रविवार, सितंबर 28, 2025

शक्ति की उपासना और नवरात्र

01 . देवी शैलपुत्री: धैर्य, शक्ति और पुनर्जन्म की अद्भुत गाथा
सनातन धर्म के शाक्त संप्रदाय में आदिशक्ति देवी दुर्गा के नौ रूपों की पूजा का विधान है, और इनमें देवी शैलपुत्री प्रथम स्वरूप हैं। यह नाम "शैल" यानी पर्वत और "पुत्री" यानी बेटी से बना है, जो उनके हिमालय पर्वत की पुत्री होने का प्रतीक है। मां शैलपुत्री का वर्णन न केवल पुराणों में, बल्कि ऋग्वेद और उपनिषदों जैसे प्राचीन ग्रंथों में भी मिलता है। उनकी कहानी धैर्य, त्याग, शक्ति और पुनर्जन्म की एक गहन और प्रेरक गाथा है, जो हमें जीवन के महत्वपूर्ण मूल्यों का बोध कराती है। नवरात्रि के पहले दिन मां शैलपुत्री की पूजा के साथ ही नौ दिनों का यह पावन पर्व आरंभ होता है। योग साधक इस दिन अपने ध्यान को मूलाधार चक्र पर केंद्रित करते हैं, जो आध्यात्मिक यात्रा की नींव माना जाता है। मूलाधार चक्र स्थिरता, सुरक्षा और अस्तित्व की भावना से जुड़ा है, और मां शैलपुत्री की उपासना के साथ इस चक्र को जाग्रत करना व्यक्ति को जीवन में संतुलन और धैर्य प्रदान करता है। उनका स्वरूप भी इसी स्थिरता और शक्ति का प्रतीक है: वह वृषभ (बैल) पर सवार हैं, जो धर्म और धैर्य का प्रतीक है। उनके दाहिने हाथ में त्रिशूल है, जो कर्म, ज्ञान और भक्ति का त्रिशक्ति रूप है, और बाएं हाथ में कमल का फूल है, जो पवित्रता और आध्यात्मिक विकास का प्रतीक है।
मां शैलपुत्री की कथा उनके पिछले जन्म से जुड़ी हुई है, जब वह प्रजापति दक्ष की पुत्री सती थीं। सती का विवाह भगवान शिव से हुआ था, लेकिन दक्ष इस विवाह से प्रसन्न नहीं थे। एक बार दक्ष ने एक विशाल यज्ञ का आयोजन किया और सभी देवी-देवताओं को आमंत्रित किया, लेकिन जानबूझकर भगवान शिव को निमंत्रण नहीं दिया।
जब सती को इस यज्ञ के बारे में पता चला, तो वह अपने पिता के घर जाने के लिए बहुत उत्सुक हो गईं। भगवान शिव ने उन्हें समझाया कि बिना निमंत्रण के जाना उचित नहीं है, खासकर जब दक्ष उनसे रुष्ट हों। फिर भी, सती का मन नहीं माना और उन्होंने वहां जाने की अनुमति मांगी। भगवान शिव ने उनकी इच्छा का सम्मान करते हुए उन्हें जाने दिया।
जब सती अपने पिता के घर पहुंचीं, तो उन्होंने देखा कि कोई भी उनसे स्नेहपूर्वक बात नहीं कर रहा है। उनकी माता के अलावा सभी ने उनका तिरस्कार किया और उनकी बहनें भी व्यंग्य करती रहीं। सबसे बढ़कर, उन्होंने वहां अपने पति भगवान शिव के प्रति अपमानजनक बातें सुनीं। दक्ष ने स्वयं शिव का अपमान किया। इस अपमान को देखकर सती का हृदय क्रोध, ग्लानि और पीड़ा से भर गया। उन्होंने महसूस किया कि भगवान शिव की बात न मानकर उन्होंने बहुत बड़ी गलती की है। पति के अपमान को वह सहन नहीं कर पाईं। आत्म-सम्मान की रक्षा के लिए और अपमान के विरोध में, सती ने वहीं पर योगाग्नि द्वारा अपने शरीर को भस्म कर दिया। इस दुखद घटना से क्रोधित होकर भगवान शिव ने अपने गणों को भेजा और दक्ष के यज्ञ को पूरी तरह से नष्ट करा दिया। सती ने अपने जीवन का त्याग इसलिए किया ताकि वह अगले जन्म में भगवान शिव की पत्नी बनने के लिए एक पवित्र और शक्तिशाली रूप में जन्म ले सकें। इसी त्याग और पुनर्जन्म की प्रक्रिया के बाद उन्होंने हिमालयराज हिमवान और उनकी पत्नी मैना देवी की पुत्री के रूप में जन्म लिया और शैलपुत्री कहलाईं। यह कथा हमें सिखाती है कि सच्चा प्रेम और सम्मान हमेशा त्याग की मांग करते हैं।
पुनर्जन्म के बाद मां शैलपुत्री को पार्वती (पर्वत की पुत्री), हैमवती (हिमवान की पुत्री) और गिरिजा (पर्वत से जन्मी) जैसे नामों से भी जाना गया। उपनिषदों में उनका हैमवती स्वरूप विशेष रूप से वर्णित है, जहां उन्होंने देवताओं के अभिमान को भंग किया था। उनकी शादी भगवान शिव से हुई और इस तरह वे भगवान शिव की जीवनसंगिनी बनीं। मां शैलपुत्री का यह पुनर्जन्म हमें यह भी बताता है कि प्रेम और भक्ति की राह में आने वाली बाधाएं हमें और भी मजबूत बनाती हैं।
भारत के विभिन्न हिस्सों में मां शैलपुत्री को समर्पित कई प्रसिद्ध मंदिर हैं, जो भक्तों के लिए आस्था के केंद्र हैं।
वाराणसी, उत्तर प्रदेश: यहां के अलईपुरा में वरुणा नदी के तट पर एक प्राचीन शैलपुत्री मंदिर स्थित है। यह मंदिर विशेष रूप से नवरात्र के दौरान भक्तों से भरा रहता है।रतनपुर, छत्तीसगढ़: रतनपुर के महामाया मंदिर परिसर में भी मां शैलपुत्री का एक छोटा लेकिन महत्वपूर्ण मंदिर है।जम्मू और कश्मीर: बारामूला में एक गुफा के भीतर मां शैलपुत्री का मंदिर है, जो हिमालय की गोद में उनकी उपस्थिति का प्रतीक है। गुड़गांव और दिल्ली: झंडेवालान मंदिर सहित दिल्ली और गुड़गांव में भी कई मंदिर हैं जो शैलपुत्री की पूजा का मुख्य केंद्र हैं। हिमाचल प्रदेश: नैना देवी मंदिर भी एक महत्वपूर्ण शक्ति पीठ है जहां मां शैलपुत्री की पूजा होती है। इन मंदिरों में जाकर भक्तगण मां शैलपुत्री से धैर्य, साहस और शक्ति की कामना करते हैं। वे मानते हैं कि मां उन्हें जीवन की बाधाओं से लड़ने की शक्ति और स्थिरता प्रदान करती हैं। शैलपुत्री: देवी भागवत, मार्कण्डेय पुराण और ऋग्वेद में शाक्त संप्रदाय के विभिन्न ग्रंथों में, जैसे कि देवी भागवत पुराण और मार्कण्डेय पुराण, मां शैलपुत्री के विभिन्न नामों और उनके स्वरूपों का विस्तृत वर्णन है। उन्हें भवानी, हेमवती, गिरिजा और पार्वती जैसे नामों से भी पुकारा जाता है, जो उनके विभिन्न पहलुओं और शक्तियों को दर्शाते हैं। ये ग्रंथ देवी की शक्ति को सर्वोच्च मानते हैं और शैलपुत्री को इस ब्रह्मांड की आदि शक्ति के रूप में चित्रित करते हैं। मां शैलपुत्री की कथा केवल एक देवी की कहानी नहीं है, बल्कि यह मानवीय जीवन के संघर्ष, त्याग और पुनरुत्थान का एक शक्तिशाली रूपक है। यह हमें सिखाती है कि जीवन में कितनी भी बाधाएं आएं, धैर्य, दृढ़ता और आत्म-सम्मान के साथ हम हर चुनौती का सामना कर सकते हैं। उनका पुनर्जन्म हमें यह विश्वास दिलाता है कि अंत में सत्य और धर्म की ही जीत होती है। पुराणों के अनुसार, प्रजापति दक्ष की पुत्री स्वधा का विवाह पितृदेव पितरेश्वर से हुआ था। उनकी पुत्री मैना का विवाह हिमालय (हिमवान) से हुआ था, और इन्हीं के घर में मां शैलपुत्री का जन्म हुआ। मैना देवी और हिमवान के अन्य पुत्र-पुत्रियां भी थे, जिनमें गंगा और मेनाक प्रमुख हैं। यह वंशावली देवी के महत्व को और भी बढ़ाती है, जो उन्हें इस पवित्र परिवार से जोड़ती है। मां शैलपुत्री की कहानी त्याग, प्रेम, धैर्य और शक्ति का एक अनूठा संगम है। वे न केवल एक देवी हैं, बल्कि एक प्रेरणा भी हैं, जो हमें जीवन के हर मोड़ पर अडिग रहने का साहस देती हैं।
02 . माता ब्रह्मचारिणी: तप, त्याग और संयम की शक्ति
नवरात्रि के नौ पावन दिनों में, दूसरा दिन माता ब्रह्मचारिणी को समर्पित है, जो तप, त्याग, वैराग्य, सदाचार और संयम की साक्षात प्रतीक हैं। उनका नाम ही उनके स्वरूप को परिभाषित करता है: 'ब्रह्म' का अर्थ है तपस्या और 'चारिणी' का अर्थ है आचरण करने वाली। यानी, वह देवी जो तपस्या का आचरण करती हैं। देवी ब्रह्मचारिणी की कथा, उनके स्वरूप और उनके महत्व को समझना हमें जीवन में सही मार्ग पर चलने की प्रेरणा देता है। सनातन धर्म का शाक्त पंथ के देवीभागवत केवम स्मृति ग्रंथों  के अनुसार, देवी ब्रह्मचारिणी पूर्व जन्म में हिमालय के राजा हिमवंत और उनकी पत्नी मैना की पुत्री थीं। उनका जन्म उत्तराखंड के चमोली जिले में, कर्णप्रयाग के पास नंद पर्वत की श्रृंखला पर हुआ था। जब वे छोटी थीं, तब देवर्षि नारद के उपदेशों से प्रेरित होकर उन्होंने भगवान शिव को अपने पति के रूप में पाने का संकल्प लिया। भगवान शिव को पाने के लिए उन्होंने घोर तपस्या की। उनकी तपस्या इतनी कठोर थी कि उन्हें तपश्चारिणी नाम से भी जाना जाने लगा। उन्होंने हजारों वर्षों तक केवल फल और फूल खाकर तप किया। इसके बाद उन्होंने पत्तों का भी त्याग कर दिया, जिसके कारण उन्हें अपर्णा (बिना पत्तों वाली) भी कहा गया। उनकी कठोर तपस्या से तीनों लोक कांप उठे और देवगण भी उनकी लगन से चकित थे। अंततः, भगवान शिव उनकी तपस्या से प्रसन्न हुए और उन्हें वरदान दिया कि वे ही उनके पति होंगे। इस प्रकार, माता ब्रह्मचारिणी की कथा हमें यह सिखाती है कि सच्ची लगन और कठोर परिश्रम से कोई भी लक्ष्य प्राप्त किया जा सकता है। माता ब्रह्मचारिणी का स्वरूप अत्यंत सरल, शांत और सौम्य है। वह सफेद वस्त्र धारण करती हैं, जो शुद्धता और सादगी का प्रतीक है। उनके दाहिने हाथ में जप की रुद्राक्ष की माला है, जो तप और एकाग्रता का प्रतीक है, और बाएं हाथ में कमंडल है, जो त्याग और वैराग्य का प्रतीक है। उनकी सवारी उनके अपने चरण हैं, जो यह दर्शाते हैं कि वह अपनी शक्ति और तपस्या से स्वयं ही आगे बढ़ती हैं माता ब्रह्मचारिणी का प्रिय रंग पीला, सफेद और हरा है, और उन्हें मिश्री व हविष्य का भोग प्रिय है। उनका ध्यान हमें मन को शांत करने, बाहरी भौतिक सुखों का त्याग करने और आंतरिक शांति की ओर बढ़ने के लिए प्रेरित करता  है। सत्य सनातन धर्म में माता ब्रह्मचारिणी की उपासना का विशेष महत्व है। ऋग्वेद, देवीभागवत, मार्कण्डेय पुराण और भविष्य पुराण जैसे कई प्रमुख ग्रंथों में उनकी महिमा का उल्लेख मिलता है। नवरात्रि के दूसरे दिन, साधक और भक्त अपने मन को स्वाधिष्ठान चक्र पर केंद्रित करते हैं, जो माता ब्रह्मचारिणी का प्रतीक है। यह चक्र जीवन शक्ति, सृजनात्मकता और भावनात्मक संतुलन से जुड़ा है।इस दिन की उपासना से मनुष्य में तप, त्याग, वैराग्य और संयम जैसे गुणों की वृद्धि होती है। जो लोग अपने जीवन में किसी बाधा का सामना कर रहे हैं, उन्हें माता ब्रह्मचारिणी की साधना से शक्ति मिलती है। देवी की कृपा से व्यक्ति अपने मन को नियंत्रित कर पाता है और जीवन में सफलता प्राप्त करता है।
माता ब्रह्मचारिणी के कई प्रमुख मंदिर और स्थान हैं, जो उनके भक्तों के लिए आस्था के केंद्र हैं: कर्णप्रयाग, उत्तराखंड: चमोली जिले में स्थित नंद पर्वत पर उनका मूल ब्रह्मचारिणी मंदिर है। यह स्थान उनके जन्म और तपस्या से जुड़ा हुआ है। वाराणसी, उत्तर प्रदेश: वाराणसी के सप्तसागर क्षेत्र में, पंचगंगा घाट और दुर्गाघाट के पास उनके मंदिर स्थापित हैं, जहां भक्त विशेष रूप से नवरात्रि के दौरान दर्शन के लिए आते हैं।पुष्कर, राजस्थान: पुष्कर में ब्रह्म सरोवर के पास भी ब्रह्मघाट क्षेत्र में उनका मंदिर है।उमानंद मंदिर, असम: गुवाहाटी के पास ब्रह्मपुत्र नदी के बीच स्थित नीलांचल पर्वत पर उमानंद मंदिर के गर्भगृह में माता ब्रह्मचारिणी स्थापित हैं। यह स्थान उनके उमा रूप का प्रतीक है। इनके अलावा, सूरत, बरेली, अल्मोड़ा, टिहरी, और चंपावत जैसे कई स्थानों पर भी उनके मंदिर स्थित हैं, जो उनकी व्यापक लोकप्रियता को दर्शाते हैं।नवरात्रि के दूसरे दिन, माता ब्रह्मचारिणी की उपासना के लिए कई मंत्रों और श्लोकों का जाप किया जाता है। इनमें से दो प्रमुख श्लोक हैं:
"दधाना कर पद्माभ्यामक्ष माला कमण्डलु | देवी प्रसीदतु मयि ब्रह्मचारिण्यनुत्तमा ||"
"या देवी सर्वभू‍तेषु माँ ब्रह्मचारिणी रूपेण संस्थिता। नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:।।"
इन श्लोकों के जाप से साधक को न केवल देवी का आशीर्वाद प्राप्त होता है, बल्कि वह अपने जीवन में यश, सिद्धि और विजय भी प्राप्त करता है। यह देवी के प्रति हमारी श्रद्धा और भक्ति को व्यक्त करने का एक तरीका है।
आज के भागदौड़ भरे जीवन में, माता ब्रह्मचारिणी का महत्व और भी बढ़ जाता है। उनकी कथा हमें बताती है कि जीवन में सफल होने के लिए भौतिकवादी इच्छाओं से परे जाकर एकाग्रता और धैर्य से काम करना जरूरी है। मोबाइल, सोशल मीडिया और अन्य बाहरी distractions से भरे इस युग में, उनकी तपस्या हमें मन को शांत करने और अपने लक्ष्यों पर ध्यान केंद्रित करने की प्रेरणा देती है। माता ब्रह्मचारिणी की उपासना से हमें यह सीख मिलती है कि बाहरी सुंदरता या धन से अधिक महत्वपूर्ण आंतरिक शांति, नैतिकता और आत्म-अनुशासन है। यह हमें जीवन में सही दिशा में आगे बढ़ने और अपनी आत्मा को शुद्ध करने का मार्ग दिखाती है। इस प्रकार, माता ब्रह्मचारिणी केवल एक देवी नहीं, बल्कि एक मार्गदर्शक शक्ति हैं, जो हमें जीवन के हर मोड़ पर तप, त्याग और संयम की राह पर चलने के लिए प्रेरित करती हैं।
03 .  माँ चंद्रघंटा: नवदुर्गा का तीसरा रूप और शक्ति की उपासना
नवरात्रि, शक्ति उपासना का महापर्व, नौ दिनों तक माँ दुर्गा के नौ दिव्य रूपों की आराधना का अवसर प्रदान करता है। इन नौ देवियों में से तीसरी शक्ति हैं माँ चंद्रघंटा। इनका नाम इनके मस्तक पर सुशोभित घंटे के आकार के अर्धचंद्र के कारण पड़ा है। माँ चंद्रघंटा का स्वरूप जितना भव्य और शांतिदायक है, उतनी ही उनकी शक्ति कल्याणकारी और पराक्रमी है। शाक्त संप्रदाय के ग्रंथों, विशेष रूप से देवीभागवत पुराण और देवी पुराण में, उनके महत्व, महिमा और उपासना का विस्तृत वर्णन मिलता है। माँ चंद्रघंटा का स्वरूप स्वर्ण के समान चमकीला और अलौकिक है। वे दस भुजाओं से सुसज्जित हैं, जिनमें से प्रत्येक हाथ में खड्ग, बाण, धनुष, त्रिशूल, गदा, चक्र और कमंडलु जैसे विभिन्न अस्त्र-शस्त्र और कमल का फूल धारण किए हुए हैं। उनका वाहन पराक्रमी सिंह है, जो शक्ति, साहस और निर्भयता का प्रतीक है। उनके मस्तक पर अर्धचंद्र घंटे के आकार में सुशोभित है, जिसकी ध्वनि साधक को प्रेतबाधा और सभी नकारात्मक शक्तियों से बचाती है।
शाक्त साधकों के लिए माँ चंद्रघंटा की उपासना का विशेष महत्व है।  साधक का मन नवरात्रि के तीसरे दिन 'मणिपूर' चक्र में समर्पित होता है। इस चक्र के जागृत होने से साधक को अलौकिक वस्तुओं के दर्शन, दिव्य सुगंधियों का अनुभव और अद्भुत ध्वनियाँ सुनाई देती हैं। माँ की कृपा से साधक के समस्त पाप और बाधाएँ नष्ट हो जाती हैं, और वह सिंह की तरह पराक्रमी और निर्भय हो जाता है। उनकी आराधना सद्यः फलदायी है, और वे भक्तों के कष्टों का निवारण बहुत शीघ्र करती हैं। माँ चंद्रघंटा के प्राकट्य से जुड़ी दो प्रमुख कथाएँ शाक्त परंपरा में वर्णित हैं। जब अहंकारी दैत्यराज महिषासुर ने अपनी शक्तियों के बल पर देवताओं पर आक्रमण किया और उन्हें पराजित कर दिया, तो सभी देवता त्रिदेवों (ब्रह्मा, विष्णु और महेश) के पास सहायता के लिए पहुँचे। देवताओं की करुण पुकार सुनकर त्रिदेवों को अत्यधिक क्रोध आया। उनके क्रोध से एक दिव्य और तेजस्वी शक्ति का प्राकट्य हुआ, जो दस भुजाओं वाली माँ चंद्रघंटा थीं। सभी देवताओं ने अपनी-अपनी शक्ति और अस्त्र-शस्त्र उन्हें प्रदान किए। भगवान शंकर ने त्रिशूल, विष्णु ने चक्र, इंद्र ने घंटा और सूर्य ने तेज तलवार भेंट की। इसी प्रकार, सभी देवी-देवताओं ने उन्हें अपने शस्त्र-अस्त्र अर्पित किए और सिंह को उनके वाहन के रूप में प्रदान किया। इस प्रकार, शक्ति से परिपूर्ण होकर माँ चंद्रघंटा ने महिषासुर के साथ घमासान युद्ध किया और उसका वध कर दिया। इस विजय ने न केवल देवलोक को बचाया, बल्कि भूमंडल को भी दैत्यों के आतंक से मुक्त कर दिया, जिससे मानव, जीव-जंतु और पर्यावरण को संरक्षण प्राप्त हुआ।
देवी पुराण के अनुसार, यह कथा भगवान शिव और पार्वती के विवाह से जुड़ी है। जब भगवान शिव अपनी बारात लेकर राजा हिमवान के महल पहुँचे, तो उनका रूप अत्यंत भयानक था। उनके बालों में सर्प, गले में मुंडमाला और साथ में भूत, अघोरी, ऋषि और तपस्वियों का अजीब जुलूस था। यह भयावह रूप देखकर पार्वती की माता मैना देवी बेहोश हो गईं। माता पार्वती ने अपनी माता को इस स्थिति में देखकर तुरंत देवी चंद्रघंटा का रूप धारण किया। उन्होंने अपने दिव्य रूप से भगवान शिव से अनुरोध किया कि वे अपना राजकुमार वाला रूप धारण करें। पार्वती के अनुरोध पर, भगवान शिव ने अपना सौम्य और आकर्षक रूप धारण किया, जिसके बाद विवाह संपन्न हुआ। यह कथा दर्शाती है कि माँ चंद्रघंटा न केवल युद्ध की देवी हैं, बल्कि वे जीवन में शांति और सौहार्द भी लाती हैं।
माँ चंद्रघंटा की उपासना के लिए साधक को मन, वचन, कर्म और काया से पूर्णतः पवित्र होकर उनकी शरण में जाना चाहिए। इस दिन साधक को भूरे या भगवा रंग के वस्त्र धारण करने चाहिए। पूजा के दौरान माँ को सौभाग्य सूत्र, हल्दी, चंदन, रोली, सिंदूर, दूर्वा, बिल्वपत्र, फल-फूल और खीर का नैवेद्य अर्पित किया जाता है।
बीज मंत्र: ॐ ऐं श्रीं शक्तयै नमः महामंत्र: या देवी सर्वभूतेषु माँ चंद्रघंटा रूपेण संस्थिता। नमस्तस्यै नसस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः॥ यह महामंत्र माँ की सार्वभौमिक शक्ति को नमन करता है और उनसे समस्त पापों से मुक्ति की प्रार्थना करता है। माँ चंद्रघंटा का ध्यान और स्तोत्र पाठ उनकी कृपा पाने के लिए अत्यंत लाभकारी माने जाते हैं।
वन्दे वांछित लाभाय चन्द्रार्धकृत शेखरम्।
सिंहारूढा चंद्रघंटा यशस्वनीम्॥
मणिपुर स्थितां तृतीय दुर्गा त्रिनेत्राम्।
खंग, गदा, त्रिशूल,चापशर,पदम कमण्डलु माला वराभीतकराम्॥
आपदुध्दारिणी त्वंहि आद्या शक्तिः शुभपराम्।
अणिमादि सिध्दिदात्री चंद्रघटा प्रणमाभ्यम्॥
चन्द्रमुखी इष्ट दात्री इष्टं मन्त्र स्वरूपणीम्।
धनदात्री, आनन्ददात्री चंद्रघंटे प्रणमाभ्यहम्॥
नवरात्रि के तीसरे दिन, सांवले रंग की ऐसी विवाहित महिला को भोजन कराना शुभ माना जाता है, जिनके चेहरे पर तेज हो। उन्हें दही और हलवा खिलाकर, कलश और मंदिर की घंटी भेंट करने से मनोवांछित फल की प्राप्ति होती है।
भारत के प्रमुख  स्थानों पर माँ चंद्रघंटा के मंदिर स्थापित हैं, जहाँ भक्तगण उनकी पूजा-अर्चना करते हैं। इनमें से कुछ प्रमुख मंदिर हैं: , बिहार का चंदौत मंदिर (पंचलक्खी) , उत्तर प्रदेश के बनारस की लक्खी चौराहा गली में स्थित मंदिर , राजस्थान के जयपुर का मुरलीपुरा मंदिर , अंबाला, नोवामुंडी और बाराबंकी में स्थित शाक्त स्थल  मंदिरों में माँ की उपासना से साधक के सभी सांसारिक कष्ट दूर होते हैं और वह सहज ही परमपद का अधिकारी बनता है। माँ चंद्रघंटा की उपासना हमें साहस, शांति और आत्मबल प्रदान करती है, ताकि हम जीवन की सभी चुनौतियों का सामना निर्भय होकर कर सके ।
:04 . ब्रह्मांड की सृष्टिकर्ता: माता कूष्माण्डा और उनकी महिमा
सनातन धर्म का शाक्त सम्प्रदाय में  शक्ति की उपासना का विशेष महत्व है, और नवरात्रि का पर्व इसका सबसे जीवंत उदाहरण है। इन नौ दिनों में देवी दुर्गा के नौ स्वरूपों की पूजा होती है, जिनमें से चौथे दिन माता कूष्माण्डा की उपासना की जाती है। शाक्त संप्रदाय के ग्रंथों में इन्हें ब्रह्मांड की आदि शक्ति और सृष्टिकर्ता के रूप में पूजा जाता है। 'कूष्माण्डा' शब्द का गहरा अर्थ है। यह दो शब्दों, 'कूष्म' (कुम्हड़ा) और 'अण्डा' (ब्रह्मांड), से मिलकर बना है। ऐसी मान्यता है कि जब चारों ओर केवल गहन अंधकार था और सृष्टि का कोई अस्तित्व नहीं था, तब माता कूष्माण्डा ने अपनी मंद, हल्की हंसी से इस पूरे ब्रह्मांड की रचना की। इस कारण उन्हें 'अण्ड' (ब्रह्मांड) की जननी कहा जाता है।
देवी का निवास सूर्यमंडल के भीतर माना जाता है, जहाँ उनके तेज और प्रकाश से दसों दिशाएँ प्रकाशित होती हैं। ब्रह्मांड के सभी प्राणियों और वस्तुओं में जो ऊर्जा और तेज है, वह उन्हीं की छाया है। देवी कूष्माण्डा का स्वरूप अत्यंत प्रभावशाली और शक्तिशाली है। उन्हें अष्टभुजी माता भी कहा जाता है, क्योंकि उनकी आठ भुजाएँ हैं। इन भुजाओं में वे कमंडल, धनुष, बाण, कमल-पुष्प, अमृतपूर्ण कलश, चक्र और गदा जैसे अस्त्र-शस्त्र धारण करती हैं। उनका वाहन सिंह है और उनके जीवनसाथी स्वयं भगवान शिव हैं। नवरात्रि के चौथे दिन साधक का मन 'अनाहत' चक्र में स्थित होता है। यह चक्र हृदय के पास होता है और माना जाता है कि यहाँ ध्यान केंद्रित करने से व्यक्ति आध्यात्मिक शक्ति, आंतरिक शांति और आत्मविश्वास प्राप्त करता है।
माँ कूष्माण्डा को उनकी अल्प सेवा और सच्ची भक्ति से ही प्रसन्न होने वाली देवी माना जाता है। उनकी उपासना से भक्तों के समस्त रोग-शोक दूर हो जाते हैं, और उनकी आयु, यश, बल और आरोग्य में वृद्धि होती है। इस दिन उनके विशेष मंत्र 'या देवी सर्वभू‍तेषु माँ कूष्माण्डा रूपेण संस्थिता। नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:।।' का जाप किया जाता है, जिसका अर्थ है, "हे माँ! जो सभी प्राणियों में कूष्माण्डा के रूप में विराजमान हैं, मैं आपको बार-बार प्रणाम करता हूँ। हे माँ, मुझे सभी पापों से मुक्ति प्रदान करें।" शास्त्रों  के अनुसार, संस्कृत में 'कूष्माण्ड' का अर्थ 'कुम्हड़ा' (पेठा) होता है। माँ को कुम्हड़े की बलि अत्यंत प्रिय है, जिसके कारण भी उन्हें कूष्माण्डा कहा जाता है।नवरात्रि में, विशेषकर नवविवाहित महिलाओं के लिए, माँ कूष्माण्डा की पूजा करना बहुत शुभ माना जाता है। इस दिन भोजन में दही और हलवा का भोग लगाया जाता है। इसके बाद फल, सूखे मेवे और सौभाग्य का सामान भेंट करने से माता प्रसन्न होकर मनवांछित फल प्रदान करती हैं।
माँ कूष्माण्डा के कई प्राचीन और प्रसिद्ध मंदिर भारत में मौजूद हैं, जो उनके भक्तों के लिए प्रमुख तीर्थस्थल हैं।
उत्तराखंड के रुद्रप्रयाग जिले का कुमंडी मंदिर: यहाँ की एक पौराणिक कथा के अनुसार, ऋषि अगस्त ने अपनी बाईं काँख से माता कूष्माण्डा का आह्वान किया था, जिन्होंने दैत्यों और दानवों का संहार किया। इस मंदिर का निर्माण टिहरी की महारानी ने करवाया था।उत्तर प्रदेश के घाटमपुर (कानपुर) का मंदिर: यह मंदिर भी देवी के प्रमुख शक्तिपीठों में से एक है।महोबा (उत्तर प्रदेश) में पिपरा माफ का मंदिर: यह एक प्राचीन मंदिर है जहाँ देवी की पूजा सदियों से की जा रही है।दिल्ली के झंडेवालान मंदिर और वाराणसी के दक्षिण क्षेत्र के मंदिर: ये भी देवी की उपासना के लिए प्रसिद्ध हैं। माँ कूष्माण्डा की उपासना केवल धार्मिक अनुष्ठान नहीं है, बल्कि यह ब्रह्मांड की सृजन शक्ति और जीवन के मूल को समझने का एक माध्यम है। उनका आशीर्वाद भक्तों को न केवल आध्यात्मिक शक्ति देता है, बल्कि उन्हें सांसारिक जीवन में सुख-समृद्धि और आरोग्य भी प्रदान करता है।
05 . स्कंदमाता: मोक्ष का द्वार खोलने वाली, शौर्य की शिक्षिका 
सनातन धर्म के शाक्त सम्प्रदाय में, नवरात्रि के नौ दिन शक्ति की विभिन्न लीलाओं का उत्सव मनाते हैं। इस पावन पर्व का पंचम दिवस एक विशेष देवी को समर्पित है—जो हैं माँ स्कंदमाता। यह वह स्वरूप है जहाँ वात्सल्य (ममता) और शौर्य (शक्ति) का अद्भुत संगम होता है। स्कंदमाता की उपासना केवल एक धार्मिक कृत्य नहीं है, बल्कि मोक्ष का द्वार खोलने वाली और भक्तों को अलौकिक तेज प्रदान करने वाली एक गहन आध्यात्मिक यात्रा है। नवदुर्गाओं में पंचम स्थान पर विराजमान, माँ स्कंदमाता का नाम उनके पुत्र देव सेनापति कार्तिकेय के नाम पर पड़ा, जिन्हें स्कंद या कुमार भी कहा जाता है। वह केवल जन्मदात्री नहीं हैं, बल्कि अपने पुत्र की गुरु और मार्गदर्शिका भी हैं। माँ का स्वरूप पूर्णतः शुभ्र (सफेद) वर्ण का है, जो पवित्रता और ज्ञान का प्रतीक है। उनके विग्रह की चार भुजाएँ हैं: वह सिंह की सवारी करती हैं, जो शौर्य और निर्भयता का प्रतीक है।उनकी दाहिनी तरफ की नीचे वाली भुजा जो ऊपर की ओर उठी है, उसमें कमल पुष्प है।बाईं तरफ की नीचे वाली भुजा भी ऊपर की ओर उठी है और इसमें कमल पुष्प है, जबकि ऊपर वाली बाईं भुजा वरमुद्रा में है, जो भक्तों को अभयदान देती है। सबसे महत्वपूर्ण, उनके गोद में उनके पुत्र भगवान स्कंद (कार्तिकेय) बालरूप में बैठे होते हैं। उनकी महिमा का बखान करने वाला यह श्लोक उनके स्वरूप को स्पष्ट करता है:
सिंहासनगता नित्यं पद्माश्रितकरद्वया ।
शुभदाऽस्तु सदा देवी स्कन्दमाता यशस्विनी ।।
अर्थात्, जो नित्य सिंहासन पर विराजमान हैं और जिनके दोनों हाथों में कमल है, वह यशस्वी देवी स्कंदमाता हमें सदा शुभ प्रदान करें।  स्कंदमाता की पहचान केवल एक देवी के रूप में नहीं है, बल्कि देवों की सेनापति को शिक्षित करने वाली गुरु के रूप में भी है। स्कंद पुराण के अनुसार, भगवान स्कंद ('कुमार कार्तिकेय') देवासुर संग्राम में देवताओं के सेनापति थे। दैत्यराज तारकासुर के आतंक को समाप्त करने के लिए उनका जन्म हुआ था। आपके दिए गए विवरण के अनुसार: माँ स्कंदमाता ने स्वयं देव सेनापति कार्तिकेय को दैत्यों एवं दानवों के संहार हेतु देवों, वेदों, एवं जनकल्याण का मंत्र तथा शिक्षा दी थी। इसी शिक्षा के बल पर देव सेनापति कार्तिकेय द्वारा दैत्यराज तारकासुर एवं अन्य दैत्यों और दानवों का संहार कर जनता को खुशहाल जीवन स्थापित किया गया। इस प्रकार, स्कंदमाता भक्तों को यह संदेश देती हैं कि संसार रूपी युद्ध में विजय पाने के लिए केवल शक्ति ही नहीं, बल्कि सही मार्गदर्शन (ज्ञान) और नैतिकता भी आवश्यक है। वह अपने भक्तों को जीवन के संघर्षों में विजयी होने की कला सिखाती हैं। नवरात्रि के पाँचवें दिन का शास्त्रों में पुष्कल महत्व है, जो आंतरिक शुद्धि और चक्र जागरण से जुड़ा है। इस दिन साधक का मन 'विशुद्ध' चक्र में अवस्थित होता है। यह चक्र गले (कंठ) में स्थित है और शुद्धिकरण, आत्म-अभिव्यक्ति तथा सत्य का प्रतिनिधित्व करता है। शुभ्र चक्र में अवस्थित मन वाले साधक की समस्त बाह्य क्रियाओं एवं चित्तवृत्तियों का लोप होने लगता है। साधक का मन समस्त लौकिक, सांसारिक, मायिक बंधनों से विमुक्त होकर पद्मासना माँ स्कंदमाता के स्वरूप में पूर्णतः तल्लीन होता है। इस तल्लीनता से साधक मोक्ष द्वार की ओर अग्रसर होता है, इसीलिए उन्हें 'मोक्ष द्वार खोलने वाली माता' कहा जाता है। माँ स्कंदमाता को सूर्यमंडल की अधिष्ठात्री देवी भी कहा जाता है। यह उपाधि उनकी उपासना करने वाले साधकों के लिए अलौकिक फल प्रदान करती है। उपासक अलौकिक तेज एवं कांति से संपन्न होता है। एक अलौकिक प्रभामंडल अदृश्य भाव से सदैव उसके चतुर्दिक्‌ परिव्याप्त है। माँ स्कंदमाता की उपासना से भक्त की समस्त इच्छाएँ पूर्ण होती हैं। भक्त इस मृत्युलोक में ही परम शांति और सुख का अनुभव करने लगता है। स्कंदमाता की उपासना से एक अद्वितीय लाभ मिलता है: बालरूप स्कंद भगवान की उपासना भी स्वमेव हो जाती है। स्कंद (कार्तिकेय) शक्ति, शौर्य और धर्म के रक्षक हैं, जबकि माँ ममता और ज्ञान की प्रतीक हैं। इस प्रकार, साधक को शक्ति और ज्ञान दोनों का आशीर्वाद एक साथ प्राप्त होता है। प्रत्येक सर्वसाधारण के लिए आराधना योग्य यह श्लोक अत्यंत सरल और स्पष्ट है। माँ जगदम्बे की भक्ति पाने के लिए इसे कंठस्थ कर नवरात्रि में पाँचवें दिन स्कंदमाता की उपासना करने से सर्वांगीण फल की प्राप्ति होती है:
या देवी सर्वभू‍तेषु माँ स्कंदमाता रूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:।।
अर्थ: हे माँ! सर्वत्र विराजमान और स्कंदमाता के रूप में प्रसिद्ध अम्बे, आपको मेरा बार-बार प्रणाम है। हे माँ, मैं आपको बारंबार प्रणाम करता हूँ और मुझे सब पापों से मुक्ति प्रदान करें। स्कंदमाता के प्रसिद्ध शाक्त स्थल में भारत और नेपाल में स्कंदमाता को समर्पित कई प्राचीन और पूजनीय मंदिर हैं, जो शाक्त भक्तों के लिए महत्वपूर्ण तीर्थस्थल हैं: उत्तराखंड: टिहरी में सुरकुट पर्वत। उत्तरप्रदेश: वाराणसी क्षेत्र में जगतपुरा स्थित स्कंदमाता मंदिर, अहिरौली, बलरामपुर और कानपुर। मध्य प्रदेश: इंदौर का मंडलेश्वर, विदिशा और जैतपुरा। राजस्थान का पुष्कर, रुढ़की और बिलासपुर जिले का मल्हार, तथा नेपाल के शाक्त स्थल है। माँ स्कंदमाता की उपासना हमें सिखाती है कि जीवन में सफलता (स्कंद का शौर्य) तभी संभव है जब वह वात्सल्य और ज्ञान (माँ का स्वरूप) के मार्ग पर चले। वह हमें शुद्ध मन (विशुद्ध चक्र), अलौकिक तेज (सूर्यमंडल), और अंततः मोक्ष (बंधन मुक्ति) की ओर ले जाने वाली परम शक्ति हैं। नवरात्रि के इस पंचम दिवस पर, हमें उनके स्वरूप का ध्यान करते हुए, अपने भीतर के शौर्य को जागृत करने और ज्ञान के कमल को विकसित करने का संकल्प लेना चाहिए।
06 . माता कात्यायनी  मंदिर और जिज्ञासा 
कात्यायनी मंदिर से बाहर निकलकर सभी बच्चे और बड़े एक शांत जगह पर विश्राम कर रहे थे। वृंदावन की हवा में अब भी भक्ति और मिठास घुली हुई थी। प्रशांत, जिसने पहले महिषासुर के बारे में पूछा था, वह अब भी उसी सोच में डूबा हुआ था। उसने अपने पिताजी नवीन से पूछा, "पिताजी, आपने कहा था कि माता कात्यायनी ने महिषासुर नाम के एक राक्षस को मारा था। वह कैसा दिखता था? क्या वह शेर से भी ज़्यादा ताकतवर था?" प्रवीण मुस्कुराए। उन्होंने बच्चों को अपने चारों ओर बिठाया, जैसे कोई जादू की कहानी सुनाने जा रहा हो। अनिता, कुमुद, और प्रियंका भी उत्सुकता से सुनने लगीं। कुमुद  ने कहानी शुरू की: "बहुत, बहुत साल पहले की बात है। धरती पर एक राक्षस राज करता था जिसका नाम था महिषासुर। महिषासुर का सिर तो भैंसे जैसा था, लेकिन उसके पास मनुष्यों की तरह हाथ-पैर और बुद्धि थी। उसने तपस्या करके इतने वरदान प्राप्त कर लिए थे कि उसे कोई भी देवता या पुरुष मार नहीं सकता था। उसे अपनी शक्ति पर बहुत घमंड हो गया।"
पुच्ची डर के मारे अपनी मम्मी बेबी के पास चिपक गई। "क्या वह बहुत बुरा था, मम्मा जी ?" "हाँ, पुच्ची रानी," नवीन ने प्यार से कहा। "वह बहुत बुरा था। वह देवताओं को उनके घरों से निकाल देता था, अच्छे लोगों को परेशान करता था और पूरी पृथ्वी पर अत्याचार फैलाता था। उसका डर इतना बढ़ गया था कि देवता भी छिपने लगे।" दिव्यांशु ने अपनी आँखें बड़ी करते हुए पूछा, "तो फिर क्या हुआ? देवताओं को तो वरदान तोड़ना आता होगा, है ना?" प्रवीण ने कहानी को आगे बढ़ाया: "हाँ, दिव्यांशु! जब ब्रह्मा, विष्णु और महेश (शिव) तीनों देवताओं ने देखा कि उनका कोई भी पुरुष रूप महिषासुर को मार नहीं सकता, तो वे क्रोध और संकट में आ गए। तब उन तीनों देवताओं ने मिलकर एक अद्भुत योजना बनाई।" प्रियांशु उछलकर बोला, "क्या योजना बनाई?" "सभी देवताओं ने अपने-अपने भीतर का सारा तेज (ऊर्जा) बाहर निकाल दिया," प्रवीण ने बताया। "जैसे हम सब मिलकर एक बड़ा-सा टॉर्च जला दें, वैसे ही देवताओं के तेज से एक विशाल, प्रकाशमय पुंज पैदा हुआ। वह पुंज इतना चमकीला था कि आँखें चौंधिया जाएं।"
उर्वशी ने बीच में कहा, "और प्यारे बच्चों, वही प्रकाश पुंज धीरे-धीरे एक अत्यंत सुंदर, तेजस्वी और शक्तिशाली देवी के रूप में बदल गया! वही देवी थीं हमारी माता कात्यायनी!"
दिव्यांशु ने पूछा, "माता कात्यायनी को तो केवल चार हाथ होते हैं, पर क्या उनको महिषासुर को मारने के लिए और भी हथियार मिले?" प्रवीण ने उत्तर दिया, "बिल्कुल! हर देवता ने उन्हें अपना सबसे खास हथियार दिया। शंकर भगवान ने उन्हें त्रिशूल दिया, विष्णु भगवान ने चक्र, इंद्र ने वज्र और हिमालय ने उन्हें एक तेजस्वी शेर (सिंह) दिया, जिस पर वे सवार होकर युद्ध लड़ सकें। यही सिंह उनका वाहन बना।"
कहानी अब अपने रोमांचक मोड़ पर थी। सभी बच्चे शांत होकर सुन रहे थे। प्रवीण ने गहरी आवाज़ में कहा, "जब यह तेजस्वी देवी, कात्यायनी, पहली बार प्रकट हुईं और दहाड़ लगाई, तो तीनों लोक काँप उठे। महिषासुर ने जब यह दहाड़ सुनी, तो वह हँसा। उसे लगा कि कोई स्त्री उसका क्या बिगाड़ लेगी!"
"लेकिन माता कात्यायनी तो साक्षात शक्ति थीं। उन्होंने विंध्याचल पर्वत पर निवास किया और दस दिनों तक महिषासुर की विशाल सेना से भयंकर युद्ध किया। उनके हाथों में तलवार ऐसे चमकती थी जैसे बिजली चमक रही हो।"
प्रशांत ने उत्साह से पूछा, "और फिर क्या हुआ?" "दसवें दिन, माता कात्यायनी और महिषासुर का आमना-सामना हुआ। महिषासुर बार-बार अपना रूप बदलता रहा—कभी भैंसा, कभी मनुष्य, कभी हाथी—लेकिन माता की शक्ति के सामने उसकी कोई चाल काम नहीं आई। अंत में, जब महिषासुर फिर से भैंसे का रूप ले रहा था, तभी माता कात्यायनी ने अपने त्रिशूल से उस पर ज़ोरदार वार किया।"
"महिषासुर चीख़ता रहा, लेकिन माता ने उसे तुरंत मार डाला। उसके मरते ही पूरी धरती पर शांति छा गई। देवताओं ने आसमान से फूल बरसाए, और हर तरफ जय-जयकार होने लगी।"कुमुद ने कहानी खत्म करते हुए बच्चों से कहा, "बस, इसी वजह से माता कात्यायनी को महिषासुरमर्दिनी (महिषासुर का वध करने वाली) कहा जाता है। उन्होंने हमें सिखाया कि सच्चाई और धर्म की रक्षा के लिए शक्ति का उपयोग करना कितना ज़रूरी है।" दिव्यांशु ने गहरी साँस ली और कहा, "तो माता कात्यायनी सचमुच सबसे ताकतवर हैं, जो हमें अभय (डर से मुक्ति) देती हैं और बृहस्पति (गुरु) को भी मज़बूत करती हैं।" प्रियांशु ने अपनी छोटी-सी मुट्ठी बाँध ली, "अगर कोई शैतान बनेगा तो माता कात्यायनी उसे मारेंगी!" नवीन ने सभी बच्चों के सिर पर हाथ रखा। "हाँ मेरे बच्चों! माता कात्यायनी की पूजा हमें यही हिम्मत देती है कि हमें कभी भी अन्याय के सामने झुकना नहीं चाहिए और हमेशा अच्छाई का साथ देना चाहिए।" सभी बच्चों के चेहरे पर अब डर की जगह श्रद्धा और साहस का भाव था। वे अपनी तीर्थयात्रा के अगले चरण की ओर बढ़ने के लिए तैयार थे, मन में माता कात्यायनी की दिव्य गाथाएँ लिए हुए।
07.  माँ कालरात्रि: काल का नाश करने वाली शुभंकारी शक्ति 
माँ कालरात्रि सनातन धर्म में पूजी जाने वाली नवदुर्गाओं की सप्तम शक्ति हैं। उनका नाम 'काल' (समय/मृत्यु) और 'रात्रि' (अंधकार) से मिलकर बना है, जिसका अर्थ है जो काल के अंधकार का भी नाश कर दे। उनका स्वरूप भले ही अत्यंत भयंकर है, लेकिन वे अपने भक्तों के लिए सदैव शुभ फल देने वाली हैं, इसीलिए उन्हें 'शुभंकारी' भी कहा जाता है।देवी कालरात्रि का स्वरूप प्राचीन स्मृतियों, पुराणों और तांत्रिक ग्रंथों में विस्तार से वर्णित है, जो उनकी परम शक्ति को दर्शाता है। उनका शरीर घने अंधकार की तरह काला (कृष्णा) है। उनके बाल बिखरे हुए रहते हैं और वे अपने गले में विद्युत की तरह चमकने वाली माला धारण करती हैं। नेत्र और श्वास: उनके तीन नेत्र हैं, जो ब्रह्मांड के समान गोल और विद्युत के समान चमकीली किरणें निःसृत करते हैं। सबसे भयंकर है उनकी नासिका के श्वास-प्रश्वास से निकलने वाली अग्नि की ज्वालाएँ, जो नकारात्मक ऊर्जाओं को पल भर में भस्म कर देती हैं। वाहन और आयुध: उनका वाहन गर्दभ (गदहा) है। वे चतुर्भुजी हैं, जिनके ऊपर उठे हुए दाहिने हाथ की वरमुद्रा भक्तों को वर प्रदान करती है, और दाहिनी तरफ का नीचे वाला हाथ अभयमुद्रा में होता है (भय से रक्षा)। बाईं तरफ के ऊपर वाले हाथ में लोहे का काँटा (असुरों को नियंत्रित करने हेतु) तथा नीचे वाले हाथ में खड्ग (कटार) है।  उन्हें काली, महाकाली, भद्रकाली, भैरवी, चामुंडा, चंडी, रौद्री, धूम्रवर्णा और मृत्यू-रुद्राणी जैसे विभिन्न नामों से भी जाना जाता है, जो उनकी शक्ति के विभिन्न आयामों को दर्शाते हैं। जीवनसाथी: वे भगवान शिव की शक्ति हैं। निवास स्थान: उनका निवास मणिद्वीप (देवताओं का परम निवास) और श्मशान (जहाँ भौतिकता का अंत होता है) दोनों ही हैं, जो उनके जन्म और मृत्यु के चक्र पर नियंत्रण को सिद्ध करता है
माँ कालरात्रि की उपासना नवदुर्गा साधना में अत्यंत उच्च स्थान रखती है, जिसका सीधा संबंध कुंडलिनी जागरण से है। साधक का मन उपासना के दौरान 'सहस्रार' चक्र में पूर्णतः अवस्थित रहता है। यह चक्र परम चेतना का द्वार है, जिसके जागरण से ब्रह्मांड की समस्त सिद्धियों का द्वार साधक के लिए खुल जाता है।इस स्थिति में साधक को अक्षय पुण्य लोकों की प्राप्ति होती है और वह ज्ञान, शक्ति और धन की निधियाँ प्राप्त करता है। माँ कालरात्रि की उपासना का सबसे बड़ा फल भय से पूर्ण मुक्ति है। उनके भक्तों को अग्नि-भय, जल-भय, जंतु-भय, शत्रु-भय, रात्रि-भय आदि किसी प्रकार के भय से चिंतित होने की आवश्यकता नहीं होती। वे दैत्य, दानव, राक्षस, भूत, प्रेत, पिशाच और समस्त नकारात्मक ऊर्जाओं का नाश करने वाली हैं। उनके स्मरण मात्र से ही ये सभी शक्तियाँ दूर भाग जाती हैं। वे ग्रह-बाधाओं को भी दूर करती हैं। उनकी उपासना से साधक के समस्त पापों-विघ्नों का नाश होता है और उसके जीवन में सकारात्मक ऊर्जा का आगमन होता है। साधक को माँ कालरात्रि के स्वरूप-विग्रह को अपने हृदय में अवस्थित करके एकनिष्ठ भाव से उपासना करनी चाहिए।
उनके बीज मंत्र: "ॐ ऐं ह्रीं क्रीं कालरात्रै नमः |" का जाप परम फलदायी माना जाता है। माँ कालरात्रि के प्राकट्य का मुख्य पौराणिक कारण रक्तबीज नामक दैत्य का संहार है, जिसकी कथा दुर्गा सप्तशती में वर्णित है: रक्तबीज का वरदान: रक्तबीज एक ऐसा मायावी राक्षस था जिसके शरीर के रक्त की एक भी बूंद धरती पर गिरते ही उसके जैसे लाखों नए रक्तबीज उत्पन्न हो जाते थे। कालरात्रि का प्राकट्य: जब देवी दुर्गा (चंडिका) ने इस राक्षस पर प्रहार किया और उसके रक्त की बूंदों से नए राक्षस पैदा होने लगे, तब इस असाध्य संकट को समाप्त करने के लिए माँ दुर्गा ने अपने तेज से कालरात्रि को उत्पन्न किया। माँ कालरात्रि ने तब अपनी लंबी जीभ से रक्तबीज के शरीर से निकलने वाले समस्त रक्त का पान कर लिया और उसकी एक भी बूँद धरती पर नहीं गिरने दी। रक्तबीज का रक्त अवशोषित हो जाने से नए दैत्य उत्पन्न नहीं हो पाए, और माँ दुर्गा ने अंततः उसका गला काट कर संहार कर दिया। यह आख्यान सिद्ध करता है कि माँ कालरात्रि ही वह शक्ति हैं जो बुराई को उसकी जड़ों सहित समाप्त करती हैं, ताकि वह पुन: उत्पन्न न हो सके।
भारत में माँ कालरात्रि की पूजा उनके विभिन्न रूपों में होती है, जिसके दो विशिष्ट उदाहरण हैं:माँ कालरात्रि मंदिर, वाराणसी: यह मंदिर मीर घाट के समीप कालिका गली में स्थित है और इसे काशी के एक महत्वपूर्ण शक्तिपीठ के रूप में पूजा जाता है। यहाँ दर्शन मात्र से ही भक्त अकाल मृत्यु के भय से मुक्त हो जाते हैं। रामेश्वरी श्यामा माई मंदिर, दरभंगा: यह मंदिर अत्यंत विशिष्ट है क्योंकि यह महाराजा रामेश्वर सिंह की चिता भूमि परश्मशान घाट में स्थापित है। यहाँ माँ काली की पूजा वैदिक और तांत्रिक दोनों विधियों से होती है। माँ कालरात्रि की उपासना साहस, वीरता, और आंतरिक अंधकार पर विजय का प्रतीक है। वे काल और मृत्यु के भय को मिटाकर भक्तों के जीवन में शुभत्व और परम सिद्धि का प्रकाश लाती हैं।
08.  नवदुर्गा की अष्टम शक्ति: माँ महागौरी—तपस्या, सौंदर्य, और करुणा 
सनातन धर्म के शाक्त संप्रदाय में देवी दुर्गा के नौ स्वरूपों, यानी नवदुर्गा का अत्यंत महत्व है। इन नौ देवियों में, माँ महागौरी आठवाँ स्वरूप हैं, जिनकी आराधना नवरात्रि की अष्टमी तिथि पर की जाती है। पुराणों और स्मृतियों में वर्णित यह देवी केवल शक्ति ही नहीं, बल्कि सौंदर्य, शांति और कठोर तपस्या का भी प्रतीक हैं। यह आलेख माँ महागौरी के दिव्य स्वरूप, उनकी कथाओं, पूजा विधि और उनके प्रसिद्ध मंदिरों पर एक गहरा प्रकाश डालता है।
महागौरी नाम ही उनके अत्यंत उज्ज्वल और गौर वर्ण को दर्शाता है। उनका स्वरूप इतना तेजोमय है कि वे शंख, चंद्रमा और कुंद के फूल की तरह धवल और कांतिमान दिखती हैं।: उनका वर्ण पूर्णतः गौर (श्वेत) है और पुराणों के अनुसार उनकी आयु आठ वर्ष है—'अष्टवर्षा भवेद् गौरी' है। वस्त्र और आभूषण: उनके समस्त वस्त्र और आभूषण श्वेत हैं, जो पवित्रता और सादगी का प्रतीक हैं। वाहन: उनका प्रमुख वाहन वृषभ (बैल) है। एक कथा के अनुसार, उन्हें सिंह पर भी आरूढ़ बताया गया है, जो उनकी तपस्या का फल था। माँ महागौरी की चार भुजाएँ हैं।ऊपर का दाहिना हाथ: अभय मुद्रा (भय मुक्ति का आशीर्वाद)।नीचे का दाहिना हाथ: त्रिशूल (दुष्टों का नाश)।ऊपर का बायाँ हाथ: डमरू (सृष्टि की ध्वनि और लय)।नीचे का बायाँ हाथ: वर-मुद्रा (मनचाहा वरदान देने का आशीर्वाद)। निवास और संबंध: उनका निवास स्थान कैलाश पर्वत है और उनके जीवनसाथी भगवान शिव हैं। उन्हें सभी ग्रहों की आराध्या भी माना जाता है। ध्यान श्लोक: उनका ध्यान श्लोक उनके स्वरूप का सार बताता है:
श्वेते वृषे समारुढा श्वेताम्बरधरा शुचिः |
महागौरी शुभं दद्यान्महादेवप्रमोददा ||
(जो श्वेत वृषभ पर आरूढ़ हैं, श्वेत वस्त्र धारण करती हैं, जो पवित्र हैं, और महादेव को आनंदित करती हैं, वह महागौरी हमें शुभता प्रदान करें।)
माँ महागौरी के स्वरूप के पीछे उनकी अत्यंत कठोर तपस्या की एक मार्मिक और प्रेरणादायक कथा निहित है, जिसका उल्लेख विशेष रूप से देवी भागवत में मिलता है। यह कथा बताती है कि कैसे उन्होंने देवी पार्वती रूप में भगवान शिव को पति रूप में पाने के लिए वर्षों तक साधना की। देवी भागवत  के अनुसार, पार्वती जी ने जब शिव को पति रूप में प्राप्त करने के लिए कठोर तपस्या शुरू की, तो वर्षों तक धूप, वर्षा, और ठंड सहन करने के कारण उनका शरीर काला (श्यामल) पड़ गया। जब भगवान शिव उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर उनके पास पहुँचे, तो उन्होंने पार्वती के इस तप से मलिन हुए शरीर को देखा।अपनी प्रिय उमा को यह कष्ट देखकर शिव अत्यंत करुणा से भर उठे। उन्होंने गंगा-जल से उनके शरीर को धोया। गंगा के पवित्र जल से स्नान करते ही देवी का वर्ण विद्युत के समान अत्यंत कांतिमान और गौर हो गया। इस अद्भुत गौरवर्ण को प्राप्त करने के कारण ही वे महागौरी नाम से विख्यात हुईं। यह रूप करुणा, स्नेहमयी, शांत और मृदुल दिखता है।
पुराणों  के अनुसार, जब दानव राज दुर्गम के अत्याचारों से त्रिलोकी संतप्त थी, तब देवताओं की प्रार्थना पर भगवती शाकंभरी की शरण में आने पर माता ने त्रिलोकी को मुग्ध करने वाले महागौरी रूप का प्रादुर्भाव किया। माता महागौरी ने शिवालिक पर्वत के शिखर पर आसन लगाकर विराजमान होकर भक्तों को दर्शन दिए। यही कारण है कि शाकंभरी और महागौरी के स्वरूपों का कई संदर्भों में एक-दूसरे से जुड़ाव दिखता है। महागौरी का वाहन वृषभ है, लेकिन वह सिंह पर भी आरूढ़ होती हैं। इसके पीछे भी एक प्रेरणादायक कथा है जो मार्कण्डेय पुराण में वर्णित है: देवी पार्वती जब कठोर तपस्या में लीन थीं, तब एक भूखा सिंह भोजन की तलाश में उनके तपस्या स्थल पर पहुँचा। उसने तपस्वी देवी को देखा, और उसकी भूख और बढ़ गई। परंतु, सिंह ने तपस्या भंग करने के बजाय यह निश्चय किया कि वह देवी के तप से उठने का इंतजार करेगा।वर्षों तक देवी की तपस्या चलती रही, और सिंह भी वहीं बैठा रहा। इंतजार करते-करते वह अत्यंत कमज़ोर हो गया। जब देवी तपस्या से उठीं और सिंह की यह दयनीय दशा देखी, तो उन्हें उस पर बहुत दया आई।देवी ने माना कि सिंह ने भी एक प्रकार से उनके साथ तपस्या ही की है। अपनी करुणा के वशीभूत होकर माँ गौरी ने उस सिंह को अपना वाहन बना लिया और उसे अपनी सेवा में स्वीकार किया। इस प्रकार, माँ महागौरी के वाहन के रूप में बैल (वृषभ) और सिंह दोनों का उल्लेख मिलता है।
महागौरी की पूजा विशेष रूप से नवरात्रि की अष्टमी तिथि को की जाती है। उनकी आराधना भक्तों के लिए सर्वविध कल्याणकारी मानी गई है।माँ महागौरी की पूजा का विधान पूर्ववत है, जैसा कि सप्तमी तिथि तक किया जाता है। इसमें मुख्य रूप से निम्नलिखित क्रियाएँ शामिल हैं: शुद्धिकरण: पूजा से पूर्व स्नान और शुद्ध वस्त्र धारण करना। ध्यान और आह्वान: माता महागौरी का ध्यान करते हुए उनका आह्वान करना है। उन्हें श्वेत वस्त्र, श्वेत फूल (जैसे कुंद), और नैवेद्य (भोग) अर्पित करना। माता का प्रिय रंग श्वेत है, इसलिए सफेद रंग की वस्तुओं का प्रयोग करना शुभ माना जाता है। माँ महागौरी की प्रार्थना के दौरान देवों और ऋषियों द्वारा उच्चारित यह महामंत्र सभी संकटों को दूर करने वाला माना जाता है:
सर्वमंगल मंग्ल्ये, शिवे सर्वार्थ साधिके।
शरण्ये त्र्यम्बके गौरि नारायणि नमोस्तुते॥
(अर्थ: हे नारायणी! तुम सब प्रकार का मंगल प्रदान करने वाली मंगलमयी हो। कल्याणदायिनी शिवा हो। सब पुरुषार्थों को सिद्ध करने वाली, शरणागतों का प्रतिपालन करने वाली, तीन नेत्रों वाली गौरी हो। तुम्हें नमस्कार है।)
माँ महागौरी की आराधना करने से भक्तों को सुख-समृद्धि, शांति और कष्टों से मुक्ति मिलती है। यह स्वरूप हमें सिखाता है कि कठोर तपस्या के बाद ही सर्वोच्च सौंदर्य और शक्ति की प्राप्ति होती है।एक अन्य प्रसिद्ध मंत्र है, जो देवी के स्वरूप का वर्णन करते हुए उनकी कृपा की याचना करता है:
या देवी सर्वभू‍तेषु माँ गौरी रूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:।।
(अर्थ: हे माँ! सर्वत्र विराजमान और माँ गौरी के रूप में प्रसिद्ध अम्बे, आपको मेरा बार-बार प्रणाम है। हे माँ, मुझे सुख-समृद्धि प्रदान करें।)
माँ महागौरी के प्रसिद्ध मंदिर में  भारत के विभिन्न कोनों में माँ महागौरी के कई प्रसिद्ध मंदिर हैं, जहाँ भक्त अपनी आस्था और श्रद्धा अर्पित करते हैं। राज्य/स्थान मंदिर में उत्तराखंड गौरी कुंड (चमोली जिले के मंदाकनी नदी के तट पर) यह स्थान केदारनाथ यात्रा के मार्ग पर स्थित है और धार्मिक महत्व रखता है।उत्तराखंड पोखरी, नाइ टिहरी बौराड़ी (गढ़वाल) गढ़वाल क्षेत्र में देवी गौरी के मंदिर स्थापित हैं, जो स्थानीय लोगों की आस्था का केंद्र हैं। बिहार मंगलागौरी मंदिर (गया, भष्मपहाड़ी पर) यह मंदिर 51 शक्तिपीठों में से एक माना जाता है और अत्यंत प्राचीन है।उत्तरप्रदेश काशी (वाराणसी) - पंचगंगा घाट काशी में देवी के नौ गौरी स्वरूपों के मंदिर हैं, जिनमें महागौरी का भी महत्वपूर्ण स्थान है।हरियाणा फरीदाबाद में माता महागौरी मंदिर यह मंदिर आधुनिक समय में भी भक्तों के बीच काफी प्रसिद्ध है।तमिलनाडु कांचीपुरम दक्षिण भारत में भी माँ गौरी के प्राचीन मंदिर पाए जाते हैं, जो उनकी व्यापक उपस्थिति दर्शाते हैं।छत्तीसगढ़ रायपुर (अवंति बिहार) स्थानीय लोग विशेषकर नवरात्रि के दौरान यहाँ पूजा-अर्चना करते हैं।पंजाबलुधियाना (चिमनी रोड़ स्थित शिमलापुरी) उत्तर भारत में भी देवी की पूजा अत्यंत धूमधाम से की जाती है।
माँ महागौरी का स्वरूप हमें यह संदेश देता है कि तपस्या की अग्नि में तपकर ही आत्मिक और बाहरी सौंदर्य प्राप्त होता है। उनका गौर वर्ण केवल शारीरिक सुंदरता नहीं, बल्कि पवित्रता, शांति और दिव्यता का प्रतीक है। वह महादेव को आनंदित करने वाली हैं और अपने भक्तों को वरदान तथा अभय प्रदान करती हैं। नवरात्रि के आठवें दिन उनकी पूजा करके भक्तजन अपनी सभी मनोकामनाओं की पूर्ति और जीवन में मंगल की कामना करते हैं। उनकी करुणा और शांति का भाव हमें जीवन की कठिनाइयों में भी स्थिर रहने की प्रेरणा देता है।
09.  माँ सिद्धिदात्री: सभी सिद्धियों की प्रदाता
नवरात्रि का पावन पर्व, जो आदि शक्ति माँ दुर्गा के नौ दिव्य स्वरूपों की उपासना का उत्सव है, नवमी तिथि को आकर अपनी पूर्णता को प्राप्त करता है। यह अंतिम दिन माँ सिद्धिदात्री को समर्पित है। वेदों, पुराणों, स्मृतियों, और विशेष रूप से मार्कण्डेय पुराण के अनुसार, माँ शक्ति का यह नौवां अवतार सभी प्रकार की सिद्धियों को प्रदान करने वाला है। नवरात्रि-पूजन के नौवें दिन, शास्त्रीय विधि-विधान और पूर्ण निष्ठा के साथ साधना करने वाले साधक को सभी सिद्धियों की प्राप्ति होती है। यह उपासना साधक को ब्रह्मांड पर पूर्ण विजय प्राप्त करने की सामर्थ्य प्रदान करती है। सिद्धिदात्री माँ की स्तुति में कहा गया है:
सिद्धगन्धर्वयक्षाद्यैरसुरैरमरैरपि |
सेव्यमाना सदा भूयात् सिद्धिदा सिद्धिदायिनी ||
अर्थात्: गंधर्व, यक्ष, असुर, देवता आदि सभी के द्वारा पूजित माँ सिद्धिदात्री, जो सब प्रकार की सिद्धियाँ देने वाली हैं, हमें वे सिद्धियाँ प्रदान करें। माँ सिद्धिदात्री को सिद्धियों की अधिष्ठात्री देवी माना गया है। मार्कण्डेय पुराण के अनुसार, मुख्य रूप से आठ सिद्धियाँ हैं: अणिमा, महिमा, गरिमा, लघिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशित्व और वशित्व। वहीं, ब्रह्मवैवर्त पुराण के श्रीकृष्ण जन्म खंड में अठारह सिद्धियों का वर्णन है। माँ सिद्धिदात्री भक्तों और साधकों को ये सभी सिद्धियाँ प्रदान करने में पूर्णतः समर्थ हैं। देवीपुराण में एक अत्यंत महत्वपूर्ण प्रसंग है, जिसके अनुसार स्वयं भगवान शिव ने माँ सिद्धिदात्री की कृपा से इन सिद्धियों को प्राप्त किया था। इन सिद्धियों की प्राप्ति के कारण ही भगवान शिव को 'अर्द्धनारीश्वर' कहा गया। यह स्वरूप दर्शाता है कि माँ शक्ति का अंश शिव में समाहित है और सिद्धियों का मूल स्रोत यही दिव्य शक्ति है।
माँ सिद्धिदात्री का विग्रह संपूर्णता और समृद्धि का प्रतीक है। उनका स्वरूप अत्यंत शांत, सौम्य और कल्याणकारी है, जो भक्तों को अभीष्ट फल देने वाला है। वाहन और आसन: माँ का वाहन सिंह है, जो पराक्रम और शौर्य का प्रतीक है, किंतु वे प्रायः कमल पुष्प पर आसीन दिखाई देती हैं, जो पवित्रता और दिव्यता का द्योतक है। चतुर्भुजा स्वरूप: वे चार भुजाओं वाली हैं। ऊपर के दाहिने हाथ में चक्र नीचे वाले दाहिने हाथ में कमल पुष्पऊपर के बाएँ हाथ में शंखनीचे वाले बाएँ हाथ में गदाआभूषण: उनके गले में दिव्य माला शोभित होती है।
यह स्वरूप समस्त दैत्यों का दमन करके प्रत्येक भक्त को वांछित परिणाम देने वाला है। वे भक्तों के कष्ट, रोग, शोक और भय को समाप्त करके सर्वविधि कल्याण करने वाली हैं। वे परम कल्याणी और मोक्ष को देने वाली हैं।
नवदुर्गाओं में माँ सिद्धिदात्री अंतिम हैं। प्रतिपदा से लेकर नवमी तक, भक्त अन्य आठ दुर्गाओं की पूजा-उपासना शास्त्रीय विधि-विधान के अनुसार करते हुए, नवमी के दिन इनकी उपासना में प्रवृत्त होते हैं। यह दिन नवरात्रि की पूर्णाहुति का दिन होता है।माँ सिद्धिदात्री की स्तुति और अर्चना नवरात्रि के नौवें दिन करने का नियम होता है। इनकी पूजा अर्चना न केवल मानव, बल्कि देव, दानव, गंधर्व द्वारा भी सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में की जाती है। पवित्रता और संयम: पूजा के नियम पहले की ही भाँति रहेंगे, जिसमें पूरी पवित्रता का ध्यान रखना, संयम और ब्रह्मचर्य का पालन करना अत्यंत महत्वपूर्ण है। नैवेद्य और प्रसाद: सुगंधित पुष्प अर्पित किए जाते हैं। नैवेद्य में खीर व हलुवे का प्रसाद और श्रीफल (नारियल) चढ़ाने का विशेष विधान है। हवन और कन्या पूजन: विधि-विधान से पूजा करने के बाद हवन किया जाता है। इसके बाद, प्रत्येक देवी के निमित्त एक कन्या—इस प्रकार नौ कन्याओं का और एक बालक का पूजन करें। उन्हें भोजन खिलाएँ और सामर्थ्य अनुसार दान-दक्षिणा करें। इस प्रकार श्रद्धा सहित पूजन को सम्पन्न करने से ही वांछित फल प्राप्त होते हैं। इस उपासना से अष्ट सिद्धि और नव निधियों की प्राप्ति का मार्ग प्रशस्त होता है। माँ की कृपा से भक्तों को जीवन में सुख-शांति की प्राप्ति होती है। माँ सिद्धिदात्री का ध्यान और आह्वान इस मंत्र से किया जाता है:
या देवी सर्वभू‍तेषु माँ सिद्धिदात्री रूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:।।
अर्थात्: हे माँ! जो सर्वत्र विराजमान हैं और माँ सिद्धिदात्री के रूप में प्रसिद्ध हैं, उन अम्बे को मेरा बार-बार प्रणाम है। हे माँ, मुझे अपनी कृपा का पात्र बनाओ।
दुर्गा सप्तशती के प्रसंगों में माँ सिद्धिदात्री की महिमा का वर्णन है, जिसमें वे भक्तों को सिद्धि, बुद्धि, सुख-शांति की प्राप्ति कराती हैं और क्लेश दूर कर परिवार में प्रेम भाव का उदय करती हैं।
दुर्गा सप्तशती के अंतिम अध्याय में, जब देवी ने शुम्भ और निशुम्भ आदि समस्त दैत्यों का वध कर दिया, तब समस्त देवियाँ अम्बिका देवी के शरीर में लीन हो गईं। यह दर्शाता है कि देवी सर्वमय हैं। देवी स्वयं ने स्वीकार किया था:
“इस संसार में मेरे सिवा दूसरी कौन है? देख, ये मेरी ही विभूतियाँ हैं, अतः मुझमें ही प्रवेश कर रही हैं।” इसके बाद, देवी और दैत्यराज शुम्भ के बीच भयंकर युद्ध छिड़ गया। अंत में, देवी ने त्रिशूल से शुम्भ की छाती छेदकर उसे पृथ्वी पर गिरा दिया। दुरात्मा शुम्भ के मारे जाने पर संपूर्ण जगत् प्रसन्न एवं पूर्ण स्वस्थ हो गया। आकाश स्वच्छ दिखायी देने लगा, उत्पात सूचक मेघ और उल्कापात शांत हो गए, और नदियाँ भी ठीक मार्ग से बहने लगीं।माँ सिद्धिदात्री का अवतरण देवताओं सहित सभी भक्तों की वांछित कामना सिद्धि करने के लिए होता है। वे सभी प्रकार के दैत्यों का दमन करके जगत में धर्म की स्थापना करती हैं। माँ सिद्धिदात्री की पूजा अत्यंत कल्याणकारी है। यह माँ सभी सिद्धियों को देने वाली तो हैं ही, साथ ही कई प्रकार के भय व रोग को भी दूर करती हैं और जीवन को सुखद बनाती हैं। देवता, दनुज, मनुज, गंधर्व आदि सदैव इनकी भक्ति व पूजा कर रहे हैं। देवताओं ने इनकी स्तुति करते हुए कहा:“शरणागत की पीड़ा दूर करने वाली देवि! हम पर प्रसन्न होओ। सम्पूर्ण जगत् की माता! प्रसन्न होओ। विश्वेश्वरि! विश्व की रक्षा करो। देवि! तुम्हीं चराचर जगत् की अधीश्वरी हो। तुम इस जगत् का एकमात्र आधार हो... तुम्हीं प्रसन्न होने पर इस पृथ्वी पर मोक्ष की प्राप्ति कराती हैं।” एक अन्य मंत्र जो मोक्षदायिनी महिमा का बखान करता है:
सर्वभूता यदा देवी स्वर्गमुक्तिप्रदायिनी ।
त्वं स्तुता स्तुतये का वा भवन्तु परमोक्तयः ।।
अर्थात्: जब देवी सभी प्राणियों को स्वर्ग और मोक्ष प्रदान करने वाली हैं, तब उनकी स्तुति में कहे गए उत्तम वचन क्या हो सकते हैं? उनकी महिमा शब्दों से परे है।
माँ सिद्धिदात्री, जिन्हें माँ सिद्धेश्वरी के नाम से भी जाना जाता है, की उपासना स्थल भारत और इसके पड़ोसी देशों में भी व्यापक रूप से फैले हुए हैं। उत्तराखंड का नैना पर्वत पर नैनादेवी।उत्तरप्रदेश के काशी में सिद्धेश्वरी। बिहार के बराबर पर्वत समूह की सूर्यान्क गिरी पर माता सिद्धेश्वरी, बागेश्वरी, गया। झारखण्ड राज्य का गढ़वा में माता सिद्धेश्वरी मंदिर है।  सिद्धेश्वरी की उपासना बिहार, बंगाल, असम, झारखंड, हिमाचल प्रदेश, उड़ीसा, दिल्ली, मध्यप्रदेश, राजस्थान, कर्नाटक, तमिलनाडु, नेपाल, बांग्लादेश, पाकिस्तान और श्रीलंका आदि क्षेत्रों में बड़े श्रद्धा भाव से की जाती है।
नवदुर्गा क्रम की पूर्णतामाँ आदि शक्ति दुर्गा के विभिन्न पहलुओं और शक्तियों को दर्शाता है, माँ सिद्धिदात्री पर आकर पूर्ण होता है:
प्रथमं शैलपुत्री च द्वितीयं ब्रह्मचारिणी।
तृतीयं चंद्रघण्टेति कूष्माण्डेति चतुर्थकम्॥
पंचमं स्कन्दमातेति षष्ठं कात्यायनीति च।
सप्तमं कालरात्रीति महागौरीति चाष्टमम्॥
नवमं सिद्धिदात्री च नवदुर्गा: प्रकीर्तिता:॥
माँ सिद्धिदात्री न केवल नवदुर्गाओं की अंतिम कड़ी हैं, बल्कि वे समस्त इच्छाओं और सिद्धियों को प्रदान करने वाली शक्ति का सर्वोच्च रूप हैं। उनकी उपासना हमें यह सिखाती है कि भक्ति, संयम और पूर्ण निष्ठा से की गई साधना से जीवन की सभी बाधाएँ दूर होती हैं और साधक जीवन में सुख-शांति प्राप्त करते हुए अंततः मोक्ष के मार्ग पर अग्रसर होता है।

शुक्रवार, सितंबर 05, 2025

शिक्षा और समाज

शिक्षा और समाज: एक अटूट संबंध
सत्येन्द्र कुमार पाठक
शिक्षा और समाज एक-दूसरे के पूरक हैं। एक के बिना दूसरे की कल्पना करना असंभव है। जहाँ एक ओर शिक्षा समाज की दिशा और दशा तय करती है, वहीं दूसरी ओर समाज ही शिक्षा की नींव रखता है। यह संबंध इतना गहरा है कि इसे केवल एक शब्द में परिभाषित नहीं किया जा सकता, बल्कि इसके लिए हमें कई आयामों को समझना होगा। शिक्षा सिर्फ़ किताबी ज्ञान नहीं है, बल्कि यह एक प्रक्रिया है जो व्यक्ति को सामाजिक, नैतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक रूप से विकसित करती है। यह व्यक्ति को समाज का एक सक्रिय और ज़िम्मेदार नागरिक बनाती है।
समाज का विकास उसके नागरिकों के मानसिक और बौद्धिक विकास पर निर्भर करता है। शिक्षा इस विकास का सबसे महत्वपूर्ण उपकरण है। यह न केवल लोगों को ज्ञान और कौशल प्रदान करती है, बल्कि उनमें आलोचनात्मक सोच, तर्क शक्ति और समस्या समाधान की क्षमता भी विकसित करती है। एक शिक्षित समाज अंधविश्वासों और कुरीतियों से मुक्त होता है। यह रूढ़िवादिता को चुनौती देता है और प्रगतिशील विचारों को अपनाता है। शिक्षा सामाजिक समरसता को बढ़ावा देती है। जब लोग शिक्षित होते हैं, तो वे एक-दूसरे के विचारों, संस्कृतियों और विश्वासों का सम्मान करना सीखते हैं। यह जाति, धर्म, लिंग और वर्ग के आधार पर होने वाले भेदभाव को कम करने में मदद करता है। शिक्षा लोगों को एक-दूसरे के साथ संवाद करने और सहयोग करने के लिए एक सामान्य मंच प्रदान करती है, जिससे सामाजिक एकता मजबूत होती है। एक शिक्षित समाज में नागरिक अपने अधिकारों और कर्तव्यों के प्रति अधिक जागरूक होते हैं। वे सरकार की नीतियों को समझते हैं, सार्वजनिक बहसों में भाग लेते हैं और अपने नेताओं को जवाबदेह ठहराते हैं। यह लोकतांत्रिक मूल्यों को मजबूत करता है और एक पारदर्शी एवं न्यायपूर्ण शासन व्यवस्था को बढ़ावा देता है।
शिक्षा का सीधा संबंध किसी भी देश की आर्थिक प्रगति से है। एक शिक्षित कार्यबल उत्पादकता और नवाचार को बढ़ाता है। जब लोग उच्च कौशल प्राप्त करते हैं, तो वे बेहतर नौकरियाँ पाते हैं, अधिक कमाते हैं और अर्थव्यवस्था में अधिक योगदान करते हैं। शिक्षा उद्यमिता को भी प्रोत्साहित करती है। शिक्षित व्यक्ति नए व्यवसाय शुरू करने और रोज़गार के अवसर पैदा करने में सक्षम होते हैं। गरीबी और शिक्षा का गहरा संबंध है। शिक्षा गरीबी से बाहर निकलने का सबसे प्रभावी तरीका है। यह लोगों को उच्च आय वाले रोज़गार के अवसर प्रदान करती है, जिससे उनकी जीवनशैली में सुधार होता है। आर्थिक असमानता को कम करने में भी शिक्षा की महत्वपूर्ण भूमिका है। यह सभी को समान अवसर प्रदान करती है, चाहे वे किसी भी सामाजिक या आर्थिक पृष्ठभूमि से हों।
संस्कृति किसी भी समाज की पहचान होती है। शिक्षा इस पहचान को बनाए रखने और अगली पीढ़ी तक पहुँचाने का काम करती है। यह हमें अपनी भाषा, साहित्य, कला और परंपराओं का महत्व सिखाती है। शिक्षा के माध्यम से ही हम अपनी सांस्कृतिक विरासत के प्रति सम्मान विकसित करते हैं और उसे संरक्षित करने का प्रयास करते हैं। साथ ही, शिक्षा हमें अन्य संस्कृतियों के बारे में जानने और समझने का अवसर भी देती है। यह हमें एक वैश्विक नागरिक बनाती है, जो दुनिया के अन्य हिस्सों के लोगों के साथ संवाद करने और सहयोग करने में सक्षम है। यह सांस्कृतिक आदान-प्रदान को बढ़ावा देता है, जिससे दुनिया भर में शांति और समझ को बढ़ावा मिलता है।
शिक्षा एक शक्तिशाली परिवर्तन का साधन है। यह समाज में मौजूद कुरीतियों और अन्याय को चुनौती देती है। शिक्षा ने महिलाओं को सशक्त बनाया है, जिससे वे घर की चारदीवारी से बाहर निकलकर समाज के हर क्षेत्र में योगदान कर रही हैं। इसने बाल विवाह, दहेज प्रथा और जातिगत भेदभाव जैसी सामाजिक बुराइयों के खिलाफ जागरूकता पैदा की है।
शिक्षा ने लोगों को अपने अधिकारों के लिए लड़ने और अन्याय का विरोध करने के लिए प्रेरित किया है। यह सामाजिक आंदोलनों और क्रांतियों की नींव रही है। इतिहास गवाह है कि जब-जब समाज में बदलाव की लहर आई है, तब-तब शिक्षा ने एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
आज भी हमारे समाज में शिक्षा से जुड़ी कई चुनौतियाँ हैं। निरक्षरता, शैक्षणिक असमानता, अपर्याप्त बुनियादी ढाँचा, और गुणवत्तापूर्ण शिक्षकों की कमी कुछ प्रमुख समस्याएँ हैं। पिछड़े क्षेत्रों, ग्रामीण इलाकों और हाशिए पर रहने वाले समुदायों में रहने वाले लोग अक्सर शिक्षा के उचित लाभों से वंचित रह जाते हैं। इन चुनौतियों का समाधान करने के लिए सरकार और समाज दोनों को मिलकर काम करना होगा। हमें शिक्षा तक पहुँच को सार्वभौमिक बनाना होगा, ताकि कोई भी बच्चा शिक्षा से वंचित न रहे। हमें शिक्षा की गुणवत्ता पर ध्यान देना होगा और यह सुनिश्चित करना होगा कि पाठ्यक्रम व्यावहारिक और प्रासंगिक हो। शिक्षकों को उचित प्रशिक्षण और समर्थन प्रदान करना भी अत्यंत महत्वपूर्ण है। डिजिटल शिक्षा एक नई संभावना लेकर आई है। यह दूर-दराज के क्षेत्रों में भी गुणवत्तापूर्ण शिक्षा पहुँचाने में मदद कर सकती है। हमें इस तकनीक का अधिकतम लाभ उठाना होगा और डिजिटल डिवाइड को कम करने के लिए प्रयास करने होंगे। शिक्षा और समाज एक-दूसरे के साथ एक जटिल और अटूट संबंध साझा करते हैं। शिक्षा ही वह नींव है जिस पर एक प्रगतिशील, न्यायपूर्ण और समृद्ध समाज का निर्माण होता है। यह व्यक्ति को आत्मनिर्भर बनाती है, सामाजिक समरसता को बढ़ावा देती है और आर्थिक विकास को गति देती है। एक देश का भविष्य उसके शिक्षा तंत्र पर निर्भर करता है। हमें यह सुनिश्चित करना चाहिए कि हर व्यक्ति को अच्छी शिक्षा मिले, चाहे वह किसी भी परिस्थिति में हो। शिक्षा सिर्फ़ एक अधिकार नहीं है, बल्कि यह एक जिम्मेदारी भी है। हमें अपने और अपने समाज के विकास के लिए शिक्षा के महत्व को समझना चाहिए और इसे बढ़ावा देने के लिए लगातार प्रयास करने चाहिए। जब हम शिक्षा को प्राथमिकता देंगे, तभी हमारा समाज सही मायने में विकसित होगा और हम एक बेहतर दुनिया का निर्माण कर सकेंगे।

 Education and Society: An Unbreakable Bond
Satyendra Kumar Pathak
Education and society are complementary to each other. It is impossible to imagine one without the other. While education determines the direction and condition of a society, it is society that lays the foundation for education. This relationship is so profound that it cannot be defined in a single word; instead, we must understand its many dimensions. Education is not just book knowledge; it is a process that develops a person socially, morally, economically, and culturally. It makes an individual an active and responsible citizen of society.
The development of a society depends on the mental and intellectual growth of its citizens. Education is the most important tool for this development. It not only provides people with knowledge and skills but also develops their critical thinking, reasoning, and problem-solving abilities. An educated society is free from superstitions and social evils. It challenges conventionalism and embraces progressive ideas. Education promotes social harmony. When people are educated, they learn to respect each other's ideas, cultures, and beliefs. This helps reduce discrimination based on caste, religion, gender, and class. Education provides a common platform for people to communicate and cooperate with each other, which strengthens social unity. In an educated society, citizens are more aware of their rights and duties. They understand government policies, participate in public debates, and hold their leaders accountable. This strengthens democratic values and promotes a transparent and just governance system.
Education is directly related to a country's economic progress. An educated workforce boosts productivity and innovation. When people acquire high skills, they get better jobs, earn more, and contribute more to the economy. Education also encourages entrepreneurship. Educated individuals are able to start new businesses and create employment opportunities. There is a deep connection between poverty and education. Education is the most effective way to escape poverty. It provides people with opportunities for high-paying jobs, which improves their standard of living. Education also plays an important role in reducing economic inequality. It provides equal opportunities for everyone, regardless of their social or economic background.
Culture is the identity of any society. Education works to preserve this identity and pass it on to the next generation. It teaches us the importance of our language, literature, art, and traditions. It is through education that we develop respect for our cultural heritage and try to preserve it. At the same time, education also gives us the opportunity to learn about and understand other cultures. It makes us a global citizen who is capable of communicating and cooperating with people from other parts of the world. This promotes cultural exchange, which in turn promotes peace and understanding around the world.
Education is a powerful tool for change. It challenges the social evils and injustice that exist in society. Education has empowered women, allowing them to step out of the confines of their homes and contribute to every sector of society. It has created awareness against social evils such as child marriage, the dowry system, and caste-based discrimination. Education has inspired people to fight for their rights and protest against injustice. It has been the foundation of social movements and revolutions. History is a witness that whenever a wave of change has come in society, education has played an important role.
Even today, our society faces many challenges related to education. Illiteracy, educational inequality, inadequate infrastructure, and a lack of quality teachers are some of the major problems. People living in backward areas, rural areas, and marginalized communities are often deprived of the proper benefits of education. To solve these challenges, both the government and society must work together. We have to make access to education universal so that no child is deprived of education. We need to focus on the quality of education and ensure that the curriculum is practical and relevant. Providing proper training and support to teachers is also extremely important. Digital education has brought a new possibility. It can help provide quality education even in remote areas. We have to take maximum advantage of this technology and make efforts to reduce the digital divide.
Education and society share a complex and unbreakable bond. Education is the foundation on which a progressive, just, and prosperous society is built. It makes an individual self-reliant, promotes social harmony, and accelerates economic development. The future of a country depends on its education system. We must ensure that every person gets a good education, no matter what their circumstances are. Education is not just a right, but it is also a responsibility. We should understand the importance of education for our and our society's development and constantly strive to promote it. Only when we prioritize education will our society truly develop and we will be able to build a better world.

आस्था का द्योतक है झिझिया लोकनृत्य

बज्जि एवं मिथिला की पहचान और आस्था का प्रतीक लोक नृत्य झिझिया 
सत्येन्द्र कुमार पाठक 
झिझिया, बिहार के मिथिलांचल क्षेत्र का एक प्राचीन और प्रसिद्ध लोक नृत्य है। यह केवल एक नृत्य नहीं, बल्कि इस क्षेत्र की समृद्ध आध्यात्मिक और कृषि प्रधान संस्कृति का जीवंत प्रतीक है। यह विशेष रूप से शारदीय नवरात्रि और दशहरा के उत्सवों के दौरान किया जाता है, जिसका मुख्य उद्देश्य देवी दुर्गा को प्रसन्न करना और समाज को बुरी शक्तियों से बचाना है। झिझिया नृत्य का इतिहास सदियों पुराना है और यह बज्जि एवं  मिथिला की सांस्कृतिक धरोहर का एक अभिन्न अंग है। यह नृत्य माता सीता के जन्मस्थान सीतामढ़ी, मुजफ्फरपुर, दरभंगा, मधुबनी, वैशाली और बज्जिकाँचल जैसे क्षेत्रों में विशेष रूप से लोकप्रिय है। लोक कथाओं के अनुसार, इस नृत्य का संबंध  मध्यप्रदेश का मालवा का तथा बज्जि का राजा चित्रसेन और उनकी रानी के प्रेम प्रसंगों से भी है।
झिझिया केवल एक धार्मिक अनुष्ठान नहीं है, बल्कि इसका गहरा संबंध कृषि से भी है। किसान अच्छी फसल और पर्याप्त वर्षा के लिए देवताओं से प्रार्थना करने हेतु यह नृत्य करते थे। इसलिए, यह नृत्य बज्जिकाँचल एवं  मिथिलांचल की आध्यात्मिक और कृषि प्रधान दोनों संस्कृतियों का प्रतिनिधित्व करता है। झिझिया नृत्य मुख्य रूप से महिलाओं और कुंवारी लड़कियों द्वारा किया जाता है। इसकी सबसे अनूठी और आकर्षक विशेषता यह है कि नृत्यांगनाएं अपने सिर पर छेद वाला मिट्टी का घड़ा (मटका) रखती हैं, जिसके अंदर एक जलती हुई दीया रखा जाता है। यह दृश्य न केवल देखने में अद्भुत लगता है, बल्कि इसका गहरा प्रतीकात्मक महत्व भी है।
जलता हुआ दीया: यह बुराई पर अच्छाई की विजय और अज्ञानता के अंधकार को दूर करने वाले ज्ञान का प्रतीक है।
छेद वाला मटका: यह नृत्यांगनाओं की प्रार्थना का प्रतीक है, जिसके माध्यम से वे बुरी आत्माओं और नकारात्मक ऊर्जाओं को अपने परिवार और समाज से दूर करने की कामना करती हैं। यह नृत्य प्रत्येक वर्ष अश्विन शुक्ल प्रतिपदा (कलश स्थापना) के दिन से शुरू होकर विजयादशमी तक लगातार चलता रहता है।
झिझिया नृत्य की सामाजिक और धार्मिक भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण है। यह देवी दुर्गा के प्रति महिलाओं के समर्पण का प्रतीक है और यह माना जाता है कि इस नृत्य के माध्यम से वे अपने परिवार और समाज को डायनों, काले जादू और अन्य बुरी शक्तियों से बचाती हैं। यह नृत्य समाज में महिलाओं की भागीदारी को दर्शाता है और उन्हें एक शक्ति के रूप में प्रस्तुत करता है। यह एक सामूहिक नृत्य है जिसमें महिलाएं एक घेरा बनाकर नाचती हैं, जिससे सामुदायिक भावना और एकजुटता को बढ़ावा मिलता है।  झिझिया नृत्य के साथ पारंपरिक लोकगीत गाए जाते हैं, जिनमें देवी-देवताओं की महिमा और लोक कथाओं का वर्णन होता है। इन गीतों को लय और ताल देने के लिए ढोलक और मृदंग जैसे पारंपरिक वाद्ययंत्रों का उपयोग किया जाता है। इन वाद्ययंत्रों की थाप पर महिलाएं लयबद्ध तरीके से नृत्य करती हैं, जिससे पूरा वातावरण भक्ति और उत्साह से भर जाता है।आधुनिकता के इस दौर में, झिझिया नृत्य अपनी पहचान कुछ हद तक खोता जा रहा है, लेकिन आज भी यह मिथिला की लोक संस्कृति की एक महत्वपूर्ण पहचान बना हुआ है। दुर्गा पूजा के दौरान ग्रामीण क्षेत्रों में, खासकर कुंवारी लड़कियां इस नृत्य को पूरी लगन और उत्साह के साथ करती हैं, जिससे यह प्राचीन कला जीवित बनी हुई है। झिझिया सिर्फ एक नृत्य नहीं, बल्कि बज्जिकाँचल और  मिथिला की सांस्कृतिक धरोहर, आस्था और सामाजिक एकजुटता का प्रतीक है। यह हमें सिखाता है कि कैसे कला, धर्म और परंपराएं एक साथ मिलकर एक सशक्त समाज का निर्माण कर सकती हैं। यह नृत्य भारतीय संस्कृति की विविधता और समृद्धि का एक अनुपम उदाहरण है।

गुरुवार, सितंबर 04, 2025

आत्मबोध से विश्व बोध

आत्मबोध से विश्वबोध: स्वयं की खोज से ब्रह्मांड की पहचान
सत्येन्द्र कुमार पाठक 
मानव जीवन की यात्रा एक अनवरत खोज है, और इस खोज का सबसे महत्वपूर्ण पड़ाव है आत्मबोध। आत्मबोध का शाब्दिक अर्थ है, 'स्वयं को जानना'। यह सिर्फ अपने नाम, पहचान या पद को जानना नहीं है, बल्कि अपनी आंतरिक प्रकृति, क्षमताओं, सीमाओं और जीवन के उद्देश्य को गहराई से समझना है। यह एक ऐसी प्रक्रिया है जो हमें हमारे अस्तित्व के केंद्र से जोड़ती है और हमें बाहरी दुनिया के शोर से परे, अपने भीतर झाँकने का साहस देती है। यह यात्रा व्यक्ति को व्यक्तिगत जीवन की संकीर्णता से उठाकर संपूर्ण ब्रह्मांड के साथ एकाकार करती है, जिसे हम विश्वबोध कहते हैं। भारतीय दर्शन में आत्मबोध का विचार हजारों वर्षों से पोषित होता रहा है। हमारे प्राचीन शिक्षा का मूल आधार ही स्वयं को जानना था। वेदव्यास की आत्मबोधोपनिषद से लेकर आदि शंकराचार्य द्वारा रचित 'आत्मबोध' जैसे ग्रंथ इसी ज्ञान की महत्ता को दर्शाते हैं। शंकराचार्य का 'आत्मबोध' एक छोटा, किन्तु अत्यंत महत्वपूर्ण ग्रंथ है, जिसमें मात्र अड़सठ श्लोकों के माध्यम से आत्मा के वास्तविक स्वरूप का निरूपण किया गया है। यह ग्रंथ उन साधकों के लिए एक मार्गदर्शक है, जो जीवन के परम सत्य को जानना चाहते हैं। जैसा कि स्वामी विदेहात्मानंद ने भी हिंदी में इसकी व्याख्या की है, यह ज्ञान आज भी प्रासंगिक है।
'आत्मबोध' का प्रथम श्लोक, "तपोभिः क्षीणपापानां शान्तानां वीतरागिणाम् । मुमुक्षूणामपेक्ष्योऽयमात्मबोधो विधीयते ॥१॥", इस यात्रा की पहली शर्त को स्पष्ट करता है। इसका अर्थ है कि यह ज्ञान उन लोगों के लिए है, जिन्होंने तप के अभ्यास से अपने पापों को क्षीण कर लिया है, जिनके मन शांत हैं, जो राग-द्वेष या आसक्तियों से रहित हैं और जिनमें मोक्ष की तीव्र इच्छा है। यह श्लोक बताता है कि आत्मज्ञान कोई आकस्मिक घटना नहीं, बल्कि एक व्यवस्थित और अनुशासित साधना का परिणाम है। दार्शनिक रूप से, आत्मबोध हमें यह प्रश्न पूछने के लिए प्रेरित करता है कि "मैं कौन हूँ?"। क्या मैं यह शरीर हूँ? या यह मन हूँ? या यह विचार और भावनाएँ हूँ? वेदान्त दर्शन के अनुसार, हमारा वास्तविक स्वरूप इन सबसे परे है। हम न तो शरीर हैं, न मन हैं, बल्कि हम शुद्ध चेतना, या आत्मा हैं। यह ज्ञान हमें शरीर और मन की क्षणभंगुरता से मुक्त करता है और हमें अपने शाश्वत, अविनाशी स्वरूप का एहसास कराता है। जब हम इस सत्य को समझते हैं, तो जीवन में आने वाले सुख-दुख, लाभ-हानि हमें विचलित नहीं कर पाते, क्योंकि हम जानते हैं कि ये सब सिर्फ बाहरी और अस्थायी परिस्थितियाँ हैं। मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से, आत्मबोध को आत्म-जागरूकता के रूप में समझा जा सकता है। यह हमें अपनी ताकत और कमजोरियों को पहचानने में मदद करता है, जिससे हम व्यक्तिगत और पेशेवर जीवन में बेहतर प्रदर्शन कर पाते हैं। आत्म-जागरूक व्यक्ति अपनी भावनाओं को पहचानता है और उन्हें स्वस्थ तरीके से प्रबंधित कर पाता है। वह जानता है कि उसे क्या प्रेरित करता है, क्या उसे निराश करता है और वह कैसे अपनी प्रतिक्रियाओं को नियंत्रित कर सकता है। जब हमें पता होता है कि हम क्या हैं, तो हम अनावश्यक दिखावे और दूसरों से तुलना करने की प्रवृत्ति से बचते हैं। यह हमें एक आंतरिक शांति और संतोष प्रदान करता है जो बाहरी सफलता से कहीं अधिक मूल्यवान है।
आत्मबोध की यात्रा सरल नहीं है। यह मन को शांत करने, आत्म-निरीक्षण करने और अपनी कमजोरियों का सामना करने की मांग करती है। इसके लिए कुछ प्रमुख साधनों का सहारा लिया जाता है: ध्यान आत्मबोध का सबसे महत्वपूर्ण और प्रभावी साधन है। ध्यान हमें अपने मन को शांत करने और विचारों की भीड़ से दूरी बनाने में मदद करता है। नियमित ध्यान अभ्यास से हम अपने भीतर चल रहे विचारों, भावनाओं और संवेदनाओं को बिना किसी पूर्वाग्रह के देख पाते हैं। यह हमें अपने मन को नियंत्रित करने और अनावश्यक विकर्षणों से मुक्त होने की शक्ति देता है। चिंतन और आत्म-निरीक्षण: यह प्रक्रिया हमें अपने विचारों, भावनाओं और कार्यों का गहराई से विश्लेषण करने का अवसर देती है। हमें स्वयं से प्रश्न पूछना चाहिए: मैं क्या सोचता हूँ? मैं क्यों सोचता हूँ? मेरे कार्यों का क्या प्रभाव पड़ता है? इस तरह का आत्म-निरीक्षण हमें अपनी आदतों, पैटर्न और प्रेरणाओं को समझने में मदद करता है। यह हमें उन नकारात्मक प्रवृत्तियों को पहचानने में मदद करता है जो हमें रोकती हैं।स्वाध्याय: आध्यात्मिक और दार्शनिक ग्रंथों का अध्ययन हमें आत्मज्ञान के मार्ग पर आवश्यक ज्ञान और प्रेरणा प्रदान करता है। शंकराचार्य के 'आत्मबोध' जैसे ग्रंथ हमें आत्मतत्व के बारे में गहन समझ देते हैं। यह हमें यह जानने में मदद करता है कि हमारा वास्तविक स्वरूप क्या है और हम इस दुनिया में क्यों हैं। ये ग्रंथ हमें आध्यात्मिक सिद्धांतों और जीवन के नैतिक मूल्यों से परिचित कराते हैं। निःस्वार्थ सेवा (Selfless Service): दूसरों की निःस्वार्थ सेवा करने से हमारे अहंकार में कमी आती है और हम स्वयं को संपूर्णता का एक हिस्सा मानना शुरू करते हैं। जब हम दूसरों के लिए कुछ करते हैं, तो हम अपनी व्यक्तिगत पहचान से परे उठते हैं और एक व्यापक चेतना के साथ जुड़ते हैं। यह हमें दूसरों के दुख और खुशी को महसूस करने की क्षमता देता है, जिससे करुणा और सहानुभूति का विकास होता है। जब व्यक्ति आत्मबोध की इस कठिन यात्रा को पार करता है, तो उसे एक अनूठी उपलब्धि प्राप्त होती है: सकारात्मक ऊर्जा और सोच का संचार। आत्मज्ञानी व्यक्ति का मन शांत और स्थिर होता है। वह बाहरी परिस्थितियों से विचलित नहीं होता, क्योंकि उसकी खुशी का स्रोत उसके भीतर होता है। यह सकारात्मक ऊर्जा न केवल उसके जीवन को बेहतर बनाती है, बल्कि उसके आस-पास के लोगों और वातावरण को भी प्रभावित करती है। एक शांत और सकारात्मक व्यक्ति अपने आसपास के लोगों को भी शांति और सकारात्मकता की ओर प्रेरित करता है। आत्मबोध की यात्रा यहीं समाप्त नहीं होती, बल्कि यहीं से विश्वबोध की यात्रा शुरू होती है। जब हम स्वयं के अस्तित्व को गहराई से समझते हैं, तो हमें यह एहसास होता है कि हम इस विशाल ब्रह्मांड का एक छोटा सा हिस्सा हैं। हमारी चेतना और अस्तित्व दूसरों से अलग नहीं, बल्कि एक ही ब्रह्मांडीय चेतना का विस्तार हैं। यह बोध हमें 'वसुधैव कुटुंबकम्' (संपूर्ण पृथ्वी एक परिवार है) की भावना से भर देता है।
विश्वबोध का अर्थ है, दूसरों को भी अपने समान समझना। यह हमें सहानुभूति और करुणा से भर देता है। जब हम किसी और के दुख को देखते हैं, तो हम उसे अपनी ही पीड़ा का एक हिस्सा महसूस करते हैं। यह भावना हमें दूसरों की मदद करने, समाज के कल्याण के लिए काम करने और एक बेहतर दुनिया बनाने के लिए प्रेरित करती है। एक आत्मज्ञानी व्यक्ति के लिए सेवा और निःस्वार्थ कर्म केवल कर्तव्य नहीं, बल्कि उसके अस्तित्व का स्वाभाविक विस्तार बन जाते हैं।
विश्वबोध हमें यह भी सिखाता है कि हम सभी एक ही चेतना के अंश हैं। हम सभी एक-दूसरे से और प्रकृति से जुड़े हुए हैं। इस बोध से हम पर्यावरण और मानवता के प्रति अधिक जिम्मेदार हो जाते हैं। हम समझते हैं कि प्रकृति को नुकसान पहुँचाना स्वयं को नुकसान पहुँचाना है, और दूसरों को दुख पहुँचाना स्वयं को दुख पहुँचाना है। यह हमें एक अधिक सामंजस्यपूर्ण और स्थायी जीवनशैली अपनाने के लिए प्रेरित करता है।
आज की दुनिया में, जहाँ तनाव, चिंता, प्रतिस्पर्धा और अकेलापन आम हैं, आत्मबोध का महत्व और भी बढ़ जाता है। आधुनिक जीवन की भागदौड़ में हम अक्सर अपने आप से कट जाते हैं। हम बाहरी सफलताओं, जैसे धन, पद और प्रतिष्ठा, के पीछे भागते रहते हैं और अपनी आंतरिक शांति को खो देते हैं। आत्मबोध हमें इस दौड़ से रुकने और अपने भीतर झाँकने का अवसर देता है। यह हमें यह समझने में मदद करता है कि सच्ची खुशी बाहरी चीजों में नहीं, बल्कि हमारे भीतर ही है। आत्मबोध हमें एक उद्देश्यपूर्ण जीवन जीने में मदद करता है। जब हम अपनी वास्तविक पहचान और क्षमताओं को जानते हैं, तो हम अपने जीवन के लिए एक सार्थक लक्ष्य निर्धारित कर पाते हैं। यह हमें न केवल व्यक्तिगत रूप से, बल्कि सामाजिक रूप से भी अधिक सफल और संतुष्ट बनाता है। एक आत्मज्ञानी व्यक्ति समाज में सकारात्मक बदलाव लाने की क्षमता रखता है, क्योंकि वह दूसरों की जरूरतों और दुखों को अधिक गहराई से समझता है। यह व्यक्ति समाज में एकता, शांति और सहिष्णुता को बढ़ावा देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है। आत्मबोध से उत्पन्न सकारात्मक सोच हमें जीवन की चुनौतियों का सामना करने की शक्ति देती है। यह हमें हर स्थिति में आशावादी बने रहने और समाधान खोजने के लिए प्रेरित करती है। जब हम यह समझ लेते हैं कि हम एक व्यापक ब्रह्मांडीय व्यवस्था का हिस्सा हैं, तो हमारी व्यक्तिगत परेशानियाँ छोटी लगने लगती हैं और हम एक बड़े उद्देश्य के लिए काम करना शुरू करते हैं।
आत्मबोध से विश्वबोध की यात्रा स्वयं को जानने से शुरू होती है और संपूर्ण मानवता को स्वीकार करने पर समाप्त होती है। यह एक ऐसी यात्रा है जो हमें अपने अहंकार और संकीर्णता से मुक्त करती है और हमें एक अधिक शांत, सकारात्मक और उद्देश्यपूर्ण जीवन जीने में मदद करती है। यह हमें सिखाती है कि सच्चा ज्ञान अपने भीतर पाया जाता है और जब हम उस ज्ञान को पाते हैं, तो हम न केवल स्वयं को, बल्कि सम्पूर्ण ब्रह्मांड को पहचान लेते हैं। यह आत्मबोध ही है जो हमें सही मायने में मानव बनाता है और हमें एक बेहतर विश्व का निर्माण करने की शक्ति देता है।
जैसा कि आदि शंकराचार्य ने अपने 'आत्मबोध' में समझाया है, यह ज्ञान मोक्ष की इच्छा रखने वाले साधकों के लिए है। लेकिन आधुनिक संदर्भ में, यह ज्ञान हर उस व्यक्ति के लिए है जो जीवन में सच्ची शांति, खुशी और उद्देश्य की तलाश में है। आत्मबोध से उत्पन्न सकारात्मक ऊर्जा और सोच ही विश्वबोध का सच्चा आधार है, जो एक बेहतर और अधिक सामंजस्यपूर्ण समाज का निर्माण कर सकती है। हमें इस यात्रा को शुरू करने का साहस करना चाहिए, क्योंकि अंततः, स्वयं को जानना ही ब्रह्मांड को जानने का एकमात्र मार्ग है।

मंगलवार, सितंबर 02, 2025

जीवनधारा नमामी गंगे का परिभ्रमण

नमामी गंगे: एक यात्रा जो दिलों को छू गई
 सत्येन्द्र कुमार पाठक 
बिहार, एक ऐसा राज्य जिसकी मिट्टी में इतिहास की खुशबू है और जिसकी नदियों में संस्कृति की धारा बहती है। हाल ही में, 'जीवनधारा नमामी गंगे' संस्था के एक प्रतिनिधिमंडल के रूप में मुझे इस अद्भुत राज्य की यात्रा करने का मौका मिला। यह यात्रा सिर्फ एक सामान्य दौरा नहीं थी, बल्कि यह गंगा और उसकी सहायक नदियों को पुनर्जीवित करने के मिशन से जुड़ी एक भावनात्मक और आध्यात्मिक यात्रा थी। 25 अगस्त से 30 अगस्त तक चली इस यात्रा में, हमने पटना, वैशाली और मुजफ्फरपुर के लोगों, घाटों और ऐतिहासिक धरोहरों , पर्यावरण के साथ एक गहरा संबंध महसूस किया। यह यात्रा एक मिशन थी—गंगा संरक्षण और पर्यावरण जागरूकता के संदेश को जन-जन तक पहुँचाने का मिशन।
पटना में एक नई शुरुआत: राजभवन का अनुभव - हमारी यात्रा की शुरुआत 26 अगस्त को जहानाबाद से हुई। सुबह की ट्रेन से हम पटना पहुँचे, जहाँ हमारा पहला और सबसे महत्वपूर्ण पड़ाव राजभवन था। सुबह 11:30 बजे हम महामहिम राज्यपाल माननीय   आरिफ मोहम्मद खान से मिलने पहुँचे। मन में थोड़ी घबराहट थी, लेकिन राज्यपाल की सहजता और गर्मजोशी ने सारी झिझक दूर कर दी। मैंने उन्हें अपनी पुस्तक "मगध क्षेत्र की विरासत" समर्पित की, जिसे उन्होंने बड़े सम्मान के साथ स्वीकार किया। इस मुलाकात के दौरान, हमने पर्यावरण और नमामी गंगे के उद्देश्यों पर विस्तृत चर्चा की। राज्यपाल महोदय ने हमारे प्रयासों की सराहना की और बिहार के विकास को लेकर अपने दूरदर्शी विचार साझा किए। उनकी बातें सुनकर लगा कि विकसित बिहार का सपना सिर्फ एक नारा नहीं, बल्कि एक हकीकत है, जिसे हर कोई जीना चाहता है। राज्यपाल से मुलाकात के बाद, हम उनके अतिथि गृह में जहानाबाद के विधायक श्री सुदय यादव से मिले। उनके साथ हमारी बातचीत में मुख्य रूप से जहानाबाद की दरधा और जमुनी नदियों और अरवल जिले की पुनपुन नदी के संरक्षण और विकास पर जोर दिया गया। यह जानकर खुशी हुई कि स्थानीय जनप्रतिनिधि भी इन नदियों के महत्व को समझते हैं और उनके पुनरुद्धार के लिए उत्सुक हैं। राज्यपाल महोदय के साथ चाय पर हुई बातचीत में विकसित बिहार के सपने पर चर्चा हुई, जिसने हमारे हृदय में एक सकारात्मक ऊर्जा का संचार किया। हमारे प्रतिनिधिमंडल का नेतृत्व जीवनधारा नमामी गंगे के राष्ट्रीय अध्यक्ष डॉ. हरि ओम शर्मा कर रहे थे। टीम में राष्ट्रीय उपाध्यक्ष और बिहार राज्याध्यक्ष डॉ. उषाकिरण श्रीवास्तव, संस्था के अर्थ गंगा के अतिरिक्त निदेशक दिव्या स्मृति, दिल्ली की अध्यक्षा मोनिका अग्रवाल और संस्था के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष ममता शर्मा , राष्ट्रीय उपाध्यक्ष सह निजी सचिव उत्तरीबिहार ( राष्ट्रीय अध्यक्ष )  शीला वर्मा , , राज्य उपाध्यक्ष संगीता सागर भी शामिल थीं। 
वैशाली: गणराज्य और आध्यात्मिकता का केंद्र - 28 अगस्त को, हमने पटना से वैशाली और मुजफ्फरपुर के लिए अपनी यात्रा जारी रखी। पटना से लगभग 20 किलोमीटर दूर स्थित हाजीपुर पहुँचने के बाद हमने सर्किट हाउस में रात्रि विश्राम किया। सुबह, हाजीपुर के गंगा-गंडक संगम पर स्थित कोनारा घाट का दृश्य अद्भुत था। अविरल प्रवाहित जल को देखकर मन को असीम शांति मिली। प्रतिनिधि मंडल के प्रमुख संस्था के राष्ट्रीय अध्यक्ष डॉ हरि ओम शर्मा द्वारा नमामी गंगे की विस्तृत चर्चा कर महामहिम राज्यपाल को अवगत कराया गया । 
वैशाली की ऐतिहासिक और सांस्कृतिक समृद्धि का अनुभव करने के लिए हम बहुत उत्सुक थे। यह वही भूमि है जहाँ दुनिया का पहला गणतंत्र "रिपब्लिक" कायम हुआ था। वैशाली की मिट्टी में ही भगवान महावीर का जन्म हुआ और महात्मा बुद्ध ने यहाँ कई बार आकर उपदेश दिए। लालगंज में, हमारा स्वागत मध्य विद्यालय के छात्रों और शिक्षकों ने किया, जिन्होंने हमें पारंपरिक तरीके से सम्मानित किया। बच्चों की आँखों में भविष्य की चमक देखकर हमारा उत्साह और बढ़ गया।  जीवन धारा नमामी गंगे संस्था के राष्ट्रीय अध्यक्ष डॉ हरि ओम शर्मा के नेतृव में प्रतिनिधि मंडल की बैठक नगर परिषद सभा कक्ष हाजीपुर में जिला प्रशासन , नगर परिषद के सभापति , कार्यपालक पदाधिकारी  और प्रतिनिधि मंडल के साथ हुई ।  जीवन धारा नमामी गंगे के राष्ट्रीय अध्यक्ष डॉ हरि ओम शर्मा ने नमामी गंगे के उद्देश्यों को विस्तार से बैठक में शामिल पदाधिकारी एवं गंगा सेवियों को संबोधित किया । प्रतिनिधि मंडल में शीला वर्मा आदि गंगा सेवी शामिल थे ।
हमने 28 आगस्त को  वैशाली में कई महत्वपूर्ण स्थानों का दौरा किया:-  अशोक स्तंभ और बौद्ध स्तूप - वैशाली से 3 किलोमीटर की दूरी पर स्थित कोल्हुआ और बखरा गाँव में हुई खुदाई से मिले अवशेषों को देखकर हम विस्मित हो गए। सम्राट अशोक द्वारा निर्मित सिंह स्तंभ लाल बलुआ पत्थर से बना है, जिसकी ऊँचाई 18.3 मीटर है। इस स्तंभ को स्थानीय लोग 'भीमसेन की लाठी' कहते हैं। यहीं पर एक छोटा सा कुंड है जिसे रामकुण्ड कहते हैं, जिसे पुरातत्व विभाग ने मर्कक-हद के रूप में पहचाना है। हमने बौद्ध स्तूपों को भी देखा, जिनका निर्माण बुद्ध के महापरिनिर्वाण के बाद उनके अस्थि अवशेषों पर किया गया था। वैशाली के लिच्छवियों को भी बुद्ध के पार्थिव अवशेषों का एक हिस्सा मिला था, और इन स्तूपों का पता 1958 की खुदाई के बाद चला। इन स्थानों ने हमें बौद्ध धर्म के इतिहास और महत्व से गहराई से जोड़ा। अभिषेक पुष्करणी और विश्व शांति स्तूप - वैशाली गणराज्य द्वारा ढाई हजार वर्ष पहले बनवाया गया अभिषेक पुष्करणी सरोवर आज भी अपनी पवित्रता को दर्शाता है। ऐसा माना जाता है कि यहाँ नए शासकों का अभिषेक किया जाता था। इस सरोवर के निकट ही जापान के निप्पोनजी बौद्ध समुदाय द्वारा बनवाया गया विश्व शांति स्तूप है, जो अपनी शांति और भव्यता से मन मोह लेता है। गोल गुंबद और बुद्ध की स्वर्ण प्रतिमाएँ यहाँ आने वालों को शांति का अनुभव कराती हैं। हाजीपुर की गंगा गंडक नदी संगम कोनारा घाट पर जाकर प्राकृतिक केवम जल धारा से मन आह्लादित हुआ । मध्यविद्यालय लालगंज के छात्रों , छात्राओं एवं  शिक्षकों द्वारा शिष्टमंडल को स्वागत किया गया । जिला प्रशासन वैशाली  नगरपरिषद के पदाधिकारियों तथा शिष्टमंडल के सदस्यों की बैठक नगरपरिषद हाजीपुर के सभा कक्ष में नगर परिषद के सभापति केवम कार्यपालक पदाधिकारी एवं गंगा सेवी  , प्रतिनिधि मंडल के सदस्यों के बीच नमामी गंगे के कार्यान्वयन पर रूबरू हुए ।
कुंडलपुर और राजा विशाल का गढ़ - वैशाली से 4 किलोमीटर दूर स्थित कुंडलपुर व कुंड ग्राम  जैन धर्म के चौबीसवें तीर्थंकर भगवान महावीर का जन्मस्थान है। इस पवित्र स्थान पर आकर हम अत्यंत भावुक हो गए। हमने राजा विशाल का गढ़ भी देखा, जो एक छोटा टीला है। इसे प्राचीन संसद माना जाता है, जहाँ 7,777 संघीय सदस्य इकट्ठा होकर चर्चा करते थे। यह स्थल भारत में लोकतंत्र की प्राचीन जड़ों का एक जीवंत प्रमाण है। 29 अगस्त को सारण जिले के गंडक और गंगा संगम पर अवस्थित सोनपुर का हरिहर नाथ मंदिर के गर्भगृह में स्थित बाबा हरिहर नाथ , हनुमान जी का दर्शन , गजग्राह , शनिदेव का दर्शन करने के बाद मौनी बाबा अश्रम में चूड़ा दही का आनंद लिया ।  29 अगस्त को मुजफ्फरपुर से कुंडग्राम में महावीर स्वामी जी की जन्मभूमि में अवस्थित महावीर स्वामी मंदिर के गर्भगृह में स्थित भगवान महावीर स्वामी जी का दर्शन किया । मुजफ्फरपुर का दुग्ध निर्माण समिति का स्थलीय का अवलोकन किया परंतु समिति के पदाधिकारियों से मुलाकात नही हुई । रात्रि में मुजफ्फरपुर अतिथि गृह पथनिर्माण विभाग में विश्राम किया । 30 अगस्त को मुजफ्फरपुर में आयोजित सेमिनार में शामिल हुआ । 
मुजफ्फरपुर: सेमिनार और साझा प्रयास -  हमारी यात्रा का अंतिम चरण मुजफ्फरपुर था। 29 अगस्त को हम मुजफ्फरपुर पहुँचे   और 30 अगस्त को श्री नावयुवक ट्रस्ट समिति के सभागार में एक महत्वपूर्ण सेमिनार में भाग लिया। इस सेमिनार का उद्देश्य गंगा संरक्षण और जागरूकता के लिए साझा प्रयासों पर चर्चा करना था। सेमिनार में मुजफ्फरपुर के अलावा बेगूसराय, सिवान, पश्चिम चंपारण, सीतामढ़ी, पटना, वैशाली, जहानाबाद और दरभंगा जैसे जिलों के गंगा सेवक और जीवनधारा नमामी गंगे संस्था  के पदाधिकारी शामिल हुए। सेमिनार में हमने प्राकृतिक कृषि को बढ़ावा देने, गंगा ग्रामों और घाटों पर ठोस और तरल अपशिष्ट प्रबंधन की स्थिति और अर्थ गंगा योजना के कार्यान्वयन पर चर्चा की। हमें मुजफ्फरपुर में जो सम्मान मिला, वह हमारे प्रयासों को एक नई ऊर्जा देने वाला था। लोगों का उत्साह देखकर लगा कि गंगा को स्वच्छ बनाने का सपना पूरा हो सकता है, बस हमें मिलकर काम करना होगा। हमारी टीम का नेतृत्व डॉ. हरि ओम शर्मा कर रहे थे, और इसमें राष्ट्रीय उपाध्यक्ष सत्येन्द्र कुमार पाठक, दिल्ली प्रदेश अध्यक्ष मोनिका अग्रवाल, राष्ट्रीय उपाध्यक्ष ममता शर्मा, डॉ. उषाकिरण श्रीवास्तव और दिव्या स्मृति , शीला वर्मा , , जी इन भट्ट संपादक , निर्माण भारती  शामिल थीं। यह यात्रा केवल एक भ्रमण नहीं थी, बल्कि गंगा नदी, उसकी सहायक नदियों और बिहार की समृद्ध विरासत के साथ एक गहरा संबंध स्थापित करने का अवसर था। हमने महसूस किया कि जीवनधारा नमामी गंगे जैसे मिशन को सफल बनाने के लिए सरकारी प्रयासों के साथ-साथ जन-भागीदारी भी अत्यंत आवश्यक है। वैशाली और मुजफ्फरपुर में लोगों का उत्साह और सहयोग देखकर यह विश्वास और मजबूत हो गया कि हम सभी मिलकर गंगा को उसकी पुरानी महिमा लौटा सकते हैं। इस यात्रा ने हमें न केवल नदियों और पर्यावरण के प्रति हमारी जिम्मेदारी का एहसास कराया, बल्कि यह भी दिखाया कि भारत की सांस्कृतिक और ऐतिहासिक जड़ें कितनी गहरी और समृद्ध हैं। यह यात्रा एक शिक्षा थी, एक प्रेरणा थी और एक ऐसा अनुभव था जो हमारे हृदय में हमेशा रहेगा। जीवनधारा नमामी गंगे सेमिनार में पटना , जहानाबाद , बेगूसराय , मुजफ्फरपुर , वैशाली , सिवान पश्चिम चंपारण , दरभंगा , सीतामढ़ी आदि  जिले के अध्यक्ष , महासचिव , राज्य के पदाधिकारी , गंगा सेवी शामिल हुए ।