शुक्रवार, सितंबर 05, 2025

शिक्षा और समाज

शिक्षा और समाज: एक अटूट संबंध
सत्येन्द्र कुमार पाठक
शिक्षा और समाज एक-दूसरे के पूरक हैं। एक के बिना दूसरे की कल्पना करना असंभव है। जहाँ एक ओर शिक्षा समाज की दिशा और दशा तय करती है, वहीं दूसरी ओर समाज ही शिक्षा की नींव रखता है। यह संबंध इतना गहरा है कि इसे केवल एक शब्द में परिभाषित नहीं किया जा सकता, बल्कि इसके लिए हमें कई आयामों को समझना होगा। शिक्षा सिर्फ़ किताबी ज्ञान नहीं है, बल्कि यह एक प्रक्रिया है जो व्यक्ति को सामाजिक, नैतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक रूप से विकसित करती है। यह व्यक्ति को समाज का एक सक्रिय और ज़िम्मेदार नागरिक बनाती है।
समाज का विकास उसके नागरिकों के मानसिक और बौद्धिक विकास पर निर्भर करता है। शिक्षा इस विकास का सबसे महत्वपूर्ण उपकरण है। यह न केवल लोगों को ज्ञान और कौशल प्रदान करती है, बल्कि उनमें आलोचनात्मक सोच, तर्क शक्ति और समस्या समाधान की क्षमता भी विकसित करती है। एक शिक्षित समाज अंधविश्वासों और कुरीतियों से मुक्त होता है। यह रूढ़िवादिता को चुनौती देता है और प्रगतिशील विचारों को अपनाता है। शिक्षा सामाजिक समरसता को बढ़ावा देती है। जब लोग शिक्षित होते हैं, तो वे एक-दूसरे के विचारों, संस्कृतियों और विश्वासों का सम्मान करना सीखते हैं। यह जाति, धर्म, लिंग और वर्ग के आधार पर होने वाले भेदभाव को कम करने में मदद करता है। शिक्षा लोगों को एक-दूसरे के साथ संवाद करने और सहयोग करने के लिए एक सामान्य मंच प्रदान करती है, जिससे सामाजिक एकता मजबूत होती है। एक शिक्षित समाज में नागरिक अपने अधिकारों और कर्तव्यों के प्रति अधिक जागरूक होते हैं। वे सरकार की नीतियों को समझते हैं, सार्वजनिक बहसों में भाग लेते हैं और अपने नेताओं को जवाबदेह ठहराते हैं। यह लोकतांत्रिक मूल्यों को मजबूत करता है और एक पारदर्शी एवं न्यायपूर्ण शासन व्यवस्था को बढ़ावा देता है।
शिक्षा का सीधा संबंध किसी भी देश की आर्थिक प्रगति से है। एक शिक्षित कार्यबल उत्पादकता और नवाचार को बढ़ाता है। जब लोग उच्च कौशल प्राप्त करते हैं, तो वे बेहतर नौकरियाँ पाते हैं, अधिक कमाते हैं और अर्थव्यवस्था में अधिक योगदान करते हैं। शिक्षा उद्यमिता को भी प्रोत्साहित करती है। शिक्षित व्यक्ति नए व्यवसाय शुरू करने और रोज़गार के अवसर पैदा करने में सक्षम होते हैं। गरीबी और शिक्षा का गहरा संबंध है। शिक्षा गरीबी से बाहर निकलने का सबसे प्रभावी तरीका है। यह लोगों को उच्च आय वाले रोज़गार के अवसर प्रदान करती है, जिससे उनकी जीवनशैली में सुधार होता है। आर्थिक असमानता को कम करने में भी शिक्षा की महत्वपूर्ण भूमिका है। यह सभी को समान अवसर प्रदान करती है, चाहे वे किसी भी सामाजिक या आर्थिक पृष्ठभूमि से हों।
संस्कृति किसी भी समाज की पहचान होती है। शिक्षा इस पहचान को बनाए रखने और अगली पीढ़ी तक पहुँचाने का काम करती है। यह हमें अपनी भाषा, साहित्य, कला और परंपराओं का महत्व सिखाती है। शिक्षा के माध्यम से ही हम अपनी सांस्कृतिक विरासत के प्रति सम्मान विकसित करते हैं और उसे संरक्षित करने का प्रयास करते हैं। साथ ही, शिक्षा हमें अन्य संस्कृतियों के बारे में जानने और समझने का अवसर भी देती है। यह हमें एक वैश्विक नागरिक बनाती है, जो दुनिया के अन्य हिस्सों के लोगों के साथ संवाद करने और सहयोग करने में सक्षम है। यह सांस्कृतिक आदान-प्रदान को बढ़ावा देता है, जिससे दुनिया भर में शांति और समझ को बढ़ावा मिलता है।
शिक्षा एक शक्तिशाली परिवर्तन का साधन है। यह समाज में मौजूद कुरीतियों और अन्याय को चुनौती देती है। शिक्षा ने महिलाओं को सशक्त बनाया है, जिससे वे घर की चारदीवारी से बाहर निकलकर समाज के हर क्षेत्र में योगदान कर रही हैं। इसने बाल विवाह, दहेज प्रथा और जातिगत भेदभाव जैसी सामाजिक बुराइयों के खिलाफ जागरूकता पैदा की है।
शिक्षा ने लोगों को अपने अधिकारों के लिए लड़ने और अन्याय का विरोध करने के लिए प्रेरित किया है। यह सामाजिक आंदोलनों और क्रांतियों की नींव रही है। इतिहास गवाह है कि जब-जब समाज में बदलाव की लहर आई है, तब-तब शिक्षा ने एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
आज भी हमारे समाज में शिक्षा से जुड़ी कई चुनौतियाँ हैं। निरक्षरता, शैक्षणिक असमानता, अपर्याप्त बुनियादी ढाँचा, और गुणवत्तापूर्ण शिक्षकों की कमी कुछ प्रमुख समस्याएँ हैं। पिछड़े क्षेत्रों, ग्रामीण इलाकों और हाशिए पर रहने वाले समुदायों में रहने वाले लोग अक्सर शिक्षा के उचित लाभों से वंचित रह जाते हैं। इन चुनौतियों का समाधान करने के लिए सरकार और समाज दोनों को मिलकर काम करना होगा। हमें शिक्षा तक पहुँच को सार्वभौमिक बनाना होगा, ताकि कोई भी बच्चा शिक्षा से वंचित न रहे। हमें शिक्षा की गुणवत्ता पर ध्यान देना होगा और यह सुनिश्चित करना होगा कि पाठ्यक्रम व्यावहारिक और प्रासंगिक हो। शिक्षकों को उचित प्रशिक्षण और समर्थन प्रदान करना भी अत्यंत महत्वपूर्ण है। डिजिटल शिक्षा एक नई संभावना लेकर आई है। यह दूर-दराज के क्षेत्रों में भी गुणवत्तापूर्ण शिक्षा पहुँचाने में मदद कर सकती है। हमें इस तकनीक का अधिकतम लाभ उठाना होगा और डिजिटल डिवाइड को कम करने के लिए प्रयास करने होंगे। शिक्षा और समाज एक-दूसरे के साथ एक जटिल और अटूट संबंध साझा करते हैं। शिक्षा ही वह नींव है जिस पर एक प्रगतिशील, न्यायपूर्ण और समृद्ध समाज का निर्माण होता है। यह व्यक्ति को आत्मनिर्भर बनाती है, सामाजिक समरसता को बढ़ावा देती है और आर्थिक विकास को गति देती है। एक देश का भविष्य उसके शिक्षा तंत्र पर निर्भर करता है। हमें यह सुनिश्चित करना चाहिए कि हर व्यक्ति को अच्छी शिक्षा मिले, चाहे वह किसी भी परिस्थिति में हो। शिक्षा सिर्फ़ एक अधिकार नहीं है, बल्कि यह एक जिम्मेदारी भी है। हमें अपने और अपने समाज के विकास के लिए शिक्षा के महत्व को समझना चाहिए और इसे बढ़ावा देने के लिए लगातार प्रयास करने चाहिए। जब हम शिक्षा को प्राथमिकता देंगे, तभी हमारा समाज सही मायने में विकसित होगा और हम एक बेहतर दुनिया का निर्माण कर सकेंगे।

 Education and Society: An Unbreakable Bond
Satyendra Kumar Pathak
Education and society are complementary to each other. It is impossible to imagine one without the other. While education determines the direction and condition of a society, it is society that lays the foundation for education. This relationship is so profound that it cannot be defined in a single word; instead, we must understand its many dimensions. Education is not just book knowledge; it is a process that develops a person socially, morally, economically, and culturally. It makes an individual an active and responsible citizen of society.
The development of a society depends on the mental and intellectual growth of its citizens. Education is the most important tool for this development. It not only provides people with knowledge and skills but also develops their critical thinking, reasoning, and problem-solving abilities. An educated society is free from superstitions and social evils. It challenges conventionalism and embraces progressive ideas. Education promotes social harmony. When people are educated, they learn to respect each other's ideas, cultures, and beliefs. This helps reduce discrimination based on caste, religion, gender, and class. Education provides a common platform for people to communicate and cooperate with each other, which strengthens social unity. In an educated society, citizens are more aware of their rights and duties. They understand government policies, participate in public debates, and hold their leaders accountable. This strengthens democratic values and promotes a transparent and just governance system.
Education is directly related to a country's economic progress. An educated workforce boosts productivity and innovation. When people acquire high skills, they get better jobs, earn more, and contribute more to the economy. Education also encourages entrepreneurship. Educated individuals are able to start new businesses and create employment opportunities. There is a deep connection between poverty and education. Education is the most effective way to escape poverty. It provides people with opportunities for high-paying jobs, which improves their standard of living. Education also plays an important role in reducing economic inequality. It provides equal opportunities for everyone, regardless of their social or economic background.
Culture is the identity of any society. Education works to preserve this identity and pass it on to the next generation. It teaches us the importance of our language, literature, art, and traditions. It is through education that we develop respect for our cultural heritage and try to preserve it. At the same time, education also gives us the opportunity to learn about and understand other cultures. It makes us a global citizen who is capable of communicating and cooperating with people from other parts of the world. This promotes cultural exchange, which in turn promotes peace and understanding around the world.
Education is a powerful tool for change. It challenges the social evils and injustice that exist in society. Education has empowered women, allowing them to step out of the confines of their homes and contribute to every sector of society. It has created awareness against social evils such as child marriage, the dowry system, and caste-based discrimination. Education has inspired people to fight for their rights and protest against injustice. It has been the foundation of social movements and revolutions. History is a witness that whenever a wave of change has come in society, education has played an important role.
Even today, our society faces many challenges related to education. Illiteracy, educational inequality, inadequate infrastructure, and a lack of quality teachers are some of the major problems. People living in backward areas, rural areas, and marginalized communities are often deprived of the proper benefits of education. To solve these challenges, both the government and society must work together. We have to make access to education universal so that no child is deprived of education. We need to focus on the quality of education and ensure that the curriculum is practical and relevant. Providing proper training and support to teachers is also extremely important. Digital education has brought a new possibility. It can help provide quality education even in remote areas. We have to take maximum advantage of this technology and make efforts to reduce the digital divide.
Education and society share a complex and unbreakable bond. Education is the foundation on which a progressive, just, and prosperous society is built. It makes an individual self-reliant, promotes social harmony, and accelerates economic development. The future of a country depends on its education system. We must ensure that every person gets a good education, no matter what their circumstances are. Education is not just a right, but it is also a responsibility. We should understand the importance of education for our and our society's development and constantly strive to promote it. Only when we prioritize education will our society truly develop and we will be able to build a better world.

आस्था का द्योतक है झिझिया लोकनृत्य

बज्जि एवं मिथिला की पहचान और आस्था का प्रतीक लोक नृत्य झिझिया 
सत्येन्द्र कुमार पाठक 
झिझिया, बिहार के मिथिलांचल क्षेत्र का एक प्राचीन और प्रसिद्ध लोक नृत्य है। यह केवल एक नृत्य नहीं, बल्कि इस क्षेत्र की समृद्ध आध्यात्मिक और कृषि प्रधान संस्कृति का जीवंत प्रतीक है। यह विशेष रूप से शारदीय नवरात्रि और दशहरा के उत्सवों के दौरान किया जाता है, जिसका मुख्य उद्देश्य देवी दुर्गा को प्रसन्न करना और समाज को बुरी शक्तियों से बचाना है। झिझिया नृत्य का इतिहास सदियों पुराना है और यह बज्जि एवं  मिथिला की सांस्कृतिक धरोहर का एक अभिन्न अंग है। यह नृत्य माता सीता के जन्मस्थान सीतामढ़ी, मुजफ्फरपुर, दरभंगा, मधुबनी, वैशाली और बज्जिकाँचल जैसे क्षेत्रों में विशेष रूप से लोकप्रिय है। लोक कथाओं के अनुसार, इस नृत्य का संबंध  मध्यप्रदेश का मालवा का तथा बज्जि का राजा चित्रसेन और उनकी रानी के प्रेम प्रसंगों से भी है।
झिझिया केवल एक धार्मिक अनुष्ठान नहीं है, बल्कि इसका गहरा संबंध कृषि से भी है। किसान अच्छी फसल और पर्याप्त वर्षा के लिए देवताओं से प्रार्थना करने हेतु यह नृत्य करते थे। इसलिए, यह नृत्य बज्जिकाँचल एवं  मिथिलांचल की आध्यात्मिक और कृषि प्रधान दोनों संस्कृतियों का प्रतिनिधित्व करता है। झिझिया नृत्य मुख्य रूप से महिलाओं और कुंवारी लड़कियों द्वारा किया जाता है। इसकी सबसे अनूठी और आकर्षक विशेषता यह है कि नृत्यांगनाएं अपने सिर पर छेद वाला मिट्टी का घड़ा (मटका) रखती हैं, जिसके अंदर एक जलती हुई दीया रखा जाता है। यह दृश्य न केवल देखने में अद्भुत लगता है, बल्कि इसका गहरा प्रतीकात्मक महत्व भी है।
जलता हुआ दीया: यह बुराई पर अच्छाई की विजय और अज्ञानता के अंधकार को दूर करने वाले ज्ञान का प्रतीक है।
छेद वाला मटका: यह नृत्यांगनाओं की प्रार्थना का प्रतीक है, जिसके माध्यम से वे बुरी आत्माओं और नकारात्मक ऊर्जाओं को अपने परिवार और समाज से दूर करने की कामना करती हैं। यह नृत्य प्रत्येक वर्ष अश्विन शुक्ल प्रतिपदा (कलश स्थापना) के दिन से शुरू होकर विजयादशमी तक लगातार चलता रहता है।
झिझिया नृत्य की सामाजिक और धार्मिक भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण है। यह देवी दुर्गा के प्रति महिलाओं के समर्पण का प्रतीक है और यह माना जाता है कि इस नृत्य के माध्यम से वे अपने परिवार और समाज को डायनों, काले जादू और अन्य बुरी शक्तियों से बचाती हैं। यह नृत्य समाज में महिलाओं की भागीदारी को दर्शाता है और उन्हें एक शक्ति के रूप में प्रस्तुत करता है। यह एक सामूहिक नृत्य है जिसमें महिलाएं एक घेरा बनाकर नाचती हैं, जिससे सामुदायिक भावना और एकजुटता को बढ़ावा मिलता है।  झिझिया नृत्य के साथ पारंपरिक लोकगीत गाए जाते हैं, जिनमें देवी-देवताओं की महिमा और लोक कथाओं का वर्णन होता है। इन गीतों को लय और ताल देने के लिए ढोलक और मृदंग जैसे पारंपरिक वाद्ययंत्रों का उपयोग किया जाता है। इन वाद्ययंत्रों की थाप पर महिलाएं लयबद्ध तरीके से नृत्य करती हैं, जिससे पूरा वातावरण भक्ति और उत्साह से भर जाता है।आधुनिकता के इस दौर में, झिझिया नृत्य अपनी पहचान कुछ हद तक खोता जा रहा है, लेकिन आज भी यह मिथिला की लोक संस्कृति की एक महत्वपूर्ण पहचान बना हुआ है। दुर्गा पूजा के दौरान ग्रामीण क्षेत्रों में, खासकर कुंवारी लड़कियां इस नृत्य को पूरी लगन और उत्साह के साथ करती हैं, जिससे यह प्राचीन कला जीवित बनी हुई है। झिझिया सिर्फ एक नृत्य नहीं, बल्कि बज्जिकाँचल और  मिथिला की सांस्कृतिक धरोहर, आस्था और सामाजिक एकजुटता का प्रतीक है। यह हमें सिखाता है कि कैसे कला, धर्म और परंपराएं एक साथ मिलकर एक सशक्त समाज का निर्माण कर सकती हैं। यह नृत्य भारतीय संस्कृति की विविधता और समृद्धि का एक अनुपम उदाहरण है।

गुरुवार, सितंबर 04, 2025

आत्मबोध से विश्व बोध

आत्मबोध से विश्वबोध: स्वयं की खोज से ब्रह्मांड की पहचान
सत्येन्द्र कुमार पाठक 
मानव जीवन की यात्रा एक अनवरत खोज है, और इस खोज का सबसे महत्वपूर्ण पड़ाव है आत्मबोध। आत्मबोध का शाब्दिक अर्थ है, 'स्वयं को जानना'। यह सिर्फ अपने नाम, पहचान या पद को जानना नहीं है, बल्कि अपनी आंतरिक प्रकृति, क्षमताओं, सीमाओं और जीवन के उद्देश्य को गहराई से समझना है। यह एक ऐसी प्रक्रिया है जो हमें हमारे अस्तित्व के केंद्र से जोड़ती है और हमें बाहरी दुनिया के शोर से परे, अपने भीतर झाँकने का साहस देती है। यह यात्रा व्यक्ति को व्यक्तिगत जीवन की संकीर्णता से उठाकर संपूर्ण ब्रह्मांड के साथ एकाकार करती है, जिसे हम विश्वबोध कहते हैं। भारतीय दर्शन में आत्मबोध का विचार हजारों वर्षों से पोषित होता रहा है। हमारे प्राचीन शिक्षा का मूल आधार ही स्वयं को जानना था। वेदव्यास की आत्मबोधोपनिषद से लेकर आदि शंकराचार्य द्वारा रचित 'आत्मबोध' जैसे ग्रंथ इसी ज्ञान की महत्ता को दर्शाते हैं। शंकराचार्य का 'आत्मबोध' एक छोटा, किन्तु अत्यंत महत्वपूर्ण ग्रंथ है, जिसमें मात्र अड़सठ श्लोकों के माध्यम से आत्मा के वास्तविक स्वरूप का निरूपण किया गया है। यह ग्रंथ उन साधकों के लिए एक मार्गदर्शक है, जो जीवन के परम सत्य को जानना चाहते हैं। जैसा कि स्वामी विदेहात्मानंद ने भी हिंदी में इसकी व्याख्या की है, यह ज्ञान आज भी प्रासंगिक है।
'आत्मबोध' का प्रथम श्लोक, "तपोभिः क्षीणपापानां शान्तानां वीतरागिणाम् । मुमुक्षूणामपेक्ष्योऽयमात्मबोधो विधीयते ॥१॥", इस यात्रा की पहली शर्त को स्पष्ट करता है। इसका अर्थ है कि यह ज्ञान उन लोगों के लिए है, जिन्होंने तप के अभ्यास से अपने पापों को क्षीण कर लिया है, जिनके मन शांत हैं, जो राग-द्वेष या आसक्तियों से रहित हैं और जिनमें मोक्ष की तीव्र इच्छा है। यह श्लोक बताता है कि आत्मज्ञान कोई आकस्मिक घटना नहीं, बल्कि एक व्यवस्थित और अनुशासित साधना का परिणाम है। दार्शनिक रूप से, आत्मबोध हमें यह प्रश्न पूछने के लिए प्रेरित करता है कि "मैं कौन हूँ?"। क्या मैं यह शरीर हूँ? या यह मन हूँ? या यह विचार और भावनाएँ हूँ? वेदान्त दर्शन के अनुसार, हमारा वास्तविक स्वरूप इन सबसे परे है। हम न तो शरीर हैं, न मन हैं, बल्कि हम शुद्ध चेतना, या आत्मा हैं। यह ज्ञान हमें शरीर और मन की क्षणभंगुरता से मुक्त करता है और हमें अपने शाश्वत, अविनाशी स्वरूप का एहसास कराता है। जब हम इस सत्य को समझते हैं, तो जीवन में आने वाले सुख-दुख, लाभ-हानि हमें विचलित नहीं कर पाते, क्योंकि हम जानते हैं कि ये सब सिर्फ बाहरी और अस्थायी परिस्थितियाँ हैं। मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से, आत्मबोध को आत्म-जागरूकता के रूप में समझा जा सकता है। यह हमें अपनी ताकत और कमजोरियों को पहचानने में मदद करता है, जिससे हम व्यक्तिगत और पेशेवर जीवन में बेहतर प्रदर्शन कर पाते हैं। आत्म-जागरूक व्यक्ति अपनी भावनाओं को पहचानता है और उन्हें स्वस्थ तरीके से प्रबंधित कर पाता है। वह जानता है कि उसे क्या प्रेरित करता है, क्या उसे निराश करता है और वह कैसे अपनी प्रतिक्रियाओं को नियंत्रित कर सकता है। जब हमें पता होता है कि हम क्या हैं, तो हम अनावश्यक दिखावे और दूसरों से तुलना करने की प्रवृत्ति से बचते हैं। यह हमें एक आंतरिक शांति और संतोष प्रदान करता है जो बाहरी सफलता से कहीं अधिक मूल्यवान है।
आत्मबोध की यात्रा सरल नहीं है। यह मन को शांत करने, आत्म-निरीक्षण करने और अपनी कमजोरियों का सामना करने की मांग करती है। इसके लिए कुछ प्रमुख साधनों का सहारा लिया जाता है: ध्यान आत्मबोध का सबसे महत्वपूर्ण और प्रभावी साधन है। ध्यान हमें अपने मन को शांत करने और विचारों की भीड़ से दूरी बनाने में मदद करता है। नियमित ध्यान अभ्यास से हम अपने भीतर चल रहे विचारों, भावनाओं और संवेदनाओं को बिना किसी पूर्वाग्रह के देख पाते हैं। यह हमें अपने मन को नियंत्रित करने और अनावश्यक विकर्षणों से मुक्त होने की शक्ति देता है। चिंतन और आत्म-निरीक्षण: यह प्रक्रिया हमें अपने विचारों, भावनाओं और कार्यों का गहराई से विश्लेषण करने का अवसर देती है। हमें स्वयं से प्रश्न पूछना चाहिए: मैं क्या सोचता हूँ? मैं क्यों सोचता हूँ? मेरे कार्यों का क्या प्रभाव पड़ता है? इस तरह का आत्म-निरीक्षण हमें अपनी आदतों, पैटर्न और प्रेरणाओं को समझने में मदद करता है। यह हमें उन नकारात्मक प्रवृत्तियों को पहचानने में मदद करता है जो हमें रोकती हैं।स्वाध्याय: आध्यात्मिक और दार्शनिक ग्रंथों का अध्ययन हमें आत्मज्ञान के मार्ग पर आवश्यक ज्ञान और प्रेरणा प्रदान करता है। शंकराचार्य के 'आत्मबोध' जैसे ग्रंथ हमें आत्मतत्व के बारे में गहन समझ देते हैं। यह हमें यह जानने में मदद करता है कि हमारा वास्तविक स्वरूप क्या है और हम इस दुनिया में क्यों हैं। ये ग्रंथ हमें आध्यात्मिक सिद्धांतों और जीवन के नैतिक मूल्यों से परिचित कराते हैं। निःस्वार्थ सेवा (Selfless Service): दूसरों की निःस्वार्थ सेवा करने से हमारे अहंकार में कमी आती है और हम स्वयं को संपूर्णता का एक हिस्सा मानना शुरू करते हैं। जब हम दूसरों के लिए कुछ करते हैं, तो हम अपनी व्यक्तिगत पहचान से परे उठते हैं और एक व्यापक चेतना के साथ जुड़ते हैं। यह हमें दूसरों के दुख और खुशी को महसूस करने की क्षमता देता है, जिससे करुणा और सहानुभूति का विकास होता है। जब व्यक्ति आत्मबोध की इस कठिन यात्रा को पार करता है, तो उसे एक अनूठी उपलब्धि प्राप्त होती है: सकारात्मक ऊर्जा और सोच का संचार। आत्मज्ञानी व्यक्ति का मन शांत और स्थिर होता है। वह बाहरी परिस्थितियों से विचलित नहीं होता, क्योंकि उसकी खुशी का स्रोत उसके भीतर होता है। यह सकारात्मक ऊर्जा न केवल उसके जीवन को बेहतर बनाती है, बल्कि उसके आस-पास के लोगों और वातावरण को भी प्रभावित करती है। एक शांत और सकारात्मक व्यक्ति अपने आसपास के लोगों को भी शांति और सकारात्मकता की ओर प्रेरित करता है। आत्मबोध की यात्रा यहीं समाप्त नहीं होती, बल्कि यहीं से विश्वबोध की यात्रा शुरू होती है। जब हम स्वयं के अस्तित्व को गहराई से समझते हैं, तो हमें यह एहसास होता है कि हम इस विशाल ब्रह्मांड का एक छोटा सा हिस्सा हैं। हमारी चेतना और अस्तित्व दूसरों से अलग नहीं, बल्कि एक ही ब्रह्मांडीय चेतना का विस्तार हैं। यह बोध हमें 'वसुधैव कुटुंबकम्' (संपूर्ण पृथ्वी एक परिवार है) की भावना से भर देता है।
विश्वबोध का अर्थ है, दूसरों को भी अपने समान समझना। यह हमें सहानुभूति और करुणा से भर देता है। जब हम किसी और के दुख को देखते हैं, तो हम उसे अपनी ही पीड़ा का एक हिस्सा महसूस करते हैं। यह भावना हमें दूसरों की मदद करने, समाज के कल्याण के लिए काम करने और एक बेहतर दुनिया बनाने के लिए प्रेरित करती है। एक आत्मज्ञानी व्यक्ति के लिए सेवा और निःस्वार्थ कर्म केवल कर्तव्य नहीं, बल्कि उसके अस्तित्व का स्वाभाविक विस्तार बन जाते हैं।
विश्वबोध हमें यह भी सिखाता है कि हम सभी एक ही चेतना के अंश हैं। हम सभी एक-दूसरे से और प्रकृति से जुड़े हुए हैं। इस बोध से हम पर्यावरण और मानवता के प्रति अधिक जिम्मेदार हो जाते हैं। हम समझते हैं कि प्रकृति को नुकसान पहुँचाना स्वयं को नुकसान पहुँचाना है, और दूसरों को दुख पहुँचाना स्वयं को दुख पहुँचाना है। यह हमें एक अधिक सामंजस्यपूर्ण और स्थायी जीवनशैली अपनाने के लिए प्रेरित करता है।
आज की दुनिया में, जहाँ तनाव, चिंता, प्रतिस्पर्धा और अकेलापन आम हैं, आत्मबोध का महत्व और भी बढ़ जाता है। आधुनिक जीवन की भागदौड़ में हम अक्सर अपने आप से कट जाते हैं। हम बाहरी सफलताओं, जैसे धन, पद और प्रतिष्ठा, के पीछे भागते रहते हैं और अपनी आंतरिक शांति को खो देते हैं। आत्मबोध हमें इस दौड़ से रुकने और अपने भीतर झाँकने का अवसर देता है। यह हमें यह समझने में मदद करता है कि सच्ची खुशी बाहरी चीजों में नहीं, बल्कि हमारे भीतर ही है। आत्मबोध हमें एक उद्देश्यपूर्ण जीवन जीने में मदद करता है। जब हम अपनी वास्तविक पहचान और क्षमताओं को जानते हैं, तो हम अपने जीवन के लिए एक सार्थक लक्ष्य निर्धारित कर पाते हैं। यह हमें न केवल व्यक्तिगत रूप से, बल्कि सामाजिक रूप से भी अधिक सफल और संतुष्ट बनाता है। एक आत्मज्ञानी व्यक्ति समाज में सकारात्मक बदलाव लाने की क्षमता रखता है, क्योंकि वह दूसरों की जरूरतों और दुखों को अधिक गहराई से समझता है। यह व्यक्ति समाज में एकता, शांति और सहिष्णुता को बढ़ावा देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है। आत्मबोध से उत्पन्न सकारात्मक सोच हमें जीवन की चुनौतियों का सामना करने की शक्ति देती है। यह हमें हर स्थिति में आशावादी बने रहने और समाधान खोजने के लिए प्रेरित करती है। जब हम यह समझ लेते हैं कि हम एक व्यापक ब्रह्मांडीय व्यवस्था का हिस्सा हैं, तो हमारी व्यक्तिगत परेशानियाँ छोटी लगने लगती हैं और हम एक बड़े उद्देश्य के लिए काम करना शुरू करते हैं।
आत्मबोध से विश्वबोध की यात्रा स्वयं को जानने से शुरू होती है और संपूर्ण मानवता को स्वीकार करने पर समाप्त होती है। यह एक ऐसी यात्रा है जो हमें अपने अहंकार और संकीर्णता से मुक्त करती है और हमें एक अधिक शांत, सकारात्मक और उद्देश्यपूर्ण जीवन जीने में मदद करती है। यह हमें सिखाती है कि सच्चा ज्ञान अपने भीतर पाया जाता है और जब हम उस ज्ञान को पाते हैं, तो हम न केवल स्वयं को, बल्कि सम्पूर्ण ब्रह्मांड को पहचान लेते हैं। यह आत्मबोध ही है जो हमें सही मायने में मानव बनाता है और हमें एक बेहतर विश्व का निर्माण करने की शक्ति देता है।
जैसा कि आदि शंकराचार्य ने अपने 'आत्मबोध' में समझाया है, यह ज्ञान मोक्ष की इच्छा रखने वाले साधकों के लिए है। लेकिन आधुनिक संदर्भ में, यह ज्ञान हर उस व्यक्ति के लिए है जो जीवन में सच्ची शांति, खुशी और उद्देश्य की तलाश में है। आत्मबोध से उत्पन्न सकारात्मक ऊर्जा और सोच ही विश्वबोध का सच्चा आधार है, जो एक बेहतर और अधिक सामंजस्यपूर्ण समाज का निर्माण कर सकती है। हमें इस यात्रा को शुरू करने का साहस करना चाहिए, क्योंकि अंततः, स्वयं को जानना ही ब्रह्मांड को जानने का एकमात्र मार्ग है।

मंगलवार, सितंबर 02, 2025

जीवनधारा नमामी गंगे का परिभ्रमण

नमामी गंगे: एक यात्रा जो दिलों को छू गई
 सत्येन्द्र कुमार पाठक 
बिहार, एक ऐसा राज्य जिसकी मिट्टी में इतिहास की खुशबू है और जिसकी नदियों में संस्कृति की धारा बहती है। हाल ही में, 'जीवनधारा नमामी गंगे' संस्था के एक प्रतिनिधिमंडल के रूप में मुझे इस अद्भुत राज्य की यात्रा करने का मौका मिला। यह यात्रा सिर्फ एक सामान्य दौरा नहीं थी, बल्कि यह गंगा और उसकी सहायक नदियों को पुनर्जीवित करने के मिशन से जुड़ी एक भावनात्मक और आध्यात्मिक यात्रा थी। 25 अगस्त से 30 अगस्त तक चली इस यात्रा में, हमने पटना, वैशाली और मुजफ्फरपुर के लोगों, घाटों और ऐतिहासिक धरोहरों , पर्यावरण के साथ एक गहरा संबंध महसूस किया। यह यात्रा एक मिशन थी—गंगा संरक्षण और पर्यावरण जागरूकता के संदेश को जन-जन तक पहुँचाने का मिशन।
पटना में एक नई शुरुआत: राजभवन का अनुभव - हमारी यात्रा की शुरुआत 26 अगस्त को जहानाबाद से हुई। सुबह की ट्रेन से हम पटना पहुँचे, जहाँ हमारा पहला और सबसे महत्वपूर्ण पड़ाव राजभवन था। सुबह 11:30 बजे हम महामहिम राज्यपाल माननीय   आरिफ मोहम्मद खान से मिलने पहुँचे। मन में थोड़ी घबराहट थी, लेकिन राज्यपाल की सहजता और गर्मजोशी ने सारी झिझक दूर कर दी। मैंने उन्हें अपनी पुस्तक "मगध क्षेत्र की विरासत" समर्पित की, जिसे उन्होंने बड़े सम्मान के साथ स्वीकार किया। इस मुलाकात के दौरान, हमने पर्यावरण और नमामी गंगे के उद्देश्यों पर विस्तृत चर्चा की। राज्यपाल महोदय ने हमारे प्रयासों की सराहना की और बिहार के विकास को लेकर अपने दूरदर्शी विचार साझा किए। उनकी बातें सुनकर लगा कि विकसित बिहार का सपना सिर्फ एक नारा नहीं, बल्कि एक हकीकत है, जिसे हर कोई जीना चाहता है। राज्यपाल से मुलाकात के बाद, हम उनके अतिथि गृह में जहानाबाद के विधायक श्री सुदय यादव से मिले। उनके साथ हमारी बातचीत में मुख्य रूप से जहानाबाद की दरधा और जमुनी नदियों और अरवल जिले की पुनपुन नदी के संरक्षण और विकास पर जोर दिया गया। यह जानकर खुशी हुई कि स्थानीय जनप्रतिनिधि भी इन नदियों के महत्व को समझते हैं और उनके पुनरुद्धार के लिए उत्सुक हैं। राज्यपाल महोदय के साथ चाय पर हुई बातचीत में विकसित बिहार के सपने पर चर्चा हुई, जिसने हमारे हृदय में एक सकारात्मक ऊर्जा का संचार किया। हमारे प्रतिनिधिमंडल का नेतृत्व जीवनधारा नमामी गंगे के राष्ट्रीय अध्यक्ष डॉ. हरि ओम शर्मा कर रहे थे। टीम में राष्ट्रीय उपाध्यक्ष और बिहार राज्याध्यक्ष डॉ. उषाकिरण श्रीवास्तव, संस्था के अर्थ गंगा के अतिरिक्त निदेशक दिव्या स्मृति, दिल्ली की अध्यक्षा मोनिका अग्रवाल और संस्था के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष ममता शर्मा , राष्ट्रीय उपाध्यक्ष सह निजी सचिव उत्तरीबिहार ( राष्ट्रीय अध्यक्ष )  शीला वर्मा , , राज्य उपाध्यक्ष संगीता सागर भी शामिल थीं। 
वैशाली: गणराज्य और आध्यात्मिकता का केंद्र - 28 अगस्त को, हमने पटना से वैशाली और मुजफ्फरपुर के लिए अपनी यात्रा जारी रखी। पटना से लगभग 20 किलोमीटर दूर स्थित हाजीपुर पहुँचने के बाद हमने सर्किट हाउस में रात्रि विश्राम किया। सुबह, हाजीपुर के गंगा-गंडक संगम पर स्थित कोनारा घाट का दृश्य अद्भुत था। अविरल प्रवाहित जल को देखकर मन को असीम शांति मिली। प्रतिनिधि मंडल के प्रमुख संस्था के राष्ट्रीय अध्यक्ष डॉ हरि ओम शर्मा द्वारा नमामी गंगे की विस्तृत चर्चा कर महामहिम राज्यपाल को अवगत कराया गया । 
वैशाली की ऐतिहासिक और सांस्कृतिक समृद्धि का अनुभव करने के लिए हम बहुत उत्सुक थे। यह वही भूमि है जहाँ दुनिया का पहला गणतंत्र "रिपब्लिक" कायम हुआ था। वैशाली की मिट्टी में ही भगवान महावीर का जन्म हुआ और महात्मा बुद्ध ने यहाँ कई बार आकर उपदेश दिए। लालगंज में, हमारा स्वागत मध्य विद्यालय के छात्रों और शिक्षकों ने किया, जिन्होंने हमें पारंपरिक तरीके से सम्मानित किया। बच्चों की आँखों में भविष्य की चमक देखकर हमारा उत्साह और बढ़ गया।  जीवन धारा नमामी गंगे संस्था के राष्ट्रीय अध्यक्ष डॉ हरि ओम शर्मा के नेतृव में प्रतिनिधि मंडल की बैठक नगर परिषद सभा कक्ष हाजीपुर में जिला प्रशासन , नगर परिषद के सभापति , कार्यपालक पदाधिकारी  और प्रतिनिधि मंडल के साथ हुई ।  जीवन धारा नमामी गंगे के राष्ट्रीय अध्यक्ष डॉ हरि ओम शर्मा ने नमामी गंगे के उद्देश्यों को विस्तार से बैठक में शामिल पदाधिकारी एवं गंगा सेवियों को संबोधित किया । प्रतिनिधि मंडल में शीला वर्मा आदि गंगा सेवी शामिल थे ।
हमने 28 आगस्त को  वैशाली में कई महत्वपूर्ण स्थानों का दौरा किया:-  अशोक स्तंभ और बौद्ध स्तूप - वैशाली से 3 किलोमीटर की दूरी पर स्थित कोल्हुआ और बखरा गाँव में हुई खुदाई से मिले अवशेषों को देखकर हम विस्मित हो गए। सम्राट अशोक द्वारा निर्मित सिंह स्तंभ लाल बलुआ पत्थर से बना है, जिसकी ऊँचाई 18.3 मीटर है। इस स्तंभ को स्थानीय लोग 'भीमसेन की लाठी' कहते हैं। यहीं पर एक छोटा सा कुंड है जिसे रामकुण्ड कहते हैं, जिसे पुरातत्व विभाग ने मर्कक-हद के रूप में पहचाना है। हमने बौद्ध स्तूपों को भी देखा, जिनका निर्माण बुद्ध के महापरिनिर्वाण के बाद उनके अस्थि अवशेषों पर किया गया था। वैशाली के लिच्छवियों को भी बुद्ध के पार्थिव अवशेषों का एक हिस्सा मिला था, और इन स्तूपों का पता 1958 की खुदाई के बाद चला। इन स्थानों ने हमें बौद्ध धर्म के इतिहास और महत्व से गहराई से जोड़ा। अभिषेक पुष्करणी और विश्व शांति स्तूप - वैशाली गणराज्य द्वारा ढाई हजार वर्ष पहले बनवाया गया अभिषेक पुष्करणी सरोवर आज भी अपनी पवित्रता को दर्शाता है। ऐसा माना जाता है कि यहाँ नए शासकों का अभिषेक किया जाता था। इस सरोवर के निकट ही जापान के निप्पोनजी बौद्ध समुदाय द्वारा बनवाया गया विश्व शांति स्तूप है, जो अपनी शांति और भव्यता से मन मोह लेता है। गोल गुंबद और बुद्ध की स्वर्ण प्रतिमाएँ यहाँ आने वालों को शांति का अनुभव कराती हैं। हाजीपुर की गंगा गंडक नदी संगम कोनारा घाट पर जाकर प्राकृतिक केवम जल धारा से मन आह्लादित हुआ । मध्यविद्यालय लालगंज के छात्रों , छात्राओं एवं  शिक्षकों द्वारा शिष्टमंडल को स्वागत किया गया । जिला प्रशासन वैशाली  नगरपरिषद के पदाधिकारियों तथा शिष्टमंडल के सदस्यों की बैठक नगरपरिषद हाजीपुर के सभा कक्ष में नगर परिषद के सभापति केवम कार्यपालक पदाधिकारी एवं गंगा सेवी  , प्रतिनिधि मंडल के सदस्यों के बीच नमामी गंगे के कार्यान्वयन पर रूबरू हुए ।
कुंडलपुर और राजा विशाल का गढ़ - वैशाली से 4 किलोमीटर दूर स्थित कुंडलपुर व कुंड ग्राम  जैन धर्म के चौबीसवें तीर्थंकर भगवान महावीर का जन्मस्थान है। इस पवित्र स्थान पर आकर हम अत्यंत भावुक हो गए। हमने राजा विशाल का गढ़ भी देखा, जो एक छोटा टीला है। इसे प्राचीन संसद माना जाता है, जहाँ 7,777 संघीय सदस्य इकट्ठा होकर चर्चा करते थे। यह स्थल भारत में लोकतंत्र की प्राचीन जड़ों का एक जीवंत प्रमाण है। 29 अगस्त को सारण जिले के गंडक और गंगा संगम पर अवस्थित सोनपुर का हरिहर नाथ मंदिर के गर्भगृह में स्थित बाबा हरिहर नाथ , हनुमान जी का दर्शन , गजग्राह , शनिदेव का दर्शन करने के बाद मौनी बाबा अश्रम में चूड़ा दही का आनंद लिया ।  29 अगस्त को मुजफ्फरपुर से कुंडग्राम में महावीर स्वामी जी की जन्मभूमि में अवस्थित महावीर स्वामी मंदिर के गर्भगृह में स्थित भगवान महावीर स्वामी जी का दर्शन किया । मुजफ्फरपुर का दुग्ध निर्माण समिति का स्थलीय का अवलोकन किया परंतु समिति के पदाधिकारियों से मुलाकात नही हुई । रात्रि में मुजफ्फरपुर अतिथि गृह पथनिर्माण विभाग में विश्राम किया । 30 अगस्त को मुजफ्फरपुर में आयोजित सेमिनार में शामिल हुआ । 
मुजफ्फरपुर: सेमिनार और साझा प्रयास -  हमारी यात्रा का अंतिम चरण मुजफ्फरपुर था। 29 अगस्त को हम मुजफ्फरपुर पहुँचे   और 30 अगस्त को श्री नावयुवक ट्रस्ट समिति के सभागार में एक महत्वपूर्ण सेमिनार में भाग लिया। इस सेमिनार का उद्देश्य गंगा संरक्षण और जागरूकता के लिए साझा प्रयासों पर चर्चा करना था। सेमिनार में मुजफ्फरपुर के अलावा बेगूसराय, सिवान, पश्चिम चंपारण, सीतामढ़ी, पटना, वैशाली, जहानाबाद और दरभंगा जैसे जिलों के गंगा सेवक और जीवनधारा नमामी गंगे संस्था  के पदाधिकारी शामिल हुए। सेमिनार में हमने प्राकृतिक कृषि को बढ़ावा देने, गंगा ग्रामों और घाटों पर ठोस और तरल अपशिष्ट प्रबंधन की स्थिति और अर्थ गंगा योजना के कार्यान्वयन पर चर्चा की। हमें मुजफ्फरपुर में जो सम्मान मिला, वह हमारे प्रयासों को एक नई ऊर्जा देने वाला था। लोगों का उत्साह देखकर लगा कि गंगा को स्वच्छ बनाने का सपना पूरा हो सकता है, बस हमें मिलकर काम करना होगा। हमारी टीम का नेतृत्व डॉ. हरि ओम शर्मा कर रहे थे, और इसमें राष्ट्रीय उपाध्यक्ष सत्येन्द्र कुमार पाठक, दिल्ली प्रदेश अध्यक्ष मोनिका अग्रवाल, राष्ट्रीय उपाध्यक्ष ममता शर्मा, डॉ. उषाकिरण श्रीवास्तव और दिव्या स्मृति , शीला वर्मा , , जी इन भट्ट संपादक , निर्माण भारती  शामिल थीं। यह यात्रा केवल एक भ्रमण नहीं थी, बल्कि गंगा नदी, उसकी सहायक नदियों और बिहार की समृद्ध विरासत के साथ एक गहरा संबंध स्थापित करने का अवसर था। हमने महसूस किया कि जीवनधारा नमामी गंगे जैसे मिशन को सफल बनाने के लिए सरकारी प्रयासों के साथ-साथ जन-भागीदारी भी अत्यंत आवश्यक है। वैशाली और मुजफ्फरपुर में लोगों का उत्साह और सहयोग देखकर यह विश्वास और मजबूत हो गया कि हम सभी मिलकर गंगा को उसकी पुरानी महिमा लौटा सकते हैं। इस यात्रा ने हमें न केवल नदियों और पर्यावरण के प्रति हमारी जिम्मेदारी का एहसास कराया, बल्कि यह भी दिखाया कि भारत की सांस्कृतिक और ऐतिहासिक जड़ें कितनी गहरी और समृद्ध हैं। यह यात्रा एक शिक्षा थी, एक प्रेरणा थी और एक ऐसा अनुभव था जो हमारे हृदय में हमेशा रहेगा। जीवनधारा नमामी गंगे सेमिनार में पटना , जहानाबाद , बेगूसराय , मुजफ्फरपुर , वैशाली , सिवान पश्चिम चंपारण , दरभंगा , सीतामढ़ी आदि  जिले के अध्यक्ष , महासचिव , राज्य के पदाधिकारी , गंगा सेवी शामिल हुए ।