रविवार, मई 11, 2025

भक्ति और शक्ति का प्रतीक है भगवान नरसिंह

भगवान नरसिंह: शक्ति, भक्ति और धर्म के अद्वितीय प्रतीक
सत्येन्द्र कुमार पाठक 
सनातन धर्म संस्कृति एवं पुराणों तथा संहिताओं में भगवान विष्णु के दस मुख्य अवतारों का वर्णन मिलता है, जिनमें से प्रत्येक अवतार का अपना विशिष्ट उद्देश्य और महत्व है। इन अवतारों में, भगवान नरसिंह का स्वरूप अत्यंत अनूठा और शक्तिशाली है। आधा मनुष्य और आधा शेर का यह रूप बुराई के विनाश और धर्म की स्थापना का प्रतीक है। नरसिम्हा जयंती, जो वैशाख शुक्ल चतुर्दशी को मनाई जाती है, इसी अद्भुत अवतार की स्मृति में आयोजित एक महत्वपूर्ण हिंदू त्योहार है। यह दिन न केवल भगवान नरसिंह की शक्ति और पराक्रम को दर्शाता है, बल्कि उनके भक्त प्रह्लाद की अटूट भक्ति और भगवान द्वारा अपने भक्तों की रक्षा करने की प्रतिज्ञा को भी उजागर किया है। नरसिंह अवतार दक्ष प्रजापति की पुत्री एवं कश्यप की पत्नी दिति के पुत्र हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु था । हिरण्याक्ष द्वारा दैत्य संस्कृति की स्थापना की गयी थी । भगवान विष्णु द्वारा हिरण्याक्ष को वराह अवतार लेकर हिरण्याक्ष को बध किया था ।   दैत्य  राजा हिरण्यकशिपु और उसके विष्णु भक्त पुत्र प्रह्लाद के इर्द-गिर्द घूमती है। पौराणिक कथाओं के अनुसार सतयुग में  दिति पुत्र दैत्य संस्कृति का दैत्य राज  हिरण्यकशिपु विष्णु के द्वारपाल जया का ही एक जन्म था, जिसे चार कुमारों के शाप के कारण विष्णु के शत्रु के रूप में तीन जन्म लेने पड़े थे। अपने भाई दिति के पुत्र  दैत्य संस्कृति के दैत्यराज  हिरण्याक्ष की भगवान विष्णु के वराह अवतार के हाथों मृत्यु से क्रोधित होकर, हिरण्यकशिपु ने विष्णु से बदला लेने की ठानी। उसने ब्रह्मा देव की कठोर तपस्या करके एक ऐसा वरदान प्राप्त किया, जो उसे लगभग अमर बना देता। उसने वरदान मांगा कि उसकी मृत्यु न तो घर के अंदर हो, न बाहर; न दिन में हो, न रात में; न किसी अस्त्र से हो, न शस्त्र से; न पृथ्वी पर हो, न आकाश में; न मनुष्य से हो, न पशु से; न देवता से हो, न असुर से। ब्रह्मा ने उसे यह वरदान दे दिया। वरदान प्राप्त करने के बाद, हिरण्यकशिपु अहंकारी और अत्याचारी बन गया। उसने तीनों लोकों पर अपना आधिपत्य स्थापित कर लिया और देवताओं को भी पराजित कर दिया। वह स्वयं को ईश्वर मानने लगा और अपनी प्रजा को भी अपनी पूजा करने के लिए बाध्य करने लगा। ऐसे दुष्ट राजा के घर में एक असाधारण बालक का जन्म हुआ, जिसका नाम प्रह्लाद था। नारद मुनि के प्रभाव में बचपन से ही प्रह्लाद भगवान विष्णु का अनन्य भक्त था। हिरण्यकशिपु ने प्रह्लाद की विष्णु भक्ति को समाप्त करने के अनेक प्रयास किए। उसने अपने गुरुओं को उसे नास्तिक बनाने का आदेश दिया, लेकिन प्रह्लाद की भक्ति और निष्ठा अडिग रही। क्रोधित राजा ने अपने पुत्र को मारने के कई भयानक प्रयास किए, जैसे उसे जहरीले सांपों के बीच छोड़ देना, उसे ऊँचे पहाड़ से गिरा देना, उसे हाथियों के पैरों तले कुचलवाना और उसे आग में जलाना। लेकिन हर बार, भगवान विष्णु की दिव्य शक्ति ने प्रह्लाद की रक्षा की। अंततः, हिरण्यकशिपु ने प्रह्लाद से पूछा कि उसका भगवान विष्णु कहाँ रहता है। प्रह्लाद ने उत्तर दिया कि विष्णु सर्वव्यापी हैं और हर जगह विद्यमान हैं। अहंकार में अंधे हिरण्यकशिपु ने एक स्तंभ की ओर इशारा करते हुए पूछा कि क्या विष्णु इस स्तंभ में भी हैं। प्रह्लाद ने दृढ़ता से 'हाँ' कहा। क्रोधित हिरण्यकशिपु ने अपनी गदा से उस स्तंभ को तोड़ दिया। उसी क्षण, स्तंभ से एक भयानक गर्जना हुई और एक अद्भुत प्राणी प्रकट हुआ - भगवान नरसिंह, जिनका आधा शरीर मनुष्य का और आधा शेर का था।
भगवान नरसिंह का स्वरूप अद्भुत और शक्तिशाली था। उनका सिर और धड़ सिंह का था, जबकि शेष शरीर मनुष्य का था। उनके नुकीले नाखून और प्रचंड गर्जना से तीनों लोक कांप उठे। भगवान नरसिंह ने हिरण्यकशिपु को पकड़ लिया और उसे महल की दहलीज पर ले गए, जो न तो घर के अंदर था और न ही बाहर। संध्या का समय था, जो न दिन था और न रात। उन्होंने हिरण्यकशिपु को अपनी गोद में रखा, जो न पृथ्वी थी और न आकाश। फिर, उन्होंने अपने तीखे नाखूनों से हिरण्यकशिपु का पेट चीर डाला, इस प्रकार ब्रह्मा के वरदान का उल्लंघन किए बिना उसका वध कर दिया। इस प्रकार, भगवान नरसिंह ने अपने भक्त प्रह्लाद की रक्षा की और धर्म की स्थापना की। उनका यह अवतार बुराई पर अच्छाई की विजय और भगवान की सर्वशक्तिमत्ता का एक ज्वलंत उदाहरण है।नरसिम्हा जयंती वैष्णव समुदाय के लिए एक अत्यंत महत्वपूर्ण त्योहार है। यह दिन भगवान नरसिंह की शक्ति, करुणा और अपने भक्तों के प्रति उनके प्रेम का स्मरण कराता है। इस दिन, भक्त उपवास रखते हैं, विशेष पूजा-अर्चना करते हैं और भगवान नरसिंह के मंत्रों का जाप करते हैं। मंदिरों में विशेष अभिषेक, हवन और कीर्तन आयोजित किए जाते हैं।
दक्षिण भारत में इस त्योहार का विशेष महत्व है। कर्नाटक, आंध्र प्रदेश और तमिलनाडु में नरसिंह के अनेक प्राचीन और प्रसिद्ध मंदिर हैं, जहाँ इस दिन भव्य उत्सव आयोजित किए जाते हैं। भक्त भगवान नरसिंह की शोभायात्रा निकालते हैं और उनकी स्तुति में भजन गाते हैं। घरों में भी विशेष पूजा की जाती है और भगवान नरसिंह को विभिन्न प्रकार के भोग अर्पित किए जाते हैं। उतराखण्ड राज्य का जोशीमठ में भगवान नरसिंह का मंदिर ,  तमिलनाडु के मेलात्तूर गांव में नरसिम्हा जयंती पर आयोजित होने वाला "भागवत मेला" एक अनूठा सांस्कृतिक कार्यक्रम है। यह एक पारंपरिक लोक नृत्य है जो भागवत पुराण की कहानियों को नाटकीय रूप में प्रस्तुत करता है। इस मेले का मुख्य आकर्षण प्रह्लाद और नरसिंह की कथा का प्रदर्शन होता है, जो दर्शकों को भक्ति और आश्चर्य के भाव से भर देता है । नरसिंह पूजा की परंपरा सदियों पुरानी है। माना जाता है कि भगवान नरसिंह की पूजा करने से भय और नकारात्मक ऊर्जा दूर होती है। वे शक्ति, सुरक्षा और साहस के प्रतीक हैं। उनकी आराधना करने से शत्रुओं पर विजय प्राप्त होती है और जीवन में आने वाली बाधाएँ दूर होती हैं। विशेष रूप से संकट के समय में भगवान नरसिंह का स्मरण और उनकी स्तुति भक्तों को शांति और शक्ति प्रदान करती है। नरसिंह पूजा में विभिन्न प्रकार के अनुष्ठान किए जाते हैं। भक्त भगवान को फल, फूल, धूप, दीप और नैवेद्य अर्पित करते हैं। नरसिंह स्तोत्र और नरसिंह कवच का पाठ करना इस दिन अत्यंत फलदायी माना जाता है। कुछ भक्त इस दिन अन्न और जल का त्याग करके उपवास रखते हैं, जबकि कुछ केवल फलाहार करते हैं। शाम को भगवान नरसिंह की पूजा के बाद उपवास तोड़ा जाता है। भगवान नरसिंह का अवतार धर्म की रक्षा और अपने भक्तों की सहायता के लिए भगवान विष्णु की असीम करुणा का प्रतीक है। नरसिम्हा जयंती हमें यह संदेश देती है कि सत्य और धर्म की हमेशा विजय होती है, चाहे परिस्थितियाँ कितनी भी विपरीत क्यों न हों। यह दिन हमें भक्ति, साहस और अन्याय के खिलाफ लड़ने की प्रेरणा देता है। भगवान नरसिंह की पूजा न केवल हमें शक्ति और सुरक्षा प्रदान करती है, बल्कि हमें धार्मिकता और सत्य के मार्ग पर चलने के लिए भी प्रेरित करती है। यह त्योहार हमें याद दिलाता है कि भगवान हमेशा अपने सच्चे भक्तों के साथ खड़े रहते हैं और उनकी रक्षा करते है। 
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