शुक्रवार, जुलाई 31, 2020

भारतीय सभ्यता और सांस्कृतिक विरासत विरासत

सांस्कृतिक परम्परा और सभ्यता दर्शाता है मानव की कला कृतियां
     सत्येन्द्र कुमार पाठक
सांस्कृतिक परंपराओं, जीवंत या लुप्त सभ्यता को प्राचीन कला किर्तियों से मानव जीवन की सभ्यता मूर्त रुप से पहचानते है। विश्व में धरोहरों की संरक्षण के लिए युनेस्को द्वारा 14 मई 1954 में पहल किया गया है। भारत के 30 सांस्कृतिक स्थल ,08 प्राकृतिक स्थल को युनेस्को द्वारा विश्व विरासत घोषित किया गया है। भारत के महाराष्ट्र का अजंता की गुफाएं, एलोरा की गुफाएं , उत्तरप्रदेश का ताजमहल, आगरा का किला को 1983 ई. में ओडिशा का कोणार्क सूर्य मंदिर, तमिनाडु का महाबलीपुरम स्मारक समूह को 1984 ई. में विश्व विरासत घोषित किया गया है। 1986 ई. में गोवा के गिरिजाघर तथा कान्वेंट , मध्यप्रदेश के खजुराहो स्मारक समूह, खजुराहो मंदिर, कर्नाटक के हम्पी स्मारक समूह, फतेहपुर सीकरी , 1987 ई. में महाराष्ट्र के एलिफेंटा की गुफाएं, कर्नाटक के षट्टड़कल स्मारक समूह, तमिलनाडू का वृहद चोलमंदिर समूह , 1989 ई. में मध्यप्रदेश के सांची का बौद्ध स्मारक, 1993 में दिल्ली का हुमायूं का मक़बरा, कुतुबमीनार ,1999 में बंगाल के दार्जलिंग हिमालई रेलमार्ग , 2002 में बिहार के बोधगया स्थित महाबोधि मंदिर एवं परिसर , 2003 में मध्यप्रदेश के भीमबेटका का राक शेल्टर, 2004 में महाराष्ट्र के मुंबई का विक्टोरिया टर्मिनल, गुजरात का चांपानेर में पावागढ़ पुरातात्विक उद्यान,2005 में नीलगिरी माउंटेन रेलवे, 2007 में लालकिला ,2010 में राजस्थान के जयपुर का जनतरमंतर , 2013 में राजस्थान के चितौड़गढ़, कुंभलगढ़, रणथंभौर, अम्बर, जैसलमेर तथा गगरोन की पहाड़ी दुर्ग, 2014 में गुजरात का रानी की बाबड़ी ,2016 में चंडीगढ़ रजाधनी परिसर का ली कोरबुजिए का वास्तुशिल्प, बिहार के नालंदा जिले का नालंदा महाविहार का पुरातात्विक स्थल, नालंदा विश्वविद्यालय ,2017 में अहमदाबाद का ऐतिहासिक शहर तथा 2019 में राजस्थान का जयपुर विश सांस्कृतिक विरासत घोषित है।  भारत के 1985 में असम का मानस वन्यजीव अभयारण्य , काजीरंगा राष्ट्रीय उद्यान राजस्थान का केवला देव राष्ट्रीय उद्यान,1987 में बंगाल का सुंदरवन राष्ट्रीय उद्यान, 1988 में उत्तराखंड का नंदादेवी राष्ट्रीय उद्यान,2005 में फूलों की घाटी, 2012 में पश्चिमी घाट अगस्थ्यमले, पेरियार, अन्नामलाई, नीलगिरी, तलकावेरी, कुद्रेमुख तथा सह्याद्रि 2014 में हिमाचल प्रदेश का वृहद हिमालय राष्ट्रीय उद्यान तथा 2016 ई. में सिक्किम का कंचनबंगा राष्ट्रीय उद्यान को प्राकृतिक स्थल विश्व विरासत में है। बिहार के गया जिले का बोधगया स्थित भगवान् बुद्ध का ज्ञान स्थल एवम् महाबोधि तथा नालंदा विश्वविद्यालय एवम् प्राचीन धरोहर को युनेको द्वारा विश्व विरासत घोषित कर अन्तर्राष्ट्रीय पटल पर रखा गया है।
 साहित्यकार सत्येन्द्र कुमार पाठक ने भारतीय धरोहर के रूप में प्राचीन मानवीय गुणों को परिलक्षित कर रहा है ।हमे अतीत की वहुमूल्य सांस्कृतिक विरासत और सभ्यता दर्शाता प्राचीन कीर्तियाँ।यों तो बिहार में प्राचीन धरोहर के रूप में वैशाली की प्राचीन स्तूप ,बराबर की गुफा संस्कृति, गया का विष्णुपद मंदिर ,बोध गया का बुद्ध मंदिर ,कॉपी का जगदम्बा स्थान,देव का सूर्यमंदिर है।

मंगलवार, जुलाई 28, 2020

मगधारण्य की सांस्कृतिक विरासत...


मानवीय जीवन का द्योत्तक मागधीय संस्कृति और सभ्यता है।ब्रह्मेष्टि यज्ञ से उत्पन्न मागध ने मागध देश की स्थापना कर गया में अपनी राजधानी बनाया था । प्राचीन काल में मगध को कीकट, व्रात्य ,प्राच्य और मगधरण्य कहा जाता था।मगध की राजधानी गौतम ऋषि के पुत्र बुध ने गया और नाग वंसज वसु ने राजगीर और उदयन ने पाटलिपुत्र में राजधानी बनाया था।मगध के उत्तर में गंगा ,दक्षिण में विंध्य ,पूर्व में चम्पा और पश्चिम में सोन नद था ,अथर्वेद 5,22,14, विष्णुपुराण 4,24,61 ,वाल्मीकि रामायण 8,9,32 ,वाजपेयी संहिता, काकभुसुंडी द्वारा प्रणीत आध्यात्म रामायण के अनुसार मगध को कीकट, किरात व्रात्य कहा और मगध का राजा विश्वसफटिक ने मागध, मग ,मगद और मंदग अर्थात ब्राह्मण, क्षत्रिय ,वैश्य तथा शूद्र वर्ण की नींव डाल कर वर्ण व्यवस्था कायम किया था।वैवस्वत मनु काल में वृहस्पति ,चंद्रमा का पुत्र बुध ने 12 संस्कृतियों की स्थापना की।बुध और इला के समन्वय से गय का जन्म हुआ था। राजा बुध काल मे कीकट देश को इलावृत वर्ष बना ।इलावृत वर्ष के पूरब भद्राश्व वर्ष ,पश्चिम में रम्यक वर्ष, उत्तर में कुरुवर्ष, दक्षिण में भारतवर्ष, पूरब उत्तर कोण में हिरण्यवर्ष, पूरब दक्षिण कोण में किन्नर वर्ष ,दक्षिण पश्चिम में हरिवर्ष ,पश्चिम उत्तर में रम्यक वर्ष था।विंध्य पर्वतमाला से घिरा हुआ था।काल क्रम से स्थलों का नाम परिवर्तन हुआ है।वेदों,पुराणों ,उपनिषदों और इतिहास के पन्नों में मगध साम्राज्य की महत्वपूर्ण चर्चा है।राजा पृथु द्वारा  ब्रह्मेष्टि यज्ञ से उत्पन्न मागध ने मगध साम्राज्य की स्थापना कर गया में राजधानी कायम किया ।यहाँ का राजा बुध हुए जिन्होंने मगध साम्राज्य का विस्तार किया था।मगध के ऋषियों में अग्नि के उद्भव करने वाले महर्षि भृगु, दैत्य गुरु शुक्राचार्य ,लोमष ,च्यवन, और्व, गौतम,, सनक,सनातन, सनत,कुमार ,श्रृंगी, ध्रुव,,और खगोल शास्त्र के ज्ञाता आर्यभट्ट, ज्योतिष शास्त्र के मयूर भट्ट, वराह मिहिर हर्ष काल के संस्कृत साहित्य के विद्वान बाण भट्टका कर्म और जन्म भूमि रही है।बोधगया में भगवानबुद्ध की ज्ञान स्थल और पावापुरी में भगवान महावीर का मोक्ष स्थल तथा पितरों का पितृभूमि है। वायु ,अग्नि, विष्णु,गरुड़,वामन,भागवत,पुराणों के अनुसार मगधारण्य में ब्रह्मयोनि ,बराबर ,जेठीयन, हड़िया,महेर,चिरकी ,परहा, रामशिला,कटारी ,प्रेतशीला,कौवाडोल, द्वारपर, रानीडीह, मुर्गा ,सतघरवा,बाजारी, लोमष, लोहारवा, सुंग, हरला, थारी, गिद्धा, चारकहि, श्रृंगी, ध्रुवा, पवई, दुग्गल, पचार, राजगीर की पहाड़ियां ,महावर, द्वारपर,उमगा पहाड़ हिल प्राचीन काल में आध्यात्मिक और सांस्कृतिक स्थल तथा नदियों में फल्गु, पुनपुन, गंगा ,सोन ,मोरहर, लिलांजन, मोहरा, आद्री, मदार, धावा, जमुना, दरधा, पैमार ,धड़कर, तिलैया, फानर्जी, जोबा , औरंगा, आड़ी, बटाने, चानन,पंचाने, पंचानन ,पैमार, धरंजे नदियां और ककोलत का शीतल झरना ,राजगीर का गर्म ब्रह्म झरना प्रसिद्ध है।मगध की प्रथम राजधानी गया का अक्षांश 24 डिग्री 17 सेंटीग्रेड - 25 डिग्री 19 सेंटीग्रेड उत्तरी देशांतर 84 डिग्री - 86 डिग्री नार्थ  लैटिच्यूड पर स्थित तथा 4766 वर्गमील में फैला है ।                   गया ,औरंगाबाद,नवादा ,जहानाबाद ,अरवल ,पटना तथा नालंदा जिला था और मगध के उत्तर में गंगा ,पश्चिम में       मुंगेर ,दक्षिण में हजारीबाग, पलामू, पूरब में सोन नद है। गया को 03 अक्टूबर 18 65 ई में जिला स्थापित हुई है।मगधरण्य के ऋषियों में भृगु ऋषि, गौतम, लोमष, श्रृंगी, च्यवन, और्व, ध्रुव, वसुमति, मार्कण्डेय, दत्तात्रय, कश्यप,ऋचीक,, गग्यावान ,मधुश्रवा, आदि ऋषि का कर्म भूमि रही है । 10 लाख ई . पू. पूर्व ऐतिहासिक चरण तथा मध्यवर्ती और परवर्ती पूर्व प्रस्तर युगीन 40हजार से 10 हजार ई. पू .तथा मध्य प्रस्तर युग 9 हजार से 4 हजार ई. पू. नव प्रस्तर युग 2500 से 1500 ई. पू. तथा उत्तर वैदिक काल 1500 से 600 ई. पू. मगध शक्तिशाली और आध्यात्मिक केंद्र था।ऋग्वेद के अनुसार दक्ष प्रजापति की कन्या और धर्म की पत्नी के गर्भ से वसु का जन्म हुआ था ।वसु ने पंच पहाड़ियों के मध्य में बाजपेयी यज्ञ में 33 कोटि के देवों यथा 12 आदित्य, 8 वसु में आप,ध्रुव, सोम,धर ,अनिल, अनल,प्रत्युष और प्रभाष शामिल हुए साथ ही 11 रुद्र, इंद्र एवं प्रजापति ब्रह्मा शामिल हो कर वाजपेयी यज्ञ को पूर्ण किया।वाजपेयी यज्ञ पुरुषोत्तम मास के देवता भगवान विष्णु थे।33 कोटि के देवता पुरुषोत्तम मास में शामिल होकर भगवान विष्णु को पुरुषोत्तम मास, अधिकमास, मलमास के प्रधान बनाए।तथा मगध की राजधानी गया से राजगीर में स्थापित की यज्ञ में वसु द्वारा 33 अग्निकुंड,52 जल धारा का निर्माण कराया था यज्ञ में लोमष ऋषि के शिष्य और आध्यात्म रामायण के रचयिता काकभुसुंडी का निमंत्रण नहीं मिलने से वाजपेयी यज्ञ में शामिल नहीं हुए थे ।पुरुषोत्तम मास में वाजपेयी यज्ञ में आत्म शोधन काल कहा गया जिसमें भगवान सूर्य आत्मा और ब्रह्म जी मुक्ति के रूप में रहते है।।वाल्मीकि रामायण में बालकांड ,अयोध्याकांड, में गिरिव्रज ,मगधपुर, वसुमति तथा कैकय देश की राजधानी गिरिब्रज थी ।हरिवंश पुराण 17,36,37 के अनुसार चेदि राष्ट्र के संस्थापक अभयचन्द्र की पत्नी से वसु का जन्म हुआ था ,चेदि राज ने मगध का राजा वसु को बनाया था ।महाभारत सभा पर्व 14 ,63 विष्णुपुराण अध्याय 10 के अनुसार मगधका राजा वृहद्रथ के पुत्र जरासंध ने अपनी पुत्री  अस्ति और प्राप्ति केसाथ मथुरा के राजकुमार कंश से विवाह किया था।द्वापर युग में मगध राज जरासंध को भगवान कृष्ण ने भीम के साथ मल्ल युद्ध करने के लिए प्रेरित किया।जरासंध और भीम का मलयुद्ध राजगीर में प्रारम्भ हुआ।मल्लयुद्ध में जरासंध मारा गया और भगवान कृष्ण ने जरासंध के पुत्र सहदेव को मगध देश का राजतिलक किया ।मगघ का राजा सहदेव ,सोमापी, श्रुतश्रवा, आयुतशु आदि 21 पीढ़ी का अंतिम वृहद्रथ वंशी रिपुंजय को उसके मंत्री सुनिक ने मार कर अपने पुत्र प्रद्योत को मगध देश का राजा बनाया था ।प्रद्योत वंश द्वारा मगध पर 148 वर्ष शासन किया।प्रद्योत वंश में विन्दुसार ,आजातशत्रु, अर्भक, उदयन नंदिवर्धन और महानन्दी राजा बने।उदयन ने 461ई. पू. मगध की राजधानी राजगीर से गंगा सोन और गंडक नदी के संगम पर पाटल पर मगध की सैन्य छावनी में राजधानी का निर्माण किया ।
मगध में कलि संबत 5122 वर्ष पूर्व वैभवपूर्ण और शक्ति शाली साम्राज्य था । मगध देश पर शासन करने वालों में शिशुनगवंशिय 362 वर्ष ,महापद्म वंशीय 100 वर्ष ,मौर्य वंश 173 वर्ष , शुंग वंश 112 वर्ष, कण्व वंश 45 वर्ष   आंध्रभृत्य का शासन 446 वर्ष जिसमें 7 अभीर ,10 गर्द्भिल,16 शक,8 यवन,14 तुर्क 13 मुंड शासन किया।बौद्ध ग्रंथों के अनुसार 544 ई. पू. हर्यक वंश के संस्थापक बिम्बिसार मगध राजा बन कर अंग राजा ब्रह्मदत्त को हरा कर मगध साम्राज्य में मिला लिया और 52 वर्षो तक शासन किया ।बिम्बिसार ने कोसल नरेश प्रसेनजित की बहन महाकोशला ,वैशाली राजा चेटक की पुत्री चेलहना, मद्र देश की राजकुमारी क्षेमा से विवाह किया । 493 ई. पू. बिम्बिसार का पुत्र और जैन धर्म के अनुयायी आजातशत्रु ने 32 वर्षों तक मगध का शासक रहा वही आजातशत्रु के पुत्र उदयन ने 461 ई. पू. मगध साम्राज्य का शासक बन कर मगध की राजधानी पाटली ग्राम में बनाई।उदयन का पुत्र नागदशक को उसके अमात्य शिशुनाग ने 412 ई पू. में अपदस्त कर मगध पर शिशुनाग वंश की स्थापना की ।इसका उत्तराधिकारी कालाशोक का पुत्र नंदिवर्द्धन था ।महापद्म नंद वंश का अंतिम शासक घनानंद को मार कर चाणक्य की सहायता से 322 ई. पू. चंद्रगुप्त  चंद्रगुप्त मगध का राजा बना । चंद्रगुप्त ने सेल्युकस निर्केटर की पुत्री कार्नेलिया से विवाह से विवाह किया था ।चंद्रगुप्त का पुत्र विन्दुसार मगध साम्राज्य का राजा 298 ई . पू. में बन कर 16 साम्राज्यों पर अधिकार किया।विन्दुसार की पत्नी सुभद्रांगी का पुत्रअवंति का राजपाल अशोक ने 269 ई. पू. मगध की राजगदी पर बैठाऔर 261 ई. पू. किलिंग साम्राज्य को मगध में मिलाया और बौद्ध अनुयायी उप गुप्त से शिक्षा प्राप्त कर अशोक बौद्ध धर्म अनुयायी हो गया। मगध देश का प्रान्त उत्तरापथ की राजधानी तक्षशिला ,अवंति की राजधानी उज्जैयिनी ,कलिंग की राजधानी तोसलि दक्षिणापथ की राजधानी सुवर्णगिरि तथा प्राशि की राजधानी पाटलिपुत्र में मौर्य साम्राज्य ने बनाया था ।मौर्य वंश का अंतिम शासक वृहद्रथ को 185 ई पू. इसके सेनापति पुष्यमित्र सुंग ने मार कर मगध की सिहासन पर सुंग वंश की नींव डाला है।:शुंग बंश का अंतिम शासक देवभूति को कण्व वंश का वासुदेव ने हत्या 73 ई. पू. और  कण्व वंश के अंतिम शासक राजा सुशर्मा को सातवाहन वंश के शिमुक ने 60 ई. पुमें हत्या कर मगध का राजा बना तथा मगध की राजधानी प्रतिष्ठनपुर में रखा था ।वर्तमान में प्रतिष्ठनपुर आंध्रप्रदेश में है।भगवान महावीर  - जैन धर्म के 24 वें तीर्थंकर भगवान महावीर का जन्म ज्ञातृक कुल के सिद्धार्थ की पत्नी लिक्ष्वी राजा चेटक की बहन त्रिशला के गर्भ से  540 ई. पू .में कुंड ग्राम वैशाली में हुआ था।इनकी पत्नी यशोदा और पुत्री उनोजज प्रियदर्शनी थी।जैन धर्म के अनुयायी मगध का राजा उदयभद्र ( उदयन ) ,चंद्रगुप्त मौर्य , कलिंग राजा खारवेल तथा राष्ट्रकूट के राजा अमोधवर्ष थे ।72 वर्ष की आयु  में भगवान महावीर का निर्वाण नालंदा जिले का पावापुरी में कार्तिक कृष्ण पक्ष अमावस्या 468 ई. पू. मल्लराजा सृष्टिपाल के राज महल में प्राप्त हुआ था।महावीर सप्तभंगी ज्ञान का स्याद्वाद और अनेकतावाद। ,पुनर्जन्म ,कर्मवाद में विश्वास का मंत्र दिया था। जैन धर्म की जैन संगतियों का स्थल प्रथम जैन धर्म संगति  322 ई. पू . स्थूलभद्र की अध्यक्षता में पाटलिपुत्र तथा द्वितीय जैन धर्म संगति क्षमा श्रवण की अध्यक्षता में गुजरात का बल्लभी स्थल पर 312 ई. में हुई थी।
बौद्ध धर्म के संस्थापक गौतम बुद्ध  - नेपाल का कपिलवस्तु की राजधानी लुम्बनी में शाक्य गण राजा शुदोद्धन की पत्नी माया देवी के गर्भ से सिद्धार्थ का जन्म 563 ई. पू. हुआ था । राजकुमार सिद्धार्थ की पत्नी यशोधरा और पुत्र राहुल थे। सिद्धार्थ के गृह त्यागने के बादवैशाली के सांख्य दर्शन के ज्ञाता  आलरकलाम से शिक्षा लेने के बाद राजगीर में रुद्रकराम पूरा से ,उरुवेला ( बोधगया )में कौण्डिन्य,बाप्पा ,भादिया, महानामा तथा अस्सागी साधक से शिक्षा प्राप्त कर निरंजना नदी के तट पा स्थित पीपल की छाया में वैशाख शुक्ल पक्ष पूर्णिमा को ज्ञान प्राप्त कर सिद्धार्थ से गौतम बुद्ध हुए।गौतम बुद्ध ने ज्ञान प्राप्ति के बाद कौशल,वैशाली कौशाम्बी में उपदेश दिए तथा मगध का राजा बिम्बिसार ,प्रसेनजित अनुयायी हुए।80 वर्षीय गौतम बुद्ध का महानिर्वाण 463 ई. पू. उत्तरप्रदेश के देवरिया जिला का कुशीनगर में हुआ था ।483 ई. पू प्रथम बौद्ध संगति आजातशत्रु ने महाकश्यप द्वारा राजगीर ,363 ई. पू. द्वितीय बौद्ध संगति कालाशोक ने सबकामि द्वारा वैशाली, तृतीय बौद्ध संगति 255 ई. पू. अशोक ने मोग्गलिपुत द्वारा पाटलिपुत्र तथा चतुर्थ बौद्ध संगति कनिष्क ने वसुमित्र द्वारा कुंडल वन में प्रथम शताब्दी में कराई है। 
मगधरण्य के राजाओं में इक्ष्वाकु वंशीय राजा विकुक्षि पुत्र वाणासुर की राजधानी बराबर पर्वत समूह एवं फल्गु नदी के तट पर स्थित मैदानी भाग तथा दैत्यराज बलि पुत्र बाणासुर ने गया जिले का सोनपुर , वैवस्वत मनु के पुत्र राजा शर्याति ने सोनप्रदेश, राजा करूष ने हिरन्यबाहु प्रदेश बाद में कारूष प्रदेश , राजा वसु ने गांगेय प्रदेश ,गया सुर ने फल्गु प्रदेश ,राजा ध्रुव ने ध्रुव प्रदेश वर्तमान में नवादा जिले का ध्रुवा पर्वत के मैदानी भाग ,औरवा प्रदेश का राजा और्व थे। मगध में    अर्थ शास्त्र एवं कूटनीतिज्ञ मौर्य काल मे चाणक्य , आयुर्वेद के ज्ञाता चरक , राज कवि अश्वघोष ने बुद्धचरित तथा वसुमित्र ने विश्वकोश की रचना रचा चंद्रगुप्त द्वितीय काल मे आर्यभट्ट ,वराहमिहिर ,धनवंतरी, ब्रह्मगु ,कालिदास हर्ष काल  बाण भट्ट ,मयूर भट्ट विद्वान थे ।पुष्यमित्र शासन काल मे पतंजलि द्वारा अश्वमेघ यज्ञ कराया गया था। विष्णुपुराण की रचना मौर्यवंश ,मत्स्यपुराण की रचना आंध्रसतवाहन और वायु पुराण की रचना गुप्त वंश में लोमहर्ष तथा उनके पुत्र उग्रश्रवा द्वारा संस्कृत भाषा मे की है।: 58 ई. पू. उज्जैन का राजा विक्रमादित्य ने विक्रम संबत और कनिष्क ने 78 ई. में शक संबत चलाया था ।240 से 280 ई. तक गुप्त साम्राज्य कौशाम्बी। से प्रारंभ हुआ।गुप्त वंश के प्रथम सम्राट चंद्रगुप्त प्रथम का विवाह लिक्ष्वी की राजकुमारी कुमार देवी के साथ हुआ । चंद्रगुप्त प्रथम ने 320 ई. में मगध साम्राज्य का राजा बना और गुप्त संबत की शुरुआत किया ।चंद्रगुप्त के उत्तराधिकारी समुद्रगुप्त 335 ई. में राजगद्दी हासिल कर आर्यावर्त के 9शासकों ,दक्षिणावर्त के 12 शासकों को पराजित किया था।  चंद्रगुप्त द्वितीय के पुत्र कुमार गुप्त ने 415 से 454 ई. तक मगध क्षेत्र में नालंदा विश्व विद्यालय की स्थापना की।गुप्त वंश विष्णु के अनुयायी थे।750 ई. में गोपाल ने पल वंश की स्थापना कर मुंगेर में राजधानी बनाया ।धर्मपाल ने विक्रमशिला विश्वविद्यालय की स्थापना की साथ ही देवपाल ने बिहारशरीफ में ओदवंतपुरी में बौद्ध मठ का निर्माण किया । सेन वंश के शासक शैव धर्म का अनुयायी था।मगध साम्राज्य की चर्चा मेगस्तनिज ने इंडिका ईरान का राजवैद्य टेसियस,5वी सदी ईसा पूर्व हेरोटोडस ने हिस्टोरिका, सीरियन का राजदूत डायमेकस,टॉलमी ने  दूसरी शताब्दी में भारत का भूगोल ,प्रथम शताब्दी में प्लिनी ने नेचुरल हिस्ट्री, चंद्रगुप्त द्वितीय शासनकाल में चीनी यात्री फाह्यान , 518 ई. में संयुगन ,हर्षवर्द्धन काल मे 629 ई . में चीनी राजकुमार हुएनसांग नालंदा विश्वविद्यालय में अध्ययन करने आया और 645 ई .में चीन लौट गया । हुएनसांग( ह्वेनसांग ) ने सि - यू- की पुस्तक ,इतसिंग 7वी सदी में आकर मगध की महत्वपूर्ण चर्चा की है। बराबर समूह की गुहा लेखन में मगध साम्राज्य के उत्थान और विकास का रूप है।

रविवार, जुलाई 26, 2020

जीवन की हरियाली वृक्षारोपण...

 

विश्व तथा भारतीय संस्कृति में वृक्षों का निवास जीवन में है । सनातन संस्कृति एवं सभ्यता में प्रकृति पूजा का प्रादूर्भाव वृक्ष, जल, सूर्य, चंद्र, पौधों से प्रारंभ है । प्राचीन काल से मानव जीवन की सुरक्षा पर्यावरण पर निर्भर है । भारतीय संस्कृति में वृक्षों की पूजा सूत्र बंधन, दीप दान, पुष्प, चंदन, अभिषेक की जाती है । 
पीपल - भगवान सूर्य द्वारा पीपल वृक्ष की उत्पत्ति हुई ।पीपल वृक्ष का कटाई और जलाने से पितर दोष, पर्यावरण दूषित तथा जीवों पर संकट हो जाता है । पीपल शोक, विनाश से बचाव कर समृद्धि, सुखमय, ज्ञान तथा मोक्ष की प्राप्ति करता है । भगवान कृष्ण ने गीता मे कहा है कि 
वृक्षों में मैं पीपल हूँ ।पीपल की छाया मे शान्ति प्रेतात्माओ का शाप  नहीं  लगता है ।प्रेतात्माओ का रात को पीपल पर निवास  हैं। इसलिए रात्री के समय पीपल की पूजा नहीं होती है।सूर्योदय मे पीपल पर माता लक्ष्मी का निवास नही मना गया है। पीपल की पूजा बृहस्पति और शनि दोषों से मुक्ति के लिए भी की जाती है| पीपल को विष्णु वृक्ष कहा गया है । 
बरगद (वट वृक्ष )- यक्ष राज मणिभद्र ने वरगद की उत्पत्ति कर भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिए समर्पित किया है । वट (बरगद ) वृक्ष को शिव वृक्ष है |सृष्टि और  प्रलय के समय मुकुंद ने अक्षय वट पर विश्राम किया था | यह अक्षय वट प्रयाग में है तथा सृष्टि के प्रारंभ मे गया का अक्षय वट की स्थापना की गई थी । महिलाएं वट सावित्री की पूजा सौभाग्य के वरदान के लिए करती हैं ।  वट वृक्ष जटाधारी भगवान् शिव का ही रूप है |
कमल - भगवान विष्णु के नाभि से कमल की उत्पत्ति हुई है । माता लक्ष्मी का निवास होता है |यह एक ऐसा पुष्प है जो अपने गुणों के कारण प्रत्येक देवी देवता को प्रिय है | सृष्टि की रचना का मूलभूत रूप 
कमल है । 
नारियल - भू लोक में कल्प वृक्ष का रूप नारियल है ।  नारियल एक ऐसा फल है जो प्रत्येक देवी देवता को प्रिय है। इसे पौराणिक ग्रंथो में "कल्प वृक्ष" का नाम दिया गया है। शक्ति पूजा में और किसी अनुष्ठान में यह विशेष रूप से प्रयोग में लाया जाता है | माता लक्षमी द्वारा की गई उत्पत्ति नारियल को श्री फल के नाम से ख्याति प्राप्त है । 
बिल्व:--वृक्ष में लक्ष्मी जी का निवास है।ऋग्वेद के "श्री सूक्तं" के अनुसार माता लक्ष्मी की कठोर तपस्या के परिणाम स्वरुप  बिल्व वृक्ष उत्पन्न हुआ""वनस्पतिस्तव वृक्शोथ बिल्वयह वृक्ष, इसके पत्ते और फल भगवान् शिव को अत्यंत प्रिय हैं | बिल्व पत्र महादेव के विग्रह की शोभा हैं | शास्त्रानुसार संध्या के समय बिल्व वृक्ष के नीचे दीप दान करने वाला व्यक्ति मृत्योपरांत शिवलोक को ही जाता है अर्थात उसकी सद्गति निश्चित होती है |देवी कात्यायनी की पूजा भी में भगवान् राम ने बिल्व पत्रों का प्रयोग किया था |
रुद्राक्ष:--शिव वृक्ष है |इसके बीजो से बनी माला पूजा में प्रयुक्त होती है | रुद्राक्ष भगवान् शंकर का श्रृंगार हैं|
तुलसी:--वृंदा देवी हैं | तुलसी के स्पर्श, दर्शन, सेवन से जन्म-जन्मान्तरों के पाप कर्मों का नाश होता है |यह भगवान् विष्णु को अत्यंत प्रिय है | कोई भी अनुष्ठान या पूजा कार्य संपन्न करने के लिए तुलसी पत्र का होना आवश्यक माना गया है | वर्ष भर तुलसी में जल अर्पित करना एवं सायंकाल तुलसी के नीचे दीप जलाना अत्यंत श्रेष्ठ माना जाता है |कार्तिक मास में तुलसी के समक्ष दीपक जलाने से मनुष्य अनंत पुण्य का भागी बनता है एवं उसे माँ लक्ष्मी की कृपा प्राप्त होती है क्योंकि तुलसी में साक्षात माता लक्ष्मी का निवास माना गया है |
 धान:--"धान्य देवी" अर्थात "माता अन्नपूर्ण" का ही रूप हैं|प्रत्येक पूजा में अक्षत (चावलों के साबुत दाने) का प्रयोग होता है।
 नीम:--शीतला देवी रहती हैं जो रोगों से रक्षा करती हैं |देश भर में शीतला देवी के मंदिरों में नीम के वृक्ष सहजता से मिल जाते हैं|
. आम:--आम के वृक्षों पर यक्ष किन्नर विहार करते हैं।
. आंवला:--विष्णु और लक्ष्मी माँ का प्रिय है |कार्तिक मास में आंवले की परिक्रमा और पूजा होती है|
. कैंथ और जामुन:--कैंथ और जामुन के वृक्ष गणपति गणेश को प्रिय हैं।* और इनके फल गणेश पूजा में अर्पित किये जाते हैं|"कपित्थ जम्बू फल चारु भक्षणं"|
. केले:--बृहस्पति दोषों से मुक्ति पाने हेतु केले की पूजा की जाती है|
. आक और पलाश:--सूर्य वनस्पति है और पलाश चन्द्र वनस्पति* सूर्य और चन्द्र के दोषों से मुक्ति पाने हेतु ज्योतिष में इन वनस्पतिओं का प्रयोग्किया जाता है |वनस्पतियाँ विधाता का वरदान हैं | इनकी मधुरिमा को बने रखने के लिए वेद मंत्र है"मधुमान्नोवनस्पते:"वृक्षों में देवात्मा होती है | वृक्षारोपण एक धार्मिक अनुष्ठान है | वृक्षों में खिले हुए पुष्पों की गंध और फलो के रसात्मक तत्वों को पाकर देवता तृप्त होते हैं |
मानव पर्यावरण संरक्षण के लिए स्थलों के परिसर में पुष्प और फलदार वृक्ष लगाये जाते हैं | फूलो, फलो अथवा हरे भरे वृक्षों को काटने पर महापाप लगता है|वृक्षारोपण से व्यक्ति महापुण्य का भागीदार होता है.।

शुक्रवार, जुलाई 24, 2020

सनातन संस्कृति का नागपंचमी

: सनातन संस्कृति में नागपूजा
सत्येन्द्र कुमार पाठक 
भारतीय और सनातन संस्कृति में प्रकृति और जीवों की पूजा विभिन्न कालों से होती आ रही है।मानव सृष्टि और सभ्यता का विकास में संस्कृति का समावेश है! सूर्य, चद्रमा ,वृक्ष, पौधों, गौपूजन की तरह नाग पूजन की परंपरा कायम है।सृष्टिकर्ता ब्रह्मा जी ने भू लोक में अनेक सृष्टि की तथा मानव की सृष्टि कर मानवीय गुणों का रूप दिया है। दक्ष प्रजापति की पुत्री तथा ऋषि कश्यप की भार्या कद्रु से नागों  में शेषनाग, वासुकि ,तक्षक, कर्कोटक ,पद्म , महापद्म, शंख , कालिया, मणिभद्र, रेरावत, धनञ्जय पुत्र  और मनसा पुत्री की आविर्भाव हुआ था।शेषनाग पाताल लोक के राजा, भगवान विष्णु के सेवक,और शय्या हुए, वासुकि नाग भगवान शिव के सेवक,और हार, समुद्रमंथन के दौरान मंदार पर्वत को मथानी,त्रिपुरा दाह के समय शिव धनुष का डोर बने थे।पद्मनाग गोमती नदी के तट पर नेमिस क्षेत्र मणिपुर का राजा, शंख नाग वेदों का ज्ञाता, कुलिक(अनंत ) ब्राह्मण कुल एवं ब्रह्मा जी से प्रिय भक्त थे। कश्यप की पत्नी कद्रु की पुत्री मनसा ने जरत्करू पुत्र का जन्म दी ।जरत्करू का विवाह आस्तिक से की है।मनसा शिव की तपस्या से वेद वेदांत के ज्ञाता थी।मनसा देवी के मंदिर हरिद्वार में स्थित है ।मनसा देवी की आराधना श्रावण मास कृष्णपक्ष पंचमी तिथि को बंगाल के गंगा दशहरा और हरिद्वार में बड़े पैमाने पर मनाते है। विश्व मे नागों की प्रजातियां 3000 लगभग है जिसमें अफ्रीका, भारत, अरब, चीन, भूटान, नेपाल आदि देशों में फैले हुए है।नाग पृष्ठवंशी और सरीसृप होते है।वराह पुराण, अग्नि पुराण में नाग का 80 कुलों में 9 नागों की महत्वपूर्ण चर्चा की गई है।दक्षिण भारत में अजंता, मालावार, नागालैंड, नागलोक( भोगवतीपुर ) में नाग वंशों का शासन था।शेषनाग का अवतार त्रेता युग में भगवान राम के छोटे भाई लक्ष्मण , द्वापर युग में भगवान कृष्ण के बड़े भाई बलराम और कलियुग के प्रारंभिक चरण में पातंजली  थे।काशी में गरुड़ के भय से तक्षक नाग कूप में समाहित होकर वेदांत की शिक्षा लिए है।नाग वंश के मणिभद्रक यक्ष रहे और कालिया मथुरा के यमुना नदी में निवास बना कर रहने लगा।द्वापर युग मे भगवान कृष्ण ने कालिया का उद्धार किया था।तक्षक नाग ने अर्जुन के पौत्र अभिमन्यु के पुत्र इन्द्रप्रस्त के राजा परीक्षित को डसने से सातवां दिन मौत हो गई।अपने पिता को डसने पर सरपेष्ठी यज्ञ में तक्षक को भष्म करना चाहा परंतु इंद्र के हस्तक्षेप से तक्षक बच गया।
 अनंत नाग ने जम्बूकशमीर में अनंतनाग नगर बसाया और नाग वंश का प्रारंभ हुआ था।त्रेता युग में लंका के समीप नागों की माता सुरसा रहती थी ।हनुमान द्वारा माता सीता का पता लगाने के क्रम में समुद्र पार करने के क्रम में नागों की माता सुरसा से मुलाकात कर लंका में प्रवेश किये थे। द्वापर युग में मथुरा में अघासुर नाग को भगवान कृष्ण द्वारा उद्धार किया गया था।नागवंशी वसु ने गिरिबज्र में अपनी राजधानी बनाई और कीकट प्रदेश का विस्तार किया था।नाग संस्कृति का साथ दैत्य और दानव एवं असुर संस्कृति देता था।दक्षिण विंध्य और उत्तर विंध्य तक नागों का फैलाव हुआ।छोटानागपुर दक्षिण में कीकट प्रदेश जिसे किकटा के नाम से जाना जाता था वहां का राजा गया सुर था।छोटानागपुर में नागवंशी की स्थापना सुतिया नागखण्ड का निर्माण किया गया वहीं मगध में 345 ई. पू. शिशुनाग मगध पर साम्राज्य स्थापित किया।बनारस के ब्राह्मण नागवंश पार्वती के गर्भ से 64 ई. में फनीमुकुट का जन्म हुआ था।नागवंशी परंपरा के अनुसार शाकद्वीपीय ब्राह्मण पार्वती का पुत्र नाग के फन के नीचे बैठा था।इस बालक को फनि मुकुट नामकरण किया गया।फनीमुकुट ने 82 ई. से 162 ई. तक नागखण्ड पर साम्राज्य स्थापित की और 66 परगनों की मूलरूप दिया।नागखण्ड का राजा फनीमुकुट ने अपनी राजधानी रामगढ़ में बनाई।रामगढ़, तमाड़, टोरी ,बरवा आदि 46 परगने बने थे और सौर धर्म के अंतर्गत सूर्य की प्रधानता दी गयी।बाद में नागवंशीय चेरो, सबर द्वारा मगध का विस्तार किया गया ।: नाग संस्कृति के देवता भगवान सूर्य है।चैत्र मास में धाता आदित्य के साथ वासुकि नाग , वैशाख मास में अर्यमा आदित्य के साथ कच्छ वीर नाग,जेष्ठ मास के मित्र आदित्य के साथ तक्षक नाग, आषाढ़ मास के वरुण आदित्य के साथ अनंत नाग , श्रावण मास के इंद्र आदित्य के साथ एलापुत्र नाग, भाद्र मास केविवस्वान आदित्य के साथ शंखपाल नाग ,आश्विन मास के पूषा आदित्य के साथ धनंजय नाग ,कार्तिक में विश्वावसु आदित्य के साथ ऐरावत नाग, अगहन में अंश आदित्य के साथ महापद्म नाग, पौष मास में भग आदित्य के साथ कर्कोटक नाग, माघ मास में त्वष्ठा आदित्य के साथ कम्बल नाग, तथा फाल्गुन मास में विष्णु आदित्य के साथ अश्वतर नाग द्वारा वहन करने के अनुरूप रथ को सुसज्जित करते है।नाग को सर्प कहा गया है । पुरातन काल मे झारखंड के दक्षिण क्षेत्रों में नागों के राजा वासुकि ने देवघर के समीप राजधानी बनाया था।वह स्थल बैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग का रक्षपाल के रूप में वासुकि नाथ के रूप में विराजमान है।सावन मास शुक्ल पक्ष पंचमी तिथि को नाग की उत्पत्ति और सरपेष्टि यज्ञ से वचाव एवं तक्षक नाग को गरुड़ से बनारस में बचाव तथा शिक्षा प्राप्त हुई थी।नागपंचमी में सर्प नाग का दर्शन, पूजन करने से सर्प दोष से मुक्ति तथा विषधर से छुटकारा और मनोकामनाएं पूर्ण होती है ।नाग पंचमी को नाग की आराधना के लिए दूध, धान का लावा सहित गुड़ शक्कर सहित अर्पित करते है।

गुरुवार, जुलाई 23, 2020

आयुर्वेद के संस्थापक भगवान धन्वंतरि

दीर्घ जीवन और आरोग्य के प्रणेता भगवान् धन्वंतरि
     सत्येन्द्र कुमार पाठक 
भारतीय संस्कृति में प्राणियों एवम् मानव का दीर्घ जीवन और आरोग्य के प्रणेता भगवान् धन्वंतरि की महत्वूर्ण उल्लेख किया गया है। वेदों, पुराणों , आर्युवेद संहिता में प्राणियों की निरोगता के लिए कई संदर्भ है। देवों और दानवों ने प्राणियों के कल्याण के लिए समुद्र मंथन किया गया था। इस समुद्र मंथन से कार्तिक मास कृष्ण पक्ष त्रयोदशी तिथि को भगवान् विष्णु के अवतार आर्युवेद के जनक चतुर्भुज के रूप में  भगवान् धन्वंतरि  शंख, चक्र, औसध तथा अमृत घट लिए प्रादुर्भाव है। इनके अवतरण के बाद निरोगता के लिए नीम वृक्ष की उत्पति हुई थी। भगवान् धन्वंतरि का अवतार पर  धन्वंतरि जयंती ,धनतेरस, धन्यतेरस , ध्यानतेरस मनाने की परंपरा कायम हुई है। इनका प्रिय धातु पीतल है । इनका वाहन कमल है। भगवान् धन्वंतरि की उपासना दीर्घ जीवन आरोग्य के लिए नीम का पुष्प, कोमल पत्ते, चने की भीगी दाल, शहद, जीरा तथा हिंग को मिलाकर प्रसाद अर्पण कर ग्रहण किया जाता है। आर्युवेद के आदि आचार्य एवं भगवान् सूर्य के पुत्र अश्विनी कुमार ने दक्ष प्रजापति के धड़ में बकरे का सिर जोड़ा और इन्द्र को को आर्युवेद की शिक्षा दी और इन्द्र ने धन्वंतरि को आर्युवेद की शिक्षा देकर मानव कल्याण महत्वूर्ण कार्य किया है। काशी के राजा देवदास धन्वंतरि के अवतार थे जिन्होंने ब्रह्मऋषि विश्वामित्र के पुत्र सुश्रुत को आर्युवेद की शिक्षा दी थी। ऋषि सुश्रुत ने धनवंतरि संप्रदाय के प्रवर्तक हुए एवं काशी में औषधालय का निर्माण किया । आत्रेय संप्रदाय के प्रवर्तक भारद्वाज थे। आर्युवेद के लिए कश्यप, सुश्रुत, भेल, भारद्वाज, चरक संहिता की रचना की है। सभी संहिता में प्राणियों की सुरक्षा एवं निरोगता के लिए मंत्र एवं यंत्र का उल्लेख किया गया है। स्कन्द पुराण के अनुसार भगवान् सूर्य के पुत्र यामराज को प्रसन्न करने के लिए यम पूजन एवं संध्या काल में अपने परिवार की सुरक्षा हेतू घर के मुख्य द्वार से बाहर  दीप प्रज्वलित कर दक्षिण दिशा में रखा जाता है । इस कार्य से आकाल मृत्यु नहीं होती है। ब्रह्मवैवर्त पुराण के अनुसार धन्वंतरि एवं मनशा देवी का संबंध से प्राणियों की सुरक्षा हुई । ऋग्वेद एवं अथर्ववेद की रचना में उप वेद आर्युवेद के ग्रंथाकार ऋषि वशिष्ठ हुए हैं। आर्युवेद के ग्रंथाकार 20 हुए जिसमें 500 ई. पू. मगध साम्राज्य का राजा बिम्बिसार एवं भगवान् बुद्ध के निजी चिकित्सक जीवक हुए है। यो तो आयुर्वेद की परम्परा का प्रादुर्भाव भगवान् रुद्र द्वारा हुआ है। धन्वंतरि जयंती के अवसर पर प्रत्येक वर्ष कार्तिक कृष्ण पक्ष त्रयोदशी तिथि को राष्ट्रीय आर्युवेद दिवस को दीर्घ जीवन और आरोग्य का पर्व के रूप में मनाया जाता है। आर्युवेद के आचार्यों में अश्विनी कुमार, धन्वंतरि, दिवोदस, सुश्रुत, अर्की, च्यवन,जनक, बुध, आत्री, अगस्त, जवाल, पैल, करथ, जावाल, अग्निवेश, भेड़, जतुकर्म, परासर, हारित, सिरपानी, चरक आदि थे। आर्युवेद के विकास के लिए रसायन विज्ञान के आचार्य नागार्जुन द्वारा ब्रह्म संप्रदाय , दक्ष सम्प्रदाय के आचार्य क्षारपाणी , भास्कर संप्रदाय के आचार्य निमी, अश्विनी संप्रदाय के आचार्य भद्रशौनक प्रवर्तक थे। आर्युवेद विज्ञान का संहिता काल 5 वीं से 6 वीं ई. पू. में आचार्य चरक ने मगध साम्राज्य में नीव डाला वहीं आचार्य वागभट्ट द्वारा 7 वीं से 14 वीं सदी तक आर्युवेद व्याख्यान काल तथा 15 वीं सदी में विवृत काल में आचार्य माधव द्वारा माधव निदान , शारंगधर की रचना कर चिकित्सा तथा आयुर्वेद विज्ञान का मूल रूप दिया गया है। 2350 ई. पू. से 1200 ई. पू. तक आचार्य शालिहोत्र द्वारा चिकित्सा क्षेत्र में महत्वूर्ण कार्य किया वहीं नकुल और सहदेव ने पशु पक्षी की निरोगता लाने के लिए आयुर्वेद चिकित्सा पद्धति लागू किया। देवों के वैद्य अश्विनी कुमार द्वारा आवला वृक्ष की उत्पति की गई वहीं ऋषि च्यवन को युवा अवस्था में परिणत कर राजा शार्याती की आत्मजा सुकन्या की इच्छा पूर्ण किया । बिहार में सुश्रुत, नागार्जुन, कश्यप, च्यवन, जनक चरक द्वारा चिकित्सा एवं आयुर्वेद विज्ञान की परंपरा कायम कर मानव को निरोग एवं ऐश्वर्यवान बनने का रूप दिया । धन्वंतरि संप्रदाय के प्रवर्तक आचार्य सुश्रुत द्वारा चिकित्सा पद्धति की स्थापना की गई । इनके द्वारा चिकित्सा पद्धति में शल्य चिकित्सा, अनेक प्रकार की चिकित्सा की नीव रखा गया ।
 अन्धकार से प्रकाश की ओर ले जानेवाला पर्व दीपोत्सव
अन्धकार से प्रकाश की ओर ले जाने वाला पर्व दीपोत्सव कार्तिक कृष्ण पक्ष अमावस्या को प्रतिवर्ष में मनाया जाता है । यह पर्व समुद्र मंथन से प्रगट  माता लक्ष्मी के अवतरण  को श्रद्धा पूर्वक यादगार के रूप में  दीपावली मनाने की परंपरा कायम हुई है । दीपावली को दीपोत्सव , दिवाली , मोक्ष दिवस , बंडिछोड़ दिवस के रूप में हिन्दू ,जैन धर्म ,बौद्ध धर्म के लोग मानते है। त्रेता युग में भगवान् राम के 14 वर्षो के बनवास एवम्  लंका विजय के बाद अयोध्या लौटने के पश्चात अयोध्या में दीपोत्सव मनाया गया वहीं द्वापर युग में पांडव के 12 वर्ष वनवास एवम् एक वर्ष बनवास के बाद इंद्रप्रस्थ लौटने पर दीपावली मनाया गया है ।भगवान् महावीर के महानिर्वाण के अवसर पर मोक्ष दिवस , सिख धर्म के10 वें गुरु गुरुगोविंद सिह की रिहाई जहांगीर द्वारा 1619 ई. में करने के पश्चात् तथा 1577 ई. में स्वर्णमंदिर का शिलान्यास के उपलक्ष्य में दिवाली मनाई जाती है।
: पावापुरी के  मलराजा सृस्ति पाल के राजभवन मे भगवान महावीर का निर्वाण कार्तिक कृष्ण अमावस्या 468 ई.पू. दीवाली  मे हुआ है। स्कन्द पुराण मे दीपक को सूर्य का प्रतिनिधि कहा गया है। 7वी सदी मे सम्राट हर्षबर्धन ने दीपप्रतिपादूत्सव , 9 वी सदी मे दीपमालिका , 11वी. सदी मे दीपावली , बादशाह अकबर ने 1542 - 1605 ई. मे 40 गज ऊचे बास पर आकाशदीप की परम्परा कायम किया ।स्वामी रामतीर्थ का जन्म और मोक्ष ,महर्षि दयानन्द सरस्ती का मोक्ष दिवस के रूप मे दीवाली मनाते है। नेपाल मे नेपाली सम्बत प्रारम्भ दिवस के रूप मे दीवाली मनाते है। इतिहासकार एवं साहित्यकार सत्येन्द्र कुमार पाठक ने कहा है कि 25 अक्तूबर 2019 शुक्रवार  कार्तिक कृष्ण त्रयोदशी तिथि 2076 को त्रयोदशी तिथि प्रारंभ सुबह 07 :08 बजे से दिनांक 26 अक्तूबर 2019 को दोपहर 03:46 बजे तक रहेगा ।दिनांक 25  अक्तूबर को  धनतेरस पूजा मुहूर्त शाम 07:08 से रात्रि 08:14 तक प्रदोष काल शाम 05:39 स रात्रिे 08:14  तक वृषमकाल शाम 06:51 से रात्रि 08:47 बजे  है। धनतेरस के दिन धन के मालिक कुबेर को सफेद मिष्ठान आरोग्य के भगवान् धन्वंतरि को पीली मिष्ठान का भोग लगाया जाता है । समुद्र मंथन के दौरान प्राप्त हुए चौदह रत्नों में भगवान् धन्वंतरि का अवतरण हुआ था।  त्रयोदशी तिथि से पाच दिवसीय पर्व  में धनतेरस , नरक चतुर्दशी ( छोटी दिवाली), दीपावली ( लक्ष्मी पूजा) गौधन , तथा यमद्वितीया , चित्रपुजा , दावात पूजा होती है ।

बुधवार, जुलाई 22, 2020

कीकट प्रदेश और सभ्यता संस्कृति ...


        मानवीय मूल्यों का प्रारंभिक क्षेत्र कीकट है।वेदों और पुराणों तथा इतिहास के पन्नो में प्राचीन कीकट प्रदेश का नाम मगध है।फल्गु और पुनपुन के मध्य स्थल कीकट प्रदेश ख्याति प्राप्त थी।इस प्रदेश में भगवान विष्णु द्वारा सनत, सनंदन, सनत कुमार के रूप में मानव की संरचना और ब्रह्मा जी ने उत्तरी छोटानागपुर पठार का जल पठार के उत्तरी भाग में ब्रह्मा जी के लिए सनत, सनंदन, सनत कुमार, गौतम ने कठिन तपस्या करने के बाद ब्रह्मा जी प्रगट हुए थे।ऋषियों ने ब्रह्मा जीका पद धोने के लिए अपने पसीने युक्त कमंडल धोना चाह रहे थे परन्तुं पसीने पठार भूमि पर गिर जाने से पांच कुंड झील के रूप म उत्तर दिशा में प्रवाहित हो गया था ।उसी कुंड में ब्रह्मा जी ने अपनी कमंडल से सहस्त्र धारा प्रवाहित की जिससे पुनः पुना: कीकट नदी के नाम से ख्याति मिली थी । कीकट प्रदेश की पवित्र पुनपुन नदी हुई। कीकट प्रदेश का राजा सनत कुमार हुए।सनंदन ने रसायन और योग माया की उत्पत्ति पद्मिनी ,सनातन ने सनातन संस्कृति,गौतम ऋषि ने सांख्य का ज्ञान फैलाए थे।कीकट प्रदेश भगवान विष्णु, शिव तथा ब्रह्मा का प्रिय था ।सनत कुमार द्वारा विंध्य पर्वत माला के उत्तरी क्षेत्र का गया के पांच पहाडियों से युक्त ब्रह्म योनि, विष्णु पर्वत, भस्मगिरि, धर्म पर्वत , कटारी पर्वत, राम पर्वत और बणावर्त के मैदानी क्षेत्रों में साम्राज्य स्थापित किया गया था।उत्तरी छोटानागपुर पठार के चतरा जिले का हंटरगंज प्रखंड का इटखोरी में स्थित कोरम्बे पहाड़ का झरना से मोहनी कुंड से मोहाना नदी और बेंदी के समीप दामोदर पहाड़ के झरने से लिलांजन नदी समानांतर उत्तर दिशा की ओर प्रवाहित होते हुए दिव्य योगनी  फाल्गुनी के आश्रम के समीप विलय होने के पश्चात फलगुश्व फल्गु नदी प्रवाहित हुई थी।बाद में फाल्गुनी क्षेत्र उरुवेला वर्तमान में बोधगया के नाम से ख्याति प्राप्त की वहीँ विष्णु पर्वत के समीप से गुजरते हुए बराबर पर्वत सिद्धेश्वर नाथ का स्पर्श कर फल्गु नदी पटना जिले के गंगा नदी द्वारा बनाई गई टाल में समाहित हो गयी है।फल्गु नदी की लंबाई दक्षिण से उतर 125 की.मी . प्रवाहित होती है।19 करोड वर्ष पूर्व विंध्य पर्वत माला में जलवायु परिवर्तन के कारण उच्च भूमि की वर्फ़ पिघल कर जल प्रवाह के रूप में फल्गु प्रवाहित होने के बाद गया की पृष्ठभूमि बना था।गया में पितरों में अमूर्त्या  का निवास बना।: विंध्य पर्वत माला के ऋक्ष पर्वत पठार से निकली बालुका वाहिनी नदी पिशाचिका ( फल्गु ) नदी है।गौतम ऋषि के पुत्र बुध कीकट प्रदेश का राजा बना। ।कीकट में भगवान विष्णु अमूर्त रूप में है।प्राचीन काल में कीकट प्रदेश में मग ब्राह्मण कुल में बुध का जन्म हुआ था ।वह नीति का महान ज्ञाता और सूर्य तथा शिव विष्णु का भक्त था।बाद में बुध कीकट प्रदेश का राजा बना।ब्रह्मा जी द्वारा अपने अंग से स्वायम्भू मनु और शतरूपा की उत्पत्ति कर सृष्टि की रचना की।स्वायम्भुव मनु ने प्रथम मन्वंतर की स्थापना की थी।14 मनु ने अपने नाम पर मन्वंतर प्रारम्भ किया जिसमें7 वाँ मनु वैवस्वत मनु हुए है। कीकट का राजा बुध के शासन काल म ब्रह्मा जी द्वारा गया में ऋत्विक यज्ञ का आयोजन किया गया जिसमें कीकट प्रदेश के 365 पिंड वेदी का निर्माण किया गया।यज्ञ कराने वाले मग ब्राह्मण को गया और फल्गु नदी दान दे दी तथा प्रकृति और पुरुष के रूप में ब्रह्म पर्वत पर प्राकृतिक योनि का निर्माण किया गया जिसे ब्रह्मयोनि पहाड़ के नाम से ख्याति मिली है।बुध काल मे यहां मग ब्राह्मण, मागध क्षत्रिय, मगद वैश्य तथा मंदग शुद्र के रूप में रहते थे।वैवस्वत मन्वंतर में चंद्रमाऔर तारा के समागम से बुध का जन्म हुआ था । बुध न श्रवण वन में तपस्या के दौरान वैवस्वत मनु की पुत्री इला के समागम से गय, उत्कल और विनिताश्व का जन्म हुआ ।चद्रमा ने बुध के साथ रोहाणी और कृतिका के साथ विवाह किया था।बुध ने अपने पुत्र गय को कीकट प्रदेश का राजा बनाया।गय ने अपने नाम पर गया नगर की स्थापना की तथा राहु और शनि की मित्रता और दैत्य गुरु शुक्राचार्य के परामर्श से सूर्य की आराधना किया।फलतः असुर संस्कृति के पोषक बन कर गयासुर के नाम से विख्यात हुआ ।बुध को ग्रह के रूप में भगवान सूर्य के समीप रहने लगा।बुध मिथुन और कन्या राशि का स्वामी तथा भगवान विष्णु ने वैदिक कलाये प्रदान की।बुध को उत्तर दिशा का राजा, हरे रंग और रत्न में पन्ना, ऋतु में शरद और पृथ्वी तल के रूप में श्रवण वन ( गया ) प्राप्त हुआ था।
: कीकट प्रदेश में गौतमऋषि का पुत्र बुध थे।उहोंने कीकट प्रदेश की स्थापना की थी।इन्होंने प्रकृति पूजन में भगवान सूर्य प्रधान देव तथा शिव आराध्य देव एवं ब्रह्मा और विष्णु की आराधना की।एक बार देव गुरु वृहपति ने ब्रह्मा जी से स्त्री बनने की इच्छा प्रकट की थी ।ब्रह्मा जी ने उनकी मनोकामना पूर्ण कर स्त्री बन कर बृहपति रोहाणी रूप में कीकट प्रदेश में भ्रमण करने लगे।रोहाणी पर चंद्रमा की नजर पड़ने से कामासक्त हो गए।चंद्रमा ने रोहणी के साथ समागम किया जिससे बुध का जन्म हुआ था। बुध का लालन पालन शनि और राहु करने लगे। शुक्राचार्य ने भगवान सूर्य की आराधना का युक्ति बताया जिससे सूर्य के प्रिय पात्र बन कर सौर धर्म की स्थापना की।शिव ने शिक्षा दी।बुध दैत्य संस्कृति का पोषक हुए। उन्होंने कीकट प्रदेश का विस्तार किया।वैवस्वत मन्वंतर में वृहस्पति की पत्नी तारा को चंद्रमा ने मोहनी मंत्र से अपनी ओर आकृष्ट किया था।चंद्रमा ने तारा के साथ समागम करने के पश्चात तारा को बुध पुत्र जन्म लिया।बुध का लालन पालन चंद्रमा करने लगे !बुध भगवान शिव की उपासना में तपस्या में लीन हुए उसी समय वैवस्वत मनु ने इला स्त्री रूप धारण कर कीकट प्रदेश में विचरने लगे उसी समय बुध की नजर इला पर पड़ने के बाद उन्होंने इला के साथ समागम करने के बाद पुरुरवा का का जन्म हुआ साथ ही वैवस्वत मनु पुनः पुरुषत्व रूप में हो गए। पुरुषत्व प्राप्त होने के बाद उन्हें सुद्युम्न हुए परन्तु शापित होने के कारण 9 माह स्त्रीत्व रूप में मित्रावरुण यज्ञ से बुध का समागम से गय, उत्कल, विनिताश्व पुत्र का जन्म दे देकर पुनः सुद्युम्न अपने पुत्र गय को कीकट , उत्कल को कलिंग, तथा विनिताश्व को वैशाली का राज दे कर सुद्युम्न वन में तपस्या के लिए चले गए।गय असुर संस्कृति के पोषक हुए जिससे उनका नाम गयासुर के नाम से ख्याति मिला। बुध का जन्म शरद ऋतु का आश्विन मास कृष्ण पक्ष अष्टमी तिथि को होने के कारण बुधाष्टमी ब्रत प्रारम्भ हुआ ।
ब्रह्म पुराण के अनुसार चाक्षुस मन्वंतर में चाक्षुस मनु की पत्नी और वैराज प्रजापति की पुत्री नडवला के गर्भ से 10 पुत्रों में पुरु की पत्नी आग्रेयी के गर्भ से छः पुत्रों का जन्म हुआ था ।पुरु के छः पुत्रों में अंग का विवाह मृत्यु कन्या सुनीथा के गर्भ से वेन पुत्र हुआ था ।अंग ने अंग साम्राज्य की स्थापना की।वेन अंग राज बने।वेन के अत्याचार से ऋषियों को क्रोध हुआ एवं जनता त्राहिमाम हो गयी थी।प्रजाजनों की रक्षा के लिए ऋषियों ने अंग राज वेन के शरीर का मंथन करने के बाद पृथु प्रकट हुए थे।पृथु के प्रकट होने से जनता में खुशी और भूमि पर देवों, ऋषियों, पितरों, दानवों, गंधर्वों, तथा अप्सराओं आदि के साथ विकास होने लगा था।राजा पृथु ने ब्रह्मेष्टि यज्ञ करने पर विद्वान मागध तथा सुत का प्रादुर्भाव हुआ। राजा पृथु ने मागध को कीकट प्रदेश और सूत को अनूप देश का राजा बनाया था । मागध ने कीकट साम्राज्य का नाम बदल कर मगध साम्राज्य की स्थापना की ।मागध ने अपनी राजधानी गया में स्थापित कर विकास किया। ब्रह्मा। जी के प्रपौत्र और अत्रि ऋषि का पौत्र देव गुरु वृहस्पति का पुत्र बुध बाणाकार मंडल से युक्त मगध देश का राजा बने।बुध का प्रिय वस्त्र हरा, झंडे हरा, वाहन सिंह, समिधा अपामार्ग ,,रत्न पन्ना, सोना, चांदी, कासा, मूंगा, सफेद फूल, हाथी के दांत, शस्त्र, फल, कपूर प्रिय है।बुध द्वारा सूर्योपासना ,शिव उपासना, चंद्रमा उपासना तथा तारा उपासना तथा पितरो के उपासना किया जाता था।बुध कन्या और मिथुन राशि का स्वामी बने है।बुध के राज्यों का विस्तार मागध ने मगध साम्राज्य के रूप में किया है।
मगध साम्राज्य के क्षेत्रों में धर्मारण्य, मगधारण्य, गया, भृगुतुंग, कोकामुख,सोम शैल, देवह्र्द, देवकुंड, विष्णुपद, दुर्वासिक , पितामह, सिद्धेश्वर, पंचतीर्थ, सूर्यतीर्थ, मधुवट (अक्षयवट ),ब्रह्मयोनि, मार्कण्डेय, प्रेताधार, पितृवन, रामतीर्थ, पितृ कूप, गया शीर्ष, शमशनस्तम्भ तीर्थ, श्रृंग तीर्थ, देव हृद मंगला गौरी शिखर तीर्थ प्रसिद्ध है। गया में दैत्य, पिशाच, राक्षस किंपुरुष, विद्याधर, सिद्धधर्म ऋषि धर्म, मानव धर्म गुह्य धर्म, गंधर्व धर्म शाश्वत धर्म कुल 12 संस्कृति का अपने अपने क्षेत्र में विकसित थे।सिद्ध धर्म की संस्कृति बाणावर्त में थी वहीं ऋषि धर्म की संस्कृति उरुवेला ( बोधगया ) ,पिशाच धर्म की संस्कृति प्रेतशिला ,गुह्य धर्म की संस्कृति ब्रह्मयोनि पर्वत पर थी।सभी धर्मों का समान प्रतिष्ठा थी।पितर धर्म के अनुयायी ब्रह्मचर्य, अमानित्व, योगाभ्यास, इक्षानुसार भ्रमण करते थे वहीं सिद्ध धर्म के अनुयाई योग साधन ,वेदाध्ययन, ब्रह्मविज्ञान के ज्ञाता और शिव और विष्णु के भक्त है।देव गुण प्राप्त करने वाले विष्णुभक्त, यज्ञादि, स्वाध्याय, वेदज्ञान और आदित्य के उपासक थे।दैत्य ,दानव और राक्षस संस्कृति के अनुयायी बाहुबल, ईर्ष्याभाव, युद्ध, नीति शास्त्र और शिव भक्त थे।
: राक्षस राज विद्युतकेशी का पुत्र सुकेशी ने मगधरण्य के ऋषिगण से धर्मोपदेश, देवादि धर्म, भू कोश, नरक और पुण्य पाप की जानकारी प्राप्त की थी। अथर्वेद में मगध, ऋग्वेद में कीकट प्रदेश की चर्चा है वहीं चिंतामणि में कीकट प्रदेश का महत्वपूर्ण वर्णन है।चिंतामणि के अनुसार कीकट प्रदेश के उतर में गंगा दक्षिण में विन्ध्यपर्वत, पूरब में चम्पा और पश्चिम में सोन नद है। अथर्वेद 5,22,14 ,विष्णुपुराण अध्याय 4,24,61,वाल्मीकि रामायण सर्ग 8,9,32 के अनुसार कीकट को कीकट, व्रात्य, प्राच्य, कीरात और मगध का महत्वपूर्ण व्याख्यान किया है। कीकट की राजधानी गया में विश्व स्फटिक राजा ने वर्ण व्यवस्था प्रारम्भ की वहीं पाचवां रैवत मनवंतर में आभूतर्जा और प्रकृति देव ,और सप्तर्षियों में सोमनन्दन उर्ध्ववाहू तथा सत्यनेत्र थे और राजा आरण्य हुए।वामन पुराण के अध्याय 17  में वृक्षों की उत्पति का उल्लेख कर राक्षस राज सुकेशी को पर्यावरण और प्रकृति का संरक्षण के प्रति शिक्षा दी गयी थी। आश्विन मास में भगवान विष्णु की नाभि से कमल ,कामदेव ने कदम्ब, यक्षों के राजा मणिभद्र ने वटवृक्ष, भगवान शिव ने धतूर वृक्ष ,ब्रह्मा जी ने खैर वृक्ष, विश्वकर्मा ने कटैया, वृक्ष, भगवान सूर्य ने पीपल, लक्ष्मी ने विल्ववृक्ष, यमराज ने पलाश और गूलर वृक्ष, गणपति ने सिंदुवार माता पार्वती ने कुंद लता, रुद्र ने औषधि, कात्यायनी ने शमी, वासुकीनाथ ने श्वेत और कृष्ण दूर्वा ,शेषनाग ने सरपत,, और सिद्धों ने हरिचंदन वृक्ष की उत्पत्ति की है। प्राचीन काल में मगध में 365 वेदियां थी परंतु 45 वेदियां पर अपने पूर्वजों की याद में पिंडदान और जलांजलि देकर पितरी ऋण से उद्धार होते है।मनुस्मृति 8,14 तथा जातिभास्कर में अंग ( भागलपुर ), मगध  ( गया ), भार्गव ( औरंगाबाद ) ,विदेह ( मिथिला ), मुद्गरव (  मुंगेर ), वांगेय ( बंगाल ) केश वरवर ( बाणावर्त ) वहिग्रिर ( राजगीर ) ,अन्तरगिरि (नवादा )  आदि जनपद थे।कीकट प्रदेश में मगध, केश वरवर,वाहिगिर, अन्तरगिरि, पाटल, भार्गव, मुद्गरव का क्षेत्र शामिल था।
 फल्गु नदी के किनारे गया में स्थित  विष्णु पर्वत पर गयासुर के उद्धार करने के लिए गयासुर के वक्षस्थल पर भगवान विष्णु के दोनों चरण मूल नक्षत्र के रूप में विराजमान हैं और फल्गु नदी के उगम स्थल गुह्यप्रदेश ( बोधगया ) में फाल्गुनी नक्षत्र के रूप में नीलांजन( लिलांजन ) नदी उतरा फाल्गुनी और मोहनी ( मोहाना ,मोहानी ) नदी पूर्वा फाल्गुनी के रूप में एक जुट होकर फाल्गुनी (फल्गु )नदी के रूप में प्रवाहित है। त्रेतायुग में मद्र देश का शाकल के सुशर्मा ने अपने व्यापार को बढ़ाने के लिए सौराष्ट्र जाने के क्रम में मरुभूमि पर रात्रि में दस्युओं द्वारा असहनीय आक्रमण किया गया था । पीड़ित सुशर्मा असहाय मरुभूमि पर पागल की तरह वन में में भटकने के बाद समी वृक्ष के समीप सोगया।सोने के बाद जागने के पश्चात सैकड़ों प्रेतों से घीरे अपने प्रेतनायक को लेकर प्रेत गण विचरण कर रहा है।वन में विचरते हुए प्रेतनायक ने समी वृक्ष की छाया में ठहरे वणिक पुत्र सुशर्मा के समीप जा कर उसे उदासी का कारण पूछने के बाद सारी जानकारी प्राप्त कर प्रेतनायक ने सारी समस्या का समाधान किया था।


वणिक पुत्र सुशर्मा ने गया के प्रेतशीला के समीप समी वृक्ष की छया में उपस्थित प्रेतराज सोमश्रमा के संबंध में वृतांत जानने के लिए उत्सुक हुआ था ।प्रेतराज सोमश्रमा ने कहा कि पूर्व में उत्तम शाकल नगर के बहुला के गर्भ से उत्पन्न सोम शर्मा ब्राह्मण था ।सोम शर्मा के समीप वणिक सोमश्रवा विष्णु भक्त था।मैं नास्तिक और कृपण भी था परंतु सोमश्रवा के साथ इरावती और नडवला के संगम पर स्नान कर छाता और जूते और संगम का जल से भरा जलपात्र तथा दही, ओदन से परिपूर्ण वर्तन सहित ब्राह्मण को प्रदान किया था।70वर्ष की आयु में दान देने के पश्च्यात मृत्यु प्रेत योनि में हो गया हूँ।मैंने छाता दान किया था वह समी वृक्ष जूते दान के कारण वाहन बना है।वणिक पुत्र सुधर्मा ने प्रेतराज सोमश्रवा एवं अपने पितरों का प्रेतयोनि से मुक्ति हेतु गया शीर्ष स्थल पर पिंड दान ,महाबोध्य तील सहित पिंड दान कर प्रेतयोनि से मुक्ति दिलाई थी।प्रेतराज सोमश्रवा को प्रेतयोनि से मुक्ति प्राप्त कर ब्रह्मलोक चले गए और वणिक पुत्र सोमशर्मा गंधर्व लोक में चिरकाल तक भोगों का उपभोग करने के बाद मानव जन्म प्राप्त कर शाकल पूरी का सम्राट बना। सोमश्रवा ने मृत्यु लोक ब्राह्मण के रूप में कामदेव के समान पुरुरवा का जन्म कीकट प्रदेश का राजा बना।

मंगलवार, जुलाई 21, 2020

सिद्धों का सिद्ध स्थल बाबा सिद्धेश्वर नाथ..


    विश्व की सभ्यता और संस्कृति का प्रतीक और मानव जीवन की रक्षा तथा विकास का सशक्त रूप भगवान् शिव की आराधना है। भारतीय संस्कृति में  प्रकृति और मनुष्य का रूप शिव लिंग का रूप दिया गया है। भगवान् शिव के उपासक देव, दैत्य, दानव, राक्षस, गंधर्व सभी के लिए उपसनीय है। वेदों में रुद्र और पुरणों में शिव की आराधना का रूप प्रदर्शित किया है । शैवधर्म द्वारा भगवान् शिव को आराध्य और सृष्टि के रक्षक मानते है । शैवधर्म ने कई संप्रदाय का संचालन प्रारंभ किया है। भगवान् शिव की आराधना और पूजन करने वालों को शैव, तथा शैवधर्म कहा जाता है। शिवलिंग उपासना का प्रारंभिक काल मानव सृष्टि से प्रारंभ है। ऋग्वेद में रुद्र, अथर्ववेद में भव, शर्व , पशुपति भूपति और मत्स्यपुराण, महाभारत के अनुशासन पर्व, शिवपुराण, लिंगपुरान , वामन पुराण तथा रामायण में लिंग पूजन की प्रधानता है। शैवधर्म में पाशुपत संप्रदाय के संस्थापक लकुलिश थे । उन्होंने भगवान् शिव को 18 अवतारों में माना गया है पाशुपत संप्रदाय के अनुयाई को पञ्चार्थिक तथा आचार्य श्रीकर ने पाशुपत सूत्र ग्रंथ की रचना की थी। पाशुपत संप्रदाय ने नेपाल के काठमांडू का बागमती नदी के तट पर पशुपति नाथ की स्थापना कर पाशुपत संप्रदाय का संचालन प्रारंभ किया है। कापालिक संप्रदाय के इष्ट भैरव है जिसकी स्थापना श्री शैल स्थान पर हुई थी। शिव पुराण में महाब्रतधर का रूप कलामुख संप्रदाय की स्थापना की गई। कला मुख संप्रदाय के अनुयाई नर कपाल में भोजन, पानी सुरापान करते है तथा ललाट और शरीर पर चिता भष्म लगते है जिन्हे औघड़ कहा जाता है। लिंगायत संप्रदाय को जंगम कहा गया है। लिंगायत संप्रदाय की स्थापना अल्लभ प्रभु और उनके शिष्य वासव ने की जिसे दक्षिण भारत में प्रचलित किया था। यह संप्रदाय के अनुयाई शिवलिंग की उपासना करते है । वासव पुराण में लिंगायत संप्रदाय को वीरशिव संप्रदाय कहा गया है। दक्षिण भारत में राजा चालुक्य, राष्ट्रकूट, पल्लव, चोलों, कुषाण शासकों द्वारा शैवधर्म का प्रचार किया गया । पल्लव काल में 63 नायनार संतोंं द्वारा अप्पार, तिरुझन, संबदर, सुंदर मूर्ति की स्थापना की गई थी। एलोरा के प्रसिद्ध कैलाश मंदिर का निर्माण राष्ट्रकूटवंश, चोल शासक रजाराज प्रथम ने तंजीर में रजाराजशेखर शैवमंदिर जिसे वृहदिश्वर मंदिर कहा गया का निर्माण कराया वहीं कुषाण शासकों ने अपनी सिक्का पर शिव और नंदी का एक साथ अंकन कराया था। 
शैवधर्म में सिद्ध संप्रदाय ने शिव लिंग पूजन की प्रथा बिहार के जहानाबाद जिले का मखदुमपुर प्रखंड के भैख़ पंचायत में स्थित बराबर पर्वत समूह के सुर्यांक गिरि की चोटी पर सिद्धेश्वर नाथ की स्थापना कर शैवधर्म का प्रचार एवं प्रसार किया। प्राचीन काल में बराबर पर्वत समूह दानव राज सुकेशी का ईश्वर गीता का संदेश भगवान् शिव द्वारा दी गई थी। बाद में इक्ष्वाकु वंश के बाणासुर की राजधानी थी। दैत्य राज बली पुत्र बाणासुर ने बराबर पर्वत समूह का विकास किया था। बराबर पर्वत समूह में गुफा निर्माण, मूर्ति कला, भितिचित्र , वास्तु शास्त्र का विकास स्थली रहा है।10 वीं शताब्दी में शैवधर्म के मत्स्येंद्र नाथ ने नाथ संप्रदाय की स्थापना कर शिवलिंग पूजन का रूप दिया और उनके शिष्य बाबा गोरख नाथ  ने नाथ संप्रदाय का व्यापक प्रचार किया है।: बराबर पर्वत समूह के विभिन्न श्रृंखलाओं पर विभिन्न क्षेत्रों में सप्तऋषि गुफा है। गुफाओं में लोमष ऋषि गुफा, सुदामा गुफा, कर्ण गुफा, गोपी गुफा, वाह्वक गुफा विश्वामित्र गुफा और योगेन्द्र गुफा वैदिक ऋषि और जैन तथा बुद्ध धर्म के मुनि, भिख्खु नाम से ख्याति मिला है। वैदिक धर्म द्वारा यज्ञ स्थल, भितिचित्र में दुर्गा, गणेश, शिवलिंग, सरस्वती, लक्ष्मी, कार्तिकेय का शिलाचित्र अर्थात भितिचित्र निर्मित है वहीं गुहा लेखन में ब्राह्मी लिपि और प्राकृत मागधी भाषा में अंकित है। सुर्यांक गिरि की चोटी पर प्राकृतिक गुफा में सिद्धेश्वर नाथ शिवलिंग है और सिद्धेश्वरी, बागेश्वरी माता की भव्य मूर्ति तथा दत्तात्रेय, अनेक देवियों की मूर्तियां है। बराबर पर्वत समूह की नागार्जुन श्रृंखला छत्तीसगढ़ का महासमुद जिले के श्रीपुर की बौद्ध भिख्खुणी गौतमी पुत्र महायान के दार्शनिक नागार्जुन का कर्मभूमि और रसायन एवं धातु शास्त्री के नाम पर नागार्जुन पहाड़ी है। नागार्जुन का प्राचीन नाम सिद्ध धर्म के अनुयाई नित्यानंद सिद्ध का परिवर्तित नाम है। नित्यानंद सिद्ध का जन्म 50 ई., पू. हुआ था। 9 31ई. में गुजरात के सोमनाथ का दैहक स्थान में जन्म लिए नागार्जुन द्वारा जीव सूत्र,योग शतक,योग रत्नमाला और दक्षिण भारत के विदर्भ का शुन्यवाद के संचालक नागार्जुन 150 ई., पू. से 250 ई., पू. बर्बर अर्थात बराबर के मैदानी क्षेत्रों में रह कर कर्म भूमि बनाया था। नागार्जुन पहाड़ी के समीप खगोल विद्या का केंद्र है। यहां पर पत्थर नुमा चांद और लम्बा स्तंभ है जिससे खगोल विद्या का अध्ययन किया जाता था। प्राचीन काल में बराबर को मगध का हिमालय के नाम से संबोधित था। इस पहाड़ को सिलटिका , सिलाटिका कहा जाता है तथा मिश्र शैली में गुफाएं है। विश्व में 9 नाथों में सिद्धेश्वर नाथ शिवलिंग प्रथम है। महाभारत वन पर्व में सिद्धेश्वर नाथ को बानेश्चर शिव लिंग कहा गया है।
 सांख्य दर्शन के ज्ञाता लोमष ऋषि को समर्पित लोमष गुफा प्रसिद्ध है। गया से 30 कि. मी. उतर और जहानाबाद से 30 कि. मी. पर अवस्थित बराबर के लोमष गुफा झोपड़ी शैली, मगध शैली, चैत्य आर्क चन्द्र मला शैली से युक्त तथा हाथी, स्तूप तथा फूलों की लरियों से संयुक्त से जुड़ाव का रूप लक्ष्मी, शांति और ऐश्वर्य का संदेश देता गुफा का मुख्य द्वार है। जिसे ग्रीट्टो कहा गया है। स्कन्द पुराण और महाभारत के वन पर्व के अनुसार लोमष ऋषि  हिमाचल प्रदेश के रिवालसर के राजा ईश ( हृद्यालेश ) के क्षेत्र में तप करने के बाद गया स्थित ब्रह्म योनि पर्वत पर 100 वर्षों तक भगवान् शिव की उपासना की तथा सिद्धनाथ  एवं सिद्धेश्वरी और बागेश्वरी माता की आराधना के पश्चात शिव ने एक कल्प रहने का वरदान दिया था। वरदान में उल्लेख किया गया कि जब तक आप के शरीर पर रोएं रहेंगे तब तक आप भू पर ज्ञान का प्रकाश है। उन्होंने बाबा सिद्धनाथ को कमल पुष्प से उपासना करते थे। उन्होंने राजा दादूर्भ को देवी भागवत की पाच बार कथा सुना कर  रैवत पुत्र तथा नर्मदा नदी में स्नान करने के बाद गंधर्वों की कन्याओं का उद्धार किया वहीं बराबर में काकभुसुंडि को राम कथा और काक भूसुंडी ने गरुड़ को राम कथा सुनाई थी। बराबर की एक श्रृंखला कौवाडोल के नाम से ख्याति प्राप्त है। लोमष ऋषि ने त्रेतायुग में अयोध्या के राजा दशरथ और द्वापर युग में युधिष्ठिर को आख्यान दे कर मानव कल्याण का मंत्र दिया था। लोमष ऋषि ने लोमश संहिता,लोमस शिक्षा, लोमस रामायण की रचना की।
: बराबर पर्वत समूह पर मोनोलिथिक ग्रेनाइट रॉक है। मगध साम्राज्य के विभिन्न सम्राटों ने मेगालिथ प्रतीक चिन्ह के रूप में रखा है। इतिहासकार प्रिया बैकेसियो ने पश्चिमी डेक्कन की सुदामा गुफा एवं अन्य गुफाओं को बौद्ध गुफाएं के लिए प्रोटोटाइप कहा है। बौद्ध दर्शन के विद्वान गोशाल ने आजीवक और परिव्रजक संप्रदाय का शरणस्थली तथा विभिन्न ग्रंथो में सिद्ध संप्रदाय का आध्यात्मिक स्थल है। काशी स्थित बाबा विश्वनाथ ज्योतिर्लिंग का उप ज्योतिर्लिंग बाबा सिद्धेश्वर नाथ शिवलिंग और 9 नाथों में समाहित है। आदि शंकराचार्य द्वारा स्थापित दशानमियों का गिरि द्वारा मंदिर का पुजारी के रूप में स्थापित किया गया है। यहां के प्रधान को गिरि कहा गया है। बराबर के मुरली, संदागीरी, और सिद्धेश्वर गिरि पर प्रकृति की सुंदरता वीखरी हुई है। सिद्धेश्वर नाथ मंदिर का निर्माण छठी शताब्दी में किया गया है वहीं गुफाएं तीसरी शताब्दी ई. पू. निर्मित है। मुरली पहाड़ी पर 500 फीट लंबा और 120 फीट और 35 फीट ऊंचाई युक्त ग्रेनाइट पत्थर में कर्ण गुफा, सुदामा गुफा और लोमष ऋषि गुफा निर्मित है। यह स्थल मौर्य काल में खालतिका पर्वत, खालातिका हिल के रूप में पतंजलि महाभाश में चर्चा की गई है। यह स्थल कलिंग, राजगृह और पाटलिपुत्र का समन्वय स्थल के रूप में ख्याति प्राप्त थी। मगध सम्राट अशोक ने 231 ई. पू. और उसके पौत्र दशरथ,5 वीं शताब्दी में कलिंग का राजा शार्दूल विक्रम और अनंत वर्मन के द्वारा विकास किया गया वहीं नागार्जुन पर्वत की गोपी गुफा के समीप मुगल काल में इदगाह का निर्माण किया गया था। खगोल विज्ञान के ज्ञाता नागार्जुन द्वारा लंबा युक्त ग्रेनाइट पत्थर में  सूर्य और गोलाकार ग्रेनाइट पत्थर युक्त चांद खगोलीय अध्ययन शाला का निर्माण किया गया था।185 ई., पू. मगध साम्राज्य का राजा पुष्पमित्र शुंग ने बराबर के मुरली पहाड़ी पर कर्ण गुफा के समीप पतंजलि द्वारा यज्ञ कराया था जिसका अवशेष चट्टानों पर अंकित है। गुप्त साम्राज्य 240 से 467 ई. तक और चन्द्रगुप्त प्रथम द्वारा संवत् का प्रारंभ। 319-320 ई. में की।380 ई. में चन्द्रगुप्त द्वितीय शासन काल में चीनी बौद्ध यात्री फह्यान तथा शशांक शैवधर्म का प्रचार और संरक्षक था। हर्षवर्धन द्वारा शैवधर्म के लिए 641 ई. में संरक्षण के लिए मठ का निर्माण कराया था। बराबर पर्वत समूह में शामिल प्राचीन धरोहरों की चर्चा हवेनसंग, विलियम बुकानन, ग्रियर्सन ने की है वहीं बुकानन ने मैदानी भाग को राम गया की उल्लेख किया है। फल्गु नदी के किनारे बराबर पर्वत है।1895 ई. में आर्कलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया वॉल्यूम 1 पेज 40, अंसिएंट मॉन्यूमेंट्स इन बंगाल 1855 में, डिस्ट्रिक्ट गजेटियर गया 1906और 1957 में बराबर की महत्वपूर्ण चर्चा की है। बराबर पर्वत समूह भारतीय और बिहारी संस्कृति के इतिहास के भूले बिसरे पन्नों की अत्यंत दुर्लभ झलक है और मगध की सांस्कृतिक विरासत का धरोहर है। यहां सावन माह अनंत चतुर्दशी को भगवान् सिद्धनाथ पर जलाभिषेक करते है और पातालगंगा का जल में स्नान कर भक्त श्रद्धालु सिद्धेश्वर नाथ पर जलाभिषेक कर अपनी मनोवांक्षित फल के लिए उपासना करते है। बिहार सरकार ने 2013 ई. से पर्यटन विभाग द्वारा एकदिवसीय वाणावर महोत्सव प्रारंभ की है। बराबर पर्वत और उसके मैदानी भागों का विभिन्न क्षेत्रों का विकास मगध साम्राज्य के अशोक, गुप्त वंश पाल काल, सेन काल , मुगल काल, ब्रिटिश काल में हुआ था। यह स्थल शैवधर्म, सिद्ध संप्रदाय, आजिवक संप्रदाय, अरण्य संप्रदाय, जैन धर्म, बौद्ध धर्म का महान् सिद्ध भूमि थी। भगवान् राम और कृष्ण का प्रिय स्थल, दैत्य राज बाणासुर का कर्म भूमि और उषा और अनुरुद्ध का प्रेम स्थल तथा मया योगनी चित्रारेखा की ज्ञान भूमि से पवित्र है। बुद्घ की पवित्र स्थल कौवाड़ोल ब्राह्मण धर्म और बुद्ध की कार्य भूमि और सिद्ध भूमि है। बराबर पर्वत समूह का पातालगंगा से विश्वामित्र गुफा व विश्वझोपडी जाने के क्रम में विशालकाय गोलाकार पाषाण मेगालिथ है ।

रविवार, जुलाई 19, 2020

फल्गु नदी मुक्ति और भुक्ति का द्योत्तक

ज्ञान और मोक्ष की नदी फल्गु
सत्येन्द्र कुमार पाठक
भारतीय संस्कृति और सभ्यता प्राचीनकाल से नदियों के किनारा प्रसिद्ध रही है ।भारतीय नदियों में गंगा , यमुना ,सरस्वती, गोदावरी एवं कावेरी नर्मदा आदि धार्मिक और सामाजिक एवं वैज्ञानिक स्तर पर प्रधानता रही है उसी तरह बिहार की नदियों में पुनपुन तथा फल्गु नदी ज्ञान और मोक्ष का रूप है। हिमालय जल अपवाह के गंगा नदी तंत्र विंध्य पर्वत तंत्र 3600 मिलियन वर्ष पूर्व विंध्य पर्वतमाला के अंतर्गत छोटानागपुर का पठार 1100 ऊँचाई पर आर्कियन युग और गोंडवाना युग की है। छोटानागपुर पठार में करिटेशियं युग की अनेक जलप्रपात है।पूर्ववर्ती नदियों ने पठार से अपना प्रवाह प्रारम्भ किया है।नदियों के विसर्जन द्वारा निर्मित  झील का निर्माण होता है और ज्वाला मुखी के जलीय विस्फोट के कारण जलप्रपात होता है।19करोड़ वर्ष पूर्व छोटानागपुर पठार का झारखंड राज्य के चतरा जिले का हन्तरगंज प्रखंड में स्थित सिमरिया के समीप कोरम्बे पर्वत के जलप्रपात से बने हुए झील ( कुंड ) से मोहना नदी   और बोंडी के समीप दामोदर पर्वत के दक्षिण से उतर दिशा में जलप्रपात से बने झील (कुंड ) से लिलांजन नदी दक्षिण से उतर दिशा की ओर समानांतर होते हुए उरुवेला स्थल ( बोधगया ) में समाहित होकर 235 कि. मि. फल्गु नदी प्रवाहित होकर  मोकामा टाल में विलीन हो जाती है। फल्गु नदी को लिलांजन, मोहना, विष्णु गंगा, फलगुश्व महानदी, गुप्त गंगा, पितृनदी और भूतही नदी कहा गया है।19 करोड़ वर्ष पूर्व जलवायु परिवर्तन के कारण उच्च भूमि अर्थात पठार का वर्फ़ पिघल कर जलप्रवाह के रूप में फल्गु प्रवाहित होते हुए गया को पृष्ट भूमि का निर्माण हुआ था ।ब्रह्मा जी ने गया के फल्गु नदी के तट पर ऋत्विक यज्ञ में यज्ञ कराने वाले ब्राह्मणों को फल्गु नदी और गया स्थल को दान में अर्पित की ।फल्गु नदी दक्षिण से उत्तर दिशा में प्रवाहित होने के कारण दक्षिणायन फल्गु नदी कहा गया है।यह नदी पितरों का प्रिय नदी बन गया है। छोटानागपुर पठार झारखंड से निकलने वाली नदियां  दक्षणि दिशाओ से चल कर बिहार के उत्तरी दिशाओं की भूमि को सिंचित करती है। झारखंड राज्य के उत्तरी छोटानागपुर पठार का जलीय पठार से निकलने वाली नदियों में पुनपुन नदी जिसे कीकट नदी कहा गया है और फल्गु नदी जिसे पितृ नदी कहा गया है ,मोहना नदी, लिलांजन नदी, मोरहर नदी, बटाने नदी ,  ,कोयल नदी, मदार नदी,आदि नदियां दक्षिण बिहार की गया, औरंगाबाद, नवादा, जहानाबाद, अरवल, पटना, नालंदा, भागलपुर, मुंगेर ,भोजपुर, रोहतास, बक्सर, कैमूर, शिवहर आदि जिले के क्षेत्रों में सिंचित करती है।बिहार के दक्षिण क्षेत्र में प्रवाहित होने वाली नदियों में पुनपुन, फल्गु, गंगा ,सोन पवित्र नदी मानी गयी है। फल्गु नदी के उद्गम स्थल पर फल्गुनी दिव्य महिला का निवास था वही पुनपुन नदी के उद्गम स्थल पर सनत, सनंदन, सनत कुमार, गौतम ऋषि का निवास था और राजा बुध थे ।कीकट प्रदेश का राजा बुध के पुत्र  गय ने गया नगर की स्थापना कर कीकट प्रदेश की राजधानी बनाई और असुर संस्कृति का विकास किया।कीकट साम्राज्य का राजा गयासुर ( गय और असुर मिला कर गयासुर ) हुआ।

बुधवार, जुलाई 15, 2020

माया संस्कृति का द्योत्तक कोहबर...


        मानवीय माया संस्कृति में कोहबर की प्रधानता रही है।पुरातन काल में वर और वधु का प्रेम एवं सौहार्द का मिलन कोहबर से प्रारंभ होता है।यह कोहबर परंपरा मगध , मिथिला ,अवध ,अंग , कौशल ,करूष साम्राज्य में फैला था।पाषाण युग 30000 वर्ष पूर्व कोहबर संस्कृति प्राचीन शैल चित्र, पहाड़ियों की गुफाओं में चित्र और अन्य प्राचीन संकेतक चित्र संकेतक मिलते है।एकहरिया ,डमकच ,झूमर, फगुआ, विरसरेन ,झिका, फिलसांझा,अधरतिया, डोड, असडी ,झूमती, धुरिया की परंपरा कोहबर की संस्कृति से उत्पन्न हुई है।सोहराई चित्र, अंगुलिचित्र, कोहबर कला, दीवार चित्रित, सोहराई चित्र, रंगोली, अल्पना, ऐपन, रंगाबाली, कोल्लम और माउना का रूप कोहबर है।कोहबर की परंपरा बिहार, झारखंड, उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश, राजस्थान ,नेपाल , ज्वातेमाला, मैक्सिको, होंडुरास, यूकाटन और सैल्वाडोर में विभिन्न नामों से कोहबर संस्कृति प्रचलित है।अमेरिका की प्राचीन माया सभ्यता मैक्सिको में 1500 ई. पू.से प्रारंभ हुई और 900 ई. तक उन्नत थी। माया सभ्यता में गणेश और सूर्य की मूर्ति का चित्र एक कमरे की पूर्वी दीवार पर अंकित कर वर वधु के लिए किया जाता था परंतु 1600 ई. से माया सभ्यता लुप्त हो गयी है।ग्रंथो में प्राचीन पश्चमी गोलार्द्ध को पाताल लोक कहा जाता था।बाद में माया सभ्यता को पश्चमी सभ्यता का रूप हो गया है। भारतीय संस्कृति में कोहबर को कौतुक गृह, कोष्टवर, वरवधू की प्रेम और सौहार्द कक्ष, मिथिला में कन केस्त शैली की परंपरा कही गयी है। त्रेता युग में भगवान राम का विवाह माता सीता के साथ संपन्न होने के पश्चात मिथिला साम्राज्य की राजधानी जनकपुर में महल के पूर्वी कमरे की दीवार पर चित्र कला से सुशोभित कोहबर कमरे में गये थे जहाँ पर मिथिला की नारियां कोहबर गीत प्रस्तुत कर राम और सीता का स्वागत की थी।मगध साम्राज्य के नवादा के महावर पर्वत की गुफा में 5000 वर्ष पूर्व तथा हजारीबाग। जिले के बड़कागांव की पर्वत की गुफा में राजा रानी की प्रथम मिलन कोहबर गुफा में हुई थी।नवादा जिले के कौआकोल प्रखंड के चल्ह्वा पर्वत पर कोहबरवाँ गुफा में भीति चित्र है।यह भिति चित्र कोहबर संस्कृति की पहचान है।प्राचीन काल में यह क्षेत अनार्य राजा  चिल्हर का निवास था और चल्ह्वा वन के नाम से जाना जाता था।मध्य प्रदेश के बुन्देल खंड में कोहबर संस्कृति कायम है।विवाह के रस्म के समय पूरब कमरे की दीवार पर महिलाएं गोबर का लेप ,हल्दी और चावल का लेप और चित्र बना कर नवविवाहिता वर वधु को विवाह रस्म के बाद कोहबर में ले जाया जाता है ।यह कक्ष मगध साम्राज्य की प्राचीन संस्कृति में शादी के अवसर पर घर को लाल, पिले, उजले, काले रंग से चित्रकारी कर मोर, गणेश, सूर्य, वरवधू काचित्रांकन कर सजाते है और वर वधू को कोहबर कक्ष में प्रवेश करा कर कोहबर गीत गा कर स्वागत करती है।बौद्ध ग्रंथ विनय पटिक में 300 ई. पू. में कोहबर संस्कृति की महत्वपूर्ण उल्लेख है।

 


मंगलवार, जुलाई 14, 2020

संक्रमण मुक्त करता है विल्व वृक्ष

: बेलपत्र अनेक गुणों से परिपूर्ण
सत्येन्द्र कुमार पाठक
भारतीय संस्कृति और आर्युवेद शास्त्र में बेल पत्र अनेक गुणों से परिपूर्ण होने की चर्चा की वहीं भगवान् शिव का प्रिय कहा है। शास्त्रों, पुराणों में स्कांदपुरण, शिव पुराण, लिंग पुराण में रोगान विलत्ती मनत्ती विल्व कहा है। ग्रंथों में माता पार्वती ने अपनी उंगलियों से अपनी ललाट पर आया पसीने को पोछ कर उसे फेक दी थी जिसमे कुछ पसीने की बूंदें मंदराचल पर्वत पर गिरने से बेलपत्र की उत्पति हुई । बेल की जड़ में भगवान् शिव एवं माता गिरजा, तना में माहेश्वरी शाखाओं में दक्षिनायनी , पत्तों में पार्वती, फूलों में गौरी और फलों में माता कात्यायनी का वास है। वेल को श्रीवृक्ष,शिव द्रूम , विलवाष्टक, वेलपत्तर, शांडलू, शांडिली, सदाफल, वल्व कर्कटी, बैल गिरि, ओडियोस्पैमो, एक बीजपत्री नाम से ख्याति है। बेल वृक्ष हिमालय की तराई , सुखी पहाड़ी क्षेत्रों में 4000 फीट की ऊंचाई पर पाए जाते है। भारत, नेपाल, वियतनाम, श्रीलंका, तिब्बत, भूटान, थाईलैंड आदि देशों म 30 फीट ऊंचाई व्यास 7 सेंटीमीटर युक्त कटिला झाड़ीनुमा बेल वृक्ष पाए जाते है। बेल वृक्ष के सबंध में आयुर्वेद, बंगसेन, भवाप्रकाश, चरक संहिता सुश्रुत संहिता में महत्वपूर्ण की है। बेल की तीन और चार तथा पांच पत्तियां होती हैं जिसमें तीन पत्तियां सरल उपलब्ध परन्तु चार और पांच पत्तियां दुर्लभ है। प्रत्येक मास का चतुर्थी, अष्ठमी, नवमी, चतुर्दशी और अमावस्या तिथि और सोमवार बेलपत्र को  तोड़ना शास्त्र सम्मत नहीं है। महाभारत वन पर्व के 18 वें अध्याय में विल्व पत्र की महत्ता पर प्रमुखता से व्याख्यान है।
: विल्व वृक्ष जहां रहते है वहां सांप नहीं आते और उसकी छाया से शव ले कर गुजरता है उसे मोक्ष की प्राप्ति होती है। बेल वृक्ष  वायुमंडल में व्याप्त प्रदूषण और अशुद्ध वतातावरण तथा संक्रमण को रोकने का क्षमता, सुख, समृद्धि और चतुर्दिक विकास करता है बेल वृक्ष लगाने से वंश की वृद्धि, दर्शन से पापों का नाश, सींचने से पितरों की तृप्ति, तथा रोपने से लक्ष्मी और ऐश्वर्य प्राप्ति होती है। प्राचीन काल में विल्व पत्र और तांबे धातु से सवर्ण धातु का उत्पादन ऋषियों द्वारा किया जाता था। भगवान् शिव का प्रिय विल्व पत्र है। आयुर्वेद शास्त्र के अनुसार बेल वृक्ष की पत्तियों, फल, फूल से कब्ज, पेट दर्द, बवासीर, लू, पीरियड , गैस, जुकाम, बुखार आंतों में, किडनी की समस्याओं से निजात दिलाता है।शास्त्रों में कहा गया है कि जहां बेलवृक्ष है वहां सर्वार्थ सिद्धि और चतुर्दिक विकास होते है। वेल वृक्ष का रोपण, पोषण तथा संवर्धन करने से भगवान् शिव प्रसन्न रहते है और मनोवांक्षित फल की प्राप्ति होती है। भगवान् शिव पर चावल अर्पण से धन की प्राप्ति , तिल अर्पण से पापों का नाश, जौ अर्पण से सुख की वृद्धि, गेहूं अर्पण से संतान वृद्धि, जल धारा अर्पण से सुख संतान मिलता है और ज्वर समाप्त होता है। भगवान् शिव पर घी अर्पण से नपुंसकता दूर होते है ,सोमवार को ब्रत करने से सर्वार्थ , शक्कर और दूध अर्पण से बुद्धि, विद्या, सुगंधित पुष्प चढ़ाने से समृद्धि, गन्ना चढ़ाने से आनंदो की प्राप्ति, मधु चढ़ाने से राज यक्ष्मा से मुक्ति, लाल और सफेद फूल चढ़ाने से भोग एवं मोक्ष मिलता मिलता है और चमेली का फूल से वाहन, दूर्वा से आयु, धाथुर के फूल से सुयोग्य पुत्र, बेला का फूल से सुयोग्य पत्नी और पति, जूही का फूल से अन्न की प्राप्ति, कनेर के फूल से वस्त्र, हरसिंगार के फूल से सुख संपति, शमी के फूल से मोक्ष प्राप्ति होती है।

रविवार, जुलाई 12, 2020

ब्रह्माण्ड का नेत्र भगवान् सूर्य

ब्रह्माण्ड का नेत्र भगवान् सूर्य
सत्येन्द्र कुमार पाठक
ब्रह्मांडीय और प्रकृति का संतुलन बनाने के लिए ग्रहों के स्वामी सूर्य नेत्र है। प्राचीन मानव सभ्यता में सूर्य  और प्रकृति उपासना आवश्यक था। भारतीय वैद, पुराणों, उपनिषद् और संस्कृति में सभी ग्रहों, नक्षत्रों का विभिन्न कालों से आराधना होने की चर्चा महत्वपूर्ण रूप से की गई है। प्रथम मन्वन्तर में विश्व को सात द्वीपों में विभक्त किया गया था। शाकद्वीप के स्वामी महात्मा भव्य के पुत्रों में जलद, कुमार, सुकुमार,मनिरिक, कुसुमोद, गोदाकी और महाद्रूम ने विभिन्न अपने नाम से वर्ष ( देश ) की नीव रखी थी। यहां 07 पर्वतों में उदयागिरी, जलधार, रैवतक, श्याम, अंभोगीरी आस्टिकेय और केशरी एवं नदियों में सुकुमारी , कुमारी, नलिनी, रेणुका, इक्षु, धेनुका और गाभस्ती से जल प्रवाहित होती है। शाकद्वीप  में मग ( ब्राह्मण ) , मागध ( क्षत्रिय ) , मानस ( वैश्य ) तथा मंदग ( शूद्र ) वर्ण रहते है साथ ही सौर धर्म के अनुयाई रह कर अपने इष्टदेव भगवान् सूर्य के उपासक और प्रकृति पूजक है।
 सौर धर्म और ऋगवेद में कश्यप ऋषि की पत्नी अदिति के पुत्र आदित्य ( सूर्य ) है। आदित्य छ: में मित्र, अर्यमा, भग, वरुण, दक्ष अंश है महाभारत आदि पर्व 121 अध्याय में धता, अर्यमा, मित्र, वरुण, अंश, भग, इन्द्र, विवस्वान, पूषा त्वष्टा, सविता और विष्णु कुल 12 आदित्य है। तैतरीय आरण्यक के अनुसार सृष्टि के पूर्व सभी जगह जल था। इस जल साम्राज्य में कमल पत्र पर प्रजापति ब्रह्मा द्वारा सृष्टि की उत्पत्ति हुई है। मार्कण्डेय पुराण में प्रजापति ब्रह्मा जी ने प्रजा की उत्पति की जिसमे दक्ष और उनकी पत्नी के गर्भ से अदिति का जन्म हुई। दक्ष प्रजापति ने अपनी पुत्री अदिति का विवाह ऋषि कश्यप से की। कश्यप की भार्या अदिति से सूर्य आदित्य का जन्म हुआ है।भूलोक और द्युलोक के मध्य में अंतरिक्ष लोक में ग्रह और नक्षत्रों के स्वामी सूर्य उत्तरायण, दक्षिणायन तथा विषुवत मार्गों से मंद, शीघ्र और समान गतियों से चलते हुए दिन रात करते है। भगवान् सूर्य मेष और तुला राशि पर आते है रात दिन समान होते हैं और जब वृष आदि पांच राशियों पर चलते है तब प्रतिमास रात्रि एक एक घड़ी कम और दिन बढ़ते हैं और वृश्चिक राशि आदि पांच राशियों पर सूर्य चलते है तब प्रातिमास रात्रि दिन एक एक घड़ी घटते है और रात्रि बढ़ते हैं। अर्थात दक्षिणायन में रात बड़ी और दिन छोटी तथा उतरायण में दिन बड़ा और रात छोटी होती है। सौर धर्म के अनुसार सूर्य की परिक्रमा मार्ग मानसोत्तर पर्वत पर09 करोड़ 51 लाख योजन है मानसोत्तर पर्वत पर मेरु पर्वत के पूर्व की और इन्द्र की देवधानी पूरी , दक्षिण में यमराज की संयमी पूरी, पश्चिम में वरुण की निमनलोचनी पूरी, और उतर में चंद्रमा कि विभावरी पूरी है। इन पुरियों में मेरु के चारो दिशाओं में सूर्योदय, मध्याह्न संध्या काल एवं अर्द्ध रात्रि होते है। सूर्य देव इन्द्र की देवधानि पूरी से यमराज की संयमी पूरी को चलने में पंद्रह घड़ी में सवा दो करोड़ और साढ़े बारह लाख योजन मार्ग पर चलने पर 25 हजार वर्ष लगते है। इसी क्रम में वरुण एवं चंद्रमा की पुरीयों में पहुंचते है। भगवान् सूर्य वेदमय रथ एक मुहूर्त में 34 लाख 08 सौ योजन के हिसाब से इन चार परियों में घूमते है। भगवान् सूर्य का एक चक्र अर्थात रथ संबत्सर में 12 अरे मास रूप में 06 नेमियां हाल ऋतुओं तीन नाभियां आवन अर्थात चौमासे रूप में कहा जाता है।
भगवान् सूर्य ब्रह्माण्ड की आत्मा है। वे पृथ्वी तथा द्यूलोक के मध्य में स्थित आकाशमण्डल के अंदर कालचक्र में रह कर बारह मासों को भोगते है। प्रत्येक मास चंद्रमान से शुक्ल और कृष्ण पक्ष, पितृमान से एक रात और एक दिन और सौरमान से दो नक्षत्र कहे जाते है। सूर्य की किरणों से एक लाख योजन ऊपर चंद्रमा है । चंद्रमा द्वारा समस्त जीवों को प्राण अन्न देव, पितर, मानव, भूत, पक्षी, वृक्षादी समस्त प्राणियों बनस्पतियो के प्राणों के पोषक है। चंद्रमास से तीन लाख योजन ऊपर अभिजीत सहित 27 नक्षत्र है तथा अभिजीत से 2 लाख योजन ऊपर शुक्र वर्षा के ग्रह है। शुक्र से दो लाख योजन ऊपर बुध मंगलकारी है वहीं बुध ग्रह से दो लाख योजन ऊपर मंगल और मंगल से दो लाख ऊपर बृहस्पति तथा उनके ऊपर दो लाख योजन ऊपर शनि ग्रह है। शनि ग्रह के ऊपर 11 लाख योजन पर कश्यप आदि सप्तऋषि है। इनके ऊपर तेरह लाख ऊपर ध्रुव लोक स्थित है। राहु ग्रह सूर्य से दस हजार योजन नीचे है।
नव ग्रहों का स्वामी सूर्य है ।भगवान् सूर्य मध्यभाग वर्तलुमंडल,अंगुल 12कलिंगदेश ,कश्यप गोत्र रक्त वर्ण और सिंह राशि का स्वामी है।इनका सप्ताश्व वाहन और मदार समिधा प्रिय है।लाल वस्त्र,लाल चंदन ,लाल गौ, लाल मूंगा,,केशर,तांबा,गुड,लाल माणिक्य ,गेहूं,घी, तथा सोना प्रिय है। भगवान् सूर्य के उपासक सौर धर्म के अनुयाई है। सौर धर्म के उपासक लाल वस्त्र, झंडे, लाल चंदन, स्फटिक माला, मूंगा धारण करते है और दिन में उपासना करते है । चद्रमा अग्नि कोण,चतुरस्ट्र मंडल ,अंगुल 4यमुना तट वर्ती देश ,आत्रिगोत्र ,श्वेत वर्ण , कर्का राशि के स्वामी है।इनका वाहन हरिना तथा समिधा पलाश ,मोतिया ,सफेद फूल,शंख,सफेद चंदन,कपूर,चावल,चांदी ,सफेद बैल,दही, प्रिय ह तथा चाद्रमा के अनुयाई सफेद वस्त्र और सफेद झंडे का प्रयोग करते हैं।मंगल ग्रह दक्षिण दिशा त्रिकोण मंडल , अवंटिदेश के स्वामी है।इनका वाहन भेदा समिधा खादिर चिड़चिड़ी तथा लाल वस्त्र,उदहुल फूल,लाल चंदन बैल,मूंगा,गुड, मसूर,तांबा,गुड, प्रिय है।मंगल भारद्वाज गोत्र से है। बुध ग्रह ईशान कोण, वानाकार मंडल ,अंगुल 4,मगध देश ,आत्रीगोत्र ,पित वर्ण, मिथुन कन्या राशि के स्वामी है ।इनका हरा वस्त्र,पन्ना ,सफेद फूल,फल,कासा ,मूंगा ,प्रिय है वहीं इनका वाहन सिंह और समिधा अपामार्ग अकावन है।बुध के उपासक हरा वस्त्र, हरा झंडे का प्रयोग करते है। वृहस्पति ग्रह दिशा, दीर्घ चतुरास्ट्र मंडल,अंगुल6, सिंधु देश अंगिरा गोत्र पीत वर्ण, धनु, मीन राशि का स्वामी है। इनका वाहन हाथी तथा समिधा पीपल है। पुखराज, चने की दाल, पीला वस्त्र,फूल, फल,हल्दी , सोना, घोड़ा, पुस्तक प्रिय है। वृहस्पति के उपासक पीला वस्त्र और झंडे तथा फल का प्रयोग करते हैं। वृहस्पति देवताओं के गुरु है। शुक्र ग्रह पूर्व दिशा, षष्ठ कोण मंडल अंगुल 6 भोजकट देश भृगु गोत्र, श्वेत वर्ण, वृष तुला राशि के स्वामी है। इनका वाहन अश्व और समिधा गूलर है। हीरा, चांदी, सोना, चावल, दूध, सफेद वस्त्र, फूल घोड़ा चंदन प्रिय है। शुक्र का अनुयाई सफेद वस्त्र और सफेद झंडे का प्रयोग करते हैं। शनि ग्रह पश्चिम दिशा, धनुषाकार मंडल अंगुल 2 सौराष्ट्र देश, कश्यप गोत्र, कृष्ण वर्ण, मकर कुंभ राशि का स्वामी है। इनका वाहन गिद्ध और समिधा शमी है। इन्हे कला वस्त्र,गौ , भैंस लोहा, उरद, कुलत्थी,कस्तूरी, नीलम प्रिय है। शनि सूर्य पुत्र और न्याय का देव है। इनके उपासक काला वस्त्र, कोट, झंडा का प्रयोग करते हैं। राहु ग्रह नैऋतय कोण सुरपाकार मंडल, अंगुल 12 मलय देश, पैठानस गोत्र तथा कृष्ण वर्ण है। राहु का वाहन सिंह और समिधा दूर्वा है। इनका कम्बल, नीला वस्त्र, सरसो का तेल, सिसा, सूप, घोड़ा, गोमेद प्रिय है। राहु की उपासना रात्रि में उपासक करते है। केतु ग्रह वायव्य कोण, ध्वजा कार मंडल कुश देश, जैमिनी गोत्र, धूम्र वर्ण है। केतु का वाहन कबूतर और समिधा कुश है। द्रव्य में लहसुनिया लाजावर्त , लोहा, तिल, सप्तधान्य, धूमिल वस्त्र फूल, नारियल, बकरा, शास्त्र प्रिय है। केतु के उपासक उपासना रात्रि में करते है।
भारतीय ग्रंथों के अनुसार कलिंग देश के स्वामी कश्यप गोत्र के रवि है ।सिंह राशि के स्वामी रवि रक्त वर्ण और रक्त वस्त्र धरणकर्ने तथा सप्ताश्व वाहन है।कलिंग को आधुनिक नाम उड़ीसा कहा गया है। वर्ती देश और करके राशि के स्वामी अत्रिगोत्र के चंद्रमा श्वेत वस्त्र धारण करते है।  अवंतिदेश के स्वामी भारद्वाज गोत्र का मंगल मेष  वृश्चिक राशि का स्वामी तथा वाहन मेष है।मंगल लाल वस्त्रधारी है।मगध देश और मिथुन कन्या राशि के आत्रिगोत्रका  स्वामी सोम और तरा पुत्र बुध है ।बुध हरे रंग के वस्त्र धारण कर सिंह की सवारी करते है। सिंधु देश का स्वामी वृहस्पति ,भोजकत देश का स्वामी शुक्र भृगु  गोत्र के ,सौराष्ट्र देश का कश्यप गोत्र और सूर्य पुत्र स्वामी शनि ,मलय देश का पैठीनस गोत्र के स्वामी राहु और कुश देश का जैमिनी गोत्र के स्वामी केतु है। अंगिरा गोत्रिय वृहस्पति देवो के गुरु और दैत्य, दानव, राक्षस संस्कृति के गुरु भृगु गोत्रीय शुक्राचार्य शुक्र थे।मानव जीवन में नैमितिक काम्य कर्मों की आधारशीला सूर्य है। ग्रंथों में मनुष्य काल,पितृ काल, देवकाल और ब्रह्मकाल है। सूर्य की उसनाना से अंधकार, राक्षसों का नाश, नेत्र ज्योति की वृद्धि, चराचर की आत्मा, आयु वर्धक, लोक धारण, कुष्ठ रोगी निवारण, क्षय रोग , नेत्र रोग से मुक्ति तथा मानव को सर्वार्थ सिद्धि प्राप्ति होती है। सृष्टि के पूर्व सभी जगह जल था, देव दानव, मानव, बनस्पती, तरू लता कुछ नहीं था । जब ब्रह्मा जी ने कमल पुष्प पर जगत की सृष्टि करने लगे उस समय सूर्य अंड दृश्य उदय हुआ। जिन्हें आदित्य कहा गया है। निरुक्त में आदित्य का नाम भरत अर्थात आदित्य की ज्योति को भरत कहा जाता है । भरत के नाम से विख्यात भारत है।
भगवान् सूर्य अवतार - ब्रह्मा जी के पौत्र मरीचि के पुत्र कश्यप हुए। ऋषि कश्यप की प्रजापति दक्ष की 13 कन्याओ में अदिति ने देवों का जन्म दी, दिती ने दैत्य, दनू ने दानव, विनीता ने अरुण, गरुड़, सखा ने यक्ष, राक्षस, कद्रू ने नागों,, मुनि ने गंधर्वो, क्रोध से कुल्याएं , अरिष्टा से अप्सराएं, इरा से एरावत हाथियों, ताम्रा से श्येनी आदि कन्याएं, श्येन बाज , भाष, शुक, पक्षी का जन्म हुआ है। कश्यप ऋषि की भार्या अदिति से जन्म लिए देव, पुत्र, पौत्र, दौहित्र, आदि से विश्व में देवता प्रधान है। ब्रह्मा जी ने अदिति पुत्रों को यज्ञ भाग का भोक्ता, राजस तथा त्रिभुवन का स्वामी बनाया परन्तु दिती , दनु, सखा के पुत्रों में दैत्य, दानव, राक्षस में तामस युक्त रहने के कारण देवताओं के साथ एक हजार दिव्य वर्ष तक तामसी प्रवृति वाले दैत्य, दानव और राक्षस के साथ भयंकर युद्ध हुए तथा दैत्यों और दानवों द्वारा देवताओं का राज्याधिकारी से वंचित तथा यज्ञ भाग छीन लिया गया। दैत्यों, दानवों और राक्षसों के तामसी प्रवृति के कारण देवों और अन्य लोग पीड़ित हो गए । इस कारण देव माता अदिति शोक से अत्यंत पीड़ित हो गई थी। उन्होंने भगवान् सूर्य की आराधना के लिए महान् यज्ञ कर कठोर तप करते हुए सूर्य का स्तवन करने लगी।
कठोर तपस्या करने के बाद देव माता अदिति को भगवान् सूर्य प्रत्यक्ष दर्शन देकर मनोकामना की पूर्ति किए। भगवान् सूर्य ने देवमाता अदिति से प्रसन्न होते हुए कहा कि देवी मै अपने सहस्त्र अंशों सहित तुम्हारे गर्भ से अवतीर्ण हो कर तुम्हारे पुत्रों के शत्रुओं को नाश करूंगा और सभी मनोकामनाएं पूर्ण करूंगा। तदनतर सूर्य की सहस्त्र किरणों वाली सुषुम्ना नाम की किरण देव माता अदिति के गर्भ में अवतीर्ण हुई। देव माता अदिति गर्भ धारण करती हुई कृच्छ और चंद्रायन ब्रत आदि ब्रतों का अत्यंत पवित्रता पूर्वक रहने लगी। माता अदिति के गर्भ से मार्तण्ड का अवतरण हुआ। भगवान् सूर्य के अंश से उत्पन्न मार्तण्ड अवतरण से देवो में खुशी और दैत्यों, दानवों एवं राक्षसों असुरों में ज्वाला से भाष्म हो गया। देवों ने तेज के उत्पति स्थान, अंडाकार मार्तण्ड तथा देव माता अदिति का स्तवन करने लगे। तदनतर भगवान् सूर्य को प्रसन्न करके विश्वकर्मा ने अपनी पुत्री संज्ञा से विवाह किए। चैत्र मास मधुमास में धाता आदित्य, वैशाख मास में अर्यमा आदित्य , जेष्ठ मास में मित्र आदित्य, अषाढ़ मास में वरुण आदित्य, सावन मास में इन्द्र आदित्य, भाद्र मास में विवस्वान आदित्य , आश्विन मास में पूषा आदित्य, कार्तिक मास में पर्जन आदित्य अगहन मास में अंश आदित्य, पौष मास में भग आदित्य, माघ मास में त्वष्टा आदित्य और फाल्गुन मास में विष्णु आदित्य के रूप में भगवान् सूर्य तपते है। अग्नि पुराण के परिचछेद 19,51,73,99,148 वें हरिवंश पुराण के तीसरे अध्याय का श्लोक संख्या 60-61 के अनुसार चाक्षुष मन्वन्तर में तुषित नामक 12 देवता थे वे ही वैवस्वत मन्वन्तर में कश्यप ऋषि की भार्या अदिति के गर्भ से भगवान् सूर्य के अंश से विष्णु, शक्र इन्द्र, त्वष्टा, धाता , अर्यमा, पूषा , विवस्वान , सविता मित्र, वरुण, भग, और अंशु 12 आदित्य हुए। भगवान् सूर्य उपासना प्रत्येक माह के शुक्ल पक्ष की षष्ठ तिथि और सप्तमी एवं चैत्र और कार्तिक मास शुक्ल पक्ष षष्ठी तथा सप्तमी तिथि महत्व पूर्ण है। रविवार प्रसिद्ध दिन है।
सौर धर्म -  सौर धर्म अज्ञान के सागर को दूर कर ज्ञान का सागर में लाने का कार्य करता है। सौर धर्म के अनुयाई प्रकृति पूजक तथा भगवान् सूर्य के उपासक है। वाल्मिकी रामायण,मनुस्मृति के अनुसार भगवान् विवस्वान आदित्य  (सूर्य देव ) के पुत्र वैवस्वत मनु हुए जिन्होने वैवस्वत मन्वंतर प्रारंभ किया है। वैवस्वत मनु सृष्टि के प्रथम शासक, मनुस्मृति ग्रंथ का निर्माण, विधि सम्मत शासन व्यवस्था को दृढ़ रखा है। जिन्हें सूर्य वंश की स्थापना की। पुराणों में ऋषि वंश और राजवंश की परंपरा वैवस्वत मन्वंतर से है। 27 चतुर्युग युग समाप्त हो कर 28 चतुर्युग का सतयुग, त्रेता, द्वापर तीन युग समाप्त होने के बाद कलियुग प्रारंभ है। युग को अंग्रेजी में पीरियड कहा गया है।
भगवान् सूर्य की भार्या प्रभा , संज्ञा,राज्ञी ( रात्रि ), वड़वा और छाया थी। त्वष्टा की पुत्री और सूर्य की भार्या संज्ञा से वैवस्वत मनु, यम पुत्र , वाड़वा के नासत्य, दस्ट्र ( अश्विनी कुमार ) पुत्र और यमुना पुत्री हुई और छाया ( सवर्णा )  से सावार्णी मनु, शनैश्चर , ताप्ती, और विष्टि तथा प्रभा से प्रभात पुत्र हुए। वैवस्वत मनु भू लोक का स्वामी, यम को यम पूरी का स्वामी तथा अश्विनी कुमार को वैद्य राज , शनि को न्याय, प्रभात को किरणों का स्वामी तथा सावर्ण को राजा बनाई। वर्तमान में सावर्णी मन्वन्तर चल रहा है। वैज्ञानिक दृष्टिकोण से भगवान् सूर्य के प्रकाश पुंज का व्यास 1392000 किलोमीटर और तापमान13000000 सेंटीग्रेट है। जहां तक सूर्य का प्रकाश जाता है वह ब्रह्माण्ड है। पाश्चात्य भौतिक वैज्ञानिक ने सूर्य मानवीय जीवन, प्रज्ञा और विज्ञान आदि के उत्स तथा ब्रह्माण्ड उत्सर्जित बताया है। सूर्य शरीर रचना, रोगों से निवारण तथा पृथ्वी का नियामक और प्रकाशमान तथा ज्योतिष, चिकित्सा विज्ञान का केंद्र विंदू है। आर्य ऋषियों एवं सौर धर्म के अनुसार प्राचीन काल में जब कहीं कुछ नहीं था तब मानव जीवन में प्रकृति पूजन में सूर्य की महत्ता थी। शाक्त , शैव , वैष्णव धर्म के अनुयाई द्वारा सौर धर्म की प्रधानता दी। अमेरिका के रेड इंडियन, चीन के विद्वानों ने सूर्य को यांग तथा चन्द्रमा को यिन तथा लिकी की पुस्तक कि आओ तेह सेंग में सूर्य की महत्वपूर्ण चर्चा की है। बौद्ध जातक में , इस्लाम में सूर्य को इल्म अहाकम अन नजुम , ईसाईयों के न्यू टेस्टामेंट में , ग्रीक और रोमन विद्वानों, आर्य, अनार्य, द्रविडों तथा सौर धर्म ने सूर्य का दिन रविवार को पवित्र दिन कहा है। जैन धर्म के धर्म ग्रंथों के आधार पर जम्बूद्वीप में दो सूर्य, लवण समुद्र में चार सूर्य और धातकी खंड में बारह, कलोदधी में42 सूर्य और पुष्करार्ध द्वीप में 72 सूर्य की चर्चा है।मानव जीवन की संस्कृति में सौरवाद या सौर धर्म में सूर्य को सर्वोच्च ईश्वर मानते हैं। अर्थात प्रकृति पूजन का महत्व है। शैववाद अर्थात शैव धर्म में शिव सर्वोच्च भगवान् हुए है। जिन्हें वैदिक देवता रुद्र के रूप में मानी जाती है।  शैव धर्म में लिंगायत संप्रदायकी स्थापना कन्नड कवि वसवा द्वारा बारहवीं सदी में की गई तथा नाथ सम्प्रदाय धर्म में विष्णु को सर्वोच्च भगवान् मानते हैं। शक्तिवाद या शाक्त धर्म में देवी को सर्वोच्च शक्ति की प्रधानता है। इसके उपासक तंत्र, मंत्र, जादू टोना की विभिन्न उप परंपराओं के लिए जानते है।
वायु पुराण अध्याय 68,12 में असुरों के देवता सूर्य चंद्रमा थे। सौर धर्म के उपासक अगस्त ऋषि ने सूर्य वंशिय राम को आदित्य हृदय का मंत्र दिया। जीवित गुप्त ने दसवीं शताब्दी में सूर्य मूर्ति की स्थापना कर सौर धर्म की स्थापना की है। जेनरल कनिंघम ने अपनी आर्कियोलॉजिकल रिपोर्ट वॉल्यूम सोलह पेज पैसठ में चर्चा किया है कि सूर्य के अंश से प्रदूर्भाव प्रकाशमान शाक द्वीप का मग ब्राह्मण से भगवान् कृष्ण के पुत्र सांब को कुष्ठ व्याधियों से हुई थी। सांब पुराण में भगवान् सूर्य और सौर धर्म के उपासकों की चर्चा विस्तृत रूप से की गई है। बेबीलोन के प्राचीन वृतग्रंथ ईटना माइथ में इगल गरुड़ पर बैठ कर थर्ड हेवन आफ अन्नू में जाकर औषधि लाने का उल्लेख है। अमेरिका के आण्विक जीव  वैज्ञानिक डॉ फ्रासिस ने कहा है कि पृथ्वी पर प्राणियों का उद्भव400 करोड़ वर्ष तथा छाया पथ1300 करोड़ वर्ष है। विश्व में ईस्वी सन और संबत से 6 हजार वर्ष पूर्व से 140 ई. तक सूर्य पूजा उपासना तथा सौर धर्म स्थल का प्रमाण है। विश्व का प्राचीन सौर धर्म दर्शन विभिन्न क्षेत्रों में फैला है। पर्सियन चर्चों में मित्र, ग्रीको के हलियोस, एजिप्त मिश्र के रा , तातारियों भाग्य वर्धक देवता फ्लोरस, प्राचीन पेरू दक्षिण अमेरिका के ऐश्वर्य दाता फुल्लेस्ट, उतरी अमेरिका के रेड इंडियन का एटना और एना, अफ्रीका के विले श्वेत व्हाइट , चीन का वू. ची., जापान के इज्ना- गी, नवीन सेंटो इजम का एमिनो - मिनाक - नाची के रूप में सूर्य, मित्र, दिवाकर आदित्य को उपासना करते है। भारतीय संस्कृति में सूर्य उपासना प्राचीन काल से है सिंध देश केमुलस्थान पुर मुल्तान सूर्य मंदिर है। कश्मीर में मार्तण्ड मंदिर  था अब भग्नावशेष है। चितौड़गढ़, मोधेरा गुजरात में सूर्य मंदिर था जिसका अवशेष है। कोणार्क उड़ीसा का सूर्य मंदिर 13 वीं सदी में निर्मित हुआ था वह आज भी प्रसिद्ध है। काशी में लोलार्क, कर्णादित्य, सुमंतादित्य सूर्य मंदिर है। लोलार्क में सौर धर्म द्वारा आदित्य पीठ की स्थापना की थी। काशी क्षेत्र में लोलार्क, उत्तरार्क,द्रुपद आदित्य, मयुखादित्य, काखोलकादित्य, अरुनादित्य, वृद्धादित्य, केशावादित्य, विमालादित्य, गंगादित्य, यमादित्य, मंदिर विख्यात है। वैवस्वत मनु ने सूर्यवंशी , राम काल और सूर्य पूजा की प्रधानता दी वहीं महाभारत काल में भगवान् कृष्ण ने, मगध सम्राट जरासंध ने सूर्य उपासना के लिए मंदिर, तलाव तथा सौर धर्म के लिए सौर मठ की स्थापना करायी । सौर धर्म की स्थापना शाकद्वीप के मग ब्राह्मण अर्थात शाकद्वीपीय  ब्राह्मण द्वारा की गई थी। सौर धर्म के अनुयाई लाल वस्त्र, लाल झंडे, लाल फूलों की माला तथा ललाट पर लाल चंदन से सूर्य किआकृती बनाते है। वे ब्रह्म मुहूर्त उदयोंमुख सूर्य , मध्याह्न में सूर्य को महेश्वर रूप में तथा अस्तो मुख अस्तलगामी सूर्य को विष्णु के रूप में उपासना करते है। सूर्य भक्त लोहे से ललाट पर सूर्य की मुद्रा को अंकित कर सूर्य ध्यान करते है और सूर्योदय के बाद सूर्य दर्शन उपासना के बाद भोजन पानी करते है। यूनान का सम्राट सिकंदर, कुषाण काल में ईरान, इराक, रोम एशिया में रहने वाले सूर्य उपासक थे। प्राचीन ईरान में मग ब्राह्मण या मग जाति रहते है। ब्रह्म पुराण, सौर पुराण, में सौर धर्म के साबंध में उलेख किया गया है। भारत में 5 वीं तथा 6 वी और 13 वींं सदी के राजाओं द्वारा सूर्य के उपासक और सूर्य मूर्ति , सूर्य मंदिर तथा आदित्य मठ की स्थापना, तलाव का निर्माण कराया है। मौर्य साम्राज्य द्वारा 4 थीं शताब्दी ई. पू. में शुंग वंश, पाल काल तथा सेन वंश के राजाओं और 7 वीं सदी में हर्षवर्धन शासन काल में सूर्य मंदिर एवं सूर्य मूर्ति की स्थापना तथा तलाव का निर्माण हुआ। बादशाह अकबर ने दिन ए इलाही धर्म चलाया और सूर्य देवता है तथा रविवार को अवकाश घोषित कर सूर्य उपासना का दिन घोषित किया था। आइन- अकबरी ब्लाखामैनाका का अंग्रेजी अनुवाद 1965 पृष्ठ 209-212 के अनुसार अकबर का आदेश में कहा गया कि प्रात: काल, मध्याह्न काल, सायम काल तथा अर्द्ध रात्रि में सूर्य की उपासना पूर्व दिशामुख करना है। वह सौर संवत् को राजकीय आय व्यय की गणना के लिए प्रचलित रखा था। पद्म पुराण सृष्टि खंड अध्याय 82 में राजा भद्रेश्वर ने अपनी कुष्ठ निवारण के लिए सूर्य की उपासना एवं मयूर भट्ट ने सूर्य शतक की रचना कर अपनी कुष्ठ रोग से निवृत हुए थे। राजा अश्वपति ने सूर्योपासना से सावित्री पुत्री प्राप्त की वहीं द्रोपदी ने सूर्य आराधा से सभी मनोकामनाएं पूर्ण की थी। अंग राज कर्ण ने सूर्य की आराधना एवं अर्घ्य देकर कार्य संपादन करते है। सम्राट कुषाण 78 ई.,3 शताब्दी में गुप्त सम्राटों , कुमार गुप्त 414-55 ई. ,स्कन्द गुप्त 455 - 67 ई. में बुलंद शहर के इंद्रपुर में , मलावा के मंदसौर, ग्वालियर, इंदौर, बघेल खंड, में सूर्य मंदिर तथा सूर्य मूर्ति की स्थापना एवं तलाव का निर्माण हुआ है। ललितादित्य मुक्तापिड 724-760 ई. में मार्तण्ड मंदिर, प्रतिहार सम्राटों ने 11 शताब्दी में कोणार्क मंदिर का विकास किया। वेदों पुराणों उपनिषदों के अनुसार विश्व में 33 कोटि  प्रकार में आठ वसु,11 रुद्र,12 आदित्य, एक राजर्षी और एक प्रजापति है। ज्योतिष शास्त्र के अनुसार सूर्य की उपासना से वेशियोग, वसियोग, यूभायाचरी योग, भास्कर योग, बुधादित्य योग, राजराजेश्वर योग, रजाभंग योग, अंध योग, उन्माद योग का प्रभाव प्रत्येक जीवों, प्राणियों तथा इंसानों पर होता है। बिहार का क्षेत्र सूर्योपासना केंद्र रहा है । प्राचीन काल में मगध देश में चंद्रमा और तरा के पुत्र राजा बुध , किकट देश का राजा गया सुर  ने गायार्क आदित्य मूर्ति  उत्तरायण और दक्षिणायन सूर्य मूर्ति की स्थापना कर सौर धर्म का सृजन किया । अंग वंशीय  राजा  वेन के अंग से उत्पन्न राजा पृथु के ब्रहमेश्ठी यज्ञ से उत्पन्न मागध ने मगध की स्थापना कर सूर्य उपासना के लिए सूर्य मंदिर, सूर्य मूर्ति की स्थापना और तलाव का निर्माण किया वहीं सोन प्रदेश का राजा शार्यती , करूष देश का राजा कारूष ने हिरण्याबहू प्रदेश एवं मिथिला राज्य के राजा मिथी , जनक ने सूर्य उपासना के लिए तलाव, सूर्य मंदिर का निर्माण और सूर्य मूर्ति की स्थापना की थी। अरवल जिले के पुनपुन नदी तट पर पंतित में प्राचीन सूर्य मूर्ति किंजर पुनपुन नदी तट पर, शेरपुर पुनपुन नदी तट पर ,करपी ( अरवल ) में विष्णुआदित्य खटांगी में शुंगकलीन सूर्य मूर्ति , सुकन्या ने अपने पति ऋषि च्यवन की युवा और निरोग के लिए सूर्योपासना, अर्घ्य अर्पित की वह स्थल मदासावां तथा औरंगाबाद जिले के देवकुंड है। पटना जिले के पंडारक में पुण्यार्क आदित्य, उलार में उल्यार्क आ दित्य औरंगाबाद जिले के राजा एल द्वारा देव में देवार्क आदित्य की स्थापना की है। वहीं देव राज ने ब्रह्म कुंड का निर्माण कराया तथा उमगाा पहाड़ पर देव राज्य का परिवार 15 वीं सदी में सूर्य मंदिर एवं तलाव का निर्माण करा कर अपने आवास के लिए किले का निर्माण कराया था।जहानाबाद जिले के काको में पनिहास सरोवर के किनारे विष्णु आदित्य, दक्षणी में राजा दक्ष द्वारा स्थापित उतरायण और दक्षिणायन सूर्य मूर्ति , जहानाबाद के ठाकुरवाड़ी दरधा यमुने संगम पर सूर्य मूर्ति , मखदुमपुर, धराऊत , भेलावर में सूर्योपासना का स्थल है । दैत्य राज बाणासुर द्वारा गया जिले के बेलागंज प्रखंड में सोनपुर में सूर्य मूर्ति स्थापित किया वहीं नवादा जिले के रूपौ , आती, समना में सौर धर्म का केंद्र स्थली था। सौर धर्म के शाकद्वीपीय ब्राह्मण द्वारा सूर्य को अर 24 , आर्क 07, आदित्य 12, किरण 07, कर 10 और मंडल 12 कुल 72 पुरों में सूर्य आराधना का केंद्र बनाए गए। श्री कृष्ण संवत् में राजा सांब के कुष्ठ निवारण हेतु शाक द्वीप से 18 कुल के मग चंद्रभागा नदी के किनारे रह कर सूर्योपासना की वहीं धृष्टद्युम्न के कुष्ठ निवारण के पश्चात् 72 गावों में सूर्योपासना का केंद्र स्थापित कर मग ब्राह्मणों को अर्पित किया। सौर धर्म के  भारद्वाज, कश्यप, कौड़िन्य, भृगु, अत्रि ऋषि, अगस्त, चाणक्य, मयूर, प्रथम स्वयंभुव मनु की भार्या शतरूपा से प्रियब्रत ने रोग, शोक निवारण हेतु सूर्योपासना की नीव डाल कर सौर धर्म को अग्रसर किया। कर्दम प्रजापति की पुत्री काम्या के साथ स्वयंभुव मनु के पुत्र वीर से विवाह किया। वीर और काम्या ने काम्यक वन में सूर्योपासना की नीव डाली थी। नवादा जिले के क्षेत्र काम्यक वन से प्राचीन काल में विख्यात था। नवादा जिले की पर्वत लोमष , दुर्वासा , नारद, ध्रुव का स्थल नाम से ख्याति है। नालंदा जिले के औंगरी में औंज्ञादित्य, भोजपुर के बेलाउर में बेलार्क आदित्य है। झारखंड के रांची, जमशेदपुर, चतरा, हजारीबाग चाईबासा में सूर्योपासना स्थल और सूर्य मंदिर है। सौर धर्म के सौर सिद्धांत के अनुसार सातवें वैवस्वत मनु काल का 28 वाँ सौर संवत् का  महायुग 4323000 है।14वें मनुमय सृष्टि सौर संवत् 1955885121 हुए है। विभिन्न काल में भिन्न भिन्न राजाओं ने संबत प्रारंभ किया जिसमें प्राचीन सप्तर्षि संवत् 6676 ई. पू., कलियुग संवत् 5121, यहूदी संवत् 5733 बुद्ध निर्वाण संवत् 487 ई. पू. मौर्य संवत् 321 ई. पू. , वीर निर्माण संवत् 427 ई. पू. , विक्रम संवत 2077, ईस्वी संवत् 2020 शालीवाहन संबत 1942, फसली संवत् 1427, बांग्ला संवत् 1427, नेपाली संवत् 1140 तथा इस्लामी संबत 1441 कुल विश्व में 35 संबत विभिन्न नामों से समय समय पर संचालन हुआ है। विभिन्न संवत् में भिन्न भिन्न राजाओं ने सूर्योपासना, सूर्य स्थल पर सूर्य मूर्ति, सूर्य मंदिर, सूर्य कुंड का निर्माण कराया वहीं गंगा, यमुना आदि नदियों के किनारे सूर्य घटो, सूर्य मंदिरों का निर्माण कराया है ताकि सूर्य उपासक भगवान् सूर्य को अर्घ्य अर्पित कर मनोकांक्षा की पूर्ति कर सके। बिहार में सूर्य पूजा, छठ, छठी बरत , छठ व्रत के नाम से विख्यात है।

अमरकंटक , सोन नदी का उद्गम स्थल ...


प्रकृति की संपदा मानवीय मूल्यों की विरासत है । भारतीय सांस्कृतिक में नदियों की प्रमुख स्थान है। नदियों का तट विभिन्न काल में मोक्ष दायक, पुण्यक्षेत्र और जल में स्नान ध्यान करना उत्तम फल की प्राप्ति कराता है। भगवान् शिव ने भू स्थल के विभिन्न क्षेत्रों में देवों और ऋषियों के माध्यम से तिर्थात्व बना कर पुण्य क्षेत्र का निर्माण किया है । प्रायद्वीप भारत की चट्टानों की उत्पति 3600 मिलियन वर्ष पुरानी है । कार्बनी काल 146 मिलियन वर्ष पूर्व ज्वालामुखियों से निकलने वाली पानी के समान तरल लावे के पठार की उत्पति विंध्य तंत्र के 3438 फीट ऊंचीे अमरकंटक पर्वत की  मैकाल पहाड़ी ( रुद्रमेरू ) की श्रृंखला सनमुंडा के 100 फीट ऊंचाई से  सोन नद झरने के रूप में गिरती है । सोन नद को  सोहन , सोन मुंडा, सोन कुंड, सोन नद, शोण और सोनभद्र के नाम से विख्यात है। मध्य प्रदेश का अनूपपुर जिले के अमरकंटक पर्वत के सोन मुंडा श्रृंखला से गिरता सोन नद का मुहाना 25 डिग्री 42 सेंटीग्रेड ईस्ट अक्षांश / 25.70 डिग्री उतर और 84.86 डिग्री इस्ट देशान्तर पर स्थित है तथा 784 किलोमीटर लम्बाई होकर बिहार के पटना जिले के मनेर प्रखंड और दानापुर के मध्य में गंगा में मिलती है। सोन नद अमरकंटक पर्वत से जलप्रपातों के रूप में निकल कर कैमूर पर्वत श्रृंखला से जाकर मिलती है और इसकी धारा उतर पूरब की ओर मोड़ कर नतिलंब घाटी में बहती हुई गढ़वा से सोन नद की चौड़ाई 5 कि.मी. हो जाती है है। बहुल नदी सिद्धांत इयोसीन युग के तहत हिमालय जल अपवाह के गंगा नदी तंत्र के अन्तर्गत सोन नद जल अपवाह का रूप धारण करता है। शिव पुराण  का अध्याय 12 के अनुसार शोण नद की 10 धाराएं है। वह धाराएं देव गुरु वृहस्पति के मकर राशि में आने पर व्यक्ति स्नान ध्यान करता है उसे अत्यंत अभीष्ट फल मिलता है। सोन नद का जल पवित्र और उसके किनारा पर उपासना स्थल है और विनायक पद की प्राप्ति स्थल है। प्राचीन काल में रूद्रमेरू के राजा मैकाल की पुत्री नर्मदा और राज पुत्र शोणभद्र का विवाह में वकावली का फूल लाने में विलम्ब के कारण नहीं हुई ।फलत : नर्मदा और सोनभद्र का विवाह नहीं हो सका था परन्तु नर्मदा और सोनभद्र एक प्रेमी और प्रेमिका के रूप में रहने लगी। विंध्य तंत्र के अमरकंटक से नर्मदा नदी और सोनभद्र नद का प्रवाह हुआ था। यहां सांख्य दर्शन के ज्ञाता कपिल मुनि का आश्रम और कपिलेश्चर शिव लिंग मंदिर तथा कपिलधारा प्रवाहित है । सोन नद का प्रवाह सवर्ण की तरह शीला पर गिरता हुआ प्रवाह है। यह स्थल भगवान् शिव और विष्णु का प्रिय स्थल है । बिहार का रोहतास जिले के डिहरी आँन सोन में सोन नद में 1874 ई. में बांध कर 296 मील लंबी नहर का निर्माण किया गया जिससे रोहतास, , बक्सर ,भोजपुर , अरवल और पटना जिले के क्षेत्र में सिंचाई सुविधा दी गई है।
[: डिस्ट्रिक्ट गजेटियर गया के अनुसार सोन नद भारत का केंद्र मैकाले हिल्स से प्रवाहित होकर 325 मील दूरी तय कर गंगा में मिलता है । यह नद मगध और भोजपुर की संस्कृति को विभक्त करता है । सोन नद का जल 2300 वर्ग मील को  सिंचित करता है साथ ही बाढ़ की विभिसका लता है। सोन नद को मेगास्थनीज ने भारत की तीसरी नदी और संस्कृत साहित्य में हिरान्याबाहू और गोल्डेन आर्म्ड कहा है। सोन रीवर ऑफ गोल्ड से विदेशी विद्वानों द्वारा कहा गया है । प्राचीन काल में सोन नद और गंगा नदी के संगम पर पाटलिपुत्र नगर का निर्माण हुआ था । सोन नद की पुरानी स्थल पर नादी था। शाहाबाद के कलेक्टर मिस्टर ट्विनिंग ने सोन बाढ़ रोकने के लिए 1801- 04 में बांध का निर्माण कराया था। सोन नद पर वरुण में 1869 ई. में 15 लाख रुपए की लागत से 12469 फीट लंबाई युक्त बांध का निर्माण कराया गया जिसे सोन नहर 1875 ई. से प्रारंभ हुआ और सोन नद की बाढ से लोगों को राहत दिलाया गया। सोन नहर का प्रारम्भ होने पर 170000 एकड़ भूमि को सिंचित करने का लक्ष्य निर्धारित किया गया था परन्तु  166000 एकड़ भूमि सिंचित होने लागी थी। बिहार की नदियों में गया का फल्गु नदी, मोरहर नदी, अरवल , रोहतास , औरंगाबाद में सोन नद, पुनपुन नदी , औरंगाबाद का बटाने नदी, पटना  , भोजपुर, बक्सर, भागलपुर का गंगा नदी  और नवादा जिले की अनेक नदियां दक्षिण बिहार को विशेष रूप में प्रवाहित होती है।