शनिवार, अगस्त 27, 2022

सकरतमस्क ऊर्जा का द्योतक कुश ...


         वेदों , पुरणों और स्मृतियों में कुश को पवित्र कहा गया है । कुश की पत्तियाँ नुकीली, तीखी और कड़ी होती है। विश्व के विभिन्न क्षेत्रों में  कुश को  एराग्रस्तिस  , अकंप्टोलडोस नाश , बोरिसकेलर टेरेचोव ,,डिएंड्रोचॉ डे विंटर , एरोचलोए रफ , केरोसिन लुनेल ,मॉरोबलेफोर्स फिल ,नीराग्रस्तइस बुश ,, पसिलैंथ ट्ज़वेलेव , रोशेवितज़िया ट्ज़वेलेव एवं कुश , कुशा कहा जाता है ।सनातन धर्म में  कुश  पवित्र  है । अथर्ववेद में  क्रोधशामक और अशुभनिवारक  है।  नित्यनैमित्तिक धार्मिक कृत्यों और श्राद्ध आदि कर्मों में कुश का उपयोग होता है। कौटिल्य साहित्य में कुश से तेल निकाने का  उल्लेख  है। भावप्रकाश के अनुसार कुश त्रिदोषघ्न और शैत्य-गुण-विशिष्ट है। कुश की जड़ से मूत्रकृच्छ, अश्मरी, तृष्णा, वस्ति और प्रदर रोग को लाभ होता है। महाभारत आदि पर्व अध्याय 23 के अनुसार गरुड़ जी अपनी माता की दासत्व से मुक्ति के लिए स्वर्ग से अमृत कलश लाकर कुशों पर रखने से अमृत का संसर्ग होने के कारण  कुश को पवित्री कहा गया  है । जातक के जन्म कुंडली या लग्न कुण्डली में राहु महादशा की आने पर कुश के पानी मे ड़ालकर स्नान करने से राहु की कृपा प्राप्त होती है। महाभारत आदिपर्व अध्याय 23 के अनुसार गरुड़ जी अपनी माता की दासत्व से मुक्ति के लिए स्वर्ग से अमृत कलश लाये थे, उसको उन्होंने कुशों पर रखा था। अमृत का संसर्ग होने के कारण  कुश को पवित्री कहा गया  है । जातक के जन्म कुंडली या लग्न कुण्डली में राहु महादशा आती है तब  कुश के पानी मे ड़ालकर स्नान करने से राहु की कृपा प्राप्त होती है। भगवान विष्णु के पसीने से  तिल और शरीर के रोम से कुश उत्पन्न हुए हैं। कुश का मूल ब्रह्मा, मध्य विष्णु और अग्रभाग शिव का जानना चाहिए। ये देव कुश में प्रतिष्ठित माने गए हैं। ब्राह्मण, मंत्र, कुश, अग्नि और तुलसी पुराने नहीं होते वल्कि  पूजा में बार-बार प्रयोग से सर्वांगीण सुख की प्राप्ति होती है  ।
दर्भ मूले स्थितो ब्रह्मा मध्ये देवो जनार्दनः। दर्भाग्रे शंकरं विद्यात त्रयो देवाः कुशे स्मृताः।।
विप्रा मन्त्राः कुशा वह्निस्तुलसी च खगेश्वर। नैते निर्माल्यताम क्रियमाणाः पुनः पुनः।।
तुलसी ब्राह्मणा गावो विष्णुरेकाद्शी खग। पञ्च प्रवहणान्येव भवाब्धौ मज्ज्ताम न्रिणाम।।
विष्णु एकादशी गीता तुलसी विप्रधनेवः। आसारे दुर्ग संसारे षट्पदी मुक्तिदायनी।।
कुश को अनुष्ठान करते समय  अंगूठी की भांति तैयार कर हथेली की बीच वाली उंगली में पहनी जाती है। अंगुठी के अलावा कुश से पवित्र जल का छिडकाव किया जाता है। मानसिक और शारीरिक पवित्रता के लिए कुश का उपयोग पूजा में आवश्यक है।  ग्रहण से पहले और ग्रहण के दौरान खाने-पीने की चीजों में कुश डाल कर रख दिया जाता है। कुश का अनुसंधान के अनुसार  कुश घास प्राकृतिक रूप से छोटे-छोटे कीटाणुओं को दूर करने में  सहायक और  प्यूरिफिकेशन का काम करता है। पानी में कुश रखने से छोटे- छोटे सूक्ष्म कीटाणु  कुश घास के समीप एकत्रित हो जाते हैं। अथर्ववेद के अनुसार कुश घास के उपयोग करने से  क्रोध को नियंत्रित करने में सहायक होती है। कुश का प्रयोग एक औषधि के रूप में किया जाता है। मत्स्य पुराण के अनुसार वराह कल्प में   भगवान विष्णु ने वराह अवतार धारण कर दैत्यराज  हिरण्याक्ष  का वध कर  धरती को समुद्र से निकालकर सभी प्राणियों की रक्षा की थी। भगवान वराह ने भाद्रपद कृष्ण पक्ष अमावस्या वराह कल्प को   शरीर पर लगे पानी को झटका करने से   भगवान वराह के शरीर के  बाल पृथ्वी पर आकर गिरा और कुश का रूप धारण कर लिया था । कर्ण ने अपने पितरों का तर्पण किया तब इसमें उन्होंने कुश का ही उपयोग किया था। तभी से यह मान्यता है कि कुश पहनकर जो भी अपने पितरों का श्राद्ध करता है उनसे पितरदेव तृप्त होते हैं। कुश के उपयोग से कई तरह की सकारात्मक ऊर्जाएं  मिलती है। कुश के आसन पर बैठकर पूजा-पाठ और ध्यान करते हैं तब उस दौरान हमारे शरीर से सकारात्मक ऊर्जाएं लगातार निकलती रहती है।कुश की अंगूठी के अनामिका उंगली में पहनने के पीछे भी इसका आध्यात्मिक महत्व है। धार्मिक अनुष्ठान में कुश की अंगूठी को हथेली तीसरी उंगली में पहना जाता है। अनामिका यानी रिंग उंगली के नीचे सूर्य का स्थान होने के कारण ज्योतिष में सूर्य को तेज और यश का प्रतीक माना गया है ऐसे में इससे प्राप्त होने वाली ऊर्जा धरती पर नहीं जा पाती। पूजा और धार्मिक अनुष्ठान में कुश घास के इस्तेमाल पीछ भी वैज्ञानिक कारण छिपे हुए हैं। दरअसल इस कुश घास में एक तरह का प्यूरिफिकेशन होने के कारण शुद्ध और दवाईयों के रूप में किया जाता है। कुश में एंटी ओबेसिटी, एंटीऑक्सीडेंट और एनालजेसिक कंटेंट मौजूद रहता है। धार्मिक व यज्ञ , अनुष्ठान , तर्पण , आदि कार्यों में कुश का महत्वपूर्ण स्थान है ।भाद्रपद कृष्ण पक्ष अमावस्या को कुश को समर्पित तिथि को कुश अमावस्या कहा जाता है । भाद्रपद अमावस्या को जड़ सहित  कुश को घर में रखने से सकारात्मक ऊर्जा का प्रवेश और नकारात्मक ऊर्जा का ह्रास होता है|






 

मंगलवार, अगस्त 23, 2022

ज्योतिष गणना का रूप है पञ्चाङ्ग...


     सनातन धर्म के ज्योतिष शास्त्र में  सृष्टि प्रारम्भ का सूर्य , चंद्रमा , नक्षत्र , तारे और ग्रह के अनुसार ज्योतिष का अविष्यकार ऋषि भृगु द्वारा किया गया । कालांतर ज्योतिषों ने नक्षत्र , योग , करण , तिथि और वार को पञ्चाङ्ग कहा जाता है । ज्योतिष और खगोल शास्त्र के विभिन्न शास्त्रियों द्वारा विभिन्न पंचांगों में सूर्य , चंद्रमा , तारों ,नक्षत्रों और तरामंडलों की दिशाओं का जीवन की आर्थिक , धार्मिक एवं सांस्कृतिक का समावेश सप्ताहों , दिनों , पक्षों , माहों और वर्षो का रूप दिया गया है । पक्षों में शुक्ल और कृष्ण है । पंचांग को संहिता संहिता पारग , पतरा , पंचांग ,  सौर पञ्चाङ्ग , चंद्र पञ्चाङ्ग ,एम्फेमेरिस कहा जाता है। 
दो हजार  ई .पू - ज्योतिष पर आधारित वैदिक काल के भारतीय खगोलशास्त्र की पंचांग , , 1000 ई . पू - बैबिलोनियाई खगोलशास्त्र के पंचांग ,दूसरी सदी ईसवी - टॉलमी की अल्मागेस्ट , ८वीं सदी ई . में  इब्राहीम अल-फ़ज़ारी की ज़ीज ('ज़ीज तारों ) , ९वीं सदी ईसवी - मुहम्मद इब्न मूसा अल-ख़्वारिज़्मी की ज़ीज , १२वीं सदी ईसवी - क्रेमोना के जेरार्ड द्वारा अरबी ज़ीज पर आधारित 'तोलेदो 'यूरोप के प्रचलित पंचांग बन गए थे ।,१३वीं सदी ईसवी - मराग़ेह वेधशाला (ऑब्ज़रवेटरी) की ज़ीज-ए-इलख़ानी , १३वीं सदी ईसवी - 'तोलेदो की तालिकाओं' में कुछ ख़ामियाँ ठीक करने वाली 'अल्फ़ोंसीन यूरोप का नया प्रमुख पंचांग बन गया  था। , १४०८ ई - चीनी पंचांग , १४९६ ई - पुर्तगाल के अब्राऊं बेन सामुएल ज़ाकुतो का 'अल्मनाक पेरपेतूम' ,१५०८ ई - यूरोपीय खोजयात्री क्रिस्टोफ़र कोलम्बस द्वारा जर्मन खगोलशास्त्री रेजियोमोंतानस के पंचांग का प्रयोग करके जमैका के आदिवासियों के लिए चाँद ग्रहण , १५५१ ई - कोपरनिकस की अवधारणाओं पर आधारित एराज़मस राइनहोल्ड की 'प्रूटेनिक 'यूरोप का  मानक पंचांग बन गई थी । १५५४ ई - योहानेस स्टाडियस ने अपनी कृति में ग्रहों की स्थितियों की भविष्यवानी  थी ,१६२७ ई - योहानेस केप्लर की 'रूदोल्फ़ीन तालिकाएँ' नया यूरोपीय मानक बन गई है । विभिन्न राजाओं द्वारा भिन्न भिन्न समय पर पंचाग का प्रारंभ हुआ है । पंचांग में गणना के पाँच अंगों में वार , तिथि , माह ,नक्षत्र , योग .है।  राशियाँ बारह सौर मास हैं। जिस दिन सूर्य जिस राशि में प्रवेश करता है उसी दिन की संक्रांति होती है। पूर्णिमा के दिन चंद्रमा जिस नक्षत्र में होता है उसी आधार पर महीनों का नामकरण हुआ है। चंद्र वर्ष, सौर वर्ष से ११ दिन ३ घड़ी ४८ पल छोटा है ।विक्रमी पञ्चाङ्ग - यह सर्वाधिक प्रसिद्ध पञ्चाङ्ग है जो भारत के उत्तरी, पश्चिमी और मध्य भाग में प्रचलित है।भारत में गणना के आधार पर हिंदू पंचांग की तीन धाराएँ हैं- पहली चंद्र आधारित, दूसरी नक्षत्र आधारित और तीसरी सूर्य आधारित कैलेंडर पद्धति। भिन्न-भिन्न रूप में यह पूरे भारत में माना जाता है।सभी विषय या वस्तु के प्रमुख पाँच अंग को पंचांग कहते हैं। भारतीय ज्योतिष शास्त्र के पाँच अंगों की दैनिक जानकारी पंचांग में दी जाती है। ये अंग तिथि, वार, नक्षत्र, योग, करण हैं।हिन्दू पंचांग की उत्पत्ति वैदिक काल में ही हो चुकी थी। सूर्य को जगत की आत्मा मानकर उक्त काल में सूर्य एवं नक्षत्र सिद्धांत पर आधारित पंचांग होता था। वैदिक काल के पश्चात आर्यभट्ट, वराहमिहिर, भास्कर आदि जैसे खगोलशास्त्रियों ने पंचांग को विकसित कर उसमें चन्द्र की कलाओं का भी वर्णन किया।प्रतिपादित सिद्धांत, सूर्य सिद्धांत और ग्रहलाघव ने भारत के विभिन्न क्षेत्रों में अतीत में असंख्य कैलेंडर या पंचांगों का आधार बनाया है। सर्वप्रथम 153 ईस्वी पूर्व में 1 जनवरी को वर्ष का शुभारम्भ माना गया एवं 45 ईस्वी पूर्व में जब रोम के तानाशाह जूलियस सीजर द्वारा जूलियन कैलेण्डर का शुभारम्भ हुआ, तो यह सिलसिला बरकरार रखा गया। ऐसा करने के लिए जूलियस सीजर को पिछला साल, यानि, ईसा पूर्व 46 ई. को 445 दिनों का करना पड़ा था।1957 में भारत सरकार ने शक संवत् को देश के राष्ट्रीय पंचांग के रूप में मान्यता प्रदान की थी। इसीलिए राजपत्र (गजट) , आकाशवाणी और सरकारी कैलेंडरों में ग्रेगेरियन कैलेंडर के साथ इसका भी प्रयोग किया जाता है। शक संवत को शालिवाहन संवत भी कहा जाता है और इसका आधार सौर गणना है। ग्रिगोरियन कैलेंडर सूर्य चक्र पर आधारित की शुरुआत सन् 1582 में हुई थी । पंचांग वैज्ञानिक है । जबकि ग्रेगोरियन कैलेंडर मुख्य रूप से सूर्य की गति पर आधारित होता है, हिंदू कैलेंडर चंद्रमा और सूर्य दोनों पर आधारित होता है। चंद्र चक्र 29.53 दिनों तक है।  राजा ईसा पूर्व सातवीं शताब्दी में था।  विश्व  में कैलेंडर प्रयोग में लाया जाता है। रोमन सम्राट जूलियस सीजर का ईसा पूर्व पहली शताब्दी में बनाया कैलेंडर है। जूलियस सीजर ने कैलेंडर को बनाने में यूनानी ज्योतिषी सोसिजिनीस की सहायता ली थी। पंचांग या शाब्‍दिक अर्थ है पंच + अंग = पांच अंग यानि पंचांग।  हिन्दू काल-गणना की रीति से निर्मित पारम्परिक कैलेण्डर या कालदर्शक  कहते हैं। पंचांग  के   तिथि, वार, नक्षत्र, योग और करण पंच प्रमुख  है।  कृषि-पंचांग को 'कृषि और संबद्ध गतिविधियों के, मूल रूप से क्षेत्र-वार, मौसम-वार और फसल का ज्योतिष पर आधारित है । 
पुराने रोमन वर्ष में 304 दिनों को 10 महीनों में विभाजितकी शुरुआत मार्च से हुई थी। इतिहासकार लिवी ने 12 महीने के कैलेंडर को तैयार करने के लिए दूसरे प्रारंभिक रोमन राजा नुमा पोम्पिलियस को श्रेय दिया जाता था । फाल्गुन हिंदू पंचांग के अनुसार चैत्र माह से प्रारंभ होने वाले वर्ष का बारहवाँ तथा अंतिम महीना  ईस्वी कलेंडर के मार्च माह में पड़ता है विक्रम युग (58 ईसा पूर्व) को जैन पुस्तक कालकाचार्यकथा के अनुसार  शक पर राजा विक्रमादित्य की जीत के बाद स्थापित किया गया था। विक्रम युग की नींव का श्रेय सिथो-पार्थियन शासक एजेस  हैं। चैत्र कृष्ण  प्रतिपदा, 1879 व  22 मार्च 1957 को 78 ई. का  शक संवत् को भारत के राष्ट्रीय कैलेंडर के रूप में अपनाया गया है। अमेरिका की  माया सभ्यता ग्वाटेमाला, मैक्सिको, होंडुरास तथा यूकाटन प्रायद्वीप में स्थापित थी। माया सभ्यता  का आरम्भ 1500 ई० पू० में हुआ था । विश्व  में उपयोग किया जाने वाला कालदर्शक या तिथिपत्रक को जूलियन कालदर्शक  का रूपान्तरण को  पोप ग्रेगोरी  XIII ने लागू किया था। प्रतिपादित सिद्धांत, सूर्य सिद्धांत और ग्रहलाघव ने भारत के विभिन्न क्षेत्रों में अतीत में असंख्य कैलेंडर या पंचांगों का आधार बनाया गया है । भारत में  गणना के आधार पर सनातन  पंचांग की तीन धाराएँ  चंद्र आधारित, नक्षत्र आधारित है । विश्व के त्योहार एवं  धार्मिक कार्यो के लिए विश्व मे 40 कैलेंडर  बनाए गए थे । सौर पञ्चाङ्ग , चंद्र पंचांग , सप्तऋषि पंचांग , ऋषि पञ्चाङ्ग , युधिष्ठिर पंचांग , कली पंचांग ,  प्राचीन है । 
 सनातन धर्म संस्कृति में प्राचीन काल से भारत में प्रयुक्त होते आ रहे पञ्चाङ्ग में  चान्द्र सौर प्रकृति के कालगणना की समान संकल्पनाओं और विधियों पर आधारित एवं  मासों के नाम, वर्ष का आरम्भ (वर्षप्रतिपदा) आदि की दृष्टि से अलग होते हैं। भारत में प्रयुक्त होने वाले प्रमुख पञ्चाङ्ग  में  विक्रमी पञ्चाङ्ग - यह सर्वाधिक प्रसिद्ध पञ्चाङ्ग है जो भारत के उत्तरी, पश्चिमी और मध्य भाग में प्रचलित है। तमिल पञ्चाङ्ग - दक्षिण भारत में प्रचलित है, बंगाली पञ्चाङ्ग - बंगाल तथा कुछ पूर्वी भागों में प्रचलित है। मलयालम पञ्चाङ्ग - केरल में प्रचलित  और सौर पंचाग है। ग्रेगोरी कैलेंडर चन्द्रवाक्य ,पञ्चाङ्गम् , इस्लामी कैलेंडर ,चीनी कैलेंडर ,भारतीय राष्ट्रीय पंचांग ,विक्रम पंचांग , ,शक पंचांग ,  माया पंचांग , विक्रम पञ्चाङ्ग का नाव वर्ष चैत्र शुक्ल प्रतिपदा , शालिवाहन पंचांग शक संबत चैत्र कृष्ण प्रतिपदा , फसली पंचांग ,बंगला पंचांग , नेपाली पंचांग ,हिजरी पंचांग , ग्रेगोरियन पंचांग , गुजराती पंचांग , ऋषिकेश पंचांग , काशी पंचांग ,  मिथिला पंचांग प्रचलित है ।
भारतीय ज्योतिष आचार्यों द्वारा रचित ज्योतिष पांडुलिपियों की संख्या एक लाख से अधिक है ।पुरातन काल में गणित एवं ज्योतिष संदर्शियों द्वारा तंत्र सिद्धांत ,होरा ,शाखा अर्थात तंत्र होड़ा शाखा को मिला कर संहिता पारग कहा गया था ।ज्‍योतिष या ज्यौतिष विषय वेदों जितना ही प्राचीन है। प्राचीन काल में ग्रह, नक्षत्र और अन्‍य खगोलीय पिण्‍डों का अध्‍ययन करने के विषय को  ज्‍योतिष कहा गया था।  सिद्धान्त, तन्त्र और करण के लक्षणों में यह है कि ग्रहगणित का विचार जिसमें कल्पादि या सृष्टयादि से हो वह सिद्धान्त, में महायुगादि से तन्त्र और जिसमें किसी इष्टशक व कलियुग के आरम्भ से करण कहलाता है । मात्र ग्रहगणित की दृष्टि से देखा जाय तो इन तीनों में कोई भेद नहीं है। सिद्धान्त, तन्त्र या करण ग्रन्थ के जिन प्रकरणों में १-मध्यमाधिकार २–स्पष्टाधिकार ३-त्रिप्रश्नाधिकार ४-चन्द्रग्रहणाधिकार ५-सूर्यग्रहणाधिकार ६-छायाधिकार ७–उदयास्ताधिकार ८-शृङ्गोन्नत्यधिकार ९-ग्रहयुत्यधिकार १०-याताधिकार शामिल हैं। वेदाङ्ग ज्योतिष ,सिद्धान्त ज्योतिष या 'गणित ज्योतिष' , फलित ज्योतिष , अंक ज्योतिष , खगोल शास्त्र  संहिता पारग में शामिल था । यज्ञों की तिथि आदि निश्चित करने में ज्योतिष विद्या का प्रयोजन था । अयन का उल्लेख  वैदिक ग्रंथों में  है ।  पुनर्वसु से मृगशिरा (ऋगवेद), मृगशिरा से रोहिणी (ऐतरेय ब्राह्मण), रोहिणी से कृत्तिका (तौत्तिरीय संहिता) कृत्तिका से भरणी (वेदाङ्ग ज्योतिष) । तैत्तरिय संहिता के अनुसार  प्राचीन काल में वासंत विषुवद्दिन कृत्तिका नक्षत्र में पड़ता था ।  वासंत विषुवद्दिन से वैदिक वर्ष का आरम्भ माना जाता था । अयन की गणना माघ मास  थी ।  वर्ष की गणना शारद विषुवद्दिन से आरम्भ हुई । वैदिक काल में  वासंत विषुवद्दिन मृगशिरा नक्षत्र में पड़ता था । बाल गंगाधर तिलक ने ऋग्वेद से अनेक प्रमाण देकर सिद्ध किया है ।  वासंत विषुबद्दिन की  ईसा से 4 हजार वर्ष पूर्व थी । छह हजार वर्ष पहले हिंदुओं को नक्षत्र अयन आदि का ज्ञान  और यज्ञों के लिये पत्रा बनाते थे। शारद वर्ष के प्रथम मास का अग्रहायण था जिसकी पूर्णिमा मृगशिरा नक्षत्र में पड़ती थी । भगवान कृष्ण ने गीता में कहा है कि 'महीनों में मैं मार्गशीर्ष हूँ' । वराहमिहिर के समय में ज्योतिष के सम्बन्ध में पाँच प्रकार के सिद्धांत सौर, पैतामह, वासिष्ठ, पौलिश ओर रोमक थे । सौर सिद्धान्त  सूर्यसिद्धान्त  है । वराहमिहिर और ब्रह्मगुप्त द्वारा सूर्य सिद्धान्त ग्रंथ से सहायता थी । सूर्य सिद्धांत  ग्रंथों में ग्रहों के भुजांश, स्थान, युति, उदय, अस्त , अक्षांश और देशांतर  आदि जानने की क्रियाएँ   हैं ।भारतीय ज्योतिषी गणना के लिये पृथ्वी को केंद्र मानकर और ग्रहों की स्पष्ट स्थिति या गति लेते थे । क्रांतिवृत्त द्वारा २८ नक्षत्रों में विभक्त किया गया था ।

रविवार, अगस्त 21, 2022

जहानाबाद की विरासत ....


    जहानाबाद जिला मुख्यालय  दरधा  और जमुना नदियों के संगम पर स्थित है । बिहार का जहानाबाद जिला मुख्यालयजहानाबाद शहर को दो भागों में बांटा गया है आवासीय और व्यापारिक क्वार्टर, डिस्पेंसरी, डाकघर, जहानाबाद रेलवे स्टेशन, ऐतिहासिक पंचशिवलिंग, ठाकुर जी,  ठाकुरवाड़ी ,भगवान सूर्य , वराह मंदिर में वराह, प्राचीन देवी मंदिर, वैष्णवी मंदिर, बुद्ध शिव लिंग , जिला मजिस्ट्रेट, उप विकास आयुक्त , आरक्षी अधीक्षक , निवास , कृषि , विद्युत , स्वास्थ्य विभाग , उद्योग विभाग, शिक्षा विभाग, दूरसंचार , प्रधान डाकघर  का कार्यालय , एरोड्राम , स्टेडियम  , दरधा की दाहिनी शाखा के उत्तर में स्थित हैं, जबकि सार्वजनिक कार्यालय, जिला और अनुमंडल कार्यालय, अनुमंडल अधिकारी निवास और डाक बंगला, गांधी मैदान, गोरक्षणी ,  स्टेट बैंक ऑफ इंडिया, जिला न्यायाधीश, जिला अदालत, जिला परिषद, नगर परिषद, जहानाबाद प्रखंड  मुख्यालय, नदी के दक्षिण में हैं। जनता की सुविधा के लिए जहानाबाद शहर के बाद की स्थिति के पास एक छोटा कोर्ट रेलवे स्टेशन  जहानाबाद कचहरी व जहानाबाद कोर्ट है और जहानाबाद का मुख्य स्टेशन उत्तर में जहानाबाद स्टेशन  है। यह शहर कभी अपने बुनाई उद्योग के लिए प्रसिद्ध था, और 1760 में इसने पटना में ईस्ट इंडिया कंपनी के केंद्रीय कपड़ा कारखाने से जुड़ी आठ छोटी शाखाओं में से एक का गठन किया। उन्नीसवीं शताब्दी के शुरुआती वर्षों में जहानाबाद शहर में लगभग 700 घर कपड़े की फैक्ट्री और साल्टपीटर के निर्माण के लिए एक प्राकृतिक एजेंसी थी। इसके तुरंत बाद कारखाने में कमी आने लगी और अंततः इसे समाप्त कर दिया गया था । स्थानीय परंपरा का दावा है कि कारखाने के साथ कंपनी का संबंध लगभग 1820 में समाप्त हो गया। लेकिन स्थानीय उद्योग परिणाम में बंद नहीं हुआ और 1857 के बाद मैनचेस्टर के प्रतियोगिता में प्रवेश करने तक पड़ोस में कपास का काफी निर्यात व्यापार जारी रहा। बुनकर ने तब इसे अंग्रेजी धागे से सस्ता पाया और उपभोक्ता ने इनसान हथकरघा की उपज के लिए मैनचेस्टर के टुकड़े के सामान को प्राथमिकता देना शुरू कर दिया। परिणामस्वरूप सूती कपड़े के निर्माता में गिरावट आई और आयातित सामानों द्वारा प्रदर्शित किया गया। बड़ी संख्या में कोलाहल या जुलाहा , बुनकर वर्ग अभी भी पड़ोस में रहते हैं और कुछ हथकरघा कपड़े का उत्पादन करते हैं। जहानाबाद के व्यापार को अन्य चैनलों में बदल दिया गया है और अब इसमें मुख्य रूप से खाद्यान्न तेलहन, टुकड़े के सामान और फैंसी लेख शामिल हैं। पटना और गया के बीच रेलवे के बीच होने वाली जगह की स्थिति व्यापार के लिए मददगार है।  ऐतिहासिक इमारतें नहीं हैं और पुराने ईंट के घर का कोई निशान नहीं बचा है, जिसे डचों द्वारा कपड़े के डिपो के रूप में बनाया गया था, जिसका उल्लेख बंगाल के सांख्यिकीय खाते में वर्षों पहले के रूप में किया गया है। 1901 से 2011 की जनगणना तक जहानाबाद शहर की जनसंख्या नीचे दी गई है - वर्ष 1901 में कुल आबादी - 7018. -.पुरुष  3629. -  महिला 3389 ,1911. - 4764. - 2498.- 2266 ,1921 - 6956. - 3883. - 3073 , 1931.-8764.-4884-. 3880 ,1941.- 10842 - 5863 - 4979 , 1951 - 12445. - 6376 - 6 069 है ।   उत्तरी जिला जहानाबाद का मुख्यालय का जहानबद शहर  20 वर्ग मील में फैला हुआ था । जिले का नागरिक और राजस्व प्रशासन पटना संभाग के आयुक्त के अधीन कलेक्टर का प्रभारी होता है और सामान्य प्रशासन उद्देश्यों के लिए इसे जहानाबाद उपखंड में विभाजित किया जाता है। जहानाबाद उपखंड की स्थापना 1872 में हुई थी जब पुरानी शेरघाटी उपखंड को समाप्त कर दिया गया था। बिहार एन्ड उड़ीसा लोकल सेल्फ गोवर्नमेंट एक्ट ऑफ 1865 के तहत जहानाबाद यूनियन कमिटि का गठन 1911 ई. में 8 वर्ग मिल क्षेत्रफल में फैले आवादी 12559 थी । जहानबाद यूनियन कमिटि के सदस्य 9 थे । लोकल सेल्फ गवर्नमेंट एक्ट 1923 के अंतर्गत 1924 में जहानाबाद लोकल बोर्ड का गठन किया गया था । जहानाबाद लोकल बोर्ड में 11 सदस्य चयनित और  4 सदस्य मनोनीत होते थे । जहानाबाद जिला का सृजन 01 अगस्त 1986 ई. में हुआ है । जहानाबाद लोकल कमिटि का गठन 1911 में होने के बाद 1924 में  जहानाबाद लोकल बोर्ड का गठन , बाद में नगरपालिका का गठन, 2008 ई. में नगर परिषद का गठन हुआ है । जहानाबाद शहर में अंगीभूत महाविद्यालय में स्वामी सहजानंद सरस्वती कॉलेज धनगांवाँ , सत्येन्द्र नारायण सिंह कॉलेज सहबाजपुर है । जहानाबाद  नगर परिषद के अंतर्गत 33 वार्ड में माधवनगर , निजामुद्दीनपुर , शहबाजपुर , टेनिबीघा , ऊंटा , धनगांवाँ, ठाकुरवाड़ी , शिवजीपथ , गोरक्षणी , खत्री टोला , बाभना , दक्षणी दौलतपुर , उत्तरी दौलतपुर , मदारपुर , मलहचक , पथकटोली , विष्णुगंज ,होरीलगंज ,बदिसंगत , लोक नगर , पटेलनगर ,गरेरियाखण्ड , शेखालम चक ,प्यारी महल्ला ,  भगीरथ बीघा , राजाबाजार , इराकी , मदारपुर , नयाटोला , खचिया टोला , ढिबरापर , थाना रोड , काको रोड , उरवाल मोड़ , फिदाहुसैनरोड , निचली रोड , देवरिया हनुमाननगर , शास्त्रीनगर , कृष्णनगर आदि है ।
नामकरण - जहानाबाद का नामकरण विभिन्न साहित्य व पौराणिक तथा जान श्रुतियों के आधार पर राजा जह्नु ने जहन नगर बसाया था ।प्रवचन सरोद्धार जैन  कुञ्चम के अनुसार क्षत्रिय राजा चंद्र प्रभ महासेन  , नाग कुमार जहन्न राजा द्वारा जहान नगर में अपनी राजधानी बाँसई थी । सिद्धों के जन्हाप्पा मौर्य काल में रहते थे । मुगलकाल के बादशाह शाहजहां की पत्नी अरजुबन्द बनू बेगम की पुत्री व औरंगजेब की बहन जहाँआरा के जन्म दिवस 02 अप्रैल 1614 ई. और जहान में भीषण आकाल पड़ने के कारण औरंगजेब की बहन जहाँआरा के नेतृत्व में राहत कार्य चलाया गया था । तत्कालीन बिहार के सूबेदार द्वारा जहान को जहाँआरा की स्मृति में जहान आरा बाद कालांतर जहानाबाद कहा गया है । जहानाबाद को जहन , जहन्न , जहाना , जहानआराबाद  , जहानाबाद कहा गया है । उत्तरी अकांक्ष 25 डिग्री 13 मिनट एवं  पूर्वी देशांतर 84 डिग्री 59 मिनट तस्थ समुद्रतल से 78 मीटर ऊँचाई पर पटना से 45 कि .मि. दक्षिण  और गया से 4 7  कि. मि. उत्तर दिशा एवं दिल्ली से 1061 कि. मि. दक्षिण और पूर्व में जहानाबाद स्थित है ।जहानाबाद की आवादी 2011 जनगणना के अनुसार 103202 कुल आवादी में 54710 पुरुष एवं 48492 महिला 20 . 23 हेक्टेयर क्षेत्र के निर्मित घरों में  16802  निवास करते हैं ।जहानाबाद शहर में हिन्दू 77.30 प्रतिशत , मुस्लिम 22.28 प्रतिशत ,ईसाई 0.15 प्रतिशत ,सिख 0.01 प्रतिशत ,बौद्ध 0.01 प्रतिशत , जैन 0.01 प्रतिशत है । जहानाबाद शहर के 33 वार्डों में जहानाबाद रेलवे स्टेशन परिसर में वराह मंदिर के गर्भगृह में प्राचीन भगवान वराह , भगवाढिबरा पर गायत्री मंदिर , भगवान शिव का शिवलिंग , बभना में ठाकुरवाड़ी ,  बड़ी संगत में नागाश्रम , मंदिर , लोक नगर के दरधा नानी के किनारे प्राकृतिक जल शराब सोइया घाट , देविस्थान , देवी स्थान , बिचली महल्ला में बुढ़वा महादेव , लालमन्दिर ,  है । शिक्षा के क्षेत्र में जहानाबाद शहर में मगध विश्वविद्यालय का अंगीभूत कॉलेज में एस. एस कॉलेज की स्थापना 25 जुलाई 1955 ई. , एस एन सिन्हा कॉलेज की स्थापना जुलाई 1970 में की गयी । जहानाबाद  कॉलेज की स्थापना 1978 श्री कृष्ण महिला कॉलेज की स्थापना 1978 , ए एन एम कॉलेज की स्थापना 1987  , सिद्धार्थ टीचर्स  ट्रेनिंग कॉलेज की स्थापना 2008 में की गयी है । पटना गया रोड हॉस्पिटल मोड़ के समीप सूफी संत हैदर शाह रहमतुल्लाह अलैहे , सराय रोड में जिन्ना शाह पहलवान का मजार विष्णुगंज में ईदगाह , एरोड्रम के समीप चर्च  है । गुप्त काल में 275 ई. से 550 ई. तक जहानाबाद व्यापारिक केंद्र , हर्षवर्धन काल 915 से 930 ई. तक शैव धर्म ,सौरधर्म , शाक्त धर्म वैष्णव धर्म का  विकसित था । पाल काल 1038 से 1161 ई. में जहानाबाद विषय था । उस समय ऊंटा सटी , सराय , मल्लाह चक , ठाकुरवाड़ी , विकसित था । राजा जह्नु द्वारा संगम प्रदेश कीराजधानी जहान नगर की स्थापना की थी । स्कन्द गुप्त काल 455 से 467 ई. तक विकसित किया गया था । पुरुरवा वंशीय जह्नु ने जहन नगर का निर्माण किया था ।













                

शनिवार, अगस्त 06, 2022

पंडुई :एक विरासत...


बिहार के जहानाबाद जिला मुख्यालय जहानाबाद से 5 किलो मीटर पच्छिम में दरघा नदी के  तट पर 323 हेक्टेयर क्षेत्रफल में फैले 1716 ई.  में  पंडुई  स्थापित है । मगध साम्राज्य के अंतर्गत अरवल जिले के केयाल गढ़  और भोजपुर जिले के नोनार गढ़ , एवं जहानाबाद जिले के पंडुई एवं शीतल गढ़ का निर्माण राजकुमार शीतल मउआर के पूर्वज द्वारा किया गया था । केयाल गढ़ का राजा  अदन सिंह  ने दिल्ली का मुगल शासक  औरंगजेब के पुत्र बहादुर शाह जफ़र के विशाल सेना के साथ युद्ध किया और केयालगढ़ राज हारने के बाद मुग़ल बादशाह बहादुर शाह ने केयाल गढ़ राज को समाप्त कर दिया था । अरवल जिले का करपी प्रखण्ड के केयाल गढ़ के  राजा अदन सिंह ने  पुत्र राजकुमार शीतल मउआर के साथ  सेना को ले कर भोजपुर के राजपूत राजा सुधिष्ट सिंह के पास गए थे । सन 1710 में राजा अदन सिंह केयालगढ़ हार के बदला लेने के लिए केयाल राज का राजा अदन सिंह द्वारा केयाल गढ़ एवं भोजपुर की  सेना के साथ मुग़ल बादशाह बहादुर शाह के साथ भोजपुर में युद्ध किया ।. भोजपुर  युद्ध में अदन सिंह युद्ध हार गए । राजा अदन सिंह अपने मित्र भोजपुर के राजपूत राजा सुधिस्ट सिंह के साथ भोजपुर  युद्ध में वीरगति को प्राप्त हुए ।राजा अदन सिंह के पुत्र राजकुंमार शीतल मउआर युद्ध में बच कर  शीतल गढ़ आये थे । शितलगढ़ के राजा  द्वारा शीतल महुआर को  उत्तराधिकारी बनाए गये ।राजा शीतल मउआर महुआर शितलगढ़ के राजा बनने के बाद  दरधा नदी के पश्चमी किनारे पाण्डुई नगर का निर्माण किया गया । शितल मउआर के पुत्र जगरनाथ मऊआर के पुत्रों में  डंबर मउआर और वैजनाथ मउआर था । डंबर मउआर सन्यासी हो गये और वैजनाथ मउआर द्वारा पंडुई राजवंश के वैजनाथ मउआर के पुत्र तेजा शाही था । राजा तेजा शाही द्वारा दरघा नदी के पश्चमी किनारे पर गढ़ हेतु भूमि देखने के क्रम में  टीलेनुमा आकृति का एक भूभाग का उत्खनन कर  शिवलिंग प्राप्त होने पर  पुनः पाण्डुई बसाया गया था ।पंडुई के  भूभाग को "पंडुबा"को राजा तेजा सिंह ने  पंडुबा को पंडुई  नामकरण किया था । पंडुई को सन 1735 तक  टिकारी राज के अधीन था । टिकरी राज ने पोखमा के  सामंत बाबू साहब को पंडुई को दिया था । शितालगढ़ के राजा तेज सिंह  द्वारा  टिकारी राज पंडुई  मौजे की जमीनदारी खरीद कर पंडुई राज की स्थापना कीगयी  थी । पंडुई राजका भवन निर्माण  शितलगढ़ का राजा तेज सिंह ने की थी । शितलगढ़ किला टीले का रूप हो गया है । सन 1716-17 में पंडुई राज के स्थापना के बाद सन 1865 तक निर्विरोध कार्य किया था । सन 1765 के बाद अरवल जिले के करपी प्रखंड के केयालगढ़को  टिकारी राज के अधीन हो गया था ।
18वीं सदी में पंडुई राज के 900 ग्राम/मौजा एवं 19वीं सदी मे 320 ग्राम/मौजा था । ईस्ट इंडिया कंपनी के द्वारा पंडुई राज पर कई तरह के प्रतिबंध लगाकर शासन के अधिकार को सिमित कर कर दिया गया था । सन 1865 मे पंडुई राज का  राजा श्री कन्हया शाही जी के मृत्यु के पश्चात पंडुई राज समाप्त हो गया ।  सन 1857 ई में पंडुई राज को समाप्त करने का षडयंत्र ब्रिटिश प्रशासन द्वारा किया गया था । नोनारगढ़, क्यालगढ़, शितलगढ़ राजाओं एवं   मुगल शासक से संघर्ष हुआ था । अंग्रेजों से पंडुई राज अंत तक संघर्ष करते ही रहा था ।  अंग्रेजों के द्वारा पंडुई में  ज़मीनदारी कायम कर जमींदार  घोषित किया गया था ।  पंडुई राज के पंडुई के 108 विघे में निर्मित 12 हवेलियां में  पंडुई के शीतलगढ़ कि हवेली ,  विष्णुपुर पंडुई का किला , विष्णुपुर पंडुई का पूर्वी  हवेली , विष्णुपुर पंडुई का पश्चमी हवेली , विष्णुपुर पंडुई का गोदिल भवन हवेली ,  रामगढ़ पंडुई हवेली ,रामगढ़ पंडुई लाल कोठी हवेली ,  रामगढ़ पंडुई का पिली कोठी हवेली ,  रामगढ़ पंडुई का लमडोरिया दरवार  हवेली , रामगढ़ पंडुई का कूटेश्वर  हवेली ,  सुल्तानी पंडुई का नयका हवेली ,  सुल्तानी पंडुई का दरवार पर हवेली, पंडुई मे जीर्ण शीर्ण अवस्था है । करना आवश्यक है । 1910 के बाद पंडुई राज के पंडुई राज के परिवार के बड़ा दरबार, मंझला दरबार, संझला दरबार और छोटा दरबार के रूप में विभक्त हो गया । 1934 के सरकारी रिपोर्ट के अनुसार पंडुई राज का मँझला दरबार सम्पन्न था । सन 1910 के बाद के पंडुई राज परिवार के नफासत, तुजकाई, महिनी और अंदाजगी किस्से मशहुर थे । सन 1765 में हुए सन्धि के अनुसार बिहार, बंगाल और उडीसा की दीवानी शासन अंग्रेजों की हाथ में आ गयी थी । पंडुई राज का शासन व्यवस्था ब्रिटिश सरकार के अधीन हो गया था । 2011 जनगणना के अनुसार 4747 आवादी वाले पंडुई में 2479 पुरुष एवं 2268 महिला का निवास 805 घरों में निवास करता है। पंडुई राज के राजा कृष्णा शाही के शासनकाल तक में 110 गाँव शामिल था। पंडुई में प्राथमिक , मध्य एवं उच्च विद्यालय  एवं देवी मंदिर ,शिवमंदिर है ।

सोमवार, अगस्त 01, 2022

उगाना महादेव और विद्यपति ...








        मधुबनी जिला मुख्यालय मधुबनी से 12 किमि एवं पंडौल रेलवे स्टेशन से ३ कि०मी० की दूरी पर भवानी पुर में 14 वीं  सदी में स्थापित विद्यपति के आराध्य देव उगना महादेव मंदिर के गर्भगृह में भगगवन उगणेश्वर शिवलिंग  व उगना महादेव अवस्थित  हैं । भगवान् शिव ने शैव भक्त विद्यपति से  प्रभावित होकर  भगवान उगणेश्वर शिव नौकर उगना के रूप में विद्यापति के साथ रहने लगे थे ।   विद्यापति के साथ  उगना  विश्वासी बन गए थे । विद्यापति के साथ उगना राज दरवार में जेठ महीना ,  रास्ते में कहीं पेड़ पौधे  नहीं , परंतु विद्यापति को प्यास लगी थी । विद्यपति ने  उगना से कहा कि  उगना मुझे बहुत जोड़ों से प्यास लगने के कारण  नहीं चल पाउँगा इसलिए  कहीं से जल लाकर दो । विद्यपति ने झोला से लोटा निकाल कर उगना की तरफ बढ़ा दिए थे । उगना दूर- दूर तक नजर दौड़ाया कहीं भी कुआं , सरोवर या नदी दिखाई नहीं देने पर उगना  झाड़ी के पीछे जाकर अपनी जटा से एक लोटा गंगाजल निकालकर विद्यापति को देते हुए कहा कि आस पास में कहीं भी जल नहीं मिला परंतु  जल बहुत दूर से लाया हूँ ।  प्यास से व्याकुल विद्यपति द्वारा उगना द्वारा जल   एक ही सांस में पी गए थे । जल पीने के बाद वे उगना से बोल पड़े कि जल का स्वाद  जल नहीं गंगाजल है । ,  गंगाजल  सिर्फ शिव के पास  होता है ।  उगना विद्यापति की प्यास बुझाने के बाद उगना को अपना शिव का रूप में प्रगट होकर  गुप्त  रखने का विचार दिए थे । विद्यापति की पत्नी शुशीला उगना को   काम करने के लिए बोली परंतु उगना को काम करने में कुछ देर हो गया था । उगना के कार्य विलंब होने के कारण विद्यपति की पत्नी सुशीला उगना को झाड़ू से मारने लगी थी । उगना झाड़ू की मार खा ही रहे थे कि विद्यापति की नजर उन  पर पड़ी और अपनी पत्नी सुशीला को डांटने लगे , लेकिन सुशीला झारू से उगना को मारती रही ,। इस पर भावावेश में आकर विद्यापति सुशीला से कहा  कि ओ ना समझ नारी , जिसे तुम मार रही हो यह कोई साधारण आदमी नहीं , ये भगवान  शिव हैं | यह बात सुन कर उगना वहीँ पर अंतर्ध्यान हो गए । जिस स्थान पर उगना ने अपना शिव का प्रकट  रूप विद्यपति को दर्शन दिए थे वह स्थल उगना महादेव व उगणेश्वर शिव लिंग स्थापित हुए कालांतर उगना महादेव विशाल मन्दिर निर्मित  है ।
विद्यापति मैथिली और संस्कृत कवि, संगीतकार, लेखक, दरबारी और राज पुरोहित थे। वे शिव के भक्त , प्रेम गीत और भक्ति वैष्णव गीत की रचना की है । उन्हें 'मैथिल कवि कोकिल कहा गया है ।  विद्यापति द्वारा भाषा, प्राकृत , अवहट्ट, पूर्वी भाषाओं में मैथिली और भोजपुरी के शुरुआती संस्करणों में भाषाओं को बनाने पर विद्यापति के प्रभाव को "इटली में दांते और इंग्लैंड में चासर के समान”  है। उन्हें "बंगाली साहित्य का जनक" कहा है। विद्यापति भारतीय साहित्य की 'शृंगार-परम्परा' के साथ-साथ 'भक्ति-परम्परा' के प्रमुख स्तंभों मे वैष्णव , शैव और शाक्त भक्ति के सेतु के रूप में भी स्वीकार किया गया है। मिथिला  को 'देसिल बयना सब जन मिट्ठा' का सूत्र दे कर  लोकभाषा की जनचेतना को जीवित करने का महान् प्रयास किया है। विद्यापति की शृंगार और भक्ति-रस में पगी रचनाएँ जीवित हैं। पदावली और कीर्तिलता  अमर रचनाएँ हैं।  बिहार राज्य के  मधुबनी जिला के विस्फी गाँव में तिरहुत राज्य के राजा गणेश्वर का  पुरोहित ब्राह्मण परिवार गणपति ठाकुर के पुत्र विद्यपति का जन्म 1352 ई. में हुआ था ।  मिथिला के ओइनवार वंशीय  कीर्ति सिंह दरबार मे 1370 से 1380 तक कार्य के दौरान  विद्यापति ने 'कीर्त्तिलता' की रचना की थी । विद्यापति ने कीर्ति सिंह उत्तराधिकारी देवसिंह के दरबार में एक स्थान हासिल किया। गद्य कहानी संग्रह भूपरिक्रमण देवसिंह के तत्वावधान में लिखा गया था। विद्यापति ने देवसिंह के उत्तराधिकारी शिवसिंह के साथ घनिष्ठ मित्रता की और प्रेम गीतों पर 1380 से 1406 ई. के बीच पाँच सौ प्रेम गीत , शिव, विष्णु, दुर्गा और गंगा की भक्तिपूर्ण स्तुति थे। 1402 से 1406 तक मिथिला के राजा शिवसिंह द्वारा विद्यपति  को बिस्फी प्रदान कर जयदेव के नाम से विभूषित किया गया  था । मुस्लिम सेना के साथ युद्ध  मे 1406 ई. को विद्यापति और शिवसिंह ने नेपाल के राजाबनौली में  राजा के दरबार में शरण ली एवं  1418 में, पद्मसिंह द्वारा मिथिला के शासक के रूप में शिवसिंह के उत्तराधिकारी बनेथे ।  शिवसिंह की प्रमुख रानी लखीमा देवी ने 12 वर्षों तक शासन किया। विद्यापति द्वारा  कानून और भक्ति नियमावली पर ग्रंथ लिखा गया था ।   बिस्फी स्थित  शिव मंदिर में 1430 ई. को विद्यपति भगवान शिव की उपासना करते  थे। उनकी दो पत्नियाँ, तीन बेटे और चार बेटियाँ थीं। विद्यापति ने ओइनवार राजा, राजा गणेश्वर, को तुर्की सेनापति मलिक अरसलान ने 1371ई में मार दिया था। 1401 तक, विद्यापति ने जौनपुर सुल्तान अरसलान को उखाड़ फेंकने और गणेश्वर के पुत्रों, वीरसिंह और कीर्तिसिंह को सिंहासन पर स्थापित कर सुल्तान की सहायता से, अरसलान को हटा दिया गया और सबसे बड़ा पुत्र कीर्तिसिंह मिथिला का शासक बनाया था । विद्यपति का निधन 1458 ई. में गंगानदी के तट पर निधन हो गया था ।