सोमवार, मार्च 29, 2021

शाकद्वीप : शक संबत...



        वेदों , पुराणों और जयोतिष ग्रंथों में विश्व की भूभाग को स्वायंभुव मनु और शतरुपा के अंश से उत्पन्न पुत्रों में वीर , प्रियव्रत तथा उत्तानपाद द्वारा  सात द्वीपों में विभक्त किया गया है। प्रियब्रत द्वारा  अपने पुत्र महात्मा भव्य को शाकद्वीप का स्वामी बनाया  है । भव्य के पुत्रों में जलद , कुमार, सुकुमार, मनीरक , कुसुमोद , गोदाकी तथा महाद्रुम द्वारा अपने अपने नाम पर देश की स्थापना की गयी थी। शाकद्वीप में मग ( ब्राह्मण ), मागध ( क्षत्रिय ) , मानस ( वैश्य ) तथा मंदग ( शूद्र ) है। शाकद्वीप की भूमि पर भगवान सूर्य आराध्य देव है। प्राचीन काल में शाकद्वीप के निवासी को शाकद्वीपीय , शाकद्वीप, शकद्वीप , शकदीप सकलदीपी , सकल , शकल  और  शक , स्किथी , स्किथिया , प्राचीन मध्य एशिया में कहा गया था।  प्राचीन भारतीय, ईरानी, यूनानी और चीनी स्रोत इनका अलग-अलग है।  स्किथी विश्व के शक प्राचीन ईरानी भाषा-परिवार की बोली बोलते थे और इनका अन्य स्किथी-सरमती लोगों से सम्बन्ध था। शकों का भारत के इतिहास पर गहरा असर रहा है क्योंकि यह युएझ़ी लोगों के दबाव से भारतीय उपमहाद्वीप में घुस आये और  साम्राज्य बनाया था । भारतीय राष्ट्रीय कैलंडर 'शक संवत'  है।  इतिहासकार के अनुसार  दक्षिण एशियाई साम्राज्य को 'शकास्तान' कहा हैं । शकस्थान में पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, गुजरात, सिंध, ख़ैबर-पख़्तूनख़्वा और अफ़्ग़ानिस्तान शामिल थे। पहली शताब्दी ई. पू.  में स्किथिया और सरमतिया , मध्य एशिया का भौतिक मानचित्र, पश्चिमोत्तर में कॉकस से पूर्वोत्तर में मंगोलिया तक स्किथियों के सोने के अवशेष, बैक्ट्रिया की तिलिया तेपे पुरातन-स्थल से ३०० ईसापूर्व में मध्य एशिया के पज़ियरिक क्षेत्र से शक (स्किथी) घुड़सवार थे। 
शक प्राचीन आर्यों के वैदिक कालीन रहे हैं । शाकद्वीप पर बसने के कारण शाक अथवा शक कह गया है ।  पुराणों  के अनुसार शक्तिशाली राजा सगर द्वारा शक को देश निकाला गया था । हूणों द्वारा शकों को शाकल द्वीप क्षेत्र से खदेड़ दिया गया था। जिसके परिणाम स्वरुप शकों का कई क्षेत्रों में बिखराव हुआ। पुराणों में शक   की उत्पत्ति सूर्यवंशी राजा नरिष्यंत  है। राजा सगर ने राजा नरिष्यंत को राज्यच्युत तथा देश से निर्वासित किया था। वर्णाश्रम आदि के नियमों का पालन न करने के कारण तथा ब्राह्मणों से अलग रहने के कारण वे म्लेच्छ हो गए थे। उन्हीं के वंशज शक कहलाए। शकद्वीप के नाम से मध्य एशिया प्रसिद्ध था। यूनानी लोग शक  देश को 'सीरिया' कहते थे।  मध्य एशिया के रहनेवाला शक है। शक साम्राज्य  बड़ी प्रतापशालिनी थी। ईसा से दो सौ वर्ष पूर्व  शक ने मथुरा और महाराष्ट्र पर अपना अधिकार कर लिया था। शक को देवपुत्र कहते थे। इन्होंने १९० वर्ष तक भारत पर राज्य किया था। इनमें कनिष्क और हविष्क आदि बड़े बड़े प्रतापशाली राजा हुए हैं।भारत के पश्चिमोत्तर भाग कापीसा प्रदेश  और गांधार  प्रदेश  में यवनों के कारण ठहर न सके और बोलन घाटी पार कर भारत में प्रविष्ट हुए। तत्पश्चात् उन्होंने पुष्कलावती एवं तक्षशिला पर अधिकार कर लिया और वहाँ से यवन हट गए। 72 ई. पू. शकों का प्रतापी नेता मोअस उत्तर पश्चिमांत के प्रदेशों का शासक था। उसने महाराजाधिराज महाराज की उपाधि धारण की जो उसकी मुद्राओं पर अंकित है। उसी ने अपने अधीन क्षत्रपों की नियुक्ति की जो तक्षशिला, मथुरा, महाराष्ट्र और उज्जैन में शासन करते थे।  शक विदेशी समझे जाते थे यद्यपि उन्होंने शैव मत को स्वीकार कर किया था। मालव जन ने विक्रमादित्य के नेतृत्व में मालवा से शकों का राज्य समाप्त कर दिया और इस विजय के स्मारक रूप में विक्रम संवत् का प्रचलन किया । शकों के अन्य राज्यों का शकारि विक्रमादित्य गुप्तवंश के चंद्रगुप्त द्वितीय ने समाप्त करके एकच्छत्र राज्य स्थापित किया। शकों को अन्य विदेशी जातियों की भाँति भारतीय समाज ने आत्मसात् कर लिया। शकों की प्रारंभिक विजयों का स्मारक शक संवत् प्रचलित है। शक प्राचीन मध्य एशिया में रहने वाली स्किथी लोगों की एक जनजाति या जनजातियों का समूह था। प्राचीन भारतीय, ईरानी, यूनानी और चीनी स्रोत इनका अलग-अलग विवरण देते हैं। इतिहासकार मानते हैं कि ‘शक स्किथी थे, लेकिन सभी स्किथी शक नहीं थे’, यानि ‘शक’ स्किथी समुदाय के अन्दर के कुछ हिस्सों का जाति नाम था ।
शकों के प्रारंभिक इतिहास की जानकारी के लिये हमें चीनी स्रोतों पर निर्भर रहना पङता है। इनमें पान-कू कृत सिएन-हान-शू अर्थात् प्रथम हान वंश का इतिहास तथा फान-ए कृत हाऊ-हान – शू अर्थात् परवर्ती हान वंश का इतिहास उल्लेखनीय है। 11 शक वंश के शासकों का इतिहास हिस्ट्री आँफ रुल्स आँफ शाक डायनोस्टी 
इनके अध्ययन से यू-ची, हूण तथा पार्थियन जाति के साथ शकों के संघर्ष तथा उनके प्रसार का ज्ञान होता है। चीनी ग्रंथ तथा लेखक शकों की सई अथवा सई वांग कहते हैं।भारत में शासन करने वाले शक तथा पल्लव शासकों का ज्ञान हमें मुख्य रूप से उनके लेखों तथा सिक्कों से होता है। शकों के प्रमुख लेख निम्नलिखित हैं-राजवुल का मथुरा सिंह शीर्ष, स्तंभलेख।शोडास का मथुरा दानपत्रलेख।नहपानकालीन नासिक के गुहालेख।नहपानकालीन जुन्नार का गुहालेख।उषावदान के नासिक गुहालेख।रुद्रदामन का अंधौ (कच्छ की खाङी) का लेख।रुद्रदामन का गिरनार (जूनागढ) का लेख। सातवाहन राजाओं के लेखों से शकों के साथ उनके संबंधों का ज्ञान होता है। लेखों के अतिरिक्त पश्चिमी तथा उत्तरी पश्चिमी भारत के बङे भाग से शक राजाओं के बहुसंख्यक सिक्के प्राप्त हुए हैं। कनिष्क के लेखों से पता चलता है, कि कुछ शक-क्षत्रप तथा महाक्षत्रप उसकी अधीनता में देश के कुछ भागों में शासन करते थे। रामायण तथा महाभारत जैसे भारतीय साहित्यों में यवन, पल्लव आदि विदेशी जातियों के साथ शकों का उल्लेख होता है। कात्यायन एवं पतंजलि शकों से परिचित थे। मनुस्मृति में  शकों का उल्लेख मिलता है।पुराणों में  शक, मुरुण्ड, यवन जातियों का उल्लेक मिलता है। भारतीय ग्रंथों में गार्गीसंहिता, विशाखादत्त कृत देवीचंद्रगुप्तम, बाण कृत हर्षचरित, राजशेखर कृत काव्यमीमांसा में  शकों का उल्लेख मिलता है।जैन ग्रंथों में शकों के विषय में विस्तृत जानकारी मिलती है। जैन ग्रंथ कालकाचार्य कथानक में उज्जयिनी के ऊपर शकों के आक्रमण तथा विक्रमादित्य द्वारा उनके पराजित किये जाने का उल्लेख मिलता है।भारतीय साहित्य में शकों के प्रदेश  को शकद्वीप अथवा शकस्थान कहा गया है।शकों की उत्पत्ति तथा प्रसार- शक मूलतः सीरदरया के उत्तर में निवास करने वाली एक खानदेश तथा बर्बर जाति थी। चीनी ग्रंथों से पता चलता है कि, 165 ईसा पूर्व के लगभग यू-ची नामक एक अन्य जाति ने उन्हें परास्त कर वहाँ सेर खदेङ दिया। शकों ने सीरदया पार कर बल्ख (बैक्ट्रिया) पर अधिकार कर लिया तथा वहाँ के यवनों को परास्त कर भगा दिया। परंतु यू-ची जाति ने वहाँ भी उनका पीछा किया तथा पुनः परास्त हुये। पराजित शक जाति दो शाखाओं में विभक्त हो गयी। उनकी एक शाखा दक्षिण की ओर गयी तथा कि-पिन (कपिशा) पर अधिकार कर लिया। दूसरी शाखा पश्चिम में ईरान की ओर गईा।वहाँ उसे शक्तिशाली पार्थियन सम्राटों से युद्ध करना पङा। शकों ने दो पार्थियन राजाओं फ्रात द्वितीय तथा आर्तबान पार्थियन सम्राटों को पराजित कर पूर्वी ईरान तथा एरियाना के प्रदेशों पर अधिकार कर लिया। परंतु पार्थियन नरेश मिथ्रदात द्वितीय ने शकों को बुरी तरह परास्त कर ईरान के पूर्वी प्रदेशों पर पुनः अधिकार कर लिया। यहाँ से भागकर शक हेलमंड घाटी (दक्षिणी अफगानिस्तान) में आये तथा वहीं बस गये। इस स्थान को शकस्थान (सीस्तान) कहा गया। यहाँ से कंधार और बोलन दर्रा होते हुये वे सिंधु नदी – घाटी में जा पहुँचे। उन्होंने सिंध प्रदेश में अपना निवास-स्थान बना लिया। शकों के साथ संपर्क के कारण इस स्थान को शक-द्वीप कहा गया। इस प्रकार भारत में शक पूर्वी ईरान से होकर आये थे। उन्होंने पश्चिमोत्तर प्रदेशों से यवन-सत्ता को समाप्त कर उत्तरापथ एवं पश्चिमी भारत के बङे भू-भाग पर अपना अधिकार कर लिया। तक्षशिला, मथुरा, महाराष्ट्र, उज्जयिनी आदि स्थानों में शकों की भिन्न-2 शाखायें स्थापित हुई। शक नरेशों के भारतीय प्रदेशों के शासक क्षत्रप कहे जाते थे। शाकद्वीप के निवासी प्रकृति पूजक में भगवान सूर्य  की उपासना , चंद्रमा , बरगद , आँवला , पीपल , नीम , शाक  पेड. , नदियों में गंगा , सरस्वती  नदियाँ की पूजन का महत्वपूर्ण स्थान है । यहां के निवासियों में मग द्वारा आयुर्वेद , चिकित्सा पद्धति का जन्म  दिया गया है।
ईरान , उज्जयिनी , कंधार , कनिष्क ,कपिशा , कालकाचार्य काव्यमीमांसा , क्षत्रपखानदेश ,गार्गी संहिता जैन ग्रंथ ,तक्षशिलादेवीचंद्रगुप्तम ,पान-कू कृत सिएन-हान-शूफान-ए कृत हाऊ-हान - शूबल्खबाणबैक्ट्रियाबोलन दर्रा मथुरामहाराष्ट्र यू-चीविक्रमादित्य ,शक-द्वीपशकद्वीप शकस्थान , सई वांग , हर्षचरितहूण तथा पार्थियन। भारत में मौर्योत्तर इंडो-ग्रीक(हिन्द-यवन) शासकों का इतिहास में शकों की प्रमुख शाखाओं का वर्णन में अशोकआधुनिक भारतआधुनिक भारतीय इतिहास में सकल्याणी का चालुक्य वंशगुप्त , कालगुप्त काल में चोल जनवरीजैन,  धर्मदक्षिण भारत में दिल्ली सल्तनत ,  पल्लव राजवंश प्रमुख स्थलप्रश्न एवं प्राचीन भारत ,  फ्रांस की क्रांतिबादामी का चालुक्य वंशबौद्ध कालभक्ति आंदोलन मध्यकालीन मुगल काल , मौर्य काल का मौर्य साम्राज्य का युद्धवर्द्धन वंश , विश्व का वेंगी के चालुक्यवैदिक काल ,वैदिक काल का शाकंभरी का चौहान वंशसम सामयिकीसम , सामयिकीसिंधु घाटी सभ्यतासिंधु घाटी सभ्यता स्त्रोंतस्लाइड , हर्षवर्धन है। शाकद्वीप की चर्चा ब्रह्म , विष्णु, शिव ,लिंग , वाराह ,स्कंद ,गरुड़ , ब्रह्मांड ,मत्स्य ,अग्नि, कुर्म ,सांब, नारद भविष्य ,पद्म ,वायु ब्रह्मवैवर्त पुराणों , देवी भागवत मार्कण्डेय पुराण , महाभारत  में है ।इतिहास के  अनुसार शाकद्वीप के निवासियों को शाक , शक कहा गया है। चीन के इतिहासकार पान कू की पुस्तक सिएन - हान् - शू , फान -ए रचित हाऊ - हान - शू में शकों को सई , साई , सई वांग का उल्लेख मिलता है । भारत में शाकद्वीप को शाक प्रदेश कहा जाता है । शक ने 128 ई.पू. में पार्थियन राजा फ्रांत तथा 123 ई. पू . आर्तवान को पराजित करपूर्वी ईरान और एरियाना पर अधिकार कर शाक संस्कृति फैलाया था। शाकद्वीप संस्कृति में सौर धर्म प्रमुख है । बिहार का मगध , अंग , मिथिला , वैशाली  साम्राज्य , झारखंड , उडीसा , गुजरात , राजस्थान , उतरप्रदेश , मध्यप्रदेश , मिश्र , ईरान ,गंधार ,पेशावर ,महाराष्ट्र  आदि स्थान पर शक का शासन था । मगध साम्राज्य की राजधानी  राजगीर , पाटलिपुत्र , वैशाली , प्रतिष्ठान पुर में विभिन्न राजाओं द्वारा स्थापित किया गया है । राजा प्टथु काल में राजा मागध द्वारा मगध साम्राज्य का निर्माण कर गया मे राजधानी बनाया था। 6400 ई.पू. महाभारत काल में शाकद्वीप सम्राट कर्तार्जुन काल और वर्तमान समय के मानचित्र के अनुसार शाकद्वीप में उतरी अमेरिका , ग्रीनलैंड, वेस्टइंडीज ,कोलंबिया, इक्वडोर शामिल था । शाकद्वीपीय ब्राह्मण को मग , दिव्य, वेदांग , भोजक ,वाचक, साधक , सौर , ऋतब्रत। , वाचक , याजक , शाक , मगी कहा जाता है । वायु के साथ चलने की शक्ति को शाक कहा जाता है। इरान में मगियों ने 1000 ई. पू . अवेस्था ( जेद अवेस्ता ) में सूर्य और अग्नि की उपासना का उल्लेख है। शाकद्वीपीय ब्राह्मण को  आर् , अर्क , आदित्य, किरण ,कर और मंडल के रूप में ख्याति है । शाकद्वीपीय ब्राह्मण ने भगवान सूर्य और चंद्र तथा ग्रह के आधार पर ज्योतिष शास्त्र की उद्भव किया तथा आयुर्वेद , चिकित्सा का उत्पत्ति कर मानव जीवन के कल्याण कर प्रकृति के संरक्षण और संवर्धन का मंत्र दिया है।

रविवार, मार्च 28, 2021

कैमुर की सांस्कृतिक विरासत: कैमूर...




        वैदिक तथा पुराणों के अनुसार कैमूर की संस्कृति में ययाति वंशीय करुरोम के पौत्र अह्लोद के पुत्र कोल ने कोल संस्कृति और कोल (कैमुर )साम्राज्य की स्थापना की है । कोल वंशी कनक के पौत्र क्टतवर्य के पुत्र सहस्त्रार्जुन ने कोल संस्कृति विकास किया। कोल संस्कृति का संरक्षक असुर संस्कृति के रूप मे परिवर्तन असुर राज मुण्ड द्वारा किया गया था ।मुण्ड सम्राज्य मे अराजकतावादी का पस्त करनेवाली माता मुण्डेश्वरी का उदय हुई थी। जिससे प्रदेश में शान्ति मिला था। कैमूर जिले के रामगढ़ का  पंवरा पहाड़ी की 600 फीट उचाई पर मुण्डेश्वरी मंदिर स्थित है I 1812 ई0 से  1904 ई0 के मध्य में ब्रिटिश पुरातत्व वेताओं मे  आर.एन.मार्टिन, फ्रांसिस बुकानन और ब्लाक के अनुसार मुण्डेश्वरी मंदिर स्थित शिलालेख 389 ई0 की है । मुण्डेश्वरी भवानी के मंदिर के नक्काशी और मूर्तियों उतरगुप्तकालीन और पत्थर से निर्मित अष्टकोणीय मंदिर है I  मंदिर के पूर्वी खंड में देवी मुण्डेश्वरी की प्राचीन मूर्ति मुख्य आकर्षण का केंद्र है I माँ वाराही रूप में विराजमान है, जिनका वाहन महिष है I मंदिर में प्रवेश के चार द्वार हैं जिसमे एक को बंद कर दिया गया है और एक अर्द्ध द्वार है I  मंदिर के मध्य भाग में पंचमुखी शिवलिंग मे सूर्य की स्थिति के साथ साथ पत्थर का रंग भी बदलता रहता है I मुख्य मंदिर के पश्चिम में पूर्वाभिमुख विशाल नंदी की मूर्ति अक्षुण्ण है I यहाँ पशु बलि में बकरा  चढ़ाया जाता है परंतु उसका वध नहीं किया जाता है बलि की यह सात्विक परंपरा पुरे भारतवर्ष में अन्यत्र कहीं नहीं है । बिहार के भभुआ जिला केद्र से चौदह किलोमीटर दक्षिण-पश्चिम में स्थित है कैमूर की पहाड़ी। साढ़े छह सौ फीट की ऊंचाई वाली  पहाड़ी पर माता मुंडेश्वरी एवं महामण्डलेश्वर महादेव का एक प्राचीन मंदिर है। मंदिर में तेल एवं अनाज का प्रबंध एक स्थानीय राजा के द्वारा संवत्सर के तीसवें वर्ष के कार्तिक (मास) में २२वां दिन किया गया था। इसका उल्लेख एक शिलालेख में उत्कीर्ण राजाज्ञा में किया गया है। अर्थात्‌ शिलालेख पर उत्कीर्ण राजाज्ञा के पूर्व भी यह मंदिर  है। व पहाड़ी पर स्थित मंदिर भग्नावशेष के रूप में है। पंचमुखी महादेव का मंदिर  ध्वस्त स्थिति में है। इसी के एक भाग में माता की प्रतिमा को दक्षिणमुखी स्वरूप में खड़ा कर पूजा-अर्चना की जाती है। माता की साढ़े तीन फीट की काले पत्थर की प्रतिमा  भैंस पर सवार है।इस मंदिर का उल्लेख कनिंघ्म ने भी अपनी पुस्तक में किया है।  कैमूर में मुण्डेश्वरी पहाड़ी पर   मंदिर ध्वस्त रूप में विद्यमान है। गड़ेरिये पहाड़ी के ऊपर गए और मंदिर के स्वरूप को देखा है।धार्मिक न्यास बोर्ड, बिहार द्वारा इस मंदिर को व्यवस्थित किया गया और पूजा-अर्चना की व्यवस्था की गई। माघ पंचमी से पूर्णिमा तक इस पहाड़ी पर एक मेला लगता है जिसमें दूर-दूर से भक्त आते हैं। चंड-मुंड के नाश के लिए जब देवी उद्यत हुई थीं । चंड के विनाश के बाद मुंड युद्ध करते हुए इसी पहाड़ी में छिप गया था और यहीं पर माता ने उसका वध किया था। अतएव यह मुंडेश्वरी माता के नाम से स्थानीय लोगों में जानी जाती हैं। एक मजेदार बात, आश्चर्य एवं श्रद्धा चाहे जो कहिए, यहां भक्तों की कामनाओं के पूरा होने के बाद बकरे की बलि चढ़ाई जाती है। पर, माता रक्त की बलि नहीं लेतीं, बल्कि बलि चढ़ने के समय भक्तों में माता के प्रति आश्चर्यजनक आस्था पनपती है। जब बकरे को माता की मूर्ति के सामने लाया जाता है तो पुजारी अक्षत (चावल के दाने) को मूर्ति को स्पर्श कराकर बकरे पर फेंकते हैं। बकरा तत्क्षण अचेत, मृतप्राय हो जाता है। थोड़ी देर के बाद अक्षत फेंकने की प्रक्रिया फिर होती है तो बकरा उठ खड़ा होता है। बलि की यह क्रिया माता के प्रति आस्था को बढ़ाती है। 
पहाड़ी पर बिखरे हुए पत्थर एवं स्तम्भ को देखते हैं तो उन पर श्रीयंत्र सरीखे कई सिद्ध यंत्र एवं मंत्र उत्कीर्ण हैं। प्रत्येक कोने पर शिवलिंग है। ऐसा लगता है कि पहाड़ी के पूर्वी-उत्तरी क्षेत्र में माता मुण्डेश्वरी का मंदिर स्थापित रहा होगा और उसके चारों तरफ विभिन्न देवी-देवताओं के मूर्तियां स्थापित थीं। खण्डित मूर्तियां पहाड़ी के रास्ते में रखीं हुई हैं या फिर पटना संग्रहालय में हैं। जैसा कि शिलालेख मं◌े उल्लेख है कि यहां का स्थान एक गुरुकुल आश्रम के रूप में व्यवस्थित था। पहाड़ी पर एक गुफा भी है जिसे सुरक्षा की दृष्टि से बंद कर दिया गया है। मंदिर के रास्ते में सिक्के भी मिले हैं और तमिल, सिंहली भाषा में पहाड़ी के पत्थरों पर कुछ अक्षर भी खुदे हुए हैं। कहते हैं कि यहां पर श्रीलंका से भी भक्त आया करते थे। बहरहाल, मंदिर के गर्भ में अभी कई रहस्य छिपे हुए हैं, बहुत कुछ पता नहीं है, बस माता की अर्चना होती है। भक्त माता एवं महादेव की आस्था में लीन रहते हैं। मंदिर की यात्रा के क्रम में ऐसा प्रतीत हुआ कि मंदिर अपने आप में कई अनुभवी आध्यात्मिक स्वरूपों को छिपाये हुए है, बस आवरण नहीं उठ रहा है। लेखक को कई तथ्यात्मक अनुभूतियों से साक्षात्कार हुआ।मंदिर की प्राचीनता एवं माता के प्रति बढ़ती आस्था को देख राज्य सरकार द्वारा भक्तों की सुविधा लिए यहां पर विश्रामालय, रज्जुमार्ग आदि का निर्माण कराया जा रहा है। पहाड़ पर स्थित मंदिर में जाने के लिए एक सड़क का निर्माण कराया गया है, जिस पर छोटे वाहन सीधे मंदिर द्वार तक जा सकते हैं। मंदिर तक जाने के लिए सीढ़ियों का भी उपयोग किया जा सकता है।
कैमूर भारत प्रांत के बिहार राज्य का एक जिला है। यहां का प्राशासनिक मुख्यालय भभुआ है।पर्वत और कैमूर वन्यजीव अभ्यारण यहां के प्रमुख पर्यटन स्थलों में से है। इसके अलावा, रामगढ़ गाँव, दुरौली, चैनपुर, भगवानपुर, भभुआ, बिद्यानाथ और मुंडेश्‍वरी स्टोन मंदिर आदि भी यहां के प्रमुख पर्यटन स्थल है।[2] चट्टानों पर हुई चित्रकारी कैमूर की एक बड़ी खोज है। इन चित्रों का सम्बन्ध मैसोलिथिक काल से है। माना जाता है कि यह चित्रकारी 5000 ई.पू. से 2500 ई.पू. के समय की है। इनमें से कई चित्र जानवरों के बने हुए हैं। कैमूर जिला में मां मुंडेश्वरी का अदभुत मंदिर हैं जिसके चलते यहां काफी पर्यटक आते जाते रहते हैं मां मुंडेश्वरी का मंदिर विश्व का सबसे प्राचीन मंदिरों में से एक हैं यहां से 500m दूरी पर एक गाव है रामगढ़ नाम का जो कि काफी इतिहासिक है यहां का इतिहास और झरने काफी मनमोहक लगते हैं।भारतीय गणराज्य का राज्य बिहार के  ज़िला कैमूर जिला मुख्यालय भभुआ है। कर्मनाशा और दुर्गावटी यहां की दो प्रमुख नदियां है। ऐतिहासिक द़ष्टि से भी यह स्थान काफी महत्वपूर्ण माना जाता है। कैमूर जिला बिहार के बक्सर जिला एवं उत्तर प्रदेश के गाजीपुर जिला के दक्षिण, झारखंड के गढ़वा जिले के उत्तर, उत्तर प्रदेश के चन्दौली एवं मिर्जापुर जिले के पूरब और बिहार के रोहतास जिले के पश्चिम से घिरा हुआ है। 
कैमूर का इतिहास काफी प्राचीन और रूचिकर है। यह जिला छठी शताब्दी ई.पू. से पांचवी शताब्दी ई. तक शक्तिशाली मगध साम्राज्‍य का हिस्सा था। सातवीं शताब्दी में कैमूर कन्नौज के शासक हर्षवर्द्धन के अधीन आ गया। सी. मार्क (इतिहासकार) के अनुसार इस क्षेत्र पर शासन करने वाले प्रथम शासक पाल वंश के थे। उसके बाद चन्दौली का यहां शासन रहा और बारहवीं शताब्दी में ताराचंदी ने कैमूर जिले पर राज किया। अत: यह क्षेत्र कई शासक वंशो के अधीन रहा। कैमूर का तेलहर प्रपात मुख्य आकर्षण प्राशासनिक मुख्यालय भभुआ में देखा जा सकता है जहाँ आपको सबकुछ हरा ही दिखेगा। भभुआ को 'हरित नगर' (हरा शहर) के रूप में पहचान मिल चुकी है। [भभुआ मुख्यालय के पश्चिम से 11 किलोमीटर की दूरी पर चैनपुर स्थित है। यहां बख्तियार खान का स्मारक है। कहा जाता है कि बख्तियार खान का विवाह शेरशाह की पुत्री से हुआ था। चैनपुर स्थित किले का निर्माण सूरी अथवा अकबर काल के दौरान हुआ था, इसी स्मारक के पश्चिम में मुस्लिम दरगाह असमकोटी हैं। इसके अतिरिक्त, यहां हरसू ब्रह्म नाम का एक प्रसिद्ध हिन्दू मंदिर भी है। कहा जाता है कि राजा शालीवाहन के पुजारी हरशू पांडे ने अपने घर की रक्षा में इसी जगह पर अपने प्राण गवाएं थे।तेलहार कुंड भभुआ जिला से २७ किलोमीटर दूरी पर स्थित है, जो की अधौरा(गांव ) के रास्ते में है | मुख्यः रूप से यह एक झरना है जहाँ पहाड़ो से होकर आने वाली पानी गिरता है। कैमूर पर्वत के समीप स्थित भगवानपुर भभुआ के दक्षिण से 11 किलोमीटर की दूरी पर है। कहा जाता है कि यह स्थान चन्द्रसेन सारन सिंह की शक्ति का केन्द्र हुआ करता था। राजा शलिवाहन ने इस क्षेत्र को शेर सिंह से जीत लिया था। लेकिन बाद में अकबर के शासनकाल के दौरान उन्होंने इस क्षेत्र पर पुन: विजय प्राप्त कर ली थी। इसी से सटे लगभग ५किलोमीटर की दूरी पे टेकरा गां व है जो अद्भुत छवि झलकता है ।रामगढ़ गांव अपराध, सुंदर-सुंदर पहाड़, झरना, झील और जिले की शान मुंडेश्‍वरी मंदिर के लिए प्रसिद्ध है। इस मंदिर का निर्माण एक ऊंचे पर्वत पर समुद्र तल से लगभग 600 फीट की ऊंचाई पर किया गया है। यहां से कुछ पुरातत्वीय अभिलेख भी प्राप्त हुए थे, जिनका काफी महत्व माना जाता है। यह काफी प्राचीन मंदिर है। इस मंदिर का निर्माण लगभग 635 ई. में किया गया था। यह जगह समुद्र तल से 2000 फीट की ऊंचाई पर स्थित है। अधौरा, भभुआ से 58 किलोमीटर की दूरी पर है। पर्वतों और जंगलों से घिरे इस स्थल की खूबसूरती देखने लायक है। यहीं कारण है कि काफी संख्या में पर्यटक यहां आना पसंद करते हैं।
बैजनाथ गांव रामगढ़ खण्ड मुख्यालय के दक्षिण से लगभग 9 किलोमीटर की दूरी पर है। यहां पर एक अति प्राचीन शिव मंदिर है। इस मंदिर का निर्माण प्रतिहार वंश ने करवाया था। इस मंदिर में कई प्राचीन सिक्के और अनेक महत्वपूर्ण वस्तुएं मौजूद है। बैजनाथ में स्थित शिव मंदिर का शिखर एक शिला को तराश कर बनाया गया है। मुंडेश्‍वरी मंदिर कैमूर जिले के रामगढ़ गांव में स्थित है। कहा जाता है कि यह मंदिर 636 ई. से ही अस्तित्‍व में है। यह मंदिर गुप्‍त काल की वास्तुशैली का अनोखा उदाहरण है। मुंडेश्वरी मंदिर के तराई में स्थित रामगढ़ गाँव काफी मनमोहक लगता है यह गांव पहाड़ों और प्रकृति के गोद में होने के कारण काफी आकर्षित दिखता है। दरौली गांव रामगढ़ के उत्तर-पूर्व से लगभग आठ किलोमीटर की दूरी पर दरौली स्थित है। यह बहुत ही खूबसूरत स्थान है। दरौली गांव में दो प्राचीन मंदिर है तथा यहां प्राचीन जिले का सर्वाधिक बड़ा तालाब भी है।भभुआ कैमूर जिला का जी.टी. मार्ग के दक्षिण  14 किलोमीटर की दूरी पर जिला मुख्यालय भभुआ  स्थित है। मुंडेश्‍वरी मंदिर से पश्चिम की ओर 6 किलोमीटर की दूरी पर भगवानपुर और चैनपुर के सीमा पर जगदहवां डैम  2 किलोमीटर के दूरी में फैला हुआ  सिचाई के लिए सर्वोत्तम मानी जाती है । जगदहवां डैम से निकला नहर  गेहुँआ नदी में समाहित है और गेहुँआ नदी कर्मनाशा नदी में  मिल जाती हैं। कैमूर की भाषा हिंदी और भोजपुरी है ।

शनिवार, मार्च 27, 2021

लक्ष्मी जी तथा शंख का प्राकाट्योत्सव : होलिकोत्सव...


        पुरणों और शास्त्रों में समुद्र मंथन से माता लक्ष्मी की  प्राकाट्य और दक्षिणवर्ती शंख का उद्भव मानव जीवन का रुप और अभिमान तथा बुराइयों का दहन कर मानवीय जीवन में चतुर्दिक विकास का उल्लेख है । फाल्गुन मास की पूर्णिमा को  समुद्र मंथन के दौरान माता लक्ष्मी प्रकट होने के कारण लक्ष्मी जयंती के रूप में मनाया जाता है । माता लक्ष्मी जी कीअराधना करने से आर्थिक संकट को दूर कर सकते हैं । फाल्गुन मास की पूर्णिमा के दिन माता लक्ष्मी का प्राकट्य दिवस मनाया जाता है. मान्यता है कि इसी दिन समुद्र मंथन के दौरान माता लक्ष्मी प्रकट हुई थीं।  फाल्गुन माह की पूर्णिमा तिथि 28 मार्च को 3 बजकर 27 मिनट से शुरू हो जाएगी और अगले दिन यानी 29 मार्च को 12 बजकर 17 मिनट तक रहेगी । लक्ष्मी  माता की विधि विधान से पूजा करने से  अत्यंत प्रसन्न होती हैं और अपने भक्तों की मनोकामना को पूरा करती हैं.।  घर में आर्थिक किल्लत दूर होती है। 28 मार्च को सुबह जल्दी उठकर स्नानादि से निवृत्त होने के बाद स्वच्छ कपड़े पहनें और एक चौकी पर लाल वस्त्र बिछाकर माता लक्ष्मी की तस्वीर इस तरह रखें कि पूजा के दौरान आपका मुंह पूर्व दिशा की ओर हो. इसके बाद माता को जल, सिंदूर, अक्षत, लाल पुष्प, वस्त्र, दक्षिणा, धूप-दीप, इत्र और खीर का प्रसाद अर्पित करें. इसके बाद लक्ष्मी चालीसा, मंत्र जाप या माता के 1008 नामों का उच्चारण करें. फिर आरती करके प्रसाद वितरित करें । दक्षिणावर्ती शंख में जल भरकर लक्ष्मी माता का अभिषेक करें. माता को शंख अतिप्रिय है । शंख माता लक्ष्मी का भाई है क्योंकि उसकी भी उत्पत्ति समुद्र मंथन के दौरान ही हुई थी ।लक्ष्मी पूजन के बाद घर के ईशानकोण में गाय के दूध से बने घी का दीपक जलाएं और उसमें कलावे से बनी बत्ती लगाएं और थोड़ा सा केसर डालें ।पूजा के बाद पांच या सात कुंवारी कन्याओं को माता के प्रसाद की खीर प्रेमपूर्वक खिलाएं और उन्हें दक्षिणा और सामर्थ्य अनुसार वस्त्र आदि दान करने से माता अत्यंत प्रसन्न होती हैं ।पूजा के समय कौड़ी, केसर, हल्दी की गांठ और चांदी के सिक्के को साथ रखकर पूजा करने के बाद एक पीले वस्त्र में  बांधकर उस स्थान पर रख दें जहां धन रखने से काफी लाभ होगा। लक्ष्मी जयंती के दिन पूजा के बाद जरूरतमंदों को  दान करना चाहिए। इससे लक्ष्मी माता अत्यंत प्रसन्न होती है। 
 होलिका दहन का संदेश है कि ईश्वर अपने अनन्य भक्तों की रक्षा के लिए सदा उपस्थित रहते हैं।होलिका दहन, होली त्योहार का पहला दिन, फाल्गुन मास की पूर्णिमा को मनाया जाता है । होली बुराई पर अच्छाई की विजय के उपलक्ष्य में मनाई जाती है। होलिका दहन  के अगले दिन पूर्ण हर्षोल्लास के साथ रंग खेलने का विधान है और अबीर-गुलाल आदि एक-दूसरे को लगाकर व गले मिलकर इस पर्व को मनाया जाता है। होलिका दहन  - पुराणों के अनुसार दानवराज हिरण्यकश्यप ने जब देखा कि उसका पुत्र प्रह्लाद विष्णु भगवान के किसी अन्य को नहीं भजता है । हिरण्यकश्यप क्रुद्ध हो उठा और अंततः उसने अपनी बहन होलिका को आदेश दिया की वह प्रह्लाद को गोद में लेकर अग्नि में बैठ जाए, क्योंकि होलिका को वरदान प्राप्त था कि उसे अग्नि नुक़सान नहीं पहुंचा सकती है।  किन्तु हुआ इसके ठीक विपरीत, होलिका जलकर भस्म हो गई और भक्त प्रह्लाद को कुछ नहीं हुआ। होलिका दहन की   याद में इस दिन होलिका दहन करने की परंपरा है। पार्वती शिव से विवाह करना चाहती थीं लेकिन तपस्या में लीन शिव का ध्यान उनकी तरफ गया ही नहीं। प्रेम के देवता कामदेव आगे आए और उन्होंने शिव पर पुष्प बाण चला दिया। तपस्या भंग होने से शिव को इतना गुस्सा आया कि उन्होंने अपनी तीसरी आंख खोल दी और उनके क्रोध की अग्नि में कामदेव भस्म हो गए। कामदेव के भस्म हो जाने पर उनकी पत्नी रति रोने लगीं और शिव से कामदेव को जीवित करने की गुहार लगाई। होली के दिन शिव का क्रोध शांत हो चुका था, उन्होंने कामदेव को पुनर्जीवित किया। कामदेव के भस्म होने के दिन होलिका जलाई जाती है और उनके जीवित होने की खुशी में रंगों का त्योहार मनाया जाता है ।महाभारत के अनुसार युधिष्ठर को श्री कृष्ण ने बताया-  त्रेतायुग में श्री राम के एक पूर्वज रघु, के शासन मे होला  असुर वरदान प्राप्त महिला थी। उसे गली में खेल रहे बच्चों, के अलावा किसी से  डर नहीं था। गुरु वशिष्ठ, ने बताया कि- होला मारी जा सकती  है, यदि बच्चे अपने हाथों में लकड़ी के छोटे टुकड़े लेकर, शहर के बाहरी इलाके के पास चले जाएं और सूखी घास के साथ-साथ उनका ढेर लगाकर जला दें। फिर उसके चारों ओर परिक्रमा दें, नृत्य करें, ताली बजाएं, गाना गाएं और नगाड़े बजाएं। फिर ऐसा  किया गया। होला दहन  उत्सव के रूप में मनाया गया।  बुराई पर एक मासूम दिल की जीत का प्रतीक है। होली का श्रीकृष्ण से  त्योहार को राधा-कृष्ण के प्रेम के प्रतीक के तौर पर देखा जाता है।  कंस को श्रीकृष्ण के गोकुल में होने का पता चला तो उसने पूतना नामक राक्षसी को गोकुल में जन्म लेने वाले हर बच्चे को मारने के लिए भेजा। पूतना स्तनपान के बहाने शिशुओं को विषपान कराना था। लेकिन कृष्ण उसकी सच्चाई को समझ गए। उन्होंने दुग्धपान करते समय ही पूतना का वध कर दिया। विंध्य पर्वतों के निकट स्थित रामगढ़ में मिले एक ईसा से 300 वर्ष पुराने अभिलेख  है। भगवान श्री कृष्ण ने पूतना नामक राक्षसी का वध किया था। इसी ख़ुशी में गोपियों ने उनके साथ होली  खेलती है ।शाक  कैलेंडर के अनुसार वर्ष के अंतिम माह फाल्गुन माह पूर्णिमा को होलिका दहन होता है।  शाक संबत का नव वर्ष फाल्गुन शुक्ल पक्ष  प्रतिपदा होली प्ररंभ है।


बुधवार, मार्च 24, 2021

कविता : ह्रदय संचार का द्योतक...


        कविता साहित्य में  मनोभाव को कलात्मक रूप से भाषा के द्वारा अभिव्यक्त  है। विश्व  में कविता का इतिहास और कविता का दर्शन प्राचीन है। कविता का  प्रारंभकर्ता भरतमुनि  है। बाण भट्ट ने कहा है कि गद्यम् कवीनां निकसम वदंति अर्थात गद्य ही कविता की कसौटी है। कविता का काव्यात्मक रचना छन्दों की शृंखलाओं में विधिवत जुडाव है।  रसगंगाधर में 'रमणीय' अर्थ के प्रतिपादक शब्द को 'काव्य' कहा है। 'अर्थ की रमणीयता' के अंतर्गत शब्द की रमणीयता समझकर लोग लक्षण को स्वीकार करते हैं। साहित्य दर्पणाकार विश्वनाथ के अनुसार 'रसात्मक वाक्य ही काव्य है'। रस अर्थात् मनोवेगों का सुखद संचार की काव्य की आत्मा है। मम्मट भट्ट ने काव्यप्रकाश में काव्य तीन प्रकार में  ध्वनि, गुणीभूत व्यंग्य और चित्र श्रेष्ठ माना है।ध्वनि वह है जिस, में शब्दों से निकले हुए अर्थ (वाच्य) की अपेक्षा छिपा हुआ अभिप्राय (व्यंग्य) प्रधान हो। गुणीभूत ब्यंग्य वह है जिसमें गौण हो। चित्र या अलंकार वह है जिसमें बिना ब्यंग्य के चमत्कार हो। इन तीनों को क्रमशः उत्तम, मध्यम और अधम भी कहते हैं। काव्यप्रकाशकार का जोर छिपे हुए भाव पर अधिक जान पड़ता है, रस के उद्रेक पर नहीं। काव्य के दो और भेद किए गए हैं, महाकाव्य और खंड काव्य। महाकाव्य सर्गबद्ध और उसका नायक कोई देवता, राजा या धीरोदात्त गुंण संपन्न क्षत्रिय होना चाहिए। उसमें शृंगार, वीर या शांत रसों में से कोई रस प्रधान होना चाहिए। बीच बीच में करुणा; हास्य इत्यादि और रस तथा और और लोगों के प्रसंग भी आने चाहिए। कम से कम आठ सर्ग होने चाहिए। महाकाव्य में संध्या, सूर्य, चंद्र, रात्रि, प्रभात, मृगया, पर्वत, वन, ऋतु, सागर, संयोग, विप्रलम्भ, मुनि, पुर, यज्ञ, रणप्रयाण, विवाह आदि का यथास्थान सन्निवेश होना चाहिए। काव्य दो प्रकार का माना गया है, दृश्य और श्रव्य। दृश्य काव्य वह है जो अभिनय द्वारा दिखलाया जाय, जैसे, नाटक, प्रहसन, आदि जो पढ़ने और सुनेन योग्य हो, वह श्रव्य है। श्रव्य काव्य दो प्रकार का होता है, गद्य और पद्य है।संस्कृत के काव्य-साहित्य के दो भेद में दृश्य और श्रव्य है। दृश्य काव्य शब्दों के अतिरिक्त पात्रों की वेशभूषा, भावभंगिमा, आकृति, क्रिया और अभिनय द्वारा दर्शकों के हृदय में रसोन्मेष कराता है। दृश्यकाव्य को 'रूपक' भी कहते हैं क्योंकि उसका रसास्वादन नेत्रों से होता है। श्रव्य काव्य शब्दों द्वारा पाठकों और श्रोताओं के हृदय में रस का संचार करता है। श्रव्यकाव्य में पद्य, गद्य और चम्पू काव्यों का समावेश किया जाता है। गत्यर्थक में पद् धातु से निष्पन ‘पद्य’ शब्द गति की प्रधानता सूचित करता है। अत: पद्यकाव्य में ताल, लय और छन्द की व्यवस्था होती है। पुन: पद्यकाव्य के दो उपभेद किये जाते हैं—महाकाव्य और खण्डकाव्य। खण्डकाव्य को ‘मुक्तकाव्य’ भी कहते हैं।
खण्डकाव्यं भवेत्काव्यस्यैकदेशानुसारि च। – साहित्यदर्पण, ६/३२१
कवित्व के साथ-साथ संगीतात्कता की प्रधानता होने से हिन्दी में ‘गीतिकाव्य’  कहते हैं।  हृदय की रागात्मक भावना को छन्दोबद्ध रूप में प्रकट करना गीति है। गीति की आत्मा भावातिरेक है। गीतिकाव्य में काव्यशास्त्रीय रूढ़ियों और परम्पराओं से मुक्त होकर वैयक्तिक अनुभव को सरलता से अभिव्यक्त  है। स्वरूपत: गीतिकाव्य का आकार-प्रकार महाकाव्य से छोटा होता है । प्रबन्धात्मक गीतिकाव्य का सर्वोत्कृष्ट  मेघदूत है। संगीतमय छन्द मधुर पदावली गीतिकाव्यों में  शृंंगार, नीति, वैराग्य और प्रकृति इसके प्रमुख प्रतिपाद्य विषय है। नारी के सौन्दर्य और स्वभाव का स्वाभाविक चित्रण इन काव्यों में मिलता है। उपदेश, नीति और लोकव्यवहार के सूत्र इनमें बड़े ही रमणीय ढंग से प्राप्त है।  वैदिक मुक्तककाव्य  में वसिष्ठ और वामदेव के सूक्त, उल्लेखनीय हैं। रामायण, महाभारत और उनके परवर्ती ग्रन्थों में भी इस प्रकार के स्फुट प्रसंग विपुल मात्रा में उपलब्ध होते हैं।  महाकवि वाल्मीकि के शाकोद्गारों में भावना गोपित रूप में रही है। पतिवियुक्ता प्रवासिनी सीता के प्रति श्री राम के संदेशवाहक हनुमान, दुर्योधन के प्रति धर्मराज युधिष्ठिर द्वारा  श्रीकृष्ण और सुन्दरी दयमन्ती के निकट राजा नल द्वारा  सन्देशवाहक हंस इसी परम्परा के अन्तर्गत गिने जाते हैं। भागवत पुराण का वेणुगीत विशेष रूप है । जिसकी रसविभोर करने वाली भावना छवि संस्कृत मुक्तककाव्यों पर अंकित है।राजशेखर ने कविचर्या के प्रकरण में बताया है कि कवि को विद्याओं और उपविद्याओं की शिक्षा ग्रहण करनी चाहिये। व्याकरण, कोश, छन्द, और अलंकार - ये चार विद्याएँ हैं। ६४ कलाएँ ही उपविद्याएँ हैं। कवित्व के ८ स्रोत हैं- स्वास्थ्य, प्रतिभा, अभ्यास, भक्ति,विद्वत्कथा,बहुश्रुतता,स्मृतिदृढता और राग। स्वास्थ्यं प्रतिभाभ्यासो भक्तिर्विद्वत्कथा बहुश्रुतता। स्मृतिदाढर्यमनिर्वेदश्च मातरोऽष्टौ कवित्वस्य ॥ काव्यमीमांसा में मम्मट ने काव्य के छः प्रयोजन बताये हैं- काव्यं यशसे अर्थकृते व्यवहारविदे शिवेतरक्षतये।सद्यः परनिर्वृतये कान्तासम्मिततयोपदेशयुजे॥ काव्य यश और धन के लिये होता है। इससे लोक-व्यवहार की शिक्षा मिलती है। अमंगल दूर हो जाता है। काव्य से परम शान्ति मिलती है और कविता से कान्ता के समान उपदेश ग्रहण करने का अवसर मिलता है।कविता या काव्य क्या है इस विषय में भारतीय साहित्य में आलोचकों की बड़ी समृद्ध परंपरा है— आचार्य विश्वनाथ, पंडितराज जगन्नाथ, पंडित अंबिकादत्त व्यास, आचार्य श्रीपति, भामह आदि संस्कृत के विद्वानों से लेकर आधुनिक आचार्य रामचंद्र शुक्ल तथा जयशंकर प्रसाद  प्रबुद्ध कवियों और आधुनिक युग की मीरा महादेवी वर्मा ने कविता का स्वरूप स्पष्ट करते हुए अपने अपने मत व्यक्त किए हैं। विद्वानों का विचार है कि मानव हृदय अनन्त रूपतामक जगत के नाना रूपों, व्यापारों में भटकता रहता है । जब मानव अहं की भावना का परित्याग करके विशुद्ध अनुभूति मात्र रह जाता है, तब वह मुक्त हृदय हो जाता है। हृदय की इस मुक्ति की साधना के लिए मनुष्य की वाणी जो शब्द विधान करती आई है उसे कविता कहते हैं। कविता मनुष्य को स्वार्थ सम्बन्धों के संकुचित घेरे से ऊपर उठाती है और शेष सृष्टि से रागात्मक सम्बंध जोड़ने में सहायक होती है। काव्य की अनेक परिभाषाएँ दी गई हैं। ये परिभाषाएं आधुनिक हिंदी काव्य के लिए भी सही सिद्ध होती हैं। काव्य सिद्ध चित्त को अलौकिक आनंदानुभूति कराता है तो हृदय के तार झंकृत हो उठते हैं। काव्य में सत्यं शिवं सुंदरम् की भावना भी निहित होती है। जिस काव्य में यह सब कुछ पाया जाता है वह उत्तम काव्य माना जाता है।जिस काव्य का रसास्वादन दूसरे से सुनकर या स्वयं पढ़ कर किया जाता है उसे श्रव्य काव्य कहते हैं। जैसे रामायण और महाभारत।इसमें कोई प्रमुख कथा काव्य के आदि से अंत तक क्रमबद्ध रूप में चलती है। कथा का क्रम बीच में कहीं नहीं टूटता और गौण कथाएँ बीच-बीच में सहायक बन कर आती हैं। जैसे रामचरित मानस।महाकाव्य इसमें किसी ऐतिहासिक या पौराणिक महापुरुष की संपूर्ण जीवन कथा का आद्योपांत वर्णन होता है। जैसे - पद्मावत, रामचरितमानस, कामायनी, साकेत आदि महाकव्य हैं।महाकाव्य का नायक कोई पौराणिक या ऐतिहासिक हो और उसका धीरोदात्त होना आवश्यक है।श्रृंगार, वीर और शांत रस में से किसी एक की प्रधानता है। खंडकाव्य इसमें किसी की संपूर्ण जीवनकथा का वर्णन न होकर केवल जीवन के किसी एक भाग का वर्णन है। पंचवटी, सुदामा चरित्र, हल्दीघाटी, पथिक आदि खंडकाव्य हैं । गीत कवित्त दोहा आदि मुक्तक होते हैं।जिस काव्य की आनंदानुभूति अभिनय को देखकर एवं पात्रों से कथोपकथन को सुन कर होती है उसे दृश्य काव्य कहते हैं। जैसे नाटक में या चलचित्र में।पद्य काव्य - इसमें किसी कथा का वर्णन काव्य में किया जाता है, जैसे गीतांजलि है ।गद्य काव्य - इसमें किसी कथा का वर्णन गद्य में किया जाता है । जयशंकर की कमायनी गद्य में काव्य रचना करने के लिए कवि को छंद शास्त्र के नियमों से स्वच्छंदता प्राप्त होती है । चंपू काव्य - इसमें गद्य और पद्य दोनों का समावेश होता है। मैथिलीशरण गुप्त की 'यशोधरा' चंपू काव्य है। हिंदी कविता  का इतिहास लगभग ८०० साल पुराना है और इसका प्रारंभ तेरहवीं शताब्दी है। हर भाषा की तरह हिंदी कविता पहले इतिवृत्तात्मक थी। यानि किसी कहानी को लय के साथ छंद में बांध कर अलंकारों से सजा कर प्रस्तुत किया जाता था। भारतीय साहित्य के सभी प्राचीन ग्रंथ कविता में  लिखे गए हैं। लय और छंद के कारण कविता को याद कर लेना आसान था। जिस समय छापेखाने का आविष्कार नहीं हुआ था और दस्तावेज़ों की अनेक प्रतियां बनाना आसान नहीं था उस समय महत्वपूर्ण बातों को याद रख लेने का यह सर्वोत्तम साधन था। उस समय साहित्य के साथ साथ राजनीति, विज्ञान और आयुर्वेद को  कविता में  लिखा गया। भारत की प्राचीनतम कविताएं संस्कृत भाषा में ऋग्वेद में हैं । वेदों में प्रकृति की प्रशस्ति में लिखे गए छंदों का सुंदर संकलन हैं। जीवन के अनेक अन्य विषयों को   कविताओं में स्थान मिला है।
21 मार्च  विश्व कविता दिवस  - शायर कवि  को आप से मोहब्बत हो जाए तो आप अमर बन सकते है । विश्व कविता दिवस प्रतिवर्ष 21 मार्च को मनाया जाता है। यूनेस्को ने 21 मार्च को विश्व कविता दिवस के रूप में मनाने की घोषणा वर्ष 1999 में की थी जिसका उद्देश्य को कवियों और कविता की सृजनात्मक महिमा को सम्मान देने के लिए था।  21 मार्च 1999 को "विश्व कविता दिवस" के रूप में मनाने का प्रस्ताव पेरिस में 27 अक्टूबर 1999 को यूनेस्को की 30 वें सत्र के दौरान पारित किया गया था। विश्व में कविताओं के लेखन, पठन, प्रकाशन और शिक्षण के लिए नए लेखकों को प्रोत्साहन। कवियों और कविता की सृजनात्मक महिमा को सम्मान देने के लिए था। विश्व कविता दिवस के अवसर पर भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय और साहित्य अकादमी की ओर से सबद-विश्व कविता उत्सव का आयोजन किया जाता है। टियालिया किकोन, जो नागालैंड के एक कवि हैं, को राइटर्स इंटरनेशनल नेटवर्क (विन) द्वारा विश्व कवि दिवस 2019 के अवसर पर संस्कृति केंद्र, वैंकूवर, कनाडा में अपनी कविताओं को प्रदर्शित करने के लिए चुना गया है। यूनेस्को (संयुक्त राष्ट्र शैक्षिक, वैज्ञानिक और सांस्कृतिक संगठन) ने 1999 में 21 मार्च को विश्व कविता दिवस के रूप में मनाने के संबंध में घोषणा की थी, लेकिन कई देशो ने अपने राष्ट्रीय या अंतर्राष्ट्रीय कविता दिवस को प्राचीन रोमन कवि के जन्म दिवस के साथ मनाने की परंपरा को बनाए रखा है। 15 अक्टूबर को 'पब्लियस वर्गिलियस मारो' उर्फ वर्जिल नाम दिया। यूनाइटेड किंगडम अक्टूबर के पहले गुरुवार को अपना राष्ट्रीय कविता दिवस मनाता है।
अष्टछाप कवियों में कुंभनदास, कृष्णदास, गोविन्दस्वामी, चतुर्भुजदास हैं । बिहार के कवियों में रामधारी सिंह दिनकर , रामदयाल पांडेय , जानकीबल्लभ शास्त्री , मोहनलाल महतो वियोगी , भारत के कवियों में सूर्यकांत त्रिपाठी निराला , मैथिली शरण गुप्त , जायसी , मीरा ,



बिहारी , रसखान , हरिवंशराय बच्चन , भारतेन्दु , सुमित्रानंदन पंत , सुभद्रा कुमारी चौहान , महादेवी वर्मा , तुलसीदास , सूरदास , आदि कवियों द्वारा हिंदी कविता की बहुमूल्य रुप से  प्रगटीकरण किया गया है ।

मंगलवार, मार्च 16, 2021

प्रेम और सौहार्द का प्रतीक होली...


    मानवीय मूल्यों को सौहार्द और प्रेम की अनभूति का त्योहार होली है। पुराणों और वेदों के अनुसार प्रकृति तथा पुरूष  का समन्वय का अचेतन से चेतन मन को जीवंत रूप वसंतोत्सव हे। सनातन संस्कृति का पंचांग के अनुसार होली 29 मार्च 2021 को फाल्गुन मास कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा तिथि 2077  है । 1000 वर्ष अर्थात 28 मार्च 1021ई. के पश्चात ध्रुव योग का निर्माण होने तथा होलाष्टक रविवार 21 मार्च से प्रारंभ होकर 28 मार्च  रविवार को समाप्त होकर होलिका दहन संयोग  है । 499 साल बाद, होली में विशेष दुलर्भ योग इससे पूर्व 03 मार्च 1521ई. को पड़ा था । 29 मार्च 2021 को होली में चंद्रमा, कन्या राशि में विराजमान तथा  गुरु और शनि ग्रह अपनी राशियों में रहेंगे । गुरु और शनि ग्रहों का संयोग 3 मार्च, सन् 1521 में बना था । गुरु की धनु  ,  शनि की राशि मकर , होली पर सूर्य, ब्रह्मा और अर्यमा की साक्षी  रहेगी ।29 मार्च 2021 की होली सर्वार्थसिद्धि योग में मनेगी । होलाष्टक आरंभ तिथि: 21  मार्च से लगेगा होलाष्टक समाप्ति तिथि: 28 मार्च तक भूल कर नहीं तोड़े तुलसी के पत्ते और  छत पर तुलसी के पौधे नहीं रखें । होलिका दहन मुहूर्त: 18 बजकर 37 मिनट से 20 बजकर 56 मिनट तक , कुल अवधि: 02 घंटे 20 मिनट है।
होलिका दहन का संदेश  है कि ईश्वर अपने अनन्य भक्तों की रक्षा के लिए सदा उपस्थित रहते हैं। होलिका दहन, होली त्योहार का पहला दिन, फाल्गुन मास की पूर्णिमा को मनाया जाता है। इसके अगले दिन रंगों से खेलने की परंपरा है जिसे धुलेंडी, धुलंडी और धूलि आदि नामों से जाना जाता है। होली बुराई पर अच्छाई की विजय के उपलक्ष्य में मनाई जाती है। होलिका दहन के अगले दिन पूर्ण हर्षोल्लास के साथ रंग खेलने का विधान है और अबीर-गुलाल आदि एक-दूसरे को लगाकर व गले मिलकर इस पर्व को मनाया जाता है। वैष्णव परंपरा मे होली को, होलिका-प्रहलाद की कहानी का प्रतीकात्मक सूत्र मानते हैं। होलिका दहन का शास्त्रों के अनुसार फाल्गुन शुक्ल अष्टमी से फाल्गुन पूर्णिमा तक होलाष्टक माना जाता है, जिसमें शुभ कार्य वर्जित रहते हैं। पूर्णिमा के दिन होलिका-दहन किया जाता है। इसके लिए मुख्यतः दो नियम ध्यान में रखने चाहिए - पहला, उस दिन 'भद्रा' नही हो। भद्रा का दूसरा नाम विष्टि 11 करणों में है। एक करण तिथि के आधे भाग के बराबर होता है।  दूसरी बात, पूर्णिमा प्रदोषकाल-व्यापिनी होनी चाहिए। सरल शब्दों में कहें तो उस दिन सूर्यास्त के बाद के तीन मुहूर्तों में पूर्णिमा तिथि होनी चाहिए ।पुराणो के अनुसार होली का परंपरा का प्रारंभ कामदेव  है। माता पार्वती  तथा भगवान शिव से विवाह करना चाहती थीं लेकिन तपस्या में लीन शिव का ध्यान उनकी तरफ गया नहीं था । कामदेव आगे आए और उन्होंने शिव पर पुष्प बाण चला दिया। तपस्या भंग होने के कारण  शिव को इतना गुस्सा आया कि उन्होंने अपनी तीसरी आंख खोल दी और उनके क्रोध की अग्नि में कामदेव भस्म हो गए। कामदेव के भस्म होने पर उनकी पत्नी रति रोने लगीं और शिव से कामदेव को जीवित करने की गुहार लगाई। अगले दिन तक शिव का क्रोध शांत हो चुका था, उन्होंने कामदेव को पुनर्जीवित किया। कामदेव के भस्म होने के दिन होलिका जलाई जाती है और उनके जीवित होने की खुशी में रंगोंत्सव और रति - कामोत्सव का त्योहार मनाया जाता है। महाभारत के अनुसार  युधिष्ठर को भगवान  श्री कृष्ण ने बताया- अयोध्या के राजा  इक्ष्वाकु वंशीय  रघु के शासन मे एक असुर होला महिला थी।  वह  वरदान द्वारा संरक्षित थी। उसे गली में खेल रहे बच्चों, के अलावा किसी से भी डर नहीं था। एक दिन, गुरु वशिष्ठ, ने बताया कि- उसे मारा जा सकता है, यदि बच्चे अपने हाथों में लकड़ी के छोटे टुकड़े लेकर, शहर के बाहरी इलाके के पास चले जाएं और सूखी घास के साथ-साथ उनका ढेर लगाकर जला दें। फिर उसके चारों ओर परिक्रमा दें, नृत्य करें, ताली बजाएं, गाना गाएं और नगाड़े बजाएं। फिर ऐसा ही किया गया। इस दिन को,एक उत्सव के रूप में मनाया गया था।  बुराई पर एक मासूम दिल की जीत का प्रतीक है। श्रीकृष्ण से होली त्योहार को राधा-कृष्ण के प्रेम के प्रतीक के तौर पर देखा जाता है। द्वापरयुग में कंस द्वारा राक्षसी पूतना को गोकुल में जन्म लेने वाले हर बच्चे को मारने के लिए भेजा गया था । पूतना स्तनपान के बहाने शिशुओं को विषपान कराना था।  कृष्ण उसकी सच्चाई को समझ गए। श्री कृष्ण ने दुग्धपान करते समय ही पूतना का वध कर दिया। पुतना बध के बाद होली पर्व मनाने की परंपरा शुरू हुई। विंध्य पर्वतों के निकट स्थित रामगढ़ में मिले  ईसा से 300 वर्ष पुराने अभिलेख में उल्लेख है कि भगवान श्री कृष्ण ने पूतना नामक राक्षसी का वध किया था। इसी ख़ुशी में गोपियों ने उनके साथ होली खेली थी। वसंत ऋतु में मनाया जाने वाला भारतीय और नेपाली लोगों का त्यौहार होली फाल्गुन मास की पूर्णिमा को मनाया जाता है। होली को फगुआ, धुलेंडी, छारंडीऔर  दोल कहा जाता है। है । भारतीय, भारतीय प्रवासी, नेपाली, नेपाली प्रवासी द्वारा रंग खेलना, गाना-बजाना, हुड़दंग , होलिका दहन व रंग खेलना ,फाल्गुन पूर्णिमा , होला मोहल्ला, याओसांग इत्यादि मनाते है।होली के पूर्व होलिका  जलायी जाती है, जिसे होलिका दहन कहते हैं। होलिका दहन के बाद चैत्रमास क्टष्ण पक्ष प्रतिपदा को होली  धुलेंडी व धुरड्डी, धुरखेल या धूलिवंदन का पर्व में लोग एक दूसरे पर रंग, अबीर-गुलाल इत्यादि फेंकते हैं, ढोल बजा कर होली के गीत गाये जाते हैं और घर-घर जा कर लोगों को रंग लगाया जाता है। होली के दिन लोग कटुता को भूल कर गले मिलते हैं और फिर से दोस्त बन जाते हैं। एक दूसरे को रंगने और गाने-बजाने का दौर दोपहर तक चलता है। इसके बाद स्नान कर के विश्राम करने के बाद नए कपड़े पहन कर शाम को लोग एक दूसरे के घर मिलने जाते हैं, गले मिलते हैं और मिठाइयाँ खिलाते हैं।राग-रंग का यह लोकप्रिय पर्व वसंत का संदेशवाहक भी है।  संगीत और रंग उत्कर्ष तक पहुँचाने वाली प्रकृति  रंग-बिरंगे यौवन के साथ  चरम अवस्था पर होती है। होली का त्यौहार वसंत पंचमी से आरंभ गुलाल उड़ाने से होती है।फाग और धमार का गाना प्रारंभ हो जाता है। खेतों में सरसों खिल उठती , बाग-बगीचों में फूलों की आकर्षक छटा छाती ,पेड़-पौधे, पशु-पक्षी और मनुष्य सब उल्लास से परिपूर्ण हो जाते हैं। खेतों में गेहूँ की बालियाँ इठलाने लगती हैं। बच्चे-बूढ़े सभी व्यक्ति सब कुछ संकोच और रूढ़ियाँ भूलकर ढोलक-झाँझ-मंजीरों की धुन के साथ नृत्य-संगीत व रंगों में डूब जाते हैं। चारों तरफ़ रंगों की फुहार फूट पड़ती है। गुझिया होली का प्रमुख पकवान  मावा और मैदा से बनती है और मेवाओं से युक्त होती है । नए कपड़े पहन कर होली की शाम को लोग एक दूसरे के घर होली मिलने जाते है जहाँ उनका स्वागत गुझिया,नमकीन व ठंडाई से किया जाता है। होली के दिन आम्र मंजरी तथा चंदन को मिलाकर खाने का बड़ा माहात्म्य है ।होली को  वसंतोत्सव और काम-महोत्सव भी कहा गया है। जैमिनी के पूर्व मीमांसा-सूत्र और कथा गार्ह्य-सूत्र , नारद पुराण औऱ भविष्य पुराण की प्राचीन हस्तलिपियों और ग्रंथों में होली का  उल्लेख मिलता है। विंध्य क्षेत्र के रामगढ़ स्थान पर स्थित ईसा से ३०० वर्ष का  अभिलेख में  इसका उल्लेख किया गया है। संस्कृत साहित्य में वसन्त ऋतु और वसन्तोत्सव कवियों के प्रिय  रहे हैं।सुप्रसिद्ध मुस्लिम पर्यटक अलबरूनी ने  ऐतिहासिक यात्रा संस्मरण में होलिकोत्सव का वर्णन किया है।  मुस्लिम कवियों ने रचनाओं में उल्लेख किया है कि होलिकोत्सव हिंदू और  मुसलमान  मनाते हैं।  अकबर का जोधाबाई के साथ तथा जहाँगीर का नूरजहाँ के साथ होली खेलने का वर्णन  है। अलवर संग्रहालय में जहाँगीर को होली खेलते हुए दिखाया गया है। शाहजहाँ के समय तक होली खेलने का मुग़लिया अंदाज़ ही बदल गया था।  शाहजहाँ के ज़माने में होली को ईद-ए-गुलाबी या आब-ए-पाशी (रंगों की बौछार) कहा जाता था। मुगल बादशाह बहादुर शाह ज़फ़र के बारे में प्रसिद्ध है कि होली पर उनके मंत्री उन्हें रंग लगाने जाया करते थे।  चित्रों, भित्तिचित्रों और मंदिरों की दीवारों पर इस उत्सव के चित्र मिलते हैं। विजयनगर की राजधानी हंपी के १६वी शताब्दी के एक चित्रफलक पर होली का आनंददायक चित्र उकेरा गया है । राजकुमारों और राजकुमारियों को दासियों सहित रंग और पिचकारी के साथ राज दम्पत्ति को होली के रंग में रंगते हुए दिखाया गया है। १६वी शताब्दी की अहमदनगर की एक चित्र आकृति का विषय वसंत रागिनी  है। राजपरिवार के एक दंपत्ति को बगीचे में झूला झूलते हुए दिखाया गया है। साथ में अनेक सेविकाएँ नृत्य-गीत व रंग खेलने में व्यस्त हैं। वे एक दूसरे पर पिचकारियों से रंग डाल रहे हैं। मध्यकालीन भारतीय मंदिरों के भित्तिचित्रों और आकृतियों में होली के सजीव चित्र देखे जा सकते हैं। १७वी शताब्दी की मेवाड़ की एक कलाकृति में महाराणा को अपने दरबारियों के साथ चित्रित किया गया है। शासक कुछ लोगों को उपहार दे रहे हैं, नृत्यांगना नृत्य कर रही हैं और इस सबके मध्य रंग का एक कुंड रखा हुआ है। बूंदी से प्राप्त एक लघुचित्र में राजा को हाथीदाँत के सिंहासन पर बैठा दिखाया गया है जिसके गालों पर महिलाएँ गुलाल मल रही है । प्राचीन काल में हिरण्यकशिपु नाम का एक अत्यंत बलशाली असुर था। अपने बल के अहंकार में वह स्वयं को ही ईश्वर मानने लगा था। उसने अपने राज्य में हरि  का नाम लेने पर  पाबंदी लगा दी थी। हिरण्यकशिपु का पुत्र प्रह्लाद हरि भक्त था। प्रह्लाद की ईश्वर भक्ति से क्रुद्ध होकर हिरण्यकशिपु ने उसे अनेक कठोर दंड दिए, परंतु उसने ईश्वर की भक्ति का मार्ग न छोड़ा। हिरण्यकशिपु की बहन होलिका को वरदान प्राप्त था कि वह आग में भस्म नहीं हो सकती। हिरण्यकशिपु ने आदेश दिया कि होलिका प्रह्लाद को गोद में लेकर आग में बैठे। आग में बैठने पर होलिका तो जल गई, पर प्रह्लाद बच गया। हरि भक्त प्रह्लाद की याद में इस दिन होली जलाई जाती है । प्रह्लाद का अर्थ आनन्द होता है। वैर और उत्पीड़न की प्रतीक होलिका (जलाने की लकड़ी) जलती है और प्रेम तथा उल्लास का प्रतीक प्रह्लाद (आनंद) अक्षुण्ण रहता है। राक्षसी ढुंढी, राधा कृष्ण के रास और कामदेव के पुनर्जन्म से भी जुड़ा हुआ है। कुछ लोगों का मानना है कि होली में रंग लगाकर, नाच-गाकर लोग शिव के गणों का वेश धारण करते हैं तथा शिव की बारात का दृश्य बनाते हैं। कुछ लोगों का यह भी मानना है कि भगवान श्रीकृष्ण ने इस दिन पूतना नामक राक्षसी का वध किया था। इसी खु़शी में गोपियों और ग्वालों ने रासलीला की और रंग खेला था।  प्राचीन काल में यह विवाहित महिलाओं द्वारा परिवार की सुख समृद्धि के लिए मनाया जाता था और पूर्ण चंद्र की पूजा करने की परंपरा थी। वैदिक काल में होली पर्व को नवात्रैष्टि यज्ञ कहा जाता था। खेत के अधपके अन्न को यज्ञ में दान करके प्रसाद लेने का विधान समाज में व्याप्त था। अन्न को होला कहते हैं, इसी से इसका नाम होलिकोत्सव पड़ा। भारतीय ज्योतिष के अनुसार चैत्र शुदी प्रतिपदा के दिन से नववर्ष का  आरंभ माना जाता है। इस उत्सव के बाद ही चैत्र महीने का आरंभ होता है। अतः यह पर्व नवसंवत का आरंभ तथा वसंतागमन का प्रतीक  है। स्वायंभुव पुरुष मनु का जन्म फाल्गुन शुक्ल प्रतिपदा और कामदेव तथा रती का मिलन हुआ था । होली को  मन्वादितिथि और रति कामदेव प्रसंगनम् कहते हैं। 
होली का पहला काम रेड़ का  डंडा गाड़ना होता है। इसे किसी सार्वजनिक स्थल गाड़ा जाता है। इसके पास ही होलिका की अग्नि इकट्ठी की जाती है। होली से काफ़ी दिन पहले से ही यह सब तैयारियाँ शुरू हो जाती हैं। पर्व का पहला दिन होलिका दहन का दिन कहलाता है। इस दिन चौराहों पर व जहाँ कहीं अग्नि के लिए लकड़ी एकत्र की गई होती है, वहाँ होली जलाई जाती है। इसमें लकड़ियाँ और उपले प्रमुख रूप से होते हैं। कई स्थलों पर होलिका में भरभोलिए । जलाने की भी परंपरा है। भरभोलिए गाय के गोबर से बने ऐसे उपले होते हैं जिनके बीच में छेद होता है। इस छेद में मूँज की रस्सी डाल कर माला बनाई जाती है। एक माला में सात भरभोलिए होते हैं। होली में आग लगाने से पहले इस माला को भाइयों के सिर के ऊपर से सात बार घूमा कर फेंक दिया जाता है। रात को होलिका दहन के समय यह माला होलिका के साथ जला दी जाती है। इसका आशय है कि होली के साथ भाइयों पर लगी बुरी नज़र भी जल जाए। लकड़ियों व उपलों से बनी इस होली का दोपहर से ही विधिवत पूजन आरंभ हो जाता है। घरों में बने पकवानों का यहाँ भोग लगाया जाता है। ज्योतिषियों द्वारा निकाले मुहूर्त पर होली का दहन किया जाता है।  आग में नई फसल की गेहूँ की बालियों और चने के होले होरे को भूना जाता है। होलिका का दहन समाज की समस्त बुराइयों के अंत का प्रतीक है। गाँवों में लोग देर रात तक होली के गीत गाते हैं तथा नाचते हैं। होलिका दहन के बाद होली धूलिवंदन ,रंगों से खेलते हुए अपने मित्रों और रिश्तेदारों से मिलने निकल पड़ते हैं। गुलाल और रंगों से सबका स्वागत किया जाता है। लोग अपनी ईर्ष्या-द्वेष की भावना भुलाकर प्रेमपूर्वक गले मिलते हैं तथा एक-दूसरे को रंग लगाते हैं। इस दिन जगह-जगह टोलियाँ रंग-बिरंगे कपड़े पहने नाचती-गाती दिखाई पड़ती हैं। बच्चे पिचकारियों से रंग छोड़कर अपना मनोरंजन करते हैं। सारा समाज होली के रंग में रंगकर एक-सा बन जाता है। रंग खेलने के बाद देर दोपहर तक लोग नहाते हैं और शाम को नए वस्त्र पहनकर सबसे मिलने जाते हैं। 
ब्रज की होली आकर्षण का बिंदु होती है। बरसाने की लठमार होली काफ़ी प्रसिद्ध है। पुरुष महिलाओं पर रंग डालते हैं और महिलाएँ उन्हें लाठियों तथा कपड़े के बनाए गए कोड़ों से मारती हैं।  मथुरा और वृंदावन में भी १५ दिनों तक होली का पर्व मनाया जाता है। कुमाऊँ की गीत बैठकी में शास्त्रीय संगीत की गोष्ठियाँ होती हैं। हरियाणा की धुलंडी में भाभी द्वारा देवर को सताए जाने की प्रथा है। बंगाल की दोल जात्रा चैतन्य महाप्रभु के जन्मदिन के रूप में मनाई जाती है। जलूस निकलते हैं और गाना बजाना भी साथ रहता है। महाराष्ट्र की रंग पंचमी में सूखा गुलाल खेलने, गोवा के शिमगो में जलूस निकालने के बाद सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन तथा पंजाब के होला मोहल्ला में सिक्खों द्वारा शक्ति प्रदर्शन की परंपरा है। तमिलनाडु की कमन पोडिगई मुख्य रूप से कामदेव की कथा पर आधारित वसंतोतसव है जबकि मणिपुर के याओसांग में योंगसांग उस नन्हीं झोंपड़ी का नाम है ,  पूर्णिमा के दिन प्रत्येक नगर-ग्राम में नदी अथवा सरोवर के तट पर बनाई जाती है। दक्षिण गुजरात के आदिवासियों के लिए होली सबसे बड़ा पर्व है, छत्तीसगढ़ की होरी में लोक गीतों की अद्भुत परंपरा है और मध्यप्रदेश के मालवा अंचल के आदिवासी इलाकों में बेहद धूमधाम से मनाया जाता है । भगोरिया होली का ही एक रूप है। बिहार का फगुआ जम कर  खेला जाता हैं और होली के प्रातःकाल से दोपहर तक होलिका दहन की राख , मीट्टी का बना कीचड़ एक दुसरे पर डालकर गले मिलते और दोपहर बाद रंग , गुलाल लगा कर मौज मस्ती करते है , बुजुर्गों से आशीर्वाद देते तथा छोटे को शुभकामनाएं देते हैं । नेपाल की होली में धार्मिक व सांस्कृतिक रंग दिखाई देता है। विभिन्न देशो  में प्रवासियों तथा धार्मिक संस्थाओं  इस्कॉन या वृंदावन के बांके बिहारी मंदिर में अलग अलग प्रकार से होली के शृंगार व उत्सव मनाने की परंपरा है ।होली की पूर्व संध्या पर यानि कि होली पूजा वाले दिन शाम को बड़ी मात्रा में होलिका दहन किया जाता है और लोग अग्नि की पूजा करते हैं। होली की परिक्रमा शुभ मानी जाती है। किसी सार्वजनिक स्थल या घर के आहाते में उपले व लकड़ी से होली तैयार की जाती है। होली से काफ़ी दिन पहले से ही इसकी तैयारियाँ शुरू हो जाती हैं। अग्नि के लिए एकत्र सामग्री में लकड़ियाँ और उपले प्रमुख रूप से होते हैं। गाय के गोबर से बने उपले जिनके बीच में छेद होता है जिनको गुलरी, भरभोलिए या झाल आदि नामों से अलग अलग क्षेत्र में जाना जाता है । उपले की छेद में मूँज की रस्सी डाल कर माला बनाई जाती है। लकड़ियों व उपलों से बनी  होलिका दहन में सुबह से विधिवत पूजन आरंभ हो जाता है। होली के दिन घरों में खीर, पूरी और पकवान बनाए जाते हैं। घरों में बने पकवानों से भोग लगाया जाता है। दिन ढलने पर मुहूर्त के अनुसार होली का दहन किया जाता है। होलिका दहन की आग में गेहूँ, जौ की बालियों और चने के होले को भी भूना जाता है। होली में सुबह से ही लोग एक दूसरे पर रंग, अबीर-गुलाल इत्यादि लगाते हैं, ढोल बजा कर होली के गीत गाये जाते हैं और घर-घर जा कर लोगों को रंग लगाया जाता है। सुबह होते ही लोग रंगों से खेलते अपने मित्रों और रिश्तेदारों से मिलने निकल पड़ते हैं। गुलाल और रंगों से ही सबका स्वागत किया जाता है।  जगह-जगह टोलियाँ रंग-बिरंगे कपड़े पहने नाचती-गाती दिखाई पड़ती हैं। बच्चे पिचकारियों से रंग छोड़कर अपना मनोरंजन करते हैं। प्रीति भोज तथा गाने-बजाने के कार्यक्रमों का आयोजन करते हैं।होली के अवसर पर सबसे अधिक खुश बच्चे होते हैं वह रंग-बिरंगी पिचकारी को अपने सीने से लगाए, सब पर रंग डालते भागते दौड़ते मजे लेते हैं ।  मोहल्ले में भागते फिरते इनकी आवाज सुन सकते हैं “होली है..” । एक दूसरे को रंगने और गाने-बजाने का दौर दोपहर तक चलता है। इसके बाद स्नान कर के विश्राम करने के बाद नए कपड़े पहन कर शाम को लोग एक दूसरे के घर मिलने जाते हैं, गले मिलते हैं और मिठाइयाँ खिलाते हैं। श्रीमद्भागवत महापुराण में रसों के समूह रास का वर्णन है। अन्य रचनाओं में 'रंग' नामक उत्सव का वर्णन है जिनमें हर्ष की प्रियदर्शिका व रत्नावली तथा कालिदास की कुमारसंभवम् तथा मालविकाग्निमित्रम् शामिल हैं। कालिदास रचित ऋतुसंहार में पूरा एक सर्ग ही 'वसन्तोत्सव' को अर्पित है। भारवि, माघ और अन्य कई संस्कृत कवियों ने वसन्त की खूब चर्चा की है। चंद बरदाई द्वारा रचित हिंदी के महाकाव्य पृथ्वीराज रासो में होली का वर्णन है। भक्तिकाल और रीतिकाल के हिन्दी साहित्य में होली और फाल्गुन माह का विशिष्ट महत्व रहा है। आदिकालीन कवि विद्यापति , भक्तिकालीन सूरदास, रहीम, रसखान, पद्माकर, जायसी, मीराबाई, कबीर और रीतिकालीन बिहारी, केशव, घनानंद आदि अनेक कवियों को होली प्रिय रहा है। महाकवि सूरदास ने वसन्त एवं होली पर 78 पद लिखे हैं। पद्माकर ने होली विषयक प्रचुर रचनाएँ की हैं। राधा कृष्ण के बीच खेली गई प्रेम और छेड़छाड़ से भरी होली के माध्यम से सगुण साकार भक्तिमय प्रेम और निर्गुण निराकार भक्तिमय प्रेम का निष्पादन कर डाला है। सूफ़ी संत हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया, अमीर खुसरो और बहादुर शाह ज़फ़र ईस्लाम संप्रदाय का पालन करने वाले कवियों ने  होली पर सुंदर रचनाएँ लिखी हैं । हिंदी कहानियों प्रेमचंद की राजा हरदोल, प्रभु जोशी की अलग अलग तीलियाँ, तेजेंद्र शर्मा की एक बार फिर होली, ओम प्रकाश अवस्थी की होली मंगलमय हो तथा स्वदेश राणा की होली में होली के अलग अलग रूप मिलते हैं।भारतीय शास्त्रीय, उपशास्त्रीय, लोक तथा फ़िल्मी संगीत की परम्पराओं में होली का विशेष महत्व है। शास्त्रीय संगीत में धमार का होली से गहरा संबंध है,  ध्रुपद, धमार, छोटे व बड़े ख्याल और ठुमरी में भी होली के गीतों का सौंदर्य देखते ही बनता है। कथक नृत्य के साथ होली, धमार और ठुमरी पर प्रस्तुत की जाने वाली अनेक सुंदर बंदिशें चलो गुंइयां आज खेलें होरी कन्हैया घर आज भी अत्यंत लोकप्रिय हैं। ध्रुपद में गाये जाने वाली लोकप्रिय बंदिश है। खेलत हरी संग सकल, रंग भरी होरी सखी। भारतीय शास्त्रीय संगीत में कुछ राग ऐसे हैं जिनमें होली के गीत विशेष रूप से गाए जाते हैं। बसंत, बहार, हिंडोल और काफ़ी ऐसे ही राग हैं। होली पर गाने बजाने का अपने आप वातावरण बन जाता है और जन जन पर इसका रंग छाने लगता है। उपशास्त्रीय संगीत में चैती, दादरा और ठुमरी में अनेक प्रसिद्ध होलियाँ हैं। होली के अवसर पर संगीत की लोकप्रियता का अंदाज़ इसी बात से लगाया जा सकता है कि संगीत की एक विशेष शैली का नाम ही होली है, जिसमें अलग अलग प्रांतों में होली के विभिन्न वर्णन सुनने को मिलते है जिसमें उस स्थान का इतिहास और धार्मिक महत्व छुपा होता है। जहाँ ब्रजधाम में राधा और कृष्ण के होली खेलने के वर्णन मिलते हैं वहीं अवध में राम और सीता के जैसे होली खेलें रघुवीरा अवध में। राजस्थान के अजमेर शहर में ख्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती की दरगाह पर गाई जाने वाली होली का विशेष रंग है। उनकी एक प्रसिद्ध होली है आज रंग है री मन रंग है, अपने महबूब के घर रंग है री। इसी प्रकार शंकर जी से संबंधित एक होली में दिगंबर खेले मसाने में होली कह कर शिव द्वारा श्मशान में होली खेलने का वर्णन मिलता है। भारतीय फिल्मों में भी अलग अलग रागों पर आधारित होली के गीत प्रस्तुत किये गए हैं जो काफी लोकप्रिय हुए हैं। 'सिलसिला' के गीत रंग बरसे भीगे चुनर वाली, रंग बरसे और 'नवरंग' के आया होली का त्योहार, उड़े रंगों की बौछार, को आज भी लोग भूल नहीं पाए हैं। होली पर गाए-बजाए जाने वाले ढोल, मंजीरों, फाग, धमार, चैती और ठुमरी की शान में कमी नहीं आती। चंदन, गुलाबजल, टेसू के फूलों से बना हुआ रंग तथा प्राकृतिक रंगों से होली खेलने की परंपरा को बनाए हुए हैं । रासायनिक रंगों के कुप्रभावों की जानकारी होने के बाद बहुत से लोग स्वयं ही प्राकृतिक रंगों की ओर लौट रहे हैं। होली की लोकप्रियता का विकसित होता हुआ अंतर्राष्ट्रीय रूप भी आकार लेने लगा है। बाज़ार में इसकी उपयोगिता का अंदाज़ इस साल होली के अवसर पर एक अंतर्राष्ट्रीय प्रतिष्ठान केन्ज़ोआमूर द्वारा जारी किए गए  इत्र होली है। प्राचीन काल में लोग चन्दन और गुलाल, प्राकृतिक रंगों के साथ साथ रासायनिक रंगों का प्रचलन बढ़ गया है। ये रंग स्वास्थ्य के लिए काफी हानिकारक हैं जो त्वचा के साथ साथ आँखों पर भी बुरा असर करते है।भक्ति, सच्चाई के प्रति आस्था और मनोरंजन। होली मेंरंग या सादे पानी से खेलने की परंपरा है । विश्व  देशों में  होली से मिलते-जुलते त्योहार मनाने की परंपराएँ हैं। नेपाल में होली के अवसर पर काठमांडू में एक सप्ताह के लिए प्राचीन दरबार और नारायणहिटी दरबार में बाँस का स्तम्भ गाड़ कर आधिकारिक रूप से होली के आगमन की सूचना दी जाती है। पाकिस्तान, बंगलादेश, श्री लंका और मरिशस में भारतीय परंपरा के अनुरूप होली मनाई जाती है। कैरिबियाई देशों में बड़े धूमधाम और मौज-मस्ती के साथ होली का त्यौहार मनाया जाता है ।१९वीं सदी के आखिरी और २०वीं सदी के शुरू में भारतीय लोग मजदूरी करने के लिए कैरिबियाई देश गए थे। गुआना और सुरिनाम तथा ट्रिनीडाड , फगुआ गुआना और सूरीनाम के सबसे महत्वपूर्ण त्यौहार है। गुआना में होली के दिन राष्ट्रीय अवकाश रहता है।लड़कियों और लड़कों को रंगीन पाउडर और पानी के साथ खेलते  है। कैरिबियाई देशों में संगठन नृत्य, संगीत और सांस्कृतिक उत्सवों के ज़रिए फगुआ मनाते हैं। ट्रिनीडाड एंड टोबैगो में होली ,विदेशी विश्वविद्यालयों में होली का आयोजन होता है। विलबर फ़ोर्ड के स्टैनफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी कैंपस पर होली के कुछ सुंदर दृश्य देखे जा सकते हैं।[4] इसी प्रकार रिचमंड हिल्स में होली मनाई जाती है।प्राचीन काल से अविरल होली मनाने की परंपरा को मुगलों के शासन में भी अवरुद्ध नहीं किया गया बल्कि कुछ मुगल बादशाहों ने तो धूमधाम से होली मनाने में अग्रणी भूमिका का निर्वाह किया। अकबर, हुमायूँ, जहाँगीर, शाहजहाँ और बहादुरशाह ज़फर होली के आगमन से बहुत पहले ही रंगोत्सव की तैयारियाँ प्रारंभ करवा देते थे। अकबर के महल में सोने चाँदी के बड़े-बड़े बर्तनों में केवड़े और केसर से युक्त टेसू का रंग घोला जाता था और राजा अपनी बेगम और हरम की सुंदरियों के साथ होली खेलते थे। शाम को महल में उम्दा ठंडाई, मिठाई और पान इलायची से मेहमानों का स्वागत किया जाता था और मुशायरे, कव्वालियों और नृत्य-गानों की महफ़िलें जमती थीं।जहाँगीर के समय में महफ़िल-ए-होली का भव्य कार्यक्रम आयोजित होता था। इस अवसर पर राज्य के साधारण नागरिक बादशाह पर रंग डालने के अधिकारी होते थे। शाहजहाँ होली को 'ईद गुलाबी' के रूप में धूमधाम से मनाता था। बहादुरशाह ज़फर होली खेलने के बहुत शौकीन थे और होली को लेकर उनकी सरस काव्य रचनाएँ आज तक सराही जाती हैं। मुगल काल में होली के अवसर पर लाल किले के पिछवाड़े यमुना नदी के किनारे आम के बाग में होली के मेले लगते थे। मुगल शैली के एक चित्र में औरंगजेब के सेनापति शायस्ता खाँ को होली खेलते हुए दिखाया गया है। दाहिनी ओर दिए गए इस चित्र की पृष्ठभूमि में आम के पेड़ हैं महिलाओं के हाथ में पिचकारियाँ हैं और रंग के घड़े हैं।
बरसाने' की लठमार होली फाल्गुन मास की शुक्ल पक्ष की नवमी को मनाई जाती है ।
बरसाने' की लठमार होली फाल्गुन मास की शुक्ल पक्ष की नवमी को मनाई जाती है। इस दिन नंद गाँव के ग्वाल बाल होली खेलने के लिए राधा रानी के गाँव बरसाने जाते हैं और जम कर बरसती लाठियों के साए में होली खेली जाती है। इस होली को देखने के लिए बड़ी संख्या में देश-विदेश से लोग 'बरसाना' आते हैं। मथुरा से 54 किलोमीटर दूर कोसी शेरगढ़ मार्ग पर फालैन गाँव है जहाँ एक अनूठी होली होती है। गाँव का एक पंडा मात्र एक अंगोछा शरीर पर धारण करके २०-२५ फुट घेरे वाली विशाल होली की धधकती आग में से निकल कर अथवा उसे फलांग कर दर्शकों में रोमांच पैदा करते हुए प्रह्लाद की याद को ताज़ा कर देता है।[8] मालवा में होली के दिन लोग एक दूसरे पर अंगारे फेंकते हैं। उनका विश्वास है कि इससे होलिका नामक राक्षसी का अंत हो जाता है। राजस्थान में होली के अवसर पर तमाशे की परंपरा है।  नुक्कड़ नाटक की शैली में मंच सज्जा के साथ कलाकार आते हैं और अपने पारंपरिक हुनर का नृत्य और अभिनय से परिपूर्ण प्रदर्शन करते हैं। मध्य प्रदेश के भील होली को भगौरिया कहते हैं। भील युवकों के लिए होली अपने लिए प्रेमिका को चुनकर भगा ले जाने का त्योहार है। होली से पूर्व हाट के अवसर पर हाथों में गुलाल लिए भील युवक 'मांदल' की थाप पर सामूहिक नृत्य करते हैं। नृत्य करते-करते जब युवक किसी युवती के मुँह पर गुलाल लगाता है और वह भी बदले में गुलाल लगा देती है । दोनों विवाह सूत्र में बँधने के लिए सहमत हैं। युवती द्वारा प्रत्युत्तर न देने पर युवक दूसरी लड़की की तलाश में जुट जाता है। 
बिहार में होली खेलते समय लड़कों के झुंड में एक दूसरे का कुर्ता फाड़ देने की परंपरा है। होली का समापन रंग पंचमी के दिन मालवा और गोवा की शिमगो के साथ होता है । तेरह अप्रैल को ही थाईलैंड में नव वर्ष 'सौंगक्रान' प्रारंभ होता है इसमें वृद्धजनों के हाथों इत्र मिश्रित जल डलवाकर आशीर्वाद लिया जाता है। लाओस में यह पर्व नववर्ष की खुशी के रूप में मनाया जाता है। लोग एक दूसरे पर पानी डालते हैं। म्यांमर में जल पर्व के नाम से जाना जाता है। जर्मनी में ईस्टर के दिन घास का पुतला बनाकर जलाया जाता है। लोग एक दूसरे पर रंग डालते हैं। हंगरी का ईस्टर होल है। अफ्रीका में 'ओमेना वोंगा' मनाया जाता है। वोंग अन्यायी राजा को लोगों ने ज़िंदा जला डाला था।वोंग का  पुतला जलाकर नाच गाने से  प्रसन्नता व्यक्त करते हैं। अफ्रीका के सोलह मार्च को सूर्य का जन्म दिन मनाया जाता है। सूर्य को रंग-बिरंगे रंग दिखाने से सूर्य की सतरंगी किरणों की आयु बढ़ती है। पोलैंड में 'आर्सिना' पर लोग एक दूसरे पर रंग और गुलाल मलते है ।रंग फूलों से निर्मित होने के कारण काफ़ी सुगंधित होता है। लोग परस्पर गले मिलते हैं। अमरीका में 'मेडफो' नामक पर्व मनाने के लिए लोग नदी के किनारे एकत्र होते हैं और गोबर तथा कीचड़ से बने गोलों से एक दूसरे पर आक्रमण करते हैं। ३१ अक्टूबर को अमरीका में सूर्य पूजा को होबो कहते हैं। होबी का पर्व को  होली की तरह मनाया जाता है। इस अवसर पर लोग फूहड वेशभूषा धारण करते हैं। चेक और स्लोवाक क्षेत्र में बोलिया कोनेन्से त्योहार पर युवा लड़के-लड़कियाँ एक दूसरे पर पानी एवं इत्र डालते हैं। हालैंड का कार्निवल होली सी मस्ती का पर्व है। बेल्जियम की होली मूर्ख दिवस के रूप में हैं। बेल्जियम में पुराने जूतों की होली जलाई जाती है। इटली में रेडिका त्योहार फरवरी के महीने में एक सप्ताह तक हर्षोल्लास से मनाया जाता है। लकड़ियों के ढेर चौराहों पर जलाए जाते हैं। लोग अग्नि की परिक्रमा करके आतिशबाजी करते हैं। एक दूसरे को गुलाल भी लगाते हैं। रोम में सेंटरनेविया कहते हैं , यूनान में मेपोल , ग्रीस का लव ऐपल होली भी प्रसिद्ध है। स्पेन में लाखों टन टमाटर एक दूसरे को मार कर होली खेली जाती है। जापान में १६ अगस्त रात्रि को टेमोंजी ओकुरिबी नामक पर्व पर कई स्थानों पर तेज़ आग जला कर यह त्योहार मनाया जाता है। चीन में होली की शैली का त्योहार च्वेज है। यह पंद्रह दिन तक मनाया जाता है। लोग आग से खेलते हैं और अच्छे परिधानों में सज धज कर परस्पर गले मिलते हैं। साईबेरिया में घास फूस और लकड़ी से होलिका दहन  है। नार्वे और स्वीडन में सेंट जान का पवित्र दिन होली की तरह से मनाया जाता है। शाम को किसी पहाड़ी पर होलिका दहन की भाँति लकड़ी जलाई जाती है और लोग आग के चारों ओर नाचते गाते परिक्रमा करते हैं। इंग्लैंड में 31मार्च को लोग  मित्रों और संबंधियों को रंग भेंट कर उनके जीवन में रंगों की बहार तथा सुखहाली का आशिर्वाद देकर धन्य होते है।होली पवित्रता और आपसी प्रेम तथा सौंदर्य का प्रतीक है।

रविवार, मार्च 14, 2021

आध्यात्मिक , मोक्ष का स्थल बिहार...



        आध्यात्मिक,  मोक्ष तथा संपूर्ण क्रांति का स्थल बिहार है । बिहार में गया मोक्ष , बोधगया में भगवान बुद्ध का ग्यान , कुण्ड ग्राम में महावीर की जन्म और पावापुरी में महानर्वाण स्थली , माता सीता की भूमि , विश्वामित्र , च्यवन , जरासंध , बाणासुर , जनक , श्रींगी , बाल्मीकी की कर्म भूमि , वैशाली का गणतंत्र भूमि रहा है । विदेश में  बिहार दिवस मनाया जाता है. स्कॉटलैंड के पूर्वी आयरशायर में पटना  है ।  बिहार की राजधानी पटना के साथ उसके ऐतिहासिक संबंधों को मनाने के लिए बिहार दिवस का अयोजन किया जाता है । स्काॅटलैंड के किसान विलियम फुलर्टन द्वारा  उनके स्केलडन स्टेट और कोयले के खदानों में काम करने वाले लोगों को रहने की सुविधा के लिए 1802 में पटना शहर की स्थापना हुई थी। पटना के संस्थापक फुलर्टन का जन्म बिहार के पटना में हुआ था  । फुलर्टन ने अपने पिता सर्जन विलियम फुलर्टन की याद में स्काॅटलैंड में पटना का निर्माण किया था ।सर्जन ब्रिटिश इर्स्ट इंडिया कंपनी में थे और भारत में 1744 से 1766 तक अपनी सेवा के दौरान  इतिहासकारों, पेंटरों, कलाकारों और व्यापारियों से  अच्छे संपर्क किए थे  । स्काॅटलैंड में 17 मार्च को आयोजित बिहार दिवस कार्यक्रम में चीफ गेस्ट के तौर पर पहुंचे ब्रिटेन में भारत के अंबेसेडर वाई के सिन्हा ने कहा, ‘‘ पटना हमेशा से शिक्षा और व्यापार का अहम केंद्र रहा है । मूल रूप से बिहार के रहने वाले सिन्हा ने दोनो शहरों के बीच संबंध को और मजबूत करने के लिए सभी मदद देने का वादा किया. उन्होंने स्वतंत्रता संग्राम और आधुनिक भारत के निर्माण में पटना शहर की भूमिका के बारे में बात की थी । ।इस कार्यक्रम में एक प्रदर्शनी का आयोजन किया गया जिसमें छठ पूजा, समा चकेवा, तीज, भगवान बुद्ध, भगवान महावीर और गुरू गोविंद सिंह के बारे में जानकारी के अलावा बिहार के दूसरे बड़े पर्वों की झलक दिखायी गयी थी । प्राचीन मगध साम्राज्य की राजधानी पाटलिपुत्र है। बिहार दिवस हर साल 22 मार्च को मनाया जाता है । ब्रिटिश सरकार ने 22 मार्च 1912 में बंगाल प्रेसिडेंसी से अलग बिहार प्रदेश का गठन किया था । 22 मार्च 1912 में बिहार को बंगाल प्रेसिडेंसी से अलग कर राज्य बनाया गया था। इसलिए हर साल राज्य सरकार 22 मार्च को बिहार दिवस मनाती है।बिहार का इतिहास 1857 के प्रथम सिपाही विद्रोह में बिहार के बाबू कुंवर सिंह ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। 1912 में बंगाल का विभाजन के फलस्वरूप बिहार नाम का राज्य अस्तित्व में आया। 1935 में उड़ीसा इससे अलग कर दिया गया। स्वतंत्रता संग्राम के दौरान बिहार के चंपारण के विद्रोह को, अंग्रेजों के खिलाफ बगावत फैलाने में अग्रगण्य घटनाओं में  गिना जाता है। स्वतंत्रता के बाद बिहार का विभाजन हुआ और सन 2000 में झारखंड राज्य इससे अलग कर दिया गया। भारत छोड़ो आंदोलन में बिहार की गहन भूमिका रही। बिहार का प्रादुर्भाव बौद्ध विहारों के विहार शब्द से हुआ है । बिहार का क्षेत्र गंगा नदी तथा उसकी सहायक नदियों के उपजाऊ मैदानों में बसा है।बिहार को मगध के नाम से भी जाना जाता था। बिहार के उत्तर में नेपाल, पूर्व में पश्चिम बंगाल, पश्चिम में उत्तर प्रदेश और दक्षिण में झारखण्ड स्थित है।राज्य का कुल क्षेत्रफल 94,163 वर्ग किलोमीटर है जिसमें 92,257.51 वर्ग किलोमीटर ग्रामीण क्षेत्र है। बिहार की जनसंख्या लगभग 10,38,04637 करोड़ है। झारखंड के अलग हो जाने के बाद बिहार की भूमि मुख्यत: नदियों के मैदान एवं कृषियोग्य समतल भूभाग है । बिहार की लगभग 75 प्रतिशत जनसंख्या कृषि कार्य में संलग्न है। बिहार शिक्षा के सर्वप्रमुख केन्द्रों में गिना जाता था। नालंदा विश्वविद्यालय, विक्रमशिला विश्वविद्यालय और ओदंतपुरी विश्वविद्यालय प्राचीन बिहार के गौरवशाली अध्ययन केंद्र थे। प्रशासनिक व्यवस्था प्रशासनिक सुविधा के लिए बिहार राज्य को 9 प्रमंडल तथा 38 मंडल (जिला) में बांटा गया है। जिलों को क्रमश: 101 अनुमंडलों, 534 प्रखंडों, 8,471 पंचायतों, 45,103 गांवों में बांटा गया है । नालंदा की ऐतिहासिक शिक्षण व्यवस्था के चलते दुनिया भर में पहचान बनाने वाले बिहार प्रदेश में व्यंजन हैं । स्वाद के मुरीदों का दिल जीतने का दम रखते हैं। बिहार भारत के पूर्वी भाग में स्थित एक प्रसिद्ध ऐतिहासिक राज्य है और इसकी राजधानी पटना है। बिहार नाम का प्रादुर्भाव बौद्ध सन्यासियों के ठहरने के स्थान विहार शब्द से हुआ, जिसे विहार के स्थान पर इसके अपभ्रंश रूप बिहार से संबोधित किया जाता है । बिहारका क्षेत्रफल 94,163 किमी² है।विधानमण्डल द्विसदनीय में विधान परिषद - 75 सीटें , विधान सभा - 243 सीटें  है।
बिहार के उत्तर में नेपाल, दक्षिण में झारखण्ड, पूर्व में पश्चिम बंगाल, और पश्चिम में उत्तर प्रदेश स्थित है। यह क्षेत्र गंगा नदी तथा उसकी सहायक नदियों के उपजाऊ मैदानों में बसा है। प्राचीन काल में विशाल साम्राज्यों का गढ़ रहा यह प्रदेश, वर्तमान में अर्थव्यवस्था के आकार के आधार पर भारत के राज्य के सामान्य योगदाताओं में से एक बनकर रह गया है । सन् 1936 ई• में ओडिशा और सन् 2000 ई॰ में झारखण्ड के अलग हो जाने से बिहार ने कृषि के दम पर और अपने मेधा को लेकर उन्नति की है। बिहार के क्षेत्र जैसे-मगध, मिथिला और अंग- धार्मिक ग्रंथों और प्राचीन भारत के महाकाव्यों में वर्णित हैं।सारण जिले में गंगा नदी के उत्तरी किनारे पर चिरांद, नवपाषाण युग (लगभग 4500-2345 ईसा पूर्व) और ताम्र युग ( 2345-1726 ईसा पूर्व) से एक पुरातात्विक रिकॉर्ड है। मिथिला को पहली बार इंडो-आर्यन लोगों ने विदेह साम्राज्य की स्थापना के बाद प्रतिष्ठा प्राप्त की। देर वैदिक काल (सी। 1600-1100 ईसा पूर्व) के दौरान, विदेह् दक्षिण एशिया के प्रमुख राजनीतिक और सांस्कृतिक केंद्रों में से एक बन गया, कुरु और पंचाल् के साथ। वेदहा साम्राज्य के राजा जनक कहलाते थे। मिथिला के जनक की पुत्री सीता जिसका वाल्मीकि द्वारा रचित महाकाव्य, रामायण में भगवान राम की पत्नी के रूप में वर्णित है। विदेह राज्य के वाजिशि शहर में अपनी राजधानी था जो वज्जि समझौता में शामिल हो गया, मिथिला में भी है। वज्जि के पास एक रिपब्लिकन शासन था । राजा राजाओं की संख्या से चुने गए थे। जैन धर्म और बौद्ध धर्म से संबंधित ग्रंथों के आधार पर, वज्जि को 6 ठी शताब्दी ईसा पूर्व से गणराज्य के रूप में स्थापित किया गया था, गौतम बुद्ध के जन्म से 563 ईसा पूर्व में, वैशाली दुनिया का पहला गणतंत्र था। जैन धर्म के अंतिम तीर्थंकर भगवान महावीर का जन्म वैशाली में हुआ था।आधुनिक-पश्चिमी पश्चिमी बिहार के क्षेत्र में मगध 1000 वर्षों के लिए भारत में शक्ति, शिक्षा और संस्कृति का केंद्र बने। ऋग्वेदिक् काल मे यह ब्रिहद्रथ वंश का शासन था।सन् 684 ईसा पूर्व में स्थापित हरयंक वंश, राजगृह से मगध पर शासन किया। इस वंश के दो प्रसिद्ध राजा बिंबिसार और अजातशत्रु थे । आजातशत्रु ने पिता को सिंहासन पर चढ़ने के लिए कैद कर दिया था। अजातशत्रु ने पाटलिपुत्र शहर की स्थापना की  बाद में मगध की राजधानी बन गई। उन्होंने युद्ध की घोषणा की और बाजी को जीत लिया। हर्यक वंश के बाद शिशुनाग वंश का शासन  था। नंद वंश ने बंगाल से पंजाब तक फैले विशाल साम्राज्य पर शासन किया।
भारत की पहली साम्राज्य, मौर्य साम्राज्य द्वारा नंद वंश को बदल दिया गया था। 325 ईसा पूर्व में मगध से उत्पन्न मौर्य साम्राज्य, चंद्रगुप्त मौर्य ने स्थापित किया था । पाटलिपुत्र में  मगध की राजधानी थी। मौर्य सम्राट, अशोक, जो पाटलीपुत्र  में पैदा हुए थे । अशोक को दुनिया के इतिहास में सबसे बड़ा शासक माना जाता है। मौर्य सम्राजय पश्चिम मे ईरान से लेकर पूर्व मे बर्मा तक और उत्तर मे मध्य-एशिया से लेकर दक्षिण मे श्रीलंका तक पूरा भारतवर्ष मे फैला था। इस सम्राजय के राजा चंद्रगुप्त मौर्य ने कै ग्रीक् सतराप् को हराकर अफ़ग़ानिस्तां के हिस्से को जीता।ग्रीस से पश्चिम-एशिय थक के यूनानी राजा सेलेक्यूज़ निकेटर को हराकर पर्शिया का बड़ा हिस्सा जीत लिया था और संधि मे यूनानी राजकुमारी हेलेन से विवाह किये । सेलेक्यूज़ निकटोर कि पुत्री थी और हमेसा के लिए यूनाननियो को भारत से बाहर रखा। प्रधानमंत्री चाणक्य ने अर्थशास्त्र कि रचना की । बिन्दुसार ने इस सम्राजय को और दूर थक फैलाया व दक्षिण तक स्थापित किया। सम्रात् अशोक इस सम्राजय के सबसे बड़े राजा थे। इनका पूरा राज नाम देवानामप्रिय प्रियादर्शी एवं राजा महान सम्रात् अशोक था। इन्होंने अपने उपदेश स्तंभ, पहाद्, शीलालेख पे लिखाया जो भारत इतिहास के लिया बहुत महातवपूर्ण है। येे लेख् ब्राह्मी, ग्रीक, अरमिक् मे पूरे अपने सम्राजय मे अंकित् किया। इनके मृत्या के बाद मौर्य सम्राजय को इनके पुत्रोने दो हिस्से मे बात कर पूर्व और पश्चिम मौर्य रज्या कि तरह रज्या किया। इस सम्राजय कि अंतिम शासक ब्रिहद्रत् को उनके ब्राह्मिन सेनापति पुष्यमित्र शूंग ने मारकर वे मगध पे अपना शासन स्थापित किया।सन् 240 ई.  में मगध में उत्पन्न गुप्त साम्राज्य को विज्ञान, गणित, खगोल विज्ञान, वाणिज्य, धर्म और भारतीय दर्शन में भारत का स्वर्ण युग कहा गया। इस वंश के महान राजा समुद्रगुप्त ने इस सम्राजय को पूरे दक्षिण एशिय मे स्थापित किया। इनके पुत्र चँद्रगुप्त विक्रमादित्य ने भारत के सारे विदेशी घुसपैट्या को हरा कर देश से बाहर किया इसीलिए इन्हे सकारी की उपादि दी गई। इन्ही गुप्त राजाओं मे  स्कंदगुप्त ने भारत मे हूणों का आक्रमं रोका और उनेे भारत से बाहर भगाया और देश की बाहरी लोगो से रक्षा की। उस समय गुप्त सम्राजय दुनिया कि शक्तिशाली साम्राज्य था।  पर्शिया या बग़दाद से पूर्व मे बर्मा तक और उत्तर मे मध्य एशिया से लेकर दक्षिण मे कांचीपुरम तक फैला था।मगध  सम्राजय का प्रभाव विश्व का रोम, ग्रीस, अरब से लेकर दक्षिण-पूर्व एशिया तक था। मगध में बौद्ध धर्म मुहम्मद बिन बख्तियार खिलजी के आक्रमण की वजह से गिरावट में पड़ गया, जिसके दौरान कई विहार और नालंदा और विक्रमशिला के प्रसिद्ध विश्वविद्यालयों को नष्ट कर दिया गया । 12 वीं शताब्दी के दौरान हजारों बौद्ध भिक्षुओं की हत्या हुई थी । घटनाएं सर्वोच्चता के लिए लड़ाई में बौद्ध ब्राह्मण की झड़पों का परिणाम थीं। 1540 में, महान पस्तीस के राजा , सासाराम के शेर शाह सूरी, सम्राट हुमायूं की मुगल सेना को हराकर मुगलों से उत्तरी भारत ले गए थे। शेर शाह ने अपनी राजधानी दिल्ली की घोषणा की और 11 वीं शताब्दी से लेकर 20 वीं शताब्दी तक, मिथिला पर विभिन्न स्वदेशीय राजवंशों ने शासन किया था। इनमें से पहला, कर्नाट, अनवर राजवंश, रघुवंशी और अंततः राज दरभंगा के बाद। इस अवधि के दौरान मिथिला की राजधानी दरभंगा में स्थानांतरित की गई थी ।1857 के प्रथम सिपाही विद्रोह में बिहार के बाबू कुंवर सिंह ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। 1905 में बंगाल का विभाजन के फलस्वरूप बिहार नाम का राज्य अस्तित्व में आया। 1936 में उड़ीसा इससे अलग कर दिया गया। स्वतंत्रता संग्राम के दौरान बिहार में चंपारण के विद्रोह को, अंग्रेजों के खिलाफ बग़ावत फैलाने में अग्रगण्य घटनाओं में से एक गिना जाता है। स्वतंत्रता के बाद बिहार का एक और विभाजन हुआ और 15 नवंबर 2000 में झारखंड राज्य को इससे अलग कर दिया गया। भारत छोड़ो आंदोलन में भी बिहार की गहन भूमिका रही।
देखें भारत छोड़ो आन्दोलन और बिहार  24°20'10" ~ 27°31'15" उत्तरी अक्षांश तथा 83°19'50" ~ 88°17'40" पूर्वी देशांतर के बीच बिहार एक हिंदी भाषी राज्य है। राज्य का कुल क्षेत्रफल 94,163 वर्ग किलोमीटर है जिसमें 92,257.51 वर्ग किलोमीटर ग्रामीण क्षेत्र है। झारखंड के अलग हो जाने के बाद बिहार की भूमि मुख्यतः नदियों के मैदान एवं कृषियोग्य समतल भूभाग है। गंगा के पूर्वी मैदान में स्थित इस राज्य की औसत ऊँचाई १७३ फीट है। भौगोलिक तौर पर बिहार को तीन प्राकृतिक विभागो में बाँटा जाता है- उत्तर का पर्वतीय एवं तराई भाग, मध्य का विशाल मैदान तथा दक्षिण का पहाड़ी किनारा है । उत्तर का पर्वतीय प्रदेश सोमेश्वर श्रेणी का हिस्सा है। इस श्रेणी की औसत उचाई 455 मीटर है परन्तु इसका सर्वोच्च शिखर 874 मीटर उँचा है। सोमेश्वर श्रेणी के दक्षिण में तराई क्षेत्र है। यह दलदली क्षेत्र है जहाँ साल वॄक्ष के घने जंगल हैं। इन जंगलों में प्रदेश का इकलौता बाघ अभयारण्य वाल्मिकीनगर में स्थित है।मध्यवर्ती विशाल मैदान बिहार के 95% भाग को समेटे हुए हैं। बिहार का भौगोलिक स्तर पर- तराई क्षेत्र यह सोमेश्वर श्रेणी के तराई में लगभग 10 किलोमीटर चौ़ड़ा कंकर-बालू का निक्षेप है। इसके दक्षिण में तराई उपक्षेत्र दलदली है। भांगर क्षेत्र  जलोढ़ क्षेत्र है। समान्यतः यह आस पास के क्षेत्रों से 7-8 मीटर ऊँचा  है । खादर क्षेत्र इसका विस्तार गंडक से कोसी नदी के क्षेत्र तक सारे उत्तरी बिहार में है। प् बाढ़ के कारण यह क्षेत्र उपजाऊ है। गंगा नदी राज्य के लगभग बीचों-बीच बहती है। उत्तरी बिहार बागमती, कोशी, बूढी गंडक, गंडक, घाघरा और उनकी सहायक नदियों का समतल मैदान है। सोन, पुनपुन, फल्गू तथा किऊल नदी बिहार में दक्षिण से गंगा में मिलनेवाली सहायक नदियाँ है। बिहार के दक्षिण भाग में छोटानागपुर का पठार तथा उत्तर में हिमालय पर्वत की नेपाल श्रेणी है। हिमालय से  कई नदियाँ तथा जलधाराएँ बिहार होकर प्रवाहित होती है और गंगा में विसर्जित होती हैं । वैदिक नदियों में हिरण्यबाहु (बह) है । उत्तर में भूमि प्रायः सर्वत्र उपजाऊ एवं कृषियोग्य है। धान, गेंहूँ, दलहन, मक्का, तिलहन, तम्बाकू,सब्जी तथा केला, आम और लीची जैसे कुछ फलों की खेती की जाती है। हाजीपुर का केला एवं मुजफ्फरपुर की लीची बहुत ही प्रसिद्ध है।
भाषा और संस्कृति - हिंदी,  भोजपुरी, मगही, अंगिका तथा बज्जिका बिहार में बोली जाने वाली अन्य प्रमुख भाषाओं  में हिंदी , मगही, भोजपुरी, मैथिली, अंगिका, बज्जिका , अंग्रेजी , उर्दू और बोलियों में  शामिल है। पर्वों में छठ, होली, दीपावली, दशहरा, महाशिवरात्रि, नागपंचमी, श्री पंचमी,  कर्मा , तीज , जीतीया , रक्षाबंधन, नवरात्रि , मुहर्रम, ईद,तथा क्रिसमस हैं। सिक्खों के दसवें गुरु गोबिन्द सिंह जी का जन्म स्थान होने के कारण पटना सिटी (पटना) में  जयन्ती पर प्रकाशोत्सव मनाया जाता है। बिहार ने हिंदी को अधिकारिक भाषा है ।
 बिहार राज्य में 9 प्रमंडल तथा 38 जिला , 101 अनुमंडल, 534 प्रखंड तथा अंचल , 8,471 पंचायत, 45,103 गाँव है।पटना, तिरहुत, सारण, दरभंगा, कोशी, पूर्णिया, भागलपुर, मुंगेर तथा मगध प्रमंडल है । बिहार के जिलों में अररिया , अरवल , औरंगाबाद , कटिहार , किशनगंज , खगड़िया , गया , गोपालगंज , छपरा , जमुई , जहानाबाद , दरभंगा , नवादा , नालंदा , पटना , पश्चिम चंपारण , पूर्णिया , पूर्वी चंपारण , बक्सर ,बाँका ,बेगूसराय ,भभुआ ,भोजपुर ,भागलपुर , मधेपुरा , मुंगेर , मुजफ्फरपुर , मधुबनी , सासाराम *लखीसराय *वैशाली , सहरसा , समस्तीपुर , सीतामढी , सीवान , सुपौल , शिवहर , शेखपुरा है।
अतीत में बिहार सत्ता, धर्म तथा ज्ञान का केंद्र रहा है । प्राचीन एवं मध्यकालीन इमारतें: कुम्रहार परिसर, अगमकुआँ, महेन्द्रूघाट, शेरशाह के द्वारा बनवाए गए किले का अवशेष ,ब्रिटिश कालीन भवन: जालान म्यूजियम, गोलघर, पटना संग्रहालय, विधान सभा भवन, हाईकोर्ट भवन, सदाकत आश्रम है। धार्मिक स्थल : महावीर मंदिर,बड़ी पटनदेवी,छोटी पटनदेवी,शीतला माता मंदिर,इस्कॉन मंदिर,हरमंदिर(पटना), महाबोधि मंदिर(गया),माता सीता की जन्मस्थली(सीतामढ़ी), कवि विद्यापति सह उगना महादेव मंदिर(मधुबनी), द•भारत स्थापत्यकला विष्णु मंदिर(सुपौल), सिहेश्वरनाथ मंदिर(मधेपुरा), सबसे ऊँची काली मंदिर(अररिया), नृसिंह अवतार स्थल(पूर्णियाँ), सूर्य मंदिर,नवलख्खा मंदिर,थावे(गोपालगंज)माँ दुर्गा माता मंदिर,नेचुआ जलालपुर रामबृक्ष धाम, दुर्गा मंदिर, अमनौर वैष्णो धाम ,आमी अम्बिका दुर्गा मंदिर,माँ दुर्गा की मंदिर छपरा, सीता जी का जन्म स्थान, पादरी की हवेली, शेरशाह की मस्जिद, बेगू ह्ज्जाम की मस्जिद, पत्थर की मस्जिद, जामा मस्जिद, फुलवारीशरीफ में बड़ी खानकाह, मनेरशरीफ - सूफी संत हज़रत याहया खाँ मनेरी की दरगाह, जहनाबाद जिले का भारत की प्रथम महिला सूफी संत हजरत बीबी कमाल का कब्र (जहानाबाद) बराबर पर्वत समूह में गुफाएँ, भित्तिचित्र, गुहा लिपि , सिद्धेश्वर नाथ , वास्तु शिल्प कला  , नालंदा जिले का राजगीर पर्वत समूह में गर्म झरना , जरासंध , का स्वर्ण भंडार , , भगवान बुद्ध की कर्म स्थली , पावापुरी , नालंदा विश्वविद्यालय,  औरंगाबाद जिले का देव , उमगा का सूर्य मंदिर, देवकुंड कख दूग्धेश्वरनाथ , अरवल जिले का करपी का जगदंबा स्थान , मदसरवाँ का च्यवशेश्वर मंदिर, गया के ब्रह्मयोनि पर्वत समूह पर बने विष्णु गिरि का भगवान विष्णु पद मंदिर , भष्म गिरि पर माँ मंगला, राम गिरि , प्रेत गिरि पर धर्मराज मंदिर , मारकणडेश्वर , माँ बाँग्ला , नवादा जिले का अपसढ में बराह मंदिर, चामुंडा मंदिर बोलता पहाड़ , ककोलत का झरना , वैशाली का अशोक सतंम्भ , पटना तारामंडल, पटना विश्वविद्यालय, सच्चिदानंद सिन्हा लाइब्रेरी, संजय गाँधी जैविक उद्यान, श्रीकृष्ण सिन्हा विज्ञान केंद्र, खुदाबक़्श लाइब्रेरी एवं विज्ञान परिसर , प्रतिवर्ष कार्तिक पूर्णिमा से लगनेवाला सोनपुर मेला, सारण जिला का नवपाषाण कालीन चिरांद गाँव, कोनहारा घाट, नेपाली मंदिर, रामचौरा मंदिर, १५वीं सदी में बनी मस्जिद, दीघा-सोनपुर रेल-सह-सड़क पुल, महात्मा गाँधी सेतु, गुप्त एवं पालकालीन धरोहरों वाला चेचर गाँव , छठी सदी इसापूर्व में वज्जिसंघ द्वारा स्थापित विश्व का प्रथम गणराज्य के अवशेष, अशोक स्तंभ, बसोकुंड में भगवान महावीर की जन्म स्थली, अभिषेक पुष्करणी, विश्व शांतिस्तूप, राजा विशाल का गढ, चौमुखी महादेव मंदिर, भगवान महावीर के जन्मदिन पर वैशाख महीने में आयोजित होनेवाला वैशाली महोत्सव , राजगृह मगध साम्राज्य की पहली राजधानी तथा हिंदू, जैन एवं बौध धर्म का एक प्रमुख दार्शनिक स्थल है। भगवान बुद्ध तथा वर्धमान महावीर से जुडा कई स्थान अति पवित्र हैं। वेणुवन, सप्तपर्णी गुफा, गृद्धकूट पर्वत, जरासंध का अखाड़ा, गर्म पानी के कुंड, मख़दूम कुंड आदि राजगीर के महत्वपूर्ण दर्शनीय स्थल हैं।नालंदा तथा आसपासः नालंदा विश्वविद्यालय के भग्नावशेष, पावापुरी में भगवान महावीर का परिनिर्वाण स्थल एवं जलमंदिर, बिहारशरीफ में मध्यकालीन किले का अवशेष एवं १४वीं सदी के सूफी संत की दरगाह (बड़ी दरगाह एवं छोटी दरगाह), नवादा के पास ककोलत जलप्रपात , गया एवं बोधगया , हिंदू धर्म के अलावे बौद्ध धर्म मानने वालों का यह सबसे प्रमुख दार्शनिक स्थल है। पितृपक्ष के अवसर पर यहाँ दुनिया भर से हिंदू आकर फल्गू नदी किनारे पितरों को तर्पण करते हैं। विष्णुपद मंदिर, बोधगया में भगवान बुद्ध से जुड़ा पीपल का वृक्ष तथा महाबोधि मंदिर के अलावे तिब्बती मंदिर, थाई मंदिर, जापानी मंदिर, बर्मा का मंदिर, बौधनी पहाड़ी { इमामगंज ) में स्थित है ।  पाल शासकों द्वारा बनवाये गये प्राचीन विक्रमशिला विश्वविद्यालय का अवशेष, वैद्यनाथधाम मंदिर, सुलतानगंज, मुंगेर में बनवाया मीरकासिम का किला, मंदार पर्वत बौंसी बाँका एक प्रमुख धार्मिक स्थल जो तीन धर्मो का संगम स्थल है। विष्णुपुराण के अनुसार समुद्र मंथन यही संपन्न हुआ था और यही पर्वत जिसका प्राचीन नाम मंद्राचल पर्वत( मंदार ) जो की मथनी के रूप में  हुआ था।सम्राट अशोक द्वारा लौरिया में स्थापित स्तंभ, लौरिया का नंदन गढ़, नरकटियागंज का चानकीगढ़, वाल्मीकिनगर जंगल, बापू द्वारा स्थापित भीतीहरवा आश्रम, तारकेश्वर नाथ तिवारी का बनवाया रामगढ़वा हाई स्कूल, स्वतंत्रता आन्दोलन के समय महात्मा गाँधी एवं अन्य सेनानियों की कर्मभूमि तथा अरेराज में भगवान शिव का मन्दिर, केसरिया में दुनिया का सबसे बड़ा बुद्ध स्तूप जो पूर्वी चंपारण में एक आदर्श पर्यटन स्थल है । पुनौरा में देवी सीता की जन्मस्थली, जानकी मंदिर एवं जानकी कुंड, हलेश्वर स्थान, पंथपाकड़, यहाँ से सटे नेपाल के जनकपुर जाकर भगवान राम का स्वयंवर स्थल  है।अफगान शैली में बनाया गया अष्टकोणीय शेरशाह का मक़बरा वास्तुकला का है।देव सूर्य मंदिर, देवार्क सूर्य मंदिर या केवल देवार्क के नाम से प्रसिद्ध, यह भारतीय राज्य बिहार के औरंगाबाद जिले में देव नामक स्थान पर स्थित एक हिंदू मंदिर है  देवता सूर्य को समर्पित है। यह सूर्य मंदिर अन्य सूर्य मंदिरों की तरह पूर्वाभिमुख न होकर पश्चिमाभिमुख है। देवार्क मंदिर अपनी अनूठी शिल्पकला के लिए भी जाना जाता है। पत्थरों को तराश कर बनाए गए इस मंदिर की नक्काशी उत्कृष्ट शिल्प कला का नमूना है। इतिहासकार इस मंदिर के निर्माण का काल छठी - आठवीं सदी के मध्य होने का अनुमान लगाते हैं जबकि अलग-अलग पौराणिक विवरणों पर आधारित मान्यताएँ और जनश्रुतियाँ इसे त्रेता युगीन अथवा द्वापर युग के मध्यकाल में निर्मित बताती हैं।परंपरागत रूप से इसे हिंदू मिथकों में वर्णित, कृष्ण के पुत्र, साम्ब द्वारा निर्मित बारह सूर्य मंदिरों में से एक माना जाता है। इस मंदिर के साथ साम्ब की कथा के अतिरिक्त, यहां देव माता अदिति ने की थी पूजा मंदिर को लेकर एक कथा के अनुसार प्रथम देवासुर संग्राम में जब असुरों के हाथों देवता हार गये थे, तब देव माता अदिति ने तेजस्वी पुत्र की प्राप्ति के लिए देवारण्य में छठी मैया की आराधना की थी। तब प्रसन्न होकर छठी मैया ने उन्हें सर्वगुण संपन्न तेजस्वी पुत्र होने का वरदान दिया था। इसके बाद अदिति के पुत्र हुए त्रिदेव रूप आदित्य भगवान, जिन्होंने असुरों पर देवताओं को विजय दिलायी। कहते हैं कि  समय से देव सेना षष्ठी देवी के नाम पर इस धाम का नाम देव हो गया और छठ का चलन भी शुरू हो गया। अतिरिक्त पुरुरवा ऐल, और शिवभक्त राक्षसद्वय माली-सुमाली की अलग-अलग कथाएँ भी जुड़ी हुई हैं जो इसके निर्माण का अलग-अलग कारण और समय बताती हैं। एक अन्य विवरण के अनुसार देवार्क को तीन प्रमुख सूर्य मंदिरों में से एक माना जाता है, अन्य दो लोलार्क (वाराणसी) और कोणार्क हैं।बिहार में विशेष  मनाये जाने वाले छठ पर्व है।भील - भील जनजाति ने बिहार के क्षेत्रों पर शासन किया था। 22 मार्च 1912 ई. को बिहार राज्य की स्थापना से बिहारियों के अतीत की आकांक्षाओं का पहचान बनी है। बिहार की आध्यात्मिक भूमि , गंगा , पुनपुन , फल्गु पवित्र नदियां , मगध साम्राज्य की सांस्कृतिक विरासत है।


सोमवार, मार्च 08, 2021

प्रकृति और पुरूष : महाशिवरात्रि...


            वेदों और पुराणों में भगवान शिव का भूतल पर वांग्मय स्वरूप के सबंध में उल्लेख किया गया है ।महाशिवरात्रि को 12 ज्योतिर्लिंग ,उपलिंगों , नाथों और शिव लिंग का अभिषेक करने से मनोवांछित फल की प्राप्ति होती है । फाल्गुन कृष्ण त्रयोदशी को महाशिवरात्रि को सृष्टि का प्रारंभ  हुआ था।  पुरणों के अनुसार   सृष्टि का आरम्भ अग्निलिंग के उदय से हुआ।भगवान शिव का विवाह देवी पार्वती के साथ हुआ था। वर्ष में होने वाली 12 शिवरात्रियों में  महाशिवरात्रि को सबसे महत्वपूर्ण माना गया है। भारत सहित दुनिया में महाशिवरात्रि का पावन पर्व बहुत ही उत्साह के साथ मनाया जाता है ।कश्मीर शैव मत में महाशिवरात्रि को हर-रात्रि और बोलचाल में 'हेराथ' या 'हेरथ'  कहा जाता हैं। 1समुद्र मंथन से  अमृत और हलाहल विष पैदा हुआ था। हलाहल विष में ब्रह्मांड को नष्ट करने की क्षमता थी । भगवान शिव ने हलाहल विष को अपने कंठ में रख लिया था। जहर इतना शक्तिशाली था कि भगवान शिव बहुत दर्द से पीड़ित हो उठे थे और उनका गला बहुत नीला हो गया था। इस कारण से भगवान शिव 'नीलकंठ' के नाम से प्रसिद्ध हैं। उपचार के लिए, चिकित्सकों ने देवताओं को भगवान शिव को रात भर जागते रहने की सलाह दी। इस प्रकार, भगवान भगवान शिव के चिंतन में एक सतर्कता रखी। शिव का आनंद लेने और जागने के लिए, देवताओं ने अलग-अलग नृत्य और संगीत बजाने। सुबह हुई, उनकी भक्ति से प्रसन्न भगवान शिव ने सभी को आशीर्वाद दिया।शिवरात्रि इस घटना का उत्सव है, जिससे शिव ने दुनिया को बचाया है। 
माता  पार्वती  ने भगवान शिवशंकर से पूछा, 'ऐसा कौन-सा श्रेष्ठ तथा सरल व्रत-पूजन है, जिससे मृत्युलोक के प्राणी आपकी कृपा सहज ही प्राप्त कर लेते हैं?' शिवजी ने पार्वती को 'शिवरात्रि' के व्रत का विधान बताकर यह कथा सुनाई- 'एक बार चित्रभानु नामक एक शिकारी था। पशुओं की हत्या करके वह अपने कुटुम्ब को पालता था। वह एक साहूकार का ऋणी था, लेकिन उसका ऋण समय पर न चुका सका। क्रोधित साहूकार ने शिकारी को शिवमठ में बंदी बना लिया। संयोग से उस दिन शिवरात्रि थी।'शिकारी ध्यानमग्न होकर शिव-संबंधी धार्मिक बातें सुनता रहा। चतुर्दशी को उसने शिवरात्रि व्रत की कथा भी सुनी। संध्या होते ही साहूकार ने उसे अपने पास बुलाया और ऋण चुकाने के विषय में बात की। शिकारी अगले दिन सारा ऋण लौटा देने का वचन देकर बंधन से छूट गया। अपनी दिनचर्या की भांति वह जंगल में शिकार के लिए निकला। लेकिन दिनभर बंदी गृह में रहने के कारण भूख-प्यास से व्याकुल था। शिकार करने के लिए वह एक तालाब के किनारे बेल-वृक्ष पर पड़ाव बनाने लगा। बेल वृक्ष के नीचे शिवलिंग था जो विल्वपत्रों से ढका हुआ था। शिकारी को उसका पता न चला।पड़ाव बनाते समय उसने जो टहनियां तोड़ीं, वे संयोग से शिवलिंग पर गिरीं। इस प्रकार दिनभर भूखे-प्यासे शिकारी का व्रत भी हो गया और शिवलिंग पर बेलपत्र भी चढ़ गए। एक पहर रात्रि बीत जाने पर एक गर्भिणी मृगी तालाब पर पानी पीने पहुंची। शिकारी ने धनुष पर तीर चढ़ाकर ज्यों ही प्रत्यंचा खींची, मृगी बोली, 'मैं गर्भिणी हूं। शीघ्र ही प्रसव करूंगी। तुम एक साथ दो जीवों की हत्या करोगे, जो ठीक नहीं है। मैं बच्चे को जन्म देकर शीघ्र ही तुम्हारे समक्ष प्रस्तुत हो जाऊंगी, तब मार लेना।' शिकारी ने प्रत्यंचा ढीली कर दी और मृगी जंगली झाड़ियों में लुप्त हो गई।कुछ ही देर बाद एक और मृगी उधर से निकली। शिकारी की प्रसन्नता का ठिकाना न रहा। समीप आने पर उसने धनुष पर बाण चढ़ाया। तब उसे देख मृगी ने विनम्रतापूर्वक निवेदन किया, 'हे पारधी! मैं थोड़ी देर पहले ऋतु से निवृत्त हुई हूं। कामातुर विरहिणी हूं। अपने प्रिय की खोज में भटक रही हूं। मैं अपने पति से मिलकर शीघ्र ही तुम्हारे पास आ जाऊंगी।' शिकारी ने उसे भी जाने दिया। दो बार शिकार को खोकर उसका माथा ठनका। वह चिंता में पड़ गया। रात्रि का आखिरी पहर बीत रहा था। तभी एक अन्य मृगी अपने बच्चों के साथ उधर से निकली। शिकारी के लिए यह स्वर्णिम अवसर था। उसने धनुष पर तीर चढ़ाने में देर नहीं लगाई। वह तीर छोड़ने ही वाला था कि मृगी बोली, 'हे पारधी!' मैं इन बच्चों को इनके पिता के हवाले करके लौट आऊंगी। इस समय मुझे शिकारी हंसा और बोला, सामने आए शिकार को छोड़ दूं, मैं ऐसा मूर्ख नहीं। इससे पहले मैं दो बार अपना शिकार खो चुका हूं। मेरे बच्चे भूख-प्यास से तड़प रहे होंगे। उत्तर में मृगी ने फिर कहा, जैसे तुम्हें अपने बच्चों की ममता सता रही है, ठीक वैसे ही मुझे भी। इसलिए सिर्फ बच्चों के नाम पर मैं थोड़ी देर के लिए जीवनदान मांग रही हूं। हे पारधी! मेरा विश्वास कर, मैं इन्हें इनके पिता के पास छोड़कर तुरंत लौटने की प्रतिज्ञा करती हूं।मृगी का दीन स्वर सुनकर शिकारी को उस पर दया आ गई। उसने उस मृगी को भी जाने दिया। शिकार के अभाव में बेल-वृक्षपर बैठा शिकारी बेलपत्र तोड़-तोड़कर नीचे फेंकता जा रहा था। पौ फटने को हुई तो एक हृष्ट-पुष्ट मृग उसी रास्ते पर आया। शिकारी ने सोच लिया कि इसका शिकार वह अवश्य करेगा। शिकारी की तनी प्रत्यंचा देखकर मृगविनीत स्वर में बोला, हे पारधी भाई! यदि तुमने मुझसे पूर्व आने वाली तीन मृगियों तथा छोटे-छोटे बच्चों को मार डाला है, तो मुझे भी मारने में विलंब न करो, ताकि मुझे उनके वियोग में एक क्षण भी दुःख न सहना पड़े। मैं उन मृगियों का पति हूं। यदि तुमने उन्हें जीवनदान दिया है तो मुझे भी कुछ क्षण का जीवन देने की कृपा करो। मैं उनसे मिलकर तुम्हारे समक्ष उपस्थित हो जाऊंगा।मृग की बात सुनते ही शिकारी के सामने पूरी रात का घटनाचक्र घूम गया, उसने सारी कथा मृग को सुना दी। तब मृग ने कहा, 'मेरी तीनों पत्नियां जिस प्रकार प्रतिज्ञाबद्ध होकर गई हैं, मेरी मृत्यु से अपने धर्म का पालन नहीं कर पाएंगी। अतः जैसे तुमने उन्हें विश्वासपात्र मानकर छोड़ा है, वैसे ही मुझे भी जाने दो। मैं उन सबके साथ तुम्हारे सामने शीघ्र ही उपस्थित होता हूं।' उपवास, रात्रि-जागरण तथा शिवलिंग पर बेलपत्र चढ़ने से शिकारी का हिंसक हृदय निर्मल हो गया था। उसमें भगवद् शक्ति का वास हो गया था। धनुष तथा बाण उसके हाथ से सहज ही छूट गया। भगवान शिव की अनुकंपा से उसका हिंसक हृदय कारुणिक भावों से भर गया। वह अपने अतीत के कर्मों को याद करके पश्चाताप की ज्वाला में जलने लगा।थोड़ी ही देर बाद वह मृग सपरिवार शिकारी के समक्ष उपस्थित हो गया, ताकि वह उनका शिकार कर सके, किंतु जंगली पशुओं की ऐसी सत्यता, सात्विकता एवं सामूहिक प्रेमभावना देखकर शिकारी को बड़ी ग्लानि हुई। उसके नेत्रों से आंसुओं की झड़ी लग गई। उस मृग परिवार को न मारकर शिकारी ने अपने कठोर हृदय को जीव हिंसा से हटा सदा के लिए कोमल एवं दयालु बना लिया। देवलोक से समस्त देव समाज भी इस घटना को देख रहे थे। घटना की परिणति होते ही देवी-देवताओं ने पुष्प-वर्षा की। तब शिकारी तथा मृग परिवार मोक्ष को प्राप्त हुए। गेंदे के फूलों की अनेक प्रकार की मालायें  शिव को चढ़ाई जाती हैं।
इस अवसर पर भगवान शिव का अभिषेक अनेकों प्रकार से किया जाता है। जलाभिषेक : जल से और दुग्‍धाभिषेक : दूध से। बहुत जल्दी सुबह-सुबह भगवान शिव के मंदिरों पर भक्तों, जवान और बूढ़ों का ताँता लग जाता है वे सभी पारंपरिक शिवलिंग पूजा करने के लिए जाते हैं और भगवान से प्रार्थना करते हैं। भक्त सूर्योदय के समय पवित्र स्थानों पर स्नान करते हैं जैसे गंगा, या (खजुराहो के शिव सागर में) या किसी अन्य पवित्र जल स्रोत में। यह शुद्धि के अनुष्ठान हैं, जो सभी हिंदू त्योहारों का एक महत्वपूर्ण हिस्सा हैं। पवित्र स्नान के बाद स्वच्छ वस्त्र पहने जाते हैं, भक्त शिवलिंग स्नान करने के लिए मंदिर में पानी का बर्तन ले जाते हैं महिलाओं और पुरुषों दोनों सूर्य, विष्णु और शिव की प्रार्थना करते हैं मंदिरों में घंटी और "शंकर जी की जय" ध्वनि गूंजती है। भक्त शिवलिंग की तीन या सात बार परिक्रमा करते हैं और फिर शिवलिंग पर पानी या दूध भी डालते हैं। शिव लिंग का अभिषेक पानी, दूध और शहद के साथ करने से चतुर्दिक लाभ होता है। बेर या बेल के पत्ते अर्पित करने पर  आत्मा की शुद्धि ; शिव लिंग को अभिषेक के बाद सिंदूर का लेप  लगाने से   पुण्य , फल अर्पण करने से  दीर्घायु और इच्छाओं की संतुष्टि , धूप, धन , (अनाज);दीपक अर्पण से  ज्ञान की प्राप्ति और पान के पत्ते से  सांसारिक सुखों के साथ संतोष की प्राप्ति होती है।   तुलसी के पत्ते ,हल्दी ,चंपा और केतकी के फूल  का अभषेक करने से हानि होती है।
ज्योतिर्लिंग - बारह ज्योतिर्लिंग  पूजा के लिए भगवान शिव के पवित्र धार्मिक स्थल और केंद्र हैं। वे स्वयम्भू के रूप में जाने जाते हैं, जिसका अर्थ है "स्वयं उत्पन्न"। बारह स्‍थानों पर बारह ज्‍योर्तिलिंग स्‍थापित हैं।सोमनाथ यह शिवलिंग गुजरात के काठियावाड़ में स्थापित है। श्री शैल मल्लिकार्जुन मद्रास में कृष्णा नदी के किनारे पर्वत पर स्थापित है श्री शैल मल्लिकार्जुन शिवलिंग। महाकाल उज्जैन के अवंति नगर में स्थापित महाकालेश्वर शिवलिंग, जहां शिवजी ने दैत्यों का नाश किया था। ॐकारेश्वर मध्यप्रदेश के धार्मिक स्थल ओंकारेश्वर में नर्मदा तट पर पर्वतराज विंध्य की कठोर तपस्या से खुश होकर वरदाने देने हुए यहां प्रकट हुए थे शिवजी। जहां ममलेश्वर ज्योतिर्लिंग स्थापित हो गया।नागेश्वर गुजरात के द्वारकाधाम के निकट स्थापित नागेश्वर ज्योतिर्लिंग।. बैजनाथ बिहार के बैद्यनाथ धाम में स्थापित शिवलिंग। भीमाशंकर महाराष्ट्र की भीमा नदी के किनारे स्थापित भीमशंकर ज्योतिर्लिंग। त्र्यंम्बकेश्वर नासिक (महाराष्ट्र) से 25 किलोमीटर दूर त्र्यंम्बकेश्वर में स्थापित ज्योतिर्लिंग।घुमेश्वर महाराष्ट्र के औरंगाबाद जिले में एलोरा गुफा के समीप वेसल गांव में स्थापित घुमेश्वर ज्योतिर्लिंग।. केदारनाथ हिमालय का दुर्गम केदारनाथ ज्योतिर्लिंग। हरिद्वार से 150 पर मिल दूरी पर स्थित है। काशी विश्वनाथ बनारस के काशी विश्वनाथ मंदिर में स्थापित विश्वनाथ ज्योतिर्लिंग। रामेश्वरम्‌ त्रिचनापल्ली (मद्रास) समुद्र तट पर भगवान श्रीराम द्वारा स्थापित रामेश्वरम ज्योतिर्लिंग है। 
 भारत में शिव अनुयायियों की एक बड़ी संख्या है। महाकालेश्वर मंदिर, (उज्जैन) सबसे सम्माननीय भगवान शिव का मंदिर है जहाँ हर वर्ष शिव भक्तों की एक बड़ी मण्डली महा शिवरात्रि के दिन पूजा-अर्चना के लिए आती है। जेओनरा, सिवनी के मठ मंदिर में व जबलपुर के तिलवाड़ा घाट नामक दो अन्य स्थानों पर यह त्योहार बहुत धार्मिक उत्साह के साथ मनाया जाता है। दमोह जिले के बांदकपुर धाम में भी इस दिन लाखों लोगों का जमावड़ा रहता है।
कश्मीरी ब्राह्मणों के लिए यह सबसे महत्वपूर्ण त्योहार है। यह शिव और पार्वती के विवाह के रूप में हर घर में मनाया जाता है। महाशिवरात्रि के उत्सव के 3-4 दिन पहले यह शुरू हो जाता है और उसके दो दिन बाद तक जारी रहता है।महाशिवरात्रि आन्ध्र प्रदेश, कर्नाटक, केरल, तमिलनाडु और तेलंगाना के सभी मंदिरों में व्यापक रूप से मनाई जाती है।बांग्लादेश में हिंदू महाशिवरात्रि मनाते हैं। वे भगवान शिव के दिव्य आशीर्वाद प्राप्त करने की उम्मीद में व्रत रखते हैं। कई बांग्लादेशी हिंदू इस खास दिन चंद्रनाथ धाम (चिटगांव) जाते हैं। बांग्लादेशी  की मान्यता है कि इस दिन व्रत व पूजा करने वाले स्त्री तथा पुरुष को अच्छा पति या पत्नी मिलन का पर्व है ।



को नेपाल में व विशेष रूप से पशुपति नाथ मंदिर में व्यापक रूप से मनाया जाता है। महाशिवरात्रि के अवसर पर काठमांडू के पशुपतिनाथ मन्दिर पर भक्तजनों की भीड़ लगती है। इस अवसर पर भारत समेत विश्व के विभिन्न स्थानों से जोगी, एवम्‌ भक्तजन इस मन्दिर में आते हैं। शिव को योग परंपरा की शुरुआत और आदि  गुरु माना जाता है। महाशिवरात्रि की  रात को ग्रहों की स्थिति ऐसी होती है जिससे मानव प्रणाली में ऊर्जा की  शक्तिशाली प्राकृतिक लहर बहती है।  भौतिक और आध्यात्मिक रूप से लाभ प्राप्ति के लिए  रात जागरण की सलाह  दी गयी है जिसमें शास्त्रीय संगीत और नृत्य के विभिन्न रूप में प्रशिक्षित विभिन्न क्षेत्रों से कलाकारों पूरी रात प्रदर्शन करते हैं। शिवरात्रि को महिलाओं के लिए विशेष रूप से शुभ माना जाता है। विवाहित महिलाएँ अपने पति के सुखी जीवन के लिए प्रार्थना करती हैं व अविवाहित महिलाएं भगवान शिव, जिन्हें आदर्श पति के रूप में माना जाता है । महाशिवरात्रि का पर्व इस वर्ष 11 मार्च को फाल्गुन मास की कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी की तिथि को मनाया जाएगा. महाशिवरात्रि पर इस वर्ष एक विशेष शुभ योग का निर्माण हो रहा है, जो इस शिवरात्रि की महिमा में वृद्धि करता है. इस वर्ष महाशिवरात्रि के दिन शिव योग बन रहा है. शिव योग में भगवान शिव की विधि पूर्वक पूजा करने से विशेष पुण्य प्राप्त होगें। पंचांग के अनुसार 11 मार्च को अभिजित मुहूर्त दोपहर 12 बजकर 08 मिनट से रात्रि 12 बजकर 55 तक रहेगा. मान्यता है कि इस मुहूर्त में किए गए कार्यों का अभिजित फल प्राप्त होता है । महाशिवरात्रि पर भगवान शिव की पूजा प्रहर पूजा का विधान भी है. मान्यता के अनुसार महाशिवरात्रि पर भगवान की पूजा रात्रि के समय चार प्रहर में करने से विशेष फल प्राप्त होता है. वेदों में रात्रि के चार प्रहर बताए गए हैं । पंचांग के अनुसार महाशिवरात्रि 11 मार्च 2021 ( फाल्गुन कृष्ण त्रयोदशी गुरुवार 2077 )  को प्रात: 12 बजकर 06 मिनट से रात्रि 12 बजकर 55 मिनट तक निशिता काल रहेगा ,  साथ ही महाशिवरात्रि के व्रत का समापन यानि पारण मुहूर्त 12 मार्च को प्रात: 06 बजकर 34 मिनट से दोपहर 03 बजकर 02 तक बना हुआ है । भगवान शिव सभी प्रकार की मनोकामनाओं को पूर्ण करने वाले मान गए हैं. जिन लोगों के जीवन में किसी भी प्रकार की बाधाएं बनी हुई हैं. उन्हें इस दिन विधि पूर्वक व्रत के नियमों का पालन करते हुए पूजा करनी चाहिए. महाशिवरात्रि पर प्रात: काल अभिषेक करने से लाभ मिलता है. इस दिन भगवान शिव की प्रिय चीजों का अर्पण और भोग लगाना चाहिए. जिन लोगों की कुंडली में शनि, राहु और केतु से निर्मित कोई भी अशुभ योग बना हुआ है । भूमंडल  पर भगवान शिव का दिव्य लिंग की आराधना तथा उपासना से सुख , मनोवांछित फल मिलते हैं । सोमनाथ का उपज्योतिर्लिंग अंतकेश्वर मही नदीऔर समुद्र के संगम पर तथा मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंग का उप ज्योतिर्लिंग रूद्रेश्वर भ्टगु क्षेत्र , महाकाल का दुग्धेश्वर नाथ उप ज्योतिर्लिंग बिहार के औरंगाबाद जिले का गोह प्रखंड के देवकुंड में स्थित है। उपज्योतिर्लि में कर्दमेश्वर , भूतेश्वर, भीमेश्वर, नागेश्वर, गुप्तेश्वर , घुश्मेश्वर, व्याघ्रेश्वर है । विश्वनाथ ज्योतिर्लिंग का उपज्योतिर्लिंग सिद्धेश्वर नाथ बिहार के जहनाबाद जिले का बराबर पर्वत समूह की सूर्यांक गिरि चोटी पर स्थित है । क्टत्तिवशेश्वर , तिलभांडेश्वर, दशाश्वमेध, गंगासागर, , संगमेश्वर, नारीश्वर, बटुकेश्वर, पुरेश्वर , दूरेश्वर , जप्येश्वर , गोपेश्वर, रंगेश्वर , वामेश्वर, नागेश, विमलेश, ब्रह्मेश्वर ,सोमेश्वर, भारद्वजेश्वर , माधवेश , , अत्रिश्वर , अयोध्या में नागेश , उप ज्योतिर्लिंग है । अरवल जिले के मदसरवाँ में च्यवनेश्वर , गया जिले के गया में मारकण्डेश्वर , वैशाली जिले के हरिहरनाथ , चतुर्मुखी शिवलिंग , भागलपुर का सुल्तानगंज में अजगैबीनाथ , मुजफ्फरपुर का गरीब नाथ , सीतामढ़ी का पुलेश्वरनाथ , राँची का पहाडीनाथ आदि स्थान पर भगवान शिव का शिवलिंग प्रतिष्ठित हैं ।