:प्राक्कथन
"साहित्यकार मानव संस्कृति और आँखें हैं।" यह महज एक कथन नहीं, अपितु एक शाश्वत सत्य है जो साहित्य के गहन महत्व को प्रतिपादित करता है। साहित्य किसी भी समाज का दर्पण होता है, जो न केवल उसके अतीत को आलोकित करता है बल्कि वर्तमान की जटिलताओं को भी समझने में सहायक होता है और भविष्य की दिशा का निर्धारण करता है। यह साहित्यिक चेतना ही है जो हमें जीवन के मूल संकल्पों को पूर्ण करने की सामर्थ्य प्रदान करती है, हमें सोचने, समझने, प्रश्न करने और अंततः एक बेहतर इंसान बनने के लिए प्रेरित करती है। साहित्य वह शक्ति है जो रूढ़ियों को तोड़ती है, नवीन विचारों का सृजन करती है और मानवीय संवेदनाओं को परिष्कृत करती है।
इसी उदात्त भावना को केंद्र में रखकर " सम्मानित साहित्यकार" नामक इस महत्वपूर्ण पुस्तक का सृजन हुआ है। यह कृति बिहार की गौरवशाली साहित्यिक परंपरा को एक विनम्र श्रद्धांजलि है और उन महान साहित्यकारों के जीवन, उनके कृतित्व और उनके अप्रतिम विचारों को प्रस्तुत करने का एक महती प्रयास है, जिन्होंने अपनी लेखनी के माध्यम से समाज को न केवल ज्ञान से आलोकित किया बल्कि उसे सही दिशा भी प्रदान की।
यह पुस्तक केवल साहित्यकारों की जीवनियों का एक संग्रह मात्र नहीं है, बल्कि यह एक गहन यात्रा है, उन मनीषियों की जीवनशैली, उनके सामाजिक सरोकारों, उनकी शैक्षणिक पृष्ठभूमि और उनकी समृद्ध सांस्कृतिक विरासत की गहराई में उतरने की। इसमें इस बात पर विशेष बल दिया गया है कि कैसे इन साहित्यकारों ने अपनी प्राचीन विरासत को अक्षुण्ण रखने के लिए अथक प्रयास किए और अपनी रचनाओं के माध्यम से उसे भविष्य की पीढ़ियों तक पहुँचाने का संकल्प लिया। यह पुस्तक इस बात को भी स्पष्ट करती है कि साहित्यकार अपनी सशक्त साहित्यिक चेतना को जागृत कर किस प्रकार समाज में सकारात्मक परिवर्तन लाते हैं और एक नव समाज का निर्माण करते हैं। वे अपनी रचनाओं से जनमानस को आंदोलित करते हैं, उन्हें अन्याय के विरुद्ध आवाज उठाने के लिए प्रेरित करते हैं और एक समतावादी समाज की नींव रखते हैं।
इस पुनीत कार्य को मूर्त रूप देने में बज्जिका और हिंदी की सुविख्यात एवं सम्मानित लेखिका डॉ. उषाकिरण श्रीवास्तव का सहयोग और उनके अमूल्य विचार विशेष रूप से प्रशंसनीय हैं। उनके गहन शोध, उनके साहित्यिक अंतर्दृष्टि और उनके समर्पण के बिना साहित्यकारों के जीवनवृत्त को इतनी सहजता, प्रामाणिकता और गहराई के साथ प्रस्तुत करना कदापि संभव नहीं हो पाता। डॉ. श्रीवास्तव ने न केवल जानकारी संकलित करने में सहायता की है, बल्कि उन्होंने इस पुस्तक को एक सुसंगत और प्रेरणादायक स्वरूप प्रदान करने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
मुझे पूर्ण विश्वास है कि '' सम्मानित साहित्यकार" पुस्तक बिहार के साहित्य प्रेमियों, शोधार्थियों, छात्रों और सामान्य पाठकों के लिए एक अत्यंत महत्वपूर्ण और संग्रहणीय दस्तावेज सिद्ध होगी। यह पुस्तक न केवल वर्तमान पीढ़ी को अपने महान साहित्यकारों के योगदान से परिचित कराएगी, बल्कि आने वाली पीढ़ियों को भी साहित्य के महत्व को समझने और समाज एवं संस्कृति के उत्थान में अपना सक्रिय योगदान देने के लिए निरंतर प्रेरित करती रहेगी। यह पुस्तक बिहार की मिट्टी से उपजे उन शब्दों और विचारों का उत्सव है जिन्होंने समय की कसौटी पर खरा उतरकर हमें एक समृद्ध विरासत दी है।
यह आशा करता हूँ कि यह पुस्तक अपनी साहित्यिक सुगंध से सभी पाठकों को मंत्रमुग्ध करेगी और बिहार की समृद्ध साहित्यिक विरासत को और अधिक ऊँचाइयों तक ले जाने में मील का पत्थर साबित होगी।
01 . सत्येन्द्र कुमार पाठक: बहुआयामी प्रतिभा के धनी
सत्येन्द्र कुमार पाठक, बिहार के अरवल जिले के करपी प्रखंड मुख्यालय की मिट्टी से उपजा एक ऐसा नाम है, जिसने अपने जीवन के विभिन्न आयामों से समाज, साहित्य, कला और संस्कृति को समृद्ध किया है। उनकी यात्रा एक साधारण परिवार से शुरू होकर एक बहुमुखी व्यक्तित्व के रूप में स्थापित होने की प्रेरणादायक गाथा है, जो उनकी अटूट निष्ठा, समर्पण और बहुआयामी प्रतिभा को दर्शाती है। पारिवारिक पृष्ठभूमि: संस्कारों और ज्ञान की नींव : सत्येन्द्र कुमार पाठक जी का जन्म 15 जून 1957 को एक शाकद्वीपीय ब्राह्मण परिवार में हुआ था। यह परिवार संस्कारों और ज्ञान की समृद्ध परंपरा का वाहक रहा है। उनके पिता, सच्चिदानंद पाठक, ज्योतिष और कर्मकांड के प्रकांड विद्वान थे, जिन्होंने निश्चित रूप से सत्येन्द्र जी के जीवन में ज्ञान के प्रति गहरा अनुराग पैदा किया। माता ललिता देवी और धर्मपरायण पत्नी सत्यभामा देवी ने उन्हें नैतिक मूल्यों, पारिवारिक स्थिरता और एक शांतचित्त जीवन का मजबूत आधार प्रदान किया। इस पारिवारिक पृष्ठभूमि ने सत्येन्द्र जी को एक ऐसे व्यक्तित्व के रूप में ढाला, जिसकी जड़ें अपनी संस्कृति और परंपराओं से गहराई से जुड़ी हुई हैं। आज वे एक सम्मानित पेंशनधारी के रूप में अपने परिवार – नवीन कुमार पाठक और प्रवीण कुमार पाठक पुत्रों और पाँच पुत्रियों , पौत्रों में दिव्यांशु एवं प्रियांशु – के साथ शांतिपूर्ण जीवन व्यतीत कर रहे हैं।
सत्येन्द्र जी की साहित्यिक यात्रा अत्यंत समृद्ध और विविध रही है। उनकी प्रकाशित कृतियाँ उनके गहन अध्ययन, क्षेत्रीय विरासत के प्रति उनके प्रेम और समाज के विभिन्न पहलुओं पर उनके विचारों को दर्शाती हैं: 'मगधाँचल' (2009): यह कृति संभवतः मगध क्षेत्र की सांस्कृतिक, सामाजिक या भौगोलिक विशेषताओं पर केंद्रित है, जो क्षेत्रीय ज्ञान के प्रति उनके समर्पण को दर्शाती है। 'बराबर' (2011): बिहार राज्य सरकार मंत्रिमंडल सचिवालय (राजभाषा विभाग) द्वारा अनुदानित यह पुस्तक, उनके शोध और लेखन की गुणवत्ता का प्रमाण है। यह बराबर की गुफाओं या मगध के किसी अन्य महत्वपूर्ण पहलू पर केंद्रित हो सकती है, जो पुरातात्विक और ऐतिहासिक महत्व रखता है।'बाणावर्त' (2018): यह कृति संभवतः बाणासुर या स्थानीय लोक कथाओं/इतिहास से संबंधित है, जो उनकी साहित्यिक विविधता को दर्शाती है।'विरासत' (2022): यह शीर्षक स्पष्ट रूप से उनकी सांस्कृतिक और पुरातात्विक विरासत को संरक्षित करने की रुचि को दर्शाता है। 'मगध क्षेत्र की विरासत' (2024): यह उनकी विरासत संरक्षण की दिशा में नवीनतम प्रयास है, जो मगध की समृद्ध ऐतिहासिक और सांस्कृतिक धरोहर को पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करता है।उनकी अप्रकाशित रचनाएँ, 'विरासत यात्रा' और 'लोक संस्कृति', भी इस दिशा में उनके निरंतर प्रयासों को दर्शाती हैं, जो क्षेत्रीय ज्ञान और पारंपरिक मूल्यों के प्रति उनकी प्रतिबद्धता को रेखांकित करती हैं। बाल साहित्य में उनकी लोरी कविता एवं आलेखों का प्रकाशन (2025) यह दर्शाता है कि उनकी रचनात्मकता की कोई सीमा नहीं है और वे विभिन्न आयु वर्गों के लिए लेखन करते हैं।
कला, संस्कृति, सांस्कृतिक एवं पुरातात्विक विरासत का अध्ययन: एक गहन शोधकर्ता के रूप में सत्येन्द्र कुमार पाठक जी केवल एक लेखक नहीं, बल्कि एक गंभीर शोधकर्ता और विरासत के संरक्षक भी हैं। उन्होंने भारत और नेपाल के विभिन्न स्थलों का व्यापक अध्ययन किया है, जो उनकी गहन जिज्ञासा और सांस्कृतिक धरोहर के प्रति उनके सम्मान को दर्शाता है। उनके अध्ययन के प्रमुख स्थल और विषय:बिहार के विभिन्न जिले: स्थानीय कला, संस्कृति और इतिहास का गहरा ज्ञान। उत्तर प्रदेश (अयोध्या, काशी, लखनऊ): धार्मिक और ऐतिहासिक महत्व के स्थलों का अन्वेषण।उत्तराखंड (बद्रीनाथ, केदारनाथ, हरिद्वार, ऋषिकेश, जोशीमठ): हिमालयी संस्कृति, आध्यात्मिकता और प्राचीन स्थलों का अध्ययन।गुजरात (बड़ताल, द्वारिका, साबरमती आश्रम): धार्मिक, ऐतिहासिक और राष्ट्रीय महत्व के स्थानों का अवलोकन।मध्य प्रदेश (उज्जैन, ओंकारेश्वर): प्राचीन मंदिरों, ज्योतिषीय और धार्मिक केंद्रों का अध्ययन।महाराष्ट्र (घृनेश्वर, एलोरा की गुफाएं, भीमाशंकर, नासिक, पंचवटी, त्रयम्बकेश्वर, शिंगणापुर, अहमदनगर का साईं मंदिर, मुंबई का सिद्धिविनायक): गुफा कला, धार्मिक वास्तुकला, ज्योतिषीय महत्व और भक्ति परंपराओं का गहन अध्ययन। झारखंड: स्थानीय संस्कृति और जनजातीय विरासत का अन्वेषण। दिल्ली: ऐतिहासिक स्मारकों और विविध सांस्कृतिक पहलुओं का अवलोकन। नेपाल (काठमांडू, जनकपुर): पड़ोसी देश की प्राचीन संस्कृति, धार्मिक स्थलों और पुरातात्विक महत्व का अध्ययन।यह विस्तृत यात्रा और अध्ययन दर्शाता है कि सत्येन्द्र जी ने केवल किताबी ज्ञान तक खुद को सीमित नहीं रखा, बल्कि उन्होंने प्रत्यक्ष अनुभव के माध्यम से भारत की समृद्ध सांस्कृतिक और पुरातात्विक विरासत को समझा और आत्मसात किया। उनके आलेख और कृतियाँ इस ज्ञान का ही परिणाम हैं।
सामाजिक योगदान: जन सरोकारों से गहरा जुड़ाव में सत्येन्द्र कुमार पाठक जी का जीवन केवल शिक्षा और साहित्य तक ही सीमित नहीं रहा, बल्कि उन्होंने समाज सेवा को अपना कर्मक्षेत्र बनाया। उनकी सामाजिक संवेदनशीलता की शुरुआत 1976 में करपी, अरवल में आई भीषण बाढ़ के दौरान करपी प्रखंड दुग्ध दलिया समिति, गया के सदस्य के रूप में बाढ़ पीड़ितों की मदद से हुई। उन्होंने अनगिनत संगठनों में सक्रिय भूमिका निभाई, जिनमें: अध्यक्ष के रूप में: जहानाबाद अनुमंडल किसान सुरक्षा समिति, मगही मंच करपी प्रखंड, भारतीय समाज सुधारक संघ जहानाबाद, पंडित नेहरू क्लब करपी, करपी प्रखंड विद्युत उपभोक्ता समिति। महासचिव के रूप में: मगध बुद्धि मंच और बिहार राज्य मगही विकास मंच (1978), जहाँ उन्होंने क्षेत्रीय भाषा और संस्कृति के विकास में योगदान दिया।सचिव के रूप में: सच्चिदानंद शिक्षा एवं समाज कल्याण संस्थान।अध्यक्ष के रूप में: जहानाबाद जिला विरासत विकास समिति, जहाँ उन्होंने विरासत संरक्षण और शिक्षा के प्रचार-प्रसार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।शिक्षक संघों में सक्रिय भूमिका: बिहार अराजपत्रित प्रारंभिक शिक्षक संघ जहानाबाद के उप संयोजक, बिहार राज्य प्राथमिक शिक्षक संघ (गोप गुट) जहानाबाद के संयुक्त सचिव, और बिहार राज्य क्रांतिकारी शिक्षक संघ के राज्य प्रवक्ता (2008), शिक्षकों के अधिकारों के लिए एक मुखर आवाज।विकलांगों के विकास में योगदान: भारतीय पुनर्वास परिषद द्वारा आयोजित अखिल भारतीय विकलांगता कन्वेंशन दिल्ली (2003) में भागीदारी।: विश्व हिंदी परिषद के आजीवन सदस्य, जीवनधारा नमामी गंगे के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष सह बिहार राज्य प्रभारी और G5 के सदस्य के रूप में व्यापक स्तर पर समाज सेवा में लीन।जहानाबाद में 1999 से रहकर वे सामाजिक और साहित्यिक साधना में लीन हैं, साथ ही आत्मा से पंजीकृत जिला किसान संगठन, जहानाबाद के सचिव के रूप में किसानों के हितों के लिए भी कार्यरत हैं।
पुरस्कार एवं सम्मान: एक गरिमामयी यात्रा में सत्येन्द्र कुमार पाठक जी के अथक प्रयासों और बहुमूल्य योगदान को कई प्रतिष्ठित सम्मानों से नवाजा गया है, जो उनके बहुआयामी व्यक्तित्व का प्रमाण हैं: आचार्य उपाधि (1998): हिंदी पत्रकारिता में उत्कृष्ट कार्य के लिए जैमिनी अकादमी पानीपत, हरियाणा द्वारा।महाकवि योगेश मगही अकादमी शिखर सम्मान 2013: मगही साहित्य में विशेष योगदान के लिए मगही अकादमी पटना द्वारा।पंडित जनार्दन प्रसाद झा द्विज सम्मान (2020): बिहार हिंदी साहित्य सम्मेलन पटना के 101वें स्थापना दिवस पर। मगध विश्वविद्यालय, बोधगया द्वारा सम्मान: हिंदी साहित्य में योगदान के लिए। अन्य प्रमुख सम्मानों की श्रृंखला: सतीश कुमार मिश्र सम्मान (2021), गोपाल राम गहमरी लेखक गौरव सम्मान (2022), रवींद्रनाथ टैगोर जयंती पर अंतर्राष्ट्रीय कला एवं साहित्य सम्मान (2023), पर्यावरण रक्षक सम्मान (2023), श्रीरंजन सूर्यदेव सम्मान (2023), अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस सम्मान (2023 व 2024), स्व. युगल किशोर मिश्र सम्मान (2024), डॉ. केशव बलिराम हेडगेबार स्मृति सम्मान (2024), श्रीराम रत्न सम्मान (2024), अंतर्राष्ट्रीय विश्वाकाश के चमकते सूर्य सम्मान (2024), भारत भाग्य विधाता स्मारिका सम्मान (2024), दीपोत्सव साहित्य सम्मान (2024), कोसी साहित्य गौरव सम्मान (रजत सम्मान) 2024, अशोक स्मृति निर्भय पत्रकारिता सम्मान (2024), साहित्यभूषण सम्मान (2024), साहित्य रत्न सम्मान (2025) और दिव्य रश्मि सम्मान (2025)। सभी सम्मान सत्येन्द्र जी के अथक परिश्रम, समर्पण और समाज तथा साहित्य के प्रति उनके अमूल्य योगदान की स्वीकृति हैं।
सत्येन्द्र कुमार पाठक जी का जीवन एक ऐसे तपस्वी का जीवन है, जिन्होंने अपने ज्ञान, कलम और कर्म से समाज के विभिन्न क्षेत्रों को समृद्ध किया है। एक शिक्षक, पत्रकार, समाज सेवक, साहित्यकार और सांस्कृतिक अध्येता के रूप में उनका योगदान अतुलनीय है। उनकी पारिवारिक जड़ें, साहित्य के प्रति उनका गहरा प्रेम, सांस्कृतिक और पुरातात्विक विरासत के प्रति उनकी शोधपरक दृष्टि और सामाजिक सरोकारों से उनका गहरा जुड़ाव उन्हें वास्तव में एक बहुआयामी प्रतिभा के धनी व्यक्तित्व के रूप में स्थापित करता है। वे न केवल अपने क्षेत्र के लिए, बल्कि व्यापक समाज के लिए भी एक प्रेरणा स्रोत हैं।
02. डॉ. उषा किरण श्रीवास्तव: साहित्य, कला और समाज सेवा के प्रकाश-पुंज
डॉ. उषा किरण श्रीवास्तव, एक ऐसा नाम जो साहित्य, कला, संस्कृति और समाज सेवा के क्षेत्र में अपनी बहुमुखी प्रतिभा और अविस्मरणीय योगदान के लिए जाना जाता है। 28 जनवरी 1956 को सीतामढ़ी के नानी गांव, थुम्मा में जन्मी डॉ. श्रीवास्तव ने अपनी शिक्षा, लेखन और सामाजिक कार्यों से एक विशिष्ट पहचान बनाई है। गृह विज्ञान में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के बाद, उन्होंने बिहार सरकार में शिक्षिका के रूप में सेवा दी और आज भी सेवानिवृत्ति के उपरांत भी सक्रिय रूप से समाज और संस्कृति के उत्थान में लगी हुई हैं। पारिवारिक पृष्ठभूमि: संस्कारों की नींव में डॉ. उषा किरण श्रीवास्तव के व्यक्तित्व निर्माण में उनके परिवार की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। उनके पिता श्री सत्यनारायण प्रसाद और पति श्री हरिशंकर प्रसाद ने उन्हें सदैव सहयोग और प्रोत्साहन दिया। सीतामढ़ी के नानी गांव, थुम्मा में जन्म लेकर, भंडारी, बेलसंड में ससुराल और दादी गांव, सिरखिरीया, सैदपुर में नैहर होने से उन्हें बज्जिकांचल की समृद्ध सांस्कृतिक विरासत को करीब से जानने का अवसर मिला, जिसकी झलक उनके लेखन और सांस्कृतिक गतिविधियों में स्पष्ट रूप से दिखती है। यह पारिवारिक पृष्ठभूमि ही उनके लोक संस्कृति के प्रति गहन जुड़ाव का आधार बनी।
साहित्य: बहुभाषी लेखन का संगम में डॉ. उषा किरण श्रीवास्तव का साहित्यिक योगदान अत्यंत विस्तृत और प्रभावशाली है। उन्होंने हिंदी के साथ-साथ बज्जिका, मैथिली और भोजपुरी जैसी लोक भाषाओं में भी अपनी लेखनी चलाई है, जिससे उनकी पहुँच और प्रभाव और भी व्यापक हो जाता है। उनकी रचनाएं समाज, संस्कृति और मानवीय संवेदनाओं के विभिन्न पहलुओं को स्पर्श करती हैं। प्रकाशित कृतियाँ: 'टुकड़ा-टुकड़ा एहसास' (काव्य संग्रह, 1994): यह काव्य संग्रह उनकी प्रारंभिक साहित्यिक यात्रा का परिचायक है, जिसमें भावनाओं की कोमल और गहरी अभिव्यक्ति मिलती है।'मंजुलिया' (कहानी संग्रह, 2014): इस कहानी संग्रह में उन्होंने समाज के विभिन्न किरदारों और जीवन की सच्चाइयों को कहानियों के माध्यम से प्रस्तुत किया है।'टुकड़ों में बंटी धूप' (काव्य संग्रह, 2018): राजभाषा, पटना द्वारा अनुदानित यह काव्य संग्रह उनकी साहित्यिक परिपक्वता को दर्शाता है, जिसमें जीवन के उजालों और अंधेरों का सुंदर चित्रण है। 'भारत की लोक भाषाएं, जन भाषाएं'की कृति उनकी भाषाई समझ और लोक भाषाओं के प्रति उनके गहन अनुसंधान को उजागर करती है।बज्जिका में:डॉ. श्रीवास्तव ने बज्जिका भाषा के संरक्षण और संवर्धन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।'पारंपरिक विवाह गीत': राष्ट्रभाषा पटना द्वारा प्रकाशित यह कृति बज्जिका संस्कृति के महत्वपूर्ण पहलू को दर्शाती है।'बज्जिका लोक मरजादा के गीत' (2022) और 'बज्जिका के सोलह संस्कार गीत' (2024): ये दोनों पुस्तकें बज्जिका लोक परंपराओं और रीति-रिवाजों को गीतों के माध्यम से संजोती हैं, जो सांस्कृतिक विरासत को जीवित रखने का एक सराहनीय प्रयास है।'बज्जिका कहानी संग्रह - छोटकी दुल्हिन': यह संग्रह बज्जिका साहित्य को समृद्ध करता है और स्थानीय कथा परंपराओं को बढ़ावा देता है। प्रेस में लंबित कृतियाँ: 'आंजुरी में पंखुड़ी' (हिंदी काव्य संग्रह): उनके हिंदी काव्य लेखन की निरंतरता का प्रतीक। 'भूल बिसरल गांओ' (बज्जिका काव्य संग्रह): बज्जिका भाषा में उनके रचनात्मक योगदान की एक और महत्वपूर्ण कड़ी।डॉ. श्रीवास्तव ने पंचम विश्व हिंदी सम्मेलन, 1996 में अपने आलेख 'हिंदी निधि, ट्रिनिडाड टोबैगो हिंदी' को स्वीकृति दिलाकर अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अपनी पहचान बनाई।
कला और संस्कृति: लोक जीवन की संरक्षिका के रूप में डॉ. उषा किरण श्रीवास्तव न केवल एक साहित्यकार हैं, बल्कि लोक कला और संस्कृति की प्रबल संरक्षिका भी हैं। उन्होंने 'स्वर्णिम कला केंद्र' की स्थापना की है, जो राष्ट्रीय स्तर पर ख्याति प्राप्त एक लोक कला समर्पित संस्था है। इस केंद्र के माध्यम से उन्होंने बिहार की समृद्ध लोक नृत्यों और लोकगीतों को बढ़ावा दिया है। राज्य और राष्ट्रीय युवा महोत्सवों में समूह प्रधान (ग्रुप लीडर) के रूप में उनकी भूमिका ने अनेक राज्यों में लोक कलाओं को मंच प्रदान किया है। उनकी सीनियर फेलोशिप (संस्कृति मंत्रालय भारत सरकार, 2019-2022), जिसमें उन्होंने शोध ग्रंथ 'सीनियर फेलोशिप' पर काम किया, लोक संस्कृति के गहन अध्ययन और दस्तावेजीकरण के प्रति उनके समर्पण को दर्शाता है। प्रसार भारती, दूरदर्शन, पटना में लोक-नृत्य प्रतियोगिता के निर्णायक मंडल में शामिल होना उनकी कलात्मक विशेषज्ञता का प्रमाण है। सामाजिक योगदान: एक सक्रिय नागरिक : साहित्य और कला के क्षेत्र में योगदान के साथ-साथ, डॉ. श्रीवास्तव एक सक्रिय समाजसेविका भी हैं। उन्होंने विभिन्न सामाजिक संगठनों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है: प्रांत मंत्री - संस्कार भारती उत्तर बिहार: सांस्कृतिक मूल्यों के संरक्षण और संवर्धन में उनका सक्रिय योगदान। संयोजिका - अखिल भारतीय महिला साहित्यकार सम्मेलन, आणंद, गुजरात: महिला साहित्यकारों को एक मंच प्रदान करने और उनकी रचनाओं को प्रोत्साहित करने में उनकी भूमिका। आजीवन सदस्य - भारतीय रेडक्रॉस सोसायटी, मुजफ्फरपुर: मानवीय सेवा और समाज कल्याण के प्रति उनकी प्रतिबद्धता। आजीवन सदस्य - सीनियर सिटीजन काउंसिल, मुजफ्फरपुर: वरिष्ठ नागरिकों के कल्याण और उनके अधिकारों के लिए सक्रिय। उन्होंने 'स्वर्णिम वसुंधरा' (नारी चेतना को समर्पित पत्रिका) और 'बज्जिका जयन्ति' (बज्जिका भाषा की पत्रिका) का स्वतंत्र संपादन भी किया है, जो समाज में सकारात्मक बदलाव लाने और क्षेत्रीय भाषाओं को बढ़ावा देने की उनकी इच्छा को दर्शाता है। एक पत्रकार के रूप में, वे 'अवध दूत, दैनिक, प्रतापगढ़, उत्तर प्रदेश' की ब्यूरो चीफ भी हैं, जहाँ उनके अनेक आलेख और रचनाएं प्रकाशित होती हैं। विश्व हिंदी परिषद के आजीवन सदस्य 2024 से है।
पुरस्कार और सम्मान: एक गौरवपूर्ण यात्रा में डॉ. उषा किरण श्रीवास्तव को उनके साहित्यिक, कलात्मक और सामाजिक योगदान के लिए अनगिनत राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कारों और सम्मानों से नवाजा गया है। यह उनकी अथक मेहनत, समर्पण और उत्कृष्टता का प्रमाण है। उनके कुछ प्रमुख सम्मानों में साहित्य रश्मि सम्मान (1997) ,साहित्य शिरोमणि सम्मान (1999) ,साहित्य साधक सम्मान (2011) ,'शिवानी राष्ट्रीय शिखर सम्मान' (2017) , महादेवी वर्मा राष्ट्रीय शिखर सम्मान' (2019) ,'डॉ. एस राधाकृष्णन सम्मान' (2018) ,हिंदी भाषा भूषण मानद उपाधि (2023) ,अंतर्राष्ट्रीय साहित्य सम्मेलन, मारीशस में सहोदरी रत्न सम्मान (2023) ,भूटान, थिम्पू में अंतर्राष्ट्रीय हिंदी साहित्य सेवा सम्मान सम्मेलन (2023) ,'कबीर कोहिनूर सम्मान' (2023) ,'अम्बेडकर कृति सम्मान' (2023) ,अंतर्राष्ट्रीय विश्व आकाश के चमकते सूर्य सम्मान (2024) ,'भारत भाग्य विधाता सम्मान' (2024) ,चाणक्य मेधा शक्ति साहित्य शिखर सम्मान (2024) , साहित्य भूषण सम्मान 2025 , साहित्यरत्न सम्मान 2025 , दिव्य रश्मि सम्मान 2025 पुरस्कारों की लंबी सूची उनके बहुआयामी व्यक्तित्व और विभिन्न क्षेत्रों में उनकी अमूल्य सेवाओं को रेखांकित करती है। उन्हें पद्म श्री सम्मान के लिए भी 2023-2024 में नामित किया गया है, जो उनकी राष्ट्रीय पहचान और महत्व को दर्शाता है ।
डॉ. उषा किरण श्रीवास्तव का जीवन और कार्य साहित्य, कला, संस्कृति और समाज सेवा के प्रति एक सच्चे समर्पित व्यक्तित्व का प्रतीक है। उन्होंने अपनी लेखनी और सक्रिय भागीदारी से न केवल लोक भाषाओं और कलाओं को समृद्ध किया है, बल्कि समाज में सकारात्मक परिवर्तन लाने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। उनका योगदान भविष्य की पीढ़ियों के लिए प्रेरणा का स्रोत रहेगा और भारतीय साहित्य, कला और संस्कृति के इतिहास में उनका नाम स्वर्णाक्षरों में अंकित रहेगा। उनका व्यक्तित्व वास्तव में "साहित्य, कला और समाज सेवा के प्रकाश-पुंज" के रूप में चमकता रहेगा।
03. डॉ संगीता सागर - एक साहित्यिक प्रतिभा एवं महिला सशक्तिकरण -
संगीता सागर एक बहुमुखी प्रतिभा की धनी महिला हैं, जिन्होंने शिक्षा, साहित्य और व्यवसाय तीनों क्षेत्रों में अपनी पहचान बनाई है। भारतीय जीवन बीमा निगम में सहायक मंडल प्रबंधक के पद पर कार्यरत होने के साथ-साथ, वे एक प्रतिष्ठित कवयित्री भी हैं, जिनकी रचनाएँ पाठकों द्वारा खूब सराही जाती हैं। संगीता सागर का जन्म 14 नवंबर 1966 को हुआ। उनके पति का नाम संजय कुमार है। शिक्षा के क्षेत्र में उन्होंने उच्च उपाधियाँ प्राप्त की हैं, जिनमें स्नातकोत्तर और विद्या वाचस्पति शामिल हैं, जो उनकी गहन अकादमिक अभिरुचि को दर्शाता है।
अपने व्यवसायिक जीवन में, संगीता सागर ,भारतीय जीवन बीमा निगम में सहायक मंडल प्रबंधक के पद पर कार्यरत हैं। यह पद उनकी प्रशासनिक क्षमताओं और कार्यकुशलता एवं निर्णय लेने की क्षमता का प्रमाण है।
संगीता सागर, हिंदी साहित्य जगत में एक संवेदनशील कवयित्री के रूप में विशिष्ट पहचान रखती है। उनका जीवन, शिक्षा, व्यवसाय और साहित्य के बीच एक अद्भुत संतुलन का प्रतीक है, जो उन्हें समकालीन समाज में एक प्रेरणादायक व्यक्तित्व बनाता है। संगीता सागर का संतुलित व्यक्तितव एवं अकादमिक सुदृढ़ता ही उन्हें अपने पेशेवर जीवन , गृहिणी और साहित्य तीनो ही क्षेत्रों में संतुलन बनाते हुए उत्कृष्ट प्रदर्शन करने में सहायक सिद्ध हुई है।
अपने इन्हीं प्रतिभाओ के कारण संगीता सागर समाज में महिला सशक्तिकरण का अद्भुत मिशाल पेश करती है । संगीता सागर की आत्मा एक संवेदनशील कवयित्री की है, जिसकी अभिव्यक्ति उनके कविता संग्रह 'मां तेरे जाने के बाद' में मुखरित होती है। यह कृति मानवीय संवेदनाओं, विशेषकर माँ के प्रति प्रेम और विरह की भावनाओं को इतनी मार्मिकता से प्रस्तुत करती है कि पाठक उनसे सहज ही जुड़ जाते हैं। उनकी कविताएँ केवल शब्दों का संकलन नहीं, बल्कि भावनाओं का सागर हैं जो हृदय को छू लेती हैं। वे एक प्रख्यात कवयित्री के साथ साथ और गंगा सेवी के रूप में भी समाज में; महत्वपूर्ण योगदान दे रही है। काव्य की यात्रा में संगीता सागर की साहित्यिक यात्रा उनके कविता संग्रह 'मां तेरे जाने के बाद' से मुखरित होती है। यह कृति भावनाओं का एक गहरा सागर है, जहाँ माँ के प्रति असीम प्रेम, विरह और स्मृतियों को अत्यंत मार्मिकता से व्यक्त किया गया है। उनकी कविताएँ मानवीय संबंधों की जटिलता और सुंदरता को सरल, सुबोध भाषा में पिरोती हैं, जो पाठकों के हृदय को सीधे स्पर्श करती हैं। यह संग्रह उनकी संवेदनशीलता और काव्यात्मक प्रतिभा का जीवंत प्रमाण है।
संगीता सागर को उनके साहित्यिक योगदान के लिए अनेक प्रतिष्ठित पुरस्कारों और सम्मानों से नवाजा गया है। गार्गी सम्मान (2021), काव्य केसरी सम्मान, कालचक्र सम्मान, नीलकंठ सम्मान, कलमकार सम्मान, साहित्य सारथी सम्मान, राष्ट्रीय कलमकार सम्मान, राष्ट्रीय सृजनकार सम्मान, डॉ. महराज कृष्ण जैन स्मृति सम्मान, श्रीमती गिरजा वर्णवाल स्मृति सम्मान, साहित्य सृजक सम्मान, काव्य रत्न सम्मान, साहित्य रत्न सम्मान 2025, और चित्रगुप्त स्वर्ण जयंती सम्मान , दिव्य रश्मि सम्मान 2025 से सम्मान उनकी साहित्यिक उत्कृष्टता और साहित्य जगत में उनके बहुमूल्य योगदान को प्रमाणित करते हैं।
ये पुरस्कार केवल उनकी व्यक्तिगत उपलब्धि नहीं, बल्कि हिंदी साहित्य के प्रति उनके समर्पण का प्रतीक हैं।
संगीता सागर की पहचान केवल उनके साहित्यिक और प्रशासनिक कार्यों तक ही सीमित नहीं है, बल्कि गंगा सेवा के प्रति उनका समर्पण उन्हें एक विशेष स्थान दिलाता है। गंगा नदी, जिसे भारत में एक पवित्र देवी के रूप में पूजा जाता है, की स्वच्छता और संरक्षण के लिए प्रयासरत "गंगा सेवियों" में उनका नाम भी शामिल है। हालांकि उनके 'गंगा सेवी' होने का विस्तृत विवरण उपलब्ध नहीं है । यह समझा जा सकता है कि वे किसी न किसी रूप में गंगा नदी के संरक्षण, स्वच्छता अभियान, या जागरूकता कार्यक्रमों से जुड़ी हुई है। यह जुड़ाव उनकी सामाजिक चेतना और पर्यावरण के प्रति उनके दायित्व को दर्शाता है। एक 'गंगा सेवी' के रूप में, वे नदी के सांस्कृतिक और पर्यावरणीय महत्व को समझती हैं और उसके संरक्षण के लिए सक्रिय रूप से योगदान करती हैं। यह उनके व्यक्तित्व का एक और आयाम प्रस्तुत करता है, जो उन्हें एक बहुआयामी व्यक्तित्व बनाता है। मुजफ्फरपुर के सिद्धार्थपुरम में निवास कर रहीं संगीता सागर वर्तमान पीढ़ी के लिए एक आदर्श हैं। उनका जीवन यह दर्शाता है कि कैसे एक महिला गृहिणी के दायित्वों को निभाते हुए, अपने पेशेवर जीवन में सफल होते हुए भी अपनी रचनात्मकता को पोषित कर सकती है, और साथ ही समाज व पर्यावरण के प्रति अपने कर्तव्यों का निर्वहन भी कर सकती है। संगीता सागर वास्तव में घर, कार्यालय साहित्य, समाज सेवा का एक प्रेरणादायक संगम है ।
04. राणा ब्रजेश: एक बहुआयामी व्यक्तित्व
राणा ब्रजेश, जिनका जन्म 17 दिसंबर 1975 को हुआ, भारतीय साहित्य और सरकारी सेवा के क्षेत्र में एक उल्लेखनीय व्यक्तित्व हैं। उनके पिता का नाम श्री देवेंद्र राय है। राणा ब्रजेश ने शिक्षा और व्यवसाय दोनों ही क्षेत्रों में अपनी दक्षता साबित की है। दरभंगा जिले के लालबाग स्थित मुफ्ती मोहल्ला के निवासी हैं । राणा ब्रजेश ने अभियंत्रण में स्नातक की उपाधि प्राप्त की है, जो उनकी तकनीकी समझ को दर्शाती है। इसके अतिरिक्त, उन्होंने प्रबंधन में डिप्लोमा भी किया है, जो उनकी प्रशासनिक क्षमताओं को परिलक्षित करता है। वर्तमान में, वह सरकारी सेवा में कार्यरत हैं, जहाँ वे अपने ज्ञान और कौशल का उपयोग देश की सेवा में कर रहे हैं।
राणा ब्रजेश एक कुशल लेखक हैं जिनकी रचनाएँ विभिन्न विधाओं में फैली हुई हैं। उनकी लेखन विधाओं में कविता, गीत, गजल, संस्मरण और कहानी शामिल हैं। उनकी प्रकाशित पुस्तकों में "मेरा मुझमें कुछ नहीं, जो कुछ है सो तेरा" और "तेरा तुझको सौंप दूं" प्रमुख हैं। इन एकल कृतियों के अलावा, उन्होंने साझा संकलनों में भी योगदान दिया है और उनकी रचनाएँ विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई हैं। राणा ब्रजेश एक ऐसा नाम है जो न सिर्फ सरकारी सेवा में अपनी पहचान बनाए हुए है, बल्कि साहित्य जगत में भी अपनी गहरी छाप छोड़ रहा है। श्री देवेंद्र राय के सुपुत्र राणा ब्रजेश का जीवन अभियंत्रण की तकनीकी बारीकियों से लेकर साहित्य की भावनात्मक गहराइयों तक फैला हुआ है।
राणा ब्रजेश की शैक्षिक पृष्ठभूमि उनकी बहुमुखी प्रतिभा का प्रमाण है। उन्होंने अभियंत्रण में स्नातक की उपाधि प्राप्त की, जो उन्हें विश्लेषणात्मक और समस्या-समाधान कौशल प्रदान करती है। इसके अतिरिक्त, प्रबंधन में डिप्लोमा ने उनकी प्रशासनिक क्षमताओं को और निखारा। इन डिग्रियों के साथ, उन्होंने सरकारी सेवा में प्रवेश किया, जहाँ वे अपने अर्जित ज्ञान और कौशल का उपयोग राष्ट्र निर्माण में कर रहे हैं। उनका यह करियर path दिखाता है कि वे सिर्फ तकनीकी रूप से सक्षम नहीं, बल्कि प्रबंधन और नेतृत्व में भी कुशल है।
सरकारी सेवा की व्यस्तताओं के बावजूद, राणा ब्रजेश ने साहित्य के प्रति अपने प्रेम को कभी कम नहीं होने दिया। उनकी लेखनी में कविता, गीत, गजल, संस्मरण और कहानियों का सुंदर मिश्रण देखने को मिलता है। उनकी प्रकाशित पुस्तकें – "मेरा मुझमें कुछ नहीं, जो कुछ है सो तेरा" और "तेरा तुझको सौंप दूं" – उनके आध्यात्मिक और दार्शनिक विचारों को दर्शाती हैं। ये शीर्षक ही आत्म-समर्पण और निस्वार्थता के भाव को व्यक्त करते हैं, जो उनके लेखन की गहराई का परिचायक है। साझा संकलनों में भागीदारी और विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में उनकी रचनाओं का प्रकाशन उनकी साहित्यिक सक्रियता को उजागर करता है। उनकी कलम समाज के विभिन्न पहलुओं को छूती है, कभी रिश्तों की गर्माहट को दर्शाती है तो कभी जीवन के यथार्थ को प्रस्तुत करती है।
राणा ब्रजेश को उनकी साहित्यिक उत्कृष्टता के लिए कई प्रतिष्ठित सम्मानों से नवाजा गया है। अनुभूति सम्मान 2020 और पलाश कवि सम्मान 2021 ने उनकी शुरुआती पहचान बनाई। पं. विपिन पाण्डेय हिन्दी सेवा सम्मान पुरस्कार 2023 (हिंदी विकास परिषद, मधुबनी और राजभाषा विभाग बिहार सरकार द्वारा) मिलना, हिंदी भाषा के प्रति उनके समर्पण और योगदान का एक बड़ा प्रमाण है। इसके अलावा, राष्ट्रीय कवि संगम, मधुबनी इकाई द्वारा 2024 में 'मिथिला रत्न सम्मान' और बज्जिका मंदाकिनी द्वारा 'कविवर कपिलदेव सिंह, बज्जिका सेतु सम्मान 2024' ने उनकी क्षेत्रीय और भाषाई पहचान को और मजबूत किया। ये सम्मान न केवल उनके व्यक्तिगत गौरव को बढ़ाते हैं, बल्कि साहित्य जगत में उनके बढ़ते कद को भी दर्शाते हैं।
राणा ब्रजेश का पता, लाल पोखर मस्जिद के समीप, मुफ्ती मोहल्ला, लालबाग, दरभंगा, बिहार, 846004, उनके गृहनगर से उनके जुड़ाव को दिखाता है। राणा ब्रजेश का सफर एक इंजीनियर से कवि बनने का सफर नहीं, बल्कि एक ऐसे व्यक्ति का सफर है जिसने अपने जीवन के हर मोड़ पर ज्ञान और कला दोनों को अपनाया। उनकी यात्रा प्रेरणादायक है, यह दर्शाती है कि दृढ़ संकल्प और जुनून के साथ कोई भी व्यक्ति विभिन्न क्षेत्रों में सफलता प्राप्त कर सकता है।
05 . डॉ. सुधा सिन्हा: बहुआयामी व्यक्तित्व
प्रोफेसर (डॉ.) सुधा सिन्हा एक ऐसी विदुषी हैं जिनका जीवन शिक्षा, साहित्य और समाज सेवा के विभिन्न आयामों को समेटे हुए है। उनका व्यक्तित्व ज्ञानार्जन, सृजनात्मकता और सामाजिक सरोकारों का एक अनूठा संगम है। आइए, उनके जीवन के विविध पहलुओं पर विस्तार से प्रकाश डालते हैं। डॉ. सुधा सिन्हा का व्यक्तिगत जीवन उनकी साधना और संकल्प का परिचायक है। उन्होंने अपने जीवन में शिक्षा और करियर को सर्वोच्च प्राथमिकता दी। उनका समर्पण और लगन ही उन्हें उस मुकाम तक ले गया जहाँ वे पटना विश्वविद्यालय में दर्शनशास्त्र विभाग की पूर्व आचार्य एवं अध्यक्ष बनीं। एक सफल अकादमिक और साहित्यकार के रूप में, वे समाज में उन महिलाओं के लिए प्रेरणास्रोत हैं जो पारिवारिक जिम्मेदारियों के साथ-साथ अपने पेशेवर और रचनात्मक लक्ष्यों को भी प्राप्त करना चाहती हैं। उनका जन्मदिन 16 फरवरी को आता है।
पटना के बुद्धा कॉलोनी निवासी डॉ. सुधा सिन्हा का शैक्षणिक सफर असाधारण उपलब्धियों से भरा रहा है। उनकी शिक्षा-दीक्षा उत्कृष्टता का एक आदर्श उदाहरण है: उन्होंने एम.ए. की उपाधि स्वर्ण पदक के साथ प्राप्त की, जो उनकी अकादमिक प्रतिभा का स्पष्ट प्रमाण है। राष्ट्रीय छात्रवृत्ति: मैट्रिक से लेकर एम.ए. तक उन्हें राष्ट्रीय छात्रवृत्ति प्राप्त हुई, जो उनकी मेधा और निरंतर श्रेष्ठ प्रदर्शन को दर्शाता है। प्रथम स्थान: वे मैट्रिक से एम.ए. तक सभी परीक्षाओं में प्रथम स्थान पर रहीं, जिससे उनकी अद्वितीय बौद्धिक क्षमता और कड़ी मेहनत प्रमाणित होती है। पी-एच.डी. और शोध निर्देशन: उन्होंने पद्मश्री डॉ. रामजी सिंह के कुशल निर्देशन में "विनोबा के चिंतन में ब्रह्मविद्या: एक समीक्षात्मक अध्ययन" विषय पर अपनी पी-एच.डी. पूरी की। इसके अतिरिक्त, उन्होंने आठ शोधार्थियों को सफलतापूर्वक निर्देशित किया है, जो उनकी अकादमिक नेतृत्व क्षमता को दर्शाता है। उनकी यह अकादमिक यात्रा न केवल व्यक्तिगत सफलता की कहानी है, बल्कि यह उन छात्रों के लिए भी प्रेरणा है जो उच्च शिक्षा के क्षेत्र में अपना करियर बनाना चाहते हैं। डॉ. सुधा सिन्हा केवल एक अकादमिक नहीं, बल्कि एक प्रखर साहित्यकार भी हैं। उनकी लेखनी ने विभिन्न विधाओं में अपनी छाप छोड़ी है, जिससे उनका साहित्यिक कद काफी ऊँचा हुआ है: शोध और दर्शन: उनकी शोध ग्रंथ "जयतीर्थ की न्याय सुधा का दार्शनिक पक्ष" (2015) दर्शनशास्त्र के क्षेत्र में उनकी गहरी पकड़ को दर्शाता है।।काव्य संग्रह: उन्होंने कई कविता संग्रहों की रचना की है, जिनमें "गगरिया छलकत जाए" (2019), "गजलों की दुनिया में यादों की परियां" (2021) और "दिल के नगमें" (प्रेस में) प्रमुख हैं। ये संग्रह उनकी भावनात्मक गहराई और भाषिक सौंदर्यबोध को दर्शाते हैं। बाल साहित्य: बच्चों के लिए उनकी रचनाएँ, जैसे "चुन्नू मुन्नू के कारनामें" (बाल कविता संग्रह, 2022) और "गोलू की गोल गोल बातें" (बाल लघु कथा संग्रह, 2024), बाल मनोविज्ञान की उनकी समझ और उनके रचनात्मक दायरे को उजागर करती हैं। आलेख और विचार: उनके आलेख संग्रह "गुफ्तगू" (2022) और "जीवन के रंग" (2023) समाज, संस्कृति और जीवन के विभिन्न पहलुओं पर उनके गहन चिंतन को प्रस्तुत करते हैं।।विविध विधाएँ: "मुक्तक प्रवाह" (2023) और "भारत विश्वगुरु की ओर हाथों में भक्ति की डोर" (2024) जैसी रचनाएँ उनकी बहुमुखी प्रतिभा को दर्शाती हैं। उनकी अनेकों रचनाएँ साझा संकलनों में प्रकाशित हुई हैं और उनके शोध पेपर विभिन्न प्रतिष्ठित जर्नलों में भी स्थान पा चुके हैं। उनकी साहित्यिक कृतियों को कई सम्मानों से नवाजा गया है, जिनमें "गगरिया छलकत जाय", "चुन्नू मुन्नू के कारनामे", "गोलू की गोल गोल बातें" और उनके आलेख की पुस्तकें शामिल हैं।
डॉ. सुधा सिन्हा का योगदान केवल अकादमिक और साहित्यिक क्षेत्रों तक ही सीमित नहीं है, बल्कि वे राष्ट्रीय स्तर पर विभिन्न आयोगों की सदस्य के रूप में भी सक्रिय भूमिका निभाती हैं। राष्ट्रपति द्वारा नामित सदस्य के रूप में उनकी भूमिकाएँ दर्शाती हैं कि उन्हें राष्ट्र निर्माण में महत्वपूर्ण योगदान देने के लिए चुना गया है: काशी विश्वविद्यालय, कोर्ट: यहाँ उनकी भागीदारी शिक्षा के नीति-निर्माण और विश्वविद्यालयी प्रशासन में उनके अनुभव का लाभ देती है। अल्पसंख्यक समिति, दिल्ली: यह भूमिका समाज के संवेदनशील वर्गों के हितों की रक्षा और उनके उत्थान में उनके योगदान को दर्शाती है।
केन्द्रीय विश्वविद्यालय, दक्षिण बिहार, गया एवं केन्द्रीय विश्वविद्यालय, झारखंड, रांची: इन विश्वविद्यालयों के लिए सदस्य के रूप में वे उच्च शिक्षा के विकास और गुणवत्ता सुधार में अपना योगदान देती हैं।आई.सी.पी.आर. (भारतीय दार्शनिक अनुसंधान परिषद) में प्रतिनिधि: यह भूमिका दर्शनशास्त्र के क्षेत्र में अनुसंधान और विकास को बढ़ावा देने में उनकी सक्रियता को दर्शाती है। इसके अतिरिक्त, वे अनेक साहित्यिक संस्थाओं में संरक्षक के रूप में भी अपनी सेवाएँ प्रदान करती हैं, जिससे वे नई प्रतिभाओं को प्रोत्साहित और मार्गदर्शन करती हैं।
डॉ. सुधा सिन्हा को उनके उत्कृष्ट योगदान के लिए अनगिनत अलंकरणों और सम्मानों से नवाजा गया है। ये सम्मान उनके बहुमुखी व्यक्तित्व और समाज के प्रति उनके समर्पण का प्रमाण हैं। कुछ प्रमुख सम्मानों में शामिल हैं: गार्गी उत्कृष्टता सम्मान 2025 (शिक्षा के क्षेत्र में) , देश रत्न सम्मान , हिंदी काव्य शिरोमणि (मानद उपाधि) , दीनानाथ शरण सम्मान 2022 ,अंतर्राष्ट्रीय महिला सम्मान 2022 ,अमृता प्रीतम सम्मान ,महादेवी वर्मा सम्मान ,सहोदरी रत्न सम्मान ,विद्यावाचस्पति मानद सम्मान ,विद्या सागर मानद सम्मान ,जगदंबी साहित्य शिखर सम्मान 2024 , लाइफ टाइम अचीवमेंट अवार्ड ,कोशी साहित्य शौर्य सम्मान केवल पुरस्कार नहीं, बल्कि डॉ. सिन्हा के अथक प्रयासों, बौद्धिक क्षमता और समाज के प्रति उनके गहरे लगाव का प्रतीक हैं। प्रोफेसर (डॉ.) सुधा सिन्हा का जीवन एक ऐसी शख्सियत का प्रतीक है जिन्होंने शिक्षा, साहित्य और समाज सेवा के माध्यम से एक महत्वपूर्ण प्रभाव डाला है। उनका योगदान न केवल वर्तमान पीढ़ी के लिए प्रेरणादायक है, बल्कि आने वाली पीढ़ियों को भी ज्ञान और सृजन के पथ पर चलने के लिए प्रेरित करता रहेगा।
06 . सुरेश दत्त मिश्र: मगही साहित्य और सामाजिक चेतना
साहित्यिक और सामाजिक चेतना का संगम यदि किसी व्यक्तित्व में देखने को मिले, तो सुरेश दत्त मिश्र उसका जीवंत उदाहरण हैं. मगही भाषा के प्रति समर्पण, साहित्यिक लेखन में विविधता, संगठन निर्माण की अद्वितीय क्षमता, और प्रशासनिक सेवा में निष्ठा—इन सभी गुणों से युक्त मिश्र जी ने अपनी संपूर्ण जीवन यात्रा को समाज, संस्कृति और भाषा की सेवा के लिए समर्पित कर दिया. उनका जीवन न केवल प्रेरणादायक है, बल्कि आने वाली पीढ़ियों के लिए एक मूल्यवान धरोहर भी है. सुरेश दत्त मिश्र का जन्म 5 मार्च 1936 को बिहार के गया जिले के प्रसिद्ध टिकारी राज्य के सयानन्दपुर गाँव में हुआ. यह वही धरती है, जहाँ से अनेक सांस्कृतिक और वैचारिक क्रांतियों का उद्भव हुआ है. उनके पिताश्री पंडित जगदीश दत्त मिश्र टिकारी राज के राजपुरोहित थे, जिनकी विद्वत्ता और धर्मज्ञान की ख्याति दूर-दूर तक थी. उन्हीं से बालक सुरेश ने संस्कार, परंपरा और सामाजिक दायित्व की बुनियादी शिक्षा प्राप्त की. उनकी प्रारंभिक शिक्षा टेकारी राज स्कूल में हुई, जो अपने समय में विद्या और अनुशासन का केंद्र था. आगे की उच्च शिक्षा के लिए उन्होंने गया कॉलेज से स्नातक की उपाधि प्राप्त की. यह शिक्षा न केवल उन्हें ज्ञान के औपचारिक स्वरूप से परिचित कराती है, बल्कि साहित्य, समाजशास्त्र और भाषा के गूढ़ तत्वों से भी उनका गहरा परिचय कराती है.
सुरेश जी का विवाह पटना सिटी के प्रतिष्ठित पंडित सीताराम मिश्र की सुपुत्री कमला देवी से हुआ. यह संबंध सिर्फ एक पारिवारिक बंधन नहीं था, बल्कि वैचारिक और सांस्कृतिक समर्पण का भी प्रतीक था. उनके दो संतान हुए—पुत्री शशि प्रभा और सुपुत्र डॉ. राकेश दत्त मिश्र. डॉ. राकेश दत्त मिश्र ने अपने पिता के पदचिह्नों पर चलते हुए सामाजिक और बौद्धिक चेतना को आगे बढ़ाया है।
सुरेश दत्त मिश्र ने बिहार सरकार के राजभाषा विभाग में उपनिदेशक के रूप में कार्य किया और वहाँ भी भाषा के संवर्धन और विकास के लिए अथक प्रयास किए. राजभाषा नीति के सफल क्रियान्वयन में उनकी भूमिका सराहनीय रही. उनका कार्यकाल एक निष्ठावान, दूरदर्शी और संवेदनशील प्रशासक के रूप में याद किया जाता है.
मिश्र जी के जीवन का सर्वाधिक चमकता हुआ पक्ष उनका साहित्यिक योगदान है. वे एक बहुभाषी रचनाकार थे—मगही, हिंदी और संस्कृत पर उनकी गहरी पकड़ थी. उन्होंने न केवल लेखन किया, बल्कि अनुवाद, संपादन और साहित्यिक संगठन निर्माण में भी महत्वपूर्ण कार्य किए है।
उनकी प्रमुख कृतियों में उगेन (मगही कविता संग्रह) – यह कृति मगही जनजीवन के भाव, संवेदना और संघर्ष की आत्मा को शब्द देती है. बाज आइली (मगही कथा संग्रह) – मगही लोकजीवन की कथाओं का सशक्त दस्तावेज. ,प्रवंचना (हिंदी कथा संग्रह) – आधुनिक जीवन की विडंबनाओं को उकेरती सशक्त कहानियाँ. ,जंजाल (हिंदी उपन्यास) – सामाजिक जटिलताओं और मानसिक द्वंद्वों पर आधारित सशक्त रचना. ,संजना (मगही उपन्यास) – मगही में उपन्यास लेखन का यह एक महत्वपूर्ण पड़ाव है. मगही की रामायण – उनकी अंतिम रचना, जो लोकभाषा में धार्मिकता और साहित्य का अद्भुत संगम प्रस्तुत करती है. मिश्र जी का जीवन संगठन निर्माण में भी उतना ही सशक्त रहा, जितना लेखन में. उन्होंने केन्द्रीय मगही परिषद के संयोजक के रूप में मगही भाषा के संवर्धन और मान्यता के लिए व्यापक कार्य किए. वे सूर्य पूजा परिषद के संस्थापक थे, जिसने सूर्य आराधना को सामाजिक चेतना के साथ जोड़ा. उनकी दूरदृष्टि और परिश्रम का ही परिणाम था कि उन्होंने ‘दिव्य रश्मि’ पत्रिका की स्थापना की, जो आज मगही, हिंदी और भारतीय सांस्कृतिक चेतना के संवाहक के रूप में प्रतिष्ठित है. यह पत्रिका केवल लेखन का मंच नहीं, बल्कि सामाजिक संवाद का माध्यम बन गई है. सुरेश दत्त मिश्र केवल एक लेखक या प्रशासक नहीं थे, बल्कि एक संपूर्ण व्यक्तित्व थे. उन्हें लेखन, अनुवाद, पर्यटन और संगठन निर्माण में विशेष रुचि थी. वे अत्यंत सहज, सौम्य और आत्मीय स्वभाव के व्यक्ति थे. उनके भीतर भारतीय संस्कृति, संस्कार और आधुनिक चेतना का सुंदर समन्वय था.
20 अगस्त 2021 को सुरेश दत्त मिश्र ने इस नश्वर संसार को अलविदा कहा. उनका निधन मगही साहित्य और सामाजिक चेतना के लिए एक अपूरणीय क्षति थी. परंतु वे अपने पीछे एक ऐसी विरासत छोड़ गए, जो न केवल शब्दों में जीवित है, बल्कि उनके द्वारा स्थापित संस्थानों, विचारों और प्रेरणादायी जीवन में भी जीवंत है.
सुरेश दत्त मिश्र का जीवन एक संकल्प की तरह था—भाषा, संस्कृति और समाज के उत्थान का संकल्प. वे उन विरले व्यक्तित्वों में से थे, जो विचारों से क्रांति लाते हैं और कर्मों से समाज को दिशा देते हैं. मगही भाषा को साहित्यिक गरिमा देना, हिंदी कथा साहित्य को नई दृष्टि देना, और प्रशासनिक सेवा में ईमानदारी और दूरदर्शिता का उदाहरण प्रस्तुत करना—इन सभी में उनका योगदान है.
7 . सत्येंद्र कुमार मिश्र: एक बहुआयामी व्यक्तित्व
श्री सत्येंद्र कुमार मिश्र का जीवन एक ऐसे कर्मयोगी का उत्कृष्ट उदाहरण है, जिन्होंने शिक्षा, बैंकिंग, साहित्य और समाज सेवा के विभिन्न सोपानों पर अपनी प्रतिभा और समर्पण का परचम लहराया है। उनका जन्म 20 जुलाई, 1959 को जहानाबाद जिले के रतनी फरीदपुर प्रखण्ड का नोआवाँ ग्राम में स्व. नारायण मिश्र के घर हुआ और तब से लेकर उनका सफर ज्ञानार्जन और रचनात्मकता का एक अनवरत स्रोत रहा है।
श्री मिश्र की शिक्षा उनके गहन बौद्धिक रुझान का प्रमाण है। उन्होंने एम.एससी. (भौतिकी) जैसी विज्ञान की उच्च उपाधि प्राप्त कर अपनी विश्लेषणात्मक क्षमता का प्रदर्शन किया। इसके बाद, कानून के क्षेत्र में उनकी रुचि ने उन्हें एल.एल.बी. की डिग्री हासिल करने के लिए प्रेरित किया, जो उनके जीवन को एक नया आयाम देने वाली थी। उनकी व्यावसायिक यात्रा में भी उनकी दक्षता स्पष्ट दिखाई देती है। पंजाब नेशनल बैंक में एक सफल कार्यकाल के बाद, उन्होंने सी ए आई आई बी (भाग 1) जैसी विशिष्ट बैंकिंग योग्यता भी अर्जित की। उनकी यह यात्रा न केवल उनकी व्यावसायिक कुशलता को दर्शाती है, बल्कि विभिन्न क्षेत्रों में सीखने और उत्कृष्टता प्राप्त करने की उनकी अटूट इच्छा को भी उजागर करती है। वर्तमान में वे सेवानिवृत्त होकर अपने ज्ञान और अनुभवों को साझा कर रहे हैं।
श्री सत्येंद्र कुमार मिश्र का साहित्यिक योगदान उनके व्यक्तित्व का सबसे चमकीला पहलू है। उनकी लेखनी ने कई विधाओं को छुआ है, जिसमें उनकी आध्यात्मिक गहराई, सामाजिक चेतना और उत्कृष्ट काव्य प्रतिभा स्पष्ट रूप से झलकती है। उनकी प्रमुख प्रकाशित पुस्तकें इस प्रकार हैं:मनोहर रामायण: यह कृति रामायण के शाश्वत संदेश को एक नए दृष्टिकोण से प्रस्तुत करती है, जो उनकी धार्मिक आस्था और साहित्यिक कौशल का संगम है।द्वैपायन उद्गार (श्री कृष्ण और महाभारत): महाभारत के जटिल पात्रों और श्री कृष्ण के दिव्य चरित्र पर उनका गहन चिंतन इस पुस्तक में जीवंत हो उठता है, जो पाठकों को भारतीय संस्कृति और दर्शन की गहराई में ले जाता है।दुर्गा सप्तशती (काव्य अनुवाद): इस महत्वपूर्ण धार्मिक ग्रंथ का काव्य अनुवाद कर उन्होंने इसे और अधिक सुलभ और मार्मिक बना दिया है, जिससे यह आम पाठकों तक भी आसानी से पहुँच सके।
आलोक विविधा: यह संग्रह विभिन्न विषयों पर उनके लेखन की विविधता को दर्शाता है, जहाँ उनके विचार और शैली की व्यापकता देखी जा सकती है। काव्य कुसुम: उनके काव्य संग्रहों में से एक, यह पुस्तक उनकी सूक्ष्म भावनाओं और रचनात्मक अभिव्यक्ति का परिचय देती है।सुमनाञाजली: एक और काव्य कृति, जो उनकी संवेदनशीलता और साहित्यिक सौंदर्यबोध को रेखांकित करती है।भक्ति काव्य सौरभ: यह पुस्तक उनकी भक्ति भावना और ईश्वर के प्रति अटूट श्रद्धा को अभिव्यक्त करती है, जिसमें भक्ति रस से ओतप्रोत रचनाएँ शामिल हैं।
उनके लेखन में न केवल विचारों की गहराई है, बल्कि भाषा की सरलता और प्रवाह भी है, जो पाठकों को बांधे रखता है। साहित्य और समाज के प्रति उनके अमूल्य योगदान के लिए श्री सत्येंद्र कुमार मिश्र को कई प्रतिष्ठित सम्मानों से नवाजा गया है। उन्हें प्रेमचंद साहित्य पुरस्कार से सम्मानित किया गया, जो भारतीय साहित्य में उनके योगदान की एक बड़ी पहचान है। इसके अतिरिक्त, उनके पूर्व नियोक्ता पंजाब नेशनल बैंक द्वारा साहित्य सम्मान पुरस्कार प्राप्त करना भी एक अद्वितीय उपलब्धि है, जो यह दर्शाता है कि उनके व्यावसायिक जीवन के साथ-साथ उनके साहित्यिक जीवन को भी सम्मान मिला। श्री मिश्र का जीवन केवल शिक्षा और साहित्य तक ही सीमित नहीं रहा है, बल्कि उनका सामाजिक सरोकार भी उनके व्यक्तित्व का अभिन्न अंग रहा है। एक सेवानिवृत्त बैंकर होने के नाते, उन्होंने समाज और उसके आर्थिक ताने-बाने को करीब से समझा है। उनके लेखों और विचारों में अक्सर सामाजिक मुद्दों पर उनका गहरा चिंतन दिखाई देता है।।श्री सत्येंद्र कुमार मिश्र एक ऐसे व्यक्ति हैं जिन्होंने अपने जीवन के हर पड़ाव पर अपनी मेहनत, लगन और रचनात्मकता से स्वयं को साबित किया है। उनका जीवन, विशेषकर उनका साहित्यिक अवदान, आने वाली पीढ़ियों के लिए प्रेरणा का स्रोत है।
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8. डॉ. विद्या चौधरी: साहित्यिक और पुरातात्विक विशेषज्ञ
डॉ. विद्या चौधरी एक बहुमुखी प्रतिभा की धनी महिला हैं, जिन्हें पारिवारिक जड़ों से सांस्कृतिक और शैक्षणिक प्रेरणा मिली। इन्होंने कर्मठता, दृढ़ता, सच्चाई के साथ पुरातत्व, इतिहास, शिक्षा, साहित्य और समाज सेवा के विभिन्न क्षेत्रों में असाधारण योगदान दिया है। डॉ. चौधरी का जीवन, दर्शन और कृतित्व उनके समर्पण और गहन शोध का प्रमाण है। डॉ. विद्या चौधरी का जन्म 6 अगस्त, 1951 को अपने ननिहाल वैशाली जिला के करहरि ग्राम में राजाराम सिंह की नतनी के रूप में हुआ था। उनके पिता स्व. पदुम शर्मा महान सिद्ध गायत्री भक्त थे,और माता श्रेष्ट कुशल गृहिणी स्व. रामकली देवी थीं। इनके ससुर पुण्यश्लोक तपेश्वर चौधरी उर्फ संत राम दास फलाहारी सिद्ध संत भारतीय संस्कृति के ध्वजावाहक थे। डॉ. विद्या चौधरी के पति पुण्यश्लोक वीरेन्द्र कुमार चौधरी भारत सरकार के राजेन्द्र स्मारक चिकित्सा विज्ञान अनुसंधान संस्थान, आई. सी. एम. आर. आर. , अगमकुआँ , पटना में पुस्तकालय एवं सूचना विज्ञान पदाधिकारी थे। वे अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी समिति, यू . एस.ए. , बिहार-झारखंड, भारत शाखा के संस्थापक अध्यक्ष थे। इनके परिवार में शिक्षा और संस्कृति के मूल्यों को महत्व दिया जाता है, जो निश्चित रूप से इनके बहुआयामी व्यक्तित्व के निर्माण में सहायक था। डॉ. चौधरी की शैक्षणिक यात्रा, उनके ज्ञानार्जन के प्रति गहरे समर्पण को दर्शाती है। उन्होंने एम.ए. और पी-एच.डी. की उपाधियाँ प्राप्त की हैं, जो न केवल उनकी अकादमिक उत्कृष्टता को प्रमाणित करती है, बल्कि उन्हें अपने चुने हुए क्षेत्रों - विशेषकर पुरातत्व और साहित्य - में गहन शोध और विश्लेषण करने की क्षमता को भी उजागर करती है। उच्च शिक्षा ने उन्हें एक सुदृढ़ बौद्धिक आधार दिया, जिससे वे जटिल विषयों को समझने और उन पर मौलिक कार्य करने में सक्षम हुईं।डॉ. विद्या चौधरी का सबसे विशिष्ट योगदान पुरातत्व के क्षेत्र में रहा है। उन्होंने "वैशाली जिला: नवान्वेषित पुरातात्विक स्थल एवं पुरावशेष" (2008) नामक अपनी कृति में वैशाली जिले के पुरातात्विक महत्व पर गहन शोध प्रस्तुत किया है। यह पुस्तक विशेष रूप से महत्वपूर्ण है ; क्योंकि इसमें इन्होंने वैज्ञानिक ढंग से वैशाली जिले के विभिन्न अंचलों में बिखरे पुरावशेषों, पुरास्थलों और प्रतिमाओं की खोज, शोध, अध्ययन और विस्तृत विवेचन प्रस्तुत किया है। पहली बार अनेक पुरातात्विक रूप से सर्वथा नवीन स्थलों को प्रकाश में लाया, जिससे पुरातत्व जगत को नई प्रेरणा मिली । एक पुरातत्वविद के रूप में, उन्होंने बिहार के समृद्ध ऐतिहासिक और सांस्कृतिक विरासत को उजागर करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। उनका कार्य न केवल अकादमिक रूप से महत्वपूर्ण है, बल्कि यह क्षेत्र के पुरातात्विक मानचित्र को भी समृद्ध करता है। वह अध्यक्ष, भारतीय ऐतिहासिक एवं पुरातात्विक अनुसंधान प्रतिष्ठान, पटना और आजीवन सदस्य, इंडियन आर्कियोलॉजिकल सोसाइटी, नई दिल्ली; बिहार पुराविद परिषद, पटना जैसी प्रतिष्ठित संस्थाओं से भी जुड़ी हुई हैं, जो इस क्षेत्र में उनकी गहरी भागीदारी को दर्शाती है।पुरातत्व के साथ-साथ, डॉ. विद्या चौधरी एक प्रखर बज्जिका एवं हिन्दी भाषा की मर्मज्ञ साहित्यकार भी हैं। उनकी लेखन विधाएँ विविध हैं, जिनमें लघुकथा, कहानी, गीत, कविता, बाल कविता, बाल कहानी और बाल लघुकथाएँ शामिल हैं। उन्होंने हिन्दी और बज्जिका दोनों भाषाओं में महत्वपूर्ण साहित्यिक रचनाएँ की हैं। बज्जिका को सुदृढ़ और समृद्ध करने में अहम भूमिका निभा रही हैं।
"बज्जिका बिआह संसकार गीत" (2019): बज्जिका संस्कृति की एक महत्वपूर्ण पहलू को दर्शाने वाला विधि-विधान सहित गीत संग्रह ग्रंथ है।
"आ हम्मर घर?" (2021): बज्जिका लघुकथा संग्रह, क्षेत्रीय बज्जिका भाषा की समृद्धि में उनके योगदान को दर्शाता है। वह पुस्तक स्त्री-विमर्श, सामाजिक विमर्श के लिए आइना के समान है। "बज्जिका बाल मंजरी" (2024): बाल साहित्य के प्रति उनके रुझान को उजागर करती है।"जीवन का मुहल्ला" (2025): उनकी नवीनतम कृतियों में से एक है। "हिन्दीतर लघुकथाएं" (2021): इसमें उनकी बज्जिका भाषा की पाँच अनुवादित लघुकथाएँ शामिल हैं, जो उनकी रचनाओं को व्यापक पाठक वर्ग तक पहुँचाती हैं। इसके अतिरिक्त, उन्होंने विभिन्न दैनिक पत्रों, राष्ट्रीय जर्नल्स और पत्र-पत्रिकाओं में शोध-आलेख, लघुकथाएँ और कविताएँ प्रकाशित की हैं। वह बज्जिका मंजरी (तिमाही पत्रिका) और पहरुआ (तिमाही पत्रिका) की संपादक भी हैं तथा बज्जिका वार्षिकी की प्रबंध संपादक भी। बज्जिका भाषा और साहित्य के संवर्धन में उनका योगदान अतुलनीय है, जिसके लिए उन्हें "महाकवि अवधेश्वर अरुण सम्मान-2022" और "राष्ट्रकवि दिनकर सारस्वत सम्मान-२०२३" जैसे प्रतिष्ठित सम्मान मिले हैं।डॉ. विद्या चौधरी केवल अकादमिक और साहित्यिक व्यक्तित्व तक ही सीमित नहीं हैं, बल्कि वे सक्रिय रूप से समाज सेवा और सांस्कृतिक संवर्धन से भी जुड़ी हुई हैं। वह राष्ट्रीय बज्जिका भाषा परिषद्, पटना की उपाध्यक्ष हैं, जहाँ वह बज्जिका भाषा और संस्कृति के प्रचार-प्रसार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं।वह अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी समिति यू. एस., बिहार-झारखण्ड भारत शाखा की 2014-15 से संयोजिका रही हैं, जो हिन्दी भाषा के वैश्विक प्रचार में उनके योगदान को दर्शाता है। विभिन्न पुरातात्विक, साहित्यिक और सामाजिक संस्थाओं से उनकी संबद्धता, जैसे बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन, पटना की संरक्षक सदस्य, उनकी व्यापक सामाजिक भागीदारी का प्रमाण है। कोरोना काल में उनके योगदान के लिए उन्हें "कोरोना कर्मवीर सम्मान" भी मिला, जो समाज के प्रति उनकी संवेदनशीलता और सक्रियता को उजागर करता है। नेपाल में उन्हें बज्जिका भाषा, साहित्य और संस्कृति के संरक्षण एवं संवर्धन में विशेष योगदान के लिए "मधानी महोत्सव -2079 सम्मान-पत्र" से सम्मानित किया गया, जो अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी उनकी पहचान को स्थापित करता है। इन्हें 2025 में "नेपाल में "विश्व प्रतिभा अंतरराष्ट्रीय सम्मान-2025" से भी सम्मानित किया जा चुका है। डॉ. विद्या चौधरी का जीवन एक प्रेरणा है। उन्होंने न केवल शैक्षणिक और पेशेवर मोर्चों पर उच्च सफलता हासिल की है, बल्कि अपनी सांस्कृतिक जड़ों और सामाजिक जिम्मेदारियों के प्रति भी गहरी प्रतिबद्धता दिखाई है।
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9 . डॉ. शिप्रा मिश्रा साहित्य और समाजसेवा
डॉ. शिप्रा मिश्रा, एक ऐसी शख्सियत हैं जिन्होंने साहित्य, शिक्षा, समाजसेवा और पर्यावरण संरक्षण के क्षेत्र में अपना अमूल्य योगदान दिया है। उनका जन्म 26 जून, 1969 को हुआ और वे डॉ. बलराम मिश्र की सुपुत्री हैं। शिक्षा के क्षेत्र में उन्होंने एमए और पीएचडी (हिंदी) की उपाधि प्राप्त की है, जो उनकी गहन अकादमिक रुचि और हिंदी साहित्य पर मजबूत पकड़ को दर्शाता है।डॉ. मिश्रा का व्यवसाय बहुआयामी है। वे शिक्षण कार्य से जुड़ी हुई हैं, जहाँ वे ज्ञान का प्रकाश फैलाती हैं। इसके अतिरिक्त, वे एक स्वतंत्र लेखिका, प्रूफ रीडर और कॉन्टेंट राइटर के रूप में भी सक्रिय हैं। उनकी लेखनी में गहराई और स्पष्टता का अनूठा संगम देखने को मिलता है।
साहित्य के प्रति उनका प्रेम और समर्पण उनकी रचनाओं में स्पष्ट झलकता है। उन्होंने पाँच प्रमुख पुस्तकें लिखी हैं, जिनमें:छायावादी रचनाकारों का विशेषण वैभव (शोध ग्रंथ): यह उनकी अकादमिक गंभीरता और शोधपरक दृष्टि का परिचायक है। अर्द्धरात्रि का नि:शब्द राग (काव्य संग्रह) ,वटवृक्ष की जटाएँ (काव्य संग्रह) नहीं रहना मुझे पिंजरबद्ध (काव्य संग्रह): ये तीनों काव्य संग्रह उनकी काव्य प्रतिभा और भावनाओं की अभिव्यक्ति को दर्शाते हैं।आसावरी (संपादन): यह उनके संपादन कौशल का प्रमाण है।डॉ. शिप्रा मिश्रा को साहित्य, शिक्षा, समाजसेवा और पर्यावरण के क्षेत्र में उनके उत्कृष्ट कार्यों के लिए सौ से अधिक पुरस्कारों से सम्मानित किया जा चुका है। यह उपलब्धि उनके अथक प्रयासों, समर्पण और समाज के प्रति उनकी प्रतिबद्धता का स्पष्ट प्रमाण है।मूल रूप से बेतिया, पश्चिम चंपारण, बिहार की रहने वाली डॉ. मिश्रा वर्तमान में कोलकाता में निवास करती हैं। डॉ. शिप्रा मिश्रा का जीवन और कार्य उन सभी के लिए प्रेरणा का स्रोत है जो साहित्य, शिक्षा और सामाजिक उत्थान के माध्यम से समाज में सकारात्मक बदलाव लाना चाहते हैं। उनका योगदान न केवल वर्तमान पीढ़ी को प्रेरित कर रहा है, बल्कि भविष्य के लिए भी एक मार्गदर्शक के रूप में कार्य करेगा।
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10 . आशा रघुदेव: साहित्यिक यात्रा एक परिचय
आशा रघुदेव, जिनका जन्म 25 अक्टूबर, 1968 को बिहार के गया जिले के गुरुआ प्रखंड के बरमा गाँव में हुआ था, हिंदी साहित्य जगत में एक उभरती हुई साहित्यकार हैं। स्वर्गीय डॉ. रघुवीर प्रसाद की सुपुत्री, आशा जी ने समाजशास्त्र में स्नातक प्रतिष्ठा की शिक्षा प्राप्त की है, जिसने उन्हें समाज को गहराई से समझने और अपनी रचनाओं में उसे प्रभावी ढंग से व्यक्त करने की क्षमता प्रदान की है। वर्तमान में, आशा रघुदेव पटना के फुलवारी शरीफ में रहती हैं।
आशा रघुदेव केवल एक लेखिका ही नहीं, बल्कि एक सक्रिय समाज सेविका भी हैं। वे शैक्षणिक एन.जी.ओ. 'तृतीय रत्न' से जुड़ी हुई हैं, जहाँ वे शिक्षा और समाज कल्याण के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान देती हैं। इसके अतिरिक्त, उनका अपना एक यूट्यूब चैनल 'आशा की बैठक' है, जिस पर वे कहानियाँ सुनाकर मनोरंजन और शिक्षा का समन्वय करती हैं। यह उनके रचनात्मक और सामाजिक सरोकारों को दर्शाता है।हालांकि उनकी कोई पुस्तक अभी तक प्रकाशित नहीं हुई है, उनकी रचनाएं विभिन्न प्रतिष्ठित साहित्यिक पत्रिकाओं और संकलनों में प्रकाशित हुई हैं, जो उनकी लेखन क्षमता का प्रमाण हैं। उनकी प्रमुख प्रकाशित रचनाएँ इस प्रकार हैं:।'सफरनामा' (लेख): साहित्यिक स्पंदन, अक्टूबर - दिसंबर 2024 ,'और सपनें सच हुए' (लेख): साहित्यिक स्पंदन, अक्टूबर - दिसंबर 2024 , 'मर रही क्यूँ मानवता है' (कविता): साहित्यिक स्पंदन, जनवरी - मार्च 2025'बचपन का घर' (कविता): बिहार साहित्य महोत्सव स्मारिका, 2025 ,उनकी लघुकथा 'बात बन गई' का शीघ्र प्रकाशन उनके साहित्यिक सफर का एक महत्वपूर्ण पड़ाव है।
आशा रघुदेव को उनकी साहित्यिक साधना और समाज के प्रति उनके योगदान के लिए कई प्रतिष्ठित सम्मानों से नवाजा गया है। ये सम्मान उनकी प्रतिभा और समर्पण का परिचायक हैं:।'चप्पल' लघुकथा के लिए आदि शक्ति प्रेमनाथ खन्ना सम्मान में अंतर्राष्ट्रीय काव्य संस्था द्वारा 'महिला काव्य मंच', पटना में सम्मान (2024)लेख्य-मंजूषा द्वारा 'बीसवाँ हाइकु दिवस', पटना में सम्मान (2024) 'दिनकर काव्य साधना सम्मान' (2024): अशोक स्मृति संस्थान/साहित्य प्रेरणा मंच, हिसुआ (नवादा), बिहार द्वारा आयोजित 'मगध साहित्य प्रेरणा उत्सव', राजगीर में उत्कृष्ट साहित्य साधना के लिए।'काव्य महारथी' सम्मान (2025): सामयिक परिवेश के 19वें स्थापना दिवस के अवसर पर।बिहार साहित्य महोत्सव में सम्मान (2025): 'साहित्योत्सव' और 'लोकभाषा कवि सम्मेलन' दोनों में। वे हिंदी साहित्य सम्मेलन की आजीवन सदस्य हैं, जो हिंदी साहित्य के प्रचार-प्रसार के प्रति उनकी गहरी प्रतिबद्धता को दर्शाता है। आशा रघुदेव एक ऐसी लेखिका हैं जो अपनी संवेदनशीलता और सामाजिक जागरूकता के साथ साहित्य सृजन कर रही हैं। उनकी रचनाएँ समाज के विभिन्न पहलुओं को छूती हैं और पाठकों को सोचने पर मजबूर करती हैं।
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11 . डॉ. कल्याणी कुसुम सिंह: एक बहुआयामी व्यक्तित्व
डॉ. कल्याणी कुसुम सिंह, एक ऐसा नाम जो शिक्षा, साहित्य और समाज सेवा के क्षेत्र में समर्पण और उत्कृष्टता का पर्याय है। 10 दिसंबर, 1944 को झारखंड के हज़ारीबाग ज़िले के शांत पद्मा गाँव में जन्मीं कल्याणी जी ने अपने माता-पिता, बटेश्वर प्रसाद सिंह और माधुरी सिंह, से मिले संस्कारों को जीवन भर संजोया। उनके जीवन साथी, स्व. भीमसेन सिंह, ने भी उनके सफर में हमेशा उनका साथ दिया।
डॉ. सिंह की शैक्षिक यात्रा किसी प्रेरणा से कम नहीं है। उन्होंने अपनी मैट्रिक की पढ़ाई हज़ारीबाग के राजकीय बालिका उच्च विद्यालय से पूरी की। इसके बाद, ज्ञान की उनकी अथाह प्यास उन्हें पटना विश्वविद्यालय ले गई, जहाँ से उन्होंने पीएच.डी. की उपाधि हासिल की। कानून के क्षेत्र में उनकी रुचि ने उन्हें मगध विश्वविद्यालय से एलएल.बी. करने के लिए प्रेरित किया। शिक्षा के प्रति उनका जुनून यहीं नहीं रुका; उन्होंने नालंदा खुला विश्वविद्यालय से एम.एड. किया और अंततः भीमराव अंबेडकर विश्वविद्यालय, मुजफ्फरपुर से डि.लिट. की उपाधि प्राप्त कर अपनी अकादमिक उत्कृष्टता का लोहा मनवाया। यह दिखाता है कि सीखने की कोई उम्र नहीं होती और निरंतर आगे बढ़ते रहने की ललक ही व्यक्ति को महान बनाती है। डॉ. कल्याणी कुसुम सिंह ने जमालपुर, मुंगेर के जगजीवन राम श्रमिक कॉलेज में व्याख्याता के रूप में अपनी सेवाएँ दीं। इस दौरान उन्होंने केवल पाठ्यक्रम ही नहीं पढ़ाया, बल्कि अपने छात्रों में नैतिकता, मूल्यों और सामाजिक चेतना का भी संचार किया। उनका अध्यापन केवल एक पेशा नहीं, बल्कि एक मिशन था, जिसके माध्यम से उन्होंने अनगिनत युवाओं के जीवन को दिशा दी।
डॉ. सिंह का व्यक्तित्व अनेक रंगों से सजा था। उन्हें हिंदी, अंग्रेजी, उर्दू, बांग्ला और मैथिली भाषाओं का गहन ज्ञान था, जिसने उन्हें विभिन्न संस्कृतियों और विचारों से जुड़ने में मदद की। उनकी अभिरुचियाँ भी उतनी ही विविध थीं। वे नारी जागरण, नारी कल्याण और समाज सेवा के लिए समर्पित थीं। उनका मानना था कि समाज की प्रगति महिलाओं के सशक्तिकरण के बिना अधूरी है। पठन-पाठन उनका प्रिय शगल था और वे लगातार विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में निबंध, कहानियाँ, लघुकथाएँ और कविताएँ प्रकाशित करती रहती थीं। दूरदर्शन और आकाशवाणी, पटना पर आयोजित कार्यक्रमों में उनकी सक्रिय भागीदारी ने उन्हें व्यापक श्रोताओं तक अपने विचारों को पहुँचाने का अवसर दिया।
साहित्य के क्षेत्र में डॉ. कल्याणी कुसुम सिंह का योगदान उल्लेखनीय है। उनकी रचनाएँ नारी जीवन के विभिन्न पहलुओं, समाज की विसंगतियों और मानवीय संवेदनाओं को गहराई से छूती हैं। उनकी प्रमुख कृतियों में शामिल हैं:
स्वतंत्र्योत्तर महिला लेखिकाओं के उपन्यासों में नारी संदर्भ: यह कृति भारतीय साहित्य में नारी विमर्श की एकमहत्वपूर्ण पड़ताल है। नलिन विलोचन शर्मा की हिंदी साहित्य को देन: इस पुस्तक में उन्होंने हिंदी साहित्य के एक दिग्गज के योगदान का सूक्ष्म विश्लेषण किया है। जिंदगी के रंग कविता के संग: उनकी कविताओं का यह संग्रह जीवन के सुख-दुख, आशा-निराशा और प्रेम-विरह को अत्यंत संवेदनशील ढंग से प्रस्तुत करता है। नारी अंतस कथा (लघुकथा संग्रह): यह लघुकथाएँ नारी के आंतरिक संसार, उसकी संघर्षों और उसकी अटूट शक्ति को दर्शाती हैं। डॉ. कल्याणी कुसुम सिंह पटेल नगर, शास्त्री नगर, पटना में अपने स्थायी निवास पर रहती हैं, लेकिन उनका प्रभाव और उनकी विरासत दूर-दूर तक फैली हुई है। उनका जीवन इस बात का प्रमाण है कि दृढ़ संकल्प, ज्ञान के प्रति प्रेम और समाज सेवा की भावना से कोई भी व्यक्ति अपने जीवन को सार्थक बना सकता है। डॉ. कल्याणी कुसुम सिंह वास्तव में एक नारी, अनेक आयामों वाली एक प्रेरणादायक हस्ती हैं।
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12.: डॉ. रेणु शर्मा: बहुमुखी प्रतिभा
डॉ. रेणु शर्मा एक ऐसी महिला हैं जिन्होंने अपनी बहुमुखी प्रतिभा से शिक्षा, साहित्य और समाज सेवा के क्षेत्र में एक विशिष्ट पहचान बनाई है। इनके पिता स्वर्गीय योगेंद्र मिश्रा एक प्रतिष्ठित पुलिस पदाधिकारी रह चुके हैं।
डॉ. रेणु शर्मा ने शिक्षा के क्षेत्र में उच्च उपाधियाँ प्राप्त की हैं, जिनमें स्नातकोत्तर और विद्या वाचस्पति (पीएच.डी. के समकक्ष) शामिल हैं, जो उनकी गहन अकादमिक सुदृढ़ता और साहित्यिक अभिरुचि को दर्शाती हैं। वे एक सरकारी विद्यालय में वरिष्ठ शिक्षिका के पद पर कार्यरत हैं और साथ ही एक उत्कृष्ट व प्रतिष्ठित कवयित्री भी हैं। देश के विभिन्न राज्यों में राष्ट्रीय मंचों से उनका काव्य पाठ निरंतर होता रहता है।
'काव्य-मन', 'मुक्त-मन' और 'पिपासु-मन' जैसी किताबों की रचनाकार डॉ. शर्मा विभिन्न छंदों की ज्ञाता हैं। गीत, ग़ज़ल, दोहा, सोरठा, कुण्डलिया, रोला, कुंडलिनी जैसे विभिन्न काव्य रूपों में उन्हें महारत हासिल है। उनकी प्रत्येक कृति उत्कृष्ट लेखनी का उदाहरण है, जो समाज को सार्थक संदेश देती है। डॉ. रेणु शर्मा ने हिंदी साहित्य जगत में एक भावुक तथा अति संवेदनशील कवयित्री व साहित्यकार के रूप में अपनी विशिष्ट पहचान बनाई है। उनकी रचनाएँ दर्शकों व पाठकों द्वारा खूब सराही जाती हैं।उनकी प्रकाशित किताबों में मुक्तमन (2023), काव्यकुंज (2024), और पिपासु मन (2025) शामिल हैं। डॉ. शर्मा की कविताओं का प्रकाशन निरंतर विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं, राष्ट्रीय समाचार पत्रों और साझा संकलनों में होता रहता है। इसके अतिरिक्त, पटना दूरदर्शन और आकाशवाणी से भी उनके काव्य पाठ का प्रसारण होता रहता है।डॉ. रेणु शर्मा को उनके उत्कृष्ट कार्यों के लिए कई प्रतिष्ठित सम्मानों से नवाजा गया है। इनमें गुरु सम्मान, कोहिनूर सम्मान, दिनकर सम्मान, साहित्य सृजक सम्मान, अटल सम्मान 2023, साहित्य सेवी सम्मान, साहित्य रत्न सम्मान, बिहार रत्न सम्मान, नारी शक्ति सम्मान, निराला सम्मान, डॉ. बिजली सम्मान, महादेवी वर्मा सम्मान, बिहार गौरव सम्मान, फणीश्वरनाथ "रेणु" सम्मान आदि प्रमुख हैं।वैशाली जिले की हाजीपुर निवासी 5 जनवरी, 1967 को जन्मी डॉ. रेणु शर्मा के पति मनोज कुमार शर्मा भी एक पुलिस पदाधिकारी हैं। डॉ. रेणु शर्मा सही मायनों में एक प्रेरणादायक व्यक्तित्व हैं, जिन्होंने अपनी शिक्षा, साहित्य प्रेम और समाज सेवा के माध्यम से न केवल वैशाली का नाम रोशन किया है, बल्कि पूरे देश में अपनी एक अमिट छाप छोड़ी है।
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13 . : डॉ. स्नेहलता द्विवेदी "आर्या": सामाजिक सरोकार
डॉ. स्नेहलता द्विवेदी "आर्या" एक बहुमुखी प्रतिभा की धनी हैं, जिनका जीवन शिक्षा, साहित्य, परिवार और समाज सेवा के प्रति उनके समर्पण का प्रमाण है. 2 जनवरी, 1971 को जन्मी डॉ. आर्या ने न केवल उच्च शिक्षा (एम.ए. और पीएचडी) प्राप्त की है, बल्कि एक सफल शिक्षक के रूप में भी अपनी पहचान बनाई है. उनके व्यक्तिगत, साहित्यिक, सामाजिक जीवन है:।
डॉ. स्नेहलता द्विवेदी "आर्या" के जीवन में उनके परिवार का महत्वपूर्ण स्थान है. उनके पिता/पति, डॉ. विनोद कुमार ओझा, उनके जीवन के एक महत्वपूर्ण स्तंभ हैं, जिनके सहयोग से वे अपने विभिन्न क्षेत्रों में सक्रिय रह पाती हैं. बिहार के कटिहार जिले के बिनोदपुर में उनका स्थायी निवास है, जो उनकी जड़ों से जुड़ाव को दर्शाता है. वर्तमान में, वे दरभंगा यूनिवर्सिटी में कार्यरत हैं, जिसका अर्थ है कि उन्होंने अपने पेशेवर जीवन के लिए एक नए स्थान को अपनाया है, लेकिन अपने मूल से उनका जुड़ाव बना हुआ है. एक शिक्षिका होने के नाते, वे न केवल अपने परिवार की जिम्मेदारियों का निर्वहन करती हैं, बल्कि भावी पीढ़ियों के निर्माण में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं.
डॉ. आर्या का साहित्यिक सफ़र उनकी गहरी संवेदनशीलता और रचनात्मकता का परिचायक है. उन्होंने विभिन्न विधाओं में अपनी लेखनी का प्रदर्शन किया है और अब तक तीन महत्वपूर्ण पुस्तकें प्रकाशित की हैं:। द पोलिटिकल्स ऑफ सर्वाइवल इन इंडिया एंड गांधी : यह पुस्तक उनके अकादमिक और शोधपरक दृष्टिकोण को दर्शाती है, जिसमें उन्होंने भारत में अस्तित्व की राजनीति और महात्मा गांधी के विचारों का विश्लेषण किया होगा. यह विषय उनकी बौद्धिक गहराई और सामाजिक-राजनीतिक मुद्दों पर उनकी समझ को दर्शाता है.काव्य आर्या: यह कृति संभवतः उनके काव्य लेखन का संग्रह है, जो उनकी रचनात्मक और भावनात्मक अभिव्यक्ति का माध्यम है. "आर्या" शब्द उनके स्वयं के नाम से जुड़ा है, जो इस बात का संकेत देता है कि यह काव्य संग्रह उनके व्यक्तिगत अनुभवों और विचारों का दर्पण हो सकता है.प्रेमाश्रु: यह शीर्षक ही प्रेम और भावनाओं की गहराई को दर्शाता है. यह कृति उनकी भावात्मक और संवेदनशील लेखन शैली को प्रदर्शित करती है, जहाँ उन्होंने प्रेम से जुड़े विभिन्न पहलुओं को छुआ होगा.। इन रचनाओं के माध्यम से डॉ. आर्या ने साहित्य जगत में अपनी एक विशिष्ट पहचान बनाई है।एक शिक्षिका होने के नाते, डॉ. स्नेहलता द्विवेदी "आर्या" का समाज से गहरा जुड़ाव है. उनका व्यवसाय ही समाज निर्माण का सबसे महत्वपूर्ण कार्य है. वे न केवल छात्रों को शिक्षित करती हैं, बल्कि उन्हें नैतिक मूल्यों और सामाजिक जिम्मेदारियों के प्रति भी जागरूक करती हैं. उनके सामाजिक योगदान को कई प्रतिष्ठित पुरस्कारों से सम्मानित किया गया है:। प्रांतीय स्तर पर बेस्ट टीचर अवॉर्ड: यह सम्मान उनके अध्यापन कौशल, छात्रों के प्रति समर्पण और शिक्षा के क्षेत्र में उनके उत्कृष्ट योगदान को प्रमाणित करता है.कबीर कोहिनूर सम्मान: यह पुरस्कार उनकी साहित्यिक और संभवतः सामाजिक समरसता के प्रति उनकी प्रतिबद्धता को दर्शाता है. कबीर के नाम पर दिया गया यह सम्मान उनके विचारों में उदारता और विभिन्न समुदायों के प्रति सम्मान का संकेत देता है. ये सम्मान दर्शाते हैं कि डॉ. आर्या न केवल एक सफल शिक्षिका और लेखिका हैं, बल्कि वे समाज के प्रति भी अपनी जिम्मेदारियों को बखूबी निभाती हैं. । समाज से उनके जुड़ाव और सुलभता को दर्शाता है ।
डॉ. स्नेहलता द्विवेदी "आर्या" की कविताएँ, विशेषकर "आओ आज तुम्हें भी मैं इस धरा का परिचय देती हूँ", उनके राष्ट्रप्रेम और भारतीय संस्कृति के प्रति उनकी गहरी श्रद्धा को उजागर करती हैं. इस कविता में: । भारतीय संस्कृति का चित्रण: वे भारत को देवों के लिए दुर्लभ धरा, राम, कृष्ण, नानक, और बुद्ध की भूमि बताती हैं. वेद ऋचाओं, रामायण और गीता को वे भारतीयता का संबल मानती हैं. । विविधता में एकता: कविता में होली, दीवाली, गुरु पर्व और ईद जैसे त्योहारों का उल्लेख कर वे भारत की गंगा-जमुनी तहजीब और सांप्रदायिक सद्भाव का संदेश देती हैं. घंटा ध्वनि, राम धुन और बिस्मिल्लाह के एक साथ गूंजने की बात कर वे धार्मिक सहिष्णुता पर जोर देती हैं. । प्राकृतिक सौंदर्य और जीवन मूल्य: मिट्टी को चंदन, पानी को अमृत, और फूल-फलों को निराला बताकर वे भारत की प्राकृतिक संपदा का गुणगान करती हैं. चंदन की खुशबू और "वन्दे मातरम" का जयघोष उनके जीवन मूल्यों का हिस्सा है.। राष्ट्रभक्ति और बलिदान: कविता का अंतिम भाग पूर्णतः राष्ट्र को समर्पित है. वे तिरंगे के प्रति अगाध प्रेम और इस मिट्टी पर जीवन न्योछावर करने की बात करती हैं. "कोटि नमन भारत की मिट्टी अमर जवानों की थाती" जैसी पंक्तियाँ सैनिकों के बलिदान और मातृभूमि के प्रति उनके सम्मान को दर्शाती हैं. वे स्वयं को सौ पूत जनने वाली माँ के रूप में प्रस्तुत करती हैं जो देश की रक्षा के लिए तत्पर हैं. । नदियों का महत्व और हुंकार: गंगा, यमुना, कृष्णा, कावेरी जैसी नदियों का उल्लेख कर वे भारत की जीवनदायिनी शक्तियों को दर्शाती हैं और पूर्व-पश्चिम-उत्तर-दक्षिण से एकजुट होकर दुश्मन को ललकारने की बात करती हैं, जो देश की अखंडता और सुरक्षा के प्रति उनकी प्रतिबद्धता का प्रतीक है.डॉ. स्नेहलता द्विवेदी "आर्या" का जीवन एक प्रेरणा है, जो दर्शाती है कि कैसे एक व्यक्ति अपने पारिवारिक दायित्वों, पेशेवर कर्तव्यों, साहित्यिक जुनून और सामाजिक सरोकारों के बीच संतुलन स्थापित कर सकता है. उनकी रचनाएं भारतीय संस्कृति, एकता और राष्ट्रप्रेम का सशक्त प्रतीक हैं .
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14 . डॉ. हरि किशोर प्रसाद सिंह: शिक्षा, साहित्य
डॉ. हरि किशोर प्रसाद सिंह, जिनका जन्म 03 नवंबर, 1953 को बिहार के मुजफ्फरपुर जिले के मानिकपुर गाँव में हुआ, शिक्षा, साहित्य और पत्रकारिता के क्षेत्र में एक बहुमुखी और समर्पित व्यक्तित्व के रूप में जाने जाते हैं। स्वर्गीय दामोदर प्रसाद सिंह के सुपुत्र, डॉ. सिंह ने अपने जीवन को ज्ञानार्जन, सृजन और समाज सेवा के प्रति समर्पित किया है। उनका जीवन न केवल अकादमिक उत्कृष्टता का प्रतीक है, बल्कि साहित्य और सामाजिक चेतना के प्रति उनके गहरे लगाव को भी दर्शाता है। मुजफ्फरपुर जिले के सरैया प्रखण्ड का मनिकपुर में जन्मे डॉ. हरि किशोर प्रसाद सिंह ने बचपन से ही शिक्षा के प्रति गहरी रुचि प्रदर्शित की। उनकी प्रारंभिक शिक्षा उनके गाँव और आस-पास के क्षेत्रों में हुई, जिसने उन्हें अपनी जड़ों से जोड़े रखा। उच्च शिक्षा के क्षेत्र में उन्होंने अभूतपूर्व प्रदर्शन किया, दो विषयों में एम.ए. की डिग्री प्राप्त की। यह उनकी व्यापक अध्ययनशीलता और विभिन्न विषयों में ज्ञान प्राप्त करने की उनकी लगन को दर्शाता है। एम.ए. की डिग्री के बाद, उन्होंने पीएच.डी. की उपाधि भी अर्जित की, जिससे वे अकादमिक जगत में एक सम्मानित स्थान पर आसीन हुए। उनकी शैक्षणिक यात्रा यहीं समाप्त नहीं हुई; उन्होंने 'साहित्यालंकार' की उपाधि भी प्राप्त की, जो साहित्य के प्रति उनके गहन ज्ञान और मौलिक योगदान को प्रमाणित करती है। यह उपाधि उन्हें साहित्यिक विद्वानों की पंक्ति में ला खड़ा करती है।
डॉ. हरि किशोर प्रसाद सिंह केवल एक शिक्षाविद ही नहीं, बल्कि एक संवेदनशील साहित्यकार भी हैं। उनकी रचनाएँ समाज और मानवीय भावनाओं के विभिन्न पहलुओं को गहराई से छूती हैं। उनकी दो प्रमुख प्रकाशित कृतियाँ हैं:
बिखरे लाल गुलाब (कहानी संग्रह): यह संग्रह उनकी रचनात्मकता और कहानी कहने की अद्वितीय कला का प्रमाण है। इस संग्रह की कहानियाँ जीवन के सूक्ष्म पहलुओं, रिश्तों की जटिलताओं और मानवीय अनुभवों की विविधता को दर्शाती हैं। डॉ. सिंह की कहानियों में सहजता और मार्मिकता का अद्भुत मेल देखने को मिलता है, जो पाठकों को सोचने पर मजबूर करती हैं। वे अपनी कहानियों के माध्यम से सामाजिक यथार्थ और नैतिक मूल्यों को प्रभावी ढंग से प्रस्तुत करते हैं। स्मरण: वरिष्ठ स्वतंत्रता सेनानी समाजसेवी किसान नेता स्मृति शेष दामोदर प्रसाद सिंह: यह कृति डॉ. सिंह के पिता, स्वर्गीय दामोदर प्रसाद सिंह, को समर्पित एक भावपूर्ण श्रद्धांजलि है। दामोदर प्रसाद सिंह एक दूरदर्शी व्यक्तित्व थे, जिन्होंने न केवल स्वतंत्रता संग्राम में सक्रिय भूमिका निभाई, बल्कि एक समर्पित समाजसेवी और किसान नेता के रूप में भी समाज की सेवा की। यह पुस्तक उनके जीवन, संघर्षों, आदर्शों और समाज के प्रति उनके अमूल्य योगदान को विस्तृत रूप से प्रस्तुत करती है। इस कृति के माध्यम से डॉ. हरि किशोर प्रसाद सिंह ने अपने पिता के आदर्शों को जीवंत रखने का प्रयास किया है, जिससे नई पीढ़ी भी उनसे प्रेरणा ले सके। यह जीवनीपरक रचना केवल एक व्यक्ति का स्मरण नहीं, बल्कि एक युग और उसके मूल्यों का दस्तावेजीकरण भी है।
वर्तमान में, डॉ. हरि किशोर प्रसाद सिंह दैनिक "साध्य ज्योति दर्पण" के बिहार ब्यूरो प्रमुख के रूप में कार्यरत हैं। पत्रकारिता के क्षेत्र में उनकी यह भूमिका उन्हें समाज के मुद्दों को करीब से देखने और उन्हें जन-जन तक पहुँचाने का अवसर प्रदान करती है। एक ब्यूरो प्रमुख के रूप में, वे बिहार की सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक गतिविधियों पर पैनी नज़र रखते हैं और उन्हें निष्पक्षता के साथ प्रस्तुत करते हैं। उनकी पत्रकारिता केवल सूचनाओं का संकलन नहीं, बल्कि समाज को जागरूक करने और सार्थक संवाद को बढ़ावा देने का एक माध्यम भी है।
डॉ. हरि किशोर प्रसाद सिंह का जीवन शिक्षा, साहित्य और पत्रकारिता के प्रति उनके अटूट समर्पण का एक उत्कृष्ट उदाहरण है। वे एक ऐसे व्यक्तित्व हैं जिन्होंने अकादमिक उत्कृष्टता हासिल की, साहित्य के माध्यम से अपनी भावनाओं और विचारों को अभिव्यक्त किया, और पत्रकारिता के क्षेत्र में रहकर समाज को आईना दिखाया। उनका योगदान न केवल मुजफ्फरपुर और बिहार के लिए महत्वपूर्ण है, बल्कि व्यापक रूप से साहित्यिक और पत्रकारिता जगत के लिए भी प्रेरणादायक है।
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15 . ज्योति सिन्हा और : साहित्य
भारतीय समाज में जहाँ अक्सर महिलाओं को किसी एक भूमिका तक सीमित देखा जाता है, वहीं ज्योति सिन्हा जैसी शख्सियतें इन रूढ़ियों को तोड़कर अपनी बहुमुखी प्रतिभा का परिचय देती हैं। वैशाली, बिहार की माटी से जन्मी और पली-बढ़ी ज्योति सिन्हा न केवल एक समर्पित गृहणी और कुशल गृहिणी हैं, बल्कि एक सजग साहित्यकार, संवेदनशील सामाजिक कार्यकर्ता और पर्यावरण के प्रति जागरूक नागरिक भी हैं। उनका जीवन और कृतित्व इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण है कि प्रतिबद्धता और जुनून हो, तो हर भूमिका को एक साथ बखूबी निभाया जा सकता है।
वैशाली जिले का गोरौल की 15 सितंबर, 1978 को जन्मे ज्योति सिन्हा का प्रारंभिक जीवन मूल्यों और संस्कारों की मजबूत नींव पर आधारित रहा। स्वर्गीय गणेश प्रसाद श्रीवास्तव की सुपुत्री और श्री पंकज कुमार श्रीवास्तव की धर्मपत्नी के रूप में, उन्होंने परिवार को हमेशा अपनी प्राथमिकता में रखा। रांची विश्वविद्यालय से स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के बावजूद, उन्होंने पारंपरिक अर्थों में किसी पेशेवर करियर का चुनाव नहीं किया, बल्कि गृहस्थी को अपनी प्रथम कर्मभूमि बनाया। यह दिखाता है कि कैसे वे अपने पारिवारिक दायित्वों को पूरी निष्ठा के साथ निभाती हैं, जिसके बाद ही वे अन्य क्षेत्रों में अपना योगदान दे पाती हैं। उनके परिवार का सहयोग और समझ ही उन्हें साहित्य और समाज सेवा के लिए समय निकालने का अवसर देती है।
ज्योति सिन्हा की साहित्यिक यात्रा बेहद समृद्ध और प्रेरणादायक है। उनकी लेखनी काव्य, कथा, लेख और आलेख जैसी विभिन्न विधाओं में समान रूप से प्रवाहित होती है। उनकी भाषा सरल, सुबोध और हृदयस्पर्शी होती है, जो पाठकों को सीधे उनके विचारों से जोड़ती है। उनकी कृतियाँ केवल मनोरंजन का साधन नहीं, बल्कि समाज को जगाने और सोचने पर मजबूर करने वाले सार्थक संदेशों का माध्यम भी हैं। उन्होंने 11 ई-पुस्तकें प्रकाशित की हैं, जिनमें से प्रत्येक एक विशिष्ट विषय पर केंद्रित है:'आहुति': संभवतः यह कृति किसी त्याग या बलिदान की भावना को अभिव्यक्त करती है।'बिहार बोधी': यह बिहार की सांस्कृतिक, सामाजिक या ऐतिहासिक चेतना पर आधारित हो सकती है।'महाकाल': समय की महत्ता या किसी वृहद दार्शनिक विषय पर केंद्रित।'वक्त की बातों में ना आना': यह आधुनिक जीवन की चकाचौंध या भटकावों से सावधान रहने का संदेश देती है।'आओ करें दिल की बात': संवाद और आंतरिक भावनाओं की अभिव्यक्ति पर बल।'गंगा - कल आज और कल': पवित्र गंगा नदी के महत्व, उसकी वर्तमान स्थिति और भविष्य की चुनौतियों पर चिंतन। यह पर्यावरण प्रेम को दर्शाता है।'साहित्य शक्ति - राष्ट्र शक्ति': साहित्य की शक्ति और राष्ट्र निर्माण में उसकी भूमिका पर प्रकाश डालती है।'घटती हरियाली बढ़ती समस्याएं': पर्यावरण संरक्षण के प्रति उनकी गहरी चिंता और जागरूकता का प्रमाण। पैसा बोलता है': धन और उसके सामाजिक प्रभाव पर व्यंग्यात्मक या विचारात्मक कृति।'खुला आकाश' (लघु कथा): छोटी कहानियों के माध्यम से जीवन के विभिन्न पहलुओं को दर्शाती है।'देश और समाज की प्रगति में नारी की भूमिका' (आलेख संग्रह): महिला सशक्तिकरण और समाज में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका पर केंद्रित गहन विश्लेषण। इसके अतिरिक्त, उनकी दो महत्त्वपूर्ण कृतियाँ, 'है बड़ी लाचारी-बेरोजगारी' (जो वर्तमान की गंभीर समस्या पर केंद्रित है) और 'धरा का दर्द' (पर्यावरण और धरती के कष्टों को व्यक्त करती है) प्रकाशनाधीन हैं, जिनसे समाज को बड़ी उम्मीदें हैं। दर्जनों साझा संकलनों में उनकी उपस्थिति उनकी निरंतर साहित्यिक सक्रियता और पहचान को पुष्ट करती है। ज्योति सिन्हा केवल शब्दों की जादूगर नहीं, बल्कि कर्मों से भी समाज और पर्यावरण को बेहतर बनाने में जुटी हैं। उनका व्यवसाय - गृहस्थी, समाज, पर्यावरण व साहित्य सेवा उनके जीवन के उद्देश्यों को स्पष्ट करता है। वे सिर्फ लिखती नहीं, बल्कि अपने लेखन के माध्यम से जिन मुद्दों को उठाती हैं, उनके लिए ज़मीनी स्तर पर भी कार्य करती हैं। 'घटती हरियाली बढ़ती समस्याएं' और 'गंगा - कल आज और कल' जैसी कृतियाँ पर्यावरण के प्रति उनकी गहरी चिंता को दर्शाती हैं। वे मानती हैं कि साहित्य केवल व्यक्तिगत अभिव्यक्ति का माध्यम नहीं, बल्कि सामाजिक परिवर्तन का एक सशक्त औजार भी है।
ज्योति सिन्हा को उनकी साहित्यिक और सामाजिक सेवाओं के लिए कई प्रतिष्ठित सम्मानों से नवाज़ा गया है, जो उनके अथक परिश्रम और समर्पण का प्रमाण हैं:नवांकुर की उपाधि (2000): यह सम्मान उनके शुरुआती साहित्यिक प्रतिभा को पहचान देता है।भाषा गौरव सम्मान (2022): यह उनकी भाषा और साहित्य के प्रति उनके योगदान को सम्मानित करता है।कबीर कोहिनूर सम्मान (2024): यह सम्मान उनकी साहित्यिक चमक और कबीर के दर्शन के प्रति उनके झुकाव को दर्शाता है। ज्योति सिन्हा का जीवन एक प्रेरणा है। उन्होंने दिखाया है कि कैसे एक व्यक्ति पारिवारिक जिम्मेदारियों को निभाते हुए भी समाज, साहित्य और पर्यावरण के लिए महत्वपूर्ण योगदान दे सकता है। उनकी कृतियाँ हमें सोचने पर मजबूर करती हैं, संवेदनशील बनाती हैं और कुछ कर गुजरने की प्रेरणा देती हैं। वे वैशाली की सशक्त नारी शक्ति का प्रतिनिधित्व करती हैं, जो चुपचाप, मगर प्रभावी ढंग से अपने कर्मों से समाज में सकारात्मक बदलाव लाती है ।
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16 .: अंजनी कुमार पाठक: साहित्य
अंजनी कुमार पाठक, एक ऐसा नाम है जो न केवल कानून के गलियारों में अपनी पेशेवर दक्षता के लिए जाना जाता है, बल्कि साहित्य और समाज सेवा के क्षेत्र में भी उनका योगदान अतुलनीय है। मुजफ्फरपुर, बिहार की माटी से जुड़े पाठक जी का जीवन, उनके पारिवारिक संस्कारों, साहित्यिक जुनून और सामाजिक सरोकारों का एक सुंदर मिश्रण है।
अंजनी कुमार पाठक का जन्म 23 मार्च, 1951 को एक प्रतिष्ठित परिवार में हुआ था। उनके पिता, स्मृतिशेष चण्डी दत्त पाठक, एक ऐसी हस्ती रहे होंगे जिनकी स्मृतियाँ अंजनी कुमार पाठक के जीवन मूल्यों में स्पष्ट रूप से परिलक्षित होती हैं। भारतीय परिवारों में, विशेषकर ब्राह्मण टोली, मुजफ्फरपुर जैसे स्थानों पर, नैतिक मूल्यों, शिक्षा और सांस्कृतिक विरासत का गहरा महत्व होता है। यह माना जा सकता है कि अंजनी कुमार पाठक ने अपने परिवार से ही ईमानदारी, कर्तव्यनिष्ठा और समाज के प्रति समर्पण के संस्कार ग्रहण किए। एक सुशिक्षित पृष्ठभूमि से आने के कारण, उन्हें ज्ञानार्जन और बौद्धिक विकास का अवसर मिला, जिसने उन्हें विधि स्नातक जैसी उच्च शिक्षा प्राप्त करने में सक्षम बनाया। पारिवारिक सहयोग और प्रेरणा ने निश्चित रूप से उनके व्यवसायिक और साहित्यिक दोनों ही करियर को आकार देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई होगी।
अंजनी कुमार पाठक का साहित्यिक जीवन उनकी आत्मा की अभिव्यक्ति है। जहाँ एक ओर वे कानून के जटिल दाँव-पेंच सुलझाते हैं, वहीं दूसरी ओर वे शब्दों के माध्यम से अपनी भावनाओं और विचारों को मूर्त रूप देते हैं। उनकी काव्य प्रतिभा का पहला महत्वपूर्ण पड़ाव उनकी प्रकाशित पुस्तक "गीतों की गूंज" है। यह कृति उनके हृदय से निकले गीतों का संग्रह है, जो निश्चित रूप से पाठकों के मन को छूने वाली होगी। पाठक जी केवल पुस्तक लिखकर ही शांत नहीं हुए, बल्कि उन्होंने काव्य गोष्ठियों और काव्य सम्मेलनों में सक्रिय रूप से भाग लिया। यह उनकी साहित्यिक प्रतिबद्धता को दर्शाता है, जहाँ वे अन्य कवियों के साथ विचारों का आदान-प्रदान करते हैं और अपनी कविताओं को जनमानस तक पहुँचाते हैं। इस सक्रिय भागीदारी ने उन्हें न केवल एक कवि के रूप में पहचान दिलाई, बल्कि उन्हें राष्ट्रीय स्तर पर ख्याति भी दिलाई। उन्हें मिले अगणित सम्मान और पुरस्कार, उनकी साहित्यिक उत्कृष्टता के प्रमाण हैं: पंडित भूरामल शर्मा स्मृति सम्मान ,जगन्नाथ प्रसाद मिश्र गौड़ 'कमल' सम्मान , आचार्य जानकी वल्लभ शास्त्री साहित्य शिखर सम्मान ,डॉ. अंबेडकर सम्मान ,काव्य महारथी सम्मान ,श्रेष्ठ कलमकार सम्मान ,पंडित श्री राम शर्मा आचार्य स्मृति सम्मान ,कोहिनूर सम्मान ,शैलेंद्र स्मृति शिखर सम्मान ,पंडित नागेंद्र नाथ ओझा सम्मान ,सरदार पटेल सम्मान ,गांधी साहित्य सेवा सम्मान ,सर्वपल्ली राधाकृष्णन सम्मान ,साहित्य रत्न सम्मान ,बैद्यनाथ अगेही सम्मान ,साहित्यश्री सम्मान ,लाल बहादुर शास्त्री सम्मान ,आचार्य रंजन सूरिदेव साहित्य सम्मान इनके अतिरिक्त, उन्हें प्राप्त सैकड़ों अन्य सम्मान, अंग वस्त्र और ट्रॉफियाँ यह दर्शाते हैं कि अंजनी कुमार पाठक का साहित्यिक कद कितना विशाल है। पंडित देवकी नंदन शर्मा राष्ट्रीय पुरस्कार उनकी साहित्यिक यात्रा का एक और महत्वपूर्ण मील का पत्थर है, जो उन्हें राष्ट्रीय फलक पर एक स्थापित साहित्यकार के रूप में चिन्हित करता है। यह सब उनके अथक परिश्रम, लगन और शब्द साधना का ही परिणाम है।
अंजनी कुमार पाठक का जीवन केवल वकालत और साहित्य तक ही सीमित नहीं है, बल्कि वे एक जिम्मेदार नागरिक के रूप में सामाजिक सरोकारों से भी गहराई से जुड़े हुए हैं। डॉ. अंबेडकर सम्मान, सरदार पटेल सम्मान, गांधी साहित्य सेवा सम्मान, सर्वपल्ली राधाकृष्णन सम्मान और लाल बहादुर शास्त्री सम्मान जैसे पुरस्कार यह स्पष्ट करते हैं कि उनकी पहचान केवल एक कवि या अधिवक्ता के रूप में नहीं, बल्कि एक ऐसे व्यक्ति के रूप में भी है जो सामाजिक न्याय, राष्ट्रीय एकता और मानवीय मूल्यों में विश्वास रखते हैं।एक अधिवक्ता के रूप में, वे समाज के वंचितों और न्याय चाहने वालों की मदद करते होंगे। वहीं, एक साहित्यकार के रूप में, उनकी रचनाएँ समाज में सकारात्मक संदेश फैलाने का कार्य करती होंगी। काव्य सम्मेलनों और गोष्ठियों में उनकी भागीदारी उन्हें विभिन्न सामाजिक मुद्दों पर अपने विचार व्यक्त करने का मंच प्रदान करती होगी। मुजफ्फरपुर, बिहार में ब्राह्मण टोली में उनका स्थायी पता यह दर्शाता है कि वे अपनी जड़ों से जुड़े हुए हैं और अपने स्थानीय समुदाय के प्रति भी उनकी गहरी निष्ठा है। वे निश्चित रूप से अपने आसपास के समाज को बेहतर बनाने में सक्रिय योगदान देते होंगे, चाहे वह अपने व्यवसाय के माध्यम से हो या अपनी साहित्यिक गतिविधियों के माध्यम से।कुल मिलाकर, अंजनी कुमार पाठक का जीवन मेहनत, रचनात्मकता और सामाजिक चेतना का एक अद्भुत संगम है। वे एक प्रेरणादायक व्यक्तित्व हैं
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17. कविता श्रीवास्तव: परिवार, शिक्षा और साहित्य
कविता श्रीवास्तव, जिनका जन्म 24 जुलाई, 1970 को हुआ, एक ऐसे व्यक्तित्व का प्रतिनिधित्व करती हैं जहाँ पारिवारिक मूल्यों, शिक्षा के प्रति समर्पण और साहित्यिक रचनात्मकता का सुंदर संगम देखने को मिलता है। स्वर्गीय श्री अमरनाथ वर्मा की सुपुत्री, कविता जी ने अपने जीवन के हर पड़ाव पर इन तीनों आयामों को बखूबी निभाया है।
कविता श्रीवास्तव का स्थायी और वर्तमान पता ग्राम सिमरी, पोस्ट कंसी सिमरी, जिला दरभंगा, बिहार है। यह दर्शाता है कि वे अपनी जड़ों से गहराई से जुड़ी हुई हैं और अपने पैतृक स्थान को ही अपना कर्मक्षेत्र मानती हैं। एक सुदृढ़ पारिवारिक पृष्ठभूमि ने उन्हें जीवन के विभिन्न मोड़ों पर संबल प्रदान किया है, जिससे वे अपने शैक्षणिक और साहित्यिक लक्ष्यों को प्राप्त करने में सफल रही हैं। परिवार के संस्कारों और समर्थन ने उन्हें एक ऐसी शिक्षिका और लेखिका के रूप में विकसित होने में मदद की है, जो समाज के प्रति भी अपनी जिम्मेदारियों को समझती हैं।
कविता श्रीवास्तव ने स्नातक की उपाधि प्राप्त की है, जो उनकी अकादमिक निष्ठा को दर्शाता है। शिक्षा के प्रति उनका जुनून केवल डिग्री प्राप्त करने तक ही सीमित नहीं रहा, बल्कि उन्होंने इसे अपने व्यवसाय के रूप में अपनाया। एक शिक्षिका के रूप में, वे युवा पीढ़ी को ज्ञान प्रदान करने और उनके भविष्य को संवारने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही हैं। शिक्षण एक ऐसा पेशा है जिसमें धैर्य, समर्पण और सीखने की निरंतर इच्छा की आवश्यकता होती है, और कविता जी इन गुणों को आत्मसात करती हैं। उनका योगदान न केवल छात्रों को अकादमिक रूप से सशक्त करता है, बल्कि उन्हें एक बेहतर नागरिक बनने के लिए भी प्रेरित करता है।
शिक्षा के क्षेत्र में सक्रिय होने के साथ-साथ, कविता श्रीवास्तव ने साहित्य में भी अपनी पहचान बनाई है। उनकी प्रकाशित पुस्तक "चिड़िया रानी" है, जो वर्ष 2023 में प्रकाशित हुई। यह कृति उनकी रचनात्मकता और बाल साहित्य में उनकी रुचि को दर्शाती है। बच्चों के लिए लिखना एक विशेष कौशल है, जिसमें सरल भाषा में गहरे संदेशों को पिरोया जाता है, और "चिड़िया रानी" इसका एक उत्कृष्ट उदाहरण है। उनके साहित्यिक और सामाजिक योगदान को मान्यता देते हुए, उन्हें धनबाद जिले में जिला राष्ट्रीय सेवा कर्मी के पुरस्कार से सम्मानित किया गया है। यह पुरस्कार उनके बहुआयामी व्यक्तित्व और समाज के प्रति उनके निस्वार्थ सेवा भाव का प्रमाण है। यह सम्मान न केवल उनके व्यक्तिगत प्रयासों को रेखांकित करता है, बल्कि यह भी दर्शाता है कि कैसे एक व्यक्ति शिक्षा, साहित्य और सामाजिक सेवा के माध्यम से अपने समुदाय पर सकारात्मक प्रभाव डाल सकता है। कविता श्रीवास्तव का जीवन पारिवारिक मूल्यों, अकादमिक उत्कृष्टता और साहित्यिक रचनात्मकता का एक प्रेरणादायक है। उनका सफर यह साबित करता है कि दृढ़ संकल्प और समर्पण के साथ कोई भी व्यक्ति जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में सफलता प्राप्त कर सकता है और समाज के लिए एक प्रेरणा बन सकता है। 🌟
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18.: डॉ. त्रिलोक चंद फतेहपुरी: , समाज और साहित्य
डॉ. त्रिलोक चंद फतेहपुरी, एक ऐसा नाम जो हरियाणा और हिंदी साहित्य जगत में अपनी बहुमुखी प्रतिभा और अथक योगदान के लिए जाना जाता है। उनका जीवन परिवार के मजबूत आधार, सामाजिक सरोकारों के प्रति गहरी प्रतिबद्धता और साहित्य के प्रति अटूट प्रेम का एक सुंदर संगम है। डॉ. त्रिलोक चंद फतेहपुरी का जन्म 04 अक्टूबर, 1959 को हुआ था। उनके पिता श्री नंद राम और माता श्रीमती केशर देवी ने उन्हें ऐसे पारिवारिक मूल्यों की शिक्षा दी, जो उनके पूरे जीवन में परिलक्षित होते हैं। परिवार की इस मजबूत नींव पर ही उनके व्यक्तित्व का निर्माण हुआ। उनकी जीवनसंगिनी, श्रीमती संतोष देवी, उनके साहित्यिक सफर में एक महत्वपूर्ण सहारा रही हैं। उनके चार बच्चे हैं – एक पुत्री शशि बाला और तीन पुत्र सतीश कुमार, विकास कुमार और रवीन्द्र कुमार। एक सुखी और स्थिर पारिवारिक जीवन ने उन्हें अपनी साहित्यिक और सामाजिक गतिविधियों के लिए आवश्यक ऊर्जा और प्रेरणा प्रदान की। पारिवारिक रिश्तों का महत्व उनकी कई रचनाओं में भी देखा जा सकता है, जहाँ वे मानवीय संबंधों की गहराई और महत्व को उजागर करते हैं।
डॉ. त्रिलोक चंद फतेहपुरी केवल एक कवि ही नहीं, बल्कि एक प्रतिबद्ध शिक्षाविद् और समाज सेवक भी हैं। हरियाणा शिक्षा विभाग में हिंदी प्रवक्ता के रूप में उनकी सेवाएँ इस बात का प्रमाण हैं कि वे समाज को शिक्षित और जागरूक बनाने में विश्वास रखते हैं। उन्होंने शिक्षण के माध्यम से अनगिनत छात्रों के जीवन को संवारा। शिक्षा के साथ-साथ, वे विभिन्न सामाजिक और साहित्यिक मंचों से जुड़कर समाज में सकारात्मक बदलाव लाने का प्रयास करते रहे हैं। उनके लेखन में भी अक्सर सामाजिक कुरीतियों पर कटाक्ष, देशभक्ति का आह्वान और मानवीय मूल्यों को बढ़ावा देने वाले संदेश मिलते हैं। पर्यावरण संरक्षण, राष्ट्रीय एकता और नैतिक शिक्षा जैसे विषय उनकी कविताओं और कहानियों में प्रमुखता से उभरते हैं, जो उनके गहरे सामाजिक सरोकारों को दर्शाते हैं।
डॉ. त्रिलोक चंद फतेहपुरी की साहित्यिक यात्रा अविश्वसनीय रूप से समृद्ध और विविध है। उन्होंने हिंदी और हरियाणवी दोनों भाषाओं में 23 से अधिक पुस्तकें लिखी हैं, जो विभिन्न विधाओं जैसे बाल कविता, हरियाणवी कविता, दोहा, कुंडलियां, कहानी-किस्से, यात्रा संस्मरण, चंपू संग्रह और अनुवाद को समाहित करती हैं।
उनकी रचनाएँ भाषा की सरलता, विचारों की गहराई और संदेश की स्पष्टता के लिए जानी जाती हैं। 'वाह! भारत की बेटियां' और 'ऐसी बेटी बण जाऊं' जैसी बाल कविताएँ बच्चों में अच्छे संस्कार भरती हैं। 'यो सै म्हारा हरियाणा' और 'झलक हरियाणे की' जैसी हरियाणवी कविताएँ अपनी मिट्टी और संस्कृति से उनके गहरे जुड़ाव को दर्शाती हैं। 'त्रिलोकी सतसई' और 'खुली ढोल की पोल' में उनकी छंदबद्ध दक्षता स्पष्ट दिखती है, जबकि 'काठमांडू का आनंद' और 'उत्कल दर्शन' जैसे यात्रा संस्मरण उनके अनुभवों को पाठकों तक पहुँचाते हैं। गद्य और पद्य के अद्भुत मिश्रण वाले उनके चंपू संग्रह भी उनकी अद्वितीय प्रतिभा का परिचायक हैं। उनकी साहित्यिक उपलब्धियों को 90 से अधिक राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कारों और सम्मानों से नवाजा गया है। इनमें 'कलम कलाधर', 'निराला सम्मान', 'राष्ट्र प्रेमी सम्मान', 'साहित्य गौरव सम्मान', 'आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी सम्मान', और 'लाइफ टाइम अचीवमेंट अवॉर्ड' जैसे प्रतिष्ठित सम्मान शामिल हैं। आकाशवाणी और दूरदर्शन पर उनके काव्य पाठ और लघु कथा वाचन ने उन्हें जन-जन तक पहुँचाया है।
डॉ. त्रिलोक चंद फतेहपुरी का जीवन अपने परिवार के प्रति कर्तव्य, समाज के प्रति जिम्मेदारी और साहित्य के प्रति जुनून को एक साथ निभा सकता है। वे न केवल एक साहित्यकार हैं, बल्कि एक मार्गदर्शक, एक शिक्षक और एक सच्चे सामाजिक योद्धा भी हैं, जिनकी रचनाएँ और जीवन आने वाली पीढ़ियों के लिए प्रेरणा का स्रोत बने रहेंगे। उनका साहित्य केवल मनोरंजन नहीं, बल्कि चिंतन और समाज सुधार का एक माध्यम है।
19 . गीता सिंह: एक प्रेरणादायक व्यक्तित्व
गीता सिंह, जिनका जन्म 3 सितंबर 1977 को हुआ, रायगढ़, छत्तीसगढ़ में अपने पति श्री सतीश चंद्र सिंह के साथ निवास करती हैं। उनकी पारिवारिक पृष्ठभूमि उन्हें अपनी विविध भूमिकाओं को निभाने में सहायक रही है। एक समर्पित गृहिणी होने के साथ-साथ, वह एक बहुमुखी प्रतिभा की धनी महिला हैं जिन्होंने अपने जीवन को साहित्यिक सृजन, सामाजिक उत्थान और पर्यावरणीय चेतना को समर्पित किया है।
श्रीमती सिंह ने अपनी शिक्षा में गहन रुचि का प्रदर्शन किया है। उन्होंने एमएससी (बॉटनी) और एम.ए (एजुकेशन) की डिग्रियाँ प्राप्त की हैं, जो उनके अकादमिक समर्पण को दर्शाती हैं। इसके अतिरिक्त, उन्होंने पीएचडी भी की है, जो उन्हें बौद्धिक रूप से सशक्त बनाती है। वर्तमान में, वह एक लेखिका, समाजसेविका और पर्यावरणविद् के रूप में सक्रिय हैं। यह मिश्रण उनके जीवन के विभिन्न पहलुओं के प्रति उनकी प्रतिबद्धता को दर्शाता है।
श्रीमती गीता सिंह एक सिद्धहस्त लेखिका हैं, जिनकी रचनात्मकता उनकी पुस्तक "जीवन पथ" में परिलक्षित होती है। यह पुस्तक उनके गहन विचारों, जीवन के अनुभवों और सामाजिक दृष्टिकोण का एक संग्रह है। "जीवन पथ" के माध्यम से, वह पाठकों को न केवल प्रेरित करती हैं, बल्कि उन्हें जीवन के विभिन्न पहलुओं पर विचार करने के लिए भी प्रोत्साहित करती हैं। उनकी लेखन शैली सरल और प्रभावशाली है, जो उन्हें एक लोकप्रिय लेखिका बनाती है।
श्रीमती गीता सिंह सिर्फ एक लेखिका नहीं, बल्कि एक सक्रिय समाजसेविका भी हैं। उन्होंने समाज के विभिन्न वर्गों के उत्थान के लिए अथक प्रयास किए हैं। उनकी सामाजिक गतिविधियाँ उनके शोध कार्यों में भी झलकती हैं, जैसे कि "एडल्ट एजुकेशन पर शोध"। यह दर्शाता है कि वह शिक्षा के माध्यम से समाज में जागरूकता लाने में विश्वास रखती हैं। इसके अलावा, श्रीमती सिंह एक मुखर पर्यावरणविद् हैं। उन्होंने "पर्यावरण एवं जल संरक्षण पर शोध कार्य" किया है, जो पर्यावरण के प्रति उनकी गहरी चिंता और उसके संरक्षण के प्रति उनकी प्रतिबद्धता को उजागर करता है। वह अपने कार्यों और विचारों से लोगों को पर्यावरण के महत्व और उसके संरक्षण की आवश्यकता के बारे में जागरूक करती हैं।श्रीमती गीता सिंह को उनके उत्कृष्ट कार्यों के लिए कई प्रतिष्ठित पुरस्कारों और सम्मानों से नवाजा गया है। ये सम्मान उनके समर्पण और कड़ी मेहनत का प्रमाण हैं:शिक्षक सम्मान 2021: शिक्षा के क्षेत्र में उनके योगदान के लिए।सावित्रीबाई फुले सम्मान 2023: महिला सशक्तिकरण और सामाजिक कार्यों में उनके योगदान के लिए।कर्मवीर सम्मान 2024: समाज सेवा में उनके निस्वार्थ योगदान के लिए।अटल सम्मान 2024: उनके समग्र सामाजिक और रचनात्मक कार्यों की सराहना में।साहित्य रत्न सम्मान 2024: साहित्य के क्षेत्र में उनकी उत्कृष्ट उपलब्धियों के लिए।सारस्वत कर्म योगी सम्मान 2025: उनके निरंतर ज्ञानार्जन और कर्मठता के लिए। ये पुरस्कार न केवल उनके व्यक्तिगत परिश्रम का परिणाम हैं, बल्कि यह भी दर्शाते हैं कि उन्होंने अपने कार्यों से समाज में कितना गहरा प्रभाव डाला है। श्रीमती गीता सिंह का जीवन एक प्रेरणा है कि कैसे एक व्यक्ति अपने विविध हितों और क्षमताओं का उपयोग समाज और पर्यावरण के उत्थान के लिए कर सकता है।
20 : डॉ. बीरेंद्र कुमार मल्लिक: चिकित्सा सेवा और साहित्यिक साधना
डॉ. बीरेंद्र कुमार मल्लिक, जिनका जन्म 2 मार्च, 1949 को बिहार के मधुबनी जिले के सिमरी (थाना - बिस्फी) में हुआ था, एक ऐसे बहुमुखी व्यक्तित्व हैं जिन्होंने चिकित्सा सेवा और साहित्यिक साधना के बीच एक दुर्लभ और प्रेरणादायक संतुलन स्थापित किया है. उनके जीवन की नींव उनके माता-पिता, स्वर्गीय राम चरण मल्लिक और स्वर्गीय दुर्गा देवी से मिले गहरे संस्कारों और प्रेरणाओं से मजबूत हुई, जिसने उन्हें जीवन के विभिन्न आयामों में उत्कृष्टता प्राप्त करने के लिए सशक्त बनाया.
डॉ. मल्लिक ने चिकित्सा के क्षेत्र में एमडी की उपाधि प्राप्त की है और एक्यूपंक्चर (Acu) में विशेषज्ञता हासिल की है. एक कुशल चिकित्सक के रूप में, उनका समर्पण पारंपरिक चिकित्सा पद्धतियों से परे जाकर लोगों को स्वास्थ्य लाभ पहुँचाने की उनकी प्रतिबद्धता को दर्शाता है. मुजफ्फरपुर, बिहार में न्यू दुर्गा पुरी कॉलोनी, बीएमपी 6 में स्थित उनका क्लिनिक, अनगिनत रोगियों के लिए आशा और उपचार का केंद्र बन गया है. चिकित्सा के क्षेत्र में अपने व्यस्त कार्यक्रम के बावजूद, डॉ. मल्लिक ने कभी भी साहित्य के प्रति अपने गहरे प्रेम को नहीं छोड़ा.
डॉ. मल्लिक ने अपनी रचनात्मक ऊर्जा को कविताओं और लेखन के माध्यम से अभिव्यक्त किया है, जिससे हिंदी और मैथिली साहित्य दोनों समृद्ध हुए हैं. उनकी प्रकाशित कृतियाँ उनके साहित्यिक कौशल और गहन सोच को दर्शाती हैं:
काव्य कणिका (2022) , काव्यायण (2024) ,भावनाक फूल (मैथिली) (2024) कृतियों के माध्यम से उन्होंने भावनाओं, विचारों और सामाजिक चेतना को वाणी दी है, जिससे उन्हें साहित्य जगत में एक विशिष्ट पहचान मिली है. डॉ. मल्लिक की साहित्यिक और चिकित्सा उपलब्धियों को विभिन्न प्रतिष्ठित पुरस्कारों और सम्मानों से मान्यता मिली है, जो उनके बहुआयामी योगदान के प्रति सराहना को दर्शाते हैं. उनके साहित्यिक योगदान के लिए प्राप्त प्रमुख सम्मानों में शामिल हैं:पद्मश्री डॉ. मृदुला सिन्हा सम्मान ,काव्य श्री हिन्दुस्तान सम्मान ,विमल राजस्थानी रत्न सम्मान , साहित्य रत्न सम्मान इनके अतिरिक्त, उन्हें चिकित्सा और सामाजिक कार्यों के लिए भी सम्मानित किया गया है: , ब्रह्म ज्योति सम्मान, पांडिचेरी (2009) ,जेरियेटिक सम्मान, नई दिल्ली (2012) ,अवार्ड ऑफ़ ऑनर, एक्यूपंक्चर मेडिकल कॉलेज लुधियाना, पंजाब (2017) ये सभी सम्मान डॉ. मल्लिक के समर्पित और बहुआयामी जीवन के प्रमाण हैं. डॉ. बीरेंद्र कुमार मल्लिक का जीवन एक प्रेरणा है, जो यह दर्शाता है कि कैसे एक व्यक्ति अपने पारिवारिक मूल्यों, शैक्षिक उत्कृष्टता और रचनात्मक जुनून के माध्यम से समाज के लिए एक बहुआयामी योगदान दे सकता है. उनका समर्पण, चाहे वह मरीजों को ठीक करने में हो या शब्दों को गढ़ने में हो, वास्तव में अनुकरणीय है. वह उन कुछ व्यक्तियों में से एक हैं जो अपने पेशेवर क्षेत्र में सफल होने के साथ-साथ रचनात्मक कला में भी अपना महत्वपूर्ण योगदान देते हैं ।
21 : डॉ. रेणु शर्मा: वैशाली की एक बहुमुखी प्रतिभा
डॉ. रेणु शर्मा एक ऐसी महिला हैं जिन्होंने अपनी बहुमुखी प्रतिभा से शिक्षा, साहित्य और समाज सेवा के क्षेत्र में एक विशिष्ट पहचान बनाई है। इनके पिता स्वर्गीय योगेंद्र मिश्रा एक प्रतिष्ठित पुलिस पदाधिकारी रह चुके हैं। डॉ. रेणु शर्मा ने शिक्षा के क्षेत्र में उच्च उपाधियाँ प्राप्त की हैं, जिनमें स्नातकोत्तर और विद्या वाचस्पति (पीएच.डी. के समकक्ष) शामिल हैं, जो उनकी गहन अकादमिक सुदृढ़ता और साहित्यिक अभिरुचि को दर्शाती हैं। वे एक सरकारी विद्यालय में वरिष्ठ शिक्षिका के पद पर कार्यरत हैं और साथ ही एक उत्कृष्ट व प्रतिष्ठित कवयित्री भी हैं। देश के विभिन्न राज्यों में राष्ट्रीय मंचों से उनका काव्य पाठ निरंतर होता रहता है।'काव्य-मन', 'मुक्त-मन' और 'पिपासु-मन' जैसी रचनाओं की रचनाकार डॉ. शर्मा विभिन्न छंदों की ज्ञाता हैं। गीत, ग़ज़ल, दोहा, सोरठा, कुण्डलिया, रोला, कुंडलिनी जैसे विभिन्न काव्य रूपों में उन्हें महारत हासिल है। उनकी प्रत्येक कृति उत्कृष्ट लेखनी का उदाहरण है, जो समाज को सार्थक संदेश देती है। डॉ. रेणु शर्मा ने हिंदी साहित्य जगत में एक भावुक तथा अति संवेदनशील कवयित्री व साहित्यकार के रूप में अपनी विशिष्ट पहचान बनाई है। उनकी रचनाएँ दर्शकों व पाठकों द्वारा खूब सराही जाती हैं।उनकी प्रकाशित रचनाओं में मुक्तमन (2023), काव्यकुंज (2024), और पिपासु मन (2025) शामिल हैं। डॉ. शर्मा की कविताओं का प्रकाशन निरंतर विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं, राष्ट्रीय समाचार पत्रों और साझा संकलनों में होता रहता है। इसके अतिरिक्त, पटना दूरदर्शन और आकाशवाणी से भी उनके काव्य पाठ का प्रसारण होता रहता है।डॉ. रेणु शर्मा को उनके उत्कृष्ट कार्यों के लिए कई प्रतिष्ठित सम्मानों से नवाजा गया है। इनमें गुरु सम्मान, कोहिनूर सम्मान, दिनकर सम्मान, साहित्य सृजक सम्मान, अटल सम्मान 2023, साहित्य सेवी सम्मान, साहित्य रत्न सम्मान, बिहार रत्न सम्मान, नारी शक्ति सम्मान, निराला सम्मान, डॉ. बिजली सम्मान, महादेवी वर्मा सम्मान, बिहार गौरव सम्मान, फणीश्वरनाथ "रेणु" सम्मान आदि प्रमुख हैं।वैशाली जिले की हाजीपुर निवासी 5 जनवरी, 1967 को जन्मी डॉ. रेणु शर्मा के पति मनोज कुमार शर्मा भी एक पुलिस पदाधिकारी हैं। डॉ. रेणु शर्मा सही मायनों में एक प्रेरणादायक व्यक्तित्व हैं, जिन्होंने अपनी शिक्षा, साहित्य प्रेम और समाज सेवा के माध्यम से न केवल वैशाली का नाम रोशन किया है, बल्कि पूरे देश में अपनी एक अमिट छाप छोड़ी है।