वन्दे मातरम्: दो शब्दों में समाहित राष्ट्र की आत्मा
सत्येन्द्र कुमार पगठक
भारत के राष्ट्रीय गीत, वन्दे मातरम् का उद्घोष मात्र दो शब्दों का नहीं है, बल्कि यह लगभग आधी शताब्दी तक चले भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का जयघोष रहा है। यह बंकिमचन्द्र चटर्जी द्वारा संस्कृत और बाँग्ला के मिश्रण से रचित वह अमर गीत है, जिसने सदियों से सुप्त पड़े एक राष्ट्र को झकझोर कर जगा दिया और उसे 'माता' के रूप में अपनी भूमि के प्रति प्रेम और बलिदान का पाठ सिखाया। सन् 1882 में बंकिमचन्द्र के कालजयी उपन्यास ‘आनन्द मठ’ में एक अंतर्निहित गीत के रूप में प्रकाशित होकर, यह केवल एक साहित्यिक रचना नहीं रहा, बल्कि यह भारत की राजनीतिक और सांस्कृतिक चेतना का केंद्र बन गया। यह वह गीत है जिसे गाने में केवल 65 सेकंड (1 मिनट और 5 सेकंड) लगते हैं, लेकिन इसके प्रभाव ने भारत के इतिहास की दिशा बदल दी। इसकी धुन यदुनाथ भट्टाचार्य ने बनाई थी, और यह उपन्यास में भवानन्द नामक एक संन्यासी विद्रोही द्वारा गाया गया था, जो अंग्रेजों और तत्कालीन शोषक व्यवस्था के विरुद्ध उठ खड़ा हुआ था।
वन्दे मातरम् की रचना आकस्मिक नहीं थी, बल्कि यह ब्रिटिश शासन के एक अपमानजनक आदेश की सीधी प्रतिक्रिया थी। सन् 1870-80 के दशक में, ब्रिटिश शासकों ने सभी सरकारी समारोहों में ब्रिटिश राष्ट्रगान ‘गॉड! सेव द क्वीन’ गाया जाना अनिवार्य कर दिया था। बंकिमचन्द्र चटर्जी, जो उस समय एक डिप्टी कलेक्टर के पद पर कार्यरत थे, उन्हें इस आदेश से गहरा आघात लगा। माना जाता है कि लगभग 1876 में, उन्होंने इसके विकल्प के तौर पर संस्कृत और बाँग्ला के मिश्रण से एक नए गीत की रचना की। शुरुआती दौर में, इस गीत के केवल दो ही पद रचे गए थे, जो विशुद्ध संस्कृत में थे और केवल मातृभूमि की वंदना करते थे: "वन्दे मातरम् ! सुजलां सुफलां मलयज शीतलाम्, शस्य श्यामलाम् मातरम्।" "शुभ्र ज्योत्स्नां पुलकित यमिनीम्, फुल्ल कुसुमित द्रुमदल शोभिनीम् ; सुहासिनीं सुमधुर भाषिणीम्, सुखदां वरदां मातरम्।"ये पद मातृभूमि के नैसर्गिक सौंदर्य—पानी से सिंचित, फलों से भरी, शांत, हरी-भरी, चांदनी रातों से पुलकित, फूलों से सुसज्जित—को दर्शाते थे।।सन् 1882 में जब बंकिमचन्द्र ने अपना उपन्यास ‘आनन्द मठ’ लिखा, तब उन्होंने इस गीत को उसमें शामिल कर लिया। यह उपन्यास अंग्रेजी शासन, जमींदारों के शोषण और अकाल जैसे प्राकृतिक प्रकोपों के बीच मर रही जनता को जागृत करने हेतु अचानक उठ खड़े हुए संन्यासी विद्रोह पर आधारित था। उपन्यास में, शुरुआती संस्कृत पदों के बाद के जो पद थे, वे उपन्यास की मूल भाषा, बाँग्ला में थे। इन बाद वाले पदों में मातृभूमि की स्तुति को हिन्दू देवी दुर्गा के रूप में किया गया था: "तुमि विद्या, तुमि धर्म, तुमि हृदि, तुमि मर्म... त्वम् हि दुर्गा दशप्रहरणधारिणी..." यहीं से इस गीत ने केवल एक वंदना गीत होने के बजाय एक शक्तिशाली राजनीतिक और धार्मिक प्रतीक का रूप ले लिया।
वन्दे मातरम् जल्द ही एक साहित्यिक रचना की सीमाओं को तोड़कर जन-आंदोलन का केंद्रीय मंत्र बन गया।
कांग्रेस मंच पर पदार्पण: भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के 12वें अधिवेशन (1896, कलकत्ता) में रवीन्द्र नाथ ठाकुर ने इसे मंच से गाया। इसके बाद, 1901 में श्री चरणदास और 1905 के बनारस अधिवेशन में सरला देवी चौधरानी ने इसे स्वर दिया।बंग भंग का नारा: 1905 में जब लॉर्ड कर्जन ने बंगाल के विभाजन की घोषणा की, तो वन्दे मातरम् राष्ट्रीय विरोध का आधिकारिक नारा बन गया। 6 अगस्त 1905 को टाउन हॉल की सभा में लगभग तीस हज़ार भारतीयों ने इस गीत को एक साथ गाया। 'वन्दे मातरम् संप्रदाय' की स्थापना भी हो गई।
ब्रिटिश दमन और बलिदान: ब्रिटिश सरकार इसकी बढ़ती लोकप्रियता से भयभीत हो उठी और उसने इस पर प्रतिबंध लगाने पर विचार करना शुरू कर दिया। 14 अप्रैल 1906 को बरिशाल में जुलूस में वन्दे मातरम् का नारा लगाने पर प्रतिबंध लगा दिया गया, और शांतिपूर्ण जुलूस पर लाठीचार्ज किया गया। इस गीत पर प्रतिबंध लगने के बाद भी, यह क्रांतिकारियों की आत्मा में समाया रहा। लाला लाजपत राय ने लाहौर से जिस 'जर्नल' का प्रकाशन शुरू किया, उसका नाम ही 'वन्दे मातरम्' रखा। अंग्रेजों की गोली का शिकार बनकर दम तोड़ने वाली मातंगिनी हाजरा की जिह्वा पर आखिरी शब्द "वन्दे मातरम्" ही थे। वैश्विक पहचान: सन् 1907 में जब मैडम भीखाजी कामा ने जर्मनी के स्टुटगार्ट में तिरंगा फहराया, तो उस ध्वज के मध्य में "वन्दे मातरम्" ही लिखा हुआ था। सन् 2003 में, बीबीसी वर्ल्ड सर्विस द्वारा आयोजित एक अन्तरराष्ट्रीय सर्वेक्षण में, वन्दे मातरम् को दुनिया भर के शीर्ष 10 सबसे मशहूर गीतों में दूसरे स्थान पर चुना गया था। 'वन्दे मातरम्' या 'बन्दे मातरम्': एक लिपिगत और भाषिक द्वंद्व एक रोचक और गहन भाषिक चर्चा इसके शीर्षक को लेकर भी हुई थी ।: यह गीत मूल रूप में बाँग्ला लिपि में लिखा गया था। चूँकि बाँग्ला लिपि में 'व' अक्षर का उच्चारण 'ब' के समान होता है (या 'व' अक्षर मौजूद ही नहीं है), इसलिए बंकिम चन्द्र चट्टोपाध्याय ने इसे 'बन्दे मातरम्' शीर्षक से लिखा था। संस्कृत और हिन्दी भाषा (देवनागरी लिपि) में 'वन्दे' शब्द ही सही व्याकरणिक रूप है, जिसका अर्थ है 'मैं वंदना करता हूँ'। 'बन्दे मातरम्' का संस्कृत में कोई स्पष्ट या सही अर्थ नहीं निकलता।
वन्दे मातरम् (माता की वंदना करता हूँ) उच्चारण और अर्थ की शुद्धता को ध्यान में रखते हुए, देवनागरी लिपि में इसे 'वन्दे मातरम्' ही लिखना और पढ़ना समीचीन माना गया। भारतीय संविधान के पृष्ठ 167 पर भी व्यौहार राममनोहर सिंहा द्वारा चित्रित इस शीर्षक को 'वन्दे–मातरम्' ही लिखा गया था। स्वाधीनता प्राप्ति के बाद, भारत के सर्वोच्च सम्मान, यानी राष्ट्रगान के चयन का प्रश्न उठा।: वन्दे मातरम् के साथ मुख्य समस्या यह थी कि इसके बाद के पदों में देवी दुर्गा का आह्वान किया गया था, जिसे कुछ मुस्लिम समुदाय के सदस्य इस्लाम के एकेश्वरवाद के विरुद्ध मानते थे। साथ ही, 'आनन्द मठ' उपन्यास पर मुस्लिम विरोधी होने का आरोप भी था। कांग्रेस का समाधान (1937): इस विवाद पर गहरा चिंतन करते हुए जवाहरलाल नेहरू की अध्यक्षता में गठित समिति (जिसमें मौलाना अबुल कलाम आजाद भी शामिल थे) ने यह निष्कर्ष निकाला कि गीत के शुरुआती दो पद विशुद्ध रूप से मातृभूमि की प्रशंसा में हैं, लेकिन बाद के पदों में हिन्दू देवी-देवताओं का जिक्र होने लगता है।: इसलिए, यह निर्णय लिया गया कि गुरुदेव रवीन्द्र नाथ ठाकुर द्वारा रचित और गाये गए गीत 'जन गण मन अधिनायक जय हे' को यथावत राष्ट्रगान (National Anthem) बनाया जाएगा, और बंकिमचन्द्र चटर्जी द्वारा रचित वन्दे मातरम् के प्रारम्भिक दो पदों को राष्ट्रगीत के रूप में स्वीकार किया जाएगा।
24 जनवरी 1950 को, डॉ॰ राजेन्द्र प्रसाद ने संविधान सभा में वक्तव्य दिया कि वन्दे मातरम् गान, जिसने स्वतंत्रता संग्राम में ऐतिहासिक भूमिका निभाई है, को 'जन गण मन' के समकक्ष सम्मान व पद मिलेगा। सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष बिजोय एम्मानुएल वर्सेस केरल राज्य वाद में यह प्रश्न उठा कि क्या किसी को कोई गीत गाने के लिए मजबूर किया जा सकता है। न्यायालय ने फैसला सुनाया कि यदि कोई व्यक्ति राष्ट्रगान (या राष्ट्रगीत) का सम्मान करता है पर उसे गाता नहीं है, तो उसे दण्डित नहीं किया जा सकता, क्योंकि यह उसके व्यक्तिगत विवेक और धार्मिक स्वतंत्रता का विषय हो सकता है।।वन्दे मातरम् केवल एक संवैधानिक या कानूनी गीत नहीं है। यह भारत की सांस्कृतिक, साहित्यिक और आध्यात्मिक यात्रा का प्रतीक है। यह गीत आज भी देश के हर कोने में उस मातृशक्ति के प्रति श्रद्धा और प्रेम का भाव जगाता है, जिसने सदियों की गुलामी को तोड़कर स्वतंत्रता प्राप्त की। यह दो शब्द आज भी हर भारतीय को अपनी भूमि, अपने जल, फल और हरीतिमा के प्रति नमन करने के लिए प्रेरित करते हैं।भारत सरकार ने राष्ट्रीय गीत 'वंदे मातरम' की 150वीं वर्षगाँठ को एक ऐतिहासिक अवसर के रूप में चिह्नित करते हुए, 7 नवंबर 2025 से 7 नवंबर 2026 तक देश भर में भव्य समारोहों के आयोजन का निर्णय लिया है। यह पहल न केवल भारत के स्वतंत्रता आंदोलन में इस गीत की अमर भूमिका को स्वीकार करती है, बल्कि इसकी स्थायी सांस्कृतिक विरासत और राष्ट्रीय महत्व को भी प्रदर्शित करती है। यह निर्णय उस गीत को एक विनम्र श्रद्धांजलि है जिसने पीढ़ियों को स्वतंत्रता के संघर्ष के लिए प्रेरित किया। कार्तिक शुक्ल अक्षय तृतीया 7 नवम्बर 1875 को वंदे मातरम की रचना का उद्घोष हुआ था ।
'वंदे मातरम' मूल रूप से एक कविता है, जिसे महान बंगाली साहित्यकार बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय ने 1870 के दशक में संस्कृतनिष्ठ बंगाली भाषा में लिखा था। इस गीत को पहली बार 1882 में उनके प्रसिद्ध बंगाली उपन्यास 'आनंदमठ' में प्रकाशित किया गया था, जो संन्यासी विद्रोह पर आधारित था।इस गीत की शक्ति इसके सरल आह्वान में निहित है—मातृभूमि को प्रणाम। यह केवल एक गीत नहीं, बल्कि भारत माता की स्तुति में लिखा गया एक भावपूर्ण आह्वान था। आनंदमठ में इसका प्रकाशन ही इस गीत के इतिहास का 150 वां वर्ष पूरा होने का आधार है, जिसे 'वंदे मातरम 150' के रूप में मनाया जा रहा है। 'वंदे मातरम' भारत की आजादी की लड़ाई में एक शक्तिशाली नारे और प्रेरणा स्रोत के रूप में उभरा। यह गीत शीघ्र ही स्वतंत्रता सेनानियों के बीच देशभक्ति का पर्याय बन गया। महान कवि रवींद्रनाथ टैगोर ने इसे पहली बार 1896 में कलकत्ता में आयोजित कांग्रेस अधिवेशन में गाया था, जिसने इसे राष्ट्रीय मंच प्रदान किया।
राजनीतिक नारा: 'वंदे मातरम' का पहली बार राजनीतिक नारे के रूप में प्रयोग 7 अगस्त 1905 को बंगाल विभाजन के विरोध में हुए आंदोलनों के दौरान हुआ, जहाँ इसने पूरे राष्ट्र को एकजुट करने का काम किया। यह गीत भारतीय राष्ट्रवाद की मुखर अभिव्यक्ति बन गया, जिससे ब्रिटिश सरकार भयभीत हो गई और उसने इसे दबाने का हर संभव प्रयास किया।
आजादी मिलने के बाद, 'वंदे मातरम' को आधिकारिक तौर पर सम्मान प्रदान किया गया। 24 जनवरी 1950 को, संविधान सभा ने इसे भारत गणराज्य के राष्ट्रीय गीत के रूप में अपनाया। यह दर्जा राष्ट्रगान 'जन गण मन' के समकक्ष है, और दोनों ही राष्ट्र की पहचान और गौरव का प्रतीक हैं।'वंदे मातरम' सिर्फ एक धुन या पाठ मात्र नहीं है; यह भारत की आत्मा, इसकी भूमि, संस्कृति और इसके लोगों के लिए बलिदान की भावना का प्रतीक है। 150वीं वर्षगाँठ का यह राष्ट्रव्यापी उत्सव नई पीढ़ी को इस गीत के ऐतिहासिक महत्व, इसके रचनाकार के योगदान और स्वतंत्रता संग्राम के आदर्शों से जोड़ने का एक सुनहरा अवसर है। यह वर्ष हमें याद दिलाता है कि यह गीत आज भी भारत की एकता और अखंडता के लिए एक प्रेरणा शक्ति बना हुआ है।
भारत सरकार ने राष्ट्रीय गीत 'वंदे मातरम' की 150वीं वर्षगाँठ को एक ऐतिहासिक अवसर के रूप में चिह्नित करते हुए, 7 नवंबर 2025 से 7 नवंबर 2026 तक देश भर में भव्य समारोहों के आयोजन का निर्णय लिया है। यह पहल न केवल भारत के स्वतंत्रता आंदोलन में इस गीत की अमर भूमिका को स्वीकार करती है, बल्कि इसकी स्थायी सांस्कृतिक विरासत और राष्ट्रीय महत्व को भी प्रदर्शित करती है। यह निर्णय उस गीत को एक विनम्र श्रद्धांजलि है जिसने पीढ़ियों को स्वतंत्रता के संघर्ष के लिए प्रेरित किया। कार्तिक शुक्ल अक्षय तृतीया 7 नवम्बर 1875 को वंदे मातरम की रचना का उद्घोष हुआ था ।
'वंदे मातरम' मूल रूप से एक कविता है, जिसे महान बंगाली साहित्यकार बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय ने 1870 के दशक में संस्कृतनिष्ठ बंगाली भाषा में लिखा था। इस गीत को पहली बार 1882 में उनके प्रसिद्ध बंगाली उपन्यास 'आनंदमठ' में प्रकाशित किया गया था, जो संन्यासी विद्रोह पर आधारित था।इस गीत की शक्ति इसके सरल आह्वान में निहित है—मातृभूमि को प्रणाम। यह केवल एक गीत नहीं, बल्कि भारत माता की स्तुति में लिखा गया एक भावपूर्ण आह्वान था। आनंदमठ में इसका प्रकाशन ही इस गीत के इतिहास का 150 वां वर्ष पूरा होने का आधार है, जिसे 'वंदे मातरम 150' के रूप में मनाया जा रहा है। 'वंदे मातरम' भारत की आजादी की लड़ाई में एक शक्तिशाली नारे और प्रेरणा स्रोत के रूप में उभरा। यह गीत शीघ्र ही स्वतंत्रता सेनानियों के बीच देशभक्ति का पर्याय बन गया। महान कवि रवींद्रनाथ टैगोर ने इसे पहली बार 1896 में कलकत्ता में आयोजित कांग्रेस अधिवेशन में गाया था, जिसने इसे राष्ट्रीय मंच प्रदान किया।
राजनीतिक नारा: 'वंदे मातरम' का पहली बार राजनीतिक नारे के रूप में प्रयोग 7 अगस्त 1905 को बंगाल विभाजन के विरोध में हुए आंदोलनों के दौरान हुआ, जहाँ इसने पूरे राष्ट्र को एकजुट करने का काम किया। यह गीत भारतीय राष्ट्रवाद की मुखर अभिव्यक्ति बन गया, जिससे ब्रिटिश सरकार भयभीत हो गई और उसने इसे दबाने का हर संभव प्रयास किया।
आजादी मिलने के बाद, 'वंदे मातरम' को आधिकारिक तौर पर सम्मान प्रदान किया गया। 24 जनवरी 1950 को, संविधान सभा ने इसे भारत गणराज्य के राष्ट्रीय गीत के रूप में अपनाया। यह दर्जा राष्ट्रगान 'जन गण मन' के समकक्ष है, और दोनों ही राष्ट्र की पहचान और गौरव का प्रतीक हैं।'वंदे मातरम' सिर्फ एक धुन या पाठ मात्र नहीं है; यह भारत की आत्मा, इसकी भूमि, संस्कृति और इसके लोगों के लिए बलिदान की भावना का प्रतीक है। 150वीं वर्षगाँठ का यह राष्ट्रव्यापी उत्सव नई पीढ़ी को इस गीत के ऐतिहासिक महत्व, इसके रचनाकार के योगदान और स्वतंत्रता संग्राम के आदर्शों से जोड़ने का एक सुनहरा अवसर है। यह वर्ष हमें याद दिलाता है कि यह गीत आज भी भारत की एकता और अखंडता के लिए एक प्रेरणा शक्ति बना हुआ है।