शनिवार, जुलाई 23, 2022

रामगढ़ जिले की सांस्कृतिक विरासत ...

 
       
     हिन्दी और संथाली भाषायी तथा 1211 वर्ग कि. मि. क्षेत्रफल में फैला 2011 जनगणना के अनुसार 949159 आवादी वाला रामगढ़ जिला का मुख्यालय  रामगढ़ कैंट है । छोटानागपुर के राजा द्वारा बाघ देव सिंह , खरवार सिंह और देव सिंह को  १३६८ मई 1368 ई . में  २४ परगना के शासक बनाया गया था । रामगढ़ का  क्षेत्र कोयला और खनिज  अभ्रक में समृद्ध है । रामगढ़ का अंतिम राजा रे बहादुर कामाख्या नारायण सिंह का जन्म 1916 और मृत्यु 1970 में हो गई है । १९४७ में आजादी के बाद  रामगढ़ जिला का क्षेत्र हजारीबाग जिले का एक भाग बन गया था । १२ सितंबर २००७ को रामगढ़ जिला बनाया गया। रामगढ़ जिले में  रामगढ़, गोला, मांडू , पतरातू ,दुलमीऔर चितरपुर प्रखण्ड है। रामगढ़ जिले के ऐतिहासिक तथा प्राचीन स्थल  में रजरप्पा , माता वैष्णो देवी मंदिर , टूटी झरना मंदिर ,चुटुपालु ,बानखेत्ता एवं लिरिल है । टूटी  झरना शिव मंदिर - झारखंड के रामगढ़ से 8 कि. मि. पर  अवस्थित भगवान शंकर के शिवलिंग पर जलाभिषेक मां गंगा निरंतर करती रहती  हैं । झारखंड राज्य  के रामगढ़ जिले में स्थित  शिव मंदिर को  टूटी झरना के नाम से ख्याति प्राप्त  है ।शिव मंदिर  का उद्भव ब्रिटिश प्रशासन द्वारा रेलवे लाइन बिछाने के दौरान भूस्थल के उत्खनन के तहत 1925 ई. में   जमीन के अन्दर  गुम्बदनुमा चीज दिखाई पड़ाने के दौरान शिव लिंग व  मंदिर ,  मां गंगा की सफेद रंग की प्रतिमा प्राप्त हुई थी ।मां गंगा की  प्रतिमा के नाभी से निरंतर   दोनों हाथों की हथेली से गुजरते हुए जल प्रवाहित  शिव लिंग पर गिरता है । भगवान शंकर के शिव लिंग पर जलाभिषेक  स्वयं मां गंगा करती हैं ।  दो हैंडपंप रहस्यों से घिरे हुए हैं. यहां लोगों को पानी के लिए हैंडपंप से अपने-आप हमेशा पानी नीचे गिरता रहता है । मंदिर के समीप  नदी में हैंडपंप से पानी निरंतर प्रवाहित  रहता है ।
 रजरप्पा मन्दिर  - झारखंड राज्य के रामगढ़ जिले के भैरवी  भेड़ा एवं दामोदर नदी के संगम पर स्थित  रजरप्पा मंदिर के गर्भगृह में  छिन्नमस्तिके सिद्धपीठ है । छिन्नमस्तिके मंदिर के समीप  महाकाली मंदिर, सूर्य मंदिर, दस महाविद्या मंदिर, बाबाधाम मंदिर, बजरंग बली मंदिर, शंकर मंदिर हैं। पश्चिम दिशा से दामोदर तथा दक्षिण दिशा से कल-कल भैरवी नदी का दामोदर में मिलन है।  मां छिन्नमस्तिके का मंदिर  की उत्तरी दीवार के साथ रखे एक शिलाखंड पर दक्षिण की ओर मुख किए माता छिन्नमस्तिके का दिव्य रूप अंकित है।  रजरप्पा मंदिर  महाभारत युग काल में निर्मित  है। असम स्थित मां कामाख्या मंदिर को सबसे बड़ा शक्तिपीठ माना जाता है। मंदिर में बड़े पैमाने पर विवाह भी संपन्न कराए जाते हैं।मंदिर में प्रातःकाल 4 बजे माता का दरबार सजना शुरू होता है। भक्तों की भीड़ भी सुबह से पंक्तिबद्ध खड़ी रहती है, खासकर शादी-विवाह, मुंडन-उपनयन के लगन और दशहरे के मौके पर भक्तों की 3-4 किलोमीटर लंबी लाइन लग जाती है। मां छिन्नमस्तिके मंदिर के अंदर स्थित शिलाखंड में मां की 3 आंखें हैं। बायां पांव आगे की ओर बढ़ाए हुए वे कमल पुष्प पर खड़ी हैं। पांव के नीचे विपरीत रति मुद्रा में कामदेव और रति शयनावस्था में हैं। मां छिन्नमस्तिके का गला सर्पमाला तथा मुंडमाल से सुशोभित है। बिखरे और खुले केश, जिह्वा बाहर, आभूषणों से सुसज्जित मां नग्नावस्था में दिव्य रूप हैं। दाएं हाथ में तलवार तथा बाएं हाथ में अपना ही कटा मस्तक है। इनके अगल-बगल डाकिनी और शाकिनी खड़ी हैं जिन्हें वे रक्तपान करा रही हैं और स्वयं भी रक्तपान कर रही हैं। इनके गले से रक्त की 3 धाराएं बह रही हैं। रजरप्पा मंदिर का मुख्य द्वार पूरबमुखी है। मंदिर के सामने बलि का स्थान है। बलि स्थान पर प्रतिदिन औसतन 100-200 बकरों की बलि चढ़ाई जाती है। मंदिर की ओर मुंडन कुंड है। इसके दक्षिण में एक सुंदर निकेतन है जिसके पूर्व में भैरवी नदी के तट पर  बरामदा एवं पश्चिम  में भंडारगृह है।  रुद्र भैरव मंदिर के समीप  कुंड है। मंदिर की भित्ति 18 फुट नीचे से खड़ी की गई है। नदियों के संगम के मध्य में  पापनाशिनी कुंड है, जो रोगग्रस्त भक्तों को रोगमुक्त कर उनमें नवजीवन का संचार करता है। मुंडन कुंड, चेताल के समीप ईशान कोण का यज्ञ कुंड, वायु कोण कुंड, अग्निकोण कुंड जैसे कई कुंड हैं। दामोदर के द्वार पर  सीढ़ी का निर्माण 22 मई 1972 को संपन्न हुआ था। तांत्रिक घाट  20 फुट चौड़ा तथा 208 फुट लंबा है। भक्त गण दामोदर में स्नान कर मंदिर में जा सकते हैं।  प्राचीनकाल में छोटा नागपुर के राजा  रज की पत्नी  रूपमा द्वारा  रजरूपमा नगर की स्थापना की थी । कालांतर  रजरूपमा को रजरप्पा से ख्याति प्राप्त हुई है । छोटानागपुर के राजा रज दामोदर एवं भैरवी नदी के संगम पर  पूर्णिमा की रात में शिकार की खोज में रात्रि विश्राम के दौरान राजा ने स्वप्न में लाल वस्त्र धारण किए तेज मुख मंडल वाली  कन्या देखी। कन्या ने राजा से कहा – हे राजन, इस आयु में संतान न होने से तेरा जीवन सूना लग रहा है। मेरी आज्ञा मानोगे तो रानी की गोद भर जाएगी। राजा की आंखें खुलीं तो वे इधर-उधर भटकने लगे। इस बीच उनकी आंखें स्वप्न में दिखी कन्या से जा मिलीं। वह कन्या जल के भीतर से राजा के सामने प्रकट हुई। दिव्य बालिका रूप अलौकिक रूप  देख राजा भयभीत हो उठे थे । दिव्य कन्या कहने लगी- हे राजन, मैं छिन्नमस्तिके देवी हूं। वन में प्राचीनकाल से गुप्त रूप से निवास कर रही हूं। मैं तुम्हें वरदान देती हूं कि आज से ठीक नौवें महीने तुम्हें पुत्र की प्राप्ति होगी। दिव्य देवी बोली- हे राजन, मिलन स्थल के समीप तुम्हें मेरा एक मंदिर दिखाई देगा।  मंदिर के अंदर शिलाखंड पर मेरी प्रतिमा अंकित दिखेगी। तुम सुबह मेरी पूजा कर बलि चढ़ाओ। ऐसा कहकर छिन्नमस्तिके अंतर्ध्यान हो गईं। इसके बाद से  पवित्र तीर्थ रजरप्पा के रूप में विख्यात हो गया। भगवती भवानी  सहेलियों जया और विजया के साथ मंदाकिनी नदी में स्नान करने गईं। स्नान करने के बाद भूख से उनका शरीर काला पड़ गया। सहेलियों ने भोजन मांगा। देवी ने उनसे कुछ प्रतीक्षा करने के लिए कही । बाद में सहेलियों के विनम्र आग्रह पर देवी ने दोनों की भूख मिटाने के लिए अपना सिर काट लिया। कटा सिर देवी के हाथों में आ गिरा व गले से 3 धाराएं निकलीं। वह 2 धाराओं को अपनी सहेलियों की ओर प्रवाहित करने लगने के कारण  छिन्नमस्तिके कही जाने लगीं। रजरप्पा मंदिर शाक्त धर्म का प्रमुख केंद्र है । रामगढ़ का शाब्दिक  रूप में राम का शब्द मुर्रम से लिया गया है और गढ़ शब्द बेलागढ़ से निकला है। बिहार गजेटियर हजारीबाग  अध्याय IV, पृष्ठ संख्या। - 65, यह उल्लेख  है कि मगध साम्राज्य का राजा  जरासघं के अधीन छोटानागपुर  में था ।  छोटानागपुर अशोक महान (273 ई.पू.-232 ई.पू) के उप-समन्वय के अधीन था । रामसिंह द्वितीय के शासन काल में रामगढ़ में राजधानी निर्माण हुआ था । राम सिंह के पुत्र दलेल सिंह राजधानी स्थान्तरित कर लाए (1670-71) में राजधानी  रामगढ़ में रखा था । रामगढ़ को धन्धारहरवे , मुरम गढ़ा  कहा जाता था । पाषाण काल , मौर्य , गुप्‍त साम्राज्‍य, मुगल  और ब्रिटिश शासनकाल में रामगढ़ समृद्ध  है। रामगढ़ के धार्मिक स्‍थलों में टूटी झरना मंदिर, माया टु्ंगरी मंदिर, राजरप्‍पा मंदिर ,  प्राकृतिक स्‍थलों में, धर - दुरिया - झरना, अम - झारिया झरना, नैकारी बांध, अम - लारिया झरना, गांधोनिया ( गर्म पानी झरना), बानखेट्टा गुफा  आदि है।  महात्‍मा गांधी समाधि स्‍थल, इस जगह पर महात्‍मा गांधी 1940 में भारतीय राष्‍ट्रीय कांग्रेस अधिनियम की बैठक में शामिल होने का स्थल रामगढ़  थी। बौद्ध मंदिर और स्‍मारकीय स्‍तंभ है। 12 सितंबर 2007 को रामगढ़ जिला का  अक्षांश और देशांतर क्रमशः 230 38’ और 850 34’ पर अवस्थित  रामगढ़ जिले का कुल क्षेत्रफल 1360.08 वर्ग किलोमीटरमें 487.93 वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल वन क्षेत्र के तहत  351 राजस्व गांव में  334 चिरागी और 17 बेचिरगी हैं। कीकट प्रदेश का छोटानागपुर में नागवंशीय का शासन  था ।









गुरुवार, जुलाई 21, 2022

गोरखपुर की सांस्कृतिक विरासत ...


    सनातन धर्म की नाथ सम्प्रदाय का उत्तरप्रदेश के पूर्वी एवं नेपाल सीमा के समीप गोरखपुर जिले का मुख्यालय गोरखपुर है । गोरखपुर ज़िले के  पूर्व में देवरिया एवं कुशीनगर ,  पश्चिम में संत कबीर नगर , उत्तर में महराजगंज एवं सिद्धार्थनगर , तथा दक्षिण में मऊ, आज़मगढ़ तथा अम्बेडकर नगर की सीमाओं से घिरा है । निर्देशांक: 26°45′49″N 83°24′14″E / 26.7637152°N 83.4039116°E के तहत 87.5 वर्गमील में फैले गोरखपुर महानगर  की आवादी 25 लाख लोग हिंदी , भोजपुरी तथा गोरखपुरी भाषी है । गोरखपुर सनातन धर्म के नाथ सम्प्रदाय , बौद्ध, हिन्दू, मुस्लिम, जैन और सिख सन्तों की साधनास्थली है।  मध्ययुगीन नाथ सम्प्रदाय के महान सन्त गोरखनाथ के नाम पर गोरखपुर रखा गया है ।  नाथ सम्प्रदाय की गोरखनाथ पीठ और  गोराखनाथ मन्दिर है। महान सन्त परमहंस योगानन्द का जन्म स्थान , राधाबाबा का साधना स्थल , बौद्ध मठ , , इमामबाड़ा, १८वीं सदी की दरगाह ,  गीता वाटिका एवं गीता प्रेस , 1930 में गोरखपुर जंक्शन रेलवे स्टेशन गिनीज़ बुक ऑफ़ वर्ल्ड रिकॉर्ड्स के अनुसार विश्व का सर्वाधिक लम्बा प्लेटफॉर्म स्थित है।गोरखपुर जिले की  जनगणना 2011के अनुसार  जनसंख्या 4436275 आवादी 3483.8 वर्ग किमि क्षेत्रफल में निवास करते है। प्रसिद्ध तपस्वी सन्त एवं नाथ सम्प्रदाय के संस्थापक मत्स्येन्द्रनाथ के प्रमुख शिष्य गोरखनाथ के नाम पर है । गोरखनाथ हठ योग का अभ्यास करने के लिये आत्म नियन्त्रण के विकास पर विशेष बल दिया करते थे और वर्षानुवर्ष एक ही मुद्रा में धूनी रमाये तपस्या किया करते थे। गोरखनाथ मन्दिर में धूनी की आग अनन्त काल से अनवरत सुलगती रहती  है । राप्ती और रोहिणी नदियों का संगम पर गोरखपुर  में क्षत्रिय गण संघ तथा मॉल सेन्ध्वार  का मुख्यालय था ।  छठी शताब्दी ई.पू. में गौतम बुद्ध ने सत्य की खोज के लिये जाने से पूर्व  राजसी वस्त्र त्याग दिये थे। मल्ल राज्य की राजधानी गोरखपुर  थी । इक्ष्वाकु राजवंश के बाद मगध पर  नंद राजवंश द्वारा चौथी सदी में विजय प्राप्त की उसके बाद गोरखपुर मौर्य, शुंग, कुषाण, गुप्त और हर्ष साम्राज्यों का हिस्सा बन गया। भारत का महान सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य जो मौर्य वंश का संस्थापाक का सम्बन्ध पिप्पलीवन के  प्राचीन गणराज्य से था। यह गणराज्य भी नेपाल की तराई और कसिया में रूपिनदेई के क्षेत्र गोरखपुर जिले में  था। 10 वीं सदी में थारू जाति के राजा मदन सिंह ने गोरखपुर क्षेत्र पर शासन किया। राजा विकास संकृत्यायन का जन्म स्थल है।
मध्यकाल  में, गोरखपुर को मध्यकालीन हिन्दू सन्त गोरक्षनाथ के नाम पर गोरखपुर नाम दिया गया था।  गोरक्षनाथ से महाभारत काल में युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ का निमन्त्रण देने भीम आए  थे।  गोरक्षनाथ  समाधिस्थ होने के कारण  भीम ने   दिनों तक विश्राम किया था। भीम की विशालकाय लेटी हुई प्रतिमा है। 12वीं सदी में, गोरखपुर क्षेत्र पर उत्तरी भारत के मुस्लिम शासक मुहम्मद गौरी ने विजय प्राप्त करने के  बाद गोरखपुर क्षेत्र कुतुबुद्दीन ऐबक और बहादुरशाह, शासकों के प्रभाव में  शताब्दियों के लिए बना था । 16वीं सदी के प्रारम्भ में भारत के एक रहस्यवादी कवि और प्रसिद्ध सन्त कबीर  रहते थे । 16 वीं शताब्दी में मुगल बादशाह अकबर ने साम्राज्य के पुनर्गठन  सरकार स्थापित कर  प्रशासनिक इकाइयों में अवध प्रान्त के  गोरखपुर  था । गोरखपुर 1803 में  ब्रिटिश नियन्त्रण में आया था । 1857 के विद्रोह के प्रमुख केंद्रों  में भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में प्रमुख भूमिका निभायी थी । गोरखपुर जिला चौरीचौरा की 4 फ़रवरी 1922 की घटना  भारत के स्वतंत्रता संघर्ष के इतिहास में एक महत्वपूर्ण मोड़ सिद्ध हुई है । प्रमुख क्रन्तिकारी नेता राम प्रसाद बिस्मिल' को गोरखपुर जेल में ब्रिटिश शासन के खिलाफ लड़ाई में सक्रिय भाग लेने के लिये फाँसी दे दी गयी। 19 दिसम्बर 1927 को बिस्मिल की अन्त्येष्टि राजघाट  गोरखपुर के  राप्ती नदी के तट पर स्थित है। सन 1934 में यहाँ एक भूकम्प की तीव्रता 8.1 रिक्टर पैमाने पर से शहर में बहुत ज्यादा नुकसान हुआ  था ।
प्राचीन काल में साधु-सन्त आश्रमों में विभिन्न भागों से आये लड़कों को योग व विद्यायें ग्रहण करते थे। त्रेता युग में  भगवान राम राम व  लक्ष्मण ने आश्रमों में रहकर योगादि शिक्षा ग्रहण की थी। पुरातात्विक, आध्यात्मिक, ऐतिहासिक, सांस्कृतिक एवं प्राकृतिक धरोहरों को समेटे हुए है। भगवान बुद्ध, तीर्थकर महावीर, संत कबीर, गुरु गोरखनाथ की तपःस्थली, सर्वधर्म-सम्भाव के संदेश देने वाले विभिन्न धर्मावलम्बियों के देवालयों से परिपूर्ण गोरखपुर है । गोरखपुर रेलवे स्टेशन से 4 किलोमीटर पश्चिमोत्तर में स्थित नाथ सम्प्रदाय के संस्थापक सिद्ध पुरूष श्री मत्स्येन्द्रनाथ  के शिष्य सिद्ध गुरु गोरखनाथ का गोराखनाथमन्दिर  स्थित है।  प्रतिवर्ष मकर संक्रांति के अवसर पर 'खिचड़ी-मेला'आयोजित होते हसि । रेलवे स्टेशन से 3 किलोमीटर की दूरी पर शाहपुर में विष्णु मंदिर स्थित है। विष्णु मंदिर के गर्भगृह में  12वीं शताब्दी की पालकालीन काले कसौटी पत्थर से निर्मित भगवान विष्णु की विशाल प्रतिमा स्थापित है। रेलवे स्टेशन से 4 किलोमीटर दूरी पर रेती चौक के पास स्थित गीताप्रेस में सफ़ेद संगमरमर की दीवारों पर श्रीमद्भगवदगीता के सम्पूर्ण 18 अध्याय के श्लोक उत्कीर्ण है। गीताप्रेस की दीवारों पर मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम एवं भगवान श्रीकृष्ण के जीवन की महत्त्वपूर्ण घटनाओं की 'चित्रकला' प्रदर्शित हैं।  हिन्दू धर्म की पत्रिका कल्याण  , वेदों पुराणों धार्मिक ग्रंथों का प्रकाशन गीता प्रेस से किया जाता है। रेलवे स्टेशन से 9 किलोमीटर दूर गोरखपुर-कुशीनगर मार्ग पर प्राचीन बुढ़िया माई मंदिर के गर्भगृह में बुढ़िया माई  की मूर्ति  है ।गोरखपुर-पिपराइच मार्ग पर रेलवे स्टेशन से 3 किलोमीटर दूरी पर  गीतावाटिका में राधा-कृष्ण  मन्दिर , आध्यत्मिक संत राधाबाबा मंदिर , गिरिराज परिक्रमा , नारद मंदिर ,  प्रख्यात समाजसेवी हनुमान प्रसाद पोद्दार उर्फ भाई जी का समाधि स्थल , भाई जी का आध्यात्मिक कक्ष है ।रेलवे स्टेशन से 5 किलोमीटर दक्षिण में 1700 एकड़ के विस्तृत भू-भाग में रामगढ़ ताल स्थित है। गोरखपुर नगर के मध्य में रेलवे स्टेशन से 2 किलोमीटर दूरी पर  इमामबाड़ा का निर्माण हज़रत बाबा रोशन अलीशाह की याद में सन्‌ 1717 ई० में नवाब आसफुद्दौला ने करवाया था । गोरखपुर शहर से 4 कि. मि. पर कूड़ाघाट बाज़ार के निकट  रामगढ़ ताल के पूर्वी भाग में झारखंडी शिव मंदिर स्थित है । उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री एवं गोरखनाथ मठ के पीठाधीश  माननीय योगी आदित्यनाथ का कर्म क्षेत्र गोरखपुर है ।

शुक्रवार, जुलाई 15, 2022

मागधीय सांस्कृतिक का केंद्र है बराबर पर्वत समूह....

       बिहार का इतिहास मागधीय संस्कृति और सभ्यता में जहानाबाद के बराबर पर्वत समूह, गया का ब्रह्मयोनि पर्वत समूह तथा राजगीर पर्वत समूह में छिपी हुई प्राचीन धरोहरों की पहचान है।  बराबर पर्वत समूह की गुफाएं ब्राह्मण धर्म , वैदिक धर्म , बौद्ध धर्म एवं जैन धर्म के विभिन्न ऋषियों , सिद्धों में लोमष ऋषि , सुदामा ऋषि , विश्वामित्र ऋषि , नागार्जुन आचार्य योगेंद्र , भदंत का न8वीएएस एवं अंगराज कर्ण को समर्पित गुफाएं ,ब्राह्मी लिपि एवं प्राकृत भाषा मे गुहा लेखन , भीतिचित्र तथा सिद्धो के नाथ सिद्धेश्वरनाथ , माता बागेश्वरी , माता सिद्धेध्वरी , भगवान सूर्य , गणपति अनेक देवी तवताओ की मूर्तियां स्थापित हसि । बराबर पर्वत समूह की सांस्कृतिक विरासत सतयुग में इक्ष्वाकु वंशीय के कुक्षी का पौत्र और विकुक्षि का पुत्र बाण एवं द्वापर में राजा बली के पुत्र बाणासुर की कर्मस्थली थी । बराबर पर्वत समूह का सूर्यान्क गिरि पर भगवान शिव द्वारा दैत्य राज सुकेशी को ईश्वर गीता का गायन गजासुर का कर्मस्थल , राजा बुध  की राजधानी थी । यह स्थल मगध साम्राज्य के सम्राट अशोक एवं पौत्र दशरथ का प्रिय स्थल और महात्मा बुद्ध का प्रिय स्थल था । बराबर पर्वत समूह का सूर्यान्क गिरि , सांध्य गिरि , नागार्जुन गिरि , कौवाडोल गिरि , भष्म गिरि , मुरली गिरि , लालपहाडी  पर मागधीय धरोहर विखरी पड़ी है । बराबर  राम गया के नाम से जाना जाता है । फल्गु नदी के किनारे बराबर पर्वत समूह स्थित है ।  931 वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल में जहानाबाद जिले में 1124176 आवादी निवासी है। 1872 ई. में जहानाबाद अनुमंडल की स्थापना हुई थी और 01 अगस्त 1986 ई. को जहानाबाद को जिला का सृजन किया गया है। 1819 ई. में जहानाबाद जिले के ओकरी, इक्किल, तथा भेलावर को परगाना और 1879 ई. में घेजन को महाल का दर्जा प्राप्त हुए थे ।  पर्वत समूह में मागधीय सांस्कृतिक विरासत विखरी पड़ी है । बराबर पर्वत समूह में गुफा संस्कृति, भीतिचित्र, मूर्तिकला , गुहलेखन , वास्तु शास्त्र की संस्कृति है ।जहानाबाद जिले के परगाने और महाल टिकारी राज का राजा मित्रजित सिह के आधीन था।1904 ई. में जहानाबाद जेल बने। जहानाबाद जिले के बराबर , धराउत, घेजन, ओकरी, भेलावार , दक्षणी, काको, जहानाबाद , केउर, अमथुआ, पाली तथा नेर में सौर धर्म, शैव धर्म , वैष्णव धर्म , शाक्त धर्म, बौद्ध धर्म , जैन धर्म , इस्लाम धर्म , ईसाई धर्म की विरासत विखरी पड़ी है । महाभारत काल में राजा जहनू ने  दरधा - जमुने नदी संगम पर जहान नगर की स्थापना की ।यह राजा शैव धर्म के उपासक और पंचलिंगी शिव की स्थापना की । शैव धर्म ,सौर धर्म , शाक्त धर्म तथा वैष्णव धर्म के मंदिर का निर्माण किया है परंतु काल चक्र से भूकंप, बाढ़ से प्रभावित होकर प्राचीन धरोहरों का भू में समहित है । शिव लिंग, प्राचीन धरोहर जहानाबाद ठाकुरवाड़ी में स्थित है। धराऊत में ब्राह्मण धर्म की विरासत 600-200 ई. पू. का धरोहर वीखरी हुई है । शूरसेन वंशीय राजा चंद्रसेन ने शासन के लिए धाराउत में राजधानी बनाई तथा शिव लिंग, घेज़न में भगवान बुद्ध की प्रतिमा महायान द्वारा स्थापित किया गया है। यहां के गढ़ की पहचान शाक्त धर्म से जुड़ाव है बाद में यह गढ़ बौद्ध विहार के नाम से ख्याति अर्जित की है। काको में कुकुत्स ने कोकट्स , काको नगर की स्थापना की और कोकाट्स का राजा कुकुत्स ने काको नगर का विकास किया । यह क्षेत्र सौर धर्म , शैव तथा वैष्णव धर्म का विकास तथा भगवान विष्णु आदित्य की मूर्ति और पनिहास सरोवर का निर्माण कराया था। यहां पर सूफी योगनी कमलो बीबी एवं दौलत बीबी का मजार प्राचीन काल से है। इस मजार पर मानसिक या शारीरिक अक्षमता वाले आकर चंगा होते हैं और सांप्रदायिक एकता का पवित्र स्थल है। दक्षिणी के राजा दक्ष ने सौर धर्म की उपासना के लिए उतरायण और दक्षिणायण सूर्य की मूर्ति की स्थापना एवं तलाव का निर्माण कराया था । राजा दक्ष का गढ़ दक्षिणी के नाम से जाना जाता है। भेलावर के राजा ने शिव लिंग तथा भगवान सूर्य की मूर्ति और तलाव का निर्माण कराया था। भगवान महावीर ने अपनी केवल्य प्राप्ति के बाद केवल्य वर्तमान केऊर में रह कर जैन धर्म की उपासना स्थल बनाया और संरक्षा के लिए चन्द्रगुप्त ने विष्णु , जगदम्बा, सूर्य, शिव लिंग की स्थापना की। केयूर का गढ़ से प्राप्त मूर्तियां प्राचीन धरोहर के रूप में महत्त्वपूर्ण हैं। जहानाबाद जिले के बराबर पर्वत समूह में छिपी हुई है । मोदनगंज प्रखंड में स्थित मैना मठ  और राजा चेरो वंशीय राजा चारु द्वारा चरुई नगर की स्थापना कर तंत्र मंत्र के लिए विभूक्षणी कंकाली , शिवलिंग की स्थापना की गयी थी ।  चरुई वासियों द्वारा चरुई काली मंदिर में काली मूर्ति की स्थापना कर अपनी प्राचीन धरोहरों की सुरक्षा दी है । प्राचीन धरोहरों की पहचान से मगध की सभ्यता का उद्भव और संस्कृति दिलाती है। जहानाबाद जिले के विभिन्न क्षेत्रों की चर्चा 1854 ई. में प्रकाशित थॉर्नटोन्स गजेटियर , हैमिल्टन फ्रांसिस बुकानन ने 1811 ई. तथा 1865 ई. में ईस्टर्न गज़ेटियर , डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट गया के डॉ. ग्रियर्सन  ने 1888 ई. , ओ मॉली द्वारा 1906 ई. में डिस्ट्रिक्ट गज़ेटियर गया , हन्टर्स स्टेटिकल एकाउंट 1877 ई. तथा स्पेशल ऑफिसर गज़ेटियर रेविशन सेक्शन रेवेन्यू डिपार्टमेंट पटना के पी . सी. राय चौधरी द्वारा बिहार डिस्ट्रिक्ट गज़ेटियर गया का प्रकाशन 1957 ई. में कई गयी है । आर्कोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया वॉल्यूम 1 , 8 एन्शीयट वुमेंट्स इन बंगाल 1895  में उल्लेख है ।
 बराबर पर्वत समूह में मगध सम्राट अशोक ने 322-185 ई. पू. में गुफ़ा का निर्माण कराया तथा वैदिक धर्म के ऋषि लोमाष के नाम पर लोमश गुफ़ा, सुदामा  के नाम पर सुदामा गुफ़ा, अंग राजा कर्ण के नाम पर कर्ण चौपर गुफ़ा , ब्रह्मर्षि विश्वामित्र के नाम पर विश्वामित्र गुफ़ा (विश्व झोपड़ी), जैन धर्म के आचार्य योगेन्द्र के नाम योगिया (योगेन्द्र) गुफ़ा , बौद्ध धर्म के भदंत के नाम वाह्य गुफ़ा तथा बौद्ध धर्म के महान खगोल शास्त्री रसायन शास्त्र के ज्ञाता नागार्जुन के नाम पर बराबर पर्वत समूह की एक श्रृंखला का नाम नागार्जुन पर्वत रखा गया था यहां गोपी गुफ़ा का निर्माण सम्राट अशोक के पौत्र दशरथ ने कराया था। बराबर पर्वत समूह का मुरली पहाड़ी, लाल पहाड़ी, सांध्य पहाड़ी , नीतिशास्त्र के ज्ञाता काक भूसुंडी के नाम कौवाडोल पहाड़ी, बौद्ध धर्म के दर्शन शास्त्र के ज्ञाता गुनमति के नाम पर कुनवा पहाड़ी, सूर्यांक गिरि पर वैदिक धर्म एवं बौद्ध तथा जैन धर्म की पहचान है। बराबर की सभी गुफाओं को मगध सम्राट मौर्य वंश के अशोक ने महान बौद्ध दर्शन के ज्ञाता मक्खली गोशाल द्वारा स्थापित आजीविका संप्रदाय को समर्पित किया था। प्रचीन काल इक्ष्वाकु वंश के राजा बाणा सुर ने बनावर्त देश की नीव डाल कर राजधानी बराबर की मैदानी भाग तथा फल्गु नदी के तट पर बना  पाताल गंगा नाम से बनाई थी। दैत्य राज बली का पुत्र बाणासुर ने अपनी राजधानी गया जिले का बेलागंज प्रखण्ड के सोनपुर में बनाया ताथा बराबर के मैदानी भाग में सैन्य बल रखा था। सिद्धों द्वारा उत्तर प्रदेश के काशी में स्थित बाबा विश्वनाथ का उप लिंग सिद्धेश्वर नाथ की स्थापना सूर्यांक गिरि पर की थी। यहां पर माता सिद्धेश्वरी , बागेश्वरी तथा ऋषि दत्तात्रेय सूर्याक गुफ़ा में स्थापित किया गया तथा बाबा सिद्धेश्वर नाथ की आराधना दैत्य राज सूकेशी , गजासुर, भगवान राम, कृष्ण , अनिरुद्ध, उषा, महायोगिनी चित्रलेखा, माया द्वारा की गई है। यहां प्रत्येक वर्ष सावन माह में श्रद्धालु बाबा सिद्धेश्वर नाथ को गंगा जल तथा पाताल गंगा जल से जलाभिषेक ताथा भाद्रपद के शुक्ल पक्ष चतुर्दशी तिथि  अनंत चतुर्दशी को भगवान विष्णु एवं बाबा सिद्धेश्वर नाथ की आराधना करते हैं। बराबर पर्वत की चट्टानों पर भिती चित्र, गुहा लेखन वास्तु शास्त्र वैदिक काल से रेखांकित किया गया है। यहां पर शुंग वंश, गुप्त वंश , पाल वंश, सेन वंश के राजाओं द्वारा विकास का सशक्त रूप दिया है । मगध साम्राज्य का सम्राट अशोक ने 255 ई. पू.को तृतीय बौद्ध संगति पाटलिपुत्र की अध्यक्षता मोग्गलीपुत तिस्स करने के दौरान बराबर की गुफाओं को आजीवक संप्रदाय को समर्पित किया था । आजिवक संप्रदाय का अनुयाई  सम्राट विंदुसार ने अपने पुत्र अवंति के राज्यपाल अशोक को  269 ई. पू. मगध साम्राज्य का सम्राट घोषित किया था । अशोक को बौद्ध धर्म की दीक्षा बौद्ध दर्शन के ज्ञाता उप गुप्त ने 261 ई. पू. में दिया था। बराबर की गुहा लेखन ब्राह्मी लिपि तथा मागधी भाषा में कराई गयी। जैन धर्म के अनुयाई चन्द्रगुप्त मौर्य कोे चाणक्य ने 305 ई.पू. घनानंद को समाप्त करने के बाद मगध साम्राज्य का सम्राट बनाया । चन्द्रगुप्त मौर्य की दीक्षा जैन धर्म के ज्ञाता भद्रबहू द्वारा दी गई थी। जैन धर्म के अाजिवक संप्रदाय के लिए बराबर की गुफाओं को दान दिया था। 305 ई. पू. में बराबर पर्वत समूह सिद्धों के अधीन था । यहां 84 सिद्धों में कर्ण रूपा , सरहपा, नागार्जुन , धर्मारीपा , जोगीपा , भतीपा,मैखलापा, समुदपा , धर्मारिपा आदि का निवास था । ये सभी सिद्ध संप्रदाय सिद्धेश्वर नाथ  बाबा के भक्त हैं। बराबर को सिद्धाश्रम के नाम से प्रख्यात था। यहां ब्रह्मऋषि विश्वामित्र का प्रिय स्थल था। प्राचीन काल में नाथ सम्प्रदाय का तीर्थ स्थल बराबर के सूर्यांक गिरि पर बाबा सिद्धेश्वर नाथ है। यहां लिंगायत संप्रदाय का अनुयाई रह कर बाबा सिद्धेश्वर नाथ की आराधना करते थे। मैन मठ का चरुई में काली मंदिर स्थित माता काली की प्राचीन मूर्तियां स्थापित है । राजा चेर द्वारा मैन मठ में स्थापित तंत्र मंत्र का केंद्र शाक्त धर्म का उपासना स्थल है । घेजन में भगवान बुद्ध का पावन भूमि थी । घेजन  द्वापर युग में भगवान बुद्ध और 255 ई. पू. महात्मा गौतम बुद्ध का स्थल था । ओल्ड डिस्ट्रिक्ट गजेटियर 1906 के अनुसार  अमथुआ व उमता मुगल काल का   क सूफी संत  सम्प्रदाय का मुख्य केंद्र था । अमथुआ और उमता में मुगल काल में 5 मकबरे में हाजी ,कर्बला  , शेरशाही मस्जिद ,अब्दुल क़ादिर गिलानी द्वारा कादरी सूफी  की स्थापना की गई थी  ।709 और 715 हिजरी संबत में बिहार का सूबेदार हातिम खां  द्वारा अमथुआ , काको और जहानाबाद में सूफी संतों का विकास किया गया था । 805 और 892 हिजरी संबत में मुहम्मद शाह , महमूद शाह द्वारा कको का कमलो बीबी का मंजर विकसित किया गया था । जहानाबाद में सूफीसंत हैदर सैलानी का मजार है । जहानाबाद स्थित मौर्य, शुंग , गुप्त , सेन , पल काल में सौर , शाक्त , शैव , वैष्णव संप्रदायों द्वारा सनातन धर्म विकसित किया गया था । जहानाबाद का दरधा और यमुने के संगम पर अवस्थित ठाकुवारी में पंचमुखी शिव लिंग , ठाकुर जी की शालिग्राम में निर्मित मूर्ति , भगवान सूर्य , चित्रगुप्त की मूर्तियां ,   प्राचीन काल द्वापर युग का बुद्धेश्वर शिव लिंग बुढ़वा महादेव , सोइया घाट , मुंडेश्वरी प्रसिद्ध है ।जहानाबाद में सूफीसंत हैदर सैलानी का मजार है । जहानाबाद स्थित मौर्य, शुंग , गुप्त , सेन , पल काल में सौर , शाक्त , शैव , वैष्णव संप्रदायों द्वारा सनातन धर्म विकसित किया गया था । जहानाबाद का दरधा और यमुने के संगम पर अवस्थित ठाकुवारी में पंचमुखी शिव लिंग , ठाकुर जी की शालिग्राम में निर्मित मूर्ति , भगवान सूर्य , चित्रगुप्त की मूर्तियां ,   प्राचीन काल द्वापर युग का बुद्धेश्वर शिव लिंग बुढ़वा महादेव , सोइया घाट , मुंडेश्वरी प्रसिद्ध है ।




























 

बुधवार, जुलाई 13, 2022

शाक्त धर्म स्थल है ईटखोरी....


    सनातन धर्म के शाक्त , सौर , शैव , बौद्ध एवं जैन संप्रदायों का स्थल झारखंड राज्य का चतरा जिले के इटखोरी है । इटखोरी का मुहाने एवं बक्सा नदी संगम पर विभिन्न धर्मों का ज्ञान स्थल एवं तंत्र मंत्र साधना भूमि पर भद्रकाली मंदिर के गर्भगृह में माता भद्रकाली की मूर्ति स्थापित है । जैन धर्म के 10 वें तीर्थंकर श्री शीतलनाथ स्वामी की जन्म भूमि , भगवान बुद्ध , चीन का फेंगसुई के भगवान  के ताओवादी संत लाफिंग बुद्धा , भगवान शिव के पुत्र एवं देव सेनापति कर्तिकेय , स्तूप है । बुद्ध और महावीर की छोटे-बड़े पत्‍थरों में करीने से उकेरी हुई अनेक मूर्तियां ,  10 वें जैन तीर्थंकर श्रीशीतलनाथ स्‍वामी के चरण चिह्न, तीन पैर की प्रतिमा, त्रिभंग मुद्रा की प्रतिमा, भार वाहक प्रतिमा, अमलक, धर्म चक्र प्रवर्तन, प्राचीन मंदिर का स्‍तम्‍भ, कार्तिकेय, छोटे गुंबद की तरह मनौती स्‍तूप, अमृत कलश, बुद्ध का पैनल, त्रिरथ, नागर शैली, भूगर्भ के उत्खनन के पश्चात  प्राप्‍त जैन धर्म का सहस्‍त्रकूट जिनालय,जैन तीर्थंकर की मूर्तियां, कीर्ति मुखा की कलाकृति, वामनावतार की मूर्ति, सूर्य की खंडित मूर्ति, स्‍तम्‍म एवं मंदिरों का अवशेष हैं । रांची से करीब डेढ़ सौ किलोमीटर दूर चतरा जिले के हजारीबाग-बरही रोड पर ईटखोरी मोड़ से करीब 32 किलोमीटर दूरी पर भद्रकाली मंदिर अवस्थित है ।जैन धर्म के 10वें तीर्थंकर श्री शीतलनाथ स्वामी का चरण चिह्न ताम्रपत्र , और  पत्‍थर पर चरण चिह्न है। 12 वी सदी में निर्मित भद्रकाली मंदिर का  निर्माण कला का अद्भुत नमूनाहै । माता भद्रकाली  वात्‍सल्‍य रूप  है। भद्रकाली माता का .मंदिर निर्माण के पूर्व साधक भैरवनाथ का तंत्र साधना का केंद्र, सिद्ध आश्रम था। आश्रम के समीप  काले पत्‍थर का सहस्र शिवलिंग , एकसाथ बने छोटे-छोटे 1008 शिवलिंग पर जलाभिषेक किया जाता है ।  8वी सदी में  आदि शंकराचार्य द्वारा हिंदू धर्म के पनरुत्‍थान के क्रम में 108 शिव लिंग की  स्‍थापना कीगयी  थी। भद्रकाली मंदिर के पीछे मनौती स्तूप के रूप में  बौद्ध स्‍तूप , सहस्तरलिंगी शिव को कोठेश्वर नाथ ,  भगवान बुद्ध की ध्‍यान मुद्रा में उकेरी गईं 1008  मूर्तियां है। मनौती स्‍तूप के  श्रृंखला पर कटोरा आकार का गड्ढा में पानी रिसकर खुद भर जाता है।  चतरा जिले का ईटखोरी प्रखंड के भदुली गांव में भद्रकाली मंदिर  है । प्राचीन ईतखोई का परिवर्तित नाम ईटखोरी है । सिद्धार्थ (गौतमबुद्ध) अटूट साधना में लीन थे।  सिद्धार्थ की साधना के समय सिद्धार्थ की मौसी  प्रजापति  कपिलवस्‍तु वापस ले जाने  आई थी ।  परन्तु तथागत का ध्‍यान मौसी के आगमन से  नहीं टूटा था । सिद्धार्थ की मौसी के मुख से  ईतखोई अर्थात ईत स्थान खोई ध्यान व ध्यान भूमि शब्‍द निकला था । वनवास काल में श्रीराम, लक्ष्‍मण एवं सीता  अरण्‍य में निवास एवं धर्मराज युधिष्ठिर के अज्ञात वास स्‍थल तथा तपोभूमि  क्षेत्र है।'' स्‍थापत्‍य कला, निर्माण कला की निशानी ईटखोरी की भूमि में छिपे हुए है ।
 झारखंड राज्य का 1431 वर्गमील क्षेत्रफल में फैले चतरा जिले का मुख्यालय चतरा है। जंगलों से घिरा और हरियाली से भरपूर एवं खनिज के साथ कोयला  से युक्त चतरा जिला समुद्र तल से 427 मीटर ऊँचाई पर स्थित  है । झारखंड के  प्रवेश द्वार कहे जाने वाला चतरा जिला की स्थापना 29 मई 1991 ईo में   हजारीबाग जिले  से विभाजित कर के की गयी थी I हजारीबाग, पलामू ,  लातेहार एवं बिहार के गया जिले की सीमा से घिरा चतरा जिला  हैं । चतरा जिला में पर्यटन स्थल मां भद्रकाली मंदिर और  मां कौलेश्वरी पर्वत है। चतरा  जिले में अनुमंडल सिमरिया व चतरा , प्रखंडों में  चतरा, सिमरिया, टंडवा, पत्थलगड़ा, कुंदा, प्रतापपुर, हंटरगंज, कान्हाचट्टी, इटखोरी, मयूरहंड, लावालौंग, गिधौर में 154 पंचायत व 1474 गांव , 1042886 आवादी वाले क्षेत्र में  विधानसभा चतरा व सिमरिया है। चतरा झारखंड का सबसे छोटा संसदीय क्षेत्र है। चतरा लोकसभा में 47. 72 प्रतिशत वन  क्षेत्रफल में  चतरा, सिमरिया, पांकी, लातेहार, मनिका विधानसभा  हैं। चतरा जिले में लावालौंग अभ्यारण्य और नदियों में  दामोदर, बराकर, हेरुआ, महाने, निरंजने, बलबल, बक्सा प्रवाहित होती है । चतरा जिले का हंटरगंज प्रखंड के कौलेश्वरी पर्वत पर माता कौलेश्वरी की मंदिर प्राचीन है ।





                                           







शनिवार, जुलाई 09, 2022

प्राचीन संस्कृति की आईना है इतिहास ....

  
     पुरातन संस्कृतियों एवं धरोहरों की आईना  इतिहास है। राष्ट्रीय इतिहास दिवस  संयुक्त राज्य अमेरिका का मैरीलैंड विश्वविद्यालय के कॉलेज पार्क स्थित राष्ट्रीय इतिहास दिवस की स्थापना 9 जुलाई  1974 ई. को की गई है।इतिहास दिवस का वाशिंगटन, डीसी, प्यूर्टो रिको , गुआम , अमेरिकी समोआ , दक्षिण कोरिया, चीन, दक्षिण एशिया और मध्य अमेरिका में सहयोगी हैं। राष्ट्रीय इतिहास दिवस को क्लीवलैंड, ओहियो में केस वेस्टर्न रिजर्व यूनिवर्सिटी के इतिहास के प्रोफेसर डॉ डेविड वान टैसेल की अध्यक्षता में नेशनल हिस्टोरिकल डे इतिहास दिवस मनाई गई थी । अमेरिकन एसोसिएशन फॉर स्टेट एंड लोकल हिस्ट्री , अमेरिकन हिस्टोरिकल एसोसिएशन , फेडरेशन ऑफ स्टेट ह्यूमैनिटीज काउंसिल , नेशनल एसोसिएशन ऑफ सेकेंडरी स्कूल प्रिंसिपल्स , नेशनल सेंटर फॉर हिस्ट्री इन द स्कूल , नेशनल काउंसिल फॉर हिस्ट्री एजुकेशन , नेशनल काउंसिल फॉर द सोशल स्टडीज , ऑर्गनाइजेशन ऑफ अमेरिकन हिस्टोरियंस , सोसाइटी ऑफ अमेरिकन आर्काइविस् , क्लीवलैंड में 1974 में राष्ट्रीय इतिहास दिवस प्रारम्भ हुई थी ।  केस वेस्टर्न रिजर्व यूनिवर्सिटी के इतिहास विभाग के सदस्यों ने विज्ञान मेले के समान इतिहास प्रतियोगिता के लिए प्रारंभिक विचार विकसित करने के बाद 1978 में, इतिहास  परियोजना को शामिल करने के बाद लोइस शारफ को कार्यकारी निदेशक के रूप में नियुक्त किया गया था ।उन्होंने कार्यक्रम में शामिल होने के लिए अनुदान राशि जुटाने और राज्य के ऐतिहासिक संगठनों की भर्ती के लिए काम किया। उन्होंने 1992 तक सेवा की। 1992 में राष्ट्रीय इतिहास दिवस ने क्लीवलैंड से वाशिंगटन, डीसी, क्षेत्र में स्थानांतरित कर दिया गया था ।ओक्लाहोमा इतिहास केंद्र के ओक्लाहोमा सिटी में इतिहास संग्रहालय ,जॉर्जिया ऐतिहासिक सोसायटी में अमेरिकी राज्य जॉर्जिया का ऐतिहासिक समाज में इतिहास दिवस मनाया जाता है । सृष्टि के प्रारम्भ में भारतीय कालगणना , ज्योतिष शास्त्र एवं विश्व के अतीत से पृथ्वी के स्थानों की मानवजाति के इतिहास से जुड़ाव है ।  इतिहासकारों द्वारा विभिन्न कालों में भिन्न भिन्न तरह से इतिहास की रचना की गई है । भारतीय इतिहास में वेद, वेदांत , संहिता , स्मृति , पुरणों आदि ग्रंथ है । विभिन्न ग्रंथों एवं इतिहास के पन्नों में भिन्न भिन्न युगों , मन्वंतर , संबतसर , संबत , ईस्वी काल गणना की गई है । इतिहास प्राचीन संस्कृति , धर्म , शासन एवं धरोहरों की आईना है । पाषाण युग 70000–3300 ई.पू. , कांस्य युग , नवपाषाण युग , सिन्धु घाटी की सभ्यता 3300 ई.पू. – 1700 ई.पू. , बिहार के मगध सभ्यता , मिथिला सभ्यता ,, भोजपुरी सभ्यता , अंग सभ्यता , लिक्ष्वि सभ्यता , सौर , शाक्त , शैव , वैष्णव सभ्यता एवं संस्कृति , मौर्य , गुप्त , सेन , पाल काल का शासन एवं धरोहरों , काशी , अयोध्या , गोखुल सभ्यता , कलिंग , बंगाली , असम , महाराष्ट्र , , गुजराती , राजस्थानी , उज्जैन सभ्यता , तमिल , कर्नाटक , आंध्र सभ्यता और संस्कृति , झारखंड संस्कृति और सभ्यता , मिस्र की सभ्यता (3100 ई.पू - ) ,चीन की सभ्यता ,वैदिक काल 1500–500 ई.पू., लौह युग 1200–300 ई.पू. ,बौद्ध धर्म (५वीं शताब्दी ई.पू. -)  जैन धर्म ,रोमन साम्राज्य 27 ई.पू.–476 (पश्चिम) ,ईसाई धर्म , इस्लाम 610 ,मंगोल साम्राज्य 1206 - 1370 ,मैग्ना कार्टा 1215 ,काली मौत 1348 - 1350 ,तुर्क साम्राज्य 1299 - 1929 , पुनर्जागरण 14वीं शताब्दी - 17वीं शताब्दी ,अमेरिकी महाद्वीप की खोज 1492 ,स्पैनिश साम्राज्य 1516 -1 7 का उल्लेख इतिहास में है। मंगोल साम्राज्य ,पृथ्वी का भूवैज्ञानिक इतिहास ,विश्व का राजनैतिक इतिहास ,प्रौद्योगिकी का इतिहास , ८२० ई में विश्व का राजनैतिक दृष्य ,यूनान का इतिहास , विश्व का आर्थिक इतिहास
फ्रांस का सैन्य इतिहास में सामाजिक , भौगोलिक , शैक्षणिक , आर्थिक एवं विभिन्न स्थानों का उल्लेख है ।





बुधवार, जुलाई 06, 2022

प्रेम और सौहार्द का रूप चॉकलेट दिवस ....

         प्रेम और सौहार्द का रूप चॉकलेट दिवस है । विश्व चॉकलेट दिवस 7 जुलाई  1550 में यूरोप में चॉकलेट की शुरुआत की वर्षगांठ  हैं।  विश्व चॉकलेट दिवस का पालन 2009 से होता है। संयुक्त राज्य अमेरिका में 28 अक्तूबर को  राष्ट्रीय चॉकलेट दिवस ,  यूएस नेशनल कन्फेक्शनर्स एसोसिएशन ने 13 सितंबर 1857 ई. को मिल्टन एस. हॉर्से का जन्म दिवस पर अंतर्राष्ट्रीय चॉकलेट दिवस के रूप में मनाया जाता है।   कोको का दूसरा सबसे बड़ा उत्पादक घाना में 14 फरवरी को चॉकलेट दिवस , लातविया में 11 जुलाई को विश्व चॉकलेट दिवस मनाया जाता है।  यूएस नेशनल कन्फेक्शनर्स एसोसिएशन द्वारा चॉकलेट दिवस 7 जुलाई ,  दो राष्ट्रीय चॉकलेट दिवस 28 अक्टूबर और 28 दिसंबर, और अंतर्राष्ट्रीय चॉकलेट दिवस 13 सितंबर) [14] ) में चार प्राथमिक चॉकलेट अवकाश सूचीबद्ध किए हैं। नेशनल मिल्क चॉकलेट डे, नेशनल व्हाइट चॉकलेट डे और नेशनल कोको डे मनाया जाता है । विश्व में  विश्व चॉकलेट दिवस व वर्ल्ड चॉकलेट डे  प्रथम बार 07 जुलाई 2009 में मनाया गया था। विश्व  चॉकलेट दिवस पर मित्र एवं  प्रेमी चॉकलेट खा कर और चॉकलेट एक-दुसरे में बांटकर मनाते है।  कपल्स द्वारा फरवरी में वैलेंटाइन सप्ताह के तीसरे दिन भी चॉकलेट डे मनाया जाता है। चॉकलेट  खाद्य पदार्थ को  बच्चे , युवा , बड़े लोगों को  पसंद  है। चॉकलेट उचित मात्रा में खाने से शरीर को कई फायदे हैं। यूरोप में 7 जुलाई 1550 को चॉकलेट दिवस मनाई गई   थी। फ्रांस ने  सन् 1995 में चॉकलेट दिवस मनाने का प्रारंभ हुई थी । चॉकलेट का  आस्तित्व 2000 से 4000 वर्ष प्राचीन  है। अमेरिका में नेशनल चॉकलेट डे 28 अक्टूबर ,   कोको का दूसरा सबसे बड़ा उत्पादक देश अफ्रीकी देश घाना में  चॉकलेट को समर्पित   प्रति वर्ष 14 फरवरी को मनाया जाता है। अमेरिका में  प्रथम बार चॉकलेट वृक्ष  की फलियों में लगे बीज से चॉकलेट की खोज हुई थी।1528 में अमेरिका के मेक्सिको पर स्पेन के अधीन  था ।  चॉकलेट के  पेड़ को  कोको को  मेक्सिको से स्पेन ले आए थे । स्पेन में कोको को  पसंदीदा ड्रिंक बना लियाथा । कोको वृक्ष के फल का स्वाद  कसैला और तीखेपन को दूर करने के लिए उपाय कर  मीठा बनाने का श्रेय यूरोप है । चॉकलेट को  चॉकलेट केक, चॉकलेट कैंडी ,  चॉकलेट से बनी चीज को उपहार के रूप में देते  हैं।अगर आपसे आपका कोई प्रिय रूठ गया है तो उसे मनाने के लिए आप अंतर्राष्ट्रीय चॉकलेट दिवस पर उन्हें चॉकलेट गिफ्ट करके मना सकते हैं और अपने रिश्तो को मजबूत कर सकते है । चॉकलेट से शरीर की बनावट पर असर और  मोटापा बढ़ता है । चॉकलेट खाने से तनाव कम कर  हारमोंस को नियंत्रित , ब्लड प्रेशर को नियंत्रित और कम करने ,  एंटी ओक्सिडेंट के गुण के कारण सकारात्मक ऊर्जा , चॉकलेट की बीज में डार्क चॉकलेट खाने से दिल की बीमारी होने का खतरा एक तिहाई तक कम , मुंह पर एंटीबैक्टीरियल प्रभाव और दांतों की सड़न से बचाता है।भारत में चॉकलेट की खपत  और भारत में दूध और कोको की पैदावार लगातार बढ़ने के कारण चॉकलेट उद्योग भारत में काफी तेजी से बढ़ रहा है । विश्व चॉकलेट दिवस , जिसे कभी-कभी अंतर्राष्ट्रीय चॉकलेट दिवस के रूप में विश्व में 7 जुलाई  1550 में यूरोप में चॉकलेट की शुरुआत की वर्षगांठ  हैं।  विश्व चॉकलेट दिवस का पालन 2009 से होता है। संयुक्त राज्य अमेरिका में 28 अक्तूबर को  राष्ट्रीय चॉकलेट दिवस ,  यूएस नेशनल कन्फेक्शनर्स एसोसिएशन ने 13 सितंबर 1857 ई. को मिल्टन एस. हॉर्से का जन्म दिवस पर अंतर्राष्ट्रीय चॉकलेट दिवस के रूप में मनाया जाता है।   कोको का दूसरा सबसे बड़ा उत्पादक घाना में 14 फरवरी को चॉकलेट दिवस , लातविया में 11 जुलाई को विश्व चॉकलेट दिवस मनाया जाता है। 
यूएस नेशनल कन्फेक्शनर्स एसोसिएशन द्वारा चॉकलेट दिवस 7 जुलाई ,  दो राष्ट्रीय चॉकलेट दिवस 28 अक्टूबर और 28 दिसंबर, और अंतर्राष्ट्रीय चॉकलेट दिवस 13 सितंबर में चार प्राथमिक चॉकलेट अवकाश  हैं। नेशनल मिल्क चॉकलेट डे, नेशनल व्हाइट चॉकलेट डे और नेशनल कोको डे मनाया जाता है । भारत सऊदी अरब, सिंगापुर, नेपाल, हांगकांग और यूएई में चॉकलेट निर्यात कर रहा है।चॉकलेट बनाने वाले पेड़ कोको की फसल को बीसवीं शताब्दी के शुरुआती दौर में भारत लाया गया था और व्यवसायिक तौर पर इसकी खेती 1960 के दशक से ही होती आ रही है। कोको एक उष्णकटिबंधीय फसल है और भारत की जलवायु इसके लिए बिल्कुल अनुकूल होने के कारण  भारत में  विकास काफी अच्छी तरह हो रहा है।   नेपाल, हांगकांग और यूएई में चॉकलेट निर्यात कर रहा है।चॉकलेट बनाने वाले पेड़ कोको की फसल को बीसवीं शताब्दी के शुरुआती दौर में भारत लाया गया  और व्यवसायिक तौर पर खेती 1960 से प्रारंभ   है। कोको  उष्णकटिबंधीय फसल  भारत की जलवायु इसके लिए बिल्कुल अनुकूल है ।भारत में  बागवानी फसल के रूप मे खेती की जाती है। चॉकलेट का केक जन्म दिवस , सेल्वेराशन डे एवं समारोहों में प्रमुखता के साथ उपयोग में करते  है ।