मन की गति के प्रति ध्यान से उपलब्ध ज्योति को प्रकाश की ओर अग्रसर होने की प्रक्रिया मगध ज्योति है। विश्व , भारतीय और मागधीय सांस्कृतिक, सामाजिक , शैक्षणिक तथा पुरातात्विक महत्व की चेतना को जागृत करना मगध ज्योति है ।
मंगलवार, मार्च 28, 2023
शांति और सद्भाव है अशोकाष्ठमी...
सोमवार, मार्च 20, 2023
ज्ञान और मोक्ष की भूमि है बिहार...
बुधवार, मार्च 15, 2023
आध्यामिक चेतना के संत राधाबाबा....
क्रांति और भक्ति के साधक राधा बाबा के नाम से विख्यात श्री चक्रधर मिश्र का जन्म बिहार राज्य का अरवल जिले के अरवल प्रखंडान्तर्गत फखरपुर में 1913 ई. की पौष शुक्ल नवमी को शाकद्वीपीय ब्राह्मण परिवार में हुआ था। 1928 में गांधी जी के आह्वान पर गया के सरकारी विद्यालय में उन्होंने यूनियन जैक उतार कर तिरंगा फहरा दिया था। शासन विरोधी भाषण के आरोप में उन्हें छह माह के लिए कारावास में रहना पड़ा।गया में जेल अधीक्षक एक अंग्रेज था। सब उसे झुककर ‘सलाम साहब’ कहते थे; पर इन्होंने ऐसा नहीं किया। अतः इन्हें बुरी तरह पीटा गया। जेल से आकर ये क्रांतिकारी गतिविधियों में जुट गये। गया में राजा साहब की हवेली में इनका गुप्त ठिकाना था। एक बार पुलिस ने वहां से इन्हें कई साथियों के साथ पकड़ कर ‘गया षड्यन्त्र केस’ में कारागार में बंद कर दिया। जेल में बंदियों को रामायण और महाभारत की कथा सुनाकर वे सबमें देशभक्ति का भाव भरने लगे। इन्हें तनहाई में डालकर अमानवीय यातनाएं दी गयीं; पर ये झुके नहीं। जेल से छूटकर इन्होंने कथाओं के माध्यम से धन संग्रह कर स्वाधीनता सेनानियों के परिवारों की सहायता की। जेल में कई बार हुई दिव्य अनुभूतियों से प्रेरित होकर उन्होंने 1936 में शरद पूर्णिमा पर संन्यास ले लिया। कोलकाता में उनकी भेंट स्वामी रामसुखदास जी एवं सेठ जयदयाल गोयन्दका जी से हुई। उनके आग्रह पर वे गीता वाटिका, गोरखपुर में रहकर गीता पर टीका लिखने लगे। गोरखपुर ( उतरप्रदेश ) के गीता प्रेस से प्रकाशित कल्याण के संपादक भाई जी श्री हनुमान प्रसाद पोद्दार जी से हुई भेंट से उनके मन की अनेक शंकाओं का समाधान हुआ। इसके बाद वे भाई जी के परम भक्त बन गये। गीता पर टीका पूर्ण होने के बाद वे वृन्दावन जाना चाहते थे; पर सेठ गोयन्दका जी एवं भाई जी की इच्छा थी कि राधा बाबा के साथ हिन्दू धर्मग्रन्थों के प्रचार-प्रसार में योगदान दें। भाई जी के प्रति अनन्य श्रद्धा होने के कारण उन्होंने यह बात मान ली। 1939 में उन्होेंने शेष जीवन भाई जी के सान्निध्य में बिताने तथा आजीवन उनके चितास्थान के समीप रहने का संकल्प लिया।बाबा का श्रीराधा माधव के प्रति अत्यधिक अनुराग था। समाधि अवस्था में वे नित्य श्रीकृष्ण के साथ लीला विहार करते थे। हर समय श्री राधा जी के नामाश्रय में रहने से उनका नाम ‘राधा बाबा’ पड़ गया। 1951 की अक्षय तृतीया को भगवती त्रिपुर सुंदरी ने उन्हें दर्शन देकर निज मंत्र प्रदान किया। 1956 की शरद पूर्णिमा पर उन्होंने काष्ठ मौन का कठोर व्रत लिया।बाबा का ध्यान अध्यात्म साधना के साथ ही समाज सेवा की ओर भी था। उनकी प्रेरणा से निर्मित हनुमान प्रसाद पोद्दार कैंसर अस्पताल से हर दिन सैंकड़ों रोगी लाभ उठा रहे हैं। 26 अगस्त, 1976 को भाई जी के स्मारक का निर्माण कार्य पूरा हुआ। गीता वाटिका में श्री राधाकृष्ण साधना मंदिर भक्तों के आकर्षण का प्रमुख केन्द्र है। इसके अतिरिक्त भक्ति साहित्य का प्रचुर मात्रा में निर्माण, अनाथों को आश्रय, अभावग्रस्तों की सहायता, साधकों का मार्गदर्शन, गोसंरक्षण आदि अनेक सेवा कार्य बाबा की प्रेरणा से 1971 में भाई जी के देहांत के बाद बाबा उनकी चितास्थली के पास एक वृक्ष के नीचे रहने लगे। 13 अक्तूबर, 1992 को गीता वाटिका गोरखपुर में राधा बाबा की आत्मा सदा के लिए श्री राधा जी के चरणों में लीन हो गयी। यहां बाबा का एक सुंदर श्रीविग्रह विराजित है, जिसकी प्रतिदिन विधिपूर्वक पूजा होती है।
श्रीचक्रधर मिश्र विद्यार्थी जीवन में सभी उनकी प्रतिभा के कायल थे। नेतृत्व की अद्भुत क्षमता रखने वाले चक्रधर ने आठवीं कक्षा के बाद भारत को अंग्रेजी-पाश से मुक्त कराने के लिए राजनैतिक कार्यक्रमों में भाग लेना आरंभ कर दिया। हालांकि इस क्रम में उन्हें दो बार जेल यात्रा भी करनी पड़ी।जेल से बाहर आने के बाद स्वाध्याय करते-करते उनका झुकाव वेदांत की ओर होने लगा और वह शांकर मतानुयायी हो गए। जब वह इंटर कक्षा के विद्यार्थी थे, तभी शारदीय पूर्णिमा के दिन संन्यास ले लिया। अपनी ब्राšाी स्थिति की परीक्षा लेने के लिए वह कलकत्ते में गंगा के किनारे कुष्ठ रोगियों के बीच बैठने लगे।एक बार कलकत्ते में उनकी मुलाकात श्रीरामसुखदासजी महाराज से हुई और उनके माध्यम से वह सेठ श्री जयदयाल जी से मिले। उनकी निष्ठा एकमात्र निराकार में थी। जयदयाल जी गयंदका के परामर्श से बाबा गोरखपुर आकर गीताप्रेस और फिर गीतावाटिका गए। गोरखपुर की गीतावाटिका में हनुमान प्रसाद पोद्दार जी के साथ स्वामीजी रहा करते थे। स्वामी जी आगे चलकर श्री राधा बाबा के नाम से विख्यात हुए। कहते हैं कि बाबा को अद्वैत तत्व की साधना करते हुए सिद्धि मिली। श्रीराधा बाबा के नयनों में, प्राणों में, रोम-रोम में श्री राधारानी बसी हुई थीं। उनका मन नित्य वृन्दावनी-लीला में रमा रहता था। श्रीराधामाधव की प्रीति के साकार स्वरूप बाबा सदा नि:स्पृह भाव से जनसेवा में लीन रहते थे। गीतावाटिका में विख्यात श्रीराधाष्टमी महोत्सव का शुभारंभ राधाबाबा ने ही किया। उन्होंने श्रीकृष्णलीला चिंतन,जय-जय प्रियतम,प्रेम सत्संग सुधा माला आदि शीर्षकों से साहित्य का प्रणयन भी किया। बाबा अपनी साधनावस्था में प्रतिदिन तीन लाख नाम जप किया करते थे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे। हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे-इसकी 64 माला जप करने से एक लाख नाम जप होता है। इसके अतिरिक्त उन्होंने अनेक बार श्रीमद्भागवतमहापुराण का अखंड पाठ किया। राधा बाबा 13 अक्टूबर, 1992 को सदा के लिए अंतर्हित हो गए। बाबा का सुंदर एवं प्रेरक श्रीविग्रह गीतावाटिका के नेह-निकुंज में प्रतिष्ठित है ।
श्रीचक्रधर मिश्र विद्यार्थी जीवन में सभी उनकी प्रतिभा के कायल थे। नेतृत्व की अद्भुत क्षमता रखने वाले चक्रधर ने आठवीं कक्षा के बाद भारत को अंग्रेजी-पाश से मुक्त कराने के लिए राजनैतिक कार्यक्रमों में भाग लेना आरंभ कर दिया। हालांकि इस क्रम में उन्हें दो बार जेल यात्रा भी करनी पड़ी।जेल से बाहर आने के बाद स्वाध्याय करते-करते उनका झुकाव वेदांत की ओर होने लगा और वह शांकर मतानुयायी हो गए। जब वह इंटर कक्षा के विद्यार्थी थे, तभी शारदीय पूर्णिमा के दिन संन्यास ले लिया। अपनी ब्राšाी स्थिति की परीक्षा लेने के लिए वह कलकत्ते में गंगा के किनारे कुष्ठ रोगियों के बीच बैठने लगे। एक बार कलकत्ते में उनकी मुलाकात श्रीरामसुखदासजी महाराज से हुई और उनके माध्यम से वह सेठ श्री जयदयाल जी से मिले। उनकी निष्ठा एकमात्र निराकार में थी। जयदयाल जी के परामर्श से बाबा गोरखपुर आकर गीताप्रेस और फिर गीतावाटिका गए। गोरखपुर की गीतावाटिका में हनुमान प्रसाद पोद्दार जी के साथ स्वामीजी रहा करते थे। स्वामी जी आगे चलकर श्री राधा बाबा के नाम से विख्यात हुए। राधा बाबा को अद्वैत तत्व की साधना से सिद्धि प्राप्त हुई थी । बाबा के नयनों में, प्राणों में, रोम-रोम में श्री राधारानी बसी तथा मन नित्य वृन्दावनी-लीला में रमा रहता था। श्रीराधामाधव की प्रीति के साकार स्वरूप बाबा सदा नि:स्पृह भाव से जनसेवा में लीन रहते थे। गीतावाटिका में विख्यात श्रीराधाष्टमी महोत्सव का शुभारंभ राधाबाबा द्वारा प्रारंभ किया गया था ।
विश्व में आध्यात्मिक एवं सांस्कृतिक धरोहर, धार्मिक प्रवृत्ति एवं परम्पराओं के संरक्षण एवं संवर्धन तथा प्रचार-प्रसार के लिए समय-समय पर महान संतों-विभूतियों का अविर्भाव होता रहा है। भारतीय विभूतियों की पावन श्रृंखला में गोरखपुर का "कल्याण" के सम्पादक हनुमान प्रसाद पोद्दार एवं नित्य जीवन सहचर "प्रीतिरसावतार" राधा बाबा थे ।राधा बाबा का बचपन का नाम चक्रधर मिश्र था। उनके परिवार का पालन-पोषण पौरोहित्य कार्य से होता था। बालक चक्रधर की विशिष्ट योग्यता के बारे में अध्यापकों को प्रारंभ में ही ज्ञान हो गया था। आठवीं कक्षा उत्तीर्ण करने के बाद भारत माता को अंग्रेजी पाश से मुक्त कराने के लिए उन्होंने आंदोलन में भाग लेना शुरू कर दिया। इस कारण दो बार जेल-यात्रा करनी पड़ी। जेल का जेलर बड़ा क्रूर था। उन कठोर यातनाओं के मध्य उन्हें कई बार भगवत्कृपा की विशिष्टानुभूति हुई। इन दिव्य अनुभूतियों ने बालक चक्रधर के मन में प्रेरणा जगा दी कि जेल से बाहर आने के बाद भगवदीय जीवन व्यतीत करना है।जेल से बाहर आने के बाद उनके बड़े भाइयों ने उन्हें आगे के अध्ययन के लिए कलकत्ता बुला लिया। वहां स्कूली अध्ययन के साथ उनका स्वाध्याय भी होता रहता था। स्वाध्याय करते-करते उनके मन का झुकाव वेदान्त की ओर होने लगा और आप शांकरमतानुयायी हो गए। जब वे इण्टर कक्षा के विद्यार्थी थे, तब भगवदीय प्रेरणा से शारदीय पूर्णिमा के दिन उन्होंने संन्यास ले लिया। इससे उनके परिजनों को मर्मान्तक पीड़ा हुई, परन्तु सब जानते थे कि चक्रधर अपने निश्चय से डिगने वाला नहीं है।इण्टर की परीक्षा देकर वे एकान्त वास के लिए अज्ञात स्थान पर चले गए। वहां कठिन साधना की। फलस्वरूप उन्हें शीघ्र ही सिद्धि मिलने के पश्चात कलकत्ता लौट आए थे । एक दिन जब वे कलकत्ता के गोविन्द भवन में पूज्य रामसुखदास जी महाराज से सम्पर्क हुआ था । रामसुख दास के माध्यम से सेठ जयदयाल गोयन्दका जी से मिलन हुआ। सेठजी साकार एवं निराकार-दोनों प्रकार की निष्ठाओं के विश्वासी तथा बाबा की निष्ठा निराकार में थी। कई दिनों तक पारस्परिक विचार-विनिमय हुआ परन्तु सेठजी चक्रधर बाबा की विचारधारा में परिवर्तन नहीं ला सके। फिर भी यह तय हुआ कि श्रीमद् भागवत् पर टीका-लेखन का कार्य गोरखपुर की गीताप्रेस से हो। अत: सेठजी के परामर्श के अनुसार चक्रधर बाबा गोरखपुर की गीता वाटिका गए। उस समय गीता वाटिका में एक वर्षीय अखण्ड भगवन्नाम-संकीर्तन का भव्यानुष्ठान चल रहा था। वहां बाबू जी (हनुमान प्रसाद पोद्दार)आए और उन्होंने गैरिक वस्त्रधारी युवक संन्यासी के चरण छूकर प्रणाम किया। इस प्रणाम का चमत्कार अनोखा था। सेठ जयदयाल जी के साथ कई दिवस विचार-विनिमय के उपरान्त भी जो परावर्तन नहीं हो पाया, वह कार्य इस क्षणिक स्पर्श ने कर दिखाया। निराकार निष्ठा तिरोहित हो गयी और साकारोपासना का बीजारोपण इस युवा संन्यासी चक्रधर बाबा के अन्तर में हो गया।राधा बाबा सन् 1939 तक सेठ जयदयाल जी के साथ रहे और टीका-लेखन का कार्य पूर्ण हो गया। प्रश्न था कि बाबा अब कहां रहें। बाबा की चाह थी कि संन्यास का व्रत लेकर श्री वृन्दावन धाम में वास किया जाए और सेठ जी चाहते थे कि बाबा उनके साथ रहें, जिससे चारों दिशाओं में श्रीमद् भागवत का प्रचार-प्रसार हो सके। इस बीच भगवान श्रीकृष्ण द्वारा दी गई अन्त: प्रेरणा से 11 मई, 1939 को कलकत्ता में गंगा का जल हाथ में लेकर चक्रधर बाबा ने संकल्प लिया कि अब मैं भविष्य में बाबूजी अर्थात् श्री हनुमान प्रसाद पोद्दार जी के साथ रहूंगा। इस संकल्प का एक उप-संकल्प भी था कि जहां बाबूजी की चिता जलेगी, उसी स्थान के समीप अपना जीवन व्यतीत कर दूंगा। पूज्य बाबूजी (श्रद्धेय हनुमान प्रसाद पोद्दार) गीता वाटिका में रहा करते थे। चक्रधर बाबा भी बाबूजी के साथ रहने लगे थे। बाबा भगवद् भाव राज्य में प्रवेश करके अपने प्रियतम श्रीकृष्ण के साथ नित्य लीला-विहार किया करते थे। बाबा के अन्तर में प्रेम का स्रोत निरन्तर प्रवाहित रहता था। पहले वे कट्टर वेदान्ती थे। अद्वैत तत्व की साधना करते समय उन्हें सिद्धि मिली थी। और अब ब्राहृस्वरूप होकर ब्राहृसायुज्य की स्थिति को भी उन्होंने प्राप्त कर लिया। बाबा के नयनों में, ह्मदय में, प्राणों में, रोम-रोम में श्रीराधारानी छायी हुई थीं। सन् 1951 की अक्षय तृतीया के दिन राधा बाबा को भगवती श्रीत्रिपुरसुन्दरी जी ने दर्शन देकर निज मंत्र का दान दिया। सन् 1956 की शरद पूर्णिमा के दिन उन्होंने काष्ठ-मौन का कठोर व्रत लिया। श्रीराधा भाव मधुरोपासना और सन् 1957 के 8 अप्रैल को बाबा की श्रीराधा भाव में प्रतिष्ठा हुई। श्री राधाभाव में प्रतिष्ठा होने से और श्रीराधा नाम का आश्रय लेने से आप "राधा बाबा" के नाम से विख्यात हुए।राधा बाबा की प्रेरणा से 16 फरवरी, 1975 को हनुमान प्रसाद पोद्दार कैन्सर अस्पताल की स्थापना का संकल्प लिया गया, जहां आज भी अनेक रोगी चिकित्सा लाभ प्राप्त कर रहे हैं। आपके ही संकल्प से 26 अगस्त, 1976 को बाबू जी के स्मारक के निर्माण का कार्य पूर्ण हुआ। सबसे अधिक महत्वपूर्ण आपका कार्य है गीता वाटिका में श्रीराधाकृष्ण साधना मन्दिर, जो भक्तजनों के आकर्षण का केन्द्र है। इस मन्दिर के श्री विग्रहों में प्राण-प्रतिष्ठा का कार्य राधा बाबा की देख-रेख में सन् 1985 में सम्पन्न हुआ। इसके अतिरिक्त "श्रीकृष्णलीला-चिन्तन", "जय-जय प्रियतम", "प्रेम-सत्संग-सुधा-माला", आदि-आदि नव साहित्य का प्रणयन, आत्र्तजनों को आश्रय, अभावग्रस्तों को आश्वासन, साधकों का मार्ग प्रदर्शन, गोमाता का संरक्षण आदि अनेक-अनेक ऐतिहासिक कार्य आपके द्वारा सम्पन्न होते रहे। श्री हनुमान प्रसाद पोद्दार ने अपनी जीवन लीला का संवरण सन् 1971 में किया। उनकी अन्तेष्टि गीता वाटिका में राधा बाबा की कुटिया के पास ही हुई। बाबा ने कुटिया के आवास को विसर्जित कर दिया और चितास्थली के समक्ष एक विशाल वृक्ष के नीचे अपना आसन लगाया। इस स्थान पर बाबा अपने तिरोहण, सन् 1992 तक नित्य विराजित रहे। श्रीराधाभाव के मूर्तिमान स्वरूप राधा बाबा 13 अक्तूबर, 1992 को हम सभी से सदा के लिए विदा लेकर अन्तर्हित हो गए। उत्तरप्रदेश के गोरखपुर स्थित गीता वाटिका परिसर में राधा बाबा का मंदिर , गिरिराज परिसर और भाई जी हनुमानप्रसाद पोद्दार का समाधिस्थल आध्यत्मिक और शांति महास्थल है ।
बुधवार, मार्च 08, 2023
महिला सशक्तिकरण का द्योतक है महिला दिवस ....
महिला अधिकार आंदोलन के केंद्र बिंदु और लैंगिक समानता , प्रजनन अधिकार और महिलाओं के खिलाफ हिंसा और दुर्व्यवहार मुद्दों पर ध्यान का केंद्र विंदु अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस है । जर्मन साम्राज्य द्वारा 8 मार्च, 1914 को अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस के लिए जर्मन पोस्टर पर प्रतिबंध लगा दिया गया था । सार्वभौमिक महिला का मताधिकार आंदोलन द्वारा प्रेरित न्यूजीलैंड में प्रारम्भ इंटरनेशनल वोमेन डे तथा 20वीं सदी की शुरुआत में उत्तरी अमेरिका और यूरोप में श्रमिक आंदोलनों से हुई थी। न्यूयॉर्क शहर में सोशलिस्ट पार्टी ऑफ अमेरिका द्वारा 28 फरवरी 1909 ई. को "महिला दिवस" आयोजित था। अंतर्राष्ट्रीय समाजवादी महिला सम्मेलन में जर्मन प्रतिनिधियों को 1910 ई. में प्रस्तावित करने के लिए प्रेरित किया। यूरोप में अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस का पहला प्रदर्शन और स्मरणोत्सव के रूप में इंटरनेशनल वोमेन डे 8 मार्च 1917 को राष्ट्रीय अवकाश घोषित किया गया था । 1960 के दशक के उत्तरार्ध में वैश्विक नारीवादी आंदोलन द्वारा अपनाए जाने तक अवकाश आंदोलनों और सरकारों से जुड़ा था। 1977 में संयुक्त राष्ट्र द्वारा 1977 ई. में महिला दिवस अपनाए जाने के बाद अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस मुख्यधारा का वैश्विक अवकाश बन गया है। संयुक्त राष्ट्र महिलाओं के अधिकारों में मुद्दे, अभियान या विषय के संबंध में छुट्टी मनाता है। विश्व में ?महिला दिवस राजनीतिक उत्पत्ति दर्शाता है । सोशलिस्ट पार्टी ऑफ अमेरिका द्वारा 28 फरवरी 1909 ई. को कार्यकर्ता थेरेसा मल्कील के सुझाव पर न्यूयॉर्क शहर में आयोजित किया गया था । 8 मार्च, 1857 को न्यूयॉर्क में महिला परिधान श्रमिकों द्वारा एक विरोध प्रदर्शन की याद में मनाया गया था । कोपेनहेगन, डेनमार्क मेंसोशलिस्ट सेकेंड इंटरनेशनल की आम बैठक से पूर्व अगस्त 1910 में अंतर्राष्ट्रीय समाजवादी महिला सम्मेलन आयोजित किया गया था। अमेरिकी समाजवादियों से प्रेरित होकर, जर्मन प्रतिनिधियों क्लारा ज़ेटकिन , केट डनकर , पाउला थिएडे और वार्षिक "महिला दिवस" की स्थापना का प्रस्ताव रखा था । 17 देशों के 100 प्रतिनिधियों ने महिलाओं के मताधिकार सहित समान अधिकारों को बढ़ावा देने की रणनीति के विचार के साथ सहमति व्यक्त की थी । 19 मार्च, 1911 को ऑस्ट्रिया, डेनमार्क, जर्मनी और स्विट्ज़रलैंड में दस लाख से अधिक लोगों ने पहला अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस मनाया। ऑस्ट्रिया-हंगरी में, प्रदर्शन हुए, पेरिस कम्यून के शहीदों के सम्मान में बैनर लेकर विएना में रिंगस्ट्रैस पर परेड करने वाली महिलाओं के साथ यूरोप में, महिलाओं ने सक्रिय भूमिका निभाई थी । भारतीय राष्ट्रीय महिला दिवस व इंडियन नेशनल वोमेन्स डे 13 फरवरी को सरोजिनी नायडू की जयंती के उपलक्ष्य में मनाया जाता है। हैदराबाद में जन्मी और कैब्रिज में शिक्षित महिलाओं की शक्तिशाली नेत्री सरोजनी नायडू का जन्म 13 फरवरी, 1879 को हुआ था। ‘नाइटिंगेल ऑफ इंडिया ’ या ‘भारत कोकिला ’ सरोजिनी नायडू को साहित्य में योगदान में जाना जाता है। साम्राज्यवाद-विरोधी, सार्वभौमिक मताधिकार, महिला अधिकार कार्यकर्ता श्रीमती नायडू ने भारत में महिला आंदोलनों का मार्ग प्रशस्त किया।। 1925 में सरोजिनी नायडू भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की अध्यक्ष एवं 1947 में संयुक्त प्रांत में राज्यपाल और भारत के डोमिनियन में राज्यपाल का पद संभालने वाली पहली महिला थी । महिलाओं के अधिकारों, मताधिकार और संगठनों और विधानसभाओं में प्रतिनिधित्व के लिए 1917 में महिला भारत संघ की स्थापना की थी । दिवस स्थापना महासभा के 2007 का संकल्प संख्या 62 / 136 के अनुसार अंतरराष्ट्रीय ग्रामीण महिला दिवस प्रत्येक वर्ष 15 अगस्त को मनाया जाता है । महिला गण के 1995 में आंदोलन के पश्चात 15 अक्टूबर 2008 को प्रथम बार अंतर्राष्ट्रीय ग्रामीण महिला दिवस मनाया गया था । न्यूयॉर्क में 8 मार्च 1908 को महिलाओं द्वारा मताधिकार के लिए रैली , सोसलिस्ट पार्टी ऑफ अमेरिका द्वारा थेरेसा मल्किल के प्रस्ताव पर 28 फरवरी 1909 को राष्ट्रीय महिला दिवस , वोलिटीकेन के अनुसार 1908 में शिकागो में प्रथम महिला दिवस ,संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा 8 मार्च 1975 को अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस की मनाए जाने की स्वीकृति दी थी । महिलाओं में शैशवावस्था ,यौवन ,यौनप्रिपक्वता ,क्लीमेक्ट्रिक और पोस्ट क्लीमेंक्टेरिक है । वेदों , स्मृति ग्रंथों में महिलाओं नारी की महत्वपूर्ण प्रधानता का उल्लेख मिलता है ।
गुरुवार, मार्च 02, 2023
प्रेम और सद्भावना का मिलन है होलिकोत्सव....
वेदों स्मृतियों और संहिताओं में होली का उल्लेख है । भक्ति, प्रेम , सच्चाई के प्रति आस्था और मनोरंजन का पर्व होली विश्व में मनाया जाता है । होली में यूनिवर्सिटी ऑफ़ न्यू मेक्सिको में रंग खेलते विद्यार्थी है । नेपाल में होली के अवसर पर काठमांडू में एक सप्ताह के लिए दरबार और नारायणहिटी दरबार में बाँस का स्तम्भ गाड़ कर आधिकारिक रूप से होली के आगमन की सूचना दी जाती है। पाकिस्तान, बंगलादेश, श्री लंका और मरिशस , कैरिबियाई देशों में फगुआ धूमधामसे होली का त्यौहार मनाया जाता है। १९वीं सदी के आखिरी और २०वीं सदी के प्रारम्भ में भारतीय मजदूरी करने के लिए कैरिबियाई देश गए थे। इस दरम्यान गुआना और सुरिनाम तथा ट्रिनीडाड देशों में भारतीय जा बसे। फगुआ गुआना और सूरीनाम , गुआना में होली के दिन राष्ट्रीय अवकाश रहता है । लड़कियों और लड़कों को रंगीन पाउडर और पानी के साथ खेलते है। गुआना , कैरिबियाई देशों में हिंदू संगठन और सांस्कृतिक संगठन नृत्य, संगीत और सांस्कृतिक उत्सवों के ज़रिए फगुआ मनाते हैं। ट्रिनीडाड एंड टोबैगो , विदेशी विश्वविद्यालयों में होली का आयोजन होता रहा है। विलबर फ़ोर्ड के स्टैनफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी कैंपस और रिचमंड हिल्स में होली मनाया जाता हैं। मुगल बादशाहों में अकबर, हुमायूँ, जहाँगीर, शाहजहाँ और बहादुरशाह ज़फर होली के आगमन से बहुत पहले ही रंगोत्सव की तैयारियाँ प्रारंभ करवा देते थे। अकबर के महल में सोने चाँदी के बड़े-बड़े बर्तनों में केवड़े और केसर से युक्त टेसू का रंग घोला जाता था और राजा अपनी बेगम और हरम की सुंदरियों के साथ होली खेलते थे। शाम को महल में उम्दा ठंडाई, मिठाई और पान इलायची से मेहमानों का स्वागत किया जाता था और मुशायरे, कव्वालियों और नृत्य-गानों की महफ़िलें जमती थीं। जहाँगीर के समय में महफ़िल-ए-होली का भव्य कार्यक्रम आयोजित होता था। शाहजहाँ होली को 'ईद गुलाबी' के रूप में धूमधाम से मनाता था। बहादुरशाह ज़फर होली खेलने के बहुत शौकीन थे और होली को लेकर सरस काव्य रचनाएँ हैं। मुगल काल में होली के अवसर पर लाल किले के पिछवाड़े यमुना नदी के किनारे आम के बाग में होली के मेले लगते थे। मुगल शैली के एक चित्र में औरंगजेब के सेनापति शायस्ता खाँ को होली खेलते हुए दिखाया गया है। बरसाने' की लठमार होली फाल्गुन मास की शुक्ल पक्ष की नवमी को मनाई जाती है। नंद गाँव के ग्वाल बाल होली खेलने के लिए राधा रानी के गाँव बरसाने जाते हैं और जम कर बरसती लाठियों के साए में होली खेली जाती है ।मथुरा से 54 किलोमीटर दूर कोसी शेरगढ़ मार्ग पर फालैन में एक पंडा मात्र एक अंगोछा शरीर पर धारण करके २०-२५ फुट घेरे वाली विशाल होली की धधकती आग में से निकल कर अथवा उसे फलांग कर दर्शकों में रोमांच पैदा करते हुए प्रह्लाद की याद करता है। मालवा में होली के दिन लोग एक दूसरे पर अंगारे फेंकते हैं। उनका विश्वास है कि इससे होलिका नामक राक्षसी का अंत हो जाता है। राजस्थान में होली के अवसर पर तमाशे की परंपरा है। मध्य प्रदेश के भील होली को भगौरिया कहते हैं। भील युवकों के लिए होली अपने लिए प्रेमिका को चुनकर भगा ले जाने का त्योहार है। होली से पूर्व हाट के अवसर पर हाथों में गुलाल लिए भील युवक 'मांदल' की थाप पर सामूहिक नृत्य करते हैं। बिहार में
होली खेलते समय सामान्य रूप से पुराने कपड़े पहने जाते हैं। होली खेलते समय लड़कों के झुंड में एक दूसरे का कुर्ता फाड़ देने की परंपरा है। होली का समापन रंग पंचमी के दिन मालवा और गोवा की शिमगो में वसंतोत्सव पूरा हो जाता है। तेरह अप्रैल को ही थाईलैंड में नव वर्ष 'सौंगक्रान' प्रारंभ में वृद्धजनों के हाथों इत्र मिश्रित जल डलवाकर आशीर्वाद लिया जाता है। लाओस में पर्व नववर्ष की खुशी के रूप में मनाया जाता है। म्यांमर में जल पर्व जाना जाता है। जर्मनी में ईस्टर के दिन घास का पुतला बनाकर जलाया जाता है। लोग एक दूसरे पर रंग डालते हैं। हंगरी का ईस्टर होली है। अफ्रीका में 'ओमेना वोंगा' मनाया जाता है। ओमेना वोंगा अन्यायी राजा को लोगों ने ज़िंदा जला डाला था। वोमेना वोंगा का पुतला जलाकर नाच गाने से अपनी प्रसन्नता व्यक्त करते हैं। अफ्रीका में सोलह मार्च को सूर्य का जन्म दिन मनाया जाता है। पोलैंड में 'आर्सिना' पर लोग एक दूसरे पर रंग और गुलाल मलते हैं। यह रंग फूलों से निर्मित होने के कारण काफ़ी सुगंधित होता है। अमरीका में 'मेडफो' पर्व मनाने के लिए लोग नदी के किनारे एकत्र होकर गोबर तथा कीचड़ से बने गोलों से एक दूसरे पर आक्रमण करते हैं। ३१ अक्टूबर को अमरीका में सूर्य पूजा होबो की होली मनाया जाता है। चेक और स्लोवाक क्षेत्र में बोलिया कोनेन्से त्योहार पर युवा लड़के-लड़कियाँ एक दूसरे पर पानी एवं इत्र डालते हैं। हालैंड का कार्निवल होली सी मस्ती का पर्व है। बेल्जियम की होली भारत सरीखी होती है और लोग इसे मूर्ख दिवस के रूप में मनाते हैं। यहाँ पुराने जूतों की होली जलाई जाती है। इटली में रेडिका त्योहार फरवरी के महीने में एक सप्ताह तक हर्षोल्लास से मनाया जाता है। लकड़ियों के ढेर चौराहों पर जलाए जाते हैं। लोग अग्नि की परिक्रमा करके आतिशबाजी करते हैं। एक दूसरे को गुलाल भी लगाते हैं। रोम में इसे सेंटरनेविया कहते हैं तो यूनान में मेपोल। ग्रीस का लव ऐपल होली भी प्रसिद्ध है। स्पेन में भी लाखों टन टमाटर एक दूसरे को मार कर होली खेली जाती है। जापान में १६ अगस्त रात्रि को टेमोंजी ओकुरिबी नामक पर्व पर तेज़ आग जला कर यह त्योहार मनाया जाता है। चीन में होली की शैली का त्योहार च्वेजे पंद्रह दिन तक मनाया जाता है। लोग आग से खेलते हैं और अच्छे परिधानों में सज धज कर परस्पर गले मिलते हैं। साईबेरिया में घास फूस और लकड़ी से होलिका दहन है। नार्वे और स्वीडन में सेंट जान का पवित्र दिन होली है। शाम को किसी पहाड़ी पर होलिका दहन की भाँति लकड़ी जला कर के चारों ओर नाचते गाते परिक्रमा करते हैं। इंग्लैंड में मार्च के अंतिम दिनों में मित्रों और संबंधियों को रंग भेंट करते हैं । वसंत ऋतु में मनाया जाने वाला एक महत्वपूर्ण भारतीय और नेपाली लोगों का त्यौहार होली है। विक्रम संवत के अनुसार फाल्गुन मास की पूर्णिमा को मनाया जाता है। वसंत की ऋतु में हर्षोल्लास के साथ मनाए जाने के कारण होली को वसंतोत्सव, कामोत्सव एवं रतिउत्सव -महोत्सव कहा गया है। आर्यों में जैमिनी के पूर्व मीमांसा-सूत्र और कथा गार्ह्य-सूत्र , नारद पुराण औऱ भविष्य पुराण में होली पर्व का उल्लेख मिलता है। विंध्य क्षेत्र के रामगढ़ स्थान पर स्थित ईसा से ३०० वर्ष का अभिलेख तथा संस्कृत साहित्य में वसन्त ऋतु और वसन्तोत्सव कवियों के प्रिय विषय रहे हैं। मुस्लिम पर्यटक अलबरूनी ने यात्रा संस्मरण में होलिकोत्सव का वर्णन किया है। अकबर का जोधाबाई के साथ तथा जहाँगीर का नूरजहाँ के साथ होली खेलने का वर्णन मिलता है। शाहजहाँ काल में होली को ईद-ए-गुलाबी या आब-ए-पाशी (रंगों की बौछार) कहा जाता था । मुगल बादशाह बहादुर शाह ज़फ़र के बारे में प्रसिद्ध है कि होली पर उनके मंत्री उन्हें रंग लगाने जाया करते थे । विजयनगर की राजधानी हंपी के १६वी शताब्दी की अहमदनगर की वसंत रागिनी है। पुरणों के अनुसार दैत्यराज हिरण्यकश्यप अपनी पूजा करने को कहता था ।उसका पुत्र प्रह्लाद भगवान विष्णु का उपासक भक्त था। हिरण्यकश्यप ने भक्त प्रहलाद को बुलाकर राम का नाम न जपने को कहा तो प्रहलाद ने स्पष्ट रूप से कहा, पिताजी! परमात्मा ही समर्थ है। प्रत्येक कष्ट से परमात्मा ही बचा सकता है। मानव समर्थ नहीं है। यदि कोई भक्त साधना करके कुछ शक्ति परमात्मा से प्राप्त कर लेता है तो वह सामान्य व्यक्तियों में तो उत्तम हो जाता है, परंतु परमात्मा से उत्तम नहीं हो सकता। यह बात सुनकर अहंकारी हिरण्यकश्यप क्रोध से लाल पीला हो गया और नौकरों सिपाहियों से बोला कि इसको ले जाओ मेरी आँखों के सामने से और जंगल में सर्पों में डाल आओ। सर्प के डसने से यह मर जाएगा। ऐसा ही किया गया। परंतु प्रहलाद मरा नहीं, क्योंकि सर्पों ने डसा नहीं। होली पर्व राक्षसी ढुंढी, राधा कृष्ण के रास और कामदेव के पुनर्जन्म से जुड़ा है। होली में रंग लगाकर, नाच-गाकर लोग शिव के गणों का वेश धारण करते हैं तथा शिव की बारात का दृश्य बनाते हैं। भगवान श्रीकृष्ण ने द पूतना नामक राक्षसी का वध होने के कारण खु़शी में गोपियों और ग्वालों ने रासलीला की और रंग खेला था। वैदिक काल में होली पर्व को नवात्रैष्टि यज्ञ कहा जाता था। खेत के अधपके अन्न को यज्ञ में दान करके प्रसाद लेने का विधान समाज में व्याप्त था। अन्न को होला से होलिकोत्सव पड़ा है । भारतीय ज्योतिष के अनुसार चैत्र कृष्ण प्रतिपदा के दिन से नववर्ष का आरंभ माना जाता है। पर्व नवसंवत का आरंभ तथा वसंतागमन का प्रतीक है। प्रथम पुरुष मनु का जन्म होने के कारण मन्वादितिथि हैं। फाल्गुन शुक्लपक्ष पूर्णिमा को होलिका की अग्नि इकट्ठी की जाती है। माघ शुक्लपक्ष पंचमी से होली की तैयारियाँ शुरू हो जाती हैं। होलिका दहन में चौराहों पर व जहाँ कहीं अग्नि के लिए लकड़ी एकत्र कर होली जलाई जाती है। होलिका में भरभोलिए जलाने की भी परंपरा है। भरभोलिए गाय के गोबर से बने उपले में छेद में मूँज की रस्सी डाल कर माला बनाई जाती है। एक माला में सात भरभोलिए होते हैं। होली में आग लगाने से पहले इस माला को भाइयों के सिर के ऊपर से सात बार घूमा कर फेंक दिया जाता है। रात को होलिका दहन के समय उपला की माला होलिका के साथ जलाकर होली के साथ भाइयों पर लगी बुरी नज़र भी जल जाए। लकड़ियों व उपलों से बनी इस होली का दोपहर से ही विधिवत पूजन आरंभ हो जाता है। घरों में बने पकवानों का यहाँ भोग लगाया जाता है । आग में नई फसल की गेहूँ की बालियों और चने के होले को भूना जाता है। होलिका का दहन समाज की समस्त बुराइयों के अंत का प्रतीक है। यह बुराइयों पर अच्छाइयों की विजय का सूचक है। बिहार , झारखंड में बाबा हरिहरनाथ , तेगबहादुर सिंह , बाबा वैद्यनाथ , बाबा दुग्धेश्वर नाथ आदि देवों की होली गाते हुए भगवान की उपासना क्रस्ट है । फाल्गुन शुक्लपक्ष पूर्णिमा को होलिका दहन के बाद चैत्र कृष्ण पक्ष प्रतिपदा को होली में रंग गुलाल , जल , मिट्टी जल मिश्रित , होलिका भष्म एक दूसरे पर लगाते है । होली कामदेव और रति का मिलान समारोह मानते है । प्रेम और भाईचारे का प्रतीक होली है ।
हालोष्टक के समय मुंडन, नामकरण, उपनयन, सगाई, विवाह आदि संस्कार और गृह प्रवेश, नए मकान, वाहन आदि की खरीदारी आदि शुभ कार्य तथा नई नौकरी या नया बिजनेस प्रारंभ नहीं करते है । शास्त्रों के अनुसार जिस क्षेत्र में होलिका दहन के लिए डंडा स्थापित होने से होलिका दहन तक कोई भी शुभ कार्य नहीं किया जाता है ।.इन दिनों गृह प्रवेश मुंडन संस्कार विवाह संबंधी वार्तालाप सगाई विवाह किसी नए कार्य नींव आदि रखने नया व्यवसाय आरंभ , मांगलिक कार्य आदि का आरंभ शुभ नहीं किया जाता है । हाेलिका दहन के समय पूर्व को हवा चलने से प्रजा को सुखी , दक्षिण में हवा चलने से दुर्योग , हवा पश्चिम में चलने से तृण वृद्धि एवं उत्तर में हवा चलने पर धन-धान्य की वृद्धि और सीधी लंबी लपटे आकाश की ओर उठने से जनप्रतिनिधियों को नुकसान पहुंचता है। ज्योतिषीय दृष्टि से समस्त काम्य अनुष्ठानो के लिऐ श्रेष्ठ है । होलिका दहन के आठ दिन पुर्व का समय होलाष्टक है । होलाष्टक में तंत्र व मंत्र की साधना पूर्ण फल प्राप्त होती है। अष्टमी को चन्द्र,नवमी को सूर्य,दशमी को शनि,एकादशी को शुक्र,द्वादशी को गुरू,त्रयोदशी को बुध,चतुदशर्शी को मंगल व पूर्णीमा को राहु उग्र होने से मनुष्य को शारिरीक व मानसिक क्षमता को प्रभावित और निर्णय व कार्य क्षमता को कमजोर करते है। अष्टमी को चंद्रमा नवमी को सूर्य दशमी को शनि एकादशी को शुक्र द्वादशी को गुरु त्रयोदशी को बुध चतुर्दशी को मंगल तथा पूर्णिमा को राहु उग्र स्वभाव के हो जाते हैं। ग्रहों के निर्बल होने से मानव मस्तिष्क की निर्णय क्षमता क्षीण और गलत फैसले लिए जाने के कारण हानि होने की संभावना रहती है। विज्ञान के अनुसार पूर्णिमा के दिन ज्वार भाटा सुनामी आपदा एवं पागल व्यक्ति और उग्र होता है। अष्ट ग्रह दैनिक कार्यकलापों पर विपरीत प्रभाव डालते हैं। 8 दिनों में मन में उल्लास लाने और वातावरण को जीवंत बनाने के लिए लाल या गुलाबी रंग का प्रयोग विभिन्न तरीकों से किया जाता है। लाल परिधान , लाल रंग मन में उत्साह उत्पन्न करता है । भगवान कृष्ण 8 दिनों में गोपियों संग होली खेलते रहे और अंततः होली में रंगे लाल वस्त्रों को अग्नि को समर्पित कर दिया। होली मनोभावों की अभिव्यक्ति का पर्व है । भगवान शिवजी ने अपनी तपस्या भंग करने का प्रयास करने पर प्रेम के देवता कामदेव को फाल्गुन शुक्ल अष्टमी तिथि को भस्म कर दिया था, जिसके बाद संसार में शोक की लहर फैल गई थी । इसके बाद कामदेव की पत्नी रति द्वारा भगवान शिव से क्षमायाचना की गई तब शिवजी ने कामदेव को पुनर्जीवन प्रदान करने का आश्वासन दिया । भगवान हरिभक्त प्रह्लाद को दैत्य राज हिरण्यकश्यप द्वारा फाल्गुन शुक्ल अष्टमी से पूर्णिमा तक अनेक यातनाएं दी गयी और अंत में पूर्णिमा को होलिका जल गई भक्त प्रह्लाद जीवित हो कर प्रेम और हरि भक्ति हुए । होलाष्टक का अंत धुलेंडी के साथ होली होती है । होलाष्टक मे मनुष्य को अधिक से अधिक देव व इष्ट आराधना व मंत्र साधना करनी चाहिऐ।इस समय तंत्र क्रिया करने वाले जातको को विशेष उर्जा प्राप्त होती है।। जातको को राहु,मंगल,शनि या सूर्य की महादशा चल रही है या ये ग्रह शुभ नही है,इनके शत्रु ग्रह 4, 8 , 12 मे अस्त या वक्री होने पर उन्हे काफी कष्ट भोगना पडता है । जातक महामृत्युंजय जाप,नारायण कवच,दुर्गासप्तशति या सुन्दरकाण्ड का पाठ करे या योग्य ब्राह्मण से करवाने से सर्वाधिक चेतन शक्ति जगृत होती है ।