मंगलवार, अप्रैल 26, 2022

सर्वांगीण समृद्धि का अक्षय तृतीया...


पुरणों  के अनुसार वैशाख शुक्ल तृतीया  को  शुभ कार्य करने पर  अक्षय फल मिलता है। अक्षय तृतीया को विभिन्न क्षेत्रों में अक्षय तृतीया , आखा तीज , अक्षय तीज कहा गया है । अक्षय तृतीया का सर्वसिद्ध मुहूर्त में  विवाह, गृह-प्रवेश, वस्त्र-आभूषणों की खरीददारी या घर, भूखण्ड, वाहन आदि की खरीददारी , नवीन वस्त्र, आभूषण आदि धारण करने और नई संस्था, समाज आदि की स्थापना या उदघाटन का कार्य श्रेष्ठ ,  पितरों को किया गया तर्पण तथा पिन्डदान अथवा किसी और प्रकार का दान, अक्षय फल प्राप्ति ,  गंगा स्नान करने से तथा भगवत पूजन से समस्त पाप नष्ट हो जाते एवं  जप, तप, हवन, स्वाध्याय और दान भी अक्षय हो जाता है। यह तिथि यदि सोमवार तथा रोहिणी नक्षत्र के दिन आए तो इस दिन किए गए दान, जप-तप का फल बहुत अधिक बढ़ जाता हैं। इसके अतिरिक्त यदि यह तृतीया मध्याह्न से पहले शुरू होकर प्रदोष काल तक रहे तो बहुत ही श्रेष्ठ मानी जाती है। यह भी माना जाता है कि आज के दिन मनुष्य अपने या स्वजनों द्वारा किए गए जाने-अनजाने अपराधों की सच्चे मन से ईश्वर से क्षमा प्रार्थना करे तो भगवान उसके अपराधों को क्षमा कर देते हैं और उसे सदगुण प्रदान करते हैं, अतः आज के दिन अपने दुर्गुणों को भगवान के चरणों में सदा के लिए अर्पित कर उनसे सदगुणों का वरदान माँगने की परम्परा भी है।
अक्षय तृतीया के दिन ब्रह्म मुहूर्त में उठकर समुद्र या गंगा स्नान करने के बाद भगवान विष्णु की शान्त चित्त होकर विधि विधान से पूजा करने का प्रावधान है। नैवेद्य में जौ या गेहूँ का सत्तू, ककड़ी और चने की दाल अर्पित किया जाता है। तत्पश्चात फल, फूल, बरतन, तथा वस्त्र आदि दान करके ब्राह्मणों को दक्षिणा दी जाती है। ब्राह्मण को भोजन करवाना कल्याणकारी समझा जाता है। सत्तू अवश्य खाने तथा नए वस्त्र और आभूषण पहनने , गौ, भूमि, स्वर्ण पात्र इत्यादि का दान ,  वसन्त ऋतु के अन्त और ग्रीष्म ऋतु का प्रारम्भ होने के कारण  अक्षय तृतीया के दिन जल से भरे घडे, कुल्हड, सकोरे, पंखे, खडाऊँ, छाता, चावल, नमक, घी, खरबूजा, ककड़ी, चीनी, साग, इमली, सत्तू आदि गरमी में लाभकारी वस्तुओं का दान पुण्यकारी अक्षय तीज   है। लक्ष्मी नारायण की पूजा सफेद कमल अथवा सफेद गुलाब या पीले गुलाब से करना चाहिये। सर्वत्र शुक्ल पुष्पाणि प्रशस्तानि सदार्चने। दानकाले च सर्वत्र मन्त्र मेत मुदीरयेत्॥ अर्थात सभी महीनों की तृतीया में सफेद पुष्प से किया गया पूजन प्रशंसनीय माना गया है। भविष्य पुराण के अनुसार वैशाख शुक्ल तृतीया  तिथि की युगादि तिथियों में गणना , सतयुग और त्रेता युग का प्रारंभ  तिथि से हुआ है। भगवान विष्णु ने नर-नारायण, हयग्रीव और परशुराम जी का अवतरण ,  ब्रह्माजी के पुत्र अक्षय कुमार का आविर्भाव हुआ था। श्री बद्रीनाथ जी की प्रतिमा स्थापित कर पूजा  और श्री लक्ष्मी नारायण के दर्शन किए प्रसिद्ध तीर्थ स्थल बद्रीनारायण के कपाट  पुनः खुलते हैं। वृन्दावन स्थित श्री बाँके बिहारी जी मन्दिर में श्री विग्रह के चरण दर्शन होते हैं । जी.एम. हिंगे के अनुसार तृतीया 41 घटी 21 पल होती है तथा धर्म सिन्धु एवं निर्णय सिन्धु ग्रन्थ के अनुसार अक्षय तृतीया 6 घटी से अधिक होना चाहिए। पद्म पुराण के अनुसार  तृतीया को अपराह्न व्यापिनी मानना चाहिए। महाभारत का युद्ध समाप्त हुआ था और द्वापर युग का समापन  एवं कलियुग के प्रारम्भ दिवस कहा गया है । मदनरत्न के अनुसार: अस्यां तिथौ क्षयमुर्पति हुतं न दत्तं। तेनाक्षयेति कथिता मुनिभिस्तृतीया॥ उद्दिष्य दैवतपितृन्क्रियते मनुष्यैः। तत् च अक्षयं भवति भारत सर्वमेव॥ पुरणों  के अनुसार प्राचीन काल में धर्मदास न वैश्य की सदाचार, देव और ब्राह्मणों के प्रति काफी श्रद्धा थी। अक्षय व्रत के महात्म्य को सुनने के पश्चात उसने इस पर्व के आने पर गंगा में स्नान करके विधिपूर्वक देवी-देवताओं की पूजा की, व्रत के दिन स्वर्ण, वस्त्र तथा दिव्य वस्तुएँ ब्राह्मणों को दान में दी। अनेक रोगों से ग्रस्त तथा वृद्ध होने के बावजूद भी उसने उपवास करके धर्म-कर्म और दान पुण्य किया। यही वैश्य दूसरे जन्म में कुशावती का राजा बना था । अक्षय तृतीया के दिन किए गए दान व पूजन के कारण वह बहुत धनी प्रतापी बना। वह धर्मदास धनी और प्रतापी राजा था कि त्रिदेव तक उसके दरबार में अक्षय तृतीया के दिन ब्राह्मण का वेष धारण करके उसके महायज्ञ में शामिल होते थे। अपनी श्रद्धा और भक्ति का उसे कभी घमण्ड नहीं हुआ और महान वैभवशाली होने के बावजूद  वह धर्म मार्ग से विचलित नहीं हुआ। धर्मदास  राजा आगे चलकर राजा चंद्रगुप्त का जन्म वैशाख शुक्ल तृतीया को  जन्म हुआ था । स्कंद पुराण और भविष्य पुराण में उल्लेख है कि वैशाख शुक्ल पक्ष की तृतीया को रेणुका के गर्भ से भगवान विष्णु ने परशुराम रूप में जन्म लिया। कोंकण और चिप्लून के परशुराम मंदिरों में भगवान  परशुराम जयन्ती बड़ी धूमधाम से मनाई जाती है। दक्षिण भारत में परशुराम जयन्ती को विशेष महत्व दिया जाता है। परशुराम जयन्ती होने के कारण भगवान परशुराम के आविर्भाव की कथा भी सुनी जाती है। इस दिन परशुराम जी की पूजा करके उन्हें अर्घ्य देने का बड़ा माहात्म्य माना गया है। सौभाग्यवती स्त्रियाँ और क्वारी कन्याएँ इस दिन गौरी-पूजा करके मिठाई, फल और भीगे हुए चने बाँटती हैं, गौरी-पार्वती की पूजा करके धातु या मिट्टी के कलश में जल, फल, फूल, तिल, अन्न आदि लेकर दान करती हैं। अक्षय तृतीया के  दिन जन्म से ब्राह्मण और कर्म से क्षत्रिय भृगुवंशी परशुराम का जन्म हुआ था।  भगवान  परशुराम की माता और विश्वामित्र की माता के पूजन के बाद प्रसाद देते समय ऋषि ने प्रसाद बदल कर दे दिया था। जिसके प्रभाव से परशुराम ब्राह्मण होते हुए क्षत्रिय स्वभाव के थे और क्षत्रिय पुत्र होने के बाद विश्वामित्र ब्रह्मर्षि कहलाए थे ।  जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर श्री ऋषभदेव भगवान ने एक वर्ष की पूर्ण तपस्या करने के पश्चात इक्षु (शोरडी-गन्ने) रस से पारायण किया था। जैन धर्म के प्रथम तीर्थकर श्री आदिनाथ भगवान ने सत्य व अहिंसा का प्रचार करने एवं अपने कर्म बन्धनों को तोड़ने के लिए संसार के भौतिक एवं पारिवारिक सुखों का त्याग कर जैन वैराग्य अंगीकार कर लिया। सत्य और अहिंसा के प्रचार करते-करते आदिनाथ  हस्तिनापुर का  गजपुर पधारे थे । हस्तिनापुर की राजधानी गजपुर में आदिनाथ का पौत्र राजा  सोमनाथ  का शासन था। जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव का आगमन सुनकर सम्पूर्ण नगर दर्शनार्थ उमड़ पड़ा सोमप्रभु के पुत्र राजकुमार श्रेयांस कुमार ने प्रभु को देखकर उसने आदिनाथ को पहचान लिया और तत्काल शुद्ध आहार के रूप में प्रभु को गन्ने का रस दिया, जिससे आदिनाथ ने व्रत का पारायण किया। जैन धर्मावलंबियों का गन्ने के रस को इक्षुरस को महत्वपूर्ण मन जाता है। इक्षु तृतीया एवं अक्षय तृतीया के नाम से विख्यात हो गया।भगवान श्री आदिनाथ ने 400 दिवस की तपस्या के पश्चात पारण किया था। जैन धर्म में  वर्षीतप से सम्बोधित किया जाता है। जैन धर्मावलम्बी वर्षीतप की आराधना कर अपने को धन्य समझते हैं, यह तपस्या प्रति वर्ष कार्तिक के कृष्ण पक्ष की अष्टमी से आरम्भ  और दूसरे वर्ष वैशाख के शुक्लपक्ष की अक्षय तृतीया के दिन पारन कर पूर्ण की जाती है। बुन्देलखण्ड में अक्षय तृतीया से प्रारम्भ होकर पूर्णिमा तक बडी धूमधाम से उत्सव में कुँवारी कन्याएँ अपने भाई, पिता तथा गाँव-घर और कुटुम्ब के लोगों को शगुन बाँटती हैं और गीत गाती हैं। अक्षय तृतीया को राजस्थान में वर्षा के लिए शगुन निकाला जाता है।  लड़कियाँ झुण्ड बनाकर घर-घर जाकर शगुन गीत गाती और लड़के पतंग उड़ाते हैं। यहाँ इस दिन सात तरह के अन्नों से पूजा की जाती है। मालवा में नए घड़े के ऊपर खरबूजा और आम के पल्लव रख कर पूजा तथा  कृषि कार्य का आरम्भ करते है। वैशाख शुक्ल पक्ष तृतीया गुरुवार , रोहाणी नक्षत्र , धृति योग में त्रेतायुग का प्रारंभ , सतयुग में ब्रह्मा जी का पुत्र अक्षय का अवतरण , सर्वजीत संबत्सर , वैशाख शुक्ल तृतीया , मंगलवार ,पूर्वाभाद्रपद नक्षत्र ,वरीयान योग त्रेतायुग में भगवान परशुराम , सतयुग में नर नारायण , भगवान विष्णु के अवतार हयग्रीव का अवतरण , मगध साम्राज्य का सम्राट चंद्रगुप्त का जन्म वैशाख शुक्ल तृतीया 322 ई. पू. को हुआ था तथा भगवान ऋषभदेव एवं जैन धर्म के तीर्थंकर आदिनाथ का इक्षुरस पीने के बाद विश्व को अहिंसा , प्रेम और सौहार्द का मंत्र दिया  था ।







रविवार, अप्रैल 24, 2022

शास्त्र और शस्त्र का प्रणेता भगवान परशुराम...


त्रेता युग में  ब्राह्मण ऋषि  भृगु वंशीय ऋषि जमदग्नि की पत्नी रेणुका का पुत्र भगवान विष्णु के छठे अवतार भगवान परसुराम का अवतरण सर्वजीत संबत्सर   वैशाख शुक्ल पक्ष तृतीया मंगलवार ,पूर्वभाद्रपद नक्षत्र  वरियाणं योग त्रेतायुग में हुआ था । पुरणों के अनुसार भगवान परशुराम का  जन्म महर्षि भृगु के पुत्र महर्षि जमदग्नि द्वारा सम्पन्न पुत्रेष्टि यज्ञ से प्रसन्न देवराज इन्द्र के वरदान स्वरूप पत्नी रेणुका के गर्भ से वैशाख शुक्ल तृतीया को मध्यप्रदेश के इन्दौर जिला के मानपुर के जानापाव पर्वत में हुआ था ।  ब्रह्म पुराण , मत्स्यपुराण ,  विष्णुपुराण , महाभारत एवं श्रीमद्भागवत पुराण के अनुसार के अनुसार भृगु नंदन जमदग्नि ऋषि द्वारा सम्पन्न नाम करन संस्कार के तहत भगवान  परशुराम का मूल नाम राम था।  ऋषि जमदग्नि का पुत्र होने के कारण जामदग्न्य और शिवजी द्वारा प्रदत्त परशु धारण किये रहने के कारण जमदग्निपुत्र राम को परशुराम  के नामसे सुविख्यात हुए थे । आरम्भिक शिक्षा महर्षि विश्वामित्र एवं ऋचीक के आश्रम में प्राप्त होने के साथ महर्षि ऋचीक से शार्ङ्ग नामक दिव्य वैष्णव धनुष और ब्रह्मर्षि कश्यप से विधिवत अविनाशी वैष्णव मन्त्र प्राप्त हुआ। तदनन्तर कैलाश गिरिश्रृंग पर स्थित भगवान शंकर के आश्रम में विद्या प्राप्त कर विशिष्ट दिव्यास्त्र विद्युदभि परशु प्राप्त किया। शिवजी से परशुराम को श्रीकृष्ण का त्रैलोक्य विजय कवच, स्तवराज स्तोत्र एवं मन्त्र कल्पतरु  प्राप्त हुए। चक्रतीर्थ में भगवान परशुराम का किये कठिन तप से प्रसन्न होकर भगवान विष्णु ने उन्हें त्रेता में रामावतार होने पर तेजोहरण के उपरान्त कल्पान्त पर्यन्त तपस्यारत भूलोक पर रहने का वरदान मिला है । शास्त्र और शस्त्रविद्या के महान गुरु परशुराम ने भीष्म, द्रोण व कर्ण को शस्त्रविद्या प्रदान की एवं  कर्ण को श्राप  दिया था। उन्होंने एकादश छन्दयुक्त "शिव पंचत्वारिंशनाम स्तोत्र"  लिखा। इच्छित फल-प्रदाता परशुराम गायत्री है-"ॐ जामदग्न्याय विद्महे महावीराय धीमहि, तन्नः परशुराम: प्रचोदयात्।" वे पुरुषों के लिये आजीवन एक पत्नीव्रत के पक्षधर थे। उन्होंने अत्रि की पत्नी अनसूया, अगस्त्य की पत्नी लोपामुद्रा व अपने प्रिय शिष्य अकृतवण के सहयोग से विराट नारी-जागृति-अभियान का संचालन किया था। अवशेष कार्यो में कल्कि अवतार होने पर उनका गुरुपद ग्रहण कर उन्हें शस्त्रविद्या प्रदान करना बताया गया है। भगवान परशुरामजी का उल्लेख रामायण, महाभारत, भागवत पुराण और कल्कि पुराण , स्मृतियों  में किया गया है। वे अहंकारी और धृष्ट हैहय वंशी क्षत्रियों का पृथ्वी से २१ बार संहार करने के लिए प्रसिद्ध हैं।  भूलोक पर वैदिक संस्कृति का प्रचार-प्रसारक एवं रक्षकभगवान परशुराम  थे।  भगवान परसुराम द्वारा भारत  मे कोंकण, गोवा एवं केरल का समावेश है। पौराणिक कथा के अनुसार भगवान परशुराम ने तिर चला कर गुजरात से लेकर केरला तक समुद्र को पिछे धकेल ते हुए नई भूमि का निर्माण किया। और इसी कारण कोंकण, गोवा और केरला मे भगवान परशुराम वंदनीय है । उनका कहना था कि राजा का धर्म वैदिक जीवन का प्रसार करना है नाकि अपनी प्रजा से आज्ञापालन करवाना। वे ब्राह्मण के रूप में जन्में और  कर्म से एक क्षत्रिय थे। उन्हें भार्गव , राम , जमदग्न्य, परसुराम के नाम से  जाना जाता है। वे पशु-पक्षियों तक की भाषा समझते थे और उनसे बात कर सकते थे। यहाँ तक कि कई खूँख्वार वनैले पशु  उनके स्पर्श मात्र से ही उनके मित्र बन जाते थे ।
पुरणों में उल्लेखित है कि  कन्नौज में राजा गाधि की सत्यवती अत्यन्त रूपवती कन्या थी। राजा गाधि ने सत्यवती का विवाह भृगुनन्दन ऋषीक के साथ कर दिया। सत्यवती के विवाह के पश्‍चात् वहाँ भृगु ऋषि ने आकर अपनी पुत्रवधू को आशीर्वाद दिया और उससे वर माँगने के लिये कहा। इस पर सत्यवती ने श्‍वसुर को प्रसन्न देखकर उनसे अपनी माता के लिये एक पुत्र की याचना की। सत्यवती की याचना पर भृगु ऋषि ने उसे दो चरु पात्र देते हुये कहा कि जब तुम और तुम्हारी माता ऋतु स्नान कर चुकी हो तब तुम्हारी माँ पुत्र की इच्छा लेकर पीपल का आलिंगन करना और तुम उसी कामना को लेकर गूलर का आलिंगन करना। फिर मेरे द्वारा दिये गये इन चरुओं का सावधानी के साथ अलग अलग सेवन कर लेना। इधर जब सत्यवती की माँ ने देखा कि भृगु ने अपने पुत्रवधू को उत्तम सन्तान होने का चरु दिया है तो उसने अपने चरु को अपनी पुत्री के चरु के साथ बदल दिया। इस प्रकार सत्यवती ने अपनी माता वाले चरु का सेवन कर लिया। योगशक्‍ति से भृगु को इस बात का ज्ञान हो गया और वे अपनी पुत्रवधू के पास आकर बोले कि पुत्री! तुम्हारी माता ने तुम्हारे साथ छल करके तुम्हारे चरु का सेवन कर लिया है। इसलिये अब तुम्हारी सन्तान ब्राह्मण होते हुये भी क्षत्रिय जैसा आचरण करेगी और तुम्हारी माता की सन्तान क्षत्रिय होकर भी ब्राह्मण जैसा आचरण करेगी। इस पर सत्यवती ने भृगु से विनती की कि आप आशीर्वाद दें कि मेरा पुत्र ब्राह्मण का ही आचरण करे, भले ही मेरा पौत्र क्षत्रिय जैसा आचरण करे। भृगु ने प्रसन्न होकर उसकी विनती स्वीकार कर ली। समय आने पर सत्यवती के गर्भ से जमदग्नि का जन्म हुआ। जमदग्नि अत्यन्त तेजस्वी थे। बड़े होने पर उनका विवाह प्रसेनजित की कन्या रेणुका से हुआ। रेणुका से उनके पाँच पुत्र हुए जिनके नाम थे - रुक्मवान, सुखेण, वसु, विश्‍वानस और परशुराम है।
श्रीमद्भागवत में दृष्टान्त है कि गन्धर्वराज चित्ररथ को अप्सराओं के साथ विहार करता देख हवन हेतु गंगा तट पर जल लेने गई रेणुका आसक्त हो गयी और कुछ देर तक वहीं रुक गयीं। हवन काल व्यतीत हो जाने से क्रुद्ध मुनि जमदग्नि ने अपनी पत्नी के आर्य मर्यादा विरोधी आचरण एवं मानसिक व्यभिचार करने के दण्डस्वरूप सभी पुत्रों को माता रेणुका का वध करने की आज्ञा दी।अन्य भाइयों द्वारा ऐसा दुस्साहस न कर पाने पर पिता के तपोबल से प्रभावित परशुराम ने उनकी आज्ञानुसार माता का शिरोच्छेद एवं उन्हें बचाने हेतु आगे आये अपने समस्त भाइयों का वध कर डाला। उनके इस कार्य से प्रसन्न जमदग्नि ने जब उनसे वर माँगने का आग्रह किया तो परशुराम ने सभी को पुनर्जीवित होने एवं उनके द्वारा वध किए जाने सम्बन्धी स्मृति नष्ट हो जाने का ही वर माँगा।  हैहय वंशाधिपति का‌र्त्तवीर्यअर्जुन (सहस्त्रार्जुन) ने घोर तप द्वारा भगवान दत्तात्रेय को प्रसन्न कर एक सहस्त्र भुजाएँ तथा युद्ध में किसी से परास्त न होने का वर पाया था। संयोगवश वन में आखेट करते वह जमदग्निमुनि के आश्रम जा पहुँचा और देवराज इन्द्र द्वारा उन्हें प्रदत्त कपिला कामधेनु की सहायता से हुए समस्त सैन्यदल के अद्भुत आतिथ्य सत्कार पर लोभवश जमदग्नि की अवज्ञा करते हुए कामधेनु को बलपूर्वक छीनकर ले गया। कुपित परशुराम ने फरसे के प्रहार से उसकी समस्त भुजाएँ काट डालीं व सिर को धड़ से पृथक कर दिया। तब सहस्त्रार्जुन के पुत्रों ने प्रतिशोध स्वरूप परशुराम की अनुपस्थिति में उनके ध्यानस्थ पिता जमदग्नि की हत्या कर दी। रेणुका पति की चिताग्नि में प्रविष्ट हो सती हो गयीं। इस काण्ड से कुपित परशुराम ने पूरे वेग से महिष्मती नगरी पर आक्रमण कर दिया और उस पर अपना अधिकार कर लिया। इसके बाद उन्होंने एक के बाद एक पूरे इक्कीस बार इस पृथ्वी से क्षत्रियों का विनाश किया। यही नहीं उन्होंने हैहय वंशी क्षत्रियों के रुधिर से स्थलत पंचक क्षेत्र के पाँच सरोवर भर दिये और पिता का श्राद्ध सहस्त्रार्जुन के पुत्रों के रक्त से किया। अन्त में महर्षि ऋचीक ने प्रकट होकर परशुराम को ऐसा घोर कृत्य करने से रोका। इसके पश्चात उन्होंने अश्वमेघ महायज्ञ किया और सप्तद्वीप युक्त पृथ्वी महर्षि कश्यप को दान कर दी। केवल इतना ही नहीं, उन्होंने देवराज इन्द्र के समक्ष अपने शस्त्र त्याग दिये और सागर द्वारा उच्छिष्ट भूभाग महेन्द्र पर्वत पर आश्रम बनाकर रहने लगे। परशुराम ने 21 बार हैहयवंशी क्षत्रियों को समूल नष्ट किया था। क्षत्रियों का एक वर्ग है जिसे हैहयवंशी समाज कहा जाता है यह समाज आज भी है। इसी समाज में एक राजा हुआ था सहस्त्रार्जुन। परशुराम ने इसी राजा और इसके पुत्र और पौत्रों का वध किया था और उन्हें इसके लिए 21 बार युद्ध करना पड़ा था। ऋषि वशिष्ठ से शाप का भाजन बनने के कारण सहस्रार्जुन की मति मारी गई थी। सहस्रार्जुन ने परशुराम के पिता जमदग्नि के आश्रम में एक कपिला कामधेनु गाय को देखा और उसे पाने की लालसा से वह कामधेनु को बलपूर्वक आश्रम से ले गया। जब परशुराम को यह बात पता चली तो उन्होंने पिता के सम्मान के खातिर कामधेनु वापस लाने की सोची और सहस्रार्जुन से उन्होंने युद्ध किया। युद्ध में सहस्रार्जुन की सभी भुजाएँ कट गईं और वह मारा गया। तब सहस्रार्जुन के पुत्रों ने प्रतिशोधवश परशुराम की अनुपस्थिति में उनके पिता जमदग्नि को मार डाला। परशुराम की माँ रेणुका पति की हत्या से विचलित होकर उनकी चिताग्नि में प्रविष्ट हो सती हो गयीं। इस घोर घटना ने परशुराम को क्रोधित कर दिया और उन्होंने संकल्प लिया-"मैं हैहय वंश के सभी क्षत्रियों का नाश करके ही दम लूँगा"।उसके बाद उन्होंने अहंकारी और दुष्ट प्रकृति के हैहयवंशी क्षत्रियों से 21 बार युद्ध किया। ब्रह्मवैवर्त पुराण के अनुसार कैलाश स्थित भगवान शंकर के अन्त:पुर में प्रवेश करते समय गणेश जी द्वारा रोके जाने पर परशुराम ने बलपूर्वक अन्दर जाने की चेष्ठा की। तब गणपति ने उन्हें स्तम्भित कर अपनी सूँड में लपेटकर समस्त लोकों का भ्रमण कराते हुए गोलोक में भूतल पर पटक दिया। चेतनावस्था में आने पर कुपित परशुरामजी द्वारा किए गए फरसे के प्रहार से गणेश जी का एक दाँत टूट गया, जिससे वे एकदन्त कहलाये। उन्होंने त्रेतायुग में रामावतार के समय शिवजी का धनुष भंग होने पर आकाश-मार्ग द्वारा मिथिलापुरी पहुँच कर भृगुनन्दन भगवान परशुराम एवं अयोध्या के राजा दशरथ के पुत्र भगवान राम का धनुष भंग करने पर संबादों , वाल्मीकि रामायण के अनुसार दशरथनन्दन श्रीराम ने जमदग्नि कुमार परशुराम का पूजन किया , कम्ब रामायण , अध्यात्म रामायण में भगवान परशुराम का उल्लेख है । उन्होंने श्रीराम से उनके भक्तों का सतत सान्निध्य एवं चरणारविन्दों के प्रति सुदृढ भक्ति की ही याचना की थी। भीष्म द्वारा स्वीकार न किये जाने के कारण अंबा प्रतिशोध वश सहायता माँगने के लिये परशुराम के पास आयी। तब सहायता का आश्वासन देते हुए उन्होंने भीष्म को युद्ध के लिये ललकारा। उन दोनों के बीच २३ दिनों तक घमासान युद्ध चला। किन्तु अपने पिता द्वारा इच्छा मृत्यु के वरदान स्वरुप परशुराम उन्हें हरा न सके। परशुराम अपने जीवन भर की कमाई ब्राह्मणों को दान कर रहे थे, तब द्रोणाचार्य उनके पास पहुँचे। किन्तु दुर्भाग्यवश वे तब तक सब कुछ दान कर चुके थे। तब परशुराम ने दयाभाव से द्रोणचार्य से कोई भी अस्त्र-शस्त्र चुनने के लिये कहा।  द्रोणाचार्य ने कहा कि मैं आपके सभी अस्त्र शस्त्र उनके मन्त्रों सहित चाहता हूँ ताकि जब उनकी आवश्यकता हो, प्रयोग किया जा सके। परशुरामजी ने कहा-"एवमस्तु!"। उन्होने कर्ण को भी विभिन्न प्रकार कि अस्त्र शिक्षा दी थी और ब्रह्मास्त्र चलाना भी सिखाया था। लेकिन कर्ण एक सूत का पुत्र था, फिर भी यह जानते हुए कि परशुराम केवल ब्राह्मणों को ही अपनी विधा दान करते हैं, कर्ण ने छल करके परशुराम से विधा लेने का प्रयास किया। परशुराम ने उसे ब्राह्मण समझ कर बहुत सी विद्यायें सिखायीं, लेकिन एक दिन जब परशुराम एक वृक्ष के नीचे कर्ण की गोदी में सर रखके सो रहे थे, तब एक भौंरा आकर कर्ण के पैर पर काटने लगा, अपने गुरुजी की नींद में कोई अवरोध न आये इसलिये कर्ण भौंरे को सेहता रहा, भौंरा कर्ण के पैर को बुरी तरह काटे जा रहा था, भौरे के काटने के कारण कर्ण का खून बहने लगा। वो खून बहता हुआ परशुराम के पैरों तक जा पहुँचा। परशुराम की नींद खुल गयी और वे इस खून को तुरन्त पहचान गये कि यह खून किसी क्षत्रिय का ही हो सकता है जो इतनी देर तक बगैर उफ़ किये बहता रहा। इस घटना के कारण कर्ण को अपनी अस्त्र विद्या का लाभ नहीं मिल पाया। कल्कि पुराण के अनुसार परशुराम, भगवान विष्णु के चौबीसवें तथा अंतिम अवतार कल्कि के गुरु होंगे और उन्हें युद्ध की शिक्षा देंगे। वे कल्कि को भगवान शिव की तपस्या करके उनके दिव्यास्त्र को प्राप्त करने के लिये कहेंगे। भगवान परशुराम शास्त्र ,  शस्त्र और अस्त्र विद्या के श्रेष्ठ जानकार  परशुराम केरल के मार्शल आर्ट कलरीपायट्टु की उत्तरी शैली वदक्कन कलरी के संस्थापक आचार्य एवं आदि गुरु हैं।भगवान परशुराम की पूजा सुर उपासना मंदिर मध्यप्रदेश का सतना सरोवर ,, इंदौर ,महाराष्ट्र का रत्नगिरि ,उत्तराखंड का उत्तरकाशी ,राजस्थान का मेवाड़के अमरनाथ धाम गुफा , चिपल्लुब ,कुविगढ़ ,चिपुलन ,सोमनाथ ,हिमाचल प्रदेश ,अरुणाचल प्रदेश का परशुरामकुण्ड , झारखंड के टांगीनाथ धाम ,,कुंभलगढ़, हरपुरजमानियाँ में स्थित है । भगवान परशुराम  का जन्मोत्सव उत्तरप्रदेश , उत्तराखंड , मध्यप्रदेश , राजस्थान , महाराष्ट्र  उड़ीसा , झारखंड , बिहार , तमिलनाडु , आंध्रप्रदेश , असम , बंगाल आदि क्षेत्रों में मनाया जाता है । भगवान परशुराम की नीति और विचार सामाजिक उत्थान के मार्ग प्रशस्त करती है । भगवान की उपासना से मनोवांक्षित एव सर्वांगीण सुख समृद्धि की वृद्धि होती है ।






गुरुवार, अप्रैल 21, 2022

वैशाली की सांस्कृतिक विरासत ...

    विश्व का प्रथम गणतंत्र वैशाली का गणतंत्रात्मक पद्धति का स्थल है । बिहार राज्य  मुजफ्फरपुर से अलग होकर १२ अक्टुबर १९७२ को 2036 वर्ग कि. मि. क्षेत्रफल  में  वैशाली के जिला का मुख्यालय हाजीपुर है ।वैशाली जिले की  मुख्य भाषा वज्जिका एवं हिंदी  है। विश्व का प्रथम  गणतंत्र में भगवान महावीर की जन्म स्थली ,  भगवान बुद्ध की कर्म भूमि ,  मशहूर राजनर्तकी और नगरवधू आम्रपाली के स्थल एवं इक्ष्वाकु वंशीय राजा विशाल की राजधानी वैशाली थी । महाभारत काल राजा ईक्ष्वाकु वंशीय राजा विशाल द्वारा वैशाली नगर की स्थापना की गई थी । विष्णु पुराण के अनुसार वैशाली क्षेत्र पर राज करने वाले ३४ राजाओं में  प्रथम नमनदेष्टि तथा अंतिम सुमति या प्रमाति थे। त्रेतायुग में राजा सुमति अयोध्या के  भगवान राम के पिता राजा दशरथ के मित्र 7थे। सातवीं सदी ई. पू. के उत्तरी और मध्य भारत में विकसित हुए १६ महाजनपदों में वैशाली का स्थान नेपाल की तराई से लेकर गंगा के बीच फैली भूमि पर वज्जियों तथा लिच्‍छवियों के संघ द्वारा गणतांत्रिक शासन व्यवस्था की शुरुआत की गयी थी।  छठी शताब्दी ई. पू.  में वैशाली  का शासक जनता के प्रतिनिधियों द्वारा चुना जाने लगा और गणतंत्र की स्थापना हुई थी । चीनी यात्री ह्वेनसांग के अनुसार वैशाली नगर का घेरा १४ मील था। मौर्य और गुप्‍त राजवंश में मगध साम्राज्य की राजधानी के पाटलिपुत्र रूप में विकसित होने के क्रम  में  वैशाली व्‍यापार और उद्योग का प्रमुख केन्द्र था। भगवान बुद्ध ने वैशाली के  कोल्‍हुआ में अन्तिम सम्बोधन किया  था। भगवान बुद्ध की याद में  मगध साम्राज्य का मौर्य सम्राट अशोक ने तीसरी शताब्दी ई.  पू . सिंह स्‍तम्भ का निर्माण करवाया था। महात्‍मा बुद्ध के महापरिनिर्वाण के लगभग १०० वर्ष बाद वैशाली में दूसरे बौद्ध परिषद् का आयोजन किया गया था। इस आयोजन की याद में दो बौद्ध स्‍तूप बनवाये गये। वैशाली के समीप बौद्ध मठ में महात्‍मा बुद्ध उपदेश दिया करते थे। भगवान बुद्ध के सबसे प्रिय शिष्य आनंद की पवित्र अस्थियाँ हाजीपुर (पुराना नाम - उच्चकला) के पास एक स्तूप में रखी गयी थी। लिच्छवी कबीले के राजा मनुदेव  ने वैशाली में निवास स्थान बनाया था । ५९९ ईसा पूर्व में जैन धर्म के चौबीसवें तीर्थंकर भगवान महावीर का जन्‍म कुंडलपुर (कुंडग्राम) में हुआ था। वज्जिकुल में जन्में भगवान महावीर यहाँ २२ वर्ष की उम्र तक रहे थे। वैशाली जिला के चेचर (श्वेतपुर) से प्राप्त मूर्तियाँ तथा सिक्के पुरातात्विक महत्त्व  हैं। पूर्वी भारत में मुस्लिम शासकों के आगमन के पूर्व वैशाली मिथिला के कर्नाट वंश के शासकों के अधीन रहा परंतु  बख्तियार खिलजी का शासन हो गया। तुर्क-अफगान काल में बंगाल के  शासक हाजी इलियास शाह ने १३४५ ई॰ से १३५८ ई॰ तक  शासन किया। बाबर ने बंगाल अभियान के दौरान गंडक तट के पार अपनी सैन्य टुकड़ी को भेजा था। १५७२ ई॰ से १५७४ ई॰ के दौरान बंगाल विद्रोह को कुचलने के क्रम में अकबर की सेना ने दो बार हाजीपुर किले पर घेरा डाला था। १८वीं सदी के दौरान अफगानों द्वारा तिरहुत कहलानेवाले  प्रदेश पर कब्जा किया। स्वतंत्रता आन्दोलन के समय वैशाली के शहीदों की अग्रणी भूमिका रही है। आजादी की लड़ाई के दौरान १९२०, १९२५ तथा १९३४ में महात्मा गाँधी का वैशाली में आगमन हुआ था।  वैशाली का विस्तार आजकल के उत्तर प्रदेश स्थित देवरिया एवं कुशीनगर जनपद गाजीपुर और  बिहार के हाजीपुर तक था। सम्राट अशोक ने वैशाली में हुए महात्‍मा बुद्ध के अन्तिम उपदेश की याद में वैशाली से  ३ किलोमीटर दूर कोल्हुआ व  बखरा गढ़ के उत्खनन के बाद प्राप्त  अवशेषों को पुरातत्व विभाग ने चारदीवारी बनाकर सहेज रखा है। परिसर में प्रवेश करते ही खुदाई में मिला इँटों से निर्मित गोलाकार स्तूप और अशोक स्तम्भ  है। एकाश्म स्‍तम्भ का निर्माण लाल बलुआ पत्‍थर से निर्मित  १८.३ मीटर ऊँची अशोक स्तंभ आकर्षक है। अशोक स्तम्भ को स्थानीय लोग भीमसेन की लाठी कहते हैं। पुरातत्व विभाग द्वारा  केल्हुआ का  रामकुण्ड को मर्कक-हद के किनारे  बुद्ध का मुख्य स्तूप  और दूसरी ओर भिक्षुणी का निवास  कुटागारशाला कहा गया है । लिच्छवी द्वारा वैशाली में भगवान बुद्ध के परिनिर्वाण के बाद द्वितीय बौद्ध परिषद की याद में बौद्ध अस्थि स्तूप बौद्ध स्‍तूपों का निर्माण किया गया था। अस्थि बौद्ध स्‍तूपों का  १९५८ में उत्खनन के बाद भगवान बुद्ध के राख पाये जाने से  स्‍थान का महत्त्‍व काफी बढ़ गया है। बुद्ध के पार्थिव अवशेष पर बने आठ मौलिक स्तूपों में से एक है। बौद्ध मान्यता के अनुसार भगवान बुद्ध के महापरिनिर्वाण के पश्चात कुशीनगर के मल्ल शासकों में राजा श्री सस्तिपाल मल्ल  द्वारा  भगवान बुद्ध के शरीर का राजकीय सम्मान के साथ अन्तिम संस्कार किया गया तथा अस्थि अवशेष को आठ भागों में बाँटा गया था । भगवान बुद्ध का अस्थि अवशेष का  भाग वैशाली के लिच्छवियों को मिला था। शेष सात भाग मगध नरेश अजातशत्रु, कपिलवस्तु के शाक्य, अलकप्प के बुली, रामग्राम के कोलिय, बेटद्वीप के एक ब्राह्मण तथा पावा एवं कुशीनगर के मल्लों को प्राप्त हुए थे। वैशाली  पाँचवी शती ई॰ पू . में निर्मित 8.07  मीटर व्यास वाला मिट्टी का  स्तूप था। मौर्य, शुंग व कुषाण कालों में 12 मीटर व्यास   पकी इँटों से आच्छादित करके चार चरणों में स्तूप का  परिवर्तन किया गया था ।  वैशाली गणराज्य द्वारा ढाई हजार वर्ष पूर्व बनवाया गया पवित्र पुष्करणी  सरोवर है।वैशाली  गणराज्‍य में जब कोई नया शासक निर्वाचित होता था  उनको पुष्करणी सरोवर  पर अभिषेक करवाया जाता था। राहुल सांकृत्यायन के उपन्यास "सिंह सेनापति"के अनुसार बुद्ध स्तूप के समीप वैशाली गणराज्य के शासक को प्रथम बार पुष्करणी जल से अभिषेक किया जाता था । अभिषेक पुष्करणी के समीप  जापान के निप्पोनजी बौद्ध समुदाय द्वारा बनवाया गया विश्‍व शान्तिस्‍तूप स्थित है। गोल घुमावदार गुम्बद, अलंकृत सीढियाँ और उनके दोनों ओर स्वर्ण रंग के बड़े सिंह जैसे पहरेदार शान्ति स्तूप की रखवाली कर रहे प्रतीत होते हैं। सीढ़ियों के सामने ही ध्यानमग्न बुद्ध की स्वर्ण प्रतिमा दिखायी देती है। शान्ति स्तूप के चारों ओर बुद्ध की भिन्न-भिन्न मुद्राओं की अत्यन्त सुन्दर मूर्तियाँ ओजस्विता की चमक से भरी दिखाई देती हैं। बावन पोखर के उत्तरी छोर पर बना पाल कालीन मंदिर में हिन्दू देवी-देवताओं की प्रतिमाएँ स्थापित है । विशाल गढ़ की परिधि एक किलोमीटर के चारों तरफ दो मीटर ऊँची दीवार और चारों तरफ ४३ मीटर चौड़ी खाई है।  विशाल गढ़ के समीप चतुर्मुख शिव लिंग में भगवान  ब्रह्मा , विष्णु ,शिव एवं सूर्य का मुख है । वैशाली से 4 कि. मि. की दूरी पर कुंड ग्राम में भगवान महावीर का जन्‍म स्‍थान एवं महावीर स्वामी मंदिर होने के कारण  जैन धर्मावलम्बियों के लिए पवित्र  है। समुद्र तल से 52 मीटर ऊँचाई पर वैशाली जिला  के गंगा और गंडक के संगम पर स्थित हाजीपुर का केला प्रसिद्ध एवं वैशाली जिले का मुख्यालय हाजीपुर है । पटना- ५५ कि. मी. , हाजीपुर- ३५ कि. मि .बोधगया- १६३ कि. मि ., राजगीर- १४५ कि. मि . , नालंदा- १४० कि. मि. की दूरी पर अवस्थित वैशाली का दर्शनीय स्थल है ।













शनिवार, अप्रैल 16, 2022

कलात्मक ऊर्जा का स्रोत भित्तिचित्र...

    मानव की कलात्मक उत्कृष्टता की सुदृढ परंपरा गुफाओं , पर्वत के चट्टानों और महलों की दीवारों पर बने भित्तिचित्र हैं। भित्ति चित्रों का साक्ष्य अजंता और एलोरा की गुफाओं , बराबर पर्वत समूह की चट्टानों पर चित्रित भित्तिचित्र है । प्राचीन सभ्यता और संस्कृति का द्योतक  लिपियों और साहित्य में, भित्ति चित्र  थे। विनय पिटक के अनुसार, आम्रपाली ने अपने महल की दीवारों पर  राजाओं, व्यापारियों और व्यापारियों को चित्रित करने के लिए चित्रकार नियुक्त किए थे । प्रागैतिहासिक ग्रंथों में राजाओं और शासकों द्वारा बनाए गए ‘चित्राग्रास’ या दीर्घाओं का संदर्भ हैं। 2 वीं शताब्दी ई . पू . से 8 वीं – 10 वीं शताब्दी ई.  पू . और प्रारंभिक मध्ययुगीन काल में भित्तिचित्रों का प्रारंभ है। भारत में भित्ति चित्रों से युक्त 20 से अधिक प्राकृतिक गुफाएं और रॉक-कट शामिल हैं । भारत में भित्ति चित्रों पर रंग सामग्री प्राकृतिक टेराकोटा, चाक, लाल गेरू और पीली गेरू से ली गई थी।  अजंता के गुफा चित्र दूसरी शताब्दी ईसा पूर्व के दौरान बनाए गए थे और 5 वीं -6 वीं शताब्दी ईस्वी तक सजावटी रूपांकनों, भीड़ रचनाओंका  भित्ति चित्र मध्य प्रदेश के बाग ,  कर्नाटक में बादामी की गुफाएँ, तमिलनाडु में सीतानवसाल और 8 वीं शताब्दी ई के एलोरा, महाराष्ट्र के कैलाशनाथ मंदिर तथा बिहार के जहानाबाद एवं गया जिले के  बराबर पर्वत समूह एवं कौवाडोल  में  रैखिक शैलियों के लिए जाने जाते हैं ।
टेम्पेरा पेंटिंग: टेम्पेरा पेंटिंग  जल-गलत माध्यम में वर्णक की तैयारी द्वारा तैयार  चित्रों का उद्देश्य वास्तुशिल्प बुनियादी बातों को शामिल करते हुए कलाकृति में वांछित स्थिरता  है। ऑइल पेंटिंग: ऑइल पेंटिंग ऑइल रंगों में पेंटिंग का पिगमेंट के निलंबन को सुखाने वाले तेलों में पकड़ती है। फ्रेस्को पेंटिंग: फ्रेस्को पेंटिंग एक प्राचीन प्रथा है जो हाल ही में लागू प्लास्टर पर पानी आधारित पिगमेंट की पेंटिंग को बढ़ाती है। चित्रों में उपयोग किए जाने वाले रंगों को सूखे पाउडर के पाउडर को शुद्ध पानी में पीसकर तैयार किया जाता है। एनकॉस्टिक पेंटिंग: एनकॉस्टिक पेंटिंग प्रैक्टिस में हॉट, लिक्विड वैक्स के साथ पिगमेंट का संयोजन शामिल होता है ।  अरुणाचल प्रदेश और त्रिपुरा में उदात्त भित्ति चित्र  रचनाएँ  हैं। 11 वीं से  लद्दाख को अलची और हेमिस मठों में दीवार चित्रों के लिए प्रसिद्ध  है ।  11 वीं -12 वीं शताब्दी में बना और हिमाचल प्रदेश में स्पीति घाटी, तबो मठ के गोमपा में अपने बौद्ध चित्रों के लिए  है। उत्तर भारत में मुगल काल से पूर्व की भित्ति चित्रों की समृद्ध विरासत है। 12 वीं शताब्दी ई . के उत्तर प्रदेश के ललितपुर जिले के मदनपुर में स्थित विष्णु मंदिर में भित्ति चित्र , मुगल युग का लघुचित्र , अकबर और जहाँगीर के किलों और महलों की दीवारों पर भित्ति चित्र फारसी शैलियों की  हैं। मुगल चित्रकला परंपराओं ने राजपूत चित्रकला को प्रभावित किया। दीग, बूंदी, जयपुर, अजमेर, जोधपुर और राजस्थान के अन्य स्थानों की दीवार पेंटिंग हैं। दक्षिण भारत में भित्ति चित्रों की समृद्ध परंपरा  चोल, विजयनगर और नायक के शासनकाल में चरमोत्कर्ष पर पहुँच गई थी । बीजापुर, हैदराबाद और गोलकुंडा स्कूलों की दक्कन कला मुगल परंपराओं और बाद में यूरोपीय  से प्रभावित थी। मराठा भित्ति चित्र मोगुल परंपराओं और नियोजित तेल के रूप में आकार में हैं। मंदिरों और स्मारकों की दीवारों पर चित्रित केरल की भित्ति कला यूरोपीय आत्मीयता के निशान है। बिहार का जहानाबाद जिले का बराबर पर्वत समूहों एवं गया जिले के कौवाडोल पर्वत की चट्टानों पर निर्मित ब्राह्मण धर्म एवं बौद्ध धर्म का भितचित्र 500 ई. पू. की है । पर्वतों की चट्टानों में सनातन संस्कृति का देवों , देवियों , माता लक्ष्मी , सरस्वती , महिषासुरमर्दनी , भगवान ब्रह्मा , विष्णु , महेश ,  शिवलिंग , गणेश , राजाओं  का भित्तिचित्र मगध साम्राज्य की गाथाओं का मुक गवाह है । बराबर स्थित लोमश ऋषि गुफा की दीवारों पर भित्तिचित्र विलक्षण प्रतिभा और लिपि है ।






गुरुवार, अप्रैल 14, 2022

प्राक ऐतिहासिक मानव कला है मधुबनी पेंटिंग...

    कलात्मक उत्कृष्टता की सुदीर्घ परंपरा चित्रकला प्राक ऐतिहासिक मानव कला और मनोविनोद की गतिविधियां रही है ।  प्रागैतिहासिक चित्रकला  उच्च पुरापाषाण काल 40000 से  10000 ई. पू.  में  मिश्रित गेरू  का प्रयोग चित्र मानव आकृतियों , मध्य पाषाण काल  10000 से 4000 ई. पू . तक लाल रंग   , ताम्र पाषाण काल 1000 ई.पू. में तथा भारतीय भित्तिचित्र 10 वीं शताब्दी ई.लौकिक अलंकरण करने के लिए प्रदर्शित किए जाते थे । मागधीय भित्तिचित्र की परम्पराएँ बराबर पर्वत समूह के विभिन्न स्थलों , अजंता की गुफाओं ,एलोरा की चित्रकला ,तमिलनाडु के बेल्लोर जिले का 8 वीं सदी , ओडिसा के 7वीं सदी , 11 वीं सदी का चोलकाल चित्रकला , गुजरात और राजस्थान के मेवाड़ क्षेत्र  में 11 वीं सदी , 14 वीं सदी  का दक्कनी शैली , लोदी खुलादर शैली , प्रसिद्ध थी । विश्व में  चित्रकला शैलियों में राजस्थानी शैली ,मेवाड़ शैली ,अजमेर जयपुर शैली , , 17 वी सदी में किशनगढ़ चित्रकला शैली , बूंदी शैली , 17 वीं शताब्दी का पहाड़ी चित्रकला शियों में  विशूली शैली ,कांगड़ा शैली ,रागमाला चित्रकला तंजौर , मैसूर , बंगाल चित्रकला तथा मधुबनी चित्रकला प्रसिद्ध हसि । मिथिला चित्रकला राम काल से जुड़ा है ।  बिहार का मधुबनी में महिलाओं द्वारा धार्मिक  रूपांकनों  , टिकुली कला , , ओडिसा का पट्टचित्र कला , झारखंड के पटुआ कला, पैटकार चित्रकला , वर्ली ,ठनका ,मंजूषा ,फाड़ ,चेरियाल लपेटें , पिथोरा , सौरा चित्र कला प्रसिद्ध है । त्रेतायुग , द्वापर युग से  चित्रकला का विकास हुआ हसि । प्राचीन कसल में चित्रकला भित्तिचित्र के रूप में विकशित था  । राम काल से मिथिला चित्रकला बिहार के विभिन्न क्षेत्रों में फैला है । मधुबनी चित्रकला शैली  बिहार राज्य के मिथिला क्षेत्र में प्रचलित है। हिंदू देवताओं और पौराणिक कथाओं ,  शाही अदालत के दृश्यों और शादियों , सामाजिक कार्यक्रमों के साथ विकसित है । फूलों, जानवरों, पक्षियों, और यहां तक ​​कि ज्यामितीय डिजाइनों के चित्रों से परिपूर्ण है  । भारत और नेपाल में बिहार के मिथिला क्षेत्र में मधुबनी कला (या मिथिला चित्रकला) का चित्रकारी प्राकृतिक रंगों और रंगद्रव्य का उपयोग करके उंगलियों, टहनियों, ब्रश, निब-पेन और मैचस्टिक्स के साथ की जाती है । जन्म या विवाह विशेष अवसरों के लिए अनुष्ठान सामग्री और होली, सूर्य शास्त्री, काली पूजा, उपानायन, दुर्गा पूजा त्यौहार में मधुबनी कला या मिथिला चित्रकला पारंपरिक रूप से भारत और नेपाल के मिथिला क्षेत्र के विभिन्न समुदायों की महिलाओं द्वारा बनाई गई थी। इसका जन्म बिहार के मिथिला क्षेत्र के मधुबनी जिले से हुआ था ।
चित्रकला पारंपरिक रूप से ताजा प्लास्टर्ड मिट्टी की दीवारों और झोपड़ियों के फर्श पर किया जाता था, लेकिन अब वे कपड़ा, हस्तनिर्मित कागज और कैनवास पर भी किए जाते हैं। मधुबनी पेंटिंग पाउडर चावल के पेस्ट से बने होते हैं। मधुबनी पेंटिंग एक कॉम्पैक्ट भौगोलिक क्षेत्र तक ही सीमित रही है और सदियों से कौशल पारित किया गया है, सामग्री और शैली काफी हद तक एक ही बना रही है। और यही कारण है कि मधुबनी पेंटिंग को प्रतिष्ठित जीआई (भौगोलिक संकेत) की स्थिति दी जा रही है। मधुबनी पेंटिंग्स भी दो आयामी इमेजरी का उपयोग करते हैं, और इस्तेमाल किए गए रंग पौधों से प्राप्त होते हैं। ओचर और लैंपब्लैक का क्रमशः लाल भूरे और काले रंग के लिए भी उपयोग किया जाता है। अजंता गुफाएं भारत के महाराष्ट्र राज्य के औरंगाबाद जिले में 2 9 शताब्दी ईसा पूर्व आदिमवाद सौंदर्य आदर्शीकरण का एक तरीका है जो या तो "आदिम" अनुभव को फिर से…
कालीघाट पेंटिंग या कालीघाट पैट का जन्म 1 9वीं शताब्दी बंगाल में, कालीघाट काली मंदिर,…
मधुबनी पेंटिंग्स ज्यादातर प्राचीन महाकाव्यों से प्रकृति और दृश्यों और देवताओं के साथ पुरुषों और उसके सहयोग को दर्शाती हैं। सूर्य, चंद्रमा और  धार्मिक पौधों तुलसी प्राकृतिक वस्तुओं को शाही अदालत के दृश्यों और शादियों , सामाजिक कार्यक्रमों के साथ व्यापक रूप से चित्रित किया जाता है। आम तौर पर कोई जगह खाली नहीं छोड़ी जाती है; अंतराल फूलों, जानवरों, पक्षियों, और यहां तक ​​कि ज्यामितीय डिजाइनों के चित्रों से भरे हुए हैं। परंपरागत रूप से, चित्रकला मुख्य रूप से महिलाओं द्वारा मिथिला क्षेत्र के परिवारों में पीढ़ी से पीढ़ी तक की गई कौशलों में थी। यह अभी भी मिथिला क्षेत्र में फैले संस्थानों में प्रचलित और जीवित रखा गया है। दरभंगा में कलाकृति, मधुबनी में वैधी, मधुबनी जिले के बेनिपट्टी और रंती में  मधुबनी चित्रकला  केंद्र द्वारा  प्राचीन कला को जीवित रखा गया  है। मधुबनी कला में  भर्णी, कच्छनी, तांत्रिक, गोदा और कोहबर शैली  हैं। 1 9 60 के दशक में भर्णी, कच्छनी और तांत्रिक शैली मुख्य रूप से ब्राह्मण  महिलाओं द्वारा की जाती थी ।भारत और नेपाल में  महिलाएं की  मधुबनी चित्रकला  हैं। मधुबनी चित्रकला  में देवताओं और देवियों, वनस्पतियों और जीवों को चित्रित किया। ममधुबनी चित्र  शैलियों में काम करने के कारण  मधुबनी कला को अंतर्राष्ट्रीय और राष्ट्रीय स्टार पर विकसित हुई है । मधुबनी पेंटिंग को 1969 ई. को बिहार सरकार एवं 1975 ई. को भारत सरकार द्वारा पुरस्कृत किया गया है । बिहार में कोहबर चित्रकला प्रसिद्ध है ।
मधुबनी पेंटिंग को 1 969 ई.  में आधिकारिक मान्यता मिली थी । मधुबनी पेंटिंग के कारण सीता देवी को बिहार सरकार ने राज्य पुरस्कार प्राप्त किया। 19 75 में, भारत के राष्ट्रपति ने मधुबनी जिले के जितवारपुर निवासी जगद्ंबा देवी को पद्मश्री उपाधि ,1 9 81 में सीता देवी को पद्मश्री मिली। सीता देवी को 1 9 84 में बिहार रत्न और 2006 में शिल्प गुरु द्वारा भी सम्मानित किया गया था। 1 19 84 में गंगा देवी को पद्मश्री द्वारा सम्मानित किया गया था। 2011 में महासुंदरी देवी को पद्मश्री मिली थी। बौवा देवी, यमुना देवी, शांति देवी, चानो देवी, बिंदेश्वरी देवी, चंद्रकला देवी, शशि कला देवी, लीला देवी, गोदावरी दत्ता और भारती दयाल को राष्ट्रीय पुरस्कार भी दिया गया था। लाइट एंड स्पेस 1960 के दशक में दक्षिणी कैलिफोर्निया में ओप कला, न्यूनतावाद और ज्यामितीय… स्पेनिश गोथिक वास्तुकला देर मध्यकालीन काल में स्पेन में प्रचलित वास्तुकला की शैली है। गोथिककला गहने स्टूडियो शिल्पकारों द्वारा बनाए गए गहनों को दिए गए नामों में से एक…पश्चिमी और पश्चिमी-प्रभावित फैशन में 1830 के दशक की शैली को 1800-1820  की वास्तुकला शास्त्रीय, वास्तुशिल्प शैलियों के संगम द्वारा चिह्नित की गयी थी । नव-फ़्यूचरिज्म कला, डिजाइन और वास्तुकला में 21 वीं शताब्दी के प्रारंभिक आंदोलन के दौरान अलकाला डी गुआडिएरा लैंडस्केप स्कूल को प्रारंभ  में चित्रकारों के सर्कल कहा जाता था, जिसे स्पेनिश में बोदेगा शब्द का अर्थ "पैंट्री", "सराय", या "वाइन सेलर" है।  किंग लुइस फिलिप प्रथम 1830-1848 ई. के तहत वास्तुकला और डिजाइन की शैली फ्रांसीसी नियोक्लासिसवाद का रूप दिया है। 






             



मंगलवार, अप्रैल 12, 2022

भक्ति और संकट मोचन हनुमान जी.....

भक्ति की  लोकप्रिय अवधारणाओं और भारतीय महाकाव्य रामायण में सबसे महत्वपूर्ण व्यक्तियों में प्रधान  हनुमान जी  भगवान शिवजी के सभी अवतारों में सबसे बलवान और बुद्धिमान हैं ।   भूमंडल  पर हनुमान जी को अमरत्व का वरदान प्राप्त है ।  शक्ति, ज्ञान, भक्ति एवं विजय के भगवान, बुराई के सर्वोच्च विध्वंसक, भक्तों के रक्षक हनुमान जी को महाबली , महावीर , पवनपुत्र , अंजनीसुत , केसरीनंदन , रामेष्ट , दशग्रीव दर्प: , बजरंगबली , पवनसुत , संकटमोचन , रामभक्त ,रुद्रावतार वानर श्रेष्ठ आदि कहे जाते है । हनुमान जी का अस्त्र गदा , वज्र ,और ध्वजा एवं कांधे पर जनेऊ  आध्यात्मिक सूत्र एवं लाल वस्त्र धारी हैं । राजा केशरी और आध्यात्मिक पिता वायु देव एवं अंजनी के पुत्र हनुमान जी का जन्म चैत्र शुक्ल पूर्णिमा मंगलवार त्रेतायुग में झारखंड राज्य का गुमला जिले के आँजना गाँव में अवतरित हुए थे ।हनुमान जी का औरस पुत्र पताल का राजा एवं मंत्र ओम श्री हनुमते नमः से हनुमानजी पसंद होते है ।
ज्योतिषीयों के अनुसार हनुमान जी का जन्म 58 हजार 112 वर्ष पूर्व त्रेतायुग के अन्तिम चरण में चैत्र शुक्ल  पूर्णिमा मंगलवार , चित्रा नक्षत्र व मेष लग्न के योग में सुबह 6.03 बजे भारत देश के झारखण्ड राज्य के गुमला जिले के आंजन  पहाड़ी की गुफा में हुआ था। हनुमानजी के जन्म के पश्चात् माता अंजना फल लाने के लिये इन्हें आश्रम में छोड़कर चली गईं।  शिशु हनुमान को भूख लगी तब वे उगते हुये सूर्य को फल समझकर उसे पकड़ने आकाश में उड़ने लगे। उनकी सहायता के लिये पवन भी बहुत तेजी से चला। उधर भगवान सूर्य ने उन्हें अबोध शिशु समझकर अपने तेज से नहीं जलने दिया। जिस समय हनुमान सूर्य को पकड़ने के लिये लपके, उसी समय राहु सूर्य पर ग्रहण लगाना चाहता था। हनुमानजी ने सूर्य के ऊपरी भाग में जब राहु का स्पर्श किया तो वह भयभीत होकर वहाँ से भाग गया। उसने इन्द्र के पास जाकर शिकायत की "देवराज! आपने मुझे अपनी क्षुधा शान्त करने के साधन के रूप में सूर्य और चन्द्र दिये थे। आज अमावस्या के दिन जब मैं सूर्य को ग्रस्त करने गया तब देखा कि दूसरा राहु सूर्य को पकड़ने जा रहा है।"राहु की यह बात सुनकर इन्द्र घबरा गये और उसे साथ लेकर सूर्य की ओर चल पड़े। राहु को देखकर हनुमानजी सूर्य को छोड़ राहु पर झपटे। राहु ने इन्द्र को रक्षा के लिये पुकारा तो उन्होंने हनुमानजी पर वज्रायुध से प्रहार किया जिससे वे एक पर्वत पर गिरे और उनकी बायीं ठुड्डी टूट गई। हनुमान की यह दशा देखकर वायुदेव को क्रोध आया। उन्होंने उसी क्षण अपनी गति रोक दिया। इससे संसार की कोई भी प्राणी साँस न ले सकी और सब पीड़ा से तड़पने लगे। तब सारे सुर, असुर, यक्ष, किन्नर आदि ब्रह्मा जी की शरण में गये। ब्रह्मा उन सबको लेकर वायुदेव के पास गये। वे मूर्छत हनुमान को गोद में लिये उदास बैठे थे। जब ब्रह्माजी ने उन्हें जीवित किया तो वायुदेव ने अपनी गति का संचार करके सभी प्राणियों की पीड़ा दूर की। फिर ब्रह्माजी ने कहा कि कोई भी शस्त्र इसके अंग को हानि नहीं कर सकता। इन्द्र ने कहा कि इसका शरीर वज्र से कठोर होगा। सूर्यदेव ने कहा कि वे उसे अपने तेज का शतांश प्रदान करेंगे तथा शास्त्र मर्मज्ञ होने का  आशीर्वाद दिया। वरुण ने कहा मेरे पाश और जल से यह बालक सदा सुरक्षित रहेगा। यमदेव ने अवध्य और नीरोग रहने का आशीर्वाद दिया। यक्षराज कुबेर, विश्वकर्मा आदि देवों ने भी अमोघ वरदान दिये। देवराज इन्द्र के वज्र से हनुमानजी की ठुड्डी ( हनु ) टूटने के कारण हनुमान का नाम दिया गया। हनुमानजी को बजरंग बली, मारुति, अंजनि सुत, पवनपुत्र, संकटमोचन, केसरीनन्दन, महावीर, कपीश, शंकर सुवन आदि  हिँदू महाकाव्य रामायण के अनुसार, हनुमान जी को वानर के मुख वाले अत्यंत बलिष्ठ पुरुष के रूप में वर्णन  है। इनका शरीर अत्यंत मांसल एवं बलशाली है। उनके कंधे पर जनेऊ लटका रहता है। हनुमान जी को मात्र एक लंगोट पहने अनावृत शरीर के साथ दिखाया जाता है। वह मस्तक पर स्वर्ण मुकुट एवं शरीर पर स्वर्ण आभुषण पहने दिखाए जाते है। उनकी वानर के समान लंबी पूँछ है। उनका मुख्य अस्त्र गदा माना जाता है।
रामायण की पांचवीं पुस्तक, सुंदरकांड, हनुमान पर केंद्रित है। असुरराज रावण ने सीता का अपहरण कर लिया था, जिसके बाद 14 साल के वनवास के आखिरी साल में हनुमान राम से मिलते हैं। अपने भाई लक्ष्मण के साथ, राम अपनी पत्नी सीता को खोज रहे हैं। यह और संबंधित राम कथाएं हनुमान के बारे में सबसे व्यापक कहानियां हैं।
रामायण के कई संस्करण भारत के भीतर मौजूद हैं। ये हनुमान, राम, सीता, लक्ष्मण और रावण के रूपांतर प्रस्तुत करते हैं। वर्ण और उनके विवरण अलग-अलग हैं, कुछ मामलों में काफी महत्वपूर्ण हैं। महाभारत एक और प्रमुख महाकाव्य है जिसमें हनुमान का संक्षिप्त उल्लेख है। पुस्तक 3 में, महाभारत के वाना पर्व, उन्हें भीमसेन के सौतेले बड़े भाई के रूप में प्रस्तुत किया गया है, जो उनसे कैलाश पर्वत पर जाने के दौरान गलती से मिलते हैं। असाधारण ताकत का आदमी भीम, हनुमान की पूंछ को हिलाने में असमर्थ है, जिससे उसे एहसास होता है और हनुमान की ताकत को स्वीकार करता है। यह कहानी हनुमान चरित्र के प्राचीन कालक्रम से जुड़ी है। यह कलाकृति और राहत का एक हिस्सा भी है जैसे विजयनगर खंडहर। रामायण और महाभारत के अलावा, हनुमान का उल्लेख कई अन्य ग्रंथों में किया गया है। इनमें से कुछ कहानियाँ पहले के महाकाव्यों में उल्लिखित उनके कारनामों से जुड़ती हैं, जबकि अन्य उनके जीवन की वैकल्पिक कहानियाँ बताती हैं। स्कंद पुराण में रामेश्वरम में हनुमान का उल्लेख है। शिव पुराण के एक दक्षिण भारतीय संस्करण में, हनुमान को शिव और मोहिनी (विष्णु का महिला अवतार) के पुत्र के रूप में वर्णित किया गया है, या वैकल्पिक रूप से उनकी पौराणिक कथाओं को स्वामी अय्यप्पा के मूल के साथ जोड़ा या विलय कर दिया गया है, जो दक्षिण भारत के कुछ हिस्सों में लोकप्रिय हैं । 16 वीं शताब्दी के भारतीय कवि तुलसीदास ने हनुमान को समर्पित एक भक्ति गीत हनुमान चालीसा लिखा था। उन्होंने हनुमान के साथ आमने-सामने मुलाकात करने का दावा किया। इन बैठकों के आधार पर, उन्होंने रामचरितमानस, रामायण का एक अवधी भाषा संस्करण लिखा। हनुमान और देवी काली के बीच संबंध का उल्लेख कृतिवसी रामायण में मिलता है। उनकी बैठक रामायण के युधिष्ठिर में माहिरावन की कथा में होती है।   विश्वसनीय मित्र एवं भाई महिरावण था। अपने बेटे, मेघनाथ के मारे जाने के बाद, रावण ने राम और लक्ष्मण को मारने के लिए पाताललोक के राजा महिरावण की मदद ली। एक रात, महिरावण ने अपनी माया का उपयोग करते हुए, विभीषण का रूप धारण किया और राम के शिविर में प्रवेश किया। वहाँ उन्होंने वानर सेना पर निंद्रा मंत्र डाला, राम और लक्ष्मण का अपहरण किया और उन्हें पाताल लोक ले गए। वह देवी के एक अनुगामी भक्त थे और रावण ने उन्हें अयोध्या के बहादुर सेनानियों को देवी को बलिदान करने के लिए मना लिया, जिसके लिए माहिरावन सहमत हुए। हनुमान ने विभीषण से पाताल का रास्ता समझने के बाद अपने प्रभु को बचाने के लिए जल्दबाजी की। अपनी यात्रा के दौरान, उन्होंने मकरध्वज से मुलाकात की, जिन्होंने हनुमान के पुत्र होने का दावा किया, उनके पसीने से पैदा हुआ था जो एक मकर (मगरमच्छ) द्वारा खाया गया था। हनुमान ने उसे हरा दिया और उसे बांध दिया और महल के अंदर चले गए। वहाँ उसकी मुलाकात चंद्रसेन से हुई जिसने बलिदान और अहिरावण को मारने के तरीके के बारे में बताया। तब हनुमान ने मधुमक्खी के आकार को छोटा किया और महा-काली की विशाल मूर्ति की ओर बढ़ गए। उसने उसे राम को बचाने के लिए कहा, और भयंकर माता देवी ने हनुमान की जगह ले ली, जबकि वह नीचे फिसल गया था। जब महावीर ने राजकुमार-ऋषियों को झुकने के लिए कहा, तो उन्होंने इनकार कर दिया क्योंकि वे शाही वंश के थे और झुकना नहीं जानते थे। इसलिए जैसे ही माहिरावण उन्हें झुकाने का तरीका दिखाने वाले थे, हनुमान ने अपना पंच-मुख रूप (गरुड़, नरसिंह, वराह, हयग्रीव और स्वयं के सिर के साथ) लिया: प्रत्येक सिर एक विशेष प्रतीक को दर्शाता है। हनुमान साहस और शक्ति, नरसिंह निडरता, गरुड़। जादुई कौशल और नाग के काटने, वराह स्वास्थ्य और भूत भगाने और शत्रुओं पर विजय प्राप्त करने की शक्ति), 5 दिशाओं में 5 तेल के दीपक फूँक दिए और माहिरावन का सिर काट दिया, जिससे उसकी मृत्यु हो गई। बाद में उन्होंने श्री राम और लक्ष्मण को अपने कंधों पर लिया और जब उन्होंने श्री राम के बाहर उड़ान भरी तो उन्होंने मकरध्वज को अपनी पूंछ से बंधा देखा। उन्होंने तुरंत हनुमान को उन्हें पाताल का राजा बनाने का आदेश दिया। अहिरावण की कहानी पूरब के रामायणों में अपना स्थान पाती है। यह कृतिबश द्वारा लिखित रामायण के बंगाली संस्करण में पाया जा सकता है। इस घटना के बारे में बात करने वाले मार्ग को 'महिराबोनरपाला' के नाम से जाना जाता है। यह भी माना जाता है कि हनुमान से प्रसन्न होने के बाद, देवी काली ने उन्हें अपने द्वार-पाल या द्वारपाल होने का आशीर्वाद दिया और इसलिए देवी के मंदिर के प्रवेश द्वार के दोनों ओर भैरव और हनुमान पाए जाते हैं।
हनुमान तिब्बती (दक्षिण-पश्चिम चीन) और खोतानी (पश्चिम चीन, मध्य एशिया और उत्तरी ईरान) रामायण के संस्करणों में एक बौद्ध चमक के साथ दिखाई देते हैं। खोतानी संस्करणों में जातक कथाएँ जैसे विषय होते हैं, लेकिन आमतौर पर हनुमान की कहानी और चरित्र में हिंदू ग्रंथों के समान होते हैं। तिब्बती संस्करण अधिक सुशोभित है, और जाटका चमक को शामिल करने के प्रयासों के बिना। इसके अलावा, तिब्बती संस्करण में, हनुमान जैसे राम और सीता के बीच प्रेम पत्र रखने वाले उपन्यास तत्व दिखाई देते हैं, हिंदू संस्करण के अलावा जिसमें राम सीता को एक संदेश के रूप में उनके साथ शादी की अंगूठी भेजते हैं। इसके अलावा, तिब्बती संस्करण में, राम ने हनुमान को चिट्ठियों के माध्यम से उनके साथ अधिक बार नहीं होने के लिए कहा, जिसका अर्थ है कि बंदर-दूत और योद्धा एक सीखा जा रहा है जो पढ़ और लिख सकता है। विमलसूरि द्वारा लिखे गए रामायण के जैन संस्करण पौमचार्य (जिसे पौमा चारु या पद्मचरित के नाम से भी जाना जाता है) में हनुमान का उल्लेख एक दिव्य वानर के रूप में नहीं, बल्कि एक विद्याधरा (एक अलौकिक प्राणी, जैन ब्रह्माण्ड विज्ञान में मृगमरीचिका) के रूप में किया गया है। वह पवनगति (पवन देवता) और अंजना सुंदरी के पुत्र हैं। अंजना अपने ससुराल वालों द्वारा निर्वासित होने के बाद, एक जंगल की गुफा में हनुमान को जन्म देती है। उसके मामा ने उसे जंगल से बचाया; अपने विमना पर सवार होते हुए, अंजना गलती से अपने बच्चे को एक चट्टान पर गिरा देती है। हालांकि, चट्टान नदारद होने के बावजूद बच्चा अधूरा रह गया। बच्चे की परवरिश हनुरहा में हुई है।हिंदू ग्रंथ में प्रमुख अंतर हैं: हनुमान जैन ग्रंथों में एक अलौकिक व्यक्ति हैं, (राम एक पवित्र जैन हैं, जो कभी किसी को नहीं मारते हैं, और यह लक्ष्मण हैं जो रावण को मारते हैं।) हनुमान उनसे मिलने और उनके बारे में जानने के बाद राम के समर्थक बन जाते हैं। रावण द्वारा सीता का अपहरण। वह राम की ओर से लंका जाता है, लेकिन रावण को सीता को छोड़ने के लिए मना नहीं पाता है। अंततः, वह रावण के खिलाफ युद्ध में राम के साथ जुड़ जाता है और कई वीर कर्म करता है। बाद में जैन ग्रंथ, जैसे कि उत्तरपुराण (9 वीं शताब्दी सीई) गुनभद्र और अंजना-पवनंजय (12 वीं शताब्दी सीई), एक ही कहानी बताते हैं।(जैन रामायण कथा के कई संस्करणों में, हनुमान को समझाने वाले मार्ग हैं, और राम (जैन धर्म में पौमा कहलाते हैं), (इन संस्करणों में हनुमान अंततः सभी सामाजिक जीवन को त्याग कर जैन सन्यासी बन जाते हैं)।सिख धर्म में, हिंदू भगवान राम को श्री राम चंदर के रूप में संदर्भित किया गया है, और एक सिद्ध के रूप में हनुमान की कहानी प्रभावशाली रही है। 1699 में मार्शल सिख खालसा आंदोलन के जन्म के बाद, 18 वीं और 19 वीं शताब्दी के दौरान, हनुमान खालसा द्वारा श्रद्धा की प्रेरणा और उद्देश्य थे।कुछ खालसा रेजीमेंट हनुमान छवि के साथ युद्ध के मैदान में लाई गईं। हिरदा राम भल्ला द्वारा रचित हनुमान नाटक, और कविकान द्वारा दास गुर कथा जैसे सिख ग्रंथ हनुमान के वीर कर्मों का वर्णन करते हैं।लुई फेनच के अनुसार, सिख परंपरा में कहा गया है कि गुरु गोविंद सिंह का हनुमान नाटक  थे। रामायण के गैर-भारतीय संस्करण मौजूद थाई रामाकियन है । थाई रामकीयन संस्करणों के अनुसार, मैकचनु सुवर्णमचा द्वारा जन्मे हनुमान के पुत्र हैं । जब "रावण के महल में आग लगाने के बाद हनुमान उड़ते हैं, अत्यधिक गर्मी से उनका शरीर और समुद्र में गिरने पर उनके पसीने की एक बूंद जो एक शक्तिशाली मछली द्वारा खाई जाती है" उसने स्नान किया और उसने रावण की बेटी मच्चनू को जन्म दिया। मत्स्यराज को मकरध्वज ,  मत्स्यगर्भा  जाना जाता है) नामक एक राक्षसी उनके पुत्र होने का दावा करती है। दक्षिण-पूर्व एशियाई ग्रंथों में हनुमान बर्मीज़ रामायण में विभिन्न तरीकों से उत्तर भारतीय हिंदू संस्करण से भिन्न होते हैं,। अराकानी में राम यगन, अलौंग राम थायगिन , राम वटु और राम थायीन, मलय रामायण,हिकायत श्री राम और हिकायत महाराजा रावण, और  थाई रामायान ,  वाल्मीकि रामायण मूल पवित्र ग्रन्थ है । हनुमान - जिनकी ठोड़ी टूटी हो , रामेष्ट - श्री राम भगवान के भक्त ,उधिकर्मण - उद्धार करने वाले ,अंजनीसुत - अंजनी के पुत्र ,फाल्गुनसखा - फाल्गुन अर्थात् अर्जुन के सखा ,सीतासोकविनाशक - देवी सीता के शोक का विनाश करने वाले , वायुपुत्र - हवा के पुत्र ,पिंगाक्ष - भूरी आँखों वाले ,लक्ष्मण प्राणदाता - लक्ष्मण के प्राण बचाने वाले , महाबली - बहुत शक्तिशाली वानर , अमित विक्रम - अत्यन्त वीरपुरुष , दशग्रीव दर्प: - रावण के गर्व को दूर करने वाले है । रामचरितमानस के रचयिता गोस्वामी तुलसीदास एवं वाल्मीकीय रामायण में सुंदर कांड या सुंदरकांड सर्ग , बजरंग बाण , हनुमान चालीसा , हनुमानाष्टक हनुमान जी को समर्पित है । हनुमान जी का प्रिय दिन मंगलवार और शनिवार है । अयोध्या में हनुमान गढ़ी स्थित हनुमानजी की मूर्ति , , पटना रेलवे स्टेशन के परिसर के समीप महावीर मंदिर , ,बाला जी आदि अनेक स्थानों पर बजरंग बली की उपासना की जाती हसि । प्रातः काल उठते ही हनुमान जी के बारह नामों का 11 बार पाठ करने वाला व्यक्ति दीर्घायु होता है। दोपहर के समय हनुमान जी के बारह नामों के पाठ करने से लक्ष्मी जी की प्राप्ति होती हैं। धन-धान्य की वृद्धि होती है और घर में संपन्नता रहती हैं।  संध्याकाल हनुमान जी के बारह नामों का पाठ करने से पारिवारिक सुखों की प्राप्ति होती है ।   रात को सोते समय हनुमान जी के बारह नामों का जाप करने से शत्रु का नाश होता है। मंगलवार को ये बारह नाम लाल स्याही से भोजपत्र पर लिखकर तावीज बनाकर बाजु पर बंधने से कभी सिर दर्द नहीं होता है ।


     

     




सोमवार, अप्रैल 11, 2022

जिओ और जीने दो का प्रणेता भगवान महावीर.....


भगवान महावीर का जन्म बिहार के वैशाली जिले के कुंडग्राम में इक्ष्वाकु वंशीय राजा सिद्धार्थ की पत्नी त्रिशला के गर्भ से छात्र शुक्ल त्रयोदशी 599 ई. पू. में अवतरित हुए थे । चौबीसवें तीर्थंकर महावीर को वीर, अतिवीर, वर्धमान, सन्मति महावीर स्वामी , महावीर वर्द्धमान कहा जाता है ।  72 वर्षीय भगवान महावीर स्वामी को बिहार के नालंदा जिले का पावापुरी में कार्तिक कृष्ण अमावस्या को मोक्ष प्राप्ति हुई थी । भगवान महावीर तीस वर्ष की आयु में महावीर ने संसार से विरक्त होकर राज वैभव त्याग दिया और संन्यास धारण कर आत्मकल्याण के पथ पर निकल गये। 12 वर्षो की कठिन तपस्या के बाद केवलज्ञान प्राप्त के पश्चात् समवशरण में ज्ञान प्रसारित किया। 72 वर्ष की आयु में पावापुरी से मोक्ष की प्राप्ति हुई। महावीर स्वामी के कई अनुयायी में राजा बिम्बिसार, कुणिक और चेटक  थे। जैन ग्रन्थों के अनुसार भगवान महावीर वर्तमान अवसर्पिणी काल की हिंसा, पशुबलि, जात-पात का भेद-भाव जिस युग में बढ़ गया, उसी युग में भगवान महावीर ने दुनिया को सत्य, अहिंसा का पाठ पढ़ाया। तीर्थंकर महावीर स्वामी ने अहिंसा को सबसे उच्चतम नैतिक और  विश्व को जैन धर्म के पंचशील सिद्धांत अहिंसा, सत्य, अपरिग्रह, अचौर्य (अस्तेय) , ब्रह्मचर्य , अनेकांतवाद, स्यादवाद और अपरिग्रह सिद्धान्त दिए। महावीर का 'जियो और जीने दो' का सिद्धान्त है।
श्वेतांबर परम्परा के अनुसार महावीर स्वामी का विवाह यशोदा से हुआ था । महावीर स्वामी की भर्या यशोदा की पुत्री प्रियदर्शिनी के विवाह राजकुमार जमाली के साथ हुआ था ।जैन ग्रन्थों के अनुसार केवल ज्ञान प्राप्ति के बाद ११ गणधर में प्रथम इंद्रभूति थे। जैन ग्रन्थ, उत्तरपुराण के अनुसार महावीर स्वामी ने समवसरण में जीव आदि सात तत्त्व, छह द्रव्य, संसार और मोक्ष के कारण तथा उनके फल का नय आदि उपायों का  वर्णन किया था।भगवान महावीर का पाँच व्रत में सत्य ― सत्य के बारे में भगवान महावीर स्वामी कहते हैं, हे पुरुष! तू सत्य को ही सच्चा तत्व समझ। जो बुद्धिमान सत्य की ही आज्ञा में रहता है, वह मृत्यु को तैरकर पार कर जाता है। अहिंसा – इस लोक में जितने भी त्रस जीव (एक, दो, तीन, चार और पाँच इंद्रीयों वाले जीव) है उनकी हिंसा मत कर, उनको उनके पथ पर जाने से न रोको। उनके प्रति अपने मन में दया का भाव रखो। उनकी रक्षा करो। यही अहिंसा का संदेश भगवान महावीर अपने उपदेशों से हमें देते हैं। अचौर्य - दुसरे के वस्तु बिना उसके दिए हुआ ग्रहण करना जैन ग्रंथों में चोरी कहा गया है। अपरिग्रह – परिग्रह पर भगवान महावीर कहते हैं जो आदमी खुद सजीव या निर्जीव चीजों का संग्रह करता है, दूसरों से ऐसा संग्रह कराता है या दूसरों को ऐसा संग्रह करने की सम्मति देता है, उसको दुःखों से कभी छुटकारा नहीं मिल सकता। यही संदेश अपरिग्रह का माध्यम से भगवान महावीर दुनिया को देना चाहते हैं और ब्रह्मचर्य- महावीर स्वामी ब्रह्मचर्य के बारे में अपने बहुत ही अमूल्य उपदेश देते हैं कि ब्रह्मचर्य उत्तम तपस्या, नियम, ज्ञान, दर्शन, चारित्र, संयम और विनय की जड़ है। तपस्या में ब्रह्मचर्य श्रेष्ठ तपस्या है। जो पुरुष स्त्रियों से संबंध नहीं रखते, वे मोक्ष मार्ग की ओर बढ़ते हैं। जैन ग्रंथों में दस धर्म में पर्युषण पर्व है । भगवान महावीर ने  धर्म, सत्य, अहिंसा, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह, क्षमा पर सबसे अधिक जोर दिया। त्याग और संयम, प्रेम और करुणा, शील और सदाचार का महत्वपूर्ण कहा है । तीर्थंकर महावीर का केवलीकाल ३० वर्ष का था। उनके के संघ में १४००० साधु, ३६००० साध्वी, १००००० श्रावक और ३००००० श्रविकाएँ थी। 72 वर्षीय भगवान महावीर ने ई . पू.  527 में बिहार के नालंदा जिले के पावापुरी में कार्तिक कृष्ण अमावस्या को निर्वाण (मोक्ष) प्राप्त किया।  पावापुरी में एक जल मंदिर स्थित महावीर स्वामी को मोक्ष की प्राप्ति हुई थी। आचार्य समन्तभद्र विरचित “स्वयंभूस्तोत्र” एवं युक्तानुशासन और मुनि प्रणम्य सागर की रचना वीरष्टकम , पद्मकृत महावीर रास  18वी सदी में भगवान महावीर को समर्पित है। भगवान महावीर की  प्राचीन प्रतिमाओं के देश और विदेश के संग्रहालयों , महाराष्ट्र के एल्लोरा गुफाओं में भगवान महावीर की प्रतिमा , कर्नाटक की बादामी गुफाओं में भी भगवान महावीर की प्रतिमा , मध्यप्रदेश के पटनागंज में पद्मासन  मुद्रा में भगवान महावीर की विशालतम ज्ञात प्रतिमा , दिल्ली स्थित महरौली में अहिंसा स्थल ,  राजस्थान का करौली ,  तमिलनाडु के थिराकोइल , कर्नाटक के बादामी गुफा में 23 वें तीर्थंकर एवं 24 वें तीर्थंकर महावीर स्वामी ,  बिहार के पावापुरी के जल मंदिर में भगवान महावीर की प्रतिमा स्थित है।







रतनपुर की सांस्कृतिक विरासत ....


ब्रिटिश  साम्राज्य के खिलाफ आंदोलन की शुरुआत बिलासपुर जिले में रतनपुर से पण्डित कपिल नाथ द्विवेदी एव वैष्णव बाबाजी के नेतृत्व में वन्देमातरम, भारत माता के जयघोष के साथ हुई थी । ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ प्रभातफेरी निकालने के आरोप में उन्हें गिरफ्तार किया गया था ।  रतनपुर राज और रायपुर राज क्रमशः शिवनाथ के उत्तर तथा दक्षिण में स्थित थे। प्रत्येक राज में स्पष्ट और निश्चित रूप अठारह-अठारह ही गढ़ होते थे। रतनपुर में सन् 1114  के अनुसार चेदि के हैहय वंशी राजा कोकल्लदेव ने अठारह पुत्रों को अपने राज्य को अठारह हिस्सों में बाँट कर अपने पुत्रों को दिया था। हैहय वंश परंपरा की स्मृति बनाये रखने के लिये राज को अठारह गढ़ों में बाँटा गया था । प्रत्येक गढ़ में सात ताल्लुका और 84 गांव थे।  हैहय वंशीय राज्य सूर्यवंशियों द्वारा  सूर्य की सात किरणों तथा बारह राशियों को ध्यान में रख कर ताल्लुकों और गाँवों की संख्या क्रमशः सात और कम से कम बारह रखी गईं थी। रतनपुर राज्य के क्षेत्रों में सर्वत्र भगवान सूर्य का प्रताप झलकता था । छत्तीसगढ़ राज्य का बिलासपुर  जिले के रतनपुर स्थित आदिशक्ति महामया देवि का  प्राचीन एवं गौरवशाली मंदिर  है। त्रिपुरी के कलचुरियो ने रतनपुर को अपनी राजधानी बना कर दीर्घकाल तक छतीसगढ़ मे शासन किया। छत्तीसगढ़ को  चतुर्युगी नगरी भी कहा जाता है । राजा रत्नदेव प्रथम ने रतनपुर में राजधानी बसाया । श्री आदिशक्ति  माँ महामाया देवी -  प्राचीन महामाया देवी का दिव्य भव्य मंदिर का निर्माण राजा रत्नदेव प्रथम द्वारा ग्यारहवी शताबदी में कराया गया था ।  १०४५ ई. में राजा रत्नदेव प्रथम मणिपुर में  शिकार के क्रम में  रात्रि विश्राम  वटवृक्ष की छाया में  करने के दौरान अर्ध रात्रि में जब राजा की आंखे खुली, तब उन्होंने वटवृक्ष के नीचे अलौकिक प्रकाश  देखकर चमत्कृत हो गई की वह आदिशक्ति श्री महामाया देवी की सभा लगी हुई है | सुबह होने पर वे अपनी राजधानी तुम्मान खोल लौट गये और रतनपुर को अपनी राजधानी बनाने का निर्णय लिया गया ।  १०५०ई. में श्री महामाया देवी का भव्य मंदिर निर्मित कराया गया । महामाया मंदिर में महाकाली , महालक्षमी और महासरस्वती  स्थापित है । महामाया  मंदिर में यंत्र-मंत्र का केंद्र था । रतनपुर में देवी सती का दाहिना स्कंद गिरने के कारण  भगवन शिव ने स्वयं आविर्भूत होकर कौमारी शक्ति पीठ का नाम दिया था । रतनपुर में  कौमारी शक्तिपीठ मंदिर में  माँ  के दर्शन से कुंवारी कन्याओ को सौभाग्य की प्राप्ति होती है ।छत्तीसगढ़ राज्य का विलासपुर जिले का रतनपुर में महामाया मंदिर , कालभैरव मंदिर ,लखनी मंदिर , वृद्धेश्वर मंदिर ,गिरिजबान्ध हनुम मंदिर ,, राम टेकरी मंदिर और सिद्धिविनायक मंदिर  दर्शनीय हसि ।  कलिंग राज के पौत्र कमलराज के पुत्र रत्नराज द्वारा कलच्युरी वंश का संथापक एवं छत्तीसगढ़ की राजधानी रतनपुर में बनाई थी । 1114 ई . में रतनपुर समृद्ध था । तुमन का राजा कलच्युरी ने तुमन प्रदेश की राजधानी रखा एवं राजा रामचंद्र द्वारा रायपुर की स्थापना कर रायपुर नगर का निर्माण किया था । 11 वीं सदी में महाकोशल ( पूर्वी चेदि ) की राजधानी रतनपुर  थी 

शुक्रवार, अप्रैल 08, 2022

अखंड भारत का द्रष्टा सम्राट अशोक ....


मौर्य वंश के महान सम्राट अशोक को देवानांप्रिय अशोक मौर्य का राजकाल 269 से, 232 ई. पू.  मगध साम्राज्य  में था। मौर्य राजवंश के चक्रवर्ती सम्राट अशोक का मौर्य साम्राज्य उत्तर में हिन्दुकुश, तक्षशिला की श्रेणियों से लेकर दक्षिण में गोदावरी नदी, सुवर्णगिरी पहाड़ी के दक्षिण तथा मैसूर तक तथा पूर्व में बांग्लादेश, पाटलीपुत्र से पश्चिम में अफ़गानिस्तान, ईरान, बलूचिस्तान , भारत, पाकिस्तान, अफ़ग़ानिस्तान, नेपाल, बांग्लादेश, भूटान, म्यान्मार के अधिकांश भूभाग पर  विशाल साम्राज्य उस समय तक से आज तक का सबसे  भारतीय साम्राज्य रहा है। चक्रवर्ती सम्राट अशोक विश्व के सभी शक्तिशाली सम्राटों एवं राजाओं की पंक्तियों में हमेशा शीर्ष स्थान पर रहे मगध सम्राट अशोक  भारत के सबसे शक्तिशाली है। सम्राट अशोक को अपने विस्तृत साम्राज्य से बेहतर कुशल प्रशासन तथा बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए जाना जाता है।  सम्राट अशोक ने संपूर्ण एशिया में तथा अन्य आज के सभी महाद्विपों में बौद्ध  धर्म का प्रचार किया। सम्राट अशोक के सन्दर्भ के स्तम्भ एवं शिलालेख  भारत के कई स्थानों पर है। सम्राट अशोक प्रेम, सहिष्णूता, सत्य, अहिंसा एवं शाकाहारी जीवनप्रणाली के सच्चे समर्थक थे । सम्राट अशोक  को अशोक महान , देवनाम प्रिय ,  धर्माराजिका चक्रवात, सम्राट, राज्ञश्रेष्ठ, मगधराज, भूपतिं, मौर्यराजा, अशोक, धर्माशोक, असोक्वाध्हन, अशोकवर्धन, प्रजापिता, धर्मनायक कहा गया है । मगध साम्राज्य का सम्राट अशोक का शासन 269 ई . पू . से 232 ई . पू. तक  था । मगध साम्राज्य का राजा बिंदुसार की पत्नी सुभद्रांगी का पुत्र अशोक का जन्म चैत्र शुक्ल अष्टमी 304 ई. पू. पाटलिपुत्र में हुआ एवं 270 ई.पू. में मगध साम्राज्य का राज्याभिषेक हुआ था । 232 ई. पू. पाटलिपुत्र में निधन हुआ था । सम्राट अशोक की पत्नी देवी कारुवाकी , पद्मावती , तिष्यरक्षिता पुत्र महेन्द्र एवं संघमित्रा  पुत्री है । 
कलिंग युद्ध के दो वर्ष के बाद सम्राट अशोक ने बौद्ध धर्म से प्रभावित होकर बौद्ध अनुयायी   थे । भगवान बुद्ध की स्मृति में सम्राट अशोक ने नेपाल में  भगवान बुद्ध के जन्मस्थल  लुम्बिनी  में मायादेवी मन्दिर के पास, सारनाथ, बौद्ध मन्दिर बोधगया, कुशीनगर , वैशाली  एवं आदी श्रीलंका, थाईलैण्ड, चीन  देशों में अशोक स्तम्भ  है। सम्राट अशोक ने बौद्ध धर्म का प्रचार भारत के अलावा श्रीलंका, अफ़गानिस्तान, पश्चिम एशिया, मिस्र तथा यूनान में  करवाया। सम्राट अशोक अपने पूरे जीवन में एक भी युद्ध नहीं हारे। सम्राट अशोककाल  में 23 विश्वविद्यालयों की स्थापना होने से    तक्षशिला, नालन्दा, विक्रमशिला, कन्धार आदि विश्वविद्यालय में विदेश से कई छात्र शिक्षा पाने भारत आया करते थे।सम्राट अशोक ने अपने पुत्र महेंद्र एवं पुत्री संघमित्रा को बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए श्रीलंका भेजा था ।
 लंका की परम्परा में बिन्दुसार की सोलह पटरानियों और 101 पुत्रों का उल्लेख है। अशोक के 100 सौतेले भाई -बहने थे। बचपन में उनमें कड़ी प्रतिस्पर्धा रहती थी। अशोक  बचपन से सैन्य गतिविधियों में प्रवीण था। सम्राट अशोक का प्रभाव एशिया भारतीय उपमहाद्वीप  है। अशोक शासन काल में उत्कीर्ण किया गया  प्रतीतात्मक चिह्न,  'अशोक चिह्न' के भारत का राष्ट्रीय चिह्न अशोक स्तंभ है। दिव्यदान के अनुसार अशोक की पत्‍नी का  'तिष्यरक्षिता'और  'करूणावकि' है। दिव्यादान में अशोक के भाइयों में  सुसीम तथा विगताशोक का उल्लेख है। अशोक का ज्येष्ठ भाई सुशीम तक्षशिला का प्रान्तपाल था। तक्षशिला में भारतीय-यूनानी मूल के बहुत लोग रहते थे।सुशीम के अकुशल प्रशासन के कारण तक्षशिला क्षेत्र में विद्रोह पनप उठा। राजा बिन्दुसार ने सुशीम के कहने पर राजकुमार अशोक को विद्रोह के दमन के लिए वहाँ भेजा। अशोक के आने की खबर सुनकर ही विद्रोहियों ने उपद्रव खत्म कर दिया और विद्रोह बिना किसी युद्ध के खत्म हो गया। अशोक की  प्रसिद्धि से उसके भाई सुशीम को सिंहासन न मिलने का संकट  बढ़ गया। उसने सम्राट बिंदुसार को कहकर अशोक को निर्वास मे कलिंग चला गया। कलिंग में कलिंग की राजकुमारी  मत्स्यकुमारी कौर्वकी से प्रेम हो गया। अशोक ने मत्स्य कुमारी कोर्वती को रानी बनाया था।राजा विन्दुसार ने अशोक को उज्जैन भेजकर  उज्जैन  विद्रोह को समाप्त करने के लिए भेजा और  सेनापतियों ने विद्रोह को दबा दिया था । पर उसकी पहचान गुप्त ही रखी गई क्योंकि मौर्यों द्वारा फैलाए गए गुप्तचर जाल से उसके बारे में पता चलने के बाद उसके भाई सुशीम द्वारा उसे मरवाए जाने का भय था। अशोक  बौद्ध सन्यासियों के साथ रहने के दौरान देवी से  अशोक को प्रेम हो गया। स्वस्थ होने के बाद अशोक ने उससे विवाह कर लिया। सुशीम से तंग आ चुके लोगों ने अशोक को राजसिंहासन हथिया लेने के लिए प्रोत्साहित किया, क्योंकि सम्राट बिन्दुसार वृद्ध तथा रुग्ण हो चले थे। जब अशोक आश्रम में थे तब उनको समाचार मिला की उनकी माँ को उनके सौतेले भाईयों ने मार डाला, तब उन्होने राजभवन में जाकर अपने सारे सौतेले भाईयों की हत्या कर दी और सम्राट बने। अशोक ने मगध साम्राज्य की सत्ता में आने पर पूर्व तथा पश्चिम, दोनों दिशा में अपना साम्राज्य फैलाना प्रारम्भ किया। उसने आधुनिक असम से ईरान की सीमा तक साम्राज्य केवल आठ वर्षों में विस्तृत कर लिया। चक्रवर्ती सम्राट अशोक ने अपने राज्याभिषेक के ८वें वर्ष  अर्थात २६१ ई. पू.में कलिंग पर आक्रमण किया था। आन्तरिक अशान्ति से निपटने के बाद २६९ ई. पू. में उनका विधिवत्‌ राज्याभिषेक हुआ। तेरहवें शिलालेख के अनुसार कलिंग युद्ध में १ लाख ५० सहस्र व्यक्‍ति बन्दी बनाकर निर्वासित कर दिए गये, 1 लाख लोगों की हत्या कर दी गयी। 1.5 लाख लोगो घायल हुए, सम्राट अशोक ने भारी नरसंहार को अपनी आँखों से देखने के बाद बौद्ध भिक्षुक उपगुप्त से उपाय पूछा। इससे द्रवित होकर सम्राट अशोक ने शान्ति, सामाजिक प्रगति तथा धार्मिक प्रचार किया।
कलिंग युद्ध ने सम्राट अशोक के हृदय में महान परिवर्तन कर दिया। उनका हृदय मानवता के प्रति दया और करुणा से उद्वेलित हो गया। उन्होंने युद्धक्रियाओं को सदा के लिए बन्द कर देने की प्रतिज्ञा की। आध्यात्मिक और धम्म विजय का युग आरम्भ हुआ। उन्होंने महान बौद्ध धर्म को अपना धर्म स्वीकार किया। सिंहली अनुश्रुतियों के अनुसार दीपवंश एवं महावंश के अनुसार सम्राट अशोक को अपने शासन के चौदहवें वर्ष में निगोथ नामक भिक्षु द्वारा बौद्ध धर्म की दीक्षा दी गई थी। तत्पश्‍चात्‌ मोगाली पुत्र निस्स के प्रभाव से बौद्ध हो गये थे। दिव्यादान के अनुसार सम्राट अशोक को बौद्ध धर्म में दीक्षित करने का श्रेय उपगुप्त नामक बौद्ध भिक्षु को जाता है। सम्राट अशोक अपने शासनकाल के दसवें वर्ष में सर्वप्रथम बोधगया की यात्रा की थी। तदुपरान्त अपने राज्याभिषेक के बीसवें वर्ष में लुम्बिनी की यात्रा की और लुम्बिनी ग्राम को करमुक्‍त घोषित कर दिया था। तीसरी शताब्दी में सम्राट अशोक द्वारा बनाया गया मध्य प्रदेश में साँची का स्तूप का निर्माण व शिकार तथा पशु-हत्या करना छोड़ दिया। उन्होंने सभी सम्प्रदायों के सन्यासियों को खुलकर दान देना भी आरंभ किया। और जनकल्याण के लिए उन्होंने चिकित्सालय, पाठशाला तथा सड़कों आदि का निर्माण करवाया। उन्होंने बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए धर्म प्रचारकों को नेपाल, श्रीलंका, अफ़ग़ानिस्तान, सीरिया, मिस्र तथा यूनान  भेजा।अपने पुत्र महेंद्र  एवं पुत्री संघमित्रा को भी यात्राओं पर भेजा था। अशोक के धर्म प्रचारकों में सबसे अधिक सफलता उसके पुत्र महेन्द्र को मिली। महेन्द्र ने श्रीलंका के राजा तिस्स को बौद्ध धर्म में दीक्षित किया, और तिस्स ने बौद्ध धर्म को अपना राजधर्म बना लिया और अशोक से प्रेरित होकर उसने स्वयं को 'देवनामप्रिय' की उपाधि दी।
अशोक के शासनकाल में पाटलिपुत्र में तृतीय बौद्ध संगीति का आयोजन किया गया, जिसकी अध्यक्षता मोगाली पुत्र तिष्या ने की। यहीं अभिधम्मपिटक की रचना भी हुई और बौद्ध भिक्षु विभिन्‍न देशों में भेजे गये जिनमें अशोक के पुत्र महेन्द्र एवं पुत्री संघमित्रा सम्मिलित थे ।अशोक ने बौद्ध धर्म को अपनाने और साम्राज्य के सभी साधनों को जनता के कल्याण हेतु लगा दिया। अशोक ने बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए  धर्मयात्राओं का प्रारम्भ, राजकीय पदाधिकारियों की नियुक्‍ति, , धर्म महापात्रों की नियुक्‍ति,  दिव्य रूपों का प्रदर्शन, धर्म श्रावण एवं धर्मोपदेश की व्यवस्था, लोकाचारिता के कार्य, धर्मलिपियों का खुदवाना, (झ) विदेशों में धर्म प्रचार को प्रचारक भेजना आदि कार्य किए गए ।
अशोक ने बौद्ध धर्म का प्रचार का प्रारम्भ धर्मयात्राओं से किया। वह अभिषेक के १०वें वर्ष बोधगया की यात्रा पर गया। कलिंग युद्ध के बाद आमोद-प्रमोद की यात्राओं पर पाबन्दी लगा दी। अपने अभिषेक २०वें वर्ष में लुम्बिनी ग्राम की यात्रा की। नेपाल तराई में स्थित निगलीवा में उसने कनकमुनि के स्तूप की मरम्मत करवाई। बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए अपने साम्राज्य के उच्च पदाधिकारियों को नियुक्‍त किया। स्तम्भ लेख तीन और सात के अनुसार उसने व्युष्ट, रज्जुक, प्रादेशिक तथा युक्‍त नामक पदाधिकारियों को जनता के बीच जाकर धर्म प्रचार करने और उपदेश देने का आदेश दिया।
अभिषेक के १३वें वर्ष के बाद उसने बौद्ध धर्म प्रचार हेतु पदाधिकारियों का धर्म महापात्र' का कर्य विभिन्‍न धार्मिक सम्प्रदायों के बीच द्वेषभाव को मिटाकर धर्म की एकता स्थापित करना था।
अशोक की तुलना विश्‍व इतिहास की विभूतियाँ कांस्टेटाइन, ऐटोनियस,सेन्टपॉल, नेपोलियन सीजर के साथ की गयी  है। अशोक अहिंसा, शान्ति तथा लोक कल्याणकारी नीतियों के विश्‍वविख्यात तथा अतुलनीय सम्राट हैं। एच. जी. वेल्स के अनुसार अशोक का चरित्र “इतिहास के स्तम्भों को भरने वाले राजाओं, सम्राटों, धर्माधिकारियों, सन्त-महात्माओं आदि के बीच प्रकाशमान है और आकाश में प्रायः एकाकी तारा की तरह चमकता है।
सम्राट अशोक द्वारा प्रवर्तित कुल ३३ अभिलेख के अनुसार  अशोक ने स्तंभों, चट्टानों और गुफाओं की दीवारों में अपने २६९ ईसापूर्व से २३१ ई .पू . चलने वाले शासनकाल में खुदवाए। बंगलादेश, भारत, अफ़्ग़ानिस्तान, पाकिस्तान और नेपाल में जगह-जगह पर मिलते हैं और बौद्ध धर्म के अस्तित्व के सबसे प्राचीन प्रमाणों में  हैं।  शिलालेखों के अनुसार अशोक के बौद्ध धर्म फैलाने के प्रयास भूमध्य सागर के क्षेत्र तक सक्रिय थे और सम्राट मिस्र और यूनान तक की राजनैतिक परिस्थितियों से भलीभाँति परिचित थे। पूर्वी क्षेत्रों में प्राकृत व मगधी भाषा में ब्राह्मी लिपि के प्रयोग से लिखे गए थे। पश्चिमी क्षेत्रों के शिलालेखों में भाषा संस्कृत और खरोष्ठी लिपि का प्रयोग किया गया। एक शिलालेख में यूनानी भाषा प्रयोग की गई है । यूनानी और अरामाई भाषा में द्विभाषीय आदेश दर्ज है। ब8हर के जहानाबाद जिले का मखदुमपुर प्रखंड के अंतर्गत बराबर पर्वत समूह अवस्थित सतघरवा गुफा में गुहलेखन , शिलालेखों में सम्राट अपने आप को "प्रियदर्शी" (प्राकृत में "पियदस्सी") और देवानाम्प्रिय (यानि देवों को प्रिय, प्राकृत में "देवानम्पिय") की उपाधि से उत्कीर्ण  हैं। मगध साम्राज्य पर अशोक ने 36 वर्षों तक शासन करने के  बाद 232 ई. पू.  में उसकी मृत्यु  मगध साम्राज्य की राजधानी पाटलिपुत्र में हुई। चंद्रगुप्त की मृत्यु के बाद मौर्य राजवंश 173 वर्षों तक चला था ।मगध तथा भारतीय उपमहाद्वीप में अशोक के अवशेष मिले हैं। पटना पाटलिपुत्र के  कुम्हरार में अशोककालीन अवशेष , लुम्बिनी में अशोक स्तंभ ,  कर्नाटक के धर्मोपदेशों के शिलोत्कीर्ण अभिलेख हैं।जैन, बौद्ध तथा हिन्दू ग्रन्थों , विष्णुपुराण ,  पुराणों के अनुसार  ब्राह्मण कौटिल्य की परामर्श एवं सहायता से मुरा के पुत्र चंद्रगुप्त को मगध साम्राज्य का राज्याभिषेक किया गया । चंद्रगुप्त के पौत्र व विन्दुसार का पुत्र अशोकवर्द्धन को मगध साम्राज्य का राज्याभिषेक हुए थे ।सम्राट  अशोक के मौर्यवंशीय सुयशा ,दशरथ ,संयुत ,शालीशुक ,सोमशर्मा ,शतधन्वा एवं वृहद्रथ मगध साम्राज्य का शासक 173 वर्ष तक किया । दिव्यादान के अनुसार ६ शासकों ने अशोक के बाद शासन किया। अशोक की मृत्यु के बाद मौर्य साम्राज्य पश्‍चिमी और पूर्वी भाग में बँट गया। पश्‍चिमी भाग पर कुणाल और  पूर्वी भाग पर संयुत एवं वृहद्रथ का शासन था। लेकिन १८० ई. पू. तक पश्‍चिमी भाग पर बैक्ट्रिया यूनानी का पूर्ण अधिकार हो गया था। सम्राट अशोक की कीर्तियाँ सारनाथ का अशोक स्तंभ , वैशाली , बराबर पर्वत समूह की गुफाएं , बोधगया मंदिर , राजगीर , पटना , उत्तरप्रदेश , श्रीलंका , नेपाल , भूटान , जापान , भारत के विभिन्न क्षेत्रों में फैली है ।

गुरुवार, अप्रैल 07, 2022

संस्कृति और संस्कार का द्योतक विरासत ....


पुरातनता का एक महत्वपूर्ण ऐतिहासिक स्थान लाट का स्तम्भ  बताया जाता है। जहानाबाद जिले के हुलासागंज प्रखंड से 2 मील उत्तर में स्थित जहानाबाद जिले की दक्षिण पूर्वी सीमा पर एक गाँव लाठ का स्तम्भ ऐतिहासिक विरासत है । लाठ का लाट व ग्रेनाइट स्तम्भ  असाधारण मोनोलिथ खुले मैदानों में स्थित है। लात  ग्रेनाइट स्तंभ की लंबाई औसतन 3 फीट व्यास 53.5 फीट है। यह विसर्जित स्तंभ उत्तर और दक्षिण की ओर इशारा करते हुए जमीन पर क्षैतिज रूप से पड़ा है और इसका लगभग आधा हिस्सा मैदान की सतह के नीचे है। स्थानीय परंपरा का दावा है कि इसका इरादा पूर्व में 8 मील की दूरी पर शरारत में चंदोखर पोखर  में रखा जाना था और इसकी वर्तमान स्थिति के लिए निम्नलिखित धराउत द्वारा शासित किया गया था, जो धराउत  राजा चंद्र सेन द्वारा शासित था, जिसका अपनी बहन के बेटे के साथ झगड़ा हुआ था, जिसे उसने मार डाला, लेकिन युद्ध के बाद उसने पाया कि जिस खंजर से उसने यह काम किया था, वह उसके हाथ से छूट नहीं सका। एक दिन एक प्यासा बछड़ा उसके पास आया, जब राजा चंद्र सेन ने उसके सामने पानी की लत रखी, जिसे उसने लालच से पी लिया और खंजर तुरंत उसकी मुट्ठी में छूट गया। इस घटना की याद में उसने एक झील बनाने का फैसला किया, जो इतना बड़ा हो। जब तक उसका घोड़ा ढीला न हो जाए तब तक उसे चक्कर लगाना चाहिए। मंत्री ने घोड़े के सुविधाजनक से अधिक लंबा सर्किट बनाने से आशंकित होकर शरारत में चंदोखर टैंक के वर्तमान उत्तर पूर्व कोने का चयन किया। जहां अब घोड़े के शुरुआती बिंदु के रूप में एक छोटा सा खंडहर मंदिर है जो अपना सिर दक्षिण की ओर मोड़ता है ताकि दक्षिण की पहाड़ियाँ उस दिशा में चंद्रगढ़ टैंक के आकार की सीमा हो। इस प्रकार से चिन्हित किया गया ।  धराउत का मैदान चंदोखर तलाव या चंदोखर पोखर बनाता है। अगली सुबह राजा चंद्र सेन ने खुद ही दिल की पांच टोकरी खोदी और उनके अनुयायियों ने वही किया, सिवाय एक राजपूत सैनिक के जो हाथ में पुरस्कार लेकर बैठे थे। जब राजा चंद्र सेन ने उनसे पूछा कि उन्होंने बाकी की तरह पांच टोकरियां क्यों नहीं खोदीं, तो उन्हें राहत मिली कि वह एक सैनिक थे और केवल हथियार रखते थे। यह सुनकर राजा ने ह्यूम को लंका के राजा  भीखम को एक पत्र दिया और उसे झील के बीच में एक लाठ या अल्पसंख्यक वापस लाने के लिए कहा। लंका के राजा भीखम  ने उस गिलर को छोड़ दिया जिसे सैनिक वाहक बंद कर देता था लेकिन जैसे ही वह शरारत के पास मुर्गा चालक दल के पास पहुंचा और वह वहां था, उसे तुरंत उस स्थान पर गिराने के लिए आग लगा दी जहां वह अभी भी स्थित है। गाँवों से संबंधित एक अन्य कथा में कहा गया है कि देवता, जो रात में गिलार लेकर नेपाल के जनकपुर जा रहे थे, उन्होंने गाँव में एक चूहे की आवाज सुनकर उसे गिरा दिया और यह सोचकर कि गाँव दान के आने से तार-तार हो रहे थे। जिस घर में उनका दिल था, वह रात और सुंदर में काम करने वाले एक कुम्हार का था, तो पोस्टरों का कोर्स हो गया है और कोई कुम्हार गांव में नहीं रहेगा। यह जोड़ा जा सकता है कि गिलार के खनिज चरित्र से स्पष्ट रूप से पता चलता है कि यह बराबर पहाड़ियों से आया है। गांवों से संबंधित किंवदंती में कहा गया है कि नेपाल के जनकपुर में रात को गिलर ले जा रहे देवताओं ने गांव में एक चूहे की आवाज सुनकर इसे गिरा दिया। और यह सोचकर कि दान के आने से गाँव तार-तार हो रहे हैं। जिस घर में उनका दिल था, वह रात और सुंदर में काम करने वाले एक कुम्हार का था, तो पोस्टरों का कोर्स हो गया है और कोई कुम्हार गांव में नहीं रहेगा। यह जोड़ा जा सकता है कि गिलार के खनिज चरित्र से स्पष्ट रूप से पता चलता है कि यह बराबर पहाड़ियों से आया है।
 पुरुष और प्रकृति ब्रह्मयोनि पहाड़ी
बिहार का गया जिले का मुख्यालय गया में ब्रह्मयोनि पहाड़ी एक छोटे से प्राकृतिक विदर से निकली है । ब्रह्मयोनि पहाड़ी सबसे ऊंची  और गया शहर के दक्षिण में स्थित है। गया के आसपास के अधिकांश पहाड़ी में मंदिर और  धार्मिक पवित्रता है। उनमें से कुछ सौंदर्य स्थल हैं ब्रह्मयोनी 793 फीट सबसे ऊंची पहाड़ी, कटारी पहाड़ी 454 फीट, खजूरिया, कपिल धारा, भष्मकुट, मुदाली, गोछवा पहाड़ी, रामशिला पहाड़ी 715 फीट, प्रेतशिला 873 फीट गया, बराबर हिल 1023 फीट जहानाबाद जिला, श्रृंगीरिशी पहाड़ 1850 फीट नवादा जिला और कौवाडोल पहाड़ 500 फीट ऊंचाई गया जिला आदि। गया की प्राकृतिक सीमाएँ हैं। यह उत्तर में मुरली पहाड़ी और रामशिला पहाड़ी से दक्षिण में ब्रह्मयोनी पहाड़ी, पूर्व में फाल्गु नदी और पश्चिम में खुले देश द्वारा रिज से टूटकर कटारी पहाड़ी के रूप में जाना जाता है। पूर्वी भाग ब्रह्म योनि पहाड़ी के बीच एक चट्टानी रिज के साथ फैला है। ब्रह्मयोनी पहाड़ी सबसे ऊंची है और गया शहर के दक्षिण में स्थित है। ब्रह्मयोनी शब्द में दो शब्द ब्रह्म और योनि हैं, जो कि ब्रह्मा की स्त्री ऊर्जा है। हिंदू पौराणिक कथाओं के अनुसार पुरुष और प्रकृति ब्रह्मांड के पाठ्यक्रम हैं। ब्रह्मयोनी नाम ब्राह्मणो पहाड़ी की चोटी पर चट्टानों में एक छोटे से प्राकृतिक विदर से लिया गया है, जिसके माध्यम से एक व्यक्ति क्रॉल का प्रबंधन कर सकता है, यह सुझाव देता है कि इसके माध्यम से रेंगने से तीर्थयात्री पुनर्जन्म से बच जाते हैं। पहाड़ी की चोटी पर एक छोटा मंदिर है जिसमें एक मूर्ति है जिसमें कहा जाता है कि इसके माध्यम से ब्रह्मा का प्रतिनिधित्व ठीक से शिव से संबंधित है ।  क्योंकि इस आकृति में पांच और चार सिर नहीं हैं, जैसा कि ब्रह्मा की नियमित मूर्ति में है। यह आंकड़ा एक पुराने कुरसी पर रखा गया है, जिसके बारे में कहा जाता है कि इसे 1633 में राज्य के निर्माण को रिकॉर्ड करने वाली एक कविता के साथ अंकित किया गया था और बाईं ओर एक घोड़े के साथ एक छोटी आकृति है, जिसे जनरल कनिंघम सबसे अधिक संभवतः एक मूर्ति मानते थे। संभवनाथ की। 24 जैन तीर्थंकर भगवान महावीर में से तीसरे, जिनका प्रतीक एक घोड़ा है। ब्रह्मयोनी पहाड़ी मैदान से लगभग 450 फीट की ऊंचाई तक लगभग तेजी से ऊपर उठती है। सबसे अधिक इस्तेमाल किया जाने वाला चढ़ाई दक्षिण-पूर्व में है जहां महाराजा देव राव भाओ साहब द्वारा तीर्थयात्रियों की सुविधा के लिए लगभग 100 साल पहले पत्थर की सीढ़ियां खड़ी की गई थीं। इस पथ के दाईं ओर एक विशाल चट्टान है जो मध्य शिखर को उसके उत्तरी भाग से अलग करती है। जो एक विग के साथ एक आदमी के सिर के लिए एक उल्लेखनीयता प्रस्तुत करता है। आस-पास की दरारें सर्पीन, टेढ़ी-मेढ़ी और चरम स्थानों पर देने वाली हैं। हमने छोटे-छोटे झाड़ियों और पेड़ों के बगीचों और पैचों को लटकाते हुए दृश्यों को माउंट किया। गया के लोग दिन का आनंद लेने के लिए ब्रह्मयोनी और उसके आस-पास के झरनों और ब्रूक्स में आते हैं। गया भारत में तीर्थयात्रा के महान स्थानों में से एक है और हिंदुओं की दृष्टि में विशेष पवित्रता है।
 बौद्ध धर्म का  स्थल नागार्जुन पहाड़ी 
नागार्जुन पहाड़ियों का नाम इस परंपरा से मिलता है कि प्रसिद्ध बौद्ध शिक्षक नागार्जुन बराबर पर्वत समूह की  गुफाओं में से एक में रहते थे और बारबार नाम जाहिर तौर पर एक  बरवारा है, जो उस घाटी पर लागू एक महान परिक्षेत्र है जिसमें गुफा स्थित है। नागार्जुन पहाड़ी  बिहार का जहानाबाद जिला मुख्यालय जहानाबाद के दक्षिण में लगभग 16 मील की दूरी पर स्थित नागार्जुन पहाड़ी  सड़क से जुड़ा हुआ है । बराबर पर्वत समूह की अलग-अलग चोटियों के साथ है। पातालगंगा के पूर्व में  आधा मील सिद्धेश्वर नाथ चोटी है ।  नागार्जुन पहाड़ियों में ग्रेनाइट की दो संकरी लकीरें  एक दूसरे से लगभग आधा मील की दूरी पर समानांतर चलती हैं। दक्षिणी क्षेत्र में तीन ओर गोपी गुफा है, वादंतिक गुफा और योगेंद्र गुफाएं जिनमें से दो उत्तरी दिशा में एक छोटे से स्पर में स्थित हैं, जबकि तीसरी और सबसे बड़ी गुफा गोपी गुफा के रूप में जानी जाती है, जो मैदान के ऊपर 50 फीट की ऊंचाई के क्षेत्र  के दक्षिणी हिस्से में खोदी गई है। यह कठोर पत्थर के कदमों की उड़ान से संपर्क किया जाता है लेकिन प्रवेश एक पेड़ द्वारा छुपाया जाता है और आंशिक रूप से  पूर्व मोहम्मद द्वारा कब्जा किए गए एक उद्यान की दीवार से छुपा होता है। द्वार के ठीक ऊपर एक छोटी धँसी हुई गोली में एक शिलालेख है जिसमें कहा गया है कि गोपी की गुफा को मगध राजा दशरथ द्वारा उनके अवसर के तुरंत बाद आदरणीय आजीविकों के लिए उनके लिए एक निवास स्थान होने के लिए सबसे अच्छा था जब तक कि सूर्य और चंद्रमा सहन. यह कठोर पत्थर के कदमों की उड़ान से संपर्क किया जाता है । लेकिन प्रवेश एक पेड़ द्वारा छुपाया जाता है और आंशिक रूप से कुछ पूर्व मोहम्मद द्वारा कब्जा किए गए एक उद्यान की दीवार से छुपा होता है। द्वार के ठीक ऊपर एक छोटी धँसी हुई गोली में एक शिलालेख है जिसमें कहा गया है कि गोपी की गुफा को मगध राजा दशरथ द्वारा उनके अवसर के तुरंत बाद आदरणीय आजीविकों के लिए उनके लिए एक निवास स्थान होने के लिए सबसे अच्छा था जब तक कि सूर्य और चंद्रमा सहन. यह कठोर पत्थर के कदमों की उड़ान से संपर्क किया जाता है लेकिन प्रवेश एक पेड़ द्वारा छुपाया जाता है और आंशिक रूप से कुछ पूर्व मोहम्मद द्वारा कब्जा किए गए एक उद्यान की दीवार से छुपा होता है। द्वार के ठीक ऊपर एक छोटी धँसी हुई गोली में एक शिलालेख है जिसमें कहा गया है कि गोपी की गुफा को मगध राजा दशरथ द्वारा उनके अवसर के तुरंत बाद आदरणीय आजीविकों के लिए उनके लिए एक निवास स्थान होने के लिए सबसे अच्छा था जब तक कि सूर्य और चंद्रमा सहन , अन्य दो गुफाएं जो नागार्जुन पहाड़ी के उत्तरी किनारे पर कम चट्टानी रिज में स्थित हैं, उन पर समान शब्दों में उनके समर्पण को दर्ज करने वाले शिलालेख हैं। दक्षिण में दो उभरे हुए टेरेस हैं जिनमें से ऊपरी को जनरल कनिंघम द्वारा बौद्ध विहार या मठ का स्थल माना जाता है। शीर्ष के पास कई चौकोर पत्थर और ग्रेनाइट स्तंभ हैं । उसी प्राधिकरण की राय में जहां जोड़े गए थे बाद के वर्षों में गुफाओं पर कब्जा करने वाले मोहम्मदन द्वारा। मंच उनकी कब्रों से ढका हुआ है और चारों ओर ईंटों के ढेर और नक्काशीदार पत्थरों के टुकड़े हैं जो दर्शाते हैं कि कभी यहां कई इमारतें रही होंगी। पश्चिम की ओर गुफा चट्टान के एक ग्राफिक और प्राकृतिक फांक में स्थित है और केवल 2 फीट 10 इंच चौड़ाई में संकीर्ण मार्ग से प्रवेश करती है। द्वार के दाहिने हाथ के जंब पर एक शिलालेख में इस गुफा को वेदथिका गुफा कहा जाता है, जो जनरल कनिंघम का सुझाव है कि एकांत दवाओं की वेदाथिका गुफा है। यह अर्थ वेदथिका गुफा की स्थिति के लिए उपयुक्त है क्योंकि यह गुफा से पूरी तरह से अलग है और यह अंतराल के ब्लफ़ चट्टानों से घिरा हुआ है जिसमें यह स्थित है और देखने से प्रभावी रूप से प्रदर्शित होता है। इसके बगल की गुफा में एक छोटा बरामदा और पूर्व चेनी है जिसमें से एक संकरा द्वार मुख्य कमरे की ओर जाता है। छत मेहराबदार है और सभी दीवारें अत्यधिक पॉलिश की गई हैं। बरामदे के बाईं ओर एक शिलालेख से हमें पता चलता है कि गुफा को वापिका ए टर्न कहा जाता था जो संभवत: इसके सामने स्थित वापी गुफा को दर्शाता है। सतघरवा और यह सुझाव दिया गया है कि नाम सप्तगर्भ और सात गुफाओं का संपर्क है। इसका अर्थ संतों का निवास संत घर   है। हालांकि बराबर गुफाओं की संख्या केवल चार है, कर्ण गुफा, सुदामा गुफा, लोमश ऋषि गुफा और विश्वझोपदी गुफाएं और  तीन नागार्जुन पहाड़ी में गोपी गुफा, वापी गुफा, योगेंद्र गुफाएं शामिल है । नागार्जुन पहाड़ियों का नाम इस परंपरा से मिलता है कि प्रसिद्ध बौद्ध शिक्षक नागार्जुन इन गुफाओं में से एक में रहते थे और बारबार नाम स्पष्ट रूप से बड़ा सिद्धों का आश्रम  है, जो उस घाटी पर लागू होने वाला एक पदनाम है जिसमें गुफाएं स्थित हैं। यह स्वाभाविक रूप से एक मजबूत रक्षात्मक स्थिति है क्योंकि इसमें बहुत सारा पानी है और उत्तर पूर्व और दक्षिण पूर्व में केवल दो बिंदुओं पर ही पहुँचा जा सकता है। यह दोनों बिंदु जहां दीवारों से बंद हैं, और जैसा कि आसपास की पहाड़ियों पर दीवारों के निशान  हैं। यह जगह कभी गढ़ के रूप में इस्तेमाल की जाती थी।  पश्चिम में बारबार पहाड़ियों से पूर्व में  फल्गु  नदी से घिरी बड़ी घाटी के लिए लागू किया गया  है । इक्ष्वाकु वंशीय  राजा कुक्षी के पौत्र एवं विकुक्षि के पुत्र बाण की राजधानी  मैदान में बिखरे हुए ईंट और पत्थर के ढेर एक बड़े राम गया शहर की साइट को चिह्नित करते हैं। बुकानन हिमिल्टन ने इस मैदान को रामगया और कहा कि पड़ोस के लोगों ने दावा किया कि यह एक बार तीर्थयात्रा का केंद्र था जो कि गिरावट में गिर गया क्योंकि गयावाल ने एक नया तीर्थ शहर गया स्थापित किया। बराबर हिल्स ग्रुप प्लेस पटना गया या गया पटना रेलवे लाइन बेला (गया) और मखदुमपुर (जहानाबाद) रेलवे स्टेशन, बराबर हॉल्ट और बाणावर  हॉल्ट  से पटना गया सड़कों से जुड़ाव व बारबार पहाड़ियों के नीचे तक जाती हैं।ढेर एक बड़े राम गया शहर की साइट को चिह्नित करते हैं। द्वापर युग में दैत्य राज बली के औरस पुत्र बाणासुर का प्रिय और सैन्य स्थल था ।बुकानन हिमिल्टन ने इस मैदान को रामगया से जुड़ाव और कहा कि पड़ोस के लोगों ने दावा किया कि यह एक बार तीर्थयात्रा का केंद्र था जो कि गिरावट में गिर गया क्योंकि गयावाल ने एक नया तीर्थ शहर गया स्थापित किया। बराबर हिल्स ग्रुप प्लेस पटना - गया पथ  या गया पटना रेलवे लाइन बेला (गया) और मखदुमपुर (जहानाबाद) रेलवे स्टेशन, बराबर हॉल्ट और बाणावर  हॉल्ट  से पटना गया सड़कों से जुड़ाव व बारबार पहाड़ियों के नीचे तक जाती हैं। मगध साम्राज्य का सम्राट अशोक का प्रिय स्थल था । बराबर पर्वत समूह का विभिन्न स्थलों पर ऋषियों , सिध्दों , भिक्खुओं , संतों का आश्रम था । खगोल विज्ञान का केंद था ।
ब्राह्मणधर्म  और बौद्ध धर्म का स्थल कौवाडोल पहाड़ी 
बिहार का गया जिले के बेलागंज  प्रखंड  में एक कौवाडोल पहाड़ी बेला रेलवे स्टेशन के पूर्व में पटना गया रेलवे लाइन और पटना गया रोड पर लगभग 6 मील की दूरी पर है। कौवाडोल हिल मुख्यालय जिला गया के उत्तर में और बराबर पहाड़ियों के दक्षिण पश्चिम में लगभग एक मील की दूरी पर है। यह एक अलग पहाड़ी है जो मैदानी इलाकों से अचानक लगभग 500 फीट की ऊंचाई तक उठती है। यह पूरी तरह से ग्रेनाइट की विशाल मालिश से बना है जो एक के ऊपर एक ढेर लगा हुआ है और पत्थर के एक विशाल ब्लॉक द्वारा ताज पहनाया गया है जो काफी दुर्गम है। ऐसा कहा जाता है कि इस शिखर को पहले एक अन्य ब्लॉक द्वारा शीर्ष पर रखा गया था जो इतना संतुलित था कि इसका उपयोग किया जाता था । यहां तक ​​कि जब एक कौवा उस पर चढ़ गया और इस परिस्थिति से कौवाडोल पहाड़ी को कौवाडोल और कौवे के झूले का नाम मिला। पूर्व की ओर एक उबड़-खाबड़ ट्रैक है जो सबसे ऊपरी शिखर के तल तक जाता है, जिसका अंतिम भाग चिकनी फिसलन वाली चट्टान की एक अत्यंत खड़ी ढलान के ऊपर से गुजरता है। जिस पर सिर्फ नंगे पांव और रबर से ही चढ़ाई जा सकती है। शूज़.कौवाडोल की पहचान दिल हसरा के प्राचीन मठ के स्थल के रूप में की गई है। समानाता बंगाल के शाही परिवार के एक विद्वान बौद्ध शीलभद्र  थे, जिन्होंने एक सार्वजनिक विवाद में एक विद्वान विधर्मी को मात दी थी। इस जीत के लिए राजा ने उन्हें पुरस्कार के रूप में दिया। एक शहर का राजस्व जिसके साथ उसने एक शानदार मठ का निर्माण किया। इस जगह का दौरा 7वीं शताब्दी में ह्वेन त्सांग ने किया था। उन्होंने इसका उल्लेख एक एकान्त कुंवर पहाड़ी के किनारे गुनामती मठ के दक्षिण पश्चिम में लगभग 3 मील की दूरी पर स्थित होने के रूप में किया है, जिसका वर्णन उन्होंने स्तूप की तरह एक ही तेज चट्टान के रूप में किया है। धारावत, व धराउत  जहानाबाद जिले के धारावत में गुनाकारी मठ के संबंध में कौवाडोल पहाड़ी की स्थिति, शीलभद्र मठ के साथ इसकी अनिश्चितता की सटीकता के बारे में कोई संदेह नहीं छोड़ती है, जिसकी पुष्टि एक स्तूप के आकार के ऊंचे शिखर की समानता से होती है। कौवाडोल की चोटी जो दूर से अपने शिखर के बिना खंडहर स्तूप की तरह दिखती है। मठ के अवशेष अभी भी मौजूद हैं जिनमें कौवाडोल पहाड़ी के पूर्वी किनारे के तल पर एक प्राचीन बौद्ध मंदिर के खंडहर हैं। मंदिर में भगवान बुद्ध की एक विशाल मूर्ति है, जो पृथ्वी का आह्वान करने के कार्य में विराजमान है, जब उन पर मारा और उनकी कई बुरी शक्तियों ने हमला किया था। यह अभी भी एक छोटे से ईंट से निर्मित सेल के अंदर ही है, लेकिन मंदिर अन्यथा खंडहर में है, इसकी मूल ईंट की दीवारों के कुछ हिस्सों और कुछ 13 ग्रेनाइट स्तंभों का पता लगाया जा सकता है। इन खींचने वालों ने शायद बुद्ध मंदिर के सामने एक खुले हॉल का समर्थन किया। कौवाडोल पहाड़ी के उत्तरी चेहरे के तल पर चट्टानों के बीच ग्रेनाइट के कई बड़े मालिशों पर उच्च राहत में कई आंकड़े उकेरे गए हैं। वे बहुत घिसे हुए हैं और कुछ बहुत बेहोश हो गए हैं क्योंकि पत्थर जलवायु के प्रभावों का सामना नहीं कर पाया है। अधिकांश विषय ब्राह्मणवादी आकृतियों का प्रतिनिधित्व करते हैं और अब तक सबसे अधिक चार सशस्त्र देवी दुर्गा की मूर्तियां हैं जो भैंस राक्षस महिषासुर का वध करती हैं। हालांकि तीन बौद्ध आकृतियाँ हैं जिनमें से एक बुद्ध बैठे हैं और दूसरी बारासता और तीसरी प्रज्ञापारमिता हैं। जिस पंक्ति में इन आकृतियों को उकेरा गया है, उसमें कई हिंदू देवी-देवता हैं और यह 800-1200 ईस्वी की अवधि में ब्राह्मणवाद और बौद्ध धर्म के संलयन का एक शानदार उदाहरण है, जिसमें ये नक्काशी की गई है। कौवाडोल हिल ड्राइव वहाँ परंपरा से नाम है कि काकभुसुंडी प्रसिद्ध आध्यात्मिक संत और अध्यात्म रामायण रचयिता काकाभुसुंडी इन पहाड़ी में से एक में रहते थे। और कौवाडोल नाम स्पष्ट रूप से काकभुसुंडी का एक भ्रष्टाचार है, जो उस पहाड़ी पर लागू एक पद है जिसमें कौवाडोल पहाड़ी स्थित हैं। बोधिसत्व ने पृथ्वी को छुआ जब मारा ने उन्हें पृथ्वी देवी को उनके ज्ञान का साक्षी बनने के लिए प्रोत्साहित किया। इसे भूमि स्पर्श मुद्रा के रूप में जाना जाता है। लोक मान्यता इसे राजा बाणासुर के अनुयायी के रूप में मानती है, जब शाप की अवधि समाप्त होने पर अहिल्या जैसे मानव से वापस लौटने के लिए एक शाप के कारण भयभीत हो जाता है। 1901 - 02 के लिए भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण और बंगाल सर्कल का पुरातत्व सर्वेक्षण प्रतिवेदित है । मि. एल. एस. ओ मॉली आई. सी एस . का  लास्ट डिस्ट्रिक्ट गजेटियर गया  1906 ई. एवं रेवेन्यू डिपार्टमेंट बिहार , पटना के गजेटियर रेविशन सेक्शन के स्पेशल ऑफिसर पी. सी . रॉय चौधरी , एम.के. , बी.एल. का  बिहार डिस्ट्रिक्ट गजेटियर गया 1957 ई. में कौवाडोल हिल के ब्राह्मण धर्म एवं बौद्ध धर्म का स्थल का उल्लेख किया है । सकारात्मक ऊर्जा की माता कालरात्रि 


नवरात्र का  सातवें दिन माँ कालरात्रि की उपासना के लिए समर्पित है । शाक्त धर्म के साधक का मन 'सहस्रार' चक्र में स्थित रहने से ब्रह्मांड की समस्त सिद्धियों का द्वार खुलने लगता है। देवी कालात्रि को व्यापक रूप से माता देवी - काली, महाकाली, भद्रकाली, भैरवी, मृित्यू, रुद्रानी, चामुंडा, चंडी और दुर्गा के कई विनाशकारी रूपों से माना जाता है। रौद्री और धुमोरना देवी कालात्री के अन्य कम प्रसिद्ध  हैं । नवदुर्गाओं में सप्तम् माता कालरात्रि की  अस्त्र तलवार , लौह अस्त्र  अभय मुद्रा , वरमुद्रा ,  सवारी गधा और जीवन साथी भगवान शिव  है ।  डेविड किन्स्ले के मुताबिक, काली का उल्लेख हिंदू धर्म में लगभग ६०० ईसा के आसपास एक अलग देवी के रूप में किया गया है। माता  कालरात्रि महाभारत में वर्णित, ३०० ईसा पूर्व - ३०० ईसा के बीच वर्णित है । कालरात्रि  देवी के रूप में सभी राक्षस,भूत, प्रेत, पिशाच और नकारात्मक ऊर्जाओं का नाश एवं आगमन से पलायन करते हैं । शिल्प प्रकाश में संदर्भित एक प्राचीन तांत्रिक पाठ, सौधिकागम, देवी कालरात्रि का वर्णन रात्रि के नियंत्रा रूप में किया गया है। सहस्रार चक्र में स्थित साधक का मन पूर्णतः माँ कालरात्रि के स्वरूप में अवस्थित रहता है। उनके साक्षात्कार से मिलने वाले पुण्य सिद्धियों और निधियों विशेष रूप से ज्ञान, शक्ति और धन का उपासक भागी हो जाता है। उसके समस्त पापों-विघ्नों का नाश हो जाता है और अक्षय पुण्य-लोकों की प्राप्ति होती है। दुर्गा सप्तशती एवं देवी भागवत पुराण के अनुसार 
एकवेणी जपाकर्णपूरा नग्ना खरास्थिता | लम्बोष्ठी कर्णिकाकर्णी तैलाभ्यक्तशरीरिणी || वामपादोल्लसल्लोहलताकण्टकभूषणा | वर्धन्मूर्धध्वजा कृष्णा कालरात्रिर्भयन्करि ||
माता कालरात्रि का  शरीर  रंग घने अंधकार की  काला है। सिर के बाल बिखरे हुए हैं। गले में विद्युत की तरह चमकने वाली माला है। इनके तीन नेत्र हैं। ये तीनों नेत्र ब्रह्मांड के सदृश गोल हैं। इनसे विद्युत के समान चमकीली किरणें निःसृत होती रहती हैं। माँ की नासिका के श्वास-प्रश्वास से अग्नि की भयंकर ज्वालाएँ निकलती रहती हैं। इनका वाहन गर्दभ (गदहा) है। ये ऊपर उठे हुए दाहिने हाथ की वरमुद्रा से सभी को वर प्रदान करती हैं। दाहिनी तरफ का नीचे वाला हाथ अभयमुद्रा में है। बाईं तरफ के ऊपर वाले हाथ में लोहे का काँटा तथा नीचे वाले हाथ में खड्ग (कटार) है। माँ कालरात्रि का स्वरूप देखने में अत्यंत भयानक है, लेकिन ये सदैव शुभ फल ही देने वाली हैं। इसी कारण इनका एक नाम 'शुभंकारी'  है। भक्तों को किसी प्रकार भी भयभीत अथवा आतंकित होने की आवश्यकता नहीं है। माँ कालरात्रि दुष्टों का विनाश करने वाली हैं। दानव, दैत्य, राक्षस, भूत, प्रेत आदि इनके स्मरण मात्र से  भयभीत होकर भाग जाते हैं। माता कालरात्रि ग्रह-बाधाओं को भी दूर करने वाली हैं। इनके उपासकों को अग्नि-भय, जल-भय, जंतु-भय, शत्रु-भय, रात्रि-भय आदि कभी नहीं होते। माँ कालरात्रि के स्वरूप-विग्रह को अपने हृदय में अवस्थित करके मनुष्य को एकनिष्ठ भाव से उपासना करनी चाहिए। यम, नियम, संयम का उसे पूर्ण पालन करना चाहिए। मन, वचन, काया की पवित्रता रखनी चाहिए। वे शुभंकारी देवी हैं। उनकी उपासना से होने वाले शुभों की गणना नहीं की जा सकती। निरंतर माता कालरात्रि का स्मरण, ध्यान और पूजा करना चाहिए। वाराणसी उत्तरप्रदेश के काशी स्थित कालिक गली एवं सारण (बिहार), जिले के नयागांव का  डुमरी बुजुर्ग गांव , उज्जैन एवं में मां कालरात्रि मंदिर है । नवरात्रि की सप्तमी के दिन माँ कालरात्रि की आराधना का विधान है। इनकी पूजा-अर्चना करने से सभी पापों से मुक्ति मिलती है व दुश्मनों का नाश होता है, तेज बढ़ता है।  माँ कालरात्रि की भक्ति पाने के लिए इसे कंठस्थ कर नवरात्रि में सातवें दिन इसका जाप करना चाहिए। या देवी सर्वभू‍तेषु माँ कालरात्रि रूपेण संस्थिता। नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:।। अर्थ : हे माँ! सर्वत्र विराजमान और कालरात्रि के रूप में प्रसिद्ध अम्बे, आपको मेरा बार-बार प्रणाम है। या मैं आपको बारंबार प्रणाम करता हूँ।  ॐ ऐं ह्रीं क्रीं कालरात्रै नमः ।।