बुधवार, सितंबर 25, 2024

तुतला भवानी और तुतला झरना परिभ्रमण

 सनातन धर्म के  शाक्त सम्प्रदाय का प्रमुख स्थल रोहतास जिले के तिलौथू प्रखंड मुख्यालय तिलौथू  से 8 किमी दक्षिण पश्चिम की रेडियां के समीप।कैमूर पर्वत की तुतराही श्रंखला से जलप्रपात एवं तुतला भवानी मंदिर के गर्भगृह में तुतला भवानी स्थापित है। सर्वाधिक सुरम्य स्थान  उत्तर-पश्चिम और दक्षिण-पूरब की ओर दो ऊँची पहाड़ियों के बीच एक मील  लम्बी तथा हरियाली से भरी घाटी , सामने प्रपात और घाटी के बीच से कलकल कर बहती कछुअर नदी का पानी अद्भुत दृश्य उपस्थित करता है। तुतला भवानी घाटी पूरब में 300  मीटर चौड़ी एवं  पश्चिम की ओर सिकुड़ती हुई 50  मीटर पर पश्चिम में 180 फीट फीट की ऊंचाई से जल प्रपात गिरता है। जल प्रपात के भीतर  दाएँ दक्षिण बाजु में थोड़ी ऊंचाई पर चबूतरा जाने के लिए दक्षिण की ओर से सीढ़ी के चबूतरे पर माँ जगद्धात्री महिषमर्दिनी दुर्गा तुतला भवानी  की प्रतिमा है। तुतला भवानी  प्रतिमा से ल सटे दक्षिण में , चट्टान पर ऊपर-नीचे तीन भागों में बँटा शिलालेख नायक प्रताप धवल देव का 01 अप्रैल 1158 ई. शनिवार (वि० सं० १२१४) को लिखवाया गया था। तुतला भवानी छोटा मंदिर निर्मित कर दिया गया है।  वन विभाग द्वारा तुतला भवानी स्थल को इको टूरिज्म स्थल के रूप में विकसित किया गया है। सड़क, झूला पूल, इ-रिक्शा सहित  पर्यटक सुविधाएँ  हैं। झूला पुल से पैदल तुतला भवानी मंदिर एवं तुतला झरना तक दर्शक  जाते हैं ।
तुतला भवानी धाम की मां तुतलेश्वरी भवानी की प्रतिमा अति प्राचीन है। तुतला भवानी को सोनाक्षी , तुतलेश्वरी , तुतला भवानी कहा गया है । फ्रांसिसी बुकानन का  यात्रा वृतांत के अनुसार  14 सितम्बर 1812 ई. को तुतला भवानी प्रतिमा प्राचीन काल से ही प्रसिद्ध तथा  देवी की दो प्रतिमा में । एक पुरानी और खंडित मूर्ति और  दूसरी नई है। प्रतिमा के आस-पास अनेक  शिलालेख में 8 वी सदी का शिलालेख शारदा लिपि एवं शिलालेख बारहवीं सदी के अनुसार खरवार वंशीय राजा धवल प्रताप देव द्वारा 19 अप्रैल 1158 ई. में तुतला भवानी की दूसरी प्रतिमा की प्राण प्रतिष्ठा करायी गयी  है। तुतला भवानी मंदिर के समीप कैमूर पर्वत तुतला श्रंखला से तुतला झरना से   कछुअर नदी प्रवाहित है।अष्टभुजी  तुतला देवी की प्रतिमा गड़वाल कालीन मूर्ति कला से युक्त  हैं। तुतला भवानी की  प्रतिमा में दैत्य महिष की गर्दन से निकल ने पर  देवी अपने दोनों हाथो से पकड़कर त्रिशूल से मार रही हैं। शारदीय नवरात्र की नवमी तथा श्रावण पूर्णिमा को रोहतास जिले के तिलौथू प्रखंड के गांवों के लोग पहले तुतलेश्वरी माता की पूजा अर्चना कर कुलदेवता की पूजा अर्चना करते हैं। श्रावण माह में  मेला तथा नवरात्र में नौ दिनों के मेले का आयोजन होता है। छाग बलि  रिवाज है। मंदिर प्रांगण में नवरात्र की नवमी तिथि की मध्य रात्रि में परियों द्वारा नृत्य-गीत के साथ पूजा-अर्चना की जाती है। तुतलेश्वरी भवानी मंदिर के समीप की प्राकृतिक छटा मनोरम है। महिषासुर मंर्दिनी की प्रतिमा तुतराही जल प्रपात के मध्य में स्थापित है। रोहतास व कैमूर जिले का अद्भुत जल प्रपात  है। मां तुतला भवानी मंदिर का निकटतम रेलवे स्टेशन डेहरी-ऑन-सोन ,  निकटतम बस स्टैंड रामडिहरा आन-सोन है। रामडीहरा  बस स्टैण्ड डेहरी-यदुनाथपुर पथ  से 5 किमी. पश्चिम कैमूर पहाड़ी की घाटी में  ऑटो रिक्शा उपलब्ध है। मंदिर से 100 मीटर की दूरी तक सड़क बनी हुई है। रोहतास जिला मुख्यालय सासाराम से मंदिर की दूरी 38 किमी तुतला झरना एवं तुतला भवानी मंदिर है। 
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इंद्रपुरी बराज परिभ्रमण


मध्य भारत में स्थित  बारहमासी सोन नदी नदी  छत्तीसगढ़ के पेंड्रा व गौरेला-पेंड्रा-मरवाही जिला का सोनमुंडा के  अमरकंटक पहाड़ी  से निकल कर बिहार के पटना जिले का मनेर के शेरपुर के समीप  गंगा नदी में मिलती है ।  सोन नदी पर बना भारत का सबसे पुराना नदी पुल कोइलवर पुल आरा को पटना से जोड़ता है । गंगा की ओर सोन नदी के मार्ग पर कई बांध और जलविद्युत परियोजनाएँ चलती हैं। सोन नदी भारत के राज्य छत्तीसगढ़ , मध्य प्रदेश , उत्तर प्रदेश , झारखंड , बिहार का क्षेत्र बाघेलखंड , भोजपुर - पूर्वाचल और मगध प्रमंडल के औरंगाबाद जिले के बारुण , , डेहरी , दाउदनगर , अरवल पटना प्रमंडल के    पटना जिले का पालीगंज , विक्रम , मनेर , दानापुर   , रोहतास जिले का तिलौथू , डिहरी ऑन सोन , नासरीगंज  , भोजपुर जिले का सहार , संदेश ,  कोईलवर क्षेत्र में प्रवाहित होती है छत्तीसगढ़ राज्य का पेंड्रा जिले का  निर्देशांक 22°43′48″N 82°03′31″E पर अवस्थित अमरकंटक पर्वत से  784 किमी व 487 मिल लंबाई युक्त  सोन नदी प्रवाहित होता हुआ बिहार राज्य का पटना जिले के मनेर मनेर का निदेशांक 25°42′21″N 84°51′44″E पर गंगा नदी में मिलता है । सोन नदी का सहायक नदियों में घाघर नदी, जोहिला नदी, छोटी महानदी नदी , बनास नदी, गोपद नदी , रिहंद नदी , कन्हार नदी , उत्तर कोयल नदी है। सोन नदी को हिन्दी में 'सोन'  संस्कृत में इसे 'शोण' पुल्लिंग  वाली भारतीय  नदी है। संगम तमिल साहित्य कुण्टोकै में  सोन  नद को  सोनई के रूप में दूसरी शताब्दी ई. में किया गया है। सोन नदी छत्तीसगढ़ में पेंड्रा के पास, नर्मदा नदी के मुख्य स्रोत के ठीक पूर्व में निकलती  और मध्य प्रदेश राज्य के शहडोल जिले से उत्तर-उत्तरपश्चिम में बहती और तेजी से पूर्व की ओर मुड़ती हुई  दक्षिण-पश्चिम-उत्तरपूर्व- कैमूर रेंज से मिलती है । सोन नदी कैमूर पहाड़ियों के समानांतर बहती हुई उत्तर प्रदेश , झारखंड और बिहार राज्यों से पूर्व-उत्तरपूर्व में बहती हुई पटना के पश्चिम में गंगा में मिलती है अरवल , दाउदनगर , देवरी , तिलौथू रोहतासगढ़ , डेहरी , सोनभद्र ,और मनेर सोन नदी पर स्थित शहर हैं। सोन नदी 784 किलोमीटर (487 मील) लंबी  की सहायक नदियाँ रिहंद , कन्हार और उत्तरी कोयल हैं । सोन नद  में तीव्र अपवाह और अल्पकालिक व्यवस्था के साथ एक खड़ी ढाल 35-55 सेमी प्रति किमी जलग्रहण क्षेत्र में बारिश के जल  के साथ दहाड़ती नदी बनकर  पारगम्य धारा में बदल जाती है। सोन, चौड़ा और उथला होने के कारण, वर्ष के बाकी हिस्सों में पानी के अलग-अलग पूल छोड़ता है। सोन का चैनल डेहरी में  5 किमी ,   3 से 5 किलोमीटर (2 से 3 मील) चौड़ा है। उत्तर कोयल के साथ  बिंदु सोन नदी की चौड़ाई 5 से 8 किलोमीटर (3 से 5 मील) ,  डेहरी में एनीकट के निर्माण से प्रवृत्ति पर रोक लगई एवं  इंद्रपुरी बैराज के निर्माण से भी इस पर रोक लग गई है । बिहार में सोन नद भोजपुरी और मगही भाषी क्षेत्रों के बीच सीमा रेखा बनाती है । ब्रिटिश साम्राज्य का प्रशासक सर जॉन हॉल्टन के अनुसार सोन नदी  " कैमूर पर्वतमाला की खड़ी ढलानों को पार करने के बाद , यह मैदान से होते हुए सीधे गंगा में मिल जाती है। इस दूरी के अधिकांश भाग में यह दो मील से अधिक चौड़ी है, और एक स्थान पर, तिलौथू के सामने तीन मील चौड़ी है। शुष्क मौसम में रेत का एक विशाल विस्तार होता है, जिसमें एक धारा सौ गज से अधिक चौड़ी नहीं होती है, और गर्म पश्चिमी हवाएँ पूर्वी तट पर रेत को जमा कर देती हैं, जिससे प्राकृतिक तटबंध बन जाते हैं। पहाड़ियों में भारी बारिश के बाद यह चौड़ा बिस्तर भी सोन के पानी को नहीं ले जा सकता है और शाहाबाद, गया और पटना में विनाशकारी बाढ़ असामान्य नहीं है।" सोन नदी पर पहला बांध 1873-74 में डेहरी के इंद्रपुरी बैराज का निर्माण 8 किलोमीटर (5 मील) ऊपर की ओर किया गया और 1968 में चालू किया गया।  बिहार के कोइलवर  के समीप 1.44 किलोमीटर लंबा रेल-सह-सड़क जाली-गर्डर कंक्रीट और स्टील  कोइलवर ब्रिज नवंबर 1862 में पूरा हुआ था। भोजपुर जिले के कोइलवर पुल भारत का सबसे लंबा पुल बना और औरंगाबाद जिले के डेहरी में नेहरू सेतु पुल 1900 में नहीं खोला गया।  डेहरी में नेहरू सेतु पुल के बाद , चोपन , विजय सोता और अनूपपुर के पास सोन नदी पर रेलवे पुल  हैं । मध्य प्रदेश के शहडोल जिले के देवलोंद में निर्मित सोन पुल का उद्घाटन 13 फरवरी 1986 को मध्य प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री और वित्त मंत्री मोतीलाल वोरा और पंडित राम किशोर शुक्ल द्वारा किया गया था । बिहार सरकार ने 2008 ई.में अरवल जिले का  अरवल और भोजपुर जिले का  सहार को जोड़ने वाले सोन नदी पर पुल निर्माण किया गया है । नया कोइलवर पुल को ले जाने वाला 6-लेन का सड़क पुल ,  रेल और सड़क कोइलवर पुल के समानांतर पुल का निर्माण है। भारत के बिहार राज्य के रोहतास जिले के तिलौथू  एवं औरंगाबाद जिले का बारुण  में सोन नदी पर स्थित इंद्रपुरी बराज या सोन बराज है ।
इंद्रपुरी बैराज -  बिहार का रोहतास जिला के तिलौथू का निदेशांक 24.8369° उ 84.1344° पू पर अवस्थित इंद्रपुरी बैराज का उद्घाटन 1968 हुआ था । सोन नदी की लंबाई 1,407 मीटर (4,616 फीट) पर इंद्रपुरी में सोन बैराज 1,407 मीटर (4,616 फीट) लंबा और विश्व का चौथा सबसे लंबा बैराज है। इन्द्पूरी बैराज   निर्माण हिंदुस्तान कंस्ट्रक्शन कंपनी द्वारा  2,253 मीटर लंबे फरक्का बैराज का निर्माण किया था  । बैराज का निर्माण 1960 ई  में शुरू हुआ और 1968 ई. में चालू किया गया  की गई थी । सोन नदी के पानी से नदी के दोनों किनारों पर नहर प्रणाली को पानी मिलता था और  क्षेत्रों की सिंचाई होती थी। एनीकट से 8 किमी ऊपर  बैराज बनाया गया था। दो लिंक नहरों ने नए जलाशय को पुरानी सिंचाई प्रणाली से जोड़ा और  बढ़ाया गया था । सर जॉन हॉल्टन, अनुभवी ब्रिटिश प्रशासक, ने 1949 में सोन नहर प्रणाली का वर्णन है  "यह निश्चित रूप से बिहार की सबसे बड़ी नहर प्रणाली है; इसमें 209 मील की मुख्य नहरें, 149 शाखा नहरें और 1,235 वितरिकाएँ नहरें खेती के लिए लाभकारी हैं। सर जॉन हॉल्टन ने बंजर भूमि  क्षेत्र को समृद्ध उत्पादक क्षेत्र में बदल दिया है।" झारखंड के गढ़वा जिले के कदवन और बिहार के रोहतास जिले के मतिवान के मध्य सोन नदी पर बांध के निर्माण का प्रस्ताव है। राष्ट्रीय जल विकास एजेंसी की राष्ट्रीय नदी जोड़ो परियोजना के अनुसार , 149.10 किलोमीटर लंबी चुनार-सोन बैराज लिंक नहर के माध्यम से गंगा को सोन से जोड़ने का प्रस्ताव है। यह नहर उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर जिले के चुनार तहसील के पास गंगा के दाहिने किनारे से प्रारम्भ होगी और इंद्रपुरी बैराज से मार्ग पर तीन स्थानों पर तीन लिफ्ट 38.8 मीटर, 16.10 मीटर और 4.4 मीटर की होंगी। सोन बराज व इंद्रपूरी बैराज की लंबाई 4613 फीट ,जलासय स्तर 35500 आर एल , उच्चतम बाढ़ स्तर 363.90 फीट , अधिकतम जल निस्तारण 14.30 लाख घन फीट प्रति सेकण्ड , जल निर्गम फाटकों की संख्या 60 जल निर्गम फाटकों की ऊँचाई 14 फीट 6 इंच  , जल निष्काशन फाटकों की संख्या अस 09 , जल निष्काशन फाटकों की उचाई 16 फीट 6 इंच , जल निर्गम क्रेस्ट का स्तर 341 आर एल , जल निष्काशन  फाटकों का। निचला स्तर 339 आर एल , फाटकों के पाए के ऊपर के स्तर 367 फीट और जलासय की औसत गहराई 16 फीट 6 इंच है । इंद्रपुरी बैराज से पटना कैनाल या इंद्रपुरी पटना नहर द्वारा औरंगाबाद , अरवल एवं पटना जिले के क्षेत्र , इंद्रपुरी से आरा व शाहाबाद व आरा कैनाल द्वारा भोजपुर जिले और इन्द्रपूरी बराज से बक्सर यह बक्सर कैनाल द्वारा रोहतास एवं बक्सर जिले का क्षेत्र सिंचित होती रहती है।

शुक्रवार, सितंबर 20, 2024

लखनऊ विधान भवन का परिभ्रमण

उत्तरप्रदेश के विधान भवन का परिभ्रमण 
सात्येन्द्र कुमार पाठक 
उत्तर प्रदेश राज्य की राजधानी लखनऊ में स्थित विधान सभा भवन  में उत्तर प्रदेश की द्विसदनीय विधायिका की विधानसभा एवं विधान परिषद सीट है । उत्तर प्रदेश  विधान सभा 1967 ई. में 431 सदस्य में 403 सीधे निर्वाचित सदस्य और एंग्लो-इंडियन समुदाय से एक मनोनीत सदस्य शामिल तथा  विधान परिषद में 100 सदस्य हैं। उत्तर प्रदेश विधानमंडल भवन को काउंसिल हाउस  का स्थापत्य शैली इंडो - यूरोपीय वास्तुकला शैली में  निदेशांक 26.870649° उ 80.965277° पू पर 114 मीटर ऊँचाई युक्त विधानसभा भवन  का निर्माण प्रारम्भ 15 दिसंबर 1922 ई. और 21 फरवरी 1928 ई. को बलुआ पत्थर से युक्त  डिजाइन व निर्माण वास्तुकार सैमुअल स्विंटन जैकब और हीरा सिंह मात्रा सर्वेक्षक हरकोर्ट बटलर ठीकेदार मैसर्स मार्टिन एन्ड कंपनी के वास्तुकार ए. एल. मार्टिमर एवं सर फोर्ड और मैकडोनाल्ड द्वारा 21 लाख रु. की लागत से  किया गया था। उत्तरप्रदेश विधान सभा भवन को 1928 में निर्मित विधान भवन को मूल रूप से "काउंसिल हाउस" का  1937 ई. से विधानमंडल का घर और उत्तरप्रदेश सरकार के अन्य कार्यालय है। 20वीं शताब्दी की प्रारंभ मे उत्तर प्रदेश राज्य की राजधानी इलाहाबाद थी । उत्तरप्रदेश की इलाहाबाद राजधानी को  1922 ई. में लखनऊ स्थानांतरित करने और विधानसभा क्षेत्र के लिए विधान भवन बनाने का निर्णय लिया गया। 15 दिसंबर 1922 को उत्तर प्रदेश के तत्कालीन राज्यपाल स्पेंसर हरकोर्ट बटलर ने विधान भवन की नींव रखी। विधान  इमारत का डिज़ाइन सैमुअल स्विंटन जैकब और हीरा सिंह एवं बटलर ने इमारत के निर्माण की निगरानी में विधान  भवन पाँच वर्षों में ₹ 21 लाख ( 2023 में ₹ 43 करोड़ या US$5.1 मिलियन के बराबर लागत से पूर्ण होने के बाद  21 फरवरी 1928 को विधान भवन का उद्घाटन किया गया था । विधान भवन मिर्ज़ापुर से तराशे गए हल्के भूरे बलुआ पत्थर से बनी हॉल, गैलरी और बरामदे आगरा और जयपुर के संगमरमर से बने हैं । प्रवेश द्वार के दोनों तरफ़ गोलाकार संगमरमर की सीढ़ियाँ बनी हुई और सीढ़ियों की दीवारें चित्रों से सजी हुई हैं। भवन  का मुख्य कक्ष गुंबददार छत के साथ अष्टकोणीय है । ऊपरी सदन के लिए एक अलग कक्ष का निर्माण 1935 और 1937 के बीच किया गया था। दोनों सदनों की इमारतें बरामदे से जुड़ी हुई और दोनों तरफ़ कार्यालय हैं। विधान भवन के अंदर अंदर केन्द्रीय हॉल  है। भारतीय संविधान के भाग VI में अनुच्छेद 168 से 212 राज्य विधानमंडल के संगठन, संरचना, अवधि, अधिकारियों, प्रक्रियाओं, विशेषाधिकारों, शक्तियों आदि से संबंधित हैं। उत्तर प्रदेश विधान भवन में विधान सभा एवं विधान परिषद  है। उत्तर प्रदेश विधान सभा द्विसदनीय विधानमंडल का निचला सदन में राज्यपाल द्वारा मनोनीत एक एंग्लो-इंडियन सदस्य को छोड़कर कुल 403 सदस्य हैं।  एक मनोनीत एंग्लो-इंडियन सदस्य सहित 1967 ई. में 431 सदस्य थे। परिसीमन आयोग की सिफारिश के अनुसार, इसे संशोधित कर 426 कर दिया गया। 9 नवंबर 2000 को राज्य के पुनर्गठन के बाद, विधान सभा की संख्या एंग्लो-इंडियन समुदाय का प्रतिनिधित्व करने वाले एक मनोनीत सदस्य सहित 404 हो गई है। उत्तर प्रदेश विधान परिषद भारत सरकार अधिनियम 1935 द्वारा अस्तित्व में आईऔर  राज्यपाल राम नाईक इसके सदस्य थे। विधान परिषद में 60 सदस्य होते थे। परिषद के एक सदस्य का कार्यकाल नौ वर्ष  और इसके एक तिहाई सदस्य हर तीन साल बाद सेवानिवृत्त होते थे। सदनों को अपने पीठासीन अधिकारी चुनने का अधिकार प्राप्त था जिसे राष्ट्रपति के रूप में जाना जाता था। विधान परिषद की पहली बैठक 29 जुलाई 1937 को हुई थी। सर सीताराम और बेगम एजाज रसूल क्रमशः विधान परिषद के अध्यक्ष और उपाध्यक्ष चुने गए थे। सर सीताराम 9 मार्च 1949 तक पद पर रहे। 10 मार्च 1949 को चंद्रभाल अगले अध्यक्ष बने थे । 26 जनवरी 1950 को स्वतंत्रता और संविधान को अपनाने के बाद चंद्रभाल को विधान परिषद का अध्यक्ष चुना गया था । चंद्रभाल 5 मई 1958 तक अपने पद पर बने रहे। 27 मई 1952 को श्री निजामुद्दीन को परिषद का उपाध्यक्ष चुना गया। वे 1964 तक अपने पद पर बने थे । भारत सरकार अधिनियम 1935 के प्रावधानों के तहत संयुक्त प्रांत में विधान परिषद अस्तित्व में आने के बाद  60 सदस्य थे। 26 जनवरी 1950 को उत्तर प्रदेश राज्य की विधान परिषद (विधान परिषद) की कुल सदस्य संख्या 60 से बढ़ाकर 72 कर दी गई। संविधान (सातवां संशोधन) अधिनियम 1956 के साथ, परिषद की संख्या बढ़ाकर 108 कर दी गई। नवंबर 2000 में उत्तर प्रदेश राज्य के पुनर्गठन और उत्तराखंड राज्य के निर्माण के बाद,  घटकर 100 हो गया है ।
लखनऊ अवस्थित विधान भवन का परिभ्रमण 18 सितंबर 2024 को साहित्यकार व इतिहासकार सात्येन्द्र कुमार पाठक द्वारा विधान भवन में स्थित बिधान सभा एवं विधान परिषद , परिसर , कार्यालयों तथा ऐतिहासिक स्थलों की भ्रमण किया गया ।  विधान भवन परिभ्रमण में साहित्यकार व इतिहासकार सात्येन्द्र कुमार पाठक  के साथ उत्तर प्रदेश विधान सभा के पूर्व वित्त नियंत्रक एवं विशेष सचिव एवं साहित्यिक त्रय मासिकी पत्रिका अपरिहार्य का व्यवस्था प्रमुख डॉ. दिनेश चंद्र अवस्थी , हिंदी दैनिक अवध दूत मुजफ्फरपुर डिस्ट्रिक्ट व्यूरो चीफ डॉ. उषाकिरण श्रीवास्तव एवं संस्कार भारती द्वारा  लखनऊ से प्रकाशित  पत्रिका कला कुंज भारती के संपादक पद्मकान्त शर्मा प्रभात  थे ।