शुक्रवार, जुलाई 30, 2021

हरियाली तीज और सौभाग्य...


    पुरणों ,स्मृति ग्रंथों में हरियाली तीज का उल्लेख किया गया है । राजा दक्ष की पुत्री और चंद्रमा की पत्नी  श्रवणा के नाम पर समर्पित श्रावण , सावन माह भगवान शिव का प्रिय है । राजा हिमाचल की पुत्री माता पार्वती  के लिए श्रावण शुक्ल पक्ष तृतीया को हरियाली तीज उत्सव प्रिय है। श्रावण में प्रकृति हरी चादर से आच्छादित होने के अवसर पर महिलाओं के मन मयूर नृत्य तथा वृक्ष की शाखाओं में झूलते हैं।पूर्वी उत्तर प्रदेश में कजली तीज   मनाते हैं । सुहागन स्त्रियों के लिए आस्था, उमंग, सौंदर्य और प्रेम का उत्सव शिव-पार्वती के पुनर्मिलन के उपलक्ष्य में मनाया जाता है। प्रकृति में  हरियाली होने के कारण  हरियाली तीज , कजली तीज  मेहंदी पर्व पर महिलाएं झूला झूलती एवं लोकगीत गाती हुई और मनाती हैं। महिलाये अपने हाथों, कलाइयों और पैरों आदि पर विभिन्न कलात्मक रीति से मेंहदी रचाती हैं । सुहागिन महिलाएं मेहँदी रचाने के पश्चात्  बुजुर्ग महिलाओं से आशीर्वाद लेना परम्परा है। कुमारी कन्याएं , विवाहित युवा , युवतियां  और वृद्ध महिलाएं सम्मिलित होती हैं। नव विवाहित युवतियां प्रथम सावन में मायके आकर हरियाली तीज में सम्मिलित होने की परम्परा है। हर‌ियाली तीज के द‌िन सुहागन स्‍त्र‌ियां हरे रंग का श्रृंगार करती हैं। इसके पीछे धार्म‌िक कारण के साथ ही वैज्ञान‌िक कारण भी शाम‌िल है। मेंहदी सुहाग का प्रतीक चिन्ह माना जाता है। इसलिए महिलाएं सुहाग पर्व में मेंहदी जरूर लगाती है। इसकी शीतल तासीर प्रेम और उमंग को संतुलन प्रदान करने का भी काम करती है। ऐसा माना जाता है कि सावन में काम की भावना बढ़ जाती है। मेंहदी इस भावना को नियंत्रित करता है। हरियाली तीज का नियम है कि क्रोध को मन में नहीं आने दें। मेंहदी का औषधीय गुण इसमें महिलाओं की मदद करता है।इस व्रत में सास और बड़े नई दुल्हन को वस्‍त्र, हरी चूड़‌ियां, श्रृंगार सामग्री और म‌िठाइयां भेंट करती हैं। इनका उद्देश्य होता है दुल्हन का श्रृंगार और सुहाग हमेशा बना रहे और वंश की वृद्ध‌ि हो। माता पार्वती सैकड़ों वर्षों की साधना के पश्चात् भगवान् शिव से मिली थीं । सुहागन महिलाएं सोलह श्रृंगार करके शिव -पार्वती की पूजा करती हैं उनका सुहाग लम्बी अवधि तक बना रहता है । माता  पार्वती के कहने पर श‌िव जी ने आशीर्वाद द‌िया क‌ि जो भी कुंवारी कन्या इस व्रत को रखेगी और श‌िव पार्वती की पूजा करेगी उनके व‌िवाह में आने वाली बाधाएं दूर होंगी साथ ही योग्य वर की प्राप्त‌ि होगी। सुहागन स्‍त्र‌ियों को इस व्रत से सौभाग्य की प्राप्त‌ि होगी और लंबे समय तक पत‌ि के साथ वैवाह‌िक जीवन का सुख प्राप्त करेगी।  कुंवारी और सुहागन  हरियाली तीज व्रत का रखती है । सावन में हरियाली तीज  को महिलाएं मनचाहा वर और सौभाग्य पाने के लिए मनाती हैं । श्रावण शुक्ल तृतीया तिथि को माता पार्वती ने कठोर तपस्या से भगवान शिव को पति के रूप में पाया था । लड़किया और विवाहित महिलाएं हरियाली तीज के  दिन उपवास रख कर  श्रृंगार करने के बाद पेड़, नदी और जल के देवता वरुण की पूजा करती है । माता पार्वती सैकड़ों साल की साधना के बाद भगवान शिव से मिली थीं । माता पार्वती ने भगवान शिव को पति रूप में पाने के लिए 107 बार जन्म लिया, परंतु माता पार्वती  को पति के रूप में शिव मिल न सके थे ।.माता पार्वती ने 108 वीं बार जब जन्म लिया और उत्तराखंड का हरिद्वार के मनसा देवी मंदिर में घोर तपस्या की थी । पुराणों के अनुसार, श्रावण मास की शुक्ल पक्ष की तृतीया को भगवान शिव देवी पार्वती की तपस्या से प्रसन्न हुए और उन्हें दर्शन दिए, साथ ही उन्हें अपनी पत्नी बनाने का वरदान दिया था । हरियाली तीज को मेंहदी रस्म  कहते   हैं । महिलाएं  अपने हाथों और पैरों में मेंहदी रचाती हैं । सुहागिन महिलाएं मेंहदी रचाने के बाद अपने कुल की बुजुर्ग महिलाओं से आशीर्वाद लेती हैं । युवतियां और महिलाएं  झूला-झूलती है । हरियाली तीज का उत्सव राजस्थान, उत्तर प्रदेश, पंजाब और हरियाणा , उत्तराखंड , हिमाचल प्रदेश में  मनायी जाती है । हरियाली तीज के दिन विवाहित महिलाएं अपने पति की लंबी आयु के लिए व्रत रखती हैं । महिलाओं के मायके से श्रृंगार का सामान और मिठाइयां आदि उनके ससुराल भेजा जाता है । हरियाली तीज के दिन महिलाएं सुबह स्नान करने के बाद सोलह श्रृंगार करके निर्जला व्रत रखती हैं । रात जागरण कर मां पार्वती और भगवान शिव की पूजा-अर्चना करती हैं । पूजा के अंत में तीज की कथा सुनी जाती है । बिहार , झारखण्ड में महिलाएं और युवतियां हरियाली तीज को वृक्ष की डाली पर झूला बना कर कजरी गीत गा कर झुलुआ झूलती है । भारतीय संस्कृति और सभ्यता में युवतियां और सधवा महिलाएं मेहंदी , हरि चूड़ियां , हरे वस्त्र पहनती है ।सावन माह में भारत , नेपाल , भूटान आदि क्षेत्रों में मेहंदी की विभिन्न डिजाइन अपने शरीर हाथों , पैरों में लगा कर सावन को स्वागत करते है । आयुर्वेद शास्त्र के अनुसार मेहंदी ऐश्वर्य , सिद्धिदायी और निरोगता का प्रतीक है । युवक , युवतियां , महिलाएं मेहंदी लगते है ।







ऐश्वर्य , सिद्धिदायी और निरोगता का प्रतीक है । युवक , युवतियां , महिलाएं मेहंदी लगते है ।

गुरुवार, जुलाई 29, 2021

अरवल जिले की सांस्कृतिक विरासत ...


        भाषा और साहित्य का निर्माण एवं  जनहित के नियमित व्यापक स्तर पर लाने वाले साहित्यिक लेखन राष्ट्रीय अभ्युथान की प्रगति मूलक चेतना साहित्यकार है ।प्रारम्भ में हर्षवर्द्धन शासन काल में अरवल जिले के क्षेत्रों में संस्कृत साहित्य के गद्य रचनाकार वाण भट्ट , 1844 ई. का डिंगल भाषा के बासताड़ के निवासी ज्ञाता पंडित कमलेश की कमलेश विलास अरवल जिले में प्रसिद्ध है । सर जॉर्ज अब्राहम ग्रियर्सन ने 1894 - 1923 ई. तक भारतीय भाषाओं और बोलियों का सर्वेक्षण के तहत बिहारी वर्ग की प्रमुख भाषा मगही का स्थान दिया था।बेलखर के निवासी गंगा महाराज , 1945 ई. से 1973 ई. तक डॉ. रामप्रसाद सिंह , आकोपुर के रामनरेश वर्मा , बासताड़ के श्रीमोहन मिश्र द्वारा संस्कृत और मगही का विकास किया वही फखरपुर के देवदत्त मिधर और तारादत्त मिश्र द्वारा संस्कृत भाषा मे रचना कर श्री कृष्ण की भक्ति भावना के प्रति समर्पित किया था । अरवल जिले की भाषा मगही और हिंदी है । भारतीय और मागधीय संस्कृति एवं सभ्यताएं प्राचीन काल से अरवल जिले के करपी का  जगदम्बा मंदिर में स्थापित माता जगदम्बा, शिव लिंग, चतुर्भुज भगवान, भगवान शिव - पार्वती विहार की मूर्तियां महाभारत कालीन है । कारूष प्रदेश के राजा करूष ने कारूषी नगर की स्थापित किया था । वे शाक्त धर्म के अनुयायी थे । हिरण्यबाहू नदी के किनारे कालपी में शाक्त धर्म के अनुयायी ने जादू-टोना तथा माता जगदम्बा, शिव - पार्वती विहार, शिव लिंग, चतुर्भुज, आदि देवताओं की अराधना के लिए केंद्र स्थली बनाया । दिव्य ज्ञान योगनी कुरंगी ने तंत्र - मंत्र - यंत्र , जादू-टोना की उपासाना करती थी । यहां चारो दिशाओं में मठ कायम था, कलान्तर इसके नाम मठिया के नाम से प्रसिद्ध है ।करपी गढ की उत्खनन के दौरान मिले प्राचीन काल में स्थापित अनेक प्रकार की मूर्ति जिसे उत्खनन विभाग ने करपी वासियों को समर्पित कर दिया । प्राचीन काल में प्रकृति आपदा के कारण शाक्त धर्म की मूर्तियां भूगर्भ में समाहित हो गई थी । गढ़ की उत्खनन के दौरान मिले प्राचीन काल का मूर्तिया ।विभिन्न काल के राजाओं ने  करपी के लिए 05 कूपों का निर्माण, तलाव का निर्माण कराया था । साहित्यकार एवं इतिहासकार सत्येन्द्र कुमार पाठक ने कहा कि भारतीय संस्कृति और सभ्यता की प्रचीन परम्पराओं में शाक्त धर्म एवं सौर , शैव धर्म, वैष्णव धर्म, ब्राह्मण धर्म, भागवत धर्म का करपी का जगदम्बा स्थान है । करपी जगदम्बा स्थान की चर्चा मगधांचल में महत्व पूर्ण रूप से की गई है । भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण की स्थापना 1861 ई. में हुई है के बाद पुरातात्विक उत्खनन सर्वेक्षण के दौरान करपी गढ के भूगर्भ में समाहित हो गई मूर्तिया को भूगर्भ से निकाल दिया गया था । करपी का सती स्थान, ब्रह्म स्थली प्राचीन धरोहर है । करपी का नाम कारूषी, कुरंगी, करखी, कुरखी, कालपी था ।अरवल जिला का सांस्कृतिक दर्शन में अरवल जिले का क्षेत्र महत्वपूर्ण है । अरवल जिला स्थापना दिवस  20 अगस्त 20 11 के अवसर पर प्रकाशित स्मारिका 2011 , थॉर्नटोन्स गज़ेटियर , वॉल्यूम 1 1854 , डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट गया डॉ . ग्रियर्सन का रिपोर्ट 1888 , ओ मॉली द्वारा द्वारा 1906 में प्रकाशित डिस्ट्रिक्ट गजेटियर ऑफ गया तथा प. कि. राय चौधरी स्पेशल ऑफिसर गजेटियर रेविशन सेक्शन , रेवेन्यू डिपार्टमेंट , बिहार , पटना द्वारा प्रकाशित बिहार डिस्ट्रिक्ट गैज़ेटर्स गया 1957 में अरवल जिले के प्राचीन धरोहरों , स्थलों और विकास की महत्वपूर्ण चर्चा की गई है । भारतीय संस्कृति एवं विरासत सभ्यता अरवल जिले के 637 वर्ग कि. मी. क्षेत्रफ़ल में फैली हुई है । अरवल जिले का क्षेत्र 25:00 से 25:15 उतरी अकांक्ष एवं 84:70 से 85:15 पूर्वी देशांतर पर अवस्थित हैं ।20 अगस्त 2001 में समुद्रतल से 115 मीटर की ऊंचाई तथा पटना से 65 कि. मी. की दूरी एवं जहानाबाद से 35 कि. मि. पश्चिम अरवल जिले का दर्जा प्राप्त है। मगही और हिंदी भाषी अरवल जिले में 05 प्रखण्ड,316 राजस्व गांव में 18 बेचिरागी गांव , 65 पंचायत, में 648994 ग्रामीण आबादी एवं 51859 आवादी 118222 मकानों में निवास करते हैं। करपी, अरवल, कुर्था, कलेर तथा सोनभद्र बंशिसुर्यपुर प्रखण्ड में 11 थाने के लोग 33082.83 हेक्टयर सिंचित भूमि,845.10 हेक्टयर बंजर भूमि तथा कृषि योग भूमि 49520.40 हेक्टयर में कृषि कार्य करते हैं तथा अरवल और कूर्था विधान सभा में 21 प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र,21 अतिरिक्त प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र तथा सदर अस्पताल है। अरवल जिले की साक्षरता 56.85 प्रतिशत है। यहां की प्रमुख नदियां सोन नद और पुनपुन नदी और वैदिक नदी हिरण्यबाहू नदी का अवशेष (बह) है। पर्यटन के दृष्टिकोण से प्राचीन विरासत शाक्त धर्म का स्थल करपी का जगदम्बा स्थान मंदिर में महाभारत कालीन मूर्तियां जैसे माता जगदम्बा, चतुर्भुज, शिवपार्वती विहार, अनेक शिव लिंग मूर्तियां , मदसरवा (मधुश्रवा) में ऋषि च्यवन द्वारा स्थापित च्यवनेश्चर शिवलिंग , वधुश्रवा ऋषि द्वारा वधुसरोवर , पंतित पुनपुन नदी के तट पर कुरुवंशियों के पांडव द्वारा स्थापित शिव लिंग , किंजर के पुनपुन नदी के पूर्वी तट पर स्थित शिवलिंग एवं मंदिर , लारी का शिवलिंग, सती स्थान, गढ़, नादि का शिवलिंग, तेरा का सहत्रलिंगी शिवलिंग , रामपुर चाय का पंचलिगी शिव लिंग, खटांगी का सूर्य मंदिर में स्थित भगवान् सूर्य मूर्ति , कागजी महल्ला में शिवमन्दिर में पाल कालीन शिव लिंग तथा अरवल के गरीबा स्थान मंदिर में शिवलिंग प्राचीन काल की है, वहीं अरवल का सोन नद और सोन नहर के मध्य सोन नद के किनारे 695 हिजरी संवत में आफगिHस्तान के कंतुर निवासी भ्रमणकारी सूफी संत शमसुद्दीन अहमद उर्फ शाह सुफैद सम्मन पिया अर्वली  का मजार सांप्रदायिक सौहार्द का प्रतीक है। प्राचीन काल में सोन प्रदेश का राजा शर्याती , कारूष प्रदेश का राजा करूष , आलवी प्रदेश का राजा हैहय आलवी यक्ष  , ऋषियों में च्यवन, वधुश्रवा, मधुश्रवा, मधुक्षंदा , उर्वेला, नादी , वत्स का कर्म एवं जन्म भूमि रहा है। अरवल जिले का क्षेत्र शैवधर्म , शाक्त धर्म, सौर धर्म एवं वैष्णव धर्म की परंपरा कायम हुई तथा शैवधर्म में भगवान् शिव की पूजा एवं आराधना के लिए शिवमन्दिर के गर्भ गृह में शिव  लिंग की स्थापना की गई । 16 वें द्वापर युग में ऋषि च्यवन 22 वें द्वापर युग में मधु, 24वें द्वापर युग में यक्ष का शासन था वहीं वधुश्रवा , दाधीच, मधूछंदा ऋषि, सारस्वत, वत्स ऋषि का कर्म स्थल था। दैत्य राज पुलोमा ने अपने नाम पर पुलोम राजधानी की स्थापना कर भगवान् शिव लिंग की स्थापना की थी ।बाद में पूलोम स्थल को पुंदिल, पोंदिल वर्तमान में बड़कागांव कहा जाता हैं । 16 जनवरी 1913 ई. में जन्मे फखरपुर का पंडित महिपाल मिश्रा की भार्या अधिकारिणी देवी के गर्भ से चक्रधर मिश्र ने राधा बाबा के रूप में विश्व को आध्यात्म की ओर अग्रसर होने के लिए प्रेरणा दी। खाभैनी के जीवधर सिह ने 1857 ई. में  आजादी की प्रथम लड़ाई में महत्वपूर्ण कार्य किया है। मझियवां के किसान आंदोलन के प्रथम प्रणेता पंडित यदुनंदन शर्मा थे। राजा हर्षवर्धन ने 606 ई. में बाण भट्ट दरवारी कवि थे जिन्होंने कादंबरी एवं हर्ष चरित लिखा था। उस समय हर्षवर्धन के शासन काल में भगवान् शिव एवम् भगवान् सूर्य प्रमुख देव की उपासना पर सक्रियता थी। हर्ष के 643 ई. में  चीनी यात्री हुएनसांग आकर मगध की चर्चा की है। 1840 ई में इंडिगो फैक्ट्रीज की स्थापना सलॉनो तथा स्पेनिश परिवार ने की थी। सोलॉनो परिवार के डॉन रांफैल सोलॉनों ने अरवल में इंडिगो फैक्ट्रीज का मुख्यालय बनाया था। सोन नद के पूर्वी  तट पर स्थित अरवल में 1840 ई. में स्थापित डॉन राफेल सलोनो का इंडिगो फैक्ट्री , स्पेनिश द्वारा स्पेनिश ट्रेडर , ग्रेन गोल्स ,फ्लौर और आयल मिल्स थी । 1906 ई. में कुर्था और अरवल थाने , 1784 ई. में अरवल परगना , 1860 ई. में बेलखरा महाल की इस्टेट रानी बरती बेगम के निधन के बाद टिकरी इस्टेट में शामिल किया गया था । रेवेन्यू थाना अरवल में 249 गाँव  1918 ई. में शामिल थे ।बेलखरा ट्रस्ट इस्टेट का जमींदार श्री मती महाराज कुमारी उमेश्वरी देवी थी । 1906 ई. में अरवल यूनियन बोर्ड का गठन कर 46 वर्गमील के 180 गाँव को शामिल कर सुरक्षा , विकास प्रारम्भ किया गया था । अरवल में गांधी पुस्तकालय 1934 ई. से स्थापित है । करपी में पंडित नेहरू पुस्तकालय है । पत्रकारिता के क्षेत्र में मझियावां के  किसान नेता पंडित यदुनंदन शर्मा द्वारा चिंगारी और लंकादहन प्रकाशित कर आजादी का शंखनाद किया था । करपी के सत्येन्द्र कुमार पाठक के द्वारा 1981 में मगध ज्योति हिंदी साप्ताहिक पत्र का प्रारंभ किया गया । पर्यटन के क्षेत्र में करपी का जगदम्बा स्थान , सती स्थान , मदसर्वां का च्यावनेश्वर मंदिर , पन्तित का सूर्य मंदिर , शिव मंदिर , किजर का शिवमंदिर , लारी का शिव मंदिर , सती स्थान, खटांगी का सूर्य मंदिर  आदि है । अरवल जिले के नदियों में सोन नद , पुनपुन नदी और वैदिक नदी हिरण्यबाहु ( बह ) प्रविहित है ।

        भाषा और साहित्य का निर्माण एवं  जनहित के नियमित व्यापक स्तर पर लाने वाले साहित्यिक लेखन राष्ट्रीय अभ्युथान की प्रगति मूलक चेतना साहित्यकार है ।प्रारम्भ में हर्षवर्द्धन शासन काल में अरवल जिले के क्षेत्रों में संस्कृत साहित्य के गद्य रचनाकार वाण भट्ट , 1844 ई. का डिंगल भाषा के बासताड़ के निवासी ज्ञाता पंडित कमलेश की कमलेश विलास अरवल जिले में प्रसिद्ध है । सर जॉर्ज अब्राहम ग्रियर्सन ने 1894 - 1923 ई. तक भारतीय भाषाओं और बोलियों का सर्वेक्षण के तहत बिहारी वर्ग की प्रमुख भाषा मगही का स्थान दिया था।बेलखर के निवासी गंगा महाराज , 1945 ई. से 1973 ई. तक डॉ. रामप्रसाद सिंह , आकोपुर के रामनरेश वर्मा , बासताड़ के श्रीमोहन मिश्र द्वारा संस्कृत और मगही का विकास किया वही फखरपुर के देवदत्त मिधर और तारादत्त मिश्र द्वारा संस्कृत भाषा मे रचना कर श्री कृष्ण की भक्ति भावना के प्रति समर्पित किया था । अरवल जिले की भाषा मगही और हिंदी है । भारतीय और मागधीय संस्कृति एवं सभ्यताएं प्राचीन काल से अरवल जिले के करपी का  जगदम्बा मंदिर में स्थापित माता जगदम्बा, शिव लिंग, चतुर्भुज भगवान, भगवान शिव - पार्वती विहार की मूर्तियां महाभारत कालीन है । कारूष प्रदेश के राजा करूष ने कारूषी नगर की स्थापित किया था । वे शाक्त धर्म के अनुयायी थे । हिरण्यबाहू नदी के किनारे कालपी में शाक्त धर्म के अनुयायी ने जादू-टोना तथा माता जगदम्बा, शिव - पार्वती विहार, शिव लिंग, चतुर्भुज, आदि देवताओं की अराधना के लिए केंद्र स्थली बनाया । दिव्य ज्ञान योगनी कुरंगी ने तंत्र - मंत्र - यंत्र , जादू-टोना की उपासाना करती थी । यहां चारो दिशाओं में मठ कायम था, कलान्तर इसके नाम मठिया के नाम से प्रसिद्ध है ।करपी गढ की उत्खनन के दौरान मिले प्राचीन काल में स्थापित अनेक प्रकार की मूर्ति जिसे उत्खनन विभाग ने करपी वासियों को समर्पित कर दिया । प्राचीन काल में प्रकृति आपदा के कारण शाक्त धर्म की मूर्तियां भूगर्भ में समाहित हो गई थी । गढ़ की उत्खनन के दौरान मिले प्राचीन काल का मूर्तिया ।विभिन्न काल के राजाओं ने  करपी के लिए 05 कूपों का निर्माण, तलाव का निर्माण कराया था । साहित्यकार एवं इतिहासकार सत्येन्द्र कुमार पाठक ने कहा कि भारतीय संस्कृति और सभ्यता की प्रचीन परम्पराओं में शाक्त धर्म एवं सौर , शैव धर्म, वैष्णव धर्म, ब्राह्मण धर्म, भागवत धर्म का करपी का जगदम्बा स्थान है । करपी जगदम्बा स्थान की चर्चा मगधांचल में महत्व पूर्ण रूप से की गई है । भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण की स्थापना 1861 ई. में हुई है के बाद पुरातात्विक उत्खनन सर्वेक्षण के दौरान करपी गढ के भूगर्भ में समाहित हो गई मूर्तिया को भूगर्भ से निकाल दिया गया था । करपी का सती स्थान, ब्रह्म स्थली प्राचीन धरोहर है । करपी का नाम कारूषी, कुरंगी, करखी, कुरखी, कालपी था ।अरवल जिला का सांस्कृतिक दर्शन में अरवल जिले का क्षेत्र महत्वपूर्ण है । अरवल जिला स्थापना दिवस  20 अगस्त 20 11 के अवसर पर प्रकाशित स्मारिका 2011 , थॉर्नटोन्स गज़ेटियर , वॉल्यूम 1 1854 , डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट गया डॉ . ग्रियर्सन का रिपोर्ट 1888 , ओ मॉली द्वारा द्वारा 1906 में प्रकाशित डिस्ट्रिक्ट गजेटियर ऑफ गया तथा प. कि. राय चौधरी स्पेशल ऑफिसर गजेटियर रेविशन सेक्शन , रेवेन्यू डिपार्टमेंट , बिहार , पटना द्वारा प्रकाशित बिहार डिस्ट्रिक्ट गैज़ेटर्स गया 1957 में अरवल जिले के प्राचीन धरोहरों , स्थलों और विकास की महत्वपूर्ण चर्चा की गई है । भारतीय संस्कृति एवं विरासत सभ्यता अरवल जिले के 637 वर्ग कि. मी. क्षेत्रफ़ल में फैली हुई है । अरवल जिले का क्षेत्र 25:00 से 25:15 उतरी अकांक्ष एवं 84:70 से 85:15 पूर्वी देशांतर पर अवस्थित हैं ।20 अगस्त 2001 में समुद्रतल से 115 मीटर की ऊंचाई तथा पटना से 65 कि. मी. की दूरी एवं जहानाबाद से 35 कि. मि. पश्चिम अरवल जिले का दर्जा प्राप्त है। मगही और हिंदी भाषी अरवल जिले में 05 प्रखण्ड,316 राजस्व गांव में 18 बेचिरागी गांव , 65 पंचायत, में 648994 ग्रामीण आबादी एवं 51859 आवादी 118222 मकानों में निवास करते हैं। करपी, अरवल, कुर्था, कलेर तथा सोनभद्र बंशिसुर्यपुर प्रखण्ड में 11 थाने के लोग 33082.83 हेक्टयर सिंचित भूमि,845.10 हेक्टयर बंजर भूमि तथा कृषि योग भूमि 49520.40 हेक्टयर में कृषि कार्य करते हैं तथा अरवल और कूर्था विधान सभा में 21 प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र,21 अतिरिक्त प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र तथा सदर अस्पताल है। अरवल जिले की साक्षरता 56.85 प्रतिशत है। यहां की प्रमुख नदियां सोन नद और पुनपुन नदी और वैदिक नदी हिरण्यबाहू नदी का अवशेष (बह) है। पर्यटन के दृष्टिकोण से प्राचीन विरासत शाक्त धर्म का स्थल करपी का जगदम्बा स्थान मंदिर में महाभारत कालीन मूर्तियां जैसे माता जगदम्बा, चतुर्भुज, शिवपार्वती विहार, अनेक शिव लिंग मूर्तियां , मदसरवा (मधुश्रवा) में ऋषि च्यवन द्वारा स्थापित च्यवनेश्चर शिवलिंग , वधुश्रवा ऋषि द्वारा वधुसरोवर , पंतित पुनपुन नदी के तट पर कुरुवंशियों के पांडव द्वारा स्थापित शिव लिंग , किंजर के पुनपुन नदी के पूर्वी तट पर स्थित शिवलिंग एवं मंदिर , लारी का शिवलिंग, सती स्थान, गढ़, नादि का शिवलिंग, तेरा का सहत्रलिंगी शिवलिंग , रामपुर चाय का पंचलिगी शिव लिंग, खटांगी का सूर्य मंदिर में स्थित भगवान् सूर्य मूर्ति , कागजी महल्ला में शिवमन्दिर में पाल कालीन शिव लिंग तथा अरवल के गरीबा स्थान मंदिर में शिवलिंग प्राचीन काल की है, वहीं अरवल का सोन नद और सोन नहर के मध्य सोन नद के किनारे 695 हिजरी संवत में आफगिHस्तान के कंतुर निवासी भ्रमणकारी सूफी संत शमसुद्दीन अहमद उर्फ शाह सुफैद सम्मन पिया अर्वली  का मजार सांप्रदायिक सौहार्द का प्रतीक है। प्राचीन काल में सोन प्रदेश का राजा शर्याती , कारूष प्रदेश का राजा करूष , आलवी प्रदेश का राजा हैहय आलवी यक्ष  , ऋषियों में च्यवन, वधुश्रवा, मधुश्रवा, मधुक्षंदा , उर्वेला, नादी , वत्स का कर्म एवं जन्म भूमि रहा है। अरवल जिले का क्षेत्र शैवधर्म , शाक्त धर्म, सौर धर्म एवं वैष्णव धर्म की परंपरा कायम हुई तथा शैवधर्म में भगवान् शिव की पूजा एवं आराधना के लिए शिवमन्दिर के गर्भ गृह में शिव  लिंग की स्थापना की गई । 16 वें द्वापर युग में ऋषि च्यवन 22 वें द्वापर युग में मधु, 24वें द्वापर युग में यक्ष का शासन था वहीं वधुश्रवा , दाधीच, मधूछंदा ऋषि, सारस्वत, वत्स ऋषि का कर्म स्थल था। दैत्य राज पुलोमा ने अपने नाम पर पुलोम राजधानी की स्थापना कर भगवान् शिव लिंग की स्थापना की थी ।बाद में पूलोम स्थल को पुंदिल, पोंदिल वर्तमान में बड़कागांव कहा जाता हैं । 16 जनवरी 1913 ई. में जन्मे फखरपुर का पंडित महिपाल मिश्रा की भार्या अधिकारिणी देवी के गर्भ से चक्रधर मिश्र ने राधा बाबा के रूप में विश्व को आध्यात्म की ओर अग्रसर होने के लिए प्रेरणा दी। खाभैनी के जीवधर सिह ने 1857 ई. में  आजादी की प्रथम लड़ाई में महत्वपूर्ण कार्य किया है। मझियवां के किसान आंदोलन के प्रथम प्रणेता पंडित यदुनंदन शर्मा थे। राजा हर्षवर्धन ने 606 ई. में बाण भट्ट दरवारी कवि थे जिन्होंने कादंबरी एवं हर्ष चरित लिखा था। उस समय हर्षवर्धन के शासन काल में भगवान् शिव एवम् भगवान् सूर्य प्रमुख देव की उपासना पर सक्रियता थी। हर्ष के 643 ई. में  चीनी यात्री हुएनसांग आकर मगध की चर्चा की है। 1840 ई में इंडिगो फैक्ट्रीज की स्थापना सलॉनो तथा स्पेनिश परिवार ने की थी। सोलॉनो परिवार के डॉन रांफैल सोलॉनों ने अरवल में इंडिगो फैक्ट्रीज का मुख्यालय बनाया था। सोन नद के पूर्वी  तट पर स्थित अरवल में 1840 ई. में स्थापित डॉन राफेल सलोनो का इंडिगो फैक्ट्री , स्पेनिश द्वारा स्पेनिश ट्रेडर , ग्रेन गोल्स ,फ्लौर और आयल मिल्स थी । 1906 ई. में कुर्था और अरवल थाने , 1784 ई. में अरवल परगना , 1860 ई. में बेलखरा महाल की इस्टेट रानी बरती बेगम के निधन के बाद टिकरी इस्टेट में शामिल किया गया था । रेवेन्यू थाना अरवल में 249 गाँव  1918 ई. में शामिल थे ।बेलखरा ट्रस्ट इस्टेट का जमींदार श्री मती महाराज कुमारी उमेश्वरी देवी थी । 1906 ई. में अरवल यूनियन बोर्ड का गठन कर 46 वर्गमील के 180 गाँव को शामिल कर सुरक्षा , विकास प्रारम्भ किया गया था । अरवल में गांधी पुस्तकालय 1934 ई. से स्थापित है । करपी में पंडित नेहरू पुस्तकालय है । पत्रकारिता के क्षेत्र में मझियावां के  किसान नेता पंडित यदुनंदन शर्मा द्वारा चिंगारी और लंकादहन प्रकाशित कर आजादी का शंखनाद किया था । करपी के सत्येन्द्र कुमार पाठक के द्वारा 1981 में मगध ज्योति हिंदी साप्ताहिक पत्र का प्रारंभ किया गया । पर्यटन के क्षेत्र में करपी का जगदम्बा स्थान , सती स्थान , मदसर्वां का च्यावनेश्वर मंदिर , पन्तित का सूर्य मंदिर , शिव मंदिर , किजर का शिवमंदिर , लारी का शिव मंदिर , सती स्थान, खटांगी का सूर्य मंदिर  आदि है । अरवल जिले के नदियों में सोन नद , पुनपुन नदी और वैदिक नदी हिरण्यबाहु ( बह ) प्रविहित है ।





शनिवार, जुलाई 24, 2021

मगध : बुध , जरासंध , बुद्ध और महावीर...



            पुरणों , उपनिषदों , स्मृतियों और सौर , शाक्त , शैव ,वैष्णव सम्प्रदाय , बौद्ध, जैन ग्रंथों में मगध साम्राज्य का उल्लेख किया गया है । महर्षि वेदव्यास द्वारा रचित महाभारत ग्रंथ में मगध के  महारथी व बलशाली राजाओं का वर्णन है। ऐसा ही एक महारथी राजा था जरासंध। उसके जन्म व मृत्यु की कथा भी बहुत ही रोचक है। जरासंध मगध  का राजा जरासंध द्वारा राजाओं को हराकर मगध की राजधानी राजगीर की  पहाड़ी किले में बंदी बना लेता था। जरासन्ध बंदी राजाओं का वध कर चक्रवर्ती राजा बनना चाहता था। भीम ने द्वापर युग में  13 दिन तक कुश्ती लड़ने के बाद जरासंध को पराजित कर उसका वध किया था। मथुरा के राजा कंस का ससुर एवं परम मित्र जरासंध था। मगध सम्राट जरासंध की  पुत्रियों में  आसित एव प्रापित का विवाह कंस से हुआ था। भगवान कृष्ण द्वारा कंस वध किये जाने के कारण  प्रतिशोध लेने के लिए जरासंध ने 17 बार मथुरा पर चढ़ाई की परंतु जरासंधअसफल होना पड़ा था । जरासंध के भय से अनेक राजा अपने राज्य छोड़ कर भाग गए थे। मगध साम्राज्य का राजा जरासंध का सेनापति शिशुपाल  था। भगवान शंकर का परम भक्त जरासंध  ने अपने पराक्रम से 86 राजाओं को बंदी बना कर  पहाड़ी किले में कैद कर लिया था। जरासंध ने चक्रवर्ती सम्राट बनाने के लिए 100 राजाओं  को बंदी बनाकर बलि देना चाहता था । मगध देश का राजा  बृहद्रथ के   दो पत्नियों की  संतान नहीं थी।  राजा बृहद्रथ ने संतान के लिए ऋषि  चण्ड कौशिक के पास गए और सेवा कर उन्हें संतुष्ट किया। महात्मा चण्डकौशिक ने राजा वृहद्रथ को एक फल दे कर कहा कि फल अपनी पत्नी को खिला देना, इससे तुम्हें संतान की प्राप्ति होगी। राजा ने  फल काटकर अपनी दोनों पत्नियों को खिला दिया। समय आने पर दोनों रानियों के गर्भ से शिशु के शरीर का एक-एक टुकड़ा पैदा हुआ। रानियों ने घबराकर शिशु के दोनों जीवित टुकड़ों को बाहर फेंक दिया था । उसी समय वहां से  राक्षसी जरा ने जीवित शिशु के दो टुकड़ों को देखा तब जरा  अपनी माया से उन दोनों टुकड़ों को जोड़ दिया और वह शिशु एक हो गया। एक शरीर होते ही वह शिशु जोर-जोर से रोने लगा। बालक की रोने की आवाज सुनकर दोनों रानियां बाहर निकली और उन्होंने उस बालक को गोद में ले लिया। राजा बृहद्रथ  वहां आ गए और उन्होंने जरा  राक्षसी से उसका परिचय पूछा। राक्षसी जरा  ने राजा वृहद्रथ को सारी बात सच-सच बता दी। राजा बहुत खुश हुए और उन्होंने उस बालक का नाम जरासंध रख दिया था । मगध साम्राज्य का राजा जरासंध का वध करने के लिए भगवान श्रीकृष्ण ने योजन  के अनुसार श्रीकृष्ण, भीम व अर्जुन ब्राह्मण का वेष बनाकर जरासंध के पास गए और उसे कुश्ती के लिए ललकारा था । जरासंध के कहने पर श्रीकृष्ण ने अपना वास्तविक परिचय दिया । राजा जरासंध और भीम का युद्ध कार्तिक कृष्ण प्रतिपदा से त्रयोदशी  तक लगातार चलता रहा। कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी द्वापरयुग को  भीम ने श्रीकृष्ण का इशारा समझ कर जरासंध के शरीर के दो टुकड़े कर दिए।जरासंध का वध कर भगवान श्रीकृष्ण ने उसकी कैद में बंदी  राजा को आजाद कर दिया और कहा कि धर्मराज युधिष्ठिर चक्रवर्ती पद प्राप्त करने के लिए राजसूय यज्ञ करना चाहते हैं। आप लोग उनकी सहायता कीजिए। राजाओं ने श्रीकृष्ण का यह प्रस्ताव स्वीकार कर लिया और धर्मराज युधिष्ठिर को अपना राजा मान लिया। भगवान श्रीकृष्ण ने जरासंध के पुत्र सहदेव को अभयदान देकर मगध का राजा बना दिया।
विष्णु पुराण चतुर्थ अंश तेइसवां अध्याय और चौविसवां अध्याय के अनुसार मगध देशीय वृहद्रथ वंशीय जरासंध , सहदेव ,सोमपी , श्रुतश्रवा ,आयुतायु ,निरमित्र ,सुनेत्र , वृहतकर्मा ,सेनजीत ,श्रुतुंजय ,विप्र ,शुचि , क्षेम्य ,सुब्रत ,धर्म , सुश्रवा , दृढ़ सेन , सुबल ,सुनीत ,सत्यजीत ,विश्वजीत और रिपुंजय द्वारा मगध पर एक हजार वर्ष तक शासन किया था । मगध का राजा रिपुंजय का मंत्री सुनिक द्वारा हत्या कर सुनीत का पुत्र प्रद्योत मगध का राजा बना था ।मगध का राजा प्रद्योत ने प्रद्योत वंश की स्थापना की थी । प्रद्योत वंश के बालक ,विशाखयूप ,जनक ,नंदिवर्धन और नंदी 148 वर्ष , मगध  राजा नंदी के पुत्र शिशुनाभ , ककवर्ण , क्षेमशर्मा ,क्षतौजा ,विधिसार ,आजातशत्रु ,अर्भक  ने मगध की राजधानी राजगीर तथा पाटलिपुत्र में अर्भक का पुत्र उदयन द्वारा मगध की रही थी । राजा उदयन , नंदिवर्धन ,महानन्दी द्वारा 362 वर्ष तक मगध शासन किया गया था । मगध का राजा महानन्दी के शुद्रा के गर्भ से उत्पन्न महापद्मनंद के पुत्रों द्वारा मगध पर 100 वर्षो तक शासन किया था । महापद्मनंद वंशीय राजा घनानंद को मुरा के पुत्र चंद्रगुप्त ने चाणक्य की सहायता से मगध का राजा बना था । चंद्रगुप्त द्वारा मौर्य वंश की स्थापना की थी । मौर्यवंशीय विन्दुसार ,अशोकवर्धन ,सुयशा, दशरथ ,संयुत, शालिशुक, सोमशर्मा ,शतधन्वा, वृहद्रथ द्वारा मगध पर 173 वर्षो तक शासन किया गया था । मगध का मौर्यवंशीय राजा वृहद्रथ को मार कर मगध सेनापति पुष्यमित्र मगध का राजा बना था । पुष्यमित्र का शुंगवंशीय अग्निमित्र , सुज्येष्ट ,वसुमित्र ,उदकं ,पुलिंदक ,घोषवसु , वज्रमित्र ,भागवत और देवभूत मगध पर 112 वर्ष तक शासक रहा था ।
 वैवस्वत मन्वन्तर सतयुग में ब्रह्मा जी के पौत्र अत्रि प्रजापति की भर्या अनुसूया का पुत्र चंद्रमा ने राजसूय यज्ञ में मडोमस्त होने के कारण देव गुरु वृहस्पति की भर्या तारा को अपहरण कर सहवास किया था । जिससे वृहस्पति की पत्नी तारा  से बुध का जन्म हुआ था । चंद्रमा और वृहस्पति द्वारा तारा के  पुत्र बुध को ज्ञान  दिया गया । तारा पुत्र बुध का विवाह वैवस्वतमनु की पुत्री इला से हुई थी । इला से पुरुरवा हुए थे । पुरुरवा की पत्नी उर्वशी के पुत्र आयु का विवाह राहु की पुत्री से हुआ था । तारा के पुत्र बुध मगध का राजा थे ।वैवस्वत मन्वन्तर में मगध का राजा बुध का मगध ईशान कोण , वनाकार मंडल 4 अंगुल अर्थात 400  वर्ग मिल क्षेत्र में फैला था ।अत्रि गोत्र में उत्पन्न बुध पीतवस्त्रधारी , मिथुन कन्या के स्वामी , वाहन सिंह  है । इनका प्रिय हरा वस्त्र , पत्र, सोना ,कांसा ,मूंगा ,घी ,सफेद फूल , कपूर ,शटर फल ,तथा समिध अपामार्ग है । बुध ग्रहों का राजकुमार तथा ज्ञान समृद्धि का स्वामी है । बुध द्वारा मगध की राजधानी गया में रखा गया था । बुध के पुत्रों में  गय , उत्कल और विशाल द्वारा विभिन्न नगरों को वसया था । गय द्वारा गया ,, विशाल द्वार वैशाली और उत्कल द्वारा ओडिशा नगर की स्थापना की गई थी । राजा गय द्वारा सूर्य , शिव के उपासक तथा असुरसंस्कृति , नाग संस्कृति , गंधर्व संस्कृति के संचालक थे । असुर संस्कृति के प्रणेता रहने के कारण राजा गय को गयासुर कहा गया था । चंद्रमा के गुरु  देवगुरु बृहस्पति थे ।देव गुरु  बृहस्पति की पत्नी तारा चंद्रमा की सुंंदरता पर मोहित होकर चद्रमा से प्रेम करने लगी थी । तदोपरांत वह चंद्रमा के संग सहवास कर गई एवं बृहस्पति को छोड़ ही दिया। बृहस्पति के वापस बुलाने पर उसने वापस आने से मना कर दिया, जिससे बृहस्पति क्रोधित हो उठे तब बृहस्पति एवं उनके शिष्य चंद्र के बीच युद्ध आरंभ हो गया। युद्ध में दैत्य गुरु शुक्राचार्य चंद्रमा की ओर  और अन्य देवता बृहस्पति के साथ होने से युद्ध बड़े स्तर पर होने लगा। युद्ध तारा की कामना के कारण तारकाम्यम कहा गया था।  युद्ध से सृष्टिकर्त्ता ब्रह्मा को भय हुआ कि यह कहीं पूरी सृष्टि को  लील न जाए, तब ब्रह्मा जी द्वारा   बीच बचाव कर युद्ध को रुकवाने का प्रयोजन करने लगे। उन्होंने तारा को समझा-बुझा कर चंद्र से वापस लिया और बृहस्पति को सौंपा। इस बीच तारा के एक सुंदर पुत्र  बुध कहलाया। चंद्र और बृहस्पति बुध को  अपना बताने लगे और स्वयं को इसका पिता बताने लगे यद्यपि तारा चुप रही। माता तारा  की चुप्पी से अशांत व क्रोधित होकर स्वयं बुध ने माता से सत्य बताने को कहा। तब तारा ने बुध का पिता चंद्र को बताया।  बुध के पिता चन्द्रमा और मां तारा हैं। इनकी बुद्धि बड़ी गम्भीर एवं तेज होने के कारण  ब्रह्माजी ने इनका नाम बुध रखा था । बृहस्‍पति की इच्‍छा हुई कि वे स्‍त्री बनने की इच्छा हेतु ब्रह्मा के पास पहुंचे थे । सर्वज्ञाता  ब्रह्मा ने कहा कि तुम समस्‍या में पड़ जाओगे लेकिन बृह‍स्‍पति ने जिद पकड़ लिए तभी ब्रह्मा ने बृहस्पति को  स्‍त्री बना दिया । रूपमती स्‍त्री बने घूम रहे गुरु पर चंद्रमा की नजर पड़ी और चंद्रमा ने गुरु का बलात्‍कार कर दिया। गुरु हैरान कि अब क्‍या किया जाए। वे ब्रह्मा के पास गए तो उन्‍होंने कहा कि अब तो तुम्‍हे नौ महीने तक स्‍त्री के ही रूप में रहना पड़ेगा। नौ महीने बीते और बुध पैदा हुए। बुध के पैदा होते गुरु ने स्‍त्री का रूप त्‍यागा और फिर से पुरुष बन गए। बुध  को वृहस्पति ने नहीं संभाला।ऐसे में बुध बिना मां और बिना बाप के अनाथ हो गए। प्रकृति ने बुध को अपनाया और धीरे-धीरे बुध बड़े होने लगे। बुध को अकेला पाकर बुध के साथ राहु और शनि  मित्र जुड गए। बुध का सम्‍पर्क शुक्र से हुआ। शुक्र ने बुध को समझाया कि तुम जगत के पालक सूर्य के पास चले जाओ तुम्‍हे अपना लेंगे। बुध सूर्य की शरण में चले गए और सुधर गए।बुध अपनी संतान को त्‍यागने वाले गुरु और नीच के चंद्रमा से नैसर्गिक शत्रुता रखते हैं। राहु और शनि के साथ बुरे परिणाम देते और शुक्र और सूर्य के साथ बेहतर बनाते है। सौर मण्‍डल में गति करते हुए जब  सूर्य से आगे निकलते हैं बुध के परिणामों में कमी आ जाती है और सूर्य से पीछे रहने पर उत्‍तम परिणाम देते हैं। अपनी माता की तरह बुध के अधिपत्‍य में दो राशियां है।  बुध के पास कन्‍या और मिथुन राशियों का स्‍वामित्‍व है। बुद्धावतार भगवान् विष्णु के दश अवतारों में ९वाँ अवतार और चौबीस अवतारों में से तेईसवें अवतार माने गए हैं। भागवत स्कन्ध १ अध्याय ६ के श्लोक २४ में  भगवान विष्णु के 23वें अवतार बुद्ध का जन्म कीकट प्रदेश की राजधानी गया के ऋषि अजन के पुत्र का अवतरण आश्विन शुक्ल पक्ष दशमी तिथि गुरुवार द्वापर युग इन हुआ था । ततः कलौ सम्प्रवृत्ते सम्मोहाय सुरद्विषाम्। बुद्धोनाम्नाजनसुतः कीकटेषु भविष्यति॥ अर्थात्, कलयुग में देवद्वेषियों को मोहित करने नारायण कीकट प्रदेश में अजन के पुत्र के रूप में प्रकट हुए थे । भगवान बुद्ध  ईश्वरवादी ब्रह्मा विष्णु महेश सरस्वती गणेश इंद्र आदि देवी देवतावादी  और एशिया के प्रकाश कहलाए थे । 
नेपाल का कपिलवस्तु के राजा सुद्धोदन की भर्या मायादेवी  के पुत्र सिद्धार्थ का जन्म लुम्बिनी  में वैशाख शुक्ल पूर्णिमा 563 ई.पू.  हुआ था । सिद्धार्थ ने सांसारिक जीवन से मोह भंग करने के बाद 29 वर्ष की अवस्था में गृह त्याग  कर बिहार का गया जिला स्थित बोधगया स्थित निरंजना नदी के तट पर पीपल वृक्ष की छाया में 6 वर्षों तक कठिन तपस्या के बाद वैशाख शुक्ल पूर्णिमा को 35 वर्ष की आयु में  ज्ञान प्राप्त किया  था । गौतम गोत्र में रहने के कारण सिद्धार्थ को गौतम बुद्ध कहे गए थे । महात्मा बुद्ध ने 80 वर्ष की उम्र में वैशाख शुक्ल पूर्णिमा 483 ई. पू. उत्तरप्रदेश के देवरिया जिले का कुशीनगर  में महानिर्वाण किया था । गौतम बुद्ध द्वारा ज्ञान प्राप्त करने के बाद प्रथम उपदेश उत्तरप्रदेश के वाराणसी के ऋषिपत्तनम सारनाथ में दिया गया था । सिद्धार्थ की पत्नी यशोधरा और पुत्र राहुल थे ।जैन धर्म के 24वें तीर्थंकर भगवान महावीर का जन्म 540 ई.पू.में बिहार का वैशाली जिले के कुंडग्राम में ज्ञातृक कुल के सरदार सिद्धार्थ की पत्नी लिच्छवी नरेश चेटक की बहन त्रिशला के गर्भ से अवतरण हुआ था ।  महावीर का बचपन का नाम वर्द्धमान था। 42 वर्षीय वर्द्धमान ने ऋजुपालिका नदी के तट पर स्थित जुम्बिक ग्राम का शाल वृक्ष की छया में 12 वर्ष की तपस्या करने के बाद ज्ञान प्राप्त किया था ।बिहार के नालंदा जिले के पावापुरी में 72 वर्षीय महावीर ने कार्तिक कृष्ण अमावस्या 468 ई.पू. निर्वाण प्राप्त किया था । महावीर की पत्नी यशोदा और पुत्री अनोनज्जाप्रियदर्शनी थी । 





राजा वेन के पुत्र पृथु द्वारा मागध को कीकट प्रदेश का राजा घोषित किया गया था । कीकट प्रदेश का राजा मागध ने मगध प्रदेश की स्थापना कर गया में राजधानी बनाया था । मगध देश का राजा  विश्वसफटिक ने गया में कैवर्त , वटु ,पुलिंद ,ब्राह्मण, नाग गणों की नियुक्ति की थी । राजा वईश्वसफटिक द्वारा मगध  साम्राज्य का विस्तार और विकास किया गया था ।पद्मवतीपुर छोटानागपुर का राजा नागवंशियों द्वारा विकास किया गया था ।

गुरुवार, जुलाई 22, 2021

भगवान शिव : नाग और श्रावण...

        
        पुरणों , स्मृतियों  और शैव धर्म ग्रंथों स्मृतियों में भगवान शिव के उपासक तथा भगवान सूर्य आराधक 'नाग वंशीय अत्यंत समृद्ध और शक्तिशाली थे । विश्व मे नागों  द्वारा विश्व में नाग सभ्यता एवं  संस्कृति का विकास हुआ है। नाग सभ्यता में भगवान शिव ,  नंदी नागों का आराध्यदेव है । सूर्यपुराण के अनुसार भगवान सूर्य के अवतार  देव माता अदिति के पुत्र धत आदित्य के साथ कद्रू के पुत्र वासुकी नाग , अर्यमा आदित्य के साथ कच्छवीर नाग , मित्र आदित्य के साथ तक्षक नाग , वरुण आदित्य के साथ नाग  , इंद्र आदित्य के साथ एलापत्र नाग , विविस्वान आदित्य के साथ शंखपाल नाग , पूषा आदित्य के साथ धनन्जय नाग पर्जन्य आदित्य के साथ ऐरावत नाग , अंश आदित्य के साथ महापद्म नाग , भग आदित्य के साथ कर्कोटक नाग , त्वष्टा आदित्य के साथ कंबल सर्प , विष्णु आदित्य के साथ अश्वतर सर्प रहते है । नागों द्वारा  भगवान शिव के प्रिय और भगवान सूर्य के अवतार विभिन्न आदित्यों के साथ रह कर  भगवान सूर्य के उपासना निरंतर करते है । कद्रू के पुत्र कर्कोटक नाग की आराधना रांची स्थित पहाड़ी की श्रृंखला पर नाग गुफा में कई जाती है तथा भगवान शिव का चरण और शिव लिंग की स्थापना की उपासना की जाती है । रांची स्थित पर्वत को पहाड़ी बाबा के नाम से ख्याति प्राप्त है ।फणि मुकुट  द्वारा  छोटानागपुर में नागवंशी साम्राज्य की स्थापना संवत 121 यानी 64 ई. . में की गई थी। नागवंशी साम्राज्य की राजधानी सुताम्बे स्थापित कर सूतीआंबे में  सूर्य मंदिर का निर्माण करवाया था । नागवंशी शासन व्यवस्था में फनीमुकुट राय के बाद मुकुट राय, मदन राय ,प्रताप राय शासक बने । नागवंशीय प्रतापराय ने छोटानागपुर की  राजधानी सूतीअंबे से हटाकर चुटिया को बनाया था । नागवंश शासक भीमकर्ण द्वारा छोटानागपुर राज्य का विस्तार  किया था ।  सरगुजा के राजा रक्सौल राजा के साथ बरवा का युद्ध हुआ था । इन्होंने अपनी राजधानी चुटिया से हटाकर खुखरा कर लिया था । नागवंश शिवदास कर्ण शासक ने गुमला को अपना साम्राज्य विस्तार किया था इन्होंने गुमला के पास घाघरा में हापामुनि मंदिर बनवाया था । प्रतापगढ़ और छत्र कर्ण शासक हुए क्षत्रकर्ण ने कोराआंबे में विष्णु मंदिर का निर्माण करवाया था । नागवंश में प्रताप उदय नाथ शाहदेव शासक द्वारा  रांची के नजदीक रातू में रातूगढ़ का निर्माण करवाया और अपनी राजधानी रातूगढ़ को बनाया और वहीं से अपने शासन व्यवस्था का संचालन किया नागवंशी शासन व्यवस्था अत्यंत सरल व्यवस्था थी इस व्यवस्था में शासन का प्रमुख राजा होता था जबकि गांव के प्रमुख को महतो कहा जाता था राजा का जो खेती बाड़ी करता है और अनाज को जमा करके रखता था उसे भंडारी कहा जाता था इसके अलावा अमीन ओहदार, तोपची, साहनी आदि रहते थे जो नागवंशी शासन व्यवस्था के अंग थे ।प्रत्येक वर्ष सावन माह शुक्ल पंचमी को  अष्टनागों की पूजा की जाती है। वासुकिः तक्षकश्चैव कालियो मणिभद्रकः।ऐरावतो धृतराष्ट्रः कार्कोटकधनंजयौ ॥एतेऽभयं प्रयच्छन्ति प्राणिनां प्राणजीविनाम् ॥ (भविष्योत्तरपुराण – ३२-२-७) अर्थात : वासुकि, तक्षक, कालिया, मणिभद्रक, ऐरावत, धृतराष्ट्र, कार्कोटक और धनंजय - ये प्राणियों को अभय प्रदान करते हैं। तक्षक गरूड़ जी के भय से तक्षक ने काशी में   शिक्षा लेने हेतु  आये, परन्तु गरूड़ जी को इसकी जानकारी हो गयी थी ।,गरुड़ द्वारा  तक्षक पर हमला करने पर गुरू जी के प्रभाव से गरूड़ जी ने तक्षक नाग को अभय दान कर दिया था । काशी में स्थित कूप में तक्षक का निवास रहने के कारण नाग पंचमी को नाग पूजा कर नाग पंचमी के दिन  नाग कुआँ का दर्शन करने पर  जन्मकुन्डली के सर्प दोष का निवारण हो जाता है। देव-दानवों द्वारा किए गए समुद्र मंथन में साधन रूप बनकर वासुकी नाग ने दुर्जनों के लिए भी प्रभु कार्य में निमित्त बनने का मार्ग खुला कर दिया है। भगवान विष्णु की सेवा शेषनाग निरंतर करते है ।
ॐ कुरुकुल्ये हुं फट् स्वाहा का जाप करने से सर्पविष दूर होता है।प्राचीन काल में एक सेठजी के सात पुत्र थे। सातों के विवाह हो चुके थे। सबसे छोटे पुत्र की पत्नी श्रेष्ठ चरित्र की विदूषी और सुशील थी, परंतु उसके भाई नहीं था।एक दिन बड़ी बहू ने घर लीपने को पीली मिट्टी लाने के लिए सभी बहुओं को साथ चलने को कहा तो सभी डलिया और खुरपी लेकर मिट्टी खोदने लगी। तभी वहां एक सर्प निकला, जिसे बड़ी बहू खुरपी से मारने लगी। यह देखकर छोटी बहू ने उसे रोकते हुए कहा- 'मत मारो , यह बेचारा निरपराध है।' यह सुनकर बड़ी बहू ने उसे नहीं मारा तब सर्प एक ओर जा बैठा। तब छोटी बहू ने उससे कहा-'हम अभी लौट कर आती हैं तुम यहां से जाना मत। यह कहकर वह सबके साथ मिट्टी लेकर घर चली गई और वहाँ कामकाज में फँसकर सर्प से जो वादा किया था उसे भूल गई।उसे दूसरे दिन वह बात याद आई तो सब को साथ लेकर वहाँ पहुँची और सर्प को उस स्थान पर बैठा देखकर बोली- सर्प भैया नमस्कार! सर्प ने कहा- 'तू भैया कह चुकी है, इसलिए तुझे छोड़ देता हूं, नहीं तो झूठी बात कहने के कारण तुझे अभी डस लेता। वह बोली- भैया मुझसे भूल हो गई, उसकी क्षमा माँगती हूं, तब सर्प बोला- अच्छा, तू आज से मेरी बहिन हुई और मैं तेरा भाई हुआ। तुझे जो मांगना हो, माँग ले। वह बोली- भैया! मेरा कोई नहीं है, अच्छा हुआ जो तू मेरा भाई बन गया।कुछ दिन व्यतीत होने पर वह सर्प मनुष्य का रूप रखकर उसके घर आया और बोला कि 'मेरी बहिन को भेज दो।' सबने कहा कि 'इसके तो कोई भाई नहीं था, तो वह बोला- मैं दूर के रिश्ते में इसका भाई हूँ, बचपन में ही बाहर चला गया था। उसके विश्वास दिलाने पर घर के लोगों ने छोटी को उसके साथ भेज दिया। उसने मार्ग में बताया कि 'मैं वहीं सर्प हूँ, इसलिए तू डरना नहीं और जहां चलने में कठिनाई हो वहां मेरी पूछ पकड़ लेना। उसने कहे अनुसार ही किया और इस प्रकार वह उसके घर पहुंच गई। वहाँ के धन-ऐश्वर्य को देखकर वह चकित हो गई। एक दिन सर्प की माता ने उससे कहा- 'मैं एक काम से बाहर जा रही हूँ, तू अपने भाई को ठंडा दूध पिला देना। उसे यह बात ध्यान न रही और उससे गर्म दूध पिला दिया, जिसमें उसका मुख बेतरह जल गया। यह देखकर सर्प की माता बहुत क्रोधित हुई। परंतु सर्प के समझाने पर चुप हो गई। तब सर्प ने कहा कि बहिन को अब उसके घर भेज देना चाहिए। तब सर्प और उसके पिता ने उसे बहुत सा सोना, चाँदी, जवाहरात, वस्त्र-भूषण आदि देकर उसके घर पहुँचा दिया।इतना ढेर सारा धन देखकर बड़ी बहू ने ईर्षा से कहा- भाई तो बड़ा धनवान है, तुझे तो उससे और भी धन लाना चाहिए। सर्प ने यह वचन सुना तो सब वस्तुएँ सोने की लाकर दे दीं। यह देखकर बड़ी बहू ने कहा- 'इन्हें झाड़ने की झाड़ू भी सोने की होनी चाहिए'। तब सर्प ने झाडू भी सोने की लाकर रख दी।सर्प ने छोटी बहू को हीरा-मणियों का एक अद्भुत हार दिया था। उसकी प्रशंसा उस देश की रानी ने भी सुनी और वह राजा से बोली कि- सेठ की छोटी बहू का हार यहाँ आना चाहिए।' राजा ने मंत्री को हुक्म दिया कि उससे वह हार लेकर शीघ्र उपस्थित हो मंत्री ने सेठजी से जाकर कहा कि 'महारानीजी छोटी बहू का हार पहनेंगी, वह उससे लेकर मुझे दे दो'। सेठजी ने डर के कारण छोटी बहू से हार मंगाकर दे दिया। छोटी बहू को यह बात बहुत बुरी लगी, उसने अपने सर्प भाई को याद किया और आने पर प्रार्थना की- भैया ! रानी ने हार छीन लिया है, तुम कुछ ऐसा करो कि जब वह हार उसके गले में रहे, तब तक के लिए सर्प बन जाए और जब वह मुझे लौटा दे तब हीरों और मणियों का हो जाए। सर्प ने ठीक वैसा ही किया। जैसे ही रानी ने हार पहना, वैसे ही वह सर्प बन गया। यह देखकर रानी चीख पड़ी और रोने लगी। यह देख कर राजा ने सेठ के पास खबर भेजी कि छोटी बहू को तुरंत भेजो। सेठजी डर गए कि राजा न जाने क्या करेगा? वे स्वयं छोटी बहू को साथ लेकर उपस्थित हुए। राजा ने छोटी बहू से पूछा- तुने क्या जादू किया है, मैं तुझे दण्ड दूंगा। छोटी बहू बोली- राजन ! धृष्टता क्षमा कीजिए, यह हार ही ऐसा है कि मेरे गले में हीरों और मणियों का रहता है और दूसरे के गले में सर्प बन जाता है। यह सुनकर राजा ने वह सर्प बना हार उसे देकर कहा- अभी पहिनकर दिखाओ। छोटी बहू ने जैसे ही उसे पहना वैसे ही हीरों-मणियों का हो गया। यह देखकर राजा को उसकी बात का विश्वास हो गया और उसने प्रसन्न होकर उसे बहुत सी मुद्राएं भी पुरस्कार में दीं। छोटी वह अपने हार और इन सहित घर लौट आई। उसके धन को देखकर बड़ी बहू ने ईर्षा के कारण उसके पति को सिखाया कि छोटी बहू के पास कहीं से धन आया है। यह सुनकर उसके पति ने अपनी पत्नी को बुलाकर कहा- ठीक-ठीक बता कि यह धन तुझे कौन देता है? तब वह सर्प को याद करने लगी।तब उसी समय सर्प ने प्रकट होकर कहा- यदि मेरी धर्म बहिन के आचरण पर संदेह प्रकट करेगा तो मैं उसे खा लूँगा। यह सुनकर छोटी बहू का पति बहुत प्रसन्न हुआ और उसने सर्प देवता का बड़ा सत्कार किया। उसी दिन से नागपंचमी का त्योहार मनाया जाता है और स्त्रियाँ सर्प को भाई मानकर उसकी पूजा करती हैं ।
नागवंशी  का विश्व के भूभाग पर लंबे समय तक शासन रहा है |प्राचीन काल में नागवंशियों का राज्य भारत   तथा सिंहल में  था। पुराणों में उलेख है कि  सात नागवंशी राजा मथुरा भोग करेंगे, उसके पीछे गुप्त राजाओं का राज्य होगा। नौ नाग राजाओं के जो पुराने सिक्के में बृहस्पति नाग', 'देवनाग', 'गणपति नाग' इत्यादि नाम  हैं। नागगण विक्रम संवत 150 और 250 के बीच राज्य करते थे। इन नव नागों की राजधानी कहाँ थी, इसका ठीक पता नहीं है, पर अधिकांश विद्वानों का मत यही है कि उनकी राजधानी 'नरवर' थी। मथुरा और भरतपुर से लेकर ग्वालियर और उज्जैन तक का भू-भाग नागवंशियों के अधिकार में था।कृष्ण काल में नाग जाति ब्रज में आकर बस गई थी। इस जाति की अपनी एक पृथक संस्कृति थी। कालिया नाग को संघर्ष में पराजित करके श्रीकृष्ण ने उसे ब्रज से निर्वासित कर दिया था, किंतु नाग जाति यहाँ प्रमुख रूप से बसी रही। मथुरा पर उन्होंने काफ़ी समय तक शासन भी किया।  महाप्रतापी गुप्तवंशी राजाओं ने शक या नागवंशियों को परास्त किया था। प्रयाग के क़िले के भीतर स्तंभलेख के अनुसार  महाराज समुद्रगुप्त ने गणपति नाग को पराजित किया था।  गणपति नाग के सिक्के बहुत मिलते हैं। महाभारत के अनुसार पांडवों ने नागों  से मगध राज्य छीना था। खांडव वन जलाते समय बहुत से नाग नष्ट हुए थे।  मगध ,खांडवप्रस्थ ,तक्षशीला तक्षक नाग द्वारा बसाई गई तक्षशिला  का  राजा "तक्षक नाग " था । तक्षक नागवंशी का शासन मथुरा  थे | शिशुनाग के नाम पर शिशुनाग वंश मगध साम्राज्य  पर लंबे समय तक राज्य करने के लिए जाना जाता है |महाभारत में ऐरावत नाग के वंश में उत्त्पन कौरव्या नाग की बेटी का विवाह  अर्जुन से हुआ  था । लंकाधिपति रावण का पुत्र मेघनाथ की पत्नी नागवंशीय सुलोचना थी । नागवंशियों का शासन बिहार के नालंदा जिले के राजगीर में राजा वसु , झारखंड के रांची में , देवघर में वासुकी , नागालैंड , उत्तरप्रदेश , उत्तराखंड , जम्बू कश्मीर ,  राजस्थान , मध्यप्रदेश , उड़ीसा , महाराष्ट्र ,


           
तमिलनाडु , आंध्रप्रदेश , असम , नेपाल , पाकिस्तान , बंगाल , बंगाल देश के विभिन्न क्षेत्रों में नागों का साम्राज्य था ।पुरणों , उपनिषदों और महाभारत के अनुसार राजा दक्ष प्रजापति की पुत्री तथा ऋषि कश्यप की  तेरह पत्नियों में  कद्रू ने अपने पति महर्षि कश्यप की सेवा की थी । प्रसन्न होकर महर्षि कश्यप  ने कद्रू को वरदाने मांगने के लिए कहा। कद्रू ने कहा कि मुझसे  एक हजार तेजस्वी नाग पुत्र हों। महर्षि कश्यप ने वरदान प्राप्त कर कद्रू द्वारा  नाग वंश की उत्पत्ति की गई थी । महर्षि कश्यप की पत्नी विनता से पक्षीराज गरुड़  पुत्र हुए हैं। एक बार कद्रू और विनता ने एक सफेद घोड़ा देखा। उसे देखकर कद्रू ने कहा कि इस घोड़े की पूंछ काली है और विनता ने कहा कि सफेद। इस बात पर दोनों में शर्त लग गई। तब कद्रू ने अपने नाग पुत्रों से कहा कि वे अपना आकार छोटा कर घोड़े की पूंछ से लिपट जाएं, जिससे उसकी पूंछ काली नजर आए और वह शर्त जीत जाए। कुछ सर्पों ने ऐसा करने से मना कर दिया। तब कद्रू ने अपने पुत्रों को श्राप दे दिया कि तुम राजा जनमेजय के यज्ञ में भस्म हो जाओगो। श्राप की बात सुनकर सांप अपनी माता के कहे अनुसार उस सफेद घोड़े की पूंछ से लिपट गए जिससे उस घोड़े की पूंछ काली दिखाई देने लगी। शर्त हारने के कारण विनता कद्रू की दासी बन गई।  गरुड़ को पता चला कि उनकी मां दासी बन गई है । उन्होंने कद्रू और उनके सर्प पुत्रों से पूछा कि तुम्हें मैं ऐसी कौन सी वस्तु लाकर दूं जिससे कि मेरी माता तुम्हारे दासत्व से मुक्त हो जाए। सर्पों ने कहा कि तुम हमें स्वर्ग से अमृत लाकर दोगे तभी  तुम्हारी माता दासत्व से मुक्त हो जाएगी । गरुड़ स्वर्ग से अमृत कलश ले आए और उसे कुशा पर रख दिया। अमृत पीने से पहले जब सर्प स्नान करने गए तभी देवराज इंद्र अमृत कलश लेकर उठाकर पुन: स्वर्ग ले गए। यह देखकर सांपों ने उस घास को चाटना शुरू कर दिया जिस पर अमृत कलश रखा था ।नागों को  लगा कि इस स्थान पर थोड़ा अमृत का अंश अवश्य होगा। ऐसा करने से ही उनकी जीभ के दो टुकड़े हो गए।कद्रू के पुत्रों में शेषनाग ने  ब्रह्माजी से वरदान प्राप्त कर शेषनाग  बुद्धि धर्म, तपस्या और शांति तथा  पृथ्वी पर्वत, वन, सागर  स्थिरत्वमग्न हो गए साथ ही ब्रह्माजी के कहने पर शेषनाग पृथ्वी को अपने सिर पर धारण कर लिया।नागराज वासुकि को जब माता कद्रू के श्राप के बारे में पता लगा तो वे बहुत चिंतित हो गए। तब उन्हें एलापत्र नामक नाग ने बताया कि इस सर्प यज्ञ में केवल दुष्ट सर्पों का ही नाश होगा और जरत्कारू नामक ऋषि का पुत्र आस्तिक इस सर्प यज्ञ को संपूर्ण होने से रोक देगा। जरत्कारू ऋषि से  नागों की बहन मनसादेवी का विवाह सम्पन्न हो गयी थी ।जरत्कारु ऋषि की पत्नी मनसादेवी के गर्भ से  आस्तिक का जन्म हुआ था । च्यवन ऋषि ने मनशा के पुत्र आस्तिक को वेदों का ज्ञान दिया। द्वापर युग और कलियुग के प्रारंभ में इन्द्रप्रस्त का राजा जनमेजय  को यह पता चला कि उनके पिता परीक्षित की मृत्यु तक्षक नाग द्वारा काटने से हुई है । राजा जनमेजय ने नागदाह यज्ञ करने का निर्णय लिया। जब जनमेजय ने नागदाह यज्ञ प्रारंभ किया तब सर्पेष्टि यज्ञ में बड़े-छोटे, वृद्ध, युवा सर्प आ-आकर गिरने लगे। ऋषि द्वारा नागों का  नाम ले लेकर आहुति देते और भयानक सर्प आकर अग्नि कुंड में गिर जाते। यज्ञ के डर से तक्षक देवराज इंद्र के यहां जाकर छिप गया। मनशा पुत्र  आस्तिक को नागदाह यज्ञ के बारे में पता चला टैब आस्तिक  यज्ञ स्थल पर आए और यज्ञ की स्तुति करने लगे। आस्तिक ऋषि ने राजा जनमेजय से सर्पेष्टि यज्ञ बंद करने का निवेदन किया।  जनमेजय ने सर्पेष्टि यज्ञ रोके के लिये इंकार किया परंतु ऋषियों द्वारा समझाने पर राजा जनमेजय सर्पेष्टि यज्ञ रोकवा दी थी । आस्तिक मुनि ने धर्मात्मा सर्पों को भस्म होने से बचा लिया। धर्म ग्रंथों के अनुसार, सर्प भय की मुक्ति के लिए  आस्तिक  ऋषि की उपासना की जाती है ।
 नाग दिवस ,  विश्व सर्प दिवस ,वर्ल्ड स्नैक डे  को विश्व में लोगों को सांपों और उनके बारे में भ्रातिंया दूर कर उनके प्रति जागरुकता जगाने के लिए मनाया जाता है । भारत में नागों को समर्पित सावन शुक्ल पंचमी व नागपंचमी है । सांप विश्व के पुरातन जीवों में सर्प को माना जाता है । विश्व की  नाग सभ्यता और संस्कृति की चर्चा अन्य सभ्यता  में मिल जाती है । विश्व  में सांपों की  3458 प्रजातियां हैं । उत्तरी कनाडा के बर्फीले टुंड्रा से लेकर अमेजन के हरे जंगलों ,  रेगिस्तान और महासागर में पाया जाता है । नाग बहुत  चुस्त शिकारी जीव तथा  प्रकृति में संतुलन बनाने में अहम भूमिका निभाते हैं. खेतों में सांप का पाया जाना एक अच्छा संकेत माना जाता है ।किसान तो सांपों को पालते हैं जिससे की उनकी फसल बचत है । सांपों के पूर्वज डायनासोर के पूर्वज सर्प  हैं । जंगलों के विनाश के साथ सांपों की प्रजातियों के कम होने से  खतरा बढ़ता जा रहा है ।

मंगलवार, जुलाई 20, 2021

सृष्टि का पालक भगवान शिव...


  



    पुरणों और स्मृतियों  अनुसार भगवान शिव को समर्पित सोमवार को  शिवजी की उपासना से  लाभदायक होता है । सोमवार व्रत को सोमेश्वर व्रत , सोमारी , चंद्रेश्वर ब्रत कहा गया  है । शिवपुराण तथा लिंगपुराण के अनुसार राजा दक्षप्रजापति के 27 पुत्रियों के पति  सोम ने भगवान शिव की आराधना से  दक्षप्रजापति द्वारा शापित सोमदेव निरोगी होकर  अपने सौंदर्य प्राप्त किया था तथा भगवान शंकर ने  प्रसन्न होकर सावन मास  कृष्ण पक्ष द्वितीया तिथि में चन्द्रमा को अपनी जटाओं  में मुकुट की तरह धारण किया था । माता पार्वती भगवान शिव की उपासना के लिये सोमवार से उपासना करने के बाद सावन शुक्ल पक्ष तृतीय तिथि को भगवान प्रकट हो कर मनोकामनाएं प्राप्त की थी । भगवान शिव द्वारा भू भाग में औषधियों की उत्पत्ति , औषधि के स्वामी चंद्रमा , सोम द्वारा स्थापित सोमनाथ ज्योतिर्लिङ्ग की स्थापना , महामृत्युंजय की उत्पत्ति , मता पर्वती को मनोकामनाएं पूर्ण  , 12 ज्योतिर्लिङ्ग के रूप में प्रकट हो कर ब्रह्मांड का चतुर्दिक विकास किया गया था । सतयुग का  वराह काल में  देवी-देवताओं ने भूस्थल  हिमयुग की चपेट मे रहने के दौरान भगवान शंकर ने भू स्थल का केंद्र कैलाश को  निवास स्थान बनाया था । भगवान विष्णु    ने समुद्र और ब्रह्मा ने नदी के किनारे और  शिव ने  पर्वत की श्रंखला पर स्थान रखा है। वैज्ञानिकों एवं भूगर्भ वैज्ञानिकों के अनुसार   विन्ध्यपर्वतमाला की धरती की प्राचीन भूमि पुरातनकाल में चारों ओर समुद्र हुआ करता था।  समुद्र के परिवर्तनों के कारण  धरती का प्राकट्य होने के बाद जन , जंतु , वनस्पति , वृक्ष  जीवन फैलव हुआ था । भगवान शिव ने  धरती पर जीवन की नींव डाल कर सृष्टि की रचना की थी । भगवान शिव को आदिदेव  , आदिनाथ  ,  आदिश और ‘आदेश’ कहा गया है। नाथ सम्प्रदाय एक–दूसरे से मिलते पर  आदेश कहते है । भगवान शिव , विष्णु और ब्रह्मा  द्वारा  द्वारा भूस्थल पर जीवन की उत्पत्ति और पालन का कार्य किया। देवता, दैत्य, दानव, गंधर्व, यक्ष , मनुष्य , ऋक्ष , मारुत , नाग , जीव जंतु , पौधे , वृक्ष की उत्पत्ति हुई थी ।वैदिक काल में रुद्र और उनके अन्य स्वरूप तथा जीवन दर्शन मिला है । भगवान शिव को वेद में रुद्र ,  पुराण में  शंकर और महेश कहते हैं। वराह काल के पूर्व  में  शिव थे। देवो , नागों , मानव ,  दैत्यों, दानवों असुरों  और भूतों के प्रिय भगवान शिव  हैं।सन् २००७ में नेशनल जिओग्राफी की टीम ने भारत और अन्य जगह पर २० से २२ फिट मानव के कंकाल ढूंढ निकाले हैं। भारत में मिले कंकाल को भीम पुत्र घटोत्कच और बकासुर का कंकाल मानते हैं। सतयुग में इस तरह के विशालकाय मानव हुआ करते थे। बाद में त्रेतायुग में इनकी प्रजाति नष्ट हो गई। पुराणों के अनुसार भूस्थल पर  दैत्य, दानव, राक्षस और असुरों की जाति का अस्तित्व था ।  भारत में मिले कंकाल के साथ एक शिलालेख में  ब्राह्मी लिपि का शिलालेख में लिखा है कि ब्रह्मा ने मनुष्यों में शांति स्थापित करने के लिए विशेष आकार के मनुष्यों की रचना की थी। विशेष आकार के मनुष्यों की रचना एक ही बार हुई थी। ये लोग काफी शक्तिशाली  होते थे और पेड़  तक को अपनी भुजाओं से उखाड़ सकते थे। लेकिन इन लोगों ने अपनी शक्ति का दुरुपयोग करना शुरू कर दिया और आपस में लड़ने के बाद देवताओं को ही चुनौती देने लगे। अंत में भगवान शंकर ने सभी को मार डालने के बाद विशाल के  लोगों की रचना नहीं की गयी है ।शिव ने पिनाक धनुष को बनाया था उसकी टंकार से ही बादल फट जाते और पिनाक तीर से त्रिपुरासुर की तीनों नगरियों को ध्वस्त  कर दिया गया था।देवी और देवताओं के काल की समाप्ति के बाद पिनाक धनुष को देवरात को सौंप दिया गया था। राजा दक्ष के यज्ञ में यज्ञ का भाग शिव को नहीं देने के कारण भगवान शंकर बहुत क्रोधित हो गए थे और उन्होंने  देवताओं को अपने पिनाक धनुष से नष्ट करने की ठानी। एक टंकार से धरती का वातावरण भयानक हो गया। बड़ी मुश्किल से उनका क्रोध शांत किया गया, तब उन्होंने यह धनुष देवताओं को दे दिया। देवताओं ने मिथिला के राजा निमि के पुत्र देवरात को दे दिया। शिव-धनुष  धरोहरस्वरूप राजा जनक के पास सुरक्षित था। पिनाक  धनुष को भगवान शंकर ने स्वयं अपने हाथों से बनाया था। उनके इस विशालकाय धनुष को कोई भी उठाने की क्षमता नहीं रखता था। लेकिन भगवान राम ने धनुष  उठाकर इसकी प्रत्यंचा चढ़ाई और एक झटके में तोड़ दिया। देवी-देवताओं के पास अपने-अपने अलग-अलग चक्र होते थे। भगवान शंकर के चक्र का नाम भवरेंदु, विष्णुजी के चक्र का नाम कांता चक्र और देवी का चक्र मृत्यु मंजरी के नाम से जाना जाता था। सुदर्शन चक्र  भगवान कृष्ण  के साथ अभिन्न रूप से जुड़ा है। सुदर्शन चक्र का निर्माण भगवान शंकर ने किया था। प्राचीन और प्रामाणिक शास्त्रों के अनुसार इसका निर्माण भगवान शंकर ने किया था। सुदर्शन चक्र का निर्माण के बाद भगवान शिव ने श्रीविष्णु को सौंप दिया था।  श्रीविष्णु ने सुदर्शन चक्र को देवी पार्वती को प्रदान कर दिया। पार्वती ने परशुराम को दे दिया और भगवान कृष्ण को  सुदर्शन चक्र परशुराम से प्राप्त हुआ था । भगवान शिव के  त्रिशूल ३ प्रकार के कष्टों दैनिक, दैविक, भौतिक के विनाश का सूचक है। इसमें ३ तरह की शक्तियां हैं- सत, रज और तम। प्रोटॉन, न्यूट्रॉन और इलेक्ट्रॉन और  पाशुपतास्त्र भगवान् शिव का अस्त्र है।शिव को नागवंशियों से घनिष्ठ लगाव था। नाग कुल के सभी लोग शिव के क्षेत्र हिमालय में  रहते थे। कश्मीर का अनंतनाग नागवंशियों का गढ़ था। नागकुल के लोग शैव धर्म का पालन करते थे। नागों के प्रारंभ में ५ कुलों में शेषनाग (अनंत), वासुकी, तक्षक, पिंगला और कर्कोटक है । नाग वंशावलियों में *‘शेषनाग’* को नागों का प्रथम राजा माना जाता है। शेषनाग को ही *‘अनंत’* नाम से भी जाना जाता है। ये भगवान विष्णु के सेवक थे। इसी तरह आगे चलकर शेष के बाद वासुकी हुए, जो शिव के सेवक बने। फिर तक्षक और पिंगला ने राज्य संभाला। वासुकी का कैलाश पर्वत के पास ही राज्य था और मान्यता है कि तक्षक ने ही तक्षकशिला (तक्षशिला) बसाकर अपने नाम से *‘तक्षक’* वंशीय प्रारम्भ हुआ है । कर्कोटक, ऐरावत, धृतराष्ट्र, अनत, अहि, मनिभद्र, अलापत्र, कम्बल, अंशतर, धनंजय, कालिया, सौंफू, दौद्धिया, काली, तखतू, धूमल, फाहल, काना  नागों के वंशीय भूस्थल के भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में राज्य था। शिव द्वारा मां पार्वती को अमरनाथ में  ज्ञान दिया गया । ‘विज्ञान भैरव तंत्र’ एक ऐसा ग्रंथ है जिसमें भगवान शिव द्वारा पार्वती को बताए गए ११२ ध्यान सूत्र है। योगशास्त्र के प्रवर्तक भगवान शिव के विज्ञान भैरव तंत्र’ और शिव संहिता के अनुसार  र में  संपूर्ण शिक्षा और दीक्षा  समाविष्ट  है। भगवान शिव ने कहा है कि  ‘वामो मार्ग: परमगहनो योगितामप्यगम्य:’ अर्थात वाम मार्ग अत्यंत गहन है और योगियों के लिए  अगम्य है। -मेरुतंत्र । भगवान शिव द्वारा सप्त ऋषियों को ज्ञान दिया गया था। सप्त ऋषियों ने शिव से ज्ञान प्राप्त कर विभिन्न दिशाओं में फैलाया और विश्व  में शैव धर्म, योग और ज्ञान का प्रचार-प्रसार किया। सप्तऋषियों द्वारा  शिव कर्म, परंपरा आदि का ज्ञान का प्रसार किया गया है । भगवान शिव के शिष्यों में  शनि , परशुराम और रावण  थे।शिव की  गुरु  और शिष्य परंपरा में सौर ,शाक्त , शैव ,  नाथ आदि है । आदि गुरु शंकराचार्य और गुरु गोरखनाथ ने परंपरा और आगे बढ़ाया है ।भगवान शिव की सुरक्षा  और  आदेश को पालन के लिए शिव गण  तत्पर रहते हैं। भगवान शिव के  गणों में काल भैरव , बटुक भैरव ,  नंदी और  वीरभ्रद्र है ।भगवान  शिव के आदेश पर वीरभद्र द्वारा  दक्ष प्रजापति का सर धड़ से अलग कर दिया गया था । देव संहिता और स्कंद पुराण के अनुसार शिव ने अपनी जटा से ‘वीरभद्र’ गण उत्पन्न किए थे ।भगवान शिव के  गणों में भैरव, वीरभद्र, मणिभद्र, चंदिस, नंदी, श्रृंगी, भृगिरिटी, शैल, गोकर्ण, घंटाकर्ण, जय और विजय , पिशाच, दैत्य और नाग-नागिन, पशु द्वारा धरती और ब्रह्मांड में विचरण करते हुए जीव , जंतु , मनुष्य, आत्मा  आदि पर सुख समृद्धि देते  हैं।
कैलाश पर्वत के क्षेत्र में शिव के द्वारपाल की आज्ञा के बगैर अंदर नहीं जा सकता है । द्वारपाल संपूर्ण दिशाओं में तैनात थे। शिव के द्वारपालों में  नंदी, स्कंद, रिटी, वृषभ, भृंगी, गणेश, उमा-महेश्वर और महाकाल है । शिव के गण और द्वारपाल नंदी ने कामशास्त्र की रचना की थी। शिव की पंचायत में ५ देवता में १. सूर्य, २. गणपति, ३. देवी, ४. रुद्र और ५. विष्णु हैं।बाण, रावण, चंड, नंदी, भृंगी आदि ‍शिव के पार्षद हैं। रुद्राक्ष और त्रिशूल , डमरू और अर्ध चंद्र और  शिवलिंग भगवान शिव के चिह्न है । भगवान शिव की  जटाओं में अर्द्ध चंद्र चिह्न ,  मस्तष्क पर तीसरी आंख ,  गले में सर्प और रुद्राक्ष की माला , एक हाथ में डमरू ,  दूसरे में त्रिशूल है। वे संपूर्ण देह पर भस्म लगाए रहते हैं। उनके शरीर के निचले हिस्से को वे व्याघ्र चर्म से लपेटे रहते हैं। वे वृषभ की सवारी करते हैं और कैलाश पर्वत पर ध्यान लगाए बैठे रहते हैं। केदारनाथ और अमरनाथ में भगवान शिव विश्राम करते हैं। शिव ने भष्मासुर को वरदान दिया कि तू जिसके  सिर पर हाथ रखेगा वह भस्म हो जाएगा।  वरदान के कारण भष्मासुर ने  शिव को भस्म करने की प्रयास किया था ।भस्मासुर से बचने के लिए भगवान शंकर वहां से भाग गए। उनके पीछे भस्मासुर भी भागने लगा। भागते-भागते शिवजी द्वारा पर्वत  को  त्रिशूल से  गुफा बना कर  गुफा में छिप गए थे ।बाद में विष्णुजी ने आकर उनकी जान बचाई। भगवान शिव द्वारा निर्मित  गुफा जम्मू से 150 किलोमीटर दूर त्रिकूटा की पहाड़ियों पर है। इन खूबसूरत पहाड़ियों को देखने से ही मन शांत हो जाता है ।भगवान  राम के आराध्यदेव शिव हैं । पुराणों  के अनुसार यह युद्ध श्रीराम के अश्वमेध यज्ञ के दौरान लड़ा गया।  यज्ञ का अश्व  राजा वीरमणि का राज्य में प्रवेश करने पर राजा वीरमणि के पुत्र रुक्मांगद ने अश्वमेघ का अश्व को बंदी बना लिया। महादेव ने अपने भक्त को मुसीबत में जानकर वीरभद्र के नेतृत्व में नंदी, भृंगी सहित अपने सारे गणों को भेज दिया। राम की सेना और  शिव की सेना थी। वीरभद्र ने  त्रिशूल से राम की सेना के पुष्कल का मस्तक काट दिया।  भृंगी आदि गणों ने भी राम के भाई शत्रुघ्न को बंदी बना लिया। हनुमान  जब नंदी के शिवास्त्र से पराभूत होने लगे तब सभी ने राम को याद किया। अपने भक्तों की पुकार सुनकर श्रीराम तत्काल ही लक्ष्मण और भरत के साथ वहां आ गए। श्रीराम ने सबसे पहले शत्रुघ्न को मुक्त कराया और उधर लक्ष्मण ने हनुमान को मुक्त करा दिया। फिर श्रीराम ने सारी सेना के साथ शिव गणों पर धावा बोल दिया। जब नंदी और अन्य शिव के गण परास्त होने लगे तब महादेव ने देखा कि उनकी सेना बड़े कष्ट में है तो वे स्वयं युद्ध क्षेत्र में प्रकट हुए, तब श्रीराम और शिव में युद्ध छिड़ गया। भयंकर युद्ध के बाद अंत में श्रीराम ने पाशुपतास्त्र निकालकर कर शिव से कहा, ‘हे प्रभु, आपने ही मुझे ये वरदान दिया है कि आपके द्वारा प्रदत्त इस अस्त्र से त्रिलोक में कोई पराजित हुए बिना नहीं रह सकता इसलिए हे महादेव, आपकी ही आज्ञा और इच्छा से मैं इसका प्रयोग आप पर ही करता हूं’, ये कहते हुए श्रीराम ने वो महान दिव्यास्त्र भगवान शिव पर चला दिया। अस्त्र सीधा महादेव के ह्वदयस्थल में समा गया और भगवान रुद्र इससे संतुष्ट हो गए। शिव ने प्रसन्नतापूर्वक श्रीराम से कहा कि आपने युद्ध में मुझे संतुष्ट किया है इसलिए जो इच्छा हो वर मांग लें। इस पर श्रीराम ने कहा कि ‘हे भगवन्, यहां मेरे भाई भरत के पुत्र पुष्कल सहित असंख्य योद्धा वीरगति को प्राप्त हो गए है, कृपया कर उन्हें जीवनदान दीजिए।’ महादेव ने कहा कि ‘तथास्तु।’ इसके बाद शिव की आज्ञा से राजा वीरमणि ने यज्ञ का अश्व श्रीराम को लौटा दिया और श्रीराम भी वीरमणि को उनका राज्य सौंपकर शत्रुघ्न के साथ अयोध्या की ओर चल दिए। शिव पुराण के अनुसार भगवान शिव को स्वयंभू है । शिव पुराण के अनुसार भगवान शिव अपने टखने पर अमृत मल रहे थे तब उससे भगवान विष्णु पैदा हुए जबकि विष्णु पुराण के अनुसार ब्रह्मा भगवान विष्णु की नाभि कमल से पैदा हुए जबकि शिव भगवान विष्णु के माथे के तेज से उत्पन्न हुए बताए गए हैं। विष्णु पुराण के अनुसार माथे के तेज से उत्पन्न होने के कारण ही शिव हमेशा योगमुद्रा में रहते हैं। श्रीमद् भागवत के अनुसार भगवान विष्णु और ब्रह्मा अहंकार से अभिभूत हो स्वयं को श्रेष्ठ बताते हुए लड़ रहे थे, तब एक जलते हुए खंभे से जिसका कोई ओर-छोर ब्रह्मा या विष्णु नहीं समझ पाए, भगवान शिव प्रकट हुए। विष्णु पुराण में के अनुसार ब्रह्मा को एक बच्चे की जरूरत थी। उन्होंने इसके लिए तपस्या करने पर ब्रह्मा जी के  गोद में रोते हुए बालक शिव प्रकट हुए। ब्रह्मा ने बच्चे से रोने का कारण पूछा तब उसने बड़ी मासूमियत से जवाब दिया कि उसका नाम *‘ब्रह्मा’* नहीं  रो  है। ब्रह्मा ने शिव का नाम *‘रुद्र’* रखा था । शिव तब  चुप नहीं हुए टैब  ब्रह्मा ने  शिव को चुप कराने के लिए ब्रह्मा ने शिव को  रुद्र, शर्व, भाव, उग्र, भीम, पशुपति, ईशान और महादेव कह कर स्मरण किया है ।भगवान सृष्टिकर्ता , पालनकर्ता और विनास करता है । शिव में ब्रह्मांड है । सत्यम शिवम सुंदरम के प्रणेता और रचियता है ।भगवान कालों के काल महाकाल है । शिव की आराधना और उपासना से सर्वार्थसिद्धि की प्राप्ति और मृत्यु पर विजय प्राप्त की जा सकती है । शिव परम सत्य , सुंदर और शक्ति है ।




           

रविवार, जुलाई 18, 2021

औरंगाबाद की सांस्कृतिक विरासत...

    
    औरंगाबाद की सांस्कृतिक और सभ्यता विरासत भारी पड़ी है । मगध मण्डल का औरंगाबाद जिला की स्थापना  1972 ई. में हुआ था।  गया जिले के अंतर्गत 1865 ई. में औरंगाबाद अनुमंडल की स्थापना हुई थी । जिले में 2 अनुमंडल ,  11 तहसीलें , 2624 गांव, १ लोक सभा और 6 विधान सभा क्षेत्र है। 3305 वर्ग कि. मि .क्षेत्रफल  में  २०11 की जनगणना के अनुसार औरंगाबाद जिले  की जनसँख्या 25,11,243 और जनसँख्या घनत्व 760 व्यक्ति प्रति वर्ग कि. मि .,  साक्षरता 72.77 % , महिला पुरुष अनुपात 916 महिलाये प्रति 1000 पुरुषो पर है । औरंगाबाद जिला की सीमाएं दक्षिण पश्चिम में झारखण्ड है । औरंगाबाद के अक्षांस और देशांतर क्रमशः 24 डिग्री 75  उत्तर से 84 डिग्री 37  पूर्व , औरंगाबाद की समुद्रतल से ऊंचाई 108 मीटर है, औरंगाबाद पटना से 143 किलोमीटर दक्षिण पश्चिम की तरफ है। औरंगाबाद का पश्चिमोत्तर  रोहतास जिले , उत्तर पूर्वी किनारा अरवल जिले , दक्षिण पूर्वी भाग गया जिले , दक्षिण पश्चिम में झारखण्ड के जिले पलामू  सीमा से जुड़ा है। औरंगाबाद जिले में कितनी तहसील है?औरंगाबाद जिले के प्रखंडों में  1. औरंगाबाद।  2. बारुन, 3. दाउदनगर, 4. देव,  5. गोह,  6. हँसपुरा, 7. कुटुम्बा,  8. मदनपुर , 9. नबीनगर , 10. ओबरा, 11. रफिगंज है । 1883 गाँव वाले औरंगाबाद जिले के  विधान सभा क्षेत्रो में  गोह, ओबरा, नबीनगर, कुटुम्बा , औरंगाबाद, रफीगंज तथा औरंगाबाद संसदीय क्षेत्र है । औरंगाबाद जिले के ऐतिहासिक और पर्यटन स्थलों में देव का सूर्यमंदिर , उमंग का सूर्य मंदिर , देवकुंड का दुधेश्वरनाथ मंदिर , भृगुरारी मंदिर ,  गोह का शिवमंदिर , दाउदनगर का दाऊद खां का मकबरा , शमशेरनगर में समशेर खां का मकबरा  है । गुलाम हुसैन ने 1762 ई. में सम्पति को थॉमस लॉ द्वारा 1784 ई. में राजस्व वसूली के लिए परगना की स्थापना 1763 ई. में सिरिस और कुटुंबा की गई थी । 1801 ई. में माली , पवई परगना बने । 1792 ई. में चारकवां परगना के तहत हवेली चारकवां , दुग्गल , देव और उमगा की स्थापना हुई थी । देव और उमगा परगना के राजा छत्रपति सिंह और उनके पुत्र फतेह नारायण सिंह  तथा हवेली चारकवां और डुगुल परगना को पैठान परिवार के अधीन था ।1819 ई. में  मनौरा , अनछुआ और गोह परगना को 1819 ई. में चौधरी डाल सिंह के अधीन जागीरदारी थी । 1911 ई. में औरंगाबाद जिले में औरंगाबाद के 991 गाँव  ओबरा ,मदनपुर , बारुण ,रफीगंज ,नवीनगर में 580 गाँव में नवीनगर , कुटुंबाऔर दाउदनगर में 313 गाँव शामिल कर  दाउदनगर , गोह राजस्व एवं  थाना  बने थे । 1855 ई. में दाउदनगर नगरपालिका की स्थापना हुई है । उमगा - औरंगाबाद से  30 किलोमीटर दूरी पर  उमगा पहाड़ पर  सूर्य मंदिर, मां उमंगेश्वरी मंदिर, शंकर ,  पार्वती, गणेश सहित 52 मंदिर  है। देव राजा भैरवेंद्र द्वारा अपने संरक्षण में उमगा पर्वत के सौ फीट की ऊंचाई स्थित श्रंखला पर  स्थापित सूर्य मंदिर  60 फीट की लंबा कला एवं कला ग्रेनाइट पाषाण में निर्मित  है। अरब सौदागरों द्वारा प्रवेश द्वार पर स्तम्भ निर्माण कर अल्लाह का दरवाजा का निर्माण किया था । 1439 ई. में जगन्नाथ मंदिर का निर्माण भैरवेंद्र द्वारा कराया गया था ।उमगा में स्थित मंदिरों का भ्रमण करने के दौरान कैप्टन कीटो और राजा लक्ष्मण देव का संघर्ष हुआ था । 1847 ई. का  जर्नल ऑफ द एशियाटिक सोसाइटी ऑफ बंगाल के लेखक कैप्टन कीटो एवं  1906 ई. में बाबू परमेश्वर दयाल की पुस्तक जर्नल ऑफ थे एशियाटिक सोइफय ऑफ बंगाल  में उमगा पर्वत पर निर्मित मंदिरों का उल्लेख है । पहाड़ी पर मां उमंगेश्वरी मंदिर , मां  सरस्वती तथा  इक्ष्वाकु  देवी महिषासुर मर्दनी अष्टभुजी ,  मार्तंड भैरव ,  उमंगेश्वरी मां की प्रतिमा हजारों टन वाले विशाल भार वाले पत्थर से बने मंदिर में  हैं।  पहाड़ की ऊपरी चोटी पर भगवान शिव और गौरी मौजूद हैं। उमगा पहाड़ी पर  अमर कुंड  हैं। मदनपुर का उमगा पहाड़ पर 200 से अधिक औषधीय पौधों की  विभिन्न रोगों के लिए कारगर है। ङ्क्षपकटोरिया पौधा पहाड़ पर मुसलीकंद, बिदारीकंद, गुड़मार, अष्टगंध, श्रृंगारहार, सतावर, गोखुल, कोरैया समेत विभिन्न प्रजाति के पौधे उगे हैं।  देव -  सूर्य पुराण के अनुसार राजा एल द्वारा देवार्क मंदिर निर्मित  है। औरंगाबाद से 6 की.मि. की दूरी पर मगध का राजा आएल को कुष्ट व्याधि से त्रस्त होने के बाद देव स्थित तलाव में स्नान करने के पश्चात भगवान सूर्य की परत: कालीन , मध्य कालीन और सांध्यकालीन , उत्तरायण एवं दक्षिणायन भगवान सूर्य की आराधना करने के बाद राजा आएल कुष्ट व्याधि से मुक्ति मिली थी । राजा आएल द्वारा भगवान सूर्य का मंदिर और ब्रह्मकुंड का निर्माण कराया गया था । सूर्य मंदिर का निर्माण लौह अयस्क , ग्रेनाइट पत्थरो से किया गया है । मंदिर के मंडप में गणेश की मूर्ति स्थापित है ।उदयपुर के महाराणा राय भान सिंह द्वारा उमगा पहाड़ी पर किले का निर्माण किया था । राजा  बहन सिंह की मृत्यु होने के बाद उनकी पत्नी और पुत्र राजा छत्तरपति सिंह काल में ब्रिटिश साम्राज्य का वारेन हास्टिंग और बनारस के राजा चैत सिंह  द्वारा सहायता देव राजा छत्तरपति सिंह को करने के बाद देव इस्टेट घोषित कर पलामू के राजा मित्र भान  सिंह  को भर दिया गया । देव राजा जयप्रकाश सिंह को महाराजा बहादुर और नाइटहुड ऑफ थे स्टार ऑफ इंडिया की उपाधि से अलंगकृत 1857 ई. में किया गया था । देव राजा जयप्रकाश सिंह का निधन 16 अप्रैल 19 34 ई. में हो गयी थी ।देव इस्टेट 92 वर्गमील में फैला था । सूर्य  मंदिर  पश्चिमाभिमुख अनूठी शिल्पकला के लिए प्रख्यात है। पत्थरों को तराश कर बनाए गए सूर्य मंदिर की नक्काशी उत्कृष्ट शिल्प कला का नमूना है। सतयुग में इक्ष्वाकु वंशीय राजा ऐल एक बार देवारण्य में शिकार खेलने गए थे। वे कुष्ठ रोग से पीड़ित थे। शिकार खेलने पहुंचे राजा ने जब यहां के एक पुराने पोखर के जल से प्यास बुझायी और स्नान करने के बाद  उनका कुष्ठ रोग ठीक हो गया। एल  ने स्वप्न देखा कि त्रिदेव रूप आदित्य पुराने पोखरे में हैं, जिसके पानी से उनका कुष्ठ रोग ठीक हुआ था। राजा ऐल ने देव में एक सूर्य मंदिर का निर्माण कराया। सूर्य कुंड  में ब्रह्मा, विष्णु व शिव की मूर्तियां मिलीं, जिन्हें राजा ने मंदिर में स्थान देते हुए त्रिदेव स्वरूप आदित्य भगवान को स्थापित कर दिया था ।कीकट प्रदेश का राजा  वृषपर्वा के पुरोहित शुक्राचार्य की पुत्री देवयानी सूर्य उपासिका थी । शुक्राचार्य ने अपनी पुत्री के नाम पर देवयान कालांतर देव नगर की स्थापना किया था ।  देवयानी द्वारा भगवान सूर्य की प्रातः काल, मध्यकाल और संध्या काल की मूर्ति स्थापित कर  सूर्येष्टि यज्ञ ब्रह्मा जी के परामर्श से कराई गई थी । देव Cशाकद्वीप के मग ब्राह्मण द्वारा सौर सम्प्रदाय का केंद्र बना तथा सूर्योपासक सूर्य की आराधना स्थल बने थे । पुष्यभूति वर्द्धन वंशीय राजा प्रभार वर्द्धन और उनकी पत्नी यशोमति भगवान सूर्य की उपासिका थी ।प्रभाकर वर्द्धन की पुत्री कनौज का राजा ग्रह वर्मा से व्याही गयी थी । पुष्पभूति वर्द्धन की पत्नी मगध के राजा दामोदर गुप्त की राज कुमारी सूर्योपासक थी । 606 ई . सातवीं शताब्दी में राजा हर्षवर्द्धन के दरबार मे प्रकांड विद्वान सूर्योपासक मयूर भट्ट द्वारा सूर्य शतक रचना कर देव सूर्य मंदिर में स्थित भगवान सूर्य के समक्ष समर्पित किया गया जिससे मयूर कुष्टव्याधि से मुक्त हुए थे । देवकुंड -  औरंगाबाद जिले का गोह प्रखंड के देवकुंड में भगवान दुग्धेश्वरनाथ  मंदिर तथा डिवॉन द्वारा निर्मित सहस्त्रधारा कुंड है । देवकुंड में वैदिक ऋषि च्यवन का साधना स्थल तथा वैवस्वत मनु के पुत्र राजा शर्याति की पुत्री सुकन्या  कर्म भूमि रही थी । ऋषि च्यवन का जर्जर शरीर तथा सुकन्या की मनोकामना सिद्धि के लिए देव चिकित्सक अश्विनी कुमारों की आराधना की गाय थी । देव वैद्य अश्विनी कुमारों द्वारा वैदिक ऋषि च्यवन का जर्जर शरीर को युवा और सुकन्या की मनोकामनाएं पूरी की गई थी । औरंगाबाद जिले के गोह प्रखंड तथा अरवल जिले के करपी प्रखंड की सीमा पर देवकुंड शैव धर्म का स्थल है । नवीनगर -  दिव्य पुरुष अशोक बाबा नाग वंश के गुरु थे । नवीनगर में नाग वंश के नवी के रूप में जाने जाते है यहां अशोक बाबा का मंदिर है । मेवाड़ के राजा चौहान राजपूत  वंश के तीन लोग में राय बहादुर द्वारा 1664 ई. में नवीनगर में किले का निर्माण कार्य  किया गया था । ब्रिटिश सरकार ने 1857 ई. में  रे बहादुर को सम्मानित किया था ।  नवीनगर में सौर धर्म की ओर से सूर्य मंदिर तथा तलाव का निर्माण किया गया था । ।गजना धाम मंदिर - नवीनगर का टंडवा थाने के कर्रवार नदी के तट पर  गजनाधाम  में भगवती गजानन माता का मंदिर स्थित है । बिहार-झारखंड के श्रद्धालुओं के लिए आस्था का केंद्र है। कर्रवार शक्ति पीठ के रुप में विख्यात है। गजानन माता  मंदिर का जीर्णोद्धार वर्ष 1965 में जगन्नाथ सिंह उर्फ त्यागी जी ने करवाया था।  खरवारों की कुलदेवी चेड़ीमाई की पूजा होती है। चेरों के आगमन के  800 साल पूर्व  जपला में खरवार राजाओं की राजधानी थी। आशुतोष भट्टाचार्य ने 'बंगाला, लोक साहित्य और संस्कृति'' में सूर्य का पर्व गाजन की चर्चा की है। बंगाल में लोकप्रिय शैव संप्रदाय से जुड़ा है। गाजन पर्व बंगाल में चैत्र महीने में मनाया जाता है। बारहवीं शताब्दी के मध्य तक गजानन  क्षेत्र बंगाल के शासक रामपाल सेन के अधीनस्थ था। गजानन वैन देवी के रूप में पूजे जाते थे । गोह -   गोह में प्राचीन भगवान शिव मंदिर , शैव धर्म का मठ  और माता काली मंदिर है । दाउदनगर -  औरंगजेब द्वारा  1660 ई. में बिहार का गवर्नर अहमद खां का पौत्र दाऊद खां को नियुक्त किया गया था । दाऊद खां द्वारा सोन नद के किनारे दाउदनगर का निर्माण तथा गौसपुर  किला , अहमदगंज मस्जिद , तथा अहमदगंज में दाऊद खान का मकबरा  निर्मित है । 1871 ई. में कॉलोलें डाल्टन द्वारा दाउदनगर में पलामू फोर्ट या सिंह दरवाजा का निर्माण कराया गया था । दाउदनगर में ब्रिटिश सरकार द्वारा कमर्शियल सेंटर  के तहत क्लॉथ फैक्ट्री का उत्पादन दाउदनगर ट्रेड के तहत तसर कॉलोथ , ब्रास ,उटेंसिल ,कारपेट , ब्लैंकेट ,लिनसीड , मोलास्सेस  का निर्माण होता था । शमशेर खां ने मायर में राह कर बिहार का सूबेदार बना था । मायर में संस्कृत साहित्य के विद्वान मयूर भट्ट की जन्म भूमि थी । हर्षवर्द्धन काल में हसपुरा प्रखंड के प्रितिकुट ( पीरू )  में कुवेर वंशीय संस्कृत साहित्य हर्षचरित एवं कादंबरी तथा चांदी शतक के रचयिता  बाण भट्ट  , दाउदनगर प्रखंड के मायर में संस्कृत साहित्य के रचनाकार सूर्य शतक के रचयिता मयूर भट्ट की जन्म स्थली और और्व ऋषि की कर्म स्थल औरव में रही है ।



शुक्रवार, जुलाई 16, 2021

भगवान शिव : सत्यम शिवम सुंदरम ...

         


        सृष्टि को चतुर्दिक विकास के लिए भगवान शिव की अनुपम देंन है । पुरणों , वेदों , उपनिषदों में भगवान शिव की महिमा का उल्लेख है । भगवान शिव सत्यम शिवम सुंदरम का रूप है । विक्रम पञ्चाङ्ग  के अनुसार वर्ष का पाँचवे माह सावन भगवान शिव को समर्पित है । भारतीय राष्ट्रीय पंचांग में सावन पाँचवाँ मास  ,  ग्रेगोरियन कैलेंडर के 23 जुलाई 2021 ,  नेपाल  कैलेंडर के  साल के 4 थे  महीना ,  बंगाली कैलेंडर में  4 थे  महीना होता है । वर्षा ऋतु का दूसरे महीने  सावन भारतीय उपमहादीप मे मानसून के आगमन से  भारतीय जीवन में बहुत महत्व होता है । धार्मिक और सांस्कृतिक  कार्यो में सावन माह महत्वपूर्ण है ।नेपाल, बिहार और उत्तर प्रदेश , नागालैंड , झारखंड , बंगाल , उड़ीसा में  श्रावण शुक्ल पक्ष तृतीया तिथि  को हरियाली तीज , पंचमी तिथि के नाग देवता को नागपंचमी , पूर्णिमा को रक्षाबंधन  , सोमवारी पर्व मनाते है । सावन माह में भगवान शिव की आराधना और उपासना के लिए उपासक  सक्रिय रहते है । महिलाएं कजरी गायन कर  , झुलुआ डाल , झूलन करती है । ऋषि मरकंडू  के पुत्र ऋषि  मारकण्डेय ने लंबी आयु के लिए सावन माह में घोर तप कर शिव की कृपा प्राप्त की थी, जिससे मिली मंत्र शक्तियों के सामने मृत्यु के देवता यमराज  नतमस्तक हो गए थे। भगवान शिव सावन के महीने में पृथ्वी पर अवतरित होकर अपनी ससुराल जाने पर  उनका स्वागत अर्घ्य और जलाभिषेक से किया गया था। प्रत्येक वर्ष सावन माह में भगवान शिव अपनी ससुराल आते हैं। भू-लोक वासियों के लिए शिव कृपा पाने का यह उत्तम समय होता है। सावन मास में समुद्र मंथन किया गया था। समुद्र मथने के बाद जो हलाहल विष निकला, उसे भगवान शंकर ने कंठ में समाहित कर सृष्टि की रक्षा की; लेकिन विषपान से महादेव का कंठ नीलवर्ण हो गया था । विषपान करने के कारण  'नीलकंठ महादेव' पड़ा है । विष के प्रभाव को कम करने के लिए  देवी-देवताओं ने भगवान शिव को  जल अर्पित किया था ।  शिवलिंग पर जल चढ़ाने का ख़ास महत्व है ।  शिवपुराण' में अनुसार  भगवान शिव स्वयं  जल हैं।  जल से उनकी अभिषेक के रूप में अराधना का उत्तमोत्तम फल है, जिसमें कोई संशय नहीं है। शास्त्रों के अनुसार  सावन महीने के कृष्ण पक्ष प्रतिपदा में भगवान विष्णु योगनिद्रा में चले जाने पर  भक्तों, साधु-संतों सभी के लिए अमूल्य होता है।  चार महीनों में होने वाला एक वैदिक यज्ञ 'चौमासा'  है । सृष्टि के संचालन का उत्तरदायित्व भगवान शिव ग्रहण करते हैं।  सावन के प्रधान देवता भगवान शिव  है । भगवान शंकर की कृपा से मनोवांछित फल की प्राप्ति होती है। शिव पुराण , लिंग पुराण में  भगवान शंकर की पूजा के लिए प्रत्येक सोमवार , त्रयोदशी , महाशिवरात्रि , प्रदोष ब्रत  और सावन मास निर्धारित किया गया है। सावन के प्रारंभ से सृष्टि के पालन कर्ता भगवान विष्णु सारी ज़िम्मेदारियों से मुक्त होकर अपने दिव्य भवन पाताललोक में विश्राम करने के लिए निकलने के  समय  भगवान विष्णु  जगत का सारा कार्यभार महादेव को सौंप देते है। भगवान शिव पार्वती के साथ पृथ्वी लोक पर विराजमान रहकर पृथ्वी वासियों के दुःख-दर्द को समझते  एवं  मनोकामनाओं को पूर्ण करते हैं । भगवान शंकर ने सनतकुमारों को सावन महीने की महिमा बताते हुए कहा कि मेरे तीनों नेत्रों में सूर्य दाहिने, बांएं चन्द्र और अग्नि मध्य नेत्र है। ज्योतिष शास्त्रों के अनुसार  श्रवणा नक्षत्र के आधार पर श्रावण व सावन रखा गया है। श्रवण नक्षत्र का स्वामी चन्द्र होता है। चन्द्र भगवान भोलेनाथ के मस्तक पर विराज मान है। सूर्य कर्क राशि में प्रवेश करने पर  सावन महीना प्रारम्भ होता है। सूर्य गर्म एवं चन्द्र ठण्डक प्रदान करता है । सूर्य के कर्क राशि में आने से  बारिश होती है। वारिश होने के के फलस्वरूप लोक कल्याण के लिए विष को ग्रहण करने वाले देवों के देव महादेव को ठण्डक व सुकून मिलता है। सावन  महीने में माता  पार्वती ने शिव की घोर तपस्या करने के बाद भगवान शिव ने माता पार्वती को दर्शन  दिए थे। सावन  महीने में ऋषिगण क्षिप्रा नदी में स्नान कर उज्जैन के महाकाल शिव की अर्चना करने हेतु एकत्र हुए।  अभिमानी वेश्या अपने कुत्सित विचारों से ऋषियों को धर्मभ्रष्ट करने चल पड़ी। गणिका के   पहुंचने पर ऋषियों के तपबल के प्रभाव से उसके शरीर की सुगंध लुप्त हो गई। वह आश्चर्यचकित होकर अपने शरीर को देखने लगी। उसे लगा, उसका सौंदर्य भी नष्ट हो गया। उसकी बुद्धि परिवर्तित हो गई थी । गणिका का मन विषयों से हट गया और भक्ति मार्ग पर बढ़ने लगा। उसने अपने पापों के प्रायश्चित हेतु ऋषियों से उपाय पूछने पर ऋषिगण ने गणिका से कहा कि  ‘तुमने सोलह श्रृंगारों के बल पर अनेक लोगों का धर्मभ्रष्ट किया, इस पाप से बचने के लिए तुम सोलह सोमवार व्रत करो और काशी में निवास करके भगवान शिव का पूजन करो।’ गणिका ने ऋषि गैन के बताए मार्ग पर चलने के लिए भगवान शिव की उपासना काशी में करने के बाद  ने पापों का प्रायश्चित कर शिवलोक पहुंची।  सोलह सोमवार के व्रत से कन्याओं को सुंदर पति मिलते  तथा पुरुषों को सुंदर पत्नियां मिलती हैं। शिव आराधना से मनोवांक्षित फल की प्राप्ति होती है ।
सावन महीने में बिहार का औरंगाबाद जिले के गोद प्रखंडान्तर्गत देवकुंड स्थित बाबा दुग्धेश्वर नाथ , मुजफ्फरपुर जिले के  मुजफ्फरपुर का गरीब नाथ , जहानाबाद जिले का बराबर पर्वत समूह की सूर्यान्क गिरि पर स्थित सिद्धों द्वारा स्थापित बाबा सिद्धेश्वर नाथ , झारखण्ड का देवघर में बाबा वैद्यनाथ रावणेश्वर शिवलिंग  पर गंगा जल से श्रद्धालुओं द्वारा जलाभिषेक कर मानोकामना प्राप्त करते है । झारखण्ड के रांची स्थित पहाड़ी की चोटी पर भगवान शिव का पद चिह्न , शिवलिंग, नाग की उपासना ,   गया के मार्कण्डेश्वर , पितामहेश्वर , रमशीला पर भगवान राम द्वारा स्थापित स्फटिक रामेश्वर शिव लीन , बेलागंज प्रखंड के कोटेश्वर , अरवल जिले का कलेर प्रखंड के मदसर्वां में स्थित च्यावनेश्वर शिव लिंग , पुनपुन नदी के तट पंचतीर्थ में पांडवों द्वारा स्थापित शिवलिंग , तेरा में सहस्रलिंगी वैशाली जिले का विशालगढ़ के समीप चतुर्मुखी शिवलिंग  की आराधना करते है । जहानाबाद जिले का जहानाबाद  ठाकुरवाड़ी में स्थित पंचलिंगी शिवलिंग , भेलावर में एकमुखी शिवलिंग ,सिवान जिले के सोहगरा में हँसहनाथ शिव लिंग ,शिवहर जिले के देकुली में भुवनेश्वरनाथ ,बक्सर जिले के ब्रह्मपुर में ब्रह्मेश्वर शिवलिंग , सारण जिले के गंगा - गंडक के संगम पर अवस्थित सोनपुर में  हरिहर नाथ ,लखीसराय जिले का अशोक धाम में इंद्रेश्वर शिव लिंग , रोहतास , भोजपुर , नालंदा , नवादा , औरंगाबाद , दरभंगा जिले का सिंहेश्वर में सिंहेश्वरनाथ  जिलों में प्राचीन शिव लिंग की आराधना करते है । 
                       



भारत में भगवान शिव के 12 ज्योतिर्लिंग  पूरब-पश्चिम-उत्तर और दक्षिण में भोले बाबा के जयकारे गूंजते हैं ।भगवान शिव का ज्योतिर्लिंग सोमनाथ  गुजरात राज्य के सौराष्ट्र क्षेत्र में , मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंग आंध्र प्रदेश में कृष्णा नदी के तट पर श्रीशैल नाम के पर्वत पर स्थित , महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग मध्य प्रदेश का उज्जैन नगरी में स्थित है । ओंकारेश्वर ज्योतिर्लिंग मध्य प्रदेश इंदौर  के नर्मदा नदी के किनारे  अवस्थित , उत्तराखंड का रुद्रप्रयाग जिले के केदार चट्टी पर मंदाकनी नदी के किनारे  बाबा केदारनाथ ज्योतिर्लिङ्ग तथा केदारनाथका मंदिरके गर्भगृह में स्थित है । महाराष्ट्र के पुणे जिले मे भीमाशंकर ज्योतिर्लिंग पश्चिमी घाट के सह्याद्रि पर्वत के भीमा नदी के उद्गम स्थल पर स्थित   है । मोटेश्वर महादेव काशीपुर में भगवान शिव का प्रसिद्ध स्थान है । उत्तर प्रदेश के काशी गंगा तट पर विश्वनाथ ज्योतिर्लिङ्ग स्थित है ।  नासिक जिले में त्रयंकेश्वर ज्योतिर्लिङ्ग ब्रह्मगिरि पर्वत के गोदावरी नदी के उद्गम स्थल पर स्थित है । झारखंड के देवघर में लंका का राक्षेन्द्र रावण द्वारा स्थापित रावणेश्वर  वैद्यनाथ ज्योतिर्लिङ्ग  स्थित है । गुजरात के बड़ौदा क्षेत्र में गोमती द्वारका के  दारूकावन में नागेश्वर ज्योतिर्लिङ्ग  है ।  तमिलनाडु के रामनाथम जनपद में भगवान राम द्वारा  समुद्र के किनारे भगवान रामेश्वरम ज्योतिर्लिङ्ग स्थापित  है । महाराष्ट्र के संभाजीनगर के दौलताबाद के पास घृष्णेश्वर ज्योतिर्लिङ्ग स्थित है ।

गुरुवार, जुलाई 15, 2021

बुज़ुर्ग : ज्ञान की कसौटी...


                     

         विश्व और भारतीय संस्कृतियों में पुरातन परंपरा समृद्धि का रूप है । इंसान  ६०  पार करने पर  विश्व की धरातल में ‌बदलाव पीढ़ी ने देखा  "शायद  " आने वाली पीढियों को  बदलाव देख पाना संभव है । बैलगाड़ी , नाव से हवाई महज ,  जेट देखे हैं। बैरंग ख़त से लेकर लाइव चैटिंग और "वर्चुअल मीटिंग जैसी" असंभव लगने वाली  बातों को सम्भव होते हुए देखा है। बुजुर्गों ने  मिटटी के घरों में बैठ कर, परियों और राजाओं की कहानियां सुनीं हैं। जमीन पर बैठकर खाना खाया है। प्लेट में डाल  कर चाय की चुस्की लिया  है । दादी नानी से ज्ञान वर्द्धक कहानी  सुनी है । बचपन में मोहल्ले के मैदानों में  दोस्तों के साथ पम्परागत खेल, गिल्ली-डंडा, छुपा-छिपी, खो-खो, कबड्डी, कंचे , गुली डंडा , लुक छुप , डोलपत्ता  खेले हैं। चांदनी रात , डीबली , लालटेन, या बल्ब की पीली रोशनी में होम वर्क  और दिन के उजाले में चादर के अंदर छिपा कर नावेल , कहानी पढ़े हैं।  जज़्बात, खतों में आदान प्रदान और उन ख़तो के पहुंचने और जवाब के वापस आने में महीनों तक इंतजार किया है। कूलर, एसी ,  हीटर , पंखा बिजली  के बिना बचपन गुज़ारा  है। छोटे बालों में, सरसों का ज्यादा तेल लगा कर, स्कूल और शादियों में जाया करते थे। स्याही वाली दावात , सरकंडे की कलम , स्याही पेन से कॉपी,  किताबें, कपडे और हाथ काले, नीले किये है। तख़्ती पर सेठे की क़लम से लिखा है और तख़्ती धोई है। पढ़ाई , होम वर्क नही करने पर  टीचर्स से मार खाई और घर में शिकायत करने पर पिता से  मार खाई है। गली और मोहल्ले के बुज़ुर्गों को दूर से देख कर, नुक्कड़ से भाग कर, घर आ जाया  और समाज के बड़े बूढों की इज़्ज़त  करते थे। अपने स्कूल के सफ़ेद केनवास शूज़ पर, खड़िया का पेस्ट लगा कर चमकाया , पाठशाला में पढ़ने के समय शांति तथा साथियो के साथ हमजोली काटे थे । गुरुजी द्वारा शिक्षार्थियों को पुत्र मने जाते है । गणेश चतुर्दशी को चौकचन्दा खेलते थे । गोदरेज सोप की गोल डिबिया से साबुन लगाकर शेव ,  गुड़  की चाय और सर्वत पी है।  सुबह काला या लाल दंत मंजन ,  सफेद टूथ पाउडर , कैसैली का चूर्ण , काली मिट्टी इस्तेमाल किया और नमक , लकड़ी के कोयले से और नीम , करंज के दतुवां से  दांत साफ किए हैं।  चांदनी रातों में, रेडियो पर बी बी सी की ख़बरें, विविध भारती, ऑल इंडिया रेडियो, बिनाका गीत माला और हवा महल  प्रोग्राम पूरी शिद्दत से सुने हैं।शाम होते ही छत पर पानी का छिड़काव किया करने के  बाद सफ़ेद चादरें बिछा कर सोते थे। तार के पत्ते से बना और बास से बने  पंखा सब को हवा के लिए हुआ करता था। सुबह सूरज निकलने के पूर्व मित्रो के साथ घूमते , गाय को चारा देते  थे। गाय और भैस का दूध , दही , मक्खन खाते , दोस्त के साथ खेतो में लगी चने और मटर का होरहा लगा कर खाते थे । गांवों में भाईचारे और सत्यनेत्र कायम था । गांवों में कथा , सत्यनारायण कथा , देवी पूजन , अखंड में शामिल होकर भक्ति और आपसी सद्भाव है । दादी , मां स्कूल जाने के पहले चने , चावल की भूंजा पोटली या जेब मे देती थी । स्लेट पर पेंसिल , खल्ली से लिखते थे । सुख दुख में सभी साथ थे । पेड़ पौधे लगाते और फूल पत्तियां लगा कर आंनदित होते थे । अब  सब दौर बीत गया। चादरें अब नहीं बिछा करतीं , कमरों में कूलर, एसी के सामने रात - दिन गुज़रते हैं। प्राकृतिक हवा से दूर होते रहे है । शिक्षा का ह्रास हो रहा है , गुरु का वास्तविक रूप में ह्रास , अधिकारियों  का ह्रास  हो गए है । सात्विक प्रवृतियों का ह्रास के कारण शिक्षा का ह्रास हो गया है । खूबसूरत रिश्ते और उनकी मिठास बांटने वाले लोग  लगातार कम होते चले गए। अब  लोग जितना पढ़ लिख रहे  उतना ही खुदगर्ज़ी, बेमुरव्वती, अनिश्चितता, अकेलेपन तथा  निराशा में खोते जा रहे हैं।  खुशनसीब लोग  रिश्तों की मिठास महसूस की है । "अविश्वसनीय सा" लगने वाला  नज़ारा  देखा है । करोना काल में परिवारिक रिश्तेदारों  पति-पत्नी, बाप - बेटा, भाई - बहन को एक दूसरे को छूने से डरते हुए  देखा है । पारिवारिक रिश्तेदारों की तबात ही क्या करे, खुद आदमी को अपने ही  हाथ से, अपनी ही नाक और मुंह को, छूने से डरते हुए देखा है।"अर्थि" को बिना चार कंधों के, श्मशान घाट पर जाते हुए  देखा है। "पार्थिव शरीर" को दूर से   "अग्नि संस्कार " लगाते हुए देखा है। जिसने अपने "माँ-बाप" की बात  मानी, और "बच्चों" की मान रहे है। शादी के अवसर पर  पंगत में खाते भोजन करते थे । सब्जी , दाल  देने वाले को गाइड करना, हिला के देना या तरी तरी देना आनन्द दायक माहौल था परंतु अब वफर प्रणाली सब को छू दिया है ।उँगलियों के इशारे से  लड्डू और गुलाब जामुन, काजू कतली लेना , पूडी छाँट छाँट केऔर गरम गरम लेना !पीछे वाली पंगत में झांक के देखना क्या क्या आ गया !अपने इधर और क्या बाकी है। उसके लिए आवाज लगाना , पास वाले रिश्तेदार के पत्तल में जबरदस्ती पूड़ी रखवाना , रायते वाले को दूर से आता देखकर फटाफट रायते का दोना पीना ,  पहले वाली पंगत कितनी देर में उठेगी उसके हिसाब से बैठने की पोजीशन बनाना और आखिर में पानी वाले को खोजना परंपरा कायम थी । यह कार्य में युवा , बच्चे और परिवार की मीठास , सहिष्णुता और प्रेम का समन्वय था । प्राकृतिक और सामाजिक परंपरा में पलने वाले आधुनिकता की पगडंडी पर चलने के लिये प्रवास बन गया है ।  वृद्धावस्था घरों का धरोहर था परंतु आधुनिकता में वृद्धों के लिए वृद्धाश्रम बन गया । वास्विक रूप में बृद्ध परिवार और गाँव में धरोहर और सीख के लिए केंद्र तथा अनुभव एवं ज्ञान के कसौटी थे ।

बुधवार, जुलाई 14, 2021

बाण भट्ट : संस्कृत गद्य साहित्य के प्रणेता...

'              


            बाण भट्ट सातवीं शताब्दी के संस्कृत गद्य लेखक और कवि और राजा हर्षवर्धन के आस्थान कवि थे। बाण भट्ट के  ग्रंथों में  हर्षचरितम् तथा कादम्बरी है । हर्षचरितम् में राजा हर्षवर्धन का जीवन-चरित्र और कादंबरी दुनिया का प्रथम संस्कृत  उपन्यास था। कादंबरी पूर्ण होने से पहले ही बाण भट्ट का देहांत होने के पश्चात कादंबरी  उपन्यास को पूर्ण करने का कार्य  उनके पुत्र भूषण भट्ट द्वारा किया गया है । बिहार राज्य का औरंगाबाद जिले के  हसपुरा प्रखंड   वैदिक नदी हिरण्यबाहु के अप्लावन धारा के तट पर स्थित प्रीतिकूट को मुगल काल में प्रितिकुट  परिवर्तित हो कर पीरू ग्राम में शाकद्वीपीय ब्राह्मण संस्कृत साहित्य के विद्वान कुवेर वंशीय अछूत , ईशान , हर और पक्षपात पुत्रों में पक्षपात के प्रपौत्र एवं अर्थपति के पौत्र और  चित्रभानु की पत्नी राज्यदेवी के गर्भ से बाणने जन्म हुआ था । बाण के शैशवकाल मे उनकी माता राज्यदेवी तथा 14 वर्ष की आयु में पिता चित्रभानु की मृत्यु हो गई थी । यौवन का प्रारम्भ एवं सम्पत्ति होने के कारण, बाण संसार को स्वयं देखने के लिए घर से चल पड़े। बाण भट्ट ने समवयस्क मित्रों में बाण ने प्राकृत के कवि ईशान भट्ट, नाटककार ,  चिकित्सक का पुत्र, एक पाठक, एक सुवर्णकार, एक रत्नाकर, एक लेखक, एक पुस्तकावरक, एक मार्दगिक, दो गायक, एक प्रतिहारी, दो वंशीवादक, एक गान के अध्यापक, एक नर्तक, एक आक्षिक, एक नट, एक नर्तकी, एक तांत्रिक, एक धातुविद्या में निष्णात और एक ऐन्द्रजालिक आदि की गणना की है। देशों का भ्रमण करने के बाद बाण भट्ट  अपने स्थान प्रीतिकूट लौटे थे । प्रितिकुट में रहते हुए बाण भट्ट को राजा  हर्षवर्धन के चचेरे भाई कृष्ण का एक सन्देश मिला कि कुछ चुगलखोरों ने राजा से बाण की निन्दा की है । बाण ने  तुरन्त  राजा से मिलने गए और दो दिन की यात्रा के पश्चात् अजिरावती के तट पर राजा से मिले थे । साक्षात्कार में बाण को बहुत निराशा हुई क्योंकि सम्राट के साथी मालवा के राजा ने कहा अयमसौभुजंग : पर  बाण ने अपनी स्थिति का स्पष्टीकरण किया और सम्राट् उनसे प्रसन्न हुए। सम्राट के साथ रहकर बाण वापिस लौटे और बाण ने प्रस्तुत हर्षचरित में हर्ष की जीवन गाथा है । बाण को राजसंरक्षण मिला और उन्होंने भी हर्ष चरित लिखकर उसका मूल्य चुका दिया। बाण का भूषणभट्ट ,  भट्टपुलिन्द ने बाण की मृत्यु के पश्चात कादम्बरी को सम्पूर्ण किया।
हर्ष चरित में हर्ष के वंश का वर्णन में   बाण कन्नौज के सम्राट हर्षवर्धन (606-646) के राजकवि थे। अलंकार शास्त्र के ज्ञाता आनंदवर्द्धन द्वारा 9 वी शताब्दी और वामन ने 750 ई. और गढ़वाहो के रचयिता वकपतिराज ने 734 ई. में बाण का उल्लेख किया है।  बाण आनन्दवर्धन से बहुत पहले हो चुके थे। कादम्बरी और हर्षचरितम् , मार्कण्डेय पुराण के देवी महात्म्य पर आधारित दुर्गा का स्तोत्र चंडीशतक  नाटक ‘पार्वती परिणय’ बाण द्वारा रचित  है।  विशेषणबहुल वाक्य रचना में, श्लेषमय अर्थों में तथा शब्दों के अप्रयुक्त अर्थों के प्रयोग में  बाण का वैशिष्ट्य है। बाण भट्ट के गद्य में लालित्य है और लम्बे समासों में बल प्रदान करने की शक्ति है। वे श्लेष, उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, सहोक्ति, परिसंख्या और विशेषतः विरोधाभास का बहुलता से प्रयोग करते है।कादम्बरी में शुकनास तथा हर्षचरितम् के प्रभाकरवर्धन की शिक्षाओं से बाण का मानव प्रकृति का गहन सुस्पष्ट है। बाण ने ‘ध्वनि’ के लिए 19 शब्दों का प्रयोग किया है। इसी प्रकार विशेषणों के प्रयोग में बाण निष्णात हैं । बाणभट्ट का मानव प्रकृति का ज्ञान  है। "'बाणोच्छिष्टं जगत सर्वम्।'" बाण ने किसी कथनीय बात को छोड़ा नहीं जिसके कारण कोई पश्चाद्वर्ती लेखक बाण को अतिक्रांत न कर सका। कवि की सर्वतोमुखी प्रतिभा, व्यापक ज्ञान, अद्भुत वर्णन शैली और प्रत्येक वर्ण्य-विषय के सूक्ष्मातिसूक्ष्म वर्णन के आधार पर यह सुभाषित प्रचलित है कि बाण ने किसी वर्णन को अछूता नहीं छोड़ा है और उन्होंने जो कुछ कह दिया, उससे आगे कहने को बहुत कुछ शेष नहीं रह जाता। बाण ने जितनी सुन्दरता, सहृदयता और सूक्ष्मदृष्टि से बाह्य प्रकृति का वर्णन किया है । प्रातः काल वर्णन, सन्ध्यावर्णन, शूद्रकवर्णन, शुकवर्णन, चाण्डालकन्या वर्णन आदि में बाण ने वर्णन ही नहीं किया है, अपितु प्रत्येक वस्तु का सजीव चित्र उपस्थित कर दिया है। चन्द्रापीड को दिये गये शुकनासोपदेश में तो कवि की प्रतिभा का चरमोत्कर्ष परिलक्षित होता है। कवि की लेखनी भावोद्रेक में बहती हुई सी प्रतीत होती है। शुकनासोपदेश में ऐसा प्रतीत होता है मानो सरस्वती साक्षात मूर्तिमती होकर बोल रही हैं।बाण के वर्णनों में भाव और भाषा का सामंजस्य, भावानुकूल भाषा का प्रयोग, अलंकारों का सुसंयत प्रयोग, भाषा में आरोह और अवरोह तथा लम्बी समासयुक्त पदावली के पश्चात् लघु पदावली आदि गुण विशेष रूप से प्राप्त होते हैं। प्रत्येक वर्णन में पहले विषय का सांगोपांग वर्णन मिलता है, बहुत समस्तपद मिलते हैं, तत्पश्चात् श्लेषमूलक उपमायें और उत्प्रेक्षाएँ, तदनन्तर विरोधाभास या परिसंख्या से समाप्ति। श्लेषमूलक उपमा प्रयोग, विरोधाभास और परिसंख्या के प्रयोगों में क्लिष्टता, दुर्बोधता और बौद्धिक परिश्रम अधिक है।महाश्वेता-दर्शन में एक वाक्य 67 पंक्तियों और कादम्बरी दर्शन में  एक वाक्य 72 पंक्तियों का है। वाणी वाणी बभूव। बाण की रचनाओं में हर्षचरितम् कादम्बरी है ।महाकवि बाणभट्ट ने हर्षचरित के प्रारंभ में अपने वंश आदि के संबंध में जानकारी दी है। कादंबरी के प्रारंभिक श्लोकों में भी वंश क्रम के विषय में प्रकाश डाला है। महाकवि वत्स वंशीय  कुबेर के यहां रहने वाले तोता मैना अशुद्ध पाठ करने वाले विद्यार्थियों को टोक दिया करते थे। कुबेर  के 4 पुत्रों में  अछूत,  ईशान ,  हर और पक्षपात थे । पक्षपात के पुत्र अर्थपति के 11 पुत्रों में  चित्रभानु बाण के पिता थे।  बाण भट्ट के बाल्यावस्था में माता पिता की मृत्यु हो जाने से स्वतंत्र बुद्धि बाल बाल सुलभ चपलताओं सेशन ग्रसित हो गए और देश देशांतर भ्रमण के लिए निकल पड़े। उन्होंने अपने प्रवास काल में विविध प्रकार के अनुभव प्राप्त किए। विभिन्न देशों के पर्यटन के पश्चात वे अपने ग्राम प्रीतिकोट वापस आ गए थे ।बाण को  ज्ञात हुआ कि किसी व्यक्ति ने सम्राट हर्षवर्धन से उनकी शिकायत कर दी है टैब बाण ने अपनी स्थिति को स्पष्ट करने के लिए राज दरबार में उपस्थित हुए। उनके विकृत वेश को देखकर सम्राट हर्षवर्धन ने उन्हें महादुष्ट कह दिया।  उन्होंने विनम्रता पूर्वक अपनी स्थिति स्पष्ट करने  के पश्चात राजा के कृपा पात्र बन गए। बाण भट्ट ने अपने कनिष्ठ चचेरे भाई श्यामल के परामर्श  से सम्राट हर्षवर्धन के चरित्र पर   हर्षचरित की रचना की है ।सुभाषितावली और शार्डग्धर पद्धति में राजशेखर द्वारा   बाण भट्ट ,  मयूर भट्ट और मार्तंड , दिवाकर हर्ष की सभा में प्रतिष्ठित होने का उल्लेख किया गया है ।  प्रातः काल में मयूर भट्ट ने  बाण भट्ट  से मिलने गए थे । बाण भट्ट के संस्कृत साहित्य में संस्कृत उपन्यास कादंबरी गद्यम कविनाम निकसं वदन्ति का द्योतक है । गद्य कवियों की कसौटी है ।