सोमवार, फ़रवरी 28, 2022

महाशिवरात्रि और ब्रह्मांड संरक्षण....



  सृष्टि के प्रारंभ के पश्चात ब्रह्मा  जी  ने मानव सृष्टि के लिए  सनक  , सनन्दन  ,सनातन  एवं  सनत्कुमार  को उत्पन्न किया था । परंतु वे मोक्ष मार्ग का अनुसरण कर ब्रह्मा जी के उद्देश्य की पूर्ति नही कर परमात्मा में तल्लीन रहने लगे थे । 
   सनक सनंदन , सनातन और सनत्कुमार द्वारा  ब्रह्मा जी का  आज्ञा  न  मानकर  तिरस्कार करने के कारण  असह्य क्रोध से ब्रह्मा जी  की  भौहों  के  बीच  में  एक  नील  -  लोहित  बालक   के  रूप  में  प्रकट  होने से   देवताओं  के    भगवान्   भव  ( रूद्र  )  का अवतरण हुआ था । भव रो  रो  कर  कहने  लगे  कि हे   विधाता  !  मेरे  नाम  और  रहने  के  स्थान  बतलाइये  ।  भव की  प्रार्थना  पूर्ण  करने  के  लिये  ब्रह्मा जी ने   कहा कि   , '  रोओ  मत  , मैं  अभी  तुम्हारी  इच्छा  पूरी  करता  हूँ  ।  देवश्रेष्ठ  !  तुम  जन्म  लेते  ही  बालक  के  समान  फूट  -  फूट  कर  रोने  लगे  इसलिए  प्रजा  तुम्हें  ' रूद्र  '   पुकारेगी  तथा   रहने  के  लिए  पहले  से    स्थान  निर्धारित कर दिए गए  हैं  । 
 रूद्र  का निवास हृदय में मन्यु की रुद्राणी धी , इन्द्रिय में मनु , वृति रुद्राणी , प्राण में महीनस एवं रुद्राणी उशना , आकाश में  महान रुद्राणी उमा , वायु में शिव रुद्राणी नियुत, अग्नि में ऋतध्वज रुद्राणी सर्पि ,   जल में उग्ररेता रुद्राणी इला , पृथिवी में भव रुद्राणी अम्बिका , सूर्य में काल ,  रुद्राणी  इरावती  , चंद्रमा में वामदेव रुद्राणी सुधा और तप में धृतव्रत एवं रुद्राणी के रूप में दीक्षा रहेगी ।    भगवान रुद्र द्वारा विभिन्न स्थानों पर राह कर मानव सृष्टि की रचना भिन्न नामों एवं रुद्राणी द्वारा की की गई है ।  भगवान शिव को 11 रुद्री वेलपत्र अर्पित कर सृष्टिकर्ता शिव की उपासना किया जाता है । प्रथम रुद्री मन्यु , द्वितीय मनु , तृतीय प्राण ,चतुर्थ आकाश , पंचम वायु ,अग्नि षष्ट , सप्तम जल , अष्टम पृथिवी , नवम सूर्य , दशम चंद्रमा और एकादश तप को तीन पत्तो का वेलपत्र भगवान शिव को अर्पित कर 33 कोटि ( प्रकार ) की देवों की उपासना करते है ।
सृष्टि का प्रारंभ  में पृथिवी पर भगवान शिव का अवतरण भव और रुद्राणी के रूप में माता अम्बिका फाल्गुन कृष्ण त्रयोदशी महाशिवरात्रि को हुआ था । पुरणों के  अनुसार सृष्टि का आरम्भ अग्निलिंग  के उदय एवं  भगवान शिव का विवाह देवी पार्वती के साथ हुआ था। कश्मीर में शैव धर्म के अनुयायियों द्वारा हेराथ , हेरथ की उपासना किया जाता है । समुद्र मंथन से उत्पन्न हलाहल पैदा होने से  ब्रह्माण्ड को नष्ट के लिए  भगवान शिव  ने हलाहल को कण्ठ में रख लिया था।  हलाहल पीने के कारण  भगवान शिव का  गला  नीला हो गया था। भगवान शिव के हलाहल का ग्रहण करने के बाद हलाहल कसे त्रस्त भगवान शिव का  उपचार के लिए, चिकित्सकों ने देवताओं को भगवान शिव को रात भर जागते रहने की सलाह दी। भगवान भगवान शिव के चिन्तन में  सतर्कता रखी। शिव का आनन्द लेने और जागने के लिए, देवताओं ने अलग-अलग नृत्य और संगीत बजाने लगे थे । सुबह हुई, उनकी भक्ति से प्रसन्न भगवान शिव ने उन सभी को आशीर्वाद दिया। शिवरात्रि  घटना का उत्सव है, जिससे शिव ने विश्व  को बचाया था ।
भगवान शिव का बारह ज्योतिर्लिंग (प्रकाश के लिंग) की उपासना त्तथा पूजा के लिए स्वयम्भू ज्योतिर्लिंग  के रूप में बारह ज्‍योर्तिलिंग स्‍थापित हैं। गुजरात के काठियावाड़ में स्थापित सोमनाथ  , मद्रास में कृष्णा नदी के किनारे पर्वत पर स्थापित श्री शैल मल्लिकार्जुन शिवलिंग ,  उज्जैन के अवंति नगर में स्थापित महाकालेश्वर शिवलिंग, जहाँ शिवजी ने दैत्यों का नाश किया था। मध्यप्रदेश के धार्मिक स्थल ओंकारेश्वर में नर्मदा तट पर पर्वतराज विंध्य की कठोर तपस्या से खुश होकर वरदाने देने हुए  ममलेश्वर ज्योतिर्लिंग स्थापित हो गया ,  गुजरात के द्वारकाधाम के निकट स्थापित नागेश्वर ज्योतिर्लिंग , बैजनाथ बिहार के बैद्यनाथ धाम में स्थापित शिवलिंग ,  महाराष्ट्र की भीमा नदी के किनारे स्थापित भीमशंकर ज्योतिर्लिंग। त्र्यंम्बकेश्वर नासिक (महाराष्ट्र) से 25 किलोमीटर दूर त्र्यंम्बकेश्वर में स्थापित ज्योतिर्लिं ,  घृष्णेश्वर महाराष्ट्र के औरंगाबाद जिले में एलोरा गुफा के समीप वेसल गाँव में स्थापित घृष्णेश्वर ज्योतिर्लिंग , केदारनाथ हिमालय का दुर्गम केदारनाथ ज्योतिर्लिंग। हरिद्वार से 150 पर मिल दूरी पर स्थित है।  गंगा किनारे काशी  बनारस के काशी विश्वनाथ मंदिर में स्थापित विश्वनाथ ज्योतिर्लिंग और रामेश्वरम्‌ त्रिचनापल्ली (मद्रास) समुद्र तट पर भगवान श्रीराम द्वारा स्थापित रामेश्वरम ज्योतिर्लिंग  अवस्थित है । नेपाल के काठमांडू में पशुपति नाथ  स्थित है ।
 सनातन धर्म के शैव सम्प्रदाय का वैज्ञानिक दृष्टि से महाशिवरात्रि पृथ्वी का उत्तरी गोलार्द्ध पर अवस्थित होने से  मनुष्य के अंदर की ऊर्जा प्राकृतिक तौर पर ऊपर की तरफ जाने लगती है।  प्रकृति स्वयं मनुष्य को  आध्यात्मिक शिखर तक जाने का मार्ग सुगम करती है। महाशिवरात्रि की रात्रि में जागरण करने एवं रीढ़ की हड्डी सीधी करके ध्यान मुद्रा में बैठने  से मानवीय चेतना जागृत होती  है। भगवान शिव को ब्रह्मांड वैज्ञानिक कहा गया है।  तंत्र, मंत्र, यंत्र, ज्योतिष, ग्रह, नक्षत्र आदि के जनक भगवान शिव ही हैं।  ऊर्जा का  पिंड  गोल, लम्बा व वृत्ताकार  शिवलिंग ब्रह्माण्डीय शक्ति को सोखता है। रुद्राभिषेक, जलाभिषेक, भस्म आरती, भांग -धतूरा और बेल पत्र आदि चढ़ाकर भक्त सकारात्मक ऊर्जा को अपने में ग्रहण कर मन व विचारों में शुद्धता तथा शारीरिक व्याधियों का निवारण करते  है। शिवरात्रि के पश्चात सूर्य उत्तरायण में ग्रीष्मऋतु का आगमन  प्रारंभ हो जाता है। मनुष्य गर्मी के प्रभाव से बचने के लिए अपनी चेतना को शिव को समर्पित कर देता है । महाशिवरात्रि व्रत रखने से तन के शुद्धीकरण के साथ ही रक्त भी शुद्ध  और आतों की सफाई और पेट को आराम मिलता है। उत्सर्जन तंत्र और पाचन तंत्र, अशुद्धियों से छुटकारा , रोगों से मुक्ति , श्वसन तंत्र ठीक ,  कलोस्ट्रोल का स्तर भी घटता और स्मरण शक्ति बढ़ती है। वैज्ञानिकों के अनुसार शिवरात्रि ब्रत रखने से  स्मरण शक्ति तीन से 14 फीसदी तक बढ़ जाती है ।मस्तिष्क और शरीर में सकारात्मक ऊर्जा का संचार होता है
 कृष्ण त्रयोदशी मंगलवार , वसंत ऋतु ,उत्तरायण अयान , उत्तराषाढ़ नक्षत्र , योग वरियान विक्रम संबत 2078 , शक संबत 1943 दिनांक 01 मार्च 2078 को महाशिवरात्रि  है । 01 मार्च 2022 मंगलवार को महाशिवरात्रि है । स्कन्द पुराण के अनुसार शिवरात्रि का व्रत, पूजन, जागरण और उपवास करनेवाले मनुष्य का पुनर्जन्म नहीं होता है।  शिवपुराण के अनुसार शिवरात्रि के समान पाप और भय मिटानेवाला दूसरा व्रत नहीं है। इसको करनेमात्र से सब पापों का क्षय हो जाता है ।   शिवरात्रि के दिन का प्रारंभ देव देव महादेव नीलकंठ नमोस्तुते l कर्तुम इच्छा म्याहम प्रोक्तं, शिवरात्रि व्रतं तव ll. काल सर्प के लिए महाशिवरात्रि के दिन घर के मुख्य दरवाजे पर पिसी हल्दी से स्वस्तिक बना देना चाहिए और शिवलिंग पर दूध और बिल्व पत्र चढ़ाकर जप करना और रात को ईशान कोण में मुख करके जप करना  चाहिए ।शिवरात्रि के दिन ईशान कोण में मुख करके जप करने की महिमा विशेष है, क्योंकि ईशान के स्वामी शिव जी हैं l रात को जप करें, ईशान को दिया जलाकर पूर्व के तरफ रखें एवं उपासक का मुख ईशान मे विशेष लाभ होगा ।महाशिवरात्रि को कोई मंदिर में जाकर शिवजी पर दूध चढते समय ॐ हरये नम , ॐ महेश्वराए नम , ॐ शूलपानायाय नमः, ॐ पिनाकपनाये नमः , ॐ पशुपतये नमः का उच्चारण करना आवश्यक है । स्कन्द पुराण' के ब्रह्मोत्तर खंड में उल्लेख  है कि 'शिवरात्रि का उपवास अत्यंत दुर्लभ है। उसमें जागरण करना तो मनुष्यों के लिए और दुर्लभ है। लोक में ब्रह्मा आदि देवता और वसिष्ठ आदि मुनि इस चतुर्दशी की भूरि भूरि प्रशंसा करते हैं। महाशिवरात्रि को उपवास करने वाले का सौ यज्ञों से अधिक पुण्य होता है । शिव' से तात्पर्य है 'कल्याण' अर्थात् यह रात्रि बड़ी कल्याणकारी रात्रि है। इस रात्रि में जागरण करते हुए ॐ नमः शिवाय का मौन जप करना चाहिए । रेती या मिट्टी के शिवजी बना कर पूजा करने कस प्रावधान है। मुँह से  नाद बजा देने से  शिवजी प्रसन्न हो जाते हैं। उपवास रखकर पुष्प, पंचामृत, बिल्वपत्रादि से चार प्रहर पूजा की जाय । ज्योतिर्मात्रस्वरूपाय निर्मलज्ञानचक्षुषे। नमः शिवाय शान्ताय ब्रह्मणे लिंगमूर्तये।। अतएव ज्योतिमात्र  जिनका स्वरूप है, निर्मल ज्ञान ही जिनका नेत्र है, जो लिंगस्वरूप ब्रह्म है, उन परम शांत कल्याणमय भगवान शिव को नमस्कार है। महाशिवरात्रि की रात्रि में ॐ बं, बं बीजमंत्र के सवा लाख जप से गठिया , वायु विकारों से छुटकारा मिलता है । शिवजी का पत्रम-पुष्पम् से पूजन करके मन से मन का संतोष करें, फिर ॐ नमः शिवाय.... ॐ नमः शिवाय.... शांति से जप करते गये। इस जप का बड़ा भारी महत्त्व है। अमुक मंत्र की अमुक प्रकार की रात्रि को शांत अवस्था में, जब वायुवेग न हो आप सौ माला जप करते हैं तो आपको कुछ-न-कुछ दिव्य अनुभव होंगे। अगर वायु-संबंधी बीमारी हैं तो 'बं बं बं बं बं' सवा लाख जप करते हो तो अस्सी प्रकार की वायु-संबंधी बीमारियाँ गायब !  ॐ नमः शिवाय मंत्र। वामदेव ऋषिः। पंक्तिः छंदः। शिवो देवता। ॐ बीजम्। नमः शक्तिः। शिवाय कीलकम्। अर्थात् ॐ नमः शिवाय का कीलक है 'शिवाय', 'नमः' है शक्ति, ॐ  बीजमंत्र है । कल्प सनातन धर्म का समय चक्र की  मापन इकाई कल्प है। मानव वर्ष ज्योतिष गणित के अनुसार मानव वर्ष  360 दिन का एक दिव्य अहोरात्र होता है। दिव्य 120000 वर्ष का एक चतुर्युगी ,  ७१ चतुर्युगी का एक मन्वन्तर  और 14  मन्वन्तर का एक कल्प होता है।  वैदिक ग्रन्थों , बौद्ध ग्रन्थों में कल्प  मिलता है । मानव की साधारण आयु सौ वर्ष है, वैसे  सृष्टिकर्ता ब्रह्मा की भी आयु सौ वर्ष  है । ब्रह्मा का एक दिन 'कल्प' कहलाता है, उसके बाद प्रलय होता है। प्रलय ब्रह्मा की एक रात के  पश्चात् सृष्टि होती है।चारों युगों के एक चक्कर को चतुर्युगी हैं। 1000 चतुर्युगीमें  एक कल्प होता है। ब्रह्मा के एक मास में तीस कल्प में  श्वेतवाराह कल्प, नीललोहित कल्प आदि है । प्रत्येक कल्प के  14 को 'मन्वंतर' कहते हैं। प्रत्येक मन्वंतर का एक मनु होता है, इस प्रकार स्वायंभुव, स्वारोचिष्‌ आदि १४ मनु हैं। प्रत्येक मन्वंतर के अलग-अलग सप्तर्षि, इद्रं तथा इंद्राणी आदि भी हुआ करते हैं। इस प्रकार ब्रह्मा के आज तक ५० वर्ष व्यतीत हो चुके हैं, ५१वें वर्ष का प्रथम कल्प अर्थात्‌ श्वेतवाराह कल्प प्रारंभ हुआ है। वर्तमान मनु का नाम 'वैवस्वत मनु' है और इनके २७ चतुर्युगी बीत चुके हैं, २८ वें चतुर्युगी के भी तीन युग समाप्त हो गए हैं, चौथे अर्थात्‌ कलियुग का प्रथम चरण चल रहा है। युगों में सत्युग 1728000  वर्ष; त्रेता 1296000 वर्ष; द्वापर 864 000 वर्ष और कलियुग 432 000 वर्ष अर्थात  एक कल्प 1000 चतुर्युगों के बराबर यानी चार अरब बत्तीस करोड़  मानव वर्ष का हुआ है । सनातन ग्रन्थों में मानव  को पाँच कल्पों में हमत् कल्प : १,०९,८०० वर्ष विक्रमीय पूर्व से आरम्भ होकर ८५,८०० वर्ष पूर्व तक , हिरण्य गर्भ कल्प : ८५,८०० विक्रमीय पूर्व से ६१,८०० वर्ष पूर्व तक , ब्राह्म कल्प : ६०,८०० विक्रमीय पूर्व से ३७,८०० वर्ष पूर्व तक , पाद्म कल्प : ३७,८०० विक्रम पूर्व से १३,८०० वर्ष पूर्व तक और , वराह कल्प : १३,८०० विक्रम पूर्व से आरम्भ होकर वर्तमान है । श्वेत वराह कल्प के स्वायम्भु मनु, स्वरोचिष मनु, उत्तम मनु, तमास मनु, रेवत-मनु चाक्षुष मनु तथा वैवस्वत मनु के मन्वन्तर बीत चुके हैं और अब वैवस्वत तथा सावर्णि मनु की अन्तर्दशा चल रही है। सावर्णि मनु का आविर्भाव विक्रमी सम्वत ५,६३० वर्ष पूर्व हुआ था

शनिवार, फ़रवरी 26, 2022

ज्योतिष व खगोलशास्त्र के प्रणेता वराहमिहिर...


भारत के प्रसिद्ध ज्योतिष, गणितज्ञ एवं खगोलशास्त्री  वराहमिहिर  का जन्म 499 ई. को मालवा का अवंति स्थित उज्जैन के क्षिप्रा नदी के किनारे कपिथ निवासी सौरधर्म के उपासक शाकद्वीपीय ब्राह्मण आदित्यदास के पुत्र हुए थे। वराहमिहिर का जन्मस्थल को कपिथ को कायथ , कपिथ्य कहा जाता है । आर्यभट्ट के शिष्य  वाराहमिहिर ज्योतिष विज्ञान और गणित के परम ज्ञाता ,  वेद के बारे में असधारण ज्ञान प्राप्त था । ज्योतिष शास्त्र में अद्भुत ज्ञान , सटीक भविष्य वाणी, और गणित में प्रकांड विद्वान होने के कारण वराहमिहिर की  मगध साम्राज्य में उच्च पद दिया गया था। राजा विक्रमादित्य गुप्तवंशीय बुधगुप्त   के  दरवार में नौ रत्नों में वाराहमिहिर ने  ज्ञान और अध्ययन को वृहद ग्रंथ का रूप दिया  था । वराहमिहिर के द्वारा ज्योतिष , आध्यात्म , खगोल विज्ञान  का अध्ययन  उज्जैन गुरुकुल में प्राप्त किया गया था  । वराहमिहिर की शिक्षा उज्जैन में  अपने पिता से प्राप्त करने के बाद वे आर्यभट्ट से मिले थे ।  आर्यभट्ट से प्रेरित होकर ज्योतिष और गणित के अनुसंधान में जुट गये थे । उन्होंने समय मापक घट यन्त्र, वेधशाला की स्थापना और इन्द्रप्रस्थ में लौहस्तम्भ के निर्माण कराया था । राजा विक्रमादित्य ने मिहिर को मगध राज्य का सबसे बड़ा सम्मान वाराह से अलंकृत किया था । वराहमिहिर ने ग्रह, नक्षत्रों और गणना के आधार पर राजा विक्रमादित्य के पुत्र की मृत्यु की भविष्यवाणी  में बताया था की  राजकुमार की  18 वर्ष की आयु में मृत्यु हो जाएगी। यह सुनकर राजा विक्रमादित्य बहुत ही दुखी हो गये। उन्होंने राजकुमार के देख रेख की विशेष व्यवस्था की। ताकि राजकुमार कभी बीमार नही  पडे। परंतु राजकुमार को 18 वर्ष के उम्र के बाद राजकुमार की मृत्यु हो गयी । राजा विक्रमादित्य ने मिहिर को  दरबार में कहा की आपकी जीत हुई। मिहिर ने राज से बड़े ही वीनम्रता से जबाब दिया। क्षमा चाहता हूँ महाराज। यह मेरी जीत नहीं है यह असल में ज्योतिष विज्ञान की जीत है। मैं गणना के आधार पर सिर्फ भविष्यवाणी की थी। राजा अपने पुत्र के निधन से बेहद आहात हुए। लेकिन मिहिर के सटीक भविष्यवाणी का भी उन्हें लोहा मानना पड़ा। उन्होंने मिहिर को मगध साम्राज्य का सबसे बड़ा सम्मान वराह से पुरस्कृत किया था । ज्योतिष और खगोल विद्या में अहम योगदान के कारण राजा विक्रमादित्य द्वितीय ने उन्हें अपने दरबार के नौ रत्नों में शामिल किया।उनके द्वारा रचित ग्रंथ ज्योतिष शास्त्र में मानक ग्रंथ के रूप में स्वीकार  है।उन्होंने पंचसिद्धान्तिका में अयनांश का मान 50.32 सेकेण्ड बताया था। वाराहमिहिर ने गणित एवं विज्ञान को जनहित से जोड़ने का काम किया। उन्होंने भी धरती को गोल माना लेकिन उन्होंने पृथ्वी को गतिशील नहीं माना।उनका तर्क था की अगर पृथ्वी गतिशील होती तो पक्षी सुवह अपना घोंसला छोड़ने के बाद शाम को अपना घोंसला तक नहीं पहुँच पाती। हालांकि बाद में उनका यह तर्क गलत साबित हुआ। भले ही गुरुत्वाकर्षण के सिद्धांत का श्रेय  है । पृथ्वी में कोई शक्ति जरूर है। जिसके कारण चीजें धरती की तरफ आकर्षित होती है।‘संख्या-सिद्धान्त’ गणित के एक प्रसिद्ध पुस्तक का रचनाकार  है। वराहमिहिर ने पर्यावरण, जल और भू-विज्ञान ,  गणित के त्रिकोणमितीय सूत्र का प्रतिपादन किया था । वराहमिहिर रचित ग्रंथ में बृहज्जातक, वराहमिहिर बृहत्संहिता और पंचसिद्धांतिका काफी प्रसिद्ध हुई।बृहज्जातक – वराहमिहिर को त्रिकोणमिति के बारें में वृहद ज्ञान एवं त्रिकोणमिति से संबंधित कई महत्वपूर्ण सूत्र बताये हैं। पंचसिद्धांतिका ग्रंथ में पोलिशसिद्धांत, रोमकसिद्धांत, वसिष्ठसिद्धांत, सूर्यसिद्धांत तथा पितामहसिद्धांत , बृहत्संहिता – वराहमिहिर नें बृहत्संहिता में वास्तुशास्त्र, भवन निर्माण-कला आदि , लघुजातक, बृहत्संहिता, टिकनिकयात्रा, बृहद्यात्रा या महायात्रा, योगयात्रा या स्वल्पयात्रा, वृहत् विवाहपटल, लघु विवाहपटल, कुतूहलमंजरी, दैवज्ञवल्लभ, लग्नवाराहि। वराहमिहिर रचित ज्योतिष ग्रंथ में रचना है।
वराहमिहिर ने फलित ज्योतिष, गणित और खगोलशास्त्र  एवं सूर्य सिद्धांत’ के  अनुसार गणना के लिए चार प्रकार के माह हो सकते है। पहला सौर, दूसरा चंद्र, तीसरा वर्षीय और चौथा पाक्षिक। का ज्ञान दिया गया है । ज्योतिष विज्ञान और खगोल विज्ञान का अच्छा ज्ञान रखने वाले वराहमिहिर की मृत्यु सन् 587 ई को हो गयी थी ।वाराहमिहिर ने यात्राक्रम में यूनान तक की यात्रा की। कुसुमपुर (पटना) जाने पर युवा मिहिर ने महान खगोलज्ञ और गणितज्ञ आर्यभट्ट से  प्रेरणा प्राप्त कर ज्योतिष विद्या और खगोल ज्ञान को  जीवन का ध्येय बना लिया।  गुप्त शासन के अन्तर्गत उज्जैन में कला, विज्ञान और संस्कृति के अनेक केंद्र पनप रहे थे। वराह मिहिर ने मगध साम्राज्य की राजधानी पाटलिपुत्र शहर में रहने के लिये आ गये क्योंकि अन्य स्थानों के विद्वान भी यहां एकत्र होते रहते थे वराहमिहिर के ज्योतिष ज्ञान का पता विक्रमादित्य चन्द्रगुप्त द्वितीय को लगा। राजा ने उन्हें अपने दरबार के नवरत्नों में शामिल कर लिया। मिहिर ने सुदूर देशों की यात्रा की, यहां तक कि वह यूनान तक  गये। सन् 587 में महान गणितज्ञ वराहमिहिर की मृत्यु हो गई।
550 ई. के लगभग इन्होंने तीन महत्वपूर्ण पुस्तकें बृहज्जातक, बृहत्संहिता और पंचसिद्धांतिका, लिखीं। इन पुस्तकों में त्रिकोणमिति के महत्वपूर्ण सूत्र दिए हुए हैं, जो वराहमिहिर के त्रिकोणमिति ज्ञान के परिचायक हैं।
पंचसिद्धांतिका में वराहमिहिर से पूर्व प्रचलित पाँच सिद्धांतों का वर्णन है। ये सिद्धांत हैं : पोलिशसिद्धांत, रोमकसिद्धांत, वसिष्ठसिद्धांत, सूर्यसिद्धांत तथा पितामहसिद्धांत तथा  पूर्वप्रचलित सिद्धांतों की महत्वपूर्ण बातें लिखकर अपनी ओर से 'बीज' नामक संस्कार का  निर्देश किया है ।  इन्होंने फलित ज्योतिष के लघुजातक, बृहज्जातक तथा बृहत्संहिता  ग्रंथ  हैं। बृहत्संहिता में वास्तुविद्या, भवन-निर्माण-कला, वायुमंडल की प्रकृति, वृक्षायुर्वेद आदि , ज्योतिष विद्या एक अथाह सागर है । वराहमिहिर के  ग्रन्थरत्न में पंचसिद्धान्तिका,बृहज्जातकम्,लघुजातक,बृहत्संहिता , टिकनिकयात्रा , बृहद्यात्रा ,यामहायात्रा ,योगयात्रा या स्वल्पयात्रा , वृहत् विवाहपटल ,लघु विवाहपटल ,कुतूहलमंजरी , दैवज्ञवल्लभ ,लग्नवाराहि है ।वराहमिहिर द्वारा पर्यावरण विज्ञान (इकालोजी), जल विज्ञान (हाइड्रोलोजी), भूविज्ञान (जिआलोजी) के संबंध में कहा गया था कि पौधे और दीमक जमीन के नीचे के पानी को इंगित करते हैं पंचसिद्धान्तिका ,  बृहत्संहिता, बृहज्जात्क (ज्योतिष) ,  फलित ज्योतिष में  स्थान दिया है । वराहमिहिर ने शून्य एवं ऋणात्मक संख्याओं के बीजगणितीय गुणों को परिभाषित किया , संख्या-सिद्धान्त'  गणित ग्रन्थ के भी रचना कर उन्नत अंकगणित, त्रिकोणमिति के साथ-साथ कुछ अपेक्षाकृत सरल संकल्पनाओं का  समावेश किया , पास्कल त्रिकोण से प्रसिद्ध संख्याओं की खोज की थी । बृहत्संहिता में  16 द्रव्यमान का विश्लेषण के अनुसार षोडशके द्रव्यगणे चतुर्विकल्पेन भिद्यमानानाम्।अष्टादश जायन्ते शतानि सहितानि विंशत्या॥ अर्थ: सोलह प्रकार के द्रव्य विद्यमान हों तो उनमें से किसी चार को मिलाकर कुल 1820 प्रकार के इत्र बनाए जा सकते हैं। गणित की भाषा में , 16C4 = (16 × 15 × 14 × 13) / (1 × 2 × 3 × 4) = 1,820 है। उन्होने कहा है कि परावर्तन कणों के प्रति-प्रकीर्णन से होता है। उन्होने अपवर्तन की व्याख्या की है। वराहमिहिर का ज्योतिष शास्त्र एवं अन्य ग्रंथों का अध्ययन कर अल्वरूनी द्वारा अरबी भाषा मे अनुवाद किया एवं पाश्चात्य ज्योतिष शास्त्र में रोमेश , पॉलिश  द्वारा विकास किया गया है । यूनानी ज्योतिष शास्त्र में वराहमिहिर के द्वारा रचित ग्रन्थों के आधार पर ज्योतिष का विकास किया गया है । वराहमिहिर के पुत्र पृथ्युयशा ने ज्योतिष का विकास में सक्रिय थे ।

गुरुवार, फ़रवरी 24, 2022

देवों का स्थल देवप्रयाग...


उत्तराखण्ड राज्य का टिहरी जिले का देवप्रयाग समुद्र सतह से 1500 फीट की ऊँचाई अलकनंदा तथा भागीरथी नदियों के संगम पर स्थित है। भागीरथी नदी एवं अलकनंदा नदी  संगम धारा 'गंगा' कहलाती है।  राजा भगीरथ को गंगा द्वारा  पृथ्वी पर उतरने के लिए 
          देवप्रयाग में स्थित भगरीथी नदी एवं अलकनंदा नदी का संगम , रघुनाथ मंदिर 
अनुमति देने  के बाद  ३३ कोटि  देवी-देवता गंगा के साथ स्वर्ग से आकर भागीरथी नदी एवं अलकनंदा नदी संगम पर स्थित देवप्रयाग में निवास स्थल किया था । गढ़वाल क्षेत्र में भागीरथी नदी को सास तथा अलकनंदा नदी को बहू कहा जाता है। देवप्रयाग  संगम पर  शिव मंदिर , द्रविड़ शैली में निर्मित  रघुनाथ मंदिर , डंडा नागराज मंदिर और चंद्रवदनी मंदिर  हैं। देवप्रयाग को 'सुदर्शन क्षेत्र' कहा जाता है । देवप्रयाग में कौवे दिखायी नहीं होती  है । .आचार्य श्री पं.चक्रधर जोशी नामक ज्योतिष्विद एवं खगोलशास्त्री ने १९४६ में नक्षत्र  वेधशाला की स्थापना दशरथांचल पर्वत पर की थी । वेधशाला दो बड़ी दूरबीनों (टेलीस्कोप) से सुसज्जित और खगोलशास्त्र  पुस्तक है। १६७७ ई से संग्रह की हुई ३००० विभिन्न संबंधित पांडुलिपियां सहेजी हुई हैं। प्राचीन उपकरण सूर्य घटी, जल घटी एवं ध्रुव घटी जैसे अनेक यंत्र व उपकरण हैं । रामायण में लंका विजय उपरांत भगवान राम के वापस लौटने पर जब एक धोबी ने माता सीता की पवित्रता पर संदेह किया, तो उन्होंने सीताजी का त्याग करने का मन बनाया और लक्ष्मण जी को सीताजी को वन में छोड़ आने को कहा। तब लक्ष्मण जी सीता जी को उत्तराखण्ड देवभूमि के ऋर्षिकेश से आगे तपोवन में छोड़कर चले गये। जिस स्थान पर लक्ष्मण जी ने सीता को विदा किया था वह स्थान देव प्रयाग के निकट ही ४ किलोमीटर आगे पुराने बद्रीनाथ मार्ग पर स्थित सीता विदा है । केदारखण्ड में रामचन्द्र जी का सीता और लक्ष्मण जी सहित देवप्रयाग पधारने का वर्णन मिलता है। बायें अलकनंदा और दायें भागीरथी नदियां देवप्रयाग में संगम बनाती हैं और यहां से गंगा नदी बनती है। अलकनंदा नदी उत्तराखंड के सतोपंथ और भागीरथ कारक हिमनदों से निकलकर इस प्रयाग को पहुंचती है। नदी का प्रमुख जलस्रोत गौमुख में गंगोत्री हिमनद के अंत से तथा कुछ अंश खाटलिंग हिमनद से निकलता है। यहां की औसत ऊंचाई ८३० मीटर (२,७२३ फीट) है। २००१ की भारतीय जनगणना के अनुसार[6] देवप्रयाग की कुल जनसंख्या २१४४ है, जिसमें ५२% पुरुशः और ४८% स्त्रियां हैं। यहां की औसत साक्षरता दर ७७% है, जो राष्ट्रीय साक्षरता दर ५९.५ से काफी अधिक है। इसमें पुरुष साक्षरता दर ८२% एवं महिला साक्षरता दर ७२% है। यहां की कुल जनसंख्या में से १३% ६ वर्ष की आयु से नीचे की है। यह कस्बा बद्रीनाथ धाम के पंडों का भी निवास स्थान है। यत्र ने जान्हवीं साक्षादल कनदा समन्विता। यत्र सम: स्वयं साक्षात्स सीतश्च सलक्ष्मण॥ सममनेन तीर्थेन भूतो न भविष्यति। पुनर्देवप्रयागे यत्रास्ते देव भूसुर:। आहयो भगवान विष्णु राम-रूपतामक: स्वयम्॥ राम भूत्वा महाभाग गतो देवप्रयागके। विश्वेश्वरे शिवे स्थाप्य पूजियित्वा यथाविधि॥ इत्युक्ता भगवन्नाम तस्यो देवप्रयाग के। लक्ष्मणेन सहभ्राता सीतयासह पार्वती॥ टिहरी जिले में भागीरथी – अलकनंदा नदी स्थित 30°-8′ अक्षांश तथा 78 °-39′ रेखांश पर स्थित देवप्रयाग समुद्रतल से 1600 फ़ीट की उचाई पर पर्वतों दशरथाचल ,गर्ध्रपर्वत और नरसिंह पर्वत के मध्य में स्थित है। 2 री शदी का  शिलालेख ऐतिहासिक साक्ष्य है।  केदारखंड के अनुसार भगवान राम,लक्ष्मण और सीता ने निवास किया था।सतयुग में  क्षेत्र में देवशर्मा  ब्राह्मण की तपस्या से प्रसंद होकर  भगवान विष्णु ने  कहा कि मैं त्रेता युग मे आऊँगा तथा भागरिथी नदी एवं अलकनंदा नदी का संगम स्थल को देव प्रयाग के प्रसिद्धि होगी ।  देवप्रयाग क्षेत्र क्षेत्र भगवान राम की तपस्थली के रूप में प्रसिद्ध है। रावण की ब्रह्म हत्या दोष से बचने के लिए भगवान राम ने देवप्रयाग में  तपस्या कर  विशेश्वर शिवलिंग की स्थापना की थी। भगवान राम का प्रसिद्ध मंदिर रघुनाथ मंदिर यहीं है। केदारखंड में भगवान राम ,लक्ष्मण और माता सीता सहित आने का उल्लेख है।  जब प्रजा के आरोप लगाने पर , भगवान राम ने माता सीता का त्याग किया तब लक्ष्मण जी ,माता सीता को ऋषिकेश के आगे तपोवन में छोड़ कर चले गए । पितृ पक्ष में देवप्रयाग में पिंडदान करने का विशेष महत्व बताया गया है। यहाँ देश के विभिन्न क्षेत्रों से लोग पिंडदान करने के लिए आते हैं। आनंद रामायण के अनुसार ,भगवान राम ने यहाँ ,श्राद्ध पक्ष में अपने पिता दशरथ का पिंडदान किया था। नेपाली धर्मग्रंथ हिमवत्स के अनुसार  देवप्रयाग में पितरों के तर्पण व पिंडदान का सर्वाधिक महत्व है। भागीरथी नदी को पितृ गंगा भी कहा जाता है।रघुनाथ मंदिर - देवप्रयाग का प्राचीन रघुनाथ मंदिर की स्थापना  देवशर्मा ब्राह्मण ने की थी। आदिशंकराचार्य जी ने चार धाम की स्थापना के अलावा ,108 विश्व मूर्ति मंदिरों की स्थापना की जिनमे भगवान ने स्वयं प्रकट होकर उस स्थान को सिद्ध किया है। इन 108 मंदिरों में देवप्रयाग का रघुनाथ मंदिर, जोशीमठ का नरसिंह मंदिर और बद्रीनाथ मंदिर भी है।
रघुनाथ मंदिर के शिलाओं पर खरोष्टि लिपि को  दूसरी या तीसरी शताब्दी का कहा  गया है। मंदिर में शिलालेख और ताम्रपत्र है । गढ़वाल के राजाओं के साथ साथ गोरखा सेनापतियों ने  मंदिर के निर्माण में सहयोग किया। इसका उल्लेख मंदिर के मुख्यद्ववार पर है। 1803 ई में  मंदिर का भूकंप द्वारा नष्ट होने पर दौलतराव सिंधिया ने  निर्माण करवाया था। रघुनाथ मंदिर के गर्भगृह के फर्श से मंदिर की शिखर तक की लंबाई लगभग 80 फ़ीट है। मंदिर के अंदर विष्णु भगवान की काले रंग की मूर्ति स्थापित है। मूर्ति भक्तों की पहुँच से बाहर है। शिखर पर लकड़ी की बनी विशाल छतरी को टिहरी की खरोटिया रानी ने बनवाया था। देवप्रयाग का रघुनाथ मंदिर द्रविड़ शैली में बना है। बसंतपंचमी , वैशाखी, रामनवमी और मकरसंक्रांति का मेला लगता है ।भरत मंदिर – रघुनाथ मंदिर के उत्तर में  भरत मंदिर  हैं।  वागीश्वर महादेव देवप्रयाग –वगीश्वर में वागीश्वर महादेव मंदिर है।वागीश्वर  स्थान पर माता सरस्वती ने भगवान भोलेनाथ की तपस्या करके संगीत विद्या प्राप्त की थी। आदि विश्वेश्वर मंदिर देवप्रयाग – देवप्रयाग में पांच शिवमंदिर विशेष हैं। चार मंदिर इस क्षेत्र के चार कोनो पर चार दिगपाल देवताओं के मंदिर  स्थित हैं। पांचवा मंदिर मुख्य मंदिर  अधिष्ठाता के रूप में विराजित है।  मंदिर को आदि विशेश्वर मंदिर कहते हैं। दिग्पालों के मंदिर में धनेश्वर ,बिल्वेश्वर ,तुन्दीश्वर, और तांटेश्वर मंदिर है । धनेश्वर मंदिर – धनेश्वर मंदिर देवप्रयाग में अलकनंदा के बाएं तट पर बाह नामक स्थान से एक किलोमीटर दूर है। इस मंदिर के पास धनवती नदी अलकनंदा में मिलती है।  धनवती  वैश्या ने शिव की तपस्या की थी। मृत्यु के बाद वह नदी में परिवर्तित हो गई।  डंडिश्वर मंदिर स्थान पर  दशायनी दनु ने 5500 वर्ष तक एक पैर पर खड़े होकर भगवान शिव की तपस्या की थी। बिल्वेश्वर मंदिर –बिल्व तीर्थ पर स्थित शिवलिंग को  बिल्वेश्वर महादेव शिवलिंग छोटी सी गुफा में अवस्थित है। तुन्डिश्वर मंदिर –तुंडी कुंड से ऊपर विशाल टीले पर तुन्दीश्वर मंदिर  है। तुंडी  भील ने भगवांन भोलेनाथ की उपासना की थी। और महादेव ने प्रसन्न होकर उसे अपने गण के रूप में स्वीकार कर लिया था। तांटकेश्वर मंदिर देवप्रयाग – मंदिर को स्थानीय भाषा मे टाटेश्वर कहते हैं। पुरणों के अनुसार जब भगवान शिव माता सती की मृत देह लेकर घूम रहे थे, तब माता सती का तांतक ( कान का आभूषण ) इस स्थान पर गिरने के कारण  स्थान तांटकेश्वर मंदिर है । गंगा मंदिर –देवप्रयाग के संगम से  विशाल चपटी शिला पर छोटा सा मंदिर बना कर उसमे गंगा मूर्ति स्थापित की गई है। क्षेत्रपाल मंदिर देवप्रयाग –गरन्ध पर्वत पास रघुनाथ मंदिर के थोड़ा ऊपर  क्षेत्रपाल मंदिर भैरव हैं। इन्हें देवप्रयाग का रक्षक देवता कहा  जाता है। नागराजा मंदिर – देवप्रयाग से 5 किमी दूर पहाड़ी पर नागराजा मंदिर है। नरसिंह पर्वत पर नरसिंह मंदिर  और गरन्ध पर्वत पर  महिषमर्दिनी मंदिर अवस्थित है। संगम से ऊपर पुराने पत्थरों से बने रघुनाथ  मंदिर में  पिरामिड के रूप में गुम्बद है | पवित्र भागीरथी एवं अलकनंदा नदियों के संगम स्थल पर चट्टान के द्वारा दो पवित्र धाराओं के कुण्ड या घाटियों का निर्माण होता है ।  भागीरथी नदी पर ब्रह्म कुण्ड एवं अलकनंदा नदी पर वशिस्ठ कुण्ड हैं | सन 1803 में आये भूकंप के कारण मंदिर को नुकसान हुआ था । मंदिर का जीर्णोद्धार  का कार्य दौलत राव सिंधिया जी के द्वारा कराया गया था । रघुनाथजी के मंदिर के अलावा, बैताल कुंड, ब्रह्म कुंड, सूर्य कुंड और वाशिष्ठ कुंड ,  इन्द्राद्युम्न तीर्थ, पुश्यामल तीर्थ, वरह तीर्थ; पुष्प वाटिका; बैताल शिला और वरह शिला; भैरव, भूषण, दुर्गा और विश्वेश्वर के मंदिरों , भरत को समर्पित मंदिर  है| देवप्रयाग में  बैताल शिला पर स्नान से कुष्ठ रोग से मुक्ति होती  है। देवप्रयाग के दशरथान्चल पहाड़ी  पर चट्टान को दशरथ शिला कहा जाता है । दशरथ शिला पर अयोध्या के  राजा दशरथ ने ध्यान एवं तप किया था । दशरथांचल पर्वत  से जल धारा निरंतर प्रवाहित होने वाली  जलधारा राजा दशरथ की भार्या कौशल्या की पुत्री और भगवान राम की बहन एवं ऋषि श्रृंगी की भार्या शांता को समर्पित शांताधारा  है ।

बुधवार, फ़रवरी 23, 2022

धर्म , अर्थ , काम और मोक्ष का स्थल हरिद्वार ....


उत्तराखण्ड के हरिद्वार जिले का हरिद्वार  है।   ३१३९ मीटर की ऊंचाई पर स्थित अपने स्रोत गोमुख से २५३ किमी की यात्रा करके गंगा नदी हरिद्वार में मैदानी क्षेत्र में प्रथम प्रवेश करने के कारण हरिद्वार को 'गंगाद्वार'  कहाजाता है । 801 वर्ग कि. मि. या 2360 वर्ग मील क्षेत्रफल में विकसित  हरिद्वार में समुद्र मंथन से भगवान धन्वंतरि के अमृत घड़े से  अमृत की बूँदें गिर गयीं थी । हर की पौड़ी पर ब्रह्म कुण्ड में अमृत की बूंदे गिरी थी । हरिद्वार जिला, सहारनपुर कमिशनरी के  हरिद्वार जिले की स्थापना २८ दिसम्बर १९८८ में हुई थी । पुराणों में हरिद्वार को  गंगाद्वार, मायाक्षेत्र, मायातीर्थ, सप्तस्रोत तथा कुब्जाम्रक  वर्णित किया गया है। कपिल ऋषि के तपोभूमि के कारण कपिला , सूर्यवंशी राजा सगर के प्रपौत्र  भगीरथ द्वारा गंगाजी को सतयुग में वर्षों की तपस्या के पश्चात् अपने ६०,००० पूर्वजों के उद्धार और कपिल ऋषि के शाप से मुक्त करने के लिए के लिए पृथ्वी पर लाया गया था । पद्मपुराण के उत्तर खंड में गंगा-अवतरण के हरिद्वार की  सर्वश्रेष्ठ तीर्थ होने का उल्लेख है । हरिद्वारे यदा याता विष्णुपादोदकी तदा। तदेव तीर्थं प्रवरं देवानामपि दुर्लभम्।। तत्तीर्थे च नरः स्नात्वा हरिं दृष्ट्वा विशेषतः। प्रदक्षिणं ये कुर्वन्ति न चैते दुःखभागिनः।। तीर्थानां प्रवरं तीर्थं चतुर्वर्गप्रदायकम्। कलौ धर्मकरं पुंसां मोक्षदं चार्थदं तथा।। यत्र गंगा महारम्या नित्यं वहति निर्मला। एतत्कथानकं पुण्यं हरिद्वाराख्यामुत्तमम्।।उक्तं च शृण्वतां पुंसां फलं भवति शाश्वतम्। अश्वमेधे कृते यागे गोसहस्रे तथैव च।। अर्थात् भगवान विष्णु के चरणों से प्रकट हुई गंगा जब हरिद्वार में आयी, तब वह देवताओं के लिए भी दुर्लभ श्रेष्ठ तीर्थ बन गया। मनुष्य उस तीर्थ में स्नान तथा विशेष रूप से श्रीहरि के दर्शन करके उन की परिक्रमा करते हैं वह दुःख के भागी नहीं होते। वह समस्त तीर्थों में श्रेष्ठ और धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष रूप चारों पुरुषार्थ प्रदान करने वाला है। जहां अतीव रमणीय तथा निर्मल गंगा जी नित्य प्रवाहित होती हैं उस हरिद्वार के पुण्यदायक उत्तम आख्यान को कहने सुनने वाला पुरुष सहस्त्रों गोदान तथा अश्वमेध यज्ञ करने के शाश्वत फल को प्राप्त करता है। महाभारत के वनपर्व में देवर्षि नारद 'भीष्म-पुलस्त्य संवाद' के रूप में युधिष्ठिर को भारतवर्ष के तीर्थ स्थलों में हरिद्वार और कनखल के तीर्थों का उल्लेख किया गया है। महाभारत में गंगाद्वार को स्वर्गलोक द्वार के समान कहा  गया है:-स्वर्गद्वारेण यत् तुल्यं गंगाद्वारं न संशयः। तत्राभिषेकं कुर्वीत कोटितीर्थे समाहितः।। पुण्डरीकमवाप्नोति कुलं चैव समुद्धरेत्। उष्यैकां रजनीं तत्र गोसहस्त्रफलं लभेत्।। सप्तगंगे त्रिगंगे च शक्रावर्ते च तर्पयन्। देवान् पितृंश्च विधिवत् पुण्ये लोके महीयते।। ततः कनखले स्नात्वा त्रिरात्रोपोषितो नरः। अश्वमेधमवाप्नोति स्वर्गलोकं च गच्छति।।अर्थात् गंगाद्वार स्वर्गद्वार के समान है; इसमें संशय नहीं है। वहाँ एकाग्रचित्त होकर कोटितीर्थ में स्नान करना चाहिए। ऐसा करने वाला मनुष्य पुण्डरीकयज्ञ का फल पाता और अपने कुल का उद्धार कर देता है। वहाँ एक रात निवास करने से सहस्त्र गोदान का फल मिलता है। सप्तगंग, त्रिगंग, और शक्रावर्त तीर्थ में विधिपूर्वक देवताओं तथा पितरों का तर्पण करने वाला मनुष्य पुण्य लोक में प्रतिष्ठित होता है। तदनन्तर कनखल में स्नान करके तीन रात उपवास करने वाला मनुष्य अश्वमेध यज्ञ का फल पाता और स्वर्ग लोक में जाता है। पुराणों में हरिद्वार, प्रयाग तथा गंगासागर में गंगा की सर्वाधिक महिमा कही गयी है:- सर्वत्र सुलभा गंगा त्रिषु स्थानेषु दुर्लभा। गंगाद्वारे प्रयागे च गंगासागरसंगमे। तत्र स्नात्वा दिवं यान्ति ये मृतास्तेऽपुनर्भवाः।। अर्थात् गंगा सर्वत्र तो सुलभ है परंतु गंगाद्वार प्रयाग और गंगासागर-संगम में दुर्लभ मानी गयी है। इन स्थानों पर स्नान करने से मनुष्य स्वर्ग लोक को चले जाते हैं और जो यहां शरीर त्याग करते हैं उनका तो पुनर्जन्म होता ही नहीं अर्थात् वे मुक्त हो जाते हैं। ह्वेनसांग सातवीं शताब्दी में हरिद्वार आया था और इसका वर्णन 'मोन्यु-लो' से किया है। मोन्यू-लो को मायापुरी कहा  जाता है ।प्राचीन किलों और मंदिरों के अनेक खंडहर विद्यमान हैं। हरिद्वार में 'हर की पैड़ी' के निकट जो सबसे प्राचीन आवासीय प्रमाण , महात्माओं के साधना स्थल, गुफाएँ और छिटफुट मठ-मंदिर हैं। भर्तृहरि की गुफा और नाथों का दलीचा प्राचीन स्थल माने जाते हैं।  राजा मानसिंह द्वारा बनवाई गयी छतरी, जिसमें उनकी समाधि हर की पैड़ी, ब्रह्मकुंड के मध्य स्थित है। पंडे-पुरोहित दिनभर यात्रियों को तीर्थों में पूजा और कर्मकांड इत्यादि कराते , स्वयं पूजा-अनुष्ठान इत्यादि कर तथा सूरज छिपने से पूर्व ही वहाँ से लौट कर अपने-अपने आवासों को चले जाते थे। उनके आवास  के कस्बों को  कनखल, ज्वालापुर इत्यादि  थे। प्रति वर्ष चैत्र में मेष संक्रांति के समय मेला लगता है । प्रति बारह वर्षों पर जब सूर्य और चंद्र मेष राशि में और बृहस्पति कुंभ राशि में स्थित होने पर  कुंभ का मेला लगता है। उसके छठे वर्ष अर्धकुंभ का मेला  लगता है मंदिर और देवस्थल हैं। 10वी शदी में तीन मस्तक और चार हाथ माया देवी का मंदिर पत्थर का बना हुआ है। हरिद्वार में हरि की पैड़ी , माता मंशा देवी मंदिर , माता चंडी देवी मंदिर , माया देवी मंदिर , दक्षिणेश्वर महादेव मंदिर , भारतमाता मंदिर ,  ब्रह्मा, विष्णु और महेश है । भगवान विष्णु ने हर की पैड़ी के ऊपरी दीवार में पत्थर पर पद चिह्न  हरिपद को पवित्र गंगा पखारती है । हरिद्वार के दर्शनीय स्थल में गंगा आरती गंगा की पवित्र लहरों के हर की पौड़ी से  संध्या को आरती की जाती है। चंडी देवी मंदिर , राजाजी नेशनल पार्क  , मनसा देवी मंदिर , भारत माता मंदिर , वैष्णो देवी मंदिर , पतंजली योगपीठ , स्वामि विवेकानंद पार्क है । हरिद्वार जिले में  ६१२ गांव और २४ शहर हैं। हरिद्वार में राजा विक्रमादित्य द्वारागंगा के किनारे  हर की पैड़ी का निर्माण कराया गया था। चंडी देवी मंदिर , नील पर्वत पर स्थित नीलेश्वर महादेव मंदिर है ।  शिव महापुराण में  नीलेश्वर महादेव मंदिर का उल्लेख  है । नीलेश्वर महादेव मंदिर , दक्षेश्वर मंदिर , हरिद्वार और कनखल में भगवान शंकर, सती और पार्वती के अनेक चिन्ह बिखरे हुए हैं । सनातन धर्म ग्रंथों में हरिद्वार को कपिल्स्थान, मायापुरी, गंगाद्वार उल्लेख  है। हरिद्वार में 16 आश्रम है । प्रजापति मंदिर, सती कुंड एवं दक्ष महादेव मंदिर हैं। कनखल आश्रमों तथा विश्व प्रसिद्ध गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय के लिए भी जाना जाता ह प्रजापति दक्ष का मंदिर , भगवान शिव , माता सती का सती स्थल , कनखल आश्रम है । कनखल गंगा के पश्चिमी किनारे पर 260 मीटर व 850 फीट की ऊँचाई पर  स्थित है। नगर के दक्षिण में दक्ष प्रजापति का भव्य मंदिर है जिसके निकट सतीघाट के नाम से वह भूमि है जहाँ पुराणों (कूर्म २.३८ अ., लिंगपुराण १००.८) के अनुसार शिव ने सती के प्राणोत्सर्ग के पश्चात् दक्षयज्ञ का ध्वंस किया था।  कनखल में अनेक उद्यान में केला, आलूबुखारा, लीची, आडू, चकई, लुकाट  हैं।  ब्राह्मण हरिद्वार अथवा कनखल में पौरोहित्य या पंडगिरी है। राजा दक्ष की राजधानी कनखल (हरिद्वार) में प्रजापति  दक्ष ने यज्ञ के दौरान भगवान शिव को छोड़कर सभी राजाओं को बुलाया था। दक्ष की पुत्री औरभगवान  शिव की पत्नी माता  सती बिना बुलाये यज्ञ में पहुंची। यज्ञ में  शिव का अपमान सती  सहन नहीं हुआ और  हवनकुंड में कूद कर सती हो गई। शिव को माता सती के यज्ञ कुंड में प्रवेश होने के कारण  क्रोधित हो कर वीरभद्र को बुलाया और कहा कि मेरी गण सेना का नेतृत्व करो और दक्ष का यज्ञ नष्ट कर देने का निदेश दिया था । वीरभद्र शिव के गणों के साथ गए और यज्ञ को नष्ट कर दक्ष का सर काट डाला था । कनखल में उदासीन अखाड़ा का गृहमुख अवस्थित है ।





सोमवार, फ़रवरी 21, 2022

भगवान हृषिकेश का अवतरण स्थल ऋषिकेश....


भारतीय और सनातन संस्कृति में ऋषिकेश का स्थल आध्यात्म , योग और तपोभूमि एवं भगवान हृषिकेश का अवतरण का उल्लेख है ।  वैश्विक राजधानी ऋषिकेश, हरिद्वार से 25 किमी उत्तर  स्थित है। ऋषिकेश में त्र्यम्बकेश्वर मन्दिर, मुनि की रेती, परमार्थ निकेतन, राम झूला, त्रिवेणी घाट पर आरती तथा गंगा तट पर शिव मूर्ति है   निर्देशांक: 30°06′30″N 78°17′50″E / 30.10833°N 78.29722°E  पर स्थित क्षेत्रफल ११.५ किमी2 (4.4 वर्गमील) ऊँचाई 372 मी , 1,220 फीट  जनसंख्या 2011   के अनुसार जनसंख्या १०२,१३८ वाला ऋषिकेश ८,८५१ किमी2 (22,920 वर्गमील) में  फैला हुआ है । समुद्र मन्थन के दौरान निकला हलाहल भगवान शिव ने ऋषिकेश स्थान पर हलाहल  पीने के बाद भगवान शिव का  गला नीला पड जाने से नीलकण्ठ कहा गया है । त्रेतायुग में भगवान राम ने वनवास के दौरान  समय व्यतीत किया था। विक्रमसंवत 19960 में लक्ष्मण झूले का पुनर्निर्माण किया गया है । ऋषि रैभ्य ने  कठोर तपस्या  से प्रसन्न होकर भगवान हृषीकेश के रूप में प्रकट हुए थे । भगवान ह्रषिकेश को  ऋषिकेश समर्पित  है।  गंगा नदी को पार करने के लिए लक्ष्मण ने स्थान पर जूट का झूला बनवाया था। 450 फीट लम्बे  झूले के समीप  लक्ष्मण और रघुनाथ मन्दिर है । लक्ष्मण झूला के समान राम झूला  स्थित है। त्रेतायुग में भगवान राम   ने रावण की बध करने  के लिए ऋषि वशिष्ठ की सलाह पर ऋषिकेश में तपस्या किया था । ऋषिकेश में भगवान राम का प्राचीन मंदिर ,  भारत पुष्कर मंदिर, शत्रुघ्न मंदिर, लक्ष्मण  मंदिर, गीता भवन , गुरुद्वारा  और पंजाब क्षेत्र का मंदिर है। चंद्रबाथा और गंगा के संगम पर स्थित ऋषिकेश को सागो की जगह कहा गया है। नीलकंठ महादेव मंदिर - हिमालय पर्वतों के तल में बसा ऋषिकेश में नीलकंठ महादेव मंदिर  है । भगवान शिव ने  समुद्र मंथन से निकला विष ग्रहण करने के बाद माता पार्वती द्वारा   भगवान शिव का गला दबाने से  विष गले में बना रहा। विषपान के बाद विष के प्रभाव से भगवान शिव का गला नीला पड़ने के कारण  नीलकंठ से जाना गया था। अत्यन्त प्रभावशाली यह मंदिर भगवान शिव को समर्पित है। मंदिर परिसर में पानी का एक झरना है जहाँ भक्तगण मंदिर के दर्शन करने से स्नान करते हैं। नीलकंठ महादेव मंदिर ऋषिकेश से लगभग 5500 फीट की ऊँचाई पर स्वर्ग आश्रम की पहाड़ी की चोटी पर स्थित है। मुनी की रेती से नीलकंठ महादेव मंदिर सड़क मार्ग से 50 किलोमिटर और नाव द्वारा गंगा पार करने पर 25 किलोमिटर की दूरी पर स्थित है। नीलकंठ महादेव मंदिर की नक़्क़ाशी एवं अत्यन्त मनोहारी मंदिर शिखर के तल पर समुद्र मंथन के दृश्य को चित्रित  और गर्भ गृह के प्रवेश-द्वार पर एक विशाल पेंटिंग में भगवान शिव को विष पीते हुए दर्शित किया  गया है।  पहाड़ी पर माता पार्वती जी का मंदिर है। ऋषिकेश में लक्ष्मण झूला · राम झूला · त्रिवेणी घाट · स्वर्ग आश्रम · वसिष्ठ गुफा · गीता भवन · योग केन्द्र · नीलकंठ महादेव मंदिर · भरत मंदिर · अय्यपा मन्दिर · कैलाश निकेतन मंदिर · परमार्थ निकेतन आश्रम · स्वामी दयानंद सरस्वती आश्रम · परमार्थ निकेतन · स्वामी रामा साधक ग्राम · फूल चट्टी आश्रम , गुरुद्वारा दर्शनीय है ।पर एक विशाल पेंटिंग में भगवान शिव को विष पीते हुए दर्शित किया  गया है।  पहाड़ी पर माता पार्वती जी का मंदिर है। ऋषिकेश  में लक्ष्मण झूला · राम झूला · त्रिवेणी घाट · स्वर्ग आश्रम · वसिष्ठ गुफा · गीता भवन · योग केन्द्र · नीलकंठ महादेव मंदिर · भरत मंदिर · अय्यपा मन्दिर · कैलाश निकेतन मंदिर · परमार्थ निकेतन आश्रम · स्वामी दयानंद सरस्वती आश्रम · परमार्थ निकेतन · स्वामी रामा साधक ग्राम · फूल चट्टी आश्रम , गुरुद्वारा दर्शनीय है ।


रविवार, फ़रवरी 20, 2022

भगवान नरसिंह का तपोभूमि जोशीमठ....


 उत्तराखण्ड राज्य के चमोली ज़िले में  23 00 मीटर अर्थात 9200 फीट ऊँचाई पर स्थित  औली को  बुग्याल ,  पर्वतीय मर्ग (घास) से ढका मैदान कहा गया है ।औली का निर्देशांक: 30°31′44″N 79°34′12″E / 30.529°N 79.570°E है । देवदार के वृक्ष बहुतायत में पाए जाते हैं। नंदा देवी के पीछे सूर्योदय देखना  सुखद है। नंदा देवी राष्ट्रीय उद्यान यहाँ से 41 किलोमीटर दूर है। इसके अलावा बर्फ गिरना और रात में खुले आकाश को देखना मन को प्रसन्न कर देता है। शहर की भागती-दौड़ती जिंदगी से दूर औली पर्यटक स्थल है।  जोशीमठ महागुरू आदि शंकराचार्य का ज्ञान स्थल  जोशीमठ  में नरसिंह, गरूड़ मंदिर आदि शंकराचार्य का मठ और अमर कल्प वृक्ष 2,500 वर्ष पुराना है। जोशीमठ के समीप औली  से नंदा देवी, त्रिशूल, कमेत, माना पर्वत, दूनागिरी, बैठातोली और नीलकंठ का बहुत ही सुन्दर दृश्य दिखाई देता है। जोशीमठ में ८वीं सदी में धर्मसुधारक आदि शंकराचार्य का  ज्ञान प्राप्त एवं प्रथम मठ की स्थापना स्थल है । निर्देशांक: 30°34′N 79°34′E / 30.57°N 79.57°E तथा ऊँचाई1800 मी (5,900 फीट) पर स्थित जोशीमठ की जनसंख्या (2011)  के अनुसार जनसंख्या 16,709 है । ललितशूर के तांब्रपत्र के अनुसार जोशीमठ कत्यूरी राजाओं की  राजधानी कार्तिकेयपुर था।  सेनापति कंटुरा वासुदेव ने गढ़वाल की उत्तरी सीमा पर अपना शासन स्थापित किया था । वासुदेव कत्यूरी के  कत्यूरी वंश  ने 7वीं से 11वीं सदी के बीच कुमाऊं एवं गढ़वाल पर शासन किया। जोशी मठ को कार्तिकेय पुर , ज्योतिषपीठ , ज्योतिर्मठ कहा जाता है ।आदिशंकराचार्य द्वारा 515 ई. में जोशीमठ में अवस्थित सहतूत वृक्ष की छाया में ज्ञानप्राप्ति के बाद शांकरभाष्य की रचना की गयी थी । प्रारंभ में जोशीमठ का क्षेत्र समुद्र में  पहाड़ उदित होने के बाद भगवान  नरसिंह तपोभूमि थी ।आदि शंकराचार्य द्वारा बद्रीनाथ मंदिर की स्थापना तथा  नम्बूद्रि पुजारियों को बिठाने के समय से जोशीमठ बद्रीनाथ के  ,हेमंत शिशिर और वसंत ऋतु  , कार्तिक , अगहन ,  पुष्य , माघ और फाल्गुन  6 महीनों के दौरान जब बद्रीनाथ मंदिर बर्फ से ढंका होता है तब भगवान बद्रीविशाल बद्रीनाथ  की उपासना पूजा जोशीमठ के नरसिंह मंदिर में होती है। ई.टी. एटकिंस दी हिमालयन गजेटियर, (वोल्युम III, भाग I, वर्ष 1982) के अनुसार  जोशीमठ शहर की वास्तुकला , “विष्णुप्रयाग से इस शहर में प्रवेश किनारे के ऊपर से होता है जहां स्लेटों तथा पत्थरों से कटी सीढ़ियां , भगवान  नरसिंह की प्रतिमा वाला भवन का निर्माण नुकीले भवन  है जिसके छत की ढलान एक तांबे की चादर से ढंकी रहती है। नरसिंह मंदिर के सामने  खुला मैदान में पत्थर की एक मांद है जिसमें दो नल हैं जिससे लगातार पानी का बहाव होता रहता है और इसमें पानी की आपूर्त्ति गांव के दक्षिण पहाड़ी पर एक झरने से होती है।   दस फीट ऊंचे चबूतरे पर महान पुरातात्विक चिह्नों के कई मंदिर मैदान के एक ओर श्रेणीबद्ध हैं। क्षेत्र के बीच में 30 फीट स्थल पर दीवालों के अंदर विष्णु मंदिर है। आदि शंकराचार्य अपने 109 शिष्यों के साथ जोशीमठ आये तथा अपने चार पसंदीदा एवं सर्वाधिक विद्वान शिष्यों को चार मठों की गद्दी पर आसीन कर दिया, जिसे उन्होंने देश के चार कोनों में स्थापित किया था। उनके शिष्य ट्रोटकाचार्य इस प्रकार ज्योतिर्मठ के प्रथम शंकराचार्य हुए। नरसिंह और वासुदेव मंदिरों के पुजारी परंपरागत डिमरी लोग हैं। यह सदियों पहले कर्नाटक के एक गांव से जोशीमठ पहुंचे। उन्हें जोशीमठ के मंदिरों में पुजारी और बद्रीनाथ के मंदिरों में सहायक पुजारी का अधिकार सदियों पहले गढ़वाल के राजा द्वारा दिया गया। वह गढ़वाल के सरोला समूह के ब्राह्मणों में से है। शहर की बद्रीनाथ से निकटता के कारण यह सुनिश्चित है कि वर्ष में 6 महीने रावल एवं अन्य बद्री मंदिर के कर्मचारी जोशीमठ में ही रहें। आज भी यह परंपरा जारी है। त्रिशूल शिखर से उतरती ढाल पर, संकरी जगह पर अलकनंदा के बांयें किनारे पर जोशीमठ स्थित है। इसके दोनों ओर एक चक्राकार ऊंचाई की छाया है और खासकर उत्तर में एक ऊंचा पर्वत उच्च हिमालय से आती ठंडी हवा को रोकता है। यह तीन तरफ बर्फ से ढंके दक्षिण में त्रिशूल (7,250 मीटर), उत्तर पश्चिम में बद्री शिखर (7,100 मीटर), तथा उत्तर में कामत (7,750 मीटर) शिखर से घिरा है। हर जगह से हाथी की शक्ल धारण किये हाथी पर्वत को देखा जा सकता है। फिर भी इसकी सबसे अलौकिक विशेषता है– एक पर्वत, जो एक लेटी हुई महिला की तरह है और इसे स्लीपिंग ब्यूटी के नाम से पुकारा जाता है । अलकनंदा के किनारे जोशीमठ के नजदीक का इलाका वनस्पतियों का धनी है। यहां की खासियत है– एन्सलिया एपटेरा, बारबरिस स्पप, सारोकोका प्रियुनिफॉरमस स्पप  पौधे, जो यहां के वन में पैदा होते हैं, जहां की जलवायु नम है। यहां बंज बलूत के जंगल भी हैं, जहां बुरांस, अयार, कारपीनस, विमिनिया तथा ईलेक्स ओडोराला के पेड़ पाये जाते हैं। तिलौज वन में लौरासिया, ईलेक्स, बेतुला अलन्वायड्स के पेड़ तथा निचले नीले देवदार के वन में यूसचोल्जिया पोलिस्टाच्या, विबुमन फोक्टेन्स, रोसा माउक्रोफाइला, विबुमन कोटोनिफोलियन, एक्सायकेरिया एसीरीफोलिया आदि झाड़ियां होती हैं।  जोशीमठ शहर 3,000 वर्ष पुराना है जिसके महान धार्मिक महत्त्व को यहां के कई मंदिर दर्शाते हैं। यह बद्रीनाथ गद्दी का जाड़े का स्थान बद्रीनाथ मंदिर के जाड़े का बद्रीनाथ गद्दी एवं बद्रीनाथ का पहुंच शहर है। औली रज्जुमार्ग तथा चढ़ाई के अवसर  प्राचीन एवं पौराणिक स्थल है। ज्योतिर्मठ, कल्पवृक्ष तथा आदि शंकराचार्य के पूजास्थल की गुफा है और इसके नीचे बद्रीनाथ की ओर बाहर निकलने पर जोशीमठ के दो प्रमुख आकर्षण नरसिंह मंदिर तथा वासुदेव मंदिर जोगी झरना , कल्पवृक्ष , शंकराचार्य गुफा स्थित हैं। जोशीमठ से  द्रोणगिरी, कामेत, बरमाल, माना, हाथी-घोड़ी-पालकी, मुकेत, बरथारटोली, नीलकंठ एवं नंदा देवी  पर्वतों के मनोरम दृश्य होते हैं।  । 6150 फीट (1875 मीटर) की ऊंचाई पर स्थित हिमालय पर्वतारोहण अभियानों, ट्रेकिंग ट्रेल्स और बद्रीनाथ  तीर्थ केंद्रों का प्रवेश द्वार और आदि शंकराचार्य द्वारा स्थापित प्रमुख पीठों में  है । जोशीमठ में  हेमकुंड ट्रस्ट द्वारा संचालित गुरुद्वारा है । 7 वीं और 11 वीं शताब्दी के मध्य में  कत्यूरी राजाओं ने कुमाऊं में "कत्यूर" बैजनाथ  घाटी में अपनी राजधानी से अलग-अलग क्षेत्र पर शासन किया। कत्यूरी वंश की स्थापना वासुदेव कत्यूरी ने की थी। जोशीमठ के प्राचीन बसदेव मंदिर का श्रेय वासु देव को जाता है।  वासु देव बौद्ध मूल के थे, लेकिन बाद में उन्होंने ब्राह्मणवादी प्रथाओं का पालन किया और कत्यूरी राजाओं की ब्राह्मणवादी प्रथाओं को आदि शंकराचार्य 788-820 ई. के अभियान के लिए सक्रिय थे । कत्यूरी राजाओं को 11वीं शताब्दी ई. में चांद राजाओं ने विस्थापित कर दिया था।  7 फरवरी 2021 को उत्तराखंड के चमोली जिले के नंदा देवी राष्ट्रीय उद्यान में नंदा देवी ग्लेशियर का एक हिस्सा टूट जाता है , जिससे ऋषिगंगा और धौलीगंगा नदी से रिनी , धौलीगंगा बांध , ऋषि गंगा बांध, तपोवन विष्णुगढ़ में विनाशकारी बाढ़ आती रही है। जोरदार अभियान के लिए जिम्मेदार ठहराया जाता है। कत्यूरी राजाओं को 11वीं शताब्दी ई. में चांद राजाओं ने विस्थापित कर दिया था।  7 फरवरी 2021 को उत्तराखंड के चमोली जिले के नंदा देवी राष्ट्रीय उद्यान में नंदा देवी ग्लेशियर का एक हिस्सा टूट जाता है , जिससे ऋषिगंगा और धौलीगंगा नदी से रिनी , धौलीगंगा बांध , ऋषि गंगा बांध, तपोवन विष्णुगढ़ में विनाशकारी बाढ़ आती रही है। ज्योतिर्मठ परिभ्रमण के दौरान साहित्यकार व इतिहासकार सत्येन्द्र कुमार पाठक द्वारा ज्योतिर्मठ में स्थापित भगवान नरसिंह , आदिशंकराचार्य द्वारा स्थापित मठ , भगवान सूर्य , हनुमान जी , झरने , मैन काली अनेक मंदिर , मूर्तियां , औली पर्यटन स्थल, गुरुद्वारा ,अलकनंदा नदी का दर्शन किया गया है ।

गुरुवार, फ़रवरी 17, 2022

आध्यात्म भुक्ति और मुक्ति का स्थल काशी...


 वेदों , उपनिषदों , स्मृतियों , इतिहास के पन्नों , लिंगपुराण ,शिवपुराण , स्कन्दपुराण, रामायण एवं महाभारतऔर  ऋग्वेद में काशी  का उल्लेख  है। गौतम बुद्ध ( ५६७ ई.पू.) के काल में, वाराणसी  राज्य की राजधानी काशी हुआ करता था। प्रसिद्ध चीनी यात्री ह्वेन त्सांग ने काशी  को धार्मिक, शैक्षणिक एवं कलात्मक गतिविधियों का केन्द्र और काशी का विस्तार गंगा नदी के किनारे ५ कि॰मी॰ तक  विकशित है ।  मगध का राजा जरासन्ध ने  काशी साम्राज्य को शामिल मगध में कर लिया था ।आर्यों के यहां कन्या के विवाह स्वयंवर के द्वारा होते थे। पाण्डव और कौरव के पितामह भीष्म ने काशी नरेश की तीन पुत्रियों अंबा, अंबिका और अंबालिका का अपहरण किया था। इस अपहरण के परिणामस्वरूप काशी और हस्तिनापुर की शत्रुता हो गई। महाभारत युद्ध में जरासन्ध और उसका पुत्र सहदेव दोनों काम आये। कालांतर में गंगा की बाढ़ ने पाण्डवों की राजधानी हस्तिनापुर को डुबा दिया, तब पाण्डव वर्तमान प्रयागराज जिला में यमुना किनारे कौशाम्बी में नई राजधानी बनाकर बस गए। उनका राज्य वत्स कहलाया और काशी पर मगध की जगह अब वत्स का अधिकार हुआ। ब्रह्मदत राजकुल का काशी पर अधिकार हुआ। पंजाब में कैकेय राजकुल में राजा अश्वपति था। तभी गंगा-यमुना के दोआब में राज करने वाले पांचालों में राजा प्रवहण जैबलि ने  अपने ज्ञान का डंका बजाया था। इसी काल में जनकपुर, मिथिला में विदेहों के शासक जनक हुए, जिनके दरबार में याज्ञवल्क्य ज्ञानी महर्षि और गार्गी पंडिता नारियां शास्त्रार्थ करती थी । काशी राज्य का राजा अजातशत्रु हुआ । ये आत्मा और परमात्मा के ज्ञान में अनुपम था। ब्रह्म और जीवन के सम्बन्ध पर, जन्म और मृत्यु पर, लोक-परलोक पर तब देश में विचार को उपनिषद् कहते हैं। वैशाली और मिथिला के लिच्छवियों में वर्धमान महावीर , कपिलवस्तु के शाक्यों में गौतम बुद्ध हुए। काशी का राजा अश्वसेन के यहां 23 वे तीर्थंकर पार्श्वनाथ हुए । काशी वत्सों के हाथ में जाती, कभी मगध के और कभी कोसल के। पार्श्वनाथ के बाद और बुद्ध के पूर्व  कोसल-श्रावस्ती के राजा कंस ने काशी को जीतकर अपने राज में मिला लिया था । राजा महाकोशल ने  अपनी बेटी कोसल देवी का मगध के राजा बिम्बसार से विवाह कर दहेज के रूप में काशी की वार्षिक आमदनी एक लाख मुद्रा प्रतिवर्ष देना आरंभ किया और इस प्रकार काशी मगध के नियंत्रण में पहुंच गई। राज के लोभ से मगध के राजा बिम्बसार के बेटे अजातशत्रु ने पिता को मारकर गद्दी छीन ली। तब विधवा बहन कोसलदेवी के दुःख से दुःखी उसके भाई कोसल के राजा प्रसेनजित ने काशी की आमदनी अजातशत्रु को देना बन्द कर दिया था । मगध राजा अजातशत्रु काशी  साम्राज्य को मगध  साम्राज्य में समाहित कर दिया था । मगध की राजधानी राजगृह से पाटलिपुत्र होने के बाद काशी पर आक्रमण नहीं हुआ था । काशी नरेशों में ब्राह्मण मनसा राम १७३७ से १७४० , ब्राह्मणबलवंत सिंह १७४० से १७७० , ब्राह्मणचैत सिंह१७७० से १७८० , ब्राह्मणमहीप नारायण सिंह १७८१ से १७९४ , ब्राह्मणमहाराजा उदित नारायण सिंह१७९४ से १८३५ , महाराजा श्री ईश्वरी नारायण सिंह बहादुर १८३५ से १८८९ , लेफ़्टि. कर्नल महाराजा श्री सर प्रभु नारायण सिंह बहादुर१८८९ से १९३१ , कैप्टन महाराजा श्री सर आदित्य नारायण सिंह१९३१ से १९३९ , डॉ॰विभूति नारायण सिंह १९३९ से १९४७ ,  डॉ॰ विभूति नारायण सिंह  काशी नरेश थे।  १५ अक्टूबर १९४८ को काशी राज्य भारतीय संघ में मिल गया। २००० ई. से   अनंत नारायण सिंह काशी नरेश काशी  परंपरा के वाहक है । जगत्प्रसिद्ध प्राचीन काशी  गंगा के वाम (उत्तर) तट पर  दक्षिण-पूर्वी कोने में वरुणा और असी नदियों के गंगासंगमों के बीच बसी हुई है। इस स्थान पर गंगा ने प्राय: चार मील का दक्षिण से उत्तर की ओर घुमाव लिया है । काशी  का  'वाराणसी' नाम वरुणा नदी एवं असी नदी संगम पर रहने के कारण 'बनारस' हो गया था । ऋग्वेद में काशी का उल्लेख  है - 'काशिरित्ते.. आप इवकाशिनासंगृभीता:'। पुराणों के अनुसार काशी  आद्य वैष्णव स्थान है। काशी  भगवान विष्णु (माधव) की पुरी थी। जहां श्रीहरिके आनंदाश्रु गिरने के कारण  बिंदुसरोवर बन गया और प्रभु यहां बिंधुमाधव के नाम से प्रतिष्ठित हुए। भगवान शंकर ने क्रुद्ध होकर ब्रह्माजी का पांचवां सिर काट देने के बाद ब्रह्मा जी का एक सिर भगवान शिव के करतल से चिपक गया। बारह वर्षों तक अनेक तीर्थों में भ्रमण करने पर ब्रह्मा जी का सिर भगवान शिव के करतल से अलग नहीं हुआ परंतु  भगवान शिव ने काशी की सीमा में प्रवेश किया, ब्रह्महत्या ने उनका पीछा छोड़ दिया और वह कपाल अलग होने के कारण  कपालमोचन-तीर्थ है ।   काशी  अच्छी लगने के कारण  कि भगवान शिव ने काशी  पुरी को भगवान  विष्णुजी से अपने नित्य आवास के लिए मांग लिया। तब से काशी भगवान शिव का निवास-स्थान बन गया। हरिवंशपुराण के अनुसार भारतवंशी काश द्वारा  काशी को बसाया गया ' था । अर्थर्ववेद  पैप्पलादसंहिता में (५, २२, १४)  है। शुक्लयजुर्वेद के शतपथ ब्राह्मण में (१३५, ४, १९) काशिराज धृतराष्ट्र को शतानीक सत्राजित् ने पराजित किया था। बृहदारण्यकोपनिषद् में (२, १, १, ३, ८, २) काशिराज अजातशत्रु का  उल्लेख है। कौषीतकी उपनिषद् (४, १) और बौधायन श्रौतसूत्र में काशी और विदेह तथा गोपथ ब्राह्मण में काशी और कोसल जनपदों का  वर्णन है। काशी, कोसल और विदेह के पुरोहित जलजातूकर्ण्य का  शांखायन श्रौतसूत्र में है। वाल्मीकि रामायण में (किष्किंधा कांड ४०, २२) सुग्रीव द्वारा वानरसेना को पूर्वदिशा की ओर भेजे जाने के संदर्भ में काशी और कोसल जनपद के निवासियोंका  उल्लेख है । महीं कालमहीं चापि शैलकानन शोभिंता। ब्रह्ममालन्विदेहांश्च मालवान्काशिक सलान्। महाभारत  आदि पूर्व अध्याय 102 के अनुसार काशिराज की कन्याओं के भीष्म द्वारा अपहरण किया गया था अंगुत्तरनिकाय में काशी की भारत के १६ महाजनपदों में गणना की गई है। जातक कथाओं में काशी जनपद का अनेक बार उल्लेख आया है, जिससे ज्ञात होता है कि काशी उस समय विद्या तथा व्यापार दोनों का ही केंद्र थी। अक्तिजातक में बोधिसत्व के १६ वर्ष की आयु में काशी  जाकर विद्या ग्रहण किया  है। खंडहालजातक में काशी के सुंदर और मूल्यवान रेशमी कपड़ों का वर्णन है। भीमसेनजातक में यहाँ के उत्तम सुगंधित द्रव्यों का भी उल्लेख है। जातककथाओं में  बुद्धपूर्वकाल में काशी देश पर ब्रह्मदत्त नाम के राजकुल का बहुत दिनों तक राज्य रहा था । काशी में  शिवोपासना का वर्णन महाभारत वैन पर्व 84 , 78 में  है– ततो वाराणसीं गत्वा अर्चयित्वा वषध्वजम । कीथ के अनुसार वरुणा नदी का वर्णन  अर्थर्ववेद के इस मंत्र में है– वारिद वारयातै वरुणावत्यामधि। तत्रामृतस्यासिक्तं तेना ते वारये विषम् (४, ७, १)। युवजयजातक में वाराणसी को  ब्रह्मवद्धन , उब्रह्मवर्धन, सुरूंधन, सुदस्सन , उसुदर्शन,  पुप्फवती , उपुष्पवती और रम्म , उरम्या एवं संखजातक में मालिनी आदि नाम हैं। गौतम बुद्ध के समय में काशी राज्य कोसल जनपद के अंतर्गत था।  स्कंदपुराण में काशी के माहात्म्य पर 'काशीखंड' नामक अध्याय लिखा गया। पुराणों में काशी को मोक्षदायिनी पुरियों में स्थान दिया गया है। चीनी यात्री फ़ाह्यान (चौथी शती ई.और युवानच्वांग अपनी यात्रा के दौरान काशी आए थे। युवानच्यांग ने सातवीं शताब्दी ई. के पूर्वार्ध में  ३० बौद्ध बिहार और १०० हिंदू मंदिर देखे थे। नवीं शताब्दी ई. में जगद्गुरु शंकराचार्य ने  विद्याप्रचार से काशी को भारतीय संस्कृति एवं आर्य धर्म का सर्वाधिक महत्वपूर्ण केंद्र बना दिया।
1193 ई . में मुहम्मद गोरी ने कन्नौज को जीतने से काशी का प्रदेश  मुसलमानों के अधिकार में आ गया। दिल्ली के सुल्तानों के आधिपत्यकाल में भारत की प्राचीन सांस्कृतिक परंपराओं को काशी  में शरण मिली। कबीर और रामानंद के धार्मिक और लोकमानस के प्रेरक विचारों से जीता-जागता रखने में पर्याप्त सहायता दी। मुगल सम्राट् अकबर ने हिंदू धर्म की प्राचीन परंपराओं के प्रति  उदारता और अनुराग दिखाया, उसकी प्रेरणा पाकर भारतीय संस्कृति की धारा, बीच के काल में कुछ क्षीण हो चली थी । तुलसीदास, मधुसूदन सरस्वती और पंडितराज जगन्नाथ महाकवियों और पंडितों से  काशी पुन:  प्राचीन गौरव की अधिकारिणी बन गई। काशी नगरी को औरंगजेब की धर्मांधता का शिकार बनना पड़ा। उसने हिंदू धर्म के अन्य पवित्र स्थानों की भाँति काशी के भी प्राचीन मंदिरों को विध्वस्त करा दिया। मूल विश्वनाथ के मंदिर को तुड़वाकर उसके स्थान पर ज्ञान वापी  मस्जिद बनवाई । मुगल साम्राज्य की अवनति होने पर अवध  नवाब सफ़दरजंग ने काशी पर अधिकार कर लिया था । अवध नवाब सफदरजंग के पौत्र  पौत्र ने उसे ईस्ट इंडिया कंपनी को दे डाला। काशीनरेश के पूर्वज बलवंतसिंह ने अवध के नवाब से अपना संबंधविच्छेद कर लिया था। इस प्रकार काशी की रियासत का जन्म हुआ। चेतसिंह ने वारेन हेस्टिंग्ज़ से लोहा लिया था । काशी में 1500 मंदिर में विश्वनाथ, संकटमोचन और दुर्गा के मंदिर  प्रसिद्ध हैं। विश्वनाथ के मूल मंदिर की परंपरा अतीत के इतिहास के अज्ञात युगों तक चली गई है। वर्तमान मंदिर अधिक प्राचीन नहीं है। इसके शिखर पर महाराजा रणजीत सिंह ने सोने के पत्तर चढ़वा दिए थे। संकटमोचन मंदिर की स्थापना गोस्वामी तुलसीदास ने की थी। दुर्गा के मंदिर को १७वीं शती में मराठों ने बनवाया था। गहड़वालों का बनवाया राजघाट का 'आदिकेशव' मंदिर है।
प्रसिद्ध घाटों में दशाश्वमेध, मणिकार्णिंका, हरिश्चंद्र और तुलसीघाट की गिनती की जा सकती है। दशाश्वमेध घाट पर ही जयपुर नरेश जयसिंह द्वितीय का बनवाया हुआ मानमंदिर या वेधशाला है। दशाश्वमेध घाट तीसरी सदी के भारशिव नागों के पराक्रम का स्मारक है। उन्होंने जब-जब अपने शत्रुओं को पराजित किया तब-तब यहीं अपने यज्ञ का अवभृथ स्नान किया। इस प्रकार के दस विजय यज्ञों से संबंधित काशी का यह घाट दशाश्वमेध नाम से विख्यात हुआ। नवीन मंदिरों में भारतमाता का मंदिर तथा तुलसीमानस मंदिर प्रसिद्ध हैं। आधुनिक शिक्षा के केंद्र काशी विश्वविद्यालय की स्थापना महामना मदनमोहन मालवीय ने १९१६ ई. में की। वैसे, प्राचीन परंपरा की संस्कृत पाठशालाएँ तो यहाँ सैकड़ों ही हैं जो संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय, काशी (संस्थापित १९५८ ई.) से संबद्ध है। इसके अतिरिक्त यहाँ काशी विद्यापीठ (संस्थापित १९२१) नामक विश्वविद्यालय भी है जिसमें व्यावहारिक समाजशास्त्र की शिक्षा की भी व्यवस्था है। भारत की सांस्कृतिक राजधानी होने का गौरव इस प्राचीन नगरी को आज भी प्राप्त है। दूसरे शब्दों में यह भी कहा जा सकता है कि काशी ने भारत की सांस्कृतिक एकता के निर्माण तथा संरक्षण में भारी योग दिया है। भारतेंदु आदि साहित्यकारों तथा नागरीप्रचारिणी सभा जैसी संस्थाओं को जन्म देकर काशी ने आधुनिक हिंदी साहित्य को समृद्ध बनाया है। वाराणसी के घाटों का दृश्य बड़ा ही मनोरम है। भागीरथी के धनुषाकार तट पर इन घाटों की पंक्तियाँ दूर तक चली गई हैं। प्रात: काल तो इनकी छटा अपूर्व ही होती है। पुरानी कहावत के अनुसार शामे अवध अर्थात् लखनऊ की शाम और सुबहे बनारस यानी वाराणसी का प्रात:काल देखने योग्य होता है। यहाँ की छोटी-छोटी और असाधारण रूप से सँकरी गलियाँ तथा उनमें स्वच्छंद विचरनेवाले साँड़ अपरिचितों के लिए कुतूहल् है ।महाराज सुदेव के पुत्र राजा दिवोदासने गंगा-तट पर वाराणसी नगर बसाया था। एक बार भगवान शंकर ने देखा कि पार्वती जी को अपने मायके (हिमालय-क्षेत्र) में रहने में संकोच होता है, तो उन्होंने किसी दूसरे सिद्धक्षेत्रमें रहने का विचार बनाया। उन्हें काशी अतिप्रिय लगी। वे यहां आ गए। भगवान शिव के सान्निध्य में रहने की इच्छा से देवता भी काशी में आ कर रहने लगे। राजा दिवोदास अपनी राजधानी काशी का आधिपत्य खो जाने से बडे दु:खी हुए। उन्होंने कठोर तपस्या करके ब्रह्माजी से वरदान मांगा- देवता देवलोक में रहें, भूलोक (पृथ्वी) मनुष्यों के लिए रहे। सृष्टिकर्ता ने एवमस्तु कह दिया। इसके फलस्वरूप भगवान शंकर और देवगणों को काशी छोड़ने के लिए विवश होना पडा। शिवजी मन्दराचलपर्वत पर चले तो गए परंतु काशी से उनका मोह कम नहीं हुआ। महादेव को उनकी प्रिय काशी में पुन: बसाने के उद्देश्य से चौसठ योगनियों, सूर्यदेव, ब्रह्माजी और नारायण ने बड़ा प्रयास किया। गणेशजी के सहयोग से अन्ततोगत्वा यह अभियान सफल हुआ। ज्ञानोपदेश पाकर राजा दिवोदासविरक्त हो गए। उन्होंने स्वयं एक शिवलिंग की स्थापना करके उस की अर्चना की और बाद में वे दिव्य विमान पर बैठकर शिवलोक चले गए। महादेव काशी वापस आ गए। स्कन्दमहापुराण में काशीखण्ड के नाम से एक विस्तृत पृथक विभाग ही है। इस पुरी के बारह प्रसिद्ध नाम- काशी, वाराणसी, अविमुक्त क्षेत्र, आनन्दकानन, महाश्मशान, रुद्रावास, काशिका, तप:स्थली, मुक्तिभूमि, शिवपुरी, त्रिपुरारिराजनगरीऔर विश्वनाथनगरी हैं।स्कन्दपुराण काशी की महिमा का गुण-गान करते हुए कहता है- 
भूमिष्ठापिन यात्र भूस्त्रिदिवतोऽप्युच्चैरध:स्थापियाया बद्धाभुविमुक्तिदास्युरमृतंयस्यांमृताजन्तव:। या नित्यंत्रिजगत्पवित्रतटिनीतीरेसुरै:सेव्यतेसा काशी त्रिपुरारिराजनगरीपायादपायाज्जगत्॥ भूतल पर होने पर  पृथ्वी से संबद्ध नहीं है ।जगत की सीमाओं से बंधी होने पर भी सभी का बन्धन काटनेवाली मोक्षदायिनी गंगा  है । महात्रिलोकपावनी गंगा के तट पर सुशोभित तथा देवताओं से सुसेवित है, त्रिपुरारि भगवान विश्वनाथ की राजधानी वह काशी संपूर्ण जगत् की रक्षा करे। सनातन धर्म के ग्रंथों के अध्ययन से काशी का लोकोत्तर स्वरूप विदित होता है। कहा जाता है कि यह पुरी भगवान शंकर के त्रिशूल पर बसी है।  प्रलय होने पर भी इसका नाश नहीं होता है। वरुणा और असि नामक नदियों के बीच पांच कोस में बसी होने के कारण इसे वाराणसी भी कहते हैं। काशी नाम का अर्थ भी यही है-जहां ब्रह्म प्रकाशित हो। भगवान शिव काशी को कभी नहीं छोडते। जहां देह त्यागने मात्र से प्राणी मुक्त हो जाय, वह अविमुक्त क्षेत्र  है। सनातन धर्मावलंबियों का दृढ विश्वास है कि काशी में देहावसान के समय भगवान शंकर मरणोन्मुख प्राणी को तारकमन्त्र सुनाते हैं। इससे जीव को तत्वज्ञान हो जाता है। शास्त्रों का उद्घोष है- यत्र कुत्रापिवाकाश्यांमरणेसमहेश्वर:।जन्तोर्दक्षिणकर्णेतुमत्तारंसमुपादिशेत्॥ काशी मे मृत्यु के समय भगवान विश्वेश्वर प्राणियों के दाहिने कान में तारक मन्त्र का उपदेश देते हैं। तारकमन्त्र सुन कर जीव भव-बन्धन से मुक्त हो जाता है। काशी मुक्ति और मोक्ष स्थल  देती है । स्कन्द पुराण काशी खंड के अनुसार - अन्यानिमुक्तिक्षेत्राणिकाशीप्राप्तिकराणिच।काशींप्राप्य विमुच्येतनान्यथातीर्थकोटिभि:।। पांच कोस की संपूर्ण काशी ही विश्व के अधिपति भगवान विश्वनाथ का आधिभौतिक स्वरूप है। काशीखण्ड  ज्योतिर्लिंग का स्वरूप  है । अविमुक्तंमहत्क्षेत्रं
पंचक्रोशपरीमितम्।"ज्योतिलंगम्तदेकंहि ज्ञेयंविश्वेश्वराभिधम्॥पांच कोस परिमाण के अविमुक्त क्षेत्र को विश्वेश्वर संज्ञक ज्योतिर्लिंग-स्वरूप है ।स्मृतियों में  काशी मरणान्मुक्ति:के सिद्धांत  है। रामकृष्ण मिशन के स्वामी शारदानंदजी द्वारा लिखित श्रीरामकृष्ण-लीलाप्रसंग  पुस्तक में श्रीरामकृष्ण परमहंस देव का  प्रत्यक्ष अनुभव  है। वह दृष्टांत बाबा विश्वनाथ द्वारा काशी में पाप करने वाले को मरणोपरांत मुक्ति मिलने से पहले अतिभयंकर भैरवी यातना भोगनी पडती है। सहस्रों वर्षो तक रुद्र पिशाच बन कर कुकर्मो का प्रायश्चित्त करने के उपरांत  उसे मुक्ति मिलती है।  काशी में प्राण त्यागने वाले का पुनर्जन्म नहीं होता है। मुक्तिदायिनीकाशी की यात्रा,  निवास और मरण तथा दाह-संस्कार का सौभाग्य पूर्वजन्मों के पुण्यों के प्रताप तथा बाबा विश्वनाथ की कृपा से  प्राप्त होता है। काशी की स्तुति में कहा गया है- यत्र देहपतनेऽपिदेहिनांमुक्तिरेवभवतीतिनिश्चितम्।पूर्वपुण्यनिचयेनलभ्यतेविश्वनाथनगरीगरीयसी॥ काशी के अधिपति भगवान विश्वनाथ कहते हैं- इदं मम प्रियंक्षेत्रं पंचक्रोशीपरीमितम्। पांच कोस तक विस्तृत यह क्षेत्र (काशी) मुझे अत्यंत प्रिय है। पतित-पावनी काशी में स्थित विश्वेश्वर (विश्वनाथ) ज्योतिर्लिंग सनातनकाल से हिंदुओं के लिए परम आराध्य है, किंतु जनसाधारण इस तथ्य से प्राय: अनभिज्ञ ही है कि यह ज्योतिर्लिंग पांच कोस तक विस्तार लिए हुए है- पंचक्रोशात्मकं लिंगंज्योतिरूपंसनातनम्। ज्ञानरूपा पंचक्रोशात्मक | यह पुण्यक्षेत्र काशी के नाम से भी जाना जाता है-ज्ञानरूपा तुकाशीयं पंचक्रोशपरिमिता। पद्मपुराण में लिखा है कि सृष्टि के प्रारंभ में जिस ज्योतिर्लिगका ब्रह्मा और विष्णुजी ने दर्शन किया, उसे ही वेद और संसार में काशी नाम से पुकारा गया- यल्लिंगंदृष्टवन्तौहि नारायणपितामहौ।तदेवलोकेवेदेचकाशीतिपरिगीयते॥पांच कोस की काशी चैतन्यरूप है। इसलिए यह प्रलय के समय भी नष्ट नहीं होती। प्राचीन ब्रह्मवैक्‌र्त्तपुराणमें इस संदर्भ में स्पष्ट उल्लेख है कि अमर ऋषिगण प्रलयकाल में श्री सनातन महाविष्णुसे पूछते हैं- हे भगवन्!वह छत्र के आकार की ज्योति जल के ऊपर कैसे प्रकाशित है, जो प्रलय के समय पृथ्वी के डूबने पर भी नहीं डूबती? महाविष्णुजी बोले-हे ऋषियो! लिंगरूपधारीसदाशिवमहादेव का हमने (सृष्टि के आरम्भ में) तीनों लोकों के कल्याण के लिए जब स्मरण किया, तब वे शम्भु एक बित्ता परिमाण के लिंग-रूप में हमारे हृदय से बाहर आए और फिर वे बढ़ते हुए अतिशय वृद्धि के साथ पांच कोस के हो गए-लिंगरूपधर:शम्भुहर्दयाद्बहिरागत:।महतींवृद्धिमासाद्य पंचक्रोशात्मकोऽभवत्॥ काशी पंचक्रोशात्मकज्योतिर्लिगहै। काशीरहस्य के दूसरे अध्याय में यह कथानक मिलता है। स्कन्दपुराणके काशीखण्डमें स्वयं भगवान शिव यह घोषणा करते हैं-अविमुक्तं महत्क्षेत्रं पंचक्रोशपरिमितम्।ज्योतिर्लिंगम्तदेकंहि ज्ञेयंविश्वेश्वराऽभिधम्।।पांच कोस परिमाण का अविमुक्त (काशी) नामक जो महाक्षेत्र है, उस सम्पूर्ण पंचक्रोशात्मकक्षेत्र को विश्वेश्वर नामक एक ज्योतिर्लिंग ही मानें। इसी कारण काशी प्रलय होने पर भी नष्ट नहीं होती। काशीखण्डमें भगवान शंकर पांच कोस की पूरी काशी में बाबा विश्वनाथ का वास बताते हैं-एकदेशस्थितमपियथा मार्तण्डमण्डलम्।दृश्यतेसवर्गसर्वै:काश्यांविश्वेश्वरस्तथा॥जैसे सूर्यदेव एक जगह स्थित होने पर भी सब को दिखाई देते हैं, वैसे ही संपूर्ण काशी में सर्वत्र बाबा विश्वनाथ का ही दर्शन होता है।स्वयं विश्वेश्वर (विश्वनाथ) भी पांच कोस की अपनी पुरी (काशी) को अपना ही रूप कहते हैं- पंचक्रोश्यापरिमितातनुरेषापुरी मम। काशी की सीमा के विषय में शास्त्रों का कथन है-असी- वरणयोर्मध्ये पंचक्रोशमहत्तरम। असी और वरुणा नदियों के मध्य स्थित पांच कोस के क्षेत्र (काशी) की बड़ी महिमा है। महादेव माता पार्वती से काशी का इस प्रकार गुणगान करते हैं- सर्वक्षेत्रेषु भूपृष्ठेकाशीक्षेत्रंचमेवपु:। भूलोक के समस्त क्षेत्रों में काशी साक्षात् मेरा शरीर है।
पंचक्रोशात् मकज्योतिर्लिग-स्वरूपाकाशी सम्पूर्ण विश्व के स्वामी श्री विश्वनाथ का निवास-स्थान होने से भव-बंधन से मुक्तिदायिनी है। धर्मग्रन्थों में कहा भी गया है-काशी मरणान्मुक्ति:। काशी की परिक्रमा करने से सम्पूर्ण पृथ्वी की प्रदक्षिणा का पुण्यफल प्राप्त होता है। भक्त सब पापों से मुक्त होकर पवित्र हो जाता है। तीन पंचक्रोशी-परिक्रमा करने वाले के जन्म-जन्मान्तर के सभी पाप नष्ट हो जाते हैं। काशीवासियोंको कम से कम वर्ष में एक बार पंचकोसी-परिक्रमाअवश्य करनी चाहिए क्योंकि अन्य स्थानों पर किए गए पाप तो काशी की तीर्थयात्रा से उत्पन्न पुण्याग्नि में भस्म हो जाते हैं, परन्तु काशी में हुए पाप का नाश केवल पंचकोसी-प्रदक्षिणा से संभव है। काशी में सदाचार-संयम के साथ धर्म का पालन करना चाहिए । काशी और विश्वेश्वर ज्योतिर्लिगमें तत्त्‍‌वत:कोई भेद नहीं है। नि:संदेह सम्पूर्ण काशी ही बाबा विश्वनाथ का स्वरूप है। काशी-महात्म्य में ऋषियों का उद्घोष है-काशी सर्वाऽपिविश्वेशरूपिणीनात्रसंशय:। अतएव काशी को विश्वनाथजी का रूप मानने में कोई संशय न करें और भक्ति-भाव से नित्य जप करें- शिव: काशी शिव: काशी, काशी काशी शिव: शिव:। ज्येष्ठ मास के शुक्लपक्ष की एकादशी तिथि (निर्जला एकादशी) के दिन श्री काशीविश्वनाथ की वार्षिक कलश-यात्रा वाराणसी में बडी धूमधाम एवं श्रद्धा के साथ आयोजित होती है, जिसमें बाबा का पंचमहानदियोंके जल से अभिषेक होता है। काशी शब्द का अर्थ है, प्रकाश देने वाली नगरी। जिस स्थान से ज्ञान का प्रकाश चारों ओर फैलता है, उसे काशी कहते हैं। ऐसी मान्यता है कि काशी-क्षेत्र में देहान्त होने पर जीव को मोक्ष की प्राप्ति होती है, काश्यांमरणान्मुक्ति:। काशी-क्षेत्र की सीमा निर्धारित करने के लिए पुराकालमें पंचक्रोशीमार्ग का निर्माण किया गया। जिस वर्ष अधिमास (अधिक मास) लगता है, उस वर्ष इस महीने में पंचक्रोशीयात्रा की जाती है। पंचक्रोशी (पंचकोसी) यात्रा करके भक्तगण भगवान शिव और उनकी नगरी काशी के प्रति अपना सम्मान प्रकट करते हैं। लोक में ऐसी मान्यता है कि पंचक्रोशीयात्रा से लौकिक और पारलौकिक अभीष्टिकी सिद्धि होती है। अधिमास को पुरुषोत्तम मास भी कहा जाता है। लोक-भाषा में इसे मलमास कहा जाता है। इस वर्ष मलमास प्रथम-ज्येष्ठ शुक्ल (अधिक) प्रतिपदा से प्रारम्भ होकर द्वितीय-ज्येष्ठ कृष्णपक्ष (अधिक) अमावस्या तिथि को समाप्त होगा। पंचक्रोशीयात्रा के कुछ नियम है, जिनका पालन यात्रियों को करना पड़ता है। परिक्रमा नंगे पांव की जाती है। वाहन से परिक्रमा करने पर पंचक्रोशी-यात्राका पुण्य नहीं मिलता। शौचादिक्रिया काशी-क्षेत्र से बाहर करने का विधान है। परिक्रमा करते समय शिव-विषयक भजन-कीर्तन करने का विधान है। कुछ ऐसे भी यात्री होते हैं, जो सम्पूर्ण परिक्रमा दण्डवत करते हैं। यात्री हर-हर महादेव शम्भो, काशी विश्वनाथ गंगे, काशी विश्वनाथ गंगे, माता पार्वती संगेका मधुर गान करते हुए परिक्रमा करते हैं। साधु, महात्मा एवं संस्कृतज्ञयात्री महिम्नस्त्रोत, शिवताण्डव एवं रुद्राष्टकका सस्वर गायन करते हुए परिक्रमा करते हैं। महिलाएं सामूहिक रूप से शिव-विषयक लोक गीतों का गायन करती हैं। परिक्रमा अवधि में शाकाहारी भोजन करने का विधान है। पंचक्रोशीयात्रा मणिकर्णिकाघाट से प्रारम्भ होती है। सर्वप्रथम यात्रीगणमणिकर्णिकाकुण्ड एवं गंगा जी में स्नान करते हैं। इसके बाद परिक्रमा-संकल्प लेने के लिए ज्ञानवापी जाते हैं। यहां पर पंडे यात्रियों को संकल्प दिलाते हैं। संकल्प लेने के उपरांत यात्री श्रृंगार गौरी, बाबा विश्वनाथ एवं अन्नपूर्णा जी का दर्शन करके पुन:मणिकर्णिकाघाट लौट आते हैं। यहां वे मणिकर्णिकेश्वरमहादेव एवं सिद्धि विनायक का दर्शन-पूजन करके पंचक्रोशीयात्रा का प्रारम्भ करते हैं। गंगा के किनारे-किनारे चलकर यात्री अस्सी घाट आते है। यहां से वे नगर में प्रवेश करते है। लंका, नरिया, करौंदी, आदित्यनगर, चितईपुरहोते हुए यात्री प्रथम पडाव कन्दवा पर पहुंचते हैं। यहां वे कर्दमेश्वरमहादेव का दर्शन-पूजन करके रात्रि-विश्राम करते हैं। रास्ते में पडने वाले सभी मंदिरों में यात्री देव-पूजन करते हैं। अक्षत और द्रव्य दान करते हैं। रास्ते में स्थान-स्थान पर भिक्षार्थी यात्रियों को नंदी के प्रतीक के रूप में सजे हुए वृषभ का दर्शन कराते हैं और यात्री उन्हें दान-दक्षिणा देते हैं। कुछ भिक्षार्थी शिव की सर्पमालाके प्रतीक रूप में यात्रियों को सर्प-दर्शन कराते हैं और बदले में अक्षत और द्रव्य-दान प्राप्त करते हैं।  परिक्रमा-अवधि में यात्री अपनी पारिवारिक और व्यक्तिगत चिन्ताओं से मुक्त होकर पांच दिनों के लिए शिवमय, काशीमय हो जाते हैं। दूसरे दिन भोर में यात्री कन्दवा से अगले पड़ाव के लिए चलते हैं। अगला पड़ाव है भीमचण्डी। यहां यात्री दुर्गामंदिर में दुर्गा जी की पूजा करते हैं और पहले पड़ाव के सारे कर्मकाण्ड को दुहराते हैं। पंचक्रोशीयात्रा का तीसरा पडाव रामेश्वर है। यहां शिव-मंदिर में यात्रीगणशिव-पूजा करते हैं। चौथा पड़ाव पांचों-पण्डव पड़ाव शिवपुर क्षेत्र में पडता है।  पाण्डव युधिष्ठिर, अर्जुन, भीम, नकुल तथा सहदेव की मूर्तियां हैं। द्रौपदीकुण्ड में स्नान करके यात्रीगणपांचों पाण्डवों का दर्शन करते हैं। रात्रि-विश्राम के उपरांत यात्री पांचवें दिन अंतिम पड़ाव के लिए प्रस्थान करते हैं। अंतिम पड़ाव कपिलधारा है। यात्रीगणयहां कपिलेश्वर महादेव की पूजा करते हैं। काशी परिक्रमा में पांच की प्रधानता है। यात्री प्रतिदिन पांच कोस की यात्रा करते हैं। पड़ाव संख्या भी पांच है। परिक्रमा पांच दिनों तक चलती है। कपिलधारा से यात्रीगण मणिकर्णिका घाट आते हैं। यहां वे साक्षी विनायक का दर्शन करते हैं। काशी विश्वनाथ एवं काल-भैरव का दर्शन कर यात्रा-संकल्प पूर्ण करते हैं। काशी परिभ्रमण के तहत मैन गंगा एवं भगवान विश्वनाथ का दर्शन 13 जनवरी 2022 को किया । काशी के विभिन्न स्थानों का ऐतिहासिक तथा प्राचीन स्थलों को परिभ्रमण कर शांति और हृदयोल्लास से आनंदित हुआ । कोरोना काल के कारण काशी के विभिन्न स्थानों पर पदयात्रा की आई ।काशी में पड़ यात्रा में अनुभूति आनंदमय मिलता है । मेरे साथ दिव्य रश्मि के संपादक राकेश दत्त मिश्र थे । बाबा विश्वनाथ मंदिर के चतुर्दिक विकास में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी द्वारा महत्वपूर्ण पहसल की गई है ।

बुधवार, फ़रवरी 16, 2022

आध्यात्मिक और ज्ञान समृद्धि का द्योतक महाशिवरात्रि ...


  सृष्टि के प्रारंभ के पश्चात ब्रह्मा  जी  ने मानव सृष्टि के लिए  सनक  , सनन्दन  ,सनातन  एवं  सनत्कुमार  को उत्पन्न किया था । परंतु वे मोक्ष मार्ग का अनुसरण कर ब्रह्मा जी के उद्देश्य की पूर्ति नही कर परमात्मा में तल्लीन रहने लगे थे ।   सनक सनंदन , सनातन और सनत्कुमार द्वारा  ब्रह्मा जी का  आज्ञा  न  मानकर  तिरस्कार करने के कारण  असह्य क्रोध से ब्रह्मा जी  की  भौहों  के  बीच  में  एक  नील  -  लोहित  बालक   के  रूप  में  प्रकट  होने से   देवताओं  के    भगवान्   भव  ( रूद्र  )  का अवतरण हुआ था । भव रो  रो  कर  कहने  लगे  कि हे   विधाता  !  मेरे  नाम  और  रहने  के  स्थान  बतलाइये  ।  भव की  प्रार्थना  पूर्ण  करने  के  लिये  ब्रह्मा जी ने   कहा कि   , '  रोओ  मत  , मैं  अभी  तुम्हारी  इच्छा  पूरी  करता  हूँ  ।  देवश्रेष्ठ  !  तुम  जन्म  लेते  ही  बालक  के  समान  फूट  -  फूट  कर  रोने  लगे  इसलिए  प्रजा  तुम्हें  ' रूद्र  '   पुकारेगी  तथा   रहने  के  लिए  पहले  से    स्थान  निर्धारित कर दिए गए  हैं  ।  रूद्र  का निवास हृदय में मन्यु की रुद्राणी धी , इन्द्रिय में मनु , वृति रुद्राणी , प्राण में महीनस एवं रुद्राणी उशना , आकाश में  महान रुद्राणी उमा , वायु में शिव रुद्राणी नियुत, अग्नि में ऋतध्वज रुद्राणी सर्पि ,   जल में उग्ररेता रुद्राणी इला , पृथिवी में भव रुद्राणी अम्बिका , सूर्य में काल ,  रुद्राणी  इरावती  , चंद्रमा में वामदेव रुद्राणी सुधा और तप में धृतव्रत एवं रुद्राणी के रूप में दीक्षा रहेगी ।    भगवान रुद्र द्वारा विभिन्न स्थानों पर राह कर मानव सृष्टि की रचना भिन्न नामों एवं रुद्राणी द्वारा की की गई है ।  भगवान शिव को 11 रुद्री वेलपत्र अर्पित कर सृष्टिकर्ता शिव की उपासना किया जाता है । प्रथम रुद्री मन्यु , द्वितीय मनु , तृतीय प्राण ,चतुर्थ आकाश , पंचम वायु ,अग्नि षष्ट , सप्तम जल , अष्टम पृथिवी , नवम सूर्य , दशम चंद्रमा और एकादश तप को तीन पत्तो का वेलपत्र भगवान शिव को अर्पित कर 33 कोटि ( प्रकार ) की देवों की उपासना करते है ।
सृष्टि का प्रारंभ  में पृथिवी पर भगवान शिव का अवतरण भव और रुद्राणी के रूप में माता अम्बिका फाल्गुन कृष्ण त्रयोदशी महाशिवरात्रि को हुआ था । पुरणों के  अनुसार सृष्टि का आरम्भ अग्निलिंग  के उदय एवं  भगवान शिव का विवाह देवी पार्वती के साथ हुआ था। कश्मीर में शैव धर्म के अनुयायियों द्वारा हेराथ , हेरथ की उपासना किया जाता है । समुद्र मंथन से उत्पन्न हलाहल पैदा होने से  ब्रह्माण्ड को नष्ट के लिए  भगवान शिव  ने हलाहल को कण्ठ में रख लिया था।  हलाहल पीने के कारण  भगवान शिव का  गला  नीला हो गया था। भगवान शिव के हलाहल का ग्रहण करने के बाद हलाहल कसे त्रस्त भगवान शिव का  उपचार के लिए, चिकित्सकों ने देवताओं को भगवान शिव को रात भर जागते रहने की सलाह दी। भगवान भगवान शिव के चिन्तन में  सतर्कता रखी। शिव का आनन्द लेने और जागने के लिए, देवताओं ने अलग-अलग नृत्य और संगीत बजाने लगे थे । सुबह हुई, उनकी भक्ति से प्रसन्न भगवान शिव ने उन सभी को आशीर्वाद दिया। शिवरात्रि  घटना का उत्सव है, जिससे शिव ने विश्व  को बचाया था ।
भगवान शिव का बारह ज्योतिर्लिंग (प्रकाश के लिंग) की उपासना त्तथा पूजा के लिए स्वयम्भू ज्योतिर्लिंग  के रूप में बारह ज्‍योर्तिलिंग स्‍थापित हैं। गुजरात के काठियावाड़ में स्थापित सोमनाथ  , मद्रास में कृष्णा नदी के किनारे पर्वत पर स्थापित श्री शैल मल्लिकार्जुन शिवलिंग ,  उज्जैन के अवंति नगर में स्थापित महाकालेश्वर शिवलिंग, जहाँ शिवजी ने दैत्यों का नाश किया था। मध्यप्रदेश के धार्मिक स्थल ओंकारेश्वर में नर्मदा तट पर पर्वतराज विंध्य की कठोर तपस्या से खुश होकर वरदाने देने हुए  ममलेश्वर ज्योतिर्लिंग स्थापित हो गया ,  गुजरात के द्वारकाधाम के निकट स्थापित नागेश्वर ज्योतिर्लिंग , झारखंड के देवघर जिले का बैद्यनाथ धाम में स्थापित रावणेश्वर ज्योतिर्लिंग   ,  महाराष्ट्र की भीमा नदी के किनारे स्थापित भीमशंकर ज्योतिर्लिंग। त्र्यंम्बकेश्वर नासिक (महाराष्ट्र) से 25 किलोमीटर दूर त्र्यंम्बकेश्वर में स्थापित ज्योतिर्लिं ,  घृष्णेश्वर महाराष्ट्र के औरंगाबाद जिले में एलोरा गुफा के समीप वेसल गाँव में स्थापित घृष्णेश्वर ज्योतिर्लिंग , केदारनाथ हिमालय का दुर्गम केदारनाथ ज्योतिर्लिंग , हरिद्वार से 150 पर मिल दूरी पर स्थित है।  गंगा किनारे काशी  बनारस के काशी विश्वनाथ मंदिर में स्थापित विश्वनाथ ज्योतिर्लिंग और रामेश्वरम्‌ त्रिचनापल्ली (मद्रास) समुद्र तट पर भगवान श्रीराम द्वारा स्थापित रामेश्वरम ज्योतिर्लिंग  अवस्थित है । नेपाल के काठमांडू में पशुपति नाथ  स्थित है । बिहार के गया जिले का गया में पितामहेश्वर , जहानाबाद जिले का बराबर पर्वत समूह के सूर्यान्क गिरी पर सिद्धेश्वर , औरंगाबाद जिले के गोह प्रखंड के देवकुण्ड में दुग्धेश्वर , अरवल जिले का मधुसरवाँ का च्यावनेश्वर , मुजफ्फरपुर जिले का मुजफ्फरपुर में गरीबनाथ , चतुर्भुज शिवलिंग , सारण जिले का गंगा गंडक नदी के संगम पर सोनपुर स्थित हरिहर नाथ , सिहेश्वरनाथ , विभिन्न स्थलों पर बागवान शिव की उपासना के लिए शिवलिंग स्थापित है । 

 सनातन धर्म के शैव सम्प्रदाय का वैज्ञानिक दृष्टि से महाशिवरात्रि पृथ्वी का उत्तरी गोलार्द्ध पर अवस्थित होने से  मनुष्य के अंदर की ऊर्जा प्राकृतिक तौर पर ऊपर की तरफ जाने लगती है।  प्रकृति स्वयं मनुष्य को  आध्यात्मिक शिखर तक जाने का मार्ग सुगम करती है। महाशिवरात्रि की रात्रि में जागरण करने एवं रीढ़ की हड्डी सीधी करके ध्यान मुद्रा में बैठने  से मानवीय चेतना जागृत होती  है। भगवान शिव को ब्रह्मांड वैज्ञानिक कहा गया है।  तंत्र, मंत्र, यंत्र, ज्योतिष, ग्रह, नक्षत्र आदि के जनक भगवान शिव ही हैं।  ऊर्जा का  पिंड  गोल, लम्बा व वृत्ताकार  शिवलिंग ब्रह्माण्डीय शक्ति को सोखता है। रुद्राभिषेक, जलाभिषेक, भस्म आरती, भांग -धतूरा और बेल पत्र आदि चढ़ाकर भक्त सकारात्मक ऊर्जा को अपने में ग्रहण कर मन व विचारों में शुद्धता तथा शारीरिक व्याधियों का निवारण करते  है। शिवरात्रि के पश्चात सूर्य उत्तरायण में ग्रीष्मऋतु का आगमन  प्रारंभ हो जाता है। मनुष्य गर्मी के प्रभाव से बचने के लिए अपनी चेतना को शिव को समर्पित कर देता है । महाशिवरात्रि व्रत रखने से तन के शुद्धीकरण के साथ ही रक्त भी शुद्ध  और आतों की सफाई और पेट को आराम मिलता है। उत्सर्जन तंत्र और पाचन तंत्र, अशुद्धियों से छुटकारा , रोगों से मुक्ति , श्वसन तंत्र ठीक ,  कलोस्ट्रोल का स्तर भी घटता और स्मरण शक्ति बढ़ती है। वैज्ञानिकों के अनुसार शिवरात्रि ब्रत रखने से  स्मरण शक्ति तीन से 14 फीसदी तक बढ़ जाती है ।मस्तिष्क और शरीर में सकारात्मक ऊर्जा का संचार होता है.

भक्ति और सौहार्द का प्रतीक होलिकोत्सव...


वेदों स्मृतियों और संहिताओं में होली का उल्लेख है । भक्ति, प्रेम ,  सच्चाई के प्रति आस्था और मनोरंजन का पर्व होली  विश्व  में  मनाया जाता है । होली में यूनिवर्सिटी ऑफ़ न्यू मेक्सिको में रंग खेलते विद्यार्थी है । नेपाल में होली के अवसर पर काठमांडू में एक सप्ताह के लिए  दरबार और नारायणहिटी दरबार में बाँस का स्तम्भ गाड़ कर आधिकारिक रूप से होली के आगमन की सूचना दी जाती है। पाकिस्तान, बंगलादेश, श्री लंका और मरिशस , कैरिबियाई देशों में फगुआ  धूमधामसे  होली का त्यौहार मनाया जाता है। १९वीं सदी के आखिरी और २०वीं सदी के प्रारम्भ  में भारतीय  मजदूरी करने के लिए कैरिबियाई देश गए थे। इस दरम्यान गुआना और सुरिनाम तथा ट्रिनीडाड  देशों में भारतीय जा बसे। फगुआ गुआना और सूरीनाम ,  गुआना में होली के दिन राष्ट्रीय अवकाश रहता है । लड़कियों और लड़कों को रंगीन पाउडर और पानी के साथ खेलते  है।गुआना ,  कैरिबियाई देशों में हिंदू संगठन और सांस्कृतिक संगठन नृत्य, संगीत और सांस्कृतिक उत्सवों के ज़रिए फगुआ मनाते हैं। ट्रिनीडाड एंड टोबैगो , विदेशी विश्वविद्यालयों में होली का आयोजन होता रहा है।  विलबर फ़ोर्ड के स्टैनफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी कैंपस और  रिचमंड हिल्स में होली मनाया जाता  हैं। मुगल बादशाहों में अकबर, हुमायूँ, जहाँगीर, शाहजहाँ और बहादुरशाह ज़फर होली के आगमन से बहुत पहले ही रंगोत्सव की तैयारियाँ प्रारंभ करवा देते थे। अकबर के महल में सोने चाँदी के बड़े-बड़े बर्तनों में केवड़े और केसर से युक्त टेसू का रंग घोला जाता था और राजा अपनी बेगम और हरम की सुंदरियों के साथ होली खेलते थे। शाम को महल में उम्दा ठंडाई, मिठाई और पान इलायची से मेहमानों का स्वागत किया जाता था और मुशायरे, कव्वालियों और नृत्य-गानों की महफ़िलें जमती थीं। जहाँगीर के समय में महफ़िल-ए-होली का भव्य कार्यक्रम आयोजित होता था। शाहजहाँ होली को 'ईद गुलाबी' के रूप में धूमधाम से मनाता था। बहादुरशाह ज़फर होली खेलने के बहुत शौकीन थे और होली को लेकर सरस काव्य रचनाएँ हैं। मुगल काल में होली के अवसर पर लाल किले के पिछवाड़े यमुना नदी के किनारे आम के बाग में होली के मेले लगते थे। मुगल शैली के एक चित्र में औरंगजेब के सेनापति शायस्ता खाँ को होली खेलते हुए दिखाया गया है। बरसाने' की लठमार होली फाल्गुन मास की शुक्ल पक्ष की नवमी को मनाई जाती है। नंद गाँव के ग्वाल बाल होली खेलने के लिए राधा रानी के गाँव बरसाने जाते हैं और जम कर बरसती लाठियों के साए में होली खेली जाती है ।मथुरा से 54 किलोमीटर दूर कोसी शेरगढ़ मार्ग पर फालैन में एक पंडा मात्र एक अंगोछा शरीर पर धारण करके २०-२५ फुट घेरे वाली विशाल होली की धधकती आग में से निकल कर अथवा उसे फलांग कर दर्शकों में रोमांच पैदा करते हुए प्रह्लाद की याद करता है। मालवा में होली के दिन लोग एक दूसरे पर अंगारे फेंकते हैं। उनका विश्वास है कि इससे होलिका नामक राक्षसी का अंत हो जाता है। राजस्थान में होली के अवसर पर तमाशे की परंपरा है। मध्य प्रदेश के भील होली को भगौरिया कहते हैं। भील युवकों के लिए होली अपने लिए प्रेमिका को चुनकर भगा ले जाने का त्योहार है। होली से पूर्व हाट के अवसर पर हाथों में गुलाल लिए भील युवक 'मांदल' की थाप पर सामूहिक नृत्य करते हैं। बिहार में 
होली खेलते समय सामान्य रूप से पुराने कपड़े पहने जाते हैं। होली खेलते समय लड़कों के झुंड में एक दूसरे का कुर्ता फाड़ देने की परंपरा है। होली का समापन रंग पंचमी के दिन मालवा और गोवा की शिमगो में वसंतोत्सव पूरा हो जाता है। तेरह अप्रैल को ही थाईलैंड में नव वर्ष 'सौंगक्रान' प्रारंभ में वृद्धजनों के हाथों इत्र मिश्रित जल डलवाकर आशीर्वाद लिया जाता है। लाओस में पर्व नववर्ष की खुशी के रूप में मनाया जाता है। म्यांमर में  जल पर्व जाना जाता है। जर्मनी में ईस्टर के दिन घास का पुतला बनाकर जलाया जाता है। लोग एक दूसरे पर रंग डालते हैं। हंगरी का ईस्टर होली है। अफ्रीका में 'ओमेना वोंगा' मनाया जाता है। ओमेना वोंगा  अन्यायी राजा को लोगों ने ज़िंदा जला डाला था।  वोमेना वोंगा का पुतला जलाकर नाच गाने से अपनी प्रसन्नता व्यक्त करते हैं। अफ्रीका  में सोलह मार्च को सूर्य का जन्म दिन मनाया जाता है।  पोलैंड में 'आर्सिना' पर लोग एक दूसरे पर रंग और गुलाल मलते हैं। यह रंग फूलों से निर्मित होने के कारण काफ़ी सुगंधित होता है। अमरीका में 'मेडफो'  पर्व मनाने के लिए लोग नदी के किनारे एकत्र होकर  गोबर तथा कीचड़ से बने गोलों से एक दूसरे पर आक्रमण करते हैं। ३१ अक्टूबर को अमरीका में सूर्य पूजा होबो की  होली   मनाया जाता है। चेक और स्लोवाक क्षेत्र में बोलिया कोनेन्से त्योहार पर युवा लड़के-लड़कियाँ एक दूसरे पर पानी एवं इत्र डालते हैं। हालैंड का कार्निवल होली सी मस्ती का पर्व है। बेल्जियम की होली भारत सरीखी होती है और लोग इसे मूर्ख दिवस के रूप में मनाते हैं। यहाँ पुराने जूतों की होली जलाई जाती है। इटली में रेडिका त्योहार फरवरी के महीने में एक सप्ताह तक हर्षोल्लास से मनाया जाता है। लकड़ियों के ढेर चौराहों पर जलाए जाते हैं। लोग अग्नि की परिक्रमा करके आतिशबाजी करते हैं। एक दूसरे को गुलाल भी लगाते हैं। रोम में इसे सेंटरनेविया कहते हैं तो यूनान में मेपोल। ग्रीस का लव ऐपल होली भी प्रसिद्ध है। स्पेन में भी लाखों टन टमाटर एक दूसरे को मार कर होली खेली जाती है। जापान में १६ अगस्त रात्रि को टेमोंजी ओकुरिबी नामक पर्व पर तेज़ आग जला कर यह त्योहार मनाया जाता है। चीन में होली की शैली का त्योहार च्वेजे पंद्रह दिन तक मनाया जाता है। लोग आग से खेलते हैं और अच्छे परिधानों में सज धज कर परस्पर गले मिलते हैं। साईबेरिया में घास फूस और लकड़ी से होलिका दहन है। नार्वे और स्वीडन में सेंट जान का पवित्र दिन होली है। शाम को किसी पहाड़ी पर होलिका दहन की भाँति लकड़ी जला कर के चारों ओर नाचते गाते परिक्रमा करते हैं। इंग्लैंड में मार्च के अंतिम दिनों में मित्रों और संबंधियों को रंग भेंट करते हैं ।  वसंत ऋतु में मनाया जाने वाला  महत्वपूर्ण भारतीय और नेपाली लोगों का त्यौहार होली  है। विक्रम संवत के अनुसार फाल्गुन मास की पूर्णिमा को मनाया जाता है। वसंत की ऋतु में हर्षोल्लास के साथ मनाए जाने के कारण होली को  वसंतोत्सव,  कामोत्सव एवं रतिउत्सव -महोत्सव  कहा गया है। आर्यों में जैमिनी के पूर्व मीमांसा-सूत्र और कथा गार्ह्य-सूत्र ,  नारद पुराण औऱ भविष्य पुराण में होली पर्व का उल्लेख मिलता है। विंध्य क्षेत्र के रामगढ़ स्थान पर स्थित ईसा से ३०० वर्ष का अभिलेख तथा संस्कृत साहित्य में वसन्त ऋतु और वसन्तोत्सव  कवियों के प्रिय विषय रहे हैं। मुस्लिम पर्यटक अलबरूनी ने यात्रा संस्मरण में होलिकोत्सव का वर्णन किया है। अकबर का जोधाबाई के साथ तथा जहाँगीर का नूरजहाँ के साथ होली खेलने का वर्णन मिलता है। शाहजहाँ काल  में होली को ईद-ए-गुलाबी या आब-ए-पाशी (रंगों की बौछार) कहा जाता था । मुगल बादशाह बहादुर शाह ज़फ़र के बारे में प्रसिद्ध है कि होली पर उनके मंत्री उन्हें रंग लगाने जाया करते थे । विजयनगर की राजधानी हंपी के  १६वी शताब्दी की अहमदनगर की  वसंत रागिनी  है। पुरणों के  अनुसार दैत्यराज हिरण्यकश्यप अपनी पूजा करने को कहता था ।उसका पुत्र प्रह्लाद भगवान विष्णु का उपासक भक्त था। हिरण्यकश्यप ने भक्त प्रहलाद को बुलाकर राम का नाम न जपने को कहा तो प्रहलाद ने स्पष्ट रूप से कहा, पिताजी! परमात्मा ही समर्थ है। प्रत्येक कष्ट से परमात्मा ही बचा सकता है। मानव समर्थ नहीं है। यदि कोई भक्त साधना करके कुछ शक्ति परमात्मा से प्राप्त कर लेता है तो वह सामान्य व्यक्तियों में तो उत्तम हो जाता है, परंतु परमात्मा से उत्तम नहीं हो सकता। यह बात सुनकर अहंकारी हिरण्यकश्यप क्रोध से लाल पीला हो गया और नौकरों सिपाहियों से बोला कि इसको ले जाओ मेरी आँखों के सामने से और जंगल में सर्पों में डाल आओ। सर्प के डसने से यह मर जाएगा। ऐसा ही किया गया। परंतु प्रहलाद मरा नहीं, क्योंकि सर्पों ने डसा नहीं। होली  पर्व राक्षसी ढुंढी, राधा कृष्ण के रास और कामदेव के पुनर्जन्म से  जुड़ा है। होली में रंग लगाकर, नाच-गाकर लोग शिव के गणों का वेश धारण करते हैं तथा शिव की बारात का दृश्य बनाते हैं। भगवान श्रीकृष्ण ने  द पूतना नामक राक्षसी का वध होने के कारण  खु़शी में गोपियों और ग्वालों ने रासलीला की और रंग खेला था। वैदिक काल में होली पर्व को नवात्रैष्टि यज्ञ कहा जाता था। खेत के अधपके अन्न को यज्ञ में दान करके प्रसाद लेने का विधान समाज में व्याप्त था। अन्न को होला  से होलिकोत्सव पड़ा है । भारतीय ज्योतिष के अनुसार चैत्र कृष्ण  प्रतिपदा के दिन से नववर्ष का आरंभ माना जाता है। पर्व नवसंवत का आरंभ तथा वसंतागमन का प्रतीक  है।  प्रथम पुरुष मनु का जन्म होने के कारण  मन्वादितिथि  हैं। फाल्गुन शुक्लपक्ष पूर्णिमा को होलिका की अग्नि इकट्ठी की जाती है। माघ शुक्लपक्ष पंचमी से होली की तैयारियाँ शुरू हो जाती हैं। होलिका दहन में चौराहों पर व जहाँ कहीं अग्नि के लिए लकड़ी एकत्र कर  होली जलाई जाती है। होलिका में भरभोलिए जलाने की भी परंपरा है। भरभोलिए गाय के गोबर से बने उपले में छेद में मूँज की रस्सी डाल कर माला बनाई जाती है। एक माला में सात भरभोलिए होते हैं। होली में आग लगाने से पहले इस माला को भाइयों के सिर के ऊपर से सात बार घूमा कर फेंक दिया जाता है। रात को होलिका दहन के समय उपला की  माला होलिका के साथ जलाकर  होली के साथ भाइयों पर लगी बुरी नज़र भी जल जाए। लकड़ियों व उपलों से बनी इस होली का दोपहर से
विधिवत पूजन आरंभ हो जाता है। घरों में बने पकवानों का यहाँ भोग लगाया जाता है । आग में नई फसल की गेहूँ की बालियों और चने के होले को  भूना जाता है। होलिका का दहन समाज की समस्त बुराइयों के अंत का प्रतीक है। यह बुराइयों पर अच्छाइयों की विजय का सूचक है। बिहार , झारखंड  में बाबा हरिहरनाथ , तेगबहादुर सिंह , बाबा वैद्यनाथ , बाबा दुग्धेश्वर नाथ आदि देवों की होली गाते हुए भगवान की उपासना क्रस्ट है । फाल्गुन शुक्लपक्ष पूर्णिमा को होलिका दहन के बाद चैत्र कृष्ण पक्ष प्रतिपदा को होली में रंग गुलाल , जल , मिट्टी जल मिश्रित , होलिका भष्म एक दूसरे पर लगाते है । होली कामदेव और रति का मिलान समारोह मानते है । प्रेम और भाईचारे , सौहार्द का प्रतीक होली है ।