सोमवार, अगस्त 12, 2024

अयोध्या और भगवान राम


सनातन धर्म के विभिन्न धर्मग्रथों , पुराणों , वेदों , स्मृति , संहिता में अयोध्या क्षेत्र की भूमि का उल्लेख मिलता है । उत्तर प्रदेश राज्य का अयोध्या जिले का मुख्यालय अयोध्या पवित्र सरयू नदी के तट पर स्थित है। अयोध्या जिले के पूरब  में  आजमगढ़ , पश्चिम में बाराबंकी , उत्तर में सरयू नदी और दक्षिण में विसुई नदी है । कौशल साम्राज्य की राजधानी अयोध्या एवं भगवान राम की जन्म भूमि थी । हिंदी एवं अवधि भाषायी  अयोध्या जिले का सृजन 06 नवंबर 2018 का क्षेत्रफल 2522 वर्गकिमी व 974 वर्गमील में 2011 जनगणना के अनुसार 2570996 आवादी वाले क्षेत्र में 11 प्रखंड ,835 पंचायत ,1272 गाँव तहसील 5 ,थाने 18 , शहर 3 नगर पंचायत 6 तथा अयोध्या का तहसील में अयोध्या, मिल्कीपुर, रुदौली, बीकापुर, सोहावल , . अयोध्या लोकसभा निर्वाचन क्षेत्र में विधानसभा अयोध्या, बीकापुर, मिल्कीपुर, रुदौली , - गोशाईंगंज शामिल हैं। अथर्ववेद 10.2.31 के अनुसार अयोध्या को ईश्वर का नगर बताया गया है, "अष्टचक्रा नवद्वारा देवानां पूरयोध्या"[ और इसकी सम्पन्नता की तुलना स्वर्ग से की गई है। अथर्ववेद में यौगिक प्रतीक के रूप में अयोध्या का उल्लेख है-
अष्टचक्रा नवद्वारा देवानां पूरयोध्या। तस्यां हिरण्मयः कोशः स्वर्गो ज्योतिषावृतः॥
वाल्मीकीय रामायण के अनुसार अयोध्या की स्थापना वैवश्वत मनु वंशीय वैवश्वत मन्वंतर में  इक्ष्वाकु काल अवधपुरी और ब्रह्मपुराण  के अनुसार वैवश्वस्त मनु के पौत्र एवं इक्ष्वाकु के  100 पुत्रों में बड़े पुत्र विकुक्षि का पराक्रम के कारण अयोध्य कहा जाता था । राजा अयोध्य द्वारा  सरयू के तट पर बारह योजन ( १४४ कि.मी) लम्बाई और तीन योजन व ३६ कि.मी चौड़ाई में अयोध्या नगर की स्थापना वैवश्वत मनवन्तर वसाई थी ।अयोध्य के पुत्र शकुनि के पुत्र उत्तर भारत  दक्षिण के शासक थे । विकुक्षि को अयोध्य ,शशाद कहा जाता था  । अयोध्या के राजा सूर्यवंशीय राजा कल्माषपाद , सर्वकर्मा। , अनरण्य ,अनमित्र , रघु ,हुए । अनमित्र के पुत्र राजा दुलीदुह , दिलीप ,माह बाहु ,रघु महाबली सम्राट  थे । अयोध्या के सम्राट रघु के प्रपौत्र एवं अज के पौत्र दशरथ की भार्या कौशल्या के पुत्र राम का प्रादुर्भाव हुआ था । भगवान राम का पुत्र कुश , अतिथि ,निषद ,नाल , नभ ,पुण्डरीक ,क्षेम। धन्वा , देवानीक ,अहिनगु ,सुधन्वा ,,शल  , उक्य ,वज्रनाभ ,, नल  अयोध्या के सूर्यवंशी राजाओं की राजधानी अयोध्या थी । स्कन्दपुराण के अनुसार सरयू के तट पर दिव्य शोभा से युक्त दूसरी अमरावती के समान अयोध्या नगरी है। अयोध्या मूल रूप से हिंदू मंदिरो का शहर है। जैन धर्म ग्रंथो  के अनुसार अयोध्या में पहले तीर्थंकर ऋषभनाथ जी दूसरे तीर्थंकर अजितनाथ जी चौथे तीर्थंकर अभिनंदननाथ जी पांचवे तीर्थंकर सुमतिनाथ जी और चौदहवें तीर्थंकर अनंतनाथ जी की जन्म भूमि थी । इक्ष्वाकु वंशीय सूर्यवंश के भगवान राम की जन्म भूमि थी । कोसल जनपद की राजधानी अयोध्या का क्षेत्रफल 96 वर्ग मील था। अयोध्या में 3400 मंदिर है । सरयू नदी में 14 घाट प्राचीन है । सातवीं शाताब्दी में चीनी यात्री ह्वेनसांग  ने अयोध्या में 20 बौद्ध मंदिर थे तथा 3000 भिक्षु का उल्लेख किया है।  प्रभु श्रीराम की जन्म एवं कर्मस्थली अयोध्या  शहर है। प्रभु श्री राम भरत मिलाप के पश्चात भरत खड़ाऊँ लेकर अयोध्या मुख्यालय से 15 किमी॰ दक्षिण सुलतानपुर रोड रोड पर स्थित सरयू नदी के तट स्थित  भरतकुण्ड  स्थान पर चौदह वर्ष तक रहे थे । अयोध्या शहर में फैजाबाद शहर की स्थापना अवध के प्रथम नबाव सआदत अली खान ने 1730 में  अयोध्या  राजधानी कर  अयोध्या का नाम बदलकर फैजाबाद कर दिया था । अयोध्या के  तीसरे नवाब शुजाउद्दौला ने सरयू नदी  के तट पर 1764 ई. में दुर्ग का निर्माण करवाया था।  1775 में अवध की राजधानी को  1775 ई.को लखनऊ ले जाया गया था । सरयू नदी के दक्षिणी तट के किनारे जलोढ़ मैदान के उपजाऊ हिस्से पर बसा हुआ है। यहाँ फ़सलें धान, गन्ना, गेहूँ और तिलहन एवं अयोध्या के दक्षिण-पूर्व में स्थित टांडा शहर में निर्यात के लिए हथकरघा वस्त्र का निर्माण तथा सोहावल के पास पानी बिजली उत्पादन केंद्र है। मानव सभ्यता की प्रथम पूरी अयोध्या में  रामजन्मभूमि , कनक भवन , हनुमानगढ़ी ,राजद्वार मंदिर ,दशरथमहल , लक्ष्मणकिला , कालेराम मन्दिर , मणिपर्वत , श्रीराम की पैड़ी , नागेश्वरनाथ मंदिर , क्षीरेश्वरनाथ श्री अनादि पञ्चमुखी महादेव मन्दिर , गुप्तार घाट समेत अनेक मन्दिर , गुप्तार घाट , बिरला मन्दिर , श्रीमणिरामदास जी की छावनी , श्रीरामवल्लभाकुञ्ज , श्रीलक्ष्मणकिला , श्रीसियारामकिला , उदासीन आश्रम रानोपाली तथा हनुमान बाग  अनेक हैं। अयोध्या में श्रीरामनवमी , श्रीजानकीनवमी , गुरुपूर्णिमा , सावन झूला , कार्तिक परिक्रमा ,श्रीरामविवाहोत्सव आदि उत्सव  मनाये जाते हैं। श्रीरामजन्मभूमि -  शहर के पश्चिमी हिस्से में स्थित रामकोट में स्थित अयोध्या का सर्वप्रमुख स्थान श्रीरामजन्मभूमि है। श्रीराम-लक्ष्मण-भरत और शत्रुघ्न के बालरूप का दर्शन होते हैं । कनक भवन - हनुमान गढ़ी के निकट स्थित कनक भवन  मंदिर के गर्भगृह में माता  सीता और भगवान राम के सोने मुकुट पहने प्रतिमाओं के लिए लोकप्रिय है। कनक  मंदिरका निर्माण  टीकमगढ़ की रानी ने 1891 में बनवाया था। इस मन्दिर के श्री विग्रह श्री सीताराम जी  है । हनुमान गढ़ी -  अयोध्या का हनुमान गढ़ी मंदिर के गर्भगृह में  हनुमान जी सदैव वास करते हैं। अयोध्या आकर भगवान राम के दर्शन से पहले भक्त हनुमान जी के दर्शन करते हैं।  हनुमान मंदिर "हनुमानगढ़ी" राजद्वार के सामने ऊंचे टीले पर स्थित है।  हनुमान जी  गुफा युक्त मंदिर  में रह कर रामजन्मभूमि और रामकोट की रक्षा करते थे। प्रभु श्रीराम ने हनुमान जी को अधिकार दिया था कि जो भी भक्त मेरे दर्शनों के लिए अयोध्या आएगा उसे पहले तुम्हारा दर्शन पूजन करना होगा।  छोटी दीपावली के दिन आधी रात को संकटमोचन का जन्म दिवस मनाया जाता है।  नगरी अयोध्या में सरयू नदी में पाप धोने से पहले लोगों को भगवान हनुमान से आज्ञा लेनी होती है। मंदिर अयोध्या में  टीले पर स्थित होने के कारण मंदिर तक पहुंचने के लिए 76 सीढि़यां चढ़ने के बाद पवनपुत्र हनुमान की 6 इंच की प्रतिमा के दर्शन होते एवं हनुमान जी की मूर्ति फूल-मालाओं से सुशोभित रहती है। मंदिर में बाल हनुमान के साथ अंजनी माता की प्रतिमा है।  मंदिर परिसर में मां अंजनी व बाल हनुमान की मूर्ति है जिसमें हनुमान जी, अपनी मां अंजनी की गोद में बालक के रूप में विराजमान हैं। अवध का नवाब  सुल्तान मंसूर अली अवध का नवाब का एकमात्र पुत्र गंभीर रूप से बीमार पड़ गया। प्राण बचने के आसार नहीं रहे, रात्रि की कालिमा गहराने के साथ ही उसकी नाड़ी उखड़ने लगी तब सुल्तान ने थक हार कर संकटमोचक हनुमान जी के चरणों में माथा रख दिया। हनुमान ने अपने आराध्य प्रभु श्रीराम का ध्यान किया और सुल्तान के पुत्र की धड़कनें पुनः प्रारम्भ हो गई। अपने इकलौते पुत्र के प्राणों की रक्षा होने पर अवध के नवाब मंसूर अली ने बजरंगबली के चरणों में माथा टेक दिया। जिसके बाद नवाब ने न केवल हनुमान गढ़ी मंदिर का जीर्णोंद्धार कराया बल्कि ताम्रपत्र पर लिखकर ये घोषणा की कि कभी भी हनुमान  मंदिर पर किसी राजा या शासक का कोई अधिकार नहीं रहेगा और नही यहां के चढ़ावे से कोई कर वसूल किया जाएगा। उसने 52 बीघा भूमि हनुमान गढ़ी व इमली वन के लिए उपलब्ध करवाई थी । अयोध्या न जाने कितनी बार बसी और उजड़ी, लेकिन फिर  मूल रूप में रहा  हनुमान टीला  हनुमान गढ़ी के नाम से प्रसिद्ध है। लंका से विजय के प्रतीक रूप में लाए गए निशान मंदिर में रखे गए थे । राजद्वार मंदिर -  अयोध्या क्षेत्र, हनुमान गढ़ी के पास भगवान राम को समर्पित समकालीन वास्तुकला से परिपूर्ण राजद्वार मंदिर   उच्च पतला शिखर वाला उच्च भूमि पर खड़ा है । आचार्यपीठ श्री लक्ष्मण किला - संत स्वामी श्री युगलानन्यशरण जी महाराज की तपस्थली रसिकोपासना के आचार्यपीठ है। श्री स्वामी जी बिहार राज्य का सारण जिले के  चिरान्द (छपरा) निवासी स्वामी श्री युगलप्रिया शरण 'जीवाराम' जी महाराज के शिष्य थे। १८१८ ई.  में ईशराम पुर (नालन्दा) में जन्मे स्वामी युगलानन्यशरण जी का रामानन्दीय वैष्णव-समाज का  स्थान है। आपने उच्चतर साधनात्मक जीवन जी ने 'रघुवर गुण दर्पण','पारस-भाग','श्री सीतारामनामप्रताप-प्रकाश' तथा 'इश्क-कान्ति' आदि लगभग सौ ग्रन्थों की रचना  है। श्री लक्ष्मण किला युगलानन्य शरण की तपस्या स्थल पर  रीवां राज्य (म.प्र.) द्वारा निर्मित श्री लक्ष्मण किला ५२ बीघे में विस्तृत आश्रम की भूमि ब्रिटिश काल में शासन से दान-स्वरूप मिली थी। श्री सरयू के तट पर स्थित है। सरयू की धार से सटा होने के कारण सूर्यास्त दर्शन आकर्षण का केंद्र  है। नागेश्वर नाथ मंदिर -  नागेश्वर नाथ मंदिर को भगवान राम के पुत्र कुश एवं नागराज कुमुद की पुत्री कुमुदनी  ने बनवाया था।जब कुश सरयू नदी में स्नान करने के क्रम में  बाजूबंद खो गया था। बाजूबंद भगवान शिवभक्त नाग कन्या कुमुदिनी को मिला जिसे कुश से प्रेम हो गया। कुश ने उसके लिए नागेश्वरनाथ मंदिर बनवाया।  विक्रमादित्  काल में नागेश्वरनाथ मंदिर को पुनर्निर्माण कराया गया था । श्रीअनादि पञ्चमुखी महादेव मन्दिर - अन्तर्गृही अयोध्या के शिरोभाग में भगवान राम का जल समाधि स्थल गोप्रतार घाट पर श्री अनादि पञ्चमुखी शिव का स्वरूप विराजमान है ।  शैवागम में वर्णित ईशान , तत्पुरुष , वामदेव , सद्योजात और अघोर नामक पाँच मुखों वाले लिंगस्वरूप भगवान शिव की उपासना से भोग और मोक्ष दोनों की प्राप्ति होती है। राघवजी का मन्दिर -  अयोध्या नगर के केन्द्र में स्थित राघव मंदिर गर्भगृह में भगवान श्री रामजी का स्थान है । सरयू जी में स्नान करने के बाद राघव जी के दर्शन किये जाते हैं। सप्तहरि -  अयोध्या में मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम की लीला के अतिरिक्त श्रीहरि के अन्य सात प्राकट्य होने के कारण  सप्तहरि स्थल है। काल क्रम में देवताओं और मुनियों की तपस्या से प्रकट हुए भगवान् विष्णु के सात स्वरूपों को  सप्तहरि के नाम में भगवान "गुप्तहरि" , "विष्णुहरि", "चक्रहरि", "पुण्यहरि", "चन्द्रहरि", "धर्महरि" और "बिल्वहरि" हैं। जैन धर्म के अनुयायी नियमित रूप से अयोध्या आते रहते हैं। अयोध्या को पांच जैन र्तीथकरों की जन्मभूमि  कहा जाता है।  र्तीथकर का जन्म स्थल पर  र्तीथकर का मंदिर को फैजाबाद के नवाब के खजांची केसरी सिंह ने बनवाया था। प्रभु श्रीराम की नगरीअयोध्या में आश्रम का निर्माण  करने वालों में स्वामी श्रीरामचरणदास जी महाराज 'करुणासिन्धु जी' स्वामी श्रीरामप्रसादाचार्य जी, स्वामी श्रीयुगलानन्यशरण जी, पं. श्रीरामवल्लभाशरण जी महाराज, श्रीमणिरामदास जी महाराज, स्वामी श्रीरघुनाथ दास जी, पं.श्रीजानकीवरशरण जी, पं. श्री उमापति त्रिपाठी जी आदि  उल्लेखनीय हैं।  ऐतिहासिक और धार्मिक दृष्टि से कलकत्ता क़िला, नागेश्‍वर मंदिर, राम जन्मभूमि, सीता की रसोई, अयोध्या तीर्थ, गुरुद्वारा ब्रह्मकुण्ड और गुप्तार घाट , गुलाब बाड़ी ,तथा बहुबेगम का मकबरा पर्यटन स्थल हैं। छावनी छेत्र से लगा हुआ गुप्तार घाट में अवस्थित श्री अनादि पंचमुखी महादेव मन्दिर नगरवासियों की आस्था का केन्द्र है। रूदौली के सुनवा के घने जंगल में प्रसिद्ध सिद्धपीठ माँ कामाख्या मन्दिर गोमती नदी के तट पर स्थित है। अयोध्या से  16 किमी पर भरत कुंड स्थल पर भरत ने भगवान राम की चरणपादुका रखकर 14 वर्षो तक अयोध्या का शासक थे । अयोध्या से 20 किमी की दूरी पर अयोध्या का राजा दशरथ द्वारा मखभूमि स्थल पर पुत्रेष्टि यज्ञ अवस्थित था । अयोध्या से 10 किमी पर सरयू नदी के तट पर तुलसीदास घाट है । 28 दिसंबर 1969 ई. में विक्टोरिया पार्क का नाम परिवर्तन कर तुलसीदास पार्क एवं तुलसीदास की मूर्ति स्थापित तथा 1969 ई. में तुलसी स्मारक। भवन संग्रहालय का निर्माण हुआ । अयोध्या से 03 किमी पर सूर्य मंदिर एवं सूर्यकुंड दर्शनीय है । सरयू नदी के घाटों में भगवान राम ने अश्विन शुक्ल पक्ष पूर्णिमा को सरयू नदी के तट पर जलसमाधि स्थल एवं भगवान राम को समर्पित राजा दर्शन सिंह द्वारा 19 शताब्दी के पूर्वार्ध में राम मंदिर का निर्माण स्थली गुप्तारघाट ,उर्मिला घाट ,यमस्थला , चक्रतीर्थ घाट ,प्रह्लाद हस्त ,सुमित्रा घाट ,कैकयी घाट ,राजघाट ,ऋणमोचन घाट ,स्वर्गद्वार घाट ,पापमोचन घाट ,गोला घाट ,लक्षमण घाट , अयोध्या से 13 किमी की दूरी पर अयोध्या का राजा दशरथ की चिता भूमि , भगवान राम द्वारा विल्व गंधर्व का उद्धार एवं  विल्व हरि शिवालय मंदिर का स्थल विल्वहरिघाट चद्रहरिघाट ,नागेश्वरनाथ घाट ,वासुदेव घाट , राम घाट , सीता घाट , तुलसी घाट है । अयोध्या में अवस्थित 107 ए. . में भगवान राम को समर्पित श्री राम मंदिर के गर्भगृह में भगवान राम की बाल्य अवस्था की मूर्ति स्थापित है ।। उज्जैन का राजा विक्रमादित्य द्वारा श्री राम मंदिर का निर्माण कस्राय गया था । अयोध्या का राजा सुमित्रा द्वारा 4 थीं शताब्दी एवं 6 ठी शताब्दी तक राम जन्मभूमि पर भगवान राम का मंदिर विकसित था ।  बाबर का सूबेदार मीरबाकी ने बाबर के सम्मान में 1528 ई. में राम मंदिर को बाबरी मस्जिद में परिवर्तन कर दिया था । माम् मंदिर व बाबरी मस्जिद के लिए 1853 ई. में हिन्दू और मुस्लिम विवाद प्रथम बार हुआ था । 30 नवंबर 1858 ई. में खालसा पंथ के बाबा फ़क़ीर सिंह के नेतृत्व में 25 निहंग सिखों द्वारा बाबरी मस्जिद पर कब्जा कर लिया था । गढ़वाल राजा गोविंद चंद्र काल 1114 से 11 54 ई. तक  , 1184 ई. व संबत 1241 तक श्री राममंदिर सुरक्षित था । राम मंदिर 17 कतारों एवं 85 स्तम्भ युक्त   गोलाकार  निर्मित था ।  अयोध्या का राम जन्म भूमि पर  राम मंदिर के गर्भगृह। में भगवान राम की बाल स्वरूप मूर्ति की स्थापना वैदिक मंत्रोच्चार के बीच भारत के प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी द्वारा 22 जनवरी 2024 को की गई है। श्री राम मंदिर की लंबाई पूर्व से पश्चिम 380 फिट ,, चौड़ाई 150 फिट , उचाई 161 फिट ,प्रत्येक मंजिल की उचाई 20 फिट , खंभे 392 ,44 दरवाजे ,, भूतल पर स्थित राममंदिर के गर्भगृह में रामलला की मूर्ति , राम दरबार ,मंडप में नृत्य, रंग ,मढ़ , प्रार्थना ,, कीर्तन मंडप ,पूरब से 16.5 फिट पर निर्मित 32 सीढियां , आयताकार परकोठा 7 . 32 मीटर  , चौड़ाई 4.25 मीटर है। 
अयोधया परिभ्रमण 04 अगस्त 2024 को साहित्यकार व इतिहासकार सत्येन्द्र कुमार पाठक द्वारा  अयोध्या की पौराणिकता एवं ऐतिहासिक स्थलों का परिभ्रमण किया गया । परिभ्रमण के दौरान स्वंर्णिम कला केंद्र की अध्यक्षा व लेखिका उषाकिरण श्रीवास्तव शामिल थी ।

शुक्रवार, अगस्त 09, 2024

भगवान राम और गुप्तार घाट 
सत्येन्द्र कुमार पाठक 
वेदों , पुराणों तथा विभिन्न ग्रंथों में सरयू नदी , अयोध्या एवं गुप्तार घाट का उल्लेख मिलता है । भारत के उत्तरी भाग में प्रवाहित होने वाली सरयू नदी  का उद्गम स्थल उत्तराखण्ड के बागेश्वर कुमाऊँ  ज़िला का बागेश्वर के 4150 मीटर व 13620 फिट की ऊँचाई पर अवस्थित   नंदीमुख पर्वत श्रृंखला  सरमूल है । सरयू नदी के उद्गम स्थल के बाद  शारदा नदी में विलय होने के बाद काली नदी और उत्तर प्रदेश राज्य से गुज़रती हुई  शारदा नदी फिर घाघरा नदी में विलय होने के बाद  निचले भाग को फिर से सरयू नदी के नाम से ख्याति है। सरयू नदी को सरयू नदी , शारदा  नदी और घाघरा नदी कहा जाता है । सरयू नदी के किनारे अयोध्या तीर्थ नगर बसा हुआ है। सरयू नदी  बिहार राज्य में प्रवेश कर छपरा का  गंगा नदी में विलय होती  है । उत्तराखण्ड , उत्तरप्रदेश के आजमगढ़ , सीतापुर , बाराबंकी ,बहरामघाट बहराइच गोंडा ,अयोध्या ,टांडा ,राजेसुल्तानपुर , दोहरी घाट  और बिहार  के छपरा निर्देशांक 25°45′18″N 84°39′11″E / 25.755°N 84.653°E पर प्रवाहित होने वाली सरयू नदी की लंबाई 350 किमी व 220 मिल में विकसित सरयू नदी को सरयू , काली ,  शारदा , घाघरा और गंगा नदी कहा गया है।  सरयू नदी की प्रमुख सहायक नदी राप्ती उत्तर प्रदेश के देवरिया जिले के बरहज स्थान पर मिलती है।  राप्ती नदी के तट पर  गोरखपुर इसी राप्ती नदी के तट पर स्थित । राप्ती तंत्र की आमी, जाह्नवी इत्यादि  नदियाँ का जल  सरयू में जाता है। बाराबंकी, बहरामघाट, बहराइच, सीतापुर, गोंडा, फैजाबाद, अयोध्या, टान्डा, राजेसुल्तानपुर, दोहरीघाट, बलिया आदि शहर  तट पर स्थित हैं। सरयू नदी के ऊपरी हिस्से में काली नदी के नाम से  उत्तराखंड में बहती है। सरयू नदी  मैदान में उतरने के पश्चात्  करनाली या घाघरा नदी आकर मिलने के बाद  सरयू हो जाता है। उत्तर प्रदेश के पश्चिमी क्षेत्रों में सरयू को शारदा , घाघरा , गोगरा ,  देविका, रामप्रिया इत्यादि  नाम हैं।   सरयू नदी के किनारे रहने  वाले ब्राह्मण कोसरयुगपारिय  व सरयुपारीण ब्राह्मण कहा गया है। ऋग्वेद 4. 13. 18 के अनुसार में देवराज इंद्र की युद्ध स्थल सरयू के तट  अरिकावती  उल्लेख है। रामायण के अनुसार  सरयू के किनारे अयोध्या है । अयोध्या का राजा  दशरथ की राजधानी और राम की जन्भूमि  जाता है। वाल्मीकि रामायण के  बालकांड का प्रसंगों में राजर्षि विश्वामित्र ऋषि के साथ शिक्षा के लिये जाते हुए श्रीराम द्वारा सरयू  नदी द्वारा अयोध्या से इसके गंगा के संगम तक नाव से यात्रा करते हुए जाने का उल्लेख है। कालिदास के महाकाव्य रघुवंशम् एवं रामचरित मानस में तुलसीदास ने सरयू  नदी का गुणगान किया है। बौद्ध ग्रंथों में सरयू नदी को सरभ ,  कनिंघम ने  मानचित्र पर मेगस्थनीज द्वारा वर्णित सोलोमत्तिस नदी ,  टालेमी  द्वारा वर्णित सरोबेसनदी कहा है ।  सनातन धर्म ग्रंथों के अनुसार,इक्ष्वाकु वंशीय  राजा भगीरथ ने सरयू व शारदा नदी  सरयू नदी में गंगा का संगम कराया  था । सरयू नदी भगवान विष्णु के नेत्रों से प्रकट हुई  सरयू नदी  है । दैत्यराज  शंखासुर  ने वेदों को चुराकर समुद्र में छिपा दिया था ।. वेदों की रक्षा करने के लिए भगवान विष्णु को मत्स्य रूप धारण करना पड़ा था । वेदों को वापस लाकर भगवान विष्णु की खुशी आंख से एक आंसू टपक गया था । ब्रह्माजी ने भगवान विष्णु के खुशी की आँसू को  एक मानसरोवर में डाल दिया था । भगवान विष्णु की आसूँ  सरोवर को भगवान सूर्य की भार्या माता संज्ञा के पुत्र एवं वैवश्वस्त मन्वंतर के संस्थापक वैवस्वत मने  ने बाण के प्रहार से धरती के बाहर निकालने से सरयू नदी हुई है ।  भगवान विष्णु की मानस पुत्री  सरयू नदी को धरती पर ऋषि वशिष्ट लेकर आए थे । भगवान राम द्वारा सरयू नदी के गुप्तार घाट पर जल समाधि लेने पर भोलेनाथ नाराज हो गए थे । भगवान राम की सरयू में जल  समाधि लेने के कारण लिए भगवान शिव ने सरयू नदी को दोषी माना कर  सरयू नदी को श्राप दे दिया कि तुम्हारा जल किसी भी मंदिर में चढ़ाने के काम नहीं आएगा और किसी  पूजा में तुम्हारे जल का उपयोग नहीं किया जाएगा ।. सरयू ने भगवान शिव से अपना दोष मुक्ति का उपाय के लिए भगवान शिव से प्रार्थना की थी । भगवान शिव ने कहा कि श्राप तो खत्म नहीं हो सकता परंतु  तुम्हारे जल से स्नान करेगा, वह पापों से मुक्त हो जाएगा । कौशल की राजधानी अयोध्या 12 योजन लंबी एवं 3 योजन चौड़ी थी । अयोध्या के पूरब आजमगढ़ ,पश्चिम में बाराबंकी ,उत्तर में सरयू नदी  और दक्षिण में विसुई नदी प्रवाहित है । अयोध्या को भगवान विष्णु को मस्तक कहा गया है। अयोधया क्षेत्र का सरयू नदी के तट पर 51 घाटों में  राम घाट , उर्मिला घाट ,लक्ष्मण घाट , गोप्रतार व गुप्तार घाट , यमस्थला व जमधारा घाट , चक्रतीर्थ घाट ,प्रह्लाद घाट ,सुमित्रा घाट , कौशल्या घाट ,कैकई घाट ,राजघाट ,ऋणमोचन घाट ,स्वर्गद्वार घाट ,पापमोचन घाट , गोला घाट  ,विल्वहरिघाट ,चन्द्रहरि घाट ,नागेश्वरनाथ घाट ,वासुदेव घाट ,जानकी घाट , दशरथ घाट , भरत घाट , शत्रुघ्न घाट एवं राम की पैड़ी है । अयोध्या का क्षेत्र 12 योजन लंबी एवं 03 योजन चौड़ी में फैली थी ।
नागेश्वरनाथ घाट -  त्रेतायुगीन सरयू नदी के तट एवं राम की पैड़ी किनारे  अयोध्या के राजा एवं भगवा राम की भार्या माता सीता के पुत्र कुश एवं नागराज कुमुद की पुत्री कुमुदनी द्वारा वैवश्वत मनु के पुत्र इक्ष्वाकु ने भगवान शिव का शिवलिंग स्थापित किया गया था को  नागेश्वरनाथ मन्दिर निर्माण कर मंदिर के गर्भगृह में स्थापित किया गया था । शिवपुराण , लिंगपुराण , स्कन्द पुराण विभिन्न संहिताओं के अनुसार  त्रेतायुग में कौशांबी का राजा कुश सरयू नदी में नौका विहार करने के क्रम में राजा कुश का बाजूबंद सरयू नदी में गिर गया था । कुश का बाजूबंद नागराज कुमुद की पुत्री कुमुदनी को प्राप्त हो गयी थी । कुश अपने बाजूबंद कंगन प्रप्ति हेतु नागराज कुमुद से भयंकर युद्ध अयोध्या स्थित सरयू नदी के तट पर हुआ था । अयोध्या का राजा  कुश और नागराज कुमुद का भयंकर युद्ध को रोकने के लिए भगवान शिव उपस्थित हुए । युद्ध की समाप्ति के पश्चात भगवान शिव द्वारा अयोध्या का राजा कुश का विवाह नागराज कुमुद की पुत्री कुमुदनी के साथ कराया गया । भगवान शिव नागेश्वर के रूप में विराजमान हो गए थे । अयोध्या का राजा और भगवान शिवभक्त नागराज कुमुद की पुत्री कुमुदनी द्वारा नागेश्वरनाथ मंदिर का निर्माण किया गया था । ब्रिटिश साम्राज्य। का इतिहासकार विसेन्टस्मिथ के अनुसार नागेश्वर मंदिर का पुनर्निर्माण विक्रमादित्य द्वारा कराया गया था । नागेश्वरनाथ मंदिर पर 27 बार आक्रमण हुए परंतु मंदिर को किसी प्रकार की क्षति हुई हुई थी । नागेश्वरनाथ मंदिर का जीर्णोद्धार नबाब सफदरजंग के मंत्री नवल राय द्वारा 1750 ई. में कराया गया है। अयोध्या क्षेत्र में  में 300 मंदिर है । हैमिल्टन एवं कनिग्घम ने नागेश्वरनाथ मंदिर को पवित्र एवं इतिहासवेत्ता लोचन ने नागेश्वरनाथ ज्योतिर्लिंग कहा है । राम की पैड़ी का पुनर्निर्माण 1985  ई. में किया गया है । कार्तिक कृष्ण अमावश्या सन 2019  ई. में राम की पैड़ी पर 450000 दीप प्रज्वलित कर भगवान राम को समर्पित किए गए थे । 
गुप्तार घाट -   अयोध्या से 10 किमी की दूरी पर सरयू नदी का स्थल  भगवान राम की जल समाधि स्थित  है ।  स्कन्द पुराण के अनुसार अयोध्या में भगवान राम ने त्रेतायुग में 11000 वर्षों के बाद अयोध्या को आठ भागों में विभक्त कर लक्ष्मण , भरत शत्रुघ्न और अपने पुत्र लव और कुश को राज्य देने के बाद भगवान सूर्य पुत्र  यमराज  के अनुनय पर एवं सरयू नदी के निर्धारित तट पर  भगवान राम  जलसमाधि लेकर वैकुंठ चले गए थे । भगवान राम के साथ शेषावतार लक्षमण , धर्मावतार भरत और शत्रुघ्न  अपने स्थान पर चले  गए थे ।  इतिहासकारों ने  भगवान राम की जलसमाधि 5000 ई. पू. कहा है । भगवान राम की जल समाधि स्थल को गुप्त हरि घाट , गौ प्रतारण घाट , गुप्तार घाट कहा गया है । गुप्तार घाट अवस्थित राम मंदिर के गर्भगृह में अस्त्र ,शस्त्र लिए विना भगवान राम  की मूर्ति , लक्ष्मण , माता सीता की मूर्ति स्थापित है ।  गुप्तार घाट के समीप भगवान राम के चरण चिह्न , नरसिंह मंदिर , परशुराम मंदिर चक्र हरि मंदिर  के गर्भगृह में भगवान राम का चरण चिह्न है । अयोध्या का राजा दर्शन सिंह ने 19 शताब्दी में राम मंदिर का निर्माण कराया था । अयोध्या का नवाब शुजा - उद - दौला ने गुप्तार घाट के समीप श्री राम मंदिर के समीप किले का निर्माण कराया था।
सरयू नदी के प्रमुख घाटो का परिभ्रमण 04 अगस्त 2024 रविवार  को साहित्यकार व इतिहासकार सत्येन्द्र कुमार पाठक द्वारा किया गया । सरयू नदी के घाटों में नागेश्वरनाथ घाट , राम की पैड़ी , गुप्तार घाट आनंददायी और शांति प्रिय लगा ।  स्वर्णिम कला केंद्र की अध्यक्षा व लेखिका उषाकिरण श्रीवास्तव ने घाट परिभ्रमण में भूमिका निभाई । सरयू नदी की घाट आनंददायक एवं शांति प्रिय है । 
नागेश्वरनाथ घाट पर नागेश्वरनाथ मंदिर , राम की पैड़ी , सरयू नदी 
गुप्तार घाट स्थित मंदिर 

गुरुवार, अगस्त 08, 2024

सारनाथ की सांस्कृतिक विरासत

सारनाथ का सांस्कृतिक विरासत  
सत्येन्द्र कुमार पाठक 
सनातन धर्म एवं बौद्ध तथा जैन धर्म ग्रन्थों में सारनाथ का उल्लेख मिलता है । उत्तर प्रदेश राज्य के वाराणसी ज़िले के मुख्यालय, वाराणसी, से 10 किलोमीटर पूर्वोत्तर में स्थित प्रमुख बौद्ध तीर्थस्थल सारनाथ  है। बिहार राज्य का गया जिले के बोधगया का  निरंजन नदी के तट पर स्थित पीपल वृक्ष की छाया में ज्ञान प्राप्ति के पश्चात भगवान बुद्ध ने प्रथम उपदेश धर्मचक्र प्रवर्तन  सारनाथ में दिया था।  बौद्ध धर्म के प्रमुख तीर्थों  है । निर्देशांक: 25°22′52″N 83°01′17″E / 25.3811°N 83.0214°Eनिर्देशांक: 25°22′52″N 83°01′17″E / 25.3811°N 83.0214°E पर अवस्थित सारनाथ की हिंदी भाषीय क्षेत्र सारनाथ में मगध साम्राज्य का सम्राट अशोक का चतुर्मुख सिंहस्तम्भ, भगवान बुद्ध का मन्दिर, धामेख स्तूप, चौखन्डी स्तूप, राजकीय संग्राहलय, जैन मन्दिर, चीनी मन्दिर, मूलंगधकुटी और नवीन विहार इत्यादि द हैं। भारत का राष्ट्रीय चिह्न सारनाथ  के अशोक स्तंभ के मुकुट की द्विविमीय अनुकृति है। मुहम्मद गोरी ने सारनाथ के पूजा स्थलों को नष्ट कर दिया था। सन 1905 ई.में पुरातत्व विभाग ने सारनाथ का उत्खनन के दौरान  बौद्ध धर्म के अनुयायों और इतिहासकारों  का ध्यान सारनाथ कीओर गया। ऋषिपत्तन  वन  मृग-विहार स्थल  'ऋषिपत्तन' और 'मृगदाय' था। बिहार के गया जिले का बोधगया के  नीलांजन  नदी तट पर अवस्थित पीपल वृक्ष की छाया में ज्ञान प्राप्त करने के बाद गौतम बुद्ध ने प्रथम उपदेश ऋषिपत्तन पर दिया था। मगध साम्राज्य के सम्राट अशोक के समय में सारनाथ में सिंहों की मूर्ति वाला भारत का राजचिह्न सारनाथ के अशोक के स्तंभ , 'धमेक स्तूप' का निर्माण किया गया है ।   मृगदाय में सारंगनाथ महादेव की मूर्ति की स्थापना हुई थी । सारनाथ का प्राचीन नाम ऋषिपतन , इसिपतन या मृगदाव , हिरनों का जंगल था। ऋषिपतन ,  मृगों के विचरण करने वाले स्थान  मृगदाव पड़ा, निग्रोधमृग जातक में उल्लेख है। ‘सारनाथ’ की उत्पत्ति ‘सारंगनाथ’ मृगों के नाथ  अर्थात् गौतम बुद्ध से हुई।  वोधिसत्व के अनुसार गौतम बुद्ध ने पूर्वजन्म में, मृगदाव में मृगों के राजा थे । अपने प्राणों की बलि देकर एक गर्भवती हरिणी की जान बचाई थी। ऋषिपत्तन  वन को सारंग (मृग)-नाथ या सार-नाथ कहा गया है। पुरातत्व वेता दयाराम साहनी के अनुसार शिव को पौराणिक साहित्य में सारंगनाथ कहा गया है और महादेव शिव की नगरी काशी की समीपता के कारण यह स्थान शिवोपासना की  स्थली बन गया। धम्मेक स्तूप, सारनाथ - बुद्ध के प्रथम उपदेश  533 ई.पू.  का सारनाथ का उत्खनन से प्राप्त अवशेष प्राप्त  है। सारनाथ की समृद्धि और बौद्ध धर्म का विकास सर्वप्रथम अशोक के शासनकाल  में सारनाथ में धर्मराजिका स्तूप, धमेख स्तूप एवं सिंह स्तंभ का निर्माण करवाया गया था । अशोक के उत्तराधिकारियों के शासन-काल में पुन: सारनाथ अवनति की ओर अग्रसर होने लगा। ई.पू. दूसरी शती में शुंग राज्य की स्थापना होने के बाद  सारनाथ मिला अवषेष है। प्रथम शताब्दी ई. के  उत्तर भारत के कुषाण राज्य की स्थापना के बाद बौद्ध धर्म की उन्नति हुई। कनिष्क काल के तीसरे वर्ष में भिक्षु बल ने सारनाथ में बोधिसत्व प्रतिमा की स्थापना की। कनिष्ककाल में सारनाथ में भारत के विभिन्न भागों में  विहारों एवं स्तूपों का निर्माण करवाया। साहित्य व इतिहास के पन्नों के अनुसार बौद्ध धर्म के प्रचार के पूर्व सारनाथ शिवोपासना का  हर्ष काल में ह्वेन त्सांग भारत भ्रमण के दौरान सारनाथ का उल्लेख किया है। महमूद गजनवी (1017 ई.) के वाराणसी आक्रमण के समय सारनाथ को अत्यधिक क्षति पहुँची थी । सम्राट महीपाल काल में स्थिरपाल और बसन्तपाल न ने सम्राट की प्रेरणा से काशी के देवालयों के उद्धार के साथ-साथ धर्मराजिका स्तूप एवं धर्मचक्र का  उद्धार 1026 ई. में किया। गाहड़वाल  शासन-काल में गोविंदचंद्र की रानी कुमार देवी ने सारनाथ में विहार बनवाया था। 
सारनाथ का उत्खनन - काशीनरेश चेत सिंह के दीवान जगत सिंह ने धर्मराजिका स्तूप को सारनाथ क्षेत्र का सर्वप्रथम सीमित उत्खनन कर्नल कैकेंजी ने 1815 ई. में करवाया था । कैकेंजी के उत्खनन के बाद 1835-36 में कनिंघम ने सारनाथ का विस्तृत उत्खनन में धमेख स्तूप, चौखंडी स्तूप एवं मध्यकालीन विहारों का रूप  निकाला था । कनिंघम का धमेख स्तूप से 3 फुट नीचे 600 ई. का एक अभिलिखित शिलापट्ट (28 ¾ इंच X 13 इंच X 43 इंच आकार का  मिला , भवनों में प्रयुक्त पत्थरों के टुकड़े एवं मूर्तियाँ मिलीं उसे कलकत्ता के भारतीय संग्रहालय में सुरक्षित हैं। 1851-52 ई. में मेजर किटोई ने सारनाथ उत्खनन में धमेख स्तूप केसमीप  अनेक स्तूपों एवं दो विहारों के अवशेष मिले थे । एडवर्ड थामस तथा प्रो॰ फिट्ज एडवर्ड हार्न ने खोज के द्वारा उत्खनित वस्तुएँ  भारतीय संग्रहालय कलकत्ता में हैं। वैज्ञानिक उत्खनन एच.बी. ओरटल ने सारनाथ का उत्खनन 200 वर्ग फुट क्षेत्र में किया गया। मंदिर तथा अशोक स्तंभ के अतिरिक्त बड़ी संख्या में मूर्तियाँ एवं शिलालेख और मूर्तियों में बोधिसत्व की विशाल अभिलिखित मूर्ति, आसनस्थ बुद्ध की मूर्ति, अवलोकितेश्वर, बोधिसत्व, मंजुश्री, नीलकंठ की मूर्तियाँ तथा तारा, वसुंधरा आदि की प्रतिमाएँ  हैं। पुरातत्त्व विभाग के डायरेक्टर जनरल जान मार्शल ने सहयोगियों स्टेनकोनो और दयाराम साहनी के साथ 1907 में सारनाथ के उत्तर-दक्षिण क्षेत्रों में उत्खनन किया। उत्खनन से उत्तर क्षेत्र में तीन कुषाणकालीन मठों का अवशेष ,  दक्षिण क्षेत्र से धर्मराजिका स्तूप के आसपास तथा धमेख स्तूप के उत्तर से  अनेक छोटे-छोटे स्तूपों एवं मंदिरों के अवशेष ,  कुमारदेवी के अभिलेखों से युक्त मूर्तियाँ महत्त्व हैं। सारनाथ उत्खनन 1914 से 1915 ई. में एच. हारग्रीव्स ने मुख्य मंदिर के पूर्व और पश्चिम में खुदाई करवाई। उत्खनन में मौर्यकाल से लेकर मध्यकाल तक की  वस्तुएँ प्राप्त है।
दयाराम साहनी के निर्देशन में 5 सत्रों तक चलता रहा। धमेख स्तूप से मुख्य मंदिर तक के संपूर्ण क्षेत्र का उत्खनन किया गया। उत्खनन से दयाराम साहनी को एक 1 फुट 9 ½ इंच लंबी, 2 फुट 7 इंच चौड़ी तथा 3 फुट गहरी एक नाली के अवशेष मिले है ।
चौखण्डी स्तूप - धमेख स्तूप से आधा मील दक्षिण चौखंडी स्तूप स्थित है । सारनाथ के अवशिष्ट स्मारकों गौतम बुद्ध ने अपने पाँच शिष्यों को सबसे प्रथम उपदेश सुनाया था । ह्वेनसाँग ने चौखंडी स्तूप की स्थिति सारनाथ से 0.8 कि॰मी॰ दक्षिण-पश्चिम में बताई है, जो 91.44 मी. ऊँचा था। स्तूप के ऊपर  अष्टपार्श्वीय बुर्जी बनी हुई है। इसके उत्तरी दरवाजे पर पड़े हुए पत्थर पर फ़ारसी में लेख उल्लिखित है।   टोडरमल के पुत्र गोवर्द्धन सन् 1589 ई. (996 हिजरी) में चौखंडी स्तूप  बनवाया था।  मुगल बादशाह हुमायूँ ने चौखंडी स्थान पर रात व्यतीत करने के कारण हुमायूँ की यादगार में  बुर्ज का निर्माण  हुआ था । एलेक्जेंडर कनिंघम ने 1836 ई. में इस स्तूप में रखे समाधि चिन्हों की खोज में इसके केंद्रीय भाग में खुदाई की, इस खुदाई से उन्हें कोई महत्त्वपूर्ण वस्तु नहीं मिली। सन् 1905 ई. में श्री ओरटेल ने इसकी फिर से खुदाई की। उत्खनन में इन्हें कुछ मूर्तियाँ, स्तूप की अठकोनी चौकी और चार गज ऊँचे चबूतरे मिले। चबूतरे में प्रयुक्त ऊपर की ईंटें 12 इंच X10 इंच X2 ¾ इंच और 14 ¾ X10 इंच X2 ¾ इंच आकार की थीं जबकि नीचे प्रयुक्त ईंटें 14 ½ इंच X 9 इंच X2 ½ इंच आकार की थीं। इस स्तूप का ‘चौखंडी‘ नाम पुराना जान पड़ता है। इसके आकार-प्रकार से ज्ञात होता है कि एक चौकोर कुर्सी पर ठोस ईंटों की क्रमश: घटती हुई तीन मंज़िले बनाई गई थीं। सबसे ऊपर मंज़िल की खुली छत पर संभवत: कोई प्रतिमा स्थापित थी। गुप्तकाल में इस प्रकार के स्तूपों को ‘त्रिमेधि स्तूप’ कहते थे। उत्खनन से प्राप्त सामग्रियों के आधार पर यह निश्चित हो जाता है कि गुप्तकाल में इस स्तूप का निर्माण हो चुका था।
धर्मराजिका स्तूप - इस स्तूप का निर्माण अशोक ने करवाया था। दुर्भाग्यवश 1794 ई. में जगत सिंह के आदमियों ने काशी का प्रसिद्ध मुहल्ला जगतगंज बनाने के लिए इसकी ईंटों को खोद डाला था। खुदाई के समय 8.23 मी. की गहराई पर एक प्रस्तर पात्र के भीतर संगरमरमर की मंजूषा में कुछ हड्डिया: एवं सुवर्णपात्र, मोती के दाने एवं रत्न मिले थे, जिसे उन्होंने विशेष महत्त्व का न मानकर गंगा में प्रवाहित कर दिया। यहाँ से प्राप्त महीपाल के समय के 1026 ई. के एक लेख में यह उल्लेख है कि स्थिरपाल और बसंतपाल नामक दो बंधुओं ने धर्मराजिका और धर्मचक्र का जीर्णोद्धार किया। मार्शल के निदेशानुसार  1907 - 08 ई. में  उत्खनन से स्तूप के क्रमिक परिनिर्माणों के इतिहास का पता चला। इस स्तूप का कई बार परिवर्द्धन एवं संस्कार हुआ।  स्तूप के मूल भाग का निर्माण अशोक ने करवाया था। उस समय इसका व्यास 13.48 मी. (44 फुट 3 इंच) था। इसमें प्रयुक्त कीलाकार ईंटों की माप 19 ½ इंच X 14 ½ इंच X 2 ½ इंच और 16 ½ इंच X 12 ½ इंच X 3 ½ इंच थी। सर्वप्रथम परिवर्द्धन कुषाण-काल या आरंभिक गुप्त-काल में हुआ। इस समय स्तूप में प्रयुक्त ईंटों की माप 17 इंच X10 ½ इंच X 2 ¾ ईच थी। दूसरा परिवर्द्धन हूणों के आक्रमण के पश्चात् पाँचवी या छठी शताब्दी में हुआ। इस समय इसके चारों ओर 16 फुट (4.6 मीटर) चौड़ा एक प्रदक्षिणा पथ जोड़ा गया। तीसरी बार स्तूप का परिवर्द्धन हर्ष के शासन-काल (7वीं सदी) में हुआ। उस समय स्तूप के गिरने के डर से प्रदक्षिणा पथ को ईंटों से भर दिया गया और स्तूप तक पहुँचने के लिए सीढ़ियाँ लगा दी गईं। चौथा परिवर्द्धन बंगाल नरेश महीपाल ने महमूद ग़ज़नवी के आक्रमण के दस वर्ष वाद कराया। अंतिम पुनरुद्धार लगभग 1114 ई. से 1154 ई. के मध्य हुआ। इसके पश्चात् मुसलमानों के आक्रमण ने सारनाथ को नष्ट कर दिया।
उत्खनन से इस स्तूप से दो मूर्तियाँ मिलीं। ये मूर्तियाँ सारनाथ से प्राप्त मूर्तियों में मुख्य हैं। पहली मूर्ति कनिष्क के राज्य संवत्सर 3 (81 ई.) में स्थापित विशाल बोधिसत्व प्रतिमा और दूसरी धर्मचक्रप्रवर्तन मुद्रा में भगवान बुद्ध की मूर्ति। ये मूर्तियाँ सारनाथ की सर्वश्रेष्ठ कलाकृतियाँ हैं। मूलगंध कुटी विहार- यह विहार धर्मराजिका स्तूप से उत्तर की ओर स्थित है। पूर्वाभिमुख इस विहार की कुर्सी चौकोर है जिसकी एक भुजा 18.29 मी. है। सातवीं शताब्दी में भारत-भ्रमण पर आए चीनी यात्री ह्वेन त्सांग ने इसका वर्णन 200 फुट ऊँचे मूलगंध कुटी विहार के नाम से किया है। इस मंदिर पर बने हुए नक़्क़ाशीदार गोले और नतोदर ढलाई, छोटे-छोटे स्तंभों तथा सुदंर कलापूर्ण कटावों आदि से यह निश्चित हो जाता है कि इसका निर्माण गुप्तकाल में हुआ था। परंतु इसके चारों ओर मिट्टी और चूने की बनी हुई पक्की फर्शों तथा दीवारो के बाहरी भाग में प्रयुक्त अस्त-व्यस्त नक़्क़ाशीदार पत्थरों के आधार पर कुछ विद्धानों ने इसे 8वीं शताब्दी के लगभग का माना है।
ऐसा प्रतीत होता है कि इस मंदिर के बीच में बने मंडप के नीचे प्रारंभ में भगवान बुद्ध की एक सोने की चमकीली आदमक़द मूर्ति स्थापित थी। मंदिर में प्रवेश के लिए तीनों दिशाओं में एक-एक द्वार और पूर्व दिशा में मुख्य प्रवेश द्वार (सिंह द्वार) था। कालांतर में जब मंदिर की छत कमज़ोर होने लगी तो उसकी सुरक्षा के लिए भीतरी दक्षिणापथ को दीवारें उठाकर बन्द कर दिया गया। अत: आने जाने का रास्ता केवल पूर्व के मुख्य द्वार से ही रह गया। तीनों दरवाजों के बंद हो जाने से ये कोठरियों जैसी हो गई, जिसे बाद में छोटे मंदिरों का रूप दे दिया गया। 1904 ई. में श्री ओरटल को खुदाई कराते समय दक्षिण वाली कोठरी में एकाश्मक पत्थर से निर्मित 9 ½ X 9 ½ फुट की मौर्यकालीन वेदिका मिली। इस वेदिका पर उस समय की चमकदार पालिश है। यह वेदिका प्रारम्भ में धर्मराजिका स्तूप के ऊपर हार्निका के चारों ओर लगी थीं। इस वेदिका पर कुषाणकालीन ब्राह्मी लिपि में दो लेख अंकित हैं- ‘आचाया(र्य्या)नाँ सर्वास्तिवादि नां परिग्रहेतावाम्’ और ‘आचार्यानां सर्वास्तिवादिनां परिग्राहे’। इन दोनों लेखों से यह ज्ञात होता है कि तीसरी शताब्दी ई. में यह वेदिका सर्वास्तिवादी संप्रदाय के आचार्यों को भेंट की गई थी। अशोक स्तंभ मुख्य मंदिर से पश्चिम की ओर एक अशोककालीन प्रस्तर-स्तंभ है जिसकी ऊँचाई प्रारंभ में 17.55 मी. (55 फुट) थी। वर्तमान समय में इसकी ऊँचाई केवल 2.03 मीटर (7 फुट 9 इंच) है। स्तंभ का ऊपरी सिरा अब सारनाथ संग्रहालय में है। नींव में खुदाई करते समय यह पता चला कि इसकी स्थापना 8 फुट X16 फुट X18 इंच आकार के बड़े पत्थर के चबूतरे पर हुई थी। इस स्तंभ पर तीन लेख उल्लिखित हैं। पहला लेख अशोक कालीन ब्राह्मी लिपि में सम्राट ने आदेश दिया है कि  भिछु या भिक्षुणी संघ में फूट डालेंगे और संघ की निंदा करेंगे: उन्हें सफ़ेद कपड़े पहनाकर संघ के बाहर निकाल दिया जाएगा। दूसरा लेख कुषाण-काल , तीसरा लेख गुप्त काल में सम्मितिय शाखा के आचार्यों का उल्लेख किया गया है। धमेख  स्तूप ठोस गोलाकार बुर्ज की भाँति है। धमेश स्तूप का व्यास 28.35 मीटर (93 फुट) और ऊँचाई 39.01 मीटर (143 फुट) 11.20 मीटर तक  घेरा सुंदर अलंकृत शिलापट्टों से आच्छादित है। आच्छादन कला की दृष्टि से अलंकरणों में मुख्य रूप से स्वस्तिक, नन्द्यावर्त सदृश विविध आकृतियाँ और फूल-पत्ती के कटाव की बेलें हैं।  वल्लरी प्रधान अलंकरण बनाने में गुप्तकाल के शिल्पी पारंगत थे।  स्तूप की नींव अशोक के समय में पड़ी और  विस्तार कुषाण-काल में तथा  गुप्तकाल में पूर्णत: तैयार हुआ था । स्तूप का निर्माण पत्थरों की सजावट और उन पर गुप्त लिपि में अंकित चिन्ह है। कनिंघम ने  स्तूप के मध्य खुदाई कराकर 0.91 मीटर (3 फुट) गहराई से शिलापट्ट प्राप्त किया था। शिलापट्ट पर सातवीं शताब्दी की लिपि में ‘ये धर्महेतु प्रभवा’ मंच अंकित था। धमेख व धमेक  स्तूप में प्रयुक्त ईंटें 14 ½ इंच X 8 ½ इंच X 2 ¼ इंच आकार की हैं। धमेक (धमेख) शब्द की उत्पत्ति संस्कृत के ‘धर्मेज्ञा’ शब्द  है।  11 वीं शताब्दी की मुद्रा पर ‘धमाक जयतु’ शब्द है।  मुद्रा में धमेक  स्तूप को धमाक की पूजा करते थे। कनिंघम ने ‘धमेख’ शब्द को संस्कृत शब्द ‘धर्मोपदेशक’ का संक्षिप्त रूप स्वीकार किया है। बुद्ध ने सर्वप्रथम ‘धर्मचक्र’ सारनाथ के क्षेत्र की खुदाई से गुप्तकालीन  कलाकृतियां तथा बुद्ध प्रतिमाएं प  सारनाथ  संग्रहालय में हैं। गुप्तकाल में सारनाथ की मूर्तिकला  सारनाथ में शिव मंदिर तथा जैन मंदिर स्थित हैं। जैन मंदिर 1824 ई. में श्रियांशदेव की प्रतिमा स्थापित है। जैन तीर्थंकर सारनाथ से दो मील दूर स्थित सिंह  ग्राम में तीर्थंकर भाव को प्राप्त हुए थे। सारनाथ से अभिलेख में  काशीराज प्रकटादित्य का शिलालेख में बालादित्य नरेश का उल्लेख है ।  फ़्लीट के मत में बालादित्यमिहिरकुल हूण के साथ वीरतापूर्वक लड़ा था। अभिलेख  7वीं शती के पू.  है। दूसरे अभिलेख में हरिगुप्त संत  द्वारा मूर्तिदान का उल्लेख  अभिलेख 8 वीं शती ई.  है।  पुरातत्त्व विभाग ने 1905 ई. में  सारनाथ का उत्खनन करने के बाद सारनाथ का जीर्णोद्धार हुआ। 'मूलगंध कुटी विहार' नामक नया मंदिर , बोधिवृक्ष की शाखा लगाकर प्राचीन काल के मृगदाय का स्मरण दिलाने के लिए हरे-भरे उद्यानों में  हिरन भी छोड़ दिए गए हैं। सारनाथ में पुरातात्विक उत्खनन से धर्मराजिका स्तूप ,धर्मराजिका स्तूप ,अशोक स्तंभ के मूलभाग के ऊपर सिंह शीर्ष स्थापित ,अशोक स्तंभ के मूलभाग के ऊपर सिंह शीर्ष स्थापित , अशोक स्तंभ पर ब्राह्मी लिपि में लेख ,अशोक स्तंभ पर ब्राह्मी लिपि ,मूलगंध कुटी में भगवान बुद्ध की मूर्ति , मूलगंध कुटी , महात्मा बुद्ध , धामेक स्तूप है।
सारनाथ की सांस्कृतिक विरासत का परिभ्रमण 05 अगस्त 2024 को साहित्यकार व इतिहासकार सत्येन्द्र कुमार पाठक एवं स्वंर्णिम कला केंद्र की अध्यक्षा व लेखिका कवियत्री उषाकिरण श्रीवास्तव द्वारा किया गया । अयोध्या परिभ्रमण के बाद साहित्यकार व इतिहासकार सत्येन्द्र कुमार पाठक द्वारा सारनाथ की पुरातात्विक और सांस्कृतिक विरासत का बारीकी से अध्ययन किया गया । 
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