गुरुवार, अगस्त 08, 2024

सारनाथ की सांस्कृतिक विरासत

सारनाथ का सांस्कृतिक विरासत  
सत्येन्द्र कुमार पाठक 
सनातन धर्म एवं बौद्ध तथा जैन धर्म ग्रन्थों में सारनाथ का उल्लेख मिलता है । उत्तर प्रदेश राज्य के वाराणसी ज़िले के मुख्यालय, वाराणसी, से 10 किलोमीटर पूर्वोत्तर में स्थित प्रमुख बौद्ध तीर्थस्थल सारनाथ  है। बिहार राज्य का गया जिले के बोधगया का  निरंजन नदी के तट पर स्थित पीपल वृक्ष की छाया में ज्ञान प्राप्ति के पश्चात भगवान बुद्ध ने प्रथम उपदेश धर्मचक्र प्रवर्तन  सारनाथ में दिया था।  बौद्ध धर्म के प्रमुख तीर्थों  है । निर्देशांक: 25°22′52″N 83°01′17″E / 25.3811°N 83.0214°Eनिर्देशांक: 25°22′52″N 83°01′17″E / 25.3811°N 83.0214°E पर अवस्थित सारनाथ की हिंदी भाषीय क्षेत्र सारनाथ में मगध साम्राज्य का सम्राट अशोक का चतुर्मुख सिंहस्तम्भ, भगवान बुद्ध का मन्दिर, धामेख स्तूप, चौखन्डी स्तूप, राजकीय संग्राहलय, जैन मन्दिर, चीनी मन्दिर, मूलंगधकुटी और नवीन विहार इत्यादि द हैं। भारत का राष्ट्रीय चिह्न सारनाथ  के अशोक स्तंभ के मुकुट की द्विविमीय अनुकृति है। मुहम्मद गोरी ने सारनाथ के पूजा स्थलों को नष्ट कर दिया था। सन 1905 ई.में पुरातत्व विभाग ने सारनाथ का उत्खनन के दौरान  बौद्ध धर्म के अनुयायों और इतिहासकारों  का ध्यान सारनाथ कीओर गया। ऋषिपत्तन  वन  मृग-विहार स्थल  'ऋषिपत्तन' और 'मृगदाय' था। बिहार के गया जिले का बोधगया के  नीलांजन  नदी तट पर अवस्थित पीपल वृक्ष की छाया में ज्ञान प्राप्त करने के बाद गौतम बुद्ध ने प्रथम उपदेश ऋषिपत्तन पर दिया था। मगध साम्राज्य के सम्राट अशोक के समय में सारनाथ में सिंहों की मूर्ति वाला भारत का राजचिह्न सारनाथ के अशोक के स्तंभ , 'धमेक स्तूप' का निर्माण किया गया है ।   मृगदाय में सारंगनाथ महादेव की मूर्ति की स्थापना हुई थी । सारनाथ का प्राचीन नाम ऋषिपतन , इसिपतन या मृगदाव , हिरनों का जंगल था। ऋषिपतन ,  मृगों के विचरण करने वाले स्थान  मृगदाव पड़ा, निग्रोधमृग जातक में उल्लेख है। ‘सारनाथ’ की उत्पत्ति ‘सारंगनाथ’ मृगों के नाथ  अर्थात् गौतम बुद्ध से हुई।  वोधिसत्व के अनुसार गौतम बुद्ध ने पूर्वजन्म में, मृगदाव में मृगों के राजा थे । अपने प्राणों की बलि देकर एक गर्भवती हरिणी की जान बचाई थी। ऋषिपत्तन  वन को सारंग (मृग)-नाथ या सार-नाथ कहा गया है। पुरातत्व वेता दयाराम साहनी के अनुसार शिव को पौराणिक साहित्य में सारंगनाथ कहा गया है और महादेव शिव की नगरी काशी की समीपता के कारण यह स्थान शिवोपासना की  स्थली बन गया। धम्मेक स्तूप, सारनाथ - बुद्ध के प्रथम उपदेश  533 ई.पू.  का सारनाथ का उत्खनन से प्राप्त अवशेष प्राप्त  है। सारनाथ की समृद्धि और बौद्ध धर्म का विकास सर्वप्रथम अशोक के शासनकाल  में सारनाथ में धर्मराजिका स्तूप, धमेख स्तूप एवं सिंह स्तंभ का निर्माण करवाया गया था । अशोक के उत्तराधिकारियों के शासन-काल में पुन: सारनाथ अवनति की ओर अग्रसर होने लगा। ई.पू. दूसरी शती में शुंग राज्य की स्थापना होने के बाद  सारनाथ मिला अवषेष है। प्रथम शताब्दी ई. के  उत्तर भारत के कुषाण राज्य की स्थापना के बाद बौद्ध धर्म की उन्नति हुई। कनिष्क काल के तीसरे वर्ष में भिक्षु बल ने सारनाथ में बोधिसत्व प्रतिमा की स्थापना की। कनिष्ककाल में सारनाथ में भारत के विभिन्न भागों में  विहारों एवं स्तूपों का निर्माण करवाया। साहित्य व इतिहास के पन्नों के अनुसार बौद्ध धर्म के प्रचार के पूर्व सारनाथ शिवोपासना का  हर्ष काल में ह्वेन त्सांग भारत भ्रमण के दौरान सारनाथ का उल्लेख किया है। महमूद गजनवी (1017 ई.) के वाराणसी आक्रमण के समय सारनाथ को अत्यधिक क्षति पहुँची थी । सम्राट महीपाल काल में स्थिरपाल और बसन्तपाल न ने सम्राट की प्रेरणा से काशी के देवालयों के उद्धार के साथ-साथ धर्मराजिका स्तूप एवं धर्मचक्र का  उद्धार 1026 ई. में किया। गाहड़वाल  शासन-काल में गोविंदचंद्र की रानी कुमार देवी ने सारनाथ में विहार बनवाया था। 
सारनाथ का उत्खनन - काशीनरेश चेत सिंह के दीवान जगत सिंह ने धर्मराजिका स्तूप को सारनाथ क्षेत्र का सर्वप्रथम सीमित उत्खनन कर्नल कैकेंजी ने 1815 ई. में करवाया था । कैकेंजी के उत्खनन के बाद 1835-36 में कनिंघम ने सारनाथ का विस्तृत उत्खनन में धमेख स्तूप, चौखंडी स्तूप एवं मध्यकालीन विहारों का रूप  निकाला था । कनिंघम का धमेख स्तूप से 3 फुट नीचे 600 ई. का एक अभिलिखित शिलापट्ट (28 ¾ इंच X 13 इंच X 43 इंच आकार का  मिला , भवनों में प्रयुक्त पत्थरों के टुकड़े एवं मूर्तियाँ मिलीं उसे कलकत्ता के भारतीय संग्रहालय में सुरक्षित हैं। 1851-52 ई. में मेजर किटोई ने सारनाथ उत्खनन में धमेख स्तूप केसमीप  अनेक स्तूपों एवं दो विहारों के अवशेष मिले थे । एडवर्ड थामस तथा प्रो॰ फिट्ज एडवर्ड हार्न ने खोज के द्वारा उत्खनित वस्तुएँ  भारतीय संग्रहालय कलकत्ता में हैं। वैज्ञानिक उत्खनन एच.बी. ओरटल ने सारनाथ का उत्खनन 200 वर्ग फुट क्षेत्र में किया गया। मंदिर तथा अशोक स्तंभ के अतिरिक्त बड़ी संख्या में मूर्तियाँ एवं शिलालेख और मूर्तियों में बोधिसत्व की विशाल अभिलिखित मूर्ति, आसनस्थ बुद्ध की मूर्ति, अवलोकितेश्वर, बोधिसत्व, मंजुश्री, नीलकंठ की मूर्तियाँ तथा तारा, वसुंधरा आदि की प्रतिमाएँ  हैं। पुरातत्त्व विभाग के डायरेक्टर जनरल जान मार्शल ने सहयोगियों स्टेनकोनो और दयाराम साहनी के साथ 1907 में सारनाथ के उत्तर-दक्षिण क्षेत्रों में उत्खनन किया। उत्खनन से उत्तर क्षेत्र में तीन कुषाणकालीन मठों का अवशेष ,  दक्षिण क्षेत्र से धर्मराजिका स्तूप के आसपास तथा धमेख स्तूप के उत्तर से  अनेक छोटे-छोटे स्तूपों एवं मंदिरों के अवशेष ,  कुमारदेवी के अभिलेखों से युक्त मूर्तियाँ महत्त्व हैं। सारनाथ उत्खनन 1914 से 1915 ई. में एच. हारग्रीव्स ने मुख्य मंदिर के पूर्व और पश्चिम में खुदाई करवाई। उत्खनन में मौर्यकाल से लेकर मध्यकाल तक की  वस्तुएँ प्राप्त है।
दयाराम साहनी के निर्देशन में 5 सत्रों तक चलता रहा। धमेख स्तूप से मुख्य मंदिर तक के संपूर्ण क्षेत्र का उत्खनन किया गया। उत्खनन से दयाराम साहनी को एक 1 फुट 9 ½ इंच लंबी, 2 फुट 7 इंच चौड़ी तथा 3 फुट गहरी एक नाली के अवशेष मिले है ।
चौखण्डी स्तूप - धमेख स्तूप से आधा मील दक्षिण चौखंडी स्तूप स्थित है । सारनाथ के अवशिष्ट स्मारकों गौतम बुद्ध ने अपने पाँच शिष्यों को सबसे प्रथम उपदेश सुनाया था । ह्वेनसाँग ने चौखंडी स्तूप की स्थिति सारनाथ से 0.8 कि॰मी॰ दक्षिण-पश्चिम में बताई है, जो 91.44 मी. ऊँचा था। स्तूप के ऊपर  अष्टपार्श्वीय बुर्जी बनी हुई है। इसके उत्तरी दरवाजे पर पड़े हुए पत्थर पर फ़ारसी में लेख उल्लिखित है।   टोडरमल के पुत्र गोवर्द्धन सन् 1589 ई. (996 हिजरी) में चौखंडी स्तूप  बनवाया था।  मुगल बादशाह हुमायूँ ने चौखंडी स्थान पर रात व्यतीत करने के कारण हुमायूँ की यादगार में  बुर्ज का निर्माण  हुआ था । एलेक्जेंडर कनिंघम ने 1836 ई. में इस स्तूप में रखे समाधि चिन्हों की खोज में इसके केंद्रीय भाग में खुदाई की, इस खुदाई से उन्हें कोई महत्त्वपूर्ण वस्तु नहीं मिली। सन् 1905 ई. में श्री ओरटेल ने इसकी फिर से खुदाई की। उत्खनन में इन्हें कुछ मूर्तियाँ, स्तूप की अठकोनी चौकी और चार गज ऊँचे चबूतरे मिले। चबूतरे में प्रयुक्त ऊपर की ईंटें 12 इंच X10 इंच X2 ¾ इंच और 14 ¾ X10 इंच X2 ¾ इंच आकार की थीं जबकि नीचे प्रयुक्त ईंटें 14 ½ इंच X 9 इंच X2 ½ इंच आकार की थीं। इस स्तूप का ‘चौखंडी‘ नाम पुराना जान पड़ता है। इसके आकार-प्रकार से ज्ञात होता है कि एक चौकोर कुर्सी पर ठोस ईंटों की क्रमश: घटती हुई तीन मंज़िले बनाई गई थीं। सबसे ऊपर मंज़िल की खुली छत पर संभवत: कोई प्रतिमा स्थापित थी। गुप्तकाल में इस प्रकार के स्तूपों को ‘त्रिमेधि स्तूप’ कहते थे। उत्खनन से प्राप्त सामग्रियों के आधार पर यह निश्चित हो जाता है कि गुप्तकाल में इस स्तूप का निर्माण हो चुका था।
धर्मराजिका स्तूप - इस स्तूप का निर्माण अशोक ने करवाया था। दुर्भाग्यवश 1794 ई. में जगत सिंह के आदमियों ने काशी का प्रसिद्ध मुहल्ला जगतगंज बनाने के लिए इसकी ईंटों को खोद डाला था। खुदाई के समय 8.23 मी. की गहराई पर एक प्रस्तर पात्र के भीतर संगरमरमर की मंजूषा में कुछ हड्डिया: एवं सुवर्णपात्र, मोती के दाने एवं रत्न मिले थे, जिसे उन्होंने विशेष महत्त्व का न मानकर गंगा में प्रवाहित कर दिया। यहाँ से प्राप्त महीपाल के समय के 1026 ई. के एक लेख में यह उल्लेख है कि स्थिरपाल और बसंतपाल नामक दो बंधुओं ने धर्मराजिका और धर्मचक्र का जीर्णोद्धार किया। मार्शल के निदेशानुसार  1907 - 08 ई. में  उत्खनन से स्तूप के क्रमिक परिनिर्माणों के इतिहास का पता चला। इस स्तूप का कई बार परिवर्द्धन एवं संस्कार हुआ।  स्तूप के मूल भाग का निर्माण अशोक ने करवाया था। उस समय इसका व्यास 13.48 मी. (44 फुट 3 इंच) था। इसमें प्रयुक्त कीलाकार ईंटों की माप 19 ½ इंच X 14 ½ इंच X 2 ½ इंच और 16 ½ इंच X 12 ½ इंच X 3 ½ इंच थी। सर्वप्रथम परिवर्द्धन कुषाण-काल या आरंभिक गुप्त-काल में हुआ। इस समय स्तूप में प्रयुक्त ईंटों की माप 17 इंच X10 ½ इंच X 2 ¾ ईच थी। दूसरा परिवर्द्धन हूणों के आक्रमण के पश्चात् पाँचवी या छठी शताब्दी में हुआ। इस समय इसके चारों ओर 16 फुट (4.6 मीटर) चौड़ा एक प्रदक्षिणा पथ जोड़ा गया। तीसरी बार स्तूप का परिवर्द्धन हर्ष के शासन-काल (7वीं सदी) में हुआ। उस समय स्तूप के गिरने के डर से प्रदक्षिणा पथ को ईंटों से भर दिया गया और स्तूप तक पहुँचने के लिए सीढ़ियाँ लगा दी गईं। चौथा परिवर्द्धन बंगाल नरेश महीपाल ने महमूद ग़ज़नवी के आक्रमण के दस वर्ष वाद कराया। अंतिम पुनरुद्धार लगभग 1114 ई. से 1154 ई. के मध्य हुआ। इसके पश्चात् मुसलमानों के आक्रमण ने सारनाथ को नष्ट कर दिया।
उत्खनन से इस स्तूप से दो मूर्तियाँ मिलीं। ये मूर्तियाँ सारनाथ से प्राप्त मूर्तियों में मुख्य हैं। पहली मूर्ति कनिष्क के राज्य संवत्सर 3 (81 ई.) में स्थापित विशाल बोधिसत्व प्रतिमा और दूसरी धर्मचक्रप्रवर्तन मुद्रा में भगवान बुद्ध की मूर्ति। ये मूर्तियाँ सारनाथ की सर्वश्रेष्ठ कलाकृतियाँ हैं। मूलगंध कुटी विहार- यह विहार धर्मराजिका स्तूप से उत्तर की ओर स्थित है। पूर्वाभिमुख इस विहार की कुर्सी चौकोर है जिसकी एक भुजा 18.29 मी. है। सातवीं शताब्दी में भारत-भ्रमण पर आए चीनी यात्री ह्वेन त्सांग ने इसका वर्णन 200 फुट ऊँचे मूलगंध कुटी विहार के नाम से किया है। इस मंदिर पर बने हुए नक़्क़ाशीदार गोले और नतोदर ढलाई, छोटे-छोटे स्तंभों तथा सुदंर कलापूर्ण कटावों आदि से यह निश्चित हो जाता है कि इसका निर्माण गुप्तकाल में हुआ था। परंतु इसके चारों ओर मिट्टी और चूने की बनी हुई पक्की फर्शों तथा दीवारो के बाहरी भाग में प्रयुक्त अस्त-व्यस्त नक़्क़ाशीदार पत्थरों के आधार पर कुछ विद्धानों ने इसे 8वीं शताब्दी के लगभग का माना है।
ऐसा प्रतीत होता है कि इस मंदिर के बीच में बने मंडप के नीचे प्रारंभ में भगवान बुद्ध की एक सोने की चमकीली आदमक़द मूर्ति स्थापित थी। मंदिर में प्रवेश के लिए तीनों दिशाओं में एक-एक द्वार और पूर्व दिशा में मुख्य प्रवेश द्वार (सिंह द्वार) था। कालांतर में जब मंदिर की छत कमज़ोर होने लगी तो उसकी सुरक्षा के लिए भीतरी दक्षिणापथ को दीवारें उठाकर बन्द कर दिया गया। अत: आने जाने का रास्ता केवल पूर्व के मुख्य द्वार से ही रह गया। तीनों दरवाजों के बंद हो जाने से ये कोठरियों जैसी हो गई, जिसे बाद में छोटे मंदिरों का रूप दे दिया गया। 1904 ई. में श्री ओरटल को खुदाई कराते समय दक्षिण वाली कोठरी में एकाश्मक पत्थर से निर्मित 9 ½ X 9 ½ फुट की मौर्यकालीन वेदिका मिली। इस वेदिका पर उस समय की चमकदार पालिश है। यह वेदिका प्रारम्भ में धर्मराजिका स्तूप के ऊपर हार्निका के चारों ओर लगी थीं। इस वेदिका पर कुषाणकालीन ब्राह्मी लिपि में दो लेख अंकित हैं- ‘आचाया(र्य्या)नाँ सर्वास्तिवादि नां परिग्रहेतावाम्’ और ‘आचार्यानां सर्वास्तिवादिनां परिग्राहे’। इन दोनों लेखों से यह ज्ञात होता है कि तीसरी शताब्दी ई. में यह वेदिका सर्वास्तिवादी संप्रदाय के आचार्यों को भेंट की गई थी। अशोक स्तंभ मुख्य मंदिर से पश्चिम की ओर एक अशोककालीन प्रस्तर-स्तंभ है जिसकी ऊँचाई प्रारंभ में 17.55 मी. (55 फुट) थी। वर्तमान समय में इसकी ऊँचाई केवल 2.03 मीटर (7 फुट 9 इंच) है। स्तंभ का ऊपरी सिरा अब सारनाथ संग्रहालय में है। नींव में खुदाई करते समय यह पता चला कि इसकी स्थापना 8 फुट X16 फुट X18 इंच आकार के बड़े पत्थर के चबूतरे पर हुई थी। इस स्तंभ पर तीन लेख उल्लिखित हैं। पहला लेख अशोक कालीन ब्राह्मी लिपि में सम्राट ने आदेश दिया है कि  भिछु या भिक्षुणी संघ में फूट डालेंगे और संघ की निंदा करेंगे: उन्हें सफ़ेद कपड़े पहनाकर संघ के बाहर निकाल दिया जाएगा। दूसरा लेख कुषाण-काल , तीसरा लेख गुप्त काल में सम्मितिय शाखा के आचार्यों का उल्लेख किया गया है। धमेख  स्तूप ठोस गोलाकार बुर्ज की भाँति है। धमेश स्तूप का व्यास 28.35 मीटर (93 फुट) और ऊँचाई 39.01 मीटर (143 फुट) 11.20 मीटर तक  घेरा सुंदर अलंकृत शिलापट्टों से आच्छादित है। आच्छादन कला की दृष्टि से अलंकरणों में मुख्य रूप से स्वस्तिक, नन्द्यावर्त सदृश विविध आकृतियाँ और फूल-पत्ती के कटाव की बेलें हैं।  वल्लरी प्रधान अलंकरण बनाने में गुप्तकाल के शिल्पी पारंगत थे।  स्तूप की नींव अशोक के समय में पड़ी और  विस्तार कुषाण-काल में तथा  गुप्तकाल में पूर्णत: तैयार हुआ था । स्तूप का निर्माण पत्थरों की सजावट और उन पर गुप्त लिपि में अंकित चिन्ह है। कनिंघम ने  स्तूप के मध्य खुदाई कराकर 0.91 मीटर (3 फुट) गहराई से शिलापट्ट प्राप्त किया था। शिलापट्ट पर सातवीं शताब्दी की लिपि में ‘ये धर्महेतु प्रभवा’ मंच अंकित था। धमेख व धमेक  स्तूप में प्रयुक्त ईंटें 14 ½ इंच X 8 ½ इंच X 2 ¼ इंच आकार की हैं। धमेक (धमेख) शब्द की उत्पत्ति संस्कृत के ‘धर्मेज्ञा’ शब्द  है।  11 वीं शताब्दी की मुद्रा पर ‘धमाक जयतु’ शब्द है।  मुद्रा में धमेक  स्तूप को धमाक की पूजा करते थे। कनिंघम ने ‘धमेख’ शब्द को संस्कृत शब्द ‘धर्मोपदेशक’ का संक्षिप्त रूप स्वीकार किया है। बुद्ध ने सर्वप्रथम ‘धर्मचक्र’ सारनाथ के क्षेत्र की खुदाई से गुप्तकालीन  कलाकृतियां तथा बुद्ध प्रतिमाएं प  सारनाथ  संग्रहालय में हैं। गुप्तकाल में सारनाथ की मूर्तिकला  सारनाथ में शिव मंदिर तथा जैन मंदिर स्थित हैं। जैन मंदिर 1824 ई. में श्रियांशदेव की प्रतिमा स्थापित है। जैन तीर्थंकर सारनाथ से दो मील दूर स्थित सिंह  ग्राम में तीर्थंकर भाव को प्राप्त हुए थे। सारनाथ से अभिलेख में  काशीराज प्रकटादित्य का शिलालेख में बालादित्य नरेश का उल्लेख है ।  फ़्लीट के मत में बालादित्यमिहिरकुल हूण के साथ वीरतापूर्वक लड़ा था। अभिलेख  7वीं शती के पू.  है। दूसरे अभिलेख में हरिगुप्त संत  द्वारा मूर्तिदान का उल्लेख  अभिलेख 8 वीं शती ई.  है।  पुरातत्त्व विभाग ने 1905 ई. में  सारनाथ का उत्खनन करने के बाद सारनाथ का जीर्णोद्धार हुआ। 'मूलगंध कुटी विहार' नामक नया मंदिर , बोधिवृक्ष की शाखा लगाकर प्राचीन काल के मृगदाय का स्मरण दिलाने के लिए हरे-भरे उद्यानों में  हिरन भी छोड़ दिए गए हैं। सारनाथ में पुरातात्विक उत्खनन से धर्मराजिका स्तूप ,धर्मराजिका स्तूप ,अशोक स्तंभ के मूलभाग के ऊपर सिंह शीर्ष स्थापित ,अशोक स्तंभ के मूलभाग के ऊपर सिंह शीर्ष स्थापित , अशोक स्तंभ पर ब्राह्मी लिपि में लेख ,अशोक स्तंभ पर ब्राह्मी लिपि ,मूलगंध कुटी में भगवान बुद्ध की मूर्ति , मूलगंध कुटी , महात्मा बुद्ध , धामेक स्तूप है।
सारनाथ की सांस्कृतिक विरासत का परिभ्रमण 05 अगस्त 2024 को साहित्यकार व इतिहासकार सत्येन्द्र कुमार पाठक एवं स्वंर्णिम कला केंद्र की अध्यक्षा व लेखिका कवियत्री उषाकिरण श्रीवास्तव द्वारा किया गया । अयोध्या परिभ्रमण के बाद साहित्यकार व इतिहासकार सत्येन्द्र कुमार पाठक द्वारा सारनाथ की पुरातात्विक और सांस्कृतिक विरासत का बारीकी से अध्ययन किया गया । 
9472987491

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