मंगलवार, दिसंबर 27, 2022

गहमर की सांस्कृतिक विरासत..



उत्तर प्रदेश के गाजीपुर जिले का एशिया महाद्वीप का सबसे बड़ा गांव गहमर पटना और मुगलसराय रेल मार्ग पर स्थित है । गाजीपुर जिला मुख्यालय से 40 किमि की दूरी पर  1530 ई. में राजा कुसुमदेव राव द्वारा गंगा नदी के किनारे सकरा डीह बसाया गया था । गहमर के 22 विभिन्न टोले भिन्न भिन्न प्रसिद्ध सैनिक का नाम पर है । प्रथम, द्वितीय विश्व युद्ध , 1971 के युद्ध ,कारगिल युद्ध में गहमर के सैनिकों द्वारा महत्वपुर्ण कार्य किया गया था । गहमर  के  10 हजार लोग इंडि‍यन आर्मी में जवान से लेकर कर्नल एवं  14 हजार से ज्यादा भूतपूर्व सैनिक हैं। विश्वयुद्ध के समय अंग्रेजों की फौज में गहमर के 228 सैनिक में 21 शहीद होने की याद में  गहमर में  शिलालेख है। गहमर के भूतपूर्व सैनिकों द्वारा पूर्व सैनिक सेवा समिति नामक संस्था के माध्यम से गांव के युवक  गंगा तट पर स्थित मठिया चौक पर सुबह-शाम सेना की तैयारी करते  हैं। इंडियन आर्मी गहमर में 1986 तक भर्ती शिविर लगाया करती थी । सैनिकों की भारी संख्या को देखते हुए भारतीय सेना ने गांव के लोगों के लिए सैनिक कैंटीन की भी सुविधा उपलब्ध कराई थी । गाजीपुर जिले के जिला मुख्यालय गाजीपुर से 38 किमी दूर गंगा नदी के किनारे गहमर में दो डाकघर, 2 यूबीआई, 1 एसबीआई, 1 एचडीएफसी बैंक और 10 से अधिक एटीएम, सार्वजनिक पुस्तकालय और  पंचायत भवन है। निर्देशांक: 25.497°N 83.822°E पर महाराजा धामदेव सिंह द्वारा 1530 में स्थापित गहमर का क्षेत्र 1,766 हेक्टेयर (4,364 एकड़) में जनसंख्या  (2011) के अनुसार  25,994 आबादी में 13367 पुरुष और 12627 महिला  है । गहमर को धामदेव सिकरवार के वंशीय राजपूतों द्वारा  1527 ईस्वी में बाबर द्वारा कब्जा करने के बाद फतेहपुर सीकरी के आसपास से आए थे। फतेहपुर सीकरी से पूर्व की ओर चलने के बाद सिकरवार वंशज  सकरडीह में बस गए परन्तु गंगा की  बाढ़ के कारण धामदेव गहमर के पास मां कामाख्या धाम में चले गए और कामदेव रेतीपुर में बस गए। धाम देव के दो बेटे थे- रूप राम राव और दीवान राम राव। रूप राम के पुत्रों में से एक, सैनु मल राव और उनके वंशज बड़े पैमाने पर गहमर में बस गए। 1800 ईस्वी तक, गहमर में 23 पट्टियां कबीले के सदस्यों द्वारा स्थापित की गई थीं। यातायात साधन में  गहमर में पटना और मुगलसराय जंक्शन रेलवे स्टेशन से जुड़ा एक रेलवे स्टेशन और रोडवेज गहमर NH-124C पर स्थित जिला मुख्यालय गाजीपुर से लगभग 35 किमी दूर जुड़ा हुआ गहमर है।
गहमर में मां कामाख्या मंदिर , मणिभद्र महादेव मंदिर, नारायण घाट ,  गहमर के गंगा नदी के किनारे हनुमान गढ़ी का 16 वीं  सदी में कलवार द्वारा स्थापित दक्षिणेश्वर हनुमान जी की मूर्ति  हनुमान मंदिर में विराजमान ,  अष्टभुजी मंदिर में सकरहट से प्राप्त 10 वी सदी  की राजा चेरो खरवार की कुल देवी मूसा काला पाषाण में निर्मित के अवस्थित माता अष्टभुजी , 18 वी सदी की माता त्रिपुर सुंदरी , एवं 20 वीं  सदी की माता लक्ष्मी , शिव मंदिर में स्थापित शिव लिंग स्थापित है । गहमर में सरकारी और निजी शैक्षणिक संस्थानों  में 15 निजी स्कूल और 10  प्राथमिक विद्यालय , गहमर इंटर कॉलेज और सरकारी गर्ल्स इंटर कॉलेज गहमर , आरएसएम पब्लिक स्कूल, सुभाष चंद्र बोस इंटर कॉलेज ,  राम रहीम महाविद्यालय और माँ कामाख्या महाविद्यालय  है । त्रय मासिक पत्रिका साहित्य सरोज एवं गोपालराम गहमरी सेवा संस्थान गहमर वेलफेयर सोसाइटी रघुवर सिंह का कटरा में स्थापित है ।जासूसी उपन्यास के जनक गोपालराम गहमरी की जन्म भूमि है ।
 कामाख्या मंदिर  गहमर -  महाराज धामदेव द्वारा महवन में माता कामाख्या  स्थापित किया गया था | कामाख्या मंदिर के गर्भ गृह में 12 फीट लंबा, 15 फीट ऊंचा बना  माता की तीन मूर्तियां है ।  मंदिर के मध्य  में माता कामाख्या  के दाएं हाथ पर माता  महालक्ष्मी  विराजमान , बाएं हाथ पर श्री कामाख्या जी पिंडी के रूप में विद्यमान है ।  पिंडी के बगल में पीतल का बाघ एक फीट ऊंची  है । मुख्य कामाख्या देवी श्यामवर्ण और मस्तक पर चांदी का मुकुट शोभित है |
चांदी का छत्र  से युक्त माता कामाख्या सिंह पर सवार है। माता के सामने चांदी का पद चिन्ह ,आंखों में सोने का पत्र चढ़ा हुआ और मां का स्वरूप दिव्य है । मां लक्ष्मी जी की प्रतिमा संगमरमर की 2 फीट ऊंची  गौरव वर्ण है| लाल चुनरी में फूलों के हार से मां सज्जित हैं| कामाख्या देवी लाल वस्त्र एव गले में हार धारण किए हुए हैं| संपूर्ण गर्भ ग्गृह  संगमरमर से सज्जित है । गर्भ गृह में मुख्य तीन द्वार में -मुख्य द्वार पूर्व, उत्तर और दक्षिण दिशा की ओर खुलता है |द्वार पर पीतल का फाटक  है । गर्भ ग्रह के चारों तरफ परिक्रमा मार्ग की संगमरमर का बना हुआ है। 15 फीट ऊंचे स्थान पर कामख्या मंदिर है । मन्दिर के दक्षिण की ओर  धर्मशाला ,  विशाल सभाकक्ष भी निर्मित ,  मंदिर के ठीक सामने हवन कुंड है। कामाख्या  मंदिर के बाई और गुफा की तरफ मंदिर में  सरस्वती माता , श्री दुर्गा माता की ढाई फीट की सुंदर आकर्षक संगमरमर की प्रतिमाएं स्थापित एवं  मंदिर के ठीक सामने नीम का वृक्ष और  भैरव महाराज का मंदिर है ।  मुख्य मंदिर के दाएं तरफ उत्तर दिशा में दूसरी गुफा में महाकाली  की प्रतिमा 3 फीट ऊंची  श्याम वर्ण  हाथ में खड़क धारण किए हैं । मंदिर का भीतरी भाग पत्थर से सज्जित है| मंदिर के  कुआं के समीप   पर पुराणिक मां कामाख्या की प्रतिमा का अवशेष है। कामख्या मंदिर निर्मित भवन 2 एकड़ में है । कामाख्या मंदिर का क्षेत्रफल 35 एकड़ है ।
अष्टभुजी मंदिर -  गहमर का गंगा नदी के किनारे हनुमान गढ़ी में   अष्टभुजी मंदिर परिसर में सकरहट से प्राप्त चेरो खरवार की 10 वीं सदी का  अष्टभुजी मंदिर में कुल देवी मूसा काला पाषाण  से युक्त   माता अष्टभुजी , 18 वीं सदी की उजले पाषाण में निर्मित माता त्रिपुर सुंदरी एवं 20 वी सदी में उजले पाषाण में  निर्मित माता लक्ष्मी  की मूर्ति स्थापित है । हनुमान मंदिर में 16 वीं सदी में गहमर का कलवार द्वारा दक्षिणेश्वर हनुमान जी , शिव मंदिर में भगवान शिव का शिवलिंग , बल गिरी बाबा की समाधि है । हनुमान  मंदिर के पुजारी वीर बहन चौवे के अनुसार  हनुमान गढ़ी स्थित दक्षिणेश्वर हनुमान एवं माता अष्टभुजी की महानता प्रसिद्ध है । 
गोपालराम गहमरी सेवा संस्थान एवं साहित्य सरोज के संयुक्त  तत्वावधान में 8 वीं जासूसी उपन्यास के जनक गोपालराम गहमरी साहित्यकार महोत्सव 2022 एवं सम्मान समारोह 23 दिसंबर से 25 दिसंबर 2022 को आयोजित कार्यक्रम में साहित्यकार व इतिहासकार सत्येन्द्र कुमार पाठक  शामिल होने के बाद गहमर की सांस्कृतिक विरासत का परिभ्रमण 25 दिसंबर 2022 को किया गया । साहित्यकार व इतिहासकार सत्येन्द्र कुमार पाठक एवं मगध विश्वविद्यालय बोधगया के हिंदी विभाग का प्रो . डॉ . भारत सिंह द्वारा  गहमर विरासत का परिभ्रमण किया गया है । गहमरी साहित्यकार महोत्सव एवं सम्मान समारोह 2022 के अवसर पर साहित्यकार व इतिहासकार सत्येन्द्र कुमार पाठक को गोपालराम गहमरी लेखक सम्मान एवं माता कामाख्या की प्रशस्ति पत्र देकर सम्मान समारोह के संचालक अखंड गहमरी द्वारा 25 दिसंबर 2022 में किया गया । 24 दिसंबर को मुम्बई हिंदी विद्यापीठ के संस्कृति मंत्री विनोद कुमार दुबे द्वारा भारती दिसंबर 2022 एवं आरोग्य धाम शरद ऋतु 2022 का अंक देकर साहित्यकार  व इतिहासकार सत्येन्द्र कुमार पाठक को सप्रेम भेट देकर सम्मानित किया गया । सम्मान समारोह में छत्तीसगढ़ , उत्तरप्रदेश , महाराष्ट्र , राजस्थान , दिल्ली , मध्यप्रदेश , बिहार , झारखंड अनेक राज्यों के साहित्य सेवी , कवि , हिंदी सेवी ने संस्कृति , कला , लघुकथा , कविता की प्रस्तुति दी । बिहार हिंदी साहित्य सम्मेलन पटना के आजीवन सदस्य कवि व लेखक कमल किशोर कमल , पटना की कवित्री अमृता सिन्हा आदि लोगों ने कविता एवं लघु कथा की प्रस्तुति दी है ।

सोमतिती विद्या और लक्ष्मण रेखा ..


सनातन धर्म ग्रंथों में सोमतिती विद्या का उल्लेख किया गया है । सोमतिती विद्या का प्रयोग त्रेतायुग में शेषावतार लक्षमण और द्वापर युग में भगवान कृष्ण द्वारा किया गया है । त्रेतायुग में सोमतिती विद्या का नामकरण  लक्षमण रेखा किया गया है।सोमतिती विद्या व  लक्ष्मण रेखा का उल्लेख महर्षि श्रृंगी ने सोमतिती वेदमन्त्र का रूप दिया है ।। सोमंब्रही वृत्तं रत: स्वाहा वेतु सम्भव ब्रहे वाचम प्रवाणम अग्नं ब्रहे रेत: अवस्ति। सोमतिती वेदमंत्र कोड है । उस सोमना कृतिक यंत्र का, पृथ्वी और बृहस्पति के मध्य कहीं अंतरिक्ष में  केंद्र है जहां यंत्र को स्थित किया जाता है। वह यंत्र जल, वायु और अग्नि के परमाणुओं को अपने अंदर सोखता है, कोड को उल्टा कर देने पर अग्नि और विद्युत के परमाणुओं को वापस बाहर की तरफ धकेलता है।  महर्षि भारद्वाज ऋषिमुनियों के साथ भ्रमण करते हुए वशिष्ठ आश्रम पहुंचने के पश्चात  महर्षि भारद्वाज ने महर्षि वशिष्ठ से जानकारी के क्रम में अयोधया के  राजकुमार राम , भरत और शत्रुघ्न  की शिक्षा दीक्षा कहाँ तक पहुंची है? महर्षि वशिष्ठ ने कहा कि ब्रह्मचारी राम ने आग्नेयास्त्र वरुणास्त्र ब्रह्मास्त्र का संधान करना सीखा और धनुर्वेद में पारंगत हुआ है । महर्षि विश्वामित्र के द्वारा,  ब्रह्मचारी लक्ष्मण ने सोमतिती विद्या सीख रहा है । त्रेतायुग में पृथ्वी पर चार गुरुकुलों में वह विद्या सिखाई जाती थी । महर्षि विश्वामित्र के गुरुकुल , महर्षि वशिष्ठ के गुरुकुल ,  महर्षि भारद्वाज के गुरुकुल  और उदालक गोत्र के आचार्य शिकामकेतु के गुरुकुल का उल्लेख श्रृंगी ऋषि द्वारा किया गया है । शृंगी ऋषि  के अनुसार  लक्ष्मण सोमतित  विद्या में पारंगत था । ब्रह्मचारी वर्णित में सोमतिती विद्या का अच्छा जानकार था। सोमंब्रहि वृत्तं रत: स्वाहा वेतु सम्भव ब्रहे वाचम प्रवाणम अग्नं ब्रहे रेत: अवस्ति 
सोमतिती  मंत्र को सिद्ध करने से सोमना कृतिक यंत्र में जिसने अग्नि के वायु के जल के परमाणु सोख लिए हैं उन परमाणुओं में फोरमैन , आकाशीय विद्युत मिलाकर उसका पात बनाया जाता है,,फिर उस यंत्र को एक्टिवेट करें और उसकी मदद से लेजर बीम  किरणों से उस रेखा को पृथ्वी पर गोलाकार खींच दें।उसके अंदर रहेगा वह सुरक्षित रहेगा, लेकिन बाहर से अंदर अगर कोई जबर्दस्ती प्रवेश करना चाहे  उसे अग्नि और विद्युत का ऐसा झटका लगेगा कि वहीं राख बनकर उड़ जाएगा और व्यक्ति या वस्तु प्रवेश कर रहा हो, ब्रह्मचारी लक्ष्मण सोमतिती विद्या के इतने जानकार  गए थे कि कालांतर में सोमतिती  विद्या सोमतिती न कहकर लक्ष्मण रेखा कहलाई जाने लगी थी । महर्षि दधीचि, महर्षि शांडिल्य सोमतिती विद्या को जानते थे । श्रृंगी ऋषि के अनुसार योगेश्वर भगवान श्रीकृष्ण सोमति विद्या को जानने वाले अंतिम थे। भगवान कृष्ण ने द्वापर युग में  कुरुक्षेत्र के धर्मयुद्ध में मैदान के चारों तरफ यह रेखा खींच दी ताकि युद्ध में जितने भयंकर अस्त्र शस्त्र चलने वाली की अग्नि का ताप युद्धक्षेत्र से बाहर जाकर दूसरे प्राणियों को संतप्त नही किया था । सतयुग में दधीचि ऋषि , भृगु ऋषि ,अगस्त ऋषि ने सोमब्रही विद्या , सोमतिती विद्या का ज्ञान था ।

शुक्रवार, दिसंबर 16, 2022

चतुर्दिक विकास का सशक्त माध्यम संस्कार..


सनातन धर्म के विभिन्न ग्रंथों में मानवीय जीवन के चतुर्दिक विकास का माध्यम षोडश संस्कार का उल्लेख किया गया है।  मानव को गर्भाधान संस्कार से अन्त्येष्टि संस्कार  तक  षोडश संस्कार किए जाते हैं।  सनातन धर्म में गर्भाधन से मृत्यु तक १६ संस्कारों होते है। षोडश संस्कार के प्रवर्तक देवता द्वारा पूजा सम्प्रदाय के तहत आस्था दर्शन , पुनर्जन्म , कर्म , माया , दर्शन , धर्म , वेदांत , योग , आयुर्वेद में शाकंभरी ,युग में संस्कार , और भक्ति का संचार कराया गया है । 
वेदसंहिता , वेदांग ,आरण्यक , उपनिषद् · श्रीमद्भगवद्गीता ,रामायण ·, महाभारत ,सूत्र , पुराण , गौतम स्मृति   में षोडश संस्कार का बर्णन किया गया है ।
01 . गर्भाधान संस्कार -  सनातन धर्म शास्त्रों में सोलह संस्कारों में प्रथम  गर्भाधान  है। गृहस्थ जीवन में प्रवेश के उपरान्त प्रथम क‌र्त्तव्य के रूप में गर्भाधान  संस्कार को मान्यता दी गई है। गृहस्थ जीवन का प्रमुख उद्देश्य श्रेष्ठ सन्तानोत्पत्ति है। उत्तम संतति की इच्छा रखनेवाले माता-पिता को गर्भाधान से पूर्व अपने तन और मन की पवित्रता के लिये गर्भाधान   संस्कार करना आवश्यक । वैदिक काल में  गर्भाधान संस्कार अति महत्वपूर्ण था। 02 . पुंसवन संस्कार - गर्भस्थ शिशु के मानसिक विकास की दृष्टि से एवं गर्भाधान के दूसरे या तीसरे महीने में पुंसवन संस्कार को मनीषियों ने सन्तानोत्कर्ष के उद्देश्य से किये जाने वाले  अनिवार्य माना है। गर्भस्थ शिशु से संस्कार को शुभ नक्षत्र में सम्पन्न किया जाता है। पुंसवन संस्कार का प्रयोजन स्वस्थ एवं उत्तम संतति को जन्म देना है। विशेष तिथि एवं ग्रहों की गणना के आधार पर  गर्भधान करना उचित है। 03 . सीमन्तोन्नयन संस्कार -   सीमन्तोन्नयन को सीमन्तकरण अथवा सीमन्त संस्कार सौभाग्य संपन्न होना है। गर्भपात रोकने के साथ-साथ गर्भस्थ शिशु एवं उसकी माता की रक्षा करना सीमन्तोन्नयन संस्कार काउद्देश्य है। संस्कार के माध्यम से गर्भिणी स्त्री का मन प्रसन्न रखने के लिये सौभाग्यवती स्त्रियां गर्भवती की मांग भरती हैं। सीमन्तोन्नयन संस्कार गर्भ धारण के छठे अथवा आठवें महीने में होता है। 04 . जातकर्म -  नवजात शिशु के नालच्छेदन से पूर्व जातकर्म संस्कार को करने से  दैवी जगत् से प्रत्यक्ष सम्पर्क में आनेवाले बालक को मेधा, बल एवं दीर्घायु के लिये स्वर्ण खण्ड से मधु एवं घृत वैदिक मंत्रों के उच्चारण के साथ चटाया जाता है। दो बूंद घी तथा छह बूंद शहद का सम्मिश्रण अभिमंत्रित कर चटाने के बाद पिता यज्ञ करता है तथा नौ मन्त्रों का उच्चारण के बाद बालक के बुद्धिमान, बलवान, स्वस्थ एवं दीर्घजीवी होने की प्रार्थना करता है। जातकर्म संस्कार के  बाद माता बालक को स्तनपान कराती है। 05 . नामकरण -  जन्म के ग्यारहवें दिन  धर्माचार्यो ने जन्म के दस दिन तक अशौच (सूतक) मानने के बाद  नामकरण  संस्कार ग्यारहवें दिन किया जाता है। महर्षि याज्ञवल्क्य तथा ज्योतिषविदों द्वारा नामकरण  संस्कार को शुभ नक्षत्र अथवा शुभ दिन में करना उचित कहा गया हैं। मनीषियों के अनुसार नामकरण से व्यक्तित्व के विकास होता है। धर्म विज्ञानियों ने बहुत शोध कर नामकरण संस्कार का आविष्कार किया। ज्योतिष विज्ञान  नाम के आधार पर व्यक्ति का  भविष्य की रूपरेखा तैयार करता है। 06 . निष्क्रमण - दैवी जगत् से शिशु की प्रगाढ़ता बढ़े तथा ब्रह्माजी की सृष्टि से वह अच्छी तरह परिचित होकर दीर्घकाल तक धर्म और मर्यादा की रक्षा करते हुए इस लोक का भोग करना निष्क्रमण संस्कार में शिशु को सूर्य तथा चन्द्रमा की ज्योति दिखाने का विधान है। भगवान भास्कर के तेज तथा चन्द्रमा की शीतलता से शिशु को अवगत कराना है। मनीषियों की शिशु को तेजस्वी तथा विनम्र बनाने की परिकल्पना एवं देवी-देवताओं के दर्शन तथा उनसे शिशु के दीर्घ एवं यशस्वी जीवन के लिये आशीर्वाद ग्रहण किया जाता है। जन्म के चौथे महीने संस्कार को करने का विधान है। तीन माह तक शिशु का शरीर बाहरी वातावरण यथा तेज धूप, तेज हवा आदि के अनुकूल नहीं होता है इसलिये प्राय: तीन मास तक उसे बहुत सावधानी से घर में रखना चाहिए। शिशु समाज के सम्पर्क में आकर सामाजिक परिस्थितियों से अवगत कराया जाता है।
गौतम स्मृति में 48 संस्कार , महर्षि अंगिरा ने 25 संस्कार , महर्षि व्यास ने संस्कारों की संख्या 16 और मनु स्मृति में 13 संस्कार उल्लेखनीय हैं। मनुष्य की शारीरिक एवं मानसिक स्थिति का द्योतक संस्कार हैं। संस्कार के कारण मनुष्य को योग्य एवं उचित प्रतिष्ठा प्राप्त होती है। खान से निकला हुआ सोना अत्यन्त मलिन को , आग में तपाकर उसे शुद्ध किया जाता है उसी प्रकार स्मृतिकारों , महर्षियों ने जीवन को अपने लक्ष्य तक पहुँचाने के लिए विविध संस्कारों की व्यवस्था कर दिया  है।आचार विचार और संस्कार का पारस्परिक सम्बन्ध है, इसीलिए सनातन हिन्दू संस्कृति में संस्कारों पर विशेष बल दिया गया है। गौतम स्मृति एवं महर्षि व्यास द्वारा  सोलह संस्कार में गर्भाधान , कर्णवेध ,. पुंसवन , उपनयन , सीमन्तोन्नयन , वेदारम्भ , जातकर्म , केशान्त ,  नामकरण , समावर्तन ,. निष्क्रमण, . विवाह , अन्नप्राशन ,विवाहाग्नि परिग्रह , चूड़ाकरण का वर्णन किया गया है । व्यास स्मृति 1/13/15 के अनुसार . त्रेताग्नि संग्रह गर्भाधानं पुंसवनं सीमन्तो जातकर्म च। नामक्रियानिष्क्रमणेऽन्नाशनं वपनक्रिया॥ कर्णवेधो व्रतादेशो वेदारम्भक्रियाविधिः। केशान्तः स्नानमुद्वाहो विवाहाग्निपरिग्रहः॥ त्रेताग्निसंग्रहश्चेति संस्काराः षोडश स्मृताः।
अन्नप्राशन संस्कार -  संस्कार के द्वारा माता के गर्भ में मलिन भक्षण जन्य दोष बालक में मलिन भक्षण दोष नाश हो जाता है। बालक 6-7 मास का होता है और दाँत निकलने से पाचनशक्ति प्रबल होने लगती है । शुभ मुहूर्त में देवताओं का पूजन करने के बाद माता-पिता आदि सोने या चाँदी के चम्मच से बालक को खीर आदि पुष्टिकारक अन्न चटाते हैं।
अथर्ववेद 8/2/18  के अनुसार शिवौ ते स्तां व्रीहियवावबलासावदोमधौ। एतौ यक्ष्मं वि बाधेते एतौ मुञ्चतो अंहसः॥
अर्थ – हे बालक ! जौ और चावल तुम्हारे लिये बलदायक तथा पुष्टिकारक हों, क्योंकि ये दोनों वस्तुएँ यक्ष्मा नाशक हैं तथा देवान्न होने से पापनाशक हैं। चूड़ाकरण संस्कार -  चूड़ाकरण संस्कार में  फल बल, आयु तथा तेज की वृद्धि करना है। इसे प्रायः तीसरे, पाँचवें या सातवें वर्ष में अथवा कुल परम्परा का विधान है। मस्तक के भीतर ऊपर की ओर बालों का भँवर होता है, वहाँ सम्पूर्ण नाड़ियों एवं संधियों का मेल हुआ है। स्थान को ‘अधिपति’ नामक मर्मस्थान कहा गया है, इस मर्मस्थान की सुरक्षा के लिये ऋषियों ने उस स्थान पर चोटी रखने का विधान किया है। शुभ मुहूर्त में कुशल नाई से बालक का मुण्डन कराना चाहिए। इसके बाद सिर में दही-मक्खन लगाकर बालक को स्नान कराकर मांगलिक क्रियाएँ होती है । यजुर्वेद 363 के अनुसार नि वर्त्तयाम्यायुषेऽन्नाद्याय प्रजननाय रायस्पोषाय सुप्रजास्त्वाय सुवीर्याय॥ अर्थात – हे बालक ! मैं तेरे दीर्घ आयु के लिये तथा तुम्हें अन्न के ग्रहण करने में समर्थ बनाने के लिये, उत्पादन शक्ति प्राप्ति के लिये, ऐश्वर्य वृद्धि के लिये, सुन्दर संतान के लिये, बल तथा पराक्रम प्राप्ति के योग्य होने के लिये तेरा चूड़ाकरण (मुण्डन) संस्कार करता हूँ। कर्णवेध संस्कार -  पूर्ण पुरुषत्व एवं स्त्रीत्व की प्राप्ति के लिये कर्णभेद  संस्कार किया जाता है। संस्कार को छः मास से लेकर सोलहवें मास तक अथवा तीन, पाँच आदि विषम वर्ष में अथवा कुल परम्परा के अनुसार संपन्न किया जाता है।ब्राह्मण और वैश्य का रजत शलाका (सूई) से, क्षत्रिय का स्वर्ण शलाका से तथा शूद्र का लौह शलाका द्वारा कान छेदने का विधान है । वैभवशाली पुरुषों को स्वर्ण शलाका से कर्णभेद क्रिया सम्पन्न करते है। बालक के प्रथम दाहिने कान में फिर बायें कान में सूई से छेद करे। बालिका के पहले बायें फिर दाहिने कान के वेध के साथ बायीं नासिका के वेध का  विधान है। बालकों को कुण्डल आदि तथा बालिका को कर्णाभूषण आदि पहनना चाहिये। उपनयन संस्कार- उपनयन  संस्कार से द्विजत्व की प्राप्ति होती है। शास्त्रों तथा पुराणों मेंउल्लेख किया गया है कि  उपनयन  संस्कार के द्वारा ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य का द्वितीय जन्म होता है। विधिवत यज्ञोपवीत धारण करना  संस्कार का मुख्य अंग है। संस्कार के द्वारा अपने आत्यन्तिक कल्याण के लिये वेदाध्ययन तथा गायत्री जप आदि कर्म करने का अधिकार प्राप्त होता है। वेदारम्भ संस्कार - बालक का वेदाध्ययन में अधिकार प्राप्त हो जाता है। ज्ञानस्वरूप वेदों के सम्यक अध्ययन से पूर्व मेधाजनन नामक एक उपांग संस्कार करने का विधान है। बालक की मेधा, प्रज्ञा, विद्या तथा श्रद्धा की अभिवृद्धि होती है और वेदाध्ययन आदि में विशेष अनुकूलता प्राप्त होती है तथा विद्याध्ययन में कोई विघ्न नहीं होने पाता। गणेश और सरस्वती की पूजा करने के पश्चात वेदारम्भ (विद्यारम्भ) में प्रविष्ट होने का विधान है। तत्वज्ञान की प्राप्ति कराना संस्कार का प्रयोजन है। यह वेदारम्भ मुख्यतः ब्रह्मचर्याश्रम संस्कार है। केशान्त संस्कार - वेदारम्भ संस्कार में ब्रह्मचारी गुरुकुल में वेदों का स्वाध्याय तथा अध्ययन करता है। उस समय वह ब्रह्मचर्य का पूर्ण पालन करता है तथा उसके लिये केश-दाढ़ी, मुंज, मेखला आदि धारण करने का विधान है। जब विद्याध्ययन पूर्ण हो जाता है, तब गुरुकुल में ही केशान्त संस्कार सम्पन्न होता है। संस्कार में आरम्भ में सभी संस्कारों की तरह गणेशादि देवों का पूजन कर यज्ञादि के सभी अङ्गभूत कर्मों का सम्पादन करना पड़ता है।दाढ़ी बनाने की क्रिया सम्पन्न की जाती है। यह संस्कार केवल उत्तरायण में किया जाता है तथा प्रायः 16 वर्ष में होता है। समावर्तन संस्कार - समावर्तन विद्याध्ययन का अंतिम संस्कार है। विद्याध्ययन पूर्ण हो जाने के बाद स्नातक ब्रह्मचारी अपने पूज्य गुरु की आज्ञा पाकर अपने घर में समावर्तित होता है ।  गृहस्थ जीवन में प्रवेश पाने का अधिकारी हो जाना समावर्तन संस्कार का फल है। वेद मन्त्रों से अभिमन्त्रित जल से भरे हुए 8 कलशों से विशेष विधिपूर्वक ब्रह्मचारी को स्नान कराया जाता है, इसलिए यह वेदस्नान संस्कार है। ऋग्वेद 1/25 /21 के अनुसार उदुत्तमं मुमुग्धि नो वि पाशं मध्यमं चृत। अवाधमानि जीवसे॥ अर्थ – हे वरुणदेव ! आप हमारे कटि एवं ऊर्ध्व भाग के मूँज, उपवीत एवं मेखला को हटाकर सूत की मेखला तथा उपवीत पहनने की आज्ञा दें और निर्विघ्न अग्रिम जीवन का विधान करें। विवाह संस्कार - पुराणों के अनुसार ब्राह्म आदि उत्तम विवाहों से उत्पन्न पुत्र पितरों को तारने वाला होता है। 
विवाह संस्कार - भारतीय संस्कृति में  महत्वपूर्ण विवाह संस्कार  है। कन्या और वर दोनों के स्वेच्छाचारी होकर विवाह करने की आज्ञा नहीं प्रदान की है। पाणिग्रहण संस्कार देवता और अग्नि को साक्षी बनाकर करने का विधान है। भारतीय संस्कृति में  दाम्पत्य सम्बन्ध जन्म-जन्मान्तर है। विवाह संस्कार में होम आदि क्रियाएँ जिस अग्नि में सम्पन्न की जाती हैं, वह ‘आवसथ्य’  अग्निव  विवाहाग्नि  कहा जाता है। अग्नि का आहरण तथा परिसमूहन आदि क्रियाएँ  संस्कार में सम्पन्न होती हैं। विवाह के बाद जब वर-वधू अपने घर आने लगते हैं, तब उस स्थापित अग्नि को घर लाकर किसी पवित्र स्थान में प्रतिष्ठित कर उसमें प्रतिदिन अपनी कुल परम्परा के अनुसार सायं-प्रातः हवन करना आवश्यक है । नित्य हवन विधि द्विजाति के लिये आवश्यक बताई गयी है। सभी वैश्वदेवादि स्मार्त कर्म तथा पाक यज्ञ  अग्नि में अनुष्ठित किये जाते हैं। त्रेताग्नि संग्रह संस्कार विवाहाग्नि परिग्रह संस्कार के परिचय में विवाह में घर में लायी गयी आवसथ्य अग्नि प्रतिष्ठित की जाती है और उसी में स्मार्त कर्म आदि अनुष्ठान किये जाते हैं।आवसध्य स्थापित अग्नि के अतिरिक्त तीन अग्नियों दक्षिणाग्नि, गार्हपत्य तथा आहवनीय  की स्थापना तथा उनकी रक्षा का विधान भी शास्त्रों में निर्दिष्ट है। अग्नियाँ त्रेताग्नि में श्रौतकर्म सम्पादित होते हैं। भगवान श्रीराम जब लंका विजय कर सीता जी के साथ पुष्पक विमान से वापस लौट रहे थे। तब उन्होंने मलयाचल के ऊपर से आते समय सीता को अगस्त्य जी के आश्रम का परिचय देते हुए बताया कि यह अगस्त्य मुनि का आश्रम है । त्रेताग्नि में सम्पादित यज्ञों के सुगन्धित धुएँ को सूँघकर मैं अपने को सभी पाप-तापों से मुक्त अनुभव कर रहा हूँ। अन्त्येष्टि क्रिया संस्कार से पितृमेध, अन्त्यकर्म, अन्त्येष्टि आदि नामों से जाना जाता है। अंत्येष्टि  संस्कार में  दाहक्रिया से लेकर द्वादशा तक के कर्म सम्पन्न किये जाते हैं। महर्षि अंगिरा के अनुसार  जिस प्रकार अनेक रंगों का उचित प्रयोग करने पर चित्र में सुंदरता एवं वास्तविकता आ जाती है, ठीक उसी प्रकार चरित्र निर्माण भी विविध संस्कारों के द्वारा प्राप्त होता है। जन्म से पहले के तीन संस्कार में गर्भाधान , पुंसवन और  सीमन्तोन्नयन है । गौतम स्मृति में 48 संस्कार , महर्षि अंगिरा ने 25 संस्कार,  महर्षि व्यास ने संस्कारों की संख्या 16 निश्चित की है। जिस क्रिया के योग से मनुष्य में सद्गुणों का विकास एवं संवर्धन होने की  क्रिया को संस्कार कहते हैं। जब तक किसी पदार्थ का संस्कार (शुद्धिकरण) नहीं होता, तब तक वह सदोष और गुणहीन ही रहता है। शैशव संस्कारों में  जातकर्म , नामकरण ,  निष्क्रमण , अन्नप्राशन , चूड़ाकरण , कर्णवेध एवं  गृहस्थ जीवन संस्कार में  विवाह और  विवाहाग्नि परिग्रह है । सूत्र काल के अनुसार  विवाह के 8 प्रकार में. ब्रम्ह विवाह ,  दैव विवाह ,  आर्ष विवाह ,  प्रजापत्य विवाह ,  गन्धर्व विवाह ,  आसुर विवाह : राक्षस विवाह , . पैशाच विवाह  है।7वीं-6वीं शताब्दी ई०पू० से लेकर 3री० शताब्दी ई०पू० तक का काल सूत्र काल कहा जता है। सूत्र साहित्य में श्रौत सूत्र , गृह्य सूत्र , धर्म सूत्र है । सूत्र साहित्य : श्रौतसूत्र , गृह्यसूत्र , धर्मसूत्र , शुल्वसूत्र के अनुसार शुद्ध अंतःकरण में दांपत्य जीवन सुखमय व्यतीत हो पाता है। ब्रह्म विवाह , दैव विवाह , आर्ष विवाह व प्रजापत्य विवाह उत्तम कोटि के विवाह और  गंधर्व विवाह, असुर विवाह, राक्षस विवाह, पैशाच  विवाह निम्न कोटि के  विवाह  थे।  मनुस्मृति के अनुसार  उत्तम विवाहों से उत्पन्न संतान गुणवान , शीलवान , सम्पत्तिवान , आदर्श , योग्य , धार्मिक , यशश्वी , अध्ययनशील व सदाचारी होता है।  निन्दनीय विवाहों से उत्पन्न संतान दुराचारी , व्यभिचारी , अधार्मिक , मिथ्यावादी व अन्य दुर्गुणों से युक्त होते हैं। ब्राह्मो दैवस्तथैवार्षः प्राजापत्यस्तथासुरः। गान्धर्वो राक्षसश्चैव पैशाचश्चाष्टमोऽधमः । ब्रह्म  विवाह को सबसे अच्छा और सर्वश्रेष्ठ माना गया है। विवाह वर – कन्या के माता पिता की पूर्ण सहमति से होता था। शास्त्रों के अनुसार इस विवाह में एक पुत्री का पिता योग्य वर की खोज कर उसे बुलाकर अपनी सामर्थ्य के अनुसार अलंकारों से सजा-धजा कर कन्यादान दिया जाता है।मनु ने ब्राह्म विवाह का उल्लेख किया है कि वेदों के ज्ञाता शीलवान वर को स्वयं बुलाकर, वस्त्र, आभूषण आदि से सुसज्जित कर पूजा एवं धार्मिक विधि से कन्यादान करना ब्राह्म विवाह है।याज्ञवल्क्य के अनुसार  विवाह के बाद पैदा पुत्र इक्कीस पीढ़ियों को पवित्र करने वाला होता है ।भारत में विवाह वर्तमान में  सर्वाधिक प्रचलित हैं।दैव  विवाह के अन्तर्गत कन्या का पिता  यज्ञ  की व्यवस्था कर एवं वस्त्र-अलंकार से सुसज्जित कन्या का दान उस व्यक्ति को कर देता है जो उस यश को समुचित ढंग से पूरा करता है। प्राचीन काल में गृहस्थ लोग समय-समय पर यज्ञ करवाते थे और ऋषियों के साथ आए हुए नवयुवक पुरोहितों में से किसी के साथ अपनी पुत्री का विवाह कर देते थे। देवताओं की पूजा के समय दैव विवाह सम्पन्न होता था ।मनु ने लिखा है कि सद्कर्म में लगे पुरोहित को जब वस्त्र और आभूषणों में सुसज्जित कन्या दी जाती है, तो इसे देव विवाह कहा जाता है। डॉ. इन्द्रदेव के अनुसार, “यज्ञों की महत्ता और अपनी कन्या से किसी के विवाह को उसके आदर की पराकाष्ठा मानना, विवाह के इस रूप के कारण प्रतीत होते हैं। देव विवाह की मनु ने प्रशंसा करते हुए विवाह के उत्पन्न सन्तान सात पीढी ऊपर और सात पीढ़ी नीचे तक के लोगों का उद्धार कर देती है। आर्ष विवाह  में विवाह का इच्छुक वर कन्या के पिता को एक गाय और एक बैल अथवा इनके दो जोड़े प्रदान करके विवाह करता है। गौतम ने धर्मसूत्र में लिखा है, “आर्ष विवाह में वह कन्या के पिता एक गाय और एक बैल प्रदान करता है। याज्ञवल्क्य लिखते हैं कि दो गाय लेकर जब कन्यादान किया जाय तब उसे आर्ष विवाह कहते हैं।मनु के अनुसार  “गाय और बैल का एक युग्म वर के द्वारा धर्म कार्य हेतु कन्या के लिए देकर विधिवत् कन्यादान करना आर्ष विवाह कहा जाता है। आर्ष अर्थात ऋषि किसी कन्या के पिता को गाय और बैल भेंट के रूप में देता है जब  यह समझ लिया जाता था कि अब उसने विवाह करने का निश्चय कर लिया है।  आचार्यों ने बैल को धर्म का एवं गाय को पृथ्वी का प्रतीक माना  है । विवाह की साक्षी के रूप में दिये जाते थे। कन्या के पिता को दिया जाने वाला जोड़ा पुनः वर को लौटा दिया जाता था । प्रजापत्य विवाह : में पिता सम्मानपूर्वक एक व्यक्ति को यह उपदेश देकर “तुम दोनों एक साथ रहकर आजीवन धर्म का पालन करो” , विधिवत वर की पूजा करके , अपनी पुत्री उपहार स्वरूप देता था। याज्ञवल्क्य के अनुसार प्रजापत्य विवाह से उत्पन्न संतान अपने वंश की पीढ़ियों को पवित्र करने वाली होती है। ‘सत्यार्थप्रकाश‘ में उल्लेख है कि , ‘वर और वधु दोनों का विवाह धर्म की वृद्धि के लिए  कामना करना  प्रजापत्य का आधार है। गन्धर्व विवाह को आधुनिक युग में  ‘प्रेम विवाह’ की  संज्ञा दे सकते हैं। युवक-युवती तब परस्पर प्रेम या काम के वशीभूत होकर स्वेच्छा से संयोग कर लेते हैं उस विवाह को गान्धर्व विवाह कहा जाता है। याज्ञवल्क्य‘ पारस्परिक स्नेह द्वारा होने वाले विवाह को गान्धर्व विवाह कहते हैं। महर्षि गौतम के अनुसार, “इच्छा रखने वाली कन्या के साथ अपनी इच्छा से सम्बन्ध स्थापित करना गान्धर्व विवाह कहलाता है। गंधर्व विवाह में माता-पिता की इच्छा का कोई महत्व नहीं होता। वास्तविक विवाह से पूर्व भी प्रेमिका से शरीर संयोग हो सकता है और बाद में उचित विधियों से सम्पन्न आज के प्रेम विवाह प्राचीनकाल के गान्धर्व विवाह माने जाते हैं। प्राचीनकाल में गंधर्व  विवाह  रूपवान गान्धर्व जातियों के लोग करते थे ।   बौधायन धर्मसूत्र और वात्स्यायन द्वारा कामसूत्र में गंधर्व विवाह को  आदर्श विवाह स्वीकार किया गया हैं।दुष्यंत का शकुंतला के साथ गान्धर्व विवाह  हुआ था। आसुर विवाह को  कय विवाह है अर्थात कन्या मूल्य चुकाया जाता है। इस विवाह में व्यक्ति द्वारा कन्या और कन्या के परिवार के लोगों को शक्ति के अनुसार धन देकर अपनी इच्छा से कन्या का ग्रहण किया जाता है।मनु ने उल्लेख किया  हैं, “कन्या के परिवार वालों एवं कन्या को अपनी शक्ति के अनुसार धन देकर अपनी इच्छा से कन्या को ग्रहण करना असुर विवाह कहा जाता है। याज्ञवल्क्य एवं गौतम के अनुसार अधिक धन देकर कन्या को ग्रहण करना असुर विवाह कहलाता है। कन्या मूल्य देकर सम्पन्न किये जाने वाले सभी विवाह असुर विवाह  हैं। कन्या मूल्य देना कन्या का सम्मान करना है साथ ही कन्या के परिवार की उसके चले जाने की क्षतिपूर्ति है। असुर  विवाह निम्न वर्ग में होता था । उच्च वर्ग में असुर विवाह घृणित दृष्टि से देखा जाता था। राक्षस विवाह  में लड़ाई-झगड़ा करके, छीन झपट कर कपटपूर्वक या युद्ध में हरण करके किसी स्त्री से विवाह कर लेना राक्षस विवाह कहा जाता है। मनु के अनुसार, “मारकर, अंग छेदन करके घर को तोड़कर हल्ला करता हुआ, रोती हुई कन्या को बलात् अपहरण “युद्ध में कन्या का राक्षस विवाह कहलाता है। याज्ञवल्क्य के अनुसार “युद्ध में कन्या का अपहरण करके उसके साथ विवाह करना ही राक्षस विवाह है।” इस प्रकार के विवाहों को प्रचलन तब तक अधिक था जब युद्धों का बहुत महत्व था और स्त्री को युद्ध का पुरस्कार माना जाता था। राक्षस विवाह में वर और वधु पक्ष के मध्य मार पीट , लड़ाई झगड़ा होता था। राक्षस विवाह अधिकतर क्षत्रिय करते थे इस कारण इसे ‘क्षात्र विवाह’ भी कहते हैं । पैशाच विवाह को सबसे निकृष्ट कोटि का है । पैशाच विवाह ऐसा विवाह है जिसमें – निद्रारत, उन्मत्त घबराई हुई, मदिरापान से प्रभावित या रास्ते में जाती हुई कन्या के साथ बल का प्रयोग करके यौन सम्बन्ध स्थापित करने के उपरान्त उससे विवाह किया जाता है। बलपूर्वक कुकृत्य कर लेने के बाद भी विवाह से संबंधित विधियों को पूर्ण कर लेने पर ऐसे विवाहों को मान्यता  दी जाती थी। वशिष्ठ एवं आपस्तम्ब ने पैशाची  विवाह को मान्यता नहीं दी है । पैसगची  विवाह को लड़की का दोष न होने के कारण कौमार्य भंग हो जाने के बाद उसे सामाजिक बहिष्कार से बचाने एवं उसका सामाजिक सम्मान बनाये रखने के लिए ही स्वीकृति प्रदान की गयी है। मनु कहते हैं, “सोयी हुई उन्मत्त, घबराई हुई, मंदिरापान की हुई अथवा राह में जाती हुई लड़की के साथ बलपूर्वक कुकृत्य करने के बाद उससे विवाह करना पैशाच विवाह है । बालात्कार के  मामलों में लड़की के माता पिता बदनामी के डर से न्यायालय की शरण न लेकर उस कन्या से शादी कर देते है।
उपनयन संस्कार - यज्ञोपवीत संस्कार व उपनयन संस्कार में जनेऊ पहन कर  विद्यारंभ होता है। मुंडन और पवित्र जल में स्नान  संस्कार के अंग होते हैं। सूत से बना पवित्र धागा  यज्ञोपवीतधारी व्यक्ति बाएँ कंधे के ऊपर तथा दाईं भुजा के नीचे पहनता है। यज्ञोपवीत एक विशिष्ट सूत्र को विशेष विधि से सात ग्रन्थित करके बनाया जाता है। ब्राह्मणों के यज्ञोपवीत में ब्रह्मग्रंथि होती है। तीन सूत्रों वाले इस यज्ञोपवीत को गुरु दीक्षा के बाद हमेशा धारण किया जाता है। तीन सूत्र सनातन  त्रिमूर्ति ब्रह्मा, विष्णु और महेश के प्रतीक होते हैं। अपवित्र होने पर यज्ञोपवीत बदल लिया जाता है। बिना यज्ञोपवीत धारण किये अन्न , जल ग्रहण नहीं किया जाता। पारस्कर गृहसूत्र ऋग्वेद 2/2/11 के अनुसार यज्ञोपवीत धारण करने के लिए यज्ञोपवीतं परमं पवित्रं प्रजापतेर्यत्सहजं पुरस्तात्। आयुष्यमग्रं प्रतिमुंच शुभ्रं यज्ञोपवीतं बलमस्तु तेजः ।। छन्दोगानाम्:ॐ यज्ञो पवीतमसि यज्ञस्य तथा  त्वोपवीतेनोपनह्यामि।। यज्ञोपवीत उतारने के लिए एतावद्दिन पर्यन्तं ब्रह्म त्वं धारितं मया। जीर्णत्वात्वत्परित्यागो गच्छ सूत्र यथा सुखम्।। का मंत्र क्या जाता है। जनेऊ को उपवीत, यज्ञसूत्र, व्रतबन्ध, बलबन्ध, मोनीबन्ध और ब्रह्मसूत्र के नाम से  जाना जाता है। जिस लड़की को आजीवन ब्रह्मचर्य का पालन करने के लिए  जनेऊ धारण करती है। ब्रह्मचारी तीन और विवाहित छह धागों की जनेऊ पहनता है। यज्ञोपवीत के छह धागों में से तीन धागे स्वयं के और तीन धागे पत्नी के लिए कहा जाता हैं। आध्यात्मिक कार्य के लिए जनेऊ में तीन-सूत्र: त्रिमूर्ति ब्रह्मा, विष्णु और महेश के प्रतीक तथा देवऋण, पितृऋण और ऋषिऋण के प्रतीक और सत्व, रज और तम के प्रतीक , तीन सूत्र गायत्री मंत्र के तीन चरणों के प्रतीक , आश्रमों के प्रतीक ,  जनेऊ के 9  तारों में  एक मुख, दो नासिका, दो आंख, दो कान, मल और मूत्र के दो द्वारा मुख से अच्छा बोले और खाएं, आंखों से अच्छा देंखे और कानों से अच्छा सुनने का प्रावधान है । जनेऊ में पांच गांठ को  प्रवर में  ब्रह्म, धर्म, अर्ध, काम और मोक्ष का प्रतीक , पांच यज्ञों, पांच ज्ञानेद्रियों और पंच कर्मों का  प्रतीक है।  जनेऊ की लंबाई 96 अंगुलका  जनेऊ धारण करने वाले को 64 कलाओं और 32 विद्याओं को सीखने के लिए  32 विद्याएं चार वेद, चार उपवेद, छह अंग, छह दर्शन, तीन सूत्रग्रंथ, नौ अरण्यक है। 64 कलाओं में वास्तु निर्माण, व्यंजन कला, चित्रकारी, साहित्य कला, दस्तकारी, भाषा, यंत्र निर्माण, सिलाई, कढ़ाई, बुनाई, दस्तकारी, आभूषण निर्माण, कृषि ज्ञान आदि हैं। जनेऊ बाएं कंधे से दाये कमर पर पहनना चाहिए। मल-मूत्र विसर्जन के दौरान जनेऊ को दाहिने कान पर चढ़ा लेना चाहिए और हाथ स्वच्छ करके ही उतारना चाहिए। जनेऊधारक  को  मलमूत्र करने के बाद खुद को साफ करना है इससे  इंफेक्शन का खतरा कम से कम हो जाता है।शरीर में कुल 365 एनर्जी पॉइंट होते हैं। कान के नीचे वाले हिस्से (इयर लोब) की रोजाना पांच मिनट मसाज करने से याददाश्त बेहतर होती है।  पढ़नेवाले बच्चों के लिए बहुत उपयोगी है।  भूख कम करनी है तो खाने से आधा घंटा पहले कान के बाहर छोटेवाले हिस्से (ट्राइगस) को दो मिनट उंगली से दबाएं। भूख कम लगेगी। यहीं पर प्यास का भी पॉइंट होता है। निर्जला व्रत में लोग इसे दबाएं, तो प्यास कम लगेगी।उपयोग: डिप्रेशन, सिरदर्द, चक्कर और सेंस ऑर्गन यानी नाक, कान और आंख से जुड़ी बीमारियों में राहत। दिमागी असंतुलन, लकवा और यूटरस की बीमारियों में असरदार बुरे स्वप्न आने की स्थिति में जनेऊ धारण करने से ऐसे स्वप्न नहीं आते , जनेऊ के हृदय के पास से गुजरने से यह हृदय रोग की संभावना को कम करता है, क्योंकि इससे रक्त संचार सुचारू रूप से संचालित होने लगता है। जनेऊधारक को दांत, मुंह, पेट, कृमि, जीवाणुओं के रोगों से बचाती है।जनेऊ को दायें कान पर धारण करने से कान की नस दबती है, जिससे मस्तिष्क की कोई सोई हुई तंद्रा कार्य करती है।दाएं कान की नस अंडकोष और गुप्तेन्द्रियों से जुड़ी होती है। मूत्र विसर्जन के समय दाएं कान पर जनेऊ लपेटने से शुक्राणुओं की रक्षा होती है। कान में जनेऊ लपेटने से मनुष्य में सूर्य नाड़ी का जाग्रण होता है। कान पर जनेऊ लपेटने से पेट संबंधी रोग एवं रक्तचाप की समस्या से  बचाव है।जनेऊ यानि दूसरा जन्म पहले माता के गर्भ से दूसरा धर्म में प्रवेश  है। उपनयन यानी ज्ञान के नेत्रों का प्राप्त होना, यज्ञोपवीत  यज्ञ – हवन करने का अधिकार प्राप्त होना।जनेऊ धारण करने से पूर्व जन्मों  के बुरे कर्म नष्ट हो जाते हैं।. जनेऊ धारण करने से आयु, बल, और बुद्धि में वृद्धि होती है। जनेऊ धारण करने से शुद्ध चरित्र और जप, तप, व्रत की प्रेरणा मिलती है। जनेऊ से नैतिकता एवं मानवता के पुण्य कर्तव्यों को पूर्ण करने का आत्म बल मिलता है।. जनेऊ के तीन धागे माता-पिता की सेवा और गुरु भक्ति का कर्तव्य बोध कराते हैं।यज्ञोपवीत संस्कार बिना विद्या प्राप्ति, पाठ, पूजा अथवा व्यापार करना सभी निर्थरक है।जनेऊ के तीन धागों  में 9 लड़ होती है, फलस्वरूप जनेऊ पहनने से 9 ग्रह प्रसन्न रहते हैं ।शास्त्रों के अनुसार ब्राह्मण बालक 09 वर्ष, क्षत्रिय 11 वर्ष और वैश्य के बालक का 13 वर्ष के पूर्व संस्कार होना चाहिये और किसी भी परिस्थिति में विवाह योग्य आयु के पूर्व करते हैं।

गुरुवार, दिसंबर 08, 2022

सभ्यता एवं संस्कृति का स्थल है भारत..

                              
भारतीय शास्त्रों के अनुसार खनिज निकालने के लिये देव-असुर सहयोग के लिये मित्र थे। पश्चिम तट के निवासियों का  10 हजार ई.पू. के जल-प्रलय के पूर्व है। पुराणों में जल-प्रलय के पूर्व का  प्राचीन सुमेरिया के  इलियड से हेरोडोटस तक के ग्रीक लेखकों ने की है । विदेशी  साशकों द्वारा  भारतीय इतिहास को नष्ट करने के कारण  भारतीयों के मुख्य भाग को लुप्त करने का प्रयास किया गया और पुरातत्त्व अवशेषों के मनमाना निष्कर्ष अपनी इच्छा अनुसार निकाले गये हैं। शबर जाति के लोग वराह अवतार के समय पूर्व भारत के जगन्नाथ क्षेत्र में शबर जाति की सहायता से हिरण्याक्ष पर आक्रमण हुआ था। शावर जाति द्वारा खनिजों के विशेषज्ञ एवं शाबर मन्त्र के प्रणेता थे । दैत्यराज हिरण्यकशिपु के प्रपौत्र प्रह्लाद का पौत्र विरोचन का पुत्र बलि के समय समुद्र-मंथन  देव और असुर मिल कर खनिज निकाले थे ।  पश्चिम एशिया तथा उत्तर अफ्रीका के असुर उड़ीसा , छत्तीसगढ़ ,  झारखण्ड , कीकट प्रदेश , वनप्रदेश  में आये। अफ्रीका के जिम्बाब्वे तथा मेक्सिको में देव गये थे। चण्डी पाठ के अनुसार चाक्षुष मन्वन्तर में राजा सुरथ का शासन में  कोल संस्कृति अर्थात ऋक्ष संस्कृति  में राम काल का ऋक्ष है । मुगल एवं ब्रिटिश  द्वारा भारतीय  इतिहास को लोपित कर मूल उद्देश्य  का स्थायी शासन कर भारत को विभिन्न क्षेत्रों  तथा जातियों में खण्ड खण्ड किया और ऐतिहासिक स्थानों को मुगल शासकों द्वारा विभिन्न नामकरण किया गया था । भारत के पश्चिम उत्तर भाग में  अवशेषों की खुदाई हुयी थी । मेगास्थनीज आदि ग्रीक लेखकों ने 16 000 ई.पू. से भारतीयों को मूल निवासी कहा था । राज्य व्यवस्था का उल्लेख 6777 ई.पू . किया है।  जनवरी 19 00 ई. में  जनमेजय के 5 दान-पत्र मैसूर ऐण्टिकुअरी में प्रकाशन के अनुसार जनमेजय की तिथि 27 नवम्बर 3014 ई.पू. थी। कोलब्रुक ने १५२६ ई. करने के लिये ब्रिटिष ज्योतिषी जी बी ऐरी की मदद लेकर ज्योतिषीय गणना  की थी ।  ओपोल्जर की पुस्तक  1927 ई. के अनुसार  ग्रहणों की सूची 700 ई.पू. में  बनायी थी  । बादशाह अकबर की कैद में रहते हुये  स्मरण द्वारा मिथिला के हेमांगद ठक्कुर ने1526 ई. में  1200 वर्षों के सभी ग्रहणों की सूची बनायी थी । हस्तिनापुर का राजा युधिष्ठिर के भाई धनुर्धर अर्जुन के प्रपौत्र अभिमन्यु के पौत्र और परीक्षित के पुत्र जनमेजय ने अपने राज्य के 29 वें वर्ष में नाग वंशियों के आक्रमण का प्रतिशोध लिया था ।  जिसमें जनमेजय का  पिता परीक्षित 29 वर्ष पूर्व मारे गये थे।  हड़प्पा में जनमेजय ने प्रथम  बार नागों को पराजित किया जिसे सर्पेष्टि यज्ञ कहा गया है । हड़प्पा में   गुरु गोविन्द सिंह जी ने 1700 ई. में राममन्दिर निर्माण कर घटना का उल्लेख कराया  था। नागवंशियों के नगर को  मोहन-जो-दरो , मुर्दों का स्थान, तथा हड़प्पा , हड्डियों का ढेर हो गया। १७०० ई. हड़प्पा इतिहास 1700 ई. तथा 1900  ई. के प्रकाशित अभिलेखों से  स्पष्ट था। पुराण 5 हजार  वर्षों से प्रचलित थे ।  पुराण भारत के नैमिषारण्यके शौनक में 3100 -  2700 ई.पू. में लिखे गये थे । पुरणों का संशोधन उज्जैन के विक्रमादित्य काल 82  ई.पू.- 19 ई. में बेताल भट्ट द्वारा हुआ था । शौनक  को महाशला एवं विक्रमादित्य के केन्द्रों को विशाला उज्जैन में था।   राजा काल गणना (कैलेण्डर) आरम्भ करते थे। उज्जैन के राजाओं. में शूद्रक  756 ई.पू., विक्रमादित्य  57 ई. पू. उनके पौत्र शालिवाहन संबत प्रारम्भ किया था । श्रीहर्ष शक एवं श्री हर्ष  द्वारा 756 ई. पू . से 456 ई. पू. में  मालव गणराज्य का उल्लेख  ग्रीक लेखकों ने किय । पश्चात इतिहासकार ने श्रीहर्ष साम्राज्य का 456 ई.पू . को लुप्त कर हर्ष का शासन  को 605 - 647 ई.  ६०५-६४७ ई ,  शालिवाहन शक साम्राज्य 1292 ई.पू. को 78 ई. कर कश्मीर के 43 वें गोनन्द वंशीय राजा कनिष्क के नाम कर दिया  है । रोम में जुलियस सीजर को सीरिया के सेला में बन्दी बनाया  तथा जूलियस सीजर को उज्जैन ला कर छोड़ दिया था। विल डुरण्ट के अनुसार ब्रूटस द्वरा उज्जैन से  लौटने पर सीजर की हत्या कर दी  थी।
उत्तर भारत को आर्य तथा दक्षिण भारत को द्रविड़ कहा गया  है। ऋ गति प्रापणयोः (पाणिनि धातुपाठ १/६७०) से ऋत हुआ है। सत् = अस्तित्त्व, उसका आभास। सत्य = केन्द्रीय सत्य, सीमा और केन्द्र सहित वस्तु। ऋत = सत्य धारणाओं पर आधारित आचरण, फैला पदार्थ जिसका न केन्द्र है न सीमा। सत्य विन्दु है, ऋत क्षेत्र है। इससे अंग्रेजी में एरिया हुआ है। उत्तर भारत में प्रायः समतल भूमि आर्य क्षेत्र खेती के लिये उपयुक्त है। दक्षिण भारत समुद्र द्रव के समीप  व्यापार में धन का लेन देन होने के कारण   क्षेत्र को द्रविड़ कहा गया  हैं। भाषाओं में अन्तर होने से  ६ प्रकार के दर्श वाक् या लिपि भिन्न भिन्न कामों के लिये अलग अलग लिपि हैं। भागवत माहात्म्य के अनुसार भक्ति से ज्ञान-वैराग्य की उत्पत्ति द्रविड़ , कर्णाटक में वृद्धि तथा प्रसार महाराष्ट्र और  गुजरात तक हुआ था । अप् = द्रव से आकाश में सृष्टि , पृथ्वी पर  वेद का ज्ञान स्थल को  द्रविड़ कहा गया था। वेद या विश्व का ज्ञान  इन्द्रियों द्वारा श्रुति कहा गया हैं। श्रुति कर्ण से  वृद्धि हुयी वह कर्णाटक (आटक = भण्डार, वन) है। मूल शब्द पृथ्वी की वस्तुओं के नाम थे। विज्ञान विषयों, आकाश तथा अध्यात्म का  विस्तार किया गया । अलग-अलग ध्वनि या शब्दों का मेल मलयालम है। परिवेश को महर् को महल् कहते हैं, अतः ज्ञान का विस्तार क्षेत्र महाराष्ट्र हुआ। विस्तार की माप गुर्जर (गुर्ज = लाठी) है। भगवान् कृष्ण के अवतार के समय वेदों का  उत्तर भारत में प्रचार हुआ था । गणितीय तथा यान्त्रिक विश्व का वर्णन सांख्य के 25 तत्त्वों के अनुरूप  25 अक्षरों की लिपि है। लिपि में चेतना या ज्ञान तत्त्व मिलाने से 6 x 6 = 36  तत्त्व शैव दर्शन  के अनुरूप 36 अक्षरों की लैटिन, अरबी, गुरुमुखी लिपि हैं। इन्द्र ने ध्वनि विशेषज्ञ मरुत् की सहायता से शब्दों का 49  मूल ध्वनियो में विभाजन (व्याकृत) किया। यह ४९ मरुतों केअनुरूप 49 अक्षरों की देवनागरी लिपि है। इसमें क से ह तक के 33 व्यञ्जन ,  33  कोटि प्रकार के देवताओं के चिह्न रूप में देवों का नगर होने के कारण देवनागरी है। इन्द्र की पूर्व दिशा से पश्चिम-उत्तर मरुत दिशा तक भारत में प्रचलित है । कला के अनुरूप ६४ अक्षरों की ब्राह्मी लिपि है। वेद में विज्ञान के विशेष चिह्नों के कारण ( 8+ 9 ) 2 = 289  चिह्न में 108 स्वर, 180 व्यञ्जन तथा अनिर्णीत ॐ है। व्योम (तिब्बत) से परे (चीन -जापान में) लिपि सहस्राक्षरा है। शब्द के अर्थ 7  आधिदैविक और आध्यात्मिक के अतिरिक्त पृथ्वी पर 5 संस्था में  व्यवसाय, भूगोल, इतिहास, विज्ञान तथा प्रचलन हैं। दक्षिण के ज्ञान की उत्पत्ति होने के कारण प्राचीन स्वायम्भुव मनु 29100 ई.पू. काल का पितामह सिद्धान्त है। वैवस्वत मनु 13900 ई.पू. काल का सूर्य सिद्धान्त उत्तर भारत में है। पितामह सिद्धान्त का पुनरुद्धार कलि २७४२ ई.पू.में आर्यभट द्वारा किया गया था । पितामह सिद्धान्त को आर्य सिद्धान्त कहते थे । आर्यभट के निवास स्थान में आर्य (अजा) का अर्थ पितामह है। वेद शाखाओं में  ब्रह्म सिद्धान्त में स्वायम्भुव मनु पितामह ब्रह्मा थे। वैवस्वत मनु काल की आदित्य परम्परा को याज्ञवल्क्य ने किया था ।  कृष्ण यजुर्वेद की 86 शाखायें जम्बू , शाक , प्लक्ष , क्रौंच , पुष्कर ,  शाल्मल  और कुश   द्वीपों में थीं। शौनक चरण व्यूह के अनुसार  शुक्ल यजुर्वेद की 15 शाखा भारत में थीं । वेद के शब्द  दक्षिण भारत में  हैं। ऋग्वेद के प्रथम सूक्त में  रात-दिन के लिये दोषा-वस्ता का प्रयोग है जिनका प्रयोग केवल दक्षिण में है। नगर के लिये उरु या उर का प्रयोग दक्षिण में है। वनवासियों का मूल स्रोत  भारत के खनिज कर्मी, कूर्म अवतार के समय आये अफ्रीकी असुर,पूर्व समुद्र के आक्रमणकारी, तथा प्राचीन शासक है । खनिज कर्म-खनिज कर्म करने वाले को शबर या सौर कहते हैं। मीमांसा दर्शन की व्याख्या शबर ऋषि  की है। शिव द्वारा शबर-मन्त्र फल देते हैं। राजा इन्द्रद्युम्न के समय जगन्नाथ की लुप्त मूर्त्ति को  विद्यापति शबर ने खोजा था । जिनके वंशज भगवान जगन्नाथ के उपासक हैं तथा सवाईं महापात्र कहा जाता है। शूकर का अपभ्रंश सौर अपने मुंह या दांतों से मिट्टी खोदता है। मिट्टी  खोदनेवाले को शुकर या शबर बोलते हैं। शाबर विश्व में  हिब्रू  का कई स्थान पर बाईबिल में प्रयोग हुआ है-हिब्रू की औनलाइन डिक्शनरी के अनुसार- 7665 शाबर व शॉ बार ए प्रिमिटिव रुट टू बर्स्ट लिटर्राल्ली फ़ॉर फ़िगारतिवेली  ब्रेक डाउन ऑफ इन पीसेज अप। ब्रोकन हेर्टेड ब्रिंग टू द बर्थ क्रूस डिस्ट्रॉय हर्ट केन्च एक्स क्विट टेअर व्यू बाई मिस्टेक फ़ॉर साबर । शबर के लिये वैखानस शब्द  है। विष्णु-सहस्रनाम का ९८७ वां नाम वैखानस है । शाबर का  अर्थ शंकर भाष्य के अनुसार शुद्ध सत्त्व के लिये ग्रन्थों के भीतर प्रवेश  और  पाञ्चरात्र दर्शन का मुख्य आगम तथा वैखानस श्रौत सूत्र  है। समुद्र मन्थन के सहयोगी दैत्यराज बलि से इन्द्र के लिये तीनों लोक को भगवान वामन  द्वारा प्राप्त करने से असुर असन्तुष्ट थे ।  देवता युद्ध कर के यह राज्य नहीं ले सकते परंतु छिटपुट युद्ध जारी था । भगवान विष्णु अवतार कूर्म ने समझाया कि य0 उत्पादन होने पर तभी उस पर अधिकार के लिये युद्ध का लाभ है।  उसके लिये पृथ्वी का दोहन जरूरी है। पृथ्वी की सतह का विस्तार समुद्र है। महाद्वीपों की सीमा के रूप में 7  समुद्र , पर गौ रूपी पृथ्वी से उत्पादन के लिये 4 समुद्र (मण्डल) में कालिदास रचित रघुवंश 2/4 के अनुसार जुगोप गोरूप धरामिवोर्वीम् को स्फियर  , पृथ्वी की ठोस सतह ,समुद्र , पृथ्वी की उपरी सतह जिस पर वृक्ष उगते हैं , वायुमण्डल ,  पृथ्वी की ठोस सतह को खोदकर उनसे धातु निकालने को समुद्र-मन्थन कहा गया है। पृथिवी की  ऊपरी सतह पर खेती करना दूसरे प्रकार के समुद्र का मन्थन है। भारत में खनिज का मुख्य स्थान बिलासपुर (छत्तीसगढ़) से सिंहभूमि (झारखण्ड) तक नकशे में कछुए के आकार है। खनिज कठोर ग्रेनाइट चट्टानों के नीचे मिलने से को कूर्म-पृष्ठ भूमि कहते हैं । इसके ऊपर या उत्तर मथानी के आकार पर्वत गंगा तट को मन्दार पर्वत समुद्र मन्थन के लिये मथानी था। उत्तरी छोर पर वासुकिनाथ तीर्थ है, नागराज वासुकि को मन्दराचल घुमाने की रस्सी कहा गया है।  देव-असुरों के सहयोग के मुख्य संचालक वासुकी थे। असुर वासुकि नाग के मुख की तरफ थे जो अधिक गर्म है। यह खान के भीतर का गर्म भाग है। लगता है कि उस युग में असुर खनन में अधिक दक्ष थे अतः उन्होंने यही काम लिया। देव विरल खनिजों (सोना, चान्दी) से धातु निकालने में दक्ष थे, अतः उन्होंने जिम्बाबवे में सोना निकालने का काम तथा मेक्सिको में चान्दी का लिया। पुराणों में जिम्बाबवे के सोने को जाम्बूनद-स्वर्ण कहा गया है। इसका स्थान केतुमाल (सूर्य-सिद्धान्त, अध्याय १२ के अनुसार इसका रोमक पत्तन उज्जैन से ९०० पश्चिम था) वर्ष के दक्षिण कहा गया है। यह्ं हरकुलस का स्तम्भ था, अतः इसे केतुमाल (स्तम्भों की माला) कहते थे। बाइबिल में राजा सोलोमन की खानें भी यहीं थीं। मेक्सिको से चान्दी आती थी अतः आज भी इसको संस्कृत में माक्षिकः कहा जाता है। चान्दी निकालने की विधि में ऐसी कोई क्रिया नहीं है जो मक्खियों के काम जैसी हो, यह मेक्सिको का ही पुराना नाम है। सोना चट्टान में सूक्ष्म कणों के रूप में मिलता है, उसे निकालना ऐसा ही है जैसे मिट्टी की ढेर से अन्न के दाने चींटियां चुनती हैं। अतः इनको कण्डूलना (= चींटी, एक वनवासी उपाधि) कहते हैं। चींटी के कारण खुजली (कण्डूयन) होता है या वह स्वयं खुजलाने जैसी ही क्रिया करती है, अतः सोने की खुदाई करने वाले को कण्डूलना कहते थे। सभी ग्रीक लेखकों ने भारत में सोने की खुदाई करने वाली चींटियों के बारे में लिखा है। मेगस्थनीज ने इस पर २ अध्याय लिखे हैं। समुद्र-मन्थन में सहयोग के लिये उत्तरी अफ्रीका से असुर आये थे, जहां प्रह्लाद का राज्य था, उनको ग्रीक में लिबिया (मिस्र के पश्चिम का देश) कहा गया है। उसी राज्य के यवन, जो भारत की पश्चिमी सीमा पर थे, सगर द्वारा खदेड़ दिये जाने पर ग्रीस में बस गये जिसे  इओनिआ व हेरोडोटस  कहा गय है । विष्णु पुराण(३/३)-सगर इति नाम चकार॥३६॥ पितृराज्यापहरणादमर्षितो हैहयतालजङ्घादि वधाय प्रतिज्ञामकरोत्॥४०॥प्रायशश्च हैहयास्तालजङ्घाञ्जघान॥४१॥ शकयवनकाम्बोजपारदपह्लवाः हन्यमानास्तत्कुलगुरुं वसिष्ठं शरणं जग्मुः॥४२॥यवनान्मुण्डितशिरसोऽर्द्धमुण्डिताञ्छकान् प्रलम्बकेशान् पारदान् पह्लवान् श्मश्रुधरान् निस्स्वाध्यायवषट्कारानेतानन्यांश्च क्षत्रियांश्चकार॥४७॥   
 खनिकों की उपाधि धातु नामों को  ग्रीस में ग्रीक भाषा में गये तथा कूर्म क्षेत्र के निवासिओं का  हैं। मुण्डा-लौह खनिज को मुर कहते हैं। कामरूप का राजा नरकासुर को  मुर कहा गया है । भागवत पुराण स्कन्द 3 के अनुसार  असुरराज नरकासुर के नगर का घेरा लोहे का था । नरकासुर का साम्राज्य मोरक्को तक था मेक्सीको के  निवासी मूर हैं। भारत में  लौह क्षेत्र के केन्द्रीय भाग के नगर को मुरा कहते थे जो पाण्डु वंशी राजाओं का शासन केन्द्र था । पांडव शासकों ने  भारत पर नन्द वंश के बाद शासन किया जिसे मौर्य वंश कहा गया। मुरा नगर हीराकुद जल भण्डार में डूब गया है ।  १९५६ में वहां का थाना बुरला में आ गया। मौर्य के लोहे की सतह का क्षरण (मोर्चा) या युद्ध क्षेत्र  मोर्चा है। फारसी में मोर्चा को  जंग कहा गया है।  लौह अयस्क के खनन में लगे लोगों की उपाधि मुण्डा है।  बलंगिरी , कालाहाण्डी के अनुसार अथर्ववेद की शाखा को  मुण्डक है ।  जिसका मुण्डक उपनिषद् को पढ़ने वाले ब्राह्मणों की उपाधि  मुण्ड है ।
हंसदा-हंस-पद का अर्थ पारद का चूर्ण या सिन्दूर है। पारद के शोधन में लगे व्यक्ति या खनिज से मिट्टी आदि साफ करने वाले हंसदा हैं। खालको-ग्रीक में खालको का अर्थ ताम्बा है। आज भी ताम्बा का मुख्य अयस्क खालको (चालको) पाइराइट कहलाता है। ओराम-ग्रीक में औरम का अर्थ सोना है। कर्कटा-ज्यामिति में चित्र बनाने के कम्पास को कर्कट कहते थे। इसका नक्शा (नक्षत्र देख कर बनता है) बनाने में प्रयोग है, अतः नकशा बना कर कहां खनिज मिल सकता है उसका निर्धारण करने वाले को करकटा कहते थे। महाभारत 3/ २55 /7 के अनुसार   झारखण्ड प्रदेश को कर्क-खण्ड कहते थे। कर्क रेखा झारखण्ड की उत्तरी सीमा पर है । पाकिस्तान का करांच है। किस्कू-कौटिल्य के अर्थशास्त्र में  वजन की एक माप किस्कू है। भरद्वाज के वैमानिक रहस्य में किस्कू ताप की इकाई है। लोहा बनाने के लिये धमन भट्टी को भी किस्कू कहते थे, तथा इसमें काम करने वाले किस्कू थे । टोप्पो-टोपाज रत्न निकालनेवाले ,  सिंकू-टिन को ग्रीक में स्टैनम तथा भस्म को स्टैनिक कहते हैं। मिंज-मीन सदा जल में रहती है। अयस्क धोकर साफ करनेवाले को मीन (मिंज) कहते थे । कण्डूलना-ऊपर दिखाया गया है कि पत्थर से सोना खोदकर निकालने वाले कण्डूलना हैं। उस से धातु निकालने वाले ओराम हैं। हेम्ब्रम-संस्कृत में हेम का अर्थ है सोना, विशेषकर उससे बने गहने। हिम के विशेषण रूप में हेम या हैम का अर्थ बर्फ़ भी है। हेमसार तूतिया है। किसी भी सुनहरे रंग की चीज को हेम या हैम कहते हैं। सिन्दूर भी हैम है, इसकी मूल धातु को ग्रीक में हाईग्रेरिअम कहते हैं जो सम्भवतः हेम्ब्रम का मूल है। एक्का या कच्छप-दोनों का अर्थ कछुआ है।खनिज क्षेत्र का ही आकार कछुए जैसा है, जिसके कारण समुद्र मन्थन का आधार कूर्म कहा गया। खान के भीतर गुफा को बचाने के लिये ऊपर आधार दिया जाता है । खान गुफा की दीवाल तथा छत बनाने वाले एक्का या कच्छप हैं।  दुर्गा सप्तशती, अध्याय १ में लिखा है कि स्वारोचिष मनु के समय भारत के चैत्य वंशी राजा सुरथ के राज्य को कोला विध्वंसिओं ने नष्ट 17500 ई. पू. कर दिया था । वैवस्वत मनु का काल 13900 ई.पू.  में आरम्भ हुआ था ।  पुरु की भार्या आग्रेयी के प्रपौत्र अंग की सुनीथा का पौत्र  वेन  का पुत्र  राजा पृथु के समय पृथ्वी का दोहन खनिज निष्कासन 17000 ई. पू. हुआ था । भागवत पुराण 4/ 14 में उल्लेख किया गया है कि  अंग  राजा  पृथु का जन्म उनके पिता वेन के हाथ के मन्थन से हुआ था। दाहिने हाथ से निषाद तथा बायें हाथ से कोल तथा भील उत्पन्न हुए थे । पृथु द्वारा ब्रह्मेष्टि यज्ञ से सूत और मागध का प्रादुर्भाव हुआ था । अनूप देश का राजा सूत और कीकट का राजा मागध को बनाया गया । बाद में कीकट को मगध साम्राज्य कहा गया है । भारत के नक्शे पर हिमालय की तरफ सिर रखकर सोने पर बायां हाथ पूर्व तथा दाहिना हाथ पश्चिम होगा। दाहिना हाथ (दक्ष) का यज्ञ हरिद्वार में था जहां पश्चिमी भाग आरम्भ होता है। पूर्वी भाग में कोल लोगों का क्षेत्र ऋष्यमूक या ऋक्ष पर्वत कहा जाता है  । विश्व में कोला है। पूर्वी साइबेरिआ कोला प्रायद्वीप तथा आस्ट्रेलिआ मॆ कोल  जाति है, अमेरिका में कोल का प्रिय फल  कोका-कोला कहा जाता है।   कोलप को ओड़िया में ताला कहा गया  है। माता लक्ष्मी को कोलापुर निवासिनी कहा गया है। महाराष्ट्र के कोलापुर में  महालक्ष्मी मन्दिर है। सम्पत्ति, धातु भण्डार आदि की रक्षा करने वाले कोला हैं। समुद्र पत्तन की व्यवस्था करने वाले वानर समुद्र तट पर जहाज को लगाने वालों को बन्ध व बन्दर कहा जाता था । जहाज के पत्तन को बन्दर या बन्दरगाह कहते हैं। त्रेतायुग में भगवान  राम को समुद्र पारकर आक्रमण करने के लिये  पत्तन के मालिक वानर तथा धातुओं के रक्षक ऋक्ष  की जरूरत पड़ी थी। कोला जाति ओड़िशा के क्षेत्रों में कोलाबिरा के झारसूगुडा, झारखण्ड के सिमडेगा, कोलाब (कोरापुट), मुम्बई का  समुद्र तट कोलाबा है। पुराने शासक-पठार को कन्ध या पुट (प्रस्थ) कहते थे जैसे कन्ध-माल या कोरापुट के निवासी को  कन्ध कहते थे। राज्य किष्किन्धा का  उत्तरी भाग में बालि का प्रभुत्व में  ओड़िशा के बालिगुडा, बालिमेला  हैं। किष्किंधा के दक्षिणी भाग में सुग्रीव का प्रभुत्व था।
   भारत का गण्ड भाग विन्ध्याचल में गोण्डवाना  के निवासी गोण्ड पश्चिमी सीमा गुजरात का राजकोट जिले का  गोण्डल है। उत्तर प्रदेश के पूर्वी भाग में  जिला गोण्डॉ व  गोनर्व में  पतञ्जलि का जन्म हुआ था। गोण्ड लोग गोण्डवाना के शसक थे। मुगल शासक अकबर को अन्तिम चुनौती गोण्ड रानी दुर्गावती ने दी थी । रानी दुर्गावती के पति ओड़िशा के कलाहाण्डी में लाञ्जिगढ़ के वीरसिंह थे । गोण्ड जाति में राज परिवार के व्यक्ति  राज-गोण्ड कहलाते हैं। गोंड का  नौकर अकबर से मिलकर बादशाह अकबर के लिये जासूसी करने और पुरस्कार में राज्य पाकर बड़े हो गये थे । रानी दुर्गावती के पुरोहित को काशी  तथा  रसोइआ महेश ठाकुर को मिथिला का राज्य मिला था । महेश ठाकुर को नमक-हरामी-जागीर कहा गया था । कालगणना-इतिहास का मुख्य काल-चक्र हिमयुग का चक्र है। पृथ्वी का मुख्य स्थल भाग उत्तर गोलार्ध में जल-प्रलय तथा हिम युग का चक्र आता है। मिलैंकोविच सिद्धान्त 1932 के अनुसार  उत्तरी ध्रुव सूर्य की ताफ झुका हो, या जब कक्षा में पृथ्वी सूर्य के निकटतम होने , जब दोनों एक साथ होने से  जल प्रलय एवं  जब दोनों विपरीत दिशा में हों, तब हिम युग होता है। उत्तरी ध्रुव की दिशा 26 हजार वर्ष में विपरीत दिशा में चक्कर लगाती है। पृथ्वी कक्षा का निकटतम विन्दु एक  लाख वर्ष में एक  चक्कर लगाता है। दोनों गतियों का योग विपरीत दिशा में 21600   वर्ष में होता है । भारत में निकट कक्षा विन्दु का दीर्घकालिक चक्र 312000  वर्ष में होता है।  चक्र 24000 वर्ष का होता है । 12 हजार वर्ष  का अवसर्पिणी युग केसत्य युग 4800८ वर्ष, त्रेता 3600 , द्वापर 2400 और  कलि 1200  वर्ष का 1/12 भाग पूर्व तथा शेष सन्ध्या , दूसरा भाग उत्सर्पिण में 4 खण्ड युग विपरीत क्रम से आते हैं-कलि, द्वापर, त्रेता, सत्य युग है । पुराणों और वेदों के अनुसार 24 हजार वर्ष के युगों का तीसरा चक्र चल रहा है। तीसरे चक्र में अवसर्पिणी का कलियुग 3102 ई.पू. में आरम्भ हुआ है । प्रथम चक्र- 61902 - 37902 ई.पू.-देव सभ्यता ,  चीन में याम देवता मणिजा सभ्यता में  खनिज दोहन का आरम्भ ,  मुख्य वर्ग-साध्य, महाराजिक, आभास्वर, तुषित-आज के ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र  थे ।द्वितीय चक्र-37902 से 13902  ई.पू.-देव युग , अवसर्पिणी- 37902 से 25902 ई.पू., सत्य 33102 ई.पू. तक था । त्रेता- 29502 ई.पू तक- जल प्रलय हुआ था। स्वायम्भुव मनु का प्रादुर्भाव 29102 ई.पू. हुआ था ।  द्वापर-27102 ई..पू. तक , कलि 25902 ई.पू. तक था । उत्सर्पिणी-कलि- 24702  ई.पू. तक,  द्वापर- 22302  ई.पू. तक। त्रेता- 18702 ई.पू. तक हिम युग हुआ था। सत्ययुग- 13902 ई.पू. तक-हिमयुग के बाद कश्यप काल 17500 ई.पू.से असुर प्रभुत्व क्षेत्र था । तृतीय चक्र- मानव  युग-13902 ई.पू. से  10099 ई पू.. तक था । अवसर्पिणी-सत्ययुग- 13902 -9102 ई.पू. तक-वैवस्वत मनु से आरम्भ में  त्रेता-5502 ई.पू. तक। द्वापर-3102  ई.पू. तक और  कलि 1902  ई.पू. तक एवं उत्सर्पिणी-कलि- 702  ई.पू. तक। द्वापर-1699 ई. तक। त्रेता-5299  ई. तक  विज्ञान प्रगति का युग कहा गया है। काल चक्र की सभी अवसर्पिणी त्रेता में जल प्रलय तथा उत्सर्पिणी त्रेता में हिम युग हुआ है । ब्रह्माण्ड पुराण के अनुसार महाभारत के बाद 3102  ई.पू. में कलि आरम्भ के समय स्वायम्भुव मनु से 26000 वर्ष का मन्वन्तर  बीत चुका था जिसमें 71  युग थे।  स्वायम्भुव मनु का काल 29102 ई.पू. हुआ।  एक युग = 360  वर्ष प्रायःहै। मत्स्य पुराण, अध्याय 273  के अनुसार, स्वायम्भुव से वैवस्वत मनु तक 43  युग = 16 हजार  वर्ष तथा उसके बाद 3102 ई.पू. तक 10 हजार वर्ष या २८ युग बीते थे। खण्ड युगों की गणना के अनुसार वैवस्वत मनु से 3102 ई.पू. कलि आरम्भ तक 10800  वर्ष थे। इनमें 360 वर्ष के ३० युग होंगे। बीच में 10000 ई.पू. से प्रायः एक हजार वर्ष के जल प्रलय काल में प्रायः 2 युग लेने पर ठीक 28 युग बाकी हैं।  वायु पुराण, अध्याय ४९९ के अनुसार दत्तात्रेय 10 वें युग, मान्धाता 15  वें, परशुराम 19 वें, राम 24 वें, व्यास 28 वें युग में हुये थे। वैवस्वत मनु से पूर्व 10  युग = 3600  वर्ष तक असुर प्रभुत्व कश्यप काल से 17500 ई.पू. में आरम्भ हुआ था । वराह अवतार के समय शबर जाति का प्रभुत्व था। राजा बलि के काल में वामन अवतार, कूर्म अवतार तथा कार्त्तिकेय का युग था।  बलि को दीर्घजीवी कहा है। कार्त्तिकेय के समय क्रौञ्च द्वीप पर आक्रमण का उल्लेख  महाभारत, वन पर्व (२३०/८-१०) में दिया है । उत्तरी ध्रुव अभिजित् से दूर हट गया था तथा धनिष्ठा नक्षत्र से वर्षा होती थी जब वर्ष का आरम्भ 15800 ई.पू. का काल है। 15500 वर्ष बाद सिकन्दर के आक्रमण के समय मेगास्थनीज ने लिखा है कि भारत खाद्य तथा अन्य सभी चीजों में स्वावलम्बी है । भारत ने पिछले 1500 वर्षों में किसी देश पर आक्रमण नहीं किया है। सप्तर्षि वर्ष का सप्तर्षि चक्र 2700 सौर वर्ष = 3030 मानुष वर्ष 327  दिनों का 12 चान्द्र परिक्रमा समय है। 3 सप्तर्षि चक्र का ध्रुव सम्वत्सर = 8100 वर्ष का है। सप्तर्षि मघा नक्षत्र में 3176 -3076 ई.पू.  थे। विपरीत दिशा में चलते हुये जब सप्तर्षि मघा से निकले तब युधिष्ठिर का कश्मीर में देहान्त हुआ कलि वर्ष 25 और वहां सप्तर्षि या लौकिक वर्ष आरम्भ हुआ। आन्ध्र वंश के अन्त के समय इनका एक  चक्र पूर्ण हुआ376  ई.पू. आन्ध्र वंश का राज्य समाप्त हुआ। वैवस्वत यम का काल 3076 ई.पू.के बाद ब्रह्म पुराण तथा अवेस्ता के अनुसार जल प्रलय हुआ था। क्रौञ्च प्रभुत्व उत्तर अमेरिका 19276 ई.पू को क्रौञ्च सम्वत्सर  कहा गया है।  राजा ध्रुव का देहान्त माघा नक्षत्र  27376 ई.पू. में  हुआ था जब ध्रुव मघा नक्षत्र से निकले थे ।11800 वर्ष बाद कार्त्तिकेय काल में ध्रुव की दिशा धनिष्ठा में थी।
         सन्दर्भ -  सांख्य सिद्धान्त अध्याय ३ (नाग प्रकाशन, दिल्ली, २००६) ,  भारतीय इतिहास के खण्ड २ पृष्ठ ३३४-३३५, खण्ड ४ पृष्ठ ९०-९१ , द स्टडी ऑफ इंडियन हिस्ट्री एंड कल्चर 1988 , पब्लिश्ड फ्रॉम भीष्म , थाने मुंबई , ऐज ऑफ द महाभारत वार 1957 -59 , वेदव्यास 1986 चेप्टर 17
भारतीय संस्कृति और पुरणों , वेदों एवं स्मृतियों में अनंत ज्ञान , अनुशीलन से अंत:कारण की परिशुद्धि होती है । सृष्टि का प्रारंभ एवं मानव जीवन का प्रादुर्भाव का उल्लेख स्मृतियों में उल्लेखनीय योगदान दिया गया है । प्राचीन काल में सनातन धर्म में ब्रह्म संस्कृति , वैष्णव संस्कृति , शैव संस्कृति , शाक्त संस्कृति , सौर संस्कृति , चंद्र संस्कृति एवं मरुत संस्कृति विकसित थी । ब्रह्मा जी का मानस पुत्र ऋषि मारीच के पुत्र ऋषि कश्यप के पुत्रों द्वारा विभिन्न संस्कृतियों का प्रादुर्भाव विश्व के विभिन्न क्षेत्रों में किया था । प्रजापति दक्ष की 13 कन्याओं में अदिति , दिति , दनु ,विनीता आदि का विवाह ऋषि कश्यप से हुआ था । दिति से दैत्य ,दनु से दानव ,  भगवान सूर्य के सहस्त्र अंश  से अदिति के पुत्र इंद्र , पर्जन्य , त्वष्ठा , पूषा  अर्यमा , भग ,विवस्वान ,विष्णु अंशुमान वरुण और मित्र है । ब्रह्मा के मानस पुत्र ऋषि मरीचि ऋषि के पुत्र कश्यप ऋषि थे ।ऐतरेय ब्राह्मण के कश्यप ऋषि ने 'विश्वकर्म भौवन' राजा का अभिषेक कराया था। शतपथ ब्राह्मण में प्रजापति को कश्यप कहा गया है । स यत्कुर्मो नाम। प्रजापतिः प्रजा असृजत। यदसृजत् अकरोत् तद् यदकरोत् तस्मात् कूर्मः कश्यपो वै कूर्म्स्तस्मादाहुः सर्वाः प्रजाः कश्यपः।  महाभारत और विष्णु पुराण के अनुसार कश्यप ऋषि की पत्नी मे अदिति ,दिति ,दनु ,अनिष्ठा ,काष्ठा ,सुरसा ,इला ,मुनि ,सुरभि ,कद्रू ,विनता ,यामिनी ,ताम्रा , तिमि ,क्रोधवशा ,सरमा और पातंगी थी । मार्कण्डेय पुराण और भागवत पुराण के अनुसार तेरह पत्नियां अदिति ,दिति , दनु ,काष्ठा ,अनिष्ठा , सुरसा ,मुनि ,सुरभि ,विनता ,कद्रू ,पातंगी ,तिमि , इला तथा मत्स्य पुराण के अनुसार नौ पत्नियां अदिति ,दिति ,दनु ,काष्ठा ,अनिष्ठा , कद्रू , सुरसा , विनता और सुरभि थी । भागवत पुराण और मार्कण्डेय पुराण के अनुसार कश्यप की तेरह पत्नियां थीं और मत्स्य पुराण के अनुसार नौ थी । पृथ्वी पर विजय प्राप्त कर परशुराम ने कश्यप मुनि को सम्पूर्ण पृथिवी दान कर दी थी । पुराणों अनुसार कश्यप ने पत्नी अदिति के गर्भ से विवस्वान, अर्यमा, पूषा, त्वष्टा, सविता, भग, धाता, विधाता, वरुण, मित्र, इंद्र और त्रिविक्रम (भगवान वामन) ,  दिति के गर्भ से हिरण्यकश्यप और हिरण्याक्ष  पुत्र एवं सिंहिका  पुत्री को जन्म दिया। दनु के गर्भ से द्विमुर्धा, शम्बर, अरिष्ट, हयग्रीव, विभावसु, अरुण, अनुतापन, धूम्रकेश, विरूपाक्ष, दुर्जय, अयोमुख, शंकुशिरा, कपिल, शंकर, एकचक्र, महाबाहु, तारक, महाबल, स्वर्भानु, वृषपर्वा, महाबली पुलोम और विप्रचिति आदि 61 महान पुत्रों की प्राप्ति हुई। रानी काष्ठा से घोड़े आदि एक खुर वाले पशु उत्पन्न हुए। पत्नी अरिष्टा से गंधर्व पैदा हुए। सुरसा नामक रानी से यातुधान (राक्षस) उत्पन्न हुए। इला से वृक्ष, लता आदि पृथ्वी पर उत्पन्न होने वाली वनस्पतियों का जन्म हुआ। मुनि के गर्भ से अप्सराएँ , क्रोधवशा नामक रानी ने साँप, बिच्छु आदि विषैले जन्तु पैदा किए गए थे ।।ताम्रा ने बाज, गिद्ध आदि शिकारी पक्षियों को अपनी संतान के रूप में जन्म दिया। सुरभि ने भैंस, गाय तथा दो खुर वाले पशुओं की उत्पत्ति की। रानी सरसा ने बाघ आदि हिंसक जीवों को पैदा किया। तिमि ने जलचर जन्तुओं को अपनी संतान के रूप में उत्पन्न किया।रानी विfनता के गर्भ से विष्णु का वाहन गरुड़  और सूर्य का सारथि  अरुण   हुए। कद्रू की कोख से नागों की उत्पत्ति में आठ नाग थे । दनु के पुत्रों ने दानव संस्कृति , अनंत (शेष), वासुकी, तक्षक, कर्कोटक, पद्म, महापद्म, शंख और कुलिक का जन्म कद्रू थी । रानी पतंगी से पक्षियों का जन्म हुआ। यामिनी के गर्भ से शलभों (पतंगों) का जन्म हुआ। था । ऋषि कश्यप की पत्नी अदिति के 12 पुत्रों को आदित्य कहा गया है । आदित्यों द्वारा सौर संस्कृति का संरक्षक और भगवान सूर्य कुल देव है । दिति के पुत्रों ने दैत्य संस्कृति , दनु से दानव संस्कृति , सुरसा के पुत्रों ने राक्षस संस्कृति ,मुनि के पुत्रों ने गंधर्व संस्कृति , कद्रू  के पुत्रों ने नाग संस्कृति का उदय हुआ था । कालांतर विश्व में सौर , शाक्त , चंद्र , ऋषि , देव , ब्राह्मण , दैत्य , दानव , वायु मरुत , वन , ऋक्ष , गंधर्व , राक्षस , मानव  संस्कृति का उदय हुआ था । आर्य और अनार्य संस्कृति का उदय हुआ था । कीकट साम्राज्य का  असुर राज गयासुर द्वारा गया नगर की स्थापना किया गया था ।गया मोक्ष और ज्ञान की भूमि बना था । गया का विष्णुपद मंदिर के गर्भगृह में भगवान विष्णु का चरण स्थित है ।




सृष्टि की उत्पत्ति ब्रह्मा जी द्वारा करने के बाद प्रजा वृद्धि के लिए प्रजापति अपने शरीर के दाएं भाग से पुरुष  स्वायम्भुव मनु एवं बाएं भाग से अयोनिजा शतरूपा का प्रादुर्भाव हुआ था । 71 चतुर्युगी को मन्वंतर काल में  दस हजार वर्षों के पश्चात शतरूपा ने  वैराज पुरुष स्वायम्भुव मनु को पति रूप में प्राप्त किया था । शतरूपा ने स्वायम्भुव मनु के अंश से वीर , प्रियव्रत और उत्तानपाद की उत्पत्ति हुई थी ।  स्वयम्भुव मनु के पुत्र वीर की पुत्री कर्दम की पत्नी थी । स्वयम्भुव मनु के पुत्र उत्तानपाद को प्रजापति अत्रि ने गोद लिया था । प्रजापति उत्तानपाद की पत्नी सुनृता से ध्रुव , कीर्तिमान , आयुष्यमान और वसु पुत्र थे । ध्रुव की पत्नी शम्भु ने श्लिष्ठी ,और भव्य हुए थे ।श्लिष्ठी कि पत्नी सुछाया से रिपु , रिपुंजय , वीर वृकल और वृकतेजा पुत्र थे । रिपु की भार्या वृहति ने अपने पुत्र चक्षुष को प्रजापति वीरान की पुत्री पुष्करिणी का विवाह कर दी थी । चक्षुष की पत्नी पुष्करिणी के गर्भ से उत्पन्न चाक्षुष से वैराज प्रजापति की पुत्री नडवला के गर्भ से कुत्स ,पुरु ,शतद्युम्न ,तपस्वी ,सत्यवाक ,कवि ,अग्निष्टुत , अतिरात्र , सुद्युम्न ,और अभिमन्यु का जन्म हुआ था । पुरु की पत्नी आग्रेयी ने अंग ,सुमना ,स्वाति , क्रतु अंगिरा और मय पुत्र उत्पन्न किए । अंग ने अंग साम्राज्य की स्थापना की । अंग साम्राज्य के राजा अंग की पत्नी मृत्यु कन्या  सुनीथा ने वेन का जन्म दी और वें अंग का राजा बनाई थी । अंग साम्राज्य का राजा वेन के अत्याचारों से ऋषियों को बहुत बड़ा क्रोध हुआ था । प्रजाजनों एवं पर्यावरण की रक्षा के लिए ऋषि गण द्वारा अंग साम्राज्य का राजा वेन के दाएं हाथ हाथ का मंथन कर पृथु धनुष , कवच , दिव्य वाण  धारण कर प्रकट हुए थे । वेन की बायीं जंघा मंथन से काले रंग नाटे निशीद द्वारा निषाद वंश का प्रवर्तक ,वें के पापों से उत्पन्न धीवर हुआ था । राजा पृथु द्वारा ब्रह्मेष्टि यज्ञ से उत्पन्न मागध को कीकट प्रदेश और सूत को अनूप देश का राजा घोषित किया गया था ।

बुधवार, नवंबर 30, 2022

जासूसी उपन्यास के जनक गहमरी..


हिंदी के महान सेवक, उपन्यासकार तथा पत्रकार ने  वर्षों तक बिना किसी सहयोग के 'जासूस'  पत्रिका निकाला और  २०० से अधिक उपन्यास , सैकड़ों कहानियों के अनुवाद किए थे ।  रवीन्द्रनाथ ठाकुर की 'चित्रागंदा' काव्य का प्रथम हिंदी अनुवाद गहमरीजी द्वारा अनुवाद किया गया था । वे  हिंदी की अहर्निश सेवा की, लोगों को हिंदी पढऩे को उत्साहित किया, ऐसी रचनाओं का सृजन करते रहे कि लोगों ने हिंदी सीखी।  लेखक की कृतियों को पढ़ने के लिए गैरहिंदी भाषियों ने हिंदी सीखी गोपालराम गहमरी  थे। गहमरी ने प्रारंभ में नाटकों का अनुवाद किया,  उपन्यासों का अनुवाद करने लगे। बंगला से हिन्दी में किया गया इनका अनुवाद तब बहुत प्रामाणिक माना गया है।  गोपालराम गहमरी ने कविताएं, नाटक, उपन्यास, कहानी, निबंध और साहित्य की विविध विधाओं में लेखन किया, लेकिन प्रसिद्धि मिली जासूसी उपन्यासों के क्षेत्र में। 'जासूस' नामक एक मासिक पत्रिका निकाली। इसके लिए इन्हें प्रायः एक उपन्यास हर महीने लिखना पड़ा। 200 से ज्यादा जासूसी उपन्यास गहमरीजी ने लिखे। 'अदभुत लाश', 'बेकसूर की फांसी', 'सर-कटी लाश', 'डबल जासूस', 'भयंकर चोरी', 'खूनी की खोज' तथा 'गुप्तभेद' इनके प्रमुख उपन्यास हैं। जासूसी उपन्यास-लेखन की जिस परंपरा को गहमरी ने जन्म दिया था । साहित्यकारों में गोपाल राम गहमरी हिन्दी साहित्य में जासूसी उपन्यास के जनक  है। वे हिंदी के महान सेवक, उपन्यासकार तथा पत्रकार थे। उन्होंने 38 वर्षों तक बिना किसी सहयोग के ‘जासूस’ नामक पत्रिका का संचालन किया। उन्होंने दो सौ से अधिक उपन्यास लिखें, सैकड़ों कहानियों के अनुवाद किए, जिनमें प्रमुख रवीन्द्रनाथ टैगोर की ‘चित्रागंदा’ भी थी। वह ऐसे लेखक थे जो हिन्दी पढ़ने वालों की संख्या में इजाफा कर सके। हिन्दी भाषा में देवकीनंदन खत्री के बाद यदि किसी दूसरे लेखक की कृतियों को पढ़ने के लिए गैरहिंदी भाषियों ने हिंदी सीखी तो वह गोपाल राम गहमरी थे । गहमर निवासी रामनारायण के पुत्र गोपाल राम गहमरी का जन्म सन् 1866 (पौष कृष्ण 8 गुरुवार संवत् 1923) में उत्तर प्रदेश के गाजीपुर जिले के गहमर में हुआ था।  छह मास की आयु में गोपाल राम  के  पिता का देहांत होने के बाद  इनकी माँ इन्हें लेकर अपने मायके गहमर चली आईं।  गोपाल राम की गहमर मेंप्रारंभिक शिक्षा वर्नाक्यूलर मिडिल की शिक्षा प्राप्त की थी । 1879 में मिडिल उतीर्ण होने के बाद गहमर स्कूल में चार वर्ष तक छात्रों को पढ़ाते रहे और उर्दू और अंग्रेजी का अभ्यास करते रहे। पटना नार्मल स्कूल में भर्ती हुए, जहां इस शर्त पर प्रवेश हुआ कि उत्तीर्ण होने पर मिडिल पास छात्रों को तीन वर्ष पढ़ाना पड़ेगा। आर्थिक स्थिति अच्छी न होने के कारण शर्त को स्वीकार कर लिया। गहमर से अतिरिक्त लगाव के कारण गोपाल राम ने अपने नाम के साथ अपने ननिहाल को जोड़ लिया और गोपाल राम गहमरी कहलाने लगे थे । बंबई में गहमरी की कलम गतिशील रही। गोपाल राम गहमरी ने लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक के पूरे मुकदमे को अपने शब्दों में दर्ज किया था। उनके सम्पादन में प्रकाशित होने वाले पत्र-पत्रिकाओं की एक लंबी श्रृंखला है।  प्रतापगढ़ के कालाकांकर से प्रकाशित ‘हिन्दुस्थान’ दैनिक , बंबई व्यापार सिन्धु, गुप्तगाथा, श्री वेंकटेश्वर समाचार और भारत मित्र  हैं। उनमें हिंदी भाषा के लिए कुछ अलग और वृहत करने की बेचैनी थी और दूसरी ओर उनके भीतर पनपती ‘जासूस’ की रूपरेखा थी । गहमरी ने  मासिक पत्रिका ‘जासूस’ का प्रकाशन शुरू किया, जिसका विज्ञापन भी उनके ही संपादन में आने वाले अखबार ‘भारत मित्र’ में दिया था ।  वर्ष 1900 के दौरान किसी पत्रिका के इतिहास में नाम अंकित हुआ है । देवकी नंदन खत्री और गोपाल राम गहमरी के द्वारा शुरू ‘जासूसी लेखन’ की परंपरा साहित्यिक पंडितों की उपेक्षा और तिरस्कार के बावजूद गहमरी और खत्री की बदौलत लंबे समय तक चलती रही। हिन्दी में ‘जासूस’ शब्द के प्रचलन का श्रेय गहमरी  है। गहमरी ने लिखा है कि ‘1892 से पहले किसी पुस्तक में जासूस शब्द नहीं दिखाई नहीं पड़ा था।’  ‘जासूस’  अंक में एक जासूसी कहानी के अलावा समाचार, विचार और पुस्तकों की समीक्षाएं  नियमित रूप से छपती थी । गहमरी की ‘जासूस’ ने प्रारंभिक अंकों से  पाठकों में लोकप्रियता प्राप्त की।  गोपालराम गहमरी  जासूसी ढंग की कहानियों और उपन्यासों के लेखन की ओर प्रवृत्त हुए थे ।  गहमरी के योगदान को केवल जासूसी उपन्यासों तक सीमित किया जाता है, बल्कि उनका योगदान हिंदी गद्य साहित्य में अद्वितीय है। हिन्दी अपने विकास काल में  हिंदी गद्य साहित्य ब्रजभाषा व खड़ीबोली का द्वन्द झेल रहा था तब गहमरी न केवल खड़ीबोली के पक्ष में खड़े होते हैं बल्कि ब्रजभाषा के  पक्षकारो को खड़ीबोली के पक्षकारो में शामिल करते हैं। सहज, सुगम, सुंदर और सुबोध हिंदी-प्रचार गहमरी जी की साहित्य सेवा का मुख्य उद्देश्य था। हिंदी गद्य साहित्य के विकास में गोपाल राम गहमरी के जासूसी उपन्यासों के महत्तवपूर्ण योगदान को भुलाया नहीं जा सकता। गहमरी जी का निधन 1946 ई. में  हुआ था ।
 जासूस के जनक प्रसिद्ध जासूसी उपन्यासकार गोपालराम गहमरी की स्मृति में  गहमर जी की जन्मभूमि ग्गहमर पर  साहित्य सरोज पत्रिका एवं आनलाइन पत्रिका धर्मक्षेत्र द्वारा *गोपाल राम गहमरी साहित्यकार महोत्सव एवं सम्मान समारोह पिछले 7 वर्षों से किया जाता है । साहित्य सरोज भोपाल के प्रधान संपादिका कांति शुक्ला एवं अखंड गहमरी  प्रकाशक साहित्य सरोज संपादक धर्म क्षेत्र द्वारा गहमरी स्मृति सम्मान समारोह आयोजित किया जाता है।
 एशिया महाद्वीप तथा भारत का सबसे बड़ा गांव उत्तर प्रदेश का गाजीपुर जिलांतर्गत   पटना और मुगलसराय रेल मार्ग पर स्थित गंगा नदी के किनारे  वर्गमील क्षेत्रफल में फैले 22 टोलों से युक्त गहमर  स्थित है । बाबर और राणा सांगा के बीच फतेहपुर सीकरी के मैदान में ऐतिहासिक युद्ध के बाद  फतेहपुर सीकरी के राजा धाम सिंह जु देव , राजपुरोहित गंगेश्वर उपाध्याय तथा दीवान वीर सिंह राजपूत द्वारा फतेहपुर सीकरी की कुल देवी की मूर्ति माता कामख्या की स्थापना गहमर  में हुई  थी । गहमर का 10 हजार लोग इंडि‍यन आर्मी में जवान से लेकर कर्नल और 14 हजार से ज्यादा भूतपूर्व सैनिक हैं। गाजीपुर जिला मुख्यालय गाजीपुर से  40 किलोमीटर की दूरी पर स्थित गहमर में रेलवे स्टेशन पटना और मुगलसराय से जुड़ा हुआ है। सन् 1530 में कुसुम देव राव ने 'सकरा डीह'  बसाया था।  विभिन्न प्रसिद्ध व्यक्ति सैनिक के नाम पर  भिन्न भिन्न 22 टोले  है। प्रथम और द्वितीय विश्वयुद्ध तथा 1965 और 1971 के युद्ध या कारगिल की लड़ाई में गहमर के फौजियों ने बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया। विश्वयुद्ध के समय अंग्रेजों की फौज में गहमर के 228 सैनिक में 21 मारे गए थे। शहीदों की याद में गहमर में  शिलालेख  है। गहमर के भूतपूर्व सैनिकों द्वारा पूर्व सैनिक सेवा समिति नामक संस्था स्थापित है। गहमर के युवक  गंगा तट पर स्थित मठिया चौक पर सुबह-शाम सेना की तैयारी करते हैं। इंडियन आर्मी गहमर में भर्ती शिविर लगाया करती थी । सैनिकों की बढ़ती  संख्या को देखते हुए भारतीय सेना ने गांव के लोगों के लिए सैनिक कैंटीन की सुविधा उपलब्ध कराई थी। जिसके लिए वाराणसी आर्मी कैंटीन से सामान हर महीने में गहमर गांव में भेजा जाता था ।

शुक्रवार, नवंबर 18, 2022

मागधीय सभ्यता का रूप है दाबथु विरासत ....


मागधीय कला एवं संस्कृति से परिपूर्ण बिहार है । मागधीय वास्तुकला , मूर्तिकला और मृदभांड की कहानी विकास का रूप है ।महान साम्राज्यों का उद्भव और पतन तथा विदेशियों के आक्रमण आदि से मागधीय वास्तुकला और मूर्तिकला के विकास में परिलक्षित होते है । बिहार का जहानाबाद जिला मुख्यालय जहानाबाद से 26 किमि.और  हुलासगंज प्रखण्ड मुख्यालय हुलासगंज से 3 किमि की दूरी पर 186 हैक्टेयर में विकसित दाबथु का 52 बीघे में फैला दाबथु गढ़ हड़प्पाई , मौर्यकालीन , मौर्योत्तर ,और गुप्तकालीन जलवार नदी के किनारे स्थित दाबथु का प्रादुर्भाव हुआ था । दाबथु कि जयवंत कल्पना और कलात्मक संवेदनशीलता प्राचीन सभ्यता की विशिष्टता का उत्खनन स्थलों पर पाई मूर्तियों , मुहरों ,भृदभांडों आदि , पाषाण युक्त दीवारें आदि से प्रकट होती है ।52 बीघे में फैले दाबथु की भूमि सनातन धर्म , हिन्दू , जैन और बौद्ध का स्थल था । इस स्थल पर सौर , शाक्त , शैव , वैष्णव सम्प्रदाय के अलावा जैन तथा बौद्ध का शिक्षा केन्द्र था । दाबथु में स्थित ईंटे ,गढ़ी और निचला नगर और अग्नि वेदिकाएँ सभ्यता का आवास गृह ,मिट्टी की पक्की ईंटों से परिपूर्ण गढ़ पाषाण युक्त  स्तंभों वाला  बरामदा  , मंदिर , स्तंभों वाला हॉल है । दाबथु गढ़ के उत्खनन से पुरातत्वविदों को कई मूर्तियों , आदि प्रप्त हुए हैं।  पकी ईंटें , मातृदेवी की मूर्ति , बड़ी शिवलिंग , क्षतिग्रस्त मूर्तियां है । मौर्यकाल में देवरथ ,देव स्मिता ,दितिकक्ष ,दियारा , देवयानी ,,देवब्रत , पवित्र स्थलको अपभ्रंश दाबथु कहा गया । इक्ष्वाकु कुल के अमित्रजीत का पुत्र वृहद्रराज युर मगध साम्राज्य का वृहद्रथ वंशीय दृढ़सेन द्वारा नगर की स्थापना कर गुरुकुल का निर्माण किया किया गया था । मौर्य काल 345 ई.पू.  , शुंग काल 185 ई.पू. ,  गुप्त काल 320 ई. पाल केयाल 750 ई. , सेन काल हर्षवर्द्धन काल तक दाबथु विकशित था ।पल वंशीय देवपाल द्वारा बौद्ध मठ  का निर्माण कराया था । दाबथु में विकास पाल काल  में जावा के शैलेन्द्र वंशी बलपुत्र देव ने गौड़ीरीति साहित्यक विद्या का विकास और बौद्ध बिहार की स्थापना की थी । देव रथ स्थल को देवपाल  के नाम पर दबथु, दाबथु स्थल है । दाबथु गढ़ के पुनः उत्खनन होने पर मागधीय विरासत का बहुमूल्य रहस्य मिलता है ।



गुरुवार, नवंबर 17, 2022

शीतलता और आध्यात्मिक स्थल है अगम कुवाँ...

मागधीय संस्कृति और आध्यात्मिक चेतना क्षेत्र पटना के अगम कुवाँ स्थल है । महाभारत काल में माता शीतला माता और कूप का जल निरोगता और आध्यात्मिक चेतना जगृत स्थल था । जैन धर्म और बौद्ध धर्म तथा शाक्त धर्म स्टाल के रूप में प्रसिद्ध के कारण अगम कहा गया था ।
बिहार राज्य की राजधानी पटना में अगम  कुँआ पुरातात्विक स्थल है। अगम कुँए का पुनः निर्माण चक्रवर्ती सम्राट अशोक मौर्य 304-232 ई .  पू . ) की अवधि में  हुई  थी। अगम कुआँ का आकार में परिपत्र, कुआं ऊपरी 13 मीटर (43 फीट) में ईंट के साथ पंक्तिबद्ध और शेष 19 मीटर (62 फीट) में लकड़ी के छल्ले से युक्त  हैं। निर्देशांक: 25°35′53″एन 85°11′48″ई / 25.59806°N 85.19667° ई पर स्थित पटना से पूरब और पंच पहाड़ी के रास्ते गुलजारबाग स्टेशन के दक्षिण पश्चिम में अगमकुआं है । अगमकुआं के समीप  शीतला मंदिर के गर्भगृह में लोक देवी  शीतला देवी की सप्तमातृकाओं से युक्त सात मातृ देवी के पिंडों की पूजा की जाती है। चेचक और चिकन पॉक्स के इलाज के लिए शीतला मंदिर में स्थित शीतला माता की उपासना की जाती है। ब्रिटिश खोजकर्ता, लॉरेंस वेडेल ने 1890 ई. में  पाटलिपुत्र के खंडहरों की खोज करते हुए अशोक द्वारा बनाए गए पौराणिक  अगमकुआं की खोज की थी । चीनी यात्री फाह्यान द्वारा 5वीं एवं 7 वीं शताब्दी में  अगमकुआं को फेन अर्थात उग्र कुआँ ,अत्याचारियों को दंड स्थल , नर्क कूप ,दोषियों को कुएं से निकलने वाली आग में प्रवेश करने इस्तेमस्ल करने का स्थल था ।बौद्ध धर्म ग्रहण स्थल स्थल अगम था । अशोक  VIII के अनुसार अगम  कुएँ का उल्लेख "उग्र कुआँ" या "धरती पर नरक" किया गया  था। अगम कुआँ था जहाँ अशोक ने अपने बड़े सौतेले भाई के 99 सिर काट दिए और अगम कुआँ में डाला कर मगध साम्राज्य का में  मौर्य साम्राज्य की स्थापना की थी । "गर्मी और नरक" से जुड़ा हुआ है। मुगल काल में  मुगल अधिकारियों ने अगम कुआँ को अगम कुआन के लिए  सोने और चांदी के सिक्के की पेशकश की थी । अगम कुआँ की संरचना -  105 फीट (32 मीटर) गहरी  योजना में परिपत्र है ।  अगम कुआँ का  व्यास 4.5 मीटर (15 फीट)  है। अगम कुआँ का ऊपरी आधे हिस्से में 44 फीट (13 मीटर) की गहराई तक ईंट से घिरा हुआ तथा  निचले 61 फीट (19 मीटर) लकड़ी के छल्ले की एक श्रृंखला द्वारा सुरक्षित हैं। बाँस के साथ कवर, सतह संरचना युक्त   कुएं को कवर कर विशिष्ट विशेषता बनाती है ।  कुआँ में आठ धनुषाकार खिड़कियां हैं। बादशाह अकबर के शासनकाल के दौरान अगम  कुएं का नवीनीकरण कर  चारों ओर  छतनुमा ढांचा बना कर  परिपत्र संरचना को आठ खिड़कियों के साथ मरम्मत  किया गया था । अगमकुआं ,कहानिया एन्ड स्टोन थ्रू 1993 के अनुसार अगम कुआँ का महत्वपूर्ण उल्लेख किया गया है । अगम कुआँ को धरती का नरक ,उग्र कूप ,, आगम कुआन , मोक्ष कूप , फे , फें , फ़ें , फेन , यातना कूप कहा गया है । कूप के अंदर 9 छोटे छोटे कम निर्मित सुरंग युक्त गुप्त है । सुरंग युक्त कूप का जुड़ाव गंगा सागर , राजगीर , गया , गंगा  और राज खजाने से संबंध था । मगध साम्राज्य का सम्राट अशोक काल में यातना कूप कहा जाता था । मगध का राजा चंद्र ने जैन धर्म के अनुयायी सुदर्शन को हत्या कर अगम कूप में फिकवा दिया था ।जैन धर्म के सुदर्शन उप में कमलपुष्प पर बैठे अपने शिष्यों को उपदेश दिए थे । सम्राट अशोक ने 304 - 322 ई.पु. में अगम कूप का जीर्णोंद्धार कराया था । ब्रिटिश सरकार के अधिकारी की छड़ी अगम कूप में गिरी थी । वह गिरी छड़ी बंगाल का गंगा सागर में में प्राप्त हुई । वह छड़ी कलकत्ता संग्रहालय में है । बादशाह अकबर शासन काल में 8 धनुषाकार खिड़की के निर्माण कर कूप का जीर्णोद्धार कराया था ।डाइरेक्टर अर्कोलोजिकल बिहार 3 मार्च 2016 के अनुसार 1932 , 1962 और 1995 ई. में अगम कुआँ के रहस्यों की जानकारी प्राप्त की गई है । जैन धर्म की प्रथम संगति 300 ई. पू. में पाटलिपुत्र क्षेत्र के अगम कूप के क्षेत्र  पर जैन धर्म के अनुयायी स्थूलभद्र की अध्यक्षता में हुई थी । मगध साम्राज्य का सम्राट अशोक द्वारा पाटलिपुत्र के अगम कूप के समीप तृतीय बौद्ध संगीति मोग्गलीपुत्त की अध्यक्षता में 255 ई.पू. कराई गई थी । सूर्य की किरणें और चंद्रमा की किरणों के प्रभाव से अगमकुप का जल में परिवर्तन होता रहता था । कूप जल से क्षय रोग , चेचक , हैजे की विमारी में प्रयोग कर स्वच्छ होते थे । जल सेवन और पैन करने से शारीरिक मानसिक और आदिस्टमिक चेतना जगृत होती थी । अगम कूप के समीप माता शीतला की मूर्ति उत्खनन से प्राप्त हुई है । कूप की परिक्रमा और रहने से आध्यात्मिक शक्ति मिलती है ।अगम कूप की विशेषता जैन और बौद्ध ग्रथों में उल्लेख मिलता है ।
शीतला माता मंदिर - पटना के अगमकुआं  परिसर में ऐतिहासिक माता शीतला के मंदिर के गर्भगृह में पर्यावरण एवं शीतलता की देवी शीतल का  महत्व है। चैत्र  कृष्ण पक्ष  सप्तमी अष्टमी को शीतला माता का पर्व बसौड़ या बसौरा मनाया जाता हैं। ब्रह्मा जी ने  देवलोक से धरती पर मां शीतला अपने साथ भगवान शिव के पसीने से बने ज्वरासुर को अपना साथी मानकर आयी थी । ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, जाट और गुर्जर समेत कई समाजों की कुलदेवी के रूप  है।  सप्तमी-अष्टमी वाले दिन शीतला माता का पूजन करके उन्हें दही, चावल और अन्य कई चीजों से नैवेद्य का भोग लगाने के तत्पश्चात घर के सभी लोग ठंडा यानी बसौड़ा भोजन ग्रहण करते हैं। शीतला माता का प्रकोप होने से बीमारी होती है। शक्ति और निरोगता की देवी शीतला माता का वस्त्र लाल , अस्त्र कलश, सूप, झाड़ू, नीम के पत्ते , जीवनसाथी भगवान शिव और सवारी गर्दभ है । माता शीतला को खासतौर पर मीठे चावलों का भोग लगाते और चावल, गुड़ या गन्ने के रस से बनाए जाते हैं। कहीं-कहीं माता को चावल और घी का भी भोग लगाया जाता है। इस दिन घरों में खाना नहीं बनाया जाता है, बल्कि माता को चढ़ाये प्रसाद को ही ग्रहण किया जाता है । माता  शीतला सप्तमी पर शीतला मां की विशेष पूजा करने से रोगों से मुक्ति मिलने के साथ और उत्तम स्वास्थ्य की प्राप्ति होती है । स्कंद पुराण के अनुसार, माता शीतला रोगों से बचाने वाली देवी हैं । माता को शीतल जल चढ़ाने से भक्तों की हर मनोकामना पूर्ण होती है। शीतला माता के स्वरूप के प्रतीकात्मक  हैं। पर्यावरण के शुद्धिकरण एवं  सृष्टि को विषाणुओं से बचाने , साफ-सफाई, स्‍वस्‍थता और शीतलता का देवी शीतला माता है।  गणेश जी की सर्वाधिक प्रिय दूब मां शीतला को पसंद है ।  माता शीतला सात बहन में  ऋणिका, घृर्णिका, महला, मंगला, शीतला, सेठला और दुर्गा है ।. चैत्र कृष्ण अष्टमी से आषाढ़ कृष्ण अष्टमी तक होने वाले 90 दिन के व्रत को ही गौरी शीतला व्रत  है । स्कंद पुराण के अनुसार माता शीतला का मंत्र 'ॐ ह्रीं श्रीं शीतलायै नमः' भी प्राणियों को सभी संकटों से मुक्ति दिलाकर समाज में मान सम्मान पद एवं गरिमा की वृद्धि कराता है। देवी भागवत के अनुसार गौतम ऋषि की पत्नी और ब्रह्माजी की मानसपुत्री माता शीतला  थी। ब्रह्मा जी  ने अहल्या को सबसे सुंदर स्त्री बनाया था । अरावली पर्वतमाला के सुधा श्रंखला  सुंधा माता के नाम से  जाना जाता है। मां की प्रतिमा बिना धड़ के होने कारण इसे अधदेश्वरी  कहा जाता है। सुंधा माता मंदिर राजस्थान है। शीतला माता की पूजा चैत्र मास के कृष्ण पक्ष की सप्तमी तिथि से शुरू होती है  मगध , मिथिला , अंग , भोजपुर , बिहार   में शीतला माता  पूजा होली के बाद पड़ने वाले पहले सोमवार या गुरुवार के दिन होती है । शीतला  माता का प्रतीक चिन्ह क्या है?शीतला माता की चारों भुजाओं में झाड़ू, घड़ा, सूप और कटोरा सुशोभि  हैं । सफाई का प्रतीक चिन्ह हैं। उनकी सवारी गधा है, जो उन्हें गंदे स्थानों की ओर ले जाती है। झाड़ू उस स्थान की सफाई करने के लिए तो सूप कंकड़-पत्थर को अलग करने के लिए है। 'वन्देहं शीतलां देवीं रासभस्थां दिगम्बराम। मार्जनीकलशोपेतां शूर्पालंकृतमस्तकाम॥' अर्थात गर्दभ पर विराजमान, दिगम्बरा, हाथ में झाड़ तथा कलश धारण करने वाली, सूप से अलंकृत मस्तक वाली भगवती शीतला की मैं वंदना करता हूं।  स्वच्छता की अधिष्ठात्री देवी हैं। शीतला माता का मंदिर राजस्थान की राजधानी जयपुर से लगभग 70 किलोमीटर दक्षिण में  चाकसू गाँव में स्थित ऊँची 300 मीटर एक पहाड़ी पर स्थित है । जो दूर से ही दिखाई देता है। माता के दर्शन के लिए लगभग 300 मीटर की चढ़ाई करनी पड़ती है। शीतला माता मंदिर जयपुर राजस्थान , बिहार का गया तथा  पटना में है । 
कृष्ण , जैन ,बौद्ध , महापद्मनंद , मौर्य, शुंग , गुप्त काल में आध्यात्मिक चेतना स्थल पर माता शीतला की उपासना होती रही है ।






बुधवार, नवंबर 16, 2022

देव की विरासत....


बिहार का औरंगाबाद जिले के देव प्रखंड में औरंगाबाद से 6 मील दक्षिण पूर्व में स्थित सौरसम्प्रदाय का प्रमुख स्थल देव है। देव में भगवान सूर्य को समर्पित सूर्य  मंदिर  है। सूर्य पुराण के अनुसार ब्रह्म कुंड में स्नान करके कुष्ठ रोग से उबरने के बदले में राजा और द्वारा मूल सूर्य मंदिर की मरम्मत की गई थी। इस मंदिर को मुसलमानों ने अपनी विजय के मद्देनजर तोड़ दिया था और कहा जाता है कि इसका पुनर्निर्माण कुछ हुंडू राजा ने किया था जिनके बारे में कोई निश्चित जानकारी नहीं है।  भगवान सूर्य की पूजा और ब्रह्म कुंड में स्नान करने का धार्मिक महत्व राजा और के समय से पता चलता है। स्नान कार्तिक और चैत्र शुक्ल पक्ष में मनाई जाने वाली  छठ पर आस-पास और पड़ोसी जिलों के लोग छठ पर्व से दो या एक दिन पहले हजारों की संख्या में आते हैं और अगले दिन तक वहीं रहते हैं। सूर्य मंदिर का निर्माण राजा एल द्वारा  अखंड पैटर्न में किया गया है। प्रत्येक स्लैब को लोहे के खूंटे से जोड़ा गया है और कलात्मक रूप से छवियों और अन्य कारीगरी में उकेरा गया है। सूर्य मंदिर के शीर्ष पर स्लैब में कमल की नक्काशी वाले गुंबदों के निर्माण ने बोधगया और पुरी के मंदिरों से एक महान प्रगति की। होगा । मंडप मंदिर के सामने  मंडप का निर्माण किया गया है जिसका निर्माण सूर्य मंदिर के निर्माण से पुराना लगता है। गणेश की एक छवि, सूर्य मंदिर की दीवार पर खुदी हुई है। सूर्य मंदिर के गर्भगृह में स्थित  मंच पर अगल-बगल तीन मूर्तियाँ हैं जिनके सामने एक रथ खींचने वाला घोड़ा भी खुदा हुआ है। मंडप के अंदर कुछ शिलालेख हैं। उसी प्रकार का सूर्य  मंदिर उमागा सूर्य मंदिर के सदृश्य  है । देव राज परिवार के बारे में कहा जाता है कि वे इस स्थान पर स्थानांतरित हो गए थे। देव बिहार के सबसे पुराने परिवारों में से एक देव राजा के वंशज  उदयपुर के राजस्थान में अपने वंश का जुड़ाव  हैं। पारिवारिक परंपरा के अनुसार उदयपुर के राणा के छोटे भाई महाराणा राजभान सिंह ने पंद्रहवीं शताब्दी में जगन्नाथ के मंदिर के रास्ते में उमागा में डेरा डाला था। एक पहाड़ी किला था। जिनमें से प्रमुख एक बूढ़ी और असहाय विधवा को छोड़कर मर गया, जो अपने विद्रोही विषयों पर आदेश रखने में असमर्थ थी। भान सिंह के आने की बात सुनकर उसने उसे अपने बेटे के रूप में अपनाते हुए खुद को अपनी सुरक्षा में लगा लिया। उसने जल्द ही खुद को छवि किले का स्वामी बना लिया और घटना के विद्रोह को शांत कर दिया। उसकी मृत्यु के बाद उसके दो वंशजों ने वहां शासन किया लेकिन बाद में परिवार की वर्तमान सीट के पक्ष में किले को छोड़ दिया गया। देव  राजा राजा छत्रपति ने अंग्रेजों की मदद की थी। वारेन हेस्टिंग्स और बनारस के राजा चैत सिंह के बीच की प्रतियोगिता में देव राजा इतने बूढ़े हो गए थे कि उनका बेटा फतेह नारायण सिंह मेजर क्रॉफर्ड के अधीन सेना में शामिल हो गए और बाद में पिंडारियों के साथ युद्ध में अंग्रेजों की सहायता की। पूर्व सेवा के लिए युवा राजा को ग्यारह गांवों का नंकार या किराया मुक्त कार्यकाल दिया गया था और उनकी बाद की सेवाओं को राजा पलामू के साथ पुरस्कृत किया गया था, जिसे बाद में औरंगाबाद जिले के गांवों में बदल दिया गया था, जिससे रुपये की आय हुई। 3000 प्रति वर्ष राजा फतेह नारायण सिंह के उत्तराधिकारी घनश्याम सिंह थे जिन्होंने सरगुजा में विद्रोहियों को ब्रिटिश सेना के साथ मैदान में उतारा था । उन्हें पलामू के राज में दूसरी बार पुरस्कार मिला। उनके बेटे राजा मित्र भान सिंह ने छोटानागपुर में कोल विद्रोह को दबाने में अच्छी सेवा की और उन्हें रुपये की छूट के साथ पुरस्कृत किया गया। देव एस्टेट से होने वाले सरकारी राजस्व से 1000 रु. 1857 के निर्देशों के दौरान राजा के दादा जयप्रकाश सिंह की सेवाएं, जिन्होंने अपने सैनिकों को छोटानागपुर भेजा था, उन्हें महाराजा बहादुर की उपाधि से सम्मानित किया गया था, जो कि भारत के स्टार का नाइटहुड और एक जागीर या किराया मुक्त कार्यकाल का अनुदान था। अंतिम आरजे की मृत्यु 16 अप्रैल 1934 को हुई थी और उनकी विधवा को उनके उत्तराधिकारी के रूप में छोड़ दिया गया था। संपत्ति 92 वर्ग मील में फैली हुई है और 1901 और 1903 के बीच सर्वेक्षण और निपटान के तहत लाया गया था। बिहार भूमि सुधार अधिनियम के अधिनियमन के साथ देव राज की जमींदारी राज्य को पारित कर दी गयी है।औरंगाबाद में धर्मशाला में स्थित 1904 से हनुमान जी की मूर्ति स्थापित है ।




मंगलवार, नवंबर 08, 2022

उमगा पर्वत समूह की सांस्कृतिक विरासत ....

    प्रसिद्ध पर्यटक आकर्षण का केंद्र ओरंगाबाद जिले का मदनपुर प्रखंड में तथा ओरंगाबाद से 24 किमि की दूरी पर उमगा पर्वत श्रंखला के विभिन्न स्थलों पर भगवान सूर्य , गणपति एवं भगवान शिव एवं  वैष्णव मंदिर है  वास्तुकला के से परिपूर्ण है । चामुंडा मंदिर का अवशेष , माता उमगेश्वरी की मूर्ति भारी चट्टानों में गुफ़ानुमा में स्थित , सहस्रलिंग शिव ,  उमा महेश्वर मंदिर है । स्क्कायर ग्रेनाईट ब्लोकों का इस्तेमाल शानदार वैष्णव मंदिर एवं भगवान सूर्य मंदिर का गर्भगृह में  भगवान् गणेश,  भगवान् सूर्य और भगवान् शिव  हैं ।  भारतीय विरासत संगठन के अध्यक्ष साहित्यकार व इतिहासकार सत्येन्द्र कुमार पाठक द्वारा 6 नवम्बर 2022 को उमगा पर्वत श्रृंखला के विभिन्न स्थानों पर अवस्थित विरासतों का परिभ्रमण किया । ओरंगाबाद  जिले के  अनुग्रह नारायण रोड रेलवे स्टेशन से 36 किमि  एवं जिला मुख्यालय ओरंगाबाद से 24  कि0‍मी0 की दूरी एवं  ग्रैण्‍ड ट्रंक रोड से 1.5 कि0मी0 दक्षिण की ओर एवं देव से 12 कि0मी0 की दूरी पर स्थित है उमगा है । उमगा पर्वत समूह का सूर्यान्क गिरि , उमगेश्वरी गिरि , विष्णु गिरि , उमामहेश्वर गिरी पर पत्थर युक्त मंदिर प्राचीन एवं मागधीय संस्कृति की पहचान है । औरंगाबाद जिले के दक्षिण-पूर्व में   देव से 8 मील पूर्व और मदनपुर के नजदीक स्थित उमगा पर्वत समूह है। उमागा गांव को  मुंगा एवं उमगेश्वरी  कहा जाता है, मूल रूप से देव राज की स्थान थी क्योंकि देव राज के विवरण में इसका उल्लेख यहां किया गया था कि इसके संस्थापक स्थानीय शासक परिवार के बचाव में आए थे। खुद को पहाड़ी किले का मालिक बनाकर अपने वश में कर लिया। इसके विद्रोही प्रजा ने स्थानीय राजा  भैरवेंद्र की लड़की से शादी की और देव के लिए जगह छोड़ने से पहले उनके वंशज 150 साल तक यहां रहे। राजा भैरवेंद्र  के समय में रुचि का मुख्य उद्देश्य पहाड़ी के पश्चिमी ढलान पर सुरम्य रूप से स्थित सुंदर  पत्थर का मंदिर है और देश को कई मील तक देख रहा है। मंदिर की ऊंचाई लगभग 60 फीट है और यह पूरी तरह से बिना सीमेंट के वर्गाकार ग्रेनाइट ब्लॉकों से बना है, जबकि छत को सहारा देने वाले स्तंभ बड़े पैमाने पर मोनोलिथ हैं। मंदिर की उल्लेखनीय विशेषता स्तंभों के मुख पर प्रवेश द्वार पर कुछ अरबी शिलालेखों की उपस्थिति है और द्वार के जाम्बे पर बाद में अल्लाह के नाम तक सीमित है। वे मुसलमानों द्वारा उत्कीर्ण किए गए थे, जो कभी मस्जिद के रूप में मंदिर का इस्तेमाल करते थे और उनकी उपस्थिति के लिए मुस्लिम कट्टरपंथियों के विवरण हाथों से इसके संरक्षण को जिम्मेदार ठहराया जा सकता है। बाद के हिंदू भक्तों द्वारा जानबूझकर छीने जाने के कारण उन्हें अब विलोपित कर दिया गया है। मंदिर के बाहर गहरे नीले रंग के क्लोराइट का एक बड़ा तलाव 1439 ईस्वी में भैरवेंद्र द्वारा अपने भाई बलभद्र और उसकी बहन सुभद्रा को जगन्नाथ को समर्पित मंदिर को रिकॉर्ड करता है। इस शिलालेख में उल्लेख है कि उमागा शहर अपने 12 पूर्वजों के शासन के तहत एक ऊंचे पहाड़ की चोटी पर फला-फूला, जिन्होंने संभवतः देश के एक विस्तृत क्षेत्र पर शासन किया था। कैप्टन किट्टू का कहना है कि सरगुजा की पहाड़ियों में एक पत्थर पर पाए गए एक शिलालेख में एक राजा लछमन देव का उल्लेख है, जो उस पहाड़ी प्रमुख के खिलाफ युद्ध में गिर गया था, जिस पर वह हमला करने गया था और पंक्ति के तीसरे लच्छमन पाल के साथ उसकी पहचान करता है। फतेहपुर के पास पूर्व में लगभग 45 मील की दूरी पर भगवान शिव का एक पुराना मंदिर है जो एक प्राचीन तालाब और खंडहर के साथ सिद्धेश्वर महादेव से टकराया है और उमागा के उत्तर पश्चिम में लगभग 4 मील की दूरी पर संध्याल में इसी नाम का एक और मंदिर है। इस बात की पूरी संभावना है कि इन मंदिरों का निर्माण छठी पंक्ति के राजा शांध पाल ने करवाया था। इसके अलावा उत्तर पूर्व में 30 मील की दूरी पर कोंच का प्राचीन कोचेश्वर  मंदिर, जो कि उमागा में भैरवेंद्र से मिलता-जुलता है। ऐसा प्रतीत होता है कि इन प्रमुखों का प्रभुत्व गया और हजारीबाग में एक बड़े क्षेत्र में फैला हुआ था। जनार्दन के वंशज भैरवेंद्र के दरबार के एक पंडित थे, जिनका उल्लेख शिलालेख के रचयिता के रूप में किया जाता है, वे पूर्णाडीह में रहते थे जो उमगा का एक गांव था। 
मंदिर के दक्षिण में एक बड़ा पुराना तालाब है, जिसके उत्तर और दक्षिण में पत्थर की सीढ़ियाँ हैं, जिसका पुराना किला अभी भी खड़ा है। पहाड़ी के ऊपर उसी शैली में एक और मंदिर के खंडहर हैं। पहले से ही उल्लेख किया गया है और पास में एक विशाल बोल्डर के साथ एक जिज्ञासु छोटी वेदी है जिसके नीचे अभी भी बकरियों और अन्य जानवरों की बलि दी जाती है। मंदिरों के कई अन्य खंडहर पहाड़ियों पर बिखरे हुए हैं और ग्रामीणों के अनुसार एक समय में वहां 52 मंदिर थे। .उमगा का प्रमुख सूर्य मंदिर के गर्भगृह में भगवान सूर्य , गणपति और भगवान शिव है । सूर्यमंदिर के प्रकोष्ठ में सूर्य मंदिर का इतिहास एवं भजन उपासना की जाती है । सूर्यमंदिर परिसर में भूस्थल से से लगभग 600 सीढ़ियों से जाया जाता है । सूर्यमंदिर के बाद भगवान शिव का सहस्तरलिंगी शिवलिंग , गणेश जी का मंदिर है । सहस्त्र लिंगी शिव मंदिर के रास्ते से माता चामुंडा का भग्नावशेष मंदिर , भालुकामयी चट्टान गुफा में माता उमगेश्वरी की मूर्ति एवं बंदर का निवास है ।  विष्णु मंदिर जाने का रास्ता संकीर्ण पहाड़ी से जाना होता है । पत्थर युक्त  विष्णु मंदिर का गर्भगृह में भगवान विष्णु एवं बरामदा है । विष्णु मंदिर से 1100 फिट की ऊँचाई पर भगवान शिव , माता उमा , गणेश , कार्तिक मुर्ति है । बंगाल की एशियाटिक सोसाइटी के जर्नल में कैप्टन किट्टी द्वारा संदर्भ लेख भाग 11 खंड 1847, भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण खंड 141 से 141 और उमगा पहाड़ी शिलालेख बाबु परमेश्वर दयाल जर्नल ऑफ द एशियाटिक सोसाइटी ऑफ बंगाल खंड 2 पृष्ठ 03, 1906, बिहार जिला गजेटियर्स गया 1957. पी द्वारा पी सी रॉय चौधरी और एनजीएएल जिला गजेटियर ऑफ गया 1906 द्वारा एलएसएस ओ' मॉल आई सी एस ने उमगा हिल पर बने प्राचीन मंदिरों एवं मूर्तियों का उल्लेख किया है ।