससे मेरा सन्यास नही टूटेगा और आपको मेरे जैसा पुत्र  मिल जाएगा। यह बात सुनते ही वह विदेशी महिला स्वामी विवेकानन्द के चरणों में गिर पड़ी और बोली कि आप धन्य है। आप ईश्वर के समान है !  किसी भी परिस्थिति में अपने धर्म के मार्ग से विचलित नहीं होते है। गौड़ मोहन मुखर्जी स्ट्रीट कोलकाता स्थित स्वामी विवेकानन्द का मूल जन्मस्थान जिसका पुनरुद्धार करके अब सांस्कृतिक केन्द्र है स्वामी विवेकानन्द का जन्म 12 जनवरी सन् 1863 ,मकर संक्रान्ति संवत् 1920 को कलकत्ता में  कायस्थपरिवार में हुआ था। उनके बचपन का घर का नाम वीरेश्वर और बाद में औपचारिक नाम नरेन्द्रनाथ दत्त था। संस्कृत और फारसी भाषा के विद्वान दुर्गाचरण दत्त के पौत्र एवं कलकत्ता हाईकोर्ट के प्रसिद्ध वकील विश्वनाथ दत्त की पत्नी भुवनेश्वरी देवी के गर्भ से नरेन्द्रनाथ दत्त का जन्म हुआ था । नरेन्द्रनाथ दत्त ने  अपने परिवार को 25 की उम्र में छोड़ सन्यासी बन गए।बचपन से  नरेन्द्र अत्यन्त कुशाग्र बुद्धि एवं  नटखट  थे। अपने साथी बच्चों के साथ वे खूब शरारत करते और मौका मिलने पर अपने अध्यापकों के साथ  शरारत करने से नहीं चूकते थे। उनके घर में नियमपूर्वक रोज पूजा-पाठ होता था धार्मिक प्रवृत्ति की होने के कारण माता भुवनेश्वरी देवी को पुराण,रामायण, महाभारत आदि की कथा सुनने का बहुत शौक था। कथावाचक बराबर इनके घर आते रहते थे। नियमित रूप से भजन-कीर्तन भी होता रहता था। परिवार के धार्मिक एवं आध्यात्मिक वातावरण के प्रभाव से बालक नरेन्द्र के मन में बचपन से ही धर्म एवं अध्यात्म के संस्कार गहरे होते गये। माता-पिता के संस्कारों और धार्मिक वातावरण के कारण बालक के मन में बचपन से ही ईश्वर को जानने और उसे प्राप्त करने की लालसा दिखायी देने लगी थी। ईश्वर के बारे में जानने की उत्सुकता में कभी-कभी वे ऐसे प्रश्न पूछ बैठते थे कि इनके माता-पिता और कथावाचक पण्डित तक आध्यात्मिक विचार  में पड़ जाते थे।
सन् 1871 में, आठ साल की उम्र में, नरेन्द्रनाथ ने ईश्वर चंद्र विद्यासागर के मेट्रोपोलिटन संस्थान में दाखिला लिया । 1877 में उनका परिवार रायपुर चला गया। 1879 में, कलकत्ता में अपने परिवार की वापसी के बाद प्रेसीडेंसी कॉलेज प्रवेश परीक्षा में प्रथम डिवीजन अंक प्राप्त किये। वेदान्त के विख्यात और प्रभावशाली आध्यात्मिक गुरु स्वामी विवेकानंद ने अमेरिका स्थित शिकागो  में सन् 1893 में विश्व धर्म महासभा में भारत की ओर से सनातन धर्म का प्रतिनिधित्व किया था । विश्व धर्म महासभा शिकागो में स्वामी विवेकानंद ने कहा कि मुझे गर्व है कि मैं हिन्दू  धर्म से हूं जिसने दुनिया को सहिष्णुता और सार्वभौमिक स्वीकृति का पाठ पढ़ाया है. हम सिर्फ़ सार्वभौमिक सहिष्णुता पर ही विश्वास नहीं करते बल्कि, हम सभी धर्मों को सच के रूप में स्वीकार करते हैं । मुझे गर्व है कि मैं उस भारत  से हूं जिसने सभी धर्मों और सभी देशों के सताए गए लोगों को अपने यहां शरण दी है । मुझे गर्व है कि हमने अपने दिल में इसराइल की वो पवित्र यादें संजो रखी हैं जिनमें उनके धर्मस्थलों को रोमन हमलावरों ने तहस-नहस कर दिया था और फिर उन्होंने दक्षिण भारत में शरण ली. मुझे गर्व है कि मैं एक ऐसे धर्म से हूं जिसने पारसी धर्म के लोगों को शरण दी और लगातार अब भी उनकी मदद कर रहा है । स्वामी विवेकानंद ने शिकागो में दिया गया  ऐतिहासिक भाषण, भारतीयों को गर्व से भर देता है । स्वामी विवेकानंद ने कहा था- एक हिन्दू का धर्मान्तरण केवल एक हिंदू का कम होना नहीं, बल्कि एक शत्रु का बढ़ना है।  क्योंकि उन्हें अपने समय में सन्नाटे की कायरता ओढ़े समाज को झकझोर कर जगाने की निर्भीकता दिखायी और हिन्दू धर्म तथा उसके अनुयायियों की रक्षा की है । हिंदू धर्म का असली संदेश लोगों को अलग-अलग धर्म संप्रदायों के खांचों में बांटना नहीं, बल्कि पूरी मानवता को एक सूत्र में पिरोना. गीता में भगवान कृष्ण ने भी यही संदेश दिया था कि अवग-अलग कांच से होकर हम तक पहुंचने वाला प्रकाश  है । स्वामी विवेकानंद के जीवन आध्यात्मिक विचार भारत से बहार जाकर हिन्दू धर्म का व्याख्यां किया था ।  सभी धर्मों का सम्मान करते थे । वे  योग के बल पर दिव्यदृष्टि प्राप्त की थी । स्वामी विवेकनंद ने युवाओं को कहा कि  'उठो, जागो और तब तक नहीं रुको जब तक लक्ष्य ना प्राप्त हो जाये। ' 'उठो मेरे शेरो, इस भ्रम को मिटा दो कि तुम निर्बल हो, तुम एक अमर आत्मा हो, स्वच्छंद जीव हो, धन्य हो, सनातन हो, तुम तत्व नहीं हो, ना ही शरीर हो, तत्व तुम्हारा सेवक है तुम तत्व के सेवक नहीं हो। शिक्षा से मानवीय शक्ति और आध्यात्मिक चेतना से मानव विकास करता है ।

शुक्रवार, दिसंबर 17, 2021

माता गंगा का पानी अमृत .....


हिमालय की कोख गोमुख से निकलकर गंगोत्री से होते हुए भागीरथी गंगा की अविरल धारा देवप्रयाग में अलकनंदा में चट्टानें घुलकर   जल की जैविक संरचना करती है ।  वैज्ञानिक शोध के अनुसार  गंगा के पानी में ऐसे जीवाणु हैं जो सड़ाने वाले कीटाणुओं को पनपने नहीं देते है । हरिद्वार में गोमुख- गंगोत्री से आ रही गंगा के जल की गुणवत्ता का दुष्प्रभाव नहीं पड़ता, क्योंकि यह हिमालय पर्वत पर उगी हुई अनेकों जीवनदायनी उपयोगी जड़ी-बूटियों, खनिज पदार्थों और लवणों को स्पर्श करता हुआ आता है । हिमालय की कोख से गंगाजल में बैट्रिया फोस  बैक्टीरिया रहने से  पानी के अंदर रासायनिक क्रियाओं से उत्पन्न होने वाले अवांछनीय पदार्थों को नष्ट करता रहता है। गंगा के पानी में गंधक (सल्फर) की प्रचुर मात्रा एवं  भू-रासायनिक क्रियाएं  गंगाजल में होने से  कीड़े पैदा नहीं होते है ।  गंगा हरिद्वार से आगे  शहरों की ओर बढ़ते रहने पर शहरों, नगर  और खेती-बाड़ी का कूड़ा-करकट तथा औद्योगिक रसायनों का मिश्रण गंगा में डाल दिया जाता है । वैज्ञानिक परीक्षणों के आधार पर  गंगाजल से स्नान करने तथा गंगाजल को पीने से हैजा, प्लेग, मलेरिया तथा क्षय आदि रोगों के कीटाणु नष्ट हो जाते हैं। डॉ. हैकिन्स, ब्रिटिश सरकार की ओर से डॉ. हॉकिंग्स द्वारा  गंगाजल से दूर होने वाले रोगों के परीक्षण के लिए  गंगाजल के परिक्षण के लिए गंगाजल में हैजे (कालरा) के कीटाणु डाले गए। हैजे के कीटाणु मात्र 6 घंटें में ही मर गए और जब उन कीटाणुओं को साधारण पानी में रखा गया तो वह जीवित होकर अपने असंख्य में बढ़ गया था । फ्रांस के सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक डॉ. हैरेन ने गंगाजल पर वर्षों अनुसंधन करके अपने प्रयोगों का विवरण शोधपत्रों के रूप में प्रस्तुत किया था । डॉ. हैरेन ने  आंत्र शोध व हैजे से मरे अज्ञात लोगों के शवों को गंगाजल में ऐसे स्थान पर डाल दिया था । डॉ. हैरेन को आश्चर्य हुआ कि कुछ दिनों के बाद शवों से आंत्र शोध व हैजे  नहीं बल्कि अन्य कीटाणु  गायब हो गए थे । उन्होंने गंगाजल से 'बैक्टीरियासेपफेज' घटक निकाला, जिसमें औषधीय गुण हैं। इंग्लैंड के  चिकित्सक सी. ई. नेल्सन ने गंगाजल पर अन्वेषण करते हुए लिखा कि गंगाजल में सड़ने वाले जीवाणु  नहीं होते। उन्होंने महर्षि चरक को उद्धृत करते हुए लिखा कि गंगाजल सही मायने में पथ्य है। रूसी वैज्ञानिकों ने हरिद्वार एवं काशी में स्नान के उपरांत 1950 में कहा कि  गंगा स्नान के उपरांत ही ज्ञात हो पाया कि भारतीय गंगा  पवित्र  है । कनाडा के मैकिलन विश्वविद्यालय के वैज्ञानिक डॉ. एम. सी. हैमिल्टन ने गंगा की शक्ति को स्वीकारते हुए कहा कि वे नहीं जानते कि इस जल में अपूर्व गुण कहाँ से और कैसे आए। सही तो यह है कि चमत्कृत हैमिल्टन वस्तुत: समझ नहीं पाए कि गंगाजल की औषधीय गुणवत्ता को किस तरह प्रकट किया जाए आयुर्वेदाचार्य गणनाथ सेन, विदेशी यात्री इब्नबतूता वरनियर, अंग्रेज़ सेना के कैप्टन मूर, विज्ञानवेत्ता डॉ. रिचर्डसन आदि सभी ने गंगा पर शोध करके यही निष्कर्ष दिया कि यह नदी अपूर्व है।
गंगाजल अपने खनिज गुणों के कारण  गुणकारी और   स्नान करने वाले लोग स्वस्थ और रोग मुक्त बने रहते हैं। इससे शरीर शुद्ध और स्फूर्तिवान बनता है। भारतीय सांस्कृतिक  सभ्यता में गंगा को पवित्र नदी माना जाता है। गंगा नदी के पानी में विशेष गुण के कारण  गंगा नदी में स्नान करने भारत के विभिन्न क्षेत्र से  नहीं बल्कि संसार के अन्य देशों से  लोग आते हैं। गंगा नदी में स्नान के लिए आने वाले सभी लोग विभिन्न प्रकार के रोगों से मुक्ति पाने के लिए हरिद्वार और ऋषिकेश आकर मात्र गंगा स्नान से पूर्ण स्वस्थ हो जाते हैं।  विद्वानों ने गंगाजल की पवित्रता का वर्ण कर  पूर्ण आत्मा से किया है। भौतिक विज्ञान  आचार्यो ने  गंगाजल की अद्भुत शक्ति और प्रभाव को स्वीकार किया है।करने भारत के विभिन्न क्षेत्र से ही नहीं बल्कि संसार के अन्य देशों से भी लोग आते हैं। गंगा नदी में स्नान के लिए आने वाले सभी लोग विभिन्न प्रकार के रोगों से मुक्ति पाने के लिए हरिद्वार और ऋषिकेश आकर मात्र कुछ ही दिनों में केवल गंगा स्नान से पूर्ण स्वस्थ हो जाते हैं। विद्वानों ने गंगाजल की पवित्रता का वर्णन अपने निबन्धों में पूर्ण आत्मा से किया है। भौतिक विज्ञान  आचार्यो ने गंगाजल की अद्भुत शक्ति और प्रभाव को स्वीकार किया है। भगीरथी गंगा , अलकनंदा गंगा  , मंदाकिनी गंगा मिल कर ऋषिकेश में गंगा रूप में निरंतर प्रवाहित हो कर हृरिद्वार में गिरती के बाद मानव कल्याण करती है ।माता गंगा की जलधारा पवित्र एवं जीवनोपयोगी और जीवात्मा  का मार्ग प्रशस्त करती है ।उत्तराखण्ड राज्य का  उत्तरकाशी ज़िले में गौमुख गंगोत्री ग्लेशियर का गोमुख से भागीरथी गंगा से प्रवाहित है।भागीरथी नदी को किरात नदी कहा गस्य है ।उत्तराखण्ड राज्य का मण्डल गढ़वाल , ज़िले उत्तरकाशी के भौतिक नदी शीर्ष गौमुख, गंगोत्री का निर्देशांक30°55′32″N 79°04′53″E / 30.925449°N 79.081480°E • ऊँचाई3,892 मी॰ (12,769 फीट) से भगीरथी गंगा  देवप्रयाग का निर्देशांक - 30°08′47″N 78°35′54″E / 30.146315°N 78.598251°E ऊँचाई475 मी॰(1,558 फीट),लम्बाई205 कि॰मी॰(127 मील) ,जलसम्भरआकार6,921 कि॰मी2 (7.450×1010 वर्गफुट) ,प्रवाह  • औसत257.78 m3/s (9,103 घन फुट/सेकंड) ,  अधिकतम3,800 m3/s (130,000 घन फुट/सेकंड ) , जलसम्भर भागीरथी गंगा में  केदारगंगा, भिलंगना, अलकनंदा , जाध गंगा , जाह्नवी , सिया गंगा में मिलती है ।भागीरथी गोमुख स्थान से 25 कि॰मी॰ लम्बे गंगोत्री हिमनद से निकल कर उत्तराखण्ड राज्य में उत्तरकाशी जिले का देव प्रयाग में  समुद्रतल से 618 मीटर की ऊँचाई पर, ऋषिकेश से 70 किमी दूरी पर स्थित अलकनंदा में भगीरथी नदी मिलती है । भागीरथी गंगा  नदी पर बनाया गया टेहरी विकास परियोजना के तहत टिहरी बाँध की ऊँचाई 260 मीटर है । टिहरी   बाँध से 2400 मेगा वाट विद्युत उत्पादन, 270,000 हेक्टर क्षेत्र की सिंचाई और प्रतिदिन 102.20 करोड़ लीटर पेयजल दिल्ली, उत्तर प्रदेश एवँ उत्तराखण्ड को उपलब्ध कराया  गया है। भगीरथी गंगा में रुद्रागंगा- गंगोत्री ग्लेशियर के पास रुद्रागेरा ग्लेशियर , केदारगंगा- केदारताल , जाडगंगा / जाह्नवी - भैरोघाटी , सियागंगा- झाला , असीगंगा- गंगोरी , भिलंगना- खतलिंग ग्लेशियर टेहरी से निकलकर गणेशप्रयाग में भागीरथी से मिलती है । अब यह संगम टेहरी डैम में डूब चुका है।भिलंगना की नदियां - मेडगंगा, दूधगंगा,बालगंगा  अलकनंदा- देवप्रयाग में भााागिरथी से मिलती है।
 भागीरथी में गंगा का नबद्वीप में जलांगी से मिलकर हुगली नदी बनाती है। 16वीं शताब्दी तक भागीरथी में गंगा का मूल प्रवाह था, लेकिन गंगा का मुख्य बहाव पूर्व की ओर पद्मा में स्थानांतरित हो गया। गंगा  तट पर कभी बंगाल की राजधानी रहे मुर्शिदाबाद सहित बंगाल के कई महत्त्वपूर्ण मध्यकालीन नगर बसे। भारत में गंगा पर फ़रक्का बांध बनाया गया, ताकि गंगा-पद्मा नदी का  पानी अपक्षय होती भागीरथी-हुगली नदी की ओर मोड़ा जा सके, जिस पर कोलकाता पोर्ट कमिश्नर के कलकत्ता और हल्दिया बंदरगाह स्थित हैं। भागीरथी पर बहरामपुर में एक पुल बना है।भागीरथ की तपस्या के फलस्वरूप गंगा के अवतरण हुआ था । गंगा की धारा उत्तराखंड राज्य का  हरिद्वार , उत्तरप्रदेश के प्रयागराज में गंगा , यमुना और सरस्वती नदियों का संगम त्रिवेणी , मिर्जापुर जिले का विंध्याचल , वाराणसी के काशी का गंगा किनारे बाबा विश्वनाथ की नगरी में  मोक्षदायिनी गंगा प्रवाहित , बिहार के सुल्तानगंज , पटना गंगा किनारे अवस्थित है । गंगा को  त्रिपथगा ,  दिव्या , जाह्नवी , भागीरथी , मोक्षदायिनी कहा गया है । भागीरथीति च त्रीन्पथो भावयन्तीति तस्मान् त्रिपथगा स्मृता ।। सूर्यवंशीय राजा हरिश्चंद्र के पुत्र रोहित वंशीय  बाहुक का शत्रुओं द्वारा राज्य छीन लेने के बाद  अपनी पत्नी सहित वन चला गया। वन में बुढ़ापे के कारण उसकी मृत्यु हो गयी। बाहुक के गुरु  ओर्व ने राजा बाहुक की पत्नी को सती नहीं होने दिया था । उसकी सौतों को ज्ञात हुआ तो उन्होंने उसे विष दे दिया। विष का गर्भ पर  प्रभाव नहीं पड़ा। बालक विष (गर) के साथ ही उत्पन्न होने के कारण 'स+गर= सगर कहलाया था ।सगर का विवाह  सुमति और केशनी के साथ  हुआ था । सुमति- सुमति के गर्भ से एक तूंबा निकला जिसके फटने पर साठ हज़ार पुत्रों का जन्म हुआ। केशिनी- जिसके असमंजस  पुत्र हुआ। सगर ने अश्वमेध यज्ञ किया। इन्द्र ने उसके यज्ञ का घोड़ा चुरा लिया तथा तपस्वी कपिल के पास ले जाकर खड़ा किया। उधर सगर ने सुमति के पुत्रों को घोड़ा ढूंढ़ने के लिए भेजा। साठ हज़ार राजकुमारों को कहीं घोड़ा नहीं मिला था । उन्होंने सब ओर से पृथ्वी खोद डाली। पूर्व-उत्तर दिशा में कपिल मुनि के पास घोड़ा देखकर उन्होंने शस्त्र उठाये और मुनि को बुरा-भला कहते हुए उधर बढ़े। फलस्वरूप उनके अपने ही शरीरों से आग निकली जिसने उन्हें भस्म कर दिया। केशिनी के पुत्र का नाम असमंजस तथा असमंजस के पुत्र का नाम अंशुमान था। असमंजस पूर्वजन्म में योगभ्रष्ट हो गया था, उसकी स्मृति खोयी नहीं थी । असमंजस  सबसे विरक्त रह विचित्र कार्य करता रहा था। एक बार उसने बच्चों को सरयू में डाल दिया। पिता ने रुष्ट होकर उसे त्याग दिया। उसने अपने योगबल से बच्चों को जीवित कर दिया तथा स्वयं वन चला गया। यह देखकर सबको बहुत पश्चात्ताप हुआ। राजा सगर ने अपने पौत्र अंशुमान को घोड़ा खोजने भेजा। वह ढूंढ़ता-ढूंढ़ता कपिल मुनि के पास पहुंचा। उनके चरणों में प्रणाम कर उसने विनयपूर्वक स्तुति की। कपिल से प्रसन्न होकर उसे घोड़ा दे दिया तथा कहा कि भस्म हुए चाचाओं का उद्धार गंगाजल से होगा। अंशुमान ने जीवनपर्यंत तपस्या की किंतु वह गंगा को पृथ्वी पर नहीं ला पाया। तदनंतर उसके पुत्र दिलीप ने  असफल तपस्या की। दिलीप के पुत्र भगीरथ के तप से प्रसन्न होकर गंगा ने पृथ्वी पर आना स्वीकार किया। गंगा के वेग को शिव ने अपनी जटाओं में संभाला। भगीरथ के पीछे-पीछे चलकर गंगा समुद्र तक पहुंची। भागीरथ के द्वारा गंगा को पृथ्वी पर लाने के कारण यह भागीरथी कहलाई। समुद्र-संगम पर पहुंचकर उसने सगर के पुत्रों का उद्धार किया था ।
 उत्तराखण्ड राज्य का गढ़वाल मण्डल के ज़िले के चमोली, रुद्रप्रयाग, पौड़ी गढ़वाल , सतोपंथ हिमानी और भागीरथी खरक हिमानी का संगमस्थल ऊँचाई 3,880 मी॰ (12,730 फीट)  से अलकनंदा नदी प्रवाहित है । देवप्रयाग में  ऊँचाई 475 मी॰ (1,558 फीट)लम्बाई195 कि॰मी॰ (121 मील) , जलसम्भर आकार10,882 कि॰मी2 (1.1713×1011 वर्ग फुट) प्रवाह  • औसत439.36 m3/s (15,516 घन फुट/सेकंड) जलसम्भर अलकनंदा नदी में सरस्वती नदी , धौली गंगा ,, नंदाकिनी ,  पिण्डार नदी प्रवाहित है ।  गंगोत्री में गंगा को भागीरथी के नाम से जाना जाता है । केदारनाथ में मंदाकिनी और बद्रीनाथ में अलकनन्दा नदी है ।यह उत्तराखंड में संतोपंथ और भगीरथ खरक नामक हिमनदों से निकलती है। यह स्थान गंगोत्री कहलाता है। अलकनंदा नदी घाटी में लगभग 195 किमी तक बहती है। देव प्रयाग में अलकनंदा और भागीरथी का संगम होता है और इसके बाद अलकनंदा नाम समाप्त होकर केवल गंगा नाम रह जाता है।[2] अलकनंदा चमोली रुद्रप्रयाग टिहरी और पौड़ी जिलों से होकर गुज़रती है।.[3] गंगा के पानी में इसका योगदान भागीरथी से अधिक है। हिंदुओं का प्रसिद्ध तीर्थस्थल बद्रीनाथ अलखनंदा के तट पर ही बसा हुआ है। राफ्टिंग इत्यादि साहसिक नौका खेलों के लिए यह नदी बहुत लोकप्रिय है। तिब्बत की सीमा के पास केशवप्रयाग स्थान पर यह आधुनिक सरस्वती नदी से मिलती है। केशवप्रयाग बद्रीनाथ से कुछ ऊँचाई पर स्थित है। अलकनन्दा नदी कहीं बहुत गहरी, तो कहीं उथली है, नदी की औसत गहराई ५ फुट (१.३ मीटर) और अधिकतम गहराई १४ फीट (४.४ मीटर) है।अलकनंदा की पाँच सहायक नदियाँ हैं जो गढ़वाल क्षेत्र में ५ अलग अलग स्थानों पर अलकनंदा से मिलकर पंच प्रयाग बनाती हैं। ये हैं:(केशवप्रयाग) यह स्थान सरस्वती और अलकनंदा नदी का संगम स्थान है। सरस्वती नदी देवताल झील से निकलती हुई माना में अलकनंदा नदी में मिलने से विष्णु प्रयाग , बद्रीनाथ के समीप नीलकंठ पर्वत से प्रवाहित होने वाली  ऋषिगंगा अलकनंदा नदी में मिलने पर ऋषि संगम , हेमकुंड से उत्पन्न लक्ष्मण गंगा गोविंदघाट में  अलकनंदा से मिलती है । केशव  प्रयाग में धौलागिरि श्रेणी का कुंलुग से प्रवाहित  पश्चिमीधौली गंगा अलकनंदा से मिलती है। विष्णु प्रयाग तक धोलीगंगा की कुल लंबाई 94 km है।  त्रिशूल पर्वत का नंदाधूंगति से प्रवाहित नंदाकिनी नदी  अलकनंदा से मिलने से नंदप्रयाग , पिंडारी ग्लेशियर से निकली पिंडर नदी  कर्ण प्रयाग में  अलकनंदा से मिलती है। पिंडर नदी का  नाम कर्णगंगा है।पिंडर की प्रमुख सहायक नदी आटागाड़ है।कर्णप्रयाग तक पिंडर नदी की कुल लंबाई 105 km है। रूद्र प्रयाग में  मंदराचल पर्वत से प्रवाहित होनेवाली मंदाकिनीनदी  अलखनंदा से मिलती है। यह अलकनंदा की सबसे बड़ी सहायक नदी है।  मंदाकिनी में  मधुगंगा,वाशुकी और सोनगंगा मंदाकनी नदी में मिलती है । रुद्रप्रयाग तक मंदाकिनी की कुल लंबाई 72km है। देव प्रयाग में  भागीरथी अलखनंदा से मिलती है। देवप्रयाग टिहरी जिले में  अलकनंदा नदी को बहु कहा जाता है।देवप्रयाग तक अलकनंदा नदी की कुल लंबाई 195 km है। अलकनंदा नदी का प्रवाह उत्तराखंड के  चमोली ,रुद्रप्रयाग तथा पौड़ी जिलों  में होता है। उत्तराखण्ड राज्य का गढ़वाल मंडल के रुद्रप्रयाग जिले के केदारनाथ के समीप चारबाड़ी हिमानी 12779 फीट ऊँचाई अर्थात 3895 मी . से मंदाकिनी नदी प्रवाहित है । निर्देशांक - 30°17′16″N 78°58′44″E / 30.28778°N 78.97889°E , लम्बाई  81.3 कि॰मी॰ , (50.5 मील) जलसम्भर आकार1,646 कि॰मी2 (636 वर्ग मील) जलसम्भर लक्षण मन्दाकिनी नदी भारत के उत्तराखण्ड राज्य  केदारनाथ के समीप चारबाड़ी से  बहने वाली  हिमनदी है। मंदाकिनी नदी में वासुगंगा नदी संगम स्थल सोनप्रयाग से प्रवाहित होती हुई  रुद्रप्रयाग में मन्दाकिनी नदी अलकनन्दा नदी में मिल जाती है। उसके बाद अलकनन्दा नदी वहाँ से बहती हुई देवप्रयाग की ओर बढ़ती है, जहाँ बह भागीरथी नदी से मिलकर गंगा नदी का निर्माण करती है। मंदाकिनी नदी को "मन्द" ,  "शिथिल" और "धीमा" नदी कहा जाता है । भारतीय संस्कृति में भगरीथी गंगा , अलकनंदा गंगा  और मंदाकनी गंगा पवित्र है ।

जीवों के नाथ पशुपति नाथ....


नेपाल की राजधानी काठमांडू से तीन कि. मि. दूरी पर देवपाटन स्थित बागमती नदी के किनारे  यूनेस्को की  विश्व धरोहर में पशुपतिनाथ मंदिर है । विश्व में नेपाल का काठमांडू और भारत का मंदसौर में पशुपति नाथ मन्दिर है ।
 संसार के समस्त जीवों के स्वामी पशुपतिनाथ है । वेद की रचना के पूर्व पशुपतिनाथ लिंग  स्थापित हो गया था।  काठमांडू घाटी के प्राचीन शासकों के अधिष्ठाता देवता तथा पाशुपत संप्रदाय द्वारा पशुपतिनाथ मंदिर का निर्माण सोमदेव राजवंश के पशुप्रेक्ष ने तीसरी सदी ईसा पूर्व में कराया था। 605 ई. में अमशुवर्मन ने भगवान पशुपतिनाथ के चरण छूकर अपने को अनुग्रहीत किया  था।  मंदिर का पुन: निर्माण  11वीं सदी में किया गया था। 17वीं सदी में इसका पुनर्निर्माण किया गया।  मंदिरों निर्माण  में भक्तपुर (1480), ललितपुर (1566) और बनारस 19वीं शताब्दी शामिल हैं। पशुपतिनाथ का मूल मंदिर कई बार नष्ट हुआ है। मंदिर का पुनर्निर्माण  नरेश भूपलेंद्र मल्ला ने 1697 में प्रदान किया। अप्रैल 2015 में आए विनाशकारी भूकंप में पशुपतिनाथ मंदिर के विश्व विरासत स्थल की कुछ बाहरी इमारतें पूरी तरह नष्ट हो गयी थी परंतु पशुपतिनाथ का मुख्य मंदिर और मंदिर की गर्भगृह को किसी भी प्रकार की क्षति नहीं हुई थी। पशुपतिनाथ मंदिर में स्थित पशुपतिनाथ की सेवा करने के लिए 1747 से  नेपाल के राजाओं ने भारतीय ब्राह्मणों को आमंत्रित किया था। माल्ल राजवंश' के  राजा ने दक्षिण भारतीय ब्राह्मण को मंदिर का प्रधान पुरोहित नियुक्त कर दिया। दक्षिण भारतीय भट्ट ब्राह्मण मंदिर के प्रधान पुजारी नियुक्त होते रहे थे। मंदिर परिसर का भ्रमण करने के लिए 90 से 120 मिनट का समय लगता है। नेपाल में पशुपतिनाथ का मंदिर में भगवान शिव की एक पांच मुख पशुपतिनाथ विग्रह में चारों दिशाओं में एक मुख और एकमुख ऊपर की ओर है। प्रत्येक मुख के दाएं हाथ में रुद्राक्ष की माला और बाएं हाथ में कमंदल मौजूद है। पशुपतिनाथ मंदिर का ज्योतिर्लिंग पारस पत्थर के समान है। पशुपतिनाथ का  पूर्व दिशा की ओर वाले मुख को तत्पुरुष और पश्चिम की ओर वाले मुख को सद्ज्योत , उत्तर दिशा की ओर वाले मुख को वामवेद या अर्धनारीश्वर और दक्षिण दिशा वाले मुख को अघोरा कहते हैं। मुख ऊपर को  ईशान मुख कहा जाता है। मंदिर में भगवान शिव की मूर्ति तक पहुंचने के चार  दरवाजे चांदी के हैं। पश्चिमी द्वार की ठीक सामने शिव जी के बैल नंदी की विशाल प्रतिमा का निर्माण पीतल से किया गया है। इस परिसर में वैष्णव और शैव परंपरा के कई मंदिर और प्रतिमाएं है। पशुपतिनाथ मंदिर को शिव के 12 ज्योतिर्लिंगों में  केदारनाथ मंदिर का आधा भाग माना जाता है।  मंदिर हिंदू और बौद्ध वास्तुकला का  पगोडा शैली का मंदिर सुरक्षित आंगन में स्थित 264 हेक्टर क्षेत्र में फैला हुआ है, जिसमें 518 मंदिर और स्मारक सम्मिलित है। मंदिर की द्वी स्तरीय छत का निर्माण तांबे पर  सोने की परत चढाई गई है। मंदिर वर्गाकार के एक चबूतरे पर सोने का  शिखर को गजुर तक की ऊंचाई 23 मि. 7 से.मि. है। मंदिर  परिसर के भीतर दो गर्भगृह में भीतर और दुसरी बाहर। भीतरी गर्भगृह में शिव की प्रतिमा को स्थापित किया गया है । पशुपतिनाथ मंदिर के  परिसर में  वासुकि नाथ मंदिर, उन्मत्ता भैरव मंदिर, सूर्य नारायण मंदिर, कीर्ति मुख भैरव मंदिर, बूदानिल कंठ मंदिर हनुमान मूर्ति, और 184 शिवलिंग मूर्तियां प्रमुख रूम से मौजूद है जबकि बाहरी परिसर में राम मंदिर, विराट स्वरूप मंदिर, 12 ज्योतिर्लिंग और पंद्र शिवालय गुह्येश्वरी  हैं। पशुपतिनाथ मंदिर के बाहर आर्य घाट के पानी को मंदिर के भीतर ले जाए जाने का प्रावधान है। 
पुरणों एवं नेपाली धर्मग्रंथों  के अनुसार भगवान शिव यहां पर चिंकारे का रूप धारण कर निद्रा में चले बैठे थे। जब देवताओं ने उन्हें खोजा और उन्हें वाराणसी वापस लाने का प्रयास किया तो उन्होंने नदी के दूसरे किनारे पर छलांग लगा दी। कहा जाता हैं इस दौरान उनका सींग चार टुकडों में टूट गया था। इसके बाद भगवान पशुपति चतुर्मुख लिंग के रूप में यहां प्रकट हुए थे।शिवलिंग को एक चरवाहे द्वारा खोजा गया था जिसकी गाय का अपने दूध से अभिषेक कर शिवलिंग के स्थान का पता लगाया था। भारत के उत्तराखंड राज्य से जुडी एक पौराणिक कथा से है। इस कथा के अनुसार इस मंदिर का संबंध केदारनाथ मंदिर से है। कहा जाता है जब पांडवों को स्वर्गप्रयाण के समय शिवजी ने भैंसे के स्वरूप में दर्शन दिए थे जो बाद में धरती में समा गए लेकिन पूर्णतः समाने से पूर्व भीम ने उनकी पुंछ पकड़ ली थी। 
 महाभारत युद्घ में विजय के बाद पांण्डव अपने गुरूजनों और सगे संबंधियों को मारने के बाद दुखी थे और अपने पापों से मुक्ती चाहते थे। वे भगवान श्री कृष्ण के पास गए और अपने पापों से मुक्ति का उपाय पूछा । तब भगवान श्री कृष्ण ने उनसे कहा कि भगवान शिव ही आपको पापों से मुक्त कर सकते हैं।  भगवान श्री कृष्ण के कहने पर पांण्डव शिव जी को मनाने चल पड़े। पांण्डवों द्वारा अपने गुरूओं एवं सगे-संबंधियों का वध किये जाने से भगवान शिव जी पांण्डवों से नाराज हो गये थे । गुप्त काशी में पांण्डवों को देखकर भगवान शिव वहां से विलीन हो गये और उस स्थान पर पहुंच गये जहां पर वर्तमान में केदारनाथ स्थित है। लेकिन पांण्डव भगवान शिव को हर हाल में मनाना चाहते थे। शिव जी का पीछा करते हुए पांण्डव केदारनाथ पहुंच गये। इस स्थान पर पांण्डवों को आया हुए देखकर भगवान शिव ने एक बैल का रूप धारण किया और इस क्षेत्र में चर रहे बैलों के झुंण्ड में शामिल हो गये। पांण्डवों ने बैलों के झुंण्ड में भी शिव जी को पहचान लिया तो शिव जी बैल के रूप में ही धरती में समाने लगे। भगवान शिव को बैल के रूप में धरती में समाता देख भीम ने कमर से कसकर पकड़ लिया।  पांण्डवों की सच्ची श्रद्धा को देख भगवान शिव प्रकट हुए और पांण्डवों को पापों से मुक्त कर दिया। इस बीच बैल बने शिव जी का सिर काठमांडू स्थित पशुतिनाथ में पहुंच गया। इसलिए केदारनाथ और पशुपतिनाथ को मिलाकर एक ज्योर्तिलिंग भी कहा जाता है। केदरनाथ में बैल के पीठ रूप में शिवलिंग की पूजा होती है जबकि पशुपतिनाथ में बैल के सिर के रूप में शिवलिंग को पूजा जाता है। नेपाल स्थित पशुपतिनाथ का दर्शन एवं उपासना करने वाले व्यक्ति पशुपति नाथ के दर्शन करता है उसका जन्म  पशु योनी में नहीं होता है। मान्यता यह भी है कि इस मंदिर में दर्शन के लिए जाते समय भक्तों को मंदिर के बाहर स्थित नंदी के दर्शन पहले नहीं करने चाहिए। व्यक्ति पहले नंदी के दर्शन करता है बाद में शिवलिंग का दर्शन करता है उसे अगले जन्म पशु योनी मिलती है।  स्थानीय ग्रंथों के अनुसार, विशेष तौर पर नेपाल महात्म्य और हिमवतखंड के अनुसार भगवान शिव एक बार वाराणसी के अन्य देवताओं को छोड़कर बागमती नदी के किनारे स्थित मृगस्थली चले गए, जो बागमती नदी के दूसरे किनारे पर जंगल में है। भगवान शिव वहां पर चिंकारे का रूप धारण कर निद्रा में चले गए।  जब देवताओं ने उन्हें खोजा और उन्हें वाराणसी वापस लाने का प्रयास किया तो उन्होंने नदी के दूसरे किनारे पर छलांग लगा दी। कहते हैं इस दौरान उनका सींग चार टुकडों में टूट गया। इसके बाद भगवान पशुपति चतुर्मुख लिंग के रूप में प्रकट हुए ।पशुपतिनाथ लिंग विग्रह में चार दिशाओं में चार मुख और ऊपरी भाग में पांचवां मुख है। प्रत्येक मुखाकृति के दाएं हाथ में रुद्राक्ष की माला और बाएं हाथ में कमंडल है। प्रत्येक मुख अलग-अलग गुण प्रकट करता है। पहला मुख 'अघोर' मुख है, जो दक्षिण की ओर है। पूर्व मुख को 'तत्पुरुष' कहते हैं। उत्तर मुख 'अर्धनारीश्वर' रूप है। पश्चिमी मुख को 'सद्योजात' कहा जाता है। ऊपरी भाग 'ईशान' मुख के नाम से पुकारा जाता है। यह निराकार मुख है। यही भगवान पशुपतिनाथ का श्रेष्ठतम मुख है। पशुपतिनाथ धाम
में भगवान शिव के विभिन्न पंथों में पाशुपत सम्प्रदाय , अघोर सम्प्रदाय , लिंग सम्प्रदाय , नाथ सम्प्रदाय , वासव सम्प्रदाय का उपसंस केंद्र है ।


 

बुधवार, दिसंबर 15, 2021

भगवान दत्तात्रेय और माता अनुसूया....


स्मृतियों एवं पुरणों में त्रिदेव अर्थात दत्तात्रेय का उल्लेख किया गया है । महर्षि अत्रि की सहधर्मिणी सतीत्व के प्रतिमान रूप अनुसूया के पुत्र दत्तात्रेय  थे।  माँ अनुसूया ब्रह्मा, विष्णु, महेश की  पुत्र की प्राप्ति के लिए कड़े तप में लीन होने के कारण माता  सरस्वती, लक्ष्मी और पार्वती को जलन होने लगी थी ।माता सरस्वती ने भगवान ब्रह्मा ,माता लक्ष्मी ने भगवान विष्णु एवं माता पार्वती ने भगवान शिव से  कहा कि  भू लोक जाकर देवी अनुसुया की परीक्षा लें। ब्रह्मा, विष्णु और महेश संन्यासियों के वेश में अपनी जीवनसंगिनियों के कहने पर देवी अनुसुया की तप की परीक्षा लेने के लिए पृथ्वी लोक चले गए। अनुसुया के पास जाकर संन्यासी के वेश में गए त्रिदेव ने उन्हें भिक्षा देने को कहा, लेकिन उनकी  शर्त  थी। अनुसुया के पतित्व की परीक्षा लेने के लिए त्रिदेव ने उनसे कहा कि वह भिक्षा उनके सामान्य रूप में नहीं बल्कि अनुसुया की नग्न अवस्था में चाहिए। त्रिदेव की ये बात सुनकर अनुसुया पहले तो हड़बड़ा गईं लेकिन संभलकर उन्होंने मंत्र का जाप कर अभिमंत्रित जल उन तीनों संन्यासियों पर डाला।पानी की छींटे पड़ते ही ब्रह्मा, विष्णु, महेश तीनों ही शिशु रूप में बदल गए थे । शिशु रूप लेने के बाद अनुसुया ने उन्हें भिक्षा के रूप में स्तनपान करवाया। ब्रह्मा, विष्णु, महेश के स्वर्ग वापस ना लौट पाने की वजह से उनकी पत्नियां चिंतित हो गईं और स्वयं देवी अनुसुया के पास आईं। सरस्वती, लक्ष्मी, पार्वती ने उनसे आग्रह किया कि वे उन्हें उनके पति सौंप दें। अनुसुया और उनके पति ने तीनों देवियों की बात मान ली किन्तु अनुसूया ने कहा "कि त्रिदेवों ने मेरा स्तनपान किया है इसलिए किसी ना किसी रूप में इन्हें मेरे पास रहना होगा अनुसुया की बात मानकर त्रिदेवों ने उनके गर्भ में दत्तात्रेय , दुर्वासा और चंद्रमा रूपी अपने अवतारों को स्थापित कर दिया , जिनमें दतात्रेय तीनों देवों के अवतार थे । दत्तात्रेय का शरीर तो एक , तीन सिर और छ: भुजाएं थीं। विशेष रूप से दत्तात्रेय को विष्णु का अवतार माना जाता  है । ब्रह्मा ब्रह्मलोक में ध्यान में लीन थे की तभी भगवान शंकर वहां पधारे वे ब्रह्मा का ध्यान टूटने का इंतजार करने लगे किन्तु ब्रह्मदेव ने अपने नेत्र नहीं खोले भगवान शिव की शांति का बांध टूटने लगा उन्होंने अपने डमरू से भी ब्रह्मदेव को जगाने का प्रयास किया किन्तु उनका ध्यान ही नहीं टूटा भगवान ब्रह्मा की जब आखें खुली तब उन्होंने शिवजी से माफ़ी मांगी किन्तु शिवजी को शांत नहीं कर सके उन्होंने भगवान सत्यनारायण का ध्यान किया जिससे भगवान विष्णु ने उनके क्रोध को शांत किया किन्तु उनका अंश आधे से ज्यादा नष्ट हो चुका था | तब देवी अनुसूया ने जब तीनों में से दो शिशु अर्थात् चंद्रदेव और दुर्वासा को जन्म दिया ( दुर्वासा सबसे बड़े और चंद्रमा दूसरे स्थान के पुत्र थे ) जब तीसरे शिशु ( अर्थात् दतात्रेय ) का जन्म नहीं हुआ किन्तु अनुसूया को प्रसव पीड़ा होती रही तब ब्रह्मा जी और शिवजी को सारी बात समझ आ गई तब उन्होंने अपने कुछ अंश भेजे जिससे दतात्रेय के गर्भ में ही तीन सिर और छ: भुजाएँ हो गई | दत्तात्रेय के भाई चंद्र देव और ऋषि दुर्वासा थे। चंद्रमा को ब्रह्मा और ऋषि दुर्वासा को शिव का रूप ही माना जाता है।जिस दिन दत्तात्रेय का जन्म हुआ । राजा यदु ने दत्तात्रेय से गुरु का नाम पूछने पर भगवान दत्तात्रेय ने कहा : "आत्मा  मेरा  गुरुओं  में १) पृथ्वी , २) जल ,३) वायु ,४) अग्नि ,५) आकाश ,६) सूर्य ,७) चन्द्रमा ,८) समुद्र, ९) अजगर ,१०) कपोत ,११) पतंगा ,१२) मछली ,१३) हिरण ,१४) हाथी ,१५) मधुमक्खी ,१६) शहद निकालने वाला१७) कुरर पक्षी ,१८) कुमारी कन्या ,१९) सर्प ,२०) बालक ,२१) पिंगला वैश्या ,२२) बाण बनाने वाला ,२३) मकड़ी २४) भृंगी कीट हैं ।आदिशंकराचार्य के अनुसार भगवान दत्तात्रेय :- आदौ ब्रह्मा मध्ये विष्णुरन्ते देवः सदाशिवः , मूर्तित्रयस्वरूपाय दत्तात्रेयाय नमोस्तु ते। ब्रह्मज्ञानमयी मुद्रा वस्त्रे चाकाशभूतले , प्रज्ञानघनबोधाय दत्तात्रेयाय नमोस्तु ते।।"यथा - "जो आदि में ब्रह्मा, मध्य में विष्णु तथा अन्त में सदाशिव है, उन भगवान दत्तात्रेय को बारम्बार नमस्कार है। ब्रह्मज्ञान जिनकी मुद्रा है, आकाश और भूतल जिनके वस्त्र है तथा जो साकार प्रज्ञानघन स्वरूप है, उन भगवान दत्तात्रेय को बारम्बार नमस्कार है।" भगवान दत्तात्रेय ब्रह्मा-विष्णु-महेश के अवतार माने जाते हैं।भगवान शंकर का साक्षात रूप महाराज दत्तात्रेय में मिलता है और तीनो ईश्वरीय शक्तियों से समाहित महाराज दत्तात्रेय की आराधना बहुत ही सफल और जल्दी से फल देने वाली है। महाराज दत्तात्रेय आजन्म ब्रह्मचारी, अवधूत और दिगम्बर रहे थे।दत्तात्रेय के अवतार में श्रीपाद वल्लभ , नृसिंह सरस्वती , स्वामी समर्थ ,मणिक प्रभु है । दत्तात्रेय  का दत्तात्रेय सम्प्रदाय या दत्त सम्प्रदाय मानवोचित तथा सर्वांगीण विकास के लिए दत्त संस्कृति का  प्रभाव महाराष्ट्र, कर्नाटक  ,गिरनार ,भटगाव- नेपाल ,श्रीचांगदेव ,राऊळ माहूर ,गाणगापूर ,नृसिंहवाडी ,अक्कलकोट ,गरुडेश्वर ,विजापूर ,कडगंची ,सायंदेव,दत्तक्षेत्र ,कर्नाटक ,कोल्हापूर ,माणिकनगर ,बीदर ,चौल ,अष्टे ,खामगाव - बुलढाणा ,अंबेजोगाई ,सांखळी (गोवा) और नारेश्वर का क्षेत्र में है ।भगवान विष्णु के 24 अवतारों में छठे अवतार मार्गशीर्ष शुक्ल पूर्णिमा मृगशिरा नक्षत्र को भगवान दत्तात्रेय में भगवान ब्रह्मा, विष्णु और महेश  की शक्तियां समाहित हैं। दत्तात्रेय जी ने 24 गुरुओं से शिक्षा प्राप्त की थी और इन्हीं के नाम पर ही दत्त समुदाय का उदय हुआ। दक्षिण भारत में  प्रसिद्ध मंदिर है। पुरणों के अनुसार  के अनुसार, एक बार तीन देवियों को अपने सतीत्व यानी पतिव्रता धर्म पर अभिमान हो गया। तब भगवान विष्णु ने लीला रची। तब नारद जी ने तीनों लोकों का भ्रमण करते हुए देवी सरस्वती, लक्ष्मी और पार्वती जी के समक्ष अनसूया के पतिव्रता धर्म की प्रशंसा कर दी। इस पर तीनों देवियों ने अपने पतियों से अनसूया के पतिधर्म की परीक्षा लेने का हठ किया । तब त्रिदेव ब्राह्मण के वेश में महर्षि अत्रि के आश्रम पहुंचे, तब महर्षि अत्रि घर पर नहीं थे। तीन ब्राह्मणों को देखकर अनसूया उनके पास गईं। वे उन ब्राह्मणों का आदरसत्कार करने के लिए आगे बढ़ी तब उन ब्राह्मणों ने कहा कि जब तक वे उनको अपनी गोद में बैठाकर भोजन नहीं कराएंगी, तब तक वे उनकी आतिथ्य स्वीकार नहीं करेंगे। उनके इस शर्त से अनसूया चिंतित हो गईं। फिर उन्होंने अपने तपोबल से उन ब्राह्मणों की सत्यता जान गईं। भगवान विष्णु और अपने पति अत्रि को स्मरण करने के बाद उन्होंने कहा कि यदि उनका पतिव्रता धर्म सत्य है तो से तीनों ब्राह्मण 6 माह के शिशु बन जाएं। अनसूया ने अपने तपोबल से त्रिदेवों को शिशु बना दिया। शिशु बनते ही तीनों रोने लगे।तब अनसूया ने उनको अपनी गोद में लेकर दुग्धपान कराया और उन तीनों को पालने में रख दिया। उधर तीनों देवियां अपने पतियों के वापस न आने से चिंतित हो गईं। तब नारद जी ने उनको सारा घटनाक्रम बताया। इसके पश्चात तीनों देवियों को अपने किए पर बहुत ही पश्चाताप हुआ। उन तीनों देवियों ने अनसूया से क्षमा मांगी और अपने पतियों को मूल स्वरूप में लाने का निवेदन किया। महर्षि अत्रि की सहधर्मिणी सतीत्व के प्रतिमान रूप अनुसूया के पुत्र दत्तात्रेय  थे।  माँ अनुसूया ब्रह्मा, विष्णु, महेश की  पुत्र की प्राप्ति के लिए कड़े तप में लीन हो गईं, जिससे तीनों देवों की अर्धांगिनियां सरस्वती, लक्ष्मी और पार्वती को जलन होने लगी।तीनों ने अपनी पतियों से कहा कि वे भू लोक जाएं और वहां जाकर देवी अनुसुया की परीक्षा लें। ब्रह्मा, विष्णु और महेश संन्यासियों के वेश में अपनी जीवनसंगिनियों के कहने पर देवी अनुसुया की तप की परीक्षा लेने के लिए पृथ्वी लोक चले गए। अनुसुया के पास जाकर संन्यासी के वेश में गए त्रिदेव ने उन्हें भिक्षा देने को कहा, लेकिन उनकी एक शर्त भी थी। अनुसुया के पतित्व की परीक्षा लेने के लिए त्रिदेव ने उनसे कहा कि वह भिक्षा मांगने आए हैं लेकिन उन्हें भिक्षा उनके सामान्य रूप में नहीं बल्कि अनुसुया की नग्न अवस्था में चाहिए। अर्थात देवी अनुसुया उन्हें तभी भिक्षा दे पाएंगी, जब वह त्रिदेव के समक्ष नग्न अवस्था में उपस्थित हों।त्रिदेव की ये बात सुनकर अनुसुया पहले तो हड़बड़ा गईं लेकिन फिर थोड़ा संभलकर उन्होंने मंत्र का जाप कर अभिमंत्रित जल उन तीनों संन्यासियों पर डाला।पानी की छींटे पड़ते ही ब्रह्मा, विष्णु, महेश तीनों ही शिशु रूप में बदल गए। शिशु रूप लेने के बाद अनुसुया ने उन्हें भिक्षा के रूप में स्तनपान करवाया। ब्रह्मा, विष्णु, महेश के स्वर्ग वापस ना लौट पाने की वजह से उनकी पत्नियां चिंतित हो गईं और स्वयं देवी अनुसुया के पास आईं। सरस्वती, लक्ष्मी, पार्वती ने उनसे आग्रह किया कि वे उन्हें उनके पति सौंप दें। अनुसुया और उनके पति ने तीनों देवियों की बात मान ली किन्तु अनुसूया ने कहा "कि त्रिदेवों ने मेरा स्तनपान किया है इसलिए किसी ना किसी रूप में इन्हें मेरे पास रहना होगा अनुसुया की बात मानकर त्रिदेवों ने उनके गर्भ में दत्तात्रेय , दुर्वासा और चंद्रमा रूपी अपने अवतारों को स्थापित कर दिया , जिनमें दतात्रेय तीनों देवों के अवतार थे । दत्तात्रेय का शरीर तो एक था लेकिन उनके तीन सिर और छ: भुजाएं थीं। विशेष रूप से दत्तात्रेय को विष्णु का अवतार माना जाता  है । ब्रह्मा ब्रह्मलोक में ध्यान में लीन थे की तभी भगवान शंकर वहां पधारे वे ब्रह्मा का ध्यान टूटने का इंतजार करने लगे किन्तु ब्रह्मदेव ने अपने नेत्र नहीं खोले भगवान शिव की शांति का बांध टूटने लगा उन्होंने अपने डमरू से भी ब्रह्मदेव को जगाने का प्रयास किया किन्तु उनका ध्यान ही नहीं टूटा भगवान ब्रह्मा की जब आखें खुली तब उन्होंने शिवजी से माफ़ी मांगी किन्तु शिवजी को शांत नहीं कर सके उन्होंने भगवान सत्यनारायण का ध्यान किया जिससे भगवान विष्णु ने उनके क्रोध को शांत किया किन्तु उनका अंश आधे से ज्यादा नष्ट हो चुका था | तब देवी अनुसूया ने जब तीनों में से दो शिशु अर्थात् चंद्रदेव और दुर्वासा एवं  दतात्रेय ) का जन्म  हुआ । अनुसूया को प्रसव पीड़ा होती रही तब ब्रह्मा जी और शिवजी को सारी बात समझ आ गई तब उन्होंने अपने कुछ अंश भेजे जिससे दतात्रेय के गर्भ में ही तीन सिर और छ: भुजाएँ हो गई | दत्तात्रेय के अन्य दो भाई चंद्र देव और ऋषि दुर्वासा थे। चंद्रमा को ब्रह्मा और ऋषि दुर्वासा को शिव का रूप ही माना जाता है।जिस दिन दत्तात्रेय का जन्म हुआ । हिन्दू धर्म के लोग दत्तात्रेय जयंती के तौर पर मनाते हैं ।

सोमवार, दिसंबर 06, 2021

हीनयान और महायान सूत्र के प्रवर्तक सारिपुत्र ...


महायान सूत्रों का प्रणेता एवं हीनयान विद्यालयों का प्रतिरूप सारिपुत्र को शारिपुत्र ; सारिपुत्त , लिट कहा जाता है । सारिपुत्र  की बुद्ध के मंत्रालय में महत्वपूर्ण नेतृत्व भूमिका एवं बौद्ध विद्यालयों में बौद्ध अभिधर्म के विकास में महत्वपूर्ण माना जाता है । सारिपुत्र का जन्म बिहार का नालंदा जिले के राजगीर अनुमंडल का नालंदा निवासी वैदिक धर्म के महान ज्ञाता ब्राह्मण वांगंता की पत्नी सारी के गर्भ से  जन्म हुआ था । नालंदा को नालका , उपतिय्य , उपतिसा कहा जाता है ।बौद्ध साहित्य में सारिपुत्र के पिता वांगंता को तिस्या , और माता को सारी , साड़ी , सारस्वत कहा जाता है ।सारिपुत्र को शिन ,पिनयिन शरीहोत्सु, सर्षि , सर्बुल ,शा री बू सेलिफ्यू   कहा गया है । बौद्ध ग्रंथों के अनुसार  सारिपुत्र और मौद्गल्यायन  युवावस्था में आध्यात्मिक पथिक बन गए थे।  सारिपुत्र को दो सप्ताह के बाद एक अर्हत के रूप में ज्ञान प्राप्त हुआ था । बुद्ध से कुछ समय पूर्व  सारिपुत्र का निधन के जेतवन मठ वर्तमान गया जिले का  जेठीयन  में होने के बाद  अंतिम संस्कार किया गया था। सारिपुत्र का अवशेष जेतवन मठ में विराजमान थे । 1800 ई. के पुरातात्विक वेतावों के अनुसार सारिपुत्र का  अवशेष बाद के राजाओं द्वारा भारतीय उपमहाद्वीप में पुनर्वितरित किए गए होंगे।थेरवाद बौद्ध धर्म में सारिपुत्र को दूसरे बुद्ध का दर्जा दिया गया था ।  बुद्ध के प्रमुख पुरुष शिष्य सारिपुत्र और मौद्गल्यायन तथा  महिला शिष्या क्षेम और उत्पलवर्ण थे । जर्मन बौद्ध विद्वान और भिक्षु न्यानापोनिका थेरा के अनुसार बुद्ध द्वारा दो प्रमुख शिष्यों का चयन करते हैं, प्रत्येक शिष्य के विशिष्ट कौशल के अनुसार जिम्मेदारियों को संतुलित करना है। पाली कैनन के अनुसार  सारिपुत्र का जन्म ब्राह्मणी  शारदा के गर्भ से उत्पन्न हुआ था । उस समय, शारदा और उनके अनुयायियों को पिछले बुद्ध, अनोमदस्सी ने दौरा किया था , और उन्हें अनोमदस्सी बुद्ध और उनके प्रमुख शिष्यों द्वारा एक धर्मोपदेश दिया गया था। अनोमदस्सी बुद्ध के पहले मुख्य शिष्य निसभा के उपदेश को सुनकर, शारदा प्रेरित हो गए और भविष्य के बुद्ध के पहले मुख्य शिष्य बनने का संकल्प लिया । फिर उन्होंने अनोमदस्सी बुद्ध के सामने यह इच्छा व्यक्त की, जिन्होंने भविष्य में देखा और फिर घोषणा की कि उनकी आकांक्षा पूरी होगी। भविष्यवाणी सुनकर, शारदा अपने करीबी मित्र  सिरिवादन के पास गए और उनसे उसी बुद्ध के दूसरे प्रमुख शिष्य बनने का संकल्प करने को कहने के बाद सिरिवादन ने अनोमदस्सी बुद्ध और उनके अनुयायियों को एक बड़ी भेंट दी एवं अनोमदस्सी बुद्ध ने भविष्य की ओर देखा और घोषणा की कि सिरिवर्धन की आकांक्षा पूरी होगी।  बौद्ध कथा के अनुसार, गौतम बुद्ध के समय में शारदा का सारिपुत्र के रूप में पुनर्जन्म होने और सिरिवादन के मौद्गल्यायन के रूप में पुनर्जन्म होने के समय में यह आकांक्षा सच हो गई थी। बौद्ध ग्रंथों के अनुसार सारिपुत्र का जन्म मगध साम्राज्य के राजगीर के समीप  नालंदा ( उपतिय्या , उपतिसा ) में   ब्राह्मण परिवार में हुआ था । रवास्तिवाड़ा परंपरा के ग्रंथों एवं  थेरवाद परंपरा , चीनी बौद्ध तीर्थ फ़ाहियान द्वारा नलका में सारिपुत्र  के जन्म गांव को संदर्भित करता है । चीनी तीर्थयात्री ने सारिपुत्र का जन्म स्थान  कल्पिनक, कालापिनाका  के रूप में गांव को दर्शाता है। नलका को  को  सरिचक, चंडीमन ,  चंडीमऊ ,  नानन , नालंदा तथा  केशपा के रूप में पहचाना गया है । सारिपुत्र के  उपसेना, कुण्ड और रेवता  भाई और काल, उपकला और शिशुपाल  बहनें  बड़े होकर बुद्ध के अर्हत शिष्य बनें थे ।  पाली  के अनुसार उपतिष्य के पिता वांगन्त तथा मुलासरस्वतीवाद परंपरा के अनुसार तिस्या  , टिस्सा तथा उपतिष्य की मां सारि रूपारी, सारिका, या सारद्वती की आंखें सारिका पक्षी की तरह थीं।  सारि के पुत्र और शारदवती के पुत्र को सारिपुत्र कहा गया है । नालंदा मठ में सारिपुत्र को समर्पित स्तूप है । न्यानापोनिका थेरा के अनुसार  नालंदा  सारिपुत्र के जन्म और मृत्यु हुई थी । सारिपुत्र का जन्म 568 ई. पू. और निधन 484 ई. पू. में हुआ था । उपतिय्या का जन्म उसी दिन कोलिता (जिसे बाद में मौदगल्यायन के नाम से जाना गया ) के रूप में हुआ था , जो एक पड़ोसी गाँव का एक लड़का था, जिसका परिवार सात पीढ़ियों से उपतिय्या के परिवार से दोस्ती कर रहा था, और एक बच्चे के रूप में उसके साथ दोस्त बन गया। उपतिय्या और कोलिता दोनों अपनी शिक्षा के माध्यम से वेदों के स्वामी बन गए और प्रत्येक ने ब्राह्मण युवाओं का एक बड़ा अनुयायी विकसित किया । एक दिन यह अहसास कि जीवन अनित्य है, राजगृह में एक उत्सव के दौरान दो दोस्तों को पछाड़ दिया और उनमें आध्यात्मिक तात्कालिकता की भावना विकसित हुई । नश्वर भौतिक संसार की व्यर्थता को महसूस करते हुए, दोनों मित्र पुनर्जन्म के अंत की खोज के लिए तपस्वी के रूप में निकल पड़े । मूलसरवास्तिवाद ग्रंथों तथा पाली ग्रंथों में सारिपुत्र और मुदगल्यायन  ने भारत के छह प्रमुख शिक्षकों से मुलाकात किया था।  पाली ग्रंथों के अनुसार, अध्यापक बेलाही पुत्र भारतीय संशयवादी परंपरा एवं  दर्शन शास्त्र के विद्वान संजय के शिष्य शारिपुत्र एवं मौद्गल्यायन थे । मूलसरवास्तिवाद ग्रंथों , चीनी बौद्ध कैनन और तिब्बती  ग्रंथों में  ध्यान की दृष्टि से बुद्धिमान शिक्षक के रूप में संजय को  चित्रित किया गया है ।संजय को छोड़ने के बाद,सारिपुत्र ( उपतिय्या) का सामना भिक्षु अश्वजीत  ( असजी ) से हुआ । उपतिष्य ने देखा कि कैसे साधु प्रकट हुए और उपदेश मांगने के लिए उनके पास गए थे । न्यानपोनिका थेरा के द्वारा वैरागी सिद्धांत में सारिपुत्र के रूप में कहा है कि उन सभी चीजों में से  किसी कारण से उत्पन्न होती हैं, तथागत ने इसका कारण बताया है;और वे कैसे समाप्त हो जाते हैं, वह भी वह बताता है, यह महान वैरागी का सिद्धांत है। बौद्ध जगत में विशेष रूप से प्रसिद्ध हो गया है, जिसे कई बौद्ध मूर्तियों पर अंकित किया गया है। दार्शनिक पॉल कारस के अनुसार , श्लोक उस समय प्राचीन ब्राह्मणवाद में प्रचलित दैवीय हस्तक्षेप के विचार से अलग हो जाता है और इसके बजाय यह सिखाता है कि सभी चीजों की उत्पत्ति और अंत इसके कार्य-कारण पर निर्भर करता है। उपदेश के बाद, उपतिय्या ने सोतपन्न प्राप्त किया था । आत्मज्ञान का पहला चरण था ।  उपतिष्य घटना के बारे में बताने के लिए कोलिता के पास गए और उनके लिए श्लोक का पाठ करने के बाद, कोलिता ने भी सोतपन्ना को प्राप्त किया ।  संजय के शिष्यों के एक बड़े हिस्से के साथ दो दोस्त, फिर बुद्ध के अधीन भिक्षुओं के रूप में नियुक्त हुए, उस दिन समूह में हर कोई उपतिय्या और कोलिता को छोड़कर अर्हत बन गया । न्यानापोनिका थेरा का कहना है कि मुख्य शिष्यों के रूप में अपनी भूमिकाओं को पूरा करने के लिए दोस्तों को प्रबुद्ध होने से पहले लंबी तैयारी अवधि की आवश्यकता थी। कई ग्रंथ चमत्कारी तत्वों के साथ समन्वय का वर्णन करते हैं, जैसे कि शिष्यों के कपड़े अचानक बौद्ध वस्त्रों से बदल दिए जाते हैं और उनके बाल अपने आप झड़ जाते हैं। अभिषेक के बाद, उपतिय्या को सारिपुत्र (पाली: सारिपुत्त ) कहा जाने लगा, और कोलिता को मौद्गल्यायन (पाली: मोग्गलाना ) कहा जाने लगा । सारिपुत्र और मौदगल्यायन को ठहराया गया था । बौद्ध विश्वास के अनुसार, पिछले बुद्धों के रूप में मुख्य शिष्यों की एक जोड़ी को नियुक्त करने की परंपरा का पालन करते हुए। मौद्गल्यायन प्राप्त अरहतशिप सात दिनों के गहन ध्यान प्रशिक्षण ऑरडोंग  के बाद सारिपुत्र ने बुद्ध को पंख लगाने के दौरान दो सप्ताह के बाद अर्हतशिप प्राप्त की थी । पाली ग्रंथों के अनुसार  सारिपुत्र का भतीजा तपस्वी परंतु चीनी, तिब्बती और संस्कृत ग्रंथों  सारिपुत्र का चाचा तपस्वी  था। मागध साम्राज्य का दर्शन शास्त्र के महान ज्ञाता एवं वैराग्य सूत्र के प्रवर्तक सारिपुत्र थे । सारिपुत्र शिक्षा , वैराग्य तंत्र तथा मठ के संचालक थे ।



बुधवार, दिसंबर 01, 2021

भारतीय संस्कृति के उन्नायक अटल विहारी बाजपेयी ...


भारत के दसवें प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी का जन्म  25 दिसंबर 1924 ई. को मध्यप्रदेश का  ग्वालियर और निधन 16 अगस्त 2018 को दिल्ली का एम्स में संध्या 05: बजे हुआ था ।  अतलविहारी बाजपेयी   16 मई से 1 जून 1996 तक,  1998 मे और 19 मार्च 1999 से 22 मई 2004 तक भारत के प्रधानमंत्री रहे थे । वे हिंदी कवि, पत्रकार व एक प्रखर वक्ता एवं भारतीय जनसंघ के संस्थापक  और 1968 से 1973 तक उसके अध्यक्ष  रहे। उन्होंने लंबे समय तक राष्‍ट्रधर्म, पाञ्चजन्य और वीर अर्जुन आदि राष्ट्रीय भावना से ओत-प्रोत पत्र-पत्रिकाओं का संपादन  किया था ।
वे चार दशकों से भारतीय संसद के सदस्य थे, लोकसभा में सांसद  दस बार, और दो बार राज्य सभा में चुने गए थे।  2009 तक उत्तर प्रदेश जब स्वास्थ्य संबंधी चिंताओं के कारण सक्रिय राजनीति से सेवानिवृत्त हुए। अपना जीवन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक के रूप में आजीवन अविवाहित रहने का संकल्प लेकर प्रारंभ करने वाले वाजपेयी राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) सरकार के प्रथम प्रधानमंत्री थे, जिन्होंने गैर काँग्रेसी प्रधानमंत्री पद के 5 वर्ष बिना किसी समस्या के पूरे किए। आजीवन अविवाहित रहने का संकल्प लेने के कारण बाजपेयी जी को भीष्मपितामह कहा जाता है । 16 अगस्त 2018 को एक लंबी बीमारी के बाद अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान, दिल्ली में श्री वाजपेयी का निधन हो गया। वे जीवन भर भारतीय राजनीति में सक्रिय रहे‍।उत्तर प्रदेश में आगरा जनपद के  बटेश्वर के मूल निवासी पण्डित कृष्ण बिहारी वाजपेयी मध्य प्रदेश की ग्वालियर रियासत में अध्यापक थे। वहीं शिन्दे की छावनी में 25 दिसंबर 1924 को ब्रह्ममुहूर्त में कृष्णबिहारी बाजपेयी की पत्नी कृष्णा वाजपेयी की कोख से अटल जी का जन्म हुआ था। महात्मा रामचन्द्र वीर द्वारा रचित अमर कृति "विजय पताका" पढ़कर अटल जी के जीवन की दिशा  बदल गयी। अटल जी की बी॰ए॰ की शिक्षा ग्वालियर के विक्टोरिया कालेज (लक्ष्मीबाई कालेज) में हुई। छात्र जीवन से वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवक बने और तभी से राष्ट्रीय स्तर की वाद-विवाद प्रतियोगिताओं में भाग लेते रहे। कानपुर के डीएवी कॉलेज से राजनीति शास्त्र में एम॰ए॰ की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण होनेके बाद  अपने पिताजी के साथ-साथ कानपुर में एल॰एल॰बी॰ की पढ़ाई  प्रारम्भ की लेकिन उसे बीच में ही विराम देकर पूरी निष्ठा से संघ के कार्य में जुट गये। डॉ॰ श्यामा प्रसाद मुखर्जी और पंडित दीनदयाल उपाध्याय के निर्देशन में राजनीति का पाठ  पढ़ा , साथ-साथ पाञ्चजन्य, राष्ट्रधर्म, दैनिक स्वदेश और वीर अर्जुन जैसे पत्र-पत्रिकाओं के सम्पादन का कुशलता पूर्वक करते रहे है । सर्वतोमुखी विकास के लिये किये गये योगदान तथा असाधारण कार्यों के लिये 2015 में बाजपेयी जी को भारत रत्न से सम्मानित किया गया है ।बाजपेयी जी  भारतीय जनसंघ का  सन् १९६८ से १९७३ तक वह उसके राष्ट्रीय अध्यक्ष और सन् 1952 में पहली बार लोकसभा चुनाव लड़ा, परन्तु सफलता नहीं प्राप्त हुई थी । सन् १९५७ में उत्तरप्रदेश के गोण्डा जिले के  बलरामपुर से जनसंघ के प्रत्याशी के रूप में विजयी होकर लोकसभा में पहुँचे। सन् १९५७ से १९७७ तक जनता पार्टी की स्थापना तक  बीस वर्ष तक लगातार जनसंघ के संसदीय दल के नेता रहे। मोरारजी देसाई की सरकार में सन् १९७७ से १९७९ तक विदेश मन्त्री रहे और विदेशों में भारत की छवि बनायी थी । १९८० में जनता पार्टी से असन्तुष्ट होकर  जनता पार्टी छोड़ दी और भारतीय जनता पार्टी की स्थापना में मदद की। ६ अप्रैल १९८० में बनी भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष पद का दायित्व वाजपेयी को सौंपा गया।दो बार राज्यसभा के लिये निर्वाचित हुए। लोकतन्त्र के सजग प्रहरी अटल बिहारी वाजपेयी ने सन् १९९६ में प्रधानमन्त्री के रूप में देश की बागडोर संभाली। १९ अप्रैल १९९८ को पुनः प्रधानमन्त्री पद की शपथ ली और उनके नेतृत्व में १३ दलों की गठबन्धन सरकार ने पाँच वर्षों में देश के अन्दर प्रगति के अनेक आयाम छुए। सन् २००४ में कार्यकाल पूरा होने से पहले भयंकर गर्मी में सम्पन्न कराये गये लोकसभा चुनावों में भा॰ज॰पा॰ के नेतृत्व वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबन्धन (एन॰डी॰ए॰) ने वाजपेयी के नेतृत्व में चुनाव लड़ा और भारत उदय ,  इण्डिया शाइनिंग) का नारा दिया। इस चुनाव में किसी पार्टी को बहुमत नहीं मिला। ऐसी स्थिति में वामपंथी दलों के समर्थन से काँग्रेस ने भारत की केन्द्रीय सरकार पर कायम होने में सफलता प्राप्त की और भा॰ज॰पा॰ विपक्ष में बैठने को मजबूर हुई। सम्प्रति वे राजनीति से संन्यास ले चुके थे और नई दिल्ली में ६-ए कृष्णामेनन मार्ग स्थित सरकारी आवास में रहते थे। अटल सरकार ने 11 और 13 मई 1998 को पोखरण में पाँच भूमिगत परमाणु परीक्षण विस्फोट करके भारत को परमाणु शक्ति संपन्न देश घोषित कर दिया। इस कदम से उन्होंने भारत को निर्विवाद रूप से विश्व मानचित्र पर एक सुदृढ वैश्विक शक्ति के रूप में स्थापित कर दिया। यह सब इतनी गोपनीयता से किया गया कि अति विकसित जासूसी उपग्रहों व तकनीक से संपन्न पश्चिमी देशों को इसकी भनक तक नहीं लगी। यही नहीं इसके बाद पश्चिमी देशों द्वारा भारत पर अनेक प्रतिबंध लगाए गए लेकिन वाजपेयी सरकार ने सबका दृढ़तापूर्वक सामना करते हुए आर्थिक विकास की ऊँचाईयों को छुआ। था । 19 फरवरी 1999 को सदा-ए-सरहद नाम से दिल्ली से लाहौर तक बस सेवा शुरू की गई। इस सेवा का उद्घाटन करते हुए प्रथम यात्री के रूप में वाजपेयी जी ने पाकिस्तान की यात्रा करके नवाज़ शरीफ से
मुलाकात की और आपसी संबंधों में एक नयी शुरुआत की थी । भारत रत्न ,  "अजातशत्रु" उपनाम से मशहूर बाजपेयी का विराट व्यक्तित्व युगपरिवर्तक  ,  राजनेता होने के साथ-साथ बाजपेई एक अच्छे कवि पत्रकार और लेखक  रहे हैं। शब्दों को नापतोल के बोलना बाजपेयी के व्यक्तित्व की बड़ी खूबी रही है ।अपनी वाकपटुता के कारण बाजपेयी को भारत का सबसे लोकप्रिय प्रधानमंत्री माना जाता है।
1999 में हुए कारगिल युद्ध में पाकिस्तान की सीमा का उल्लंघन करने की अंतरराष्ट्रीय सलाहकार सम्मान करते हुए धैर्य पूर्वक ठोस कार्यवाही करते हुए भारतीय क्षेत्र को मुक्त करवाया था ।दिल्ली, मुंबई, कोलकाता, चेन्नई भारत के चारों कोनों को जोड़ने की लिए "स्वर्णिम चतुर्भुज" परियोजना की शुरुआत की।कावेरी जल विवाद, प्रौद्योगिकी उन्नति, राजमार्गों, हवाई मार्ग, सुरक्षा, व्यापार, उद्योग, आवास निर्माण आदि बहुआयामी कार्यों को करने में वाजपेयी ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी । बाजपेई जी  कुशल राजनीतिज्ञ होने के साथ-साथ कवि और लेखक  रहे हैं।  इनकी प्रथम कविता "ताजमहल" थी जिसमें उन्होंने ताजमहल के कारीगरों के शोषण के भाव को उजागर किया है। वाजपेई को देशहित से अथाह प्रेम था "हिंदू तन मन, हिंदू जीवन, रग -रग हिंदू मेरा परिचय" कविता के माध्यम से उन्होंने इस बात की पुष्टि की है।रग रग हिंदू मेरा परिचय, मृत्यु या हत्या, अमर बलिदान, कैदी कविराय की कुंडलियां, संसद में तीन दशक, अमर आग है, कुछ लेख :कुछ भाषण, सेक्युलर वाद, राजनीति की रपटीली राहें, बिंदु- बिंदु विचार इत्यादि पर बाजपेई ने इक्यावन बहुचर्चित काव्य संग्रह 1995 में प्रकाशित हुई ।अपने बहुआयामी व्यक्तित्व ,सर्वोतमुखी विकास और  असाधारण कार्यों के लिए बाजपेई को  पुरस्कार प्रदान किये गये। वर्ष 1952 में उन्हें "पदम विभूषण", 1993 में डॉक्टर ऑफ लिटरेचर  कानपुर विश्वविद्यालय ,1994 में "लोकमान्य तिलक पुरस्कार", "श्रेष्ठ सांसद पुरस्कार", "भारत रत्न पंडित गोविंद बल्लभ पंत" पुरस्कार प्रदान किया गया। वर्ष 2014 में डॉक्टर ऑफ लिटरेचर मध्य प्रदेश विश्वविद्यालय  , 2015 में "फ्रेंड्स ऑफ बांग्लादेश लिबरेशन वॉर अवार्ड" और 2015 को "भारत रत्न" से सम्मानित किया गया है ।

मंगलवार, नवंबर 30, 2021

द्वीप और संस्कृति ....

पुरणों एवं संहिताओं में जम्बूद्वीप का वर्णन किया गया है ।जम्बूद्वीप के मध्य भाग में 84 हजार योजन ऊँचाई और शिखर की चौड़ाई 32 हजार योजन तथा 16 हजार योजन विस्तारित युक्त मेरुपर्वत के दक्षिण में हिमवान , हेमकूट , निषध पर्वत  , उत्तर में नीलश्वेत श्रृंगवान गिरि है । मेरु के दक्षिण में भारतवर्ष , उत्तर में किंपुरुष वर्ष , हरिवर्ष रम्यक वर्ष ,दक्षिण में हिरण्यवर्ष ,उत्तरकुरु वर्ष  के मध्य में इला वर्ष है । मेरु पर्वत के चारो ओर वर्ष और पूर्व में मंदराचल , दक्षिण में गंधमादन पश्चिम में विपुल एवं उत्तर में सुपार्श्व पर्वत है । जम्बूद्वीप में भारत ,केतुमाल ,भद्राश्व ,और कुरु वर्ष है । केतुमाल वर्ष में वराह , भद्राश्व वर्ष में हयग्रीव ,भारतवर्ष में कच्छप और उत्तर कुरु में मत्स्य भगवान विष्णु का अवतार की उपासना करते है ।भारतवर्ष में महेंद्र , मलय ,सहय , शुक्तिमान ,ऋक्ष , विंध्य और पारियात्र कुल पर्वत है । भारतवर्ष के राजा भरत की संतान रहते है । भारतवर्ष में इंद्र द्वीप ,कसेतु द्वीप ,ताम्र द्वीप ,गभस्ति द्वीप ,नागद्वीप ,सौम्य द्वीप ,गंधर्व द्वीप ,वरुण द्वीप है । जम्बूद्वप  के  देशों में  हरिवर्ष, भद्राश्व और किंपुरुष का  स्‍थान को चीन ,  नेपाल और तिब्बत शामिल है । 1934 में हुई उत्खनन  में चीन के समुद्र के किनारे बसे  प्राचीन शहर च्वानजो में 1000 वर्ष से   प्राचीन हिन्दू मंदिरों के दर्जन से अधिक खंडहर मिले हैं। चीन , नेपाल , तिब्बत , भूटान , भारत का अरुणाचल , सिक्कम , लद्दाख , लेह और वर्मा  का  क्षेत्र प्राचीन काल में हरिवर्ष कहलाता था । हजार वर्ष पूर्व  सुंग राजवंश के दौरान दक्षिण चीन के फूच्यान प्रांत में  मंदिर थे ।  त्रिविष्टप ( तिब्बत ) में   देवलोक और गंधर्वलोक  था।  500 से 700 ई . पू . चीन को महाचीन एवं प्राग्यज्योतिष कहा जाता था ।  आर्य काल में संपूर्ण क्षेत्र हरिवर्ष, भद्राश्व और किंपुरुष नाम से प्रसिद्ध था। महाभारत के सभापर्व में भारतवर्ष के प्राग्यज्योतिष पुर प्रांत का उल्लेख  है। इतिहासकार के  अनुसार प्राग्यज्योतिष को  असम को कहा  जाता था। प्राग्ज्योतिषपुर का असुर  राजा नरका सुर था । रामायण बालकांड (30/6) में प्राग्यज्योतिष की स्थापना का उल्लेख है। विष्णु पुराण में प्राग्ज्योतिषपुर को   कामरूप , किंपुरुष  है।   रामायण काल से महाभारत कालपर्यंत असम से चीन के सिचुआन प्रांत तक के क्षेत्र को प्राग्यज्योतिष  था। जिसे कामरूप कहा गया था । चीनी यात्री ह्वेनसांग और अलबरूनी के समय तक कभी कामरूप को महाचीन कहा जाता था। अर्थशास्त्र के रचयिता कौटिल्य ने  'चीन' शब्द का प्रयोग कामरूप के लिए  किया है।  कामरूप या प्राग्यज्योतिष प्रांत प्राचीनकाल में असम से बर्मा, सिंगापुर, कम्बोडिया, चीन, इंडोनेशिया, जावा, सुमात्रा में 5123 वर्ष पूर्व भगवान कृष्ण प्रवास किये थे । महाभारत 68, 15 के अनुसार कृष्ण काल में प्राग्ज्योतिषपुर का राजा शिशुपाल ने द्वारिका को जलाया था । चीनी यात्री ह्वेनसांग (629 ई.) के अनुसार  कामरूप पर  कुल-वंश के 1,000 राजाओं का  25,000 वर्ष तक  का शासन किया।  महाचीन  चीन  और प्राग्यज्योतिषपुर कामरूप है । यह कामरूप भी अब कई देशों में विभक्त हो गया।  मंगोल, तातार और चीनी लोग चंद्रवंशी हैं। कर्नल टॉड की पुस्तक राजस्थान का इतिहास। एवं पंडित यदुनंदन शर्मा की पुस्तक वैदिक संपति और हिंदी शब्द कोष के अनुसार तातार के लोग अपने को अय का वंशज कहते हैं ।राजा पुरुरवा की पत्नी उर्वशी का पुत्र  आयु था। पुरुरवा  कुल में कुरु और कुरु से कौरव हुए है । आयु के वंश में  सम्राट यदु  और उनका पौत्र हय था। चीनी लोग हय को हयु को पूर्वज मानते हैं। चीन वालों के पास 'यू' की उत्पत्ति इस प्रकार लिखी है कि एक तारे (तातार) का समागम यू की माता के साथ होने  से यू हुआ।  सोम एवं वृहस्पति और तारा पुत्र बुध और इला के समागम  है। चीन ग्रंथों के अनुसार तातारों का अय,  यू और  आयु का आदिपुरुष चंद्रमा था ।
शाकद्वीप और भगवान सूर्य  - वेदों , पुरणों , संहिताओं में भगवान शाकद्वीप के आदिदेव भगवान सूर्य का उल्लेख किया गया है ।शाकद्वीप का स्वामी महात्मा भव्य के पुत्रों द्वारा जलद वर्ष ,कुमार वर्ष , सुकुमार वर्ष मनिरक वर्ष कुसुमोद वर्ष गोदाकि वर्ष और महाद्रुम वर्ष की स्थापना की गई थी । शाकद्वीप में उदयगिरि, जलधार , ,रैवतक ,श्याम ,अंभोगिरी , आस्तिकेय  और केशरी पर्वत तथा नदियों में सुकुमारी ,कुमारी ,नलिनी ,रेणुका इक्षु , धेनुका तथा गभस्ति नदियाँ प्रवाहित है ।  शाकद्वीप में मग को मागि ,मगी , सकलदीपी शाकद्वीपीय ब्राह्मण , मागध को क्षत्रिय , मानस को वैश्य तथा मंदग को शुद्र कहा जाता है । शाकद्वीप का क्षेत्र भगवान सूर्य के अधीन है और यहां के निवासियों द्वारा भगवान सूर्य की उपासना की जाती है । मगों द्वारा सौर धर्म के तहत चिकित्सा , आयुर्वेद ,ज्योतिष शास्त्र का उदय एवं प्राकृतिक संरक्षण एवं उपासना पर बल दिया गया । सौर गणना से दिन तथा चंद्र गणना से रात की चर्चा की है । कालांतर सौर धर्म में सौर धर्म और चंद्र धर्म का विकास हुआ था । शाकद्वीप का प्रथम उदयगिरि पर्वत पर  भगवान सूर्य उदित हो कर भारतीय उपमहाद्वीप में अनेक स्थानों पर प्रकाशमान हैं। उदयगिरि गुफाओं में  मध्य प्रदेश में विदिशा के समीप  २० प्राचीन गुफाएँ , उदयगिरि, ओड़ीसा में  प्राचीन बौद्ध विहार और स्तूप , उदयगिरि, आन्ध्र प्रदेश -- श्रीकृष्ण देवराय की राजधानी, पहाड़ियों और प्राचीन भवनों के लिए प्रसिद्ध , उदयगिरि और खंडगिरि -- भुवनेश्वर के पास , उदयगिरि, नेल्लोर , उदयगिरि,केरल का  कन्नूर , तमिलनाडु के कन्याकुमारी जिला का उदयगिरि दुर्ग , आंध्रप्रदेश के नेल्लोर जिला ,उड़ीसा के उदयगिरि में श्रीलंका के प्राचीन बौद्ध विहार , मन्दिर है । शाकद्वीप का उदयगिरि पर्वत उड़ीसा , आंध्रप्रदेश , केरल और तमिलनाडु क्षेत्र में विकसित है । शाकद्वीप का गुजरात के जूनागढ़ के समीप रैवतक  पर्वत को 'गिरनार'  गिरि कहते हैं। रैवतक  पर्वत के समीप पांडव पुत्र अर्जुन  ने बलराम की बहन रोहाणी की पुत्री तथा अभिमन्यु की माता  सुभद्रा का हरण किया था। महाभारत सभा पर्व के अनुसार 'रैवतक  पर्वत कुशस्थली द्वारिका  के पूर्व की ओर रैवतक पर्वत स्थित था सौराष्ट्र, काठियावाड़ का गिरनार नामक पर्वत ही महाभारत का रैवतक है। 'महाभारत' और 'हरिवंशपुराण के अनुसार रैवतक पर्वत सौराष्ट्र , काठियावाड़ का गिरनार पर्वत है । जैन ग्रंथ 'अंतकृत दशांग' में रैवतक को द्वारवर्ती के उत्तर-पूर्व में स्थित म है तथा पर्वत के शिखर पर 'नंदनवन' नामक एक उद्यानहै।'विष्णुपुराण' के अनुसार आनर्त का पुत्र रैवत ने कुशस्थली में रहकर राज्य किया था । राजा  रैवत ने  रैवतक पर्वत प्रसिद्ध हुआ था। रैवत की पुत्री 'रेवती' बलराम की पत्नी थी। महाकवि माघ ने 'शिशुपालवध'में रैवतक का सविस्तार काव्यमय वर्णन किया है। जैन ग्रंथ 'विविधतीर्थकल्प' में रैवतक तीर्थ में 22वें तीर्थंकर नेमिनाथ ने 'छत्रशिला' स्थान के पास दीक्षा ली थी।  'अवलोकन' के शिखर पर उन्हें 'कैवल्य ज्ञान' की प्राप्ति हुई थी। कृष्ण ने 'सिद्ध विनायक मंदिर' की स्थापना की थी। 'कालमेघ', 'मेघनाद', 'गिरिविदारण', 'कपाट', 'सिंहनाद', 'खोड़िक' और 'रेवया' नामक सात क्षेत्रपालों का यहीं जन्म हुआ था। रैवतक  पर्वत में 24 पवित्र गुफ़ाएँ जैन सिद्धों से संबंध रहा है। रैवताद्रि का 'जैनस्रोत'  'तीर्थमाला चैत्यवंदनम' में  उल्लेख है ।'विष्णुपुराण' के अनुसार रैवतक शाकद्वीप का पर्वत था । भागवत पुराण 9.22.29, 33; ब्रह्माण्ड पुराण 3.71.154, 178; विष्णु पुराण 4.44.35, 20, 30; वायु पुराण 12.17-24; 35.28 में शाकद्वीप का रैवतक पर्वत की चर्चा की गई है ।और 'रेवया' नामक सात क्षेत्रपालों का यहीं जन्म हुआ था। रैवतक  पर्वत में 24 पवित्र गुफ़ाएँ जैन सिद्धों से संबंध रहा है। रैवताद्रि का 'जैनस्रोत'  'तीर्थमाला चैत्यवंदनम' में  उल्लेख है ।'विष्णुपुराण' के अनुसार रैवतक शाकद्वीप का पर्वत था । भागवत पुराण 9.22.29, 33; ब्रह्माण्ड पुराण 3.71.154, 178; विष्णु पुराण 4.44.35, 20, 30; वायु पुराण 12.17-24; 35.28 में शाकद्वीप का रैवतक पर्वत की चर्चा की गई है । शाकद्वीप में मगध , अंग , कीकट , मिथिला , अवध , कौशल , तथा नेपाल , भारत के बिहार , उड़ीसा , झारखंड , गुजरात , सिंध का क्षेत्र सूर्योपासना का  प्रधान है । सौर धर्म द्वारा भारत , नेपाल बर्मा , श्याम ,कंबोडिया ,जावा ,सुमात्रा ईरान ,इराक ,मिश्र , चीन , मेशोपोटेनियाँ में चौथी शती गुप्त काल मे विकसित थी । ऋग्वेद के 1 /19/13  में  भगवान सूर्य को चक्षो:सूर्यो अजायत कहा गया है ।
 प्लक्ष द्वीप और चंद्रमा - पुरणों एवं संहिताओं  के अनुसार पृथ्वी को जम्बू द्वीप , प्लक्ष द्वीप शाल्मलद्वीप, कुशद्वीप, क्रौंच द्वीप , शाकद्वीप और पुष्कर द्वीप में विभक्त किया गया है । सातों द्वीप के  चारों आर्  खारे पानी, इक्षुरस, मदिरा, घृत, दधि, दुग्ध और मीठे जल के सात समुद्रों से घिरे हैं।  सभी द्वीप एक के बाद एक दूसरे को घेरे हुए है ।इक्षुरस सागर से घीरा हुआ  प्लक्ष द्वीप के स्वामी मेघातिथि के  पुत्रों  में शान्तहय, शिशिर, सुखोदय, आनंद, शिव, क्षेमक एवं , ध्रुव द्वारा शांतहयवर्ष , पुरणों एवं संहिताओं  के अनुसार पृथ्वी को जम्बू द्वीप , प्लक्ष द्वीप शाल्मलद्वीप, कुशद्वीप, क्रौंच द्वीप , शाकद्वीप और पुष्कर द्वीप में विभक्त किया गया है । सातों द्वीप के  चारों आर्  खारे पानी, इक्षुरस, मदिरा, घृत, दधि, दुग्ध और मीठे जल के सात समुद्रों से घिरे हैं।  सभी द्वीप एक के बाद एक दूसरे को घेरे हुए है ।इक्षुरस सागर से घीरा हुआ  प्लक्ष द्वीप के स्वामी मेघातिथि के  पुत्रों  में शान्तहय, शिशिर, सुखोदय, आनंद, शिव, क्षेमक एवं , ध्रुव द्वारा शांतहयवर्ष , शिशिरवर्ष ,सुखोदेववर्ष ,आनंद वर्ष ,शिववर्ष ,क्षेमकवर्ष ,और धुर्ववर्ष की स्थापना की थी । प्लक्ष द्वीप का मर्यादापर्वत में गोमेद, चंद्र, नारद, दुन्दुभि, सोमक, सुमना और वैभ्राज और  समुद्रगामिनी नदियों में  अनुतप्ता, शिखि, विपाशा, त्रिदिवा, अक्लमा, अमृता और सुकृता के अलावा सहस्रों छोटे छोटे पर्वत और नदियां हैं। प्लक्षद्वीप के वर्णों में  आर्यक, कुरुर, विदिश्य और भावी क्रमशः ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र हैं।शिशिरवर्ष ,सुखोदेववर्ष ,आनंद वर्ष ,शिववर्ष ,क्षेमकवर्ष ,और धुर्ववर्ष की स्थापना की थी । प्लक्ष द्वीप का मर्यादापर्वत में गोमेद, चंद्र, नारद, दुन्दुभि, सोमक, सुमना और वैभ्राज और  समुद्रगामिनी नदियों में  अनुतप्ता, शिखि, विपाशा, त्रिदिवा, अक्लमा, अमृता और सुकृता के अलावा सहस्रों छोटे छोटे पर्वत और नदियां हैं। प्लक्षद्वीप के वर्णों में  आर्यक, कुरुर, विदिश्य और भावी क्रमशः ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र हैं। प्लक्ष द्वीप के निवासियों द्वारा चंद्रमा की पूजा एवं उपासना की जाती है । प्लक्ष द्वीप का प्लक्ष , पाकड़ , पलास वृक्ष प्रसिद्ध है ।

शुक्रवार, नवंबर 26, 2021

हालावाद के जनक हरिवंश राय बच्चन...


        हरिवंश राय बच्चन हिन्दी भाषा के एक कवि और लेखक एवं  हिन्दी कविता के उत्तर छायावाद काल के प्रमुख कवियों में  हैं। उनकी सबसे प्रसिद्ध कृति मधुशाला है। हरिवंश राय बच्चन जी का जन्म 27 नवम्बर 1907 को इलाहाबाद में कायस्थ परिवार का प्रताप नारायण श्रीवास्तव की पत्नी सरस्वती देवी के पुत्र के रूप में  हुआ था।  हरिवंशराय को बाल्यकाल में 'बच्चन' कहा जाता था । हरिवंशराय बच्चन के पूर्वज उत्तरप्रदेश के आगरा के प्रतापगढ़ के थे । उन्होंने कायस्थ पाठशाला में पहले उर्दू और फिर हिन्दी की शिक्षा प्राप्त की। उन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से अंग्रेजी में एम॰ए॰ और कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय से अंग्रेजी साहित्य के विख्यात कवि डब्लू॰बी॰ यीट्स की कविताओं पर शोध कर पीएच.डी.पूरी की थी । १९२६ में १९ वर्ष की उम्र में उनका विवाह 14 वर्षीय श्यामा बच्चन से हुआ था । सन १९३६ में टीबी के कारण श्यामा की मृत्यु हो गई। पाँच साल बाद १९४१ में बच्चन ने रंगमंच एवं गायन से जुड़ी तेजी सूरी  teji व तेजी बच्चन से विवाह किया । बच्चन जी ने 'नीड़ का निर्माण फिर'  कविताओं की रचना की। उनके पुत्र अमिताभ बच्चन  प्रसिद्ध अभिनेता एवं अजिताभ बच्चन हैं। 2002 के सर्दियों के महीने से उनका स्वस्थ्य बिगड़ने लगा। 2003 के जनवरी से उनको सांस लेने में दिक्कत होने लगी।कठिनाइयां बढ़ने के कारण उनकी मृत्यु 18 जनवरी 2003 में सांस की बीमारी के वजह से मुंबई में हो गयी।
बच्चन जी की कविता संग्रह में तेरा हार (1929) , मधुशाला (1935),मधुबाला (1936),मधुकलश (1937),आत्म परिचय (1937) , निशा निमंत्रण (1938),एकांत संगीत (1939),आकुल अंतर (1943),सतरंगिनी (1945) हलाहल (1946),बंगाल का काल (1946),खादी के फूल (1948),सूत की माला (1948),मिलन यामिनी (1950), प्रणय पत्रिका (1955),धार के इधर-उधर (1957),आरती और अंगारे (1958),बुद्ध और नाचघर (1958),त्रिभंगिमा (1961),चार खेमे चौंसठ खूंटे (1962),दो चट्टानें (1965),बहुत दिन बीते (1967),कटती प्रतिमाओं की आवाज़ (1968), उभरते प्रतिमानों के रूप (1969),जाल समेटा (1973) ,नई से नई-पुरानी से पुरानी (1985) ,क्या भूलूँ क्या याद करूँ (1969),नीड़ का निर्माण फिर (1970),बसेरे से दूर (1977),दशद्वार से सोपान तक (1985) ,बच्चन के साथ क्षण भर (1934),खय्याम की मधुशाला (1938),सोपान (1953),मैकबेथ (1957),जनगीता (1958),ओथेलो (1959),उमर खय्याम की रुबाइयाँ (1959),कवियों में सौम्य संत: पंत (1960),आज के लोकप्रिय हिन्दी कवि: सुमित्रानंदन पंत (1960),आधुनिक कवि (1961),नेहरू: राजनैतिक जीवनचरित (1961),नये पुराने झरोखे (1962), अभिनव सोपान (1964) ,चौंसठ रूसी कविताएँ (1964) ,नागर गीता (1966),बच्चन के लोकप्रिय गीत (1967) ,डब्लू बी यीट्स एंड अकल्टिज़म (1968) , मरकत द्वीप का स्वर (1968) ,हैमलेट (1969) ,भाषा अपनी भाव पराये (1970) ,पंत के सौ पत्र (1970)प्रवास की डायरी (1971)किंग लियर (1972) टूटी छूटी कड़ियाँ (1973) है । हरिवंशराय बच्चन जी  इलाहाबाद विश्वविद्यालय में अंग्रेजी का अध्यापन , भारत सरकार विदेश मंत्रालय में हिंदी विशेषज्ञ राज्य सभा के सदस्य  रहे थे ।  भारत सरकार द्वारा बच्चन जी को  1976 में पद्म भूषण से सम्मानित किया गया था । हालावाद के जनक हरिवंश राय को  सम्मान व पुरस्कार में सोवियत लैण्ड नेहरू पुरस्कार,(1966 ई.) , साहित्य अकादमी पुरस्कार (दो चट्टाने),1968 ई. में ,पद्म भूषण (साहित्य एवं शिक्षा के क्षेत्र में),1976 ई. , प्रथम सरस्वती सम्मान (चार आत्म कथात्मक खण्डों के लिए),1991 ई. और एफ्रो एशियाई सम्मेलन के द्वारा,1968 ई. में कमल पुरस्कार से  सम्मानित किया गया है । च्छन्दतावाद-काल की रचनाओं का औदात्य और गौरव स्वच्छन्दतावादोत्तर काल के न तो किसी कवित में मिलेगा और न समस्त रचनाओं में इतिहास के विकास के क्रम में बच्चन ने कविता को जमीन पर उतारा एवं इहलौकिक जीवन से सम्बद्ध किया और उसकी सीमा का विस्तार  किया है । स्वच्छन्दतावा प्रेम की मस्ती में झूमने का संदेश देता है ।