शुक्रवार, जून 30, 2023

पर्यावरण संरक्षण और जीवन संरक्षित.....


वैदिक एवं विभिन्न साहित्य में पर्यावरण का उल्लेख किया गया है । पर्यावरण की स्थिरता पारिस्थितिकी में जैविक प्रणाली "निरंतर" विविध संसाधनों और उत्पादक है। पर्यावरण के संसाधनों के साथ प्रजाति का संतुलन  1987 ब्रुंडलैंड रिपोर्ट के अनुसार प्रजाति   स्थिरता में संसाधन का शोषण द्वारा नवीनीकरण सीमा  है। स्थिरता में राजनीतिक , आर्थिक ,पर्यावरणीय स्थिरता का मापन,  स्थिरता सूचकांक , पर्यावरण प्रदर्शन सूचकांक , ट्रिपल परिणाम ,पर्यावरणीय स्थिरता के लक्ष्य , घर में स्थिरता ,स्थायी शहरों में शहरी विकास और गतिशीलता प्रणाली। ठोस अपशिष्ट, जल और स्वच्छता का व्यापक प्रबंधन ,पर्यावरणीय संपत्ति का संरक्षण में  ऊर्जा दक्षता तंत्र , जलवायु परिवर्तन के प्रभावों के लिए निवास योजना। , राजकोषीय खातों और पर्याप्त कनेक्टिविटी का आयोजन ,  नागरिक सुरक्षा के सकारात्मक सूचकांक ,  नागरिक भागीदारी शामिल है। स्थिरता सामाजिक-आर्थिक प्रक्रिया है। राजनीतिक स्थिरता राजनीतिक और आर्थिक शक्ति  देश के नियम में लोगों और पर्यावरण के लिए सम्मान की  कानूनी ढांचा स्थापित करती है। जीवन की गुणवत्ता में सुधार और समुदायों पर निर्भरता कम कर लोकतांत्रिक संरचनाओं का निर्माण होता है। आर्थिक स्थिरता समान मात्रा में धन उत्पन्न करने की क्षमता और सामाजिक क्षेत्रों के लिए उपयुक्त, स्थापित करने के लिए आबादी  पूरी तरह से रहने तथा  सक्षम और  वित्तीय समस्याओं का समाधान उत्पादन बढ़ाने  और मौद्रिक उत्पादन के क्षेत्रों में खपत को मजबूत करते हैं। स्थिरता प्रकृति और मनुष्य के बीच का संतुलन भविष्य की पीढ़ियों को बलिदान किए बिनाजरूरतों को पूरा करने का प्रयास करता  है। पर्यावरणीय स्थिरता में जैविक पहलुओं को बनाए रखने की क्षमता समय के साथ इसकी उत्पादकता और विविधता में  प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षण प्राप्त होता है। पर्यावरण के प्रति जागरूक जिम्मेदारियों और  पर्यावरण की देखभाल और सम्मान करने से मानव विकास करता है। पर्यावरणीय  मात्रात्मक उपाय से  विकास के चरणों में पर्यावरण प्रबंधन सक्षम होता है। पर्यावरणीय स्थिरता एवं  पर्यावरण प्रदर्शन सूचकांकसे  विश्व आर्थिक मंच की वैश्विक पर्यावरणीय कार्य बल के लिए वैश्विक नेताओं की पहल है। देश द्वारा प्राप्त किया गया 67 अधिक विशिष्ट विषयों में टूटने से  शहरी हवा में सल्फर डाइऑक्साइड की माप और खराब सैनिटरी स्थितियों से जुड़ी मौतें होती हैं । पर्यावरण प्रणालियों में  समस्याओं को कम करने के कार्य में नागरिकों को अंतिम पर्यावरणीय क्षति से बचाने में प्रगति। सामाजिक और संस्थागत क्षमता जो प्रत्येक राष्ट्र को पर्यावरण संरक्षण  करनी है। देश के प्रशासन स्तर जीडीपी और अंतर्राष्ट्रीय प्रतिस्पर्धा सूचकांक  के साथ "तौला जाना"निर्णय लेने और नीतियों के  निष्पादन को बेहतर मार्गदर्शन करने के लिए, पर्यावरणीय चर की सीमा अत्यंत पूर्ण है ।प्रदूषकों का सांद्रता और उत्सर्जन, पानी की गुणवत्ता और मात्रा, ऊर्जा की खपत और दक्षता, वाहनों के लिए विशेष क्षेत्र, कृषि-रसायनों का उपयोग, जनसंख्या वृद्धि, भ्रष्टाचार की धारणा, पर्यावरण प्रबंधन आदि पर्यावरण के लिए घातक है। पर्यावरण  सूचकांक के ईएसआई मूल्य स्वीडन, कनाडा, डेनमार्क और न्यूजीलैंड  देश है । पर्यावरण प्रदर्शन सूचकांक महामारी पर्यावरण प्रदर्शन सूचकांक के लिए  विधि सम्मत मात्रा निर्धारित कर और वर्गीकृत करें संख्यात्मक रूप से किसी देश की नीतियों का पर्यावरणीय प्रदर्शन करना आवश्यक है। पारिस्थितिक तंत्र और पर्यावरणीय स्वास्थ्य की जीवन शक्ति पर्यावरणीय स्वास्थ्य में विभाजित है । राजनीतिक श्रेणियां, स्वास्थ्य पर वायु की गुणवत्ता का प्रभाव , बुनियादी स्वच्छता और पीने का पानी, स्वास्थ्य पर पर्यावरण का प्रभाव और पर्यावरणीय जीवन शक्ति राजनीतिक श्रेणियां में उत्पादक प्राकृतिक संसाधन। ,जैव विविधता और निवास और जल संसाधन एवं पारिस्थितिक तंत्र पर वायु प्रदूषण का प्रभाव है। जलवायु परिवर्तन एवं पर्यावरण संरक्षण से तटों, झीलों और पहाड़ों को शहर के शहरी विकास में संरक्षित और ऊर्जा दक्षता तंत्र बिजली की खपत को कम करने के लिए नई तकनीकों या प्रक्रियाओं को लागू करते है।
पारिस्थितिक कपड़ों का  सामग्री का पेट्रोलियम से प्राप्त सिंथेटिक फाइबर पॉलिएस्टर, का उपयोग करने के बजाय, प्राकृतिक और नवीकरणीय रेशों को प्राथमिकता  है,  ।  जैविक कपास, लिनन, भांग या ऊन सामग्रियों का उत्पादन के दौरान पर्यावरणीय प्रभाव कम होता है  । जैविक कपास सिंथेटिक कीटनाशकों और रासायनिक उर्वरकों के उपयोग के बिना उगाया जाता है । मिट्टी और आसपास के पारिस्थितिकी तंत्र के लिए हानिकारक हैं। गांजा भांग के पौधे से प्राप्त प्राकृतिक फाइबर है। गांजा भांग खेती के लिए कीटनाशकों या उर्वरकों के गहन उपयोग की आवश्यकता नहीं होती है और तेजी से बढ़ने वाला पौधा होने के कारण यह मिट्टी के संसाधनों को ख़त्म नहीं करता है। गांजा विभिन्न प्रकार के परिधानों के निर्माण में अत्यधिक बहुमुखी और  टिकाऊ और पशु कल्याण के लाभदायक है। फैशन उद्योग  प्रदूषण का  बड़ा स्रोत है । प्रकृति में वायु, जल, मृदा, पेड़-पौधे तथा जीव-जन्तु पर्यावरण की रचना कर  मानव के चारों तरफ स्थल, जल, वायु, मृदा आदि का वह आवरण जिससे वह घिरा रहने के कारण पर्यावरण व एनवायरनमेंट   है। भूगोल में पर्यावरण के अध्ययन के अनुसार प्राकृतिक या भौतिक  ,मानवीय या सांस्कृतिक और प्राकृतिक या भौतिक पर्यावरण है।भौतिक पर्यावरण जैविक और अजैविक तत्वों का दृश्य और अदृश्य समप्राकृतिक पर्यावरण प्राकृतिक उपादानों, जैव एवं अजैव घटकों का समुच्चय धरातल से लेकर आकाश तक व्याप्त रहता है। प्राकृतिक पर्यावरण मे  धरातल, जलवायु, मृदा, जल, वायु, खनिज आदि,ऊर्जा तत्व समूहताप एवं प्रकाश,जैव तत्व समूह वनस्पतियां एवं जीव-जन्त से प्राकृतिक पर्यावरण का निर्माण होता है। प्रक्रियाओं में भूमि का अपक्षय, अपरदन अवसादीकरण, तापविकिरण एवं चालन, ताप वाहन, वायु एवं जल में गतियों का पैदा करना, जीव की जातियों का जन्म, मरण और विकास, आदि सम्मिलित किए जाते हैंप्राथमिक पर्यावरण में मनुष्य स्वभाविक  तकनीकी की सहायता से संशोधन तथा परिवर्तन कर भूमि को जोतकर खेती , जंगलों को साफ कर सड़कें, नहरें, रेलमार्ग, , पर्वतों को काट कर सुरंगें, और  बस्तियां बसाता तथा भूगर्भ से खनिज सम्पति निकालकर  उपकरण एवं अस्त्रशस्त्र और प्राकृतिक संसाधनों का विभिन्न प्रकार से शोषण कर अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति करता है। मानवीय,मानव निर्मित  सांस्कृतिक पर्यावरण  है। औजार, गहने, अधिवास, मानवीय क्रियाओं के सृजित रूप जैसे खेत, कृत्रिम चरागाह व उद्यान, पालतू पशु सम्पदा, उद्योग एवं विविध उद्यम, परिवहन और संचार के साधन प्रेस आदि सम्मिलित हैं। मानव को जिस प्रकार की सुविधाओं की आवश्यकता होने पर शोध कर खोजने की कोशिश करता है। शारीरिक एवं मानसिक योग्यता का ज्ञान, इनके निर्माण का विज्ञान मानव की सांस्कृतिक विरासत हैं। पाषाण  युग में मनुष्य ने  सुरक्षा के लिए घर बनाने, प्रकृति की वस्तुओं का भोजन के रूप में उपयोग करने, पत्थर को काट-छांट, घिसकर औजार बनाने, जंगली पशुओं को पालतू बनाने और सामूहिक रूप से सुरक्षा आदि करने के रूप में मनुष्य ने अपने सांस्कृतिक पर्यावरण को जन्म दिया है । मनुष्य भौतिक पर्यावरण के साथ सामंजस्य बनाने में सफल रहने के लिए  विज्ञान, तकनीकी ज्ञान और आर्थिक क्रियाओं में बड़ा महत्वपूर्ण परिवर्तन करके भौतिक पर्यावरण के साथ सामंजस्य करने की रीतियों में प्रसार किया है। मछली पकड़ना, लकड़ी काटना, जाल बिछाकर पशुओं को पकड़ना तथा खानें खोदना सम्मिलित किया जाता है। इन कार्यों में प्रकृति से सीधे ही वस्तुएं प्राप्त की जाती हैं। मनुष्य भूमि से उन वस्तुओं को अधिकाधिक मात्रा में प्राप्त  करता है । मानव  भौतिक पर्यावरण के साथ जनसंख्या का घनत्व, भूमि पर स्वामित्व, सामाजिक वर्ग,परिवार, समाज-सम्बन्ध, आदि बातें सम्मिलित हैं।  मनुष्य के व्यवहार एवं आदतें,  स्थायी जमाव व घुमक्कड़ जीवन, उसके वस्त्र, भोजन, घर, आचार-विचार, धार्मिक विश्वास एवं आस्थाएं,कला,आदि  समावेश है। मानव भौतिक पर्यावरण से नागरिक तथा राजनीतिक सामंजस्य स्थापित कर स्थानीय, प्रान्तीय या राष्ट्रीय सरकारों की स्थापना, अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्ध, सैन्य नीतियां तथा अन्तर्राष्ट्रीय कानून आदि की व्यवस्था हैं। पर्यावरण संरक्षण में पीपल , बरगद , आंवला , महुआ , शाक , कदम्ब , आम , कटहल , बेल   आदि वृक्ष , तुलसी , केला आदि पौधे , दूर्वा , भृगराज आदि फूल  , नदियाँ का स्वच्छ जल , पर्वत , जंगल , समुद्र , जीव जंतु पर्यावरण का संरक्षक है । पर्यावरण संरक्षण से जीवन संरक्षित है ।



बुधवार, जून 14, 2023

सांस्कृतिक विरासत के साधक सत्येंद्र कुमार पाठक ...


बिहार राज्य के अरवल जिले का करपी प्रखंड मुख्यालय करपी में सत्येन्द्र कुमार पाठक का जन्म 15 जून 1957 ई. को शाकद्वीपीय ब्राह्मण में हुआ है । इनके पिता सच्चिदानंद पाठक ज्योतिष एवं कर्मकांड के  विद्वान , माता ललिता देवी तथा पत्नी सत्यभामा देवी धर्मपरायण थी । सत्येंद्र कुमार पाठक के नवीन कुमार पाठक , जीविका मुजफ्फरपुर के ट्रेनिंग ऑफिसर प्रवीण कुमार पाठक पुत्र तथा इंदु , कुमुद , मेनका , एस. एस . कॉलेज जहानाबाद के प्रो.  उर्वशी तथा प्रियंका पुत्री और दिव्यांशु एवं प्रियांशु  पौत्र , तीन भाई है । इन्होंने शास्त्री प्रतिष्ठा , आई ए , विशारद , बी टी योग्यता हासील करने के बाद सरकारी विद्यालयों में 1 नवंबर 1977 ई. से 30 जून 2017 तक शिक्षक के पद पर कार्य कर सेवानिवृत हुए  है ।
पत्रकारिता -  1975 से विभिन्न साप्ताहिक , दैनिक समाचार पत्रों में संबाद प्रेषण का कार्य किया है । पत्रकारिता के क्षेत्र में सत्येन्द्र कुमार पाठक ने गया से प्रकाशित गया समाचार , मगध धरती , मगधाग्नि हिंदी साप्ताहिक , पटना से प्रकाशित हिंदी दैनिक आर्यावर्त , आत्मकथा , पाटलिपुत्र टाइम्स , हिंदुस्तान , आज , जयपुर राजस्थान  से प्रकाशित यंगलीडर में संबाद , टिकरी गया का समस्या दूत का सह संपादक , शिप्रा का उपसंपादक , 1981में हिंदी  मासिक पत्रिका मगध ज्योति तथा 1983 में हिंदी साप्ताहिक  मगध ज्योति का संपादक के रूप में कार्य किया है । पटना से प्रकाशित दैनिक समाचार पत्र आर्यावर्त , प्रदीप , पाटलिपुत्र टाइम्स , आज , जनशक्ति , आत्मकथा , हिंदुस्तान , प्रभात खबर में सबद प्रेषण किया । 2019 ई . से बुलंद समाचार , दिब्य रश्मि पोर्टल में संलेख प्रकाशित तथा मगध ज्योति ब्लॉग पॉट में संलेख प्रकाशित कर रहे है ।सार्वभौम शाकद्वीपीय ब्राह्मण महासंघ झारखण्ड से संबद्ध  रांची से प्रकाशित मगबन्धु (अखिल) जुलाई दिसम्बर 2020 का स्वतंत्रता सेनानी विशेषांक में संलेख प्रकाशित किया गया है। औरंगाबाद से प्रकाशित चित्रा दर्पण 2021 , समकालीन जबाबदेही 2021 , अरवल  स्थापना दिवस 2011 की स्मारिका , संस्कार न्यूज़ , साहित्य धारा अकादमी झारखंड की यात्रा काव्य संकलन , भारत के रचनाकार , हिंदी साप्ताहिक आकृति साहित्य पत्र पत्रिकाओं  ,  सरोज साहित्य , बम्बई हिंदी विद्यापीठ मुम्बई से हिंदी मासिक पत्रिका भारती 2023 , मुजफ्फरपुर बिहार से प्रकाशित हिंदी पाक्षिक निर्माण भारती 2023 , बूंदी राजस्थान से हिंदी साप्ताहिक पत्र लेखक हिंदी के 2023 में  आलेख प्रकाशित है ।
समाज सेवा - सत्येन्द्र कुमार पाठक द्वारा विभिन्न क्षेत्रों में समाजसेवा का कार्य किया है । 1976 ई. में करपी अरवल प्रखंड में आई भीषण बाढ़ में करपी प्रखंड दुग्ध  दलिया समिति गया का सदस्य बन कर बढ़  पीड़ितों की सहायता की वहीं करपी प्रखंड परिवार कल्याण समिति गया का सदस्य , जीवन ज्योति मंसूरी का सदस्य , शास्त्र धर्म प्रचार सभा कलकत्ता का सदस्य , जहानाबाद अनुमंडल किसान सुरक्षा समिति का अध्यक्ष , अखिल भारतीय सामाजिक स्वास्थ्य संघ का सदस्य , मगही मंच करपी प्रखंड के अध्यक्ष , भारतीय समाज सुधारक संघ जहानाबाद का अध्यक्ष ,पंडित नेहरू क्लब करपी का अध्यक्ष , करपी प्रखंड विद्युत उपभोक्ता समिति का अध्यक्ष , मगध बुद्धि मंच , बिहार राज्य मगही विकास मंच के महासचिव 1978 ई. में इमममगंज प्रखंड शिक्षा समिति गया का सदस्य , 1980 में बिहार हिंदी साहित्य सम्मेलन का सदस्य , 2007 बिहार हिंदी साहित्य सम्मेलन पटना के स्थायी समिति के सदस्य  1992 ई . में सच्चिदानंद शिक्षा एवं समाज कल्याण संस्थान का सचिव , जिला हिंदी साहित्य सम्मेलन जहानाबाद के उपाध्यक्ष , जहानाबाद जिला विरासत विकास समिति का अध्यक्ष , बिहार अराजपत्रित प्रारंभिक शिक्षक संघ जिला जहानाबाद का उप संजोजक , बिहार राज्य प्राथमिक शिक्षक संघ ( गोप गुट ) जहानाबाद का संयुक्त  सचिव , 2008 ई. में बिहार राज्य क्रांतिकारी शिक्षक संघ का राज्य प्रवक्ता , 1996 ई. में ज्ञान गुहार अरवल का मुख्य साधन सेवी , 2003 ई. में भारतीय पुनर्वास परिषद द्वारा आयोजित अखिल भारतीय विकलांगता  कन्वेंशन दिल्ली में विकलांगो के विकाश में शामिल हुए । 1989 ई. में इंडियन प्रेस काउंसिल भोपाल का सदस्य हुए हैं । भारतीय विरासत संगठन के अध्यक्ष पद पर 18 अप्रैल 2021 , श्रीसत्य इंदिरा फाउंडेशन जयपुर ,राजस्थान के विशिष्ट सदस्य दिनांक 04 फरवरी  2023 में  चयनित हुए है । जिला गजेटियर समिति जहानबाद के सदस्य के रूप में चयनित किए गए। 
सम्मान - सत्येन्द्र कुमार पाठक को 14 सितंबर 1998 ई . हिंदी दिवस पर जैमिनि अकादमी पानीपत हरियाणा द्वारा हिंदी पत्रकारिता के उत्कृष्ट कार्य के लिए आचार्य उपाधि से अलंकृत किये गए , 23 अक्तूवर 2013 को मगही अकादमी पटना द्वारा मगही साहित्य में विशेष योगदान के लिये महाकवि योगेश मगही अकादमी शिखर सम्मान 2013  से सम्मानित , स्नातकोत्तर हिंदी विभाग मगध विश्वविद्यालय बोधगया द्वारा आयोजित  16 - 17 अप्रैल 2012 दो दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्टी में हिंदी साहित्य को मगध प्रक्षेत्र का योगदान विषय डॉ सुनील कुमार की संपादन8 कला पर सम्मान , 2 मार्च 2019 को बिहार हिंदी साहित्य सम्मेलन पटना द्वारा आयोजित 40 वें तथा 2 - 3 अप्रैल 2016 को  37 वें  महाधिवेशन के परिसंबाद  पर सम्मानित हुए है। बिहार हिंदी साहित्य सम्मेलन पटना की ओर से हिंदी भाषा एवं साहित्य की उन्नति में मूल्यवान सेवाओं के लिए सम्मेलन के 101 वें स्थापना दिवस पर आयोजित समारोह में पंडित जनार्दन प्रसाद झा द्विज सम्मान से विभूषित कर उपाधि पत्र 19 अक्तूवर 2020 को प्रदान किया गया है । समाजवादी लोक परिषद की ओर से  गया में विश्व हिंदी दिवस के पूर्व संध्या पर 09 जनवरी 2021 को सतीस कुमार मिश्र सम्मान समारोह 2021के अवसर पर साहित्य व पत्रकारिता के क्षेत्र में समर्पित सेवा के लिये सम्मानित  , 26 सितंबर 2021 को नागरिक मोर्चा , अखिल भारतीय आदित्य परिषद एवं श्री नवयुवक समिति ट्रस्ट  मुजफ्फरपुर की ओर से हिंदी को बढ़ावा देने साहित्य जगत में सराहनीय योगदान एवं उत्कृष्ट कार्य हेतु हिंदी दिवस के अवसर पर कलम के जादूगर महान साहित्यकार एवं स्वतंत्रता सेनानी रामवृक्ष वेनिपुरी सम्मान पत्र 2021 एवं 28 सितंबर 2021 को राष्ट्र की रक्षा , समाज सेवा एवं कोरोना काल  मे योगदान हेतु शाहिद के आजम भगत सिंह एवं शहीद भगवानलाल सम्मान समारोह मुजफ्फरपुर की ओर से शहीद भगतसिंह एवं शहीद भगवानलाल सम्मान पत्र 2021 से सम्मानित  किये गए है । बिहार हिंदी साहित्य सम्मेलन पटना के 41 वें महाधिवेशन 2-3 अप्रैल 2022  के विभिन्न कार्यक्रमों ,संगोष्ठियों, परिसंबादों , काव्य पाठ के लिए सम्मान पत्र प्राप्त कर सम्मानित किए गए है । प्रसिध्द जासूसी उपन्यासकार गोपालराम गहमरी की स्मृति में साहित्य सरोज एवं धर्म क्षेत्र गहमरी द्वारा  आयोजित  वां गोपालराम गहमरी साहित्यकार महोत्सव 2022 के अवसर पर 23 - 25 दिसंबर 2022 , उत्तरप्रदेश के गाजीपुर जिले के गहमर के समारोह में 25 दिसंबर 2022 को  हिंदी साहित्य के लेख - आलेख विधा में बहुमूल्य योगदान हेतु गोपालराम गहमरी लेखक गौरव सम्मान 2022 , श्रीसत्य इंदिरा फाउंडेशन जयपुर , राजस्थान से रवींद्र नाथ टैगोर जयंती के अवसर पर अंतरराष्ट्रीय कला एवं साहित्य सम्मान 2023 , 5 जून 2023 विश्व पर्यावरण दिवस के अवसर पर पर्यावण संरक्षण व प्रकृति को बचाने में योगदान के लिए पर्यावरण रक्षक सम्मान 2023 ( द्वितीय वर्ष ) , रिपब्लिक प्राइड अवार्ड 2023 एवं मग धर्म संसद / फिलोसिफिकल। रिसर्च कौंसिल की ओर से 9 अप्रैल 2023 को स्वास्थ्य , शिक्षा , ,सेवा और स्वावलंबन के क्षेत्र में उच्च प्रतिमान नवाचार तथा मानवीय मूल्यों की स्थापना में योगदान के लिए श्री रंजन सूरीदेव सम्मान 2023 ,  श्रीसत्य इंदिरा फाउंडेशन जयपुर राजस्थान द्वारा अंतरराष्ट्रीय योग दिवस 21 जून 2023 के अवसर पर  वसुधैव कुटुम्बकम के लिए योग योग मुहिम में  समाज मे जागरुकता फैलाने के लिए अंतरराष्ट्रीय योग दिवस सम्मान 2023 से  सम्मानित किए गए हैं ।
प्रकाशित रचनाएं - गधाँचाल ,  राज्य सरकार राजभाषा विभाग द्वारा अनुदानित से प्रकाशित वाणावर्त , बराबर , विरासत  है। वही अप्रकाशित रचनाए  उषा , यात्रा  है।आत्मा से पंजिकृत जिला किसान संगठन जहानाबाद का सचिव के रूप में कार्य कर रहे हैं । 1999 से जहानाबाद में रह कर सामाजिक  , साहित्यिक साधना में लगे हुए हैं । अंतरराष्ट्रीय साहित्य परिषद , आकृति साहित्य ई साप्ताहिक समाचार पत्र ,मगमिहिर महासभा  का सदस्य ,भारतीय जनक्रांति दल डेमोक्रेटिक का राष्ट्रीय कमिटि सदस्य  तथा बिहार राज्य पत्रकार संघ के सदस्य है ।



रविवार, जून 11, 2023

इंसान की सुरक्षा कवच, कृषि....


 सनातन धर्म एवं विभिन्न ग्रंथों में कृषि का उनैन, उत्पति और विकास मानव सृष्टि के प्रारंभ से हुआ है । इतिहास के पन्नों के अनुसार 13000 से 7000 ई . पू. पू .  से महत्वपूर्ण परिवर्तन हुए  हैं।  भूमि को खोदकर अथवा जोतकर और बीज बोकर व्यवस्थित रूप से अनाज उत्पन्न करने की प्रक्रिया को कृषि खेती कहते हैं। मनुष्य ने अफ्रीका और अरब के रेगिस्तान, तिब्बत एवं मंगोलिया के ऊँचे पठार तथा मध्य आस्ट्रेलिया , कांगो के बौने और अंदमान के बनवासी खेती नहीं करते , भारत में खेती विभिन्न रूपों में करते है । आदिम अवस्था में मनुष्य द्वारा कंद-मूल, फल और स्वत: उगे अन्न का प्रयोग एवं जीव को मार कर जीवन आरंभ किया था । मानव जीवन की जीने के लिए  खेती द्वारा अन्न उत्पादन करने का आविष्कार  किया था । फ्रांस में  आदिमकालिक गुफाएँ ,  उत्खनन के अनुसार पूर्वपाषाण युग में मनुष्य खेती से परिचित हो गया था। बैलों को हल में लगाकर जोतने का मिश्र की पुरातन सभ्यता और अमरीका मे खुरपी और मिट्टी खोदनेवाली लकड़ी  कृषि का संसाधन था । पाषाण युग में कृषि का विकास  सिंधुनदी के काँठे के पुरावशेषों के उत्खनन से अनुसार भारत में कृषि अत्युन्नत अवस्था मे लोग राजस्व अनाज के रूप में चुकाते थे । पुरातत्वविद् मोहनजोदड़ो के  उत्खनन में गेहूँ और  जौ  के दाने ट्रिटिकम कंपैक्टम अथवा ट्रिटिकम स्फीरौकोकम जाति  हैं।  गेहूँ की खेती पंजाब से मिला जौ हाडियम बलगेयर जाति के जौ मिश्र के पिरामिडो में प्राप्त  है। सिंध में  कपास की खेती होती थी । भारतीय कृषि के जनक  'कृषिसंग्रह', 'कृषि पराशर' एवं 'पराशर तंत्र' आदि ग्रंथों के रचयिता ऋषि परासर और घाघ भंडारी कवि थे । भारत में 9000 ई . पू .  तक पौधे उगाने, फसलें व्यवस्थित जीवन जीना शूरू किया और कृषि के लिए औजार तथा तकनीकें विकसित की गई थी ।  मानसून होने के कारण  वर्ष में दो फसलें होने के  फलस्वरूप भारतीय कृषि उत्पाद तत्कालीन वाणिज्य व्यवस्था के द्वारा विश्व बाजार में पहुँचना शुरू हो गया है।  भारत में  जीवन के लिए पादप एवं पशु की पूजा  की जाने लगी थी । कावेरी नदी पर निर्मित कल्लानै बाँध पहली-दूसरी शताब्दी में  विश्व के प्राचीननतम बाँध है । सिंधुनदी के काँठे के पुरावशेषों के उत्खनन के अनुसार पाँच हजार वर्ष पूर्व कृषि अत्युन्नत अवस्था  थी ।  लोग राजस्व अनाज के रूप में चुकाते थे । वैदिक काल में भारत के निवासी आर्य कृषि कार्य से  परिचित थे । ऋगवेद और अर्थर्ववेद में कृषि की ऋचाओं मे कृषि संबंधी उपकरणों तथा कृषि विधा का उल्लेख है। ऋग्वेद 4 . 57 .8 में क्षेत्रपति, सीता और शुनासीर को लक्ष्य कर रची गई है ।  शुनं वाहा: शुनं नर: शुनं कृषतु लां‌गलम्‌। शनुं वरत्रा बध्यंतां शुनमष्ट्रामुदिं‌गय।। शुनासीराविमां वाचं जुषेथां यद् दिवि चक्रयु: पय:। तेने मामुप सिंचतं। अर्वाची सभुगे भव सीते वंदामहे त्वा। यथा न: सुभगाससि यथा न: सुफलाससि।। इन्द्र: सीतां नि गृह्‌ णातु तां पूषानु यच्छत। सा न: पयस्वती दुहामुत्तरामुत्तरां समाम्‌।। शुनं न: फाला वि कृषन्तु भूमिं।। शुनं कीनाशा अभि यन्तु वाहै:।। शुनं पर्जन्यो मधुना पयोभि:। शुनासीरा शुनमस्मासु धत्तम्‌ एवं वृकेणश्विना वपन्तेषं दुहंता मनुषाय दस्त्रा। अभिदस्युं वकुरेणा धमन्तोरू ज्योतिश्चक्रथुरार्याय।। अथर्ववेद में जौ, धान, दाल और तिल तत्कालीन मुख्य शस्य थे- व्राहीमतं यव मत्त मथो माषमथों विलम्‌। एष वां भागो निहितो रन्नधेयाय दन्तौ माहिसिष्टं पितरं मातरंच।। अथर्ववेद में खाद का  अधिक अन्न पैदा करने के लिए लोग खाद का भी उपयोग करते थे- संजग्माना अबिभ्युषीरस्मिन्‌ गोष्ठं करिषिणी। बिभ्रंती सोभ्यं। मध्वनमीवा उपेतन।। गृह्य एवं श्रौत सूत्रों में कृषि से धार्मिक कृत्यों का विस्तार  है। उसमें वर्षा के निमित्त विधिविधान और  चूहों और पक्षियों से खेत में लगे अन्न की रक्षा कैसे की जाए। पाणिनि की अष्टाध्यायी में कृषि के  अनेक शब्दों की चर्चा है ।भारत में ऋग्वैदिक काल से कृषि पारिवारिक उद्योग  है। ऋषि परासर द्वारा  कृषि पराशर , कृषि संग्रह , पराशर तंत्र , कृषि वैज्ञानिक सुरपाल का वृक्षायुर्वेद , मलयालम कृषि रचनाकार परशुराम का कृषिगीता , फारसी का कृषि रचनाकार दारा शिकोह , मगध साम्राज्य का ऋषि कश्यप की कश्यपीयकृषिसूक्ति , कृषि रचनाकार चक्रपाणि मिश्र का विश्ववल्लभ , कन्नड़ कृषि रचनाकार चावूंदराया का लोकोपकार  , कृषि रचनाकार उपवनविनोद का कृषि की वास्तविकता और उत्पादन की महत्ता का उल्लेख किया गया है ।
बिहार का समस्तीपुर जिले के पूसा में अमेरिकी कृषि  विशेषज्ञ मि. हेनरी फिप्स द्वारा 1905 ई. को  भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान की स्थापना की गई थी ।  ब्रिटिश साम्राज्य के कृषि विशेषज्ञ मि . हेनरी फिप्स के दिये गए 30,000 पाउन्ड् के सहयोग से 'इम्पीरियल कृषि अनुसंधान संस्थान' व इम्पेरियल एग्रिकल्चर रीसर्च इंस्टीच्यूट पूसा की संस्थापन हुआ था । सन् 1934 में बिहार में भूकंप आने से संस्थान के  भवनों को काफी क्षति होने के परिणामस्वरूप  वर्ष  संस्थान को नई दिल्ली स्थानान्तरित होने से 'पूसा कैम्प्स' कहा गया है।   दिल्ली स्थित  संस्थान का नाम 'भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान' व इंडियन एग्रिकल्चर रिसर्च इंस्टिट्यूट कर दिया गया था । पूसा में संस्थान  को पदावनत  करके 'कृषि अनुसंधान स्टेशन व  एग्रीकल्चर रिसर्च इंस्टिट्यूट स्टेशन को 3 दिसम्बर 1970 में  भारत सरकार ने  नामान्तरित करके 'राजेन्द्र कृषि विश्वविद्यालय' का नामकरण किया गया है । सन् १९२७ में पूसा बिहार स्थित भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान में पानी के प्रबंधन के लिए क्षेत्र आधारित प्रौद्योगिकी का विकास ,पानी के वितरण और प्रबंधन के लिए वैज्ञानिक दिशा निर्देश , सिंचाई कमांड क्षेत्रों में आउटरीच कार्यक्रम अनुसंधान और प्रशिक्षण, ,जल विज्ञान और प्रौद्योगिकी पर स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम प्रारम्भ होता था। मुजफ्फरपुर जिले का ढोली में तिरहुत कॉलेज ऑफ एग्रीकल्चर, ढोली की स्थापना वर्ष 1903 में हुई थी , तिरहुत कॉलेज ऑफ एग्रीकल्चर, ढोली राजेंद्र कृषि विश्वविद्यालय, समस्तीपुर से संबद्ध है।  कृषि समुदाय की लंबे समय से चली आ रही इच्छा 18 अगस्त 1960 को  बिहार के प्रथम मुख्यमंत्री स्व. डॉ. श्रीकृष्ण सिंह ने मुजफ्फरपुर जिले के तिरहुत कृषि महाविद्यालय, ढोली की आधारशिला रखी। . कॉलेज से आकांक्षाएं कृषि ज्ञान के उत्कृष्ट स्रोत की तैनाती और  बिहार की विशाल उपजाऊ भूमि को भारत के अन्न भंडार में बदलाव था।  तिरहुत कॉलेज ऑफ एग्रीकल्चर धोली मुजफ्फरपुर, बिहार कृषि कॉलेज, सबौर (भागलपुर), बिहार पशु चिकित्सा कॉलेज, पटना, संजय गांधी डेयरी प्रौद्योगिकी संस्थान, पटना, कॉलेज ऑफ एग्रीकल्चर। मत्स्य पालन, ढोली (मुजफ्फरपुर) गृह विज्ञान महाविद्यालय, कृषि अभियांत्रिकी महाविद्यालय, बुनियादी विज्ञान महाविद्यालय और पूसा स्थित आरएयू में पूसा में मानविकी और स्नातकोत्तर संकाय, एम.एससी। 34 में डिग्री प्रदान की जाती है और पीएच.डी. 17 विषयों में उपाधि प्रदान किया जाता है । ईस्ट इंडिया कंपनी की 5 जुलाई 1784 ई. में समस्तीपुर जिले का पूसा की भूमि पर ब्रिटिश साम्राज्य का कृषि भू  अधीक्षक कप्तान डब्लू फ्रेजर द्वारा एग्रिकल्चर स्टैंड फार्म की स्थापना 1500 सिक्का के किराये शुल्क पर उस भूमि के लिए की गई थी । एग्रिकल्चर स्टैंड फॉर्म की स्थापना कर युवक-युवतियों को कृषि शिक्षा प्रदान करना। ,कृषि की समस्याओं से निपटना और ज्ञान/प्रौद्योगिकियों का प्रसार का उद्देश्य पूर्ति किया गया था ।
 कृषि का देवता  - शास्त्रों एवं विभिन्न ग्रंथों के अनुसार कृषि का देवता भारत में न्याय देवा एवं भगवान सूर्य की भार्या छाया पुत्र शनि एवं रोम में 4 थी शताब्दी का निर्मित सैंटर्नलिया ( शनि ) टेम्पल में शनि कृषि  देव है । फसल देवताओं और देवी में अमोरियों प्रारंभिक सेमिटिक जनजाति की पूजा, डैगन प्रजनन और कृषि का देवता था। ग्रीक पौराणिक कथाओं के अनुसार सौरमंडल के शनि ग्रह को कृषि का देवता माना जाता है. शनि प्राचीन रोमन धर्म में कृषि  देवता थे । सायरस, ज़ीउस की बहन है, वह फसल और कृषि, विकास के लिए जिम्मेदार की देवी है । द्वापरयुग में किसानों के देवता  बलराम ( हलधर ) ,किसान के संरक्षक देवता एवं  कृषि उपकरणों और समृद्धि के "ज्ञान का अग्रदूत" है। फसल की देवी में फसल की भारत में माता अन्नपूर्णा और  ग्रीक की प्राचीन यूनानी देवी डेमेट्रियस की पुत्री  पेरसिंहोने थी।  रोमन धर्म में, सेरेस कृषि, अनाज फसलों, उर्वरता और मातृ देवी थी। सेरेस रोम का कृषि देव है। वृक्ष में देवी- देवताओं को व्यवस्थित भगवान  ब्रह्मा, विष्णु, शिव और माता  सरस्वती, लक्ष्मी और पार्वती है। सनातन धर्म ग्रंथों के अनुसार 
अन्नपूर्णा, अन्नपूर्णेश्वरी, अन्नदा या अन्नपूर्णा , अन्नपूर्णा, बंगाली: , इजेस्ट , अन्नपूर्णा,  भोजन और पोषण की देवी  है। ज़र्पो , कार्पो या कारपो शरद ऋतु और फसल की देवी थी। जर्पो की  बहनें वसंत की थालो और गर्मी की देवी ओक्सो थीं। तीनों बहनें प्यार की देवी एफ़्रोडाइट की परिचारिका  और माउंट ओलिंप के रास्ते की रखवाली करती थीं। एक्सर्पो   फसलों को पकाने की देवी थी ।  द लेडी ऑफ़ ऑटम , ए वेदर फ़ोकलोर एवं किसान पंचांग के अनुसार 
डेमेटर कृषि की देवी क्यों थी? फसल की देवी   गैया की पौत्री डेमेटर या 'धरती माता' ,  ' ग्रीक पौराणिक कथाओं में, गैया आदिम, तात्विक देवताओं  की  सृष्टि के भोर में पैदा हुआ था।  रोमन के कृषि देवता शनि ने अपने लोगों को भूमि पर खेती करने के तरीके सिखाकर कृषि का परिचय दिया था । पीढ़ी, विघटन, बहुतायत, धन, कृषि, आवधिक नवीकरण और मुक्ति के देवता के रूप में वर्णित किया गया था। शनि के पौराणिक शासन को बहुतायत और शांति के स्वर्ण युग के रूप में चित्रित किया गया था। ग्रीस पर रोमन विजय के बाद, वह ग्रीक टाइटन क्रोनस के साथ सम्‍मिलित हो गया था । देव गुरु वृहस्पति की बहन सेरेन की पुत्री प्रोसेरपाईंन सेरेस को एक हाथ में एक राजदंड या खेती के उपकरण और दूसरे में फूलों, फलों या अनाज की टोकरी पकड़े हुए है। सेरेन  मकई की बालियों से बनी माला धारण करती   है।  कृषि एवं फसल से देवताओं  पोंगल सूर्य देव को जो प्रसाद अर्पित है   प्रतापगढ़ के मंदिर में पूजे जाते हैँ किसान देवता। अन्नदाता को सम्मान दिलाने की मुहिम के साथ गाया जाता है । विभिन्न ग्रंथों के अनुसार  10 करोड़ वर्ष पूर्व पौधों की उत्पत्ति ,कृष धातु का अविष्कार हुआ था । फसल चक्र के जनक जार्ज वांशिगटन  कार्वर ने 1860 से 1943 ई. तक , 7000 ई. पू. मेहरगढ़ में गेहूं और औजारों से खेती , 6 ठी शताब्दी में मगध , मिथिला , , कौशल , वज्जिका और अंग प्रदेश में प्रसेनजित के नेतृत्व में कृषि और व्यापार को प्रोत्साहित किया गया था । 1970 में कृषि गणना , बिहार में कृषि कर , कृषि वैज्ञान के जनक एम .इस . स्वामीनाथन द्वारा कृषि वर्ष 30 जून और 1  जूलाई कृषि दिवस मनाने का निर्णय लिया था । इतिहासकारों ने 12000 वर्ष पूर्व इंसानों द्वारा जीने की तरीके को कृषि के विकास को बदल दिया था ।खानाबदोश शिकारी संग्राहक जीवन शैली से स्थायी वस्तियों और खेती में बदलाव किए थे । 900 ई. पू. पौधे उगाने , औजार का सृजन किया गया था । भहरत में 51 प्रतिशत कृषि ,4 प्रतिशत चारागाह 24 प्रतिशत वैन और 24 प्रतिशत बंजर भूमि है । कृषि भूगोल की खोज  यूनानी टुरेटो स्थानिज थियो फ़्रेस्ट्स वनस्पति विज्ञान के जानकार आधुनिक बागवानी के जनक दो . चड्डा थे । कृषि के विकास के लिए भारत में 63 कृषि विश्वविद्यालय एवं केंद्रीय कृषि विश्वविद्यालय है । बिहार में एक कृषि विश्वविद्यालय , ढोली और सबौर में कृषि महाविद्यालय है । किसानों को सिंचाई का प्रबंध मगध साम्राज्य के विभिन्न राजाओं द्वारा तलाव , आहर , पइन , नाले तथा नदियों में बांध बांधकर सिचाई की सुविधा दिलाई जाती थी । ब्रिटश साम्राज्य में कैनाल और आजादी के बाद नहर का निर्माण किया गया है ।  किसान अन्नदाता को विभिन्न कालों के राजाओं द्वारा कृषि के विकास के लिए प्रोत्साहित किया गया है । 




गुरुवार, जून 08, 2023

समस्तीपुर की विरासत ....


दरभंगा प्रमंडल का 2904 वर्गकिमी में फैले  तथा 14 नवंबर 1972 ई. में स्थापित समस्तीपुर जिला  के उत्तर में दरभंगा, दक्षिण में गंगा नदी ,  पश्चिम में मुजफ्फरपुर तथा पूर्व में बेगूसराय जिले की सीमाओं से घिरा  मैथिली, मगही और हिंदी भाषीय  है। समस्तीपुर  मिथिला का प्रवेश द्वार एवं समस्तीपुर पूर्व मध्य रेलवे का मंडल है। समस्तीपुर का नाम  सरैसा ,  सोमवती , सोमवस्ती पुर ,समवस्तीपुर  को 1345 ई. से 1358 ई. तक मध्यकाल में बंगाल एवं उत्तरी बिहार के शासक हाजी शम्सुद्दीन इलियास द्वारा शमसुद्दीन पुर  बाद में समस्तीपुर कहा गया है। राजा जनक के मिथिला प्रदेश का अंग था । विदेह राज्य का अन्त होने पर समस्तीपुर  लिच्छवी गणराज्य का अंग होने के पश्चात  मगध के मौर्य, शुंग, कण्व और गुप्त शासकों का मगध  साम्राज्य का हिस्सा  था ।। ह्वेनसांग के के अनुसार  हर्षवर्धन के साम्राज्य के अंतर्गत था। १३ वीं सदी में पश्चिम बंगाल के मुसलमान शासक हाजी शम्सुद्दीन इलियास के समय मिथिला एवं तिरहुत क्षेत्रों का बँटवारा हो गया। उत्तरी भाग सुगौना के ओईनवार राजा (1325-1525 ईस्वी) के कब्जे में था जबकि दक्षिणी एवं पश्चिमी भाग शम्सुद्दीन इलियास के अधीन था । समस्तीपुर का नाम भी हाजी शम्सुद्दीन के नाम पर पड़ा है। ओईनवार राजाओं द्वारा  कला, संस्कृति और साहित्य का बढ़ावा दिया गया है। शिवसिंह के पिता देवसिंह ने लहेरियासराय के समीप  देवकुली की स्थापना की थी। शिवसिंह के बाद यहाँ पद्मसिंह, हरिसिंह, नरसिंहदेव, धीरसिंह, भैरवसिंह, रामभद्र, लक्ष्मीनाथ, कामसनारायण राजा हुए। शिवसिंह तथा भैरवसिंह द्वारा जारी किए गए सोने एवं चाँदी के सिक्के  है। ब्रिटिश साम्राज्य में 1865 ई.में तिरहुत मंडल के अधीन समस्तीपुर अनुमंडल बनाया गया था । बिहार राज्य जिला पुनर्गठन आयोग के प्रतिवेदन के आधार पर दरभंगा प्रमंडल के अंतर्गत 14   नवंबर 1972 ई. में समस्तीपुर   को जिला बना दिया गया है । अंग्रेजी सरकार के विरुद्ध हुए स्वतंत्रता आंदोलन में समस्तीपुर के क्रांतिकारियों ने महती भूमिका निभाने वालों में  कर्पूरी ठाकुर बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री ,  समस्तीपुर लोकसभा क्षेत्र के प्रथम सांसद स्व. सत्यनारायण सिन्हा सांसद ,  कैबिनेट मंत्री , मध्यप्रदेश के राज्यपाल के पद पर और  सूचना प्रसारण मंत्री रहे थे । उत्तरी अक्षांश 25.90  एवं पूर्वी देशांतर 86.08  पर अवस्थित समस्तीपुर  जिला उपजाऊ मैदानी क्षेत्र है ।  हिमालय से प्रवाहित होने वाली नदियाँ : समस्तीपुर जिले के मध्य से बूढ़ी गण्डक, उत्तर में बागमती नदी एवं दक्षिणी तट पर गंगा   बांया भाग में, जमुआरी, नून, बागमती की दूसरी शाखा और शान्ति नदी  है ।  समस्तीपुर जिला में 4 अनुमंडल , 20  प्रखंडों, 380 पंचायतों तथा 1248 राजस्व गाँव है। अनुमंडल में  दलसिंहसराय, शाहपुर पटोरी, रोसड़ा, समस्तीपुर सदर और प्रखंड में दलसिंहसराय, उजियारपुर, विद्यापतिनगर, पटोरी, मोहनपुर,मोहिउद्दीनगर, रोसड़ा, हसनपुर, बिथान, सिंघिया, विभूतीपुर, शिवाजीनगर, समस्तीपुर, कल्याणपुर, वारिसनगर, खानपुर, पूसा, ताजपुर, मोरवा, सरायरंजन है ।। जनगणना 2011 के अनुसार समस्तीपुर  जिले की जनसंख्या 4,261,566 में पुरुष की आबादी 2,230,003 एवं 2,031,563 स्त्रियाँ में साक्षरता 45.13 प्रतिशत (पुरुष- 57.59 एवं  स्त्री- ३१31 .67 प्रतिशत ) है । गदाधर पंडित, शंकर, वाचस्पति मिश्र, उदयनाचार्य, अमर्त्यकार, अमियकर दार्शनिक एवं किसान नेता  पंडित यमुना कर्जी , पूर्व राज्यपाल सत्य नारायण सिन्हा ,   पूर्व बिहार के मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर , पूर्व लोकसभा के अध्यक्ष  बलिराम भगत , गया प्रसाद शर्मा , पूर्व केंद्रीय मंत्री रामविलास पासवान ,  सैय्यद शाहनवाज हुसैन , महान मैथिली कवि विद्यापति, चंद्रकांता उपन्यासकार श्री देवकीनंदन खत्री की जन्मभूमि व कर्मभूमि हैं।
 मानस मंदिर बन्दा है। बन्दा वासी की राधे राधे।। यहाँ की अमृत वाणी है। ताजपुर में जल जीवन हरियाली पार्क , स्थापत्य एवं शिल्प कला के धनी मंदिर, मदरसा अजाजिया साल्फिया रहीमाबाद और उसकी जमा मस्जिद आदि  है। 
 ब्रिटिश साम्राज्य काल में अनुमंडल ताजपुर था ।पूसा में ब्रिटिश साम्राज्य का सयुक्त राष्ट्र अमेरिका का हेनरी फिफ्स ने भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान की स्थापना की गई थी ।   भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान को 1970 ई. में राजेंद्र प्रसाद केंद्रीय  कृषि विश्वविद्यालय पूसा नामकरण किया गया है । शिव के अनन्य भक्त एवं महान मैथिल कवि विद्यापति ने यहाँ गंगा तट पर अपने जीवन के अंतिम दिन बिताए थे। बिमारी के कारण विद्यापति  गंगातट जाने में असमर्थ होने के कारण माता गंगा ने अपनी धारा बदल कर  विद्यपति के आश्रम के पास से बहने लगी थी । विद्यपति आश्रम के कारण विद्यापतिनगर है । प्रखंड खानपुर प्रखंड के खेड़ी हरिहरपुर  में हरिहरनाथ महादेव मंदिर , ब्रिटिश साम्राज्य काल में नील की खेती का  मसिना कोठी पर मक्के की खेती एवं अन्य फसल का अनुसन्धान केंद्र  हैं । बूढ़ी गंडक तटबंध के किनारे भोरेजयराम बूढी गंडक नदी के तटबंध किनारे   बजरंगबली, माँ दुर्गा , श्री गणेश मंदिर  है। महामहिषी कुमारिलभट्ट के शिष्य महान दार्शनिक उदयनाचार्य का जन्म 984 ई.  में शिवाजीनगर प्रखंड के करियन गाँव में हुआ था। उदयनाचार्य ने न्याय, दर्शन एवं तर्क के क्षेत्र में लक्षमणमाला, न्यायकुशमांजिली, आत्मतत्वविवेक, किरणावली आदि रचनाएं है।  मालीनगर में 1844 ई.  में निर्मित  शिवमंदिर , हिंदी साहित्य के महान साहित्यकार बाबू देवकी नन्दन खत्री एवं शिक्षाविद राम सूरत ठाकुर की जन्म भूमि है।राजा  मंगलदेव के निमंत्रण पर मंगलगढ़ पर  महात्मा बुद्ध संघ प्रचार के लिए आए और रात्रि विश्राम  किया था। बुद्ध का  उपदेश स्थल को बुद्धपुरा व दूधपुरा  है। पुसा प्रखंड मे स्थित मोहम्मद पुर कोआरी मे मस्जिदो  है। नरहन रेलवे स्टेशन से 15 किलोमीटर की दूरी पर बिभूतिपुर में जगेश्वरीदेवी द्वारा निर्मित  शिव मंदिर है। ब्रिटिश काल  के समय का नरहन रजवाड़ा का  महल बिभूतिपुर  है। नरहन स्टेट के वैद्य भाव मिश्र की पुत्री जागेश्वरी  थी। ताजपुर प्रखंड मे स्थित मदरसा अजीजीया सलफ़ीया है। मोरवा अंचल में खुदनेस्वर महादेव मंदिर की स्थापना मुस्लिम द्वारा शिवलिंग मिलने पर की गयी थी। खुदनेश्वर  मंदिर के साथ महिला मुस्लिम संत की मजार हिंदू और मुस्लिम द्वारा पूजित है। संत दरियासाहेब का आश्रम: बिहार के सूफी संत दरिया साहेब आश्रम घमौन गंगा तट पर है। घमौन में निरंजन स्वामी का मंदिर है। थानेश्वर में  शिवमंदिर, खाटू-श्याम मंदिर एवं कालीपीठ  है। ताजपुर प्रखंड मे स्थित शाहपुर बघौनी में 12 मनमोहक मस्जिदे है। धोवगामा में 1523 ई. का सतीमन्दिर है । रंजितपुर गांव में वैष्णवी  मंदिर स्थित है। वारिसनगर प्रखंड के अंतर्गत बसंतपुर रमणी पंचायत का किशनपुर वैकुंठ में  श्री बाबा बैकुंठनाथ महादेव मंदिर है। माँ काली शक्तिपीठ की  स्थापना सन 1964 में किया गया था। 



समस्तीपुर लोक सभा निर्वाचन  क्षेत्र से 1952 से 1962 तक सत्य नारायण सिन्हा, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस , 1962 से 1971 तक यमुना प्रसाद मंडल, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस , 1967: यमुना प्रसाद मंडल, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस , 1977 में कर्पूरी ठाकुर, जनता पार्टी , 1978 में -उपचुनाव: अजीत कुमार मेहता , जनता पार्टी ,1980 में : अजीत कुमार मेहता, जनता पार्टी (एस) ,1984:में  रामदेव राय, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ,1989 में : संजय लाल कुशवाहा, जनता दल ,1991में : संजय लाल, जनता दल ,1996: में अजीतकुमार मेहता कुशवाहा, जनता दल ,1998 में : अजीतकुमार मेहता कुशवाहा, राष्ट्रीय जनता दल ,1999 में : संजय लाल, जनता दल (यूनाइटेड), 2004: में आलोक कुमार मेहता, राष्ट्रीय जनता दल , 2009 में : महेश्वर हजारी, जनता दल (यूनाइटेड) ,2014: में राम चंद्र पासवान, लोक जनशक्ति पार्टी , 2019 में : राम चंद्र पासवान, लोक जनशक्ति पार्टी लोक सभा के सदस्य हुए है ।

बुधवार, जून 07, 2023

मधुबनी की विरासत ...


दरभंगा प्रमंडल अंतर्गत मिथिला संस्कृति का द्विध्रुव एवं  मैथिली और हिंदी भाषीय   मिथिला पेंटिंग एवं मखाना के पैदावार करने वाला  मधुबनी का सृजन  जिला का गठन 1972 में दरभंगा जिले के विभाजन के उपरांत हुआ था। मधुबनी चित्रकला मिथिलांचल क्षेत्र  दरभंगा, मधुबनी एवं नेपाल के क्षेत्रों की प्रमुख चित्रकला ह महाराज मधु द्वारा मधु प्रदेश की स्थापना कर मधुबन नगर बसाया गया था । मधुबन  निवासियों में किरात, भार, थारु जनजातियाँ शामिल थी । वैदिक काल में आर्यों की विदेह ने अग्नि के संरक्षण में विदेह राजा मिथि द्वारा विदेह प्रदेश की स्थापना सरस्वती तट से पूरब में सदानीरा (गंडक) के क्षेत्र में विदेह राज्य की स्थापना की। विदेह के राजा मिथि द्वारा विदेह साम्राज्य व  मिथिला प्रदेश की स्थापना की थी । त्रेतायुग में मिथिला के राजा सिरध्वज जनक की पुत्री सीता का जन्म मधुबनी की सीमा पर स्थित सीतामढी में हुआ था। विदेह की राजधानी मधुबनी के उत्तर पश्चिम सीमा पर  जनकपुर नेपाल में है । बेनीपट्टी का  फुलहर में  फुलों का बाग से सीता फुल लेकर गिरिजा देवी मंदिर में पूजा किया करती थी। पंडौल में  पांडवों ने अपने अज्ञातवाश के बिताए थे। विदेह राज्य का अंत पर मिथिला प्रदेश वैशाली गणराज्य का अंग बनने के पश्चात मगध के मौर्य, शुंग, कण्व और गुप्त शासकों के महान साम्राज्य का हिस्सा रहा। १३ वीं सदी में पश्चिम बंगाल के मुसलमान शासक हाजी शम्सुद्दीन इलियास के समय मिथिला एवं तिरहुत क्षेत्रों का बँटवारा हो गया था । उत्तरी भाग जिसके अंतर्गत मधुबनी, दरभंगा एवं समस्तीपुर का उत्तरी हिस्सा आता था, ओईनवार राजा कामेश्वर सिंह के अधीन रहा। ओईनवार राजाओं ने मधुबनी के निकट सुगौना को अपनी पहली राजधानी बनायी। १६ वीं सदी में उन्होंने दरभंगा को अपनी राजधानी बना ली। ओईनवार शासकों को मधुबनी क्षेत्र में कला, संस्कृति और साहित्य का बढावा देने , 1846 ई. में ब्रिटिस सरकार ने मधुबनी को तिरहुत के अधीन अनुमंडल बनाया। 1875 ई.  में दरभंगा के स्वतंत्र जिला बनने पर मधुबनी अनुमंडल बना। स्वतंत्रता संग्राम में महात्मा गाँधी के खादी आन्दोलन में मधुबनी ने  पहचान कायम की और १९४२ में भारत छोड़ो आन्दोलन में जिले के सेनानियों की भागीदारी थी । स्वतंत्रता के पश्चात 1972 ई. में मधुबनी को स्वतंत्र जिला  है। मधुबनी के उत्तर में नेपाल, दक्षिण में दरभंगा, पुरब में सुपौल तथा पश्चिम में सीतामढी जिले कि सीमाओं से घिरा मधुबनी जिले का  क्षेत्रफल 3501 वर्ग किलोमीटर 2011 जनगणना के अनुसार 4476064 आवादी है । नदियों में कमला, करेह, बलान, भूतही बलान, गेहुंआ, सुपेन, त्रिशुला, जीवछ, कोशी और अधवारा समूह नदियाँ बरसात के दिनों में उग्र रूप धारण कर लेती है। कोशी नदी जिले की पूर्वी सीमा तथा अधवारा ,  छोटी बागमती पश्चिमी सीमा बनाती मधुबनी जिले में प्रवाहित होती है । मधुबनी जिले में  5 अनुमंडल, 21 प्रखंडों, 399 पंचायतों तथा 1111 गाँवों ,  18 थाने एवं 2 जेल ,  2 संसदीय क्षेत्र एवं 11 विधान सभा क्षेत्र में विभाजित है। अनुमंडल में मधुबनी, बेनीपट्टी, झंझारपुर, जयनगर एवं फुलपरास , प्रखंडों में  मधुबनी सदर (रहिका), पंडौल, बिस्फी, जयनगर, लदनिया, लौकहा, झंझारपुर, बेनीपट्टी, बासोपट्टी, राजनगर, मधेपुर, अंधराठाढ़ी, बाबूबरही, खुटौना, खजौली, घोघरडीहा, मधवापुर, हरलाखी, लौकही, लखनौर, फुलपरास, कलुआही है । मधुबनी कृषि  की मुख्य फसलें धान, गेहूं, मक्का, मखानाएवं  भारत में मखाना के कुल उत्पादन का 80% मधुबनी में होता है ।  मधुबनी पेंटिंग की 76 पंजीकृत इकाईयाँ, फर्नीचर उद्योग की 13 पंजीकृत इकाईयाँ, 3 स्टील उद्योग, 03 प्रिंटिंग प्रेस, 03 चूरा मिल, 01 चावल मिल तथा 3000 के आसपास लघु उद्योग इकाईयाँ है। पशुपालन एवं डेयरी की  ३० दुग्ध समीतियाँ ही कार्यरत है। मछली, मखाना, आम, लीची तथा गन्ना  कृषि उत्पाद , पीतल की बरतन एवं हैंडलूम कपड़े का  निर्यात किया जाता है। मधुबनी में साक्षरता।  58.62% ,प्राथमिक विद्यालयः 901 ,मध्य विद्यालयः 382 ,माध्यमिक विद्यालयः 119 , डिग्री कॉलेजः 27 है । मधुबनी मिथिला संस्कृति का केंद्र विंदु है। राजा जनक




और माता  सीता का वास स्थल होने से मधुवनी क्षेत्र पवित्र एवं महत्वपूर्ण है। मिथिला पेंटिंग और मैथिली और संस्कृत के विद्वानों ने मधुबनी की पहचान है। लोककलाओं में सुजनी ,  सिक्की-मौनी , तथा लकड़ी पर नक्काशी , लोक नृत्य में सामा चकेवा एवं झिझिया मधुबनी की पहचान है। मैथिली, हिंदी तथा उर्दू यहाँ की मुख्‍य भाषा है। मधुवनी का क्षेत्र महाकवि कालीदास, मैथिली कवि विद्यापति तथा वाचस्पति जन्मभूमि है। पर्व त्योहारों या उत्सव पर घर में पूजागृह एवं भित्ति चित्र का प्रचलन  है।  मधुबनी कला शैली का विकास 17 वीं शताब्दी है। मधुबनी शैली जितवारपुर (ब्राह्मण ) और रतनी (कायस्‍थ)  के गाँव में  व्‍यवसाय  के रूप में विकसित हुए पेंटिंग को मधुबनी शैली का पेंटिग ख्याति  है। पेंटिग में पौधों की पत्तियों, फलों तथा फूलों से रंग निकालकर कपड़े या कागज के कैनवस पर भरा जाता है। मधुबनी पेंटिंग शैली की मुख्‍य खासियत इसके निर्माण में महिला कलाकारों के द्वारा तैयार किया हुआ कोहबर, शिव-पार्वती विवाह, राम-जानकी स्वयंवर, कृष्ण लीला पर बनायी गयी पेंटिंग में मिथिला संस्‍कृति की पहचान  है।  मैथिली कला का व्‍यावसायिक दोहन सही मायने में 1962 ई. में शुरू हुआ  था ।  मिथिला पेंटिंग के कलाकारों ने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मधुबनी व मिथिला पेंटिंग के सम्मान को और बढ़ाये जाने को लेकर तकरीबन 10,000 वर्गफीट में मधुबनी रेलवे स्टेशन के दीवारों को मिथिला पेंटिंग की कलाकृतियों से सरोबार किया है । राजनगर- दरभंगा के महाराजा रामेश्वर सिंह की उप-राजधानी राजनगर  में नौलखा महल का निर्माण करवाया परंतु 1934 ई. की भूकंप द्वारा  महल को क्षति होने से  भग्नावशेष  है।  महल में  देवी काली  मंदिर है । राजनगर से उत्तर खजौली, दक्षिण मधुबनी, पूरव बाबूबरही और पश्चिम रहिका ब्लाक है। राजनगर  से बलिराजगढ़ की दूरी २० किलोमीटर पर  मौर्यकाल का  किला  है। सौराठ: मधुबनी-जयनगर रोड पर स्थित सौराठ  गाँव में सोमनाथ महादेव  मंदिर है। सौराठ में  मैथिल ब्राह्मणों की प्रतिवर्ष होनेवाली सभा में विवाह तय किए जाते हैं। कपिलेश्वरनाथ: मधुबनी से ९ किलोमीटर दूर इस स्थान पर  कपिलेश्वर शिव मंदिर है। बाबा मुक्तेश्वरनाथ स्थान: अंधराठाढ़ी प्रखंड के देवहार में भगवान शिव को समर्पित श्री श्री १०८ बाबा मुक्तेश्वरनाथ शिव मंदिर है । मधुबनी से 34 किमी उत्तर पूरब लौकहा मधुबनी सड़क  के किनारे खोजपुर के समीप  बलिराज गढ़ का 365 बीघे क्षेत्रफल में फैले बलिराज गढ़ का भग्नावशेष फैला हुआ है।  राजा बलि द्वारा मिथिला की राजधानी बलिराज में स्थापित की गई थी । रमणीपट्टी में राजा का रनिवास ,  फुलबरिया में  फूलो का उद्यान था । बलिराज गढ़ में 50 वर्ष पूर्व  जंगल  था । 
भगवती स्थान उचैठ:  मधुबनी जिला के बेनीपट्टी अनुमंडल से मात्र ४ किलोमीटर की दुरी पर पश्चिम दिशा की ओर उचैठ का भगवती मंदिर स्थित है । भगवती मन्दिर के गर्भगृह में माँ दुर्गा सिंह पर कमल के आसन पर विराजमान हैं । दुर्गा माँ सिर्फ कंधे तक ही दिखाई पड़ने और  कंधे से उपर माता का सिर नहीं रहने से छिन्नमस्तिका दुर्गा कहा जाता है । त्रेतायुग में  भगवान राम जनकपुर की यात्रा के समय विश्राम स्थल ,-महाकवि कालीदास को माता भगवती वरदान दिया था ।  गिरिजा - शिव मंदिर : मधुबनी का प्राचीन नाम ‘मधुवन’ था । त्रेतायुग के राजा जनक का मिथिला राज्य की राजधानी जनकपुर है । जगत जननी सीता फुल लोढ़ने राजा फुलवाड़ी  गिरजा स्थान  फुलहर में नित्य जाया करती थी। जनकपुर  के पूरब में विशौल ,पश्चिम में धनुषा , उत्तर में शिवजनकं मंदिर , और दक्षिण में गिरिजा - शिव मंदिर अवस्थित था । राम-लक्ष्मण को धनुष की शिक्षा विशौल के पास  जंगल में दिया गया था । विशौल से  10 किमी पश्चिम में गिरजा स्थान पर |राम लक्ष्मण फुलवाड़ी का दर्शन गिरजा स्थान में  सीता जी की नजर राम पर और राम की नजर सीता जी पर पड़ी थी । माता गिरजा पूजन के समय जगत-जननी जानकी जी के हाथ से पुष्प माला गिर गया वे लगाकर हंस पड़ी |तुलसी कृत रामायण में वर्णित चौपाई “खसत माल  मुड़त मुस्कानी” है । कल्याणेश्वर महादेव मंदिर : गिरिजास्थान से कल्याणेश्वर महादेव  मंदिर है। डोकहर राज राजेश्वरी मंदिर : मधुबनी से १२ किलोमीटर उत्तर बहरवन बेलाही गाँव मे माता राज राजेश्वरी का मंदिर है। भवानीपुर: पंडौल प्रखंड मुख्यालय से ५ किलोमीटर दूर स्थित इस गाँव में उग्रनाथ महादेव (उगना) शिव मंदिर है। बिस्फी में जन्में मैथिली के महान कवि विद्यापति से यह मंदिर जुड़ा है। मान्यताओं के अनुसार विद्यापति शिव के इतने अनन्य भक्त थे कि स्वयं शिव ने उगना के रूप में थे । कोइलख - कोइलख एक प्रमुख गाँव है जो माँ काली के लिए प्रसिद्ध है यहाँ जो मनोकामना मांगी जाती है वो जरुर पूरी होती है। गोसाउनी घर : मधुबनी के पुलिस लाइन के रूप में राजा माधवन सिंह का गोसाउनी घर  है । मधुबनी से 2 किलोमीटर की दुरी पर महंथ  भौड़ा स्थान  है । राजा माधवन भगवती की पूजा अर्चना,साधना में इतने लीन रहते थे की पूजा आसनी, धरती से सवा हाथ ऊपर उठ जाया करती थी । राजा शिवसिंह ,लखिमा रानी विद्यापति , जयदेव् ,अयाची  वाचस्पति  जन्म स्थली है । मधुबनी से एक किलोमीटर की दुरी पर अवस्थित मंगरौनी में बुढ़िया माई मंदिर तंत्र मंत्र स्थल है । मैथिली  कवि कोकिल विद्यापति ,  संस्कृत साहित्य के महा विद्वान  जयदेव का जन्म भूमि थी ।।कवि चन्दा झा का रामायण ,वाचस्पति की ‘भवमती’ टीका  प्राचीन गाथा में संस्कृत भाषा में गीत गोविन्द आदि मधुबनी के गौरवमय हैं । बाबा  चन्देश्वरनाथ स्थान: भगवान शिव को समर्पित श्री श्री १०८ बाबा चन्देश्वर नाथ शिव मंदिर अंधरा ठाढ़ी प्रखंड के हररी में अवस्थित है । मधुबनी के उत्तर में अवस्थित रूद्र के ग्यारह लिंगो का एकादश रुद्र मंदिर मंगरौनी कुटी  है ! कलाग्राम में उमानाथ महादेव जितवारपुर में मनोकामना लिंग है ।

गुरुवार, जून 01, 2023

पूर्वी चम्पारण की सांस्कृतिक विरासत ....


 पुराणों एवं विभिन्न ग्रथों में चम्पारण का उल्लेख विभिन्न नामों से किया गया है । विभिन्न ग्रंथों में चम्पारण को चंपा ,चंपानगर ,चम्पावती , चम्पापुरी ,चम्पामालिनी , चम्पारण्य कहा गया है । सतयुग में लोमपाद के राजा चम्प के पुत्र महागोविंद ने चंपानगर बसाया था । जैन धर्म के 12वें तीर्थंकर वासुपूज्य का जन्म और मोक्ष स्थल चंपा थी । जैन ग्रंथ दशवैकालिक सूत्र में रानी गांगरा द्वारा पोक्खरानी, दिवास्वप्न के अनुसार चंपा में समलेश्वरी और कालेश्वर शिवलिंग की स्थापना सुंदर की पुत्री चंपा द्वारा की गई थी । उत्तरवैदिक काल में चंपा महाजनपद था । ह्वेनसांग ,दशकुमार चरित , अथर्वेद ,वायुपुराण , हरिवंश पुराण 31:49 , महाभारत शांतिपर्व 3:6:7 और मत्स्यपुराण 48 :47  के अनुसार मालिनी का राजा पृथुलाक्ष के पुत्र चम्प ने चम्पामालिनी नगर वसया था । चंपा के वनों को चम्पारण्य आधुनिक नाम चम्पारण कहा गया है ।  चम्पारण्य में रत्नाकर बाद में आदिकवि वाल्मीकि का कर्मक्षेत्र त्रेतायुग में था । पूर्वी चंपारण जिले का मुख्‍यालय मोतिहारी में महात्मा गांधी ने राजनीतिक आंदोलन की शुरुआत होने के कारण शांतिनिकेतन के कलाकार नंदलाल बोस द्वारा निर्मित 48 फिट लंबाई युक्त पाषाण युक्त  गांधीवादी मेमोरियल स्तंभ की आधार शिला 10 जून 1972 ई. को बिहार के। राज्यपाल देवकांत वरुआ  ने स्थापित की है । मोतिहारी का निर्देशांक: 26°39′00″ एन 84°55′00″ ई  / 26.65000° एन 84.91667° ई पर अवस्थित क्षेत्रफल 122 वर्ग  किमी और समुद्र तल से ऊँचाई 62 मी (203 फीट) , जनसंख्या 2011 के अनुसार  1,25 183  है । मोतिहारी की स्थलाकृति में  मोतीझील झील , सीताकुंड, अरेराज, केसरिया, चंडी स्‍थान,ढा़का जैसे जगह घूमने लायक है। मोतिहारी से 16 किमी दूर पीपरा रेलवे स्‍टेशन से 2 किमी उत्तर में बेदीबन मधुबन पंचायत मे भगवान राम के विवाह के पाश्चात, जनकपुर से लौटती बारात ने एक रात्रि का विश्राम मधुवन  स्थान पर किया था। भगवान राम और देवी सीता के विवाह कि चौथी तथा कंगन खोलाई कि विधि   संपन्न किया गया था। अंग्रेजी लेखक जॉर्ज ऑरवेल - एनिमल फार्म और नाइंटीन एटीफोर   के रचयिता जार्ज़ ऑरवेल का जन्म सन 1903 में मोतिहारी में हुआ था।  रिचर्ड वॉल्मेस्ले ब्लेयर बिहार में अफीम की खेती से संबंधित विभाग में उच्च अधिकारी थे।  ऑरवेल  के एक वर्ष की आयु में  मॉ और बहन के साथ वापस इंग्लैण्ड चले गए थे। मोतिहारी का राजा मोती सिंह द्वारा मोतीझील का जीर्णोद्धार एवं हरि सिंह ने सोमेश्वर शिव मंदिर का निर्माण कराया था । 1869 ई. में मोतिहारी नगरपालिका की स्थापना की गई थी ।
तिरहुत प्रमंडल का 3968 वर्ग किमी व 1532 वर्गमील क्षेत्रफल में विकसित पूर्वी चंपारण जिला का गठन 02 नवंबर 1971 ई. को 1886 ई. में स्थापित जिला  चंपारण को विभाजित कर  पूर्वी चंपारण का मुख्यालय मोतिहारी है।  पूर्वी चम्‍पारण के उत्‍तर में नेपाल तथा दक्षिण में मुजफ्फरपुर ,  पूर्व में शिवहर और सीतामढ़ी तथा पश्चिम में पश्चिमी चम्‍पारण जिला की सीमाओं से घिरा हुआ है । पुराणों एवं विभिन्न ग्रंथों के अनुसार  राजा उत्तानपाद के पुत्र भक्त ध्रुव ने  तपोवन  स्थान पर ज्ञान प्राप्ति के लिए घोर तपस्या की थी। चंपारण की भूमि देवी सीता की शरणस्थली एवं  आधुनिक भारत में गाँधीजी का चंपारण सत्याग्रह भारतीय स्वतंत्रता का स्थल  है। राजा जनक काल में  मिथिला का तिरहुत प्रदेश का अंग था।  जानकीगढ या  चानकीगढ में मिथिला प्रदेश की राजधानी थी। जानकी गढ़  छठी सदी ई . पू.  में वज्जी के साम्राज्य का हिस्सा बन गया था । भगवान बुद्ध का  उपदेश स्थल की याद में तीसरी सदी ई. पू .  में मगध साम्राज्य का सम्राट प्रियदर्शी अशोक ने स्तंभ और स्तूप का निर्माण कराया था । गुप्त वंश तथा पाल वंश के पतन के बाद चंपारण कर्नाट वंश के अधीन हो गया। मुगल काल में स्थानीय क्षत्रपों का  शासन था । स्वतंत्रता संग्राम के समय चंपारण के  रैयत एवं स्वतंत्रता सेनानी राजकुमार शुक्ल के बुलावे पर महात्मा गाँधी अप्रैल १९१७ में मोतिहारी आए और नील की फसल के लागू तीनकठिया खेती के विरोध में सत्याग्रह का पहला सफल प्रयोग किया था । ब्रिटिश साम्राज्य काल में चंपारण को सन १८६६ में  स्वतंत्र इकाई बनाया था । चम्पारण को १९७१ में विभाजन कर पूर्वी तथा पश्चिमी चंपारण बना दिया गया है। पूर्वी चंपारण में गंडक, बागमती तथा इसकी अन्य सहायक नदियों के मैदान में होने से पूर्वी चम्‍पारण की उपजाऊ मिट्टी खेती के लिए उपयुक्त है। सिंचाई के लिए गंडक से निकाली गई त्रिवेणी, ढाका तथा सकरी नहरें बनी है। गंडक, बागमती, सिकरहना, ललबकिया, तिलावे, कचना, मोतिया, तिऊर और धनौति नदियाँ है । पूर्वी चंपारण जिले में 2011 जनगणना के अनुसार 5099371 आवादी वाले क्षेत्र में मोतिहारी सदर, अरेराज, चकिया, रक्सौल, सिकरहना, पकड़ी दयाल अनुमंडल तथा प्रखंड में  ढ़ाका अरेराज, आदापुर, कल्यानपुर, केसरिया, कोटवा, घोड़ासहन, चकाई, चिरैयां, छौरादानों, तेतरिया, तुरकौलिया, पकड़ी दयाल, पताही, पहाड़पुर, पिपराकोठी, फेनहारा, बनकटवा, बंजारिया, मधुवन, मेहसी, मोतिहारी, रक्सौल,रमगढवा, संग्रामपुर, सुगौली, हरसिद्धी है । पुलिस थानों की संख्या- ४१ , पंचायतों की संख्या- ४०९ , गाँव की संख्या- १३४५ एवं 55. 79 साक्षरता दर है । जिले के क्षेत्रों  में भोजपुरी , मगही , मैथिली , वज्जिका और  हिंदी  है। केसरिया बौद्ध स्‍तूप - मोतिहारी से ३५ किलोमीटर दूर साहेबगंज-चकिया मार्ग पर लाल छपरा चौक के समीप  केसरिया में  बौद्धकालीन स्तूप है । भारतीय पुरातत्‍व विभाग द्वारा 1998 ई. में  केशरिया उत्‍खनन के उपरांत केशरिया को पुरातत्ववेत्‍ताओं के अनुसार केशरिया बौद्ध स्‍तूप है। केशरिया स्तूप 150 फीट ऊँचे इस स्‍तूप की ऊँचाई सन 1934 में आए भयानक भूकंप से पूर्व  123 फीट थी। भारतीय पुरातत्‍वेत्‍ताओं के अनुसार जावा का बोराबुदूर स्‍तूप 103 फीट ऊँचा है वहीं केसरिया  स्‍तूप की ऊंचाई 104 फीट है। विश्‍व धरोहर में शामिल सांची का स्‍तूप की ऊंचाई 77.50 फीट ही है।  लौरिया नन्दनगढ अशोक स्तंभ - अरेराज अनुमंडल के लौरिया  में स्थित बालुकामय अशोक स्‍तंभ की ऊंचाई 36.5 फीट  का निर्माण 249 ई.  पू.  सम्राट अशोक के द्वारा किया गया था। इसपर प्रियदर्शी अशोक लिखा हुआ है। अशोक स्तंभ का व्‍यास 41.8 इंच तथा शिखर का व्‍यास 37.6 इंच है। सम्राट अशोक ने स्तम्भ में  6 आदेशों के संबंध में लिखा है। स्‍तंभ का वजन 34 टन  है। अनुमान के अनुसार इस स्‍तंभ का कुल वजन 40 टन है। कहा जाता है कि इस स्‍तंभ के ऊपर जानवर की मूर्ति को  कोलकाता संग्रहालय भेज दिया गया है। अशोक स्तंभ  पर  18 लाइनों में संदेश उकेरा है। जॉर्ज ऑरवेल स्मारक - अंग्रेजी साहित्य के   लेखक जॉर्ज ऑरवेल का जन्म २५ जून १९०३ को मोतिहारी में हुआ था। लेखक जॉर्ज ऑरवेल के  पिता रिचर्ड वेल्मेज्ली ब्लेयर चंपारण के अफीम विभाग में सिविल अधिकारी थे। जन्म के ऑरवेल अपनी माँ और बहन के साथ इंगलैंड जाकर विद्यार्थी जीवन से  लेखन आरंभ किया था । ऑरवेल की पुस्तक एनिमल फॉर्म , बूमेसे डेज ए हैंगिंग   अंग्रेजी साहित्य की महान कृति है। विश्व कबीर शांति स्तंभ, बेलवातिया -  मोतिहारी  से दस किलो मीटर पर पीपराकोठी प्रखंड के बेलवातिया गांव में  भारत का आठवां एवं बिहार का प्रथम  विश्व कबीर शांति स्तंभ को 1875 ई . में महंत स्व० केशव साहेब ने स्थापित किया था । संत कवीर आश्रम की स्थापना  महंथ स्व० केशव साहब ने 1875 ई. में की थी । कवीर आश्रम के महंथ श्याम बिहारी दास साहब सन 1895 से 1901 ई०, महंथ स्व० रिशाल साहब 1901 ई. से 1929 ई.  तक, महंथ  ब्रह्मदेव साहब सन 1929 ई. से 1954 ई.  तक थे ।  महंथ कमल साहेब सन 1954 ई. से 1975 ई.तक  एवं  कवीर  आश्रम के १०० वे स्थापना दिवस पर महंथ रामस्नेही दास ने अपने काल में ही विश्व कबीर शांति स्तंभ की स्थापना किया था । सोमेश्वर महादेव मंदिर -  मोतिहारी  से 28 किमी दूर दक्षिण-पश्चिम में स्थित अरेराज में भगवान शिव को समर्पित सोमेश्वर शिव  मंदिर है ।सीताकुंड -  मोतिहारी से 16 किमी दूर पीपरा रेलवे स्‍टेशन के समीप प्राचीन  किले के परिसर में सीताकुंड स्थित है। भगवान राम की पत्‍नी सीता ने त्रेतायुग में सीता  कुंड में स्‍नान किया था।  सीता कुंड के तट पर  भगवान सूर्य, देवी दुर्गा, हनुमान सहित  अन्य मंदिर  हैं। गोविन्दगंज का चंडी स्थान , हुसैनी जलविहार प्रसिद्ध है । महत्वपुर्ण व्यक्ति में राजकुमार शुक्ल ,जॉर्ज ऑरवेल ,रमेश चन्द्र झा , राधा मोहन सिंह ,अनुरंजन झा ,रवीश कुमार संजीव के झा तथा कृषि में चावल, दलहन फसलें, गन्ना, जूट उत्पादन एवं उद्योग में चीनी मिल- मोतिहारी, चकिया तथा सुगौली और मेहसी का बटन उद्योग है । ब्रिटिश साम्राज्य द्वारा 5228 वर्गकिमी क्षेत्रफल में अवस्थित 2827 गांवों को शामिल कर 1866 ई. में चम्पारण को जिला का सृजन किया गया था । 6 ठी ई.पू. वैशाली साम्राज्य का अंग चम्पारण था । चम्पारण जिले का बारा में 1813 ई. को नील की खेती प्रारम्भ हुई और 1850 ई. में नील चम्पारण का उत्पादन क्षेत्र बन गया था । 1900 ई में नील फैक्ट्रियों की गिरावट होने से किसानों में असंतोष व्याप्त हो गया था । तीनकठिया नील प्रणाली द्वारा नील की खेती होने लगी थी । 

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