शुक्रवार, दिसंबर 11, 2020

बौद्धिक स्थल धराउत...


भारतीय ब्राह्मण धर्म का स्थल तथा बौद्ध धर्म की कर्म भूमि धराउत था । पुराणों के अनुसार देव सेनापति कार्तिक , भगवान नरसिंह की भूमि प्राचीन काल से थी । विंध्यपर्वत समूह के उतरी भाग का नाम करण विन्ध्योतर वासियो का राजा दैत्य राज हिरण्यकश्यपु का बध कर भगवान विष्णु के भक्त प्रह्लाद की रछा के लिए सतयुग के  अंगिरा संवत्सर वैशाख शुक्ल चतुर्दशी रविवार वरीयान योग में ऩरसिंह का अवतार द्वारा कर धरा का उद्धार किया गया गया था । वह स्थल धराउद के नाम से ख्याति प्राप्त हुई थी । धराउद में भगवान शिव के पुत्र देव सेनापति कार्तिक का प्रिय स्थल बराबर पर्वत समूह की सूर्यांक गिरि पर सिद्धों द्वारा  स्थापित सिद्धेश्वर नाथ   की उपासना करने के  पश्चात धराउद में कार्तिकेशवर शिवलिंग की स्थापना तथा माता सिद्धश्वरी की अराधना स्थल का निर्माण किया गया था ।धराउद में शैव ,  शाक्त , सौर तथा वैष्णव धर्म के उपासकों द्वारा शिव लिंग , काली , नरसिह , सूर्य तथा कार्त्कायन का मंदिर तथा मूर्त स्थापित किया गया था । बिहार राज्य का जहानाबाद जिले के मखदुमपुर प्रखंडान्तर्गत धराउत प्राचीन एवं एतिहासिक स्थल है ।  बराबर पर्वत समूह के उतर - पश्चिम 5मील की दूरी पर स्थित धराउत में बौद्ध भक्खुनी गौतमी का स्तूपहै । दछिणी भारत की महान बौद्ध  विद्वषी गौतमी तथा वैदिक और ब्राह्मण धर्म के विद्वान शाकद्वीपीय ब्राह्मण माधव के बीच शास्त्रार्थ  हुआ था । 7 वीं शदाब्दी ई. मे चीन के यात्री ह्वेणसांग द्वारा वैदिक धर्म के विद्वान माधव तथा बौद्ध धर्म के विद्वसी गौतमी का स्मारक पर जाकर अवलोकन किया गया था । धराउत की बौद्धिक विरासत तथा  शैव , शाक्त , सौर , वैष्णव , ब्रह्मण धर्म , दर्शन , बौद्ध धर्म की भूमि रही है । 185 - 75 ई. में शुंग वंश , 320 - 510 ई़ में गुप्त वंश के ऱाजाओं एवं  750 - 936 ई. तक पाल वंश और 1050 - 1197 ई. तक सेन वंश के राजाओं द्वारा धराउत का विकास हुआ था । 2077वर्ष पूर्व धराउत का राजा चंद्रसेन भगवान शिव तथा सू्र्य के उपासक थे । उन्होने शिव लिंग की स्थापना ,मंदिर का निर्माण , सूर्योपासना के लिए चंद्रपोखर , सूर्य मंदिर और कार्तिकायन , नरसिह भगवान की मूर्ति मंदिर का निर्माण कराया था । चंद्रसेन की पुत्री का विवाह उजैन का राजा विक्रमादित्य के साथ संपन्न हुआ था ।
उज्जैन नगरी के राजा विक्रमादित्य द्वारा सूर्य, चंद्रमा, मंगल, बुध, बृहस्पति, शुक्र, शनि, राहु और केतु नवग्रह बड़ा कौन है का निर्णय दिया गया था । ग्रह अपने को बड़ा बताने लगे कि सबसे बड़ा मैं हूं, जब आपस में निर्णय नहीं कर पाए तब झगड़ते हुए इंद्रदेव के पास गए। कहने लगे कि आप सभी देवताओं के राजा है इसलिए हमारा न्याय करके बताइए कि हम 9 ग्रहों में सबसे बड़ा ग्रह कौन हैं। देवराज इंद्र ने ग्रहों से कहा कि पृथ्वी पर उजैन का राजा विक्रमादित्य दुखों दूर करने वाले हैं इसलिए आप  लोग उनके पास जाकर अपने प्रश्न का उत्तर मांगो। वही तुम्हारे प्रश्न का उत्तर देंगे ।   उजैन राजा विक्रमादित्य के सभा में जाकर ग्रहगण  उपस्थित हुए। अपनी समस्या राजा से कही और उनकी समस्या को सुनकर राजा बड़ी सोच में पड़ गए । जिसे छोटा कहूंगा वह तो क्रोधित होगा लेकिन झगड़ा समाप्त करने के लिए राजा के दिमाग में एक उपाय सूझा और कहा कि सोना, कांसा, पीतल, रजत, सीसा, रांगा, जस्ता, अभ्रक, और लोहा  आदि नौ  धातुओं के लिए नौ आसन बनवाए गए। जिसके बाद राजा ने कहा कि आप लोग अपने अपने आसनों पर बैठ जाएं जिसका आसन आगे होगा वह सबसे बड़ा जिसका पीछे वह सबसे छोटा होगा। सबसे पीछे का आसन  लोहे का था।शनिदेव समझ गए कि राजा ने मुझे सबसे छोटा कहा है और उन्हें बहुत क्रोध आया और राजा से कहा कि तुम मेरे पराक्रम को नहीं जानते की सूर्य राशि पर एक माह, चंद्रमा पर सवा दो दिन, बृहस्पति 13 महीने, मंगल पर डेढ़ महीना, शुक्र पर एक एक महीना और राहु-केतु दोनों उल्टे चलते हुए केवल 18 महीने एक राशि पर रहता हूं, परंतु में एक ही राशि पर 3 महीने तक रहा हूं। जिसने मुझे वरदान दिया उसे  मैंने नहीं छोड़ा बड़े-बड़े देवताओं को भी मैंने नहीं छोड़ा भविष्य में दुख दिया। जब राम भगवान पर साढ़ेसाती आई  तो वनवास हुआ, रावण पर आई तो राम लक्ष्मण ने लंका पर चढ़ाई की जिससे कि रावण के भूल का नाश हुआ, तब विक्रमादित्य ने कहा कि भाग्य में लिखा है वह होकर रहेगा। बाकी सभी ग्रह खुशी पूर्वक वहां से चले गए। किंतु शनिदेव बड़े ही क्रोधित होकर वहां से चले गए। काल बीत गया तब राजा पर  साढ़ेसाती की दशा आई ।  शनि देव घोड़े के सौदागर बनकर अपने सुंदर-सुंदर घोड़ों के साथ राजा के राज्य में आए, राजा के सैनिक ने सौदागर के आने की खबर राजा को बताई तो राजा ने अपने अश्वपाल को अच्छे-अच्छे घोड़े खरीदने को कहा और अच्छे नस्ल के घोड़े का दाम सुनकर अश्वपाल चौक गया और राजा को इस बात की सूचना दी। राजा घोड़ा खरीदने के लिए स्वंम आए और उसमें से एक अच्छा घोड़ा सवारी के लिए चुन लिया और जैसे ही उस घोड़े पर सवार हुए वह घोड़ा उनको जंगल में बहुत दूर ले गया। राजा को जंगल में छोड़ कर वह घोड़ा अंतर्ध्यान हो गया।  राजा जंगल में भटकते भटकते बहुत दूर चले गए, और भूखा प्यास से व्याकुल हो रहे थे। तभी उन्हें एक ग्वाला दिखाई दिया ग्वाले ने राजा विक्रमादित्य को पानी पिलाया और राजा ने अपनी उंगली से अंगूठी निकाल कर उस ग्वाले को दे दिया।अब राजा आगे की ओर चल दिए जिस राज्य में राजा विक्रमादित्य पहुंचे वह राज्य राजा चंद्रसेन का था।  इन दोनों राज्यों में दुश्मनी थी क्योंकि राजा विक्रमादित्य ने धराउद का राजा  चंद्रसेन को युद्ध में पराजित किया था और उन्हें मृत्युदंड ना देकर जीवनदान दिया। इसी बात पर चंद्रसेन  क्रोधित होकर अपने राज्य चला आया और जितने भी विक्रमा नाम के व्यक्ति थे उन सभी को फांसी लगवा दिया करता था।  शनि देव भगवान के क्रोध से राजा विक्रमादित्य राजा चंद्रसेन की नगरी में जा पहुंचे। वहां के लोगों को यह पता नहीं था कि यह राजा विक्रमादित्य है। वहां पर लोगों ने राजा को पागल समझ कर पत्थर मारने लगे मारो इसे ! मारो इसे ! यह पागल नगरी में कहां से आ गया।  राजा विक्रमादित्य के कपड़े फटे हुए थे, हाथ पैर में से खून बह रहा था इसलिए सब प्रजा राजा विक्रमादित्य को पागल समझ रही थी । राजा विक्रमादित्य  के पास एक लकड़ी का व्यपारी आया और उन्हें अपने साथ ले गया। उस दिन उसकी दुकान पर बहुत ग्राहक आए और सेठ ने खुब धन कमाया। उस दिन उस दुकानदार की सारी लकड़ियां बिक गई। वह सेठ उस आदमी को भाग्यवान पुरुष समझ कर अपने घर भोजन कराने के लिए ले गया। भोजन करते समय राजा ने देखा की एक खूंटी पर हार लटक रहा है और वह खूंटी उस हार को निकल रही है। भोजन करने के पश्चात् सेठ को घर में वह हार नही मिला । उसने सोचा कि इस व्यक्ति के अलावा मेरे घर कोई और नहीं आया है लगता है कि इसी व्यक्ति ने मेरे हार की चोरी की है। परंतु राजा ने मना किया कि मैंने कोई हार नहीं चुराया तो वहां पर सात आठ आदमी इकठ्टे हो गए और उसको लेकर राजा चंद्रसेन के पास लेकर गए। राजा ने कहा शक्ल सूरत से तुम भले आदमी प्रतीत होते हो चोर नहीं लगते किंतु सेठ का कहना है कि तुम्हारे अलावा कोई और घर में नहीं था इसीलिए चोरी तुमने ही की है। तब राजा ने आज्ञा दी और राजा की आज्ञा का पालन किया गया। उसके हाथ-पैर कटवा दिए गए। कुछ काल व्यतीत होने पर एक तेली उसको अपने घर ले गया। और बीका को मतलब विक्रमादित्य को कोल्हू पर  बिठा दिया। बीका कोल्हू पर बैठा हुआ अपनी जुबान से बैल हकता रहा। अब राजा की साढ़ेसाती की दशा समाप्त हो गई। यह साढ़ेसाती राजा विक्रमादित्य की पत्नी की तपस्या और पूजा से समाप्त हुई। एक रात को वर्षा ऋतू के समय राजा विक्रमादित्य मल्हार राग गाने लगे तो उनका गाना सुनकर उस नगर की राजकुमारी गाने पर मोहित हो गई और अपनी सखी से कहा जाकर देखो तो यह कौन गा रहा है। तब उसे देखने के लिए सखी इधर उधर घूमती फिरती है और एक तेली के घर पहुंची उसने देखा कि एक चौरंगिया गा रहा है।  सखी ने महल जाकर राजकुमारी को बतलाया। राजकुमारी ने अपने मन में प्राण कर लिया कि मैं चौरंगिया से विवाह करूंगी। प्रातकाल राजकुमारी को दासी ने जगाया तो राजकुमारी ने कहा आज मेरा अनशन व्रत है। मैं नहीं उठूंगी यह बात दासी ने रानी को बताई तो रानी राजकुमारी के पास गई और कारण पूछा तो राजकुमारी ने कहा यह मैंने प्रण लिया है कि तेली के घर जो चौरंगिया है में उसी  से विवाह करूंगी। रानी ने कहा क्या तुम पागल हो गई हो तुम्हें पता भी है क्या कह रही हो। मैं तुम्हारा विवाह किसी राजा के साथ करवाउंगी लेकिन राजकुमारी कहने लगी कि मैंने प्रण किया है मैं उसी से शादी करूंगी। रानी ने तब राजा से कहा राजा ने भी यही समझाया कि हम तुम्हारा विवाह किसी देश के राजकुमार से करवाएंगे। तुम अपना प्रण तोड़ दो राजकुमारी ने कहा कि मैं अपने प्राण दे दूंगी लेकिन प्रण नहीं तोडूंगी। राजा ने कहा कि जैसी तुम्हारी इच्छा जो भाग्य में लिखा होगा वही होगा।राजा ने तेली को बुलाकर कहा कि जो तुम्हारे यहां चौरंगिया है उसके साथ  मैं अपनी पुत्री का विवाह करना चाहता हूं। तब तेली ने कहा ऐसा कैसे हो सकता है आप इतने बड़े राजा और कहां हम नीच तेली लेकिन बीका ने मना कर दिया उन्होंने कहा ऐसा नहीं हो सकता है लेकिन राजा ने अपनी लड़की का विवाह राजा विक्रमादित्य के साथ कर दिया। रात्रि को विक्रमादित्य और राजकुमारी महल में सोए थे।  तो आधी रात के समय शनिदेव ने विक्रमादित्य को स्वप्न दिखाया कि राजा तुमने मुझे छोटा बताकर कितना दुख उठाया। राजा ने क्षमा मांगी शनिदेव ने खुश होकर राजा को हाथ पैर दिए। तब राजा बोले शनिदेव मेरी आपसे एक प्रार्थना है कि मेरे जैसा दुख आप किसी को ना दे। शनिदेव ने कहा तुम्हारी यह प्रार्थना स्वीकार है तब शनिदेव ने कहा जो मनुष्य मेरी कथा सुनेगा या कहेगा मेरी दशा में किसी को किसी प्रकार का दुख नहीं होगा। जो मेरा प्रतिदिन ध्यान करेगा या चींटियों को आटा डालेगा उसकी सब मनोकामना पूर्ण होंगी। इतना कहकर शनिदेव अंतर्ध्यान हो गए। इस बीच राजकुमारी की आंख खुली और उसने देखा कि राजा के हाथ पैर सही हो गए हैं राजा ने राजकुमारी को अपना सब हाल बताया। मैं उज्जैन का राजा हूं। मेरा नाम विक्रमादित्य है। यह सुनकर राजकुमारी बहुत खुश हुई। सुबह राजकुमारी ने सखियों को अपने पति का वृत्तांत सुनाया।जब सेठ ने यह सुना तो वह राजा के पास गया और उनसे माफी मांगने लगा। राजा के पैरों पर गिरकर कहने लगा कि मैंने आपको चोरी का झूठा दोष लगाया था। आप जो चाहे वह दंड दे सकते हैं। तब राजा ने कहा कि मुझ पर शनिदेव का प्रकोप था इस कारण मुझे इतना दुख प्राप्त हुआ इसलिए इसमें तुम्हारा कोई दोष नहीं है। तुम अपने घर जाओ। तब सेठ ने कहा कि मेरी आत्मा को शांति तभी मिलेगी जब आप मेरे घर प्रतिभोज  करेंगे। राजा ने कहा ठीक है जैसी तुम्हारी मर्जी। सेठ ने अपने घर जाकर कई प्रकार के सुंदर और स्वादिष्ट भोजन बनवाए । जिस समय राजा भोजन कर रहे थे उसी समय उन्होंने एक आश्चर्यजनक घटना सबको दिखाई कि जो खूंटी हार को पहले निकल गई थी वह अब उगल रही थी। जब भोजन समाप्त हो गया तब सेठ  ने हाथ जोड़कर राजा को बहुत सी मोहरे दी और कहा कि हमारी एक कन्या है उसका नाम श्री कंबरी है। उसका पानी ग्रहण करें इसके बाद सेठ ने अपनी कन्या का विवाह राजा के साथ कर दिया और बहुत सा धन, दास -दासी आदि दिए। इस प्रकार कुछ दिनों तक वहां रहने के पश्चात राजा विक्रमादित्य अपने राज्य जाने के लिए कहा और राजकुमारी और श्री कंबरी दोनों जगह के दहेज में मिले अपने धन और दास - दासी सहित राजमहल उज्जैन नगरी की ओर चल दिए। जब नगरवासियों ने राजा के आने का समाचार सुना तो समस्त उज्जैन की प्रजा स्वागत के लिए आई। राजा प्रसंता पूर्वक अपने महल में पधारे सारे नगर में बड़ा भारी उत्सव मनाया गया और रात्रि को दीपमाला जलाई गई। उस दिन राजा ने पूरे राज्य में यह सूचना करा दी कि शनिदेव सब ग्रहों में सर्वोपरि अर्थात सबसे बड़े हैं। मैंने इनको छोटा बतलाया था इसी कारण मुझको इतना दुख मिला। तब सारे नगर में राजा ने शनिदेव की पूजा और कथा करने को कहा। इस प्रकार उज्जैन नगरी की प्रजा शनिदेव की कृपा से सुखी से रहने लगी। राजा चंद्रसेन ने मगध देश में पीपल पेड लगा कर भगवान शनिदेव को समर्पित किया । शनिवार के दिन पीपल के वृक्ष के नीचे एक लोटा जल डालें।  काली उड़द, सरसों का तेल, गुण, काला कपड़ा चढ़ाकर दीप जलाये और पीपल के वृक्ष की सात बार परिक्रमा करें।  ओम शनिश्चराय नमः का जाप करें। शनिदेव की कथा पढ़े और दूसरों को सुनाये। जो इस कथा को  सुनता है वह शनिदेव की कृपा से उसके समस्त दुख दूर हो जाते हैं।
धराउत में मागधीय परंपरा का वैदिक तथा ब्राह्मण धर्म और दर्शन के मनिषि माधव का कर्म स्थल था । मगध के वैदिक विद्वान माधव और दछिण भारत के विद्वसी गौतमी का शास्त्रात स्थल धराउत थी । वैदिक विद्वान माधव द्वारा बौद्ध विद्वसी गौतमी को धराउत में प्रवेश पर रोक लगायी गयी थी । जब गौतमी ने धराउत प्रवेश द्वार पर आगमन होने पर माधव एक वस्त्र में लौट रहे थे तभी गौतमी ने राजा से अनुरोध किया कि माधव जी से मुलाकात करने की अनुमति दी जाय ।राजा द्वारा माधव और गौतमी का मिलन तथा शास्त्रार्थ  स्थल का चयन कुनवां पहाडी के समीप निर्मित भवन में किया गया था । ब्राह्मण धर्म तथा दर्शन पर माधव तथा गौतमी से 6 दिनों तक शास्त्रार्थ हुई जिसमें माधव की शास्रार्थ से पराजय के बाद निधन हो गया था । राजा द्वारा कुनवां पहाडी के श्रंखला पर माधव और गौतमी का समाधि स्थल का निर्माण कराया गया है ।बराबर पर्वत समूह की कुनवां श्रंखला धराउत के दछिण दिशा में स्थित में गुणमती या गुणमत समाधि स्थल है ।कुनवां पहाडी के उतर दिशा पर बौद्ध स्तूप तथा कई मूर्तियां स्थापित है । कुनवां से 200 गज की दूरी पर 60 फीट लंबाई तथा 250 फीट लंबाई पर बौद्ध चिह्न निर्मित है ।यह स्थल दीवारों से घीरा कर वैदिक , ब्राह्मण तथा बौद्ध धर्म की मूर्तयां , स्तूप , मंदिर स्थापित है ।जेनरल कनिंघम ने ह्वेणसांग द्वारा उलेखित ग्रेनाईट पत्थर में निर्मित मूर्तियां , कुनवां श्रंखला पर निर्मित स्तूप , मंदिर , दीवार , स्मारक का अध्यन किया था । एल एस एस  ओमॉली का  बंगाल डिस्ट्रीक्ट गजेटियर गया 1906 , फ्रॉससिस बुकानन का  एन एकाउंट ऑफ द डिस्ट्रीक्ट ऑफ बिहार एण्ड पटना 1811 - 12 तथा पी सी राय चौधरी के  बिहार डिस्ट्रीक गजेटियर गया 1957 , हरिवंश पुराण , महाभारत , मत्स्य पुराण , ब्रह्म पुराण , आध्यात्म पुराण तथा बौद्ध ग्रंथों , जैन ग्रंथों , लिंग पुराण में धराउत की चर्चा है । प्राचीन काल मे धरा , धर्मा , धराउ , धराउद कलांतर धराउत नाम से ख्याति है। धराउत में स्तूप 4 थीं सदी तथा मंदिर निर्माण 9 वीं में निर्मित है । पटना से 72 कि. मी . , जहानाबाद से 20 कि .मी. दछिण और मखदुमपुर से 8 कि. मी . पूरब और बराबर पर्वत समूह से 10 कि. मी.  उतर - पूरब स्थित 876 हेक्टेयर में विकसित एतिहासिक स्थल धराउत में 2011के जनगणना के अनुसार 8310 अावादी निवास करते है । धराउत के दछिण दिशा में राजा चंद्रसेन द्वारा निर्मित 2000 फीट लंबाई तथा 800 फीट चौडाई युक्त चंद्रपोखर है ।चंद्रपोखर के उतर - पश्चिम कोण पर देव सेनापति कार्तिकायन तथा 12 भुजाओं से युक्त अवलोकितेश्वर की मूर्ति है।राजा हर्ष के दामाद तथा धराउद का राजा ध्रुव सेन द्वीतीय बालादित्य संकुचित और घमंडी राजा था । बलभी आंध्र प्रदेश निवासी  तथा बौद्ध धर्म  का हीनयान साहित्य के विद्वान महाव्यूतपत्रि बौद्धिसत्व गुणमति का निवास राजा ध्रुव ने अपने सैनिक स्थल कुनवां के समीप रखा था । बराबर पर्वत समूह की एक श्रंखला को कुनवां पहाडी के नाम से ख्याति प्प्त है।हिनयानी साहित्य में धराउत का कुनवां पहाडी , गुणवती , गुनमति का महत्वपूर्ण उल्लेख है । 643 ईं  में राजा हर्ष के पूर्वज सौर तथा शैव धर्म के उपासक थे ।चीनी यात्री ह्वेणसांग को शाक्यमुनि कहा गया । शाक्य मुनि द्वारा राजा हर्ष को बौद्ध धर्म के महयान से जोड कर महायान को राज्यश्रेय प्रप्त किया गया । 544 ई.पू. धरा विकसित तथा वैदिक केंद्र था ।750 ई. मे पाल वंश ,सेन वंश पुष्यभूति वंश गुप्त वंश 240- 467 ई. तक धराउत का विकस हुआ था तथा चंद्रसेन ने धराउत का चतुर्दिक विकास किया ।

शुक्रवार, दिसंबर 04, 2020

आध्यात्म का महान संत राधा बाबा...


      क्रांति और भक्ति के साधक राधा बाबा के नाम से विख्यात श्री चक्रधर मिश्र का जन्म बिहार राज्य का अरवल जिले के अरवल प्रखंडान्तर्गत  फखरपुर में 1913 ई. की पौष शुक्ल नवमी को शाकद्वीपीय ब्राह्मण परिवार में हुआ था। 1928 में गांधी जी के आह्वान पर गया के सरकारी विद्यालय में उन्होंने यूनियन जैक उतार कर तिरंगा फहरा दिया था। शासन विरोधी भाषण के आरोप में उन्हें छह माह के लिए कारावास में रहना पड़ा।गया में जेल अधीक्षक एक अंग्रेज था। सब उसे झुककर ‘सलाम साहब’ कहते थे; पर इन्होंने ऐसा नहीं किया। अतः इन्हें बुरी तरह पीटा गया। जेल से आकर ये क्रांतिकारी गतिविधियों में जुट गये। गया में राजा साहब की हवेली में इनका गुप्त ठिकाना था। एक बार पुलिस ने वहां से इन्हें कई साथियों के साथ पकड़ कर ‘गया षड्यन्त्र केस’ में कारागार में बंद कर दिया। जेल में बंदियों को रामायण और महाभारत की कथा सुनाकर वे सबमें देशभक्ति का भाव भरने लगे।  इन्हें तनहाई में डालकर अमानवीय यातनाएं दी गयीं; पर ये झुके नहीं। जेल से छूटकर इन्होंने कथाओं के माध्यम से धन संग्रह कर स्वाधीनता सेनानियों के परिवारों की सहायता की। जेल में कई बार हुई दिव्य अनुभूतियों से प्रेरित होकर उन्होंने 1936 में शरद पूर्णिमा पर संन्यास ले लिया। कोलकाता में उनकी भेंट स्वामी रामसुखदास जी एवं सेठ जयदयाल गोयन्दका जी से हुई। उनके आग्रह पर वे गीता वाटिका, गोरखपुर में रहकर गीता पर टीका लिखने लगे। गोरखपुर ( उतरप्रदेश ) के  गीता प्रेस से प्रकाशित कल्याण के संपादक भाई जी श्री हनुमान प्रसाद पोद्दार जी से हुई भेंट से उनके मन की अनेक शंकाओं का समाधान हुआ। इसके बाद  वे भाई जी के परम भक्त बन गये। गीता पर टीका पूर्ण होने के बाद वे वृन्दावन जाना चाहते थे; पर सेठ गोयन्दका जी एवं भाई जी की इच्छा थी कि राधा बाबा के  साथ हिन्दू धर्मग्रन्थों के प्रचार-प्रसार में योगदान दें। भाई जी के प्रति अनन्य श्रद्धा होने के कारण उन्होंने यह बात मान ली। 1939 में उन्होेंने शेष जीवन भाई जी के सान्निध्य में बिताने तथा आजीवन उनके चितास्थान के समीप रहने का संकल्प लिया।बाबा का श्रीराधा माधव के प्रति अत्यधिक अनुराग था। समाधि अवस्था में वे नित्य श्रीकृष्ण के साथ लीला विहार करते थे। हर समय श्री राधा जी के नामाश्रय में रहने से उनका नाम ‘राधा बाबा’ पड़ गया। 1951 की अक्षय तृतीया को भगवती त्रिपुर सुंदरी ने उन्हें दर्शन देकर निज मंत्र प्रदान किया। 1956 की शरद पूर्णिमा पर उन्होंने काष्ठ मौन का कठोर व्रत लिया।बाबा का ध्यान अध्यात्म साधना के साथ ही समाज सेवा की ओर भी था। उनकी प्रेरणा से निर्मित हनुमान प्रसाद पोद्दार कैंसर अस्पताल से हर दिन सैंकड़ों रोगी लाभ उठा रहे हैं। 26 अगस्त, 1976 को भाई जी के स्मारक का निर्माण कार्य पूरा हुआ। गीता वाटिका में श्री राधाकृष्ण साधना मंदिर भक्तों के आकर्षण का प्रमुख केन्द्र है। इसके अतिरिक्त भक्ति साहित्य का प्रचुर मात्रा में निर्माण, अनाथों को आश्रय, अभावग्रस्तों की सहायता, साधकों का मार्गदर्शन, गोसंरक्षण आदि अनेक सेवा कार्य बाबा की प्रेरणा से 1971 में भाई जी के देहांत के बाद बाबा उनकी चितास्थली के पास एक वृक्ष के नीचे रहने लगे। 13 अक्तूबर, 1992 को गीता वाटिका गोरखपुर में राधा बाबा की  आत्मा सदा के लिए श्री राधा जी के चरणों में लीन हो गयी। यहां बाबा का एक सुंदर श्रीविग्रह विराजित है, जिसकी प्रतिदिन विधिपूर्वक पूजा होती है।
 श्रीचक्रधर मिश्र विद्यार्थी जीवन में सभी उनकी प्रतिभा के कायल थे। नेतृत्व की अद्भुत क्षमता रखने वाले चक्रधर ने आठवीं कक्षा के बाद भारत को अंग्रेजी-पाश से मुक्त कराने के लिए राजनैतिक कार्यक्रमों में भाग लेना आरंभ कर दिया। हालांकि इस क्रम में उन्हें दो बार जेल यात्रा भी करनी पड़ी।जेल से बाहर आने के बाद स्वाध्याय करते-करते उनका झुकाव वेदांत की ओर होने लगा और वह शांकर मतानुयायी हो गए। जब वह इंटर कक्षा के विद्यार्थी थे, तभी शारदीय पूर्णिमा के दिन संन्यास ले लिया। अपनी ब्राšाी स्थिति की परीक्षा लेने के लिए वह कलकत्ते में गंगा के किनारे कुष्ठ रोगियों के बीच बैठने लगे।एक बार कलकत्ते में उनकी मुलाकात श्रीरामसुखदासजी महाराज से हुई और उनके माध्यम से वह सेठ श्री जयदयाल जी से मिले। उनकी निष्ठा एकमात्र निराकार में थी। जयदयाल जी  गयंदका के परामर्श से बाबा गोरखपुर आकर गीताप्रेस और फिर गीतावाटिका गए। गोरखपुर की गीतावाटिका में हनुमान प्रसाद पोद्दार जी के साथ स्वामीजी रहा करते थे। स्वामी जी आगे चलकर श्री राधा बाबा के नाम से विख्यात हुए। कहते हैं कि बाबा को अद्वैत तत्व की साधना करते हुए सिद्धि मिली। श्रीराधा बाबा के नयनों में, प्राणों में, रोम-रोम में श्री राधारानी बसी हुई थीं। उनका मन नित्य वृन्दावनी-लीला में रमा रहता था। श्रीराधामाधव की प्रीति के साकार स्वरूप बाबा सदा नि:स्पृह भाव से जनसेवा में लीन रहते थे। गीतावाटिका में विख्यात श्रीराधाष्टमी महोत्सव का शुभारंभ राधाबाबा ने ही किया। उन्होंने श्रीकृष्णलीला चिंतन,जय-जय प्रियतम,प्रेम सत्संग सुधा माला आदि शीर्षकों से साहित्य का प्रणयन भी किया। बाबा अपनी साधनावस्था में प्रतिदिन तीन लाख नाम जप किया करते थे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे। हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे-इसकी 64 माला जप करने से एक लाख नाम जप होता है। इसके अतिरिक्त उन्होंने अनेक बार श्रीमद्भागवतमहापुराण का अखंड पाठ किया। राधा बाबा 13 अक्टूबर, 1992 को सदा के लिए अंतर्हित हो गए। बाबा का सुंदर एवं प्रेरक श्रीविग्रह गीतावाटिका के नेह-निकुंज में प्रतिष्ठित है ।
 श्रीचक्रधर मिश्र  विद्यार्थी जीवन में सभी उनकी प्रतिभा के कायल थे। नेतृत्व की अद्भुत क्षमता रखने वाले चक्रधर ने आठवीं कक्षा के बाद भारत को अंग्रेजी-पाश से मुक्त कराने के लिए राजनैतिक कार्यक्रमों में भाग लेना आरंभ कर दिया। हालांकि इस क्रम में उन्हें दो बार जेल यात्रा भी करनी पड़ी।जेल से बाहर आने के बाद स्वाध्याय करते-करते उनका झुकाव वेदांत की ओर होने लगा और वह शांकर मतानुयायी हो गए। जब वह इंटर कक्षा के विद्यार्थी थे, तभी शारदीय पूर्णिमा के दिन संन्यास ले लिया। अपनी ब्राšाी स्थिति की परीक्षा लेने के लिए वह कलकत्ते में गंगा के किनारे कुष्ठ रोगियों के बीच बैठने लगे। एक बार कलकत्ते में उनकी मुलाकात श्रीरामसुखदासजी महाराज से हुई और उनके माध्यम से वह सेठ श्री जयदयाल जी से मिले। उनकी निष्ठा एकमात्र निराकार में थी। जयदयाल जी के परामर्श से बाबा गोरखपुर आकर गीताप्रेस और फिर गीतावाटिका गए। गोरखपुर की गीतावाटिका में हनुमान प्रसाद पोद्दार जी के साथ स्वामीजी रहा करते थे। स्वामी जी आगे चलकर श्री राधा बाबा के नाम से विख्यात हुए। राधा  बाबा को अद्वैत तत्व की साधना से सिद्धि  प्राप्त हुई थी । बाबा के नयनों में, प्राणों में, रोम-रोम में श्री राधारानी बसी तथा मन नित्य वृन्दावनी-लीला में रमा रहता था। श्रीराधामाधव की प्रीति के साकार स्वरूप बाबा सदा नि:स्पृह भाव से जनसेवा में लीन रहते थे। गीतावाटिका में विख्यात श्रीराधाष्टमी महोत्सव का शुभारंभ राधाबाबा द्वारा प्रारंभ किया गया था ।
विश्व में आध्यात्मिक एवं सांस्कृतिक धरोहर, धार्मिक प्रवृत्ति एवं परम्पराओं के संरक्षण एवं संवर्धन तथा प्रचार-प्रसार के लिए समय-समय पर महान संतों-विभूतियों का अविर्भाव होता रहा है। भारतीय विभूतियों की पावन श्रृंखला में गोरखपुर का  "कल्याण" के सम्पादक हनुमान प्रसाद पोद्दार  एवं नित्य जीवन सहचर "प्रीतिरसावतार" राधा बाबा थे ।राधा बाबा का  बचपन का नाम चक्रधर मिश्र था। उनके परिवार का पालन-पोषण पौरोहित्य कार्य से होता था। बालक चक्रधर की विशिष्ट योग्यता के बारे में अध्यापकों को प्रारंभ में ही ज्ञान हो गया था।  आठवीं कक्षा उत्तीर्ण करने के बाद भारत माता को अंग्रेजी पाश से मुक्त कराने के लिए उन्होंने आंदोलन में भाग लेना शुरू कर दिया। इस कारण दो बार जेल-यात्रा करनी पड़ी। जेल का जेलर बड़ा क्रूर था। उन कठोर यातनाओं के मध्य उन्हें कई बार भगवत्कृपा की विशिष्टानुभूति हुई। इन दिव्य अनुभूतियों ने बालक चक्रधर के मन में प्रेरणा जगा दी कि जेल से बाहर आने के बाद भगवदीय जीवन व्यतीत करना है।जेल से बाहर आने के बाद उनके बड़े भाइयों ने उन्हें आगे के अध्ययन के लिए कलकत्ता बुला लिया। वहां स्कूली अध्ययन के साथ उनका स्वाध्याय भी होता रहता था। स्वाध्याय करते-करते उनके मन का झुकाव वेदान्त की ओर होने लगा और आप शांकरमतानुयायी हो गए। जब वे इण्टर कक्षा के विद्यार्थी थे, तब भगवदीय प्रेरणा से शारदीय पूर्णिमा के दिन उन्होंने संन्यास ले लिया। इससे उनके परिजनों को मर्मान्तक पीड़ा हुई, परन्तु सब जानते थे कि चक्रधर अपने निश्चय से डिगने वाला नहीं है।इण्टर की परीक्षा देकर वे एकान्त वास के लिए अज्ञात स्थान पर चले गए। वहां कठिन साधना की। फलस्वरूप उन्हें शीघ्र ही सिद्धि मिलने के पश्चात  कलकत्ता लौट आए थे । एक दिन जब वे कलकत्ता के गोविन्द भवन में पूज्य रामसुखदास जी महाराज से सम्पर्क हुआ था । रामसुख दास के माध्यम से सेठ जयदयाल गोयन्दका जी से मिलन हुआ। सेठजी साकार एवं निराकार-दोनों प्रकार की निष्ठाओं के विश्वासी तथा  बाबा की निष्ठा  निराकार में थी। कई दिनों तक पारस्परिक विचार-विनिमय हुआ परन्तु सेठजी चक्रधर बाबा की विचारधारा में परिवर्तन नहीं ला सके। फिर भी यह तय हुआ कि श्रीमद् भागवत् पर टीका-लेखन का कार्य गोरखपुर की गीताप्रेस से हो। अत: सेठजी के परामर्श के अनुसार चक्रधर बाबा गोरखपुर की गीता वाटिका गए। उस समय गीता वाटिका में एक वर्षीय अखण्ड भगवन्नाम-संकीर्तन का भव्यानुष्ठान चल रहा था। वहां बाबू जी (हनुमान प्रसाद पोद्दार)आए और उन्होंने गैरिक वस्त्रधारी युवक संन्यासी के चरण छूकर प्रणाम किया। इस प्रणाम का चमत्कार अनोखा था। सेठ जयदयाल जी के साथ कई दिवस विचार-विनिमय के उपरान्त भी जो परावर्तन नहीं हो पाया, वह कार्य इस क्षणिक स्पर्श ने कर दिखाया। निराकार निष्ठा तिरोहित हो गयी और साकारोपासना का बीजारोपण इस युवा संन्यासी चक्रधर बाबा के अन्तर में हो गया।राधा बाबा सन् 1939 तक सेठ जयदयाल जी के साथ रहे और टीका-लेखन का कार्य पूर्ण हो गया। प्रश्न था कि बाबा अब कहां रहें। बाबा की चाह थी कि संन्यास का व्रत लेकर श्री वृन्दावन धाम में वास किया जाए और सेठ जी चाहते थे कि बाबा उनके साथ रहें, जिससे चारों दिशाओं में श्रीमद् भागवत का प्रचार-प्रसार हो सके। इस बीच भगवान श्रीकृष्ण द्वारा दी गई अन्त: प्रेरणा से 11 मई, 1939 को कलकत्ता में गंगा का जल हाथ में लेकर चक्रधर बाबा ने संकल्प लिया कि अब मैं भविष्य में बाबूजी अर्थात् श्री हनुमान प्रसाद पोद्दार जी के साथ रहूंगा। इस संकल्प का एक उप-संकल्प भी था कि जहां बाबूजी की चिता जलेगी, उसी स्थान के समीप अपना जीवन व्यतीत कर दूंगा। पूज्य बाबूजी (श्रद्धेय हनुमान प्रसाद पोद्दार) गीता वाटिका में रहा करते थे। चक्रधर बाबा भी बाबूजी के साथ रहने लगे थे। बाबा भगवद् भाव राज्य में प्रवेश करके अपने प्रियतम श्रीकृष्ण के साथ नित्य लीला-विहार किया करते थे। बाबा के अन्तर में प्रेम का स्रोत निरन्तर प्रवाहित रहता था। पहले वे कट्टर वेदान्ती थे। अद्वैत तत्व की साधना करते समय उन्हें सिद्धि मिली थी। और अब ब्राहृस्वरूप होकर ब्राहृसायुज्य की स्थिति को भी उन्होंने प्राप्त कर लिया। बाबा के नयनों में, ह्मदय में, प्राणों में, रोम-रोम में श्रीराधारानी छायी हुई थीं। सन् 1951 की अक्षय तृतीया के दिन राधा बाबा को  भगवती श्रीत्रिपुरसुन्दरी जी ने दर्शन देकर निज मंत्र का दान दिया। सन् 1956 की शरद पूर्णिमा के दिन उन्होंने काष्ठ-मौन का कठोर व्रत लिया। श्रीराधा भाव मधुरोपासना और सन् 1957 के 8 अप्रैल को बाबा की श्रीराधा भाव में प्रतिष्ठा हुई। श्री राधाभाव में प्रतिष्ठा होने से और श्रीराधा नाम का आश्रय लेने से आप "राधा बाबा" के नाम से विख्यात हुए।राधा बाबा की प्रेरणा से 16 फरवरी, 1975 को हनुमान प्रसाद पोद्दार कैन्सर अस्पताल की स्थापना का संकल्प लिया गया, जहां आज भी अनेक रोगी चिकित्सा लाभ प्राप्त कर रहे हैं। आपके ही संकल्प से 26 अगस्त, 1976 को बाबू जी के स्मारक के निर्माण का कार्य पूर्ण हुआ। सबसे अधिक महत्वपूर्ण आपका कार्य है गीता वाटिका में श्रीराधाकृष्ण साधना मन्दिर, जो भक्तजनों के आकर्षण का केन्द्र है। इस मन्दिर के श्री विग्रहों में प्राण-प्रतिष्ठा का कार्य राधा बाबा की देख-रेख में सन् 1985 में सम्पन्न हुआ। इसके अतिरिक्त "श्रीकृष्णलीला-चिन्तन", "जय-जय प्रियतम", "प्रेम-सत्संग-सुधा-माला", आदि-आदि नव साहित्य का प्रणयन, आत्र्तजनों को आश्रय, अभावग्रस्तों को आश्वासन, साधकों का मार्ग प्रदर्शन, गोमाता का संरक्षण आदि अनेक-अनेक ऐतिहासिक कार्य आपके द्वारा सम्पन्न होते रहे। श्री हनुमान प्रसाद पोद्दार ने अपनी जीवन लीला का संवरण सन् 1971 में किया। उनकी अन्तेष्टि गीता वाटिका में राधा बाबा की कुटिया के पास ही हुई। बाबा ने कुटिया के आवास को विसर्जित कर दिया और चितास्थली के समक्ष एक विशाल वृक्ष के नीचे अपना आसन लगाया। इस स्थान पर बाबा अपने तिरोहण, सन् 1992 तक नित्य विराजित रहे। श्रीराधाभाव के मूर्तिमान स्वरूप राधा बाबा 13 अक्तूबर, 1992 को हम सभी से सदा के लिए विदा लेकर अन्तर्हित हो गए।

जैविक विकास : मिट्टी दिवस...


विश्व मिट्टी दिवस की संयुक्त राष्ट्र द्वारा हर वर्ष 5 दसंबर को मनाया जाता है। इस दिवस को मनाने का उदेश्य किसानो और आम लोगों को मिट्टी की महत्ता के बारे में जागरूक करना है। विश्व के बहुत से भागों में उपजाऊ मिट्टी बंजर और किसानो द्वारा ज्यादा रसायनिक खादों और कीड़ेमार दवाईओं का इस्तेमाल करने से मिट्टी के जैविक गुणों में कमी आने के कारण उपजाऊ क्षमता में गिरावट आ रही है और यह प्रदूशंन का भी शिकार हो रही है।जिला किसान संगठन जहानाबाद के सचिव साहित्यकार एवं इतिहासकार सत्येन्द्र कुमार पाठक ने कहा है कि  किसानो और आम जनता को मिट्टी की सुरक्षा के लिए जागरूक करने की जरूरत है। 20 दसंबर 2013 को प्रति वर्ष 5 दसंबर को विश्व मिट्टी दिवस मनाने का फैसला लिया गया था। 5 दिसंबर, 2017 को संपूर्ण विश्व में ‘विश्व मृदा दिवस’ मनाया गया। वर्ष 2017 में इस दिवस का मुख्य विषय ग्रह की देख-भाल भूमि से शुरू होती है) था। इस अवसर पर भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने किसानों से मिट्टी के नियमित परीक्षण हेतु ‘स्वस्थ धरा, खेत हरा’ के माध्यम से आह्वान किया। वर्तमान में विश्व की संपूर्ण मृदा का 33 प्रतिशत पहले से ही बंजर या निम्नीकृत हो चुका है। उल्लेखनीय हैं कि हमारे भोजन का 95 प्रतिशत भाग मृदा से ही आता है। वर्तमान में 815 मिलियन लोगों का भोजन असुरक्षित है और 2 अरब लोग पोषक रूप से असुरक्षित हैं, लेकिन हम इसे मृदा के माध्यम से कम कर सकते हैं। इस दिवस का उद्देश्य मृदा स्वास्थ्य के प्रति तथा जीवन में मृदा के योगदान के प्रति लोगों में जागरूकता बढ़ाना है। 20 दिसंबर, 2013 को संयुक्त राष्ट्र के खाद्य एवं कृषि संगठन ने 5 दिसंबर को प्रतिवर्ष ‘विश्व मृदा दिवस’ मनाने की पेशकश की थी जिसे संयुक्त राष्ट्र के द्वारा अपनाया गया । संयुक्त राष्ट्र महासभा ने  वर्ष 2015 को ‘अंतरराष्ट्रीय मृदा वर्ष’  के रूप में मनाने की घोषणा की  ।मिट्टी के नुकसान के बारे में जागरुकता बढ़ाने के लिए 5 दिसंबर को विश्व मृदा दिवस सेलिब्रेट दुनियाभर में प्रत्येक वर्ष 5 दिसंबर को विश्व मृदा दिवस  मनाया जाता है । दुुनियाभर में हर साल 5 दिसंबर को विश्व मृदा दिवस  मनाया जाता है. विश्व मृदा दिवस जनसंख्या वृद्धि‍ के कारण बढ़ रही समस्याओं को उजागर करता है. आज दुनियाभर में हर जगह मिट्टी का कटाव कम करना जरूरी है, ताकि खाद्य सुरक्षा तय की जा सके । मिट्टी का निर्माण खनिज, कार्बनिक पदार्थ और हवा के विभिन्न अनुपातों से होता है. यह जीवन के लिए बेहद महत्वपूर्ण है. इससे ही पौधों का विकास होता है. ये कीड़ों और अन्‍य कई जीवों के रहने की जगह होती है । दरअसल, मिट्टी का संरक्षण जरूरी है, इस वजह से मिट्टी को हो रहे नुकसान के बारे में जागरूकता बढ़ाने के लिए 5 दिसंबर को विश्व मृदा दिवस सेलिब्रेट किया जाता है ।  2002 में अंतरराष्‍ट्रीय मृदा विज्ञान संघ ने 5 दिसंबर को हर साल विश्व मृदा दिवस मनाने की सिफारिश की थी. थाइलैंड के नेतृत्व ने भी विश्व मृदा दिवस की औपचारिक स्थापना की का समर्थन किया था.एफएओ के सम्मेलन ने सर्वसम्मति से जून 2013 में विश्व मृदा दिवस का समर्थन किया. इसके बाद 68वें संयुक्त राष्ट्र महासभा में 5 दिसंबर को विश्व मृदा दिवस मनाने का अनुरोध किया. दिसंबर 2013 में ही 68वें सत्र में संयुक्त राष्ट्र महासभा ने 5 दिसंबर को ये दिवस मनाने का ऐलान किया. इसके अगले साल, यानी 5 दिसंबर 2014 से विश्व मृदा दिवस मनाया जाने लगा है ।खाद्य और कृषि संगठन के मुताबिक, इस साल की थीम "मृदा कटाव रोकें, हमारा भविष्य संवारें'' है. यह थीम मृदा प्रबंधन में बढ़ती चुनौतियों पर केंद्रित है. इस लक्ष्‍य मृदा को बेहतर बनाने और इसके संरक्षण की दिशा में काम करने के लिए दुनियाभर के सरकारी संगठन और समुदायों को प्रोत्साहित करके मिट्टी की गुणवत्ता को बढ़ाने की रूपरेखा तैयार करना है.

                             

बुधवार, दिसंबर 02, 2020

दिव्यांग की इच्छाशक्ति विकास का द्योतक...


 विश्व दिव्यांग दिवस पर संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा 1992  से  विकलांग व्यक्तियों के प्रति करुणा और विकलांगता के मुद्दों की स्वीकृति को बढ़ावा देने और आत्म-सम्मान, अधिकार और बेहतर जीवन के लिए समर्थन प्रदान करने के  उद्देश्य  से  विश्व दिव्यांग दिवस मनाया जा रहा है । दिव्यांग दिवस का  उद्देश्य है कि दिव्यांगों की जागरूकता राजनीतिक, वित्तीय और सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन के हर पहलू में विकलांग व्यक्तियों को लिया जाना शामिल है । विश्व दिव्यांग दिवस के अवसर पर विकलांग व्यक्तियों के सक्रिय, और समाज के जीवन और विकास में पूरी तरह से भाग लेने के लिए और उन्हें अन्य नागरिकों के बराबर पूरा अधिकार देने के लिए साथ ही मनुष्य के अधिकार के रूप में परिभाषित कर पूर्ण भागीदारी और समानता,और सामाजिक-आर्थिक विकास के विकास से उत्पन्न लाभ में बराबर का भागीदारी है । समाज  अपनी संकीर्ण मानसिकता को छोड़कर दिव्यांग बच्चों को सबल बनाना होगा, तभी हम विकसित होगें । 116 सालों में हुए 24 ओलंपिक में भारत ने नौ स्वर्ण पदक जीते हैं और पैरालिम्पिक्स में भारतीय खिलाडियों ने देश को दो स्वर्ण पदक दिलाए हैं । पैरालिम्पिक्स में स्वर्ण, रजत और कांस्य पदक विजेताओं  द्वारा भारत का नाम रौशन किया है । विकलांगों की सामाजिक प्रतिष्ठा को ध्यान में रखते हुए प्रधानमंत्री मोदी जी द्वारा दिए गये  सुझाव के बाद सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्रालय ने विकलांग की जगह ‘दिव्यांग’ शब्द प्रयोग किया । प्रधानमंत्री का कहना है कि ‘विकलांग व्यक्तियों में कोई अंग विशेष नहीं होता, लेकिन उनके बाकी अंगों में वह विशेषता होती है  यह  सामान्य व्यक्तियों के पास भी नहीं होती है । साहित्यकार एवं इतिहासकार सत्येन्द्र कुमार पाठक ने कहा कि 'अन्तर्राष्ट्रीय दिव्यांग दिवस' अथवा 'अन्तर्राष्ट्रीय विकलांग दिवस' प्रतिवर्ष 3 दिसंबर को मनाया जाता है। वर्ष 1976 में संयुक्त राष्ट्र आम सभा के द्वारा 'विकलांगजनों के अन्तर्राष्ट्रीय वर्ष' के रुप में वर्ष 1981 को घोषित किया गया था। वर्ष 1992 से संयुक्त राष्ट्र के द्वारा इसे अन्तर्राष्ट्रीय रीति-रिवाज़ के रुप में प्रचारित किया जा रहा है। दिव्यांगता प्रायः जन्म से, परिस्थितिजन्य अथवा दुर्घटना के कारण होती है।  समाज में दिव्यांगजन की स्थिति चुनौतीपूर्ण होती है। दिव्यांगता के कारण जीवन में अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। दृढ़ इच्छा शक्ति से व्यक्ति कठिनाई पर विजय प्राप्त कर सकता है। दिव्यांगजन में  विशेष प्रतिभा विद्यमान होती है। दिवयांगों की  इच्छा शक्ति को जागृत कर उनके आत्मविश्वास को दृढ़ करते हुए उनकी प्रतिभा को विकसित कर उनको आत्मनिर्भर बनाया जाए, जिससे वह सम्मानजनक जीवन व्यतीत कर सकें।
संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा वर्ष 1981 को विकलांग व्यक्तियों के लिए अंतर्राष्ट्रीय वर्ष के रूप में घोषित किया, जिसकी थीम थी ‘पूर्ण भागीदारी और समानता’। इस थीम के तहत समाज में विकलांगों को बराबरी का अवसर उपलब्ध कराने और उनके अधिकारो के प्रति उन्हें और अन्य लोगों को जागरूक करने पर जोर दिया गया था ताकि विकलांगों को सामान्य नागरिकों के समान ही सामाजिक-आर्थिक विकास का लाभ प्राप्त हो सके।संयुक्त राष्ट्र संघ ने राष्ट्रीय, क्षेत्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर विकलांगों को अवसर की समानता, उनका पुनर्वास और विकलांगता की रोकथाम के लिए एक वैश्विक कार्यवाही योजना तैयार की। इस योजना में अनुशंसित गतिविधियों को लागू करने के लिए सरकारों एवं संगठनों को एक समय सीमा प्रदान करने के क्रम में संयुक्त राष्ट्र द्वारा 1983-1992 के दशक को विकलांगों के लिए अंतर्राष्ट्रीय दशक के रूप में घोषित किया गया। वर्ष 1992 में ही संयुक्त राष्ट्रसंघ द्वारा 3 दिसम्बर को अंतर्राष्ट्रीय विकलांग दिवस के रूप में मनाने की घोषणा भी की गयी और तभी से 3 दिसम्बर को अंतर्राष्ट्रीय विकलांग दिवस मनाया जाता है। विकलांगता की बढ़ती स्थिति और विकलांगों के साथ होने वाले दुर्व्यवहार को रोकने तथा उनके अधिकारों की रक्षा के लिए वैश्विक स्तर पर एक समान मानकों की स्थापना करने के लिए संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा 13 दिसम्बर 2006 को विकलांग व्यक्तियों के अधिकारों पर एक अभिसमय को अपनाया गया। यह अभिसमय 3 मई 2008 से लागू हुआ और वर्तमान में 163 देश इस अभिसमय को अपना चुके हैं। वर्ष 2019 के अन्तर्राष्ट्रीय विकलांग दिवस का केन्द्रीय विषय विकलांग व्यक्तियों के नेतृत्व और उनकी भागीदारी को बढ़ावा देना: 2020  के विकास एजेंडे में एक्शन लेना’ था । 2020 एजेंडा में समावेशी, समान और सतत विकास के लिए विकलांग व्यक्तियों के सशक्तिकरण है ।
सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्रालय का दिव्यांगजन सशक्तिकरण विभाग भारत सरकार द्वारा  विकलांग व्यक्तियों को सशक्त बनाने के लिए कार्य कराया जा रहा है। वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार भारत में दिव्यांगो की जनसंख्या 2.6814994  है। इसमें से 55.89% पुरुष और 44.11 महिलाएँ हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में दिव्यांगों की संख्या शहरों की तुलना में अधिक है। दिव्यांगों की कुल जनसंख्या का 69.45% ग्रामीण क्षेत्र में निवास करती है। दिव्यांग व्यक्तियों को अपनी शारीरिक एवं मानसिक अक्षमताओं के कारण अनेक समस्याओं का सामना करना पड़ता है, जिससे शिक्षा, रोजगार एवं सार्वजनिक सुविधाओं की प्राप्ति में सामाजिक उपेक्षा का भी शिकार होना पड़ता है ।दिव्यांग (समान अवसर, अधिकार संरक्षण एवं पूर्ण भागीदारी) अधिनियम के पारित हुए 24 वर्ष  हुए  परंतु शिक्षा और रोजगार के अवसर 24 सालों में देश में विकलांगों या दिव्यांगों की स्थिति ठीक नहीं है। 2011 की जनगणना के अनुसार, देश की 45 फीसदी विकलांग आबादी अशिक्षित है। दिव्यांगों में भी जो शिक्षित हैं, उनमें 59 फीसदी 10वीं पास हैं, जबकि देश की कुल आबादी का 67 फीसदी 10वीं तक शिक्षित है। सर्व शिक्षा अभियान के तहत सभी को समान शिक्षा देने का प्रावधान है, बावजूद इसके शिक्षा व्यवस्था से बाहर रहने वाली आबादी का सबसे बड़ा हिस्सा विकलांग बच्चों का है। 6-13 आयुवर्ग के विकलांग बच्चों की 28 फीसदी आबादी स्कूल से बाहर है। विकलांगों के बीच ऐसे भी बच्चे हैं जिनके एक से अधिक अंग अपंग हैं, उनकी 44 फीसदी आबादी शिक्षा से वंचित है। जबकि मानसिक रूप से अपंग 36 फीसदी बच्चे और बोलने में अक्षम 35 फीसदी बच्चे शिक्षा से वंचित हैं। सरकार द्वारा दिव्यांग बच्चों को स्कूल में भर्ती कराने हेतु कई कदम उठाने के बावजूद आधे से अधिक दिव्यांग बच्चे स्कूल नहीं जाते है । बिहार में दिव्यांगों की संख्या 2331900 में 5 से 14 वर्ष के दिव्यांग बच्चों की संख्या 717505 है । स्टेट ऑफ एजुकेशन रिपोर्ट ऑफ इंडिया , चिल्ड्रेन विद डिसएलैटिव तथा 2011 जनगणना के अनुसार देश में दिव्यांग बच्चे 7864636 है जिसमे बिहार में दिव्यांग बच्चे 717505 है ।

भारतीय संबत और खरमास...


 


 ग्रंथों में ग्रहों की चाल और उनकी दशा का मानवीय  जिन्दगी में घटने वाली प्रत्येक घटना पर  विशेष उलेख  है । ग्रहों की चाल पर मानवीय मूल्यों में लाभ और  हानि का उतार चढाव की घटनाएं होती रहती है । मानव को  लाभ-हानि ग्रहों के चाल के मुताबिक व्यक्ति के  कार्य सही तथा गलत का मूल्यांकन होता है । ग्रहों की स्थिति में खरमास है। जिस तरह श्राद्ध महीने में नए और शुभ कार्य करना मना है उसी तरह खरमास में भी शुभ कार्य और यज्ञ करना निषेध  है ।जयोतिष शास्त्र के अनुसार सूर्य  प्रत्येक राशि में माह के लिए रहता है । अर्थात 12 महीने में 12 राशियों में प्रवेश करता है । सूर्य का यह भ्रमण  साल चलता रहता है । इसी कारण से प्रत्येक साल भर में शुभ और अशुभ मुहूर्त बदलते रहते हैं ।12 राशियों में भ्रमण करते हुए जब सूर्य गुरु यानी बृहस्पति की राशि धनु या मीन में प्रवेश करता है तभी खरमास प्रारंभ  होता है । खरमास मेंसभी तरह के शुभ कार्य नहीं किए जाते हैं । शास्त्रों के अनुसार खरमास में सभी तरह के शुभ कार्यों मे जैसे शादी, सगाई, गृह प्रवेश, नए घर का निर्माण आदि नहीं किया जाता है । कारण है कि खरमास के दौरान सूर्य गुरु की राशियों में रहता है जिसके कारण गुरु का प्रभाव कम हो जाता है । जबकि शुभ और मांगलिक कार्यों के लिए गुरु का प्रबल होना बहुत जरुरी होता है । गुरु जीवन में वैवाहिक सुख और संतान देने वाले है । वैज्ञानिक कारण - विश्व की आत्मा सूर्य  और बृहस्पति की किरणें अध्यात्म और अनुसाशन की ओर प्रेरित करती है ।  सूर्य और बृहस्पति जब एक दूसरे की राशि में प्रवेश करते हैं  तभी समर्पण और लगाव की बजाय त्याग और छोड़ने की भूमिका अधिक देती है साथ ही उद्देश्य और लक्ष्य में असफलताएं मिलती हैं । विवाह, गृहप्रवेश, यज्ञ आदि वर्जित हो जाता है .क्योंकि बृहस्पति और सूर्य दोनों ऐसे ग्रह हैं जिनमें बहुत ज्यादा समानता है. सूर्य की तरह बृहस्पति भी हाइड्रोजन और हीलियम से बना हुआ है ।सूर्य की तरह इसका केंद्र भी पानी से भरा हुआ है, जिसमें ज्यादातर हाइड्रोजन ही है जबकि दूसरे ग्रहों का केंद्र ठोस है बृहस्पति सौर मंडल के सभी ग्रहों से ज्यादा भारी हैं. अगर बृहस्पति थोड़ा बड़ा होता तो वो दूसरा सूर्य बन गया होता ।सूर्य पृथ्वी से 15 करोड़ किलोमीटर और बृहस्पति 64 करोड़ किलोमीटर दूर है. ये दोनों साल में एक बार एक दूसरे के साथ हो जाते हैं जिससे सौर चुम्बकीय रेखाओं के माध्यम से बृहस्पति के कण बहुत ज्यादा मात्रा में पृथ्वी के वायुमंडल में पहुंच जाते हैं, जो एक दूसरे की राशि में आकर अपनी किरणों को आंदोलित करते हैं. जिसकी वजह से धनु और मीन राशि के सूर्य को खरमास कहा जाता है. और सिंह राशि के बृहस्पति में सिंहस्त दोष दर्शाकर भारतीय भूमंडल के विशेष क्षेत्र गंगा और गोदावरी के साथ-साथ उत्तर भारत के उत्तरांचल, उत्तर प्रदेश, बिहार, छत्तीसगढ़, राजस्थान, आदि राज्यों में शुभ काम या यज्ञ नहीं किया जाता. जबकि पूर्वी और दक्षिणी प्रदेशों में इस तरह के दोष को नहीं माना गया है.सूर्य दिसंबर महीने के मध्य में धनु राशि में प्रवेश करते हैं. इस बार सूर्य धनु राशि में 16 दिसंबर को प्रवेश कर रहे हैं. जिसके बाद से खरवास शुरू हो जाएगा. सूर्य 14 जनवरी तक धनु में राशि में रहेंगे. 14 जनवरी के बाद खरमास खत्म हो जाएगा। साहित्यकार एवं इतिहासकार सत्येन्द्र कुमार पाठक ने कहा कि भातीय ग्रंथों तथा ज्योतिष शास्त के गणना के अनुसार विश्व में संबत का रूप दिया गया है । संबत का प्रमुख केंद्र सूर्य है । प्राचीन काल मे सौर संबत प्रचलित किया गया । 14 मनुओं ने विभिन्न मन्वन्तर का प्रारंभ कर विकास की रूप रेखा अपना कर कार्य किया वही विभिन्न राजाओं द्वारा संबतं की परंपरा कायम किया है । वर्तमान में 7 वें वैवस्वत मनु ने वैवस्वत मन्वंतर  प्रारंभ है । इस मन्वंतर के सतयुग , त्रेता ,द्वापर के बाद कलियुग प्रारंभ है ।सतयुग में मत्स्य कल्प  में प्रभव संवत्सर , कच्छप कल्प में विभव संवत्सर  , वराह कल्प में शुक्ल संवत्सर   तथा न्टसिह कल्प  में अंगिरा संवत्सर , त्रेता युग में सर्वजीत संवत्सर , तारण संवत्सर के बाद द्वापर युग में संवत्सर कायम हुआ । कलियुग में संबत् से ख्याति प्राप्त है । वर्तमान में सावर्णी मन्वन्तर , वराह कल्प है । द्वापर युग मे राजा युधिष्ठिर ने युधिष्ठिर संबत्  आरंभ किया । युधिष्ठिर संबत् 3044 वर्ष के बाद उज्जेन का राजा विक्मादित्य  द्वारा  विक्रम संबत् प्रारंभ किया गया है । विश्व में 35 संबत है । प्राचीन सप्तर्षि संबत् , 6676 ई.पू . , कलियुग संबत 3102 ई.पू. , बुद्ध निर्वाण संबत् 487 ई. पू . , वीर निरवाण संबत 427 ई.पू , मौर्य संबत 321 ई. पू . , सेल्युकिडि ( सेलुक्स )  संबत 312 ई. पू., विक्म संबत 78 ई.पू. गुप्त संवत्  894  ई. एवं कलिचुरी संबत , गंगेय संबत , हर्ष संबत , भाटिक संबत , कोल्सम संबत ,नेवार संबत ,चालुक्य संबत , सिंह संबत , सेन संबत , यहुदी संबत , नेपीली संबत , ईस्वी संबत , बांग्ला संबत , शाक संबत् ,फसली संबत ,हिजरी संबत है ।
विश्व का प्राचीन सनातन धर्म है ।संवत्सर मनाने की परंपरा, और उसका विधि विधान है। ब्रह्म पुराण के अनुसार जगत पिता ब्रह्मा जी ने सृष्टि की रचना चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा के दिन प्रारंभ की थी। ब्रह्माजी द्वारा सृष्टि की रचना का कार्य आरंभ  चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को करने के कारण  ‘प्रवरा' तिथि घोषित किया। इसमें धार्मिक, सामाजिक, व्यवसायिक और राजनीतिक अधिक महत्व कार्य आरंभ किए जाते हैं । चैत्र मासि जगत ब्रह्मा संसर्ज प्रथमेऽहनि । शुक्ल पक्षे समग्रेतु तदा सूर्योदय सति।।भगवान विष्णु के मत्स्यावतार का आविर्भाव और सतयुग की शुरुआत प्रारंभ भी इसी समय हुआ था।तभी से इश प्रवरा तिथि के महत्व को स्वीकार कर, भारत के सम्राट विक्रमादित्य ने भी अपने संवत्सर का आरंभ चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को ही किया।जिसे आगे चलकर महर्षि दयानंद जी ने भी आर्य समाज की स्थापना इसी दिन की ।इस दिन मुख्यतया ब्रह्माजी का व उनकी निर्माण की हुई सृष्टि के प्रधान देवी-देवताओं, यक्ष-राक्षसों, गंधर्वों, ऋषि, मुनियों, मनुष्यों, नदियों, पर्वतों, पशुपक्षियों और कीटाणुओं का ही नहीं, रोगों और उनके उपचारों तक का पूजन किया जाता है। साथ ही संवत्सर पूजन, नवरात्र घट स्थापना, ध्वजारोहण, तैलाभ्याड्ं स्नान, वर्षेशादि पंचाग फल श्रवण, परिभद्रफल प्राशनन और प्रपास्थापन प्रमुख रुप से की जाती हैं।कहते हैं कि  इसका विधिपूर्वक पूजन करने से वर्ष पर्यन्त सुख-शान्ति, समृद्धि आरोग्यता बनी रहती है।हमारे देश भारतवर्ष का गौरवमयी इतिहास और हमारी सनातनी सभ्यता और संस्कृति में संवत्सर का विशेष महत्व सदियों से रहा है।हमारे यहां शुभ संस्कार, विवाह, मुंडन, नामकरण कथा-किर्तन संकल्प जैसे शुभ कार्यों में जप-तप, मंत्र जाप, यज्ञादि अनुष्ठानों के समय संवत,संवत्सर का प्रयोग प्रमुखता से किया जाता है।हमारे पवित्र और प्राचीन ऋग्वेद में लिखा गया है कि दीर्घतमा ऋषि ने युग-युगों तक तपस्या करके ग्रहों, उपग्रहों, तारों, नक्षत्रों आदि की स्थितियों का आकाश मंडल में ज्ञान प्राप्त किया। आपको ये भी बता दें कि वेदांग ज्योतिष काल गणना के लिए विश्व भर में भारत की सबसे प्राचीन और सटीक पद्धति है।पौराणिक काल गणना वैवश्वत मनु के कल्प आधार पर सतयुग, त्रेता, द्वापर और कलियुग- इन चार भागों में विभाजित है। इसके पश्चात ऐतिहासिक दृष्टि से काल गणना का विभाजन इस प्रकार से हुआ। युधिष्ठिर संवत्, कलिसंवत्, कृष्ण संवत्, विक्रम संवत, शक संवत, महावीर संवत, बौद्ध संवत। तदुपरान्त हर्ष संवत, बंगला, हिजरी, फसली और ईसा सन भारत में चलते रहे। वेद, उपनिषद, आयुर्वेद, ज्योतिष और ब्रह्मांड संहिताओं में मास, ऋतु, वर्ष, युग, ग्रह, ग्रहण, ग्रहकक्षा, नक्षत्र, विषुव और दिन रात का मान व उनकी ह्रास, वृद्धि संबंधी विवरण पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध हैं।
58 ई.पू. उज्जैन के राजा विक्मादित्य  ने आक्रांताशकों को पराजित कर विक्रमादित्य की उपाधि धारण की थी। यह चैत्र शुक्ला प्रतिपदा को घटित हुआ। विक्रमादित्य ने इसी दिन से विक्रम संवत की शुरुआत की। काल को देवता माना जाता है। संवत्सर की प्रतिमा स्थापित करके उसका विधिवत पूजन व प्रार्थना की जाती है।विक्रम और शक संवत्सर दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। यद्यपि हमारे राष्ट्रीय पंचांग का आधार शक संवत है, तथापि हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि शक हमारे देश में हमलावर के रूप में आए थे। कालान्तर में भारत में बसने के उपरांत शक भारतीय शक संवत् के अनुसार  कोई राष्ट्रीय पर्व व जयंतियां मनाते हैं और ना ही लोक परंपरा के पर्व है । भारतीय परंपरा में विक्रम संबत  के आधार पर पर्व , तिथियें , जयंतियों की प्रधानता है ।शक संवत् का हमारे दैनिक जीवन में कोई विशेष महत्व नहीं रह गया है। विक्रम संवत् के आधार पर तैयार किया गया पंचांग पूर्ण प्रचलन में है। भारत के सभी प्रमुख त्योहार व तिथियां इसी पंचाग के अनुसार मनाई जाती हैं। ज्ञात हो कि विक्रमी पंचांग ग्रेगेरिन कैलेंडर से ५७ वर्ष पहले वर्चस्व में आ गया था, जबकि शक संवत् की शुरुआत ईस्वी सन् के ७८ वर्ष बाद हुई। विश्व में लगभग २५ संवतों का प्रचलन है जिसमें १५ तो २५०० वर्षों से प्रचलित हैं। दो-चार को छोड़कर प्रायः सभी संवत् वसंत ऋतु में आरंभ होते हैं। दुनियाभर में लगभग सैंकड़ों संवत प्रचलित होंगे। उनमें से भी मुश्किल से 50 संवतों को अभी भी महत्व दिया जा रहा होगा। उनमें 20 संवत पर आधारित दुनिया भर में कैलेंडर निर्मित होते हैे। विक्रम संवत, बौद्ध संवत, महावीर संवत, यहूदी संवत, ईस्वी संवत, हिजरी संवत, चीनी संवत, ईरानी संवत, सिख संवत, पारसी संवत आदि। ज्योतिष शास्त्र के अनुसार  कल्पाब्द : 1972949122 ,  सनातन कालकणना मान अनुसार सृष्टि संवत : 1955885122 , चीनी संवत : 96002318, पारसी संवत : 189923 ,मिस्र संवत : 27674, तुर्की संवत : 7627 , आदम संवत : 7372,ईरानी संवत : 6022 , यहूदी संवत : 5781 ,श्रीकृष्ण संवत : 5146 , युधिष्‍ठिर संवत : 5122 ,कलियुग संवत : 5121 , इब्राहीम संवत : 4460 ,कल्की संवत : , सप्तर्षि संवत : , मूसा सन् : 3653 ,यूनानी सन् : 3587 , रोमन सन् : 2765 ,बौद्ध संवत 2589 ,वीर निर्वाण संवत : 2541 (महावीर संवत 2609) ,बर्मा सन : 2555, मलयकेतु : 2326 ,श्रीशंकराचार्य : 2294 , पार्थियन : 2267, विक्रम संवत : 2077 , ईस्वी सन : 2020 , जावा : 1946 , शालिवाहन संवत : 1942 , कलचुरी संवत : 1778  ,बलभी संवत 1700 , फसली संबत् 1428 ,बांग्ला संवत : 1427  , हर्षाब्द संवत : 1413 , हिजरी सन् : 1442 है।
 राजा विक्रमादित्य - उज्जैन के राजा गन्धर्वसैन  की पुत्री मैनावती  तथा भृतहरि और  वीर विक्रमादित्य पुत्र थे ।
 धारानगरी के राजा पदमसैन की पत्नी मैनावती के पुत्र गोपीचन्द  ने श्री ज्वालेन्दर नाथ जी से योग दीक्षा प्राप्त कर तपस्या करने वन में चले गए  और योगी गोपी चंद की माता मैनावती ने श्री गुरू गोरक्ष नाथ जी से योग दीक्षा प्रपत कर योगीनी हुई थी । विक्रमदित्य के 9 रत्नों में से एक कालिदास ने अभिज्ञान शाकुन्तलम् , कुमार संभवम् , रघुवंश अनेक रचना की है ।उज्जैन के राजा भृतहरि ने राज छोड़कर श्री गुरू गोरक्ष नाथ जी से योग की दीक्षा ले ली और तपस्या करने जंगलों में चले गए , राज अपने छोटे भाई विक्रमदित्य को दे दिया , वीर विक्रमादित्य ने  श्री गुरू गोरक्ष नाथ जी से गुरू दीक्षा लेकर राजपाट सम्भालने लगे थे ।महाराज विक्रमदित्य ने देश को आर्थिक तौर पर सोने की चिड़िया बनाई, उनके राज को  भारत का स्वर्णिम राज कहा जाता है ।विक्रमदित्य के काल में भारत का कपडा, विदेशी व्यपारी सोने के वजन से खरीदते थे ।विक्रमदित्य काल में सोने की सिक्के चलते थे  ।  विक्रमदित्य द्वारा विक्र्म संबत स्थापित किया गया  है । ज्योतिष गणना में हिन्दी सम्वंत , वार , तिथीयाँ , राशि , नक्षत्र , गोचर आदि रचना है । विश्व के न्याय प्रिय राजा विक्रमादित्य से न्याय करवाने आते थे । विक्रमदित्य के काल में हर नियम धर्मशास्त्र के आधार पर न्याय , राज चलता था ।विक्रमदित्य का काल राम राज के बाद सर्वश्रेष्ठ माना गया है । विक्मादित्य काल में भारत सोने की चिडियॉ का देश कहा गया ।

रविवार, नवंबर 29, 2020

किसान के प्रखर नेता पंडित यदुनंदन...


भारतीय किसान की समस्याओं और समाधान के लिए संघर्षशील नेता पंडित यदुनंदन शर्मा थे । भारतीय किसान नेता  और भारत के बिहार राज्य से राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलन के सशक्त व्यक्ति थे। उन्होंने रेरा सत्याग्रह के रूप में मनाए जाने वाले रेरा में जमींदारों और अंग्रेजों के खिलाफ टिलर के अधिकारों के लिए आंदोलन शुरू किया था। उनका जन्म माघ शुक्ल  वसंतपंचमी 1896 में अरवल जिले के सोनभद्र वंशी सूर्यपुर प्रखंड का मंझियावॉ में शाकद्वीपीय ब्राह्मण परिवार में हुआ था।  टेकरी ज़मींदारी का हिस्सा मझियावॉ ग्राम  था। उनके पिता रामदेव शर्मा की मृत्यु होने के पश्चात  युवा होते हुए  चरवाहे के रूप में काम शुरू करना पड़ाथा । बचपन मे सुखल शर्मा के नाम से मझियावॉ मे रहते थे । पंडित यदुनंदन शर्मा ने  1914 में  बनारस में संस्क्टत का अध्ययन करने के बाद 1916 में टेकरी हाई स्कूल गया में नामांकन तथा 1919 में मैट्रिक किया और 1925 मे हिंदू विश्वविद्यालय बनारस मे नामांकन करने के बाद 1927 में आई . ए . और  1929 में वी. ए. डिग्री हासिल करने के बाद मझियावां गाँव के  स्कूल में एक साल के लिए शिक्षक बन गए थे । 1930 ई. में महात्मा गॉंधी के नमकसत्याग्रह में शामिल होकर गया जिला कॉग्रेस का नेत्टत्व , नमक प्रशिछण औरंगाबाद अनुमंडल के भगवान पुर में नमक बनाने के लिए  प्रारंभ किया गया ।  ब्रटिश सरकार ने पंडित यदुनंदन को ब्रिटिश सरकार के कार्यों के विरोध करने के कारण 16 माह की सजा दी गयी परंतु 1931 ई. डर्विन समझौते के करण 10 माह सजा काटने के बाद  पुन: 1932 तथा 1933  में 6-6 माह की सश्रम सजा काटने के बाद किसानोंकी समस्या तथा निष्पादन के लिए गया जिला का बेलागंज के समीप नेयामत पुर मे किसान आश्रम की स्थापना 1933 ई. मे की ।उन्होंने एक ज़मींदारी में एक प्रबंधक के रूप में भी काम किया, जिससे किसान प्रणाली का पहला ज्ञान प्राप्त हुआ। पंडित यदुनंदन शर्मा जेल से रिहा होने के बाद 1933 में किसान आंदोलन में शामिल हो गए और 1930 के दशक में प्रसिद्ध सदाको और रेरा सत्याग्रह शुरू किया। वह  मगध में किसानों के निर्विवाद नेता और महान स्वतंत्रता सेनानी और किसान नेता  बने। उनका अधिकांश जीवन नेयामतपुर गाँव में एक आश्रम में बीता जहाँ से वे ब्रिटिश शासन और जमींदारी के खिलाफ विद्रोह करते रहे। पंडित जवाहर लाल नेहरू ने किसान नेता पंडित यदुनंदन से किसान आश्रम में मिलने और स्थानीय लोगों के एक बड़े सम्मेलन को संबोधित करने के लिए दिसंबर में सर्द रात में 1936 में आश्रम का दौरा किया। 1933 ई. में जिला कॉग्रेस कमिटि गया के सचिव तथा बाद में अध्यछ  दो वर्षों तक रहे । 18 जून 1933 को बिहार प्रदेश किसान सम्मेलन के जॉच समिति के सद्स्य तथा 80 प्टष्ठ की रिपोर्ट तैयार कर किसानकी रूप कहानी पुस्तक प्रकाशित की तथा 20 सितंबर 1933 में गया डिस्ट्रिक कॉलेक्टर के सामने 60 हजार किसानों का प्रदर्शन का नेत्टत्व कर किसानों की समस्याओं का निराकरण किया । 5 अकटूबर 1934 मे गया के किसान सम्मेलन में होरही सभा में पंडित यदुनंदन के भाषण पर ब्रिटिश सरकार द्वारा रोक लगा दी ।1937 में बिहार मंत्रिमंडल बनने के बाद किसानों के लिए लडीाईयां कर बछवाडा में बिहार प्रदेश किसान सम्मेलन की सभा प्रदर्शन किया ।1938 में रेवडा ( वारसलीगंज ) के किसान सत्याग्रह का नेत्टत्व कर किसानों की समस्या का निष्पादन कराया था ।10 अप्रैल 1939 मे गया स्थित आजाद पार्क  में अखिल भारतीय किसान सभा का चतुर्थ अधिवेशन आयोजन किया गया जिसकी अध्यछता आचार्य नरेंद्रदेव तथा स्वागताध्यछ पंडित यदुनंदन शर्मा ने की।1939 में  अरवल , जहानाबाद , गया , औरंगाबाद , नवादा , नालंदा , पटना के मझियावॉ ,सतीस्थान ,फेसर ,घोसरवा , बेलागंज में किसान आंदोलन कर किसानों की सम्स्या का हक दिलाया । पं यदुनंदन शर्मा द्वारा 1940 ई. में किसानों की मूलभूत सुविधा दिलाने , ब्रिटिश सरकार के विरोध ,आजादी के लिए लंकादहन तथा चिनगारी पत्र प्रकाशित कया गया । 15 अगस्त 1947 में कॉग्रेस से सबंध विच्छेद कर किसानों के लिए संघर्षरत रहे है । बिहार डिस्ट्रीक गजेटियर गया 1957 के अनुसार डिस्ट्रिक्ट कॉग्रेस गया से सबंध विचछेद के बाद गया में कॉग्रेस सोसलिस्ट पार्टी तथा किसान सभा का उदय हुआ था । सोसलिस्ट तथा किसान सभा का आंदोलन में किसान कार्यकर्ता शामिल हुए ।किसान सभा का आंदोलनकारियों को जेल भेजा गया जिससे जहानाबाद ,नवादा ,गया के किसान आंदोलित हो गये । आंदोलन का नेत्टत्व स्वामी सहजानंद सरस्वती , पंडित यदुनंदन शर्मा ने की । 1939 ई. मे अखिल भारतीय किसान सभा का सेसन गया मे संपन्न हुआ जिसकी अधयछता आचार्य नर्ंद्रदेव ने की तथा जयप्काश नारायण को कॉग्रेस सोसलिस्ट पार्टी के नेता तथा अध्यछ  बने थे । 27 अप्रैल 1952 को गया  में पंडित यदुनंदन शर्मा द्वारा स्वतंत्रता सेनानी की समस्या तथा नदान के लिए  आयोजित किया गया । पंडित शर्मा ने  1952 के बिहार विधान सभा सदस्य के लिए जहनाबाद जिले के मखदुमपुर विधानसभा निर्वाचन क्षेत्र से चुनाव लड़ा, लेकिन वे हार गए। 03 मार्च 1975 ई. में किसान के प्रखर नेता पंडित यदुनंदन शर्मा नेयामतपुर किसान आश्रम में अंतिम सॉस निधन हो गया ।
   

                                        


गुरुवार, नवंबर 26, 2020

मानवीय जीवन का द्योतक कार्तिक पूर्णिमा...


        सनातन धर्म में  प्रत्येक वर्ष की 12 पूर्णिमाएं महत्वपूर्ण होती हैं। अधिकमास या मलमास की पूर्णिमा मिलने के पर पूर्णिमा की संख्या १3 हो जाती है। कार्तिक पूर्णिमा, कतकी पूरनिमा , गंगा स्नान  , त्रिपुराुरी पूर्णिमा , गुरू पूर्णिमा , देव दिवाली , प्रकाशोत्सव और गुरू नानक जयन्ती  के नाम से पूर्णिमा ख्याति प्राप्त है। कार्तिक पुर्णिमा को भगवान शिव  ने  असुरराज त्रिपुरासुर  का अंत किया था और वे त्रिपुरारी के रूप में पूजित हुए थे।  कृतिका में शिव शंकर के दर्शन करने से सात जन्म तक व्यक्ति ज्ञानी और धनवान होता है। चन्द्र  आकाश में उदित होते है उस समय शिवा, संभूति, संतति, प्रीति, अनुसूया और क्षमा इन छ: कृतिकाओं का पूजन करने से शिव जी की प्रसन्नता प्राप्त होती है।  गंगा नदी में स्नान करने से भी पूरे वर्ष स्नान करने का फाल मिलता है। कार्तिक पूर्णिमा के दिन तमिलनाडु मै अरुणाचलम पर्वत की १३ किमी की परिक्रमा होती है। पूर्णिमा  बड़ी परिक्रमा कहलाती है । लाखो लोग यहां आकर परिक्रमा करके पुण्य कमाते है ।अवंतिकापुर अरुणाचलम पर्वत पर कार्तिक स्वामी का आश्रम है । उन्होंने स्कंदपुराण की रचना की गई थी । भगवान विष्णु ने प्रलय काल में वेदों की रक्षा के लिए तथा सृष्टि को बचाने के लिए मत्स्य अवतार धारण किया था।महाभारत काल में हुए १८ दिनों के विनाशकारी युद्ध में योद्धाओं और सगे संबंधियों को देखकर जब युधिष्ठिर कुछ विचलित हुए थे । भगवान श्री कृष्ण पांडवों के साथ गढ़ खादर के विशाल रेतीले मैदान पर आए। कार्तिक शुक्ल अष्टमी को पांडवों ने स्नान किया और कार्तिक शुक्ल चतुर्दशी तक गंगा किनारे यज्ञ किया। इसके बाद रात में दिवंगत आत्माओं की शांति के लिए दीपदान करते हुए श्रद्धांजलि अर्पित की। इस दिन गंगा स्नान का और विशेष रूप से गढ़मुक्तेश्वर तीर्थ नगरी में आकर स्नान करने का विशेष महत्व है।
पूर्णिमा व्रत रखकर रात्रि में वृषदान  बछड़ा दान करने से शिवपद की प्राप्ति होती है।  भगवान भोलेनाथ का भजन और गुणगान करता है उसे अग्निष्टोम नामक यज्ञ का फल प्राप्त होता है। पूर्णिमा को शैव  धर्म तथा वैष्णव  धर्म म कर्तिक पूर्णिमा की महता है । कार्तिक पूर्णिमा को गोलोक के रासमण्डल में श्री कृष्ण ने श्री राधा का पूजे तथा अन्य सभी ब्रह्मांडों से परे जो सर्वोच्च गोलोक है वहां इस दिन राधा उत्सव मनाया जाता है तथा रासमण्डल का आयोजन होता है। कार्तिक पूर्णिमा को श्री हरि के बैकुण्ठ धाम में देवी तुलसी का मंगलमय पराकाट्य हुआ था। कार्तिक पूर्णिमा को  देवी तुलसी ने पृथ्वी पर जन्म ग्रहण किया था। कार्तिक पूर्णिमा को राधिका जी की शुभ प्रतिमा का दर्शन और वन्दन करके मनुष्य जन्म के बंधन से मुक्त हो जाता है। बैकुण्ठ के स्वामी श्री हरि को तुलसी पत्र अर्पण करते हैं। कार्तिक मास में विशेषतः श्री राधा और श्री कृष्ण का पूजन करना चाहिए। कार्तिक में तुलसी वृक्ष के नीचे श्री राधा और श्री कृष्ण की मूर्ति का पूजन करते हैं उन्हें जीवनमुक्त समझना चाहिए। तुलसी के अभाव में हम आवंले के वृक्ष के नीचे भी बैठकर पूजा कर सकते है। कार्तिक मास में पराये अन्न, गाजर, दाल, चावल, मूली, बैंगन, घीया, तेल लगाना, तेल खाना, मदिरा, कांजी का त्याग करें। कार्तिक मास में अन्न का दान अवश्य करें। कार्तिक पूर्णिमा को  अधिक मान्यता मिली है। कार्तिक पूर्णिमा को महाकार्तिकी , कुमार माह  कहा गया है।  पूर्णिमा के दिन भरणी नक्षत्र हो तो इसका महत्व और भी बढ़ जाता है। अगर रोहिणी नक्षत्र हो तो इस पूर्णिमा का महत्व कई गुणा बढ़ जाता है।  कृतिका नक्षत्र पर चन्द्रमा और बृहस्पति हो तो यह महापूर्णिमा कहलाती है। कृतिका नक्षत्र पर चन्द्रमा और विशाखा पर सूर्य हो तो "पद्मक योग" बनता है जिसमें गंगा स्नान करने से पुष्कर से भी अधिक उत्तम फल की प्राप्ति होती है। कार्तिक पूर्णिमा के दिन गंगा स्नान, दीप दान, हवन, यज्ञ आदि करने से सांसारिक पाप और ताप का शमन होता है। इस दिन किये जाने वाले अन्न, धन एव वस्त्र दान का भी बहुत महत्व बताया गया है। इस दिन जो भी दान किया जाता हैं उसका कई गुणा लाभ मिलता है। मान्यता यह भी है कि इस दिन व्यक्ति जो कुछ दान करता है वह उसके लिए स्वर्ग में संरक्षित रहता है जो मृत्यु लोक त्यागने के बाद स्वर्ग में उसे पुनःप्राप्त होता है।
शास्त्रों के अनुसार  कार्तिक पुर्णिमा के दिन पवित्र नदी व सरोवर एवं धर्म स्थान में जैसे, गंगा, यमुना, गोदावरी, नर्मदा, गंडक, कुरूक्षेत्र, अयोध्या, काशी में स्नान करने से विशेष पुण्य की प्राप्ति होती है। कार्तिक माह की पूर्णिमा तिथि पर व्यक्ति को बिना स्नान किए नहीं रहना चाहिए । महर्षि अंगिरा ने कहा  है कि यदि स्नान में कुशा और दान करते समय हाथ में जल व जप करते समय संख्या का संकल्प नहीं किया जाए तो कर्म फल की प्राप्ति नहीं होती है। शास्त्र के नियमों का पालन करते हुए इस दिन स्नान करते समय पहले हाथ पैर धो लें फिर आचमन करके हाथ में कुशा लेकर स्नान करें, इसी प्रकार दान देते समय में हाथ में जल लेकर दान करें। आप यज्ञ और जप कर रहे हैं तब पहले संख्या का संकल्प कर लें फिर जप और यज्ञादि कर्म करें। सिख सम्प्रदाय में कार्तिक पूर्णिमा का दिन प्रकाशोत्सव के रूप में मनाया जाता है।  सिख सम्प्रदाय के संस्थापक गुरू नानक देव का जन्म हुआ था। इस दिन सिख सम्प्रदाय के अनुयायी सुबह स्नान कर गुरूद्वारों में जाकर गुरूवाणी सुनते हैं और नानक जी के बताये रास्ते पर चलते है ।
कार्तिक  पूर्णिमा को भगवान शिव की नगरी काशी यानी बनारस में देव दीपावली मनाई जाती है। कार्तिक मास की पूर्णिमा तिथि को भगवान शिव की नगरी काशी यानी बनारस में देव दीपावली मनाई जाती है। देव दीपावली के दिन भगवान शिव और गंगा माता की पूजा की जाती है। संध्या के समय में गंगा आरती होती है। देव दीपावली के संदर्भ में शास्त्र के अनुसार महर्षि विश्वामित्र तथा दूसरी भगवान शिव से जुड़ी है । यह कथा महर्षि विश्वामित्र से जुड़ी है। पुराणों के अनुसार, एक बार विश्वामित्र जी ने देवताओं की सत्ता को चुनौती दी। उन्होंने अपने तप के बल से त्रिशंकु को सशरीर स्वर्ग भेज दिया। यह देखकर देवता अचंभित रह गए। विश्वामित्र जी ने ऐसा करके उनको एक प्रकार से चुनौती दे दी । इस पर देवता त्रिशंकु को वापस पृथ्वी पर भेजने लगे, जिसे विश्वामित्र ने अपना अपमान समझा। उनको यह हार स्वीकार नहीं थी।तब उन्होंने अपने तपोबल से उसे हवा में ही रोक दिया और नई स्वर्ग तथा सृष्टि की रचना प्रारंभ कर दी। इससे देवता भयभीत हो गए। उन्होंने अपनी गलती की क्षमायाचना तथा विश्वामित्र को मनाने के लिए उनकी स्तुति प्रारंभ कर दी। अंतत: देवता सफल हुए और विश्वामित्र उनकी प्रार्थना से प्रसन्न हो गए। उन्होंने दूसरे स्वर्ग और सृष्टि की रचना बंद कर दी। इससे सभी देवता प्रसन्न हुए और उस दिन उन्होंने दिवाली मनाई, जिसे देव दीपावली कहा गया। देव दीपावली की दूसरी कथा भगवान शिव से जुड़ी है। पौराणिक कथा के अनुसार, ए​क समय तीनों ही लोक त्रिपुर नाम के राक्षस के अत्याचारों से भयभीत और दुखी था। उससे रक्षा के लिए देवता भगवान शिव की शरण में गए। तब भगवान शिव ने कार्तिक मास की पूर्णिमा तिथि को त्रिपुरासुर का वध कर दिया और तीनों लोकों को उसके भय से मुक्त किया। उस दिन से ही देवता हर वर्ष कार्तिक पूर्णिमा को भगवान शिव के विजय पर्व के रूप में मनाने लगे। उस दिन सभी देव दीपक जलाते हैं। इस दीपोत्सव को देव दीपावली कहा गया है।
त्रिपुरासुर : असुर बालि की कृपा प्राप्त त्रिपुरासुर भयंकर असुर थे। महाभारत के कर्ण पर्व में त्रिपुरासुर के वध की कथा बड़े विस्तार से मिलती है। भगवान कार्तिकेय द्वारा तारकासुर का वध करने के बाद उसके तीनों पुत्रों ने देवताओं से बदला लेने का प्रण कर लिया। तीनों पुत्र तपस्या करने के लिए जंगल में चले गए और हजारों वर्ष तक अत्यंत दुष्कर तप करके ब्रह्माजी को प्रसन्न किया। तीनों ने ब्रह्माजी से अमरता का वरदान मांगा। ब्रह्माजी ने उन्हें मना कर दिया और कहने लगे कि कोई ऐसी शर्त रख लो, जो अत्यंत कठिन हो। उस शर्त के पूरा होने पर ही तुम्हारी मृत्यु हो।
तीनों ने खूब विचार कर ब्रह्माजी से वरदान मांगा- हे प्रभु! आप हमारे लिए तीन पुरियों का निर्माण कर दें और वे तीनों पुरियां जब अभिजीत नक्षत्र में एक पंक्ति में खड़ी हों और कोई क्रोधजित अत्यंत शांत अवस्था में असंभव रथ और असंभव बाण का सहारा लेकर हमें मारना चाहे, तब हमारी मृत्यु हो। ब्रह्माजी ने कहा- तथास्तु!शर्त के अनुसार उन्हें तीन पुरियां (नगर) प्रदान की गईं। तारकाक्ष के लिए स्वर्णपुरी, कमलाक्ष के लिए रजतपुरी और विद्युन्माली के लिए लौहपुरी का निर्माण विश्वकर्मा ने कर दिया। इन तीनों असुरों को ही त्रिपुरासुर कहा जाता था। इन तीनों भाइयों ने इन पुरियों में रहते हुए सातों लोकों को आतंकित कर दिया। वे जहां भी जाते, समस्त सत्पुरुषों को सताते रहते। यहां तक कि उन्होंने देवताओं को भी उनके लोकों से बाहर निकाल दिया। सभी देवताओं ने मिलकर अपना सारा बल लगाया, लेकिन त्रिपुरासुर का प्रतिकार नहीं कर सके और अंत में सभी देवताओं को तीनों से छुप-छुपकर रहना पड़ा। अंत में सभी को शिव की शरण में जाना पड़ा। भगवान शंकर ने कहा- सब मिलकर के प्रयास क्यों नहीं करते? देवताओं ने कहा- यह हम करके देख चुके हैं। तब शिव ने कहा- मैं अपना आधा बल तुम्हें देता हूं और तुम फिर प्रयास करके देखो, लेकिन संपूर्ण देवता सदाशिव के आधे बल को संभालने में असमर्थ रहे। तब शिव ने स्वयं त्रिपुरासुर का संहार करने का संकल्प लिया। सभी देवताओं ने शिव को अपना-अपना आधा बल समर्पित कर दिया। अब उनके लिए रथ और धनुष-बाण की तैयारी होने लगी जिससे रणस्थल पर पहुंचकर तीनों असुरों का संहार किया जा सके। इस असंभव रथ का पुराणों में विस्तार से वर्णन मिलता है। पृथ्वी को ही भगवान ने रथ बनाया, सूर्य और चन्द्रमा पहिए बन गए, सृष्टा सारथी बने, विष्णु बाण, मेरू पर्वत धनुष और वासुकि बने उस धनुष की डोर। इस प्रकार असंभव रथ तैयार हुआ और संहार की सारी लीला रची गई। जिस समय भगवान उस रथ पर सवार हुए, तब सकल देवताओं द्वारा संभाला हुआ वह रथ भी डगमगाने लगा। तभी विष्णु भगवान वृषभ बनकर उस रथ में जा जुड़े। उन घोड़ों और वृषभ की पीठ पर सवार होकर महादेव ने उस असुर नगर को देखा और पाशुपत अस्त्र का संधान कर तीनों पुरों को एकत्र होने का संकल्प करने लगे।उस अमोघ बाण में विष्णु, वायु, अग्नि और यम चारों ही समाहित थे। अभिजीत नक्षत्र में उन तीनों पुरियों के एकत्रित होते ही भगवान शंकर ने अपने बाण से पुरियों को जलाकर भस्म कर दिया और तब से ही भगवान शंकर त्रिपुरांतक बन गए। त्रिपुरासुर को जलाकर भस्म करने के बाद भोले रुद्र का हृदय द्रवित हो उठा और उनकी आंख से आंसू टपक गए। आंसू जहां गिरे, वहां 'रुद्राक्ष' का वृक्ष उग आया। 'रुद्र' का अर्थ शिव और 'अक्ष' का अर्थ आंख अथवा आत्मा है। मत्स्य पुराण में भगवान श्रीहरि के मत्स्य अवतार , तीर्थ, व्रत, यज्ञ, दान , जल प्रलय, मत्स्य व मनु के संवाद, राजधर्म, तीर्थयात्रा, दान महात्म्य, प्रयाग महात्म्य, काशी महात्म्य, नर्मदा महात्म्य, मूर्ति निर्माण माहात्म्य एवं त्रिदेवों की महिमा आदि पर वर्णित है। मत्स्य पुराण में सात कल्पों में नृसिंह वर्णन से शुरु होकर यह चौदह हजार श्लोकों का पुराण है। मनु और मत्स्य के संवाद से शुरु होकर ब्रह्माण्ड का वर्णन ब्रह्मा देवता और असुरों का पैदा होना, मरुद्गणों का प्रादुर्भाव इसके बाद राजा पृथु के राज्य का वर्णन वैवस्त मनु की उत्पत्ति व्रत और उपवासों के साथ मार्तण्डशयन व्रत द्वीप और लोकों का वर्णन देव मन्दिर निर्माण प्रासाद निर्माण आदि का वर्णन है। मत्स्य पुराण के अनुसार मत्स्य (मछ्ली) के अवतार में भगवान विष्णु ने एक ऋषि को सब प्रकार के जीव-जन्तु एकत्रित करने के लिये कहा और पृथ्वी जब जल में डूब रही थी, तब मत्स्य अवतार में भगवान ने उस ऋषि की नांव की रक्षा की थी। इसके पश्चात ब्रह्मा ने पुनः जीवन का निर्माण किया। एक दूसरी मान्यता के अनुसार शंखासुर राक्षस ने जब वेदों को चुरा कर सागर में छुपा दिया था । भगवान विष्णु ने मत्स्य रूप धारण करके वेदों को प्राप्त किया और वेदों को पुनः स्थापित किया। कार्तिक शुक्ल पूर्णिमा सनातन धर्म तथा मानवीय जीवन चेतना तथा खुशहाली का द्योतक है।

सोमवार, नवंबर 23, 2020

देवोत्थान : तुलसी का उद्भव...


शास्त्र तथा ग्रंथों में देवोत्थान और तुलसी का उलेख महत्वपूर्ण रूप से वर्णित है । भगवान विष्णु आषाढ़ मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी को  देवशयनी एकादशी  'पद्मनाभा'  के रूप में समर्पित  हैं। सूर्य के मिथुन राशि में आने पर ये एकादशी  से चातुर्मास में भगवान विष्णु क्षीरसागर में शयन करते हैं और चार माह बाद तुला राशि में सूर्य के जाने पर योग निद्रा को त्याग करने पर देवोत्थानी एकादशी रूप मे होते है। पुराणों में उलेख है कि भगवान विष्णु  चार मासपर्यन्त (चातुर्मास) पाताल में राजा बलि के द्वार पर निवास करके कार्तिक शुक्ल एकादशी को भूलोक पर लौटते हैं।इस  दिन को 'देवशयनी' तथा कार्तिकशुक्ल एकादशी को प्रबोधिनी एकादशी कहते हैं। यज्ञोपवीत संस्कार, विवाह, दीक्षाग्रहण, यज्ञ, गृहप्रवेश, गोदान, प्रतिष्ठा एवं शुभ कर्म  देवोत्थान से प्रारंभ होते है । भविष्य पुराण, पद्म पुराण तथा श्रीमद्भागवत पुराण के अनुसार हरिशयन को योगनिद्रा कहा गया है।संस्कृत में साहित्यानुसार हरि शब्द सूर्य, चन्द्रमा, वायु, विष्णु आदि अनेक अर्थो में प्रयुक्त है। हरिशयन का तात्पर्य इन चार माह में बादल और वर्षा के कारण सूर्य-चन्द्रमा का तेज क्षीण हो जाना उनके शयन का ही द्योतक होता है। इस समय में पित्त स्वरूप अग्नि की गति शांत हो जाने के कारण शरीरगत शक्ति क्षीण या सो जाती है। आधुनिक युग में वैज्ञानिकों ने भी खोजा है कि कि चातुर्मास्य में (मुख्यतः वर्षा ऋतु में) विविध प्रकार के कीटाणु अर्थात सूक्ष्म रोग जंतु उत्पन्न हो जाते हैं, जल की बहुलता और सूर्य-तेज का भूमि पर अति अल्प प्राप्त होना ही इनका कारण है। भगवान विष्णु  कार्तिक शुक्ल एकादशी को जागते हैं। पुराण के अनुसार  भगवान हरि ने वामन रूप में दैत्य बलि के यज्ञ में तीन पग दान के रूप में मांगे। भगवान ने पहले पग में संपूर्ण पृथ्वी, आकाश और सभी दिशाओं को ढक लिया। अगले पग में सम्पूर्ण स्वर्ग लोक ले लिया। तीसरे पग में बलि ने अपने आप को समर्पित करते हुए सिर पर पग रखने को कहा। इस प्रकार के दान से भगवान ने प्रसन्न होकर पाताल लोक का अधिपति बना दिया और कहा वर मांगो। बलि ने वर मांगते हुए कहा कि भगवान आप मेरे महल में नित्य रहें। बलि के बंधन में बंधा देख उनकी भार्या लक्ष्मी ने बलि को भाई बना लिया और भगवान से बलि को वचन से मुक्त करने का अनुरोध किया। तब इसी दिन से भगवान विष्णु जी द्वारा वर का पालन करते हुए तीनों देवता ४-४ माह सुतल में निवास करते हैं। देवशयनी एकादशी व्रतविधि एकादशी को प्रातःकाल उठकर घर की साफ-सफाई तथा नित्य कर्म से निवृत्त हो जाएँ। स्नान कर पवित्र जल का घर में छिड़काव करें। घर के पूजन स्थल अथवा किसी भी पवित्र स्थल पर प्रभु श्री हरि विष्णु की सोने, चाँदी, तांबे अथवा पीतल की मूर्ति की स्थापना करें। तत्पश्चात उसका षोड्शोपचार सहित पूजन करें। इसके बाद भगवान विष्णु को पीतांबर आदि से विभूषित करें। तत्पश्चात व्रत कथा सुननी चाहिए। इसके बाद आरती कर प्रसाद वितरण करें। अंत में सफेद चादर से ढँके गद्दे-तकिए वाले पलंग पर श्री विष्णु को शयन कराना चाहिए। व्यक्ति को इन चार महीनों के लिए अपनी रुचि अथवा अभीष्ट के अनुसार नित्य व्यवहार के पदार्थों का त्याग और ग्रहण करना चाहिए । देह शुद्धि या सुंदरता के लिए परिमित प्रमाण के पंचगव्य ,  वंश वृद्धि के लिए नियमित दूध पंचाम्टत , ईख ,सर्वपापक्षयपूर्वक सकल पुण्य फल प्राप्त होने के लिए एकमुक्त, नक्तव्रत, अयाचित भोजन या सर्वथा उपवास करने का व्रत करना चाहिए तथा  देवोत्थान में मधुर स्वर के लिए गुड़ , दीर्घायु अथवा पुत्र-पौत्रादि की प्राप्ति के लिए तेल ,  शत्रुनाशादि के लिए कड़वे तेल का , सौभाग्य के लिए मीठे तेल ,  स्वर्ग प्राप्ति के लिए पुष्पादि भोगों , प्रभु शयन के दिनों में सभी प्रकार के मांगलिक कार्य जहाँ तक हो सके न करें। पलंग पर सोना, भार्या का संग करना, झूठ बोलना, मांस, शहद और दूसरे का दिया दही-भात आदि का भोजन करना, मूली, पटोल एवं बैंगन आदि का भी त्याग कर देना चाहिए।
एक बार देवऋषि नारदजी ने ब्रह्माजी से इस एकादशी के विषय में जानने की उत्सुकता प्रकट की, तब ब्रह्माजी ने उन्हें बताया- सतयुग में मांधाता नामक एक चक्रवर्ती सम्राट राज्य करते थे। उनके राज्य में प्रजा बहुत सुखी थी। किंतु भविष्य में क्या हो जाए, यह कोई नहीं जानता। अतः वे भी इस बात से अनभिज्ञ थे कि उनके राज्य में शीघ्र ही भयंकर अकाल पड़ने वाला है । मंधाता के  राज्य में पूरे तीन वर्ष तक वर्षा न होने के कारण भयंकर अकाल पड़ा। इस दुर्भिक्ष से चारों ओर त्राहि-त्राहि मच गई। धर्म पक्ष के यज्ञ, हवन, पिंडदान, कथा-व्रत आदि में कमी हो गगयी थी । कष्ट से मुक्ति पाने का कोई साधन करने के उद्देश्य से राजा सेना को लेकर जंगल की ओर चल दिए। वहाँ विचरण करते-करते एक दिन वे ब्रह्माजी के पुत्र अंगिरा ऋषि के आश्रम में पहुँचे और उन्हें साष्टांग प्रणाम किया। ऋषिवर ने आशीर्वचनोपरांत कुशल क्षेम पूछा। फिर जंगल में विचरने व अपने आश्रम में आने का प्रयोजन जानना चाहा।तब राजा ने हाथ जोड़कर कहा- 'महात्मन्‌! सभी प्रकार से धर्म का पालन करता हुआ भी मैं अपने राज्य में दुर्भिक्ष का दृश्य देख रहा हूँ। आखिर किस कारण से ऐसा हो रहा है, कृपया इसका समाधान करें।' यह सुनकर महर्षि अंगिरा ने कहा- 'हे राजन! सब युगों से उत्तम यह सतयुग है। इसमें छोटे से पाप का भी बड़ा भयंकर दंड मिलता है।इसमें धर्म अपने चारों चरणों में व्याप्त रहता है। ब्राह्मण के अतिरिक्त किसी अन्य जाति को तप करने का अधिकार नहीं है जबकि आपके राज्य में एक शूद्र तपस्या कर रहा है। यही कारण है कि आपके राज्य में वर्षा नहीं हो रही है। जब तक वह काल को प्राप्त नहीं होगा, तब तक यह दुर्भिक्ष शांत नहीं होगा। दुर्भिक्ष की शांति उसे मारने से ही संभव है।'किंतु राजा का हृदय एक नरपराधशूद्र तपस्वी का शमन करने को तैयार नहीं हुआ। उन्होंने कहा- 'हे देव मैं उस निरपराध को मार दूँ, यह बात मेरा मन स्वीकार नहीं कर रहा है। कृपा करके आप कोई और उपाय बताएँ।' महर्षि अंगिरा ने बताया- 'आषाढ़ माह के शुक्लपक्ष की एकादशी का व्रत करें। इस व्रत के प्रभाव से अवश्य ही वर्षा होगी।' राजा अपने राज्य की राजधानी लौट आए और चारों वर्णों सहित पद्मा एकादशी का विधिपूर्वक व्रत किया। व्रत के प्रभाव से उनके राज्य में मूसलधार वर्षा हुई और पूरा राज्य धन-धान्य से परिपूर्ण हो गया था । ब्रह्म वैवर्त पुराण में देवशयनी एकादशी के विशेष माहात्म्य का वर्णन किया गया है।  व्रत से प्राणी की समस्त मनोकामनाएँ पूर्ण होता है ।चातुर्मास का पालन विधिपूर्वक करे तो महाफल प्राप्त होता है। कार्तिक शुक्ल पक्ष की एकादशी को देवउठनी एकादशी कहते हैं। देवउठनी एकादशी के दिन तुलसी विवाह का उत्सव भी मनाया जाता है। हिन्दू मान्यता के अनुसार इस तिथि पर भगवान विष्णु के साथ तुलसी का विवाह होता है, क्योंकि इस दिन भगवान विष्णु चार महीने तक सोने के बाद जागते हैं। चार महीनों के अंतराल के बाद इसी तिथि से हिन्दूओं में शादियाँ आरंभ हो जाती हैं। तुलसी विवाह के दिन व्रत रखने का बड़ा महत्व होता है।प्राचीन काल में जलंधर नामक राक्षस ने चारों तरफ़ बड़ा उत्पात मचा रखा था। वह बड़ा वीर तथा पराक्रमी था। उसकी वीरता का रहस्य उसकी पत्नी वृंदा का पतिव्रता धर्म था। उसी के प्रभाव से वह विजयी बना हुआ था। जलंधर के उपद्रवों से परेशान देवगण भगवान विष्णु के पास गए तथा रक्षा की गुहार लगाई। उनकी प्रार्थना सुनकर भगवान विष्णु ने वृंदा का पतिव्रता धर्म भंग करने का निश्चय किया। उन्होंने जलंधर का रूप धर कर छल से वृंदा का स्पर्श किया। वृंदा का पति जलंधर, देवताओं से पराक्रम के साथ युद्ध कर रहा था लेकिन वृंदा का सतीत्व नष्ट होते ही मारा गया। जैसे ही वृंदा का सतीत्व भंग हुआ, जलंधर का सिर उसके आंगन में आ गिरा। जब वृंदा ने यह देखा तो क्रोधित होकर जानना चाहा कि वह कौन है जिसने उसे स्पर्श किया था। सामने साक्षात विष्णु जी खड़े थे। उसने भगवान विष्णु को शाप दे दिया, "जिस प्रकार तुमने छल से मुझे पति वियोग दिया है, उसी प्रकार तुम्हारी पत्नी का भी छलपूर्वक हरण होगा और स्त्री वियोग सहने के लिए तुम भी मृत्यु लोक में जन्म लोगे।" यह कहकर वृंदा अपने पति के साथ सती हो गई। वृंदा के श्राप से ही प्रभु श्रीराम ने अयोध्या में जन्म लिया और उन्हें सीता वियोग सहना पड़ा़। जिस जगह वृंदा सती हुई वहां तुलसी का पौधा उत्पन्न हुआ।
एक अन्य कथा में आरंभ इसी प्रकार है लेकिन इस कथा में वृंदा ने विष्णु जी को यह श्राप दिया था, "तुमने मेरा सतीत्व भंग किया है। अत: तुम पत्थर के बनोगे।" यह पत्थर शालीग्राम कहलाया। विष्णु ने कहा, "हे वृंदा! मैं तुम्हारे सतीत्व का आदर करता हूं लेकिन तुम तुलसी बनकर सदा मेरे साथ रहोगी। जो मनुष्य कार्तिक एकादशी के दिन तुम्हारे साथ मेरा विवाह करेगा, उसकी हर मनोकामना पूरी होगी।" बिना तुलसी के शालिग्राम या विष्णु जी की पूजा अधूरी मानी जाती है। शालीग्राम और तुलसी का विवाह भगवान विष्णु और महालक्ष्मी का ही प्रतीकात्मक विवाह माना जाता है।


तुलसी विवाह के दौरान तुलसी पौधे के साथ विष्णु जी की मूर्ति भी उनके साथ स्थापित की जाती है। तुलसी के पौधे और विष्णु जी की मूर्ति को पीले वस्त्रों से सजाया जाता है। इसके बाद तुलसी के गमले को गेरु से सजाया जाता है। गमले के आस-पास शादी का मंडप बनाया जाता है। इसके पश्चात गमले को वस्त्र से सजाया जाता है और लाल चूड़ी पहनाकर और बिंदी आदि लगाकर श्रृंगार किया जाता है। इसके साथ टीका करने के लिए नारियल को दक्षिणा के रुप में तुलसी के आगे रखा जाता है। भगवान शालीग्राम की मूर्ति का सिंहासन हाथ में लेकर तुलसी के चारों ओर सात बार परिक्रमा किया जाता है। इसके बाद आरती की जाती है। विवाह इसके साथ ही संपन्न हो जाता है। विवाह करवाते समय लोग ऊं तुलस्यै नमः का जाप करते रहते हैं। जो लोग इस दिन व्रत रखते हैं, वे इस दिन अन्न ग्रहण नहीं करते हैं। तुलसी पौधा धार्मिक, आध्यात्मिक और आयुर्वेदिक महत्व की दृष्टि से एक विलक्षण पौधा है। जिस घर में इसकी स्थापना होती है, वहां आध्यात्मिक उन्नति के साथ सुख, शांति और समृद्धि स्वयं ही आ जाती है। इससे अनेक लाभ प्राप्त होते हैं, जैसे वातावारण में स्वच्छता और शुद्धता बढ़ती है, प्रदूषण पर नियंत्रण होता है और आरोग्य में वृद्धि होती है। आयुर्वेद के अनुसार, तुलसी के नियमित सेवन से व्यक्ति के विचार में पवित्रता व मन में एकाग्रता आती है और क्रोध पर नियंत्रण होने लगता है। आलस्य दूर हो जाता है और शरीर में दिन भर स्फूर्ति बनी रहती है। ऐसा कहा जाता है कि औषधीय गुणों की दृष्टि से तुलसी संजीवनी बूटी के समान है।पौराणिक कथाओं के अनुसार देवों और दानवों द्वारा किए गए समुद्र-मंथन के समय जो अमृत धरती पर छलका था, उसी से तुलसी की उत्पत्ति हुई थी। इसलिए इस पौधे के हर हिस्से में अमृत समान गुण पाए जाते हैं। हिन्दू धर्म में मान्यता है कि तुलसी के पौधे की जड़ में सभी तीर्थ, मध्य भाग (तने) में सभी देवी-देवता और ऊपरी शाखाओं में चारों वेद स्थित हैं। तुलसी का प्रतिदिन दर्शन करना पापनाशक समझा जाता है और पूजन को मोक्षदायक कहा गया है।
 देवउठनी एकादशी 2020: इस एकादशी पर भगवान विष्णु निद्रा के बाद उठते हैं इसलिए इसे देवोत्थान एकादशी कहा गया है। सनातन में  शुभ और पुण्यदायी मानी जाने वाली एकादशी, कार्तिक माह के शुक्ल पक्ष में मनाई जाती है। देवउठनी एकादशी 25 नवंबर, बुधवार को हरिप्रबोधिनी और देवोत्थान एकादशी के नाम से मनायी जाती  है। पुराणो तथा एकादशी महात्म के अनुसार आषाढ़ शुक्ल एकादशी से कार्तिक शुक्ल एकादशी के बीच श्रीविष्णु क्षीरसागर में शयन करते हैं और  भादों शुक्ल एकादशी को करवट बदलते हैं।  पुण्य की वृद्धि और धर्म-कर्म में प्रवृति कराने वाले श्रीविष्णु कार्तिक शुक्ल एकादशी को योग  निद्रा से जागते हैं। इसी कारण से शास्त्रों में एकादशी का फल अमोघ पुण्यफलदाई बताया गया है।  एकादशी पर भगवान विष्णु निद्रा के बाद उठते हैं । इसे देवोत्थान एकादशी कहा गया है। भगवान विष्णु चार महीने के लिए क्षीर सागर में योग  निद्रा करने के कारण चातुर्मास में विवाह और मांगलिक कार्य नही किया जाता  जाते हैं। पुनश्च  देवोत्थान एकादशी पर भगवान के जागने के बाद शादी- विवाह , सभी मांगलिक कार्य आरम्भ होते  हैं। देवोत्थान में  भगवान शालिग्राम और तुलसी विवाह का अनुष्ठान किया जाता है। कार्तिक माह शुक्ल पक्ष की एकादशी तिथि के दिन तुलसी विवाह किया जाता है. इस साल यह एकादशी तिथि 25 नवंबर को शुरू होकर 26 तारीख को समाप्त होगी. तुलसी विवाह में माता तुलसी का विवाह भगवान शालिग्राम के साथ किया जाता है. मान्यता है कि जो व्यक्ति तुलसी विवाह का अनुष्ठान करता है उसे कन्यादान के बराबर पुण्य फल मिलता है । शालिग्राम भगवान विष्णु का अवतार हैं । पुराणों  के अनुसार एक बार तुलसी ने गुस्से में भगवान विष्णु को श्राप से पत्थर बना दिया था. तुसली के इस श्राप से मुक्ति के लिए भगवान विष्णु ने शालिग्राम का अवतार लिया और तुलसी से विवाह किया. तुलसी मैया को मां लक्ष्मी का अवतार माना जाता है. कुछ स्थानों पर तुलसी विवाह द्वादशी के दिन भी किया जाता है । तुलसी के पौधे के चारो ओर ईख से मंडप बनाकर और तुलसी के पौधे पर लाल चुनरी चढ़ाए जाते है ।तुलसी के पौधे को श्रृंगार की चीजें अर्पित कर  भगवान गणेश और भगवान शालिग्राम की पूजा की जाती  है ।भगवान शालिग्राम की मूर्ति का सिंहासन हाथ में लेकर तुलसीजी की सात परिक्रमा की जाती है भगवान शालिग्राम तथा तुलसी आरती के बाद विवाह में गाए जाने वाले मंगलगीत के साथ विवाहोत्सव पूर्ण होती  है । तुलसी विवाह 2020 का शुभ मुहूर्त - देवोत्थान , एकादशी तिथि प्रारंभ – 25 नवंबर, सुबह 2:42 बजे से एकादशी तिथि समाप्त – 26 नवंबर, सुबह 5:10 बजे तक है ।

रविवार, नवंबर 22, 2020

सर्वार्थ सिद्धि : गौपालन...


ग्रंथों ,उपनिषदों के अनुसार मानवीय जीवन, संस्कृति, इतिहास का अटूट अंग से  सृष्टि की रचना हुई है उसी काल से   गौ वंश प्रारम्भ होता है। आदिकाल में देव और दानवों ने अमृत प्राप्त करने के लिए समुद्र मंथन किया था। भगवान विष्णु ने  कच्छप अवतार लेकर सुमेरू पर्वत धारण किया और वासुकी नाग को रज्जू  ( मथनी ) समुद्र  मंथन किया गया जिसमें  हलाहल विष की ज्वाला से तारने के लिए कर्तिक शुक्ल अष्टमी को  रत्नस्वरूपा कामधेनू का प्रागट्य हुई थी । कामधेनु  मनोकामनाओं, संकल्प और आवश्यकता पूर्ण करने में सक्षम थी।ब्रह्मा जी ने स्वायम्भुव मनु को सृष्टि रचना का आदेश दिया था । प्रथम मनु स्वायम्भुव मन ने कामधेनु की उत्पन्न किया । वेन पुत्र राजा प्टथु द्वारा  कामधेनु की स्तुति करने केबाद जन कल्याण के लिए गौदोहन किया गया और पृथ्वी पर कृषि का प्रारंभ किया। पर्थु मनु के नाम से धरा पृथ्वी कहलाई है । गौमाता के दर्शन से बढ़कर न कोई देव स्थान है, न कोई जप-तप है, न ही कोई सुगम कल्याणकारी मार्ग है। न कोई योग-यज्ञ है और न कोई मोक्ष का साधन ही। तीर्थों में तीर्थराज प्रयाग, उसी प्रकार देवी-देवताओं में अग्रणी गौमाता को बताया गया है। गौमाता के रोम-रोम में देवी-देवताओं का एवं समस्त तीर्थों का वास है। साहत्यकार एवं इतिहासकार सत्येन्द्र कुमार पाठक ने कहा कि गौमाता  को एक ग्रास खिला दीजिए तो वह सभी देवी-देवताओं को पहुंच जाएगा। धर्मग्रंथ के अनुसार समस्त देवी-देवताओं एवं पितरों को एक साथ प्रसन्न करना हो तो गौभक्ति-गौसेवा से बढ़कर कोई अनुष्ठान नहीं है। गौमाता के दर्शन मात्र से ऐसा पुण्य प्राप्त होता है जो बड़े-बड़े यज्ञ, दान आदि कर्मों से भी नहीं प्राप्त हो सकता। ‘गौ मे माता ऋषभ: पिता में दिवं शर्म जगती मे प्रतिष्ठा।’ गाय मेरी माता और ऋषभ पिता हैं। धर्मशास्त्रों के अनुसार भगवान का अवतार ही गौमाता, संतों व धर्मरक्षा के लिए होता है। गोस्वामी तुलसीदासजी रामचरितमानस में लिखते हैं- ‘विप्र धेनु सुर संत हित लीन्ह मनुज अवतार । निज इच्छा निर्मित तनु माया गुन गोपार ।।सनातन सत्य गौमाता में समस्त तीर्थ गाय, गोपाल, गीता, गायत्री तथा गंगा धर्मप्राण भारत के प्राण  हैं। पूजनीय गौमाता, हमारी ऐसी मां है जिसकी बराबरी न कोई देवी-देवता कर सकते हैं और न कोई तीर्थ है । गौमाता को भगवान कृष्ण नंगे पांव जंगल-जंगल चराते और  गोपाल नाम रख कर  उसकी रक्षा के लिए गौकुल में अवतार लिया है । राजा दिलीप गौसेवा के पर्याय और रामजन्म सुरभि गाय के दुग्ध द्वारा तैयार खीर से माना गया है । कृष्ण, गोपाल  नाम से जाने गए ने पूर्ण बृजक्षेत्र की रक्षा गोवर्धन पर्वत उठा कर की और माखनचोर कहलाये। औषधियों के स्वामी धनवंतरी ने गौभक्ति और गौसेवा कर आरोग्य प्रदायनी गौ दुग्ध, गौ घी, गौदधि, गौमूत्र और गोबर के मिश्रण से पंचगव्य की रचना की। यहां तक कि गाय के गोबर और मूत्र को एक पर्यावरण रक्षक के रूप में माना जाता था और फर्श और घरों की दिवारों रसोई में इस्तेमाल किया गया था, शुद्ध रहने के लिए हर घर और मानव शरीर पर गौमूत्र छिड़काव एक आम बात थी। गोकुल यानी जहां 10,000 से अधिक गौवंश हों और नन्द जो की हजारों गौवंश का अधिपति हो जाना जाता था। सनातन धर्म में कन्या को दुहिता का नाम दिया है, यानी दुग्ध को दोहन करने वाली, गाय का दान एक सबसे महान दान माना जाता था। शास्त्रों में कहा है सब योनियों में मनुष्य योनी श्रेष्ठ है। क्योंकि वह गौमाता की निर्मल आभा में अपने जीवन को धन्य कर सकते हैं। मानव संरक्षण, कृषि और अन्न उत्पादन में गौवंश का अटूट सहयोग और साथ रहा है। इसी कारण हमारे शास्त्र वेद पुराण गौ महिमा से भरे हुए हैं। अर्थववेद  के अनुसार -  मित्र ईक्षमाण आवृत आनंद:युज्यमानों , वैश्वदेवोयुक्त: प्रजापति विर्मुक्त: सर्पम्। एतद्वैविश्वरूपं सर्वरूपं गौरूपम् उपैनंविश्वरूपा: , सर्वरूपा: पशवस्तिष्ठन्ति य एवम् वेद।। अर्थात देखते समय गौ मित्र देवता है, पीठ फेरते समय आनंद है। हल तथा गाड़ी में जोतते समय(बैल) विश्वदेव, जाने पर प्रजापति तथा जब खुला हो तो सबकुछ बन जाता है। यही विश्वरूप अथवा सर्वरूप है, यही गौरूप है। जिसे इस विश्वरूप का यर्थाथ ज्ञान होता है उसके पास विविध प्रकार के पशु रहते हैं। अथर्ववेद में ही कहा गया है ब्राह्मण तथा क्षत्रिय विश्वरूप गौ के नितंब हैं। गंधर्व पिंडलियां तथा अप्सारायें छोटी हड्डियां हैं। देवता इसके गुदा हैं, मनुष्य आते, अन्य प्राणी अमाशय हैं। राक्षस रक्त तथा इतर मानव पैर हैं। गाय के संबंध में एक जगह कहा गया है- ।


प्रत्यंग तिष्ठन् धातोदड तिष्ठनन्रसविता तृणाणि प्राप्त: सोमों राजा।अर्थात् पश्चिमाभिमुख खड़े होते समय गाय विधाता उत्तराभिमुख खड़े होते समय सविता तथा घास चरते समय चंद्रमा है। विभिन्न ग्रंथों में कहा गया है कि गाय के अंगों में ईश्वर का वास है। उदाहरणार्थ-बृहत्पराशर स्मृति , पद्मपुराण सृष्टिखंड , अथर्ववेद में गायों को संपतियों का भंडार कहा गया है। यच्च गां पदा स्फुरति प्रत्यड् सूर्यं च मेहति, तस्य वृश्वामि तेमूलं च्छाया करवोपरम।। अर्थात जो गाय को पैर से ठुकराता है और जो सूर्य की ओर मुंह करके मूत्रोत्सर्ग करता है मैं उस पुरूष का मूल ही काट देता हूं संसार में फिर उसे छाया मिलना कठिन है। प्रभु राम के वनवास गमन के पश्चात जब भरत उनसे मिलने वन में गये तो प्रभु का पहला प्रशन भरत से यही था कि तुम्हारे राज्य में गाय तो ठीक से हैं न स्कंदपुराण (आवंत्यखंड रेखाखंड अध्याय-13) ब्रह्मांडपुराण (गोसावित्रीस्त्रोत) भविष्यपुराण (उत्तरपर्व बह्मवैर्वापुराण के श्रीकृष्णजन्म कांड आदि में गाय की महिमा का वर्णन है। गौवध का निषेध करते हुये वेद में कहा गया है- माता रूद्राणां दुहिता वसूनां स्वसादित्यनाममृत्स्य नाभि: प्रश्नु वोचं चिकितुषे जनायमा गामनागादितिं वधिष्ट। अर्थात गौ रूद्रों की माता वसुओं की पुत्री अदितिपुत्रों की बहन तथा धृतरूप अमृत का खजाना है। प्रत्येक विचारशील मनुष्य को मैंनें यही कहा है कि निरपराध व अवध्य गौ का कोई वध न करे।शास्त्रों के अनुसार गाय माता की महिमामयी और सभी प्रकार से पूज्य है। गौ माता की रक्षा करना  मनुष्‍य का परम कर्तव्य है।गौमाता की सेवा से बढ़कर कोई दूसरा महान पुण्य नहीं है। पुराणों में कहा गया है कि  मनुष्य गौ माता के खुर से उड़ी हुई धूलि को सिर पर धारण करता है उसे तीर्थ के जल में स्नान और उसे सभी पापों से छुटकारा मिल जाता है।गौमाता के बारे में  शुभ और पवित्र बातें जीवन में अपनाकर अपनी सभी परेशानियों से छुटकारा पाता  हैं। गौ माता (गाय) की पूजा करने से कुंडली के दोष समाप्त होंगे। प्रतिदिन गौ माता के नेत्र के दर्शन करें, जीवन में लाभ ही लाभ होगा। रास्ते में जाते समय गौ माता आती हुई दिखाई दें तो उन्हें अपने दाहिने से जाने दें, तो निश्‍चित ही आपकी यात्रा सफल होगी। यात्रा की शुरुआत करते समय गौ माता सामने से आती हुई दिखाई दें या बछड़े को दूध पिलाती हुई दिख जाए तो यात्रा सफल एवं संपन्न होती है। बुरे स्वप्न दिखाई देते हैं तो गौ माता का नाम ले, कुछ ही दिनों में बुरे स्वप्न दिखने बंद हो जाएंगे। गौ माता के दूध से बने घी का एक अन्य नाम 'आयु' भी है, इसीलिए उसे 'आयुर्वै घृतम्' कहा जाता है। अत: गौ माता के दूध एवं घी का उपयोग करने से व्यक्ति दीर्घायु होता है।  हस्त रेखा में आयु (उम्र की) रेखा टूटी हुई है तब गौ माता का पूजन करें तथा गाय का घी सेवन करने के साथ-साथ अन्य कामों में में सफलता मिलती है । जिस घर में गौ पालन किया जाता है, वहां का वास्तुदोष स्वत: ही समाप्त हो जाता है। पितृ दोष के कारण आपका संघर्षमयी जीवन हो तो गौ माता को प्रतिदिन रोटी, गुड़, हरा चारा आदि खिलाएं। अगर प्रतिदिन ना खिला सके तो सिर्फ हर अमावस्या के दिन खिलाने से भी पितृ दोष समाप्त होता है। ज्योतिष  शास्त्र में गोधू‍लि का समय शुभ विवाह के लिए सर्वोत्तम माना गया है। अत: विवाह के समय इस बात का ध्यान रखकर ही शुभ मांगलिक कार्य किए जाए तो जीवन में कभी भी दुखों से सामना नहीं होता है । गाय की घी , दूध , दही , मध , गुड मिला कर पंचाम्टत पान करने पर  भुक्ति तथा  गाग की गोबर , मूत्र , दूध , दही तथा घी मिला कर गव्य को शरीर , हाथ में लगा कर स्नान करने पर संक्रमण तथा रोगाणु से मुक्ति मिलती है ।
स्वायंभुव मनु के वंश में राजा पुरू की पत्नी आग्रयी के प्रपौत तथा राजा अंग की पत्नि सुनिथा के पौत्र राजा वेन दिहिने हाथ का मंथन रीषियों द्वारा करने पर राजा प्टथु का अवतरण हुआ था । राजा प्टथु द्वारा धरातल को सभी प्राणियों के चतुर्मुखी विकास के लिए ब्रह्मेष्टी यग्य कराने के पश्चात मागध और सूत का अवतरण हुआ था। राजा प्टथु ने मागध को मगध तथा सूत को अनुप देश प्रदान किया । गाय के रूप में धरती राजा प्टथु के सामने प्रकट हुई थी । राजा प्टथु द्वारा धरती रूप गाय को स्वायंभुव मनु को बछडा बनाकर दूहने पर अन्न की उत्पति ,, चंद्रमा बछडा बने तथा महर्षि ने दूहा  , देवता ,, पितर ,नाग , दैत्य ,गंधर्व ,यछ ,पर्वत , पेड, पूण्यजन  , व्टहस्पति ,सूर्य ,नाग ,विरोचन दूह कर धरती के प्राणियों सम्टद्ध बनाया है । द्वापर युग में भगवान गोपल बन कर गाय की सेवा की । भगवान क्टष्ण ने कार्तिक शुक्ल अष्टमी से गौ सेवा का ब्रत लिया । इस तिथि को गोपाष्टमी नाम से ख्याति प्रप्त है ।

शनिवार, नवंबर 21, 2020

निरोगता तथा सर्वार्थ सिद्धि : आंवला नवमी...


पौराणिक ग्रंथों , वेदों तथा पुराणों के अनुसार सत्ययुग का प्रारंभ कार्तिक शुक्ल अक्षय नवमी बुधवार श्रवण नछत्र ध्टति योग मध्याह्ण काल में हुआ था और इसलिए  ‘सत्य युगाडी’ कहा जाता है। अक्षय नवमी को  ‘आंवला नवमी कहा गया है ।  आंवला के पेड़ में  देवियों और देवताओं का निवास माना जाता है । पश्चिम बंगाल के क्षेत्रों में जगधात्री पूजा’ के रूप में मनाया जाता है तथा बिहार , झारखण्ड , उडीसा में अक्षय नवमी की संध्या पर, भक्त  सूर्योदय से  पवित्र नदी के किनारे पर पूजा करते हैं।उसके बाद, भक्त पूजा की जगह को साफ करते हैं और हल्दी पाउडर का उपयोग करके तीस वर्गाकार आकृतियां बनाते हैं। इन सभी आकृतियों को ‘कोठा’ कहा जाता है जो खाद्य पदार्थों, अनाज और दालें से भरे जाते हैं।इसके बाद भक्त कई वैदिक मंत्रों का जाप करते हुए पूजा करते हैं। किसान खाद्य पदार्थों से निरंतर भंडार भरे रहने और भविष्य में अच्छी फसल के लिए इस दिन को मनाते हैं।अनुष्ठान के एक भाग के रूप में, महिलाएं तथा पुरूष अक्षय नवमी उपवास का पालन करती हैं और भोजन और पानी के सेवन से दूर रहती हैं। कीर्तनों और भजनों का गायन करते   है।विभिन्न राज्यों में आंवला’ पेड़ की पूजा कर अॉवला पेड की छाया में भोजन करते है । अच्छा स्वास्थ्य प्राप्त करने के लिए, लोगों को इस विशेष दिन आंवला खाना चाहिए। हिंदू धर्म में, अक्षय नवमी के उत्सव को अत्यधिक शुभ और महत्वपूर्ण माना जाता है। यह अत्यंत समर्पण और श्रद्धा के साथ मनाया जाता है। इस दिन भजन उपासना के द्वारा, भक्त अपनी सभी इच्छाओं को पूरा करते हैं । दान और भिक्षा देना शुभ माना जाता है। ‘कुष्मंद नवमी’ भूरा नवमी  के रूप में  पहचाना जाता है । भगवान विष्णु ने इस दिन दानव ‘कुष्मंड’ का वध किया था और ब्रह्मांड में धर्म को बहाल किया था। अॉवला नवमी को गुप्त दान का महत्व है । अॉवला की उत्पति ब्रह्मा जी की आंसू भू स्थल पर गिरा था ।
आँवला  स्वास्थ्यवर्धक फल है ।आंवले की डाली पर पत्ते एवं फल , विभाग - मैंगोलियोफाइटा वर्ग मैंगोलियोफाइटा , जाति - रिबीस ,प्रजाति - आर यूवा-क्रिस्पा ,वैज्ञानिक नाम - रिबीस यूवा-क्रिस्पा है ।आँवला २० फीट से २५ फुट तक लंबा झारीय पौधा होता है। यह एशिया के अलावा यूरोप और अफ्रीका में भी पाया जाता है। हिमालयी क्षेत्र और प्राद्वीपीय भारत में आंवला के पौधे बहुतायत मिलते हैं। इसके फूल घंटे की तरह होते हैं। इसके फल सामान्यरूप से छोटे होते हैं, लेकिन प्रसंस्कृत पौधे में थोड़े बड़े फल लगते हैं। इसके फल हरे, चिकने और गुदेदार होते हैं। स्वाद में इनके फल कसाय होते हैं।संस्कृत में इसे अमृता, अमृतफल, आमलकी, पंचरसा इत्यादि, अंग्रेजी में 'एँब्लिक माइरीबालन' या इण्डियन गूजबेरी तथा लैटिन में 'फ़िलैंथस एँबेलिका'  कहते हैं। यह वृक्ष समस्त भारत में जंगलों तथा बाग-बगीचों में होता है। इसकी ऊँचाई 20 से 25 फुट तक, छाल राख के रंग की, पत्ते इमली के पत्तों जैसे, किंतु कुछ बड़े तथा फूल पीले रंग के छोटे-छोटे होते हैं। फूलों के स्थान पर गोल, चमकते हुए, पकने पर लाल रंग के, फल लगते हैं, जो आँवला नाम से ही जाने जाते हैं। वाराणसी का आँवला सब से अच्छा माना जाता है। यह वृक्ष कार्तिक में फलता है ।आयुर्वेद के अनुसार हरीतकी (हड़) और आँवला दो सर्वोत्कृष्ट औषधियाँ हैं। इन दोनों में आँवले का महत्व अधिक है। चरक के मत से शारीरिक अवनति को रोकनेवाले अवस्थास्थापक द्रव्यों में आँवला सबसे प्रधान है। प्राचीन ग्रंथकारों ने इसको शिवा (कल्याणकारी), वयस्था (अवस्था को बनाए रखनेवाला) तथा धात्री  कहा है।अॉवला फल पूरा पकने के पहले व्यवहार में आते हैं। वे ग्राही (पेटझरी रोकनेवाले), मूत्रल तथा रक्तशोधक बताए गए हैं। कहा गया है, ये अतिसार, प्रमेह, दाह, कँवल, अम्लपित्त, रक्तपित्त, अर्श, बद्धकोष्ठ, वीर्य को दृढ़ और आयु में वृद्धि करते हैं। मेधा, स्मरणशक्ति, स्वास्थ्य, यौवन, तेज, कांति तथा सर्वबलदायक औषधियों में इसे सर्वप्रधान कहा गया है। इसके पत्तों के क्वाथ से कुल्ला करने पर मुँंह के छाले और क्षत नष्ट होते हैं। सूखे फलों को पानी में रात भर भिगोकर उस पानी से आँख धोने से सूजन इत्यादि दूर होती है। सूखे फल खूनी अतिसार, आँव, बवासरी और रक्तपित्त में तथा लोहभस्म के साथ लेने पर पांडुरोग और अजीर्ण में लाभदायक माने जाते हैं। आँवला के ताजे फल, उनका रस या इनसे तैयार किया शरबत शीतल, मूत्रल, रेचक तथा अम्लपित्त को दूर करनेवाला कहा गया है। आयुर्वेद के अनुसार यह फल पित्तशामक है और संधिवात में उपयोगी है। ब्राह्मरसायन तथा च्यवनप्राश, ये दो विशिष्ट रसायन आँवले से तैयार किए जाते हैं। प्रथम मनुष्य को नीरोग रखने तथा अवस्थास्थापन में उपयोगी माना जाता है तथा दूसरा भिन्न-भिन्न अनुपानों के साथ भिन्न-भिन्न रोगों, जैसे हृदयरोग, वात, रक्त, मूत्र तथा वीर्यदोष, स्वरक्षय, खाँसी और श्वासरोग में लाभदायक माना जाता है।आधुनिक अनुसंधानों के अनुसार आँवला में विटैमिन-सी प्रचुर मात्रा में होता है; इतनी अधिक मात्रा में कि साधारण रीति से मुरब्बा बनाने में भी सारे विटैमिन का नाश नहीं हो पाता। संभवत: आँवले का मुरब्बा इसीलिए गुणकारी है। आँवले को छाँह में सुखाकर और कूट पीसकर सैनिकों के आहार में उन स्थानों में दिया जाता है जहाँ हरी तरकारियाँ नहीं मिल पाती। आँवले के उस अचार में, जो आग पर नहीं पकाया जाता विटैमिन सी प्राय: पूर्ण रूप से सुरक्षित रह जाता है और यह अचार, विटैमिन सी की कमी में खाया जा सकता है।एशिया और यूरोप में बड़े पैमाने पर आंवला की खेती होती है। आंवला के फल औषधीय गुणों से युक्त होते हैं, इसलिए इसकी व्यवसायिक खेती किसानों के लिए लाभदायक होती है।भारत की जलवायु आंवले की खेती के लिहाज से सबसे उपयुक्त मानी जाती है। ( उत्तर प्रदेश का प्रतापगढ़ जनपद आॅवले के लिए प्रसिद्ध है)। इसके उपरान्त ब्रिटेन, फ्रांस, इटली, स्कॉटलैंड, नॉर्वे आदि देशों में इसकी खेती सफलतापूर्वक की जाती है। इसके फलों को विकसित होने के लिए सूर्य का प्रकाश आवश्यक माना जाता है। हालांकि आंवले को किसी भी मिट्टी में उगाया जा सकता है, लेकिन काली जलोढ़ मिट्टी को इसके लिए उपयुक्त माना जाता है। कई बार आँवला में फल नहीं लगते जैसी समस्या आती है मगर आवश्यक यह है की जहाँ आँवला का पेड़ हो उसके आसपास दूसरे आँवले का पेड़ होना भी आवश्यक है तभी उसमें फल लगते है ।आंवले को बीज के उगाने की अपेक्षा कलम लगाना ज्यादा अच्छा माना जाता है। कलम पौधा जल्द ही मिट्टी में जड़ जमा लेता है और इसमें शीघ्र फल लग जाते हैं।कम्पोस्ट खाद का उपयोग कर भारी मात्रा में फल पाए जा सकते हैं। आंवले के फल विभिन्न आकार के होते हैं। छोटे फल बड़े फल की अपेक्षा ज्यादा तीखे होते हैं। आंवला के पौधे और फल कोमल प्रकृति के होते हैं, इसलिए इसमें कीड़े जल्दी लग जाते हैं। आंवले की व्यवसायिक खेती के दौरान यह ध्यान रखना होता है कि पौधे और फल को संक्रमण से रोका जाए। शुरुआती दिनों में इनमें लगे कीड़ों और उसके लार्वे को हाथ से हटाया जा सकता है। पोटाशियम सल्फाइड कीटाणुओं और फफुंदियों की रोकथाम के लिए उपयोगी माना जाता है ।आँवला एक छोटे आकार और हरे रंग का फल है। इसका स्वाद खट्टा होता है। आयुर्वेद में इसके अत्यधिक स्वास्थ्यवर्धक माना गया है। आँवला विटामिन 'सी' का सर्वोत्तम और प्राकृतिक स्रोत है। इसमें विद्यमान विटामिन 'सी' नष्ट नहीं होता। यह भारी, रुखा, शीत, अम्ल रस प्रधान, लवण रस छोड़कर शेष पाँचों रस वाला, विपाक में मधुर, रक्तपित्त व प्रमेह को हरने वाला, अत्यधिक धातुवर्द्धक और रसायन है। यह 'विटामिन सी' का सर्वोत्तम भण्डार है। आँवला दाह, पाण्डु, रक्तपित्त, अरुचि, त्रिदोष, दमा, खाँसी, श्वास रोग, कब्ज, क्षय, छाती के रोग, हृदय रोग, मूत्र विकार आदि अनेक रोगों को नष्ट करने की शक्ति रखता है। वीर्य को पुष्ट करके पौरुष बढ़ाता है, चर्बी घटाकर मोटापा दूर करता है। सिर के केशों को काले, लम्बे व घने रखता है। विटामिन सी ऐसा नाजुक तत्व होता है जो गर्मी के प्रभाव से नष्ट हो जाता है, लेकिन आँवले में विद्यमान विटामिन सी कभी नष्ट नहीं होता। हिन्दू मान्यता में आँवले के फल के साथ आँवले का पेड़ भी पूजनीय है| माना जाता है कि आँवले का फल भगवान विष्णु को बहुत प्रिय है इसीलिए अगर आँवले के पेड़ के नीचे भोजन पका कर खाया जाये तो सारे रोग दूर हो जाता हैं|
आँवले के 100 ग्राम रस में 921 मि.ग्रा. और गूदे में 720 मि.ग्रा. विटामिन सी पाया जाता है। आर्द्रता 81.2, प्रोटीन 0.5, वसा 0.1, खनिज द्रव्य 0.7, कार्बोहाइड्रेट्स 14.1, कैल्शियम 0.05, फॉस्फोरस 0.02, प्रतिशत, लौह 1.2 मि.ग्रा., निकोटिनिक एसिड 0.2 मि.ग्रा. पाए जाते हैं। इसके अलावा इसमें गैलिक एसिड, टैनिक एसिड, शर्करा (ग्लूकोज), अलब्यूमिन, काष्ठौज आदि तत्व भी पाए जाते हैं। आँवला दाह, खाँसी, श्वास रोग, कब्ज, पाण्डु, रक्तपित्त, अरुचि, त्रिदोष, दमा, क्षय, छाती के रोग, हृदय रोग, मूत्र विकार आदि अनेक रोगों को नष्ट करने की शक्ति रखता है। वीर्य को पुष्ट करके पौरुष बढ़ाता है, चर्बी घटाकर मोटापा दूर करता है। सिर के केशों को काले, लम्बे व घने रखता है। दाँत-मसूड़ों की खराबी दूर होना, कब्ज, रक्त विकार, चर्म रोग, पाचन शक्ति में खराबी, नेत्र ज्योति बढ़ना, बाल मजबूत होना, सिर दर्द दूर होना, चक्कर, नकसीर, रक्ताल्पता, बल-वीर्य में कमी, बेवक्त बुढ़ापे के लक्षण प्रकट होना, यकृत की कमजोरी व खराबी, स्वप्नदोष, धातु विकार, हृदय विकार, फेफड़ों की खराबी, श्वास रोग, क्षय, दौर्बल्य, पेट कृमि, उदर विकार, मूत्र विकार आदि अनेक व्याधियों के घटाटोप को दूर करने के लिए आँवला बहुत उपयोगी है। कार्तिक शुक्ल नवमी अर्थात् आंवला नवमी वह दिन है जब आदिगुरु शंकराचार्य ने एक वृद्ध महिला की सहायता करने के लिए स्वर्ण के आंवलों की वर्षा करवाई थी। इसलिए भी आंवला नवमी का महत्व है। यह दिन लक्ष्मी की प्राप्ति का दिन भी है। इस दिन कई लोग लक्ष्मीपूजन भी करते हैं। इस दिन शंकराचार्य ने कनकधारा स्तोत्र की रचना की थी। कथाओं के अनुसार एक बार जगद्गुरु आदि शंकराचार्य भिक्षा मांगने एक गांव में गए। वहां एक कुटिया के सामने जाकर भिक्षाम देहि की आवाज लगाई। वहां एक वृद्धा औरत अकेली रहती थी। वह अत्यंत गरीब थी। अपने लिए एक वक्त का भोजन भी बड़ी मुश्किल से जुटा पाती थी। कभी-कभी तो उसे भूखा ही सोना पड़ता था। शंकराचार्य की आवाज सुनकर वह वृद्धा बाहर आई। उसके हाथ में एक सूखा आंवला था। वह बोली महात्मन मेरे पास इस सूखे आंवले के सिवाय कुछ नहीं है जो आपको भिक्षा में दे सकूं। शंकराचार्य को उसकी स्थिति पर दया आ गई और उन्होंने उसी समय उसकी मदद करने का प्रण लिया। उन्होंने अपनी आंखें बंद की और मंत्र रूपी 22 श्लोक है ।ये 22 श्लोक कनकधारा स्तोत्र के श्लोक थे। इससे प्रसन्न होकर मां लक्ष्मी ने उन्हें दिव्य दर्शन दिए और कहा कि शंकराचार्य, इस औरत ने अपने पूर्व जन्म में कोई भी वस्तु दान नहीं की। यह अत्यंत कंजूस थी और मजबूरीवश कभी किसी को कुछ देना ही पड़ जाए तो यह बुरे मन से दान करती थी। इसलिए इस जन्म में इसकी यह हालत हुई है। यह अपने कर्मों का फल भोग रही है इसलिए मैं इसकी कोई सहायता नहीं कर सकती। शंकराचार्य ने देवी लक्ष्मी की बात सुनकर कहा- हे महालक्ष्मी इसने पूर्व जन्म में अवश्य दान-धर्म नहीं किया है, लेकिन इस जन्म में इसने पूर्ण श्रद्धा से मुझे यह सूखा आंवला भेंट किया है। इसके घर में कुछ नहीं होते हुए भी इसने यह मुझे सौंप दिया। इस समय इसके पास यही सबसे बड़ी पूंजी है, क्या इतनी भेंट पर्याप्त नहीं है। शंकराचार्य की इस बात से देवी लक्ष्मी प्रसन्न हुई और उसी समय उन्होंने गरीब महिला की कुटिया में स्वर्ण के आंवलों की वर्षा कर दी।आंवला नवमी के दिन दूध, चावल, मखाने और मिश्री की खीर बनाकर उसमें गुलाब के फूल की कुछ पत्तियां डालकर मां लक्ष्मी को नैवेद्य लगाने से धन की प्राप्ति होती है।
आंवला नवमी के दिन पूजा में केसर के तिलक का। इससे आकर्षण प्रभाव में वृद्धि होती है और परिस्थितियां अनुकूल हो जाती हैं।इस दिन स्वर्ण लक्ष्मी प्रयोग भी किया जाता है। स्नानादि करके शुद्ध श्वेत वस्त्र धारण कर पूजा स्थान में एक चौकी पर लाल कपड़ा बिछाकर उस पर चावल की ढेरी बनाकर उस पर देवी लक्ष्मी की मूर्ति स्थापित करें। विधिवत पूजन के बाद श्रीसूक्त के 21 पाठ करें। कमलगट्टे की माला से लक्ष्मी के बीज मंत्र श्रीं का जाप करना चाहिए ।
अश्विनीकुमार  - वैदिक तथा आयुर्वेद  साहित्य में अश्विनों का उल्लेख देवता के रूप में वर्णित है । ऋग्वेद में ३९८ बार अश्विनीकुमारों का  ५०  ऋचाएँ  उनकी ही स्तुति के लिए हैं। ऋग्वेद में  अश्विनीकुमार प्रभात के जुड़वा देवता और आयुर्वेद के आदि आचार्य माने जाते हैं। ये देवों के चिकित्सक और रोगमुक्त करनेवाले हैं। वे कुमारियों को पति माने जाते हैं। वृद्धों को तारूण्य, अन्धों को नेत्र देनेवाले कहे गए हैं। महाभारत के अनुसार नकुल और सहदेव उन्हीं के पुत्र थे (दोनों को 'अश्विनेय' कहते हैं)।दोनों अश्विनीकुमार युवा और सुन्दर हैं। इनके लिए 'नासत्यौ' विशेषण भी प्रयुक्त होता है, जो ऋग्वेद में ९९ बार आया है। ये दोनों प्रभात के समय घोड़ों या पक्षियों से जुते हुए सोने के रथ पर चढ़कर आकाश में निकलते हैं। इनके रथ पर पत्नी सूर्या विराजती हैं और रथ की गति से सूर्या की उत्पति होती है।इनकी उत्पति निश्चित नहीं कि वह प्रभात और संध्या के तारों से है या गोधूली या अर्ध प्रकाश से। परन्तु ऋग्वेद ने उनका सम्बन्ध रात्रि और दिवस के संधिकाल से किया है।ऋग्वेद (१.३, १.२२, १.३४) के अलावे महाभारत में भी इनका वर्णन है। वेदों में इन्हें अनेकों बार "द्यौस का पुत्र" (दिवो नपाता) कहा गया है। पौराणिक कथाओं में 'अश्विनीकुमार' त्वष्टा की पुत्री प्रभा नाम की स्त्री से उत्पन्न सूर्य के दो पुत्र।भारतीय दर्शन के विद्वान उदयवीर शास्त्री ने वैशेषिक शास्त्र की व्याख्या में अश्विनों को विद्युत-चुम्बकत्व बताया है [4]जो आपस में जुड़े रहते हैं और सूर्य से उत्पन्न हुए हैं। इसके अलावे ये अश्व (द्रुत) गति से चलने वाले यानि 'आशु' भी हैं - इनके नाम का मूल यही है।ऋग्वेद में अश्विनीकुमारों का रूप, देवताओं के साथ सफल चिकित्सक रूप में मिलता है। वे सर्वदा युगल रूप में दृष्टिगोचर होते हैं। उनका युगल रूप चिकित्सा के दो रूपों (सिद्धान्त व व्यवहार पक्ष) का प्रतीक माना जा रहा है। वे ऋग्वैदिक काल के एक सफल शल्य-चिकित्सक थे। इनके चिकित्सक होने का उदाहरण इस प्रकार दिया जा सकता है। उन्होने मधुविद्या की प्राप्ति के लिए आथर्वण दधीचि के शिर को काट कर अश्व का सिर लगाकर मधुविद्या को प्राप्त की और पुनः पहले वाला शिर लगा दिया। वृद्धावस्था के कारण क्षीण शरीर वाले च्यवन ऋषि के चर्म को बदलकर युवावस्था को प्राप्त कराना। द्रौण में विश्यला का पैर कट जाने पर लोहे का पैर लगाना, नपुंसक पतिवाली वध्रिमती को पुत्र प्राप्त कराना, अन्धे ऋजाश्व को दृष्टि प्रदान कराना, बधिर नार्षद को श्रवण शक्ति प्रदान करना, सोमक को दीर्घायु प्रदान करना, वृद्धा एवं रोगी घोषा को तरुणी बनाना, प्रसव के आयोग्य गौ को प्रसव के योग्य बनाना आदि ऐसे अनगिनत उल्लेख प्राप्त होते हैं, जिनसे सफल शल्य्चिकित्सक होने का संकेत मिलता है।दोनों कुमारों ने राजा शर्याति की पुत्री सुकन्या के पातिव्रत्य से प्रसन्न होकर महर्षि च्यवन का वृद्धावस्था में ही कायाकल्प कर उन्हें चिर-यौवन प्रदान किया था। कहते हैं कि दधीचि से मधुविद्या सीखने के लिए इन्होंने उनका सिर काटकर अलग रख दिया था और उनके धड़ पर घोड़े का सिर जोड़ दिया था और तब उनसे मधुविद्या सीखी थी। जब इन्द्र को पता चला कि दधीचि दूसरों को मधुविद्या की शिक्षा दे रहे हैं तो इन्द्र ने दधीचि का सिर फिर से नष्त-भ्रष्ट कर दिया। तब इन्होंने ही दधीचि ऋषि के सिर को फिर से जोड़ दिया था।ऋग्वेद में 376 वार अश्वनी कुमार का वर्णन है । अश्वनी कुमार का  57 ऋचाओं में उलेख  हैं: 1.3, 1.22, 1.34, 1.46-47, 1.112, 1.116-120 ,1.157-158, 1.180-184, 2.20, 3.58, 4.43-45, 5.73-78, 6.62-63, 7.67-74, 8.5, 8.8-10, 8.22, 8.26, 8.35, 8.57, 8.73, 8.85-87, 10.24, 10.39-41, 10.143 में देव वैद्य अश्वनी कुमार का उलेख है ।
दधीचि - दधीच वैदिक ऋषि थे। इनके जन्म के संबंध में अनेक कथाएँ हैं। यास्क के मतानुसार ये अथर्व के पुत्र हैं। पुराणों में इनकी माता का नाम 'शांति' मिलता है। यास्क के मतानुसार दधीचि की माता 'चित्ति' और पिता 'अथर्वा' थे, इसीलिए इनका नाम 'दधीचि' हुआ था। किसी पुराण के अनुसार यह कर्दम ऋषि की कन्या 'शांति' के गर्भ से उत्पन्न अथर्वा के पुत्र थे। दधीचि प्राचीन काल के परम तपस्वी और ख्यातिप्राप्त महर्षि थे। उनकी पत्नी का नाम 'गभस्तिनी' था। महर्षि दधीचि वेद शास्त्रों आदि के पूर्ण ज्ञाता और स्वभाव के बड़े ही दयालु थे। अहंकार तो उन्हें छू तक नहीं पाया था। वे सदा दूसरों का हित करना अपना परम धर्म समझते थे। उनके व्यवहार से उस वन के पशु-पक्षी तक संतुष्ट थे, जहाँ वे रहते थे। गंगा के तट पर ही उनका आश्रम था। जो भी अतिथि महर्षि दधीचि के आश्रम पर आता, स्वयं महर्षि तथा उनकी पत्नी अतिथि की पूर्ण श्रद्धा भाव से सेवा करते थे। यूँ तो 'भारतीय इतिहास' में कई दानी हुए हैं, किंतु मानव कल्याण के लिए अपनी अस्थियों का दान करने वाले मात्र महर्षि दधीचि ही थे। देवताओं के मुख से यह जानकर की मात्र दधीचि की अस्थियों से निर्मित वज्र द्वारा ही असुरों का संहार किया जा सकता है, महर्षि दधीचि ने अपना शरीर त्याग कर अस्थियों का दान कर दिया !लोक कल्याण के लिये आत्म-त्याग करने वालों में महर्षि दधीचि का नाम बड़े ही आदर के साथ लिया जाता है। यास्क के मतानुसार दधीचि की माता 'चित्ति' और पिता 'अथर्वा' थे, इसीलिए इनका नाम 'दधीचि' हुआ था। किसी पुराण के अनुसार यह कर्दम ऋषि की कन्या 'शांति' के गर्भ से उत्पन्न अथर्वा के पुत्र थे। अन्य पुराणानुसार यह शुक्राचार्य के पुत्र थे। महर्षि दधीचि तपस्या और पवित्रता की प्रतिमूर्ति थे। भगवान शिव के प्रति अटूट भक्ति और वैराग्य में इनकी जन्म से ही निष्ठा थी।कहा जाता है कि एक बार इन्द्रलोक पर 'वृत्रासुर'(दधीचि के मास से भगवान विष्णूका सुदर्शन चक्रभी बना हैl) नामक राक्षस ने अधिकार कर लिया तथा इन्द्र सहित देवताओं को देवलोक से निकाल दिया। सभी देवता अपनी व्यथा लेकर ब्रह्मा, विष्णु व महेश के पास गए, लेकिन कोई भी उनकी समस्या का निदान न कर सका। बाद में ब्रह्मा जी ने देवताओं को एक उपाय बताया कि पृथ्वी लोक में 'दधीचि' नाम के एक महर्षि रहते हैं। यदि वे अपनी अस्थियों का दान कर दें तो उन अस्थियों से एक वज्र बनाया जाये। उस वज्र से वृत्रासुर मारा जा सकता है, क्योंकि वृत्रासुर को किसी भी अस्त्र-शस्त्र से नहीं मारा जा सकता। महर्षि दधीचि की अस्थियों में ही वह ब्रह्म तेज़ है, जिससे वृत्रासुर राक्षस मारा जा सकता है। इसके अतिरिक्त और कोई दूसरा उपाय नहीं है। देवराज इन्द्र महर्षि दधीचि के पास जाना नहीं चाहते थे, क्योंकि इन्द्र ने एक बार दधीचि का अपमान किया था, जिसके कारण वे दधीचि के पास जाने से कतरा रहे थे। माना जाता है कि ब्रह्म विद्या का ज्ञान पूरे विश्व में केवल महर्षि दधीचि को ही था। महर्षि मात्र विशिष्ट व्यक्ति को ही इस विद्या का ज्ञान देना चाहते थे, लेकिन इन्द्र ब्रह्म विद्या प्राप्त करने के परम इच्छुक थे। दधीचि की दृष्टि में इन्द्र इस विद्या के पात्र नहीं थे। इसलिए उन्होंने इन्द्र को इस विद्या को देने से मना कर दिया। दधीचि के इंकार करने पर इन्द्र ने उन्हें किसी अन्य को भी यह विद्या देने को मना कर दिया और कहा कि- "यदि आपने ऐसा किया तो मैं आपका सिर धड़ से अलग कर दूँगा"। महर्षि ने कहा कि- "यदि उन्हें कोई योग्य व्यक्ति मिलेगा तो वे अवश्य ही ब्रह्म विद्या उसे प्रदान करेंगे।" कुछ समय बाद इन्द्रलोक से ही अश्विनीकुमार महर्षि दधीचि के पास ब्रह्म विद्या लेने पहुँचे। दधीचि को अश्विनीकुमार ब्रह्म विद्या पाने के योग्य लगे। उन्होंने अश्विनीकुमारों को इन्द्र द्वारा कही गई बातें बताईं। तब अश्विनीकुमारों ने महर्षि दधीचि के अश्व का सिर लगाकर ब्रह्म विद्या प्राप्त कर ली। इन्द्र को जब यह जानकारी मिली तो वह पृथ्वी लोक में आये और अपनी घोषणा के अनुसार महर्षि दधीचि का सिर धड़ से अलग कर दिया। अश्विनीकुमारों ने महर्षि के असली सिर को फिर से लगा दिया। इन्द्र ने अश्विनीकुमारों को इन्द्रलोक से निकाल दिया। यही कारण था कि अब इन्द्र महर्षि दधीचि के पास उनकी अस्थियों का दान माँगने के लिए आना नहीं चाहते थे। वे इस कार्य के लिए बड़ा ही संकोच महसूस कर रहे थे। देवलोक पर वृत्रासुर राक्षस के अत्याचार दिन-प्रतिदिन बढ़ते ही जा रहे थे। वह देवताओं को भांति-भांति से परेशान कर रहा था। अन्ततः देवराज इन्द्र को इन्द्रलोक की रक्षा व देवताओं की भलाई के लिए और अपने सिंहासन को बचाने के लिए देवताओं सहित महर्षि दधीचि की शरण में जाना ही पड़ा। महर्षि दधीचि ने इन्द्र को पूरा सम्मान दिया तथा आश्रम आने का कारण पूछा। इन्द्र ने महर्षि को अपनी व्यथा सुनाई तो दधीचि ने कहा कि- "मैं देवलोक की रक्षा के लिए क्या कर सकता हूँ।" देवताओं ने उन्हें ब्रह्मा, विष्णु व महेश की कहीं हुई बातें बताईं तथा उनकी अस्थियों का दान माँगा। महर्षि दधीचि ने बिना किसी हिचकिचाहट के अपनी अस्थियों का दान देना स्वीकार कर लिया। उन्होंने समाधी लगाई और अपनी देह त्याग दी। उस समय उनकी पत्नी आश्रम में नहीं थी। अब देवताओं के समक्ष ये समस्या आई कि महर्षि दधीचि के शरीर के माँस को कौन उतारे। इस कार्य के ध्यान में आते ही सभी देवता सहम गए। तब इन्द्र ने कामधेनु गाय को बुलाया और उसे महर्षि के शरीर से मांस उतारने को कहा। कामधेनु ने अपनी जीभ से चाट-चाटकर महर्षि के शरीर का माँस उतार दिया। अब केवल अस्थियों का पिंजर रह गया था। महर्षि दधीचि ने तो अपनी देह देवताओ की भलाई के लिए त्याग दी, लेकिन जब उनकी पत्नी 'गभस्तिनी' वापस आश्रम में आई तो अपने पति की देह को देखकर विलाप करने लगी तथा सती होने की जिद करने लगी। तब देवताओ ने उन्हें बहुत मना किया, क्योंकि वह गर्भवती थी। देवताओं ने उन्हें अपने वंश के लिए सती न होने की सलाह दी। लेकिन गभस्तिनी नहीं मानी। तब सभी ने उन्हें अपने गर्भ को देवताओं को सौंपने का निवेदन किया। इस पर गभस्तिनी राजी हो गई और अपना गर्भ देवताओं को सौंपकर स्वयं सती हो गई। देवताओं ने गभस्तिनी के गर्भ को बचाने के लिए पीपल को उसका लालन-पालन करने का दायित्व सौंपा। कुछ समय बाद वह गर्भ पलकर शिशु हुआ तो पीपल द्वारा पालन पोषण करने के कारण उसका नाम 'पिप्पलाद' रखा गया। इसी कारण दधीचि के वंशज 'दाधीच' कहलाते हैं।
च्यवन - च्यवन एक ऋषि थे जिन्होने जड़ी-बुटियों से 'च्यवनप्राश' नामक एक औषधि बनाकर उसका सेवन किया तथा अपनी वृद्धावस्था से पुनः युवा बन ब गए थे। महाभारत के अनुसार, उनमें इतनी शक्ति थी कि वे इन्द्र के वज्र को भी पीछे धकेल सकते थे। वे अत्यन्त तपस्वी थे।च्यवन, भृगु मुनि के पुत्र थे। एक बार वे तप करने बैठे तो तप करते-करते उन्हें हजारों वर्ष व्यतीत हो गये। यहाँ तक कि उनके शरीर में दीमक-मिट्टी चढ़ गई और लता-पत्तों ने उनके शरीर को ढँक लिया। उन्हीं दिनों राजा शर्याति अपनी चार हजार रानियों और एकमात्र रूपवती पुत्री सुकन्या के साथ इस वन में आये। सुकन्या अपनी सहेलियों के साथ घूमते हुये दीमक-मिट्टी एवं लता-पत्तों से ढँके हुये तप करते च्यवन के पास पहुँच गई। उसने देखा कि दीमक-मिट्टी के टीले में दो गोल-गोल छिद्र दिखाई पड़ रहे हैं जो कि वास्तव में च्यवन ऋषि की आँखें थीं। सुकन्या ने कौतूहलवश उन छिद्रों में काँटे गड़ा दिये। काँटों के गड़ते ही उन छिद्रों से रुधिर बहने लगा। जिसे देखकर सुकन्या भयभीत हो चुपचाप वहाँ से चली गई।आँखों में काँटे गड़ जाने के कारण च्यवन ऋषि अन्धे हो गये। अपने अन्धे हो जाने पर उन्हें बड़ा क्रोध आया और उन्होंने तत्काल शर्याति की सेना का मल-मूत्र रुक जाने का शाप दे दिया। राजा शर्याति ने इस घटना से अत्यन्त क्षुब्ध होकर पूछा कि क्या किसी ने च्यवन ऋषि को किसी प्रकार का कष्ट दिया है? उनके इस प्रकार पूछने पर सुकन्या ने सारी बातें अपने पिता को बता दी। राजा शर्याति ने तत्काल च्यवन ऋषि के पास पहुँच कर क्षमायाचना की। च्यवन ऋषि बोले कि राजन्! तुम्हारी कन्या ने भयंकर अपराध किया है। यदि तुम मेरे शाप से मुक्त होना चाहते हो तो तुम्हें अपनी कन्या का विवाह मेरे साथ करना होगा। इस प्रकार सुकन्या का विवाह च्यवन ऋषि से हो गया।सुकन्या अत्यन्त पतिव्रता थी। अन्धे च्यवन ऋषि की सेवा करते हुये अनेक वर्ष व्यतीत हो गये। हठात् एक दिन च्यवन ऋषि के आश्रम में दोनों अश्‍वनीकुमार आ पहुँचे। सुकन्या ने उनका यथोचित आदर-सत्कार एवं पूजन किया। अश्‍वनीकुमार बोले, "कल्याणी! हम देवताओं के वैद्य हैं। तुम्हारी सेवा से प्रसन्न होकर हम तुम्हारे पति की आँखों में पुनः दीप्ति प्रदान कर उन्हें यौवन भी प्रदान कर रहे हैं। तुम अपने पति को हमारे साथ सरोवर तक जाने के लिये कहो।" च्यवन ऋषि को साथ लेकर दोनों अश्‍वनीकुमारों ने सरोवर में डुबकी लगाई। डुबकी लगाकर निकलते ही च्यवन ऋषि की आँखें ठीक हो गईं और वे अश्‍वनी कुमार जैसे ही युवक बन गये। उनका रूप-रंग, आकृति आदि बिल्कुल अश्‍वनीकुमारों जैसा हो गया। उन्होंने सुकन्या से कहा कि देवि! तुम हममें से अपने पति को पहचान कर उसे अपने आश्रम ले जाओ। इस पर सुकन्या ने अपनी तेज बुद्धि और पातिव्रत धर्म से अपने पति को पहचान कर उनका हाथ पकड़ लिया। सुकन्या की तेज बुद्धि और पातिव्रत धर्म से अश्‍वनीकुमार अत्यन्त प्रसन्न हुये और उन दोनों को आशीर्वाद देकर वहाँ से चले गये। जब राजा शर्याति को च्यवन ऋषि की आँखें ठीक होने नये यौवन प्राप्त करने का समाचार मिला तो वे अत्यन्त प्रसन्न हुये और उन्होंने च्यवन ऋषि से मिलकर उनसे यज्ञ कराने की बात की। च्यवन ऋषि ने उन्हें यज्ञ की दीक्षा दी। उस यज्ञ में जब अश्‍वनीकुमारों को भाग दिया जाने लगा तब देवराज इन्द्र ने आपत्ति की कि अश्‍वनीकुमार देवताओं के चिकित्सक हैं, इसलिये उन्हें यज्ञ का भाग लेने की पात्रता नहीं है। किन्तु च्यवन ऋषि इन्द्र की बातों को अनसुना कर अश्‍वनीकुमारों को सोमरस देने लगे। इससे क्रोधित होकर इन्द्र ने उन पर वज्र का प्रहार किया लेकिन ऋषि ने अपने तपोबल से वज्र को बीच में ही रोककर एक भयानक राक्षस उत्पन्न कर दिया। वह राक्षस इन्द्र को निगलने के लिये दौड़ पड़ा। इन्द्र ने भयभीत होकर अश्‍वनीकुमारों को यज्ञ का भाग देना स्वीकार कर लिया और च्यवन ऋषि ने उस राक्षस को भस्म करके इन्द्र को उसके कष्ट से मुक्ति दिला दी।


 शुक्ल पक्ष की नवमी तिथि के दिनांक 23 नवंबर 2020 सोमवार को  अक्षय नवमी , आंवला नवमी या कुष्मांडा नवमी मनाये जाने का प्रावधान है ।  साहित्यकार एवं इतिहासकार सत्येन्द्र कुमार पाठक ने कहा है कि अक्षय नवमी के दिन की पुण्य और पाप शुभ अशुभ समस्त कार्यों का फल अक्षय   होता  है। तीन वर्ष लगातार अक्षय नवमी का व्रत उपवास एवं पूजा करने से मनोवांछित  फल की प्राप्ति होती  है। ज्योतिष शास्त्रके  अनुसार  ऑवला नवमी 22 नवंबर सोमवार को मनाया जाएगा। कार्तिक शुक्ल पक्ष की नवमी तिथि 22 नवंबर रविवार को रात्रि 10:52 से प्रारंभ तथा 23 नवंबर सोमवार को  12:30 तक रहेगी। अक्षय नवमी का व्रत सोमवार को रखा जाएगा अक्षय नवमी के दिन व्रत रखकर भगवान श्री लक्ष्मी नारायण श्री विष्णु की पूजा अर्चना तथा आंवले के वृक्ष की छाया में बैठकर भोजन करने पर  मनोकामना पूर्ण होती  है।पूजा करने वाले का मुख पूूर्व की ओर होना चाहिए, व्रत कर्ता को अपने दैनिक कार्यों से निवृत्त होकर स्नान ध्यान के पश्चात अक्षय नवमी के व्रत का संकल्प लेना चाहिए। भगवान श्री लक्ष्मी नारायण की पंचोपचार व षोडशोपचार पूजा की जाती है । नवमी को  भगवान विष्णु मंत्र 'ओम नमो भगवते वासुदेवाय' का जप करने पर प्रसन्न होकर भक्तों को उसकी अभिलाषा पूर्ति का आशीर्वाद देते हैं। आंवले के वृक्ष की पूजा से अक्षय फल की प्राप्ति होती है साथ ही बहुत सौभाग्य में वृद्धि होती है। आंवले के वृक्ष की पूजा पुष्प धूप दीप नैवेद्य से की जाती है। ऑवला पूजन के पश्चात  वृक्ष की आरती करके 108 बार परिक्रमा करते है । कुष्मांड  ( भूरा , भतुआ , कोहडे ) का गुप्त दान किया जाता है। आंवले के वृक्ष की छाया में ब्राह्मण को सात्विक भोजन कराकर यथाशक्ति दान दक्षिणा देकर पुण्य अर्जित करते है। वस्त्र , द्रव्य ,वस्तुओं का आदान प्रदान की जाती है। जीवन में जाने अनजाने में हुए समस्त पापों का शमन हो जाता है। आंवला उपलब्ध होता है तब मिट्टी के गमले में आंवले का पौधा लगाकर उसकी पूजा करनी चाहिए। दिन में सोना नहीं चाहिए, इसके साथ ही मन वचन और कर्म से शुभ कार्यों की ओर विशेष ध्यान भगवान  श्री विष्णु के प्रति करना चाहए तथा निरोगता के लिए देव वैद्य अश्वनी कुमार श्रद्धा सुमन अर्पित करना चाहिय ।