बुधवार, मई 15, 2024

आज की कविताएं

: प्रेम
सत्येन्द्र कुमार पाठक  ,
आवाज में  है मिठास ।
उसका जीवन का प्रेम 
 सृष्टि जीवन का आधार ,
 दिल से दिल मिलता प्रेम ।
ईश्वर का अनुपम उपहार ,
शक्ति जिससे बढ़ता प्रेम।
दिलो के तार से है जोड़ता ,
 हृदय में निरंतर जोड़ता प्रेम ।
जीवन है बेकार जीने का  बेकार ,
 राधा  और मिला है प्रेम दीवानी ।
प्रेम के बस में हैं सारा  संसार ,
प्रेम लाता है जीवन मे संसार ।
 आस्तिक 
सत्येन्द्र कुमार पाठक 
कभी विज्ञान और  धर्म मजाकिया लगता है , 
हर इंसान को  हरपल झूठा साबित होता है ।
कर्मकार्य किया  अवतार हुआ कर्मवाद मिला ,
 ईश्वर को व्यक्ति  कल्पना की डोर  थम लिया ।
व्यक्ति ने ईश्वर को सूरत और  निराकार कहा ,
 इंसान को इंसान ने समझ नास्तिक बना दिया ।
तिलक लगा  और पहना है कई रंग के वस्त्र , 
ईश्वर ने नहीं बनाया के रन वस्त्र और तिलक ।
ईश्वर ने इंसान को चलाना और आस्तिक सिखाया, 
नास्तिक से आस्तिक बनने पर कला सीखा दिया ।
 जीवन और पगडंडी
सत्येन्द्र कुमार पाठक 
जीवन की पगडंडियों पर सीख हमेशा मिलता है ;
सुख दुःख की आसुओं से कर्तव्य याद दिलाता है ।
रुको नही चलते रहो कर्तव्य मंजिल मिल जाएगा ;
क्या सोचते , क्या करते सब पथ में मिल पाएगा ।
सोचें नहीं , करते रहें और कर्म पथ पर चलते रहें ;
प्रेम , सौहार्द , विवेक और लक्ष्य कर्म अपनाते रहें ।
सफलता की डोर आप की ओर हमेशा साथ रहेंगे ;
 बादल गरजते रहे सफलता के मेघ बरसते रहेंगें ।
धर्म का पथ पर कर्म की रेखाओं पर चलना पड़ेगा ; 
सुबह शाम रात में कर्म और धर्म पर सोचना पड़ेगा ।
कर्म ही धर्म को जीवन में निरंतर  अपनाना  होगा ;
राह में बने कठिनाइयों को हमेशा ठुकराना होगा ।
 वक्त ही वक्त की पहचान 
सत्येन्द्र कुमार पाठक 
वक्त ही वक्त की पहचान करता है ;
भूले विखरे बाते को याद दिलाता है ।
मन में बैठी यादों को दिल टटोलता है ;
कल् क्या अब क्या स्मरण कराता है ।
दुनियां दूर नहीं जब कर्म  अपनाता है ;
कर्म की परछाई हमें चलना सीखता है ।
यादों की समुंदर में इंसान गोता लगता है ;
भूले बिखरे यादों को संबल मंत्र देता है ।
इंसान की इंसानियत जब दिल में बैठा है ;
वक्त ही वक्त उसे विकास की ले जाता है ।
 मैं क्या था , क्या हूँ , कब क्या रहूँगा ; 
 जीवन की उतार चढ़ाव होता रहेगा ।
इंशान की इन्शानियत रूबरू करेगा ;
 कर्म और धर्म  ही हमेशा साथ रहेगा ।

साहित्य और मन धरा
सत्येन्द्र कुमार पाठक 
  धरा पर साहित्य धरा की बूंद गिरा है ;        
  दिन में शब्दों की पूनम रात आई है ।
  प्रेम एवं समन्वय की बरसात लाई है ; 
  छंद और अलंकार संग शब्द भाई है ।
  जीवन  संग मिलन कि रास रचाई है ; 
 धरा पर साहित्य धरा सौन्दर्य पाई है ।
 शब्दों  ने वाक्यों में चाँदनी फैलाई है ; 
 सोलह श्रृंगार में प्रकृति  छटा फैली है ।
 सजी दुल्हन-सी साहित्य धरा लगती है ; 
 शरद की शीतलता भरपाई करती है ।
शब्दों की कविता चरमोत्कर्ष  होती है ; 
सहित्यिकी रौशनी में जादू विखरती है ।
शब्दों के समुन्द्र में ज्वार भाटा उमड़ता  है ; 
उफानें भर-भर कर रसों में भर जाती है ।
साहित्य का शब्दों की चाँदनी हितकारी है ; 
 मानसिक चेतना नेत्र की ज्योति बढा़ती  है ; 
शब्दों की औषधि से युक्त वाक्य भरमार है ।
शब्दों कीअमृत वर्षा से इंसान पनपता  है ; 
वाक्यों की  सौगातें से इन्शानियत  लाई है ।
साहित्यकारों और कवियों में बरसात आयी है ; 
शब्दों के वाक्यों से प्रेम की बरसात पायी है।
 मतदान करे ,  कल्याण करे 
सत्येन्द्र कुमार पाठक 
 उलझनों की खेती में जनता को नेता  रखता है , 
जाति कर्म जनसंख्या संप्रदाय का कार्य करता है।
नौकरी ,शिक्षा और बेरोजगारी  की आवाज देता है , 
, गरीब को गरीबी हटाने का नारा का मुद्दा  रखा हैं।
 मंच पर बोलता वाणी से अज्ञानी  जनता लड़ती  है ,                                     
नेता की बनती दो-तीन पेंशन,  कर्मी का बंद होती है ।
 फायदा में नेता जनता को बेवकूफ बनाया रखता  हैं। 
 मतदाता  रोड़  पर सोता और रोजगार के हेतु  रोता है ।
 नेता जी अपनी गाड़ी बांग्ला परिवार  सजाए रखता हैं। 
जनता रकम व मतदान से जनता पर शासन करता है ।
मतदाता पहचान का अपने कल्याण हेतु मतदान करे , 
राष्ट्र , समाज और परिवार को मतदान कर सुरक्षित रहें ।
अच्छा चुनना व विश्वास और विकास हेतु मतदान करे ।
इश्क का दामन 
सत्येन्द्र कुमार पाठक 
इश्क के सुनहरे पल में दमक रहे अंग , 
उषा की किरण से चमक रहा सब संग ।
 धूप भरा आकाश में उड़ रहे सब जीव , 
रंग बिरंगे उड़ रहा  मन का सारा पतंग।
राहों  में धूप छांव की जंग छेड़ा हरदम ,
प्रकृति की  मुस्कान से हरे भरे हुए पेड़ ।
जिंदगी की तान से प्रकृति की नवगान , 
 यौवन की शान से सब शानदार मान ।
इश्क के फूलदान में निरंतर याद आते
 खेत खलिहानों में महकत धान जाते ।
समुद्र का वरदान से खुश हुआ है बादल , 
मंद मंद सुबह की हवा से खुश हुआ  जन ।
करपी , अरवल , बिहार 804419
: मन 
सत्येन्द्र कुमार पाठक 
मन का संलाप , हाथों की थिरकन ,
देह की थरथराहट  रूह का मिलन ।
अहसासों का जिस्त की मजबूरियां,
वासना से परे धड़कनों का सरगम ।
मीलों की दूरियाँ,फासले दिलों का , 
कंपित अँगुलियाँ है रूहानी पल का।
हो गये दूर फासले भीतर है भीतर , 
भीगते अहसास समर्पण का अंदर ।
थरथराते लबों में है दबे नग्में सुरीले ,
कल की आवाज आज हुई है सुरीले ।
आया मेरे  मेरे गोद में 
चॉकलेट हाथ में थाम 
जीवन का आनंद मिला
प्रेमरस में डूबा दिया ।
 वात्सल्य  की मंदिर में 
प्रेम रस में मिला दिया । 
जीवन की नदियों में
प्रेम जल में गोता है
है प्राण प्रिय अबोध 
मेरे दिल में बस जाना।
मुझे मत भूल  जाना ।
: तुम मेरी उषा की किरण हो
भूल नहीं जाना तुम  दिल हो ।
रात भर मेरी बाहों चिपकती है
प्रेम गंगा में तुम हमेशा रहती है।
 मेरा भी हाल पूछे नहीं बालक 
इंतजार की अब घड़ी आता है।
तड़पाती है मेरी उषा 
कब मिलेगी मुझे किरण
रातें हमे रोज नही देती 
तड़पता हू याद में हर पल
जिंदगी की भाग दौड़ में
आप और मैं नही मिला
संचार को हमेशा हो भला
कभी आलिंगन और चुम्मन
बाहों में  हम दोनों का भला
कभी आप कभी मैं मिलते
रात सुहानी हमेशा कर देते ।
शान है मेरा आप की आवाज
चेहरे को देखकर चुम लेता हूँ।
मन का संलाप , हाथों की थिरकन ,
देह की थरथराहट  रूह का मिलन ।
अहसासों का जिस्त की मजबूरियां,
वासना से परे धड़कनों का सरगम ।
मीलों की दूरियाँ,फासले दिलों का , 
कंपित अँगुलियाँ है रूहानी पल का।
हो गये दूर फासले भीतर है भीतर , 
भीगते अहसास समर्पण का अंदर ।
थरथराते लबों में है दबे नग्में सुरीले ,
कल की आवाज आज हुई है सुरीले ।
: प्यार की जिंदगी जीने वाले 
कभी प्रियतमा को गम नही
होती हमेशा खुश रहने वाली 
कभी यहां कभी वहां खुशी।
दिल न माने मगर आज जाना भी है
अपने साजन से वादा निभाना भी है 
सामने एक नई जिंदगी है मगर 
पीछे गुजरा हुआ एक जमाना भी है
जिंदगी की नई मोड़ पर 
 खुशी खुशी निभाना है।
अपनी सजनी के हर पल
नई जीवन में अपनाना है।
काश पहले मिलत्ती जब
गुजरा पल भूल जाना है।
: स्वनिर्णिम कला केंद्र मुज्ज़फ्फरपुर (बिहार)  की अध्यक्षा एवं लेखिका डॉ.  उषाकिरण की अनमोल भूले बिखरे कविताएं 
01 .: सीने का दर्द 
सीने में जब दर्द उभरता है ,
तब मुंह से आह निकलती है ;
आवाज़ कलम की कौन सुने ,
कागज पर कुछ लिख जाता है।
शय्या पर जब कांटे होते हैं ,
मन धायल सा हो जाता है;
छलनी हो जाता तड़प जिगर ,
कसमस कर प्राण पिराता है।
जब पीड़ा अधिक सताती है ,
नयनों से नीर बरसाता है;
कागज हाथों में आते हीं ,
आंसू स्याही बन जाता है।
घावों पर मरहम-सा पड़ता ,
थोड़ी शीतलता आती है;
शब्दों का स्वर बंध जाता है 
बस कविता  यही कहाती है।
      02 .  प्रेम की पाती
 बहुत लिख चुके प्रेम की पाती
राष्ट्र के हित की बात लिखो।
तिरंगे की शान लिखो अब
भारत का स्वाभिमान लिखो।।
बहुत लिख चुके,,,,,,,,,,,,,,,,
युद्ध लिखो संग्राम लिखो अब
पुरखों का बलिदान लिखो ।
स्याही अगर बची थोड़ी भी
कलम में भर हूंकार लिखो।।
बहुत लिख चुके,,,,,,,,,,,
धर्म की बात जहां भी आए
सदा सनातन धर्म लिखो।
विश्व गुरु है भारत अपना
वेद-पुराण की बात लिखो।।
बहुत लिख चुके,,,,,,,,,
तलवारों पर धार चढ़ाके
ग़द्दारों का नाम लिखो।
विजय-पताका हाथ में लेकर
जय-जय जय सियाराम लिखो।।
बहुत लिख चुके प्रेम,,,,,,,,,
03. : देश का होगा कल्याण 
  सोच-विचार के करें मतदान 
तभी देश का होगा कल्याण,
सबसे बडा राष्ट्रीय त्यौहार 
लायेगा खुशियों का राज ।
ई वी एम का बटन दबाकर 
संविधान की रक्षा करना,
अपने पसंद का नेता चूने 
मत देना अपना अधिकार।
घर-घर जाकर हम बतलाएं 
बटन दबाकर न पछताएं,
युवा देश के भाग्य विधाता 
हिंदुस्तान को स्वर्ग बनायें।
वंशवाद का नाम मिटाएं 
घोटालों से मुक्त करायें ,
नव भारत का निर्माण करें 
मिल-जुलकर मतदान करें।
   04.   मां की ममता 
 कड़कड़ाती ठंड से अपने 
लाढले को बचाने के लिए 
मां के पास 
सिर्फ ममता थी ।
नहीं थे पहनाने के लिए 
ब्रांडेड स्वेटर, नहीं थे जैकेट 
थर-थर कांपते 
कलेजे के टुकड़ों के लिए 
सिर्फ ममता थी।
मुझे अच्छी तरह याद है 
बड़े भैया के लिए 
नये स्वेटर को बुनना 
अपने हाथों से बुनी थीं मां ने 
फिर क्या था?
भैया का छोटा स्वेटर 
मुझे पहनाया गया 
फिर उसे मेरे छोटे भाई ने पहना 
उसे भी अब छोटा हो गया स्वेटर 
अब मां ने उसे खोलकर 
रंगीन धागों के साथ 
फीर से नया बना दिया 
जिन बच्चों के पास नहीं थे स्वेटर 
उनके लिए बिना परवाह किए 
मां ने अपनी साड़ी को दो टूक कर 
गांती बांध दिया करती थी मां 
ममता के आगे नहीं टिक पाती थी ।
05.  मां की यादें
नानी की याद बहुत आतीं 
मां की यादें तड़पाती है।
शीत लहर जब-जब चलतीं 
तब ठीठुरन भी बढ़ जाती है,
भूलें बचपन की यादों से 
मन तड़प-तड़प रह जाता है।
सरसों का तेल लगा हाथों में 
बोरसी में हाथ को गर्म करे,
गांती के भीतर गर्म हाथ से 
तेल कलेजे में मिलती थी।
कहां थे घरों में डनलप तोषक 
बस पुआल के विस्तर पर,
एक सुजनी उपर से चादर 
मां मीठी नींद सुलातीं थी।
वह सुख का जो एहसास हुआ 
फिर लौट कभी न आयेगा,
बचपन की खुशियों का वह पल 
अब कभी नहीं मिल पायेगा।

05.    माँ वो खाट कहां से लाऊं 
    वो खाट कहां से लाऊं 
जिस पर दादी लेटा करती थी,
घुंघट काढ़े तब मां मेरी 
हुक्का पहुंचाया करती थी।
वो खाट कहां,,,,,,,,,,,,,,
दरवाजे पर खूंटें से बंधीं 
गैया आवाज लगाती थी,
घुंघट काढ़े तब मां मेरी 
गौराश उन्हें पहुंचाती थी।
वो खाट कहां,,,,,,,,,,,,,
सांझ ढले पीपल गाछ तले 
खेलों में बचपन खो जाता,
घुंघट काढ़े तब मां मेरी 
आंचल में छुपा ले आती थी।
वो खाट कहां,,,,,,,,,,,,,,,,
मां डर जाती मेरे बच्चे को 
कहीं नजर नहीं तो लग गई है,
घुंघट काढ़े तब मां मेरी 
राई-मिर्ची से निहुछा करती थी 
वो खाट कहां से,,,,,,,,,,,,,
06.: महाराणा प्रताप 
नमन् करूं भारत भूमि को 
नमन् है वीर सपूतों को,
नमन् है मां जयवंता वाई को 
नमन् है पिता उदय सिंह को।
नमन् करूं उस चेतक को जिसने 
अंतिम क्षणों तक साथ निभाया,
नमन् है राजपूताने को और 
 नमन् करूं महाराणा को।
घास की रोटी खाने बैठा 
वन विलाड लेकर भागा,
लाख दुःखों को झेला परन्तु 
पराजय को नहीं स्वीकार किया।
जिसने  वहलोत खानको
घोड़े सहित है काट दिया ,
नमन् है उस तलवार को 
शत्-शत् वंदन महाराणा को।
   07.  मेरी मां 
 जब पत्थरों को काट तूने रेत की सृष्टि किया 
तब नयन के नीर से तू हीं उसे शीतल किया।
    इन कंकड़ों में पांच अंकुड उग गये हैं मेरी मां 
जब शून्य सी आंखों में तेरी आस की ज्योति जली 
तब आंचलों की छांव से तूने उसे ठंडक दिया।
    अब लहलहाकर पेड़ सब बढ़ने लगे हैं मेरी मां 
हर पेड़ पर पत्ते लगें चारों तरफ़ डालें घिरी 
फिर हवा के झोंके पर एक डाल दूजे से मिले।
  तब सब दुःखों को भूलकर तूं गुनगुनाई मेरी मां 
मौसम बसंती आ गया हर पेड़ में कलियां खिलीं 
फिर हर कलि में प्यार, ममता स्नेह तूने भर दिया।
  तब स्नेह से स्नेहिल हुईं अपलक निहारीं मेरी मां 
रात की काली घटा अब छंट रही है शौर्य से 
अब सुबह होती तो कलियां फूल बनती धैर्य से।
    फिर महक तेरे ही चारों ओर होती मेरी मां 
जब फूल की खुशबू से तेरा जी नहीं भरता कभी 
हर फूल की कलियां तेरे पांवों तले रहती लगी।
   तब कितने आनंद से विभोर होती मेरी मां 
बाग के कांटों को तूने एक-एक कर चुन लिया 
जिंदगी की राह में कितने दुःखों को सह लिया
 हर ओर खुशियां मिलीं तो सह न पाईं मेरी मां        
क्या हुआ कैसे हुआ सब देखते हीं रह गये 
कौन सी वो भूल थी जो कुछ न हमसे कह गए।
 अब और न विह्लवल करो हमें धैर्य दे दो मेरी मां ।
08 .चैत नवरात्र में मां की आराधना
लेके मन में अटल विश्वास 
चले हम माता के दरबार,
इच्छाएं पूरी होगी अवश्य 
आशाएं पूरी होगी,,,,,,,,
मां है सब का पालनहार 
करती जन-जन का उद्धार ,
रहती शेर पर सवार 
इच्छाएं पूरी होगी अवश्य 
आशाएं पूरी,,,,,,,,,,,,,,,
माता अष्टभुजाधारी 
गले में नरमूण्डो का हार 
करती दुष्टों का संहार 
इच्छाएं पूरी होगी,,,,,,,,,
आशाएं पूरी होगी,,,,,,,,
हृदय से करें नमन् और ध्यान 
करेंगी भव सागर से पार 
मां की महिमा अपरम्पार 
इच्छाएं पूरी होगी,,,,,,,,
आशाएं पूरी होगी,,,,,
09    हे मा
हे मां तेरी यादों में मगन हो 
मुस्कुराना चाहती हूं,
दर्द दिल में पल रहा 
उसको भुलाना चाहतीं हूं।
राह चलना था कठिन 
पग-पग थे कांटे चुभ रहे,
तेरी शरणों में जो आईं 
आह! भरना चाहती हूं।
घाव जब रिसने लगा 
 लोगों ने छिड़का नमक 
दुनियां से नजरें चुरा 
तुमको दिखाना चाहती हूं।
आज इस मंदिर में तेरे 
होने का एहसास है,
मन में भर विश्वास अब 
तेरा सहारा चाहती हूं।
तेरी यादों में मगन हो 
मुस्कुराना चाहती हूं,
दर्द दिल में पल रहा 
उसको भुलाना चाहतीं ।
    10 .: माता अत्याचार मिटा देना 
   दशो दुआरा खुला है माता 
मेरी अर्जी सुन लेना,
देव भूमि भारत से माता 
अत्याचार मिटा देना ।
धरती पर असुरों का साया 
चहुं दिशा से है मंडराता,
रुप चंडी का धारण कर के 
चमत्कार दिखला देना।
सभी जगह व्यभिचार है फैला 
हृदय कलुष और पाप भरा,
धर्म हुआ नि: शब्द हे माता 
सही राह दिखला देना।
लहुलुहान मर्यादा हो रहा 
संस्कार है मौन खडा,
सजल नयन मानवता हे मां 
धर्मध्वजा फहरा देना।
:11  गुरु साहिब के योद्धा पुत
वीर बालक अजीत सिंह ने 
दुनिया को दिखला दिया,
दस-दस की टुकड़ी सेना से 
दस लाख को झुका दिया।
धर्म-संस्कृति बचाने के लिए 
लहू की होली खेल गया,
बड़े-बड़े सूरमाओं को 
चमकौर में पानी पिला दिया।
जब-तक धरती आकाश रहे
योद्धा जुझार सिंह का नाम रहे,
दोनों वीर योद्धा बालक को 
इतिहास भुला न पायेगा।
एक-एक योद्धा बालक ने जब 
रणभूमि में हूंकार भरी,
दुश्मनों के छक्के छुड़ा दिए 
पिता गुरु साहिब का मान बढा।
12 .गुरु साहिब के पुत्र अजीज सिंह और जुझार सिं
वाहेगुरु की कृपा से आयें 
धरती पर दो बालक वीर,
गुरु गोविन्द सिंह धन्य हो गये 
पाकर रण वांकुर चारों पुत्रों को।
बड़े पुत्र थे अजीत सिंह जी 
दूजा पुत्र थे जुझार सिंह,
विधर्मी -अधर्मी सब मिल कर 
धर्म - संस्कृति के पिछे पड़े हुए।
रात भयानक काली थी 
और सिरसा नदी उफान पर,
बिछड़ गए मां के संग बेटे 
नहीं कर पाये नदी को पार।
धर्म की रक्षा के लिए जिसने 
दुश्मनों के छक्के छुड़ा दिए,
दस लाख मुगलों की सेना 
बस चालिस थे सिख्स महान।
कांप उठी चमकौर की धरती 
दोनों योद्धा ने हूंकार भरी,
एक-एक बालक भारी थे 
दस-दस हजार के दुश्मन पर।
नहीं तनिक भी भय था मन में 
न जीवन का था मोह उन्हें,
ऐसा युद्ध कभी हुआ न होगा 
भारत मां का कलेजा कांप उठा।
लड़ते-लड़ते बलिदान हो गये 
भारत के दो वीर महान ,
धर्म बचाया संस्कृति बचायी 
अमर हो गए दोनों वीर सपूत।

        13. : आख़री पन्न
किताबें लिख रही थी तब 
बहुत थे चाहने वाले,
बस कुछ पल के लिए 
वो मुस्कुराये चल दिए आगे।
राह मे चलते हुए उसने 
किया मुझको ईशार भी,
कुछ सोंच में पड़कर
 मेरा मन डगमगाया भी।
 लिखती रही लिखती रही 
यादों के स्वर्ण अक्षरों में ,
किताबें हो गई है आज वो पूरी
 बस बच गया है आख़री पन्ना।
बचा हुआ  ये आखिरी पन्ना 
तुम्हारे ही नाम करतीं हूं,
तुम मानो या नहीं मानो 
तुम्ही को मैं बदनाम करती हूं।
   14 .खुद मसीहा कहते  है नेता जी
   कायदे-कानून की धज्जी उड़ा कर चल दिए।
दिन-दहाड़े बे-वजह लाशें बिछाकर चल दिए।।
शांति और एकता का हाथ में लेकर मशाल।
घर कितने बेगुनाहों का जला कर चल दिए।।
कहते हैं खुद को मसीहा दीन-दुखियों के मगर।
हड्डियों पर इनके अपना घर बनाकर चल दिए।।
ईमान-धर्म जात और मज़हब से इनको क्या गरज।
स्वार्थ और हवश में ये गैरत डुबा कर चल दिए।।
देश की इनको भला क्या फिकर होगी 'किरण'।
चंद सिक्कों के लिए दांव लगाकर चल दिए।।
  15 .केंचुओं में सांप 
    केंचुओं में सांप रहते थे कभी।
अब केंचुओं में आदमी रहने लगा है।।
विषधरों की क्या भला विसात है।
जिस तरह से डसने लगा है।।
कोई अजगर है तो कोई नाग है।
आदमी से आदमी डरने लगा है।।
कुंडली मारे हुए हैं कैसे देख लो।
किस तरह फुफकार अब भरने लगा है।।
नस्ल हीं सारी विषैली हो रही है।
खून में भी अब ज़हर भरने लगा है।।
  16. अवशेष है 
ज़िन्दगी के हाशिए पर कुछ सवाल शेष है 
देश की अस्मिता का अब तो बस अवशेष है।
घटते-घटते कितना छोटा हो गया है मानचित्र 
ढूंढते हैं हम कहां अपना प्यारा देश है।
एकता घर्म- निरपेक्षता, अखंडता पाखंड है 
ढोंगियों के ढोंग का अलग-अलग यह भेष है ।
आज सब है फार्मुले वोट बैंक के लिए 
नारेबाजी भाषणों में ही तो सब कुछ पेश है।
राष्ट्र का नामों- निशां मिट जायेगा एक दिन' किरण'
लूटने वालों में कैसा देख लो यह रेस है।
          17 . मतदान 
   आओ लोक पर्व की बात करें 
हम मिलजुल कर मतदान करें,
ई वी एम का बटन दबाकर 
नोटा से नहीं मत बर्बाद करें।
अपने क्षेत्र के कर्मठ नेता को 
सोच- समझ कर चुन कर लायें,
ऐसे नेता को मिलकर जितायें
सुख-दुख में सबके काम आयें।
देखो प्रचार की लहर है छाई 
नेता जी हाथ जोड़कर घूम रहे,
बहुत चतुर होते हैं नेता जी 
अभी हाल-चाल भी पूछ रहे।
ऐसे नेता को नहीं जितायें 
जो फिर पांच वर्ष के मिलें,
नेता ऐसा हो जो जनता के
और देश हित में काम  करें।
  18.: परिवर्तन 
परिवर्तन की हवा चली है 
कमल फूल से उड़ी सुगंध,
जागरुक हो रहा है जन-जन 
जाग रहा है हिन्दुस्तान।
हाथ मिलाना छोड़ के हम 
हाथ जोड़ करते हैं प्रणाम,
संस्कृति का पाठ पढ़ायें
पहनेंगे अपना परिधान।
खोई सी अपनी संस्कृति 
धीरे-धीरे लौट रही,
घर-घर में होगा राम- धुन 
हर घर में होगा शंख-नाद।
संभल के रहना देश के दुश्मन 
अब न चलेगा शकुनि चाल,
बच्चा-बच्चा लव-कुश होगा 
हर हाथ में होगा तीर-कमान।
  19. भारत मां के सपूतों 
सुन लो भारत मां के सपूतों 
एक दिन ऐसा आयेगा,
राम धुन घर-घर में होगा 
आज नहीं तो कल होगा।
अपने पथ से भटक गये जो 
सही राह पर आ जायेंगे,
भारत माता के चरणों में 
अपना शीश नवायेगे,
रामायण घर-घर में होगा 
आज नहीं तो कल होगा ।
सुर्पनखा भी अपने घर में 
राम-नाम धुन गायेंगी,
शकुनि मामा एक-दिन 
भांजे पांडवों से मिल जायेंगे,
गीता का ज्ञान घर-घर में होगा 
आज नहीं तो कल होगा।
दुर्गा जी की महिमा सब के 
मन में विश्वास जगायेगी,
कलश स्थापना घर-घर होगा 
आस्था का भाव जगायेगी,
सप्तशती घर-घर में होगा 
आज नहीं तो कल होगा ।
20 .मजदूरन की बेटी रधिया   
       छोटी सी रधिया 
रोज आती थी अपनी मां के साथ 
मैं भी चुपके घर वालों से आंखें बचाकर 
निकल जाती थी रघिया के साथ।
बचपन की चंचलता में नहीं लगता कि 
एक भी अन्न का दाना नहीं है रधिया के पेट में 
बुढ़िया कबड्डी की होड़ में 
जब उसके वस्त्र के चिथड़े रह जाते मेरे हाथ में 
मेरा कोमल हृदय कांप कर रह जाता 
पर इन सब बातों का कोई असर नहीं होता रधिया पर 
स्कूल जाते समय लुक-छिपकर 
प्रतिदिन हो लेती मेरे साथ रधिया 
फिर क्या था ? रास्ते भर 
बकरी-चराने,घास-काटने,पत्ता-बटोरने तथा 
रमुआ से झगड़ने तक की खबरें 
बड़ी दिलचस्पी से मुझे सुनाया करती प्रतिदिन 
स्कूल का रास्ता तय करने तक 
रधिया की उन्मुक्त हंसी और खुशियों में 
कहीं भी उसके आंतरिक दर्द का 
तनिक भी आभास नहीं होता 
भूख से जब पेट में दर्द होता 
क्षण भर के लिए रुक जाती रधिया 
बहाना बनाकर लेकिन 
मेरा भारी वस्ता अपने पीठ से नहीं उतारती 
उसे विश्वास था कि 
इस भारी वस्ते का बोझ मैं नहीं संभाल पाउंगी 
बहुत बड़े अंतराल के बाद 
मैं अपने गांव आई हूं 
अब मेरी उम्र चालीस की है 
मैंने देखा!
एक बूढ़ी महिला भारी बोझ लिए 
बढती आ रही है 
मेरी याददाश्त कुछ सुगबुगाई, माथे पर बल दिया 
धुंधली सी आकृति मेरे अंतर्मन में समाई 
कलेजा कांप गया 
अरे  तू रधिया है न !
तू तो मुझसे दो ही वर्ष छोटी थी न ?
  22.  सीने का दर्द 
  डा उषाकिरण श्रीवास्तव 
सीने में जब दर्द उभरता है ,
तब मुंह से आह निकलती है ;
आवाज़ कलम की कौन सुने ,
कागज पर कुछ लिख जाता है।
शय्या पर जब कांटे होते हैं ,
मन धायल सा हो जाता है;
छलनी हो जाता तड़प जिगर ,
कसमस कर प्राण पिराता है।
जब पीड़ा अधिक सताती है ,
नयनों से नीर बरसाता है;
कागज हाथों में आते हीं ,
आंसू स्याही बन जाता है।
घावों पर मरहम-सा पड़ता ,
थोड़ी शीतलता आती है;
शब्दों का स्वर बंध जाता है 
बस कविता  यही कहाती है।
    23. मुनिया बेटी 
सुबह-सवेरे मुनिया बोली 
आज काम पर जाना बापू,
कुछ ज्यादा देर कमाना बापू 
आज काम पर जाना बापू।
बहुत दिनों से लगीं है तृष्णा 
मिठी रोटी खाने को ,
चीनी भी लेकर आना बापू 
आज़ काम पर जाना बापू।
बापू के जाने के बाद 
मुन्नी सपनों में खोई,
अच्छा खाना आज बनेगा 
मिलजुल कर हम खायेंगे।
कुछ ही देर में बापू वापस 
भारी कदम उदास,
झट से समझ गयी मुन्नी 
बापू को लगा न काम।
आज सभी हम सो जायेंगे 
कल फिर करना काम,
खाली हाथ न!आना बापू 
आज काम पर जाना बापू।

         24. प्रेम की प
बहुत लिख चुके प्रेम की पाती
राष्ट्र के हित की बात लिखो।
तिरंगे की शान लिखो अब
भारत का स्वाभिमान लिखो।।
बहुत लिख चुके,,,,,,,,,,,,,,,,
युद्ध लिखो संग्राम लिखो अब
पुरखों का बलिदान लिखो ।
स्याही अगर बची थोड़ी भी
कलम में भर हूंकार लिखो।।
बहुत लिख चुके,,,,,,,,,,,
धर्म की बात जहां भी आए
सदा सनातन धर्म लिखो।
विश्व गुरु है भारत अपना
वेद-पुराण की बात लिखो।।
बहुत लिख चुके,,,,,,,,,
तलवारों पर धार चढ़ाके
ग़द्दारों का नाम लिखो।
विजय-पताका हाथ में लेकर
जय-जय जय सियाराम लिखो।।
बहुत लिख चुके प्रेम,,,,,,,,,
25.  देश का होगा कल्याण 
 सोच-विचार के करें मतदान 
तभी देश का होगा कल्याण,
सबसे बडा राष्ट्रीय त्यौहार 
लायेगा खुशियों का राज ।
ई वी एम का बटन दबाकर 
संविधान की रक्षा करना,
अपने पसंद का नेता चूने 
मत देना अपना अधिकार।
घर-घर जाकर हम बतलाएं 
बटन दबाकर न पछताएं,
युवा देश के भाग्य विधाता 
हिंदुस्तान को स्वर्ग बनायें।
वंशवाद का नाम मिटाएं 
घोटालों से मुक्त करायें ,
नव भारत का निर्माण करें 
मिल-जुलकर मतदान करें।
  26 .मां की ममता 
  कड़कड़ाती ठंड से अपने 
लाढले को बचाने के लिए 
मां के पास सिर्फ ममता थी ।
नहीं थे पहनाने के लिए 
ब्रांडेड स्वेटर, नहीं थे जैकेट 
थर-थर कांपते 
कलेजे के टुकड़ों के लिए 
सिर्फ ममता थी।
मुझे अच्छी तरह याद है 
बड़े भैया के लिए 
नये स्वेटर को बुनना 
अपने हाथों से बुनी थीं मां ने 
फिर क्या था?
भैया का छोटा स्वेटर 
मुझे पहनाया गया 
फिर उसे मेरे छोटे भाई ने पहना 
उसे भी अब छोटा हो गया स्वेटर 
अब मां ने उसे खोलकर 
रंगीन धागों के साथ 
फीर से नया बना दिया 
जिन बच्चों के पास नहीं थे स्वेटर 
उनके लिए बिना परवाह किए 
मां ने अपनी साड़ी को दो टूक कर 
गांती बांध दिया करती थी मां 
ममता के आगे नहीं टिक
पाती थी ठंढ!
27. मेरी मा
जब पत्थरों को काट तूने रेत की सृष्टि किया 
तब नयन के नीर से तू हीं उसे शीतल किया।
    इन कंकड़ों में पांच अंकुड उग गये हैं मेरी मां 
जब शून्य सी आंखों में तेरी आस की ज्योति जली 
तब आंचलों की छांव से तूने उसे ठंडक दिया।
    अब लहलहाकर पेड़ सब बढ़ने लगे हैं मेरी मां 
हर पेड़ पर पत्ते लगें चारों तरफ़ डालें घिरी 
फिर हवा के झोंके पर एक डाल दूजे से मिले।
  तब सब दुःखों को भूलकर तूं गुनगुनाई मेरी मां 
मौसम बसंती आ गया हर पेड़ में कलियां खिलीं 
फिर हर कलि में प्यार, ममता स्नेह तूने भर दिया।
  तब स्नेह से स्नेहिल हुईं अपलक निहारीं मेरी मां 
रात की काली घटा अब छंट रही है शौर्य से 
अब सुबह होती तो कलियां फूल बनती धैर्य से।
    फिर महक तेरे ही चारों ओर होती मेरी मां 
जब फूल की खुशबू से तेरा जी नहीं भरता कभी 
हर फूल की कलियां तेरे पांवों तले रहती लगी।
   तब कितने आनंद से विभोर होती मेरी मां 
बाग के कांटों को तूने एक-एक कर चुन लिया 
जिंदगी की राह में कितने दुःखों को सह लिया
 हर ओर खुशियां मिलीं तो सह न पाईं मेरी मां        
क्या हुआ कैसे हुआ सब देखते हीं रह गये 
कौन सी वो भूल थी जो कुछ न हमसे कह गए।
 अब और न विह्लवल करो हमें धैर्य दे दो मेरी मां

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