देवकुंड: आस्था, इतिहास और चमत्कारों का संगम
सत्येन्द्र कुमार पाठक
बिहार के औरंगाबाद जिले के गोह प्रखंड और औरंगाबाद-अरवल जिले की सीमा पर स्थित देवकुंड एक ऐसा पवित्र स्थल है जो अपनी आध्यात्मिक महत्ता, ऐतिहासिक विरासत और चमत्कारी घटनाओं के लिए जाना जाता है। यहां का बाबा दूधेश्वरनाथ मंदिर और पांच सौ वर्षों से अधिक समय से प्रज्ज्वलित हवन कुंड की अग्नि इसे देश के अद्वितीय धार्मिक स्थलों में से एक बनाती है। देवकुंड स्थित दूधेश्वरनाथ मंदिर के गर्भगृह में स्थापित बाबा दूधेश्वरनाथ शिवलिंग नीलम पत्थर से निर्मित एक अद्भुत शिवलिंग है। इसे देश का एकमात्र ऐसा शिवलिंग माना जाता है जहां पांच सौ वर्षों से अधिक समय से अखंड अग्नि प्रज्ज्वलित है। धार्मिक मान्यताओं के अनुसार, यह महाकाल का उप ज्योतिर्लिंग 'दुग्धेश्वर' या 'दूधनाथ' शिवलिंग है, जिसे विश्वकर्मा द्वारा हिरण्यबाहु प्रदेश और भृगुक्षेत्र में स्थित शिव उपासकों की सुख-समृद्धि के लिए निर्मित किया गया था। शिवपुराण की कोटिरुद्र संहिता और लिंग पुराण में भी इसका उल्लेख मिलता है।
महर्षि च्यवन की तपोभूमि और चिरंजीवी अग्नि
यह स्थल महर्षि च्यवन की तपोभूमि के रूप में विख्यात है। वैवश्वत मन्वंतर में हिरण्यबाहु प्रदेश और सोन प्रदेश के वैवश्वत मनु के पुत्र राजा शर्याति के क्षेत्र में, महर्षि च्यवन ने इसी देवकुंड में तपस्या की थी। लोक कथाओं के अनुसार, भगवान श्री राम ने गया में अपने पितरों को पिंडदान करने से पहले यहीं भगवान शिव की स्थापना कर पूजा-अर्चना की थी।।इस स्थान की सबसे अनूठी विशेषता यहां के कुंड की अखंड अग्नि है, जो पांच सौ वर्षों से भी अधिक समय से निरंतर प्रज्ज्वलित है। यह अग्नि तब से जल रही है जब बाबा बालपुरी ने पांच सौ वर्ष पूर्व च्यवन ऋषि के आश्रम में साधना कर हवन किया और जीवित समाधि ले ली। आश्चर्यजनक रूप से, इस कुंड में प्रतिदिन हवन नहीं होता; इक्के-दुक्के आने-जाने वाले लोग ही धूप डालते हैं या कभी-कभी विशेष अवसरों पर हवन आयोजित होता है, फिर भी अग्नि कभी नहीं बुझती। ऊपर से देखने पर कुंड राख का ढेर लगता है, लेकिन राख में हाथ डालने पर अग्नि का एहसास होता है। कुंड में धूप डालकर पास रखे छड़ से राख को हटाने पर अग्नि तुरंत धूप को पकड़ लेती है और धुआं निकलने लगता है।
च्यवनप्राश का उद्गम और सहस्त्रधारा
देवकुंड वह पवित्र भूमि भी है जहां च्यवनप्राश का उद्गम हुआ। मंदिर के पुजारी अखिलेश्वरानंद पुरी और रामध्यान दास महाविद्यालय के प्राचार्य योगेंद्र उपाध्याय बताते हैं कि जब महर्षि च्यवन यहां तपस्या में लीन थे, तब राजा शर्याति और उनकी पुत्री सुकन्या जंगल में भ्रमण कर रहे थे। सुकन्या ने एक टीले के बीच चमकती रोशनी देखकर उसमें कुश डाल दिया, जिससे तपस्यारत महर्षि च्यवन की आंखें फूट गईं। महर्षि के श्राप से बचने के लिए राजा ने सुकन्या का विवाह महर्षि च्यवन से करा दिया।नवयौवन सुकन्या के विवाह के बाद, अश्विनी कुमारों ने यज्ञ कर महर्षि च्यवन को उसी सहस्त्रधारा (तालाब) में स्नान कराया और विशेष रसायन व सोमरस का पान कराया, जिससे महर्षि च्यवन को यौवन प्राप्त हुआ। यही रसायन बाद में च्यवनप्राश के नाम से प्रसिद्ध हुआ। देवताओं और ऋषियों द्वारा इस सरोवर का निर्माण करने के कारण इसे देवकुंड नाम मिला।।
ऐतिहासिक महत्व और वार्षिक आयोजन
देवकुंड का उल्लेख मि. एल.एस.एस.ओ. मॉली आई.सी.एस. द्वारा प्रकाशित 'लास्ट डिस्ट्रिक्ट गजेटियर ऑफ गया 1906' और पी.सी. राय चौधरी के 'बिहार डिस्ट्रिक्ट गजेटियर 1957' में भी मिलता है, जहां इसे एक ऐतिहासिक महत्व का स्थल बताया गया है, जिसमें भगवान शिव दूधेश्वरनाथ शिवलिंग, तालाब सरोवर और च्यवनाश्रम शामिल हैं।
सावन के महीने में देश-विदेश से श्रद्धालु भगवान शिव के दर्शन करने आते हैं और हवन कुंड में धूप अर्पित करते हैं। प्रत्येक वर्ष श्रावण मास में पटना से गंगाजल लेकर कांवरिये बाबा दूधेश्वरनाथ पर जलाभिषेक करते हैं। सहस्त्रधारा में बड़े पैमाने पर छठ पर्व भी आयोजित किया जाता है, जो इसकी धार्मिक और सांस्कृतिक महत्व को दर्शाता है।
देवकुंड वास्तव में आस्था, इतिहास और चमत्कारों का एक अनूठा संगम है, जहां प्राचीन परंपराएं और आधुनिक श्रद्धा एक साथ जीवंत हैं।
देवकुंड: एक अद्भुत स्थल
बिहार के औरंगाबाद जिले में स्थित देवकुंड केवल एक भौगोलिक स्थान नहीं, बल्कि एक ऐसा अद्भुत स्थल है जहाँ सदियों पुरानी आस्था, गहरा इतिहास और पौराणिक कथाएं एक साथ गुंथी हुई हैं। यह स्थान अपनी अनूठी विशेषताओं, विशेषकर महर्षि च्यवन और सुकन्या की कथा से, अत्यंत महत्वपूर्ण बन जाता है।
बाबा दूधेश्वरनाथ शिवलिंग (नीलम पत्थर): देवकुंड के केंद्र में स्थित दूधेश्वरनाथ मंदिर में एक अद्भुत शिवलिंग स्थापित है, जो नीलम पत्थर से निर्मित है। यह शिवलिंग देश में अपनी तरह का इकलौता माना जाता है। धार्मिक ग्रंथों के अनुसार, यह महाकाल का 'दुग्धेश्वर' या 'दूधनाथ' उप ज्योतिर्लिंग है, जिसे शिव उपासकों की समृद्धि के लिए विश्वकर्मा द्वारा निर्मित किया गया था।अखंड प्रज्ज्वलित कुंड की अग्नि (500+ वर्ष से): देवकुंड की सबसे चमत्कारी और अद्भुत विशेषता यहाँ के हवन कुंड की अग्नि है, जो पिछले 500 से अधिक वर्षों से निरंतर प्रज्ज्वलित है। यह अग्नि तब से जल रही है जब बाबा बालपुरी ने इस स्थान पर जीवित समाधि ली थी। यह आश्चर्यजनक है कि कुंड में नियमित हवन न होने के बावजूद यह अग्नि कभी नहीं बुझती, जो इसे एक अनूठा और रहस्यमयी स्थल बनाती है।महर्षि च्यवन की तपोभूमि: यह स्थान महान ऋषि च्यवन की तपोभूमि के रूप में विख्यात है। उन्होंने यहीं पर गहन तपस्या की थी, जिससे इस भूमि को आध्यात्मिक ऊर्जा प्राप्त हुई।भगवान राम का पूजा स्थल: ऐसी मान्यता है कि भगवान श्री राम ने गया में पिंडदान से पहले यहीं भगवान शिव की स्थापना कर उनकी पूजा-अर्चना की थी, जो इस स्थान की प्राचीनता और पवित्रता को दर्शाता है।सहस्त्रधारा (पवित्र सरोवर): मंदिर से कुछ दूरी पर स्थित यह विशाल तालाब 'सहस्त्रधारा' के नाम से जाना जाता है। यह वही सरोवर है जहाँ अश्विनी कुमारों ने महर्षि च्यवन को स्नान करवाकर उन्हें यौवन प्रदान किया था। आज भी यह छठ पर्व और सावन में जलाभिषेक जैसे आयोजनों का प्रमुख केंद्र है ।
देवकुंड का महत्व महर्षि च्यवन और सुकन्या की पौराणिक कथा से अविभाज्य रूप से जुड़ा हुआ है। यह कथा न केवल इस स्थान के नामकरण बल्कि प्रसिद्ध 'च्यवनप्राश' के उद्गम को भी स्पष्ट करती है:राजा शर्याति और सुकन्या: वैवश्वत मनु के पुत्र राजा शर्याति अपनी पुत्री सुकन्या के साथ जंगल में भ्रमण कर रहे थे। यहीं पर महर्षि च्यवन अपनी तपस्या में लीन थे।च्यवन ऋषि की आंखें फूटना: जिज्ञासावश, सुकन्या ने एक चमकती रोशनी (जो वास्तव में महर्षि च्यवन की तपस्या से उत्पन्न ऊर्जा थी) में कुश डाल दिया, जिससे महर्षि च्यवन की आंखें फूट गईं।सुकन्या का विवाह और श्राप मुक्ति: महर्षि के श्राप से बचने और अपनी पुत्री की भक्ति से प्रभावित होकर, राजा शर्याति ने सुकन्या का विवाह वृद्ध और नेत्रहीन महर्षि च्यवन से करा दिया। सुकन्या ने अपने पति की निस्वार्थ भाव से सेवा की।अश्विनी कुमारों द्वारा यौवन प्राप्ति: सुकन्या की भक्ति से प्रसन्न होकर, देव वैद्य अश्विनी कुमारों ने महर्षि च्यवन को पुनः यौवन प्रदान करने का निर्णय लिया। उन्होंने एक विशेष यज्ञ किया और महर्षि च्यवन को सहस्त्रधारा (वर्तमान देवकुंड सरोवर) में स्नान कराया। स्नान के पश्चात, उन्हें एक विशेष रसायन और सोमरस का सेवन कराया गया, जिससे महर्षि च्यवन को नवयौवन प्राप्त हुआ।'च्यवनप्राश' का उद्गम: महर्षि च्यवन को यौवन प्रदान करने वाला यही विशेष रसायन बाद में 'च्यवनप्राश' के नाम से प्रसिद्ध हुआ, जो आज भी स्वास्थ्यवर्धक टॉनिक के रूप में पूरे विश्व में जाना जाता है। यह कथा देवकुंड को 'च्यवनप्राश' की जन्मभूमि के रूप में स्थापित करती है।
देवकुंड का नामकरण: ऋषियों और देवताओं द्वारा इस सरोवर का निर्माण और इसमें महर्षि च्यवन को यौवन दिलाने की प्रक्रिया के कारण ही इस स्थान को 'देवकुंड' नाम मिला, जिसका अर्थ है 'देवताओं का कुंड'।देवकुंड का महत्व सिर्फ धार्मिक आस्था तक सीमित नहीं है, बल्कि यह एक ऐतिहासिक, सांस्कृतिक और आयुर्वेदिक दृष्टि से भी महत्वपूर्ण स्थल है:आध्यात्मिक केंद्र: बाबा दूधेश्वरनाथ शिवलिंग और अखंड अग्नि इसे एक शक्तिशाली आध्यात्मिक केंद्र बनाते हैं, जहाँ भक्त शांति और ऊर्जा की तलाश में आते हैं।
पौराणिक गौरव: महर्षि च्यवन और सुकन्या की कथा इस स्थल को एक अद्वितीय पौराणिक गौरव प्रदान करती है, जो इसे भारतीय संस्कृति और परंपराओं का अभिन्न अंग बनाती है।आयुर्वेदिक संबंध: च्यवनप्राश के उद्गम स्थल के रूप में, देवकुंड आयुर्वेद के इतिहास में एक महत्वपूर्ण स्थान रखता है।
सांस्कृतिक धरोहर: वार्षिक श्रावण मास मेले, कांवर यात्रा और छठ पर्व जैसे आयोजन यहाँ की जीवंत सांस्कृतिक धरोहर को दर्शाते हैं।पर्यटन क्षमता: इसकी अनूठी विशेषताओं और ऐतिहासिक पृष्ठभूमि के कारण इसमें धार्मिक पर्यटन के लिए अपार संभावनाएं हैं।।देवकुंड एक ऐसा अद्भुत स्थल है जहाँ अतीत के पदचिह्न आज भी स्पष्ट दिखाई देते हैं, और जहाँ महर्षि च्यवन व सुकन्या की कथाएँ आस्था और प्रेरणा का निरंतर स्रोत बनी हुई हैं।
देवकुंड: सूर्योपासना का स्थल और संज्ञा पुत्र दृष्ट और हृष्ट का कर्मक्षेत्र है। भगवान सूर्य की पत्नी संज्ञा के पुत्र दृष्ट का कर्म स्थल और सूर्योपासना का सरोवर होना। यह जानकारी देवकुंड को न केवल शिव और च्यवन ऋषि से जोड़ती है, बल्कि इसे सूर्य देव की आराधना से भी संबंधित करती है, जो इसकी बहुआयामी धार्मिक महत्ता को और बढ़ाता है। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार, देवकुंड वह पवित्र भूमि भी है जहाँ भगवान सूर्य की पत्नी संज्ञा (जिन्हें कभी-कभी छाया भी कहा जाता है) के पुत्र दृष्ट ने अपना कर्म किया था। दृष्ट, जो सूर्यवंशी परंपरा से जुड़े थे, का इस स्थल से जुड़ाव इसकी प्राचीनता और सूर्य देव के प्रति निष्ठा को दर्शाता है।देवकुंड का विशाल सहस्त्रधारा सरोवर न केवल महर्षि च्यवन के यौवन प्राप्ति से जुड़ा है, बल्कि यह सूर्योपासना का एक महत्वपूर्ण केंद्र भी रहा है। सूर्य देव हिंदू धर्म में प्रत्यक्ष देवता माने जाते हैं, जिनकी उपासना आरोग्य, समृद्धि और शक्ति प्रदान करती है। इस सरोवर में सूर्योदय और सूर्यास्त के समय विशेष रूप से छठ पर्व के दौरान बड़ी संख्या में श्रद्धालु अर्घ्य देने आते हैं। यह परंपरा इस बात का प्रमाण है कि देवकुंड सदियों से सूर्य देव की आराधना का एक प्रमुख स्थल रहा है ।देवकुंड इस प्रकार विभिन्न पौराणिक कथाओं और धार्मिक परंपराओं का संगम बन जाता है:शैव परंपरा: बाबा दूधेश्वरनाथ शिवलिंग के साथ भगवान शिव की उपासना का केंद्र।।ऋषि परंपरा: महर्षि च्यवन की तपोभूमि और च्यवनप्राश का उद्गम स्थल। रामायण संबंध: भगवान श्री राम द्वारा शिव पूजा का स्थल।सौर परंपरा: भगवान सूर्य के पुत्र दृष्ट का कर्म स्थल और सूर्योपासना का पवित्र सरोवर।
यह सभी तत्व मिलकर देवकुंड को बिहार में एक अद्वितीय और बहुआयामी धार्मिक स्थल बनाते हैं, जहाँ विभिन्न आस्थाएँ और पौराणिक कथाएँ एक साथ जीवंत होती हैं। भगवान राम ने बाबा दुदेश्वरनाथ पर जलाभिषेक त्रेतायुग में किया था । दुधेश्वश्वर नाथ को रमेश नाथ भी कहा गया था। त्रेतायुग में भगवान राम द्वारा जलाभिषेक और शिवलिंग का रमेशनाथ नाम। यह जानकारी देवकुंड के महत्व को और गहरा करती है, इसे सीधे भगवान राम से जोड़ते हुए।
त्रेतायुग में भगवान राम ने स्वयं बाबा दूधेश्वरनाथ शिवलिंग पर जलाभिषेक किया था। रामायण काल में, जब भगवान राम अपने पितरों को पिंडदान करने के लिए गया जा रहे थे, उससे पूर्व उन्होंने इस पवित्र स्थल पर भगवान शिव की स्थापना कर पूजा-अर्चना की थी। यह इस शिवलिंग के महत्व को असाधारण रूप से बढ़ा देता है, क्योंकि यह सीधे मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान राम के आध्यात्मिक सफर से जुड़ा हुआ है।
यह प्रसंग देवकुंड को उन दुर्लभ स्थानों में से एक बनाता है जहाँ स्वयं भगवान विष्णु के अवतार ने शिव की आराधना की थी, जो शैव और वैष्णव परंपराओं के संगम है।बाबा दूधेश्वरनाथ को "रमेशनाथ" भी कहा गया था। यह नामकरण अत्यंत प्रतीकात्मक और अर्थपूर्ण है। "रमेश" शब्द भगवान विष्णु का एक नाम है, जिसका अर्थ है "रमा (लक्ष्मी) के ईश (स्वामी)"। यदि दूधेश्वरनाथ को रमेशनाथ भी कहा गया, तो यह इस बात का संकेत हो सकता है कि:
हरि-हर एकात्मता: यह नाम शिव (नाथ) और विष्णु (रमेश) की एकात्मता को दर्शाता है। हिंदू धर्म में शिव और विष्णु को एक ही परम सत्ता के दो अलग-अलग रूप माना जाता है। रमेशनाथ नाम इस सिद्धांत को पुष्ट करता है कि यहाँ शिव की पूजा में विष्णु तत्व भी समाहित है।भगवान राम का जुड़ाव: चूंकि भगवान राम स्वयं विष्णु के अवतार हैं, उनके द्वारा स्थापित या पूजित शिवलिंग को "रमेशनाथ" कहा जाना स्वाभाविक है। यह नाम सीधे तौर पर भगवान राम के इस स्थान से जुड़ाव को संदर्भित करता है।स्थानीय परंपरा और लोककथाएं: यह नामकरण स्थानीय लोककथाओं और परंपराओं में विकसित हुआ हो सकता है, जो भगवान राम की उपस्थिति और उनकी पूजा के महत्व को उजागर करता है। देवकुंड का महत्व और भी विशाल हो जाता है: यह शैव, वैष्णव, सौर (सूर्य पूजा), और ऋषि परंपराओं (महर्षि च्यवन) का एक अनूठा संगम स्थल है।त्रेतायुग से इसकी प्राचीनता सिद्ध होती है, जब स्वयं भगवान राम ने यहाँ पूजा की थी।"रमेशनाथ" नाम इसकी बहुआयामी धार्मिक पहचान को पुष्ट करता है ।
देवकुंड एक ऐसा तीर्थ स्थल है जिसकी पहचान विभिन्न पौराणिक कालखंडों से जुड़ी हुई है, चाहे वह मन्वंतर काल हो या सतयुग, त्रेतायुग, और कलियुग। यह दर्शाता है कि देवकुंड केवल एक विशेष युग तक सीमित नहीं है, बल्कि यह सनातन काल से ही आध्यात्मिक महत्व रखता आया है। धर्मग्रंथों के अनुसार, मन्वंतर एक बहुत बड़ी कालावधि है, जो एक विशेष मनु के शासनकाल को संदर्भित करती है। प्रत्येक कल्प में चौदह मन्वंतर होते हैं। यह कहा गया है कि वैवश्वत मन्वंतर में, राजा शर्याति (वैवश्वत मनु के पुत्र) के क्षेत्र में महर्षि च्यवन ने देवकुंड को अपनी तपोभूमि बनाया। यह उल्लेख देवकुंड की प्राचीनता को मन्वंतर काल तक ले जाता है, जो इसे अत्यंत पुरातन और सार्वभौमिक रूप से महत्वपूर्ण बनाता है। यह दर्शाता है कि यह स्थल केवल युगों के चक्र में ही नहीं, बल्कि बड़े ब्रह्मांडीय समय चक्रों में भी अपनी पहचान रखता है। संवत्सर हिंदू ज्योतिषीय पंचांग का एक चक्र है, जिसमें 60 संवत्सरों का एक चक्र पूरा होता है, और प्रत्येक का अपना विशिष्ट नाम और प्रभाव होता है। जबकि संवत् (जैसे विक्रम संवत् या शक संवत्) ऐतिहासिक और धार्मिक काल गणना की इकाइयाँ हैं जो कैलेंडर वर्षों को दर्शाती हैं। देवकुंड की अग्नि पिछले पांच सौ वर्षों से अधिक समय से प्रज्ज्वलित है। यह एक स्पष्ट ऐतिहासिक और संवत् काल का संकेत है। यह बताता है कि भले ही इस स्थल का महत्व पौराणिक युगों से हो, लेकिन इसका वर्तमान स्वरूप और विशेष रूप से अखंड अग्नि का जलना पिछले कुछ संवत्सरों और संवत् कालों से लगातार देखा जा रहा है। यह कलियुग के भीतर की एक निश्चित ऐतिहासिक अवधि को दर्शाता है जब बाबा बालपुरी ने जीवित समाधि ली थी और अग्नि प्रज्ज्वलित हुई थी।
सतयुग में देवकुंड : हालाँकि देवकुंड के संदर्भ में सीधे सतयुग से जुड़ी कोई विस्तृत कथा नहीं मिलती, लेकिन यह माना जा सकता है कि यदि यह महर्षि च्यवन जैसे पुरातन ऋषियों की तपोभूमि रही है और भगवान शिव के उप-ज्योतिर्लिंग को यहाँ स्थापित किया गया था, तो इसकी जड़ें सतयुग तक अवश्य पहुँचती होंगी। सतयुग धर्म और पुण्य का सर्वोच्च काल माना जाता है। ऐसे पवित्र स्थल अक्सर सतयुग में ही स्थापित होते हैं और फिर विभिन्न युगों में अपनी महत्ता बनाए रखते हैं। नीलम पत्थर का शिवलिंग, जिसे विश्वकर्मा द्वारा निर्मित माना जाता है, उसकी उत्पत्ति भी सतयुग के दिव्य काल में हुई होगी। त्रेतायुग में देवकुंड : देवकुंड का त्रेतायुग से गहरा संबंध है। यह सबसे प्रमुख काल है जिसके संदर्भ में देवकुंड की पौराणिक कथाएं मिलती हैं:भगवान राम का जलाभिषेक: यह विशेष रूप से उल्लेख किया गया है कि त्रेतायुग में भगवान श्री राम ने लंका विजय के बाद अयोध्या वापसी से पहले, गया में अपने पितरों को पिंडदान करने से पूर्व, बाबा दूधेश्वरनाथ शिवलिंग पर जलाभिषेक किया था। यह तथ्य देवकुंड को रामायण काल से जोड़ता है और इसे एक अत्यंत पवित्र तीर्थ बनाता है।महर्षि च्यवन और सुकन्या: महर्षि च्यवन और राजा शर्याति व उनकी पुत्री सुकन्या की कथा भी त्रेतायुग से संबंधित मानी जाती है। इसी काल में अश्विनी कुमारों द्वारा च्यवन ऋषि को यौवन प्राप्त हुआ और च्यवनप्राश का उद्गम हुआ।"रमेशनाथ" नाम: यदि दूधेश्वरनाथ को "रमेशनाथ" भी कहा जाता था, तो यह भी त्रेतायुग में भगवान राम (जो विष्णु के अवतार हैं) की पूजा और उनके प्रभाव को दर्शाता है। कलियुग में देवकुंड : कलियुग है, और देवकुंड अपनी पूरी महिमा के साथ इस युग में भी विद्यमान है। कलियुग में देवकुंड का महत्व कई दृष्टियों से महत्वपूर्ण है:अखंड अग्नि की निरंतरता: कलियुग में भी कुंड की पांच सौ वर्ष से अधिक पुरानी अखंड अग्नि का प्रज्ज्वलित रहना एक चमत्कार है। यह श्रद्धा और आस्था का एक जीता-जागता प्रमाण है, जो इस पापमय और धर्मविहीन युग में भी लोगों को अपनी ओर आकर्षित करता है। तीर्थयात्रा और महोत्सव: आज भी सावन मास में औरंगाबाद तथा दूर-दूर से काँवरिये यहां गंगाजल लेकर जलाभिषेक करने आते हैं। सहस्त्रधारा में छठ पर्व का बड़े पैमाने पर आयोजन होता है। यह सब कलियुग में भी देवकुंड के धार्मिक और सांस्कृतिक महत्व को बनाए रखता है। पौराणिक ज्ञान का संरक्षण: कलियुग में, जहाँ धर्म का ह्रास माना जाता है, देवकुंड जैसे स्थल पौराणिक कथाओं, ऐतिहासिक जानकारियों और आध्यात्मिक शिक्षाओं को संरक्षित रखने का कार्य करते हैं।