रविवार, दिसंबर 31, 2023

सकारात्मक ऊर्जा का प्रतीक कल्पतरु दिवस

 परता कल्प वृक्ष व कल्पतरु दिवस
सत्येन्द्र कुमार पाठक 
बिहार के औरंगाबाद जिले का  कुटुम्बा प्रखंड के परता में कल्पतरु मंदिर परिसर में कल्पतरु मंदिर एवं राधाकृष्ण मंदिर 18 वीं शताब्दी को   बनवायी गई थी । झारखंड से प्रवाहित होनेवाली   बटाने नदी किनारे कल्पतरु मंदिर   अवस्थित है ।और झारखंड की सीमा है । ब्रिटिश साम्राज्य के दौरान विष्णुपुर का क्षेत्र का  जमींदार बंगाली द्वारा कल्पतरु क्षेत्र का विकास किया गया था । श्याम बाजार कोलकाता के जमींदार  बंगाली को पुत्र-प्राप्ति की मन्नतें मांगी पर  कल्पवृक्ष ने पूरा किया  और निर्माता के दर्द को हरकर मंदिर उठ खङा हुआ  था । कल्पवृक्ष परिसर आस्था का केंद्र ,  पुत्र प्राप्ति , बीमारी ठीक करने , बेटी के विवाह इत्यादि को पूरी करने में आ रहे व्यवधान को दूर करता  है । जमींदार  बंगाली ने  मंदिर बनवायी और  पुजारी  के खर्च के लिए पूरा इंतजाम के लिए पिचासी बीघा कल्पवृक्ष  मंदिर को दान दिया  था ।  कल्प वृक्ष मंदिर ईंट, चूना--गारा से निर्मित  और लकङी के मोटे--मोटे तख्तों को दरवाजे के ऊपर रखा गया है । मंदिर बेहद सामान्य ऊंचाई के हैं । मंदिर की दीवार पर दो जगह छोटे- छोटे शिलापट्ट लगे  भाषा संस्कृत है । चहारदीवारी से लगा हुआ गौशाला के गायों के दूध से कल्पवृक्ष का पटवन होता है । कार्तिक पूर्णिमा को सुथनिया मेला 9 एकड़ भूमि में हैं ।  भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने किशुनपुर मेला का उल्लेख किया है । कल्पवृक्ष मंदिर के परिसर में ठाकुरवाड़ी , कल्पवृक्ष की पूजा होती है। कल्पवृक्ष का वनस्पतिक नाम एडेनसोनिया डिजटेटा की ऊंचाई लगभग साठ से सत्तर फीट होती है । तने का घेरा डेढ सौ फीट और  हजार दो हजार साल से  अधिक है । आयुर्वेद शास्त्र के अनुसार कल्पवृक्ष के द्वारा सकारात्मक ऊर्जा विकसित  किया जाता है । वृक्ष किडनी, दमा, एलर्जी, हृदय और उदर रोगों के उपचार में बेहद उपयोगी तथा विटामिन सी और कैल्सियम का उम्दा स्रोत होता है ।  शास्त्रों  के अनुसार समुद्र मंथन की चौदह रत्न में निकलीं कल्पवृक्ष  है । कल्पवृक्ष को मनोकामना सिद्धि का उत्तम साधन माना जाता है । स्वर्ग से धरती पर कल्पवृक्ष आया है । कल्पवृक्ष का फूल पिले रंग और फल की लंबाई 6 इंच एवं   प्रजातियों में फल गोल  होता है । अम्बा वाले वृक्ष के फल का आवरण बेहद कठोर होता जिसे बिना भारी पत्थर के प्रहार के तोङना मुश्किल होता था । आवरण पर मखमली रोयां  हरा  और पकने पर हरापन लिये पीले रंग का होता था । तोङने पर भीतर सफेद रंग की सूखी परत जमी होती जिसके नीचे थोङी --थोङी दूरी पर काले-जामुनी रंग के बीज होते है। सफेद पदार्थ से युक्त बीज को मुंह में डालकर जब चूसने पर  स्वाद खट्ठा--मीट्ठा लगता है । कल्प वृक्ष के फल कोविलायती इमली कहा जाता है । कल्पवृक्ष की पहले दो शाखाएं गिरने के पश्चात 2010 में जाकर अंतिम रूप से गिर गया था  । रासायनिक उपचार से गिरा दिया गया !  व्यवसाय खूब फले--फूले इसके लिए उस वृक्ष को जाना पङा । असली कारण यह था कि किसी को पता ही नहीं चला कि यह कल्पवृक्ष है । कल्पवृक्ष ओरंगाबाद जिले की  पहचान है। झारखंड राज्य का  हरिहरगंज , बिहार का औरंगाबाद और नवीनगर के होते हुए अम्बा परता गांव में स्थित कल्पवृक्ष का दर्शन होता है ।
 रामकृष्ण मठ मठवासी व  रामकृष्ण मिशन के अनुयायियों ,  वेदांत सोसायटी ,  भारतीय रहस्यवादी और हिंदू पुनर्जागरण के व्यक्ति रामकृष्ण की शिक्षाओं का पालन हेतु प्रत्येक वर्ष 01 जनवरी को कल्पतरु दिवस एवं कल्पतरु दिवस मनाया जाता  हैं । रामकृष्ण अनुयायियों के अनुसार  रामकृष्ण ने खुद को अवतार , या पृथ्वी पर अवतार लेने वाले भगवान के रूप में 01 जनवरी 1886 ई. को प्रकट किया था ।  उत्सव कोसीपोर गार्डन हाउस या कोलकाता के पास उद्यानबाती , रामकृष्ण मठ, रामकृष्ण आदेश की स्थान  रामकृष्ण ने अपने जीवन के अंतिम दिन बिताए थे। भारत में 1 जनवरी 2010 को, अन्य वर्षों की तरह, "देश भर से 01 जनवरी 2010 ई. से रामकृष्ण परमहंस के  भक्त द्वारा  कल्पतरु उत्सव के लिए दक्षिणेश्वर में प्रसिद्ध काली मंदिर , भारत के पूर्वी रेलवे ने  काली मंदिर तक ले जाने के लिए १ जनवरी २०१० को दो विशेष ट्रेनें निर्धारित कीं गयी थी ।  प्रथम  कल्पतरु दिवस, 1 जनवरी 1886, रामकृष्ण और उनके अनुयायियों के जीवन में "असामान्य परिणाम और अर्थ की घटना" थी। रामकृष्ण उस समय गले के कैंसर से पीड़ित होने के कारण  स्वास्थ्य गिर रहा था। उनके निकटतम अनुयायी उत्तरी कलकत्ता के कोसीपोर के पड़ोस में एक बगीचे के घर में चले गए थे । 1 जनवरी 1886 ई. उसके लिए अपेक्षाकृत अच्छा दिन और वह बगीचे में टहलने लगा। वहाँ, उन्होंने अपने  अनुयायी गिरीश से  प्रश्न पूछा, जो वे अक्सर पहले पूछते थे, "आप कौन कहते हैं कि मैं हूँ?"  गिरीश ने जवाब दिया कि उनका मानना ​​​​है कि रामकृष्ण "भगवान के अवतार थे, मानव जाति के लिए दया से पृथ्वी पर आए"। रामकृष्ण ने उत्तर दिया, "मैं और क्या कहूं? आप जाग्रत हों।" रामकृष्ण ने तब एक "उत्साही अवस्था" में प्रवेश किया और अपने सभी अनुयायियों को छूना शुरू कर दिया। जिन लोगों को उन्होंने छुआ, उन्होंने चेतना की विभिन्न नई अवस्थाओं का अनुभव करने की सूचना दी, जिसमें विशद दर्शन भी शामिल थे। एक के लिए, वैकुंठ, दर्शन बने रहे और दैनिक जीवन में हस्तक्षेप किया, ताकि उसे डर हो कि कहीं वह पागल न हो जाए।   शिष्य, रामचंद्र दत्ता ने समझाया कि रामकृष्ण, वास्तव में, कल्पतरु व कल्पवृक्ष है ), संस्कृत साहित्य और हिंदू पौराणिक कथाओं का "इच्छा-पूर्ति करने वाला वृक्ष" बन गया था । रामचंद्र  दत्ता ने  रहस्यमय घटना के स्मरणोत्सव का नाम "कल्पतरु दिवस" ​​रखा।  घटना ने "चेलों के लिए ब्रह्मांडीय आयात के अर्थ और यादें और उन्हें रामकृष्ण की मृत्यु के लिए भी तैयार होने के बाद, १६ अगस्त १८८६ को हुआ था । शरतचंद्र चक्रवर्ती को स्वामी सरदानंद द्वारा  पौराणिक इच्छा-पूर्ति करने वाला पेड़ (कल्पतरु) कुछ भी अच्छा या बुरा देता है, और रामकृष्ण ने केवल वही दिया जो आध्यात्मिक रूप से लाभकारी था। सारदानंद ने इस घटना को "स्वयं को प्रकट करके सभी भक्तों को भय से मुक्ति का उपहार" के रूप में संदर्भित किया है। कल्पवृक्ष व कल्पतरु दिवस सकारात्मक व ज्ञान का प्रतीक है ।

1 टिप्पणी:

  1. अति सुंदर,पौराणिक धरोहर को अब सुरक्षित रखें... हम सभी सनातनियों का नैतिक दायित्व भी बनता है।

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