बुधवार, नवंबर 30, 2022

जासूसी उपन्यास के जनक गहमरी..


हिंदी के महान सेवक, उपन्यासकार तथा पत्रकार ने  वर्षों तक बिना किसी सहयोग के 'जासूस'  पत्रिका निकाला और  २०० से अधिक उपन्यास , सैकड़ों कहानियों के अनुवाद किए थे ।  रवीन्द्रनाथ ठाकुर की 'चित्रागंदा' काव्य का प्रथम हिंदी अनुवाद गहमरीजी द्वारा अनुवाद किया गया था । वे  हिंदी की अहर्निश सेवा की, लोगों को हिंदी पढऩे को उत्साहित किया, ऐसी रचनाओं का सृजन करते रहे कि लोगों ने हिंदी सीखी।  लेखक की कृतियों को पढ़ने के लिए गैरहिंदी भाषियों ने हिंदी सीखी गोपालराम गहमरी  थे। गहमरी ने प्रारंभ में नाटकों का अनुवाद किया,  उपन्यासों का अनुवाद करने लगे। बंगला से हिन्दी में किया गया इनका अनुवाद तब बहुत प्रामाणिक माना गया है।  गोपालराम गहमरी ने कविताएं, नाटक, उपन्यास, कहानी, निबंध और साहित्य की विविध विधाओं में लेखन किया, लेकिन प्रसिद्धि मिली जासूसी उपन्यासों के क्षेत्र में। 'जासूस' नामक एक मासिक पत्रिका निकाली। इसके लिए इन्हें प्रायः एक उपन्यास हर महीने लिखना पड़ा। 200 से ज्यादा जासूसी उपन्यास गहमरीजी ने लिखे। 'अदभुत लाश', 'बेकसूर की फांसी', 'सर-कटी लाश', 'डबल जासूस', 'भयंकर चोरी', 'खूनी की खोज' तथा 'गुप्तभेद' इनके प्रमुख उपन्यास हैं। जासूसी उपन्यास-लेखन की जिस परंपरा को गहमरी ने जन्म दिया था । साहित्यकारों में गोपाल राम गहमरी हिन्दी साहित्य में जासूसी उपन्यास के जनक  है। वे हिंदी के महान सेवक, उपन्यासकार तथा पत्रकार थे। उन्होंने 38 वर्षों तक बिना किसी सहयोग के ‘जासूस’ नामक पत्रिका का संचालन किया। उन्होंने दो सौ से अधिक उपन्यास लिखें, सैकड़ों कहानियों के अनुवाद किए, जिनमें प्रमुख रवीन्द्रनाथ टैगोर की ‘चित्रागंदा’ भी थी। वह ऐसे लेखक थे जो हिन्दी पढ़ने वालों की संख्या में इजाफा कर सके। हिन्दी भाषा में देवकीनंदन खत्री के बाद यदि किसी दूसरे लेखक की कृतियों को पढ़ने के लिए गैरहिंदी भाषियों ने हिंदी सीखी तो वह गोपाल राम गहमरी थे । गहमर निवासी रामनारायण के पुत्र गोपाल राम गहमरी का जन्म सन् 1866 (पौष कृष्ण 8 गुरुवार संवत् 1923) में उत्तर प्रदेश के गाजीपुर जिले के गहमर में हुआ था।  छह मास की आयु में गोपाल राम  के  पिता का देहांत होने के बाद  इनकी माँ इन्हें लेकर अपने मायके गहमर चली आईं।  गोपाल राम की गहमर मेंप्रारंभिक शिक्षा वर्नाक्यूलर मिडिल की शिक्षा प्राप्त की थी । 1879 में मिडिल उतीर्ण होने के बाद गहमर स्कूल में चार वर्ष तक छात्रों को पढ़ाते रहे और उर्दू और अंग्रेजी का अभ्यास करते रहे। पटना नार्मल स्कूल में भर्ती हुए, जहां इस शर्त पर प्रवेश हुआ कि उत्तीर्ण होने पर मिडिल पास छात्रों को तीन वर्ष पढ़ाना पड़ेगा। आर्थिक स्थिति अच्छी न होने के कारण शर्त को स्वीकार कर लिया। गहमर से अतिरिक्त लगाव के कारण गोपाल राम ने अपने नाम के साथ अपने ननिहाल को जोड़ लिया और गोपाल राम गहमरी कहलाने लगे थे । बंबई में गहमरी की कलम गतिशील रही। गोपाल राम गहमरी ने लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक के पूरे मुकदमे को अपने शब्दों में दर्ज किया था। उनके सम्पादन में प्रकाशित होने वाले पत्र-पत्रिकाओं की एक लंबी श्रृंखला है।  प्रतापगढ़ के कालाकांकर से प्रकाशित ‘हिन्दुस्थान’ दैनिक , बंबई व्यापार सिन्धु, गुप्तगाथा, श्री वेंकटेश्वर समाचार और भारत मित्र  हैं। उनमें हिंदी भाषा के लिए कुछ अलग और वृहत करने की बेचैनी थी और दूसरी ओर उनके भीतर पनपती ‘जासूस’ की रूपरेखा थी । गहमरी ने  मासिक पत्रिका ‘जासूस’ का प्रकाशन शुरू किया, जिसका विज्ञापन भी उनके ही संपादन में आने वाले अखबार ‘भारत मित्र’ में दिया था ।  वर्ष 1900 के दौरान किसी पत्रिका के इतिहास में नाम अंकित हुआ है । देवकी नंदन खत्री और गोपाल राम गहमरी के द्वारा शुरू ‘जासूसी लेखन’ की परंपरा साहित्यिक पंडितों की उपेक्षा और तिरस्कार के बावजूद गहमरी और खत्री की बदौलत लंबे समय तक चलती रही। हिन्दी में ‘जासूस’ शब्द के प्रचलन का श्रेय गहमरी  है। गहमरी ने लिखा है कि ‘1892 से पहले किसी पुस्तक में जासूस शब्द नहीं दिखाई नहीं पड़ा था।’  ‘जासूस’  अंक में एक जासूसी कहानी के अलावा समाचार, विचार और पुस्तकों की समीक्षाएं  नियमित रूप से छपती थी । गहमरी की ‘जासूस’ ने प्रारंभिक अंकों से  पाठकों में लोकप्रियता प्राप्त की।  गोपालराम गहमरी  जासूसी ढंग की कहानियों और उपन्यासों के लेखन की ओर प्रवृत्त हुए थे ।  गहमरी के योगदान को केवल जासूसी उपन्यासों तक सीमित किया जाता है, बल्कि उनका योगदान हिंदी गद्य साहित्य में अद्वितीय है। हिन्दी अपने विकास काल में  हिंदी गद्य साहित्य ब्रजभाषा व खड़ीबोली का द्वन्द झेल रहा था तब गहमरी न केवल खड़ीबोली के पक्ष में खड़े होते हैं बल्कि ब्रजभाषा के  पक्षकारो को खड़ीबोली के पक्षकारो में शामिल करते हैं। सहज, सुगम, सुंदर और सुबोध हिंदी-प्रचार गहमरी जी की साहित्य सेवा का मुख्य उद्देश्य था। हिंदी गद्य साहित्य के विकास में गोपाल राम गहमरी के जासूसी उपन्यासों के महत्तवपूर्ण योगदान को भुलाया नहीं जा सकता। गहमरी जी का निधन 1946 ई. में  हुआ था ।
 जासूस के जनक प्रसिद्ध जासूसी उपन्यासकार गोपालराम गहमरी की स्मृति में  गहमर जी की जन्मभूमि ग्गहमर पर  साहित्य सरोज पत्रिका एवं आनलाइन पत्रिका धर्मक्षेत्र द्वारा *गोपाल राम गहमरी साहित्यकार महोत्सव एवं सम्मान समारोह पिछले 7 वर्षों से किया जाता है । साहित्य सरोज भोपाल के प्रधान संपादिका कांति शुक्ला एवं अखंड गहमरी  प्रकाशक साहित्य सरोज संपादक धर्म क्षेत्र द्वारा गहमरी स्मृति सम्मान समारोह आयोजित किया जाता है।
 एशिया महाद्वीप तथा भारत का सबसे बड़ा गांव उत्तर प्रदेश का गाजीपुर जिलांतर्गत   पटना और मुगलसराय रेल मार्ग पर स्थित गंगा नदी के किनारे  वर्गमील क्षेत्रफल में फैले 22 टोलों से युक्त गहमर  स्थित है । बाबर और राणा सांगा के बीच फतेहपुर सीकरी के मैदान में ऐतिहासिक युद्ध के बाद  फतेहपुर सीकरी के राजा धाम सिंह जु देव , राजपुरोहित गंगेश्वर उपाध्याय तथा दीवान वीर सिंह राजपूत द्वारा फतेहपुर सीकरी की कुल देवी की मूर्ति माता कामख्या की स्थापना गहमर  में हुई  थी । गहमर का 10 हजार लोग इंडि‍यन आर्मी में जवान से लेकर कर्नल और 14 हजार से ज्यादा भूतपूर्व सैनिक हैं। गाजीपुर जिला मुख्यालय गाजीपुर से  40 किलोमीटर की दूरी पर स्थित गहमर में रेलवे स्टेशन पटना और मुगलसराय से जुड़ा हुआ है। सन् 1530 में कुसुम देव राव ने 'सकरा डीह'  बसाया था।  विभिन्न प्रसिद्ध व्यक्ति सैनिक के नाम पर  भिन्न भिन्न 22 टोले  है। प्रथम और द्वितीय विश्वयुद्ध तथा 1965 और 1971 के युद्ध या कारगिल की लड़ाई में गहमर के फौजियों ने बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया। विश्वयुद्ध के समय अंग्रेजों की फौज में गहमर के 228 सैनिक में 21 मारे गए थे। शहीदों की याद में गहमर में  शिलालेख  है। गहमर के भूतपूर्व सैनिकों द्वारा पूर्व सैनिक सेवा समिति नामक संस्था स्थापित है। गहमर के युवक  गंगा तट पर स्थित मठिया चौक पर सुबह-शाम सेना की तैयारी करते हैं। इंडियन आर्मी गहमर में भर्ती शिविर लगाया करती थी । सैनिकों की बढ़ती  संख्या को देखते हुए भारतीय सेना ने गांव के लोगों के लिए सैनिक कैंटीन की सुविधा उपलब्ध कराई थी। जिसके लिए वाराणसी आर्मी कैंटीन से सामान हर महीने में गहमर गांव में भेजा जाता था ।

शुक्रवार, नवंबर 18, 2022

मागधीय सभ्यता का रूप है दाबथु विरासत ....


मागधीय कला एवं संस्कृति से परिपूर्ण बिहार है । मागधीय वास्तुकला , मूर्तिकला और मृदभांड की कहानी विकास का रूप है ।महान साम्राज्यों का उद्भव और पतन तथा विदेशियों के आक्रमण आदि से मागधीय वास्तुकला और मूर्तिकला के विकास में परिलक्षित होते है । बिहार का जहानाबाद जिला मुख्यालय जहानाबाद से 26 किमि.और  हुलासगंज प्रखण्ड मुख्यालय हुलासगंज से 3 किमि की दूरी पर 186 हैक्टेयर में विकसित दाबथु का 52 बीघे में फैला दाबथु गढ़ हड़प्पाई , मौर्यकालीन , मौर्योत्तर ,और गुप्तकालीन जलवार नदी के किनारे स्थित दाबथु का प्रादुर्भाव हुआ था । दाबथु कि जयवंत कल्पना और कलात्मक संवेदनशीलता प्राचीन सभ्यता की विशिष्टता का उत्खनन स्थलों पर पाई मूर्तियों , मुहरों ,भृदभांडों आदि , पाषाण युक्त दीवारें आदि से प्रकट होती है ।52 बीघे में फैले दाबथु की भूमि सनातन धर्म , हिन्दू , जैन और बौद्ध का स्थल था । इस स्थल पर सौर , शाक्त , शैव , वैष्णव सम्प्रदाय के अलावा जैन तथा बौद्ध का शिक्षा केन्द्र था । दाबथु में स्थित ईंटे ,गढ़ी और निचला नगर और अग्नि वेदिकाएँ सभ्यता का आवास गृह ,मिट्टी की पक्की ईंटों से परिपूर्ण गढ़ पाषाण युक्त  स्तंभों वाला  बरामदा  , मंदिर , स्तंभों वाला हॉल है । दाबथु गढ़ के उत्खनन से पुरातत्वविदों को कई मूर्तियों , आदि प्रप्त हुए हैं।  पकी ईंटें , मातृदेवी की मूर्ति , बड़ी शिवलिंग , क्षतिग्रस्त मूर्तियां है । मौर्यकाल में देवरथ ,देव स्मिता ,दितिकक्ष ,दियारा , देवयानी ,,देवब्रत , पवित्र स्थलको अपभ्रंश दाबथु कहा गया । इक्ष्वाकु कुल के अमित्रजीत का पुत्र वृहद्रराज युर मगध साम्राज्य का वृहद्रथ वंशीय दृढ़सेन द्वारा नगर की स्थापना कर गुरुकुल का निर्माण किया किया गया था । मौर्य काल 345 ई.पू.  , शुंग काल 185 ई.पू. ,  गुप्त काल 320 ई. पाल केयाल 750 ई. , सेन काल हर्षवर्द्धन काल तक दाबथु विकशित था ।पल वंशीय देवपाल द्वारा बौद्ध मठ  का निर्माण कराया था । दाबथु में विकास पाल काल  में जावा के शैलेन्द्र वंशी बलपुत्र देव ने गौड़ीरीति साहित्यक विद्या का विकास और बौद्ध बिहार की स्थापना की थी । देव रथ स्थल को देवपाल  के नाम पर दबथु, दाबथु स्थल है । दाबथु गढ़ के पुनः उत्खनन होने पर मागधीय विरासत का बहुमूल्य रहस्य मिलता है ।



गुरुवार, नवंबर 17, 2022

शीतलता और आध्यात्मिक स्थल है अगम कुवाँ...

मागधीय संस्कृति और आध्यात्मिक चेतना क्षेत्र पटना के अगम कुवाँ स्थल है । महाभारत काल में माता शीतला माता और कूप का जल निरोगता और आध्यात्मिक चेतना जगृत स्थल था । जैन धर्म और बौद्ध धर्म तथा शाक्त धर्म स्टाल के रूप में प्रसिद्ध के कारण अगम कहा गया था ।
बिहार राज्य की राजधानी पटना में अगम  कुँआ पुरातात्विक स्थल है। अगम कुँए का पुनः निर्माण चक्रवर्ती सम्राट अशोक मौर्य 304-232 ई .  पू . ) की अवधि में  हुई  थी। अगम कुआँ का आकार में परिपत्र, कुआं ऊपरी 13 मीटर (43 फीट) में ईंट के साथ पंक्तिबद्ध और शेष 19 मीटर (62 फीट) में लकड़ी के छल्ले से युक्त  हैं। निर्देशांक: 25°35′53″एन 85°11′48″ई / 25.59806°N 85.19667° ई पर स्थित पटना से पूरब और पंच पहाड़ी के रास्ते गुलजारबाग स्टेशन के दक्षिण पश्चिम में अगमकुआं है । अगमकुआं के समीप  शीतला मंदिर के गर्भगृह में लोक देवी  शीतला देवी की सप्तमातृकाओं से युक्त सात मातृ देवी के पिंडों की पूजा की जाती है। चेचक और चिकन पॉक्स के इलाज के लिए शीतला मंदिर में स्थित शीतला माता की उपासना की जाती है। ब्रिटिश खोजकर्ता, लॉरेंस वेडेल ने 1890 ई. में  पाटलिपुत्र के खंडहरों की खोज करते हुए अशोक द्वारा बनाए गए पौराणिक  अगमकुआं की खोज की थी । चीनी यात्री फाह्यान द्वारा 5वीं एवं 7 वीं शताब्दी में  अगमकुआं को फेन अर्थात उग्र कुआँ ,अत्याचारियों को दंड स्थल , नर्क कूप ,दोषियों को कुएं से निकलने वाली आग में प्रवेश करने इस्तेमस्ल करने का स्थल था ।बौद्ध धर्म ग्रहण स्थल स्थल अगम था । अशोक  VIII के अनुसार अगम  कुएँ का उल्लेख "उग्र कुआँ" या "धरती पर नरक" किया गया  था। अगम कुआँ था जहाँ अशोक ने अपने बड़े सौतेले भाई के 99 सिर काट दिए और अगम कुआँ में डाला कर मगध साम्राज्य का में  मौर्य साम्राज्य की स्थापना की थी । "गर्मी और नरक" से जुड़ा हुआ है। मुगल काल में  मुगल अधिकारियों ने अगम कुआँ को अगम कुआन के लिए  सोने और चांदी के सिक्के की पेशकश की थी । अगम कुआँ की संरचना -  105 फीट (32 मीटर) गहरी  योजना में परिपत्र है ।  अगम कुआँ का  व्यास 4.5 मीटर (15 फीट)  है। अगम कुआँ का ऊपरी आधे हिस्से में 44 फीट (13 मीटर) की गहराई तक ईंट से घिरा हुआ तथा  निचले 61 फीट (19 मीटर) लकड़ी के छल्ले की एक श्रृंखला द्वारा सुरक्षित हैं। बाँस के साथ कवर, सतह संरचना युक्त   कुएं को कवर कर विशिष्ट विशेषता बनाती है ।  कुआँ में आठ धनुषाकार खिड़कियां हैं। बादशाह अकबर के शासनकाल के दौरान अगम  कुएं का नवीनीकरण कर  चारों ओर  छतनुमा ढांचा बना कर  परिपत्र संरचना को आठ खिड़कियों के साथ मरम्मत  किया गया था । अगमकुआं ,कहानिया एन्ड स्टोन थ्रू 1993 के अनुसार अगम कुआँ का महत्वपूर्ण उल्लेख किया गया है । अगम कुआँ को धरती का नरक ,उग्र कूप ,, आगम कुआन , मोक्ष कूप , फे , फें , फ़ें , फेन , यातना कूप कहा गया है । कूप के अंदर 9 छोटे छोटे कम निर्मित सुरंग युक्त गुप्त है । सुरंग युक्त कूप का जुड़ाव गंगा सागर , राजगीर , गया , गंगा  और राज खजाने से संबंध था । मगध साम्राज्य का सम्राट अशोक काल में यातना कूप कहा जाता था । मगध का राजा चंद्र ने जैन धर्म के अनुयायी सुदर्शन को हत्या कर अगम कूप में फिकवा दिया था ।जैन धर्म के सुदर्शन उप में कमलपुष्प पर बैठे अपने शिष्यों को उपदेश दिए थे । सम्राट अशोक ने 304 - 322 ई.पु. में अगम कूप का जीर्णोंद्धार कराया था । ब्रिटिश सरकार के अधिकारी की छड़ी अगम कूप में गिरी थी । वह गिरी छड़ी बंगाल का गंगा सागर में में प्राप्त हुई । वह छड़ी कलकत्ता संग्रहालय में है । बादशाह अकबर शासन काल में 8 धनुषाकार खिड़की के निर्माण कर कूप का जीर्णोद्धार कराया था ।डाइरेक्टर अर्कोलोजिकल बिहार 3 मार्च 2016 के अनुसार 1932 , 1962 और 1995 ई. में अगम कुआँ के रहस्यों की जानकारी प्राप्त की गई है । जैन धर्म की प्रथम संगति 300 ई. पू. में पाटलिपुत्र क्षेत्र के अगम कूप के क्षेत्र  पर जैन धर्म के अनुयायी स्थूलभद्र की अध्यक्षता में हुई थी । मगध साम्राज्य का सम्राट अशोक द्वारा पाटलिपुत्र के अगम कूप के समीप तृतीय बौद्ध संगीति मोग्गलीपुत्त की अध्यक्षता में 255 ई.पू. कराई गई थी । सूर्य की किरणें और चंद्रमा की किरणों के प्रभाव से अगमकुप का जल में परिवर्तन होता रहता था । कूप जल से क्षय रोग , चेचक , हैजे की विमारी में प्रयोग कर स्वच्छ होते थे । जल सेवन और पैन करने से शारीरिक मानसिक और आदिस्टमिक चेतना जगृत होती थी । अगम कूप के समीप माता शीतला की मूर्ति उत्खनन से प्राप्त हुई है । कूप की परिक्रमा और रहने से आध्यात्मिक शक्ति मिलती है ।अगम कूप की विशेषता जैन और बौद्ध ग्रथों में उल्लेख मिलता है ।
शीतला माता मंदिर - पटना के अगमकुआं  परिसर में ऐतिहासिक माता शीतला के मंदिर के गर्भगृह में पर्यावरण एवं शीतलता की देवी शीतल का  महत्व है। चैत्र  कृष्ण पक्ष  सप्तमी अष्टमी को शीतला माता का पर्व बसौड़ या बसौरा मनाया जाता हैं। ब्रह्मा जी ने  देवलोक से धरती पर मां शीतला अपने साथ भगवान शिव के पसीने से बने ज्वरासुर को अपना साथी मानकर आयी थी । ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, जाट और गुर्जर समेत कई समाजों की कुलदेवी के रूप  है।  सप्तमी-अष्टमी वाले दिन शीतला माता का पूजन करके उन्हें दही, चावल और अन्य कई चीजों से नैवेद्य का भोग लगाने के तत्पश्चात घर के सभी लोग ठंडा यानी बसौड़ा भोजन ग्रहण करते हैं। शीतला माता का प्रकोप होने से बीमारी होती है। शक्ति और निरोगता की देवी शीतला माता का वस्त्र लाल , अस्त्र कलश, सूप, झाड़ू, नीम के पत्ते , जीवनसाथी भगवान शिव और सवारी गर्दभ है । माता शीतला को खासतौर पर मीठे चावलों का भोग लगाते और चावल, गुड़ या गन्ने के रस से बनाए जाते हैं। कहीं-कहीं माता को चावल और घी का भी भोग लगाया जाता है। इस दिन घरों में खाना नहीं बनाया जाता है, बल्कि माता को चढ़ाये प्रसाद को ही ग्रहण किया जाता है । माता  शीतला सप्तमी पर शीतला मां की विशेष पूजा करने से रोगों से मुक्ति मिलने के साथ और उत्तम स्वास्थ्य की प्राप्ति होती है । स्कंद पुराण के अनुसार, माता शीतला रोगों से बचाने वाली देवी हैं । माता को शीतल जल चढ़ाने से भक्तों की हर मनोकामना पूर्ण होती है। शीतला माता के स्वरूप के प्रतीकात्मक  हैं। पर्यावरण के शुद्धिकरण एवं  सृष्टि को विषाणुओं से बचाने , साफ-सफाई, स्‍वस्‍थता और शीतलता का देवी शीतला माता है।  गणेश जी की सर्वाधिक प्रिय दूब मां शीतला को पसंद है ।  माता शीतला सात बहन में  ऋणिका, घृर्णिका, महला, मंगला, शीतला, सेठला और दुर्गा है ।. चैत्र कृष्ण अष्टमी से आषाढ़ कृष्ण अष्टमी तक होने वाले 90 दिन के व्रत को ही गौरी शीतला व्रत  है । स्कंद पुराण के अनुसार माता शीतला का मंत्र 'ॐ ह्रीं श्रीं शीतलायै नमः' भी प्राणियों को सभी संकटों से मुक्ति दिलाकर समाज में मान सम्मान पद एवं गरिमा की वृद्धि कराता है। देवी भागवत के अनुसार गौतम ऋषि की पत्नी और ब्रह्माजी की मानसपुत्री माता शीतला  थी। ब्रह्मा जी  ने अहल्या को सबसे सुंदर स्त्री बनाया था । अरावली पर्वतमाला के सुधा श्रंखला  सुंधा माता के नाम से  जाना जाता है। मां की प्रतिमा बिना धड़ के होने कारण इसे अधदेश्वरी  कहा जाता है। सुंधा माता मंदिर राजस्थान है। शीतला माता की पूजा चैत्र मास के कृष्ण पक्ष की सप्तमी तिथि से शुरू होती है  मगध , मिथिला , अंग , भोजपुर , बिहार   में शीतला माता  पूजा होली के बाद पड़ने वाले पहले सोमवार या गुरुवार के दिन होती है । शीतला  माता का प्रतीक चिन्ह क्या है?शीतला माता की चारों भुजाओं में झाड़ू, घड़ा, सूप और कटोरा सुशोभि  हैं । सफाई का प्रतीक चिन्ह हैं। उनकी सवारी गधा है, जो उन्हें गंदे स्थानों की ओर ले जाती है। झाड़ू उस स्थान की सफाई करने के लिए तो सूप कंकड़-पत्थर को अलग करने के लिए है। 'वन्देहं शीतलां देवीं रासभस्थां दिगम्बराम। मार्जनीकलशोपेतां शूर्पालंकृतमस्तकाम॥' अर्थात गर्दभ पर विराजमान, दिगम्बरा, हाथ में झाड़ तथा कलश धारण करने वाली, सूप से अलंकृत मस्तक वाली भगवती शीतला की मैं वंदना करता हूं।  स्वच्छता की अधिष्ठात्री देवी हैं। शीतला माता का मंदिर राजस्थान की राजधानी जयपुर से लगभग 70 किलोमीटर दक्षिण में  चाकसू गाँव में स्थित ऊँची 300 मीटर एक पहाड़ी पर स्थित है । जो दूर से ही दिखाई देता है। माता के दर्शन के लिए लगभग 300 मीटर की चढ़ाई करनी पड़ती है। शीतला माता मंदिर जयपुर राजस्थान , बिहार का गया तथा  पटना में है । 
कृष्ण , जैन ,बौद्ध , महापद्मनंद , मौर्य, शुंग , गुप्त काल में आध्यात्मिक चेतना स्थल पर माता शीतला की उपासना होती रही है ।






बुधवार, नवंबर 16, 2022

देव की विरासत....


बिहार का औरंगाबाद जिले के देव प्रखंड में औरंगाबाद से 6 मील दक्षिण पूर्व में स्थित सौरसम्प्रदाय का प्रमुख स्थल देव है। देव में भगवान सूर्य को समर्पित सूर्य  मंदिर  है। सूर्य पुराण के अनुसार ब्रह्म कुंड में स्नान करके कुष्ठ रोग से उबरने के बदले में राजा और द्वारा मूल सूर्य मंदिर की मरम्मत की गई थी। इस मंदिर को मुसलमानों ने अपनी विजय के मद्देनजर तोड़ दिया था और कहा जाता है कि इसका पुनर्निर्माण कुछ हुंडू राजा ने किया था जिनके बारे में कोई निश्चित जानकारी नहीं है।  भगवान सूर्य की पूजा और ब्रह्म कुंड में स्नान करने का धार्मिक महत्व राजा और के समय से पता चलता है। स्नान कार्तिक और चैत्र शुक्ल पक्ष में मनाई जाने वाली  छठ पर आस-पास और पड़ोसी जिलों के लोग छठ पर्व से दो या एक दिन पहले हजारों की संख्या में आते हैं और अगले दिन तक वहीं रहते हैं। सूर्य मंदिर का निर्माण राजा एल द्वारा  अखंड पैटर्न में किया गया है। प्रत्येक स्लैब को लोहे के खूंटे से जोड़ा गया है और कलात्मक रूप से छवियों और अन्य कारीगरी में उकेरा गया है। सूर्य मंदिर के शीर्ष पर स्लैब में कमल की नक्काशी वाले गुंबदों के निर्माण ने बोधगया और पुरी के मंदिरों से एक महान प्रगति की। होगा । मंडप मंदिर के सामने  मंडप का निर्माण किया गया है जिसका निर्माण सूर्य मंदिर के निर्माण से पुराना लगता है। गणेश की एक छवि, सूर्य मंदिर की दीवार पर खुदी हुई है। सूर्य मंदिर के गर्भगृह में स्थित  मंच पर अगल-बगल तीन मूर्तियाँ हैं जिनके सामने एक रथ खींचने वाला घोड़ा भी खुदा हुआ है। मंडप के अंदर कुछ शिलालेख हैं। उसी प्रकार का सूर्य  मंदिर उमागा सूर्य मंदिर के सदृश्य  है । देव राज परिवार के बारे में कहा जाता है कि वे इस स्थान पर स्थानांतरित हो गए थे। देव बिहार के सबसे पुराने परिवारों में से एक देव राजा के वंशज  उदयपुर के राजस्थान में अपने वंश का जुड़ाव  हैं। पारिवारिक परंपरा के अनुसार उदयपुर के राणा के छोटे भाई महाराणा राजभान सिंह ने पंद्रहवीं शताब्दी में जगन्नाथ के मंदिर के रास्ते में उमागा में डेरा डाला था। एक पहाड़ी किला था। जिनमें से प्रमुख एक बूढ़ी और असहाय विधवा को छोड़कर मर गया, जो अपने विद्रोही विषयों पर आदेश रखने में असमर्थ थी। भान सिंह के आने की बात सुनकर उसने उसे अपने बेटे के रूप में अपनाते हुए खुद को अपनी सुरक्षा में लगा लिया। उसने जल्द ही खुद को छवि किले का स्वामी बना लिया और घटना के विद्रोह को शांत कर दिया। उसकी मृत्यु के बाद उसके दो वंशजों ने वहां शासन किया लेकिन बाद में परिवार की वर्तमान सीट के पक्ष में किले को छोड़ दिया गया। देव  राजा राजा छत्रपति ने अंग्रेजों की मदद की थी। वारेन हेस्टिंग्स और बनारस के राजा चैत सिंह के बीच की प्रतियोगिता में देव राजा इतने बूढ़े हो गए थे कि उनका बेटा फतेह नारायण सिंह मेजर क्रॉफर्ड के अधीन सेना में शामिल हो गए और बाद में पिंडारियों के साथ युद्ध में अंग्रेजों की सहायता की। पूर्व सेवा के लिए युवा राजा को ग्यारह गांवों का नंकार या किराया मुक्त कार्यकाल दिया गया था और उनकी बाद की सेवाओं को राजा पलामू के साथ पुरस्कृत किया गया था, जिसे बाद में औरंगाबाद जिले के गांवों में बदल दिया गया था, जिससे रुपये की आय हुई। 3000 प्रति वर्ष राजा फतेह नारायण सिंह के उत्तराधिकारी घनश्याम सिंह थे जिन्होंने सरगुजा में विद्रोहियों को ब्रिटिश सेना के साथ मैदान में उतारा था । उन्हें पलामू के राज में दूसरी बार पुरस्कार मिला। उनके बेटे राजा मित्र भान सिंह ने छोटानागपुर में कोल विद्रोह को दबाने में अच्छी सेवा की और उन्हें रुपये की छूट के साथ पुरस्कृत किया गया। देव एस्टेट से होने वाले सरकारी राजस्व से 1000 रु. 1857 के निर्देशों के दौरान राजा के दादा जयप्रकाश सिंह की सेवाएं, जिन्होंने अपने सैनिकों को छोटानागपुर भेजा था, उन्हें महाराजा बहादुर की उपाधि से सम्मानित किया गया था, जो कि भारत के स्टार का नाइटहुड और एक जागीर या किराया मुक्त कार्यकाल का अनुदान था। अंतिम आरजे की मृत्यु 16 अप्रैल 1934 को हुई थी और उनकी विधवा को उनके उत्तराधिकारी के रूप में छोड़ दिया गया था। संपत्ति 92 वर्ग मील में फैली हुई है और 1901 और 1903 के बीच सर्वेक्षण और निपटान के तहत लाया गया था। बिहार भूमि सुधार अधिनियम के अधिनियमन के साथ देव राज की जमींदारी राज्य को पारित कर दी गयी है।औरंगाबाद में धर्मशाला में स्थित 1904 से हनुमान जी की मूर्ति स्थापित है ।




मंगलवार, नवंबर 08, 2022

उमगा पर्वत समूह की सांस्कृतिक विरासत ....

    प्रसिद्ध पर्यटक आकर्षण का केंद्र ओरंगाबाद जिले का मदनपुर प्रखंड में तथा ओरंगाबाद से 24 किमि की दूरी पर उमगा पर्वत श्रंखला के विभिन्न स्थलों पर भगवान सूर्य , गणपति एवं भगवान शिव एवं  वैष्णव मंदिर है  वास्तुकला के से परिपूर्ण है । चामुंडा मंदिर का अवशेष , माता उमगेश्वरी की मूर्ति भारी चट्टानों में गुफ़ानुमा में स्थित , सहस्रलिंग शिव ,  उमा महेश्वर मंदिर है । स्क्कायर ग्रेनाईट ब्लोकों का इस्तेमाल शानदार वैष्णव मंदिर एवं भगवान सूर्य मंदिर का गर्भगृह में  भगवान् गणेश,  भगवान् सूर्य और भगवान् शिव  हैं ।  भारतीय विरासत संगठन के अध्यक्ष साहित्यकार व इतिहासकार सत्येन्द्र कुमार पाठक द्वारा 6 नवम्बर 2022 को उमगा पर्वत श्रृंखला के विभिन्न स्थानों पर अवस्थित विरासतों का परिभ्रमण किया । ओरंगाबाद  जिले के  अनुग्रह नारायण रोड रेलवे स्टेशन से 36 किमि  एवं जिला मुख्यालय ओरंगाबाद से 24  कि0‍मी0 की दूरी एवं  ग्रैण्‍ड ट्रंक रोड से 1.5 कि0मी0 दक्षिण की ओर एवं देव से 12 कि0मी0 की दूरी पर स्थित है उमगा है । उमगा पर्वत समूह का सूर्यान्क गिरि , उमगेश्वरी गिरि , विष्णु गिरि , उमामहेश्वर गिरी पर पत्थर युक्त मंदिर प्राचीन एवं मागधीय संस्कृति की पहचान है । औरंगाबाद जिले के दक्षिण-पूर्व में   देव से 8 मील पूर्व और मदनपुर के नजदीक स्थित उमगा पर्वत समूह है। उमागा गांव को  मुंगा एवं उमगेश्वरी  कहा जाता है, मूल रूप से देव राज की स्थान थी क्योंकि देव राज के विवरण में इसका उल्लेख यहां किया गया था कि इसके संस्थापक स्थानीय शासक परिवार के बचाव में आए थे। खुद को पहाड़ी किले का मालिक बनाकर अपने वश में कर लिया। इसके विद्रोही प्रजा ने स्थानीय राजा  भैरवेंद्र की लड़की से शादी की और देव के लिए जगह छोड़ने से पहले उनके वंशज 150 साल तक यहां रहे। राजा भैरवेंद्र  के समय में रुचि का मुख्य उद्देश्य पहाड़ी के पश्चिमी ढलान पर सुरम्य रूप से स्थित सुंदर  पत्थर का मंदिर है और देश को कई मील तक देख रहा है। मंदिर की ऊंचाई लगभग 60 फीट है और यह पूरी तरह से बिना सीमेंट के वर्गाकार ग्रेनाइट ब्लॉकों से बना है, जबकि छत को सहारा देने वाले स्तंभ बड़े पैमाने पर मोनोलिथ हैं। मंदिर की उल्लेखनीय विशेषता स्तंभों के मुख पर प्रवेश द्वार पर कुछ अरबी शिलालेखों की उपस्थिति है और द्वार के जाम्बे पर बाद में अल्लाह के नाम तक सीमित है। वे मुसलमानों द्वारा उत्कीर्ण किए गए थे, जो कभी मस्जिद के रूप में मंदिर का इस्तेमाल करते थे और उनकी उपस्थिति के लिए मुस्लिम कट्टरपंथियों के विवरण हाथों से इसके संरक्षण को जिम्मेदार ठहराया जा सकता है। बाद के हिंदू भक्तों द्वारा जानबूझकर छीने जाने के कारण उन्हें अब विलोपित कर दिया गया है। मंदिर के बाहर गहरे नीले रंग के क्लोराइट का एक बड़ा तलाव 1439 ईस्वी में भैरवेंद्र द्वारा अपने भाई बलभद्र और उसकी बहन सुभद्रा को जगन्नाथ को समर्पित मंदिर को रिकॉर्ड करता है। इस शिलालेख में उल्लेख है कि उमागा शहर अपने 12 पूर्वजों के शासन के तहत एक ऊंचे पहाड़ की चोटी पर फला-फूला, जिन्होंने संभवतः देश के एक विस्तृत क्षेत्र पर शासन किया था। कैप्टन किट्टू का कहना है कि सरगुजा की पहाड़ियों में एक पत्थर पर पाए गए एक शिलालेख में एक राजा लछमन देव का उल्लेख है, जो उस पहाड़ी प्रमुख के खिलाफ युद्ध में गिर गया था, जिस पर वह हमला करने गया था और पंक्ति के तीसरे लच्छमन पाल के साथ उसकी पहचान करता है। फतेहपुर के पास पूर्व में लगभग 45 मील की दूरी पर भगवान शिव का एक पुराना मंदिर है जो एक प्राचीन तालाब और खंडहर के साथ सिद्धेश्वर महादेव से टकराया है और उमागा के उत्तर पश्चिम में लगभग 4 मील की दूरी पर संध्याल में इसी नाम का एक और मंदिर है। इस बात की पूरी संभावना है कि इन मंदिरों का निर्माण छठी पंक्ति के राजा शांध पाल ने करवाया था। इसके अलावा उत्तर पूर्व में 30 मील की दूरी पर कोंच का प्राचीन कोचेश्वर  मंदिर, जो कि उमागा में भैरवेंद्र से मिलता-जुलता है। ऐसा प्रतीत होता है कि इन प्रमुखों का प्रभुत्व गया और हजारीबाग में एक बड़े क्षेत्र में फैला हुआ था। जनार्दन के वंशज भैरवेंद्र के दरबार के एक पंडित थे, जिनका उल्लेख शिलालेख के रचयिता के रूप में किया जाता है, वे पूर्णाडीह में रहते थे जो उमगा का एक गांव था। 
मंदिर के दक्षिण में एक बड़ा पुराना तालाब है, जिसके उत्तर और दक्षिण में पत्थर की सीढ़ियाँ हैं, जिसका पुराना किला अभी भी खड़ा है। पहाड़ी के ऊपर उसी शैली में एक और मंदिर के खंडहर हैं। पहले से ही उल्लेख किया गया है और पास में एक विशाल बोल्डर के साथ एक जिज्ञासु छोटी वेदी है जिसके नीचे अभी भी बकरियों और अन्य जानवरों की बलि दी जाती है। मंदिरों के कई अन्य खंडहर पहाड़ियों पर बिखरे हुए हैं और ग्रामीणों के अनुसार एक समय में वहां 52 मंदिर थे। .उमगा का प्रमुख सूर्य मंदिर के गर्भगृह में भगवान सूर्य , गणपति और भगवान शिव है । सूर्यमंदिर के प्रकोष्ठ में सूर्य मंदिर का इतिहास एवं भजन उपासना की जाती है । सूर्यमंदिर परिसर में भूस्थल से से लगभग 600 सीढ़ियों से जाया जाता है । सूर्यमंदिर के बाद भगवान शिव का सहस्तरलिंगी शिवलिंग , गणेश जी का मंदिर है । सहस्त्र लिंगी शिव मंदिर के रास्ते से माता चामुंडा का भग्नावशेष मंदिर , भालुकामयी चट्टान गुफा में माता उमगेश्वरी की मूर्ति एवं बंदर का निवास है ।  विष्णु मंदिर जाने का रास्ता संकीर्ण पहाड़ी से जाना होता है । पत्थर युक्त  विष्णु मंदिर का गर्भगृह में भगवान विष्णु एवं बरामदा है । विष्णु मंदिर से 1100 फिट की ऊँचाई पर भगवान शिव , माता उमा , गणेश , कार्तिक मुर्ति है । बंगाल की एशियाटिक सोसाइटी के जर्नल में कैप्टन किट्टी द्वारा संदर्भ लेख भाग 11 खंड 1847, भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण खंड 141 से 141 और उमगा पहाड़ी शिलालेख बाबु परमेश्वर दयाल जर्नल ऑफ द एशियाटिक सोसाइटी ऑफ बंगाल खंड 2 पृष्ठ 03, 1906, बिहार जिला गजेटियर्स गया 1957. पी द्वारा पी सी रॉय चौधरी और एनजीएएल जिला गजेटियर ऑफ गया 1906 द्वारा एलएसएस ओ' मॉल आई सी एस ने उमगा हिल पर बने प्राचीन मंदिरों एवं मूर्तियों का उल्लेख किया है ।