मंगलवार, नवंबर 30, 2021

द्वीप और संस्कृति ....

पुरणों एवं संहिताओं में जम्बूद्वीप का वर्णन किया गया है ।जम्बूद्वीप के मध्य भाग में 84 हजार योजन ऊँचाई और शिखर की चौड़ाई 32 हजार योजन तथा 16 हजार योजन विस्तारित युक्त मेरुपर्वत के दक्षिण में हिमवान , हेमकूट , निषध पर्वत  , उत्तर में नीलश्वेत श्रृंगवान गिरि है । मेरु के दक्षिण में भारतवर्ष , उत्तर में किंपुरुष वर्ष , हरिवर्ष रम्यक वर्ष ,दक्षिण में हिरण्यवर्ष ,उत्तरकुरु वर्ष  के मध्य में इला वर्ष है । मेरु पर्वत के चारो ओर वर्ष और पूर्व में मंदराचल , दक्षिण में गंधमादन पश्चिम में विपुल एवं उत्तर में सुपार्श्व पर्वत है । जम्बूद्वीप में भारत ,केतुमाल ,भद्राश्व ,और कुरु वर्ष है । केतुमाल वर्ष में वराह , भद्राश्व वर्ष में हयग्रीव ,भारतवर्ष में कच्छप और उत्तर कुरु में मत्स्य भगवान विष्णु का अवतार की उपासना करते है ।भारतवर्ष में महेंद्र , मलय ,सहय , शुक्तिमान ,ऋक्ष , विंध्य और पारियात्र कुल पर्वत है । भारतवर्ष के राजा भरत की संतान रहते है । भारतवर्ष में इंद्र द्वीप ,कसेतु द्वीप ,ताम्र द्वीप ,गभस्ति द्वीप ,नागद्वीप ,सौम्य द्वीप ,गंधर्व द्वीप ,वरुण द्वीप है । जम्बूद्वप  के  देशों में  हरिवर्ष, भद्राश्व और किंपुरुष का  स्‍थान को चीन ,  नेपाल और तिब्बत शामिल है । 1934 में हुई उत्खनन  में चीन के समुद्र के किनारे बसे  प्राचीन शहर च्वानजो में 1000 वर्ष से   प्राचीन हिन्दू मंदिरों के दर्जन से अधिक खंडहर मिले हैं। चीन , नेपाल , तिब्बत , भूटान , भारत का अरुणाचल , सिक्कम , लद्दाख , लेह और वर्मा  का  क्षेत्र प्राचीन काल में हरिवर्ष कहलाता था । हजार वर्ष पूर्व  सुंग राजवंश के दौरान दक्षिण चीन के फूच्यान प्रांत में  मंदिर थे ।  त्रिविष्टप ( तिब्बत ) में   देवलोक और गंधर्वलोक  था।  500 से 700 ई . पू . चीन को महाचीन एवं प्राग्यज्योतिष कहा जाता था ।  आर्य काल में संपूर्ण क्षेत्र हरिवर्ष, भद्राश्व और किंपुरुष नाम से प्रसिद्ध था। महाभारत के सभापर्व में भारतवर्ष के प्राग्यज्योतिष पुर प्रांत का उल्लेख  है। इतिहासकार के  अनुसार प्राग्यज्योतिष को  असम को कहा  जाता था। प्राग्ज्योतिषपुर का असुर  राजा नरका सुर था । रामायण बालकांड (30/6) में प्राग्यज्योतिष की स्थापना का उल्लेख है। विष्णु पुराण में प्राग्ज्योतिषपुर को   कामरूप , किंपुरुष  है।   रामायण काल से महाभारत कालपर्यंत असम से चीन के सिचुआन प्रांत तक के क्षेत्र को प्राग्यज्योतिष  था। जिसे कामरूप कहा गया था । चीनी यात्री ह्वेनसांग और अलबरूनी के समय तक कभी कामरूप को महाचीन कहा जाता था। अर्थशास्त्र के रचयिता कौटिल्य ने  'चीन' शब्द का प्रयोग कामरूप के लिए  किया है।  कामरूप या प्राग्यज्योतिष प्रांत प्राचीनकाल में असम से बर्मा, सिंगापुर, कम्बोडिया, चीन, इंडोनेशिया, जावा, सुमात्रा में 5123 वर्ष पूर्व भगवान कृष्ण प्रवास किये थे । महाभारत 68, 15 के अनुसार कृष्ण काल में प्राग्ज्योतिषपुर का राजा शिशुपाल ने द्वारिका को जलाया था । चीनी यात्री ह्वेनसांग (629 ई.) के अनुसार  कामरूप पर  कुल-वंश के 1,000 राजाओं का  25,000 वर्ष तक  का शासन किया।  महाचीन  चीन  और प्राग्यज्योतिषपुर कामरूप है । यह कामरूप भी अब कई देशों में विभक्त हो गया।  मंगोल, तातार और चीनी लोग चंद्रवंशी हैं। कर्नल टॉड की पुस्तक राजस्थान का इतिहास। एवं पंडित यदुनंदन शर्मा की पुस्तक वैदिक संपति और हिंदी शब्द कोष के अनुसार तातार के लोग अपने को अय का वंशज कहते हैं ।राजा पुरुरवा की पत्नी उर्वशी का पुत्र  आयु था। पुरुरवा  कुल में कुरु और कुरु से कौरव हुए है । आयु के वंश में  सम्राट यदु  और उनका पौत्र हय था। चीनी लोग हय को हयु को पूर्वज मानते हैं। चीन वालों के पास 'यू' की उत्पत्ति इस प्रकार लिखी है कि एक तारे (तातार) का समागम यू की माता के साथ होने  से यू हुआ।  सोम एवं वृहस्पति और तारा पुत्र बुध और इला के समागम  है। चीन ग्रंथों के अनुसार तातारों का अय,  यू और  आयु का आदिपुरुष चंद्रमा था ।
शाकद्वीप और भगवान सूर्य  - वेदों , पुरणों , संहिताओं में भगवान शाकद्वीप के आदिदेव भगवान सूर्य का उल्लेख किया गया है ।शाकद्वीप का स्वामी महात्मा भव्य के पुत्रों द्वारा जलद वर्ष ,कुमार वर्ष , सुकुमार वर्ष मनिरक वर्ष कुसुमोद वर्ष गोदाकि वर्ष और महाद्रुम वर्ष की स्थापना की गई थी । शाकद्वीप में उदयगिरि, जलधार , ,रैवतक ,श्याम ,अंभोगिरी , आस्तिकेय  और केशरी पर्वत तथा नदियों में सुकुमारी ,कुमारी ,नलिनी ,रेणुका इक्षु , धेनुका तथा गभस्ति नदियाँ प्रवाहित है ।  शाकद्वीप में मग को मागि ,मगी , सकलदीपी शाकद्वीपीय ब्राह्मण , मागध को क्षत्रिय , मानस को वैश्य तथा मंदग को शुद्र कहा जाता है । शाकद्वीप का क्षेत्र भगवान सूर्य के अधीन है और यहां के निवासियों द्वारा भगवान सूर्य की उपासना की जाती है । मगों द्वारा सौर धर्म के तहत चिकित्सा , आयुर्वेद ,ज्योतिष शास्त्र का उदय एवं प्राकृतिक संरक्षण एवं उपासना पर बल दिया गया । सौर गणना से दिन तथा चंद्र गणना से रात की चर्चा की है । कालांतर सौर धर्म में सौर धर्म और चंद्र धर्म का विकास हुआ था । शाकद्वीप का प्रथम उदयगिरि पर्वत पर  भगवान सूर्य उदित हो कर भारतीय उपमहाद्वीप में अनेक स्थानों पर प्रकाशमान हैं। उदयगिरि गुफाओं में  मध्य प्रदेश में विदिशा के समीप  २० प्राचीन गुफाएँ , उदयगिरि, ओड़ीसा में  प्राचीन बौद्ध विहार और स्तूप , उदयगिरि, आन्ध्र प्रदेश -- श्रीकृष्ण देवराय की राजधानी, पहाड़ियों और प्राचीन भवनों के लिए प्रसिद्ध , उदयगिरि और खंडगिरि -- भुवनेश्वर के पास , उदयगिरि, नेल्लोर , उदयगिरि,केरल का  कन्नूर , तमिलनाडु के कन्याकुमारी जिला का उदयगिरि दुर्ग , आंध्रप्रदेश के नेल्लोर जिला ,उड़ीसा के उदयगिरि में श्रीलंका के प्राचीन बौद्ध विहार , मन्दिर है । शाकद्वीप का उदयगिरि पर्वत उड़ीसा , आंध्रप्रदेश , केरल और तमिलनाडु क्षेत्र में विकसित है । शाकद्वीप का गुजरात के जूनागढ़ के समीप रैवतक  पर्वत को 'गिरनार'  गिरि कहते हैं। रैवतक  पर्वत के समीप पांडव पुत्र अर्जुन  ने बलराम की बहन रोहाणी की पुत्री तथा अभिमन्यु की माता  सुभद्रा का हरण किया था। महाभारत सभा पर्व के अनुसार 'रैवतक  पर्वत कुशस्थली द्वारिका  के पूर्व की ओर रैवतक पर्वत स्थित था सौराष्ट्र, काठियावाड़ का गिरनार नामक पर्वत ही महाभारत का रैवतक है। 'महाभारत' और 'हरिवंशपुराण के अनुसार रैवतक पर्वत सौराष्ट्र , काठियावाड़ का गिरनार पर्वत है । जैन ग्रंथ 'अंतकृत दशांग' में रैवतक को द्वारवर्ती के उत्तर-पूर्व में स्थित म है तथा पर्वत के शिखर पर 'नंदनवन' नामक एक उद्यानहै।'विष्णुपुराण' के अनुसार आनर्त का पुत्र रैवत ने कुशस्थली में रहकर राज्य किया था । राजा  रैवत ने  रैवतक पर्वत प्रसिद्ध हुआ था। रैवत की पुत्री 'रेवती' बलराम की पत्नी थी। महाकवि माघ ने 'शिशुपालवध'में रैवतक का सविस्तार काव्यमय वर्णन किया है। जैन ग्रंथ 'विविधतीर्थकल्प' में रैवतक तीर्थ में 22वें तीर्थंकर नेमिनाथ ने 'छत्रशिला' स्थान के पास दीक्षा ली थी।  'अवलोकन' के शिखर पर उन्हें 'कैवल्य ज्ञान' की प्राप्ति हुई थी। कृष्ण ने 'सिद्ध विनायक मंदिर' की स्थापना की थी। 'कालमेघ', 'मेघनाद', 'गिरिविदारण', 'कपाट', 'सिंहनाद', 'खोड़िक' और 'रेवया' नामक सात क्षेत्रपालों का यहीं जन्म हुआ था। रैवतक  पर्वत में 24 पवित्र गुफ़ाएँ जैन सिद्धों से संबंध रहा है। रैवताद्रि का 'जैनस्रोत'  'तीर्थमाला चैत्यवंदनम' में  उल्लेख है ।'विष्णुपुराण' के अनुसार रैवतक शाकद्वीप का पर्वत था । भागवत पुराण 9.22.29, 33; ब्रह्माण्ड पुराण 3.71.154, 178; विष्णु पुराण 4.44.35, 20, 30; वायु पुराण 12.17-24; 35.28 में शाकद्वीप का रैवतक पर्वत की चर्चा की गई है ।और 'रेवया' नामक सात क्षेत्रपालों का यहीं जन्म हुआ था। रैवतक  पर्वत में 24 पवित्र गुफ़ाएँ जैन सिद्धों से संबंध रहा है। रैवताद्रि का 'जैनस्रोत'  'तीर्थमाला चैत्यवंदनम' में  उल्लेख है ।'विष्णुपुराण' के अनुसार रैवतक शाकद्वीप का पर्वत था । भागवत पुराण 9.22.29, 33; ब्रह्माण्ड पुराण 3.71.154, 178; विष्णु पुराण 4.44.35, 20, 30; वायु पुराण 12.17-24; 35.28 में शाकद्वीप का रैवतक पर्वत की चर्चा की गई है । शाकद्वीप में मगध , अंग , कीकट , मिथिला , अवध , कौशल , तथा नेपाल , भारत के बिहार , उड़ीसा , झारखंड , गुजरात , सिंध का क्षेत्र सूर्योपासना का  प्रधान है । सौर धर्म द्वारा भारत , नेपाल बर्मा , श्याम ,कंबोडिया ,जावा ,सुमात्रा ईरान ,इराक ,मिश्र , चीन , मेशोपोटेनियाँ में चौथी शती गुप्त काल मे विकसित थी । ऋग्वेद के 1 /19/13  में  भगवान सूर्य को चक्षो:सूर्यो अजायत कहा गया है ।
 प्लक्ष द्वीप और चंद्रमा - पुरणों एवं संहिताओं  के अनुसार पृथ्वी को जम्बू द्वीप , प्लक्ष द्वीप शाल्मलद्वीप, कुशद्वीप, क्रौंच द्वीप , शाकद्वीप और पुष्कर द्वीप में विभक्त किया गया है । सातों द्वीप के  चारों आर्  खारे पानी, इक्षुरस, मदिरा, घृत, दधि, दुग्ध और मीठे जल के सात समुद्रों से घिरे हैं।  सभी द्वीप एक के बाद एक दूसरे को घेरे हुए है ।इक्षुरस सागर से घीरा हुआ  प्लक्ष द्वीप के स्वामी मेघातिथि के  पुत्रों  में शान्तहय, शिशिर, सुखोदय, आनंद, शिव, क्षेमक एवं , ध्रुव द्वारा शांतहयवर्ष , पुरणों एवं संहिताओं  के अनुसार पृथ्वी को जम्बू द्वीप , प्लक्ष द्वीप शाल्मलद्वीप, कुशद्वीप, क्रौंच द्वीप , शाकद्वीप और पुष्कर द्वीप में विभक्त किया गया है । सातों द्वीप के  चारों आर्  खारे पानी, इक्षुरस, मदिरा, घृत, दधि, दुग्ध और मीठे जल के सात समुद्रों से घिरे हैं।  सभी द्वीप एक के बाद एक दूसरे को घेरे हुए है ।इक्षुरस सागर से घीरा हुआ  प्लक्ष द्वीप के स्वामी मेघातिथि के  पुत्रों  में शान्तहय, शिशिर, सुखोदय, आनंद, शिव, क्षेमक एवं , ध्रुव द्वारा शांतहयवर्ष , शिशिरवर्ष ,सुखोदेववर्ष ,आनंद वर्ष ,शिववर्ष ,क्षेमकवर्ष ,और धुर्ववर्ष की स्थापना की थी । प्लक्ष द्वीप का मर्यादापर्वत में गोमेद, चंद्र, नारद, दुन्दुभि, सोमक, सुमना और वैभ्राज और  समुद्रगामिनी नदियों में  अनुतप्ता, शिखि, विपाशा, त्रिदिवा, अक्लमा, अमृता और सुकृता के अलावा सहस्रों छोटे छोटे पर्वत और नदियां हैं। प्लक्षद्वीप के वर्णों में  आर्यक, कुरुर, विदिश्य और भावी क्रमशः ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र हैं।शिशिरवर्ष ,सुखोदेववर्ष ,आनंद वर्ष ,शिववर्ष ,क्षेमकवर्ष ,और धुर्ववर्ष की स्थापना की थी । प्लक्ष द्वीप का मर्यादापर्वत में गोमेद, चंद्र, नारद, दुन्दुभि, सोमक, सुमना और वैभ्राज और  समुद्रगामिनी नदियों में  अनुतप्ता, शिखि, विपाशा, त्रिदिवा, अक्लमा, अमृता और सुकृता के अलावा सहस्रों छोटे छोटे पर्वत और नदियां हैं। प्लक्षद्वीप के वर्णों में  आर्यक, कुरुर, विदिश्य और भावी क्रमशः ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र हैं। प्लक्ष द्वीप के निवासियों द्वारा चंद्रमा की पूजा एवं उपासना की जाती है । प्लक्ष द्वीप का प्लक्ष , पाकड़ , पलास वृक्ष प्रसिद्ध है ।

शुक्रवार, नवंबर 26, 2021

हालावाद के जनक हरिवंश राय बच्चन...


        हरिवंश राय बच्चन हिन्दी भाषा के एक कवि और लेखक एवं  हिन्दी कविता के उत्तर छायावाद काल के प्रमुख कवियों में  हैं। उनकी सबसे प्रसिद्ध कृति मधुशाला है। हरिवंश राय बच्चन जी का जन्म 27 नवम्बर 1907 को इलाहाबाद में कायस्थ परिवार का प्रताप नारायण श्रीवास्तव की पत्नी सरस्वती देवी के पुत्र के रूप में  हुआ था।  हरिवंशराय को बाल्यकाल में 'बच्चन' कहा जाता था । हरिवंशराय बच्चन के पूर्वज उत्तरप्रदेश के आगरा के प्रतापगढ़ के थे । उन्होंने कायस्थ पाठशाला में पहले उर्दू और फिर हिन्दी की शिक्षा प्राप्त की। उन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से अंग्रेजी में एम॰ए॰ और कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय से अंग्रेजी साहित्य के विख्यात कवि डब्लू॰बी॰ यीट्स की कविताओं पर शोध कर पीएच.डी.पूरी की थी । १९२६ में १९ वर्ष की उम्र में उनका विवाह 14 वर्षीय श्यामा बच्चन से हुआ था । सन १९३६ में टीबी के कारण श्यामा की मृत्यु हो गई। पाँच साल बाद १९४१ में बच्चन ने रंगमंच एवं गायन से जुड़ी तेजी सूरी  teji व तेजी बच्चन से विवाह किया । बच्चन जी ने 'नीड़ का निर्माण फिर'  कविताओं की रचना की। उनके पुत्र अमिताभ बच्चन  प्रसिद्ध अभिनेता एवं अजिताभ बच्चन हैं। 2002 के सर्दियों के महीने से उनका स्वस्थ्य बिगड़ने लगा। 2003 के जनवरी से उनको सांस लेने में दिक्कत होने लगी।कठिनाइयां बढ़ने के कारण उनकी मृत्यु 18 जनवरी 2003 में सांस की बीमारी के वजह से मुंबई में हो गयी।
बच्चन जी की कविता संग्रह में तेरा हार (1929) , मधुशाला (1935),मधुबाला (1936),मधुकलश (1937),आत्म परिचय (1937) , निशा निमंत्रण (1938),एकांत संगीत (1939),आकुल अंतर (1943),सतरंगिनी (1945) हलाहल (1946),बंगाल का काल (1946),खादी के फूल (1948),सूत की माला (1948),मिलन यामिनी (1950), प्रणय पत्रिका (1955),धार के इधर-उधर (1957),आरती और अंगारे (1958),बुद्ध और नाचघर (1958),त्रिभंगिमा (1961),चार खेमे चौंसठ खूंटे (1962),दो चट्टानें (1965),बहुत दिन बीते (1967),कटती प्रतिमाओं की आवाज़ (1968), उभरते प्रतिमानों के रूप (1969),जाल समेटा (1973) ,नई से नई-पुरानी से पुरानी (1985) ,क्या भूलूँ क्या याद करूँ (1969),नीड़ का निर्माण फिर (1970),बसेरे से दूर (1977),दशद्वार से सोपान तक (1985) ,बच्चन के साथ क्षण भर (1934),खय्याम की मधुशाला (1938),सोपान (1953),मैकबेथ (1957),जनगीता (1958),ओथेलो (1959),उमर खय्याम की रुबाइयाँ (1959),कवियों में सौम्य संत: पंत (1960),आज के लोकप्रिय हिन्दी कवि: सुमित्रानंदन पंत (1960),आधुनिक कवि (1961),नेहरू: राजनैतिक जीवनचरित (1961),नये पुराने झरोखे (1962), अभिनव सोपान (1964) ,चौंसठ रूसी कविताएँ (1964) ,नागर गीता (1966),बच्चन के लोकप्रिय गीत (1967) ,डब्लू बी यीट्स एंड अकल्टिज़म (1968) , मरकत द्वीप का स्वर (1968) ,हैमलेट (1969) ,भाषा अपनी भाव पराये (1970) ,पंत के सौ पत्र (1970)प्रवास की डायरी (1971)किंग लियर (1972) टूटी छूटी कड़ियाँ (1973) है । हरिवंशराय बच्चन जी  इलाहाबाद विश्वविद्यालय में अंग्रेजी का अध्यापन , भारत सरकार विदेश मंत्रालय में हिंदी विशेषज्ञ राज्य सभा के सदस्य  रहे थे ।  भारत सरकार द्वारा बच्चन जी को  1976 में पद्म भूषण से सम्मानित किया गया था । हालावाद के जनक हरिवंश राय को  सम्मान व पुरस्कार में सोवियत लैण्ड नेहरू पुरस्कार,(1966 ई.) , साहित्य अकादमी पुरस्कार (दो चट्टाने),1968 ई. में ,पद्म भूषण (साहित्य एवं शिक्षा के क्षेत्र में),1976 ई. , प्रथम सरस्वती सम्मान (चार आत्म कथात्मक खण्डों के लिए),1991 ई. और एफ्रो एशियाई सम्मेलन के द्वारा,1968 ई. में कमल पुरस्कार से  सम्मानित किया गया है । च्छन्दतावाद-काल की रचनाओं का औदात्य और गौरव स्वच्छन्दतावादोत्तर काल के न तो किसी कवित में मिलेगा और न समस्त रचनाओं में इतिहास के विकास के क्रम में बच्चन ने कविता को जमीन पर उतारा एवं इहलौकिक जीवन से सम्बद्ध किया और उसकी सीमा का विस्तार  किया है । स्वच्छन्दतावा प्रेम की मस्ती में झूमने का संदेश देता है ।


                       

गुरुवार, नवंबर 25, 2021

नागरिक का कर्तव्य और अधिकार है संविधान...


        भारत गणराज्य का संविधान सभा के प्रारूप समिति के समक्ष संविधान सभा ने भारत के संविधान को 2 वर्ष 11 माह 18 दिन में 26 नवम्बर 1949 को पूरा कर राष्ट्र को समर्पित किया। गणतंत्र भारत में 26 जनवरी 1950 से संविधान अमल में लाया गया। संविधान सभा के अध्यक्ष राजेन्द्र प्रसाद को भारतीय संविधान सुपूर्द  26 नवंबर 1949 किया गया है । भारत सरकार द्वारा पहली बार 26 नवम्बर 2015 को "संविधान दिवस" मनाया गया । संविधान निर्माण समिति के वरिष्ठ सदस्य डॉ सर हरीसिंह गौर का जन्मदिवस के अवसर पर प्रत्येक वर्ष संविधान मनाया जाता है । आजाद भारत के इतिहास में 26 नवंबर का हर्ष के साथ संविधान दिवस कॉन्स्टिट्यूशन डे  संविधान दिवस के रूप में मनाया जाता है ।  संविधान सभा के अध्यक्ष राजेन्द्र प्रसाद को भारतीय संविधान सुपूर्द  26 नवंबर 1949 किया गया है  । संविधान देश के प्रत्येक  नागरिक को आजाद भारत में रहने का समान अधिकार देता है । संविधान दिवस को मनाने का  उद्देश्य वेस्टर्न कल्चर के दौर में देश के युवाओं के बीच में संविधान के मूल्यों को बढ़ावा देना है ।  संविधान के निर्माण में डॉ. भीमराव अम्बेडकरक महत्वपूर्ण योगदान है । भारत का संविधान प्रारूप समिति की प्रथम वैठक 29 अगस्त 1947 में 207 सदस्यों द्वारा की गई थी । भारतीय संविधान सभा के अध्यक्ष डॉ . राजेन्द्र प्रसाद एवं अस्थायी अध्यक्ष सच्चिदानंद सिन्हा के नेतृत्व में 299 सदस्यों द्वारा अंग्रेजी एवं हिंदी में  146385 शब्दों में 25 भागों , 448 अनुच्छेद और 12 अनुसूचियां युक्त भारत का संविधान को  संविधान सभा की अंतिम वैठक 24 नवंबर 1949 ई.  को कॉन्टिटूशनल हॉल दिल्ली में 284 सदयों के हस्ताक्षर कर सौपा गया था । संविधान प्रारूप में प्रथम हस्ताक्षर करने वाले प्रथम व्यक्ति वलवंत सिंह थे । भारत का संविधान 22 भाषाओं के अलावा 1992 ई. में कोंकणी ,मणिपुरी ,नेपाली भाषाओं में लिखा गया है । संविधान की मूल प्रति हिंदी और अंग्रेजी में प्रेम विहारी नारायण रायजाधा द्वारा लिखा गया था ।  संविधान बनाने में 6396729 रु . व्यय हुए थे । भारतीय संविधान प्रारूप समिति के 207  सदस्यों में 15 महिला सदस्यों की सहभागिता थी । नागरिक का कर्तव्य और अधिकार है भारतीय गणतंत्र का संविधान । व्रिटिश विधि शास्त्री सर आइवर जेनिग्स ने कहा कि भारत का संविधान वकीलों स्वर्ग है । प्रत्येक वर्ष 2015 ई. के पूर्व संविधान दिवस के अवसर पर कानून दिवस मनाया जाता था परंतु  था । भारत सरकार द्वारा 26 नवंबर  2015 से संविधान दिवस मनाने निर्णय के पश्चात प्रत्येक वर्ष 26 नवंबर को संविधान दिवस मनाया जाता है । 

   
                            

रविवार, नवंबर 21, 2021

भारत के प्रथम राष्ट्रपति सादगी का प्रतिमूर्ति राजेन्द्र प्रसाद...


भारत के प्रथम राष्ट्रपति एवं महान भारतीय स्वतंत्रता सेनानी राजेन्द्र प्रसाद  का जन्म बिहार का सिवान जिले के जीरादेई के कायस्थ परिवार संस्कृत एवं फारसी के विद्वान महादेव सहाय की पत्नी धर्मपरायण कमलेश्वरी के पुत्र 03 दिसंबर 1884 ई.एवं पटना में 28 फरवरी 19 28 ई. में निधन   हुआ था । राजेन्द्र प्रसाद ने भारतीय स्वाधीनता आंदोलन के प्रमुख नेताओं , भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष ,  भारतीय संविधान के निर्माण में  महत्वपूर्ण योगदान दिया था। राष्ट्रपति होने के अतिरिक्त उन्होंने भारत के पहले मंत्रिमंडल में 1946 एवं 1947 मेें कृषि और खाद्यमंत्री का दायित्व निभाया था।भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ राजेन्द्र प्रसाद 26 जनवरी 1950 से 14 मई1962 ई. तक राष्ट्रपति थे । राजेन्द्र प्रसाद के पूर्वज उत्तरप्रदेश के अमोढ़ा का  कुआँगाँव निवासी थे। हथुआ की रियासत जीरादेई   की दीवानी मिल गई। पच्चीस-तीस सालों तक वे उस रियासत के दीवान रहे। उन्होंने स्वयं भी कुछ जमीन खरीद ली थी। राजेन्द्र बाबू के पिता महादेव सहाय इस जमींदारी की देखभाल करते थे। राजेन्द्र बाबू के चाचा जगदेव सहाय भी घर पर ही रहकर जमींदारी का काम देखते थे। अपने पाँच भाई-बहनों में वे सबसे छोटे थे । राजेन्द्र बाबू को प्रभाती के साथ-साथ रामायण महाभारत की कहानियाँ और भजन कीर्तन आदि रोजाना सुनते थे । पाँच वर्ष की उम्र में  राजेन्द्र बाबू ने एक मौलवी साहब से फारसी में शिक्षा शुरू किया। उसके बाद वे अपनी प्रारंभिक शिक्षा के लिए छपरा के जिला स्कूल गए। राजेन्द्र बाबू का विवाह उस समय की परिपाटी के अनुसार  13 वर्ष की उम्र में, राजवंशी देवी से हो गया। विवाह के बाद भी उन्होंने पटना की टी० के० घोष अकादमी से अपनी पढाई जारी रखी। उनका वैवाहिक जीवन बहुत सुखी रहा और उससे उनके अध्ययन अथवा अन्य कार्यों में कोई रुकावट नहीं पड़ी।लेकिन वे जल्द ही जिला स्कूल छपरा चले गये और वहीं से 18 वर्ष की उम्र में कोलकाता विश्वविद्यालय की प्रवेश परीक्षा दी। उस प्रवेश परीक्षा में उन्हें प्रथम स्थान प्राप्त हुआ था। सन् 1902 में  कोलकाता के प्रसिद्ध प्रेसिडेंसी कॉलेज में दाखिला लिया। राजेन्द्र बाबू की प्रतिभा ने गोपाल कृष्ण गोखले तथा बिहार-विभूति अनुग्रह नारायण सिन्हा  का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया। 1915 में उन्होंने स्वर्ण पद के साथ विधि परास्नातक (एलएलएम) की परीक्षा पास की और बाद में लॉ के क्षेत्र में ही उन्होंने डॉक्ट्रेट की उपाधि भी हासिल की। राजेन्द्र बाबू कानून की अपनी पढाई का अभ्यास बिहार के  भागलपुर में किया करते थे। राजेन्द्र बाबू की पढ़ाई फारसी और उर्दू से शुरू हुई परंतु  बी० ए० में  हिंदी ली थी । वे अंग्रेजी, हिन्दी, उर्दू, फ़ारसी व बंगाली भाषा और साहित्य से पूरी तरह परिचित थे तथा इन भाषाओं में सरलता से प्रभावकारी व्याख्यान दे सकते थे। गुजराती का व्यावहारिक ज्ञान था। एम० एल० परीक्षा के लिए हिन्दू कानून का संस्कृत ग्रंथों से  अध्ययन किया था। हिन्दी के प्रति उनका अगाध प्रेम था। हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं में  भारत मित्र, भारतोदय, कमला आदि में उनके लेख छपते थे।1912 ई. में अखिल भारतीय साहित्य सम्मेलन का अधिवेशन कलकत्ते में हुआ तब स्वागतकारिणी समिति के वे प्रधान मन्त्री थे। 1920 ई. में अखिल भारतीय हिंदी साहित्य सम्मेलन का 10वाँ अधिवेशन पटना में हुआ तब  वे प्रधान मन्त्री थे। 1923 ई. में  सम्मेलन का अधिवेशन काकीनाडा में होने वाला था तब वे उसके अध्यक्ष मनोनीत हुए थे परन्तु रुग्णता के कारण वे उसमें उपस्थित नही शामिल हुए लेकिन  उनका भाषण जमनालाल बजाज ने पढ़ा था। 1926 ई० में वे बिहार  हिन्दी साहित्य सम्मेलन के और 1927 ई० में उत्तर प्रदेशीय हिन्दी साहित्य सम्मेलन के सभापति थे। हिन्दी में उनकी आत्मकथा बड़ी प्रसिद्ध पुस्तक है। अंग्रेजी में  उन्होंने कुछ पुस्तकें लिखीं। उन्होंने हिन्दी के 'देश' और अंग्रेजी के 'पटना लॉ वीकली' समाचार पत्र का सम्पादन किया था।
भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में उनका पदार्पण वक़ील के रूप में अपने कैरियर की शुरुआत था। चम्पारण में गान्धीजी ने तथ्य अन्वेषण समूह भेजे जाते समय उनसे अपने स्वयं सेवकों के साथ आने का अनुरोध किया था। राजेन्द्र बाबू महात्मा गाँधी की निष्ठा, समर्पण एवं साहस से बहुत प्रभावित हुए और 1928 में उन्होंने कोलकाता विश्वविद्यालय के सीनेटर का पदत्याग कर दिया। गाँधीजी ने विदेशी संस्थाओं के बहिष्कार की अपील की थी । उन्होंने अपने पुत्र मृत्युंजय प्रसाद,को  कोलकाता विश्वविद्यालय से हटाकर बिहार विद्यापीठ में दाखिल करवाया था। उन्होंने 'सर्चलाईट' और 'देश'  पत्रिकाओं में इस विषय पर अनेक लेख लिखे थे और इन अखबारों के लिए अक्सर वे धन जुटाने का काम भी करते थे। 1914 में बिहार और बंगाल मे आई बाढ़ में उन्होंने काफी बढ़चढ़ कर सेवा-कार्य किया था। बिहार के 1934 के भूकंप के समय राजेन्द्र बाबू कारावास में थे। जेल से दो वर्ष में छूटने के पश्चात वे भूकम्प पीड़ितों के लिए धन जुटाने में तन-मन से जुट गये और उन्होंने वायसराय के जुटाये धन से कहीं अधिक अपने व्यक्तिगत प्रयासों से जमा किया। सिंध और क्वेटा के भूकम्प के समय भी उन्होंने कई राहत-शिविरों का इंतजाम अपने हाथों मे लिया था।
1934 में वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के मुंबई अधिवेशन में अध्यक्ष चुने गये। नेताजी सुभाषचंद्र बोस के अध्यक्ष पद से त्यागपत्र देने पर कांग्रेस अध्यक्ष का पदभार उन्होंने एक बार पुन: 1939 में सँभाला था। भारत के स्वतन्त्र होने के बाद संविधान लागू होने पर राजेन्द्र प्रसाद ने देश के पहले राष्ट्रपति का पदभार सँभाला। राष्ट्रपति के तौर पर उन्होंने  अपने संवैधानिक अधिकारों में प्रधानमंत्री या कांTग्रेस को दखलअंदाजी का मौका नहीं दिया और हमेशा स्वतन्त्र रूप से कार्य करते रहे। हिन्दू अधिनियम पारित करते समय उन्होंने काफी कड़ा रुख अपनाया था। राष्ट्रपति के रूप में उन्होंने कई ऐसे दृष्टान्त छोड़े , उनके परवर्तियों के लिए उदाहरण बन गए है । भारतीय संविधान के लागू होने से एक दिन पहले 25 जनवरी 1950 को उनकी बहन भगवती देवी का निधन हो गया,। भारतीय गणराज्य के स्थापना की रस्म के बाद ही दाह संस्कार में भाग लेने गये। 12 वर्षों तक राष्ट्रपति के रूप में कार्य करने के पश्चात उन्होंने 1962 में अपने अवकाश की घोषणा की। अवकाश ले लेने के बाद भारत सरकार द्वारा सर्वोच्च नागरिक सम्मान भारत रत्न से नवाज़ा गया था । इलाहाबाद विश्वविद्यालय द्वारा राजेन्द्र प्रसाद को  डाक्टर ऑफ ला की सम्मानित उपाधि प्रदान करते समय कहा गया था - "बाबू राजेंद्रप्रसाद ने अपने जीवन में सरल व नि:स्वार्थ सेवा का ज्वलन्त उदाहरण प्रस्तुत किया है। जब वकील के व्यवसाय में चरम उत्कर्ष की उपलब्धि दूर नहीं रह गई थी, इन्हें राष्ट्रीय कार्य के लिए आह्वान मिला और उन्होंने व्यक्तिगत भावी उन्नति की सभी संभावनाओं को त्यागकर गाँवों में गरीबों तथा दीन कृषकों के बीच काम करना स्वीकार किया।"सरोजिनी नायडू ने उनके बारे में लिखा था - "उनकी असाधारण प्रतिभा, उनके स्वभाव का अनोखा माधुर्य, उनके चरित्र की विशालता और अति त्याग के गुण ने शायद उन्हें हमारे सभी नेताओं से अधिक व्यापक और व्यक्तिगत रूप से प्रिय बना दिया है। गाँधी जी के निकटतम शिष्यों में उनका वही स्थान है जो ईसा मसीह के निकट सेंट जॉन का था।" देश के प्रथम  राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद  महान शिक्षाविद्, कुशल प्रशासक और देश के पहले राष्ट्रपति थे ।। राजेन्द्र बाबू का जन्म बिहार के सिवान जिले के जीरादेई में 3 दिसम्बर, 1884 को हुआ था। डॉ राजेंद्र प्रसाद 26 जनवरी 1950 से 13 मई 1962 तक राष्ट्रपति पद पर रहे। आजादी में लड़ाई मे शामिल होने से पहले वह बिहार के शीर्ष वकीलों में से एक थे।  राजेंद्र प्रसाद को हिन्दी, अंग्रेजी, उर्दू, बंगाली  और फारसी भाषा का ज्ञान था। कलकत्ता यूनिवर्सिटी के एंट्रेंस एग्जाम में  पहला स्थान हासिल किया। इसके लिए उन्हें 30 रुपये प्रति माह की स्कॉलरशिप मिली थी। साल 1915 में राजेंद्र बाबू ने कानून में मास्टर की डिग्री विशिष्टता के साथ हासिल की और इसके लिए स्वर्ण पदक मिला था। कानून में  डाक्टरेट  किया। महज 13 वर्ष की उम्र में उनका विवाह राजवंशी देवी से हुआ।कानून की पढ़ाई करके वकील बने राजेंद्र प्रसाद भारतीय स्वाधीनता आंदोलन के दौरान भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में शामिल हुए और बिहार प्रदेश के एक बड़े नेता के रूप में उभर गए थे ।राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के विचारों से प्रेरित राजेंद्र प्रसाद ने आजादी की लड़ाई में सक्रिय भूमिका निभाई। ब्रिटिश प्रशासन ने 1931 के 'नमक सत्याग्रह' और 1942 के 'भारत छोड़ो आंदोलन' के दौरान  जेल में डाल दिया था। राजेंद्र प्रसाद पढ़ाई लिखाई में काफी अच्छे थे, उन्हें अच्छा स्टूडेंट माना जाता था। उनकी एग्जाम शीट को देखकर एक एग्जामिनर ने कहा था कि ‘दी स्टूडेंट एग्जामिनी इज  बेटर दैन एक्जामिनर  कहा था । राजेन्द्र प्रसाद संविधान सभा के अध्यक्ष और पंडित नेहरु के नेतृत्व में अंतरिम सरकार बनने के बाद  खाद्य एवं कृषि मंत्रालय की जिम्मेदारी  थी। 17 नवंबर 1947 को जेबी कृपलानी के इस्तीफे के बाद  तीसरी बार कांग्रेस के अध्यक्ष बने।  आजादी के बाद 26 जनवरी 1950 को भारत को गणतंत्र राष्ट्र का दर्जा मिलने के साथ राजेंद्र प्रसाद देश के प्रथम राष्ट्रपति बने। साल 1957 में वह दोबारा राष्ट्रपति चुने गए।1962 में राजेन्द्र बाबू को देश के सर्वोच्च नागरिक सम्मान भारत रत्न से सम्मानित किया गया. 1962 में उन्होंने राजनीति से संन्यास ले लिने  के बाद ही उनकी पत्नी राजवंशी देवी का निधन हो गया। राजेंद्र प्रसाद ने अपने जीवन के आखिरी समय में पटना के पास सदाकत आश्रम में 28 फरवरी 1963 को उनका निधन हो गया है । राजेन्द्र बाबू बिहार के गांधी और हिंदी के विकास में अभूतपूर्व कार्य याद किया जाता है ।


                     

शनिवार, नवंबर 20, 2021

महामना मदनमोहन मालवीय...


    भारतीय संस्कृति के उन्नायक भारत रत्न महामना मदनमोहन मालवीय का जन्म प्रयागराज के निवासी पंडित ब्रजनाथ मालवीय की पत्नी  मुना देवी के गर्भ से 25 दिसम्बर 1861 ई. को हुआ एवं 85 वर्षीय मालवीय जी का निधन   12 नवंबर 1946 ई. में हुआ था ।  मदनमोहन मालवीय जी भारत के पहले और अन्तिम व्यक्ति , काशी विश्वविद्यालय के प्रणेता , महामना की सम्मानजनक उपाधि से विभूषित ,  पत्रकारिता, वकालत, समाज सुधार, मातृ भाषा तथा भारतमाता की सेवा में अपना जीवन अर्पण करने वाले महामानव और युग का आदर्श पुरुष थे ।  मालवीयजी सत्य, ब्रह्मचर्य, व्यायाम, देशभक्ति तथा आत्मत्याग में अद्वितीय और मृदुभाषी थे। भारतीय संसद भवन में भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद द्वारा मालवीय जी का तैलचित्र का विमोचन 19 दिसंबर 1957 ई. को किया गया था ।भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष के पद पर 1909–10; 1918–19; 1930-1931; 1932-1933 एवं बनारस, ब्रिटिश भारत राष्ट्रीयता भारतीय राजनैतिक पार्टी हिन्दू महासभा , भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ,विद्या अर्जन , प्रयाग विश्वविद्यालय कलकत्ता विश्वविद्यालय , धर्म हिन्दू अनेक संस्थाओं के जनक एवं सफल संचालक के रूप में उनकी अपनी विधि व्यवस्था का सुचारु सम्पादन की थी । भारत सरकार ने २४ दिसम्बर २०१४ को उन्हें भारत रत्न से अलंकृत किया।[ मालवीयजी अपने माता-पिता से उत्पन्न कुल सात भाई बहनों में पाँचवें पुत्र थे। मालवीय जी का परिवार भारत के मालवा प्रान्त से प्रयाग आए थे । संस्कृत साहित्य के विद्वान एवं श्रीमद भागवत के वाचक  पिता पंडित ब्रजनाथ द्वारा मदनमोहन मालवीय को  पंडित की उपाधि दिया गया था । पाँच वर्ष की आयु में उन्हें उनके माँ-बाप ने संस्कृत भाषा में प्रारम्भिक शिक्षा लेने हेतु पण्डित हरदेव धर्म ज्ञानोपदेश पाठशाला में भर्ती होने के बाद प्राइमरी परीक्षा उत्तीर्ण के पश्चात विद्यालय में भेज दिये गये थे । प्रयाग की विद्यावर्धिनी सभा  से शिक्षा पूर्ण कर  इलाहाबाद के जिला स्कूल पढने के दौरान  मकरन्द के उपनाम से कवितायें लिखनी प्रारम्भ की। उनकी कवितायें पत्र-पत्रिकाओं में खूब छपती थीं। 1879 में म्योर सेण्ट्रल कॉलेज  इलाहाबाद विश्वविद्यालय  से  मैट्रीकुलेशन  उत्तीर्ण करने के बाद  हैरिसन स्कूल के प्रिंसपल ने उन्हें छात्रवृत्ति देकर कलकत्ता विश्वविद्यालय  से  1884 ई० में बी०ए० की उपाधि प्राप्त की थी । हृदय की महानता के कारण  भारतवर्ष में 'महामना' से पूज्य मालवीयजी को संसार में सत्य, दया और न्याय पर आधारित सनातन धर्म सर्वाधिक प्रिय था। करुणामय हृदय, भूतानुकम्पा, मनुष्यमात्र में अद्वेष, शरीर, मन और वाणी के संयम, धर्म और देश के लिये सर्वस्व त्याग, उत्साह और धैर्य, नैराश्यपूर्ण परिस्थितियों में भी आत्मविश्वासपूर्वक दूसरों को असम्भव प्रतीत होने वाले कर्मों का संपादन, वेशभूषा और आचार विचार में मालवीयजी भारतीय संस्कृति के प्रतीक तथा ऋषियों के प्राणवान स्मारक थे।  मालवीयजी का बचपन में अपने  पितामह प्रेमधर श्रीवास्तव ने 108 दिन निरन्तर 108 बार श्रीमद्भागवत का पारायण किया था, से राधा-कृष्ण की अनन्य भक्ति, पिता ब्रजनाथजी की भागवत-कथा से धर्म-प्रचार एवं माता मूनादेवी से दुखियों की सेवा करने का स्वभाव प्राप्त हुआ था। धनहीन किन्तु निर्लोभी परिवार में पलते हुए भी देश की दरिद्रता तथा अर्थार्थी छात्रों के कष्ट निवारण के स्वभाव से उनका जीवन ओतप्रोत था। मालवीय जी ने प्रयाग की धर्म ज्ञानोपदेश तथा विद्याधर्म प्रवर्द्धिनी पाठशालाओं में संस्कृत का अध्ययन समाप्त करने के पश्चात् म्योर सेंट्रल कालेज से 1884 ई० में कलकत्ता विश्वविद्यालय की बी० ए० की उपाधि ली। इस बीच अखाड़े में व्यायाम और सितार पर शास्त्रीय संगीत की शिक्षा वे बराबर देते रहे। उनका व्यायाम करने का नियम इतना अद्भुत था कि साठ वर्ष की अवस्था तक वे नियमित व्यायाम करते ही रहे। सात वर्ष के मदनमोहन को धर्मज्ञानोपदेश पाठशाला के देवकीनन्दन मालवीय माघ मेले में ले जाकर मूढ़े पर खड़ा करके व्याख्यान दिलवाते थे। कांग्रेस के द्वितीय अधिवेशन में अंग्रेजी के प्रथम भाषण से प्रतिनिधियों को मन्त्रमुग्ध कर देने वाले मृदुभाषी मालवीयजी भारत देश के सर्वश्रेष्ठ हिन्दी, संस्कृत और अंग्रेजी के व्याख्यान वाचस्पतियों में प्रसिद्ध हुए थे । हिन्दू धर्मोपदेश, मन्त्रदीक्षा और सनातन धर्म प्रदीप ग्रथों में परतन्त्र भारत देश की विभिन्न समस्याओं पर बड़ी कौंसिल से लेकर असंख्य सभा सम्मेलनों में दिये गये हजारों व्याख्यानों के रूप में भावी पीढ़ियों के उपयोगार्थ प्रेरणा और ज्ञान के अमित भण्डार हैं। उनके बड़ी कौंसिल में रौलट बिल के विरोध में निरन्तर साढ़े चार घण्टे और अपराध निर्मोचन इंडेमनिटी  बिल पर पाँच घण्टे के भाषण निर्भयता और गम्भीरतापूर्ण दीर्घवक्तृता के लिये स्मरणीय हैं। म्योर कालेज के मानसगुरु महामहोपाध्याय पं० आदित्यराम भट्टाचार्य के साथ 1880 ई० में स्थापित हिन्दू समाज में मालवीयजी भाग लेने के दसूरण प्रयाग में वाइसराय लार्ड रिपन का आगमन हुआ। रिपन  स्थानीय स्वायत्त शासन स्थापित करने के कारण भारतवासियों में जितने लोकप्रिय थे।  प्रिसिपल हैरिसन के कहने पर मालवीय जी का स्वागत संगठित करके मालवीयजी ने प्रयाग वासियों के हृदय में अपना विशिष्ट स्थान बना लिया। कालाकाँकर के देशभक्त राजा रामपाल सिंह के अनुरोध पर मालवीयजी ने हिन्दी अंग्रेजी समाचार पत्र हिन्दुस्तान का 1887 से सम्पादन करके दो ढाई साल तक जनता को जगाया। उन्होंने कांग्रेस के ही एक अन्य नेता पं0 अयोध्यानाथ का उनके इण्डियन ओपीनियन के सम्पादन में  हाथ बँटाया और 1907 ई0 में साप्ताहिक अभ्युदय को निकालकर  सम्पादित किया।  सरकार समर्थक समाचार पत्र पायोनियर के समकक्ष 1909 में दैनिक 'लीडर' अखबार निकालकर लोकमत निर्माण का महान कार्य सम्पन्न किया तथा दूसरे वर्ष मर्यादा पत्रिका भी प्रकाशित की। 1924 ई0 में दिल्ली आकर हिन्दुस्तान टाइम्स को सुव्यवस्थित किया तथा सनातन धर्म को गति प्रदान करने हेतु लाहौर से विश्वबन्द्य पत्र को प्रकाशित करवाया था ।
हिन्दी के उत्थान में मालवीय जी की भूमिका ऐतिहासिक है। भारतेंदु हरिश्चंद्र के नेतृत्व में हिन्दी गद्य के निर्माण में संलग्न मनीषियों में 'मकरंद' तथा 'झक्कड़सिंह' के उपनाम से विद्यार्थी जीवन में रसात्मक काव्य रचना के लिये ख्यातिलब्ध मालवीयजी ने देवनागरी लिपि और हिन्दी भाषा को पश्चिमोत्तर प्रदेश व अवध के गवर्नर सर एंटोनी मैकडोनेल के सम्मुख 1898 ई0 में विविध प्रमाण प्रस्तुत करके कचहरियों में प्रवेश दिलाया। 1910 ई. में हिन्दी साहित्य सम्मेलन के प्रथम अधिवेशन काशी के अध्यक्षीय अभिभाषण में हिन्दी के स्वरूप निरूपण में मालवीय जी कहा कि "उसे फारसी-अरबी के बड़े बड़े शब्दों से लादना जैसे बुरा है, वैसे ही अकारण संस्कृत शब्दों से गूँथना भी अच्छा नहीं और भविष्यवाणी की कि एक दिन यही भाषा राष्ट्रभाषा होगी।" सम्मेलन के एक अन्य वार्षिक अधिवेशन (बम्बई-1919) के सभापति पद से उन्होंने हिन्दी उर्दू के प्रश्न को, धर्म का नहीं अपितु राष्ट्रीयता का प्रश्न बतलाते हुए उद्घोष किया कि साहित्य और देश की उन्नति अपने देश की भाषा द्वारा ही हो सकती है। समस्त देश की प्रान्तीय भाषाओं के विकास के साथ-साथ हिन्दी को अपनाने के आग्रह के साथ यह भविष्यवाणी भी की कि कोई दिन ऐसा भी आयेगा कि जिस भाँति अंग्रेजी विश्वभाषा हो रही है उसी भाँति हिन्दी का भी सर्वत्र प्रचार होगा। इस प्रकार उन्होंने हिन्दी को अन्तर्राष्ट्रीय रूप का लक्ष्य दिया था । कांग्रेस के निर्माताओं में मालवीयजी ने द्वितीय अधिवेशन कलकत्ता-1886 से लेकर अन्तिम साँस तक स्वराज्य के लिये कठोर तप किया। एनी बेसेंट ने  कहा था कि "मैं दावे के साथ कह सकती हूँ कि विभिन्न मतों के बीच, केवल मालवीयजी भारतीय एकता की मूर्ति बने खड़े हुए हैं।" असहयोग आन्दोलन के आरम्भ तक नरम दल के नेताओं के कांग्रेस को छोड़ देने पर मालवीयजी उसमें डटे रहे और कांग्रेस ने उन्हें चार बार सभापति निर्वाचित करके सम्मानित किया- लाहौर (1909 में), दिल्ली 1918 और 1931  तथा कलकत्ता 1933 हुए है ।  अन्तिम दोनों बार  सत्याग्रह के कारण पहले ही गिरफ्तार कर लिये गये। स्वतन्त्रता के लिये उनकी तड़प और प्रयासों के परिचायक फैजपुर कांग्रेस (1936) में राष्ट्रीय सरकार और चुनाव प्रस्ताव के समर्थन में मालवीयजी के ये शब्द स्मरणीय हैं कि मैं पचास वर्ष से कांग्रेस के साथ हूँ। सम्भव है मैं बहुत दिन न जियूँ और अपने जी में यह कसक लेकर मरूँ कि भारत अब  पराधीन है। किंतु फिर भी मैं यह आशा करता हूँ कि मैं इस भारत को स्वतन्त्र देख सकूँगा। 1921 ई0 में कांग्रेस के नेताओं ने जेल भर जाने पर किंकर्तव्यविमूढ़ वाइसराय लॉर्ड रीडिंग को प्रान्तों में स्वशासन देकर गान्धीजी से सन्धि कर लेने को मालवीयजी ने भी सहमत कर लिया था परन्तु 4 फ़रवरी 1922 के चौरीचौरा काण्ड ने इतिहास को पलट दिया। गान्धीजी ने बारदौली की कार्यकारिणी में बिना किसी से परामर्श किये सत्याग्रह को अचानक रोक दिया। इससे कांग्रेस जनों में असन्तोष फैल गया और यह खुसुरपुसुर होने लगी कि बड़ा भाई के कहने में आकर गान्धीजी ने यह भयंकर भूल की है। गान्धीजी स्वयं भी पाँच साल के लिये जेल भेज दिये गये। इसके परिणामस्वरूप चिलचिलाती धूप में इकसठ वर्ष के बूढ़े मालवीय ने पेशावर से डिब्रूगढ़ तक तूफानी दौरा करके राष्ट्रीय चेतना को जीवित रखा। इस भ्रमण में उन्होंने धारा 144 का उल्लंघन भी किया जिसे सरकार खून का घूँट समझकर पी गयी। परन्तु 1930 के सविनय अवज्ञा आन्दोलन में उसी ब्रिटिश सरकार ने उन्हें बम्बई में गिरफ्तार कर लिया जिस पर श्रीयुत् भगवान दास भारतरत्न

ने कहा था कि मालवीयजी का पकड़ा जाना राष्ट्रीय यज्ञ की पूर्णाहुति समझी जानी चाहिये। उसी साल दिल्ली में अवैध घोषित कार्यसमिति की बैठक में मालवीयजी को पुन: बन्दी बनाकर नैनी जेल भेज दिया गया। यह उनकी जीवनचर्या तथा वृद्धावस्था के कारण यथार्थ में एक प्रकार की तपस्या थी। परन्तु सैद्धान्तिक मतभेद के कारण हिन्दू विश्वविद्यालय में प्रिंस ऑव वेल्स का स्वागत और कांग्रेस स्वराज पार्टी के समकक्ष कांग्रेस स्वतंत्र दल व रैमजे मैकडॉनल्ड के साम्प्रदायिक निर्णय पर, जिसकी स्वीकृति को मालवीयजी ने राष्ट्रीय आत्महत्या माना था । सनातन धर्म व हिन्दूसंस्कृति की रक्षा और संवर्धन में मालवीयजी का योगदान अनन्य है। जनबल तथा मनोबल में नित्यश: क्षयशील हिन्दू जाति को विनाश से बचाने के लिये उन्होंने हिन्दू संगठन का शक्तिशाली आन्दोलन चलाया और स्वयं अनुदार सहधर्मियों के तीव्र प्रतिवाद झेलते हुए भी कलकत्ता, काशी, प्रयाग और नासिक में भंगियों को धर्मोपदेश और मन्त्रदीक्षा दी।  राष्ट्रनेता मालवीयजी ने,  स्वयं पं0 जवाहरलाल नेहरू ने लिखा है, अपने नेतृत्वकाल में हिन्दू महासभा को राजनीतिक प्रतिक्रियावादिता से मुक्त रखा और अनेक बार धर्मों के सहअस्तित्व में अपनी आस्था को अभिव्यक्त किया है । प्रयाग के भारती भवन पुस्तकालय, मैकडोनेल यूनिवर्सिटी हिन्दू छात्रालय और मिण्टो पार्क के जन्मदाता, बाढ़, भूकम्प, सांप्रदायिक दंगों व मार्शल ला से त्रस्त दुःखियों के आँसू पोंछने वाले मालवीयजी को ऋषिकुल हरिद्वार, गोरक्षा और आयुर्वेद सम्मेलन तथा सेवा समिति, ब्वॉय स्काउट तथा अन्य कई संस्थाओं को स्थापित अथवा प्रोत्साहित करने का श्रेय प्राप्त हुआ, किन्तु उनका अक्षय-र्कीति-स्तम्भ तो काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में उनकी विशाल बुद्धि, संकल्प, देशप्रेम, क्रियाशक्ति तथा तप और त्याग साक्षात् मूर्तिमान हैं। विश्वविद्यालय के उद्देश्यों में हिन्दू समाज और संसार के हित के लिये भारत की प्राचीन सभ्यता और महत्ता की रक्षा, संस्कृत विद्या के विकास एवं पाश्चात्य विज्ञान के साथ भारत की विविध विद्याओं और कलाओं की शिक्षा को प्राथमिकता दी गयी है । मैदान मोहन मालवीय भारतीय संस्कृति के उन्नायक और राष्ट्रीय सांस्कृतिक विरासत के प्रणेता थे ।

                             

गुरुवार, नवंबर 18, 2021

लौह महिला इंदिरा गांधी....


 भारतीय राष्ट्रवादी नेता पंडित  मोतीलाल नेहरू की पौत्री  भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू की पत्नी कमला नेहरू की पुत्री आयरन लेडी भारत का महिला प्रधानमंत्री इंदिरा प्रियदर्शनी गांधी का जन्म  19 नवंबर 1917 निधन 31 अक्टूबर 1984  है ।1942 में इंदिरा गांधी का विवाह फिरोज गांधी से हुआ था । 1966 से 1977 एवं  1980 से लेकर 1984 में उनकी राजनैतिक हत्या तक भारत की प्रधानमंत्री रहीं। इंदिरा जी ने 1934–35 में स्कूली शिक्षा पूरी करने के पश्चात शान्तिनिकेतन में रवीन्द्रनाथ टैगोर द्वारा निर्मित विश्व-भारती विश्वविद्यालय में प्रवेश लिया। रवीन्द्रनाथ टैगोर ने प्रियदर्शिनी" नामकरण किया  था। इसके पश्चात यह इंग्लैंड चली गईं और ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय की प्रवेश परीक्षा में बैठीं, परन्तु यह उसमे विफल रहीं और ब्रिस्टल के बैडमिंटन स्कूल मे  बिताने के पश्चात, 1937 में परीक्षा में सफल होने के बाद इन्होने सोमरविल कॉलेज, ऑक्सफोर्ड में दाखिला लिया। इस समय के दौरान इनकी अक्सर फिरोज़ गाँधी से मुलाकात होती थी, जिन्हे यह इलाहाबाद से जानती थीं और जो लंदन स्कूल ऑफ इकॉनॉमिक्स में अध्ययन कर रहे थे। अंततः 16 मार्च 1942 को आनंद भवन, इलाहाबाद मे धर्म ब्रह्म-वैदिक समारोह में इनका विवाह फिरोज़ से हुआ। ऑक्सफोर्ड से वर्ष 1941 में भारत वापस आने के बाद भारतीय स्वतन्त्रता आन्दोलन में शामिल हो गयीं। 1950 के दशक में वे पिता के भारत के प्रथम प्रधानमंत्री के रूप में कार्यकाल के दौरान गैरसरकारी तौर पर एक निजी सहायक के रूप में उनके सेवा में रहीं। अपने पिता की मृत्यु के बाद सन् 1964 में उनकी नियुक्ति एक राज्यसभा सदस्य के रूप में हुई। इसके बाद वे लालबहादुर शास्त्री के मंत्रिमंडल में सूचना और प्रसारण मत्री बनीं। लालबहादुर शास्त्री के आकस्मिक निधन के बाद तत्कालीन काँग्रेस पार्टी अध्यक्ष के. कामराज इंदिरा गांधी को प्रधानमंत्री बनाने में निर्णायक रहे। गाँधी ने शीघ्र ही चुनाव जीतने के साथ-साथ जनप्रियता के माध्यम से विरोधियों के ऊपर हावी होने की योग्यता दर्शायी। वह अधिक बामवर्गी आर्थिक नीतियाँ लायीं और कृषि उत्पादकता को बढ़ावा दिया। 1971 के भारत-पाक युद्ध में एक निर्णायक जीत के बाद की अवधि में अस्थिरता की स्थिती में उन्होंने सन् 1975 में आपातकाल लागू किया। उन्होंने एवं काँग्रेस पार्टी ने 1977 के आम चुनाव में पहली बार हार का सामना किया। सन् 1980 में सत्ता में लौटने के बाद वह अधिकतर पंजाब के अलगाववादियों के साथ बढ़ते हुए द्वंद्व में उलझी रहीं जिसमे आगे चलकर सन् 1984 में अपने ही अंगरक्षकों द्वारा उनकी राजनैतिक हत्या हुई थी ।
 इन्दिरा ने युवा लड़के-लड़कियों के लिए वानर सेना बनाई, जिसने विरोध प्रदर्शन और झंडा जुलूस के साथ साथ कांगेस के नेताओं की मदद में संवेदनशील प्रकाशनों तथा प्रतिबंधित सामग्रीओं का परिसंचरण कर भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में छोटी लेकिन उल्लेखनीय भूमिका निभाई थी। प्रायः दोहराए जानेवाली कहानी है कि उन्होंने पुलिस की नजरदारी में रहे अपने पिता के घर से बचाकर एक महत्वपूर्ण दस्तावेज, जिसमे 1930 दशक के शुरुआत की एक प्रमुख क्रांतिकारी पहल की योजना थी, को अपने स्कूलबैग के माध्यम से बहार उड़ा लिया था।सन् 1936 में उनकी माँ कमला नेहरू तपेदिक से एक लंबे संघर्ष के बाद अंततः स्वर्गवासी हो गईं। इंदिरा तब 18 वर्ष की थीं और इस प्रकार अपने बचपन में उन्हें कभी भी एक स्थिर पारिवारिक जीवन का अनुभव नहीं मिल पाया था। उन्होंने प्रमुख भारतीय, यूरोपीय तथा ब्रिटिश स्कूलों में अध्यन किया, जैसेशान्तिनिकेतन, बैडमिंटन स्कूल औरऑक्सफोर्ड। 1930 दशक के अन्तिम चरण में ऑक्सफ़र्ड विश्वविद्यालय, इंग्लैंड के सोमरविल्ले कॉलेज में अपनी पढ़ाई के दौरान वे लन्दन में आधारित स्वतंत्रता के प्रति कट्टर समर्थक भारतीय लीग की सदस्य बनीं। महाद्वीप यूरोप और ब्रिटेन में रहते समय उनकी मुलाक़ात पारसी कांग्रेस कार्यकर्ता, फिरोज़ गाँधी से हुई और १६ मार्च १९४२ को आनंद भवन इलाहाबाद में एक निजी आदि धर्मं ब्रह्म-वैदिक समारोह में उनसे विवाह किया ठीक भारत छोडो आन्दोलन की शुरुआत से पहले जब महात्मा गांधी और कांग्रेस पार्टी द्वारा चरम एवं पुरजोर राष्ट्रीय विद्रोह शुरू की गई। सितम्बर 1942 में वे ब्रिटिश अधिकारियों द्वारा गिरफ्तार की गयीं और बिना कोई आरोप के हिरासत में डाल दिये गये थे। अंततः 243 दिनों से अधिक जेल में बिताने के बाद उन्हें १३ मई 1943 को रिहा किया गया।[7] 1944 में उन्होंने फिरोज गांधी के साथ राजीव गांधीऔर संजय गाँधी को जन्म दिया।सन् 1947 के भारत विभाजन अराजकता के दौरान उन्होंने शरणार्थी शिविरों को संगठित करने तथा पाकिस्तान से आये लाखों शरणार्थियों के लिए चिकित्सा सम्बन्धी देखभाल प्रदान करने में मदद की। उनके लिए प्रमुख सार्वजनिक सेवा का यह पहला मौका था।गांधीगण बाद में इलाहाबाद में बस गये, जहाँ फिरोज ने एक कांग्रेस पार्टी समाचारपत्र और एक बीमा कंपनी के साथ काम किया। उनका वैवाहिक जीवन प्रारम्भ में ठीक रहा, लेकिन बाद में जब इंदिरा अपने पिता के पास नई दिल्ली चली गयीं, उनके प्रधानमंत्रित्व काल में जो अकेले तीन मूर्ति भवन में एक उच्च मानसिक दबाव के माहौल में  रहे थे, वे उनकी विश्वस्त, सचिव और नर्स बनीं। उनके बेटे उसके साथ रहते थे, लेकिन वो अंततः फिरोज से स्थायी रूप से अलग हो गयीं, यद्यपि विवाहित का तगमा जुटा रहा।जब भारत का पहला आम चुनाव 1951 में समीपवर्ती हुआ, इंदिरा अपने पिता एवं अपने पपति फिरोज गांधी रायबरेली निर्वाचन क्षेत्र से चुनाव लड़ रहे थे, दोनों के प्रचार प्रबंध में लगी रही। फिरोज अपने प्रतिद्वंदिता चयन के बारे में नेहरू से सलाह मशविरा नहीं किया था और यद्दपि वह निर्वाचित हुए, दिल्ली में अपना अलग निवास का विकल्प चुना। फिरोज ने बहुत ही जल्द एक राष्ट्रीयकृत बीमा उद्योग में घटे प्रमुख घोटाले को उजागर कर अपने राजनैतिक भ्रष्टाचार के विरुद्ध लड़ाकू होने की छबि को विकसित किया, जिसके परिणामस्वरूप नेहरू के सहयोगी, वित्त मंत्री, को इस्तीफा देना पड़ा।
तनाव की चरम सीमा की स्थिति में इंदिरा फिरोज गांधी  से अलग हुईं। सन् 1958 में उप-निर्वाचन के थोड़े समय के बाद फिरोज़ को दिल का दौरा पड़ा, जो नाटकीय ढ़ंग से उनके टूटे हुए वैवाहिक वन्धन को चंगा किया। कश्मीर में उन्हें स्वास्थोद्धार में साथ देते हुए उनकी परिवार निकटवर्ती हुई। परन्तु 8 सितम्बर,1960 को जब इंदिरा अपने पिता के साथ एक विदेश दौरे पर गयीं थीं, फिरोज़ की मृत्यु हुई।
1959 और 1960 के दौरान इंदिरा चुनाव लड़ने के बाद भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की अध्यक्ष चुनी गयीं। उनका कार्यकाल घटनाविहीन था। पंडित जवाहरलाल नेहरू नेहरू का देहांत 27 मई, 1964 को हुआ और इंदिरा प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री के प्रेरणा पर चुनाव लड़ीं और तत्काल सूचना और प्रसारण मंत्री के लिए नियुक्त हुईं। हिन्दी के राष्ट्रभाषा बनने के मुद्दे पर दक्षिण के गैर हिन्दीभाषी राज्यों में दंगा छिड़ने पर वह चेन्नई गईं। वहाँ उन्होंने सरकारी अधिकारियों के साथ विचारविमर्श किया, समुदाय के नेताओं के गुस्से को प्रशमित किया और प्रभावित क्षेत्रों के पुनर्निर्माण प्रयासों की देखरेख की। मंत्री इंदिरा गांधी  गांधी के पदक्षेप सम्भवत सीधे शास्त्री के राजनैतिक ऊंचाई पाने के उद्देश्य से नहीं थे। कथित रूप से उनका मंत्रालय के दैनिक कामकाज में उत्साह का अभाव था लेकिन वो संवादमाध्यमोन्मुख तथा राजनीति और छबि तैयार करने के कला में दक्ष थीं।"1965 के बाद उत्तराधिकार के लिए श्रीमती गांधी और उनके प्रतिद्वंद्वियों, केंद्रीय कांग्रेस नेतृत्व के बीच संघर्ष के दौरान, बहुत से राज्य, प्रदेश कांग्रेस[पार्टी] संगठनों से उच्च जाति के नेताओं को पदच्युत कर पिछड़ी जाति के व्यक्तियों को प्रतिस्थापित करतेहुए उन जातिओं के वोट इकठ्ठा करने में जुटगये ताकि राज्य कांग्रेस [पार्टी]में अपने विपक्ष तथा विरोधिओं को मात दिया जा सके ।  1965 के भारत-पाकिस्तान युद्ध चल रहा था, इंदिरा श्रीनगर सीमा क्षेत्र में उपस्थित थी। हालांकि सेना ने चेतावनी  कि पाकिस्तानी अनुप्रवेशकारी शहर के बहुत ही करीब तीब्र गति से पहुँच चुके हैं, उन्होंने अपने को जम्मू या दिल्ली में पुनःस्थापन का प्रस्ताव नामंजूर कर दिया और उल्टे स्थानीय सरकार का चक्कर लगाती रहीं और संवाद माध्यमों के ध्यानाकर्षण को स्वागत किया। ताशकंद में सोवियत मध्यस्थता में पाकिस्तान के अयूब खान के साथ शांति समझौते पर हस्ताक्षर करने के कुछ घंटे बाद ही लालबहादुर शास्त्री का निधन हो गया। तब कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष के. कामराज ने शास्त्री के आकस्मिक निधन के बाद इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्री बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी ।
सन् 1966 में जब श्रीमती गांधी प्रधानमंत्री बनीं, कांग्रेस दो गुटों में विभाजित हो चुकी थी, श्रीमती गांधी के नेतृत्व में समाजवादी और मोरारजी देसाई के नेतृत्व में रूढीवादी। मोरारजी देसाई ने इंदिरा गांधी को  "गूंगी गुड़िया" कहा करते थे। 1967 के चुनाव में आंतरिक समस्याएँ उभरी जहां कांग्रेस लगभग 60 सीटें खोकर 545 सीटोंवाली लोक सभा में 297 आसन प्राप्त किए। उन्हें देसाई को भारत के भारत के उप प्रधानमंत्री और वित्त मंत्री के रूप में लेना पड़ा। 1969 में देसाई के साथ अनेक मुददों पर असहमति के बाद भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस विभाजित हो गयी। वे समाजवादियों एवं साम्यवादी दलों से समर्थन पाकर अगले दो वर्षों तक शासन चलाई। उसी वर्ष जुलाई 1969 को  इंदिरा गांधी ने बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया। 1971 में बांग्लादेशी शरणार्थी समस्या हल करने के लिए उन्होंने पूर्वी पाकिस्तान की ओर से अपनी स्वतंत्रता के लिए लड़ रहे थे, पाकिस्तान पर युद्ध घोषित कर दिया। 1971 के युद्ध के दौरान राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन के अधीन अमेरिका अपने सातवें बेड़े को भारत को पूर्वी पाकिस्तान से दूर रहने के लिए यह वजह दिखाते हुए कि पश्चिमी पाकिस्तान के खिलाफ एक व्यापक हमला विशेष रूप सेकश्मीर के सीमाक्षेत्र के मुद्दे को लेकर हो सकती है, चेतावनी के रूप में बंगाल की खाड़ीमें भेजा। यह कदम प्रथम विश्व से भारत को विमुख कर दिया था और प्रधानमंत्री गांधी ने अब तेजी के साथ एक पूर्व सतर्कतापूर्ण राष्ट्रीय सुरक्षा और विदेश नीति को नई दिशा दी। भारत और सोवियत संघ पहले ही मित्रता और आपसी सहयोग संधि पर हस्ताक्षर किए थे, जिसके परिणामस्वरूप 1971 के युद्ध में भारत की जीत में राजनैतिक और सैन्य समर्थन का पर्याप्त योगदान रहा था । जनवादी चीन गणराज्य से परमाणु खतरे तथा दो प्रमुख महाशक्तियों की दखलंदाजी में रूचि भारत की स्थिरता और सुरक्षा के लिए अनुकूल नहीं महसूस किए जाने के मद्दे नजर, गांधी का अब एक राष्ट्रीय परमाणु कार्यक्रम था। उन्होंने नये पाकिस्तानी राष्ट्रपति ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो को एक सप्ताह तक चलनेवाली शिमला शिखर वार्ता में आमंत्रित किया था। वार्ता के विफलता के करीब पहुँच दोनों राज्य प्रमुख ने अंततः शिमला समझौते पर हस्ताक्षर किए, जिसके तहत कश्मीर विवाद को वार्ता और शांतिपूर्ण ढंग से मिटाने के लिए दोनों देश अनुबंधित हुए।
स्माइलिंग बुद्धा के अनौपचारिक छाया नाम से 1974 में भारत ने सफलतापूर्वक एक भूमिगत परमाणु परीक्षण राजस्थान के रेगिस्तान में बसे गाँव पोखरण के करीब किया। शांतिपूर्ण उद्देश्यों के लिए परीक्षण का वर्णन करते हुए भारत दुनिया की सबसे नवीनतम परमाणु शक्तिधर बन गया।1971 में रिचर्ड निक्सन और इंदिरा गाँधी। उनके बीच गहरा ब्याक्तिगत विद्वेष था जिसका रंग द्विपक्षीय संबंधों में झलका। 1960 के दशक में विशेषीकृत अभिनव कृषि कार्यक्रम और सरकार प्रदत्त अतिरिक्त समर्थन लागु होने पर अंततः भारत में हमेशा से चले आ रहे खाद्द्यान्न की कमी को, मूलतः गेहूं, चावल, कपास और दूध के सन्दर्भ में, अतिरिक्त उत्पादन में बदल दिया। बजाय संयुक्त राज्य से खाद्य सहायता पर निर्भर रहने के - जहाँ के एक राष्ट्रपति जिन्हें श्रीमती गांधी काफी नापसंद करती थीं (यह भावना आपसी था: निक्सन को इंदिरा "चुड़ैल बुढ़िया" लगती थीं । देश एक खाद्य निर्यातक बन गया। उस उपलब्धि को अपने वाणिज्यिक फसल उत्पादन के विविधीकरण के साथ हरित क्रांति के नाम से जाना जाता है। इसी समय दुग्ध उत्पादन में वृद्धि से आयी श्वेत क्रांति से खासकर बढ़ते हुए बच्चों के बीच कुपोषण से निबटने में मदद मिली। 1975 के वर्षों तक श्रीमती गांधी के लिए समर्थन की एक और स्रोत रही थी ।
1960 के प्रारंभिक काल में संगठित हरित क्रांति गहन कृषि जिला कार्यक्रम (आईऐडिपि) का अनौपचारिक नाम था।
गाँधी की सरकार को उनकी 1971 के जबरदस्त जनादेश के बाद प्रमुख कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। कांग्रेस पार्टी की आंतरिक संरचना इसके असंख्य विभाजन के फलस्वरूप कमजोर पड़ने से चुनाव में भाग्य निर्धारण के लिए पूरी तरह से उनके नेतृत्व पर निर्भरशील हो गई थी। गांधी का सन् 1971 की तैयारी में नारे का विषय था गरीबी हटाओ। यह नारा और प्रस्तावित गरीबी हटाओ कार्यक्रम का खाका, जो इसके साथ आया, गांधी को ग्रामीण और शहरी गरीबों पर आधारित एक स्वतंत्र राष्ट्रीय समर्थन देने के लिए तैयार किए गए थे। इस तरह उन्हें प्रमुख ग्रामीण जातियों के दबदबे में रहे राज्य और स्थानीय सरकारों एवं शहरी व्यापारी वर्ग को अनदेखा करने की अनुमति रही थी।
गरीबी हटाओ के तहत कार्यक्रम, हालाँकि स्थानीय रूपसे चलाये गये, परन्तु उनका वित्तपोषण, विकास, पर्यवेक्षण एवं कर्मिकरण नई दिल्ली तथा भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस दल द्वारा किया गया। मजबूत संसदीय बहुमत का व्यवहार कर, उनकी सत्तारूढ़ भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने संविधान में संशोधन कर केन्द्र और राज्यों के बीच के सत्ता संतुलन को बदल दिया था। उन्होंने दो बार विपक्षी दलों द्वारा शासित राज्यों को "कानून विहीन तथा अराजक" घोषित कर संविधान के धारा 356 के अंतर्गत राष्ट्रपति शासन लागु कर इनके नियंत्रण पर कब्जा किया था। संजय गाँधी, निर्वाचित अधिकारियों की जगह पर गांधी के करीबी राजनैतिक सलाहकार बने थे, के बढ़ते प्रभाव पर, पि.एन.हक्सर, उनकी क्षमता की ऊंचाई पर उठते समय, गाँधी के पूर्व सलाहाकार थे । इंदिरा गांधी के सत्तावाद शक्ति के उपयोग की ओर नये झुकाव को देखते हुए, लोक नायाक जयप्रकाश नारायण और आचार्य जीवतराम कृपालानी व्यक्तिओं और पूर्व-स्वतंत्रता सेनानियों ने इंदिरा  सरकार के विरुद्ध सक्रिय प्रचार करते हुए भारतभर का दौरा किया। राज नारायण द्वारा दायर एक चुनाव याचिका में कथित तौर पर भ्रष्टाचार आरोपों के आधार पर 12 जून, 1975 को इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने इन्दिरा गांधी के लोक सभा चुनाव को रद्द घोषित कर दिया। अदालत ने इंदिरा गांधी के विरुद्ध संसद का आसन छोड़ने तथा छह वर्षों के लिए चुनाव में भाग लेने पर प्रतिबन्ध का आदेश दिया। प्रधानमन्त्रीत्व के लिए लोक सभा या राज्य सभा (संसद के उच्च सदन) का सदस्य होना अनिवार्य है। इस प्रकार, यह निर्णय उन्हें प्रभावी रूप से कार्यालय से पदमुक्त कर दिया।

गांधी ने फैसले पर अपील की, राजनैतिक पूंजी हासिल करने को उत्सुक विपक्षी दलों और उनके समर्थक, उनके इस्तीफे के लिए अधिक संख्या में यूनियनों और विरोधकारियों द्वारा किये गये हड़ताल से कई राज्यों में जनजीवन ठप्प पड़ गया। इस आन्दोलन को मजबूत करने के लिए, जयप्रकाश नारायण ने पुलिस को निहत्थे भीड़ पर सम्भब्य गोली चलाने के आदेश का उलंघन करने के लिये आह्वान किया। कठिन आर्थिक दौर के साथ साथ जनता की उनके सरकार से मोहभंग होने से विरोधकारिओं के विशाल भीड़ ने संसद भवन तथा दिल्ली में उनके निवास को घेर लिया और उनके इस्तीफे की मांग करने लगे। गाँधी ने व्यवस्था को पुनर्स्थापित करने के पदक्षेप स्वरुप, अशांति मचानेवाले ज्यादातर विरोधियों के गिरफ्तारी का आदेश दे दिया। तदोपरांत उनके मंत्रिमंडल और सरकार द्वारा इस बात की सिफारिश की गई की राष्ट्रपति फ़ख़रुद्दीन अली अहमद इलाहाबाद उच्च न्यायालय के निर्णय के बाद फैले अव्यवस्था और अराजकता को देखते हुए आपातकालीन स्थिति की घोषणा करें। तदनुसार, अहमद ने आतंरिक अव्यवस्था के मद्देनजर 26 जून 1975 को संविधान की धारा- 352 के प्रावधानानुसार आपातकालीन स्थिति की घोषणा कर दी।
विपक्षीदल शासित राज्यों गुजरात और तमिल नाडु पर राष्ट्रपति शासन थोप दिया गया जिसके फलस्वरूप पूरे देश को प्रत्यक्ष केन्द्रीय शासन के अधीन ले लिया गया पुलिस को कर्फ़्यू लागू करने तथा नागरिकों को अनिश्चितकालीन रोक रखने की क्षमता सौंपी गयी एवं सभी प्रकाशनों को सूचना तथा प्रसारण मंत्रालय के पर्याप्त सेंसर व्यवस्था के अधीन कर दिया गया। इन्द्र कुमार गुजराल, एक भावी प्रधानमंत्री, ने खुद अपने काम में संजय गांधी की दखलंदाजी के विरोध में सूचना और प्रसारण मंत्रीपद से इस्तीफा दे दिया। अंततः आसन्न विधानसभा चुनाव अनिश्चितकाल के लिए स्थगित कर दिए गए तथा सम्बंधित राज्य के राज्यपाल की सिफारिश पर राज्य सरकार की बर्खास्तगी के संवैधानिक प्रावधान के अलोक में सभी विपक्षी शासित राज्य सरकारों को हटा दिया गया। अपने विधायी दलों और राज्य पार्टी संगठनों के नियंत्रण में मजबूत मुख्यमंत्रियों से निपटना पसंद करते थे, श्रीमती गांधी प्रत्येक कांग्रेसी मुख्यमंत्री को, जिनका एक स्वतंत्र आधार होता, हटाने तथा उन मंत्रिओं को जो उनके प्रति व्यक्तिगत रूप से वफादार होते, उनके स्थालाभिसिक्त करने में लग गईं थी ।मतदाताओं को उस शासन को मंज़ूरी देने का एक और मौका देने के लिए गाँधी ने 1977 में चुनाव बुलाए। सेंसर लगी प्रेस उनके बारे में लिखती थी, शायद उससे गांधी अपनी लोकप्रियता का हिसाब निहायत ग़लत लगायी होंगी। वजह जो भी रही हो, वह जनता दल से बुरी तरह से हार गयीं। लंबे समय से उनके प्रतिद्वंद्वी रहे देसाई के नेतृत्व तथा जय प्रकाश नारायण के आध्यात्मिक मार्गदर्शन में जनता दल ने भारत के पास "लोकतंत्र और तानाशाही" के बीच चुनाव का आखरी मौका दर्शाते हुए चुनाव जीत लिए। इंदिरा और संजय गांधी दोनों ने अपनी सीट खो दीं और कांग्रेस घटकर 153 सीटों में सिमट गई । देसाई प्रधानमंत्री बने और 1969 के सरकारी पसंद नीलम संजीव रेड्डी गणतंत्र के राष्ट्रपति बनाये गए। गाँधी को जबतक 1978 के उप -चुनाव में जीत नहीं हासिल हुई, उन्होंने अपने आप को कर्महीन, आयहीन और गृहहीन पाया। १९७७ के चुनाव अभियान में कांग्रेस पार्टी का विभाजन हो गया: जगजीवन राम  समर्थकों ने उनका साथ छोड़ दिया। कांग्रेस (गांधी) दल अब संसद में आधिकारिक तौर पर विपक्ष होते हुए एक बहुत छोटा समूह रह गया था।गठबंधन के विभिन्न पक्षों में आपसी लडाई में लिप्तता के चलते शासन में असमर्थ जनता सरकार के गृह मंत्री चौधरी चरण सिंह कई आरोपों में इंदिरा गाँधी और संजय गाँधी को गिरफ्तार करने के आदेश दिए, जिनमे से कोई एक भी भारतीय अदालत में साबित करना आसन नहीं था। इस गिरफ्तारी का मतलब था इंदिरा स्वतः संसद से निष्कासित हो गई। परन्तु यह रणनीति उल्टे अपदापूर्ण बन गई। उनकी गिरफ्तारी और लंबे समय तक चल रहे मुकदमे से उन्हें बहुत से वैसे लोगों से सहानुभूति मिली सिर्फ दो वर्ष पहले उन्हें तानाशाह समझ डर गये थे। जनता गठबंधन सिर्फ़ श्रीमती गांधी की नफरत से एकजुट हुआ था। छोटे छोटे साधारण मुद्दों पर आपसी कलहों में सरकार फंसकर रह गयी थी और गांधी इस स्थिति का उपयोग अपने पक्ष में करने में सक्षम थीं। उन्होंने फिर से, आपातकाल के दौरान हुई "गलतियों" के लिए कौशलपूर्ण ढंग से क्षमाप्रार्थी होकर भाषण देना प्रारम्भ कर दिया। जून 1979 में देसाई ने इस्तीफा दिया और श्रीमती गांधी द्वारा वादा किये जाने पर कि कांग्रेस बाहर से उनके सरकार का समर्थन करेगी, रेड्डी के द्वारा चरण सिंह प्रधान मंत्री नियुक्त किए गये। अंतराल के बाद, उन्होंने अपना प्रारंभिक समर्थन वापस ले लिया और राष्ट्रपति रेड्डीने 1979 की सर्दियों में संसद को भंग कर दिया। अगले जनवरी में आयोजित चुनावों में कांग्रेस पुनः सत्ता में वापस आ गया था ।
इंदिरा गाँधी को 1983 - 198 4 )लेनिन शान्ति पुरस्कार से पुरस्कृत तथा 1984सोवियत संघ स्मारक डाक टिकट जारी किया था । सितम्बर 1981 में जरनैल सिंह भिंडरावाले का अलगाववादी सिख आतंकवादी समूह सिख धर्म के पवित्रतम तीर्थ, हरिमन्दिर साहिब परिसर के भीतर तैनात हो गया। स्वर्ण मंदिर परिसर में हजारों नागरिकों की उपस्थिति के बावजूद गांधी ने आतंकवादियों का सफया करने के एक प्रयास में सेना को धर्मस्थल में प्रवेश करने का आदेश दिया। सैन्य और नागरिक हताहतों की संख्या के हिसाब में भिन्नता है। सरकारी अनुमान है चार अधिकारियों सहित उनासी सैनिक और 492 आतंकवादी; अन्य हिसाब के अनुसार, संभवत 500 या अधिक सैनिक एवं अनेक तीर्थयात्रियों सहित 3000 अन्य लोग गोलीबारी में फंसे । जबकि सटीक नागरिक हताहतों की संख्या से संबंधित आंकडे विवादित रहे हैं, इस हमले के लिए समय एवं तरीके का निर्वाचन भी विवादास्पद हैं। इन्दिरा गांधी के बहुसंख्यक अंगरक्षकों में से दो थे सतवंत सिंह और बेअन्त सिंह द्वारा ३१ अक्टूबर 1984 को वे अपनी सेवा हथियारों के द्वारा 1, सफदरजंग रोड, नई दिल्ली में स्थित प्रधानमंत्री निवास के बगीचे में इंदिरा गांधी की राजनैतिक हत्या की। वो ब्रिटिश अभिनेता पीटर उस्तीनोव को आयरिश टेलीविजन के लिए एक वृत्तचित्र फिल्माने के दौरान साक्षात्कार देने के लिए सतवंत और बेअन्त द्वारा प्रहरारत एक छोटा गेट पार करते हुए आगे बढ़ी थीं। इस घटना के तत्काल बाद, उपलब्ध सूचना के अनुसार, बेअंत सिंह ने अपने बगलवाले शस्त्र का उपयोग कर उनपर तीन बार गोली चलाई और सतवंत सिंह एक स्टेन कारबाईन का उपयोग कर उनपर बाईस चक्कर गोली दागे थे । उनके अन्य अंगरक्षकों द्वारा बेअंत सिंह को गोली मार दी गई और सतवंत सिंह को गोली मारकर गिरफ्तार कर लिया गया।गांधी को उनके सरकारी कार में अस्पताल पहुंचाते पहुँचाते रास्ते में ही दम तोड़ दीं थी, लेकिन घंटों तक उनकी मृत्यु घोषित नहीं की गई। उन्हें अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान में लाया गया, जहाँ डॉक्टरों ने उनका ऑपरेशन किया। सरकारी हिसाब 29 प्रवेश और निकास घावों को दर्शाती है, तथा कुछ बयाने 31 बुलेटों के उनके शरीर से निकाला जाना बताती है। उनका अंतिम संस्कार 3 नवंबर को राज घाट के समीप हुआ और यह जगह शक्ति स्थल के रूप में जानी गई। उनके मौत के बाद, नई दिल्ली के साथ साथ भारत के अनेकों अन्य शहरों, जिनमे कानपुर, आसनसोल और इंदौर शामिल हैं, में सांप्रदायिक अशांति घिर गई और हजारों सिखों के मौत दर्ज किये गये। गांधी के मित्र और जीवनीकार पुपुल जयकर, ऑपरेशन ब्लू स्टार लागू करने से क्या घटित हो सकती है ।
इन्दिरा ने फिरोज़ गाँधी से विवाह किया ।प्रारम्भ  में संजय उनका वारिस चुना गया था, लेकिन एक उड़ान दुर्घटना में उनकी मृत्यु के बाद, उनकी माँ ने अनिच्छुक राजीव गांधी को पायलट की नौकरी परित्याग कर फरवरी 1981 में राजनीति में प्रवेश के लिए प्रेरित किया।इन्दिरा मृत्यु के बाद राजिव गांधी प्रधानमंत्री बनें। मई 1991 में उनकी  राजनैतिक हत्या, इसबार लिबरेशन टाइगर्स ऑफ़ तमिल ईलम के आतंकवादियों के हाथों हुई। राजीव की विधवा, सोनिया गांधी ने संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन को 2004 के लोक सभा निर्वाचन में एक आश्चर्य चुनावी जीत का नेतृत्व दिया। सोनिया गांधी ने प्रधानमंत्री कार्यालय अवसर को अस्वीकार कर दिया लेकिन कांग्रेस की राजनैतिक उपकरणों पर उनका लगाम है; प्रधानमंत्री डॉ॰ मनमोहन सिंह, पूर्व में वित्त मंत्री रहे । इंदिरा गांधी के पौत्र एवं  राजीव गांधी की पत्नी भारतीय राष्ट्रीय  कांग्रेस कमिटि  अध्यक्ष  सोनिया गांधी के  पुत्र राहुल गांधी और पुत्री  प्रियंका गांधी  कांग्रेस राजनीति में और  संजय गांधी की विधवा, मेनका गांधी के पुत्र,वरुण गांधी   भारतीय जनता पार्टी दल में सक्रिय हैं।

                            
 

मंगलवार, नवंबर 16, 2021

मानवीय जीवन का प्रकाशोत्सव कार्तिक पूर्णिमा...


    पुरणों एवं स्मृतियों में कार्तिक पूर्णिमा का महत्वपूर्ण उल्लेख किया गया है । कार्तिक पूर्णिमा को त्रिपुरी पूर्णिमा ,  गंगा स्नान , देव दिवाली , गुरु पूर्णिमा , गुरु नानक जयंती , गजेंद्र मोक्ष दिवस और कार्तिक पूर्णिमा  जाता है। कार्तिक पूर्णिमा को  पुर्णिमा को भगवान शिव  ने असुरराज  त्रिपुरासुर बध करने के बाद भगवान शिव को त्रिपुरारी के रूप में पूजित हुए थे।  कृतिका में शिव शंकर के दर्शन करने से सात जन्म तक व्यक्ति ज्ञानी और धनवान होता है। चन्द्र आकाश में उदित के  समय शिवा, संभूति, संतति, प्रीति, अनुसूया और क्षमा इन छ: कृतिकाओं का पूजन करने से शिव जी की प्रसन्नता प्राप्त होती है।  कार्तिक पूर्णिमा के दिन तमिलनाडु मै अरुणाचलम पर्वत की १३ किमी की परिक्रमा होती है। अरुणाचलम पर्वत पर कार्तिक स्वामी का आश्रम है वहां उन्होंने स्कंदपुराण का लिखान किया था । भगवान विष्णु ने प्रलय काल में वेदों की रक्षा के लिए तथा सृष्टि को बचाने के लिए मत्स्य अवतार धारण किया था। बिहार के सारण जिले का गंडक एवं गंगा के संगम स्थित सोनपुर में गजेंद्र मोक्ष एवं हरि ( विष्णु )  एवं हर (शिव )  का निवास बना कर मानव कल्याण किया था । हरिहर क्षेत्र के नाम से विख्यात बाबा हरिहर नाथ , गजेंद्र मोक्ष मंदिर का निर्माण कार्तिक पूर्णिमा को हुआ था । सिख धर्म के प्रणेता गुरु नानक का जन्म दिवस है ।

महाभारत काल में हुए १८ दिनों के विनाशकारी युद्ध में योद्धाओं और सगे संबंधियों को देखकर जब युधिष्ठिर कुछ विचलित हुए तो भगवान श्री कृष्ण पांडवों के साथ गढ़ खादर के विशाल रेतीले मैदान पर आए। कार्तिक शुक्ल अष्टमी को पांडवों ने स्नान किया और कार्तिक शुक्ल चतुर्दशी तक गंगा किनारे यज्ञ किया। इसके बाद रात में दिवंगत आत्माओं की शांति के लिए दीपदान करते हुए श्रद्धांजलि अर्पित की। इसलिए इस दिन गंगा स्नान का और विशेष रूप से गढ़मुक्तेश्वर तीर्थ नगरी में आकर स्नान करने का विशेष महत्व है।मान्यता यह भी है कि इस दिन पूरे दिन व्रत रखकर रात्रि में वृषदान यानी बछड़ा दान करने से शिवपद की प्राप्ति होती है। जो व्यक्ति इस दिन उपवास करके भगवान भोलेनाथ का भजन और गुणगान करता है उसे अग्निष्टोम नामक यज्ञ का फल प्राप्त होता है। इस पूर्णिमा को शैव मत में जितनी मान्यता मिली है उतनी ही वैष्णव मत में भी। कार्तिक पूर्णिमा को गोलोक के रासमण्डल में श्री कृष्ण ने श्री राधा का पूजन किया था। हमारे तथा अन्य सभी ब्रह्मांडों से परे जो सर्वोच्च गोलोक है वहां इस दिन राधा उत्सव मनाया जाता है तथा रासमण्डल का आयोजन होता है। कार्तिक पूर्णिमा को श्री हरि के बैकुण्ठ धाम में देवी तुलसी का मंगलमय पराकाट्य हुआ था। कार्तिक पूर्णिमा को ही देवी तुलसी ने पृथ्वी पर जन्म ग्रहण किया था। कार्तिक पूर्णिमा को राधिका जी की शुभ प्रतिमा का दर्शन और वन्दन करके मनुष्य जन्म के बंधन से मुक्त हो जाता है। इस दिन बैकुण्ठ के स्वामी श्री हरि को तुलसी पत्र अर्पण करते हैं। कार्तिक मास में विशेषतः श्री राधा और श्री कृष्ण का पूजन करना चाहिए। जो कार्तिक में तुलसी वृक्ष के नीचे श्री राधा और श्री कृष्ण की मूर्ति का पूजन (निष्काम भाव से) करते हैं उन्हें जीवनमुक्त समझना चाहिए। तुलसी के अभाव में हम आवंले के वृक्ष के नीचे भी बैठकर पूजा कर सकते है। कार्तिक मास में पराये अन्न, गाजर, दाल, चावल, मूली, बैंगन, घीया, तेल लगाना, तेल खाना, मदिरा, कांजी का त्याग करें। कार्तिक मास में अन्न का दान अवश्य करें। कार्तिक पूर्णिमा को बहुत अधिक मान्यता मिली है। इस पूर्णिमा को महाकार्तिकी भी कहा गया है। यदि इस पूर्णिमा के दिन भरणी नक्षत्र हो तो इसका महत्व और भी बढ़ जाता है। अगर रोहिणी नक्षत्र हो तो इस पूर्णिमा का महत्व कई गुणा बढ़ जाता है। इस दिन कृतिका नक्षत्र पर चन्द्रमा और बृहस्पति हो तो यह महापूर्णिमा कहलाती है। कृतिका नक्षत्र पर चन्द्रमा और विशाखा पर सूर्य हो तो "पद्मक योग" बनता है जिसमें गंगा स्नान करने से पुष्कर से भी अधिक उत्तम फल की प्राप्ति होती है।कार्तिक पूर्णिमा के दिन गंगा स्नान, दीप दान, हवन, यज्ञ आदि करने से सांसारिक पाप और ताप का शमन होता है। इस दिन किये जाने वाले अन्न, धन एव वस्त्र दान का भी बहुत महत्व बताया गया है। इस दिन जो भी दान किया जाता हैं उसका कई गुणा लाभ मिलता है। मान्यता यह भी है कि इस दिन व्यक्ति जो कुछ दान करता है वह उसके लिए स्वर्ग में संरक्षित रहता है जो मृत्यु लोक त्यागने के बाद स्वर्ग में उसे पुनःप्राप्त होता है। शास्त्रों के  कार्तिक पुर्णिमा के दिन पवित्र नदी व सरोवर एवं धर्म स्थान में जैसे, गंगा, यमुना, गोदावरी, नर्मदा, गंडक, कुरूक्षेत्र, अयोध्या, काशी में स्नान करने से विशेष पुण्य की प्राप्ति होती है। कार्तिक माह की पूर्णिमा तिथि पर व्यक्ति को बिना स्नान किए नहीं रहना चाहिए ।महर्षि अंगिरा ने स्नान के प्रसंग में लिखा है कि यदि स्नान में कुशा और दान करते समय हाथ में जल व जप करते समय संख्या का संकल्प नहीं किया जाए तो कर्म फल की प्राप्ति नहीं होती है। शास्त्र के नियमों का पालन करते हुए इस दिन स्नान करते समय पहले हाथ पैर धो लें फिर आचमन करके हाथ में कुशा लेकर स्नान करें, इसी प्रकार दान देते समय में हाथ में जल लेकर दान करें। आप यज्ञ और जप कर रहे हैं तो पहले संख्या का संकल्प कर लें फिर जप और यज्ञादि कर्म करें। सिख सम्प्रदाय में कार्तिक पूर्णिमा का दिन प्रकाशोत्सव के रूप में मनाया जाता है।  सिख सम्प्रदाय के संस्थापक गुरू नानक देव का जन्म हुआ था।  सिख सम्प्रदाय के अनुयायी सुबह स्नान कर गुरूद्वारों में जाकर गुरूवाणी सुनते हैं और नानक जी के बताये रास्ते पर चलने की सौगंध लेते हैं। इसे गुरु पर्व भी कहा जाता है। कार्तिक पूर्णिमा 2078 दिनांक 18 नवंबर 2021एवं 19 नवंबर 2021 को कार्तिक पूर्णिमा मुहूर्त: मुहूर्त का समय: पूर्णिमा तिथि 18 नवंबर को दोपहर 12:00 बजे शुरू होती है और 19 नवंबर को दोपहर 2:26 बजे समाप्त होती है। पुरणों  के अनुसार, भगवान शिव ने  त्रिपुरारी का अवतार लेकर, सामूहिक रूप से त्रिपुरासुर के रूप में जानी जाने वाली राक्षस तिकड़ी का नाश किया था। इस प्रकार, उनकी क्रूरता को समाप्त करके, भगवान शिव ने शांति और धर्म की फिर से स्थापना की। इसलिए, देवताओं ने दिवाली मनाकर बुराई पर अच्छाई की जीत को चिह्नित किया। इसलिए इस दिन काशी की पवित्र नगरी में श्रद्धालु गंगा के घाटों पर तेल के दीपक जलाकर देव दीपावली मनाते हैं। वैकुंठ चतुर्दशी तिथि का व्रत रखते हैं, वे भगवान शिव और विष्णु की पूजा करते हैं और अगले दिन यानी कार्तिक पूर्णिमा को अपना उपवास तोड़ते हैं। तुलसी विवाह उत्सव मनाने वाले कार्तिक पूर्णिमा को समारोह का समापन करते हैं। दक्षिण भारत में भगवान शिव और  कार्तिकेय की पूजा की जाती है। कार्तिगई पूर्णिमा को मनाए जाने वाले त्योहार को कार्तिगई दीपम  जाना जाता है। यह दिन जैन और सिख समुदायों के लिए महत्वपूर्ण है।सिख धर्म के संस्थापक गुरु नानक देव जी का जन्म कार्तिक पूर्णिमा तिथि को हुआ था।  गुरु नानक देव जी की 552वीं जयंती मनाई जाएगी। कार्तिक पूर्णिमा जैनियों के लिए  पालिताना की तीर्थयात्रा शुरू कर  भगवान आदिनाथ की पूजा करते है। चातुर्मास के दौरान बंद रहने वाले मंदिर भक्तों के लिए खुलते हैं। , कार्तिक पूर्णिमा तिथि पवित्र चातुर्मास अवधि  पूर्णिमा  दिन है।  कार्तिक शुक्ल पूर्णिमा  शुक्रवार  विक्रम संबत 2078 , दिनांक 19 नवंबर 2021 को 580 वर्ष के बाद चंद्र ग्रहण की अवधि लंबी होगी । भारत में चंद्र ग्रहण का समय दोपहर 12 बजकर 48 मिनट से लेकर शाम 4 बजकर 17 मिनट तक अर्थात 3 घंटे 29 मिनट की होगी । इससे पहले इतनी लंबी अवधि का चंद्र ग्रहण 18 फरवरी 1440 को लगा था । भविष्य में चंद्र ग्रहण की ऐसी घटना 8 फरवरी 2669 में देखने को मिलेगी । खगोलविदों के अनुसार  धरती से चंद्रमा की अधिक दूरी होने के कारण आगामी चंद्र ग्रहण की अवधि लंबी होने वाली है । 19 नवंबर 2021  को लगने वाला चंद्र ग्रहण भारत में मणिपुर की राजधानी इंफाल और उसकी सीमाओं से लगे इलाकों से देखा जा सकेगा. असम ,  अरुणाचल प्रदेश के कुछ क्षेत्रों से भी ये चंद्र ग्रहण दिखाई दे सकता है. हालांकि, चंद्र ग्रहण यहां पूरी तरह दिखने की बजाए हल्की सी रेखा के रूप में नजर आएगा । चंद्र ग्रहण अमेरिका, उत्तरी यूरोप, पूर्वी एशिया, ऑस्ट्रेलिया, अंटार्कटिका और प्रशांत महासागर देखगा । आंशिक चंद्र ग्रहण होने की वजह से इसके लिए सूतक काल भी मान्य नहीं होगा । भगवान शिव ने राक्षस त्रिपुरासुर का वध किया था। पूर्णिमा पर देव दिवाली भी मनाई जाती है । पुरणों  के अनुसार असुरराज तारकासुर के तारकाक्ष , कमला ,और विद्युतमालि पुत्र थे। भगवान शिव के  पुत्र कार्तिक ने तारकासुर का वध करने के बाद तारकासुर के पुत्रों ने ब्रह्माजी से वरदान मांगने के लिए घोर तपस्या करने के दौरान ब्रह्माजी से तीन अलग नगरों का निर्माण करवाने के लिए कहा, जिसमें सभी बैठकर सारी पृथ्वी और आकाश में घूमा जा सके। एक हज़ार साल बाद जब हम मिलें और हम तीनों के नगर मिलकर एक हो जाएं, और जो देवता तीनों नगरों को एक ही बाण से नष्ट करने की क्षमता रखता हो, वही हमारी मृत्यु का कारण हो। ब्रह्माजी ने उन्हें ये वरदान दे दिया। ब्रह्माजी के कहने पर मयदानव ने उनके लिए तीन नगरों का निर्माण किया। तारकक्ष के लिए सोने का, कमला के लिए चांदी का और विद्युन्माली के लिए लोहे का नगर बनाया गया। तीनों ने मिलकर तीनों लोकों पर अपना अधिकार जमा लिया।देवराज  इंद्र  राक्षसों से भयभीत होते हुए भगवान शंकर की शरण में गए। इंद्र की बात सुन भगवान शिव ने  दानवों का नाश करने के लिए एक दिव्य रथ का निर्माण किया था । दिव्य रथ की हर एक चीज़ देवताओं से बनीं। चंद्रमा और सूर्य से पहिए बने। इंद्र, वरुण, यम और कुबेर रथ के चाल घोड़े बनें। हिमालय धनुष बने और शेषनाग प्रत्यंचा बनें। भगवान शिव खुद बाण बनें और बाण की नोक बने अग्निदेव थे ।  दिव्य रथ पर सवार  भगवान शिव और तीनों भाइयों के बीच भयंकर युद्ध हुआ। जैसे ही ये तीनों रथ एक सीध में आए, भगवान शिव ने बाण छोड़ तीनों का नाश कर दिया। इसी वध के बाद भगवान शिव को त्रिपुरारी कहा जाने लगा।  मय दानव का वध कार्तिक मास की पूर्णिमा को हुआ था । कार्तिक मास को कुमार , कार्तिकेय , कार्तिक , मुरगन अस कहा गया है । कार्तिक पूर्णिमा को गंगा स्नान एवं देवो द्वारा मनाई गई दिवाली को देव दिवाली कहा जाता है । 




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सामाजिक जीवन की आँखें पत्रकारिता...


लोकतांत्रिक मूल्यों की सुरक्षा का मापदंड पत्रकारिताव  लोकतंत्र का स्तम्भ है । समाज और चेतना जागृति की आँखे और सामाजिक जीवन का समन्वय का सशक्त माध्यम पत्रकारिता है । विश्व में  50 देशों में प्रेस परिषद या मीडिया परिषद है। भारत में प्रेस को 'वाचडॉग' एवं प्रेस परिषद इंडिया को 'मोरल वाचडॉग' कहा गया है। राष्ट्रीय प्रेस दिवस, प्रेस की स्वतंत्रता एवं जिम्मेदारियों की ओर हमारा ध्यान आकृष्ट करता है। 1920 के लेखक वाल्टर लिपमैन और  अमेरिकी दार्शनिक जॉन डेवी, नें एक लोकतांत्रिक समाज में पत्रकारिता की भूमिका पर विचार विमर्श को प्रकाशित किया था। पत्रकारिता जनता और नीति निर्माताओं के बीच मध्यस्थ की भूमिका निभाता है। इस सन्दर्भ में महत्वपूर्ण भूमिका एक पत्रकार निभाता है। प्रथम प्रेस आयोग ने भारत में प्रेस की स्वतंत्रता की रक्षा एवं पत्रकारिता में उच्च आदर्श कायम करने के उद्देश्य से  प्रेस परिषद की 4 जुलाई, 1966 को भारत में प्रेस परिषद की स्थापना की गई । प्रेस परिषद ने 16 नवम्बर, 1966 से अपना विधिवत कार्य प्रारम्भ  किया।  प्रतिवर्ष 16 नवम्बर को 'राष्ट्रीय प्रेस दिवस व 'नेशनल प्रेस डे  के रूप में मनाया जाता है। 'राष्ट्रीय प्रेस दिवस' पत्रकारों को सशक्त बनाने के उद्देश्य से  समर्पित करने का अवसर प्रदान करता है । पत्रकारिता सामाजिक जीवन का जुड़ाव कर राष्ट्रीय चेतना जागृत करता है । विश्व पत्रकारिता का मनुष्य की सतत जिज्ञासा और साहित्य के प्रति  स्वाभाविक अनुराग के संयोग से उत्पन्न होने की पत्रकारिता है । विकास यात्रा में पत्रकारिता ने तटस्थता और विश्वसनीयता के बूते पर ऐसा मुकाम हासिल करने  एवं आजादी का  नाम पत्रकारिता है । अंग्रेजी साहित्य के साहित्यकार एडीसन ने  कहा था, पत्रकारिता से अधिक मनोरंजक अधिक चुनौतीपूर्ण अधिक रसमयी और अधिक जनहितकारी कोई दूसरी बात मुझे दिखाई नहीं देती। एक स्थान पर बैठकर प्रतिदिन हजारों-लाखों लोगों तक पहुंच जाना, उनसे अपने मन की बात कह देना,  सलाह देना, शिक्षा देना परामर्श देना, उन्हें विचार देना, उनका मनोरंजन करना और  जागरूक बनाना सचमुच बेहद आश्चर्यजनक होता है। कागज और मुद्रण का आविष्कार सर्व प्रथम  चीन में होने के बाद  यूरोप में पहुंची थी ।  चीन में सबसे पहला समाचार पत्र पैकिंग गजट अथवा तिचाओं था। यूरोप में पहली प्रेस की स्थापना सन् 1440 में हुई। जर्मनी के गुटेनबर्ग   ने  प्रेस को स्थापित किया था और सबसे पहले बाइबिल को छापा है । इंग्लैंड में कैक्सटन ने 1477 में प्रेस स्थापित की। इंग्लैंड का प्रथम  समाचार पत्र 1603 में प्रकाशित हुआ था । और इसका आकार बहुत छोटा था। सन् 1666 में लंदन गजट प्रकाशित हुआ।  सत्रहवीं शताब्दी में  लेखकों और पत्रकारों की संख्या में वृद्धि हुई और टैटलर, स्पेक्टेटर, एग्जामिनर, गार्जियन, इंग्लिश मैन, लवर आदि  साप्ताहिक प्रकाशित हुए थे । ग्रब जर्नलपत्र था। एडिशन ने कहा था कि 'पत्रकारिता से अधिक मनोरंजक, अधिक चुनौतीपूर्ण, अधिक रसमयी और अधिक जनहितकारी कोई दूसरी बात मुझे दिखाई नहीं देती। एक स्थान पर बैठकर प्रतिदिन हजारों-लाखों लोगों तक पहुंच जाना, उनसे अपने मन की बात कह देना, उन्हें सलाह देना, उन्हे शिक्षा देना- परामर्श देना, उन्हें विचार देना, उनका मनोरंजन करना, उन्हें जागरूक बनाना सचमुच बेहद आश्चर्यजनक होता है। हालैंड में 1526 में पहला समाचार पत्र प्रकाशित हुआ। 1610 में जर्मनी में, 1622 में इंग्लैंड में, 1660 में अमेरिका में 1703 में रूस में और 1737 में फ्रांस में पहला पत्र निकला। इंग्लैंड में पोस्टमैन नाम से पहला साप्ताहिक समाचार पत्र 21 सितंबर 1622 को लन्दन से निकला था । 11 मार्च 1702 को प्रथम दैनिक पत्र  डेली करेंट प्रकाशित हुआ था । लेखन के लिए कागज का निर्माण चीन में 105 ई० में हुआ था।  मिश्र में पेपीरस के उत्पादन का है। भारत में भोजपत्र और ताड़ पत्रों का प्रयोग लेखन के लिए किया जाता था। चीन में पांचवी या छठी शताब्दी में लकड़ी के ठप्पों से छपाई का कार्य आरम्भ हुआ। 11वीं शताब्दी में पत्थर के ठप्पों का प्रयोग होने लगा। 1390 ई० में कोरिया में धातु के टाइप का प्रयोग करके पहली पुस्तक छापी गई थी। चीन के माध्यम से यह कला यूरोप पहुंची। सन् 1400 ई. में मेनज नगर में जन्मे जोहान गुटेनबर्ग ने टाईप (अक्षरों का टाइप फेस) तैयार किया और 1445 में पहली बार इस टाईप से पुस्तक छपी थी । 1458 में इटली के मैसोफिनी ग्वेरा ने तांबे पर खुदाई करके छपाई का काम आरम्भ किया। 1477 ई० में इंग्लैंड में विलियम कैक्सटन ने अपने छापेखाने से पुस्तकें छापनी आरम्भ की। इंग्लैण्ड में सन् 1561 में न्यूज आउट ऑफ केंट नामक एक पृष्ठ का पत्र और 1575 ई० में 'न्यू न्यूज' का प्रकाशन हुआ माना जाता है। 1620 में हालैंड के एमस्टर्डम से नियमित निकलने वाला अंग्रेजी पत्र प्रकाशित हुआ। अमेरीका में पहला पत्र 'पब्लिक अकरेंसेस बोथ फारेन एण्ड डोमेस्टिक नाम से प्रकाशित हुआ। 1609 में असवार्ग से जर्मन भाषा में 'अविश' और 'जीटुंग' और स्टासवर्ग से 'रिलेशन' नामक पत्र प्रकाशित हुए। 1776 में प्राग से एलोयस सेने फेल्डर ने छपाई की एक नई प्रणाली लिथोग्राफी प्रारम्भ की। स्वीडन में पहला पत्र ऑर्डिनरी पोस्ट टिजडेंटर नाम से 1665 में प्रकाशित हुआ। चैकोस्लोवाकिया में जर्मन प्रकाशक जे० अर्नाल्ट ने जर्मन भाषा में 1672 में एक पत्र प्रकाशित किया। चैक भाषा का प्रथम समाचार पत्र 1719 में कारेल फैटीसेक रोजनमूलर ने चेस्की पोस्टीलियन नेवोलिजिट्टू नोविनी चेस्के नाम से प्रकाशित किया था लंदन के 'दि टाइम्स' पत्र की स्थापना 1785 में हुई। 1881 में 'गार्जियन' की शुरुआत हुई, जो मैनचेस्टर गार्जियन' के नाम से विख्यात था 'डेली टेलीग्राफ' की 1855 में, 'ईवनिंग न्यूज: 1881 में, फाइनेंशियल टाइम्स' 1888 में 'डेली मेल' 1896 में 'डेली एक्सप्रेस' 1900 में, 'डेली मिरर' 1903 में शुरू हुए। रविवारीय पत्रों में आब्जर्वर' 1791 में 'न्यूज ऑफ दि वर्ड' 1853 में, 'संडे टाइम्स' 1822 में, संडे पीपल 1881 में शुरू हुए। पत्रकारिता के एक रूप को रोमन गणराज्य के जन्म के साथ विकसित हुआ माना जा सकता है। रोमन साम्राज्य में संवाद लेखकों की व्यवस्था के प्रमाण मिलते हैं। ईसा से पांचवीं शताब्दी पूर्व ये संवाद लेखक हाथ में लिख कर समाचारों को एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुंचाया करते थे। इसके उपरांत जूलियस सीजर ने 60 ई. पू. 'एक्टा डोएना' नाम से दैनिक बुलेटिन निकाला जो राज्य की जरूरी सूचनाओं का एक हस्तलिखित पोस्टर होता था। भारतीय इतिहास में अशोक ने सुदृढ़ शासन व्यवस्था को कायम रखने के लिए विशेष प्रयत्न किए। राजकार्य के कुशल संचालन के लिए उपयोगी सूचनायें विभिन्न स्रोतों से प्राप्त करने हेतु व्यवस्था की थी साथ ही शिला लेखों की परम्परा ने भी इसे आगे बढ़ाया। आज से करीब 1350 वर्ष पूर्व चीन में विश्व का पहला पत्र तिंचाओं शुरू हुआ था। यह हस्तलिखित पत्र था । विश्व का सबसे पुराना नियमित समाचार पत्र स्वीडन का पोस्ट ओच इनरिक्स ट्रिडनिंगर था जिसे रायल स्वीडिश अकादमी ने 1644 में छापना शुरू किया था। विश्व का सबसे पुराना व्यावसायिक समाचार पत्र 8 जनवरी 1658 को हालैंड में 'बीकेलिक कूरंत बात यूरोप नाम से शुरू हुआ था। आज इसका नाम 'हार्लेक्स दोगब्लेडे हारलमेशे कूरंत' है। छापेखाने के आविष्कार के बाद प्रारम्भिक मुद्रक एक कागज पर समाचार छाप कर फेरी वालों को मुफ्त में दे देते थे। विश्व का पहला दैनिक समाचार पत्र 'मार्निंग पोस्ट' था, जो 1772 में लंदन से प्रकाशित होना शुरू हुआ था। इसके कुछ ही दिनों बाद लन्दन से ही 'टाइम्स'  समाचार पत्र प्रकाशित होना शुरू हुआ। सोलहवी और सत्रहवीं शताब्दी में फ्रांस में 'सोलोन' और ब्रिटेन में काफी हाउस इस बात के लिए लोकप्रिय हो गए थे कि वहां लेखक व बुद्धिजीवी एकत्र होते थे और समाचारों का आदान-प्रदान करते थे हमारे देश में भी प्राचीन काल से ही लोग गांवों की चौपालों में बैठ कर समाचारों, विचारों का आदान-प्रदान किया करते थे। आज भी कमोवेश यह क्रम जारी है। भारत में मुगल साम्राज्य की स्थापना के साथ ही संवाद सेवा के युग का आरम्भ हुआ। मुगलों ने संचार सेवाओं के लिए सूचनाधिकारियों की नियुक्ति की। औरंगजेब 1658-1707) ने शासकीय व्यवस्था को चौकस रखने के लिए सूचनाओं के आदान-प्रदान का प्रबंध किया। संवाद लेखकों की वाकियानवीस व खुफियानवीस के तौर पर नियुक्ति की 18वीं शदी के पहले चरण में ईस्ट इंडिया कम्पनी ने भी इन संवाद लेखकों की सेवायें हासिल की हमारे देश में पत्रकारिता अंग्रेजों ने शुरू की। जेम्स आगस्टस हिकी और विलियम ड्यूएन जैसे पत्रकारों ने तत्कालीन कम्पनी सरकार की काली करतूतों का भंडाफोड़ किया। वारेन हेस्टिंग्ज (1772-1785) जैसे तानाशाहों को मजबूर कर दिया कि वह या तो उन्हें जेल भिजवा दे या हिन्दुस्तान से निर्वासित कर दे। यद्यपि ये झगड़े उनके आपसी थे, जनहित से उनका कोई सरोकार नहीं था, फिर भी पत्रकारिता में निर्भीकता के उदाहरण समझे जाते हैं। भारत में तत्कालीन ब्रिटिश शासकों का भारतीय पत्रकारों और पत्रकारिता के प्रति क्या दृष्टिकोण था ।19 वीं शताब्दी के मद्रास के गवर्नर  टॉमस मुनरो ने कहा है है कि हमने हिन्दुस्तान में अंग्रेजों के साम्राज्य की नीव इस नीति पर रखी है कि हमने अपनी प्रजा को न कभी प्रेस की आजादी दी है और न देंगे। यदि यहां की पूरी जनता हमारी तरह अंग्रेज होती  मैं प्रेस की स्वतंत्रता की मांग स्वीकार कर सकता था लेकिन ये तो हमारे उपनिवेश के रहने वाले यहां के नेटिव हैं। इनको प्रेस की आजादी देना हमारे लिए खतरनाक है। दोनों एक साथ नहीं चल सकते हैं। हिन्दुस्तानी, प्रेस यानी छपाई की मशीन का प्रयोग सीख कर कहीं अखबार छापना शुरू न कर दें और ब्रिटिश साम्राज्य को एक नया खतरा पैदा न हो जाए. अंग्रेजी सरकार इस बात से डरती थी। हैदराबाद निजाम के दरबार में नियुक्त ईस्ट इंडिया कम्पनी के एजेंट ने निजाम को मुद्रित पत्र का एक नमूना उपहार में दिया तो कम्पनी सरकार ने उस एजेंट की भर्त्सना की कि ऐसी खतरनाक मशीन निजाम को क्यों दिखाई। नतीजा यह हुआ कि एजेंट ने अपने कारिन्दों से उस मशीन को तुड़वाकर फिंकवा दिया था । यूरोप में पुनर्जागरण तथा अमेरिका में लोकतंत्र की स्थापना, फ्रांस की क्रांति के बाद शुरू हुई औद्योगिक क्रांति से लोगों का जन जीवन धीरे-धीरे पेचीदा व जटिल होता गया। पूंजीवाद के विकास के साथ साम्यवाद ने भी पैर पसारने शुरू कर दिए। विज्ञान ने एक साथ ढेर सारी तरक्की कर ली और संचार के साधन विकसित हो गए। इन परिवर्तनों से पत्रकारिता भी प्रभावित हुई। सबसे पहले प्रभाव यह हुआ कि परिवर्तनों तथा शिक्षा के फैलाव से लोगों में जागृति आने लगी और वे दुनिया में तेजी से आ रहे बदलाव तथा घटित हो रही घटनाओं को जल्द से जल्द जानने के लिए उत्सुक रहने लगे। इस प्रवृत्ति के कारण जहां एक ओर समाचार पत्र पत्रिकाओं के प्रकाशन में वृद्धि हुई, वहीं उनकी प्रसार संख्या भी बढ़ी। प्रसार संख्या बढ़ने के साथ-साथ अब पत्र पत्रिकाओं में खेल जगत, अर्थजगत, शिक्षा, विज्ञान, फोटोग्राफी, फिल्म उद्योग, साहित्य सृजन आदि क्षेत्रों को भी पत्रकारिता अपना अभिन्न अंग बना लिया अब पत्रकारिता को चलाना मात्र मिशन नहीं रह गया, बल्कि प्रसार संख्या बढ़ने, नये नये विषयों के समावेश, डाक के द्वारा पत्र पत्रिकाओं को दूरस्थ स्थानों को भेजे जाने आदि ने पत्रकारिता को व्यवसाय बना दिया गया ।
 भारत में प्रथम अखबार 1780 में जेम्स ऑगस्टस हिकी के संपादकीय के तहत   बंगाल राजपत्र था। 30 मई, 1826 को उदंत मार्टंड (द राइजिंग सन), भारत में प्रकाशित पहला हिंदी-भाषी समाचार पत्र, कलकत्ता  से शुरू हुआ था । भारत में स्वतंत्र पत्रकारिता के जनक व समाजसेवी, ब्रह्म समाज के संस्थापक राजा राममोहन राय द्वारा 1885 में सती प्रथा के विरोध में प्रथम धार्मिक लेख लिखा। भारतीय समाज में आचार-विचार की स्वतंत्रता का श्रीगणेश यहीं से प्रारम्भ हुआ। यहीं से समाज सुधार की प्रवृत्ति प्रारम्भ हुई। सती प्रथा के सम्बंध में यह उनका प्रथम प्रयास था। बिहार में बिहार बंधु  आर्यावर्त , प्रदीप , सर्चलाईट , इंडियन नेशन , आत्मकथा , विश्वामित्र , पाटलिपुत्र टाइम्स , जनशक्ति  हिंदी दैनिक समाचार पत्र प्रकाशित होते थे । आज , हिंदुस्तान , प्रभातख़बर , दैनिक जागरण , दैनिक भाष्कर , दैनिक सहारा आदि हिंदी दैनिक समाचार पत्र प्रकाशित हो रहे है । पटना से प्रकाशित होने वाले हिंदी मासिक पत्र में तापमान , दिव्य रश्मि , केवल सच एवं निर्माण भारती हिंदी सप्ताहिक मुजफ्फरपुर , बम्मई हिंदी विद्यापीठ मुम्बई से हिंदी मासिक भारती , संस्कार धरा टुडे जबलपुर , बूंदी से डिजिटल हिंदी साप्ताहिक लेखक हिंदी के  , अजमेर हिंदी दैनिक डिजिटल  संस्कार न्यूज़ , मगध ज्योति ब्लॉग समाचार पत्र   प्रकाशित हो रहे है ।



रविवार, नवंबर 14, 2021

मुजफ्फरपुर की सांस्कृतिक विरासत ...

भारत के बिहार राज्य के तिरहुत प्रमण्डल के मुज़फ्फरपुर ज़िले में स्थित एक नगर है। यह ज़िले का मुख्यालय भी है। यह बूढ़ी गण्डक नदी के किनारे बसा हुआ है। निर्देशांक: 26°07′23″N 85°23′28″E / 26.123°N 85.391°E पर मुज़फ्फरपुर  की जनसंख्या 2011 के अनुसार 3,93,724 में भाषा हिन्दी, बज्जिका, मैथिली , भोजपुरी , मगही  बोली जाती है । 3122 .56 वर्ग कि. मि. क्षेत्रफल में विकशित एवं 1875 ई. में स्थापित मुजफ्फरपुर जिले की जनसंख्या 2011 जनगणना के अनुसार 4801062 आबादी 387 ग्रामपंचायत , 1811 गावँ ,16 प्रखंड एवं थाने 29 है । मुजफ्फरपुर के पूरब दरभंगा ,पश्चिम में चंपारण ,दक्षिण में वैशाली उत्तर में सीतामढ़ी जिले की सीमाओं से घीरा है । मुज़फ़्फ़रपुर उत्तरी बिहार  में सूती वस्त्र उद्योग, लाह की चूड़ियों, शहद तथा आम और लीची  फलों के उम्दा उत्पादन के लिये जाना जाता है । बिहार के जर्दालु आम, मगही पान और कतरनी धान को जीआइ टैग (ज्योग्रफिकल इंडिकेशन) मिल चुका है। मुज़फ़्फ़रपुर थर्मल पावर प्लांट  बिजली उत्पादन केंद्र  है। प्राचीन काल में मुजफ्फरपुर मिथिला  राज्य का अंग था। बाद में मिथिला में वज्जि गणराज्य की स्थापना हुई। तीसरी सदी में भारत आए चीनी यात्री ह्वेनसांग के यात्रा विवरणों से यह पता चलता है कि यह क्षेत्र काफी समय तक महाराजा हर्षवर्धन के शासन में रहा। उनकी मृत्यु के बाद स्थानीय क्षत्रपों का कुछ समय शासन रहा तथा आठवीं सदी के बाद यहाँ बंगाल के पाल वंश के शासकों का शासन शुरु हुआ जो 1019 तक जारी रहा। तिरहुत पर लगभग 11 वीं सदी में चेदि वंश का शासन रहा। सन 1211 से 1226 बीच गैसुद्दीन एवाज़ तिरहुत का पहला मुसलमान शासक बना। चम्पारण के सिमराँव वंश के शासक हरसिंह देव के समय 1323 ई . में तुग़लक वंश के शासक गयासुद्दीन तुग़लक ने  अधिकार कर लिया लेकिन उसने सत्ता मिथिला के शासक कामेश्वर ठाकुर को सौंप दी। चौदहवीं सदी के अंत में तिरहुत समेत पूरे उत्तरी बिहार का नियंत्रण जौनपुर के राजाओं के हाथ में चला गया जो तबतक जारी रहा जबतक दिल्ली सल्तनत के सिकन्दर लोदी ने जौनपुर के शासकों को हराकर अपना शासन स्थापित नहीं किया। इसके बाद विभिन्न मुग़ल शासकों और बंगाल के नवाबों के प्रतिनिधि इस क्षेत्र का शासन चलाते रहे। पठान सरदार दाऊद खान को हराने के बाद मुगलों ने नए बिहार प्रांत का गठन किया जिसमें तिरहुत को शामिल कर लिया गया।1764 में बक्सर की लडाई के बाद यह क्षेत्र सीधे तौर पर अंग्रेजी हुकूमत के अधीन हो गया। सन 1875 में प्रशासनिक सुविधा के लिये तिरहुत का गठन कर मुजफ्फरपुर जिला बनाया गया। मुजफ्फरपुर ने भारतीय स्वाधीनता आंदोलन में अत्यंत महत्वपूरण भूमिका निभाई है। महात्मा गाँधी की दो यात्राओं ने  क्षेत्र के लोगों में स्वाधीनता के चाह की नयी जान फूँकी थी। खुदीराम बोस, जुब्बा साहनी तथा पण्डित सहदेव झा जैसे अनेक क्रांतिकारियों की कर्मभूमि रही है। 1930 के नमक आन्दोलन से लेकर 1942 के भारत छोडो आन्दोलन के समय तक यहाँ के क्रांतिकारियों के कदम लगातार आगे बढ़ते रहे। मुजफ्फरपुर का वर्तमान नाम ब्रिटिस काल के राजस्व अधिकारी मुजफ्फर खान के नाम पर पड़ा है। मुजफ्फरपुर को इस्लामी और हिन्दू सभ्यताओं की मिलन स्थली के रूप में भी देखा जाता रहा है। दोनों सभ्यताओं के रंग यहाँ गहरे मिले हुये हैं और यही इस क्षेत्र की सांस्कृतिक पहचान भी है। मुजफ्फरपुर जिले  का क्षेत्रफलः 3172 वर्ग  कि . मि .में नदियाँ: गंडक, बूढी गंडक, बागमती तथा लखनदेई प्रवाहित है मुज़फ्फरपुर जिले में प्रखंड में औराई, बोचहाँ, गायघाट, कटरा, मीनापुर, मुरौल, मुसहरी, सकरा, काँटी, कुढनी, मोतीपुर, पारु, साहेबगंज, सरैयाबंदरा मरवां है । साहित्यकार : रामबृक्ष बेनीपुरी , जानकी बल्लभ शास्त्री का स्मारक है । बसोकुंड: जैन धर्म के २४वें तीर्थंकर भगवान महावीर का जन्म वैशाली के निकट बसोकुंड में लिच्छवी कुल में हुआ था। वसोकुण्ड जैन धर्म के अनुयायियों के लिए अत्यंत पवित्र है। यहाँ अहिंसा एवं प्राकृत शिक्षा संस्थान है। जुब्बा साहनी पार्क: भारत छोड़ो आन्दोलन के दौरान जुब्बा साहनी ने १६ अगस्त १९४२ को मीनापुर थाने के इंचार्ज लियो वालर को आग में जिंदा झोंक दिया था। बाद में पकड़े जाने पर उन्हें ११ मार्च १९४४ को फांसी दे दी गयी थी ।
बा‍बा गरीबनाथ मंदिर: मुजफ्फरपुर के बाबा गरीबनाथ  शिव मंदिर है। सावन के महीने में गरीबनाथ  शिवलिंग का जलाभिषेक करने वालों भक्तों की  भीड़ उमड़ती है। मुजफ्फरपुर का चतुर्भुज स्थान में स्थित भगवान चतुर्भुज मंदिर में भगवान चतुर्भुज , बैरवा नातन , भगवान सूर्य मूर्ति , भगवान शिवलिंग है ।साहू पोखर परिसर में स्थापित मंदिरों में  भगवान राम , राधाकृष्ण , रामभक्त हनुमान जी की मूर्ति  , शिव मंदिर  , तलाव , काली मंदिर , शिरूकहीं शरीफ (कांटी) का तेगे अली शाह का मज़ार , , कोठिया मजार , मुजफ्फरपुर का शहीद भगवानलाल एवं शहीद खुदीराम स्‍मारक , मुजफ्फरपुर का मज़ार हज़रत दाता कम्मल शाह मजार  , मुजफ्फरपुर का हज़रत दाता मुज़फ़्फ़रशाह मजार , कटरा का बागमती नदी के तट पर स्थित चामुडा स्थान, इस्लामपुर का सूफी मौलाना इब्राहिम रहमानी मजार  , कांटी का छह्न्न्मास्तिका मन्दिर , प्रतापपुर का बाबाजी मनोकामनामहादेव ब्रह्म , मां मनोकामना मंदिर , हैं ।
1875 में प्रशासनिक सुविधा के लिए तिहुत के पहले जिले को विभाजित करके बनाया गया था। वर्तमान जिला मुजफ्फरपुर 18 वीं शताब्दी में अपने अस्तित्व में आया और ब्रिटिश राजवंश के तहत एक अमील (राजस्व अधिकारी) मुजफ्फर खान के नाम पर रखा गया। पूरब में चंपारण और सीतामढ़ी जिलों के उत्तर, दक्षिण वैशाली और सारण जिलों पर, पूर्व दरभंगा और समस्तीपुर जिलों पर और पश्चिम सारण से गोपालगंज जिलों से घिरा है। मुजफ्फरपुर अब इसके स्वादिष्ट शाही लीची और चाईना लीची के लिए प्रसिद्ध है । भारतीय महाकाव्य रामायण के माध्यम से एक मजबूत विरासत की धारा को बहुत लंबा रास्ता खोज सकते हैं, जो अब भी भारतीय सभ्यता में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। किंवदंती के साथ शुरू करने के लिए, राजर्षि जनक, विदेह पर शासन कर रहे थे, इस पूरे क्षेत्र का पौराणिक नाम पूर्वी नेपाल और उत्तरी बिहार भी शामिल था। इस क्षेत्र में एक जगह सीतामढ़ी, पवित्र हिंदू विश्वास का महत्व रखती है, जहां वैदेही: विदेह के राजकुमारी सीता  एक मिट्टी के बर्तन से बाहर जीवन में उठे थे, जबकि राजर्षि जनक ने भूमि में हल चलाई थी। मुजफ्फरपुर का इतिहास वृज्ज्न गणराज्य के उदय के समय में है। वृज्ज्न गणराज्य आठ समूहों का एक सम्मिलन था, जिसमें लिच्छवी सबसे शक्तिशाली और प्रभावशाली थे।  मगध के शक्तिशाली साम्राज्य ने 51 9 ई०पू० में अपने पड़ोसी लिच्छवी से वैवाहिक संबंधों को समाप्त करना था। लिच्छवी के पड़ोसी सम्पदा के साथ अजातशत्रु ने वैशाली पर आक्रमण किया और तिरहुत पर अपना प्रभाव बढ़ाया। यह वही समय था कि पाटलीपुत्र की स्थापना अजातशत्रु ने पवित्र नदी गंगा के किनारे गांव पाटली में की थी, जिसने नदी के दूसरी तरफ लिच्छवीयों पर सतर्क रहने के लिए एक अजेय गढ़ का निर्माण किया था। अंबाराती, मुजफ्फरपुर से 40 किलोमीटर दूर वैशाली के प्रसिद्ध शाही नर्तक अमरापाली का गांव है। वैशाली, धार्मिक पुनर्जागरण का केंद्र, बसु कंड, महावीर का जन्मस्थान, 24 वें जैन तीर्थंकर और भगवान बुद्ध के एक समकालीन, अंतरराष्ट्रीय बोर्डर से दर्शकों को आकर्षित करना जारी रखते।
ह्यूएन त्सांग की यात्रा से पाल राजवंश के उदय तक, मुजफ्फरपुर उत्तरी भारत के एक शक्तिशाली महाराजा हर्षवर्धन के नियंत्रण में था। 647 ए डी के बाद जिला स्थानीय प्रमुखों को पारित कर दिया। 8 वीं शताब्दी के ए.ए. में, पाला राजाओं ने तिहुत पर 101 9 ए.यू. तक केन्द्रीय भारत के चडी राजाओं तक अपना कब्ज़ा करना जारी रखा और सेना वंस के शासकों द्वारा 11 वीं सदी के नजदीक तक जगह ले ली। 1211 और 1226 के बीच, बंगाल के शासक घैसुद्दीन इवाज, तिहुत का पहला मुस्लिम आक्रमणकारी था। हालांकि, वह राज्य को जीतने में सफल नहीं हो पाए लेकिन श्रद्धांजलि अर्पित कीं।सन 1323 में घायसुद्दीन तुगलक ने जिले के ऊपर अपना नियंत्रण स्थापित किया। मुजफ्फरपुर का इतिहास सिमरॉव वंश (चंपारण के पूर्वोत्तर भाग में) और इसके संस्थापक नुयुपा देव के संदर्भ के बिना अधूरे रहेगा, जिन्होंने पूरे मिथिला और नेपाल पर अपनी शक्ति बढ़ा दी थी। राजवंश के अंतिम राजा हरसिंह देव के शासनकाल के दौरान, तुगलक शाह ने 1323 में तिरहुत पर आक्रमण किया और क्षेत्र पर नियंत्रण प्राप्त किया। तुगलक शाह ने तीरहुत के प्रबंधन को कामेश्वर ठाकुर को सौंप दिया। इस प्रकार, तिरहुत की संप्रभु शक्ति हिंदू प्रमुखों से मुसलमानों तक जाती रही, परन्तु हिंदू प्रमुख निरंतर पूर्ण स्वायत्तता का आनंद उठाते रहे। चौदहवीं शताब्दी के अंत में उत्तरी हिंदुओं सहित पूरे उत्तर बिहार में तहहुत जौनपुर के राजाओं के पास चले गए और लगभग एक सदी तक उनके नियंत्रण में बने रहे, जब तक दिल्ली के सिकंदर लोदी ने जौनपुर के राजा को हरा दिया। इस बीच, बंगाल के नवाब हुसैन शाह इतना शक्तिशाली हो गए थे कि उन्होंने तिरहूत समेत बड़े इलाकों पर अपना नियंत्रण का प्रयास किया। दिल्ली के सम्राट 14 99 में हुसैन शाह के खिलाफ थे और राजा को हराने के बाद तिरहुत पर नियंत्रण मिला। बंगाल के नवाबों की शक्ति कम हो गई और महुद शाह की गिरावट और पतन के साथ तिरहुत सहित उत्तर बिहार शक्तिशाली मुग़ल साम्राज्य का हिस्सा बन गया। यद्यपि मुजफ्फरपुर पूरे उत्तर बिहार के साथ कब्जा कर लिया गया था, लेकिन बंगाल के नवाब, दाऊद खान के दिनों तक, इस क्षेत्र पर छोटे-छोटे प्रमुख सरदारों ने प्रभावी नियंत्रण जारी रखा था। दाद खान का पटना और हाजीपुर में गढ़ और उसके बाद मुगल वंश के तहत बिहार का एक अलग सुबादा गठित हुआ और तिरहुत ने इसका एक हिस्सा बना लिया। 1764 में बक्सर की लड़ाई में ईस्ट इंडिया कंपनी की जीत ने उन्हें पूरे बिहार पर नियंत्रण दिया और वे पूरे जिले को जीतने में सफल हुए। 1857 में दिल्ली में विद्रोहियों की सफलता ने इस जिले के अंग्रेजी निवासियों को गंभीर चिंता का सामना करना पड़ा और क्रांतिशील उत्साह पूरे जिले में व्याप्त हो गया। मुजफ्फरपुर ने अपनी भूमिका निभाई और 1 9 08 ई.  के प्रसिद्ध बम मामले की स्थल थी। युवा बंगाली क्रांतिकारी, खुदी राम बोस, केवल 18 साल के लड़के को प्रिंगल कैनेडी की गाड़ी में बम फेंकने के लिए फांसी पर लटका दिया गया था । वास्तव में किंग्सफोर्ड के लिए गलत था, मुजफ्फरपुर जिला न्यायाधीश स्वतंत्रता के बाद, इस युवा क्रांतिकारी देशभक्त के लिए एक स्मारक मुज़फ्फरपुर में बनाया गया था, जो अब भी खड़ा है। प्रथम विश्व युद्ध के बाद देश में राजनीतिक जागृति ने मुजफ्फरपुर जिले में राष्ट्रवादी आंदोलन को  प्रेरित किया।
 नदियों के के तट पर  भोग और ऐश्वर्य के बीच वैराग्य और निष्कामता का सन्देश का स्थल  वज्जिका भाषा मे तीरभुक्ति अपभ्रंश भाषा में तिरहुत आधुनिक मुजफ्फरपुर नामकरण किया गया है । बुद्ध काल में मुजफ्फरपुर को तीरभुक्ति कहा जाता था । मुजफ्फरपुर में सन 1908 ई० में महान क्रांतिकारी अमर शहीद खुदीराम बोस और प्रफुल्ल चाकी द्वारा घटित बमकांड ने जिस प्रकार अंग्रेजी सत्ता की नींव हिलाकर चुनौती दी एवं शहीद जुब्बा सहनी, वैकुण्ठ शुक्ल और भगवान् लाल के नाम  शहादत के इतिहास में स्वर्णाक्षरों में दर्ज हैं ।  मुजफ्फरपुर के युवाओं की राजनीतिक-वैचारिक चेतना की प्रखर पहचान में राष्ट्र पिता महात्मा गाँधी की चंपारण यात्रा के क्रम में  मुजफ्फरपुर आगमन से हुई थी ।. चंपारण में नील की खेती करने वाले किसानों पर  नीलहे अंग्रेज अफसरों के दमन के विरुद्ध महात्मा गाँधी के आन्दोलन में संगठित किसानों के नेता पं० राजकुमार शुक्ल के साथ यहाँ के कुछ समर्पित सामाजिक कार्यकर्ताओं ने चंपारण में अथक संघर्ष किया था । महात्मा गाँधी, डॉ.राजेन्द्रप्रसाद एवं जे.बी.कृपलानी के नेतृत्व में गाँधी के समर्पित अनुयायी ध्वजा प्रसाद साहू और बाबू लक्ष्मी नारायण ने बिहार खादी आन्दोलन की ज़मीन तैयार की थी । धार्मिक क्षेत्र में,बाबा गरीबनाथ , नगर के मध्य रमना में स्थित बाबू उमाशंकर प्रसाद द्वारा स्थापित वरदायिनी भगवती त्रिपुरसुन्दरी के अष्टधातु निर्मित कच्ची सराय रोड स्थित माता बगलामुखी मंदिर  सिद्ध पीठ ,  वैष्णव आस्था का प्रतीक चतुर्भुज स्थान मंदिर  सात सौ वर्ष का है । काव्य भाषा के रूप में खड़ीबोली की स्वीकृति का उद्घोष सर्वप्रथम मुजफ्फरपुर से बाबू अयोध्या प्रसाद खत्री ने 1887 ई० में किया था. प्रसिद्ध  उपन्यासकार देवकीनंदन खत्री की “ चंद्रकांता “ और  “चंद्रकांता संतति” की रचना ,  भारतीय कथाजगत के शलाकापुरुष शरतचंद्र ने अपने प्रसिद्ध उपन्यास “श्रीकांत “ के महत्वपूर्ण अंश इसी शहर में लिखे. कवीन्द्र रवींद्र नाथ टैगोर की  बड़ी पुत्री माधवीलता बंगाली परिवार में ब्याही थीं । .1913 में नोबेल पुरस्कार प्राप्त होने के बाद गुरुदेव का पहला नागरिक अभिनन्दन  मुजफ्फरपुर में हुआ था. ललित कुमार सिंह “नटवर” जैसे बहुविध साहित्यकार एवं अभिनेता , रामवृक्ष बेनीपुरी, रामजीवन शर्मा जीवन और मदन वात्स्यायन ,  उत्तर छायावाद के शिखर पुरुष महाकवि आचार्य जानकीवल्लभ शास्त्री का सम्पूर्ण जीवन  “निराला निकेतन “  स्मृतियों की धरोहर के रूप में जाता है । मुजफ्फरपुर की  जनभाषा बज्जिका में लोकजीवन और लोकसाहित्य की विशाल सम्पदा है । मगनीराम, हलधर दास, बुनियाद दास ,  डॉ. अवधेश्वर अरुण रचित “बज्जिका रामाएन” के रूप में इसकी काव्य चेतना शिखर पर पहुँच चुकी है संगीत परंपरा 18 वीं सदी में पं. विष्णुपद मिश्र की हवेली संगीत गायकी से शुरू होती है. वे नगर के एक प्राचीन मंदिर में ध्रुपद शैली में भजन गाया करते थे.उसके बाद 19 वीं सदी में अब्दुल गनी खां खयाल गायक ,  पं. सीताराम हरि दांडेकर राष्ट्रीय स्तर के संगीतज्ञ थे । चित्रकला के क्षेत्र में महादेव बाबू,सरोजिनी वाजपेयी, तपेश्वर विजेता और लक्ष्मण भारती ने अपने कलात्मक चित्रों और पेंटिग्स से प्रान्त के बाहर भी प्रसिद्धि प्राप्त की है । विज्ञान के क्षेत्र में वैज्ञानिक दुर्गाप्रसाद चौधरी की वैज्ञानिक खोज को देश स्तर पर प्रतिष्ठा प्राप्त है । मुजफ्फरपुर में स्थित रामकृष्ण मिशन में मेरिटेशन ध्यान कक्ष , काली मंदिर है वहीं नवयुवक समिति ट्रष्ट की स्थापना 1916 ई. एवं गांधी पुस्तकालय 1935 ई. में स्थापित कर साहित्य चेतना जगाया गया हसि । नटवर साहित्य परिषद की ओर से सहित्यिकी गतिविधियों में सक्रिय है । महात्मा गांधी द्वारा 1916 ई. 1920 ई. 1927 ई. एवं 1934 ई. में मुजफ्फरपुर का दौरा कर आजादी की चेतना जगाई थी । गांधी जी द्वारा लगाई गई वट वृक्ष लंगट सिंह कॉलेज परिसर में मूक गवाह है । गांधी जी की स्मृति में एल .एस. कॉलेज परिसर में कूप , गांधी जी का स्नान मुद्रा का तैल चित्र है । बिहार विश्वविद्याल , भारत के प्रथम राष्ट्र पति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद की कीर्तियाँ  पड़ी है ।

ऐश्वर्य प्राप्ति दिवस जेउष्ठान...


वैदिक एवं पुरणों तथा स्मृतियों में कार्तिक शुक्ल एकादशी का उल्लेख किया गया है । कार्तिक शुक्ल एकादशी को  देवोत्थान एकादशी , देवउठान एकादशी, प्रबोधिनी एकादशी , तुलसी एकादशी और तुलसी विवाह एकादशी कहा जाता है ।  भगवान विष्णु क्षीरसागर में चतुर्मास योगनिंद्रा में रहने के पश्चात  जागे थे। तुलसी और शालिग्राम के विवाह का आयोजन  करते हैं  । आषाढ़, शुक्ल पक्ष की एकादशी की तिथि को भगवान विष्णु का शयन को  देवशयन  और कार्तिक, शुक्ल पक्ष की एकादशी के दिन भगवान विष्णु योगनिंद्रा से जागने को देवोत्थान एकादशी  हैं। भगवान  विष्णु  के शयन काल के चार मासों में विवाहादि मांगलिक कार्यों का आयोजन करना निषेध है।    देवोत्थान एकादशी को यह चातुर्मास पूरा होता है और पौराणिक आख्यान के अनुसार इस दिन देवता भी जाग उठते हैं। माना जाता है कि देवशयनी एकादशी के दिन सभी देवता और उनके अधिपति विष्णु सो जाते हैं। फिर चार माह बाद देवोत्थान एकादशी को जागते हैं। देवताओं का शयन काल मानकर ही इन चार महीनों में कोई विवाह, नया निर्माण या कारोबार आदि बड़ा शुभ कार्य आरंभ नहीं होता। इस प्रतीक को चुनौती देते या उपहास उड़ाते हुए युक्ति और तर्क पर निर्भर रहने वाले लोग कह उठते हैं कि देवता भी कभी सोते हैं क्या श्रद्धालु जनों के मन में भी यह सवाल उठता होगा कि देवता क्या सचमुच सोते हैं और उन्हें जगाने के लिए उत्सव आयोजन करने होते हैं पर वे एकादशी के दिन सुबह तड़के ही विष्णु औए उनके सहयोगी देवताओं का पूजन करने के बाद शंख- घंटा घड़ियाल बजाने लगते हैं। पारंपरिक आरती और कीर्तन के साथ वे गाने लगते हैं- उठो देवा, बैठो देवा, अंगुरिया चटकाओं देवा।‘ देवताओं को जगाने, उन्हें अंगुरिया चटखाने और अंगड़ाई ले कर जाग उठने का आह्रान करने के उपचार में भी संदेश छुपा है। स्वामी नित्यानंद सरस्वती के अनुसार चार महीने तक देवताओं के सोने और इनके जागने पर कार्तिक, शुक्ल पक्ष की एकादशी पर उनके जागने का प्रतीकात्मक है। प्रतीक वर्षा के दिनों में सूर्य की स्थिति और ऋतु प्रभाव बताने, उस प्रभाव से अपना सामंजस्य बिठाने का संदेश देते हैं। वैदिक वांग्मय के अनुसार सूर्य सबसे बड़े देवता हैं। उन्हें जगत् की आत्मा भी कहा गया है। हरि, विष्णु, इंद्र आदि नाम सूर्य के पर्याय हैं। वर्षा काल में अधिकांश समय सूर्य देवता बादलों में छिपे रहते हैं। इसलिए ऋषि ने गाया है कि वर्षा के चार महीनों में हरि सो जाते हैं। फिर जब वर्षा काल समाप्त हो जाता है तो वे जाग उठते हैं या अपने भीतर उन्हें जगाना होता है। बात सिर्फ़ सूर्य या विष्णु के सो जाने और उस अवधि में आहार विहार के मामले में ख़ास सावधानी रखने तक ही सीमित नहीं है। इस अनुशासन का उद्देश्य वर्षा के दिनों में होने वाले प्रकृति परिवर्तनों उनके कारण प्राय: फैलने वाली मौसमी बीमारियों और शरीर की प्रतिरोधक क्षमता पर पड़ने वाले उसके प्रभाव के कारण अक्सर गड़बड़ाता रहता है। निजी जीवन में स्वास्थ्य संतुलन का ध्यान रखने के साथ ही यह चार माह की अवधि साधु संतों के लिए भी विशेष दायित्वों का तकाजा लेकर आती है। घूम-घूम कर धर्म अध्यात्म की शिक्षा देने लोक कल्याण की गतिविधियों को चलाते रहने वाले साधु संत इन दिनों एक ही जगह पर रुक कर साधना और शिक्षण करते हैं। तुलसी का पौधा जिस जगह वे ठहरते उस जगह माहौल में आध्यात्मिक, प्रेरणाओं की तंरगे व्याप्त रहती थीं। इस दायित्व का स्मरण कराने के लिए चातुर्मास शुरू होते ही कुछ ख़ास संदर्भ भी प्रकट होते लगते हैं। आषाढ़, पूर्णिमा को वेदव्यास की पूजा गुरु के प्रति श्रद्धा समर्पण, श्रावणी नवरात्र जैसे कई उत्सव आयोजनों की श्रृंखला शुरू हो जाती है जिनका उद्देश्य आध्यात्मिक उत्कर्ष की प्रेरणा देना ही होता था। भगवान श्रीविष्णु ने भाद्रपद मास की शुक्ल एकादशी को महापराक्रमी शंखासुर नामक राक्षस को लम्बे युद्ध के बाद समाप्त किया था और थकावट दूर करने के लिए क्षीरसागर में जाकर सो गए थे और चार मास पश्चात फिर जब वे उठे तो वह दिन देव उठनी एकादशी कहलाया। इस दिन भगवान श्रीविष्णु का सपत्नीक आह्वान कर विधि विधान से पूजन करना चाहिए। इस दिन उपवास करने का विशेष महत्व है और माना जाता है कि यदि इस एकादशी का व्रत कर लिया तो सभी एकादशियों के व्रत का फल मिल जाता है और व्यक्ति सुख तथा वैभव प्राप्त करता है और उसके पाप नष्ट हो जाते हैं।
पद्मपुराण के अनुसार इस दिन उपवास करने से सहस्त्र एकादशी व्रतों का फल प्राप्त होता है। जप, होम, दान सब अक्षय होता है। यह उपवास हजार अश्वमेध तथा सौ राजसूय यज्ञों का फल देनेवाला, ऐश्वर्य, सम्पत्ति, उत्तम बुद्धि, राज्य तथा सुख प्रदाता है। मेरु पर्वत के समान  पापों को नाश करनेवाला, पुत्र-पौत्र प्रदान करनेवाला है। इस दिन गुरु का पूजन करने से भगवान प्रसन्न होते हैं व भगवान विष्णु की कपूर से आरती करने पर अकाल मृत्यु नहीं होती।
कार्तिक शुक्ल एकादशी को देवोत्थनी एकादशी को  भगवान श्रीविष्णु ने भाद्रपद मास की शुक्ल एकादशी को महापराक्रमी शंखासुर नामक राक्षस को लम्बे युद्ध के बाद समाप्त किया था और थकावट दूर करने के लिए क्षीरसागर में जाकर सो गए थे और चार मास पश्चात फिर जब वे उठे तो वह दिन देवोत्थनी एकादशी कहलाया। इस दिन भगवान विष्णु का सपत्नीक आह्वान कर विधि विधान से पूजन करना चाहिए। इस दिन उपवास करने का विशेष महत्व है।
एकादशी  व्रत करने वाली महिलाएं  व पुरुष प्रातः स्नानादि से निवृत्त होकर पूजा स्थल को साफ करें और आंगन में चौक बनाकर भगवान श्रीविष्णु के चरणों को कलात्मक रूप से अंकित करें। दिन में चूंकि धूप होती है इसलिए भगवान के चरणों को ढंक दें।  उत्तिष्ठ गोविन्द त्यज निद्रां जगत्पतये। त्वयि सुप्ते जगन्नाथ जगत्‌ सुप्तं भवेदिदम्‌॥’ उत्थिते चेष्टते सर्वमुत्तिष्ठोत्तिष्ठ माधव। गतामेघा वियच्चैव निर्मलं निर्मलादिशः॥ शारदानि च पुष्पाणि गृहाण मम केशव।’ उत्तिष्ठ गोविन्द त्यज निद्रां जगत्पतये। हल्दी मिश्रित जल, तथा अष्ट गंध से स्नान कराएं इसके बाद नये वस्त्र अर्पित करें फिर पीले चंदन का तिलक लगाएँ, श्रीफल अर्पित करें,  नैवेद्य के रूप में विष्णु जी को ईख, अनार, केला, सिंघाड़ा आदि अर्पित करने चाहिए। फिर कथा का श्रवण करने के बाद आरती करें और बंधु बांधवों के बीच प्रसाद ग्रहण करते हैं । प्रबोधिनी एकादशी व्रत वाले दिन ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेद के विविध मंत्र है । पुराणों में उल्लेख  है कि स्वर्ग में भगवान श्रीविष्णु के साथ धरती पर तुलसी का है। इसी के चलते भगवान को जो व्यक्ति तुलसी अर्पित करता है उससे वह अति प्रसन्न होते हैं। बद्रीनाथ धाम में  यात्रा मौसम के दौरान श्रद्धालुओं द्वारा तुलसी की करीब दस हजार मालाएं रोज चढ़ाई जाती हैं। इस दिन श्रद्धालुओं को चाहिए कि जिस गमले में तुलसी का पौधा लगा है उसे गेरु आदि से सजाकर उसके चारों ओर मंडप बनाकर उसके ऊपर सुहाग की प्रतीक चुनरी को ओढ़ा दें। इसके अलावा गमले को भी साड़ी में लपेट दें और उसका श्रृंगार करें। इसके बाद सिद्धिविनायक श्रीगणेश सहित सभी देवी−देवताओं और श्री शालिग्रामजी का विधिवत पूजन करें। एक नारियल दक्षिणा के साथ टीका के रूप में रखें और भगवान शालिग्राम की मूर्ति का सिंहासन हाथ में लेकर तुलसीजी की सात परिक्रमा करना चाहिए । नेपाल का काठमांडू से 10 किमि की दूरी पर शिवपुर व शिवगंज पर्वत श्रृंखला पर भगवान शिवके त्रिशूल से निर्मित झील में निर्मित भगवान विष्णु की शयन युक्त विशाल मूर्ति एवं योगनिद्रा में भगवान विष्णु विराजमान है । नेपाल का पोखरा के समीप मुक्तिनाथ में भगवान विष्णु एवं शालिग्राम एवं वृंदा अर्थात तुलसी माता की उपासना होती है । 
द्वापरयुग में द्वारिकाधीश भगवान श्रीकृष्ण की पत्नी सत्यभामा को रूपवती और श्री कृष्ण से अधिक था । सत्यभामा ने देवर्षि नारद से  कहा कि आप मुझे आशीर्वाद दीजिए कि अगले जन्म में भी भगवान श्रीकृष्ण पति रूप में प्राप्त हों। नारदजी बोले, ‘नियम यह है कि यदि कोई व्यक्ति अपनी प्रिय वस्तु इस जन्म में दान करे तो वह उसे अगले जन्म में प्राप्त होगी।  श्रीकृष्ण को दान कर दे  तभी श्री कृष्ण  अगले जन्मों में जरूर मिलेंगे।’ सत्यभामा ने श्रीकृष्ण को नारदजी को दान रूप में दे दिया। जब नारदजी उन्हें ले जाने लगे तो अन्य रानियों ने उन्हें रोक  लेने के बाद नारदजी ने कहा कि  ‘यदि श्रीकृष्ण के बराबर सोना व रत्न देने पर  छोड़ देंगे।’ तब तराजू के एक पलड़े में श्रीकृष्ण बैठे तथा दूसरे पलड़े में सभी रानियां अपने−अपने आभूषण चढ़ाने लगीं, पर पलड़ा टस से मस नहीं हुआ। यह देख सत्यभामा ने कहा, यदि मैंने इन्हें दान किया है  उबार  लूंगी। यह कह कर उन्होंने अपने सारे आभूषण चढ़ा दिए, पर पलड़ा नहीं हिला। वे बड़ी लज्जित हुईं।  समाचार जब रुक्मिणी जी ने सुना  टैब तुलसी पूजन करके तुलसी  पत्ती  को पलड़े पर रखते  तुला का वजन बराबर हो गया। नारद तुलसी दल लेकर स्वर्ग को चले गए। तुलसी के वरदान के कारण अपनी व अन्य रानियों के सौभाग्य की रक्षा कर सकीं। तुलसी को यह पूज्य पद प्राप्त हो गया कि श्रीकृष्ण उसे सदा अपने मस्तक पर धारण करते हैं। एकादशी को तुलसीजी  पूजन किया जाता है।