रविवार, मई 11, 2025

सत्य , अहिंसा का प्रतीक भगवान बुद्ध

बुद्ध पूर्णिमा: सत्य, सहिष्णुता और अहिंसा के प्रणेता भगवान बुद्ध
 - सत्येन्द्र कुमार पाठक
 बुद्ध  सत्य, सहिष्णुता, अहिंसा और अष्टांग योग का प्रणेता बताया। उन्होंने बुद्ध पूर्णिमा के महत्व पर प्रकाश डालते हुए कहा कि यह महत्वपूर्ण बौद्ध त्योहार गौतम बुद्ध के जन्म, ज्ञान प्राप्ति और महापरिनिर्वाण के स्मरण में मनाया जाता है। वैशाख माह की पूर्णिमा को मनाए जाने वाले इस पवित्र दिन पर, बौद्ध धर्म के अनुयायी विभिन्न धार्मिक गतिविधियों में भाग लेते हैं। इनमें बुद्ध की पूजा-अर्चना, बौद्ध ग्रंथों का पाठ, दीप जलाना और फूलों से सजावट प्रमुख हैं। बोधिवृक्ष की पूजा का भी इस दिन विशेष महत्व है। इसके अतिरिक्त, अनुयायी गरीबों को दान देते हैं और पक्षियों को मुक्त करते हैं, जो करुणा और जीवदया के बौद्ध मूल्यों को दर्शाता है। सत्येन्द्र कुमार पाठक ने गौतम बुद्ध के जीवन से जुड़े महत्वपूर्ण स्थलों का भी उल्लेख किया, जिनका बौद्ध धर्म में गहरा महत्व है। ये स्थल बौद्ध अनुयायियों के लिए पवित्र तीर्थ माने जाते है ।उन्होंने भगवान बुद्ध के जीवन की महत्वपूर्ण घटनाओं का भी स्मरण कराया, जिनका संबंध वैशाख पूर्णिमा से है: भगवान बुद्ध का जन्म: 563 ईसा पूर्व, लुंबिनी, नेपाल , ज्ञान प्राप्ति: 531 ईसा पूर्व, बोधगया, बिहार, भारत , प्रथम उपदेश: 531 ईसा पूर्व, सारनाथ, उत्तर प्रदेश, भारत , महानिर्वाण: 483 ईसा पूर्व, कुशीनगर, उत्तर प्रदेश, भारत में हुआ है।  
बुद्ध पूर्णिमा, बौद्ध धर्म के अनुयायियों के लिए एक अत्यंत पवित्र और महत्वपूर्ण दिन है। यह पर्व न केवल गौतम बुद्ध के जन्म का स्मरण कराता है, बल्कि उनके ज्ञान प्राप्ति और महापरिनिर्वाण की त्रिमूर्ति को भी अपने में समाहित किए हुए है। वैशाख मास की पूर्णिमा तिथि को मनाया जाने वाला यह दिन विश्व भर के बौद्ध धर्मावलंबियों के लिए श्रद्धा, भक्ति और चिंतन का अवसर होता है। यह पर्व हमें भगवान बुद्ध की शिक्षाओं – सत्य, अहिंसा, करुणा और अष्टांगिक मार्ग – की याद दिलाता है, जो आज भी मानव जाति के लिए प्रासंगिक और मार्गदर्शक हैं। सिद्धार्थ गौतम का जन्म लगभग 563 ईसा पूर्व नेपाल के लुंबिनी नामक स्थान पर हुआ था। एक राजकुमार के रूप में उनका जीवन विलासिता और सुख-सुविधाओं से परिपूर्ण था, परन्तु सांसारिक दुखों और जरा-मरण के सत्य ने उनके मन को व्याकुल कर दिया। मानव जीवन के दुखों के कारणों और उनके निवारण की खोज में उन्होंने युवावस्था में ही गृह त्याग कर दिया।
अनेक वर्षों तक कठोर तपस्या और ध्यान में लीन रहने के पश्चात, बिहार के बोधगया में नीलांजन नदी तट  एक पीपल वृक्ष के नीचे उन्हें परम ज्ञान की प्राप्ति हुई और वे 'बुद्ध' कहलाए – जिसका अर्थ है 'जागृत' या 'ज्ञानवान'। इस ज्ञान के आलोक में उन्होंने जीवन के दुखों के मूल कारण और उनसे मुक्ति के मार्ग को समझा। ज्ञान प्राप्ति के पश्चात, बुद्ध ने अपना पहला उपदेश उत्तर प्रदेश के सारनाथ में दिया, जिसे 'धर्म चक्र परिवर्तन' के नाम से जाना जाता है। उन्होंने अपने शिष्यों को अष्टांगिक मार्ग का उपदेश दिया, जो दुखों से मुक्ति और निर्वाण की ओर ले जाता है। यह मार्ग है: सम्यक दृष्टि, सम्यक संकल्प, सम्यक वाक्, सम्यक कर्मांत, सम्यक आजीव, सम्यक व्यायाम, सम्यक स्मृति और सम्यक समाधि। लगभग 80 वर्ष की आयु में, उत्तर प्रदेश के कुशीनगर में बुद्ध ने अपना भौतिक शरीर त्याग दिया, जिसे बौद्ध धर्म में 'महापरिनिर्वाण' कहा जाता है। संयोग की बात है कि बुद्ध का जन्म, ज्ञान प्राप्ति और महापरिनिर्वाण – तीनों ही वैशाख पूर्णिमा के दिन हुए, जिससे इस तिथि का महत्व और भी बढ़ जाता है। बुद्ध पूर्णिमा बौद्ध अनुयायियों के लिए एक गहरा आध्यात्मिक महत्व रखता है। इस दिन, वे विशेष प्रार्थना सभाओं, धार्मिक प्रवचनों और ध्यान सत्रों में भाग लेते हैं। बौद्ध विहारों और मंदिरों को विशेष रूप से सजाया जाता है, और बुद्ध की मूर्तियों पर फूल चढ़ाए जाते हैं। कई स्थानों पर शोभा यात्राएं निकाली जाती हैं, जिनमें बुद्ध के जीवन और शिक्षाओं को दर्शाया जाता है। इस दिन दान-पुण्य का भी विशेष महत्व है। बौद्ध अनुयायी गरीबों और जरूरतमंदों को भोजन, वस्त्र और अन्य आवश्यक वस्तुएं दान करते हैं। जीव-जंतुओं के प्रति करुणा भाव प्रदर्शित करते हुए, कई लोग पिंजरों में बंद पक्षियों को मुक्त करते हैं। बोधगया में स्थित महाबोधि मंदिर, लुंबिनी, सारनाथ और कुशीनगर जैसे बुद्ध के जीवन से जुड़े पवित्र स्थलों पर इस दिन विशेष आयोजन होते हैं, जिनमें देश-विदेश से लाखों श्रद्धालु भाग लेते हैं। इन स्थलों का दर्शन करना बौद्ध धर्मावलंबियों के लिए एक महत्वपूर्ण तीर्थयात्रा मानी जाती है।
भगवान बुद्ध की शिक्षाएं और उनके द्वारा स्थापित बौद्ध धर्म विश्व के प्रमुख धर्मों में से एक है। एशिया के कई देशों में बौद्ध धर्म बहुसंख्यक आबादी का धर्म है, और पश्चिमी देशों में भी इसके अनुयायियों की संख्या लगातार बढ़ रही है। विश्व भर में बुद्ध की अनेक भव्य और महत्वपूर्ण मूर्तियां स्थापित हैं, जो उनकी शांति, ज्ञान और करुणा के संदेश को प्रसारित करती हैं। भारत में हैदराबाद की विशाल बुद्ध प्रतिमा, जो एक ही पत्थर से तराशी गई दुनिया की सबसे ऊंची प्रतिमाओं में से एक है, और नई दिल्ली के राष्ट्रपति भवन में वियतनाम सरकार द्वारा उपहार स्वरूप दी गई बुद्ध प्रतिमा उल्लेखनीय हैं। चीन में लेशान के विशाल बुद्ध की पत्थर की प्रतिमा भी विश्व प्रसिद्ध है और यूनेस्को की विश्व धरोहर स्थल है। थाईलैंड में महान बुद्ध और स्प्रिंग टेम्पल बुद्ध भी अपनी भव्यता और आध्यात्मिक महत्व के लिए जाने जाते हैं। बिहार राज्य बौद्ध धर्म के इतिहास में एक महत्वपूर्ण स्थान रखता है। बोधगया, जहां बुद्ध को ज्ञान प्राप्त हुआ, और दुनिया भर के बौद्धों के लिए सबसे पवित्र स्थलों में से एक है। यहां स्थित महाबोधि मंदिर एक विश्व धरोहर स्थल है और लाखों श्रद्धालुओं को आकर्षित करता है। नालंदा, प्राचीन काल में एक महान बौद्ध विश्वविद्यालय का केंद्र था, जहां दूर-दूर से विद्यार्थी ज्ञान प्राप्त करने आते थे। वैशाली, जहां बुद्ध ने कई बार प्रवास किया और महिलाओं को संघ में प्रवेश की अनुमति दी, भी एक महत्वपूर्ण बौद्ध तीर्थ स्थल है। राजगीर, जहां बुद्ध ने कई महत्वपूर्ण उपदेश दिए, और केसरिया, जहां एक विशाल बौद्ध स्तूप स्थित है, भी बिहार के महत्वपूर्ण बौद्ध स्थलों में से हैं। अमरपुरा में स्थित बौद्ध मंदिर भी श्रद्धा का केंद्र है। ये सभी स्थल न केवल बौद्ध धर्म के ऐतिहासिक महत्व को दर्शाते हैं, बल्कि आज भी शांति और आध्यात्मिकता की खोज करने वालों के लिए प्रेरणा के स्रोत हैं। बुद्ध पूर्णिमा केवल एक धार्मिक त्योहार ही नहीं है, बल्कि यह शांति, करुणा और सहिष्णुता के सार्वभौमिक मूल्यों का प्रतीक भी है। भगवान बुद्ध की शिक्षाएं आज के तनावपूर्ण और अशांत विश्व में भी प्रासंगिक हैं और हमें एक अधिक शांतिपूर्ण और सामंजस्यपूर्ण जीवन जीने का मार्ग दिखाती हैं। यह पर्व हमें आत्म-चिंतन करने, दूसरों के प्रति करुणा का भाव रखने और सत्य के मार्ग पर चलने की प्रेरणा देता है। बुद्ध पूर्णिमा का उत्सव विश्व भर में विभिन्न रूपों में मनाया जाता है, लेकिन सभी का मूल उद्देश्य भगवान बुद्ध के संदेश को याद करना और उसे अपने जीवन में उतारना है। यह पर्व हमें यह संदेश देता है कि शांति और सुख बाहरी परिस्थितियों पर निर्भर नहीं करते, बल्कि हमारे अपने मन की शांति और दूसरों के प्रति करुणा के भाव से प्राप्त होते है ।

भक्ति और शक्ति का प्रतीक है भगवान नरसिंह

भगवान नरसिंह: शक्ति, भक्ति और धर्म के अद्वितीय प्रतीक
सत्येन्द्र कुमार पाठक 
सनातन धर्म संस्कृति एवं पुराणों तथा संहिताओं में भगवान विष्णु के दस मुख्य अवतारों का वर्णन मिलता है, जिनमें से प्रत्येक अवतार का अपना विशिष्ट उद्देश्य और महत्व है। इन अवतारों में, भगवान नरसिंह का स्वरूप अत्यंत अनूठा और शक्तिशाली है। आधा मनुष्य और आधा शेर का यह रूप बुराई के विनाश और धर्म की स्थापना का प्रतीक है। नरसिम्हा जयंती, जो वैशाख शुक्ल चतुर्दशी को मनाई जाती है, इसी अद्भुत अवतार की स्मृति में आयोजित एक महत्वपूर्ण हिंदू त्योहार है। यह दिन न केवल भगवान नरसिंह की शक्ति और पराक्रम को दर्शाता है, बल्कि उनके भक्त प्रह्लाद की अटूट भक्ति और भगवान द्वारा अपने भक्तों की रक्षा करने की प्रतिज्ञा को भी उजागर किया है। नरसिंह अवतार दक्ष प्रजापति की पुत्री एवं कश्यप की पत्नी दिति के पुत्र हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु था । हिरण्याक्ष द्वारा दैत्य संस्कृति की स्थापना की गयी थी । भगवान विष्णु द्वारा हिरण्याक्ष को वराह अवतार लेकर हिरण्याक्ष को बध किया था ।   दैत्य  राजा हिरण्यकशिपु और उसके विष्णु भक्त पुत्र प्रह्लाद के इर्द-गिर्द घूमती है। पौराणिक कथाओं के अनुसार सतयुग में  दिति पुत्र दैत्य संस्कृति का दैत्य राज  हिरण्यकशिपु विष्णु के द्वारपाल जया का ही एक जन्म था, जिसे चार कुमारों के शाप के कारण विष्णु के शत्रु के रूप में तीन जन्म लेने पड़े थे। अपने भाई दिति के पुत्र  दैत्य संस्कृति के दैत्यराज  हिरण्याक्ष की भगवान विष्णु के वराह अवतार के हाथों मृत्यु से क्रोधित होकर, हिरण्यकशिपु ने विष्णु से बदला लेने की ठानी। उसने ब्रह्मा देव की कठोर तपस्या करके एक ऐसा वरदान प्राप्त किया, जो उसे लगभग अमर बना देता। उसने वरदान मांगा कि उसकी मृत्यु न तो घर के अंदर हो, न बाहर; न दिन में हो, न रात में; न किसी अस्त्र से हो, न शस्त्र से; न पृथ्वी पर हो, न आकाश में; न मनुष्य से हो, न पशु से; न देवता से हो, न असुर से। ब्रह्मा ने उसे यह वरदान दे दिया। वरदान प्राप्त करने के बाद, हिरण्यकशिपु अहंकारी और अत्याचारी बन गया। उसने तीनों लोकों पर अपना आधिपत्य स्थापित कर लिया और देवताओं को भी पराजित कर दिया। वह स्वयं को ईश्वर मानने लगा और अपनी प्रजा को भी अपनी पूजा करने के लिए बाध्य करने लगा। ऐसे दुष्ट राजा के घर में एक असाधारण बालक का जन्म हुआ, जिसका नाम प्रह्लाद था। नारद मुनि के प्रभाव में बचपन से ही प्रह्लाद भगवान विष्णु का अनन्य भक्त था। हिरण्यकशिपु ने प्रह्लाद की विष्णु भक्ति को समाप्त करने के अनेक प्रयास किए। उसने अपने गुरुओं को उसे नास्तिक बनाने का आदेश दिया, लेकिन प्रह्लाद की भक्ति और निष्ठा अडिग रही। क्रोधित राजा ने अपने पुत्र को मारने के कई भयानक प्रयास किए, जैसे उसे जहरीले सांपों के बीच छोड़ देना, उसे ऊँचे पहाड़ से गिरा देना, उसे हाथियों के पैरों तले कुचलवाना और उसे आग में जलाना। लेकिन हर बार, भगवान विष्णु की दिव्य शक्ति ने प्रह्लाद की रक्षा की। अंततः, हिरण्यकशिपु ने प्रह्लाद से पूछा कि उसका भगवान विष्णु कहाँ रहता है। प्रह्लाद ने उत्तर दिया कि विष्णु सर्वव्यापी हैं और हर जगह विद्यमान हैं। अहंकार में अंधे हिरण्यकशिपु ने एक स्तंभ की ओर इशारा करते हुए पूछा कि क्या विष्णु इस स्तंभ में भी हैं। प्रह्लाद ने दृढ़ता से 'हाँ' कहा। क्रोधित हिरण्यकशिपु ने अपनी गदा से उस स्तंभ को तोड़ दिया। उसी क्षण, स्तंभ से एक भयानक गर्जना हुई और एक अद्भुत प्राणी प्रकट हुआ - भगवान नरसिंह, जिनका आधा शरीर मनुष्य का और आधा शेर का था।
भगवान नरसिंह का स्वरूप अद्भुत और शक्तिशाली था। उनका सिर और धड़ सिंह का था, जबकि शेष शरीर मनुष्य का था। उनके नुकीले नाखून और प्रचंड गर्जना से तीनों लोक कांप उठे। भगवान नरसिंह ने हिरण्यकशिपु को पकड़ लिया और उसे महल की दहलीज पर ले गए, जो न तो घर के अंदर था और न ही बाहर। संध्या का समय था, जो न दिन था और न रात। उन्होंने हिरण्यकशिपु को अपनी गोद में रखा, जो न पृथ्वी थी और न आकाश। फिर, उन्होंने अपने तीखे नाखूनों से हिरण्यकशिपु का पेट चीर डाला, इस प्रकार ब्रह्मा के वरदान का उल्लंघन किए बिना उसका वध कर दिया। इस प्रकार, भगवान नरसिंह ने अपने भक्त प्रह्लाद की रक्षा की और धर्म की स्थापना की। उनका यह अवतार बुराई पर अच्छाई की विजय और भगवान की सर्वशक्तिमत्ता का एक ज्वलंत उदाहरण है।नरसिम्हा जयंती वैष्णव समुदाय के लिए एक अत्यंत महत्वपूर्ण त्योहार है। यह दिन भगवान नरसिंह की शक्ति, करुणा और अपने भक्तों के प्रति उनके प्रेम का स्मरण कराता है। इस दिन, भक्त उपवास रखते हैं, विशेष पूजा-अर्चना करते हैं और भगवान नरसिंह के मंत्रों का जाप करते हैं। मंदिरों में विशेष अभिषेक, हवन और कीर्तन आयोजित किए जाते हैं।
दक्षिण भारत में इस त्योहार का विशेष महत्व है। कर्नाटक, आंध्र प्रदेश और तमिलनाडु में नरसिंह के अनेक प्राचीन और प्रसिद्ध मंदिर हैं, जहाँ इस दिन भव्य उत्सव आयोजित किए जाते हैं। भक्त भगवान नरसिंह की शोभायात्रा निकालते हैं और उनकी स्तुति में भजन गाते हैं। घरों में भी विशेष पूजा की जाती है और भगवान नरसिंह को विभिन्न प्रकार के भोग अर्पित किए जाते हैं। उतराखण्ड राज्य का जोशीमठ में भगवान नरसिंह का मंदिर ,  तमिलनाडु के मेलात्तूर गांव में नरसिम्हा जयंती पर आयोजित होने वाला "भागवत मेला" एक अनूठा सांस्कृतिक कार्यक्रम है। यह एक पारंपरिक लोक नृत्य है जो भागवत पुराण की कहानियों को नाटकीय रूप में प्रस्तुत करता है। इस मेले का मुख्य आकर्षण प्रह्लाद और नरसिंह की कथा का प्रदर्शन होता है, जो दर्शकों को भक्ति और आश्चर्य के भाव से भर देता है । नरसिंह पूजा की परंपरा सदियों पुरानी है। माना जाता है कि भगवान नरसिंह की पूजा करने से भय और नकारात्मक ऊर्जा दूर होती है। वे शक्ति, सुरक्षा और साहस के प्रतीक हैं। उनकी आराधना करने से शत्रुओं पर विजय प्राप्त होती है और जीवन में आने वाली बाधाएँ दूर होती हैं। विशेष रूप से संकट के समय में भगवान नरसिंह का स्मरण और उनकी स्तुति भक्तों को शांति और शक्ति प्रदान करती है। नरसिंह पूजा में विभिन्न प्रकार के अनुष्ठान किए जाते हैं। भक्त भगवान को फल, फूल, धूप, दीप और नैवेद्य अर्पित करते हैं। नरसिंह स्तोत्र और नरसिंह कवच का पाठ करना इस दिन अत्यंत फलदायी माना जाता है। कुछ भक्त इस दिन अन्न और जल का त्याग करके उपवास रखते हैं, जबकि कुछ केवल फलाहार करते हैं। शाम को भगवान नरसिंह की पूजा के बाद उपवास तोड़ा जाता है। भगवान नरसिंह का अवतार धर्म की रक्षा और अपने भक्तों की सहायता के लिए भगवान विष्णु की असीम करुणा का प्रतीक है। नरसिम्हा जयंती हमें यह संदेश देती है कि सत्य और धर्म की हमेशा विजय होती है, चाहे परिस्थितियाँ कितनी भी विपरीत क्यों न हों। यह दिन हमें भक्ति, साहस और अन्याय के खिलाफ लड़ने की प्रेरणा देता है। भगवान नरसिंह की पूजा न केवल हमें शक्ति और सुरक्षा प्रदान करती है, बल्कि हमें धार्मिकता और सत्य के मार्ग पर चलने के लिए भी प्रेरित करती है। यह त्योहार हमें याद दिलाता है कि भगवान हमेशा अपने सच्चे भक्तों के साथ खड़े रहते हैं और उनकी रक्षा करते है। 
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स्नेह त्याग और शक्ति की प्रतीक है माँ

मां: स्नेह, त्याग और शक्ति का प्रतीक 
सत्येन्द्र कुमार पाठक 
मां, यह एक ऐसा शब्द है जो न केवल एक रिश्ते को परिभाषित करता है, बल्कि स्नेह, त्याग, सुरक्षा और शक्ति की एक गहरी भावना को भी दर्शाता है। सनातन संस्कृति से लेकर आधुनिक वैश्विक समाज तक, मां का स्थान अद्वितीय और सर्वोपरि रहा है। जहां भारतीय संस्कृति में मां को देवीतुल्य माना गया है, वहीं विश्व के अन्य हिस्सों में भी मातृत्व को विभिन्न रूपों में सम्मानित किया जाता रहा है। आधुनिक विश्व में "मातृ दिवस" का प्रचलन भले ही अपेक्षाकृत नया हो, लेकिन मां के प्रति सम्मान और कृतज्ञता की भावना सदियों से विभिन्न संस्कृतियों में विद्यमान रही है।आधुनिक मातृ दिवस की नींव 20वीं शताब्दी के प्रारंभ में संयुक्त राज्य अमेरिका में पड़ी। ग्राफटन वेस्ट वर्जिनिया की एना जार्विस ने अपनी मां के निधन के बाद उनकी स्मृति को चिरस्थायी बनाने और सभी माताओं के सम्मान में एक दिन समर्पित करने का संकल्प लिया। उनका मानना था कि माताओं का उनके परिवारों और समाज में जो योगदान होता है, उसे अक्सर अनदेखा कर दिया जाता है। जार्विस के अथक प्रयासों के परिणामस्वरूप, 1914 में अमेरिकी राष्ट्रपति वुड्रो विल्सन ने मई के दूसरे रविवार को राष्ट्रीय मातृ दिवस के रूप में घोषित किया। प्रारंभ में, यह दिन व्यक्तिगत स्तर पर अपनी मां को सम्मानित करने और उनके प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने का अवसर था। सफेद कार्नेशन (गुलनार) फूल मां के प्रति प्रेम और सम्मान का प्रतीक बन गया।
हालांकि, मातृ दिवस की अवधारणा की जड़ें इससे कहीं अधिक गहरी और विविध हैं। प्राचीन काल से ही विभिन्न सभ्यताएं मातृशक्ति की महत्ता को स्वीकार करती आई हैं। ग्रीक पौराणिक कथाओं में स्य्बेले को देवताओं की मां के रूप में पूजा जाता था और उनके सम्मान में उत्सव मनाए जाते थे। प्राचीन रोम में, वसंत ऋतु में मनाया जाने वाला इदेस ऑफ़ मार्च (15-18 मार्च) मातृ देवियों को समर्पित था। रोमवासी जूनो देवी, जो विवाह और मातृत्व की देवी थीं, को समर्पित मेट्रोनालिया नामक त्योहार में माताओं को उपहार देते थे।
यूरोप और ब्रिटेन में, मदरिंग संडे की परंपरा सदियों पुरानी है। लेंट के चौथे रविवार को मनाया जाने वाला यह दिन मूल रूप से "मदर चर्च" यानी मुख्य चर्च में जाने और वहां विशेष प्रार्थनाएं करने का दिन था। धीरे-धीरे, यह पारिवारिक मिलन और माताओं को सम्मानित करने का अवसर बन गया। युवा प्रशिक्षु और घरेलू सेवक इस दिन अपने घरों और माताओं से मिलने के लिए छुट्टी पाते थे और उन्हें छोटे उपहार या "मदरिंग केक" भेंट करते थे।
जैसे-जैसे मातृ दिवस की अवधारणा विश्व के अन्य हिस्सों में फैली, इसने स्थानीय संस्कृतियों और परंपराओं के अनुरूप विभिन्न रूप धारण कर लिए। कैथोलिक देशों में, यह दिन अक्सर वर्जिन मेरी के सम्मान के साथ जुड़ गया, जिन्हें यीशु मसीह की मां होने के कारण मातृत्व का प्रतीक माना जाता है। एशिया में भी मातृ दिवस विभिन्न रूपों में मनाया जाता है। चीन में, यद्यपि आधिकारिक तौर पर यह पश्चिमी प्रभाव के बाद आया, लेकिन बुजुर्गों के प्रति सम्मान और माता-पिता के प्रति निष्ठा की पारंपरिक चीनी मूल्यों के साथ यह सहजता से जुड़ गया। चीन में गुलनार का फूल मातृ दिवस का एक लोकप्रिय प्रतीक है। कुछ लोग प्राचीन चीनी परंपराओं को पुनर्जीवित करने के प्रयास में सफेद लिली देने की वकालत करते हैं, जो उस समय माताओं द्वारा लगाई जाती थी जब उनके बच्चे घर छोड़कर जाते थे।
जापान में, मातृ दिवस शोवा काल में महारानी कोजुन के जन्मदिन के रूप में मनाया जाता था। वर्तमान में, यह एक व्यावसायिक रूप से महत्वपूर्ण दिन बन गया है, जहां लोग अपनी माताओं को गुलनार और गुलाब जैसे उपहार देते हैं। मेक्सिको में मातृ दिवस का एक जटिल इतिहास रहा है। 1922 में अमेरिका से प्रेरित होकर इसे अपनाया गया, लेकिन रूढ़िवादी समूहों ने इसे महिलाओं को पारंपरिक पारिवारिक भूमिकाओं में बनाए रखने के एक उपकरण के रूप में इस्तेमाल करने की कोशिश की। इसके विपरीत, 1930 के दशक में राष्ट्रपति लाज़रो कार्देनस की सरकार ने इसे "देशभक्ति के त्योहार" के रूप में बढ़ावा दिया, जिसका उद्देश्य राष्ट्रीय एकता और सामाजिक सुधार को बढ़ावा देना था। नेपाल में, "माता तीर्थ औंशी" एक अनूठा और महत्वपूर्ण मातृ दिवस है। यह बैशाख महीने के कृष्ण पक्ष की अमावस्या को मनाया जाता है। यह न केवल जीवित माताओं का सम्मान करने का दिन है, बल्कि दिवंगत माताओं की स्मृति को भी समर्पित है। इस दिन, लोग माता तीर्थ कुंड की तीर्थयात्रा करते हैं, जो काठमांडू घाटी में स्थित है और जिसके साथ भगवान कृष्ण और उनकी मां देवकी से जुड़ी एक मार्मिक किंवदंती जुड़ी हुई है।
थाईलैंड में, मातृ दिवस रानी के जन्मदिन पर मनाया जाता है, जो मां के प्रति राष्ट्रीय सम्मान का प्रतीक है। रोमानिया में मातृ दिवस और महिला दिवस दो अलग-अलग छुट्टियां हैं, जो मातृत्व और नारीत्व के विभिन्न पहलुओं को सम्मानित करती हैं। वियतनाम में, मातृ दिवस को ले वू-लैन कहा जाता है और यह चंद्र कैलेंडर के सातवें महीने के पंद्रहवें दिन मनाया जाता है, जो जीवित माताओं के प्रति कृतज्ञता और दिवंगत माताओं की आत्मा की शांति के लिए प्रार्थना का दिन है।
भारत में, यद्यपि मातृ दिवस पश्चिमी प्रभाव के बाद अधिक लोकप्रिय हुआ है, लेकिन मां का स्थान हमेशा से ही अत्यंत ऊंचा रहा है। भारतीय संस्कृति में मां को प्रथम गुरु और परिवार की धुरी माना जाता है। मां का त्याग, प्रेम और समर्पण अतुलनीय है और इसे शब्दों में व्यक्त करना कठिन है। भारतीय परिवारों में मां का आशीर्वाद और मार्गदर्शन जीवन के हर मोड़ पर महत्वपूर्ण माना जाता है। मातृ दिवस एक अवसर है जब लोग अपनी माताओं के प्रति अपने गहरे प्रेम और सम्मान को विशेष रूप से व्यक्त करते हैं, उन्हें उपहार देते हैं, उनके साथ समय बिताते हैं और उनके द्वारा किए गए अनगिनत बलिदानों के लिए कृतज्ञता व्यक्त करते हैं।
 "मां" की अवधारणा और मातृत्व का सम्मान विश्व की सभी संस्कृतियों में किसी न किसी रूप में मौजूद है। आधुनिक मातृ दिवस ने इस सार्वभौमिक भावना को एक वैश्विक मंच प्रदान किया है, जिससे लोग एक साथ आकर उन महिलाओं का सम्मान कर सकें जिन्होंने उन्हें जन्म दिया, उनका पालन-पोषण किया और उन्हें प्यार दिया। यह दिन हमें मां के अटूट प्रेम, निस्वार्थ सेवा और असीम शक्ति को याद दिलाता है और हमें उनके प्रति अपनी कृतज्ञता व्यक्त करने का अवसर देता है। एक मां का आंचल हमेशा अपनी संतान के लिए छोटा पड़ता है और उसका प्रेम कभी कम नहीं होता। मातृ दिवस सिर्फ एक दिन नहीं, बल्कि मां के प्रति आजीवन सम्मान और प्रेम की अभिव्यक्ति है। 
 मां ही मेरी खुशी है
सत्येन्द्र कुमार पाठक 
माँ तू मेरी, जीवन धारा,
तेरा प्यार, सागर गहरा।
हरदम तू ही, साथ निभाती,
ममता तेरी, जग से न्यारी।
जन्म दिया तूने मुझको,
पाला पोसा निज हाथों से।
हर पीड़ा तूने सह ली,
मुझको सुख दिया बातों से।
तेरी ममता की छाया में,
बचपन मेरा बीता सारा।
जब मैं रोया, तूने हँसाया,
गिरने पर तूने उठाया।
राह दिखाई जीवन की तूने,
हरदम मेरा साथ निभाया।
तेरी करुणा की धारा से,
जीवन मेरा हुआ उजियारा।
तेरी बातों में है अमृत,
तेरी आँखों में है प्यार।
तू ही शक्ति, तू ही साहस,
तू ही मेरा संसार।
तेरी आशीषों की छाया में,
हरदम मेरा हो गुजारा।
जग की दौलत से बढ़कर,
तेरा स्नेह अनमोल है माँ।
कैसे चुकाऊँ तेरा उपकार,
तू ही मेरा सब कुछ है माँ।
तेरी चरणों की धूलि बनकर,
जीवन मेरा हो संवारा।