वेदों , उपनिषदों , स्मृतियों , इतिहास के पन्नों , लिंगपुराण ,शिवपुराण , स्कन्दपुराण, रामायण एवं महाभारतऔर ऋग्वेद में काशी का उल्लेख है। गौतम बुद्ध ( ५६७ ई.पू.) के काल में, वाराणसी राज्य की राजधानी काशी हुआ करता था। प्रसिद्ध चीनी यात्री ह्वेन त्सांग ने काशी को धार्मिक, शैक्षणिक एवं कलात्मक गतिविधियों का केन्द्र और काशी का विस्तार गंगा नदी के किनारे ५ कि॰मी॰ तक विकशित है । मगध का राजा जरासन्ध ने काशी साम्राज्य को शामिल मगध में कर लिया था ।आर्यों के यहां कन्या के विवाह स्वयंवर के द्वारा होते थे। पाण्डव और कौरव के पितामह भीष्म ने काशी नरेश की तीन पुत्रियों अंबा, अंबिका और अंबालिका का अपहरण किया था। इस अपहरण के परिणामस्वरूप काशी और हस्तिनापुर की शत्रुता हो गई। महाभारत युद्ध में जरासन्ध और उसका पुत्र सहदेव दोनों काम आये। कालांतर में गंगा की बाढ़ ने पाण्डवों की राजधानी हस्तिनापुर को डुबा दिया, तब पाण्डव वर्तमान प्रयागराज जिला में यमुना किनारे कौशाम्बी में नई राजधानी बनाकर बस गए। उनका राज्य वत्स कहलाया और काशी पर मगध की जगह अब वत्स का अधिकार हुआ। ब्रह्मदत राजकुल का काशी पर अधिकार हुआ। पंजाब में कैकेय राजकुल में राजा अश्वपति था। तभी गंगा-यमुना के दोआब में राज करने वाले पांचालों में राजा प्रवहण जैबलि ने अपने ज्ञान का डंका बजाया था। इसी काल में जनकपुर, मिथिला में विदेहों के शासक जनक हुए, जिनके दरबार में याज्ञवल्क्य ज्ञानी महर्षि और गार्गी पंडिता नारियां शास्त्रार्थ करती थी । काशी राज्य का राजा अजातशत्रु हुआ । ये आत्मा और परमात्मा के ज्ञान में अनुपम था। ब्रह्म और जीवन के सम्बन्ध पर, जन्म और मृत्यु पर, लोक-परलोक पर तब देश में विचार को उपनिषद् कहते हैं। वैशाली और मिथिला के लिच्छवियों में वर्धमान महावीर , कपिलवस्तु के शाक्यों में गौतम बुद्ध हुए। काशी का राजा अश्वसेन के यहां 23 वे तीर्थंकर पार्श्वनाथ हुए । काशी वत्सों के हाथ में जाती, कभी मगध के और कभी कोसल के। पार्श्वनाथ के बाद और बुद्ध के पूर्व कोसल-श्रावस्ती के राजा कंस ने काशी को जीतकर अपने राज में मिला लिया था । राजा महाकोशल ने अपनी बेटी कोसल देवी का मगध के राजा बिम्बसार से विवाह कर दहेज के रूप में काशी की वार्षिक आमदनी एक लाख मुद्रा प्रतिवर्ष देना आरंभ किया और इस प्रकार काशी मगध के नियंत्रण में पहुंच गई। राज के लोभ से मगध के राजा बिम्बसार के बेटे अजातशत्रु ने पिता को मारकर गद्दी छीन ली। तब विधवा बहन कोसलदेवी के दुःख से दुःखी उसके भाई कोसल के राजा प्रसेनजित ने काशी की आमदनी अजातशत्रु को देना बन्द कर दिया था । मगध राजा अजातशत्रु काशी साम्राज्य को मगध साम्राज्य में समाहित कर दिया था । मगध की राजधानी राजगृह से पाटलिपुत्र होने के बाद काशी पर आक्रमण नहीं हुआ था । काशी नरेशों में ब्राह्मण मनसा राम १७३७ से १७४० , ब्राह्मणबलवंत सिंह १७४० से १७७० , ब्राह्मणचैत सिंह१७७० से १७८० , ब्राह्मणमहीप नारायण सिंह १७८१ से १७९४ , ब्राह्मणमहाराजा उदित नारायण सिंह१७९४ से १८३५ , महाराजा श्री ईश्वरी नारायण सिंह बहादुर १८३५ से १८८९ , लेफ़्टि. कर्नल महाराजा श्री सर प्रभु नारायण सिंह बहादुर१८८९ से १९३१ , कैप्टन महाराजा श्री सर आदित्य नारायण सिंह१९३१ से १९३९ , डॉ॰विभूति नारायण सिंह १९३९ से १९४७ , डॉ॰ विभूति नारायण सिंह काशी नरेश थे। १५ अक्टूबर १९४८ को काशी राज्य भारतीय संघ में मिल गया। २००० ई. से अनंत नारायण सिंह काशी नरेश काशी परंपरा के वाहक है । जगत्प्रसिद्ध प्राचीन काशी गंगा के वाम (उत्तर) तट पर दक्षिण-पूर्वी कोने में वरुणा और असी नदियों के गंगासंगमों के बीच बसी हुई है। इस स्थान पर गंगा ने प्राय: चार मील का दक्षिण से उत्तर की ओर घुमाव लिया है । काशी का 'वाराणसी' नाम वरुणा नदी एवं असी नदी संगम पर रहने के कारण 'बनारस' हो गया था । ऋग्वेद में काशी का उल्लेख है - 'काशिरित्ते.. आप इवकाशिनासंगृभीता:'। पुराणों के अनुसार काशी आद्य वैष्णव स्थान है। काशी भगवान विष्णु (माधव) की पुरी थी। जहां श्रीहरिके आनंदाश्रु गिरने के कारण बिंदुसरोवर बन गया और प्रभु यहां बिंधुमाधव के नाम से प्रतिष्ठित हुए। भगवान शंकर ने क्रुद्ध होकर ब्रह्माजी का पांचवां सिर काट देने के बाद ब्रह्मा जी का एक सिर भगवान शिव के करतल से चिपक गया। बारह वर्षों तक अनेक तीर्थों में भ्रमण करने पर ब्रह्मा जी का सिर भगवान शिव के करतल से अलग नहीं हुआ परंतु भगवान शिव ने काशी की सीमा में प्रवेश किया, ब्रह्महत्या ने उनका पीछा छोड़ दिया और वह कपाल अलग होने के कारण कपालमोचन-तीर्थ है । काशी अच्छी लगने के कारण कि भगवान शिव ने काशी पुरी को भगवान विष्णुजी से अपने नित्य आवास के लिए मांग लिया। तब से काशी भगवान शिव का निवास-स्थान बन गया। हरिवंशपुराण के अनुसार भारतवंशी काश द्वारा काशी को बसाया गया ' था । अर्थर्ववेद पैप्पलादसंहिता में (५, २२, १४) है। शुक्लयजुर्वेद के शतपथ ब्राह्मण में (१३५, ४, १९) काशिराज धृतराष्ट्र को शतानीक सत्राजित् ने पराजित किया था। बृहदारण्यकोपनिषद् में (२, १, १, ३, ८, २) काशिराज अजातशत्रु का उल्लेख है। कौषीतकी उपनिषद् (४, १) और बौधायन श्रौतसूत्र में काशी और विदेह तथा गोपथ ब्राह्मण में काशी और कोसल जनपदों का वर्णन है। काशी, कोसल और विदेह के पुरोहित जलजातूकर्ण्य का शांखायन श्रौतसूत्र में है। वाल्मीकि रामायण में (किष्किंधा कांड ४०, २२) सुग्रीव द्वारा वानरसेना को पूर्वदिशा की ओर भेजे जाने के संदर्भ में काशी और कोसल जनपद के निवासियोंका उल्लेख है । महीं कालमहीं चापि शैलकानन शोभिंता। ब्रह्ममालन्विदेहांश्च मालवान्काशिक सलान्। महाभारत आदि पूर्व अध्याय 102 के अनुसार काशिराज की कन्याओं के भीष्म द्वारा अपहरण किया गया था अंगुत्तरनिकाय में काशी की भारत के १६ महाजनपदों में गणना की गई है। जातक कथाओं में काशी जनपद का अनेक बार उल्लेख आया है, जिससे ज्ञात होता है कि काशी उस समय विद्या तथा व्यापार दोनों का ही केंद्र थी। अक्तिजातक में बोधिसत्व के १६ वर्ष की आयु में काशी जाकर विद्या ग्रहण किया है। खंडहालजातक में काशी के सुंदर और मूल्यवान रेशमी कपड़ों का वर्णन है। भीमसेनजातक में यहाँ के उत्तम सुगंधित द्रव्यों का भी उल्लेख है। जातककथाओं में बुद्धपूर्वकाल में काशी देश पर ब्रह्मदत्त नाम के राजकुल का बहुत दिनों तक राज्य रहा था ।
काशी में शिवोपासना का वर्णन महाभारत वैन पर्व 84 , 78 में है– ततो वाराणसीं गत्वा अर्चयित्वा वषध्वजम । कीथ के अनुसार वरुणा नदी का वर्णन अर्थर्ववेद के इस मंत्र में है– वारिद वारयातै वरुणावत्यामधि। तत्रामृतस्यासिक्तं तेना ते वारये विषम् (४, ७, १)। युवजयजातक में वाराणसी को ब्रह्मवद्धन , उब्रह्मवर्धन, सुरूंधन, सुदस्सन , उसुदर्शन, पुप्फवती , उपुष्पवती और रम्म , उरम्या एवं संखजातक में मालिनी आदि नाम हैं। गौतम बुद्ध के समय में काशी राज्य कोसल जनपद के अंतर्गत था। स्कंदपुराण में काशी के माहात्म्य पर 'काशीखंड' नामक अध्याय लिखा गया। पुराणों में काशी को मोक्षदायिनी पुरियों में स्थान दिया गया है। चीनी यात्री फ़ाह्यान (चौथी शती ई.और युवानच्वांग अपनी यात्रा के दौरान काशी आए थे। युवानच्यांग ने सातवीं शताब्दी ई. के पूर्वार्ध में ३० बौद्ध बिहार और १०० हिंदू मंदिर देखे थे। नवीं शताब्दी ई. में जगद्गुरु शंकराचार्य ने विद्याप्रचार से काशी को भारतीय संस्कृति एवं आर्य धर्म का सर्वाधिक महत्वपूर्ण केंद्र बना दिया।
1193 ई . में मुहम्मद गोरी ने कन्नौज को जीतने से काशी का प्रदेश मुसलमानों के अधिकार में आ गया। दिल्ली के सुल्तानों के आधिपत्यकाल में भारत की प्राचीन सांस्कृतिक परंपराओं को काशी में शरण मिली। कबीर और रामानंद के धार्मिक और लोकमानस के प्रेरक विचारों से जीता-जागता रखने में पर्याप्त सहायता दी। मुगल सम्राट् अकबर ने हिंदू धर्म की प्राचीन परंपराओं के प्रति उदारता और अनुराग दिखाया, उसकी प्रेरणा पाकर भारतीय संस्कृति की धारा, बीच के काल में कुछ क्षीण हो चली थी । तुलसीदास, मधुसूदन सरस्वती और पंडितराज जगन्नाथ महाकवियों और पंडितों से काशी पुन: प्राचीन गौरव की अधिकारिणी बन गई। काशी नगरी को औरंगजेब की धर्मांधता का शिकार बनना पड़ा। उसने हिंदू धर्म के अन्य पवित्र स्थानों की भाँति काशी के भी प्राचीन मंदिरों को विध्वस्त करा दिया। मूल विश्वनाथ के मंदिर को तुड़वाकर उसके स्थान पर ज्ञान वापी मस्जिद बनवाई । मुगल साम्राज्य की अवनति होने पर अवध नवाब सफ़दरजंग ने काशी पर अधिकार कर लिया था । अवध नवाब सफदरजंग के पौत्र पौत्र ने उसे ईस्ट इंडिया कंपनी को दे डाला। काशीनरेश के पूर्वज बलवंतसिंह ने अवध के नवाब से अपना संबंधविच्छेद कर लिया था। इस प्रकार काशी की रियासत का जन्म हुआ। चेतसिंह ने वारेन हेस्टिंग्ज़ से लोहा लिया था । काशी में 1500 मंदिर में विश्वनाथ, संकटमोचन और दुर्गा के मंदिर प्रसिद्ध हैं। विश्वनाथ के मूल मंदिर की परंपरा अतीत के इतिहास के अज्ञात युगों तक चली गई है। वर्तमान मंदिर अधिक प्राचीन नहीं है। इसके शिखर पर महाराजा रणजीत सिंह ने सोने के पत्तर चढ़वा दिए थे। संकटमोचन मंदिर की स्थापना गोस्वामी तुलसीदास ने की थी। दुर्गा के मंदिर को १७वीं शती में मराठों ने बनवाया था। गहड़वालों का बनवाया राजघाट का 'आदिकेशव' मंदिर है।
प्रसिद्ध घाटों में दशाश्वमेध, मणिकार्णिंका, हरिश्चंद्र और तुलसीघाट की गिनती की जा सकती है। दशाश्वमेध घाट पर ही जयपुर नरेश जयसिंह द्वितीय का बनवाया हुआ मानमंदिर या वेधशाला है। दशाश्वमेध घाट तीसरी सदी के भारशिव नागों के पराक्रम का स्मारक है। उन्होंने जब-जब अपने शत्रुओं को पराजित किया तब-तब यहीं अपने यज्ञ का अवभृथ स्नान किया। इस प्रकार के दस विजय यज्ञों से संबंधित काशी का यह घाट दशाश्वमेध नाम से विख्यात हुआ। नवीन मंदिरों में भारतमाता का मंदिर तथा तुलसीमानस मंदिर प्रसिद्ध हैं। आधुनिक शिक्षा के केंद्र काशी विश्वविद्यालय की स्थापना महामना मदनमोहन मालवीय ने १९१६ ई. में की। वैसे, प्राचीन परंपरा की संस्कृत पाठशालाएँ तो यहाँ सैकड़ों ही हैं जो संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय, काशी (संस्थापित १९५८ ई.) से संबद्ध है। इसके अतिरिक्त यहाँ काशी विद्यापीठ (संस्थापित १९२१) नामक विश्वविद्यालय भी है जिसमें व्यावहारिक समाजशास्त्र की शिक्षा की भी व्यवस्था है। भारत की सांस्कृतिक राजधानी होने का गौरव इस प्राचीन नगरी को आज भी प्राप्त है। दूसरे शब्दों में यह भी कहा जा सकता है कि काशी ने भारत की सांस्कृतिक एकता के निर्माण तथा संरक्षण में भारी योग दिया है। भारतेंदु आदि साहित्यकारों तथा नागरीप्रचारिणी सभा जैसी संस्थाओं को जन्म देकर काशी ने आधुनिक हिंदी साहित्य को समृद्ध बनाया है। वाराणसी के घाटों का दृश्य बड़ा ही मनोरम है। भागीरथी के धनुषाकार तट पर इन घाटों की पंक्तियाँ दूर तक चली गई हैं। प्रात: काल तो इनकी छटा अपूर्व ही होती है। पुरानी कहावत के अनुसार शामे अवध अर्थात् लखनऊ की शाम और सुबहे बनारस यानी वाराणसी का प्रात:काल देखने योग्य होता है। यहाँ की छोटी-छोटी और असाधारण रूप से सँकरी गलियाँ तथा उनमें स्वच्छंद विचरनेवाले साँड़ अपरिचितों के लिए कुतूहल् है ।महाराज सुदेव के पुत्र राजा दिवोदासने गंगा-तट पर वाराणसी नगर बसाया था। एक बार भगवान शंकर ने देखा कि पार्वती जी को अपने मायके (हिमालय-क्षेत्र) में रहने में संकोच होता है, तो उन्होंने किसी दूसरे सिद्धक्षेत्रमें रहने का विचार बनाया। उन्हें काशी अतिप्रिय लगी। वे यहां आ गए। भगवान शिव के सान्निध्य में रहने की इच्छा से देवता भी काशी में आ कर रहने लगे। राजा दिवोदास अपनी राजधानी काशी का आधिपत्य खो जाने से बडे दु:खी हुए। उन्होंने कठोर तपस्या करके ब्रह्माजी से वरदान मांगा- देवता देवलोक में रहें, भूलोक (पृथ्वी) मनुष्यों के लिए रहे। सृष्टिकर्ता ने एवमस्तु कह दिया। इसके फलस्वरूप भगवान शंकर और देवगणों को काशी छोड़ने के लिए विवश होना पडा। शिवजी मन्दराचलपर्वत पर चले तो गए परंतु काशी से उनका मोह कम नहीं हुआ। महादेव को उनकी प्रिय काशी में पुन: बसाने के उद्देश्य से चौसठ योगनियों, सूर्यदेव, ब्रह्माजी और नारायण ने बड़ा प्रयास किया। गणेशजी के सहयोग से अन्ततोगत्वा यह अभियान सफल हुआ। ज्ञानोपदेश पाकर राजा दिवोदासविरक्त हो गए। उन्होंने स्वयं एक शिवलिंग की स्थापना करके उस की अर्चना की और बाद में वे दिव्य विमान पर बैठकर शिवलोक चले गए। महादेव काशी वापस आ गए। स्कन्दमहापुराण में काशीखण्ड के नाम से एक विस्तृत पृथक विभाग ही है। इस पुरी के बारह प्रसिद्ध नाम- काशी, वाराणसी, अविमुक्त क्षेत्र, आनन्दकानन, महाश्मशान, रुद्रावास, काशिका, तप:स्थली, मुक्तिभूमि, शिवपुरी, त्रिपुरारिराजनगरीऔर विश्वनाथनगरी हैं।स्कन्दपुराण काशी की महिमा का गुण-गान करते हुए कहता है- भूमिष्ठापिन यात्र भूस्त्रिदिवतोऽप्युच्चैरध:स्थापियाया बद्धाभुविमुक्तिदास्युरमृतंयस्यांमृताजन्तव:। या नित्यंत्रिजगत्पवित्रतटिनीतीरेसुरै:सेव्यतेसा काशी त्रिपुरारिराजनगरीपायादपायाज्जगत्॥ भूतल पर होने पर पृथ्वी से संबद्ध नहीं है ।जगत की सीमाओं से बंधी होने पर भी सभी का बन्धन काटनेवाली मोक्षदायिनी गंगा है । महात्रिलोकपावनी गंगा के तट पर सुशोभित तथा देवताओं से सुसेवित है, त्रिपुरारि भगवान विश्वनाथ की राजधानी वह काशी संपूर्ण जगत् की रक्षा करे। सनातन धर्म के ग्रंथों के अध्ययन से काशी का लोकोत्तर स्वरूप विदित होता है। कहा जाता है कि यह पुरी भगवान शंकर के त्रिशूल पर बसी है। प्रलय होने पर भी इसका नाश नहीं होता है। वरुणा और असि नामक नदियों के बीच पांच कोस में बसी होने के कारण इसे वाराणसी भी कहते हैं। काशी नाम का अर्थ भी यही है-जहां ब्रह्म प्रकाशित हो। भगवान शिव काशी को कभी नहीं छोडते। जहां देह त्यागने मात्र से प्राणी मुक्त हो जाय, वह अविमुक्त क्षेत्र है। सनातन धर्मावलंबियों का दृढ विश्वास है कि काशी में देहावसान के समय भगवान शंकर मरणोन्मुख प्राणी को तारकमन्त्र सुनाते हैं। इससे जीव को तत्वज्ञान हो जाता है। शास्त्रों का उद्घोष है- यत्र कुत्रापिवाकाश्यांमरणेसमहेश्वर:।जन्तोर्दक्षिणकर्णेतुमत्तारंसमुपादिशेत्॥ काशी मे मृत्यु के समय भगवान विश्वेश्वर प्राणियों के दाहिने कान में तारक मन्त्र का उपदेश देते हैं। तारकमन्त्र सुन कर जीव भव-बन्धन से मुक्त हो जाता है। काशी मुक्ति और मोक्ष स्थल देती है । स्कन्द पुराण काशी खंड के अनुसार अन्यानिमुक्तिक्षेत्राणिकाशीप्राप्तिकराणिच।काशींप्राप्य विमुच्येतनान्यथातीर्थकोटिभि:।। पांच कोस की संपूर्ण काशी ही विश्व के अधिपति भगवान विश्वनाथ का आधिभौतिक स्वरूप है। काशीखण्ड ज्योतिर्लिंग का स्वरूप है ।अविमुक्तंमहत्क्षेत्रं पंचक्रोशपरीमितम्।"ज्योतिलंगम्तदेकंहि ज्ञेयंविश्वेश्वराभिधम्॥पांच कोस परिमाण के अविमुक्त क्षेत्र को विश्वेश्वर संज्ञक ज्योतिर्लिंग-स्वरूप है ।स्मृतियों में काशी मरणान्मुक्ति:के सिद्धांत है। रामकृष्ण मिशन के स्वामी शारदानंदजी द्वारा लिखित श्रीरामकृष्ण-लीलाप्रसंग पुस्तक में श्रीरामकृष्ण परमहंस देव का प्रत्यक्ष अनुभव है। वह दृष्टांत बाबा विश्वनाथ द्वारा काशी में पाप करने वाले को मरणोपरांत मुक्ति मिलने से पहले अतिभयंकर भैरवी यातना भोगनी पडती है। सहस्रों वर्षो तक रुद्र पिशाच बन कर कुकर्मो का प्रायश्चित्त करने के उपरांत उसे मुक्ति मिलती है। काशी में प्राण त्यागने वाले का पुनर्जन्म नहीं होता है। मुक्तिदायिनीकाशी की यात्रा, निवास और मरण तथा दाह-संस्कार का सौभाग्य पूर्वजन्मों के पुण्यों के प्रताप तथा बाबा विश्वनाथ की कृपा से प्राप्त होता है। काशी की स्तुति में कहा गया है- यत्र देहपतनेऽपिदेहिनांमुक्तिरेवभवतीतिनिश्चितम्।पूर्वपुण्यनिचयेनलभ्यतेविश्वनाथनगरीगरीयसी॥ काशी के अधिपति भगवान विश्वनाथ कहते हैं- इदं मम प्रियंक्षेत्रं पंचक्रोशीपरीमितम्। पांच कोस तक विस्तृत यह क्षेत्र (काशी) मुझे अत्यंत प्रिय है। पतित-पावनी काशी में स्थित विश्वेश्वर (विश्वनाथ) ज्योतिर्लिंग सनातनकाल से हिंदुओं के लिए परम आराध्य है, किंतु जनसाधारण इस तथ्य से प्राय: अनभिज्ञ ही है कि यह ज्योतिर्लिंग पांच कोस तक विस्तार लिए हुए है- पंचक्रोशात्मकं लिंगंज्योतिरूपंसनातनम्। ज्ञानरूपा पंचक्रोशात्मक | यह पुण्यक्षेत्र काशी के नाम से भी जाना जाता है-ज्ञानरूपा तुकाशीयं पंचक्रोशपरिमिता। पद्मपुराण में लिखा है कि सृष्टि के प्रारंभ में जिस ज्योतिर्लिगका ब्रह्मा और विष्णुजी ने दर्शन किया, उसे ही वेद और संसार में काशी नाम से पुकारा गया- यल्लिंगंदृष्टवन्तौहि नारायणपितामहौ।तदेवलोकेवेदेचकाशीतिपरिगीयते॥पांच कोस की काशी चैतन्यरूप है। इसलिए यह प्रलय के समय भी नष्ट नहीं होती। प्राचीन ब्रह्मवैक्र्त्तपुराणमें इस संदर्भ में स्पष्ट उल्लेख है कि अमर ऋषिगण प्रलयकाल में श्री सनातन महाविष्णुसे पूछते हैं- हे भगवन्!वह छत्र के आकार की ज्योति जल के ऊपर कैसे प्रकाशित है, जो प्रलय के समय पृथ्वी के डूबने पर भी नहीं डूबती? महाविष्णुजी बोले-हे ऋषियो! लिंगरूपधारीसदाशिवमहादेव का हमने (सृष्टि के आरम्भ में) तीनों लोकों के कल्याण के लिए जब स्मरण किया, तब वे शम्भु एक बित्ता परिमाण के लिंग-रूप में हमारे हृदय से बाहर आए और फिर वे बढ़ते हुए अतिशय वृद्धि के साथ पांच कोस के हो गए-लिंगरूपधर:शम्भुहर्दयाद्बहिरागत:।महतींवृद्धिमासाद्य पंचक्रोशात्मकोऽभवत्॥ काशी पंचक्रोशात्मकज्योतिर्लिगहै। काशीरहस्य के दूसरे अध्याय में यह कथानक मिलता है। स्कन्दपुराणके काशीखण्डमें स्वयं भगवान शिव यह घोषणा करते हैं-अविमुक्तं महत्क्षेत्रं पंचक्रोशपरिमितम्।ज्योतिर्लिंगम्तदेकंहि ज्ञेयंविश्वेश्वराऽभिधम्।।पांच कोस परिमाण का अविमुक्त (काशी) नामक जो महाक्षेत्र है, उस सम्पूर्ण पंचक्रोशात्मकक्षेत्र को विश्वेश्वर नामक एक ज्योतिर्लिंग ही मानें। इसी कारण काशी प्रलय होने पर भी नष्ट नहीं होती। काशीखण्डमें भगवान शंकर पांच कोस की पूरी काशी में बाबा विश्वनाथ का वास बताते हैं-एकदेशस्थितमपियथा मार्तण्डमण्डलम्।दृश्यतेसवर्गसर्वै:काश्यांविश्वेश्वरस्तथा॥जैसे सूर्यदेव एक जगह स्थित होने पर भी सब को दिखाई देते हैं, वैसे ही संपूर्ण काशी में सर्वत्र बाबा विश्वनाथ का ही दर्शन होता है।स्वयं विश्वेश्वर (विश्वनाथ) भी पांच कोस की अपनी पुरी (काशी) को अपना ही रूप कहते हैं- पंचक्रोश्यापरिमितातनुरेषापुरी मम। काशी की सीमा के विषय में शास्त्रों का कथन है-असी- वरणयोर्मध्ये पंचक्रोशमहत्तरम। असी और वरुणा नदियों के मध्य स्थित पांच कोस के क्षेत्र (काशी) की बड़ी महिमा है। महादेव माता पार्वती से काशी का इस प्रकार गुणगान करते हैं- सर्वक्षेत्रेषु भूपृष्ठेकाशीक्षेत्रंचमेवपु:। भूलोक के समस्त क्षेत्रों में काशी साक्षात् मेरा शरीर है।
पंचक्रोशात् मकज्योतिर्लिग-स्वरूपाकाशी सम्पूर्ण विश्व के स्वामी श्री विश्वनाथ का निवास-स्थान होने से भव-बंधन से मुक्तिदायिनी है। धर्मग्रन्थों में कहा भी गया है-काशी मरणान्मुक्ति:। काशी की परिक्रमा करने से सम्पूर्ण पृथ्वी की प्रदक्षिणा का पुण्यफल प्राप्त होता है। भक्त सब पापों से मुक्त होकर पवित्र हो जाता है। तीन पंचक्रोशी-परिक्रमा करने वाले के जन्म-जन्मान्तर के सभी पाप नष्ट हो जाते हैं। काशीवासियोंको कम से कम वर्ष में एक बार पंचकोसी-परिक्रमाअवश्य करनी चाहिए क्योंकि अन्य स्थानों पर किए गए पाप तो काशी की तीर्थयात्रा से उत्पन्न पुण्याग्नि में भस्म हो जाते हैं, परन्तु काशी में हुए पाप का नाश केवल पंचकोसी-प्रदक्षिणा से संभव है। काशी में सदाचार-संयम के साथ धर्म का पालन करना चाहिए । काशी और विश्वेश्वर ज्योतिर्लिगमें तत्त्वत:कोई भेद नहीं है। नि:संदेह सम्पूर्ण काशी ही बाबा विश्वनाथ का स्वरूप है। काशी-महात्म्य में ऋषियों का उद्घोष है-काशी सर्वाऽपिविश्वेशरूपिणीनात्रसंशय:। अतएव काशी को विश्वनाथजी का रूप मानने में कोई संशय न करें और भक्ति-भाव से नित्य जप करें- शिव: काशी शिव: काशी, काशी काशी शिव: शिव:। ज्येष्ठ मास के शुक्लपक्ष की एकादशी तिथि (निर्जला एकादशी) के दिन श्री काशीविश्वनाथ की वार्षिक कलश-यात्रा वाराणसी में बडी धूमधाम एवं श्रद्धा के साथ आयोजित होती है, जिसमें बाबा का पंचमहानदियोंके जल से अभिषेक होता है। काशी शब्द का अर्थ है, प्रकाश देने वाली नगरी। जिस स्थान से ज्ञान का प्रकाश चारों ओर फैलता है, उसे काशी कहते हैं। ऐसी मान्यता है कि काशी-क्षेत्र में देहान्त होने पर जीव को मोक्ष की प्राप्ति होती है, काश्यांमरणान्मुक्ति:। काशी-क्षेत्र की सीमा निर्धारित करने के लिए पुराकालमें पंचक्रोशीमार्ग का निर्माण किया गया। जिस वर्ष अधिमास (अधिक मास) लगता है, उस वर्ष इस महीने में पंचक्रोशीयात्रा की जाती है। पंचक्रोशी (पंचकोसी) यात्रा करके भक्तगण भगवान शिव और उनकी नगरी काशी के प्रति अपना सम्मान प्रकट करते हैं। लोक में ऐसी मान्यता है कि पंचक्रोशीयात्रा से लौकिक और पारलौकिक अभीष्टिकी सिद्धि होती है। अधिमास को पुरुषोत्तम मास भी कहा जाता है। लोक-भाषा में इसे मलमास कहा जाता है। इस वर्ष मलमास प्रथम-ज्येष्ठ शुक्ल (अधिक) प्रतिपदा से प्रारम्भ होकर द्वितीय-ज्येष्ठ कृष्णपक्ष (अधिक) अमावस्या तिथि को समाप्त होगा। पंचक्रोशीयात्रा के कुछ नियम है, जिनका पालन यात्रियों को करना पड़ता है। परिक्रमा नंगे पांव की जाती है। वाहन से परिक्रमा करने पर पंचक्रोशी-यात्राका पुण्य नहीं मिलता। शौचादिक्रिया काशी-क्षेत्र से बाहर करने का विधान है। परिक्रमा करते समय शिव-विषयक भजन-कीर्तन करने का विधान है। कुछ ऐसे भी यात्री होते हैं, जो सम्पूर्ण परिक्रमा दण्डवत करते हैं। यात्री हर-हर महादेव शम्भो, काशी विश्वनाथ गंगे, काशी विश्वनाथ गंगे, माता पार्वती संगेका मधुर गान करते हुए परिक्रमा करते हैं। साधु, महात्मा एवं संस्कृतज्ञयात्री महिम्नस्त्रोत, शिवताण्डव एवं रुद्राष्टकका सस्वर गायन करते हुए परिक्रमा करते हैं। महिलाएं सामूहिक रूप से शिव-विषयक लोक गीतों का गायन करती हैं। परिक्रमा अवधि में शाकाहारी भोजन करने का विधान है। पंचक्रोशीयात्रा मणिकर्णिकाघाट से प्रारम्भ होती है। सर्वप्रथम यात्रीगणमणिकर्णिकाकुण्ड एवं गंगा जी में स्नान करते हैं। इसके बाद परिक्रमा-संकल्प लेने के लिए ज्ञानवापी जाते हैं। यहां पर पंडे यात्रियों को संकल्प दिलाते हैं। संकल्प लेने के उपरांत यात्री श्रृंगार गौरी, बाबा विश्वनाथ एवं अन्नपूर्णा जी का दर्शन करके पुन:मणिकर्णिकाघाट लौट आते हैं। यहां वे मणिकर्णिकेश्वरमहादेव एवं सिद्धि विनायक का दर्शन-पूजन करके पंचक्रोशीयात्रा का प्रारम्भ करते हैं। गंगा के किनारे-किनारे चलकर यात्री अस्सी घाट आते है। यहां से वे नगर में प्रवेश करते है। लंका, नरिया, करौंदी, आदित्यनगर, चितईपुरहोते हुए यात्री प्रथम पडाव कन्दवा पर पहुंचते हैं। यहां वे कर्दमेश्वरमहादेव का दर्शन-पूजन करके रात्रि-विश्राम करते हैं। रास्ते में पडने वाले सभी मंदिरों में यात्री देव-पूजन करते हैं। अक्षत और द्रव्य दान करते हैं। रास्ते में स्थान-स्थान पर भिक्षार्थी यात्रियों को नंदी के प्रतीक के रूप में सजे हुए वृषभ का दर्शन कराते हैं और यात्री उन्हें दान-दक्षिणा देते हैं। कुछ भिक्षार्थी शिव की सर्पमालाके प्रतीक रूप में यात्रियों को सर्प-दर्शन कराते हैं और बदले में अक्षत और द्रव्य-दान प्राप्त करते हैं। परिक्रमा-अवधि में यात्री अपनी पारिवारिक और व्यक्तिगत चिन्ताओं से मुक्त होकर पांच दिनों के लिए शिवमय, काशीमय हो जाते हैं। दूसरे दिन भोर में यात्री कन्दवा से अगले पड़ाव के लिए चलते हैं। अगला पड़ाव है भीमचण्डी। यहां यात्री दुर्गामंदिर में दुर्गा जी की पूजा करते हैं और पहले पड़ाव के सारे कर्मकाण्ड को दुहराते हैं। पंचक्रोशीयात्रा का तीसरा पडाव रामेश्वर है। यहां शिव-मंदिर में यात्रीगणशिव-पूजा करते हैं। चौथा पड़ाव पांचों-पण्डव पड़ाव शिवपुर क्षेत्र में पडता है। पाण्डव युधिष्ठिर, अर्जुन, भीम, नकुल तथा सहदेव की मूर्तियां हैं। द्रौपदीकुण्ड में स्नान करके यात्रीगणपांचों पाण्डवों का दर्शन करते हैं। रात्रि-विश्राम के उपरांत यात्री पांचवें दिन अंतिम पड़ाव के लिए प्रस्थान करते हैं। अंतिम पड़ाव कपिलधारा है। यात्रीगणयहां कपिलेश्वर महादेव की पूजा करते हैं। काशी परिक्रमा में पांच की प्रधानता है। यात्री प्रतिदिन पांच कोस की यात्रा करते हैं। पड़ाव संख्या भी पांच है। परिक्रमा पांच दिनों तक चलती है। कपिलधारा से यात्रीगण मणिकर्णिका घाट आते हैं। यहां वे साक्षी विनायक का दर्शन करते हैं। काशी विश्वनाथ एवं काल-भैरव का दर्शन कर यात्रा-संकल्प पूर्ण करते हैं। काशी परिभ्रमण के तहत मैन गंगा एवं भगवान विश्वनाथ का दर्शन 13 जनवरी 2022 को किया । काशी के विभिन्न स्थानों का ऐतिहासिक तथा प्राचीन स्थलों को परिभ्रमण कर शांति और हृदयोल्लास से आनंदित हुआ । कोरोना काल के कारण काशी के विभिन्न स्थानों पर पदयात्रा की आई ।काशी में पड़ यात्रा में अनुभूति आनंदमय मिलता है । मेरे साथ दिव्य रश्मि के संपादक राकेश दत्त मिश्र थे । बाबा विश्वनाथ मंदिर के चतुर्दिक विकास में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी द्वारा महत्वपूर्ण पहसल की गई है ।
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