गुरुवार, दिसंबर 08, 2022

सभ्यता एवं संस्कृति का स्थल है भारत..

                              
भारतीय शास्त्रों के अनुसार खनिज निकालने के लिये देव-असुर सहयोग के लिये मित्र थे। पश्चिम तट के निवासियों का  10 हजार ई.पू. के जल-प्रलय के पूर्व है। पुराणों में जल-प्रलय के पूर्व का  प्राचीन सुमेरिया के  इलियड से हेरोडोटस तक के ग्रीक लेखकों ने की है । विदेशी  साशकों द्वारा  भारतीय इतिहास को नष्ट करने के कारण  भारतीयों के मुख्य भाग को लुप्त करने का प्रयास किया गया और पुरातत्त्व अवशेषों के मनमाना निष्कर्ष अपनी इच्छा अनुसार निकाले गये हैं। शबर जाति के लोग वराह अवतार के समय पूर्व भारत के जगन्नाथ क्षेत्र में शबर जाति की सहायता से हिरण्याक्ष पर आक्रमण हुआ था। शावर जाति द्वारा खनिजों के विशेषज्ञ एवं शाबर मन्त्र के प्रणेता थे । दैत्यराज हिरण्यकशिपु के प्रपौत्र प्रह्लाद का पौत्र विरोचन का पुत्र बलि के समय समुद्र-मंथन  देव और असुर मिल कर खनिज निकाले थे ।  पश्चिम एशिया तथा उत्तर अफ्रीका के असुर उड़ीसा , छत्तीसगढ़ ,  झारखण्ड , कीकट प्रदेश , वनप्रदेश  में आये। अफ्रीका के जिम्बाब्वे तथा मेक्सिको में देव गये थे। चण्डी पाठ के अनुसार चाक्षुष मन्वन्तर में राजा सुरथ का शासन में  कोल संस्कृति अर्थात ऋक्ष संस्कृति  में राम काल का ऋक्ष है । मुगल एवं ब्रिटिश  द्वारा भारतीय  इतिहास को लोपित कर मूल उद्देश्य  का स्थायी शासन कर भारत को विभिन्न क्षेत्रों  तथा जातियों में खण्ड खण्ड किया और ऐतिहासिक स्थानों को मुगल शासकों द्वारा विभिन्न नामकरण किया गया था । भारत के पश्चिम उत्तर भाग में  अवशेषों की खुदाई हुयी थी । मेगास्थनीज आदि ग्रीक लेखकों ने 16 000 ई.पू. से भारतीयों को मूल निवासी कहा था । राज्य व्यवस्था का उल्लेख 6777 ई.पू . किया है।  जनवरी 19 00 ई. में  जनमेजय के 5 दान-पत्र मैसूर ऐण्टिकुअरी में प्रकाशन के अनुसार जनमेजय की तिथि 27 नवम्बर 3014 ई.पू. थी। कोलब्रुक ने १५२६ ई. करने के लिये ब्रिटिष ज्योतिषी जी बी ऐरी की मदद लेकर ज्योतिषीय गणना  की थी ।  ओपोल्जर की पुस्तक  1927 ई. के अनुसार  ग्रहणों की सूची 700 ई.पू. में  बनायी थी  । बादशाह अकबर की कैद में रहते हुये  स्मरण द्वारा मिथिला के हेमांगद ठक्कुर ने1526 ई. में  1200 वर्षों के सभी ग्रहणों की सूची बनायी थी । हस्तिनापुर का राजा युधिष्ठिर के भाई धनुर्धर अर्जुन के प्रपौत्र अभिमन्यु के पौत्र और परीक्षित के पुत्र जनमेजय ने अपने राज्य के 29 वें वर्ष में नाग वंशियों के आक्रमण का प्रतिशोध लिया था ।  जिसमें जनमेजय का  पिता परीक्षित 29 वर्ष पूर्व मारे गये थे।  हड़प्पा में जनमेजय ने प्रथम  बार नागों को पराजित किया जिसे सर्पेष्टि यज्ञ कहा गया है । हड़प्पा में   गुरु गोविन्द सिंह जी ने 1700 ई. में राममन्दिर निर्माण कर घटना का उल्लेख कराया  था। नागवंशियों के नगर को  मोहन-जो-दरो , मुर्दों का स्थान, तथा हड़प्पा , हड्डियों का ढेर हो गया। १७०० ई. हड़प्पा इतिहास 1700 ई. तथा 1900  ई. के प्रकाशित अभिलेखों से  स्पष्ट था। पुराण 5 हजार  वर्षों से प्रचलित थे ।  पुराण भारत के नैमिषारण्यके शौनक में 3100 -  2700 ई.पू. में लिखे गये थे । पुरणों का संशोधन उज्जैन के विक्रमादित्य काल 82  ई.पू.- 19 ई. में बेताल भट्ट द्वारा हुआ था । शौनक  को महाशला एवं विक्रमादित्य के केन्द्रों को विशाला उज्जैन में था।   राजा काल गणना (कैलेण्डर) आरम्भ करते थे। उज्जैन के राजाओं. में शूद्रक  756 ई.पू., विक्रमादित्य  57 ई. पू. उनके पौत्र शालिवाहन संबत प्रारम्भ किया था । श्रीहर्ष शक एवं श्री हर्ष  द्वारा 756 ई. पू . से 456 ई. पू. में  मालव गणराज्य का उल्लेख  ग्रीक लेखकों ने किय । पश्चात इतिहासकार ने श्रीहर्ष साम्राज्य का 456 ई.पू . को लुप्त कर हर्ष का शासन  को 605 - 647 ई.  ६०५-६४७ ई ,  शालिवाहन शक साम्राज्य 1292 ई.पू. को 78 ई. कर कश्मीर के 43 वें गोनन्द वंशीय राजा कनिष्क के नाम कर दिया  है । रोम में जुलियस सीजर को सीरिया के सेला में बन्दी बनाया  तथा जूलियस सीजर को उज्जैन ला कर छोड़ दिया था। विल डुरण्ट के अनुसार ब्रूटस द्वरा उज्जैन से  लौटने पर सीजर की हत्या कर दी  थी।
उत्तर भारत को आर्य तथा दक्षिण भारत को द्रविड़ कहा गया  है। ऋ गति प्रापणयोः (पाणिनि धातुपाठ १/६७०) से ऋत हुआ है। सत् = अस्तित्त्व, उसका आभास। सत्य = केन्द्रीय सत्य, सीमा और केन्द्र सहित वस्तु। ऋत = सत्य धारणाओं पर आधारित आचरण, फैला पदार्थ जिसका न केन्द्र है न सीमा। सत्य विन्दु है, ऋत क्षेत्र है। इससे अंग्रेजी में एरिया हुआ है। उत्तर भारत में प्रायः समतल भूमि आर्य क्षेत्र खेती के लिये उपयुक्त है। दक्षिण भारत समुद्र द्रव के समीप  व्यापार में धन का लेन देन होने के कारण   क्षेत्र को द्रविड़ कहा गया  हैं। भाषाओं में अन्तर होने से  ६ प्रकार के दर्श वाक् या लिपि भिन्न भिन्न कामों के लिये अलग अलग लिपि हैं। भागवत माहात्म्य के अनुसार भक्ति से ज्ञान-वैराग्य की उत्पत्ति द्रविड़ , कर्णाटक में वृद्धि तथा प्रसार महाराष्ट्र और  गुजरात तक हुआ था । अप् = द्रव से आकाश में सृष्टि , पृथ्वी पर  वेद का ज्ञान स्थल को  द्रविड़ कहा गया था। वेद या विश्व का ज्ञान  इन्द्रियों द्वारा श्रुति कहा गया हैं। श्रुति कर्ण से  वृद्धि हुयी वह कर्णाटक (आटक = भण्डार, वन) है। मूल शब्द पृथ्वी की वस्तुओं के नाम थे। विज्ञान विषयों, आकाश तथा अध्यात्म का  विस्तार किया गया । अलग-अलग ध्वनि या शब्दों का मेल मलयालम है। परिवेश को महर् को महल् कहते हैं, अतः ज्ञान का विस्तार क्षेत्र महाराष्ट्र हुआ। विस्तार की माप गुर्जर (गुर्ज = लाठी) है। भगवान् कृष्ण के अवतार के समय वेदों का  उत्तर भारत में प्रचार हुआ था । गणितीय तथा यान्त्रिक विश्व का वर्णन सांख्य के 25 तत्त्वों के अनुरूप  25 अक्षरों की लिपि है। लिपि में चेतना या ज्ञान तत्त्व मिलाने से 6 x 6 = 36  तत्त्व शैव दर्शन  के अनुरूप 36 अक्षरों की लैटिन, अरबी, गुरुमुखी लिपि हैं। इन्द्र ने ध्वनि विशेषज्ञ मरुत् की सहायता से शब्दों का 49  मूल ध्वनियो में विभाजन (व्याकृत) किया। यह ४९ मरुतों केअनुरूप 49 अक्षरों की देवनागरी लिपि है। इसमें क से ह तक के 33 व्यञ्जन ,  33  कोटि प्रकार के देवताओं के चिह्न रूप में देवों का नगर होने के कारण देवनागरी है। इन्द्र की पूर्व दिशा से पश्चिम-उत्तर मरुत दिशा तक भारत में प्रचलित है । कला के अनुरूप ६४ अक्षरों की ब्राह्मी लिपि है। वेद में विज्ञान के विशेष चिह्नों के कारण ( 8+ 9 ) 2 = 289  चिह्न में 108 स्वर, 180 व्यञ्जन तथा अनिर्णीत ॐ है। व्योम (तिब्बत) से परे (चीन -जापान में) लिपि सहस्राक्षरा है। शब्द के अर्थ 7  आधिदैविक और आध्यात्मिक के अतिरिक्त पृथ्वी पर 5 संस्था में  व्यवसाय, भूगोल, इतिहास, विज्ञान तथा प्रचलन हैं। दक्षिण के ज्ञान की उत्पत्ति होने के कारण प्राचीन स्वायम्भुव मनु 29100 ई.पू. काल का पितामह सिद्धान्त है। वैवस्वत मनु 13900 ई.पू. काल का सूर्य सिद्धान्त उत्तर भारत में है। पितामह सिद्धान्त का पुनरुद्धार कलि २७४२ ई.पू.में आर्यभट द्वारा किया गया था । पितामह सिद्धान्त को आर्य सिद्धान्त कहते थे । आर्यभट के निवास स्थान में आर्य (अजा) का अर्थ पितामह है। वेद शाखाओं में  ब्रह्म सिद्धान्त में स्वायम्भुव मनु पितामह ब्रह्मा थे। वैवस्वत मनु काल की आदित्य परम्परा को याज्ञवल्क्य ने किया था ।  कृष्ण यजुर्वेद की 86 शाखायें जम्बू , शाक , प्लक्ष , क्रौंच , पुष्कर ,  शाल्मल  और कुश   द्वीपों में थीं। शौनक चरण व्यूह के अनुसार  शुक्ल यजुर्वेद की 15 शाखा भारत में थीं । वेद के शब्द  दक्षिण भारत में  हैं। ऋग्वेद के प्रथम सूक्त में  रात-दिन के लिये दोषा-वस्ता का प्रयोग है जिनका प्रयोग केवल दक्षिण में है। नगर के लिये उरु या उर का प्रयोग दक्षिण में है। वनवासियों का मूल स्रोत  भारत के खनिज कर्मी, कूर्म अवतार के समय आये अफ्रीकी असुर,पूर्व समुद्र के आक्रमणकारी, तथा प्राचीन शासक है । खनिज कर्म-खनिज कर्म करने वाले को शबर या सौर कहते हैं। मीमांसा दर्शन की व्याख्या शबर ऋषि  की है। शिव द्वारा शबर-मन्त्र फल देते हैं। राजा इन्द्रद्युम्न के समय जगन्नाथ की लुप्त मूर्त्ति को  विद्यापति शबर ने खोजा था । जिनके वंशज भगवान जगन्नाथ के उपासक हैं तथा सवाईं महापात्र कहा जाता है। शूकर का अपभ्रंश सौर अपने मुंह या दांतों से मिट्टी खोदता है। मिट्टी  खोदनेवाले को शुकर या शबर बोलते हैं। शाबर विश्व में  हिब्रू  का कई स्थान पर बाईबिल में प्रयोग हुआ है-हिब्रू की औनलाइन डिक्शनरी के अनुसार- 7665 शाबर व शॉ बार ए प्रिमिटिव रुट टू बर्स्ट लिटर्राल्ली फ़ॉर फ़िगारतिवेली  ब्रेक डाउन ऑफ इन पीसेज अप। ब्रोकन हेर्टेड ब्रिंग टू द बर्थ क्रूस डिस्ट्रॉय हर्ट केन्च एक्स क्विट टेअर व्यू बाई मिस्टेक फ़ॉर साबर । शबर के लिये वैखानस शब्द  है। विष्णु-सहस्रनाम का ९८७ वां नाम वैखानस है । शाबर का  अर्थ शंकर भाष्य के अनुसार शुद्ध सत्त्व के लिये ग्रन्थों के भीतर प्रवेश  और  पाञ्चरात्र दर्शन का मुख्य आगम तथा वैखानस श्रौत सूत्र  है। समुद्र मन्थन के सहयोगी दैत्यराज बलि से इन्द्र के लिये तीनों लोक को भगवान वामन  द्वारा प्राप्त करने से असुर असन्तुष्ट थे ।  देवता युद्ध कर के यह राज्य नहीं ले सकते परंतु छिटपुट युद्ध जारी था । भगवान विष्णु अवतार कूर्म ने समझाया कि य0 उत्पादन होने पर तभी उस पर अधिकार के लिये युद्ध का लाभ है।  उसके लिये पृथ्वी का दोहन जरूरी है। पृथ्वी की सतह का विस्तार समुद्र है। महाद्वीपों की सीमा के रूप में 7  समुद्र , पर गौ रूपी पृथ्वी से उत्पादन के लिये 4 समुद्र (मण्डल) में कालिदास रचित रघुवंश 2/4 के अनुसार जुगोप गोरूप धरामिवोर्वीम् को स्फियर  , पृथ्वी की ठोस सतह ,समुद्र , पृथ्वी की उपरी सतह जिस पर वृक्ष उगते हैं , वायुमण्डल ,  पृथ्वी की ठोस सतह को खोदकर उनसे धातु निकालने को समुद्र-मन्थन कहा गया है। पृथिवी की  ऊपरी सतह पर खेती करना दूसरे प्रकार के समुद्र का मन्थन है। भारत में खनिज का मुख्य स्थान बिलासपुर (छत्तीसगढ़) से सिंहभूमि (झारखण्ड) तक नकशे में कछुए के आकार है। खनिज कठोर ग्रेनाइट चट्टानों के नीचे मिलने से को कूर्म-पृष्ठ भूमि कहते हैं । इसके ऊपर या उत्तर मथानी के आकार पर्वत गंगा तट को मन्दार पर्वत समुद्र मन्थन के लिये मथानी था। उत्तरी छोर पर वासुकिनाथ तीर्थ है, नागराज वासुकि को मन्दराचल घुमाने की रस्सी कहा गया है।  देव-असुरों के सहयोग के मुख्य संचालक वासुकी थे। असुर वासुकि नाग के मुख की तरफ थे जो अधिक गर्म है। यह खान के भीतर का गर्म भाग है। लगता है कि उस युग में असुर खनन में अधिक दक्ष थे अतः उन्होंने यही काम लिया। देव विरल खनिजों (सोना, चान्दी) से धातु निकालने में दक्ष थे, अतः उन्होंने जिम्बाबवे में सोना निकालने का काम तथा मेक्सिको में चान्दी का लिया। पुराणों में जिम्बाबवे के सोने को जाम्बूनद-स्वर्ण कहा गया है। इसका स्थान केतुमाल (सूर्य-सिद्धान्त, अध्याय १२ के अनुसार इसका रोमक पत्तन उज्जैन से ९०० पश्चिम था) वर्ष के दक्षिण कहा गया है। यह्ं हरकुलस का स्तम्भ था, अतः इसे केतुमाल (स्तम्भों की माला) कहते थे। बाइबिल में राजा सोलोमन की खानें भी यहीं थीं। मेक्सिको से चान्दी आती थी अतः आज भी इसको संस्कृत में माक्षिकः कहा जाता है। चान्दी निकालने की विधि में ऐसी कोई क्रिया नहीं है जो मक्खियों के काम जैसी हो, यह मेक्सिको का ही पुराना नाम है। सोना चट्टान में सूक्ष्म कणों के रूप में मिलता है, उसे निकालना ऐसा ही है जैसे मिट्टी की ढेर से अन्न के दाने चींटियां चुनती हैं। अतः इनको कण्डूलना (= चींटी, एक वनवासी उपाधि) कहते हैं। चींटी के कारण खुजली (कण्डूयन) होता है या वह स्वयं खुजलाने जैसी ही क्रिया करती है, अतः सोने की खुदाई करने वाले को कण्डूलना कहते थे। सभी ग्रीक लेखकों ने भारत में सोने की खुदाई करने वाली चींटियों के बारे में लिखा है। मेगस्थनीज ने इस पर २ अध्याय लिखे हैं। समुद्र-मन्थन में सहयोग के लिये उत्तरी अफ्रीका से असुर आये थे, जहां प्रह्लाद का राज्य था, उनको ग्रीक में लिबिया (मिस्र के पश्चिम का देश) कहा गया है। उसी राज्य के यवन, जो भारत की पश्चिमी सीमा पर थे, सगर द्वारा खदेड़ दिये जाने पर ग्रीस में बस गये जिसे  इओनिआ व हेरोडोटस  कहा गय है । विष्णु पुराण(३/३)-सगर इति नाम चकार॥३६॥ पितृराज्यापहरणादमर्षितो हैहयतालजङ्घादि वधाय प्रतिज्ञामकरोत्॥४०॥प्रायशश्च हैहयास्तालजङ्घाञ्जघान॥४१॥ शकयवनकाम्बोजपारदपह्लवाः हन्यमानास्तत्कुलगुरुं वसिष्ठं शरणं जग्मुः॥४२॥यवनान्मुण्डितशिरसोऽर्द्धमुण्डिताञ्छकान् प्रलम्बकेशान् पारदान् पह्लवान् श्मश्रुधरान् निस्स्वाध्यायवषट्कारानेतानन्यांश्च क्षत्रियांश्चकार॥४७॥   
 खनिकों की उपाधि धातु नामों को  ग्रीस में ग्रीक भाषा में गये तथा कूर्म क्षेत्र के निवासिओं का  हैं। मुण्डा-लौह खनिज को मुर कहते हैं। कामरूप का राजा नरकासुर को  मुर कहा गया है । भागवत पुराण स्कन्द 3 के अनुसार  असुरराज नरकासुर के नगर का घेरा लोहे का था । नरकासुर का साम्राज्य मोरक्को तक था मेक्सीको के  निवासी मूर हैं। भारत में  लौह क्षेत्र के केन्द्रीय भाग के नगर को मुरा कहते थे जो पाण्डु वंशी राजाओं का शासन केन्द्र था । पांडव शासकों ने  भारत पर नन्द वंश के बाद शासन किया जिसे मौर्य वंश कहा गया। मुरा नगर हीराकुद जल भण्डार में डूब गया है ।  १९५६ में वहां का थाना बुरला में आ गया। मौर्य के लोहे की सतह का क्षरण (मोर्चा) या युद्ध क्षेत्र  मोर्चा है। फारसी में मोर्चा को  जंग कहा गया है।  लौह अयस्क के खनन में लगे लोगों की उपाधि मुण्डा है।  बलंगिरी , कालाहाण्डी के अनुसार अथर्ववेद की शाखा को  मुण्डक है ।  जिसका मुण्डक उपनिषद् को पढ़ने वाले ब्राह्मणों की उपाधि  मुण्ड है ।
हंसदा-हंस-पद का अर्थ पारद का चूर्ण या सिन्दूर है। पारद के शोधन में लगे व्यक्ति या खनिज से मिट्टी आदि साफ करने वाले हंसदा हैं। खालको-ग्रीक में खालको का अर्थ ताम्बा है। आज भी ताम्बा का मुख्य अयस्क खालको (चालको) पाइराइट कहलाता है। ओराम-ग्रीक में औरम का अर्थ सोना है। कर्कटा-ज्यामिति में चित्र बनाने के कम्पास को कर्कट कहते थे। इसका नक्शा (नक्षत्र देख कर बनता है) बनाने में प्रयोग है, अतः नकशा बना कर कहां खनिज मिल सकता है उसका निर्धारण करने वाले को करकटा कहते थे। महाभारत 3/ २55 /7 के अनुसार   झारखण्ड प्रदेश को कर्क-खण्ड कहते थे। कर्क रेखा झारखण्ड की उत्तरी सीमा पर है । पाकिस्तान का करांच है। किस्कू-कौटिल्य के अर्थशास्त्र में  वजन की एक माप किस्कू है। भरद्वाज के वैमानिक रहस्य में किस्कू ताप की इकाई है। लोहा बनाने के लिये धमन भट्टी को भी किस्कू कहते थे, तथा इसमें काम करने वाले किस्कू थे । टोप्पो-टोपाज रत्न निकालनेवाले ,  सिंकू-टिन को ग्रीक में स्टैनम तथा भस्म को स्टैनिक कहते हैं। मिंज-मीन सदा जल में रहती है। अयस्क धोकर साफ करनेवाले को मीन (मिंज) कहते थे । कण्डूलना-ऊपर दिखाया गया है कि पत्थर से सोना खोदकर निकालने वाले कण्डूलना हैं। उस से धातु निकालने वाले ओराम हैं। हेम्ब्रम-संस्कृत में हेम का अर्थ है सोना, विशेषकर उससे बने गहने। हिम के विशेषण रूप में हेम या हैम का अर्थ बर्फ़ भी है। हेमसार तूतिया है। किसी भी सुनहरे रंग की चीज को हेम या हैम कहते हैं। सिन्दूर भी हैम है, इसकी मूल धातु को ग्रीक में हाईग्रेरिअम कहते हैं जो सम्भवतः हेम्ब्रम का मूल है। एक्का या कच्छप-दोनों का अर्थ कछुआ है।खनिज क्षेत्र का ही आकार कछुए जैसा है, जिसके कारण समुद्र मन्थन का आधार कूर्म कहा गया। खान के भीतर गुफा को बचाने के लिये ऊपर आधार दिया जाता है । खान गुफा की दीवाल तथा छत बनाने वाले एक्का या कच्छप हैं।  दुर्गा सप्तशती, अध्याय १ में लिखा है कि स्वारोचिष मनु के समय भारत के चैत्य वंशी राजा सुरथ के राज्य को कोला विध्वंसिओं ने नष्ट 17500 ई. पू. कर दिया था । वैवस्वत मनु का काल 13900 ई.पू.  में आरम्भ हुआ था ।  पुरु की भार्या आग्रेयी के प्रपौत्र अंग की सुनीथा का पौत्र  वेन  का पुत्र  राजा पृथु के समय पृथ्वी का दोहन खनिज निष्कासन 17000 ई. पू. हुआ था । भागवत पुराण 4/ 14 में उल्लेख किया गया है कि  अंग  राजा  पृथु का जन्म उनके पिता वेन के हाथ के मन्थन से हुआ था। दाहिने हाथ से निषाद तथा बायें हाथ से कोल तथा भील उत्पन्न हुए थे । पृथु द्वारा ब्रह्मेष्टि यज्ञ से सूत और मागध का प्रादुर्भाव हुआ था । अनूप देश का राजा सूत और कीकट का राजा मागध को बनाया गया । बाद में कीकट को मगध साम्राज्य कहा गया है । भारत के नक्शे पर हिमालय की तरफ सिर रखकर सोने पर बायां हाथ पूर्व तथा दाहिना हाथ पश्चिम होगा। दाहिना हाथ (दक्ष) का यज्ञ हरिद्वार में था जहां पश्चिमी भाग आरम्भ होता है। पूर्वी भाग में कोल लोगों का क्षेत्र ऋष्यमूक या ऋक्ष पर्वत कहा जाता है  । विश्व में कोला है। पूर्वी साइबेरिआ कोला प्रायद्वीप तथा आस्ट्रेलिआ मॆ कोल  जाति है, अमेरिका में कोल का प्रिय फल  कोका-कोला कहा जाता है।   कोलप को ओड़िया में ताला कहा गया  है। माता लक्ष्मी को कोलापुर निवासिनी कहा गया है। महाराष्ट्र के कोलापुर में  महालक्ष्मी मन्दिर है। सम्पत्ति, धातु भण्डार आदि की रक्षा करने वाले कोला हैं। समुद्र पत्तन की व्यवस्था करने वाले वानर समुद्र तट पर जहाज को लगाने वालों को बन्ध व बन्दर कहा जाता था । जहाज के पत्तन को बन्दर या बन्दरगाह कहते हैं। त्रेतायुग में भगवान  राम को समुद्र पारकर आक्रमण करने के लिये  पत्तन के मालिक वानर तथा धातुओं के रक्षक ऋक्ष  की जरूरत पड़ी थी। कोला जाति ओड़िशा के क्षेत्रों में कोलाबिरा के झारसूगुडा, झारखण्ड के सिमडेगा, कोलाब (कोरापुट), मुम्बई का  समुद्र तट कोलाबा है। पुराने शासक-पठार को कन्ध या पुट (प्रस्थ) कहते थे जैसे कन्ध-माल या कोरापुट के निवासी को  कन्ध कहते थे। राज्य किष्किन्धा का  उत्तरी भाग में बालि का प्रभुत्व में  ओड़िशा के बालिगुडा, बालिमेला  हैं। किष्किंधा के दक्षिणी भाग में सुग्रीव का प्रभुत्व था।
   भारत का गण्ड भाग विन्ध्याचल में गोण्डवाना  के निवासी गोण्ड पश्चिमी सीमा गुजरात का राजकोट जिले का  गोण्डल है। उत्तर प्रदेश के पूर्वी भाग में  जिला गोण्डॉ व  गोनर्व में  पतञ्जलि का जन्म हुआ था। गोण्ड लोग गोण्डवाना के शसक थे। मुगल शासक अकबर को अन्तिम चुनौती गोण्ड रानी दुर्गावती ने दी थी । रानी दुर्गावती के पति ओड़िशा के कलाहाण्डी में लाञ्जिगढ़ के वीरसिंह थे । गोण्ड जाति में राज परिवार के व्यक्ति  राज-गोण्ड कहलाते हैं। गोंड का  नौकर अकबर से मिलकर बादशाह अकबर के लिये जासूसी करने और पुरस्कार में राज्य पाकर बड़े हो गये थे । रानी दुर्गावती के पुरोहित को काशी  तथा  रसोइआ महेश ठाकुर को मिथिला का राज्य मिला था । महेश ठाकुर को नमक-हरामी-जागीर कहा गया था । कालगणना-इतिहास का मुख्य काल-चक्र हिमयुग का चक्र है। पृथ्वी का मुख्य स्थल भाग उत्तर गोलार्ध में जल-प्रलय तथा हिम युग का चक्र आता है। मिलैंकोविच सिद्धान्त 1932 के अनुसार  उत्तरी ध्रुव सूर्य की ताफ झुका हो, या जब कक्षा में पृथ्वी सूर्य के निकटतम होने , जब दोनों एक साथ होने से  जल प्रलय एवं  जब दोनों विपरीत दिशा में हों, तब हिम युग होता है। उत्तरी ध्रुव की दिशा 26 हजार वर्ष में विपरीत दिशा में चक्कर लगाती है। पृथ्वी कक्षा का निकटतम विन्दु एक  लाख वर्ष में एक  चक्कर लगाता है। दोनों गतियों का योग विपरीत दिशा में 21600   वर्ष में होता है । भारत में निकट कक्षा विन्दु का दीर्घकालिक चक्र 312000  वर्ष में होता है।  चक्र 24000 वर्ष का होता है । 12 हजार वर्ष  का अवसर्पिणी युग केसत्य युग 4800८ वर्ष, त्रेता 3600 , द्वापर 2400 और  कलि 1200  वर्ष का 1/12 भाग पूर्व तथा शेष सन्ध्या , दूसरा भाग उत्सर्पिण में 4 खण्ड युग विपरीत क्रम से आते हैं-कलि, द्वापर, त्रेता, सत्य युग है । पुराणों और वेदों के अनुसार 24 हजार वर्ष के युगों का तीसरा चक्र चल रहा है। तीसरे चक्र में अवसर्पिणी का कलियुग 3102 ई.पू. में आरम्भ हुआ है । प्रथम चक्र- 61902 - 37902 ई.पू.-देव सभ्यता ,  चीन में याम देवता मणिजा सभ्यता में  खनिज दोहन का आरम्भ ,  मुख्य वर्ग-साध्य, महाराजिक, आभास्वर, तुषित-आज के ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र  थे ।द्वितीय चक्र-37902 से 13902  ई.पू.-देव युग , अवसर्पिणी- 37902 से 25902 ई.पू., सत्य 33102 ई.पू. तक था । त्रेता- 29502 ई.पू तक- जल प्रलय हुआ था। स्वायम्भुव मनु का प्रादुर्भाव 29102 ई.पू. हुआ था ।  द्वापर-27102 ई..पू. तक , कलि 25902 ई.पू. तक था । उत्सर्पिणी-कलि- 24702  ई.पू. तक,  द्वापर- 22302  ई.पू. तक। त्रेता- 18702 ई.पू. तक हिम युग हुआ था। सत्ययुग- 13902 ई.पू. तक-हिमयुग के बाद कश्यप काल 17500 ई.पू.से असुर प्रभुत्व क्षेत्र था । तृतीय चक्र- मानव  युग-13902 ई.पू. से  10099 ई पू.. तक था । अवसर्पिणी-सत्ययुग- 13902 -9102 ई.पू. तक-वैवस्वत मनु से आरम्भ में  त्रेता-5502 ई.पू. तक। द्वापर-3102  ई.पू. तक और  कलि 1902  ई.पू. तक एवं उत्सर्पिणी-कलि- 702  ई.पू. तक। द्वापर-1699 ई. तक। त्रेता-5299  ई. तक  विज्ञान प्रगति का युग कहा गया है। काल चक्र की सभी अवसर्पिणी त्रेता में जल प्रलय तथा उत्सर्पिणी त्रेता में हिम युग हुआ है । ब्रह्माण्ड पुराण के अनुसार महाभारत के बाद 3102  ई.पू. में कलि आरम्भ के समय स्वायम्भुव मनु से 26000 वर्ष का मन्वन्तर  बीत चुका था जिसमें 71  युग थे।  स्वायम्भुव मनु का काल 29102 ई.पू. हुआ।  एक युग = 360  वर्ष प्रायःहै। मत्स्य पुराण, अध्याय 273  के अनुसार, स्वायम्भुव से वैवस्वत मनु तक 43  युग = 16 हजार  वर्ष तथा उसके बाद 3102 ई.पू. तक 10 हजार वर्ष या २८ युग बीते थे। खण्ड युगों की गणना के अनुसार वैवस्वत मनु से 3102 ई.पू. कलि आरम्भ तक 10800  वर्ष थे। इनमें 360 वर्ष के ३० युग होंगे। बीच में 10000 ई.पू. से प्रायः एक हजार वर्ष के जल प्रलय काल में प्रायः 2 युग लेने पर ठीक 28 युग बाकी हैं।  वायु पुराण, अध्याय ४९९ के अनुसार दत्तात्रेय 10 वें युग, मान्धाता 15  वें, परशुराम 19 वें, राम 24 वें, व्यास 28 वें युग में हुये थे। वैवस्वत मनु से पूर्व 10  युग = 3600  वर्ष तक असुर प्रभुत्व कश्यप काल से 17500 ई.पू. में आरम्भ हुआ था । वराह अवतार के समय शबर जाति का प्रभुत्व था। राजा बलि के काल में वामन अवतार, कूर्म अवतार तथा कार्त्तिकेय का युग था।  बलि को दीर्घजीवी कहा है। कार्त्तिकेय के समय क्रौञ्च द्वीप पर आक्रमण का उल्लेख  महाभारत, वन पर्व (२३०/८-१०) में दिया है । उत्तरी ध्रुव अभिजित् से दूर हट गया था तथा धनिष्ठा नक्षत्र से वर्षा होती थी जब वर्ष का आरम्भ 15800 ई.पू. का काल है। 15500 वर्ष बाद सिकन्दर के आक्रमण के समय मेगास्थनीज ने लिखा है कि भारत खाद्य तथा अन्य सभी चीजों में स्वावलम्बी है । भारत ने पिछले 1500 वर्षों में किसी देश पर आक्रमण नहीं किया है। सप्तर्षि वर्ष का सप्तर्षि चक्र 2700 सौर वर्ष = 3030 मानुष वर्ष 327  दिनों का 12 चान्द्र परिक्रमा समय है। 3 सप्तर्षि चक्र का ध्रुव सम्वत्सर = 8100 वर्ष का है। सप्तर्षि मघा नक्षत्र में 3176 -3076 ई.पू.  थे। विपरीत दिशा में चलते हुये जब सप्तर्षि मघा से निकले तब युधिष्ठिर का कश्मीर में देहान्त हुआ कलि वर्ष 25 और वहां सप्तर्षि या लौकिक वर्ष आरम्भ हुआ। आन्ध्र वंश के अन्त के समय इनका एक  चक्र पूर्ण हुआ376  ई.पू. आन्ध्र वंश का राज्य समाप्त हुआ। वैवस्वत यम का काल 3076 ई.पू.के बाद ब्रह्म पुराण तथा अवेस्ता के अनुसार जल प्रलय हुआ था। क्रौञ्च प्रभुत्व उत्तर अमेरिका 19276 ई.पू को क्रौञ्च सम्वत्सर  कहा गया है।  राजा ध्रुव का देहान्त माघा नक्षत्र  27376 ई.पू. में  हुआ था जब ध्रुव मघा नक्षत्र से निकले थे ।11800 वर्ष बाद कार्त्तिकेय काल में ध्रुव की दिशा धनिष्ठा में थी।
         सन्दर्भ -  सांख्य सिद्धान्त अध्याय ३ (नाग प्रकाशन, दिल्ली, २००६) ,  भारतीय इतिहास के खण्ड २ पृष्ठ ३३४-३३५, खण्ड ४ पृष्ठ ९०-९१ , द स्टडी ऑफ इंडियन हिस्ट्री एंड कल्चर 1988 , पब्लिश्ड फ्रॉम भीष्म , थाने मुंबई , ऐज ऑफ द महाभारत वार 1957 -59 , वेदव्यास 1986 चेप्टर 17
भारतीय संस्कृति और पुरणों , वेदों एवं स्मृतियों में अनंत ज्ञान , अनुशीलन से अंत:कारण की परिशुद्धि होती है । सृष्टि का प्रारंभ एवं मानव जीवन का प्रादुर्भाव का उल्लेख स्मृतियों में उल्लेखनीय योगदान दिया गया है । प्राचीन काल में सनातन धर्म में ब्रह्म संस्कृति , वैष्णव संस्कृति , शैव संस्कृति , शाक्त संस्कृति , सौर संस्कृति , चंद्र संस्कृति एवं मरुत संस्कृति विकसित थी । ब्रह्मा जी का मानस पुत्र ऋषि मारीच के पुत्र ऋषि कश्यप के पुत्रों द्वारा विभिन्न संस्कृतियों का प्रादुर्भाव विश्व के विभिन्न क्षेत्रों में किया था । प्रजापति दक्ष की 13 कन्याओं में अदिति , दिति , दनु ,विनीता आदि का विवाह ऋषि कश्यप से हुआ था । दिति से दैत्य ,दनु से दानव ,  भगवान सूर्य के सहस्त्र अंश  से अदिति के पुत्र इंद्र , पर्जन्य , त्वष्ठा , पूषा  अर्यमा , भग ,विवस्वान ,विष्णु अंशुमान वरुण और मित्र है । ब्रह्मा के मानस पुत्र ऋषि मरीचि ऋषि के पुत्र कश्यप ऋषि थे ।ऐतरेय ब्राह्मण के कश्यप ऋषि ने 'विश्वकर्म भौवन' राजा का अभिषेक कराया था। शतपथ ब्राह्मण में प्रजापति को कश्यप कहा गया है । स यत्कुर्मो नाम। प्रजापतिः प्रजा असृजत। यदसृजत् अकरोत् तद् यदकरोत् तस्मात् कूर्मः कश्यपो वै कूर्म्स्तस्मादाहुः सर्वाः प्रजाः कश्यपः।  महाभारत और विष्णु पुराण के अनुसार कश्यप ऋषि की पत्नी मे अदिति ,दिति ,दनु ,अनिष्ठा ,काष्ठा ,सुरसा ,इला ,मुनि ,सुरभि ,कद्रू ,विनता ,यामिनी ,ताम्रा , तिमि ,क्रोधवशा ,सरमा और पातंगी थी । मार्कण्डेय पुराण और भागवत पुराण के अनुसार तेरह पत्नियां अदिति ,दिति , दनु ,काष्ठा ,अनिष्ठा , सुरसा ,मुनि ,सुरभि ,विनता ,कद्रू ,पातंगी ,तिमि , इला तथा मत्स्य पुराण के अनुसार नौ पत्नियां अदिति ,दिति ,दनु ,काष्ठा ,अनिष्ठा , कद्रू , सुरसा , विनता और सुरभि थी । भागवत पुराण और मार्कण्डेय पुराण के अनुसार कश्यप की तेरह पत्नियां थीं और मत्स्य पुराण के अनुसार नौ थी । पृथ्वी पर विजय प्राप्त कर परशुराम ने कश्यप मुनि को सम्पूर्ण पृथिवी दान कर दी थी । पुराणों अनुसार कश्यप ने पत्नी अदिति के गर्भ से विवस्वान, अर्यमा, पूषा, त्वष्टा, सविता, भग, धाता, विधाता, वरुण, मित्र, इंद्र और त्रिविक्रम (भगवान वामन) ,  दिति के गर्भ से हिरण्यकश्यप और हिरण्याक्ष  पुत्र एवं सिंहिका  पुत्री को जन्म दिया। दनु के गर्भ से द्विमुर्धा, शम्बर, अरिष्ट, हयग्रीव, विभावसु, अरुण, अनुतापन, धूम्रकेश, विरूपाक्ष, दुर्जय, अयोमुख, शंकुशिरा, कपिल, शंकर, एकचक्र, महाबाहु, तारक, महाबल, स्वर्भानु, वृषपर्वा, महाबली पुलोम और विप्रचिति आदि 61 महान पुत्रों की प्राप्ति हुई। रानी काष्ठा से घोड़े आदि एक खुर वाले पशु उत्पन्न हुए। पत्नी अरिष्टा से गंधर्व पैदा हुए। सुरसा नामक रानी से यातुधान (राक्षस) उत्पन्न हुए। इला से वृक्ष, लता आदि पृथ्वी पर उत्पन्न होने वाली वनस्पतियों का जन्म हुआ। मुनि के गर्भ से अप्सराएँ , क्रोधवशा नामक रानी ने साँप, बिच्छु आदि विषैले जन्तु पैदा किए गए थे ।।ताम्रा ने बाज, गिद्ध आदि शिकारी पक्षियों को अपनी संतान के रूप में जन्म दिया। सुरभि ने भैंस, गाय तथा दो खुर वाले पशुओं की उत्पत्ति की। रानी सरसा ने बाघ आदि हिंसक जीवों को पैदा किया। तिमि ने जलचर जन्तुओं को अपनी संतान के रूप में उत्पन्न किया।रानी विfनता के गर्भ से विष्णु का वाहन गरुड़  और सूर्य का सारथि  अरुण   हुए। कद्रू की कोख से नागों की उत्पत्ति में आठ नाग थे । दनु के पुत्रों ने दानव संस्कृति , अनंत (शेष), वासुकी, तक्षक, कर्कोटक, पद्म, महापद्म, शंख और कुलिक का जन्म कद्रू थी । रानी पतंगी से पक्षियों का जन्म हुआ। यामिनी के गर्भ से शलभों (पतंगों) का जन्म हुआ। था । ऋषि कश्यप की पत्नी अदिति के 12 पुत्रों को आदित्य कहा गया है । आदित्यों द्वारा सौर संस्कृति का संरक्षक और भगवान सूर्य कुल देव है । दिति के पुत्रों ने दैत्य संस्कृति , दनु से दानव संस्कृति , सुरसा के पुत्रों ने राक्षस संस्कृति ,मुनि के पुत्रों ने गंधर्व संस्कृति , कद्रू  के पुत्रों ने नाग संस्कृति का उदय हुआ था । कालांतर विश्व में सौर , शाक्त , चंद्र , ऋषि , देव , ब्राह्मण , दैत्य , दानव , वायु मरुत , वन , ऋक्ष , गंधर्व , राक्षस , मानव  संस्कृति का उदय हुआ था । आर्य और अनार्य संस्कृति का उदय हुआ था । कीकट साम्राज्य का  असुर राज गयासुर द्वारा गया नगर की स्थापना किया गया था ।गया मोक्ष और ज्ञान की भूमि बना था । गया का विष्णुपद मंदिर के गर्भगृह में भगवान विष्णु का चरण स्थित है ।




सृष्टि की उत्पत्ति ब्रह्मा जी द्वारा करने के बाद प्रजा वृद्धि के लिए प्रजापति अपने शरीर के दाएं भाग से पुरुष  स्वायम्भुव मनु एवं बाएं भाग से अयोनिजा शतरूपा का प्रादुर्भाव हुआ था । 71 चतुर्युगी को मन्वंतर काल में  दस हजार वर्षों के पश्चात शतरूपा ने  वैराज पुरुष स्वायम्भुव मनु को पति रूप में प्राप्त किया था । शतरूपा ने स्वायम्भुव मनु के अंश से वीर , प्रियव्रत और उत्तानपाद की उत्पत्ति हुई थी ।  स्वयम्भुव मनु के पुत्र वीर की पुत्री कर्दम की पत्नी थी । स्वयम्भुव मनु के पुत्र उत्तानपाद को प्रजापति अत्रि ने गोद लिया था । प्रजापति उत्तानपाद की पत्नी सुनृता से ध्रुव , कीर्तिमान , आयुष्यमान और वसु पुत्र थे । ध्रुव की पत्नी शम्भु ने श्लिष्ठी ,और भव्य हुए थे ।श्लिष्ठी कि पत्नी सुछाया से रिपु , रिपुंजय , वीर वृकल और वृकतेजा पुत्र थे । रिपु की भार्या वृहति ने अपने पुत्र चक्षुष को प्रजापति वीरान की पुत्री पुष्करिणी का विवाह कर दी थी । चक्षुष की पत्नी पुष्करिणी के गर्भ से उत्पन्न चाक्षुष से वैराज प्रजापति की पुत्री नडवला के गर्भ से कुत्स ,पुरु ,शतद्युम्न ,तपस्वी ,सत्यवाक ,कवि ,अग्निष्टुत , अतिरात्र , सुद्युम्न ,और अभिमन्यु का जन्म हुआ था । पुरु की पत्नी आग्रेयी ने अंग ,सुमना ,स्वाति , क्रतु अंगिरा और मय पुत्र उत्पन्न किए । अंग ने अंग साम्राज्य की स्थापना की । अंग साम्राज्य के राजा अंग की पत्नी मृत्यु कन्या  सुनीथा ने वेन का जन्म दी और वें अंग का राजा बनाई थी । अंग साम्राज्य का राजा वेन के अत्याचारों से ऋषियों को बहुत बड़ा क्रोध हुआ था । प्रजाजनों एवं पर्यावरण की रक्षा के लिए ऋषि गण द्वारा अंग साम्राज्य का राजा वेन के दाएं हाथ हाथ का मंथन कर पृथु धनुष , कवच , दिव्य वाण  धारण कर प्रकट हुए थे । वेन की बायीं जंघा मंथन से काले रंग नाटे निशीद द्वारा निषाद वंश का प्रवर्तक ,वें के पापों से उत्पन्न धीवर हुआ था । राजा पृथु द्वारा ब्रह्मेष्टि यज्ञ से उत्पन्न मागध को कीकट प्रदेश और सूत को अनूप देश का राजा घोषित किया गया था ।

3 टिप्‍पणियां:

  1. बेहतरीन ज्ञानवर्धक ,उपयोगी तथ्य
    सादर आभार आदरणीय

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  2. बहुत ही ज्ञान भरा

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  3. बहुत ही ज्ञानवर्धक अनुकरणीय और सब ही सनातन हो को जानने योग्य दुर्लभ तथ्य जानकारी के लिए धन्यवाद नमस्तुभ्यं नमस्तुभ्यं नमस्तुभ्यं सादर अभिनंदन

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