प्राकृतिक चिकित्सा चिकित्सा-पद्धति प्राकृतिक', 'स्व-चिकित्सा' , 'अनाक्रामक' आदि कहीं जाने वाली छद्मवैज्ञानिक क्रियाकलापों का दर्शन है। प्राकृतिक चिकित्सा का दर्शन और विधियाँ प्राणतत्त्ववाद और लोक चिकित्सा पर आधारित हैं । सेबेस्टिअन निप के अन्तर्गत रोगों का उपचार व स्वास्थ्य-लाभ का आधार है - 'रोगाणुओं से लड़ने की शरीर की स्वाभाविक शक्ति'। प्राकृतिक चिकित्सा के अन्तर्गत अनेक पद्धतियां हैं । जल चिकित्सा, होमियोपैथी, सूर्य चिकित्सा, एक्यूपंक्चर, एक्यूप्रेशर, मृदा चिकित्सा आदि। प्राकृतिक चिकित्सा के प्रचलन में विश्व की कई चिकित्सा पद्धतियों का योगदान है । प्राकृतिक चिकित्सा प्रणाली चिकित्सा की एक रचनात्मक विधि है, जिसका लक्ष्य प्रकृति में प्रचुर मात्रा में उपलब्ध तत्त्वों के उचित इस्तेमाल द्वारा रोग का मूल कारण समाप्त करना है। यह न केवल एक चिकित्सा पद्धति है बल्कि मानव शरीर में उपस्थित आंतरिक महत्त्वपूर्ण शक्तियों या प्राकृतिक तत्त्वों के अनुरूप एक जीवन-शैली है। यह जीवन कला तथा विज्ञान में एक संपूर्ण क्रांति है।इस प्राकृतिक चिकित्सा पद्धति में प्राकृतिक भोजन, विशेषकर ताजे फल तथा कच्ची व हलकी पकी सब्जियाँ विभिन्न बीमारियों के इलाज में निर्णायक भूमिका निभाती हैं। प्राकृतिक चिकित्सा निर्धन व्यक्तियों एवं गरीब देशों के लिये विशेष रूप से वरदान है।
प्राकृतिक चिकित्सा की जड़ें १९वीं शताब्दी में यूरोप में चले 'प्राकृतिक चिकित्सा आन्दोलनों' में निहित हैं। स्कॉटलैण्ड के थॉमस एलिन्सन १८८० के दशक में 'हाइजेनिक मेडिसिन' का प्रचार कर रहे थे। वे प्राकृतिक आहार, व्यायाम पर जोर देते थे तथा तम्बाकू का सेवन न करने एव्वं अतिकार्य से बचने की सलाह देते थे।'नेचुरोपैथी' शब्द का पहला प्रयोग १८९५ में जॉन स्कील ने किया था। उसी शब्द को बेनेडिक्ट लस्ट ने आगे बढ़ा दिया था जिस कारण अमेरिका के प्राकृतिक चिकित्सक बेनेडिक्ट को यूएस में नेचुरोपैथी का जनक मानते हैं।
सभी रोग, उनके कारण एवं उनकी चिकित्सा एक है। चोट-चपेट और वातावरणजन्य परिस्थितियों को छोड़कर सभी रोगों का मूलकारण एक ही है और इनका इलाज भी एक है। शरीर में विजातीय पदार्थो के संग्रह से रोग उत्पन्न होते है और शरीर से उनका निष्कासन ही चिकित्सा है। रोग का मुख्य कारण जीवाणु नही है। जीवाणु शरीर में जीवनी शक्ति के ह्रास आदि के कारण विजातीय पदार्थो के जमाव के पशचात् तब आक्रमण कर पाते है जब शरीर में उनके रहने और पनपने लायक अनुकूल वातावरण तैयार हो जाता है। अतः मूल कारण विजातीय पदार्थ है, जीवाणु नहीं। जीवाणु द्वितीय कारण है। तीव्र रोग चूंकि शरीर के स्व-उपचारात्मक प्रयास है अतः ये हमारे शत्रु नही मित्र है। जीर्ण रोग तीव्र रोगों के गलत उपचार और दमन कें फलस्वरूप पैदा होते है। प्रकृति स्वयं सबसे बडी चिकित्सक है। शरीर में स्वयं को रोगों से बचाने व अस्वस्थ हो जाने पर पुनः स्वास्थ्य प्राप्त करने की क्षमता विद्यमान है। प्राकृतिक चिकित्सा में चिकित्सा रोग की नहीं बल्कि रोगी की होती है।प्राकृतिक चिकित्सा में रोग निदान सरलता से संभव है। किसी आडम्बर की आवश्यकता नहीं पड़ती। उपचार से पूर्व रोगों के निदान के लिए लम्बा इन्तजार भी नहीं करना पड़ता। जीर्ण रोग से ग्रस्त रोगियों का भी प्राकृतिक चिकित्सा में सफलतापूर्वक तथा अपेक्षाकृत कम अवधि में इलाज होता है। प्राकृतिक चिकित्सा से दबे रोग भी उभर कर ठीक हो जाते है। प्राकृतिक चिकित्सा द्वारा शारिरिक, मानसिक, सामाजिक (नैतिक) एवं आध्यात्मिक चारों पक्षों की चिकित्सा एक साथ की जाती है। विशिष्ट अवस्थाओं का इलाज करने के स्थान पर प्राकृतिक चिकित्सा पूरे शरीर की चिकित्सा एक साथ करती है। प्राकृतिक चिकित्सा में औषधियों का प्रयोग नहीं होता। प्राकृतिक चिकित्सा के अनुसार 'आहार है । वेदों और आयुर्वेद के अनुसार मंत्र तथा यंत्र अपनी आस्था के अनुसार प्रार्थना करना चिकित्सा का एक आवश्यक अंग है।प्राकृतिक चिकित्सा न केवल उपचार की पद्धति है, अपितु यह एक जीवन पद्धति है। इसे बहुधा 'औषधिविहीन उपचार पद्धति' कहा जाता है। यह मुख्य रूप से प्रकृति के सामान्य नियमों के पालन पर आधारित है। जहाँ तक मौलिक सिद्धांतो का प्रश्न है, इस पद्धति का आयुर्वेद से निकटतम सम्बन्ध है। प्राकृतिक चिकित्सा के समर्थक खान-पान एवं रहन-सहन की आदतों, शुद्धि कर्म, जल चिकित्सा, ठण्डी पट्टी, मिटटी की पट्टी, विविध प्रकार के स्नान, मालिश्ा तथा अनेक नई प्रकार की चिकित्सा विधाओं पर विशेष बल देते है। प्राकृतिक चिकित्सक पोषण चिकित्सा, भौतिक चिकित्सा, वानस्पतिक चिकित्सा, आयुर्वेद आदि पौर्वात्य चिकित्सा, होमियोपैथी, छोटी-मोटी शल्यक्रिया, मनोचिकित्सा आदि को प्राथमिकता देते हैं।
मृदा चिकित्सा - प्राकृतिक चिकित्सा में माटी का प्रयोग कई रोगों के निवारण में प्राचीन काल से ही होता आया है। नई वैज्ञानिक शोध में यह प्रमाणित हो चुका है कि माटी चिकित्सा की शरीर को तरो ताजा करने जीवंत और उर्जावान बनाने में महती उपयोगिता है। चर्म विकृति और घावों को ठीक करने में मिट्टी चिकित्सा अपना महत्व साबित कर चुकी है। माना जाता रहा है कि शरीर माटी का पुतला है और माटी के प्रयोग से ही शरीर की बीमारियां दूर की जा सकती हैं। शरीर को शीतलता प्रदान करने के लिए मिट्टी-चिकित्सा का उपयोग किया जाता है। मिट्टी, शरीर के दूषित पदार्थों को घोलकर व अवशोषित कर अंततः शरीर के बाहर निकाल देती है। मिट्टी की पट्टी एवं मिट्टी-स्नान इसके मुख्य उपचार हैं। विभिन्न रोगों जैसे कब्ज, स्नायु-दुर्बलता, तनावजन्य सिरदर्द, उच्च रक्तचाप, मोटापा तथा विशेष रूप से सभी प्रकार के चर्म रोगों आदि में सफलतापूर्वक इसका उपयोग कर जीवन शक्ति का संचार एवं शरीर को कांतिमय बनाया जा सकता है।रोग चाहे शरीर के भीतर हो या बाहर, मिट्टी उसके विष और गर्मी को धीरे-धीरे चूसकर उस जड़-मूल से नष्ट करके ही दम लेगी। यह मिट्टी की खासियत है ।मिट्टी-स्नान के लिए जिस क्षेत्र में जैसी मिट्टी उपलब्ध हो, वही उपयुक्त है लेकिन प्रयोग में लाई जाने वाली मिट्टी साफ-सुथरी, कंकर-पत्थर व रासायनिक खादरहित तथा जमीन से 2-3 फुट नीचे की होना चाहिए। एक बार उपयोग में लाई गई मिट्टी को दुबारा उपयोग में न लें। अगर मिट्टी बहुत ज्यादा चिपकने वाली हो तो उसमें थोड़ी-सी बालू रेत मिला लें। संक्रमण से ग्रस्त तथा अत्यधिक कमजोर व्यक्ति मिट्टी-स्नान न करें। ठंडे पानी से स्नान करने के पश्चात शरीर पर हल्का तेल मल लें।शुद्ध-साफ मिट्टी को कपड़े से छान लीजिए और उससे अंग-प्रत्यंग को रगड़िए। जब पूरा शरीर मिट्टी से रगड़ा जा चुका हो, तब 15-20 मिनट तक धूप में बैठ जाएं, तत्पश्चात ठंडे पानी से, नेपकीन से घर्षण करते हुए स्नान कर लेना चाहिए। शुद्ध, साफ कपड़े से छनी हुई मिट्टी को रातभर पानी से गलाकर लेई (पेस्ट) जैसा बना लीजिए और पूरे शरीर पर लगाकर रगड़िए तथा धूप में 20-30 मिनट के लिए बैठ जाएं। जब मिट्टी पूरी तरह से सूख जाए तब ठंडे पानी से पूरे शरीर का नेपकीन से घर्षण करते हुए स्नान कर लें।उदर विकार, विबंध, मधुमेह, सिर दर्द, उच्च रक्त चाप ज्वर, चर्मविकार आदि रोगों में किया जाता है। पीड़ित अंगों के अनुसार अलग अलग मिट्टी की पट्टी बनायी जाती है। वस्ति वह क्रिया है, जिसमें गुदामार्ग, मूत्रमार्ग, अपत्यमार्ग, व्रण मुख आदि से औषधि युक्त विभिन्न द्रव पदार्थों को शरीर में प्रवेश कराया जाता है। उपचार के पूर्व इसका प्रयोग किया जाता जिससे कोष्ट शुद्धि हो। रोगानुसार शुद्ध जल, नीबू जल, तक्त, निम्ब क्वाथ का प्रयोग किया जाता है।
जल चिकित्सा - मनुष्य−शरीर तीन चौथाई भाग से अधिक जल से ही बना है। हमारे रक्त , माँस, मज्जा में जो आद्रता या नमी का अंश है वह पानी के कारण ही है। मल, मूत्र, पसीना और तरह−तरह के रस, सब पानी के ही रूपान्तर होते हैं। यदि शरीर में पानी की कमी हो जाती है तो तरह−तरह के रोग उठ खड़े होते हैं पानी की कमी से ही गर्मी में अनेक लोग लू लगकर मर जाते हैं। जुकाम में पानी की भाप लेने से बहुत लाभ होता है। इसी प्रकार सिर दर्द और गठिया के दर्द में भी इस उपचार से निरोगता प्राप्त होती है, शरीर में जब फोड़े फुँसी अधिक निकलने लगते हैं और मल्हम आदि से कोई लाभ नहीं होता तो जलोपचार उनको चमत्कारी ढंग से ठीक कर देता है।पेट−दर्द होने पर प्राकृतिक चिकित्सक ही नहीं एलोपैथिक डाक्टर भी रबड़ की थैली या बोतल में गर्म पानी भर कर सेक करवाते हैं। कब्ज के रोग में गर्म पानी पीना बड़ा लाभकारी होता है और जो नित्य प्रति सुबह गर्म पानी नियम से पीते रहते हैं उनका कब्ज धीरे-धीरे अवश्य ठीक हो जाता है।मनुष्य−शरीर तीन चौथाई भाग से अधिक जल से ही बना है। हमारे रक्त , माँस, मज्जा में जो आद्रता या नमी का अंश है वह पानी के कारण ही है। मल, मूत्र, पसीना और तरह−तरह के रस, सब पानी के ही रूपान्तर होते हैं। यदि शरीर में पानी की कमी हो जाती है तो तरह−तरह के रोग उठ खड़े होते हैं पानी की कमी से ही गर्मी में अनेक लोग लू लगकर मर जाते हैं। जुकाम में पानी की भाप लेने से बहुत लाभ होता है। इसी प्रकार सिर दर्द और गठिया के दर्द में भी इस उपचार से निरोगता प्राप्त होती है, शरीर में जब फोड़े फुँसी अधिक निकलने लगते हैं और मल्हम आदि से कोई लाभ नहीं होता तो जलोपचार उनको चमत्कारी ढंग से ठीक कर देता है।पेट−दर्द होने पर प्राकृतिक चिकित्सक ही नहीं एलोपैथिक डाक्टर भी रबड़ की थैली या बोतल में गर्म पानी भर कर सेक करवाते हैं। कब्ज के रोग में गर्म पानी पीना बड़ा लाभकारी होता है और जो नित्य प्रति सुबह गर्म पानी नियम से पीते रहते हैं उनका कब्ज धीरे-धीरे अवश्य ठीक हो जाता है।रोगों और शारीरिक पीड़ा के निवारण के लिये गर्म पानी का प्रयोग तो साधारण गृहस्थों के यहाँ भी सदा से होता आया है, पर ठंडे पानी के लाभों को थोड़े ही लोग समझते हैं, यद्यपि ठंडा पानी गर्म पानी की अपेक्षा अधिक रोग निवारक सिद्ध हुआ है। ज्वर, चर्म, रोग में ठंडे पानी से भीगी हुई चादर को पूरी तरह लपेटे रहने से आश्चर्यजनक लाभ पहुँचता है। उन्माद तथा सन्निपात के रोगियों के सिर पर खूब ठण्डे जल में भीगा हुआ कपड़ा लपेट देने से शान्ति मिलती है। शरीर के किसी भी भाग में चोट लगकर खून बह रहा हो बर्फ के जल में भीगा हुआ कपड़ा लगाने से खून बहना रुक जाता है। नाक से खून का बहना भी पानी से सिर को धोने तथा मिट्टी के सूँघने, लपेटने से ठीक होता है। इसी प्रकार अन्य अंगों के विकार भी जल के प्रयोग से सहज में दूर हो जाते हैं। जर्मनी के डाक्टर लुई कूने ने अपने ग्रंथ में बहुत स्पष्ट रूप से यह समझा दिया है कि जल−चिकित्सा ही सर्वोत्तम है। उसमें किसी प्रकार का खर्च नहीं है और सादा जल का प्रयोग करने से शरीर में कोई नया विकार भी उत्पन्न होना संभव नहीं है।स्नान के लिये बहता हुआ साफ पानी सबसे अच्छा होता है। वह न मिल सके तो कुँआ, तालाब आदि का ताजा पानी भी काम दे सकता है। बहते हुये और ताजा पानी में जो प्राण तत्व पाया जाता है वह बर्तनों में कई घंटों तक रखे पानी में नहीं रहता। इसलिये अगर रखे हुये पानी से ही काम लेना पड़े तो उसे एक बर्तन से दूसरे बर्तन में बार−बार कुछ ऊँचाई से डालने से उसमें प्राण−शक्ति का संचार हो जाता है। स्नान का पानी सदैव ठण्डा ही होना चाहिये, हाँ उसका तापक्रम ऋतु के अनुसार इतना रखा जा सकता है जिसे अपना शरीर सहज में सहन कर सके। अपनी शक्ति से अधिक ठण्डे पानी, से स्नान करना जिससे मन प्रसन्न होने के बजाय संकुचित हो, लाभदायक नहीं होता। इसी प्रकार गर्म पानी से स्नान करना भी हानिकारक है, सिवाय किसी विशेष बीमारी की अवस्था के जिसमें इस प्रकार के स्नान का विधान हो। पानी अधिक ठण्डा जान पड़े तो उसे धूप में रख कर या गर्म पानी मिला कर सहने योग्य बनाया जा सकता है। बहुत ठण्डे पानी में अधिक देर तक स्नान करने से रक्त −संचारण क्रिया में बाधा पड़ती है।स्नान करते समय शरीर को खूब मलना आवश्यक है जिससे मैल छूट कर देह के भीतर की गर्मी को उत्तेजना मिले और रक्त−संचरण ठीक ढंग से होने लगे। इसके लिये शरीर को किसी मोटे और खुरदरे तौलिये से रगड़ना ठीक रहता है। इससे शरीर के रोम कूप भली प्रकार खुल जाते हैं और भीतर का मैल पसीने के रूप में आसानी से निकल सकता है। पीठ, रीढ़ की हड्डी, चूतड़, लिंगेन्द्रिय, आदि की सफाई करने का बहुत से लोग ध्यान नहीं रखते। पर इन स्थानों की सफाई की और भी अधिक आवश्यकता होती है। इसलिये आधुनिक सिद्धान्तानुसार एकान्त कमरे में नंगे होकर स्नान करने को अधिक लाभदायक बतलाया गया है। कुछ भी हो स्नान में जल्दबाजी न करके समस्त अंगों को भली प्रकार रगड़ना और साफ करना आवश्यक है।
गर्म जल से स्नान भी अगर विधिपूर्वक किया जाय तो विशेष लाभदायक हो सकता है। गर्म जल से शरीर के रोमकूप विकसित होकर फैलते हैं, उनसे मलयुक्त पसीना सहज में निकलने लगता है और भीतर का रक्त ऊपर की तरफ दौड़ने लगता है। इससे शरीर की गर्मी बाहर निकलने लगती है और यही कारण है कि गर्म पानी से स्नान करने के थोड़ी देर बाद अधिक ठण्ड का अनुभव होने लगता है। इसलिये गर्म जल से स्नान करने के बाद तुरन्त ही ठण्डे जल से स्नान करना अनिवार्य है, ताकि ऊपर को दौड़ने वाला रक्त फिर भीतर वापस चला जाय और उसकी गर्मी अधिक मात्रा में बाहर न निकल जाय। इसके लिये फुहारा स्नान (शावर बाथ) सबसे अच्छा रहता है। यदि शावर की व्यवस्थान हो तो उसकी तरह जल छिड़क कर और छींटे मार कर स्नान किया जा सकता है।उचित रीति से स्नान करने से शारीरिक स्वास्थ्य की वृद्धि होती है और रोगों के आक्रमण का भय बहुत कम हो जाता है। अनेक साधारण रोग तो नियमित स्नान करने से अपने आप मिट जाते हैं। फुहारे के नीचे बैठ कर स्नान करना अधिक सुविधाजनक और शीतल करने वाला होता है। नदी या तालाब में तैर कर स्नान करने से व्यायाम का भी लाभ मिल जाता है और शारीरिक अंग प्रत्यंगों का विकास होता है। वर्षा में मेह के जल से स्नान करने से फुहारा स्नान का−सा आनन्द मिलता है और जल में जो अत्यधिक प्राण−शक्ति होती है उससे बहुत लाभ भी उठाया जा सकता है। पर ऐसा स्नान अपने स्वास्थ्य और शक्ति के अनुसार थोड़े समय तक ही करना चाहिये। कमजोर या अधिक वृद्ध लोगों के लिये मेह में अधिक देर तक भीगना ठीक नहीं होता। बीमारों के लिये नित्य स्नान करना आवश्यक है, पर वह बहुत सम्भल कर होना चाहिये। पानी का तापमान ऐसा हो जिससे शरीर पर किसी तरह का खराब असर न पड़े। यदि स्नान की सुविधा न हो तो कपड़े या तौलिया को मामूली पानी में भिगोकर उससे समस्त शरीर को भली प्रकार रगड़ कर पोंछ देना भी काफी लाभदायक होता है। इससे शरीर की गन्दगी दूर हो जाती है और तबियत में ताजगी तथा प्रसन्नता का भाव आ जाता है।स्नान का एक खास उद्देश्य शरीर को ठण्डा करना भी होता है क्योंकि शरीर के अन्दर जो विजातीय द्रव्य एकत्रित हो जाता है वह गर्मी उत्पन्न करता है। यह विजातीय द्रव्य अधिकाँश में नीचे के भाग में ही एकत्रित होता है इसलिए वैज्ञानिक विधि के अनुसार पहले नीचे के भागों को ही धोना और ठण्डा करना चाहिये। इसके लिए किसी ऐसी टब या नाँद में बैठाकर स्नान किया जाय जिसमें तीन चार इंच पानी भरा हो। इसमें बैठकर पेडू पर खूब छपके मारें और उसे हथेली से रगड़ कर जल को सुखाएं। इसके बाद लोटा−लोटा पानी ऊपर डालकर स्नान करें। यदि नदी तालाब आदि पर स्नान करना हो तो वहाँ डुबकी लेकर स्नान करें। स्नान के पश्चात् बदन को तौलिये से पोंछने के बजाय हथेलियों से पोंछकर ही सुखा दें तो ज्यादा लाभदायक होता है और आनन्द भी मिलता है।
इस तरह के प्राकृतिक स्नान से अनेक प्रकार के शारीरिक लाभ प्राप्त होते हैं और रोगों का भय जाता रहता है। स्त्रियों के लिये ऐसा स्नान उनकी अनेक जननेन्द्रिय सम्बन्धी बीमारियों को दूर करने वाला सिद्ध हुआ है। पुरुषों के भी प्रमेह, स्वप्नदोष, कब्ज, अजीर्ण जैसे रोगों में इसमें धीरे−धीरे बड़ी कमी हो जाती है। इस प्रकार प्राकृतिक स्नान प्रत्येक व्यक्ति के लिए हितकारी है। यों तो इसके सम्बन्ध में बहुत कुछ कहा जा सकता है, पर सबका साराँश यही है हमारे शरीर में जमा होने वाला विजातीय द्रव्य नीचे के भाग में ज्यादा असर करता है। उसकी हानिकारक गर्मी को शान्त करने के लिए इस प्रकार का स्नान बड़ा लाभकारी सिद्ध होता है। इस चिकित्सा प्रणाली के आचार्य एडाल्फ जुस्ट ने बतलाया है कि जंगली पशुओं के स्वस्थ रहने का एक कारण यह भी है कि वे अपने पेडू और जननेन्द्रिय वाले हिस्से को कीचड़ और पानी में रखकर ठण्डा कर लेते हैं।
इस सामान्य स्नान के अतिरिक्त बीमारों और कमजोर स्वास्थ्य वाले व्यक्तियों के लिए प्राकृतिक चिकित्सा के कई अन्य स्नान भी बड़े महत्वपूर्ण हैं, जिनसे शीघ्र प्रभाव पड़ता है और बड़े−बड़े रोग थोड़े ही समय में ठीक हो जाते हैं। स्नान के लिये एक विशेष बनावट की टब बाजार में बिकती है जिसका पिछला भाग कुर्सी की तरह सहारा लेने के लिये उठा रहता है। इसमें रोगी को बिल्कुल नंगा होकर बैठना पड़ता है। दोनों पैर बाहर निकले रहते हैं और सूखे रहते हैं। टब में इतना पानी भरा जाता है कि नाभि के जरा नीचे तक आ जाय। इस प्रकार बैठकर पेडू, जाँघ और जननेन्द्रिय के आस−पास के स्थानों को हथेली से या कपड़े से मलना चाहिये। आरम्भ में पाँच से दस मिनट तक स्नान करना काफी होता है बाद में इस समय को आधा घंटे तक बढ़ाया जा सकता है। पानी इतना ठंडा होना चाहिए जितना आसानी से सहन कर लिया जाय। यदि रोगी कमजोर हो और मौसम ठण्ड का हो तो उसे ऊपर से कम्बल आदि से ढक सकते हैं। इसमें केवल जननेन्द्रिय के सबसे आगे के चर्म को ही धोया जाता है। टब के किनारे एक लकड़ी की चौकी पर बैठ जाएँ और इतना पानी भर लें कि वह जननेन्द्रिय के पास तक पहुँच जाय। फिर किसी नर्म कपड़े को पानी में बार−बार भिगोकर चमड़े के अग्रभाग को सामने की तरफ खींच कर धोएं और इस बात का ध्यान रखें कि भीतर के मूत्र निकलने के मार्ग को बिल्कुल न रगड़ा जाय। स्त्रियाँ भी अपनी जननेन्द्रियों के बाहरी हिस्से को इसी प्रकार धो सकती हैं। नल के नीचे बैठकर रीढ़ की हड्डी के ऊपर पानी की धार गिराना चाहिए। अथवा तौलिया को पानी में भिगो कर उससे रीढ़ की हड्डी को रगड़ना चाहिए। इन स्नानों के बाद भीगे शरीर को अच्छी तरह पोंछकर देह में गर्मी लाने के लिये थोड़े समय तक टहलना चाहिए, या हल्का व्यायाम करना चाहिए अथवा ऋतु के अनुकूल हो तो थोड़ी देर तक धूप में रहना चाहिये। स्नान के दो घण्टे पहले और एक घण्टे बाद तक खाना मना है। ज्वर की अवस्था में अथवा समस्त शरीर में विजातीय द्रव्य के अधिकता होने पर गीली चादर का प्रयोग बहुत लाभदायक होता है। पहले एक कम्बल को नीचे बिछाकर उस पर एक भीगा और निचोड़ा हुआ साफ चादर फैला दिया जाता है। उस पर रोगी को लिटाकर उसे पूरी तरह उसमें लपेट दिया जाता है, जिससे किसी तरफ होकर बाहरी हवा का आवागमन न हो सके। गर्दन से ऊपर सिर को खुला रखा जाता है। उसके पश्चात् कम्बल को भी ऊपर से उसी प्रकार लपेट दिया जाता है। इस प्रकार पन्द्रह बीस मिनट तक पड़े रहने से पसीना आ जाता है और देह की अतिरिक्त गर्मी निकलकर स्वस्थता का अनुभव होता है। शरीर के बजाय किसी खास अंग की ही चिकित्सा करने की आवश्यकता होती है तो कपड़े के एक टुकड़े की कई तह करके ठण्डे पानी से भिगोकर उस स्थान पर रख दिया जाता है। जब पट्टी गरम हो जाय तो उसको हटाकर फिर से ठण्डा करके रखा जा सकता है।इन सब विधियों से जो लाभ होता है उसका मूल कारण ठण्डे पानी की प्रतिक्रिया ही होती है। जिस प्रकार नंगे बदन पर ठंडे पानी के छींटे मारने से फुरफुरी सी आती है और रोंये खड़े हो जाते हैं और उसी के फल से बाद में रक्त संचार की गति तेज हो जाती है। इसी प्रकार उक्त स्नानों और पट्टियों के प्रयोग में जहाँ शीतल पानी का स्पर्श होता है वहाँ पहले तो गर्मी की कमी हो जाती है, पर बाद में उस कमी की पूर्ति के लिए भीतर का रक्त वहाँ खिंच आता है। इस प्रकार जब रक्त की गति तेज होती है तो उसके साथ दूषित विजातीय द्रव्य भी बहकर मलाशय की तरफ ढकेले जाते हैं। इस प्रकार जल के प्रभाव से रोगों का निवारण होता है और सुस्त तथा निर्बल अंगों को नवीन चेतना प्राप्त होती है।
अधिकाँश रोगों की जड़ पेट सम्बन्धी खराबी कब्ज ही होती है। उसका दूषित विकार नीचे के हिस्से में रहता है। कटिस्नान द्वारा इसी भाग को चैतन्य किया जाता है। इससे पुराने और सड़े मल के निकलने में सहायता मिलती है। कठिन अवस्था में कटिस्नान और एनीमा दोनों का एक साथ प्रयोग किया जाता है जिससे शरीर की शुद्धि शीघ्रतापूर्वक होती है। पुरुष और स्त्रियों के प्रजनन अंगों का अग्रभाग समस्त स्नायविक नाड़ी−जालवा केन्द्र माना गया है। उसे शीतलता पहुँचाकर वहाँ की हानिकारक गर्मी को निकाल देने से समस्त शरीर को नव−जीवन और स्फूर्ति की प्राप्ति होती है। रीढ़ के बीच होकर ही ज्ञान तंतुओं का मुख्य संस्थान है, इसलिए रीढ़ को जलधारा द्वारा अथवा कपड़े की पट्टी द्वारा ठण्डक पहुँचाने से मस्तिष्क की निर्बलता दूर होती है। गीली चादर लपेटने का असर समस्त देह पर पड़ता है और ज्वर, चेचक, रक्त , जिगर, दमा, क्षय, शोथ, खुजली जैसे शरीरव्यापी रोगों पर उसका बहुत हितकारी प्रभाव पड़ता है।
जिस प्रकार ठण्डे और गर्म पानी के प्रयोग से अनेक रोग दूर होते हैं उसी प्रकार भाप के प्रयोग से भी अनेक प्रकार की शारीरिक पीड़ाओं से छुटकारा मिलता है। अगर समस्त शरीर का कोई रोग हो तो उसके लिए किसी लोहे की जाली के पलंग या छिरछिरी बुनी हुई चारपाई पर रोगी को लिटाकर उसके नीचे खौलते हुए पानी के तीन बर्तन रख देने चाहिये और सबके ऊपर से एक बड़ा कम्बल इस प्रकार डाल देना चाहिये कि वह पूर्ण चारपाई को ढ़ककर जमीन को छूता रहे जिससे भाप बाहर न निकल सके। ऐसा करने से थोड़ी देर में खूब पसीना निकलने लगता है जिसके साथ शरीर के बहुत से विकार भी निकल जाते हैं और शरीरव्यापी समस्त दोषों की शुद्धि हो जाती है।अगर किसी खास अंग पर ही भाप देनी हहै तभी उसी अंग को भाप निकलते हुए बर्तन के ऊपर रखना चाहिये और ऊपर से किसी कपड़े से इस प्रकार ढक देना चाहिये कि वह अंग तथा बर्तन दोनों उससे ढक जाएँ। यदि ऐसा न हो सके तो खूब गरम पानी में ऊनी कपड़े के दो टुकड़े डाल देने चाहिएं। जिस अंग पर सेंक करना हो उस पर एक मोटा सूती कपड़ा डाल लेना चाहिये। तब पहले एक ऊनी कपड़े को निकाल कर निचोड़ कर दर्द के स्थान पर रख दें। जब वह ठण्डा होने लगे तो उसे हटाकर दूसरे टुकड़े को उसी प्रकार रख दे। सूती कपड़ा डालने का उद्देश्य यह होता है कि सेंक होते समय उस अंग को ठण्डी हवा का झोंका न लगे और दूसरे यदि ऊनी कपड़ा ज्यादा गर्म हो जाय तो उसका असर एकदम त्वचा पर न पड़े। इन विधियों से या जैसी परिस्थिति हो उसके अनुकूल इनमें कुछ परिवर्तन करके पीड़ित अंगों को भाप से सेंकने से बहुत शीघ्र लाभ होता है। गर्म स्नान या भाप के उपचार के बाद ठण्डे पानी से नहाने या धोने का भी नियम है जिससे रक्त संचरण की गति ठीक हो जाय।
सूर्य चिकित्सा - सूर्य के प्रकाश के सात रंगो के द्वारा चिकित्सा की जाती है। यह चिकित्सा शरीर में उष्णता बढ़ाता है। स्नायुओं को उत्तेजित करना वात रोग, कफ, ज्वर, श्वास, कास, आमवात पक्षाघात, ह्रदयरोग, उदरमूल, मेढोरोग, वात जन्यरोग, शोध चर्मविकार, पित्तजन्य रोगों में प्रभावी हैं।उपवास से सभी पेट के रोग, श्वास, आमवात, सन्धिवात, त्वक विकार, मेदो वृद्धि आदि में विशेष उपयोग होता है। ऋषि-मुनियों के द्वारा आज से सैकड़ों वर्ष पूर्व वर्तमान में उत्पन्न होने वाली परिस्थितियों से परिचित हो गये थे। इसी कारण उन्होंने विभिन्न चिकित्सा पद्धतियों की खोज की थी जिससे शरीर में रोग के लक्षण न उत्पन्न हो, और यदि किसी भूल के कारण रोग हो जाए तो प्राकृतिक तत्वों द्वारा जैसे- धूप, मिट्टी, जल, हवा, जड़ी बूटियों आदि द्वारा तुरन्त उन पर नियन्त्रण प्राप्त कर लिया जाय। इसी पद्धति को प्राकृतिक चिकित्सा के नाम से जाना गया है।
प्राकृतिक चिकित्सा में उपचार की तुलना में स्वास्थ्यवर्धन पर अधिक महत्व दिया जाता है। प्राकृतिक चिकित्सा स्वस्थ जीवन जीने की एक कला विज्ञान है। मनुष्य प्रकृति का एक हिस्सा है और उसका शरीर इन्ही पंचतत्वों से बना है पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश। प्राकृतिक चिकित्सा का यह अटल सिद्धांत है कि मानव शरीर में स्थित एक ही विजातीय द्रव्य अनेकों रोगों के रूप में तथा विभिन्न नामों से प्रकट होता है। शरीर में रोग केवल एक है जो हमारे शरीर में मल के रूप में जमा है और वही मूलत: रोग की जड़ है, इसकी उपज हमारे अप्राकृतिक जीवन यापन से होती है। अव्यवस्थित जीवन शैली से शरीर में दूषित मल विजातीय द्रव्य एकत्र होने लगते हैं और परिस्थिति वायु प्रकृति (जीवनी शक्ति आदि) के अनुसार अलग-अलग लोगों में इन विजातीय द्रव्यों का बहिष्करण भिन्न भिन्न तरीकों से होता है अर्थात् अलग अलग रोग परिलक्षित होते हैं जैसे बुखार जुकाम आदि। इन सबकी एक ही चिकित्सा है विजातीय द्रव्यों का निष्कासन। वास्तव में आहार विहार एवं रहन-सहन की अनियमितता तथा असंयम के कारण ही रोगों का प्रादुर्भाव होता है। संयमित और नियमित जीवन से मनुष्य रोग मुक्त हो जाता है। वास्तव में प्राकृतिक चिकित्सा एक चिकित्सा पद्धति नहीं अपितु जीवन जीने की कला है जो हमें आहार, निद्रा, सूर्य का प्रकाश, पेयजल, विशुद्ध हवा, सकारामकता एवं योग विज्ञान का समुचित ज्ञान कराती है। प्राकृतिक चिकित्सा से रोग ठीक किये जाते हैं पर यदि प्रकृति के अनुसार जीवन जिया जाय तो रोग होंगे ही नहीं। प्राकृतिक चिकित्सा के द्वारा जीवन निरोगी बनाया जा सकता है। प्राकृतिक चिकित्सा उतनी ही पुरानी है जितनी कि प्रकृति। इसके पॉंच आधार हैं। प्राकृतिक चिकित्सा वास्तव में जीवन यापन की सही पद्धति को कहते हैं। यह ठोस सिद्धांतों पर आधारित एक औषधि रहित रोग निवारक पद्धति है। ‘‘प्राकृतिक चिकित्सा व्यक्ति को उसके शारीरिक, मानसिक, नैतिक तथा आध्यात्मिक तलों पर प्रकृति के रचनात्मक सिद्धांतों के अनुकूल निर्मित करने की एक पद्धति है। इसमें स्वास्थ्य संवर्धन रोगों से बचाव व रोगों को ठीक करने के साथ ही आरोग्य प्रदान करने की अपूर्व क्षमता है।’’प्राकृतिक चिकित्सा सभी चिकित्सा प्रणालियों में सर्वाधिक पुरानी चिकित्सा पद्धति है। प्राचीन काल से पंचमहाभूतों- पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश तत्व की महत्ता की है। प्राकृतिक चिकित्सा न केवल उपचार की पद्धति है अपितु यह एक जीवन पद्धति है इसे बहुधा औषधि विहीन उपचार पद्धति कहा जाता है। यह पूर्णरूप से प्रकृति के सामान्य नियमों के पालन पर आधारित है। प्राकृतिक चिकित्सा सम्बन्धी विभिन्न विद्वानों का मत- कुने लुईस 1967- ‘‘प्राकृतिक प्रणाली जिसका कि चिकित्सा के रूप में उपयोग करते हैं तथा जो दूसरी पद्धतियों से गुण में बहुत अच्छी है, बिना औषधि या आपरेशन के उपचार की आधार की शिक्षा है।’’ जुस्सावाला जे0एम0 (1966)-’’प्राकृतिक चिकित्सा एक विस्तृत शब्द है जो रोगोपचार के सभी प्रणालियों के लिये उपयोग किया जाता है जिसका उद्देश्य प्राकृतिक शक्ति एवं शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता के साथ सहयोग करना है। यह व्याधि से मुक्त कराने का एक भिन्न तरीका है जिसका जीवन स्वास्थ्य एवं रोग के संबन्ध में अपना स्वयं का एक दर्शन है।बेनजामिन हेरी- ‘‘प्राकृतिक चिकित्सा व्याधि से मुक्त करने तथा रोग का दर्शन है।’’ प्राकृतिक चिकित्सा शरीर की स्वयं की आंतरिक सफाई एवं शुद्धिकरण की स्वीकृति देती है। इस प्रकार यह अशुद्धता एवं अनुपयोगी पदार्थ जो कि अधिक वर्षों के कारण एकत्र हो गया तथा जो सामान्य कार्य में बाधा उत्पन्न करता था उसें निकाल फेंकता है।
विलियम ओसलर- प्राकृतिक चिकित्सा उतनी ही पुरानी है जितनी की प्रकृति स्वयं है और उनके आधार भूत तत्व पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश। प्रकृति के तत्व जिनसें जीवन की उत्पित्त होती है सदैव वही तत्व रोगों को दूर करने में सहायक रहे। प्राचीन काल से ही तीर्थ स्नान पर घूमना, उपवास रखना, सादा भोजन करना, आश्रमों में रहना, पेड़ पौधों की पूजा करना, सूर्य, अग्नि, तथा जल की पूजा करना आदि कर्म के अंग माने जाते रहे है यदि किसी प्राकृतिक नियमों को तोड़ने में कोई कभी अस्वस्थ हो जाता था तो उपवास, जड़ी-बूटियों तथा अन्य प्राकृतिक साधनों का प्रयोग करके स्वस्थ हो जाता हैै। वेदकाल के वेद तथा अन्य प्राचीन ग्रन्थों में इसके सन्दर्भ मिलते है।वायु तत्व- ‘‘पद दौ वात ते ग्रेहअमृतस्य निधिर्हित तहोनो देहि जीवसे’’अर्थात्! हे वायु तेरे घर जो है वे अपूर्व अमृत का खजाना है उसमें से हमारे दीर्घ जीवन के लिए थोड़ा सा भाग प्रदान करे।सूर्य तत्व-‘‘सवितानु: सवितु सर्वातीत सवितोनाराजतां दीर्घमायु’’ ।अर्थात्! वह श्रेष्ठ प्रकाश जो विश्व को प्रकाशित कर रहा है हमें सद्बुद्धि और दीघायु प्रादन करे।सूर्य आत्मा जगतस्वस्थश्च। अर्थात् सूर्य संसार के समस्त पदार्थों की आत्मा है।जल तत्व-‘‘सन्नो देवीर भस्तमायोशवन्तुपीतयेशं शयोरीशभवन्तु’’।(ऋग्वेद 10/4/4) अर्थात्! हे ईश्वर दिव्य गुण वाला जल हमारे लिए सुखकारी हो जो हमें अभीष्ट पदार्थ प्राप्त कराये। हमारे पीने के लिए ये सम्पूर्ण रोगों का नाश करे तथा रोग से पैदा होने वाले भय को न पैदा होने दे, हमारे सामने बहे।पृथ्वी तत्व-‘‘अधतेडीप च भूतनित्यन्नत्व मुच्यतेतैित्त्ारीयक वेदान्ते तस्य भावोऽनुचिन्तयताम्अध्यते विधिवद् मुक्तमति भोकतरमन्यथा’’।(तैतरीय उपनिशद)अर्थात् भोजन जो खाया जाता है और भोजन खाने वाला जो भी खाता है भोजन का यह महत्व विचारणीय है विचित्र रीति से किया गया भोजन खाने वाले द्वारा खाया जाता हैै परन्तु जो गलत विधि से खाया जाता है ऐसा भोजन खाने वाले को खा जाता है पहले प्रकार का भोजन मनुष्य को आयुश एवं स्वास्थ्य प्रदान करता है जबकि दूसरे प्रकार के भोजन का विपरीत प्रभाव पड़ता है। वैदिक सभ्यता के बाद पुराण काल में प्राकृतिक चिकित्सा प्रचलित थी राजा दिलीप ने दुग्ध कल्प, फल जल सेवन से लाभ प्राप्त किया।आयुर्वेद के अनुसार-वायु तत्व- दध्यान्ते ध्यायमाननां धातू नाहि यथा मला:।तर्थोन्द्रयाणि दध्यन्ते दोशा: प्राणस्य निग्रहत।।(ऋग्वेद-10/86/3)अर्थात्! धातुओं को आग में डालने से जैसे उनके मल नष्ट हो जाते है वैसे ही प्राणायाम से मनुष्य के समस्त रोग दूर हो जाते है। वायु हमारे हृदयों में शक्ति पैदा करे। वह सुख देने वाला होकर हमारे पास बहती रहे जब हमारी आयु को दीर्घ करें।सूर्य तत्व-‘‘कफीयतोदभवा रोगान वात, रोगास्तथैव च।तत्सवनान्न रोजित्वा जीवेच्च शरदाशतम्।।’’अर्थात् सूर्य रश्मियों के दैनिक प्रयोग से मनुष्य कफ पित्त व वायु दोश से उत्पन्न सभी रोगों से मुक्त होकर सौ वर्ष तक जीवित रह सकता है। ‘‘ददुविस्फोट कुश्टहन कामला शोध नाशक:।ज्वादि सार शूलना हारको नात्रसंशय:।।’’अर्थात् सूर्य रश्मियाँ दाद, कुश्टपूर्ण दाने, कोढ़, जलशोथ, अति उदरशूल जैसे रोगों को नष्ट कर देती है इसमें सन्देह नहीं।जल तत्व- दीपनं वृश्य दृश्टातायुश्यं स्नानमोजो बल।प्रदम् कडमलश्रम स्वेदन्द्रोतऽदाह पायुत।रक्त प्रसादन चापि सवेन्द्रिय विशोधनम्।।अर्थात् स्नान, ओज, आयु, जीवनी शक्ति को बढ़ाता है। थकावट, पसीना, चर्म रोग, मल और उसकी दुर्गन्ध आलस्य, प्यास, जलन तथा पाप का नाश करता है साथ रक्त को शुद्ध करता है एवं सम्पूर्ण इन्द्रियों को स्वच्छ व निर्मल कर देता है।पृथ्वी तत्व- पृथ्वी न चाहारसमं किंचिद् भैशज्य मुकलभ्यते।शक्यतेऽयन्नं मात्रेण नर: कुर्त निरामय:।।भेशजो नोपन्नोऽसि निराहारो न शक्यते।तस्याद् भिशग्भिराहारो महा भैशन्यमुच्यते।।
अर्थात्! भोजन से बढ़कर दूसरी दवा नहीं है केवल भोजन सुधार से मनुष्य के सारे रोग दूर हो जाते है दवा कितनी दी जाए पर यदि रोगी के भोजन में उचित सुधार न किया जायेगा तो कुछ लाभ नहीं होगा मनुष्य जो खाता है वह भैशज्य नही महा भैशज्य है। पद्यपथ्यं किमौशधया, यदि पथ्यं किमौशधै:। अर्थात् यदि रोगी का पथ्य ठीक नहीे है तो औशधीय दिये जाने का कोई अर्थ नहीं और यदि ठीक है तब भी औषधि निरर्थक है। भोजन सुधार से मनुष्य के सारे रोग दूर हो जाते है, दवा कितनी ही दी जाए पर रोगी के भोजन में उचित सुधार नहीं किया जायेगा तो कुछ लाभ नहीं होगा। मनुष्य जो खाता है भोजन नहीं महाभैशज है। सदा पथ्यं किमौशधया यदिपथ्यं किमौशधै:। अर्थात् यदि रोगी का पथ्य ठीक नहीं है तो औषधि लिए जाने का कोई अर्थ नहीं और यदि पथ्य ठीक है तो भी औषधि निरर्थक है।पुराण काल-वेदकाल के बाद पुराण काल में प्राकृतिक चिकित्सा का उपयोग रोगों को दूर करने तथा स्वास्थ्य वर्धन के लिये किया जाता था। प्रारम्भ में कोई औषधि चिकित्सा नहीं थी लोग लंघन (उपवास) को ही अचूक औषधि मानते थे। इस सम्बन्ध प्रसंग आता है कि राजा दिलीप दुग्धकल्प एवं फल सेवन तथा राजा दशरथ की रानियों ने फल द्वारा संतान लाभ प्राप्त किया। उपवास सभी रोगों से मुक्त होने का सहज उपचार माना जाता है।त्रेतायुग में रावण के समय जड़ी-बूटी का औषधि के रूप में प्रयोग होने लगे क्योंकि भोग-विलासी होने के कारण रावण को प्राकृतिक चिकित्सा में कष्ट होता था उसने वैधों का लघंन (उपवास) के बिना चिकित्सा की विधि खोजने का आदेश दिया तभी से औषधि चिकित्सा का आरम्भ हो गया।महाबग्ग बौद्ध ग्रन्थ-इस ग्रन्थ में वर्णन किया गया है कि एक बार भगवान बुद्ध श्रावस्ती नगर से राजगृह जाते हुए कलंद निवास नामक संघ मे रूके थे। वहाँ एक बौद्ध भुक्षु को सांप ने काट लिया उसकी सूचना भगवान बुद्ध को मिली उन्होंने सलाह दी कि विष नाश करने के लिए चिकनी मिट्टी, गोबर, गौमूत्र और राख का उपयोग किया जाए इस प्रकार किया जाय इस प्रकार के प्रसंग से ज्ञात होता है कि भगवान बुद्ध ने अपने शिष्यों को प्राकृतिक चिकित्सा से सही करते, करवाते थे।सिन्धुघाटी की सभ्यता- इस काल में भी प्राकुतिक चिकित्सा का उपयोग होता था। मोहन जोदड़ो में पाये गये पुराने स्नानगार जिस में गरम, ठण्डा दोनों ही प्रकार के स्नान का प्रबन्ध था। इससे यह स्पष्ट होता है कि 350 ई0 पूर्व जल चिकित्सा महत्वपूर्ण स्थान रखती थी।मिस्र यूनानी व यहूदी जातियाँ- जल से चिकित्सा होती थी। 2000 वर्ष यूनान एक व्यक्ति बुकरात ने जल और सूर्य चिकित्सा द्वारा लोगों का ज्वर, रक्तविकार, चर्मरोग आदि को ठीक करने के लिए प्रसिद्ध थे।रोम में 800 वर्ष पूर्व सूर्य चिकित्सा होती थी ।ईसा के जन्म के 400 वर्ष पूर्व ग्रीस के हिप्पोक्रेटीज प्राकृतिक चिकित्सा के जनक कहे जाते है। उनके समय तक दौ सौ पैसठ औषधियों का अविष्कार हो चुका था ये उनकी लिखी पुस्तकों से ज्ञान होता है लेकिन ये औषधियाँ मुख्यत: कुछ नये रोगों में ही प्रयोग की जाती थी। यदपि हिप्पोक्रेटीज इन औषधियों में विश्वास रखता था , उनकी धारणा थी कि प्रकृति में रोग निवारण शक्ति है। तथा नये-नये रोग स्वयं ही शरीर में एक प्रकृति तरीके से उभार लाकर शरीर के भागों में से एक अधिक के द्वारा विकारों के बाहर कर देते है। उनका कहना था कि चिकित्सक का कर्त्तव्य है कि वह रोगी में आये बदलाव का अनुमान पहले से कर ले जिससे वह उन प्राकृतिक तरीको को सहज सफल होने में सहायता दे तथा रोगी चिकित्सक की मदद से रोग निवारण कर सके।हिप्पोक्रेटीज को जल चिकित्सा का पूरा-पूरा ज्ञान था उन्होंने शीतल तथा उष्ण दोनों प्रकार के जल का उपयोग अल्सर, ज्वर और अन्य रोगों में किया। उन्होंने कहा कि शीतल जल का स्नान लघु कालीन होना चाहिए उसके तुरन्त बाद या घर्षण स्नान करना चाहिए। लघुकालीन शीतल स्नान से शरीर गरम रहता है इसके विपरीत उष्ण जल से स्नान से इसके विपरीत प्रभाव पड़ता है। यूनान के स्पार्टन नामक जाति में शीतल जल से स्नान करने का कानून बना था वहाँ बड़े-बड़े स्नानगार में शीतल और उष्ण वायु स्नान की व्यवस्था की। फादर नीप ने प्राकृतिक चिकित्सा का उपयोग बड़े उत्साह से किया और जड़ी बूटी व जल के प्रयोग सम्बन्धी बहुमूल्य अविष्कार किये। मध्यकाल में अरा के चिकित्सकों ने जल चिकित्सा को महत्व दिया।रेजेज ने ज्वर के ताप को कम करने के लिए बरफीला जल थोड़ा पानी की सलाह दी।एवी सेना कब्ज निवारण हेतु शीलत जल का स्नान तथा मिट्टी को लाभकारी बताया।कुलेन चिकित्सक के रूप में जल के सन्दर्भ में कुछ व्यवस्थिति अवलोकन प्रस्तुत किये। उन्होंने ज्वर के उपचार के लिए जल के सम्बन्ध में कहा कि जब प्रतिक्रिया की दिशा को कम करने के लिए जल का उपयोग किया जाता है तो उसका प्रभाव शान्तिदायक होता है लेकिन जब हृदय और धमनियों के कार्यों को बढ़ाने के लिए तथा सबल देने के लिए जल का उपयोंग किया जाता है तो वह टॉनिक का कार्य करता है। जल रोग निवारण और स्वास्थ्य संवर्धन के लिए उपयुक्त माना जाता है।प्राकृतिक चिकित्सा पद्धति भारत की प्राचीनतम चिकित्सा पद्धति है किन्तु बीच में इस चिकित्सा प्रणाली के संसार से लोप हो जाने के बाद उसके पुर्नरूथान का श्रेय पाश्चात्य देशों को दी है इस सत्य को नकारा नहीं जा सकता। प्राकृतिक चिकित्सा के पुनरूथान में मदद देने वाले अनेक प्राकृतिक चिकित्सक थे और ये लोग वह थे जो औषधियों द्वारा रोगों का उपचार करते-करते अपनी आयु के एक बड़े भाग को समाप्त कर देने पर भी शान्ति नहीं पा सके। उनके स्वयं के प्राण प्राकृतिक चिकित्सा द्वारा बचे थे। इस सम्बन्ध में निम्नवत जानकारी है।
पाश्चात्य देशों में प्राकृतिक चिकित्सा का इतिहास डाक्टर फ्लायर इग्लैण्ड के लिचफील्ड निवासी थे। लिचफील्ड के एक स्त्रोत के पानी में कुछ किसानों को नहाते देखकर स्वास्थ्य लाभ प्राप्त देखा और इस सम्बन्ध में उन्होंने खोज की और जल चिकित्सा आरम्भ की।सन् 1667 में सर जान फ्लोयर ‘‘हिस्ट्री आफ कोल्ड बायिंग’’ नामक पुस्तक लिखी जिसमें इन्होंने शीतल जल के महत्व स्नान पर विस्तार से प्रकाश डाला। उन्होंने कहाँ कि शीतल जल के स्नान देने से पहले रोगी को पसीना अवश्य आना चाहिए। इसके लिए रोगी को एक गीला चादर लपेट कर कम्बल से ढक देना चाहिए। इसके बाद पसीना आ जायेगा, तब स्नान कराना चाहिए। उन्होंने इग्लैण्ड के लिचफील्ड में वाटर क्योर केन्द्र बनाया इसमें दो कमरे हुआ करते थे। एक कमरे में रोगी को उष्ण स्नान तथा शुष्क लपेट पसीना लाने के लिए दी जाती थी। दूसरे कमरे में शीतल जल की स्नान करवाया जाता था। दोनों कमरे एक दूसरे से बिल्कुल आस-पास थे।आधुनिक प्राकृतिक चिकित्सा के प्रणेता विनसेन्ज प्रेविनज माने जाते है। जो कि फादर ऑफ वाटर थरैपी माने जाते है। इनका जन्म जर्मनी के सिलेसियन पहाड़ की तलहटी मे एक गाँव में 1752 में एक गरीब परिवार में हुआ था। बड़े होने पर चरवाहे का काम करते हुए एक लगड़ी हिरनी को बुरी तरह घायल देखा वह हिरनी झरने के नीचे आधे घण्टे पानी में खड़े होने के बाद पानी से निकलकर जिधर से आयी थी उधर ही चली गयी। दूसरे दिन भी वह हिरनी करीब उसी समय आयी और इस बार आधे घण्टे से अधिक समय तक पानी में रहने के पश्चात पुन: चली गयी। प्रिस्निज ने देखा कि तीन सप्ताह तक हिरनी इसी प्रकार आती रही। उन्होंने लगड़ी हिरनी झरने में नहाने से उसकी चोट को ठीक होता हुआ देखकर आश्चर्य चकित हुए।प्रिस्निज जी सोलह वर्ष के थे जब एक दिन जंगल से लकड़ी काटकर लौटते समय बर्फ गिरने लगी। वह आधी तूफान में फसकर चार पसलियां टूट गयी। उन्होंने अपनी चिकित्सा हिरनी की तरह जल से की। इन्होंने गीली पट्टी बाधकर ठीक किया। सूती कपड़े की गद्दी पानी में भिगोकर अपने अंग पर रखने लगे और गद्दी सूख जाती तो फिर से उसे पानी में भिगोकर रख लेते। इस तरह कुछ समय के पश्चात वह बिल्कुल स्वस्थ हो गये।इनका जल चिकित्सा पर गहन विश्वास हो गया। इन्होंने 1829 में जल चिकित्सा प्रणाली की स्थापना की। जिससे इनके पास दूर-दूर से रोगी आने लगे। प्रिस्निज की चिकित्सा में विशेष जल के व्यवहार और सादा भोजन था। इनका आधारभूत सिद्धान्त पसीना निकाल कर ठण्डे जल का प्रयोग था। इसके बाद रोगी की प्रतिरोधक क्षमता शक्ति को भी बढ़ाने में सहायता करने लगा। प्रिस्निज के बाद जोहान्स स्क्राथ ने शोध से कार्य को आगे बढ़ाया। जोहान्स स्क्राथ- प्रिस्निज के काल है इन्होंने एक साधु के उत्साहित करने पर अपनी चोट को जल चिकित्सा से सही किया था बाद में जानवरों पर सिद्धस्य हो जाने पर मनुष्यों पर जल चिकित्सा का प्रयोग किया। इनकी ख्याति बढ़ने पर ऎलोपैथिक चिकित्सा में विश्वास रखने वाले लोगों ने शडयंत्र करके इन्हें जेल भिजवा दिया। जेल से बाहर आकर 1849 में जब एक घायल सिपाही को कुछ ही दिनों में ठीक कर दिया तो इनका यश बढ़ने लगा। इनकी चिकित्सा प्रणाली को ‘‘स्क्राथ चिकित्सा’’ कहते है। इमेन्युल स्क्राथ यह जोहान्स के पुत्र थे इन्होंने प्राकृतिक चिकित्सा के द्वारा अनेक रोगियों का उपचार किया।फादर सेबस्टिन नीप जो देवरिया के रहने वाले थे इन्होंने प्राकृतिक चिकित्सा का बहुत प्रचार किया तथा जल का सफल प्रयोग किया। इन्होंने एक स्वास्थ्य ग्रह 45 वर्ष तक चलाया अनेकों संस्थायें जर्मनी में इस चिकित्सा प्रणाली से चल रही है। जल चिकित्सा पर पुस्तक भी लिखी है।अर्नाल्ड रिचली एक व्यापारी थे। इन्होंने जब प्राकृतिक चिकित्सा के गुणों को देखा और सुना तो उससे प्रभावित होकर इस क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान दिया और वायु चिकित्सा, जल चिकित्सा पर कार्य किया। क्राफोर्ड ने भी 1781 में शीतल जल के शरीर पर प्रभाव का अध्ययन किया तथा उपचार हेतु उपयोग भी किया।डॉ0 हैलरी बेन्जामिल प्राकृतिक चिकित्सा के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योग दिया। उनके द्वारा रचित पुस्तक इवरी बडी गाइड टू नेचर क्योर एक प्रसिद्ध पुस्तक है।डॉ0 मेकफेडन ने प्राकृतिक चिकित्सा के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान दिया। उन्होंने ‘‘फास्टिंग फार हेल्थ’’ तथा ‘‘मेकफेडन इन्साइक्लोपीडिया फार फिजिकल क्योर’’ जैसी अनेकों पुस्तक लिखी। डॉ0 लाकेट ने अपने अनुभव पर भाप स्नान द्वारा पसीना निकालने की नयी विधि अपनायी गयी। एडोल्फ जूस्ट इन्होंने प्राकृतिक चिकित्सा की सुप्रसिद्ध पुस्तक ‘‘रीटर्न टू नेचर’’ लिखी। इन्होंने बताया कि मिट्टी के प्रयोग द्वारा समस्त रोगों को दूर किया जा सकता है। इन्होंने अपने आप मालिश करने की क्रिया को भी जन्म दिया।रावर्ड हावर्ड यह प्राकृतिक आहार के अच्छे ज्ञाता माने जाते है।सेलमन आपके प्राकृतिक चिकित्सा के प्रचार में महत्वपूर्ण योगदान दिया इनकी लिखी पुस्तक स्वास्थ्य और दीर्घायु आज भी लोकप्रिय है।डॉ0 केलाग ने रेशनल हाइड्रोथेरेपी पुस्तक लिखी और प्राकृतिक चिकित्सा में महत्वपूर्ण योगदान दिया। डॉ0 केलाग ने मालिश, धूप चिकित्सा, आहार चिकित्सा आदि अनेक विषयों पर अनेकानेक पुस्तक लिखी। सभी चिकित्सा प्रणालियाँ जैसे आहार चिकित्सा, जल चिकित्सा, शल्य चिकित्सा, विघुत चिकित्सा, द्वारा रोगों का उपचार होता है वहाँ यह भी बताया जाता है कि उत्त्ाम स्वास्थ्य तथा लम्बी आयु कैसे प्राप्त करें।आज अमेरिका में प्राकृतिक चिकित्सा एक चिकित्सा विज्ञान के रूप में कई विश्वविद्यालय में पढ़ाई जा रही है तथा उनके चिकित्सीय महत्पपूर्ण योगदान दे रहे है। डॉ0 जानबेल द्वारा रचित पुस्तक ‘‘बाथ’’ एक प्रसिद्ध कृति है।स्टैनली लीफ का सन् 1892 ई0 में रूस के एक गाँव में जन्म हुआ। और इनका जीवन दक्षिण अफ्रीका में बीता और जब बड़े हुए तब अमेरिका जाकर मैकफेडन के प्राकृतिक शिक्षालय में भर्ती होकर प्राकृतिक चिकित्सा की शिक्षा प्राप्त की। इग्लैण्ड से निकलने वाली मासिक पत्र ‘‘हेल्थ फार आल’’ के सम्पादक तथा दो प्रसिद्ध पुस्तक भी लिखी। वेनेडिक्ट लुस्ट अमेरिका के एक जाने माने प्राकृतिक चिकित्सक रहे है उन्होंने ‘‘नीप वाटर क्योर’’ नामक एक मासिक पत्रिका निकाली तथा न्यूयार्क में नैच्यूरोपेथी स्कूल आफ कैरोप्रेिक्ट्स की भी स्थापना की।आस्ट्रिया के फ्रंन प्रान्त के अन्र्तगत टेल्डास- नामक स्थान पर सन् 1848 ई0 में धूप और वायु का जो संसार में सर्वप्रथम अपने ढंग का प्राकृतिक चिकित्सा भवन या बाद में लगभग सभी प्राकृतिक चिकित्सकों ने इसी आधार पर चिकित्सा ग्रहों का निर्माण कराया। अपने 67 वर्ष की लम्बी आयु का उपयोग किया और मरने के समय तक स्वस्थ और स्फूर्तिवान बने रहे। लुई कुने-प्राकृतिक चिकित्सा को विकास एवं उन्नति के शिखर पर पहुँचाने का श्रेय प्रिस्निज, नीप एवं कूने तीनों को है। परन्तु कुने के विशेष योगदान की वजह से आज प्राकृतिक चिकित्सा को कुने चिकित्सा प्रणाली के नाम से भी जाना जाता है।लूई कूने का जन्म जर्मनी के लिपजिंग नगर में एक जुलाहे के घर हुआ था। इनके माता पिता की मृत्यु एलोपैथ चिकित्सकों के उपचार के मध्य हुई 20 वर्ष की अल्पायु में ही इन्हे भी मस्तिष्क एवं फुस्फुस के भयंकर रोग के साथ-साथ आमाशय का फोड़ा हो गया जो कि किसी भी डाक्टर से ढीक नहीं हुआ जीवन से ऊबकर अंत में सन् 1864 में इन्होंने प्राकृतिक चिकित्सा की शरण ली और बहुत जल्दी स्वास्थ्य प्राप्त किया।परिणामत: ये प्राकृतिक चिकित्सा के भक्त बने और निरन्तर अध्ययन मनन के बाद 10 अक्टूबर 1883 ई0 में लिपजिंग स्थित प्लास प्लेट्ज स्थान पर एक निज का स्वास्थ्य ग्रह खोल दिया। कुने की जर्मन भाषा में लिखी अनेक पुस्तकों में the science of facial expression और New science of healing जिनका हिन्दी रूपान्तर सस्ता साहित्य मंडल दिल्ली एवं आरोग्य मंदिर गोरखपुर ने क्रमश: आकृति से रोगी की पहचान एवं रोगों की नई चिकित्सा नाम से किया है ये पुस्तकें विश्व प्रसिद्ध है। फ्रेच, ग्रीक, इंग्लिश आदि कई भाषा में इन पुस्तकों के अनुवाद हो चुके है तथा अन्य भाषाओं में हो रहे है।कुने प्राकृतिक चिकित्सा सिद्धान्तों में रोगों का कारण एक ही है, शरीर में विजातीय द्रव्य का इक्कठा होना मुख्य कारण है इनके उपचार के तरीकों में सूर्य चिकित्सा, भाप स्नान, कटिस्नान प्रमुख है।
मनुष्य प्रकृति का हिस्सा है। उसका शरीर इन्हीं प्रकृति तत्व से बना है। प्राकृतिक चिकित्सा के सिद्धान्त नितान्त मौलिक है इनके अनुसार प्रकृति के नियमों का उल्लंघन करने से रोग पैदा होते है तथा प्राकृतिक नियमों का पालन करते हुए पुन: निरोग हो सकते है। मनुष्य शरीर में स्वाभाविक रूप एक ऐसी प्रकृति प्रदत्त्ा पायी जाती है जो सदैव भीतरी और बाहरी हानिकारक प्रभावों से मानव की रक्षा करती है जिसको नियमियता कहा जाता है और साधारण लोग जिसे जीवनी शक्ति के नाम से पुकारते है वही शक्ति सब प्रकार के रोगों के कारणों को स्वयंमेव दूर करती है। वह निरन्तर शरीर का पुननिर्माण करती रहती है और जो टूट फूट हो जाती है। उसकी मरमत का भी ध्यान रखती है साथ ही शरीर भीतर से अस्वाभाविक तत्व पैदा हो जाते है या बाहर से पहुँच जाते है उन्हें निकालने का भी प्रयत्न करती रहती है। रोग मनुष्य के लिए अस्वाभाविक अवस्था है जब वह प्राकृतिक नियमों का उल्लंघन या विरूद्ध मार्ग पर चलने लगता है तो उसके शरीर मे विजातीय द्रव्य की मात्रा बढ़ने लगती है जिसके परिणाम स्वरूप शरीर में तरह-तरह के विष उत्पन्न होने लगते है और वातावरण मे पाए जाने वाले हानिकारक कीटाणुओं का भी उस पर आक्रामण होने लगता है इससे शरीर का पोषण और सफाई करने वाले यन्त्र निर्बल पड़ने लगते है। उनके कायोर्ं में त्रुटि होने लगती है और मनुष्य रोगी हो जाता है। शरीर के भीतर रोग निरोधक शक्ति भरी पड़ी है जिसके द्वारा शरीर मे उत्पन्न हुए अथवा बाहर से प्रवेश पाकर पहुँचे हुए रोग कीटाणुओं का विनाश निरन्तर होता है। उदाहरण-यदि आँख में कोई विष कीटाणु जा पहुँचे तो निरन्तर आँसू निकलता है। इन आँसुओं में लाइसोजीम नामक पदार्थ रहता है जिसकी निरोध शक्ति अद्भूत है।
प्राकृतिक चिकित्सा की मान्यता है कि रोग एक है और उसका इलाज भी एक है अत: कोई भी आसाह्य से असाह्य रोग हो इस चिकित्सा से उसका उचित समय से निराकरण किया जा सकता है। रोगी के ठीक हो जाने पर पुन: उसके रोगी होने की सम्भावना क्षीण हो जाती है। प्राकृतिक चिकित्सा से रोग जड़ से दूर होते है। स्वास्थ्य के सम्बन्धित नियमों का पालन तथा किसी भी काम में अति न करना प्राकृतिक चिकित्सा का मुख्य सिद्धान्त है। प्रकृति के नियमों को तोड़ने से बीमारियाँ पैदा होती है। जबकि प्रकृति के नियमों का पालन करने से हमारे स्वास्थ्य की रक्षा होती है। प्रकृति के नियमों के पालन के लिए आवश्यक होता है कि हमें प्राकृतिक चिकित्सा के महत्वपूर्ण सिद्धान्तो के बारे में जानकारी हो जो है- प्राकृतिक चिकित्सा के मूलभूत सिद्धान्त है जीवनशैली मनुष्य रोगी न बने इसके लिए प्राकृतिक चिकित्सा के दस आधार भूत सिद्धान्त है । सभी रोग एक हैं, और उनका कारण भी एक ही है, और उनका उपचार भी एक ही है- सभी रोग, उनके कारण उनकी चिकित्सा भी एक है चोट और वातावरणजन्य परिस्थितियों को छोड़कर सभी रोगों का मूल कारण एक ही है और उसका उपचार भी एक है शरीर में विजातीय पदार्थों की संग्रह हो ताना जिससे रोग उत्पन्न होते है। उनका निष्कासन ही चिकित्सा है। प्राकृतिक चिकित्सा पद्धति का मौलिक सिद्धान्त वह है। प्राकृतिक चिकित्सा के अनुसार सभी रोग एक ही है। रोग को अलग-अलग नामों से जाना जाता है जिस प्रकार चांदी से बने आभूशणों के अलग अलग नाम हैं जैसे- कंगन, पायल, अॅंगूठी आदि उसी प्रकार एक ही विजातीय द्रव्य के अलग अलग स्थान पर एकत्र होने के कारण रोग के अनेकों नाम हैं। रोग का एक मात्र कारण विजातीय द्रव्य है। जिसे टॉक्सिक मैटर कहते हैं, शरीर एक मशीन के समान कार्य करता है जिसके कारण हमारे शरीर में विजातीय द्रव्य एकत्र होते रहते हैं और उत्सर्जन तंत्र के माध्यम से बाहर निकाला जाता है। जैसे पसीने के रूप में, मल मूत्र के रूप में और जब यही मल जब शरीर से सुचारू रूप से नहीं निकलता तो शरीर के विभिन्न स्थानों पर जमा होने लगता है, और वही सड़ने लगता है जिसके कारण रोग होते हैं। जैसे आंतों की सफाई न होने पर कब्ज होती है जिसके कारण बवासीर और फिसर जैसे रोग होते हैं अंन्त में इनका व्यापक रूप हमारा रक्त भी दूषित कर देता है जिससे चर्मरोग होता है। हृदय पर ज्यादा दबाव पड़ने से हृदय रोग भी हो जाता है। श्वसन का कार्य बढ़ जाने से श्वांस संबन्धी रोग उत्पन्न होते हैं। इन सबकी जड़ केवल विजातीय द्रव्य ही होते हैं। इसीलिये जब सारे रोग एक है और उनका कारण भी एक हैं तो उसका उपचार भी एक ही होगा और वह है शरीर से विजातीय द्रव्यों का निष्कासन जिससे शरीर शुद्ध हो और रोग समाप्त हो सकें। विजातीय द्रव्य के समाप्त होने से शरीर स्वस्थ व स्फूर्तिवान हो जाता है। इसीलिये प्राकृतिक चिकित्सा में शरीर की शुद्धि को महत्वपूर्ण स्थान दिया है और विभिन्न माध्यमों से शरीर से विजातीय द्रव्यों को बाहर निकाल कर इसका उपचार किया जाता है। इससे स्पष्ट होता है कि सभी रोग एक हैं। क्योंकि वे एक ही प्रकार के कारण से उत्पन्न होते होते हे इसलिये उनका उपचार भी एक मात्र है शरीर से विजातीय द्रव्यों को बाहर निकालना।तीव्र रोग शत्रु नहीं मित्र होते हैं- तीव्र रोग चकि शरीर के एक उपचारात्मक प्रयास है अत: हमारे शत्रु नहीं है। जीर्ण रोग तीव्र रोगों को दबाने से और गलत उपचार से पैदा होते है। प्राकृतिक चिकित्सा के अनुसार रोगों को दो श्रेणी में बांटा गया है। 1. तीव्र रोग, 2. जीर्ण रोग। जीर्ण रोग वह होते हैं जो शरीर में दबे रहते हैं और लंबे समय के बाद प्रकट होते हैं जिनके शरीर में रहते हुये हमारा शरीर काम तो करता है लेकिन अंदर से क्षतिग्रस्त होता रहता है और लंबे समय तक शरीर में बने रहते हैं क्योंकि इनकी जड़ें शरीर में जम चुकी होती हैं इसके विपरीत तीव्र रोग वह होते हैं जिनकी अवस्था में शरीर कार्य करने में सक्षम नहीं हो पाता है और यह शरीर में तीव्र गति से आते है और वैसे ही तीव्र गति से चले भी जाते हैं। प्राकृतिक चिकित्सा में तीव्र रोगों को मित्र कहा गया है जिस प्रकार सामने से वार करने वाले से खतरनाक छिपकर वार करने वाला होता है। उसी प्रकार तीव्र रोग सामने से वार करता है इससे व्यक्ति को संभलने का अवसर मिल जाता है।तीव्र रोग के कारण शरीर से विजातीय द्रव्यों का निष्कासन भी हो जाता है जैसे- उल्टी, दस्त हाने से पेट और ऑंतों की सफाई हो जाती है। जुकाम व बुखार में यही विजातीय द्रव्य पसीने के रूप में बाहर निकलते हैं और जीवनीशक्ति का पुन: विकास होने लगता है। तीव्र रोग हमारे अंदर के विष को बाहर निकालने का कार्य करते हैं किन्तु हम घबराकर औषधियों के माध्यम से उनके कार्य में रूकावट डाल देते हैं जिससे तीव्र रोग कुछ समय बाद जीर्ण रोग का रूप ले लेते हैं। उदाहरण के लिये सामान्य सर्दी जुकाम जो कि मौसम बदलने के कारण हमारे शरीर की प्रतिक्रिया होती है जिसके कारण मल बाहर निकलना चाहता है लेकिन हम औषधियों को खाकर इसे रोक देते हैं और कुछ समय बाद यही अस्थमा, बोंकाईटिस, सायनस जैसी जीर्ण बीमारियों के रूप में सामने आते हैं। तीव्र रोग हमें हमारी भूल का स्मरण कराते हैं। गलत आहार के कारण उल्टी और दस्त ठण्डी चीजों के अधिक सेवन के कारण सर्दी जुकाम आदि इसके उदाहरण हैं। इसलिये ही इन्हें मित्र कहा गया है क्योंकि सच्चा मित्र ही हमें हमारी भूलों की पहचान करा सकता है। जिससे वह भूल दुहराई न जा सके।. रोग का कारण कीटाणु नहीं- रोग का मुख्य कारण कीटाणु नहीं है। जीवाणु शरीर में जीवनी शक्ति के हास होने के कारण एवं विजातीय पदार्थों के संग्रह के पश्चात् तब आक्रमण कर पाते है जब शरीर में उनके रहने और पनपने लायक अनुकूल वातावरण तैयार हो जाता हे। आयुर्वेद में बताया गया है कि ब्रहमा जी ने दक्ष प्रजापति को आयुर्वेद का ज्ञान दिया था । दक्ष प्रजापति 18575 साल से पूर्व पैदा हुऐ थे । धार्मिक मान्यताओं के अनुसार संसार की प्राचीनतम् पुस्तक ऋग्वेद है। विभिन्न धार्मिक विद्वानों ने इसका रचना काल ५,००० से लाखों वर्ष पूर्व तक का माना है। इस संहिता में भी आयुर्वेद के अतिमहत्त्व के सिद्धान्त यत्र-तत्र विकीर्ण है। चरक, सुश्रुत, काश्यप आदि मान्य ग्रन्थकार आयुर्वेद को अथर्ववेद का उपवेद मानते हैं। किंतु अर्थववेद स्वयं ही बहुत बाद में या आधुनिक समय मे लिखा गया है। पहले केवल तीन वेद koही थे और अर्थववेद बाद में लिखा गया है इसलिए इसमें आयुर्वेद को भी जोड़ा गया है।धन्वन्तरि आयुर्वेद के देवता हैं। वे विष्णु के अवतार माने जाते हैं।धार्मिक मतानुसार इस शास्त्र के आदि आचार्य अश्विनीकुमार माने जाते हैं जिन्होने दक्ष प्रजापति के धड़ में बकरे का सिर जोड़ा था। अश्विनी कुमारों से इंद्र ने यह विद्या प्राप्त की। इंद्र ने धन्वंतरि को सिखाया। काशी के राजा दिवोदास धन्वंतरि के अवतार कहे गए हैं। उनसे जाकर सुश्रुत ने आयुर्वेद पढ़ा। अत्रि और भारद्वाज भी इस शास्त्र के प्रवर्तक माने जाते हैं। आय़ुर्वेद के आचार्य ये हैं— अश्विनीकुमार, धन्वन्तरि, दिवोदास (काशिराज), नकुल, सहदेव, अर्कि, च्यवन,जनक, बुध, जावाल, जाजलि, पैल, करथ, अगस्त्य, अत्रि तथा उनके छः शिष्य अग्निवेश,भेड़,जातूकर्ण, पराशर, सीरपाणि, हारीत , सुश्रुत और चरक है।
आत्रेय सम्प्रदाय - चरक के अनुसार, आयुर्वेद का ज्ञान सर्वप्रथम ब्रह्मा से प्रजापति ने, प्रजापति से अश्विनी कुमारों ने, उनसे इन्द्र ने और इन्द्र से भरद्वाज ने प्राप्त किया। च्यवन ऋषि का कार्यकाल भी अश्विनी कुमारों का समकालीन माना गया है। आयुर्वेद के विकास मे ऋषि च्यवन का अतिमहत्त्वपूर्ण योगदान है। फिर भारद्वाज ने आयुर्वेद के प्रभाव से दीर्घ सुखी और आरोग्य जीवन प्राप्त कर अन्य ऋषियों में उसका प्रचार किया। तदनन्तर पुनर्वसु आत्रेय ने अग्निवेश, भेल, जतू, पाराशर, हारीत और क्षारपाणि नामक छः शिष्यों को आयुर्वेद का उपदेश दिया। इन छः शिष्यों में सबसे अधिक बुद्धिमान अग्निवेश ने सर्वप्रथम एक संहिता का निर्माण किया- अग्निवेश तंत्र का जिसका प्रतिसंस्कार बाद में चरक ने किया और उसका नाम चरकसंहिता पड़ा है।
धन्वन्तरि सम्प्रदाय - सुश्रुत के अनुसार काशीराज दिवोदास के रूप में अवतरित भगवान धन्वन्तरि के पास अन्य महर्षिर्यों के साथ सुश्रुत जब आयुर्वेद का अध्ययन करने हेतु गये और उनसे आवेदन किया। उस समय भगवान धन्वंतरि ने उन लोगों को उपदेश करते हुए कहा कि सर्वप्रथम स्वयं ब्रह्मा ने सृष्टि उत्पादन पूर्व ही अथर्ववेद के उपवेद आयुर्वेद को एक सहस्र अध्याय- शत सहस्र श्लोकों में प्रकाशित किया और पुनः मनुष्य को अल्पमेधावी समझकर इसे आठ अंगों में विभक्त कर दिया। इस प्रकार धन्वंतरि ने भी आयुर्वेद का प्रकाशन ब्रह्मदेव द्वारा ही प्रतिपादित किया हुआ माना है। पुनः भगवान धन्वन्तरि ने कहा कि ब्रह्मा से दक्ष प्रजापति, उनसे अश्विनीकुमार द्वय तथा उनसे इन्द्र ने आयुर्वेद का अध्ययन किया। संहिताकाल का समय ५वीं शती ई.पू. से ६वीं शती तक माना जाता है। यह काल आयुर्वेद की मौलिक रचनाओं का युग था। इस समय आचार्यो ने अपनी प्रतिभा तथा अनुभव के बल पर भिन्न-भिन्न अंगों के विषय में अपने पाण्डित्यपूर्ण ग्रन्थों का प्रणयन किया। आयुर्वेद के त्रिमुनि-चरक, सुश्रुत और वाग्भट, के उदय का काल भी सं हिताकाल ही है। चरक संहिता ग्रन्थ के माध्यम से काययिकित्सा के क्षेत्र में अद्भुत सफलता इस काल की एक प्र मुख विशेषता है।
इसका समय ७वीं शती से लेकर १५वीं शती तक माना गया है तथा यह काल आलोचनाओं एवं टीकाकारों के लिए जाना जाता है। इस काल में संहिताकाल की रचनाओं के ऊपर टीकाकारों ने प्रौढ़ और स्वस्थ व्याख्यायें निरुपित कीं। इस समय के आचार्य डल्हड़ की सुश्रुत संहिता टीका आयुर्वेद जगत् में अति महत्वपूर्ण मानी जाती है।शोध ग्रन्थ ‘रसरत्नसमुच्चय’ भी इसी काल की रचना है, जिसे आचार्य वाग्भट ने चरक और सुश्रुत संहिता और अनेक रसशास्त्रज्ञों की रचना को आधार बनाकर लिखा है।इस काल का समय १४वीं शती से लेकर आधुनिक काल तक माना जाता है। यह काल विशिष्ट विषयों पर ग्रन्थों की रचनाओं का काल रहा है। माधवनिदान, ज्वरदर्पण आदि ग्रन्थ भी इसी काल में लिखे गये। चिकित्सा के विभिन्न प्रारुपों पर भी इस काल में विशेष ध्यान दिया गया, जो कि वर्तमान में भी प्रासंगिक है। इस काल में आयुर्वेद का विस्तार एवं प्रयोग बहुत बड़े पैमाने पर हो रहा है। स्पष्ट है कि आयुर्वेद की प्राचीनता वेदों के काल से ही सिद्ध है। आधुनिक चिकित्सापद्धति में सामाजिक चिकित्सा पद्धति को एक नई विचारधरा माना जाता है, परन्तु यह कोई नई विचारधारा नहीं अपितु यह उसकी पुनरावृत्ति मात्र है, जिसका उल्लेख 2500 वर्षों से भी पहले आयुर्वेद में किया गया है।वेद प्राचीन काल से ही मानव-सभ्यता के प्रकाश-स्तम्भ रहे हैं। वेद की परम्परा में रुद्र को प्रथम वैद्य स्वीकार किया गया है। ‘यजुर्वेद’ में कहा गया है कि 'प्रथमो दैव्यों भिषक'। ऋग्वेद में भी उल्लिखित है कि ‘भिषक्तमं त्वां भिषजां शृणोमि'।और आयुर्वेद ग्रन्थो की परम्परा में ब्रह्मा आयुर्वेद का प्रथम उपदेष्टा है।वेदों में अश्विनों और रुद्रदेवता के अतिरिक्त अग्नि, वरुण, इन्द्र, अप् तथा मरुत् को भी 'भिषक्' शब्द से अभिनिहित किया गया है। परन्तु मुख्य रूप से इस शब्द का सम्बन्ध रुद्र और अश्विनौ के साथ ही है। अतः वेद आयुर्वेदशास्त्र के लिए एक महत्त्वपूर्ण संकेतक तथा स्रोत हैं।आयुर्वेद के महत्वपूर्ण तथ्यों का वर्णन ऋग्वेद में उपलब्ध है। ऋग्वेद में आयुर्वेद का उद्देश्य, वैद्य के गुण-कर्म, विविध औषधियों के लाभ तथा शरीर के अंग और अग्निचिकित्सा, जलचिकित्सा, सूर्यचिकित्सा, शल्यचिकित्सा, विषचिकित्सा, वशीकरण आदि का विस्तृत विवरण प्राप्त होता है। ऋग्वेद में 67 औषधियो का उल्लेख मिलता हैं। अतः आयुर्वेद की दृष्टि से ऋग्वेद बहुत उपयोगी है।यजुर्वेद में आयुर्वेद से सम्बन्धित निम्नांकित विषयों का वर्णन प्राप्त होता है : विभिन्न औषधियों के नाम, शरीर के विभिन्न अंग, वैद्यक गुण-कर्म चिकित्सा, नीरोगता, तेज वर्चस् आदि। इसमें 82 औषधियों का उल्लेख दिया गया है।
आयुर्वेद के प्रमुख आचार्य धनवन्तरि तथा दिवोदास , सुश्रुत , नागार्जुन , जीवक , आत्रेय और चरक है। धनवन्तरि तथा दिवोदास - पौराणिक इतिहास में भी दिवोदास नाम के अनेक व्यक्ति मिलते है। हरिवंश पुराण के 29 वे अध्याय में काश वंश में धन्वन्तरि तथा दिवोदास का काशीराज के रूप में उल्लेख मिलता है। यह वंशावली निम्न प्रकार है - काश , दीर्घतया , धैन्व , धन्वन्तरि ,केतुमान , भीमरथ , दिवोदास , प्रतर्दन , वत्स ,अलंर्क है। कांश के पौत्र धन्व नाम वाले राजा ने समुद्र मन्थन से उत्पन्न अब्ज (कमल) नाम देवता की आराधना करके कमल के अवतार रूप धन्वन्तरि नामक पुत्र को प्राप्त किया। उस धन्वन्तरि ने भारद्वाज से आयुर्वेद का ज्ञान प्राप्त करके उसे आठ भागों में विभक्त करके शिष्यों को उपदेश दिया। इसके प्रपौत्र दिवोदास ने वाराणसी नगरी की स्थापना की। दिवोदास का पुत्र प्रतर्दन तथा दिवोदास के समय शून्य हुई वाराणसी को प्रतर्दन के पात्रै कौशलराज अलर्क ने पुन: बसाया। ऐसा हरिवंश पुराण से प्रतीत होता है।महाभारत मे भी चार स्थानों पर दिवोदास का नाम आता है। महाभारत मे दिवोदास का काशीराज होना, वाराणसी की स्थापना होना, द्वारा पराजित होकर भारद्वाज की शरण में जाना उसके द्वारा किये हुए पुत्रेष्टि यज्ञ में प्रतर्दन नामक वीर पुत्र की उत्पत्ति आदि मिलते जुलते विषय ही मिलते हैं। जिससे हरिवंश पुराण तथा महाभारत में वर्णित दिवोदास की एकता प्रतीत होती है। अग्नि पुराण तथा गरुु ड पुराण मे भी वैद्य धन्वन्तरि की चाथ्ै ाी पीढ़ीं में दिवोदास का उल्लेख है। और यास्क निरुक्त (1-9) कौषितकी ब्राह्यण के अनेक अश्ं ा व्याख्यात हैं। यास्क का समय विद्वानां े के अनुसार 800 ई.पू. माना है। बुद्ध तथा महावीर के सम्प्रदाय का एक भी विषय न मिलने से वेलवल्कर तथा भण्डार कर ने पाणिनि का समय (700-800 ई.पू.) माना है। विभिन्न मतों के दिखाई देने पर भी पाणिनी तथा उससे भी पूर्ववर्ती यास्क द्वारा ग्रहित कौषितकी ब्राह्यण का समय बहुंत पहले का प्रतीत होता है। बुद्ध के बाद का तो नही है। इस प्रकार एतरेय तथा कौषितकी ब्राह्यण के मध्य का होने से यह दिवोदास उपनिषद् कालीन प्रतीत होता है । सुश्रुत - सुश्रुत उपनिषद कालीन दिवोदास के शिष्य रूप में उल्लेख होने से तथा सुश्रुत संहिता में कृष्ण का नाम मिलने से पव्म्ं हेमराज जी के प्रमाणों में इसको पाणिनि से पूर्व उपनिषदकालीन मानते हैं। साथ ही उनका कहना है कि सुश्रुत मे बौद्ध विचार नही हैं किन्तु सुश्रुत मे ं भिक्षु सघ्ं ााटी शब्द आता ह।ै इसमें डल्हण ने भिक्षु का शाक्य भिक्षु ही अर्थ किया है। सघ्ं ााटी भिक्षुआं े की दोहरी चादर होती ह।ै जिससे वह ऊपर से आढे ़ते है इस आधार पर इसका काल बौद्ध काल के अन्नतर निश्चित होता है। सुश्रुत संहिता में लिखा है कि सुश्रुत का संहिता निर्माता विश्वामित्र का पुत्र सुश्रुत है। चन्द्रदत्त ने भी टीका में ऐसा ही लिखा है। विश्वामित्र द्वारा अपने पुत्र सुश्रुत को काशीराज धन्वन्तरि के पास अध्ययन के लिये भेजने का जो उल्लेख भाव प्रकाश में है वह इसी उपलब्ध सुश्रुत के आधार पर है। आग्नेय पुराण में (279-292) नर, अश्व और गायो से सम्बन्धित आयुर्वेद का ज्ञान भी सुश्रुत और धन्वन्तरि के बीच शिष्य रूप गुरु में वर्णित है। दो सहस्र वर्ष प्राचीन दार्शनिक आचार्य नागार्जुन का उपाय हृदय नामक दार्शनिक ग्रन्थ उपलब्ध हुआ है। इसमें भैषज्य विद्या के आचार्य के रूप मे सम्मान एव ं गारै व के साथ सुश्रुत का नाम दिया है। इस प्रकार लगभग दो सौ वर्ष पूर्व आचार्य नागार्जुन द्वारा भी आचार्य रुप में सुश्रुत का नाम दिया होना इसकी अर्वाचीनता के प्रतिवाद के लिए पर्याप्त प्रमाण है।मैकडोनल नामक विद्वान लिखता है कि सुश्रुत ई.पू. चतुर्थ शताब्दीं से पहले का प्रतीत नही होता है। क्योंकि बाबर मनै ुस्क्रिपट के प्रकरण चरक सुश्रुत के साथ केवल भाषा मे ही समानता नही रखते अपितु उनमे शब्दों की भी समानता मिलती है। नागार्जुन - राजतरंगिणी के लेखक कल्हण ने बुद्ध के अविर्भाव से 150 वर्ष पूर्व नागार्जुन नामक प्रसिद्ध विद्वान के होने का निर्देश किया है। सातवाहन राजा के समकालीन एक महाविद्वान बोधि सत्व नागार्जुन का उल्लेख हर्ष चरित में है। सुश्रुत का एक संस्कर्ता नागार्जुन है। जिसे कुछ लोग बौद्ध विद्वान नागार्जुन मानते हैं। नागार्जुन नाम वाले अनेक प्राचीन विद्वान मिलते हैं। डल्हणाचार्य ने सुश्रुत की जो टीका की है, उसमें नागार्जुन का उल्लेख है। सुश्रुत में इस विषय की चर्चा न होने से इसे नागार्जुन के सुश्रुत सस्ं कतार् होने के पक्ष मे कोई प्रमाण नही मिलता। बाद्धै दर्शन, माध्यमिक वृत्ति, तर्क शास्त्र तथा उपाय हृदय के प्रवर्तक नागार्जुन दार्शनिक है वह वैद्य नही थे। नागार्जुन की रचना के रूप से मिलने वाले कक्षपुट योग शतक, तत्व प्रकाश आदि ग्रन्थां े मे वैद्य क विषय मे लिखित योग शतक का तिब्बतीय भाषा अनुवाद भी मिलता है। नागार्जुन की ही अन्य चितानन्द पटीयसी नामक वैद्यक की संस्कृत में लिखी हुई ताडपुस्तक तिब्बत के गीममठ में है। बौद्धों का आध्यात्म विषयक परम रहस्य सुखामि सम्बोधि तथा समय मुद्रा आदि उनके अन्य ग्रन्थ हैं। इन भिन्न-भिन्न विषयों के ग्रन्थों का निर्माता एक ही व्यक्ति था या भिन्न-भिन्न यह विचारणीय विषय हैं सातवाहन राजा के समकालीन एक विद्वान बोधिसत्व का उल्लेख हर्ष चरित्र में है।मज्झिम निकाय के अनुसार बुद्ध के शरणागत तथा उपासक होने की प्रतीती होती है किन्तु कश्यप संहिता क े तन्त्र के आचार्य के बौद्धत्व का कही निर्देश नही है। बौद्ध विद्वान की वाणी तथा लेखनी द्वारा अन्त:करण से निकली बौद्ध छाया भी इस ग्रन्थ में कहीं भी नही मिलती है इससे प्रतीत होता है कि बौद्ध ग्रन्थां े का जीवक तथा कश्यप संहिता के तन्त्र के आचार्य वृद्ध जीवक में बहुत भेद है।नवनीतकम और कश्यप संहिता के कल्पाध्याय के अनुसार ज्ञात होता है, कि कश्यप द्वारा उपदिष्ट संहिता को कनरवल निवासी तथा ऋचिक पुत्र वृद्ध जीवक नाम वाले किसी महषिर् ने ग्रहण करके संिक्षप्त तन्त्र रुप में प्रकाशित किया। अनुसंधान करने पर हमें बुद्ध के समय के महावग्ग नामक पाली ग्रन्थ बौद्ध जातक तथा तिब्बतीय ग्रंथों मे कुमारभृत विशेषण युक्त जीवक नामक किसी प्रसिद्ध वैद्य का वृतांत मिलता है। बौद्ध ग्रन्थो के जीवक का मगध देश के रहने वाले बिम्बिसार द्वारा भूजिष्या नामक वैश्या से उत्पन्न हुए तथा तरूण वैद्य के रूप में निर्देश किया होने से इनका काल 2500 वर्ष पूर्व (ईव्म् पूव्म् 600) शताब्दी प्रतीत होता है। तिब्बतीय कथा के अनुसार स्तुप निर्माता तथा बाद में तथागत के सम्प्रदाय में जीवक प्रविष्ट हुए। बौद्धकाल में एक दूसरे भिक्षु आत्रेय का उल्लेख है। तक्षशिला में अध्यापक थे। अत्रि के पुत्र आत्रेय का काल ई. पू . आठवी शताब्दी के लगभग माना जाता है। आत्रेय एक महान चिकित्सक तथा अध्यापक थे। उन्होंने कई कृतियों की रचना की है। इसमें आत्रेय संहिता प्रसिद्ध तथा सर्वविदित है। आत्रेय के उपदेशों को उनके शिष्यो अग्निवेश, भेल, जातुकर्ण, हारीत, क्षारपीठा, एवं पराशर जैसे शिष्यो ने निबद्व कर अपने-अपने नाम से तन्त्रो की रचना की। ये तन्त्र बहुत ही जनोपादेय सिद्ध हुए। समय चक्र के प्रभाव से आज वे सभी विलुप्त हो गये हैं। इनमें से अग्निवेश तन्त्र सर्वाधिक लोकप्रिय हुआ और उसका संस्कार चरक द्वारा हुआ। यह तन्त्र संसार के अनन्तर चरक संहिता के नाम से प्रसिद्ध हुआ। कालान्तर में इसके खण्डित अंशो एवं उपादेय सामग्री का प्रतिसंस्कार आचार्य दृढ़बल द्वारा हुआ।
पुर्नवसु आत्रेय के पिता अत्रि ऋग्वेद के पंचम मण्डल के दृष्टा हैं। चरक मे अनेक स्थलों पर आत्रेय को आत्रिपुत्र के रूप में भी स्मरण किया हैं। इसके अतिरिक्त चरक पर ऋग्वेद के दशम मण्डल के नारदीय सुक्त एवं अनोभद्रीय सुक्त के नामकरण की शैली पर ही चरक संहिता के आदि के कुछ अध्याय प्रथम श्लोक के प्रथम पंक्ति के आधार पर शीर्षाकित हुए है। अतएवं इस अंर्तसाक्ष्य के कारण आत्रेय के काल को लगभग दो हजार ई.पू. मे स्थिर किया गया है। प्राचीन काल में शाखा या चरण के रूप में विद्या पीठ चलते थे। शाखा या चरण का नाम ऋषि के नाम पर होता था। एक ऐसी ही शाखा कृष्ण यजुर्वेद का सम्बन्ध वश्ै ाम्पायन से ह।ै अग्निवेश आदि शिष्यों को आयुर्वेद का उपदेश देने वाले पुनर्वसु आत्रेय का समय निश्चित करने का सबसे बड़ा साधन उनका अपना उपदेश भी है। चरक संहिता में ‘काम्पिलय नगर को द्विजाति वराहध्युषित कहा है।
चरक संहिता मे कश्यप नाम दो स्थानों पर आता है। इन स्थानों में वह अन्य ऋषियां े के साथ भी है। काश्यप संहिता में प्रत्येक अध्याय के प्रारम्भ तथा अन्त मं े इति ह स्माह कश्यप इति कश्यप कश्यपोव्रीत इत्यादि द्वारा बहुत से स्थानों पर कश्यप शब्द से कौमार भृत्य का प्रतिपादक माैि लक ग्रन्थ है। जिसके मलू उपदेष्टा महर्षि कश्यप है। उनके उपदेश को ऋचिक पुत्र वृद्व जीवक ने ग्रन्थ रूप में निबद्व किया है, और आगे चलकर जब ये ग्रन्थ लुप्त हो गया तो उसके वश्ं मे समुद्धभतू वात्सय नामक आचार्य ने धर्म तथा लोक कल्याण के लिए अपनी बुद्धि तथा श्रम से उसका प्रतिसंस्कार करके उसे प्रकाशित किया। प्रस्तुत ग्रन्थ में शक और हूणों के उल्लेख के कारण इसका संस्कार समय आचार्य प्रियव्रत शर्मा छठीं शताब्दी मानते है।बौद्ध त्रिपिटिकों में कनिष्क के राजवैद्य का नाम चरक मिलता है। कनिष्क के समय में ही आचार्य नागार्जुन की स्थिति मानी जाती है। चरक संहिता और उपाय हृदय दोनों में एक समान वाद विषय का उल्लेख दोनों को समकालीन सिद्ध करता है। कनिष्क का समय ईसा की प्रथम शताब्दीं माना जाता है। इसमें यह निश्चित नही होता है, कि नागार्जुन का संमकालीन चरक ही अग्निवेश तन्त्र का प्रतिसंस्कृत था। क्योंकि चरक संहिता मे न तो कनिष्क का कोई नाम मिलता है, आरै न ही उसमे प्रसूित विद्या की कोई विशिष्ट सामाग्री है।कृष्ण यजुर्वेद की एक शाखा भी चरक नाम से प्रसिद्ध है, उस शाखा को मानने वाले भी चरक कहलाते हैं। ऐसा शतपथ आदि ब्राह्यणो में लिखा पाया जाता है। उस समय शाखा का बहुत महत्त्व था। शाखा एक प्रकार की विद्यापीठ थी। शाखा के द्वारा जो ग्रन्थ रचे जाते थे वे उस शाखा के नाम से कहे जाते थे। अग्निवेश तन्त्र का इसी कृष्ण यजुर्वेद शाखा द्वारा संस्कार किए जाने पर उसका नाम चरक संहिता रख दिया गया। पाणिनि के अष्टाध्यायी एवं उपनिषदों मे इसका उल्लेख होने से इसका समय 1000 ई.पू. रखा जा सकता है। उक्त विचार तो परिकल्पना प्रतीत होती है। किन्तु पंतजलि ने चरक की चिकित्सा सम्बन्धी पुस्तक की टीका लिखी है। पंतजलि ई.पू. 175 में हुए बताये जाते है। यदि यह सही है तो चरक ई.पू. 175 से पहले हुए है।
अश्विनीकुमार - वैदिक साहित्य और हिन्दू धर्म में 'अश्विनौ' यानि दो अश्विनों का उल्लेख देवता के रूप में मिलता है जिन्हें अश्विनीकुमार या अश्वदेव के नाम से जाना जाता है। ऋग्वेद में ३९८ बार अश्विनीकुमारों का उल्लेख हुआ है और ५० से अधिक ऋचाएँ केवल उनकी ही स्तुति के लिए हैं। ऋग्वेद में दोनों कुमारों के अलग-अलग नाम कहीं नहीं आते, सर्वत्र दोनों को द्विवचन में 'अश्विनीकुमारौ' नाम से विधित किया गया है। अश्विनीकुमार को स्वास्थ्य और आयुर्वेद के देवता ; देवों के वैद्य अश्विनीकुमारद्वय को नासत्य और दस्र ,जीवनसाथी - ज्योति (मानव शरीर की देवी , बड़े अश्विनीकुमार नासत्य की पत्नी) मायान्द्री (माया की देवी, छोटे अश्विनीकुमार दस्र की पत्नी) , माता-पिता - सरण्यू और सूर्य ,संतान - सत्यवीर, दमराज, नकुल, सहदेव ,सवारी , स्वर्ण रथ है।
दोनों अश्विनीकुमार प्रभात के जुड़वा देवता और आयुर्वेद के आदि आचार्य माने जाते हैं। ये देवों के चिकित्सक और रोगमुक्त करनेवाले हैं। वे कुमारियों को पति माने जाते हैं। वृद्धों को तारूण्य, अन्धों को नेत्र देनेवाले कहे गए हैं। महाभारत के अनुसार नकुल और सहदेव उन्हीं के पुत्र थे (दोनों को 'अश्विनेय' कहते हैं)।दोनों अश्विनीकुमार युवा और सुन्दर हैं। इनके लिए 'नासत्यौ' विशेषण भी प्रयुक्त होता है, जो ऋग्वेद में ९९ बार आया है। ये दोनों प्रभात के समय घोड़ों या पक्षियों से जुते हुए सोने के रथ पर चढ़कर आकाश में निकलते हैं। इनके रथ पर पत्नी सूर्या विराजती हैं और रथ की गति से सूर्या की उत्पति होती है। इनकी उत्पति निश्चित नहीं कि वह प्रभात और संध्या के तारों से है या गोधूली या अर्ध प्रकाश से। परन्तु ऋग्वेद ने उनका सम्बन्ध रात्रि और दिवस के संधिकाल से किया है। ऋग्वेद (१.३, १.२२, १.३४) के अलावे महाभारत में वर्णन है। वेदों में इन्हें अनेकों बार "द्यौस का पुत्र" (दिवो नपाता) कहा गया है। पौराणिक कथाओं में 'अश्विनीकुमार' त्वष्टा की पुत्री प्रभा नाम की स्त्री से उत्पन्न सूर्य के दो पुत्र हैं ।भारतीय दर्शन में वैशेषिक शास्त्र की व्याख्या में अश्विनों को विद्युत-चुम्बकत्व बताया है । आपस में जुड़े रहते हैं और सूर्य से उत्पन्न हुए हैं। इसके अलावे ये अश्व (द्रुत) गति से चलने वाले 'आशु' है। सुकन्या ने पति च्यवन की पहचान बताने के लिए अश्विनीकुमारों से वैवस्वत मनु के पौत्री तथा राजा शर्याति की पुत्री सुकन्या द्वारा प्रार्थना की है।ऋग्वेद में अश्विनीकुमारों का रूप, देवताओं के साथ सफल चिकित्सक रूप में मिलता है। वे सर्वदा युगल रूप में दृष्टिगोचर होते हैं। उनका युगल रूप चिकित्सा के दो रूपों (सिद्धान्त व व्यवहार पक्ष) का प्रतीक माना जा रहा है। वे ऋग्वैदिक काल के एक सफल शल्य-चिकित्सक थे। इनके चिकित्सक होने का उदाहरण इस प्रकार दिया जा सकता है। उन्होने मधुविद्या की प्राप्ति के लिए आथर्वण दधीचि के शिर को काट कर अश्व का सिर लगाकर मधुविद्या को प्राप्त की और पुनः पहले वाला शिर लगा दिया। वृद्धावस्था के कारण क्षीण शरीर वाले च्यवन ऋषि के चर्म को बदलकर युवावस्था को प्राप्त कराना। द्रौण में विश्यला का पैर कट जाने पर लोहे का पैर लगाना, नपुंसक पतिवाली वध्रिमती को पुत्र प्राप्त कराना, अन्धे ऋजाश्व को दृष्टि प्रदान कराना, बधिर नार्षद को श्रवण शक्ति प्रदान करना, सोमक को दीर्घायु प्रदान करना, वृद्धा एवं रोगी घोषा को तरुणी बनाना, प्रसव के आयोग्य गौ को प्रसव के योग्य बनाना आदि ऐसे अनगिनत उल्लेख प्राप्त होते हैं, जिनसे सफल शल्य्चिकित्सक होने का संकेत मिलता है।दोनों कुमारों ने राजा शर्याति की पुत्री सुकन्या के पातिव्रत्य से प्रसन्न होकर महर्षि च्यवन का वृद्धावस्था में ही कायाकल्प कर उन्हें चिर-यौवन प्रदान किया था। कहते हैं कि दधीचि से मधुविद्या सीखने के लिए इन्होंने उनका सिर काटकर अलग रख दिया था और उनके धड़ पर घोड़े का सिर जोड़ दिया था और तब उनसे मधुविद्या सीखी थी। जब इन्द्र को पता चला कि दधीचि दूसरों को मधुविद्या की शिक्षा दे रहे हैं तो इन्द्र ने दधीचि का सिर फिर से नष्त-भ्रष्ट कर दिया। तब इन्होंने ही दधीचि ऋषि के सिर को फिर से जोड़ दिया है। आयुर्वेद शास्त्र में संक्रमण से मुक्त होने के लिए पौधों , पेडों का महत्वपूर्ण स्थान दिया है । पौधों में तुलसी , दूबी ,भ्टंगराज , पान , लवंग , इलाईची , सेव , निंबू , पपीता , केला तथा
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें