सोमवार, जून 28, 2021

शिखा : ज्ञान एवं शांति का प्रतीक...


          


              सनातन धर्म शास्त्र के अनुसार सनातन धर्म में इंसान को  चोटी रखने से मानसिक शांति, स्वास्थ्य और ज्ञान संस्कार होते है । सिख, बौद्ध, जैन और अन्य धर्मों के अनुसार  धर्म में नियम परंपराओं व मान्यताओं के आधार पर   वैज्ञानिक महत्व के कारण  हैं। सनातन धर्म के  विभिन्न संप्रदायों में परंपरा के अनुसार उपासना , पूजा, कर्मकांड, और यज्ञ आदि से कार्य कराने वालों को चोटी रखना  है । सुश्रुत संहिता में चोटी रखने का कारण, महत्व और  नियम और  चोटी के महत्व और वैज्ञानिक तथ्य है। सुश्रुत संहिता में उल्लेख किया गया है कि  चोटी सिर पर कहां और कितनी रखनी चाहिए।बच्चे का जब पहले साल के अंत, तीसरे साल या पांचवें साल में जब मुंडन किया जाता है तो सिर में थोड़ी बाल रख दिए जाने के लिए चोटी को  मुंडन संस्कार कहते हैं। सिर पर शिखा या चोटी रखने का संस्कार यज्ञोपवित या उपनयन संस्कार में  किया जाता है। सिर के जिस स्थान पर चोटी को सहस्त्रार चक्र कहते हैं। चोटी के नीचे  मनुष्य की आत्मा निवास करती है। विज्ञान के अनुसार चोटी स्थल मंस्तिस्क केंद्र से बुद्धि, मन, और शरीर के अंगों को नियंत्रित किया जाता है। चोटी रखने से मस्तिष्क का संतुलन बना रहता है। शिखा रखने से सहस्रार चक्र को जागृत करने और शरीर, बुद्धि व मन पर नियंत्रण करने में सहायता मिलती है। धार्मिक ग्रंथों के अनुसार सहस्रार चक्र का आकार गाय के खुर के समान रहने के कारण चोटी  गाय के खुर के बराबर  रखी जाती है।सुश्रुत संहिता में उल्लेख है कि मस्तक ऊपर सिर पर जहां बालों का आवृत (भंवर) होने से  सम्पूर्ण नाडिय़ों व संधियों का मेल होता है। भवर स्थान को 'अधिपतिमर्म' कहा गया  है। अधिपतिमर्म के  स्‍थान पर चोंट लगने पर मनुष्य की तत्काल मौत हो जाती है।सुषुम्ना के मूल स्थान को 'मस्तुलिंग' कहते हैं। मस्तिष्क के साथ ज्ञानेन्द्रियों-कान, नाक, जीभ, आंख  और कर्मेन्द्रियों-हाथ, पैर, गुदा, इंद्रिय  का संबंध मस्तुलिंगंग  है। मस्तिष्क मस्तुलिंगंग जितने सामर्थ्यवान होते हैं, उतनी ही ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों की शक्ति बढ़ती है। माना जाता है कि मस्तिस्क को ठंडक की जरूरत होती है। जिसके लिए क्षौर कर्म और गोखुर के बराबर शिखा रखनी जरूरी होती है । व्यक्ति में अज्ञानता में या फैशन में आकर चोटी रखने पर फायदे से ज्यादा नुकसान हो सकता है। शिखा (चोटी) स्थान शरीर के अंगों, बुद्धि और मन को नियंत्रित करने का स्थान मनुष्य के मस्तिष्क को संतुलित रखने का काम करती है।वैज्ञानिक के अनुसार  सिर पर शिखा वाले भाग के नीचे सुषुम्ना नाड़ी कपाल तन्त्र की सबसे अधिक संवेदनशील तथा उस भाग के खुला होने के कारण वातावरण से उष्मा व विद्युत-चुम्बकी य तरंगों का मस्तिष्क से आदान प्रदान करता है।शिखा ( चोटी) नही रहने से  वातावरण के साथ मस्तिष्क का ताप भी बदलता रहता है । शिखा ताप को आसानी से संतुलित और , ऊष्मा की कुचालकता की स्थिति उत्पन्न करके वायुमण्डल से ऊष्मा के स्वतः आदान - प्रदान को रोक से  शिखा रखने वाले मनुष्य का मस्तिष्क.का  बाह्य प्रभाव से अपेक्षाकृत कम प्रभावित और मस्तिष्क संतुलित रहता है ।वैज्ञानिकों के अनुसार  शरीर में पांच चक्र तथा, सिर के बीचों बीच मौजूद सहस्राह चक्र को प्रथम एवं, 'मूलाधार चक्र'  रीढ़ के निचले हिस्से से शरीर का आखिरी चक्र माना गया है । महर्षियो , ऋषियों , मुनियों और वैज्ञानिकों द्वारा शिखा का महत्त्वपूर्ण स्थान दिया गया है । शिखा रखने से ज्ञान , बुद्धि ,शांति तथा शारीरिक क्षमता का विकास होते है । वैदिक और संहिताओं में चोटी रखने का महत्व दिया गया है ।


रविवार, जून 27, 2021

यज्ञोपवीत : मानवीय जीवन का संस्कार...


           

सनातन धर्म संस्कृति में यगोपवीत मानवीय जीवन की सभ्यता का प्रतीक है । यज्ञ और सृष्टिकर्ता ब्रह्मा जी द्वारा यगोपवीत की उतपति और संस्कार सभ्यता का रूप दिया गया है ।स्कन्द पुराण ,   ब्रह्मोपनिषद के अनुसार मानव जीवन को पाँच संस्कारों से युक्त होना आवश्यक है। यज्ञोपवीत संस्कार ,  यगोपवित , उपनयन, जनेऊ  संस्कार के बाद  विद्यारंभ होता है। उपनयन संस्कार में मुंडन और पवित्र जल से स्नान , पवित्र कुश से बना मुंज और धागा से बना हुआ जनेऊ  यज्ञोपवीतधारी व्यक्ति बाएँ कंधे के ऊपर तथा दाईं भुजा के नीचे पहनता है। यज्ञोपवीत एक विशिष्ट सूत्र को विशेष विधि से ग्रन्थित सात ग्रन्थियां लगायी जाती हैं। ब्राह्मणों के यज्ञोपवीत में ब्रह्मग्रंथि होती है। तीन सूत्रों वाले इस यज्ञोपवीत को गुरु दीक्षा के बाद हमेशा धारण किया जाता है।  मूँज और धागे का बना जनेऊ तीन सूत्र  त्रिमूर्ति ब्रह्मा, विष्णु और महेश के प्रतीक होते हैं। जनेऊ को उपवीत, यज्ञसूत्र, व्रतबन्ध, बलबन्ध, मोनीबन्ध और ब्रह्मसूत्र कहा गया है । इंसान के  24 संस्कारों में  ‘उपनयन संस्कार’ के अंतर्गत ब्रह्मचर्य की शिक्षा , समन्वय , सौहार्द की शिक्षा प्राप्ति के बाद  जनेऊ पहनी जाती है ।उपनयन का शाब्दिक अर्थ  "सन्निकट ले जाना , ब्रह्म और ज्ञान के पास ले जाना" है ।
यज्ञोपवीत के छह धागों में से तीन धागे स्वयं के और तीन धागे पत्नी के लिए हैं। जनेऊ में तीन-सूत्र: त्रिमूर्ति ब्रह्मा, विष्णु और महेश तथा  देवऋण, पितृऋण और ऋषिऋण , सत्व, रज और तम ,  गायत्री मंत्र के तीन चरणों , तीन आश्रमों के प्रतीक  है। जनेऊ के धागों में एक मुख, दो नासिका, दो आंख, दो कान, मल और मूत्र के दो द्वारा मिलाकर नौ में   मुख से अच्छा बोले और खाएं, आंखों से अच्छा देंखे और कानों से अच्छा सुने। जनेऊ में पांच गांठ  को ब्रह्म, धर्म, अर्ध, काम और मोक्ष , यज्ञों, पांच ज्ञानेद्रियों और पंच कर्मों के  प्रतीक है। जनेऊ की लंबाई 96 अंगुल होने से   जनेऊ धारण करने वाले को 64 कलाओं और 32 विद्याओं को सीखने की शिक्षा मिलता है । 32 विद्याएं चार वेद, चार उपवेद, छह अंग, छह दर्शन, तीन सूत्रग्रंथ, नौ अरण्यक ,  64 कलाओं में वास्तु निर्माण, व्यंजन कला, चित्रकारी, साहित्य कला, दस्तकारी, भाषा, यंत्र निर्माण, सिलाई, कढ़ाई, बुनाई, दस्तकारी, आभूषण निर्माण, कृषि ज्ञान  आती हैयज्ञोपवीत का उल्लेख , ब्राह्मण, उपनिषदादि , स्रौत , गृह ,और धर्मसूत्रों तथा प्राचीन साहित्य  में यज्ञोपवीत को  आठवां संस्कार है,। देवल स्मृति के  अनुसार याम में अहिंसा, सत्य, अस्तेय (चोरी ना करना), असंगता, लज्जा, असंचय, आस्तिकता, ब्रह्मचर्य, मौन, स्थिरता, क्षमा, और अभय  तथा नियम में  शौच , जप, तप, हवन, श्रद्धा, अतिथि सेवा,  तीर्थ यात्रा, परोपकार की चेष्टा , संतोष, और गुरुसेवा करना सकाम और निष्काम साधको के लिए उपयोगी है। यज्ञोपवीत धारण करने पर याम और नियम मिलते है। गीता १0/३५ में “ऋतुनाम कुसुमाकर:” , ब्राह्मण ग्रंथो तथा निरुक्त के अध्याय ७ में ब्राह्मण को  “बसंतो ब्राह्मणस्यर्तु: तथा वसन्तो ब्राह्मण: प्रोक्तो ब्रह्मयोनि: स उच्यते:”  वसंत ऋतू में   ब्राह्मण बालक के लिए यगोपवीत लाभदायक होता है ।क्षत्रिय बालक को “क्षत्रं ग्रीष्म: ग्रीष्मो वै राजन्यस्यर्तु:” ग्रीष्म ऋतू  में  क्षत्रिय बालक को यगोपवीत धारण करना चाहिए । शरद ऋतू में वैश्य बालक को  “पश्येम शरद: शतम” में  यगोपवीत धारण करना चाहिये । जनेऊ यज्ञोपवीत की वैज्ञानिकता और महत्त्व | जनेऊ / यज्ञोपवीत तीन धागों से बना हुआ एक ऐसा सूत्र है हर क्षण अनुशासित रहने कि शिक्षा देता है। संस्कृत भाषा में जनेऊ को  ‘यज्ञोपवीत’ कहा जाता है। जनेऊ संस्कार को “उपनयन संस्कार” भी कहते हैं। जनेऊ को  यज्ञसूत्र, मोनीबन्ध, व्रतबन्ध, बलबन्ध और ब्रह्मसूत्र भी कहते हैं। प्राचीन काल में जनेऊ पहनने के बाद ही बालक को शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार  था। ॐ यज्ञोपवीतं परमं पवित्रं, प्रजापतेयर्त्सहजं पुरस्तात्। आयुष्यमग्र्यं प्रतिमुञ्च शुभ्रं, यज्ञोपवीतं बलमस्तु तेजः॥
प्रजापति ने स्वाभाविक रूप से जनेऊ निर्माण किया है। जनेऊ का धागा कच्चे सूत से बना हुआ होता है। जनेऊ को व्यक्ति बाएं कंधे के ऊपर इस प्रकार पहना जाता है कि दाईं कमर के नीचे तक पहुच जाये। यह आयु, विद्या, यश और बल को बढ़ानेवाला है।  शास्त्रों के अनुसार  धर्म में 16 संस्कारों में   गर्भाधान , पुंसवन ,  सीमन्तोन्नयन,  जातकर्म,  नामकरण,  निष्क्रमण ,   अन्नप्राशन,  चूड़ाकर्म , विद्यारम्भ,  कर्णवेध ,   यज्ञोपवीत ,  वेदारम्भ,  केशान्त , समावर्तन , विवाह और  अन्त्येष्टि है । जनेऊ के  सूत्रों में देवऋण, पितृऋण और ऋषिऋण ,  सत्व, रजस् और तमस् ,  शरीर में उपस्थित प्राण शक्ति इडा, पिंगला तथा सुषुम्ना नाड़ी ,  गायत्री मंत्र विद्यमान चरण ,  आश्रमों ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ ,    भूतकाल, वर्तमानकाल तथा भविष्यतकाल , काल रक्षक , त्रिदोष कफ, पित्त तथा वात्त को भी नियंत्रित करता है। जनेऊ ९ सूत्र में मुख,  नसिका  , आंख  , कान , मूत्र द्वार , मल द्वार ,  मुख से सत्य और प्रिय वचन बोले और खाएं, नेत्रो से सूंदर देंखे और कानों से सुवचन सुनन चाहिये । जनेऊ की लम्बाई 96 अंगुल होती है । 64 कलाओं में जैसे- साहित्य कला, कृषि ज्ञान, वास्तु निर्माण, व्यंजन कला, चित्रकारी,  दस्तकारी, भाषा, यंत्र निर्माण, सिलाई, कढ़ाई, बुनाई, दस्तकारी, आभूषण निर्माण है । यज्ञोपवीत में पांच गाँठ में   धर्म, अर्ध, काम, मोक्ष और ब्रह्म का प्रतीक है।  पांच यज्ञों, ऋषि यज्ञ, देव यज्ञ, बलि वैष्वानर यज्ञ, अतिथि यज्ञ व पितृ यज्ञ नामक पांच यज्ञों का नित्य विधान  है।  पञ्च ज्ञानेद्रियों में आंख कान नाक त्वचा जिह्वा पंच कर्मों का  प्रतीक है। शास्त्रों  में  जनेऊ धारण करने का उम्र बालक के जन्म से ब्राह्मण 8 वें वर्ष , क्षत्रिय 11 वे, तथा वैश्य 12 वे वर्ष में यज्ञोपवीत धारण  करने की परंपरा का उल्लेख है । विशेष परिस्थिति  में यज्ञोपवीत संस्कार नहीं हो सकने के कारण  ब्राह्मण 16 वें वर्ष में, क्षत्रिय 22 वे, तथा वैश्य 24 वे वर्ष में यज्ञोपवीत संस्कार का प्रावधान है। ब्राम्हण का वसंत ऋतु में, क्षत्रिय का ग्रीष्म में और वैश्य का उपवीत शरद ऋतु में होने का नियम है । जनेऊ का धारण शुभ दिन में जनेऊ संस्कार करने के समय बालक के हाथ में एकपलाश का  दंड में चावल , हल्दी , दुव , मुद्रा युक्त पोटली , बीना सिले हुए  पिले वस्त्र पहने , गले में पीले रंग का दुपट्टा धारण करता  है। मुंडन करके शिखा और  पैर में खड़ाऊ होती है।शास्त्र केअनुसार ज्येष्ठ पुत्र का  यज्ञोपवीत ज्येष्ठ मास में नहीं करने ,   पुनर्वसु नक्षत्र में ब्राह्मण का उपनयन नहीं करना चाहिए।  वैज्ञानिक दृष्टि में जनेऊ - वैज्ञानिक दृष्टि से भी जनेऊ पहनना स्वास्थ्य के दृष्टि से लाभदायक  और  हृदय रोग से बचाता है।हमारे कान में एक नस होता है जीका  जिसका सीधा सम्बन्ध मस्तिष्क से होता है जब जनेऊ  के माध्यम  से यह नस दबता है मस्तिष्क की कोई सोई हुई तंद्रा कार्य करने पर स्मरण शक्ति एवम विवेकशक्ति बढ़ाने में कार्य करती है। दाएं कान की नस अंडकोष और गुप्तेन्द्रियों से जुड़ी होती है। मूत्र विसर्जन के समय दाएं कान पर जनेऊ लपेटने से शुक्राणुओं की रक्षा होती है।मल-मूत्र करने से पहले जनेऊ को   कानों पर कस कर दो बार लपेटने से  कान के पीछे की नसें, जिनका संबंध पेट की आंतों से होता है,नस के दबने से आंतों पर भी दबाव पड़ने के कारण मल विसर्जन आसानी से हो जाता है।कान के पास मल-मूत्र विसर्जन के समय सक्रिय होता है उससे कुछ द्रव्य निकलता है। जनेऊ उस द्रव्य को रोक देता है, जिससे पेट के रोग,  कब्ज, एसीडीटी,  मूत्रन्द्रीय रोग,  हृदय के रोग, रक्तचाप अन्य संक्रामक रोग होने से रोकते है।बुरे स्वप्नों से मुक्ति दिलाती है। कान में जनेऊ लपेटने से मनुष्य में सूर्य नाड़ी जाग्रत हो जाता है जिससे मनुष्य में दिव्यता बनी रहती है। जनेऊ पाचन संस्थान को ठीक करता है और पेट तथा शरीर के निचले अंगों में विकार नहीं लाने देता है। जनेऊ ‘एक्यूप्रेशर’ के विकल्प के रूप में  कार्य कर लक पक्षाघात बीमारियों से मुक्त करता है। जनेऊ मानवीय जीवन में मानसिक , शारीरिक , बौद्धिक तथा चतुर्दिक विकास का द्योतक है ।



           


शुक्रवार, जून 25, 2021

मुक्तिनाथ : भुक्ति और मुक्ति स्थल...

 


        विश्व संस्कृति तथा सनातन धर्म की सांस्कृतिक और सभ्यता का मानवोचित गुणों के लिये भुक्ति तथा मुक्ति स्थल मुक्तिनाथ है । वेदांगों और उपनिषदों में मातंगक्षेत्र , कोंकणी क्षेत्र , और शालिग्राम क्षेत्र को मुक्ति क्षेत्र का उल्लेख किया गया है ।नेपाल देश का मुक्तिनाथ सनातन धर्म के वैष्‍णव संप्रदाय का शालिग्राम भगवान का मुक्तिनाथ प्रसिद्ध है। नेपाल की ओर प्रवाहित होने वाली काली गण्‍डकी नदी में शालिग्राम पाया जाता है। जिस क्षेत्र में मुक्तिनाथ स्थित हैं ।  8.167 मी . ऊँचाई वाली धौला गिरि पर्वत  समूह की मुक्तिनाथ पर्वत श्रंखला पर नेपाल का मस्तङ्ग जिले के मुक्तिनाथ मंदिर सनातन धर्म की  वैष्णव सम्प्रदाय का मोक्ष , माया योग और मानवीय जीवन का मूल दर्शन स्थल है । मुक्तिनाथ का उल्लेख वेदान्त , ·योग , शाकाहार शाकम्भरी  ,  आयुर्वेद , वेदसंहिता · वेदांग , ब्राह्मणग्रन्थ , पुरणों , आरण्यक , उपनिषद् · श्रीमद्भगवद्गीता , रामायण  और  महाभारत में है । प्राचीन काल में गंडकी का उद्गम स्थल पर ऋषि मतंग का आश्रम रहने के कारण मतंगक्षेत्र था बाद में मुक्तिनाथ क्षेत्र के रूप में सुविख्यात हुआ है । मतंगक्षेत्र में माता मातंगी की निवास थी । मुक्तिनाथ भुक्ति और मुक्ति क्षेत्र है । 108 दिव्‍य देशों में वैष्‍णवों का पवित्र मुक्तिनाथ मंदिर है।
शालिग्राम शिला  के रूप में पूजे जाते हैं। शालिग्राम पत्थर  पत्‍थर का निर्माण प्रागैतिहासिक काल में पाए जाने वाले कीटों के जीवाश्‍म से हुआ  है । ग्रन्थों  के अनुसार शालिग्राम शिला में विष्‍णु का निवास है। पुराणों  अनुसार भगवान शिव द्वारा असुर संस्कृति के राजा  जालंधर  से युद्ध नहीं जीत प्राप्त कर  रहने के कारण भगवान विष्‍णु ने उनकी मदद की थी।  मुक्तिनाथ स्थल पर निवास करने वाली असुर जालंधर की पत्‍नी वृंदा अपने सतीत्‍व को बचाए रखती तब तक जालंधर को कोई पराजीत नहीं कर सकता था। भगवान विष्‍णु ने जालंधर का रूप धारण करके वृंदा के सतीत्‍व को नष्‍ट करने में सफल हो गए। जब वृंदा को अपनी सतीत्व भंग होने का अहसास हुआ तबतक काफी देर हो चुकी थी। अपनी सतीत्व भंग होने पर  वृंदा ने भगवान विष्‍णु को कीड़े-मकोड़े बनकर जीवन व्‍यतीत करने का शाप देने के कारण भगवान विष्णु शालिग्राम पत्‍थर में हो गए थे । भगवान विष्‍णु शालिग्राम पत्‍थर में निवास करते हैं। मुक्तिनाथ बौद्ध धर्मावलंबियों के लिए  महत्‍वपूर्ण स्‍थान है। मुक्तिनाथ स्थल से उत्‍तरी-पश्चिमी क्षेत्र के महान बौद्ध भिक्षु पद्मसंभव बौद्ध धर्म के प्रचार-प्रसार के लिए तिब्‍बत गए थे।मुक्तिनाथ नेपाल की ओर से प्रवाहित होने वाली मुक्तिनाथ के समीप  काली गण्‍डकी नदी में पाया जाने वाला शालिग्राम  है।  मुक्तिनाथ को मुक्तिक्षेत्र' और मोक्ष स्थल  कहा  जाता हैं । के मस्तांग जिले की थोरांग-ला पहाड़ियों के मध्य में समुद्र तल से 12300 फीट उचाई पर  पगोड़ा शैली में निर्मित मुक्तिनाथ मंदिर  स्थित है । मुक्तिनाथ परिसर के दक्षिणी  में मेबर लखांग गोम्पा में ज्वाला माई मंदिर हैं । गोम्पा स्थल पर  ब्रह्माजी ने ब्रह्मेष्ठी यज्ञ किया था । अग्नि की ज्वाला के साथ जल की प्राकृतिक धारा को पंचतत्व’ का प्रतीक  है । शिलालेखों के अनुसार सन 1815 में नेपाल की महारानी सुवर्णप्रभा द्वारा  मुक्तिनाथ मंदिर का पुनर्निमाण करवाई गयी थी । पुराणों के अनुसार  पृथ्वी 7 भागों और 4 क्षेत्रों में बंटने के कारण 4 क्षेत्रों में मुक्तिक्षेत्र कि शालग्राम पर्वत और दामोदर कुंड के बीच ब्रह्माजी ने मुक्तिक्षेत्र में ब्रह्मेष्ठी यज्ञ  से भगवान शिव अग्नि ज्वाला के रूप में और नारायण जल रूप में उत्पन्न होने  से पापों का नाश करनेवाला मुक्तिक्षेत्र है ।नारद पुराण वर्णित है कि दैत्यराज जलंधर को वरदान प्राप्त था कि उसकी पत्नी वृंदा के पतिव्रता धर्म के कारण  देव, देवी, दैत्य अथवा मानव जलंधर का वध नहीं कर सकता था । जालंधर के निरंकुश होकर सब पर अत्याचार करने लगा था । जालंधर के अत्याचार को समाप्त करने के लिये  श्रीहरि ने लीला रचकर जलंधर के वेष में वृंदा के घर पति बनकर रहने लगे । वृंदा ने ज्यों ही श्रीहरि को स्पर्श करने पर  बृंदा का सतीत्व  पतिव्रता धर्म नष्ट होने पर  भगवान शिव ने जलंधर का वध कर दिया । वृंदा को जब सच्चाई पता चली तो उसने श्रीहरि को कीट होने का शाप देकर खुद पति के साथ सती हो गयी थी । वृंदा सती होने के  बाद में  पौधा की उत्पत्ति  हो गयी थी । शालीग्राम रूपी श्रीहरि ने पौधा को  तुलसी नामकारण और वृंदा के सतीत्व की रक्षा के लिए उससे विवाह खुद को शापमुक्त किया था ।  तुलसी से विवाह कर काफी समय तक शालीग्राम  रहे थे ।मुक्तिनाथ मंदिर के गंडकी नदी के किनारे शालीमार रूप में आज भी श्रीहरि यहां निवास करते हैं ।मुक्तिधाम के गण्डकी नदी और दामोदर कुंड का  संगम को काकवेणी  हैं ।  कोंकणी स्थल  पर श्राद्ध एवं तर्पण करने से  21 पीढ़ियों को मुक्ति मिल जाती है. श्रीमद्भागवत पुराण के अनुसार  धुंधकारी की कोंकणी  स्थल है।

मंगलवार, जून 22, 2021

संगीत संस्कृति की आत्मा ...

       

        वेदों और संगीत ग्रंथो में संगीत को ब्रह्मांड की आत्मा है  ।शंगीत शास्त्रो के अनुसार ब्रह्मा जी ने माता सरस्वती और भगवान शिव ने देवर्षि नारद को संगीत की शिक्षा दी थी । सैम वेद का उप वेद गंधर्व वेद , ऐतरेय अरण्यक , जैमिनी ब्राह्मण संहिता द्वारा संगीत का उल्लेख किया गया है ।कर्णप्रिय संगीत की ध्वनि  वस्तुओं के टकराने से उत्पन्न होने की प्रक्रिया को आहट नाड और  स्वयं उत्पन्न होते अनाहद नाद है । प्रगैतिहासिक काल से भारत में संगीत की समृद्ध परम्परा रही है। गिने-चुने देशों में ही संगीत की इतनी पुरानी एवं इतनी समृद्ध परम्परा पायी जाती है। गीतं वाद्यं तथा नृत्यं त्रयं संगतमुच्यते।भारतीय संगीत का आदि रूप साम वेद में मिलता है। संगीत   2000 ई .पू . पू . तथा भारतीय संगीत  4000 वर्ष प्राचीन है। वेदों में वाण, वीणा और कर्करि इत्यादि तंतु वाद्यों का उल्लेख मिलता है। अवनद्ध वाद्यों में दुदुंभि, गर्गर इत्यादि का, घनवाद्यों में आघाट या आघाटि और सुषिर वाद्यों में बाकुर, नाडी, तूणव, शंख का उल्लेख है। यजुर्वेद में 30वें कांड के 19वें और 20वें मंत्र में कई वाद्य बजानेवालों का उल्लेख है । सामवेद में  संगीत को "स्वर" को "यम" कहते थे । छांदोग्योपनिषद् में "का साम्नो गतिरिति? स्वर इति होवाच" (छा. उ. 1। 8। 4)। साम का "स्व" अपनापन "स्वर" है। "तस्य हैतस्य साम्नो य: स्वं वेद, भवति हास्य स्वं, तस्य स्वर एव स्वम्" (बृ. उ. 1। 3। 25)  में उल्लेख मिलता है । वैदिक काल में भारतीय संगीत  समृद्ध होती रही है । संगीत सुमेरु, बवे डिग्री (बाबल या बैबिलोनिया), असुर (असीरिया) और सुर सीरिया  है। चीन में प्राय: पाँच स्वरों के ही गान मिलते हैं। सात स्वरों का उपयोग करनेवाले बहुत ही कम गान हैं। उनकी एक प्रकार की बहुत ही प्राचीन स्वरलिपि है। बौद्धों के पहुंचने पर यहाँ के संगीत पर कुछ भारतीय संगीत का  प्रभाव पड़ा है । इब्रानी संगीत  प्राचीन है। इब्रानी  संगीत पर सुमेरु - बैबिलोनिया इत्यादि के संगीत का प्रभाव पड़ा। इब्रानी  लोग मंदिरों में गान  साम  करते थे।  इब्रानी संगीत  तत वाद्य को किन्नर" कहते थे।मिस्र देश का संगीत के मानव में संगीत देवी आइसिस आई  है।मिश्र में  तत वाद्य बीन  कहलाता था। अफलातून,  मिश्र देश में अध्ययन के लिए गया था । 300 वर्ष ई.पू. मिस्र में लगभग 600 वादकों का एक वाद्यवृंद था । मिस्र से पाइथागोरस और अफलातून  ने संगीत सीखा था। यूनान के संगीत पर मिस्र के संगीत का बहुत बड़ा प्रभाव पड़ा है । यूनान में संगीत  कला के रूप में विकसित हुआ। यूरोप में पाइथागोरस ने गणित के नियमों द्वारा स्वरों के स्थान को निर्धारित किया था । 16वीं शती से यूरोप में संगीत को स्वरसंहति (हार्मनी) कहते हैं। संहति में कई स्वरों काके मधुर मेल होता है, जैसे स, ग, प (षड्ज, गांधार, पंचम) की संगति। इस प्रकार के एक से अधिक स्वरों के गुच्छे को "संघात" (कार्ड) कहते हैं।  संघात के आधार पर यूरोप के आरकेष्ट्रा (वृंदवादन) का विकास हुआ है।  संगीत रसवान ध्वनि तथा कला का एक रूप है ।संगीत पक्षियों के चहचहाने , बारिश की बूंदों , हवा के बहने , हिलने वाले पत्ते , जमीन पर पड़े सूखे पत्तों के टकराने से निकलने वाली ध्वनि में संगीत है। संगीत की सुखदायक प्रकृति की जागरूकता फैलाने के उद्देश्य से हुई थी ।संगीत की विभिन्न शैलियों  और दुनिया  से संगीत के विभिन्न रूपों  में प्रदर्शित करने के कारण विश्व संगीत दिवस की शुरुआत 21 जून 1982 को फ्रांस में हुई थी। फ्रांस में संगीत  दिवस को फेटे डे ला कर्णप्रिय संगीत की ध्वनि  वस्तुओं के टकराने से उत्पन्न होने की प्रक्रिया को आहट नाड और  स्वयं उत्पन्न होते अनाहद नाद है । प्रगैतिहासिक काल से भारत में संगीत की समृद्ध परम्परा रही है। गिने-चुने देशों में ही संगीत की इतनी पुरानी एवं इतनी समृद्ध परम्परा पायी जाती है। गीतं वाद्यं तथा नृत्यं त्रयं संगतमुच्यते।भारतीय संगीत का आदि रूप साम वेद में मिलता है। विश्व संगीत   2000 ई .पू . पू . तथा भारतीय संगीत  4000 वर्ष प्राचीन है। वेदों में वाण, वीणा और कर्करि इत्यादि तंतु वाद्यों का उल्लेख मिलता है। अवनद्ध वाद्यों में दुदुंभि, गर्गर इत्यादि का, घनवाद्यों में आघाट या आघाटि और सुषिर वाद्यों में बाकुर, नाडी, तूणव, शंख का उल्लेख है। यजुर्वेद में 30वें कांड के 19वें और 20वें मंत्र में कई वाद्य बजानेवालों का उल्लेख है । सामवेद में  संगीत को "स्वर" को "यम" कहते थे । छांदोग्योपनिषद् में "का साम्नो गतिरिति? स्वर इति होवाच" (छा. उ. 1। 8। 4)। साम का "स्व" अपनापन "स्वर" है। "तस्य हैतस्य साम्नो य: स्वं वेद, भवति हास्य स्वं, तस्य स्वर एव स्वम्" (बृ. उ. 1। 3। 25)  में उल्लेख मिलता है । वैदिक काल में भारतीय संगीत  समृद्ध होती रही है । संगीत सुमेरु, बवे डिग्री (बाबल या बैबिलोनिया), असुर (असीरिया) और सुर सीरिया  है। चीन में प्राय: पाँच स्वरों के ही गान मिलते हैं। सात स्वरों का उपयोग करनेवाले बहुत ही कम गान हैं। उनकी एक प्रकार की बहुत ही प्राचीन स्वरलिपि है। बौद्धों के पहुंचने पर यहाँ के संगीत पर कुछ भारतीय संगीत का भी प्रभाव पड़ा।यूनान में संगीत एक कला के रूप में विकसित हुआ। यूरोप में पाइथागोरस ने गणित के नियमों द्वारा स्वरों के स्थान को निर्धारित किया। 16वीं शती से यूरोप में संगीत का एक नई दिशा में विकास हुआ। इसे स्वरसंहति (हार्मनी) कहते हैं। संहति में कई स्वरों का मधुर मेल होता है, जैसे स, ग, प (षड्ज, गांधार, पंचम) की संगति। इस प्रकार के एक से अधिक स्वरों के गुच्छे को "संघात" (कार्ड) कहते हैं। संघात के सब स्वर एक साथ भिन्न भिन्न वाद्यों से निकलकर एक में मिलकर एक मधुर कलात्मक वातावरण की सृष्टि करते हैं। इसी के आधार पर यूरोप के आरकेष्ट्रा (वृंदवादन) का विकास हुआ है। स्वरसंहति एक विशिष्ट लक्षण है जिससे पाश्चात्य संगीत पूर्वीय संगीत से भिन्न हो जाता है। संगीत रसवान ध्वनि तथा कला का एक रूप है ।संगीत पक्षियों के चहचहाने , बारिश की बूंदों , हवा के बहने , हिलने वाले पत्ते , जमीन पर पड़े सूखे पत्तों के टकराने से निकलने वाली ध्वनि में संगीत है। संगीत की सुखदायक प्रकृति की जागरूकता फैलाने के उद्देश्य से हुई थी ।संगीत की विभिन्न शैलियों  और दुनिया  से संगीत के विभिन्न रूपों  में प्रदर्शित करने के कारण विश्व संगीत दिवस की शुरुआत 21 जून 1982 को फ्रांस में हुई थी। फ्रांस में संगीत  दिवस को फेटे डे ला म्यूजिक कहा जाता है। 1982 को फ्रांस में संगीत प्रेमियों की मांग पर तत्कालीन  सांस्कृतिक मंत्री ने संगीत दिवस मनाने की घोषणा कर दी थी । संगीत साधन तथा साधना है। प्रतिदिन  प्रातः -शाम  संगीत सुनने से उच्च रक्तचाप और धीमी गति का संगीत सुनने से स्ट्रोक की समस्या दूर होती है।संगीत सुनने से शांति मिलती है जिसके कारण तनाव और अनिद्रा की समस्या से छुटकारा मिलता है।संगीत शरीर और आत्मा का उन्नयन करता है।म्यूजिक कहा जाता है। 1982 को फ्रांस में संगीत प्रेमियों की मांग पर तत्कालीन  सांस्कृतिक मंत्री ने संगीत दिवस मनाने की घोषणा कर दी थी । संगीत साधन तथा साधना है। प्रतिदिन  प्रातः -शाम  संगीत सुनने से उच्च रक्तचाप और धीमी गति का संगीत सुनने से स्ट्रोक की समस्या दूर होती है।संगीत सुनने से शांति मिलती है जिसके कारण तनाव और अनिद्रा की समस्या से छुटकारा मिलता है।संगीत शरीर और आत्मा का उन्नयन करता है। संगीत  का प्रारंभ ऊँ से हुई है । श्री लंका में हेल सभ्यता के रावणहत्था , चेकोस्लोवाकिया में 1825 ई. से 1904 ई. तक  , भारत में 200ई.पू. से 200 ई. तक भरत द्वारा भरत नाट्य शास्त्र  , सिंधुघाटी सभ्यता में वसुरी वादन और नृत्य संगीत का विकास था । भारतीय संगीत में संगम संगीत और जातिगान संगीत विकसित था । 6 थीं शदी में मतंग ऋषि द्वारा वृहदशी , 10वी शदी में ईरान के मुहमबद इकबाल , 13वी शदी में सारंगदेव का संगीत रत्नाकर ,16वी शदी में रामामात्य द्वारा स्वर मेला कलानिधि ,17 वी शदी में वेंकट मखिन ने चतुर्दडी प्रकाशिका का महत्वपूर्ण योगदान है । 14 वी शदी में शास्त्रीय संगीत , 13 वी शदी में ध्रुपद संगीत का उदय हुआ था । 13 वी शादी में ठुमरी वाराणसी घराने , लखनऊ घराने , बिहार के दरभंगा घराने , बेतिया घराने तलवंडी घराने मध्य प्रदेश का ग्वालियर घराने , इंदौर , जयपुर ,पटियाला आगरा घरानों में ठुमरी , ध्रुपद का उदय हुआ है । बिहार में सोहर , विदाई गीत , छठ गीत , विवाह गीत की भाषा  मागही भोजपुरी , मैथिली , वज्जिका , वंजिका में गया जाता है । असम में जिकिर , नागालैंड में हिलीयमलयु, न्यूल्यु , हेरेल्यु , तमिलनाडु में नाददपूरापाद , , उड़ीसाA में पाला ,  उत्तराखंड में बसंत गीत ,असम में बोरगीत  आदि राज्यों में गीत विभिन्न रूपों में  संगीत है ।


     

रविवार, जून 20, 2021

गंगा : भारत की भुक्ति और मोक्षदायिनी नदी ....

भारतीय सांस्कृतिक विरासत और पुरणों, उपनिषदों में माता गंगा की उल्लेखनीय वर्णन है । गंगा भुक्ति तथा मोक्ष दायनी है ।उत्तराखंड राज्य का शिवालिक पर्वत समूह की शृंखला गोमुख से प्रविहित होने वाली गंगा गंगोत्री होते हुए देव प्रयाग में भगरीथी गंगा और अलकनंदा नदी का संगम और रुद्रप्रयाग स्थित मंदाकनी एवं गंगा का संगम के बाद ऋषिकेश होते हुए हरिद्वार की भूमि पर प्रविहित हुई है ।  शिव की जटाओं से प्रविहित होने वाली मां गंगा द्वारा  राजा भागीरथ के पूर्वजों की तृप्ति की  थी । ज्येष्ठ शुक्ल पक्ष दशमी को माँ गंगा का प्राकट्य गंगा दशहरा के दिन स्नान और दान करने से पापों का नाश होता है । गंगा दशहरा का पर्व  जेष्ट मास शुक्ल पक्ष दशमी तिथि  शनिवार विक्रम संवत 2078 दिनांक 20 जून 2021 के अवसर पर माँ गंगा के मंत्र - ॐ नमो भगवती हिलि हिलि मिलि मिलि गंगे माँ पावय पावय स्वाहा "नमो भगवत्यै दशपापहरायै गंगायै नारायण्यै रेवत्यै। शिवायै अमृतायै विश्वरूपिण्यै नन्दिन्यै ते नमो नमः।। से उपासना करने कस महत्व है । पुरणों के अनुसार महाराज सगर ने अश्वमेघ  यज्ञ की सुरक्षा का भार अपने  पौत्र अंशुमान को दिया था । देवराज  इंद्र ने सगर के यज्ञीय अश्व का अपहरण कर लिया था । अश्वमेध यज्ञ के रक्षक अंशुमान ने सगर की साठ हजार प्रजा लेकर अश्व को  भूमंडल खोज लिया पर अश्व नहीं मिला था । अंशुमान एवं सैनिकों द्वारा  अश्व को पाताल लोक में खोजने के लिए पृथ्वी के उत्खनन करने के बाद 'महर्षि कपिल' के रूप में तपस्या स्थल पर महाराज सगर का अश्व भ्रमण करते हुए   देखकर 'चोर-चोर' चिल्लाने लगा था । राजा सगर के सैनिकों और प्रजाओं द्वारा किये जा रहे कौतूहल के कारण महर्षि कपिल की समाधि टूटने पर  अपने आग्नेय नेत्र खोलने से  सगर की सारी प्रजा भस्म हो गई थी ।  मृत लोगों के उद्धार के लिए  महाराज दिलीप के पुत्र भगीरथ ने कठोर तप किया था । भगीरथ के तप से प्रसन्न होकर ब्रह्मा ने उनसे वर मांगने को कहा टैब  भगीरथ ने 'गंगा' की मांग की थी । ब्रह्मा ने कहा- 'राजन भगीरथ !  गंगा के वेग को संभालने की शक्ति केवल भगवान शंकर में है ।  उचित होगा कि गंगा का भार एवं वेग संभालने के लिए भगवान शिव का अनुग्रह प्राप्त करना आवश्यकहै ।भगीरथ की  कठोर तपस्या से प्रसन्न होकर ब्रह्माजी ने गंगा की धारा को अपने कमंडल से छोड़ने के पश्चात भगवान शिव ने गंगा की धारा को अपनी जटाओं में समेटकर जटाएं बांध लेने के बाद   गंगा को जटाओं से बाहर निकलने का पथ नहीं मिल सका था । राजा भगीरथ द्वारा भगवान शिव की आराधना में घोर तप से प्रसन्न होकर  भगवान शिव ने गंगा की धारा को मुक्त करने का वरदान दिया था । भगवान  शिवजी की जटाओं से  कर गंगाजी प्रवाहित होकर  हिमालय की घाटियों में गोमुख , गंगोत्री , देवप्रयाग , ऋषिकेश और हरिद्वार की भूस्थल पर  कल-कल निनाद करके मैदान की ओर मुड़ी थी ।राजा भगीरथ द्वारा मां गंगा को उत्तराखंड , उत्तरप्रदेश , झारखंड , बिहार तथा बंगाल के क्षेत्रों में स्थित सगर एवं भगीरथ के पूर्वजों को उद्धार किया गया है । राजा भगीरथ द्वारा पृथ्वी पर गंगा अवतरण कर अपने पूर्वजों ,  जनमानस को  पुण्य से उपकृत कर दिया गया है ।  जेष्ट शुक्ल दशमी को मां गंगा भूस्थल पर अवतरण होने से गंगा दशहरा के दिन गंगा स्नान , गंगा जल की उपासना से  प्राणी मात्र को जीवनदान , मुक्ति , भुक्ति और मनोकामनाएं पूर्ण कर  देती है । गंगा की उद्गम स्थल गोमुख से भागीरथी गंगा गंगोत्री से प्रवाहित होती हुई बंगाल की खाड़ी में में मिलती है । बंगाल की खाड़ी में गंगा  की  संगम स्थल को गंगा सागर तीर्थ स्थल कहा गया है । गंगा के किनारे स्थलों में उत्तराखंड का  हरिद्वार , उत्तरप्रदेश के विंध्याचल , काशी , बिहार का सुतनगंज , पटना और बंगाल का गंगासागर में सनातन धर्म की सांस्कृतिक है । 


















भगवान वेंकटेश्वर : मानवीय चेतना का द्योतक...

मानवीय सांस्कृतिक विरासत और सनातन धर्म की वैष्णव सम्प्रदाय का उद्गम स्थल तिरुपति वेंकटेश्वर मन्दिर तिरुपत स्थल है। तिरुपति भारत के सबसे प्रसिद्ध तीर्थस्थल है। आंध्र प्रदेश के चित्तूर जिले में स्थित है। प्रतिवर्ष लाखों की संख्या में दर्शनार्थी यहां आते हैं। समुद्र तल से 3200 फीट ऊंचाई पर स्थित तिरुमला की पहाड़ियों पर बना श्री वैंकटेश्‍वर मंदिर यहां का सबसे बड़ा आकर्षण है।  शताब्दी पूर्व वेंकटेश्वर मंदिर दक्षिण भारतीय वास्तुकला और शिल्प कला हैं। आंध्रप्रदेश के चितुर जिला का तिरुपति की सप्तगिरि की 2799 फीट उचाई श्रृंखला पर द्रविड़ शैली में निर्मित तिरुपति वेंकटेश्वर मंदिर  में भगवान विष्णु के रूप वेंकटेश्वर विष्णु स्थापित है । भगवान वेंकटेश्वर की उपासना का पर्व ब्रह्मोत्सव ,वैकुंठ एकादशी और रथ सप्तमी प्रसिद्ध है । संगम साहित्य में तिरुपति को त्रिवेंगदम कहा गया है। 5वीं शताब्दी तक यह एक प्रमुख धार्मिक केंद्र के रूप में  चोल, होयसल और विजयनगर के राजाओं द्वारा  तिरुपति भगवान वेंकटेश मंदिर के निर्माण किया गया था । भगवान  वेंकटेश्वर या बालाजी को भगवान विष्णु अवतार  है। भगवान  विष्णु ने सप्तगिरिकी सातवीं  वेंकटाद्रि पर्वत पर  स्थित तिरुमला स्थित  पुष्करणी सरोवर के किनारे निवास किया था। यह सरोवर तिरुमाला के पास स्थित है। तिरुमाला के चारों ओर स्थित पहाड़ियाँ, शेषनाग के सात फनों के आधार पर बनीं 'सप्तगिर‍ि' हैं। 11वीं शताब्दी में संत रामानुज ने तिरुपति  सातवीं पहाड़ी पर भगवान  श्रीनिवास की उपासना से पसंद होकर भगवान श्रीनिवास समक्ष प्रकट होकर आशीर्वाद दिया। श्रीनिवास प्रभु का आशीर्वाद प्राप्त करने के पश्चात रामानुज 120 वर्ष की आयु तक  वेंकटेश्वर भगवान की ख्याति फैलाई थी । 9वीं शताब्दी में काँच‍ीपुरम के शासक वंश पल्लवों ने इस स्थान पर अपना आधिपत्य स्थापित किया था, परंतु 15 सदी के विजयनगर वंश के शासन के पश्चात भी इस मंदिर की ख्याति सीमित रही। 15 सदी के पश्चात इस मंदिर की ख्याति दूर-दूर तक फैलनी शुरू हो गई। 1843 से 1933 ई. तक अंग्रेजों के शासन के अंतर्गत इस मंदिर का प्रबंधन हातीरामजी मठ के महंत ने संभाला। हैदराबाद के मठ का भी दान रहा है । 1933 में इस मंदिर का प्रबंधन मद्रास सरकार ने अपने हाथ में ले लिया और एक स्वतंत्र प्रबंधन समिति 'तिरुमाला-तिरुपति' के हाथ में इस मंदिर का प्रबंधन सौंप दिया। आंध्रप्रदेश के राज्य बनने के पश्चात इस समिति का पुनर्गठन हुआ और एक प्रशासनिक अधिकारी को आंध्रप्रदेश सरकार के प्रतिनिधि नियुक्त किया गया है।भगवान श्री वेंकटेश्वर मंदिर आंध्रप्रदेश के चितुर जिला का समुद्र तल से 3200 फीट की ऊँचाई पर तिरुमला पर्वत समूह के  वेंकटाद्रि पर्वत की सातवीं शृंखला  पर श्री स्वामी पुष्करणी नामक सरोवर के किनारे स्थित है। वेंकटेश्वर मंदिर  के गर्भगृह में भगवान वैंकटेश्चर विराजमान तथा मंदिर परिसर में पडी कवली महाद्वार संपंग प्रदक्षिणम, कृष्ण देवर्या मंडपम, रंग मंडपम तिरुमला राय मंडपम, आईना महल, ध्वजस्तंभ मंडपम, नदिमी पडी कविली, विमान प्रदक्षिणम, श्री वरदराजस्वामी श्राइन पोटु मंदिर हैं। मुख्यद्वार के दाएं बालरूप में बालाजी को ठोड़ी से रक्त आया था, उसी समय से बालाजी के ठोड़ी पर चंदन लगाने की प्रथा शुरू हुई। भगवान बालाजी के सिर पर रेशमी केश हैं, और उनमें गुत्थिया नहीं आती और वह हमेशा ताजा रहेते है। भगवान बालाजी गर्भगृह के मध्य भाग में खड़े है । बालाजी को प्रतिदिन नीचे धोती और उपर साड़ी से सजाया जाता है। गर्भगृह में चढ़ाई गई  वस्तु को  जलकुंड में  विसर्जन किया जाता है।बालाजी की पीठ को जितनी बार  साफ करे परंतु पीठ   गीलापन रहता  है, वहां पर कान लगाने पर समुद्र घोष सुनाई देता है।बालाजी के वक्षस्थल पर लक्ष्मीजी निवास करती हैं। प्रत्येक  गुरुवार को निजरूप दर्शन के समय भगवान बालाजी की चंदन से सजावट की जाती है उस चंदन को निकालने पर लक्ष्मीजी की छबि उस पर उतर आती है। बालाजी के जलकुंड में विसर्जित वस्तुए तिरूपति से 20 किलोमीटर दूर वेरपेडु से आती हैं। गर्भगृह मे जलने वाले अखंड ज्योति जलती रहती है । तिरुचनूर ( अलमेलुमंगपुरम ) तिरुपति से पांच किमी. दूरी पर श्री पद्मावती सरोवर और पद्मावती मंदिर  भगवान श्री वेंकटेश्वर विष्णु की पत्नी श्री पद्मावती लक्ष्मी जी को समर्पित है। गोपुरम तथा श्रीगोविंदराज मंदिर का निर्माण संत रामानुजाचार्य ने 1130 ई.  में की थी। गोविंदराजस्वामी मंदिर के  प्रांगण में संग्रहालय और पार्थसारथी, गोड़ादेवी आंदल और पुंडरिकावल्ली का मंदिर  है। मंदिर की मुख्य प्रतिमा शयनमूर्ति भगवान की निंद्रालीन अवस्था है। श्री कोदंडरामस्वमी मंदिर तिरुपति के मध्य में स्थित है। सीता, राम और लक्ष्मण मंदिर का निर्माण चोल राजा ने दसवीं शताब्दी में कराया था। मंदिर परिसर में अंजनेयस्वामी मंदिर श्री कोदादंरमस्वामी मंदिर है।कपिला थीर्थम भारत के आंध्र प्रदेश के चित्तूर जिले में तिरुपति में स्थित शिव मंदिर और थीर्थम है। कपिला मुनि द्वारा स्थापित भगवान शिव को कपिलेश्वर जाता है। यह तिरुपति का एकमात्र शिव मंदिर है।कपिलानदी का उद्गम स्थल  सप्तगिरी  पहाड़ियों से  हैं। अलिपिरि तीर्थम में  श्री वेनुगोपाल ओर लक्ष्मी नारायण के साथ गौ माता कामधेनु कपिला गाय तथा हनुमानजी का अनुपम मंदिर स्थित हैं।श्री कल्याण वेंकटेश्वरस्वामी मंदिर तिरुपति से 12 किमी.पश्चिम में श्रीनिवास मंगापुरम में स्थित है। पुरणों के  अनुसार श्री पद्मावती से शादी के बाद तिरुमला जाने से पूर्व भगवान वेंकटेश्वर यहां ठहरे थे। मंगापुरम में स्थापित भगवान वेंकटेश्वर की पत्थर की विशाल प्रतिमा को रेशमी वस्त्रों, आभूषणों और फूलों से सजाया जाता  है। श्री कल्याण वेंकटेश्वरस्वामी मंदिर तिरुपति से 40 किमी दूर, नारायणवनम में भगवान श्री वेंकटेश्वर और राजा आकाश की पुत्री देवी पद्मावती यही परिणय सूत्र में बंधे थे। श्री देवी पद्मावती मंदिर, श्री आण्डाल मंदिर, भगवान रामचंद्र जी का मंदिर, श्री रंगानायकुल मंदिर और श्री सीता लक्ष्मण मंदिर , श्री पराशरेश्वर स्वामी मंदिर, श्री वीरभद्र स्वामी मंदिर, श्री शक्ति विनायक स्वामी मंदिर, श्री अगस्थिश्वर स्वामी मंदिर और अवनक्षम्मा मंदिर है । नगलपुरम में भगवान विष्णु ने मत्‍स्‍य अवतार लेकर सोमकुडु नामक राक्षस का  संहार किया था। श्रीवेद नारायण मंदिर के गर्भगृह में विष्णु की मत्स्य रूप में प्रतिमा के  दोनों ओर श्रीदेवी और भूदेवी विराजमान हैं। भगवान द्वारा धारण किया हुआ सुदर्शन चक्र सबसे अधिक आकर्षक लगता है। मंदिर का निर्माण विजयनगर के राजा श्री कृष्णदेव राय ने करवाया था। तिरुपति से 58 किमी. दूर, कारवेतीनगरम में श्री वेणुगोपाल स्वामी मंदिर स्थित है। यहां मुख्य रूप से भगवान वेणुगोपाल की प्रतिमा स्थापित है। उनके साथ उनकी पत्नियां श्री रुक्मणी अम्मवरु और श्री सत्सभामा अम्मवरु की भी प्रतिमा स्‍थापित हैं। यहां एक उपमंदिर भी है।श्री प्रसन्ना वैंकटेश्वरस्वामी मं श्री पद्मावती अम्मवरु से विवाह के पश्चात् श्री वैंक्टेश्वरस्वामी अम्मवरु ने  अप्पलायगुंटा पर श्री सिद्धेश्वर और  शिष्‍यों को आशीर्वाद दिया था। अंजनेयस्वामी मंदिर का निर्माण करवेतीनगर के राजाओं ने करवाया था।  आनुवांशिक रोगों से ग्रस्त रोगी वायुदेव  की उपासना करते है । प्रसन्ना वेंकटेश्वर स्वामी मंदिर के परिसर में  देवी पद्मावती और श्री अंदल की मूर्तियां स्थापित  हैं। तल्लपका  श्री अन्नामचार्य का जन्मस्थान है। अन्नामचार्य श्री नारायणसूरी और लक्कामअंबा के पुत्र थे। श्री चेन्नाकेशव स्वामी  मंदिर का निर्माण  मत्ती राजाओं द्वारा किया गया था। श्री करिया मणिक्यस्वामी मंदिर नीलगिरी पर्वत पर  स्थित है। प्रभु महाविष्णु ने मकर को मार कर गजेंद्र नामक हाथी को बचाया था। महाभगवतम में गजेंद्रमोक्षम का उल्लेख है। कुशस्थली नदी के किनारे श्री अन्नपूर्णा काशी विशेश्वर स्वामी  मंदिर बग्गा अग्रहरम में स्थित है।  श्री काशी विश्वेश्वर, श्री अन्नपूर्णा अम्मवरु, श्री कामाक्षी अम्मवरु और श्री देवी भूदेवी समेत श्री प्रयाग माधव स्वामी की उपासना होती है।स्वामी पुष्करिणी जलकुंड के जल  का उपयोग  भगवान के स्नान के लिए, मंदिर को साफ करने के लिए, मंदिर में रहने वाले ब्राह्मणों द्वारा किया जाता है ।आदि। कुंड का जल पूरी तरह स्वच्छ और कीटाणुरहित है। वैकुंठ में विष्णु पुष्‍करिणी कुंड में  स्‍नान करते है । श्री गरुड़जी ने भगवान श्री वैंकटेश्वर के लिए  पुष्करिणी सरोवर का निर्माण किया था ।आकाशगंगा जलप्रपात के जल से भगवान को स्‍नान कराया जाता है। पहाड़ी से निकलता पानी तेजी से नीचे धाटी में गिरता है। तिरुमला के उत्तर में श्री वराहस्वामी मंदिर पुष्किरिणी के किनारे स्थित है। श्री वराह स्वामी मंदिर भगवान विष्णु के अवतार वराह स्वामी को समर्पित है।  तिरुमला आदि वराह क्षेत्र था और वराह स्वामी की अनुमति के बाद ही भगवान वैंकटेश्वर ने निवास स्थान बनाया। ब्रह्म पुराण तथा  अत्री संहिता के अनुसार वराह अवतार की   वराह, प्रलय वराह और यजना वराह की उपासना की जाती है। श्री बेदी अंजनेयस्वामी - स्वामी पुष्किरिणी के उत्तर पूर्व में स्थित श्री वेदी अंजने स्वामी  मंदिर हनुमान जी को समर्पित है। मंदिर परिसर के  अंतर्गत श्रद्धालु प्रभु को अपने केश समर्पित करते हैं जिससे अभिप्राय है कि वे केशों के साथ अपना दंभ व घमंड छोड़ देते है ओर मानव योनी मे जन्म ओर सम्सत पिढी की तरफ से कृतज्ञता हेतु केश समर्पिण किया जाता हैं । संस्कार घरों में नाई के द्वारा संपन्न किया जाता था, पर समय के साथ-साथ  संस्कार का ममन्दिर के पास स्थित 'कल्याण कट्टा'  स्थान पर सामूहिक रूप से संपन्न किया जाने लगा है ।  नाई कल्याण न कट्टापर  बैठते हैं। केशदान के पश्चात यहीं पर स्नान करते हैं. 
                                       

                                                तिरुवनंतपुरम का भगवाान वेंकटेश्वर


पुष्करिणी में स्नान के पश्चात मंदिर में दर्शन करने के लिए जाते हैं। तिरुमला पर्वत  समूह के  शेषाचलम , वेंकटाचलम पर्वत  की चोटी  पर तिरुपति मंदिर में स्थित  भगवान वेंकटेश को विष्णु का अवतार माना जाता है। भगवान विष्णु को वेंकटेश्वर, श्रीनिवास , गोविंदा और बालाजी नाम से उपासना की जाती है। तिरुपति के इस बालाजी मंदिर में श्रद्धा और आस्था के साथ अपने सिर के बालों को कटवाते हैं। वेंकटेश्वर मंदिर का निर्माण 300 ई.पू.तथा 18वी शादी में मराठा जनरल राघव जी भोसले द्वारा बल जी  मंदिर निर्माण कराया गया था । वराह पुराण में वेंकटाचलम या तिरुमाला को आदि वराह क्षेत्र , वायु पुराण में तिरुपति क्षेत्र को भगवान विष्णु का वैकुंठ , स्कंदपुराण में  तिरुपति बालाजी का ध्यान स्थल कहा है । पुराणों के अनुसार  वेंकटम पर्वत  को वाहन गरुड़ द्वारा भूलोक में लाया गया भगवान विष्णु का क्रीड़ास्थल है। वेंकटम पर्वत को   शेषाचलम को शेषनाग के अवतार के है। तिरुमला के  सात पर्वत शेषनाग के फन माने जाते है। वराह पुराण के अनुसार तिरुमलाई में पवित्र पुष्करिणी नदी के तट पर भगवान विष्णु ने ही श्रीनिवास के रूप में अवतार लिया।  रात्रि में मंदिर के पट बंद होने पर  देवताओं के द्वारा भगवान वेंकटेश की पूजा होती है। भगवान रुद्र के 11 वें अवतार हनुमान जी को बाला जी की उपासना की जाती है । ब्रह्मांड पुराण तथा ब्रह्मवैवर्त पुराण के अनुसार मारुतिनंदन हनुमान जी की  बाल्या अवस्था पर इंद्र द्वारा तिरुमला पर्वत पर बज्र अस्त्र से प्रहार करने के कारण हनु पर चोटे आयी थी । वह स्थल बल जी के नाम से ख्याति मिला था ।

शनिवार, जून 19, 2021

योग : शारीरिक , मानसिक आध्यात्मिक का द्योतक...

        विश्व और भारतीय संस्कृति का वेदों ,पुरणों उपनिषदों , विभिन्न धर्मग्रंथों में योग को भिन्न भिन्न रूप से उल्लेख किया गया है ।योग की उत्‍पत्ति मानव सभ्‍यता के प्रारंभ से हुई है । योग विद्या का उद्भव आदि योगी" तथा "आदि गुरूभगवान शिव है।भगवान शंकर के बाद वैदिक ऋषियों द्वारा योग का विभिन्न रूप प्रारम्भ  किया गया है । भगवान ब्रह्मा , विष्णु , कृष्ण, महावीर और बुद्ध ने योग का विभिन्न रूपों में ध्यान  , मनन , मैडिटेशन दिया है । सिद्ध सम्प्रदाय ,  शैवसम्प्रदाय ,, नाथसम्प्रदाय , ब्रह्मसम्प्रदाय , वैष्णव सम्प्रदाय तथा शाक्त और सौर सम्प्रदाय संस्कृति में योग का महत्व है । पूर्व वैदिक काल (ईसा पूर्व 3000 से पहले)  से योग प्रारम्भ है ।पश्चिमी विद्वान द्वारा योग को   500 ई. पू. बौद्ध धर्म का प्रादुर्भाव कहा गया है ।  हड़प्पा और मोहनजोदड़ तथा सिंधु घाटी के  उत्खनन से प्राप्त योग मुद्राओं से ज्ञात  है कि योग का  5000 वर्ष पूर्व से  था। वैदिक काल (3000 ईसा पूर्व से 500 ईसा पूर्व) वैदिक काल में एकाग्रता का विकास करने के लिए और सांसारिक कठिनाइयों को पार करने के लिए योगाभ्यास किया जाता था। ब्रह्मचर्य आश्रम में वेदों की शिक्षा के साथ शस्त्र , अस्त्र और योग की शिक्षा  दी जाती थी।यस्मादृते न सिध्यति यज्ञो विपश्चितश्चन। स धीनां योगमिन्वति॥' ( ऋक्संहिता, मंडल-1, सूक्त-18, मंत्र-7) अर्थात- योग के बिना विद्वान का  यज्ञकर्म सिद्ध नहीं होता है । स घा नो योग आभुवत् स राये स पुरं ध्याम। गमद् वाजेभिरा स न:॥' ( ऋग्वेद 1-5-3 अर्थात वही परमात्मा हमारी समाधि के निमित्त अभिमुख हो, उसकी दया से समाधि, विवेक, ख्याति तथा ऋतम्भरा प्रज्ञा का हमें लाभ हो, अपितु वही परमात्मा अणिमा आदि सिद्धियों के सहित हमारी ओर आगमन करे। उपनिषदों, महाभारत और भगवद्‌गीता में योग में ज्ञान योग, भक्ति योग, कर्म योग और राज योग का उल्लेख  है। इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम्। विवस्वान्मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत्॥ श्रीमद्भगवद्गीता ४.१ ।अर्थात् हे अर्जुन मैने इस अविनाशी योग को सूर्य से कहा था , सूर्य ने अपने पुत्र वैवस्वत मनु से कहा और मनु ने अपने पुत्र राजा इक्ष्वाकु से कहा। इस अवधि में योग, श्वसन एवं मुद्रा सम्बंधी अभ्यास न होकर एक जीवनशैली बन गया था। उपनिषद् में इसके पर्याप्त प्रमाण उपलब्ध हैं। कठोपनिषद में योग लक्षण  है- तां योगमित्तिमन्यन्ते स्थिरोमिन्द्रिय धारणम् । जैन और बौद्ध उत्थान काल के दौर में यम और नियम के अंगों पर जोर दिया जाने लगा। यम और नियम अर्थात अहिंसा, सत्य, ब्रह्मचर्य, अस्तेय, अपरिग्रह, शौच, संतोष, तप और स्वाध्याय का प्रचलन  और योग को सुव्यवस्थित रूप  दिया गया था। 563 से 200 ई.पू. में तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्राणिधान - का क्रिया योग  प्रचलन था । बृहदारण्यक उपनिषद में योगयज्ञवल्क्य   और गार्गी संहिता के गार्गी द्वारा  साँस लेने सम्बन्धी व्यायाम, शरीर की सफाई के लिए आसन और ध्यान का उल्लेख  छांदोग्य उपनिषद में योगासन के संबंध   है। शास्त्रीय काल (200 ईसा पूर्व से 500 ई) में पतञ्जलि ने वेद की योग विद्या को 200 ई.पू. योग के 195  योगसूत्र में  सूत्र का योग, राजयोग का उल्लेख किया है। योग के यम (सामाजिक आचरण), नियम (व्यक्तिगत आचरण), आसन (शारीरिक आसन), प्राणायाम (श्वास विनियमन), प्रत्याहार (इंद्रियों की वापसी), धारणा (एकाग्रता), ध्यान (मेडिटेशन) और समाधि है ।  पतंजलि योग में शारीरिक मुद्राओं एवं श्वसन को  स्थान से ज्यादा  ध्यान और समाधि को अधिक महत्त्व दिया गया है। पतंजलि का योगसूत्र, योगयाज्ञवल्क्य, योगाचारभूमिशास्त्र, और विसुद्धिमग्ग प्रमुख हैं। मध्ययुग (500 ई से 1500 ई) में पतंजलि योग के अनुयायियों ने आसन, शरीर और मन की सफाई, क्रियाएँ और प्राणायाम करने को योग का  रूप हठयोग  है। मध्य युग में योग की पद्धतियाँ प्रारम्भ  हुईं थी ।
स्वामी विवेकानन्द ने शिकागो के धर्म संसद में   विश्व को योग से परिचित कराया। महर्षि महेश योगी, परमहंस योगानन्द, रमण महर्षि  योगियों ने पश्चिमी दुनिया को प्रभावित किया  था ।  टी. कृष्णमाचार्य , बी.के.एस आयंगर, पट्टाभि जोइस और टी.वी.के देशिकाचार विश्व में  योग को लोकप्रिय बनाया है। ११ दिसम्बर सन २०१४ को भारतीय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने संयुक्त राष्ट्र संघ की महासभा में २१ जून को अन्तरराष्ट्रीय योग दिवस मनाने का प्रस्ताव रखा था जिसे 193 देशों में से 175 देशों ने बिना किसी मतदान के स्वीकार कर लिया। यूएन ने योग की महत्ता को स्वीकारते हुए कहा  कि ‘योग मानव स्वास्थ्य व कल्याण की दिशा में एक सम्पूर्ण नजरिया है।’ योग का योगसूत्र , हठयोग , जैन ध्यान , जैन धर्म में योग , अन्तरराष्ट्रीय योग दिवस , अष्टांग योग , घेरण्ड संहिता योगयाज्ञवल्क्य द्वारा योग सिद्धांत का रूप दिया गया है । स्वस्थ तन एवं मन की साधना पद्धति योग है । योगः कर्मशु कौशलम् ।योग  आध्यात्मिक प्रक्रिया है । शरीर, मन और आत्मा को  साथ लाने के लिए योग  है। योग भारत से बौद्ध पन्थ के साथ चीन, जापान, तिब्बत, दक्षिण पूर्व एशिया और श्री लंका में  फैल  है । 11 दिसम्बर 2014 को संयुक्त राष्ट्र महासभा ने प्रत्येक वर्ष 21 जून को विश्व योग दिवस के रूप में मान्यता दी है। परिभाषा ऐसी होनी चाहिए जो अव्याप्ति और अतिव्याप्ति दोषों से मुक्त हो, योग शब्द के वाच्यार्थ का ऐसा लक्षण बतला सके जो प्रत्येक प्रसंग के लिये उपयुक्त हो और योग के सिवाय किसी अन्य वस्तु के लिये उपयुक्त न हो। भगवद्गीता प्रतिष्ठित ग्रन्थ माना जाता है। उसमें योग शब्द का कई बार प्रयोग हुआ है, कभी अकेले और कभी सविशेषण, जैसे बुद्धियोग, सन्यासयोग, कर्मयोग। वेदोत्तर काल में भक्तियोग और हठयोग नाम भी प्रचलित हो गए हैं। पतंजलि योगदर्शन में पाशुपत योग और माहेश्वर योग है।‘योग’ शब्द ‘युज समाधौ’ आत्मनेपदी दिवादिगणीय धातु में ‘घं’ प्रत्यय लगाने से निष्पन्न होता है। गीता में श्रीकृष्ण ने कहा है 'योगः कर्मसु कौशलम्‌' ( कर्मों में कुशलता  योग है।पातञ्जल योग दर्शन के अनुसार - योगश्चित्तवृतिनिरोधः (1/2) अर्थात् चित्त की वृत्तियों का निरोध ही योग है।  सांख्य दर्शन के अनुसार - पुरुषप्रकृत्योर्वियोगेपि योगइत्यमिधीयते। अर्थात् पुरुष एवं प्रकृति के पार्थक्य को स्थापित कर पुरुष का स्व स्वरूप में अवस्थित होना ही योग है। विष्णुपुराण के अनुसार - योगः संयोग इत्युक्तः जीवात्म परमात्मने अर्थात् जीवात्मा तथा परमात्मा का पूर्णतया मिलन ही योग है।  भगवद्गीता के अनुसार - सिद्धासिद्धयो समोभूत्वा समत्वं योग उच्चते (2/48) अर्थात् दुःख-सुख, लाभ-अलाभ, शत्रु-मित्र, शीत और उष्ण आदि द्वन्दों में सर्वत्र समभाव रखना योग है।भगवद्गीता के अनुसार - तस्माद्दयोगाययुज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम् अर्थात् कर्त्तव्य कर्म बन्धक न हो, इसलिए निष्काम भावना से अनुप्रेरित होकर कर्त्तव्य करने का कौशल योग है। आचार्य हरिभद्र के अनुसार - मोक्खेण जोयणाओ सव्वो वि धम्म ववहारो जोगो मोक्ष से जोड़ने वाले सभी व्यवहार योग है। बौद्ध धर्म के अनुसार - कुशल चितैकग्गता योगः अर्थात् कुशल चित्त की एकाग्रता योग है। वैदिक संहिताओं के अंतर्गत तपस्वियों तपस के बारे में ((कल | ब्राह्मण)) प्राचीन काल से वेदों में (९०० से ५०० बी सी ई) उल्लेख  है । योग या समाधि मुद्रा को प्रदर्शित करती है, सिंधु घाटी सभ्यता (सी.3300-1700 बी.सी. इ.) के स्थान पर प्राप्त हुईं है। पुरातत्त्वज्ञ ग्रेगरी पोस्सेह्ल के अनुसार," ये मूर्तियाँ योग के धार्मिक संस्कार" के योग से सम्बन्ध  है। सिंधु घाटी सभ्यता और योग-ध्यान में सम्बन्ध है।
मधुसूदन सरस्वती (जन्म 1490) ने अठारह  योग का वर्णन किया है। हठयोग योग 15वीं सदी के भारत में हठ योग प्रदीपिका के संकलक, योगी स्वत्मरमा द्वारा वर्णित किया गया था।हठयोग पतांजलि के राज योग सत्कर्म पर केन्द्रित है । भौतिक शरीर की शुद्धि ही मन की, प्राण की और विशिष्ट ऊर्जा की शुद्धि लाती है।जैन शास्त्र, जैन तीर्थंकरों को ध्यान मे पद्मासना या कायोत्सर्ग योग मुद्रा में दर्शाया है।पतांजलि योगसूत्र के पांच यामा या बाधाओं और जैन धर्म के पाँच प्रमुख प्रतिज्ञाओं में अलौकिक सादृश्य है, जिससे जैन धर्म का एक मजबूत प्रभाव का संकेत करता है। लेखक विवियन वोर्थिंगटन ने कहा है कि :"योग पूरी तरह से जैन धर्म को अपना ऋण मानता है और विनिमय मे जैन धर्म ने योग के साधनाओं को अपने जीवन का एक हिस्सा बना लिया" । योग के संबंध में  पुज्यपदा (5 वीं शताब्दी सी इ) , इष्टोपदेश , आचार्य हरिभद्र सूरी (8 वीं शताब्दी सी इ) , योगबिंदु , योगद्रिस्तिसमुच्काया , योगसताका ,योगविमिसिका , आचार्य जोंदु (8 वीं शताब्दी सी इ) , योगसारा , आचार्य हेमाकान्द्र (11 वीं सदी सी इ) , योगसस्त्र , आचार्य अमितागति (11 वीं सदी सी इ) , योगसराप्रभ्र्ता में उल्लेख है। सूफी संगीत के विकास में भारतीय योग अभ्यास का प्रभाव रहने के कारण शारीरिक मुद्राओं आसन और श्वास नियंत्रण प्राणायाम को अनुकूलित किया है। 11 वीं शताब्दी के  भारतीय योग पाठ, अमृतकुंड,  का अरबी और फारसी भाषाओं में अनुवाद किया गया था।योग तंत्र के अनुसरण करनेवालों का संबंध साधारण, धार्मिक, सामाजिक और तार्किक वास्तविकता में परिवर्तन ले आते है। तांत्रिक अभ्यास में माया, भ्रम के रूप में अनुभव प्राप्त और मुक्ति प्राप्त होता है।[70]हिन्दू धर्म द्वारा प्रस्तुत किया गया निर्वाण के कई मार्गों में से यह विशेष मार्ग तंत्र को भारतीय धर्मों के प्रथाओं जैसे योग, ध्यान, और सामाजिक संन्यास से जोड़ता है, जो सामाजिक संबंधों और विधियों से अस्थायी या स्थायी वापसी पर आधारित हैं।[70]तांत्रिक प्रथाओं और अध्ययन के दौरान, छात्र को ध्यान तकनीक में, विशेष रूप से चक्र ध्यान, का निर्देश दिया जाता है। जिस तरह यह ध्यान जाना जाता है और तांत्रिक अनुयायियों एवं योगियों के तरीको के साथ तुलना में यह तांत्रिक प्रथाओं एक सीमित रूप में है, लेकिन सूत्रपात के पिछले ध्यान से ज्यादा  कुंडलिनी योग माना जाता है जिसके माध्यम से ध्यान और पूजा के लिए "हृदय" में स्थित चक्र में देवी को स्थापित करते है। विश्व प्रसिद्ध योगगुरुओं में  अयंगार योग के संस्थापक बी के एस अयंगर स्वामी शिवानंद और योगगुरु रामदेव है।
अयंगर को विश्व के अग्रणी योग गुरुओं में से एक माना जाता है और उन्होंने योग के दर्शन पर कई किताबें भी लिखी थीं, जिनमें 'लाइट ऑन योगा', 'लाइट ऑन प्राणायाम' और 'लाइट ऑन द योग सूत्राज ऑफ पतंजलि' शामिल हैं। [73] अयंगर का जन्‍म 14 दिसम्‍बर 1918 को बेल्‍लूर के एक गरीब परिवार में हुआ था।अयंगर बचपन में काफी बीमार रहा करते थे। ठीक नहीं होने पर उन्‍हें योग करने की सलाह दी गयी और तभी से वह योग करने लगे। अयंगर को 'अयंगर योग' का जन्‍मदाता कहा जाता है। उन्होंने इस योग को देश-दुनिया में फैलाया। सांस की तकलीफ के चलते 20 अगस्त 2014 को उनका निधन हो गया।भारतीय योग-गुरु रामदेव ने योगासन व प्राणायामयोग के क्षेत्र में योगदान दिया है। रामदेव स्वयं जगह-जगह जाकर योग शिविरों का आयोजन करते हैं ।21 जून 2015 को प्रथम अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस पर  192 देशों और 47 मुस्लिम देशों में योग दिवस का आयोजन किया गया। दिल्ली में एक साथ ३५९८५ लोगों ने योगाभ्यास किया।इसमें 84 देशों के प्रतिनिधि मौजूद थे। योग दिवस पर भारत ने विश्व रिकॉर्ड बनाकर 'गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड्स' में अपना नाम दर्ज करा लिया है।योग का उद्देश्य योग के अभ्यास के कई लाभों के बारे में दुनिया भर में जागरूकता बढ़ाना है।लोगों के स्वास्थ्य पर योग के महत्व और प्रभावों के बारे में जागरूकता फैलाने के लिए हर साल 21 जून को योग का अभ्यास किया जाता है। शब्द ‘योग‘ संस्कृत से लिया गया है जिसका अर्थ है जुड़ना या एकजुट होना। योग से न केवल व्यक्ति का तनाव दूर होता है बल्कि मन और मस्तिष्क को भी शांति  दिमाग, मस्‍तिष्‍क को ताकत पहुंचा कर  आत्‍मा को  शुद्ध करता है।योग का स्वास्थ्य में सुधार ,  मोक्ष प्राप्त करने का माध्यम  है। जैन धर्म, अद्वैत वेदांत के मोनिस्ट संप्रदाय और शैव सम्रदाय में योग का लक्ष्य मोक्ष का रूप लेकर  सभी सांसारिक कष्ट एवं जन्म और मृत्यु के चक्र से मुक्ति प्राप्त करना है । महाभारत में, योग का लक्ष्य ब्रह्मा के दुनिया में प्रवेश के रूप में वर्णित किया गया है ।मीर्चा एलीयाडे ने कहा है कि शारीरिक व्यायाम और आध्यात्मिक योग  तकनीक  है। सर्वपल्ली राधाकृष्णन लिखते हैं कि समाधि में वितर्क, विचार, आनंद और अस्मिता है । ग्रंथो के अनुसार योग करने वालों में पुरुष को योगी और महिला को योगनी कहा जाता है । योग करने वाले मानसिक , शारीरिक , आत्मिक , आध्यात्मिक ज्ञान और समृद्धि युक्त रहते है । भारतीय ऋषि , महर्षि योग और पश्चिमी सभ्यता के लोग मेडिटेशन करते है । योग शारीरिक , आध्यात्मिक , मानसिक चेतनाजागृत करने का द्योतक है।योग की उत्पत्ति भगवान शिव द्वारा की गई है ।योग को ऋषियों, महर्षियों और शैव , वैष्णव , ब्रह्म , बौद्ध , जैन सम्प्रदाय के अनुयायियों द्वारा अपनायी गईं है ।विभिन्न ग्रंथो में मानव संस्कृति और सभ्यता का प्रारंभिक शिक्षा योग का उल्लेख मिलता है ।26 हजार वर्ष पूर्व तथा 5000 वर्ष पूर्व ऋषि पतञ्जलि द्वारा योग की विभिन्न रूप दिया गया था ।1920 ई. में सिंधु , सरस्वती सभ्यता 3000 - 1700 ई. पू. की भूगर्भ में समाहित का उत्खनन के बाद योग की खोज हुई है । ऋषि पतंजलि का जन्म गोंदरमउ में 200 ई.पू. में हुआ था । योग शास्त्र के अनुसार गोरखपुर के गोरखनाथ , गोंदर मउ के पतंजलि , , 1700 ई. पू. से 1900 ई.पू. तक महर्षि रमन और 500 ई. पू. से 800 ई. तक योग का विकास हुआ था । योग का उल्लेख ऋग्वेद में है । योग जीवात्मा और परमात्मा का एकीकरण तथा शारीरिक , मानसिक , बौद्धिक और आध्यात्मिक विकास का केंद्र विंदु है । योग का पिता भगवान शिव ,आदिगुरु , आदि योगी और आदि योग गुरु है ।

        

                
                

गुरुवार, जून 17, 2021

फादर्स डे : पितृदेवो भाव:...

    


             

                    
        विश्व एवं भारतीय संस्कृति परंपरा में फादर्स डे और पितृदिवस सदियों से मनाई जाती है । सनातन धर्म में पिता को पितृदेवो भाव: कहा गया  है । विश्व के 111 देशों द्वारा प्रत्येक वर्ष का जून माह के तीसरे रविवार को फ़ादर्स डे के अवसर पर पिता को सम्मान और उपहार दे कर सम्मानित किया जाता है । 20 जून 2021 को विश्व पितृदिवस व फादर्स डे मनाया जाएगा और लोग अपने पिता को सम्मान तथा उपहार देंगें ।शास्त्रों में उल्लेख है कि पिता रूपी वरगद की छया में अपने पुत्रों , पुत्रियों को  रख कर चतुर्दिक विकास की हमेशा कामना करता है । फादर्स डे पिताओं के सम्मान में व्यापक रूप से मनाया जाने वाला पर्व पितृत्व (फादरहुड), पितृत्व-बंधन तथा समाज में पिताओं के प्रभाव को समारोह पूर्वक मनाया जाता है।  देशों में  जून के तीसरे रविवार, तथा बाकी देशों में अन्य दिन मनाया जाता है।  फादर्स डे जोसेफ्स लौरेंटिस डायकमन्स , पटर्नल एडवाइस , जपग , पितृदिवस , पिता दिवस के रूप में विश्व का 111 देश द्वारा मनाया जाता है । संयुक्त राज्य अमेरिका में डोड ने छुट्टी के लिये अपने मूल प्रार्थना-पत्र में फादर्स डे 1913 से प्रचलित कर  छुट्टी को स्थापित करने के प्रथम प्रयास के रूप में अमेरिकी कांग्रेस में पहली बार बिल पेश किया गया था । 2008 ई . को अमेरिकी काँग्रेस द्वारा फादर्स डे के जनक का सम्मान किया गया।विभिन्न देश में भिन्न भिन्न तिथि के अनुसार फादर्स डे मनाई जाती है । ग्रेगोरियन कैलेंडर के आधार पर  6 जनवरी को  सर्बिया में "पेटरिस" , 23 फ़रवरी को रूस में  फादर लैंड डे ,  19 मार्च को  एन्डोर्रा  में डिया डेल पेर ,   बोलीविया में  होन्डुरस ,   इटली में फेस्टा डेल पापा ,   लिकटेंस्टीन ,  पुर्तगाल में डिया डू पाई ,   स्पेन में  डिया डेल पेद्रे, डिया डेल पेरे, डिया डू पाई , एंटवर्प (बेल्जियम) में मई का दूसरा रविवार ,   रोमानिया में  जियू टाटालुइ , 8 मई को दक्षिण कोरिया में पैरेंट्स डे , मई का तीसरा रविवार  को टोंगा में असेंशन दिवस ,  नेपाल , भारत मे पितृ दिवास मनाते  है । रूस में आधिकारिक तौर पर इस छुट्टी के दिन रूस की सशस्त्र सेनाओं में कार्यरत अथवा कार्य कर चुके स्त्री-पुरुषों का सम्मान किया जाता था। लेकिन पारंपरिक तौर से सभी पिताओं तथा वयस्क पुत्रों द्वारा राष्ट्रीय स्तर पर बधाइयाँ स्वीकार की जाती हैं । चीन में 1949 से पूर्व के गणतंत्र के समय में 8 अगस्त 1945 को पहला 'फादर्स डे' शंघाई में आयोजित किया गया था। कैथोलिक देशों में  सेंट जोसेफ की दावत वाले दिन मनाया जाता है। अर्जेंटीना में जून के तीसरे रविवार को 'फादर्स डे' मनाया जाता है, लेकिन इसे बदल कर 24 अगस्त करने के अनेक प्रयास होते रहे हैं जिस दिन राष्ट्रपिता जोस डे सैन मार्टिन पिता बने थे। 1953 में मेंडोज़ा प्रांत के स्कूलों के महानिदेशालय में यह प्रस्ताव रखा गया कि 24 अगस्त को सभी शैक्षणिक प्रतिष्ठानों में 'फादर्स डे' मनाया जाये. इस दिवस को पहली बार 1958 में जून के तीसरे रविवार को मनाया गया लेकिन कई समूहों के दबाव के कारण इसे स्कूल कैलेंडर में शामिल नहीं किया गया।मेंडोज़ा प्रांत के स्कूलों ने 24 अगस्त को 'फादर्स डे' मनाना जारी रखा और 1982 में प्रांतीय गवर्नर ने प्रांत में 'फादर्स डे' मनाने का कानून जारी किया।2004 में, तिथि को एकीकृत परियोजना के रूप में 24 अगस्त करने के लिये अनेक प्रस्ताव 'अर्जेंटाइन कैमरा डे डिपुटाडोस' के सामने रखे गये। मंजूर होने पर परियोजना को अर्जेंटीना की सीनेट के पास अंतिम समीक्षा तथा मंजूरी के लिये भेजा गया। सीनेट ने नई तारीख को बदल कर अगस्त का तीसरा रविवार कर के मंजूरी के लिये प्रस्तुत किया। हालांकि, इस परियोजना पर सीनेट के सत्र में विचार ही नहीं हुआ जिसके कारण यह परियोजना असफल हो गई है । ऑस्ट्रेलिया में, 'फादर्स डे' सितम्बर के पहले रविवार को मनाया जाता है और इस दिन सार्वजनिक अवकाश नहीं होता
कोस्टारिका में यूनिदाद सोशल क्रिस्टिआना पार्टी ने इस उत्सव का दिन जून के तीसरे रविवार को बदल कर सैंट जोसफ के दिन, 19 मार्च करने के लिये एक बिल प्रस्तुत किया। ऐसा सेंट जोसेफ (जिन्होंने कोस्टारिका की राजधानी को सैन जोस नाम दिया था) को श्रद्धांजलि देने के लिए किया गया ताकि परिवारों के मुखिया सेंट जोसेफ की दावत के साथ-साथ 'फादर्स डे' भी मनाया जा सके । आधिकारिक तिथि अभी भी जून का तीसरा रविवार है। डेनमार्क में, 'फादर्स डे' 5 जून को मनाया जाता है। उस दिन संविधान दिवस भी है जिस पर सार्वजनिक अवकाश रहता है। जर्मनी में, 'फादर्स डे' (वेतरताग) दुनिया के भागों से अलग ढंग से मनाया जाता है।सनातन धर्म परंपरा वाले देशों में  'फादर्स डे' को पित्तरों की मौजूदा हिंदू पूजा के रूप में प्रत्येक वर्ष आश्विन कृष्ण प्रतिपदा से अमावस्या तक पूर्वजो की याद करते है तथा अमावस्या को पितृदिवस मनाते हैं । हिंदू बाहुल्य वाले भारत तथा नेपाल में प्रचलित है। भारत में माता पिता को याद करने के लिए १५ दिन हिंदी महीना आश्विन (कुँवार) में हर वर्ष आते हैं जिन्हे पितृपक्ष या देशी बोली में करय दिन भी कहते हैं - अशिवन माह की प्रथम तिथि प्रतिपदा (पड़वा ) से प्रारम्भ होकर अमवस्या (१५ दिन) तक चलते हैं- इन दिनों में पूर्वजों को याद करने के साथ साथ वैदिक परम्पराओं अनुसार जल देने का विधान है जिससे पूर्वज संतुष्ट होते हैं और उनकी आशीष अपने वंशजों को मिलती है। जापान में 'फादर्स डे' जून के तीसरे रविवार को मनाया जाता है और एक सार्वजनिक अवकाश नहीं है।सेशेल्स में 'फादर्स डे' 16 जून को मनाया जाता है और एक सार्वजनिक अवकाश नहीं है ।नेपाल में हिंदू लोग अगस्त के अंत में या सितम्बर के प्रारम्भ में गोकर्ण ऑन्सी ('फादर्स डे') पर पित्तरों की पूजा करते हैं।इसे 'बुबाको मुख हेरने दिन ' (पिता के चेहरे की ओर देखना) के रूप में जाना जाता है। अमावस्या के दिन लोग काठमांडू के उपनगर गोकर्ण स्थित गोकर्णेश्वर महादेव के शिव मंदिर जाते हैं।
नेपाल में पहले से मौजूद हिंदू उत्सव को ध्यान में रखते हुए पश्चिम प्रेरित 'फादर्स डे' की तारीख 23 अगस्त तय कर दी गई है।न्यूजीलैंड में 'फादर्स डे' सितम्बर के पहले रविवार को मनाया जाता है और एक सार्वजनिक अवकाश नहीं है
फिलीपींस में 'फादर्स डे' को सरकारी अवकाश नहीं होता है, लेकिन इसे व्यापक रूप से जून के तीसरे रविवार को मनाया जाता है। 1960 तथा 1970 के दशक में पैदा हुए अधिकांश फिलीपीनवासी 'फादर्स डे' को नहीं मनाते हैं, लेकिन अमेरिकी औपनिवेशिक नीतियों के प्रभाव में होने के कारण यह संभव है कि फिलीपीनवासी इस परंपरा को तथा अन्य अमेरिकी छुट्टियाँ को मनाएं. इंटरनेट का आगमन भी फिलीपीनवासियों को यह छुट्टी मनाने के लिये बढ़ावा देने में मदद करेगा । रोमन कैथोलिक परंपरा में पितृ उत्सव 19 मार्च को सेंट जोसेफ दिवस, जिसे आमतौर पर 'सेंट जोसेफ की दावत' कहा जाता है, पर मनाया जाता है। हालांकि कुछ देशों में 'फादर्स डे' एक धर्म निरपेक्ष उत्सव बन गया है।[36] कैथोलिक लोगों के लिए यह आम है कि वे 'फादर्स डे' पर अपने आध्यात्मिक पिता, पादरी का सम्मान करें । 2010 की शुरुआत के साथ रोमानिया में 'फादर्स डे' मई के दूसरे रविवार को मनाया जाता है और इसे आधिकारिक तौर पर राज्य द्वारा मान्यता प्राप्त है। यूरोपीय संघ के 27 राज्यों में से यही एक राज्य था जहाँ 'फादर्स डे' को आधिकारिक तौर पर नहीं मनाया जाता था। पिता के साथ भेदभाव के खिलाफ लड़ने वाले गठबंधन (टाटा) के प्रयासों के परिणामस्वरूप कानून 319 /2009 पारित हुआ।सिंगापुर में 'फादर्स डे' जून के तीसरे रविवार को मनाया जाता है लेकिन एक सार्वजनिक अवकाश नहीं है। ताइवान - ताइवान में 'फादर्स डे' एक सरकारी अवकाश नहीं है, लेकिन व्यापक रूप से साल के आठवें महीने के आठवें दिन, 8 अगस्त को मनाया जाता है। मंडारिन चीनी में संख्या 8 का उच्चारण बा (bā) है। यह उच्चारण अक्षर "爸" "bà" से मिलता है जिसका अर्थ है पापा या पिता. इसलिए ताइवानी लोग 8 अगस्त को आमतौर पर "बाबा दिवस" कहते हैं।थाईलैंड - थाईलैंड में 'फादर्स डे' राजा के जन्मदिन के रूप में मनाया जाता है। वर्तमान राजा भूमिबोल अदुल्यादेज (राम IX) का जन्मदिन 5 दिसम्बर को है। थाई लोग अपने पिता या दादा को भंग फूल (दोक पुत ता रुक सा), जो एक मर्दाना फूल माना जाता है, भेंट कर के उत्सव मनाते हैं। थाई लोग इस दिन राजा के प्रति सम्मान दिखाने के लिए पीले रंग के वस्त्र पहनते हैं, क्योंकि पीला रंग सोमवार का रंग है, जिस दिन राजा भूमिबोल अदुल्यादेज का जन्म हुआ था। प्रधानमंत्री प्रेम तिनसूलानोन्डा द्वारा थाईलैंड के शाही परिवार को बढ़ावा देने के एक अभियान से 1980 के दशक में पहली बार इसे देश भर में लोकप्रियता प्राप्त हुई. 'मदर्स डे' रानी सिरीकित के जन्म दिन,[38] 12 अगस्त को मनाया जाता है।युनाइटेड किंगडम - ब्रिटेन में 'फादर्स डे' जून के तीसरे रविवार को मनाया जाता है।संयुक्त राज्य अमेरिका - अमेरिका में, 'फादर्स डे' जून के तीसरे रविवार को मनाया जाता है। पहली बार यह उत्सव 19 जून 1910 को स्पोकाने, वाशिंगटन में मनाया गया। फेयरमोंट तथा क्रेस्टन में पिताओं का सम्मान करने के लिये अन्य उत्सव आयोजित किये जाते रहे हैं लेकिन इस आधुनिक छुट्टी का जन्म उनसे नहीं हुआ है।[कृपया उद्धरण जोड़ें] आधुनिक 'फादर्स डे' की शुरुआत क्रेस्टन, वाशिंगटन में जन्मी सोनोरा स्मार्ट डोड ने की थी तथा उन्हीं की प्रेरणा से यह स्थापित हुआ। उनके पिता, सिविल युद्ध के सेवानिवृत्त विलियम जैक्सन स्मार्ट ने अकेले स्पोकाने, वाशिंगटन में अपने 6 बच्चों की परवरिश की थी। वह एन्ना जार्विस के 'मदर्स डे' की स्थापना के प्रयासों से प्रेरित हुई थी। हालांकि उन्होंने शुरू में अपने पिता के जन्म दिन 5 जून का सुझाव दिया था, किंतु वह आयोजकों को व्यवस्था करने के लिये पर्याप्त समय नहीं दे सकी इसलिये उत्सव को जून के तीसरे रविवार तक खिसका दिया गया। पहली बार, 'फादर्स डे' 19 जून 1910 को स्पोकाने, वाशिंगटन के स्पोकाने वायएमसीए में मनाया गया। 1916 में राष्ट्रपति वूड्रो विल्सन का उनके परिवार द्वारा व्यक्तिगत रूप से उत्सवपूर्वक सम्मान किया गया था। 1924 में राष्ट्रपति कैल्विन कूलिज ने इसके लिये राष्ट्रीय अवकाश की सिफारिश की. 1966 में, राष्ट्रपति लिंडन जॉनसन ने जून के तीसरे रविवार को मनाये जाने वाले 'फादर्स डे' को एक छुट्टी का दिन बना दिया था ।फादर्स डे' का  5 जुलाई 1908 को फेयरमोंट, पश्चिम वर्जीनिया में विलियम्स मेमोरियल मेथोडिस्ट एपिस्कोपल चर्च दक्षिण सेन्ट्रल यूनाइटेड मेथोडिस्ट चर्च के रूप में जाना जाताहै ।
भारतीय संस्कृति और सभ्यता का प्रतीक दिवस पिता के वट वृक्ष की तरह छाँव में रहने वाले को क़भी कठिनाई नहीं होता है।फादर्स डे पिताओं के सम्मान के लिए  सडेन में एक व्यापक रूप से मनाया जाने वाला पर्व हैं जिसमे पितृत्व (फादरहुड), पितृत्व-बंधन तथा समाज में पिताओं के प्रभाव को समारोह पूर्वक मनाया जाता है। अनेक देशों में इसे जून के तीसरे रविवार, तथा बाकी देशों में अन्य दिन मनाया जाता है। फादर्स डे की शुरुआत बीसवीं सदी के प्रारंभ में पिताधर्म तथा पुरुषों द्वारा परवरिश का सम्मान करने के लिये मातृ-दिवस के पूरक उत्सव के रूप में हुई. यह हमारे पूर्वजों की स्मृति और उनके सम्मान में भी मनाया जाता है। फादर्स डे को विश्व में विभिन तारीखों पर मनाते है - जिसमें उपहार देना, पिता के लिये विशेष भोज एवं पारिवारिक गतिविधियाँ शामिल हैं। आम धारणा के विपरीत, वास्तव में फादर्स डे सबसे पहले पश्चिम वर्जीनिया के फेयरमोंट में 5 जुलाई 1908 को मनाया गया था। 6 दिसम्बर 1907 को मोनोंगाह, पश्चिम वर्जीनिया में एक खान दुर्घटना में मारे गए 210 पिताओं के सम्मान में  फादर्स डे का आयोजन श्रीमती ग्रेस गोल्डन क्लेटन ने प्रथम फादर्स डे  सेन्ट्रल यूनाइटेड मेथोडिस्ट चर्च  फेयरमोंट में की थी ।  फादर्स डे स्पोकाने, वाशिंगटन के सोनोरा स्मार्ट डोड के प्रयासों से दो वर्ष बाद 19 जून 1910 को आयोजित किया गया था।  1909 में स्पोकाने के सेंट्रल मेथोडिस्ट एपिस्कोपल चर्च के बिशप द्वारा हाल ही में मान्यता प्राप्त मदर्स डे पर दिए गए एक धर्मउपदेश को सुनने के बाद, डोड को लगा कि पिताधर्म को भी अवश्य मान्यता मिलनी चाहिए.वे अपने पिता विलियम स्मार्ट जैसे अन्य पिताओं के सम्मान में उत्सव आयोजित करना चाहती थीं, जो एक सेवानिवृत्त सैनिक थे तथा जिन्होंने छठे बच्चे के जन्म के समय, जब सोनोरा 16 वर्ष की थी, अपनी पत्नी की मृत्यु के बाद अपने परिवार की अकेले परवरिश की थी l ओल्ड सेन्टेनरी प्रेस्बिटेरियन चर्च (अब नौक्स प्रेस्बिटेरियन चर्च) के पादरी डॉ कोनराड ब्लुह्म की सहायता से सोनोरा इस विचार को स्पोकाने वायएमसीए के पास ले गयी। स्पोकाने वायएमसीए व मिनिस्टीरियल अलायन्स ने डोड के इस विचार का समर्थन किया और 1910 में प्रथम फादर्स डे मना कर इसका प्रचार किया। सोनोरा ने सुझाव दिया कि उनके पिता का जन्मदिन, 5 जून को सभी पिताओं के सम्मान के लिये तय कर दिया जाये. चूंकि पादरी इसकी तैयारी के लिए कुछ और वक़्त चाहते थे ।  19 जून 1910 को वायएमसीए के युवा सदस्य गुलाब का फूल लगा कर चर्च गये थे । 
फादर्स डे छुट्टी को राष्ट्रीय मान्यता देने के लिये सन् 1913 में एक बिल कांग्रेस में पेश किया गया।सन 1916 में, राष्ट्रपति वुडरो विल्सन एक फादर्स डे समारोह में भाषण देने स्पोकाने गये तो वे इसे आधिकारिक बनाना चाहते थे किंतु इसके व्यावसायीकरण के डर से काँग्रेस ने इसका विरोध किया l अमेरिकी राष्ट्रपति कैल्विन कूलिज ने 1924 में सिफारिश की कि यह दिवस पूरे राष्ट्र द्वारा मनाया जाये किंतु इसकी राष्ट्रीय घोषणा को रोक दिया. इस छुट्टी को औपचारिक मान्यता दिलाने के दो प्रयासों को काँग्रेस ठुकरा चुकी थीl 1957 में, मेन सीनेटर मार्ग्रेट चेज स्मिथ ने काँग्रेस पर माता-पिता में से पिता को अकेला छोड़ कर, सिर्फ माताओं का सम्मान करके 40 साल तक पिता की अनदेखी करने का आरोप लगाते हुए एक प्रस्ताव लिखा. 1966 में, राष्ट्रपति लिंडन जॉनसन ने प्रथम राष्ट्रपतीय घोषणा जारी कर जून महीने के तीसरे रविवार को पिताओं के सम्मान में, फादर्स डे के रूप में तय किया। छह साल बाद 1972 में वह दिन आया जब राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन ने इस कानून पर हस्ताक्षर किये और यह एक स्थायी राष्ट्रीय छुट्टी बना । 2010 में, 'फादर्स डे' की स्मृति में स्पोकाने में 'फादर्स डे' शताब्दी समारोह  एक महीने तक चला.फादर्स डे के अलावा, कई देशों में 19 नवम्बर को अंतर्राष्ट्रीय पुरुष दिवस मनाया जाता है, ऐसे पुरुषों और लड़कों के सम्मान में जो पिता नहीं हैं1930 के दशक में एसोसिएटेड मेन्स वियर रिटेलर्स ने न्यूयार्क शहर में राष्ट्रीय फादर्स डे समिति बनाई, जिसका 1938 में नाम बदल कर फादर्स डे के प्रोत्साहन के लिये राष्ट्रीय परिषद रख दिया गया तथा कई अन्य व्यापारिक समूह गठित किये गये। इस परिषद का उद्देश्य था लोगों के दिमाग में इस छुट्टी को वैधता दिलाना तथा छुट्टी के दिन बिक्री बढ़ाने के लिये एक व्यावसायिक कार्यक्रम की तरह इस छुट्टी को बढ़ावा देना.इस परिषद को हमेशा डोड का समर्थन मिला, जिनको छुट्टी के व्यावसायीकरण से कोई समस्या नहीं थी तथा उन्होंने उपहारों की राशि बढ़ाने के लिये अनेक प्रेत्साहनों का समर्थन किया। इस पहलू से डोड को एन्ना जारविस के उलट माना जा सकता है जिन्होंने मदर्स डे के सभी तरह के व्यवसायीकरण का विरोध किया था।व्यापारियों ने छुट्टी पर नकल तथा व्यंग्य करने की प्रवृत्ति को बढ़ावा दे कर पिताओं के लिये उपहार संबंधी विज्ञापनों पर ही छुट्टी का मजाक उड़ाया.व्यावसायिक दिखावे को समझते हुए  लोग उपहार खरीदने लिये मजबूर हुए तथा उस दिवस पर उपहार देने का रिवाज उत्तरोत्तर अधिक स्वीकार्य होता गया। 1937 में फादर्स डे परिषद ने गणना की कि इस दिन छह में से केवल एक पिता को ही उपहार मिलता था। हालांकि, 1980 का दशक आते-आते परिषद ने घोषणा की कि उन्होंने अपने लक्ष्य प्राप्त कर लिये हैं- एक दिन का यह कार्यक्रम, एक "दूसरे क्रिसमस" के रूप में तीन सप्ताह के व्यावसायिक कार्यक्रम में बदल चुका था। इसके कार्यकारी निदेशक ने 1949 में कहा था कि परिषद एवं उसे समर्थन देने वाले समूहों के समन्वित प्रयासों के बिना यह छुट्टी गायब हो गई होती.

        




मंगलवार, जून 15, 2021

सृष्टिकर्ता भगवान ब्रह्मा...

                           

                              


                                वेदों, पुरणों , उपनिषदों और दर्शनशास्त्रों में भगवान  ब्रह्मा सृष्टि के सृजनकर्ता , विष्णु पालनकर्ता और महेश विलयकर्ता हैं।  पुराणों में  ब्रह्मा जी  को स्वयंभू  और  वेदों का निर्माता कहा जाता है। भगवती सरस्वती ब्रह्मा जी की पत्नी सावित्री , गायत्री , श्रद्धा ,  मेघा और सरस्वती तथा   पुत्रों में  सनक , सनंदन , सनत , कुमार , पुलस्ति ,चित्रगुप्त ,  दक्ष और , भृगु , नारद है ।  ब्रह्मा जी  रजोगुण तथा सृष्टि के रचयिता है ।ब्रह्मा जी का  मंत्र  -ॐ ब्रह्मणे नमः ।। , अस्त्र - देवेया धनुष , जीवनसाथी - सरस्वती , संतान , सनकादि ऋषि,नारद मुनि और दक्ष प्रजापति तथा  सवारी - हंस   है ।भारत का राजस्थान के अजमेर जिले में पुष्कर स्थित पुष्कर झील के किनारे ब्रह्मा मंदिर , बाड़मेर जिले का असोत्रा का ब्रह्मा मंदिर , कुंबाकोणम  में ब्रह्म मंदिर ,कुल्लुघाटी स्थित खोखन में ब्रह्मा मंदिर , आंध्रप्रदेश के गुंटूर जिए के चेबरेलु में चतुर्मुख ब्रह्मा मंदिर ,उत्तरप्रदेश के पुर ,बिहार का गया जिले में गया स्थित ब्रह्मयोनि पर्वत श्रृंखला पर ब्रह्मा मंदिर ,झारखंड के माँगसो में ब्रह्मा मंदिर और थाईलैण्ड ,  बैंकॉक का इरावन ब्रह्मा मंदिर तथा कर्नाटक के सोमनाथपुरा में १२ वीं शताब्दी के चेनाकेस्वा मंदिर में ब्रह्मा की मूर्ति ब्रह्मा मंदिर में स्थापित है । भारतीय दर्शनशास्त्रों में ब्रह्मा जी  निर्गुण, निराकार और सर्वव्यापी  चेतन शक्ति ,  परब्रह्म ,  परम् तत्व और  ब्राह्मण हैं।ब्रह्मा के पुत्र सनकादिक , ऋषिसनक , सनन्दन , पुलस्ति , नारद मुनि , दक्ष , श्री चित्रगुप्त है ।विष्णु और शिव के साथ  मैत्रायणी उपनिषद् के पांचवे पाठ ,  कुत्सायना स्तोत्र छंद 5- 1, 2 ,  सर्वेश्वरवादी कुत्सायना स्तोत्र के अनुसार आत्मा ब्रह्म और परम सत्य  प्राणियों में मौजूद है।   ब्रह्म की आत्मा में ब्रह्मा , विष्णु , रूद्र (शिव) , अग्नि, वरुण, वायु, इंद्र , ब्रह्मांड समाहित है । मैत्री उपनिषद के अनुसार ब्रह्माण्ड अंधकार (तमस) से उभर कर प्रथम आवेग (रजस) के रूप में उभरने के  बाद  पवित्रता और अच्छाई (सत्त्व) में  परिवर्तन हुआ है । मैत्री उपनिषद ५.२[20][22] भागवत पुराण में उल्लेख है कि ब्रह्मा  "कारणों के सागर" से उभर कर  क्षण ,  समय और ब्रह्माण्ड का प्रादुर्भाव है ।  भागवत पुराण के अनुसार ब्रह्मा जी ने प्रकृति और पुरुष: को जोड़ कर  प्राणियों की विविधता बनाई तथा माया के सृजन  करने के लिए कियाऔर  माया से  अच्छाई और बुराई, पदार्थ और आध्यात्म, आरंभ और अंत का सृजन किया है । ब्रह्मा का मानव समय की ब्रह्म समय के साथ तुलना महाकल्प , ब्रह्मा के एक दिन और एक रात के बराबर है। स्कन्द पुराण में पार्वती को "ब्रह्माण्ड की जननी" कहा है। ब्रह्मा, देवताओं और तीनों लोकों को बनाने का श्रेय  पार्वती को देता है। पार्वती  पार्वती ने सत्त्व, रजस और तपस को प्रकृति में जोड़ कर ब्रह्माण्ड की रचना की। पौराणिक और तांत्रिक साहित्य में  ब्रह्मा के रजस गुण वाले देव के वैदिक विचार में ब्रह्मा जी की  पत्नी सरस्वती में संतुलन, सामंजस्य, अच्‍छाई, पवित्रता, समग्रता, रचनात्मकता, सकारात्मकता, शांतिपूर्णता, नेकता गुण है। ब्रह्मा के रजस , उत्साह, सक्रियता,  कर्मप्रधानता, व्यक्तिवाद, प्रेरित, गतिशीलता गुण को अनुपूरण करती हैं ।ब्रह्मा जी के चार मुख चारों दिशाओं में द्रष्टा और वेदों का निर्माता  है । ब्रह्मा के छः पुत्र -सनकादिक ऋषियों में,सनक,सनन्दन,पुलस्ति,नारद  और दक्ष थे  । ब्रह्मा जी के 108 नामों में  1. ॐ ब्रह्मणे नमः , 2 . गायत्रीपतये , 3 . सावित्रीपतये , 4 . सरस्वतिपतये ।5 . प्रजापतये , 6 . हिरण्यगर्भाय , 7 . कमण्डलुधराय ,  8 . रक्तवर्णाय , 9 . ऊर्ध्वलोकपालाय , 10 . वरदाय 11 . वनमालिने , 12 . सुरश्रेष्ठाय , 13 . पितमहाय , 14 . वेदगर्भाय 15 .चतुर्मुखाय , 16 . सृष्टिकर्त्रे , 17 . बृहस्पतये , 18 . बालरूपिणे , 19 . सुरप्रियाय , 20 .चक्रदेवाय नमः , 21 .  भुवनाधिपाय नमः , 22 . पुण्डरीकाक्षाय , 23 . पीताक्षाय ।24 . विजयाय , 25 .पुरुषोत्तमाय , 26 . पद्महस्ताय , 27 .  तमोनुदे , 28 .जनानन्दाय , 29 .जनप्रियाय , 30 .ब्रह्मणे , 31 . मुनये , 32श्रीनिवासाय 33 . शुभङ्कराय , 34 . देवकर्त्रे , 35 .स्रष्ट्रे , 36. विष्णवे , 37. भार्गवाय , 38. गोनर्दाय ।39* पितामहाय , 40 .महादेवाय नमः , 41.  राघवाय नमः , 42 . विरिञ्चये , 43 .वाराहाय , 44 . शङ्कराय , 45 . सृकाहस्ताय , 46. पद्मनेत्राय , 47. कुशहस्ताय , 48 .गोविन्दाय , 49 . सुरेन्द्राय , 50 .पद्मतनवे , 51. मध्वक्षाय 52. कनकप्रभाय , 53. अन्नदात्रे , 54 . शम्भवे , 55 . पौलस्त्याय , 56 . हंसवाहनाय , 57. वसिष्ठाय , 58 .नारदाय ।59*श्रुतिदात्रे ।60 .यजुषां पतये नमः , 61मधुप्रियाय नमः 62 . नारायणाय , 63 .द्विजप्रियाय ।64 .ब्रह्मगर्भाय , 65. सुतप्रियाय ।66*महारूपाय , 67.सुरूपाय 68 .विश्वकर्मणे 69 .जनाध्यक्षाय , 70. देवाध्यक्षाय 71 .गङ्गाधर , 72. जलदाय 73 .त्रिपुरारये 74. त्रिलोचनाय , 75 .वधनाशनाय 76. शौरये ,77. चक्रधारकाय ।78. विरूपाक्षाय 79 .गौतमाय 80 .माल्यवते नमः , 81. द्विजेन्द्राय नमः 82. दिवानाथाय , 83 .पुरन्दराय 84 .हंसबाहवे 85. गरुडप्रियाय , 86 , महायक्षाय , 87 .सुयज्ञाय , 88. शुक्लवर्णाय ,89 . पद्मबोधकाय ,  90 . लिङ्गिने  , 91 . उमापतये ।92 विनायकाय , 93 .धनाधिपाय , 94 . वासुकये , 95 . युगाध्यक्षाय , 96 . स्त्रीराज्याय 97 . तक्षकाय ,  99. पापहर्त्रे , 100 . सुदर्शनाय नमः , 101 महावीराय ।102 . दुर्गनाशनाय , 103 , पद्मगृहाय , 104 . मृगलाञ्छनाय , 105 . वेदरूपिणे ।106 . अक्षमालाधराय ,  ।107 . ब्राह्मणप्रियाय , 108 . विधये नमः है ।
 पुष्कर में ब्रह्मा जी की पत्नी सावित्री रूठने के कारण माता सावित्री ने ब्रह्मा के मंदिर के समीप पर्वत श्रृंखला पर  उपासना स्थल का निर्माण की  है। माता सावित्री सौभाग्य की देवी है । ब्रह्मा ने सृष्टि की रचना के लिए राजस्थान के पुष्कर में यज्ञ का आयोजन किया था। यज्ञ में ब्रह्मा जी को पत्नी सावित्री के संग बैठना आवश्यक था, परंतु  उनकी पत्नी सावित्री को पहुंचने में देरी हो रही थी। पूजा का शुभ मुहूर्त बीता जा रहा था। सभी देवी-देवता यज्ञ स्थल पर आ चुके परंतु माता  सावित्री समय से नहीं आ पाईं थी ।  शुभ मुहूर्त निकलने लगा, तब मजबूरन ब्रह्माजी ने नंदिनी गाय के मुख से गायत्री को प्रकट किया और उनसे विवाह कर अपना यज्ञ संपन्न कर लिया। यज्ञ की स्थल पर सावित्री पहुंचीं तब  ब्रह्मा जी के बगल में अपनी जगह किसी अन्य स्त्री को यज्ञ में बैठे देख अत्यंत क्रोधित होती हुई माता  सावित्री ने   ब्रह्मा जी को शाप दिया कि आप जिस संसार की रचना करने के लिए मुझे भुला बैठने के कारण संसार आपको नहीं पूजेगा। माता सावित्री का क्रोध ने भगवान विष्णु को पत्नी से विरह का शाप  दी वहीं देवर्षि नारद  को आजीवन कुंवारा रहने तथा सावित्री के कोप से बच अग्नि देव  नहीं पाए है । शाप के बाद देवी-देवताओं ने सावित्री जी को अपना शाप वापस लेने का आग्रह किया। लिया हुआ शाप वापस नहीं लिया जा सकता था, गुस्सा शांत होने पर उन्होंने ब्रह्मा जी से कहा कि पूरे संसार में केवल पुष्कर ऐसी जगह है जहां आपका मंदिर होगा। अगर किसी ने कहीं और आपका मंदिर बनाना चाहा तो उसका विनाश निश्चित है। इसी के चलते ब्रह्मा जी का एकमात्र मंदिर पुष्कर में हैं। अरण्व वंश के एक राजा को स्वप्न हुआ  कि पुष्कर सरोवर के किनारे मंदिर को मरम्मत आदि की आवश्यकता है। राजा ने ब्रह्मा मंदिर का पुनर्निर्माण कराया था ।ब्रह्मा  मंदिर के पीछे  पहाड़ी पर ब्रह्मा जी की पत्नी सावित्री का  मंदिर है।  क्रोध शांत होने के बाद सावित्री पुष्कर के पास मौजूद पहाड़ियों पर जाकर तपस्या में लीन हो गईं थी ।पुष्कर में ब्रह्मा जी पूजा करने के बाद माता  सावित्री की उपासना होती है। सावित्री को सौभाग्य की देवी माना जाता है।  यहां पूजा करने से सुहाग की लंबी उम्र होती है। महिलाएं यहां आकर प्रसाद के तौर पर मेहंदी, बिंदी और चूड़ियां चढ़ाती हैं और सावित्री से पति की लंबी उम्र मांगती हैं।यहीं रहकर सावित्री भक्तों का कल्याण करती हैं। वहां जाने के लिए श्रद्धालुओं को कई सैकड़ों सीढ़ियां पार करनी पड़ती है। मन्दिर के बगल में  स्थान को सुनिश्चित करते समय ब्रह्मा जी के हाथ से कमल का फूल पृथ्वी पर गिर पड़ा। इससे पानी की तीन बूदें पृथ्वी पर गिर गई, जिसमें से एक बूंद पुष्कर में गिरी थी। इसी बूंद से पुष्कर झील का निर्माण हुआ।पुष्कर झील अपनी पवित्रता और सुंदरता के लिए पूरे विश्व में जानी जाती है। श्रद्धालुओं के लिए पुष्कर बहुत महत्वपूर्ण तीर्थस्थल है।  पुष्कर हिन्दू धर्म के सबसे महत्वपूर्ण तीर्थो में से एक है। इसका बनारस या प्रयाग की तरह ही महत्व है। 4 थी  शताब्दी में आए चीनी यात्री फाह्यान ने उल्लेख किया  है। पुष्कर सरोवर  में स्नान करने से मोक्ष की प्राप्ति होती है। ब्रह्माजी ने पुष्कर झील किनारे कार्तिक शुक्ल एकादशी से पूर्णमासी तक यज्ञ किया था, जिसकी स्मृति में अनादि काल से  कार्तिक मेला लगता आ रहा है। सनातन धर्म तथा ब्रह्म संप्रदाय में ब्रह्मा जी की पूजन का महत्व है । सनातन धर्मावलंबी शुभ कार्यो यथा यज्ञ , विवाह कार्य , हवन कार्यो में ब्रह्मा की आराधना और उपासना की जाती है।

         

पवन संरक्षित : जीवन सुरक्षित...


            


            विश्व  में पवन ऊर्जा  का उपयोग और शक्ति के प्रति  जागरूकता बढ़ाने के लिए प्रत्येक वर्ष   15 जून को विश्व वैश्विक पवन दिवस , ग्लोबल विंड डे  यूरोपियन विंड एनर्जी एसोसिएशन और ग्लोबल विंड एनर्जी काउंसिल द्वारा मनाया जाता है ।  दुनिया के ऊर्जा स्रोतों में  पवन है ।  हवा स्रोत से अर्थव्यवस्था के विकास को बढ़ावा देने की क्षमता और पवन ऊर्जा में कई मायनों में क्रांतिकारी और एक मुख्यधारा की तकनीक में बदलाव होती  है । कार्बन उत्सर्जन को कम करने के लिए ऊर्जा के नवीकरणीय स्रोतों के लिए परियोजनाओं में अरबों डॉलर के वित्तपोषण के साथ पवन ऊर्जा प्रौद्योगिकी में निवेश करने वाले बहुत सारे औद्योगिक क्षेत्र हैं । यूरोपीय संघ पवन प्रौद्योगिकी में अग्रसर  और गैस की तुलना में पवन ऊर्जा की अधिक स्थापना कर क्षेत्र की बिजली की खपत को 11.4% पी.ए.. में नीचे लाया  है । 87 मिलियन  घरों में  पवन ऊर्जा का उपयोग करते हैं । जिला हिंदी साहित्य सम्मेलन जहानाबाद के उपाध्यक्ष साहित्यकार व इतिहासकार सत्येन्द्र कुमार पाठक ने  अंतर्राष्ट्रीय वैश्विक पवन दिवस पर कहा कि वर्ष 2007 में पवन दिवस की प्रारम्भ  हुई और वर्ष 2009 में वैश्विक स्तर  मनाया गया । यूरोपीय पवन ऊर्जा संघ  ने वर्ष 2007 में  ग्लोबल विंड डे का उद्घाटन वर्ष आयोजित का उद्देश्य राष्ट्रीय पवन ऊर्जा संघों और पवन ऊर्जा के क्षेत्र में सक्रिय सभी कंपनियों को साथ लाना था।  2007 में पवन दिवस  18 देशों में फ़ैल गया तथा विश्व के 80 देश  द्वारा पवन दिवस  को मानाने और विंड एनर्जी के क्षेत्र में काम करने के लिए सक्रिय  हो गए  हैं । पर्यावरण के अनुकूल संसाधनों का प्रयोगिकरण  कर  लोगों को प्रदूषण मुक्त संसाधनों के लिए प्रोत्साहित करने के लिए सस्ती तकनीकों को प्राप्त करने के लिए बदलावों को बढ़ावा देने का संकल्प करना चाहिए  । विश्व  में तेजी से वायु प्रदुषण बढ़ रहा है । इंसान  ऊर्जा के संसाधनों का प्रयोग करना चाहिए ताकि  पर्यावरण के अनुकूल तथा पवन ऊर्जा, सौर्य ऊर्जा आदि शुद्ध  हो सकता है । विश्व पवन दिवस के बाद से अब तक लगभग 80 देश पवन  ऊर्जा संरक्षण और प्रदूषण-मुक्त दुनिया के निर्माण में  महत्वपूर्ण साबित हो सकती है ।  ग्लोबल विंड डे का आयोजन दुनिया में सालाना 80 से अधिक देशों द्वारा मनाया जाता है। ग्लोबल विंड डे का उद्देश्य इस बात पर ध्यान केंद्रित करना है कि पवन ऊर्जा दुनिया को कैसे बदल सकती है। वैश्विक पवन दिवस का पालन पवन ऊर्जा के लाभों का जश्न मनाने के लिए है, और लोगों को पवन ऊर्जा की शक्ति और अंतहीन क्षमता के बारे में शिक्षित करना है। ग्लोबल विंड डे का पहला आयोजन यूरोप में पहली बार 2007 में हुआ था। ग्लोबल विंड डे का आयोजन ग्लोबल विंड एनर्जी काउंसिल और विंडयूरोप संगठनों द्वारा किया जाता है।  ग्लोबल विंड डे मनाने के  उद्देश्य बच्चों और वयस्कों दोनों को पवन ऊर्जा हार्नेस की शक्ति के बारे में शिक्षित करना है।  पवन ऊर्जा को ऊर्जा के सबसे स्वच्छ और सबसे नवीकरणीय स्रोतों में से एक माना जाता है। पवन ऊर्जा कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन को कम करने में मदद करती है ।मानवीय जीवन में स्वच्छ हवा उपलब्ध होते है। जेष्ट  शुक्ल पंचमी मंगलवार विक्रम संबत 2078 दिनांक 15 जून 2021 को जैन धर्म का श्रुति पंचमी तथा अंतरराष्ट्रीय वैश्विक पवन दिवस के अवसर पर  पवन दिवस के रूप में साहित्यकार व इतिहासकार सत्येन्द्र कुमार पाठक का जन्म दिवस मनाया गया ।इस अवसर पर सत्येन्द्र कुमार पाठक के संक्षिप्त परिचय प्रस्तुत की गई तथा पर्यावण को संरक्षित करने के लिए संकल्प लिया गया है ।
 बिहार राज्य के अरवल जिले का करपी प्रखंड मुख्यालय करपी में सत्येन्द्र कुमार पाठक का जन्म 15 जून 1957 ई. को शाकद्वीपीय ब्राह्मण में हुआ है । इनके पिता सच्चिदानंद पाठक ज्योतिष एवं कर्मकांड के  विद्वान , माता ललिता देवी तथा पत्नी सत्यभामा देवी धर्मपरायण थी । सत्येंद्र कुमार पाठक के नवीन कुमार पाठक , प्रवीण कुमार पाठक पुत्र तथा इंदु , कुमुद , मेनका , उर्वशी तथा प्रियंका पुत्री और दिव्यांशु पौत्र , तीन भाई है । इन्होंने शास्त्री प्रतिष्ठा , आई ए , विशारद , बी टी योग्यता हासील करने के बाद सरकारी विद्यालयों में 1 नवंबर 1977 ई. से 30 जून 2017 तक शिक्षक के पद पर कार्य कर सेवानिवृत हो कर पेंसन्धारी है । 1975 से विभिन्न साप्ताहिक , दैनिक समाचार पत्रों में संबाद प्रेषण का कार्य किया है । पत्रकारिता के क्षेत्र में सत्येन्द्र कुमार पाठक ने गया से प्रकाशित गया समाचार , मगध धरती , मगधाग्नि हिंदी साप्ताहिक , पटना से प्रकाशित हिंदी दैनिक आर्यावर्त , आत्मकथा , पाटलिपुत्र टाइम्स , हिंदुस्तान , आज , जयपुर राजस्थान  से प्रकाशित यंगलीडर में संबाद , टिकरी गया का समस्या दूत का सह संपादक , शिप्रा का उपसंपादक , 1981में हिंदी  मासिक पत्रिका मगध ज्योति तथा 1983 में हिंदी साप्ताहिक  मगध ज्योति का संपादक के रूप में कार्य किया है । पटना से प्रकाशित दैनिक समाचार पत्र आर्यावर्त , प्रदीप , पाटलिपुत्र टाइम्स , आज , जनशक्ति , आत्मकथा , हिंदुस्तान , प्रभात खबर में सबद प्रेषण किया । 2019 ई . से बुलंद समाचार , दिब्य रश्मि पोर्टल में संलेख प्रकाशित तथा मगध ज्योति ब्लॉग पॉट में संलेख प्रकाशित कर रहे है ।सार्वभौम शाकद्वीपीय ब्राह्मण महासंघ झारखण्ड से संबद्ध  रांची से प्रकाशित मगबन्धु (अखिल) जुलाई दिसम्बर 2020 का स्वतंत्रता सेनानी विशेषांक में संलेख प्रकाशित किया गया है। समाज सेवा - सत्येन्द्र कुमार पाठक द्वारा विभिन्न क्षेत्रों में समाजसेवा का कार्य किया है । 1976 ई. में करपी अरवल प्रखंड में आई भीषण बाढ़ में करपी प्रखंड दुग्ध  दलिया समिति गया का सदस्य बन कर बढ़  पीड़ितों की सहायता की वहीं करपी प्रखंड परिवार कल्याण समिति गया का सदस्य , जीवन ज्योति मंसूरी का सदस्य , शास्त्र धर्म प्रचार सभा कलकत्ता का सदस्य , जहानाबाद अनुमंडल किसान सुरक्षा समिति का अध्यक्ष , अखिल भारतीय सामाजिक स्वास्थ्य संघ का सदस्य , मगही मंच करपी प्रखंड के अध्यक्ष , भारतीय समाज सुधारक संघ जहानाबाद का अध्यक्ष ,पंडित नेहरू क्लब करपी का अध्यक्ष , करपी प्रखंड विद्युत उपभोक्ता समिति का अध्यक्ष , मगध बुद्धि मंच , बिहार राज्य मगही विकास मंच के महासचिव 1978 ई. में इमममगंज प्रखंड शिक्षा समिति गया का सदस्य , 1980 में बिहार हिंदी साहित्य सम्मेलन का सदस्य , 2007 बिहार हिंदी साहित्य सम्मेलन पटना के स्थायी समिति के सदस्य  1992 ई . में सच्चिदानंद शिक्षा एवं समाज कल्याण संस्थान का सचिव , जिला हिंदी साहित्य सम्मेलन जहानाबाद के उपाध्यक्ष , जहानाबाद जिला विरासत विकास समिति का अध्यक्ष , बिहार अराजपत्रित प्रारंभिक शिक्षक संघ जिला जहानाबाद का उप संजोजक , बिहार राज्य प्राथमिक शिक्षक संघ ( गोप गुट ) जहानाबाद का संयुक्त  सचिव , 2008 ई. में बिहार राज्य क्रांतिकारी शिक्षक संघ का राज्य प्रवक्ता , 1996 ई. में ज्ञान गुहार अरवल का मुख्य साधन सेवी , 2003 ई. में भारतीय पुनर्वास परिषद द्वारा आयोजित अखिल भारतीय विकलांगता  कन्वेंशन दिल्ली में विकलांगो के विकाश में शामिल हुए । 1989 ई. में इंडियन प्रेस काउंसिल भोपाल का सदस्य हुए हैं । सम्मान - सत्येन्द्र कुमार पाठक को 14 सितंबर 1998 ई . हिंदी दिवस पर जैमिनि अकादमी पानीपत हरियाणा द्वारा हिंदी पत्रकारिता के उत्कृष्ट कार्य के लिए आचार्य उपाधि से अलंकृत किये गए , 23 अक्तूवर 2013 को मगही अकादमी पटना द्वारा मगही साहित्य में विशेष योगदान के लिये महाकवि योगेश मगही अकादमी शिखर सम्मान 2013  से सम्मानित , स्नातकोत्तर हिंदी विभाग मगध विश्वविद्यालय बोधगया द्वारा आयोजित  16 - 17 अप्रैल 2012 दो दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्टी में हिंदी साहित्य को मगध प्रक्षेत्र का योगदान विषय डॉ सुनील कुमार की संपादन कला पर सम्मान , 2 मार्च 2019 को बिहार हिंदी साहित्य सम्मेलन पटना द्वारा आयोजित 40 वें तथा 2 - 3 अप्रैल 2016 को  37 वें  महाधिवेशन के परिसंबाद  पर सम्मानित हुए है। बिहार हिंदी साहित्य सम्मेलन पटना की ओर से हिंदी भाषा एवं साहित्य की उन्नति में मूल्यवान सेवाओं के लिए सम्मेलन के 101 वें स्थापना दिवस पर आयोजित समारोह में पंडित जनार्दन प्रसाद झा द्विज सम्मान से विभूषित कर उपाधि पत्र 19 अक्तूवर 2020 को प्रदान किया गया है । समाजवादी लोक परिषद की ओर से  गया में विश्व हिंदी दिवस के पूर्व संध्या पर 09 जनवरी 2021 को सतीस कुमार मिश्र सम्मान समारोह 2021के अवसर पर साहित्य व पत्रकारिता के क्षेत्र में समर्पित सेवा के लिये सम्मानित  किये गए है । प्रकाशित रचनाएँ - मगधाँचाल ,  राज्य सरकार राजभाषा विभाग द्वारा अनुदानित से प्रकाशित वाणावर्त , बराबर है वही अप्रकाशित रचनाए  उषा , यात्रा  है।आत्मा से पंजिकृत जिला किसान संगठन जहानाबाद का सचिव के रूप में कार्य कर रहे हैं । 1999 से जहानाबाद में रह कर सामाजिक  , साहित्यिक साधना में लगे हुए हैं ।

                




सोमवार, जून 14, 2021

शक्तिपीठ : आध्यात्मिक और ज्ञान स्थल....

                 

                            


        सनातन धर्म का शाक सम्प्रदाय के विभिन्न धर्म ग्रंथो में  शक्तिपीठ का उल्लेख देवी भागवत पुराण में 108, कालिकापुराण में 26, शिवचरित्र में 51, दुर्गा शप्तसती और तंत्रचूड़ामणि में शक्ति पीठों की संख्या 52  है।  भगवान शिव की भार्या माता  सती अपने पिता राजा दक्ष प्रजापति के ब्रह्मेष्ठी  यज्ञ में भगवान शिव का अपमान सहन नहीं करने के कारण दक्ष प्रजापति द्वारा आहूत यज्ञ में कूदकर भस्म हो गई थी ।भगवान  शिवजी को माता सती की यज्ञ कुंड में स्वयं आहुति करने के संबंध में जानकारी मिलने के बाद भगवान शिव ने अपने गण वीरभद्र को भेजकर यज्ञ स्थल को उजाड़ दिया और राजा दक्ष का सिर काट जाने के बाद भगवान  शिवजी अपनी भार्या सती की जली हुई शरीर लेकर विलाप करते हुए सभी ओर घूमते रहे। जहां-जहां सती माता के अंग और आभूषण गिरे वहां-वहां शक्तिपीठ स्थापित हुए है । पुरणों के  आख्यायिका के अनुसार माता सती के  शरीर के अंगों से शक्तिपीठ की  उत्पत्ति हुई है  । भगवान विष्णु के चक्र से विच्छिन्न होकर माता सती के विभिन्न अंग और वस्त्र 108 स्थलों पर गिरे थे । पुराणों के अनुसार जहां-जहां माता सती के अंग के टुकड़े, धारण किए वस्त्र , आभूषण गिरने का स्थल शक्तिपीठ है । भारतीय उपमहाद्वीप पर फैले हुए शक्तिपीठ  हैं। देवी पुराण में  51 शक्तिपीठों में 42 शक्ति पीठ भारत और 9 पीठो में 1 शक्तिपीठ पाकिस्तान में, 4 बांग्लादेश में, 1 श्रीलंका में, 1 तिब्बत में तथा 2 नेपाल में स्थित है।01 : किरीट शक्तिपीठ  -  बंगाल के हुगली नदी के तट लालबाग कोट पर स्थित  किरीट शक्तिपीठ है ।जहां सती माता का किरीट ,  शिराभूषण या मुकुट गिरा था। यहां की शक्ति विमला अथवा भुवनेश्वरी तथा भैरव संवर्त हैं।02 : कात्यायनी शक्तिपीठ - वृन्दावन, मथुरा के भूतेश्वर में कात्यायनी शक्तिपीठ स्थित है । कात्यायनी वृन्दावन शक्तिपीठ जहां सती का केशपाश गिरा था। यहां की शक्ति देवी कात्यायनी और भैरव भूतेश हैं। 03 : करवीर शक्तिपीठ - महाराष्ट्र के कोल्हापुर में स्थित है यह शक्तिपीठ, जहां माता का त्रिनेत्र गिरा था। यहां की शक्ति महिषासुरमदिनी तथा भैरव क्रोधशिश हैं। यहां महालक्ष्मी का निज निवास माना जाता है। 04 : श्री पर्वत शक्तिपीठ - इस शक्तिपीठ को लेकर विद्वानों में मतान्तर है कुछ विद्वानों का मानना है कि इस पीठ का मूल स्थल लद्दाख है, जबकि कुछ का मानना है कि यह असम के सिलहट में है जहां माता सती का दक्षिण तल्प यानी कनपटी गिरा था। यहां की शक्ति श्री सुन्दरी एवं भैरव सुन्दरानन्द हैं। 05 : विशालाक्षी शक्तिपीठ - उत्तर प्रदेश, वाराणसी के मीरघाट पर स्थित है शक्तिपीठ जहां माता सती के दाहिने कान के मणि गिरे थे। यहां की शक्ति विशालाक्षी तथा भैरव काल भैरव हैं।06 : गोदावरी तट शक्तिपीठ - आंध्रप्रदेश के कब्बूर में गोदावरी तट पर स्थित है यह शक्तिपीठ, जहां माता का वामगण्ड यानी बायां कपोल गिरा था। यहां की शक्ति विश्वेश्वरी या रुक्मणी तथा भैरव दण्डपाणि हैं। 07 : शुचीन्द्रम शक्तिपीठ  : तमिलनाडु, कन्याकुमारी के त्रिासागर संगम स्थल पर स्थित है यह शुची शक्तिपीठ, जहां सती के उफध्र्वदन्त (मतान्तर से पृष्ठ भागद्ध गिरे थे। यहां की शक्ति नारायणी तथा भैरव संहार या संकूर हैं। 08 : पंच सागर शक्तिपीठ - इस शक्तिपीठ का कोई निश्चित स्थान ज्ञात नहीं है लेकिन यहां माता का नीचे के दान्त गिरे थे। यहां की शक्ति वाराही तथा भैरव महारुद्र हैं। 09 : ज्वालामुखी शक्तिपीठ - हिमाचल प्रदेश के काँगड़ा में स्थित है यह शक्तिपीठ, जहां सती का जिह्वा गिरी थी। यहां की शक्ति सिद्धिदा व भैरव उन्मत्त हैं। 10 : भैरव पर्वत शक्तिपीठ - इस शक्तिपीठ को लेकर विद्वानों में मतदभेद है। कुछ गुजरात के गिरिनार के निकट भैरव पर्वत को तो कुछ मध्य प्रदेश के उज्जैन के निकट क्षीप्रा नदी तट पर वास्तविक शक्तिपीठ मानते हैं, जहां माता का उफध्र्व ओष्ठ गिरा है। यहां की शक्ति अवन्ती तथा भैरव लंबकर्ण हैं। 11 :  अट्टहास शक्तिपीठ - अट्टहास शक्तिपीठ पश्चिम बंगाल के लाबपुर में स्थित है। जहां माता का अध्रोष्ठ यानी नीचे का होंठ गिरा था। यहां की शक्ति पफुल्लरा तथा भैरव विश्वेश हैं। 12 : जनस्थान शक्तिपीठ - महाराष्ट्र नासिक के पंचवटी में स्थित है जनस्थान शक्तिपीठ जहां माता का ठुड्डी गिरी थी। यहां की शक्ति भ्रामरी तथा भैरव विकृताक्ष हैं। 13 : कश्मीर शक्तिपीठ - जम्मू-कश्मीर के अमरनाथ में स्थित है यह शक्तिपीठ जहां माता का कण्ठ गिरा था। यहां की शक्ति महामाया तथा भैरव त्रिसंध्येश्वर हैं। 14 :  नन्दीपुर शक्तिपीठ - पश्चिम बंगाल के सैन्थया में स्थित है यह पीठ, जहां देवी की देह का कण्ठहार गिरा था। यहां कि शक्ति निन्दनी और भैरव निन्दकेश्वर हैं। 15 - श्री शैल शक्तिपीठ - आंध्रप्रदेश के कुर्नूल के पास है श्री शैल का शक्तिपीठ, जहां माता का ग्रीवा गिरा था। यहां की शक्ति महालक्ष्मी तथा भैरव संवरानन्द अथव ईश्वरानन्द हैं। 16 : नलहटी शक्तिपीठ -  पश्चिम बंगाल के बोलपुर में है नलहरी शक्तिपीठ, जहां माता का उदरनली गिरी थी। यहां की शक्ति कालिका तथा भैरव योगीश हैं। 17 : मिथिला शक्तिपीठ - इसका निश्चित स्थान अज्ञात है। स्थान को लेकर मन्तारतर है तीन स्थानों पर मिथिला शक्तिपीठ को माना जाता है, वह है नेपाल के जनकपुर, बिहार के समस्तीपुर और सहरसा, जहां माता का वाम स्कंध् गिरा था। यहां की शक्ति उमा या महादेवी तथा भैरव महोदर हैं। 18 : रत्नावली शक्तिपीठ - इसका निश्चित स्थान अज्ञात है, बंगाज पंजिका के अनुसार यह तमिलनाडु के चेन्नई में कहीं स्थित है रत्नावली शक्तिपीठ जहां माता का दक्षिण स्कंध् गिरा था। यहां की शक्ति कुमारी तथा भैरव शिव हैं। 19 : अम्बाजी शक्तिपीठ - गुजरात गूना गढ़ के गिरनार पर्वत के प्रथत शिखर पर देवी अिम्बका का भव्य विशाल मन्दिर है, जहां माता का उदर गिरा था। यहां की शक्ति चन्द्रभागा तथा भैरव वक्रतुण्ड है। ऐसी भी मान्यता है कि गिरिनार पर्वत के निकट ही सती का उध्र्वोष्ठ गिरा था, जहां की शक्ति अवन्ती तथा भैरव लंबकर्ण है। 20 : जालंध्र शक्तिपीठ - पंजाब के जालंध्र में स्थित है माता का जालंध्र शक्तिपीठ जहां माता का वामस्तन गिरा था। यहां की शक्ति त्रिापुरमालिनी तथा भैरव भीषण हैं। 21 :  रामागरि शक्तिपीठ - इस शक्ति पीठ की स्थिति को लेकर भी विद्वानों में मतान्तर है। कुछ उत्तर प्रदेश के चित्राकूट तो कुछ मध्य प्रदेश के मैहर में मानते हैं, जहां माता का दाहिना स्तन गिरा था। यहा की शक्ति शिवानी तथा भैरव चण्ड हैं। 22 :वैद्यनाथ शक्तिपीठ  - झारखण्ड के संथालपरगना के देवघर जिले के , देवघर में वैद्यनाथ शक्तिपीठ स्थित है वैद्यनाथ हार्द शक्तिपीठ, जहां माता का हृदय गिरा था। यहां की शक्ति जयदुर्गा तथा भैरव वैद्यनाथ है। एक मान्यतानुसार यहीं पर सती का दाह-संस्कार भी हुआ था। 23 : वक्त्रोश्वर शक्तिपीठ - माता का यह शक्तिपीठ पश्चिम बंगाल के सैिन्थया में स्थित है जहां माता का मन गिरा था। यहां की शक्ति महिषासुरमदिनी तथा भैरव वक्त्रानाथ हैं। 24) :  कण्यकाश्रम कन्याकुमारी शक्तिपीठ - तमिलनाडु के कन्याकुमारी के तीन सागरों हिन्द महासागर, अरब सागर तथा बंगाल की खाड़ीद्ध के संगम पर स्थित है कण्यकाश्रम शक्तिपीठ, जहां माता का पीठ मतान्तर से उध्र्वदन्त गिरा था। यहां की शक्ति शर्वाणि या नारायणी तथा भैरव निमषि या स्थाणु हैं। 25 : बहुला शक्तिपीठ -  बंगाल के कटवा जंक्शन के निकट केतुग्राम में स्थित है बहुला शक्तिपीठ, जहां माता का वाम बाहु गिरा था। यहां की शक्ति बहुला तथा भैरव भीरुक हैं। 26 : उज्जयिनी शक्तिपीठ - मध्य प्रदेश के उज्जैन के पावन क्षिप्रा के दोनों तटों पर स्थित है उज्जयिनी शक्तिपीठ। जहां माता का कुहनी गिरा था। यहां की शक्ति मंगल चण्डिका तथा भैरव मांगल्य कपिलांबर हैं। 27 : मणिवेदिका शक्तिपीठ - राजस्थान के पुष्कर में स्थित है मणिदेविका शक्तिपीठ, जिसे गायत्री मन्दिर के नाम से जाना जाता है यहीं माता की कलाइयां गिरी थीं। यहां की शक्ति गायत्री तथा भैरव शर्वानन्द हैं। 28 : प्रयाग शक्तिपीठ - उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद में स्थित है। यहां माता की हाथ की अंगुलियां गिरी थी। लेकिन, स्थानों को लेकर मतभेद इसे यहां अक्षयवट, मीरापुर और अलोपी स्थानों गिरा माना जाता है। तीनों शक्तिपीठ की शक्ति ललिता और भैरव भव हैं। 29 - विरजाक्षेत्रा, उत्कल शक्तिपीठ  - उड़ीसा के पुरी और याजपुर में माना जाता है जहां माता की नाभि गिरा था। यहां की शक्ति विमला तथा भैरव जगन्नाथ पुरुषोत्तम हैं। 30 : कांची शक्तिपीठ - तमिलनाडु के कांचीवरम् में स्थित है माता का कांची शक्तिपीठ, जहां माता का कंकाल गिरा था। यहां की शक्ति देवगर्भा तथा भैरव रुरु हैं। 31 : कालमाध्व शक्तिपीठ - इस शक्तिपीठ के बारे कोई निश्चित स्थान ज्ञात नहीं है। परन्तु, यहां माता का वाम नितम्ब गिरा था। यहां की शक्ति काली तथा भैरव असितांग हैं। 32 :  शोण शक्तिपीठ  - मध्य प्रदेश के अमरकंटक के नर्मदा मन्दिर शोण शक्तिपीठ है। यहां माता का दक्षिण नितम्ब गिरा था। एक दूसरी मान्यता यह है कि बिहार के सासाराम का ताराचण्डी मन्दिर ही शोण तटस्था शक्तिपीठ है। यहां सती का दायां नेत्रा गिरा था ऐसा माना जाता है। यहां की शक्ति नर्मदा या शोणाक्षी तथा भैरव भद्रसेन हैं। 33 : कामाख्या शक्तिपीठ  - असम गुवाहाटी के नीलगिरि पर्वत पर कामाख्या शक्तिपीठ स्थित है । यह शक्तिपीठ, जहां माता का योनि गिरा था। यहां की शक्ति कामाख्या तथा भैरव उमानन्द हैं। 34 :  जयन्ती शक्तिपीठ  - जयन्ती शक्तिपीठ मेघालय के जयन्तिया पहाडी पर स्थित है, जहां माता का वाम जंघा गिरा था। यहां की शक्ति जयन्ती तथा भैरव क्रमदीश्वर हैं। 35 :  पटनेश्वरी शक्तिपीठ -  बिहार की राजधनी पटना में स्थित पटनेश्वरी देवी को ही शक्तिपीठ माना जाता है जहां माता का दाहिना जंघा गिरा था। यहां की शक्ति सर्वानन्दकरी तथा भैरव व्योमकेश हैं। 36 : त्रिस्तोता शक्तिपीठ -  बंगाल के जलपाइगुड़ी के शालवाड़ी गांव में तीस्ता नदी पर स्थित है त्रिस्तोता शक्तिपीठ, जहां माता का वामपाद गिरा था। यहां की शक्ति भ्रामरी तथा भैरव ईश्वर हैं। 37 : त्रिपुरी सुन्दरी शक्तित्रिपुरी पीठ - त्रिपुरा के राध किशोर ग्राम में स्थित है त्रिपुरे सुन्दरी शक्तिपीठ, जहां माता का दक्षिण पाद गिरा था। यहां की शक्ति त्रिापुर सुन्दरी तथा भैरव त्रिपुरेश हैं। 38 : विभाष शक्तिपीठ -  बंगाल के मिदनापुर के ताम्रलुक ग्रााम में स्थित है विभाष शक्तिपीठ, जहां माता का वाम टखना गिरा था। यहां की शक्ति कापालिनी, भीमरूपा तथा भैरव सर्वानन्द हैं। 39 :  देवीकूप पीठ कुरुक्षेत्र शक्तिपीठ - हरियाणा के कुरुक्षेत्र जंक्शन के निकट द्वैपायन सरोवर के पास स्थित है कुरुक्षेत्र शक्तिपीठ, जिसे श्रीदेवीकूप(भद्रकाली पीठ के नाम से मान्य है। माता का दहिने चरण (गुल्पफद्ध गिरे थे। यहां की शक्ति सावित्री तथा भैरव स्थाणु हैं। 40 : युगाद्या शक्तिपीठ, क्षीरग्राम शक्तिपीठ - बंगाल के बर्दमान जिले के क्षीरग्राम में स्थित है युगाद्या शक्तिपीठ, यहां सती के दाहिने चरण का अंगूठा गिरा था। यहां की शक्ति जुगाड्या और भैरव क्षीर खंडक है। 41 : विराट का अम्बिका शक्तिपीठ - राजस्थान के गुलाबी नगरी जयपुर के वैराटग्राम में स्थित है विराट शक्तिपीठ, जहाँ सती के ‘दायें पाँव की उँगलियाँ’ गिरी थीं।। यहां की शक्ति अंबिका तथा भैरव अमृत हैं। 42 : कालीघाटशक्तिपीठ -  बंगाल, कोलकाता के कालीघाट में कालीमन्दिर के नाम से प्रसिध यह शक्तिपीठ, जहां माता के दाएं पांव की अंगूठा छोड़ 4 अन्य अंगुलियां गिरी थीं। यहां की शक्ति कालिका तथा भैरव नकुलेश हैं।43 : मानस शक्तिपीठ - तिब्बत के मानसरोवर तट पर स्थित है मानस शक्तिपीठ, जहां माता का दाहिना हथेली का निपात हुआ था। यहां की शक्ति की दाक्षायणी तथा भैरव अमर हैं। 44 : लंका शक्तिपीठ - श्रीलंका में स्थित है लंका शक्तिपीठ, जहां माता का नूपुर गिरा था। यहां की शक्ति इन्द्राक्षी तथा भैरव राक्षसेश्वर हैं। लेकिन, उस स्थान ज्ञात नहीं है कि श्रीलंका के किस स्थान पर गिरे थे। 45 : गण्डकी शक्तिपीठ - नेपाल में गण्डकी नदी के उद्गम पर स्थित है गण्डकी शक्तिपीठ, जहां सती के दक्षिणगण्ड(कपोल) गिरा था। यहां शक्ति `गण्डकी´ तथा भैरव `चक्रपाणि´ हैं। 46 : गुह्येश्वरी शक्तिपीठ  - नेपाल के काठमाण्डू में पशुपतिनाथ मन्दिर के पास ही स्थित है गुह्येश्वरी शक्तिपीठ है, जहां माता सती के दोनों जानु (घुटने) गिरे थे। यहां की शक्ति `महामाया´ और भैरव `कपाल´ हैं। 47 : हिंगलाज शक्तिपीठ - पाकिस्तान के ब्लूचिस्तान प्रान्त में स्थित है माता हिंगलाज शक्तिपीठ, जहां माता का ब्रह्मरन्ध्र (सिर का ऊपरी भाग) गिरा था। यहां की शक्ति कोट्टरी और भैरव भीमलोचन है। 48 :  सुगंध शक्तिपीठ  - बांग्लादेश के खुलना में सुगंध नदी के तट पर स्थित है उग्रतारा देवी का शक्तिपीठ, जहां माता का नासिका गिरा था। यहां की देवी सुनन्दा है तथा भैरव त्रयम्बक हैं। 49 : करतोयाघाट शक्तिपीठ  -बंग्लादेश भवानीपुर के बेगड़ा में करतोया नदी के तट पर स्थित है करतोयाघाट शक्तिपीठ, जहां माता का वाम तल्प गिरा था। यहां देवी अपर्णा रूप में तथा शिव वामन भैरव रूप में वास करते हैं। 50 : चट्टल शक्तिपीठ - बंग्लादेश के चटगांव में स्थित है चट्टल का भवानी शक्तिपीठ, जहां माता का दाहिना बाहु यानी भुजा गिरा था। यहां की शक्ति भवानी तथा भेरव चन्द्रशेखर हैं। 51:  यशोर शक्तिपीठ - बांग्लादेश के जैसोर खुलना में स्थित है माता का प्रसि( यशोरेश्वरी शक्तिपीठ, जहां माता का बायीं हथेली गिरा था। यहां शक्ति यशोरेश्वरी तथा भैरव चन्द्र है ।   सनातन धर्म का शाक्त  सम्प्रदाय का शक्ति ,  आस्था दर्शन , माया ,योग , तथा  परम शक्ति के रूप में शक्तिपीठ स्थापित है । वेद संहिता वेदांग ब्राह्मण ग्रंथ , आरण्यक , उपनिषद , पुराण , भागवत , देवी भागवत , सनातन धर्म के अनुसार माता  सती  के शरीर के अंग गिरे, वहां वहां शक्ति पीठ बनकर  अत्यंत पावन तीर्थ स्थापित हुए है ।भारतीय उपमहाद्वीप पर शक्तिपीठ  हैं। जयंती देवी शक्ति पीठ भारत के मेघालय राज्य में नाॅरटियांग नामक स्थान पर है।पुराणों के अनुसार सती के शव के विभिन्न अंगों से बावन शक्तिपीठों का निर्माण हुआ था। इसके पीछे यह अंतर्कथा है कि दक्ष प्रजापति ने कनखल (हरिद्वार) में 'बृहस्पति सर्व' नामक यज्ञ रचाया। उस यज्ञ में ब्रह्मा, विष्णु, इंद्र और अन्य देवी-देवताओं को आमंत्रित किया गया, लेकिन जान-बूझकर अपने जमाता भगवान शंकर को नहीं बुलाया। शंकरजी की पत्नी और दक्ष की पुत्री सती पिता द्वारा न बुलाए जाने पर और शंकरजी के रोकने पर  यज्ञ में भाग लेने गईं। यज्ञ-स्थल पर सती ने अपने पिता दक्ष से शंकर जी को आमंत्रित न करने का कारण पूछा और पिता से उग्र विरोध प्रकट किया। इस पर दक्ष प्रजापति ने भगवान शंकर को अपशब्द कहे। इस अपमान से पीड़ित हुई सती ने यज्ञ-अग्नि कुंड में कूदकर अपनी प्राणाहुति दे दी। भगवान शंकर को जब इस दुर्घटना का पता चला तो क्रोध से उनका तीसरा नेत्र खुल गया। भगवान शंकर के आदेश पर उनके गणों के उग्र कोप से भयभीत सारे देवता ऋषिगण यज्ञस्थल से भाग गये। भगवान शंकर ने यज्ञकुंड से सती के पार्थिव शरीर को निकाल कंधे पर उठा लिया और दुःखी हुए इधर-उधर घूमने लगे। तदनंतर सम्पूर्ण विश्व को प्रलय से बचाने के लिए जगत के पालनकर्त्ता भगवान विष्णु ने चक्र से सती के शरीर को काट दिया। तदनंतर वे टुकड़े 52 जगहों पर गिरे। वे ५२ स्थान शक्तिपीठ कहलाए। सती ने दूसरे जन्म में हिमालयपुत्री पार्वती के रूप में शंकर जी से विवाह किया। पुराण ग्रंथों, तंत्र साहित्य एवं तंत्र चूड़ामणि में जिन बावन शक्तिपीठों का वर्णन मिलता है, वे निम्नांकित हैं। निम्नलिखित सूची 'तंत्र चूड़ामणि' में वर्णित इक्यावन शक्ति पीठों की है। बावनवाँ शक्तिपीठ अन्य ग्रंथों के आधार पर है। इन बावन शक्तिपीठों के अतिरिक्त अनेकानेक मंदिर देश-विदेश में विद्यमान हैं। हिमाचल प्रदेश में नयना देवी का पीठ (बिलासपुर)की  गुफा में प्रतिमा स्थित सती का एक नयन  गिरा था । उत्तराखंड के स्थल मसूरी के पास घनौल्टी में  सती का सिर धड़ से अलग होकर गिरा था। माता सती के अंग भूमि पर गिरने का कारण भगवान श्री विष्णु द्वारा सुदर्शन चक्र से सती माता के समस्तांग विछेदित करना था ।उत्तरप्रदेश के सहारनपुर के शक्तिपीठ क्षेत्र मे माता का शीश गिरा था जिस कारण वहाँ देवी को दुर्गमासुर संहारिणी शाकम्भरी तथा भैरव भूरादेव हैं।काली माता कलकत्ता , हिंगलाज भवानी ,शाकम्भरी देवी सहारनपुर , विंध्यवासिनी ,  शक्तिपीठ चामुण्डा देवी हिमाचल प्रदेश ,ज्वालामुखी हिमाचल प्रदेश , कामाख्या देवी असम , हरसिद्धि माता उज्जैन ,छिन्नमस्तिका पीठ रजरप्पा  है ।
राजा दक्ष की पुत्री एवं भगवान शिव की भार्या सती के शरीर का विभिन्न अंग , आभूषण को  विष्णु द्वारा सुदर्शन चक्र से काटे जाने पर पृथ्वी के विभिन्न स्थानों पर गिरने के कारण  शक्तिपीठ है।
शंकरी देवी, त्रिंकोमाली श्रीलंका , कामाक्षी देवी, कांची, तमिलनाडू, सुवर्णकला देवी, प्रद्युम्न, बंगाल ,चामुंडेश्वरी देवी, मैसूर, कर्नाटक ,जोगुलअंबा देवी, आलमपुर, आंध्रप्रदेश ,भ्रमराम्बा देवी, श्रीशैलम, आंध्रप्रदेश ,महालक्ष्मी देवी, कोल्हापुर, महाराष्ट्र , इकवीराक्षी देवी, नांदेड़, महाराष्ट्र, हरसिद्धी माता मंदिर, उज्जैन, मध्यप्रदेश , पुरुहुतिका देवी, पीथमपुरम, आंध्रप्रदेश, पूरनगिरि मंदिर, टनकपुर, उत्तराखंड ,मनीअंबा देवी, आंध्रप्रदेश ,कामाख्या देवी, गुवाहाटी, असम ,मधुवेश्वरी देवी, इलाहाबाद, उत्तरप्रदेश , वैष्णोदेवी, कांगड़ा, हिमाचलप्रदेश , शाकम्भरी माता उत्तर प्रदेश , सर्वमंगला देवी, गया, बिहार , विशालाक्षी देवी, वाराणसी, उत्तर प्रदेश ,शारदा देवी , पीओके ,कालका देवी , दिल्ली  , विंध्यवासिनी मंदिर, मिर्ज़ापुर, उत्तर प्रदेश , महामाया मंदिर, अंबिकापुर, अंबिकापुर, छत्तीसगढ़ , योगमाया मंदिर, दिल्ली, महरौली, दिल्ली , दंतेश्वरी मंदिर,दंतेवाड़ा,दंतेवाड़ा,छत्तीसगढ़ ,शाकम्भरी देवी मंदिर सहारनपुर उत्तर प्रदेश , मनसा देवी मंदिर मनीमाजरा पंचकुला , माँ विजयासन (बीजासेन) धाम,सलकनपुर,जिला सीहोर,मध्य प्रदेश , चंडिका स्थान, मुंगेर, बिहार , पूर्णागिरी पर नैना देवी मंदिर, हिमाचल प्रदेश  में ज्वाला देवी , बिहार के पटना के महराजगंज में बड़ी पतन देवी , हाजी गंज में छोटन पटनदेवी , नालंदा जिले का एकंगरसराय के मघरा  में शीतला मंदिर , नवादा जिला का रूपौ में चामुंडा मंदिर , सारण जिले का आमी छपरा में अम्बिका मंदिर , रोहतास जिले का सासाराम के कैमूर पहाड़ी की गुफा में ताराचंडी मंदिर , बक्सर जिले का बक्सर में दंतेश्वरी मंदिर ,कैमूर जिले का भगवानपुर कैमूर पर्वत पर मुंडेश्वरी मंदिर शक्तिपीठ है । जहानाबाद जिले का मखदुमपुर प्रखंड के बराबर पर्वत समूह की सूर्यान्क श्रृंखला पर सिद्धेश्वरी , बागेश्वरी , मोदनगंज प्रखंड के मैन मठ चरुई में काली मंदिर , गया जिले का बेलागंज में विभूक्षणी भवानी मंदिर , गया का डंगेश्वरी पर्वत पर डुंगेश्वरी माता  , अरवल जिले का करपी का जगदम्बा स्थान मंदिर मुजफ्फरपुर के काटी में छिन्नमस्तिका मंदिर , मुजफ्फरपुर का काली मंदिर , दरभंगा जिले का दरभंगा का श्यामा मंदिर , गया जिले का गया में पालन शक्ति पीठ , बांग्ला मंदिर , दुःखरनी मंदिर , बागेश्वरी मंदिर  शक्ति स्थल है।