रविवार, नवंबर 29, 2020

किसान के प्रखर नेता पंडित यदुनंदन...


भारतीय किसान की समस्याओं और समाधान के लिए संघर्षशील नेता पंडित यदुनंदन शर्मा थे । भारतीय किसान नेता  और भारत के बिहार राज्य से राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलन के सशक्त व्यक्ति थे। उन्होंने रेरा सत्याग्रह के रूप में मनाए जाने वाले रेरा में जमींदारों और अंग्रेजों के खिलाफ टिलर के अधिकारों के लिए आंदोलन शुरू किया था। उनका जन्म माघ शुक्ल  वसंतपंचमी 1896 में अरवल जिले के सोनभद्र वंशी सूर्यपुर प्रखंड का मंझियावॉ में शाकद्वीपीय ब्राह्मण परिवार में हुआ था।  टेकरी ज़मींदारी का हिस्सा मझियावॉ ग्राम  था। उनके पिता रामदेव शर्मा की मृत्यु होने के पश्चात  युवा होते हुए  चरवाहे के रूप में काम शुरू करना पड़ाथा । बचपन मे सुखल शर्मा के नाम से मझियावॉ मे रहते थे । पंडित यदुनंदन शर्मा ने  1914 में  बनारस में संस्क्टत का अध्ययन करने के बाद 1916 में टेकरी हाई स्कूल गया में नामांकन तथा 1919 में मैट्रिक किया और 1925 मे हिंदू विश्वविद्यालय बनारस मे नामांकन करने के बाद 1927 में आई . ए . और  1929 में वी. ए. डिग्री हासिल करने के बाद मझियावां गाँव के  स्कूल में एक साल के लिए शिक्षक बन गए थे । 1930 ई. में महात्मा गॉंधी के नमकसत्याग्रह में शामिल होकर गया जिला कॉग्रेस का नेत्टत्व , नमक प्रशिछण औरंगाबाद अनुमंडल के भगवान पुर में नमक बनाने के लिए  प्रारंभ किया गया ।  ब्रटिश सरकार ने पंडित यदुनंदन को ब्रिटिश सरकार के कार्यों के विरोध करने के कारण 16 माह की सजा दी गयी परंतु 1931 ई. डर्विन समझौते के करण 10 माह सजा काटने के बाद  पुन: 1932 तथा 1933  में 6-6 माह की सश्रम सजा काटने के बाद किसानोंकी समस्या तथा निष्पादन के लिए गया जिला का बेलागंज के समीप नेयामत पुर मे किसान आश्रम की स्थापना 1933 ई. मे की ।उन्होंने एक ज़मींदारी में एक प्रबंधक के रूप में भी काम किया, जिससे किसान प्रणाली का पहला ज्ञान प्राप्त हुआ। पंडित यदुनंदन शर्मा जेल से रिहा होने के बाद 1933 में किसान आंदोलन में शामिल हो गए और 1930 के दशक में प्रसिद्ध सदाको और रेरा सत्याग्रह शुरू किया। वह  मगध में किसानों के निर्विवाद नेता और महान स्वतंत्रता सेनानी और किसान नेता  बने। उनका अधिकांश जीवन नेयामतपुर गाँव में एक आश्रम में बीता जहाँ से वे ब्रिटिश शासन और जमींदारी के खिलाफ विद्रोह करते रहे। पंडित जवाहर लाल नेहरू ने किसान नेता पंडित यदुनंदन से किसान आश्रम में मिलने और स्थानीय लोगों के एक बड़े सम्मेलन को संबोधित करने के लिए दिसंबर में सर्द रात में 1936 में आश्रम का दौरा किया। 1933 ई. में जिला कॉग्रेस कमिटि गया के सचिव तथा बाद में अध्यछ  दो वर्षों तक रहे । 18 जून 1933 को बिहार प्रदेश किसान सम्मेलन के जॉच समिति के सद्स्य तथा 80 प्टष्ठ की रिपोर्ट तैयार कर किसानकी रूप कहानी पुस्तक प्रकाशित की तथा 20 सितंबर 1933 में गया डिस्ट्रिक कॉलेक्टर के सामने 60 हजार किसानों का प्रदर्शन का नेत्टत्व कर किसानों की समस्याओं का निराकरण किया । 5 अकटूबर 1934 मे गया के किसान सम्मेलन में होरही सभा में पंडित यदुनंदन के भाषण पर ब्रिटिश सरकार द्वारा रोक लगा दी ।1937 में बिहार मंत्रिमंडल बनने के बाद किसानों के लिए लडीाईयां कर बछवाडा में बिहार प्रदेश किसान सम्मेलन की सभा प्रदर्शन किया ।1938 में रेवडा ( वारसलीगंज ) के किसान सत्याग्रह का नेत्टत्व कर किसानों की समस्या का निष्पादन कराया था ।10 अप्रैल 1939 मे गया स्थित आजाद पार्क  में अखिल भारतीय किसान सभा का चतुर्थ अधिवेशन आयोजन किया गया जिसकी अध्यछता आचार्य नरेंद्रदेव तथा स्वागताध्यछ पंडित यदुनंदन शर्मा ने की।1939 में  अरवल , जहानाबाद , गया , औरंगाबाद , नवादा , नालंदा , पटना के मझियावॉ ,सतीस्थान ,फेसर ,घोसरवा , बेलागंज में किसान आंदोलन कर किसानों की सम्स्या का हक दिलाया । पं यदुनंदन शर्मा द्वारा 1940 ई. में किसानों की मूलभूत सुविधा दिलाने , ब्रिटिश सरकार के विरोध ,आजादी के लिए लंकादहन तथा चिनगारी पत्र प्रकाशित कया गया । 15 अगस्त 1947 में कॉग्रेस से सबंध विच्छेद कर किसानों के लिए संघर्षरत रहे है । बिहार डिस्ट्रीक गजेटियर गया 1957 के अनुसार डिस्ट्रिक्ट कॉग्रेस गया से सबंध विचछेद के बाद गया में कॉग्रेस सोसलिस्ट पार्टी तथा किसान सभा का उदय हुआ था । सोसलिस्ट तथा किसान सभा का आंदोलन में किसान कार्यकर्ता शामिल हुए ।किसान सभा का आंदोलनकारियों को जेल भेजा गया जिससे जहानाबाद ,नवादा ,गया के किसान आंदोलित हो गये । आंदोलन का नेत्टत्व स्वामी सहजानंद सरस्वती , पंडित यदुनंदन शर्मा ने की । 1939 ई. मे अखिल भारतीय किसान सभा का सेसन गया मे संपन्न हुआ जिसकी अधयछता आचार्य नर्ंद्रदेव ने की तथा जयप्काश नारायण को कॉग्रेस सोसलिस्ट पार्टी के नेता तथा अध्यछ  बने थे । 27 अप्रैल 1952 को गया  में पंडित यदुनंदन शर्मा द्वारा स्वतंत्रता सेनानी की समस्या तथा नदान के लिए  आयोजित किया गया । पंडित शर्मा ने  1952 के बिहार विधान सभा सदस्य के लिए जहनाबाद जिले के मखदुमपुर विधानसभा निर्वाचन क्षेत्र से चुनाव लड़ा, लेकिन वे हार गए। 03 मार्च 1975 ई. में किसान के प्रखर नेता पंडित यदुनंदन शर्मा नेयामतपुर किसान आश्रम में अंतिम सॉस निधन हो गया ।
   

                                        


गुरुवार, नवंबर 26, 2020

मानवीय जीवन का द्योतक कार्तिक पूर्णिमा...


        सनातन धर्म में  प्रत्येक वर्ष की 12 पूर्णिमाएं महत्वपूर्ण होती हैं। अधिकमास या मलमास की पूर्णिमा मिलने के पर पूर्णिमा की संख्या १3 हो जाती है। कार्तिक पूर्णिमा, कतकी पूरनिमा , गंगा स्नान  , त्रिपुराुरी पूर्णिमा , गुरू पूर्णिमा , देव दिवाली , प्रकाशोत्सव और गुरू नानक जयन्ती  के नाम से पूर्णिमा ख्याति प्राप्त है। कार्तिक पुर्णिमा को भगवान शिव  ने  असुरराज त्रिपुरासुर  का अंत किया था और वे त्रिपुरारी के रूप में पूजित हुए थे।  कृतिका में शिव शंकर के दर्शन करने से सात जन्म तक व्यक्ति ज्ञानी और धनवान होता है। चन्द्र  आकाश में उदित होते है उस समय शिवा, संभूति, संतति, प्रीति, अनुसूया और क्षमा इन छ: कृतिकाओं का पूजन करने से शिव जी की प्रसन्नता प्राप्त होती है।  गंगा नदी में स्नान करने से भी पूरे वर्ष स्नान करने का फाल मिलता है। कार्तिक पूर्णिमा के दिन तमिलनाडु मै अरुणाचलम पर्वत की १३ किमी की परिक्रमा होती है। पूर्णिमा  बड़ी परिक्रमा कहलाती है । लाखो लोग यहां आकर परिक्रमा करके पुण्य कमाते है ।अवंतिकापुर अरुणाचलम पर्वत पर कार्तिक स्वामी का आश्रम है । उन्होंने स्कंदपुराण की रचना की गई थी । भगवान विष्णु ने प्रलय काल में वेदों की रक्षा के लिए तथा सृष्टि को बचाने के लिए मत्स्य अवतार धारण किया था।महाभारत काल में हुए १८ दिनों के विनाशकारी युद्ध में योद्धाओं और सगे संबंधियों को देखकर जब युधिष्ठिर कुछ विचलित हुए थे । भगवान श्री कृष्ण पांडवों के साथ गढ़ खादर के विशाल रेतीले मैदान पर आए। कार्तिक शुक्ल अष्टमी को पांडवों ने स्नान किया और कार्तिक शुक्ल चतुर्दशी तक गंगा किनारे यज्ञ किया। इसके बाद रात में दिवंगत आत्माओं की शांति के लिए दीपदान करते हुए श्रद्धांजलि अर्पित की। इस दिन गंगा स्नान का और विशेष रूप से गढ़मुक्तेश्वर तीर्थ नगरी में आकर स्नान करने का विशेष महत्व है।
पूर्णिमा व्रत रखकर रात्रि में वृषदान  बछड़ा दान करने से शिवपद की प्राप्ति होती है।  भगवान भोलेनाथ का भजन और गुणगान करता है उसे अग्निष्टोम नामक यज्ञ का फल प्राप्त होता है। पूर्णिमा को शैव  धर्म तथा वैष्णव  धर्म म कर्तिक पूर्णिमा की महता है । कार्तिक पूर्णिमा को गोलोक के रासमण्डल में श्री कृष्ण ने श्री राधा का पूजे तथा अन्य सभी ब्रह्मांडों से परे जो सर्वोच्च गोलोक है वहां इस दिन राधा उत्सव मनाया जाता है तथा रासमण्डल का आयोजन होता है। कार्तिक पूर्णिमा को श्री हरि के बैकुण्ठ धाम में देवी तुलसी का मंगलमय पराकाट्य हुआ था। कार्तिक पूर्णिमा को  देवी तुलसी ने पृथ्वी पर जन्म ग्रहण किया था। कार्तिक पूर्णिमा को राधिका जी की शुभ प्रतिमा का दर्शन और वन्दन करके मनुष्य जन्म के बंधन से मुक्त हो जाता है। बैकुण्ठ के स्वामी श्री हरि को तुलसी पत्र अर्पण करते हैं। कार्तिक मास में विशेषतः श्री राधा और श्री कृष्ण का पूजन करना चाहिए। कार्तिक में तुलसी वृक्ष के नीचे श्री राधा और श्री कृष्ण की मूर्ति का पूजन करते हैं उन्हें जीवनमुक्त समझना चाहिए। तुलसी के अभाव में हम आवंले के वृक्ष के नीचे भी बैठकर पूजा कर सकते है। कार्तिक मास में पराये अन्न, गाजर, दाल, चावल, मूली, बैंगन, घीया, तेल लगाना, तेल खाना, मदिरा, कांजी का त्याग करें। कार्तिक मास में अन्न का दान अवश्य करें। कार्तिक पूर्णिमा को  अधिक मान्यता मिली है। कार्तिक पूर्णिमा को महाकार्तिकी , कुमार माह  कहा गया है।  पूर्णिमा के दिन भरणी नक्षत्र हो तो इसका महत्व और भी बढ़ जाता है। अगर रोहिणी नक्षत्र हो तो इस पूर्णिमा का महत्व कई गुणा बढ़ जाता है।  कृतिका नक्षत्र पर चन्द्रमा और बृहस्पति हो तो यह महापूर्णिमा कहलाती है। कृतिका नक्षत्र पर चन्द्रमा और विशाखा पर सूर्य हो तो "पद्मक योग" बनता है जिसमें गंगा स्नान करने से पुष्कर से भी अधिक उत्तम फल की प्राप्ति होती है। कार्तिक पूर्णिमा के दिन गंगा स्नान, दीप दान, हवन, यज्ञ आदि करने से सांसारिक पाप और ताप का शमन होता है। इस दिन किये जाने वाले अन्न, धन एव वस्त्र दान का भी बहुत महत्व बताया गया है। इस दिन जो भी दान किया जाता हैं उसका कई गुणा लाभ मिलता है। मान्यता यह भी है कि इस दिन व्यक्ति जो कुछ दान करता है वह उसके लिए स्वर्ग में संरक्षित रहता है जो मृत्यु लोक त्यागने के बाद स्वर्ग में उसे पुनःप्राप्त होता है।
शास्त्रों के अनुसार  कार्तिक पुर्णिमा के दिन पवित्र नदी व सरोवर एवं धर्म स्थान में जैसे, गंगा, यमुना, गोदावरी, नर्मदा, गंडक, कुरूक्षेत्र, अयोध्या, काशी में स्नान करने से विशेष पुण्य की प्राप्ति होती है। कार्तिक माह की पूर्णिमा तिथि पर व्यक्ति को बिना स्नान किए नहीं रहना चाहिए । महर्षि अंगिरा ने कहा  है कि यदि स्नान में कुशा और दान करते समय हाथ में जल व जप करते समय संख्या का संकल्प नहीं किया जाए तो कर्म फल की प्राप्ति नहीं होती है। शास्त्र के नियमों का पालन करते हुए इस दिन स्नान करते समय पहले हाथ पैर धो लें फिर आचमन करके हाथ में कुशा लेकर स्नान करें, इसी प्रकार दान देते समय में हाथ में जल लेकर दान करें। आप यज्ञ और जप कर रहे हैं तब पहले संख्या का संकल्प कर लें फिर जप और यज्ञादि कर्म करें। सिख सम्प्रदाय में कार्तिक पूर्णिमा का दिन प्रकाशोत्सव के रूप में मनाया जाता है।  सिख सम्प्रदाय के संस्थापक गुरू नानक देव का जन्म हुआ था। इस दिन सिख सम्प्रदाय के अनुयायी सुबह स्नान कर गुरूद्वारों में जाकर गुरूवाणी सुनते हैं और नानक जी के बताये रास्ते पर चलते है ।
कार्तिक  पूर्णिमा को भगवान शिव की नगरी काशी यानी बनारस में देव दीपावली मनाई जाती है। कार्तिक मास की पूर्णिमा तिथि को भगवान शिव की नगरी काशी यानी बनारस में देव दीपावली मनाई जाती है। देव दीपावली के दिन भगवान शिव और गंगा माता की पूजा की जाती है। संध्या के समय में गंगा आरती होती है। देव दीपावली के संदर्भ में शास्त्र के अनुसार महर्षि विश्वामित्र तथा दूसरी भगवान शिव से जुड़ी है । यह कथा महर्षि विश्वामित्र से जुड़ी है। पुराणों के अनुसार, एक बार विश्वामित्र जी ने देवताओं की सत्ता को चुनौती दी। उन्होंने अपने तप के बल से त्रिशंकु को सशरीर स्वर्ग भेज दिया। यह देखकर देवता अचंभित रह गए। विश्वामित्र जी ने ऐसा करके उनको एक प्रकार से चुनौती दे दी । इस पर देवता त्रिशंकु को वापस पृथ्वी पर भेजने लगे, जिसे विश्वामित्र ने अपना अपमान समझा। उनको यह हार स्वीकार नहीं थी।तब उन्होंने अपने तपोबल से उसे हवा में ही रोक दिया और नई स्वर्ग तथा सृष्टि की रचना प्रारंभ कर दी। इससे देवता भयभीत हो गए। उन्होंने अपनी गलती की क्षमायाचना तथा विश्वामित्र को मनाने के लिए उनकी स्तुति प्रारंभ कर दी। अंतत: देवता सफल हुए और विश्वामित्र उनकी प्रार्थना से प्रसन्न हो गए। उन्होंने दूसरे स्वर्ग और सृष्टि की रचना बंद कर दी। इससे सभी देवता प्रसन्न हुए और उस दिन उन्होंने दिवाली मनाई, जिसे देव दीपावली कहा गया। देव दीपावली की दूसरी कथा भगवान शिव से जुड़ी है। पौराणिक कथा के अनुसार, ए​क समय तीनों ही लोक त्रिपुर नाम के राक्षस के अत्याचारों से भयभीत और दुखी था। उससे रक्षा के लिए देवता भगवान शिव की शरण में गए। तब भगवान शिव ने कार्तिक मास की पूर्णिमा तिथि को त्रिपुरासुर का वध कर दिया और तीनों लोकों को उसके भय से मुक्त किया। उस दिन से ही देवता हर वर्ष कार्तिक पूर्णिमा को भगवान शिव के विजय पर्व के रूप में मनाने लगे। उस दिन सभी देव दीपक जलाते हैं। इस दीपोत्सव को देव दीपावली कहा गया है।
त्रिपुरासुर : असुर बालि की कृपा प्राप्त त्रिपुरासुर भयंकर असुर थे। महाभारत के कर्ण पर्व में त्रिपुरासुर के वध की कथा बड़े विस्तार से मिलती है। भगवान कार्तिकेय द्वारा तारकासुर का वध करने के बाद उसके तीनों पुत्रों ने देवताओं से बदला लेने का प्रण कर लिया। तीनों पुत्र तपस्या करने के लिए जंगल में चले गए और हजारों वर्ष तक अत्यंत दुष्कर तप करके ब्रह्माजी को प्रसन्न किया। तीनों ने ब्रह्माजी से अमरता का वरदान मांगा। ब्रह्माजी ने उन्हें मना कर दिया और कहने लगे कि कोई ऐसी शर्त रख लो, जो अत्यंत कठिन हो। उस शर्त के पूरा होने पर ही तुम्हारी मृत्यु हो।
तीनों ने खूब विचार कर ब्रह्माजी से वरदान मांगा- हे प्रभु! आप हमारे लिए तीन पुरियों का निर्माण कर दें और वे तीनों पुरियां जब अभिजीत नक्षत्र में एक पंक्ति में खड़ी हों और कोई क्रोधजित अत्यंत शांत अवस्था में असंभव रथ और असंभव बाण का सहारा लेकर हमें मारना चाहे, तब हमारी मृत्यु हो। ब्रह्माजी ने कहा- तथास्तु!शर्त के अनुसार उन्हें तीन पुरियां (नगर) प्रदान की गईं। तारकाक्ष के लिए स्वर्णपुरी, कमलाक्ष के लिए रजतपुरी और विद्युन्माली के लिए लौहपुरी का निर्माण विश्वकर्मा ने कर दिया। इन तीनों असुरों को ही त्रिपुरासुर कहा जाता था। इन तीनों भाइयों ने इन पुरियों में रहते हुए सातों लोकों को आतंकित कर दिया। वे जहां भी जाते, समस्त सत्पुरुषों को सताते रहते। यहां तक कि उन्होंने देवताओं को भी उनके लोकों से बाहर निकाल दिया। सभी देवताओं ने मिलकर अपना सारा बल लगाया, लेकिन त्रिपुरासुर का प्रतिकार नहीं कर सके और अंत में सभी देवताओं को तीनों से छुप-छुपकर रहना पड़ा। अंत में सभी को शिव की शरण में जाना पड़ा। भगवान शंकर ने कहा- सब मिलकर के प्रयास क्यों नहीं करते? देवताओं ने कहा- यह हम करके देख चुके हैं। तब शिव ने कहा- मैं अपना आधा बल तुम्हें देता हूं और तुम फिर प्रयास करके देखो, लेकिन संपूर्ण देवता सदाशिव के आधे बल को संभालने में असमर्थ रहे। तब शिव ने स्वयं त्रिपुरासुर का संहार करने का संकल्प लिया। सभी देवताओं ने शिव को अपना-अपना आधा बल समर्पित कर दिया। अब उनके लिए रथ और धनुष-बाण की तैयारी होने लगी जिससे रणस्थल पर पहुंचकर तीनों असुरों का संहार किया जा सके। इस असंभव रथ का पुराणों में विस्तार से वर्णन मिलता है। पृथ्वी को ही भगवान ने रथ बनाया, सूर्य और चन्द्रमा पहिए बन गए, सृष्टा सारथी बने, विष्णु बाण, मेरू पर्वत धनुष और वासुकि बने उस धनुष की डोर। इस प्रकार असंभव रथ तैयार हुआ और संहार की सारी लीला रची गई। जिस समय भगवान उस रथ पर सवार हुए, तब सकल देवताओं द्वारा संभाला हुआ वह रथ भी डगमगाने लगा। तभी विष्णु भगवान वृषभ बनकर उस रथ में जा जुड़े। उन घोड़ों और वृषभ की पीठ पर सवार होकर महादेव ने उस असुर नगर को देखा और पाशुपत अस्त्र का संधान कर तीनों पुरों को एकत्र होने का संकल्प करने लगे।उस अमोघ बाण में विष्णु, वायु, अग्नि और यम चारों ही समाहित थे। अभिजीत नक्षत्र में उन तीनों पुरियों के एकत्रित होते ही भगवान शंकर ने अपने बाण से पुरियों को जलाकर भस्म कर दिया और तब से ही भगवान शंकर त्रिपुरांतक बन गए। त्रिपुरासुर को जलाकर भस्म करने के बाद भोले रुद्र का हृदय द्रवित हो उठा और उनकी आंख से आंसू टपक गए। आंसू जहां गिरे, वहां 'रुद्राक्ष' का वृक्ष उग आया। 'रुद्र' का अर्थ शिव और 'अक्ष' का अर्थ आंख अथवा आत्मा है। मत्स्य पुराण में भगवान श्रीहरि के मत्स्य अवतार , तीर्थ, व्रत, यज्ञ, दान , जल प्रलय, मत्स्य व मनु के संवाद, राजधर्म, तीर्थयात्रा, दान महात्म्य, प्रयाग महात्म्य, काशी महात्म्य, नर्मदा महात्म्य, मूर्ति निर्माण माहात्म्य एवं त्रिदेवों की महिमा आदि पर वर्णित है। मत्स्य पुराण में सात कल्पों में नृसिंह वर्णन से शुरु होकर यह चौदह हजार श्लोकों का पुराण है। मनु और मत्स्य के संवाद से शुरु होकर ब्रह्माण्ड का वर्णन ब्रह्मा देवता और असुरों का पैदा होना, मरुद्गणों का प्रादुर्भाव इसके बाद राजा पृथु के राज्य का वर्णन वैवस्त मनु की उत्पत्ति व्रत और उपवासों के साथ मार्तण्डशयन व्रत द्वीप और लोकों का वर्णन देव मन्दिर निर्माण प्रासाद निर्माण आदि का वर्णन है। मत्स्य पुराण के अनुसार मत्स्य (मछ्ली) के अवतार में भगवान विष्णु ने एक ऋषि को सब प्रकार के जीव-जन्तु एकत्रित करने के लिये कहा और पृथ्वी जब जल में डूब रही थी, तब मत्स्य अवतार में भगवान ने उस ऋषि की नांव की रक्षा की थी। इसके पश्चात ब्रह्मा ने पुनः जीवन का निर्माण किया। एक दूसरी मान्यता के अनुसार शंखासुर राक्षस ने जब वेदों को चुरा कर सागर में छुपा दिया था । भगवान विष्णु ने मत्स्य रूप धारण करके वेदों को प्राप्त किया और वेदों को पुनः स्थापित किया। कार्तिक शुक्ल पूर्णिमा सनातन धर्म तथा मानवीय जीवन चेतना तथा खुशहाली का द्योतक है।

सोमवार, नवंबर 23, 2020

देवोत्थान : तुलसी का उद्भव...


शास्त्र तथा ग्रंथों में देवोत्थान और तुलसी का उलेख महत्वपूर्ण रूप से वर्णित है । भगवान विष्णु आषाढ़ मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी को  देवशयनी एकादशी  'पद्मनाभा'  के रूप में समर्पित  हैं। सूर्य के मिथुन राशि में आने पर ये एकादशी  से चातुर्मास में भगवान विष्णु क्षीरसागर में शयन करते हैं और चार माह बाद तुला राशि में सूर्य के जाने पर योग निद्रा को त्याग करने पर देवोत्थानी एकादशी रूप मे होते है। पुराणों में उलेख है कि भगवान विष्णु  चार मासपर्यन्त (चातुर्मास) पाताल में राजा बलि के द्वार पर निवास करके कार्तिक शुक्ल एकादशी को भूलोक पर लौटते हैं।इस  दिन को 'देवशयनी' तथा कार्तिकशुक्ल एकादशी को प्रबोधिनी एकादशी कहते हैं। यज्ञोपवीत संस्कार, विवाह, दीक्षाग्रहण, यज्ञ, गृहप्रवेश, गोदान, प्रतिष्ठा एवं शुभ कर्म  देवोत्थान से प्रारंभ होते है । भविष्य पुराण, पद्म पुराण तथा श्रीमद्भागवत पुराण के अनुसार हरिशयन को योगनिद्रा कहा गया है।संस्कृत में साहित्यानुसार हरि शब्द सूर्य, चन्द्रमा, वायु, विष्णु आदि अनेक अर्थो में प्रयुक्त है। हरिशयन का तात्पर्य इन चार माह में बादल और वर्षा के कारण सूर्य-चन्द्रमा का तेज क्षीण हो जाना उनके शयन का ही द्योतक होता है। इस समय में पित्त स्वरूप अग्नि की गति शांत हो जाने के कारण शरीरगत शक्ति क्षीण या सो जाती है। आधुनिक युग में वैज्ञानिकों ने भी खोजा है कि कि चातुर्मास्य में (मुख्यतः वर्षा ऋतु में) विविध प्रकार के कीटाणु अर्थात सूक्ष्म रोग जंतु उत्पन्न हो जाते हैं, जल की बहुलता और सूर्य-तेज का भूमि पर अति अल्प प्राप्त होना ही इनका कारण है। भगवान विष्णु  कार्तिक शुक्ल एकादशी को जागते हैं। पुराण के अनुसार  भगवान हरि ने वामन रूप में दैत्य बलि के यज्ञ में तीन पग दान के रूप में मांगे। भगवान ने पहले पग में संपूर्ण पृथ्वी, आकाश और सभी दिशाओं को ढक लिया। अगले पग में सम्पूर्ण स्वर्ग लोक ले लिया। तीसरे पग में बलि ने अपने आप को समर्पित करते हुए सिर पर पग रखने को कहा। इस प्रकार के दान से भगवान ने प्रसन्न होकर पाताल लोक का अधिपति बना दिया और कहा वर मांगो। बलि ने वर मांगते हुए कहा कि भगवान आप मेरे महल में नित्य रहें। बलि के बंधन में बंधा देख उनकी भार्या लक्ष्मी ने बलि को भाई बना लिया और भगवान से बलि को वचन से मुक्त करने का अनुरोध किया। तब इसी दिन से भगवान विष्णु जी द्वारा वर का पालन करते हुए तीनों देवता ४-४ माह सुतल में निवास करते हैं। देवशयनी एकादशी व्रतविधि एकादशी को प्रातःकाल उठकर घर की साफ-सफाई तथा नित्य कर्म से निवृत्त हो जाएँ। स्नान कर पवित्र जल का घर में छिड़काव करें। घर के पूजन स्थल अथवा किसी भी पवित्र स्थल पर प्रभु श्री हरि विष्णु की सोने, चाँदी, तांबे अथवा पीतल की मूर्ति की स्थापना करें। तत्पश्चात उसका षोड्शोपचार सहित पूजन करें। इसके बाद भगवान विष्णु को पीतांबर आदि से विभूषित करें। तत्पश्चात व्रत कथा सुननी चाहिए। इसके बाद आरती कर प्रसाद वितरण करें। अंत में सफेद चादर से ढँके गद्दे-तकिए वाले पलंग पर श्री विष्णु को शयन कराना चाहिए। व्यक्ति को इन चार महीनों के लिए अपनी रुचि अथवा अभीष्ट के अनुसार नित्य व्यवहार के पदार्थों का त्याग और ग्रहण करना चाहिए । देह शुद्धि या सुंदरता के लिए परिमित प्रमाण के पंचगव्य ,  वंश वृद्धि के लिए नियमित दूध पंचाम्टत , ईख ,सर्वपापक्षयपूर्वक सकल पुण्य फल प्राप्त होने के लिए एकमुक्त, नक्तव्रत, अयाचित भोजन या सर्वथा उपवास करने का व्रत करना चाहिए तथा  देवोत्थान में मधुर स्वर के लिए गुड़ , दीर्घायु अथवा पुत्र-पौत्रादि की प्राप्ति के लिए तेल ,  शत्रुनाशादि के लिए कड़वे तेल का , सौभाग्य के लिए मीठे तेल ,  स्वर्ग प्राप्ति के लिए पुष्पादि भोगों , प्रभु शयन के दिनों में सभी प्रकार के मांगलिक कार्य जहाँ तक हो सके न करें। पलंग पर सोना, भार्या का संग करना, झूठ बोलना, मांस, शहद और दूसरे का दिया दही-भात आदि का भोजन करना, मूली, पटोल एवं बैंगन आदि का भी त्याग कर देना चाहिए।
एक बार देवऋषि नारदजी ने ब्रह्माजी से इस एकादशी के विषय में जानने की उत्सुकता प्रकट की, तब ब्रह्माजी ने उन्हें बताया- सतयुग में मांधाता नामक एक चक्रवर्ती सम्राट राज्य करते थे। उनके राज्य में प्रजा बहुत सुखी थी। किंतु भविष्य में क्या हो जाए, यह कोई नहीं जानता। अतः वे भी इस बात से अनभिज्ञ थे कि उनके राज्य में शीघ्र ही भयंकर अकाल पड़ने वाला है । मंधाता के  राज्य में पूरे तीन वर्ष तक वर्षा न होने के कारण भयंकर अकाल पड़ा। इस दुर्भिक्ष से चारों ओर त्राहि-त्राहि मच गई। धर्म पक्ष के यज्ञ, हवन, पिंडदान, कथा-व्रत आदि में कमी हो गगयी थी । कष्ट से मुक्ति पाने का कोई साधन करने के उद्देश्य से राजा सेना को लेकर जंगल की ओर चल दिए। वहाँ विचरण करते-करते एक दिन वे ब्रह्माजी के पुत्र अंगिरा ऋषि के आश्रम में पहुँचे और उन्हें साष्टांग प्रणाम किया। ऋषिवर ने आशीर्वचनोपरांत कुशल क्षेम पूछा। फिर जंगल में विचरने व अपने आश्रम में आने का प्रयोजन जानना चाहा।तब राजा ने हाथ जोड़कर कहा- 'महात्मन्‌! सभी प्रकार से धर्म का पालन करता हुआ भी मैं अपने राज्य में दुर्भिक्ष का दृश्य देख रहा हूँ। आखिर किस कारण से ऐसा हो रहा है, कृपया इसका समाधान करें।' यह सुनकर महर्षि अंगिरा ने कहा- 'हे राजन! सब युगों से उत्तम यह सतयुग है। इसमें छोटे से पाप का भी बड़ा भयंकर दंड मिलता है।इसमें धर्म अपने चारों चरणों में व्याप्त रहता है। ब्राह्मण के अतिरिक्त किसी अन्य जाति को तप करने का अधिकार नहीं है जबकि आपके राज्य में एक शूद्र तपस्या कर रहा है। यही कारण है कि आपके राज्य में वर्षा नहीं हो रही है। जब तक वह काल को प्राप्त नहीं होगा, तब तक यह दुर्भिक्ष शांत नहीं होगा। दुर्भिक्ष की शांति उसे मारने से ही संभव है।'किंतु राजा का हृदय एक नरपराधशूद्र तपस्वी का शमन करने को तैयार नहीं हुआ। उन्होंने कहा- 'हे देव मैं उस निरपराध को मार दूँ, यह बात मेरा मन स्वीकार नहीं कर रहा है। कृपा करके आप कोई और उपाय बताएँ।' महर्षि अंगिरा ने बताया- 'आषाढ़ माह के शुक्लपक्ष की एकादशी का व्रत करें। इस व्रत के प्रभाव से अवश्य ही वर्षा होगी।' राजा अपने राज्य की राजधानी लौट आए और चारों वर्णों सहित पद्मा एकादशी का विधिपूर्वक व्रत किया। व्रत के प्रभाव से उनके राज्य में मूसलधार वर्षा हुई और पूरा राज्य धन-धान्य से परिपूर्ण हो गया था । ब्रह्म वैवर्त पुराण में देवशयनी एकादशी के विशेष माहात्म्य का वर्णन किया गया है।  व्रत से प्राणी की समस्त मनोकामनाएँ पूर्ण होता है ।चातुर्मास का पालन विधिपूर्वक करे तो महाफल प्राप्त होता है। कार्तिक शुक्ल पक्ष की एकादशी को देवउठनी एकादशी कहते हैं। देवउठनी एकादशी के दिन तुलसी विवाह का उत्सव भी मनाया जाता है। हिन्दू मान्यता के अनुसार इस तिथि पर भगवान विष्णु के साथ तुलसी का विवाह होता है, क्योंकि इस दिन भगवान विष्णु चार महीने तक सोने के बाद जागते हैं। चार महीनों के अंतराल के बाद इसी तिथि से हिन्दूओं में शादियाँ आरंभ हो जाती हैं। तुलसी विवाह के दिन व्रत रखने का बड़ा महत्व होता है।प्राचीन काल में जलंधर नामक राक्षस ने चारों तरफ़ बड़ा उत्पात मचा रखा था। वह बड़ा वीर तथा पराक्रमी था। उसकी वीरता का रहस्य उसकी पत्नी वृंदा का पतिव्रता धर्म था। उसी के प्रभाव से वह विजयी बना हुआ था। जलंधर के उपद्रवों से परेशान देवगण भगवान विष्णु के पास गए तथा रक्षा की गुहार लगाई। उनकी प्रार्थना सुनकर भगवान विष्णु ने वृंदा का पतिव्रता धर्म भंग करने का निश्चय किया। उन्होंने जलंधर का रूप धर कर छल से वृंदा का स्पर्श किया। वृंदा का पति जलंधर, देवताओं से पराक्रम के साथ युद्ध कर रहा था लेकिन वृंदा का सतीत्व नष्ट होते ही मारा गया। जैसे ही वृंदा का सतीत्व भंग हुआ, जलंधर का सिर उसके आंगन में आ गिरा। जब वृंदा ने यह देखा तो क्रोधित होकर जानना चाहा कि वह कौन है जिसने उसे स्पर्श किया था। सामने साक्षात विष्णु जी खड़े थे। उसने भगवान विष्णु को शाप दे दिया, "जिस प्रकार तुमने छल से मुझे पति वियोग दिया है, उसी प्रकार तुम्हारी पत्नी का भी छलपूर्वक हरण होगा और स्त्री वियोग सहने के लिए तुम भी मृत्यु लोक में जन्म लोगे।" यह कहकर वृंदा अपने पति के साथ सती हो गई। वृंदा के श्राप से ही प्रभु श्रीराम ने अयोध्या में जन्म लिया और उन्हें सीता वियोग सहना पड़ा़। जिस जगह वृंदा सती हुई वहां तुलसी का पौधा उत्पन्न हुआ।
एक अन्य कथा में आरंभ इसी प्रकार है लेकिन इस कथा में वृंदा ने विष्णु जी को यह श्राप दिया था, "तुमने मेरा सतीत्व भंग किया है। अत: तुम पत्थर के बनोगे।" यह पत्थर शालीग्राम कहलाया। विष्णु ने कहा, "हे वृंदा! मैं तुम्हारे सतीत्व का आदर करता हूं लेकिन तुम तुलसी बनकर सदा मेरे साथ रहोगी। जो मनुष्य कार्तिक एकादशी के दिन तुम्हारे साथ मेरा विवाह करेगा, उसकी हर मनोकामना पूरी होगी।" बिना तुलसी के शालिग्राम या विष्णु जी की पूजा अधूरी मानी जाती है। शालीग्राम और तुलसी का विवाह भगवान विष्णु और महालक्ष्मी का ही प्रतीकात्मक विवाह माना जाता है।


तुलसी विवाह के दौरान तुलसी पौधे के साथ विष्णु जी की मूर्ति भी उनके साथ स्थापित की जाती है। तुलसी के पौधे और विष्णु जी की मूर्ति को पीले वस्त्रों से सजाया जाता है। इसके बाद तुलसी के गमले को गेरु से सजाया जाता है। गमले के आस-पास शादी का मंडप बनाया जाता है। इसके पश्चात गमले को वस्त्र से सजाया जाता है और लाल चूड़ी पहनाकर और बिंदी आदि लगाकर श्रृंगार किया जाता है। इसके साथ टीका करने के लिए नारियल को दक्षिणा के रुप में तुलसी के आगे रखा जाता है। भगवान शालीग्राम की मूर्ति का सिंहासन हाथ में लेकर तुलसी के चारों ओर सात बार परिक्रमा किया जाता है। इसके बाद आरती की जाती है। विवाह इसके साथ ही संपन्न हो जाता है। विवाह करवाते समय लोग ऊं तुलस्यै नमः का जाप करते रहते हैं। जो लोग इस दिन व्रत रखते हैं, वे इस दिन अन्न ग्रहण नहीं करते हैं। तुलसी पौधा धार्मिक, आध्यात्मिक और आयुर्वेदिक महत्व की दृष्टि से एक विलक्षण पौधा है। जिस घर में इसकी स्थापना होती है, वहां आध्यात्मिक उन्नति के साथ सुख, शांति और समृद्धि स्वयं ही आ जाती है। इससे अनेक लाभ प्राप्त होते हैं, जैसे वातावारण में स्वच्छता और शुद्धता बढ़ती है, प्रदूषण पर नियंत्रण होता है और आरोग्य में वृद्धि होती है। आयुर्वेद के अनुसार, तुलसी के नियमित सेवन से व्यक्ति के विचार में पवित्रता व मन में एकाग्रता आती है और क्रोध पर नियंत्रण होने लगता है। आलस्य दूर हो जाता है और शरीर में दिन भर स्फूर्ति बनी रहती है। ऐसा कहा जाता है कि औषधीय गुणों की दृष्टि से तुलसी संजीवनी बूटी के समान है।पौराणिक कथाओं के अनुसार देवों और दानवों द्वारा किए गए समुद्र-मंथन के समय जो अमृत धरती पर छलका था, उसी से तुलसी की उत्पत्ति हुई थी। इसलिए इस पौधे के हर हिस्से में अमृत समान गुण पाए जाते हैं। हिन्दू धर्म में मान्यता है कि तुलसी के पौधे की जड़ में सभी तीर्थ, मध्य भाग (तने) में सभी देवी-देवता और ऊपरी शाखाओं में चारों वेद स्थित हैं। तुलसी का प्रतिदिन दर्शन करना पापनाशक समझा जाता है और पूजन को मोक्षदायक कहा गया है।
 देवउठनी एकादशी 2020: इस एकादशी पर भगवान विष्णु निद्रा के बाद उठते हैं इसलिए इसे देवोत्थान एकादशी कहा गया है। सनातन में  शुभ और पुण्यदायी मानी जाने वाली एकादशी, कार्तिक माह के शुक्ल पक्ष में मनाई जाती है। देवउठनी एकादशी 25 नवंबर, बुधवार को हरिप्रबोधिनी और देवोत्थान एकादशी के नाम से मनायी जाती  है। पुराणो तथा एकादशी महात्म के अनुसार आषाढ़ शुक्ल एकादशी से कार्तिक शुक्ल एकादशी के बीच श्रीविष्णु क्षीरसागर में शयन करते हैं और  भादों शुक्ल एकादशी को करवट बदलते हैं।  पुण्य की वृद्धि और धर्म-कर्म में प्रवृति कराने वाले श्रीविष्णु कार्तिक शुक्ल एकादशी को योग  निद्रा से जागते हैं। इसी कारण से शास्त्रों में एकादशी का फल अमोघ पुण्यफलदाई बताया गया है।  एकादशी पर भगवान विष्णु निद्रा के बाद उठते हैं । इसे देवोत्थान एकादशी कहा गया है। भगवान विष्णु चार महीने के लिए क्षीर सागर में योग  निद्रा करने के कारण चातुर्मास में विवाह और मांगलिक कार्य नही किया जाता  जाते हैं। पुनश्च  देवोत्थान एकादशी पर भगवान के जागने के बाद शादी- विवाह , सभी मांगलिक कार्य आरम्भ होते  हैं। देवोत्थान में  भगवान शालिग्राम और तुलसी विवाह का अनुष्ठान किया जाता है। कार्तिक माह शुक्ल पक्ष की एकादशी तिथि के दिन तुलसी विवाह किया जाता है. इस साल यह एकादशी तिथि 25 नवंबर को शुरू होकर 26 तारीख को समाप्त होगी. तुलसी विवाह में माता तुलसी का विवाह भगवान शालिग्राम के साथ किया जाता है. मान्यता है कि जो व्यक्ति तुलसी विवाह का अनुष्ठान करता है उसे कन्यादान के बराबर पुण्य फल मिलता है । शालिग्राम भगवान विष्णु का अवतार हैं । पुराणों  के अनुसार एक बार तुलसी ने गुस्से में भगवान विष्णु को श्राप से पत्थर बना दिया था. तुसली के इस श्राप से मुक्ति के लिए भगवान विष्णु ने शालिग्राम का अवतार लिया और तुलसी से विवाह किया. तुलसी मैया को मां लक्ष्मी का अवतार माना जाता है. कुछ स्थानों पर तुलसी विवाह द्वादशी के दिन भी किया जाता है । तुलसी के पौधे के चारो ओर ईख से मंडप बनाकर और तुलसी के पौधे पर लाल चुनरी चढ़ाए जाते है ।तुलसी के पौधे को श्रृंगार की चीजें अर्पित कर  भगवान गणेश और भगवान शालिग्राम की पूजा की जाती  है ।भगवान शालिग्राम की मूर्ति का सिंहासन हाथ में लेकर तुलसीजी की सात परिक्रमा की जाती है भगवान शालिग्राम तथा तुलसी आरती के बाद विवाह में गाए जाने वाले मंगलगीत के साथ विवाहोत्सव पूर्ण होती  है । तुलसी विवाह 2020 का शुभ मुहूर्त - देवोत्थान , एकादशी तिथि प्रारंभ – 25 नवंबर, सुबह 2:42 बजे से एकादशी तिथि समाप्त – 26 नवंबर, सुबह 5:10 बजे तक है ।

रविवार, नवंबर 22, 2020

सर्वार्थ सिद्धि : गौपालन...


ग्रंथों ,उपनिषदों के अनुसार मानवीय जीवन, संस्कृति, इतिहास का अटूट अंग से  सृष्टि की रचना हुई है उसी काल से   गौ वंश प्रारम्भ होता है। आदिकाल में देव और दानवों ने अमृत प्राप्त करने के लिए समुद्र मंथन किया था। भगवान विष्णु ने  कच्छप अवतार लेकर सुमेरू पर्वत धारण किया और वासुकी नाग को रज्जू  ( मथनी ) समुद्र  मंथन किया गया जिसमें  हलाहल विष की ज्वाला से तारने के लिए कर्तिक शुक्ल अष्टमी को  रत्नस्वरूपा कामधेनू का प्रागट्य हुई थी । कामधेनु  मनोकामनाओं, संकल्प और आवश्यकता पूर्ण करने में सक्षम थी।ब्रह्मा जी ने स्वायम्भुव मनु को सृष्टि रचना का आदेश दिया था । प्रथम मनु स्वायम्भुव मन ने कामधेनु की उत्पन्न किया । वेन पुत्र राजा प्टथु द्वारा  कामधेनु की स्तुति करने केबाद जन कल्याण के लिए गौदोहन किया गया और पृथ्वी पर कृषि का प्रारंभ किया। पर्थु मनु के नाम से धरा पृथ्वी कहलाई है । गौमाता के दर्शन से बढ़कर न कोई देव स्थान है, न कोई जप-तप है, न ही कोई सुगम कल्याणकारी मार्ग है। न कोई योग-यज्ञ है और न कोई मोक्ष का साधन ही। तीर्थों में तीर्थराज प्रयाग, उसी प्रकार देवी-देवताओं में अग्रणी गौमाता को बताया गया है। गौमाता के रोम-रोम में देवी-देवताओं का एवं समस्त तीर्थों का वास है। साहत्यकार एवं इतिहासकार सत्येन्द्र कुमार पाठक ने कहा कि गौमाता  को एक ग्रास खिला दीजिए तो वह सभी देवी-देवताओं को पहुंच जाएगा। धर्मग्रंथ के अनुसार समस्त देवी-देवताओं एवं पितरों को एक साथ प्रसन्न करना हो तो गौभक्ति-गौसेवा से बढ़कर कोई अनुष्ठान नहीं है। गौमाता के दर्शन मात्र से ऐसा पुण्य प्राप्त होता है जो बड़े-बड़े यज्ञ, दान आदि कर्मों से भी नहीं प्राप्त हो सकता। ‘गौ मे माता ऋषभ: पिता में दिवं शर्म जगती मे प्रतिष्ठा।’ गाय मेरी माता और ऋषभ पिता हैं। धर्मशास्त्रों के अनुसार भगवान का अवतार ही गौमाता, संतों व धर्मरक्षा के लिए होता है। गोस्वामी तुलसीदासजी रामचरितमानस में लिखते हैं- ‘विप्र धेनु सुर संत हित लीन्ह मनुज अवतार । निज इच्छा निर्मित तनु माया गुन गोपार ।।सनातन सत्य गौमाता में समस्त तीर्थ गाय, गोपाल, गीता, गायत्री तथा गंगा धर्मप्राण भारत के प्राण  हैं। पूजनीय गौमाता, हमारी ऐसी मां है जिसकी बराबरी न कोई देवी-देवता कर सकते हैं और न कोई तीर्थ है । गौमाता को भगवान कृष्ण नंगे पांव जंगल-जंगल चराते और  गोपाल नाम रख कर  उसकी रक्षा के लिए गौकुल में अवतार लिया है । राजा दिलीप गौसेवा के पर्याय और रामजन्म सुरभि गाय के दुग्ध द्वारा तैयार खीर से माना गया है । कृष्ण, गोपाल  नाम से जाने गए ने पूर्ण बृजक्षेत्र की रक्षा गोवर्धन पर्वत उठा कर की और माखनचोर कहलाये। औषधियों के स्वामी धनवंतरी ने गौभक्ति और गौसेवा कर आरोग्य प्रदायनी गौ दुग्ध, गौ घी, गौदधि, गौमूत्र और गोबर के मिश्रण से पंचगव्य की रचना की। यहां तक कि गाय के गोबर और मूत्र को एक पर्यावरण रक्षक के रूप में माना जाता था और फर्श और घरों की दिवारों रसोई में इस्तेमाल किया गया था, शुद्ध रहने के लिए हर घर और मानव शरीर पर गौमूत्र छिड़काव एक आम बात थी। गोकुल यानी जहां 10,000 से अधिक गौवंश हों और नन्द जो की हजारों गौवंश का अधिपति हो जाना जाता था। सनातन धर्म में कन्या को दुहिता का नाम दिया है, यानी दुग्ध को दोहन करने वाली, गाय का दान एक सबसे महान दान माना जाता था। शास्त्रों में कहा है सब योनियों में मनुष्य योनी श्रेष्ठ है। क्योंकि वह गौमाता की निर्मल आभा में अपने जीवन को धन्य कर सकते हैं। मानव संरक्षण, कृषि और अन्न उत्पादन में गौवंश का अटूट सहयोग और साथ रहा है। इसी कारण हमारे शास्त्र वेद पुराण गौ महिमा से भरे हुए हैं। अर्थववेद  के अनुसार -  मित्र ईक्षमाण आवृत आनंद:युज्यमानों , वैश्वदेवोयुक्त: प्रजापति विर्मुक्त: सर्पम्। एतद्वैविश्वरूपं सर्वरूपं गौरूपम् उपैनंविश्वरूपा: , सर्वरूपा: पशवस्तिष्ठन्ति य एवम् वेद।। अर्थात देखते समय गौ मित्र देवता है, पीठ फेरते समय आनंद है। हल तथा गाड़ी में जोतते समय(बैल) विश्वदेव, जाने पर प्रजापति तथा जब खुला हो तो सबकुछ बन जाता है। यही विश्वरूप अथवा सर्वरूप है, यही गौरूप है। जिसे इस विश्वरूप का यर्थाथ ज्ञान होता है उसके पास विविध प्रकार के पशु रहते हैं। अथर्ववेद में ही कहा गया है ब्राह्मण तथा क्षत्रिय विश्वरूप गौ के नितंब हैं। गंधर्व पिंडलियां तथा अप्सारायें छोटी हड्डियां हैं। देवता इसके गुदा हैं, मनुष्य आते, अन्य प्राणी अमाशय हैं। राक्षस रक्त तथा इतर मानव पैर हैं। गाय के संबंध में एक जगह कहा गया है- ।


प्रत्यंग तिष्ठन् धातोदड तिष्ठनन्रसविता तृणाणि प्राप्त: सोमों राजा।अर्थात् पश्चिमाभिमुख खड़े होते समय गाय विधाता उत्तराभिमुख खड़े होते समय सविता तथा घास चरते समय चंद्रमा है। विभिन्न ग्रंथों में कहा गया है कि गाय के अंगों में ईश्वर का वास है। उदाहरणार्थ-बृहत्पराशर स्मृति , पद्मपुराण सृष्टिखंड , अथर्ववेद में गायों को संपतियों का भंडार कहा गया है। यच्च गां पदा स्फुरति प्रत्यड् सूर्यं च मेहति, तस्य वृश्वामि तेमूलं च्छाया करवोपरम।। अर्थात जो गाय को पैर से ठुकराता है और जो सूर्य की ओर मुंह करके मूत्रोत्सर्ग करता है मैं उस पुरूष का मूल ही काट देता हूं संसार में फिर उसे छाया मिलना कठिन है। प्रभु राम के वनवास गमन के पश्चात जब भरत उनसे मिलने वन में गये तो प्रभु का पहला प्रशन भरत से यही था कि तुम्हारे राज्य में गाय तो ठीक से हैं न स्कंदपुराण (आवंत्यखंड रेखाखंड अध्याय-13) ब्रह्मांडपुराण (गोसावित्रीस्त्रोत) भविष्यपुराण (उत्तरपर्व बह्मवैर्वापुराण के श्रीकृष्णजन्म कांड आदि में गाय की महिमा का वर्णन है। गौवध का निषेध करते हुये वेद में कहा गया है- माता रूद्राणां दुहिता वसूनां स्वसादित्यनाममृत्स्य नाभि: प्रश्नु वोचं चिकितुषे जनायमा गामनागादितिं वधिष्ट। अर्थात गौ रूद्रों की माता वसुओं की पुत्री अदितिपुत्रों की बहन तथा धृतरूप अमृत का खजाना है। प्रत्येक विचारशील मनुष्य को मैंनें यही कहा है कि निरपराध व अवध्य गौ का कोई वध न करे।शास्त्रों के अनुसार गाय माता की महिमामयी और सभी प्रकार से पूज्य है। गौ माता की रक्षा करना  मनुष्‍य का परम कर्तव्य है।गौमाता की सेवा से बढ़कर कोई दूसरा महान पुण्य नहीं है। पुराणों में कहा गया है कि  मनुष्य गौ माता के खुर से उड़ी हुई धूलि को सिर पर धारण करता है उसे तीर्थ के जल में स्नान और उसे सभी पापों से छुटकारा मिल जाता है।गौमाता के बारे में  शुभ और पवित्र बातें जीवन में अपनाकर अपनी सभी परेशानियों से छुटकारा पाता  हैं। गौ माता (गाय) की पूजा करने से कुंडली के दोष समाप्त होंगे। प्रतिदिन गौ माता के नेत्र के दर्शन करें, जीवन में लाभ ही लाभ होगा। रास्ते में जाते समय गौ माता आती हुई दिखाई दें तो उन्हें अपने दाहिने से जाने दें, तो निश्‍चित ही आपकी यात्रा सफल होगी। यात्रा की शुरुआत करते समय गौ माता सामने से आती हुई दिखाई दें या बछड़े को दूध पिलाती हुई दिख जाए तो यात्रा सफल एवं संपन्न होती है। बुरे स्वप्न दिखाई देते हैं तो गौ माता का नाम ले, कुछ ही दिनों में बुरे स्वप्न दिखने बंद हो जाएंगे। गौ माता के दूध से बने घी का एक अन्य नाम 'आयु' भी है, इसीलिए उसे 'आयुर्वै घृतम्' कहा जाता है। अत: गौ माता के दूध एवं घी का उपयोग करने से व्यक्ति दीर्घायु होता है।  हस्त रेखा में आयु (उम्र की) रेखा टूटी हुई है तब गौ माता का पूजन करें तथा गाय का घी सेवन करने के साथ-साथ अन्य कामों में में सफलता मिलती है । जिस घर में गौ पालन किया जाता है, वहां का वास्तुदोष स्वत: ही समाप्त हो जाता है। पितृ दोष के कारण आपका संघर्षमयी जीवन हो तो गौ माता को प्रतिदिन रोटी, गुड़, हरा चारा आदि खिलाएं। अगर प्रतिदिन ना खिला सके तो सिर्फ हर अमावस्या के दिन खिलाने से भी पितृ दोष समाप्त होता है। ज्योतिष  शास्त्र में गोधू‍लि का समय शुभ विवाह के लिए सर्वोत्तम माना गया है। अत: विवाह के समय इस बात का ध्यान रखकर ही शुभ मांगलिक कार्य किए जाए तो जीवन में कभी भी दुखों से सामना नहीं होता है । गाय की घी , दूध , दही , मध , गुड मिला कर पंचाम्टत पान करने पर  भुक्ति तथा  गाग की गोबर , मूत्र , दूध , दही तथा घी मिला कर गव्य को शरीर , हाथ में लगा कर स्नान करने पर संक्रमण तथा रोगाणु से मुक्ति मिलती है ।
स्वायंभुव मनु के वंश में राजा पुरू की पत्नी आग्रयी के प्रपौत तथा राजा अंग की पत्नि सुनिथा के पौत्र राजा वेन दिहिने हाथ का मंथन रीषियों द्वारा करने पर राजा प्टथु का अवतरण हुआ था । राजा प्टथु द्वारा धरातल को सभी प्राणियों के चतुर्मुखी विकास के लिए ब्रह्मेष्टी यग्य कराने के पश्चात मागध और सूत का अवतरण हुआ था। राजा प्टथु ने मागध को मगध तथा सूत को अनुप देश प्रदान किया । गाय के रूप में धरती राजा प्टथु के सामने प्रकट हुई थी । राजा प्टथु द्वारा धरती रूप गाय को स्वायंभुव मनु को बछडा बनाकर दूहने पर अन्न की उत्पति ,, चंद्रमा बछडा बने तथा महर्षि ने दूहा  , देवता ,, पितर ,नाग , दैत्य ,गंधर्व ,यछ ,पर्वत , पेड, पूण्यजन  , व्टहस्पति ,सूर्य ,नाग ,विरोचन दूह कर धरती के प्राणियों सम्टद्ध बनाया है । द्वापर युग में भगवान गोपल बन कर गाय की सेवा की । भगवान क्टष्ण ने कार्तिक शुक्ल अष्टमी से गौ सेवा का ब्रत लिया । इस तिथि को गोपाष्टमी नाम से ख्याति प्रप्त है ।

शनिवार, नवंबर 21, 2020

निरोगता तथा सर्वार्थ सिद्धि : आंवला नवमी...


पौराणिक ग्रंथों , वेदों तथा पुराणों के अनुसार सत्ययुग का प्रारंभ कार्तिक शुक्ल अक्षय नवमी बुधवार श्रवण नछत्र ध्टति योग मध्याह्ण काल में हुआ था और इसलिए  ‘सत्य युगाडी’ कहा जाता है। अक्षय नवमी को  ‘आंवला नवमी कहा गया है ।  आंवला के पेड़ में  देवियों और देवताओं का निवास माना जाता है । पश्चिम बंगाल के क्षेत्रों में जगधात्री पूजा’ के रूप में मनाया जाता है तथा बिहार , झारखण्ड , उडीसा में अक्षय नवमी की संध्या पर, भक्त  सूर्योदय से  पवित्र नदी के किनारे पर पूजा करते हैं।उसके बाद, भक्त पूजा की जगह को साफ करते हैं और हल्दी पाउडर का उपयोग करके तीस वर्गाकार आकृतियां बनाते हैं। इन सभी आकृतियों को ‘कोठा’ कहा जाता है जो खाद्य पदार्थों, अनाज और दालें से भरे जाते हैं।इसके बाद भक्त कई वैदिक मंत्रों का जाप करते हुए पूजा करते हैं। किसान खाद्य पदार्थों से निरंतर भंडार भरे रहने और भविष्य में अच्छी फसल के लिए इस दिन को मनाते हैं।अनुष्ठान के एक भाग के रूप में, महिलाएं तथा पुरूष अक्षय नवमी उपवास का पालन करती हैं और भोजन और पानी के सेवन से दूर रहती हैं। कीर्तनों और भजनों का गायन करते   है।विभिन्न राज्यों में आंवला’ पेड़ की पूजा कर अॉवला पेड की छाया में भोजन करते है । अच्छा स्वास्थ्य प्राप्त करने के लिए, लोगों को इस विशेष दिन आंवला खाना चाहिए। हिंदू धर्म में, अक्षय नवमी के उत्सव को अत्यधिक शुभ और महत्वपूर्ण माना जाता है। यह अत्यंत समर्पण और श्रद्धा के साथ मनाया जाता है। इस दिन भजन उपासना के द्वारा, भक्त अपनी सभी इच्छाओं को पूरा करते हैं । दान और भिक्षा देना शुभ माना जाता है। ‘कुष्मंद नवमी’ भूरा नवमी  के रूप में  पहचाना जाता है । भगवान विष्णु ने इस दिन दानव ‘कुष्मंड’ का वध किया था और ब्रह्मांड में धर्म को बहाल किया था। अॉवला नवमी को गुप्त दान का महत्व है । अॉवला की उत्पति ब्रह्मा जी की आंसू भू स्थल पर गिरा था ।
आँवला  स्वास्थ्यवर्धक फल है ।आंवले की डाली पर पत्ते एवं फल , विभाग - मैंगोलियोफाइटा वर्ग मैंगोलियोफाइटा , जाति - रिबीस ,प्रजाति - आर यूवा-क्रिस्पा ,वैज्ञानिक नाम - रिबीस यूवा-क्रिस्पा है ।आँवला २० फीट से २५ फुट तक लंबा झारीय पौधा होता है। यह एशिया के अलावा यूरोप और अफ्रीका में भी पाया जाता है। हिमालयी क्षेत्र और प्राद्वीपीय भारत में आंवला के पौधे बहुतायत मिलते हैं। इसके फूल घंटे की तरह होते हैं। इसके फल सामान्यरूप से छोटे होते हैं, लेकिन प्रसंस्कृत पौधे में थोड़े बड़े फल लगते हैं। इसके फल हरे, चिकने और गुदेदार होते हैं। स्वाद में इनके फल कसाय होते हैं।संस्कृत में इसे अमृता, अमृतफल, आमलकी, पंचरसा इत्यादि, अंग्रेजी में 'एँब्लिक माइरीबालन' या इण्डियन गूजबेरी तथा लैटिन में 'फ़िलैंथस एँबेलिका'  कहते हैं। यह वृक्ष समस्त भारत में जंगलों तथा बाग-बगीचों में होता है। इसकी ऊँचाई 20 से 25 फुट तक, छाल राख के रंग की, पत्ते इमली के पत्तों जैसे, किंतु कुछ बड़े तथा फूल पीले रंग के छोटे-छोटे होते हैं। फूलों के स्थान पर गोल, चमकते हुए, पकने पर लाल रंग के, फल लगते हैं, जो आँवला नाम से ही जाने जाते हैं। वाराणसी का आँवला सब से अच्छा माना जाता है। यह वृक्ष कार्तिक में फलता है ।आयुर्वेद के अनुसार हरीतकी (हड़) और आँवला दो सर्वोत्कृष्ट औषधियाँ हैं। इन दोनों में आँवले का महत्व अधिक है। चरक के मत से शारीरिक अवनति को रोकनेवाले अवस्थास्थापक द्रव्यों में आँवला सबसे प्रधान है। प्राचीन ग्रंथकारों ने इसको शिवा (कल्याणकारी), वयस्था (अवस्था को बनाए रखनेवाला) तथा धात्री  कहा है।अॉवला फल पूरा पकने के पहले व्यवहार में आते हैं। वे ग्राही (पेटझरी रोकनेवाले), मूत्रल तथा रक्तशोधक बताए गए हैं। कहा गया है, ये अतिसार, प्रमेह, दाह, कँवल, अम्लपित्त, रक्तपित्त, अर्श, बद्धकोष्ठ, वीर्य को दृढ़ और आयु में वृद्धि करते हैं। मेधा, स्मरणशक्ति, स्वास्थ्य, यौवन, तेज, कांति तथा सर्वबलदायक औषधियों में इसे सर्वप्रधान कहा गया है। इसके पत्तों के क्वाथ से कुल्ला करने पर मुँंह के छाले और क्षत नष्ट होते हैं। सूखे फलों को पानी में रात भर भिगोकर उस पानी से आँख धोने से सूजन इत्यादि दूर होती है। सूखे फल खूनी अतिसार, आँव, बवासरी और रक्तपित्त में तथा लोहभस्म के साथ लेने पर पांडुरोग और अजीर्ण में लाभदायक माने जाते हैं। आँवला के ताजे फल, उनका रस या इनसे तैयार किया शरबत शीतल, मूत्रल, रेचक तथा अम्लपित्त को दूर करनेवाला कहा गया है। आयुर्वेद के अनुसार यह फल पित्तशामक है और संधिवात में उपयोगी है। ब्राह्मरसायन तथा च्यवनप्राश, ये दो विशिष्ट रसायन आँवले से तैयार किए जाते हैं। प्रथम मनुष्य को नीरोग रखने तथा अवस्थास्थापन में उपयोगी माना जाता है तथा दूसरा भिन्न-भिन्न अनुपानों के साथ भिन्न-भिन्न रोगों, जैसे हृदयरोग, वात, रक्त, मूत्र तथा वीर्यदोष, स्वरक्षय, खाँसी और श्वासरोग में लाभदायक माना जाता है।आधुनिक अनुसंधानों के अनुसार आँवला में विटैमिन-सी प्रचुर मात्रा में होता है; इतनी अधिक मात्रा में कि साधारण रीति से मुरब्बा बनाने में भी सारे विटैमिन का नाश नहीं हो पाता। संभवत: आँवले का मुरब्बा इसीलिए गुणकारी है। आँवले को छाँह में सुखाकर और कूट पीसकर सैनिकों के आहार में उन स्थानों में दिया जाता है जहाँ हरी तरकारियाँ नहीं मिल पाती। आँवले के उस अचार में, जो आग पर नहीं पकाया जाता विटैमिन सी प्राय: पूर्ण रूप से सुरक्षित रह जाता है और यह अचार, विटैमिन सी की कमी में खाया जा सकता है।एशिया और यूरोप में बड़े पैमाने पर आंवला की खेती होती है। आंवला के फल औषधीय गुणों से युक्त होते हैं, इसलिए इसकी व्यवसायिक खेती किसानों के लिए लाभदायक होती है।भारत की जलवायु आंवले की खेती के लिहाज से सबसे उपयुक्त मानी जाती है। ( उत्तर प्रदेश का प्रतापगढ़ जनपद आॅवले के लिए प्रसिद्ध है)। इसके उपरान्त ब्रिटेन, फ्रांस, इटली, स्कॉटलैंड, नॉर्वे आदि देशों में इसकी खेती सफलतापूर्वक की जाती है। इसके फलों को विकसित होने के लिए सूर्य का प्रकाश आवश्यक माना जाता है। हालांकि आंवले को किसी भी मिट्टी में उगाया जा सकता है, लेकिन काली जलोढ़ मिट्टी को इसके लिए उपयुक्त माना जाता है। कई बार आँवला में फल नहीं लगते जैसी समस्या आती है मगर आवश्यक यह है की जहाँ आँवला का पेड़ हो उसके आसपास दूसरे आँवले का पेड़ होना भी आवश्यक है तभी उसमें फल लगते है ।आंवले को बीज के उगाने की अपेक्षा कलम लगाना ज्यादा अच्छा माना जाता है। कलम पौधा जल्द ही मिट्टी में जड़ जमा लेता है और इसमें शीघ्र फल लग जाते हैं।कम्पोस्ट खाद का उपयोग कर भारी मात्रा में फल पाए जा सकते हैं। आंवले के फल विभिन्न आकार के होते हैं। छोटे फल बड़े फल की अपेक्षा ज्यादा तीखे होते हैं। आंवला के पौधे और फल कोमल प्रकृति के होते हैं, इसलिए इसमें कीड़े जल्दी लग जाते हैं। आंवले की व्यवसायिक खेती के दौरान यह ध्यान रखना होता है कि पौधे और फल को संक्रमण से रोका जाए। शुरुआती दिनों में इनमें लगे कीड़ों और उसके लार्वे को हाथ से हटाया जा सकता है। पोटाशियम सल्फाइड कीटाणुओं और फफुंदियों की रोकथाम के लिए उपयोगी माना जाता है ।आँवला एक छोटे आकार और हरे रंग का फल है। इसका स्वाद खट्टा होता है। आयुर्वेद में इसके अत्यधिक स्वास्थ्यवर्धक माना गया है। आँवला विटामिन 'सी' का सर्वोत्तम और प्राकृतिक स्रोत है। इसमें विद्यमान विटामिन 'सी' नष्ट नहीं होता। यह भारी, रुखा, शीत, अम्ल रस प्रधान, लवण रस छोड़कर शेष पाँचों रस वाला, विपाक में मधुर, रक्तपित्त व प्रमेह को हरने वाला, अत्यधिक धातुवर्द्धक और रसायन है। यह 'विटामिन सी' का सर्वोत्तम भण्डार है। आँवला दाह, पाण्डु, रक्तपित्त, अरुचि, त्रिदोष, दमा, खाँसी, श्वास रोग, कब्ज, क्षय, छाती के रोग, हृदय रोग, मूत्र विकार आदि अनेक रोगों को नष्ट करने की शक्ति रखता है। वीर्य को पुष्ट करके पौरुष बढ़ाता है, चर्बी घटाकर मोटापा दूर करता है। सिर के केशों को काले, लम्बे व घने रखता है। विटामिन सी ऐसा नाजुक तत्व होता है जो गर्मी के प्रभाव से नष्ट हो जाता है, लेकिन आँवले में विद्यमान विटामिन सी कभी नष्ट नहीं होता। हिन्दू मान्यता में आँवले के फल के साथ आँवले का पेड़ भी पूजनीय है| माना जाता है कि आँवले का फल भगवान विष्णु को बहुत प्रिय है इसीलिए अगर आँवले के पेड़ के नीचे भोजन पका कर खाया जाये तो सारे रोग दूर हो जाता हैं|
आँवले के 100 ग्राम रस में 921 मि.ग्रा. और गूदे में 720 मि.ग्रा. विटामिन सी पाया जाता है। आर्द्रता 81.2, प्रोटीन 0.5, वसा 0.1, खनिज द्रव्य 0.7, कार्बोहाइड्रेट्स 14.1, कैल्शियम 0.05, फॉस्फोरस 0.02, प्रतिशत, लौह 1.2 मि.ग्रा., निकोटिनिक एसिड 0.2 मि.ग्रा. पाए जाते हैं। इसके अलावा इसमें गैलिक एसिड, टैनिक एसिड, शर्करा (ग्लूकोज), अलब्यूमिन, काष्ठौज आदि तत्व भी पाए जाते हैं। आँवला दाह, खाँसी, श्वास रोग, कब्ज, पाण्डु, रक्तपित्त, अरुचि, त्रिदोष, दमा, क्षय, छाती के रोग, हृदय रोग, मूत्र विकार आदि अनेक रोगों को नष्ट करने की शक्ति रखता है। वीर्य को पुष्ट करके पौरुष बढ़ाता है, चर्बी घटाकर मोटापा दूर करता है। सिर के केशों को काले, लम्बे व घने रखता है। दाँत-मसूड़ों की खराबी दूर होना, कब्ज, रक्त विकार, चर्म रोग, पाचन शक्ति में खराबी, नेत्र ज्योति बढ़ना, बाल मजबूत होना, सिर दर्द दूर होना, चक्कर, नकसीर, रक्ताल्पता, बल-वीर्य में कमी, बेवक्त बुढ़ापे के लक्षण प्रकट होना, यकृत की कमजोरी व खराबी, स्वप्नदोष, धातु विकार, हृदय विकार, फेफड़ों की खराबी, श्वास रोग, क्षय, दौर्बल्य, पेट कृमि, उदर विकार, मूत्र विकार आदि अनेक व्याधियों के घटाटोप को दूर करने के लिए आँवला बहुत उपयोगी है। कार्तिक शुक्ल नवमी अर्थात् आंवला नवमी वह दिन है जब आदिगुरु शंकराचार्य ने एक वृद्ध महिला की सहायता करने के लिए स्वर्ण के आंवलों की वर्षा करवाई थी। इसलिए भी आंवला नवमी का महत्व है। यह दिन लक्ष्मी की प्राप्ति का दिन भी है। इस दिन कई लोग लक्ष्मीपूजन भी करते हैं। इस दिन शंकराचार्य ने कनकधारा स्तोत्र की रचना की थी। कथाओं के अनुसार एक बार जगद्गुरु आदि शंकराचार्य भिक्षा मांगने एक गांव में गए। वहां एक कुटिया के सामने जाकर भिक्षाम देहि की आवाज लगाई। वहां एक वृद्धा औरत अकेली रहती थी। वह अत्यंत गरीब थी। अपने लिए एक वक्त का भोजन भी बड़ी मुश्किल से जुटा पाती थी। कभी-कभी तो उसे भूखा ही सोना पड़ता था। शंकराचार्य की आवाज सुनकर वह वृद्धा बाहर आई। उसके हाथ में एक सूखा आंवला था। वह बोली महात्मन मेरे पास इस सूखे आंवले के सिवाय कुछ नहीं है जो आपको भिक्षा में दे सकूं। शंकराचार्य को उसकी स्थिति पर दया आ गई और उन्होंने उसी समय उसकी मदद करने का प्रण लिया। उन्होंने अपनी आंखें बंद की और मंत्र रूपी 22 श्लोक है ।ये 22 श्लोक कनकधारा स्तोत्र के श्लोक थे। इससे प्रसन्न होकर मां लक्ष्मी ने उन्हें दिव्य दर्शन दिए और कहा कि शंकराचार्य, इस औरत ने अपने पूर्व जन्म में कोई भी वस्तु दान नहीं की। यह अत्यंत कंजूस थी और मजबूरीवश कभी किसी को कुछ देना ही पड़ जाए तो यह बुरे मन से दान करती थी। इसलिए इस जन्म में इसकी यह हालत हुई है। यह अपने कर्मों का फल भोग रही है इसलिए मैं इसकी कोई सहायता नहीं कर सकती। शंकराचार्य ने देवी लक्ष्मी की बात सुनकर कहा- हे महालक्ष्मी इसने पूर्व जन्म में अवश्य दान-धर्म नहीं किया है, लेकिन इस जन्म में इसने पूर्ण श्रद्धा से मुझे यह सूखा आंवला भेंट किया है। इसके घर में कुछ नहीं होते हुए भी इसने यह मुझे सौंप दिया। इस समय इसके पास यही सबसे बड़ी पूंजी है, क्या इतनी भेंट पर्याप्त नहीं है। शंकराचार्य की इस बात से देवी लक्ष्मी प्रसन्न हुई और उसी समय उन्होंने गरीब महिला की कुटिया में स्वर्ण के आंवलों की वर्षा कर दी।आंवला नवमी के दिन दूध, चावल, मखाने और मिश्री की खीर बनाकर उसमें गुलाब के फूल की कुछ पत्तियां डालकर मां लक्ष्मी को नैवेद्य लगाने से धन की प्राप्ति होती है।
आंवला नवमी के दिन पूजा में केसर के तिलक का। इससे आकर्षण प्रभाव में वृद्धि होती है और परिस्थितियां अनुकूल हो जाती हैं।इस दिन स्वर्ण लक्ष्मी प्रयोग भी किया जाता है। स्नानादि करके शुद्ध श्वेत वस्त्र धारण कर पूजा स्थान में एक चौकी पर लाल कपड़ा बिछाकर उस पर चावल की ढेरी बनाकर उस पर देवी लक्ष्मी की मूर्ति स्थापित करें। विधिवत पूजन के बाद श्रीसूक्त के 21 पाठ करें। कमलगट्टे की माला से लक्ष्मी के बीज मंत्र श्रीं का जाप करना चाहिए ।
अश्विनीकुमार  - वैदिक तथा आयुर्वेद  साहित्य में अश्विनों का उल्लेख देवता के रूप में वर्णित है । ऋग्वेद में ३९८ बार अश्विनीकुमारों का  ५०  ऋचाएँ  उनकी ही स्तुति के लिए हैं। ऋग्वेद में  अश्विनीकुमार प्रभात के जुड़वा देवता और आयुर्वेद के आदि आचार्य माने जाते हैं। ये देवों के चिकित्सक और रोगमुक्त करनेवाले हैं। वे कुमारियों को पति माने जाते हैं। वृद्धों को तारूण्य, अन्धों को नेत्र देनेवाले कहे गए हैं। महाभारत के अनुसार नकुल और सहदेव उन्हीं के पुत्र थे (दोनों को 'अश्विनेय' कहते हैं)।दोनों अश्विनीकुमार युवा और सुन्दर हैं। इनके लिए 'नासत्यौ' विशेषण भी प्रयुक्त होता है, जो ऋग्वेद में ९९ बार आया है। ये दोनों प्रभात के समय घोड़ों या पक्षियों से जुते हुए सोने के रथ पर चढ़कर आकाश में निकलते हैं। इनके रथ पर पत्नी सूर्या विराजती हैं और रथ की गति से सूर्या की उत्पति होती है।इनकी उत्पति निश्चित नहीं कि वह प्रभात और संध्या के तारों से है या गोधूली या अर्ध प्रकाश से। परन्तु ऋग्वेद ने उनका सम्बन्ध रात्रि और दिवस के संधिकाल से किया है।ऋग्वेद (१.३, १.२२, १.३४) के अलावे महाभारत में भी इनका वर्णन है। वेदों में इन्हें अनेकों बार "द्यौस का पुत्र" (दिवो नपाता) कहा गया है। पौराणिक कथाओं में 'अश्विनीकुमार' त्वष्टा की पुत्री प्रभा नाम की स्त्री से उत्पन्न सूर्य के दो पुत्र।भारतीय दर्शन के विद्वान उदयवीर शास्त्री ने वैशेषिक शास्त्र की व्याख्या में अश्विनों को विद्युत-चुम्बकत्व बताया है [4]जो आपस में जुड़े रहते हैं और सूर्य से उत्पन्न हुए हैं। इसके अलावे ये अश्व (द्रुत) गति से चलने वाले यानि 'आशु' भी हैं - इनके नाम का मूल यही है।ऋग्वेद में अश्विनीकुमारों का रूप, देवताओं के साथ सफल चिकित्सक रूप में मिलता है। वे सर्वदा युगल रूप में दृष्टिगोचर होते हैं। उनका युगल रूप चिकित्सा के दो रूपों (सिद्धान्त व व्यवहार पक्ष) का प्रतीक माना जा रहा है। वे ऋग्वैदिक काल के एक सफल शल्य-चिकित्सक थे। इनके चिकित्सक होने का उदाहरण इस प्रकार दिया जा सकता है। उन्होने मधुविद्या की प्राप्ति के लिए आथर्वण दधीचि के शिर को काट कर अश्व का सिर लगाकर मधुविद्या को प्राप्त की और पुनः पहले वाला शिर लगा दिया। वृद्धावस्था के कारण क्षीण शरीर वाले च्यवन ऋषि के चर्म को बदलकर युवावस्था को प्राप्त कराना। द्रौण में विश्यला का पैर कट जाने पर लोहे का पैर लगाना, नपुंसक पतिवाली वध्रिमती को पुत्र प्राप्त कराना, अन्धे ऋजाश्व को दृष्टि प्रदान कराना, बधिर नार्षद को श्रवण शक्ति प्रदान करना, सोमक को दीर्घायु प्रदान करना, वृद्धा एवं रोगी घोषा को तरुणी बनाना, प्रसव के आयोग्य गौ को प्रसव के योग्य बनाना आदि ऐसे अनगिनत उल्लेख प्राप्त होते हैं, जिनसे सफल शल्य्चिकित्सक होने का संकेत मिलता है।दोनों कुमारों ने राजा शर्याति की पुत्री सुकन्या के पातिव्रत्य से प्रसन्न होकर महर्षि च्यवन का वृद्धावस्था में ही कायाकल्प कर उन्हें चिर-यौवन प्रदान किया था। कहते हैं कि दधीचि से मधुविद्या सीखने के लिए इन्होंने उनका सिर काटकर अलग रख दिया था और उनके धड़ पर घोड़े का सिर जोड़ दिया था और तब उनसे मधुविद्या सीखी थी। जब इन्द्र को पता चला कि दधीचि दूसरों को मधुविद्या की शिक्षा दे रहे हैं तो इन्द्र ने दधीचि का सिर फिर से नष्त-भ्रष्ट कर दिया। तब इन्होंने ही दधीचि ऋषि के सिर को फिर से जोड़ दिया था।ऋग्वेद में 376 वार अश्वनी कुमार का वर्णन है । अश्वनी कुमार का  57 ऋचाओं में उलेख  हैं: 1.3, 1.22, 1.34, 1.46-47, 1.112, 1.116-120 ,1.157-158, 1.180-184, 2.20, 3.58, 4.43-45, 5.73-78, 6.62-63, 7.67-74, 8.5, 8.8-10, 8.22, 8.26, 8.35, 8.57, 8.73, 8.85-87, 10.24, 10.39-41, 10.143 में देव वैद्य अश्वनी कुमार का उलेख है ।
दधीचि - दधीच वैदिक ऋषि थे। इनके जन्म के संबंध में अनेक कथाएँ हैं। यास्क के मतानुसार ये अथर्व के पुत्र हैं। पुराणों में इनकी माता का नाम 'शांति' मिलता है। यास्क के मतानुसार दधीचि की माता 'चित्ति' और पिता 'अथर्वा' थे, इसीलिए इनका नाम 'दधीचि' हुआ था। किसी पुराण के अनुसार यह कर्दम ऋषि की कन्या 'शांति' के गर्भ से उत्पन्न अथर्वा के पुत्र थे। दधीचि प्राचीन काल के परम तपस्वी और ख्यातिप्राप्त महर्षि थे। उनकी पत्नी का नाम 'गभस्तिनी' था। महर्षि दधीचि वेद शास्त्रों आदि के पूर्ण ज्ञाता और स्वभाव के बड़े ही दयालु थे। अहंकार तो उन्हें छू तक नहीं पाया था। वे सदा दूसरों का हित करना अपना परम धर्म समझते थे। उनके व्यवहार से उस वन के पशु-पक्षी तक संतुष्ट थे, जहाँ वे रहते थे। गंगा के तट पर ही उनका आश्रम था। जो भी अतिथि महर्षि दधीचि के आश्रम पर आता, स्वयं महर्षि तथा उनकी पत्नी अतिथि की पूर्ण श्रद्धा भाव से सेवा करते थे। यूँ तो 'भारतीय इतिहास' में कई दानी हुए हैं, किंतु मानव कल्याण के लिए अपनी अस्थियों का दान करने वाले मात्र महर्षि दधीचि ही थे। देवताओं के मुख से यह जानकर की मात्र दधीचि की अस्थियों से निर्मित वज्र द्वारा ही असुरों का संहार किया जा सकता है, महर्षि दधीचि ने अपना शरीर त्याग कर अस्थियों का दान कर दिया !लोक कल्याण के लिये आत्म-त्याग करने वालों में महर्षि दधीचि का नाम बड़े ही आदर के साथ लिया जाता है। यास्क के मतानुसार दधीचि की माता 'चित्ति' और पिता 'अथर्वा' थे, इसीलिए इनका नाम 'दधीचि' हुआ था। किसी पुराण के अनुसार यह कर्दम ऋषि की कन्या 'शांति' के गर्भ से उत्पन्न अथर्वा के पुत्र थे। अन्य पुराणानुसार यह शुक्राचार्य के पुत्र थे। महर्षि दधीचि तपस्या और पवित्रता की प्रतिमूर्ति थे। भगवान शिव के प्रति अटूट भक्ति और वैराग्य में इनकी जन्म से ही निष्ठा थी।कहा जाता है कि एक बार इन्द्रलोक पर 'वृत्रासुर'(दधीचि के मास से भगवान विष्णूका सुदर्शन चक्रभी बना हैl) नामक राक्षस ने अधिकार कर लिया तथा इन्द्र सहित देवताओं को देवलोक से निकाल दिया। सभी देवता अपनी व्यथा लेकर ब्रह्मा, विष्णु व महेश के पास गए, लेकिन कोई भी उनकी समस्या का निदान न कर सका। बाद में ब्रह्मा जी ने देवताओं को एक उपाय बताया कि पृथ्वी लोक में 'दधीचि' नाम के एक महर्षि रहते हैं। यदि वे अपनी अस्थियों का दान कर दें तो उन अस्थियों से एक वज्र बनाया जाये। उस वज्र से वृत्रासुर मारा जा सकता है, क्योंकि वृत्रासुर को किसी भी अस्त्र-शस्त्र से नहीं मारा जा सकता। महर्षि दधीचि की अस्थियों में ही वह ब्रह्म तेज़ है, जिससे वृत्रासुर राक्षस मारा जा सकता है। इसके अतिरिक्त और कोई दूसरा उपाय नहीं है। देवराज इन्द्र महर्षि दधीचि के पास जाना नहीं चाहते थे, क्योंकि इन्द्र ने एक बार दधीचि का अपमान किया था, जिसके कारण वे दधीचि के पास जाने से कतरा रहे थे। माना जाता है कि ब्रह्म विद्या का ज्ञान पूरे विश्व में केवल महर्षि दधीचि को ही था। महर्षि मात्र विशिष्ट व्यक्ति को ही इस विद्या का ज्ञान देना चाहते थे, लेकिन इन्द्र ब्रह्म विद्या प्राप्त करने के परम इच्छुक थे। दधीचि की दृष्टि में इन्द्र इस विद्या के पात्र नहीं थे। इसलिए उन्होंने इन्द्र को इस विद्या को देने से मना कर दिया। दधीचि के इंकार करने पर इन्द्र ने उन्हें किसी अन्य को भी यह विद्या देने को मना कर दिया और कहा कि- "यदि आपने ऐसा किया तो मैं आपका सिर धड़ से अलग कर दूँगा"। महर्षि ने कहा कि- "यदि उन्हें कोई योग्य व्यक्ति मिलेगा तो वे अवश्य ही ब्रह्म विद्या उसे प्रदान करेंगे।" कुछ समय बाद इन्द्रलोक से ही अश्विनीकुमार महर्षि दधीचि के पास ब्रह्म विद्या लेने पहुँचे। दधीचि को अश्विनीकुमार ब्रह्म विद्या पाने के योग्य लगे। उन्होंने अश्विनीकुमारों को इन्द्र द्वारा कही गई बातें बताईं। तब अश्विनीकुमारों ने महर्षि दधीचि के अश्व का सिर लगाकर ब्रह्म विद्या प्राप्त कर ली। इन्द्र को जब यह जानकारी मिली तो वह पृथ्वी लोक में आये और अपनी घोषणा के अनुसार महर्षि दधीचि का सिर धड़ से अलग कर दिया। अश्विनीकुमारों ने महर्षि के असली सिर को फिर से लगा दिया। इन्द्र ने अश्विनीकुमारों को इन्द्रलोक से निकाल दिया। यही कारण था कि अब इन्द्र महर्षि दधीचि के पास उनकी अस्थियों का दान माँगने के लिए आना नहीं चाहते थे। वे इस कार्य के लिए बड़ा ही संकोच महसूस कर रहे थे। देवलोक पर वृत्रासुर राक्षस के अत्याचार दिन-प्रतिदिन बढ़ते ही जा रहे थे। वह देवताओं को भांति-भांति से परेशान कर रहा था। अन्ततः देवराज इन्द्र को इन्द्रलोक की रक्षा व देवताओं की भलाई के लिए और अपने सिंहासन को बचाने के लिए देवताओं सहित महर्षि दधीचि की शरण में जाना ही पड़ा। महर्षि दधीचि ने इन्द्र को पूरा सम्मान दिया तथा आश्रम आने का कारण पूछा। इन्द्र ने महर्षि को अपनी व्यथा सुनाई तो दधीचि ने कहा कि- "मैं देवलोक की रक्षा के लिए क्या कर सकता हूँ।" देवताओं ने उन्हें ब्रह्मा, विष्णु व महेश की कहीं हुई बातें बताईं तथा उनकी अस्थियों का दान माँगा। महर्षि दधीचि ने बिना किसी हिचकिचाहट के अपनी अस्थियों का दान देना स्वीकार कर लिया। उन्होंने समाधी लगाई और अपनी देह त्याग दी। उस समय उनकी पत्नी आश्रम में नहीं थी। अब देवताओं के समक्ष ये समस्या आई कि महर्षि दधीचि के शरीर के माँस को कौन उतारे। इस कार्य के ध्यान में आते ही सभी देवता सहम गए। तब इन्द्र ने कामधेनु गाय को बुलाया और उसे महर्षि के शरीर से मांस उतारने को कहा। कामधेनु ने अपनी जीभ से चाट-चाटकर महर्षि के शरीर का माँस उतार दिया। अब केवल अस्थियों का पिंजर रह गया था। महर्षि दधीचि ने तो अपनी देह देवताओ की भलाई के लिए त्याग दी, लेकिन जब उनकी पत्नी 'गभस्तिनी' वापस आश्रम में आई तो अपने पति की देह को देखकर विलाप करने लगी तथा सती होने की जिद करने लगी। तब देवताओ ने उन्हें बहुत मना किया, क्योंकि वह गर्भवती थी। देवताओं ने उन्हें अपने वंश के लिए सती न होने की सलाह दी। लेकिन गभस्तिनी नहीं मानी। तब सभी ने उन्हें अपने गर्भ को देवताओं को सौंपने का निवेदन किया। इस पर गभस्तिनी राजी हो गई और अपना गर्भ देवताओं को सौंपकर स्वयं सती हो गई। देवताओं ने गभस्तिनी के गर्भ को बचाने के लिए पीपल को उसका लालन-पालन करने का दायित्व सौंपा। कुछ समय बाद वह गर्भ पलकर शिशु हुआ तो पीपल द्वारा पालन पोषण करने के कारण उसका नाम 'पिप्पलाद' रखा गया। इसी कारण दधीचि के वंशज 'दाधीच' कहलाते हैं।
च्यवन - च्यवन एक ऋषि थे जिन्होने जड़ी-बुटियों से 'च्यवनप्राश' नामक एक औषधि बनाकर उसका सेवन किया तथा अपनी वृद्धावस्था से पुनः युवा बन ब गए थे। महाभारत के अनुसार, उनमें इतनी शक्ति थी कि वे इन्द्र के वज्र को भी पीछे धकेल सकते थे। वे अत्यन्त तपस्वी थे।च्यवन, भृगु मुनि के पुत्र थे। एक बार वे तप करने बैठे तो तप करते-करते उन्हें हजारों वर्ष व्यतीत हो गये। यहाँ तक कि उनके शरीर में दीमक-मिट्टी चढ़ गई और लता-पत्तों ने उनके शरीर को ढँक लिया। उन्हीं दिनों राजा शर्याति अपनी चार हजार रानियों और एकमात्र रूपवती पुत्री सुकन्या के साथ इस वन में आये। सुकन्या अपनी सहेलियों के साथ घूमते हुये दीमक-मिट्टी एवं लता-पत्तों से ढँके हुये तप करते च्यवन के पास पहुँच गई। उसने देखा कि दीमक-मिट्टी के टीले में दो गोल-गोल छिद्र दिखाई पड़ रहे हैं जो कि वास्तव में च्यवन ऋषि की आँखें थीं। सुकन्या ने कौतूहलवश उन छिद्रों में काँटे गड़ा दिये। काँटों के गड़ते ही उन छिद्रों से रुधिर बहने लगा। जिसे देखकर सुकन्या भयभीत हो चुपचाप वहाँ से चली गई।आँखों में काँटे गड़ जाने के कारण च्यवन ऋषि अन्धे हो गये। अपने अन्धे हो जाने पर उन्हें बड़ा क्रोध आया और उन्होंने तत्काल शर्याति की सेना का मल-मूत्र रुक जाने का शाप दे दिया। राजा शर्याति ने इस घटना से अत्यन्त क्षुब्ध होकर पूछा कि क्या किसी ने च्यवन ऋषि को किसी प्रकार का कष्ट दिया है? उनके इस प्रकार पूछने पर सुकन्या ने सारी बातें अपने पिता को बता दी। राजा शर्याति ने तत्काल च्यवन ऋषि के पास पहुँच कर क्षमायाचना की। च्यवन ऋषि बोले कि राजन्! तुम्हारी कन्या ने भयंकर अपराध किया है। यदि तुम मेरे शाप से मुक्त होना चाहते हो तो तुम्हें अपनी कन्या का विवाह मेरे साथ करना होगा। इस प्रकार सुकन्या का विवाह च्यवन ऋषि से हो गया।सुकन्या अत्यन्त पतिव्रता थी। अन्धे च्यवन ऋषि की सेवा करते हुये अनेक वर्ष व्यतीत हो गये। हठात् एक दिन च्यवन ऋषि के आश्रम में दोनों अश्‍वनीकुमार आ पहुँचे। सुकन्या ने उनका यथोचित आदर-सत्कार एवं पूजन किया। अश्‍वनीकुमार बोले, "कल्याणी! हम देवताओं के वैद्य हैं। तुम्हारी सेवा से प्रसन्न होकर हम तुम्हारे पति की आँखों में पुनः दीप्ति प्रदान कर उन्हें यौवन भी प्रदान कर रहे हैं। तुम अपने पति को हमारे साथ सरोवर तक जाने के लिये कहो।" च्यवन ऋषि को साथ लेकर दोनों अश्‍वनीकुमारों ने सरोवर में डुबकी लगाई। डुबकी लगाकर निकलते ही च्यवन ऋषि की आँखें ठीक हो गईं और वे अश्‍वनी कुमार जैसे ही युवक बन गये। उनका रूप-रंग, आकृति आदि बिल्कुल अश्‍वनीकुमारों जैसा हो गया। उन्होंने सुकन्या से कहा कि देवि! तुम हममें से अपने पति को पहचान कर उसे अपने आश्रम ले जाओ। इस पर सुकन्या ने अपनी तेज बुद्धि और पातिव्रत धर्म से अपने पति को पहचान कर उनका हाथ पकड़ लिया। सुकन्या की तेज बुद्धि और पातिव्रत धर्म से अश्‍वनीकुमार अत्यन्त प्रसन्न हुये और उन दोनों को आशीर्वाद देकर वहाँ से चले गये। जब राजा शर्याति को च्यवन ऋषि की आँखें ठीक होने नये यौवन प्राप्त करने का समाचार मिला तो वे अत्यन्त प्रसन्न हुये और उन्होंने च्यवन ऋषि से मिलकर उनसे यज्ञ कराने की बात की। च्यवन ऋषि ने उन्हें यज्ञ की दीक्षा दी। उस यज्ञ में जब अश्‍वनीकुमारों को भाग दिया जाने लगा तब देवराज इन्द्र ने आपत्ति की कि अश्‍वनीकुमार देवताओं के चिकित्सक हैं, इसलिये उन्हें यज्ञ का भाग लेने की पात्रता नहीं है। किन्तु च्यवन ऋषि इन्द्र की बातों को अनसुना कर अश्‍वनीकुमारों को सोमरस देने लगे। इससे क्रोधित होकर इन्द्र ने उन पर वज्र का प्रहार किया लेकिन ऋषि ने अपने तपोबल से वज्र को बीच में ही रोककर एक भयानक राक्षस उत्पन्न कर दिया। वह राक्षस इन्द्र को निगलने के लिये दौड़ पड़ा। इन्द्र ने भयभीत होकर अश्‍वनीकुमारों को यज्ञ का भाग देना स्वीकार कर लिया और च्यवन ऋषि ने उस राक्षस को भस्म करके इन्द्र को उसके कष्ट से मुक्ति दिला दी।


 शुक्ल पक्ष की नवमी तिथि के दिनांक 23 नवंबर 2020 सोमवार को  अक्षय नवमी , आंवला नवमी या कुष्मांडा नवमी मनाये जाने का प्रावधान है ।  साहित्यकार एवं इतिहासकार सत्येन्द्र कुमार पाठक ने कहा है कि अक्षय नवमी के दिन की पुण्य और पाप शुभ अशुभ समस्त कार्यों का फल अक्षय   होता  है। तीन वर्ष लगातार अक्षय नवमी का व्रत उपवास एवं पूजा करने से मनोवांछित  फल की प्राप्ति होती  है। ज्योतिष शास्त्रके  अनुसार  ऑवला नवमी 22 नवंबर सोमवार को मनाया जाएगा। कार्तिक शुक्ल पक्ष की नवमी तिथि 22 नवंबर रविवार को रात्रि 10:52 से प्रारंभ तथा 23 नवंबर सोमवार को  12:30 तक रहेगी। अक्षय नवमी का व्रत सोमवार को रखा जाएगा अक्षय नवमी के दिन व्रत रखकर भगवान श्री लक्ष्मी नारायण श्री विष्णु की पूजा अर्चना तथा आंवले के वृक्ष की छाया में बैठकर भोजन करने पर  मनोकामना पूर्ण होती  है।पूजा करने वाले का मुख पूूर्व की ओर होना चाहिए, व्रत कर्ता को अपने दैनिक कार्यों से निवृत्त होकर स्नान ध्यान के पश्चात अक्षय नवमी के व्रत का संकल्प लेना चाहिए। भगवान श्री लक्ष्मी नारायण की पंचोपचार व षोडशोपचार पूजा की जाती है । नवमी को  भगवान विष्णु मंत्र 'ओम नमो भगवते वासुदेवाय' का जप करने पर प्रसन्न होकर भक्तों को उसकी अभिलाषा पूर्ति का आशीर्वाद देते हैं। आंवले के वृक्ष की पूजा से अक्षय फल की प्राप्ति होती है साथ ही बहुत सौभाग्य में वृद्धि होती है। आंवले के वृक्ष की पूजा पुष्प धूप दीप नैवेद्य से की जाती है। ऑवला पूजन के पश्चात  वृक्ष की आरती करके 108 बार परिक्रमा करते है । कुष्मांड  ( भूरा , भतुआ , कोहडे ) का गुप्त दान किया जाता है। आंवले के वृक्ष की छाया में ब्राह्मण को सात्विक भोजन कराकर यथाशक्ति दान दक्षिणा देकर पुण्य अर्जित करते है। वस्त्र , द्रव्य ,वस्तुओं का आदान प्रदान की जाती है। जीवन में जाने अनजाने में हुए समस्त पापों का शमन हो जाता है। आंवला उपलब्ध होता है तब मिट्टी के गमले में आंवले का पौधा लगाकर उसकी पूजा करनी चाहिए। दिन में सोना नहीं चाहिए, इसके साथ ही मन वचन और कर्म से शुभ कार्यों की ओर विशेष ध्यान भगवान  श्री विष्णु के प्रति करना चाहए तथा निरोगता के लिए देव वैद्य अश्वनी कुमार श्रद्धा सुमन अर्पित करना चाहिय ।

                     

गुरुवार, नवंबर 19, 2020

मानवीय उर्जा का द्योतक योग सिद्ध स्थल बद्रीविशाल...



            भारतीय धर्म ग्रंथों, पुराणों में नारायणी पर्वत तथा नर पर्वत के मध्य बद्री स्थल  मुक्ति प्रदायनी और योगसिद्ध है। उत्तराखण्ड राज्य का चमोली जिले का आदि शंकराचार्य द्वारा स्थापित बद्रीनाथ मंदिर है ।  अलकनन्दा नदी के तट पर स्थित बद्रीनारायण मंदिर में भगवान विष्णु है । बद्रीनाथ मंदिर का निर्माण ७वीं-९वीं सदी में हुआ हैं।  भौगोलिक दृष्टि से  हिमालय पर्वतमाला के ऊँचे शिखरों के मध्य नारायणी पर्वत क्षेत्र में, समुद्र तल से ३,१३३ मीटर (१०,२७९ फ़ीट) की ऊँचाई पर स्थित है। शरद  ऋतु में हिमालयी क्षेत्र की रूक्ष मौसमी दशाओं के कारण मन्दिर वर्ष के छह महीनों (अप्रैल के अंत से लेकर नवम्बर की शुरुआत तक) की  अवधि के लिए मंदिर खुला रहता है। बद्रीनाथ मन्दिर में सनातन धर्म के बद्रीनारायण की पूजा होती है। १ मीटर (३.३ फीट) लंबी शालिग्राम से निर्मित बद्रीनारायण की मूर्ति को शंकराचार्य ने ८वीं शताब्दी में समीपस्थ नारद कुण्ड से निकालकर स्थापित किया ।  यह मन्दिर उत्तर भारत में स्थित है, "रावल" कहे जाने वाले यहाँ के मुख्य पुजारी दक्षिण भारत के केरल राज्य के नम्बूदरी सम्प्रदाय के ब्राह्मण होते हैं। बद्रीनाथ मन्दिर को उत्तर प्रदेश राज्य सरकार अधिनियम – ३०/१९४८ में मन्दिर अधिनियम – १६/१९३९ के तहत शामिल किया गया था, जिसे बाद में "श्री बद्रीनाथ तथा श्री केदारनाथ मन्दिर अधिनियम" के नाम से जाना जाने लगा। उत्तराखण्ड सरकार द्वारा नामित  सत्रह सदस्यीय समिति दोनों, बद्रीनाथ एवं केदारनाथ मन्दिरों, को प्रशासित करती है। विष्णु पुराण, महाभारत तथा स्कन्द पुराण  ग्रन्थों में मन्दिर का उल्लेख मिलता है। आठवीं शताब्दी से पूर्व आलवार सन्तों द्वारा रचित नालयिर दिव्य प्रबन्ध में बद्री विशाल महिमा का वर्णन है। बद्रीनाथ नगर  मन्दिर स्थित है । हिन्दुओं के पवित्र चार धामों में बद्रीनाथ  विष्णु को समर्पित १०८ दिव्य देशों में से  है। इतिहास के  अनुसार  मन्दिर को बद्री-विशाल के नाम से पुकारते हैं और विष्णु को ही समर्पित निकटस्थ चार अन्य मन्दिरों – योगध्यान-बद्री, भविष्य-बद्री, वृद्ध-बद्री और आदि बद्री के साथ जोड़कर पूरे समूह को "पंच-बद्री" के रूप में जाना जाता है । हिमालय में स्थित बद्रीनाथ क्षेत्र भिन्न-भिन्न कालों में विभिन्न नामों से प्रचलित  है। स्कन्दपुराण में बद्री क्षेत्र को सतयुग में "मुक्तिप्रदा"  , त्रेता युग में भगवान नारायण के  क्षेत्र को "योग सिद्ध", और द्वापर युग में भगवान के प्रत्यक्ष दर्शन के कारण  "मणिभद्र आश्रम" ,  "विशाला तीर्थ और "बद्रिकाश्रम" अथवा "बद्रीनाथ" के नाम से ख्याति है। स्थान का यह नाम यहाँ बहुतायत में पाए जाने वाले बद्री (बेर) के वृक्षों के कारण पड़ा था। एडविन टी॰ एटकिंसन ने अपनी पुस्तक, "द हिमालयन गजेटियर" में इस बात का उल्लेख किया है कि इस स्थान पर पहले बद्री के घने वन पाए जाते थे, हालाँकि अब उनका कोई निशान तक नहीं बचा है। बद्रीनाथ नाम की उत्पत्ति पर एक कथा भी प्रचलित है, जो इस प्रकार है - मुनि नारद एक बार भगवान् विष्णु के दर्शन हेतु क्षीरसागर पधारे, जहाँ उन्होंने माता लक्ष्मी को उनके पैर दबाते देखा। चकित नारद ने जब भगवान से इसके बारे में पूछा, तो अपराधबोध से ग्रसित भगवन विष्णु तपस्या करने के लिए हिमालय को चल दिए।  भगवान विष्णु योगध्यान मुद्रा में तपस्या में लीन थे । अधिक हिमपात होने लगा। भगवान विष्णु हिम में पूरी तरह डूब चुके थे। उनकी  दशा को देख कर माता लक्ष्मी का हृदय द्रवित हो उठा और उन्होंने स्वयं भगवान विष्णु के समीप खड़े हो कर एक बद्री के वृक्ष का रूप ले लिया और समस्त हिम को अपने ऊपर सहने लगीं। माता लक्ष्मीजी भगवान विष्णु को धूप, वर्षा और हिम से बचाने की कठोर तपस्या में जुट गयीं।  वर्षों बाद भगवान विष्णु ने अपना तप पूर्ण किया तो देखा कि लक्ष्मीजी हिम से ढकी पड़ी हैं।  उन्होंने माता लक्ष्मी के तप को देख कर कहा कि "हे देवी! तुमने  मेरे ही बराबर तप किया है सो आज से इस धाम पर मुझे तुम्हारे ही साथ पूजा जायेगा और क्योंकि तुमने मेरी रक्षा बद्री वृक्ष के रूप में की है  आज से मुझे बद्री के नाथ-बद्रीनाथ के नाम से जाना जायेगा।"पौराणिक लोक कथाओं के अनुसार, बद्रीनाथ तथा इसके आस-पास का पूरा क्षेत्र किसी समय शिव भूमि (केदारखण्ड) के रूप में अवस्थित था। जब गंगा नदी धरती पर अवतरित हुई, तो यह बारह धाराओं में बँट गई,।  इस स्थान पर से होकर बहने वाली धारा अलकनन्दा के नाम से विख्यात हुई।  भगवान विष्णु जब अपने ध्यानयोग हेतु उचित स्थान खोज रहे थे, तब उन्हें अलकनन्दा के समीप यह स्थ गया। नीलकण्ठ पर्वत के समीप भगवान विष्णु ने बाल रूप में अवतार लिया, और क्रंदन करने लगे। उनका रूदन सुन कर माता पार्वती का हृदय द्रवित हो उठा, और उन्होंने बालक के समीप उपस्थित होकर उसे मनाने का प्रयास किया, और बालक ने उनसे ध्यानयोग करने हेतु वह स्थान मांग लिया। यही पवित्र स्थान वर्तमान में बद्रीविशाल के नाम से सर्वविदित है । विष्णु पुराण में इस क्षेत्र से संबंधित एक अन्य कथा है, जिसके अनुसार धर्म के दो पुत्र हुए- नर तथा नारायण, जिन्होंने धर्म के विस्तार हेतु कई वर्षों तक इस स्थान पर तपस्या की थी। अपना आश्रम स्थापित करने के लिए एक आदर्श स्थान की तलाश में वे वृद्ध बद्री, योग बद्री, ध्यान बद्री और भविष्य बद्री नामक चार स्थानों में घूमे। अंततः उन्हें अलकनंदा नदी के पीछे एक गर्म और एक ठंडा पानी का चश्मा मिला, जिसके पास के क्षेत्र को उन्होंने बद्री विशाल नाम दिया गया है । द्वापर युग में क्टष्णद्वैपायण व्यास जी ने महाभारत इसी जगह पर लिखी थी और नर-नारायण ने  अगले जन्म में क्रमशः अर्जुन तथा कृष्ण के रूप में जन्म लिया था। महाभारत समापन के बाद बद्री स्थान पर पाण्डवों ने अपने पितरों का पिंडदान किया था। इसी कारण से बद्रीनाथ के ब्रम्हाकपाल क्षेत्र में आज भी तीर्थयात्री अपने पितरों का आत्मा का शांति के लिए पिंडदान करते हैं। बद्रीनाथ मन्दिर का उल्लेख विष्णु पुराण, महाभारत तथा स्कन्द पुराण समेत कई प्राचीन ग्रन्थों में मिलता है। कई वैदिक ग्रंथों में १७५०-५०० ई . पू .  मन्दिर के प्रधान देवता, बद्रीनाथ का उल्लेख मिलता है। स्कन्द पुराण में  मन्दिर का वर्णन करते हुए लिखा गया है: "बहुनि सन्ति तीर्थानी दिव्य भूमि रसातले। बद्री सदृश्य तीर्थं न भूतो न भविष्यतिः॥", अर्थात स्वर्ग, पृथ्वी तथा नर्क तीनों ही जगह अनेकों तीर्थ स्थान हैं,  बद्रीनाथ जैसा कोई तीर्थ न कभी था, और न ही कभी होगा। मन्दिर के आसपास के क्षेत्र को पद्म पुराण में आध्यात्मिक निधियों से परिपूर्ण कहा गया है। भागवत पुराण के अनुसार बद्रिकाश्रम में भगवान विष्णु सभी जीवित इकाइयों के उद्धार हेतु नर तथा नारायण के रूप में अनंत काल से तपस्या में लीन हैं। महाभारत में बद्रीनाथ का उल्लेख किया गया है - "अन्यत्र मरणामुक्ति: स्वधर्म विधिपूर्वकात। बदरीदर्शनादेव मुक्ति: पुंसाम करे स्थिता॥" अर्थात अन्य तीर्थों में तो स्वधर्म का विधिपूर्वक पालन करते हुए मृत्यु होने से ही मनुष्य की मुक्ति होती है, किन्तु बद्री विशाल के दर्शन मात्र से ही मुक्ति उसके हाथ में आ जाती है ।  वराहपुराण के अनुसार मनुष्य कहीं से भी बद्री आश्रम का स्मरण करता रहे तो वह पुनरावृत्तिवर्जित वैष्णव धाम को प्राप्त होता है, यथा: "श्री बदर्याश्रमं पुण्यं यत्र यत्र स्थित: स्मरेत। स याति वैष्णवम स्थानं पुनरावृत्ति वर्जित:॥" सातवीं से नौवीं शताब्दी के मध्य आलवार सन्तों द्वारा रचित नालयिर दिव्य प्रबन्ध ग्रन्थ में मन्दिर की महिमा का वर्णन है; सन्त पेरियालवार द्वारा लिखे ७ स्तोत्र, तथा तिरुमंगई आलवार द्वारा लिखे १३ स्तोत्र  मन्दिर को समर्पित हैं। बद्रीनाथ  मन्दिर भगवन विष्णु को समर्पित १०८ दिव्यदेशम् में समर्पित है ।
बद्रीनाथ मन्दिर की उत्पत्ति के विषय में अनेक मत प्रचलित हैं।  मन्दिर आठवीं शताब्दी तक बौद्ध मठ था, जिसे आदि शंकराचार्य ने हिन्दू मन्दिर में परिवर्तित कर दिया। मन्दिर की वास्तुकला एक प्रमुख कारण है, जो किसी बौद्ध विहार (मन्दिर) के सामान है; इसका चमकीला तथा चित्रित मुख-भाग भी किसी बौद्ध मन्दिर के समान ही प्रतीत होता है।  मन्दिर को नौवीं शताब्दी में आदि शंकराचार्य द्वारा एक तीर्थ स्थल के रूप में स्थापित किया गया था।  शंकराचार्य छः वर्षों तक (८१४ से ८२० तक) स्थान पर रहे थे। इस स्थान में अपने निवास के दौरान वह छह महीने के लिए बद्रीनाथ में, और फिर शेष वर्ष केदारनाथ में रहते थे। हिंदू अनुयायियों का कहना है कि बद्रीनाथ की मूर्ति देवताओं ने स्थापित की थी। जब बौद्धों का पराभव हुआ, तो उन्होंने इसे अलकनन्दा में फेंक दिया। शंकराचार्य ने ही अलकनंदा नदी में से बद्रीनाथ मूर्ति की खोज की, और इसे तप्त कुंड नामक गर्म चश्मे के पास स्थित एक गुफा में स्थापित किया । तदनन्तर मूर्ति पुन: स्थानान्तरित हो गयी और तीसरी बार तप्तकुण्ड से निकालकर रामानुजाचार्य ने इसकी स्थापना की। १८८२ के गढ़वाल क्षेत्र के बद्रीनाथ के अनुसार शंकराचार्य ने परमार शासक राजा कनक पाल की सहायता से इस क्षेत्र से सभी बौद्धों को निष्कासित कर दिया था। कनकपाल, और उनके उत्तराधिकारियों ने मन्दिर की प्रबन्ध व्यवस्था संभाली। गढ़वाल के राजाओं ने मन्दिर प्रबन्धन के खर्चों को पूरा करने के लिए ग्रामों के एक समूह (गूंठ) की स्थापना की। इसके अतिरिक्त मन्दिर की ओर आने वाले रास्ते पर कई ग्राम बसाये गए । परमार शासकों ने "बोलांद बद्रीनाथ" नाम अपना लिया, जिसका अर्थ बोलते हुए बद्रीनाथ है। उनका एक अन्य नाम "श्री १०८ बद्रीश्चारायपरायण गढ़राज महिमहेन्द्र, धर्मवैभव, धर्मरक्षक शिरोमणि" भी था । गढ़वाल राज्य के सिंहासन को "बद्रीनाथ की गद्दी" कहा जाने लगा और मन्दिर में जाने से पहले भक्त राजा को श्रद्धा अर्पित करते थे। यह प्रथा उन्नीसवी शताब्दी के उत्तरार्ध तक जारी रही। सोलहवीं शताब्दी में गढ़वाल के तत्कालीन राजा ने बद्रीनाथ मूर्ति को गुफा से लाकर वर्तमान मन्दिर में स्थापित किया। मन्दिर के बन जाने के बाद इन्दौर की महारानी अहिल्याबाई ने यहां स्वर्ण कलश छत्री चढ़ाई थी। बीसवीं शताब्दी में जब गढ़वाल राज्य को दो भागों में बांटा गया, तो बद्रीनाथ मन्दिर ब्रिटिश शासन के अंतर्गत आ गया । मन्दिर की प्रबंधन समिति का अध्यक्ष तब भी गढ़वाल का राजा होता था। मन्दिर की आयु, और क्षेत्र में निरन्तर आने वाले हिमस्खलनों के कारण होने वाली क्षति के फलस्वरूप मन्दिर का कई बार नवीनीकरण हुआ है। सत्रहवीं शताब्दी में गढ़वाल के राजाओं द्वारा मन्दिर का विस्तार करवाया गया था। १८०३ में इस हिमालयी क्षेत्र में आये एक भूकम्प ने मन्दिर को भारी क्षति पहुंचाई थी, जिसके बाद  मन्दिर जयपुर के राजा द्वारा पुनर्निर्मित करवाया गया था। निर्माण कार्य १८७० के दशक के अंत तक चल ही रहे थे ।  मन्दिर प्रथम विश्व युद्ध के समय तक बनकर पूरी तरह से तैयार हो गया ।
बद्रीनाथ मन्दिर की भौगोलिक अवस्थिति ३०.७४° उत्तरी अक्षांश तथा ७९.४४° पूर्वी देशांतर पर है। यह स्थान, उत्तरी भारत में हिमालय की ऊँची पर्वत श्रेणियों के क्षेत्र में बसे भारतीय राज्य उत्तराखण्ड के चमोली जनपद में है और इस मन्दिर के नाम पर ही आसपास बसे नगर को भी बद्रीनाथ ही कहा जाता है। नगर का आधिकारिक नाम बद्रीनाथपुरी है और प्रशासनिक तौर पर यह चमोली जिले की जोशीमठ तहसील में नगर पंचायत है।२ वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैले इस नगर की वर्ष २०११ में कुल जनसंख्या के २,४3८ थी।भौगोलिक दृष्टि से यह क्षेत्र गढ़वाल हिमालय के रूप में जाना जाता है और  क्षेत्र की एक सुरम्य घाटी में स्थित   हिमालय की उस श्रेणी पर अवस्थित है जिसे "शिवालिक हिमालय" अथवा "मध्य हिमालय" के नाम से जाना जाता है। यह क्षेत्र उन कई पर्वतीय जलधाराओं का उद्गम स्थल है जो एक दूसरे में मिलकर अंततः भारत की प्रमुख नदी गंगा का रूप लेती हैं। इन्हीं पर्वतीय सरिताओं में से एक प्रमुख धारा अलकनन्दा इस घाटी से होकर बहती है जिसमें बद्रीनाथ मन्दिर स्थित है। मन्दिर और शहर अलकनन्दा और इसकी सहायिका ऋषिगंगा नदी के पवित्र संगम पर स्थित हैं। मन्दिर अलकनन्दा नदी के दाहिने तट पर, इसके पश्चिम में, स्थित है और मंदिर से कुछ ही दूर आगे दक्षिण में ऋषिगंगा नदी पश्चिम दिशा से आकर अलकनन्दा में मिलती है। जिस घाटी में यह संगम होता है, मन्दिर के ठीक सामने नर पर्वत, जबकि पीठ की ओर नीलाकण्ठ शिखर के पीछे नारायण पर्वत स्थित है। पश्चिम में २७ किलोमीटर की दूरी पर स्थित ७,१३८ मीटर ऊँचा बद्रीनाथ शिखर स्थित है। मन्दिर के ठीक नीचे तप्त कुण्ड नामक गर्म जल है। सल्फर युक्त पानी के इस चश्मे को औषधीय माना जाता है; कई तीर्थयात्री मन्दिर में जाने से पहले इस चश्मे में स्नान करना आवश्यक मानते हैं। इन चश्मों में सालाना तापमान ५५ डिग्री सेल्सियस (११३ डिग्री फ़ारेनहाइट) होता है, जबकि बाहरी तापमान आमतौर पर पूरे वर्ष १७ डिग्री सेल्सियस (६३ डिग्री फ़ारेनहाइट) से भी नीचे रहता है। तप्त कुण्ड का तापमान १३० डिग्री सेल्सियस तक भी दर्ज किया जा चुका है। मन्दिर में पानी के दो तालाब भी हैं, जिन्हें क्रमशः नारद कुण्ड और सूर्य कुण्ड कहा जाता है। बद्रीनाथ मन्दिर अलकनन्दा नदी से लगभग ५० मीटर ऊंचे धरातल पर निर्मित है, और इसका प्रवेश द्वार नदी की ओर देखता हुआ है। मन्दिर में तीन संरचनाएं हैं: गर्भगृह, दर्शन मंडप, और सभा मंडप। मन्दिर का मुख पत्थर से निर्मित है, और इसमें धनुषाकार खिड़कियाँ हैं। चौड़ी सीढ़ियों के माध्यम से मुख्य प्रवेश द्वार तक पहुंचा जा सकता है, जिसे सिंह द्वार कहा जाता है। यह एक लंबा धनुषाकार द्वार है। इस द्वार के शीर्ष पर तीन स्वर्ण कलश लगे हुए हैं, और छत के मध्य में एक विशाल घंटी लटकी हुई है। अंदर प्रवेश करते ही मंडप है: एक बड़ा, स्तम्भों से भरा हॉल जो गर्भगृह या मुख्य मन्दिर क्षेत्र की ओर जाता है। हॉल की दीवारों और स्तंभों को जटिल नक्काशी के साथ सजाया गया है। इस मंडप में बैठ कर श्रद्धालु विशेष पूजाएँ तथा आरती आदि करते हैं। सभा मंडप में ही मन्दिर के धर्माधिकारी, नायब रावल एवं वेदपाठी विद्वानों के बैठने का स्थान है। गर्भगृह की छत शंकुधारी आकार की है, और लगभग १५ मीटर (४९ फीट) लंबी है। छत के शीर्ष पर एक छोटा कपोला भी है, जिस पर सोने का पानी चढ़ा हुआ है। गर्भगृह में भगवान बद्रीनारायण की १ मीटर (३.३ फीट) लम्बी शालीग्राम से निर्मित मूर्ति है । जिसे बद्री वृक्ष के नीचे सोने की चंदवा में रखा गया है। बद्रीनारायण की इस मूर्ति को कई हिंदुओं द्वारा विष्णु के आठ स्वयं व्यक्त क्षेत्रों (स्वयं प्रकट हुई प्रतिमाओं) में से एक माना जाता है।मूर्ति में भगवान के चार हाथ हैं - दो हाथ ऊपर उठे हुए हैं: एक में शंख, और दूसरे में चक्र है, जबकि अन्य दो हाथ योगमुद्रा (पद्मासन की मुद्रा) में भगवान की गोद में उपस्थित हैं।मूर्ति के ललाट पर हीरा भी जड़ा हुआ है।गर्भगृह में धन के देवता कुबेर, देवर्षि नारद, उद्धव, नर और नारायण की मूर्तियां हैं। मन्दिर के चारों ओर पंद्रह और मूर्तियों की भी पूजा की जाती हैं। इनमें लक्ष्मी ,  गरुड़ , नव दूर्गे की मूर्तियां , मन्दिर परिसर में गर्भगृह के बाहर लक्ष्मी-नृसिंह और संत आदि शंकराचार्य (७८८–८२० ईसा पश्चात), नर और नारायण, वेदान्त देशिक, रामानुजाचार्य और पांडुकेश्वर क्षेत्र के एक स्थानीय लोकदेवता घण्टाकर्ण की मूर्तियां भी हैं। बद्रीनाथ मन्दिर में स्थित सभी मूर्तियां शालीग्राम से बनी हैं।हिंदू धर्मं और सम्प्रदायों के अनुयायी बद्रीनाथ मन्दिर के दर्शन हेतु आते हैं। यहाँ काशी मठ,जीयर मठ (आंध्र मठ), उडुपी श्री कृष्ण मठऔर मंथ्रालयम श्री राघवेंद्र मठ , सभी मठवासी संस्थानों की शाखाएं और अतिथि विश्राम गृह हैं।बद्रीनाथ मन्दिर भगवन विष्णु को समर्पित पांच संबंधित मन्दिरों में से एक है, जिन्हें पंच बद्री के रूप में एक साथ पूजा जाता है। पांच मन्दिर हैं - बद्रीनाथ में स्थित बद्री-विशाल (बद्रीनाथ मन्दिर), पांडुकेश्वर में स्थित योगध्यान-बद्री, ज्योतिर्मठ से १७ किमी (१०.६ मील) दूर सुबेन में स्थित भविष्य-बद्री, ज्योतिर्मठ से ७ किमी (४.३ मील) दूर अणिमठ में स्थित वृद्ध-बद्री और कर्णप्रयाग से १७ किमी (१०.६ मील) दूर रानीखेत रोड पर स्थित आदि बद्री। इन पांच मन्दिरों के साथ जब दो अन्य मन्दिरों को भी जोड़ा जाता है, तो इन सात मन्दिरों को संयुक्त रूप से सप्त-बद्री कहा जाता है। सप्त बद्री में इन पांच मन्दिरों के अतिरिक्त कल्पेश्वर के निकट स्थित ध्यान-बद्री तथा ज्योतिर्मठ-तपोवन के समीप स्थित अर्ध-बद्री भी शामिल हैं। ज्योतिर्मठ के नृसिंह बद्री को भी कभी कभी पंच-बद्री (योगध्यान बद्री के स्थान पर) या सप्त-बद्री (अर्ध बद्री के स्थान पर) में स्थान दिया जाता है। उत्तराखण्ड में पंच बद्री, पंच केदार तथा पंच प्रयाग पौराणिक दृष्टि से तथा हिन्दू धर्म की दृष्टि से अति महत्वपूर्ण माने जाते हैं। शंकराचार्य द्वारा स्थापित हिंदू धर्म के अद्वैत सम्प्रदाय ने इनकी उत्पत्ति का श्रेय शंकराचार्य को दिया है। भारत के चार कोनों में स्थित  धाम से  तीर्थयात्रा पूर्वी छोर पर स्थित पुरी से शुरू होती है, और फिर दक्षिणावर्त (घडी की दिशा में) आगे बढ़ती है।इन धामों के अतिरिक्त भारत के चार कोनों में चार मठ भी स्थित हैं और उनके समीप ही उनके परिचारक मन्दिर भी हैं। ये मन्दिर हैं: उत्तर में बद्रीनाथ में स्थित बद्रीनाथ मन्दिर, पूर्व में उड़ीसा के पुरी में स्थित जगन्नाथ धाम की तर्ज पर ही उत्तराखण्ड में भी चार प्रसिद्ध तीर्थ स्थल हैं, जिन्हें संयुक्त रूप से छोटा चार धाम कहा जाता है: बद्रीनाथ, केदारनाथ, गंगोत्री और यमुनोत्री- ये सभी हिमालय की तलहटी में स्थित हैं।इनके नाम के आगे "छोटा" शब्द बीसवीं शताब्दी के मध्य में जोड़ा गया था, ताकि इन्हें मूल चार धामों से अलग किया जा सके। चूंकि आधुनिक समय में इन स्थलों के तीर्थयात्रियों की संख्या में भारी वृद्धि हुई है, इसलिए अब इन्हें "हिमालय के चार धाम" भी कहा जाने लगा है। बद्रीनाथ में तथा इसके समीप अन्य भी कई दर्शनीय स्थल हैं। इनमें "ब्रह्म कपाल" (धार्मिक अनुष्ठानों के लिए प्रयोग होने वाला एक समतल चबूतरा), "शेषनेत्र" (शेषनाग की कथित छाप वाला एक शिलाखंड), "चरणपादुका": (भगवान विष्णु के पैरों के निशान), "माता मूर्ति मन्दिर" (बद्रीनाथ भगवान की माता को समर्पित एक मन्दिर), "वेद व्यास गुफा" या "गणेश गुफा" (जहाँ वेदों और उपनिषदों का लेखन कार्य हुआ था) तथा पौराणिक कथाओं में उल्लिखित एक "साँपों का जोड़ा" शामिल है। बद्रीनाथ से ९ किलोमीटर की दूरी पर वसु धारा नामक झरना पड़ता है, जहाँ अष्ट-वसुओं ने तपस्या की थी। मान्यता है कि इस झरने की बूंदे पापी व्यक्तियों के ऊपर नहीं गिरती हैं।इसके अतितिक्त निकट ही स्थित सतोपंथ (स्वर्गारोहिणी) नमक स्थान के बारे में कहा जाता है कि यहीं से राजा युधिष्ठिर ने सदेह स्वर्ग को प्रस्थान किया था। बद्रीनाथ मन्दिर में आयोजित सबसे प्रमुख पर्व माता मूर्ति का मेला है, जो मां पृथ्वी पर गंगा नदी के आगमन की ख़ुशी में मनाया जाता है। इस त्यौहार के दौरान बद्रीनाथ की माता की पूजा की जाती है, जिन्होंने, माना जाता है कि, पृथ्वी के प्राणियों के कल्याण के लिए नदी को बारह धाराओं में विभाजित कर दिया था। जिस स्थान पर यह नदी तब बही थी, वही आज बद्रीनाथ की पवित्र भूमि बन गई है। बद्री केदार यहाँ का एक अन्य प्रसिद्ध त्यौहार है, जो जून के महीने में बद्रीनाथ और केदारनाथ, दोनों मन्दिरों में मनाया जाता है। यह त्यौहार आठ दिनों तक चलता है, और इसमें आयोजित समारोह के दौरान देश-भर से आये कलाकार यहाँ प्रदर्शन करते हैं। मन्दिर में प्रातःकाल होने वाली प्रमुख धार्मिक गतिविधियों में महाअभिषेक, अभिषेक, गीतापाठ और भागवत पूजा शामिल हैं, जबकि शाम को पूजा में गीत गोविन्द और आरती होती है। सभी अनुष्ठानों के दौरान अष्टोत्रम और सहस्रनाम जैसे वैदिक ग्रन्थों का उच्चारण किया जाता है। आरती के बाद, बद्रीनाथ की मूर्ति से सजावट हटा दी जाती है, और पूरी मूर्ति पर चन्दन का लेप लगाया जाता है। मूर्ति पर लगा ये चन्दन अगले दिन भक्तों को निर्मल्य दर्शन के दौरान प्रसाद के रूप में दिया जाता है। मन्दिर के लगभग सभी धार्मिक अनुष्ठान भक्तों के सामने ही किए जाते हैं, कुछ अन्य हिन्दू मन्दिरों के विपरीत, जहां ऐसे कुछ अभ्यास गुप्त रखे जाते हैं।भक्त मन्दिर में बद्रीनाथ की मूर्ति के सामने पूजा करने के साथ-साथ अलकनंदा नदी के एक कुण्ड में भी डुबकी लगाते हैं। प्रचलित धारणा यह है कि इस कुण्ड में डुबकी लगाने से व्यक्ति की आत्मा शुद्ध होती है। यहाँ वनतुलसी की माला, चने की कच्ची दाल, गिरी का गोला और मिश्री आदि का प्रसाद चढ़ाया जाता है। भक्तों को आम तौर पर प्रसाद में चीनी की गेंदें तथा शुष्क पत्तियां प्रदान की जाती हैं। मई २००६ से पंचमृत भी प्रसाद के रूप में दिया जाने लगा है। यह पंचामृत स्थानीय रूप से तैयार किया जाता है, और बांस की टोकरी में रखकर दिया जाता है। मन्दिर के कपाट भ्रातृ द्वितीया के दिन अक्टूबर-नवंबर के आसपास सर्दियों के दौरान बन्द रहते हैं। जिस दिन मन्दिर के कपाट बन्द होते हैं, उस दिन एक दीपक में छह महीने के लिए पर्याप्त घी भरकर अखण्ड ज्योति प्रज्ज्वलित की जाती है। तीर्थयात्रियों और मन्दिर के अधिकारियों की उपस्थिति में मुख्य पुजारी द्वारा उस दिन विशेष पूजा भी की जाती है।[58] इसके बाद बद्रीनाथ की मूर्ति को मन्दिर से ४० मील (६४ किमी) दूर स्थित ज्योतिर्मठ के नरसिंह मंदिर में स्थानांतरित कर दिया जाता है। लगभग छह महीनों तक बन्द रहने के बाद मन्दिर के कपाट अक्षय तृतीया के अवसर पर अप्रैल-मई के आसपास फिर से खोल दिये जाते हैं।कपाट खुलने के दिन बड़ी संख्या में तीर्थयात्री अखण्ड ज्योति को देखने के लिए इकट्ठा होते हैं। बद्रीनाथ मन्दिर भारत के उन कुछ पवित्र स्थलों में से एक है, जहां हिंदू लोग पुजारियों की सहायता से अपने पूर्वजों के लिए बलि चढ़ाते हैं।
बद्रीनाथ जाने के लिए तीन ओर से रास्ता है। रानीखेत से, कोटद्वार होकर पौड़ी (गढ़वाल) से ओर हरिद्वार होकर देवप्रयाग से। ये तीनों रास्ते कर्णप्रयाग में मिल जाते है। राष्ट्रीय राजमार्ग ७ बद्रीनाथ से होकर गुजरता है। यह राजमार्ग पंजाब के फाजिल्का नगर से शुरू होकर भटिण्डा और पटियाला से होता हुआ हरियाणा के पंचकुला, हिमाचल प्रदेश के पाओंटा साहिब और उत्तराखण्ड के हरिद्वार से ऋषिकेश, देवप्रयाग, रुद्रप्रयाग, कर्णप्रयाग, चमोली तथा जोशीमठ इत्यादि नगरों से होते हुए बद्रीनाथ पहुँचता है, और यहां से आगे बढ़ते हुए भारत-चीन सीमा पर स्थित ग्राम माणा में पहुंचकर समाप्त हो जाता है।  हरिद्वार से बद्यारीनाथ  यात्रा में महीनों लग जाते थे, परन्तु अब बेहतर सड़क मार्ग बन जाने के कारण हफ्ते-भर से भी कम समय में  यात्रा हो जाती है। जोशीमठ से बद्रीनाथ की दूरी लगभग ५० किलोमीटर है। यहाँ से १२ किलोमीटर की दूरी पर विष्णुप्रयाग है, जहाँ अलकनंदा और धौलीगंगा नदियों का संगम होता है। विष्णुप्रयाग से लगभग १० किमी दूर गोविन्दघाट है, जहाँ से एक रास्ता सीधा बद्रीनाथ को जाता है, और दूसरा घांघरिया होते हुए फूलों की घाटी एवं हेमकुंट साहिब को जाता है। गोविन्दघाट से मात्र ३ किमी की दूरी पर पांडुकेश्वर है। पांडुकेश्वर से १० किमी आगे हनुमानचट्टी, और वहां से ११ किमी की दूरी पर स्थित है बद्रीनाथ धाम है ।
हेमकुण्ड -  सनातन तथा सिख धर्म ग्रंथों मे हेमकुणड पवित्र स्थल है । उतराखण्ड का चमोली जिले का हेमकुंड में भगवान राम के भाई लखन तथा हेमकुंट साहिब सवातन तथा  सिखों का एक प्रसिद्ध तीर्थ स्थान है। समुद्र तल से 4632 मीटर (15,200 फुट) की ऊँचाई पर सप्त पर्वतों से घीरा मध्य स्थल पर  बर्फ़ीली झील  (हेमकुंड ) के किनारे लछ्मण मंदिर तथा हेमकुंड साहेब स्थित है।  ऋषिकेश-बद्रीनाथ पर स्थित गोबिन्दघाट से पैदल , घोडे चढ़ाई के द्वारा हेमकुंड पहुँचा जाता  है।यहाँ गुरुद्वारा श्री हेमकुंट साहिब सुशोभित है । हेमकुंड साहेब का उल्लेख गुरु गोबिंद सिंह द्वारा रचित दसम ग्रंथ में किया गया  है। हेमकुंट  संस्कृत में हेम ("बर्फ़") और कुंड ("कटोरा") से है। दसम ग्रंथ के मुताबिक़ हेमकुंड  पाँडु राजो ने योग्य सुधारा था। हेमकुंड में भगवान राम के अनुज लक्ष्मण ने निर्माण करवाया था। सिखों के दसवें गुरु गोबिन्द सिंह ने यहाँ पूजा अर्चना की थी। बाद में इसे गुरूद्वारा घोषित कर दिया गया। इस दर्शनीय तीर्थ में चारों ओर से बर्फ़ की ऊँची चोटियों का प्रतिबिम्ब विशालकाय झील में अत्यन्त मनोरम एवं रोमांच से परिपूर्ण लगता है। इसी झील में हाथी पर्वत और सप्त ऋषि पर्वत श्रृंखलाओं से पानी आता है। एक छोटी जलधारा झील से निकलती है जिसे हिमगंगा कहते हैं। झील के किनारे स्थित लक्ष्मण मंदिर अत्यन्त दर्शनीय है। अत्याधिक ऊँचाई पर होने के कारण वर्ष में लगभग ७ महीने यहाँ झील बर्फ में जम जाती है। फूलों की घाटी यहाँ का निकटतम पर्यटन स्थल है। जोशीमठ से ५ किलोमीटर पर विष्णु प्रयाग है और उस से १० किलोमीटर पांडुकेश्वर; जहाँ योग बद्रेश्वर का मंदिर है| पांडुकेश्वर से ही एक रास्ता फूलों की घाटी, लोकपाल और हेमकुंड को गया है| इस तरह जोशीमठ से हेमकुंड २४ किलोमीटर दूर है| काकभुशुण्डी तीर्थ और लोकपाल सरोवर भी यहाँ आसपास दर्शनीय हैं| हेमकुंड को 'स्न्रो लेक' के नाम से भी जाना जाता है। यह समुद्र तल से 4329 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है। यहां बर्फ से ढके सात पर्वत हैं, जिसे 'हेमकुंड पर्वतमाला ' के नाम से जाना जाता है।उत्तराखंड के गढ़वाल मंडल के चमोली जिले में हिमालय की बर्फीली पहाड़ियों के बीच 15,200 फुट की ऊंचाई पर सात पहाड़ियों के बीच एक बर्फीली झील किनारे स्थापित है हेमकुंड साहिब जो सिख धर्मावलम्बियों की अनन्य आस्था का केंद्र है। गुरू गोविन्द सिंह जी, जो सिखों के दसवें गुरू द्वारा  कालिका माता की कठिन तपस्या की गई थी। श्री हेमकुंड साहिब गुरुद्वारे का उल्लेख गुरु गोविंद सिंह द्वारा लिखे गये दशम ग्रंथ में किया गया है|
जोशी मठ -  पांडुकेश्वर में पाये गये कत्यूरी राजा ललितशूर के तांब्रपत्र के अनुसार जोशीमठ कत्यूरी राजाओं की राजधानी  कार्तिकेयपुर था।  क्षत्रिय सेनापति कंटुरा वासुदेव ने गढ़वाल की उत्तरी सीमा पर अपना शासन स्थापित किया तथा जोशीमठ में अपनी राजधानी बसायी। वासुदेव कत्यूरी ही कत्यूरी वंश का संस्थापक था। जिसने 7वीं से 11वीं सदी के बीच कुमाऊं एवं गढ़वाल पर शासन किया। जोशीमठ को  ज्योतिर्मठ ,ज्योतिषपीठ  कहते हैं। इसे  8वीं सदी में आदि शंकराचार्य ने  ज्योतिर्मठ स्थापित किया था। उन्होंने यहां एक शहतूत के पेड़ के नीचे तप किया और यहीं उन्हें ज्योति या ज्ञान की प्राप्ति हुई। यहीं उन्होंने शंकर भाष्य की रचना की जो सनातन धर्म के सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण ग्रंथों में से एक है। शंकराचार्य के जीवन के धार्मिक वर्णन के अनुसार भी ज्ञात होता है कि उन्होंने इसके पास ही अपने चार विद्यापीठों में से एक की स्थापना की और इसे ज्योतिर्मठ का नाम दिया, जहां उन्होंने अपने शिष्य टोटका को यह गद्दी सौंप दी। ज्योतिर्मठवह ज्योतिर्मठ के पहले शंकराचार्य बने। लगभग 165 वर्षों तक बंद रहने तथा 20वीं सदी के मध्य में पुनरोदित होने के कारण मठ के इतिहास के बारे में बहुत जानकारी नहीं है। दावेदार महंथों द्वारा परंपरागत जानकारी के अनुसार अंतिम शंकराचार्य से बाद के समय में स्वामी रामकृष्ण असरामा वर्ष 1833 तक यहां रहे थे। तब मठ की गद्दी खाली थी, संभवतः स्वामी रामकृष्ण के बाद कोई उपयुक्त व्यक्ति नहीं मिला या फिर गोरखों के आक्रमण के कारण ऐसा हुआ। फलस्वरूप, वर्ष 1930 के उत्तरकाल में ज्ञानानंद सरस्वती नामक बनारस के डंडी स्वामी ने यहां आकर ज्योतिर्मठ के लिये एक न्यास की स्थापना की, जिसकी देखभाल का भार उनके संगठन भारत धर्म महामंडल पर था और फिर उन्होंने पदस्थापन के लिये एक गुणी डंडी की खोज शुरू की क्योंकि वे स्वयं इस पद पर नहीं आना चाहते थे। वर्ष 1941 में ब्रह्मानंद सरस्वती आये जो करयात्री स्वामी जी के नाम से प्रसिद्ध थे तथा जो पश्चिम में महेश जोगी के गुरू होने के कारण जाने गये। महेश योगी बीटल्स के तथा मीया फैरों के गुरू थे करपात्री के प्रभाव के विभूषित तथा शीघ्र ही उम्मीदवारी की उपयुक्तता के कारण ब्रह्मानंद को औपचारिक रूप से ज्योतिर्मठ का शंकराचार्य बनाया गया। वर्ष 1953 में उनकी मृत्यु के बाद जोशीमठ की गद्दी विवादों तथा मुकदमों में उलझी रही, जिस पद के लिए कई दावेदारों ने दावा पेश किया। फलस्वरूप, कल्पवृक्ष के बगल के पुराने मठ पर एक दावेदार का कब्जा है जबकि पहाड़ी के नीचे मठ का भवन स्थापित किया गया है। यहीं से वर्ष 1973 में नियोजित तथा द्वारका, ऋंगेरी एवं पुरी के तीनों शंकराचार्यों द्वारा मान्य यहां के शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती द्वारका मठ की भी देखभाल करते हैं।बद्रीनाथ पथ पर एक महत्त्वपूर्ण धार्मिक केंद्र होने के अलावा जोशीमठ एक व्यापार केंद्र भी था। नीति एवं माना के भोटिया लोग अपना माल बिक्री के लिये यहां लाते थे। ई.टी. एटकिस के अनुसार (दी हिमालयन गजेटियर, वोल्युम III, भाग I। वर्ष 1882 में जोशीमठ माना एवं नीति की सड़कों पर एक महत्त्वपूर्ण स्थान है जहां रमनी से खुलारा पास का रास्ता यहां आता है। वहां मंदिर का एक अतिथिगृह, लोक निर्माण विभाग का एक निरीक्षण बंगला, एक तीर्थयात्री का अस्पताल तथा एक पुलिस थाना भी है जो सीजन में ही कार्यरत होता है। यह जगह पहले की तरह विकासशील नहीं है और भोटियों द्वारा छोड़े जाने के चिह्न अब भी हैं क्योंकि अब वे नंदप्रयाग तथा उससे और दक्षिण से अपना सामान लाते हैं।”गढ़वाल के अन्य भागों की तरह जोशीमठ भी वर्ष 1803 से 1815 के बीच गोरखों के शासनाधीन रहा। वर्ष 1815 में राजा सुदर्शन शाह ने अंग्रेजों की सहायता से गोरखों को पराजित कर दिया, जिन्होंने अलकनंदा एवं मंदाकिनी के पूर्वी भाग श्रीनगर सहित ब्रिटिश गढ़वाल में मिला लिया। प्रारंभ में यहां का प्रशासन देहरादून एवं सहारनपुर से होता रहा। बाद में अंग्रेजों ने पौड़ी नाम से इस क्षेत्र में एक नये जिले की स्थापना की। उतराखंड राज्य का बद्रीनाथ , केदारनाथ , गंगोत्री , यमुनोत्री  चार धाम है वहीं हरिद्वार को मायानगरी तथा रीषिकेश में महर्षियों का निवास कहा जाता है । जोसी मठ के समीप ओली पर्यटन के लिए ख्याति प्राप्त है ।