बुधवार, जनवरी 26, 2022

केदारनाथ मंदिर में केदारनाथ ज्योतिर्लिंग...


  उत्तराखण्ड राज्य के रुद्रप्रयाग जिले का  हिमालय पर्वत की गोद में समुद्र तल से  3562 मि. की ऊँचाई पर  केदार चट्टी स्थित मंदाकनी नदी के किनारे  केदारनाथ मंदिर में केदारनाथ ज्योतिर्लिंग स्थापित है ।  पत्‍थरों से बने कत्यूरी शैली से निर्मित केदारनाथ मन्दिर का निर्माण पाण्डवों के प्रपौत्र अभिमन्यु के पौत्र परीक्षित के पुत्र  राजा जन्मेजय ने कराया था।  स्वयम्भू केदारनाथ ज्योतिर्लिंग शिवलिंग मंदिर का जीर्णोद्धार आदि शंकराचार्य द्वारा करवाया था ।जून २०१३ के दौरान भारत के उत्तराखण्ड और हिमाचल प्रदेश राज्यों में अचानक आई बाढ़ और भूस्खलन के कारण केदारनाथ मंदिर के आसपास की मकानें बह गई ।  ऐतिहासिक मन्दिर का मुख्य हिस्सा एवं सदियों पुराना गुंबद सुरक्षित रहे परंतु  मन्दिर का प्रवेश द्वार और उसके आस-पास का क्षेत्र पूरी तरह तबाह हो गय था । राहुल सांकृत्यायन के अनुसार ये १२-१३वीं शताब्दी लेकिन  ग्वालियर से मिली एक राजा भोज स्तुति के अनुसार १०७६-९९ एवं केदारनाथ मंदिर ८वीं शताब्दी में आदि शंकराचार्य द्वारा बनवाया गया था ।पांडवों द्वारा द्वापर काल में बनाये गये पहले के मंदिर की बगल में है। मंदिर के बड़े धूसर रंग की सीढ़ियों पर पाली या ब्राह्मी लिपि में है । केदारनाथ जी के तीर्थ पुरोहित इस क्षेत्र के प्राचीन ब्राह्मण हैं, उनके पूर्वज ऋषि-मुनि भगवान नर-नारायण के समय से इस स्वयंभू ज्योतिर्लिंग की पूजा करते आ रहे हैं, जिनकी संख्या उस समय ३६० थी। पांडवों के पोते राजा जनमेजय ने उन्हें इस मंदिर में पूजा करने का अधिकार दिया था, और वे तब से तीर्थयात्रियों की पूजा कराते आ रहे हैं। आदि गुरु शंकराचार्य जी के समय से यहां पर दक्षिण भारत से जंगम समुदाय के रावल व पुजारी मंदिर में शिव लिंग की पूजा करते हैं, जबकि यात्रियों की ओर से पूजा इन तीर्थ पुरोहित ब्राह्मणों द्वारा की जाती है। मंदिर के सामने पुरोहितों की अपने यजमानों एवं अन्य यात्रियों के लिये पक्की धर्मशालाएं हैं, जबकि मंदिर के पुजारी एवं अन्य कर्मचारियों के भवन मंदिर के दक्षिण की ओर थी ।  मन्दिर एक छह फीट ऊँचे चौकोर चबूतरे पर बना हुआ है। मन्दिर में मुख्य भाग मण्डप और गर्भगृह के चारों ओर प्रदक्षिणा पथ है। बाहर प्रांगण में नन्दी बैल वाहन के रूप में विराजमान हैं। मन्दिर का निर्माण किसने कराया, इसका कोई प्रामाणिक उल्लेख नहीं मिलता है, कहा जाता है कि इस मन्दिर का जीर्णोद्धार आदि गुरु शंकराचार्य ने करवाया था। मन्दिर को तीन भागों में बांटा जाता है १.गर्भ गृह , २.मध्यभाग  ३. सभा मण्डप । गर्भ गृह के मध्य में भगवान श्री केदारेश्वर जी का स्वयंभू ज्योतिर्लिंग स्थित है जिसके अग्र भाग पर गणेश जी की आकृति और साथ ही माँ पार्वती का श्री यंत्र विद्यमान है । ज्योतिर्लिंग पर प्राकृतिक यगयोपवित और ज्योतिर्लिंग के पृष्ठ भाग पर प्राकृतिक स्फटिक माला को आसानी से देखा जा सकता है ।श्री केदारेश्वर ज्योतिर्लिंग में नव लिंगाकार विग्रह विधमान है इस कारण इस ज्योतिर्लिंग को नव लिंग केदार भी कहा जाता है स्थानीय लोक गीतों से इसकी पुष्टि होती है । श्री केदारेश्वर ज्योतिर्लिंग के चारों ओर विशालकाय चार स्तंभ विद्यमान है जिनको चारों वेदों का धोतक माना जाता है , जिन पर विशालकाय कमलनुमा मन्दिर की छत टिकी हुई है । ज्योतिर्लिंग के पश्चिमी ओर एक अखंड दीपक है जो कई हजारों सालों से निरंतर जलता रहता है जिसकी हेर देख और निरन्तर जलते रहने की जिम्मेदारी पूर्व काल से तीर्थ पुरोहितों की है । गर्भ गृह की दीवारों पर सुन्दर आकर्षक फूलों और कलाकृतियों को उकर कर सजाया गया है । गर्भ गृह में स्थित चारों विशालकाय खंभों के पीछे से स्वयंभू ज्योतिर्लिंग भगवान श्री केदारेश्वर जी की परिक्रमा की जाती है । पूर्व काल में श्री केदारेश्वर ज्योतिर्लिंग के चारो ओर सुन्दर कटवे पत्थरों से निर्मित जलेरी बनाई गई थी । श्री योगेश जिन्दल, मैनेजिक डारेक्टर, काशी विश्वनाथ स्टील ,काशीपुर वालों ने मंदिर गर्भ गृह में आठ मिमी मोटी तांबे की नई जलेरी लगवाई थी (वर्ष 2003-04 )अब वतर्मान काल में जलेरी के साथ -साथ गर्भ गृह की दीवारों और मन्दिर के सभी दरवाजों को अपने तीर्थ पुरोहित की प्रेणना से किसी और दानी दाता द्वारा रजत (चाँदी) की करवा दी गई है । इसके गर्भगृह की अटारी पर सोने का मुलम्मा चढ़ा है।
मन्दिर में  श्री केदारनाथ द्वादश ज्योतिर्लिग है। प्रात:काल में शिव-पिण्ड को प्राकृतिक रूप से स्नान कराकर उस पर घी-लेपन किया जाता है।  धूप-दीप जलाकर आरती उतारी जाती है। इस समय यात्री-गण मंदिर में प्रवेश कर पूजन कर सकते हैं, लेकिन संध्या के समय भगवान का श्रृंगार किया जाता है। उन्हें विविध प्रकार के चित्ताकर्षक ढंग से सजाया जाता है। भक्तगण दूर से केवल इसका दर्शन ही कर सकते हैं। केदारनाथ  ज्योतिर्लिंग की स्थापना  हिमालय के केदार शृंग पर भगवान विष्णु के अवतार महातपस्वी नर और नारायण ऋषि तपस्या करते थे। उनकी आराधना से प्रसन्न होकर भगवान शंकर प्रकट हुए और उनके प्रार्थनानुसार ज्योतिर्लिंग के रूप में सदा वास करने का वर प्रदान किया।  केदारनाथ पर्वतराज हिमालय के केदार नामक श्रृंग पर अवस्थित हैं। पंचकेदार की कथा  है कि महाभारत के युद्ध में विजयी होने पर पांडव भ्रातृहत्या के पाप से मुक्ति पाना चाहते थे। इसके लिए वे भगवान शंकर का आशीर्वाद पाना चाहते थे, लेकिन वे उन लोगों से रुष्ट थे। भगवान शंकर के दर्शन के लिए पांडव काशी गए, पर वे उन्हें वहां नहीं मिले। वे लोग उन्हें खोजते हुए हिमालय तक आ पहुंचे। भगवान शंकर पांडवों को दर्शन नहीं देना चाहते थे, इसलिए वे वहां से अंतर्ध्यान हो कर केदार में जा बसे। दूसरी ओर, पांडव भी लगन के पक्के थे, वे उनका पीछा करते-करते केदार पहुंच ही गए। भगवान शंकर ने तब तक बैल का रूप धारण कर पशुओं में जा मिले थे । पांडवों को संदेह हो गया भीम ने अपना विशाल रूप धारण कर दो पहाडों पर पैर फैला दिया। अन्य सब गाय-बैल तो निकल गए, पर शंकर जी रूपी बैल पैर के नीचे से जाने को तैयार नहीं हुए। भीम बलपूर्वक  बैल पर झपटे, लेकिन बैल भूमि में अंतर्ध्यान होने लगा। तब भीम ने बैल की त्रिकोणात्मक पीठ का भाग पकड़ लिया। भगवान शंकर पांडवों की भक्ति, दृढ संकल्प देख कर प्रसन्न हो गए। उन्होंने तत्काल दर्शन देकर पांडवों को पाप मुक्त कर दिया। उसी समय से भगवान शंकर बैल की पीठ की आकृति-पिंड के रूप में श्री केदारनाथ में पूजे जाते हैं। ऐसा माना जाता है कि जब भगवान शंकर बैल के रूप में अंतर्ध्यान हुए, तो उनके धड़ से ऊपर का भाग काठमाण्डू में प्रकट हुआ। अब वहां पशुपतिनाथ का प्रसिद्ध मंदिर है। शिव की भुजाएं तुंगनाथ में, मुख रुद्रनाथ में, नाभि मद्महेश्वर में और जटा कल्पेश्वर में प्रकट हुए। इसलिए इन चार स्थानों सहित श्री केदारनाथ को पंचकेदार कहा जाता है। यहां शिवजी के भव्य मंदिर बने हुए है । चौरीबारी हिमनद के कुंड से निकलती मंदाकिनी नदी के समीप, केदारनाथ पर्वत शिखर के पाद में, कत्यूरी शैली द्वारा निर्मित, विश्व प्रसिद्ध केदारनाथ मंदिर (३,५६२ मीटर) की ऊँचाई पर अवस्थित है। इसे १००० वर्ष से भी पूर्व का निर्मित माना जाता है। जनश्रुति है कि इसका निर्माण पांडवों या उनके वंशज जन्मेजय द्वारा करवाया गया था। साथ ही यह भी प्रचलित है कि मंदिर का जीर्णोद्धार जगद्गुरु आदि शंकराचार्य ने करवाया था। मंदिर के पृष्ठभाग में शंकराचार्य जी की समाधि है। राहुल सांकृत्यायन द्वारा इस मंदिर का निर्माणकाल १०वीं व १२वीं शताब्दी के मध्य बताया गया है। यह मंदिर वास्तुकला का अद्भुत व आकर्षक नमूना है। मंदिर के गर्भ गृह में नुकीली चट्टान भगवान शिव के सदाशिव रूप में पूजी जाती है। केदारनाथ के समीप  वासुकीताल हैं। केदारनाथ पहुँचने के लिए, रुद्रप्रयाग से गुप्तकाशी होकर, २० किलोमीटर आगे गौरीकुंड तक, मोटरमार्ग से और १४ किलोमीटर की यात्रा, मध्यम व तीव्र ढाल से होकर गुज़रनेवाले, पैदल मार्ग द्वारा करनी पड़ती है। मंदिर मंदाकिनी के घाट पर बना हुआ हैं भीतर घारे अन्धकार रहता है और दीपक के सहारे ही शंकर जी के दर्शन होते हैं। शिवलिंग स्वयंभू है। सम्मुख की ओर यात्री जल-पुष्पादि चढ़ाते हैं और दूसरी ओर भगवान को घृत अर्पित कर बाँह भरकर मिलते हैं, मूर्ति चार हाथ लम्बी और डेढ़ हाथ मोटी है। मंदिर के जगमोहन में द्रौपदी सहित पाँच पाण्डवों की विशाल मूर्तियाँ हैं। मंदिर के पीछे कई कुण्ड हैं, जिनमें आचमन तथा तर्पण किया जा सकता है । 17 जून 2013 को नासा के उपग्रह द्वारा लिया गया उत्तर भारत का चित्र जिसमें बादल प्रदर्शित हैं । 17 जून 2013 को उत्तराखंड राज्य में हुयी अचानक मूसलधार वर्षा 340 मिलीमीटर दर्ज की गयी जो सामान्य बेंचमार्क 65.9 मिमी से 375 प्रतिशत ज्यादा होने के कारण बाढ़ के दौरान अचानक उत्तरकाशी में बादल फटने के बाद असिगंगा और भागीरथी में जल स्तर बढ़ गया। वहीं लगातार होती रही बारिश की वजह से गंगा और यमुना का जल स्तर भी तेजी से बढ़ने से  हजारों लोगों के जीवन और संपत्ति का भारी नुकसान हुआ है । हिमालय शृंखला में स्थित केदारनाथ मन्दिर और आसपास के इलाके बाढ़ के कारण क्षतिग्रस्थ हो गये। बाढ़ के कारण भूस्खलन होने लगा, जिससे सैकड़ों घर उजड़ गये और फंसे हुये हजारों लोगों को सुरक्षित पहुंचाया गया। क़ुदरत का क़हर सबसे ज़्यादा पहाड़ी राज्यों उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश में बरपा हुआ। सबसे ज़्यादा तबाही रूद्रप्रयाग ज़िले में स्थित शिव की नगरी केदारनाथ में हुई। केदारनाथ मंदिर का मुख्य हिस्सा और सदियों पुराना गुंबद तो सुरक्षित है लेकिन प्रवेश द्वार नष्ट हो गए है । केदारनाथ, रामबाड़ा, सोनप्रयाग, चंद्रापुरी और गौरीकुंड में भारी नुकसान हुआ है।  केदारनाथ मन्दिर भारी बारिश के कारण मलबे और कीचड़ से क्षतिग्रस्थ हुआ है। जिसके परिणामस्वरूप मंदिर की दीवारें गिर गई और बाढ़ में बह गयी। केदारनाथ उत्तराखण्ड के रूद्रप्रयाग जिले में स्थित है। यह स्थान समुद्रतल से 3584 मीटर की ऊँचाई पर हिमालय पर्वत के गढ़वाल क्षेत्र में आता है।  चतुर्भुजाकार आधार पर पत्थर की बड़ी-बड़ी पट्टिओं से बनाया गया मन्दिर में गर्भगृह की ओर ले जाती सीढ़ियों पर पाली भाषा के शिलालेख लिखे हैं। मन्दिर का मुख्य हिस्सा और सदियों पुराना गुंबद सुरक्षित  लेकिन मंदिर का प्रवेश द्वार और उसके आस-पास का क्षेत्र  पूरी तरह नष्ट   है। प्रलयकारी भाड़ और भूसंखलन आपदा ने केदारनाथ धाम यात्रा के  पड़ाव रामबाड़ा का नामोनिशान ही मिटा दिया एवं केदारनाथ धाम मलबे से पट गया है। धाम में मुख्य मंदिर के गुंबद के अलावा कुछ नहीं बचा है। केदरानाथ धाम के पास बने होटल, बाजार, दस-दस फीट चौड़ी सड़कें, विश्राम स्थल सब मलबे से  समाप्त हैं।पत्थर और चट्टानें से  केदारनाथ क्षेत्र में फैलगई थी ।केदारनाथ परिभ्रमण के दौरान 14 अक्टूबर 202013 को रुद्रप्रयाग जिले का गौरी कुंड से केदारनाथ के लिए साहित्यकार व इतिहासकार सत्येन्द्र कुमार पाठक एवं बिहार जीविकोपार्जन परियोजना समिति के ट्रेनिंग अफसर प्रवीण कुमार पाठक  के साथ रवाना हुआ । गौरीकुण्ड से केदारनाथ के पदयात्रा रास्ते में उत्तराखंड सरकार की ओर से लगाई गई रामबाड़ा टेंट में स्वास्थ्य जांच कराने के बाद भीमचट्टी में स्थित भीम मूर्ति का दर्शन कर  मंदाकनी नदी के किनारे होते हुए केदार चट्टी , केदारनाथ मंदिर पहुच कर बाबा केदारनाथ का दर्शन एवं नंदी का दर्शन तथा प्रलयंकारी बाढ़ से मन्दिर को  बचाने वाली विशाल शिला को देखा । वहां के पुजारी द्वारा शिला को दिव्य शिला बताया गया है । बाबा केदारनाथ आरती में पांच  लोग शामिल हुए । रात्रि में केदारनाथ चट्टी में लगे उत्तराखंड सरकार द्वारा यात्री टेंट में विश्राम किया । केदारनाथ मंदिर क्षेत्र प्रलयंकारी आपदा से वीरान पड़ी है । रास्ते में हृदय विदारक क्षतिग्रस्त एवं भवनों को देखा गया । केदारनाथ यात्रा के लिए सोनप्रयाग से गौरीकुंड तक पैदल एवं गौरीकुंड से केदारनाथ तक पैदल , घोड़े से यात्रा की जाती है ।

सोमवार, जनवरी 24, 2022

माता गौरी का साधना स्थल गौरीकुण्ड...


उत्तराखंड राज्य का चमोली जिले के सोन प्रयाग से केदारनाथ के रास्ते में मंदाकनी नदी के किनारे गौरीकुंड  स्थित है। गौरी कुण्ड समुद्र तल से 6502 फीट की ऊंचाई पर स्थित है । केदारनाथ यात्रा के दौरान गौरीकुंड स्थान पर रूक कर कुण्ड में स्नान कर आगे बढ़ते है। भगवान शिव ने माता गौरी के प्रेम को स्वीकार किया। गौरीकुंड से 12 कि . मि . की दूरी पर स्थित त्रियुगीनारायण में माता पार्वती और भगवान शिव का विवाह हुआ  था । माता पार्वती  कुण्ड में स्नान करते हुए अपने शरीर के मैल से गणेश जी को बना कर प्रवेश द्वार पर खडा किया। जब भगवान शिव इस स्थान पर पहुंचे तभी  गणेश ने उन्हें रोक दिया था। इस पर भगवान शिव क्रोधित हो गये और गणेश का सिर काट दिया। माता पार्वती बहुत दुःखी और क्रोधित हो गई। माता पार्वती ने अपने बेटे गणेश का जीवित करने को कहा। भगवान शिव ने हाथी का सिर गणेश के शरीर पर लगा दिया था। इस प्रकार भगवान गणेश के जन्म और हाथी के सिर की कथा स्थान से जुड़ी हुई । गौरीकुंड में वासुकी गंगा केदारनाथ से वासुकी ताल होते हुए मंदाकिनी में मिलती है । गौरीकुंड १९८१ मी. ऊँचाई पर है।गौरीकुंड  से केदारनाथ की दूरी १४ किलोमीटर दूरी तय करने के लिए पैदल ,  घोड़े, डाँडी या कंडी से  करते हैं। गौरीकुंड में,, मंदाकिनी के दाहिने तट पर, गर्म पानी के दो सोते (५३°C और २३°C) है । एच.जी. वाल्टन ने ब्रिटिश गढ़वाल गजटियर में लिखा है कि गौरीकुंड मंदाकिनी के तट पर चट्टी थी। गौरा चट्टी  माता गौरी को समर्पित –है। यहां अत्यधिक समर्पण भाव के साथ संध्याकालीन आरती की जाती है। पावन मंदिरगर्भ में शिव और पार्वती की धात्विक प्रतिमाएं विराजमान हैं। यहां एक पार्वतीशिला विद्यमान है । माता  पार्वती ने गौरी चट्टी में बैठकर ध्यान लगाया था । पहाड़ी इलाको का भव्य नज़ारा और कुंड के निकट बहती वासुकी गंगा के चारो ओरे उज्जवल हरियाली देखने के लिए  आकर्षक जगह है | पुरणों के अनुसार  गौरीकुंड वह स्थान है , जहाँ देवी पारवती ने सौ साल तक भगवान शिव को पति के रूप में पाने के लिए ध्यान या तपस्या की थी । गौरी कुंड के निकट माता गौरी का एक प्राचीन मंदिर  देवी पारवती को समर्पित है | गौरीकुंड के निकट प्रसिद्ध “ त्रियुगीनारायण मंदिर “ स्थित है । जहाँ भगवान शिव का विवाह देवी पार्वती के साथ हुआ था ।  मंदिर में युगल की मूर्तियों की जटिलताएं हैं । त्रियुगीनारायण स्थान के समीप  दो पवित्र स्नान पूल  उपस्थित है , जिनमे से एक पूल में गर्म पानी सल्फर के निशान के साथ निकलता है और दुसरे कुंड से ठंडा पानी निकलता है , जिसे गौरीकुंड कहा जाता है | कुंड का पानी अक्सर बदलता रहता है ,गर्म पानी से तेज पानी मन्दाकिनी नदी से निकलता है ।  संहिताओं एवं देवी भागवत के अनुसार भगवान शिव ने गंगा को अपनी जटा में बांध लिया था । शिव का स्पर्श पाकर वह पवित्र हो गईं । यह पार्वती को अच्छा नहीं लगा था कि वो हमेशा शिव के साथ रहें । ऐसे में जब इस कुंड के पास से कोई यात्री गंगाजल लेकर कोई गुजरने पर पानी में उबाल आ जाता है । महिला गौरी  कुंड में गंदे वस्त्रों से स्नान करे या वस्त्र कुंड में फेंक देने पर कुंड का पानी सूख जाता है । सोन प्रयाग से गौरीकुंड मार्ग के मध्य में भगवान शिव द्वारा गणेश के काटा हुआ सिर का स्मरण कराता है  । गौरीकुंड के समीप गणेश जी का  “सिरकाता मंदिर” । गणेशजी का सिरकटा मंदिर के संबंध कहा जाता है कि देवी पार्वती ने  प्रभु गणेश को दरवाजे की रक्षा करने का आदेश दिया क्योंकि वह पूल में स्नान कर रही थी । प्रभु गणेश ने पूल के अंदर भगवान शिव को जाने के लिए प्रतिबंधित किया । भगवान शिव ने क्रोध में प्रभु गणेश का सर काट दिया , लेकिन भगवान शिव को यह मालूम नहीं था कि गणेश उनका अपना बेटा था | देवी पार्वती  को प्रभु गणेश की मृत्यु का बारे में पता चलते ही , देवी पारवती ने भगवान शिव को अपने प्यारे पुत्र का जीवन वापस लाने के लिए विनती की | माता पार्वती के क्रोध को शांत करने के लिए भगवान शिव ने गणेश के सिर को एक सफ़ेद हाथी के सिर के साथ बदल दिया और गणेश को अमरता का उत्तराखंड राज्य का चमोली जिले के सोन प्रयाग से केदारनाथ के रास्ते में मंदाकनी नदी के किनारे गौरीकुंड  स्थित है। गौरी कुण्ड समुद्र तल से 6502 फीट की ऊंचाई पर स्थित है । केदारनाथ यात्रा के दौरान गौरीकुंड स्थान पर रूक कर कुण्ड में स्नान कर आगे बढ़ते है। भगवान शिव ने माता गौरी के प्रेम को स्वीकार किया। गौरीकुंड से 12 कि . मि . की दूरी पर स्थित त्रियुगीनारायण में माता पार्वती और भगवान शिव का विवाह हुआ  था । माता पार्वती  कुण्ड में स्नान करते हुए अपने शरीर के मैल से गणेश जी को बना कर प्रवेश द्वार पर खडा किया। जब भगवान शिव इस स्थान पर पहुंचे तभी  गणेश ने उन्हें रोक दिया था। इस पर भगवान शिव क्रोधित हो गये और गणेश का सिर काट दिया। माता पार्वती बहुत दुःखी और क्रोधित हो गई। माता पार्वती ने अपने बेटे गणेश का जीवित करने को कहा। भगवान शिव ने हाथी का सिर गणेश के शरीर पर लगा दिया था। इस प्रकार भगवान गणेश के जन्म और हाथी के सिर की कथा स्थान से जुड़ी हुई । गौरीकुंड में वासुकी गंगा केदारनाथ से वासुकी ताल होते हुए मंदाकिनी में मिलती है । गौरीकुंड १९८१ मी. ऊँचाई पर है।गौरीकुंड  से केदारनाथ की दूरी १४ किलोमीटर दूरी तय करने के लिए पैदल ,  घोड़े, डाँडी या कंडी से  करते हैं। गौरीकुंड में,, मंदाकिनी के दाहिने तट पर, गर्म पानी के दो सोते (५३°C और २३°C) है । एच.जी. वाल्टन ने ब्रिटिश गढ़वाल गजटियर में लिखा है कि गौरीकुंड मंदाकिनी के तट पर चट्टी थी। गौरा चट्टी  माता गौरी को समर्पित –है। यहां अत्यधिक समर्पण भाव के साथ संध्याकालीन आरती की जाती है। पावन मंदिरगर्भ में शिव और पार्वती की धात्विक प्रतिमाएं विराजमान हैं। गौरीकुंड में  पार्वतीशिला विद्यमान है । माता  पार्वती ने गौरी चट्टी में बैठकर ध्यान लगाया था । पहाड़ी इलाको का भव्य नज़ारा और कुंड के निकट बहती वासुकी गंगा के चारो ओरे उज्जवल हरियाली देखने के लिए  आकर्षक जगह है | पुरणों के अनुसार  गौरीकुंड वह स्थान है , जहाँ देवी पारवती ने सौ साल तक भगवान शिव को पति के रूप में पाने के लिए ध्यान या तपस्या की थी । गौरी कुंड के निकट माता गौरी का एक प्राचीन मंदिर  देवी पारवती को समर्पित है | गौरीकुंड के निकट प्रसिद्ध “ त्रियुगीनारायण मंदिर “ स्थित है । जहाँ भगवान शिव का विवाह देवी पार्वती के साथ हुआ था ।  मंदिर में युगल की मूर्तियों की जटिलताएं हैं । त्रियुगीनारायण स्थान के समीप  दो पवित्र स्नान पूल  उपस्थित है , जिनमे से एक पूल में गर्म पानी सल्फर के निशान के साथ निकलता है और दुसरे कुंड से ठंडा पानी निकलता है , जिसे गौरीकुंड कहा जाता है | कुंड का पानी अक्सर बदलता रहता है ,गर्म पानी से तेज पानी मन्दाकिनी नदी से निकलता है ।  संहिताओं एवं देवी भागवत के अनुसार भगवान शिव ने गंगा को अपनी जटा में बांध लिया था । शिव का स्पर्श पाकर वह पवित्र हो गईं । यह पार्वती को अच्छा नहीं लगा था कि वो हमेशा शिव के साथ रहें । ऐसे में जब इस कुंड के पास से कोई यात्री गंगाजल लेकर कोई गुजरने पर पानी में उबाल आ जाता है । महिला गौरी  कुंड में गंदे वस्त्रों से स्नान करे या वस्त्र कुंड में फेंक देने पर कुंड का पानी सूख जाता है । सोन प्रयाग से गौरीकुंड मार्ग के मध्य में भगवान शिव द्वारा गणेश के काटा हुआ सिर का स्मरण कराता है  । गौरीकुंड के समीप गणेश जी का  “सिरकाता मंदिर” । गणेशजी का सिरकटा मंदिर के संबंध कहा जाता है कि देवी पार्वती ने  प्रभु गणेश को दरवाजे की रक्षा करने का आदेश दिया क्योंकि वह पूल में स्नान कर रही थी । प्रभु गणेश ने पूल के अंदर भगवान शिव को जाने के लिए प्रतिबंधित किया । भगवान शिव ने क्रोध में प्रभु गणेश का सर काट दिया , लेकिन भगवान शिव को यह मालूम नहीं था कि गणेश उनका अपना बेटा था | देवी पार्वती  को प्रभु गणेश की मृत्यु का बारे में पता चलते ही , देवी पारवती ने भगवान शिव को अपने प्यारे पुत्र का जीवन वापस लाने के लिए विनती की | माता पार्वती के क्रोध को शांत करने के लिए भगवान शिव ने गणेश के सिर को एक सफ़ेद हाथी के सिर के साथ बदल दिया और गणेश को अमरता का वरदान देकर “गणपति” नामकरण दिया । प्रभु गणेश की पुरे भारत भर में समृद्धि और खुशी के देवता के रूप में पूजा होती है । गौरी कुंड के समीप उमा शंकर शीला  चट्टान है , जहां 12 संतों की आत्माएं निवास करते थी ।    पवित्र तीर्थ स्थान गौरीकुंड , कालीमठ मंदिर , केदारनाथ मंदिर , तुंगनाथ मंदिर , कोटेश्वर महादेव मंदिर , हरियाली देवी मंदिर , गुप्तकाशी मंदिर और त्रियुगीनारायण मंदिर दर्शन कर अपनी मनोकामना पूर्ण कर सकते है ।वरदान देकर “गणपति” नामकरण दिया । प्रभु गणेश की पुरे भारत भर में समृद्धि और खुशी के देवता के रूप में पूजा होती है । गौरी कुंड के समीप उमा शंकर शीला  चट्टान है , जहां 12 संतों की आत्माएं निवास करते थी ।    पवित्र तीर्थ स्थान गौरीकुंड , कालीमठ मंदिर , केदारनाथ मंदिर , तुंगनाथ मंदिर , कोटेश्वर महादेव मंदिर , हरियाली देवी मंदिर , गुप्तकाशी मंदिर और त्रियुगीनारायण मंदिर दर्शन कर अपनी मनोकामना पूर्ण कर सकते है । केदारनाथ परिभ्रमण के दौरान गुप्त काशी , सोन प्रयाग में गौरी कुंड एवं केदारनाथ क्षेत्र में 16 एवं 17 जून 2013 को वारिस तथा भुस्खलन के त्रासदी से 1309 हेक्टयर भूमि , मकान , होटल ,रामबाड़ा ग्राम , 172 छोटे पुल , 86 मोटर पुल ,बाढ़ के कारण ध्वस्त तथा दाह गया था । 13 अक्टूबर 2013 को केदारनाथ यात्रा के दौरान साहित्यकार व इतिहासकार सत्येन्द्र कुमार पाठक एवं बिहार जीविकोपार्जन परियोजना समिति के प्रशिक्षण पदाधिकारी प्रवीण कुमार पाठक  गुप्त काशी से सोन प्रयाग तक छोटी गाड़ी से सोनप्रयाग में पहुच कर त्रासदी को परखा । सोन प्रयाग से गौरीकुंड तक पदयात्रा की । गौरीकुंड में त्रासदी में हुए क्षतिग्रस्त एवं गौरी मंदिर एवं माता पार्वती का साधना स्थल देखा परंतु गौरीकुंड का अस्तिव  समाप्त था । पर्वतों से निकल गर्म जल का सोत मंदाकनी नदी में प्रवाहित हो रही थी । गौरीमन्दिर में दीवार में मूर्तियां थी लेकिन मंदिर में माता गौरी की मूर्तियां नही थी । ग्रामीणों ने बताया कि त्रासदी में मंदिर की मूर्तियां प्रवाहित हो गयी है । मंदाकनी नदी के किनारे त्रासदी में मारे गए इंसान का संस्कार किया गया था का स्थल है । गौरीकुण्ड स्थित होटल में रात्रि विश्राम कर केदारनाथ यात्रा 14 अक्टूबर 2013 को प्रारम्भ की थी । सोन प्रयाग में त्रासदी से भवन , सड़के समाप्त हो गयी थी । सोनप्रयाग में उत्तराखंड की प्रशासन एवं पुलिश प्रशासन द्वारा केदारनाथ यात्रियों की सुरक्षा के लिए यात्रियों के साथ गौरीकुंड तक  प्रबंध किया गया था ।सोन प्रयाग से गौरीकुंड तक 10 यात्री यात्रा की थी ।यात्रा क्रमा में सिरकटा गणेश जी मंदिर का दर्शन करने के बाद गौरीकुण्ड गया था ।

शुक्रवार, जनवरी 21, 2022

आध्यात्म , भुक्ति और मुक्ति का स्थल काशी ...


 वेदों , उपनिषदों , स्मृतियों , इतिहास के पन्नों , लिंगपुराण ,शिवपुराण , स्कन्दपुराण, रामायण एवं महाभारतऔर  ऋग्वेद में काशी  का उल्लेख  है। गौतम बुद्ध ( ५६७ ई.पू.) के काल में, वाराणसी  राज्य की राजधानी काशी हुआ करता था। प्रसिद्ध चीनी यात्री ह्वेन त्सांग ने काशी  को धार्मिक, शैक्षणिक एवं कलात्मक गतिविधियों का केन्द्र और काशी का विस्तार गंगा नदी के किनारे ५ कि॰मी॰ तक  विकशित है ।  मगध का राजा जरासन्ध ने  काशी साम्राज्य को शामिल मगध में कर लिया था ।आर्यों के यहां कन्या के विवाह स्वयंवर के द्वारा होते थे। पाण्डव और कौरव के पितामह भीष्म ने काशी नरेश की तीन पुत्रियों अंबा, अंबिका और अंबालिका का अपहरण किया था। इस अपहरण के परिणामस्वरूप काशी और हस्तिनापुर की शत्रुता हो गई। महाभारत युद्ध में जरासन्ध और उसका पुत्र सहदेव दोनों काम आये। कालांतर में गंगा की बाढ़ ने पाण्डवों की राजधानी हस्तिनापुर को डुबा दिया, तब पाण्डव वर्तमान प्रयागराज जिला में यमुना किनारे कौशाम्बी में नई राजधानी बनाकर बस गए। उनका राज्य वत्स कहलाया और काशी पर मगध की जगह अब वत्स का अधिकार हुआ। ब्रह्मदत राजकुल का काशी पर अधिकार हुआ। पंजाब में कैकेय राजकुल में राजा अश्वपति था। तभी गंगा-यमुना के दोआब में राज करने वाले पांचालों में राजा प्रवहण जैबलि ने  अपने ज्ञान का डंका बजाया था। इसी काल में जनकपुर, मिथिला में विदेहों के शासक जनक हुए, जिनके दरबार में याज्ञवल्क्य ज्ञानी महर्षि और गार्गी पंडिता नारियां शास्त्रार्थ करती थी । काशी राज्य का राजा अजातशत्रु हुआ । ये आत्मा और परमात्मा के ज्ञान में अनुपम था। ब्रह्म और जीवन के सम्बन्ध पर, जन्म और मृत्यु पर, लोक-परलोक पर तब देश में विचार को उपनिषद् कहते हैं। वैशाली और मिथिला के लिच्छवियों में वर्धमान महावीर , कपिलवस्तु के शाक्यों में गौतम बुद्ध हुए। काशी का राजा अश्वसेन के यहां 23 वे तीर्थंकर पार्श्वनाथ हुए । काशी वत्सों के हाथ में जाती, कभी मगध के और कभी कोसल के। पार्श्वनाथ के बाद और बुद्ध के पूर्व  कोसल-श्रावस्ती के राजा कंस ने काशी को जीतकर अपने राज में मिला लिया था । राजा महाकोशल ने  अपनी बेटी कोसल देवी का मगध के राजा बिम्बसार से विवाह कर दहेज के रूप में काशी की वार्षिक आमदनी एक लाख मुद्रा प्रतिवर्ष देना आरंभ किया और इस प्रकार काशी मगध के नियंत्रण में पहुंच गई। राज के लोभ से मगध के राजा बिम्बसार के बेटे अजातशत्रु ने पिता को मारकर गद्दी छीन ली। तब विधवा बहन कोसलदेवी के दुःख से दुःखी उसके भाई कोसल के राजा प्रसेनजित ने काशी की आमदनी अजातशत्रु को देना बन्द कर दिया था । मगध राजा अजातशत्रु काशी  साम्राज्य को मगध  साम्राज्य में समाहित कर दिया था । मगध की राजधानी राजगृह से पाटलिपुत्र होने के बाद काशी पर आक्रमण नहीं हुआ था । काशी नरेशों में ब्राह्मण मनसा राम १७३७ से १७४० , ब्राह्मणबलवंत सिंह १७४० से १७७० , ब्राह्मणचैत सिंह१७७० से १७८० , ब्राह्मणमहीप नारायण सिंह १७८१ से १७९४ , ब्राह्मणमहाराजा उदित नारायण सिंह१७९४ से १८३५ , महाराजा श्री ईश्वरी नारायण सिंह बहादुर १८३५ से १८८९ , लेफ़्टि. कर्नल महाराजा श्री सर प्रभु नारायण सिंह बहादुर१८८९ से १९३१ , कैप्टन महाराजा श्री सर आदित्य नारायण सिंह१९३१ से १९३९ , डॉ॰विभूति नारायण सिंह १९३९ से १९४७ ,  डॉ॰ विभूति नारायण सिंह  काशी नरेश थे।  १५ अक्टूबर १९४८ को काशी राज्य भारतीय संघ में मिल गया। २००० ई. से   अनंत नारायण सिंह काशी नरेश काशी  परंपरा के वाहक है । जगत्प्रसिद्ध प्राचीन काशी  गंगा के वाम (उत्तर) तट पर  दक्षिण-पूर्वी कोने में वरुणा और असी नदियों के गंगासंगमों के बीच बसी हुई है। इस स्थान पर गंगा ने प्राय: चार मील का दक्षिण से उत्तर की ओर घुमाव लिया है । काशी  का  'वाराणसी' नाम वरुणा नदी एवं असी नदी संगम पर रहने के कारण 'बनारस' हो गया था । ऋग्वेद में काशी का उल्लेख  है - 'काशिरित्ते.. आप इवकाशिनासंगृभीता:'। पुराणों के अनुसार काशी  आद्य वैष्णव स्थान है। काशी  भगवान विष्णु (माधव) की पुरी थी। जहां श्रीहरिके आनंदाश्रु गिरने के कारण  बिंदुसरोवर बन गया और प्रभु यहां बिंधुमाधव के नाम से प्रतिष्ठित हुए। भगवान शंकर ने क्रुद्ध होकर ब्रह्माजी का पांचवां सिर काट देने के बाद ब्रह्मा जी का एक सिर भगवान शिव के करतल से चिपक गया। बारह वर्षों तक अनेक तीर्थों में भ्रमण करने पर ब्रह्मा जी का सिर भगवान शिव के करतल से अलग नहीं हुआ परंतु  भगवान शिव ने काशी की सीमा में प्रवेश किया, ब्रह्महत्या ने उनका पीछा छोड़ दिया और वह कपाल अलग होने के कारण  कपालमोचन-तीर्थ है ।   काशी  अच्छी लगने के कारण  कि भगवान शिव ने काशी  पुरी को भगवान  विष्णुजी से अपने नित्य आवास के लिए मांग लिया। तब से काशी भगवान शिव का निवास-स्थान बन गया। हरिवंशपुराण के अनुसार भारतवंशी काश द्वारा  काशी को बसाया गया ' था । अर्थर्ववेद  पैप्पलादसंहिता में (५, २२, १४)  है। शुक्लयजुर्वेद के शतपथ ब्राह्मण में (१३५, ४, १९) काशिराज धृतराष्ट्र को शतानीक सत्राजित् ने पराजित किया था। बृहदारण्यकोपनिषद् में (२, १, १, ३, ८, २) काशिराज अजातशत्रु का  उल्लेख है। कौषीतकी उपनिषद् (४, १) और बौधायन श्रौतसूत्र में काशी और विदेह तथा गोपथ ब्राह्मण में काशी और कोसल जनपदों का  वर्णन है। काशी, कोसल और विदेह के पुरोहित जलजातूकर्ण्य का  शांखायन श्रौतसूत्र में है। वाल्मीकि रामायण में (किष्किंधा कांड ४०, २२) सुग्रीव द्वारा वानरसेना को पूर्वदिशा की ओर भेजे जाने के संदर्भ में काशी और कोसल जनपद के निवासियोंका  उल्लेख है । महीं कालमहीं चापि शैलकानन शोभिंता। ब्रह्ममालन्विदेहांश्च मालवान्काशिक सलान्। महाभारत  आदि पूर्व अध्याय 102 के अनुसार काशिराज की कन्याओं के भीष्म द्वारा अपहरण किया गया था अंगुत्तरनिकाय में काशी की भारत के १६ महाजनपदों में गणना की गई है। जातक कथाओं में काशी जनपद का अनेक बार उल्लेख आया है, जिससे ज्ञात होता है कि काशी उस समय विद्या तथा व्यापार दोनों का ही केंद्र थी। अक्तिजातक में बोधिसत्व के १६ वर्ष की आयु में काशी  जाकर विद्या ग्रहण किया  है। खंडहालजातक में काशी के सुंदर और मूल्यवान रेशमी कपड़ों का वर्णन है। भीमसेनजातक में यहाँ के उत्तम सुगंधित द्रव्यों का भी उल्लेख है। जातककथाओं में  बुद्धपूर्वकाल में काशी देश पर ब्रह्मदत्त नाम के राजकुल का बहुत दिनों तक राज्य रहा था ।
काशी में  शिवोपासना का वर्णन महाभारत वैन पर्व 84 , 78 में  है– ततो वाराणसीं गत्वा अर्चयित्वा वषध्वजम । कीथ के अनुसार वरुणा नदी का वर्णन  अर्थर्ववेद के इस मंत्र में है– वारिद वारयातै वरुणावत्यामधि। तत्रामृतस्यासिक्तं तेना ते वारये विषम् (४, ७, १)। युवजयजातक में वाराणसी को  ब्रह्मवद्धन , उब्रह्मवर्धन, सुरूंधन, सुदस्सन , उसुदर्शन,  पुप्फवती , उपुष्पवती और रम्म , उरम्या एवं संखजातक में मालिनी आदि नाम हैं। गौतम बुद्ध के समय में काशी राज्य कोसल जनपद के अंतर्गत था।  स्कंदपुराण में काशी के माहात्म्य पर 'काशीखंड' नामक अध्याय लिखा गया। पुराणों में काशी को मोक्षदायिनी पुरियों में स्थान दिया गया है। चीनी यात्री फ़ाह्यान (चौथी शती ई.और युवानच्वांग अपनी यात्रा के दौरान काशी आए थे। युवानच्यांग ने सातवीं शताब्दी ई. के पूर्वार्ध में  ३० बौद्ध बिहार और १०० हिंदू मंदिर देखे थे। नवीं शताब्दी ई. में जगद्गुरु शंकराचार्य ने  विद्याप्रचार से काशी को भारतीय संस्कृति एवं आर्य धर्म का सर्वाधिक महत्वपूर्ण केंद्र बना दिया।
1193 ई . में मुहम्मद गोरी ने कन्नौज को जीतने से काशी का प्रदेश  मुसलमानों के अधिकार में आ गया। दिल्ली के सुल्तानों के आधिपत्यकाल में भारत की प्राचीन सांस्कृतिक परंपराओं को काशी  में शरण मिली। कबीर और रामानंद के धार्मिक और लोकमानस के प्रेरक विचारों से जीता-जागता रखने में पर्याप्त सहायता दी। मुगल सम्राट् अकबर ने हिंदू धर्म की प्राचीन परंपराओं के प्रति  उदारता और अनुराग दिखाया, उसकी प्रेरणा पाकर भारतीय संस्कृति की धारा, बीच के काल में कुछ क्षीण हो चली थी । तुलसीदास, मधुसूदन सरस्वती और पंडितराज जगन्नाथ महाकवियों और पंडितों से  काशी पुन:  प्राचीन गौरव की अधिकारिणी बन गई। काशी नगरी को औरंगजेब की धर्मांधता का शिकार बनना पड़ा। उसने हिंदू धर्म के अन्य पवित्र स्थानों की भाँति काशी के भी प्राचीन मंदिरों को विध्वस्त करा दिया। मूल विश्वनाथ के मंदिर को तुड़वाकर उसके स्थान पर ज्ञान वापी  मस्जिद बनवाई । मुगल साम्राज्य की अवनति होने पर अवध  नवाब सफ़दरजंग ने काशी पर अधिकार कर लिया था । अवध नवाब सफदरजंग के पौत्र  पौत्र ने उसे ईस्ट इंडिया कंपनी को दे डाला। काशीनरेश के पूर्वज बलवंतसिंह ने अवध के नवाब से अपना संबंधविच्छेद कर लिया था। इस प्रकार काशी की रियासत का जन्म हुआ। चेतसिंह ने वारेन हेस्टिंग्ज़ से लोहा लिया था । काशी में 1500 मंदिर में विश्वनाथ, संकटमोचन और दुर्गा के मंदिर  प्रसिद्ध हैं। विश्वनाथ के मूल मंदिर की परंपरा अतीत के इतिहास के अज्ञात युगों तक चली गई है। वर्तमान मंदिर अधिक प्राचीन नहीं है। इसके शिखर पर महाराजा रणजीत सिंह ने सोने के पत्तर चढ़वा दिए थे। संकटमोचन मंदिर की स्थापना गोस्वामी तुलसीदास ने की थी। दुर्गा के मंदिर को १७वीं शती में मराठों ने बनवाया था। गहड़वालों का बनवाया राजघाट का 'आदिकेशव' मंदिर है।
प्रसिद्ध घाटों में दशाश्वमेध, मणिकार्णिंका, हरिश्चंद्र और तुलसीघाट की गिनती की जा सकती है। दशाश्वमेध घाट पर ही जयपुर नरेश जयसिंह द्वितीय का बनवाया हुआ मानमंदिर या वेधशाला है। दशाश्वमेध घाट तीसरी सदी के भारशिव नागों के पराक्रम का स्मारक है। उन्होंने जब-जब अपने शत्रुओं को पराजित किया तब-तब यहीं अपने यज्ञ का अवभृथ स्नान किया। इस प्रकार के दस विजय यज्ञों से संबंधित काशी का यह घाट दशाश्वमेध नाम से विख्यात हुआ। नवीन मंदिरों में भारतमाता का मंदिर तथा तुलसीमानस मंदिर प्रसिद्ध हैं। आधुनिक शिक्षा के केंद्र काशी विश्वविद्यालय की स्थापना महामना मदनमोहन मालवीय ने १९१६ ई. में की। वैसे, प्राचीन परंपरा की संस्कृत पाठशालाएँ तो यहाँ सैकड़ों ही हैं जो संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय, काशी (संस्थापित १९५८ ई.) से संबद्ध है। इसके अतिरिक्त यहाँ काशी विद्यापीठ (संस्थापित १९२१) नामक विश्वविद्यालय भी है जिसमें व्यावहारिक समाजशास्त्र की शिक्षा की भी व्यवस्था है। भारत की सांस्कृतिक राजधानी होने का गौरव इस प्राचीन नगरी को आज भी प्राप्त है। दूसरे शब्दों में यह भी कहा जा सकता है कि काशी ने भारत की सांस्कृतिक एकता के निर्माण तथा संरक्षण में भारी योग दिया है। भारतेंदु आदि साहित्यकारों तथा नागरीप्रचारिणी सभा जैसी संस्थाओं को जन्म देकर काशी ने आधुनिक हिंदी साहित्य को समृद्ध बनाया है। वाराणसी के घाटों का दृश्य बड़ा ही मनोरम है। भागीरथी के धनुषाकार तट पर इन घाटों की पंक्तियाँ दूर तक चली गई हैं। प्रात: काल तो इनकी छटा अपूर्व ही होती है। पुरानी कहावत के अनुसार शामे अवध अर्थात् लखनऊ की शाम और सुबहे बनारस यानी वाराणसी का प्रात:काल देखने योग्य होता है। यहाँ की छोटी-छोटी और असाधारण रूप से सँकरी गलियाँ तथा उनमें स्वच्छंद विचरनेवाले साँड़ अपरिचितों के लिए कुतूहल् है ।महाराज सुदेव के पुत्र राजा दिवोदासने गंगा-तट पर वाराणसी नगर बसाया था। एक बार भगवान शंकर ने देखा कि पार्वती जी को अपने मायके (हिमालय-क्षेत्र) में रहने में संकोच होता है, तो उन्होंने किसी दूसरे सिद्धक्षेत्रमें रहने का विचार बनाया। उन्हें काशी अतिप्रिय लगी। वे यहां आ गए। भगवान शिव के सान्निध्य में रहने की इच्छा से देवता भी काशी में आ कर रहने लगे। राजा दिवोदास अपनी राजधानी काशी का आधिपत्य खो जाने से बडे दु:खी हुए। उन्होंने कठोर तपस्या करके ब्रह्माजी से वरदान मांगा- देवता देवलोक में रहें, भूलोक (पृथ्वी) मनुष्यों के लिए रहे। सृष्टिकर्ता ने एवमस्तु कह दिया। इसके फलस्वरूप भगवान शंकर और देवगणों को काशी छोड़ने के लिए विवश होना पडा। शिवजी मन्दराचलपर्वत पर चले तो गए परंतु काशी से उनका मोह कम नहीं हुआ। महादेव को उनकी प्रिय काशी में पुन: बसाने के उद्देश्य से चौसठ योगनियों, सूर्यदेव, ब्रह्माजी और नारायण ने बड़ा प्रयास किया। गणेशजी के सहयोग से अन्ततोगत्वा यह अभियान सफल हुआ। ज्ञानोपदेश पाकर राजा दिवोदासविरक्त हो गए। उन्होंने स्वयं एक शिवलिंग की स्थापना करके उस की अर्चना की और बाद में वे दिव्य विमान पर बैठकर शिवलोक चले गए। महादेव काशी वापस आ गए। स्कन्दमहापुराण में काशीखण्ड के नाम से एक विस्तृत पृथक विभाग ही है। इस पुरी के बारह प्रसिद्ध नाम- काशी, वाराणसी, अविमुक्त क्षेत्र, आनन्दकानन, महाश्मशान, रुद्रावास, काशिका, तप:स्थली, मुक्तिभूमि, शिवपुरी, त्रिपुरारिराजनगरीऔर विश्वनाथनगरी हैं।स्कन्दपुराण काशी की महिमा का गुण-गान करते हुए कहता है- भूमिष्ठापिन यात्र भूस्त्रिदिवतोऽप्युच्चैरध:स्थापियाया बद्धाभुविमुक्तिदास्युरमृतंयस्यांमृताजन्तव:। या नित्यंत्रिजगत्पवित्रतटिनीतीरेसुरै:सेव्यतेसा काशी त्रिपुरारिराजनगरीपायादपायाज्जगत्॥ भूतल पर होने पर  पृथ्वी से संबद्ध नहीं है ।जगत की सीमाओं से बंधी होने पर भी सभी का बन्धन काटनेवाली मोक्षदायिनी गंगा  है । महात्रिलोकपावनी गंगा के तट पर सुशोभित तथा देवताओं से सुसेवित है, त्रिपुरारि भगवान विश्वनाथ की राजधानी वह काशी संपूर्ण जगत् की रक्षा करे। सनातन धर्म के ग्रंथों के अध्ययन से काशी का लोकोत्तर स्वरूप विदित होता है। कहा जाता है कि यह पुरी भगवान शंकर के त्रिशूल पर बसी है।  प्रलय होने पर भी इसका नाश नहीं होता है। वरुणा और असि नामक नदियों के बीच पांच कोस में बसी होने के कारण इसे वाराणसी भी कहते हैं। काशी नाम का अर्थ भी यही है-जहां ब्रह्म प्रकाशित हो। भगवान शिव काशी को कभी नहीं छोडते। जहां देह त्यागने मात्र से प्राणी मुक्त हो जाय, वह अविमुक्त क्षेत्र  है। सनातन धर्मावलंबियों का दृढ विश्वास है कि काशी में देहावसान के समय भगवान शंकर मरणोन्मुख प्राणी को तारकमन्त्र सुनाते हैं। इससे जीव को तत्वज्ञान हो जाता है। शास्त्रों का उद्घोष है- यत्र कुत्रापिवाकाश्यांमरणेसमहेश्वर:।जन्तोर्दक्षिणकर्णेतुमत्तारंसमुपादिशेत्॥ काशी मे मृत्यु के समय भगवान विश्वेश्वर प्राणियों के दाहिने कान में तारक मन्त्र का उपदेश देते हैं। तारकमन्त्र सुन कर जीव भव-बन्धन से मुक्त हो जाता है। काशी मुक्ति और मोक्ष स्थल  देती है । स्कन्द पुराण काशी खंड के अनुसार अन्यानिमुक्तिक्षेत्राणिकाशीप्राप्तिकराणिच।काशींप्राप्य विमुच्येतनान्यथातीर्थकोटिभि:।। पांच कोस की संपूर्ण काशी ही विश्व के अधिपति भगवान विश्वनाथ का आधिभौतिक स्वरूप है। काशीखण्ड  ज्योतिर्लिंग का स्वरूप  है ।अविमुक्तंमहत्क्षेत्रं पंचक्रोशपरीमितम्।"ज्योतिलंगम्तदेकंहि ज्ञेयंविश्वेश्वराभिधम्॥पांच कोस परिमाण के अविमुक्त क्षेत्र को विश्वेश्वर संज्ञक ज्योतिर्लिंग-स्वरूप है ।स्मृतियों में  काशी मरणान्मुक्ति:के सिद्धांत  है। रामकृष्ण मिशन के स्वामी शारदानंदजी द्वारा लिखित श्रीरामकृष्ण-लीलाप्रसंग  पुस्तक में श्रीरामकृष्ण परमहंस देव का  प्रत्यक्ष अनुभव  है। वह दृष्टांत बाबा विश्वनाथ द्वारा काशी में पाप करने वाले को मरणोपरांत मुक्ति मिलने से पहले अतिभयंकर भैरवी यातना भोगनी पडती है। सहस्रों वर्षो तक रुद्र पिशाच बन कर कुकर्मो का प्रायश्चित्त करने के उपरांत  उसे मुक्ति मिलती है।  काशी में प्राण त्यागने वाले का पुनर्जन्म नहीं होता है। मुक्तिदायिनीकाशी की यात्रा,  निवास और मरण तथा दाह-संस्कार का सौभाग्य पूर्वजन्मों के पुण्यों के प्रताप तथा बाबा विश्वनाथ की कृपा से  प्राप्त होता है। काशी की स्तुति में कहा गया है- यत्र देहपतनेऽपिदेहिनांमुक्तिरेवभवतीतिनिश्चितम्।पूर्वपुण्यनिचयेनलभ्यतेविश्वनाथनगरीगरीयसी॥ काशी के अधिपति भगवान विश्वनाथ कहते हैं- इदं मम प्रियंक्षेत्रं पंचक्रोशीपरीमितम्। पांच कोस तक विस्तृत यह क्षेत्र (काशी) मुझे अत्यंत प्रिय है। पतित-पावनी काशी में स्थित विश्वेश्वर (विश्वनाथ) ज्योतिर्लिंग सनातनकाल से हिंदुओं के लिए परम आराध्य है, किंतु जनसाधारण इस तथ्य से प्राय: अनभिज्ञ ही है कि यह ज्योतिर्लिंग पांच कोस तक विस्तार लिए हुए है- पंचक्रोशात्मकं लिंगंज्योतिरूपंसनातनम्। ज्ञानरूपा पंचक्रोशात्मक | यह पुण्यक्षेत्र काशी के नाम से भी जाना जाता है-ज्ञानरूपा तुकाशीयं पंचक्रोशपरिमिता। पद्मपुराण में लिखा है कि सृष्टि के प्रारंभ में जिस ज्योतिर्लिगका ब्रह्मा और विष्णुजी ने दर्शन किया, उसे ही वेद और संसार में काशी नाम से पुकारा गया- यल्लिंगंदृष्टवन्तौहि नारायणपितामहौ।तदेवलोकेवेदेचकाशीतिपरिगीयते॥पांच कोस की काशी चैतन्यरूप है। इसलिए यह प्रलय के समय भी नष्ट नहीं होती। प्राचीन ब्रह्मवैक्‌र्त्तपुराणमें इस संदर्भ में स्पष्ट उल्लेख है कि अमर ऋषिगण प्रलयकाल में श्री सनातन महाविष्णुसे पूछते हैं- हे भगवन्!वह छत्र के आकार की ज्योति जल के ऊपर कैसे प्रकाशित है, जो प्रलय के समय पृथ्वी के डूबने पर भी नहीं डूबती? महाविष्णुजी बोले-हे ऋषियो! लिंगरूपधारीसदाशिवमहादेव का हमने (सृष्टि के आरम्भ में) तीनों लोकों के कल्याण के लिए जब स्मरण किया, तब वे शम्भु एक बित्ता परिमाण के लिंग-रूप में हमारे हृदय से बाहर आए और फिर वे बढ़ते हुए अतिशय वृद्धि के साथ पांच कोस के हो गए-लिंगरूपधर:शम्भुहर्दयाद्बहिरागत:।महतींवृद्धिमासाद्य पंचक्रोशात्मकोऽभवत्॥ काशी पंचक्रोशात्मकज्योतिर्लिगहै। काशीरहस्य के दूसरे अध्याय में यह कथानक मिलता है। स्कन्दपुराणके काशीखण्डमें स्वयं भगवान शिव यह घोषणा करते हैं-अविमुक्तं महत्क्षेत्रं पंचक्रोशपरिमितम्।ज्योतिर्लिंगम्तदेकंहि ज्ञेयंविश्वेश्वराऽभिधम्।।पांच कोस परिमाण का अविमुक्त (काशी) नामक जो महाक्षेत्र है, उस सम्पूर्ण पंचक्रोशात्मकक्षेत्र को विश्वेश्वर नामक एक ज्योतिर्लिंग ही मानें। इसी कारण काशी प्रलय होने पर भी नष्ट नहीं होती। काशीखण्डमें भगवान शंकर पांच कोस की पूरी काशी में बाबा विश्वनाथ का वास बताते हैं-एकदेशस्थितमपियथा मार्तण्डमण्डलम्।दृश्यतेसवर्गसर्वै:काश्यांविश्वेश्वरस्तथा॥जैसे सूर्यदेव एक जगह स्थित होने पर भी सब को दिखाई देते हैं, वैसे ही संपूर्ण काशी में सर्वत्र बाबा विश्वनाथ का ही दर्शन होता है।स्वयं विश्वेश्वर (विश्वनाथ) भी पांच कोस की अपनी पुरी (काशी) को अपना ही रूप कहते हैं- पंचक्रोश्यापरिमितातनुरेषापुरी मम। काशी की सीमा के विषय में शास्त्रों का कथन है-असी- वरणयोर्मध्ये पंचक्रोशमहत्तरम। असी और वरुणा नदियों के मध्य स्थित पांच कोस के क्षेत्र (काशी) की बड़ी महिमा है। महादेव माता पार्वती से काशी का इस प्रकार गुणगान करते हैं- सर्वक्षेत्रेषु भूपृष्ठेकाशीक्षेत्रंचमेवपु:। भूलोक के समस्त क्षेत्रों में काशी साक्षात् मेरा शरीर है।
पंचक्रोशात् मकज्योतिर्लिग-स्वरूपाकाशी सम्पूर्ण विश्व के स्वामी श्री विश्वनाथ का निवास-स्थान होने से भव-बंधन से मुक्तिदायिनी है। धर्मग्रन्थों में कहा भी गया है-काशी मरणान्मुक्ति:। काशी की परिक्रमा करने से सम्पूर्ण पृथ्वी की प्रदक्षिणा का पुण्यफल प्राप्त होता है। भक्त सब पापों से मुक्त होकर पवित्र हो जाता है। तीन पंचक्रोशी-परिक्रमा करने वाले के जन्म-जन्मान्तर के सभी पाप नष्ट हो जाते हैं। काशीवासियोंको कम से कम वर्ष में एक बार पंचकोसी-परिक्रमाअवश्य करनी चाहिए क्योंकि अन्य स्थानों पर किए गए पाप तो काशी की तीर्थयात्रा से उत्पन्न पुण्याग्नि में भस्म हो जाते हैं, परन्तु काशी में हुए पाप का नाश केवल पंचकोसी-प्रदक्षिणा से संभव है। काशी में सदाचार-संयम के साथ धर्म का पालन करना चाहिए । काशी और विश्वेश्वर ज्योतिर्लिगमें तत्त्‍‌वत:कोई भेद नहीं है। नि:संदेह सम्पूर्ण काशी ही बाबा विश्वनाथ का स्वरूप है। काशी-महात्म्य में ऋषियों का उद्घोष है-काशी सर्वाऽपिविश्वेशरूपिणीनात्रसंशय:। अतएव काशी को विश्वनाथजी का रूप मानने में कोई संशय न करें और भक्ति-भाव से नित्य जप करें- शिव: काशी शिव: काशी, काशी काशी शिव: शिव:। ज्येष्ठ मास के शुक्लपक्ष की एकादशी तिथि (निर्जला एकादशी) के दिन श्री काशीविश्वनाथ की वार्षिक कलश-यात्रा वाराणसी में बडी धूमधाम एवं श्रद्धा के साथ आयोजित होती है, जिसमें बाबा का पंचमहानदियोंके जल से अभिषेक होता है। काशी शब्द का अर्थ है, प्रकाश देने वाली नगरी। जिस स्थान से ज्ञान का प्रकाश चारों ओर फैलता है, उसे काशी कहते हैं। ऐसी मान्यता है कि काशी-क्षेत्र में देहान्त होने पर जीव को मोक्ष की प्राप्ति होती है, काश्यांमरणान्मुक्ति:। काशी-क्षेत्र की सीमा निर्धारित करने के लिए पुराकालमें पंचक्रोशीमार्ग का निर्माण किया गया। जिस वर्ष अधिमास (अधिक मास) लगता है, उस वर्ष इस महीने में पंचक्रोशीयात्रा की जाती है। पंचक्रोशी (पंचकोसी) यात्रा करके भक्तगण भगवान शिव और उनकी नगरी काशी के प्रति अपना सम्मान प्रकट करते हैं। लोक में ऐसी मान्यता है कि पंचक्रोशीयात्रा से लौकिक और पारलौकिक अभीष्टिकी सिद्धि होती है। अधिमास को पुरुषोत्तम मास भी कहा जाता है। लोक-भाषा में इसे मलमास कहा जाता है। इस वर्ष मलमास प्रथम-ज्येष्ठ शुक्ल (अधिक) प्रतिपदा से प्रारम्भ होकर द्वितीय-ज्येष्ठ कृष्णपक्ष (अधिक) अमावस्या तिथि को समाप्त होगा। पंचक्रोशीयात्रा के कुछ नियम है, जिनका पालन यात्रियों को करना पड़ता है। परिक्रमा नंगे पांव की जाती है। वाहन से परिक्रमा करने पर पंचक्रोशी-यात्राका पुण्य नहीं मिलता। शौचादिक्रिया काशी-क्षेत्र से बाहर करने का विधान है। परिक्रमा करते समय शिव-विषयक भजन-कीर्तन करने का विधान है। कुछ ऐसे भी यात्री होते हैं, जो सम्पूर्ण परिक्रमा दण्डवत करते हैं। यात्री हर-हर महादेव शम्भो, काशी विश्वनाथ गंगे, काशी विश्वनाथ गंगे, माता पार्वती संगेका मधुर गान करते हुए परिक्रमा करते हैं। साधु, महात्मा एवं संस्कृतज्ञयात्री महिम्नस्त्रोत, शिवताण्डव एवं रुद्राष्टकका सस्वर गायन करते हुए परिक्रमा करते हैं। महिलाएं सामूहिक रूप से शिव-विषयक लोक गीतों का गायन करती हैं। परिक्रमा अवधि में शाकाहारी भोजन करने का विधान है। पंचक्रोशीयात्रा मणिकर्णिकाघाट से प्रारम्भ होती है। सर्वप्रथम यात्रीगणमणिकर्णिकाकुण्ड एवं गंगा जी में स्नान करते हैं। इसके बाद परिक्रमा-संकल्प लेने के लिए ज्ञानवापी जाते हैं। यहां पर पंडे यात्रियों को संकल्प दिलाते हैं। संकल्प लेने के उपरांत यात्री श्रृंगार गौरी, बाबा विश्वनाथ एवं अन्नपूर्णा जी का दर्शन करके पुन:मणिकर्णिकाघाट लौट आते हैं। यहां वे मणिकर्णिकेश्वरमहादेव एवं सिद्धि विनायक का दर्शन-पूजन करके पंचक्रोशीयात्रा का प्रारम्भ करते हैं। गंगा के किनारे-किनारे चलकर यात्री अस्सी घाट आते है। यहां से वे नगर में प्रवेश करते है। लंका, नरिया, करौंदी, आदित्यनगर, चितईपुरहोते हुए यात्री प्रथम पडाव कन्दवा पर पहुंचते हैं। यहां वे कर्दमेश्वरमहादेव का दर्शन-पूजन करके रात्रि-विश्राम करते हैं। रास्ते में पडने वाले सभी मंदिरों में यात्री देव-पूजन करते हैं। अक्षत और द्रव्य दान करते हैं। रास्ते में स्थान-स्थान पर भिक्षार्थी यात्रियों को नंदी के प्रतीक के रूप में सजे हुए वृषभ का दर्शन कराते हैं और यात्री उन्हें दान-दक्षिणा देते हैं। कुछ भिक्षार्थी शिव की सर्पमालाके प्रतीक रूप में यात्रियों को सर्प-दर्शन कराते हैं और बदले में अक्षत और द्रव्य-दान प्राप्त करते हैं।  परिक्रमा-अवधि में यात्री अपनी पारिवारिक और व्यक्तिगत चिन्ताओं से मुक्त होकर पांच दिनों के लिए शिवमय, काशीमय हो जाते हैं। दूसरे दिन भोर में यात्री कन्दवा से अगले पड़ाव के लिए चलते हैं। अगला पड़ाव है भीमचण्डी। यहां यात्री दुर्गामंदिर में दुर्गा जी की पूजा करते हैं और पहले पड़ाव के सारे कर्मकाण्ड को दुहराते हैं। पंचक्रोशीयात्रा का तीसरा पडाव रामेश्वर है। यहां शिव-मंदिर में यात्रीगणशिव-पूजा करते हैं। चौथा पड़ाव पांचों-पण्डव पड़ाव शिवपुर क्षेत्र में पडता है।  पाण्डव युधिष्ठिर, अर्जुन, भीम, नकुल तथा सहदेव की मूर्तियां हैं। द्रौपदीकुण्ड में स्नान करके यात्रीगणपांचों पाण्डवों का दर्शन करते हैं। रात्रि-विश्राम के उपरांत यात्री पांचवें दिन अंतिम पड़ाव के लिए प्रस्थान करते हैं। अंतिम पड़ाव कपिलधारा है। यात्रीगणयहां कपिलेश्वर महादेव की पूजा करते हैं। काशी परिक्रमा में पांच की प्रधानता है। यात्री प्रतिदिन पांच कोस की यात्रा करते हैं। पड़ाव संख्या भी पांच है। परिक्रमा पांच दिनों तक चलती है। कपिलधारा से यात्रीगण मणिकर्णिका घाट आते हैं। यहां वे साक्षी विनायक का दर्शन करते हैं। काशी विश्वनाथ एवं काल-भैरव का दर्शन कर यात्रा-संकल्प पूर्ण करते हैं। काशी परिभ्रमण के तहत मैन गंगा एवं भगवान विश्वनाथ का दर्शन 13 जनवरी 2022 को किया । काशी के विभिन्न स्थानों का ऐतिहासिक तथा प्राचीन स्थलों को परिभ्रमण कर शांति और हृदयोल्लास से आनंदित हुआ । कोरोना काल के कारण काशी के विभिन्न स्थानों पर पदयात्रा की आई ।काशी में पड़ यात्रा में अनुभूति आनंदमय मिलता है । मेरे साथ दिव्य रश्मि के संपादक राकेश दत्त मिश्र थे । बाबा विश्वनाथ मंदिर के चतुर्दिक विकास में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी द्वारा महत्वपूर्ण पहसल की गई है ।

मंगलवार, जनवरी 18, 2022

सारनाथ आध्यात्मिक स्थल ...


ज्ञान प्राप्ति के पश्चात भगवान बुद्ध ने अपना प्रथम उपदेश वारणशी से 10 कि. मि . पूर्वोत्तर स्थित सारनाथ में दिया  था ।  बौद्ध धर्म का पवित्र सारनाथ को धर्म चक्र प्रवर्तन" एवं  बौद्ध मत के प्रचार-प्रसार का आरंभ स्थल था।  बौद्ध धर्म के चार प्रमुख तीर्थों में सारनाथ ,  लुम्बिनी, बोधगया और कुशीनगर है ।  सारनाथ को जैन धर्म एवं हिन्दू धर्म में भी महत्व प्राप्त है। जैन ग्रन्थों में सारनाथ को प्राचीन नाम  'सिंहपुर में '  जैन धर्म के ग्यारहवें तीर्थंकर श्रेयांसनाथ का जन्म हुआ था ।  सारंगनाथ महादेव  मन्दिर  है । सारनाथ में अशोक का चतुर्मुख सिंहस्तम्भ, भगवान बुद्ध का मन्दिर, धामेख स्तूप, चौखन्डी स्तूप, राजकीय संग्राहलय, जैन मन्दिर, चीनी मन्दिर, मूलंगधकुटी और नवीन विहार , सारंगनाथ शिव मंदिर  दर्शनीय हैं। भारत का राष्ट्रीय चिह्न यहीं के अशोक स्तंभ के मुकुट की द्विविमीय अनुकृति है। मुहम्मद गोरी ने सारनाथ के पूजा स्थलों को नष्ट कर दिया था। सन १९०५ में पुरातत्व विभाग ने सारनाथ के गढ़ का उत्खनन के क्रमा में  बौद्ध धर्म के अनुयायों और इतिहास के विद्वानों का ध्यान गया है । पुरातनकाल में सारनाथ घना वन और मृग-विहार ऋषि स्थल होने के कारण ऋषिपत्तन ,मृगदाय कहा जाता था । सिंहों की मूर्ति वाला भारत का राजचिह्न सारनाथ के अशोक के स्तंभ के शीर्ष से लिया गया है। धमेक स्तूप' सारनाथ की प्राचीनता है। मृगदाय में सारंगनाथ महादेव की मूर्ति की स्थापना हुई और स्थान का नाम सारनाथ पड़ गया। प्राचीन नाम ऋषिपतन (इसिपतन या मृगदाव) (हिरनों का जंगल) था। ऋषिपतन से तात्पर्य ‘ऋषि का पतन’ है । निग्रोथमृग एवं जातक के  अनुसार  मृगों के विचरण करने वाले स्थान के आधार पर मृगदाव पड़ा, ।  निग्रोधमृग तथा जातक  जातक के अनुसार वोधिसत्व ने  पूर्वजन्म में, जब वे मृगदाव में मृगों के राजा थे, अपने प्राणों की बलि देकर एक गर्भवती हरिणी की जान बचाने के कारण वन को सारंग (मृग)-नाथ या सार-नाथ कहने लगे। दयाराम साहनी के अनुसार शिव को  पौराणिक साहित्य में सारंगनाथ कहा गया है और महादेव शिव की नगरी काशी की समीपता के कारण  शिवोपासना की  स्थली बन गया। बुद्ध के प्रथम उपदेश  533 ई.पू. को सारनाथ में प्रथम उपदेश गया गया था । सारनाथ की समृद्धि और बौद्ध धर्म का विकास सर्वप्रथम अशोक के शासनकाल में  धर्मराजिका स्तूप, धमेख स्तूप एवं सिंह स्तंभ का निर्माण करवाया। ई.पू. दूसरी शती में शुंग राज्य की स्थापना हुई थी । प्रथम शताब्दी ई. के उत्तर भारत के कुषाण राज्य की स्थापना के साथ ही एक बार पुन: बौद्ध धर्म की उन्नति हुई। कनिष्क के राज्यकाल के तीसरे वर्ष में भिक्षु बल ने  बोधिसत्व प्रतिमा की स्थापना की। कनिष्क ने अपने शासन-काल में न केवल सारनाथ में वरन् भारत के विभिन्न भागों में बहुत-से विहारों एवं स्तूपों का निर्माण करवाया। बौद्ध धर्म के प्रचार के पूर्व सारनाथ शिवोपासना तथा शैव धर्म  का केंद्र था। हर्ष के शासन-काल में ह्वेन त्सांग भारत भ्रमण के तहत सारनाथ को अत्यंत खुशहाल बताया था। महमूद गजनवी (1017 ई.) के वाराणसी आक्रमण के समय सारनाथ को अत्यधिक क्षति पहुँची। पुन: 1026 ई. में सम्राट महीपाल के शासन काल में स्थिरपाल और बसन्तपाल  सम्राट की प्रेरणा से काशी के देवालयों के उद्धार के साथ-साथ धर्मराजिका स्तूप एवं धर्मचक्र का भी उद्धार किया। गाहड़वाल वेश के शासन-काल में गोविंदचंद्र की रानी कुमार देवी ने सारनाथ में  विहार बनवाया था। उत्खनन से प्राप्त  अभिलेख के अनुसार सारनाथ समृद्धशाली था । सारनाथ की  ऐतिहासिक जानकारी पुरातत्त्वविदों को हुई जब काशीनरेश चेत सिंह के दीवान जगत सिंह ने धर्मराजिका स्तूप को अज्ञानवश खुदवा डाला। सारनाथ के भूगर्भ में समाहित प्राचीन विरासत का  उत्खनन कर्नल कैकेंजी ने 1815 ई. में करवायाथा । कैकेंजी के उत्खनन के 20 वर्ष पश्चात् 1835-36 में कनिंघम ने सारनाथ का विस्तृत उत्खनन करवाया। उत्खनन में  धमेख स्तूप, चौखंडी स्तूप एवं मध्यकालीन विहारों को खोद निकाला। कनिंघम का धमेख स्तूप से 3 फुट नीचे 600 ई. का एक अभिलिखित शिलापट्ट (28 ¾ इंच X 13 इंच X 43 इंच आकार मिला था । 1851-52 ई. में मेजर किटोई ने उत्खनन करवाया जिसमें  धमेख स्तूप के आसपास अनेक स्तूपों एवं दो विहारों के अवशेष मिले थे । किटोई के उपरांत एडवर्ड थामस तथा प्रो॰ फिट्ज एडवर्ड हार्न ने खोज कार्य जारी रखा। किटो  द्वारा उत्खनित वस्तुएँ भारतीय संग्रहालय कलकत्ता में हैं।  वैज्ञानिक उत्खनन एच.बी. ओरटल ने उत्खनन 200 वर्ग फुट क्षेत्र में किया गया। सारनाथ  मंदिर तथा अशोक स्तंभ के अतिरिक्त  मूर्तियाँ एवं शिलालेख मिले हैं। प्रमुख मूर्तियों में बोधिसत्व की विशाल अभिलिखित मूर्ति, आसनस्थ बुद्ध की मूर्ति, अवलोकितेश्वर, बोधिसत्व, मंजुश्री, नीलकंठ की मूर्तियाँ तथा तारा, वसुंधरा आदि की प्रतिमाएँ  हैं। पुरातत्त्व विभाग के डायरेक्टर जनरल जान मार्शल ने स्टेनकोनो और दयाराम साहनी के साथ 1907 में सारनाथ के उत्तर-दक्षिण क्षेत्रों में उत्खनन किया। उत्खनन से उत्तर क्षेत्र में तीन कुषाणकालीन मठों का पता चला। दक्षिण क्षेत्र से विशेषकर धर्मराजिका स्तूप के आसपास तथा धमेख स्तूप के उत्तर से उन्हें अनेक छोटे-छोटे स्तूपों एवं मंदिरों के अवशेष मिले।  कुमारदेवी के अभिलेखों से युक्त कुछ मूर्तियाँ विशेष महत्त्व की हैं। 1914 से 1915 ई. में एच. हारग्रीव्स ने मुख्य मंदिर के पूर्व और पश्चिम में खुदाई करवाई। उत्खनन में मौर्यकाल से लेकर मध्यकाल तक की अनेक वस्तुएँ मिली है । दयाराम साहनी के निर्देशन में धमेख स्तूप से मुख्य मंदिर तक के संपूर्ण क्षेत्र का उत्खनन किया गया। उत्खनन से दयाराम साहनी को एक 1 फुट 9 ½ इंच लंबी, 2 फुट 7 इंच चौड़ी तथा 3 फुट गहरी एक नाली के अवशेष मिले। धमेख स्तूप से आधा मील दक्षिण स्तूप स्थित है । गौतम बुद्ध ने अपने पाँच शिष्यों को सबसे प्रथम उपदेश सुनाया था जिसके स्मारकस्वरूप  स्तूप का निर्माण हुआ। ह्वेनसाँग ने  स्तूप की स्थिति सारनाथ से 0.8 कि॰मी॰ दक्षिण-पश्चिम में बताई है, 91.44 मी. ऊँचा था। स्तूप के ऊपर एक अष्टपार्श्वीय बुर्जी बनी हुई है। इसके उत्तरी दरवाजे पर पड़े हुए पत्थर पर फ़ारसी में एक लेख उल्लिखित है ।  टोडरमल के पुत्र गोवर्द्धन सन् 1589 ई. (996 हिजरी) में इसे बनवाया था। बादशाह  हुमायूँ ने स्तूप स्थान पर एक रात व्यतीत की थी । एलेक्जेंडर कनिंघम ने 1836 ई. में स्तूप में रखे समाधि चिन्हों की खोज में इसके केंद्रीय भाग में खुदाई की, इस खुदाई सन् 1905 ई. में श्री ओरटेल ने इसकी पुनः खुदाई की। उत्खनन में इन्हें कुछ मूर्तियाँ, स्तूप की अठकोनी चौकी और चार गज ऊँचे चबूतरे मिले। चबूतरे में प्रयुक्त ऊपर की ईंटें 12 इंच X10 इंच X2 ¾ इंच और 14 ¾ X10 इंच X2 ¾ इंच आकार की थीं जबकि नीचे प्रयुक्त ईंटें 14 ½ इंच X 9 इंच X2 ½ इंच आकार की थीं । गुप्तकाल में ‘त्रिमेधि स्तूप’ कहते थे। 1794 ई. में जगत सिंह के आदमियों ने काशी का प्रसिद्ध मुहल्ला जगतगंज बनाने के लिए इसकी ईंटों को खोद डाला था। खुदाई के समय 8.23 मी. की गहराई पर एक प्रस्तर पात्र के भीतर संगरमरमर की मंजूषा में कुछ हड्डिया: एवं सुवर्णपात्र, मोती के दाने एवं रत्न मिले थे, जिसे उन्होंने विशेष महत्त्व का न मानकर गंगा में प्रवाहित कर दिया। यहाँ से प्राप्त महीपाल के समय के 1026 ई. स्तूप का जीर्णोद्धार किया गया था । 1907-08 ई. में मार्शल के निर्देशन में खुदाई से  स्तूप के क्रमिक परिनिर्माणों के इतिहास का पता चला। इस स्तूव्यास 13.48 मी. (44 फुट 3 इंच) था। इसमें प्रयुक्त कीलाकार ईंटों की माप 19 ½ इंच X 14 ½ इंच X 2 ½ इंच और 16 ½ इंच X 12 ½ इंच X 3 ½ इंच थी। सर्वप्रथम परिवर्द्धन कुषाण-काल या आरंभिक गुप्त-काल में हुआ। इस समय स्तूप में प्रयुक्त ईंटों की माप 17 इंच X10 ½ इंच X 2 ¾ ईच थी। दूसरा परिवर्द्धन हूणों के आक्रमण के पश्चात् पाँचवी या छठी शताब्दी में हुआ। इस समय इसके चारों ओर 16 फुट (4.6 मीटर) चौड़ा एक प्रदक्षिणा पथ जोड़ा गया। तीसरी बार स्तूप का परिवर्द्धन हर्ष के शासन-काल (7वीं सदी) में हुआ। उस समय स्तूप के गिरने के डर से प्रदक्षिणा पथ को ईंटों से भर दिया गया और स्तूप तक पहुँचने के लिए सीढ़ियाँ लगा दी गईं। चौथा परिवर्द्धन बंगाल नरेश महीपाल ने महमूद ग़ज़नवी के आक्रमण के दस वर्ष वाद कराया। अंतिम पुनरुद्धार लगभग 1114 ई. से 1154 ई. के मध्य हुआ। इसके पश्चात् मुसलमानों के आक्रमण ने सारनाथ को नष्ट कर दिया था । उत्खनन से इस स्तूप से दो मूर्तियाँ मिलीं। ये मूर्तियाँ सारनाथ से प्राप्त मूर्तियों में मुख्य हैं। पहली मूर्ति कनिष्क के राज्य संवत्सर 3 (81 ई.) में स्थापित विशाल बोधिसत्व प्रतिमा और दूसरी धर्मचक्रप्रवर्तन मुद्रा में भगवान बुद्ध की मूर्ति। ये मूर्तियाँ सारनाथ की सर्वश्रेष्ठ कलाकृतियाँ हैं।

 विहार धर्मराजिका स्तूप से उत्तर की ओर स्थित है। पूर्वाभिमुख इस विहार की कुर्सी चौकोर है जिसकी एक भुजा 18.29 मी. है। सातवीं शताब्दी में भारत-भ्रमण पर आए चीनी यात्री ह्वेन त्सांग ने इसका वर्णन 200 फुट ऊँचे मूलगंध कुटी विहार के नाम से किया है। इस मंदिर पर बने हुए नक़्क़ाशीदार गोले और नतोदर ढलाई, छोटे-छोटे स्तंभों तथा सुदंर कलापूर्ण कटावों आदि से यह निश्चित हो जाता है कि इसका निर्माण गुप्तकाल में हुआ था। परंतु इसके चारों ओर मिट्टी और चूने की बनी हुई पक्की फर्शों तथा दीवारो के बाहरी भाग में प्रयुक्त अस्त-व्यस्त नक़्क़ाशीदार पत्थरों के आधार पर कुछ विद्धानों ने इसे 8वीं शताब्दी का माना है। भगवान बुद्ध की एक सोने की चमकीली आदमक़द मूर्ति स्थापित थी। मंदिर में प्रवेश के लिए तीनों दिशाओं में एक-एक द्वार और पूर्व दिशा में मुख्य प्रवेश द्वार (सिंह द्वार) था। कालांतर में जब मंदिर की छत कमज़ोर होने लगी तो उसकी सुरक्षा के लिए भीतरी दक्षिणापथ को दीवारें उठाकर बन्द कर दिया गया। अत: आने जाने का रास्ता केवल पूर्व के मुख्य द्वार से ही रह गया। तीनों दरवाजों के बंद हो जाने से ये कोठरियों जैसी हो गई, जिसे बाद में छोटे मंदिरों का रूप दे दिया गया। 1904 ई. में श्री ओरटल को खुदाई कराते समय दक्षिण वाली कोठरी में एकाश्मक पत्थर से निर्मित 9 ½ X 9 ½ फुट की मौर्यकालीन वेदिका मिली। इस वेदिका पर उस समय की चमकदार पालिश है। यह वेदिका प्रारम्भ में धर्मराजिका स्तूप के ऊपर हार्निका के चारों ओर लगी थीं। इस वेदिका पर कुषाणकालीन ब्राह्मी लिपि में दो लेख अंकित हैं- ‘आचाया(र्य्या)नाँ सर्वास्तिवादि नां परिग्रहेतावाम्’ और ‘आचार्यानां सर्वास्तिवादिनां परिग्राहे’। इन दोनों लेखों से यह ज्ञात होता है कि तीसरी शताब्दी ई. में यह वेदिका सर्वास्तिवादी संप्रदाय के आचार्यों को भेंट की गई थी। मुख्य मंदिर से पश्चिम की ओर एक अशोककालीन प्रस्तर-स्तंभ है जिसकी ऊँचाई प्रारंभ में 17.55 मी. (55 फुट) थी। वर्तमान समय में इसकी ऊँचाई केवल 2.03 मीटर (7 फुट 9 इंच) है। स्तंभ का ऊपरी सिरा अब सारनाथ संग्रहालय में है। नींव में खुदाई करते समय यह पता चला कि इसकी स्थापना 8 फुट X16 फुट X18 इंच आकार के बड़े पत्थर के चबूतरे पर हुई थी। इस स्तंभ पर तीन लेख उल्लिखित हैं। पहला लेख अशोक कालीन ब्राह्मी लिपि में है जिसमें सम्राट ने आदेश दिया है कि जो भिछु या भिक्षुणी संघ में फूट डालेंगे और संघ की निंदा करेंगे: उन्हें सफ़ेद कपड़े पहनाकर संघ के बाहर निकाल दिया जाएगा। दूसरा लेख कुषाण-काल का है। तीसरा लेख गुप्त काल का है, जिसमें सम्मितिय शाखा के आचार्यों का उल्लेख किया गया है।
यह स्तूप एक ठोस गोलाकार बुर्ज का व्यास 28.35 मीटर (93 फुट) और ऊँचाई 39.01 मीटर (143 फुट) 11.20 मीटर तक इसका घेरा सुंदर अलंकृत शिलापट्टों से आच्छादित है। इसका यह आच्छादन कला की दृष्टि से अत्यंत सुंदर एवं आकर्षक है। अलंकरणों में मुख्य रूप से स्वस्तिक, नन्द्यावर्त सदृश विविध आकृतियाँ और फूल-पत्ती के कटाव की बेलें हैं। इस प्रकार के वल्लरी प्रधान अलंकरण बनाने में गुप्तकाल के शिल्पी पारंगत थे। स्तूप की नींव अशोक के समय में पड़ी एवं  विस्तार कुषाण-काल में हुआ, लेकिन गुप्तकाल में यह पूर्णत: तैयार हुआ। यह साक्ष्य पत्थरों की सजावट और उन पर गुप्त लिपि में में वर्णित है। कनिंघम ने सर्वप्रथम  धमाक स्तूप के मध्य खुदाई कराकर 0.91 मीटर (3 फुट) नीचे एक शिलापट्ट प्राप्त किया था। इस शिलापट्ट पर सातवीं शताब्दी की लिपि में ‘ये धर्महेतु प्रभवा’ मंच अंकित था।  स्तूप में प्रयुक्त ईंटें 14 ½ इंच X 8 ½ इंच X 2 ¼ इंच आकार की हैं| धमेख शब्द की उत्पत्ति के बारे में विद्वानों का मत है कि यह संस्कृत के ‘धर्मेज्ञा’ शब्द से निकला है। किंतु 11 वीं शताब्दी की एक मुद्रा पर ‘धमाक जयतु’ शब्द मिलता है। जिससे उसकी उत्पत्ति का ऊपर लिखे शब्द से संबंधित होना संदेहास्पद लगता है। इस मुद्रा में इस स्तूप को धमाक कहा गया है। बुद्ध ने सर्वप्रथम यहाँ ‘धर्मचक्र’ प्रारंभ किया था। अत: ऐसा संभव है कि इस कारण ही इसका नाम धमेख पड़ा हो। सारनाथ के क्षेत्र की खुदाई से गुप्तकालीन अनेक कलाकृतियां तथा बुद्ध प्रतिमाएं प्राप्त हुई हैं ।  सारनाथ में एक प्राचीन शिव मंदिर तथा एक जैन मंदिर भी स्थित हैं। जैन मंदिर 1824 ई. में बना था; इसमें श्रियांशदेव की प्रतिमा है। तीर्थंकर सारनाथ से लगभग दो मील दूर स्थित सिंह ग्राम में तीर्थंकर भाव को प्राप्त हुए थे। प्रमुख काशीराज प्रकटादित्य का शिलालेख है। इसमें बालादित्य नरेश का उल्लेख है जो फ़्लीट के मत में वही बालादित्य है  मिहिरकुल हूण के साथ वीरतापूर्वक लडे थे । 7वीं शती के पूर्व  है। 1905 ई. में जब पुरातत्त्व विभाग ने खुदाई आरंभ से  सारनाथ का जीर्णोद्धार हुआ। 'मूलगंध कुटी विहार'  मंदिर बन गया है ।  साहित्यकार व इतिहासकार सत्येन्द्र कुमार पाठक  के साथ दिव्य रश्मि के संपादक डॉ. राकेश दत्त मिश्र द्वारा 13 जावरी 2022 को सारनाथ परिभ्रमण के तहत सारनाथ में स्थित शैव धर्म , बौद्ध धर्म एवं जैन धर्म  की सांस्कृतिक विरासत एवं पुरातन काल की पुरातात्विक धरोहरों को देखा है । सारनाथ का प्राचीन नाम सारंग , ऋषिपत्तन कहा गया है ।

सोमवार, जनवरी 17, 2022

श्रीराम जन्मभूमि अयोध्या ...


पुरणों , स्मृति ग्रंथो.  जैन , बौद्ध धर्म ग्रंथों में  प्राचीन और सात पवित्र तीर्थस्थलों में  अयोध्या को शामिल किया गया है । कोसल राज्य की प्रारंभिक राजधानी अयोध्या थी । अयोध्या को अयोध्या , कौशल , कोसल , कोसलपुर , साकेत रामपुर , अवध , राघवपुर कहा जाता है ।  गौतमबुद्ध के काल में  कोसल को सरयू नदी द्वारा उत्तर कोसल और दक्षिण कौशल  विभक्त थी । बौद्ध काल में  अयोध्या के समीप साकेत नगर स्थापित हुआ था । वाल्मीकि रामायण के अनुसार कोशल राज्य  की राजधानी अयोध्या  है ।  पुराणों में इस नगर के संबंध में कोई विशेष उल्लेख नहीं मिलता है. वहीं राम के जन्म के समय यह नगर अवध ( अयोध्या) नाम जाना जाता है ।अयोध्या में ऐसे स्थल पर एक मस्जिद बनवाया गया, जिसे हिंदू अपने आराध्य देव भगवान राम का जन्म स्थान मानते हैं. कहा जाता है कि मुगल राजा बाबर के सेनापति मीर बाकी ने यहां मस्जिद बनवाई थी, जिसे बाबरी मस्जिद के नाम से जाना जाता था. बाबर 1526 में भारत आया. 1528 तक उसका साम्राज्य अवध (वर्तमान अयोध्या) तक पहुंच गया. इसके बाद करीब तीन सदियों तक के इतिहास की जानकरी किसी भी ओपन सोर्स पर मौजूद नहीं है ।कालिदास की  रघुवंश तथा बौद्ध ग्रंथों ,  जैन साहित्य , कनिंघम ने  अयोध्या और साकेत को  समीकृत किया , वाल्मीकि रामायण में कौशल की राजधानी अयोध्या का उल्लेख है । रामायण  में सरयू नदी के किनारे स्थित अयोध्या में  दशरथ की राजधानी और राम की जन्भूमि  है । सरयू नदी के किनारे 14 घाट में गुप्तद्वार घाट, कैकेयी घाट, कौशल्या घाट, पापमोचन घाट, लक्ष्मण घाट , राम की पैड़ी आदि  है  । अयोध्या के मंदिरों में 'कनक भवन ,  हनुमान गढ़ी का हनुमान जी मंदिर , वाल्मीकि मंदिर ,  सबसे सुंदर है. । उत्तर प्रदेश का अयोध्या जिले का मुख्यालय सरयू नदी के तट पर बसा अयोध्या प्राचीन धार्मिक , सांस्कृतिक  नगर है। कोसल , साकेत , अयोध्यापुरी को अयोध्या कहा जाता है । पुरणों के अनुसार अयोध्या में सूर्यवंश  राजाओं का राज  था, जिसमें भगवान् श्री राम ने अवतार लिया। प्रसिद्ध चीनी यात्री ह्वेन त्सांग ७वीं शताब्दी का यात्रा क्रमानुसार अयोध्या में  20 बौद्ध मंदिर तथा 3000 भिक्षु रहते थे। यह नगरी सप्त पुरियों में से एक है । 5458.01 वर्ग कि.मि . ( 14136 वर्गमील ) क्षेत्रफल में फैला अयोध्या जिले के अयोध्या पूरी 4 वर्गमील में स्थित है । अयोध्या मथुरा माया काशी काञ्ची अवन्तिका ।पुरी द्वारावती चैव सप्तैता मोक्षदायिक :  । अर्थात अयोध्या, मथुरा, हरिद्वार, काशी, काञ्चीपुरम, उज्जैन, और द्वारिका - ये सात पुरियाँ नगर मोक्षदायी हैं। ब्रह्मपुराण  के अनुसार वैवस्वत मनु के पौत्र एवं इक्ष्वाकु का बडे पुत्र विकुक्षि को पराक्रम के कारण अयोध्य कहा गया था । राजा अयोध्य ने सरयू नदी के किनारे अयोध्या नगर की स्थापना और अयोध्या राज की नींव डाली थी । राजा  अयोध्य के पुत्र शकुनि उत्तरभारत के रक्षक थे । अयोध्या के सूर्यवंशीय राजा अवध्य के वंशज में ककुट्स, अनेना , पृथु ,विष्टरश्च , आर्द ,युवनाश्व और  श्रावस्त अयोध्या के राजा हुए । राजा श्रावस्त द्वारा श्रावस्तीपूरी  नगर बसायी थी । श्रवस्त के  पौत्र एवं वृहदश्व के पुत्र कुलाश्व द्वारा दैत्य मधु का पुत्र  दैत्य धुन्धु को वध कर जनता की रक्षा की । इक्ष्वाकु वंशीय राजाओं में अयोध्या का राजा दिलीप , रघु ,अज , दशरथ , भगवान राम , कुश ,अतिथि ,निषध , नल , नभ ,  पुण्डरीक ,क्षेमधंवा , देवनिक अहिनगु, सुधन्वा , शाल , उक्य , वज्रनाभ  और नाल  थे । वेद में अयोध्या को ईश्वर का नगर बताया गया है, "अष्टचक्रा नवद्वारा देवानां पूरयोध्या" । अथर्ववेद में यौगिक प्रतीक के रूप में अयोध्या का उल्लेख है- अष्टचक्रा नवद्वारा देवानां पूरयोध्या।तस्यां हिरण्मयः कोशः स्वर्गो ज्योतिषावृतः॥ (अथर्ववेद -- 10.2.31). रामायण के अनुसार अयोध्या की स्थापना मनु ने की थी। यह पुरी सरयू के तट पर बारह योजन (लगभग १४४ कि.मी) लम्बाई और तीन योजन (लगभग ३६ कि.मी.) चौड़ाई में बसी थी। शताब्दी तक यह नगर सूर्यवंशी राजाओं की राजधानी रहा। स्कन्दपुराण के अनुसार सरयू के तट पर दिव्य शोभा से युक्त दूसरी अमरावती के समान अयोध्या नगरी है। जैन धर्म ग्रंथों के अनुसार चौबीस तीर्थंकरों में  पांच तीर्थंकरों का जन्म हुआ था। प्रथम तीर्थंकर ऋषभनाथ जी, दूसरे तीर्थंकर अजितनाथ जी, चौथे तीर्थंकर अभिनंदननाथ जी, पांचवे तीर्थंकर सुमतिनाथ जी और चौदहवें तीर्थंकर अनंतनाथ जी थे । इसके अलावा जैन और वैदिक दोनों मतो के अनुसार भगवान रामचन्द्र जी का जन्म  भूमि पर हुआ था । इक्ष्वाकु वंशीय  भगवान रामचंद्र जी  कोसल जनपद की राजधानी अयोध्या में राजा था। अयोध्या का  क्षेत्रफल 96 वर्ग मील था। सातवीं शाताब्दी में चीनी यात्री ह्वेनसांग आया था। उसके अनुसार यहाँ 20 बौद्ध मंदिर थे तथा 3000 भिक्षु रहते थे।  श्रीरामजन्मभूमि , कनकभवन , हनुमानगढ़ी , दशरथमहल , श्रीलक्ष्मणकिला , कालेराम मन्दिर , मणिपर्वत , श्रीराम की पैड़ी , नागेश्वरनाथ , क्षीरेश्वरनाथ श्री अनादि पञ्चमुखी महादेव मन्दिर , गुप्तार घाट समेत अनेक मन्दिर यहाँ प्रमुख दर्शनीय स्थल हैं। बिरला मन्दिर , श्रीमणिरामदास जी की छावनी , श्रीरामवल्लभाकुञ्ज , श्रीलक्ष्मणकिला , श्रीसियारामकिला , उदासीन आश्रम रानोपाली तथा हनुमान बाग  हैं । श्रीरामनवमी , श्रीजानकीनवमी , गुरुपूर्णिमा , सावन झूला , कार्तिक परिक्रमा , श्रीरामविवाहोत्सव आदि उत्सव प्रमुखता से मनाये जाते हैं।शहर के पश्चिमी हिस्से में स्थित रामकोट में स्थित अयोध्या का सर्वप्रमुख स्थान श्रीरामजन्मभूमि है। श्रीराम-लक्ष्मण-भरत और शत्रुघ्न चारों भाइयों के बालरूप के दर्शन यहाँ होते हैं। कनक भवन - हनुमान गढ़ी के निकट स्थित कनक भवन अयोध्या का एक महत्वपूर्ण मंदिर है। यह मंदिर सीता और राम के सोने मुकुट पहने प्रतिमाओं के लिए लोकप्रिय है । कनक मंदिर को  टीकमगढ़ की रानी ने 1891 में बनवाया था। हनुमान गढ़ी - नगर के केन्द्र में स्थित इस मंदिर में 76 कदमों की चाल से पहुँचा जा सकता है। हनुमान जी सदैव वास करते हैं।  अयोध्या आकर भगवान राम के दर्शन से पहले भक्त हनुमान जी के दर्शन करते हैं।  हनुमान मंदिर "हनुमानगढ़ी" के नाम से प्रसिद्ध है। यह मंदिर राजद्वार के सामने ऊंचे टीले पर स्थित है। हनुमान जी यहाँ एक गुफा में रहते थे और रामजन्मभूमि और रामकोट की रक्षा करते थे। प्रभु श्रीराम ने हनुमान जी को  अधिकार दिया था कि भक्त मेरे दर्शनों के लिए अयोध्या आएगा उसे पहले तुम्हारा दर्शन पूजन करना होगा।  छोटी दीपावली के दिन आधी रात को संकटमोचन का जन्म दिवस मनाया जाता है। पवित्र नगरी अयोध्या में सरयू नदी में पाप धोने से पहले लोगों को भगवान हनुमान से आज्ञा लेनी होती है। यह मंदिर अयोध्या में एक टीले पर स्थित होने के कारण मंदिर तक पहुंचने के लिए लगभग 76 सीढि़यां चढ़नी पड़ती हैं। इसके बाद पवनपुत्र हनुमान की 6 इंच की प्रतिमा के दर्शन होते है।  मुख्य मंदिर में बाल हनुमान के साथ अंजनी माता की प्रतिमा है । मंदिर परिसर में मां अंजनी व बाल हनुमान की मूर्ति में हनुमान जी, अपनी मां अंजनी की गोद में बालक के रूप में विराजमान हैं। हनुमान  मन्दिर के निर्माण सुल्तान मंसूर अली अवध का नवाब था। एक बार उसका एकमात्र पुत्र गंभीर रूप से बीमार पड़ गया। प्राण बचने के आसार नहीं रहे, रात्रि की कालिमा गहराने के साथ  उसकी नाड़ी उखड़ने लगी तो सुल्तान ने थक हार कर संकटमोचक हनुमान जी के चरणों में माथा रख दिया। हनुमान ने अपने आराध्य प्रभु श्रीराम का ध्यान किया और सुल्तान के पुत्र की धड़कनें पुनः प्रारम्भ हो गई। अपने इकलौते पुत्र के प्राणों की रक्षा होने पर अवध के नवाब मंसूर अली ने बजरंगबली के चरणों में माथा टेक दिया। जिसके बाद नवाब ने न केवल हनुमान गढ़ी मंदिर का जीर्णोंद्धार कराया बल्कि ताम्रपत्र पर लिखकर ये घोषणा की कि कभी  मंदिर पर किसी राजा या शासक का कोई अधिकार नहीं रहेगा और न ही यहां के चढ़ावे से कोई कर वसूल किया जाएगा। उसने 52 बीघा भूमि हनुमान गढ़ी व इमली वन के लिए उपलब्ध करवाई थी । लंका से विजय के प्रतीक रूप में लाए गए निशान मंदिर में रखे गए थे ।मन्दिर में विराजमान हनुमान जी को  अयोध्या का राजा माना जाता है। कहते हैं कि हनुमान यहाँ एक गुफा में रहते थे और रामजन्मभूमि और रामकोट की रक्षा करते है ।
अयोध्या में  हिंदू अपने आराध्य देव भगवान राम का जन्म स्थान पर राम मंदिर पर  मुगल शासक  बाबर के सेनापति मीर बाकी ने  मस्जिद बनवाई थी, जिसे बाबरी मस्जिद के नाम से जाना जाता था । बाबर 1526 में भारत आया. 1528 तक उसका साम्राज्य अवध (अयोध्या) तक पहुंच गया था ।
श्री राम जन्मभूमि -  श्री राम मंदिर का निर्माण अयोध्या का राजा लव द्वारा निर्माण किया था । श्रीराम मंदिर का समय समय पर अयोध्या  के विभिन्न सूर्यवंशीय इक्ष्वाकु कुल के राजाओं में वृहद्वल , आदि राजाओं में इक्ष्वाकु वंशीय का अंतिम राजा क्षुद्रक  का प्रपौत्र कुंडक का पौत्र सुरथ का पुत्र  सुमित्र द्वारा समय समय पर विकास किया था । राजा विक्रमादित्य द्वितीय द्वारा श्री राम का जन्म भूमि  अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण कर  राम लला को विराजमान किया  था जिसे मुगल बादशाह  बाबर ने तोड़कर वहाँ  मस्जिद बना दी। ६ दिसम्बर सन् १९९२ को यह विवादित ढ़ांचा गिरा दिया गया और वहाँ श्री राम का एक अस्थायी मन्दिर निर्मित कर दिया गया।१५२८ में राम जन्म भूमि पर मस्जिद बनाई गई थी। हिन्दुओं के पौराणिक ग्रन्थ रामायण और रामचरित मानस के अनुसार यहां भगवान राम का जन्म हुआ था।१८५३ में हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच इस जमीन को लेकर पहली बार विवाद हुआ।१८५९ में अंग्रेजों ने विवाद को ध्यान में रखते हुए पूजा व नमाज के लिए मुसलमानों को अन्दर का हिस्सा और हिन्दुओं को बाहर का हिस्सा उपयोग में लाने को कहा।१९४९ में अन्दर के हिस्से में भगवान राम की मूर्ति रखी गई। तनाव को बढ़ता देख सरकार ने इसके गेट में ताला लगा दिया।सन् १९८६ में जिला न्यायाधीश ने विवादित स्थल को हिंदुओं की पूजा के लिए खोलने का आदेश दिया। मुस्लिम समुदाय ने इसके विरोध में बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी गठित की।सन् १९८९ में विश्व हिन्दू परिषद ने विवादित स्थल से सटी जमीन पर राम मंदिर की मुहिम शुरू की। ६ दिसम्बर १९९२ को अयोध्या में बाबरी मस्जिद गिराई गई। परिणामस्वरूप देशव्यापी दंगों में करीब दो हजार लोगों की जानें गईं।उसके दस दिन बाद १६ दिसम्बर १९९२ को लिब्रहान आयोग गठित किया गया। आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय के सेवानिवृत मुख्य न्यायाधीश एम.एस. लिब्रहान को आयोग का अध्यक्ष ने १६ मार्च १९९३ को प्रतिवेदन प्रस्तुत किया । १९९३ में केंद्र के  अधिग्रहण को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती मिली। चुनौती देने वाला शख्स मोहम्मद इस्माइल फारुकी था। मगर कोर्ट ने इस चुनौती को ख़ारिज कर दिया कि केंद्र  जमीन का संग्रहक है। जब मलिकाना हक़ का फैसला हो जाएगा तभी  मालिकों को जमीन लौटा दी जाएगी। १९९६ में राम जन्मभूमि न्यास ने केंद्र सरकार से  जमीन मांगी लेकिन मांग ठुकरा दी गयी। इसके बाद न्यास ने हाई कोर्ट का दरवाजा खटखटाया जिसे १९९७ में कोर्ट ने  ख़ारिज कर दिया। २००२ में जब गैर-विवादित जमीन पर कुछ गतिविधियां हुई तो असलम भूरे ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका लगाई।२००३ में  सुप्रीम कोर्ट ने यथास्थिति कायम रखने का आदेश दिया। कोर्ट ने कहा कि विवादित और गैर-विवादित जमीन को अलग करके नहीं देखा जा सकता।३० जून २००९ को लिब्रहान आयोग ने चार भागों में ७०० पन्नों की रिपोर्ट प्रधानमंत्री डॉ॰ मनमोहन सिंह और गृह मंत्री पी. चिदम्बरम को सौंपा। ३१ मार्च २००९ को समाप्त हुए लिब्रहान आयोग का कार्यकाल को अंतिम बार तीन महीने अर्थात् ३० जून तक के लिए बढ़ा गया।२०१० में इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ पीठ ने निर्णय सुनाया जिसमें विवादित भूमि को रामजन्मभूमि घोषित किया गया। न्यायालय ने बहुमत से निर्णय दिया कि विवादित भूमि जिसे रामजन्मभूमि माना जाता रहा है, उसे हिंदू गुटों को दे दिया जाए। न्यायालय ने  कहा कि वहाँ से रामलला की प्रतिमा को नहीं हटाया जाएगा। न्यायालय ने यह पाया कि चूंकि सीता रसोई और राम चबूतरा आदि कुछ भागों पर निर्मोही अखाड़े का भी कब्ज़ा रहा है इसलिए यह हिस्सा निर्माही अखाड़े के पास ही रहेगा। दो न्यायधीधों ने निर्णय  दिया कि इस भूमि के कुछ भागों पर मुसलमान प्रार्थना करते रहे हैं इसलिए विवादित भूमि का एक तिहाई हिस्सा मुसलमान गुटों दे दिया जाए। लेकिन हिंदू और मुस्लिम दोनों ही पक्षों ने इस निर्णय को मानने से अस्वीकार करते हुए सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया।उच्चतम न्यायालय ने ११ अगस्त २०१७ से तीन न्यायधीशों की पीठ इस विवाद की सुनवाई प्रतिदिन करेगी। सुनवाई से ठीक पहले शिया वक्फ बोर्ड ने न्यायालय में याचिका लगाकर विवाद में पक्षकार होने का दावा किया । ३० मार्च १९४६ के ट्रायल कोर्ट के फैसले को चुनौती दी जिसमें मस्जिद को सुन्नी वक्फ बोर्ड की सम्पत्ति घोषित अर दिया गया था।  अयोध्या विवाद पर सुप्रीम कोर्ट के 2019 के फैसले के बाद 5 फरवरी 2020 को संसद में घोषणा की गई थी कि द्वितीय मोदी मंत्रालय ने मंदिर निर्माण की एक योजना को स्वीकार कर लिया है। राम  मंदिर 235 फीट चौड़ा, 360 फीट लंबा और 161 फीट ऊंचा होगा।  हिंदू राम  मंदिर श्री राम जन्मभूमि तीर्थक्षेत्र ट्रस्ट ने मार्च 2020 में राम मंदिर के निर्माण का पहला चरण शुरू किया गया । राम निर्माण स्थल के समतल और खुदाई के दौरान एक शिवलिंग, खंभे और टूटी हुई मूर्तियाँ मिलीं। 25 मार्च 2020 को भगवान राम की मूर्ति को उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की उपस्थिति में एक अस्थायी स्थान पर ले जाया गया। इसके निर्माण की तैयारी में, विश्व हिंदू परिषद ने एक विजय महामंत्र जाप अनुष्ठान का आयोजन किया, जिसमें 6 अप्रैल 2020 का विजय महामंत्र है । भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) ने सरयू की एक धारा की पहचान की थी जो मंदिर के नीचे बहती है। राजस्थान से आए 600 हजार क्यूबिक फीट बलुआ पत्थर बंसी पर्वत पत्थरों से निर्माण कार्य पूरा किया जाएगा। 22 जनवरी 2024 को नव निर्मित  राममंदिर में राम लला विराजमान होंगे। 
अयोध्या परिभ्रमण
11 जनवरी 2022 को जहानबद से 45 कि. मि . ट्रैन से पटना पहुचने के बाद पटना से 418 कि .मि . दूरी पर स्थित अयोध्या जंक्शन कोटा एक्सप्रेस द्वारा  8: 31 रात्रि में अयोध्या पहुच कर अयोध्या का सिताविहार कुंज में विश्राम किया है । 12 जनवरी 2022 को अयोध्या परिभ्रमण के दौरान अयोध्या में श्रीराम जन्मभूमि , श्रीराम मंदिर ,हनुमान गढ़ी का हनुमान मंदिर स्थित हनुमानजी ,कनक भवन , वाल्मीकि मंदिर ,बड़े हनुमान जी , नागेश्वरनाथ ,सिद्ध हनुमान बाग , दशरथ गद्दी , चौर्बुजी मंदिर , राम की पैड़ी , सरयू घाटों , सरयू आरती , राम दरबार , सीता माता रसोई घर , गौ सेवन , अनेकों मंदिर का दर्शन किया । साहित्यकार व इतिहासकार सत्येन्द्र कुमार पाठक एवं भारतीय जन क्रांति दाल के महासचिव एवं दिव्य रश्मि के संपादक डॉ राकेश दत्त मिश्र के साथ अयोध्या परिभ्रमण किया गया । अयोध्या के प्रत्येक गलियों , चौराहों , मंदिर के इर्द गिर्द , मठों के परिसरों में वन्दर हनुमानजी के रूप में विचरते है । अयोध्या मंदिरों का शहर कहा गया है ।

गुरुवार, जनवरी 06, 2022

krantiveer jivadhar singh...


So far we have been considering the rebellousttacks of the soldiers , now let us recount the warlike activities of a remarkable man names jo dhara sing or jidhar singh , who with a band of Bhojpur men , had created hai in the north and west of the district making granth of panda to his followers and declarning that the British rajya was over . The Arwal area was plundered by him . A party of najibs , sent to cheek him ,faile in its object . H adhar singh retreated to his house at at Kamini or khabhaini Arwal district Bihar state which was strong fortified and grrisoned by 70 or 80 men ahmed with guna and match posts . It was with great difficult that he was humbled later on . 
The Government officers took stringent steps to restore . A body of European mounted police was raised to crush the insurgents , an extra police force was sent to Nawada and january , 1858 , Gaya itself was reinforced by 100 soldiers  officers of the Indian navy . In june 1858 it was heard that a batch of shahabad insurgents had crossed the son river with the in tention of attack in tewari Gaya district . But they contented themselves with plundering villages near Arwal and destroying two factries belonging to the solono family . It was fully expected that Gaya and its jail would be attacked , and as the jail was considered untenable 156 of the worst prisoners were sent to sherghati Gaya district. The guarda bricks in to rebellion with in  six miles of that place , shot their officer and released their prisoners . On the 22 nd of june , the remainder of the nahin guard reported that 200 rebles had come quielty to the jail in the night and released the prisoners. After two days the jehanabad thana was. Surprised  , the government buildings brunt , the daroga cut in to pieces nd his mangaled body hung up by the geela on the tree opposite to the thana . Jidhar singh openly boasted that he would destroy every public  building between the son and Munh hue . Captain Rottary with a big force was sent to crush him . At the battle of Kasama he was routed finally and  this enabled the English to re establish their authorities finally in the district .
The movement of 1857 was an eye opener to the British administration tration and immediate steps were taken in all the  affected districts to top the recrudescence of such movements . Similar measures were taken for the district of Gaya also .The character of the police state that is usually associated with the later phase of British administration in India , received a new momentum because of the Movement of 1857 . It was found necessary to strengthen the policy of divide and rule and for this a privileged class who could be trusted as a buffer was deliberately encouraged .The landed aristocracy and a section of the intellectuals and particular communities were roped in to create this privileged section. 
The old correspondence volumes preserved in the archives of the collector s record room at Gaya and in the record room of the Divisional commissioner in patna  are excellent source material to trace the history of the subsequent decades following 1857 . There are a large number of letters indicating that there was ruthless confiscation of the properties of the rebels and award of portions of them to the loyalist . A number of other landed aristocracy were given  extensive blocks of land for their loyal services . Deo raja jaiprakash narayan singh of dev in Aurangabad district was given the title of Maharaja Bahadur and a knighthood of the star of India for his services in helping the British , particularly in chhota nagpur jharkhand state . The manufacture and sale of arms which used to be carried on at Tekari , sherghati  in Gaya district , Guerra in Nawada district , Dev in Aurangabad district es restricted with a view to disarm the general public. There were extensive searches in the villages ans large quality of arms and ammunitions were traced and confiscated . It is mentioned in one of the letters that the elder Rani of Tiwari was found in possession of a cannon which  bad escaped the search made after the Movement . There are a large number of letters which show that the family of Taskari  was deeply suspected as having secret sympathy with the Movement. This cannon was seized .
 To the present day  writes Dr . Grierson and writing on the 20 july 1857 the collector Mr. Alonzo Money reported In the meantime a marauder named jidhar singh which a land of Bhojpur men was doing  much mischief in the north and west of the district making grant of land to his followers and giving out that the British rule was st on n end He plundered and harassed the whole country round Arwal. Killing all who opposed him and finally a party of nahin was sent against him in the hope of putting an end to his depredation .This expedition fails in its object . Jidhar singh retreated to his house at Khan hain  which was strongly forty-five and garrisoned bt 70 en armed with gun and matchbooks .

बुधवार, जनवरी 05, 2022

सकारात्मक ऊर्जा मकर संक्रांति...


वेदों , पुरणों , स्मृति ग्रंथों में संक्रांति का महत्वपूर्ण स्थान है ।  मकर संक्रान्ति  भारत और नेपाल के क्षेत्रों में पौष मास में जब सूर्य मकर राशि पर आने पर भगवान सूर्य उत्तरायण होने के कारण मकरसंक्रांति मनायजता है । ग्रिग्लोरियाँ कैलेंडर केअनुसार प्रतिवर्ष 14 या 15 जनवरी को मकर संक्रांति मनाया जाता है । मकरसंक्रांति को विभिन्न क्षेत्रों में भिन्न भिन्न भिन्न भिन्न भिन्न नामों में मकरसंक्रांति , सकरात , पोंगल , संक्रांति , उत्तरायण संक्रांति  कहा गया है । तमिलनाडु में पोंगल उत्सव ,  कर्नाटक, केरल तथा आंध्र प्रदेश में  संक्रांति , बिहार , झारखंड , बंगाल में संक्रांति को छुड़ा , दही , तिलकुट , शक्कर एवं खिचड़ी पोंगल दान एवं खाने की परंपरा  कायम है ।  छत्तीसगढ़, गोआ, ओड़ीसा, हरियाणा, बिहार, झारखण्ड, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, कर्नाटक, केरल, मध्यप्रदेश ,महाराष्ट्र , मणिपुर, राजस्थान, सिक्किम, उत्तर प्रदेश, उत्तराखण्ड, पश्चिम बंगाल, गुजरात और जम्मू ,ताइ पोंगल, उझवर तिरुनल : तमिलनाडु , उत्तरायण : गुजरात, उत्तराखण्ड , उत्तरैन[2], माघी संगरांद : जम्मू ,शिशुर सेंक्रात : कश्मीर घाटी ,माघी : हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, पंजाब ,भोगाली बिहु : असम ,खिचड़ी : उत्तर प्रदेश और पश्चिमी बिहार ,पौष संक्रान्ति : पश्चिम बंगाल ,मकर संक्रमण : कर्नाटक , बांग्लादेश : Shakrain/ पौष संक्रान्ति ,नेपाल : माघे संक्रान्ति या 'माघी संक्रान्ति' 'खिचड़ी संक्रान्ति' ,थाईलैण्ड का  सोंगकरन ,लाओस  में : पि मा लाओ ,म्यांमार का  : थिंयान , कम्बोडिया ?के मोहा संगक्रान श्री लंका में पोंगल, उझवर तिरुनल पर्व मनाया जाता है । नेपाल के सभी प्रांतों (प्रान्तों) में अलग-अलग नाम व भांति-भांति के रीति-रिवाजों द्वारा भक्ति एवं उत्साह के साथ धूमधाम से मनाया जाता है। मकर संक्रांति (संक्रान्ति) के दिन किसान अपनी अच्छी फसल के लिये भगवान को धन्यवाद देकर अपनी अनुकम्पा को सदैव लोगों पर बनाये रखने का आशीर्वाद माँगते हैं। इसलिए मकर संक्रांति (संक्रान्ति) के त्यौहार को फसलों एवं किसानों के त्यौहार के नाम से भी जाना जाता है। नेपाल में मकर संक्रांति (संक्रान्ति) को माघे-संक्रांति (माघे-संक्रान्ति), सूर्योत्तरायण और थारू समुदाय में 'माघी' कहा जाता है। इस दिन नेपाल सरकार सार्वजनिक छुट्टी देती है। थारू समुदाय का यह सबसे प्रमुख त्यैाहार है। नेपाल के बाकी समुदाय भी तीर्थस्थल में स्नान करके दान-धर्मादि करते हैं और तिल, घी, शर्करा और कन्दमूल खाकर धूमधाम से मनाते हैं। वे नदियों के संगम पर लाखों की संख्या में नहाने के लिये जाते हैं। तीर्थस्थलों में रूरूधाम (देवघाट) व त्रिवेणी मेला सबसे ज्यादा प्रसिद्ध है।मकर संक्रान्ति के अवसर पर आन्ध्र प्रदेश और तेलंगण राज्यों मे भोजनम्' का आस्वादन किया जाता है। मकर संक्क्रान्ति के अवसर पर मैसुरु में एकगाय को अलंकृत किया गया है।।  भारत में मकर संक्रांति  रूपों में मनाया जाता है। विभिन्न प्रांतों में इस त्योहार को मनाने के जितने अधिक रूप प्रचलित हैं उतने किसी अन्य पर्व में नहीं।जम्मू में यह पर्व उत्तरैन' और 'माघी संगरांद' के नाम से विख्यात है। उत्रैण, अत्रैण' अथवा 'अत्रणी' के नाम से भी जानते है। इससे एक दिन पूर्व लोहड़ी का पर्व भी मनाया जाता है, जो कि पौष मास के अन्त का प्रतीक है।मकर संक्रान्ति के दिन माघ मास का आरंभ माना जाता है, इसलिए इसको 'माघी संगरांद' भी कहा जाता है।डोगरा घरानों में इस दिन मूंग की दाल की खिचड़ी का मन्सना (दान) किया जाता है। इसके उपरांत माँह की दाल की खिचड़ी को खाया जाता है। 'खिचड़ी  पर्व'कहा जाता है। चुड़ा दही तिलकुट , खिचड़ी , पतंगबाजी त्योहार मनाया जाता है । बिहार और झारखंड में मकर संक्रांति को चुड़ा- दही , गुड़ , तील , तिलकुट , खिचड़ी का दान कर अपने परिवारों , मित्रो के साथ चुड़ा दही और तीलकुट खा कर संक्रांति पर्व मानते है ।
जम्मू में  'बावा अम्बो' जी का 
जन्मदिवस मनाया जाता है।उधमपुर की देविका नदी के तट पर, हीरानमनाया जाता है ।सनातन धर्म के विभिन्न संहिताओं एवं शास्त्रों और ज्योतिष शास्त्रों  में मकर संक्रांति का महत्व है। पौष मास में जब सूर्य अपने पुत्र शनि की राशि मकर में प्रवेश करने पर मकर संक्रांति को  जप, तप, दान और स्नान का विशेष महत्व है ।मकर संक्रांति के दिन सूर्य धनु राशि से निकलकर  सूर्य अपने पुत्र शनि से मिलने के लिए खुद उनके घर आते हैं। शास्त्रों के अनुसार उत्तरायण देवताओं का दिन और दक्षिणायन रात होती है। सूर्य के उत्तरायण होने पर गरम मौसम की शुरुआत हो जाती है।  श्रीमद्भागवत एवं देवी पुराण के अनुसार, भगवान सूर्य का पुत्र न्याधिपति शनि  को अपने पिता सूर्यदेव से वैर भाव था क्योंकि सूर्यदेव ने उनकी माता छाया को अपनी दूसरी पत्नी संज्ञा के पुत्र यमराज से भेदभाव करते हुए देख लिया था। इस बात से सूर्य देव ने संज्ञा और उनके पुत्र शनि को अपने से अलग कर दिया था। इससे शनिदेव और उनकी छाया ने सूर्यदेव को कुष्ठ रोग का शाप दे दिया था। सूर्यदेव के कुष्ठ रोग से पीड़ित देखकर यमराज काफी दुखी हुए और उन्होंने इस रोग से मुक्ति के लिए तपस्या  की थी। सूर्यदेव ने क्रोध में आकर शनि  के घर कुंभ, जिसे शनि की राशि कहा जाता है, उसको अपने तेज से जला दिया था। इससे शनि देव और उनकी माता छाया को कष्ट भोगने पड़े। यमराज ने अपनी सौतेली माता और अपने भाई शनि को कष्टों में देखकर उनके कल्याण के लिए सूर्यदेव को काफी समझाया था ।यमराज के समझाने पर सूर्य देव उनके घर कुंभ में पहुंचे थे। वहां सबकुछ जला हुआ था। उस समय शनिदेव के पास काले तिल के अलावा कुछ नहीं था इसलिए शनि ने काले तिल से भगवान सूर्य  की पूजा की। शनि की पूजा से प्रसन्न होकर सूर्यदेव ने शनि को आशीर्वाद दिया कि शनि का दूसरा घर मकर राशि में मेरे आने पर वह धन-धान्य से भर जाएगा। तिल के कारण  शनि महाराज को उनका वैभव फिर से प्राप्त हुआ था ।, इसलिए शनि महाराज को तिल काफी प्रिय हैं। इसी वजह से मकर संक्रांति के दिन तिल से सूर्य देव और शनि महाराज की पूजा का नियम शुरू हुआ और तिल संक्रांति कहा गया है । राजा  भागीरथ द्वारा माता गंगा का अवतरण भूस्थल पर एवं  ऋषि कपिल मुनि के आश्रम के समीप अपने पूर्वज राजा सगर एवं परिवारों को उद्धार हेतु समुद्र में समावेश मकर संक्रांति को  किया गया था  इस स्थल गंगा सागर के नाम से ख्याति प्राप्त है ।सागर में जा मिली थीं। भागीरथ ने अपने पूर्वजों का तर्पण किया था और गंगाजी ने तर्पण स्वीकार किया था। महाभारत काल में भीष्म पितामह ने अपनी देह को त्याग दिया था। भीष्म पितामह ने अपने प्राण त्यागने के लिए सूर्य के मकर राशि में आने का इंतजार किया था। सूर्य के उत्तरायण के समय देह त्यागने वाली आत्माएं, सीधे देवलोक में जाती हैं। जिससे आत्मा जन्म-मरण के बंधंन से मुक्त हो जाती हैं। भगवान विष्णु ने असुरों का अंत कर युद्ध समाप्ति की घोषणा की थी। भगवान ने सभी असुरों को मंदार पर्वत के नीचे दबा दिने के कारण  बुराई और नकारात्मकता का अंत हुआ था। मकर संक्रांति को तमिलनाडु में पोंगल , कर्नाटक, केरल और आंध्र प्रदेश में  संक्रांति , गुजरात में  उत्तरायण , असम में माघी बिहू  और कर्नाटक में सुग्गी हब्बा, केरल में मकरविक्लु , कश्मीर में शिशुर सेंक्रांत. कहा गया है । नेपाल और बांग्लादेश  देशों में अलग-अलग धार्मिक मान्यताओं के लोग  मनाते हैं । मकर संक्रांति  खगोलीय घटना है । कौन्स्टोलेशन ऑफ़ कैप्रिकॉन को मकर राशि कहते हैं । खगोल विज्ञान के कैप्रिकॉन और भारतीय ज्योतिष की मकर राशि में थोड़ा अंतर है ।कॉन्सटोलेशन तारों से बनने वाले एक ख़ास पैटर्न को कहा जाता है जिन्हें पहचाना जा सके, प्राचीन काल से दुनिया की लगभग हर सभ्यता में लोगों ने उनके आकार के आधार पर उन्हें नाम दिए हैं, खगोलीय कौन्स्टोलेशन और ज्योतिष की राशियां मोटे तौर पर मिलती-जुलती हैं ।संक्रांति का मतलब संक्रमण यानी ट्रांजिशन पर सूर्य मकर राशि में प्रवेश करता है। सूर्य के किसी राशि में प्रवेश करने या निकलने का अर्थ यह नहीं है कि सूर्य घूम रहा है, यह पृथ्वी के सूर्य के चारों तरफ़ चक्कर लगाने की प्रक्रिया का हिस्सा है, इसे परिभ्रमण कहते हैं और धरती को सूर्य का एक चक्कर पूरा करने में एक साल का समय लगता है ।मकर संक्रांति से दिन लंबे और रातें छोटी, उत्तरी गोलार्द्ध नॉर्दर्न हैमिस्फ़ियर  में 14-15 जनवरी के बाद से सूर्यास्त का समय धीरे-धीरे आगे खिसकता जाता है। मकर संक्रांति  सूर्य का धनु राशि से मकर राशि में प्रवेश करने का संक्रमण काल. भारत में प्रचलित  हिंदू कैलेंडर सूर्य एवं चंद्र  पर आधारित हैं । ग्रेगोरियन कैलेंडर सोलर कैलेंडर  सूर्य पर आधारित कैलेंडर है । मकर संक्रांति  त्योहार धरती की तुलना में सूर्य की स्थिति के हिसाब से मनाने का कारण  चंद्रमा की स्थिति में मामूली हेरफेर की वजह से 14 जनवरी या  कभी 15 को, लेकिन सूर्य की मुख्य भूमिका होने की वजह से अंग्रेज़ी तारीख़ नहीं बदलती.  है । विद्येश्वर संहिता के अनुसार हिमालय से से प्रवाहित होने वाली 100 मुखवाली पुण्यसलिला गंगा नदी के तट पर निवास एवं नदी में स्नानादि मकर राशि के सूर्य होने पर दान पुण्य एवं आध्यत्मिक साधना करने वालों को अभीष्ट फल की प्राप्ति होती है ।  सूर्य के मकर राशि पर रहने से मकर संक्रांति , मेष राशि पर सूर्य के रहने पर मेष संक्रांति ,कर्क राशि पर सूर्य रहने से कर्क संक्रांति ,, कन्या संक्रांति , मिथुन संक्रांति , सिंह संक्रांति , वृष संक्रांति अर्थात 12 संक्रांति है ।गोरखपुर का गोरखपुर मन्दिर मे विशेष रूप में संक्रांति मनया जता हैै।